MAHAVIR
Jin Sutra 16
Sixteenth Discourse from the series of 62 discourses - Jin Sutra by Osho. These discourses were given during MAY 11 - AUG 10 1976.
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पहला प्रश्न:
कल आपने बताया कि महावीर ने प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया, क्योंकि लोग उसका गलत अर्थ लेते हैं--और यह कि आज लोग अहिंसा का गलत अर्थ लेते हैं, इसलिए आप प्रेम शब्द का उपयोग करते हैं। पर जैसा लोग महावीर के समय में प्रेम शब्द का गलत अर्थ करते थे, क्या आज भी वही स्थिति नहीं है? और आपके द्वारा सर्वाधिक उपयुक्त शब्द, प्रेम, क्या आज भी खतरे से भरा नहीं है?
शब्द-मात्र खतरे से भरा है। क्योंकि जैसे ही बोला गया शब्द, बोलने वाले की मालकियत उस पर समाप्त हो जाती है; सुनने वाला मालिक हो जाता है। कुछ मैंने कहा, कहते ही मैं मालिक नहीं रहा; सुनते ही तुम मालिक हो गये। अब तुम क्या अर्थ करोगे--तुम पर निर्भर है।
तो जो शब्दों से डरते हों, उन्हें तो बोलने का ही उपाय नहीं है। क्योंकि अर्थ मैं नहीं डाल सकता; अर्थ तो तुम डालोगे। मेरा अर्थ तो मेरे हृदय में रह जायेगा; शब्द की खाली खोल तुम तक जायेगी; आत्मा फिर तुम उसमें डालोगे। तो अर्थ तो सदा तुम्हारा होगा। और चूंकि तुम उपद्रव से ग्रस्त हो, तुम जो भी अर्थ डालोगे वह भी उपद्रव-ग्रस्त होगा। क्योंकि तुम बड़े भ्रांत हो, तुम्हारे अर्थ भ्रांत ही होंगे। तुम गलत ही निकाल लोगे।
तो इसका तो यह अर्थ हुआ कि जिन्होंने जाना है, वे चुप रह जायें। लेकिन चुप रह जाने का भी तुम अर्थ करोगे कि क्यों चुप रह गये। बुद्ध ने बहुत-से प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये--सिर्फ इस कारण कि उन प्रश्नों के उत्तर लोगों को गलत अर्थों में ले जाते हैं। तो बुद्ध के मरने के बाद जो सबसे बड़ा विवाद बुद्ध के अनुयायियों में उठा, वह यह था कि बुद्ध इन प्रश्नों के संबंध में चुप क्यों रह गये! और बुद्ध-धर्म के जो खंड-खंड टुकड़े हुए, वह उनके चुप रह जाने की वजह से हुए। क्योंकि किसी ने कहा कि वे चुप रह गये, क्योंकि जो उन्होंने जाना वह शब्द में प्रकट करने योग्य न था। किसी ने कहा, वे चुप रह गये, क्योंकि वहां जानने को ही कुछ नहीं है; प्रकट करने का सवाल ही नहीं है। किसी ने कहा, वे चुप रह गये, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं चला, तो बोलते क्या?
चुप्पी का भी तो तुम अर्थ करोगे! तो अर्थ से तो बचा नहीं जा सकता। तो उपाय क्या है? उपाय यही है कि जिसे जो शब्द ठीक लगे, वह उसका उपयोग करे और सब तरह से, हर दिशा से, उस शब्द को परिभाषित करे। जितने दूर तक संभव हो तुम्हें मौका न दे कि तुम अपना अर्थ प्रवेश कर पाओ। इस तरह की परिभाषा करे, सब तरफ से इस तरह का पहरा बिठाये शब्द पर, फिर भी अगर तुम गलत अर्थ करना चाहो तो करोगे ही।
लेकिन सत्य का गलत उपयोग होगा, इस डर से सत्य बोलने से नहीं रुका जा सकता। सौ में निन्यानबे लोग गलत अर्थ कर लेंगे, कोई हर्ज नहीं; वह जो एक ठीक अर्थ कर लेगा, तो भी सार्थक है बोलना। क्योंकि वे जो निन्यानबे गलत अर्थ कर रहे हैं, न सुनते तो भी गलत होते, कुछ बिगड़ा नहीं है। वे गलत थे, इसलिए गलत अर्थ किया; गलत अर्थ के कारण गलत नहीं हो गये हैं। इसलिए अगर उन्होंने गलत अर्थ किया तो उनकी जिंदगी में कुछ और बिगाड़ नहीं आ जायेगा। वे बिगड़े थे, बिगड़े रहेंगे। लेकिन वह जो सौ में एक भी अगर सुन लेगा, राजी होगा, उठेगा, चलेगा, तो पर्याप्त है। सौ सुनने वालों में अगर एक भी जग जाये, तो सार्थक हो गया श्रम। निन्यानबे की फ्रिक करने की कोई जरूरत नहीं है।
कल आपने बताया कि महावीर ने प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया, क्योंकि लोग उसका गलत अर्थ लेते हैं--और यह कि आज लोग अहिंसा का गलत अर्थ लेते हैं, इसलिए आप प्रेम शब्द का उपयोग करते हैं। पर जैसा लोग महावीर के समय में प्रेम शब्द का गलत अर्थ करते थे, क्या आज भी वही स्थिति नहीं है? और आपके द्वारा सर्वाधिक उपयुक्त शब्द, प्रेम, क्या आज भी खतरे से भरा नहीं है?
शब्द-मात्र खतरे से भरा है। क्योंकि जैसे ही बोला गया शब्द, बोलने वाले की मालकियत उस पर समाप्त हो जाती है; सुनने वाला मालिक हो जाता है। कुछ मैंने कहा, कहते ही मैं मालिक नहीं रहा; सुनते ही तुम मालिक हो गये। अब तुम क्या अर्थ करोगे--तुम पर निर्भर है।
तो जो शब्दों से डरते हों, उन्हें तो बोलने का ही उपाय नहीं है। क्योंकि अर्थ मैं नहीं डाल सकता; अर्थ तो तुम डालोगे। मेरा अर्थ तो मेरे हृदय में रह जायेगा; शब्द की खाली खोल तुम तक जायेगी; आत्मा फिर तुम उसमें डालोगे। तो अर्थ तो सदा तुम्हारा होगा। और चूंकि तुम उपद्रव से ग्रस्त हो, तुम जो भी अर्थ डालोगे वह भी उपद्रव-ग्रस्त होगा। क्योंकि तुम बड़े भ्रांत हो, तुम्हारे अर्थ भ्रांत ही होंगे। तुम गलत ही निकाल लोगे।
तो इसका तो यह अर्थ हुआ कि जिन्होंने जाना है, वे चुप रह जायें। लेकिन चुप रह जाने का भी तुम अर्थ करोगे कि क्यों चुप रह गये। बुद्ध ने बहुत-से प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये--सिर्फ इस कारण कि उन प्रश्नों के उत्तर लोगों को गलत अर्थों में ले जाते हैं। तो बुद्ध के मरने के बाद जो सबसे बड़ा विवाद बुद्ध के अनुयायियों में उठा, वह यह था कि बुद्ध इन प्रश्नों के संबंध में चुप क्यों रह गये! और बुद्ध-धर्म के जो खंड-खंड टुकड़े हुए, वह उनके चुप रह जाने की वजह से हुए। क्योंकि किसी ने कहा कि वे चुप रह गये, क्योंकि जो उन्होंने जाना वह शब्द में प्रकट करने योग्य न था। किसी ने कहा, वे चुप रह गये, क्योंकि वहां जानने को ही कुछ नहीं है; प्रकट करने का सवाल ही नहीं है। किसी ने कहा, वे चुप रह गये, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं चला, तो बोलते क्या?
चुप्पी का भी तो तुम अर्थ करोगे! तो अर्थ से तो बचा नहीं जा सकता। तो उपाय क्या है? उपाय यही है कि जिसे जो शब्द ठीक लगे, वह उसका उपयोग करे और सब तरह से, हर दिशा से, उस शब्द को परिभाषित करे। जितने दूर तक संभव हो तुम्हें मौका न दे कि तुम अपना अर्थ प्रवेश कर पाओ। इस तरह की परिभाषा करे, सब तरफ से इस तरह का पहरा बिठाये शब्द पर, फिर भी अगर तुम गलत अर्थ करना चाहो तो करोगे ही।
लेकिन सत्य का गलत उपयोग होगा, इस डर से सत्य बोलने से नहीं रुका जा सकता। सौ में निन्यानबे लोग गलत अर्थ कर लेंगे, कोई हर्ज नहीं; वह जो एक ठीक अर्थ कर लेगा, तो भी सार्थक है बोलना। क्योंकि वे जो निन्यानबे गलत अर्थ कर रहे हैं, न सुनते तो भी गलत होते, कुछ बिगड़ा नहीं है। वे गलत थे, इसलिए गलत अर्थ किया; गलत अर्थ के कारण गलत नहीं हो गये हैं। इसलिए अगर उन्होंने गलत अर्थ किया तो उनकी जिंदगी में कुछ और बिगाड़ नहीं आ जायेगा। वे बिगड़े थे, बिगड़े रहेंगे। लेकिन वह जो सौ में एक भी अगर सुन लेगा, राजी होगा, उठेगा, चलेगा, तो पर्याप्त है। सौ सुनने वालों में अगर एक भी जग जाये, तो सार्थक हो गया श्रम। निन्यानबे की फ्रिक करने की कोई जरूरत नहीं है।