MAHAVIR

Jin Sutra 41

FourtyFirst Discourse from the series of 62 discourses - Jin Sutra by Osho. These discourses were given during MAY 11 - AUG 10 1976.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


पहला प्रश्न:
भगवान, प्रवचन में आप एक हाथ से हम पर करारी चोट करते हैं और दूसरे हाथ से फूल और सुगंध बांटते हैं। बांटते क्या हैं, लुटाते हैं! क्या आपको इन दोनों से एक-साथ गुजरने में कठिनाई नहीं होती?
दोनों में विरोध नहीं है, दोनों में सहयोग है। दोनों एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं, एक-दूसरे के परिपूरक हैं। कुम्हार को देखा है? एक हाथ से सम्हालता है और दूसरे हाथ से थपकी देता है। एक हाथ से मिट्टी को सम्हालता है, गिर न जाए, भीतर से सम्हालता है, बाहर से चोट देता है। भीतर से न सम्हाले तो मिट्टी की देह निर्मित न हो पायेगी, गिर जाएगी। बाहर से चोट न दे, तो भी न सम्हल पायेगी, तो भी घड़ा बन न पायेगा।
जो कुम्हार कर रहा है, वही मैं भी कर रहा हूं। वह मिट्टी के साथ कर रहा है, मैं आत्मा के साथ कर रहा हूं। सहारे की भी जरूरत है, चोट अकेली काफी नहीं। अकेला सहारा भी काफी नहीं, चोट की भी जरूरत है। सहारे देने वाले तुम्हें बहुत मिल जाएंगे, लेकिन वे चोट नहीं करते। कुछ चोट करने वाले भी हैं, लेकिन वे सहारा नहीं देते। दोनों ही हालत में तुम्हारी आत्मा का पात्र निर्मित न हो पायेगा।
मेहर बाबा सहारा देते हैं, चोट नहीं करते। कृष्णमूर्ति चोट करते हैं, सहारा नहीं देते। ये अधूरे उपाय हैं।
मैं दोनों को एक-साथ सम्हाल रहा हूं। मुझे अड़चन नहीं है सम्हालने में, क्योंकि मेरे लिए दोनों परिपूरक हैं। अड़चन तुम्हें होगी। वह मैं जानता हूं। तुम चाहते हो या तो चोट ही करो, या सम्हालो ही, ताकि तुम्हारे सामने मेरी स्थिति साफ-साफ हो जाए। मैं दोनों करता हूं तो तुम्हारे सामने मेरी स्थिति साफ नहीं होती। तुम मुझे छोड़कर भी नहीं भाग सकते, क्योंकि सहारा भी देता हूं। तुम मेरे साथ पूरे खड़े भी नहीं हो पाते, क्योंकि चोट भी करता हूं। तुम्हारे मन में मेरे प्रति स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाती, रहस्य बना रहता है।
अगर मैं सहारा ही दूं तो तुम मेरे साथ हो जाओ। लेकिन वह साथ होना किस काम का! तुम मुर्दे की तरह साथ हो जाओगे। तुम्हें मैंने चुनौती न दी। तुम अनगढ़ पत्थर रह जाओगे, मूर्ति न बनोगे। क्योंकि मूर्ति बनाने के लिए तो छेनी उठानी ही पड़ेगी। तुम्हें काटना ही होगा। और अगर मैं सिर्फ चोट ही करूं, तो तुम्हें भागने में सुविधा हो जाए। चोट खाने को कौन बैठा रहता है? तुम या तो भाग जाओ या तुम सुनो ही न, या सुनते हुए भी तुम बहरे बने रहो। लेकिन संबंध टूट जाए।
मैंने तुम्हें दुविधा में डाला। न तुम छोड़कर भाग सकते हो, क्योंकि एक हाथ से मैं तुम्हें बुला भी रहा हूं; और तुम मेरे पास आने में भी डरते हो, क्योंकि मैं चोट भी कर रहा हूं। लेकिन यही एकमात्र उपाय है तुम्हें निर्मित करने का। बस, तुम कुम्हार को जाकर देख आना--घड़ा बनाते कुम्हार को--तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाएगी। कुम्हार के लिए विरोध नहीं है। शायद घड़े को अड़चन भी होती हो कि क्या कर रहे हो, उल्टी बातें एक-साथ कर रहे हो? सहारा देते हो तो सहारा दो, चोट करते हो तो चोट करो, यह तुम क्या कर रहे हो? बड़ी विसंगति है, बड़ा विरोध है।
मेरी बातें तुम्हें विसंगतिपूर्ण मालूम पड़ेंगी। आज कुछ कहता हूं, कल कुछ कहता हूं। क्योंकि जब सहारा देना होता है, तब तुम्हें पुचकार लेता हूं; जब चोट करनी होती है, तब फिर निर्ममता से चोट भी करता हूं। तुम तय नहीं कर पाते कि जिसके पास आये हो वह मित्र है, या शत्रु है? जिसके साथ चल पड़े हो, वह पहुंचायेगा या भटकायेगा? तुम साफ नहीं कर पाते। तुम्हारी दुविधा साफ है। मुझे कोई दुविधा नहीं है। मैं जो कर रहा हूं बिलकुल स्पष्ट है, संगतिपूर्ण है।
और अगर तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाए, तो तुम्हारे लिए भी संगति का दर्शन हो जाएगा। उस दर्शन से बड़ा लाभ होगा। फिर तुम चोट में भी छिपे सहारे को देखोगे। सहारे में भी छिपी चोट को देखोगे। अकेली करुणा से न होगा। करुणा को कठोर होना होगा, तो ही काम हो सकेगा। तुम्हें बनाना भी है, बहुत कुछ तुम में मिटाना भी है। तुम एक जीर्ण-जर्जर भवन की तरह हो। एक खंडहर! पहले तुम्हें मिटाना भी है, फिर नये भवन की नींव भी रखनी है। तुम जैसे हो ऐसे ही परमात्मा के योग्य नहीं हो। तुम परमात्मा के योग्य हो सकते हो। लेकिन उसके पहले बड़ी अग्नियों से गुजरना होगा। संभावना है तुम्हारी परमात्मा, सत्य नहीं। तुम बीज हो अभी। टूटोगे, तोड़े जाओगे, मिट्टी में गिरोगे, बिखरोगे, तो ही किसी दिन फूल खिल पायेगा।
पुष्ट बीज,
सुष्ट खेत,
साथी संगी समेत,
सुसमय बोइये,
सींचिए सुसाध से,
रात दिन
बात बिन
खेत को रखाइये।
काल थक जाए जब,
धान पक जाए जब,
होकर इकट्ठे फिर,
काटिये कटाइये।
पुष्ट बीज--पहले तो बीज को पुष्ट होना पड़ता, पकना पड़ता। कच्चे बीज को बोने से कुछ सार न होगा। धूप में, सूर्य-आतप में, तप में बीज को पकना होता है। पका बीज ही अंकुरित होता है। कच्चा बीज तो अंकुरित नहीं होता। चोट न खायी, पकोगे नहीं; कच्चे रह जाओगे। जिनके जीवन में चोटें नहीं पड़तीं, वे सदा कच्चे रह जाते हैं। धन्यभागी हैं वे जिन्हें जीवन बहुत चोट देता है। अभागे हैं वे जिन्हें जीवन सिर्फ सहारा देता है, चोट नहीं देता। वे नपुंसक रह जाते हैं। इसीलिए तो बहुत सुविधा में, संपन्नता में पले हुए लोगों में प्रतिभा नहीं होती। प्रतिभा के लिए थोड़ी चोट चाहिए। जीवन का तप, जीवन का ताप चाहिए। तूफान और आग चाहिए।
मैंने सुना है, एक किसान ने बड़े दिन तक परमात्मा से पूजा की, प्रार्थना की। परमात्मा ने दर्शन दिये, तो उसके सामने कहा कि बस, मुझे एक ही बात तुमसे कहनी है। तुम्हें किसानी नहीं आती। बेवक्त बादल भेज देते हो। जब बादल की जरूरत होती है, हम तड़फते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं, तब बादलों का कोई पता नहीं! कभी ऐसी वर्षा कर देते हो कि बाढ़ आ जाती है, कभी ऐसा खाली छोड़ देते हो कि पानी को तरस जाते हैं। फसल खड़ी होती है--तूफान, आंधी, ओले! तुम्हें कुछ पता है? खेती तुमने कभी की नहीं। तो कम से कम खेती के संबंध में तुम मेरी सलाह मानो। परमात्मा हंसा उस भोले किसान पर। उसने कहा, ठीक! तो तू क्या चाहता है? एक साल तेरी मर्जी से होगा। किसान ने कहा, तब ठीक है।
एक साल किसान ने मर्जी से जो चाहा, जिस दिन चाहा, वैसा हुआ। जब उसने पानी मांगा, पानी गिरा। जब उसने धूप मांगी, तब धूप आयी। गेहूं की बालें इतनी बड़ी कभी भी न हुई थीं। आदमी ढंक जाए, खो जाए, इतनी बड़ी गेहूं की बालें हुईं। उसने कहा, अब देख! सोचा मन में, अब दिखाऊंगा परमात्मा को। बालें तो बहुत बड़ी हुईं, लेकिन जब फसल काटी, तो बालों के भीतर गेहूं बिलकुल न थे, पोच थे। बहुत परेशान हुआ। परमात्मा से कहा, यह क्या हुआ? क्योंकि मैंने इतनी सुविधा दी। जब पानी की जरूरत थी, तब पानी; जब धूप की जरूरत थी, तब धूप। आंधी, तूफान, ओले इत्यादि तो मैंने काट ही दिये। कोई तकलीफ तो दी ही नहीं। लेकिन बीज आये ही नहीं! हुआ क्या है?
परमात्मा ने कहा, पागल! सिर्फ सुविधा से कहीं कोई चीज बनी है, निर्मित हुई है? सुविधा के साथ साधना भी चाहिए। तूने सुविधा तो दे दी, लेकिन साधना का कोई अवसर न दिया। तूने सम्हाला तो, लेकिन चोटें-चपेटें न दीं। आंधी भी चाहिए, ओले भी चाहिए, तूफान भी चाहिए; सहारा भी चाहिए। इन दोनों के बीच में गेहूं पैदा होता, पकता। बल पैदा होता है चुनौती से।
पुष्ट बीज
तो पहली तो बात है कि बीज पुष्ट हो।
सुष्ट खेत
फिर खेत तैयार हो। ऐसे हर कहीं बीज फेंक देने से कहीं फसल नहीं काटी जाती। पत्थर, कूड़ा-कर्कट, घास-पात अलग करना होगा। खाद खेत में डालनी होगी। श्रम करना होगा।
पुष्ट बीज
सुष्ट खेत
साथी-संगी समेत
अकेले भी न हो पायेगा। जीवन में कुछ भी तो अकेले नहीं हो पाता। जीवन है ही संग-साथ में। हम समाज में पैदा होते, समाज में जीते, समाज में विदा होते। हमारा होना सामाजिक है। संबंधों में है। जैसे मछली सागर में जन्मती है, ऐसे हम संबंधों के सागर में जन्मते हैं। बिना मां के, बिना पिता के कौन पैदा होगा? कैसे पैदा होगा? बिना भाई-बहन के, बिना मित्र-शत्रु के कौन बढ़ेगा, कैसे बढ़ेगा?
पुष्ट बीज
सुष्ट खेत
साथी संगी समेत
इसलिए मेरा बहुत जोर है कि तुम ध्यान भी साधो और प्रेम भी साधो। ध्यान का अर्थ है, तुम अकेला होना साधो। और प्रेम का अर्थ है, तुम संबंधों में भी माधुर्य को निर्मित करो। ऐसा न हो कि तुम अकेले-अकेले रह जाओ। तो तुम सूख जाओगे। कुछ बड़ा बहुमूल्य तुम्हारे भीतर मर जाएगा। जंगल में भाग गये संन्यासी का कुछ बहुमूल्य मर जाता है। भीड़ में ही रहने वाले आदमी का भी कुछ बहुमूल्य मर जाता है। दोनों अधूरे हैं। भीड़ में रहने वाले आदमी को अपने घर का पता खो जाता है। वह अपने मन-मंदिर तक लौट ही नहीं पाता। भीड़ में ही भटक जाता है। याद ही नहीं रहती कि मैं कौन हूं? अकेला जो चला गया, उसे अपनी तो याद आने लगती है, लेकिन दूसरे का स्मरण भूल जाता है। और दूसरे के स्मरण के बिना अहंकार खूब मजबूत हो जाता है। एकांत में रहने वाले व्यक्ति का अहंकार खूब बलशाली हो जाता है। भीड़ में रहने वाले आदमी की आत्मा खो जाती है। दोनों के बीच में। अकेले रहना है, भीड़ में रहना है। और भीड़ में रहना है और अकेले रहना है। घूमो, चलो बाजार में, लेकिन भीतर हिमालय का एकांत बना रहे।
संबंधों से भागो मत। क्योंकि संबंधों के थपेड़े जरूरी हैं। क्रोध, संघर्ष, चोट, चुनौती जरूरी हैं। भीतर ध्यान को साधो, बाहर प्रेम के धागे को पकड़े रहो।
पुष्ट बीज
सुष्ट खेत
साथी-संगी समेत
सुसमय बोइये
ठीक समय पर बोना पड़ेगा। चाहे ठीक समय आधी रात आये। चाहे ठीक समय भर-दोपहरी में आये। ठीक समय जो भी मांगे, देना होगा। ठीक समय की प्रतीक्षा करनी होगी, सजग प्रहरी की तरह, आंखें खोले। झपकी न लेनी होगी। क्योंकि ठीक समय पर पड़े बीज ही ठीक समय पर फूलेंगे, फलेंगे। जरा-सा समय चूक गये, तो जो जरा-सा समय चूक गया, वह सदा के लिए बाधा बन जाता है। फिर उसे पूरा करने का कोई उपाय नहीं।
पुष्ट बीज,
सुष्ट खेत,
साथी संगी समेत,
सुसमय बोइये,
सींचिए सुसाध से,
रात दिन
बात बिन
खेत को रखाइये।
काल थक जाए जब,
धान पक जाए जब,
होकर इकट्ठे फिर,
काटिये कटाइये।
जीवन ऐसा ही है। सभी कुछ सुविधा से मिलता होता, तो सभी को मिल गया होता। सुविधा काफी नहीं है। साधना भी जरूरी है। और अगर अकेली साधना से ही मिलता होता, तो भी बहुत अड़चन न थी। साधना के भीतर सुविधा भी आवश्यक है। साधना, सुविधा में विरोध दिखायी पड़ता है। लेकिन उन्हीं को, जिन्होंने जीवन के गणित को समझा नहीं।
दिन भर तुम श्रम करते हो, रात सो जाते हो, विरोध का खयाल नहीं किया? तुम यह नहीं कहते कि कल भी मुझे काम करना है, रात सो जाऊंगा, शिथिलता आ जाएगी। जागा रहूं रातभर। क्योंकि कल भी तो जागना है। तो जागने का अभ्यास जारी रखूं। अगर तुम रातभर जागे, तो कल सोओगे फिर। जाग न सकोगे। जीवन का गणित यही है कि विपरीत से मिलकर बना है जीवन। दिनभर जागे हो, रातभर सो जाओ। रातभर ठीक से सोये, तो सुबह कल फिर ठीक से जाग सकोगे। अगर श्रम किया है, तो विश्राम कर लो। श्रम ही श्रम करते रहे, तो भी पागल हो जाओगे। विश्राम ही विश्राम करते रहे, तो जीवन की सारी संपदा खो जाएगी। श्रम और विश्राम का संतुलन है जीवन। दोनों को एक-साथ साधना है।
कुछ लोग सुविधा को साधते हैं, इनको ही हम सांसारिक कहते हैं। कुछ लोग साधना को साधते हैं, इन्हीं को हम संन्यासी कहते रहे हैं।
मेरे संन्यासी को मेरा आदेश बड़ा भिन्न है। मैं कहता हूं, सुविधा में साधना को साधना। साधना और सुविधा को तोड़ना मत, जोड़ना। जब साधना से थक जाओ, सुविधा में डूब जाना। जब सुविधा से थक जाओ, तैयार हो जाओ, विश्राम पा लो, फिर साधना में लग जाना।
जीवन विपरीत को विपरीत की तरह नहीं देखता। वहां विपरीत परिपूरक है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, भीतर समता का, आनंद का दीया अधिक समय स्थिर रहने पर भी कभी टिमटिमाने लगता है। क्या यह मेरे निर्माण की भूमिका है, अथवा मेरी किसी शिथिलता का परिणाम? यह ठीकपन या सम्यकत्व का आनंद सदा अकंपित रहे, इसके लिए अपने अनुभव से मेरा मार्ग प्रकाशित करने की कृपा करें।
एक क्षण से ज्यादा का विचार ही मत करो। उसी के कारण दीया टिमटिमाने लगता है। एक क्षण से ज्यादा तुम्हारे हाथ में नहीं है। सदा अकंपित रहे, यह आकांक्षा ही क्यों करते हो? सदा स्थिर रहे, यह वासना ही क्यों करते हो? कल की बात ही क्यों उठाते हो? आज काफी है। अभी, यही क्षण काफी है। एक क्षण से ज्यादा तो एक बार तुम्हें मिलता नहीं। एक-साथ दो क्षण तो कभी मिलते नहीं।
एक क्षण भी अगर समता का दीया ठहरा रहता है, फिकिर छोड़ो। इसी क्षण को जी लो पूरा, भरपूर। निचोड़ लो पूरा सार, रस! यह जो क्षण का अंगूर है, बना लो इसकी सुरा। यही क्षण काफी है। जैसे ही तुमने सोचा, यह जो आनंद अभी मिल रहा है, सदा रहेगा? तुम्हीं ने हवा के कंप पैदा कर दिये। दीया नहीं कंप रहा है; तुम्हारे मन ने ही दीये को कंपा दिया। आनंद नहीं कंप रहा है, तुम भविष्य को बीच में ले आये। तुमने कल की चिंता बीच में डाल दी। कल है कहां? और कल जब आयेगा तब आज की तरह आयेगा। तुम आज को सम्हाल लो।
जिसने आज को सम्हालना जान लिया, उसने शाश्वत को सम्हाल लिया। लेकिन हमारी अड़चन क्या है? जो हमारे सामने होता है, अगर कभी आनंद आता है, तो हम घबड़ाते हैं कि छूट तो न जाएगा? अभी आया है इसे भोगते नहीं, चिंता करते हैं कि कहीं छूट तो नहीं जाएगा? तो आनंद छूट ही गया। यह मौका चूक ही गया। तुमने सोचा कि छूट तो नहीं जाएगा, कि गया। छूट ही गया। तुम टूट गये, अभी। दीया कंप गया।
आनंद आये, तो भोगो। कल को क्यों उठाते हो? कल से लेना-देना क्या है? जहां से आज आया है, वहीं से कल भी आता रहेगा। फिर कल जब आयेगा, तब देख लेंगे। अभी तो यह अवसर मिला है, इसे भोग लें। अभी तो यह क्षण मिला है, इसे नाच लें। अभी तो यह गीत की कड़ी उतरी है, गुनगुना लें। अभी तो पैर थिरकें, मृदंग बजे। इस क्षण तो जो मिला है, इसमें से रत्तीभर भी न चूके, इसकी चिंता लो। क्योंकि क्षण भागा जा रहा है। हाथ से फिसलता जाता हैै। निकलता जाता है। तुमने अगर जरा-ही इधर-उधर देखा कि चूके। दायें-बायें देखा कि गये! इतनी देर कहां है? तुमने पूछा कि यह क्षण चला तो नहीं जाएगा--यह जा चुका! यह गया! तुम्हारे हाथ में नहीं है अब। इतना भी अवकाश कहां है कि तुम सोचो?
भोगो! सोचने से काम न चलेगा। और जैसे ही तुम इस क्षण को भोग लोगे, इस क्षण ने बुनियाद रखी आने वाले क्षण की। इस क्षण को तुमने भोगा, रस की धार बही, तुम और रस की धार को भोगने के योग्य बने। अगला क्षण और भी वासंती, और भी मधुमय होकर आयेगा। अगला क्षण और गहरा नृत्य लायेगा। अगला क्षण और भी बरसायेगा अमृत तुम पर। लेकिन यह तुम्हारी चिंता का कारण नहीं है, यह सहज ही होता है। यह नियम की बात कह रहा हूं, तुमसे सोचने को नहीं कह रहा हूं। यह तो एक शाश्वत नियम है कि जो तुमने इस क्षण में भोगा, उसको तुम्हारी अगले क्षण में भोगने की क्षमता बढ़ जाती है। अभी तुमने क्रोध किया, तो अगले क्षण तुम्हारी क्रोध की क्षमता बढ़ जाएगी।
तुमने कभी खयाल किया? सुबह से उठकर अगर क्रोध हो जाए, तो लोग कहते हैं दिन भर क्रोध हो जाता है। इसलिए पुराने दिनों में लोग सुबह राम का नाम लेकर उठते थे। उस गणित में थोड़ा मनोविज्ञान है। क्योंकि जो हम सुबह-सुबह करते हैं, वह हमने नींव रख दी दिन भर के लिए। अगर सुबह-सुबह राम का स्मरण किया, तो इस स्मरण में स्नान हो जाएगा। उस स्मरण के साथ यात्रा शुरू हुई, तो अगला क्षण उसी से तो आने को है। उसी की तो श्र्ृंखला बनेगी। जो राम का नाम लेते हुए उठा, अगर किसी ने उसे गाली दी, तो एकदम से गाली उसके भीतर से न उठेगी--राम का नाम आड़े पड़ेगा। जो गाली देते ही उठा, उसको तो कोई गाली न भी दे, तो भी गाली सुनायी पड़ जाएगी। वह गाली से भरा है। वह तलाश ही कर रहा है, कहीं कोई मिल जाए कारण, तो वह टूट पड़े, बरस पड़े। वह बहाना ही खोज रहा है।
इसको ही अगर तुम ठीक से समझो, तो कर्म का, संस्कार का पूरा सिद्धांत है। तुमने जो कल किया था, वह तुम्हारे आज को प्रभावित करेगा। अब कल तो गया, अब कल को तो बदलने का कोई उपाय नहीं, इतनी कृपा करो कि आज को बदल लो, क्योंकि आज फिर कल सतायेगा। जो तुमने पिछले जन्म में किया था, वह तुम अभी भोग रहे हो। और अभी तुम अगले जन्म का विचार कर रहे हो, और यह जन्म भी हाथ से जा रहा है। यह खाली-खाली गया हुआ जन्म, फिर अंधेरे से भरे हुए रास्ते पर तुम्हें भटका देगा।
पूछते हो कि समता का दीया सदा कैसे जलता रहे? बस, क्षण भर तुम उसे भोगो। जब समता घनी हो, गुनगुनाओ, नाचो, डूबो उसमें। जब समता घनी हो, पीओ, फिर देर न करो। इतना भी बीच में विचार मत लाओ कि यह रुकेगी?
झेन कहानी है:
एक मंदिर के द्वार पर दो भिक्षुओं में विवाद हो रहा है कि मंदिर के ऊपर लगी पताका को कौन हिला रहा है? पताका हिल रही है। एक भिक्षु कहता है, हवा हिला रही है। दूसरा भिक्षु कहता है, पताका स्वयं हिल रही है। गुरु मंदिर के बाहर आता है, वह कहता है: नासमझो, न हवा हिला रही, न पताका हिल रही, तुम्हारा मन! तुम्हारा मन हिल रहा है। इसलिए तुम्हें हिलती पताका दिखायी पड़ रही है, हिलती पताका में तुम्हें रस आ गया है। तुम चिंता-विचार में पड़ गये हो। मन को ठहरा लो, फिर हवा भी चलती रहे, तो भी पताका न हिलेगी। पताका हिलती भी रहे, तो भी न हिलेगी। मन थिर हुआ, तो सब थिर हुआ।
ठीक कहा उसने।
मैं एक अमरीकी लेखक का जीवन पढ़ रहा था। उसने लिखा है कि मैं कैलिफोर्निया की सुंदर सुरम्य घाटी में पैदा हुआ। एक मछुवे के घर पैदा हुआ। सुंदर झीलों में, नदियों में, वादियों में मछलियां पकड़ते बचपन बीता।
उसने लिखा है कि जब मैं मछलियां पकड़ने के लिए बंसी बांधे हुए किसी सुरम्य झील के पास बैठा होता था, ऊपर से हवाई जहाज गुजरते थे, तो मेरे मन में एक ही कामना उठती थी कि कब ऐसा समय आयेगा कि मैं भी पायलट बनूं! आकाश में उडूं! कैसा आनंद न होगा उस आकाश में! मैं कहां यहां बैठा मछलियां मारने में समय गंवा रहा हूं।
संयोग की बात, वह आदमी बाद में पायलट बना। तब उसने देखा कि मैं बड़ा हैरान हुआ! अब मैं पायलट होकर उसी घाटी के ऊपर से हवाई जहाज लेकर उड़ता हूं, नीचे झांककर देखता हूं, मेरे मन में खयाल उठता है, हे भगवान! कब रिटायर होऊंगा कि फिर उन्हीं सुरम्य घाटियों में बैठूं, मछली मारूं, विश्राम करूं! तब वह चौंका कि यह मैं कर क्या रहा हूं, क्योंकि मैं जब घाटी में था तब मुझे घाटी का सौंदर्य न दिखायी पड़ा। तब मुझे हवाई जहाज में बैठे हुए पायलट की महिमा मालूम पड़ी। अब मैं पायलट हूं, तो विश्राम की आकांक्षा कर रहा हूं। और फिर सोच रहा हूं उन्हीं घाटियों की जिनमें मैंने कभी सुख न पाया था। अब नीचे फैली हरी घाटी बड़ी सुंदर मालूम पड़ती है! ताल-तलैये, सरोवर स्फटिक-मणि जैसे चमकते हैं। उनके किनारे बैठने की फिर आकांक्षा है।
और पक्का मानना, उनके किनारे पहुंचते ही फिर आकांक्षा कहीं और चली जाएगी। मन बड़ा अदभुत है। तुम जहां होते हो, वहां तुम्हें नहीं होने देता। मन की सारी पकड़ यही है कि तुम जहां हो वहां नहीं होने देता। तुम्हें कहीं और ले जाता है। और ध्यान का कुल इतना ही अर्थ है कि जहां हो, वहीं हो रहो। मन को यह खेल न खेलने दो। मन को कह दो कि मैं जहां हूं, वही रहूंगा।
अभी मन सधा है, समता बनी है, पीओ इसे! अगर पीना सीख गये, शाश्वत हो जाएगी। अगर सोचने लगे कि कहीं हिल तो न जाएगा, कहीं खो तो न जाएगा, कहीं यह क्षणभर का सपना तो न हो जाएगा, कल कहीं चिंता फिर तो न पकड़ेगी, कहीं फिर विषाद तो न आयेगा--आ ही गया, कल की कहां जरूरत रही! आ ही गया, तुम चिंता में पड़ ही गये। तुम्हारी इस चिंता के कारण ही कंप जाती है लौ।
पूछते हो, भीतर समता का आनंद का दीया अधिक समय स्थिर रहने पर भी कभी-कभी टिमटिमाने लगता है। स्थिरता की बात ही भूल जाओ। स्थिरता मन की ही आकांक्षा है। स्थिर करने की चेष्टा क्यों करते हो? पत्थर होना चाहते हो? जलधार रहो। बहते-बहते अपने को पकड़ो, पहचानो। घबड़ाओ मत रूपांतरण से, परिवर्तन से। अगर कभी लौ कंप भी जाए, तो कंपने का भी आनंद लो। नहीं तो यह नये आध्यात्मिक लोभ हुए। यह नयी आध्यात्मिक वासना जगी कि अब कंप न जाए लौ! कहीं ऐसा तो न होगा कि कंप जाएगी! कभी कंप भी जाए, उसे भी स्वीकार करो। तो समता पैदा हुई।
अब इसे तुम समझना, यह थोड़ा जटिल हुआ।
अगर समता कंप जाए, तो भी तुम्हारे भीतर कोई परेशानी न हो, तुम कहो ठीक है; यह भी ठीक है, कभी-कभी कंपती है, इसको भी स्वीकार कर लो, तो समता वास्तविक समता पैदा हुई। जब विषमता को भी स्वीकार करने की कला आ जाए, तो समता पैदा हुई। लोग कहते हैं, सुख खो तो न जाएगा! नहीं, जब दुख में भी तुम दुख न देखोगे; जब दुख भी आयेगा तब भी तुम कहोगे, यह भी ठीक है, इसे भी स्वीकार करते हैं, यह भी परमात्मा का प्रसाद है, तब फिर सुख कभी न हटेगा।
मेरी बात समझे? सुख कभी-कभी हटेगा, दुख आयेगा, वह दुख परीक्षा है। वह दुख चुनौती है। वह दुख तुम्हें एक अवसर है कि तुम महासुख को पाने की नींव रख लो। उस दुख के क्षण में तुम घबड़ाना मत कि अरे! वह सुख मिला था, गया; यह फिर दुख आ गया! जो सुख दुख के आने से गिर जाए, वह सुख धोखा था। वह पकड़ने योग्य ही न था। जो सुख दुख के आने पर भी बदले न; दुख आ जाए, फिर भी तुम कहो, ठीक, यह भी स्वीकार; तुम्हारी स्वीकृति में रंचमात्र कोई बाधा न पड़े, तुम इसे भी धन्यभाव से, कृतज्ञभाव से स्वीकार कर लो; तुम परमात्मा को सुखों के लिए तो धन्यवाद दो ही, वह तुम्हें जो दुख देता है उनके लिए भी धन्यवाद दे सको, फिर कौन हिला सकेगा? फिर तुम पार हुए। जब दुख भी तुम्हें दुखी न कर सकेगा, तभी सुख थिर होगा। तभी सुख शाश्वत होगा। अशांति के क्षणों को भी शांति से अंगीकार कर लो।
शांति अशांति के आने से नहीं मिटती, अशांति को अस्वीकार करने से मिटती है। अशांति के आने से अगर शांति मिटती होती, तो शांति का बल ही क्या है फिर! अशांति के आने से नहीं मिटती, तुम अशांति को अस्वीकार करते हो, धकाते हो; नहीं, नहीं चाहिए; चिल्लाते हो कि यह क्या हुआ, फिर अशांति आ गयी! इस चिल्लाने, चीख-पुकार करने से शांति मिटती है!
अब जब दुबारा तुम्हारे दीये की लौ कंपे, तो कंपने का भी आनंद लेना। क्या बुरा है! बिजली का बल्ब नहीं कंपता, लेकिन दीये का मजा ही और है! दीये की लौ कंपती है। बिजली का बल्ब बिलकुल नहीं कंपता। लेकिन दीया जिंदा है, बिजली का बल्ब मुर्दा है। दीया जीवंत-धारा है। ठहरता भी, कंपता भी। लौ में प्राण हैं। बिजली का बल्ब बिलकुल यांत्रिक है। उसमें प्राण नहीं हैं। घबड़ाना मत! कभी-कभी कंपेगी ही! ठीक है, स्वीकार है। तुम्हारा स्वीकार-भाव सदा बना रहे, तो धीरे-धीरे तुम पाओगे, जब तुम कंपन को भी स्वीकार करने लगे तो कंपन कम होने लगा। एक दिन तुम पाओगे, जिस दिन स्वीकार पूरा हो गया, उस दिन कंपन समाप्त हो गया। उस दिन दीये की लौ सतत, शाश्वत होकर जलने लगती है।
लेकिन खयाल रखना, शाश्वत और स्थिर में फर्क है। नित्य और स्थिर में फर्क है। स्थिर में तो आकांक्षा है मन की, कि स्थिर हो जाए। शाश्वत घटना है, मन की आकांक्षा नहीं है। स्थिर की तो चिंता पैदा होती है, शाश्वत की कोई चिंता नहीं। वस्तुतः ऐसा समझो कि स्थिर के लिए सोच-सोचकर तुम लहर को कंपा जाते हो। जब तुम क्षण को जीते हो, तब परिणाम में नित्यता उपलब्ध होती है। धीरे-धीरे-धीरे लौ थिर हो जाएगी। समता ऐसी सध जाएगी कि तुम्हें पता ही न चलेगा कि समता भी है। जब तक पता चले समता का, तब तक जानना अभी विषमता के बीज मौजूद हैं। जब तक सुख का पता चले, तब तक जानना कि दुख अभी संभव है। जब तक शांति का पता चले, तो समझना कि अभी शांति अशांति के विपरीत संघर्ष कर रही है।
महावीर से पूछो--तुम अगर उनसे पूछोगे कि क्या आप शांत हैं, तो वह कंधा बिचका देंगे। वे कहेंगे, शांत! बहुत दिन से अशांत ही नहीं हुए, तो शांति का पता कैसे चले? स्वास्थ्य का पता चलता है बीमारी में, बीमारी के कारण। अगर कोई आदमी सदा ही स्वस्थ रहे, तो उसे स्वास्थ्य का पता चलना बंद हो जाता है। पता चलने के लिए विपरीत चाहिए। पता चलता ही विपरीत के कारण है। तो जिस दिन समता पूरी होगी, उस दिन तो समता का पता ही नहीं चलेगा।
लेकिन स्थिरता की और थिर होने की मांग मत करो। थिर होना परिणाम है। तुम सिर्फ जीओ। सार बात इतनी कि जब समता हो, समता को भोगो; जब लहर आ जाए, ज्योति कंपने लगे, तब कंपने को भोगो। दोनों में कहीं भी तुम्हारा विरोध और कहीं भी तुम्हारी आसक्ति न हो। समता से आसक्ति मत बनाओ। यह मत कहो कि अब मिल गयी समता, अब कभी न छोड़ेंगे। यह तो फिर नया बंधन हुआ वासना का। समता अपने आप बढ़ती जाएगी। तुम समता के मालिक मत बनो। तुम उसे तिजोड़ी में बंद करने की चेष्टा मत करो।
कुछ चीजें हैं, जो तिजोड़ी में बंद नहीं की जा सकती हैं। तुमने बंद की, बंद करते ही मर जाती हैं। सुबह की ताजी हवा को तिजोड़ी में बंद कर सकोगे? सुबह सूरज की किरणों को तिजोड़ी में बंद कर सकोगे? फूलों को, फूलों की गंध को तिजोड़ी में बंद कर सकोगे? जैसे ही तिजोड़ी बंद की, हवा गंदी होनी शुरू हो गयी। जैसेे ही तिजोड़ी बंद की, सूरज की किरणें बाहर ही छूट गयीं। जैसे ही तिजोड़ी बंद की, फूल कुम्हलाने लगे, मरने लगे, सड़ने लगे। कुछ चीजें हैं जो खुले आकाश की हैं।
समता, सम्यकत्व, शांति, आनंद, ध्यान, प्रार्थना, प्रेम, भूलकर इन्हें तिजोड़ी में बंद मत करना। ये आकाश, खुले आकाश के फूल हैं। इन्हें मुक्त रखना। इन्हें मुट्ठी में भी मत बांधना, अन्यथा टूट जाएंगे, बिखर जाएंगे, अति कोमल हैं, अति सूक्ष्म हैं, नाजुक हैं। इन पर झपट्टा मत मार देना। अन्यथा झपट्टे में ही नष्ट हो जाएंगे। इनके लिए तो बड़ी शांत, मौन, स्वीकार की भावदशा चाहिए। तुम जब कुछ भी नहीं करते तब ही यह घटते हैं। जैसे ही तुमने कुछ किया कि गड़बड़ शुरू हुई।
अगर क्षणभर को भी कभी समता का सूत्र बंध जाता है, तो भोग लो उसे। बस! पूरी तरह भोग लो। उस क्षण को शाश्वत हो जाने दो। उस क्षण में ऐसे डूबो कि समय ही मिट जाए। उस क्षण में समय की याद न रहे--न बीता, न आगा। न जा चुका याद रहे, न आने वाला याद रहे। भूलो सब। खुल गया द्वार प्रभु का। वहीं कपाट खुलते हैं मंदिर के।
धीरे-धीरे तुम पाओगे, जैसे-जैसे साफ होने लगेगी बात, आंखों का धुंधलका हटेगा, तुम पाओगे द्वार के कपाट सदा ही खुले रहते हैं। तुम्हारे ही विचार के कारण द्वार बंद होता मालूम पड़ता है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, प्रति प्रातः आपको देखने व सुनने आता हूं, परंतु दोनों रस एक-साथ नहीं ले पाता। सुनता हूं तो आंखें बंद हो जाती हैं और देखता हूं तो सुनना कम हो जाता है। कृपया बतायें कि दोनों लाभ एक-साथ कैसे ले सकूं?
प्रेम में अक्सर ऐसा होगा। स्वाभाविक है। इसे समस्या मत बनाओ। दोनों को एक-साथ साधना अभी आसान न होगा। धीरे-धीरे हो जाएगा।
अभी तो ऐसा करो, कभी आंख खोलकर देखने का सुख ले लिया, कभी आंख बंद करके सुनने का सुख ले लिया। अभी दोनों हाथ लड्डू की आकांक्षा मत करो। उसमें दोनों चूक जाएंगे।
धीरे-धीरे, जैसे-जैसे रस बढ़ेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे, आंख बंद है, तुम सुन भी रहे हो, बंद आंख से देख भी रहे हो। कोई देखने के लिए खुली आंख ही थोड़े ही जरूरी है? अगर खुली आंख से ही देखना संभव होता तो जो भी यहां खुली आंख करके बैठे हैं वे सभी देख लेते। लेकिन यह सभी के लिए प्रश्न तो नहीं है, प्रश्न किसी एक का है। किसी को ऐसा हो रहा है। कान का खुला होना ही थोड़े ही सुनने के लिए काफी है।
जीसस बार-बार कहते हैं अपने शिष्यों से, आंख हो तो देख लो। कान हों तो सुन लो। फिर पीछे मुझसे मत कहना। उनके सभी की आंखें थीं, सभी के कान थे, यह बात क्या? बार-बार जीसस कहते हैं, कान हो तो सुन लो, आंख हो तो देख लो। वे ही कान, वे ही आंख तुम्हारे भीतर जन्म ले रहे हैं। जन्म की इस घड़ी को लोभ की घड़ी मत बनाओ। कभी आंख बंद कर ली और सुनने का रस ले लिया। क्योंकि सुन भी तुम मुझ ही को रहे हो। उससे भी तुम मुझसे ही जुड़ रहे हो। वह भी एक द्वार से मेरे पास आना है। फिर कभी आंख खोल ली, देखने का रस ले लिया। छोड़ दिया सुनने को। तब भी तुम मुझसे ही जुड़े हो। और शुरू-शुरू में अलग-अलग ही करना होगा। क्योंकि एक-एक इंद्रिय जब पहली दफा पूरी तरह से आंदोलित होती है, तो सारी ऊर्जा वहीं चली जाती है।
तुमने देखा? अंधे आदमियों के कान बड़े प्रबल हो जाते हैं, बड़े कुशल हो जाते हैं। अंधा आदमी जिस कुशलता से सुनता है, आंख वाले कभी सुनते ही नहीं।
इसलिए गैर-आंख वालों का सुर-बोध गहन हो जाता है। अंधे संगीतज्ञ हो जाते हैं। अंधे की वाणी मधुर हो जाती है। क्योंकि अंधे की सारी ऊर्जा आंख से हटकर कान पर बहने लगती है। जैसे-जैसे उसका स्वर-बोध गहरा होता है, वह छोटी-छोटी चीजों को भी स्वर से पहचानता है। वह लोगों के पैरों की आवाज से भी लोगों को पहचानने लगता है--कौन आ रहा है। आंख वाले नहीं पहचान सकते। आंख वालों ने कभी इतने गौर से सुना ही नहीं। आंख वालों को पता ही नहीं कि पैर भी लोग अलग-अलग ढंग से रखते हैं। चलते भी लोग अलग-अलग ढंग से हैं। जैसे अंगूठों के निशान अलग-अलग हैं, ऐसे ही हर चीज अलग-अलग है। अंधा तुम्हारी आवाज सुनकर ही पहचान लेता है कौन हो। वर्षों बाद भी मिलने जाओ उससे, आवाज पहचानते ही पहचान लेता है। क्योंकि उसकी पहचान ही आवाज से है। चेहरे का उसे कुछ पता नहीं।
तो जब तुम सुनते हो पूरी तरह से, तो स्वभावतः आंख बंद हो जाएगी। क्योंकि सारी ऊर्जा कान ले रहा है। आंख को देने को है नहीं। अगर तुुमने सुनने और देखने की एक-साथ कोशिश की, तो आधी-आधी बंट जाएगी। तो न तो तुम ठीक से सुन पाओगे, न ठीक से देख पाओगे। जब तुम देखोगे, सारी ऊर्जा आंख पर आ जाएगी। शुरू में ऐसा होगा।
यह ऐसा ही है, कभी तुमने अगर साइकिल चलानी सीखी हो, या मोटर कार चलानी सीखी हो--साइकिल चलाने वाले सीखने वाले को जो अड़चन आती है, वह यही। पैर पर ध्यान रखे, तो हैंडिल भूल जाता। सड़क पर देखे, तो पैडिल भूल जाता। बड़ी दुविधा खड़ी होती है। कार चलाने वाले को भी वही अड़चन होती है। एक्सीलेटर को सम्हाले, सड़क को देखे, ब्रेेक को देखे, गियर को बदले, तो एक चीज की तरफ तो लग जाता है; लेकिन जैसे ही दूसरे की तरफ जाता है, पहली चीज चूक जाती है। लेकिन धीरे-धीरे, जैसे-जैसे कुशलता आने लगती है, आत्मविश्वास बढ़ता है, अपने पर श्रद्धा बढ़ती है कि ठीक है, मैं चला लेता हूं, फिर कोई याद रखने की जरूरत नहीं रह जाती। फिर वह रेडियो भी सुनता रहता है, गीत भी गुनगुनाता रहता है, कार भी चलाता रहता है; बात भी करता रहता है। एक दफा तुम्हारी कुशलता के बढ़ जाने की बात है।
तो शुरू में तो तुम ऐसा ही करो। जब सुनने का मन हो, सुन लिये। जब देखने का मन हो, देख लिये। अभी दोनों को साथ साधने की कोशिश मत करना। धीरे-धीरे अपने आप सध जाएगा। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि सुनते-सुनते आंख बंद है, लेकिन मैं दिखायी भी पड़ने लगा। मुझे देखने के लिए आंख का खुला होना जरूरी नहीं है। फिर तुम पाओगे कि आंख खुली है, तुम मुझे देख भी रहे हो, और सुनायी पड़ने लगा। और यहां ही नहीं, तुम अपने घर लौट जाओगे, अगर मेरे चित्र पर भी तुम आंख खोलकर बैठ गये, तो तुम्हें मेरी आवाज सुनायी पड़ने लगेगी। लेकिन यह घटित होगा। थोड़ी प्रतीक्षा करो, और जल्दी मत करो। अभी तो जिस तरह डूबना हो जाए, डूबो! अभी तो डूबना सीख लो।
फिर मेरे लब पे कसीदे हैं लबो-रुखसार के
फिर किसी चेहरे पे ताबानी सी ताबानी है आज
अर्जिशे-लब में शराबो-शेर का तूफान है
जुंबिशे-मिजगां में अफसूने-गजलख्वानी है आज
वो नफस की जमजमा-संजी नजर की गुफ्तगू
सीना-ए-मासूम में इकतर्फा तुगयानी है आज
वो इशारे हैं बहक जाना ही ऐने-होश है
होश में रहना यकीनन सख्त नादानी है आज
अभी होश की बात ही मत करो। अभी तो बेहोश हो लो।
वो इशारे हैं बहक जाना ही ऐने-होश है
अभी तो बहक लो मेरे साथ। अभी तो यही होश है कि तुम मेरे साथ बहको। कि मेरे साथ पागल हो लो।
होश में रहना यकीनन सख्त नादानी है आज
आज तो होश की बातें मत करो। आज तुम गणित मत बिठाओ कि सुन भी लूं, देख भी लूं, बुद्धि को भी समझ में आ जाए, हृदय में भी रस उतर जाए। अभी तुम गणित मत बिठाओ, अभी तर्क मत बिठाओ। अभी तो बहक लो। जहां से बहकना आ जाए, वहीं से सही। अभी तो तुम मेरे साथ मस्त हो लो। यह घड़ी अगर मस्ती में बीत जाए, तो धीरे-धीरे जैसे-जैसे तुम मस्ती की गहराइयों से परिचित होने लगोगे, वैसे-वैसे तुम पाओगे कि सभी इंद्रियों को एक-साथ जोड़ा जा सकता है। तब न केवल आंख, न केवल कान, बल्कि और इंद्रियां भी सक्रिय होंगी।
किसी-किसी को वैसा अनुभव होता है। कोई मेरे पास होता है, तो उसे एक खास तरह की गंध आने लगती है। उसका अर्थ है, वह केवल मुझे सुन ही नहीं रहा, देख ही नहीं रहा, मुझे सूंघ भी रहा है। और कुछ थोड़े-से लोग हैं, बहुत थोड़े-से लोग--कोई दो-चार लोगों ने मुझे कभी कहा है कि सुनते-सुनते उनके कंठ में एक तरह का स्वाद भी आने लगता है। तो चौथी इंद्रिय भी सम्मिलित हो गयी, स्वाद भी। जैसे कोई बूंद अमृत की भीतर टपक गयी हो। उनसे भी कम कुछ लोग हैं--एकाध ही कभी किसी ने मुझे कहा है कि सुनते-सुनते सारे शरीर में एक अनूठे स्पर्श का बोध होता है। एक तरंग! जैसे मैंने उनके सारे शरीर को आलिंगन में ले लिया हो । तो पांचों इंद्रियां सम्मिलित हो गयीं। अभी तो एक-एक को साधो। दो को एक-साथ साधना मत। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे सभी इंद्रियां एक-साथ सजग होकर मेरे पास हो जाएंगी।
जिस दिन सभी इंद्रियां सजग होकर मेरी निकटता में आ जाएंगी, उस दिन सत्संग शुरू हुआ। उसके पहले सत्संग तो है, लेकिन सीमित है। किसी का आंख का सत्संग है, किसी के कान का सत्संग है, लेकिन सीमित है। तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व का सत्संग नहीं हो रहा है।
पर जल्दी की भी नहीं जा सकती। यह तो धीरे-धीरे.कला है, जो धीरे-धीरे आती है। आते ही आते आती है। ऐसा नहीं कि तुम उसे ले आओगे।

चौथा प्रश्न:
भगवान, समर्पण और अंधानुकरण में क्या अंतर है?
अंतर है भी और नहीं भी। दोनों बातें समझ लें।
अंधानुकरण का अर्थ है, अपने स्वानुभव के बिना किसी बात को माने चले जाना। जैसे तुम जैन-घर में पैदा हुए, या हिंदू-घर में पैदा हुए, या मुसलमान-घर में पैदा हुए, और तुम अपने को मुसलमान माने चले जाते हो, यह अंधानुकरण है। न तो मोहम्मद से तुम्हारा कोई संबंध बना, न कोई सत्संग हुआ। न मोहम्मद की आभा से तुम्हारा कोई मिलन हुआ। जैन-घर में पैदा हो गये हो। महावीर से कोई मेल-जोल नहीं है। महावीर से कुछ लेन-देन नहीं हुआ। महावीर से कोई साक्षात्कार नहीं हुआ। महावीर की वाणी के फूल तुम्हारे हृदय में खिले नहीं। महावीर की वीणा का संगीत तुम तक पहुंचा नहीं। संयोगवशात तुम जैन-घर में पैदा हुए हो। इसलिए बचपन से जैन-धर्म की बात सुनी, जैन-शास्त्र सुना, जैन-मंदिर गये, महावीर का नाम सुना बार-बार, सुनते-सुनते स्मृति में बैठ गया। तुम कहते हो, मैं जैन हूं। यह अंधानुकरण है। जो लोग महावीर के समय में महावीर की आभा से आंदोलित होकर महावीर के चुंबक से खींचे गये थे; जिन्होंने महावीर को भर-आंख देखा था; जिन्होंने महावीर को पूरे कानों से सुना था; जिन्होंने महावीर को अपने हृदय में पीया था, और उस पीने में जाना था कि ठीक है, यही मार्ग ठीक है, और उस मार्ग पर चल पड़े थे, तब समर्पण था, अंधानुकरण नहीं।
समर्पण तो जीवित सदगुरु के पास ही हो सकता है। इसलिए दुनिया में सौ में से निन्यानबे लोग तो अंधानुकरण में हैं। महावीर जब गांव से गुजरे थे, तो उनमें से कोई कृष्ण को मानता था, इसलिए सुनने नहीं गया। कोई राम का भक्त था, इसलिए कैसे महावीर के पास जाता! वे अंधानुकरण में थे। लेकिन उन्हीं राम और कृष्ण-भक्तों में से कुछ हिम्मतवर थे, जो महावीर को सुनने गये थे। उन्होंने अपने अंधानुकरण को एक तरफ रखा। उन्होंने कहा, परंपरा परंपरा है, परंपरा मेरी आत्मा नहीं। किसी घर में पैदा हुआ हूं, यूं ठीक है; लेकिन जो धर्म मैंने नहीं चुना, वह मेरे प्राणों को कैसे स्पंदित करेगा? धर्म चुनाव है--सजगता से, गहन सोच-विचार से, चिंतन-मनन से, ध्यान-निदिध्यासन से, अपने जीवन को दांव पर लगाना है। धर्म उधार नहीं मिलता।
तो जो धर्म तुम्हें घर के कारण, परिवार के कारण, समाज के कारण मिल गया हो, वह अंधानुकरण है।
नानक के गीत को सुनकर जो उनके पास पहुंच गये थे, वे सिक्ख हैं। बाकी सब नाम के सिक्ख हैं। सिक्ख शब्द का अर्थ होता है, शिष्य। वह शिष्य का ही विकृत रूप है। जो नानक के पास गये थे, जिन्होंने नानक का गीत सुना, और जिनको नानक की झलक मिली। जिन्होंने उनके पास उस अमृत लोक का पहला सपना देखा, जिनका सत्संग हुआ, जिनके हृदय का सेतु नानक से जुड़ गया, जो क्षणभर को नानक की आंख से देख लिये, नानक के पैरों से नाच लिये, नानक के कंठ से गुनगुना लिये--क्षणभर को सही--जिनकी धुन नानक से मिल गयी, उन्होंने समर्पण किया। यह उनका स्वयं का अनुभव था। इस स्वयं के अनुभव पर उन्होंने अपना सिर झुका दिया।
अब सिक्ख हैं, उनका नानक से क्या लेना-देना! सिक्ख घर में पैदा हुए, तो सिक्ख हैं। हिंदू घर में पैदा होते तो हिंदू होते। मुसलमान घर में पैदा होते तो मुसलमान होते। किसी हिंदू बच्चे को मुसलमान के घर में रख दो, वह मुसलमान हो जाएगा। बचपन से मुसलमान के बच्चे को जैन के घर में रख दो, वह अहिंसक हो जाएगा। शाकाहारी हो जाएगा। लेकिन यह होना कोई होना है! जो तुमने स्वयं नहीं चुना।
तो जो तुम्हारे पास उधार है, वह अंधानुकरण है। जो निज का है, वही समर्पण है। जो तुमने किया, जो अतीत से नहीं मिला, जो तुमने स्वयं साहस करके--दुस्साहस कहना चाहिए, क्योंकि अतीत से जो मिलता है वह तो हजारों साल चिंतन किया गया है, उस पर शास्त्र लिखे गये हैं, टीकायें लिखी गयी हैं; पंडित हैं, पुजारी हैं, मंदिर हैं, बड़ी लंबी परंपरा है, परंपरा की प्रतिष्ठा है; लेकिन जब तुम किसी नये सदगुरु के, जीवित सदगुरु के पास आते हो तो न तो कोई परंपरा है पीछे, न वेद-कुरान-बाइबिल का कोई सहारा है। कोई संदर्भ नहीं है। जीवित सदगुरु सीधा तुम्हारे सामने खड़ा है। हां, तुम्हीं अगर हिम्मतवर हो, तो समर्पण कर सकोगे। और तो कोई भी कारण नहीं है समर्पण करने का।
महावीर के पास जाकर जो झुक गये, महावीर के सारे बड़े शिष्य, ग्यारह शिष्य, सभी के सभी ब्राह्मण थे। साधारण ब्राह्मण न थे, महापंडित थे। वेद में पारंगत थे। उनके खुद के सैकड़ों शिष्य थे जब वे महावीर के पास आये। लेकिन परंपरा को हटाकर रख दिया। सत्य को चुना। अतीत को पोंछकर रख दिया, वर्तमान को चुना। मृत को इनकार कर दिया, जीवंत को चुना। जीवंत के साथ खतरा था, पता नहीं महावीर ठीक हों, न हों। और पता नहीं तुम्हें जो प्रतीति हो रही है वह ठीक हो, न हो। हो सकता है तुम सम्मोहित हो गये हो। हो सकता है इस महावीर के वचनों ने तुम्हें घेर लिया। तुम किसी जाल में उलझ गये। खतरा है। संदेह के साथ कदम उठाने पड़ेंगे।
लेकिन साहसी उठाता है कदम। पुराने रास्तों की बड़ी प्रतिष्ठा है--प्राचीन हैं, हजारों लोग चले हैं, तीर्थ हैं, मंदिर हैं, तुम जाकर पता लगा सकते हो कि इन रास्तों से लोग पहुंचे या नहीं पहुंचे? तो लोकोक्तियां हैं कि इस रास्ते पर हजारों लोग सिद्ध हो गये हैं। अब महावीर अचानक आकर खड़े हुए, या मोहम्मद, अभी तो कोई इनके पास सिद्ध हुआ नहीं; अभी तो कोई पहुंचा नहीं, अभी तो परंपरा बनने में हजारों साल लगेंगे, हजारों साल के बाद कमजोर लोग इनका अनुसरण करेंगे। हिम्मतवर लोग जीवंत सदगुरु का साथ पकड़ लेते हैं। वह साथ पकड़ लेना ही समर्पण है। जो तुमने किया, वह समर्पण, जो तुमसे तरकीबों से करवा लिया गया है, वह अंधविश्वास। अगर तुममें थोड़ा भी बल और हिम्मत है, अगर तुम थोड़े भी आत्मवान हो, तो तुम इनकार कर दोगे उन सारे संस्कारों को जो दूसरों ने तुम पर डाले। तुम कहोगे, तुम कौन हो?
रूस में सभी नास्तिक हैं, क्योंकि सरकार नास्तिकता पिला रही है। हिंदुस्तान में सभी आस्तिक हैं, क्योंकि समाज आस्तिकता पिला रहा है। न इस आस्तिकता का कोई मूल्य है, न उस नास्तिकता का कोई मूल्य है। दोनों दो कौड़ी की हैं। और दोनों एक-जैसी हैं। मेरे देखे कोई फर्क नहीं है। तुमको आस्तिकता पिलायी जा रही है दूध के साथ, तुम आस्तिकता पीये जा रहे हो। उनको नास्तिकता पिलायी जा रही है, वे नास्तिकता पीये जा रहे हैं। रूस में जो हिम्मतवर है, वह हटाकर रख देगा सरकार जो पिला रही है। वह सोचेगा अपनी तरफ से। तुममें जो हिम्मतवर है, वह भी हटाकर रख देगा जो समाज पिला रहा है। वह सोचेगा अपनी तरफ से। वह कहेगा, भटक जाऊं तो भी एक सुख तो रहेगा कि अपनी ही अभीप्सा के कारण भटका। गिरूं खड्ड में, तो कम से कम एक तो बात रहेगी मेरे साथ कि अपने ही चुनाव से चला था, गिरा तो किसी की जिम्मेवारी नहीं।
ध्यान रखना, दूसरे के द्वारा जबर्दस्ती तुम स्वर्ग भी पहुंचा दिये गये, तो तुम स्वर्ग न पहुंचोगे। स्वयं चलकर ही तुम पहुंचोगे, तो ही स्वर्ग संभव है। यह कुछ ऐसी संपदा नहीं कि कोई दे दे। यह कोई हस्तांतरण नहीं हो सकती। तो तुमने जो भी मान रखा हो परंपरा से, दूसरों के द्वारा समझा-बुझा कर तुम्हें राजी कर लिया गया हो, वह सभी अंधानुकरण है। जो तुम चुनो, वही समर्पण है। यह तो भेद है दोनों का।
और एक अर्थ में भेद नहीं भी है। उस दूसरे अर्थ को भी समझ लेना जरूरी है। लोग बड़े शब्दों के उपयोग में चालाक हैं। अगर तुम करो तो समर्पण है; अगर दूसरा करे तो अंधविश्वास! अगर तुम आकर मेरे पास संन्यास ले लो, तो तुम कहोगे, समर्पण। तुम्हारे पास-पड़ोस वाले, तुम्हारे मित्र कहेंगे, गिरा अंधविश्वास में! इसे तुमने कभी खयाल किया? राम के भक्त कहते हैं, विभीषण परम भक्त है राम का; रावण के मित्रों से भी तो पूछो! दगाबाज है! धोखेबाज! गद्दार! अगर हिंदू मुसलमान हो जाए, गद्दार! अगर मुसलमान हिंदू हो जाए, तो हिंदू कहते हैं, समझदार! अकल आ गयी। बड़ा बुद्धिमान है।
एक जैन-मुनि थे, गणेशवर्णी। उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, जैनियों में। क्योंकि वे जन्म से हिंदू थे और जैन हुए। तो जैन कहते, बड़ा प्रतिभाशाली है। ऐसा संत सदियों में होता है। हिंदुओं से पूछो? गद्दार! धोखेबाज! यह सदा से होता आया है। तुम अपने लिए तो अच्छे शब्दों का उपयोग कर लेते हो, दूसरे के लिए गलत शब्दों का उपयोग करते हो। जब तुम करोगे, तो समर्पण। दूसरा करेगा तो अंधविश्वास।
इसलिए खयाल रखना, जो तुम अपने लिए मौका देते हो, वह दूसरे को भी देना। तुम्हें कोई हक नहीं है किसी दूसरे के बाबत निर्णय करने का कि वह अंधविश्वासी है, या समर्पित हुआ व्यक्तित्व है। तुम इसकी चिंता छोड़ो। तुम कर भी नहीं सकते निर्णय। तुम दूसरे के हृदय में उतरोगे कैसे? जानोगे कैसे? तुम तो अपनी ही सोच लो। इतना ही देखो अपने भीतर कि अब तक तुम अंधविश्वास से जी रहे हो, या समर्पण से जी रहे हो। बस, वहीं निर्णय कर लो, दूसरों की फिकिर छोड़ दो। अन्यथा तुम्हारे सभी निर्णय गलत होंगे। जीसस ने कहा है, निर्णय करो ही मत; दूसरे के संबंध में न्यायाधीश बनो ही मत।
तो जिन मित्र ने पूछा है, अगर अपने लिए पूछते हों, तो ठीक। दूसरों की चिंता छोड़ दें। अपने भीतर ही देख लेना है कि अब तक जो मैं पकड़े हुए हूं, उसको पकड़ने के लिए मैंने कोई जीवन दांव पर लगाया है? कोई ध्यान किया है? कोई प्रेम किया है? या सिर्फ संस्कृति ने, समाज ने, सभ्यता ने जो दिया है, उसे पकड़े हुए हूं! दूसरों ने दिया है। उनको भी किन्हीं औरों ने दिया था, उनको भी किन्हीं औरों ने दिया था। सुनी हुई बात है। अपना दर्शन कुछ भी नहीं। ऐसे कचरे को हटाओ। वह अंधविश्वास है। दूसरे को अंधविश्वासी कहने मत जाना।
इसमें एक बात और भी खयाल में ले लेने की है। दूसरा जितना समर्पित होगा, उतना तुम्हें अंधा मालूम होगा। क्योंकि प्रेम में एक तरह का अंधापन है। इसलिए तो हम कहते हैं प्रेमी को, अंधा! क्योंकि जो प्रेमी नहीं है, वह समझ ही नहीं पाता कि यह आदमी कर क्या रहा है? मजनू से लोग पूछते थे, तू पागल है? इस लैला में कुछ भी रखा नहीं! मजनू कहता, मेरी आंख से देखो। लैला देखनी है तो मेरी आंख से देखो। लैला को और कोई देखने का ढंग हो भी नहीं सकता। एक ही ढंग है, वह मजनू की आंख है।
अगर किसी के प्रेम को देखना है, तो प्रेमी की आंख से देखो। अगर तुम मीरा को जैन की आंख से देखोगे, तो गड़बड़ हो गयी। मीरा को देखना है, तो मीरा की आंख से देखो। मीरा के भाव को समझना है, तो भक्त के भाव से समझो। जो भक्त नहीं हैं, उनसे पूछना मत; वे तो कहेंगे कि यह अंधापन है।
कहते हैं, अलबर्ट आइंस्टीन की पत्नी ने विवाह के बाद अपनी कुछ कविताएं अलबर्ट आइंस्टीन को दिखायीं। वह कुछ कविता करती थी। अब आइंस्टीन तो गणितज्ञ, भौतिकशास्त्री! तथ्य पर उसका जोर! तथ्य और काव्य का क्या मिलना! जमीन-आसमान का फर्क! उसने पहली ही कविता देखी, वह सिर हिलाने लगा। उसकी पत्नी ने पूछा कि क्या मामला है? उसने कहा, यह हो ही नहीं सकता, यह कभी हो ही नहीं सकता, बिलकुल गलत है। बात क्या है?
कविता में पत्नी ने लिखा है--प्रेम की कविता है, प्रेमी के लिए लिखी है--कि मेरे प्रेमी का जो चेहरा है वह चांद-जैसा सुंदर है। आइंस्टीन ने कहा, हो ही नहीं सकता! चांद-जैसा! हो ही नहीं सकता। क्योंकि चांद बहुत बड़ा है। कहां आदमी का सिर, और कहां चांद! फिर चांद सुंदर भी नहीं है। बड़े खाई-खड्ड हैं। इससे कोई तुलना बैठती ही नहीं।
अब यह दो अलग भाषाएं हैं। आइंस्टीन गणित की भाषा बोल रहा है। कहां सिर, कहां चांद! कोई हिसाब भी तो हो! अंधेर कर रहे हो यह प्रतीक बनाकर। पत्नी भी चौंकी होगी। कोई भी कवि चौंकता। क्योंकि कवि सदियों से यही करते रहे हैं। चांद से ज्यादा सुंदर उन्होंने कुछ पाया ही नहीं अपनी प्रेयसी के चेहरे का निरूपण करने के लिए।
इतना ही नहीं कि उन्होंने चांद से प्रेयसी के चेहरे का निरूपण किया है, कोई तो अंधे और भी आगे निकल गये, उन्होंने चांद का निरूपण अपनी प्रेयसी के चेहरे से किया है। वे कहते हैं, चांद मेरी प्रेयसी के चेहरे-जैसा सुंदर।
मगर क्या तुम कहोगे वह गलत कहते हैं! वह देखने का ढंग और! वह शैली और! वह भाषा और! वह आयाम और! वे भी ठीक कहते हैं। कुछ है मेल चांद में और प्रेयसी के चेहरे में। वह मेल वजन का नहीं है, न आयतन का है, न क्षेत्र का है, न खाई-खड्डों का है, कुछ और है। कुछ एक सम्मोहन है। जो चांद की तरफ देखकर आंखें ठगी रह जाती हैं। बस वैसी ही आंखें ठगी प्रेयसी के चेहरे पर भी रह जाती हैं। चांद में कुछ है जो तुम्हारे हृदय को आंदोलित कर देता है। बेसुध कर देता है। वैसा ही कुछ प्रेमी के चेहरे में भी है, जो तुम्हें बेसुध कर देता है। उस अनजान की तुलना है। चांद से कुछ सुरा बहती है। इसीलिए तो चांद का दूसरा नाम है, सोम। सोमरस बहता है चांद से। इसलिए तो चांद के दिन को हम सोमवार कहते हैं। सोमरस बहता है चांद से। कुछ है, जो चांदनी रात में होता है, फिर कभी नहीं होता। जो पूरे चांद की रात में होता है, फिर कभी नहीं होता। कुछ पागल कर देने वाला, कुछ मतवाला कर देने वाला।
तुम जानकर चकित होओगे कि पूर्णिमा की रात को दुनिया में जितने लोग पागल होते हैं और किसी रात को पागल नहीं होते। इसलिए तो पागलों के लिए एक पुराना शब्द है--चांदमारा। अंग्रेजी में भी पागल के लिए शब्द है--लूनाटिक। वह भी चांद से बनता है--लूनार, चांद--और लूनाटिक--वह भी चांदमारा। चांद में कुछ है! सागर को आंदोलित कर देता है चांद। उठते हैं ज्वार। बड़ी लहरें आकाश छूने को! ठीक वैसा ही कुछ मनुष्य के हृदय-सागर में भी होता है। पूर्णिमा की रात को कुछ घटता है। पूरे चांद के साथ कुछ तुम्हारे भीतर काव्य, संगीत, नृत्य का जन्म होता है। वैसा ही प्रेयसी को देखकर होता है। लेकिन यह गणित का संबंध नहीं है। आइंस्टीन ठीक कहता है, और उसकी पत्नी भी ठीक कहती है। दोनों ठीक कहते हैं। लेकिन दोनों के ठीक, दो अलग-अलग भाषाओं के ठीक हैं। दो अलग-अलग आयाम, दो अलग-अलग व्यवस्थाओं के ठीक हैं। इसे खयाल रखना।
जो आदमी प्रेम में पड़कर समर्पित हो जाता है, शेष सबको अंधा मालूम होगा ही। क्योंकि वे गणित से चलने वाले लोग, तर्क से चलने वाले लोग; यह क्या पागलपन है! अब तुम जाओगे गैरिक-वस्त्रों में घर लौटकर, माला पहने हुए, लोग तुम्हें पागल कहेंगे। तुम चांदमारे। मेरे नाम का अर्थ चांद ही है! लूनाटिक--अब तुम पड़े मुश्किल में! अब तुम समझा न पाओगे। तुम समझाने बैठोगे तो तुम हारोगे, यह भी पक्का समझना। क्योंकि तर्क से कैसे समझाओगे? वह कहेंगे, पागल हो गये हो। अगर तुमने समझाने की कोशिश की, तो उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होगा कि तुम गलत हो। कुछ सिद्ध न हो सकेगा। तुम समझाना मत। तुम खुद ही स्वीकार कर लेना कि ठीक पहचाना, पागल हो गये हैं। इसके पहले कि वे हंसें, तुम खिलखिलाकर हंसना। तुम पाओगे कि वे गंभीर हो गये। इसके पहले कि वे कुछ कहें, कि तुम गुनगुनाना गीत, कि नाचना। वे अपने घर चले जाएंगे सोचकर कि ये महा.समझाने-बुझाने की बात ही न रही!
एक समझ की दुनिया है, जहां सीढ़ी-सीढ़ी तर्क चलता है। एक प्रेम की दुनिया है, जहां छलांगें चलती हैं, कुलांचें चलती हैं। दोनों की चाल इतनी अलग है कि दोनों कभी साथ नहीं चल पाते।
तर्क पदार्थ तक पहुंच पाता, प्रेम परमात्मा तक। परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। परमात्मा का एक ही प्रमाण है, वे लोग जो उसके प्रेम में पागल हो गये। और कोई प्रमाण नहीं है। परमात्मा को जानना है तो परमात्मा के प्रेम में पागल हो गये लोगों से पूछना पड़े। कोई तर्क नहीं है। कोई सिद्धांत नहीं है। कोई उपाय नहीं सिद्ध करने का। लेकिन, जब किसी व्यक्ति में वैसे प्रेम का जन्म होता है, तो जिनको हम आंखें कहते हैं वे तो बंद हो जाती हैं, लेकिन कोई और आंख खुलती है--उसी को तो तीसरी आंख कहते हैं--कोई और आंख खुल जाती है। वह किसी और ढंग से देखने लगता है।
तो स्वभावतः जिनको नहीं घटा है प्रेम, उन्हें प्रेमी पागल मालूम पड़े, अंधा मालूम पड़े; मगर अगर तुममें थोड़ी भी करुणा हो, तो भूलकर ऐसे शब्दों का प्रयोग मत करना।
इतना ही कहना: मुझे अभी घटा नहीं, मैं कुछ कह सकता नहीं। जिसको घटा है, वह जाने। और धन्यभाग समझना कि कुछ लोग हैं, जिनको परमात्मा अभी भी घटता है। क्योंकि उन्हीं में आशा है उन लोगों के लिए भी, जो अभी तर्क के जाल में और व्यामोह में भटक रहे हैं।
भक्त से पूछो , वह कहेगा--
मरा हूं हजार मरण
पायी तब चरण-शरण
तुम कहोगे, अंधा है। वह कहता है, हजारों बार मरकर यह चरण मिले हैं। बड़ी मुश्किल से मिले हैं।
मरा हूं हजार मरण
पायी तब चरण-शरण
बड़ी कीमत से पायी है उसने। जन्मों-जन्मों जिस हीरे को खोजा, अब पाया है। तुम कहोगे, पत्थर लिये बैठा है। हीरे को देखने के लिए जौहरी की आंख चाहिए।
मैंने सुना है, एक आदमी अपने गधे के गले में एक हीरा लटकाये चला जा रहा था। एक जौहरी ने देखा, चकित हो गया! लाखों का हीरा होगा और यह गधे के गले में लटकाये हुए है! उसने पूछा, क्या लेगा इस पत्थर का? उस आदमी ने कहा, एक रुपया दे दें। उस जौहरी ने कहा, चार आने में देना है? पत्थर है, करेगा क्या? उसने कहा अब चार आने तो रहने दो बच्चे खेल लेंगे! उस जौहरी ने सोचा कि आयेगा, चार आने भी कौन देने वाला है इसको! जौहरी जरा दो-चार कदम आगे चला गया, तभी तक दूसरा जौहरी आया। उसने एक हजार रुपये में वह खरीद लिया पत्थर। लौटकर जौहरी आया भागा हुआ, कहा क्या हुआ, बेच दिया? कितने में बेच दिया? उसने कहा, हजार रुपये में। पहले जौहरी ने कहा, पागल हुए हो! अरे, वह लाखों का हीरा था! उस गधे के मालिक ने कहा कि मैं पागल होऊं या न होऊं, मुझे तो पता नहीं कि वह हीरा था, इसलिए हजार में बेच दिया; तुझे तो पता था कि हीरा है, एक रुपये में लेने को तू राजी न हुआ!
हीरा अपने आप में थोड़े ही हीरा है! पड़ा रहता है हजारों वर्ष तक, जब तक कि किसी जौहरी की नजर में नहीं आता। जौहरी की नजर में आते ही हीरा हो जाता है। उसके पहले तो पत्थर ही था। और तुम्हारे पास जौहरी की नजर न हो, तो तुम्हारे लिए भी पत्थर है।
मरा हूं हजार मरण
पायी तब चरण-शरण
भक्त तो कहता है--
जो तुम्हें जाद-ए-मंजिल का पता देता है
अपनी पेशानी पे वो नक्शे-कदम लेके चलो
अपने माथे पर रख लो वे चरण, जिससे तुम्हें मार्ग मिला, जिससे तुम्हें राह मिली।
जो तुम्हें जाद-ए-मंजिल का पता देता है
जिसने तुम्हें खबर दी मंजिल की।
अपनी पेशानी पे वह नक्शे-कदम लेके चलो
लेकिन दूसरों को तो पागल ही लगेगा। दूसरे की तो समझ के बाहर होगा कि यह क्या हो रहा है?
दूसरे की चिंता मत करें। अगर समर्पण घटा हो, तो वह इतना बहुमूल्य है कि सारी दुनिया भी कहती हो कि तुम अंधे हो, तो समर्पित व्यक्ति कहेगा, अंधा होने को राजी हूं, लेकिन समर्पण छोड़ने को नहीं। अगर न घटा हो समर्पण अब तक जीवन में, तो जरा खोज-बीन करना कि क्या पाया है समर्पण-हीन जीवन में? क्या पाया है? कचरा ही कचरा, राख ही राख पाओगे। अंगारा भी न मिलेगा जलता हुआ एक। शास्त्रों की राख मिलेगी, सत्य का अंगारा न मिलेगा। परंपरा की धूल मिलेगी, परमात्मा का दर्पण न मिलेगा। तो अपने भीतर ही खोजना कि अब तक अंधविश्वास से जीये हैं, तो अब एक बार समर्पण की आंख से भी जीकर देख लें, यह नयी शैली भी अपना कर देख लें।
समर्पित व्यक्ति को तो धीरे-धीरे पता चलता है कि जो चरण उसने पकड़े थे, वह पराये चरण न थे; और जिसका हाथ अपने हाथ में लिया था, वह पराया हाथ न था। और जिसके साथ चल पड़े थे, वह अपनी ही नियति थी,अपना ही भविष्य था।
निराकार! जब तुम्हें दिया आकार, स्वयं साकार हो गया
युग-युग से मैं बना रहा था मूर्ति तुम्हारी अकल, अलेखी
आज हुई पूरी तो मैंने शकल खड़ी अपनी ही देखी।
लेकिन इससे भी बढ़कर अपराध कर गयी पूजन-बेला,
तुम्हें सजाने चला फूल जो, मेरा ही श्रृंगार हो गया।
तुम जिसे पकड़ रहे हो, वह तुम्हारे ही होने की संभावना है। अगर मेरे पास तुम्हें कुछ रस मिला है, तो रस मुझसे नहीं मिला है, वह तुम्हारे भीतर ही झरा है। अगर मेरे पास तुम्हें कुछ दिखायी पड़ा है, तो वह तुम्हारा ही भविष्य है, वह तुम्हारा ही आने वाला कल है, वह तुम्हारी ही संभावना है; तुम्हारी नियति, तुम्हारा भाग्य! अगर तुम मेरे सामने झुके हो, तो वह तुम अपने ही भविष्य के सामने झुके हो, जैसे बीज अपने ही फूल के सामने झुक जाए।
निराकार! जब तुम्हें दिया आकार स्वयं साकार हो गया
तुमने अगर किसी को महिमा दी, तुम महिमावान हो गये। तुमने अगर किसी को प्रभु कहकर पुकारा, उसी क्षण तुम्हारा प्रभु जन्मा। तुम अगर किसी चरण में झुके, तो तुम्हारे चरण किसी के लिए झुकने योग्य होने लगे।
निराकार! जब तुम्हें दिया आकार स्वयं साकार हो गया
युग-युग से मैं बना रहा था मूर्ति तुम्हारी अकल, अलेखी
आज हुई पूरी तो मैंने शकल खड़ी अपनी ही देखी।
जिस दिन तुम मेरे बिलकुल करीब आ जाओगे और मुझे ठीक से जान लोगे, उस दिन तुम पाओगे, अरे! पकड़ने दूसरे को चला था, यह तो अपने को ही पा लिया।
लेकिन इससे भी बढ़कर अपराध कर गयी पूजन-बेला
तुम्हें सजाने चला फूल जो, मेरा ही श्रृंगार हो गया।
तुमने जो भी श्रद्धा से, समर्पण से कहीं चढ़ाया है, वह तुम्हीं पर चढ़ गया है। तुम जहां भी श्रद्धा और समर्पण से आंख उठाये हो, वह तुम्हारे ही भविष्य का गृह है। वह तुम्हारे ही भविष्य, तुम्हारी ही संभावनाओं का सूत्र है। वह तुम्हारी नियति है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, आपने सिद्ध होकर क्या पाया? और क्या आप निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि परमात्मा है?
सिद्ध होकर कुछ पाया नहीं जाता। सब खो जाता है। कुछ बचता ही नहीं। वही पाना है। शून्य मिलता है सिद्ध होेकर। लेकिन वही शून्य पूर्ण का आवास है। पाने की भाषा में तो पूछो ही मत, क्योंकि वह लोभ की भाषा है। क्या पाया? कुछ भी नहीं पाया।
बुद्ध से किसी ने यही सवाल पूछा था। तो बुद्ध ने कहा, पाया! पाया कुछ भी नहीं। खोया जरूर। पूछने वाला चकित हुआ, उसने पूछा, खोया! पाया कुछ भी नहीं? बुद्ध ने कहा, पाया तो वही जो पहले से ही मिला हुआ था। पता न था, पहचान हुई। इसलिए उसको पाया, ऐसा कहना तो ठीक नहीं। जो जेब में ही पड़ा था, भूल गये थे, हाथ डाला, मिल गया। पाया क्या! था अपना, सदा से, पता न था, पता हुआ। बोध हुआ। उसी बोध से तो शब्द बुद्ध बना। बुद्ध ने कहा, परमात्मा को पाना नहीं है, सिर्फ बोध करना है। है तो है ही। मौजूद ही है। वही तुम्हें भरे है। वही तुम्हें घेरे है--बाहर-भीतर, सब दिशाओं में, चहुं-ओर--चहुं दिशाओं में। पाना नहीं है। पाने में तो ऐसा लगता है जैसे कि कहीं जाना है; जो है नहीं, उसे पाना है। नहीं, सिर्फ जागना है। जानना है, प्रत्यभिज्ञा करनी है।
और बुद्ध ने कहा, खोया बहुत। वह सब खोया, जो मेरे पास नहीं था और सोचता था कि है। इसे थोड़ा समझना, बड़ा विरोधाभास है। जो सोचता था कि नहीं है, वह था। और जो सोचता था कि है, वह नहीं है। अहंकार खोता है, आत्मा मिलती है। अहंकार कभी भी नहीं है, और आत्मा सदा है।
मुझसे पूछते हो, आपने सिद्ध होकर क्या पाया? पाया कुछ भी नहीं, खोया। पाने को यहां कुछ है ही नहीं। पाने की दौड़ ही संसार है। जब तक तुम पाने के पीछे पड़े हो, तब तक तुम संसार में रहोगे। इसलिए सांसारिक आदमी अगर धार्मिक भी होने लगता है, तो भी पूछता है, मिलेगा क्या?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं ध्यान तो करें, लेकिन मिलेगा क्या? स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। तुम पूछो तुलसीदास को कि क्या मिलता है? राम की कथा कहे चले जा रहे हो, पाया क्या? स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। वह कहेंगे, मौज है, मजा है, पाने का कोई सवाल ही नहीं। यह आनंद-भाव है। यह आनंद में खिले फूल हैं। पाने के लिए नहीं। यह कोई वासना नहीं है। कोई लोभ नहीं है। कोई पाने की दौड़ नहीं, कोई चाह नहीं है।
मिला कुछ भी नहीं, खोया बहुत। खोया सब। पूरा का पूरा खोया। लेकिन उस खो जाने में ही उसका आविर्भाव होता है, जो दबा था। इस कूड़े-कर्कट में जो दबा था हीरा, वह प्रकट हुआ। अपने से पूछो! मुझसे पूछते हो, सिद्ध होकर क्या पाया? मैं तुमसे पूछता हूं, संसारी होकर क्या पाया?
सब्जा-ओ-बर्गो-लाला-ओ-सर्वो-समन को क्या हुआ
सारा चमन उदास है, हाय चमन को क्या हुआ
मैं तुमसे पूछता हूं, इतने उदास हो, तुम्हें हुआ क्या? इतने दुखी, इतने कातर, इतने हारे-थके, इतने निराश!
सारा चमन उदास है, हाय चमन को क्या हुआ
मैं तुमसे पूछूं, इतने बीमार, इतने रोते, इतने परेशान, इतने पीड़ित, फिर भी तुम दौड़े चले जाते हो उन्हीं रास्तों पर, जिनसे पीड़ा ही मिली है; फिर भी दौड़े चले जाते हो उन्हीं पटरियों पर जिन पर नरक ही मिला! फिर भी दौड़े चले जाते उसी क्रोध, उसी माया, उसी लोभ, उसी मोह में, जिनसे सिवाय.सिवाय कांटों के और कुछ भी न छिदा! तुम मुझसे पूछते हो कि आपको क्या मिला? तुम्हारा दुख खो गया, वह मेरे पास नहीं है। तुम्हारे कांटे खो गये हैं, वे मेरे पास नहीं। तुमसे मैं अगर ठीक से कहूं, तो तुम्हारे पास जो है, वह मेरे पास नहीं है। इतना तो पक्का! वह खोया। कोई चाह नहीं, कुछ पाने की यात्रा नहीं, कोई दौड़ नहीं। अपने घर आ गये।
नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिये
घर मेरा बन गया खैयाम का घर आज की रात
नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिए!
तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता, यह जो शराब का तूफान तुम्हारे सामने है?
नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिए
घर मेरा बन गया खैयाम का घर आज की रात
शराब बरसी। मधुशाला मिली। लेकिन यह मिलन कुछ ऐसा नहीं कि अपना न था, पहचान हुई। सदा से अपना ही था। खजाना अपना था, चाभी अपने हाथ में थी, ताला खोलना भूल गये थे। याद आ गयी, स्मरण हुआ, सुरति आयी। संसार खोया, परमात्मा मिला, ऐसा कहना गलत होगा। परमात्मा मिला ही हुआ था। संसार की उधेड़-बुन में भूल गये थे घर की याद। बाजार में खो गये थे।
ऐसा हुआ दूसरे महायुद्ध में। एक आदमी चोट खाकर गिरा युद्ध के स्थल पर, उसकी स्मृति खो गयी। जब युद्धस्थल से उसे उठाकर लाया गया, तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो गयी। युद्धस्थल में उसका तगमा, उसका नंबर भी कहीं गिर गया। और उसकी स्मृति भी खो गयी। अब वह कौन है, यह भी न बता सके। उसका नाम-धाम भी उसे पता न रहा। वह युद्ध के भी किसी काम का न रहा। लेकिन उसे भेजें कहां? उसके घर का भी कोई पता नहीं। फिर किसी ने सलाह दी--मनोवैज्ञानिक ने--कि इंग्लैंड कोई बहुत बड़ा देश नहीं है, इसको ट्रेन में बिठाकर सारे इंग्लैंड में घुमाया जाए। संभव है अपने गांव के स्टेशन पर पहुंचे तो याद आ जाए। बात काम कर गयी। उसे ले जाया गया स्टेशन-स्टेशन। जो लोग ले गये थे वे भी थक गये। क्योंकि हर स्टेशन पर ले जाकर उसको उतारकर खड़ा कर देते, वह खड़ा देखता रह जाता।
लेकिन एक छोटे गांव के स्टेशन पर उतारना न पड़ा। जैसे ही उसे गांव की तख्ती दिखाई पड़ी, अरे! उसने कहा, मेरा गांव! वह नीचे उतरकर भागने लगा। लोगों ने उसे रोकना भी चाहा, उसने कहा, रोको मत! अब मुझे जाने दो। मेरा गांव आ गया। जो मनोवैज्ञानिक उसे लेकर घूम रहे थे, वह उसके पीछे गये। वह सीधा भागता हुआ, गांव की गलियों को पार करता हुआ, अपने घर के द्वार पर पहुंच गया। उसने कहा, यह रहा मेरा घर। वह मेरी मां बैठी है।
क्या हुआ? पड़ी थी याददाश्त गहन में। वह नामपट स्टेशन का चोट कर गया।
इसीलिए तो जानने वालों ने कहा है, परमात्मा को पाना थोड़े ही है, सिर्फ स्मरण करना है। सुमिरण कीजै। सुरति जगाइये। स्मृति भरिये। पड़ा है गहन में तुम्हारे, पुकारिये, चिल्लाइये, आवाज लगाइये। किसी क्षण मेल खा जाएगा, किसी क्षण स्मरण पकड़ जाएगा, किसी क्षण तुम्हारी पुकार के कुंदे में उलझा हुआ ऊपर आ जाएगा। भागने लगोगे--यह रहा घर, यह आ गया घर; खोया संसार, पाया उसे जो मिला ही हुआ था।
नग्मा-ओ-मय का ये तूफाने-तरब क्या कहिये
घर मेरा बन गया खैयाम का घर आज की रात।
पाने वाले को कुछ नहीं मिलता। खोने वाले को सब कुछ मिलता है। पानेवाले भटकते हैं, रोते हैं, झींखते हैं; खोने वाला भर जाता है, पूरा हो जाता है।
तुझे ढूंढ़ता हूं तेरी जुस्तजू है
मजा है कि खुद गुम हुआ चाहता हूं
तुम अगर ढूंढ ही रहे हो, खोज ही रहे हो, तो न पा सकोगे।
मजा है कि खुद गुम हुआ चाहता हूं
परमात्मा की खोज अपने को खोने की खोज है। परमात्मा को पाने का उपाय स्वयं को डुबाना और मिटाना है। तुम जब तक हो, परमात्मा न हो सकोगे। तुम्हीं तो बैठे परमात्मा की छाती पर पत्थर होकर। हटो, जगह खाली करो! तुम पत्थर की तरह हटे कि परमात्मा का झरना फूटा।
अब तुम पूछते हो: ‘आप निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि परमात्मा है?’
निश्चयपूर्वक तो नहीं कह सकता। उसका कारण है। क्योंकि निश्चयपूर्वक हम उन्हीं बातों को कहते हैं, जिनका कुछ अनिश्चय होता है। सरलतापूर्वक कह सकता हूं कि परमात्मा है, निश्चयपूर्वक नहीं! क्योंकि अनिश्चय मुझे जरा भी नहीं है, तो निश्चय किसके खिलाफ खड़ा करूं? जब हम कहते हैं, दृढ़ता से, तो उसका मतलब यह होता है कि भीतर कुछ कमजोरी पड़ी है। जब हम कहते हैं निश्चय से, तो उसका मतलब यह होता है कि भीतर कुछ अनिश्चय है।
सरलता से कहता हूं। ध्यान रखना मेरा वचन, सरलता से कहता हूं--परमात्मा है। परमात्मा ही है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।

आज इतना ही।

Spread the love