MEDITATION

Jyon Ki Tyon 07

Seventh Discourse from the series of 13 discourses - Jyon Ki Tyon by Osho. These discourses were given in BOMBAY during SEPT 01-05 1970.
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भगवान, आपने कहा है कि आत्म-अज्ञान ही हिंसा का स्रोत है और कल आपने कहा कि हिंसा-वृत्ति के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेवार है, तो क्या आत्म-अज्ञान के लिए भी मनुष्य स्वयं जिम्मेवार है? क्यों और कैसे, इसे स्पष्ट करें।

अंधेरी रात हो अमावस की और कोई अपनी गुहा में बैठा हो अंधकार में डूबा हुआ, तो आंखें बंद रखे या आंखें खुली रखे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आंखें बंद हों, तो भी अंधकार होगा; आंखें खुली हों, तो भी अंधकार होगा। लेकिन फिर सुबह हो जाए, सूर्य निकल आए, उसकी किरणों का जाल उस गुफा के द्वार पर फैल जाए, पक्षी गीत गाने लगें; और फिर भी वह आदमी अपनी आंखें बंद किए बैठा रहे, तो फर्क पड़ता है।
रात के अंधकार में आंखें बंद थीं या खुली थीं, कोई अंतर न पड़ता था। और रात के अंधकार की कोई भी जिम्मेवारी उस गुहा में बैठे हुए आदमी की न थी। अंधकार था; वह स्थिति थी। लेकिन सुबह जब सूरज निकल आया हो, तब भी अगर वह आदमी आंख बंद किए बैठा रहे, तो जो अंधकार उसे दिखाई पड़ेगा, वह उसकी अपनी जिम्मेवारी है। वह चाहे तो आंख खोल सकता है और अंधकार से मुक्त हो सकता है।
पशु का जीवन अमावस की अंधेरी रात जैसा जीवन है। आत्म-ज्ञान की वहां संभावना नहीं है। पशु को कोई बोध नहीं है स्वयं के होने का; और कोई विकल्प भी नहीं है, कोई स्वतंत्रता भी नहीं है कि वह स्वयं को जान सके। वह संभावना ही नहीं है। इसलिए पशु को आत्म-अज्ञान के लिए जिम्मेवार नहीं कहा जा सकता। वह अंधेरी रात में है और अंधेरे के लिए जिम्मेवार नहीं है।
इसलिए पशु अगर आत्म-ज्ञान न खोजे, तो उसे दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन आदमी पशु की यात्रा से उस जगह प्रवेश कर गया है, चेतना के उस लोक में, जहां सूर्य का प्रकाश है। और अब भी अगर कोई आदमी अंधेरे में है, तो उसकी जिम्मेवारी सिवाय उसके और किसी पर नहीं हो सकती।
हम यदि आत्म-अज्ञानी हैं, तो अपनी आंखें बंद रखने के कारण हैं; वह हमारी स्थिति नहीं है, वह भी हमारा चुनाव है। प्रकाश चारों तरफ मौजूद है। आदमी उस जगह खड़ा हो गया है विकास के दौर में, जहां से वह स्वयं को जान सकता है। नहीं जानता, तो स्वयं के अतिरिक्त और कौन जिम्मेवार होगा?
इसका यह अर्थ नहीं कि मैं कह रहा हूं, वह आत्म-अज्ञान का पैदा करने वाला है। नहीं, आत्म-अज्ञान है; लेकिन आदमी उसे विध्वंस नहीं कर रहा, तो भी जिम्मेवारी उसकी है। वह आत्म-अज्ञान को पैदा करने वाला नहीं है, लेकिन विध्वंस करने वाला बन सकता है और नहीं बन रहा है। इसलिए रिस्पांसिबिलिटी, जिम्मेवारी आदमी की है।
आदमी आत्म-अज्ञानी हो तो यह उसका अपना ही निर्णय है। आंख उसने ही बंद रखी हैं। रोशनी की अब कोई कमी नहीं है।
सार्त्र का एक बहुत प्रसिद्ध वचन मुझे स्मरण आता है, प्रसिद्ध भी और अनूठा भी। सार्त्र का वचन है: मैन इ़ज कंडेम्ड टु बी फ्री, आदमी स्वतंत्र होने को विवश है, मजबूर है। सिर्फ एक स्वतंत्रता आदमी को नहीं है, बाकी सब स्वतंत्रताएं उसे हैं। चुनाव करने के लिए आदमी मजबूर है। सिर्फ एक चुनाव आदमी नहीं कर सकता। वह इतना भर नहीं चुन सकता कि ‘चुनाव न करना’ चुन ले। यह भर नहीं चुन सकता। ही कैन नॉट चूज नॉट टु चूज, बाकी तो उसे सब चुनाव करना ही पड़ेगा। इसलिए ‘न करने’ की बात नहीं चुन सकता, क्योंकि यह भी चुनाव ही होगा।
आदमी को प्रतिपल चुनना ही पड़ेगा; आदमी एक चुनाव की यात्रा है। पशु चुनाव की यात्रा नहीं है। पशु जो है, वह है। और अगर पशु जैसा भी है उसकी जिम्मेवारी किसी पर होगी तो परमात्मा पर होगी। आदमी परमात्मा की जिम्मेवारी के बाहर है। पशु के होने की जिम्मेवारी परमात्मा पर होगी। पशु जैसा है, है। वृक्ष जैसे हैं, हैं। उनको हम दोषी नहीं ठहरा सकते और न ही हम उन्हें प्रशंसा के पात्र बना सकते हैं। आदमी बाहर हो गया उस वर्तुल के, जहां से वह चुनाव के लिए स्वतंत्र है।
अब अगर मैं आत्म-अज्ञानी हूं, तो यह मेरा चुनाव है; और आत्म-ज्ञानी हूं, तो यह मेरा चुनाव है। अब अगर मैं दुखी हूं, तो यह मेरा चुनाव है; और आनंदित हूं, तो यह मेरा चुनाव है। आंखें खुली रखूं या बंद, यह मेरा चुनाव है। चारों ओर प्रकाश मौजूद है। अब अंधकार में रहना मेरे हाथ की बात है, और प्रकाश में रहना भी मेरे हाथ की बात है।
इसलिए मैंने कहा कि आत्म-अज्ञान के लिए भी मनुष्य जिम्मेवार है। अब मनुष्य अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकता। अब वह प्रतिपल ज्यादा से ज्यादा जिम्मेवार होता चला जाएगा। मनुष्य की यह जिम्मेवारी ही उसकी गरिमा और गौरव भी है; यही उसकी मनुष्यता भी है। यहीं से वह पशुता के बाहर निकलता है।
इसलिए यह भी मैं आपसे कहना चाहूंगा कि जिन चीजों में हम बिना चुनाव किए बहते हैं, उन चीजों में हम पशु के तुल्य ही होते हैं।
यह भी बहुत मजे की बात है कि हिंसा आमतौर से हम चुनते नहीं, अतीत की आदत के कारण करते चले जाते हैं। अहिंसा चुननी पड़ती है। इसलिए अहिंसा एक उत्तरदायित्व है और हिंसा एक पशुता है। अहिंसा मनुष्यता की यात्रा पर एक मंजिल है, हिंसा सिर्फ पुरानी आदत का प्रभाव है।
मैंने निश्चित ही कहा है कि हिंसा आत्म-अज्ञान से पैदा होती है। और इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। आत्म-अज्ञान भी हमारा चुनाव है, हिंसा भी हमारा चुनाव है। हम होना चाहें अहिंसक, तो अब कोई हमें रोक नहीं सकता। मनुष्य जो भी होना चाहे, हो सकता है। मनुष्य का विचार ही उसका व्यक्तित्व है; उसका निर्णय ही, उसकी नियति है; उसकी आकांक्षा ही, उसकी अभीप्सा ही, उसका आत्मसृजन है।
इसलिए अब कोई आदमी अपने मन में यह कभी भूल कर भी न सोचे कि वह जो है, उसमें वह क्या कर सकता है? क्रोध है, तो क्या कर सकता है? हिंसा है, तो क्या कर सकता है? अज्ञान है, तो क्या कर सकता है? आदमी को यह कहने का हक नहीं है। जैसे ही आदमी कहता है कि मैं क्या कर सकता हूं, वह यह खबर दे रहा है कि कर सकता है, और अपने को समझाने की कोशिश कर रहा है कि क्या कर सकता हूं! कोई पशु नहीं कहता कि मैं क्या कर सकता हूं? यह सवाल ही नहीं है।
आदमी जिस दिन कहता है, मजबूरी है, मैं क्या कर सकता हूं? हिंसक मुझे होना ही पड़ेगा! उस दिन वह यह कह रहा है कि मैं चुन भी रहा हूं और चुनाव की जिम्मेवारी भी छोड़ रहा हूं। मैं हिंसक हो भी रहा हूं और हिंसक होने का दोष किसी और के कंधों पर--प्रकृति के, परमात्मा के कंधों पर छोड़ रहा हूं।
जिस आदमी ने अपनी आदमियत का बोझ किसी और पर छोड़ा, वह पशुता की दुनिया में वापस गिर जाता है। असल में, वह आदमी होने से इनकार कर रहा है। जो आदमी चुनने से इनकार कर रहा है, वह आदमी होने से इनकार कर रहा है। वह यह कह रहा है कि नहीं, हम पशु बेहतर--जहां न कोई चुनाव है, न कोई जिम्मेवारी है, न कोई निर्णय है, न कोई परेशानी है। जो है, वह है। हम वापस लौटते हैं।
शराब पीकर आदमी पशु में वापस लौट जाता है। हिंसा करके आदमी पशु में वापस लौट जाता है। क्रोध करके आदमी पशु में वापस लौट जाता है।
इसलिए क्रोध से भरे व्यक्ति को अगर देखें तो उसमें सिर्फ आदमियत की रूपरेखा भर दिखाई पड़ती है, आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। हिंसा से भरी हुई आंखें देखें, तो उसमें आदमी की आंखें नहीं दिखाई पड़तीं, तत्काल आंखों में एक मेटामॉरफोसिस हो जाती है। आंखें बदल जाती हैं। भीतर से कोई छिपा हुआ पशु तत्काल प्रकट हो जाता है। इसलिए क्रोध में, हिंसा में आदमी पशु जैसा व्यवहार करता है; काटता है, चीखता है, नोचता है।
आदमी के नाखून छोटे पड़ गए हैं, क्योंकि उनकी बहुत जरूरत नहीं रह गई। जंगली जानवर के पास नाखून हैं, जो आपकी हड्डियों तक के मांस को बाहर खींच लाएं। लाखों वर्ष से आदमी को अब किसी की हड्डियों तक के मांस को खींचने की जरूरत नहीं रह गई, तो नाखून छोटे हो गए हैं। तो फिर आदमी को छुरी, भाले, बर्छियां बनानी पड़ी हैं। वे सब्स्टीट्यूट हैं, जिनसे वह जानवर का काम ले ले। क्योंकि नाखून उसके पास अब छोटे पड़ गए हैं। दांत उसके अब ऐसे नहीं रहे कि वह किसी के मांस को काट कर बाहर निकाल ले, तो उसने हथियार, औजार बनाए; गोलियां बनाई हैं जो आदमी की छाती में चुभ जाएं।
आदमी ने जितने अस्त्र-शस्त्र खोजे हैं, वह अपनी खो गई पशुता को सब्स्टीट्यूट करने के लिए, परिपूरक करने के लिए खोजे हैं। जो जानवरों के पास है वह हमारे पास नहीं है, तो हमें बनाना पड़ा है।
निश्चित ही, जब हमने बनाया है तो हमने जानवरों से बेहतर बना लिया है।
किस जानवर के पास एटम बम है? किस जानवर के पास सैकड़ों मील दूर बम फेंकने के उपाय हैं? नहीं, जानवर के पास बड़े प्रकृति-प्रदत्त साधन हैं। और आदमी ने अपनी सारी बुद्धिमत्ता का उपयोग करके--करोड़ों जानवरों को इकट्ठा करके भी जो न हो सके, वह एक आदमी कर सकता है। यह आदमी का अपना चुनाव है।
जिस दिन किसी आदमी को यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ जाती है कि जो भी मैं हूं, उसकी जिम्मेवारी मेरी है, उसी दिन से परिवर्तन और रूपांतरण शुरू हो जाता है। जिस आदमी की जिंदगी में अभी यह खयाल है कि जो मैं हूं, हूं; मेरा कोई वश नहीं, उस आदमी की जिंदगी में धर्म के मंदिर का द्वार कभी भी नहीं खुल सकता है।
उत्तरदायित्व, मैं ही निर्णायक हूं मेरी नियति का, इस बात का बोध मनुष्य की जिंदगी को परिवर्तित करता है।
इसलिए मैंने कहा कि आत्म-अज्ञान के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेवार है। जिम्मेवार इस अर्थों में कि वह तोड़ सकता है, और नहीं तोड़ रहा है; मिटा सकता है, और नहीं मिटा रहा है; मुक्त हो सकता है, और नहीं मुक्त हो रहा है।

भगवान, कृपया समझाएं कि ध्यान-साधना में हिंसक-वृत्तियों का विसर्जन और उदात्तीकरण अर्थात डिजोल्यूशन और सब्लीमेशन किस प्रकार घटित होता है?

हिंसा की वृत्ति अकेली वृत्ति ही नहीं है, हिंसा की वृत्ति के साथ हिंसा के अनेक वेगों का दमन भी संयुक्त है, सप्रेशन भी संयुक्त है। हिंसा की वृत्ति तो है ही, हिंसा करने की आकांक्षा भी है। लेकिन हजार मौकों पर हिंसा करने का उपाय नहीं होता है। हिंसा करना चाहते हैं और नहीं कर पाते हैं। संस्कृति है, सभ्यता है, जीवन की व्यवस्था है, परिस्थितियां हैं, प्रतिकूलताएं हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने किसी क्षण में किसी दूसरे को मार डालने का विचार न किया हो! ऐसा आदमी भी खोजना मुश्किल है, जिसने किसी क्षण में अपने को ही मार डालने का विचार न किया हो! दिन में न किया होगा, तो रात सपने में किया होगा। लेकिन सभी आदमी दूसरों को मार नहीं डालते, और सभी आदमी आत्महत्याएं नहीं कर लेते। सोचते हैं, प्रतिकूलताएं हैं... संभव नहीं हो पाता।
और जब एक बार हिंसा का भाव मन में उठ जाए और प्रकट न हो पाए, तो वृत्ति तो रहती ही है, यह भाव का वेग भी दमित हो जाता है। यह भी इकट्ठा होने लगता है। हिंसा की वृत्ति तो भीतर बनी रहती है, और न की गई हिंसाएं, हिंसा की की गई भावनाएं भी संगृहीत होती चली जाती हैं। एक जन्म की नहीं, अनेक जन्मों की भी इकट्ठी हो जाती हैं। उस संग्रह को भी हम अपने साथ लेकर चल रहे हैं। वृत्ति तो साथ है, दबाए हुए वेग भी साथ हैं। वृत्ति रोज नये वेग पैदा करती है और पुराने वेगों का संग्रह बढ़ता चला जाता है। और किसी भी क्षण विस्फोट हो सकता है।
इसलिए हिंसा की वृत्ति से जो मुक्ति है, उस मुक्ति में दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं: हिंसा की वृत्ति का तो विसर्जन होना ही चाहिए, हिंसा के दबे हुए, दबाए गए वेगों का विसर्जन भी जरूरी है। हिंसा की वृत्ति मिटेगी, तो मैं आने वाले भविष्य में हिंसा के वेगों को पैदा नहीं करूंगा, लेकिन मैंने जो अतीत में वेग दबाए हैं, उनका विसर्जन, उनका रेचन, उनकी कैथार्सिस भी होनी जरूरी है।
महावीर ने बहुत सुंदर शब्द कैथार्सिस के लिए प्रयोग किया है। पश्चिम में मनसशास्त्री जिसे कैथार्सिस कहते हैं, रेचन कहते हैं, महावीर ने उसे ‘निर्जरा’ कहा है। वह बहुत अदभुत शब्द है।
निर्जरा का अर्थ है, विदरिंग अवे। निर्जरा का अर्थ है, किसी चीज का झड़ जाना। कोई चीज जो इकट्ठी है, बिखर जाना। निर्जरा का अर्थ है, अगर ऊपर धूल इकट्ठी हो गई है, तो धूल के कणों को फेंक कर अलग कर देना।
बहुत वेग हमारे भीतर इकट्ठे हैं। ध्यान में इनकी निर्जरा, इनकी कैथार्सिस की जा सकती है; और सिर्फ ध्यान में ही की जा सकती है। और कोई उपाय मनुष्य के दबे हुए वेगों की निर्जरा का नहीं है।
ध्यान में कैसे की जा सकती है?
जब आपके मन में किसी को घूंसा मारने की इच्छा पैदा होती है, तब आप एक छोटा सा प्रयोग करके देखेंगे और बहुत हैरान होंगे और यह प्रयोग मैं मजाक में नहीं कह रहा हूं। अमरीका में एक बड़ी वैज्ञानिक प्रयोगशाला इस प्रयोग को आज कर रही है।
कैलिफोर्निया में एक संस्था है, इसालेन इंस्टीट्यूट। शायद अमरीका में एक बहुत कीमती ऋषि आज मौजूद है। उस आदमी का नाम है, पर्ल्स। वह जिन लोगों के मन में बड़ी हिंसा है, उनकी आंखों पर पट्टियां बंधवा देता है, तकिए उनके सामने रख देता है, और कहता है, मारो घूंसे और समझो कि दुश्मन सामने है। जिसे तुम्हें मारना है, उसी को मारो!
पहले तो आदमी हंसता है कि तकिए को कैसे मारें! लेकिन किसी दूसरे आदमी को मारने में और तकिए को मारने में हाथ को कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। और किसी आदमी को मारने में और किसी तकिए को मारने में, खून में जो विष पैदा हो गया है, उसके निकलने में भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। दूसरा आदमी भी तकिए से ज्यादा और क्या है?
तो पर्ल्स अपने हिंसक मरीज को कहेगा कि मारो तकिए को!
पहले वह हंसेगा, लेकिन पर्ल्स कहेगा, हंसो मत, मारो! वह कहेगा, क्या मजाक करते हैं! लेकिन पर्ल्स कहेगा, छोड़ो, मजाक ही सही, लेकिन मारो! वह तकिए को मारना शुरू करेगा और थोड़ी ही देर में आस-पास खड़े लोग देख कर हैरान होंगे कि न केवल मारने में उसकी गति आ गई, न केवल वह तकिए से जूझने लगा, न केवल तकिए से वह दुश्मनी निकाल रहा है, वह तकिए को चीरेगा, फाड़ेगा, मुंह से काट डालेगा, तकिए के टुकड़े-टुकड़े कर देगा! और जिन लोगों को भी इन प्रयोगों से गुजरना पड़ा है, वे प्रयोग के बाद कहेंगे, मन बहुत हलका हो गया है। इतना हलका कभी भी नहीं था।
यह पर्ल्स क्या कह रहा है? यह यह कह रहा है कि तुमने अब तक हिंसा सकारण निकाली है, किसी पर निकाली है। अब तुम हवा में निकाल लो, किसी पर मत निकालो; क्योंकि जब भी किसी पर निकाली जाएगी, तो उसकी प्रतिक्रियाएं होंगी।
अगर मैं किसी को घूंसा मारूंगा, तो यह घूंसा आकाश में खो नहीं जाएगा, यह अंतरिक्ष इसको एब्जॉर्ब नहीं कर लेगा। जिसको घूंसा मारूंगा, वह इसका उत्तर देगा। आज देगा, कल देगा, परसों देगा--प्रतीक्षा करेगा, लेकिन उत्तर देगा। और जब मैं किसी को घूंसा मारूंगा, हो सकता है वह बुद्ध जैसा, महावीर जैसा कोई आदमी हो, और उत्तर न भी दे, तो भी जैसे ही मैं किसी को घूंसा मारूंगा, मेरे मन में भी प्रतिक्रिया और पश्चाताप होगा।
और क्रोध ही बुरा नहीं है, पश्चात्ताप भी उतना ही बुरा है। क्योंकि पश्चात्ताप उलटा हो गया क्रोध है, पश्चात्ताप शीर्षासन करता हुआ क्रोध है। पश्चात्ताप भी उतना ही बुरा है। असल में, पश्चात्ताप करके आदमी फिर से क्रोध करने की तैयारी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करता है। जब एक आदमी रिपेंट करता है और कहता है, बहुत बुरा हुआ कि मैंने क्रोध किया, तब वह अपने मन को यह समझा रहा है कि मैं इतना बुरा आदमी नहीं हूं, एक बुरा काम हो गया है, यह दूसरी बात है।
पश्चात्ताप करके वह अपने अच्छे आदमी को वापस पुनर्स्थापित कर रहा है। वह री-इस्टैब्लिश कर रहा है अपनी पुरानी इज्जत को अपनी ही आंखों में। और जैसे ही पुनर्स्थापित हो जाएगा, कल फिर घूंसा मारने के लिए तैयार हो जाएगा। परसों फिर पश्चात्ताप, फिर घूंसा। क्रोध और पश्चात्ताप का एक दुष्ट-चक्र घूमता रहेगा।
और जब हम किसी व्यक्ति को घूंसा मारते हैं, तो न केवल पश्चात्ताप होता है, बल्कि वह घूंसे का उत्तर देगा, इसकी पुनः तैयारी शुरू हो जाती है। इसलिए हिंसा फिर एक दुष्ट-चक्र बन जाती है, जिसके बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है।
लेकिन तकिए को अगर एक आदमी घूंसा मार रहा है, तो यह कुछ भी नहीं घटता। तकिए को घूंसा मारने में निर्जरा हो रही है। पर्ल्स तकिए को घूंसा मारने को कह रहा है, क्योंकि जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, वह बहुत ऑब्जेक्टिव हो गई है। महावीर पच्चीस सौ साल पहले थे। वे कहते, हवा में ही घूंसा मार दो, तकिए की क्या जरूरत है? लेकिन हम कहेंगे, हवा में घूंसा? तकिए को तो फिर भी मारने जैसा लगता है। वह आदमी की पीठ जैसा लगता है, पेट जैसा लगता है! तकिए को घूंसा छुएगा तो ऐसा ही लगेगा कि किसी को छुआ, थोड़ा सा तो तकिया भी उत्तर देगा।
दुनिया पच्चीस सौ साल में महावीर के बाद वस्तुगत हो गई है। महावीर ने जिस ध्यान की बात की है, उस ध्यान में तकिए की भी कोई जरूरत नहीं है। मैं भी जिस ध्यान की बात करता हूं, उसमें भी तकिए की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन शायद अमरीका में तकिए के बिना घूंसा मारना और भी मुश्किल हो जाएगा। वस्तुगत कुछ तो होना ही चाहिए। आदमी न सही, तो तकिया सही।
महावीर तो तकिए को भी मारने को मना करेंगे। वे तो अगर कहेंगे पर्ल्स को, तो उससे कहेंगे कि इसमें भी थोड़ी सी हिंसा हो रही है। यह आदमी तकिए में अपने दुश्मन को प्रोजेक्ट कर रहा है। कोई दुश्मन नहीं है, जिसको चोट पहुंच रही है, लेकिन इस आदमी को किसी को मारने का मजा और रस आ रहा है। यह रस भी हिंसा की धारा को थोड़ा न बहुत जारी रखेगा। इससे हिंसा की पूर्ण निर्जरा नहीं हो जाएगी।
इसलिए पर्ल्स की लेबोरेटरी से गए लोग दो-चार-छह महीने बाद फिर वापस आ जाएंगे और कहेंगे, हिंसा फिर मन में इकट्ठी हो गई। अब फिर उनको तकिया चाहिए और फिर उनको मारना पड़ेगा।
ध्यान की प्रक्रिया कहती है कि आप किसी की फिकर छोड़ दें, सब्जेक्टिव वायलेंस कर लें। सब्जेक्टिव वायलेंस का मतलब अपने साथ हिंसा कर लें नहीं, सब्जेक्टिव वायलेंस का मतलब, सिर्फ हिंसा को हो जाने दें--बिना किसी ऑब्जेक्ट के, बिना किसी विषय के, बिना किसी वस्तु के।
एक आदमी ध्यान में चीख मार कर चिल्लाए, घूंसे मारे, नाचे, कूदे, तो उसके भीतर जो हिंसा के दबे हुए वेग हैं, उनकी निर्जरा होती है। वे गिर जाते हैं। एक घंटे भर के किसी भी दिन प्रयोग के बाद आप इस बात का अनुभव कर सकते हैं कि आपके भीतर के दबे हुए वेग उड़ गए, आप हलके होकर कमरे के बाहर आ गए। उस दिन दिन भर आप क्रोध न कर पाएंगे, उतनी आसानी से जितनी आसानी से कल किया था। उतनी आसानी से किसी को घूंसा न बांध लेंगे, जितनी आसानी से सदा बांधा था। वे ही कारण, जो कल आपकी आंखों को लाल खून से भर देते, आज आपकी आंखों को झील की तरह नीला ही छोड़ जाएंगे। और एक हंसी भी अपने पर आनी शुरू होगी कि जो हिंसा ऐसे ही निर्जरा हो सकती थी, उसे अकारण ही मैंने दूसरों को पीड़ा देकर दुष्ट-चक्र निर्मित किए, विसियस सर्किल बनाए।
महावीर एक गांव के पास खड़े थे और कुछ लोगों ने आकर उन्हें बहुत पीटा। किसी ने उनके कान में खीलियां ठोक दीं। वे खड़े देखते रहे। पीछे किसी ने उनसे पूछा कि आपने कुछ भी न कहा? आप कुछ तो बोलते, इतना तो कहते कि अकारण मुझे क्यों मार रहे हो?
तो महावीर ने कहा: अकारण वे नहीं मार रहे थे। उनके भीतर मारने की बात का जरूर ही कोई कारण रहा होगा। हो सकता है, मुझसे संबंधित न हो कारण, लेकिन उनके भीतर तो कारण रहा ही होगा। और फिर मैंने सोचा कि वे मुझे ही मार लें तो बेहतर है, वे किसी दूसरे को मारेंगे, तो बिना मार का उत्तर पाए वापस न लौटेंगे। उनकी हिंसा की निर्जरा हो जाए। तो मुझसे बेहतर आदमी उन्हें खोजना मुश्किल है।
महावीर तकिए की तरह ही व्यवहार किए उन लोगों के साथ।
ध्यान में, दबे हुए समस्त वेगों की निर्जरा होती है--वे चाहे हिंसा के हों, चाहे क्रोध के हों, चाहे काम के हों, चाहे लोभ के हों--ध्यान में समस्त दबे वेगों की निर्जरा होती है। और जब वेग की निर्जरा हो जाए, जब सप्रेस्ड, दबी हुई शक्तियां बिखर जाएं, तो वृत्ति से छुटकारा पाने में बड़ी आसानी हो जाती है। जब किसी के घर की तिजोरी का सारा धन फिंक जाए, तो तिजोरी को फेंकने में बहुत देर नहीं लगती। तिजोरी को तो आदमी बचाता ही इसलिए है कि उसके भीतर जो धन इकट्ठा है। अगर धन तिजोरी का सारा बांट दिया गया हो, तो तिजोरी को दान करने में बहुत कठिनाई नहीं पड़ती।
हिंसा की वृत्ति से छुटकारा पाना उतना कठिन नहीं पड़ेगा। हिंसा के वेग, जो हिंसा की वृत्ति को तिजोरी बना कर बैठ गए हैं, उनसे छुटकारा पाना ही पहला सवाल है। और जिस दिन सारे वेग मुक्त हो जाते हैं, उस दिन हिंसा अपनी नग्नता में, अपनी टोटल नेकेडनेस में दिखाई पड़ती है। और जब कोई व्यक्ति हिंसा को उसकी पूरी नग्नता में देखने में समर्थ हो जाता है, तो एक क्षण भी हिंसक नहीं रह सकता। क्योंकि हिंसा को उसकी पूरी नग्नता में देखना, उससे मुक्त हो जाना है। वह इतनी पीड़ा है, वह इतनी कुरूपता है, वह इतनी गंदगी है कि उसमें कोई एक क्षण भी रुकने को राजी नहीं होगा। वह ऐसा ही है हिंसा को उसकी पूरी नग्नता में देखना, जैसे किसी के घर में आग लग गई हो, और लपटों में घर घिर जाए, और फिर कोई आदमी जब लपटों को देख ले, तो एक भी क्षण उस घर में रुकना संभव न हो। वह छलांग लगाए और बाहर निकल जाए। ठीक ऐसे ही हिंसा की लपटों में घिरा आदमी बाहर कूद पड़ता है।
लेकिन हिंसा की लपटें दिखाई नहीं पड़तीं, क्योंकि हिंसा की वृत्ति और स्वयं के बीच में न मालूम कितनी पर्तें हैं दबे हुए वेगों की। उन वेगों के कारण हिंसा की वृत्ति का दर्शन नहीं हो पाता। उसके कारण नेकेड वायलेंस दिखाई नहीं पड़ती। उसके कारण हमेशा ही हमें यही दिखाई पड़ता है कि हिंसा भी हमारी मित्र है, क्योंकि हिंसा का हमें उपयोग करना है। कल कोई दुश्मन होगा, कल कोई हमला करेगा, तो जवाब कैसे देंगे? वे जो बीच में दबे हुए वेग हैं, उनकी लंबी धुएं की पर्त के कारण हिंसा की नग्नता दिखाई नहीं पड़ती।
ध्यान, वेगों से मुक्ति दिला कर हिंसा का आमना-सामना, एनकाउंटर करा देता है। और जिस आदमी ने भी हिंसा को देख लिया, वह अहिंसक हो गया। जिस आदमी ने भी हिंसा को पहचान लिया, उसके हिंसक होने के फिर उपाय नहीं रह जाते हैं। कोई भी आदमी जान कर नरक में उतरने को कभी राजी नहीं होता है। और अगर कभी कोई नरक में उतरता है, तो वह नरक को स्वर्ग समझ कर ही उतरता है। कोई आदमी कभी आग की लपटों में उतरता नहीं और अगर उतरता है तो आग की लपटों को स्वर्ग का द्वार समझ कर ही उतरता है।
ध्यान विसर्जन है, निर्जरा है, कैथार्सिस है। ध्यान का अर्थ है: आपके भीतर जो हो रहा है, उसे अकारण प्रकट हो जाने दें--किसी पर नहीं, शून्य में। उसे शून्य को समर्पित कर दें।
अब क्रोध आए, तो एक छोटा सा प्रयोग करके देख लें। जब क्रोध आए, तो द्वार बंद कर लें और खाली कमरे में क्रोधित हो जाएं। पूरा क्रोध कर लें खाली कमरे में। बहुत हंसी आएगी, क्योंकि बड़ा अजीब मालूम पड़ेगा, एब्सर्ड मालूम पड़ेगा। सदा क्रोध दूसरे पर किया है, लेकिन एक बार अकेले में करके देख लें और तब दूसरे पर करना मुश्किल होता जाएगा। पहली दफे अकेले में हंसी आएगी और दूसरी दफे से दूसरे पर करने में हंसी आने लगेगी। क्योंकि जो पागलपन आप अकेले में भी नहीं कर सकते, वह पागलपन आप सबके सामने कैसे कर सकते हैं? और जो पागलपन अकेले में भी हंसी लाता है, वह चार आदमियों के सामने करके लोगों के मन में आपकी क्या तस्वीर बनाता होगा? इसकी कल्पना कमरे में आईना रख कर और दिल खोल कर क्रोध करके देख लें। तोड़ना ही हो, तो आईने को तोड़ देना। फोड़ना ही हो, तो आईने को फोड़ देना। और उस सारे विध्वंस के बीच खड़े होकर देखना कि आपके भीतर किस तरह के जहर हैं! इनकी निर्जरा होगी। इनकी कैथार्सिस होगी। ये गिर जाएंगे। और इनके गिरने के बाद आप अपनी हिंसा को देखने में समर्थ हो सकते हैं।
हिंसा से मुक्ति के लिए हिंसा का दर्शन अनिवार्य है।

भगवान, आपने कहा है कि काम-क्रीड़ा में सूक्ष्म हिंसा है। लेकिन क्या संभोग दो व्यक्तियों के परस्पर संपर्क से बायोलॉजिकल सुख पैदा करने का आयोजन नहीं है? क्योंकि इस घटना के सुख में दोनों भागीदार होते हैं, इसलिए क्या इसमें म्युचुअल, परस्पर सहानुभूति और प्रेम आधार नहीं है?

ऋषभ से लेकर पार्श्व तक, धर्म को चार सूत्र दिए गए थे। कहें कि धर्म का रथ चार पहियों वाला था। या कहें कि धर्म के पास चार पैर थे। चतुर्यान था धर्म। महावीर ने एक पांचवां सूत्र जोड़ा: ब्रह्मचर्य। महावीर के पहले पार्श्व तक किसी ने ब्रह्मचर्य को धर्म का सूत्र नहीं बताया था।
यह बड़े मजे की बात है और काफी समझ लेने की। यह आश्चर्यजनक मालूम होगा कि ऋषभ से लेकर पार्श्व तक के चिंतकों ने, अनुभवियों ने ब्रह्मचर्य को धर्म का सूत्र नहीं बताया। क्योंकि पार्श्व तक यही समझा जाता रहा कि जो अहिंसा को पा लेगा, उसके जीवन में ब्रह्मचर्य अनायास ही उतर जाएगा। क्योंकि काम अपने आप में एक गहरी हिंसा है, सेक्स अपने आप में एक गहरी हिंसा है।
काम को हिंसा क्यों कहा जा सकता है, इस संबंध में दो-चार सूत्र समझने उपयोगी हैं। और महावीर ने क्यों ब्रह्मचर्य को अलग सूत्र दिया, यह भी थोड़ा सोच लेना उचित होगा।
महावीर का नाम अहिंसा के साथ गहराई से जुड़ा है; इतना कोई दूसरा नाम नहीं जुड़ा है। लेकिन आश्चर्य होगा आपको यह जान कर कि महावीर को अहिंसा से ब्रह्मचर्य अलग कर देना पड़ा। और कर देने का कुल कारण इतना है कि महावीर जिन लोगों के बीच बात कर रहे थे, वे बहुत गहरी अहिंसा समझने में असमर्थ थे, वे बहुत ही उथली अहिंसा समझ पाते थे। उतनी उथली अहिंसा में काम नहीं आता। अहिंसा जब बहुत गहरी होती है, तभी पता चलता है कि कामवासना भी हिंसा का एक रूप है। लेकिन पार्श्व तक चर्चा नहीं करनी पड़ी, क्योंकि अहिंसा बड़े गहरे अर्थों में ली जाती रही। क्यों? दो तीन बातें हैं।
एक तो जैसा मैंने कहा, जैसे ही किसी व्यक्ति को दूसरे की चाह पैदा होती है, वह आदमी दुखी है, इसका सबूत हो गया। जैसे ही कोई व्यक्ति कहता है कि मेरा सुख दूसरे से मिलेगा, वैसे ही वह व्यक्ति दुखी है, यह तय हो गया। और जो अपने से भी सुख नहीं पा सका, वह दूसरे से सुख पा सकेगा, यह असंभव है। भ्रम पा सकता है, सुख नहीं पा सकता; धोखा पा सकता है, तथ्य, सत्य नहीं पा सकता; सपने देख सकता है, लेकिन जाग-जाग कर रोएगा।
दूसरे की आकांक्षा ही इस बात का सबूत है कि अभी सुख का सूत्र नहीं मिला। और दूसरे की आकांक्षा के बिना तो काम नहीं हो सकता, सेक्स नहीं हो सकता! वह दूसरे की आकांक्षा में छिपा है। इसलिए भी काम हिंसा है। और इसलिए भी, कि एक व्यक्ति के पास जो वीर्यकण हैं, वे जीवित हैं।
आज पृथ्वी पर साढ़े तीन अरब लोगों की संख्या है। एक साधारण व्यक्ति के जीवन में जितने वीर्यकण बनते हैं, उतने वीर्यकणों से इतनी संख्या पैदा हो सकती है--सारी पृथ्वी की। और एक व्यक्ति जीवन भर इन वीर्यकणों का काम के लिए उपयोग करता रहता है। संभोग के दो घंटे के भीतर, जितने वीर्यकण शरीर के बाहर जाते हैं, दो घंटे के भीतर मर जाते हैं। अगर एकाध वीर्यकण स्त्री के अंडे तक पहुंच गया, तो वह नई जीवन की यात्रा पर निकल जाता है, शेष वीर्यकण दो घंटे के भीतर मर जाते हैं। एक संभोग में लाखों वीर्यकण मरते हैं। ये वीर्यकण बीज-रूप में जीवन हैं। इनमें से प्रत्येक वीर्यकण एक मनुष्य बन सकता है। इसलिए एक संभोग में लाखों व्यक्तियों की हत्या तो हो ही रही है। यह लाखों व्यक्तियों की हत्या हिंसा है।
तीसरी बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है। जिस एक व्यक्ति के पैदा होने की संभावना है, अहिंसा को जिन्होंने बहुत गहरे जाना है, वे कहेंगे कि जिसको तुमने जन्म दिया, उसे तुमने मरने के लिए पैदा किया है। असल में, जन्म मरने की शुरुआत है। जन्म एक छोर है, मौत दूसरा छोर होगी।
तो पिता जन्म के लिए ही जिम्मेवार हो, तो आधी जिम्मेवारी ले रहा है। मरने की जिम्मेवारी किसकी होगी? मां अगर जन्म देने की ही जिम्मेवारी ले रही है, तो आधी जिम्मेवारी ले रही है। मरने की जिम्मेवारी किसकी होगी? यह तो बड़ी बेईमानी का सौदा हुआ कि जन्म की जिम्मेवारी मां ले ले, पिता ले ले, और मरने की...?
असल में, जन्म एक छोर है, मौत उसी का ही दूसरा छोर है। इसलिए पूर्ण अहिंसक चित्त पिता और मां बनने की जिम्मेवारी लेने में असमर्थ होता है। उसका गहरा कारण है। वह किसी की मृत्यु का कारण नहीं बन सकता। और जन्म देना, किसी की मृत्यु का कारण बनना है। भला सत्तर साल बाद वह मृत्यु हो। इस टाइम गैप से कोई फर्क नहीं पड़ता है। समय के अंतराल से कोई फर्क नहीं पड़ता है। तो काम-क्रीड़ा में जो वीर्यकण दो घंटे बाद मर जाएंगे, वे मर ही जाएंगे, जो वीर्यकण बचेगा, वह भी सत्तर वर्ष बाद, अस्सी वर्ष बाद मर जाएगा।
काम-क्रीड़ा जन्म के रूप में मृत्यु को ही जन्माती चली जाती है। लेकिन जीवन का सारा धोखा यही है कि पहले दरवाजे पर लिखा होता है--जन्म, और पिछले दरवाजे पर लिखा होता है--मृत्यु। जब आप भीतर प्रवेश करते हैं, तो जन्म का दरवाजा देख कर प्रवेश करते हैं; और जब बाहर निकाले जाते हैं, तब मृत्यु के दरवाजे से निकाले जाते हैं। जीवन का धोखा यही है, पहले दरवाजे पर, एंट्रेंस पर लिखा होता है, सुख। और पीछे के दरवाजे पर लिखा होता है, दुख। जब प्रवेश करते हैं, तब सुख की आकांक्षा में, और जब बाहर निकलते हैं, तो फ्रस्ट्रेटेड, दुख से विक्षिप्त और पागल।
मैंने एक मजाक सुनी है। मैंने सुना है कि न्यूयार्क में एक आदमी ने बहुत सी अजीब चीजें इकट्ठी कर ली थीं और एक अजायबघर बना रखा था। लेकिन चीजें इतनी अजीब थीं कि जो भी आदमी अजायबघर में देखने आते थे, वे देखते ही रहते थे, निकलने को राजी नहीं होते थे! अब जब तक वे न निकल जाएं, तब तक दूसरे टिकट लेने वाले द्वार पर खड़े थे, वह उनको आने का सवाल होता। तो बड़ी मुश्किल हो गई थी। आखिर भीतर के लोगों को बाहर निकालना ही पड़ेगा, क्योंकि दरवाजे पर दूसरे लोग दस्तक दे रहे हैं कि अब उनको भीतर आने दिया जाए! और जो भीतर आता वह बाहर निकलता ही नहीं।
तो उस अजीब चीजें संगृहीत करने वाले आदमी ने एक कारीगिरी, एक कुशलता की। शायद वह कुशलता उसने प्रकृति से ही सीखी होगी। कोई दस-बारह कमरे थे उस अजायबघर के। एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने की तख्ती लगी थी और तीर बना था। पहले कमरे पर तीर लगा होता था: और भी अदभुत चीजें हैं--और तीर अगले कमरे में ले जाता था। और बारहवें कमरे पर सबसे बड़ा तीर लगा था और लिखा था: और भी सबसे अदभुत चीजें हैं, जो न कभी देखी हैं, न कभी सुनी हैं! और जब आदमी उसमें से निकलता था, तो सीधा सड़क पर पहुंच जाता था! और पीछे लौटने का उपाय नहीं था। दरवाजे पर संतरी खड़ा था। फिर लौटना हो, तो टिकट लेकर पहले दरवाजे से ही वापस लौटना पड़ता था। जिस दिन से यह तख्ती लगाई गई, उस दिन से उस म्यूजियम में कभी भीड़ नहीं हुई, क्योंकि वह ‘और भी अदभुत चीजें’ देखने आदमी सड़क पर पहुंच जाता!
जन्म की तख्ती सामने के द्वार पर है, मृत्यु की तख्ती पीछे के द्वार पर है। अहिंसा को जिन्होंने गहरा जीया है, जिन्होंने जाना है, वे यह भी कहेंगे कि जन्म देना भी हिंसा है।
इन तीन कारणों से काम-क्रीड़ा हिंसा का ही एक रूप है। और दुखी मनुष्य--जैसा मैंने पहले कहा--दूसरे से सुख पाना चाहता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि वह जो दूसरा आदमी आपसे काम-क्रीड़ा में संलग्न हो रहा है, वह भी दुखी है, और आपसे सुख पाना चाहता है! ये दो भिखमंगे एक-दूसरे से भीख मांग रहे हैं।
मैंने सुना है कि एक गांव में दो ज्योतिषी थे। वे रोज सुबह अपना ज्योतिष का काम करने बाजार जाते थे। तो रास्ते में जब मिल जाते, तो एक-दूसरे को अपना हाथ दिखा लेते थे कि क्या खयाल है, आज धंधा कैसा चलेगा?
हम सारी जिंदगी ऐसा ही कर रहे हैं। सब दुखी हैं और एक-दूसरे से सुख मांग रहे हैं। जिससे मैं सुख मांगने गया हूं, वह मुझसे सुख मांगने आया है! स्वभावतः, इन दो दुखी आदमियों का अंतिम परिणाम दुगुना दुख होगा, सुख नहीं। दुख दुगुना हो जाएगा। बल्कि दुगुना कहना ठीक नहीं, क्योंकि जिंदगी में जोड़ नहीं होते, गुणनफल होते हैं। यहां चीजें जुड़ती नहीं, गुणित हो जाती हैं। यहां चार और चार मिल कर आठ नहीं होते, सोलह हो जाते हैं। जिंदगी में जब दो आदमी दुखी मिलते हैं, तो सिर्फ उनका दुख जुड़ नहीं जाता, उनका दुख कई गुना हो जाता है।
मैं दूसरे को दुख देने का कारण बनूं--हिंसा है। और जब तक मैं दुखी हूं, तब तक मेरे सभी संबंध--जो मैं निर्मित करूंगा--वे दुख देने वाले ही होंगे। इसलिए अहिंसक कहेगा, जब तक हिंसा है चित्त में, दुख है चित्त में, तब तक संग ही मत बनाओ, संबंध मत बनाओ, क्योंकि सब संबंध दुख को ही फैलाएंगे। असंग हो जाओ, संबंध के बाहर हो जाओ! जिस दिन आनंद भर जाए, उस दिन संबंधित हो जाना!
लेकिन कठिनाई यही है जिंदगी की कि जो दुखी हैं, वे संबंधित होना चाहते हैं; जो आनंदित हैं, उन्हें संबंध का पता ही नहीं रह जाता! ऐसा नहीं कि वे संबंधित नहीं होते, लेकिन उन्हें पता नहीं रह जाता; कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। अगर उनसे लोगों के संबंध भी बनते हैं, तो सदा वन वे ट्रैफिक होते हैं। दूसरे लोग ही उनसे संबंधित होते हैं। वे तो असंग, अनरिलेटेड खड़े रह जाते हैं। दूसरे ही उन्हें छूते हैं, वे दूसरे को नहीं छू पाते। हां, उनका आनंद जरूर जो उनके निकट आता है, उन पर बरसता रहता है। वह वैसे ही बरसता रहता है, जैसे सूरज की किरणें बरसती हैं। वह वैसे ही बरसता रहता है, जैसे वृक्षों में खिले हुए फूल बरसते रहते हैं। किसी के लिए नहीं, वृक्ष के पास बहुत हो गए हैं इसलिए ओवरफ्लोइंग है। चीजें बाढ़ में आ गई हैं और बरसती रहती हैं।
दुखी आदमी संबंध खोजता है, और जिनसे संबंध खोजता है, सिर्फ उन्हें दुखी छोड़ पाता है। किस आदमी ने संबंध बना कर सुख पाया? किस आदमी ने संबंधित होकर किसी को सुख दिया? नहीं कोई दे पाता है। यह सारी पृथ्वी दुखी लोगों की पृथ्वी है। और यह सारी पृथ्वी दुखी लोगों के प्रयास से--सुख पाने के और सुख देने के प्रयास से--करोड़ गुना दुखी होकर नरक बन गई है।
काम-क्रीड़ा हिंसा का एक रूप है, क्योंकि दुखी चित्त की खोज है। अहिंसा आनंदित चित्त का बहाव है। हिंसा दुखी चित्त का, विक्षिप्त रोगों का दूसरों में संक्रमण है, इनफेक्शन है। इसलिए, इसलिए पार्श्व तक ब्रह्मचर्य को अलग सूत्र ही नहीं गिना।
महावीर को गिनना पड़ा। क्योंकि महावीर जिस समाज में पैदा हुए वह एक डेकाडेंट सोसाइटी थी। वह एक मरता हुआ समाज था। महावीर जिस समाज में पैदा हुए वह भारत के शिखर पर पहुंचा हुआ समाज था उन्नति के, और जब उन्नति के शिखर पर कोई समाज पहुंच जाता है, तो पतन शुरू हो जाता है। सब शिखर पर पहुंचे हुए समाज पतित होते समाज होते हैं। जैसे अमरीका आज एक डेकाडेंट सोसाइटी है। अब एक शिखर छू लिया है। अब पतन। सब चीजों में बिखराव होगा। जहां-जहां शिखर छू लिया जाएगा, वहां-वहां बिखराव होगा।
महावीर जिस समय भारत में पैदा हुए, उस समय, विशेषकर बिहार अपनी उन्नति के स्वर्ण-शिखर पर था। सब तरफ स्वर्ण था। सब तरफ उन्नति ऊंचाई पर थी। सब चीजें सड़ रही थीं और गिर रही थीं। इस समाज के बीच महावीर जैसे व्यक्ति को अहिंसा की बात करनी पड़ी। इस बात को बहुत गहरे तक ले जाना मुश्किल था, क्योंकि जो कान थे, वे बहरे थे।
ऋषभ को जो लोग मिले थे, वे सीधे-सरल लोग थे। विकासमान समाज था, डेकाडेंट नहीं। इवॉल्व हो रहा था, विकसित हो रहा था। लोग बच्चों की तरह भोले थे, सरल थे, सीधे थे। उनसे बहुत गहरी बात की जा सकती थी और वे गहरी बात सुन सकते थे। अभी बहरे नहीं हो गए थे। अभी सभ्यता और संस्कृति के शोर ने उनके कानों को फोड़ नहीं डाला था। अभी उनकी आत्माओं में बच्चों की सरलता और ताजगी थी। अभी वहां गीत पहुंच सकते थे। अभी वहां स्वर पहुंच सकते थे। इसलिए ब्रह्मचर्य की बात ही नहीं की। क्योंकि अहिंसा में ही ब्रह्मचर्य अपने आप समाविष्ट हो जाता था।
लेकिन महावीर को सूत्र पांच कर देने पड़े। चार की जगह एक सूत्र और बढ़ाना पड़ा। क्योंकि यह समझाना लोगों को मुश्किल हुआ कि अहिंसा इतनी गहरी हो सकती है कि काम, सेक्स भी हिंसा हो जाए। और इसीलिए तो महावीर के आधार पर जो विचार की परंपरा चली, वह परंपरा अहिंसा की उन गहराइयों को नहीं छू पाई, जो ऋषभ और पार्श्व के मन में थीं! महावीर के आधार पर जो विचार चला, उसके लिए अहिंसा--चींटी मत मारो, पानी छान कर पीयो, हिंसा मत करो, किसी को मारो मत, दुख मत दो, मांस मत खाओ--इस तरह की ऊपरी अहिंसा बन कर रह गई है।
यह इसके जिम्मेवार महावीर नहीं, महावीर के आस-पास जो लोग थे, जिनसे उन्हें बात करनी थी, वे लोग जिम्मेवार हैं। और वह परंपरा बहुत साधारण होकर रह गई।
सोचें, कैसे अदभुत लोग रहे होंगे ऋषभ और पार्श्व, जिन्होंने ब्रह्मचर्य की बात ही नहीं की! क्योंकि उन्होंने कहा, अहिंसक हो जाओ, तो ब्रह्मचर्य तो हो ही जाओगे। उसकी कोई अलग से व्यवस्था देने की जरूरत नहीं है।
कनफ्यूशियस एक बार लाओत्सु के पास गया, तो लाओत्सु से उसने कहा कि लोगों को धर्म सिखाना पड़ेगा। तो लाओत्सु ने कहा, तुम्हें पता है वह जमाना, जब लोग इतने धार्मिक थे कि धर्म की कोई बात ही नहीं करता था?
धर्म की बात सिर्फ अधार्मिक समाज में करनी पड़ती है। धार्मिक समाज में धर्म की बात की कोई भी जरूरत नहीं है। लाओत्सु ने कहा, जमाना था जब लोग धार्मिक थे, तब धर्म की बात करना व्यर्थ थी। क्योंकि जब लोग धार्मिक हों, तो धर्म की बात नहीं करनी पड़ती। बीमार आदमी के सिवाय स्वास्थ्य की चर्चा और कोई भी नहीं करता है। बीमार आदमी चौबीस घंटे स्वास्थ्य की चर्चा करता है। अक्सर बीमार आदमी खुद ही धीरे-धीरे डॉक्टर हो जाते हैं--स्वास्थ्य की चर्चा करते-करते! बीमार आदमी स्वास्थ्य की पत्रिकाएं पढ़ते हैं, नेचरोपैथी की किताबें पढ़ते हैं! बीमार आदमी स्वास्थ्य की बहुत चर्चा करता है, उसको बेचारे को बीमारी इतना सचेतन बनाए रखती है कि स्वास्थ्य की चर्चा से मन को भुलाए रखता है। अनैतिक समाज नीति की चर्चा करते हैं, कामुक समाज ब्रह्मचर्य की चर्चा करते हैं, पतित समाज उत्थान की चर्चाएं करते हैं, गरीब समाज धन की चर्चाएं करते हैं। जो नहीं होता, हम उसकी ही चर्चा करते हैं।
महावीर के वक्त में हिंसा बहुत थी, अहिंसा बहुत गहरे नहीं जा सकती थी, इसलिए ब्रह्मचर्य की चर्चा अलग करनी पड़ी। ऋषभ को अहिंसा की चर्चा ही काफी हुई। और शायद ऋषभ के पहले अहिंसा की चर्चा की भी जरूरत न रही हो। क्योंकि अहिंसा की चर्चा भी तभी शुरू होती है, जब हिंसा जोर से चित्त को पकड़ लेती है।
इसलिए मैंने कहा कि ‘काम’ भी हिंसा का एक रूप है, और ‘अकाम’ अहिंसा का खिल जाना है।

भगवान, हम एक बड़ी मुसीबत में पड़ गए हैं! और वह मुसीबत हमारे लिए यह है कि अभी तक हमारी यह धारणा रही थी कि सहानुभूति, सिम्पैथी यह एक अहिंसा का अंग है। और हम बहुत दिनों से बराबर इसे मानते रहे थे। लेकिन पंच-महाव्रत के अंतर्गत आपने अहिंसा के संदर्भ में बताया कि सहानुभूति में हिंसा छिपी है, क्योंकि इसमें दूसरा मौजूद है। फिर आपने इस चीज को और आगे बढ़ाया और आपने समानुभूति का उदाहरण देते हुए परमहंस स्वामी रामकृष्ण का जिक्र किया। और जिसमें आपने यह भी बताया कि एक किसान पर जब कोड़े लग रहे थे, उस समय उस कोड़े के निशान रामकृष्ण परमहंस की पीठ पर दिखाई पड़ रहे थे।
तो ये सहानुभूति और समानुभूति ये दो चीजें हिंसा-वृत्ति के संदर्भ में इनमें क्या सूक्ष्म भिन्नता है, यह बताने की कृपा करें। और साथ ही साथ यह बताने की कृपा भी करें कि जिसे आपने समानुभूति का नाम दिया है, वह भी मानसिक घटना है या आध्यात्मिक तल की चीज है?

सहानुभूति, सिम्पैथी साधारणतः बड़ी मूल्यवान और कीमती चीज समझी जाती रही है--है नहीं। सहानुभूति का अर्थ है, कोई आदमी दुखी है और आप उसके दुख में दुख प्रकट करते हैं; दुखी होते हैं। सहानुभूति का अर्थ है, सह-अनुभूति; दूसरे के साथ-साथ अनुभव करना। लेकिन जो आदमी दूसरे के दुख में दुख अनुभव करता है, वह आदमी दूसरे के सुख में कभी सुख अनुभव नहीं कर पाता है! अगर किसी के बड़े मकान में आग लग जाए, तो आप दुख प्रकट करते हैं; लेकिन किसी का बड़ा मकान बन जाए, तो सुख नहीं प्रकट कर पाते हैं!
इस बात को समझ लेना जरूरी है। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह हुआ कि सहानुभूति एक धोखा है। सहानुभूति तभी सच्ची हो सकती है, जब दूसरे के दुख में दुख अनुभव हो और दूसरे के सुख में सुख अनुभव हो।
लेकिन दुख में तो दुख अनुभव हम कर पाते हैं या दिखा पाते हैं, सुख में सुख अनुभव नहीं कर पाते। इसलिए, कर पाते हैं, कहना ठीक नहीं होगा, दिखा पाते हैं, कहना ठीक होगा। जब दूसरा दुखी होता है, तो हम दुख प्रकट कर पाते हैं। अगर हम दूसरे के सुख में भी सुखी हो पाएं, तब तो हमारा दुख प्रकट करना वास्तविक होगा। अन्यथा दूसरे के दुख में भी हमें थोड़ा सा रस आता है; दूसरे के दुख में भी हमें थोड़ा मजा आता है; दूसरे के दुख में भी हम रस-विभोर होते हैं।
इसलिए जब आप किसी दूसरे के दुख में दुख प्रकट करने जाएं, तब जरा अपने भीतर टटोल कर देखना कि कहीं आपको मजा तो नहीं आ रहा है? एक तो मजा यह आता है कि हम सहानुभूति प्रकट करने वाले और दूसरा आदमी सहानुभूति लेने की स्थिति में पड़ गया है। जब कोई दूसरा आदमी सहानुभूति लेने की स्थिति में पड़ जाता है, तो याचक हो जाता है और आप मुफ्त में दाता हो जाते हैं। दूसरा आदमी जब सहानुभूति लेने की स्थिति में पड़ जाता है, तो आप विशेष और वह दीन हो जाता है। और अपने भीतर आप खोजेंगे, तो अपने दुख प्रकट करने में भी आपको एक रस की उपस्थिति मिलेगी। मिलेगी ही! इसलिए मिलेगी, कि अगर न मिले तब आप दूसरे के सुख में पूरी तरह सुखी हो पाएंगे।
लेकिन दूसरे के सुख में तो ईर्ष्या भर जाती है, जेलेसी भर जाती है, जलन भर जाती है!
दूसरा पहलू इस बात की खबर देता है कि दूसरे के दुख में हम दुखी नहीं हो सकते, लेकिन इसी को हम सहानुभूति कहते रहे हैं। इसी को मैं सहानुभूति कह कर बात कर रहा हूं। इसलिए मैंने दूसरा शब्द चुनना उचित समझा, वह है--‘समानुभूति, एम्पैथी।’
सहानुभूति एक तो झूठी होती है, वंचना होती है, और अगर हम यह भी समझ लें कि किसी आदमी की सहानुभूति सच्ची ही हो; वह दूसरे के दुख में दुख अनुभव करे और दूसरे के सुख में सुख अनुभव करे, तो भी हिंसा ही रहती है; अहिंसा नहीं हो पाती। झूठी हो, तब तो निश्चित ही हिंसा होती है; सच्ची हो, तब भी हिंसा ही होती है; अहिंसा नहीं हो पाती। क्योंकि जब तक दूसरा मौजूद है, तब तक अहिंसा फलित नहीं होती। अहिंसा अद्वैत की अनुभूति है। अहिंसा इस बात का अनुभव है कि वहां दूसरा नहीं, मैं ही हूं।
जब दूसरा दुखी हो रहा है, तो ऐसा अनुभव हो कि दूसरा दुखी हो रहा है और मैं भी दुख अनुभव कर रहा हूं--अगर झूठा है, तब तो हिंसा होगी ही--अगर सच्चा भी है, तो भी मैं मैं हूं और दूसरा दूसरा है; दोनों के बीच का सेतु नहीं टूट गया है; और जहां तक दूसरा दूसरा है, वहां तक अहिंसा संभव नहीं है। दूसरे को दूसरा जानना भी हिंसा है। क्यों? क्योंकि जब तक मैं दूसरे को दूसरा जान रहा हूं, तब तक अज्ञान में जी रहा हूं; दूसरा, दूसरा है नहीं।
समानुभूति का अर्थ है कि दूसरे को दुख हो रहा है, ऐसा नहीं--मैं ही दुखी हो गया हूं। दूसरा सुखी हो रहा है, ऐसा नहीं--मैं ही सुखी हो गया हूं। ऐसा नहीं कि आकाश में चांद प्रकाशित हो रहा है--ऐसा कि मैं ही प्रकाशित हो गया हूं। ऐसा नहीं कि सूरज निकला है--बल्कि मैं ही निकल आया हूं। ऐसा नहीं कि फूल खिले हैं--बल्कि मैं ही खिल गया हूं।
एम्पैथी का अर्थ है, अद्वैत। समानुभूति का अर्थ है, एकत्व। अहिंसा एकत्व है।
तो अब ये तीन स्थितियां हुईं: झूठी सहानुभूति, फॉल्स सिम्पैथी--वह हिंसा है। सच्ची सहानुभूति--वह हिंसा का बहुत सूक्ष्मतम रूप है। और समानुभूति--वह अहिंसा है।
हिंसा हो या हिंसा का सूक्ष्म रूप हो, सच्ची सहानुभूति हो, झूठी सहानुभूति हो, वे सब मानसिक तल की घटनाएं हैं। समानुभूति, एम्पैथी आध्यात्मिक घटना है।
मन के तल पर हम कभी एक नहीं हो सकते। मेरा मन अलग है, आपका मन अलग है। मेरा शरीर अलग है, आपका शरीर अलग है। शरीर और मन के तल पर ऐक्य असंभव है--हो नहीं सकता। सिर्फ आत्मा के तल पर ऐक्य संभव है; क्योंकि आत्मा के तल पर हम एक हैं ही।
जैसे एक घड़े को हम पानी में डुबा दें, नदी में बहती हुई, भर जाए घड़े में पानी, तो घड़े के भीतर पानी और घड़े के पानी बाहर एक ही है। सिर्फ बीच में एक घड़े की मिट्टी की दीवाल है, जो टूट जाए, तो पानी एक हो जाए।
मन और शरीर की एक दीवाल है, जो दूसरे से मिलने से रोकती है, जो दूसरे के साथ एक नहीं होने देती। हम सब घड़े हैं मिट्टी के, चेतना के बड़े सागर में। घड़े तो अलग होंगे, लेकिन घड़ों के जो भीतर है, वह अलग नहीं है। और जो अहिंसा को अनुभव करता है, या जो आत्मा को अनुभव करता है, वह अनुभव कर लेता है कि घड़े कितने ही अलग हों, घड़े के भीतर एक ही विराजमान है।
इस एक का अनुभव अहिंसा है। इसलिए इसमें सहानुभूति नहीं हो सकती। सहानुभूति में दूसरा जरूरी है। इसमें समानुभूति हो सकती है। दूसरा इसमें नहीं बचा है।
समानुभूति, चित्त और मन के पार है। वह बियांड माइंड है। वह मन के भीतर, मन के नीचे नहीं--मन के ऊपर और मन के पार है।
यह जो मन के पार घटना घटती है, यही अध्यात्म है। सिर्फ आध्यामिक कह सकता है, वही जो तुम हो, वही मैं हूं। सिर्फ आध्यात्मिक कह सकता है कि सूरज में जो जल रही ज्योति, वही छोटे से मिट्टी के दीये में भी जल रही है। सिर्फ आध्यात्मिक कह सकता है कि कण में जो है वही विराट में भी है। सिर्फ आध्यात्मिक कह सकता है कि बूंद और सागर एक ही चीज के दो नाम हैं।
समानुभूति का अर्थ है: बूंद और सागर एक हैं। और जिसने एक बूंद को भी पूरा जान लिया, उसे सागर में जानने को कुछ बाकी नहीं रह जाता। एक बूंद जान ली तो पूरा सागर जान लिया। जिसने अपने भीतर की बूंद जान ली, उसने सबके भीतर के सागर को भी जान लिया। फिर वह मरता नहीं। क्योंकि कैसे मरेगा--वह बचा नहीं। फिर वह, फिर वह अहंकार, वह ‘मैं’ विदा हो गया, क्योंकि कोई ‘तू’ नहीं मिला कहीं। जब तक ‘तू’ मिले, तभी तक ‘मैं’ बच सकता है। जब ‘तू’ न मिले तो ‘मैं’ भी नहीं बच सकता। वह ‘तू’ और ‘मैं’ की जोड़ी साथ-साथ है।
मार्टिन बूबर ने ‘आइ एंड दाउ’ एक किताब लिखी है। कीमती किताब है। ‘मैं और तू।’ और मार्टिन बूबर के खयाल से जीवन के सारे संबंध ‘मैं’ और ‘तू’ के संबंध हैं। लेकिन एक और जगत भी है, जो मैं और तू के बाहर है, बियांड आइ एंड दाउ। एक और जगत है, वास्तविक जीवन का--संबंधों का नहीं--जीवन-ऊर्जा का, परमात्मा का, जहां मैं और तू नहीं हैं।
बंगाली में एक छोटा सा नाटक है। नाटक है, जिसमें कथा है कि एक यात्री वृंदावन गया है। रास्ते में, उसके पास जो सामान था, सब चोरी हो गया। पर सोचा उसने, अच्छा ही है कृष्ण के पास खाली हाथ जाऊं, यही उचित है। क्योंकि भरे हाथ को वे भी कैसे भर पाएंगे! अगर कृष्ण से भरना है, तो खाली हाथ ही लेकर जाऊं, उचित है। शायद कृष्ण ने ही चोर भेजे होंगे! उसने धन्यवाद दिया और आगे बढ़ गया।
फिर वह मंदिर के द्वार पर पहुंचा, लेकिन द्वारपाल ने हाथ से उसे रोक लिया और कहा: भीतर न जा सकोगे। पहले सामान बाहर रख दो।
पर उसने कहा: अब तो सामान बचा भी नहीं, वह तो कृष्ण के चोर पहले ही छीन चुके।
नहीं; द्वारपाल ने कहा: सामान पहले बाहर रख दो, फिर भीतर जा सकते हो। यहां तो सिर्फ खाली हाथ ही जा सकते हो।
उस आदमी ने अपने हाथ देखे, वे खाली थे। उसने द्वारपाल के सामने हाथ किए, वे खाली थे।
द्वारपाल ने कहा कि नहीं, भरे हाथ नहीं जा सकते हो।
पर वह आदमी कहने कहा कि मैं तो अब बिलकुल खाली हाथ हूं!
उस द्वारपाल ने कहा: जब तक तुम हो, तब तक कैसे खाली हाथ हो सकते हो? जब तक तुम कहते हो, मैं तो बिलकुल खाली हाथ हूं, तब तक तुम खाली हाथ कैसे हो सकते हो? कम से कम ‘मैं’ तो तुम्हारे हाथों में भरा ही है। इस ‘मैं’ को बाहर छोड़ दो।
मैं को बाहर छोड़े बिना कोई परमात्मा के मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता। मैं को छोड़ कर जो जीता है, वह एम्पैथी को, समानुभूति को उपलब्ध होता है। जिसका मैं मर जाता है, उसके लिए, दूसरे को जो हो रहा है वह भी उसे ही हो रहा है। या उसे का भी सवाल नहीं है, हो रहा है। कहीं भी कांटा गड़ता है, तो उसकी पीड़ा उसे भी पहुंच जाती है। कहीं आनंद की बांसुरी बजती है, तो वे भी उसके अपने ही स्वर हो जाते हैं। अब कुछ भी पराया नहीं, अब कुछ भी अजनबी नहीं, अब कुछ भी दूसरा नहीं।
समानुभूति अध्यात्म की श्रेष्ठतम ऊंचाई है। सहानुभूति हमारी कामचलाऊ दुनिया की व्यावहारिकता है। उस सहानुभूति में अक्सर तो निन्यानबे प्रतिशत झूठी होती है सहानुभूति। जब हम सिर्फ धोखा देते--दूसरे को नहीं, अपने को भी। कभी एक प्रतिशत सच होती है, तब भी मैं और तू कायम रह जाते हैं, घड़े मौजूद रहते हैं। शायद झांक कर एक घड़े से दूसरे घड़े में हम देख लेते हैं, लेकिन फिर भी दोनों के बीच एक ही है, एक ही प्रवाहित है--इसका कोई पता नहीं चल पाता है।
समानुभूति मैंने उस तत्व को कहा है, जहां एक ही शेष रह जाता है, जहां दूसरा नहीं है। अद्वैत कहें, ब्रह्म कहें, परमात्मा कहें, और कोई नाम दें; अस्तित्व कहें, एक्झिस्टेंस कहें, कोई और नाम दें; एक ही जहां रह जाता है, वहां जीवन अपनी परम ऊंचाई पर, अपने पीक एक्सपीरिएंस पर परम अनुभूति को उपलब्ध होता है। गिराना होता है ‘तू’ को और ‘मैं’ को।
मैंने कहा उस दिन यह भी कि मैं और तू का संबंध ही हिंसा है। कठिन होगा थोड़ा, क्योंकि मैं और तू के अतिरिक्त हम कोई भी क्षण नहीं जानते। लेकिन थोड़े प्रयोग करें, तो शायद क्षणों की झलक मिल जाए।
कभी नदी के किनारे रेत पर बैठ कर। लेट जाएं दोनों हाथ-पैर पसार कर। छाती में भर लें रेत को। बंद कर लें आंखें। दबा लें अपने चेहरे को भी रेत में। भूल जाएं यह कि आप हैं और रेत है। तोड़ दें वह बीच की जगह, वह फासला जो रेत को आपसे अलग करता है। रेत की ठंडक को प्रवेश कर जाने दें स्वयं में। स्वयं की गर्मी को प्रवेश कर जाने दें रेत में। अनुभव करें कि फैल गए और एक हो गए उस रेत से।
कभी खुले आकाश में हाथ फैला कर खड़े हो जाएं। आलिंगन कर लें खुले आकाश का, शून्य का। कभी घड़ी भर मौन रह जाएं खुले आकाश के साथ। छोड़ दें यह खयाल कि शरीर की सीमा पर मैं समाप्त हो जाता हूं। बढ़ाएं अपनी सीमा को। हो जाने दें इतनी ही बड़ी, जितनी आकाश की है।
कभी रात के तारों के साथ, लेट जाएं जमीन पर। और रात के तारों को आने दें अपने तक। और जाने दें अपने को तारों तक। और भूल जाएं कि वहां तारे हैं और यहां आप हैं। तारों और आपके बीच जो लेन-देन रहे, वही बाकी रह जाए। वह जो कम्युनिकेशन हो, वह जो संवाद हो, वही बाकी रह जाए।
तो बहुत जल्दी, बहुत शीघ्र धीरे-धीरे, अचानक जीवन में एक्सप्लोजन होने लगेंगे। और अहसास होने लगेगा--न तो उस तरफ कोई तू है, न इस तरफ कोई मैं है। शायद एक ही है दोनों तरफ। एक के ही बाएं और दाएं हाथ दो छोरों पर हैं। एक ही हवा की लहर, जो इधर आई थी, उधर चली गई है।
आप जो श्वास ले रहे हैं, मेरे पास आ जाती है, फिर मेरी हो जाती है। और मैं ले भी नहीं पाता कि निकल जाती है और आपकी हो जाती है। अभी वृक्ष लेता था उसे, अभी पृथ्वी लेती थी उसे, अभी आपने लिया था उसे, अभी मैंने लिया उसे!
जीवन एक सतत प्रवाह है, जीवन एक अखंड धारा है। जीवन एक है, लेकिन हम उस एक का अनुभव नहीं कर पाते; क्योंकि हम सबने अपने आस-पास परकोटे खींचे हैं, हमने अपनी दीवालें बनाई हैं, हमने सब तरफ से अपने को रोका है और सब तरफ सीमाएं बनाई हैं। ये सीमाएं हमारी कल्पित बनाई गई सीमाएं हैं, ये सीमाएं कहीं हैं नहीं। ये सीमाएं हमने बना रखी हैं, ये सीमाएं कामचलाऊ हैं, इन सीमाओं का कहीं कोई अस्तित्व नहीं है।
अगर एक वैज्ञानिक से पूछें, तो वह भी कहेगा, नहीं है; और अगर एक आध्यात्मिक से पूछें, तो वह भी कहेगा, नहीं है। आध्यात्मिक इसलिए कहेगा कि आत्मा के फैलाव को देखा उसने। वैज्ञानिक इसलिए कहेगा कि सब सीमाएं खोजीं और सीमाओं को कहीं पाया नहीं है उसने।
वैज्ञानिक से पूछें कि आपका शरीर कहां समाप्त होता है? तो वह कहेगा, कहना मुश्किल है। हड्डियों पर समाप्त होता है? हड्डियों पर समाप्त नहीं होता, क्योंकि हड्डियों पर मांस है। मांस पर समाप्त होता है? मांस पर समाप्त नहीं होता, क्योंकि मांस के ऊपर चमड़े की पर्त है। चमड़े की पर्त पर समाप्त होता है? चमड़े की पर्त पर समाप्त नहीं होता, क्योंकि बाहर हवा की अनिवार्य पर्त जरूरी है। अगर वह न रह जाए, तो न हड्डी होगी, न मांस होगा। हवा की पर्त पर समाप्त होता है? नहीं, हवा की पर्त तो दो सौ मील पृथ्वी के पूरे होने पर समाप्त हो जाती है। लेकिन अगर सूरज की किरणें इस हवा की पर्त को न मिलती रहें, तो यह हवा की पर्त भी नहीं रह जाएगी। सूरज तो दस करोड़ मील दूर है। तो मेरा शरीर सूरज पर समाप्त होता है? दस करोड़ मील दूर? तो सूरज भी ठंडा पड़ जाएगा अगर महासूर्यों से उसे प्रकाश की किरणें निरंतर न मिलती रहें। तो मेरा शरीर समाप्त कहां होता है?
वैज्ञानिक कहता है, सब सीमाएं खोजीं और सीमाओं को नहीं पाया। आध्यात्मिक कहता है, भीतर देखा और असीम को पाया। आध्यात्मिक कहता है, असीम को पाया; वैज्ञानिक कहता है, सीमाओं को नहीं पाया। वैज्ञानिक नकार की भाषा बोलता है, निगेटिव। वह कहता है, सीमा नहीं है। आध्यात्मिक पाजिटिव, विधेय की भाषा बोलता है; वह कहता है, असीम है। लेकिन इन दोनों बातों का मतलब एक है। और आज विज्ञान और धर्म बड़े निकट आकर खड़े हो गए हैं। उनकी सारी घोषणाएं निकट आकर खड़ी हो गई हैं। आज वैज्ञानिक नहीं कह सकता कि आपका शरीर कहां समाप्त होता है। यह शरीर वहीं समाप्त होता है, जहां ब्रह्मांड समाप्त होता होगा। इसके पहले समाप्त नहीं होता।
इस अनुभव को मैं समानुभूति कहता हूं, जब तारे दूर नहीं रह जाते, मेरे भीतर घूमने लगते हैं; और जब मैं तारों से दूर नहीं रह जाता और उनकी किरणों पर नाचने लगता हूं; और जब सागर की लहरें दूर नहीं रह जातीं, मेरी ही लहरें हो जाती हैं; और जब मैं दूर नहीं रह जाता, सागर की लहरों पर झाग बन जाता हूं; और जब वृक्षों पर खिले फूल मेरे ही फूल होते हैं, और वृक्षों से गिरे सूखे पत्ते मेरे ही सूखे पत्ते होते हैं; तब मैं अलग नहीं रह जाता हूं।
अलग हम हैं भी नहीं। अलग से ज्यादा कोई भ्रम नहीं है। सेपरेटनेस, अलग होने का खयाल सबसे बड़ा इलूजन है, सबसे बड़ा भ्रम है; लेकिन उसे हम पाल कर जीते हैं। उपयोगी है, अगर उसे न पालें, तो कठिनाई होगी।
आपका धन है, और उसे मैं मेरा नहीं कह सकता। आपके कपड़े हैं, और उन्हें मैं उतार कर मेरे नहीं बना सकता। जीवन के व्यवहार में आपकी दुकान है, वह मेरी नहीं है; और आपका मकान है, वह मेरा नहीं है। हालांकि आपके घर मेहमान होता हूं तो आप कहते हैं, सब आपका ही है! लेकिन उसको गंभीरता से लेने की कोई भी जरूरत नहीं है।
जीवन के व्यवहार में सीमाएं काम करती मालूम पड़ती हैं, लेकिन जीवन सिर्फ व्यवहार का नाम नहीं है। जीवन सिर्फ दुकान नहीं है; मकान और कपड़े नहीं है। और जीवन केवल आजीविका के उपाय नहीं है। जीवन तिजोरियों में नहीं है, वस्त्रों में नहीं है। जीवन बड़ी बात है। जीवन सिर्फ उपयोगिता, यूटिलिटी नहीं है। जीवन आनंद भी है। जीवन लीला भी है। जीवन अपार रहस्य भी है। इसलिए जो उपयोगिता को सब मान लेगा, वह मुश्किल में पड़ जाएगा। उपयोगिता में हम बहुत झूठी बातें कहते हैं, पर उनसे काम चलता है, चल जाता है; क्योंकि सारी उपयोगिता माने हुए सत्यों पर चलती है।
मैं किसी के घर रुकता हूं, और कहता हूं, पानी का एक गिलास ले आएं। वह गिलास में पानी ले आता है! अब तक कोई ‘पानी का गिलास’ लाता हुआ मिला नहीं। चल जाता है, झूठ है बिलकुल। पानी का गिलास लाइएगा भी कैसे? पानी का गिलास लाया नहीं जा सकता। लेकिन समझें, हम दोनों समझ गए। वह पानी का गिलास तो नहीं लाता--गिलास तो कांच का लाता है, तांबे का लाता है, पीतल का लाता है--उसमें पानी ले आता है। न तो मैं उससे झगड़ा करता कि आपने मेरी बात मानी नहीं, न वह मुझसे झगड़ा करता है कि आप बड़ी आध्यात्मिक भाषा बोल रहे हैं। काम चल जाता है।
लेकिन जिंदगी कामचलाऊ नहीं है, जिंदगी कामचलाऊपन से ऊपर है। हमारी सब भाषा कामचलाऊ है, उससे इशारे हो जाते हैं, गैस्चर्स हैं; काम चल जाए, बात पूरी हो जाती है। लेकिन जिसने कामचलाऊपन को, व्यवहार को जिंदगी समझ लिया, वह आदमी जिंदगी के बड़े रहस्यों से वंचित रह जाता है। उसके लिए जिंदगी के परम रहस्य के द्वार खुल ही नहीं पाते। उसके लिए जीवन-वीणा का संगीत बज ही नहीं पाता। उसके लिए परमात्मा पुकारता रहता है, उसे उसकी पुकार सुनाई ही नहीं पड़ती है।
यह जो अद्वैत, असीम, यह जो अनंत जीवन है, उपयोगिता में उसे खो मत देना। उसे उपयोगिता के बाहर खोजते ही रहना है। उसे मेरे-तेरे के बाहर अन्वेषण करते ही रहना है। उसे उस दिन तक खोजना है, जब तक वह मिल ही नहीं जाता है। उसके मिलन को मैंने समानुभूति कहा है। वही अहिंसा है, वही प्रेम है, वही अद्वैत है, वही मुक्ति है।

एक आखिरी सवाल और पूछ लें।

भगवान, हिंसा और सामाजिक न्याय का क्या संबंध है? कभी ऐसी चर्चा की जाती है कि अहिंसा और हिंसा दोनों सामाजिक न्याय की रीति ही हैं और माओ, स्टैलिन, हिटलर वगैरह ऐतिहासिक अनिवार्यता थी। आपका इस पर क्या मंतव्य है?

अहिंसा सामाजिक नीति और नियम नहीं है। और अगर अहिंसा सामाजिक नीति और नियम है, तो हिंसा से कभी छुटकारा नहीं हो सकता है। अहिंसा आध्यात्मिक नियम है, सामाजिक नहीं; सोशल नहीं, स्प्रिचुअल।
अगर सामाजिक नियम हम बनाएं अहिंसा को, तब तो फिर कभी हिंसा भी जरूरी मालूम होगी। और ऐसा उपद्रव है कि कभी तो अहिंसा की रक्षा के लिए भी हिंसा जरूरी हो जाएगी। एक आदमी अगर किसी पर हिंसा कर रहा है, तो अदालत उस आदमी पर हिंसा करेगी; क्योंकि वह हिंसा कर रहा था। एक राष्ट्र अगर दूसरे के साथ हिंसा करेगा, तो वह राष्ट्र उसे हिंसा से उत्तर देगा; क्योंकि हिंसा का उत्तर देना न्यायसंगत है; और हिंसा को झेलना अन्याय है, और अन्याय को झेलना उचित नहीं है।
अहिंसा के जिस सूत्र की मैं बात कर रहा हूं, वह आध्यात्मिक नियम है। और अगर सामाजिक अहिंसा की हम बात करना चाहें, तो सामाजिक अहिंसा सदा सापेक्ष, रिलेटिव नियम होगा। उसमें हिंसा-अहिंसा दोनों की जगह होगी। उसमें हिंसा भी चलेगी, अहिंसा भी चलेगी। उसमें वे दोनों मिश्रित होंगी। वह मिक्स्ड इकॉनामी होगी। उसमें अहिंसा और हिंसा एक-दूसरे के साथ ही खड़ी रहेंगी, और पहलू बदलते रहेंगे।
समाज के तल पर पूर्ण अहिंसा अभी नहीं पाई जा सकती; अभी तो एक-एक व्यक्ति के तल पर ही पूर्ण अहिंसा पाई जा सकती है। समाज के तल पर कभी हम पा सकेंगे, इसकी आशा भी शायद करनी उचित नहीं है। यह वैसे ही उचित नहीं है, जैसे कि आत्म-ज्ञान किसी दिन हम समाज के तल पर पा सकेंगे, यह आशा उचित नहीं है।
किसी दिन सारे मनुष्य आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, ऐसी आशा करनी उचित नहीं है। क्योंकि चुनाव है, और कोई अगर आत्म-अज्ञानी रहना चाहेगा तो उसे आत्म-ज्ञान के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। आत्म-ज्ञान सदा ही स्वतंत्रता रहेगी, चुनाव रहेगा, कोई होना चाहेगा...। हम यह आशा कर सकते हैं कि धीरे-धीरे ज्यादा से ज्यादा लोग आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होते जाएंगे।
लेकिन एक और खतरा है, वह भी मैं आपसे कहूं। जो व्यक्ति भी आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, वह हमारे इस समाज में वापस लौटना बंद हो जाता है। वह वापस नहीं लौटता। उसके नये जन्म असंभव हो जाते हैं। क्योंकि नये जन्म के लिए आकांक्षा और तृष्णा और कामना जरूरी है। वही लौटता है नये जन्म के लिए, जिसकी कोई कामना शेष रह गई, जो उसे पूरा करना चाहता है। अगर महावीर और बुद्ध भी लौटते हैं एक-एक जन्मों में, तो भी वे इसीलिए लौटते हैं कि कम से कम एक कामना उनकी शेष रह गई कि उन्होंने जो जाना है, वे दूसरों को कहना चाहते हैं। वह भी काफी वासना है। वह भी काफी वासना है! अगर मेरे पास कुछ है और मैं दूसरों को कहना चाहता हूं, तो भी लौट आऊंगा। लेकिन वह भी वासना है--आखिरी वासना है। वह भी तिरोहित हो जाती है, फिर लौटना कैसे होगा?
जो आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होते हैं, वे तिरोहित हो जाते हैं अंतरिक्ष में। वे किसी विराट कॉस्मास में, किसी विराट चेतना के साथ एक हो जाते हैं। जो नहीं उपलब्ध होते, वे वापस लौटते चले जाते हैं।
इसलिए समाज कभी-कभी आत्म-ज्ञान के फूल को खिलाता है। लेकिन वह फूल खिला, मुर्झाया, उसकी सुगंध आकाश में खो जाती है। और फिर समाज चलता रहता है।
समाज आत्म-ज्ञानी नहीं हो सकेगा, समाज आत्म-अज्ञानी ही बना रहेगा। लेकिन इस आत्म-अज्ञानी समाज में आत्म-ज्ञानी व्यक्ति का फूल खिलता रहेगा, खिलता रह सकता है, खिलता रहना चाहिए।
समाज के तल पर अहिंसा कभी पूर्ण सत्य नहीं हो सकती। इसलिए जिन लोगों ने सामाजिक तल पर अहिंसा की बात की है, वे हिंसा को भी स्वीकृति देते हैं; और देना पड़ेगी। हिंसा जारी रहेगी। तब हिंसा-अहिंसा दो पहलू होंगे समाज के, जब जो जरूरी हो। जब अहिंसा से काम चले, तो अहिंसा; और जब हिंसा से काम चले, तो हिंसा; जिससे काम चल जाए।
हिंदुस्तान में आजादी की लड़ाई चलती थी, तो आजादी की लड़ाई लड़ने वाला अहिंसक था। फिर वही सत्ताधिकारी बना, तो हिंसक हो गया। आजादी की लड़ाई अहिंसा से चल सकती थी, क्योंकि हिंसा से चलने का कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता था। तो उसने आजादी की लड़ाई अहिंसा से चला ली। लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने नहीं सोचा कि अब सत्ता अहिंसा से चलाई जाए। अब सत्ता हिंसा से चल रही है। अंग्रेजों ने इतनी गोली कभी नहीं चलाई थी इस मुल्क में, जितनी उन लोगों ने चलाई, जो अहिंसक हैं!
तो जो अहिंसा को नीति समझता है, समाज की एक कनवीनिएंस समझता है, एक सुविधा समझता है, जरूरत पड़ने पर हिंसक हो जाएगा। हिंसक-अहिंसक होना उसकी सुविधा की बात होगी। लेकिन महावीर को किसी भी भांति हिंसक नहीं बनाया जा सकता। उनके लिए अहिंसा सामाजिक नीति-नियम नहीं, आध्यात्मिक सत्य है। वह कनवीनिएंस नहीं है। वह कोई सुविधा की बात नहीं है कि हम कुछ भी हो जाएं। वह उनकी परम नियति है, वह डेस्टिनी है।
अहिंसा के लिए सब खोया जा सकता है--स्वयं को भी खोया जा सकता है। अहिंसा किसी के लिए नहीं खोई जा सकती। पर ऐसा अहिंसक होना व्यक्ति के लिए ही संभव है। और अगर कभी किसी समाज ने ऐसे अहिंसक होने की भूल की, तो वह सिर्फ कायर हो जाएगा, अहिंसक नहीं हो पाता। ऐसा हुआ भी।
महावीर की अहिंसा को समाज ने समझा कि हम अपनी अहिंसा बना लेंगे, तो अहिंसक समाज पैदा हो गए! अहिंसक समाज हो नहीं सकता। महावीर की अहिंसा का समाज नहीं हो सकता। महावीर की अहिंसा के सिर्फ इंडिविजुअल्स, व्यक्ति हो सकते हैं। इसलिए जो समाज महावीर की अहिंसा को मान कर अहिंसक होने की कोशिश करेगा, वह सिर्फ कायर, कावर्ड हो जाएगा और कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन वह अपनी कायरता को अहिंसा कहेगा। हिंसा न करने की हिम्मत को वह अहिंसा कहे चला जाएगा। लेकिन उसकी भी चमड़ी को जरा उखाड़ें, तो भीतर हिंसा के झरने फूटते हुए मिल जाएंगे। कायर भी बड़ा हिंसक होता है, लेकिन मन ही मन में होता है। समाज अभी अहिंसक नहीं हो सकता--कभी हो सकता है, ऐसा भी मैं नहीं कहता। बहुत मुश्किल है; असंभव ही है। व्यक्ति ही अहिंसक हो सकता है।
जिस अहिंसा की मैं बात कर रहा हूं, वह अहिंसा सामाजिक सत्य नहीं, व्यक्तिगत उपलब्धि है।
और दूसरी बात उसमें पूछी है कि ‘हिटलर, मुसोलिनी, या स्टैलिन, या माओ सामाजिक अनिवार्यताएं हैं?’
अगर वे सामाजिक अनिवार्यताएं हैं, तो वे व्यक्ति नहीं हैं। व्यक्ति है ही वही, जो समाज की अनिवार्यता के ऊपर उठता है; जो समाज की विवशता के ऊपर उठता है; जो स्वतंत्र है; जो चुनाव करता है; जो निर्णय करता है। लेकिन, अगर वे सोशल इनएविटेबिलिटीज हैं, सामाजिक अनिवार्यताएं हैं, मजबूरी हैं समाज की, तब फिर वे व्यक्ति नहीं हैं। और समाज जिस भांति हिंसक होता है, उस भांति वे भी हिंसक होंगे। और अगर वे व्यक्ति नहीं हैं, तो मनुष्य के तल पर नहीं होंगे, पशु के तल पर वापस गिर जाते हैं।
मनुष्य के तल पर होने के लिए सामाजिक अनिवार्यता से ऊपर उठना जरूरी है। सिर्फ वही व्यक्ति मनुष्य है, जिसके पास व्यक्तित्व है। जो यह कह सकता है कि जो भी मैं हूं, वह मेरा निर्णय है, समाज का धक्का नहीं। जो भी मैं कर रहा हूं, वह मैं कर रहा हूं, समाज मुझसे करवा नहीं रहा है।
लेकिन कम्युनिज्म ऐसा मानता है कि व्यक्ति तो हैं ही नहीं, समाज ही है। कम्युनिज्म ऐसा मानता है कि व्यक्ति इतिहास निर्मित नहीं करते, इतिहास व्यक्तियों को निर्मित करता है। कम्युनिज्म ऐसा मानता है कि इट इ़ज नॉट दि कांशसनेस व्हिच डिटरमिंस सोशल कंडीशंस, बट ऑन दि कांट्रेरी, सोशल कंडीशंस आर दि बेस व्हिच डिटरमिंस कांशसनेस। समाज की स्थितियां ही चेतना को निर्धारित करती हैं, चेतना नहीं समाज की स्थितियों को निर्धारित करती।
तो कम्युनिज्म के हिसाब से तो व्यक्ति हैं ही नहीं। माओ नहीं हैं, हिटलर नहीं हैं, मुसोलिनी नहीं हैं, महावीर नहीं हैं, बुद्ध नहीं हैं। लेकिन पता नहीं कम्युनिज्म किस तरह की अवैज्ञानिक बातें विज्ञान के नाम पर कहे चला जाता है! कोई सामाजिक परिस्थिति महावीर को पैदा नहीं कर सकती। और अगर सामाजिक परिस्थिति महावीर को पैदा करती है, तो यह सामाजिक परिस्थिति महावीर के लिए, अकेले के लिए परिस्थिति थी? बिहार में और लाखों लोग थे। यह सामाजिक परिस्थिति महावीर को पैदा करती, तो और पचासों महावीर क्यों पैदा नहीं करती? अगर रूस की परिस्थिति लेनिन को पैदा करती है, तो कितने लेनिन पैदा करती है?
नहीं, सामाजिक परिस्थितियां व्यक्तियों को पैदा नहीं करतीं। और करती हों, तो वे व्यक्ति नहीं हैं, सिर्फ सामाजिक घटनाएं हैं। और सामाजिक घटनाएं अहिंसक नहीं हो सकतीं, हिंसक होंगी; क्योंकि वह पशु के तल पर वापस लौट गई बात है।
व्यक्ति चुनाव है। मैं भी इतने से राजी हो जाऊंगा कि माओ या स्टैलिन मनुष्य के तल पर बहुत ऊपर नहीं उठते, पशु के तल पर बहुत नीचे चले जाते हैं। लेकिन आप कहेंगे, ‘मनुष्य के कल्याण के लिए ही वे हिंसा कर रहे हैं!’
सदा हिंसाएं जब भी की गई हैं, तो कल्याण के लिए ही की गई हैं। मध्य-युग में ईसाई पादरियों ने लाखों लोगों को जलवा डाला--मनुष्य के कल्याण के लिए! मुसलमान हिंदू को मारता है--मनुष्य के कल्याण के लिए! हिंदू को मुसलमान इसलिए नहीं मारता कि हिंदू से उसकी कुछ दुश्मनी है, इसलिए मारता है कि हिंदू बेचारा काफिर है, भटका हुआ है, उसे रास्ते पर लाना है! और न आता हो रास्ते पर तो कम से कम मार कर उसकी आत्मा को अगले जन्म में रास्ते पर लगा दें! हिंदू मुसलमान को इसलिए नहीं मारता कि उसका कुछ बुरा सोचता है; बल्कि इसलिए मारता है कि भटका हुआ है, रास्ते पर लाना है! जैसे गाय को और दूसरे पशुओं को, घोड़ों को यज्ञों में चढ़ाता रहा--कि यज्ञ में चढ़ाने से ये घोड़े, ये गाएं स्वर्ग चली जाएंगे। ऐसे ही, धर्म की बलिवेदी पर, एक-दूसरे धर्मों के लोगों को लोग चढ़ाते रहते हैं--उनके ही कल्याण के लिए! कम्युनिज्म लाखों लोगों को काट डालता है--उनके ही कल्याण के लिए! फॉसिज्म लाखों लोगों को काट डालता है--उनके ही कल्याण के लिए!
हिंसा जब प्रखर रूप से फैलना चाहती है, तो आपके ही कल्याण का मुखौटा पहन कर आती है। चालाक है, साधारण भी नहीं है; कनिंग है। साधारण हिंसा कहती है कि मैं आपको अपने हित में मारना चाहता हूं; और चालाक हिंसा कहती है, आपके ही हित में आपको मारना चाहता हूं।
हर बार आदमी बहाने बदल लेता है। अब इस्लाम और हिंदू और कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट पुराने बहाने हो गए, तो अब कम्युनिज्म, सोशलिज्म नये बहाने हैं। कुछ दिनों में वे भी पुराने हो जाएंगे, फिर आदमी और नये बहाने खोज लेगा। आदमी को हिंसा करनी है, उसके लिए बहाने खोजता है। बहाने हैं, इसलिए हिंसा नहीं करता है!
अगर हम माओ या स्टैलिन के चित्त का विश्लेषण करें, तो हम उनके भीतर एक विक्षिप्त आदमी को पाएंगे। लेकिन वह विक्षिप्त आदमी बड़ा होशियार है, रेशनलाइज करता है। क्रांति, समाज-क्रांति, उटोपिया, भविष्य के स्वर्ण-युग--उनको लाने के लिए लाखों लोगों को काट डाला जाता है।
लेकिन वे स्वर्ण-युग कभी नहीं आए, और आदमी सदा से काटा जा रहा है। न तो रूस में आ गया वह स्वर्ण-युग, न चीन में आ गया; न वह जर्मनी में आया, न वह इटली में आया। सारी दुनिया में कितनी क्रांतियां और कितना खून हो चुका, वह स्वर्ण-युग आता ही नहीं! पुरानी क्रांतियां खत्म हो जाती हैं, नई क्रांतियां फिर खून करने लगती हैं, वह स्वर्ण-युग नहीं आता है! हजारों साल का अनुभव यह कहता है कि आदमी हिंसा करना चाहता है, इसलिए हिंसा के लिए फिलॉसफीज खोज लेता है, दर्शन खोज लेता है। यह इतिहास की अनिवार्यताएं नहीं, यह व्यक्तियों के भीतर हिंसा की अनिवार्यताएं हैं, जिनके लिए वह इतिहास को मोड़ देता रहता है और इतिहास को भी आधार बना लेता है अपनी हिंसा के।
मेरे लिए अनिवार्यता को स्वीकार करना ही मनुष्य की गरिमा को खो देना है। जो कहता है कि कोई अनिवार्यता है जिसे मुझे जीना ही पड़ेगा, वह आदमी गुलाम है, उसने अपनी आत्मा को खो दिया है। जो आदमी कहता है, कोई अनिवार्यता नहीं है जिसे मुझे मजबूरी में करना पड़ेगा; जो भी मैं करूंगा वह मेरा चुनाव है, वह आदमी आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। निर्णय, डिसीजन ही मनुष्य के भीतर संकल्प और आत्मा का जन्म है।

शेष कल।


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