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Jharat Dashahun Dis Moti 14

Fourteenth Discourse from the series of 21 discourses - Jharat Dashahun Dis Moti by Osho. These discourses were given during JAN 21 - FEB 10 1980.
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पहला प्रश्न: भगवान,
नगर हो रहा निर्जन पलटती सुध निज पर, पथ बनता पगडंडी लौ कंपती, थिरती, अनजाना फिर भी कुछ परिचित-सा लगता गुंजन। पत्तों से झरते शब्द विचार; तर्कजाल-- जो रहा कभी मन का वैभव प्रतिपल है मिटता तार-तार। मधु भरता घड़ी, दिन, रैन, मास लुक-छिप जाता फिर-फिर शैशव, धरा शीतल करती झरती भीतर की ही जलधार। शत-सहस्र सूर्य-किरणों से मंडित चेतना के उत्तुंग शिखर पर दीप्तिमान हे, धवलपुंज! शत, शत कमलों के ऊर्जास्रोत हे, महाप्राण! ले अर्पित तेरे चरणों में उलटे-सीधे सब ताल, स्वर; हे, राशि-राशि भर रत्न उलीचते रत्नाकर! नतमस्तक हूं हे, अखिल विश्व के दिव्य-द्वार नमस्कार, प्रभु, नमस्कार!
सत्य वेदांत! ऐसी घड़ी शुभ है। ऐसे अहोभाव का क्षण शुभ है। इससे भेद नहीं पड़ता कि अहोभाव किसके प्रति उठा है। जिसके प्रति उठा है, वह तो निमित्त मात्र है। क्रांति घटती है अहोभाव से। मेरे प्रति अहोभाव उठे कि उगते हुए सूरज के प्रति, कि रात तारों से भरे आकाश के प्रति, कि देख कर हिमालय के उत्तुंग शिखरों को, कि निबिड़ जंगल में रात्रि का सन्नाटा--कोई भी घटना निमित्त बन सकती है। प्राण अहोभाव में भीग जाएं, तो अहोभाव ही क्रांति का कारण बनता है। फिर मंदिर में घटे, कि मस्जिद में, कि गिरजे में, कि गुरुद्धारे में, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। कहीं भी घट सकती है यह घटना। कुरान को गुनगुनाते घट सकती है, पक्षियों के गीत सुनते हुए घट सकती है। शर्त एक है सिर्फ: तुम्हारा हृदय खुला हो।
मेरे कारण नहीं घट रही है यह घटना। मेरे कारण घटे तो सबको घट जानी चाहिए। जो भी यहां आए, उसको घट जानी चाहिए। लाखों लोग आते हैं, कुछ को घटती है। वही सौ में कोई दो-चार; अंगुलियों पर गिने जा सकें, उनको घटती है। इसलिए मेरे कारण नहीं घटती है। उनको घट जाती है, जो हृदय को खोल कर सुन पाते हैं।
यह प्रश्न मुझे समझने का नहीं है। यह प्रश्न तो रहस्य में डूबने का है। समझ तो बुद्धि की बात है--ऊपर-ऊपर है, थोथी है। समझ से भी गहरी अनुभूति चाहिए। समझ में भी न आए, ऐसी अनुभूति चाहिए। शब्दों में बंधे न, सिद्धांतों में प्रकट न हो सके, अपरिभाष्य हो, अव्याख्य हो--ऐसी अनुभूति चाहिए। और अहोभाव उसी अनुभूति का प्रारंभ है।
अहोभाव मेरी दृष्टि में प्रार्थना का सार-निचोड़ है। अहोभाव में झुके कि प्रार्थना हो गई। फिर जरूरत नहीं है कि तुम दोहराओ कोई बंधी-बंधाई प्रार्थना--हिंदुओं की, मुसलमानों की, ईसाइयों की, जैनों की; कि पढ़ो गायत्री मंत्र, कि नमोकार। अहोभाव में झुक गए कि गायत्री खिल गई, कि नमोकार उठने लगा, कि नमाज पूरी हो गई। शुरू भी न हुई और पूरी हो गई। बोले भी नहीं और बात पहुंच गई! बोल कर तो बात पहुंचती भी नहीं। परमात्मा तुम्हारी कोई भाषा तो समझता नहीं।
पृथ्वी पर कोई तीन हजार भाषाएं हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं, कम से कम पचास हजार पृथ्वियां हैं जिन पर जीवन है। तो अगर एक-एक पृथ्वी पर इतनी-इतनी भाषाएं हों और पचास हजार पृथ्वियां हों, परमात्मा तो पागल ही हो जाएगा। कभी का हो चुका होगा पागल। परमात्मा भाषा नहीं समझता, भाव समझता है। और भाव निःशब्द हैं, मौन हैं।
तुम एक शुभ घड़ी से गुजर रहे हो! इस घड़ी में निःसंकोच डूबो, बेशर्त डूबो। इस अहोभाव को, इस नमस्कार को ही तुम्हारी प्रार्थना बनने दो। पर स्मरण रहे कि मैं केवल निमित्त हूं, कारण नहीं। यह मेरे कारण नहीं हो रहा है; हो रहा है तो तुम्हारे ही साहस के कारण हो रहा है, क्योंकि तुम हृदय को खोलने को तत्पर हुए हो।
हृदय को खोलने की तत्परता का नाम श्रद्धा है। और जब हृदय श्रद्धा में खुलता है, तो अहोभाव की सुगंध उठती है। जैसे ही अहोभाव की सुगंध तुम्हारे भीतर उठने लगी, तुम्हारे भीतर एक कृतज्ञता अनुभव होने लगी कि मैं धन्यभागी हूं--किसी कारण नहीं, हूं, इसीलिए धन्यभागी हूं। इस विराट अस्तित्व में मैं भागीदार हूं, यह पर्याप्त सौभाग्य है। इस रहस्यमय लोक में मैं भी एक किरण हूं, मैं भी एक जीवन हूं! इस विराट सागर में चैतन्य के, मैं भी एक लहर हूं! मेरा भी अपना नृत्य है, मेरा भी अपना गीत है! परमात्मा ने मुझे भी चुना है। उसके द्वारा चुना गया हूं, तभी तो हूं! ऐसी प्रतीति हो तो बस, तुम्हारा जीवन उस नये आयाम में प्रवेश कर जाएगा जिसको मैं संन्यास कहता हूं।
तुम ठीक कह रहे हो:
‘नगर हो रहा निर्जन’
वेदांत भीतर के नगर की बात कर रहे हैं। भीतर एक भीड़ है। भीतर तुम्हारे कितने लोग बसे हैं! कभी तुमने गिनती की? कभी भीतर का हिसाब लगाया? बाजार भरे हैं। भीड़ पर भीड़ है। लोग आते ही चले जाते हैं। तुम एक नहीं हो, अनेक हो। और तुम्हारी अनेकता तुम्हारी विक्षिप्तता है। तुम एक हो जाओ। तो विमुक्त हो जाओ। अनेक होना विक्षिप्तता की परिभाषा है; एक होना, विमुक्तता की। तुम एक हो जाओ तो ‘एक’ को जान लोगे। तुम अनेक रहे तो तुम्हें जगत में अनेक ही दिखाई पड़ता रहेगा, क्योंकि तुम जो हो वही तुम्हें दिखाई पड़ता है, उससे अन्यथा दिखाई नहीं पड़ सकता। जिसके भीतर नकार है, उसे सब तरफ नास्तिकता दिखाई पड़ेगी। और जिसके भीतर स्वीकार है, उसे सब तरफ आस्तिकता का अनुभव होगा। जिसके पास आंख है, उसे रोशनी दिखाई पड़ेगी--और रंग-बिरंगे फूल और आकाश में खिल गए इंद्रधनुष! और जो अंधा है, वह इन सब चीजों पर संदेह ही करता रहेगा; उसके भीतर संदेह के अतिरिक्त कुछ भी न उठेगा। अंधेपन में संदेह ही उठ सकता है।
भीतर तुम्हारे एक नगर है, एक भीड़ है।
हमारे पास जो शब्द हैं... इस देश ने जो शब्द चुने हैं, वे सोचने जैसे हैं। दुनिया की किसी भाषा में उस तरह के शब्द नहीं हैं, क्योंकि दुनिया की भाषाएं बुद्धों से इतनी प्रभावित नहीं हुईं जितनी इस देश की भाषाएं बुद्धों से प्रभावित हुईं। स्वाभाविक था। बुद्धों की एक श्रृंखला थी। उनकी एक दीपमालिका है, अनंत। एक दीये से दीया जलता गया है। ज्योति से ज्योति जले! और स्वभावतः चाहे हमने सुना हो, न सुना हो, मगर जाने-अनजाने उनकी छाप हमारी भाषा पर, हमारे जीवन पर, हमारे उठने-बैठने पर, हर चीज पर पड़ी है। उनका प्रसाद चाहे हमने जान कर लिया हो, चाहे न लिया हो, मगर कुछ न कुछ हमारी झोली में पड़ गया है। थोड़ी बूंदाबांदी सब पर हो गई है। इस देश के प्रत्येक अंग पर बुद्धों की कहीं न कहीं छाप है।
जैसे हम एक शब्द का उपयोग करते हैं, वह शब्द है--‘पुरुष।’ इस पर थोड़ा विचार करना। ‘पुर’ का अर्थ होता है: नगर। ‘पुरुष’ का अर्थ होता है: नगर के बीच में जो छिपा बैठा है। किस नगर की बात हो रही है? तुम जंगल में भी बैठे हो तो भी तुम पुरुष हो। यह ‘पुर’ भीतर है।
एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया, चरणों में झुक कर नमस्कार किया और कहा कि मैं दीक्षित होने आया हूं, मुझे अंगीकार करें! उस सूफी फकीर ने कहा कि अंगीकार! पहले भीड़-भाड़ को छोड़ कर आ! उस युवक ने आस-पास देखा, पीछे लौट कर देखा, वहां कोई भी न था, मस्जिद खाली थी। उस युवक ने पूछा: कौन सी भीड़-भाड़? फकीर ने कहा: इधर-उधर मत देख, भीतर देख! इधर-उधर की भीड़ की मैं बात नहीं कर रहा हूं। उस युवक ने आंखें बंद कीं, भीतर देखा--सच ही भीड़ थी! पत्नी थी, बच्चे थे, परिवार के जन थे, मित्र थे, गांव के बाहर जो छोड़ने आए थे उसे दूर तक, वे सब चेहरे अभी भी भीतर सजीव थे। यूं बाहर तो घटना अतीत हो चुकी थी, भीतर अभी भी वर्तमान थी। और उस फकीर ने कहा: देखी भीड़? इसे छोड़ कर आ! जिनको तू छोड़ आया है, वह तो बाहर की भीड़ थी, उसको तो छोड़े न छोड़े कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि जो जानता है अकेले होने की कला, वह भीड़ में भी अकेला होता है। और जो नहीं जानता अकेले होने की कला, वह अकेले में भी बैठ जाए, हिमालय की गुफा में भी बैठ जाए, तो भी भीड़ में ही होता है।
तुमने भी कभी देखा? आंख बंद करके अगर अकेले में भी बैठ गए हो, तो क्या तुम अकेले हो पाते हो? शायद इससे ज्यादा अकेले तो तुम तब होते हो, जब लोग तुम्हें घेरे होते हैं। जब कोई तुम्हें नहीं घेरे होता, तब भीतर के सब सोए स्वर भनभनाने लगते हैं; तब भीतर के सब सोए हुए लोग उठ-उठ कर अपनी आवाज, अपनी गुहार देने लगते हैं; तब तुम्हारा ध्यान आकर्षित करने की चेष्टाएं शुरू हो जाती हैं। हर वासना, हर इच्छा, हर कल्पना, हर स्मृति कहती है: मुझे देखो, मेरी तरफ देखो। वहां कहां देख रहे हो? तुम्हारे भीतर एक रस्साकसी शुरू होती है।
...वेदांत उसी नगर की बात कर रहे हैं--
‘नगर हो रहा निर्जन’
होना ही चाहिए। यही तो मेरा प्रयास है यहां कि तुम भीतर के नगर से मुक्त हो जाओ। इसलिए मैं बाहर के नगर से मुक्त होने को तुमसे कहता नहीं, क्योंकि उससे कुछ लेना-देना नहीं है। घर में रहो, गृहस्थी में रहो, बाजार में कि दुकान में, कुछ फर्क नहीं पड़ता; मगर भीतर निर्जन रहो। हिमालय की गुफा में जाने की जरूरत नहीं है, हिमालय की गुफा भीतर बनाने की जरूरत है। हृदय की गुफा में हिमालय की गुफा बनानी चाहिए।
‘नगर हो रहा निर्जन
पलटती सुध निज पर’
जैसे ही सुध निज पर पलटेगी, वैसे ही निर्जन होना शुरू हो जाएगा। भीतर यह जो इतनी भीड़ है, यह है ही इसीलिए कि हम भीतर कभी देखते ही नहीं, वहां कितना कूड़ा-करकट इकट्ठा होता जा रहा है! जितनी हम घर की सफाई करते हैं उतनी भी भीतर की सफाई नहीं करते। जितने हम शरीर को मल-मल कर धोते हैं, उतनी भी हम भीतर की सफाई नहीं करते। भीतर एक-दो दिन की भी भीड़-भाड़ नहीं है, जन्मों की भीड़-भाड़ है, सदियों की भीड़-भाड़ है।
जो लोग भीतर मन की गहराइयों में उतरे हैं, उन सबका अनुभव है कि अतीत जन्मों की स्मृतियां फिर से जगाई जा सकती हैं। क्योंकि वे सब मौजूद हैं; वे नष्ट नहीं हुई हैं; वे अभी भी वहीं पड़ी हैं। सिर्फ जरा सी उनको उकसाने की जरूरत है कि उठनी शुरू हो जाती हैं। जैनों में इसके लिए एक विशेष प्रक्रिया है: जाति-स्मरण। एक ध्यान का विशेष ढंग है, जिससे तुम्हारी पुरानी स्मृतियां जग जाती हैं; जिनसे तुम अपने अतीत जन्मों में उतर सकते हो। इसका अर्थ हुआ कि तुम अपने सारे अतीत जन्मों को अपने भीतर लिए हो। दब गई हैं स्मृतियां--इस जन्म की स्मृतियों से दब गई हैं--लेकिन जरा कुरेदोगे, जरा खोदोगे तो मिल जाएंगी।... लेकिन जाति-स्मरण जैसी प्रक्रिया में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह है मन की ही बात। मन की ही पर्तों में उतरते रहोगे।
मन तो तुम नहीं हो। मन का तो साक्षी बनना है। इसी को मैं कहता हूं: सुध अपने पर लौट आए, निज पर। निज का तो एक ही अर्थ होता है: साक्षी। वह जो तुम्हारे भीतर द्रष्टा है, हर चीज को देखने वाला है--सुख हो तो सुख को देखता है, दुख हो तो दुख को देखता है, सफलता-असफलता, जवानी-बुढ़ापा, जीवन और मृत्यु, पूर्णिमा और अमावस, सबको देखता है--वह जो तुम्हारे भीतर देखने वाला है, वही एक तत्व है जो कभी बदलता नहीं। और सब बदलता रहता है। दृश्य बदलते रहते हैं, द्रष्टा थिर है। उस थिर को ही जानना है। उसको जानते ही तुम भीड़ से मुक्त होने लगते हो, भीतर निर्जन होने लगता है।
‘नगर हो रहा निर्जन
पलटती सुध निज पर,
पथ बनता पगडंडी’
वेदांत! तुमने मीठी बातें कहीं। और कहीं न कहीं तुम्हारे अनुभव में न आई हों तो कहना मुश्किल है।
‘पथ बनता पगडंडी’
जब भीड़ छंट जाती है, तुम अकेले रह जाते हो, तो वह जो राजपथ था, वह अपने आप खो जाता है; उसकी जगह रह जाती है पगडंडी। अकेले के लिए पगडंडी बहुत! कोई बहुत बड़े-बड़े जलयान तो नहीं चाहिए; एक छोटी सी डोंगी बहुत।
‘पथ बनता पगडंडी
लौ कंपती, थिरती,
अनजाना फिर भी कुछ
परिचित-सा लगता गुंजन।’
ऐसा ही होगा। कुछ-कुछ अनजाना-सा और कुछ-कुछ जाना-सा! कुछ-कुछ ऐसा कि जैसे कभी सुना हो और फिर भी ऐसा कि जैसे कभी न सुना हो! यही तो इस जीवन का रहस्य है; समझ में आता भी, नहीं भी आता; और दोनों बातें साथ ही घटती हैं। कुछ-कुछ लगता कि समझ में आ रहा है। धागे हाथ में आते-आते छूट-छूट जाते हैं। लगता है रहस्य पकड़ा-पकड़ा और छिटक जाता है; मुट्ठी नहीं बांध पाते। खुले हाथ रखोगे तो जीवन तुम्हारे हाथ पर नाचेगा। मुट्ठी बांधनी चाही कि बस... जैसे कि पारा छितर-बितर हो जाए, ऐसा जीवन छितर-बितर हो जाता है। मुट्ठी मत बांधना!
मुट्ठी बांधने की हमारी स्वाभाविक वृत्ति होती है। हीरा मिल जाए तो जल्दी से मुट्ठी बांधना--पहली बात जो याद आती है वह यह कि मुट्ठी बांध लो। कि कोई देख-दाख न ले! कोई अपरिचित, अनजानी अनुभूति का हीरा जब हाथ लगता है, तो पहला तो मन होता है: मुट्ठी बांध लो। मगर मुट्ठी बांधते ही कुछ चीजें खो जाती हैं। उन पर तुमने मालकियत की कि वे खो गईं।
रहस्य की मालकियत नहीं हो सकती। उलटी ही बात होती है रहस्य के साथ। रहस्य को बन जाने दो तुम्हारा मालिक। तुम रहस्य को समझने की फिकर छोड़ो--डूबो! समझ कर करोगे भी क्या? समझ में आ भी जाए तो क्या होने वाला है? प्यासे आदमी को क्या फर्क पड़ेगा, अगर वह ठीक से भी समझ ले कि जल जो है वह एच टू ओ के सूत्र से निर्मित होता है? उसे तुम कागज पकड़ा दो: ‘एच टू ओ’--कि दो हिस्से उदजन और एक हिस्सा ऑक्सीजन, इनके मिलने से पानी बनता है, यह ले सूत्र, यह रहा तेरा गायत्री-मंत्र, अब प्यास-प्यास की बकवास न लगा। सब उसकी समझ में भी आ जाए, सूत्र भी हाथ में आ गया, मगर प्यास सूत्रों से नहीं बुझती। पानी चाहिए! जल चाहिए! और जल को नहीं समझते तो भी प्यास बुझती है। आखिर सदियों तक आदमी को पता नहीं था ‘एच टू ओ’ का। तो भी प्यास तो पानी बुझाता था। कुछ कम नहीं बुझाता था, इतनी ही बुझाता था।
जानने से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, भीगने से फर्क पड़ता है। रहस्य में भीगो। और कभी-कभी ऐसा होता है, जानने से बाधा पड़ती है। जैसे किसी वनस्पति-शास्त्री को तुम बगीचे में ले आओ, वह तुम्हें बगीचे का आनंद ही न लेने देगा। तुम गुलाब के फूल को देख कर मस्त होना चाहोगे, वह फौरन कहेगा यह कहां से आया। यह ईरानी जाति का मालूम पड़ता है।
मौलिक रूप से गुलाब ईरान से ही आया। इसलिए गुलाब के लिए हमारे पास कोई भारतीय शब्द नहीं है। गुलाब भारतीय शब्द नहीं है। गुल-आब। गुल यानी फूल। वह तो ईरानी शब्द है: अरबी है, उर्दू है; भारतीय शब्द नहीं है। और आब यानी चमकता हुआ तेज। वैसे जैसा कि मोती में चमकता हुआ जल। वह जो फूल की आभा है, फूलों में जो श्रेष्ठतम आभा है, उसको गुलाब कहा। आया है ईरान से। फिर धीरे-धीरे और नस्लें पैदा हो गई हैं उसकी। अब तो बहुत तरह की नस्लें हैं। पश्चिम से भी गुलाब आए हैं। वे भी गए थे ईरान से। लेकिन, पश्चिम जाकर उन्होंने गंध खो दी। गंध के लिए तो उष्ण देश चाहिए। उष्णता के बिना गंध मुक्त नहीं होती। जैसे उसमें भी एक प्रतीक छिपा हुआ है कि जब तक कोई साधना की आग न जलाए, जीवन की गंध प्रकट नहीं होती। भीतर सब ठंडा-ठंडा रहे, तो बस पश्चिमी ढंग के गुलाब होओगे: देखने में गुलाब, गंध इत्यादि कुछ भी नहीं! भीतर आग जले, ज्योति उठे ध्यान की, साधना की!
इसीलिए हमने सदियों-सदियों से संन्यास के लिए गैरिक रंग चुना है। गैरिक रंग अग्नि का रंग है--अग्निशिखा का रंग है। ज्योतिशिखा का रंग है! होती हुई सुबह का रंग है! खिले हुए फूलों का रंग है! जीवन का रंग है! सुर्खी यानी रक्त की सुर्खी; वह जीवन की धारा है।
अगर तुम किसी वनस्पतिशास्त्री को ले आए तो तुम्हें गुलाब का मजा नहीं लेने देगा। वह गुलाब के संबंध में एक प्रवचन देगा। वह गुलाब के संबंध में इतना समझाएगा कि गुलाब तो भूल ही जाएगा। यह गुलाब जो सामने नाच रहा है हवा में और सूरज की रोशनी में, इसको तो वह भुला देगा--इतना बीच में ज्ञान खड़ा कर देगा कि चीन की दीवाल बन जाएगी, उसके आर-पार तुम न जा सकोगे।
महात्मा भगवानदीन एक भारतीय साधु थे। प्यारे आदमी थे, मगर बहुत जानकारियों से भरे हुए थे। खास कर पौधों के संबंध में उनकी जानकारियां बहुत थीं। मैं जब छोटा था, तब वे मेरे घर मेहमान हुआ करते थे। और मेरा काम यह था कि सुबह-शाम उनके साथ घूमने जाऊं, उनको ले जाऊं घुमाने, क्योंकि उन्हें गांव के रास्तों का पता नहीं। वे मेरी जान खा डालते थे। यह वृक्ष क्या है? किस जाति का है? मैंने उनसे कहा कि एक बात आपसे साफ कर दूं। जाति इत्यादि की तो बात छोड़ो, मुझसे तो तुम नीम और आम का भी फर्क पूछो तो नहीं बता सकूंगा। मुझे कुछ पड़ी भी नहीं। मैं मस्त होता हूं इनकी हरियाली से! क्या लेना-देना है! हर चीज के बाबत जानकारी! और उनकी जानकारी का अंबार बड़ा था। वे बड़े पंडित थे। मगर ज्ञानी नहीं। पांडित्य उनका प्रगाढ़ था। वे भूल-भूल जाते। मुझे बार-बार उन्हें याद दिलानी पड़ती कि मुझे कोई रस नहीं है। पक्षी... कौन सा पक्षी है यह? किस जाति का है? कहां से आया है? किस देश से आया है? क्यों आया, इस मौसम में क्यों आया? फिर और मौसम में कहां चला जाता है? मैंने कहा: तुम जानो और पक्षी जाने! मेरा इससे कुछ लेना-देना नहीं है। जब आता है और गीत गाता है, मैं मस्त हो लेता हूं। जब चला जाता है, तब उसकी मर्जी; तब कोई दूसरा पक्षी होता है, उसके साथ मस्त हो लेता हूं। और कोई भी न हो तो मैं अकेला ही मस्त हूं। आप अपनी जानकारी अपने पास रखो! उनको मैं कहता भी, मगर वे फिर-फिर भूल जाते। आखिर एक दिन मैंने उनसे कहा कि अगर यह आदत आप अपनी नहीं छोड़ते, तो यह सुबह आपको घुमाने का और शाम आपको घुमाने का काम मुझे छोड़ देना होगा।
प्रकृति में इतना उल्लास है और तुम कहां के कूड़ा-करकट में लगे हुए हो!
मगर इससे लोग बड़े प्रभावित होते थे। हर कोई इससे प्रभावित हो जाता था। क्योंकि वे हर छोटी-मोटी चीज के संबंध में जानकारियां रखते थे, गहरी जानकारियां रखते थे। मगर जानकारी जानकारी है।
वेदांत, जब रहस्य का तुम्हारे जीवन में सूत्रपात हो, तो भूल कर भी समझने की कोशिश मत करना। समझने में न मालूम कितने लोग चूक गए हैं! समझने की प्रक्रिया में ही उलझ कर रह गए हैं। समझ इत्यादि छोड़ो; प्रेम पर्याप्त है। जो विस्मय है इस जगत का, उससे प्रीति करो। जो रहस्य है इस जगत का, उसे आलिंगन करो। जानकारी तो मस्तिष्क की बात है; प्रीति हृदय की। और हृदय में ही खिलते हैं कमल! सिर में तो सिर्फ कूड़ा-कचरा इकट्ठा होता है। कूड़ा-कचरा कितना ही तुम समझो कि मूल्यवान है, मूल्यवान नहीं है। वहां हीरों की खदानें नहीं हैं।
तो तुम ठीक कहते हो:
‘लौ कंपती, थिरती,
अनजाना फिर भी कुछ
परिचित-सा लगता गुंजन।’
शुरू-शुरू में ऐसा होगा ही। कभी क्षण भर को लौ ठहरेगी, थिरेगी, फिर कंपने लगेगी। मगर ख्याल करना, जब भी तुम जानने की चेष्टा में लगोगे तभी लौ कंपेगी। और जब तुम जानने की फिकर छोड़ दोगे, लौ थिर हो जाएगी। और लौ की थिरता ही ध्यान है। और लौ का कंप जाना ही ध्यान से पतित हो जाना है। मगर जैसे ही तुमने जानने की कोशिश की, कि चूक हुई; तुम साक्षी के पद से नीचे उतर आए। तुम भूल गए कि मैं सिर्फ साक्षी हूं। तुम दर्पण न रहे--मात्र दर्पण! तुम फोटो-प्लेट बनने लगे। फोटो-प्लेट पकड़ लेती है जो भी देखती है उसको। जकड़ लेती है जो भी देखती है उसको। सदा के लिए जकड़ लेती है। दर्पण? देखता सब है, पकड़ता कुछ भी नहीं। दृश्य बनते हैं, विदा हो जाते हैं, दर्पण खाली का खाली।
जब भी तुम पाओ कि लौ कंपती है तब समझ लेना कि तुम्हारा मन लौट आया पीछे के द्वार से और कहता है: जान लो, ठीक से पहचान लो। क्यों? क्योंकि हमें सिखाया गया है स्कूलों में, कालेजों में, विश्वविद्यालयों में कि ज्ञान शक्ति है। इसलिए हम सब ज्ञान के दीवाने हैं, हम ज्ञान के पीछे पड़े हैं--जितना ज्यादा ज्ञान हो जाए! बाहर के जगत में यह बात सत्य है कि ज्ञान शक्ति है।
बेकन का यह वचन: नॉलेज इ़ज पॉवर। बाहर के जगत में सत्य है, लेकिन भीतर के जगत में सत्य नहीं है। भीतर के जगत में तो निर्दोष चित्त, निर्मल चित्त, विस्मय-विमुग्ध चित्त--वह शक्ति है। बाहर के जगत में और भीतर के जगत में अलग-अलग नियम काम करते हैं।
‘लौ कंपती, थिरती,
अनजाना फिर भी कुछ
परिचित-सा लगता गुंजन।’
ये दोनों बातें एक साथ घटती हैं। क्योंकि जो तुम्हें मिल रहा है, वह सदा से तुम्हारा है--उसे तुमने एक क्षण को भी खोया नहीं था, वह तुम्हारे प्राणों के प्राण में बसा ही था। तो जाने-अनजाने उसकी आवाज तुम्हें सुनाई पड़ती ही रही थी। अनसुनी की होगी तुमने, लेकिन हृदय-तंत्री बजती ही रही थी। तुम शोरगुल से भरे थे, नहीं पकड़ पाए होओगे उसके स्वरों को, नहीं आनंदित हो पाए होओगे उसके गीत के साथ, लेकिन कभी न कभी तुम्हारे कान में वह गीत पड़ता ही रहा था। किन्हीं विश्राम के क्षणों में, किन्हीं शांति के क्षणों में, किसी पहाड़ी झरने के पास, बहुत दिनों के बाद मिले किसी मित्र का हाथ हाथ में लेकर बैठे हुए, कभी संगीत को सुनते हुए--बाहर के संगीत में ऐसे डूब गए होओगे कि भीतर का संगीत भी क्षण भर को उभर आया होगा--प्रेम में, प्रकृति में, गीत में, नृत्य में, कभी न कभी भीतर के कुछ न कुछ छोर हाथ में आ गए होंगे, कुछ न कुछ बात छू गई होगी, कहीं न कहीं स्पर्श हो गया होगा।
और भीतर का सत्य जहां भी स्पर्श कर जाता है वहीं मिट्टी को सोना कर जाता है। वह पारस है। इसलिए कुछ-कुछ पहचाना लगेगा। जैसे दूर से आई हुई ध्वनि! कुछ-कुछ पहचाना लगेगा और कुछ-कुछ अपरिचित लगेगा। और यह स्थिति अंत तक बनी रहेगी। यह स्थिति कभी समाप्त नहीं होती। जो ब्रह्म को जान भी लेते हैं, उनकी भी समाप्त नहीं होती, उनको भी ब्रह्म कुछ परिचित, कुछ अपरिचित लगता है। क्योंकि ब्रह्म को कभी भी पूरा-पूरा नहीं जाना जा सकता। पूरा-पूरा जान लो तो उसकी सीमा बन जाएगी, वह असीम नहीं रह जाएगा। पूरा-पूरा नाप लो, तो अथाह नहीं रह जाएगा। ब्रह्म है अथाह, असीम। हां, कुछ जानोगे और बहुत कुछ जानने को सदा शेष रहेगा। जितना जानोगे उतना ही यह भी जानोगे कि अभी बहुत जानने को शेष है।
‘पत्तों से झरते शब्द, विचार;
तर्कजाल--
जो रहा कभी मन का वैभव,
प्रतिपल है मिटता तार-तार।’
इसीलिए तो सत्संग है। तुम्हारे मन में विचार ऐसे ही लगते हैं जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं। मगर वृक्षों के पत्ते तो पतझर में झर जाते हैं, हर बार नये हो जाते हैं। तुम्हारा मन अजीब है। पुराने पत्ते भी लगे रहते हैं और नये भी निकलते आते हैं। पुराने पत्तों को तुम झरने ही नहीं देते। अगर झर भी जाएं तो सम्हाल-सम्हाल कर रख लेते हो, गिड्डियां बना लेते हो। जैसे लोग नोटों की गिड्डियां बनाते हैं, ऐसे ही तुम पुराने पत्तों की भी गिड्डियां बना-बना कर भीतर उनको इकट्ठा करते जाते हो।
सत्संग का अर्थ ही यह है कि वहां शब्द तुम्हारे, तुम्हारे हाथ से छूटने लगें; वहां तुम्हारे विचार अब और संगृहीत न हों, विसर्जित होने लगें। तुम्हारे तर्कजाल, जिनसे तुम घिरे हो, जिनसे सभी घिरे हैं--कम-ज्यादा, कमोबेश, लेकिन सभी लोग तर्कजाल से घिरे हैं। जिनको तुम धार्मिक कहते हो, वे भी तर्कजाल से घिरे हैं। उनका ईश्वर भी केवल तर्क की एक निष्पत्ति है। उनसे पूछो कि ईश्वर है? और वे जवाब देने को तैयार हैं। पूछो, क्यों है? तो वे तर्क देने को तैयार हैं। इन्हीं मूढ़ों के कारण दुनिया में नास्तिकता पनपी है। क्योंकि जब तुम ईश्वर को सिद्ध करने के लिए तर्क देते हो, तो लोग उसको असिद्ध करने के लिए तर्क देने लगते हैं। और ध्यान रखना, तर्क असिद्ध करने में ज्यादा कुशल है बजाय सिद्ध करने के; क्योंकि तर्क की मूल आधारशिला नकार है, निषेध है, इनकार है। तर्क हां करना तो जानता ही नहीं; ना-करना ही जानता है।
इसलिए तुम कितना ही तर्क दो, तुम्हारे तर्क से कभी आस्तिकता फलित नहीं हो सकती; या होगी भी तो थोथी होगी, झूठी होगी। जैसे की तुम कहो कि हर चीज को बनाने वाला होता है, इसलिए जगत को बनाने वाला भी कोई होना चाहिए। धार्मिक लोग यही कहते रहे हैं सदियों से। शास्त्रों में यही लिखा हुआ है: जैसे कुम्हार घड़े को बनाता है। अब घड़ा है तो कुम्हार का सबूत है। अगर तुम्हें घड़ा मिल जाए, तो स्वभावतः चाहे कुम्हारे मिले या न मिले, तुम्हें मानना पड़ेगा कि कोई बनाने वाला होगा। यह घड़ा अपने आप ही नहीं बन जाएगा। और घड़ा तो खैर बहुत सरल वस्तु है, और भी बहुत जटिल वस्तुएं हैं।
पश्चिम का बहुत बड़ा नास्तिक दिदरो कहता था कि अगर रेगिस्तान में तुम जा रहे हो और तुम्हें एक घड़ी मिल जाए--घड़ा तो छोड़ो, घड़ी--तो क्या तुम यह कल्पना कर सकते हो कि यह अपने आप बन गई होगी। असंभव। यह घड़ी का इतना सूक्ष्म यंत्र कैसे अपने आप बन जाएगा? न घड़ा बन सकता है अपने आप, न घड़ी बन सकती है अपने आप। तो यह इतना बड़ा विराट अस्तित्व कैसे अपने आप बन जाएगा?
तो सदियों से धार्मिक लोग यह तर्क देते रहे हैं कि परमात्मा होना चाहिए, स्रष्टा होना चाहिए। मगर नास्तिक क्या कहता है? नास्तिक कहता है: अगर यह अस्तित्व को बनाने के लिए परमात्मा चाहिए तो परमात्मा को किसने बनाया? बस उसने तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन खींच ली। अगर घड़े को बनाने के लिए कुम्हार चाहिए तो कुम्हार को बनाने के लिए भी कोई चाहिए न! जब घड़े जैसी सीधी-सादी चीज अपने आप नहीं बनती, तो कुम्हार जैसा जटिल व्यक्ति कैसे अपने आप बन जाएगा? तो परमात्मा को किसने बनाया? बस तुम्हारा आस्तिक वहां लड़खड़ा जाता है। बड़े-बड़े आस्तिक वहां लड़खड़ा जाते हैं।
याज्ञवल्क्य से--इस देश के एक बड़े आस्तिक विचारक से--गार्गी ने यही पूछा था। जनक ने एक दरबार रचाया था, जिसमें देश के सारे महापंडित बुलाए थे और कहा था: जो जीत लेगा विवाद को... ब्रह्म के संबंध में विवाद हो रहा था... उसके लिए एक हजार गऊएं भेंट करूंगा। उन गऊओं के सींग सोने से मढ़े थे और उन पर हीरे-जवाहरात जड़े थे। वे एक हजार गऊएं राजमहल के बाहर खड़ी थीं। पंडित विवाद में उलझे थे। कौन छोड़े इन एक हजार गऊओं को! और इनके सींगों पर लगा हुआ सोना और जड़े हुए हीरे-जवाहरात--करोड़ों की कीमत थी उन गऊओं की, श्रेष्ठतम गऊएं थीं देश की। इनको छोड़ने के लिए कोई राजी नहीं था। सभी तथाकथित ब्रह्मज्ञानी इकट्ठे हो गए थे विवाद के लिए। याज्ञवल्क्य जरा देर से पहुंचा। उसके शिष्यों ने कहा भी कि हम भी चलें, जल्दी करें! उसने कहा: तुम फिकर न करो। पहले उनको कर लेने दो माथापच्ची। पीछे चल कर हम निपटारा कर लेंगे। थक लेने दो उनको!
जब दोपहर हो गई तब याज्ञवल्क्य अपने शिष्यों को लेकर आया। और आते ही उसने पहला काम क्या किया कि जनक भी चौंक गया! उसने अपने शिष्यों से कहा: बेटो, गऊएं थक गई हैं धूप में खड़े-खड़े, इनको तुम आश्रम ले जाओ। विवाद मैं निपटा लेता हूं। जनक की भी हिम्मत न पड़ी यह कहने की कि यह बात शोभन नहीं है; वह तो पुरस्कार है। लेकिन याज्ञवल्क्य को इतना आश्वासन था अपने ऊपर, अपने विवाद की प्रतिभा पर, अपने तर्कजाल पर कि उसने कहा: कोई फिकर नहीं, वह मैं निपटा ही लूंगा। विवाद जीतना सुनिश्चित ही है। इसलिए तुम गऊओं को तो ले जाओ, इनको क्यों बिचारी... पानी भी नहीं पीआ, धूप में भी खड़ी हैं, थक भी गई हैं!
उसके शिष्यों ने तो गाएं फौरन खदेड़ दीं आश्रम की तरफ... सारा पंडितों का समूह एक क्षण को तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। और याज्ञवल्क्य ने सबको विरोध में हरा दिया। तब गार्गी खड़ी हुई।
शुभ दिन थे वे जब कि स्त्रियों को भी उतनी ही आजादी थी जितनी पुरुषों को; जब स्त्रियों का भी उतना ही सम्मान था जितना पुरुषों का; जब कि स्त्रियां भी विवादों में भाग ले सकती थीं; जब कि स्त्रियां भी पुरुष पंडितों के साथ बैठ सकती थीं। गार्गी खड़ी हुई और गार्गी ने कहा कि मैं यह पूछना चाहती हूं कि तुम कहते हो कि विश्व को परमात्मा ने बनाया, परमात्मा को किसने बनाया?
याज्ञवल्क्य जैसा विचारक आदमी भी आगबबूला हो गया। क्योंकि यह प्रश्न ऐसा था कि पैर के नीचे की जमीन खींच ले। वे गऊएं जो चली गयीं, वे वापस करनी पड़ें। वह तो भद्द हो जाएगी। एकदम क्रोध में आ गया और कहा: गार्गी, यह अतिप्रश्न है! अतिप्रश्न उस प्रश्न को कहते हैं जो नहीं पूछा जाना चाहिए। यह भी कोई बात हुई! कौन तय करेगा कि कौन सा प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए? और इतना क्रुद्ध हो गया याज्ञवल्क्य तो, उसने कहा, यह अतिप्रश्न है! अगर तू ऐसे प्रश्न पूछेगी, तेरा सिर धड़ से गिर जाएगा।
भूल ही गया ब्रह्मज्ञान इत्यादि! बातचीत तो दूर, मामला मारा-मारी पर आ गया। सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा!
उपनिषद कुछ और कहते नहीं कि गार्गी ने क्या कहा। भली नारी रही होगी, चुप हो गई होगी। इस बेहूदगी में पड़ना उसने ठीक न समझा होगा। यह बात अब सज्जनोचित न रही--कम से कम स्त्रियोचित तो न रही। अब गर्दन काटने इत्यादि की बात होने लगी, मामला सिर्फ विचार का था। और गार्गी ने अतिप्रश्न नहीं पूछा था, मैं यह कहना चाहता हूं। गार्गी ने बिलकुल समुचित प्रश्न पूछा था।
जब पृथ्वी को बनाने के लिए तुम कहते हो कि कोई बनाने वाला चाहिए, तो इसमें क्या अतिप्रश्न है कि कोई पूछे कि उस बनाने वाले को किसने बनाया? मगर याज्ञवल्क्य की तकलीफ भी मैं समझता हूं--तकलीफ यह है कि फिर इसका अंत कहां होगा? तुम कहो ‘अ’ ने बनाया, तो वह पूछेगी ‘अ’ को किसने बनाया? तुम कहो ‘ब’ ने बनाया, तो वह पूछेगी ‘ब’ को किसने बनाया? तुम कहो ‘स’ ने बनाया, तो वह पूछेगी ‘स’ को किसने बनाया? आखिर में तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। अंततः तुम्हें स्वीकार करना ही होगा, थक ही जाना होगा। एक जगह जाकर तुम्हें कहना ही होगा कि इसको किसी ने नहीं बनाया। और वहीं तुम हार जाओगे, क्योंकि अगर कोई एक चीज ऐसी हो सकती है, बिन-बनाई, तो सारी पृथ्वी ही बिन-बनाई क्यों नहीं हो सकती? अगर परमात्मा बिन-बनाया हो सकता है, तो घड़े में ऐसी क्या खूबी है, तो घड़ा भी बिन-बनाया हो सकता है! तो घड़ी भी बिन-बनाई हो सकती है! जब परमात्मा तक बिन-बनाया हो सकता है, इतना रहस्यपूर्ण जो है...।
मेरे हिसाब में जिन्होंने परमात्मा के प्रमाण के लिए तर्क दिए हैं उन्होंने सिर्फ नास्तिकों के लिए रास्ता खोला। वास्तविक जो आस्तिक हैं, जिन्होंने परमात्मा को जाना है, उन्होंने कोई तर्क नहीं दिए हैं। वे तर्क दे नहीं सकते। क्योंकि वह तर्कातीत है। न तर्क से जाना जा सकता है, न तर्क से सिद्ध किया जा सकता है। वह अनुभवगम्य है। ये तो बच्चों की बातें हैं। तुम छोटे बच्चों को ऐसे समझाओ तो चलेगा, कि भगवान ने सारी पृथ्वी बनाई। छोटे बच्चों की बातें हैं। तुम्हारे पुराण करीब-करीब ऐसे हैं कि सिर्फ अब बच्चों के पाठ्यक्रम में रखे जा सकते हैं, इससे ज्यादा उनका कोई मूल्य नहीं है।
पृथ्वी को कौन सम्हाले हुए है? बड़े-बड़े ज्ञानी पूछ रहे हैं! पृथ्वी को कौन सम्हाले हुए है? कछुआ सम्हाले हुए है। कछुआ! तो कितना बड़ा कछुआ होगा, जरा सोचो तो! और भूकंप वगैरह क्यों आते हैं? कछुआ जरा थक जाता है, तो जरा करवट वगैरह लेने लगता है! कछुआ ही ठहरा! ज्यादा भूकंप नहीं आते, यही आश्चर्य है। आने चाहिए रोज ही। किसी दिन कछुआ-कछुवी में झगड़ा हो जाए, वह फेंक-फांक कर पृथ्वी एक तरफ कि आ जा पहले तुझे देखूं! तो यहां तो सत्यानाश हो जाए! कछुए का क्या भरोसा! और कब से बेचारे की पीठ पर लदी है पृथ्वी! इसका कसूर क्या है? और अगर पूछो कि कछुआ किस पर टिका है--अतिप्रश्न हो गया! सिर धड़ से गिर जाएगा! मैंने तो किसी का गिरते नहीं देखा। मैंने कई बार खुद पूछ कर देखा, बिलकुल नहीं गिरता!
पृथ्वी को टिकने के लिए कछुए की जरूरत है! और कछुआ? तुम इस बात की मूढ़ता को देखते हो? और कछुआ अगर बिना ही किसी पर टिके टिका है, तो फिर बेचारे कछुए को नाहक तकलीफ क्यों देनी! पृथ्वी को टिका रहने दो बिना किसी पर टिके हुए। वही तो विज्ञान कहता है कि पृथ्वी अपने आप टिकी है। कोई और टिकाने की आवश्यकता नहीं है।
मगर छोटे बच्चों को यह बात नहीं जंचेगी। छोटे बच्चों को कछुए वाली बात जंचेगी। प्रसन्न हो जाएंगे। वे कहेंगे: अरे यह बात ठीक!... कछुआ कहां है? कितना बड़ा है? उसके कितने पैर हैं, कैसा रंग है? शायद कछुए के संबंध में वे इतने उलझ जाएं कि वे भूल ही जाएं पूछना कि कछुआ किस पर टिका है। और बहुत ही पूछें तो होशियार आदमी हो तो कहना, वह हाथी पर टिका है और फिर हाथी ऊंट पर टिका है... और टिकाते जाना। आखिर दुनिया में इतनी चीजें हैं, टिकाना ही है तो टिकाते जाना! और बच्चे ज्यादा देर जिज्ञासा करते नहीं; इतनी थिरता नहीं होती। इधर पूछा कि पृथ्वी किस पर टिकी है, तुमने कहा कछुए पर, उन्होंने कहा, होगी। दूसरा प्रश्न पूछने लगते हैं कि वृक्ष हरे क्यों हैं; कि पक्षी आकाश में उड़ते क्यों हैं, आदमी क्यों नहीं उड़ता? इनको इतनी फुरसत कहां कि अब कछुए ही के पीछे पड़े रहें। इधर दुनिया में इतनी चीजें हैं...!
कभी किसी बच्चे के साथ सुबह घूमने गए हो? पूछता ही चला जाता है। तुम लाख उसको चुप करो!
कल मैं पढ़ रहा था एक लेखक की आत्म-कथा। उसने लिखा कि मेरा पहला बच्चा पैदा हुआ घर में, तीन साल का हुआ तो उसे एक खराब आदत पकड़ गई। हर किसी से कहे: शट अप! हर किसी से! उसको ऐसी आदत पकड़ गई कि जिनसे कोई लेना-देना नहीं उसको... कोई घर में मेहमान आया है, बाप से बातें कर रहा है, वह बीच में आकर कहे: शट अप! तो इसने उसको कहा कि देख... उसको वह शब्द ऐसा जंचे और उसका प्रभाव भी एकदम पड़े कि एकदम किसी से भी कह दे तो वह भी एक क्षण को तो ठहर ही जाए कि मामला क्या है!... उसके बाप ने उसको बुला कर कहा कि देख, यह बात तुझे बदलनी पड़ेगी; नहीं तो मैं तेरी कुटाई-पिटाई करूंगा। जब तेरे दिल में यह भाव उठे कहने का: शट अप, तो अपने से ही कहा कर कि शट अप!
यह बात लड़के को बहुत जंची। उसने कहा कि यह बिलकुल ठीक। तीन-चार दिन बाद बाप ने देखा कि वह एक कुर्सी पर बैठा है और बीच-बीच में खिलखिलाता है, हंसता है और फिर अपने आप शांत हो जाता है। बाप ने पूछा: क्या मामला है? तो उसने कहा कि यह जो आपने बताया, जब भी मेरे मन में यह भाव उठता है तो मैं कहता हूं: शट अप! और कोई डांटता भी नहीं। सो मुझे बहुत हंसी आती है कि यह अच्छा रहा! नहीं तो पहले हमेशा डांट पड़ती थी, मां डांटे, आप डांटें, जो देखो वही डांटे, नौकर-चाकर डांटें, स्कूल में जाऊं तो मास्टर डांटें। और मुझे यह कहने में मजा आता है, अब यह मुझे राज मिल गया कि मैं अपने से ही कह लेता हूं और देखता हूं, अब देखें कौन डांटता है! कोई डांटने वाला नहीं। इसलिए मैं हंस रहा हूं, प्रसन्न हो रहा हूं।
बच्चों की जिज्ञासाएं!
ईश्वर के संबंध में भी तुम जो पूछते हो, बचकानी जिज्ञासाएं हैं। फिर उनको सिद्ध करने के लिए जो तुम तर्क इकट्ठे करते हो, वे भी बचकाने हैं। ईश्वर एक अनुभव है, जैसे प्रेम एक अनुभव है। कोई प्रमाण नहीं है, कोई तर्क नहीं है। तुम्हारे तर्क तार-तार करना है। तुम्हारे तर्कजाल तोड़ देने हैं। यही सत्संग की उपादेयता है।
तुम ठीक कहते वेदांत:
‘पत्तों से झरते शब्द, विचार;
तर्कजाल--
जो रहा कभी मन का वैभव,
प्रतिपल है मिटता तार-तार।
मधु भरता
घड़ी, दिन, रैन मास
लुक-छिप जाता
फिर-फिर शैशव,
धरा शीतल करती झरती
भीतर की ही जलधार।’
और मधु तो भरेगा। जब तर्क कटेगा तो मधु भरेगा। तर्क से खाली हुए कि मधु भरा। झरत दसहुं दिस मोती! तर्क को तोड़ डालो और सत्य उतरेगा। तर्क ही है जो सत्य को नहीं उतरने देता। यह तर्क ही है जो द्वार अवरुद्ध किए है। मधु तो तुम्हारे भीतर बह उठने को आतुर है। अनहद नाद बजना चाहता है, मगर तर्क बजने दे तब! तर्क तुम्हारे पैरों में जंजीरें बन कर पड़ा है; तुम नाच नहीं सकते। कोई हिंदू तर्क में बंधा है, कोई मुसलमान तर्क में, कोई कम्युनिस्ट तर्क में--तर्क ही तर्क हैं दुनिया में!
मैं उस व्यक्ति को धार्मिक कहता हूं जो सारे तर्कों को तोड़ देता है। तर्क के टूटते ही मधु-वर्षा हो जाती है, मधु-वर्षण हो जाता है।
‘शत-सहस्र
सूर्य-किरणों से मंडित
चेतना के उत्तुंग शिखर पर
दीप्तिमान
हे, धवलपुंज!’
लेकिन जो तुम मेरे लिए कह रहे हो, वह तुम्हारे लिए भी उतना ही सत्य है--इसे स्मरण रखना, इसे भूल मत जाना। और तुम्हारे लिए ही नहीं, सबके लिए सत्य है--इसे स्मरण रखना, इसे कभी क्षण भर को न भूलना।
बुद्ध ने अपने पिछले जीवन की एक घटना कही है। जब वे बुद्ध नहीं थे, बुद्ध होने के सदियों पहले वे एक राजकुमार थे, और उस समय एक बहुत प्रसिद्ध बुद्ध हुए--दीपंकर--उनके दर्शन को गए थे। दीपंकर बुद्ध की प्रतिभा, उनका जाज्वल्यमान रूप, उनका प्रसाद देख कर यह राजकुमार उनके चरणों में झुका। जैसे ही चरण छू कर उठा था कि चकित हुआ कि दीपंकर बुद्ध उसके चरणों में झुके! घबड़ा गया। उठाया उन्हें और कहा: आप यह क्या करते हैं? मैं एक साधारणजन हूं, आप प्रबुद्ध पुरुष हैं, मैं आपके चरण छूऊं, यह तो ठीक; लेकिन आप मेरे चरण क्यों छूते हैं?
तो दीपंकर बुद्ध ने कहा: जो मैं प्रकट हो गया हूं, वह तू भी है लेकिन अभी अप्रकट है। तुझे पता नहीं, लेकिन मुझे तो पता है! मैं तो तेरे आर-पार देख सकता हूं। जिस दिन अपने आर-पार देखा, उसी दिन सबके आर-पार देखने की कला आ जाती है।
फिर तो बुद्ध ने भी, जब वे बुद्ध हुए तो कहा कि आज मैं समझा कि दीपंकर ने क्या कहा था। तब मैंने सुन लिया था, लेकिन समझ में मेरे कुछ पड़ा न था। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आता था कि मैं और मेरे चरण छूने योग्य हो सकते हैं! मैं तो अपने भीतर सिवाय गर्हित भावनाओं के, कुत्सित कामनाओं के, वासनाओं के कुछ भी न पाता था। मेरे भीतर क्या है--अंधकार ही अंधकार! कोई दीया भी तो नहीं। और यह सूर्य जैसा जगमगाता हुआ व्यक्ति मेरे चरणों में झुके! यह कोई मजाक तो नहीं है, यह कोई व्यंग्य तो नहीं है? यह आदमी पागल तो नहीं है?
लेकिन अब मैं जानता हूं।
जब बुद्ध स्वयं बुद्ध हुए तो उन्होंने कहा कि जिस क्षण मैं बुद्ध हुआ, उस क्षण मुझे जो पहली याद आई वह दीपंकर की आई। तब मैंने अज्ञात के चरणों में सिर झुकाया। खो गए विराट में दीपंकर को मैंने पहले स्मरण किया, कि तुम पहले थे जिसने मुझे पहचाना था; अब मैं भी अपने को पहचाना। और बुद्ध ने यह भी कहा कि जिस क्षण मैं बुद्ध हुआ, उसी दिन मेरे लिए सारा अस्तित्व बुद्ध हो गया।
बस, दो ही तरह के लोग हैं दुनिया में। एक, जो जानते हैं कि कौन हैं और एक, जो नहीं जानते कि कौन हैं। मगर हीरे तो सब हैं, जानो कि न जानो!
‘हे, धवलपुंज!
शत, शत कमलों के ऊर्जास्रोत
हे महाप्राण!
ले अर्पित तेरे चरणों में
उलटे-सीधे सब ताल, स्वर;
हे, राशि-राशि भर रत्न उलीचते
रत्नाकर!
नतमस्तक हूं
हे, अखिल विश्व के दिव्य-द्वार
नमस्कार, प्रभु, नमस्कार!’
जो तुम मेरे लिए कह रहे हो, चाहूंगा कि एक दिन अपने लिए भी कह सको; क्योंकि तुम्हारे भीतर भी वही विराजमान है, रत्ती भर कम नहीं। इतना ही धवल शिखर तुम्हारा भी है। मगर तुम आंखें ऊपर नहीं उठाए। और इतनी ही गहराई तुम्हारी भी है। मगर न मालूम किन डरों से भरे हुए, कंपते हुए तुम झांकते नहीं।
मेरे जीवन में एक बार
तुम देखो तो अनुपम स्वरूप;
मैं तुममें प्रतिबिंबित होऊं,
तुम मुझमें होना ओ अनूप!
राका-शशि अपनी रश्मि-माल
जब रजनी को पहनाता हो;
अथवा जब फूलों के तन से
प्रेयसि सुगंधि का नाता हो,
जब विमल ऊर्मि में लघु बुदबुद
उल्लास-पीन लहराता हो,
जब तरु से लतिका का अंतर
मधु-ऋतु में कम पड़ जाता हो,
उस समय हंसो, तो बरस पड़े
कण-कण में विश्वों का स्वरूप।
मैं तुममें प्रतिबिंबित होऊं,
तुम मुझमें होना ओ अनूप!
गुरु और शिष्य के बीच जो नाता है वह ऐसा है जैसे दो दर्पण एक-दूसरे के सामने रखे हों। एक-दूसरे में प्रतिबिंबित होते जाएं--प्रतिबिंबित पर प्रतिबिंबित होते जाएं! दो दर्पण एक-दूसरे के सामने होंगे तो क्या होगा? वही शिष्य और गुरु के बीच घटता है, घटना चाहिए, तो ही समझना कि शिष्य और गुरु का संबंध हुआ है।
और वेदांत, मैं साक्षी हूं, गवाह हूं कि तुम्हारा वैसे संबंध का प्रथम सूत्रपात हो गया है।
मैं तुम्हारे नूपुरों का हास
लघु स्वरों में बंद हो
पाऊं चरण में वास।
मैं तुम्हारी मौन गति में
भर रहा हूं राग;
बोलता हूं यह जताने
हूं तुम्हारे पास।
चरण-कंपन का तुम्हारे
हृदय में मृदु भाव;
कर रहा हूं मैं तुम्हारे
कंठ का अभ्यास।
मैं तुम्हारे आगमन का
पूर्व लघु संदेश;
गति रुकी तो मौन हूं,
गति में अखिल उल्लास।
मैं चरण ही में रहूं
स्वर के सहित सविलास;
गति तुम्हारी ही बने
मेरा अटल विश्वास।
वह होना शुरू हुआ है। आस्था जगी है। आस्था में कोंपलें ऊगनी शुरू हुई हैं। मधुमास दूर नहीं है। मगर जब मधुमास करीब आता है, तब एक खतरा भी करीब आता है। और वह खतरा भी तुम्हारे चारों तरफ मंडरा रहा है। उस खतरे के प्रति भी तुम्हें सचेत कर देना जरूरी है।
जब यह महाक्रांति घटने के करीब होती है तो भागने का मन होता है। जब यह इतनी बड़ी श्रद्धा का जन्म होने लगता है, तो डर लगता है कि कहीं मैं डूब ही तो न जाऊंगा, बिलकुल डूब ही तो न जाऊंगा! अपने को बचा लूं! भाग जाऊं! कहीं दूर निकल जाऊं! वैसा भाव उठे तो साक्षीभाव से उसे देख लेना, उसको संग-साथ मत देना। वह अपने से उठेगा, अपने से गिर जाएगा। जो अभी एक छोटी सी किरण की तरह घटना घटनी शुरू हुई है, जल्दी ही महासूर्य बन जाएगी। बन सकती है। सब तुम पर निर्भर है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं कुंडलिनी जगाना चाहता हूं। अभी तक जागी नहीं। क्या मुझसे कोई भूल हो रही है? मार्ग-दर्शन दें।
जगदीश! भैया, कुंडलिनी ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा! सोई है, बिचारी को सोने दो! काहे पीछे पड़े हो? तुम्हें और कोई काम नहीं है? कुंडलिनी क्यों जगाना चाहते हो? फिर जग जाए तो फिर आकर कहोगे कि अब इसे सुलाओ! कि अब यह कुंडलिनी जग गई, अब यह चैन नहीं लेने देती।
शब्द सुन लिए हैं। और शब्द सुन लिए हैं तो शब्दों के साथ वासना जुड़ जाती है। कोई जैन आकर नहीं पूछता कि मेरी कुंडलिनी क्यों नहीं जग रही है, क्योंकि उसके शास्त्रों में ये शब्द नहीं है। कोई बौद्ध नहीं पूछता, कोई मुसलमान नहीं पूछता, कोई ईसाई नहीं पूछता, कोई पारसी नहीं पूछता, कोई यहूदी नहीं पूछता--यहां सब मौजूद हैं--हिंदुओं भर को यह शब्द पकड़ गया है: कुंडलिनी! और कुंडलिनी जगा कर रहेंगे! और नहीं जग रही है तो तुम्हें शक हो रहा है कि कहीं कोई भूल तो नहीं हो रही है!
जगदीश, तुमसे और भूल! जरा नाम तो देखो अपना--‘जगदीश!’ तुमसे भूल नहीं हो सकती, भैया! तुमसे ही भूल होने लगी तो जगत का क्या होगा?
मुल्ला नसरुद्दीन का दावा था कि उससे कभी गलती नहीं हुई। लोग उससे ऊब गए थे सुन-सुन कर यह बात। जब देखो तब; जहां देखो वहां; जब मौका मिल जाए, छोड़े ही नहीं अवसर यह बताने का कि मुझसे कभी कोई भूल नहीं हुई; जीवन में मैंने गलती की ही नहीं। किंतु एक दिन जब उसने कहा कि एक बार उससे सचमुच गलती हो गई थी, तो सुनने वाले एकदम चौंक पड़े। मित्रों को भरोसा न आया अपने कानों पर, कि नसरुद्दीन कहे कि मुझसे और गलती हो गई!
एक मित्र ने कहा कि नसरुद्दीन क्या कह रहे हो? तुमसे और गलती! कभी नहीं, कभी नहीं! ऐसा हो ही कैसे सकता है? क्या कह रहे हो, कुछ सोच रहे हो कि बिना सोचे बोल गए हो?
नसरुद्दीन ने कहा: हां भई, एक बार हो गई थी। एक बार मैंने सोचा था कि मैं गलती पर हूं, किंतु बाद में पता चला कि मैं ठीक था।
गलती वगैरह कुछ भी नहीं हो रही है। कुंडलिनी जगाने की भी कोई जरूरत नहीं है। कुंडलिनी जगाने का भी एक शास्त्र है, लेकिन उससे गुजरना आवश्यक नहीं है। जीसस बिना उससे गुजरे पहुंच गए, बुद्ध उससे बिना गुजरे पहुंच गए, महावीर पहुंच गए। उस रास्ते से जाना आवश्यक नहीं है। और उस रास्ते से जाना खतरनाक भी है; क्योंकि शरीर की प्रसुप्त शक्तियों को छेड़ना खतरे से खाली नहीं है। अच्छा तो यह है कि उन्हें बिना छेड़े गुजर जाओ। उन्हें छेड़ने का सबसे बड़ा खतरा तो यह है कि हो सकता है कि तुम फिर उन पर काबू न पा सको। तुम्हारे भीतर इतना बड़ा विस्फोट हो कि तुम्हारी समझ के बाहर पड़ जाए। और समझ के बाहर पड़ ही जाएगा। और तुम अगर नियंत्रण न पा सको तो विक्षिप्त हो जाओगे।
इस सदी का एक बहुत बड़ा सदगुरु था, जॉर्ज गुरजिएफ। वह कुंडलिनी के बहुत खिलाफ था। खिलाफत के कारण कुंडलिनी को उसने नया नाम ही दे दिया था--‘कुंडाबफर।’ बफर लगे रहते हैं न, तुमने देखे हों ट्रेन के दो डिब्बों के बीच में जो लगे रहते हैं, उनको कहते हैं बफर। उससे कभी टक्कर वगैरह हो जाए तो डब्बे एक-दूसरे पर नहीं चढ़ जाते। वे जो बीच में बफर लगे रहते हैं, वे धक्के को पी जाते हैं। ऐसे ही कार में स्प्रिंग लगे रहते हैं, वे भी बफर हैं;... उनके कारण भारतीय रास्ते पर भी कार चल सकती है! नहीं तो पूना से बंबई ही नहीं पहुंच सकते, और दूर की तो बात छोड़ो। स्ंिप्रग तुम्हारी चोटों को पी जाते हैं, नहीं तो वे चोटें तुमको पीनी पड़ेंगी। मल्टीफ्रैक्चर हो जाएगा बंबई पहुंचते-पहुंचते। उतरोगे नीचे तो घर के लोग ही नहीं पहचान पाएंगे कि तुम्हीं हो।
एक दर्जी मुल्ला नसरुद्दीन को अचकन और चूड़ीदार पाजामा बेच रहा था। खींचतान कर किसी तरह उसको चूड़ीदार पाजामा पहना दिया--दो घंटे लगे। नसरुद्दीन ने कहा कि भई, यह तो बहुत कठिन काम है। और तुमने किसी तरह चढ़ा तो दिया, अब मुझे डर लग रहा है कि इसको मैं उतार सकूंगा कि नहीं। और आईने के सामने खड़ा हुआ तो बिलकुल बंदरछाप काला दंतमंजन! उसने कहा कि भइया, यह तुमने मेरी क्या गति कर दी! यह दिल्ली में नेतागणों की होती रहे, होती रहे, मगर मुझे कोई काला दंतमंजन बेचना है? एक ढोल और दे दो मुझे! यह कहां का कपड़ा मुझे पहना दिया? निकालो!
मगर दर्जी भी दर्जी था। दर्जी ने कहा कि तुम समझ ही नहीं रहे। तुम्हें आधुनिक सभ्यता का कोई बोध ही नहीं है। अरे, यह राष्ट्र की वेशभूषा है--राष्ट्रीय वेश है! और तुम इतने सुंदर लग रहे हो! तुम जरा बाहर तो होकर आओ! और तुम इतने जवान लग रहे हो कि तुम्हारे मित्र भी तुम्हें पहचान नहीं सकेंगे।
नहीं माना दर्जी तो मुल्ला जरा बाहर सड़क पर चक्कर लगाने गया। चलना ही मुश्किल हो रहा था, अब गिरे तब गिरे की हालत थी--जो कि नेतागणों की रहती ही है, अब गिरे तब गिरे! जब तक न गिरे तब तक समझो चमत्कार है! गिरे तो उठना फिर बिलकुल मुश्किल हो जाता है। उठ आए तो समझो महा चमत्कार है! कोई पांच-सात मिनट बाद ही वापस लौट आया। जैसे ही भीतर आया, वह दर्जी उठ कर खड़ा हुआ--कहिए, महाशय आइए, आपकी क्या सेवा करूं? आप कहां से आए हैं? आप अजनबी मालूम होते हैं इस बस्ती में। और कपड़े आपके क्या सुंदर! मैं तो बिलकुल पहचान ही नहीं पा रहा हूं, दर्जी बोला।
यही हालत हो जाएगी--घर के लोग भी पहचान न सकें। पत्नी न पहचाने पति को, जिसने कि कसम खाई थी जन्मों-जन्मों तक पहचानने की।
वह तो... गुरजिएफ उसको कहता था: कुंडाबफर।
शरीर की एक ऊर्जा है, जो शरीर और आत्मा के बीच बफर का काम करती है। नहीं तो शरीर के भीतर आत्मा का रहना मुश्किल हो जाए, असंभव हो जाए। उस ऊर्जा की एक पर्त तुम्हारी आत्मा को घेरे हुए है। तुम्हारी आत्मा और शरीर के बीच में उस ऊर्जा की एक पर्त है। इसलिए शरीर को लगी चोटें आत्मा तक नहीं पहुंचतीं। इसलिए शरीर जवान हो, बूढ़ा हो, जीए, मरे, कोई घटना आत्मा तक नहीं पहुंचती।
गुरजिएफ ने शब्द ठीक चुना था--कुंडाबफर। इसको जगाने की कोई जरूरत नहीं है। इसका काम भलीभांति हो रहा है। इसे जगा कर भी स्वयं तक पहुंचा जा सकता है, लेकिन वह नाहक की झंझटें मोल लेनी हैं। वह ऐसे ही है जैसे कोई कान अपना उलटे घूम कर सिर के पीछे से पकड़ने की कोशिश करे! कोई प्रयोजन नहीं है। मगर योग की बहुत सी प्रक्रियाएं उलटी हो गईं। उलटी हो गई हैं, इसलिए कठिन। कठिन अहंकार को बहुत जंचता है। सिर के बल खड़े हैं तो बहुत जंचता है। जैसे कोई महान कार्य कर रहे हैं! सिर्फ बुद्धू मालूम पड़ते हैं, मगर सिर के बल खड़े हैं तो महान कार्य कर रहे हैं। शीर्षासन कर रहे हैं। शरीर को इरछा-तिरछा कर रहे हैं। शरीर को ऐसा आड़ा-तिरछा कर रहे हैं कि कोई दूसरा न कर सके। और दूसरे न कर सकें--क्योंकि इसके लिए अभ्यास चाहिए--तो आप महात्मा हो गए, महान योगी हो गए। क्योंकि कोई दूसरा इसको एकदम नहीं कर सकता, जो आप कर रहे हैं।
ठीक उसी तरह कुंडलिनी का भी उपद्रव मोल लिया अहंकार ने ही। इसको जगाने से कुछ सिद्धियां उपलब्ध हो सकती हैं। और अहंकार सिद्धियों से बहुत प्रसन्न होता है। जैसे अगर कुंडलिनी को तुम जगाओ... उसको जगाने की प्रक्रियाएं हैं। प्रक्रियाएं सब जटिल हैं और कठिन हैं, उलझनभरी हैं; सुगम नहीं, सरल नहीं। इसलिए भारत में एक परंपरा चली है, जो इसके बिलकुल विपरीत रही है--सहज परंपरा, सहज-यान। जिसका कहना है: किसी तरह के उपद्रव में मत पड़ो! क्योंकि छोटी-मोटी चीजें पैदा हो जाएंगी। जैसे अगर तुम्हारी कुंडलिनी जाग जाए तो तुम दूसरे के विचार पढ़ सकते हो। मगर अपने ही विचार काफी नहीं हैं पढ़ने को? अब दूसरे की खोपड़ी का कचरा तुम पढ़ोगे, उससे क्या मिलने वाला है? अपनी खोपड़ी में ही काफी भरा है। इससे ही तो निपट नहीं पा रहे हो, कि अब दूसरों के विचार पढ़ोगे! हां, थोड़ा-बहुत चमत्कार लोगों को दिखाने लगोगे तुम। जैसे कोई आया और उसने पूछा ही नहीं कि समय कितना है और तुमने बता दिया कि साढ़े नौ बजे हैं। तो वह चौंकेगा एकदम, क्योंकि पूछने आया था कि कितना बजा है। मगर उसका सार क्या है? पूछ ही लेने देते, क्या बिगड़ रहा था? इसके लिए कुंडलिनी जगाई! और कुंडलिनी जगाने में वर्षों लगेंगे और यह काम तो क्षण भर में हो जाता, उसको पूछना था तो पूछ लेता।
रामकृष्ण के पास एक आदमी आया, जिसकी कुंडलिनी जग गई थी। वह बोला कि मैं पानी पर चल लेता हूं।... कुंडलिनी जग जाए तो पानी पर चलने की संभावना है, क्योंकि कुंडलिनी तुम्हें पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से तोड़ दे सकती है। मगर खतरे भी हैं उसके, क्योंकि पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से टूट गए तो तुम्हारे शरीर की बहुत सी प्रक्रियाएं अस्त-व्यस्त हो जाएंगी, जो कि गुरुत्वाकर्षण से बंधे होने के कारण ही व्यवस्थित हैं।
वह आदमी पानी पर चल लेता था। उसने रामकृष्ण को आते ही से चुनौती दी कि तुम बड़े परमहंस... लोग कहते हैं महात्मा! अगर हो महात्मा तो आओ, चलो गंगा पर! मैं पानी पर चल सकता हूं!
रामकृष्ण ने कहा कि बहुत बढ़िया! कितना समय लगा पानी पर चलना सीखने में? उसने कहा: अठारह साल लगे। रामकृष्ण ने कहा: हद हो गई! मुझे तो जब उस पार जाना होता है, दो पैसे में पार चला जाता हूं। दो पैसे का काम अठारह साल में तुमने किया! और ऐसे मुझे ज्यादा जाना भी नहीं पड़ता, कभी चार-छह महीने में एक दफा। सो साल में समझो कि एक चार पैसे का खर्चा है। अठारह साल में समझो कि एक रुपये का खर्चा। एक रुपये के पीछे अठारह साल गंवा दिए। भैया, तू होश में है? और पानी पर चल कर करेगा क्या? ऐसा घूम-फिर कर फिर यहीं आ जाएगा।
रामकृष्ण ठीक कह रहे हैं। मगर वह आदमी अकड़ से भरा हुआ था, वह अहंकार से भरा हुआ था।
सूफी फकीर स्त्री हुई, राबिया। उसके जीवन में भी ऐसा उल्लेख है। फकीर हसन उसके पास आया। हसन की लगता है कुंडलिनी जग गई थी।... और उसने कहा: राबिया,--राबिया सुबह-सुबह बैठ कर कुरान पढ़ रही थी--अरे, यहां क्या कुरान पढ़ रही है! चलो पानी पर टहलते हुए कुरान पढ़ेंगे। वह दिखाना चाहता था राबिया को। राबिया की ख्याति थी। राबिया हुई भी अदभुत स्त्री। उसी कोटि की जैसे रामकृष्ण, जैसे रमण।
राबिया ने कहा: हसन, पानी पर! कुरान पढ़ने के लिए! अरे, अगर दिल में कुछ जोश ही आ गया है, देखते हो वह बदली सफेद आकाश में तैर रही है, उस पर बैठ कर क्यों न पढ़ें! चलो, बदली पर बैठेंगे, वहीं पढ़ेंगे।
...यह तो राबिया ने मजाक किया।...
हसन ने कहा: बदली पर! बदली पर बैठना मुझे नहीं आता।... इतनी कुंडलिनी अभी मेरी नहीं जगी।... तो राबिया ने कहा: और जगाओ! क्योंकि मुझे तो जब जोश मारती है कुंडलिनी... तो बस सीधे बदली पर बैठें! जब बदली पर बैठना आ जाए तब आना। पानी में चलने में क्या रखा है! यह तो कोई भी कर ले। यह तो छोटे-मोटे लोग कर लेते हैं।
हसन को होश आया कि राबिया ठीक कह रही है, सार क्या है? मगर अकड़!
अहंकार को बहुत मजा आता है इस बात में कि मैं कुछ ऐसा करके दिखा दूं जो कोई दूसरा नहीं कर सकता।
अब जगदीश, तुम्हें क्या फिकर पड़ी है?
कहते हो: ‘कुंडलिनी जगाना चाहता हूं।’
और इस तरह की बातों में पड़े, तो किसी झंझटी के हाथ में पड़ जाओगे। वह गोबरपुरी के बाबा चुक्तानंद, ऐसे किसी के चक्कर में पड़ जाओगे। उन्होंने कई का गुड़ गोबर कर दिया; तुम्हारा गुड़ भी गोबर कर देंगे। कुछ लोगों का धंधा ही यह है। और फिर मुझसे मत कहना कि अब गोबर को गुड़ करो! वह बहुत कठिन काम है। बिगाड़ना बहुत आसान, सुधारना बहुत मुश्किल है।
कुंडलिनी तुम्हें सिद्धि देगी, यह तो सिर्फ एक संभावना है; ज्यादा संभावना तो यह है कि विक्षिप्तता देगी। इसलिए तुम अनेक साधु-संन्यासियों को पागल होते देखोगे। और पागल हो जाने का कारण क्या होता है? उन्होंने जीवन का जो सहज क्रम है, उसको तोड़ दिया। जो ऊर्जा किसी और काम के लिए बनी थी, उसको उन्होंने मस्तिष्क पर चढ़ा लिया।
कुंडलिनी जगने का अर्थ होता है कि जो ऊर्जा तुम्हारे काम-केंद्र पर सोई हुई है, उसे उठा कर मस्तिष्क में चढ़ा लो। यह खतरनाक धंधा है। क्योंकि खोपड़ी में वैसे ही काफी उपद्रव मचा हुआ है। वहीं तो तुम्हारा पागलखाना है। और काम-ऊर्जा को भी वहां ले जाओ! तो तुम विक्षिप्त हो सकते हो। कुंडलिनी जगाने वाले अधिक लोग विक्षिप्तता में पहुंच जाते हैं। मस्तिष्क फटा पड़ता है; क्योंकि ऊर्जा सम्हाले नहीं सम्हलती। और ऊर्जा इस हालत में ले आती है कि फिर संगत-असंगत कुछ भी नहीं सूझता; ऊलजलूल बकेंगे।
लेकिन हमारा देश तो अदभुत है! कोई ऊलजलूल बके तो हम कहते हैं: महात्मा सधुक्कड़ी भाषा बोल रहे हैं। सधुक्कड़ी! अगर महात्मा गाली दें और लोगों के पीछे डंडा लेकर भागें, तो हम समझते हैं प्रसाद दे रहे हैं। गाली बकें तो समझो कि आशीष। हमारे महात्मा भी अदभुत हैं और हम उनसे भी ज्यादा अदभुत हैं! हम हर चीज में से कुछ न कुछ निकाल लेते हैं। पागल हो गए लोग... मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं, जो विक्षिप्त हुए हैं; जो होश में नहीं हैं; लेकिन उनके भक्तगण समझते हैं कि वे महासमाधि में लीन हैं। और अगर उनकी समझ में नहीं आता वे क्या बोल रहे हैं, तो उसका कारण यह है कि वे बड़ी गहरी बातें बोल रहे हैं। वे कुछ नहीं बोल रहे! जैसे कोई बहुत शराब पी ले और अल्ल-बल्ल बके; या कोई सन्निपात में आ जाए और ऊलजलूल बके! अब तुम्हारी मर्जी हो तो एकदम उसके पैर पकड़ लेना। कहना कि यह महाज्ञान की बातें बोल रहा है।
मुझे ऐसे कई लोगों को मिलाया गया है, जो सिर्फ विक्षिप्त हैं, जिनको मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। और उनकी बुनियादी भूल वही है, जगदीश, जो तुम करना चाहते हो। और एक दफा मस्तिष्क में ऊर्जा तुम्हारी सामर्थ्य के बाहर पहुंच जाए तो तुम क्या करोगे? तुम्हारे वश के बाहर बात हो जाएगी।
कुंडलिनी जगाने की कोई आवश्यकता नहीं है। यहां भी हम कुंडलिनी ध्यान करते हैं, लेकिन प्रयोजन कुंडलिनी जगाना नहीं है, प्रयोजन कुछ और है। प्रयोजन है: भीतर वह जो कुंडलिनी की ऊर्जा है, उसको नृत्य देना। प्रयोजन बड़ा अलग है। तुम्हारे भीतर जो ऊर्जा है, अभी, सोई है; या तो जगाई जाए, तो जगाने के लिए धक्के देने होंगे, झकझोरना होगा। मेरा अपना अनुभव यह है कि जगाने की कोई जरूरत नहीं, इसे सिर्फ नृत्य दिया जाए। इसे संगीतपूर्ण किया जाए। इसे आनंदोत्सव में बदला जाए।
तो धक्के देने की कोई जरूरत नहीं है।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा नर्तक निजिंस्की हुआ--अभी इसी सदी में हुआ । वह जब नाचता था तो कभी-कभी ऐसी घटना घट जाती थी कि वह इतनी ऊंची छलांग लगाता था जो कि गुरुत्वाकर्षण के नियम के विपरीत है। वैज्ञानिक हैरान थे; यह हो नहीं सकता। इतनी ऊंची छलांग लग ही नहीं सकती; लगनी चाहिए नहीं; क्योंकि गुरुत्वाकर्षण का नियम इतने दूर तक तुम्हें उठने नहीं देगा। और भी चमत्कार की बात थी, वह यह, कि जब वह इतनी ऊंची छलांग लगाता था और वापस लौटता था, तो इतने आहिस्ते लौटता था जैसे कि कोई पक्षी का पंख आहिस्ता-आहिस्ता, डोलता-डोलता, हवा में तैरता-तैरता नीचे आ रहा हो। वह भी बिलकुल उलटी बात है। गुरुत्वाकर्षण एकदम से खींचता है चीजों को, जैसे कोई पत्थर गिरे, न कि कोई पंख।
निजिंस्की से जब भी पूछा गया कि यह तुम कैसे करते हो, तो वह कहता कि यह मैं खुद भी सोचता हूं! लेकिन मैं करता हूं, यह बात ठीक नहीं है, यह हो जाता है। मैंने जब भी करने की कोशिश की है, तभी यह नहीं हुआ। करने की मैं कई दफा कोशिश कर चुका--क्योंकि इसका एकदम चमत्कार की तरह प्रभाव पड़ता है; एकदम सन्नाटा छा जाता है, दर्शक एकदम विमुग्ध हो जाते हैं, एकदम श्वासें रुक जाती हैं लोगों की; समझ में ही नहीं आता क्या हुआ! और मुझे भी बड़ा आनंद आता है, अपूर्व आनंद आता है! एकदम भीतर शांति हो जाती है। जैसे नहा गया भीतर। जैसे आत्मा नहा गई। मगर जब भी मैं करने की कोशिश करता हूं, यह नहीं होता। यह कभी-कभी होता है जब मैं करने की कोशिश में होता ही नहीं, जब मैं नाच में लीन होता हूं, ऐसा लीन होता हूं कि मेरा अहंकार बिलकुल मिट ही जाता है, तब यह घटना घटती है। तो अब तो मैंने करना छोड़ दिया, निजिंस्की कहता था। अब तो जब यह घटता है, घटता है, नहीं घटता है, नहीं घटता। एक सूत्र मेरी समझ में आ गया है कि यह किया नहीं जा सकता, सिर्फ घट सकता है। और घटने का अर्थ है कि मेरा अहंकार लीन हो जाए तो बस, कुछ रहस्यपूर्ण ढंग से यह घटना घटती है।
निजिंस्की अनजाने ही उस अवस्था में पहुंच रहा था, जिसमें मैं कुंडलिनी ध्यान के द्वारा तुम्हें ले जाना चाह रहा हूं। कुंडलिनी ध्यान का वही प्रयोजन नहीं है जो सदियों तक रहा है। मेरे हिसाब से हर चीज का मैं प्रयोजन बदल रहा हूं। कुंडलिनी ध्यान का यहां अर्थ है: तुम नाचो, मग्न होओ, डूबो! ऐसे डूब जाओ कि तुम्हारा अहंकार अलग न रह जाए, बस, फिर तुम्हारे भीतर कुछ घटेगा, तुम एकदम गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो जाओगे; और तुम अचानक भीतर पाओगे, ऐसा सन्नाटा छाया है, ऐसा कुंआरा सन्नाटा, जो तुमने कभी नहीं जाना था! तुम गदगद हो जाओगे। तुम लौटोगे जब वापस, तुम दूसरे ही व्यक्ति हो जाओगे।
यह कुंडलिनी जगाने की पुरानी प्रक्रिया नहीं है। यह कुंडलिनी को नृत्य देने की प्रक्रिया है। यह बात ही और है। तो अगर तुम्हें कुंडलिनी जगाना है, तो भइया कहीं और! अगर कुंडलिनी को नृत्य देना है, तो यहां यह घटना घट सकती है।
और फासले बहुत हैं।
कुंडलिनी को नृत्य मिल जाए, भीतर की ऊर्जा नाचने लगे, तो कोई खतरा नहीं है, तुम विक्षिप्त कभी नहीं होओगे। तुम और भी ज्यादा स्वस्थ हो जाओगे। तुम्हारी विक्षिप्तता कुछ होगी तो समाप्त हो जाएगी। और तुम्हारे अहंकार को कभी बल नहीं मिलेगा, कि पानी पर चल कर दिखा दूं, कि बादल में आकाश में बैठ कर दिखा दूं, कि हवा में उड़ कर दिखा दूं। क्योंकि अहंकार मिटेगा तभी यह नृत्य होगा। और जब भी अहंकार वापस लौटेगा, तुम यह कर ही नहीं पाओगे। यह तुम्हारे अहंकार के वश में नहीं होने वाली बात।
कुंडलिनी जगाने की जो प्रक्रियाएं हैं, वे तुम्हारे अहंकार को भर सकती हैं। यह प्रक्रिया तुम्हारे अहंकार को मिटाती है पोंछती है।
पतंजलि ने जब सूत्र लिखे थे, उस समय को पांच हजार साल बीत गए। पांच हजार साल में आदमी को बहुत कुछ अनुभव हुए हैं। पतंजलि खुद भी अगर आज वापस लौटें तो मुझसे राजी होंगे, क्योंकि पांच हजार साल में जो मनुष्य को अनुभव हुए हैं पतंजलि को उनका हिसाब रखना पड़ेगा। उनके आधार पर फिर से योग-सूत्र लिखना होगा।
बुद्ध को हुए ढाई हजार वर्ष हो गए, महावीर को हुए ढाई हजार वर्ष हो गए--काफी समय है यह! दुनिया बैलगाड़ी से जेट विमान तक पहुंच गई। मनुष्य वैसा ही नहीं रहा जैसा था। और इस बीच हमने जो अनुभव किए हैं, उन अनुभवों ने हमें बहुत कुछ सिखाया है।
मैं जो भी ध्यान की प्रक्रियाएं दे रहा हूं, वे अधुनातन हैं। अगर पुरानी प्रक्रियाएं भी उपयोग कर रहा हूं, तो उनमें से उस सबको काट दिया है जिनसे तुम्हें खतरे हो सकते हैं और उस सबको जोड़ दिया है, जो कि इन ढाई-तीन हजार, पांच हजार सालों के अनुभव से जोड़ा जाना चाहिए। यह एक अभिनव प्रयोग हो रहा है। अगर शब्द मैं पुराने भी उपयोग कर रहा हूं--क्योंकि शब्द तो पुराने ही हैं, सभी शब्द पुराने ही हैं, कोई न कोई शब्द उपयोग करना होगा--तो भी मैं उनको अर्थ अपने दे रहा हूं। पुराने शब्दों के वृक्षों पर अपने अर्थ की कलमें लगा रहा हूं। इसलिए तुम मेरे शब्दों को ठीक पुराने अर्थों में मत लेना। नहीं तो तुम मुझे नहीं समझ पाओगे। तुम कुछ का कुछ समझ लोगे। तुम वंचित ही रह जाओगे उस अनूठे प्रयोग से जो यहां चल रहा है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं तमाखू खाने की लत से परेशान हूं। क्या करूं?
दयानंद! तमाखू के बड़े गुण हैं!
बाजार में तमाखू का एक व्यापारी जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर तमाखू बेच रहा था। वह कह रहा था कि जो लोग तमाखू खाते हैं, उनके घर में चोर कभी नहीं घुसते। जो लोग तमाखू खाते हैं, कुत्ते उन्हें कभी नहीं काटते। अरे, काटना तो दूर, उनके पास तक नहीं फटक सकते। और तीसरा सबसे बड़ा फायदा यह है कि वे लोग कभी बूढ़े नहीं होते।
ब्रह्मचारी मटकानाथ ने जब यह सुना तो उन्हें तो बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि अरे तमाखू में इतने फायदे हैं! उन्होंने कहा कि भाई, जरा विस्तार से बताओ कि कैसे तमाखू खाने वालों के घर में चोर कभी नहीं घुसते और कैसे कुत्ते उन्हें काटते नहीं और सबसे बड़ा जो फायदा है वह यह है कि आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता। ऐसी बातें न तो मैंने किन्हीं शास्त्रों में पढ़ीं, न किन्हीं ज्ञानियों से सुनीं। यह तमाखू का राज पहली दफा तुमसे सुन रहा हूं!
व्यापारी बोला कि स्वामी जी, आप अपने ही वाले हैं, इसलिए बताए देता हूं वरना ये तो उस्तादों की बातें हैं। उस्ताद ही कहते हैं और उस्ताद ही समझते हैं। राज ही यह गहरा है। सुनिए। तमाखू खाने वाले को ऐसी खांसी चलती है--ऐसी खांसी कि रात सोना हराम हो जाए। और जब सोओगे ही नहीं रात भर, खांसते ही रहोगे, तो किस चोर की मजाल जो घर में घुसे! और रही बात कुत्ते के काटने की, तो अरे जब तमाखू खाओगे या तमाखू पीओगे, तो खांसी चलने से जो कमजोरी आएगी, तो एक छड़ी तो कम से कम रखोगे न हाथ में! अरे, छड़ी टेक-टेक कर ही चलोगे न! और छड़ी देख कर तो दुश्मन भी भागें, फिर कुत्तों की क्या बिसात!
ब्रह्मचारी जी बोले: और आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता, यह कैसे?
व्यापारी बोला: अरे स्वामी जी, बूढ़ा हो ही नहीं पाता, क्योंकि बूढ़ा होने के पहले ही मर जाता है।
दयानंद, मत छोड़ो! जी भर कर पीओ! जी भर कर खाओ! ऐसे-ऐसे गुण हैं! तुम किसी की बातों में मत पड़ना, कि तमाखू पाप है। यह सवाल क्यों उठता है कि मैं तमाखू खाने की लत से परेशान हूं, क्या करूं? अगर एक लत छोड़ भी दोगे तो कोई दूसरी लत पकड़ोगे। असली सवाल तमाखू नहीं है, असली सवाल लत है।
मैं लोगों को जानता हूं, एक आदत छोड़ने के लिए वे दूसरी पकड़ लेते हैं; दूसरी छोड़ने के लिए तीसरी पकड़नी पड़ती है। कोई न कोई परिपूरक चाहिए न! नहीं तो खाली-खाली लगता है। तमाखू बैठ-बैठे चबाते क्यों हो? अगर तमाखू नहीं चबाओगे, लोगों का सिर खाओगे। वह और भारी बीमारी है। उसमें लोग भी परेशान होंगे। इसमें तो तुम अपने बैठे चबा रहे हो तो चबाते रहो। तुम किसी दूसरे का तो सिर नहीं खाते। अपने बैठे-बैठे मुंह हिलाते रहते हो तो हिलाते रहे। अगर तमाखू नहीं खाओगे तो बकवास करोगे।
इस पर वैज्ञानिक शोध हुई है। जो लोग तमाखू खाते हैं--या अमरीका में च्यूइंगम बैठे चबाते रहते हैं--ये लोग बातचीत कम करते हैं। इनमें एक सदगुण होता है। बातचीत करें कैसे? अब जो आदमी दो-दो पान रखे हुए है दोनों तरफ, वह बात करे तो पिचकारी चल जाए! सो अपनी पिचकारी सम्हाले कि बात करे? सो ऐसे आदमी बड़े भले होते हैं, चुपचाप बैठे अपना काम करते रहते हैं। भीतर ही भीतर उनका मजा चलता रहता है।
जो लोग तमाखू नहीं खाते, पान नहीं चबाते, च्यूइंगम नहीं चबाते, वे भी मुंह तो चलाएंगे। इसीलिए तो स्त्रियां ज्यादा मुंह चलाती हैं। कि न तुम उन्हें तमाखू खाने दो, न सिगरेट पीने दो, न बीड़ी पीने दो, न चिलम पीने दो, तुम कुछ भी न करने दो, तो मुंह तो चलाएं!
चंदूलाल के पिताजी मरे, तो मित्रों ने पूछा कि मरते वक्त कुछ कह गए पिताजी? चंदूलाल ने सिर ठोक लिया। कहा: बेचारे बड़ा कहना चाहते थे, मगर क्या करते, माताराम आखिर तक साथ रहीं! और जब तक माताराम बोलें, पिताजी को सुनना पड़ता था। और माताराम बोलती ही चली गईं। पिताजी मर गए। लगता था कुछ कहना चाहते हैं, दो-चार दफा कोशिश भी की, मगर माताराम के सामने किसी कि चले तब!
स्त्रियां बहुत बकवास करती हैं।
मैंने सुना है, चीन में एक दफा एक प्रतियोगिता हुई कि सबसे बड़ा झूठ कौन बोले? और जो बोले उसे प्रथम पुरस्कार मिले। और जिसको मिला प्रथम पुरस्कार... बड़े-बड़े झूठ बोलने वाले आए। एक ने झूठ बोला कि मेरे पिता ने ऐसी पानी में डुबकी लगाई कि तीन साल बाद निकले। किसी ने कहा: यह कुछ भी नहीं है, मेरे पिता तो सात साल तक पानी में डुबकी मार दिए थे। एक ने कहा: यह कुछ नहीं है बात। जब मेरे पिता डुबकी मार कर निकले बारह साल के बाद, तो साथ में एक लालटेन लेकर निकले--जो उनको पानी में पड़ी मिल गई थी, जो नेपोलियन के जमाने की थी और जिसकी बत्ती अभी भी जल रही थी। ऐसी-ऐसी गप्पें मारी गईं! मगर पुरस्कार मिला उस आदमी को जिसने कहा कि मैं एक बगीचे में गया, मैंने देखा दो औरतें एक बेंच पर बैठी हैं, आधा घंटे तक बोलीं ही नहीं! उसको प्रथम पुरस्कार। यह कहीं हो सकता है! यह हो ही नहीं सकता। नेपोलियन की लालटेन बुझी न हो, यह चल सकता है। दुनिया में चमत्कार होते हैं। मगर दो स्त्रियां बेंच पर बैठी बगीचे के और एक-दूसरे से बोलें ही न, आधा घंटा गुजर जाए, यह असंभव है!
स्त्रियां ज्यादा बकवास करती हैं। वह मुंह चलाने का जो समय बच गया... मुंह तो चलाएंगी।
खलील जिब्रान की बहुत प्रसिद्ध कथा है कि एक उपदेशक कुत्ते ने सारे कुत्तों की जान मुसीबत में डाल रखी थी, क्योंकि जो भी कुत्ता भौंकता मिल जाए, बस उसको पकड़ ले कि हमारी महान कुत्तों की जाति, बस यह भौंकने की वजह से बरबाद हुई! सब शक्ति भौंकने में निकल जाती है, कुंडलिनी बचती ही नहीं। भौंक-भौंक सब कुंडलिनी शक्ति गंवा देते हो। फिर रह गए खाली खोखले।
कुत्तों को भी बात तो जंचे। थोड़े चुप भी हो जाएं उसके सामने। मगर कुत्ते कुत्ते हैं, बिना भौंके कैसे रह सकते हैं? वह लत कोई एक-दो दिन की है! वह बहुत पुरानी है। और कुत्ते भी बड़े हिसाब से भौंकते हैं, ऐसे कोई बेहिसाब नहीं भौंकते। जैसे कुत्ते कुछ चीजों के विरोधी हैं; उनके सिद्धांत के खिलाफ हैं। जैसे कि पुलिस वाला मिल जाए कि संन्यासी मिल जाए, पोस्टमैन मिल जाए... वर्दी के खिलाफ हैं, वर्दी के दुश्मन हैं बिल्कुल। वर्दी देखी कि भौंके। वर्दी उन्हें बरदाश्त नहीं होती। स्वतंत्रता-प्रेमी हैं। सो ऐसी जन्मों-जन्मों की आदत कैसे छोड़ दें! मगर धर्मगुरु कहता भी ठीक है। वह जो उपदेशक कुत्ता था, वह बात भी ठीक कहता है कि इसी में सब शक्ति निकल जाती है, इसीलिए कुत्तों की जाति पिछड़ गई है। आदमी, जिनमें कुछ भी नहीं है, वे सिरमौर हो गए। हमें उनके सामने पूंछ हिलानी पड़ रही है, जो हमारे सामने पूंछ हिलाते। और कारण वह भौंकना।
उसने बस एक बात पकड़ ली थी कि भौंकने की वजह से...! सभी धर्मगुरुओं की यह आदत होती है, एक बात पकड़ लेते हैं, उसी बात को समझाते फिरते हैं।
महात्मा गांधी से तुम पूछो कि दुर्दशा का क्या कारण है?... लोग चर्खा नहीं चलाते। चरखा ही नहीं चलाएंगे तो बस, खत्म। सारी दुनिया में कहीं कोई चरखा नहीं चला रहा और लोग बरबाद नहीं हो रहे, यहीं बरबाद हो रहे हैं चरखा नहीं चलाने से! सो चरखा चलाओ, सब ठीक हो जाएगा। और यह देश हजारों साल से चर्खा चलाता रहा है और कुछ खाक ठीक नहीं हुआ । मगर बस तथाकथित महात्माओं का यही हिसाब रहता है।
कोई मोरार जी देसाई से पूछो।... कि लोग ‘जीवन-जल’ नहीं पीते, इसलिए सब गड़बड़ हो रहा है। ‘जीवन-जल’ में सब कुंडलिनी निकल ही जाती है, बह ही जाती है। अपना जल्दी से ‘जीवन-जल’ निकाला और खुद ही पी गए; तो कुंडलिनी के निकलने का कोई उपाय ही न रहा।
मैंने सुना है कि जब मोरार जी देसाई अमरीका गए, तो वे हैरान हों कि जहां भी पार्टी या कुछ में उनको बुलाया जाए, तो स्त्रियां दूसरे कोने पर खड़ी हों--बिलकुल दूसरे--टेबल के। उन्होंने पूछा कि बात क्या है, जहां भी मैं जाता हूं... वे चलते-फिरते अगर उनके पास भी जाएं तो स्त्रियां जल्दी से दूसरे कोने पर पहुंच जाएं... स्त्रियां मेरे पास क्यों नहीं आतीं? तो लोग पहले तो झिझके, फिर उन्होंने कहा अब आप बार-बार पूछते हैं तो... स्त्रियां डरती हैं कि मान लो आपको बीच में प्यास लग आए! सो वे दूर-दूर रहती हैं। अरे, प्यास का क्या भरोसा, कहां लग आए!
बस, उनका सिद्धांत एक ही है। सब लोग ‘जीवन-जल’ पीएं, सारी समस्याएं हल हो जाती हैं।
बस एक सिद्धांत लोग पकड़ लेते हैं। सुगम बात। सो उस कुत्ते ने पकड़ रखी थी कि भौंकना जब तक कुत्ते बंद नहीं करेंगे, कुत्तों की जाति का कोई उद्धार नहीं हो सकता। और उद्धार होना जरूरी है। कुत्तों की जाति खतरे में है, उसका अस्तित्व खतरे में है। उसने इतना समझाया, इतना समझाया कि एक दिन कुत्तों ने तय किया कि एक दफे तो कम से कम इसकी मान कर देखो! एक रात, अमावस की रात, उन्होंने कहा, आज की रात चाहे कुछ भी हो जाए, कितनी ही उत्तेजना पैदा हो और कितनी ही खराश गले में आए और पुरानी लत कितनी ही जोर मारे, मगर बिलकुल मन मार कर पड़े रहेंगे! करवटें बदल लेंगे, सिर पटक लेंगे, मगर भौंकेंगे नहीं।
सो सब कुत्ते... और सब कुत्तों ने तय कर लिया कि दूर-दूर--क्योंकि अगर हम आस-पास रहे, तो बहुत मुश्किल मामला है! एक भौंकता है, बस, फिर श्रृंखला शुरू हो जाती है, फिर दूसरा बरदाश्त नहीं कर सकता। सो दूर-दूर पड़े रहे, गली-कूचों में जा-जा कर, सिर नीचे झुका कर...! बड़ी बेचैनी थी, तड़प रहे थे, जैसे मछली तड़पे पानी के बाहर ऐसे तड़प रहे, मगर तय कर लिया तो कर लिया तय--अरे, संकल्प भी कोई चीज है! नहीं भौंके, नहीं भौंके। बारह बज गए। उपदेशक कुत्ता बड़ा परेशान हुआ--किसको उपदेश दे! सच बात यह थी कि उसे भौंकने की जरूरत नहीं पड़ती थी, क्योंकि दिन भर उसका उपदेश में भौंकना हो जाता था। सुबह से रात उसको भौंकना ही पड़ता था--भौंकना ही था वह भी--उसको भौंकने के लायक बचता ही नहीं था कुछ समय--न समय, न शक्ति। थका-मांदा रात पड़ जाता, सुबह से फिर जनसेवा में लग जाता। न कुत्ते मानते थे, न उसकी जनसेवा बंद होती थी।
आज कुत्तों को क्या हुआ? क्या सब कमबख्त मान ही गए? बिलकुल सन्नाटा है! अमावस की रात और ऐसा सुअवसर! उसके भीतर ऐसी खराश उठी...! कई कुत्तों के पास गया, मगर वे सिर झुकाए पड़े हैं नीचे; आंखें ही न खोलें। जब उसके बरदाश्त के बाहर हो गया, तो वह गया एक एकांत में और भौंकने लगा--उपदेशक कुत्ता भौंकने लगा! और जब एक भौंका, तो फिर क्या भौंकना हुआ उस गांव में, जैसा कभी न हुआ था! क्योंकि जब लोगों ने देखा, और बाकी कुत्तों ने देखा कि अरे, एक ने धोखा दे दिया, अब हम ही क्यों पड़े रहें! सो जो बारह बजे तक किसी तरह सम्हाला था, सारी ऊर्जा एकदम से विस्फोट हुई। कंपा दिए धरती-आकाश। आ गया उपदेशक कुत्ता वापस, समझाने लगा लोगों को कि देखो, इसी में हमारी बरबादी हुई है। जब तक कुत्तों की जाति यह भौंकना बंद नहीं करेगी, बरबादी जारी रहेगी।
तमाखू तुम खाते हो, तमाखू तुम चबाते हो, तमाखू में उतना कुछ दोष नहीं है--तमाखू में क्या खाक दोष! बिलकुल शाकाहार है। हां, थोड़ा सा निकोटिन है, मगर इतना थोड़ा निकोटिन है कि अगर बीस साल में तुम जितनी तमाखू चबाओगे, उस सब तमाखू को इकट्ठा करके निकोटिन निकाला जाए, तो तुम मर सकते हो। मगर यह तो कभी होने वाला नहीं है। तुम खाते हो तमाखू, रोज शरीर उसको बाहर फेंक देता है। इसलिए कोई बीस साल में... घबड़ाना मत कि बीस साल का जहर इकट्ठा होकर मार डालेगा। शरीर रोज बाहर फेंकता रहता है जो चीजें व्यर्थ हैं। इसलिए कुछ इकट्ठा होता नहीं।
और साल-दो साल उम्र कम भी हो गई, तो क्या खाक बिगड़ जाएगा! ऐसे भी क्या करोगे? दो-चार साल ज्यादा ही रहे, या दो-चार साल कम रहे, इससे क्या फर्क पड़ता है? वही रोना-धोना, वही झींकना! दो-चार साल कम झींके, कम रोए, कम परेशान हुए। जल्दी छुटकारा हो गया, मुक्ति हो गई।
सवाल तमाखू नहीं है, सवाल गहरा होगा। तुम्हारे सिर में बकवास चल रही होगी। उस बकवास को रोकने का एक उपाय है यह: मुंह को भीतर चलाते रहो। इससे तुम एक तरह से संयत बने रहते हो। इसीलिए तो तरह-तरह की चीजें लोगों ने निकाल ली हैं।
बच्चा रो रहा हो, अंगूठा ही चूसने लगता है। तुम सोचते हो कि किसलिए अंगूठा चूस रहा है? अब बच्चा कोई भ्रष्ट थोड़े ही हो गया है। अभी भ्रष्ट करने वाले मिले ही नहीं; अभी तो अपने झूले में ही पड़े हैं। अभी तो कृष्ण कन्हैया झूला झूल रहे हैं! झूला झूलें जवाहरलाल! अभी कहां! अभी तो भ्रष्ट संसार से इनका कोई मिलना हुआ नहीं। मगर अंगूठा ही चूस रहे हैं। पैर का अंगूठा तक पकड़ कर चूस रहे हैं। इनकी खोपड़ी में गरमाहट आनी शुरू हो गई, झूले पर पड़े-पड़े बेचैन हो रहे हैं। बेचैनी को निकालने के लिये कोई रास्ता निकाल रहे हैं। अंगूठा ही चूस रहे हैं। फिर अंगूठा नहीं चूसते बाद में, क्योंकि अंगूठा चूसना जरा जंचेगा नहीं, तो सिगरेट पीते हैं; वह अंगूठा चूसने का परिपूरक है। सिगार लगा ली मुंह में।
यहां मेरे पास लोग जब भी मुझसे पूछते हैं कि हम सिगरेट पीना कैसे छोड़ें? तो मैं उनसे कहता हूं, तुम अंगूठा चूसना शुरू कर दो। बोलते हैं: क्या कह रहे हैं आप? कोई देखेगा तो क्या कहेगा? मैंने कहा: देखने का कोई सवाल नहीं। सिगरेट पीते हो, दुनिया देखती है, कोई कुछ नहीं कहता। क्या कर लेगा कोई? अरे, अपना अंगूठा है! किसी के बाप का है? अपना अंगूठा न चूस सकें, यह कैसा लोकतंत्र, यह कैसी स्वतंत्रता!
और कुछ लोगों ने प्रयोग किया है--एकांत में, अकेले में, हिम्मत नहीं सबके सामने करने की--मगर सिगरेट पीना छूट जाता है। न हो तो तुम करके देख लेना। जब भी सिगरेट की तलफ उठे, जल्दी से अंगूठा चूसना। वही काम कर देगा अंगूठा जो सिगरेट करती है।
सिगरेट में थोड़ा सा गुण और है कि उसमें से गर्म धुआं भीतर जाता है; तो उससे मां के स्तन की परिपूरकता हो जाती है। मां का स्तन बच्चा पीता है; जब मां का स्तन बच्चे को नहीं मिलता तो अंगूठा चूसता है। अंगूठा उतना अच्छा परिपूरक नहीं है... क्योंकि दूध भी भीतर जाता है--गर्म धार, उष्ण धार। और शुद्ध दूध! न ग्वाला मिला सकता है उसमें पानी...। सिगरेट में वही खूबी है: गर्म धुआं उष्ण दूध की याद दिलाता है। ये सब बाल-बच्चे हैं जो सिगरेटें पी रहे हैं। इनका मन नहीं भर पाया मां के स्तन से, तो सिगरेट पी रहे हैं। खोपड़ी में बेचैनी है, तमाखू चबा रहे हैं, पान चबा रहे हैं।
और ये ऊपर की आदतें छोड़ने से कुछ भी न होगा। फिर तुम कोई नया काम सीख लोगे। फिर वह करने लगोगे। असली जड़ को काटो। ध्यान में लगो--दयानंद!--तमाखू-वमाखू की बात छोड़ो! इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। और तुम्हें भरोसा न हो, शास्त्रों में पढ़ लो। भगवान विष्णु तक स्वर्ग में तमाखू-चर्वण करते हैं। सो तुम्हारी क्या, तुम तो दयानंद ही हो! मान लिया कि महर्षि दयानंद, चलो कोई बात नहीं, मगर जब विष्णु तक तमाखू-चर्वण करते हैं, तो तुम्हारी क्या हैसियत! वे भी अपना लिए रहते हैं बटुआ। कोई फिकर न करो।
मगर भीतर तुम्हारे मन में, खोपड़ी में बहुत सी बेचैनियां चल रही हैं; वे जड़ हैं। ध्यान करो! भीतर के, मन के विचारों के जाल के साक्षी बनो। वहां विचार का जाल कम हो जाएगा, तुम एक दिन चौंकोगे कि अब तुम चाहो भी कि तमाखू मुंह में रखो तो न रख सकोगे। क्योंकि तमाखू में कुछ भी स्वादिष्ट नहीं है। खांसी आएगी... और वही तीन गुण!

आज इतना ही।

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