GULAL

Jharat Dashahun Dis Moti 13

Thirteenth Discourse from the series of 21 discourses - Jharat Dashahun Dis Moti by Osho. These discourses were given during JAN 21 - FEB 10 1980.
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निरमल हरि को नाम ताहि नहीं मानहीं।
भरमत फिरैं सब ठांव कपट मन ठानहीं।।
सूझत नाहीं अंध ढूंढत जग सानहीं।
कह गुलाल नर मूढ़ सांच नहिं जानहीं।।

माया मोह के साथ सदा नर सोइया।
आखिर खाक निदान सत्त नहिं जोइया।।
बिना नाम नहिं मुक्ति अंध सब खोइया।
कह गुलाल सत, लोग गाफिल सब सोइया।।

दुनिया बिच हैरान जात नर धावई।
चीन्हत नाहीं नाम भरम मन लावई।।
सब दोषन लिए संग सो करम सतावई।
कह गुलाल अवधूत दगा सब खावई।।

साहब दायम प्रगट ताहि नहिं मानई।
हरदम करहि कुकर्म भर्म मन ठानई।।
झूठ करहि व्योहार सत्त नहिं जानई।
कह गुलाल नर मूढ़ हक्क नहिं मानई।।

गर्व भुलो नर आय सुझत नहिं साइंया।
बहुत करत संताप राम नहिं गाइया।।
पूजहिं पत्थल पानि जन्म उन खोइया।
कह गुलाल नर मूढ़ सभै मिलि रोइया।।

भजन करो जिय जानिके प्रेम लगाइया।
हरदम हरि सों प्रीति सिदक तब पाइया।।
बहुतक लोग हेवान सुझत नहिं साइंया।
कह गुलाल सठ लोग जन्म जहंड़ाइया।।

आसिक इस्क लगाय साहब सों रीझई।
हरदम रहि मुस्ताक प्रेमरस पीजई।।
बिमल बिमल गुन गाइ सहज रस भीजई।
कह गुलाल सोइ चार सुरति सों जीजई।।

आपु न चीन्हहिं और सबै जहंड़ाइया।
काम क्रोध को संगम सबै भुलाइया।।
रटत फिरै दिनरैन थीर नहिं आइया।
कह गुलाल हरि हेतु काहे नहिं गाइया।।

खोलि देखु नर आंख अंध का सोइया।।
दिन-दिन होतु है छीन अंत फिर रोइया।।
इस्क करहु हरिनाम कर्म सब खोइया।।
कह गुलाल नर सत्त पाक तब होइया।।
निराश्रित भी चलेंगे, पर--
कहां तक? कह नहीं सकते!
कहां तक? कह नहीं सकते!

फिर वही मधुकण झरेंगे,
निशि-दिवस पुलकित करेंगे--
फिर सरस ऋतुपति धरा को--
फूल से फल से भरेंगे;
पर न अब तुम दुख हरोगे,
मन-सुमन पुलकित करोगे;
ध्वंस में भी पलेंगे, पर--
कहां तक? कह नहीं सकते!

फिर वही सरगम सजेंगे,
रागमय नूपुर बजेंगे;
फिर सजग हृत्‌तंत्रियों के--
गीतमय सप्तक मंजेंगे;
पर न अब तुम फिर बजोगे,
श्लोक बन-बन कर सजोगे;
मौन में भी ढलेंगे, पर--
कहां तक? कह नहीं सकते!

फिर वही दीपक जलेंगे,
ज्योति के मेले लगेंगे;
फिर सजीली घाटियों को--
किरण-कंचन कर रंगेंगे;
पर न तुम अब फिर जगोगे,
ज्योति बन जीवन रंगोगे;
धूम्र में भी जलेंगे, पर--
कहां तक? कह नहीं सकते!
हम जिसे जीवन कहते हैं, वह मृत्यु के द्वार पर लगी हुई एक कतार है। कोई आज गया, कोई कल जाएगा। देर-अबेर की बात है। वसंत ऐसा ही आता रहेगा, पृथ्वी ऐसी ही दुल्हन बनती रहेगी, पक्षी ऐसे ही गीत गाएंगे, फूल भी खिलेंगे, सूरज भी ऊगेगा, चांद-तारे भी चलेंगे, लेकिन तुम? तुम नहीं होओगे। तुम धूल में मिल चुके होओगे। खोजे से भी तुम्हारा कोई निशान न मिलेगा। कहीं कोई पग-चिह्न भी नहीं पाए जाएंगे। हम हैं क्या, पानी पर खींची गई लकीरें हैं। बन भी नहीं पाते और मिट जाते हैं।
चाहे कोई सत्तर साल जिए और चाहे सात सौ साल, भेद नहीं पड़ता; मौत तो खड़ी ही है अंत में। और जब मौत अंत में खड़ी है, एक विराट प्रश्न-चिह्न बन-कर, तब तुम्हें जीवन को थोड़ा सोच कर जीना चाहिए। ऐसे जीओ कि मौत को जीत सको। ऐसे जीओ कि मौत तुम्हें मिटा न सके। ऐसे जीओ कि तुम्हारे भीतर कुछ अनुभव में आ जाए जो अमृत है। तो तुम धार्मिक हो। और अगर ऐसे जीए कि जो भी कमाया, मौत ने छीन लिया, जो भी बचाया, मौत ने लूट लिया, तो तुम सांसारिक हो।
लोग मुझसे पूछते हैं: संसारी और संन्यासी की परिभाषा क्या? सीधी-सादी परिभाषा है। संसारी वह है, जिसकी सारी संपदा मृत्यु छीन लेगी। मृत्यु के बाद जिसके पास कुछ भी न बचेगा। और संन्यासी वह है कि मृत्यु कितना ही छीने, जो असली है, मूल्यवान है, उसे नहीं छीन पाएगी। उसने अनुभव कर लिया है अपने भीतर शाश्वत का।
पर हम दौड़ रहे बाहर, भीतर का अनुभव भी हो तो कैसे हो! हम बटोर रहे व्यर्थ, सार्थक की प्रतीति हो तो कैसे हो! हम दबे जा रहे हैं व्यर्थ के पहाड़ से, इसलिए विवेक हमारे भीतर जन्मता नहीं। हम विचार में ही उलझे रह जाते हैं, विवेक को जन्मने का अवसर कहां! हमारी ऊर्जा विचारों में ही खो जाती है, बचती ही नहीं, तो विवेक हमारे भीतर सोया ही पड़ा रह जाता है। और विवेक का जागरण जीवन का वास्तविक प्रारंभ है।
विवेक का अर्थ है: तुम्हारे भीतर चैतन्य का आविर्भाव, इस बात की प्रतीति कि मैं कौन हूं। उपनिषद कहते हैं, वह नहीं; मैं जो कहता हूं, वह नहीं; गुलाल जो कहते हैं, वह नहीं; तुम्हारा अनुभव, निज का अनुभव कि मैं कौन हूं जिस दिन भीतर दीये की तरह जलता है, उस दिन मृत्यु पराजित हो गई। उस दिन तुम्हारी विजययात्रा पूर्ण हो गई। उस दिन तुम पहुंच गए सिंहासन पर, जहां से हटाए नहीं जा सकते।
आज के सूत्र इस अंतर्यात्रा में बड़े सहयोगी हो सकेंगे। एक-एक सूत्र को ध्यानपूर्वक हृदय में उतर जाने देना।
निरमल हरि को नाम ताहि नहीं मानहीं।
सरल है परमात्मा की बात, सीधी-साफ है। निर्दोष चित्त को जल्दी ही समझ में आ जाए, ऐसी है। मगर हमारे चित्त बड़े कपटी; हमारे चित्त बड़े जालसाज; हमारे चित्त बड़े उलटे--निर्दोषता तो छू नहीं गई।
जीसस ने कहा है: जब तक तुम एक छोटे बच्चे की भांति न हो जाओगे, तुम्हारा परमात्मा से कोई मिलन न होगा। एक बार पुनः छोटे बच्चे की भांति होना पड़ता है। ऐसा मत समझना कि सभी बच्चों को परमात्मा का अनुभव हो रहा है। किसी बच्चे को नहीं हो रहा है। पुनः जब कोई बच्चा होता है तब अनुभव होता है। बच्चे तो अज्ञानी हैं, अभी तो उन्हें सब भटकावों से गुजरना होगा, अभी तो उन्हें बहुत भूलें करनी होंगी, अभी तो उन्हें मूर्च्छाओं में खोना होगा, अभी तो पद की, प्रतिष्ठा की, महत्वाकांक्षा की दौड़ पर वे जाएंगे, अभी जाना जरूरी है, लेकिन जब कोई इन सबसे थक कर वापस लौटता है पुनः, तब अज्ञानी नहीं होता। तब उसकी सरलता साधुता है। तब एक निर्मल भाव उसमें होता है। चित्त के दर्पण पर कोई धूल नहीं रह जाती। देख लिया संसार को और पाया वहां कुछ भी नहीं है।
बच्चे तो कैसे यह मानें कि वहां कुछ भी नहीं है। बच्चे तो दौड़ेंगे, दौड़ कर ही जानेंगे, गिरेंगे तो जानेंगे, बार-बार गिरेंगे तो जानेंगे--बार-बार गिर कर भी जान लें तो भी सौभाग्य है। कितने तो हैं जो गिरते ही रहते हैं और जानते ही नहीं। वही व्यक्ति ठीक अर्थों में प्रौढ़ होता है जो पुनः बच्चे की भांति सरल हो जाता है। उसके जीवन का वर्तुल पूरा हो गया। बच्चे की तरह शुरू हुई थी यात्रा, बच्चे की तरह ही यात्रा पूर्ण हो गई। जब कोई वृद्ध बच्चे की भांति सरल होता है, तो उस दशा का नाम ही संतत्व है। वही है ऋषि की परम अवस्था। वहीं से बहते हैं उपनिषद, गीता, कुरान--उसी गंगोत्री से, उसी निर्मल जलस्रोत से।
निरमल हरि को नाम...
ईश्वर की बात तो बड़ी सरल है, सरल से सरल को समझ में आ जाती है, लेकिन हम उलटे हैं।
...ताहि नहीं मानहीं।
लेकिन हमारा मन उस सरल को मानना नहीं चाहता।
हमारा मन जटिल को मानता है, इस सत्य को ठीक से समझो।
हमारा मन जटिल में बहुत रस लेता है। लोग पहेलियां सुलझाते हैं। तुम्हें कोई पहेली पकड़ा दे, बेकार की पहेली, तो भी तुम सुलझाते रहते हो। जानते भी हो कि सुलझा कर भी क्या होगा, मगर नहीं, तुम्हारी खोपड़ी पहेली सुलझाने में लग जाती है। क्योंकि तुम्हारे अहंकार को चुनौती दे दी उसने। तुम्हारा अहंकार जब तक सुलझा न ले तब तक तुम्हें बेचैनी बनी रहेगी, तुम ठीक से सो न पाओगे, रात नींद में भी पहेली तुम्हारे आस-पास तैरती रहेगी, तुम्हारे सपनों में भी झांकती रहेगी। जितनी कठिन बात हो उतने हम ज्यादा आकर्षित होते हैं। इसीलिए तो पद आकर्षित करते हैं, क्योंकि उनको पाना कठिन है। करोड़ों लोग दौड़ रहे हैं, बड़ी भयंकर प्रतिस्पर्धा है--गलाघोंट--जहां सब एक-दूसरे की गर्दन काटने को तैयार हैं। तुम भी चले, लेकर अपने धनुषबाण! तुम भी तत्पर हुए! तुमने भी बांध ली जिद कि दिखला कर रहेंगे!
साधुता सरल है। ‘साधु’ शब्द का अर्थ ही होता है: सरल। साधु का अर्थ ही होता है: निर्मल। साधुता किसी को आकर्षित नहीं करती। सरल होने में क्या रखा है! अरे, सरल तो पौधे भी हैं, पशु भी हैं, पक्षी भी हैं। मजा तो जटिल होने में है। और तुम अगर अपने मस्तिष्क के भीतर झांकोगे तो तुम पाओगे कितनी जटिलताएं तुमने पाल रखी हैं! कैसी-कैसी जटिलताएं! और कितनी पहेलियां इकट्ठी कर ली हैं, जिनको तुम बूझ नहीं पाए हो। वे सब तुम्हारी छाती पर तीरों की तरह चुभी हैं और घाव बना रही हैं। फिर इस जटिल चित्त से जो सरलतम है उसको सुलझाना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि यह जटिल अभ्यासी हो जाता है जटिल को सुलझाने का। सरल से इसकी बात ही नहीं बनती। इसे सीधी-सादी बात दिखाई ही नहीं पड़ती। इसे तो इरछी-तिरछी हो तो ही दिखाई पड़ती है। इसके देखने का ढंग और रवैया ही ऐसा हो जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन को किसी ने बाजार में चलते देखा; एक पैर में काला जूता पहने है, दूसरे में लाल। पूछा कि भैया, कोई नई फैशन निकली है? एक जूता लाल एक काला! मुल्ला ने कहा: नहीं जी, कोई फैशन नहीं निकली, यह उल्लू के पट्ठे उस दुकानदार की हरकत है। दो जोड़ी जूते खरीदे हैं, दोनों डिब्बों में ऐसे ही जूते बांध दिए हैं--एक काला, एक लाल।
सीधी सी बात है। मगर जटिल चित्त को दिखाई पड़नी मुश्किल हो जाती है और मुल्ला नसरुद्दीन को हम क्षमा कर सकते हैं, और यह कहानी शायद कल्पित हो, लेकिन इस तरह की वास्तविक घटनाएं हैं।
बड़ा वैज्ञानिक हुआ, न्यूटन। उसने दो बिल्लियां पाल रखी थीं। बड़ा गणितज्ञ। लेकिन उसे बड़ी दिक्कत होती थी, कभी-कभी रात को बिल्लियां देर से आतीं--बिल्लियां तो बिल्लियां--तो उसको जागना पड़ता, उनकी राह देखनी पड़ती, जब वे आ जातीं, उनको सुला देता, तब सोता। किसी ने सलाह दी कि ऐसा क्यों नहीं करते कि दरवाजे में एक छेद कर दो, जब आएंगी अपने छेद से निकल कर अंदर आकर सो जाएंगी, तुम परेशान होने से बच जाओगे। अब कहां... कभी-कभी आधी रात तक बैठे रहते हो, बिल्ली नहीं आई हैं! उसने कहा, यह बात तो जंची।
दूसरे दिन जब मित्र ने देखा तो बहुत हैरान हुआ, उसने दो छेद बना रखे हैं। पूछा, दो किसलिए? तो न्यूटन ने कहा: एक बड़ी बिल्ली के लिए, एक छोटी बिल्ली के लिए।
अब यह बड़ा गणितज्ञ है। इसको यह ख्याल में ही नहीं आ सका कि एक ही छेद से दोनों निकल सकती हैं। आगे-पीछे निकल सकती हैं। कोई एक ही साथ निकलने की जरूरत है! मगर गणित गणित है। दो बिल्लियां हैं तो दो छेद की जरूरत है। बड़ी के लिए एक बड़ा, छोटी के लिए एक छोटा। मित्र ने तो सिर ठोंक लिया। उसने कहा, खाक तुम गणित समझते हो!
मगर न्यूटन गणित समझता है। गणित समझने के कारण ही यह जीवन की छोटी सी बात समझ में नहीं आ रही है। गणित तो बड़े गंभीर समझता है, बड़े दूर-दूर के समझता है...!
अलबर्ट आइंस्टीन ने इस सदी में गणित के सबसे कठिन सवाल हल किए हैं; मगर जीवन के छोटे-छोटे मामलों में उन्हें बहुत झंझट हो जाती थी। बाथरूम में बैठ जाते तो घंटों न निकलते। छह-छह घंटे! पत्नी परेशान, पूरा घर परेशान। उनसे पूछो तो वे कहते कि मैं समय भूल जाता हूं। और समय के संबंध में जितने बड़े जानकार वे थे, उतना बड़ा जानकार इस सदी में कोई दूसरा नहीं था। उनके सारे जीवन की खोज ही टाइम और स्पेस, समय और आकाश, इसी पर बंधी है।
एक दिन एक मित्र ने उनको बुलाया था अपने घर, भोजन के लिए। रात देर हो गई, मित्र बार-बार घड़ी देखे कि अब वे जाएं, वे जाएं ही न! जम्हाइयां लें, वे भी बार-बार घड़ी देखें, आखिर मित्र के बरदाश्त के बाहर हो गया--बड़े आदमी को ऐसे एकदम कहा भी नहीं जा सकता कि अब आप अपने घर जाइए--आखिर जब बहुत देर हो गई, दो बजने लगे, दो का घंटा बजा जब घंटाघर से, तो मित्र ने कहा कि अब तो कुछ करना ही पड़ेगा नहीं तो यह आदमी रात भर जगाएगा! न कोई बातचीत करने को है--दोनों जम्हाई ले रहे हैं, दोनों घड़ी देखते हैं और बैठे एक-दूसरे की शक्ल देख रहे हैं!
आखिर उस मित्र ने कहा कि आपकी पत्नी राह देखती होगी। अलबर्ट आइंस्टीन ने कहा कि मेरी पत्नी! तो तुम जाते क्यों नहीं अपने घर? उसने कहा: मैं अपने घर जाऊं! मैं अपने घर हूं! अलबर्ट आइंस्टीन ने कहा: तो भले आदमी, पहले क्यों नहीं बताया कि यह तेरा घर है! मैं यही सोच-सोच कर बार-बार घड़ी देखता हूं कि भइया, यह जाए तो मैं सोऊं! और यह जमा ही हुआ है, अब कहते भी ठीक नहीं लगता किसी मेहमान से, इसलिए मैं सोच-सोच कर रह जाता हूं। यह जब घड़ियाल में दो बजे तो मेरी भी बरदाश्त के बाहर हुई जा रही थी बात। अगर तुम न कहते तो मैं कहता, तुमने मेरी जबान से बात छीन ली।
तब उठा जब पक्का हो गया कि मेहमान मैं हूं, मेजबान यह है।
जीवन के बड़े सवाल हल करने में आइंस्टीन की प्रतिभा का कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन जीवन के छोटे-छोटे मसले! अक्सर ऐसा हो जाता है, जिस यंत्र से दूर की चीजें दिखाई पड़ती हैं, उस यंत्र से पास की चीजें दिखाई नहीं पड़तीं। जो दूरदर्शी यंत्र होता है, वह खुर्दबीन नहीं है। दूरदर्शी यंत्र लेकर तुम अपनी पत्नी को खोजने घर में मत निकल जाना। मिलेगी ही नहीं। उससे चांद-तारे खोज सकते हो तुम, जो नहीं दिखाई पड़ते खाली आंखों से; पत्नी कहां दिखाई पड़ेगी।
मस्तिष्क के भी दो ढंग हैं। एक है, दूर की बात देखने का ढंग, दूरदर्शी। और एक है, निकट की बात देखने का ढंग। परमात्मा निकट है। परमात्मा चांद-तारों की तरह दूर नहीं है। सब जगह है। और हम पास देखना भूल गए हैं। तुम जाकर आंख के डॉक्टर से पूछना, उसके पास दो तरह के मरीज आते हैं। एक जिनको दूर तो ठीक दिखाई पड़ता है, पास नहीं दिखाई पड़ता। और एक वे जिनको पास तो ठीक दिखाई पड़ता है, दूर...। और कुछ मरीज ऐसे भी होते हैं कि जिनको दोनों तरफ देखने में अड़चन होती है--पास भी दिखाई पड़ना मुश्किल है, दूर भी दिखाई पड़ना मुश्किल है। तो उनका चश्मा दो ढंग का बनाना पड़ता है, उसमें दो ढंग के कांच होते हैं। ऊपर एक तरह का कांच होता है, नीचे दूसरी तरह का कांच होता है। नीचे के कांच से वे पास की तरफ देखते हैं, जब पढ़ते-करते हैं; और जब उन्हें दूर की चीज देखनी होती है, आंख उठाते हैं, तो ऊपर के कांच से देखते हैं। मस्तिष्क की भी ये दो अवस्थाएं हैं। परमात्मा पास है। पास से भी पास। तुमसे भी ज्यादा पास। उसे जानने के लिए कोई बहुत गणित, कोई तर्कशास्त्र, कोई जटिल विचार की प्रक्रिया नहीं चाहिए। उसके लिए सरलता चाहिए, ध्यान चाहिए, निर्मलता चाहिए, निर्विचार भाव चाहिए। उसके लिए छोटे बच्चे की भांति होना जरूरी है।
ठीक कहते हैं गुलाल:
निरमल हरि को नाम ताहि नहीं मानहीं।
लेकिन तुम उसे नहीं मानोगे। क्योंकि बात इतनी सरल है। तुम कहोगे, प्रमाण? तुम कहोगे, तर्क, आधार? और परमात्मा के लिए कोई तर्क नहीं दिया जा सकता। परमात्मा तो सभी तर्कों का आधार है, इसलिए उसके लिए कोई तर्क नहीं हो सकता। परमात्मा तो सारे तर्कों के पार है। इसलिए उसके लिए कोई तर्क नहीं हो सकता। उसके लिए क्या प्रमाण होगा? वही तो है प्रमाण देने वाला, वही तो है प्रमाण मांगने वाला, उसके लिए कैसे प्रमाण होगा? तुम्हारे भीतर जो देखता है, वही तो है परमात्मा, तुम परमात्मा को कैसे देखोगे?
इस बात को जरा खयाल में लेना।
लोग कहते हैं, हमें परमात्मा को देखना है। यात्रा ही गलत शुरू हो गई! पहला ही कदम भ्रांति का उठा लिया--परमात्मा को देखना है। परमात्मा तो वह है, जो तुम्हारे भीतर देखता है। देखने की क्षमता, तुम्हारी दर्शन की क्षमता परमात्मा है। तुम्हारा द्रष्टा-भाव, साक्षीभाव परमात्मा है। तुम साक्षीभाव को कैसे देखोगे? उसे तो देखने का कोई उपाय नहीं है। सब देख सकते हो, स्वयं के देखने को कैसे देखोगे? कोई मार्ग नहीं है।
परमात्मा बाहर होता, हम खोज लेते--कभी का खोज लेते। तारों पर पहुंच सकते हैं, चांद पर पहुंच सकते हैं, गौरीशंकर पर पहुंच सकते हैं, क्या परमात्मा को नहीं खोज लेते? लेकिन परमात्मा बैठा है तुम्हारे हृदय की धकधक में; जहां तुम्हारे प्राणों का प्राण है, वहां। वह इतने पास बैठा है कि तुम्हारी समझ में नहीं आता कि वहां जाएं तो कैसे जाएं! न कोई ट्रेन जाती वहां, न कोई हवाई जहाज जाता वहां; पद-यात्रा तक नहीं कर सकते! नहीं तो चल पड़ते पदयात्रा पर। वहां कोई यात्रा ही संभव नहीं है। वहां तो सब यात्राएं छोड़ कर बैठ जाना पड़ता है।
कुछ चीजें हैं जो दौड़ कर पाई जाती हैं--संसार की सब चीजें दौड़ कर पाई जाती हैं। इसमें जो जितना दौड़ में कुशल है, उतना सफल होगा। लेकिन परमात्मा बैठ कर पाया जाता है, रुक कर पाया जाता है। जो रुक जाने में सफल हैं, जो बैठ जाने की कला सीख लिए हैं...। ध्यान और है क्या? शांत होकर बैठ जाने की कला। थोड़ी देर को दौड़ना नहीं, आपा-धापी नहीं, छोड़ देना सब यात्राएं, थोड़ी देर को ऐसे हो जाना जैसे तुम हो ही नहीं, बस यही निर्मलता है। न हो जाना निर्मलता है। और परमात्मा निर्मल को उपलब्ध होता है।
विचार तो मल है, वह तो कूड़ा-करकट है। जितने तुम विचार से भरे हो, उतने ही व्यर्थ जंजाल से भरे हो।
निरमल हरि को नाम ताहि नहीं मानहीं।
भरमत फिरैं सब ठांव कपट मन ठानहीं।।
सारी दुनिया में भरमते फिरते हो, बड़े-बड़े कपट ठाने हुए हो, सबको धोखा देने में लगे हो, और एक बात भूल ही गए कि धोखा देने में अपने को तुम सबसे बड़ा धोखा दे रहे हो। सबकी जेबें काट रहे हो और यह भूल ही गए कि इसी बीच तुम्हारी जेब कट गई।
दो जेबकतरे जेलखाने से एक साथ छूटे। सो दोनों बार-बार अपनी जेब टटोल कर देख लें। आखिर एक से न रहा गया, उसने कहा: बार-बार क्या जेब टटोलते हो? उसने कहा: और क्या करें; तुम्हारी मैं टटोल नहीं सकता, क्योंकि तुम भी इस कला में प्रवीण हो; मेरी तुम टटोल नहीं सकते, क्योंकि मैं भी इस कला में प्रवीण हूं; मगर कौन जाने कौन ज्यादा प्रवीण हो! तुम्हारी तो मैं झंझट में पड़ना नहीं चाहता, अपनी बचाना चाहता हूं। मैं तुम्हारी जेब के खयाल में लग जाऊं और मेरी कट जाए! इसलिए बार-बार अपनी जेब देख लेता हूं कि अभी है कि नहीं, बची कि गई?
कभी तुम अपनी जेब तो टटोलो! जेबकतरों के बाजार में हो, जरा संभल कर चलो! मगर तुम्हें अपनी जेब टटोलने की फुरसत कहां? दूसरे की जेबें इतना आकर्षित कर रही हैं कि तुम एक जेब से दूसरे की जेब, दूसरे की जेब से तीसरे की जेब पर चले जाते हो। इस बीच तुम्हारी कब कट जाती है, तुम्हें पता ही नहीं चलता। जब पतंग कट जाती है तब पता चलता है। मगर फिर कुछ हो नहीं सकता। जिंदगी भर दूसरों को धोखा देने में लग जाती है, आखिर में पता चलता है: खुद धोखा खा गए। जो गड्ढे औरों के लिए खोदे थे, उनमें खुद गिर गए। जो फंदे औरों को फांसने के लिए बनाए थे, वे खुद के लिए फांसी बन गए। यह बहुत बाद में पता चलता है, बड़ी देर में पता चलता है, यह आखिरी क्षण में पता चलता है। इसीलिए तो लोग रोते हुए मरते हैं। मृत्यु के डर से नहीं रोते हैं वे। मृत्यु का क्या डर! मृत्यु तो विश्राम की तरह है। चिरनिद्रा है। मृत्यु से कोई नहीं डरता। डरते हैं, रोते हैं इसलिए, भयभीत होते हैं इसलिए कि अरे, यह जिंदगी का अवसर हाथ से गया, हम औरों के पीछे लगे रहे, खुद ही धोखा खा गए--बुरा धोखा खा गए!
भरमत फिरैं सब ठांव कपट मन ठानहीं।
कहां-कहां नहीं भरमते फिरते हो! पद के पीछे, धन के पीछे, प्रतिष्ठा के पीछे। क्या-क्या नहीं करते हो तुम! तुम कुछ भी करने को राजी हो खुशामद करने को राजी हो। चापलूसी करने को राजी हो--कुछ भी करने को राजी हो। बेईमानी करने को राजी हो, गला काटने को राजी हो, हिंसा करने को राजी हो, लेकिन सीढ़ियां बन जाएं, किसी तरह तुम पद पर पहुंच जाओ, प्रतिष्ठा पर पहुंच जाओ, कुछ ठीकरे तुम्हारे पास इकट्ठे हो जाएं!
सूझत नाहीं अंध ढूंढत जग सानहीं।
कुछ सूझता नहीं है तुम्हें, बिलकुल अंधे हो तुम, मगर बड़ी अकड़ में संसार में धन को, पद को, प्रतिष्ठा को खोजने निकले हो! बड़ी शान से।
सूझत नाहीं अंध ढूंढत जग सानहीं।
बड़ी शान से चल पड़े हो, बड़ी अकड़ से, इसकी फिकर ही नहीं कि अंधे हो। जाओगे कहां! पहले आंख तो ठीक कर लो, पहले देखना तो सीख लो पहले द्रष्टा तो बन जाओ, फिर खोजने निकलना! धर्म सीधी सी बात कहता है कि पहले देखना तो सीख लो! अगर तुम्हें सत्य मिल भी गया और तुम्हारे पास देखने की आंखें ही न हुईं, तो क्या करोगे?
तुमने अंधों की कहानी तो सुनी होगी कि पांचों अंधे हाथी को देखने गए। हाथी को तो देखने चले गए, इसकी फिकर ही न की कि हम अंधे हैं, हाथी मिल भी जाएगा तो देखेंगे कैसे? फिर जैसा देखा वैसा अंधे ही केवल देख सकते थे! किसी ने पैर टटोला और समझा कि यह रहा हाथी; और किसी ने कान टटोला और समझा कि यह रहा हाथी; और किसी ने पीठ टटोली और समझा कि यह रहा हाथी! फिर भारी विवाद चला अंधों में, बैठ कर उनमें भारी तर्क-वितर्क हुआ, क्योंकि एक ने कहा कि अंधा मैं नहीं हूं, तुम हो; मैंने तो भलीभांति देखा कि हाथी जो है, वह एक मंदिर के खंबे की तरह है। उसने पैर को छूआ था हाथी के। दूसरे ने कहा: झूठ, बिलकुल झूठ; तुम अंधे हो; आंख वाला मैं हूं। मैंने टटोल कर देखा, दीवाल की तरह था। अनुभव से कहता हूं; अरे, अनुभव की मानो! तीसरे ने कहा: सरासर झूठ, सौ प्रतिशत झूठ। तुम भी अंधे हो। मैंने भी टटोल कर देखा था, खूब टटोल कर देखा, बार-बार टटोल कर देखा--उसने कान टटोला था--उसने कहा, हाथी तो ऐसा है जैसे सूप होता है, जिसमें स्त्रियां चावल-दाल इत्यादि साफ करती हैं।
पांचों एक-दूसरे को अंधा कह रहे हैं। और प्रत्येक अपने को सिद्ध कर रहा है--मैं आंख वाला हूं। इसके पहले कि तुम सत्य की तलाश में निकलो कि आनंद की तलाश में निकलो, कम से कम आंख तो बना लो, कम से कम आंख तो खोल लो!
सूझत नाहीं अंध ढूंढत जग सानहीं।
कह गुलाल नर मूढ़ सांच नहिं जानहीं।।
ऐसे मूढ़ नर कभी भी सत्य को नहीं जान सकेंगे, क्योंकि उन्होंने बुनियाद ही गलत रख दी, यह मंदिर कभी बनेगा नहीं। बुनियाद रखनी चाहिए दृष्टि की निर्मलता से। देखने की कला पहले सीखनी चाहिए। इसके पहले कि अंधे हाथी के पास जाते, किसी वैद्य के पास जाना था, किसी बुद्ध के पास जाना था। बुद्ध वैद्य ही हैं, जो तुम्हारी भीतर की आंख को निर्मल करते हैं, जो तुम्हारी भीतर की आंख का परदा हटा दें। जाना था किसी वैद्य के पास कि तुम्हारी आंखों की जाली काट दे, कि तुम देख सको, लेकिन चले हाथी के पास!
यह सारा संसार उन अंधों से भरा है जो हाथियों के पास जा रहे हैं। यहां शायद ही कोई कभी इसकी फिकर करता है कि पहले मैं अपनी आंख ठीक कर लूं, फिर जाऊंगा; पहले अपनी लरजती आवाज तो सम्हाल लूं, फिर गीत गाऊंगा; पहले अपने पैर उठाना तो सीख लूं, फिर दौडूंगा। पहले भीतर घटना घट जाने दूं, फिर बाहर तो अपने से घट जाती है।
माया मोह के साथ सदा नर सोइया।
मनुष्य सोया हुआ है, नींद में है, वही उसका अंधापन है। सोया है माया में, सोया है मोह में।
माया का अर्थ होता है: तुम्हारे द्वारा संसार पर आरोपित कल्पनाएं। माया का यह अर्थ मत समझना जो तुम्हारे तथाकथित महात्मा तुम्हें समझाते हैं कि यह सारा जग माया है। जरा एक चपत लगा कर देखो उनको और फौरन डंडा उठा लेंगे! और तब तुम उनसे कहना कि सब माया है, महात्मा जी! कैसी चपत! यह कैसे आप नाराज हुए जा रहे हैं! लेकिन चपत माया नहीं है, सारा संसार माया है, और डंडा उठा लिया। डंडा माया नहीं है। यह जो बातें कर रहे हैं कि सारा संसार माया है, इनकी जरा तुम परीक्षा तो करो! और तुम्हें पता चल जाएगा कि ये सब बकवास कर रहे हैं। अगर जगत माया है, तो फिर ये त्याग की क्या बातें कर रहे हैं? कि हम सब संसार छोड़ कर चले आए। जब माया ही है तो क्या खाक छोड़ोगे! जब है ही नहीं, तो छोड़ोगे क्या! जब तुम्हारे पास कुछ था ही नहीं पहले से, तो त्यागोगे क्या? कोई अपनी छाया तो नहीं त्यागता।
माया जगत नहीं है। जगत सत्य है, उतना ही जितना परमात्मा, क्योंकि जगत परमात्मा है। लेकिन हां, जगत के परदे पर तुम अपनी कल्पनाओं के बहुत से जाल बुनते हो, वे जाल तुम्हारे हैं, वे तुम बुनते हो। तुम्हारा मन स्रोत है माया का, जगत नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन की जवानी की घटना है--
अंततः मां-बाप और रिश्तेदारों ने खूब सोच-समझ कर शेख नियाज की खूबसूरत बेटी गुलजान से नसरुद्दीन का निकाह करने का निर्णय किया। बाप ने नसरुद्दीन से कहा कि बेटा, लड़की के साथ बैठ कर घड़ी भर बातचीत कर लो। आखिर तुम दोनों को जीवन भर साथ-साथ रहना है, सो अभी एक-दूसरे को अच्छी तरह पहचान लो।
नसरुद्दीन उन दिनों बड़ा नैतिक और धर्मपरायण युवक था। उसने पहला सवाल किया: हे हिरणी सी आंखों और गुलाब की पंखुरी से ओंठों वाली गुलजान, क्या तुम खुदा की कसम खाकर कह सकती हो कि तुमने कभी कोई पाप नहीं किया है?
गुलजान बोली: ऐ सूरज की रोशनी को भी मात कर देने वाले बुद्धिमान युवक, सच कहती हूं, मैंने अपनी इस छोटी सी सत्रह वर्ष की जिंदगी में बस एक ही पाप किया है, वह यह कि मैं घंटों आईने के सामने खड़ी होकर अपनी ही छवि को निहारती रहती हूं। मुझे अपने हुस्न पर नाज है। और मैं मानती हूं कि इस दुनिया में मुझ से ज्यादा खूबसूरत कोई भी नहीं है।
नसरुद्दीन ने गुस्से में कहा कि जो पूछा गया है, उसका जवाब दो, जी! मैंने तुमसे पाप के संबंध में पूछा था और तुम अपने भ्रमों के संबंध में बता रही हो।
दर्पण के सामने खड़े होकर जो तुम देखते हो, वह जरूरी नहीं कि सिर्फ तुम्हारी चेहरे की तस्वीर हो; उसमें बहुत कुछ तुम्हारी धारणाएं मिली होती हैं, कल्पनाएं मिली होती हैं। तुम दर्पण को ही प्रतिफलित नहीं करने देते कि तुम क्या हो, तुम उसमें बहुत कुछ जोड़ देते हो, बहुत रंग डाल देते हो। यहां मूढ़ से मूढ़ आदमी संसार में समझता है: वह ज्ञानी। जितना मूढ़ उतना ज्यादा अपने को ज्ञानी समझता है। ...ज्ञानी तो समझने लगते हैं कि हमें कुछ नहीं आता।
सुकरात ने कहा है कि मैं एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ नहीं जानता। यह तो ज्ञानी का वचन। और मूढ़ों से पूछो! वे सब जानते हैं। तुम जो पूछो, वह जानते हैं। ऐसी कोई चीज ही नहीं जो वे न जानते हों। तुम ऐसा कोई सवाल नहीं पूछ सकते, जिसका जवाब उनके पास न हो। इसके पहले कि तुम सवाल पूछो, जवाब तैयार है। मूढ़ों को भ्रांतियां होती हैं। न उनसे ज्यादा कोई ज्ञानी है, न उनसे ज्यादा कोई सुंदर है, न उनसे ज्यादा कोई मेधावी है, न उनसे ज्यादा कोई योग्य है किसी बात में। कहें, न कहें वे, मगर इन भ्रांतियों को भीतर लेकर चलते हैं। और जीवन के पर्दे पर इन्हीं भ्रांतियों को डालते रहते हैं। इसीलिए तो दुनिया में चापलूसी चलती है। नहीं तो चापलूसी चल नहीं सकती।
दुनिया में इतने चमचे कैसे हैं? कहां से आते हैं? कोई फैक्टरी चमचे नहीं बनाती। चम्मचें बनाती है छोटी-छोटी। ये बड़े-बड़े चमचे, ये एकदम आकाश से आ जाते हैं! नहीं, इसके पीछे कारण है। क्योंकि लोग भ्रांतियों में रहते हैं। लोग भ्रांतियों में रहते हैं, तुम उनकी भ्रांतियों को अगर सहारा दो, वे तुमसे प्रसन्न हो जाते हैं। तुम उनसे झूठ कहो, झूठ से झूठ कहो, तो भी मान लेते हैं। इनकार करना मुश्किल हो जाता है। तुम उनकी भ्रांति का सहारा कर रहे हो।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बगल के सेठ से एक कटोरा मांग लाया कि घर में मेहमान आए हैं, गरीब आदमी हूं, कटोरा नहीं है; सुबह लौटा जाऊंगा। सेठ ऐसे तो कृपण था, लेकिन उसने सोचा कि क्या हर्जा है, सुबह कटोरा लौटा जाएगा, कोई सदा के लिए मांग भी नहीं रहा है। कोई लेकर भाग जाए, ऐसा आदमी भी नहीं है। और एक कटोरे के पीछे घर-द्वार छोड़ कर भागेगा कहां? दे दिया कटोरा।
सुबह नसरुद्दीन लौटा, एक कटोरा भी लाया, साथ में एक छोटी कटोरी भी लाया। सेठ ने पूछा: यह कटोरी कहां से ले आए? यह कटोरी किसलिए? उसने कहा कि रात कटोरे ने कटोरी को जन्म दिया। आपका कटोरा गर्भवान था। सेठ ने कहा कि हद हो गई! मानने का जी तो न हुआ, लेकिन मानने का जी हुआ भी। बात तो सरासर झूठी थी, मगर अब यह कटोरी चांदी की साथ ले आया है, इसको छोड़ना भी उचित नहीं! प्रसन्नता से रख लिया।
पांच-सात दिन बाद नसरुद्दीन आया और उसने कहा कि मेहमान घर में आए हैं, कड़ाही की जरूरत है; खीर बनानी है। सेठ बड़ा खुश हुआ। कहा: जरा सम्हाल कर ले जाना, कड़ाही गर्भवती है। और सेठ रात भर सो नहीं सका कि देखें कल क्या होता है? और कल वही हुआ जो सोचा था सेठ ने। एक छोटी कड़ाही लेकर नसरुद्दीन आ गया। सेठ भी चौंका कि यह भी हद कर रहा है! यह मैंने कभी सोचा ही नहीं था, मगर कुछ न कुछ राज है। नसरुद्दीन ने कहा कि आप ठीक कहते थे कि कड़ाही गर्भवती है; यह छोटी कड़ाही पैदा हुई है। आपकी संपत्ति सम्हालिए। कड़ाही आपकी है, उसका बच्चा भी आपका है। वह भी सम्हाल लिया।
कोई महीना भर बाद नसरुद्दीन आया और कहा कि बड़ी जरूरत पड़ गई है, बहुत से लोगों को दावत दी है, तो कई थालियां चाहिए, कटोरियां चाहिए, पतीलियां चाहिए, कड़ाहियां चाहिए। सेठ ने कहा कि ले जाओ, जो चाहिए ले जाओ, मगर खयाल रखना कि सब गर्भवती हैं। नसरुद्दीन ने कहा कि वह तो मैं दो दफे देख ही चुका हूं, कि आपके यहां के बर्तन कोई साधारण बर्तन नहीं हैं, वह तो अपने अनुभव से देख चुका, आपको कहने की जरूरत नहीं। उस रात तो सेठ सो ही नहीं सका।
लेकिन दूसरे दिन नसरुद्दीन नहीं आया। तो बड़ा चिंतित हुआ। तीसरे दिन नहीं आया तो चौथे दिन उसने आदमी को भेजा। नसरुद्दीन बैठा रो रहा था। आदमी ने कहा क्या हुआ? उसने कहा कि सब मर गए। पता नहीं क्या हुआ, फूड पायजनिंग हो गया या क्या हुआ, मगर सब मर गए। एक नहीं बचा! आज तीन दिन से मातम मना रहा हूं। आज आने की सोच ही रहा था, तीसरा पूरा हो गया, बस आज आता ही था, तुम्हें आने की कोई जरूरत न थी।
नौकर तो भागा, सेठ से बोला कि यह आदमी पागल है। यह कह रहा है, सब बर्तन मर गए। बर्तन कहीं मरते हैं! अब सेठ को समझ आई कि अब खुद फंस गए। भागे हुए गए कि क्यों रे नसरुद्दीन के बच्चे, निकाल बर्तन! नसरुद्दीन ने कहा कि मालिक, सब मर गए! सेठ ने कहा कि कहीं बर्तन मरते हैं! नसरुद्दीन ने कहा कि जब बाल-बच्चे पैदा करते हैं, तो मरेंगे नहीं? मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू? जब मीठा पी गए, अब कड़वा भी पीओ--अब मैं भी क्या कर सकता हूं! मैं तो दफना भी चुका।
तुमसे जब कोई झूठ कहता है तुम्हारे बाबत, अगर वह प्रीतिकर हो, तो तुम स्वीकार कर लेते हो। अगर तुम्हारे अहंकार को भरता हो, तुम अंगीकार कर लेते हो। इसीलिए तो चापलूसी एक कला है। यह पहचानना कि इस आदमी की क्या भ्रांतियां हैं, कोई छोटी-मोटी बात नहीं और इसकी भ्रांतियों को बढ़ावा देना, इसकी भ्रांतियों को बढ़ा-चढ़ा कर बताना! बिलकुल सींकचा आदमी हो, उससे भी कहो कि अरे क्या मोहम्मद अली तुम्हारे सामने, तो वह भी सीना फुला कर कहता है कि हां, वह क्या मोहम्मद अली क्या करेगा? देख रहे हो कि बिलकुल सींकचा पहलवान है, कि कोई एक तमाचा लगा दे तो फिर उठेगा ही नहीं, फिर कभी उठेगा ही नहीं, मगर उससे भी कहो कि मोहम्मद अली कुछ नहीं तुम्हारे सामने, तो उसका भी अहंकार मानने को राजी हो जाता है। कुरूप से कुरूप स्त्री को कहो कि तुम तो सुंदर हो, तुम से सुंदर कौन, वह भी मानने को राजी हो जाती है।
इसी स्त्री को आखिर मुल्ला नसरुद्दीन विवाह करके ले आया था। मुसलमानों में रिवाज है कि जब पत्नी आती है, तो वह पति से पूछती है कि मैं किसके सामने अपना बुर्का उठा सकती हूं? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि मुझे छोड़ कर सबके सामने उठा सकती हो। जिन-जिन को डरवाना हो, डरवा! बस, मुझ पर दया कर! ऐसे भी मैं दिन भर घर आता नहीं। रात आऊंगा सो आते ही से दीया बुझा दूंगा, पहला काम। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। जब तू दिखाई ही नहीं पड़ेगी, तो अंधेरे में सभी सुंदर हैं!
लेकिन कुरूप से कुरूप स्त्री भी यह सुनना नहीं चाहेगी। तुम बूढ़ी से बूढ़ी स्त्री को कहो कि होगी आपकी उम्र कोई चालीस के करीब और वह एकदम प्रसन्न होकर मान लेती है--कि तुम मिले पहली दफा!
मुझे एक कॉलेज में भरती होना था। एक कॉलेज से निकाल दिया गया था और कोई दूसरा कॉलेज लेने को तैयार भी नहीं था। अब यह एक ही कॉलेज बचा था। ऐसे गांव में बीस कॉलेज थे जहां मैं था, मगर कोई कॉलेज लेने को राजी नहीं था। क्योंकि वह जो झंझट एक कॉलेज में हो गई थी, उसकी वजह से वे कहते थे, हम झंझट नहीं लेना चाहते। वह झगड़ा यहां भी खड़ा होगा। क्योंकि हर प्रोफेसर से मेरा विवाद हो जाए, उपद्रव हो जाए, बातचीत हो जाए। और जब तक कोई निर्णय न हो जाए तब तक मैं विवाद को जारी रखूं--और निर्णय तो विवादों के होते ही नहीं, सो महीनों बीत जाएं! कभी-कभी तो यह हालत हो जाए कि कक्षा में कोई आए नहीं, मैं और प्रोफेसर अकेले। उसको बेचारे को आना पड़े, क्योंकि उसको अपनी तनख्वाह लेनी है। और मुझे आना ही है, क्योंकि मुझे वह विवाद पूरा, उसका निष्कर्ष निकलवाना है। मुझसे एकांत में प्रोफेसर कहें, हम आपके हाथ जोड़ते हैं, क्या आप शांत नहीं बैठ सकते? मैंने कहा, क्यों शांत बैठें? पढ़ने-लिखने आए हैं, शांत बैठने आए हैं क्या? शांत ही बैठना होता, अपने घर बैठते। पढ़-लिख कर फिर शांत बैठेंगे। अभी तो पढ़ना-लिखना चल रहा है।
अब कोई उपाय न देख कर मुझे उस कॉलेज के प्रिंसिपल के पास जाना पड़ा। सो उनके घर गया। उनके संबंध में कई कहानियां सुन रखी थीं, थोड़े झक्की थे, तो मैंने कहा शायद बन जाए मेल! और घर पहुंचा तो देखा कि हैं पक्के झक्की! एक तो बड़े मोटे-तगड़े, बिलकुल काले रंग के--यमदूत मालूम होते थे। बस, भैंसे की कमी थी! और एक जरा सी लंगोटी बांधे हुए काली की पूजा कर रहे थे जब मैं उनके घर गया--जय काली, जय काली! मैंने कहा: इनसे जमेगा। जब वे बाहर आए तो मैंने भी कहा कि जय काली! उन्होंने मुझे चौंक कर देखा। मैंने कहा: मैंने बहुत महात्मा देखे, मगर आपका कोई मुकाबला नहीं। इस कलयुग में और आप जैसा भक्त! क्या भजन कर रहे थे आप! उन्होंने एकदम मुझे गले लगा लिया। वे बोले कि तुम पहले आदमी हो जो मुझे पहचाने। मेरे मोहल्ले-पड़ोस के लोग तो समझते हैं मैं पागल हूं!
फिर तो उन्होंने कॉलेज में मुझे जगह भी दी, मेरी फीस भी माफ की, स्कॉलरशिप भी दी। और वे कहते फिरते थे कि अगर किसी ने मुझे पहचाना है, इस व्यक्ति ने पहचाना है। बस, वे जहां मुझे मिल जाते, इतना ही करना पड़ता मुझे कि--जय काली! बस इतना सुनते ही से वे प्रसन्न हो जाते थे। उनकी भ्रांति को मैं बल दे रहा हूं, बस, सब ठीक है।
न कहीं कोई काली है, न कुछ है न कुछ है, नाहक सिर फोड़ रहे हैं! मगर यह तो मैंने उनसे बाद में कहा! तब से मुझसे बहुत नाराज हैं कि अगर तुमने पहले ही कहा होता, तो मैं तुमको कॉलेज में कदम नहीं रखने देता। इसीलिए तो, मैंने कहा, पहले मैंने कहा नहीं। कॉलेज में कदम मुझे रखना ही था--कहीं न कहीं रखना ही था!
जिस दिन कॉलेज छोड़ा, मैंने कहा मैं अब आपको असलियत बता दूं, जय काली का राज समझा दूं। उन्होंने कहा: क्या राज है? तो मैंने पूरी कहानी उनको बता दी कि बात कुल इतनी है, कि जब मैं बाहर बैठा था तो मैंने भी कहा कि है तो यह आदमी बिलकुल झक्की; लोग जो कहते हैं, उससे भी गया-बीता, महा मूढ़ता के काम कर रहा है--अब यह कोई काम है! और तब से जब भी मैं आपको जय काली कहता था, तो दिल ही दिल में हंसता था कि वाह री दुनिया, मूढ़ों की मूढ़ता को सहारा दो और वे प्रसन्न होते हैं!
वे मुझसे इतने नाराज हुए कि अगर कभी रास्ते पर भी मिल जाते थे, दूर से ही देख लेते कि मैं आ रहा हूं, रास्ता बदल देते। मैं कहता: सुनो तो भी, जय काली! कहां जा रहे?
एक दिन मुझसे बोले कि अब यह जय काली कहना बंद कर दो, क्योंकि जब तुम्हें भरोसा ही नहीं है काली में तो तुम क्यों जय काली कहते हो? मैंने कहा, वह तो मैं सिर्फ आपको याद दिलाता हूं कि आपके धोखे को मैंने जरा सा बल दिया और आप प्रसन्न हो गए! कब जागेंगे?
कोई जागना नहीं चाहता। लोग सोए हैं, सपने देख रहे हैं। फिर काली का सपना हो कि राम का हो कि कृष्ण का हो कि बुद्ध का हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जब तक तुम जागे हुए नहीं हो, तब तक तुम जो भी देख रहे हो वह सपना है। धार्मिक हो, अधार्मिक हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। नास्तिक हो, आस्तिक हो, कोई फर्क नहीं पड़ता।
माया का अर्थ होता है: तुम्हारे आरोपित कल्पनाओं के जाल। संसार सिर्फ पर्दा है, उस पर्दे पर तुम जो चाहो, वह आरोपित कर सकते हो।
माया मोह के साथ सदा नर सोइया।
और मोह का अर्थ होता है: वह जो तुमने आरोपित कर दिए हैं अपने कल्पनाओं के जाल, वे कहीं टूट न जाएं, इसका आग्रह, उनको बचाए रखो। चाहे खुद टूट जाऊं, मगर उनको बचाए रखूं। लोग मरने को राजी हैं, मगर अपने भ्रमों को छोड़ने को राजी नहीं हैं। और चारों तरफ लोग हैं जो कहते हैं कि हां, यह तो है ही, यही तो बहादुरों के लक्षण हैं,... शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले! मूढ़ मूढ़ों को और सहायता दे रहे हैं, वे उनको कह रहे हैं, घबड़ाओ मत, मर जाओ, बेफिकरी से मर जाओ, तुम्हारी चिता पर मेला जुड़ेगा। जिंदगी भर मेला नहीं जुड़ा, वह आदमी सोचता है कि चलो, मर कर ही जुड़ेगा मगर जुड़ेगा तो! मेला जुड़ना चाहिए। तुम्हारा निशान रह जाएगा, तुम्हारी स्मृति रह जाएगी, इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण अक्षरों में तुम्हारा नाम लिखा जाएगा!
लोग राजी हैं अपनी भ्रांतियों पर मरने के लिए। मुसलमान राजी है मरने के लिए, अगर इस्लाम खतरे में है, इसका कोई शोरगुल मचा दे--बस, शोरगुल काफी है! इस मुसलमान को इस्लाम जीने की कोई इच्छा नहीं है,... जीने की झंझट में कौन पड़े? जीना लंबा सिलसिला है, मरना बिलकुल आसान काम है, क्षण में हो जाता है। एक आवेश का क्षण और मौत हो जाती है। लोग हिंदू धर्म के लिए मरने को राजी हैं। मेरे पास आ जाते हैं।
एक सज्जन ने कुछ दिन पहले आकर मुझसे कहा कि बस, मुझे तो आपकी बात जंच गई, मैं तो आपकी बात पर मर मिटने को राजी हूं। मैंने कहा, ठहरो! मेरी बात पर मर मिटने की कोई जरूरत नहीं है। मेरी बात पर जीने को राजी हो कि नहीं, यह कहो? मर मिटने को तो कई मूढ़ राजी हो सकते हैं। जीना असली सवाल है! जीना लंबा मामला है, चौबीस घंटे सजग होना होगा, वर्षों तक सजगता साधनी होगी। मरने में क्या रखा है! जाओ, लेट जाओ ट्रेन के नीचे, मर जाओगे। फिर चाहे जय काली, जय काली कहते मर जाना--जो तुम्हें करना हो, करना।
मरना बहुत आसान है, याद रखना।
और दुनिया में कुछ लोग हैं जिनमें आत्मघात की वृत्ति है। वे रुग्ण लोग हैं। वे शहीद होने के लिए ही दीवाने रहते हैं। उनको शहीद होना ही है। वे शहीद होकर ही रहेंगे। तुम लाख उपाय करो, वे कोई न कोई रास्ता निकाल कर शहीद होंगे। देश के लिए मरेंगे,... कहां का देश! सब रेखाएं नक्शों पर खींची हुई हैं। झंडों के लिए मर जाएंगे! सब झंडे काल्पनिक हैं; प्रतीकात्मक हैं। मूर्ति किसी ने तोड़ दी, उसके लिए मर जाएंगे। मस्जिद के सामने किसी ने बाजा बजा दिया, उसके लिए मर जाएंगे। गजब के लोग हैं! मस्जिद के सामने किसी ने बाजा बजा दिया!
मैं एक गांव में था। वहां हिंदू-मुस्लिम दंगा हो गया। मैंने पूछा कि बात क्या है? कुछ नहीं, मस्जिद के सामने लोग बाजा बजाते निकल गए। निकल जाने दो बाजा बजाते! मस्जिद का कुछ बिगड़ा नहीं। और ये बाजा कहीं तो बजाएंगे ही और परमात्मा सब जगह है--जितना मस्जिद में उतना मस्जिद के बाहर--अगर बाजे से परमात्मा परेशान ही हो रहा है, तो वह कहीं भी परेशान होगा, ये बाजा तो बजाने ही वाले हैं! सिर्फ मस्जिद के सामने दस कदम रोक दें, तो बस, ठीक। नहीं तो हिंदू-मुस्लिम दंगा हो गया। लोग कट गए। कोई पंद्रह आदमी मारे गए। और कई मकान जला दिए गए।
आदमी कुछ शहीद होने को एकदम उत्सुक है, आतुर है। तुम्हें इन रुग्णताओं का पता नहीं है, ख्याल में नहीं है कि अच्छी-अच्छी बातों के पीछे भी कभी-कभी सिर्फ मानसिक रोग होते हैं और कुछ नहीं।
अभी मुझसे किसी संन्यासी ने पत्र लिख कर पूछा है--अब वे हैं मेरे संन्यासी, मगर उनको पता नहीं कि कहीं न कहीं भीतर रोग है उनको। उन्होंने लिख कर पूछा है कि जीसस को सूली लगी, मंसूर को सूली लगी, आपको सूली क्यों नहीं लगती? अब उनको इससे बेचैनी हो रही है। जब तक मुझे सूली न लगे, तब तक उनको चैन न मिले। अड़चन मैं उनकी समझता हूं। अड़चन उनकी यह हो रही है कि मुझे सूली लग जाए, तो वे कह सकें--देखा हमारा गुरु! अरे, जीसस और मंसूर की कोटि में उठ गया! उनको बड़ी हैरानी हो रही है कि मुझे सूली क्यों नहीं लग रही!
दुश्मन भी मुझे सूली लगाने में उत्सुक हैं और मेरे मित्र भी। मित्रों की अड़चन भी मैं समझता हूं। सूली लग जाए तो उनको निश्चिंतता हो जाए कि हां भाई, था कोई पहुंचा सिद्धपुरुष! अब उनकी तकलीफ यह है कि मैं कुछ अजीब ही किस्म का सिद्धपुरुष हूं! सूली की बात छोड़ो, मैं रहता महल में, चलता रॉल्स रॉयस में! सूली भी लगेगी तो रॉल्स रॉयस में बैठ कर ही जाने वाला हूं, इसका तुम खयाल रखना! तुम्हें बाद में भी लोग सताएंगे कि हां, सूली लगी थी मगर रॉल्स रॉयस में बैठ कर क्यों गए?
उससे भी... वह भी उन्होंने लिखा है कि यह क्या मामला है? आप तो कहते हैं, सत्य बोलने वाले को सूली लगती है, आपको सूली तो लगती नहीं, उलटे आप रॉल्स रॉयस में चलते हैं!
दो हजार साल में कुछ तो अकल बढ़ी आदमी की। तुम्हारी नहीं, बुद्धों की अक्ल थोड़ी बढ़ी। अब हम भी समझदार हो गए कि सूली कैसे बचाना और रॉल्स रॉयस में कैसे चलना। तुम क्या समझ रहे हो कि जो तुमने जीसस के साथ किया, वही तुम मेरे साथ कर पाओगे! तो यह दो हजार साल में सब, कुछ हम सीखे ही नहीं! तुम तो वहीं के वहीं हो, लेकिन बुद्ध बहुत आगे निकल गए।
मगर तुम्हारा प्रश्न सूचक है। और जिस एक ने पूछा है, उसका ही सूचक नहीं है, तुममें से अधिकांश के मन में ये ही सवाल उठते रहते हैं। मुझे रहना चाहिए किसी झोपड़े में। तो तुम्हारे चित्त को बड़ी शांति मिले! तकलीफ मुझे हो, शांति तुमको मिले! यह भी खूब रही! मेरी तकलीफ से तुम्हें क्या शांति! लेकिन तुम्हारा चित्त प्रसन्न हो, तुम चारों तरफ पताका लेकर फहराने लगो कि देखो, गुरु इसको कहते हैं, सदगुरु इसको कहते हैं, देखो झोपड़े में रहते हैं, नग्न रहते हैं! और सचाई तुम मुझसे पूछो तो मैं तुमको बता देना चाहता हूं। मैंने गरीब की भांति रह कर भी देख लिया, अमीर की भांति रह कर भी देख लिया, अब तुम मानो या न मानो, अमीर की भांति रहने में जो मजा है, वह गरीब की भांति रहने में नहीं है। तुम्हें न मानना हो न मानो। अमीरी का मजा ही कुछ और है!
लेकिन तुम्हारे भीतर एक रुग्ण चित्तदशा है, सदियों पुरानी। एक रोग है। दुखवादी हो तुम। तुम दुख को गरिमा देते हो, गौरव देते हो, सम्मान देते हो। सूली लगे, शहीद हो जाओ--तुम न हो सको तो कम से कम तुम्हारा गुरु हो जाए! तुम मेरे कंधे पर भी रख कर बंदूक चलाने के इरादे रखते हो। असंभव!
यह जो हमारा दुखवाद है, यह किस बात का सबूत है? यह एक बात का सबूत है, हम अपने भ्रमों में इतना ज्यादा अपने को जोड़ रखते हैं कि हमारे किसी भ्रम को हम टूटने नहीं देना चाहते। जैसे तुमने सदगुरुओं के संबंध में भी भ्रम बांध रखे हैं, वे पूरे होने चाहिए। तुम्हारे भ्रम पूरे करने को मेरा कोई दायित्व है! तुम पालो भ्रम, पूरे मैं करूं! सदगुरु कैसा होना चाहिए, निर्णय तुम करो--और उस हिसाब से चलूं मैं! लेकिन हर चीज के संबंध में तुम्हारे मोह हैं, माया है; तुम्हारा जाल है, तुम्हारे प्रक्षेपण हैं। तुम फिर उन्हीं के हिसाब को चलते हो मानकर। तुम उन्हीं को पकड़ कर चलते हो। और तुम चाहते हो कि वे पूरे होने चाहिए। उनके पूरे होने का नाम मोह है। पूरे होने की आकांक्षा का नाम मोह है।
माया है प्रक्षेपण; तुम्हारे प्रक्षेपण पूरे होने चाहिए, इसका आग्रह, इसकी आसक्ति मोह है। और इन दोनों के बीच तुम्हारी नींद लगी है।
ठीक कहते हैं गुलाल:
माया मोह के साथ सदा नर सोइया।
आखिर खाक निदान सत्त नहिं जोइया।।
फिर इसका परिणाम यही होगा कि मिट्टी में मिल जाओगे सत्य को देखे बिना, सत्य को जाने बिना।
बिना नाम नहिं मुक्ति अंध सब खोइया।
और जब तक सत्य का अनुभव न हो तब तक सब अंधे खो जाते हैं मृत्यु के अंधकार में।
कह गुलाल सत, लोग गाफिल सब सोइया।
गुलाल कहते हैं, मैं तुमसे सच कहता हूं, इसे गांठ बांध लो, इसे भूल मत जाना, इसकी सदा याद रखना कि लोग सब गाफिल हैं और गहरी नींद में सोए हुए हैं। इनसे तुम कुछ कहो भी तो ये अपनी नींद में कुछ का कुछ समझते हैं। इनकी नींद की पर्तें इतनी गहरी हैं कि इन तक सत्य की आवाज भी पहुंचाना चाहो तो विकृत होकर पहुंचती है, कुछ का कुछ अर्थ निकाल लेते हैं।
फेफड़ों के एक विशेषज्ञ ने, जो कि संगीत-प्रेमी भी थे, छात्रों को समझाते हुए कहा: जो व्यक्ति रोज सुबह चार बजे उठ कर ऊंचे स्वरों में राग अडाणा में एक घंटे तक गाना गाएगा, उसे कभी बुढ़ापे में भी फेफड़ों की बीमारी नहीं होगी। एक छात्र बीच में ही बोल उठा कि आप ठीक कहते हैं, सर, ऐसे व्यक्ति के बूढ़े होने की नौबत ही नहीं आएगी, पड़ोसी पहले ही उसे मार-मार कर उसका खात्मा कर देंगे।
एक घंटे तक राग अडाणा! जैसे ही तुमने आऽआऽआऽऽ किया कि पड़ोसी दौड़े! वे तुमको चुप करा कर रहेंगे!
एक संगीतज्ञ से उसके पड़ोसी एक दिन कहे कि आपकी पेटी जरा... हारमोनियम चाहिए और तबला भी। संगीतज्ञ तो बड़ा खुश हुआ। उसने कहा कि क्या घर में कोई बैठक हो रही है, संगीत की कोई महफिल हो रही है? उन्होंने कहा, अब आपसे क्या छिपाना, आज रात हम सोना चाहते हैं। आज महीने भर से आप ऐसे राग अलाप रहे हो...।
इसी संगीतज्ञ के संबंध में मैंने सुना है कि एक पड़ोसी ने खिड़की खोली और कहा कि भइया, अब बंद करो, रात के चार बज चुके हैं, अब और बरदाश्त नहीं होता! तुमने एक राग और अलापा कि मैं पागल हो जाऊंगा! संगीतज्ञ ने खिड़की खोली और कहा: तुम बातें क्या कर रहे हो, मैं तो घंटे भर पहले कभी का बंद कर चुका!
यह आदमी पागल हो ही चुका है। वे घंटे भर पहले बंद कर ही चुके। राग अलाप ही नहीं रहे हैं अब। मगर इसको सुनाई पड़ रहे हैं। ऐसे-ऐसे संगीतज्ञ पड़े हैं!
मगर संगीत को समझना हो तो संगीत से कुछ तालमेल होना चाहिए, संगीत की कुछ रुचि, संगीत के साथ कुछ संबंध होना चाहिए। नहीं तो नहीं समझ सकोगे। और जितना ऊंचा होगा संगीत, उतना ही मुश्किल हो जाएगा। हां, कोई हिंदी फिल्म का धूम-धड़ाका हो, तो सभी को समझ में आता है। क्योंकि संगीत तो उसमें कुछ भी नहीं है। उछल-कूद है, कवायद है--वर्जिश! एक तरह का योग समझो। कि कुछ लोगों की कुंडलिनी जाग गई, वे एकदम से कूद रहे हैं, उछल रहे हैं, ढोल-ढवांस पीट रहे हैं। यह सबको समझ में आता है। भांगड़ा! यह सबको समझ में आता है। इसमें कोई समझने की जरूरत नहीं है। कुछ न बने तो भांगड़ा तो कर ही सकते हो।
लेकिन जितना ही संगीत ऊंचा होगा उतना ही मुश्किल होता जाएगा। और सत्य तो परम संगीत है। उससे पार तो कुछ भी नहीं है। उसे तुम अपनी नींद में न समझ सकोगे। उसे समझने के लिए तो जरूरी होगा कि तुम जागो। सत्य केवल जागरण में ही समझा जा सकता है।
बिना नाम नहिं मुक्ति अंध सब खोइया।
कह गुलाल सत, लोग गाफिल सब सोइया।।
सारे लोग गाफिल सोए हुए हैं।
दुनिया बिच हैरान जात नर धावई।
लोग पागल की तरह दौड़े जा रहे हैं। रोज हैरान होते जाते हैं, और हैरानी बढ़ती जाती है, मगर भागे जाते हैं।
दुनिया बिच हैरान जात नर धावई।
चीन्हत नाहीं नाम भरम मन लावई।।
सत्य को तो पहचानता नहीं जो खोजने योग्य है और न मालूम कहां-कहां के भ्रम पालता है, पोसता है। जिनको पाकर कभी कुछ पाया नहीं जाता, हाथ में सिर्फ धूल लगती है और प्राण हो जाते हैं रिक्त दौड़ने में, भीतर हो जाता है खालीपन, एक रिक्तता, एक सूनापन--सूनापन जैसा मरघट में होता है। मरने के पहले लोग मर जाते हैं, खयाल रखना। मरने तक कहां बचते हैं? मरने के बहुत पहले मर जाते हैं। सड़ जाते हैं। क्योंकि जीवन जिन चीजों से पोषण पा सकता है, आत्मा जहां से पोषण पाती है, ऐसे तो उनके कोई संबंध ही नहीं होते। शरीर भला उनका ठीक-ठाक हो, लेकिन आत्मा सड़ चुकी होती है। भीतर ही सब-कुछ असार हो चुका होता है। ऊपर से चाहे रंगे-पुते ठीक-ठाक दिखाई पड़ते हों, लेकिन भीतर? भीतर उनके कुछ भी नहीं होता। और भीतर ही असली संपदा हो सकती है। बाहर की संपदा तो काम नहीं आती। किसी के काम नहीं आई, तुम्हारे भी काम नहीं आएगी।
चीन्हत नाहीं नाम भरम मन लावई।
जरा भी नहीं चीन्हते कि सत्य क्या है, संपदा क्या है। जिसको तुम संपत्ति कहते हो, वह तो विपत्ति है। संपदा कहते हो, वह विपदा है। एक और संपदा है भीतर की। और ध्यान रखना, मैं बाहर की चीजों का विरोधी नहीं हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बाहर को छोड़-छाड़ कर भाग जाओ। मैं यह कह रहा हूं कि बाहर अभिनय मात्र है। खेलो, अभिनय से ज्यादा मत समझो उसे। उसमें ज्यादा मत डूबो। गंभीर मत बन जाओ। जीवन का असली उपक्रम भीतर है। बाहर अभिनय है, जीवन का सत्य भीतर है।
सब दोषन लिए संग सो करम सतावई।
कह गुलाल अवधूत दगा सब खावई।।
गुलाल कहते हैं, मैं कहे देता हूं पहले से ही कि दगा खाओगे बहुत, चेत सको तो चेत जाओ!
साहब दायम प्रगट ताहि नहिं मानई।
ईश्वर जो कि बिलकुल प्रकट है, हवा के कण-कण में व्याप्त है, सूरज की किरण-किरण में, हर पत्ते पर जिसका हस्ताक्षर है, निकट से भी जो निकट है, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा। ‘साहब दायम’...हमेशा प्रकट, हमेशा प्रकट है;...‘ताहि नहिं मानई,’ उसे तो तुम मानते नहीं।
हरदम करहि कुकर्म भर्म मन ठानई।
मगर मन में भ्रमों को ठान कर और उनके लिए कोई भी कुकर्म करने को राजी हो।
लोग सोचते हैं कि कुकर्म करने से क्या हर्जा है! नहा लेंगे, गंगा हो आएंगे, कि काबा की यात्रा कर लेंगे, मगर अभी तो जो करना है कर गुजरो; अवसर मिला है, इसको चूको मत। लाख रुपए रास्ते के किनारे पड़े मिल जाएं तो तुम्हारा मन कहेगा कि माना कि यह पाप है, मगर अभी चूकना ठीक नहीं। दस हजार दान कर देंगे, ब्राह्मणों को भोजन करवा देंगे, कन्याओं को खिला देंगे, मंदिर बनवा देंगे एक छोटा-मोटा, पत्थर पर पोत देंगे रंग और हनुमान जी खड़े कर देंगे, कुछ रास्ता निकाल लेंगे सस्ता, या गंगा स्नान कर आएंगे बहुत ही हुआ तो, मगर ये लाख नहीं छोड़े जाते!
हरदम करहि कुकर्म भर्म मन ठानई।
कुकर्म करने को भी राजी है आदमी इस भ्रम में कि कुकर्म से छुटकारा पाने के कोई सस्ते उपाय हैं--सत्यनारायण की कथा करवाएंगे, यज्ञ करवा लेंगे। इतना आसान नहीं है। कुकर्म से छूटने का एक ही उपाय है कि भीतर की मूर्च्छा टूटे। और हर कुकर्म उस मूर्च्छा को बढ़ाता है। और कुकर्म का इतना ही अर्थ है कि जो तुम जानते हो भली-भांति कि नहीं करना चाहिए, वह भी कर लेते हो--क्योंकि अवसर!
मुल्ला नसरुद्दीन पर अदालत में मुकदमा था। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि तुम ठीक-ठीक बताओ नसरुद्दीन कि तुमने पत्नी को बुहारी से क्यों मारा? नसरुद्दीन ने कहा: हुजूर, अवसर की बात है। मजिस्ट्रेट ने कहा: अवसर! इसमें अवसर का क्या सवाल?
मुल्ला ने कहा: आपको मैं पूरी बात बताता हूं और आप भी तो शादीशुदा हैं सो समझ जाएंगे। कौन शादीशुदा ऐसा है जो नहीं समझ जाएगा! सर्दी की सुबह धूप निकली हुई सुंदर, पीछे का दरवाजा खुला हुआ, पत्नी की पीठ दरवाजे की तरफ, और पत्नी के पैर में चोट सो दौड़ सकती नहीं, और हाथ में बच्चा--बच्चे को दूध पिला रही--और बुहारी पड़ी थी! सो मैंने सोचा, क्यों चूकना! सो उठा कर बुहारी मार दी और पीछे के दरवाजे से भाग खड़ा हुआ। देखा कि यह पीछा भी नहीं कर सकती, भाग भी नहीं सकती, इसकी पीठ भी इस तरफ है। सो मैंने सोचा, एक अवसर मिला है मुश्किल से हाथ में, इसको छोड़ना उचित नहीं। अब जो भी आपको सजा देनी हो दे दो!
मजिस्ट्रेट ने बहुत दया से उसे देखा और कहा कि तुम्हारा इस स्त्री से विवाह हुआ, यही काफी सजा है। तुम अपने घर जाओ। यही तुमको ठिकाने लगा देगी। मगर तुम्हारी बात मुझे जंची, कि अवसर मिले तो आदमी को चूकना नहीं चाहिए।
लोगों को अवसर मिल जाए तो किसी चीज से नहीं चूकेंगे। तुम अगर साधु हो, तो सिर्फ इसीलिए कि शायद अवसर न मिल रहे हों। अक्सर यही है कि जिनको हम सच्चरित्र कहते हैं, वे वे लोग हैं जिनको अवसर नहीं मिल रहा।
महात्मा गांधी के सब शिष्यों का क्या हुआ? बड़े साधु थे। बैठ कर चरखा कातते थे, अपना कपड़ा बुनते थे, जेल जाते थे, उपवास करते थे! फिर जब सत्ता आई, अवसर मिला, फिर उनमें से किसी ने नहीं चूका। फिर अवसर का सबने लाभ उठाया। फिर उन्होंने बिलकुल फिकर नहीं की। फिर चरखा वगैरह उठा कर रख दिए। अब तो सिर्फ एक दिन के लिए उठाते हैं वे--छब्बीस जनवरी को उठा लिया एक दिन चरखा। और वह भी कब जब फोटोग्राफर आता है, तो उसके सामने बैठ कर चरखा काता, फोटो उतरवा ली, बात खतम हो गई। कहां गए ये सारे साधु-संत जो महात्मा गांधी ने पैदा किए थे? अवसर खा गया। साधु-संत थे अवसर न होने की वजह से। अवसर मिलते ही असलियत खुल गई।
अवसर मिलते ही पता चलता है कि तुम्हारा वास्तविक स्वरूप क्या है।
अगर नपुंसक आदमी ब्रह्मचर्य का व्रत ले ले, इसका कोई मूल्य है? इसका कोई मूल्य नहीं है। बूढ़ा आदमी जब मांसाहार पचा न सकता हो, शाकाहारी हो जाए, इसका कोई मूल्य है? इसका कोई भी मूल्य नहीं है। मूल्य तो तब है जब अवसर रहते तुम जागरूकता से व्यवहार करते हो और वही करते हो जो करने योग्य है।
यह भगोड़ा संन्यास जो पैदा हुआ था, इसीलिए पैदा हुआ था कि अवसर से हट जाओ। भगोड़ेपन का और कोई मतलब न था। अवसर ही नहीं रहेगा तो तुम कैसे पाप करोगे? लेकिन अवसर का न होना पाप का अभाव नहीं है। पाप भीतर बैठा रहेगा, फिर कभी अवसर मिल जाएगा तो निकल कर बाहर आ जाएगा।
मैंने इसीलिए संन्यासी को अपने कहा है: भागना मत, अवसर के बीच में रहना और अवसर के बीच में ही जागना; अवसर भी हो और अवसर का उपयोग मत करना, तो कुछ तुम्हारे भीतर बल पैदा होगा, आत्मबल पैदा होगा। तुम्हारे भीतर जन्म होगा वस्तुतः एक व्यक्तित्व का--गरिमापूर्ण, संगीतमय।
झूठ करहि व्योहार सत्त नहिं जानई।
सारा व्यवहार तुम्हारा झूठ है। सच पूछा तो हम झूठ को ही अब व्यवहार कहने लगे हैं। हमारा व्यवहार इतना झूठ हो गया कि व्यवहार का मतलब ही होता है कि झूठ।
जैनों में दो नय कहे जाते हैं: निश्चय नय और व्यवहार नय। बड़े पंडित भी क्या-क्या खोजते रहते हैं! निश्चय नय का अर्थ है: सत्य जैसा है वैसा कहना। और व्यवहार नय का अर्थ है: जैसा कहना चाहिए, जैसा रुचे, जंचे लोगों को, वैसा कहना। निश्चय नय की कोई बात नहीं करता। क्योंकि निश्चय नय की बात करनी तो खतरनाक है। निश्चय नय तो यह है कि तुम कभी परतंत्र नहीं थे और न तुम परतंत्र हो और न हो सकते हो--तुम आत्मा हो, तुम परम ब्रह्म हो, यह निश्चय नय है। मगर यह किसी से कहना जैन पंडित उचित नहीं मानता। क्योंकि अगर लोगों से यह कहो कि तुम स्वयं परमात्मा हो, तो फिर पंडित की क्या जरूरत? फिर मंदिर का क्या उपयोग? फिर पूजा-पाठ का क्या होगा? फिर मंतर-जंतर कैसे चलेंगे? तो यह निश्चय नय है, यह कहने की बात नहीं।
व्यवहार नय: मंदिर जाओ, पूजा करो... परमात्मा से पूजा करवा रहे हो! पत्थर की मूर्तियों की!
शंकराचार्य भी कहते हैं कि एक होता है परमार्थ सत्य और एक होता है व्यवहार सत्य। परमार्थ सत्य: सब ब्रह्म है। और व्यवहार सत्य कि एक शूद्र ने शंकराचार्य को छू दिया तो वे नाराज हो गए और कहा कि तूने मुझे छू कर अपवित्र कर दिया, मुझे फिर स्नान करना पड़ेगा। उस शूद्र ने कहा: महाराज, जब सभी ब्रह्म है और ब्रह्म ब्रह्म को छुए, तो इसमें कैसे अपवित्रता हो जाएगी! मैं भी आत्मा, आप भी आत्मा, आत्मा ने आत्मा को छुआ, इसमें इतने नाराज क्यों हो रहे! मेरे छूने से तो शायद अपवित्र आप नहीं हुए, लेकिन अब क्रोध करके आप जरूर अपवित्र हो रहे हो, यह खयाल रखना।
शंकराचार्य, जो कहते हैं सब मिथ्या है, उनके लिए भी शूद्र मिथ्या नहीं है; वह सत्य है। मगर सत्य में दो भेद कर लिए। होशियार लोग इंतजाम कर लेते हैं। सब ब्रह्म है, यह परमार्थ सत्य है, यह अंतिम सत्य; यह तो सिद्धपुरुषों के अनुभव की बात है; रहे तुम जो कि असिद्धपुरुष हो, सिद्ध हो नहीं, तुम्हारे लिए तो अभी केवल व्यवहार सत्य कहा जा सकता है। व्यवहार सत्य में ब्राह्मण भी होता है, शूद्र भी होता है, वैश्य भी होता है! व्यवहार सत्य का अर्थ ही होता है: झूठ सत्य। अब यह हद हो गई। झूठ सत्य, इसका क्या मतलब होगा? जब झूठ है तो सत्य नहीं और सत्य है तो झूठ नहीं। दो में से कुछ एक तय कर लो; एक दफा निर्णय कर लो।
झूठ करहि व्योहार सत्त नहिं जानई।
कह गुलाल नर मूढ़ हक्क नहिं मानई।।
ऐसे व्यवहार में उलझे रहोगे, सत्य को मानोगे नहीं, तो यह मूढ़ता टूटेगी कैसे?
गर्व भुलो नर आय सुझत नहिं साइंया।
अहंकार में भूले हो, अकड़े हो अहंकार में, इसीलिए साईं दिखाई पड़ता नहीं, इसीलिए मालिक दिखाई पड़ता नहीं। कोई और बाधा नहीं है सिवाय अहंकार के। यह अकड़ कि मैं कुछ हूं, यही अकड़ तुम्हें परमात्मा से वंचित किए है। जरा अकड़ को छोड़ो, जरा विश्राम में आओ, जरा सरल होओ, जरा निर्दोष होओ--और फिर देखो! अकड़ छोड़ो हिंदू होने की, मुसलमान होने की, जैन होने की; अकड़ छोड़ो ब्राह्मण की, क्षत्रिय की; अकड़ छोड़ो! विराम में, विश्राम में, थोड़ा अनुभव करो और तुम चकित हो जाओगे: परमात्मा ही है और कुछ भी नहीं है। और यह परमार्थ सत्य, व्यवहार सत्य सब बकवास है। सत्य तो सिर्फ परमार्थ ही है।
बहुत करत संताप राम नहिं गाइया।
और इस अहंकार के कारण जीवन तुम्हारा संताप से भरा हुआ है। और यही संताप राम का गीत भी बन सकता था। यही ऊर्जा जो सिर्फ गाली-गलौज बन रही है, यही ऊर्जा, यही शब्द, यही शक्ति परमात्मा का गुणगान बन सकती थी।
पूजहिं पत्थल पानि जन्म उन खोइया।
खो रहे हो जन्म पत्थरों को और नदियों को पूज कर।
कह गुलाल नर मूढ़ सभै मिलि रोइया।
एक दिन सब मिल कर रोओगे।
भजन करो जिय जानिके प्रेम लगाइया।
प्राणों को लगा कर भजन में डूबो!
हरदम हरि सों प्रीति सिदक तब पाइया।
जब परमात्मा से प्रेम जोड़ोगे--और प्रेम के जोड़ने का एक ही रास्ता है: अहंकार को गिर जाने दो। अहंकार अप्रेम की अवस्था है, निर-अहंकारिता प्रेम की अवस्था है।
हरदम हरि सों प्रीति सिदक तब पाइया।
तब तुम्हें सत्य मिलेगा।
बहुतक लोग हेवान सुझत नहिं साइंया।
और जब तक परमात्मा नहीं जाना तब तक अपने को आदमी भी मत मानना, तब तक तो हैवान ही समझना। परमात्मा ही नहीं जाना तो पशु में और आदमी में भेद क्या है? वही एक भेद है।
कह गुलाल सठ लोग जन्म जहंड़ाइया।
लोग खुद धोखा खा रहे हैं, दूसरों को धोखा दे रहे हैं। यहां सब ठग हैं। और सबसे बड़े ठग तुम हो, क्योंकि अपने को ही धोखा दे रहे हो। और किसी को भी दो तो भी ठीक है।
आसिक इस्क लगाय साहब सों रीझई।
आशिक बनो! प्रेम सीखो! रीझो इस अस्तित्व पर! यह प्यारा अस्तित्व उसकी अभिव्यक्ति है। यह प्यारा अस्तित्व उसका सृजन है। यह उसका गीत है, उसका संगीत है, उसका नृत्य है, उसका उत्सव है, रीझो इस पर!
हरदम रहि मुस्ताक प्रेमरस पीजई।
एक ही अभीप्सा करो कि पी कर रहूंगा प्रेमरस, कि भरूंगा अपनी प्याली को हृदय की प्रेम के रस से। और प्याली भर जाती है। प्याली तुम्हारी बड़ी छोटी है। सागर का सागर उतर आता है! एक छोटी सी हृदय की प्याली की इतनी सामर्थ्य है कि पूरे सागर को अपने में उतार ले।
बिमल बिमल गुन गाइ सहज रस भीजई।
फिर तुम्हारे जीवन में बड़े गीत होंगे, बड़े फूल खिलेंगे, तुम सहज रस में भीजोगे। तुम्हारा जीवन तब ऊपरी चरित्र नहीं होगा--थोथा, आरोपित; जबरदस्ती बांध-बूंध कर अपने को तुम चरित्रवान नहीं रखोगे। अभी तो जिसको तुम चरित्र कहते हो, वह बांधा-बूंधा है। जबरदस्ती, किसी तरह अपनी छाती पर चढ़े बैठे हो। सहज, जैसे श्वास चलती है, ऐसा ही तुम्हारा चरित्र होना चाहिए, ऐसा ही तुम्हारा आचरण होना चाहिए। तुम्हारी चेतना में और तुम्हारे चरित्र में जरा भी भेद नहीं होना चाहिए। तब रस से भीजोगे। रस परमात्मा का नाम है। रसो वै सः। दुनिया में बहुत परमात्मा की परिभाषाएं की गईं, लेकिन इससे सुंदर कोई परिभाषा नहीं। वह रसरूप है। पीओ!
कह गुलाल सोइ चार सुरति सों जीजई।
इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक--
कह गुलाल सोइ चार सुरति सों जीजई।
सौ में कोई शायद चार आदमी ऐसे होंगे जो इतनी सुरति, इतने स्मरण से जीते हैं। यह एक अर्थ। यह बहुत ठीक अर्थ नहीं। आमतौर से किया गया अर्थ यही है। यह शाब्दिक अर्थ। यह इसका आध्यात्मिक अर्थ नहीं है। आध्यात्मिक अर्थ थोड़ा गहरा है।
कह गुलाल सोइ चार सुरति सों जीजई।
चार सुरतियां हैं। चार स्मृतियां हैं। बुद्ध ने चार स्मृतियां कहीं। काया के प्रति जागना, पहली स्मृति। काया के प्रति जागने से पता चलता है कि मैं देह नहीं हूं। फिर विचार के प्रति जागना, दूसरी स्मृति। उससे पता चलता है मैं मन नहीं हूं। फिर भाव के प्रति जागना, तीसरी स्मृति। उससे पता चलता है मैं हृदय नहीं हूं। और फिर अस्मिता के प्रति जागना, चौथी स्मृति। उससे पता चलता है: मैं हूं ही नहीं। जब ये चार स्मृतियां पूरी हो जाती हैं तो जो शेष रह जाता है, वह ब्रह्म है, वह परमात्मा है, वह निर्वाण है।
आपु न चीन्हहिं और सबै जहंाड़ाइया।
खुद धोखे में पड़े हो और दूसरों को भी डाल रहे हो। यह बड़ी चकित करने वाली बात है। जिन बातों का तुम्हें पता नहीं है, वे तुम दूसरों को भी समझा देते हो। तुम्हें ईश्वर का कोई पता नहीं; जिंदगी मंदिर-मस्जिद में बिताई, कुछ जाना नहीं, कुछ पाया नहीं--अपने बच्चे को भी वहीं ले चले। कुछ तो दया करो! कुछ तो करुणा करो। कुछ तो होश लाओ! जब तुम्हें नहीं मिला इस सबसे, तो इस बच्चे को क्यों भटका रहे हो? इस बच्चे को कहो कि कम से कम मंदिर-मस्जिद तो जाना ही मत, क्योंकि मैंने जाकर देख लिया, नहीं पाया, तू कहीं और खोज! ये दो दरवाजे तो व्यर्थ हैं। कि मैंने गीता में देख लिया, कुरान में देख लिया, सब कंठस्थ कर लिया, मुझे नहीं मिला, अब इस झंझट में तू मत पड़ना!
अगर बेटे से तुम्हें प्रेम है, तो तुम यह कहोगे कि मैंने यहां-यहां खोजा और नहीं पाया। अब तू कम से कम वहां खोज जहां मैंने नहीं खोजा। शायद वहां हो! अगर प्रत्येक बाप अपने बेटे को इतनी शिक्षा देता जाए कि मैं कहां-कहां असफल हुआ हूं, यह दुनिया में अभी क्रांति हो जाए, आज क्रांति हो जाए! अगर बाप अपने बेटे से कह सके कि मैंने धन बहुत खोजा, पाया भी और कुछ पाया भी नहीं; पद पाया और कुछ मिला नहीं: प्रतिष्ठा भी मिली, मगर क्या सार! नहीं लेकिन मरते-मरते भी बाप बेटे को यही समझाए जाता है, आखिरी दम तक!
एक मारवाड़ी मर रहा था। मारवाड़ी बड़ी मुश्किल से मरते हैं! मगर मर रहा था। वे जीए ही चले जाते हैं! मर जाते हैं, फिर भी पगड़ी-वगड़ी बांधे चलते ही रहते हैं! मारवाड़ी को मारना भी बहुत मुश्किल। क्योंकि उसकी जान उसकी तिजोरी में होती है, उसको मारना हो तो तिजोरी को गोली मारो। तब मरेगा। नहीं तो वह नहीं मरने वाला। यह मारवाड़ी मर रहा था। मरते वक्त संध्या हो गई है, अंधेरा हो रहा है, वह अपनी पत्नी से पूछता है कि बड़ा बेटा कहां है? पत्नी तो भीग गई प्रेम में, उसने कहा कि देखो, मरते वक्त भी अपनों की याद! तो कहा, बड़ा बेटा तुम्हारे बाएं हाथ पर बैठा हुआ है, निश्चिंत रहो! मझला कहां है? कहा, वह भी तुम्हारे पास बैठा हुआ है, तुम्हारे पैर की तरफ। और सबसे छोटा कहां है? वह भी बैठा हुआ है तुम्हारे पैर के पास। सब यहीं हैं, मत घबड़ाओ! वह उठ कर बैठ गया, उसने कहा कि सब यहीं हैं! तो फिर दुकान कौन चला रहा है?
मर रहा है यह आदमी और उसने कहा कि अरे नालायको, मेरे जिंदा रहते जब यह हालत है कि सब यहीं जमे हो, तो मेरे मरने के बाद क्या करोगे! तुम मुझे लुटवा कर रहोगे! तुम दिवाला निकलवा कर रहोगे!
मरते वक्त भी एक ही स्मरण है कि दुकान चल रही है कि नहीं चल रही।
काश, मां-बाप अपने बच्चों से कह सकें कि हमारा जीवन व्यर्थ हुआ! अहंकार कहने नहीं देता। कह सकें कि हमने जो खोजा, वह पाया नहीं। पाया तो भी नहीं पाया और नहीं पाया तो तो पाया ही नहीं। अगर कह सकें कि हमने बहुत पूजा-पाठ किया, मगर कोई सार नहीं। हमने बहुत यज्ञ-हवन करवाए, ये पंडित-पुरोहितों के जाल हैं, शोषण के उपाय हैं और कुछ भी नहीं, तुम इन जालों में मत पड़ना। हम हिंदू रहे, मुसलमान रहे, जैन रहे और हमने जिंदगी गंवाई, अब तुम इन भेदों में मत पड़ना। धार्मिक होना काफी है, हिंदू-मुसलमान होने की कोई आवश्यकता नहीं है। काश मां-बाप अपने बच्चों को इतना कहते जाएं तो धीरे-धीरे इस दुनिया में एक नये मनुष्य का अवतरण हो सकता है। कोई बाधा नहीं है। होना ही चाहिए।
मगर शठ लोग हैं। खुद बेईमान हैं और दूसरों को भी बेईमानी सिखाए जाते हैं।
आसिक इस्क लगाय साहब सों रीझई।
हरदम रहि मुस्ताक प्रेमरस पीजई।।
बिमल बिमल गुन गाइ सहज रस भीजई।
कह गुलाल सोइ चार सुरति सों जीजई।।
आपु न चीन्हहिं और सबै जहंड़ाइया।
खुद न पहचानते हैं, न दूसरों को पहचानने देते।
काम क्रोध को संगम सबै भुलाइया।
बस, काम और क्रोध में उलझे हुए हैं। काम का अर्थ है: मुझे यह मिल जाए। क्रोध का अर्थ है: अगर कोई बाधा डाले; मैं जो पाने चला हूं, उसमें कोई अड़चन डाले, तो क्रोध पैदा होता है। काम और क्रोध सौतेले भाई हैं, संग-साथ है उनका। कहो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक काम है तब तक क्रोध रहेगा। काम का अर्थ है: तुम्हें धन चाहिए और किसी ने अड़ंगा डाल दिया--अड़ंगे डालने वाले तो मिलेंगे ही, क्योंकि उनको भी धन चाहिए। तुम पा लोगे तो उनको कैसे मिलेगा? तो सब तरफ से लोग अड़चनें, बाधाएं खड़ी करेंगे। इससे तुम्हारे भीतर क्रोध जगेगा। अवरुद्ध काम क्रोध बन जाता है।
क्रोध सिर्फ एक बात का सबूत है कि तुमने जैसा चाहा था वैसा नहीं हो रहा है। क्रोध तो केवल उसका ही जाता है जिसकी चाह ही चली जाती है। जो कहता है, परमात्मा की जो मर्जी, वही मेरी मर्जी। वह जैसा करवाए, वही ठीक। फिर क्रोध असंभव हो जाता है।
अभी तो हालत यह है कि लोग परमात्मा तक पर क्रोध कर गुजरते हैं। अगर तुमने बहुत पूजा-पाठ किया, मूर्ति का सब किया और तुम्हारा काम, तुम्हारी वासना पूरी नहीं हुई, एक दिन आ गए गुस्से में उठा कर मूर्ति-वूर्ति सब डाल दी कुएं में, कि जाओ भाड़ में, सब झूठ है!... ऐसा मैं एक आदमी को जानता हूं, जिसने सारी मूर्ति वगैरह उठा कर कुएं में फेंक दी; कि हो गया, तीस साल हो गए सिर मारते, एक प्रार्थना पूरी नहीं हुई!
तुम तो प्रार्थना भी करते हो तो कामना ही है वह, वासना ही है वह। प्रार्थना का तुम्हें पता ही नहीं। तुम तो प्रेम भी लगाते हो तो उसमें शर्तें कि ऐसा करो, ऐसा करो, ऐसा करोगे तो मेरा प्रेम पाओगे, इससे भिन्न न हो जाए, इससे अतिरिक्त न हो जाए, नहीं तो मेरा क्रोध, मैं भड़क उठूंगा, आग जल उठेगी।
काम क्रोध को संगम सबै भुलाइया।
इन दो चीजों के संगम में सारे लोग भूले हुए हैं।
रटत फिरै दिनरैन थीर नहिं आइया।
इसलिए राम-राम भी रटते रहते हैं मगर थिर नहीं हो पाते। क्योंकि राम-राम रटने में भी काम ही लगा हुआ है। राम के पीछे काम ही छिपा हुआ है। राम के पीछे भी क्रोध ही छिपा हुआ है। तुम देखते हो, माला जपता रहता है आदमी बैठा-बैठा। जितना आसान माला जपने वाले को क्रोधित कर देना है उतना किसी दूसरे को नहीं।
मेरे गांव में एक सज्जन थे। राम के बड़े भक्त। उन्होंने एक मंदिर भी बनवाया हुआ था। राम मंदिर! सुबह ही से वे माला लेकर मंदिर चले जाते, घंटों बैठे माला जपते। ऐसी जगह बैठ कर जपते कि रास्ते से निकलने वाले सब लोग देखें। मैंने एक दिन तय किया कि देखूं कितनी गहरी भक्ति है राम की? सो वे माला जप रहे थे, मैंने कहा जयरामजी! तो उन्होंने कहा: जयरामजी! फिर अपनी माला जपने लगे। मैं थोड़ी देर में फिर लौट कर आया, मैंने कहा: जयरामजी! अब की दफा तो उनकी आंखों में बिलकुल अंगारे आ गए, कहा कि जयरामजी! अपनी माला फिर जपने लगे। मैं फिर थोड़ी देर में घूम कर आया। मुझे दूर से ही देख कर बोले कि क्या बार-बार जयरामजी लगा रखी है? मैंने कहा: भई, इस बार तो मैंने कही नहीं। अभी तो मैं कुछ बोला ही नहीं। और आप राम के भक्त हैं और जयरामजी से नाराज हो रहे हैं! यह क्या खाक राम की भक्ति है! तुम्हें तो खुश होना चाहिए। मैंने कहा: आज से मैं कश्त करता हूं कि तुम जहां भी मुझे मिलोगे, मैं जयरामजी करूंगा। और मैंने सारे स्कूल में खबर करवा दी बच्चों को भी कि जहां भी मिल जाएं--जयरामजी!
पांच-सात दिन बाद उन्होंने मुझे घर में बुलाया। कहने लगे, बेटा, मिठाई खाओ! और क्या करूं तुम्हारे लिए, बोलो! मगर यह तुमने क्या उपद्रव लगा दिया? जहां जाता हूं-- जयरामजी, जयरामजी! अरे, एकाध दफे कोई करे, ठीक है; एक ही आदमी अगर बार-बार करने लगे तो गुस्सा आना स्वाभाविक है।
मैंने कहा, राम से अगर लगाव हो, तो प्रसन्न होना चाहिए कि चलो इस बहाने यह आदमी कित्ती दफे राम-राम कर रहा है, राम का नाम ले रहा है, राम का यश फैल रहा है; तुम काहे के लिए परेशान होते हो! और आजकल तुम मंदिर में सामने बैठते भी नहीं! कहा: क्या खाक बैठें मंदिर में सामने, यही स्कूल का रास्ता, एक हजार लड़कों को निकलना, और एक नहीं चूकता; जयरामजी! जयरामजी! तुम मुझे जीने दोगे कि नहीं?
जितना आसान है भजन-कीर्तन करने वाले को नाराज कर देना, उतना आसान किसी दूसरे को नहीं। क्योंकि वह सोचता है, बड़ा पवित्र कार्य कर रहा हूं, महान कार्य कर रहा हूं--और तुम बाधा डाल रहे हो, व्यवधान खड़ा कर रहे हो मेरी पवित्रता में, मेरे धर्म में! उधर तो आग जल रही है। वह धर्म-वर्म क्या है? पवित्रता कहां है? प्रार्थना कहां है? कामना उबल रही है और कोई बाधा डाल रहा है--बस अड़चन शुरू हो गई।
रटत फिरै दिनरैन थीर नहिं आइया।
और ध्यान इस तरह नहीं होता कि राम-राम रटते रहो। ध्यान का अर्थ है: थिर होना, रुक जाना, चित्त की गति का ठहर जाना, चित्त का शून्य हो जाना, मौन हो जाना।
कह गुलाल हरि हेतु काहे नहिं गाइया।
और ये क्यों क्रोधित हो जाते हैं? ये जो रटत फिरैं दिनरैन ये क्यों थिर नहीं हो पाते? इनको हर छोटी-मोटी चीज क्यों विघ्न-बाधा मालूम होती है? उसका कारण है। हरि हेतु नहिं गाइया। इन्होंने हरि के लिए नहीं गाया है। ये अपने लिए ही हरि-हरि जप रहे हैं। ये प्रभु के प्रेम में दीवाने नहीं हैं, मस्त नहीं हैं; ये मस्ती से नहीं गा रहे हैं; इनके कुछ इरादे हैं, इनकी कुछ वासनाएं हैं जो ये परमात्मा से पूरी करवाना चाहते हैं। ये परमात्मा का भी उपयोग करना चाहते हैं अपनी वासनाओं की तरह। ये परमात्मा से भी सेवा लेना चाहते हैं। ये बड़ी कृपा कर रहे हैं परमात्मा पर कि देखो, हम तुम्हें एक अवसर देते हैं सेवा का, कर सको तो कर लो!
खोलि देखु नर आंख अंध का सोइया।
आंख खोल कर देखो, गुलाल कहते हैं, ऐ अंधो, कब तक सोए रहोगे?
दिन-दिन होतु है छीन अंत फिर रोइया।
एक-एक दिन जीवन क्षीण होता जा रहा है, अंत दूर नहीं है, फिर रोओगे।
इस्क करहु हरिनाम कर्म सब खोइया।
सब कर्म उसी को दे दो। इसी का नाम प्रेम है।
इस्क करहु हरिनाम कर्म सब खोइया।
कह दो कि तू कर्ता है, मैं तो सिर्फ द्रष्टा हूं। मैं तो सिर्फ अभिनेता हूं, तू जो करवाए, करूंगा। सब कर्म उसको दे दो। कर्ता का भाव गया कि अहंकार गया। और अहंकार गया कि प्रेम का उदभव हो जाता है।
कह गुलाल नर सत्त पाक तब होइया।
और जब प्रेम की धारा उठती है तुम्हारे भीतर, तुम जब प्रेम में नहा उठते हो, तो पवित्रता आती है, तब सत्य उतरता है और जीवन को पवित्र कर जाता है।
सत्य की ही एकमात्र सुगंध है। सत्य की ही एकमात्र संपत्ति है। सत्य के ही साथ एकमात्र--केवल एकमात्र द्वार है परमात्मा का। मगर सोए को वह द्वार नहीं मिल सकता। जागो! तो ही मिल सकता है। और जागना कठिन नहीं है, केवल निर्णय की बात है। थोड़ी सी समझ की बात है, थोड़े से विवेक की बात है। थोड़ी सी प्रतिभा का उपयोग करो। और प्रतिभा तुम्हारे भीतर छिपी पड़ी है। जैसे बीज के भीतर फूल छिपे पड़े हैं, ऐसे हर आदमी के भीतर परमात्मा छिपा पड़ा है। पुकारो उसे, जगाओ उसे! उसके जागरण के साथ ही तुम्हारे जीवन में उत्सव का प्रारंभ होगा, महोत्सव शुरू होगा। तब तुम रस भीगोगे। तुम भी कह सकोगे: रसो वै सः।

आज इतना ही।

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