GULAL
Jharat Dashahun Dis Moti 19
Nineteenth Discourse from the series of 21 discourses - Jharat Dashahun Dis Moti by Osho. These discourses were given during JAN 21 - FEB 10 1980.
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सरन संभारि धरि चरनतर रहो परि,
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
प्रेम सों प्रीति करू, नाम को हृदय धरू,
जोर जम काल सब दूर जाहीं।।
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
रहो अडोल कहुं डोल नाहीं।।
कहै गुलाल किरपा कियो सतगुरु,
परयो अथाह लियो पकरि बाहीं।।
भक्ति-परताप तब पूर सोइ जानिये,
धर्म अरु कर्म से रहत न्यारा।।
राम सों रमि रह्यो जोति में मिलि रह्यो,
दुंद संसार को सहज जारा।।
भर्म भव मारिकै क्रोध को जारिकै,
चित्त धरि चोर को कियो यारा।।
कहै गुलाल सतगुरु किरपा कियो,
हाथ मन लियो तब काल मारा।।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
मणियां हैं सुंदर, अति सुंदर
मणियों की है ज्योति अनश्वर,
शोभा की अनदिखी राशि वर देख तनिक यह जाओ।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
दीप्त कौन था इनसे सागर,
किस मांझी के कला-कुशल कर
ढूंढ इन्हें लाए हैं बाहर, यह मुझसे सुन जाओ।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
सागर मानव का अंतस्तल
भरा भावना का जिसमें जल,
उसमें था कविता मुक्ता-दल, यह परखो, परखाओ!
मणियां बेच रहा हूं आओ!
कविवर मांझी इसके अंदर
उतर कल्पना की डोरी पर,
लाया है इनको चुन-चुन कर; इनका मूल्य लगाओ।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
मणियां कैसी सुंदर, सुंदर,
चमक, दमक, आभा की आकर!
सुषमा की इस अतुल राशि वर से निज हृदय सजाओ।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
इन्हें मोल लेना है निर्भर
केवल मन की भावुकता पर,
कभी नहीं व्यय लाख दाम कर; प्यार करो ले जाओ
मणियां बेच रहा हूं आओ!
सदगुरु सदा यही पुकार देते रहे हैं: मणियां बेच रहा हूं आओ! गुलाल कहते हैं: झरत दसहुं दिस मोती! गुलाल चाहते हैं कि तुम्हारी आंखें भी देख लें कि कितने अदभुत, कितने अलौकिक जगत में जीवन का यह परम अवसर तुम्हें मिला है। इसे ऐसे ही न गंवा देना। यह हीरे जैसा जीवन मिट्टी में न खो जाए। साधारणतः मिट्टी में ही खो जाता है। बहुत थोड़े से लोग ही इसके मूल्य को पहचान पाते हैं। थोड़े से जौहरी।
सदगुरुओं की पुकार जौहरियों के लिए है। और ये मोती ऐसे नहीं हैं कि दामों से खरीदे जा सकें।
इन्हें मोल लेना है निर्भर
केवल मन की भावुकता पर,
कभी नहीं व्यय लाख दाम कर; प्यार करो ले जाओ।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
प्रेम के अतिरिक्त और इन्हें पाने का कोई उपाय नहीं है। लोग और सब तरह से इन्हें पाने की चेष्टा करते हैं। तर्क से पाने की चेष्टा करते हैं। तर्क तो प्रेम से बिलकुल विपरीत है। तर्क तो चूकने का सुनिश्चित उपाय है। जिसने तर्क से जीवन को समझना चाहा उसके हाथ से तो जीवन बिलकुल ही छूट जाएगा। तर्क से कोई पाता नहीं जीवन को, गंवाता है। तर्क है मस्तिष्क की बात और प्रेम है हृदय की। तर्क है परिधि, प्रेम है तुम्हारा प्राण। ये बातें तो प्राणों की हैं। ये बातें बातें नहीं हैं, ये विचार विचार नहीं हैं। विचार तो केवल वाहन हैं, शब्द तो केवल संकेत हैं; जिस ओर संकेत है, वह शब्द में बंधता नहीं। जिस ओर इशारा है, उसे विचार में प्रकट करने का कोई उपाय नहीं है। बड़े असमर्थ उपाय हैं ये। पर चूंकि और कोई विकल्प नहीं है इसलिए कहना पड़ता है। मौन तो तुम समझोगे नहीं, इसलिए कहना पड़ता है।
और कहने को भी तुम कहां समझ पाते हो? तुम कुछ का कुछ समझ लेते हो। ऐसा नहीं है कि तुम बुद्धों के पास नहीं गुजरे; जन्मों-जन्मों में असंभव है यह बात कि तुम किसी बुद्ध, किसी महावीर, किसी कबीर, किसी नानक, किसी गुलाल के करीब न आए होओ, किसी गुलाल ने गुलाल तुम्हारे ऊपर भी उड़ाई होगी, मगर तुम धूल-धूसरित हो, गुलाल का कहीं कोई तुम पर अंकन नहीं। कोई कबीर तुम्हें भी पुकारा होगा, मगर तुम बहरे हो, तुमने सुना नहीं। तुम सुनते भी हो तो कुछ का कुछ सुनते हो। करीब भी आ जाते हो तो गलत कारणों से करीब आते हो। और गलत कारण से जो करीब आया, वह करीब आकर भी करीब नहीं आ पाता।
ग्वालियर से कल एक महिला मुझे मिलने आई। ग्वालियर से यहां तक आना, श्रम तो लिया ही! पच्चीस वर्ष पहले विश्वविद्यालय में मेरे साथ पढ़ती थी। पच्चीस वर्षों में तो खोज-खबर उसने कभी ली नहीं। फिर भी कोई बात नहीं, पच्चीस वर्ष बाद भी खबर आ गई, सुबह का भूला सांझ को भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहते। मगर घर आकर भी कोई लौट जाए, तो उसे क्या कहो! वह महिला प्रोफेसर है ग्वालियर में अब। उसने आकर ही कहा कि निजी एकांत में मुझे मिलना है। मैं कोई साधारण नहीं हूं, मैं उनके साथ पढ़ी हूं।... अब साथ पढ़ना तो सांयोगिक है। न तो मेरे कारण वह मेरे साथ पढ़ी, न उसके कारण मैं उसके साथ पढ़ा, यह बिलकुल संयोग की बात थी कि हम एक ही विश्वविद्यालय में थे और एक ही कक्षा में पड़ गए। इसमें कुछ गुण नहीं है। यह कोई बात हमारे हाथ की नहीं थी। यह तो यूं ही समझो कि ट्रेन में तुम सवार हुए और भी लोग सवार हैं, एक ही डिब्बे में मिल गए दो लोग, थोड़ी देर साथ यात्रा हो ली, इसमें कुछ विशिष्टता नहीं हो जाती... लेकिन एकांत चाहिए, अलग से बात करूंगी। लक्ष्मी ने कहा कि मैं तो केवल संन्यासियों से ही मिलता हूं। और पुराने को बिसारो अब! भूली ताहि बिसार दे! चलो, आश्रम घुमा दें, प्रवचन में आ जाओ, फिर भाव होगा तो दर्शन में आ जाना। और भाव घना हो, संन्यास का साहस हो, तो मिलना भी हो जाएगा। वह उठ कर खड़ी हो गई। उसने कहा, जब पुरानी बातें ही खत्म हो गईं, जब भूलने-बिसारने की बात है, तो मुझे आश्रम देखना भी नहीं। मुझे आश्रम देखना भी नहीं, मुझे मिलना भी नहीं। वह महिला उठ कर चली गई। प्रवचन सुनना भी नहीं। प्रवचन मुझे क्या सुनना, मैं तो उनके साथ पढ़ी हूं!
मंदिर के द्वार पर भी आकर कोई लौट जा सकता है। सीढ़ियां चढ़ कर भी कोई उतर जा सकता है। पहुंचते-पहुंचते कोई चूक जा सकता है।
और लोगों के आने के भी कारण बड़े अजीब-अजीब होते हैं।
कोई मुझे पत्र लिखता है कि हम आपको सुनने आते हैं, क्योंकि आपके बोलने का ढंग बहुत प्यारा है। मेरे ढंग को क्या करोगे? खाओगे? पीओगे? ओढ़ोगे? क्या करोगे? मेरा ढंग किस काम आएगा! मैं क्या कह रहा हूं, उसकी फिकर नहीं, ढंग पसंद आता है! ढंग तो असली बात नहीं है। कभी-कभी तो फकीर बड़े बेढंगे ढंग से बोले हैं। उनको तो तुम सुनोगे ही नहीं।
कोई लिखता है कि आपकी शैली सुंदर है, मन को भाती है। जैसे किसी को मेरे वस्त्र मन को भाते हों, और मुझसे कुछ लेना-देना नहीं। किसी को आभूषण भाते हों और व्यक्ति से कोई संबंध नहीं। शैली से क्या प्रयोजन है? शैली की उपादेयता क्या है? यहां कोई शब्दों का लेन-देन हो रहा है? यहां अज्ञात के अवतरण की अभीप्सा की जा रही है। यहां परमात्मा को पुकारा जा रहा है। और तुम शैली में अटकोगे?
कि कोई कहता है कि आपकी कहानियां बड़ी मधुर, हमारे हृदय को छूती हैं। उदास आते हैं तो हंसते हुए लौट जाते हैं। तुम्हारी उदासी दो कौड़ी की है, तुम्हारी हंसी भी दो कौड़ी की। तुम अभी सोए हुए हो, तो तुम तुम्हीं दो कौड़ी के। जागो! हंसी और उदासी का सवाल नहीं है। मैंने कोई कहानी कही और तुम हंस लिए, इससे क्या होगा? दो क्षण के लिए मन बहल जाएगा, मनोरंजन हो जाएगा। यहां कोई तुम्हारा मनोरंजन कर रहा है? मैं तुम्हारा मनोभंजन करना चाहता हूं, तुम मनोरंजन कर रहे हो!
स्टेशन पर पूछताछ विभाग में एक महिला गोद में एक छोटे बच्चे को लेकर पहुंची और बोली कि श्रीमान, क्या आप बता सकते हैं कि बंबई की ओर जाने वाली गाड़ी कितने बजे जाएगी? वह पूछताछ विभाग का अधिकारी कुछ-कुछ हकलाता था, अतः बोला: त् त् तीन बज कर प् प् पचास मिनट पर। पांच-दस मिनट बाद वह युवती फिर आई और बोली कि श्रीमान, क्या आप बता सकते हैं कि बंबई की ओर जाने वाली गाड़ी कितने बजे जाएगी? अधिकारी ने फिर जवाब दिया कि त् त् तीन बज कर प् प् पचास मिनट पर। युवती चली गई।
पांच-दस मिनट बाद युवती फिर आ पहुंची।
ऐसा करीब पांच-छह दफा हुआ। अधिकारी हर बार कहे कि त् त् तीन बज कर प् प् पचास मिनट पर। और युवती पांच-दस मिनट बाद फिर आ जाए। आखिर अधिकारी ने झल्लाते हुए स्वर में कहा: मै-मै-मैडम, आखिर कि-कि-कितने बार पूछेंगी? कि-कि-कितनी बार तो कह चुका कि ब्-ब्-बंबई की ओर जाने वाली गाड़ी त् त् तीन बज कर प् प् पचास मिनट पर जाएगी। युवती बोली कि दरअसल बात यह है श्रीमान जी कि यह तो मेरी समझ में आ गया कि बंबई की ओर जाने वाली गाड़ी कब आएगी, कब जाएगी, पर मेरे बच्चे को आपका त् त् तीन बज कर और प् प् पचास मिनट पर कहना बहुत अच्छा लगा। तो वह बार-बार जिद करता है कि मम्मी, मुझे उसके मुंह से त् त् तीन बज कर प् प् पचास मिनट पर फिर सुनना है। तो इसकी जिद के कारण मुझे बार-बार आना पड़ता है। आप क्षमा करें!
शैली का क्या मूल्य है? छोटे बच्चों की तरह हैं लोग, बूढ़े हो जाएं तो भी। कोई शब्दों में उलझ जाएगा, कोई सिद्धांतों में उलझ जाएगा, कोई शैली में उलझ जाएगा, कोई बोलने के ढंग में उलझ जाएगा, कोई कहानियों में, कोई कविताओं में। मगर मैं जो तुमसे कहना चाहता हूं, वह तुम कब सुनोगे? ये सब तो सुनने से बचने की विधियां हैं। ये सब तो तरकीबें हैं कि कैसे हम सुनने से बच जाएं। ये तो उलझाव हैं। ये तो अटकाव हैं। ऐसे तुमने कितने जन्म गंवाए। यह भी गंवा देना है! ऐसे ही तुम भटकते रहे हो न मालूम कितने रास्तों पर। मौके आते रहे और तुम चूकते रहे। फिर एक मौका आया है। इस मौके को चूक मत जाओ! छोटी-मोटी बातों में मत चूक जाओ।
ग्वालियर से आई इस महिला पर मुझे दया आई। पच्चीस वर्ष पहले जो व्यक्ति था, अब कहां है? पच्चीस वर्ष में गंगा का कितना पानी बह गया! और पच्चीस वर्ष पहले भी यह महिला जब मेरे साथ पढ़ती थी, तब भी मुझे याद नहीं आता कि कभी मेरे और उसके बीच बात हुई हो। तब भी हम अजनबी थे। अब भी अजनबी हैं। लेकिन चूंकि एक ही कक्षा में बैठते थे, चूंकि एक ही कमरे में बैठते थे, यह पर्याप्त हो गया उसके लिए कारण इतने दूर आने और लौट जाने के लिए। यह तो मूढ़ता हो गई! मगर प्रोफेसरों से इससे ज्यादा की आशा की भी नहीं जा सकती। दंभ, अहंकार अजीब-अजीब मांगे करता है।
घड़ी घड़ी गिन, घड़ी देखते काट रहा हूं जीवन के दिन,
क्या सांसों को ढोते-ढोते ही बीतेंगे जीवन के दिन?
सोते-जगते, स्वप्न देखते रातें तो कट भी जाती हैं,
पर यों कैसे कब तक, पूरे होंगे मेरे जीवन के दिन?
कुछ तो हो, हो दुर्घटना ही मेरे इस नीरस जीवन में!
और न हो तो लगे आग ही इस निर्जन बांसी के वन में!
ऊब गया हूं, सोते-सोते, जागे मुझे जगाने लपटें,
गाज गिरे, पर जगे चेतना प्राणहीन इस मन-पाहन में!
हाहाकार कर उठे आत्मा, हो ऐसा आघात अचानक,
वाणी हो चिर-मूक, कहीं से उठे एक चीत्कार भयानक!
बेध कर्णयुग बधिर बना दे उन्हें, चौंक आंखें फट जाएं,
उठे एक आलोक झुलसता, रवि ज्यों नभ के, वह दृग-तारक
कुछ न हुआ! भू-गर्भ न फूटा! हाय न पूरी हुई कामना!
आंखों का अब भी दीवारों से होता है रोज सामना!
कल की तरह आज भी बीता, कल भी रीता ही बीतेगा,
बिना जले ही राख हो गई धुनी रुई सी अचिर कल्पना!
बहुत कल बीत गए व्यर्थ! आने वाले कल भी ऐसे ही बिताने हैं या जागना है? या कि जीवन से नया परिचय करना है? या कि पहचानना है उसे जो जीवन में छिपा है? उस रहस्य का, उस विस्मय का अनुभव करना है? उस परम ज्योति के साथ एक होना है? या यूं ही क्षणभंगुर सपनों के साथ खेलते-खेलते जीवन का अंत कर लेना है? पानी के बबूलों में ही उलझे रहोगे? शब्द तो पानी के बबूले हैं। यह सारा संसार ही पानी का बबूला है। इस संसार में एक है कुछ, जो मिटता नहीं, वह है तुम्हारे भीतर छिपा हुआ साक्षी, द्रष्टा।
आज के सूत्र उसी द्रष्टा के संबंध में हैं। आज के सूत्र बड़े अदभुत हैं। एक-एक सूत्र अमृत जैसा है। इसे पी जाना। इसे प्रविष्ट हो जाने देना अंतर्तम तक। बिंध जाना इससे--जैसे कोई तीर लगे हृदय में और चुभता ही चला जाए और आर-पार हो जाए। गुलाल ने प्यारे शब्द कहे हैं, मगर आज के शब्दों की कोई तुलना नहीं। गुलाल के शब्द भी बाकी फीके पड़ जाते हैं आज के शब्दों के मुकाबले।
सरन संभारि धरि चरनतर रहो परि,
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
‘सरन संभारि धरि’... एक चीज सम्हाल लो, शरणागत होना सम्हाल लो, समर्पित होना सम्हाल लो, एक चीज सम्हाल लो कि अहंकार को हटा कर रख दो और गिर जाओ उस अनंत के चरणों में, इस जगत में इतना ही सम्हाल लिया तो सब सम्हाल लिया। मगर हम इससे उलटा ही करते हैं। अकड़े ही खड़े रहते हैं। अहंकार को सम्हालते हैं, शरणागति को नहीं, समर्पण को नहीं। मैं कुछ हूं, यह भाव लिए, यह बोझ लिए कितनी आपा-धापी करते हैं! मैं कुछ हूं, यह सिद्ध करने के लिए कितने उपाय करते हैं! कैसे-कैसे उलटे-सीधे उपाय करते हैं! आदमी कुछ भी करने को राजी है यह सिद्ध करने को कि मैं कुछ हूं। संत बनने को राजी है, चाहे कितना ही कष्ट देना पड़े। पापी बनने को राजी है, चाहे कितनी ही प्रताड़ना झेलनी पड़े, चाहे कितना ही प्रायश्चित्त करना पड़े--लेकिन मैं कुछ हूं!
एक जेलखाने में एक नया कैदी आया। कैदी काफी बढ़ गए थे, जेलखाने में जगह कम थी, तो एक-एक कोठरी में दो-दो कैदी रखे जा रहे थे। जो पहले से कैदी अपना बिस्तर जमाए हुए था, उसने अपने बिस्तर पर पड़े ही पड़े पूछा कि भाई, कितने दिन की सजा हुई है? नये आगंतुक ने कहा कि तीन साल की। तो कहा कि तू दरवाजे के पास ही बिस्तर लगा; हम बीस साल रहने वाले हैं इधर; तूने अपने को समझा क्या है!
जेलखाने में भी हिसाब होता है। बीस साल जो रहने वाला है, वह मतलब पहुंचा हुआ दादा है। तेरी औकात क्या? तीन साल! सिक्खड़ दिखता है! वहीं दरवाजे के पास लगा ले! तीन साल तो यूं गुजर जाएंगे। दरवाजे के पास से ही निकल जाना, जैसे आया वैसे ही चले जाना, यहां ज्यादा भीतर घुसने की जरूरत नहीं है।
अपराधी भी अपने अपराधों को बड़ा कर-कर के बताते हैं। क्योंकि छोटा कोई होना नहीं चाहता। अपराधी भी अपने अपराध को बड़ा करते हैं, इस जगत में ऐसा आश्चर्य है! क्योंकि वे भी कहना चाहते हैं कि हम कोई छोटे-मोटे अपराधी नहीं हैं, हम बड़े अपराधी हैं। जैसे साधु-संत भी अपने कृत्यों को बड़ा कर-कर के बताना चाहते हैं। दो-चार दिन का उपवास करेंगे, लेकिन गिनती कराएंगे चालीस दिन की। थोड़े-बहुत योगासन कर लेंगे, लेकिन बात यों करेंगे कि जैसे सैकड़ों वर्षों से हिमालय में साधना कर रहे थे।
एक यात्री पश्चिम से भारत आया हुआ था, किसी साधु की तलाश में। हिमालय गया। और कहां जाए! खबर मिली कि एक साधु बहुत प्राचीन; सात सौ वर्ष तो उसकी उम्र है। बड़ा प्रभावित हुआ। पहुंचा। देख कर लगा कि ज्यादा से ज्यादा साठ साल का होगा। बहुत हो तो सत्तर। सात सौ साल! पाश्चात्य वैज्ञानिक बुद्धि को यह बात समझ में आई नहीं। मगर भीड़ में बड़ा उत्सव चल रहा है, चरणों पर पैसे चढ़ाए जा रहे हैं, पूजा-आरती उतर रही है, उसने कहा कि पूछूं भी तो किससे पूछूं? खोज-बीन करके उसके पता लगाया कि एक आदमी इसकी सेवा करता है, वह इसके पास कई वर्षों से है। उसको पकड़ा एकांत में। उससे कहा कि भैया, एक बात पूछनी है, सच में तेरे गुरु की उम्र सात सौ वर्ष है? उसने कहा: भाई, मैं कुछ कह नहीं सकता, मैं तो केवल तीन सौ साल से उनके साथ हूं। तीन सौ साल तक की बात मैं कर सकता हूं, उसके आगे का मुझे पता नहीं! मगर जब मैं आया था तब भी वे ऐसे ही लगते थे जैसे अब लगते हैं।
उम्रें बढ़ा कर बताई जाएंगी। साधु-संत उम्रें बढ़ा कर बताएंगे। स्त्रियां उम्रें कम करके बताएंगी। मगर मामला एक ही है, भेद नहीं, बात वही है अहंकार की। स्त्री का मूल्य है उसकी उम्र के कम होने में। साधु-संतों का मूल्य है उनकी उम्र के ज्यादा होने में। जैसे कि उम्र के ज्यादा होने से कोई ज्ञानी हो जाता है! बुद्धू हो तो उम्र के ज्यादा होने से और बुद्धू हो जाओगे। और बुद्धूपन पक जाएगा। पहले कच्चा था, अब बिलकुल पक गया। उम्र के ज्यादा होने से कोई ज्ञान होता है! लेकिन उम्र के दावे होते हैं। स्त्रियां उम्र के संबंध में कम करके बताती हैं। अटकी ही रहती हैं। एक-एक साल बढ़ने में चार-चार, पांच-पांच साल लेती हैं।
एक जुआघर में दो महिलाएं प्रविष्ट हुईं। होगी पेरिस की घटना। पहली महिला उत्सुक थी दंाव लगाने को, दूसरी ने कहा कि दांव तो मैं भी लगाना चाहती हूं, लेकिन किस नंबर पर लगाना? पहली महिला ने कहा: मेरा तो हिसाब हमेशा एक है। अपनी उम्र के ही नंबर पर मैं लगाती हूं। जितनी उम्र, उतने नंबर पर लगाती हूं। और मैं अक्सर जीतती हूं। दूसरी ने कहा: मैं भी कोशिश करती हूं। उसने चौबीस नंबर पर दांव लगाया। यंत्र घूमा और छत्तीस पर रुका। वह स्त्री एकदम बेहोश होकर गिर पड़ी। उसने कहा: हे राम! इस यंत्र को कैसे पता चला कि मेरी उम्र छत्तीस है?
इतना फासला तो स्त्रियां रखती हैं। चौबीस और छत्तीस का फासला तो रहेगा ही। मगर बात वही है। स्त्रियां युवा हों तो उनका मूल्य है। और साधु जितने बूढ़े हों उतना उनका मूल्य है। तो साधु अपनी उम्रें बड़ी कर लेंगे। धन का मूल्य है, अगर तुम संसार में हो; अगर तुमने त्याग कर दिया, तो तुमने कितना धन छोड़ा, इसका मूल्य है। संसार में लोग धन के संबंध में झूठे आंकड़े बताए फिरते हैं। जो उनके पास नहीं है, दिखलाते हैं उनके पास है। और त्यागी झूठी बातें करते रहते हैं--जो उनके पास कभी था ही नहीं, कहते हैं उसको छोड़ दिया, उसका त्याग कर दिया।
अहंकार न मालूम कितने सूक्ष्म रास्तों से अपने को भरता है। पांडित्य से भर लेता है, धन से भर लेता है, त्याग से भर लेता है। इसके रास्ते बड़े बारीक हैं। और इसके रास्ते बड़े अचेतन हैं। शरणागति का अर्थ है इससे उलटा: सब परमात्मा पर छोड़ देना, कहना मैं तो कुछ भी नहीं हूं, तू ही है। गुलाल कहते हैं: ‘सरन संभारि धरि’, बस, एक बात सम्हाल कर रख लो तो संपदा बच गई, तो तुमने जीवन का सत्य पा लिया, शरण को सम्हाल लो। और तुम सम्हाल रहे अहंकार को! ‘चरनतर रहो परि’, शरणभाव रहे और गिर पड़ो चरणों में, अज्ञात के चरणों में। यह सिर उठाए-उठाए मत चलो। यह अकड़ ही तुम्हें ले डूबेगी। इस अकड़ ने कितनों को डुबाया। और जिन्होंने अकड़ छोड़ दी, वे तर गए, वे उस पार पहुंच गए।
सरन संभारि धरि चरनतर रहो परि,
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
दुनिया में बस एक ही जाल है, एक ही काल है, वह है तुम्हारा अहंकार। और कोई दूसरा काल नहीं, और दूसरा कोई जाल नहीं। संक्षिप्त से वचन में जैसे सारे शास्त्रों का सार आ गया--
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
मृत्यु भी अहंकार की। काल यानी मृत्यु। इसे समझना। अगर तुम अहंकार छोड़ दो तो तुम मर ही नहीं सकते। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हारा शरीर सदा रहेगा। शरीर तो मिट्टी है सो मिट्टी में गिरेगा। लेकिन तुम सदा रहोगे। लेकिन तुम सदा तभी रह सकते हो जब तुम तुम न रह जाओ, जब मैं में ‘मैं’ न रह जाए। जब तुम्हारे भीतर मैं-भाव मिट जाता है, तो कौन बचता है? जो बचता है, वही परमात्मा है। जो शेष रह जाता है, शून्य, वही पूर्ण है। उसकी कोई मृत्यु नहीं।
तुम क्यों मृत्यु से इतने घबड़ाए हुए हो? क्योंकि यह अहंकार कि मैं अलग हूं, भयभीत कर रहा है तुम्हें। आज नहीं कल मौत आएगी और मिटा कर रख देगी। और निश्चित ही मौत आएगी और अहंकार को मिटा कर रख देगी। क्योंकि अहंकार तो बस ताशों का घर है। ताश के पत्तों का घर है। जरा सा हवा का झोंका और गया। ऐसे घर में जो रहेगा, वह डरा-डरा रहेगा ही। ऐसे घर के बाहर निकल आओ, खुले आकाश के नीचे रहो, फिर गिरने का कोई भय नहीं, फिर दबने का कोई भय नहीं। अहंकार के भीतर रहना, एक झूठ के भीतर रहना है। और झूठ तो गिरेगी ही गिरेगी। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। कितना सम्हालोगे?
और झूठ को सम्हालने से सार क्या है! सिर्फ समय गंवाते हो। सिर्फ ऊर्जा गंवाते हो। इस झूठ को झूठ की तरह देख लो। मैं अलग नहीं हूं, तुम अलग नहीं हो, हम सब अस्तित्व के अंग हैं। जैसे सागर की लहरें, ऐसे हम सब एक ही सागर की लहरें हैं। जिस दिन यह जान लोगे, फिर क्या मिटने का डर! लहर मिट कर भी सागर में रहेगी। नदी डरती है सागर में उतरने से, क्योंकि उसका व्यक्तित्व खो जाएगा। गंगा गंगा न रहेगी, गोदावरी गोदावरी न रहेगी, सागर ही सागर हो जाएगा। और गंगा को कितना सम्मान मिला! कितने तीर्थ बने! कितना माहात्म्य! कितने गीत गाए गए! और सागर में मिलते वक्त गंगा डरेगी नहीं तो क्या होगा! घबड़ाएगी नहीं तो क्या होगा! चाहेगी रुक जाए। मगर कोई रुक सका है? आज नहीं कल सागर में गिरना ही होगा। और सागर में गिरे तो छूटे तट, छूटा पुराना तादात्म्य, छूटा पुराना नाम-धाम, पता-ठिकाना, गंगा गई, सागर में लीन हो गई। मगर मिटी थोड़े ही।
इस जगत में कुछ भी मिटता नहीं। तुम्हारा शरीर भी नहीं मिटेगा। सिर्फ मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। और तुम्हारी आत्मा भी नहीं मिटेगी। आत्मा परमात्मामय है। अगर कोई चीज मिटेगी तो वही मिटेगी जो है ही नहीं। अहंकार मिटेगा, जो कि तुम्हारी कल्पनामात्र है; जो कि तुमने व्यर्थ ही, झूठ ही खड़ा कर लिया है।
अहंकार नाम जैसा ही है। जैसे बच्चा पैदा होता है तो हम कुछ नाम दे देते हैं। नाम देना जरूरी है। इस संसार में उपयोगिता है। नहीं तो ढूंढोगे कहां? चिट्ठी-पत्री लिखनी हो और नाम न हो आदमी का! बाप को बेटे को बुलाना हो और बेटे का नाम न हो! कुछ तो नाम रखना ही पड़ेगा।
एक व्यक्ति ने उपन्यास लिखा। उपन्यास तो लिख गया बड़ा पुथंगा, मगर शीर्षक क्या दे, यह उसकी समझ में न आए। मेरे पास आया। उसका पुथंगा देख कर मैं भी डरा। शीर्षक देना हो तो पहले पुथंगा में उतरना पड़े, उसको देखना पड़े कि उसने लिखा क्या है! मैंने उससे कहा: ऐसा कर भैया, तू मुल्ला नसरुद्दीन के पास चला जा; वे बड़े कुशल हैं। वह चला गया और पांच ही मिनट बाद लौट आया और कहा कि उन्होंने तो एकदम से नाम बता दिया। हैं कुशल। नाम एकदम से बता दिया। मैंने कहा: क्या नाम रखा उन्होंने? उसने कहा कि बड़ा सुंदर नाम रखा है, आकर्षक है, एकदम मन को लुभाए: न ढोल, न नगाड़ा। मैंने कहा कि यह उसने पता कैसे लगाया? उसने कहा: कुछ नहीं, मुझसे पूछा कि इसमें ढोल की चर्चा तो नहीं है? मैंने कहा: नहीं। उसने कहा: नगाड़े की चर्चा तो नहीं है? मैंने कहा: नहीं। उसने कहा: बस तो फिर नाम तय हो गया: न ढोल, न नगाड़ा। अब पढ़ो, बेटा, जिसको भी पढ़ना है, आखिर में पता चलेगा कि न ढोल, न नगाड़ा। कुछ न कुछ तो नाम रखना ही पड़ेगा। तो मैंने कहा: बात तो ठीक है! काम चल जाएगा। ऐसे ही तो नाम रखने पड़ते हैं। न ढोल, न नगाड़ा।
बच्चा पैदा होता, हम नाम देते हैं। बच्चा कोई नाम लेकर आता नहीं। जैसे नाम देते हैं, ऐसे ही धीरे-धीरे, शनैः-शनैः हम उसे अहंकार देते हैं। हम उसे सिखाते हैं कि तू अलग है, तू पृथक है। हम उसे सिखाते हैं, तू विशिष्ट है। तू ब्राह्मण है, तू जैन है, तू हिंदू है, तू मुसलमान है। तू कुलीन घर में पैदा हुआ है, यह हमारी वंश-परंपरा बड़ी प्रतिष्ठित है, इस वंश-परंपरा में बड़े-बड़े लोग हो गए हैं, बड़ा नाम कर गए हैं, तुझे भी नाम कर जाना है, संसार में आया है तो कुछ नाम करके दिखा कर जाना, कुछ होकर रहना--हम उसे महत्वाकांक्षा सिखाते हैं। ये अहंकार के पाठ हैं। हम उसे स्कूल में भेजते हैं, जहां प्रथम आना है। प्रथम आओ तो सम्मान है। उत्तीर्ण हो जाओ तो सम्मान है। असफल हो जाओ तो असम्मान है।
सम्मान-अपमान अहंकार को सम्हालने के उपाय हैं। अपमान से हम कहते हैं कि तुम सम्हाल न पाए ठीक से। सम्मान से हम कहते हैं, खूब सम्हाला, ठीक सम्हाला; पुरस्कृत करते हैं। ऐसे पच्चीस वर्षों में हम धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अहंकार को मजबूत कर देते हैं। फिर यह व्यक्ति इसी अहंकार के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। एक झूठ, एक सरासर झूठ, जिस पर इसका सारा जीवन बलिदान हो जाएगा।
और तब मौत का डर लगता है। मैं हूं, तो डर लगता है कि मिटूंगा, चिता पर जलूंगा, प्राण कंपते हैं, भय पकड़ता है। इस भय में कैसे प्रेम पैदा हो? इस भय से कैसे भक्ति जगे? इस भय से तो जो भगवान भी जगता है, वह भी झूठा होता है। इस भय का ही रूपांतरण होता है, इस भय का ही प्रक्षेपण होता है।
गुलाल का सूत्र याद रखो:
सरन संभारि धरि चरनतर रहो परि,
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
बस, एक ही काल है, एक ही मृत्यु है, अगर अहंकार है। और अगर अहंकार है तो बहुत जाल पैदा हो जाएंगे। क्योंकि अहंकार मांगेगा: और धन लाओ, इतने से काम नहीं चलता, पड़ोसी के पास ज्यादा है; और बड़ा पद चाहिए, दूसरे लोग बड़े पदों पर पहुंच गए हैं।
एक मुर्गे ने अपने बाड़े की सारी मुर्गियों को इकट्ठा किया और कहा कि चलो मेरे पास आओ, कुछ कहना है! हालांकि मैं किसी का अपमान नहीं करना चाहता और न कोई ऐसी बात कहना चाहता हूं कि तुम्हें दुख पहुंचे, मगर सत्य को कहना ही पड़ेगा। पड़ोसी के बच्चे ने खेलते हुए एक फुटबॉल इस तरफ फेंक दी बाड़े में, उस फुटबॉल के पास मुर्गे ने सब मुर्गियों को इकट्ठा कर लिया और कहा, देखो, पड़ोसी की मुर्गियां कैसे अंडे दे रही हैं! तुम्हें दुख नहीं पहुंचाना चाहता, मगर कुछ ध्यान रखो। पड़ोस में क्या चमत्कार हो रहा है! और एक हम हैं कि वही छोटे-छोटे मुर्गे, छोटे-छोटे चूजे, छोटे-छोटे अंडे। इसको कहते हैं अंडा!... फुटबॉल।
लेकिन यही मनुष्य की भाषा है। पड़ोसी की बगिया की घास ज्यादा हरी मालूम होती है। पड़ोसी की स्त्री ज्यादा सुंदर मालूम होती है। पड़ोसी का मकान प्यारा लगता है। और हो सकता है पड़ोसी इसी तरह तुम्हारे प्रति जलन से भरा हो। उसे तुम्हारी घास सुंदर लगती है और तुम्हारी पत्नी प्यारी लगती है। उसे लगता है तुम्हारे जीवन में सुख ही सुख है, जैसा तुम्हें लगता है उसके जीवन में सुख ही सुख है। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। जितना दूर हो ढोल उतना ही सुहावना लगता है। पास पहुंच कर भद्द खुल जाती है। लेकिन तब तक हमें और ढोल दिखाई पड़ने लगते हैं जो दूर हैं। तब तक हम उनकी आकांक्षाओं से भर जाते हैं। एक वासना गिरती नहीं कि हजार नई वासनाएं खड़ी हो जाती हैं।
अहंकार जाल खड़े करता है। वह कहता है, इतने से धन से क्या होगा? इतने से धन से तो टुटपुंजिया समझे जाओगे! अरे, लोगों के पास करोड़ों हैं! जिसके पास हजार हैं, वह लाखों चाहता है; जिसके पास लाखों हैं, वह करोड़ों चाहता है; जिसके पास करोड़ों हैं, वह अरबों चाहता है; जिसके पास अरबों हैं, वह खरबों की दौड़ में लगा है--दौड़ का जैसे कोई अंत ही नहीं है। जिंदगी का अंत है, दौड़ का अंत नहीं। इसलिए हर आदमी अतृप्त मरता है, असंतुष्ट मरता है, पीड़ा में मरता है, दीन-हीन मरता है, रोता हुआ मरता है कि कुछ भी तो न कर पाया। बड़ी आकांक्षाएं लेकर चलते हैं और सब आकांक्षाएं धीरे-धीरे व्यर्थ हो जाती हैं। और ऐसा नहीं कि हम दौड़ते कम हैं, और ऐसा भी नहीं कि हम श्रम कम करते हैं, श्रम हम करते हैं, दौड़ते भी हम हैं, मगर आकांक्षाओं के जगत में कोई मंजिल होती ही नहीं, मार्ग ही होता है--सिर्फ मार्ग, जो गोल-गोल घुमाता रहता है। उसको ही जाल कहा है।
और फिर एक जाल हो तो भी ठीक, जाल में जाल हैं, बहुत जाल हैं। एक से बचते हैं तो दूसरा जाल पकड़ लेता है। दूसरे से बचते हैं तो तीसरा पकड़ लेता है। जैसे मकड़ी अपने भीतर से ही जाले को बुनती है, ऐसे ही हम अपने अहंकार से जाल निकालते हैं और बुनते जाते हैं। फिर खुद ही फंस जाते हैं। खुद ही चिल्लाते हैं: बचाओ, बचाओ! बचाने की कोई जरूरत नहीं है, अपने जाल समझ लो। अपना फैलाना बंद करो तुम, बचे ही हुए हो। कोई बचाने की जरूरत नहीं। किसी बचावनहारे की जरूरत नहीं। किसी क्राइस्ट की, किसी महावीर की, किसी बुद्ध की, कोई बचावनहारे की जरूरत नहीं है। अपना जाल समेट लो! बहुत फैला लिया है जाल। अब तुम्हें भरोसा ही नहीं आता कि इसको समेटा भी जा सकता है। इतना बड़ा हो गया है, तुमसे बहुत बड़ा हो गया है।
लेकिन तुमने फैलाया है तो समेटा भी जा सकता है। और समेटने की सबसे सुगम व्यवस्था है: जड़ को काट दो। जिस अहंकार से ये सारे पत्ते ऊगे हैं, उस अहंकार को काट दो। यह वृक्ष सूख जाएगा, अपने से सूख जाएगा, तुम्हें कुछ करना न होगा। पत्ते-पत्ते तोड़ने मत चले जाना, नहीं तो मुश्किल में पड़ोगे। पत्ते तोड़ने से क्या होने वाला है? एक पत्ता तोड़ोगे, तीन निकल आएंगे। पत्ते तोड़ने से तो वृक्ष में पत्ते और सघन हो जाते हैं। इसीलिए तो वृक्षों की हम कलमें करते हैं, वृक्षों को हम काटते हैं, उनको घना करने के लिए। जड़ को काट दो।
जड़ की ही बात कह रहे हैं गुलाल--
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
जिनसे तुम सलाह लेते हो--पंडितों से, पुरोहितों से, तुम्हारे तथाकथित महात्माओं से--वे भी तुम्हारे जैसे ही जाल में पड़े हुए हैं। हो सकता है उनके जाल थोड़ा आध्यात्मिक रंग लिए हों। हो सकता है उनके जाल थोड़े धार्मिक हों, पारलौकिक हों। जरा उनके भीतर झांक कर देखो, वे आकांक्षाएं लगाए बैठे हैं कि स्वर्ग में विशेष स्थान होगा।
मैं एक दिन एक रास्ते से गुजर रहा था, एक महिला ने मेरी गाड़ी रोकी, पास आई, मुझे कुछ पैंफलेट दिए। ईसाई महिला थी। लौट कर मैंने पैम्फलेटों पर नजर डाली। एक तो मुझे भी जंचा। एक बहुत सुंदर भवन पैम्फलेट के कवर पर ही बना था। झरना बह रहा है पास में, स्विमिंग-पूल है, वृक्ष लगे हैं, बंगला है और ऊपर लिखा हुआ है कि क्या आप इस तरह के बंगले में रहना चाहते हैं? मैंने कहा कि मामला क्या है, यह बंगला है कहां! मैंने अंदर खोल कर देखा, पता चला ये परलोक की बातें हैं, इस लोक की नहीं। वह ईसाई महिला थी, जो प्रचार कर रही थी अपने चर्च का। और ईसा मसीह में जो भरोसा करेंगे, उनको परलोक में ऐसे बंगले मिलेंगे।
सारे धर्मों ने ये प्रचार किए हैं।
हिंदू कहते हैं, कल्पवृक्ष मिलेगा वहां परलोक में। उसके नीचे बैठो कि सब कल्पनाएं पूरी हो जाती हैं। कुछ करना नहीं, कुछ धरना नहीं। आलस्य हिंदुओं की बड़ी पुरातन संपदा मालूम होती है। कुछ करना नहीं, कुछ धरना नहीं।
कल्पवृक्ष की कल्पना महान आलसियों की कल्पना है। बैठे उसके नीचे, भाव किया, तत्क्षण पूरा हुआ। तत्क्षण! घड़ी भी नहीं देखनी पड़ती। इधर भाव हुआ, उधर पूरा हुआ। ऐसा नहीं कि होटल में बैठे हो, वेटर को कहा कि चाय लाओ और वह नदारद है और घंटों बीत गए और उसका पता ही नहीं है। तत्क्षण घटना घट जाती है। भाव और उसके पूरे होने में कोई बीच में काल का व्यवधान नहीं होता। महान आलसियों ने यह कल्पना की होगी।
मगर इसी तरह और धर्म हैं।
स्वर्ग की बड़ी कल्पनाएं की गई हैं। सभी धर्मों ने की हैं। ये तुम्हें जो महात्मा दिखाई पड़ते हैं धर्मों के, ये बिचारे बैठे हैं, ये कह रहे हैं, थोड़े दिन की तकलीफ और है, झेल लो; कुछ दिन और कर लो उपवास; कुछ ही दिन का मामला है; अरे, इतना तो काट ही दिया, अब और थोड़े दिन की बात है, काट लो, फिर तो मजा ही मजा है। और मजा भी कैसे? जिन चीजों की यहां निंदा की जा रही है, वही चीजें वहां उपलब्ध होंगी। यहां शराब पीने की मनाही है,... कुरान कहती है शराब पाप है, शराब छूना पाप है, यहां पीना मना है--और बहिश्त में, स्वर्ग में? शराब के झरने बह रहे हैं। यह कैसा पाप हुआ? अगर यह पाप है तो बहिश्त में तो शराब मिलनी ही नहीं चाहिए।
यह कैसा परमात्मा है कि वहां झरने बहा रहा है? लेकिन वहां झरने बहाना पड़ेंगे। नहीं तो यहां महात्मा नहीं बचेंगे। यहां महात्मा उसी झरनों की आशा में तो बिचारे महात्मा हैं! शराब-वराब छोड़ कर बैठे हैं, शराब क्या चाय-काफी तक छोड़ कर बैठे हैं, आशा में बैठे हैं कि और थोड़े दिन की बात है, अरे, गुजार लो; इतनी तो गुजार दी, थोड़ी रही; बहुत तो गुजार दी, अब गए, तब गए, फिर तो मजा ही मजा है--अनंतकाल तक। फिर ऐसा भी नहीं है कि थोड़े-बहुत दिन में चुक जाए मामला। अनंतकाल तक! तैरो शराब में, डुबकियां मारो, जो करना हो, पीओ, पिलाओ--झरने बह रहे हैं।
किनकी यह कल्पना होगी?
सुंदर स्त्रियां उपलब्ध हैं, सभी लोगों के स्वर्गो में--सुंदरतम स्त्रियां। यहां स्त्री नरक का द्वार है। स्वर्ग में स्त्रियां क्या कर रही हैं? स्वर्ग में स्त्रियों की क्या जरूरत--अगर स्त्री नरक का द्वार है? और यहां महात्मागण समझा रहे हैं कि स्त्री से बचो। मगर किसलिए बचो? इसीलिए ताकि अप्सराएं मिल सकें। यह गणित बिलकुल साफ है। जो यहां छोड़ेगा, वहां पाएगा। करोड़ गुना पाएगा। यहां क्या है, एक साधारण स्त्री छोड़ दी--हड्डी-मांस-मज्जा! यहां की स्त्री की तो बड़ी निंदा है। निंदा का कारण? क्योंकि वह हड्डी-मांस-मज्जा की बनी है। और तुम? पुरुष जैसे हीरे-जवाहरातों के बने हैं! स्त्रियों के भीतर तो मल-मूत्र भरा हुआ है। और पुरुषों के भीतर? अमृत भरा हुआ है?
जो पुरुष ये बातें लिख रहे थे शास्त्रों में, इनकी मूढ़ता का कोई अंत है! स्त्रियां तो मल-मूत्र से भरी हुई हैं; और ये खुद, ये लेखक शास्त्रों के, ये जिन हाथों से लिख रहे हैं, उनमें क्या भरा हुआ है? उन्हीं स्त्रियों से पैदा हुए हैं, उन्हीं स्त्रियों के हिस्से हैं, उन्हीं स्त्रियों के गर्भ में रहे हैं जहां मल-मूत्र भरा हुआ है, नौ महीने मजे से मल-मूत्र में डुबकी लगाते रहे, अब महात्मा हो गए हैं! और अब भी आकांक्षा क्या है? आकांक्षा यही है कि मिलेंगी अप्सराएं! अप्सराओं में उन्होंने सारी व्यवस्था कर ली है, जो आदमी यहां नहीं कर पा रहा है। विज्ञान कोशिश करता है यहीं करने की, धर्म कोशिश करते हैं वहां करने की। वहां के संबंध में एक सुविधा है। कोई लौट कर आता नहीं। पता नहीं चलता कि हो पाई व्यवस्था कि नहीं हो पाई। हालात वहां कैसे हैं, कुछ पक्का पता नहीं। विज्ञान कोशिश करता है यहीं, स्त्रियों को जवान रखो, हारमोन के इंजेक्शन दो, देर तक जवान रखो। और अप्सराएं? लगता है स्वर्ग में जो हारमोन हम नहीं खोज पाए उन्होंने खोज लिए हैं। अप्सराएं रुकी हैं। भारतीय अप्सराएं तो सोलह साल पर रुकी हैं। क्योंकि भारतीय कल्पना है, सोलह साल में स्त्री सर्वांग सुंदर होती है। तो सोलह साल पर ही रुकी हुई हैं। उर्वशी पांच हजार साल पहले भी सोलह साल की थी, अभी भी सोलह साल की है। गपबाजी की भी कुछ हद होती है!
और पसीना नहीं आता वहां स्त्रियों को। वैज्ञानिक बेचारा कोशिश करता है, डियोडरेंट खोजो, सिंथाल साबुन बनाओ कि जिससे पसीने की बदबू न आए, परफ्यूम खोजो, तरह-तरह की सुगंधियां छिड़को, ताकि किसी तरह से शरीर की गंध न मालूम पड़े, स्वर्ग में राज मालूम होता है खोज लिया गया है। ऐसा लगता है अप्सराएं प्लास्टिक की बनी हैं। न पसीना आता... सिर्फ प्लास्टिक को पसीना नहीं आता। सिंथेटिक किसी भी चीज की बनी होंगी।... न पसीना आता है, न बास आती है। वे तो शास्त्र पुराने हैं, अगर नये लिखे जाएं, तो उसमें यह भी व्यवस्था करनी पड़ेगी कि स्त्रियां ऐसी हैं कि जब चाहो हवा निकाल कर अपने बिस्तर में बंद कर लो, फिर पंप मारो, हवा भर दो, फिर स्त्री खड़ी हो गई। अगर नया कोई शास्त्र लिखे... जैसे कि मैं पुराण लिखूं; कभी-कभी सोचता हूं कि लिखूं; तो उसमें स्त्री को तो फिर ऐसी ही बनाना पड़ेगा कि जब दिल आया तब हवा निकाल दी, जब दिल आया हवा भर ली--और नहीं तो अपनी जेब में रखी स्त्री, चल पड़े!
ऋषि-मुनि जो न करें थोड़ा है। स्वर्ग की आकांक्षा लगाए बैठे हैं। वहां सुख ही सुख है। वहां दुख है ही नहीं। उस सुख की आकांक्षा में यहां कितने ही दुख झेल लें। यह कीमत है जो चुका रहे हैं वे। मगर भेद कुछ भी नहीं है। तुम में और तुम्हारे महात्माओं में कुछ भेद नहीं है। क्योंकि वासना वही की वही है। परलोक की करो कि इस लोक की करो। तुम्हारे महात्मा तुमसे ज्यादा लोभी हैं, तुमसे ज्यादा बेईमान।
एक दिन चंदूलाल अपने गुरुदेव मटकानाथ ब्रह्मचारी से कह रहा था कि महात्माजी, मैं तो बड़ी दुविधा में इस समय पड़ा हुआ हूं। मेरी एक प्रेमिका है जो खूबसूरत है, लेकिन अमीर नहीं; दूसरी प्रेमिका के पास पैसा बहुत है, लेकिन है बिलकुल कुरूप। ऐसी कि बस पूछो मत! प्रेतिनी दिखती है। मगर पैसा बहुत है। मुझे समझ नहीं आता कि मैं किससे प्रेम करूं? महात्मा ने कहा: अरे चंदूलाल, बच्चा इसमें सोचने की क्या बात है? तू तो उस गरीब सुंदरी से ही विवाह कर! पैसा तो हाथ का मैल है। आज है, कल नहीं होगा। और फिर कितना ही हो, एक न एक दिन तो खत्म हो ही जाएगा। तू मेरी सलाह मान! तू तो अपनी खूबसूरत गरीब प्रेमिका को ही जीवनसंगिनी चुन! प्रेम तो परमात्मा है, कह गए महात्मा हैं। बहती गंगा, भइया चंदूलाल, अवसर न चूको! ऐसे शुभ अवसर अनेक जन्मों के शुभ कर्मों के, सदकर्मों के बाद ही मिलते हैं।
चंदूलाल को बात जंची। महात्मा के चरण छू कर धन्यवाद देकर जाने को ही हुआ कि महात्मा मटकानाथ ने कहा कि बच्चा, कम से कम जाते समय उस पैसे वाली अमीर स्त्री का पता तो मुझे देता जा! बहती गंगा, भैया तू स्नान कर, पर कम से कम मुझे भी हाथ धो लेने दे! तू मणि-माणिक्य ले ले, मगर मुझे भी कंकड़-पत्थर तो लेने दे; उनसे तो वंचित न कर!
तुम जरा अपने महात्माओं को देखो! तुमको समझा रहे हैं कि पैसा तो हाथ का मैल है, लेकिन नजर तुम्हारे पैसे पर ही लगी है; तुम्हारी जेब पर लगी हुई है। महात्मा को पैसा दो तो महात्मा तुम्हारा सम्मान करता है।
जैनों के एक बहुत बड़े मुनि हैं, कांजी स्वामी। एक बार भूल से, मैं रास्ते से गुजर रहा था, और उनका प्रवचन हो रहा था, जबलपुर में, तो मैं गाड़ी रोक कर थोड़ी देर सुना कि क्या कह रहे हैं महात्मा। और तो सब ठीक ही था, दो बातें बहुत अदभुत कर रहे थे वे। एक तो हर वाक्य के पीछे कहते थे: ‘समझ में आया?’ जैसे कोई मूढ़ों की जमात बैठी हो। फिर मैंने कहा: है भी बात ठीक, मूढ़ों की ही जमात इनको सुन रही है! क्योंकि वे जो कह रहे थे, बिलकुल कूड़ा-कचरा था, उसमें कुछ था ही नहीं और वे उसमें भी कहें: ‘समझ में आया?’ एक था राजा, एक थी रानी, समझ में आया? तो मैं बहुत हैरान हुआ कि यह तो हद हो गई। इसमें समझने जैसी कोई बात ही नहीं है!
और दूसरी बात जो वे समझा रहे थे, वे यह कह रहे थे कि धन तो हाथ का मैल है, मगर बीच-बीच में सेठ चुन्नीलाल आ गए, कि सेठ दुलीचंद आ गए, कि सेठ कालू मल आ गए, तो प्रवचन रोक दें, कि आइए चुन्नीलाल जी, बैठिए! फिर प्रवचन शुरू। आइए, धन्नालाल जी, बैठिए! फिर प्रवचन शुरू। मैंने उनके एक शिष्य से पूछा कि ये धन्नालाल, ये चुन्नीलाल ये फलाने-ढिकाने, इनका नाम ये बार-बार बीच में कैसे आ जाता है? उन्होंने कहा: ये लोग दान देते हैं। ये दानी लोग हैं।
धन जो है, वह हाथ का मैल है, और चुन्नीलाल ने हाथ का मैल दे दिया कांजी स्वामी को और कांजी स्वामी बीच प्रवचन में रोकते हैं: ‘बैठो, चुन्नीलाल!’
समझ में आया, यह भी वे नाम ले-ले कर पूछते हैं। ‘चुन्नीलाल, समझ में आया?’ इससे चुन्नीलाल को बहुत आनंद आता है कि हजारों लोगों के बीच उनका नाम लिया गया, वे कुछ खास हैं। एक तो आगे बैठे हैं, फिर ‘चुन्नीलाल, समझ में आया?’ चुन्नीलाल सिर हिलाते हैं कि हां, महाराज!
धन को गालियां दी जा रही हैं, धन को हाथ का मैल बताया जाता है--और दूसरी तरफ यह भी कहा जाता है कि धन मिलता है पिछले जन्मों के पुण्य कर्मों से। यह बड़े मजे की बात है! पुण्य कर्म करो, मिले हाथ का मैल! जरा तुम सोचो भी तो, पुण्य कर्म का यह फल! हाथ का मैल! कुछ और दे देते। एक गुलाब का फूल ही दे देते। हाथ का मैल तो कम से कम न देते। और जिनको नहीं मिला है हाथ का मैल, उन्होंने पिछले जन्मों में पाप किए हैं। तो क्या गंवाया? अरे, पाप करके भी क्या गंवाया? सिर्फ हाथ का मैल नहीं मिला। सो मिलने वाले को क्या मिल गया? अच्छा ही हुआ! जी भर कर पाप करो, हाथ का मैल कम रहेगा! पुण्य किया कि फंसे; हाथ का मैल मिलेगा।
यह तुम देखते हो विरोधाभास?
इस देश में सदियों से यह समझाया जा रहा है कि पुण्य कर्मों के फल से धन मिलता है; और धन त्यागो, धन पाप है। यह कैसा तर्क है? पुण्य कर्मों के फल से धन मिलता है, और धन त्यागो तो पुण्य होता है। लोगों को बिलकुल कोल्हू का बैल बना रखा है। उनको चक्कर दिए जा रहे हैं। और लोग चक्कर खा रहे हैं। और लोग सोचते भी नहीं कि यह क्या कहा जा रहा है।
तुम और तुम्हारे महात्माओं में कुछ भेद नहीं है। तुम्हारे महात्मा तुम्हें महात्मा इसीलिए लगते हैं कि भेद नहीं है। अगर भेद हो तो तुम्हें महात्मा भी न लगें। तुम्हें उनका तर्क, उनकी भाषा रुचती है, पटती है, क्योंकि तुमसे मेल खाती है। और यह अहंकार बड़े जाल फैलाता है। इस लोक के जाल फैलाता है, परलोक के जाल फैलाता है। यह जाल फैलाने में बड़ा कुशल है। परलोक में भी तुम पक्का समझो कि महात्माओं में बड़ा संघर्ष होता होगा, मार-पीट होती होगी, कि कौन परमात्मा के पास बैठे, कौन सबसे पास बैठे; कौन उनका बायां हाथ, कौन उनका दायां हाथ? परमात्मा के पास कौन सबसे ज्यादा? इसमें जरूर छुरेबाजी हो जाती होगी महात्माओं में।
दो जैन मुनि, नग्न जैन मुनि पुलिसथाने में लाए गए--शिखरजी जैनों का क्षेत्र है, तीर्थक्षेत्र है, वहां--क्योंकि उन दोनों ने एक-दूसरे की पिटाई कर दी। गए थे जंगल, मल-मूत्र विसर्जन करने, वहां झगड़ा हो गया। सब छोड़-छाड़ दिया है, कपड़े भी छोड़ दिए, मगर झगड़ा नहीं छूटा। अहंकार न छूटे तो झगड़ा कैसे छूटे! और झगड़ा किस बात पर हुआ, वह और हैरानी की बात है। वह तो गांव के लोगों ने पकड़ कर उन्हें थाने पहुंचा दिया, थाने में डांट-डपट बताई तो रहस्य खुला। पैसे के ऊपर झगड़ा हो गया। पैसे के ऊपर झगड़ा और जैन मुनि दिगंबर, जो कुछ रखता ही नहीं। सिर्फ एक पिच्छी रखता है, जिससे वह जमीन को साफ करके बैठता है, ताकि कोई चींटी इत्यादि न मर जाए। मगर आदमी तो कुशल है, आदमी हर जगह रास्ता निकाल लेता है। पिच्छी में डंडा होता है, जिसमें ब्रश लगा रहता है, बाल लगे रहते हैं जिससे कि वह साफ करता है; ऊन की पिच्छी होती है, उसके पीछे डंडा होता है। डंडे को पोला कर दिया था उन्होंने, और उसमें सौ-सौ के नोट! सो दोनों में बांटने पर झगड़ा हो गया।
जो बड़ा मुनि था, जो उम्र में बड़ा था और पहले दीक्षित हुआ था, वह ज्यादा चाहता था। स्वभावतः ज्यादा कष्ट उसने सहे, ज्यादा उपवास भी किए, अब हाथ का मैल भी उसको ज्यादा न मिले तो फिर फायदा ही क्या! तो हाथ का मैल थोड़ा ज्यादा चाहता था। मगर दूसरा कहता था कि मैं पोल खोल दूंगा। राज मुझे मालूम है। इसलिए भलाई इसी में है कि आधा-आधा बांट लो। इस पर बात बिगड़ गई और एक-दूसरे ने एक-दूसरे पर हमला कर दिया--और कुछ तो था नहीं मारने को, वही पिच्छी के डंडे थे, तो उन्हीं से एक-दूसरे की पिटाई कर दी। गांव वाले उनको यह देख कर थाने ले आए।
जैनियों ने बड़ी कोशिश की कि यह बात ढंक जाए, छिप जाए, अखबारों तक न पहुंच जाए। मेरे पास जैन आए, उन्होंने कहा कि इस बात को छिपाना जरूरी है, क्योंकि इससे जैन-समाज का बड़ा अपमान होगा। मैंने कहा: तुम और गलत आदमी के पास आ गए! अब तो छिपना मुश्किल ही है यह! उन्होंने कहा: क्यों? मैंने कहा कि मैं ही कहूंगा। अब तुम लाख करो उपाय, अखबार में छपे या न छपे, मगर यह घटना ऐसी मूल्यवान है कि मैं इसको छोड़ नहीं सकता।
है मूल्यवान। सब छोड़ कर आ गए, मगर अहंकार के जाल कैसे हैं? सब छोड़ दो फिर भी किसी नये जाल को बुन लेता है।
प्रेम सों प्रीति करू, नाम को हृदय धरू,
जोर जम काल सब दूर जाहीं।।
बड़ी अदभुत बात है--
प्रेम सों प्रीति करू,...
और किसी चीज से प्रेम न करो, प्रेम से ही प्रेम करो, बस, तो तुम्हारा प्रेम परमात्मा तक पहुंच जाएगा। न धन से प्रेम करो, न पद से प्रेम करो; न स्वर्ग से प्रेम करो, न मोक्ष से प्रेम करो--क्योंकि स्वर्ग और मोक्ष का प्रेम भी अहंकार का जाल है, वह भी वासना है--प्रेम से ही प्रेम करो। गजब की बात कही गुलाल ने। प्रेम से ही प्रेम करो। तो फिर इसमें कुछ लक्ष्य न रहा, कोई आगे की आकांक्षा न रही। प्रेम में ही आनंदित होओ, प्रेम को ही सर्वस्व मानो, प्रेम के पार न कुछ पाने को है, न कोई स्वर्ग है, न कोई मोक्ष।
प्रेम सों प्रीति करू,...
इतने अदभुत वचन, लेकिन चूंकि बेचारे बेपढ़े-लिखे संतों ने कहे, कोई इनकी फिकर नहीं करता। इसीलिए मैंने इन पर बोलना तय किया। उपनिषदों पर बोलने वाले बहुत लोग हैं। गीता पर टीका पर टीकाएं होती चली जाती हैं। वेदों पर बड़े प्रवचन होते हैं। मगर कौन बोले गुलाल पर! किसको पड़ी! और ऐसे हीरों जैसे वचन। तुम उपनिषद छान डालो तो ये वचन नहीं मिलेगा: ‘प्रेम सों प्रीति करू।’ तुम वेद छान डालो, यह वचन नहीं मिलेगा। मात कर दिया वेदों को! गहरी से गहरी बात कह दी। इससे गहरी बात कही नहीं जा सकती। प्रेम से प्रेम करो। कोई और साध्य न हो, कोई और हेतु न हो। प्रेम ही साधन, प्रेम ही साध्य। प्रेम ही तुम्हारा आनंद हो। प्रेम के लिए प्रेम। प्रेम ही तुम्हारा अहोभाव हो।
प्रेम सों प्रीति करू, नाम को हृदय धरू,
और तभी तुम परमात्मा को अपने हृदय में बसा सकोगे।
जोर जम काल सब दूर जाहीं।।
और फिर तुम पर न तो मृत्यु का कोई बस रह जाएगा, न समय का कोई बस रह जाएगा। सब हट जाएंगे, अपने से हट जाएंगे। तुम प्रेम के अमृत को पी लो। तुम प्रेम के घूंट को पी लो। सब कट जाएंगी भ्रांतियां, सब कट जाएंगे जाल। क्यों? क्योंकि प्रेम चोट करता है अहंकार की जड़ पर। अगर तुम अहंकारी हो, तो प्रेम नहीं कर सकते। और अगर तुम प्रेमी हो तो अहंकार नहीं कर सकते। दोनों बातें साथ नहीं हो सकतीं। अगर दीया जला तो अंधेरा नहीं बच सकता। और अगर अंधेरा है तो दीया नहीं है। ऐसा ही समझो। जहां प्रेम जला, वहां अहंकार गया। और जहां अहंकार है, वहां प्रेम नहीं। अहंकार तो प्रेम के धोखे देता है। बड़ी होशियारी से धोखे देता है।
एक शाम मुल्ला नसरुद्दीन कब्रिस्तान से गुजर रहा था। उसने देखा कि एक खूबसूरत युवती श्वेत परिधान पहने एक ताजी कब्र को पंखा झल रही है। मुल्ला यह देख रोमांचित हो उठा और उसने कहा कि वाह रे खुदा, कौन कहता है कलयुग आ गया! सतयुग है, अभी भी सतयुग है। ऐसे प्रेमी आज भी दुनिया में हैं। बेचारी कब्र को पंखा झल रही है। मुल्ला की आंखों से तो आनंद के आंसू बहने लगे। एक उसकी पत्नी है कि जिंदा मुल्ला की पिटाई करती है! और एक यह स्त्री है! कौन कहता है स्त्री नरक का द्वार है! कब्र को पंखा झल रही है, हद हो गई, प्रेम की भी हद हो गई। प्रेम और क्या ऊंचाइयां लेगा!
उसने जाकर महिला से कहा कि सुनिए, आपको देख कर मुझे महसूस होता है कि प्रेम अभी भी शेष है और दुनिया का अभी भी भविष्य है; अभी भी आशा छोड़ने का कोई कारण नहीं है। कितने ही मनुष्य गिर गए हों, लेकिन तुम जैसे थोड़े से व्यक्ति भी अगर हैं तो पर्याप्त है। तुम्हीं तो नमक हो पृथ्वी का। मगर क्या मैं पूछ सकता हूं कि आप कब्र पर पंखा क्यों झल रही हैं? अरे, जाने वाला तो जा चुका, अब कब्र को पंखा झलने से क्या होगा? युवती बोली कि बात यह है जनाब, कि कब्रिस्तान के बाहर मेरा प्रेमी मेरा इंतजार कर रहा है। और मेरे पति ने कहा था कि जब तक मेरी कब्र सूख न जाए, तुम किसी से विवाह मत करना, नहीं तो मुझे बहुत दुख होगा। अतः कब्र को जल्दी सुखाने के लिए पंखा झल रही हूं।
यहां ऐसा ही चल रहा है। प्रेम के नाम पर प्रेम के दिखावे हैं। प्रेम के नाम पर कुछ और है, जो शायद प्रेम से विपरीत ही हो। प्रेम के नाम पर अहंकार पोषित हो रहा है। प्रेम के नाम पर दूसरे की मालकियत की चेष्टा चल रही है। प्रेम के पीछे छिपी है ईर्ष्या, जलन, द्वेष। प्रेम की आड़ में क्या-क्या नहीं हो रहा है! इस प्रेम की बात नहीं कर रहे हैं गुलाल। तुम्हारे प्रेम की बात नहीं कर रहे हैं। उस प्रेम की बात कर रहे हैं जिसकी तुम्हें अभी कोई खबर ही नहीं है। लेकिन जिसका बीज तुम्हारे भीतर है। अगर खबर हो जाए तो तुम्हारे भीतर भी प्रेम का वही फूल खिल सकता है: प्रेम के लिए प्रेम। कुछ और मांग नहीं। प्रेम देने में ही आनंद। तब प्रेम व्यक्तियों से बंधा नहीं रह जाता। तब प्रेम एक निर्वैयक्तिक भाव-दशा हो जाता है। तब प्रेम एक संबंध नहीं रह जाता, एक स्थिति बन जाता है। तब ऐसा नहीं कि तुम किसी से प्रेम करते हो, बस तुम प्रेम करते हो। ऐसा भी ठीक नहीं कि तुम प्रेम करते हो, ज्यादा ठीक होगा कहना कि तुम प्रेम हो। तो तुम जिसको छूते हो, वहीं प्रेम। तुम जिसे देखते हो, उस पर ही प्रेम की वर्षा। तुम एकांत में भी बैठो तो तुम्हारे चारों तरफ प्रेम की तरंगें उठती हैं। ऐसा प्रेम हो तो राम तुम्हारे हृदय में वास करे।
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
बस, दो काम कर लो। सुरति को सम्हालो, स्मरण को सम्हालो, स्मरण करो कि मैं कौन हूं और प्रेम से भरो। बस, दो काम; बस, दो सीढ़ियां, दो कदम और यात्रा पूरी हो जाती है।
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
किसी शापवश हो निर्वासित,
लीन हुई चेतनता मेरी;
मन-मंदिर का दीप बुझ गया;
मेरी दुनिया हुई अंधेरी!
पर यह उजड़ा उपवन सब दिन बियाबान सुनसान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मेरे सूने नभ में शशि था,
थी ज्योत्स्ना जिसकी छवि-छाया;
जीवित रहती थी जिसको छू
मेरी चंद्रकांतमणि काया,
ठोकर खाते मलिन ठीकरे सा तब मैं निष्प्राण नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
था मेरा भी कोई, मैं भी
कभी किसी का था जीवन में;
बिछुड़ा भी पर भाग्य न बिगड़ा,
रही मधुर सुधि जब तक मन में;
पर क्या से क्या बन जाऊंगा, इसका कभी गुमान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मैं उपवन का ही प्रसून हूं,
किसी गले का हार बना था;
वह मेरी स्मिति थी, उसका भी
मैं हंसता संसार बना था;
मिले धूल में दलित कुसुम सा, मैं सब दिन म्रियमाण नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मैं तृण सा निरुपाय नहीं था,
जल में डालो बह जाए जो;
और डाल दो ज्वाला में यदि,
क्षणिक धुआं बन उड़ जाए जो;
आज बन गया हूं जैसा कुछ, सब दिन इसी समान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मेरा नाम अरुणिमा सा ही
रहता था उसके अधरों पर,
झूम-झूम उठता था यौवन
मेरी पिक के मधुर स्वरों पर,
मुझमें प्राण बसे थे उसके, मेरा मृण्मय गान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
स्मरण रखो, आज तो तुम पत्थर जैसे हो--हो गए हो पत्थर जैसे--न तो तुम्हारी यह नियति है, न यह तुम्हारा स्वभाव है। तुम ऐसे पैदा न हुए थे। तुम ऐसे होने के लिए पैदा न हुए थे। समाज ने तुम्हें पत्थर बना दिया है। क्योंकि समाज आदमी नहीं चाहता, पत्थर चाहता है। समाज के लिए पत्थर काम के हैं, आदमी नहीं। आदमी तो खतरनाक हो सकते हैं, पत्थर आज्ञाकारी होते हैं। आदमी बगावती हो सकते हैं, पत्थर बगावती नहीं होते। तुम्हारे हृदय को मार डाला गया है। तुम्हारी बुद्धि को खूब कूड़े-कचरे से भरा गया है। क्योंकि बुद्धि का उपयोग समाज के लिए है। क्लर्क बनाना है तुम्हें, स्टेशन मास्टर बनाना है तुम्हें, डिप्टी क्लेक्टर बनाना है तुम्हें; तो तुम्हारी खोपड़ी को कचरे से भरना ही होगा। नहीं तो ये कचरा भरी फाइलें तुम कैसे सरकाते रहोगे? यह कूड़ा-करकट तुम कैसे जीवन भर ढोओगे?
ऐसे-ऐसे अदभुत लोग पड़े हैं कि दफ्तर में ही उनका मन नहीं भरता, दफ्तर में पूरा नहीं पड़ता, वे फाइलें लिए बगल में दबाए घर भी चले आते हैं। फाइलें ही उनका जीवन हैं। उनमें ही सब हीरे-माणिक-मोती। और उनका दिल बड़ा खुश होता है, टेबल पर ढेर लगा कर बैठे रहते हैं दिन भर, चित्त उनका बड़ा प्रसन्न होता है जैसे ढेर बड़ा होता जाता है, जैसे उनकी संपदा बढ़ती जाती है, जितने ही वे फाइलों के ढेर के पीछे छिप जाते हैं, उतने ही महत्वपूर्ण आदमी हो जाते हैं। काम इतना है उनके ऊपर। खोपड़ी को कचरे से भरना ही होगा! लोगों से कचरा काम लेना है।
हृदय खतरनाक है समाज के लिए। क्योंकि जिसके पास हृदय है, उसे दिखाई पड़ेगा कि क्या कचरा है, क्या सार है, क्या असार है। और जिसके पास हृदय है, तुम उससे हिंसा न करवा सकोगे, तुम उससे गोली न चलवा सकोगे, तुम उससे तलवार न उठवा सकोगे, तुम उससे हिरोशिमा पर एटम बम न गिरवा सकोगे। जिसके पास हृदय है, वह कहेगा, मुझे चाहे सूली पर चढ़ा दो, लेकिन एक लाख लोगों के ऊपर मैं बम गिरा कर उनको राख कर दूं, यह मुझसे न होगा।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर बम गिराया, बम गिरा कर रात भर आनंद से सोया। सुबह जब उससे पूछा गया, क्या तुम रात सो सके? तो उसने कहा: आनंद से सोया। अपना कर्तव्य पूरा किया, उसके बाद आनंद से सोया ही जाता है। वह कर्तव्य था! एक लाख आदमी जल कर राख हो गए, वह कर्तव्य पूरा करके आ गया! और कर्तव्य पूरा हो गया, रात आनंद से सोया। आकर भोजन किया उसने। एक लाख आदमियों को मार कर भोजन करना किसके लिए संभव है? जिसके पास हृदय न हो, पाषाण हो।
और यह हालत उसकी ही न थी, जिस अमरीकी प्रेसीडेंट की आज्ञा से... ट्रूमैन की आज्ञा से यह बम गिराया गया था। ट्रूमैन का मतलब होता है: सच्चा आदमी। हद हो गई! ट्रूमैन और सच्चा आदमी! इससे ज्यादा झूठा आदमी मिलना मुश्किल है। इसलिए मैं उनका नाम रखता हूं: प्रेसीडेंट अन-ट्रूमैन। इन्होंने एटम बम गिरवाने की आज्ञा दी। और जब इनसे पूछा गया कि आपको कोई दुख, पश्चात्ताप? उन्होंने कहा: क्या दुख, क्या पश्चात्ताप? युद्ध समाप्त हो गया। नहीं तो युद्ध समाप्त ही नहीं होता।
और यह बात झूठ है। सच्चाई यह है कि युद्ध समाप्त होने ही वाला था। युद्ध इतने जल्दी समाप्त होने के करीब था, दो-चार दिन के भीतर, कि ट्रूमैन को लगा कि प्रयोग कर ही लेना चाहिए, नहीं तो एटम बम का प्रयोग करने का अवसर नहीं आएगा। शोध से जो पता चला है, वह यह कि युद्ध इतनी जल्दी समाप्त हुआ जा रहा था--जर्मनी हार रहा था, रूसी फौजें बर्लिन में पहुंच गई थीं, जापान घुटने टेक रहा था--एटम बम गिराने की कोई भी आवश्यकता न थी। और अगर दो-चार दिन ज्यादा भी चल जाता युद्ध, तो इतने दिन चला था और दो-चार दिन। एटम बम गिराने की कोई जरूरत न थी। लेकिन यह खतरा पकड़ा मन में कि फिर एटम बम का प्रयोग ही न हो सकेगा, हम जान ही न सकेंगे इसकी औकात, इसकी शक्ति कितनी है। एटम बम बिलकुल ही गैर-जरूरी था। लेकिन उसको गिराने का निर्णय लिया ट्रूमैन ने। और प्रसन्नता से। कोई पश्चात्ताप नहीं। तुम एक आदमी को मार दो तो पश्चात्ताप होता है। तुम एक चींटी को कुचल दो तो भी पश्चात्ताप होता है।
यह क्या हो गया आदमी को? और ऐसा आदमी बनाने के लिए हमने क्या किया है? हम आदमी के हृदय को मारते हैं। हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा हृदय की जड़ों को काटने की है। सैनिकों को तो हम बिलकुल हृदयहीन कर देते हैं। सोच-विचार से उनको बिलकुल असमर्थ कर देते हैं। यंत्रवत व्यवहार उनको हम सिखाते हैं--बाएं घूम, दाएं घूम। घुमा-घुमा कर, घुमा-घुमा कर, बाएं घुमा कर, दाएं घुमा कर उनकी खोपड़ी खा जाते हैं। उनमें सोच-विचार की क्षमता नहीं रह जाती। जैसे ही कहो, बाएं घूम, वे यंत्रवत घूम जाते हैं। उनसे पूछो, क्यों घूमे? वे कहेंगे, आज्ञा दी गई। वे आज्ञा के विपरीत जाने की क्षमता खो देते हैं। फिर एक दिन उनसे कहा जाता है, एटम बम गिराओ, बिचारे गिरा देते हैं। उनके लिए बाएं घूम और एटम बम गिराने में कुछ फर्क नहीं है। रहा नहीं फर्क। इतना बोध नहीं रहा, इतना प्रेम ही नहीं रहा कि फर्क कर सकता!
यह समाज हमारा अप्रेम पर जी रहा है, घृणा पर जी रहा है, वैमनस्य पर जी रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर हम घृणा को पोषण देते हैं। जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर घृणा को पोषण देते हैं। और सारी दुनिया में सिवाय उपद्रव के और कुछ भी नहीं है।
एक यहूदी बूढ़ा, सिल्वर्सटीन, हवाई जहाज में सवार हुआ। संयोग की बात, उसके दोनों तरफ दो अरब बैठे थे, बड़े तगड़े अरब, खूंखार। सिल्वर्सटीन, गरीब यहूदी, बड़ा घबड़ाया हुआ, सिकुड़ा बैठा था कि एक अरब बोला, यहूदी बच्चे! जा मेरे लिए काफी लेकर आ! वह नहीं न कर सका। हालांकि कोई जरूरत न थी, घंटी बजाई जा सकती थी, अपने आप परिचारिका आती। मगर यह बात इस अरब से कहना खतरनाक, यह एकदम गला दबा दे! इतना खतरनाक, खूंखार मालूम पड़ रहा है! बेचारा सिल्वर्सटीन भागा, पूरा हवाई जहाज चल कर गया, हवाई जहाज डांवाडोल हो रहा है, तूफानी बादलों से गुजर रहा है, किसी तरह काफी लेकर आया कि दूसरा बोला कि बच्चे एक काफी मेरे लिए भी लेकर आ! फिर गया। तब तक पहले की काफी खत्म हो गई। उसने कहा: यहूदी, एक कप और! उसकी लेकर आया तब तक दूसरे की काफी खत्म हो गई। ऐसा कोई उन्होंने दस-बारह दफा उसे भेजा।
अरबों की तो तुम पूछो ही मत! जो न करें सो थोड़ा है। पैसा एकदम आसमान से टूट पड़ा है।
बामुश्किल थका-मांदा बैठा ही था बीच में कि एक अरब ने पूछा कि यहूदी, दुनिया के क्या हालचाल हैं? उसने कहा: बड़े बुरे हालचाल हैं। हिंदुस्तान में हिंदू मुसलमानों को मार रहे, पाकिस्तान में मुसलमान हिंदुओं को मार रहे, बंगलादेश में बंगाली पंजाबियों को मार रहे हैं; सब जगह मार-काट मची हुई है! वियतनाम की हालत खराब है। इजरायल की हालत खराब है। ईरान की दशा खराब है। संकट ही संकट है! और अब आपसे क्या कहें, इसी जहाज में क्या-क्या नहीं हो रहा है! अरे, इसी जहाज में यहूदी अरबों की काफी में पेशाब कर रहे हैं!
यह सारा जगत घृणा से आपूर है, आकंठ। और इसीलिए हम समझ नहीं पाते, ये वचन सुन भी लेते हैं तो चूक-चूक जाते हैं। ये हमारी शिक्षा-दीक्षा के विपरीत हैं। मगर इनके बिना जीवन में कोई क्रांति नहीं हो सकती।
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
बस, दो काम करो। एक तो ध्यान--सुरति--और दूसरा प्रेम। ध्यान के लिए ध्यान, प्रेम के लिए प्रेम। लक्ष्य कुछ भी नहीं, मांग कुछ भी नहीं, हेतु कुछ भी नहीं, मंजिल कोई भी नहीं। ध्यान ध्यान के लिए आनंद, प्रेम प्रेम के लिए आनंद। और तब तुम पाओगे, ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ ध्यान, दूसरी तरफ प्रेम। जिसने ध्यान किया, उसने प्रेम किया। जिसने प्रेम किया, उसने ध्यान किया। तुम एक को भी कर लो तो दूसरा अपने आप आ जाएगा। और तुम दोनों को कर लो, तब तो क्रांति बहुत सुगम हो जाती है, सहज हो जाती है।
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
रहो अडोल कहुं डोल नाहीं।।
बस, ये दो बातें हो जाएं तो फिर तुम अडोल हो गए। फिर तुम्हें कोई नहीं डुला सकता। फिर तुम कहीं भी रहो, बीच बाजार में बैठो, तो भी अडोल हो।
रहो अडोल कहुं डोल नाहीं।।
फिर तुम कहीं भी डुलाए नहीं जा सकते। कोई तुम्हें डुला नहीं सकता।
कहै गुलाल किरपा कियो सतगुरु,
गुलाल कहते हैं: मेरे सतगुरु की कृपा से, उनकी अनुकंपा से, उनके अनुग्रह से ये दो सूत्र मुझे मिले हैं, वह मैं तुमसे कहता हूं--
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
रहो अडोल कहुं डोल नाहीं।।
कहै गुलाल किरपा कियो सतगुरु,
परयो अथाह लियो पकरि बाहीं।।
बस, मेरी बांह पकड़ कर गुरु ने ये दो बातें मुझे सिखा दीं। अथाह से मुझे उबार लिया। संसार से मुझे बाहर खींच लिया। ये दो बातें ही संन्यास का सार हैं।
भक्ति-परताप तब पूर सोइ जानिये,
और तभी जानना कि भक्ति पूर्ण हुई।
धर्म अरु कर्म से रहत न्यारा।।
ये वचन फिर बहुत क्रांतिकारी हैं। आग हैं, आग्नेय हैं। सुनते हो?
धर्म अरु कर्म से रहत न्यारा।।
वह जो सचमुच ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, ध्यान को या प्रेम को उपलब्ध हो गया है, जो सचमुच भक्ति को जान लिया है, जिसके जीवन में पूर्ण भक्ति छा गई है, वह कर्म से भी मुक्त है। क्योंकि कर्म भी उसने परमात्मा पर छोड़ दिया है।
कर्म का अर्थ होता है: संसार में कृत्य। और धर्म का अर्थ होता है: परलोक में कृत्य। न तो वह यहां करने को उत्सुक है कुछ, न वहां करने को कुछ उत्सुक है। न उसकी वासना जगत में है, न परलोक में। कर्म है: जगत में वासना पूरा करने का उपाय। और धर्म है: परलोक में वासना पूरा करने का उपाय। जिसने सुरति साध ली और प्रेम से भर गया, जिसकी भक्ति पूर्ण हुई, उसे न धर्म की कोई जरूरत है, न कर्म की कोई जरूरत है। कर्म सब परमात्मा पर छोड़ दिया उसने। वह जो करवाए, करता है, लेकिन अडोल रहता है। और धर्म भी उसने परमात्मा पर छोड़ दिया। अब न वह हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई; अब तो वह परमात्मा का है और परमात्मा उसका है।
राम सों रमि रह्यो...
वह तो राम में रम गया...
...जोति में मिलि रह्यो,
वह तो ज्योति से ज्योति एक हो गई।
दुंद संसार को सहज जारा।।
उसने संसार के द्वंद्व को सहज ही जला कर राख कर दिया। बस, इन दो चीजों से: सुरति से और प्रेम से।
भर्म भव मारिकै क्रोध को जारिकै,
उसकी सारी माया जल गई, मर गई; उसका सारा क्रोध मिट गया। क्योंकि जब कोई आकांक्षा पाने की नहीं रह जाती, कोई कामना नहीं रह जाती, तो क्रोध अपने आप मिट जाता है। क्रोध का अर्थ है: तुम कुछ पाना चाहते हो और नहीं पा पा रहे हो, तो क्रोध पैदा होता है। अड़ंगा पड़ रहा है, तो क्रोध पैदा होता है। जैसे झरना बहना चाहता है और बीच में चट्टान आ जाए, तो आवाज होती है, शोरगुल मचता है, वैसा ही तुम्हारा क्रोध है। तुम कुछ पाने चले, किसी ने अड़ंगा मार दिया। और अड़ंगे तो लोग मारेंगे। लत्ती मारेंगे, दुलत्ती मारेंगे। क्योंकि उनको भी वही पाना है जो तुम्हें पाना है। तुम पा लो तो वे क्या पाएंगे? वे तुम्हें रोकेंगे। वे हर तरह से तुम्हें रोकेंगे।
भर्म भव मारिकै क्रोध को जारिकै,
चित्त धरि चोर को कियो यारा।।
और मैं जो तुमसे कहता हूं निरंतर, वह इस वचन में आ गया। जो मेरी जीवन-दृष्टि है, जो मेरा जीवन-दर्शन है, वह इस वचन में समाया हुआ है।
चित्त धरि चोर को कियो यारा।
मनरूपी शत्रु को मित्र बना लिया। मारना नहीं है, मन को मारना नहीं है, मन को मित्र बना लेना है। मन के मालिक हो जाना है। मन तुम्हारा मालिक न रहे, बस। मन तुम्हारा मित्र हो जाए।
चित्त धरि चोर को कियो यारा।
वह जो चोर है मन अभी, जो तुम्हारी जीवन-संपदा को नष्ट किए दे रहा है, उसको मित्र बना लिया। कैसे मित्र बनेगा यह? सुरति से; जागरण से; होश से; स्मृतिपूर्वक जीने से। कैसे मित्र बनेगा यह? प्रेमपूर्वक जीने से; प्रेम बन जाने से।
कहै गुलाल सतगुरु किरपा कियो,
हाथ मन लियो तब काल मारा।।
जब हाथ में मन आ गया--अपना ही मन अपने हाथ में नहीं है अभी--जब मन हाथ आ गया, मृत्यु समाप्त हो गई। मन हाथ आ गया, तो जीवन से सारे दुख समाप्त हो गए। मन हाथ आ गया, तो जीवन से सारे कांटे विदा हो गए; फूल ही फूल खिल जाते हैं।
झरत दसहुं दिस मोती!
आज इतना ही।
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
प्रेम सों प्रीति करू, नाम को हृदय धरू,
जोर जम काल सब दूर जाहीं।।
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
रहो अडोल कहुं डोल नाहीं।।
कहै गुलाल किरपा कियो सतगुरु,
परयो अथाह लियो पकरि बाहीं।।
भक्ति-परताप तब पूर सोइ जानिये,
धर्म अरु कर्म से रहत न्यारा।।
राम सों रमि रह्यो जोति में मिलि रह्यो,
दुंद संसार को सहज जारा।।
भर्म भव मारिकै क्रोध को जारिकै,
चित्त धरि चोर को कियो यारा।।
कहै गुलाल सतगुरु किरपा कियो,
हाथ मन लियो तब काल मारा।।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
मणियां हैं सुंदर, अति सुंदर
मणियों की है ज्योति अनश्वर,
शोभा की अनदिखी राशि वर देख तनिक यह जाओ।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
दीप्त कौन था इनसे सागर,
किस मांझी के कला-कुशल कर
ढूंढ इन्हें लाए हैं बाहर, यह मुझसे सुन जाओ।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
सागर मानव का अंतस्तल
भरा भावना का जिसमें जल,
उसमें था कविता मुक्ता-दल, यह परखो, परखाओ!
मणियां बेच रहा हूं आओ!
कविवर मांझी इसके अंदर
उतर कल्पना की डोरी पर,
लाया है इनको चुन-चुन कर; इनका मूल्य लगाओ।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
मणियां कैसी सुंदर, सुंदर,
चमक, दमक, आभा की आकर!
सुषमा की इस अतुल राशि वर से निज हृदय सजाओ।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
इन्हें मोल लेना है निर्भर
केवल मन की भावुकता पर,
कभी नहीं व्यय लाख दाम कर; प्यार करो ले जाओ
मणियां बेच रहा हूं आओ!
सदगुरु सदा यही पुकार देते रहे हैं: मणियां बेच रहा हूं आओ! गुलाल कहते हैं: झरत दसहुं दिस मोती! गुलाल चाहते हैं कि तुम्हारी आंखें भी देख लें कि कितने अदभुत, कितने अलौकिक जगत में जीवन का यह परम अवसर तुम्हें मिला है। इसे ऐसे ही न गंवा देना। यह हीरे जैसा जीवन मिट्टी में न खो जाए। साधारणतः मिट्टी में ही खो जाता है। बहुत थोड़े से लोग ही इसके मूल्य को पहचान पाते हैं। थोड़े से जौहरी।
सदगुरुओं की पुकार जौहरियों के लिए है। और ये मोती ऐसे नहीं हैं कि दामों से खरीदे जा सकें।
इन्हें मोल लेना है निर्भर
केवल मन की भावुकता पर,
कभी नहीं व्यय लाख दाम कर; प्यार करो ले जाओ।
मणियां बेच रहा हूं आओ!
प्रेम के अतिरिक्त और इन्हें पाने का कोई उपाय नहीं है। लोग और सब तरह से इन्हें पाने की चेष्टा करते हैं। तर्क से पाने की चेष्टा करते हैं। तर्क तो प्रेम से बिलकुल विपरीत है। तर्क तो चूकने का सुनिश्चित उपाय है। जिसने तर्क से जीवन को समझना चाहा उसके हाथ से तो जीवन बिलकुल ही छूट जाएगा। तर्क से कोई पाता नहीं जीवन को, गंवाता है। तर्क है मस्तिष्क की बात और प्रेम है हृदय की। तर्क है परिधि, प्रेम है तुम्हारा प्राण। ये बातें तो प्राणों की हैं। ये बातें बातें नहीं हैं, ये विचार विचार नहीं हैं। विचार तो केवल वाहन हैं, शब्द तो केवल संकेत हैं; जिस ओर संकेत है, वह शब्द में बंधता नहीं। जिस ओर इशारा है, उसे विचार में प्रकट करने का कोई उपाय नहीं है। बड़े असमर्थ उपाय हैं ये। पर चूंकि और कोई विकल्प नहीं है इसलिए कहना पड़ता है। मौन तो तुम समझोगे नहीं, इसलिए कहना पड़ता है।
और कहने को भी तुम कहां समझ पाते हो? तुम कुछ का कुछ समझ लेते हो। ऐसा नहीं है कि तुम बुद्धों के पास नहीं गुजरे; जन्मों-जन्मों में असंभव है यह बात कि तुम किसी बुद्ध, किसी महावीर, किसी कबीर, किसी नानक, किसी गुलाल के करीब न आए होओ, किसी गुलाल ने गुलाल तुम्हारे ऊपर भी उड़ाई होगी, मगर तुम धूल-धूसरित हो, गुलाल का कहीं कोई तुम पर अंकन नहीं। कोई कबीर तुम्हें भी पुकारा होगा, मगर तुम बहरे हो, तुमने सुना नहीं। तुम सुनते भी हो तो कुछ का कुछ सुनते हो। करीब भी आ जाते हो तो गलत कारणों से करीब आते हो। और गलत कारण से जो करीब आया, वह करीब आकर भी करीब नहीं आ पाता।
ग्वालियर से कल एक महिला मुझे मिलने आई। ग्वालियर से यहां तक आना, श्रम तो लिया ही! पच्चीस वर्ष पहले विश्वविद्यालय में मेरे साथ पढ़ती थी। पच्चीस वर्षों में तो खोज-खबर उसने कभी ली नहीं। फिर भी कोई बात नहीं, पच्चीस वर्ष बाद भी खबर आ गई, सुबह का भूला सांझ को भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहते। मगर घर आकर भी कोई लौट जाए, तो उसे क्या कहो! वह महिला प्रोफेसर है ग्वालियर में अब। उसने आकर ही कहा कि निजी एकांत में मुझे मिलना है। मैं कोई साधारण नहीं हूं, मैं उनके साथ पढ़ी हूं।... अब साथ पढ़ना तो सांयोगिक है। न तो मेरे कारण वह मेरे साथ पढ़ी, न उसके कारण मैं उसके साथ पढ़ा, यह बिलकुल संयोग की बात थी कि हम एक ही विश्वविद्यालय में थे और एक ही कक्षा में पड़ गए। इसमें कुछ गुण नहीं है। यह कोई बात हमारे हाथ की नहीं थी। यह तो यूं ही समझो कि ट्रेन में तुम सवार हुए और भी लोग सवार हैं, एक ही डिब्बे में मिल गए दो लोग, थोड़ी देर साथ यात्रा हो ली, इसमें कुछ विशिष्टता नहीं हो जाती... लेकिन एकांत चाहिए, अलग से बात करूंगी। लक्ष्मी ने कहा कि मैं तो केवल संन्यासियों से ही मिलता हूं। और पुराने को बिसारो अब! भूली ताहि बिसार दे! चलो, आश्रम घुमा दें, प्रवचन में आ जाओ, फिर भाव होगा तो दर्शन में आ जाना। और भाव घना हो, संन्यास का साहस हो, तो मिलना भी हो जाएगा। वह उठ कर खड़ी हो गई। उसने कहा, जब पुरानी बातें ही खत्म हो गईं, जब भूलने-बिसारने की बात है, तो मुझे आश्रम देखना भी नहीं। मुझे आश्रम देखना भी नहीं, मुझे मिलना भी नहीं। वह महिला उठ कर चली गई। प्रवचन सुनना भी नहीं। प्रवचन मुझे क्या सुनना, मैं तो उनके साथ पढ़ी हूं!
मंदिर के द्वार पर भी आकर कोई लौट जा सकता है। सीढ़ियां चढ़ कर भी कोई उतर जा सकता है। पहुंचते-पहुंचते कोई चूक जा सकता है।
और लोगों के आने के भी कारण बड़े अजीब-अजीब होते हैं।
कोई मुझे पत्र लिखता है कि हम आपको सुनने आते हैं, क्योंकि आपके बोलने का ढंग बहुत प्यारा है। मेरे ढंग को क्या करोगे? खाओगे? पीओगे? ओढ़ोगे? क्या करोगे? मेरा ढंग किस काम आएगा! मैं क्या कह रहा हूं, उसकी फिकर नहीं, ढंग पसंद आता है! ढंग तो असली बात नहीं है। कभी-कभी तो फकीर बड़े बेढंगे ढंग से बोले हैं। उनको तो तुम सुनोगे ही नहीं।
कोई लिखता है कि आपकी शैली सुंदर है, मन को भाती है। जैसे किसी को मेरे वस्त्र मन को भाते हों, और मुझसे कुछ लेना-देना नहीं। किसी को आभूषण भाते हों और व्यक्ति से कोई संबंध नहीं। शैली से क्या प्रयोजन है? शैली की उपादेयता क्या है? यहां कोई शब्दों का लेन-देन हो रहा है? यहां अज्ञात के अवतरण की अभीप्सा की जा रही है। यहां परमात्मा को पुकारा जा रहा है। और तुम शैली में अटकोगे?
कि कोई कहता है कि आपकी कहानियां बड़ी मधुर, हमारे हृदय को छूती हैं। उदास आते हैं तो हंसते हुए लौट जाते हैं। तुम्हारी उदासी दो कौड़ी की है, तुम्हारी हंसी भी दो कौड़ी की। तुम अभी सोए हुए हो, तो तुम तुम्हीं दो कौड़ी के। जागो! हंसी और उदासी का सवाल नहीं है। मैंने कोई कहानी कही और तुम हंस लिए, इससे क्या होगा? दो क्षण के लिए मन बहल जाएगा, मनोरंजन हो जाएगा। यहां कोई तुम्हारा मनोरंजन कर रहा है? मैं तुम्हारा मनोभंजन करना चाहता हूं, तुम मनोरंजन कर रहे हो!
स्टेशन पर पूछताछ विभाग में एक महिला गोद में एक छोटे बच्चे को लेकर पहुंची और बोली कि श्रीमान, क्या आप बता सकते हैं कि बंबई की ओर जाने वाली गाड़ी कितने बजे जाएगी? वह पूछताछ विभाग का अधिकारी कुछ-कुछ हकलाता था, अतः बोला: त् त् तीन बज कर प् प् पचास मिनट पर। पांच-दस मिनट बाद वह युवती फिर आई और बोली कि श्रीमान, क्या आप बता सकते हैं कि बंबई की ओर जाने वाली गाड़ी कितने बजे जाएगी? अधिकारी ने फिर जवाब दिया कि त् त् तीन बज कर प् प् पचास मिनट पर। युवती चली गई।
पांच-दस मिनट बाद युवती फिर आ पहुंची।
ऐसा करीब पांच-छह दफा हुआ। अधिकारी हर बार कहे कि त् त् तीन बज कर प् प् पचास मिनट पर। और युवती पांच-दस मिनट बाद फिर आ जाए। आखिर अधिकारी ने झल्लाते हुए स्वर में कहा: मै-मै-मैडम, आखिर कि-कि-कितने बार पूछेंगी? कि-कि-कितनी बार तो कह चुका कि ब्-ब्-बंबई की ओर जाने वाली गाड़ी त् त् तीन बज कर प् प् पचास मिनट पर जाएगी। युवती बोली कि दरअसल बात यह है श्रीमान जी कि यह तो मेरी समझ में आ गया कि बंबई की ओर जाने वाली गाड़ी कब आएगी, कब जाएगी, पर मेरे बच्चे को आपका त् त् तीन बज कर और प् प् पचास मिनट पर कहना बहुत अच्छा लगा। तो वह बार-बार जिद करता है कि मम्मी, मुझे उसके मुंह से त् त् तीन बज कर प् प् पचास मिनट पर फिर सुनना है। तो इसकी जिद के कारण मुझे बार-बार आना पड़ता है। आप क्षमा करें!
शैली का क्या मूल्य है? छोटे बच्चों की तरह हैं लोग, बूढ़े हो जाएं तो भी। कोई शब्दों में उलझ जाएगा, कोई सिद्धांतों में उलझ जाएगा, कोई शैली में उलझ जाएगा, कोई बोलने के ढंग में उलझ जाएगा, कोई कहानियों में, कोई कविताओं में। मगर मैं जो तुमसे कहना चाहता हूं, वह तुम कब सुनोगे? ये सब तो सुनने से बचने की विधियां हैं। ये सब तो तरकीबें हैं कि कैसे हम सुनने से बच जाएं। ये तो उलझाव हैं। ये तो अटकाव हैं। ऐसे तुमने कितने जन्म गंवाए। यह भी गंवा देना है! ऐसे ही तुम भटकते रहे हो न मालूम कितने रास्तों पर। मौके आते रहे और तुम चूकते रहे। फिर एक मौका आया है। इस मौके को चूक मत जाओ! छोटी-मोटी बातों में मत चूक जाओ।
ग्वालियर से आई इस महिला पर मुझे दया आई। पच्चीस वर्ष पहले जो व्यक्ति था, अब कहां है? पच्चीस वर्ष में गंगा का कितना पानी बह गया! और पच्चीस वर्ष पहले भी यह महिला जब मेरे साथ पढ़ती थी, तब भी मुझे याद नहीं आता कि कभी मेरे और उसके बीच बात हुई हो। तब भी हम अजनबी थे। अब भी अजनबी हैं। लेकिन चूंकि एक ही कक्षा में बैठते थे, चूंकि एक ही कमरे में बैठते थे, यह पर्याप्त हो गया उसके लिए कारण इतने दूर आने और लौट जाने के लिए। यह तो मूढ़ता हो गई! मगर प्रोफेसरों से इससे ज्यादा की आशा की भी नहीं जा सकती। दंभ, अहंकार अजीब-अजीब मांगे करता है।
घड़ी घड़ी गिन, घड़ी देखते काट रहा हूं जीवन के दिन,
क्या सांसों को ढोते-ढोते ही बीतेंगे जीवन के दिन?
सोते-जगते, स्वप्न देखते रातें तो कट भी जाती हैं,
पर यों कैसे कब तक, पूरे होंगे मेरे जीवन के दिन?
कुछ तो हो, हो दुर्घटना ही मेरे इस नीरस जीवन में!
और न हो तो लगे आग ही इस निर्जन बांसी के वन में!
ऊब गया हूं, सोते-सोते, जागे मुझे जगाने लपटें,
गाज गिरे, पर जगे चेतना प्राणहीन इस मन-पाहन में!
हाहाकार कर उठे आत्मा, हो ऐसा आघात अचानक,
वाणी हो चिर-मूक, कहीं से उठे एक चीत्कार भयानक!
बेध कर्णयुग बधिर बना दे उन्हें, चौंक आंखें फट जाएं,
उठे एक आलोक झुलसता, रवि ज्यों नभ के, वह दृग-तारक
कुछ न हुआ! भू-गर्भ न फूटा! हाय न पूरी हुई कामना!
आंखों का अब भी दीवारों से होता है रोज सामना!
कल की तरह आज भी बीता, कल भी रीता ही बीतेगा,
बिना जले ही राख हो गई धुनी रुई सी अचिर कल्पना!
बहुत कल बीत गए व्यर्थ! आने वाले कल भी ऐसे ही बिताने हैं या जागना है? या कि जीवन से नया परिचय करना है? या कि पहचानना है उसे जो जीवन में छिपा है? उस रहस्य का, उस विस्मय का अनुभव करना है? उस परम ज्योति के साथ एक होना है? या यूं ही क्षणभंगुर सपनों के साथ खेलते-खेलते जीवन का अंत कर लेना है? पानी के बबूलों में ही उलझे रहोगे? शब्द तो पानी के बबूले हैं। यह सारा संसार ही पानी का बबूला है। इस संसार में एक है कुछ, जो मिटता नहीं, वह है तुम्हारे भीतर छिपा हुआ साक्षी, द्रष्टा।
आज के सूत्र उसी द्रष्टा के संबंध में हैं। आज के सूत्र बड़े अदभुत हैं। एक-एक सूत्र अमृत जैसा है। इसे पी जाना। इसे प्रविष्ट हो जाने देना अंतर्तम तक। बिंध जाना इससे--जैसे कोई तीर लगे हृदय में और चुभता ही चला जाए और आर-पार हो जाए। गुलाल ने प्यारे शब्द कहे हैं, मगर आज के शब्दों की कोई तुलना नहीं। गुलाल के शब्द भी बाकी फीके पड़ जाते हैं आज के शब्दों के मुकाबले।
सरन संभारि धरि चरनतर रहो परि,
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
‘सरन संभारि धरि’... एक चीज सम्हाल लो, शरणागत होना सम्हाल लो, समर्पित होना सम्हाल लो, एक चीज सम्हाल लो कि अहंकार को हटा कर रख दो और गिर जाओ उस अनंत के चरणों में, इस जगत में इतना ही सम्हाल लिया तो सब सम्हाल लिया। मगर हम इससे उलटा ही करते हैं। अकड़े ही खड़े रहते हैं। अहंकार को सम्हालते हैं, शरणागति को नहीं, समर्पण को नहीं। मैं कुछ हूं, यह भाव लिए, यह बोझ लिए कितनी आपा-धापी करते हैं! मैं कुछ हूं, यह सिद्ध करने के लिए कितने उपाय करते हैं! कैसे-कैसे उलटे-सीधे उपाय करते हैं! आदमी कुछ भी करने को राजी है यह सिद्ध करने को कि मैं कुछ हूं। संत बनने को राजी है, चाहे कितना ही कष्ट देना पड़े। पापी बनने को राजी है, चाहे कितनी ही प्रताड़ना झेलनी पड़े, चाहे कितना ही प्रायश्चित्त करना पड़े--लेकिन मैं कुछ हूं!
एक जेलखाने में एक नया कैदी आया। कैदी काफी बढ़ गए थे, जेलखाने में जगह कम थी, तो एक-एक कोठरी में दो-दो कैदी रखे जा रहे थे। जो पहले से कैदी अपना बिस्तर जमाए हुए था, उसने अपने बिस्तर पर पड़े ही पड़े पूछा कि भाई, कितने दिन की सजा हुई है? नये आगंतुक ने कहा कि तीन साल की। तो कहा कि तू दरवाजे के पास ही बिस्तर लगा; हम बीस साल रहने वाले हैं इधर; तूने अपने को समझा क्या है!
जेलखाने में भी हिसाब होता है। बीस साल जो रहने वाला है, वह मतलब पहुंचा हुआ दादा है। तेरी औकात क्या? तीन साल! सिक्खड़ दिखता है! वहीं दरवाजे के पास लगा ले! तीन साल तो यूं गुजर जाएंगे। दरवाजे के पास से ही निकल जाना, जैसे आया वैसे ही चले जाना, यहां ज्यादा भीतर घुसने की जरूरत नहीं है।
अपराधी भी अपने अपराधों को बड़ा कर-कर के बताते हैं। क्योंकि छोटा कोई होना नहीं चाहता। अपराधी भी अपने अपराध को बड़ा करते हैं, इस जगत में ऐसा आश्चर्य है! क्योंकि वे भी कहना चाहते हैं कि हम कोई छोटे-मोटे अपराधी नहीं हैं, हम बड़े अपराधी हैं। जैसे साधु-संत भी अपने कृत्यों को बड़ा कर-कर के बताना चाहते हैं। दो-चार दिन का उपवास करेंगे, लेकिन गिनती कराएंगे चालीस दिन की। थोड़े-बहुत योगासन कर लेंगे, लेकिन बात यों करेंगे कि जैसे सैकड़ों वर्षों से हिमालय में साधना कर रहे थे।
एक यात्री पश्चिम से भारत आया हुआ था, किसी साधु की तलाश में। हिमालय गया। और कहां जाए! खबर मिली कि एक साधु बहुत प्राचीन; सात सौ वर्ष तो उसकी उम्र है। बड़ा प्रभावित हुआ। पहुंचा। देख कर लगा कि ज्यादा से ज्यादा साठ साल का होगा। बहुत हो तो सत्तर। सात सौ साल! पाश्चात्य वैज्ञानिक बुद्धि को यह बात समझ में आई नहीं। मगर भीड़ में बड़ा उत्सव चल रहा है, चरणों पर पैसे चढ़ाए जा रहे हैं, पूजा-आरती उतर रही है, उसने कहा कि पूछूं भी तो किससे पूछूं? खोज-बीन करके उसके पता लगाया कि एक आदमी इसकी सेवा करता है, वह इसके पास कई वर्षों से है। उसको पकड़ा एकांत में। उससे कहा कि भैया, एक बात पूछनी है, सच में तेरे गुरु की उम्र सात सौ वर्ष है? उसने कहा: भाई, मैं कुछ कह नहीं सकता, मैं तो केवल तीन सौ साल से उनके साथ हूं। तीन सौ साल तक की बात मैं कर सकता हूं, उसके आगे का मुझे पता नहीं! मगर जब मैं आया था तब भी वे ऐसे ही लगते थे जैसे अब लगते हैं।
उम्रें बढ़ा कर बताई जाएंगी। साधु-संत उम्रें बढ़ा कर बताएंगे। स्त्रियां उम्रें कम करके बताएंगी। मगर मामला एक ही है, भेद नहीं, बात वही है अहंकार की। स्त्री का मूल्य है उसकी उम्र के कम होने में। साधु-संतों का मूल्य है उनकी उम्र के ज्यादा होने में। जैसे कि उम्र के ज्यादा होने से कोई ज्ञानी हो जाता है! बुद्धू हो तो उम्र के ज्यादा होने से और बुद्धू हो जाओगे। और बुद्धूपन पक जाएगा। पहले कच्चा था, अब बिलकुल पक गया। उम्र के ज्यादा होने से कोई ज्ञान होता है! लेकिन उम्र के दावे होते हैं। स्त्रियां उम्र के संबंध में कम करके बताती हैं। अटकी ही रहती हैं। एक-एक साल बढ़ने में चार-चार, पांच-पांच साल लेती हैं।
एक जुआघर में दो महिलाएं प्रविष्ट हुईं। होगी पेरिस की घटना। पहली महिला उत्सुक थी दंाव लगाने को, दूसरी ने कहा कि दांव तो मैं भी लगाना चाहती हूं, लेकिन किस नंबर पर लगाना? पहली महिला ने कहा: मेरा तो हिसाब हमेशा एक है। अपनी उम्र के ही नंबर पर मैं लगाती हूं। जितनी उम्र, उतने नंबर पर लगाती हूं। और मैं अक्सर जीतती हूं। दूसरी ने कहा: मैं भी कोशिश करती हूं। उसने चौबीस नंबर पर दांव लगाया। यंत्र घूमा और छत्तीस पर रुका। वह स्त्री एकदम बेहोश होकर गिर पड़ी। उसने कहा: हे राम! इस यंत्र को कैसे पता चला कि मेरी उम्र छत्तीस है?
इतना फासला तो स्त्रियां रखती हैं। चौबीस और छत्तीस का फासला तो रहेगा ही। मगर बात वही है। स्त्रियां युवा हों तो उनका मूल्य है। और साधु जितने बूढ़े हों उतना उनका मूल्य है। तो साधु अपनी उम्रें बड़ी कर लेंगे। धन का मूल्य है, अगर तुम संसार में हो; अगर तुमने त्याग कर दिया, तो तुमने कितना धन छोड़ा, इसका मूल्य है। संसार में लोग धन के संबंध में झूठे आंकड़े बताए फिरते हैं। जो उनके पास नहीं है, दिखलाते हैं उनके पास है। और त्यागी झूठी बातें करते रहते हैं--जो उनके पास कभी था ही नहीं, कहते हैं उसको छोड़ दिया, उसका त्याग कर दिया।
अहंकार न मालूम कितने सूक्ष्म रास्तों से अपने को भरता है। पांडित्य से भर लेता है, धन से भर लेता है, त्याग से भर लेता है। इसके रास्ते बड़े बारीक हैं। और इसके रास्ते बड़े अचेतन हैं। शरणागति का अर्थ है इससे उलटा: सब परमात्मा पर छोड़ देना, कहना मैं तो कुछ भी नहीं हूं, तू ही है। गुलाल कहते हैं: ‘सरन संभारि धरि’, बस, एक बात सम्हाल कर रख लो तो संपदा बच गई, तो तुमने जीवन का सत्य पा लिया, शरण को सम्हाल लो। और तुम सम्हाल रहे अहंकार को! ‘चरनतर रहो परि’, शरणभाव रहे और गिर पड़ो चरणों में, अज्ञात के चरणों में। यह सिर उठाए-उठाए मत चलो। यह अकड़ ही तुम्हें ले डूबेगी। इस अकड़ ने कितनों को डुबाया। और जिन्होंने अकड़ छोड़ दी, वे तर गए, वे उस पार पहुंच गए।
सरन संभारि धरि चरनतर रहो परि,
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
दुनिया में बस एक ही जाल है, एक ही काल है, वह है तुम्हारा अहंकार। और कोई दूसरा काल नहीं, और दूसरा कोई जाल नहीं। संक्षिप्त से वचन में जैसे सारे शास्त्रों का सार आ गया--
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
मृत्यु भी अहंकार की। काल यानी मृत्यु। इसे समझना। अगर तुम अहंकार छोड़ दो तो तुम मर ही नहीं सकते। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हारा शरीर सदा रहेगा। शरीर तो मिट्टी है सो मिट्टी में गिरेगा। लेकिन तुम सदा रहोगे। लेकिन तुम सदा तभी रह सकते हो जब तुम तुम न रह जाओ, जब मैं में ‘मैं’ न रह जाए। जब तुम्हारे भीतर मैं-भाव मिट जाता है, तो कौन बचता है? जो बचता है, वही परमात्मा है। जो शेष रह जाता है, शून्य, वही पूर्ण है। उसकी कोई मृत्यु नहीं।
तुम क्यों मृत्यु से इतने घबड़ाए हुए हो? क्योंकि यह अहंकार कि मैं अलग हूं, भयभीत कर रहा है तुम्हें। आज नहीं कल मौत आएगी और मिटा कर रख देगी। और निश्चित ही मौत आएगी और अहंकार को मिटा कर रख देगी। क्योंकि अहंकार तो बस ताशों का घर है। ताश के पत्तों का घर है। जरा सा हवा का झोंका और गया। ऐसे घर में जो रहेगा, वह डरा-डरा रहेगा ही। ऐसे घर के बाहर निकल आओ, खुले आकाश के नीचे रहो, फिर गिरने का कोई भय नहीं, फिर दबने का कोई भय नहीं। अहंकार के भीतर रहना, एक झूठ के भीतर रहना है। और झूठ तो गिरेगी ही गिरेगी। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। कितना सम्हालोगे?
और झूठ को सम्हालने से सार क्या है! सिर्फ समय गंवाते हो। सिर्फ ऊर्जा गंवाते हो। इस झूठ को झूठ की तरह देख लो। मैं अलग नहीं हूं, तुम अलग नहीं हो, हम सब अस्तित्व के अंग हैं। जैसे सागर की लहरें, ऐसे हम सब एक ही सागर की लहरें हैं। जिस दिन यह जान लोगे, फिर क्या मिटने का डर! लहर मिट कर भी सागर में रहेगी। नदी डरती है सागर में उतरने से, क्योंकि उसका व्यक्तित्व खो जाएगा। गंगा गंगा न रहेगी, गोदावरी गोदावरी न रहेगी, सागर ही सागर हो जाएगा। और गंगा को कितना सम्मान मिला! कितने तीर्थ बने! कितना माहात्म्य! कितने गीत गाए गए! और सागर में मिलते वक्त गंगा डरेगी नहीं तो क्या होगा! घबड़ाएगी नहीं तो क्या होगा! चाहेगी रुक जाए। मगर कोई रुक सका है? आज नहीं कल सागर में गिरना ही होगा। और सागर में गिरे तो छूटे तट, छूटा पुराना तादात्म्य, छूटा पुराना नाम-धाम, पता-ठिकाना, गंगा गई, सागर में लीन हो गई। मगर मिटी थोड़े ही।
इस जगत में कुछ भी मिटता नहीं। तुम्हारा शरीर भी नहीं मिटेगा। सिर्फ मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। और तुम्हारी आत्मा भी नहीं मिटेगी। आत्मा परमात्मामय है। अगर कोई चीज मिटेगी तो वही मिटेगी जो है ही नहीं। अहंकार मिटेगा, जो कि तुम्हारी कल्पनामात्र है; जो कि तुमने व्यर्थ ही, झूठ ही खड़ा कर लिया है।
अहंकार नाम जैसा ही है। जैसे बच्चा पैदा होता है तो हम कुछ नाम दे देते हैं। नाम देना जरूरी है। इस संसार में उपयोगिता है। नहीं तो ढूंढोगे कहां? चिट्ठी-पत्री लिखनी हो और नाम न हो आदमी का! बाप को बेटे को बुलाना हो और बेटे का नाम न हो! कुछ तो नाम रखना ही पड़ेगा।
एक व्यक्ति ने उपन्यास लिखा। उपन्यास तो लिख गया बड़ा पुथंगा, मगर शीर्षक क्या दे, यह उसकी समझ में न आए। मेरे पास आया। उसका पुथंगा देख कर मैं भी डरा। शीर्षक देना हो तो पहले पुथंगा में उतरना पड़े, उसको देखना पड़े कि उसने लिखा क्या है! मैंने उससे कहा: ऐसा कर भैया, तू मुल्ला नसरुद्दीन के पास चला जा; वे बड़े कुशल हैं। वह चला गया और पांच ही मिनट बाद लौट आया और कहा कि उन्होंने तो एकदम से नाम बता दिया। हैं कुशल। नाम एकदम से बता दिया। मैंने कहा: क्या नाम रखा उन्होंने? उसने कहा कि बड़ा सुंदर नाम रखा है, आकर्षक है, एकदम मन को लुभाए: न ढोल, न नगाड़ा। मैंने कहा कि यह उसने पता कैसे लगाया? उसने कहा: कुछ नहीं, मुझसे पूछा कि इसमें ढोल की चर्चा तो नहीं है? मैंने कहा: नहीं। उसने कहा: नगाड़े की चर्चा तो नहीं है? मैंने कहा: नहीं। उसने कहा: बस तो फिर नाम तय हो गया: न ढोल, न नगाड़ा। अब पढ़ो, बेटा, जिसको भी पढ़ना है, आखिर में पता चलेगा कि न ढोल, न नगाड़ा। कुछ न कुछ तो नाम रखना ही पड़ेगा। तो मैंने कहा: बात तो ठीक है! काम चल जाएगा। ऐसे ही तो नाम रखने पड़ते हैं। न ढोल, न नगाड़ा।
बच्चा पैदा होता, हम नाम देते हैं। बच्चा कोई नाम लेकर आता नहीं। जैसे नाम देते हैं, ऐसे ही धीरे-धीरे, शनैः-शनैः हम उसे अहंकार देते हैं। हम उसे सिखाते हैं कि तू अलग है, तू पृथक है। हम उसे सिखाते हैं, तू विशिष्ट है। तू ब्राह्मण है, तू जैन है, तू हिंदू है, तू मुसलमान है। तू कुलीन घर में पैदा हुआ है, यह हमारी वंश-परंपरा बड़ी प्रतिष्ठित है, इस वंश-परंपरा में बड़े-बड़े लोग हो गए हैं, बड़ा नाम कर गए हैं, तुझे भी नाम कर जाना है, संसार में आया है तो कुछ नाम करके दिखा कर जाना, कुछ होकर रहना--हम उसे महत्वाकांक्षा सिखाते हैं। ये अहंकार के पाठ हैं। हम उसे स्कूल में भेजते हैं, जहां प्रथम आना है। प्रथम आओ तो सम्मान है। उत्तीर्ण हो जाओ तो सम्मान है। असफल हो जाओ तो असम्मान है।
सम्मान-अपमान अहंकार को सम्हालने के उपाय हैं। अपमान से हम कहते हैं कि तुम सम्हाल न पाए ठीक से। सम्मान से हम कहते हैं, खूब सम्हाला, ठीक सम्हाला; पुरस्कृत करते हैं। ऐसे पच्चीस वर्षों में हम धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अहंकार को मजबूत कर देते हैं। फिर यह व्यक्ति इसी अहंकार के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। एक झूठ, एक सरासर झूठ, जिस पर इसका सारा जीवन बलिदान हो जाएगा।
और तब मौत का डर लगता है। मैं हूं, तो डर लगता है कि मिटूंगा, चिता पर जलूंगा, प्राण कंपते हैं, भय पकड़ता है। इस भय में कैसे प्रेम पैदा हो? इस भय से कैसे भक्ति जगे? इस भय से तो जो भगवान भी जगता है, वह भी झूठा होता है। इस भय का ही रूपांतरण होता है, इस भय का ही प्रक्षेपण होता है।
गुलाल का सूत्र याद रखो:
सरन संभारि धरि चरनतर रहो परि,
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
बस, एक ही काल है, एक ही मृत्यु है, अगर अहंकार है। और अगर अहंकार है तो बहुत जाल पैदा हो जाएंगे। क्योंकि अहंकार मांगेगा: और धन लाओ, इतने से काम नहीं चलता, पड़ोसी के पास ज्यादा है; और बड़ा पद चाहिए, दूसरे लोग बड़े पदों पर पहुंच गए हैं।
एक मुर्गे ने अपने बाड़े की सारी मुर्गियों को इकट्ठा किया और कहा कि चलो मेरे पास आओ, कुछ कहना है! हालांकि मैं किसी का अपमान नहीं करना चाहता और न कोई ऐसी बात कहना चाहता हूं कि तुम्हें दुख पहुंचे, मगर सत्य को कहना ही पड़ेगा। पड़ोसी के बच्चे ने खेलते हुए एक फुटबॉल इस तरफ फेंक दी बाड़े में, उस फुटबॉल के पास मुर्गे ने सब मुर्गियों को इकट्ठा कर लिया और कहा, देखो, पड़ोसी की मुर्गियां कैसे अंडे दे रही हैं! तुम्हें दुख नहीं पहुंचाना चाहता, मगर कुछ ध्यान रखो। पड़ोस में क्या चमत्कार हो रहा है! और एक हम हैं कि वही छोटे-छोटे मुर्गे, छोटे-छोटे चूजे, छोटे-छोटे अंडे। इसको कहते हैं अंडा!... फुटबॉल।
लेकिन यही मनुष्य की भाषा है। पड़ोसी की बगिया की घास ज्यादा हरी मालूम होती है। पड़ोसी की स्त्री ज्यादा सुंदर मालूम होती है। पड़ोसी का मकान प्यारा लगता है। और हो सकता है पड़ोसी इसी तरह तुम्हारे प्रति जलन से भरा हो। उसे तुम्हारी घास सुंदर लगती है और तुम्हारी पत्नी प्यारी लगती है। उसे लगता है तुम्हारे जीवन में सुख ही सुख है, जैसा तुम्हें लगता है उसके जीवन में सुख ही सुख है। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। जितना दूर हो ढोल उतना ही सुहावना लगता है। पास पहुंच कर भद्द खुल जाती है। लेकिन तब तक हमें और ढोल दिखाई पड़ने लगते हैं जो दूर हैं। तब तक हम उनकी आकांक्षाओं से भर जाते हैं। एक वासना गिरती नहीं कि हजार नई वासनाएं खड़ी हो जाती हैं।
अहंकार जाल खड़े करता है। वह कहता है, इतने से धन से क्या होगा? इतने से धन से तो टुटपुंजिया समझे जाओगे! अरे, लोगों के पास करोड़ों हैं! जिसके पास हजार हैं, वह लाखों चाहता है; जिसके पास लाखों हैं, वह करोड़ों चाहता है; जिसके पास करोड़ों हैं, वह अरबों चाहता है; जिसके पास अरबों हैं, वह खरबों की दौड़ में लगा है--दौड़ का जैसे कोई अंत ही नहीं है। जिंदगी का अंत है, दौड़ का अंत नहीं। इसलिए हर आदमी अतृप्त मरता है, असंतुष्ट मरता है, पीड़ा में मरता है, दीन-हीन मरता है, रोता हुआ मरता है कि कुछ भी तो न कर पाया। बड़ी आकांक्षाएं लेकर चलते हैं और सब आकांक्षाएं धीरे-धीरे व्यर्थ हो जाती हैं। और ऐसा नहीं कि हम दौड़ते कम हैं, और ऐसा भी नहीं कि हम श्रम कम करते हैं, श्रम हम करते हैं, दौड़ते भी हम हैं, मगर आकांक्षाओं के जगत में कोई मंजिल होती ही नहीं, मार्ग ही होता है--सिर्फ मार्ग, जो गोल-गोल घुमाता रहता है। उसको ही जाल कहा है।
और फिर एक जाल हो तो भी ठीक, जाल में जाल हैं, बहुत जाल हैं। एक से बचते हैं तो दूसरा जाल पकड़ लेता है। दूसरे से बचते हैं तो तीसरा पकड़ लेता है। जैसे मकड़ी अपने भीतर से ही जाले को बुनती है, ऐसे ही हम अपने अहंकार से जाल निकालते हैं और बुनते जाते हैं। फिर खुद ही फंस जाते हैं। खुद ही चिल्लाते हैं: बचाओ, बचाओ! बचाने की कोई जरूरत नहीं है, अपने जाल समझ लो। अपना फैलाना बंद करो तुम, बचे ही हुए हो। कोई बचाने की जरूरत नहीं। किसी बचावनहारे की जरूरत नहीं। किसी क्राइस्ट की, किसी महावीर की, किसी बुद्ध की, कोई बचावनहारे की जरूरत नहीं है। अपना जाल समेट लो! बहुत फैला लिया है जाल। अब तुम्हें भरोसा ही नहीं आता कि इसको समेटा भी जा सकता है। इतना बड़ा हो गया है, तुमसे बहुत बड़ा हो गया है।
लेकिन तुमने फैलाया है तो समेटा भी जा सकता है। और समेटने की सबसे सुगम व्यवस्था है: जड़ को काट दो। जिस अहंकार से ये सारे पत्ते ऊगे हैं, उस अहंकार को काट दो। यह वृक्ष सूख जाएगा, अपने से सूख जाएगा, तुम्हें कुछ करना न होगा। पत्ते-पत्ते तोड़ने मत चले जाना, नहीं तो मुश्किल में पड़ोगे। पत्ते तोड़ने से क्या होने वाला है? एक पत्ता तोड़ोगे, तीन निकल आएंगे। पत्ते तोड़ने से तो वृक्ष में पत्ते और सघन हो जाते हैं। इसीलिए तो वृक्षों की हम कलमें करते हैं, वृक्षों को हम काटते हैं, उनको घना करने के लिए। जड़ को काट दो।
जड़ की ही बात कह रहे हैं गुलाल--
काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।
जिनसे तुम सलाह लेते हो--पंडितों से, पुरोहितों से, तुम्हारे तथाकथित महात्माओं से--वे भी तुम्हारे जैसे ही जाल में पड़े हुए हैं। हो सकता है उनके जाल थोड़ा आध्यात्मिक रंग लिए हों। हो सकता है उनके जाल थोड़े धार्मिक हों, पारलौकिक हों। जरा उनके भीतर झांक कर देखो, वे आकांक्षाएं लगाए बैठे हैं कि स्वर्ग में विशेष स्थान होगा।
मैं एक दिन एक रास्ते से गुजर रहा था, एक महिला ने मेरी गाड़ी रोकी, पास आई, मुझे कुछ पैंफलेट दिए। ईसाई महिला थी। लौट कर मैंने पैम्फलेटों पर नजर डाली। एक तो मुझे भी जंचा। एक बहुत सुंदर भवन पैम्फलेट के कवर पर ही बना था। झरना बह रहा है पास में, स्विमिंग-पूल है, वृक्ष लगे हैं, बंगला है और ऊपर लिखा हुआ है कि क्या आप इस तरह के बंगले में रहना चाहते हैं? मैंने कहा कि मामला क्या है, यह बंगला है कहां! मैंने अंदर खोल कर देखा, पता चला ये परलोक की बातें हैं, इस लोक की नहीं। वह ईसाई महिला थी, जो प्रचार कर रही थी अपने चर्च का। और ईसा मसीह में जो भरोसा करेंगे, उनको परलोक में ऐसे बंगले मिलेंगे।
सारे धर्मों ने ये प्रचार किए हैं।
हिंदू कहते हैं, कल्पवृक्ष मिलेगा वहां परलोक में। उसके नीचे बैठो कि सब कल्पनाएं पूरी हो जाती हैं। कुछ करना नहीं, कुछ धरना नहीं। आलस्य हिंदुओं की बड़ी पुरातन संपदा मालूम होती है। कुछ करना नहीं, कुछ धरना नहीं।
कल्पवृक्ष की कल्पना महान आलसियों की कल्पना है। बैठे उसके नीचे, भाव किया, तत्क्षण पूरा हुआ। तत्क्षण! घड़ी भी नहीं देखनी पड़ती। इधर भाव हुआ, उधर पूरा हुआ। ऐसा नहीं कि होटल में बैठे हो, वेटर को कहा कि चाय लाओ और वह नदारद है और घंटों बीत गए और उसका पता ही नहीं है। तत्क्षण घटना घट जाती है। भाव और उसके पूरे होने में कोई बीच में काल का व्यवधान नहीं होता। महान आलसियों ने यह कल्पना की होगी।
मगर इसी तरह और धर्म हैं।
स्वर्ग की बड़ी कल्पनाएं की गई हैं। सभी धर्मों ने की हैं। ये तुम्हें जो महात्मा दिखाई पड़ते हैं धर्मों के, ये बिचारे बैठे हैं, ये कह रहे हैं, थोड़े दिन की तकलीफ और है, झेल लो; कुछ दिन और कर लो उपवास; कुछ ही दिन का मामला है; अरे, इतना तो काट ही दिया, अब और थोड़े दिन की बात है, काट लो, फिर तो मजा ही मजा है। और मजा भी कैसे? जिन चीजों की यहां निंदा की जा रही है, वही चीजें वहां उपलब्ध होंगी। यहां शराब पीने की मनाही है,... कुरान कहती है शराब पाप है, शराब छूना पाप है, यहां पीना मना है--और बहिश्त में, स्वर्ग में? शराब के झरने बह रहे हैं। यह कैसा पाप हुआ? अगर यह पाप है तो बहिश्त में तो शराब मिलनी ही नहीं चाहिए।
यह कैसा परमात्मा है कि वहां झरने बहा रहा है? लेकिन वहां झरने बहाना पड़ेंगे। नहीं तो यहां महात्मा नहीं बचेंगे। यहां महात्मा उसी झरनों की आशा में तो बिचारे महात्मा हैं! शराब-वराब छोड़ कर बैठे हैं, शराब क्या चाय-काफी तक छोड़ कर बैठे हैं, आशा में बैठे हैं कि और थोड़े दिन की बात है, अरे, गुजार लो; इतनी तो गुजार दी, थोड़ी रही; बहुत तो गुजार दी, अब गए, तब गए, फिर तो मजा ही मजा है--अनंतकाल तक। फिर ऐसा भी नहीं है कि थोड़े-बहुत दिन में चुक जाए मामला। अनंतकाल तक! तैरो शराब में, डुबकियां मारो, जो करना हो, पीओ, पिलाओ--झरने बह रहे हैं।
किनकी यह कल्पना होगी?
सुंदर स्त्रियां उपलब्ध हैं, सभी लोगों के स्वर्गो में--सुंदरतम स्त्रियां। यहां स्त्री नरक का द्वार है। स्वर्ग में स्त्रियां क्या कर रही हैं? स्वर्ग में स्त्रियों की क्या जरूरत--अगर स्त्री नरक का द्वार है? और यहां महात्मागण समझा रहे हैं कि स्त्री से बचो। मगर किसलिए बचो? इसीलिए ताकि अप्सराएं मिल सकें। यह गणित बिलकुल साफ है। जो यहां छोड़ेगा, वहां पाएगा। करोड़ गुना पाएगा। यहां क्या है, एक साधारण स्त्री छोड़ दी--हड्डी-मांस-मज्जा! यहां की स्त्री की तो बड़ी निंदा है। निंदा का कारण? क्योंकि वह हड्डी-मांस-मज्जा की बनी है। और तुम? पुरुष जैसे हीरे-जवाहरातों के बने हैं! स्त्रियों के भीतर तो मल-मूत्र भरा हुआ है। और पुरुषों के भीतर? अमृत भरा हुआ है?
जो पुरुष ये बातें लिख रहे थे शास्त्रों में, इनकी मूढ़ता का कोई अंत है! स्त्रियां तो मल-मूत्र से भरी हुई हैं; और ये खुद, ये लेखक शास्त्रों के, ये जिन हाथों से लिख रहे हैं, उनमें क्या भरा हुआ है? उन्हीं स्त्रियों से पैदा हुए हैं, उन्हीं स्त्रियों के हिस्से हैं, उन्हीं स्त्रियों के गर्भ में रहे हैं जहां मल-मूत्र भरा हुआ है, नौ महीने मजे से मल-मूत्र में डुबकी लगाते रहे, अब महात्मा हो गए हैं! और अब भी आकांक्षा क्या है? आकांक्षा यही है कि मिलेंगी अप्सराएं! अप्सराओं में उन्होंने सारी व्यवस्था कर ली है, जो आदमी यहां नहीं कर पा रहा है। विज्ञान कोशिश करता है यहीं करने की, धर्म कोशिश करते हैं वहां करने की। वहां के संबंध में एक सुविधा है। कोई लौट कर आता नहीं। पता नहीं चलता कि हो पाई व्यवस्था कि नहीं हो पाई। हालात वहां कैसे हैं, कुछ पक्का पता नहीं। विज्ञान कोशिश करता है यहीं, स्त्रियों को जवान रखो, हारमोन के इंजेक्शन दो, देर तक जवान रखो। और अप्सराएं? लगता है स्वर्ग में जो हारमोन हम नहीं खोज पाए उन्होंने खोज लिए हैं। अप्सराएं रुकी हैं। भारतीय अप्सराएं तो सोलह साल पर रुकी हैं। क्योंकि भारतीय कल्पना है, सोलह साल में स्त्री सर्वांग सुंदर होती है। तो सोलह साल पर ही रुकी हुई हैं। उर्वशी पांच हजार साल पहले भी सोलह साल की थी, अभी भी सोलह साल की है। गपबाजी की भी कुछ हद होती है!
और पसीना नहीं आता वहां स्त्रियों को। वैज्ञानिक बेचारा कोशिश करता है, डियोडरेंट खोजो, सिंथाल साबुन बनाओ कि जिससे पसीने की बदबू न आए, परफ्यूम खोजो, तरह-तरह की सुगंधियां छिड़को, ताकि किसी तरह से शरीर की गंध न मालूम पड़े, स्वर्ग में राज मालूम होता है खोज लिया गया है। ऐसा लगता है अप्सराएं प्लास्टिक की बनी हैं। न पसीना आता... सिर्फ प्लास्टिक को पसीना नहीं आता। सिंथेटिक किसी भी चीज की बनी होंगी।... न पसीना आता है, न बास आती है। वे तो शास्त्र पुराने हैं, अगर नये लिखे जाएं, तो उसमें यह भी व्यवस्था करनी पड़ेगी कि स्त्रियां ऐसी हैं कि जब चाहो हवा निकाल कर अपने बिस्तर में बंद कर लो, फिर पंप मारो, हवा भर दो, फिर स्त्री खड़ी हो गई। अगर नया कोई शास्त्र लिखे... जैसे कि मैं पुराण लिखूं; कभी-कभी सोचता हूं कि लिखूं; तो उसमें स्त्री को तो फिर ऐसी ही बनाना पड़ेगा कि जब दिल आया तब हवा निकाल दी, जब दिल आया हवा भर ली--और नहीं तो अपनी जेब में रखी स्त्री, चल पड़े!
ऋषि-मुनि जो न करें थोड़ा है। स्वर्ग की आकांक्षा लगाए बैठे हैं। वहां सुख ही सुख है। वहां दुख है ही नहीं। उस सुख की आकांक्षा में यहां कितने ही दुख झेल लें। यह कीमत है जो चुका रहे हैं वे। मगर भेद कुछ भी नहीं है। तुम में और तुम्हारे महात्माओं में कुछ भेद नहीं है। क्योंकि वासना वही की वही है। परलोक की करो कि इस लोक की करो। तुम्हारे महात्मा तुमसे ज्यादा लोभी हैं, तुमसे ज्यादा बेईमान।
एक दिन चंदूलाल अपने गुरुदेव मटकानाथ ब्रह्मचारी से कह रहा था कि महात्माजी, मैं तो बड़ी दुविधा में इस समय पड़ा हुआ हूं। मेरी एक प्रेमिका है जो खूबसूरत है, लेकिन अमीर नहीं; दूसरी प्रेमिका के पास पैसा बहुत है, लेकिन है बिलकुल कुरूप। ऐसी कि बस पूछो मत! प्रेतिनी दिखती है। मगर पैसा बहुत है। मुझे समझ नहीं आता कि मैं किससे प्रेम करूं? महात्मा ने कहा: अरे चंदूलाल, बच्चा इसमें सोचने की क्या बात है? तू तो उस गरीब सुंदरी से ही विवाह कर! पैसा तो हाथ का मैल है। आज है, कल नहीं होगा। और फिर कितना ही हो, एक न एक दिन तो खत्म हो ही जाएगा। तू मेरी सलाह मान! तू तो अपनी खूबसूरत गरीब प्रेमिका को ही जीवनसंगिनी चुन! प्रेम तो परमात्मा है, कह गए महात्मा हैं। बहती गंगा, भइया चंदूलाल, अवसर न चूको! ऐसे शुभ अवसर अनेक जन्मों के शुभ कर्मों के, सदकर्मों के बाद ही मिलते हैं।
चंदूलाल को बात जंची। महात्मा के चरण छू कर धन्यवाद देकर जाने को ही हुआ कि महात्मा मटकानाथ ने कहा कि बच्चा, कम से कम जाते समय उस पैसे वाली अमीर स्त्री का पता तो मुझे देता जा! बहती गंगा, भैया तू स्नान कर, पर कम से कम मुझे भी हाथ धो लेने दे! तू मणि-माणिक्य ले ले, मगर मुझे भी कंकड़-पत्थर तो लेने दे; उनसे तो वंचित न कर!
तुम जरा अपने महात्माओं को देखो! तुमको समझा रहे हैं कि पैसा तो हाथ का मैल है, लेकिन नजर तुम्हारे पैसे पर ही लगी है; तुम्हारी जेब पर लगी हुई है। महात्मा को पैसा दो तो महात्मा तुम्हारा सम्मान करता है।
जैनों के एक बहुत बड़े मुनि हैं, कांजी स्वामी। एक बार भूल से, मैं रास्ते से गुजर रहा था, और उनका प्रवचन हो रहा था, जबलपुर में, तो मैं गाड़ी रोक कर थोड़ी देर सुना कि क्या कह रहे हैं महात्मा। और तो सब ठीक ही था, दो बातें बहुत अदभुत कर रहे थे वे। एक तो हर वाक्य के पीछे कहते थे: ‘समझ में आया?’ जैसे कोई मूढ़ों की जमात बैठी हो। फिर मैंने कहा: है भी बात ठीक, मूढ़ों की ही जमात इनको सुन रही है! क्योंकि वे जो कह रहे थे, बिलकुल कूड़ा-कचरा था, उसमें कुछ था ही नहीं और वे उसमें भी कहें: ‘समझ में आया?’ एक था राजा, एक थी रानी, समझ में आया? तो मैं बहुत हैरान हुआ कि यह तो हद हो गई। इसमें समझने जैसी कोई बात ही नहीं है!
और दूसरी बात जो वे समझा रहे थे, वे यह कह रहे थे कि धन तो हाथ का मैल है, मगर बीच-बीच में सेठ चुन्नीलाल आ गए, कि सेठ दुलीचंद आ गए, कि सेठ कालू मल आ गए, तो प्रवचन रोक दें, कि आइए चुन्नीलाल जी, बैठिए! फिर प्रवचन शुरू। आइए, धन्नालाल जी, बैठिए! फिर प्रवचन शुरू। मैंने उनके एक शिष्य से पूछा कि ये धन्नालाल, ये चुन्नीलाल ये फलाने-ढिकाने, इनका नाम ये बार-बार बीच में कैसे आ जाता है? उन्होंने कहा: ये लोग दान देते हैं। ये दानी लोग हैं।
धन जो है, वह हाथ का मैल है, और चुन्नीलाल ने हाथ का मैल दे दिया कांजी स्वामी को और कांजी स्वामी बीच प्रवचन में रोकते हैं: ‘बैठो, चुन्नीलाल!’
समझ में आया, यह भी वे नाम ले-ले कर पूछते हैं। ‘चुन्नीलाल, समझ में आया?’ इससे चुन्नीलाल को बहुत आनंद आता है कि हजारों लोगों के बीच उनका नाम लिया गया, वे कुछ खास हैं। एक तो आगे बैठे हैं, फिर ‘चुन्नीलाल, समझ में आया?’ चुन्नीलाल सिर हिलाते हैं कि हां, महाराज!
धन को गालियां दी जा रही हैं, धन को हाथ का मैल बताया जाता है--और दूसरी तरफ यह भी कहा जाता है कि धन मिलता है पिछले जन्मों के पुण्य कर्मों से। यह बड़े मजे की बात है! पुण्य कर्म करो, मिले हाथ का मैल! जरा तुम सोचो भी तो, पुण्य कर्म का यह फल! हाथ का मैल! कुछ और दे देते। एक गुलाब का फूल ही दे देते। हाथ का मैल तो कम से कम न देते। और जिनको नहीं मिला है हाथ का मैल, उन्होंने पिछले जन्मों में पाप किए हैं। तो क्या गंवाया? अरे, पाप करके भी क्या गंवाया? सिर्फ हाथ का मैल नहीं मिला। सो मिलने वाले को क्या मिल गया? अच्छा ही हुआ! जी भर कर पाप करो, हाथ का मैल कम रहेगा! पुण्य किया कि फंसे; हाथ का मैल मिलेगा।
यह तुम देखते हो विरोधाभास?
इस देश में सदियों से यह समझाया जा रहा है कि पुण्य कर्मों के फल से धन मिलता है; और धन त्यागो, धन पाप है। यह कैसा तर्क है? पुण्य कर्मों के फल से धन मिलता है, और धन त्यागो तो पुण्य होता है। लोगों को बिलकुल कोल्हू का बैल बना रखा है। उनको चक्कर दिए जा रहे हैं। और लोग चक्कर खा रहे हैं। और लोग सोचते भी नहीं कि यह क्या कहा जा रहा है।
तुम और तुम्हारे महात्माओं में कुछ भेद नहीं है। तुम्हारे महात्मा तुम्हें महात्मा इसीलिए लगते हैं कि भेद नहीं है। अगर भेद हो तो तुम्हें महात्मा भी न लगें। तुम्हें उनका तर्क, उनकी भाषा रुचती है, पटती है, क्योंकि तुमसे मेल खाती है। और यह अहंकार बड़े जाल फैलाता है। इस लोक के जाल फैलाता है, परलोक के जाल फैलाता है। यह जाल फैलाने में बड़ा कुशल है। परलोक में भी तुम पक्का समझो कि महात्माओं में बड़ा संघर्ष होता होगा, मार-पीट होती होगी, कि कौन परमात्मा के पास बैठे, कौन सबसे पास बैठे; कौन उनका बायां हाथ, कौन उनका दायां हाथ? परमात्मा के पास कौन सबसे ज्यादा? इसमें जरूर छुरेबाजी हो जाती होगी महात्माओं में।
दो जैन मुनि, नग्न जैन मुनि पुलिसथाने में लाए गए--शिखरजी जैनों का क्षेत्र है, तीर्थक्षेत्र है, वहां--क्योंकि उन दोनों ने एक-दूसरे की पिटाई कर दी। गए थे जंगल, मल-मूत्र विसर्जन करने, वहां झगड़ा हो गया। सब छोड़-छाड़ दिया है, कपड़े भी छोड़ दिए, मगर झगड़ा नहीं छूटा। अहंकार न छूटे तो झगड़ा कैसे छूटे! और झगड़ा किस बात पर हुआ, वह और हैरानी की बात है। वह तो गांव के लोगों ने पकड़ कर उन्हें थाने पहुंचा दिया, थाने में डांट-डपट बताई तो रहस्य खुला। पैसे के ऊपर झगड़ा हो गया। पैसे के ऊपर झगड़ा और जैन मुनि दिगंबर, जो कुछ रखता ही नहीं। सिर्फ एक पिच्छी रखता है, जिससे वह जमीन को साफ करके बैठता है, ताकि कोई चींटी इत्यादि न मर जाए। मगर आदमी तो कुशल है, आदमी हर जगह रास्ता निकाल लेता है। पिच्छी में डंडा होता है, जिसमें ब्रश लगा रहता है, बाल लगे रहते हैं जिससे कि वह साफ करता है; ऊन की पिच्छी होती है, उसके पीछे डंडा होता है। डंडे को पोला कर दिया था उन्होंने, और उसमें सौ-सौ के नोट! सो दोनों में बांटने पर झगड़ा हो गया।
जो बड़ा मुनि था, जो उम्र में बड़ा था और पहले दीक्षित हुआ था, वह ज्यादा चाहता था। स्वभावतः ज्यादा कष्ट उसने सहे, ज्यादा उपवास भी किए, अब हाथ का मैल भी उसको ज्यादा न मिले तो फिर फायदा ही क्या! तो हाथ का मैल थोड़ा ज्यादा चाहता था। मगर दूसरा कहता था कि मैं पोल खोल दूंगा। राज मुझे मालूम है। इसलिए भलाई इसी में है कि आधा-आधा बांट लो। इस पर बात बिगड़ गई और एक-दूसरे ने एक-दूसरे पर हमला कर दिया--और कुछ तो था नहीं मारने को, वही पिच्छी के डंडे थे, तो उन्हीं से एक-दूसरे की पिटाई कर दी। गांव वाले उनको यह देख कर थाने ले आए।
जैनियों ने बड़ी कोशिश की कि यह बात ढंक जाए, छिप जाए, अखबारों तक न पहुंच जाए। मेरे पास जैन आए, उन्होंने कहा कि इस बात को छिपाना जरूरी है, क्योंकि इससे जैन-समाज का बड़ा अपमान होगा। मैंने कहा: तुम और गलत आदमी के पास आ गए! अब तो छिपना मुश्किल ही है यह! उन्होंने कहा: क्यों? मैंने कहा कि मैं ही कहूंगा। अब तुम लाख करो उपाय, अखबार में छपे या न छपे, मगर यह घटना ऐसी मूल्यवान है कि मैं इसको छोड़ नहीं सकता।
है मूल्यवान। सब छोड़ कर आ गए, मगर अहंकार के जाल कैसे हैं? सब छोड़ दो फिर भी किसी नये जाल को बुन लेता है।
प्रेम सों प्रीति करू, नाम को हृदय धरू,
जोर जम काल सब दूर जाहीं।।
बड़ी अदभुत बात है--
प्रेम सों प्रीति करू,...
और किसी चीज से प्रेम न करो, प्रेम से ही प्रेम करो, बस, तो तुम्हारा प्रेम परमात्मा तक पहुंच जाएगा। न धन से प्रेम करो, न पद से प्रेम करो; न स्वर्ग से प्रेम करो, न मोक्ष से प्रेम करो--क्योंकि स्वर्ग और मोक्ष का प्रेम भी अहंकार का जाल है, वह भी वासना है--प्रेम से ही प्रेम करो। गजब की बात कही गुलाल ने। प्रेम से ही प्रेम करो। तो फिर इसमें कुछ लक्ष्य न रहा, कोई आगे की आकांक्षा न रही। प्रेम में ही आनंदित होओ, प्रेम को ही सर्वस्व मानो, प्रेम के पार न कुछ पाने को है, न कोई स्वर्ग है, न कोई मोक्ष।
प्रेम सों प्रीति करू,...
इतने अदभुत वचन, लेकिन चूंकि बेचारे बेपढ़े-लिखे संतों ने कहे, कोई इनकी फिकर नहीं करता। इसीलिए मैंने इन पर बोलना तय किया। उपनिषदों पर बोलने वाले बहुत लोग हैं। गीता पर टीका पर टीकाएं होती चली जाती हैं। वेदों पर बड़े प्रवचन होते हैं। मगर कौन बोले गुलाल पर! किसको पड़ी! और ऐसे हीरों जैसे वचन। तुम उपनिषद छान डालो तो ये वचन नहीं मिलेगा: ‘प्रेम सों प्रीति करू।’ तुम वेद छान डालो, यह वचन नहीं मिलेगा। मात कर दिया वेदों को! गहरी से गहरी बात कह दी। इससे गहरी बात कही नहीं जा सकती। प्रेम से प्रेम करो। कोई और साध्य न हो, कोई और हेतु न हो। प्रेम ही साधन, प्रेम ही साध्य। प्रेम ही तुम्हारा आनंद हो। प्रेम के लिए प्रेम। प्रेम ही तुम्हारा अहोभाव हो।
प्रेम सों प्रीति करू, नाम को हृदय धरू,
और तभी तुम परमात्मा को अपने हृदय में बसा सकोगे।
जोर जम काल सब दूर जाहीं।।
और फिर तुम पर न तो मृत्यु का कोई बस रह जाएगा, न समय का कोई बस रह जाएगा। सब हट जाएंगे, अपने से हट जाएंगे। तुम प्रेम के अमृत को पी लो। तुम प्रेम के घूंट को पी लो। सब कट जाएंगी भ्रांतियां, सब कट जाएंगे जाल। क्यों? क्योंकि प्रेम चोट करता है अहंकार की जड़ पर। अगर तुम अहंकारी हो, तो प्रेम नहीं कर सकते। और अगर तुम प्रेमी हो तो अहंकार नहीं कर सकते। दोनों बातें साथ नहीं हो सकतीं। अगर दीया जला तो अंधेरा नहीं बच सकता। और अगर अंधेरा है तो दीया नहीं है। ऐसा ही समझो। जहां प्रेम जला, वहां अहंकार गया। और जहां अहंकार है, वहां प्रेम नहीं। अहंकार तो प्रेम के धोखे देता है। बड़ी होशियारी से धोखे देता है।
एक शाम मुल्ला नसरुद्दीन कब्रिस्तान से गुजर रहा था। उसने देखा कि एक खूबसूरत युवती श्वेत परिधान पहने एक ताजी कब्र को पंखा झल रही है। मुल्ला यह देख रोमांचित हो उठा और उसने कहा कि वाह रे खुदा, कौन कहता है कलयुग आ गया! सतयुग है, अभी भी सतयुग है। ऐसे प्रेमी आज भी दुनिया में हैं। बेचारी कब्र को पंखा झल रही है। मुल्ला की आंखों से तो आनंद के आंसू बहने लगे। एक उसकी पत्नी है कि जिंदा मुल्ला की पिटाई करती है! और एक यह स्त्री है! कौन कहता है स्त्री नरक का द्वार है! कब्र को पंखा झल रही है, हद हो गई, प्रेम की भी हद हो गई। प्रेम और क्या ऊंचाइयां लेगा!
उसने जाकर महिला से कहा कि सुनिए, आपको देख कर मुझे महसूस होता है कि प्रेम अभी भी शेष है और दुनिया का अभी भी भविष्य है; अभी भी आशा छोड़ने का कोई कारण नहीं है। कितने ही मनुष्य गिर गए हों, लेकिन तुम जैसे थोड़े से व्यक्ति भी अगर हैं तो पर्याप्त है। तुम्हीं तो नमक हो पृथ्वी का। मगर क्या मैं पूछ सकता हूं कि आप कब्र पर पंखा क्यों झल रही हैं? अरे, जाने वाला तो जा चुका, अब कब्र को पंखा झलने से क्या होगा? युवती बोली कि बात यह है जनाब, कि कब्रिस्तान के बाहर मेरा प्रेमी मेरा इंतजार कर रहा है। और मेरे पति ने कहा था कि जब तक मेरी कब्र सूख न जाए, तुम किसी से विवाह मत करना, नहीं तो मुझे बहुत दुख होगा। अतः कब्र को जल्दी सुखाने के लिए पंखा झल रही हूं।
यहां ऐसा ही चल रहा है। प्रेम के नाम पर प्रेम के दिखावे हैं। प्रेम के नाम पर कुछ और है, जो शायद प्रेम से विपरीत ही हो। प्रेम के नाम पर अहंकार पोषित हो रहा है। प्रेम के नाम पर दूसरे की मालकियत की चेष्टा चल रही है। प्रेम के पीछे छिपी है ईर्ष्या, जलन, द्वेष। प्रेम की आड़ में क्या-क्या नहीं हो रहा है! इस प्रेम की बात नहीं कर रहे हैं गुलाल। तुम्हारे प्रेम की बात नहीं कर रहे हैं। उस प्रेम की बात कर रहे हैं जिसकी तुम्हें अभी कोई खबर ही नहीं है। लेकिन जिसका बीज तुम्हारे भीतर है। अगर खबर हो जाए तो तुम्हारे भीतर भी प्रेम का वही फूल खिल सकता है: प्रेम के लिए प्रेम। कुछ और मांग नहीं। प्रेम देने में ही आनंद। तब प्रेम व्यक्तियों से बंधा नहीं रह जाता। तब प्रेम एक निर्वैयक्तिक भाव-दशा हो जाता है। तब प्रेम एक संबंध नहीं रह जाता, एक स्थिति बन जाता है। तब ऐसा नहीं कि तुम किसी से प्रेम करते हो, बस तुम प्रेम करते हो। ऐसा भी ठीक नहीं कि तुम प्रेम करते हो, ज्यादा ठीक होगा कहना कि तुम प्रेम हो। तो तुम जिसको छूते हो, वहीं प्रेम। तुम जिसे देखते हो, उस पर ही प्रेम की वर्षा। तुम एकांत में भी बैठो तो तुम्हारे चारों तरफ प्रेम की तरंगें उठती हैं। ऐसा प्रेम हो तो राम तुम्हारे हृदय में वास करे।
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
बस, दो काम कर लो। सुरति को सम्हालो, स्मरण को सम्हालो, स्मरण करो कि मैं कौन हूं और प्रेम से भरो। बस, दो काम; बस, दो सीढ़ियां, दो कदम और यात्रा पूरी हो जाती है।
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
किसी शापवश हो निर्वासित,
लीन हुई चेतनता मेरी;
मन-मंदिर का दीप बुझ गया;
मेरी दुनिया हुई अंधेरी!
पर यह उजड़ा उपवन सब दिन बियाबान सुनसान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मेरे सूने नभ में शशि था,
थी ज्योत्स्ना जिसकी छवि-छाया;
जीवित रहती थी जिसको छू
मेरी चंद्रकांतमणि काया,
ठोकर खाते मलिन ठीकरे सा तब मैं निष्प्राण नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
था मेरा भी कोई, मैं भी
कभी किसी का था जीवन में;
बिछुड़ा भी पर भाग्य न बिगड़ा,
रही मधुर सुधि जब तक मन में;
पर क्या से क्या बन जाऊंगा, इसका कभी गुमान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मैं उपवन का ही प्रसून हूं,
किसी गले का हार बना था;
वह मेरी स्मिति थी, उसका भी
मैं हंसता संसार बना था;
मिले धूल में दलित कुसुम सा, मैं सब दिन म्रियमाण नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मैं तृण सा निरुपाय नहीं था,
जल में डालो बह जाए जो;
और डाल दो ज्वाला में यदि,
क्षणिक धुआं बन उड़ जाए जो;
आज बन गया हूं जैसा कुछ, सब दिन इसी समान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
मेरा नाम अरुणिमा सा ही
रहता था उसके अधरों पर,
झूम-झूम उठता था यौवन
मेरी पिक के मधुर स्वरों पर,
मुझमें प्राण बसे थे उसके, मेरा मृण्मय गान नहीं था!
मैं सब दिन पाषाण नहीं था!
स्मरण रखो, आज तो तुम पत्थर जैसे हो--हो गए हो पत्थर जैसे--न तो तुम्हारी यह नियति है, न यह तुम्हारा स्वभाव है। तुम ऐसे पैदा न हुए थे। तुम ऐसे होने के लिए पैदा न हुए थे। समाज ने तुम्हें पत्थर बना दिया है। क्योंकि समाज आदमी नहीं चाहता, पत्थर चाहता है। समाज के लिए पत्थर काम के हैं, आदमी नहीं। आदमी तो खतरनाक हो सकते हैं, पत्थर आज्ञाकारी होते हैं। आदमी बगावती हो सकते हैं, पत्थर बगावती नहीं होते। तुम्हारे हृदय को मार डाला गया है। तुम्हारी बुद्धि को खूब कूड़े-कचरे से भरा गया है। क्योंकि बुद्धि का उपयोग समाज के लिए है। क्लर्क बनाना है तुम्हें, स्टेशन मास्टर बनाना है तुम्हें, डिप्टी क्लेक्टर बनाना है तुम्हें; तो तुम्हारी खोपड़ी को कचरे से भरना ही होगा। नहीं तो ये कचरा भरी फाइलें तुम कैसे सरकाते रहोगे? यह कूड़ा-करकट तुम कैसे जीवन भर ढोओगे?
ऐसे-ऐसे अदभुत लोग पड़े हैं कि दफ्तर में ही उनका मन नहीं भरता, दफ्तर में पूरा नहीं पड़ता, वे फाइलें लिए बगल में दबाए घर भी चले आते हैं। फाइलें ही उनका जीवन हैं। उनमें ही सब हीरे-माणिक-मोती। और उनका दिल बड़ा खुश होता है, टेबल पर ढेर लगा कर बैठे रहते हैं दिन भर, चित्त उनका बड़ा प्रसन्न होता है जैसे ढेर बड़ा होता जाता है, जैसे उनकी संपदा बढ़ती जाती है, जितने ही वे फाइलों के ढेर के पीछे छिप जाते हैं, उतने ही महत्वपूर्ण आदमी हो जाते हैं। काम इतना है उनके ऊपर। खोपड़ी को कचरे से भरना ही होगा! लोगों से कचरा काम लेना है।
हृदय खतरनाक है समाज के लिए। क्योंकि जिसके पास हृदय है, उसे दिखाई पड़ेगा कि क्या कचरा है, क्या सार है, क्या असार है। और जिसके पास हृदय है, तुम उससे हिंसा न करवा सकोगे, तुम उससे गोली न चलवा सकोगे, तुम उससे तलवार न उठवा सकोगे, तुम उससे हिरोशिमा पर एटम बम न गिरवा सकोगे। जिसके पास हृदय है, वह कहेगा, मुझे चाहे सूली पर चढ़ा दो, लेकिन एक लाख लोगों के ऊपर मैं बम गिरा कर उनको राख कर दूं, यह मुझसे न होगा।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर बम गिराया, बम गिरा कर रात भर आनंद से सोया। सुबह जब उससे पूछा गया, क्या तुम रात सो सके? तो उसने कहा: आनंद से सोया। अपना कर्तव्य पूरा किया, उसके बाद आनंद से सोया ही जाता है। वह कर्तव्य था! एक लाख आदमी जल कर राख हो गए, वह कर्तव्य पूरा करके आ गया! और कर्तव्य पूरा हो गया, रात आनंद से सोया। आकर भोजन किया उसने। एक लाख आदमियों को मार कर भोजन करना किसके लिए संभव है? जिसके पास हृदय न हो, पाषाण हो।
और यह हालत उसकी ही न थी, जिस अमरीकी प्रेसीडेंट की आज्ञा से... ट्रूमैन की आज्ञा से यह बम गिराया गया था। ट्रूमैन का मतलब होता है: सच्चा आदमी। हद हो गई! ट्रूमैन और सच्चा आदमी! इससे ज्यादा झूठा आदमी मिलना मुश्किल है। इसलिए मैं उनका नाम रखता हूं: प्रेसीडेंट अन-ट्रूमैन। इन्होंने एटम बम गिरवाने की आज्ञा दी। और जब इनसे पूछा गया कि आपको कोई दुख, पश्चात्ताप? उन्होंने कहा: क्या दुख, क्या पश्चात्ताप? युद्ध समाप्त हो गया। नहीं तो युद्ध समाप्त ही नहीं होता।
और यह बात झूठ है। सच्चाई यह है कि युद्ध समाप्त होने ही वाला था। युद्ध इतने जल्दी समाप्त होने के करीब था, दो-चार दिन के भीतर, कि ट्रूमैन को लगा कि प्रयोग कर ही लेना चाहिए, नहीं तो एटम बम का प्रयोग करने का अवसर नहीं आएगा। शोध से जो पता चला है, वह यह कि युद्ध इतनी जल्दी समाप्त हुआ जा रहा था--जर्मनी हार रहा था, रूसी फौजें बर्लिन में पहुंच गई थीं, जापान घुटने टेक रहा था--एटम बम गिराने की कोई भी आवश्यकता न थी। और अगर दो-चार दिन ज्यादा भी चल जाता युद्ध, तो इतने दिन चला था और दो-चार दिन। एटम बम गिराने की कोई जरूरत न थी। लेकिन यह खतरा पकड़ा मन में कि फिर एटम बम का प्रयोग ही न हो सकेगा, हम जान ही न सकेंगे इसकी औकात, इसकी शक्ति कितनी है। एटम बम बिलकुल ही गैर-जरूरी था। लेकिन उसको गिराने का निर्णय लिया ट्रूमैन ने। और प्रसन्नता से। कोई पश्चात्ताप नहीं। तुम एक आदमी को मार दो तो पश्चात्ताप होता है। तुम एक चींटी को कुचल दो तो भी पश्चात्ताप होता है।
यह क्या हो गया आदमी को? और ऐसा आदमी बनाने के लिए हमने क्या किया है? हम आदमी के हृदय को मारते हैं। हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा हृदय की जड़ों को काटने की है। सैनिकों को तो हम बिलकुल हृदयहीन कर देते हैं। सोच-विचार से उनको बिलकुल असमर्थ कर देते हैं। यंत्रवत व्यवहार उनको हम सिखाते हैं--बाएं घूम, दाएं घूम। घुमा-घुमा कर, घुमा-घुमा कर, बाएं घुमा कर, दाएं घुमा कर उनकी खोपड़ी खा जाते हैं। उनमें सोच-विचार की क्षमता नहीं रह जाती। जैसे ही कहो, बाएं घूम, वे यंत्रवत घूम जाते हैं। उनसे पूछो, क्यों घूमे? वे कहेंगे, आज्ञा दी गई। वे आज्ञा के विपरीत जाने की क्षमता खो देते हैं। फिर एक दिन उनसे कहा जाता है, एटम बम गिराओ, बिचारे गिरा देते हैं। उनके लिए बाएं घूम और एटम बम गिराने में कुछ फर्क नहीं है। रहा नहीं फर्क। इतना बोध नहीं रहा, इतना प्रेम ही नहीं रहा कि फर्क कर सकता!
यह समाज हमारा अप्रेम पर जी रहा है, घृणा पर जी रहा है, वैमनस्य पर जी रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर हम घृणा को पोषण देते हैं। जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर घृणा को पोषण देते हैं। और सारी दुनिया में सिवाय उपद्रव के और कुछ भी नहीं है।
एक यहूदी बूढ़ा, सिल्वर्सटीन, हवाई जहाज में सवार हुआ। संयोग की बात, उसके दोनों तरफ दो अरब बैठे थे, बड़े तगड़े अरब, खूंखार। सिल्वर्सटीन, गरीब यहूदी, बड़ा घबड़ाया हुआ, सिकुड़ा बैठा था कि एक अरब बोला, यहूदी बच्चे! जा मेरे लिए काफी लेकर आ! वह नहीं न कर सका। हालांकि कोई जरूरत न थी, घंटी बजाई जा सकती थी, अपने आप परिचारिका आती। मगर यह बात इस अरब से कहना खतरनाक, यह एकदम गला दबा दे! इतना खतरनाक, खूंखार मालूम पड़ रहा है! बेचारा सिल्वर्सटीन भागा, पूरा हवाई जहाज चल कर गया, हवाई जहाज डांवाडोल हो रहा है, तूफानी बादलों से गुजर रहा है, किसी तरह काफी लेकर आया कि दूसरा बोला कि बच्चे एक काफी मेरे लिए भी लेकर आ! फिर गया। तब तक पहले की काफी खत्म हो गई। उसने कहा: यहूदी, एक कप और! उसकी लेकर आया तब तक दूसरे की काफी खत्म हो गई। ऐसा कोई उन्होंने दस-बारह दफा उसे भेजा।
अरबों की तो तुम पूछो ही मत! जो न करें सो थोड़ा है। पैसा एकदम आसमान से टूट पड़ा है।
बामुश्किल थका-मांदा बैठा ही था बीच में कि एक अरब ने पूछा कि यहूदी, दुनिया के क्या हालचाल हैं? उसने कहा: बड़े बुरे हालचाल हैं। हिंदुस्तान में हिंदू मुसलमानों को मार रहे, पाकिस्तान में मुसलमान हिंदुओं को मार रहे, बंगलादेश में बंगाली पंजाबियों को मार रहे हैं; सब जगह मार-काट मची हुई है! वियतनाम की हालत खराब है। इजरायल की हालत खराब है। ईरान की दशा खराब है। संकट ही संकट है! और अब आपसे क्या कहें, इसी जहाज में क्या-क्या नहीं हो रहा है! अरे, इसी जहाज में यहूदी अरबों की काफी में पेशाब कर रहे हैं!
यह सारा जगत घृणा से आपूर है, आकंठ। और इसीलिए हम समझ नहीं पाते, ये वचन सुन भी लेते हैं तो चूक-चूक जाते हैं। ये हमारी शिक्षा-दीक्षा के विपरीत हैं। मगर इनके बिना जीवन में कोई क्रांति नहीं हो सकती।
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
बस, दो काम करो। एक तो ध्यान--सुरति--और दूसरा प्रेम। ध्यान के लिए ध्यान, प्रेम के लिए प्रेम। लक्ष्य कुछ भी नहीं, मांग कुछ भी नहीं, हेतु कुछ भी नहीं, मंजिल कोई भी नहीं। ध्यान ध्यान के लिए आनंद, प्रेम प्रेम के लिए आनंद। और तब तुम पाओगे, ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ ध्यान, दूसरी तरफ प्रेम। जिसने ध्यान किया, उसने प्रेम किया। जिसने प्रेम किया, उसने ध्यान किया। तुम एक को भी कर लो तो दूसरा अपने आप आ जाएगा। और तुम दोनों को कर लो, तब तो क्रांति बहुत सुगम हो जाती है, सहज हो जाती है।
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
रहो अडोल कहुं डोल नाहीं।।
बस, ये दो बातें हो जाएं तो फिर तुम अडोल हो गए। फिर तुम्हें कोई नहीं डुला सकता। फिर तुम कहीं भी रहो, बीच बाजार में बैठो, तो भी अडोल हो।
रहो अडोल कहुं डोल नाहीं।।
फिर तुम कहीं भी डुलाए नहीं जा सकते। कोई तुम्हें डुला नहीं सकता।
कहै गुलाल किरपा कियो सतगुरु,
गुलाल कहते हैं: मेरे सतगुरु की कृपा से, उनकी अनुकंपा से, उनके अनुग्रह से ये दो सूत्र मुझे मिले हैं, वह मैं तुमसे कहता हूं--
सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,
रहो अडोल कहुं डोल नाहीं।।
कहै गुलाल किरपा कियो सतगुरु,
परयो अथाह लियो पकरि बाहीं।।
बस, मेरी बांह पकड़ कर गुरु ने ये दो बातें मुझे सिखा दीं। अथाह से मुझे उबार लिया। संसार से मुझे बाहर खींच लिया। ये दो बातें ही संन्यास का सार हैं।
भक्ति-परताप तब पूर सोइ जानिये,
और तभी जानना कि भक्ति पूर्ण हुई।
धर्म अरु कर्म से रहत न्यारा।।
ये वचन फिर बहुत क्रांतिकारी हैं। आग हैं, आग्नेय हैं। सुनते हो?
धर्म अरु कर्म से रहत न्यारा।।
वह जो सचमुच ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, ध्यान को या प्रेम को उपलब्ध हो गया है, जो सचमुच भक्ति को जान लिया है, जिसके जीवन में पूर्ण भक्ति छा गई है, वह कर्म से भी मुक्त है। क्योंकि कर्म भी उसने परमात्मा पर छोड़ दिया है।
कर्म का अर्थ होता है: संसार में कृत्य। और धर्म का अर्थ होता है: परलोक में कृत्य। न तो वह यहां करने को उत्सुक है कुछ, न वहां करने को कुछ उत्सुक है। न उसकी वासना जगत में है, न परलोक में। कर्म है: जगत में वासना पूरा करने का उपाय। और धर्म है: परलोक में वासना पूरा करने का उपाय। जिसने सुरति साध ली और प्रेम से भर गया, जिसकी भक्ति पूर्ण हुई, उसे न धर्म की कोई जरूरत है, न कर्म की कोई जरूरत है। कर्म सब परमात्मा पर छोड़ दिया उसने। वह जो करवाए, करता है, लेकिन अडोल रहता है। और धर्म भी उसने परमात्मा पर छोड़ दिया। अब न वह हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई; अब तो वह परमात्मा का है और परमात्मा उसका है।
राम सों रमि रह्यो...
वह तो राम में रम गया...
...जोति में मिलि रह्यो,
वह तो ज्योति से ज्योति एक हो गई।
दुंद संसार को सहज जारा।।
उसने संसार के द्वंद्व को सहज ही जला कर राख कर दिया। बस, इन दो चीजों से: सुरति से और प्रेम से।
भर्म भव मारिकै क्रोध को जारिकै,
उसकी सारी माया जल गई, मर गई; उसका सारा क्रोध मिट गया। क्योंकि जब कोई आकांक्षा पाने की नहीं रह जाती, कोई कामना नहीं रह जाती, तो क्रोध अपने आप मिट जाता है। क्रोध का अर्थ है: तुम कुछ पाना चाहते हो और नहीं पा पा रहे हो, तो क्रोध पैदा होता है। अड़ंगा पड़ रहा है, तो क्रोध पैदा होता है। जैसे झरना बहना चाहता है और बीच में चट्टान आ जाए, तो आवाज होती है, शोरगुल मचता है, वैसा ही तुम्हारा क्रोध है। तुम कुछ पाने चले, किसी ने अड़ंगा मार दिया। और अड़ंगे तो लोग मारेंगे। लत्ती मारेंगे, दुलत्ती मारेंगे। क्योंकि उनको भी वही पाना है जो तुम्हें पाना है। तुम पा लो तो वे क्या पाएंगे? वे तुम्हें रोकेंगे। वे हर तरह से तुम्हें रोकेंगे।
भर्म भव मारिकै क्रोध को जारिकै,
चित्त धरि चोर को कियो यारा।।
और मैं जो तुमसे कहता हूं निरंतर, वह इस वचन में आ गया। जो मेरी जीवन-दृष्टि है, जो मेरा जीवन-दर्शन है, वह इस वचन में समाया हुआ है।
चित्त धरि चोर को कियो यारा।
मनरूपी शत्रु को मित्र बना लिया। मारना नहीं है, मन को मारना नहीं है, मन को मित्र बना लेना है। मन के मालिक हो जाना है। मन तुम्हारा मालिक न रहे, बस। मन तुम्हारा मित्र हो जाए।
चित्त धरि चोर को कियो यारा।
वह जो चोर है मन अभी, जो तुम्हारी जीवन-संपदा को नष्ट किए दे रहा है, उसको मित्र बना लिया। कैसे मित्र बनेगा यह? सुरति से; जागरण से; होश से; स्मृतिपूर्वक जीने से। कैसे मित्र बनेगा यह? प्रेमपूर्वक जीने से; प्रेम बन जाने से।
कहै गुलाल सतगुरु किरपा कियो,
हाथ मन लियो तब काल मारा।।
जब हाथ में मन आ गया--अपना ही मन अपने हाथ में नहीं है अभी--जब मन हाथ आ गया, मृत्यु समाप्त हो गई। मन हाथ आ गया, तो जीवन से सारे दुख समाप्त हो गए। मन हाथ आ गया, तो जीवन से सारे कांटे विदा हो गए; फूल ही फूल खिल जाते हैं।
झरत दसहुं दिस मोती!
आज इतना ही।