QUESTION & ANSWER

Jo Bole To Hari katha 08

Eighth Discourse from the series of 11 discourses - Jo Bole To Hari katha by Osho. These discourses were given during JUL 21-31 1980.
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पहला प्रश्न:
भगवान, भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में आततायियों के खिलाफ सुदर्शन चक्र उठाया था। हजरत मोहम्मद साहब को भी धर्म के खातिर तलवार उठानी पड़ी थी। ईश्वर-पुत्र जीसस को भी अपने हाथों में कोड़ा उठाना पड़ा था। भगवान बुद्ध और महावीर की ‘अहिंसा परमो धर्मः’ उनके मार्ग में आ गई होगी, और लोगों ने उन पर हिंसाएं कीं। भगवान, क्या समय की अब भी यही पुकार है? क्या विधान ऐसा ही है? भगवान, इश्क में कुरबान जब तक जिंदगी होती नहीं मेरी नजरों में इससे पहले बंदगी होती नहीं। भगवान, जान निकले तुम्हारे पहलू में, दिल है बेचैन उस घड़ी के लिए इश्क होता नहीं सभी के लिए, है यह उलफत किसी-किसी के लिए। भगवान, सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है।
स्वभाव! यह प्रश्न तुम्हारे लिए स्वाभाविक है। पंजाबी हो न! यह पंजाबी होने का रोग जाते-जाते भी नहीं जाता! सांप तो निकल गया, लेकिन धूल पर चिह्न रह गए हैं। इन्हें भी पोंछ डालो।
यह जो तुम कह रहे हो, ठीक ही है, कि कृष्ण ने आततायियों के खिलाफ सुदर्शन चक्र उठाया। मगर क्या आततायी मिटे? सवाल वह महत्वपूर्ण है। कृष्ण का सुदर्शन चक्र उठाना, न उठाना गौण बात है। आततायी थे, सुदर्शन चक्र के पहले और सुदर्शन चक्र के बाद भी। सुदर्शन चक्र उठाना व्यर्थ गया। नाहक कृष्ण ने मेहनत की। वह श्रम सार्थक नहीं हुआ। नहीं तो पांच हजार साल हो गए अब तो, आततायियों का कहीं पता न होना चाहिए था!
फिर यह भी समझ लेने जैसा है कि जो जीत जाता है, उसे हम अक्सर आततायी नहीं कहते; क्योंकि उसकी स्तुति, उसकी प्रशंसा में गीत लिखे जाते हैं। समझो कि कृष्ण हार गए होते, तो तुम शायद ही कृष्ण को भगवान कहते! तो शायद ही तुम यह कहते कि उन्होंने आततायियों के खिलाफ चक्र उठाया। तब जो आततायी अभी मालूम होते हैं, वे धर्म के रक्षक होते और कृष्ण आततायी होते!
कहने को तो हम यही कहते हैं: सत्यमेव जयते! कि सत्य की सदा विजय होती है। मगर क्या खाक तुम्हें सत्य का पता है या विजय का? हालात उलटे हैं; यहां जो जीत जाता है, वही सत्य मालूम होता है। सत्य की विजय नहीं होती; यहां जीता हुआ आदमी सिद्ध कर देता है कि सत्य है। और हारा हुआ आदमी मजबूरी में सिकुड़ कर रह जाता है। कोई उपाय नहीं बचता उसके पास; जब हार ही गया, तो अब सत्य भी अपने को किस आधार पर सिद्ध करे।
कौन था आततायी महाभारत में? कैसे निर्णय होगा? तौल कर गौर से देखो; पक्षपात हटा कर देखो, तो युधिष्ठिर कुछ बहुत भले आदमी मालूम नहीं होते! कोई दुर्योधन से कम नहीं मालूम होते! वही जुआरीपन है; वही झगड़ैल वृत्ति है; वही महत्वाकांक्षा है।
पांडवों की ऐसी कुछ खूबी नहीं है--कौरवों के विपरीत। जीत गए--सो फिर तुमने खूबियां चुन ली हैं। हार जाते, तो तुम कांटे बीन लेते! उसी गुलाब की झाड़ी में कांटे भी हैं और फूल भी हैं। जीत जाए, तो फूल चुन लेना; हार जाए, तो कांटे गिन लेना, और अपने मन को समझा लेना!
कृष्ण आततायियों को मिटा पाए? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। नहीं मिटा पाए। सच तो यह है कि कृष्ण के कारण भारत की रीढ़ टूट गई। पांच हजार सालों में फिर भारत कभी उठ न सका। इन पांच हजार सालों में भारत फिर दुबारा खड़ा न हो सका--इतना भयंकर हत्यापात हुआ; इतनी हिंसा हुई! शास्त्रों के अनुसार करीब एक अरब पंद्रह करोड़ लोग मरे। इतना बड़ा युद्ध कभी हुआ नहीं, तभी तो हमने उसे महाभारत कहा। और सब छोटी लड़ाइयां फीकी पड़ गईं। परिणाम क्या हुआ? जो जीते थे, वे क्या कर पाए?
धर्म, कहते हो, जीत गया था, तो फिर धर्म स्थापित तो होना था! वह तो स्थापित हुआ नहीं। खुद कृष्ण के अनुयायी, उनके पीछे चलने वाले लोग आपस में कट मरे! कृष्ण की खुद हत्या हुई, एक शिकारी के बाण से! कौन जाने, आज कहना मुश्किल है कि हत्या की गई थी या जैसा कि कहा जाता है कि आकस्मिक रूप से हो गई थी। मगर हत्या तो हिंसा में ही हुई।
कृष्ण जैसे व्यक्तियों के संबंध में बाद में जो हम लिखते हैं, वह कितना सच होता है और कितना कल्पना, तय करना बहुत मुश्किल हो जाता है। उनका ऐतिहासिक रूप तो खो ही जाता है। एक पौराणिक आभा उन्हें घेर लेती है। कृष्ण मरे तो हत्या में ही। और कृष्ण के मरने के बाद जो स्थिति हुई कृष्ण के शिष्यों की, वह सबको ज्ञात है। शराब पी-पी कर, मतांध एक-दूसरे की गर्दनें काट दीं! कहते हैं, इतना रक्तपात हुआ द्वारका में कि समुद्र लाल हो गया! लाशों ही लाशों से सब पट गया समुद्र!
इतने सबके बाद परिणाम क्या हाथ आया? क्योंकि असली बात तो परिणाम की है। परिणाम तो शुभ नहीं हुआ।
तुम कहते हो: ‘हजरत मोहम्मद ने भी धर्म के खातिर तलवार उठाई।’
जरूर उठाई, मगर धर्म कहां बचा! धर्म कहां है? उनकी तलवार का ही तो यह परिणाम हुआ कि मुसलमान खूंखार हो गए। उनकी तलवार का ही तो यह परिणाम हुआ कि आज चौदह सौ वर्षों से मुसलमानों के कारण सारी पृथ्वी पर रक्तपात हुआ; गले कटे; लोग मरे--अब भी जारी है!
और धर्म के नाम पर जब हत्याएं होती हैं, तो हम गुपचुप पी जाते हैं; जहर को यूं पी जाते हैं, जैसे अमृत पी रहे हों! अयातुल्ला खोमैनी ने, जो कि हजरत मोहम्मद के प्रतिनिधि हैं अब, इमाम हैं--इस एक वर्ष में कितने लोग मारे! कुछ हिसाब है! और दुनिया में कोई विरोध भी नहीं करता! सबकी जबानें बंद हैं।
रोज ईरान में लोग सूली पर लटकाए जा रहे हैं। रोज लोग मारे जा रहे हैं। लेकिन धर्म के लिए हो रहा है, तो शुभ हो रहा है! हत्याओं पर हत्याओं का सिलसिला जारी है।
अभी परसों मैंने अखबार में खबर पढ़ी कि पाकिस्तान में जनरल जिया-उल हक ने.। अभी रमजान का महीना होगा--तो पाकिस्तान में कोई दिन में भोजन नहीं कर सकता अब! दिन में अगर कोई भोजन करेगा, तो उसको कोड़े मारे जाएंगे! यह भी खूब रहा!
मुसलमान मानते हैं कि दिन में उपवास होना चाहिए; रात्रि में भोजन कर सकते हो। मगर ठीक है, जिसकी मान्यता हो, वह करे। लेकिन धर्म भी कोई जबरदस्ती है? कोड़े मारे जा रहे हैं पाकिस्तान में। लाहौर में चौदह आदमी पकड़े गए, क्योंकि दिन में भोजन करते हुए मिल गए! उनकी कोड़ों से पिटाई की गई। उनको लहूलुहान किया गया।
पाकिस्तान में कानूनी रूप से दिन में होटलें बंद कर दी गई हैं, रेस्तरां बंद कर दिए गए हैं। कोई भोजन का सामान कहीं मिल नहीं सकता! देखो, कैसे धर्म की स्थापना हो रही है!
धर्म संस्थापनाय--धर्म की संस्थापना के लिए कैसे-कैसे अवतार पैदा हो रहे हैं! यह धर्म हुआ?
अगर किसी आदमी को दिन में भोजन करना है, तो यह उसकी मर्जी। कोई उपवास जबरदस्ती है? उसे नहीं जाना स्वर्ग, तो जबरदस्ती स्वर्ग भेजोगे? उसने तय कर रखा है नरक जाने का, तो तुम कौन हो!
और क्या मजा! दिन में भोजन किया, तो स्वर्ग छिन जाएगा और रात्रि भोजन किया, तो स्वर्ग पहुंच जाओगे! जैनियों से तो पूछो कुछ! वहां रात्रि भोजन करो, तो बस नरक गए! यह नरक-स्वर्ग का गणित है कुछ, कि जिस आदमी की जो मर्जी है, वही गणित बन जाए!
अगर जैनियों से पूछो, तो रात्रि में भोजन पाप है। दिन में भोजन तो ठीक है। लेकिन मुसलमानों के हिसाब से रात्रि भोजन ठीक है; दिन में भोजन पाप है।
खैर, तुम्हारी जो मर्जी, जिसकी हो, माने; मगर किसी दूसरे को कोड़े मरवा कर उपवास करवाओगे? तब तो खूब धर्म की स्थापना हो जाएगी!
लेकिन जिया-उल-हक ने कहा कि पाकिस्तान तो धार्मिक राज्य है, इस्लामिक राज्य है, तो यहां इस्लाम के खिलाफ कोई कृत्य नहीं हो सकता। यह इस्लाम के खिलाफ है, दिन में भोजन, रमजान के महीने में। तो अब पाकिस्तान में कोई दिन में भोजन नहीं कर सकता। और कोई करेगा बेचारा.। छोटे बच्चे, या कोई अगर दिन में छिप कर भोजन कर लेंगे या घर में कोई करा देगा, तो अपराध के भाव से भर जाएंगे। पकड़े गए, तो कोड़े पड़ेंगे, बदनामी होगी। अगर नहीं पकड़े गए, तो भी अपराध से भीतर प्राण कंपते रहेंगे कि अब नरक का इंतजाम हुआ!
और तुम समझ सकते हो कि जब मुसलमान जमीन पर यह हालत कर देते हैं, तो नरक में क्या नहीं हालत करते होंगे! इनका नरक तो बड़ा ही खतरनाक होगा! इनके नरक से तो किसी और के नरक में चले जाना! इनके तो नरक से भी सावधान रहना। इनका तो स्वर्ग भी खतरनाक होगा! वहां अगर ये देवी-देवताओं को भी कोड़े मारते हों, तो कुछ आश्चर्य नहीं।
धर्म को हिंसा की कोई आवश्यकता नहीं है। और ऐसे धर्म स्थापित नहीं होता है।
तुम कहते हो: ‘ईश्वर-पुत्र जीसस को भी अपने हाथों में कोड़ा उठाना पड़ा था।’
जरूर उठाया था कोड़ा, मगर हुआ क्या? ये सब हार गए। ये तलवारें, ये कोड़े, ये सुदर्शन चक्र--ये सब हार गए। ईसाइयत कहीं मनुष्य को ले नहीं गई। ईसा ने कोड़ा उठाया, या मोहम्मद ने तलवार उठाई, या कृष्ण ने धर्म चक्र, सुदर्शन चक्र उठाया, इससे इतना ही सिद्ध होता है कि उन्होंने देख लिया प्रयोग करके, और प्रयोग असफल हो गया है।
तुम कहते हो: ‘बुद्ध और महावीर की अहिंसा परमो धर्मः उनके मार्ग में आ गई होगी, और लोगों ने उन पर हिंसाएं कीं।’
वह ज्यादा बेहतर है। हिंसा करने की बजाय हिंसा सह लेना ज्यादा बेहतर है। पाप करने की बजाय पाप सह लेना ज्यादा बेहतर है।
बुद्ध और महावीर की गरिमा को कोई दूसरा छू नहीं पाता। उस महिमा के करीब भी नहीं आ पाता। उनकी दृष्टि की निर्मलता समझो। कोड़ा उठाना आसान था; कोई भी उठा ले। कोई जीसस की खूबी नहीं। यह तो तुम भी कोड़ा उठाना चाहते हो। तलवार उठाना भी कोई कठिन नहीं। कौन तलवार नहीं उठाना चाहता! हर कोई उठाने को तैयार है।
मगर ये सामान्य आदमी की वृत्तियां हैं। और शायद तात्कालिक रूप से सफलता मिलती भी दिखाई पड़े, लेकिन इनसे कोई मनुष्य के जीवन में क्रांति पैदा नहीं होती।
यह सच है कि महावीर और बुद्ध को हिंसा झेलनी पड़ी, तो क्या तुम सोचते हो जीसस को हिंसा नहीं झेलनी पड़ी? तो सूली पर कौन मरा? इससे तो महावीर और बुद्ध को ज्यादा हिंसा नहीं झेलनी पड़ी। कम से कम सूली पर तो नहीं मरे! तुम सोचते हो, मोहम्मद को कुछ कम हिंसा झेलनी पड़ी? जिंदगी भर कौन भागता फिरा--मक्का से मदीना, मदीना से मक्का; यहां से वहां! भागना पड़ा, क्योंकि तलवार उठाई थी; दूसरे भी तलवार उठाए हुए थे। कोई मोहम्मद की जिंदगी में खोजे तो, कि हिंसा का परिणाम क्या हुआ! एक दिन शांति से बैठ नहीं सके, उठ नहीं सके। भागते ही रहे, बचते ही रहे, लड़ते ही रहे। और सारी लड़ाई का परिणाम यह हुआ कि इस्लाम धर्म मूलतः राजनैतिक हो गया। उसका ढांचा और ढर्रा राजनीति का हो गया।
और जीसस को कोड़ा उठा लेना, जीसस की कमजोरी साबित कर गया, और कुछ भी नहीं। मेरे हिसाब में जिस दिन जीसस ने कोड़ा उठाया था, तब तक वे क्राइस्ट नहीं थे। क्राइस्ट तो जीसस आखिरी क्षण में हुए; उनको जो बुद्धत्व उपलब्ध हुआ, वह सूली पर उपलब्ध हुआ। जब उन्हें सूली दी गई, तब तक कहीं भीतर उनके मनुष्य की सामान्य आकांक्षाएं और वासनाएं बड़े सूक्ष्मतर रूप में मौजूद थीं, क्योंकि आखिरी क्षण तक भी वे प्रतीक्षा कर रहे थे कि परमात्मा चमत्कार करेगा; वही दूसरे लोग भी प्रतीक्षा कर रहे थे। इस गणित में कुछ भेद नहीं था।
लाख आदमियों की भीड़ इकट्ठी हुई थी देखने कि चमत्कार शायद हो; कौन जाने, यह आदमी हो ही ईश्वर का बेटा! हम भूल में हों। आज तय हो जाएगा, निर्णय हो जाएगा। आज वे सारी कहानियां कसौटी पर कस जाएंगी, जो इसके शिष्य कहते हैं--कि इसने अंधों को आंखें दीं; बहरों को कान दिए; लंगड़ों को चला दिया; गूंगों को बोला दिया; यही नहीं, मुर्दों को जिला दिया! तो जो आदमी यह कर सकता है, उसको सूली लगेगी, तो क्या नहीं होगा! आज कोई महान चमत्कार होना है।
तो तमाशबीन इकट्ठे हुए थे। बड़ी आतुरता से टकटकी लगाए देख रहे थे, अब होता है कुछ! खुलेगा आकाश; फटेगा आकाश; कि होगी फूलों की वर्षा; कि उतरेगा स्वयं ईश्वर अपने बेटे को बचाने! और ईसाई तो कहते हैं, इकलौता बेटा! जैसे परमात्मा ने उसके बाद बर्थ-कंट्रोल कर लिया! यह क्या हुआ! इधर तो हम कहते हैं, दो या तीन, बस! परमात्मा मानता है, एक, बस! उसके बाद बांझ हो गए या क्या हुआ! कि भूल-भाल गए कि बच्चे कैसे पैदा किए जाते हैं! कुछ न कुछ गड़बड़ हो गई।
कल ही मैं एक कहानी पढ़ रहा था कि दो बूढ़ों ने--अस्सी साल के.अमरीकन बूढ़े! और कहीं तो हो नहीं सकते ऐसे बूढ़े! शादी कर ली। मियामी बीच गए थे। ऐसे तो गए थे छुट्टियां मनाने; दोस्ती हो गई दोनों की। गपशप करते-करते कहने लगे कि हम क्यों जिंदगी अपनी बर्बाद करें; अभी तो जिंदगी बाकी है! और पैसा दोनों पर था। और पैसा है, तो क्या उपलब्ध नहीं है! शादी क्यों न कर लें? जंची बात दोनों को। दोनों ने शादी कर ली उसी दिन।
पैसा बहुत था। और अमरीका में पैसा सब-कुछ है। दो जवान लड़कियां--बीस साल, बाईस साल की दो लड़कियां शादी करने को राजी हो गईं। उन्होंने भी गणित बिठाया, उन्होंने सोचा, ये बुड्ढे करेंगे भी क्या! और कितने दिन जिंदा रहेंगे। अरे, दो-चार साल में खात्मा हो जाएगा और इनकी संपत्ति पर हमारा कब्जा होगा। सो निपटा ही लो एक दफा। जिंदगी भर के लिए संपत्ति की झंझट खत्म हो गई; फिर मौज ही मौज है! सो उन्होंने शादी कर ली।
सुहागरात हो गई। दूसरे दिन सुबह दोनों बुड्ढे मिले। पहला बुड्ढा बड़ा उदास था। उसने कहा कि भई, रात भर बहुत मेहनत की, मगर कुछ हाथ न आया! अब शरीर साथ नहीं देता। मैं तो प्रेम कर ही न पाया!
दूसरा बोला: तुमने अच्छी याद दिलाई। अरे, मैं तो भूल ही गया। खयाल जरूर आता था कि कुछ चूक रही है बात; यानी कुछ करना चाहिए, मगर कुछ समझ में नहीं आता--क्या करना चाहिए! सुहागरात--सुहागरात--बहुत मैंने सोचा, कि सुहागरात में करना क्या होता है! मगर सुहागरात मनाए हुए साठ साल हो चुके; साठ साल में कौन को स्मृति रह जाती है! सो रात भर मैं करवट बदलता रहा और सोचता रहा कि कुछ चूक जरूर रहा हूं, कुछ भूल जरूर रहा हूं। खूब याद दिलाई भाई! पहले ही क्यों न कहा! सुहागरात यूं ही गुजर गई!
तो पता नहीं, परमात्मा को क्या हुआ! अब परमात्मा की तो उम्र भी बहुत हो चुकी होगी! अब क्या हिसाब भी लगाना मुश्किल है कि कितना समय बीत गया!
इकलौता बेटा.! तो लोग इकट्ठे हुए होंगे कि अब इकलौते बेटे पर हमला हो रहा है, तो बाप अगर ऐसे मौके पर काम न आएगा, तो फिर कब काम आएगा? अरे, यही तो अवसर है, जब पता चलता है कि कौन अपना है, कौन पराया है।
जीसस का भी लेकिन गणित यही था। वे भी सोच रहे थे कि आज चमत्कार होगा ही होगा। कई दफा आकाश की तरफ देखा! न आकाश फटा, न फूल गिरे, न अमृत बरसा, न आकाश से वाणी उठी--कि यह तुम क्या कर रहे हो मेरे बेटे के साथ! न पृथ्वी कंपी, न भूकंप आए। कुछ भी न हुआ। कुछ भी न हुआ! आखिर जीसस ने जब देखा कि यह तो मैं मरा ही जा रहा हूं--हाथों में खीले ठुंक गए, पैरों में खीले ठुंक गए! तो उन्होंने चिल्ला कर कहा कि हे प्रभु, क्या तू मुझे भूल गया? क्या तूने विस्मरण कर दिया? या कि तूने मेरा त्याग कर दिया, परित्याग कर दिया? यह तू मुझे क्या दिखा रहा है!
मैं मानता हूं, जिस क्षण तक जीसस ने ये वचन कहे, उस क्षण तक वे क्राइस्ट नहीं थे, बुद्ध नहीं थे।
जरूर ईसाई मुझसे नाराज होंगे। मगर अब मुझसे लोग इतने नाराज हैं कि क्या फर्क पड़ता है! और थोड़े लोग सही! अब मैं गिनती भी नहीं रखता। अब गिनती भी कौन करता रहे! अब तो कौन-कौन नाराज नहीं हैं, उनकी गिनती करता हूं। अब नाराज करने वालों की क्या गिनती करना!
लेकिन तभी जीसस को बोध हुआ कि यह मैं क्या मांग रहा हूं; मेरी मांग तो मेरा अहंकार है। मैं ईश्वर का भी उपयोग करना चाहता हूं! यह आकांक्षा--तो मेरी श्रद्धा क्या हुई!
चौंके! जगे! सूली जगा गई उन्हें। आंख से आंसू झरे और उन्होंने फिर चेहरा ऊपर उठाया और कहा: हे प्रभु! मुझे क्षमा कर। मुझसे भूल हुई। तेरी मर्जी पूरी हो। तेरी ही मर्जी पूरी हो; मेरी मर्जी की कोई बात नहीं; मेरी मर्जी क्या! मैं जानूं क्या कि सच क्या, झूठ क्या; ठीक क्या, गलत क्या? तेरा राज्य उतरे। मैं हूं कौन! तेरी मर्जी पूरी हो; मेरा समर्पण पूरा है।
बस, उस घड़ी जीसस क्राइस्ट बने। उस घड़ी जीसस बुद्ध हुए। उस घड़ी जीसस जिन हुए। आखिरी क्षण में!
जीसस ने जब कोड़ा उठाया था, तब मैं उनको क्राइस्ट नहीं कह सकता। अभी कोड़े की ही भाषा थी। इसमें कुछ भेद न था। कोड़ा कौन उठाता है, यह सवाल नहीं; कोड़े का तर्क एक है कि दबा लेंगे, कि दबाव से बदल लेंगे; कि दूसरे की गर्दन को दबा कर उससे स्वीकार करवा लेंगे।
कोड़े पर भरोसा परमात्मा पर भरोसा नहीं हो सकता।
तो मैं नहीं मानता कि कुछ लाभ हुआ जीसस को कोड़ा उठा लेने से; सिर्फ कमजोरी जाहिर हुई; मानवीय दीनता जाहिर हुई। सम्राट तो बने उस क्षण जब कह सके: ‘दाय किंग्डम कम, दाय विल बी डन। तेरा राज्य उतरे, तेरी मर्जी पूरी हो। मेरा समर्पण स्वीकार कर।’ उस क्षण संन्यास घटा। उस क्षण परमात्मा और उनके बीच कोई बाधा न रही। जब कोड़ा उठाया था, तो कोड़ा ही बाधा थी।
स्वभाव, मैं तो मानता हूं कि बुद्ध और महावीर ने कुछ भूल नहीं की। बुद्ध और महावीर ने अपने भीतर की सुगंध प्रकट की। पड़े पत्थर--ठीक। वह पत्थर मारने वालों का गणित है। लेकिन उनकी तरफ से क्षमा ही रही। वह उनका गणित है। उनका गणित ऊंचा होना ही चाहिए। अगर उनका गणित भी वही हो, जो पत्थर मारने वालों का गणित है, तो फिर भेद क्या रहेगा!
जिन्होंने महावीर के कानों में खीले ठोके.। वह कहानी समझने जैसी है।
महावीर नग्न खड़े थे एक गांव के बाहर, एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे। वह उन बारह वर्षों की बात है, जब वे मौन थे, और ध्यान में लीन थे। बारह वर्ष बोले नहीं। मौन खड़े थे। एक चरवाहा गाएं चरा रहा था। घर से कोई खबर देने आया कि कुछ जरूरी काम है, तुम घर चले चलो। उसने देखा, यह आदमी खड़ा है नंग-धड़ंग। यहां कुछ काम भी नहीं है इसको। उसने कहा: भैया, जरा ऐसा करना, मेरी गौवें देखते रहना।
वह तो कह कर चला गया; उसने यह भी न देखा कि इस आदमी ने न हां भरी, न न। यह खड़ा ही रहा चुपचाप। उसने सोचा, यह खड़ा ही है वैसे, फिजूल, बेकार यहां समय खराब कर रहा है--देखता रहेगा गौवें।
अब महावीर बोल सकते नहीं थे, इसलिए न भी नहीं की, हां भी नहीं की; चुपचाप खड़े रहे। और उसने मौनं सम्मति लक्षणं.। उसने कहा, जब कुछ कह ही नहीं रहा है, तो ठीक है। इसका मतलब है कि ठीक है, देखते रहेंगे; जाओ!
वह तो घर गया। अब गौवों का क्या भरोसा--वे चरते-चरते जंगल में अंदर निकल गईं। जब तक लौटा, तो देखा, यह आदमी तो खड़ा है अपनी जगह, मगर गौवें सब नदारद! उसने कहा: यह आदमी बदमाश मालूम होता है! शरारती मालूम होता है; धोखेबाज मालूम होता है। यूं तो बन कर खड़ा है, जैसे कोई बड़ा त्यागी-तपस्वी हो। और दिखता है, इसके कोई संगी-साथी भी छिपे होंगे आस-पास कहीं, जो गौवें ले भागे!
इसको हिलाया-डुलाया और पूछा कि क्यों भाई, गौवों का क्या हुआ? अब ये तो कुछ बोले ही नहीं। धमकाया कि मार-पीट कर दूंगा; मेरी गाएं कहां हैं? मगर यह तो कुछ बोले ही नहीं! तो उसने कहा: क्या तू बहरा है? सुनता है कि नहीं? मगर यह तो न हां करे, न हूं करे! यह तो यूं खड़ा, जैसे कुछ हो ही नहीं रहा है। मौन का तो अर्थ ही यह होता है।
तो यह देख कर कि अच्छा, तो तू अपने को बहरा बताने की कोशिश कर रहा है, तो अब किए देता हूं तुझे बहरा!
उसने उठा कर दो लकड़ियां दोनों कानों में ठोक दीं पत्थर से। लहूलुहान; खून बहने लगा। पर्दे फट गए होंगे कान के, मगर महावीर वैसे ही खड़े रहे। वह तो खीले कानों में ठोक कर लकड़ियों के, चला गया गौवों को देखने कि कौन उड़ा ले गया है, देखूं। पता करूं।
थोड़ी दूर गौवें चरती मिल गईं। पछताया बहुत।
इस बीच कथा कहती है कि इंद्र को बहुत पीड़ा हुई कि एक निर्दोष व्यक्ति, जिसका कोई भी संबंध नहीं, उसको अकारण पीड़ा दी गई है। तो इंद्र आकाश से उतरा।
कथा को कथा ही समझना। न तो कहीं कोई इंद्र है, न कहीं कोई आकाश से उतरता है। लेकिन कथाएं प्रतीकात्मक होती हैं। इंद्र आकाश से उतरा, इसका इतना ही अर्थ है कि जो इतनी सहिष्णुता से भरा हो, सारा अस्तित्व उसका साथ देने को तत्पर होता है। यह सहिष्णुता! जरा भी क्रोध नहीं; जरा भी इस आदमी के प्रति शोध नहीं। नहीं तो मौन ऊपर ही ऊपर रहता, भीतर आग जल जाती। वह भी नहीं। स्वीकार कर लिया!
इंद्र उतरा और इंद्र ने प्रार्थना की कि ऐसा करें आप, आप इस अपूर्व साधना में लगे हैं; मुझे आज्ञा दें, तो या तो मैं सदा आपकी सेवा में तत्पर रहूं, ताकि इस तरह की बात दुबारा न हो सके। या कहें तो मैं और दो-चार देवताओं को आपके आस-पास सदा मौजूद रखूं, कि इस तरह की भूल दुबारा न हो।
ये बातें भाषा में नहीं हुईं। क्योंकि इंद्र देवता कोई भाषा तो बोलते नहीं। महावीर तो मौन थे। भाषा में होती, तो वे बोलते भी नहीं। मौन ही मौन में हुईं ये बातें।
महावीर ने मौन में ही कहा कि नहीं, इसमें कुछ चिंता नहीं। किसी पिछले जन्म में इस गरीब को मैंने सताया होगा, जरूर सताया होगा, उसी कर्म का फल मुझे मिल गया। लेन-देन पूरा हो गया। एक अटकाव था, वह भी हल हो गया। इसमें कुछ बुरा नहीं हुआ। लेन-देन तो पूरे करने ही होंगे। और यह मेरा आखिरी जन्म है, तो सभी हिसाब-किताब पूरे करने हैं। अच्छा ही हुआ; जितने जल्दी हो गया, उतना अच्छा हुआ। तुम चिंता न लो, न देवी-देवताओं को यहां भेजने की कोई जरूरत है।
जीसस के हाथ में कोड़ा; मोहम्मद के हाथ में तलवार; कृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र--और महावीर की यह बात--किसको चुनते हो?
कौन धर्म की रक्षा कर रहा है? धर्म का अर्थ क्या है?
बुद्ध को बहुत सताया गया। लेकिन एक भी बार उनके द्वारा प्रतिहिंसा, प्रतिकार में कुछ भी नहीं किया गया। वहां क्षमा अखंड रही।
स्वभाव, हिंसा तो रुकी नहीं--जीसस पर भी हुई, मोहम्मद पर भी हुई, महावीर पर भी हुई, बुद्ध पर भी हुई। हिंसा तो रुकी नहीं। इसलिए यह तर्क तो काम आएगा नहीं कि देखो, महावीर और बुद्ध पर हिंसा हुई, अगर ये भी तलवार उठा लेते तो हिंसा न होती!
हिंसा तो कृष्ण पर भी हुई, जीसस पर भी हुई, मोहम्मद पर भी हुई। तो यह तर्क तो व्यर्थ है। इतना जरूर साफ होता है इससे कि जीसस, कृष्ण और मोहम्मद थोड़े पीछे पड़ जाते हैं बुद्ध और महावीर से। और यह मनुष्य के विकास का परिणाम है।
कृष्ण, महावीर और बुद्ध से पहले हुए। राम उससे भी पहले हुए। तो तुम देखते हो कि कृष्ण ने तो एक दफा सुदर्शन चक्र उठाया। कभी-कभी तुम्हें तस्वीर मिल जाती है उनकी अंगुली पर सुदर्शन चक्र के घूमती हुई। लेकिन रामचंद्र जी! वे तो धनुषबाण लिए ही रहते हैं! पता नहीं, सोते समय भी धनुषबाण लेकर ही सोते हैं या क्या करते हैं! वे तो धनुर्धारी राम ही कहलाते हैं! वह धनुषबाण न हो तो जंचते ही नहीं।
बाबा तुलसीदास को मंदिरों में ले गए थे कृष्ण के, उन्होंने कहा: नहीं झुकूंगा। तुलसी झुकै न माथ!
क्यों? जो ले गया था नाभादास, उसने पूछा: क्यों?
तो उन्होंने कहा कि मैं तो धनुर्धारी राम के सामने झुकता हूं। तो जब तक धनुषबाण हाथ नहीं लोगे, तुलसी का माथा झुकने वाला नहीं। मैं तो पहचानता ही एक को हूं; वही धनुर्धारी राम!
अब यह तुलसीदास जी को अगर रामचंद्र जी सोए मिल जाएं, तो ये झुकने वाले नहीं! धनुषबाण कहां है? नहाते हुए मिल जाएं--झुकेंगे नहीं। धनुषबाण कहां है? लघुशंका वगैरह कर रहे हों--ये नहीं झुक सकते। धनुषबाण कहां है? जीने दोगे कि जान ले लोगे!
मगर यह पुरानी धारणा है। कृष्ण से भी पहले तो धनुर्धारी राम हैं। और जरा पीछे चलो, तो उसके पहले परशुराम अवतार थे। परशुराम का तो नाम ही परशुराम हो गया--फरसे वाले राम! वे फरसा ही लिए रहे, घुमाते रहे! कम से कम रामचंद्र जी धनुषबाण कंधे पर टांगे रहते थे! मगर परशुराम तो फरसा ही घुमाते फिरे! उनकी तो जिंदगी ही इसी काम में बीती! कहते हैं, उन्होंने पृथ्वी को अट्ठारह बार क्षत्रियों से खाली कर दिया!
अब स्वभाव, कहां इतनी मेहनत करोगे! अट्ठारह बार! परशुराम पंजाबी रहे! अंतःप्रमाण यही कहता है कि पंजाबी थे। इतिहास कुछ कहे, पुराण कुछ कहे, मुझे लेना-देना नहीं।
लिए फरसा घूमते ही रहे! जिंदगी इसी में बीती होगी! अट्ठारह बार पूरी पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली करना, कोई छोटा-मोटा काम है! कब सोए, कब उठे--कुछ पता नहीं। बस, यही लगे रहे होंगे काटा-पीटी में! और फिर भी क्या हुआ? क्षत्रियों की स्त्रियां तो बच गईं, क्योंकि स्त्रियों को मारना जरा शोभादायक नहीं। परशुराम जैसे व्यक्ति को भी लगा कि स्त्रियों को मारना तो ठीक नहीं। अब स्त्रियां बच गईं! और उन दिनों बड़ी दुनिया अजीब थी!
जिन ऋषि-मुनियों की तुम बहुत ज्यादा तारीफ करते हो, वे एक से एक गजब के काम करने में कुशल थे। ऋषि-मुनियों का एक खास काम यह था कि जिन स्त्रियों को बच्चे वगैरह न हों, उनको बच्चे देना! इसके लिए खास नाम था: नियोग। स्त्री प्रार्थना करती थी जाकर.। ऋषि-मुनियों का काम वही था, जो सांडों का काम होता है! कि गऊ माता आ गईं, उन्होंने प्रार्थना की, ऋषि-मुनि क्या करें! वे तो बेचारे बैठे ही हैं दान देने के लिए! तो वे ऋषि-मुनि उनको फिर बच्चा पैदा कर दें! और ऋषि-मुनियों की कमी नहीं थी। कोई थोड़े बहुत ऋषि-मुनि नहीं थे इस देश में। जगह-जगह ऋषि-मुनि ही ऋषि-मुनि थे, तब तो कहते हैं इसको ऋषि-मुनियों का देश! ऋषि-मुनियों की संतान! मगर ऋषि-मुनियों की संतान का मतलब समझ लेना! कि कुछ गड़बड़ है!
तो वे जो क्षत्रियों की स्त्रियां बचीं, वे ऋषि-मुनियों से संतान करवा आईं! कितनी स्त्रियां होंगी, जरा सोचो तो तुम! कितने ऋषि-मुनि रहे होंगे? धन्य है भारत भूमि! और क्या गजब के काम चलते रहे! और धर्म के नाम पर चलते रहे!
और ये सब ऋषि-मुनियों की संतान मुझे गाली देते हैं! इनको शर्म भी नहीं आती! अरे, तुम होते ही नहीं, अगर ऋषि-मुनि न होते तो। एक क्षत्रिय शुद्ध नहीं है। वे परशुराम पहले ही सबको गड़बड़ कर चुके! सबका रक्त अशुद्ध हो गया है। यहां कौन आर्य है? क्या आर्यसमाज वगैरह बना कर बैठे हुए हो!
जैसे तुम पीछे लौटोगे, वैसे तुमको एक बात समझ में आएगी, कि जितने पीछे जाओगे इतिहास में, उतनी ही हिंसा स्वीकृत है। यह मनुष्य के आदिम होने का सबूत है। जितने पुराने अवतार हैं, उतने हिंसक हैं।
बुद्ध इस परंपरा में अंतिम अवतार हैं। हिंदुओं के हिसाब से बुद्ध के बाद फिर कोई अवतार नहीं हुआ। कल्कि अवतार होने को है, अभी हुआ नहीं; वह आखिरी अवतार है। बुद्ध आखिरी अवतार हैं। वह पराकाष्ठा है। वह हमारे धर्म की धारणा का शुद्धतम रूप है। जैसे-जैसे आदमी की समझ बढ़ी, बोध बढ़ा, ध्यान बढ़ा, प्रतिभा में चमक आई, वैसे-वैसे उसकी धारणाएं भी बदलीं। स्वभावतः उसके परमात्मा का अर्थ बदला।
अगर तुम पुरानी बाइबिल पढ़ते हो, ओल्ड टेस्टामेंट, तो उसमें ईश्वर खुद घोषणा करता है कि मैं बहुत ईर्ष्यालु ईश्वर हूं। जो मेरे खिलाफ जाएगा, मैं उसे छोडूंगा नहीं। मैं उसे इस तरह भुगताऊंगा कि वह याद रखेगा! उसको सड़ाऊंगा नरकों में!
ईश्वर ऐसी भाषा बोलेगा कि मैं बहुत ईर्ष्यालु ईश्वर हूं! कि जो मेरे साथ नहीं; वह मेरा दुश्मन! यह तो बड़ी एडोल्फ हिटलर जैसी भाषा हुई। मगर तीन हजार साल पहले यहूदियों का ईश्वर और क्या बोले! यही बात जंचती थी।
यहूदियों का ईश्वर कहता है, जो तुम्हें ईंट मारे, पत्थर से जवाब दो। मगर स्वभावतः यह ईश्वर बुद्ध के सामने फीका मालूम पड़ेगा। क्योंकि बुद्ध कहते हैं, वैर से वैर नहीं मिटता। शत्रुता से शत्रुता नहीं मिटती। शत्रुता मित्रता से मिटती है। जहर जहर से नहीं--अमृत बरसाओ।
यह ईश्वर थोड़ा सा आदिम मालूम पड़ेगा--प्रीमिटिव, अविकसित, असभ्य--जो कह रहा है, मैं ईर्ष्यालु हूं।
जीसस तक आते बात बदली। जीसस ने कहा: अपने शत्रु को भी अपने जैसा प्रेम करो। जीसस ने कहा कि तुमसे पहले कहा गया है.। वे याद दिला रहे हैं पुराने बाइबिल की--कि तुमसे पहले कहा गया है, पुराने पैगंबरों ने तुमसे कहा है कि ईंट का जवाब पत्थर से। मैं तुमसे कहता हूं: नहीं। अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर देना।
यह थोड़ा विकसित धर्म हुआ। यह थोड़ा परिष्कृत धर्म हुआ। मगर जीसस थे तो यहूदी। जीए तो थे पुरानी ही हवा में; पले तो पुरानी ही हवा में थे, इसलिए भूल गए होंगे यह बात, जब कोड़ा उठाया। कमजोरी के क्षण होते हैं। अभी जीसस कोई सिद्ध पुरुष नहीं थे, जब कोड़ा उठा लिया। ये जब बातें उन्होंने कहीं, तब कवि रहे होंगे। काव्य का झरोखा खुला होगा; ऊंची बातें कह गए। बात ही करनी हो, तो ऊंची कहने में कोई कठिनाई नहीं है। अवसर सिद्ध करते हैं कि बात सच में कही गई थी; प्राणों से आई थी?
स्वभाव, मेरे लिए तो प्रेम ही धर्म है। अहिंसा भी नहीं कहता मैं। प्रेम। क्योंकि ‘अहिंसा’ शब्द में हिंसा मौजूद है। अहिंसा में निषेध है, विधेय नहीं। मैं महावीर और बुद्ध से आगे धर्म को ले जाना चाहता हूं। महावीर और बुद्ध को हुए ढाई हजार साल हो गए। अगर महावीर और बुद्ध, कृष्ण और राम से धर्म को आगे ले गए, ढाई हजार साल का फासला था महावीर और बुद्ध का कृष्ण से। राम में और परशुराम में भी करीब-करीब ढाई हजार साल का फासला था।
इधर मैंने गौर से देखा है, तो पाया है कि हर ढाई हजार साल के फासले पर धर्म एक नई छलांग लेता है। बुद्ध को हुए ढाई हजार साल हो गए। यह एक अपूर्व अवसर है, जिसमें तुम पैदा हुए हो। धन्यभागी हो। क्योंकि ढाई हजार साल ऐसा लगता है, जैसे कि हर एक साल के बाद वसंत आता है--ऐसे हर ढाई हजार साल के बाद मनुष्य की चेतना का वसंत आता है। तब फूल खिलने आसान होते हैं। तब ऋतु तुम्हारे अनुकूल होती है। तब सब मौसम तैयार होता है। तुम ही अकड़े बैठे रहो, तो बात अलग। तुम अगर तैयार हो बहने को, अगर तुम अवसर दो, तो फूल खिल जाएं।
ढाई हजार साल हो गए बुद्ध को हुए। बुद्ध और महावीर दोनों ने ‘अहिंसा’ शब्द का उपयोग किया। अहिंसा शब्द का अर्थ है: हिंसा मत करना। यह काफी नहीं है। यह मैं काफी नहीं मानता। हिंसा नहीं करना, यह पर्याप्त नहीं है। किसी को नहीं मारना, यह तो अच्छा है किसी को मारने से। लेकिन किसी को प्रेम करना, उसके मुकाबले यह कुछ भी नहीं।
जैन मुनि किसी की हिंसा नहीं करता। अच्छी बात है। मगर इसके जीवन में प्रेम का कोई लक्षण नहीं होता। हिंसा तो गई, लेकिन प्रेम न आया। कंकड़-पत्थर तो छूटे, लेकिन हीरे-जवाहरात कहां हैं? व्यर्थ तो गया, लेकिन सार्थक कहां है? व्यर्थ को छोड़ा, कृपा की। कंकड़-पत्थर से ही झोली भरी रहती, तो हीरे-जवाहरात के लिए जगह न होती। तुमने झोली खाली कर ली; चलो आधा काम तो किया। मगर अब झोली को भरो--हीरे-जवाहरातों से भरो--तो काम पूरा हुआ। तुमने जमीन तैयार कर ली; बगीचा बनाने के लिए क्यारियां खोद लीं; खाद डाल दी, और अब बैठे हो सिर से हाथ लगाए हुए, बड़े विचारक बने, बड़े दार्शनिक बने! अब कोई ऐसे ही थोड़े फूल आ जाएंगे। अब बीज भी बोओ।
महावीर और बुद्ध वहां छोड़ गए धर्म को, जहां बगीचे की भूमि तैयार हो जाती है--जहां कंकड़-पत्थर हटा दिए गए; व्यर्थ जड़ें उखाड़ दी गईं; घास-पात काट दिया गया; जमीन गोड़ ली गई; खाद डाल दी गई। मगर इतने से कोई गुलाब थोड़े ही खिल जाएंगे! यह जरूरी है कि करो, गुलाब खिलाने के लिए। मगर अब गुलाब बोओ भी। अगर नहीं बोओगे, तो घास-पात फिर ऊग आएगी। यह घास-पात की खूबी है कि या तो गुलाब बोओ, ताकि जमीन की ऊर्जा गुलाब में बहने लगे; नहीं तो जमीन की ऊर्जा खाली नहीं पड़ी रहेगी।
तुमने कंकड़-पत्थर अलग कर दिए; मिट्टी में खाद डाल दी और बैठे हो, तो तुम्हारी खाद घास-पात को मिल जाएगी। जल्दी ही तुम पाओगे; वर्षा आएगी, बूंदा-बांदी होगी--घास-पात फिर ऊग आएगी; और दुगुनी बड़ी ऊगेगी, क्योंकि तुमने घास-पात के लिए तैयारी कर दी। गुलाब तो तुमने बोए नहीं।
महावीर और बुद्ध धर्म को नकारात्मक छोड़ गए हैं। मैं उसे विधायकता देना चाहता हूं। मगर उन्होंने एक बड़ा काम कर दिया। कम से कम खेत तो तैयार कर गए। कम से कम सफाई तो कर गए। कम से कम हिंसा से छुटकारा तो दिला गए।
जरा बुद्ध को तुम हाथ में धनुषबाण पकड़ा कर बिठाओ, अच्छे नहीं लगेंगे--बिलकुल अच्छे नहीं लगेंगे। और महावीर को तो बिलकुल ही नहीं जंचेगा! एक तो नंग-धड़ंग और फिर धनुषबाण लिए हुए! बिलकुल नहीं जंचेंगे। बहुत भद्दे लगेंगे। कुरूप मालूम होंगे। वह धनुषबाण सब खराब कर देगा। प्यारे लोग थे, मगर उनको भी बीते ढाई हजार साल हो गए। अब उनको ही पकड़े न बैठे रहो। और आगे जाना है। आगे से आगे जाना है। नये-नये शिखर छूने हैं।
जीवन के विकास का कोई अंत नहीं है। प्रारंभ तो है, अंत नहीं। यात्रा है, मंजिल नहीं है। यात्रा ही यात्रा है। रोज-रोज नये शिखर; रोज-रोज नये फूल; रोज-रोज नई सुगंध; रोज-रोज नये सत्य के आविष्कार। यही तो जीवन की उर्वरा शक्ति है। इस उर्वरा शक्ति को ही मैं परमात्मा कहता हूं।
मेरे लिए परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। यह जो उर्वरा शक्ति है, जिसने परशुराम पैदा किए.। कभी उनकी जरूरत थी, क्योंकि क्षत्रियों ने बहुत उपद्रव कर रखा था। क्षत्रिय छाती पर बैठे हुए थे। बड़े शोषक हो गए थे। चाहिए था कोई परशुराम कि उठा कर फरसा इनकी सफाई कर दे! तो परशुराम ने काम नहीं किया, ऐसा मैं नहीं कहता। लेकिन अब बात बहुत पुरानी पड़ गई। अब बात यूं हो गई कि बैलगाड़ी के जमाने की हो गई। अब कहां जेट हवाई जहाज के जमाने और कहां तुम बैलगाड़ी की बातें लिए हुए हो। अब फरसा ही घुमाते रहोगे, इससे क्या होने वाला है! कहां एटम बम और हाइड्रोजन बम तैयार हो गए, तुम फरसा घुमा रहे हो! परशुराम फरसा घुमाते रहेंगे, ऊपर से कोई हवाई जहाज आकर बम पटक जाएगा! सो खुद भी खत्म; फरसा भी गया! अब फरसे से कुछ होगा?
रामचंद्र जी धनुषबाण साध रहे हैं! साधते रहो। अब इस जमाने में किसी काम का है? हां, गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में जो परेड होती है, उसमें आदिवासी बस्तर वगैरह से जाते हैं धनुषबाण लेकर! बस, उस काम में रामचंद्र जी लगाए जा सकते हैं! कि जब गणतंत्र दिवस की परेड हो, तो आ गए! धनुषबाण लेकर! सो लोग देख लें कि क्या-क्या जमाने बीत चुके हैं। अभी भी कुछ लोग धनुषबाण लिए हुए हैं! इतिहास के प्रमाण बन जाएं--और तो कुछ नहीं।
उस जमाने में जरूरी थे। जो जब हुआ, तब उसकी जरूरत थी। वहां रुक नहीं जाना है। गंगा रुकती नहीं; बहती जाती है। और कितना पानी बह चुका!
मेरा प्रेम है परशुराम से भी; मेरा प्रेम है राम से भी; मेरा प्रेम है कृष्ण से भी; मेरा प्रेम है बुद्ध और महावीर से भी--जीसस से, मोहम्मद से भी, नानक से भी, कबीर से भी। लेकिन बीती बातें हो गईं। पीछे पर मत अटके रहो। पीछे मत देखो, क्योंकि चलना आगे है।
तुम जरा उस कार की कल्पना करो, जिसमें समाने ड्राइवर के, कांच तो न हो, दर्पण लगा हो। कि जो पीछे का रास्ता आ चुका है, जा चुका है वही दिखाई पड़े! और चले जा रहे हैं। रफ्तार रोज बढ़ती जा रही है! और रास्ता दिखाई पड़ रहा है पीछे का--जो बीत चुका; जिस पर चलना नहीं है अब--और आगे सब अंधकार है, क्योंकि आगे तो दर्पण में आंखें अटकी हैं। दर्पण के पार थोड़े ही कुछ दिखाई पड़ता है! खुद की तस्वीर देखो; पीछे बैठे हुए लोगों की तस्वीर देखो! और पीछे जो रास्ता छूट गया है, झाड़-झंखाड़, उनको देखो! चमत्कार ही है, अगर तुम कहीं पहुंच जाओ! जहां तक तो स्वर्गवासी हो जाओगे! किस गड्ढे में गिरोगे, कहना मुश्किल है। गिरोगे, निश्चित है।
आगे देखना होगा; आगे चलना है।
स्वभाव, तुम्हारा भाव मैं समझा। लेकिन इस भाव को बदलना होगा। यह भाव पुराना है। यह बात तुमने ठीक कही:
‘इश्क में कुरबान जब तक जिंदगी होती नहीं
मेरी नजरों में इससे पहले बंदगी होती नहीं।’
यह बात सच है। मगर ‘इश्क में कुरबान.’ इसका मतलब तुम गलत लगा रहे हो। इसका मतलब तुम लगा रहे हो कि उठाओ तलवार, घुमाओ तलवार! इश्क से तलवार का क्या लेना-देना?
इश्क में जिंदगी कुर्बान करने का मतलब प्रेम में जिंदगी कुर्बान होनी चाहिए--हिंसा में नहीं, विध्वंस में नहीं। अगर मिटना ही हो, तो प्रेम में मिटना चाहिए, मिटाते हुए नहीं। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि नाहक मिटने की उत्सुकता पैदा कर लो। वह आत्मघाती का लक्षण है।
हिंसा में दूसरे को मारने की तैयारी होती है। कभी-कभी हिंसा से बचने में आदमी आत्म-हिंसा में लग जाता है; वह अपने को मारने को तैयार हो जाता है। इसलिए मैं महात्मा गांधी को हिंसक ही मानता हूं--अहिंसक नहीं। उनकी हिंसा उलट आई अपने पर। वे अपने को मारने को तैयार हैं! अनशन करेंगे--आमरण अनशन करेंगे!
कल ही मुझे खबर मिली कि कुछ जनसंघ के लोगों ने धमकी दी है कि अगर मैं कच्छ में प्रवेश करूंगा, तो वे आमरण अनशन करेंगे। मैंने कहा: बड़ा मजा आएगा! क्योंकि हम तो मृत्यु को उत्सव मानते हैं। इतना ही खयाल रखना कि मैं कोई गांधीवादी नहीं हूं। अगर आमरण अनशन किया, तो चारों तरफ पहरा लगवा दूंगा कि यह आदमी भाग न जाए! जब तक मरे नहीं, तब तक भागने नहीं देंगे! जब आमरण अनशन किया है, तो हम सहायता करेंगे--पूरी सहायता करेंगे! तुम भोजन छोड़ोगे--हम पानी भी छुड़वा देंगे! भोजन छोड़ कर तो तीन महीने तक आदमी जिंदा रह सकता है। क्या धीरे-धीरे मरना! अरे, जब मरने का ही शौक आ गया है, तो पानी-वानी भी क्यों पीना!
और पहरा लगा कर रखूंगा। और मेरे पास डाक्टर हैं, वे चारों तरफ मौजूद रहेंगे तुम्हारे, कि कुछ हरकत न हो। क्योंकि महात्मा गांधी भी ग्लूकोज पी लेते थे। अब ग्लूकोज पी लोगे, तो और लंबे जिंदा रह जाओगे। तो ग्लूकोज पीने नहीं दूंगा। सब तरह सहायता करूंगा। मतलब.! जो भी हमसे बन सकता है--हम भी करेंगे! अब जब तुमने तय ही किया है आमरण अनशन करने का, तो जो भी सेवा हमसे बन सकती है.जाते आदमी की सेवा कौन नहीं करता!
भजन-कीर्तन करेंगे; नाचेंगे। और तुम्हें भोजन न करने देंगे, क्योंकि अगर तुमने तय ही किया है, तो तुम्हारे व्रत को खंडित नहीं होने देंगे! और मर जाओगे, तो नाचेंगे, उत्सव मनाएंगे। बड़ा मजा आ जाएगा, अगर किसी ने आकर मेरे आश्रम के सामने आमरण अनशन किया, तो तुम अनशन के इतिहास में एक नई घटना देखोगे!
मैं कोई गांधीवादी नहीं हूं। मेरे हिसाब अपने हैं! सोच-समझ कर आना! मैं कोई भरोसे का आदमी नहीं हूं। मैं कोई पुरानी परिपाटी मान कर चलता नहीं। मुझको डरवाना आसान नहीं।
तो मैं तो बड़ी राह देख रहा हूं कि देखें, कौन आमरण अनशन करता है! उसको भी पाठ मिल जाएगा और भारत को भी पाठ मिल जाएगा.! भूल जाओगे चौकड़ी सत्याग्रह की! ये तो अंग्रेज सीधे-सादे लोग थे। अगर मैं उनकी जगह होता, तो महात्मा गांधी को पाठ पढ़ा देता कि आमरण अनशन का अर्थ क्या होता है। चौकड़ी भूल जाते।
वे तो बेचारे अंग्रेजों को कुछ पता नहीं था इन सब बातों का कि अहिंसा क्या, हिंसा क्या! उन्होंने कभी ये बातें सुनी नहीं थीं। वे जरा संकोच में पड़ गए कि क्या करना, क्या नहीं करना! यह बुड्ढा मरना चाहता है! अरे, आदमी को तो मरना ही है; मरना तो खेल है! अब मरना ही चाहता है, तो सहायता करो! क्यों बाधा डालते हो? वे बेचारे समझाएं-बुझाएं; दवाइयां दिलवाएं। अगर आमरण अनशन कर दें गांधी जी, तो जेल से तत्काल छोड़ दें कि हम पर कोई जिम्मा न आए! अरे, तुम पर क्या जिम्मा आएगा! जब तक मौत नहीं आती, कोई उठा सकता है? पत्ता नहीं हिलता परमात्मा के बिना। जरा मुझसे पूछते--मैं था नहीं उस वक्त.! उसके बिना तो पत्ता नहीं हिलता; महात्मा गांधी मरेंगे कैसे? एक ही दफे में पाठ पढ़ लेते वे, फिर दुबारा कभी नहीं करते। थे पक्के गुजराती बनिया! एक ही दफे में समझ जाते कि अरे, यह खतरा है। यहां यह गुजराती बनियापन नहीं चलेगा!
कच्छ जाऊंगा; देखें.!
तुम कहते हो:
‘इश्क में कुरबान जब तक जिंदगी होती नहीं
मेरी नजरों में इससे पहले बंदगी होती नहीं।’
बात तो सच है। मगर इश्क में जिंदगी कुर्बान करने का मतलब यह नहीं कि पहले औरों की कुर्बान करो, कि फिर अपनी गर्दन काट लो! इश्क में कुर्बान करने का अर्थ है कि प्रेम में जीओ, फिर जो परिणाम हो, उसे प्रेमपूर्वक अंगीकार करो। मृत्यु आए, तो वह भी.स्वागत है उसका। इसका यह भी मतलब नहीं है कि कोई झंडा लिए फिरो कि हमको मरना है। क्योंकि वह आत्महिंसा है; वह भी हिंसा है।
कोई तख्ती लगा कर मत बैठ जाओ कि हमको मरना है! वह भी धमकी है! वह आत्महिंसा की धमकी है। और आत्महिंसा पाप भी नहीं है, अपराध भी है। सच तो यह है कि जो आदमी आमरण अनशन की धमकी देता है.। पता नहीं कैसा मुल्क है, कैसा कानून है, कैसी अदालतें हैं--ये किन गधों के हाथ में पड़ी हुई हैं; ये क्या करते रहते हैं! जो आदमी आमरण अनशन की धमकी देता है, यह आत्महत्या की धमकी दे रहा है। फौरन सजा इसको होनी चाहिए; इसको फौरन हथकड़ी डलनी चाहिए।
आमरण अनशन की धमकी का मतलब क्या है? कोई आदमी कहे कि मैं अपने को गोली मार लूंगा या फांसी लगा लूंगा, तो इसको तुम कहते हो कि हम सजा देंगे। और कोई आदमी कहे कि हम बिना खाए-पीए मर जाएंगे, इसको तुम सजा नहीं दोगे! फर्क क्या है दोनों में? एक आदमी जरा जल्दी मर रहा है फांसी लगा कर और एक आदमी जरा धीरे-धीरे मरेगा। तो क्या क्रमिक आत्महत्या की स्वीकृति है? तो मतलब कुल सवाल समय का है! तो कोई आदमी धीरे-धीरे फांसी लगाए! भारतीय ढंग से, बहुत आहिस्ता-आहिस्ता लगाए--कि आज फंदा बनाया; फिर खाए-पीए, विश्राम किया; फिर कल फंदा लगा कर गले में देखा कि बैठता है कि नहीं! फिर उतार कर रख दिया। फिर तीसरे दिन लगा कर खड़े हुए; मगर जमीन पर ही! अभ्यास किया दो-चार दिन। फिर टेबल-कुर्सी पर खड़े हुए। फिर उस पर दो-चार दिन अभ्यास किया। ऐसे आहिस्ता-आहिस्ता करेगा, तो फिर पाप नहीं है, अपराध नहीं है?
या तो आत्महत्या पाप है, अपराध है, तो वह कोई किसी भी ढंग से करे, उसे सजा मिलनी चाहिए। उसे दंड मिलना चाहिए।
इश्क में मरने का मतलब होता है कि तुम लाख करो, हमारे प्रेम को न मार सकोगे। हमें मारो चाहे, मगर हमारे प्रेम को न मार सकोगे।
इसका यह भी अर्थ होता है कि हम जितना तुम्हें प्रेम करते हैं, उतना अपने को भी प्रेम करते हैं। तो हम अपने को जब तक बचा सकते हैं, बचाएंगे। लेकिन तुम्हें मार कर अपने को नहीं बचाएंगे। अपने को बचाने का पूरा उपाय करेंगे, लेकिन किसी को मार कर अपने को नहीं बचाएंगे। तो तलवार नहीं--अगर ढाल लेनी पड़ेगी, तो जरूर लेंगे; मगर तलवार हाथ में नहीं लेंगे। इस भेद को तुम समझ लो। अब तक किसी ने यह बात तुमसे कही नहीं है।
लोग तलवार और ढाल साथ ही साथ लेते हैं। मैं कहता हूं: हम सिर्फ ढाल लेंगे। क्योंकि तुम अगर गधा-पच्चीसी में पड़े हो, तो कम से कम हमें इतना हक तो है कि हम अपनी ढाल तुम्हारी तलवार के सामने कर सकें! मगर तलवार हम नहीं लेंगे। क्योंकि तलवार की भाषा अधर्म की भाषा है। लेकिन हम तुम्हारे जीवन को भी बचाना चाहते हैं। हमारी ढाल से हम तुम्हें मार नहीं सकते। और हम अपने जीवन को भी उतना ही प्रेम करते हैं, जितना तुम्हारे जीवन को। अगर हम अपने जीवन को प्रेम नहीं करते, तो तुम्हारे जीवन को कैसे प्रेम करेंगे!
जीसस का वचन है: ‘अपने शत्रु को भी उतना ही प्रेम करो, जितना अपने को।’ इस वचन की बहुत व्याख्याएं की गई हैं, लेकिन किसी ने इसके दूसरे हिस्से पर जोर नहीं दिया कि ‘जितना अपने को.।’ अपने शत्रु को प्रेम करो, इसकी तो खूब व्याख्याएं की गईं, मगर असली बुनियादी बात तो जीसस की यह है: ‘उतना ही, जितना अपने को।’ इसका अर्थ समझो।
इसका अर्थ हुआ कि पहले अपने को जो प्रेम करता है, वही शत्रु को प्रेम कर सकता है। जिसने कभी अपने को ही प्रेम नहीं किया, वह क्या खाक दूसरे को प्रेम करेगा! शत्रु की तो छोड़ दो, मित्र को भी नहीं कर सकता।
सबसे निकट मैं हूं अपने, मेरा प्रेम पहले तो मुझ पर ही पड़ेगा। जब दीया भीतर जलेगा प्रेम का, तो सबसे पहली रोशनी तो मेरी ही देह पर पड़ेगी; फिर तुम तक पहुंचेगी, मित्रों तक पहुंचेगी, प्रियजनों तक पहुंचेगी, फिर औरों तक पहुंचेगी। शत्रु तक भी पहुंचनी चाहिए--जब प्रेम अपने प्रकांड रूप में प्रकट होगा, प्रखर रूप में सूर्य की तरह उगेगा। मगर पहले तो अपने ही घर में उजाला होगा।
मैं अपने को भी प्रेम करता हूं, और इसीलिए तो तुम्हें प्रेम करता हूं। और इसीलिए उनको भी प्रेम करूंगा जो चाहे किसी तरह की मूर्खता करने के लिए तत्पर हों।
हम ढाल उठाएंगे; तलवार हम नहीं उठाएंगे।
तुम कहे हो:
‘जान निकले तुम्हारे पहलू में, दिल है बेचैन उस घड़ी के लिए
इश्क होता नहीं सभी के लिए, है यह उलफत किसी-किसी के लिए।’
सच है। प्रेम आसान नहीं है; इस जीवन की सबसे कठिन साधना है। इसीलिए तो भगोड़े प्रेम से भाग जाते हैं। ये जिनको तुम संन्यासी कहते रहे हो अब तक, महात्मा, ऋषि-मुनि कहते रहे हो, ये सब भगोड़े हैं। संसार का तो नाम लेते हैं, भागते प्रेम से हैं। जब ये कहते हैं: ‘संसार’, तो कोष्ठक में समझ लेना ‘प्रेम।’ प्रेम से इनकी छाती कंपती है; ये घबड़ाते हैं। इनमें प्रेम का बल नहीं है। ये प्रेम के योग्य अपने को नहीं मानते। इन्होंने प्रेम की कला नहीं सीखी। प्रेम से भागते हैं; कहते हैं, संसार से भाग रहे हैं!
तो यह सच है कि प्रेम किसी किसी के लिए है। उतना दुस्साहस कम ही लोगों में होता है। उतनी हिम्मत, उतनी जोखम कम ही लोग उठा पाते हैं।
अच्छा है: ‘दिल है बेचैन उस घड़ी के लिए, जान निकले तुम्हारे पहलू में।’ लेकिन स्वभाव! पहले मेरे पहलू में जीना तो सीखो! मरने की हमारी तैयारी बहुत जल्दी हो जाती है! क्योंकि मरना एक तरह से सरल है। कूद गए जाकर--मर गए! ट्रेन के नीचे लेट गए--मर गए! मरना जल्दी हो जाता है।
मरने के लिए कोई बहुत कला की जरूरत नहीं है--यह बात खयाल रखना। मरना तो मूरख भी कर सकता है। असल में मूरख ही करते हैं। समझदार आदमी तो मर ही नहीं सकता।
मेरे एक प्रोफेसर थे, भट्टाचार्य। बंगाली सज्जन थे। अब बंगाली सज्जन--बाबू लोग--ये कहीं आत्महत्या वगैरह कर सकते हैं? ये कहीं जाएंगे कूदने, इनकी समझो कांच ही फंस जाएगी! बंगाली बाबू की कांच देखी! खुल-खुल जाती है!
मैंने सुना है एक बंगाली बाबू लंदन की सड़क पर चले जा रहे थे, उनकी कांच खुल गई! वे कांच ही इतनी ढीली पहनते हैं कि जमीन को सरकती रहे! किसी अंग्रेज ने कहा कि यह क्या है? तो बंगाली अब क्या जवाब दे! तो उसने अंग्रेज की टाई पकड़ कर कहा कि यह क्या है?
कहा: यह नैकटाई है।
उसने कहा: यह बैकटाई है!
और क्या करोगे! ये बंगाली बाबू किसी झाड़ से कूदें, इनकी कांच ही फंस जाए, बैकटाई उलझ जाए! वहीं लटके हैं और चिल्ला रहे हैं कि बचाओ!
मैं नया-नया युनिवर्सिटी गया था; मेरे बगल में ही उनका कमरा था। पहली रात उनका पत्नी से झगड़ा हुआ। और वे तो एकदम उठे और छाता उठाया। मरने जा रहे हैं और छाता ले जा रहे हैं! कि मैं यह चला; अभी मर जाता हूं! बहुत हो गया!
मैं थोड़ा चौंका। क्योंकि सागर युनिवर्सिटी में तब पक्के मजबूत मकान नहीं बने थे। युनिवर्सिटी नई-नई शुरू हुई थी; और एक मिलिटरी के कैम्पस में शुरू हुई थी। तो एस्बेस्टस की शीट्‌स की ही बस दीवालें थीं। सो आर-पार सब सुनाई पड़ता था। और छेद वगैरह में से सब दिखाई भी पड़ता था! मतलब सिनेमा वगैरह जाने की कोई जरूरत ही नहीं! नाटक देखो, सर्कस देखो, हर चीज देखो! और घर में बैठे-बैठे मुजरा देखो! अपनी कुर्सी सरका ली जरा और बैठ गए! और मुजरा देखो। इधर एक मुजरा चल रहा है। उधर हटा लो दूसरी तरफ--दूसरा मुजरा चल रहा है! क्या-क्या नहीं देखा है उन छेदों में से--अब क्या कहना!
तो मैं थोड़ा घबड़ाया। कुर्सी सरकाई मैंने। देखा कि यह हो क्या रहा है! वे आत्महत्या की धमकी दे रहे हैं। जब तक बातचीत चल रही थी, मैंने कहा, कोई बात नहीं। मगर जब वे बोले कि मैं चला। मैं मरने जा रहा हूं। अब नहीं लौटूंगा, हो गया बहुत। तेरे साथ जिंदगी मेरी नरक हो गई, अपनी पत्नी से बोले।
तो मैं थोड़ा चौंका। कुर्सी सरकाई मैंने, देखा झांक कर। वे तो अपना छाता उठा रहे हैं! अरे, छाता उठा कर कोई मरने जाता है! कोई दम नहीं है इसमें! मगर मैंने कहा, फिर भी कौन जाने बंगाली है; पुरानी आदतवश छाता उठा रहा हो। कि जब भी वे निकलते, छाता ही लेकर निकलते। चाहे पानी गिरे, न गिरे; धूप हो, न हो; छाता तो होना ही चाहिए! बंगाली हो और छाता न हो, यह नहीं हो सकता!
तो मैंने कहा, शायद पुरानी आदत में ही.।
जल्दी से उठाया और वे निकल गए। मैंने कहा कि मुझे बोलना चाहिए कि नहीं! मेरी पहचान भी नहीं थी; तब तक उनसे मुलाकात भी नहीं हुई थी। फिर भी मैंने दरवाजा खटखटाया। मैंने पत्नी से कहा कि अगर मेरी कोई सहायता की जरूरत हो.यद्यपि मुझे बीच में बोलना नहीं चाहिए; अजनबी हूं। ज्यादा अजनबी भी नहीं! क्योंकि सब देख रहा था मैं छेद से! जो-जो हुआ है, सब मेरी आंख के सामने हुआ है। चश्मदीद गवाह हूं! अब ये आपके पति चले गए हैं छाता लेकर, कहीं मरने के लिए!
वह पत्नी बोली: आप फिकर न करें। आप नये-नये हैं। आपको मालूम नहीं। यह तो आए दिन की बात है! थोड़ी देर में आ जाएंगे।
और वे तो थोड़ी देर में आ गए! पत्नी ने पूछा: कैसे आ गए?
कहने लगे: पानी गिरने लगा!
जुलाई के दिन थे। तो मैंने सोचा कि हद्द हो गई! फिर कुर्सी सरकानी पड़ी मुझे कि मामला क्या है! छाता तो यह आदमी ले गया था!
तो पत्नी ने कहा: छाता तो ले गए थे?
तो कहा: छाता सुधरवाया कहां है! खुलता ही नहीं है! वर्षा आ गई; कितनी दफे कहा कि छाता सुधरवा कर रखो!
और इनको मैं रोज इसी छाते को लेकर घूमते देखता था! यह तो खुलता ही नहीं! काहे के लिए लेकर घूमते थे! मगर आदतें--बड़ी आदतें! आदतों के वश लोग जी रहे हैं!
कोई चुट्टैया बढ़ाए हुए है। आदत से। काहे के लिए बढ़ाए हुए हो?
कुछ पता नहीं!
कोई जनेऊ कान में लपेट रहा है। किस वजह से? कुछ पता नहीं! मगर बापदादे लपेटते रहे, तो वह भी लपेट रहा है।
तिलक लगाए हुए हैं। काहे के लिए लगाए हुए हैं? कुछ पता नहीं! चली आई पुश्तैनी, तो कर रहे हैं!
बापदादे भी छाता लिए घूमते रहे.। वह बापदादों के जमाने का छाता होगा! जब मेरी उनसे पहचान हुई, तो मैंने कहा: पहला काम तो मुझे यह करना है कि मुझे आपका छाता खोल कर देखना है!
वे बोले: क्यों?
मैंने कहा कि जब इसको लेकर आप घूमते हैं.और यह क्या छाता जब मरने के वक्त भी काम न आया! और मैंने कहा: जब मरने ही आप जा रहे थे, अरे तो क्या भीग ही जाते तो क्या बिगड़ रहा था?
वे बोले: अरे भीग जाओ और निमोनिया हो जाए!.
मैंने कहा: मरने वाले को क्या फिकर निमोनिया वगैरह की?
उन्होंने कहा: अरे, मरना-वरना किसको है जी! वह तो गुस्से में बात कह दी! ऐसे तो मैं कई दफे चला जाता हूं!
फिर तो मुझे उनकी कई कहानियां पता चलीं विश्वविद्यालय में धीरे-धीरे जब और लोगों से पूछा मैंने कि भई, ये मरने जाते हैं बार-बार! तो उन्होंने कहा: अरे, इनकी बातों का कुछ सार नहीं है!
सागर युनिवर्सिटी के नीचे ही मकरौनिया स्टेशन था। छोटा सा स्टेशन; बस दो दफे तो गाड़ी रुकती ही थी उसमें, चौबीस घंटे में। वही गाड़ी आते वक्त रुकती, वही गाड़ी जाते वक्त रुकती। और तो वहां कोई गाड़ी रुकती नहीं थी, सो उनको पता था कि गाड़ी कब आती है। जब गाड़ी आती, तब वे जाते नहीं थे! और चौबीस घंटे में दो ही दफे आती थी गाड़ी; सो समझो तीन-तीन मिनट रुकती थी; छह मिनट छोड़ कर बाकी कभी भी मरने चले जाते थे वे! और गाड़ी भी एक ही पटरी पर रुक सकती थी।
स्टेशन पर दो पटरियां थीं। एक पटरी पता नहीं कब से उपयोग में नहीं आई थी; उस पर जंग चढ़ी हुई थी। वे उसी पर लेट जाते थे जाकर! एक दिन मैं उनके पीछे-पीछे चला गया! जब मैंने देखा कि आज दिखता है उन्होंने बिलकुल पक्का ही इरादा कर लिया है मरने का; क्योंकि वे टिफिन भी ले जा रहे थे! छाता बगल में दबाए; टिफिन लिए.!
मैं होटल में बैठा था, जहां उन्होंने टिफिन तैयार करवाया, तो मैंने होटल के मैनेजर से पूछा कि बात क्या है? बोले: जब वे बहुत ही गुस्से में होते हैं, तो टिफिन तैयार करवा लेते हैं। घर नहीं खाना खाते। मैंने पूछा: अभी जाएंगे कहां? वे मरने जा रहे हैं! वाह भाई.!
मैं पीछे हो लिया। मैंने कहा कि मैं आज देख ही लूं पूरा राज। गए। वे टिफिन लगा कर, पास रख कर, छाता अपने सिर के नीचे रख कर और पटरी पर सो रहे--जिस पर ऐसी जंग लगी थी कि जिस पर शायद बाबा आदम के जमाने से कोई गाड़ी चली ही नहीं! खराब थी पटरी या क्या था, जो भी हो। उसके बीच-बीच के पटिए भी उखड़ गए थे।
मैंने उनसे पूछा कि भट्टाचार्य महोदय.!
बोले: आप यहां क्यों आए?
मैंने कहा कि जिज्ञासावश चला आया हूं। और अब आखिरी समय है आपका, फिर मिलना हो या न हो, दो बातें मुझे पूछनी हैं। एक तो यह कि यह पटरी, दुनिया जानती है कि इस पर कोई गाड़ी नहीं आती। आप दूसरी पटरी पर लेटें!
उन्होंने कहा: क्या मुझे मरना है! क्या तुम मुझे मारना चाहते हो?
वे एकदम गुस्सा हो गए! मैंने कहा: मुझे मारना नहीं है आपको। मैं तो सिर्फ सलाह दे रहा हूं कि अगर मरना है, मैं आपकी जगह होता, तो उस पटरी पर लेटता। और दूसरा सवाल मुझे पूछना है.। आपको नहीं मरना है, आपकी मर्जी। जिस पटरी पर लेटना हो लेटो। आपकी जिंदगी!
दूसरा सवाल यह है कि टिफिन! आप टिफिन क्यों ले आए?
अरे, बोले: गाड़ी कभी-कभी इतनी लेट हो जाती है कि क्या भूखे मरना है!
मैंने कहा: फिर आप मजा करो। मतलब, यह एक तरह की पिकनिक है! मरना-करना नहीं है।
मरने का सवाल भी नहीं है। तुम्हारे प्राणों की अंतर्तम आकांक्षा जीवन को विराट करने की है--मरने की नहीं है। अभीप्सा जीवन की है; मृत्यु की कोई अभीप्सा नहीं है। मृत्यु तो एक विकृति है। जब तुम मृत्यु को चाहने लगते हो, उसका अर्थ है तुम जीवन में हार गए; तुम जीवन में पराजित हो गए। तुम ऐसे हार गए हो कि अपने को मुंह दिखाने योग्य नहीं समझते। अब तुमको लगता है, मृत्यु को ही ओढ़ लें; कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! अब और पराजित होने की हिम्मत न रही। अब और एक कदम उठाने का साहस न रहा!
मरने की नहीं जल्दी स्वभाव! पहले मेरे पहलू में जीना सीखो। और जिसने मेरे पहलू में जीना सीखा, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है; मृत्यु वगैरह की बात ही नहीं।
और अमृत को उपलब्ध होकर मरो, तो मरने का मजा है। तो मरने में एक रस है। क्योंकि फिर तुम नहीं मरते; जो मरणशील था तुममें, वही मर जाता है। वह मरा ही था। देह गिर जाती है और तुम शाश्वत में लीन हो जाते हो।
तुम कहते हो:
‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है।’
कातिलों के हाथ से मरना है? अरे, मेरे हाथ से मरो!
कातिलों के हाथ से मर कर कहां जाओगे? कातिलों के हाथ से मरोगे, तो फिर पैदा होओगे--कि कातिलों को मारना है अब! इसी तरह तो चक्कर चलता है जीवन का। एक जीवन के बाद दूसरा जीवन!
मेरे हाथ से मरो। गुरु के हाथ से मरो, ताकि फिर दुबारा पैदा ही न होना पड़े; ताकि फिर दुबारा इस उपद्रव में पड़ना ही न पड़े। ऐसे मरो कि अमृत को पा लो। और स्वभाव, पा सकते हो। तैयारी है। जरा पंजाबीपन की जो आखिरी थोड़ी सी रूप-रेखा रह गई है, उसको भी विदा कर दो। उसको भी अब कह दो कि नमस्कार! वाहे गुरुजी की फतह, वाहे गुरुजी का खालसा! सत श्री अकाल!
आ गए हो किनारे अब उस दुनिया के जहां मेरा जगत शुरू होता है।
ये सब उपद्रव बिलकुल स्वाभाविक हैं, जो हो रहे हैं मेरे विरोध में। ये न होते, तो आश्चर्य होता। ये हो रहे हैं, तो बिलकुल आश्चर्य नहीं है। इनको हम मौज से लेंगे। इनको गाते-नाचते लेंगे।
तुम्हें मैंने सिखाया कि जीओ, नाचते हुए; मरो, नाचते हुए। अब एक मौका आ रहा है; लड़ो, नाचते हुए! कुछ बचे न; सबको नाच से भर देना है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, महिलाएं सदा भैरवी, चंडी, दुर्गा और काली की तरह क्यों पेश आती हैं? मुझसे उनका विकराल रूप नहीं देखा जाता। सदगुरु साहिब, क्या यही महिलाओं का असली चेहरा है?
संत महाराज! महिलाओं का कोई कसूर नहीं। आदमी ने उन्हें इतना सताया है कि अपने बचने के लिए ही उन्हें भैरवी, चंडी, दुर्गा और काली हो जाना पड़ा है। आत्मरक्षा के उपाय में! और आत्मरक्षा का तो सबको अधिकार है।
आदमी ने इस बुरी तरह स्त्रियों को सताया है; सदियों से सताया है--कि स्त्री भी क्या करे! कैसे तुमसे जूझे? तो उसने भी ईजाद कर ली हैं सूक्ष्म तरकीबें। और निश्चित ही उसकी तरकीबें सूक्ष्म होंगी, क्योंकि उसके पास तुम्हारे जैसे मसल्स तो नहीं हैं। तुम्हारे जैसा हट्टा-कट्टा शरीर तो नहीं है। पुरुष से वह शरीर की दृष्टि से लंबाई में भी कम है; बल में भी कम है--शरीर की दृष्टि से। तुमसे अगर मार-पीट करे, तो नाहक कुटती-पिटती है। तो उसने भी अपनी तरकीबें निकाल लीं।
मनुष्य के मन का यह एक गुण है कि वह हर स्थिति में अपना समायोजन खोज लेता है। उसको ऐसी तरकीबें निकालनी पड़ीं, जिनसे तुम बचाव भी न कर सको।
तुमने उसे सताया है। पुरुष ने स्त्री को अब तक स्वतंत्रता नहीं दी, समानता नहीं दी। और देशों की तो बात छोड़ दो; अमरीका जैसे देश में जहां कि स्त्रियों को सर्वाधिक स्वतंत्रता है.।
अभी राष्ट्रपति का चुनाव रीगान लड़ रहे हैं। उनके चुनाव जीतने की संभावना है। कार्टर की तो सब हंसी-खुशी खो गई है। अब उनकी चौबीसी दिखाई नहीं पड़ती! अब उनके दांत दिखाई नहीं पड़ते! वे दिन गए--लद गए! अब तो नैया डूबी-डूबी है!
तो रीगान के जीतने की संभावना है। और तुम चकित होओगे जान कर, कि अगर अमरीका में रीगान जीतते हैं, तो उसका अर्थ है: मनुष्य-जाति के जीवन में एक दुर्भाग्य का प्रारंभ। क्योंकि अमरीका अकेला देश है जहां स्त्री पुरुष के करीब-करीब करीब आ गई है।
रीगान के चुनाव के मुद्दों में एक मुद्दा यह है कि स्त्री को समान अधिकार नहीं होना चाहिए! रीगान स्त्री-विरोधी हैं। बाबा तुलसीदास के चेला मालूम होते हैं! ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न होंगे। दकियानूसी हैं।
और बड़े आश्चर्य की बात है कि कैसे-कैसे लोग, कहां-कहां से, क्या-क्या रंग-ढंग लेकर आ जाते हैं! रीगान जिंदगी भर फिल्म अभिनेता रहे--और स्त्री की समानता का अधिकार मानने को राजी नहीं हैं!
स्त्री को समानता दो। लेकिन समानता का अर्थ गलत मत समझ लेना।
एक महिला हैं, नीलिमा चटर्जी, उन्होंने प्रश्न पूछा है कि ‘क्या आप स्त्री को पुरुष के बराबर नहीं मानते? क्योंकि कई दफे आप स्त्रियों की मजाक उड़ाते हैं!’
मैं स्त्रियों के बहाने पुरुषों की ही मजाक उड़ाता हूं। जरा बारीक बात है।
स्त्रियों की दुर्दशा किसने की है? पुरुषों ने की है। लेकिन नीलिमा चटर्जी को मैं कहना चाहता हूं कि स्त्री को मैं पुरुष के समान तो मानता हूं, लेकिन ‘समान’ के दो अर्थ होते हैं। अंग्रेजी में दो शब्द हैं: इक्वलिटी और सिमिलरिटी। स्त्री समान है इक्वलिटि के अर्थ में। उसको समान अधिकार है--जितना पुरुष को। लेकिन सिमिलर--पुरुष जैसी नहीं है। उस अर्थ में समान नहीं है।
स्त्री अगर पुरुष जैसे होने की कोशिश करेगी, तो यह परिणाम होगा, जो संत महाराज कह रहे हैं। वह चंडी हो जाए, दुर्गा हो जाए, काली हो जाए! क्योंकि पुरुष जैसे होने का मतलब है--डंड-बैठकें लगाए! पुरुष जैसे होने का मतलब है कि पुरुष जो नालाकियां करता रहा है, वे वह भी करे! क्या पुरुष से ही तुम्हारा मन नहीं भरा! काफी तो नालायकी हो चुकी। मगर वही भ्रांति पैदा हो रही है। इसलिए मैं कभी-कभी स्त्री-स्वतंत्रता का जो आंदोलन चलता है, उसका मजाक उड़ाता हूं। क्योंकि वह आंदोलन बुनियादी रूप से गलत आधार पर चल रहा है।
वह आंदोलन बुद्धों से चल सकता है। उस आंदोलन को चलाने के लिए एक चेतना की ऊंचाई चाहिए। वह आंदोलन प्रतिक्रिया से नहीं चल सकता। अगर स्त्रियां सिर्फ प्रतिक्रिया करती हैं और पुरुष जैसे होने की कोशिश करती हैं, तो उपद्रव बढ़ेगा, कम नहीं होने वाला। और वे हो भी जाएंगी पुरुष जैसी, तो भी एक बात खयाल रखना: वे नंबर दो की ही पुरुष रहेंगी। नंबर एक की नहीं हो सकतीं।
अगर यह दौड़ बढ़ती ही गई, तो क्या-क्या उनको नहीं करना पड़ेगा, जरा सोचो! पुरुषों जैसे कपड़े उन्हें पहनने पड़ रहे हैं, जिसमें वे भद्दी मालूम पड़ती हैं, अभद्र मालूम पड़ती हैं। उनकी देह के लिए, उनकी देह के अनुपात के लिए पुरुषों जैसे कपड़े ठीक नहीं आते। वे पुरुष की देह के लिए ठीक हैं। स्त्रियों के पास एक सुंदर देह है; वैसी देह पुरुषों के पास नहीं है।
स्त्री को उसकी देह के अनुकूल कोमल, उसकी देह के अनुकूल सुंदर वस्त्र और परिधान चाहिए।
स्त्री और पुरुष को समान अधिकार होना चाहिए। बल्कि स्त्री को अगर थोड़े ज्यादा भी अधिकार हों, तो उसके लिए भी मैं राजी हूं। लेकिन स्त्री पुरुष के बराबर इस ढंग से न होने लगे कि उसके जैसे पकड़े पहनेगी; उसके जैसी नौकरी करेगी; उसके जैसी गालियां बकेगी! फिर जल्दी ही तुम देखोगे कि वह उस्तरा लेकर मूंछें वगैरह मूड़ रही कि किसी तरह मूंछें बढ़ जाएं! दाढ़ी बढ़ जाए! फिर क्या-क्या उपद्रव नहीं होंगे!
डंड-बैठक लगाएगी! अभी भी उसने सीखना शुरू कर दिया है। ‘कराटे’ सीखती है; ‘अकीदो’ सीखती है। सीखना पड़ रहा है। क्योंकि पुरुषों ने जो उसकी गति कर रखी है, उसकी प्रतिक्रिया पैदा हो रही है। उसने भी अपने लड़ने के ढंग निकाल रखे हैं; सूक्ष्म ढंग निकाल रखे हैं।
पुरुष का सिर खाती रहती है! इस तरह खाती है सिर कि उनको छठी का दूध याद दिला देती है! दिन भर कुटे-पिटे किसी तरह घर आते हैं, कि वहां पत्नी तैयारी बैठी है! वह दिन भर विश्राम करके उसने तैयारी कर रखी है--कि आज पतिदेव को कैसे ठीक करना! आज कौन सा नुस्खा अपनाया जाए! एक से एक नुस्खे अपनाती हैं!
दो महिलाएं एक बगीचे में बैठी थीं और एक महिला ने पूछा कि तूने कैसे अपने सेठ चंदूलाल को कब्जे में कर रखा है? मेरा पति तो सुनता ही नहीं है! आधी-आधी रात गए आता है। कभी-कभी चार बज जाते हैं!
दूसरी महिला मुस्कुराई। उसने कहा कि मेरा सेठ भी पहले यही हरकतें करता था। मगर मैंने फिर एक तरकीब निकाल ली--एक नुस्खा! एक रात जब वह चार बजे आया और चुपचाप डर के मारे भीतर घुस कर मेरे बिस्तर में सोने लगा, तो मैंने कहा: मोहन! आ गए क्या!
दूसरी महिला ने कहा: मोहन! अरे तुम्हारे पति का नाम तो चंदूलाल है!
उसने कहा: वह मुझे भी मालूम है। बस उस दिन से फिर वह ठीक शाम से ही आ जाता है घर में!
अब यह तरकीब निकालनी पड़ती है। क्या करें; स्त्रियां भी क्या करें! नुस्खे ईजाद करने पड़ते हैं!
ढब्बू जी अपने पड़ोसी से कह रहे थे: साहब, आपके मकान की चौथी मंजिल पर रहने वाली फूलबाई दिन-रात अपने पति पर बरसती रहती है। अड़ोस-पड़ोस के लोगों को इससे काफी तकलीफ होती है। आप उसे चेतावनी क्यों नहीं देते?
उन सज्जन ने पूछा: ढब्बू जी, क्या आप फूलबाई के पड़ोसी हैं?
ढब्बू जी ने कहा: जी नहीं, मैं उसका पति हूं!
पतियों की तो ऐसी दुर्दशा होती है.! होने ही वाली है। वह तुमने पति होना जिस दिन तय किया उसी दिन तुमने अपनी दुर्दशा का प्रारंभ करवा लिया। पति होने का मतलब: मालिक होने की कोशिश। कौन तुम्हें मालिक बनाएगा? यूं बाहर तुम फिरते रहो मुर्गों की तरह कलगी उठाए कि मैं मालिक हूं! घर में घुसते ही से एकदम पूंछ दबा लेते हो! क्योंकि सारी दुनिया जानती है कि वहां मालिक कौन है! इसलिए तुमको कोई ‘घरवाला’ कहता है? तुम्हारी पत्नी को लोग ‘घरवाली’ कहते हैं! अरे, घर उसका, तुम हो क्या! घुस जाने देती है यही बहुत है!
बाहर अकड़े फिरते हो, छाती फुलाए.! और पत्नियां कुशल हो गई हैं; चिट्ठी वगैरह लिखती हैं, तो लिखती हैं: ‘आपके चरणों की दासी!’ और मन ही मन हंसती हैं; जानती हैं कि चरणों का दास है कौन! अरे, जब तय ही है कि चरणों के दास तुम हो, तो लिखने में हर्जा क्या है! लिखने में डर भी क्या है!
मेरे गांव में जब आजादी नहीं आई थी, तो प्रभात-फेरी निकलती थी। एक कबीरपंथी महंत थे, स्वामी साहिबदास। उनका राग भी बेसुरा था; शक्ल-सूरत भी बेहूदी थी; और सिर घुटाए रखते थे उसके ऊपर से! वे प्रभात-फेरी निकलवाते रहते! जब देखो तब झंडा लिए हुए--झंडा ऊंचा रहे हमारा! और बड़े नारेबाजी करते!
पुराने ऋषि-मुनियों के हिसाब से उन्होंने भी एक रखैल रख छोड़ी थी। अब उनको रखैल कोई ढंग की स्त्री तो मिल नहीं सकती थी। खुद भी आदमी ढंग के नहीं थे। एक तो कबीरपंथी महंत.! एक कानी स्त्री, जिसको सिवाय कोई महंत के और कोई पसंद करता भी नहीं। अब महंत भी मुश्किल में थे कि जैसी भी है कानी-कूतरी, ठीक है। मतलब स्त्री और दूसरी कोई मिलती भी उनको कहां! कम से कम स्त्री तो है! मगर वह कानी थी भी मुंहफट--उलटी-सीधी बोलने वाली।
मैं उनके बगीचे में घुस कर उनके अमरूद वगैरह तोड़ा करता था। सो वहीं उनके अमरूद के झाड़ों में बैठा कभी-कभी उनकी ‘लीला’ देखता रहता था! उन्होंने मुझे एक दिन पकड़ लिया अमरूद तोड़ते हुए। मुझे पकड़ कर ले चले पिता के पास। मैंने कहा: देखो, मैं भी आपको कहे देता हूं कि फिर मैं भी आपकी लीला की सब बात कह दूंगा!
कौन सी लीला? उन्होंने कहा।
मैंने कहा: वह जो कानी बाई के साथ लीला चलती है!
अरे, उन्होंने कहा: बेटा, अमरूद तेरे हैं, तू कहां.! अरे, तू तो अपने घर का ही है। तेरे पिता से तो हमारी दोस्ती है! चल-चल, तू कहां जाता है!
मैंने कहा: चलना नहीं है पिताजी के पास?
अरे छोड़, बात जाने दे। तुझे जब आना हो आ गए। और कोई ऐसे चोरी से दीवाल चढ़ कर और अमरूद पर चढ़ने की जरूरत नहीं। दरवाजे से आ गए। घर तेरा। मगर यह बात किसी से कहना मत!
कानी बाई ने भी देखा, कि अरे, साहिबदास इस छोकरे से डरते हैं! कानीबाई से मेरी दोस्ती भी हो गई। मैंने एक दिन कानीबाई से पूछा कि ये साहिबदास कोई क्या झंडा लिए फिरते हैं सुबह रोज! झंडा ऊंचा रहे हमारा!
अब, उसने कहा: तुमसे क्या छिपाना! डंडा ऊंचा होता नहीं है, सो झंडा ऊंचा किए फिरते हैं! अरे, एकाध बच्चा तो पैदा करके बताएं!
स्त्रियों को तो राज सब पता ही है!
उस दिन से मुझे एक राज और पता चल गया! तब से तो उनके घर में जो भैंस थी, उसकी खीर भी मुझे मिलने लगी! मैंने उनसे कहा कि कानीबाई ने मुझे बता दिया है कि आप क्यों झंडा लिए फिरते हैं!
क्या? क्या बताया उसने?
उसने कहा कि डंडा ऊंचा नहीं होता! सो अब क्या करेंगे! झंडा ऊंचा लिए फिर रहे हैं प्रभात-फेरी.! करते रहो प्रभात-फेरी!
कहा: बेटा, किसी से कहना मत! तू तो अपने घर का है। अरे, यह औरत बहुत दुष्ट है। कहां इस दुष्ट के चक्कर में पड़ गया!
मगर उसकी दुष्टता क्या है? उसने सच्ची बात कह दी।
अब संत महाराज, तुम कह रहे हो: ‘महिलाएं सदा भैरवी, चंडी, दुर्गा, काली की तरह पेश क्यों आती हैं?’
तुम भी उनसे अयातुल्ला खोमैनी की तरह पेश आते होओगे! तुम भी ऋषि-मुनियों की तरह पेश आते होओगे! तो वे तो आएंगी फिर भैरवी, चंडी, दुर्गा--वे तो बनेंगी। उन्होंने अच्छे-अच्छों को पछाड़ा है!
तुमने काली माई की प्रतिमा देखी! शिव जी नीचे पड़े हैं--वह उनकी छाती पर नाच रही है! उन्होंने अच्छे-अच्छे शिव जी वगैरह को भी चारों खाने चित कर दिया है! और देखा, कितनी मालाएं पहने हुए है आदमियों के खोपड़ियों की! यह समझो, सब प्रेमियों के उन्होंने प्रेम-पत्र लटका रखे हैं! कि इतनों का खात्मा कर चुके! है कोई और माई का लाल!
एक सेल्समैन दरवाजे पर दस्तक देने ही वाला था कि दरवाजा खुला और एक आदमी बाहर आकर मुंह के बल गिरा। सेल्समैन ने उससे कहा कि मैं घर के मालिक से मिलना चाहता हूं।
उस आदमी ने जवाब दिया: अंदर चले जाओ। अभी-अभी फैसला हो चुका है कि मालिक कौन है! अब तक मैं सोचता था, मैं ही हूं; अब मेरी हालत तुम देख ही रहे हो! अब मालिक नहीं--मालकिन! भीतर जा भैया!
पत्नी की हालत गंभीर थी; डाक्टर बुलाना पड़ा। उन्होंने राय दी: केस सीरियस है। बहुत हुआ, तो एक महीना और! सेठ चंदूलाल, मुझे बड़ा दुख है, लेकिन सत्य तो कहना ही होगा। इससे अधिक नहीं बचेंगी!
सेठ चंदूलाल ने ठंडी श्वास भरी और बोले: जहां पच्चीस साल काट दिए, चलो, एक महीना और सही!
तुमने जिसको विवाह समझ रखा है, वह विवाह क्या है! उस विवाह की जड़ में सड़ांध है। पति का अर्थ होता है: मालिक। ‘पति’ शब्द का अर्थ मालिक होता है! और पति समझाते रहे स्त्रियों को कि पति को परमात्मा समझो! मालिक होने से भी इनका दिल नहीं भरा; परमात्मा समझो इनको! इनके गुणधर्म वे देखती हैं, तो इनको शैतान भी मानने को राजी न हों, कि तुम शैतान से भी गए-बीते हो! मगर मानना पड़ता है--परमात्मा! तो इसका बदला वे लेती हैं। वे इसका मजा चखाती हैं!
यह प्रेम के आधार पर खड़ा हुआ विवाह नहीं है, इसलिए ये सारे दुष्परिणाम हो रहे हैं।
जज साहब ने अपने एक अपराधी से कहा: हमें यह भी बताया गया है कि बरसों से तुमने अपनी बीबी को डरा-धमका कर रखा है; और एक प्रकार से अपना गुलाम बना रखा है!
अपराधी ने हकलाते हुए कहा: हुजूर, देखिए हुजूर, बात यह है कि.!
जज ने बात काटते हुए कहा: सफाई पेश करने की आवश्यकता नहीं है। तुम केवल इतना बता दो कि यह चमत्कार किस प्रकार कर लेते हो!
कौन अपनी पत्नी को गुलाम बना कर रख सका है? लेकिन गुलाम बनाने की आकांक्षा में ही उपद्रव शुरू हो जाता है। फिर वह भी तुम्हें गुलाम बनाना चाहती है। जरूर उसके ढंग स्त्रैण होंगे। तुम मार-पीट कर सकते हो; वह मार-पीट नहीं करेगी। उसके प्रकार परोक्ष होंगे। लेकिन वह तुम पर जाल खड़ा करेगी। वह भी मालिक होना चाहती है, तुम भी मालिक होना चाहते हो; कलह शुरू हो गई।
प्रेम का अर्थ होता है: न मैं मालिक हूं, न तुम मालिक हो। संयोग है--नदी-नाव संयोग। दो क्षण को हम एक रास्ते पर मिल गए हैं; खुशी बांट लें। न मेरा तुम पर दावा है, न तुम्हारा मुझ पर दावा है।
दावेदारी में उपद्रव है। और सारी मनुष्य-जाति अब तक परेशान रही है दावेदारी से। दावेदारी छोड़ो।
मैं विवाह का कोई भविष्य नहीं देखता हूं। और अगर विवाह रहा, तो आदमी का कोई भविष्य नहीं देखता हूं। हमें विवाह की पूरी की पूरी प्रक्रिया को नया रंग, नया रूप देना होगा। हमें उसे संस्था की तरह मिटा देना चाहिए। हमें चाहिए कि एक प्रेम का संबंध हो, एक मैत्री हो। न तो तुम कब्जा करो, न किसी को अपने पर कब्जा करने दो। क्योंकि जहां कब्जे का भाव आया, वहां प्रेम नष्ट हो गया। किसी पर कब्जा करना अपमान है। लेकिन हमारे तो शब्द भी सब ऐसे हैं।
भारत में हम देश के प्रमुख को राष्ट्रपति कहते हैं। कोई इसका ऐतराज नहीं करता। लेकिन कल अगर कोई महिला राष्ट्रपति हो जाए, तो तुम क्या उसे ‘राष्ट्रपत्नी’ कहोगे? वह खुद भी ऐतराज करेगी कि क्या मचा रखा है! मैं कोई वेश्या हूं?
पहले वेश्या को नगरवधु कहते थे। वह भी ‘राष्ट्रवधु’ नहीं थीं! ‘राष्ट्रपत्नी’--कोई स्त्री राजी नहीं होगी। उस शब्द में अपमान है। लेकिन ‘पति’ में कोई अपमान नहीं है। यह पुरुषों की दुनिया है। और पुरुषों की दुनिया में स्त्री क्या करे! पुरुषों ने सब कब्जा कर रखा है। मिलिटरी उसकी, सत्ता उसकी। उसमें स्त्री फिर षडयंत्रकारी का रुख अपनाती है। वह नीचे से जड़ें काटती है। वह कुतर-कुतर तुम्हें काटती रहती है। तुम्हारी जेब काटती है। तुम्हारे पैसे मार देती है। तनख्वाह झड़प लेती है। उलटा-सीधा खर्च करती है। तुम्हें सताने के वह जितने उपाय कर सकती है, करती है। लेकिन तुम्हीं जिम्मेवार हो। मेरे हिसाब में पुरुष ही जिम्मेवार है। क्योंकि यह पूरी सामाजिक व्यवस्था पुरुष ने दी है।
इसकी प्रतिक्रिया में अब स्त्रियां खड़ी हो रही हैं। मगर प्रतिक्रिया से लाभ नहीं होगा। इसलिए नीलिमा चटर्जी को मैं कहना चाहता हूं कि मैं स्त्रियों के स्वतंत्रता आंदोलन के पक्ष में नहीं हूं। मैं चाहता हूं: ‘स्त्री-पुरुष स्वतंत्रता आंदोलन!’ स्त्री पुरुष से स्वतंत्र होनी चाहिए; पुरुष स्त्री से स्वतंत्र होना चाहिए। दोनों ही गुलाम होकर बैठ गए हैं। मनुष्य स्वतंत्र होना चाहिए। मगर वह स्वतंत्रता तभी हो सकती है, जब हम पूरे जीवन के आधार को बदलने की तैयारी दिखाएं।
वही मैं कह रहा हूं, तो मैं संस्कृति का दुश्मन हूं, धर्म का दुश्मन हूं। न तो मैं संस्कृति का दुश्मन हूं, न मैं धर्म का दुश्मन हूं। मैं संस्कृति और धर्म को दुनिया में लाना चाहता हूं। तुमने जिसे संस्कृति और धर्म समझा है, उसने धर्म और संस्कृति दोनों में जहर घोल दिया है।
तुम्हारी जिंदगी क्या है? सिर्फ व्यथा! कितनी तरह की व्यथाएं तुम झेल रहे हो! और औरों से झेलो, ठीक, जिनको तुम अपने कहते हो, उनसे भी झेल रहे हो! पति पत्नी से झेल रहा है; पत्नी पति से झेल रही है।
लेकिन एक ही चीज है, जिसकी वजह से सब उपद्रव हो रहा है। प्रेम की कमी है। प्रेम के आधार पर संस्थाएं नहीं बनतीं; प्रेम के आधार पर स्वतंत्रता निर्मित होती है। विवाह को हटाओ और प्रेम को जगह दो। प्रेम का खतरा लो। ज्यादा बेहतर है प्रेम का खतरा लेना बजाय विवाह की सुरक्षा के।
क्या तुम समझते हो, सेठ चंदूलाल ने पूछा, कि तुम मेरी बेटी से शादी करने के योग्य हो?
निश्चय ही, लड़का बोला, उसकी सुंदरता, आपका पैसा और मैं--लगता है, हम बने ही एक-दूसरे के लिए हैं!
इसमें प्रेम की तो कोई जगह ही नहीं है। उसकी सुंदरता, आपका पैसा और मैं! लेकिन सुंदरता तो दो दिन में खत्म हो जाती है। परिचित हो गए, बात समाप्त हो गई! सुंदरता कितनी देर साथ देगी?
सुंदरता के आधार पर जो प्रेम है, वह प्रेम नहीं है। प्रेम के आधार पर जब कोई व्यक्ति तुम्हें सुंदर मालूम पड़ता है, तब बात और। तब बिलकुल बात और। तब जीवन का काव्य और, संगीत और।
मोर्चे पर गोलियों की बौछार के बीच एक फौजी ने अपने साथी से पूछा: यहां हर क्षण मौत के साए में रहते हुए तुम्हें क्या अहसास होता है?
साथी ने उत्तर दिया: रक्षा का अहसास! तुमने मेरी बीवी को नहीं देखा है!
कोई फौज में भर्ती हो जाता है--बीवी से बचने को! कोई शराबघर में बैठा है--बीवी से बचने को! कोई जुआ खेल रहा है--बीवी से बचने को! बड़ा मजा है! पहले बीवी की तलाश में लगे हो, फिर बीवी से बचने की तलाश में लगे हो!
दो आदमी एक शराब घर में बैठे बात कर रहे थे। एक ने कहा: भई तुम इतनी-इतनी देर तक क्यों बैठे रहते हो?
उसने कहा: क्या करूं--न पत्नी, न बच्चा। खाली घर काटता है!
दूसरे ने कहा: धत्त तेरे की! हद्द हो गई! अरे, मैं यहां इतनी देर तक बैठता हूं इसीलिए कि बच्चे और पत्नी! किसी तरह पत्नी से बचो, तो बच्चे! बच्चों से बचो, तो पत्नी! इधर गिरो तो कुआं, उधर गिरो तो खाई! मैं उन्हीं से बचने के लिए यहां बैठा हूं। और तेरे घर में बच्चे नहीं हैं और तू यहां बैठा हुआ है! तेरे घर में पत्नी नहीं है, तू यहां बैठा हुआ है!
मगर ऐसा ही मजा है। जो विवाहित हैं, वे सोचते हैं, धन्य हैं वे जो कुंआरे हैं! और जो कुंआरे हैं, वे सोचते हैं कि हे भगवान! अरे विधाता! तूने हमारे भाग्य में क्या कुछ भी नहीं लिखा! यही आवारागर्दी! कम से कम एक अदद औरत तो दे दे! कोई ज्यादा मांगते भी नहीं कि छप्पर फाड़ दे!
जो अकेला है, वह पत्नी मांग रहा है; जिसको पत्नी मिल गई है, वह अपनी खोपड़ी पीट रहा है कि अब क्या करूं! बड़ी अजीब दुनिया है! मगर किसने बनाई? हमने बना ली है।
मैं विश्वविद्यालय से नया-नया घर आया, तो जो देखो वही मुझे सलाह दे कि विवाह करो! मैं कहूं: जरूर, जब आप कह रहे हैं, तो ठीक ही कह रहे होंगे। मगर आपकी और आपकी पत्नी का जो मैंने हाल देखा है, उसे देख कर ही तो विवाह नहीं कर पा रहा हूं! वह बेचारा चुप रह जाता एकदम। क्योंकि वह भी जानता है कि बात तो सच है। मैंने कहा: अब बोलो, क्या बोलते हो? तुम्हें अगर फिर से मौका मिले, तो विवाह करोगे?
बोले कि नहीं करूंगा।
तो फिर, मैंने कहा, मुझे सलाह दे रहे हो! शर्म तो खाओ!
धीरे-धीरे मुझे सलाह देने वाले खो गए। उनको ही देख कर तो मैंने समझा कि यह क्या बेवकूफी चल रही है! अपने परिवार में देखा; अपने प्रियजनों में देखा; अपने निकट के लोगों में देखा; अपने प्रोफेसरों के घर देखा। जहां देखा, वहां कलह!
मेरे एक प्रोफेसर थे, डाक्टर सक्सेना। वे मुझसे पूछे कि तुम विवाह क्यों नहीं करते हो?
मैंने उनसे कहा कि आप मेरे दोस्त हैं या दुश्मन?
उन्होंने कहा: भई, दुश्मन क्यों होऊंगा! मैं तुम्हें प्रेम करता हूं!
तो मैंने कहा: फिर ऐसी बात करते शर्म नहीं आती! आपकी पत्नी कहां है?
उनकी पत्नी दिल्ली रहती थी; वे सागर रहते थे! जब पत्नी सागर आए--तो वे दिल्ली! कभी दोनों को मैंने साथ देखा नहीं। वे पत्नी के मारे कभी हवाई में नौकरी करते, कभी अमरीका में नौकरी करते--मगर दिल्ली में नहीं! दिल्ली विश्वविद्यालय उनके पीछे जिंदगी भर पड़ा रहा कि तुम दिल्ली में आ जाओ। दिल्ली वे न जाएं, क्योंकि दिल्ली घर था, बंगला था; वहां पत्नी कब्जा किए बैठी थी! दिल्ली छोड़ कर जमाने में भागते रहे! मरे भी, तो अमरीका में मरे!
मैंने उनसे कहा कि तुम जरा एक दफे सोच तो लो कि तुम्हारी क्या हालत है! फिर मैं भी भागा फिरूंगा, जैसे तुम भागे फिर रहे हो जिंदगी भर से! यही तुम्हारे इरादे हैं?
नहीं, कहा कि अब कभी नहीं कहूंगा।
मेरे एक दूसरे प्रोफेसर थे, दास। उन्होंने मुझसे एक दिन कहा कि अब तुम एम. ए. भी कर लिए; विश्वविद्यालय से तुम्हें पीएच. डी. के लिए स्कॉलरशिप भी मिल गई। शादी कर लो। क्या तुमने ब्रह्मचर्य की कसम खा रखी है?
मैंने कहा: ब्रह्मचर्य से मुझे क्या लेना-देना! मगर आप लोगों के जीवन से जो सीखा है, सदगुरुओं से जो सीखा है, उसके अनुसार चल रहा हूं!
उन्होंने कहा: मैंने तुमसे कब कहा कि शादी मत करो!
मैंने कहा: आपने नहीं कहा, मगर आपके घर कितनी बार टिक कर जो देख गया हूं आंखों से, वही गति मेरी करवानी है?
उनकी पत्नी उनकी पिटाई भी करती थी! और मेरे उनके संबंध इतने निकट के हो गए थे कि वे मुझे बताते कि देखो, आज मेरे हाथ में दर्द है! आज मेरी कमर में दर्द है!
क्या हुआ?
कहा: उसने इतनी जोर से मुझे कलछी फेंक कर मार दी!
तो मैंने कहा: क्या विचार है! मैं भला-चंगा जी रहा हूं; अपने आनंद में हूं! कलछी फिंकवानी है? मेरी खोपड़ी खुलवानी है? सदगुरुओं से जो सीखा, उसके अनुसार ही जी रहा हूं। इसमें ब्रह्मचर्य वगैरह कहां है? यह तो सीधी-सादी बात है--कि बहुत देखा, बहुत सुना-समझा--सबका सार यह पाया कि अगर विवाह से बच गए, तो संसार से बच गए!
एक मित्र ने पूछा है कि आप तो कहते हैं: ‘विवाह से बच गए, तो संसार से बच गए। लेकिन हमारा क्या हो, जो विवाह कर चुके?’
तो भैया, हर स्त्री को मां-बहिन समझो! और क्या करो!
सेठ चंदूलाल ने एक स्त्री को धक्का दे दिया भीड़ में। वह एकदम चिल्ला दी! ऐसे स्त्रियां उत्सुक भी रहती हैं कि कोई धक्का दे। और कोई दे दे, तो एकदम फंसा देती हैं! बड़ा मजा है! इनका गणित ही समझ में नहीं आता! न धक्का दो, तो मुश्किल। घुर्रा कर देखती हैं, कि क्या खड़े-खड़े देख रहे हो! अरे, धक्का मारो! दो घंटे दर्पण के समाने खराब किए--इसीलिए?
सज-धज के आई हैं बिलकुल! और धक्का मार दो, तो फौरन चिल्ला दें!
तो चंदूलाल पकड़े गए। पुलिसवाले ने उनको दो-तीन झापड़ रसीद किए और कहा कि शर्म नहीं आती! कसम खा आज से कि हर स्त्री को मां-बहिन समझूंगा।
कहा कि भैया, कसम खाता हूं, कि हर स्त्री को मां-बहिन समझूंगा।
तभी उनकी पत्नी धन्नो आई। धन्नो ने कहा कि ज्यादा चोट तो नहीं आई?
उन्होंने कहा कि नहीं बहिन जी! सब ठीक-ठाक है!
अब हो गया विवाह, तो अब भैया, माता-बहिन समझो! और क्या करोगे! न होता, तो भी यही करना था--मां-बहिन समझते। हो गया, तो भी यही समझो!
पुराने ऋषि भारत के यह आशीर्वाद देते थे.। जब किसी का विवाह होता था; नव-वधू, नव-वर आशीर्वाद लेने जाते थे, तो पुराने ऋषि बड़े समझदार लोग थे--वे कहते कि हम आशीर्वाद देते हैं कि तुम्हारे दस बेटे हों और अंत में तुम्हारा पति तुम्हारा ग्यारहवां बेटा हो जाए!
क्या गजब के लोग थे! और क्या पते की बात कह गए!
अब तुम्हारी मर्जी। चाहे दस बेटों के बाद कहना माताराम पत्नी को.अक्ल हो तो पहले ही कहो। क्या इतनी देर रास्ता देखना! अगर मुझसे आशीर्वाद लो, तो पहले मैं कहूंगा कि पहले ही से माताराम मानो! और अगर अक्ल न हो, कुट-पिट कर ही सीखो, तो दस बेटों के बाद! मगर इतना पक्का रखो, एक न एक दिन माताराम मानना पड़ेगा!
मालिक होने की कोशिश की, तो यही होने वाला है।
संसार में मैत्री चाहिए। फिर न कोई स्त्री चंडी है, न कोई भैरवी है, न कोई दुर्गा है।
स्त्रियां अत्यंत मधुर हैं, प्रेमपूर्ण हैं। मगर उनके प्रेम को खिलने का अवसर नहीं मिला। पुरुष ने उनके प्राण ले लिए हैं। और फिर भोग रहा है अपने हाथ से, अपने ही बोए गए बीज--अब फसलें काट रहा है; और जहर भोग रहा है।
मेरी दृष्टि में मैत्री एकमात्र संबंध होना चाहिए। और जब मैत्री न रह जाए, तो मैत्रीपूर्वक विदा हो जाना चाहिए।
बच्चों का एक प्रश्न हमेशा खड़ा होता है। लोग मुझे लिख-लिख कर भेजते हैं कि बच्चों का क्या होगा?
इसलिए मेरा कहना है कि परिवार की जगह कम्यून। छोटे-छोटे कम्यून बनाओ। छोटे-छोटे खेती-बाड़ी, बगीचे, उद्योग। कम्यून स्व-निर्भर हो। हजार लोग, पांच सौ लोग, दो सौ लोग। छोटे-छोटे परिवार तोड़ो; कम्यून--बड़ा परिवार बनाओ। बच्चे परिवार के हों--तो कोई अड़चन नहीं।
और बच्चे परिवार तय करे; परिवार मतलब कम्यून तय करे कि कितने बच्चे चाहिए। हर किसी को बच्चे पैदा करने का हक नहीं होना चाहिए। कम्यून तय करे। चिकित्सक से पूछ कर तय किया जाए कि कौन स्त्री, कौन पुरुष बच्चे पैदा करे। सुंदर होंगे, स्वस्थ होंगे, दीर्घायु होंगे, प्रतिभाशाली होंगे।
थोड़े से बच्चे पर्याप्त हैं। और कम्यून उनका पूरा का पूरा भार ले। इसका यह अर्थ नहीं कि मां-बाप उनकी चिंता न करें। जब तक कर सकें, तो करें, बराबर करें, लेकिन मालकियत मां-बाप की नहीं होगी। मालकियत कम्यून की होगी। इसलिए अगर कल मां-बाप तय करें कि हम अलग हो जाएं, अब हमारी दोस्ती टूट गई; अब साथ चलना कठिन होने लगा--तो प्रेमपूर्वक विदा हो जाएं।
‘विवाह’ भद्दा शब्द है। ‘तलाक’ और भी भद्दा शब्द है। प्रेम से मिले थे, प्रेम से विदा हो जाएं। जितने दिन प्रेम के साथ रहे, उसके लिए अनुग्रह, उसके लिए आनंद। इतना एक-दूसरे को दिया, उसके लिए एक-दूसरे की अनुकंपा का स्वीकार।
फिर बच्चों की चिंता जो है, कम्यून करे। इसका यह अर्थ नहीं है कि बच्चे मां-बाप से छीन लिए जाएं। अगर पिता बच्चों को अपने पास रखना चाहे, पिता रखे; मां रखना चाहे, मां रखे। अगर मां-बाप के अलग हो जाने के बाद भी मां-बाप बच्चों पर प्रेम करते हों, उनको मिलते रहना चाहते हों, मिलते रहें। लेकिन चिंता उनको नहीं रहेगी कि बच्चों को भोजन कहां से मिलेगा, शिक्षा कहां से मिलेगी। वे सारे कम्यून के बच्चे हैं।
यह जान कर तुम हैरान होओगे कि ‘पिता’ शब्द नया है; ‘चाचा’ शब्द पुराना है--सारी दुनिया की भाषाओं में। क्योंकि पहले कम्यून ही थे। परिवार बहुत बाद में आया। जब से व्यक्तिगत अहंकार और मेरी संपदा का भाव आया, व्यक्तिगत संपत्ति आई, तबसे परिवार आया--और तब से ही उपद्रव आया।
व्यक्तिगत संपत्ति की भी कोई जरूरत नहीं है; व्यक्तिगत परिवार की भी कोई जरूरत नहीं है। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हारा प्रेम हो, तो छोड़ दो। तुम्हारा प्रेम हो, तो साथ रहो--जीवन भर साथ रहो, बहुत-बहुत जन्मों साथ रहो।
एक महिला ने पूछा हुआ है कि ‘क्या मर कर भी पुनः मैं अपने पति को पा सकती हूं?’
तुम्हारी मर्जी! अगर एक जीवन से जी नहीं भर गया हो, तो जरूर पाओ। मगर पहले पति से भी पूछ लो कि पति के क्या इरादे हैं! तुम तो पाना चाहती हो, मगर वे अगर भाग खड़े हों.! वही तो एक उपाय है कि मर कर बिलकुल भाग खड़े हुए! और तो कोई उपाय ही नहीं छोड़ा है! मगर यह बाई उनके पीछे.! यह अब तरकीब पूछना चाहती है कि कोई तरकीब बता दें, जिससे कि अगले जन्म में भी यही पति मिले!
मगर मैं जब तक तुम्हारे पति से न पूछ लूं, तरकीब बता नहीं सकता हूं। क्योंकि इस बेचारे पर कोई अनाचार हो जाए!
मगर यह पूरी व्यवस्था सड़-गल गई। कभी उपयोगी रही होगी--रही होगी; अब नहीं है। भविष्य में इसके लिए कोई स्थान नहीं है।

आज इतना ही।