MEDITATION

Jyon Ki Tyon 13

Thirteenth Discourse from the series of 13 discourses - Jyon Ki Tyon by Osho. These discourses were given in BOMBAY during SEPT 01-05 1970.
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भगवान, अचेतन, समष्टि अचेतन और ब्रह्म-अचेतन में जागने की साधना से गुजरते समय साधक को क्या-क्या बाधाएं आ सकती हैं तथा उनके निवारण के लिए साधक क्या-क्या सावधानियां रखें? कृपया इस पर प्रकाश डालें।

जैसे कोई आदमी सागर की गहराइयों में उतरना चाहता हो और तट के किनारे बंधी हुई जंजीर को जोर से पकड़े हो और पूछता हो कि सागर की गहराई में मुझे जाना है, सागर की गहराई में जाने में क्या-क्या बाधाएं आ सकती हैं? तो उस आदमी को कहना पड़ेगा, पहली बाधा तो यही है कि तुम तट पर बंधी हुई जंजीर को पकड़े हुए हो। दूसरी बाधा यह होगी कि तुम स्वयं ही सागर की गहराई में जाने के खिलाफ लड़ने लगो, तैरने लगो, बचने का उपाय करने लगो। और तीसरी बाधा यह होगी कि गहराई का अनुभव मृत्यु का अनुभव है। जितनी गहराई में जाओगे उतने ही खो जाओगे। अंतिम गहराई पर गहराई रह जाएगी, तुम न रहोगे। इसलिए यदि अपने को बचाने का थोड़ा सा भी मोह है तो गहराई में जाना असंभव है।
जगत है हमारे चारों ओर फैला हुआ। उस जगत में बहुत कुछ हम जोर से पकड़े हैं। वह जोर से जो हमारी पकड़ है, वही स्वयं के भीतर की गहराइयों में उतरने में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए इस जगत के संबंध में कुछ सूत्र समझ लेने जरूरी हैं।
बुद्ध कहा करते थे अपने भिक्षुओं को कि जीवन एक धोखा है। और जो इस धोखे को समझ लेता है, उसकी पकड़ जीवन पर छूट जाती है।
इसे पहला सूत्र समझने की कोशिश करें--जीवन एक धोखा है। यहां जैसा दिखाई पड़ता है वैसा नहीं है। और यहां जैसी आशा बंधती है वैसा कभी फल नहीं होता है। यहां जो मान कर हम चलते हैं, उपलब्धि पर उसे कभी वैसा नहीं पाते हैं। खोजते हैं सुख और मिलता है दुख। खोजते हैं जीवन, आती है मौत। खोजते हैं यश, अपयश के अतिरिक्त हाथ में अंत में कुछ भी नहीं बचता है। खोजते हैं धन, भीतर की निर्धनता बढ़ती चली जाती है। चाहते हैं सफलता, असफलता की लंबी कथा पूरी जिंदगी सिद्ध होती है। जीतने निकलते हैं, हार कर लौटते हैं। इस पूरी जिंदगी के धोखे को ठीक से देख लेना जरूरी है उस साधक के लिए जो स्वयं के भीतर जाना चाहता है। क्योंकि जीवन यदि धोखा है, तो उस पर पकड़ छूट जाती है। तट पर बंधी हुई जंजीर से हाथ मुक्त हो जाता है।
जानते हैं, फिर भी देखते नहीं हैं। शायद देखना नहीं चाहते हैं। जीवन शायद धोखा नहीं है। हम अपने को धोखा देना चाहते हैं। जीवन निमित्त भर है। क्योंकि वही जीवन किसी को जागने का कारण भी बन जाता है और वही जीवन किसी को सोने का आधार हो जाता है।
शायद ऐसे ही है जैसे राह पर चलते हुए अंधेरे में कोई रस्सी सांप जैसी दिख जाए। रस्सी को सांप जैसा दिखने की कोई भी आकांक्षा नहीं है। रस्सी को कुछ पता भी नहीं है। लेकिन मुझे रस्सी सांप जैसी दिख सकती है। रस्सी सिर्फ निमित्त हो जाती है। मैं सांप को आरोपित कर लेता हूं। फिर भागता हूं, हांफता हूं, पसीने से लथपथ, भयभीत। और वहां कोई सांप नहीं है। लेकिन मेरे लिए है। रस्सी ने धोखा दिया, ऐसा कहना ठीक नहीं। रस्सी से मैंने धोखा खाया, ऐसा ही कहना ठीक है। पास जाऊं, देखूं और रस्सी दिखाई पड़ जाए तो भय तत्काल तिरोहित हो जाएगा। पसीने की बूंदें सूख जाएंगी। हृदय की धड़कनें वापस अपनी गति ले लेंगी। खून अपने रक्तचाप पर लौट जाएगा। और मैं हंसूंगा और उसी रस्सी के पास बैठ जाऊंगा, जिस रस्सी से भागा था।
जिंदगी में उलटी हालत है। यहां हमने रस्सी को सांप नहीं समझा है, सांप को रस्सी समझ लिया है। इसलिए जिसे हम जोर से पकड़े हैं, कल अगर पता चल जाए कि वह सांप है, तो छोड़ने में तत्काल, क्षण भर की भी देरी नहीं लगती। इसलिए जीवन को उसकी, उसकी सच्चाई में, उसके तथ्यों में देख लेना जरूरी है।
जब बच्चा रोता है, पैदा होता है, तब हम सब बैंड-बाजे बजा कर हंसते हैं और प्रसन्न होते हैं। कहते हैं, सिर्फ एक बार भूल-चूक हुई है जगत में, सिर्फ एक बार ऐसा हुआ कि एक बच्चा जरथुस्त्र पैदा होते वक्त हंसा। अब तक कोई बच्चा पैदा होते वक्त हंसा नहीं है। और तब से हजारों लोगों ने पूछा है कि जरथुस्त्र पैदा होते वक्त क्यों हंसा? अब तक कोई उत्तर भी दिया नहीं गया है। लेकिन मुझे लगता है जरथुस्त्र हंसा होगा उन लोगों को देख कर जो बैंड-बाजे बजाते थे और खुश हो रहे थे। क्योंकि हर जन्म मृत्यु की खबर है। हंसा होगा जरथुस्त्र जरूर! वह उन लोगों पर हंस रहा था, जो सांप को रस्सी समझ कर पकड़ रहे थे। वह उन लोगों पर हंसा होगा, जो जिंदगी को उसके चेहरों से पहचानते हैं और उसकी आत्मा से नहीं पहचानते हैं।
हम भी जिंदगी को उसके चेहरों से ही पहचान कर जीते हैं। ऐसा नहीं है कि जिंदगी की आत्मा बहुत बार दिखाई नहीं पड़ती। हमारे न चाहते हुए भी जिंदगी बहुत बार अपना दर्शन देती है, लेकिन हम आंख बंद कर लेते हैं। जब भी जिंदगी प्रकट होना चाहती है, तभी हम आंख बंद कर लेते हैं।
मेरे एक मित्र हैं वृद्ध। उनका पुत्र मर गया, तो वे रोते थे छाती पीट कर। उनके घर मैं गया था। वे कहने लगे, यह कैसे हो गया कि मेरा जवान लड़का मर गया! मैंने उनसे कहा कि ऐसा मत पूछें। ऐसा पूछें कि यह कैसे हुआ कि आप अस्सी साल के हो गए हैं और अभी तक नहीं मरे हैं। यहां जवान का मरना आश्चर्य नहीं है। यहां मृत्यु आश्चर्य होनी ही नहीं चाहिए। क्योंकि मृत्यु अकेली सरटेंटी है। और सब आश्चर्य हो सकता है, मृत्यु भर एकमात्र निश्चय है, जिसके संबंध में आश्चर्य की कोई भी जरूरत नहीं है।
लेकिन मृत्यु हमें सबसे ज्यादा आश्चर्य देती है। इस जगत में सब-कुछ अनिश्चित है, मृत्यु भर निश्चित है। सब-कुछ हुआ है, सब-कुछ हो सकता है, सब-कुछ में बदलाहट हो जाती है, बस वह एक मृत्यु ध्रुवतारे की तरह बीच में खड़ी रहती है। लेकिन उसको हम बहुत आश्चर्य से लेते हैं। और जब हम सुनते हैं, कोई मर गया, तो ऐसे लगता है कि कोई बहुत बड़ी आश्चर्य की घटना घट गई है, कुछ अनहोनी घट गई है। लोग कहते हैं, मृत्यु अनहोनी है। नहीं होनी चाहिए थी, ऐसी है। और सच यह है कि मृत्यु की होनी भर निश्चित है, बाकी सब अनहोना है। बाकी न हो तो हम कहीं भी पूछने न जा सकेंगे कि क्यों नहीं हुआ। एक बार मृत्यु न हो तो सारा जगत आश्चर्य से भर जाएगा। लेकिन निश्चय को हम झुठलाए हुए हैं। जीवन में हम सभी सत्यों को झुठलाए हुए हैं।
जीवन अनिश्चित है। जीवन की सारी की सारी व्यवस्था असुरक्षा है, इनसिक्योरिटी है। लेकिन हम बड़े सिक्योर्ड जीए चले जाते हैं। हम ऐसे जीते हैं कि सब ठीक है। लेकिन वह हमारा सब ठीक वैसा ही है जैसे सुबह कोई मिलता है और आपसे पूछता है, कैसे हैं? और आप कहते हैं, सब ठीक है। सब कभी भी ठीक नहीं है। कुछ भी ठीक हो, यह भी संदिग्ध है। सब सदा गैर-ठीक है।
लेकिन आदमी का मन अपने को धोखे दिए चला जाता है। और कहे चला जाता है, सब ठीक है। जहां कुछ भी ठीक नहीं है, जहां पैरों के नीचे से रोज जमीन खिसकती चली जाती है, और जहां हाथ की जीवन की रेत रोज कम होती चली जाती है, और जहां सिवाय मृत्यु के और कुछ पास आता नहीं मालूम होता है...।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे, जिंदगी को देखना है तो मरघट पर जाकर देखो। लेकिन हम अगर मरघट पर भी जाते हैं तो वह जो मर गया है, उसकी मृत्यु की चर्चा में समय को झुठला देते हैं। उसकी मृत्यु की चर्चा में इस भांति लौटते हैं कि उस बेचारे के साथ अनहोनी घट गई है, बिना इसकी चिंता किए कि हर मृत्यु की खबर, हमारी मृत्यु की खबर है। हर मृत्यु की घटना, हमारी मृत्यु की पूर्व-सूचना है। हर मृत्यु मेरी ही मृत्यु है।
अगर हम जीवन को उसके इस वास्तविक रूप में देख पाएं, तो उस पर पकड़ कम हो जाती है। हमने मरघट गांव के बाहर बनाए हैं, जान कर कि वह हमें दिखाई न पड़ें। मरघट हम सुंदर बनाने में लगे हैं, जान कर कि उनमें हम मरघट के फूलों में मौत को छिपा दें। हम जिंदगी के इस पूरे भवन को एक प्रवंचना, एक डिसेप्शन की भांति खड़ा करते हैं।
भीतर जिसे जाना है, अचेतन में जिसे उतरना है, गहराइयां जिसे छूना हैं, उसे बाहर की पकड़ को शिथिल करना पड़ेगा। वह पकड़ तभी शिथिल हो सकती है जब हम देखें कि क्या है।
तो पहली बात, इस जगत में जो दिखाई पड़ता है, वैसा नहीं है। कितनी बार सुख चाहा है और कितनी बार सुख पाया है? नहीं, कभी हम गणित करने नहीं बैठते। दिन में आदमी कितना कमाता है, कितना गंवाता है, सांझ सब हिसाब कर लेता है। लेकिन जिंदगी में कितना हम कमाते और गंवाते हैं, उसका हम किसी सांझ कोई हिसाब नहीं करते हैं। रात सोते वक्त पांच मिनट सोच लेना जरूरी है कि दिन भर में कितना सुख पाया है! और कल जितने सुख सोचे थे कि आज मिलेंगे, उनमें कितने मिल गए हैं! और कल जिन दुखों को कभी नहीं सोचा था कि मिलेंगे, आज उनमें से कितने अचानक घर में मेहमान हो गए हैं!
काश, हम थोड़े दिनों भी सांझ को इसे सोचते रहें, तो कल के लिए सुख की आशा बांधनी बहुत मुश्किल हो जाएगी। औैर जिस आदमी को सुख की आशा बांधनी बाहर असंभव हो जाती है, उसी व्यक्ति की अंतर-यात्रा शुरू होती है। उस व्यक्ति की अंतर-यात्रा कभी शुरू नहीं होती जिसे सुख की आशा बाहर बनी रहती है। सुख बाहर है, तो व्यक्ति कभी गहराई में नहीं उतर सकता। सुख बाहर नहीं है, तो सिवाय भीतर की गहराई में उतरने के और कोई उपाय नहीं रह जाता है।
इसलिए पहली बात, जीवन एक धोखा है, जिसे हम देखते और जानते हैं वह जीवन। जिसे हमने जीवन समझा है, वह एक डिसेप्शन है। लेकिन टूटता है वह धोखा, लेकिन वह जब टूटता है तब कोई उसका प्रयोग, उपयोग नहीं किया जा सकता। मौत के आखिरी क्षण में टूटता है, लेकिन तब करने को कुछ भी नहीं बच रहता। और तब भी मुश्किल है कि टूटता हो। अक्सर तो ऐसा होता है कि मृत्यु के आखिरी क्षण में भी हम उन्हीं कामनाओं को भीतर दोहराए चले जाते हैं, कल की आशाओं को भीतर बांधे चले जाते हैं, भविष्य के सुखों को चाहे चले जाते हैं। और इसलिए वह मृत्यु फिर नया जन्म बन जाती है। और फिर वही चक्कर जो हमने पीछे पूरा किया था, फिर शुरू हो जाता है।
महावीर या बुद्ध ने एक अदभुत, अनूठा प्रयोग किया था। और वह प्रयोग था कि जब भी कोई साधक आता तो वे उससे कहते कि पहले तुम अपने पिछले जन्मों के स्मरण में उतरो। उस स्मरण को महावीर ‘जाति-स्मरण’ कहते थे। उसे ध्यान में उतारते कि तुम पहले अपने पिछले जन्म जान लो। नये साधक आते तो वे कहते, पिछले जन्म से हमें कोई प्रयोजन नहीं, हम शांत होना चाहते हैं, हम आत्मा जानना चाहते हैं, हम मोक्ष पाना चाहते हैं। तो महावीर कहते कि वह तुम न पा सकोगे, न जान सकोगे। पहले तुम पिछले जन्म देख लो। उनकी समझ में भी न पड़ता कि पिछले जन्म देखने से क्या होगा। लेकिन महावीर कहते कि पिछले जन्म तुम दो-चार स्मरण कर ही लो। और उसकी प्रक्रिया से गुजारते।
वर्ष लगता, दो वर्ष लगता और व्यक्ति पिछले जन्मों की स्मृति ले आता। फिर महावीर पूछते, अब क्या खयाल है? तो वह आदमी कहता कि धन मैं बहुत बार पा चुका और फिर भी कुछ नहीं पाया। प्रेम मैं बहुत बार पा चुका और फिर भी खाली हाथ रहा। यश के सिंहासन पर और भी जन्मों में पहुंच चुका और फिर मौत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला। तो महावीर कहते, अब ठीक है। अब इस जन्म में तो यश पाने का खयाल नहीं है?
पिछला जन्म हमें भूल जाता है। इसलिए जो हमने कल किया था, उसे ही हम आज किए चले जाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। आदमी इतना अदभुत है, इतना एब्सर्ड है। ऐसा नहीं है कि पिछला जन्म भी याद हो, तो जरूरी हो कि हम बदल जाएं। कल तो आपको अच्छी तरह मालूम है क्रोध किया था, अच्छी तरह याद है। और क्या पाया था, वह भी याद है। आज फिर क्रोध किया है, कल भी आप क्रोध करेंगे इसकी ही संभावना ज्यादा है। कल भी सुख चाहा था, क्या मिला है अच्छी तरह याद है। लेकिन आज फिर उसी तरह सुख चाह रहे हैं। कल भी उसी तरह चाहेंगे। रोज सुख चाहेंगे, रोज दुख मिलेगा। आदमी की अपने को धोखा देने की सामर्थ्य अनंत मालूम पड़ती है। रोज कांटे चुभते हैं, फूल कभी हाथ में आते नहीं, लेकिन फिर फूलों की खोज जारी हो जाती है, फिर फूलों की खोज जारी रहती है!
आदमी को देख कर ऐसा लगता है कि आदमी शायद सोचता ही नहीं है। शायद सोचने से डरता है कि कहीं ऐसा न हो कि जैसे बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ रहे हैं, ऐसा ही कहीं मैं भी सुख की तितलियों के पीछे दौड़ना बंद न कर दूं! शायद घबड़ाता है कि रुकूं तो कहीं दौड़ छूट न जाए। शायद डरता है कि कहीं जिंदगी को देख लूं तो कहीं बदलाहट न करनी पड़े।
लेकिन जिन्हें साधना के जगत में उतरना है--अप्रमाद में, जागरण में, चेतना में--उन्हें स्मरणपूर्वक पहले सूत्र को चौबीस घंटे खयाल में रखना जरूरी है। उठें सुबह, तो स्मरणपूर्वक ध्यान करें कि कल भी उठे थे, परसों भी उठे थे, पचास वर्ष हो गए हैं उठते हुए। क्या वही आकांक्षाएं आज फिर पकड़ेंगी जो कल पकड़ी थीं। कुछ करें मत, सिर्फ स्मरण करें। जस्ट रिमेंबर। सिर्फ स्मरण करें, कुछ और करें मत। कसम मत खाएं कि आज कल जैसा नहीं करूंगा। कसम खाने का तो मतलब ही यह हुआ कि कल से कोई समझ नहीं मिली, इसलिए कसम खानी पड़ रही है। कल का स्मरण भर करें। यह मत कहें कि अब नहीं करूंगा। यह मत कहें कि अब क्रोध नहीं करूंगा। इतना ही कहें कि कल भी क्रोध किया था, बस इतना ही स्मरण करें। परसों भी क्रोध किया था। कल भी पछताया था, परसों भी पछताया था। आज के लिए कोई निर्णय न लें। केवल कल का स्मरण आज आपके पीछे छाया की तरह घूमता रहे।
क्रोध असंभव हो जाएगा। सुख की दौड़, पागलपन हो जाएगी। दूसरे से कुछ मिल सकता है, इसकी आशा क्षीण हो जाएगी। और जिंदगी पर पकड़ रोज-रोज ढीली होने लगेगी। मुट्ठी खुलने लगेगी। जैसे ही जीवन पर पकड़ कम होती है, भीतर प्रवेश शुरू हो जाता है।
इसलिए पहला सूत्र: जीवन एक धोखा है, इसका स्मरण रखें।
दूसरा सूत्र: यह शरीर मरणधर्मा है, इसे स्मरण रखें। यह शरीर मृत्यु ही है। यह शरीर मृत्यु की ही काया है। यह डेथ एंबाडीड है।
नार्मन ब्राउन ने एक किताब लिखी है: ‘लव्स बॉडी--प्रेम की काया।’ मेरा मन होता है कि कभी कोई एक किताब लिखे: ‘डेथ्स बॉडी--मृत्यु की काया।’ यह शरीर सिर्फ मृत्यु को चला रहा है। यह शरीर सिर्फ मृत्यु की तैयारी है। इस शरीर से मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ मिलने वाला नहीं है।
तो पहले तो जगत एक धोखा है, यह बाहर के जगत से मुट्ठी ढीली हो जाएगी। फिर हमारे शरीर पर हमारी बड़ी पकड़ है, इतनी पकड़ है कि शरीर ही हमारा सब-कुछ मालूम होता है। और जिसे शरीर ही सब-कुछ मालूम होता है, वह भीतर न जा सकेगा। उसने शरीर के किनारे की खूंटी जोर से पकड़ रखी है। यह छोड़नी पड़ेगी, यह नाव खोलनी पड़ेगी। भीतर जाने के लिए यह खूंटी से हाथ ढीले करने पड़ेंगे। यह शरीर मृत्यु है, यह स्मरण...।
ऐसा समझाना नहीं है अपने को कि यह शरीर मरेगा, और मैं तो अमर हूं। ऐसा मत समझाना। आपको मैं कौन हूं इसका तो कोई पता नहीं है, इसलिए यह मत समझाना कि यह शरीर तो मरेगा लेकिन मैं अमर हूं। वह अमर होने की आकांक्षा आप अपने साथ खड़ी मत कर लेना। अभी इतना ही जानना कि यह शरीर मरता है और मुझे मेरा कोई पता नहीं है। क्योंकि अगर आपने कहा कि मैं अमर हूं, आत्मा अमर है, शरीर ही मरेगा, तो आप भीतर नहीं जा जाएंगे। ये शब्द आपने बाहर से उठा लिए। ये शब्द उपनिषद और गीता से सुन लिए। ये शब्द कुरान और बाइबिल के हैं, ये आपके नहीं हैं। भीतर जाना नहीं होगा। ये शब्द ज्यादा से ज्यादा बुद्धि में अटका देंगे। वह भी एक खूंटी है, वह भी भीतर जाने के लिए तोड़नी पड़ती है। उसकी मैं तीसरे सूत्र में आपसे बात करना चाहता हूं।
शरीर मरणधर्मा है, इतना स्मरण काफी है। आत्मा अमर है, कृपा करके यह दूसरा हिस्सा आप मत जोड़ें, इसका आपको पता नहीं है। इसका किसी दिन पता चला सकता है। लेकिन जिस दिन पता चलेगा उस दिन दोहराने की जरूरत न रह जाएगी। अभी इतना ही जानें कि शरीर मरणधर्मा है। और इस जानने में कोई भी बाधा नहीं है। आत्मा अमर है, इसमें संदेह उठेंगे। आत्मा अमर है या नहीं, इसमें मन में शंकाएं खड़ी होंगी। इसलिए कोई भी आदमी बिना जाने, आत्मा अमर है, ऐसी निस्संदिग्ध स्थिति को उपलब्ध नहीं होता है, ऐसी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होता है। जब तक जान न ले। तो ऊपर से थोपता रहे कि आत्मा अमर है, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। भीतर वह जानता है कि मैं मरूंगा।
शरीर मरणधर्मा है, यह जरूर सत्य है। यह सारी मनुष्य-जाति का, यह सारे जीवन का अनुभूत सत्य है। इसके लिए किसी पर विश्वास करने की कोई भी जरूरत नहीं है। यह शरीर मर ही रहा है। यह बच्चा था, यह जवान हो गया, यह बूढ़ा हो रहा है, यह मर ही रहा है। यह एक-एक कदम मौत के ही उठा रहा है। यह जन्मने के बाद मरने के अतिरिक्त दूसरा काम ही नहीं कर रहा है। यह मरता ही चला जा रहा है। जिसे हम शरीर की जिंदगी कहते हैं, वह धीमे-धीमे क्रमशः मरने की स्थिति है, वह ग्रेजुअल डेथ-प्रोसेस, वह मरता जा रहा है।
लोग गलत कहते हैं कि आदमी सत्तर साल में मर गया। सत्तर साल में मरने की क्रिया सिर्फ पूरी होती है। उस क्षण कोई मरता नहीं है। मरता ही रहता है, मरने का काम चलता रहता है, लेकिन हम तो आखिरी हिस्से देखते हैं। हम कहते हैं, सौ डिग्री पर पानी भाप बन गया। सौ डिग्री पर पानी भाप बनता है, लेकिन एक डिग्री पर, दो डिग्री पर भी वह भाप बनने की तैयारी करता रहता है, गर्म होता रहता है, निन्यानबे डिग्री पर वह पूरा तैयार होता है, सौ डिग्री पर छलांग लगा जाता है। हम जिंदगी भर मरने की तैयारी करते हैं। जिसे हम जिंदगी कहते हैं वह सिर्फ मरने का उपक्रम है। शरीर की तरफ यह स्मरण गहरा हो जाए, तो शरीर से पकड़ छूटनी आसान हो जाती है।
स्मरण रखें कि जिसे आपने समझा है कि मैं हूं और जब दर्पण के सामने खड़े हों तो देखें कि सामने मौत खड़ी है, आप नहीं खड़े हैं। लेकिन चेहरा आपको अपना दिखाई पड़ रहा है, यह मौत का चेहरा दिखाई नहीं पड़ रहा है। हालांकि जिस जमीन पर आप बैठे हैं, उसमें ऐसा मिट्टी का एक कण भी नहीं है जो कभी न कभी किसी आदमी को अपना चेहरा होने का भ्रम नहीं दे चुका है। जिस जगह आप बैठे हैं वहां कम से कम दस आदमियों की कब्र बन चुकी है। जमीन पर एक इंच जमीन नहीं है जहां कम से कम दस आदमियों की राख न मिल चुकी हो। आदमियों की कह रहा हूं, पशु-पक्षियों का तो हिसाब लगाना मुश्किल है, कीड़े-मकोड़ों का तो हिसाब लगाना मुश्किल है, पौधों का हिसाब तो लगाना मुश्किल है। वे भी जीए हैं। जिस जगह आप बैठे हैं वहां न मालूम कितने वे ही लोग भ्रमपूर्वक जीए हैं, जिन्होंने दर्पण में समझा है कि जिसे मैं देख रहा हूं यह मैं हूं, आज वे सिर्फ राख में पड़े हैं। आपके और उनके राख में पड़ जाने में सिर्फ टाइम-गैप का फर्क पड़ेगा, थोड़े से वक्त की देर है, आप भी उसी क्यू में खड़े हैं जिसमें वे आगे खड़े थे। थोड़ी देर में क्यू वहां पहुंच जाएगा। और क्यू पूरे वक्त बढ़ रहा है। जब एक आदमी मरता है तो क्यू में थोड़ी जगह आगे सरक गई। लेकिन आप बड़ी उत्सुकता से आगे बढ़ते हैं कि जगह खाली हुई, आगे बढ़ने का मौका मिला है। जगह खाली नहीं हुई, सिर्फ मौत ने एक कदम और आपकी तरफ बढ़ाया है या आप मौत की तरफ एक कदम और बढ़ गए हैं।
सुबह जब उठें, तो अपने शरीर को गौर से देख लें और जानें कि शरीर मृत्यु है। सांझ जब सोने लगें तब भी शरीर को गौर से देख लें और जानें कि शरीर मृत्यु है। स्नान जब करें तब शरीर को गौर से देख लें और जानें कि शरीर मृत्यु है। भोजन जब करें तब शरीर को गौर से देख लें और जानें कि शरीर मृत्यु है। दिन में दस-बीस मौकों पर, शरीर मृत्यु है, इसका स्मरण माला के गुरियों की तरह आपके भीतर प्रविष्ट हो जाए, तो आपकी शरीर से खूंटी टूट जाएगी, बहुत ज्यादा देर नहीं लगेगी। जैसे ही दिखने लगेगा कि शरीर मृत्यु है, तो शरीर के भीतर जो हमारे तादात्म्य हैं, आइडेंटिटी है कि यह मैं ही हूं, वह छिन्न-भिन्न हो जाएगा। उसे छिन्न-भिन्न करना पड़ेगा, उसे मिटा ही डालना पड़ेगा। वह आइडेंटिटी, वह तादात्म्य टूटना ही चाहिए। वही खूंटी है, जो शरीर से बांधे हुए है।
और तीसरा सूत्र: यह जिसे हम मन कहते हैं, बुद्धि कहते हैं, विचार कहते हैं--इससे हम सत्य को कभी भी जान न सकेंगे। इससे कभी सत्य जाना नहीं गया है। इससे हम केवल ज्यादा अपीलिंग असत्यों का निर्माण करते हैं। मनुष्य ने हजार-हजार दर्शन, हजार-हजार फिलॉसफीज खड़ी की हैं, अनेक शास्त्र-सिद्धांत निर्मित किए हैं। जिंदगी, क्या है सत्य, इसको बताने वाले न मालूम कितने-कितने सिस्टम्स बनाए हैं। फिलॉसफी हार गई, अब तक कोई उत्तर नहीं मिला।
बर्ट्रेंड रसल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बचपन में जब मैं युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र पढ़ने गया था तो मैंने सोचा था कि जीवन के कम से कम जरूरी-जरूरी सवालों के जवाब तो मिल ही जाएंगे। फिलॉसफी का मतलब ही यही है, दर्शन का मतलब ही यही है कि जिंदगी जो सवाल पूछती है, उसके जवाब होने चाहिए। मरने के पहले, नब्बे वर्ष के अनुभव के बाद लिखा है, लेकिन अब मैं बूढ़ा होकर यह कह सकता हूं कि फिलॉसफी से मुझे नये-नये सवाल तो मिले, जवाब बिलकुल नहीं मिले। और हर जवाब, जिसे मैंने अपनी नासमझी में जवाब समझा, थोड़े दिन में ही नये सवालों का पिता सिद्ध हुआ, और कुछ भी न हुआ।
हर जवाब नये सवालों को पैदा करता रहा है। बुद्धि से दर्शन हार गया, इसलिए आज दर्शन पर कोई नई किताब नहीं लिखी जा रही है। अब दर्शनशास्त्री सारे विश्वविद्यालयों में सारी दुनिया के दर्शन के नये सिद्धांत निर्मित नहीं कर रहे हैं। वे केवल पुराने दर्शन गलत थे, इसी को सिद्ध कर रहे हैं। एक वैक्यूम, एक शून्य खड़ा हो गया है। दर्शन के पास कोई उत्तर नहीं है।
धर्मशास्त्रों ने उत्तर दिए हैं, लोग उनको कंठस्थ कर लेते हैं। बुद्धि उनसे तृप्त होने की कोशिश करती है, कभी तृप्त हो नहीं पाती। क्योंकि जीवन तब तक तृप्त न होगा जब तक जान न ले। विश्वास तृप्त नहीं कर पाते। बुद्धि विश्वासों से भर जाती है। कोई ईसाई है, कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई बौद्ध है। ये सब विश्वासों के फासले हैं और ये सब बुद्धि में जीने वाले लोगों के ढंग हैं।
सत्य अब तक बुद्धि से मिला नहीं, मिलेगा भी नहीं। क्योंकि जब बुद्धि नहीं थी, तब भी सत्य था; और जब बुद्धि नहीं होगी तब भी सत्य होगा। और सत्य इतना विराट है और बुद्धि इतनी छोटी है। आदमी की इस छोटी सी खोपड़ी में एक छोटा सा कंप्यूटर ही है। उससे बेहतर कंप्यूटर बनने शुरू हो गए हैं, लेकिन कोई कंप्यूटर यह नहीं कह सकता कि सत्य मैं दे दूंगा। कंप्यूटर इतना ही कह सकता है कि जो तुमने मुझे फीड किया, जो सूचनाएं तुमने मुझे पिला दीं और खिला दीं, मैं उनको वक्त पड़े तब दोहरा दूंगा। बुद्धि भी कंप्यूटर से ज्यादा नहीं है। नेचुरल कंप्यूटर है। बुद्धि ने जो-जो इकट्ठा कर लिया उसे जुगाली करके दोहरा देती है।
जब मैं आपसे पूछता हूं, ईश्वर है? तो आप जो उत्तर देते हैं वह आप नहीं दे रहे हैं। सिर्फ आपकी बुद्धि को दिया गया उत्तर। बुद्धि वापस री-ईको कर देती है, प्रतिध्वनित कर देती है। अगर आप जैन घर में पैदा हुए हैं, तो बुद्धि कह देगी, कैसा ईश्वर? कोई ईश्वर नहीं है। आत्मा ही सब-कुछ है। अगर आप हिंदू घर में पैदा हुए हैं, तो कहेंगे कि हां, ईश्वर है। और अगर कम्युनिस्ट घर में पैदा हुए हैं, तो कहेंगे, कोई ईश्वर नहीं है, यह सब बकवास है। लेकिन ये सभी उत्तर कंप्यूटराइज्ड हैं, ये सभी उत्तर बुद्धि ने पकड़ लिए हैं, उनको दोहरा रही है। बुद्धि सिर्फ रिप्रोड्यूस करती है, बुद्धि कुछ जानती नहीं। बुद्धि ने अब तक कुछ भी नहीं जाना है--धर्म, दर्शन, विज्ञान।
लेकिन विज्ञान के संबंध में सोचते वक्त ऐसा लगता है कि विज्ञान ने तो कुछ जान लिया है। वह भी बड़ी भ्रांति मालूम पड़ती है। क्योंकि न्यूटन जो जानता था, आइंस्टीन उसको गलत कर जाता है। आइंस्टीन जो जानता है, वह आइंस्टीन के बाद की पीढ़ी गलत किए दे रही है।
और अब इस दुनिया में कोई वैज्ञानिक इस आश्वासन से नहीं मर सकता है कि मैं जो जानता हूं वह सत्य है। वह इतना ही कह सकता है कि पिछले असत्य से मेरा असत्य अभी ज्यादा अपीलिंग है, ज्यादा आकर्षक है। आने वाले लोग उसे असत्य कर देंगे। वे दूसरे असत्य को पकड़ा देंगे। या इसे कहने का वैज्ञानिक का जो ढंग है, वह कहता है, अप्रॉक्सिमेट ट्र्रूथ। वह कहता है, करीब-करीब सत्य है।
लेकिन करीब-करीब कहीं सत्य होते हैं? या तो सत्य होता है या असत्य होता है। करीब-करीब का मतलब ही यही है कि वह असत्य है।
अगर मैं आपसे कहूं कि मैं करीब-करीब आपको प्रेम करता हूं, तो इसका क्या मतलब होता है? इसका कोई मतलब नहीं होता। इससे तो बेहतर है कि आपको कहूं कि मैं आपको घृणा करता हूं, क्योंकि वह सच तो होगा। करीब-करीब प्रेम का कोई मतलब नहीं होता है। या तो प्रेम होता है या नहीं होता है। करीब-करीब जिंदगी में होती ही नहीं बातें।
विज्ञान कहता है, करीब-करीब सत्य, लेकिन हर सत्य रोज गड़बड़ हो जाते हैं। सौ वर्षों में विज्ञान के सब सत्य डगमगा गए। सौ साल पहले विज्ञान बिलकुल आश्वस्त था कि मैटर है, पदार्थ है। सौ साल में पता चला कि पदार्थ ही नहीं है, और कुछ भी हो सकता है। अब वे कहते हैं कि मैटर है ही नहीं। सौ साल पहले विज्ञान कहता था कि पदार्थ ही सत्य है, ईश्वर सत्य नहीं है। आज वैज्ञानिक कहता है कि पता नहीं ईश्वर हो भी सकता है, क्योंकि अभी तक हम उसे असिद्ध नहीं कर पाए कि नहीं है। लेकिन पदार्थ तो सिद्ध हो गया है कि नहीं है। अब वे कहते हैं, एनर्जी है, सिर्फ ऊर्जा है। कितने दिन कहेंगे, कहना मुश्किल है। बहुत ज्यादा देर नहीं चलेगी यह बात, क्योंकि कोई चीज ज्यादा देर नहीं चलती है। आदमी के सब सिद्धांत ओछे पड़ जाते हैं, सत्य बड़ा पड़ जाता है। सत्य रोज बड़ा सिद्ध होता है।
इसलिए तीसरा स्मरण रखना जरूरी है साधक को कि मन के किन्हीं सत्यों को सत्य मत समझ लेना। मन के पास कोई भी सत्य नहीं है, मन के पास केवल सत्य के खयाल हैं, सत्य के सिद्धांत हैं। सत्य के लिए दिए गए शब्द हैं। मन के पास ईश्वर ‘शब्द’ है, ईश्वर बिलकुल नहीं है। मन के पास शब्दों की भीड़ है। और मन शब्दों से आदमी को धोखा दे देता है। और यह धोखा गहरे से गहरा है। बाहर का धोखा जल्दी टूट जाता है जगत का, शरीर का धोखा भी बहुत देर नहीं लगती टूटने में, मन का धोखा टूटने में सबसे ज्यादा देर लगती है। इसलिए तीसरी बात साधक को स्मरण रखनी है निरंतर कि मन जो भी कह रहा है वह मन की कल्पना है, इमेजिनेशन है। वह मन की मान्यता है, सत्य नहीं है। मन को सत्य का पता नहीं है, पता हो भी नहीं सकता है।
यह तीसरा स्मरण अगर बना रहे, तो धीरे-धीरे मन सिद्धांतों से खाली हो जाता है, शास्त्रों से मुक्त हो जाता है, धीरे-धीरे दर्शन, धर्म, वाद से मुक्त हो जाता है। और ये तीन घटनाएं अगर घट जाएं, तो व्यक्ति की तत्काल छलांग अपने अचेतन मन में लग जाती है। वह अपने भीतर उतर जाता है। खूंटियां टूट गईं। अचेतन मन में उतरते ही क्रांति शुरू होती है। अचेतन मन में उतरते ही हम अपने जीवन के गहरे तलों से पहली दफा संस्पर्शित होते हैं, उनके स्पर्श में आते हैं। पहली बार हम जीवन को भीतर से अनुभव करते हैं।
लेकिन अचेतन पहला ही कक्ष है। और अचेतन में फिर इन तीन बातों को स्मरण रखना पड़ेगा। अचेतन का भी अपना शरीर है। अचेतन का शरीर है उसके पिछले जन्मों के समस्त कर्माणुओं से बना हुआ, उसका अचेतन का शरीर है, उसकी अपनी बॉडी है, बॉडी ऑफ दि अनकांशस।
आज मनोवैज्ञानिक अचेतन की बात करते हैं, अनकांशस की। चाहे जुंग हों, और चाहे फ्रायड हों, और चाहे एडलर हों, और चाहे दूसरे, वे सारे के सारे लोग अचेतन की बात करते हैं। लेकिन उन्हें अचेतन की साधक की तरह कोई भी खबर नहीं है। अचेतन को उन्होंने चेतन को समझने के लिए एक सिद्धांत की तरह उपयोग किया है। जिन्होंने अचेतन को साधक की तरह जाना है, वे कहते हैं, अचेतन के पास अपना शरीर है, वह कर्माणुओं का शरीर है। वह जो अनंत-अनंत जन्मों में कर्म किए गए हैं, उनकी देह है, उनकी बॉडी है, उनकी अपनी काया है।
अचेतन में उतर कर स्मरण रखना पड़ेगा कि यह जो कर्मों की सूक्ष्म देह है, यह भी मैं नहीं हूं, यह भी मरणधर्मा है। यद्यपि हमारा यह शरीर, जो दिखाई पड़ता है पुद्गल पदार्थ से बना हुआ, यह एक जन्म में मर जाता है। कर्मों की देह सिर्फ एक बार मरती है, मुक्ति के क्षण में, लेकिन वह भी मरणधर्मा है। जो हमने बाहर के शरीर के लिए स्मरण रखा, वही अचेतन में, भीतर के शरीर के लिए स्मरण रखना पड़ेगा। और जो हमने बाहर के मन और विचारों के लिए स्मरण रखा, वही अचेतन में अचेतन के विचार, कल्पनाओं और कामनाओं के लिए स्मरण रखना पड़ेगा। अचेतन की देह पिछले जन्मों से निर्मित देह है, और अचेतन का मन समस्त पिछले जन्मों की स्मृतियों का जोड़ है। उसमें सब छिपा पड़ा है।
मन का एक अदभुत नियम है कि मन एक बार भी जिस बात को याद कर ले उसे कभी भूलता नहीं है। आप कहेंगे, ऐसा नहीं मालूम होता। बहुत सी बातें हम भूल जाते हैं। वह सिर्फ आपको लगता है कि आप भूल गए हैं, आप भूल नहीं सकते। स्मरण किया जा सकता है। सिर्फ अस्तव्यस्त हो गया होता है।
कभी कोई आदमी कहता है कि बिलकुल जबान पर रखा है आपका नाम, लेकिन याद नहीं आ रहा है। यह आदमी बड़े मजे की बात कह रहा है। यह आदमी यह कह रहा है, जबान पर रखा है और याद नहीं आ रहा! दोनों का क्या मतलब है? ये दोनों कंट्राडिक्टरी हैं। अगर जबान पर रखा है तो कृपा करके बोलिए। वह कहता है, जबान पर तो रखा है, लेकिन याद नहीं आ रहा। असल में, उसे दो बातें याद आ रही हैं। उसे यह याद आ रहा है कि मुझे याद था, और यह भी याद आ रहा है कि फिलहाल याद नहीं आ रहा है।
और बगीचे में चला गया है, गड्ढा खोद रहा है, सिगरेट पी रहा है, कुछ और काम में लग गया--अखबार पढ़ने लगा है, रेडियो खोल लिया है--और अचानक बबल-अप हो जाता है। वह जो याद नहीं आ रहा था, एकदम भीतर से उठ आया है। वह कहता है, हां, याद आ गया है।
ठीक ऐसे ही अचेतन में उतरते ही पिछले जन्मों का सब-कुछ याद आना शुरू हो जाता है, लेकिन वह भी मन है। अगर उस मन का भी स्मरण रखा कि इस मन से भी नहीं पा सकूंगा सत्य को, तो आदमी की दूसरी छलांग लग जाती है। वह दूसरी छलांग कलेक्टिव अनकांशस में, वह समष्टि अचेतन में।
यह जो पहली छलांग थी, अपने व्यक्तिगत अचेतन में थी, इंडिविजुअल अनकांशस में थी, मैं अपने अचेतन में उतरा था। और जिस दिन अपने अचेतन से छलांग लगती है, उस दिन मैं सबके अचेतन में उतर जाता हूं। उस दिन, उस दिन दूसरा आदमी सामने से गुजरता है तो दिखाई पड़ता है कि यह आदमी किसी की हत्या करने जा रहा है। उस दिन दूसरा आदमी आया भी नहीं और पता चल जाता है कि यह आदमी क्या पूछने आया है। उसने पूछा भी नहीं और पता चल जाता है कि क्या पूछने आया है। उस दिन कोई आदमी आंख से गुजरता दिखाई पड़ता है और पता चलता है कि इसकी मौत तो करीब आ गई, यह मरने के करीब है। उस दिन व्यक्ति समष्टि अचेतन में उतर जाता है। उस गहराई में हम सबसे जुड़ जाते हैं, सबके अचेतन से जुड़ जाते हैं।
वह बड़ा विराट अनुभव है, वह बड़ा गहरा अनुभव है। क्योंकि यह सारा जगत भीतर से एक मालूम होने लगता है, जीवंत-जगत एक मालूम होने लगता है। सब जीवन अपना ही मालूम होने लगता है।
लेकिन यहां से भी छलांग लगानी है। यह भी परम स्थिति, अल्टीमेट नहीं है। इसकी भी देह है। इसमें समस्त लोगों के कर्मों की जो देह है, वह मेरी देह बन जाती है। इस स्थिति में आदमी अपने को करीब-करीब ईश्वर जैसा अनुभव करता है। इसलिए बहुत से लोग जो घोषणा कर देते हैं कि मैं ईश्वर हूं, उसका कारण वही है। जैसे कि मेहरबाबा की घोषणा थी कि मैं ईश्वर हूं, मैं अवतार हूं।
यह समष्टि अचेतन में जो व्यक्ति उतर जाता है, वह आपको धोखा नहीं देता। ऐसा उसे लगता है कि वह ईश्वर है, क्योंकि सबकी चेतना का सब-कुछ उसे अपना मालूम होने लगता है। हमें लगता है कि कोई आदमी अपने को ईश्वर कहे तो कैसा पागलपन है। गहरे में पागलपन है। असल में, यह भी कोई आखिरी स्थिति नहीं है। सबकी चेतना, सबके चेतन कर्म अपने मालूम होने लगते हैं। इसलिए मेहरबाबा कह सकते हैं--गांधी मरे तो वे कह देते हैं कि मैंने उन्हें अपने में लीन कर लिया। नेहरू मरे तो वे कह देते हैं कि मैंने उन्हें अपने में लीन कर लिया।
कुछ लोग कहेंगे कि यह आदमी चालाक, धोखेबाज मालूम पड़ता है। जहां हम जीते हैं, वहां से यह धोखेबाजी मालूम होगी। धोखा है, धोखेबाजी नहीं है। धोखा मेहरबाबा को है, आपके लिए धोखेबाजी नहीं कर रहे हैं वे। ऐसा लगता है! जब समष्टि, सारे लोगों का अचेतन मन मेरा ही मालूम पड़ने लगता है, तो जिसकी भी देह छूटती है, लगता है वह मुझमें ही लीन हो गया। सबकी देह, सबके कर्मों की देह मेरी देह हो गई। और सबके मनों के विचार मेरे विचार हो गए। लेकिन अभी भी, अभी भी ‘मैं’ मौजूद हूं। इसलिए मेहरबाबा कह सकते हैं कि मैं अवतार हूं। और जब तक ‘मैं’ मौजूद है तब तक परम सत्य की उपलब्धि नहीं है।
अगर हम यहां भी स्मरण रख सकें कि यह मेरी ईश्वर जैसी देह भी देह ही है, और यह मेरा ईश्वर जैसा मन, यह डिवाइन माइंड भी मन ही है, यह सुपरामेंटल भी मन ही है, अगर यहां भी हम स्मरण रखें उन्हीं सूत्रों का, तो एक और छलांग लग जाती है और व्यक्ति कॉस्मिक अनकांशस में, ब्रह्म-अचेतन में उतर जाता है। ब्रह्म-अचेतन में वह कह पाता है, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। तब ये चांद-तारे उसे अपनी देह के भीतर घूमते मालूम पड़ने लगते हैं।
स्वामी राम निरंतर कहा करते थे कि चांद-तारे मेरे भीतर घूमते हैं, सूरज मेरे भीतर उगता है! अगर हम मनोवैज्ञानिक से कहेंगे तो वह कहेगा कि यह आदमी न्यूरोटिक है, साइकोटिक है। इस आदमी का दिमाग खराब हो गया है। क्योंकि चांद-तारे सदा बाहर हैं, चांद-तारे भीतर कैसे हो सकते हैं।
मनोवैज्ञानिक के कहने में भी सच्चाई है। जहां तक उसकी समझ है, वह ठीक कह रहा है। लेकिन उसे रामतीर्थ जैसे व्यक्ति के अनुभव का पता नहीं है। रामतीर्थ जैसे व्यक्ति का विस्तार कॉस्मिक बॉडी का हो गया है। इस विश्व की जो अनंत सीमाएं हैं वही अब उसकी सीमाएं हैं। इसलिए सब उसे अपने भीतर घूमता हुआ मालूम पड़ेगा। चांद-तारे उसे अपने भीतर घूमते मालूम पड़ेंगे। ऐसा व्यक्ति कह सकता है कि मैंने जगत को बनते देखा और मैंने जगत को मिटते देखा, और मैं चांद-तारों को जन्मते देखता हूं और चांद-तारों को मिटते देखता हूं। ऐसे व्यक्ति की स्मृतियां कॉस्मिक मेमोरी से आनी शुरू हो जाती हैं।
जिन लोगों ने दुनिया में सृष्टि के जन्म की बातें कहीं हैं उनमें से अधिक लोग ऐसे हैं जिन्हें कॉस्मिक अनकांशस का अनुभव हुआ है। इसलिए वे इस तरह की बात कहते हैं कि परमात्मा ने कब दुनिया बनाई, कब पृथ्वी बनी, कब चांद-तारे बने। उनकी तारीखों में भूल-चूक हो सकती है, क्योंकि उस क्षण में तारीखों का हिसाब रखना बहुत मुश्किल है। लेकिन उन व्यक्तियों के अनुभव ऑथेंटिक हैं। अनुभव ऑथेंटिक हैं, अल्टीमेट नहीं; प्रामाणिक हैं, अंतिम नहीं।
तीसरे, इस कॉस्मिक अनकांशस में, इस ब्रह्म-अचेतन में भी अगर व्यक्ति स्मरण रख सके उन्हीं सूत्रों का--सूत्र वही रहेंगे कि यह शरीर भी विराट ब्रह्म का शरीर ही है। शरीर छोटा हुआ, छह फीट का हुआ, कि अनंत-अनंत योजन विस्तार वाला हुआ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। विचार मेरे हुए कि परम ब्रह्म के हुए, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यह सिर्फ मात्राओं के फर्क हैं। अगर यहां भी वह स्मरण रखे, तो चौथी छलांग लग जाती है और व्यक्ति महानिर्वाण में प्रवेश कर जाता है। जहां मन समाप्त हो जाता है, जहां मैं समाप्त हो जाता है, वहां वह यह भी नहीं कहता कि मैं ब्रह्म हूं। बुद्ध जैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता कि मैं ब्रह्म हूं। वह यह भी नहीं कहता कि मैं ईश्वर हूं। वह यह भी नहीं कहता कि मैं आत्मा हूं।
इसलिए बुद्ध को समझना बहुत मुश्किल पड़ा है। क्योंकि वे कहते हैं, आत्मा भी नहीं है; वे कहते हैं, ईश्वर भी नहीं है; वे कहते हैं, ब्रह्म भी नहीं है। फिर जो बच जाता है वही है, दैट व्हिच रिमेंस। अब वह क्या बच जाता है? शून्य बच जाता है, जिसकी कोई सीमा नहीं है। शून्य बच जाता है, जिसमें कोई विचार की तरंग नहीं है। शून्य बच जाता है, जिसमें कोई सेंटर नहीं है, कोई ईगो नहीं है। शून्य बच जाता है... कहना चाहिए कुछ भी नहीं बच जाता है।
यह जो सब-कुछ का खो जाना है, यही सब-कुछ का पाना भी है। यह परम है, यह आखिरी है। इसके पार? इसके पार का उपाय नहीं है। क्योंकि अब कुछ पार भी किसी के जा सको, वह भी नहीं बच जाता है। कॉस्मिक अनकांशस से, ब्रह्म-अचेतन से जो छलांग लगती है, वह शून्य में, परम में, सत्य में, महानिर्वाण में, मोक्ष में, जो भी हम नाम देना चाहें, दे सकते हैं। असल में, सब नाम व्यर्थ हैं। सब भाषा व्यर्थ है। इसमें बाधाएं, पहली बाधाएं तो हमारी अपनी हैं, इसलिए मैंने उसकी विस्तार से चर्चा की।
हमारी बाधाएं तीन हैं: बाहर के जगत में सुख की आशा; शरीर के जगत में अमृतत्व की आशा; मन के जगत में सत्य की आशा। तीन बाधाएं हैं। फिर ये तीन बाधाएं प्रत्येक तल पर वापस पुनरुक्त होती हैं। लेकिन आपको उससे कोई बहुत लेना-देना नहीं। इन तीन बाधाओं को पार करिए तो परमात्मा आपको नई तीन बाधाएं दे देगा। उनको पार करिए तो और गहरे तल पर नई बाधाएं होंगी। बाधाएं यही होंगी, सिर्फ उनका रूप और तल बदलता जाएगा। और यह अंत तक पीछा करेंगी। और जब कोई भी बाधा न रह जाए, जब लगे कि अब कुछ बचा ही नहीं, तभी आप जानना कि जाना उसे, जिसे जानने को उपनिषद के ऋषि प्यासे हैं; जाना उसे, जिसे जानने को कृष्ण गीता में कहते हैं; जाना उसे, जिसके लिए जीसस सूली पर लटक जाते हैं; जाना उसे, जिसके लिए चालीस वर्ष तक बुद्ध और महावीर गांव-गांव एक-एक आदमी का द्वार खटकाते फिरते हैं। उसे जाना, लेकिन इसे जानने के लिए स्वयं को बिलकुल ही मिट जाना पड़ता है। शरीर की तरह, आत्मा की तरह, ईश्वर की तरह, ब्रह्म की तरह भी स्वयं को मिट जाना पड़ता है। जीसस के एक वचन से इस बात को मैं पूरा करूं।
जीसस ने कहा है: ‘धन्य हैं वे जो अपने को खोने में समर्थ हैं, क्योंकि केवल वे ही उसे पा सकेंगे जो स्वयं को खो सकते हैं। और अभागे हैं वे जो अपने को बचाने में लगे हैं, क्योंकि जो अपने को बचाएगा वह सब-कुछ खो देता है।’
ये तीन सूत्र, आप जहां हैं वहां से शुरू करें, और आगे की यात्रा अपने आप खुलती चली जाएगी। ये ही तीन सूत्र निरंतर प्रयोग करने पड़ेंगे उस समय तक, जब तक कि कुछ भी बाकी रहे। और जब कुछ भी बाकी न रह जाए, आप भी बाकी न रह जाएं, सूत्र भी खो जाएं। कोई वक्तव्य देने का उपाय न रह जाए। मेहरबाबा की तरह कहने की जगह न रहे कि मैं ईश्वर हूं। राम की तरह कहने की जगह न रहे कि चांद-तारे मुझमें घूमते हैं। अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा की भी जगह न रह जाए। क्योंकि किसको घोषणा करनी? कौन घोषणा करेगा? जब सब शब्द शून्य हो जाएं, सब वाणी गिर जाए, सब व्यक्तित्व खो जाए, तब जो शेष रह जाता है वही परम, वही दि अल्टीमेट, वही सब धर्मों की खोज, वही सब प्राणों की प्यास, वही सब आत्माओं की आकांक्षा है। वहीं है अमृत।
जहां तक आकार है, वहां तक मृत्यु है; जहां निराकार है, वहीं अमृत है, वहीं है आनंद। क्योंकि जहां तक दूसरा है, वहां तक दुख है; जहां दूसरा नहीं है, वहीं आनंद संभव है, वहीं है शांति। क्योंकि जहां तक ‘मैं’ हूं, वहां तक अशांति है, जहां ‘मैं’ भी नहीं हूं वहीं शांति है। सत्‌-चित्‌-आनंद वहां हैं। कहने को नहीं, अनुभव को; बोलने को नहीं, जानने को; बताने को नहीं, हो जाने को। वहां ऐसा नहीं कि सत्‌-चित्‌-आनंद जाना जाता है, बल्कि ऐसा कि वहां हम सत्‌-चित्‌-आनंद हो गए हैं।

भगवान, अप्रमाद की साधना के संदर्भ में कृपया समझाइए कि साक्षी, सजगता और तथाता की साधना में क्या-क्या समानताएं व भिन्नताएं हैं।

साक्षी, सजगता और तथाता--इन तीनों शब्दों को अप्रमाद की साधना के लिए समझ लेना उपयोगी है। साक्षी पहला चरण है। साक्षी का मतलब है कि जीवन में मैं एक गवाह की तरह गुजरूं। साक्षी का मतलब है कि मैं एक विटनेस की तरह, एक देखने वाले द्रष्टा की तरह जिंदगी में जीऊं। अगर आप मुझे गाली दें तो मैं अपने को अनुभव न करूं कि मुझे गाली दी गई। मैं ऐसा जानूं कि मैंने जाना कि आपने इसको गाली दी। आप पत्थर मारें तो मैं ऐसा न जानूं कि आपने मारा और मैं मारा गया, वरन ऐसा जानूं कि आपने मारा और यह मारा गया ऐसा मैंने जाना। मैं निरंतर ट्रायंगल के तीसरे कोने पर खड़ा रहूं। मैं निरंतर दो के बीच में अपने को न बांटूं, तीसरे पर उचक कर खड़ा हो जाऊं, तीसरे पर छलांग लेता रहूं। घर में आग लग जाए तो मैं ऐसा न जानूं कि मेरा घर जल रहा है, ऐसा जानूं कि इसका घर जल रहा है और मैं देख रहा हूं।
जिंदगी को तीन हिस्सों में तोड़ना साक्षी की साधना का उपक्रम है। हम जिंदगी को दो हिस्सों में तोड़ते हैं--वहां ‘मैं’ है और ‘तू’ है। आप हैं गाली देने वाले, मैं हूं गाली लेने वाला। बस दो ही हैं, तीसरा वहां नहीं है। साक्षी में तीसरे को हम जोड़ते हैं--निरंतर हर स्थिति में--मैं दूसरा न बनूं, बल्कि मैं तीसरा रहूं। और जैसे-जैसे यह तीसरा कोना स्पष्ट होता चला जाता है, वैसे-वैसे दोनों ही हंसने योग्य मालूम होने लगते हैं--वह जिसने गाली दी और वह जिसको गाली दी गई।
राम न्यूयार्क में थे। कुछ लोगों ने उन्हें पत्थर मारे, कुछ लोगों ने उन्हें गालियां दीं। लौट कर उन्होंने अपने मित्रों से कहा कि आज राम बड़ी मुश्किल में फंस गए। लोग बड़ी गालियां देने लगे। कुछ लोग पत्थर भी मारने लगे। बड़ा मजा आया।
तो उन मित्रों ने कहा कि आप किस तरह की बात कर रहे हैं? आप ही को गाली दी थी न उन्होंने!
राम ने कहा: मुझे कैसे गाली देंगे? क्योंकि मेरा नाम मुझे भी पता नहीं है, उन्हें तो पता कैसे हो सकता है? राम को गाली दे रहे थे।
उन्होंने कहा: क्या राम आप नहीं हैं?
तो राम ने कहा: अगर मैं राम होता तो फिर मजा न ले पाता, फिर बहुत कष्ट लेकर लौटता। मैं खड़ा देख रहा था कि कुछ लोग गाली दे रहे हैं और बेचारा राम गाली खा रहा है। और मैं खड़ा देख रहा था। और मैं कह रहा था कि राम अच्छी मुश्किल में फंसे।
यह जो तीसरा बिंदु है, इसे उघाड़ा जा सकता है। साधक के लिए पहला चरण साक्षी से ही शुरू होता है। यह आसान है। इन तीनों शब्दों में सबसे ज्यादा आसान साक्षी है। इसे देखते रहें। खाना खा रहे हैं, तब देखते रहें कि खाना खाया जा रहा है। जिसको आप अब तक समझते रहे हैं--‘मैं’--वह खा रहा है। और अब तीसरा--पीछे खड़े होकर जरा देखें भी टेबल के किनारे--आप देख भी रहे हैं कि खाना खाया जा रहा है; खाना खा रहा है कोई और आप देख भी रहे हैं।
जैसे-जैसे यह तीसरा बिंदु उभरेगा, वैसे-वैसे आपकी जिंदगी में दुख क्षीण होने लगेगा, क्योंकि साक्षी को दुख नहीं दिया जा सकता। साक्षी को दुख दिया ही नहीं जा सकता, सिर्फ कर्ता को दुख दिया जा सकता है, दि डुअर, जब आपको लगता है कि मैं खाना खा रहा हूं, तब आपको दुख दिया जा सकता है। जब आप कहते हैं, मैं प्रेम कर रहा हूं, तब आपको दुख दिया जा सकता है। लेकिन जब आप कहते हैं कि एक प्रेम कर रहा है, दूसरा प्रेम झेल रहा है, और आप तीसरे देखने वाले हैं, तो आपको दुख नहीं दिया जा सकता। आपको चिंतित नहीं किया जा सकता।
अगर आप दिन में दस-पांच बार साक्षी का स्मरण कर लें तो रात आपके सपने खत्म हो जाएंगे। रात आपके सपने एकदम कम हो जाएंगे। क्योंकि सपने उसको आते हैं जो दिन भर कर्ता रहा है, रात भी कर्ता रहता है। क्योंकि दिन भर की करने की आदत रात में एकदम से कैसे छूट जाए। दिन भर दुकान चलाता है तो रात भी चलाता रहता है। दिन भर झगड़ता है अदालत में तो रात भी अदालतों में खड़ा हो जाता है। दिन में परीक्षा देता है युनिवर्सिटी में तो रात भी परीक्षा देता रहता है। वह जो दिन में कर्ता है, वह रात में भी कर्ता बन जाता है। जो दिन में साक्षी है, वह रात में भी साक्षी बन जाता है।
अब यह बड़े मजे की बात है, दिन में आप साक्षी हो जाएंगे तो दुकान बंद नहीं हो जाएगी। दुकान तो चलती रहेगी, आपके भीतर दुकान चलनी बंद हो जाएगी। दुकान बाहर चलती रहेगी, लेकिन रात अगर सपने में आप साक्षी हो गए तो सपना भी बंद हो जाएगा। क्योंकि सपने की दुकान कोई दुकान नहीं है, सिर्फ खयाल है। आप साक्षी हुए कि वह विदा हुआ। बाहर की दुकान तो चलती रहेगी, सपने की दुकान एकदम खो जाएगी। अगर साक्षी हो गए तो चिंता असंभव हो जाएगी।
इसलिए जिस मुल्क में जितना ही इस बात का खयाल है कि मैं कर रहा हूं, उस मुल्क में उतनी ही चिंता बढ़ जाती है। आज अमरीका में सबसे ज्यादा चिंता है, क्योंकि सबसे ज्यादा खयाल है कि मैं करूंगा, मैं कर रहा हूं। जो भी है, उसके पीछे ‘मैं’ खड़ा हूं। अतीत की दुनिया में चिंता बहुत कम थी इसका कारण यह न था कि चीजें कम थीं। अतीत की दुनिया में चिंता कम थी इसका यह कारण न था कि लोग बैलगाड़ियों में चल रहे थे और हवाई जहाजों में नहीं चल रहे थे। अतीत में चिंता कम थी तो उसका कारण बिलकुल ही और था।
अतीत में कर्ता के साथ एक तीसरा कोण भी था साक्षी का, जिसकी हम निरंतर कोशिश करते थे कि वह विकसित हो। और जिस दिन साक्षी थोड़ा भी विकसित हो जाता था, आदमी चिंता के बाहर हो जाता था। वह देखता था, चीजें हो रही हैं, मैं नहीं कर रहा हूं। वह उसको कई ढंग से कहता था। कभी कहता था, ईश्वर कर रहा है। यह उसका एक ढंग था कहने का कि मैं करने वाला नहीं हूं। कभी कहता था, भाग्य कर रहा है। यह भी उसका एक ढंग था कहने का कि मैं करने वाला नहीं हूं। कभी कहता था कि जो लिखा है वह हो रहा है। यह भी उसका एक ढंग था कहने का कि करने वाला मैं नहीं हूं।
लेकिन हम पागल लोग हैं। हमने उसके कहने के ढंगों को इतने जोर से पकड़ा कि वह जिस लिए कह रहा था, वह बात तो खो गई, और जो कह रहा था वह जोर से पकड़ गई। अब भी हम कहते हैं, अब भी हम कहते हैं कि अब जो भाग्य में हो रहा है, वह हो रहा है। लेकिन ज्योतिषी के पास पहुंच जाते हैं हाथ दिखाने कि कोई उपाय हो तो मैं कुछ यज्ञ-हवन करूं जिससे कि भाग्य बदल जाए। अब भी हम कहते हैं कि जो ईश्वर कर रहा है, वह हो रहा है। लेकिन सिर्फ कहते हैं। इसकी हमारे प्राणों में कहीं कोई जगह नहीं है। कहीं कोई जगह नहीं है, शब्द रह जाते हैं हाथों में, ये सारे के सारे शब्द सिर्फ कहने के ढंग थे। इनके पीछे जो असली बात थी वह तीसरा कोण था--साक्षी का; कर्ता से अलग।
इसलिए कृष्ण अर्जुन से कह पाते हैं कि तू लड़, तू यह फिकर ही क्यों करता है कि तू लड़ रहा है। लड़ाने वाला मैं रहा। वे अर्जुन से कह सकते हैं, तू मार, तू फिकर ही क्यों करता है कि तू मार रहा है। क्योंकि जिनको तू सोच रहा है, तू मार रहा है, वे पहले ही मारे जा चुके हैं। वह अर्जुन की समझ में नहीं आता। क्योंकि वह अपने को कर्ता समझता है। वह कहता है, मैं कैसे अपने प्रियजनों को मार डालूं? ये मेरे हैं। इनको मार कर... नहीं-नहीं, इनको मैं कैसे मार सकता हूं? उसकी चिंता कर्ता की चिंता है। अगर गीता के राज को समझना हो तो गीता का राज दो शब्दों में है। अर्जुन को कर्ता होने का भ्रम है और कृष्ण पूरे समय साक्षी होने के लिए समझा रहे हैं। इससे ज्यादा गीता में कुछ भी नहीं है। वह कृष्ण कह रहे हैं, तू सिर्फ देखने वाला है, द्रष्टा है, करने वाला नहीं है। यह सब पहले ही हो चुका है। यह सिर्फ कहने का ढंग है कि यह पहले ही हो चुका है। वह सिर्फ यह कह रहे हैं कि तू करने वाला है, इतनी बात भर तू छोड़ दे। इतनी बात भर तुझे भटका देगी और वंचना में डाल देगी। इतनी बात तुझे चिंता में डाल रही है, मोह में डाल रही है।
साक्षी, साधक के लिए पहला कदम है--सरलतम। ऐसे सरलतम नहीं, और जो आगे के कदम हैं, उनकी दृष्टि से। जो हम कर रहे हैं, उस दृष्टि से तो वह भी बहुत कठिन है। लेकिन थोड़ा प्रयोग करें तो कठिन नहीं है। नदी में तैरते हुए कभी देखें जरा कि आप देख रहे हैं कि तैर रहे हैं। रास्ते पर चलते वक्त देखें कि आप देख रहे हैं कि चल रहे हैं।
कठिन नहीं है। कभी-कभी उसकी झलक आने लगेगी। और जैसे ही तीसरे कोण की झलक आएगी, आप अचानक पाएंगे कि पूरी दुनिया बदल गई। सब-कुछ बदल गया, चीजें और रंग ले लीं। क्योंकि सारा जगत हमारी दृष्टि है। दृष्टि बदली कि जगत बदला।
दूसरी साधना सजगता की है। वह साक्षी से और गहरा कदम है।
साक्षी में हम दो को मान कर चलते हैं: ‘तू’ और ‘मैं’। और इन दोनों को मान कर इनके प्रति हम अलग खड़े हो जाते हैं कि मैं तीसरा। साक्षी में हम तीन में तोड़ देते हैं जगत को। ट्रायंगल बनाते हैं। वह त्रैत है। साक्षी त्रैत है।
सजगता में हम त्रैत नहीं बनाते। हम यह नहीं कहते कि किस चीज के प्रति जाग रहे हैं। हम कहते हैं, हम सिर्फ जागे हुए जीएंगे। हम यह नहीं कहते कि मैं देख रहा हूं कि मैं चल रहा हूं। हम यह कहते हैं कि हम चलते हुए होश रखेंगे कि चलना हो रहा है, इसका मुझे पता रहे। यह बेहोशी में न हो जाए। यह ऐसा न हो कि मुझे पता ही न रहे कि मैं चल रहा हूं।
ऐसा रोज हो रहा है। आप खाना खाते हैं, आपको पता ही नहीं रहता कि आप खाना खा रहे हैं। आप जब अपनी कार को अपने घर की तरफ मोड़ते हैं तब आपको पता नहीं रहता कि आप बाएं मोड़ रहे हैं। यह सिर्फ मेकेनिकल हैबिट की तरह गाड़ी मुड़ जाती है, आप अपने घर पहुंच जाते हैं। आप अपने बच्चे के सिर पर हाथ लगा देते हैं कि कहो बेटे, ठीक हो? और आपको बिलकुल पता नहीं होता कि आप क्या कर रहे हैं। यह आपने कल भी कहा था, परसों भी कहा था। यह ग्रामोफोन रिकॉर्ड हो गया। पत्नी को देख कर आप मुस्कुराते हैं, वह मुस्कुराहट आप नहीं मुस्कुरा रहे हैं, वह ग्रामोफोन रिकॉर्ड है। वह मुस्कुराने की आपने आदत बना रखी है। असल में, वह डिफेंस मेजर है, वह रक्षा का उपाय है कि पता नहीं, पत्नी अब क्या करेगी, तो आप मुस्कुराते हैं। पत्नी भी जो जवाब दे रही है, वह जवाब जान कर नहीं दे रही है। वह सब बिलकुल आदत के हिस्से हो गए हैं। इसलिए हम मिलते ही नहीं कभी। क्योंकि सजग लोग ही मिल सकते हैं। सोए हुए लोग सिर्फ मिलते हुए मालूम पड़ते हैं। वे वही बातें कहे चले जाते हैं, कहे चले जाते हैं...!
मेरे एक प्रोफेसर थे। मैं जब भी किसी किताब के बाबत उनसे कहता कि आपने वह पढ़ी है? वे कहते, हां पढ़ी है, बहुत अच्छी किताब है। ऐसे उनकी बातचीत से मुझे कभी नहीं लगा था कि उन्होंने कुछ बहुत पढ़ा है। एक दिन मैंने एक झूठी किताब का नाम उनसे जाकर लिया। न तो वैसा कोई लेखक है, न वैसी किताब कभी लिखी गई है। मैंने उनसे पूछा: आपने फलां-फलां लेखक की किताब पढ़ी है? अरे, उन्होंने कहा कि बहुत बढ़िया किताब है। बहुत ही अच्छी किताब है। जो वे सदा कहते थे, उन्होंने कहा।
मैं उनकी आंखों की तरफ देखता रहा। मैं थोड़ी देर चुप बैठा रहा। उन्होंने कहा: क्या मतलब? वे थोड़े बेचैन हुए। कहा: चुप क्यों बैठे हो? क्या मैंने गलत कहा? किताब ठीक नहीं है? हो सकता है, अपनी-अपनी पसंद है, उन्होंने कहा, आपको पसंद न पड़ी हो। मैं फिर भी चुप रहा और उनकी आंखों की तरफ देखता रहा, तब उनकी घबड़ाहट और बढ़ गई। उन्होंने कहा: क्या मतलब है? दो में से एक ही तो बात हो सकती है! आपको पसंद न पड़ी हो, हो सकता है, लेकिन आप चुप क्यों हैं?
मैंने कहा: मैं इसलिए चुप नहीं हूं, मैं इसलिए चुप हूं कि शायद आपको अभी भी याद आ जाए। उन्होंने कहा: क्या मतलब? नहीं, मुझे बिलकुल अच्छी तरह याद है। लेकिन अब उन्हें याद आ गया है। उनका पूरा चेहरा बदल गया। मैं फिर भी चुप रहा।
उन्होंने कहा: माफ करना, यह मुझे बड़ी गलत आदत पड़ गई है। इसको मैं कह ही जाता हूं। मैंने कई दफा तय किया कि यह बात मुझे नहीं कहनी चाहिए। लेकिन पता नहीं, जब तक मुझे पता चलता है तब तक तो बात हो ही चुकी होती है। मैं कह ही चुका होता हूं। न मालूम कैसी कमजोरी है कि मैं कभी यह कह नहीं पाता कि यह किताब मैंने नहीं पढ़ी। नहीं, मैंने यह किताब नहीं पढ़ी। देखी जरूर है लाइब्रेरी में, उन्होंने कहा। कभी ऐसे ही निकलते वक्त नजर पड़ गई होगी, बाकी मैंने पढ़ी नहीं है। मैंने उनसे कहा: आप वापस लौट रहे हैं, क्योंकि यह किताब है ही नहीं, यह लाइब्रेरी में देखी भी नहीं जा सकती।
ऐसा आदमी का मन है मूर्च्छित। वह क्या कह रहा है, क्या कर रहा है, कहां जा रहा है, कुछ भी पता नहीं है।
सजगता का अर्थ है: प्रत्येक कृत्य होशपूर्वक हो कि मैं क्या कर रहा हूं। साक्षी में तीसरे बिंदु को उभारना है। जो साक्षी बन गया उसके लिए सजगता आसान होगी। जो साक्षी बन गया उसके लिए सजगता आसान होगी, क्योंकि साक्षी में उसे साक्षी होने के लिए तो सजग होना पड़ता है। लेकिन सजगता में प्रत्येक कृत्य को सजग रूप से करना है। ऐसा नहीं देखना है कि कोई और कर रहा है और मैं अलग हूं। नहीं, अलग कोई भी नहीं है। जो हो रहा है, उस होने के भीतर एक दीया जल रहा है होश का। वह बिना होश के नहीं हो रहा है। पैर भी उठा रहा हूं, तो वह मैंने होशपूर्वक उठाया है। एक शब्द भी बोला हूं, तो वह मैं होशपूर्वक बोला हूं। मैंने हां कही है, तो मेरा मतलब हां है। मैंने होशपूर्वक कही है। और मैंने नहीं कही है, तो मेरा मतलब नहीं है। और मैंने होशपूर्वक कही है।
एक-एक कृत्य होश से भर जाए तो जीवन में जो व्यर्थ है, वह तत्काल बंद हो जाता है, क्योंकि होशपूर्वक कोई भी व्यर्थ नहीं कर सकता। और जीवन में जो अशुभ है, वह तत्काल क्षीण होने लगता है, क्योंकि होशपूर्वक कोई अशुभ नहीं कर सकता। जीवन में बहुत सा जाल, व्यर्थ का जाल, जो हम मकड़ी की तरह गूंथते चले जाते हैं और आखिर में खुद ही उसमें फंस जाते हैं और निकल नहीं पाते, वह एकदम टूट जाता है।
हम सभी गूंथ रहे हैं। एक झूठ आप बोल देते हैं, फिर आप जिंदगी भर उस झूठ को सम्हालने के लिए झूठ बोले चले जाते हैं। फिर आपको पता ही नहीं रहता कि पहला झूठ आप कब बोले थे। वह इतने पीछे दब जाता है कि आपको भी सच मालूम होने लगता है। क्योंकि आप इतनी बार बोल चुके और इतनी बार सुन चुके अपने ही मुंह से कि दूसरे भला भरोसा न करते हों, आप तो भरोसा कर ही लेते हैं। फिर एक जाल फैलता चला जाता है जिसमें हम रोज ऐसे कदम उठाए चले जाते हैं जो हमने कभी उठाने न चाहे थे। ऐसे रास्तों पर चले जाते हैं जिन पर हम जाना न चाहते थे। ऐसे संबंध बना लेते हैं जो हम बनाना न चाहते थे। ऐसे काम कर लेते हैं जिनके लिए हमने कभी कामना न की थी। और तब सारी जिंदगी एक विक्षिप्तता बन जाती है।
सजगता का अर्थ है: जो भी मैं कर रहा हूं, करते समय पूरा होश, पूरी अवेयरनेस है। इसका भी थोड़ा प्रयोग करें तो उससे अपूर्व शांति भीतर उतरनी शुरू हो जाती है।
तीसरी बात--तथाता--और भी कठिन है। सजगता को कोई साधे तो ही तथाता को साध सकता है। तथाता का मतलब है: सचनेस, चीजें ऐसी हैं। तथाता का अर्थ है: परम स्वीकृति। तथाता का अर्थ है: कोई शिकायत नहीं। तथाता का अर्थ है: जो भी है, है; और मैं राजी हूं। साक्षी में हम द्रष्टा हैं, जो हो रहा है, हो सकते हैं राजी न हों। सजगता में हम जाग गए हैं। जो नहीं होना चाहिए वह धीरे-धीरे गिर जाएगा, जो होना चाहिए वही बचेगा। तथाता में जो भी है, हम उसके लिए राजी हैं। दुख है, मृत्यु है, प्रिय का मिलन है, बिछोह है, जो भी है, उसके लिए हम पूरे के पूरे राजी हैं। हमारे प्राणों के किसी कोने में कोई शिकायत, कोई इनकार, कोई नो, कोई नहीं, नहीं है।
तथाता परम आस्तिकता है। वह आदमी आस्तिक नहीं है, जो कहता है कि मैं ईश्वर को मानता हूं। वह आदमी आस्तिक नहीं है, जो कहता है कि मैं भरोसा करता हूं, विश्वास करता हूं। आस्तिक वह आदमी है जो शिकायत नहीं करता है। जो कहता है, जो भी है, ठीक है। कहीं प्राणों के किसी कोने में मेरा कोई विरोध नहीं है। मैं राजी हूं। उसकी श्वास-श्वास राजीपन की श्वास है। टोटल एक्सेप्टिबिलिटी उसके हृदय की धड़कन-धड़कन है। जो भी है, यह जगत जैसा भी है...।
आस्तिक भी ऐसा नहीं मान पाता। वोल्तेयर ने कहीं लिखा है कि हे परमात्मा, तुझे तो हम स्वीकार कर भी लें, लेकिन तेरे जगत को स्वीकार नहीं कर पाते। कोई है जो जगत को स्वीकार कर लेता है, लेकिन ईश्वर को स्वीकार नहीं कर पाता है। सुख को तो हम सभी स्वीकार कर लेते हैं, दुख को कौन स्वीकार कर पाता है! और दुख तब तक रहेगा जब तक स्वीकृत न हो जाए। शायद इस जीवन के आध्यात्मिक विकास में दुख का यही मूल्य है। जीवन की इस योजना में दुख की यही सार्थकता है कि जिस दिन दुख भी स्वीकृत होता है, उस दिन जीवन में परम आनंद की वर्षा हो जाती है। फूल तो कोई भी स्वीकार कर लेता है, सवाल तो कांटों के स्वीकार करने का है। जीवन तो कोई भी स्वीकार कर लेता है, आलिंगन कर लेता है, सवाल तो मृत्यु को आलिंगन करने का है।
तथाता का अर्थ है: सब, दि टोटल, उसमें इंच भर भी कुछ हम निकाल देना नहीं चाहते, सब पूरा का पूरा स्वीकार है। ऐसी स्वीकृति पूरी सजगता में ही हो सकती है। ऐसी स्वीकृति साक्षी के बाद ही हो सकती है। ऐसी स्वीकृति जब किसी के प्राणों में बस जाती है तो उसके प्राण में अनंत आनंद का नृत्य शुरू हो जाता है। उसके जीवन में बांसुरी बजने लगती है उस संगीत की, उस संगीत की जो शून्य है। उसके जीवन में वह वीणा बजने लगती है, जिस पर कोई तार नहीं है। उसके जीवन में वह नृत्य आ जाता है, जिसके लिए कोई ताल नहीं है। उसके जीवन में ऐसी सुगंध फूटने लगती है, जिसमें कोई फूल नहीं है पीछे।
लेकिन तथाता बहुत कठिन है। तथाता का भाव ही बहुत कठिन है। उससे बड़ी ऑर्डुअस, उससे ज्यादा कठिन कोई और बात नहीं है। उसका मतलब है, जो भी आ जाए...।
एक भिक्षु गुजर रहा है एक वृक्ष के नीचे से। एक आदमी उसे लकड़ी मार गया है। घबड़ाहट में लकड़ी मारी, हाथ से छूट गई, लकड़ी गिर पड़ी। वह भिक्षु लौटा। उसने लकड़ी उठाई। वह आदमी तो घबड़ाहट में भाग ही गया मार कर। पास की दुकान पर जाकर उस भिक्षु ने कहा: यह लकड़ी रख लेना, शायद वह बेचारा वापस लौट कर लकड़ी खोजने आए। उस दुकान के मालिक ने कहा: आप आदमी कैसे हैं! उसने लकड़ी मारी है।
उस भिक्षु ने कहा: एक बार मैं एक वृक्ष के नीचे से और गुजरता था, तब वृक्ष से एक शाखा मेरे ऊपर गिर पड़ी। जब मैंने वृक्ष को स्वीकार कर लिया, तो यह आदमी वृक्ष से तो कम से कम अच्छा ही होगा।
ऐसा समझें, नदी में आप एक नाव चला रहे हैं। एक खाली नाव दूसरी तरफ से आकर आपकी नाव से टकरा जाए, आप कुछ भी न कहेंगे। कुछ भी न कहेंगे, आप स्वीकार कर लेंगे और आगे बढ़ जाएंगे। लेकिन भूल से अगर उस नाव में एक आदमी बैठा हो, तब कलह हो जाएगी। नाव को माफ कर सके, आदमी को माफ न कर सके। नाव को इसलिए माफ कर सके, कि स्वीकार कर सके, क्योंकि अस्वीकार करने का उपाय ही नहीं है। आदमी को माफ न कर सके, क्योंकि स्वीकार करना मुश्किल पड़ा।
लेकिन तथाता का अर्थ है कि नाव खाली टकराए, कि नाव में आदमी बैठा हो तो टकराए, आपके मन में दोनों बातें एक सी हों तो तथाता है। अगर जरा सा भी फर्क पड़ जाए तो तथाता चूक गई। एक आदमी आपके ऊपर फूल फेंक जाए और एक आदमी आपके ऊपर पत्थर डाल जाए, और दोनों बातें एक सी स्वीकृत हो जाएं, भेद ही न हो, तो तथाता है। अगर जरा सा भी भेद हो जाए तो तथाता चूक गई।
तथाता का अर्थ है: इस जगत में जो हो रहा है, उसमें मेरे मन में उससे अन्यथा हो, अदरवाइज हो, ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है। सागर में लहरें उठ रही हैं। हवाओं में तूफान आ रहे हैं। वृक्षों पर फूल लग रहे हैं। आकाश में तारे चल रहे हैं। कोई आदमी गालियां दे रहा है। कोई आदमी गीत गा रहा है। यह जो सारा का सारा विराट है, अंतहीन, यह सारा अंतहीन विराट जैसा है, ऐसा का ऐसा, मैं राजी हूं, तो तथाता है। तथाता साधक की तीसरी बात है।
अप्रमाद की साधना में साक्षी से शुरू करें और तथाता पर पूर्ण करें। शुरू करें तीसरे कोण पर खड़े होने से, फिर जागें, सजग हों, और फिर स्वीकार को उपलब्ध हो जाएं। पहले कर्ता से तोड़ें अपने द्रष्टा को। फिर अपने कर्म से जोड़ें अपने ज्ञान को। और फिर समस्त से जोड़ें अपनी स्वीकृति को। इन तीन चरणों में अप्रमाद धीरे-धीरे गहरा होता चला जाता है। और जिस दिन पूर्ण अप्रमाद, पूरा जागा हुआ मन होता है, किन शब्दों में कहा जाए कि उस दिन क्या होता है!
तथाता का एक खयाल और मुझे आया वह आपसे कहूं। एक झेन फकीर ने एक छोटा सा गीत लिखा है। उस गीत में लिखा है कि आकाश में हंस उड़ते हैं। उनकी कोई इच्छा नहीं होती कि नीचे की शांत झील में उनका प्रतिबिंब बने। लेकिन प्रतिबिंब बन जाता है। नीचे की नीली झील पर से ऊपर जब हंस उड़ कर निकलते हैं, झील की कोई इच्छा नहीं होती कि हंसों का प्रतिबिंब पकड़े, लेकिन प्रतिबिंब पकड़ लिए जाते हैं। फिर हंस उड़ जाते हैं और प्रतिबिंब भी उड़ जाते हैं। न हंसों को पता चलता है कि झील में पकड़े गए थे, न झील को पता चलता है कि हंसों के प्रतिबिंबों ने झील की छाती में कुछ कुतूहल, कुछ हलचल, कुछ उपद्रव पैदा किया है। तथाता का अर्थ है ऐसा व्यक्तित्व। चीजें हो जाती हैं। सबके लिए राजी है। कुछ करना भी नहीं चाहता, कोई शिकायत भी नहीं है।
इसलिए बुद्ध का एक नाम तथागत है। बुद्ध का एक नाम तथागत है। बुद्ध को बहुत प्रेम था उस नाम से। खुद भी वे कहते थे, तो वे कहते थे, तथागत एक गांव से गुजरे। तथागत का मतलब है: तथाता को उपलब्ध। तथागत का मतलब है: दस केम, दस गॉन। जैसे हंस आए झील पर और गए, ऐसा ही जो आया और गया। न कोई चाह थी कि यहां कुछ कर जाए, न कोई चाह थी कि यहां जो हो रहा है, उससे अन्यथा हो जाए। जो हुआ, हुआ। जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। कोई हिसाब न रखा, कोई किताब न रखी। कोई आशा न रखी, कोई निराशा न बनाई। कोई सफलता न चाही, किसी असफलता को ग्रहण न किया। कोई जीत न मांगी, किसी हार का कारण न बनाया। ऐसा जो आया हंस की तरह, और पानी पर बने बिंब और मिट गए।
जापान में तो झेन फकीर कहते हैं कि बुद्ध कभी हुए ही नहीं। मजाक करते हैं गहरी, और सिर्फ गहरे फकीर ही गहरी मजाक कर सकते हैं। रिंझाई कहा करता था जापान का कि बुद्ध कभी हुए नहीं, कहां की कहानियां कहते हो! और रोज बुद्ध की प्रार्थना करता सुबह, मूर्ति के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता और कहता: बुद्धं शरणं गच्छामि! तो उसके शिष्यों ने उसे पकड़ा और कहा कि खूब धोखा दे रहे हैं! हमसे कहते हैं बुद्ध कभी हुए नहीं और खुद मूर्ति के सामने हाथ जोड़ कर कहते हैं--बुद्धं शरणं गच्छामि?
तो उस रिंझाई ने कहा: इसीलिए तो। अगर जरा भी हुए होते तो कभी इनके चरणों में जाने की बात न करता। हुए ही नहीं, थे ही नहीं। पानी पर खिंची लकीर जैसे थे, खिंच भी नहीं पाई और खो गई। कहना चाहिए--पानी पर खिंची लकीर भी जरा ज्यादा बात हो गई, वह हंस वाली बात ठीक है--प्रतिबिंब बना और खो गया। तो वह कहता कि हुए नहीं, इसीलिए तो इनकी मूर्ति बना कर बैठा हूं। इसी आशा में कि किसी दिन मैं भी उस जगह पहुंच जाऊं जहां होना और न होना बराबर हो जाता है। जहां हूं या नहीं, सब बराबर है। जहां जीवन और मृत्यु एक ही अर्थ ले लें। जहां
अस्तित्व और अनस्तित्व समान, पर्यायवाची हो जाता है वहीं। इसीलिए तो कहता हूं कि बुद्धं शरणं गच्छामि! उसका मतलब केवल इतना ही है, वह कहने लगा रिंझाई कि मैं भी तुम्हारे चरणों में आता हूं, जिनके कोई चरण नहीं। मैं भी तुम्हारी शरण में आता हूं, तुम जो हो ही नहीं। मैं भी तुम्हारे जैसा हो जाना चाहता हूं, जो कि तुम कभी हुए ही नहीं हो। तुम हो ही नहीं।
एक शून्य, एक शून्य व्यक्तित्व है तथाता। भीतर एक जीता-जागता शून्य, वॉयड इंबॉडीड कहना चाहिए। एक शून्य जिसके चारों तरफ हड्डी-मांस-मज्जा है। भीतर सब शून्य है। इस शून्य की तरह जो हो जाता है, वही मैंने जो पहले उत्तर में आपको कहा, चौथी स्थिति में भी पहुंच जाता है। तथाता--कॉस्मिक अनकांशस से, वह जो ब्रह्म-अचेतन है, उससे छलांग है।
साक्षी में हम बाहर के जगत से भीतर आते हैं, व्यक्ति अचेतन में प्रवेश हो जाता है। सजगता से व्यक्ति अचेतन से पार होते हैं, समष्टि अचेतन में प्रवेश हो जाता है। समष्टि अचेतन में तथाता की साधना शुरू करनी पड़ती है तो ब्रह्म-अचेतन में प्रवेश हो जाता है। और ब्रह्म-अचेतन के बाद तो कोई साधना नहीं बचती। तथाता फिर साधना नहीं होती। तथाता फिर स्वरूप हो जाता है, फिर कुछ साधना नहीं पड़ता। फिर वह एफर्टलेस, फिर तीर चलाने नहीं पड़ते, चलते हैं; जैसे श्वास लेनी नहीं पड़ती और ली जाती है। फिर हृदय की धड़कन जैसे चलती है, चलानी नहीं पड़ती; ऐसा ही जीवन का सब चलता है, चलाना नहीं पड़ता। फिर भीतर चलाने वाला खो गया। मैं खो गया। फिर भीतर वह जो व्यक्ति था, वह खो गया है।
तथाता परम उपलब्धि है, वह जीवन की अनंततम गहराई में, एबिस में, अनंत गहराई में उतर जाना है। धर्म द्वार है। योग उस द्वार पर चढ़ने वाली सीढ़ियों की विधि है। तथाता उस मंदिर में विराजमान देवता है।

एक आखिरी सवाल और।

भगवान, एक जिज्ञासा उठ खड़ी हुई, आपने कहा है अप्रमाद के प्रसंग में कि प्रमादी आदमी कुछ करता नहीं है, चीजें घटित होती हैं बिना उसकी इच्छा अथवा चुनाव के। तो कृपया बताइए कि सोए हुए कर्ता, डुअर में और जागे हुए कर्ता में क्या अंतर है? गुरजिएफ कहते हैं कि जागा हुआ आदमी क्रिस्टलाइज्ड हो जाता है, इसका क्या अर्थ है? और क्या जागे हुए आदमी का अहंकार क्रिस्टलाइज होने के बदले विसर्जित नहीं हो जाता है?

सोया हुआ आदमी कर्ता नहीं है, उस पर भी चीजें होती हैं। लेकिन सोया हुआ आदमी समझता है कि मैं कर रहा हूं। सोया हुआ आदमी भी कर्ता नहीं है, समझता है कि कर्ता हूं। जागा हुआ आदमी भी कर्ता नहीं है, लेकिन समझता है कि कर्ता नहीं हूं।
बस इतना ही फर्क पड़ता है। सोया हुआ आदमी सोचता है, मैं कर्ता हूं। करता कुछ भी नहीं है, होता है। जागा हुआ आदमी भी कुछ नहीं करता है, सब होता है, लेकिन जागा हुआ आदमी यह जानता है कि सब होता है, मैं कर्ता नहीं हूं। सोए हुए और जागे हुए आदमी में करने में फर्क नहीं है, जानने में फर्क है। उनके कृत्य में फर्क नहीं है, उनके कर्तृत्व के बोध में फर्क है।
बुद्ध भी चलते हैं, अबुद्ध भी चलते हैं। होश से भरा हुआ आदमी भी चलता है, गैर-होश से भरा हुआ आदमी भी चलता है। गैर-होश से भरा हुआ आदमी चलता है ‘मैं’ के केंद्र पर--‘मैं हूं’। होश से भरा हुआ चलता है ‘शून्य’ के केंद्र पर--‘मैं नहीं हूं’, चलने की क्रिया है।
साथ ही आपने पूछा है कि जॉर्ज गुरजिएफ कहता था कि जागा हुआ आदमी क्रिस्टलाइज्ड हो जाता है। उसके भीतर इंडिविजुएशन, व्यक्ति पैदा हो जाता है। जुंग भी इंडिविजुएशन की यही बात कहता है जो गुरजिएफ कहते हैं, कि जितना आदमी जागता है, भीतर उसका व्यक्ति उतना मजबूत हो जाता है। इससे यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जागे हुए आदमी का व्यक्ति मजबूत होता है, या समाप्त होता है? अहंकार बनता है कि विसर्जित होता है?
भाषा के भेद हैं और कुछ भेद नहीं। गुरजिएफ जिसे क्रिस्टलाइजेशन कहता है, गुरजिएफ जिसे व्यक्ति का पैदा होना कहता है, उसे ही मैं शून्य का पैदा होना कह रहा हूं। जिसे गुरजिएफ क्रिस्टलाइजेशन कहता है, उसे ही मैं शून्य होना कह रहा हूं। असल में, शून्य होकर ही व्यक्ति पहली दफा पैदा होता है। क्योंकि शून्य होकर ही पहली दफा विराट जीवन का व्यक्तित्व उसे मिलता है। शून्य होकर ही, मिट कर ही, पहली दफा व्यक्ति व्यक्ति होता है।
लेकिन यह कठिन होगा। यह उन पैराडॉक्सेस में से एक है, विरोधों में से एक है जो कि धर्म रोज बोलते हैं और हम समझ नहीं पाते। जैसे कि बूंद सागर में गिर जाती है तो कोई कह सकता है कि बूंद खो गई, अब कहां है? बूंद मिट गई! और कोई यह भी कह सकता है कि बूंद सागर हो गई, अभी तक कहां थी, अब पहली दफा हुई है। अभी तक बूंद ही थी, क्या था, कुछ भी तो न था, अब सागर हो गई है। ये दोनों बातें कही जा सकती हैं। कोई कह सकता है, बूंद खो गई, अब नहीं है, शून्य हो गई। कोई कह सकता है, बूंद सागर हो गई। अब है, पहले क्या थी, ना-कुछ थी, अब पहली दफा हुई है। यह निगेटिव और पॉजिटिव के बोलने के फर्क हैं।
गुरजिएफ, जुंग कहते हैं, इंडिविजुएशन, क्रिस्टलाइजेशन। व्यक्ति पहली दफा हुआ है। यह उसी अर्थ में कहते हैं वे, जैसे बूंद सागर हो गई है। महावीर भी कहते हैं, आत्मा। वह गुरजिएफ के साथ उनकी भाषा का मेल है। शंकर कहते हैं, ब्रह्म। उनका भी गुरजिएफ की भाषा से मेल है। वे सब पॉजिटिव टर्म्स का, विधायक शब्दों का उपयोग कर रहे हैं।
सिर्फ एक आदमी हुआ बुद्ध, जिसने निषेधात्मक शब्द का प्रयोग किया। उसने कहा, अनात्मा। आत्मा हुई नहीं, समाप्त हो गई। अब कोई आत्मा वगैरह नहीं है, अब कोई ब्रह्म वगैरह नहीं है, अब तो वही रह गया जिसको कोई भी शब्द कहने वाला नहीं है। वे यह कह रहे हैं कि बूंद नहीं रह गई, अब छोड़ो बातचीत। वे कहेंगे कि तुम यह भी कहते हो कि बूंद सागर हो गई, तो फिर भी तो बड़ी बूंद ही बना रहे हो। सागर भी बड़ी बूंद है, उसकी भी सीमा तो होगी ही। कितना ही बड़ा सागर हो, कल्पना करें। कितना ही बड़ा सागर हो, उसकी सीमा तो होगी ही।
तो बुद्ध कहते हैं, जब भी तुम विधायक शब्द का उपयोग करोगे तब सीमा बन जाएगी। हालांकि आम आदमी के मन में विधायक शब्द जल्दी पकड़ में आता है। अगर उससे कहा जाए कि तुम मिट जाओ बस, फिर पूछो मत। तो वह कहेगा, किसलिए मिट जाएं, बनेगा क्या? उससे कहो, ईश्वर बन जाओगे, तब बात समझ में आती है। उससे कहो, ब्रह्म बन जाओगे, तब बात समझ में आती है।
इसलिए बुद्ध के पैर इस देश में न जम सके। न जमने का कारण था। विधायक भाषा के हम आदी थे। बुद्ध ने पहली दफा मनुष्य-जाति के इतिहास में निषेधात्मक भाषा का ठीक-ठीक प्रयोग किया। और सच यह है कि परम सत्य के संबंध में सिर्फ निगेटिव स्टेटमेंट्‌स ही हो सकते हैं, क्योंकि सब विधायक वक्तव्य सीमा बनाएंगे।
इसलिए उपनिषद कहते हैं, नेति-नेति। वह नकारात्मक वक्तव्य है। वह कहते हैं, नॉट दिस, नॉट दैट; न यह, न वह। अगर तुम कहो, ब्रह्म ऐसा है, तो यह भी नहीं। और तुम कहो, ब्रह्म वैसा है, तो वह भी नहीं। और उपनिषद के ऋषि से पूछो कि तुम क्या कहते हो? वह कहता है, नेति-नेति। यह भी नहीं, वह भी नहीं। और आगे मत पूछो, आगे जो बच जाए वही।
बुद्ध भी नकारात्मक उपयोग करते हैं। बुद्ध कहते हैं, कुछ भी नहीं, शून्य। इसलिए जो शब्द उन्होंने उपयोग किया है निर्वाण, वह बड़ा अर्थपूर्ण है। निर्वाण कहते हैं दीये के बुझ जाने को। एक दीया है, फूंक मार दी, बुझ गया। अब हम पूछें कि कहां गई ज्योति? कहेंगे, खो गई। बूंद तो सागर हो जाती है, ज्योति क्या हो गई? तो कहेंगे, ज्योति खो गई। या अगर कहना ही हो तो यह कह सकते हैं कि ज्योति अब सब हो गई, सबके साथ एक हो गई, अब कोई सीमा न रही उसकी।
तो बुद्ध, या वे सारे लोग जिन्हें ठीक-ठीक कहना है, नकारात्मक ढंग से कहेंगे। ऐसा नहीं कि महावीर को पता नहीं, और ऐसा नहीं कि शंकर को पता नहीं। लेकिन लोग आतुर होते हैं कि बूंद अगर खोने को भी राजी होगी तो सागर के लोभ में राजी होती है। बूंद अगर खोने को राजी होगी तो तभी राजी होगी जब पता चले कि कोई हर्जा नहीं। बूंद ही खोएगी न, सागर हो जाएंगे। लेकिन बुद्ध कहते हैं कि अगर सागर होने के मोह में कोई बूंद सागर में गिरी तो सागर न हो पाएगी। क्योंकि यह लोभ ही उसे बूंद बनाए रखेगा। यह लोभ ही, उसकी तृष्णा ही, उसका व्यक्तित्व चारों तरफ से बांधे रखेगी।
इसलिए मैंने शून्य शब्द का प्रयोग किया इस अर्थ में कि उस परम की कोई सीमा नहीं है। व्यक्ति बस खो जाता है। गुरजिएफ कहते हैं, क्रिस्टलाइजेशन; मैं तो कहूंगा, टोटल डीक्रिस्टलाइजेशन। मैं तो कहूंगा, पूर्ण विसर्जन, पूर्ण समर्पण, टोटल सरेंडर, कुछ बचता ही नहीं, रेखा भी नहीं बचती। हंस उड़ गए और झील पर अब प्रतिबिंब भी नहीं बनता है। बूंद नहीं खो गई, दीये की ज्योति बुझ गई। और अब अनंत में भी खोजने पर कहीं उसका आकार नहीं मिलता है।
पर फिर भी आपकी पसंद की बात है। अगर मन डरता हो निषेध से तो विधायक शब्दों का प्रयोग करें। हिम्मत जैसे-जैसे बढ़ जाए वैसे-वैसे विधायक शब्द को छोड़ते जाएं। और एक दिन तो हिम्मत जुटानी चाहिए नहीं में कूदने की। क्योंकि जो नहीं में कूदने को राजी है, वही पूर्ण को उपलब्ध होता है। जो शून्य होने को राजी है, वह पूर्ण का अधिकारी हो जाता है।

ये बातें इतने प्रेम और शांति से इन दिनों में सुनीं, अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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