SUNDERDAS
Jyoti Se Jyoti Jale 02
Second Discourse from the series of 21 discourses - Jyoti Se Jyoti Jale by Osho. These discourses were given during JUL 11-31 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, कल आपने सदगुरु और शिष्य को जले दीये और बुझे दीये की उपमा से समझाया और कहा कि जले दीये की आत्मिक निकटता में बुझा दीया अचानक जल उठता है। कृपा करके बताएं कि ज्योति जल उठे, उसके लिए कैसा हो शिष्य, कैसी हो बाती, कैसा हो तेल, कैसी हो निकटता?
चिन्मय! शिष्य होना काफी है। शिष्य होने में सब आ गया--बाती भी, तेल भी, निकटता भी। इस छोटे से शब्द ‘शिष्य’ में सारा सार छिपा है। और पूछते हो: ‘कैसा हो शिष्य?’ तो शिष्य शब्द के सार को नहीं समझे। शिष्य तो बस एक ही जैसा होता है। शिष्य की कोई कोटियां नहीं हैं। शिष्य बहुत प्रकार के नहीं होते, भांति-भांति के नहीं होते।
जैसे प्रेम एक ही होता है, और जैसे शांति एक ही होती है, और जैसे शून्य एक ही होता है--ऐसी ही शिष्य की दशा है। वहां द्वैत कहां! वहां अनेकता कहां! वहां भेद-भिन्नता कहां!
जैसे समस्त सागरों का स्वाद एक है, कहीं से भी चखो वही खारापन--ऐसे ही शिष्य का भी स्वाद एक है। कहीं से भी परखो, कैसे भी चखो, कैसे भी पहचानो--शिष्य का स्वाद है समर्पण। शिष्य का स्वाद है, अपने को गुरु में डुबा देना। शिष्य का अर्थ है, अपने को न बचाना। मैं-भाव का विसर्जन।
हम जीते हैं मैं-भाव से। हम मान कर चलते हैं कि मैं ही केंद्र हूं सारे अस्तित्व का; सारा अस्तित्व मेरे ही इर्द-गिर्द घूम रहा है; मेरे ही निमित्त चांद-तारे चलते हैं, सूरज उगता, वृक्ष बढ़ते, फलते-फूलते, मेरे ही निमित्त ही सब हो रहा है। ऐसी भ्रांति है अहंकार की। शिष्य इस भ्रांति से मुक्त हो जाता है। शिष्य कहता है: मैं हूं ही नहीं। शिष्य कहता है: यह जो विराट का विस्तार है, इसमें मैं ऐसे खो गया हूं जैसे बूंद सागर में खो जाती है। मैं बचा नहीं। मेरी अपनी कोई सीमा न रही।
और जिसने साहस किया अपने को इस भांति मिटाने का, वह सब-कुछ पाने का अधिकारी हो जाता है।
शिष्य है विसर्जन।
शिष्य है समर्पण।
शिष्य है आध्यात्मिक अर्थों में परम आत्मघात। अपने को पोंछ देना।
एकदम से यह पोंछ देना संभव नहीं होता, नहीं तो व्यक्ति सीधा परमात्मा में विलीन हो जाए, सदगुरु की बीच में सीढ़ी आवश्यक न हो। सदगुरु की सीढ़ी आवश्यक होती है, क्योंकि तुम एकदम विलीन होने को राजी नहीं होते। तुम कहते हो: कोई सहारा तो हो! किसके सहारे विलीन हो जाऊं? मिटता हूं, लेकिन किन चरणों में मिटूं, कोई चरण तो हों! छोड़ता हूं, छोड़ना चाहता हूं अपने को, लेकिन किनके हाथों में छोड़ दूं? परमात्मा के हाथ दिखाई नहीं पड़ते। उसके पैर समझ में नहीं आते कहां हैं। उसका हृदय धड़कता भी हो. धड़कता ही होगा, अन्यथा अस्तित्व चलेगा कैसे, जीएगा कैसे? वही तो धड़कता है समस्त हृदयों में। पर कैसे उसकी धड़कन को हम सुनें? हम इतने छोटे, वह इतना बड़ा! हम इतने क्षुद्र, वह इतना विराट! हम इतने सीमित, वह इतना असीम! हमारे और उसके बीच फासला अनंत है। हाथ फैलाएं तो उस तक पहुंचते नहीं। पुकारें तो पुकार उस तक जाती नहीं। आवाज लड़खड़ा कर गिर जाती है। आवाज जाती है थोड़ी दूर तक, मगर इस अनंत विस्तार को कैसे पाट सकेगी? सेतु नहीं बनता। व्यक्ति और परमात्मा के बीच सेतु नहीं बनता। सेतु का उपाय नहीं दिखता। अतैव सदगुरु!
सदगुरु पड़ाव है--सीमित से असीम के बीच, क्षुद्र से विराट के बीच पड़ाव है। सदगुरु मंजिल नहीं है, वहां रुक नहीं जाना है। वहां से छलांग लेनी है। सदगुरु सीढ़ी है। उपयोग कर लेना है, धन्यवाद दे देना है और आगे बढ़ जाना है।
सदगुरु की सीढ़ी का अर्थ होता है: कुछ-कुछ सीमित, कुछ-कुछ असीम। एक हाथ सीमित, एक हाथ असीम। दिखाई पड़ता है सीमित और जो नहीं दिखाई पड़ता है वह असीम। हमारी भांति देह में और परमात्मा की भांति देह-हीन। मनुष्य और परमात्मा के बीच एक कड़ी है। चलता है, उठता है, बैठता है, सोता है, खाता है, बस ठीक हम जैसा है। इसलिए उसका हाथ पकड़ा जा सकता है। उसके चरणों में सिर रखा जा सकता है। उसके हृदय के पास कान लाए जा सकते हैं और उसकी धड़कन सुनी जा सकती है। उसका गीत हमारी ही भाषा में गाया जा रहा है।
कभी-कभी कठिन भी हो समझना, फिर भी असंभव तो नहीं। शांत मन से, शून्य मन से समझा तो कुछ न कुछ बूंद पड़ ही जाती है। न भरे घड़ा, पर बूंद भी पड़ जाए जल की, तो भी भरेपन की यात्रा शुरू हो गई। घड़े में एक बूंद भी गिरे तो घड़ा अब उतना खाली नहीं रहा जितना पहले खाली था। और बूंद-बूंद मिल कर तो सागर बन जाते हैं। सागर भर जाते हैं बूंद-बूंद होकर, तो गागर न भर जाएगी?
सदगुरु हम जैसा है और हम जैसा नहीं भी। दूर से देखोगे तो बिलकुल हम जैसा और जैसे-जैसे पास आने लगोगे, वैसे-वैसे सदगुरु एक खिड़की बन जाता है और उससे अनंत का आकाश झांकने लगता है। जितने समीप आओगे उतना ही पाओगे कि जो हम जैसा दिखता था, बिलकुल हम जैसा नहीं है।
इसलिए जो सदगुरु के करीब आए, उन्होंने गुरु को भगवान कहा। जो दूर रहे, वे सदा हैरान हुए, चौंके, परेशान हुए, तर्क-विचार में पड़े, विवाद उठाया। उनका विवाद उठाना भी संगत है, क्योंकि वे कहते हैं: कैसा यह भगवान!
बुद्ध के शिष्य बुद्ध को भगवान कहते थे। जो नहीं पास आए बुद्ध के, जिन्होंने, बहुत दूर-दूर से देखा, उन्हें बुद्ध का अंतर्तम कैसे दिखाई पड़े? उन्हें बुद्ध का भीतर कैसे अनुभव में आए? उन्हें बुद्ध के हृदय की धड़कन कैसे सुनाई पड़े? उन्हें बुद्ध के शून्य का स्वाद कैसे लगे? उन्होंने तो दूर से देखी बुद्ध की दशा, तो देह ही दिखाई पड़ी। और तब उन्होंने वे सब बातें देखीं जो आदमी में होती हैं, सब आदमियों में होती हैं। बुद्ध कभी बीमार पड़ते हैं, तो सोचा उन्होंने: कैसा भगवान! बुद्ध बूढ़े हुए, तो सोचा उन्होंने: कैसा भगवान! भगवान कभी बूढ़ा होता है? भगवान कभी बीमार पड़ता है? बुद्ध को भूख लगती है, भगवान को कभी भूख लगती है? और फिर एक दिन बुद्ध तिरोहित हो गए इस देह से, जैसे सब तिरोहित हो जाते हैं, तो बुद्ध की भी मृत्यु घटित हुई। तो जो दूर थे, उन्होंने कहा: देखा! हम पहले ही कहते थे, भगवान कभी मरता है?
और उनकी बातों में भी संगति है और उनकी बातों में भी सचाई है। मगर उन्होंने बुद्ध का आधा रूप ही देखा। उन्होंने बुद्ध का वर्तुल देखा, लेकिन केंद्र चूक गया। वे बुद्ध के मंदिर के बाहर-बाहर घूमे, मंदिर की दीवाल बाहर से देखी, मंदिर का देवता अपरिचित रह गया। उन्होंने वीणा तो देखी बुद्ध की, लेकिन वीणा से उठता संगीत नहीं देखा। वे इतने पास आए ही नहीं कि संगीत सुन सकते। उन्होंने फूल तो देखा बुद्ध का, लेकिन फूल से उठती सुवास उनके नासापुटों में न भरी। वे इतने दूर-दूर रहे, अपने को ऐसा बचाए रहे, कवच ओढ़े रहे, ढालों में अपने को छिपाए रहे, कि बुद्ध की गंध उनके नासापुटों तक पहुंचे भी तो कैसे पहुंचे? सो वे भी ठीक ही कहते हैं कि क्यों एक मनुष्य को भगवान कहते हो?
मगर जो पास आए, जिन्होंने हिम्मत जुटाई. और पास आना हिम्मत की बात है, बड़ी हिम्मत की बात है! बड़ी से बड़ी हिम्मत एक ही है इस जगत में--सदगुरु के पास आना। क्योंकि उसके पास आने का अर्थ मिटना ही होता है। जैसे कोई नमक की डली सागर में उतर जाए, ऐसा है सदगुरु में उतरना। नमक की डली गलेगी और खो जाएगी। खोने की जिनमें तत्परता है, जिन्होंने जीवन देखा और जीवन की व्यर्थता देखी, जिन्होंने जीवन पहचाना और जीवन की असारता पहचानी, जिन्होंने जीवन को सब तरफ से टटोला और खाली और रिक्त और खोखा पाया, वे ही तैयार होते हैं कि ठीक है, जीवन में तो कुछ भी नहीं है, अब इस यात्रा पर भी निकल कर देखें! अब यह अभीप्सा और। और सब यात्राएं कर चुके, दसों दिशाओं की यात्राएं कर चुके, अब इस ग्यारहवीं दिशा की यात्रा और। यह भी क्यों चूकें? कौन जाने जो कहीं और नहीं मिला यहां मिले!
जो पास गए हैं उन्होंने सदा कहा: मिला है। कौन जाने, ठीक ही कहते हों! तो जो पास आने की हिम्मत किए हैं, जैसे-जैसे पास आए, देह तिरोहित होती गई। जैसे-जैसे पास आए, देह के भीतर जो विराजमान चैतन्य था, वह स्पष्ट होने लगा। भगवत्ता आविर्भूत होने लगी। सुगंध आने लगी। संगीत सुनाई पड़ने लगा। और जब संगीत सुनाई पड़ जाए तो वीणा गौण हो जाती है। वीणा का प्रयोजन तो संगीत सुनाई पड़ जाए, बस उतने तक है। निमित्त है।
और जब बुद्ध के भीतर विराट आकाश दिखाई पड़ने लगा. समीपता में ही दिखाई पड़ सकता है। तुम खिड़की से बहुत दूर रहो तो खिड़की ही दिखाई पड़ती है। तुम खिड़की के पास आओ तो खिड़की के पार जो आकाश है, जिसकी कोई सीमा नहीं और वे जो दूर-दूर चमकते हुए तारे हैं, वह जो अनंत सौंदर्य है और वह जो अनंत सौंदर्य में छिपा रहस्य है, वह सब तुम पर बरस उठता है। जो खिड़की पर आकर खड़े हो गए, खिड़की को भूल ही गए।
तुमने भी नहीं देखा कभी, जब खिड़की पर आकर खड़े हो जाओगे तो खिड़की भूल जाती है, खिड़की का चौखटा भूल जाता है! खिड़की के पार जो दिखाई पड़ता है--ऐसा अगम, ऐसा रहस्यपूर्ण, ऐसा आह्लादकारी! मंत्रमुग्ध हो उठता है जो खिड़की के पास आकर खड़ा हो जाता है। उसकी आंखें आकाश से संबंध जोड़ लेती हैं; खिड़की खो ही जाती है।
तो जो पास आए उन्होंने बुद्ध को भगवान कहा। जो दूर आए उन्होंने कहा: होंगे, बहुत से बहुत महामानव होंगे, मगर भगवान कैसे?
शिष्य का अर्थ होता है: परमात्मा का तो पता नहीं चलता लेकिन किसी में अगर परमात्मा घटा हो, किसी में अगर परमात्मा की एक किरण भी उतरी हो तो उससे संबंध जोड़ लूं। ऐसे परोक्ष रूप से परमात्मा से संबंध जुड़ जाता है। प्रत्यक्ष तो संबंध नहीं जुड़ता। परोक्ष संबंध जुड़ जाता है। मेरी आंखें तो अंधी हैं, तो किसी आंख वाले का हाथ पकड़ लूं, तो आंख के जगत से संबंध जुड़ जाता है।
शिष्य का अर्थ होता है: झुक जाना। सीखने की क्षमता--‘शिष्य’ का शाब्दिक अर्थ है। इसलिए जो जानने से भरे हैं, वे शिष्य नहीं हो पाते। जो ज्ञान से भरपूर हैं, वे शिष्य नहीं हो पाते। वे तो पहले से ही भरपूर हैं। जिन्हें यह दिखाई पड़ने लगा है कि मेरा ज्ञान ज्ञान नहीं. और जरा तलाशना, जरा टटोलना, जरा अपने ज्ञान को परखना, जरा उलटना-पलटना, जरा कसौटी पर कसना। क्या जानते हो? न ईश्वर का पता है, न आत्मा का पता है, न प्रेम का पता है, न प्रार्थना का पता है, न सत्य का पता है, न निर्वाण का पता है। कहां से आए, पता नहीं। क्यों हो यहां, पता नहीं। कहां जाते हो, पता नहीं। फिर भी ज्ञानी बन बैठे हो! कुछ कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लिया शास्त्रों से, बासे-उधार शब्द जुड़ा लिए और उन्हीं बासे शब्दों को जमाए चले जा रहे हो। और जमा-जमा कर अपने को भ्रम दिए जा रहे हो कि मैं जानता हूं!
ऐसी दशा को ही मैं पंडित की दशा कहता हूं। पंडित परम अज्ञान की दशा है। अमावस की रात समझो। अंधेरा ही अंधेरा है वहां। और अंधेरा भी ऐसा कि बड़ा चालाक। अंधेरा भी ऐसा कि बड़ा चतुर। ऐसा चतुर कि धोखा देता है कि मैं रोशनी हूं।
शब्द जो बैठ गए हैं भीतर, उनसे अहंकार भरता है। अहंकार की अकड़ मजबूत होती है कि मैं जानता हूं। मैं और झुकूं! मैं तो जानता ही हूं! तो जो जानता है, झुक नहीं पाता। जो झुक नहीं पाता, शिष्य नहीं हो पाता। जो जानता है, झोली नहीं फैला पाता। और जो झोली नहीं फैला पाता, शिष्य नहीं हो पाता। झुको तो भरो। झोली फैलाओ तो अमृत बरसे।
अमृत तो बरस ही रहा है लेकिन तुम झोली फैलाने तक की हिम्मत नहीं कर पाते। जिसने अपने हृदय की झोली फैला दी और जिसने कहा मुझे कुछ पता नहीं और जिसने कहा कि मैं ना-कुछ हूं; कहा ही नहीं, ऐसी जिसके अस्तित्व की भाव-भंगिमा बनी, ऐसी जिसकी भीतर की मुद्रा बनी, ऐसा जिसके अनुभव का सार-निचोड़ हुआ--वही शिष्य है। और जो शिष्य है, तो फिर सब शेष अपने से हो जाता है।
तुम पूछते हो: ‘कृपा करके बताएं कि ज्योति जल उठे, उसके लिए कैसा हो शिष्य।’
‘कैसे’ का सवाल ही नहीं, बस शिष्य हो। और ज्योति जल उठेगी।
‘कैसी हो बाती, कैसा हो तेल, कैसी निकटता हो?’ नहीं कोई निकटता और। शिष्य यानी वही जो निकट आ गया। दूरी कौन सी बात रखती है तुम्हें? अकड़ दूरी रखती है। अकड़ा आदमी दूर-दूर होता है, अपने को बचाए-बचाए होता है। अकड़ा आदमी सचेत होता है कि कहीं प्रभावित न हो जाऊं! अकड़ा आदमी भयभीत होता है कि कहीं ऐसा न हो कि कोई बात हृदय को छू जाए, आंख आंसुओं से भर जाए! कहीं कोई बात ऐसी न आ जाए कि दिल धड़कने लगे। बस के बाहर बात न हो जाए! कहीं कोई ऐसी बात न हो जाए कि प्रेम उमग आए! क्योंकि प्रेम उमग आए तो ज्ञान पड़ा धरा रह जाता है। क्योंकि प्रेम जग जाए, तो सारा पांडित्य कचरा होकर एक तरफ हो जाता है।
अहंकारी कहता है: मैं जानता हूं। यह हो सकता है कि और भी कुछ जानने को है, तो वह भी जान लूंगा।
अहंकारी जब सदगुरु के पास आता है तो सिर्फ और थोड़ा ज्ञान बटोरने को आता है। और ज्ञान है अंधेरा। ऐसे ही तुम्हारे पास काफी है, तुम थोड़ा और कचरा बटोर लेते हो। और बोझिल होकर लौट जाते हो। और जंजीरें बांध लेते हो। और नाव भारी हो जाती है, और डूबने के करीब हो जाती है। ऐसे ही काफी पत्थर तुमने छाती से लटकाए हैं।
शिष्य कहता है: मेरा ज्ञान मुझसे छीन लो। ज्ञानी कहता है: थोड़ा ज्ञान मुझे और दो। ज्ञानी कहता है: और कैसे जानूं, इसका उपाय बताओ। कौन शास्त्र पढूं, कौन सिद्धांत समझूं--इसका उपाय बताओ।
शिष्य कहता है: खूब भटका हूं शास्त्रों के जंगल में, राह नहीं पाई, आग लगा दो इस पूरे जंगल में! राख कर दो इन सारे शास्त्रों को! मुझे छुटकारा दिला दो इस ज्ञान से। मुझे फिर वैसा अज्ञान दे दो जैसा बच्चे में होता है--सरल, विस्मय से परिपूर्ण, सजग, जिज्ञासा से भरा हुआ!
जितना तुम जानते हो, उतना ही जगत और तुम्हारे बीच विस्मय का नाता टूट जाता है। और वही नाता है। वही नाता है, जिसे मैं धार्मिक नाता कहता हूं-- विस्मय का नाता। जितना तुम जानते हो, उतना ही लगता है: क्या रखा है इस जगत में? हर बात तो तुम्हें मालूम है। जगत में फिर रहस्य दिखाई नहीं पड़ता। और जिस आदमी को जगत में रहस्य दिखाई नहीं पड़ता, उस आदमी को जगत में परमात्मा कभी दिखाई नहीं पड़ सकता।
परमात्मा है क्या? रहस्य की परम अनुभूति। कोई व्यक्ति थोड़े ही है कि दूर आकाश में किसी सिंहासन पर बैठा तुम्हारी राह देख रहा है। परमात्मा है--विस्मय का विस्तार। परमात्मा है--सारे उत्तरों का विनाश और ऐसे प्रश्न का भीतर जन्मना, जिसका कोई उत्तर नहीं होता। उसे हमने मुमुक्षा कहा है।
जिज्ञासा के उत्तर हो सकते हैं, मुमुक्षा का उत्तर नहीं होता। इसलिए जिज्ञासा दर्शनशास्त्र में ले जाती है; मुमुक्षा, धर्म में। और धर्मशास्त्र मैं न कहूंगा, क्योंकि धर्म का कोई शास्त्र नहीं होता। धर्म के नाम पर जो शास्त्र हैं वे भी मूलतः दर्शन के ही शास्त्र हैं। वे भी दार्शनिक ऊहापोह हैं। धर्म की तो अनुभूति होती है, शास्त्र नहीं होता। हां, धर्म के शास्ता होते हैं, धर्म का शास्त्र नहीं होता। जैसे बुद्ध, या जैसे कबीर, या जैसे सुंदरदास--ये शास्ता हैं। इन्होंने जाना, जीआ, अनुभव किया। इनके भीतर ज्योति जली है। इस ज्योति से जो प्रकाश पड़ रहा है तुम्हारे ऊपर, जो करीब आएगा, जो करीब आता ही चला जाएगा, उसकी बुझी ज्योति भी जल जाएगी। लेकिन कुछ हैं जो इस प्रकाश को दूर-दूर से देखेंगे और इस प्रकाश से भी कुछ सिद्धांत निर्मित करेंगे; वे वंचित रह जाएंगे। उनके हाथ में कचरा लगेगा। मूल तो छूट जाएगा, खोल रह जाएगी।
जब भी कोई सदगुरु पैदा होता है तो उसके आस-पास दो तरह के लोग पैदा होते हैं--शिष्य और पंडित। पंडित चूकते हैं। शिष्य भोग लेते हैं परमभोग।
शिष्य की आंख खाली होनी चाहिए ज्ञान से। शिष्य का हृदय रिक्त होना चाहिए उत्तरों से--उधार, बासे, पराए। बस समीपता आनी शुरू हो जाती है। कौन तुम्हें दूर किए हैं? वे पहाड़ ज्ञान के, जो तुमने खड़े कर लिए हैं, वे ही तुम्हें दूर किए हुए हैं। जब एक मुसलमान मेरे पास आता है तो कौन उसे दूर किए हुए है? मेरे और उसके बीच कुरान खड़ी हो जाती है। और कुरान का उसे कुछ पता नहीं है। कुरान का अर्थ भी उसे तब पता हो सकता है जब कुरान मेरे और उसके बीच से हट जाए। मैं कुरान हूं, लेकिन उसकी कुरान बीच में खड़ी है।
हिंदू आता है; उसके वेद, उसके उपनिषद, उसकी गीता सब बीच में खड़ी है। मैं उसे खोजता हूं, लेकिन कभी उसकी गीता पकड़ में आती है, कभी उसका वेद पकड़ में आता है, कभी उपनिषद पकड़ में आता है। उसका हृदय तो बहुत दूर दबा पड़ा है।
यह पर्त-पर्त ज्ञान हटाना पड़ेगा। और मजा यह है, विरोधाभास यह है, कि जब यह सारा ज्ञान--ये वेद, उपनिषद और गीता विदा हो जाएंगे--तो वह पहली दफा जानेगा कि उपनिषद क्या है, वेद क्या है, गीता क्या है? पकड़े रहा तो चूकता रहेगा। छोड़ा तो जानेगा। ऐसा उलटा गणित है। इस उलटे गणित के लिए जो राजी हैं वे शिष्य हैं।
और शिष्य होना काफी है, फिर और कुछ नहीं चाहिए। समीपता अपने से हो जाएगी। फिर न बाती, न तेल।
और यह दीया, जिसकी मैं बात कर रहा हूं, यह कोई बाती-तेल का दीया थोड़े ही है। बिन बाती बिन तेल! यह तो शुद्ध ज्योति की बात है; इसके लिए कोई तेल की जरूरत नहीं होती, न किसी बाती की जरूरत होती है। क्योंकि जो दीया तेल और बाती से जलता है वह शाश्वत नहीं हो सकता; थोड़ी देर में तेल चुक जाएगा, फिर? थोड़ी देर में बाती जल जाएगी, फिर? नहीं जी, वह दीया आपको क्या देना, जो थोड़ी देर में चुक जाए! देना तो वह, जो एक बार जले तो फिर बुझे नहीं। बिन बाती बिन तेल हो, तो ही कभी बुझेगा नहीं।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपकी बहुत सी किताबों को पढ़ा, लेकिन एक भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। कृपया कोई ऐसा उत्तर दें जो संतोषजनक हो।
पूछा है डॉक्टर महेश ने!
मैं उत्तर देता ही कहां हूं? उत्तर दिया कब? मैं तो उत्तर छीन रहा हूं। मैं तो उत्तर मिटा रहा हूं। मेरी तो कोशिश है कि तुम्हारे चित्त से सारे उत्तर मिट जाएं और तुम्हारी कोशिश है कि संतोषजनक उत्तर मिल जाए।
संतोषजनक उत्तर का क्या अर्थ होता है? अर्थ होता है कि जिसको पकड़ ही लें। ऐसा संतोष मिल जाए, कि फिर उसे कभी न छोड़ें। लेकिन वह तो तुम्हारी जीवनयात्रा का अंत हो जाएगा। संतोषजनक उत्तर अगर मुझसे मिल गया, तो तुम अपने परमात्मा को कब खोजोगे? संतोषजनक उत्तर ही मिल गया तो फिर खोज क्या रही? और संतोषजनक उत्तर अगर मुझसे मिल गया तो तुम सदा के लिए मुझसे बंध जाओगे। और तुम भयभीत भी होने लगोगे कि अगर मुझसे छूटे तो कहीं उत्तर न छूट जाए।
मैं तुम्हारे भीतर किसी भय को नहीं जन्माना चाहता। मैं तुम्हें निर्भय करना चाहता हूं। मैं तुम्हें अपने से नहीं बांध लेना चाहता। मैं तुम्हें सर्वांगीण मुक्ति देना चाहता हूं। और उत्तर मेरे से कैसे मिलेगा? असंतोष तुम्हारा है, उत्तर भी तुम्हें ही खोजना पड़ेगा। असंतोष तुम्हारा और उत्तर मेरा, इसका तालमेल कैसे होगा?
असंतोष के कारणों में जाओ। असंतोष की जड़ें काटो। असंतोष को तिरोहित करो, त्यागो। मैं तुमसे धन छोड़ने को नहीं कहता, न पद छोड़ने को कहता हूं, न घर-द्वार छोड़ने को कहता हूं। मैं तुमसे कहता हूं: असंतोष छोड़ो, दुख छोड़ो, पीड़ा छोड़ो। मत पकड़े रहो असंतोष को। खोजो क्या असंतोष है? सीढ़ी लगाओ, असंतोष की गहराइयों में उतरो। वहीं तुम असंतोष को समाप्त करने वाले समाधान को पाओगे।
समस्या में समाधान छिपा होता है, लेकिन जब तक तुम बाहर समाधान खोजोगे और समस्या भीतर है तब तक चूकते रहोगे।
मैं तुम्हारी तकलीफ समझा।
तुम कहते हो: ‘आपकी बहुत सी किताबों को पढ़ा…।’
जब मैं तुमसे कहता हूं वेद में उत्तर नहीं है, तो क्या तुम सोचते हो मेरी किताब में उत्तर हो सकता है? अगर मेरी किताब में उत्तर हो सकता है तो वेद में क्यों न होगा? अगर मेरी किताब में हो सकता है तो कृष्ण की किताब में तो जरूर ही होगा। किसी किताब में उत्तर नहीं है। किताबें पकड़ कर लोग भटक गए हैं।
किताबों को पढ़ो, भटको मत! किताबों की सार्थकता यह नहीं है कि तुम्हें उत्तर मिल जाए। किताबों की सार्थकता यही है कि तुम्हारे सामने तुम्हारा प्रश्न स्पष्ट हो जाए, प्रगाढ़ रूप से प्रकट हो जाए। किताबों से जल नहीं मिलेगा। हां, किताबों से प्यास मिल सकती है। तो औरों की किताबों के संबंध में तो मैं क्या कहूं, मेरी किताबों के संबंध में तो निश्चित कह सकता हूं कि मेरी किताबों से असंतोष बढ़ेगा। अगर कोई मुझे आकर कहे कि मुझे आपकी किताबों से संतोष मिल गया तो मैं बहुत चौंकूंगा। कहीं कुछ भूल हो गई। या तो मुझसे भूल हो गई या उससे भूल हो गई।
पूरा प्रयोजन ही यही है कि किताब से उत्तर नहीं मिलना चाहिए। बासा होगा, उधार होगा, पराया होगा। तुम्हारे जीवन में आना चाहिए। तुम्हारे जीवन से आना चाहिए। तुम्हारी ही जीवन-भूमि में लगना चाहिए यह उत्तर। यह फूल तुम्हारे भीतर खिलना चाहिए। मेरे भीतर खिले फूल मैं तुम्हें दे भी दूं, तुम्हारे हाथ तक पहुंचते-पहुंचते कुम्हला जाएंगे। और तुम इन्हें दबा कर रख लेना अपनी गीता और कुरान में। सूख जाएंगे, फिर उनमें गंध भी न रह जाएगी। सूखे फूल, देखे न, लोग रख लेते हैं किताबों में। बस किताबों के सिद्धांत भी उतने ही सूखे हैं।
नहीं; उत्तर खोजो ही मत किताबों में। किताबों में खोजने के कारण तो मनुष्य-जाति बर्बाद हुई। कोई कुरान से बंध गया है, कोई गीता से बंध गया है, कोई धम्मपद से बंध गया। किताबें आदमी की मालिक हो गईं, आदमी किताबों का गुलाम हो गया। और फिर डरने भी लगा कि अगर किताब छूट गई तो फिर मेरा क्या होगा? यह कोई ज्ञान की दशा हुई? मुर्दा किताब मूल्यवान हो गई? कागज पर खींची गई स्याही की लकीरें मूल्यवान हो गईं? कागज पर खींची गई स्याही की लकीरें सत्य हो सकती हैं? फिर तो जब भूख लगे, तब कागज पर ‘रोटी’ लिख लेना। जब भूख लगे तो पाकशास्त्र की किताब को छाती से लगा लेना। और जब भूख न मिटे तो कसूर किसका?
तुम्हारे प्रश्न से ऐसा लगता है महेश, कि कसूर मेरा है, कि इतनी किताबें तुमने पढ़ीं, इतना श्रम किया, इतनी कृपा की--और उत्तर तुम्हें मिला नहीं! तुम पाकशास्त्र की किताबों को छाती से लगा कर बैठे हो, पेट इस भाषा को नहीं समझेगा। पेट रोटी मांगता है। और पाकशास्त्र में कितने ही व्यंजन बनाने की कितनी ही सुंदर विधियां दी हुई हों, क्या काम की हैं? भाई मेरे, रोटी पकानी पड़ेगी! आटा गूंथो। किताब रख कर बैठे रहने में सुविधा जरूर है--न आटा गूंथना पड़ता, न हाथ आटे से भिड़ते, न आग जलानी पड़ती, न चूल्हा फूंकना पड़ता, न आंखों में आंसू आते, झंझट नहीं। रखे हैं अपनी किताब। लगाए छाती से बैठे हैं। मगर भूख बढ़ती रहेगी। और खतरा यही है कि कहीं यह धोखा मत दे देना कि उत्तर मिल गया। नहीं तो तुम मरोगे--भूखे मरोगे। बिना तृप्त हुए मरोगे।
फिर पाकशास्त्र की किताब का अर्थ क्या है, स्वभावतः प्रश्न उठता है। अगर उत्तर नहीं मिल सकता, तो किताब की जरूरत क्या है? किताब की जरूरत उत्तर देने के लिए नहीं है, प्रश्न को प्रगाढ़ करने के लिए है, प्रश्न को स्पष्ट करने के लिए है। सदगुरु तुम्हारे प्रश्नों को स्पष्ट करता है--इतना स्पष्ट करता है कि तुम्हारी आंख के सामने तुम्हारा प्रश्न नग्न होकर खड़ा हो जाता है। इतना स्पष्ट करता है कि प्रश्न के पत्ते ही नहीं दिखाई पड़ते हैं, प्रश्न की जड़ें भी दिखाई पड़ने लगती हैं। और जिसे जड़ें दिखाई पड़नी शुरू हो जाएं, फिर उसके हाथ की बात है। चाहे तो उखाड़ दे जड़ें, प्रश्न तिरोहित हो जाएगा। और अगर उसे मजा आता हो प्रश्न में तो सींचे पानी, तो फिकर करे पौधे की, तो डाले खाद। तो प्रश्न और बड़ा होने लगेगा।
समस्या भीतर है, समाधान भी भीतर ही उमगाना है। और मजा ऐसा है कि हर समस्या के भीतर उसका समाधान छिपा है। अगर तुम समस्या में ठीक-ठीक उतरो तो समाधान मिल जाए। सदगुरु तुम्हें समाधान नहीं देता, समाधान पाने की दृष्टि देता है; समाधान खोजने की दिशा देता है।
लेकिन आदमी अंधे हैं। आदमी बड़ा अदभुत है। मैं तुम्हें चांद बताता हूं कि देखो चांद, अंगुली उठाता हूं। तुम मेरी अंगुली पकड़ लेते हो। तुम कहते हो: कहां चांद है? हम तो आपकी अंगुली पकड़े बहुत दिन से बैठे हैं। आपकी किताब पढ़ रहे हैं। चांद कहां है?
किताबें अंगुलियां हैं चांद को बताने वाली। किताबें चांद नहीं हैं। अंगुलियों को पकड़ो मत। और कुछ तो ऐसे हैं कि अंगुलियां चूस रहे हैं।. आध्यात्मिक बच्चे! जैसे छोटे-छोटे बच्चे अंगूठा चूस रहे हैं, ऐसे आध्यात्मिक बच्चे अंगुलियां चूस रहे हैं और सोच रहे हैं कि बड़ा स्वाद आ रहा है।
और कभी-कभी ऐसा हो सकता है, जैसा कुत्तों को हो जाता है। कुत्ते सूखी हड्डियां चूसने लगते हैं। अब सूखी हड्डी से कुछ निकलता नहीं। कुछ है ही नहीं उसमें निकलने को। उसमें कोई रस थोड़े ही है। लेकिन कुत्ता चूसता है। और कुत्ते से सूखी हड्डी छीनो, बहुत नाराज हो जाता है। ऐसे ही तुमसे जब कोई वेद छीने, तुम नाराज। कोई कुरान छीने, तुम नाराज।. सूखी हड्डियां! मगर कुत्ता नाराज क्यों हो जाता है सूखी हड्डी छीनो तो? और कुत्ते को सूखी हड्डी में रस क्या मिलता होगा? रस नहीं मिलता, मगर एक जाल है। जब कुत्ता सूखी हड्डी चूसता है तो उसके मसूड़े छिल जाते हैं। उन छिले हुए मसूड़ों से खून बहने लगता है। उसी खून को वह चूसता है। सोचता है खून हड्डी से आ रहा है। आता अपने ही मसूड़ों से है। घाव बन रहे हैं मुंह में। उन्हीं घावों से खून बह रहा है। लेकिन खून का स्वाद जब उसे आता है तो सोचता हैः अहा, कैसी रसपूर्ण हड्डी हाथ लगी!
शास्त्रों से भी जब तुम्हें कुछ मिलता है तो शास्त्रों से नहीं मिलता है। शास्त्र तो सूखी हड्डियां हैं। मिलता तो सदा तुम्हें अपने ही भीतर से है। और नाहक बीच में घाव बन जाते हैं--हिंदू के घाव, जैन के घाव, ईसाई के घाव। ये सब घाव हैं।
मैं तुम्हें घावों से मुक्त करना चाहता हूं और मैं तुम्हें यह समझाना चाहता हूं: ये सूखी हड्डियां छोड़ो। उत्तर की तलाश जब तक तुम बाहर करोगे, सूखी हड्डियां ही मिलेंगी। बाहर सूखी हड्डियों के ढेर लगे हैं, रसधार तो भीतर बहती है। परमात्मा से संबंध तो भीतर होता है।
तुम कहते हो: ‘मैं आपकी बहुत सी किताबों को पढ़ा, लेकिन एक भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिला।’
एकदम शुभ हुआ। धन्यभागी हो तुम कि उत्तर नहीं मिला। उत्तर तो समाधि में मिलेगा। समाधान तो समाधि में मिलेगा। वे किताबें तो इशारा हैं कि ध्यान करो। वे किताबें तो कहती हैं कि आटा गूंथो। वे किताबें तो कहती हैं कि यह रहा रास्ता, चल पड़ो तो सरोवर मिलेगा।
किताब पकड़ कर मत बैठ जाओ। किताबें तो मील के पत्थर हैं। नक्शे हैं। उन नक्शों को जीवन में रूपांतरित करो।
अब भी तुम पूछ रहे हो: ‘कृपया कोई ऐसा उत्तर दें जो संतोषजनक हो।’
मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं। नहीं तो जरूर ऐसा उत्तर देता जो संतोषजनक होता। मैं तुम्हें संतोष देना ही नहीं चाहता। मैं तो तुम्हारे असंतोष को ऐसा प्रज्वलित करना चाहता हूं कि भभक उठो तुम। आग हो जाओ तुम। तुम्हारे जीवन में असंतोष ऐसा घिर जाए कि कोई चीज संतुष्ट न करे--धन संतुष्ट न करे, पत्नी संतुष्ट न करे, पद संतुष्ट न करे, शास्त्र संतुष्ट न करें, मंदिर-मस्जिद संतुष्ट न करें, सारा जगत असंतोष की लपटों से भर जाए--तभी तुम भीतर मुड़ोगे, नहीं तो तुम भीतर मुड़ने वाले नहीं।
भीतर लोग सस्ते ही नहीं मुड़ते। भीतर तो तभी मुड़ते हैं जब कहीं जाने का कोई उपाय ही नहीं बचता। जब तक थोड़ा भी उपाय बचे, लोग चलते चले जाते हैं। लोग कहते हैं: इस दिशा में और थोड़ी जांच कर लें, शायद थोड़ा और ज्यादा धन हो तो सब ठीक हो जाए। चलो चुनाव लड़ लें, दिल्ली पहुंच जाएं तो शायद सब ठीक हो जाए। थोड़े और व्रत-उपवास कर लें, थोड़ी और मंदिर-मस्जिदों की पूजा कर लें।
जब तक तुम्हें कहीं भी थोड़ी सी आशा बची है, तब तक तुम भटकते ही रहोगे। बुद्ध ने कहा: धन्य हैं वे जो हताश हो गए। हताश! सदगुरुओं की वाणी कभी-कभी बहुत चौंकाती है। धन्य हैं वे जो हताश हो गए, निराश हो गए! क्यों बुद्ध कहते हैं धन्य उनको? इसलिए धन्य कहते हैं कि केवल वे ही अंतर्यात्रा पर चलते हैं। जिन्होंने सब द्वार खटखटा लिए, और सब द्वार दीवारें पाए और जिन्होंने बहुत द्वारों पर भीख मांगी और कुछ भी न मिला और खाली के खाली लौट आए, अपमान मिला, दुत्कारे गए, जगह-जगह कहा गया आगे बढ़ो--वे ही एक दिन इस सारी जलन और पीड़ा के कारण आंख बंद करते हैं और भीतर के द्वार पर दस्तक देते हैं और वहां जिसने दस्तक दी उसने संतोष पाया।
संतोष भीतर की उस दशा का नाम है, जहां कोई प्रश्न नहीं बचे। संतोष किसी प्रश्न का उत्तर नहीं है, वरन सारे प्रश्नों का विसर्जन है। संतोष कोई सिद्धांत नहीं है, वरन सिद्धावस्था है।
तुम जरा फर्क देखते हो? ‘सिद्धांत और सिद्धावस्था’ एक ही शब्द से बनते हैं। सिद्धांत बाहर होता है, सिद्धावस्था भीतर होती है। समाधान और समाधि एक ही शब्द से बनते हैं; समाधान बाहर होता है, समाधि भीतर होती है।
सिद्ध बनो। भीतर का द्वार खटखटाओ। उत्तर तो बहुत खोज चुके; अब कुछ ऐसा खोजो जहां चित्त निष्प्रश्न हो जाए। और क्या तुम्हें एक बात समझ में नहीं आती--एक प्रश्न पूछो, उसका कोई उत्तर दिया जाए, क्या हल होगा? कोई भी उत्तर दिया जाए, क्या हल होगा? उस उत्तर से और दस नये प्रश्न उठ आएंगे बस इतना ही होगा।
एक आदमी पूछता है, संसार को किसने बनाया? कहो, परमात्मा ने बनाया। वह दूसरे दिन आकरखड़ा हो जाता है कि परमात्मा ने संसार क्यों बनाया? कोई उत्तर दो, कि परमात्मा लीला कर रहा है। वह तीसरे दिन आकर खड़ा हो जाता है कि यह कैसी लीला, इतना दुख क्यों है लीला में? कोई भूखा मर रहा है, बच्चे को कैंसर हो गया है, कोई अंधा पैदा हुआ है, कोई लंगड़ा है--यह कैसी लीला है? कोई उत्तर दो, कि भगवान पाठ पढ़ा रहा है। वह चौथे दिन आकर खड़ा हो जाता है, कि उसको कोई पाठ पढ़ाने का कोई और सुगम और सभ्य रास्ता नहीं आता? और वह तो अंतर्यामी है, और वह तो सर्वज्ञ है, और वह तो सर्वशक्तिमान--पाठ पढ़ाने की जरूरत क्या है? सीधा ही ज्ञान क्यों नहीं दे देता? उसके हाथ में क्या नहीं। सुना नहीं, लंगड़ों को पहाड़ चढ़ा देता है, अंधों को आंखें लगा देता है, तो क्यों सता रहा है? क्यों व्यर्थ परेशान कर रहा है? दे ही दे ज्ञान।
तुम सोचते हो कोई प्रश्न हल होता है? एक उत्तर दो, उससे दस प्रश्न खड़े हो जाते हैं। कोई भी उत्तर हो, और प्रश्न खड़े करेगा। प्रश्न संतति-नियमन को नहीं मानते। उनकी संतान पैदा होती चली जाती है। बिलकुल हिंदुस्तानी हैं! और जब तक वे एकाध दर्जन बच्चे खड़ा न कर दें, तब तक उनके चित्त का भार कम नहीं होता। जब तक वह भीड़ न बढ़ा दें, शोरगुल न मचवा दें.!
लेकिन समाधि बांझ है। तुम हैरान होओगे। मैं कहता हूं, समाधि बांझ है। जो समाधि में पहुंचा, फिर न कोई प्रश्न उठते, न कोई उत्तर उठते। सब गया। गए प्रश्न, गए उत्तर। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अलग-अलग नहीं हैं। तुम सोचते हो अलग-अलग हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
जब तुम्हें कोई एक उत्तर देता है, तो यह एक पहलू है। उसी सिक्के के नीचे छिपा हुआ दूसरा प्रश्न आ रहा है। तुम उलझते ही चले जाओगे।
नहीं, मैं तो तुम्हें उत्तर देने में उत्सुक नहीं हूं। फिर मैं क्या करता हूं? रोज तो तुम्हें उत्तर देता हूं! ये उत्तर नहीं हैं। इसलिए तुम्हें किताबें पढ़ कर संतोष नहीं मिला। तुम बंधे-बंधाए उत्तर चाहते हो।
एक ईसाई मिशनरी मेरे पास आया था। वह कहता था, आपकी किताबें प्यारी लगती हैं। मगर आप एक छोटी सी गुटिका बनवा दो, जिसमें सब सार प्रश्नों के उत्तर आ जाएं, संक्षिप्त में, ताकि कोई भी याद कर ले। जैसे ईसाइयों की गुटिकाएं होती हैं, उसमें सब उत्तर आ जाते हैं। जरा सी गुटिका! ज्यादा पढ़ने-लिखने की जरूरत नहीं। प्रश्न लिखा है, उत्तर लिखा है। मैंने उससे कहा, भाई! जीवन इतना आसान नहीं है। जीवन इतना सस्ता नहीं है। तुम्हारी जो गुटिकाएं हैं, प्रश्न-उत्तरों की, बचकानी हैं। मूढ़ों को शायद थोड़ी-बहुत राहत देती हों, मुर्दों को शायद थोड़ी-बहुत सांत्वना मिलती हो; मगर जिनके भीतर जिज्ञासा है, मुमुक्षा है, उनके लिए तुम्हारी किताबें कचरा हैं। उनसे कुछ हल नहीं होता।
जीवंत आदमी वस्तुतः उत्तर नहीं चाहता--ऐसी चित्त की दशा चाहता है, जहां कोई प्रश्न अब नहीं उठते; जहां सन्नाटा है; जहां अपूर्व शांति है; जहां सब हल हुआ! इसलिए हमारी खोज समाधान की नहीं है, हमारी खोज समाधि की है।
आह वो मंजिले-मुराद दूर भी है करीब भी।
देर हुई कि काफिले उसकी तरफ रवां नहीं।।
दैरो-हरम हैं गर्दे-राह नक्शे-कदम हैं मेहरो-माह।
इनमें कोई भी इश्क की मंजिले-कारवां नहीं।।
किसने सदा-ए-दर्द दी, किसकी निगाह उठ गई।
अब वे अदम अदम नहीं, अब ये जहां जहां नहीं।।
मंदिर और मस्जिद रास्ते की धूल हैं; ये जीवन का गंतव्य नहीं।
आह वो मंजिले-मुराद दूर भी है करीब भी।
और वह आकांक्षाओं की आकांक्षा. मंजिले-मुराद! वह सपनों का सपना! अभीप्साओं की अभीप्सा! मंजिले-मुराद!
आह वो मंजिले-मुराद दूर भी है करीब भी।
क्यों दूर भी है करीब भी? अगर प्रश्न और उत्तर से चलो तो बहुत दूर, अनंत दूर, कभी कोई पहुंचता नहीं उस राह से। और करीब भी है। अगर आंख बंद करो और अपने में डूबो, तो अभी और यहीं।
आह वो मंजिले-मुराद दूर भी है करीब भी।
देर हुई कि काफिले उसकी तरफ रवां नहीं।।
लेकिन बहुत कम लोग उस तरफ जाते हैं।
देर हुई कि काफिले उसकी तरफ रवां नहीं।
यात्री-दल उस तरफ जा ही नहीं रहे। कोई चला काबा, कोई चला काशी, कोई चला गिरनार।
देर हुई कि काफिले उसकी तरफ रवां नहीं।
भीतर चलो! महेश, भीतर चलो! किताबों में नहीं, शब्दों में नहीं, सिद्धांतों में नहीं--मौन में उतरो!
दैरो-हरम हैं गर्दे-राह नक्शे-कदम हैं मेहरो-माह।
इनमें कोई भी इश्क की मंजिले-कारवां नहीं।।
वह जो तुम्हारे भीतर तलाश चल रही है, कोई तृप्त न कर सकेंगे--न मंदिर और मस्जिद और न चांद और तारे। एक ही जगह से तृप्ति का जन्म होगा, एक ही केंद्र से सुवास उठेगी--और वह केंद्र तुम अपने भीतर लिए बैठे हो। खोजी के भीतर छिपी है खोज। गंता में छिपा है गंतव्य। कहीं जाना नहीं है। घर आना है। और एक क्षण में सब बदल जाता है।
किस ने सदा-ए-दर्द दी किसकी निगाह उठ गई।
अब वो अदम अदम नहीं अब ये जहां जहां नहीं।।
समाधि के क्षण में सब बदल जाता है। फिर यह दुनिया दुनिया नहीं। यह आदमी आदमी नहीं। यह मन मन नहीं। ये प्रश्न प्रश्न नहीं। ये उत्तर उत्तर नहीं। एक घड़ी में तुम किसी और ही लोक में रूपांतरित हो जाते हो।
मेरी चेष्टा तुम्हें संतोषजनक उत्तर देने की नहीं है। मेरी चेष्टा तुम्हें समाधि देने की है। संतोष तो समाधि की छाया है।
दुनिया को किसी नौअ से ये राज मिले
दुनिया के किसी साज से ये साज मिले
दुनिया को तो हम देते सुकूने-जावेद
कुछ दिल के धड़कने का भी अंदाज मिले
असली प्रश्न क्या है?
कुछ दिल के धड़कने का भी अंदाज मिले
असली प्रश्न क्या है? मैं कौन हूं?
कुछ दिल के धड़कने का भी अंदाज मिले
एक ही राज है, जिसे खोल लेना है। और पर्दा क्या है? बस हम भीतर नहीं देखते, यही पर्दा है। आंखें बाहर ही देखती हैं, यही पर्दा है।
कल देखा नहीं, सुंदरदास ने कितनी बार कहा: आंख से देखोगे बाहर, चूकोगे! कान से सुनोगे बाहर, नहीं सुनाई पड़ेगा वह अनाहत नाद। चखोगे जीभ से, स्वाद नहीं मिलेगा परमात्मा का। लौटो! प्रतिक्रमण करो! प्रत्याहार करो! आंखों को पलटाओ भीतर, कानों को उलटाओ भीतर! सुनो उस नाद को जो भीतर है। देखो उस दृश्य को जो भीतर है।
राबिया अपने झोपड़े में बैठी है। फकीर हसन बाहर निकला। सुबह हुई, सूरज निकला। प्यारा सूरज! पक्षियों के गीत! सुबह की शीतल हवा! मस्त हो हसन ने भीतर आवाज दी: राबिया! तू भीतर क्या करती है? बाहर आ, देख परमात्मा ने कैसी सुंदर सुबह को जन्म दिया है!
राबिया खिल-खिला कर हंसने लगी। उसने कहा: पागल हसन! तू भीतर आ, क्योंकि जिसने सुबह को जन्माया है, उसे मैं भीतर देख रही हूं। सुबह बहुत सुंदर है मगर उसको बनाने वाले के सौंदर्य का क्या कहना!
महेश, भीतर आओ।
वो सोज दर्द मिट गए वो जिंदगी बदल गई
सवाले-इश्क है अभी ये क्या किया, ये क्या हुआ
लौटोगे भीतर तो चौंकोगे। समझ में ही न आएगा कि यह क्या हुआ, यह क्या किया! सब ऐसे बदल जाता है जैसे बिजली कौंध जाए। जहां पहले सिवाय घृणा के, वैमनस्य के, ईर्ष्या के, शत्रुता के और कुछ भी न था, वहां प्रेम की गंगा बहने लगती है। और जहां प्रश्नों के झंझावात पर झंझावात उठते थे, वहां एक ऐसी शांति छा जाती है, जहां कोई हवा की तरंग भी नहीं होती। और जहां अंधड़ ही अंधड़ थे और तूफान ही तूफान थे, वहां जीवन के दीये की लौ ऐसे ठहर जाती है कि उसमें कंप भी नहीं होता।
सुकूते-शाम मिटाओ, बहुत अंधेरा है
सुखन की शमा जलाओ, बहुत अंधेरा है
चमक उठेंगी सियाह-बख्तियां जमाने की
नवा-ए-दर्द सुनाओ, बहुत अंधेरा है
दियारे-गम में दिले-बेकरार छूट गया
सम्हल के ढूंढने जाओ, बहुत अंधेरा है
ये रात वो है कि सूझे जहां न हाथ को हाथ
खयालो दूर न जाओ, बहुत अंधेरा है
वो खुद नहीं जो सरे-बज्मे-गम तो आज उसके
तबस्सुमों को बुलाओ, बहुत अंधेरा है
पसे-गुनाह जो ठहरे थे चश्मे-आदम में
उन आंसुओं को बहाओ, बहुत अंधेरा है।
प्रेम में पगो। समाधि में जगो। नाचो, जो नाच कितने जन्मों से रुका पड़ा है! रोओ, आंसू कब से आंखों में सम्हाले बैठे हो! गाओ! गुनगुनाओ! ऐसे समाधि फलेगी। और समाधि जहां है, वहां अंधेरा नहीं है। समाधि जहां है, वहां असंतोष नहीं है।
नहीं; उत्तरों से नहीं कुछ हल होगा। अच्छा ही हुआ कि किताबों से तुम्हें उत्तर न मिले। अभागे हैं वे जिन्हें किताबों से उत्तर मिल जाते हैं। वे किताबों को छाती से लगा कर बैठ जाते हैं।
क्या कहते थे इसका तो किसे होश रहा
हां बज्म में तकरीरों का एक जोश रहा
देखा जो ये रंग होश वालों का ‘फिराक’
दीवाना भी कुछ सोच के खामोश रहा
यहां होश वाले, तथाकथित होश वाले--पंडित-पुरोहित, संत-महात्मा उत्तर देने में लगे हैं। बड़े विवाद चल रहे हैं!
क्या कहते थे इसका तो किसे होश रहा
हां बज्म में तकरीरों का एक जोश रहा
यहां लोग क्या कह रहे हैं, इसका उन्हें पता भी नहीं है। याद करो सुंदरदास ने कल ही कहा: जब तक सुधि न आ जाए, कहना मत कुछ। सुधि न जगे भीतर, तो चुप ही रह जाना। यहां लोग उत्तर दे रहे हैं--पूछो किसी से। शायद ही तुम ऐसा आदमी यहां पाओ जो कहे कि भाई, मुझे मालूम नहीं। पूछो किसी से। कुछ भी पूछो। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो कहे: मुझे मालूम नहीं है। पूछो किसी से, ईश्वर है? कोई कहेगा: हां है। और मरने-मारने को तैयार है, अगर न मानो उसकी बात। और कोई कहेगा: नहीं है, वह भी मरने-मारने को तैयार है अगर न मानो उसकी बात। कोई कहता है: चतुर्मुखी है और कोई कहता है: हजार हाथ वाला है। और कोई कहता है: निराकार है। और सब झगड़ रहे हैं।
तुम जरा देखो तो, उत्तर देने वाले कैसी झंझट में पड़े हैं और कैसे झगड़ रहे हैं! इनको खुद ही संतोष नहीं मिला, इनके उत्तरों से किसको संतोष मिलेगा? कितनी छोटी बातों पर झगड़े चल रहे हैं! ऐसी छोटी बातों पर झगड़े चलते हैं कि सोच कर विश्वास भी नहीं आता।
मैं एक गांव में मेहमान था। जैन मंदिर के सामने से निकला तो पुलिस खड़ी थी। ताला लगा था। मैंने पूछा: मामला क्या है? तो कहा कि दिगंबरों और श्वेतांबरों में झगड़ा हो गया। अब दिगंबर और श्वेतांबर दोनों ही महावीर को मानते हैं। भेद बड़े छोटे हैं--ऐसे बचकाने कि कहो तो हंसी आए। मगर बड़े-बड़े ज्ञानी, महात्मा, मुनि विवाद में पड़े रहते हैं। बातें बड़ी छोटी-छोटी हैं। तुम चकित होओगे कि झगड़ा क्या था। मैंने पूछा, झगड़ा आखिर था क्या? पुलिस वाले भी. अब पुलिस वालों से बुद्धू और कोई दुनिया में होते हैं! वे भी हंसे। उन्होंने कहा कि झगड़ा क्या था, यह तो हमें भी हंसी आती है। झगड़ा यह है कि इस मंदिर में सदा से ऐसा रहा कि श्वेतांबर-दिगंबर दोनों ही पूजा करते हैं। बारह बजे तक एक संप्रदाय पूजा करता है, बारह बजे के बाद दूसरा संप्रदाय पूजा करता है। श्वेतांबर महावीर की खुले आंख पूजा करते हैं और दिगंबर महावीर की बंद आंख पूजा करते हैं।
सोचना जरा झगड़ा! तो जब महावीर की पूजा चलती है, तो श्वेतांबर एक नकली आंख चिपका देते हैं, क्योंकि महावीर की मूर्ति. पत्थर की, बंद आंख होती है। उस पर एक नकली आंख चिपका देते हैं ऊपर से खुली आंख! फिर पूजा करते हैं। दिगंबर जब आते हैं, नकली आंख निकाल अलग कर देते हैं, फिर बंद आंख की पूजा करते हैं। कोई श्वेतांबर भक्त. अब भक्त क्या होंगे, उपद्रवी रहे होंगे। ये कोई भक्ति के लक्षण हैं? कुछ ज्यादा भक्ति में आ गए। उनका समय भी निकल गया, मगर वे अपनी भक्ति किए ही चले गए। फिर कोई दिगंबर भक्त भी आ गया। आखिर भक्त तो सभी में हैं! कोई नासमझ श्वेतांबरों में ही थोड़े होते हैं, दिगंबरों में भी होते हैं। उन्होंने कहा, हटाओ! समय पूरा हो चुका। अब हम भक्ति करेंगे।
उन्होंने जबरदस्ती आंख हटा दी। अब कोई किसी के भगवान की अंाख हटा दे. और दोनों के भगवान एक ही हैं! सिर खुल गए। लाठियां चल गईं।
तुम देखते हो ये उत्तर देने वाले! ये मंदिर-मस्जिद, ये सब लड़वाते हैं। इनके उत्तरों से तुम्हें समाधान होगा? इनके खुद के समाधान कहां हैं?
क्या कहते थे इसका तो किसे होश रहा
हां बज्म में तकरीरों का एक जोश रहा
हां, भाषण बहुत हो रहे हैं, विवाद बहुत हो रहे हैं, शास्त्रार्थ बहुत हो रहे हैं।
देखा जो ये रंग होश वालों का ‘फिराक’
यह तथाकथित होश वाले और बुद्धिमान और पंडित और पुरोहितों का यह रंग जब देखा.
देखा जो ये रंग होश वालों का ‘फिराक’
दीवाना भी कुछ सोच के खामोश रहा
दीवाने बनो महेश! खामोशी सीखो। चुप्पी साधो। अब भीतर के शास्त्र में उतरो। वहां शास्त्रों का परम शास्त्र है। वहां वेदों का परम वेद है। जहां सारे विचार खो जाते हैं, वहीं उत्तर है। उत्तर की तरह नहीं--वहीं समाधान है। समाधान की तरह नहीं--समाधि की तरह। फिर कोई प्रश्न नहीं उठता। फिर किसी सिद्धांत पर कोई पकड़ नहीं रह जाती। फिर न केवल तुम्हारे भीतर एक संतोष का फूल खिलता है; जो तुम्हारे पास आते हैं, उनके भीतर भी थोड़ी-थोड़ी आभा, थोड़ा-थोड़ा रंग तुम्हारे संतोष का लगने लगता है।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
अदाएं हैं तेरी फानी, करिश्मे हैं लासानी सच तो यह है कि रोआं-रोआं छलक उठा है मात्र एक भाव से! वारी वारी, वारी वारी वारी सदगुरु तैथों! जिस अमृत तान सुनाई, धन सदगुरु मेरे जिस जीवन जोत जलाई सदके सदके, सदके सदके सदके एन्हां चरणां हो। जिन्हां सच्ची राह दिखलाई वारी वारी, सदके सदके सदके सदगुरु तैथों। धन सदगुरु मेरे, जिस अमृत जोत जलाई!
निष्ठा! इसी के लिए यह आयोजन है। इसी के लिए इतने दीवाने इकट्ठे हुए हैं--इसीलिए कि ज्योति जले। मैं तो तत्पर हूं, बस तुम्हारी तत्परता हुई, कि उसी क्षण घटना घट जाती है। और फिर निश्चित ही गहन अहोभाव उठता है। ऐसा अहोभाव सब में उठे, ऐसी घड़ी सबको आए, ऐसी भाव-दशा सब में बहे--यही आकांक्षा है।
शुभ हुआ। रोआं-रोआं छलक उठता है--निश्चित छलक उठता है! एक ऐसी शराब भीतर बहने लगती है कि जिसमें बेहोशी भी बड़ी है और होश भी बड़ा है। ऐसी अदभुत शराब में डूब जाता है शिष्य कि जैसे-जैसे बेहोश होता है वैसे-वैसे और होश बढ़ता है। एक तरफ मस्ती छाती जाती है, एक तरफ नृत्य उठता है, और दूसरी तरफ सब शांत होने लगता है।
तूने कहा:
‘रोआं-रोआं छलक उठा है मात्र एक भाव से!
वारी सदगुरु तैथों!’
इस भाव को खोने मत देना। यह भाव धीरे-धीरे स्थायी भाव बने। ऐसा भाव बहुत बार आता है, फिर खो जाता है। और जब खो जाएगा तो बड़ी पीड़ा होगी। जिन्होंने नहीं जाना है प्रकाश को, जिन्हें झलक भी नहीं मिली, उन्हें अंधेरे में पीड़ा नहीं होती। वे अंधेरे से राजी होते हैं। वे जानते हैं अंधेरा ही है, और तो कुछ है ही नहीं। जब पहली दफा ज्योति की झलक मिलती है और ज्योति चली जाती है, तो अंधेरा बहुत घना हो जाता है। अंधेरा फिर बहुत काटता है। जिसे स्वाद लगा अमृत का, फिर जिंदगी पूरी जहर मालूम होने लगती है।
इसलिए इस भाव को स्थायी भाव बनाना। इस भाव को सम्हालना। इसे ऐसे ही सम्हालना होता है, जैसे गर्भिणी स्त्री अपने गर्भ को सम्हालती है। चलती है, उठती है, बैठती है, काम भी करती है, पर प्रतिपल खयाल रखती है। एक नये जीवन का आविर्भाव उसके भीतर हो रहा है। सब उसी के लिए समर्पित होता है। अब दौड़ती नहीं, क्योंकि दौड़ नहीं सकती। अब झगड़ती नहीं, क्योंकि एक नये जीवन का आविर्भाव हो रहा है। कहीं वह प्रथम से ही क लुषित न हो जाए!
निष्ठा, तू गर्भिणी हुई! अब इस भाव को सम्हालना अपने गर्भ में।
‘जिस अमृत तान सुनाई, धन सदगुरु मेरे
जिस जीवन जोत जलाई’
अभी तो जो हुआ वह ऐसे हुआ जैसे अंधेरी रात में, अमावस की रात में, बादल घिरे हों और बिजली चमक जाए और एक क्षण को रोशनी हो, और फिर घना अंधेरा। अब इस रोशनी को एक शाश्वत प्रकाश का स्रोत बनाना होगा। अब तेरे पास कुछ खोने को है, अब सम्हल कर चलना।
सुना है मैंने, जापान का एक सम्राट रोज रात जैसे पुराने सम्राटों की आदत थी, घोड़े पर सवार होकर राजधानी में निकलता था। और तो सब सोए रहते, एक फकीर नंग-धड़ंग, न उसके पास कुछ, एक झाड़ के नीचे बड़ा सावधान बैठा रहता था--आंखें खोले हुए, चौकन्ना! धीरे-धीरे सम्राट उत्सुक होने लगा। वह अकेला ही आदमी था जो जागा रहता था। और वह अकेला ही आदमी था जिसको सम्राट जागा हुआ पाता अपनी यात्रा में। एक दिन रुका, पूछा फकीर से कि क्या मैं पूछ सकता हूं, कि तुम ऐसे जागे बैठे रहते हो और है तुम्हारे पास कुछ भी नहीं? सोओ मजे से!
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा: पहले बहुत सो चुका। जब कुछ नहीं था, तब चादर तान कर सोता था। अब कुछ है, जिसको बचाना है। अब कैसे सो सकता हूं? चोरी जाने का डर है। हाथ से छूट जाने का भय है। नींद में डूब जाए। सम्राट ने कहा: लेकिन मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ता, एक तुम्हारा भिक्षापात्र है, एक फटी-पुरानी सी कंबली, और क्या है?
वह फकीर कहने लगा: मेरी आंखों में देखो।
सम्राट ने कभी किसी की आंखों में इस तरह देखा नहीं था। ऐसी आंखें भी नहीं थीं, जिनमें कुछ देखने जैसा कुछ हो। सम्राट ने उन आंखों में देखा और चकित हो गया। और जब घड़ी भर बाद विदा हुआ तो सम्राट भिखमंगा था और भिखमंगा सम्राट हो गया था। क्या हो गया? सम्राट ने देखा, भीतर जरूर संपदा है। एक नया राज्य। और फकीर ठीक कहता है कि अब मेरे पास कुछ खोने को है।
इधर मेरा रोज का अनुभव है, जिन संन्यासियों के पास कुछ खोने को हो जाता है, उन्हें मैं बहुत सावधान करता हूं। उन्हें बहुत समझाता हूं कि अब जरा सम्हल कर रहना, नहीं तो पछताओगे। जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है, वैसे-वैसे गिरने की संभावना भी बढ़ती है। और जितनी ऊंचाई पर चलते हो, उतना ही सावचेत चलना होगा। जो नीचे चलते हैं, घाटियों में सरकते हैं, उन्हें क्या सावचेतता की जरूरत है! वे नींद में भी चलें तो चलेगा।
तो निष्ठा, आज से तू गर्भिणी हुई। अब तेरे भीतर जो अहोभाव जगा है, इसे सम्हालना। यह जो थोड़ी-सी ज्योति की झलक तुझे मिली है, अब यह खोए न, अब सब इस पर वारना। अब सब तरफ से बागुड़ लगा लेना। अब ऐसा कुछ मत करना जिससे इस ज्योति को चोट पहुंचे। और ऐसा सब-कुछ करना जिससे इस ज्योति को जल मिले।
‘सदके एन्हां चरणां हो
जिन्हा सच्ची राह दिखलाई
वारी-वारी, सदके-सदके
सदके सदगुरु तैथों!
धन सदगुरु मेरे, जिस अमृत जोत जलाई!’
जली है, पहली झलक उठी है। तुझमें ही नहीं, औरों में भी उठ रही है। बहुतों में उठ रही है। तेरे बहाने उन सबको कह रहा हूं। और जब मैं एक को उत्तर देता हूं तो यह मत खयाल करना कि उसको ही उत्तर देता हूं। वह तो निमित्त है। उसके बहाने उन सबको उत्तर देता हूं जो उसी दशा में हैं।
जिसके भीतर यह ज्योति जगनी शुरू हो, अब खयाल रखना क्रोध मत करना। इसलिए नहीं कि क्रोध बुरा है, अब बुरे-भले का सवाल नहीं है। अब क्रोध मूढ़ता है। तुम्हारे हाथ में पत्थर हो, क्रोध आ जाए, मार देना फेंक कर; मगर अब हीरा है तुम्हारे हाथ में, अब क्रोध मत करना, नहीं तो गुस्से में कहीं मार दो फेंक कर, तो गया! और अब आसान है क्रोध से मुक्त होना। अब कामवासना को धीरे-धीरे नमस्कार करना, अब विदा देना, क्योंकि यह ज्योति उसी ऊर्जा से जलती है जिससे कामवासना जलती है। अगर कामवासना को अब प्रज्वलित रहने दिया तो यह ज्योति जितना पोषण चाहिए न पा सकेगी। तो अब कामवासना से धीरे-धीरे धीरे-धीरे अपने को मुक्त कर लेना।
और मैं तुम्हें कोई ब्रह्मचर्य का पाठ नहीं सिखा रहा हूं, यही मेरा भेद है। अब तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं, यह सीधा गणित है। अब तुम्हारे पास ऊर्जा को ऊपर ले जाने का द्वार खुला है। अब इतनी ऊर्जा संगृहीत होनी चाहिए कि तुम ऊपर जा सको। मैं कभी भी नहीं कहता, क्षुद्र को छोड़ो। मैं सदा कहता हूं, विराट को पाओ। लेकिन विराट को पाते ही, विराट को पाने की यात्रा शुरू होते ही, क्षुद्र छूटना शुरू हो जाता है। क्षुद्र को छोड़ना ही पड़ता है।
समझो, तुम अपनी झोली में कंकड़-पत्थर भरे जाते थे, फिर अचानक हीरे की खदान मिल गई, अब क्या करोगे? कंकड़-पत्थर गिराओगे झोली से कि नहीं? नहीं गिराओगे तो झोली में हीरे कैसे भरोगे? और इसको त्याग मत समझना, यह त्याग क्या है? अगर कंकड़-पत्थर छोड़ दिए और हीरों से झोली भरी, इसमें त्याग क्या है? यह महाभोग है।
इसलिए मैं कहता हूं: सिर्फ मूढ़ त्यागते हैं, ज्ञानी भोगते हैं। ज्ञानी महाभोगी है।
एक आदमी रामकृष्ण के पास आया और बहुत रुपये लाया। और उसने उनके चरणों में रखे। और रामकृष्ण ने कहा: भई, यह तू क्या करता है? तो उसने कहा: आप इतने बड़े त्यागी, मैं कुछ और नहीं कर सकता, मैं भोगी हूं, भ्रष्ट हूं, मगर इतना तो कर सकता हूं कि किसी त्यागी के चरणों में सिर झुकाऊं और जो कुछ मेरे पास है चढ़ाऊं।
रामकृष्ण ने कहा: तू गलत बातें कह रहा है। भोगी मैं हूं, त्यागी तू है।
वह आदमी चौंका। वह आदमी ही नहीं चौंका, रामकृष्ण के शिष्य भी चौंके--यह क्या कहते हैं रामकृष्ण, कि भोगी मैं हूं, त्यागी तू है।
उस आदमी ने कहा: मैं समझा नहीं। उलटबांसी न करो। उलझाओ न, सीधी-सीधी बात कहो। परमहंसदेव! यह तुम क्या कहते हो? मुझ भोगी को त्यागी? तुम महात्यागी! अपने को भोगी?
रामकृष्ण ने कहा: ऐसा समझ, गणित समझ। जो आदमी कंकड़-पत्थर छोड़ दे और हीरों पर पोटली बांध ले, उसको भोगी कहोगे कि त्यागी?
वह आदमी बोला: उसको हम भोगी कहेंगे। और रामकृष्ण ने कहाः जो कंकड़-पत्थरों पर पोटली बांध ले और हीरों को छोड़ दे, उसको क्या कहोगे? निश्चित उसको हम त्यागी कहेंगे।
रामकृष्ण ने कहा: ऐसी ही मेरी-तेरी दशा है। तूने व्यर्थ में पोटली बांधी, हम सार्थक पर पोटली बांधे हैं। हमने जो छोड़ा वह दो कौड़ी का है और जो पाया वह अमूल्य है। और तूने जो छोड़ा वह अमूल्य है और जो पाया वह दो कौड़ी का है। तू महात्यागी है। भाई, आदर तो मुझे तेरा करना चाहिए।
मैं तुमसे कहता हूं: यही दशा सच है। जब जीवन में कुछ नई ऊर्जा का आविर्भाव हो, तो बहुत क्रांति घटती है। तुम्हें सब फिर से व्यवस्थित करना होगा। तुम्हें अब सब इस ऊर्जा को ध्यान में रख कर जमाना होगा।
एक घटना घटी। चीन के एक बड़े विचारक ने जर्मनी के एक बहुत बड़े दार्शनिक काउंट कैसरलिंग को एक काष्ठ-मंजूषा भेंट की। सुंदर काष्ठ-मंजूषा! कहते हैं बहुत पुरानी। कहते हैं पांच हजार साल पुरानी। और उसके साथ एक शर्त है। वह जितने लोगों के हाथ में रही, सबने शर्त पूरी की। चीन के बाहर वह कभी गई भी नहीं थी। चीनी मित्र ने लिखा कि एक शर्त है और पांच हजार साल तक लोगों ने उसे पूरा किया है। उनके प्रति सम्मान खयाल में रख कर आप भी पूरा करना। शर्त यह है कि मंजूषा का मुख सदा पूरब की तरफ होना चाहिए, सूरज की तरफ जहां से सूरज उगता है।
काउंट कैसरलिंग ने सोचा, इसमें क्या अड़चन है! उसने अपने बैठकखाने में. क्योंकि बहुमूल्य मंजूषा, बड़ी प्यारी खुदाई और बड़ी प्राचीन! लाखों रुपयों की उसकी कीमत। उसने उसे बीच में अपने बैठक घर में सजाया। पूरब की तरफ मुंह किया, लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ गया। मंजूषा का मुख पूरब की तरफ किया, तो पूरा कमरा उसके साथ तालमेल न खाए। तो उसने सारे कमरे का फर्नीचर बदला, ताकि मंजूषा से तालमेल खाए। जब फर्नीचर बदला तो मुश्किल में पड़ा दीवार-दरवाजे फर्नीचर और मंजूषा के साथ मेल न खाएं। मगर काउंट कैसरलिंग भी अपनी जिद का आदमी था। उसने कहा, जब बात कही है तो पूरी ही करनी है। और बड़ा कलात्मक बुद्धि का आदमी था, इसलिए यह अड़चन हुई। कलात्मक बुद्धि न होती तो कहीं भी रख देता कि रहो मजे से। सूरज की तरफ. लेकिन बड़ा संवेदनशील आदमी था। तो उसने मकान, कमरे के दरवाजे-द्वार बदले। अब कमरा पूरे मकान से बेमेल हो गया। तो उसने पूरा मकान बदला। अब पूरा मकान बगीचे से बेमेल हो गया, तब उसने अपने मित्र को लिखा कि भई यह अब सीमा के बाहर बात हुई जा रही है। मैं बगीचा भी बदल लूंगा, मगर मेरा घर पूरे गांव से बेमेल हो जाएगा। गांव पर मेरा बस नहीं।
काउंट कैसरलिंग की आत्म-कथा में जब मैंने यह पढ़ा तो यह उदाहरण मुझे महत्वपूर्ण लगा। ऐसी ही घटना जीवन में घटती है। बस एक चीज बदल जाए, जरा सी चीज, कभी-कभी बड़ी छोटी चीज--और तुम्हारी पूरी जीवन-धारा उसके अनुकूल बदलती है।
लोग मुझसे पूछते हैं: आप क्यों आग्रह करते हैं कि संन्यासी गैरिक वस्त्र पहने, कि माला पहने? इन छोटी-छोटी चीजों से क्या होगा?
याद करो काउंट कैसरलिंग को। वह छोटी सी माला गले में पूरी जिंदगी का रूपांतरण कर सकती है अगर तुममें थोड़ी भी संवदेना हो। क्योंकि फिर मैं तुम्हारे साथ हूं। फिर तुम्हें जरा मुझे ध्यान में रख कर जीवन चलाना पड़ेगा। एक गाली मुंह पर आते-आते रुक जाएगी। वह माला से मेल नहीं पड़ेगा। सिनेमा के क्यू में जहां टिकटें खरीदी जा रही हैं, खड़े होते-होते चल पड़ोगे, क्योंकि वह गैरिक वस्त्रों से मेल नहीं खाएगा।
एक मित्र शराब पीते हैं। संन्यास ले लिया। शराबी ही ले सकते हैं संन्यास; और तो लेगा भी कौन! मुझसे कहने लगे, लेकिन एक बात आपको बता दूं, छिपाना नहीं चाहता, मैं शराबी हूं। मैंने कहा: तुम फिकर छोड़ो। मेरा नाता-रिश्ता ही शराबियों से है। तुम संन्यास लो।
वे कहने लगे, लेकिन देखिए मैं आपको बताए देता हूं। मैं संन्यास लेकर भी छोड़ न पाऊंगा शराब। बहुत मुश्किल है। जिंदगी भर कोशिश कर चुका हूं। यह छूटती ही नहीं।
मैंने कहा: तुम फिकर छोड़ो, तुम संन्यास तो लो, फिर देखेंगे। कोई पांच-सात दिन बाद वे आए। उन्होंने कहा: मुश्किल में डाल दिया मुझको। कल शराब-घर में जा रहा था कि एक आदमी एकदम साष्टांग गिर कर मेरे चरण छू लिया और बोला: महाराज जी, आप कहां जा रहे हैं? यह शराब-घर है! तो मुझे लौटना पड़ा। मैंने कहा: अब इससे क्या कहें! इतने भाव से कह रहा है बेचारा कि महाराज जी, आप कहां जा रहे हैं! सोचा होगा कि महाराज जी भटक गए। ये कहां चले आ रहे हैं!
उसने कहा: एक झंझट खड़ी कर दी आपने। अब मैं डरता हूं शराब-घर में जाने से, कि कोई पैर पकड़ ले, कि स्वामी जी, आप यहां! तो क्या उत्तर दूंगा?
मैंने कहा: अब यह तुम समझो। अब तुम्हें संन्यास बचाना हो तो संन्यास बचा लेना और शराब बचानी हो तो शराब बचा लेना, झंझट हमने खड़ी कर दी, अब तुम. अब तुम चुन लेना।
छोटी-छोटी बातें कभी जीवन को आमूल-चूल बदल जाती हैं।
निष्ठा! ठीक हुआ। अब इस ज्योति को सम्हालना और अब इस ज्योति के अनुसार जीना और अब इस ज्योति के अनुसार सारे जीवन को समायोजित करना। अब इस ज्योति से मूल्यवान कुछ भी नहीं है। इस ज्योति से जो मेल खाए, ठीक। इस ज्योति से जो मेल न खाए, ना-ठीक। अब यह ज्योति कसौटी है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं क्रोध से अत्यंत पीड़ित हूं। मेरा पूरा जीवन क्रोध में ही नष्ट हुआ जा रहा है। इस दुष्ट क्रोध का त्याग करना चाहता हूं। आप ऐसा आशीर्वाद दें कि यह क्रोध-रूपी शत्रु सदा के लिए भस्मीभूत हो जाए।
प्रश्न में भी क्रोध है. ‘दुष्ट क्रोध!’ ‘क्रोध-रूपी शत्रु!’ ‘ऐसा आशीर्वाद दें कि सदा के लिए भस्मीभूत हो जाए!’
तुम मुझे भी फंसाओगे? मैं कोशिश कर रहा हूं कि किसी तरह तुमको स्वर्ग ले चलूं, तुम मुझे भी नरक ले चलने का इरादा रखते हो।
और क्रोध इतनी कोई आसान बात नहीं है किसी आशीर्वाद से मुक्त हो जाओगे। क्रोध तुम्हारी जड़ों में छिपा है। क्रोध कुछ ऐसा ऊपर से आरोपित थोड़े ही है। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि वस्त्र पहन लिए, उतार दिए। क्रोध ऐसा है, जैसे तुम्हारी चमड़ी छीली जाएगी, पीड़ा होगी, कष्ट होगा, खून बहेगा। और फिर तुम जन्म भर अगर क्रोध किए हो, जीवन भर अगर क्रोध किए हो, तो तुम्हारे रग-रग में समा गया होगा। तुम्हारे प्रश्न से जाहिर है। तुम्हारा प्रश्न जो नहीं कह सकता था, वह तुम्हारे प्रश्न की भाषा ने कह दिया है। मैं समझा तुम्हारी पीड़ा को।
मगर इस क्रोध से छूटने का उपाय इस क्रोध का त्याग नहीं है, त्याग कैसे करोगे? यह कोई चीज थोड़े ही है कि छोड़ दी। यह तो तुम्हीं हो। तुम क्रोध-रूप हो गए हो। यह तुम्हारे रग-रेशे में व्याप्त हो गया है। तुम्हें सजग होना पड़ेगा। तुम क्रोध को अपने जीवन-चिंतन का आधार न बनाओ। तुम ध्यान में उतरो। ध्यान तुम्हें सजग करेगा। ध्यान तुम्हें क्षमता देगा कि क्रोध दिखाई पड़ने लगे। क्रोध चलता है इसीलिए कि हम मूर्च्छित हैं। क्रोध मूर्च्छा का ही अंग है। तुम्हें पता ही तब चलता है जब क्रोध आ भी चुका, जा भी चुका, उपद्रव हो भी चुका। पीट चुके पत्नी को, तोड़ चुके चीजें, मार-पीट हो गई, हाथ में हथकड़ी डल गई, अदालत की तरफ चले--तब तुम्हें खयाल आता है कि फिर हो गया। जैसे-जैसे होश बढ़ेगा, तो पहले तुम्हें खयाल आएगा, इतने बाद नहीं--जब क्रोध मौजूद होगा, जब तुम्हारी मुट्ठियां भिंच रही होंगी और दांत क्रोध से भर रहे होंगे और जबड़े क्रोध से उन्मत्त हो रहे होंगे, तब तुम्हें याद आ जाएगा कि क्रोध है, यह हो रहा है। फिर और गहराई बढ़ेगी बोध की, तो क्रोध आने वाला है, आकाश में बादल घिरे, अभी बरसे नहीं, और तुम समझ लोगे कि क्रोध आने वाला है।
जब इतना ध्यान तुम्हारा गहरा हो जाएगा कि क्रोध के आने के पहले तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा कि आता है, तब तुम मुक्त हो पाओगे; इसके पहले तुम मुक्त न हो सकोगे। इसके पहले तुम कसमें खाओ, व्रत लो, नियम लो, आशीर्वाद मांगो, ये सब काम नहीं आएंगी बातें। ये सब बहाने हैं। तुम जैसे हो वैसे ही रहोगे।
और मैं जानता हूं यह आशीर्वाद भी तुमने पहली दफा नहीं मांगा होगा। पहले भी मांग चुके होओगे। और जब भी आशीर्वाद न फलेगा तो तुम यही सोचोगे कि यह संत भी बेकार निकला, ये महात्मा भी किसी काम के नहीं। आशीर्वाद ही काम नहीं आया! जैसे कि महात्मा की जिम्मेवारी है कि तुम्हारा क्रोध दूर होना चाहिए! यह जिम्मेवारी तुम्हारी है।
क्रोध को त्यागा नहीं जाता। क्रोध को जाना जाए तो क्रोध धीरे-धीरे-धीरे शमित होता है। क्रोध का दमन नहीं करना होता, शमन होता है।
क्रोध तुम्हारे चित्त की एक विक्षिप्त अवस्था है। क्रोध में तुम क्षण भर के लिए पागल हो जाते हो। वह अस्थायी पागलपन है। इस पागलपन का कैसे त्याग करोगे? यह तुम्हारे भीतर से उठता है। और जब उठता है तब तुम होते कहां हो!
एक आदमी अपने मकान पर चढ़ा खड़ा था। अकबर की सवारी निकलती थी। ऊलजलूल गालियां बकने लगा अकबर को। अकबर बहुत हैरान हुआ। आदमी पकड़वा लिया गया, जेल में डाल दिया गया। दूसरे दिन सुबह उसे बुलाया अदालत में और कहा कि तू होश में है, क्या बक रहा था? क्यों गालियां दीं तूने? तुझे पता नहीं कि सम्राट के साथ कैसा व्यवहार करना है?
उस आदमी ने कहा: मैंने कभी गालियां दी ही नहीं।
अकबर ने कहा: यह भी हद हो गई! मैं खुद ही मौजूद था, अब कोई गवाह की जरूरत है?
उस आदमी ने कहा: यह मैं कह नहीं रहा कि आप मौजूद नहीं थे। आप रहे होंगे मौजूद, मैं मौजूद नहीं था। मैं शराब पीए था। मुझे होश ही नहीं है कि मैंने क्या किया।
क्रोध में भी तुम ऐसी ही बेहोश अवस्था में होते हो। तुम जाकर रसायनविद से पूछो, चिकित्सक से पूछो: होता है क्या क्रोध में? तुम्हारे खून में, तुम्हारे भीतर जो विष ग्रंथियां हैं, वे विष को छोड़ देती हैं। तुम्हारा सारा खून विषाक्त हो जाता है। उस विषाक्त अवस्था में तुमने शराब बाहर से पी कि भीतर से आई, इससे क्या फर्क पड़ता है? फिर तुम जो करते हो, तुम अपने होश में नहीं हो। ऐसा बहुत बार हुआ है कि लोगों ने हत्याएं कर दी हैं और उन्होंने होश में नहीं की हैं, विक्षिप्त अवस्था में हो गई हैं।
तुम यह छोटी सी कहानी सुनो--
भोज में आए लोगों की सेवा-टहल करते हुए गांव के नाई छकौड़ी ने जब सुना कि इस बार की तीर्थयात्रा में ठाकुर बारिस्टर सिंह क्रोध का त्याग कर आए हैं तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। मित्रों-मुसाहिबों से घिरे बैठे गर्वोन्नत ठाकुर साहिब के पास पहुंच कर छकौड़ी ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा: मालिक, इस बार की तीर्थयात्रा में आप क्या त्याग कर आए हैं?
क्रोध। छकौड़ी, हमने अब जीवन भर के लिए क्रोध त्याग दिया है--सहजशांत वाणी में ठाकुर साहिब ने कहा।
धन्य हो! चारों धाम की यात्रा, चार गांव का भोज और क्रोध का त्याग! बड़े महात्मा हैं मालिक आप--कहता हुआ छकौड़ी अपने काम में जा लगा!
थोड़ी देर बाद वह फिर लौटा और ठाकुर साहिब को भोज की सुव्यवस्था की जानकारी दी और निहायत मुलायमियत से बोला: इस बार तीर्थों में हुजूर क्या छोड़ आए?
ठाकुर साहिब ने छकौड़ी की तरफ सीधी आंख देखते हुए सधी आवाज में जवाब दिया: क्रोध। हमने क्रोध छोड़ दिया है।
वाह, वाह मालिक! कितना बड़ा त्याग किया है आपने! धन्य हैं आप। और वह फिर भोज-स्थल की तरफ चल दिया। कुछ क्षणों में छकौड़ी फिर लौटा और इधर-उधर की बातें करता हुआ ठाकुर साहिब से बोला धीरे से: माई-बाप, तीर्थों में इस बार आप क्या त्याग कर आए?
नाई को घूरते हुए ठाकुर साहिब बोले: अभी तुझे बताया है कि हम क्रोध छोड़ आए हैं।
हओ मालिक। धन्य हो, धन्य हो!
थोड़ी देर बाद फिर छकौड़ी आया और चुपचाप ठाकुर साहिब के पांव दबाने लगा। फिर उठा और उनके पांव छूता हुआ बोला: हुजूर, अब की तीर्थयात्रा में आपने कौन सा त्याग किया है?
इस बार ठाकुर साहिब ने जैसे ही नाई का प्रश्न सुना कि उनकी आंखें लाल हो गईं, भौएं तिरछी हो गईं। कड़कदार आवाज में बोले: अबे नउए, दस बार तुझसे कहा है, हम क्रोध का त्याग कर आए हैं। तू बहरा है क्या?
जी सरकार, क्रोध त्याग कर आपने बड़े भारी पुण्य का काम किया है। धन्य हैं आप!
ओंठों-ओंठों में मुस्कुराता हुआ छकौड़ी चला गया। अब की बार थोड़े अधिक विलंब से वह लौटा। ठाकुर साहिब यार-दोस्तों के साथ बातों में मशगूल थे। चांदी के गिलास में ठाकुर साहिब को पानी पेश करते हुए छकौड़ी ने कहा: हुजूर.
छकौड़ी का स्वर सुनते ही ठाकुर साहिब की आंखें कपाल से जा लगीं। भौचक छकौड़ी थोड़ा पीछे को खिसका। ठाकुर साहिब ने अपना जूता उठाया और छकौड़ी भागा। आगे-आगे पानी का गिलास लिए छकौड़ी नाई और पीछे-पीछे हाथ में जूता लिए ठाकुर बारिस्टर सिंह. नइयटा, साला छत्तीसा. कमीन. हमने पचास बार हरामी के पिल्ले से कहा कि हमने क्रोध छोड़ दिया है, फिर भी साला.
क्रोध छोड़ा नहीं जाता। क्रोध समझा जाता है। छोड़े कि ऐसे ही झंझट में पड़ोगे। क्रोध समझो। क्रोध के प्रति जागो। क्रोध को पहचानो। उसकी फैली हुई जड़ों को खोदो। और पहले से ही निर्णय मत लो कि क्रोध बुरा है। अगर निर्णय ले लिया तो जान न सकोगे। जब निर्णय ही ले लिया तो फिर जानोगे कैसे? जानने के लिए निर्णय-मुक्त मन चाहिए।
भूल जाओ यह कि शास्त्रों ने कहा है कि क्रोध शत्रु है। तुमने अभी नहीं जाना। और जब तक तुमने नहीं जाना, शास्त्र दो कौड़ी के हैं। भूल जाओ यह कि क्रोध जहर है। यह तुमने अभी नहीं पहचाना। और तुम्हारी पहचान हो तो ही इस बात में कुछ अर्थ है, अन्यथा यह सब बकवास है। छोड़ ही दो सारे निर्णय और निष्कर्ष कि क्रोध क्या है।
निर्णय-शून्य, निष्कर्ष-रहित तुम्हारे भीतर जब क्रोध उठे तो उसे देखो, जैसे आकाश में उठते बादल को कोई देखता है। न अच्छा, न बुरा। न पक्ष, न विपक्ष। सिर्फ पहचानो, क्या है? क्रोध क्या है? धीरे-धीरे क्रोध जब होगा तभी तुम्हारी आंख खुलेगी। और धीरे-धीरे क्रोध के आने के पहले उसकी हलकी सरसराहट मालूम होगी और तुम्हारी आंख खुलेगी। और अंततः सरसराहट भी न होगी, कोई दूसरा आदमी स्थिति पैदा करेगा, गाली देगा, अपमान करेगा; उसके गाली और अपमान देते ही तुम जानोगे कि स्थिति मौजूद है। अगर मैं मूर्च्छित हो जाऊं तो क्रोध होगा। अगर मैं सजग रहूं, होशपूर्ण रहूं, अगर यह दीया होश का जलता रहे, तो क्रोध नहीं होगा।
होश में क्रोध विसर्जित हो जाता है, जैसे प्रकाश में अंधेरा नहीं होता है।आज इतना ही।
भगवान, कल आपने सदगुरु और शिष्य को जले दीये और बुझे दीये की उपमा से समझाया और कहा कि जले दीये की आत्मिक निकटता में बुझा दीया अचानक जल उठता है। कृपा करके बताएं कि ज्योति जल उठे, उसके लिए कैसा हो शिष्य, कैसी हो बाती, कैसा हो तेल, कैसी हो निकटता?
चिन्मय! शिष्य होना काफी है। शिष्य होने में सब आ गया--बाती भी, तेल भी, निकटता भी। इस छोटे से शब्द ‘शिष्य’ में सारा सार छिपा है। और पूछते हो: ‘कैसा हो शिष्य?’ तो शिष्य शब्द के सार को नहीं समझे। शिष्य तो बस एक ही जैसा होता है। शिष्य की कोई कोटियां नहीं हैं। शिष्य बहुत प्रकार के नहीं होते, भांति-भांति के नहीं होते।
जैसे प्रेम एक ही होता है, और जैसे शांति एक ही होती है, और जैसे शून्य एक ही होता है--ऐसी ही शिष्य की दशा है। वहां द्वैत कहां! वहां अनेकता कहां! वहां भेद-भिन्नता कहां!
जैसे समस्त सागरों का स्वाद एक है, कहीं से भी चखो वही खारापन--ऐसे ही शिष्य का भी स्वाद एक है। कहीं से भी परखो, कैसे भी चखो, कैसे भी पहचानो--शिष्य का स्वाद है समर्पण। शिष्य का स्वाद है, अपने को गुरु में डुबा देना। शिष्य का अर्थ है, अपने को न बचाना। मैं-भाव का विसर्जन।
हम जीते हैं मैं-भाव से। हम मान कर चलते हैं कि मैं ही केंद्र हूं सारे अस्तित्व का; सारा अस्तित्व मेरे ही इर्द-गिर्द घूम रहा है; मेरे ही निमित्त चांद-तारे चलते हैं, सूरज उगता, वृक्ष बढ़ते, फलते-फूलते, मेरे ही निमित्त ही सब हो रहा है। ऐसी भ्रांति है अहंकार की। शिष्य इस भ्रांति से मुक्त हो जाता है। शिष्य कहता है: मैं हूं ही नहीं। शिष्य कहता है: यह जो विराट का विस्तार है, इसमें मैं ऐसे खो गया हूं जैसे बूंद सागर में खो जाती है। मैं बचा नहीं। मेरी अपनी कोई सीमा न रही।
और जिसने साहस किया अपने को इस भांति मिटाने का, वह सब-कुछ पाने का अधिकारी हो जाता है।
शिष्य है विसर्जन।
शिष्य है समर्पण।
शिष्य है आध्यात्मिक अर्थों में परम आत्मघात। अपने को पोंछ देना।
एकदम से यह पोंछ देना संभव नहीं होता, नहीं तो व्यक्ति सीधा परमात्मा में विलीन हो जाए, सदगुरु की बीच में सीढ़ी आवश्यक न हो। सदगुरु की सीढ़ी आवश्यक होती है, क्योंकि तुम एकदम विलीन होने को राजी नहीं होते। तुम कहते हो: कोई सहारा तो हो! किसके सहारे विलीन हो जाऊं? मिटता हूं, लेकिन किन चरणों में मिटूं, कोई चरण तो हों! छोड़ता हूं, छोड़ना चाहता हूं अपने को, लेकिन किनके हाथों में छोड़ दूं? परमात्मा के हाथ दिखाई नहीं पड़ते। उसके पैर समझ में नहीं आते कहां हैं। उसका हृदय धड़कता भी हो. धड़कता ही होगा, अन्यथा अस्तित्व चलेगा कैसे, जीएगा कैसे? वही तो धड़कता है समस्त हृदयों में। पर कैसे उसकी धड़कन को हम सुनें? हम इतने छोटे, वह इतना बड़ा! हम इतने क्षुद्र, वह इतना विराट! हम इतने सीमित, वह इतना असीम! हमारे और उसके बीच फासला अनंत है। हाथ फैलाएं तो उस तक पहुंचते नहीं। पुकारें तो पुकार उस तक जाती नहीं। आवाज लड़खड़ा कर गिर जाती है। आवाज जाती है थोड़ी दूर तक, मगर इस अनंत विस्तार को कैसे पाट सकेगी? सेतु नहीं बनता। व्यक्ति और परमात्मा के बीच सेतु नहीं बनता। सेतु का उपाय नहीं दिखता। अतैव सदगुरु!
सदगुरु पड़ाव है--सीमित से असीम के बीच, क्षुद्र से विराट के बीच पड़ाव है। सदगुरु मंजिल नहीं है, वहां रुक नहीं जाना है। वहां से छलांग लेनी है। सदगुरु सीढ़ी है। उपयोग कर लेना है, धन्यवाद दे देना है और आगे बढ़ जाना है।
सदगुरु की सीढ़ी का अर्थ होता है: कुछ-कुछ सीमित, कुछ-कुछ असीम। एक हाथ सीमित, एक हाथ असीम। दिखाई पड़ता है सीमित और जो नहीं दिखाई पड़ता है वह असीम। हमारी भांति देह में और परमात्मा की भांति देह-हीन। मनुष्य और परमात्मा के बीच एक कड़ी है। चलता है, उठता है, बैठता है, सोता है, खाता है, बस ठीक हम जैसा है। इसलिए उसका हाथ पकड़ा जा सकता है। उसके चरणों में सिर रखा जा सकता है। उसके हृदय के पास कान लाए जा सकते हैं और उसकी धड़कन सुनी जा सकती है। उसका गीत हमारी ही भाषा में गाया जा रहा है।
कभी-कभी कठिन भी हो समझना, फिर भी असंभव तो नहीं। शांत मन से, शून्य मन से समझा तो कुछ न कुछ बूंद पड़ ही जाती है। न भरे घड़ा, पर बूंद भी पड़ जाए जल की, तो भी भरेपन की यात्रा शुरू हो गई। घड़े में एक बूंद भी गिरे तो घड़ा अब उतना खाली नहीं रहा जितना पहले खाली था। और बूंद-बूंद मिल कर तो सागर बन जाते हैं। सागर भर जाते हैं बूंद-बूंद होकर, तो गागर न भर जाएगी?
सदगुरु हम जैसा है और हम जैसा नहीं भी। दूर से देखोगे तो बिलकुल हम जैसा और जैसे-जैसे पास आने लगोगे, वैसे-वैसे सदगुरु एक खिड़की बन जाता है और उससे अनंत का आकाश झांकने लगता है। जितने समीप आओगे उतना ही पाओगे कि जो हम जैसा दिखता था, बिलकुल हम जैसा नहीं है।
इसलिए जो सदगुरु के करीब आए, उन्होंने गुरु को भगवान कहा। जो दूर रहे, वे सदा हैरान हुए, चौंके, परेशान हुए, तर्क-विचार में पड़े, विवाद उठाया। उनका विवाद उठाना भी संगत है, क्योंकि वे कहते हैं: कैसा यह भगवान!
बुद्ध के शिष्य बुद्ध को भगवान कहते थे। जो नहीं पास आए बुद्ध के, जिन्होंने, बहुत दूर-दूर से देखा, उन्हें बुद्ध का अंतर्तम कैसे दिखाई पड़े? उन्हें बुद्ध का भीतर कैसे अनुभव में आए? उन्हें बुद्ध के हृदय की धड़कन कैसे सुनाई पड़े? उन्हें बुद्ध के शून्य का स्वाद कैसे लगे? उन्होंने तो दूर से देखी बुद्ध की दशा, तो देह ही दिखाई पड़ी। और तब उन्होंने वे सब बातें देखीं जो आदमी में होती हैं, सब आदमियों में होती हैं। बुद्ध कभी बीमार पड़ते हैं, तो सोचा उन्होंने: कैसा भगवान! बुद्ध बूढ़े हुए, तो सोचा उन्होंने: कैसा भगवान! भगवान कभी बूढ़ा होता है? भगवान कभी बीमार पड़ता है? बुद्ध को भूख लगती है, भगवान को कभी भूख लगती है? और फिर एक दिन बुद्ध तिरोहित हो गए इस देह से, जैसे सब तिरोहित हो जाते हैं, तो बुद्ध की भी मृत्यु घटित हुई। तो जो दूर थे, उन्होंने कहा: देखा! हम पहले ही कहते थे, भगवान कभी मरता है?
और उनकी बातों में भी संगति है और उनकी बातों में भी सचाई है। मगर उन्होंने बुद्ध का आधा रूप ही देखा। उन्होंने बुद्ध का वर्तुल देखा, लेकिन केंद्र चूक गया। वे बुद्ध के मंदिर के बाहर-बाहर घूमे, मंदिर की दीवाल बाहर से देखी, मंदिर का देवता अपरिचित रह गया। उन्होंने वीणा तो देखी बुद्ध की, लेकिन वीणा से उठता संगीत नहीं देखा। वे इतने पास आए ही नहीं कि संगीत सुन सकते। उन्होंने फूल तो देखा बुद्ध का, लेकिन फूल से उठती सुवास उनके नासापुटों में न भरी। वे इतने दूर-दूर रहे, अपने को ऐसा बचाए रहे, कवच ओढ़े रहे, ढालों में अपने को छिपाए रहे, कि बुद्ध की गंध उनके नासापुटों तक पहुंचे भी तो कैसे पहुंचे? सो वे भी ठीक ही कहते हैं कि क्यों एक मनुष्य को भगवान कहते हो?
मगर जो पास आए, जिन्होंने हिम्मत जुटाई. और पास आना हिम्मत की बात है, बड़ी हिम्मत की बात है! बड़ी से बड़ी हिम्मत एक ही है इस जगत में--सदगुरु के पास आना। क्योंकि उसके पास आने का अर्थ मिटना ही होता है। जैसे कोई नमक की डली सागर में उतर जाए, ऐसा है सदगुरु में उतरना। नमक की डली गलेगी और खो जाएगी। खोने की जिनमें तत्परता है, जिन्होंने जीवन देखा और जीवन की व्यर्थता देखी, जिन्होंने जीवन पहचाना और जीवन की असारता पहचानी, जिन्होंने जीवन को सब तरफ से टटोला और खाली और रिक्त और खोखा पाया, वे ही तैयार होते हैं कि ठीक है, जीवन में तो कुछ भी नहीं है, अब इस यात्रा पर भी निकल कर देखें! अब यह अभीप्सा और। और सब यात्राएं कर चुके, दसों दिशाओं की यात्राएं कर चुके, अब इस ग्यारहवीं दिशा की यात्रा और। यह भी क्यों चूकें? कौन जाने जो कहीं और नहीं मिला यहां मिले!
जो पास गए हैं उन्होंने सदा कहा: मिला है। कौन जाने, ठीक ही कहते हों! तो जो पास आने की हिम्मत किए हैं, जैसे-जैसे पास आए, देह तिरोहित होती गई। जैसे-जैसे पास आए, देह के भीतर जो विराजमान चैतन्य था, वह स्पष्ट होने लगा। भगवत्ता आविर्भूत होने लगी। सुगंध आने लगी। संगीत सुनाई पड़ने लगा। और जब संगीत सुनाई पड़ जाए तो वीणा गौण हो जाती है। वीणा का प्रयोजन तो संगीत सुनाई पड़ जाए, बस उतने तक है। निमित्त है।
और जब बुद्ध के भीतर विराट आकाश दिखाई पड़ने लगा. समीपता में ही दिखाई पड़ सकता है। तुम खिड़की से बहुत दूर रहो तो खिड़की ही दिखाई पड़ती है। तुम खिड़की के पास आओ तो खिड़की के पार जो आकाश है, जिसकी कोई सीमा नहीं और वे जो दूर-दूर चमकते हुए तारे हैं, वह जो अनंत सौंदर्य है और वह जो अनंत सौंदर्य में छिपा रहस्य है, वह सब तुम पर बरस उठता है। जो खिड़की पर आकर खड़े हो गए, खिड़की को भूल ही गए।
तुमने भी नहीं देखा कभी, जब खिड़की पर आकर खड़े हो जाओगे तो खिड़की भूल जाती है, खिड़की का चौखटा भूल जाता है! खिड़की के पार जो दिखाई पड़ता है--ऐसा अगम, ऐसा रहस्यपूर्ण, ऐसा आह्लादकारी! मंत्रमुग्ध हो उठता है जो खिड़की के पास आकर खड़ा हो जाता है। उसकी आंखें आकाश से संबंध जोड़ लेती हैं; खिड़की खो ही जाती है।
तो जो पास आए उन्होंने बुद्ध को भगवान कहा। जो दूर आए उन्होंने कहा: होंगे, बहुत से बहुत महामानव होंगे, मगर भगवान कैसे?
शिष्य का अर्थ होता है: परमात्मा का तो पता नहीं चलता लेकिन किसी में अगर परमात्मा घटा हो, किसी में अगर परमात्मा की एक किरण भी उतरी हो तो उससे संबंध जोड़ लूं। ऐसे परोक्ष रूप से परमात्मा से संबंध जुड़ जाता है। प्रत्यक्ष तो संबंध नहीं जुड़ता। परोक्ष संबंध जुड़ जाता है। मेरी आंखें तो अंधी हैं, तो किसी आंख वाले का हाथ पकड़ लूं, तो आंख के जगत से संबंध जुड़ जाता है।
शिष्य का अर्थ होता है: झुक जाना। सीखने की क्षमता--‘शिष्य’ का शाब्दिक अर्थ है। इसलिए जो जानने से भरे हैं, वे शिष्य नहीं हो पाते। जो ज्ञान से भरपूर हैं, वे शिष्य नहीं हो पाते। वे तो पहले से ही भरपूर हैं। जिन्हें यह दिखाई पड़ने लगा है कि मेरा ज्ञान ज्ञान नहीं. और जरा तलाशना, जरा टटोलना, जरा अपने ज्ञान को परखना, जरा उलटना-पलटना, जरा कसौटी पर कसना। क्या जानते हो? न ईश्वर का पता है, न आत्मा का पता है, न प्रेम का पता है, न प्रार्थना का पता है, न सत्य का पता है, न निर्वाण का पता है। कहां से आए, पता नहीं। क्यों हो यहां, पता नहीं। कहां जाते हो, पता नहीं। फिर भी ज्ञानी बन बैठे हो! कुछ कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लिया शास्त्रों से, बासे-उधार शब्द जुड़ा लिए और उन्हीं बासे शब्दों को जमाए चले जा रहे हो। और जमा-जमा कर अपने को भ्रम दिए जा रहे हो कि मैं जानता हूं!
ऐसी दशा को ही मैं पंडित की दशा कहता हूं। पंडित परम अज्ञान की दशा है। अमावस की रात समझो। अंधेरा ही अंधेरा है वहां। और अंधेरा भी ऐसा कि बड़ा चालाक। अंधेरा भी ऐसा कि बड़ा चतुर। ऐसा चतुर कि धोखा देता है कि मैं रोशनी हूं।
शब्द जो बैठ गए हैं भीतर, उनसे अहंकार भरता है। अहंकार की अकड़ मजबूत होती है कि मैं जानता हूं। मैं और झुकूं! मैं तो जानता ही हूं! तो जो जानता है, झुक नहीं पाता। जो झुक नहीं पाता, शिष्य नहीं हो पाता। जो जानता है, झोली नहीं फैला पाता। और जो झोली नहीं फैला पाता, शिष्य नहीं हो पाता। झुको तो भरो। झोली फैलाओ तो अमृत बरसे।
अमृत तो बरस ही रहा है लेकिन तुम झोली फैलाने तक की हिम्मत नहीं कर पाते। जिसने अपने हृदय की झोली फैला दी और जिसने कहा मुझे कुछ पता नहीं और जिसने कहा कि मैं ना-कुछ हूं; कहा ही नहीं, ऐसी जिसके अस्तित्व की भाव-भंगिमा बनी, ऐसी जिसकी भीतर की मुद्रा बनी, ऐसा जिसके अनुभव का सार-निचोड़ हुआ--वही शिष्य है। और जो शिष्य है, तो फिर सब शेष अपने से हो जाता है।
तुम पूछते हो: ‘कृपा करके बताएं कि ज्योति जल उठे, उसके लिए कैसा हो शिष्य।’
‘कैसे’ का सवाल ही नहीं, बस शिष्य हो। और ज्योति जल उठेगी।
‘कैसी हो बाती, कैसा हो तेल, कैसी निकटता हो?’ नहीं कोई निकटता और। शिष्य यानी वही जो निकट आ गया। दूरी कौन सी बात रखती है तुम्हें? अकड़ दूरी रखती है। अकड़ा आदमी दूर-दूर होता है, अपने को बचाए-बचाए होता है। अकड़ा आदमी सचेत होता है कि कहीं प्रभावित न हो जाऊं! अकड़ा आदमी भयभीत होता है कि कहीं ऐसा न हो कि कोई बात हृदय को छू जाए, आंख आंसुओं से भर जाए! कहीं कोई बात ऐसी न आ जाए कि दिल धड़कने लगे। बस के बाहर बात न हो जाए! कहीं कोई ऐसी बात न हो जाए कि प्रेम उमग आए! क्योंकि प्रेम उमग आए तो ज्ञान पड़ा धरा रह जाता है। क्योंकि प्रेम जग जाए, तो सारा पांडित्य कचरा होकर एक तरफ हो जाता है।
अहंकारी कहता है: मैं जानता हूं। यह हो सकता है कि और भी कुछ जानने को है, तो वह भी जान लूंगा।
अहंकारी जब सदगुरु के पास आता है तो सिर्फ और थोड़ा ज्ञान बटोरने को आता है। और ज्ञान है अंधेरा। ऐसे ही तुम्हारे पास काफी है, तुम थोड़ा और कचरा बटोर लेते हो। और बोझिल होकर लौट जाते हो। और जंजीरें बांध लेते हो। और नाव भारी हो जाती है, और डूबने के करीब हो जाती है। ऐसे ही काफी पत्थर तुमने छाती से लटकाए हैं।
शिष्य कहता है: मेरा ज्ञान मुझसे छीन लो। ज्ञानी कहता है: थोड़ा ज्ञान मुझे और दो। ज्ञानी कहता है: और कैसे जानूं, इसका उपाय बताओ। कौन शास्त्र पढूं, कौन सिद्धांत समझूं--इसका उपाय बताओ।
शिष्य कहता है: खूब भटका हूं शास्त्रों के जंगल में, राह नहीं पाई, आग लगा दो इस पूरे जंगल में! राख कर दो इन सारे शास्त्रों को! मुझे छुटकारा दिला दो इस ज्ञान से। मुझे फिर वैसा अज्ञान दे दो जैसा बच्चे में होता है--सरल, विस्मय से परिपूर्ण, सजग, जिज्ञासा से भरा हुआ!
जितना तुम जानते हो, उतना ही जगत और तुम्हारे बीच विस्मय का नाता टूट जाता है। और वही नाता है। वही नाता है, जिसे मैं धार्मिक नाता कहता हूं-- विस्मय का नाता। जितना तुम जानते हो, उतना ही लगता है: क्या रखा है इस जगत में? हर बात तो तुम्हें मालूम है। जगत में फिर रहस्य दिखाई नहीं पड़ता। और जिस आदमी को जगत में रहस्य दिखाई नहीं पड़ता, उस आदमी को जगत में परमात्मा कभी दिखाई नहीं पड़ सकता।
परमात्मा है क्या? रहस्य की परम अनुभूति। कोई व्यक्ति थोड़े ही है कि दूर आकाश में किसी सिंहासन पर बैठा तुम्हारी राह देख रहा है। परमात्मा है--विस्मय का विस्तार। परमात्मा है--सारे उत्तरों का विनाश और ऐसे प्रश्न का भीतर जन्मना, जिसका कोई उत्तर नहीं होता। उसे हमने मुमुक्षा कहा है।
जिज्ञासा के उत्तर हो सकते हैं, मुमुक्षा का उत्तर नहीं होता। इसलिए जिज्ञासा दर्शनशास्त्र में ले जाती है; मुमुक्षा, धर्म में। और धर्मशास्त्र मैं न कहूंगा, क्योंकि धर्म का कोई शास्त्र नहीं होता। धर्म के नाम पर जो शास्त्र हैं वे भी मूलतः दर्शन के ही शास्त्र हैं। वे भी दार्शनिक ऊहापोह हैं। धर्म की तो अनुभूति होती है, शास्त्र नहीं होता। हां, धर्म के शास्ता होते हैं, धर्म का शास्त्र नहीं होता। जैसे बुद्ध, या जैसे कबीर, या जैसे सुंदरदास--ये शास्ता हैं। इन्होंने जाना, जीआ, अनुभव किया। इनके भीतर ज्योति जली है। इस ज्योति से जो प्रकाश पड़ रहा है तुम्हारे ऊपर, जो करीब आएगा, जो करीब आता ही चला जाएगा, उसकी बुझी ज्योति भी जल जाएगी। लेकिन कुछ हैं जो इस प्रकाश को दूर-दूर से देखेंगे और इस प्रकाश से भी कुछ सिद्धांत निर्मित करेंगे; वे वंचित रह जाएंगे। उनके हाथ में कचरा लगेगा। मूल तो छूट जाएगा, खोल रह जाएगी।
जब भी कोई सदगुरु पैदा होता है तो उसके आस-पास दो तरह के लोग पैदा होते हैं--शिष्य और पंडित। पंडित चूकते हैं। शिष्य भोग लेते हैं परमभोग।
शिष्य की आंख खाली होनी चाहिए ज्ञान से। शिष्य का हृदय रिक्त होना चाहिए उत्तरों से--उधार, बासे, पराए। बस समीपता आनी शुरू हो जाती है। कौन तुम्हें दूर किए हैं? वे पहाड़ ज्ञान के, जो तुमने खड़े कर लिए हैं, वे ही तुम्हें दूर किए हुए हैं। जब एक मुसलमान मेरे पास आता है तो कौन उसे दूर किए हुए है? मेरे और उसके बीच कुरान खड़ी हो जाती है। और कुरान का उसे कुछ पता नहीं है। कुरान का अर्थ भी उसे तब पता हो सकता है जब कुरान मेरे और उसके बीच से हट जाए। मैं कुरान हूं, लेकिन उसकी कुरान बीच में खड़ी है।
हिंदू आता है; उसके वेद, उसके उपनिषद, उसकी गीता सब बीच में खड़ी है। मैं उसे खोजता हूं, लेकिन कभी उसकी गीता पकड़ में आती है, कभी उसका वेद पकड़ में आता है, कभी उपनिषद पकड़ में आता है। उसका हृदय तो बहुत दूर दबा पड़ा है।
यह पर्त-पर्त ज्ञान हटाना पड़ेगा। और मजा यह है, विरोधाभास यह है, कि जब यह सारा ज्ञान--ये वेद, उपनिषद और गीता विदा हो जाएंगे--तो वह पहली दफा जानेगा कि उपनिषद क्या है, वेद क्या है, गीता क्या है? पकड़े रहा तो चूकता रहेगा। छोड़ा तो जानेगा। ऐसा उलटा गणित है। इस उलटे गणित के लिए जो राजी हैं वे शिष्य हैं।
और शिष्य होना काफी है, फिर और कुछ नहीं चाहिए। समीपता अपने से हो जाएगी। फिर न बाती, न तेल।
और यह दीया, जिसकी मैं बात कर रहा हूं, यह कोई बाती-तेल का दीया थोड़े ही है। बिन बाती बिन तेल! यह तो शुद्ध ज्योति की बात है; इसके लिए कोई तेल की जरूरत नहीं होती, न किसी बाती की जरूरत होती है। क्योंकि जो दीया तेल और बाती से जलता है वह शाश्वत नहीं हो सकता; थोड़ी देर में तेल चुक जाएगा, फिर? थोड़ी देर में बाती जल जाएगी, फिर? नहीं जी, वह दीया आपको क्या देना, जो थोड़ी देर में चुक जाए! देना तो वह, जो एक बार जले तो फिर बुझे नहीं। बिन बाती बिन तेल हो, तो ही कभी बुझेगा नहीं।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपकी बहुत सी किताबों को पढ़ा, लेकिन एक भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। कृपया कोई ऐसा उत्तर दें जो संतोषजनक हो।
पूछा है डॉक्टर महेश ने!
मैं उत्तर देता ही कहां हूं? उत्तर दिया कब? मैं तो उत्तर छीन रहा हूं। मैं तो उत्तर मिटा रहा हूं। मेरी तो कोशिश है कि तुम्हारे चित्त से सारे उत्तर मिट जाएं और तुम्हारी कोशिश है कि संतोषजनक उत्तर मिल जाए।
संतोषजनक उत्तर का क्या अर्थ होता है? अर्थ होता है कि जिसको पकड़ ही लें। ऐसा संतोष मिल जाए, कि फिर उसे कभी न छोड़ें। लेकिन वह तो तुम्हारी जीवनयात्रा का अंत हो जाएगा। संतोषजनक उत्तर अगर मुझसे मिल गया, तो तुम अपने परमात्मा को कब खोजोगे? संतोषजनक उत्तर ही मिल गया तो फिर खोज क्या रही? और संतोषजनक उत्तर अगर मुझसे मिल गया तो तुम सदा के लिए मुझसे बंध जाओगे। और तुम भयभीत भी होने लगोगे कि अगर मुझसे छूटे तो कहीं उत्तर न छूट जाए।
मैं तुम्हारे भीतर किसी भय को नहीं जन्माना चाहता। मैं तुम्हें निर्भय करना चाहता हूं। मैं तुम्हें अपने से नहीं बांध लेना चाहता। मैं तुम्हें सर्वांगीण मुक्ति देना चाहता हूं। और उत्तर मेरे से कैसे मिलेगा? असंतोष तुम्हारा है, उत्तर भी तुम्हें ही खोजना पड़ेगा। असंतोष तुम्हारा और उत्तर मेरा, इसका तालमेल कैसे होगा?
असंतोष के कारणों में जाओ। असंतोष की जड़ें काटो। असंतोष को तिरोहित करो, त्यागो। मैं तुमसे धन छोड़ने को नहीं कहता, न पद छोड़ने को कहता हूं, न घर-द्वार छोड़ने को कहता हूं। मैं तुमसे कहता हूं: असंतोष छोड़ो, दुख छोड़ो, पीड़ा छोड़ो। मत पकड़े रहो असंतोष को। खोजो क्या असंतोष है? सीढ़ी लगाओ, असंतोष की गहराइयों में उतरो। वहीं तुम असंतोष को समाप्त करने वाले समाधान को पाओगे।
समस्या में समाधान छिपा होता है, लेकिन जब तक तुम बाहर समाधान खोजोगे और समस्या भीतर है तब तक चूकते रहोगे।
मैं तुम्हारी तकलीफ समझा।
तुम कहते हो: ‘आपकी बहुत सी किताबों को पढ़ा…।’
जब मैं तुमसे कहता हूं वेद में उत्तर नहीं है, तो क्या तुम सोचते हो मेरी किताब में उत्तर हो सकता है? अगर मेरी किताब में उत्तर हो सकता है तो वेद में क्यों न होगा? अगर मेरी किताब में हो सकता है तो कृष्ण की किताब में तो जरूर ही होगा। किसी किताब में उत्तर नहीं है। किताबें पकड़ कर लोग भटक गए हैं।
किताबों को पढ़ो, भटको मत! किताबों की सार्थकता यह नहीं है कि तुम्हें उत्तर मिल जाए। किताबों की सार्थकता यही है कि तुम्हारे सामने तुम्हारा प्रश्न स्पष्ट हो जाए, प्रगाढ़ रूप से प्रकट हो जाए। किताबों से जल नहीं मिलेगा। हां, किताबों से प्यास मिल सकती है। तो औरों की किताबों के संबंध में तो मैं क्या कहूं, मेरी किताबों के संबंध में तो निश्चित कह सकता हूं कि मेरी किताबों से असंतोष बढ़ेगा। अगर कोई मुझे आकर कहे कि मुझे आपकी किताबों से संतोष मिल गया तो मैं बहुत चौंकूंगा। कहीं कुछ भूल हो गई। या तो मुझसे भूल हो गई या उससे भूल हो गई।
पूरा प्रयोजन ही यही है कि किताब से उत्तर नहीं मिलना चाहिए। बासा होगा, उधार होगा, पराया होगा। तुम्हारे जीवन में आना चाहिए। तुम्हारे जीवन से आना चाहिए। तुम्हारी ही जीवन-भूमि में लगना चाहिए यह उत्तर। यह फूल तुम्हारे भीतर खिलना चाहिए। मेरे भीतर खिले फूल मैं तुम्हें दे भी दूं, तुम्हारे हाथ तक पहुंचते-पहुंचते कुम्हला जाएंगे। और तुम इन्हें दबा कर रख लेना अपनी गीता और कुरान में। सूख जाएंगे, फिर उनमें गंध भी न रह जाएगी। सूखे फूल, देखे न, लोग रख लेते हैं किताबों में। बस किताबों के सिद्धांत भी उतने ही सूखे हैं।
नहीं; उत्तर खोजो ही मत किताबों में। किताबों में खोजने के कारण तो मनुष्य-जाति बर्बाद हुई। कोई कुरान से बंध गया है, कोई गीता से बंध गया है, कोई धम्मपद से बंध गया। किताबें आदमी की मालिक हो गईं, आदमी किताबों का गुलाम हो गया। और फिर डरने भी लगा कि अगर किताब छूट गई तो फिर मेरा क्या होगा? यह कोई ज्ञान की दशा हुई? मुर्दा किताब मूल्यवान हो गई? कागज पर खींची गई स्याही की लकीरें मूल्यवान हो गईं? कागज पर खींची गई स्याही की लकीरें सत्य हो सकती हैं? फिर तो जब भूख लगे, तब कागज पर ‘रोटी’ लिख लेना। जब भूख लगे तो पाकशास्त्र की किताब को छाती से लगा लेना। और जब भूख न मिटे तो कसूर किसका?
तुम्हारे प्रश्न से ऐसा लगता है महेश, कि कसूर मेरा है, कि इतनी किताबें तुमने पढ़ीं, इतना श्रम किया, इतनी कृपा की--और उत्तर तुम्हें मिला नहीं! तुम पाकशास्त्र की किताबों को छाती से लगा कर बैठे हो, पेट इस भाषा को नहीं समझेगा। पेट रोटी मांगता है। और पाकशास्त्र में कितने ही व्यंजन बनाने की कितनी ही सुंदर विधियां दी हुई हों, क्या काम की हैं? भाई मेरे, रोटी पकानी पड़ेगी! आटा गूंथो। किताब रख कर बैठे रहने में सुविधा जरूर है--न आटा गूंथना पड़ता, न हाथ आटे से भिड़ते, न आग जलानी पड़ती, न चूल्हा फूंकना पड़ता, न आंखों में आंसू आते, झंझट नहीं। रखे हैं अपनी किताब। लगाए छाती से बैठे हैं। मगर भूख बढ़ती रहेगी। और खतरा यही है कि कहीं यह धोखा मत दे देना कि उत्तर मिल गया। नहीं तो तुम मरोगे--भूखे मरोगे। बिना तृप्त हुए मरोगे।
फिर पाकशास्त्र की किताब का अर्थ क्या है, स्वभावतः प्रश्न उठता है। अगर उत्तर नहीं मिल सकता, तो किताब की जरूरत क्या है? किताब की जरूरत उत्तर देने के लिए नहीं है, प्रश्न को प्रगाढ़ करने के लिए है, प्रश्न को स्पष्ट करने के लिए है। सदगुरु तुम्हारे प्रश्नों को स्पष्ट करता है--इतना स्पष्ट करता है कि तुम्हारी आंख के सामने तुम्हारा प्रश्न नग्न होकर खड़ा हो जाता है। इतना स्पष्ट करता है कि प्रश्न के पत्ते ही नहीं दिखाई पड़ते हैं, प्रश्न की जड़ें भी दिखाई पड़ने लगती हैं। और जिसे जड़ें दिखाई पड़नी शुरू हो जाएं, फिर उसके हाथ की बात है। चाहे तो उखाड़ दे जड़ें, प्रश्न तिरोहित हो जाएगा। और अगर उसे मजा आता हो प्रश्न में तो सींचे पानी, तो फिकर करे पौधे की, तो डाले खाद। तो प्रश्न और बड़ा होने लगेगा।
समस्या भीतर है, समाधान भी भीतर ही उमगाना है। और मजा ऐसा है कि हर समस्या के भीतर उसका समाधान छिपा है। अगर तुम समस्या में ठीक-ठीक उतरो तो समाधान मिल जाए। सदगुरु तुम्हें समाधान नहीं देता, समाधान पाने की दृष्टि देता है; समाधान खोजने की दिशा देता है।
लेकिन आदमी अंधे हैं। आदमी बड़ा अदभुत है। मैं तुम्हें चांद बताता हूं कि देखो चांद, अंगुली उठाता हूं। तुम मेरी अंगुली पकड़ लेते हो। तुम कहते हो: कहां चांद है? हम तो आपकी अंगुली पकड़े बहुत दिन से बैठे हैं। आपकी किताब पढ़ रहे हैं। चांद कहां है?
किताबें अंगुलियां हैं चांद को बताने वाली। किताबें चांद नहीं हैं। अंगुलियों को पकड़ो मत। और कुछ तो ऐसे हैं कि अंगुलियां चूस रहे हैं।. आध्यात्मिक बच्चे! जैसे छोटे-छोटे बच्चे अंगूठा चूस रहे हैं, ऐसे आध्यात्मिक बच्चे अंगुलियां चूस रहे हैं और सोच रहे हैं कि बड़ा स्वाद आ रहा है।
और कभी-कभी ऐसा हो सकता है, जैसा कुत्तों को हो जाता है। कुत्ते सूखी हड्डियां चूसने लगते हैं। अब सूखी हड्डी से कुछ निकलता नहीं। कुछ है ही नहीं उसमें निकलने को। उसमें कोई रस थोड़े ही है। लेकिन कुत्ता चूसता है। और कुत्ते से सूखी हड्डी छीनो, बहुत नाराज हो जाता है। ऐसे ही तुमसे जब कोई वेद छीने, तुम नाराज। कोई कुरान छीने, तुम नाराज।. सूखी हड्डियां! मगर कुत्ता नाराज क्यों हो जाता है सूखी हड्डी छीनो तो? और कुत्ते को सूखी हड्डी में रस क्या मिलता होगा? रस नहीं मिलता, मगर एक जाल है। जब कुत्ता सूखी हड्डी चूसता है तो उसके मसूड़े छिल जाते हैं। उन छिले हुए मसूड़ों से खून बहने लगता है। उसी खून को वह चूसता है। सोचता है खून हड्डी से आ रहा है। आता अपने ही मसूड़ों से है। घाव बन रहे हैं मुंह में। उन्हीं घावों से खून बह रहा है। लेकिन खून का स्वाद जब उसे आता है तो सोचता हैः अहा, कैसी रसपूर्ण हड्डी हाथ लगी!
शास्त्रों से भी जब तुम्हें कुछ मिलता है तो शास्त्रों से नहीं मिलता है। शास्त्र तो सूखी हड्डियां हैं। मिलता तो सदा तुम्हें अपने ही भीतर से है। और नाहक बीच में घाव बन जाते हैं--हिंदू के घाव, जैन के घाव, ईसाई के घाव। ये सब घाव हैं।
मैं तुम्हें घावों से मुक्त करना चाहता हूं और मैं तुम्हें यह समझाना चाहता हूं: ये सूखी हड्डियां छोड़ो। उत्तर की तलाश जब तक तुम बाहर करोगे, सूखी हड्डियां ही मिलेंगी। बाहर सूखी हड्डियों के ढेर लगे हैं, रसधार तो भीतर बहती है। परमात्मा से संबंध तो भीतर होता है।
तुम कहते हो: ‘मैं आपकी बहुत सी किताबों को पढ़ा, लेकिन एक भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिला।’
एकदम शुभ हुआ। धन्यभागी हो तुम कि उत्तर नहीं मिला। उत्तर तो समाधि में मिलेगा। समाधान तो समाधि में मिलेगा। वे किताबें तो इशारा हैं कि ध्यान करो। वे किताबें तो कहती हैं कि आटा गूंथो। वे किताबें तो कहती हैं कि यह रहा रास्ता, चल पड़ो तो सरोवर मिलेगा।
किताब पकड़ कर मत बैठ जाओ। किताबें तो मील के पत्थर हैं। नक्शे हैं। उन नक्शों को जीवन में रूपांतरित करो।
अब भी तुम पूछ रहे हो: ‘कृपया कोई ऐसा उत्तर दें जो संतोषजनक हो।’
मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं। नहीं तो जरूर ऐसा उत्तर देता जो संतोषजनक होता। मैं तुम्हें संतोष देना ही नहीं चाहता। मैं तो तुम्हारे असंतोष को ऐसा प्रज्वलित करना चाहता हूं कि भभक उठो तुम। आग हो जाओ तुम। तुम्हारे जीवन में असंतोष ऐसा घिर जाए कि कोई चीज संतुष्ट न करे--धन संतुष्ट न करे, पत्नी संतुष्ट न करे, पद संतुष्ट न करे, शास्त्र संतुष्ट न करें, मंदिर-मस्जिद संतुष्ट न करें, सारा जगत असंतोष की लपटों से भर जाए--तभी तुम भीतर मुड़ोगे, नहीं तो तुम भीतर मुड़ने वाले नहीं।
भीतर लोग सस्ते ही नहीं मुड़ते। भीतर तो तभी मुड़ते हैं जब कहीं जाने का कोई उपाय ही नहीं बचता। जब तक थोड़ा भी उपाय बचे, लोग चलते चले जाते हैं। लोग कहते हैं: इस दिशा में और थोड़ी जांच कर लें, शायद थोड़ा और ज्यादा धन हो तो सब ठीक हो जाए। चलो चुनाव लड़ लें, दिल्ली पहुंच जाएं तो शायद सब ठीक हो जाए। थोड़े और व्रत-उपवास कर लें, थोड़ी और मंदिर-मस्जिदों की पूजा कर लें।
जब तक तुम्हें कहीं भी थोड़ी सी आशा बची है, तब तक तुम भटकते ही रहोगे। बुद्ध ने कहा: धन्य हैं वे जो हताश हो गए। हताश! सदगुरुओं की वाणी कभी-कभी बहुत चौंकाती है। धन्य हैं वे जो हताश हो गए, निराश हो गए! क्यों बुद्ध कहते हैं धन्य उनको? इसलिए धन्य कहते हैं कि केवल वे ही अंतर्यात्रा पर चलते हैं। जिन्होंने सब द्वार खटखटा लिए, और सब द्वार दीवारें पाए और जिन्होंने बहुत द्वारों पर भीख मांगी और कुछ भी न मिला और खाली के खाली लौट आए, अपमान मिला, दुत्कारे गए, जगह-जगह कहा गया आगे बढ़ो--वे ही एक दिन इस सारी जलन और पीड़ा के कारण आंख बंद करते हैं और भीतर के द्वार पर दस्तक देते हैं और वहां जिसने दस्तक दी उसने संतोष पाया।
संतोष भीतर की उस दशा का नाम है, जहां कोई प्रश्न नहीं बचे। संतोष किसी प्रश्न का उत्तर नहीं है, वरन सारे प्रश्नों का विसर्जन है। संतोष कोई सिद्धांत नहीं है, वरन सिद्धावस्था है।
तुम जरा फर्क देखते हो? ‘सिद्धांत और सिद्धावस्था’ एक ही शब्द से बनते हैं। सिद्धांत बाहर होता है, सिद्धावस्था भीतर होती है। समाधान और समाधि एक ही शब्द से बनते हैं; समाधान बाहर होता है, समाधि भीतर होती है।
सिद्ध बनो। भीतर का द्वार खटखटाओ। उत्तर तो बहुत खोज चुके; अब कुछ ऐसा खोजो जहां चित्त निष्प्रश्न हो जाए। और क्या तुम्हें एक बात समझ में नहीं आती--एक प्रश्न पूछो, उसका कोई उत्तर दिया जाए, क्या हल होगा? कोई भी उत्तर दिया जाए, क्या हल होगा? उस उत्तर से और दस नये प्रश्न उठ आएंगे बस इतना ही होगा।
एक आदमी पूछता है, संसार को किसने बनाया? कहो, परमात्मा ने बनाया। वह दूसरे दिन आकरखड़ा हो जाता है कि परमात्मा ने संसार क्यों बनाया? कोई उत्तर दो, कि परमात्मा लीला कर रहा है। वह तीसरे दिन आकर खड़ा हो जाता है कि यह कैसी लीला, इतना दुख क्यों है लीला में? कोई भूखा मर रहा है, बच्चे को कैंसर हो गया है, कोई अंधा पैदा हुआ है, कोई लंगड़ा है--यह कैसी लीला है? कोई उत्तर दो, कि भगवान पाठ पढ़ा रहा है। वह चौथे दिन आकर खड़ा हो जाता है, कि उसको कोई पाठ पढ़ाने का कोई और सुगम और सभ्य रास्ता नहीं आता? और वह तो अंतर्यामी है, और वह तो सर्वज्ञ है, और वह तो सर्वशक्तिमान--पाठ पढ़ाने की जरूरत क्या है? सीधा ही ज्ञान क्यों नहीं दे देता? उसके हाथ में क्या नहीं। सुना नहीं, लंगड़ों को पहाड़ चढ़ा देता है, अंधों को आंखें लगा देता है, तो क्यों सता रहा है? क्यों व्यर्थ परेशान कर रहा है? दे ही दे ज्ञान।
तुम सोचते हो कोई प्रश्न हल होता है? एक उत्तर दो, उससे दस प्रश्न खड़े हो जाते हैं। कोई भी उत्तर हो, और प्रश्न खड़े करेगा। प्रश्न संतति-नियमन को नहीं मानते। उनकी संतान पैदा होती चली जाती है। बिलकुल हिंदुस्तानी हैं! और जब तक वे एकाध दर्जन बच्चे खड़ा न कर दें, तब तक उनके चित्त का भार कम नहीं होता। जब तक वह भीड़ न बढ़ा दें, शोरगुल न मचवा दें.!
लेकिन समाधि बांझ है। तुम हैरान होओगे। मैं कहता हूं, समाधि बांझ है। जो समाधि में पहुंचा, फिर न कोई प्रश्न उठते, न कोई उत्तर उठते। सब गया। गए प्रश्न, गए उत्तर। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अलग-अलग नहीं हैं। तुम सोचते हो अलग-अलग हैं। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
जब तुम्हें कोई एक उत्तर देता है, तो यह एक पहलू है। उसी सिक्के के नीचे छिपा हुआ दूसरा प्रश्न आ रहा है। तुम उलझते ही चले जाओगे।
नहीं, मैं तो तुम्हें उत्तर देने में उत्सुक नहीं हूं। फिर मैं क्या करता हूं? रोज तो तुम्हें उत्तर देता हूं! ये उत्तर नहीं हैं। इसलिए तुम्हें किताबें पढ़ कर संतोष नहीं मिला। तुम बंधे-बंधाए उत्तर चाहते हो।
एक ईसाई मिशनरी मेरे पास आया था। वह कहता था, आपकी किताबें प्यारी लगती हैं। मगर आप एक छोटी सी गुटिका बनवा दो, जिसमें सब सार प्रश्नों के उत्तर आ जाएं, संक्षिप्त में, ताकि कोई भी याद कर ले। जैसे ईसाइयों की गुटिकाएं होती हैं, उसमें सब उत्तर आ जाते हैं। जरा सी गुटिका! ज्यादा पढ़ने-लिखने की जरूरत नहीं। प्रश्न लिखा है, उत्तर लिखा है। मैंने उससे कहा, भाई! जीवन इतना आसान नहीं है। जीवन इतना सस्ता नहीं है। तुम्हारी जो गुटिकाएं हैं, प्रश्न-उत्तरों की, बचकानी हैं। मूढ़ों को शायद थोड़ी-बहुत राहत देती हों, मुर्दों को शायद थोड़ी-बहुत सांत्वना मिलती हो; मगर जिनके भीतर जिज्ञासा है, मुमुक्षा है, उनके लिए तुम्हारी किताबें कचरा हैं। उनसे कुछ हल नहीं होता।
जीवंत आदमी वस्तुतः उत्तर नहीं चाहता--ऐसी चित्त की दशा चाहता है, जहां कोई प्रश्न अब नहीं उठते; जहां सन्नाटा है; जहां अपूर्व शांति है; जहां सब हल हुआ! इसलिए हमारी खोज समाधान की नहीं है, हमारी खोज समाधि की है।
आह वो मंजिले-मुराद दूर भी है करीब भी।
देर हुई कि काफिले उसकी तरफ रवां नहीं।।
दैरो-हरम हैं गर्दे-राह नक्शे-कदम हैं मेहरो-माह।
इनमें कोई भी इश्क की मंजिले-कारवां नहीं।।
किसने सदा-ए-दर्द दी, किसकी निगाह उठ गई।
अब वे अदम अदम नहीं, अब ये जहां जहां नहीं।।
मंदिर और मस्जिद रास्ते की धूल हैं; ये जीवन का गंतव्य नहीं।
आह वो मंजिले-मुराद दूर भी है करीब भी।
और वह आकांक्षाओं की आकांक्षा. मंजिले-मुराद! वह सपनों का सपना! अभीप्साओं की अभीप्सा! मंजिले-मुराद!
आह वो मंजिले-मुराद दूर भी है करीब भी।
क्यों दूर भी है करीब भी? अगर प्रश्न और उत्तर से चलो तो बहुत दूर, अनंत दूर, कभी कोई पहुंचता नहीं उस राह से। और करीब भी है। अगर आंख बंद करो और अपने में डूबो, तो अभी और यहीं।
आह वो मंजिले-मुराद दूर भी है करीब भी।
देर हुई कि काफिले उसकी तरफ रवां नहीं।।
लेकिन बहुत कम लोग उस तरफ जाते हैं।
देर हुई कि काफिले उसकी तरफ रवां नहीं।
यात्री-दल उस तरफ जा ही नहीं रहे। कोई चला काबा, कोई चला काशी, कोई चला गिरनार।
देर हुई कि काफिले उसकी तरफ रवां नहीं।
भीतर चलो! महेश, भीतर चलो! किताबों में नहीं, शब्दों में नहीं, सिद्धांतों में नहीं--मौन में उतरो!
दैरो-हरम हैं गर्दे-राह नक्शे-कदम हैं मेहरो-माह।
इनमें कोई भी इश्क की मंजिले-कारवां नहीं।।
वह जो तुम्हारे भीतर तलाश चल रही है, कोई तृप्त न कर सकेंगे--न मंदिर और मस्जिद और न चांद और तारे। एक ही जगह से तृप्ति का जन्म होगा, एक ही केंद्र से सुवास उठेगी--और वह केंद्र तुम अपने भीतर लिए बैठे हो। खोजी के भीतर छिपी है खोज। गंता में छिपा है गंतव्य। कहीं जाना नहीं है। घर आना है। और एक क्षण में सब बदल जाता है।
किस ने सदा-ए-दर्द दी किसकी निगाह उठ गई।
अब वो अदम अदम नहीं अब ये जहां जहां नहीं।।
समाधि के क्षण में सब बदल जाता है। फिर यह दुनिया दुनिया नहीं। यह आदमी आदमी नहीं। यह मन मन नहीं। ये प्रश्न प्रश्न नहीं। ये उत्तर उत्तर नहीं। एक घड़ी में तुम किसी और ही लोक में रूपांतरित हो जाते हो।
मेरी चेष्टा तुम्हें संतोषजनक उत्तर देने की नहीं है। मेरी चेष्टा तुम्हें समाधि देने की है। संतोष तो समाधि की छाया है।
दुनिया को किसी नौअ से ये राज मिले
दुनिया के किसी साज से ये साज मिले
दुनिया को तो हम देते सुकूने-जावेद
कुछ दिल के धड़कने का भी अंदाज मिले
असली प्रश्न क्या है?
कुछ दिल के धड़कने का भी अंदाज मिले
असली प्रश्न क्या है? मैं कौन हूं?
कुछ दिल के धड़कने का भी अंदाज मिले
एक ही राज है, जिसे खोल लेना है। और पर्दा क्या है? बस हम भीतर नहीं देखते, यही पर्दा है। आंखें बाहर ही देखती हैं, यही पर्दा है।
कल देखा नहीं, सुंदरदास ने कितनी बार कहा: आंख से देखोगे बाहर, चूकोगे! कान से सुनोगे बाहर, नहीं सुनाई पड़ेगा वह अनाहत नाद। चखोगे जीभ से, स्वाद नहीं मिलेगा परमात्मा का। लौटो! प्रतिक्रमण करो! प्रत्याहार करो! आंखों को पलटाओ भीतर, कानों को उलटाओ भीतर! सुनो उस नाद को जो भीतर है। देखो उस दृश्य को जो भीतर है।
राबिया अपने झोपड़े में बैठी है। फकीर हसन बाहर निकला। सुबह हुई, सूरज निकला। प्यारा सूरज! पक्षियों के गीत! सुबह की शीतल हवा! मस्त हो हसन ने भीतर आवाज दी: राबिया! तू भीतर क्या करती है? बाहर आ, देख परमात्मा ने कैसी सुंदर सुबह को जन्म दिया है!
राबिया खिल-खिला कर हंसने लगी। उसने कहा: पागल हसन! तू भीतर आ, क्योंकि जिसने सुबह को जन्माया है, उसे मैं भीतर देख रही हूं। सुबह बहुत सुंदर है मगर उसको बनाने वाले के सौंदर्य का क्या कहना!
महेश, भीतर आओ।
वो सोज दर्द मिट गए वो जिंदगी बदल गई
सवाले-इश्क है अभी ये क्या किया, ये क्या हुआ
लौटोगे भीतर तो चौंकोगे। समझ में ही न आएगा कि यह क्या हुआ, यह क्या किया! सब ऐसे बदल जाता है जैसे बिजली कौंध जाए। जहां पहले सिवाय घृणा के, वैमनस्य के, ईर्ष्या के, शत्रुता के और कुछ भी न था, वहां प्रेम की गंगा बहने लगती है। और जहां प्रश्नों के झंझावात पर झंझावात उठते थे, वहां एक ऐसी शांति छा जाती है, जहां कोई हवा की तरंग भी नहीं होती। और जहां अंधड़ ही अंधड़ थे और तूफान ही तूफान थे, वहां जीवन के दीये की लौ ऐसे ठहर जाती है कि उसमें कंप भी नहीं होता।
सुकूते-शाम मिटाओ, बहुत अंधेरा है
सुखन की शमा जलाओ, बहुत अंधेरा है
चमक उठेंगी सियाह-बख्तियां जमाने की
नवा-ए-दर्द सुनाओ, बहुत अंधेरा है
दियारे-गम में दिले-बेकरार छूट गया
सम्हल के ढूंढने जाओ, बहुत अंधेरा है
ये रात वो है कि सूझे जहां न हाथ को हाथ
खयालो दूर न जाओ, बहुत अंधेरा है
वो खुद नहीं जो सरे-बज्मे-गम तो आज उसके
तबस्सुमों को बुलाओ, बहुत अंधेरा है
पसे-गुनाह जो ठहरे थे चश्मे-आदम में
उन आंसुओं को बहाओ, बहुत अंधेरा है।
प्रेम में पगो। समाधि में जगो। नाचो, जो नाच कितने जन्मों से रुका पड़ा है! रोओ, आंसू कब से आंखों में सम्हाले बैठे हो! गाओ! गुनगुनाओ! ऐसे समाधि फलेगी। और समाधि जहां है, वहां अंधेरा नहीं है। समाधि जहां है, वहां असंतोष नहीं है।
नहीं; उत्तरों से नहीं कुछ हल होगा। अच्छा ही हुआ कि किताबों से तुम्हें उत्तर न मिले। अभागे हैं वे जिन्हें किताबों से उत्तर मिल जाते हैं। वे किताबों को छाती से लगा कर बैठ जाते हैं।
क्या कहते थे इसका तो किसे होश रहा
हां बज्म में तकरीरों का एक जोश रहा
देखा जो ये रंग होश वालों का ‘फिराक’
दीवाना भी कुछ सोच के खामोश रहा
यहां होश वाले, तथाकथित होश वाले--पंडित-पुरोहित, संत-महात्मा उत्तर देने में लगे हैं। बड़े विवाद चल रहे हैं!
क्या कहते थे इसका तो किसे होश रहा
हां बज्म में तकरीरों का एक जोश रहा
यहां लोग क्या कह रहे हैं, इसका उन्हें पता भी नहीं है। याद करो सुंदरदास ने कल ही कहा: जब तक सुधि न आ जाए, कहना मत कुछ। सुधि न जगे भीतर, तो चुप ही रह जाना। यहां लोग उत्तर दे रहे हैं--पूछो किसी से। शायद ही तुम ऐसा आदमी यहां पाओ जो कहे कि भाई, मुझे मालूम नहीं। पूछो किसी से। कुछ भी पूछो। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो कहे: मुझे मालूम नहीं है। पूछो किसी से, ईश्वर है? कोई कहेगा: हां है। और मरने-मारने को तैयार है, अगर न मानो उसकी बात। और कोई कहेगा: नहीं है, वह भी मरने-मारने को तैयार है अगर न मानो उसकी बात। कोई कहता है: चतुर्मुखी है और कोई कहता है: हजार हाथ वाला है। और कोई कहता है: निराकार है। और सब झगड़ रहे हैं।
तुम जरा देखो तो, उत्तर देने वाले कैसी झंझट में पड़े हैं और कैसे झगड़ रहे हैं! इनको खुद ही संतोष नहीं मिला, इनके उत्तरों से किसको संतोष मिलेगा? कितनी छोटी बातों पर झगड़े चल रहे हैं! ऐसी छोटी बातों पर झगड़े चलते हैं कि सोच कर विश्वास भी नहीं आता।
मैं एक गांव में मेहमान था। जैन मंदिर के सामने से निकला तो पुलिस खड़ी थी। ताला लगा था। मैंने पूछा: मामला क्या है? तो कहा कि दिगंबरों और श्वेतांबरों में झगड़ा हो गया। अब दिगंबर और श्वेतांबर दोनों ही महावीर को मानते हैं। भेद बड़े छोटे हैं--ऐसे बचकाने कि कहो तो हंसी आए। मगर बड़े-बड़े ज्ञानी, महात्मा, मुनि विवाद में पड़े रहते हैं। बातें बड़ी छोटी-छोटी हैं। तुम चकित होओगे कि झगड़ा क्या था। मैंने पूछा, झगड़ा आखिर था क्या? पुलिस वाले भी. अब पुलिस वालों से बुद्धू और कोई दुनिया में होते हैं! वे भी हंसे। उन्होंने कहा कि झगड़ा क्या था, यह तो हमें भी हंसी आती है। झगड़ा यह है कि इस मंदिर में सदा से ऐसा रहा कि श्वेतांबर-दिगंबर दोनों ही पूजा करते हैं। बारह बजे तक एक संप्रदाय पूजा करता है, बारह बजे के बाद दूसरा संप्रदाय पूजा करता है। श्वेतांबर महावीर की खुले आंख पूजा करते हैं और दिगंबर महावीर की बंद आंख पूजा करते हैं।
सोचना जरा झगड़ा! तो जब महावीर की पूजा चलती है, तो श्वेतांबर एक नकली आंख चिपका देते हैं, क्योंकि महावीर की मूर्ति. पत्थर की, बंद आंख होती है। उस पर एक नकली आंख चिपका देते हैं ऊपर से खुली आंख! फिर पूजा करते हैं। दिगंबर जब आते हैं, नकली आंख निकाल अलग कर देते हैं, फिर बंद आंख की पूजा करते हैं। कोई श्वेतांबर भक्त. अब भक्त क्या होंगे, उपद्रवी रहे होंगे। ये कोई भक्ति के लक्षण हैं? कुछ ज्यादा भक्ति में आ गए। उनका समय भी निकल गया, मगर वे अपनी भक्ति किए ही चले गए। फिर कोई दिगंबर भक्त भी आ गया। आखिर भक्त तो सभी में हैं! कोई नासमझ श्वेतांबरों में ही थोड़े होते हैं, दिगंबरों में भी होते हैं। उन्होंने कहा, हटाओ! समय पूरा हो चुका। अब हम भक्ति करेंगे।
उन्होंने जबरदस्ती आंख हटा दी। अब कोई किसी के भगवान की अंाख हटा दे. और दोनों के भगवान एक ही हैं! सिर खुल गए। लाठियां चल गईं।
तुम देखते हो ये उत्तर देने वाले! ये मंदिर-मस्जिद, ये सब लड़वाते हैं। इनके उत्तरों से तुम्हें समाधान होगा? इनके खुद के समाधान कहां हैं?
क्या कहते थे इसका तो किसे होश रहा
हां बज्म में तकरीरों का एक जोश रहा
हां, भाषण बहुत हो रहे हैं, विवाद बहुत हो रहे हैं, शास्त्रार्थ बहुत हो रहे हैं।
देखा जो ये रंग होश वालों का ‘फिराक’
यह तथाकथित होश वाले और बुद्धिमान और पंडित और पुरोहितों का यह रंग जब देखा.
देखा जो ये रंग होश वालों का ‘फिराक’
दीवाना भी कुछ सोच के खामोश रहा
दीवाने बनो महेश! खामोशी सीखो। चुप्पी साधो। अब भीतर के शास्त्र में उतरो। वहां शास्त्रों का परम शास्त्र है। वहां वेदों का परम वेद है। जहां सारे विचार खो जाते हैं, वहीं उत्तर है। उत्तर की तरह नहीं--वहीं समाधान है। समाधान की तरह नहीं--समाधि की तरह। फिर कोई प्रश्न नहीं उठता। फिर किसी सिद्धांत पर कोई पकड़ नहीं रह जाती। फिर न केवल तुम्हारे भीतर एक संतोष का फूल खिलता है; जो तुम्हारे पास आते हैं, उनके भीतर भी थोड़ी-थोड़ी आभा, थोड़ा-थोड़ा रंग तुम्हारे संतोष का लगने लगता है।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
अदाएं हैं तेरी फानी, करिश्मे हैं लासानी सच तो यह है कि रोआं-रोआं छलक उठा है मात्र एक भाव से! वारी वारी, वारी वारी वारी सदगुरु तैथों! जिस अमृत तान सुनाई, धन सदगुरु मेरे जिस जीवन जोत जलाई सदके सदके, सदके सदके सदके एन्हां चरणां हो। जिन्हां सच्ची राह दिखलाई वारी वारी, सदके सदके सदके सदगुरु तैथों। धन सदगुरु मेरे, जिस अमृत जोत जलाई!
निष्ठा! इसी के लिए यह आयोजन है। इसी के लिए इतने दीवाने इकट्ठे हुए हैं--इसीलिए कि ज्योति जले। मैं तो तत्पर हूं, बस तुम्हारी तत्परता हुई, कि उसी क्षण घटना घट जाती है। और फिर निश्चित ही गहन अहोभाव उठता है। ऐसा अहोभाव सब में उठे, ऐसी घड़ी सबको आए, ऐसी भाव-दशा सब में बहे--यही आकांक्षा है।
शुभ हुआ। रोआं-रोआं छलक उठता है--निश्चित छलक उठता है! एक ऐसी शराब भीतर बहने लगती है कि जिसमें बेहोशी भी बड़ी है और होश भी बड़ा है। ऐसी अदभुत शराब में डूब जाता है शिष्य कि जैसे-जैसे बेहोश होता है वैसे-वैसे और होश बढ़ता है। एक तरफ मस्ती छाती जाती है, एक तरफ नृत्य उठता है, और दूसरी तरफ सब शांत होने लगता है।
तूने कहा:
‘रोआं-रोआं छलक उठा है मात्र एक भाव से!
वारी सदगुरु तैथों!’
इस भाव को खोने मत देना। यह भाव धीरे-धीरे स्थायी भाव बने। ऐसा भाव बहुत बार आता है, फिर खो जाता है। और जब खो जाएगा तो बड़ी पीड़ा होगी। जिन्होंने नहीं जाना है प्रकाश को, जिन्हें झलक भी नहीं मिली, उन्हें अंधेरे में पीड़ा नहीं होती। वे अंधेरे से राजी होते हैं। वे जानते हैं अंधेरा ही है, और तो कुछ है ही नहीं। जब पहली दफा ज्योति की झलक मिलती है और ज्योति चली जाती है, तो अंधेरा बहुत घना हो जाता है। अंधेरा फिर बहुत काटता है। जिसे स्वाद लगा अमृत का, फिर जिंदगी पूरी जहर मालूम होने लगती है।
इसलिए इस भाव को स्थायी भाव बनाना। इस भाव को सम्हालना। इसे ऐसे ही सम्हालना होता है, जैसे गर्भिणी स्त्री अपने गर्भ को सम्हालती है। चलती है, उठती है, बैठती है, काम भी करती है, पर प्रतिपल खयाल रखती है। एक नये जीवन का आविर्भाव उसके भीतर हो रहा है। सब उसी के लिए समर्पित होता है। अब दौड़ती नहीं, क्योंकि दौड़ नहीं सकती। अब झगड़ती नहीं, क्योंकि एक नये जीवन का आविर्भाव हो रहा है। कहीं वह प्रथम से ही क लुषित न हो जाए!
निष्ठा, तू गर्भिणी हुई! अब इस भाव को सम्हालना अपने गर्भ में।
‘जिस अमृत तान सुनाई, धन सदगुरु मेरे
जिस जीवन जोत जलाई’
अभी तो जो हुआ वह ऐसे हुआ जैसे अंधेरी रात में, अमावस की रात में, बादल घिरे हों और बिजली चमक जाए और एक क्षण को रोशनी हो, और फिर घना अंधेरा। अब इस रोशनी को एक शाश्वत प्रकाश का स्रोत बनाना होगा। अब तेरे पास कुछ खोने को है, अब सम्हल कर चलना।
सुना है मैंने, जापान का एक सम्राट रोज रात जैसे पुराने सम्राटों की आदत थी, घोड़े पर सवार होकर राजधानी में निकलता था। और तो सब सोए रहते, एक फकीर नंग-धड़ंग, न उसके पास कुछ, एक झाड़ के नीचे बड़ा सावधान बैठा रहता था--आंखें खोले हुए, चौकन्ना! धीरे-धीरे सम्राट उत्सुक होने लगा। वह अकेला ही आदमी था जो जागा रहता था। और वह अकेला ही आदमी था जिसको सम्राट जागा हुआ पाता अपनी यात्रा में। एक दिन रुका, पूछा फकीर से कि क्या मैं पूछ सकता हूं, कि तुम ऐसे जागे बैठे रहते हो और है तुम्हारे पास कुछ भी नहीं? सोओ मजे से!
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा: पहले बहुत सो चुका। जब कुछ नहीं था, तब चादर तान कर सोता था। अब कुछ है, जिसको बचाना है। अब कैसे सो सकता हूं? चोरी जाने का डर है। हाथ से छूट जाने का भय है। नींद में डूब जाए। सम्राट ने कहा: लेकिन मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ता, एक तुम्हारा भिक्षापात्र है, एक फटी-पुरानी सी कंबली, और क्या है?
वह फकीर कहने लगा: मेरी आंखों में देखो।
सम्राट ने कभी किसी की आंखों में इस तरह देखा नहीं था। ऐसी आंखें भी नहीं थीं, जिनमें कुछ देखने जैसा कुछ हो। सम्राट ने उन आंखों में देखा और चकित हो गया। और जब घड़ी भर बाद विदा हुआ तो सम्राट भिखमंगा था और भिखमंगा सम्राट हो गया था। क्या हो गया? सम्राट ने देखा, भीतर जरूर संपदा है। एक नया राज्य। और फकीर ठीक कहता है कि अब मेरे पास कुछ खोने को है।
इधर मेरा रोज का अनुभव है, जिन संन्यासियों के पास कुछ खोने को हो जाता है, उन्हें मैं बहुत सावधान करता हूं। उन्हें बहुत समझाता हूं कि अब जरा सम्हल कर रहना, नहीं तो पछताओगे। जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है, वैसे-वैसे गिरने की संभावना भी बढ़ती है। और जितनी ऊंचाई पर चलते हो, उतना ही सावचेत चलना होगा। जो नीचे चलते हैं, घाटियों में सरकते हैं, उन्हें क्या सावचेतता की जरूरत है! वे नींद में भी चलें तो चलेगा।
तो निष्ठा, आज से तू गर्भिणी हुई। अब तेरे भीतर जो अहोभाव जगा है, इसे सम्हालना। यह जो थोड़ी-सी ज्योति की झलक तुझे मिली है, अब यह खोए न, अब सब इस पर वारना। अब सब तरफ से बागुड़ लगा लेना। अब ऐसा कुछ मत करना जिससे इस ज्योति को चोट पहुंचे। और ऐसा सब-कुछ करना जिससे इस ज्योति को जल मिले।
‘सदके एन्हां चरणां हो
जिन्हा सच्ची राह दिखलाई
वारी-वारी, सदके-सदके
सदके सदगुरु तैथों!
धन सदगुरु मेरे, जिस अमृत जोत जलाई!’
जली है, पहली झलक उठी है। तुझमें ही नहीं, औरों में भी उठ रही है। बहुतों में उठ रही है। तेरे बहाने उन सबको कह रहा हूं। और जब मैं एक को उत्तर देता हूं तो यह मत खयाल करना कि उसको ही उत्तर देता हूं। वह तो निमित्त है। उसके बहाने उन सबको उत्तर देता हूं जो उसी दशा में हैं।
जिसके भीतर यह ज्योति जगनी शुरू हो, अब खयाल रखना क्रोध मत करना। इसलिए नहीं कि क्रोध बुरा है, अब बुरे-भले का सवाल नहीं है। अब क्रोध मूढ़ता है। तुम्हारे हाथ में पत्थर हो, क्रोध आ जाए, मार देना फेंक कर; मगर अब हीरा है तुम्हारे हाथ में, अब क्रोध मत करना, नहीं तो गुस्से में कहीं मार दो फेंक कर, तो गया! और अब आसान है क्रोध से मुक्त होना। अब कामवासना को धीरे-धीरे नमस्कार करना, अब विदा देना, क्योंकि यह ज्योति उसी ऊर्जा से जलती है जिससे कामवासना जलती है। अगर कामवासना को अब प्रज्वलित रहने दिया तो यह ज्योति जितना पोषण चाहिए न पा सकेगी। तो अब कामवासना से धीरे-धीरे धीरे-धीरे अपने को मुक्त कर लेना।
और मैं तुम्हें कोई ब्रह्मचर्य का पाठ नहीं सिखा रहा हूं, यही मेरा भेद है। अब तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं, यह सीधा गणित है। अब तुम्हारे पास ऊर्जा को ऊपर ले जाने का द्वार खुला है। अब इतनी ऊर्जा संगृहीत होनी चाहिए कि तुम ऊपर जा सको। मैं कभी भी नहीं कहता, क्षुद्र को छोड़ो। मैं सदा कहता हूं, विराट को पाओ। लेकिन विराट को पाते ही, विराट को पाने की यात्रा शुरू होते ही, क्षुद्र छूटना शुरू हो जाता है। क्षुद्र को छोड़ना ही पड़ता है।
समझो, तुम अपनी झोली में कंकड़-पत्थर भरे जाते थे, फिर अचानक हीरे की खदान मिल गई, अब क्या करोगे? कंकड़-पत्थर गिराओगे झोली से कि नहीं? नहीं गिराओगे तो झोली में हीरे कैसे भरोगे? और इसको त्याग मत समझना, यह त्याग क्या है? अगर कंकड़-पत्थर छोड़ दिए और हीरों से झोली भरी, इसमें त्याग क्या है? यह महाभोग है।
इसलिए मैं कहता हूं: सिर्फ मूढ़ त्यागते हैं, ज्ञानी भोगते हैं। ज्ञानी महाभोगी है।
एक आदमी रामकृष्ण के पास आया और बहुत रुपये लाया। और उसने उनके चरणों में रखे। और रामकृष्ण ने कहा: भई, यह तू क्या करता है? तो उसने कहा: आप इतने बड़े त्यागी, मैं कुछ और नहीं कर सकता, मैं भोगी हूं, भ्रष्ट हूं, मगर इतना तो कर सकता हूं कि किसी त्यागी के चरणों में सिर झुकाऊं और जो कुछ मेरे पास है चढ़ाऊं।
रामकृष्ण ने कहा: तू गलत बातें कह रहा है। भोगी मैं हूं, त्यागी तू है।
वह आदमी चौंका। वह आदमी ही नहीं चौंका, रामकृष्ण के शिष्य भी चौंके--यह क्या कहते हैं रामकृष्ण, कि भोगी मैं हूं, त्यागी तू है।
उस आदमी ने कहा: मैं समझा नहीं। उलटबांसी न करो। उलझाओ न, सीधी-सीधी बात कहो। परमहंसदेव! यह तुम क्या कहते हो? मुझ भोगी को त्यागी? तुम महात्यागी! अपने को भोगी?
रामकृष्ण ने कहा: ऐसा समझ, गणित समझ। जो आदमी कंकड़-पत्थर छोड़ दे और हीरों पर पोटली बांध ले, उसको भोगी कहोगे कि त्यागी?
वह आदमी बोला: उसको हम भोगी कहेंगे। और रामकृष्ण ने कहाः जो कंकड़-पत्थरों पर पोटली बांध ले और हीरों को छोड़ दे, उसको क्या कहोगे? निश्चित उसको हम त्यागी कहेंगे।
रामकृष्ण ने कहा: ऐसी ही मेरी-तेरी दशा है। तूने व्यर्थ में पोटली बांधी, हम सार्थक पर पोटली बांधे हैं। हमने जो छोड़ा वह दो कौड़ी का है और जो पाया वह अमूल्य है। और तूने जो छोड़ा वह अमूल्य है और जो पाया वह दो कौड़ी का है। तू महात्यागी है। भाई, आदर तो मुझे तेरा करना चाहिए।
मैं तुमसे कहता हूं: यही दशा सच है। जब जीवन में कुछ नई ऊर्जा का आविर्भाव हो, तो बहुत क्रांति घटती है। तुम्हें सब फिर से व्यवस्थित करना होगा। तुम्हें अब सब इस ऊर्जा को ध्यान में रख कर जमाना होगा।
एक घटना घटी। चीन के एक बड़े विचारक ने जर्मनी के एक बहुत बड़े दार्शनिक काउंट कैसरलिंग को एक काष्ठ-मंजूषा भेंट की। सुंदर काष्ठ-मंजूषा! कहते हैं बहुत पुरानी। कहते हैं पांच हजार साल पुरानी। और उसके साथ एक शर्त है। वह जितने लोगों के हाथ में रही, सबने शर्त पूरी की। चीन के बाहर वह कभी गई भी नहीं थी। चीनी मित्र ने लिखा कि एक शर्त है और पांच हजार साल तक लोगों ने उसे पूरा किया है। उनके प्रति सम्मान खयाल में रख कर आप भी पूरा करना। शर्त यह है कि मंजूषा का मुख सदा पूरब की तरफ होना चाहिए, सूरज की तरफ जहां से सूरज उगता है।
काउंट कैसरलिंग ने सोचा, इसमें क्या अड़चन है! उसने अपने बैठकखाने में. क्योंकि बहुमूल्य मंजूषा, बड़ी प्यारी खुदाई और बड़ी प्राचीन! लाखों रुपयों की उसकी कीमत। उसने उसे बीच में अपने बैठक घर में सजाया। पूरब की तरफ मुंह किया, लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ गया। मंजूषा का मुख पूरब की तरफ किया, तो पूरा कमरा उसके साथ तालमेल न खाए। तो उसने सारे कमरे का फर्नीचर बदला, ताकि मंजूषा से तालमेल खाए। जब फर्नीचर बदला तो मुश्किल में पड़ा दीवार-दरवाजे फर्नीचर और मंजूषा के साथ मेल न खाएं। मगर काउंट कैसरलिंग भी अपनी जिद का आदमी था। उसने कहा, जब बात कही है तो पूरी ही करनी है। और बड़ा कलात्मक बुद्धि का आदमी था, इसलिए यह अड़चन हुई। कलात्मक बुद्धि न होती तो कहीं भी रख देता कि रहो मजे से। सूरज की तरफ. लेकिन बड़ा संवेदनशील आदमी था। तो उसने मकान, कमरे के दरवाजे-द्वार बदले। अब कमरा पूरे मकान से बेमेल हो गया। तो उसने पूरा मकान बदला। अब पूरा मकान बगीचे से बेमेल हो गया, तब उसने अपने मित्र को लिखा कि भई यह अब सीमा के बाहर बात हुई जा रही है। मैं बगीचा भी बदल लूंगा, मगर मेरा घर पूरे गांव से बेमेल हो जाएगा। गांव पर मेरा बस नहीं।
काउंट कैसरलिंग की आत्म-कथा में जब मैंने यह पढ़ा तो यह उदाहरण मुझे महत्वपूर्ण लगा। ऐसी ही घटना जीवन में घटती है। बस एक चीज बदल जाए, जरा सी चीज, कभी-कभी बड़ी छोटी चीज--और तुम्हारी पूरी जीवन-धारा उसके अनुकूल बदलती है।
लोग मुझसे पूछते हैं: आप क्यों आग्रह करते हैं कि संन्यासी गैरिक वस्त्र पहने, कि माला पहने? इन छोटी-छोटी चीजों से क्या होगा?
याद करो काउंट कैसरलिंग को। वह छोटी सी माला गले में पूरी जिंदगी का रूपांतरण कर सकती है अगर तुममें थोड़ी भी संवदेना हो। क्योंकि फिर मैं तुम्हारे साथ हूं। फिर तुम्हें जरा मुझे ध्यान में रख कर जीवन चलाना पड़ेगा। एक गाली मुंह पर आते-आते रुक जाएगी। वह माला से मेल नहीं पड़ेगा। सिनेमा के क्यू में जहां टिकटें खरीदी जा रही हैं, खड़े होते-होते चल पड़ोगे, क्योंकि वह गैरिक वस्त्रों से मेल नहीं खाएगा।
एक मित्र शराब पीते हैं। संन्यास ले लिया। शराबी ही ले सकते हैं संन्यास; और तो लेगा भी कौन! मुझसे कहने लगे, लेकिन एक बात आपको बता दूं, छिपाना नहीं चाहता, मैं शराबी हूं। मैंने कहा: तुम फिकर छोड़ो। मेरा नाता-रिश्ता ही शराबियों से है। तुम संन्यास लो।
वे कहने लगे, लेकिन देखिए मैं आपको बताए देता हूं। मैं संन्यास लेकर भी छोड़ न पाऊंगा शराब। बहुत मुश्किल है। जिंदगी भर कोशिश कर चुका हूं। यह छूटती ही नहीं।
मैंने कहा: तुम फिकर छोड़ो, तुम संन्यास तो लो, फिर देखेंगे। कोई पांच-सात दिन बाद वे आए। उन्होंने कहा: मुश्किल में डाल दिया मुझको। कल शराब-घर में जा रहा था कि एक आदमी एकदम साष्टांग गिर कर मेरे चरण छू लिया और बोला: महाराज जी, आप कहां जा रहे हैं? यह शराब-घर है! तो मुझे लौटना पड़ा। मैंने कहा: अब इससे क्या कहें! इतने भाव से कह रहा है बेचारा कि महाराज जी, आप कहां जा रहे हैं! सोचा होगा कि महाराज जी भटक गए। ये कहां चले आ रहे हैं!
उसने कहा: एक झंझट खड़ी कर दी आपने। अब मैं डरता हूं शराब-घर में जाने से, कि कोई पैर पकड़ ले, कि स्वामी जी, आप यहां! तो क्या उत्तर दूंगा?
मैंने कहा: अब यह तुम समझो। अब तुम्हें संन्यास बचाना हो तो संन्यास बचा लेना और शराब बचानी हो तो शराब बचा लेना, झंझट हमने खड़ी कर दी, अब तुम. अब तुम चुन लेना।
छोटी-छोटी बातें कभी जीवन को आमूल-चूल बदल जाती हैं।
निष्ठा! ठीक हुआ। अब इस ज्योति को सम्हालना और अब इस ज्योति के अनुसार जीना और अब इस ज्योति के अनुसार सारे जीवन को समायोजित करना। अब इस ज्योति से मूल्यवान कुछ भी नहीं है। इस ज्योति से जो मेल खाए, ठीक। इस ज्योति से जो मेल न खाए, ना-ठीक। अब यह ज्योति कसौटी है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं क्रोध से अत्यंत पीड़ित हूं। मेरा पूरा जीवन क्रोध में ही नष्ट हुआ जा रहा है। इस दुष्ट क्रोध का त्याग करना चाहता हूं। आप ऐसा आशीर्वाद दें कि यह क्रोध-रूपी शत्रु सदा के लिए भस्मीभूत हो जाए।
प्रश्न में भी क्रोध है. ‘दुष्ट क्रोध!’ ‘क्रोध-रूपी शत्रु!’ ‘ऐसा आशीर्वाद दें कि सदा के लिए भस्मीभूत हो जाए!’
तुम मुझे भी फंसाओगे? मैं कोशिश कर रहा हूं कि किसी तरह तुमको स्वर्ग ले चलूं, तुम मुझे भी नरक ले चलने का इरादा रखते हो।
और क्रोध इतनी कोई आसान बात नहीं है किसी आशीर्वाद से मुक्त हो जाओगे। क्रोध तुम्हारी जड़ों में छिपा है। क्रोध कुछ ऐसा ऊपर से आरोपित थोड़े ही है। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि वस्त्र पहन लिए, उतार दिए। क्रोध ऐसा है, जैसे तुम्हारी चमड़ी छीली जाएगी, पीड़ा होगी, कष्ट होगा, खून बहेगा। और फिर तुम जन्म भर अगर क्रोध किए हो, जीवन भर अगर क्रोध किए हो, तो तुम्हारे रग-रग में समा गया होगा। तुम्हारे प्रश्न से जाहिर है। तुम्हारा प्रश्न जो नहीं कह सकता था, वह तुम्हारे प्रश्न की भाषा ने कह दिया है। मैं समझा तुम्हारी पीड़ा को।
मगर इस क्रोध से छूटने का उपाय इस क्रोध का त्याग नहीं है, त्याग कैसे करोगे? यह कोई चीज थोड़े ही है कि छोड़ दी। यह तो तुम्हीं हो। तुम क्रोध-रूप हो गए हो। यह तुम्हारे रग-रेशे में व्याप्त हो गया है। तुम्हें सजग होना पड़ेगा। तुम क्रोध को अपने जीवन-चिंतन का आधार न बनाओ। तुम ध्यान में उतरो। ध्यान तुम्हें सजग करेगा। ध्यान तुम्हें क्षमता देगा कि क्रोध दिखाई पड़ने लगे। क्रोध चलता है इसीलिए कि हम मूर्च्छित हैं। क्रोध मूर्च्छा का ही अंग है। तुम्हें पता ही तब चलता है जब क्रोध आ भी चुका, जा भी चुका, उपद्रव हो भी चुका। पीट चुके पत्नी को, तोड़ चुके चीजें, मार-पीट हो गई, हाथ में हथकड़ी डल गई, अदालत की तरफ चले--तब तुम्हें खयाल आता है कि फिर हो गया। जैसे-जैसे होश बढ़ेगा, तो पहले तुम्हें खयाल आएगा, इतने बाद नहीं--जब क्रोध मौजूद होगा, जब तुम्हारी मुट्ठियां भिंच रही होंगी और दांत क्रोध से भर रहे होंगे और जबड़े क्रोध से उन्मत्त हो रहे होंगे, तब तुम्हें याद आ जाएगा कि क्रोध है, यह हो रहा है। फिर और गहराई बढ़ेगी बोध की, तो क्रोध आने वाला है, आकाश में बादल घिरे, अभी बरसे नहीं, और तुम समझ लोगे कि क्रोध आने वाला है।
जब इतना ध्यान तुम्हारा गहरा हो जाएगा कि क्रोध के आने के पहले तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा कि आता है, तब तुम मुक्त हो पाओगे; इसके पहले तुम मुक्त न हो सकोगे। इसके पहले तुम कसमें खाओ, व्रत लो, नियम लो, आशीर्वाद मांगो, ये सब काम नहीं आएंगी बातें। ये सब बहाने हैं। तुम जैसे हो वैसे ही रहोगे।
और मैं जानता हूं यह आशीर्वाद भी तुमने पहली दफा नहीं मांगा होगा। पहले भी मांग चुके होओगे। और जब भी आशीर्वाद न फलेगा तो तुम यही सोचोगे कि यह संत भी बेकार निकला, ये महात्मा भी किसी काम के नहीं। आशीर्वाद ही काम नहीं आया! जैसे कि महात्मा की जिम्मेवारी है कि तुम्हारा क्रोध दूर होना चाहिए! यह जिम्मेवारी तुम्हारी है।
क्रोध को त्यागा नहीं जाता। क्रोध को जाना जाए तो क्रोध धीरे-धीरे-धीरे शमित होता है। क्रोध का दमन नहीं करना होता, शमन होता है।
क्रोध तुम्हारे चित्त की एक विक्षिप्त अवस्था है। क्रोध में तुम क्षण भर के लिए पागल हो जाते हो। वह अस्थायी पागलपन है। इस पागलपन का कैसे त्याग करोगे? यह तुम्हारे भीतर से उठता है। और जब उठता है तब तुम होते कहां हो!
एक आदमी अपने मकान पर चढ़ा खड़ा था। अकबर की सवारी निकलती थी। ऊलजलूल गालियां बकने लगा अकबर को। अकबर बहुत हैरान हुआ। आदमी पकड़वा लिया गया, जेल में डाल दिया गया। दूसरे दिन सुबह उसे बुलाया अदालत में और कहा कि तू होश में है, क्या बक रहा था? क्यों गालियां दीं तूने? तुझे पता नहीं कि सम्राट के साथ कैसा व्यवहार करना है?
उस आदमी ने कहा: मैंने कभी गालियां दी ही नहीं।
अकबर ने कहा: यह भी हद हो गई! मैं खुद ही मौजूद था, अब कोई गवाह की जरूरत है?
उस आदमी ने कहा: यह मैं कह नहीं रहा कि आप मौजूद नहीं थे। आप रहे होंगे मौजूद, मैं मौजूद नहीं था। मैं शराब पीए था। मुझे होश ही नहीं है कि मैंने क्या किया।
क्रोध में भी तुम ऐसी ही बेहोश अवस्था में होते हो। तुम जाकर रसायनविद से पूछो, चिकित्सक से पूछो: होता है क्या क्रोध में? तुम्हारे खून में, तुम्हारे भीतर जो विष ग्रंथियां हैं, वे विष को छोड़ देती हैं। तुम्हारा सारा खून विषाक्त हो जाता है। उस विषाक्त अवस्था में तुमने शराब बाहर से पी कि भीतर से आई, इससे क्या फर्क पड़ता है? फिर तुम जो करते हो, तुम अपने होश में नहीं हो। ऐसा बहुत बार हुआ है कि लोगों ने हत्याएं कर दी हैं और उन्होंने होश में नहीं की हैं, विक्षिप्त अवस्था में हो गई हैं।
तुम यह छोटी सी कहानी सुनो--
भोज में आए लोगों की सेवा-टहल करते हुए गांव के नाई छकौड़ी ने जब सुना कि इस बार की तीर्थयात्रा में ठाकुर बारिस्टर सिंह क्रोध का त्याग कर आए हैं तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। मित्रों-मुसाहिबों से घिरे बैठे गर्वोन्नत ठाकुर साहिब के पास पहुंच कर छकौड़ी ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा: मालिक, इस बार की तीर्थयात्रा में आप क्या त्याग कर आए हैं?
क्रोध। छकौड़ी, हमने अब जीवन भर के लिए क्रोध त्याग दिया है--सहजशांत वाणी में ठाकुर साहिब ने कहा।
धन्य हो! चारों धाम की यात्रा, चार गांव का भोज और क्रोध का त्याग! बड़े महात्मा हैं मालिक आप--कहता हुआ छकौड़ी अपने काम में जा लगा!
थोड़ी देर बाद वह फिर लौटा और ठाकुर साहिब को भोज की सुव्यवस्था की जानकारी दी और निहायत मुलायमियत से बोला: इस बार तीर्थों में हुजूर क्या छोड़ आए?
ठाकुर साहिब ने छकौड़ी की तरफ सीधी आंख देखते हुए सधी आवाज में जवाब दिया: क्रोध। हमने क्रोध छोड़ दिया है।
वाह, वाह मालिक! कितना बड़ा त्याग किया है आपने! धन्य हैं आप। और वह फिर भोज-स्थल की तरफ चल दिया। कुछ क्षणों में छकौड़ी फिर लौटा और इधर-उधर की बातें करता हुआ ठाकुर साहिब से बोला धीरे से: माई-बाप, तीर्थों में इस बार आप क्या त्याग कर आए?
नाई को घूरते हुए ठाकुर साहिब बोले: अभी तुझे बताया है कि हम क्रोध छोड़ आए हैं।
हओ मालिक। धन्य हो, धन्य हो!
थोड़ी देर बाद फिर छकौड़ी आया और चुपचाप ठाकुर साहिब के पांव दबाने लगा। फिर उठा और उनके पांव छूता हुआ बोला: हुजूर, अब की तीर्थयात्रा में आपने कौन सा त्याग किया है?
इस बार ठाकुर साहिब ने जैसे ही नाई का प्रश्न सुना कि उनकी आंखें लाल हो गईं, भौएं तिरछी हो गईं। कड़कदार आवाज में बोले: अबे नउए, दस बार तुझसे कहा है, हम क्रोध का त्याग कर आए हैं। तू बहरा है क्या?
जी सरकार, क्रोध त्याग कर आपने बड़े भारी पुण्य का काम किया है। धन्य हैं आप!
ओंठों-ओंठों में मुस्कुराता हुआ छकौड़ी चला गया। अब की बार थोड़े अधिक विलंब से वह लौटा। ठाकुर साहिब यार-दोस्तों के साथ बातों में मशगूल थे। चांदी के गिलास में ठाकुर साहिब को पानी पेश करते हुए छकौड़ी ने कहा: हुजूर.
छकौड़ी का स्वर सुनते ही ठाकुर साहिब की आंखें कपाल से जा लगीं। भौचक छकौड़ी थोड़ा पीछे को खिसका। ठाकुर साहिब ने अपना जूता उठाया और छकौड़ी भागा। आगे-आगे पानी का गिलास लिए छकौड़ी नाई और पीछे-पीछे हाथ में जूता लिए ठाकुर बारिस्टर सिंह. नइयटा, साला छत्तीसा. कमीन. हमने पचास बार हरामी के पिल्ले से कहा कि हमने क्रोध छोड़ दिया है, फिर भी साला.
क्रोध छोड़ा नहीं जाता। क्रोध समझा जाता है। छोड़े कि ऐसे ही झंझट में पड़ोगे। क्रोध समझो। क्रोध के प्रति जागो। क्रोध को पहचानो। उसकी फैली हुई जड़ों को खोदो। और पहले से ही निर्णय मत लो कि क्रोध बुरा है। अगर निर्णय ले लिया तो जान न सकोगे। जब निर्णय ही ले लिया तो फिर जानोगे कैसे? जानने के लिए निर्णय-मुक्त मन चाहिए।
भूल जाओ यह कि शास्त्रों ने कहा है कि क्रोध शत्रु है। तुमने अभी नहीं जाना। और जब तक तुमने नहीं जाना, शास्त्र दो कौड़ी के हैं। भूल जाओ यह कि क्रोध जहर है। यह तुमने अभी नहीं पहचाना। और तुम्हारी पहचान हो तो ही इस बात में कुछ अर्थ है, अन्यथा यह सब बकवास है। छोड़ ही दो सारे निर्णय और निष्कर्ष कि क्रोध क्या है।
निर्णय-शून्य, निष्कर्ष-रहित तुम्हारे भीतर जब क्रोध उठे तो उसे देखो, जैसे आकाश में उठते बादल को कोई देखता है। न अच्छा, न बुरा। न पक्ष, न विपक्ष। सिर्फ पहचानो, क्या है? क्रोध क्या है? धीरे-धीरे क्रोध जब होगा तभी तुम्हारी आंख खुलेगी। और धीरे-धीरे क्रोध के आने के पहले उसकी हलकी सरसराहट मालूम होगी और तुम्हारी आंख खुलेगी। और अंततः सरसराहट भी न होगी, कोई दूसरा आदमी स्थिति पैदा करेगा, गाली देगा, अपमान करेगा; उसके गाली और अपमान देते ही तुम जानोगे कि स्थिति मौजूद है। अगर मैं मूर्च्छित हो जाऊं तो क्रोध होगा। अगर मैं सजग रहूं, होशपूर्ण रहूं, अगर यह दीया होश का जलता रहे, तो क्रोध नहीं होगा।
होश में क्रोध विसर्जित हो जाता है, जैसे प्रकाश में अंधेरा नहीं होता है।आज इतना ही।