GULAL

Jharat Dashahun Dis Moti 06

Sixth Discourse from the series of 21 discourses - Jharat Dashahun Dis Moti by Osho. These discourses were given during JAN 21 - FEB 10 1980.
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पहला प्रश्न:
भगवान, संन्यास कैसे लूं? सदा सोचता हूं और रुक जाता हूं। यह रुकावट क्या है?
देवेंद्र! संन्यास लिया नहीं जाता, घट जाता है। लोगे, तो झूठा होगा; घटेगा, तो सच्चा होगा। संन्यास कोई गणित नहीं है कि सोच-विचार कर लो। संन्यास तो एक मस्ती है--पियक्कड़ों के लिए है, होशियारों के लिए नहीं, समझदारों के लिए नहीं।
जरूर तुम अति समझदार हो। सोच-सोच कर रुकते रहोगे। सोचना रुकने की प्रक्रिया है। सोचे कि चूके। सोचने का अर्थ होता है कि जैसे तुम्हें पता ही है कि संन्यास क्या है। जिसका पता नहीं है, उसके संबंध में सोचोगे कैसे? संन्यास तुम्हारे लिए अज्ञात है। उसका कोई अनुभव नहीं, स्वाद नहीं। स्वाद ले लो, फिर सोचना। और जिन्होंने स्वाद लिया, उन्होंने कभी सोचा नहीं। और जिन्होंने सोचा, उन्होंने कभी स्वाद नहीं लिया। वे सोचने में ही अटके रहते हैं।
वह तो परमात्मा की बड़ी कृपा है कि कुछ बातें उसने तुम्हारे सोचने पर नहीं छोड़ी हैं। नहीं तो मां के गर्भ से भी तुम शायद ही पैदा होते! तुम सोचते कि पैदा होना कि नहीं? नौ महीने मां के गर्भ के शांत, मौन क्षण, निश्चिंतता के--कोई चिंता नहीं, कोई दायित्व नहीं, कोई काम नहीं--विश्राम के, इन्हें छोड़ कर कहां जाते हो, मन कहता। पता नहीं किस उपद्रव में पड़ो! इन सुखद घड़ियों को छोड़ कर कौन से दुख मोल लेने की ठानी है! कुछ सोचो, कुछ विचारो; ठहरो, जल्दी क्या है? सोच-समझ कर कल जन्म ले लेना। और कल कभी आता नहीं।
जिस चीज को टालना हो, कहना, कल कर लेंगे। वह सदा के लिए टल जाती है। कल यानी कभी नहीं।
परमात्मा ने जन्म का मामला तुम्हारे ऊपर नहीं छोड़ा। देख लिया होगा कि तुम पर छोड़ा तो तुम जन्म लोगे ही नहीं। मृत्यु तुम पर नहीं छोड़ी। तुम पर छोड़े तो तुम मरोगे नहीं। पृथ्वी पर भीड़ ही भीड़ हो जाएगी; टहनी हिलाने की भी जगह न रह जाएगी; आदमी एक-दूसरे के ऊपर खड़े हो जाएंगे! मृत्यु तुम पर नहीं छोड़ी। मृत्यु तुम्हें सूचना नहीं देती कि क्या विचार है--मरना है या नहीं? नहीं तो तुम निश्चित रूप से ही कहोगे कि सोचूंगा। और सोचने का कभी कोई अंत आता है?
सोचने की प्रक्रिया ज्ञात के संबंध में लागू होती है, अज्ञात के संबंध में नहीं। और संन्यास जन्म और मृत्यु दोनों से ज्यादा अज्ञात है। क्योंकि संन्यास जन्म भी है और मृत्यु भी। मृत्यु है अतीत की, मृत्यु है व्यतीत की--जो जा चुका--मृत्यु है मन की, अहंकार की और जन्म है निर-अहंकार का। जन्म है निर्दोषता का, सरलता का। मृत्यु है मन की और जन्म है साक्षी का। जन्म और मृत्यु भी इतने अज्ञात नहीं, जितना संन्यास अज्ञात है।
और देवेंद्र, तुम कहते हो: ‘संन्यास कैसे लूं?’
सोचोगे तो कभी ले ही न सकोगे। यह सवाल कैसे का नहीं है। कैसे की बात ही मन की चालबाजी है। मन कहता है: पहले प्रक्रिया तो समझो। और प्रक्रियाएं ऐसी हैं कि अनुभव से ही समझ में आती हैं। जैसे कोई आदमी कहे कि जब तक मैं तैरना न सीख लूंगा, पानी में न उतरूंगा। तर्कयुक्त है उसकी बात। बिना तैरना सीखे पानी में उतरना खतरे से खाली नहीं है! सिखाने वाला कहेगा कि कम से कम उथले में तो उतरो, नहीं तो मैं तैरना कैसे सिखाऊं? लेकिन जिसे सीखना है, वह कहेगा कि क्या उथला और क्या गहरा? कहां उथला गहरा हो जाए; कहां पैर सही, कहां गलत पड़ जाए; मैं तो पहले तैरना सीख लूंगा तभी उतरूंगा!
मुल्ला नसरुद्दीन तैरना सीखने गया था। जिस उस्ताद ने तय किया था उसको कि सिखाएगा, वह लेकर उसे घाट पर पहुंचा, काई जमी थी पत्थर पर, मुल्ला का पैर फिसल गया--गिरा, उठा और भागा घर की तरफ। उस्ताद ने कहा कि नसरुद्दीन, कहां जाते हो? तैरना नहीं सीखना है? नसरुद्दीन ने कहा: हो गया। अब तो तभी आऊंगा नदी के पास जब तैरना सीख लूंगा। अब तो पानी से कोस भर दूर रहूंगा। उस्ताद ने पूछा: तैरना कहां सीखोगे? नसरुद्दीन ने कहा: अपने घर में; गद्दे-तकिया बिछा कर। अरे, हाथ ही पैर पटकने हैं, अपनी गद्दी पर पटकेंगे! जब तैरना आ जाएगा, तो आएंगे नदी के तट पर।
गद्दी-तकिए पर तैरना सीख पाओगे? हाथ-पैर भला पटको, व्यायाम भला हो जाए, तैरना नहीं होगा। तैरने के लिए तो जल में उतरने की सामर्थ्य जुटाना ही होगा।
जल से मेरा अर्थ है अज्ञात से।
संन्यास तुम्हारा अनुभव नहीं। जन्मों-जन्मों में तुम कभी संन्यासी नहीं हुए। यह स्वाद अनचखा है। कोई समझाए भी तो समझा नहीं सकता। जिसने मिठास नहीं चखी, उसे कैसे समझाओ कि मिठास क्या है! लाख सिर पटको, उसकी समझ में न आएगा।
जिसने शराब नहीं चखी, उसे लाख समझाओ कि शराब क्या है--क्या तुम सोचते हो समझ में आ सकेगा? वह मस्ती तो पी कर ही आती है। कोई नहीं पूछता शराब कैसे पीएं? और तुम पूछते हो संन्यास कैसे लें? शराब ही है यह--यह परमात्मा की शराब है; यह उस अनंत को पीने का ढंग है; यह उस अनंत के प्रति अपनी प्याली को सीधा कर देने का उपाय है। वह तो सुराही लिए खड़ा है, कि भर दे तुम्हारी प्याली। कल सुना नहीं गुलाल कह रहे थे। कि वह तो सुराही लिए घूम रहा है, तुम अपनी प्याली छिपाए हो, भरना भी चाहे तो कैसे भरे! कभी उसके सामने भी प्याली करते हो तो उलटी करते हो। भर भी दे तो तुम्हारी प्याली खाली की खाली रह जाती है। शराब गिर भी जाती है, मगर तुम्हारी प्याली प्यासी की प्यासी रह जाती है।
यहां आकर बैठते हो, वर्षा हो रही है, मगर प्याली तुम्हारी उलटी रखी होगी। सीधी रखो प्याली को। प्याली को सीधी रखने का नाम: श्रद्धा; उलटी रखने का नाम: संदेह। उलटी रखने का नाम पहले सोच लेंगे, समझ लेंगे, सब तरह से निश्चिंत हो जाएंगे, तब कदम आगे बढ़ाएंगे।
गारंटी तो कुछ भी हो नहीं सकती! और इसकी कोई प्रक्रिया नहीं है संन्यास की कि इस ढंग से लिया जाए। संन्यास तो तुम्हारे भीतर इस बात के बोध से फलित होता है कि अब तक जो मैंने किया, व्यर्थ किया--जैसा मैं जीआ, व्यर्थ जीआ; मेरे हाथ में असार लगा; मैं कूड़ा-करकट इकट्ठा करता रहा। गुलाल कहते हैं: हीरा जनम गंवाया। हीरे जैसा जन्म था, कंकड़-पत्थर बीनता रहा, खिलौनों में उलझा रहा।
संन्यास तो इस समझ से अपने-आप आविर्भूत होता है कि मैं जैसा हूं, व्यर्थ हूं। तो खोने को क्या है? एक चुनौती सही, एक अभियान सही, उतारेंगे नाव अज्ञात में, जब यह किनारा है तो वह किनारा भी होगा; एक ही किनारा नहीं होता, दूसरा किनारा दिखाई पड़े न दिखाई पड़े, मगर होगा, जरूर होगा! डर तो लगेगा; भय भी लगेगा। यह छोटी सी नाव, ये छोटी पतवारें, ये छोटे हाथ, ये उत्तुंग तरंगें, ये आंधी-तूफान, ये आकाश में घिरे मेघ--कब क्या हो जाएगा?--यह कड़कती-तड़कती बिजली, कब टूट पड़ेगी, न पता-ठिकाना है हाथ में, न कोई नक्शा है, कैसे छोड़ दें नाव?
नाव उस दूसरे तट के संबंध में जानने से नहीं छोड़ी जाती। इस तट को खूब जान लिया, कुछ पाया नहीं, तो खोने को क्या है? अगर डूबे तो डूबे। अगर न पहुंचे तो न पहुंचे। गंवाने को कुछ नहीं है, तो घबड़ाहट क्या है?
इस बोध से आदमी संन्यास ले सकता है कि इस तट पर तो सब व्यर्थता है, बंधन है, जंजीरें हैं; देख लिया बहुत, सब स्वाद तिक्त है, कड़वा है। मगर लोग कड़वे स्वाद के भी आदी हो जाते हैं। धीरे-धीरे कड़वा स्वाद भी अच्छा लगने लगता है। लोग जंजीरों के भी आदी हो जाते हैं। तो जंजीरें भी आभूषण मालूम होने लगती हैं। लोग कारागृह के भी आदी हो जाते हैं। तो कारागृह को भी सजा लेते हैं जैसे अपना घर हो।
यही तुमने किया है, देवेंद्र; उसी से अड़चन आ रही है। संन्यास क्या है, यह सवाल नहीं है; संन्यास कैसे लें, यह सवाल नहीं है; तुम जो हो अभी, उसकी यथार्थता तुम्हें दिखाई नहीं पड़ी है। जंजीरों को आभूषण मान रहे हो। इसलिए पूछते हो कि आभूषण कैसे छोडूं? अगर जंजीरें हैं, ऐसा दिखाई पड़ जाए, फिर न पूछोगे कि जंजीरें कैसे छोडूं। जंजीरें कोई पकड़ता है! छोड़ ही देता है। तुम पूछ रहे हो, ये हीरे-जवाहरात कैसे छोडूं? काश, तुम्हें दिखाई पड़ जाए कि कंकड़-पत्थर हैं, फिर भी पूछोगे? देखते ही छूट जाते हैं।
अगर तुम्हें साफ अनुभव में आने लगे कि मेरे जीने की शैली, मेरे जीने का सलीका, मेरे जीने का ढंग केवल व्यर्थ का उत्पादन करता है, इससे सार्थकता सृजित नहीं होती; इससे न गौरव निकलता है, न गरिमा; सत्य का इससे कहीं कोई संबंध नहीं बनता, कोई सेतु नहीं बनता; तो तुम एक झटके में इससे छूट जाओगे, इसके बाहर हो जाओगे। इसे तुमने ही पकड़ा है, इसने तुम्हें नहीं पकड़ा है। ऐसा नहीं है कि ये सारी व्यर्थ चीजें तुम्हें पकड़े हैं, इसलिए तुम पूछो कि कैसे छोड़ें, तुम्हीं इन्हें पकड़े हो। इसलिए देखने की बात है, दर्शन की बात है, दृष्टि की बात है। बस, केवल दृष्टि की बात है।
कहते हो कि सदा सोचता हूं और रुक जाता हूं। सोचने वाले तो रुकते ही रहेंगे। इसमें कुछ विरोधाभास नहीं है। तुमने पूछा है, तो लगता है तुम्हें विरोधाभास दिखाई पड़ता होगा। सदा सोचता हूं और रुक जाता हूं, तो तुम्हारे मन में सवाल उठता होगा कि जब इतना सोचता हूं, तो फिर क्यों रुक जाता हूं? सोचने के कारण ही रुक जाते हो। सोचोगे तो रुकते ही रहोगे। सोचने से कभी कोई निष्पत्ति निकलती ही नहीं। कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। सोचना बांझ है; उससे कभी किसी चीज का जन्म नहीं होता। सोचना ऐसे है जैसे कोल्हू का बैल। घूमता रहता वर्तुलाकार। उसे लगता है कि चल रहा है, चलता भी है, मगर क्या खाक चलना है यह! वहीं-वहीं घूमता है, कहीं पहुंचता तो है ही नहीं!
विचार की प्रक्रिया कोल्हू के बैल जैसी है--गोल-गोल घूमती है, वर्तुलाकार, चक्कर पर चक्कर खाती रहती है। तुम कभी सोचने के द्वारा किसी निष्पत्ति पर पहुंचे हो? और अगर तुम विचार करके ही जीवन के काम करने लगो, तो एक दिन भी न जी सकोगे। तो श्वास लेते वक्त सोचना होगा कि श्वास लूं या न लूं? लेने में क्या सार? न लेने में क्या सार? मुश्किल में पड़ जाओगे। श्वास लेने जैसी सहज प्रक्रिया भी अति कठिन हो जाएगी। जीऊं क्यों? किसलिए? और मरूं तो क्यों? किसलिए?
लेकिन तुम जी रहे हो, श्वास भी ले रहे हो, क्योंकि तुमने इन पर सोचने को नहीं लगाया है। इनको तुमने सोचने के बाहर रखा है।
जो व्यक्ति प्रेम के संबंध में सोचेगा, प्रेम नहीं कर पाएगा। अटका ही रहेगा, सोचता ही रहेगा। निर्णय कैसे लेगा प्रेम के संबंध में? प्रेम के संबंध में तुम सोचते नहीं। जब तुम्हारा प्रेम हो जाता है... इसीलिए तो हम कहते हैं कि प्रेम हो जाता है। करना नहीं पड़ता। हो जाता है तो हो जाता है। तुम खुद ही चौंकते हो, यह कैसे हुआ? तुम्हारे बावजूद हो जाता है।
संन्यास भी प्रेम की घटना है। यह जन्म भी है, मृत्यु भी है, प्रेम भी है। यह जीवन में जो भी रहस्यपूर्ण है, सबका सारभूत; सबमें जो सार्थक है, सबकी जो आत्मा है, वही संन्यास है। संन्यास जीवन की सारी सुगंध है।
लेकिन सुगंध तो उठती है रहस्यमय से, जिससे हम आश्चर्यविभोर हो उठते हैं। विचार से सुगंध नहीं उठती। विचार तो कचरा है; कूड़ा-करकट, उधार, बासा है। विचार कभी मौलिक नहीं होता। और संन्यास तो मौलिक है। मौलिक यानी मूल से पैदा होता है।
यहां बैठते हो, मस्ती किसी दिन पकड़ लेगी! प्रतीक्षा करो! सोचो-मोचो मत; राह देखो। किसी दिन डोलने लगोगे। इतने रिंद यहां बैठे हैं, इतने पी चुके लोग यहां बैठे हैं, कब तक बचोगे? इनके साथ कभी नाचने लगोगे, डोलने लगोगे। एक दिन अचानक पाओगे कि रंग गए हो इनके रंग में। पता नहीं चला किस घड़ी में यह रंग तुम पर बरस गया।
विचार से मेरे पास आओगे तो आ ही न पाओगे; विचार बाधा है। निर्विचार में आओेगे तो ही आ सकते हो।
पूछते हो: ‘सोचता हूं सदा, रुक जाता हूं। यह रुकावट क्या है?’
यह सोचना ही रुकावट है। सोचना कहता है: कल ले लेना; अभी सोच तो लो, रास्ता साफ तो हो जाए, जांच-परख तो करलो। जो पहले संन्यासी हो गए हैं, उनको कुछ मिला है या नहीं? उन्होंने कुछ पाया या नहीं? चलने के पहले सब हिसाब-किताब कर लो। पीछे पछताना न पड़े। कल। और कल आता? कल कभी आया है?
और ध्यान रखना, दूसरों को मिला या नहीं, इसको जानने का भी तुम्हारे पास कोई उपाय नहीं। यह बात स्थूल नहीं है। धनी आदमी के पास धन दिखाई पड़ता है; जो पद पर प्रतिष्ठित है, वह पद पर प्रतिष्ठित दिखाई पड़ता है; लेकिन संन्यास तो अंतरतम की बात है। यह फूल तो भीतर से खिलता है; भीतर ही इसकी गंध फैलती है। यह धूप तो भीतर ही जलती है, भीतर ही इसकी सुगंध उठती है। हां, इसे पहचाना जा सकता है अगर तुम्हारे भीतर भी यह सुगंध उठी हो।
तो दो मस्ताने जब मिलेंगे तो पहचान लेते हैं एक-दूसरे को। दो रिंदों को एक-दूसरे को पहचानने में दिक्कत नहीं आती। वे एक-दूसरे की भाषा तत्क्षण समझ लेते हैं। लेकिन तुम बाहर से खड़े होकर दूर से जांचना चाहोगे, तो यह अनुभव कोई विषय नहीं है, जिसका तुम बाहर से निरीक्षण कर सको।
किसके भीतर प्रेम घटा है, इसको बाहर से कैसे जानोगे? घटा हो कि सिर्फ कहता ही हो, क्या पता! सुंदर से सुंदर गीत भी गाता हो प्रेम के, तो भी क्या पक्का है कि प्रेम घटा हो! अक्सर तो यही होता है: जो प्रेम के गीत गाते हैं, उनको प्रेम नहीं घटा होता। गीत गाकर अपने को समझाते हैं, सांत्वना देते हैं। प्रेम तो घटा नहीं, गीत गाकर ही मन को भुलाते हैं। गीत परिपूरक है। क्या पक्का कि किसी के भीतर आनंद घटा है; घटा है या नहीं! मुस्कुराहटों से पहचानोगे? मुस्कुराहटें तो चारों तरफ दिखाई पड़ती हैं। तुम भी जानते हो भलीभांति कि भीतर कोई मुस्कुराहट नहीं होती, फिर भी बाहर तुम मुस्कुराते हो।
मुस्कुराहट तो सामाजिक व्यवस्था है, उपचार है, शिष्टाचार है, संस्कृति है। चार आदमियों में बैठे तो क्या रोना! क्या दुख रोना! मुस्कुराते हो। मगर उनको तो धोखा होगा कि मुस्कुराते हो तो बड़े आनंद में होओगे।
फ्रेड्रिक नीत्शे ने कहा है कि मैं जब मुस्कुराता हूं तो धोखा मत खाना। मैं मुस्कुराता ही तब हूं जब मैं डरता हूं कि अगर न मुस्कुराया तो रोने लगूंगा। आंसुओं को रोकने के लिए मुस्कुराता हूं। नीत्शे की बात में बड़ी अंतर्दृष्टि है। कहीं आंसू न झलकने लगें! कौन आंसू गिराना चाहता है दूसरे के सामने? कौन इतना दीन-हीन होना चाहता है? नहीं, लोग अपने आंसू पी जाते हैं। आंसुओं को घोंट देते हैं भीतर, कंठ के नीचे दबा देते हैं रुदन को और ओंठों पर मुस्कुराहट पोत लेते हैं। रंगी हुई मुस्कुराहट। स्त्रियां तुम देखते हो न! लिपिस्टिक लगाए हुए घूम रही हैं! वह बड़ा प्रतीक है। ओंठों की लाली से क्या लेना-देना है! लिपिस्टिक से भी काम चल जाता है। रंग लिए ओंठ, दूसरों को लाल दिखाई पड़ने लगे, बस बहुत!
तुम जरा गौर से देखना, लिपिस्टिक लगे हुए ओंठ जितने भद्दे, बेहूदे, कुरूप मालूम होते हैं, उतने कोई ओंठ नहीं मालूम होंगे। क्योंकि झूठ से ज्यादा कुरूप और क्या होगा? मगर स्त्रियों को मूढ़ता चढ़ी हुई है सिर पर। उनको खयाल है कि बड़े सुंदर ओंठ मालूम हो रहे हैं। चेहरे रंगे हुए हैं। पाउडर पोता हुआ है।
एक बंगाली प्रोफेसर मुझसे मिलने आते थे। एक दिन मिलने आए, कह कर गए थे कि मेरी पत्नी को भी साथ ला रहा हूं, मैंने पूछा कि पत्नी का क्या हुआ, अकेले ही आए आप! उन्होंने कहा कि चले तो हम दोनों थे घर से, लेकिन वह वापस लौट गई क्योंकि बूंदाबांदी होने लगी। मैंने कहा: जब तुम आ गए बूंदाबांदी में तो पत्नी क्यों नहीं आ सकी? उसने कहा कि अब आपसे क्या छिपाना, उसका सब पोता हुआ पाउडर बह गया; लकीरें बन गईं चेहरे पर; मैंने भी कहा कि तू जा घर वापस, वही अच्छा!
लोग पोते हुए हैं। लोग जैसे नाटक के मंच पर हैं। मुखौटे लगाए हुए हैं लोगों ने। तुम उनकी हंसी के धोखे में मत आ जाना। और तुम उनके रोने के धोखे में भी मत आना। क्योंकि वक्त-जरूरत वे रोते भी हैं। और भीतर उनके आंसू न हों।
मैं एक घर में मेहमान था। वहां एक मृत्यु हो गई। घर में एक ही महिला थी। कोई भी आता उठने-बैठने वाला, तो वह दहाड़ मार कर रोती। मैं बड़ा हैरान हुआ कि वह एकदम दहाड़ मार देती! अभी दो मिनट पहले ठीक-ठीक बात कर रही थी, जैसे ही कोई आया, एकदम दहाड़ मार देती। और तब मैं समझा कि घूंघट भी बड़ा उपयोगी है। जल्दी से घूंघट खींच लेती और एकदम दहाड़ मार देती। क्योंकि बिना घूंघट एकदम दहाड़ मारोगे तो चेहरे पर दिखाई पड़ जाएगा कि चेहरे पर तो कहीं कोई भाव आ नहीं रहा है, न कोई आंसू हैं, न कुछ।
सर्दी के दिन थे, मैं बाहर धूप में बैठा रहता। उसने मुझसे कह रखा था कि जैसे ही कोई आए, घंटी बजा देना। मैंने पूछा: क्यों? उसने कहा: फिर देखना मैं क्या दहाड़ मारती हूं! सच में वह कुशल थी।
लोग अभिनय कर रहे हैं। क्या पक्का--खुश हैं, दुखी हैं, चिंतित हैं? कुछ पक्का तुम बाहर से पता नहीं कर सकते। इन साधारण बातों का पता नहीं कर सकते, तो भीतर संन्यास जन्मा है, प्रेम उमगा है, परमात्मा की प्यास जगी है--ऐसे अत्यंत गहन, अत्यंत गहरे अनुभवों की कोई परख बाहर से नहीं हो सकती। सोचोगे भी तो क्या खाक सोचोगे!
सोचना तुम्हारा सिर्फ तरकीब है। तुम इतने हिम्मतवर भी नहीं हो कि साफ कह सको कि मुझे संन्यास नहीं लेना। इतनी हिम्मत तो जुटाओ! इतनी जिसने हिम्मत जुटाई, वह शायद किसी दिन संन्यास लेने की हिम्मत भी जुटा ले। लेकिन लोगों की नपुंसकता बड़ी गहरी है। वे यह भी हिम्मत नहीं जुटा पाते कि मुझे संन्यास नहीं लेना है। तो वे अपने को ऐसा दुविधा में डाले रखते हैं कि लेना तो जरूर है, लेंगे, एक दिन लेंगे, मगर वह दिन अभी नहीं आया है। कल लेंगे। परसों लेंगे। अभी और थोड़ा संसार को जी लें। अभी जल्दी क्या है? कौन जाने संसार में कुछ हो ही! थोड़ा और खोद लें, शायद खजाना मिल जाए! एक बार और उपाय कर लें।
तुम्हें सिखाया यह गया है कि किए जाओ उपाय, बार-बार किए जाओ उपाय, हार को हार न मानो; कितने ही हारो, फिर-फिर उठ आओ, फिर झाड़ कर धूल फिर लग जाओ दौड़ने में, एक न एक दिन पहुंचोगे। तुम्हारे इतिहास की किताबें तुम्हें ऐसे उद्धरण देती हैं कि मोहम्मद गजनी सत्रह दफे हारा, अठारहवीं दफे जीत गया।
और कैसे उसे अठारहवीं दफे जीतने का खयाल आया? हार कर सत्रहवीं दफा एक गुफा में छिपा हुआ बैठा था, दुश्मनों से बचने के लिए, कि उसने एक मकड़ी को जाला बुनते देखा। वह सत्रह दफा गिर-गिर गई, जाला न बना, अठारहवीं दफे जाला बन गया। गजनी ने कहा: वाह! यह ईश्वर का संकेत। सत्रह दफा मैं भी हारा हूं, एक कोशिश और। और फिर गजनी जीत गया।
स्कूलों में हम बच्चों को समझाते हैं कि लगे जाओ। सत्रह दफा हारे हो तो भी कोई फिक्र नहीं, अठारहवीं दफे जीतोगे।
लेकिन कुछ चीजें ऐसी हैं जिनमें जीत होती ही नहीं। हो ही नहीं सकती। अठारहवीं दफे भी गजनी कहां जीता! जीत में रखा क्या है? यह कोई जीत है कि थोड़ा धन लूट लिया, इधर से उधर कर दिया। आखिर मर जाएगा और सब पड़ा रह जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर में एक रात चोर घुसा। चोर सामान इकट्ठा कर रहा था, मुल्ला ने जल्दी से अपना कंबल जमीन पर बिछा दिया। वह चोर जब सामान इकट्ठा करके ढूंढने लगा कि कोई चादर इत्यादि मिल जाए, बांध कर ले जाऊं, तो कंबल बिछा हुआ मिला। थोड़ा डरा भी कि अभी-अभी मैं आया था तब तो कंबल बिछा नहीं था, यह आदमी कंबल ओढ़ कर सोया हुआ था, अब यह आदमी ऐसे ही अपने बिस्तर पर पड़ा हुआ है बिना कंबल के और कंबल जमीन पर बिछा दिया है! मगर यह समय कोई सोच-विचार का था नहीं, जल्दी से उसने सामान बांधा और चलने लगा। मुल्ला भी उठा और उसके पीछे हो लिया। पीछे किसी की आवाज सुन कर उसने लौट कर देखा, वही आदमी, जो बिस्तर पर सोया था, पहले कंबल ओढ़े था, फिर बाद में कंबल बिछा कर लेटा था। अब चोर जरा घबड़ाया! उसने कहा कि तुम मेरे पीछे क्यों आ रहे हो? मुल्ला ने कहा: पीछे क्यों आ रहा हूं! अरे भई, अकेला मैं ही बचा वहां! और घर बदलने की मैं बहुत दिन से सोच रहा था, सो घर बदल रहा हूं! सामान तुम सब ले ही आए, सो मैं भी आ रहा हूं। जहां तुम रहोगे, वहीं हम रहेंगे।
चोर तो बहुत घबड़ाया, उसने तो पोटली नीचे रख दी, उसने कहा, बाबा तू अपना सामान ले ले! मुल्ला ने कहा, डरने की कोई जरूरत नहीं। अरे, घर बदलता तो आदमी नौकरी पर लगाना पड़ता, सामान ढोना पड़ता। तू मुफ्त में ही किए दे रहा है काम और घर भी ढूंढने की झंझट से बचे--कहीं तो रहता ही होगा! जब इतना सामान ले जा रहा है तो कहीं तो रहता ही होगा! उठा पोटली, चल, घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। हम इसको चोरी नहीं कहते, मुल्ला ने कहा, तू फिक्र मत कर; हम सिर्फ घर बदलना कहते हैं।
वह ठीक कह रहा है। इधर का उधर कर दिया सामान, सफलता हो गई! रुपये इस तिजोड़ी में से उस तिजोड़ी में रख दिए, सफलता हो गई! एक जेब में से रुपये निकाल कर दूसरी जेब में रख लिए, सफल हो गए! कहां सफलता है संसार में? संसार असफलता का नाम है। न तो सत्रह बार में, न अठारह बार में, न सत्रह सौ बार में, न अठारह सौ बार में--कभी सफलता न यहां मिली है, न मिल सकती है। सारे बुद्धों का यह अनुभव है। मगर हम टालते हैं, हम कहते हैं, थोड़ा और कोशिश कर लें। ऐसा ही देवेंद्र, तुम सोचते होओगे।
एक संस्मरण और जोड़ दूं,
ओ मेरे इतिहास रुको तो!

मैंने तुमको अपना जाना,
अपने से भी ज्यादा माना;
पर इतना सब करने पर भी--
सचमुच क्या तुमको पहचाना;
तुम तो अब भी पहले जैसे,
लगते हो वैसे के वैसे;
एक संस्मरण और जोड़ दूं,
ओ मेरे मधुमास रुको तो!

रात न रुचती स्वप्न न भाता,
दिवस सरीखा दिवस न जाता;
लगता पहले मैं भी था कुछ,
पर अब कुछ भी याद न आता;
सच, कितना मजबूर हुआ हूं,
अपने से भी दूर हुआ हूं;
एक विस्मरण और जोड़ दूं,
ओ मेरे विश्वास रुको तो!

केवल इतनी कथा हमारी,
अथ पर इति की पहरेदारी;
कभी संवरना चाहा होगा;
अब तो बुझने की तैयारी;
मन था नई सृष्टि रचने का,
अब प्रयास सबसे बचने का;
एक संवरण और जोड़ दूं,
ओ मेरे संन्यास रुको तो!
थोड़ा और कर लें, जरा सा और जोड़ लें... ‘ओ मेरे संन्यास रुको तो।’ ऐसे तुम अपने को रोक रहे हो। सोच-सोच कर रोक रहे हो। तुम सोचते हो, सोच-सोच कर संन्यास लोगे, और मैं कह रहा हूं, सोच-सोच कर तुम रुकते रहोगे। जितना सोचोगे, उतना रुकते रहोगे।
तुम्हारा अपनी जंजीरों से बड़ा मोह मालूम पड़ता है। तुम्हारा अपने अज्ञान से बड़ा लगाव मालूम होता है। जहर पीते हो मगर अमृत समझ रहे हो। अमृत पीने की बात उठती है तो कहते हो सोचोगे!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी एक दिन जब बहुत घबड़ा गई उसके शराब पीने से; सुने नहीं, माने नहीं; सब कर चुकी--झगड़े, उपद्रव; समझाना, बुझाना; प्रेम-घृणा--सब हो चुका, लेकिन मुल्ला है कि अपनी जिद पर अड़ा है।... शराबी बड़े संकल्पी होते हैं। अगर दुनिया में संकल्प देखना हो तो शराबियों में देखो। लाख करो उपाय, वे फिर पी-पा कर आ जाएंगे।... तो एक दिन गुस्से में आखिरी उपाय करने वह शराबघर ही पहुंच गई। मुल्ला ने पत्नी को देखा तो घबड़ाया। शराबघर में भले घर की स्त्री आए! और भी शराबी चौंके! शराबघर का मालिक भी चौंका! पत्नी आकर उसके बिलकुल बगल में बैठ गई, उसने कहा कि आज मैंने भी तय किया है कि अब मैं भी पीना शुरू करती हूं। या तो तुम रुको या मैं पीना शुरू करती हूं। इसके पहले कि मुल्ला कुछ कहे, उसकी जबान खुले... वह तो ऐसा कुछ घबड़ा गया, किंकर्तव्यविमूढ़, कि बोलती बंद हो गई। एक तो बीवी को देख कर वैसे ही बोलती बंद हो जाती है आदमी की; शराबघर में! समझ में ही नहीं आया क्या कहे, क्या न कहे! मुल्ला की पत्नी ने उंड़ेली शराब और गटा गट पी गई। पानी तक न मिलाया, सोडा तक न मिलाया। मिलाने का उसको पता भी नहीं था। कड़वी शराब, एक ही घूंट भीतर गया कि बोतल नीचे पटक दी और कहा कि अरे, इस जहर को, इस कड़वे जहर को तुम रोज पीने आते हो! मुल्ला निश्चिंत हुआ, मुस्कुराया और बोला: और तू समझती थी कि हम मजा करने आते हैं! अरे, यह बड़ी कठिन तपश्चर्या है! यह बड़ी मुश्किल से सधती है। यह हर किसी के वश का रोग नहीं। घर जा, घर!
लेकिन शराब भी अगर रोज पीते रहो तो कड़वी नहीं मालूम होती। धीरे-धीरे वह स्वाद भी रच-पच जाता है। धीरे-धीरे उसमें एक माधुर्य प्रकट होने लगता है। सिर्फ आदत के कारण। पहली दफा किसी को सिगरेट पिलाओ, खांसी आएगी, आंख में आंसू आ जाएंगे, गला रुंध जाएगा। और यही आदमी कुछ दिन पीता रहे, फिर एक दिन सिगरेट न दो तो आंख में आंसू आते हैं।
क्या हो गया इसको? अभ्यस्त हो गया।
देवेंद्र, अभ्यस्त हो गए हो तुम एक तरह की जीवन-व्यवस्था के। संन्यास एक नई जीवन-व्यवस्था है। तुम्हारी आसक्ति पुराने से टूट जाए तो यह छलांग घट सकती है। छलांग कहता हूं इसको। यह बिलकुल अज्ञात में कूदना है। यह दुस्साहस है। यह जुआरियों का काम है। यह सब-कुछ दांव पर लगा देना है। लेकिन जो दांव पर लगाते हैं, वे बहुत कुछ पाते हैं। ऐसा कुछ पाते हैं जो पाने योग्य है; ऐसा कुछ पाते हैं जिसे मृत्यु भी तुमसे छीन नहीं सकती है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, तरु मा जब सूत्र गाती हैं तो मुझे ऐसा लगता है कि मेरी शादी की तैयारियां हो रही हैं। लेकिन आज जब गा रही थीं तो खयाल आया कि संन्यास तो सगाई ही है।
प्रीति! संन्यास ही सगाई है! और तो सब सगाई के बहाने हैं। और सब नाते झूठ, सब रिश्ते झूठ। और तो सब बच्चों के खेल हैं। शहनाई बजी, यज्ञ-हवन हुआ, पंडित-पुरोहित आए, सात चक्कर लगवाए, मंत्र पढ़े गए, धूप-दीप जले, शोरगुल मचा, बैंड-बाजे बजे--और सगाई हो गई! यह सब खेल है। यह सिर्फ दो आदमियों को इस बात का भरोसा दिलाना है कि अब तुम जुड़ गए।
ऐसे कहीं कोई जुड़ता है! इतना सस्ता कहीं कोई जुड़ना है कि सात चक्कर लगाए! अगर सात से जुड़ते हो तो चौदह लगाओ, इक्कीस लगाओ, जुड़ते ही चले जाओ। सात चक्कर तो बहुत काम में आए नहीं, लोग ऐसे ही ढीले-पोले जुड़े हैं, ठीक से जुड़ नहीं पाते, कम से कम इक्कीस लगाओ। मगर कितने ही लगाओ, चक्कर ही हैं। जितने ज्यादा लगाओगे उतने घनचक्कर हो जाओगे!
एक सज्जन तलाक लेना चाहते थे। वे मुझसे पूछने लगे कि तलाक लेना है, मगर कैसे लूं! अरे, सात चक्कर लगाए हैं! तो मैंने कहा: क्या बिगड़ा! उलटे लगा लो! खोल लो, खत्म करो! गांठ लगाई है, फिर उसको खोलने में कितनी देर लगती है! उलटे ढंग से खोल लो। बहुत ही ज्यादा जरूरत हो तो फिर से शहनाई बजवा दो, फिर बैंड-बाजा, उलटी धुन, उलटबांसी, कि बांसुरी बज रही है मगर उलटी तरफ से बजा रहा है, और जल्दी से उलटे चक्कर लगा कर झंझट खत्म करो, जयराम जी, अपने रास्ते पर लगो! चक्कर ही लगाए न और तो कुछ नहीं किया? उन्होंने कहा, और कुछ नहीं किया।
चक्कर में क्या होना है!
संन्यास ही सगाई है। यह परमात्मा से सगाई है। संसार की सगाइयां क्या काम आती हैं! संसार की सगाइयां अपने को बहला रखने के उपाय हैं। सगाई की तो आकांक्षा है जरूर भीतर, जुड़ना चाहते हैं हम शाश्वत से, एक ऐसा नाता चाहते हैं जो टूटे नहीं--टूटे ही नहीं--उसी की तलाश में हम बहुत से नाते बनाते हैं, जो सब टूट जाते हैं। और न भी टूटें, तो भी हम घसीटते रहते हैं, मगर उनसे तृप्ति नहीं हो पाती।
समझाया जाता रहा है सदियों से स्त्रियों को कि पति परमात्मा है। जरा सी भूल है उस वचन में। परमात्मा पति है--ऐसा कहो तो ठीक। लेकिन तुम कहते रहे, पति परमात्मा है! वह गलत। पति क्या ख़ाक परमात्मा होगा! पति तो पति भी हो तो बहुत।
एक महिला, अस्सी साल की महिला, डॉक्टर के यहां गई। डॉक्टर भी बड़ा हैरान, बहुत जांच-पड़ताल की, उसने कहा, क्षमा करो, मुझे भी भरोसा नहीं आता, मगर आप गर्भवती हैं।
उस महिला ने कहा: क्या कहते हो? मैं अस्सी साल की हूं और मेरे पति नब्बे साल के, गर्भवती मैं हो कैसे सकती हूं?
डॉक्टर ने कहा: हैरान तो मैं भी हूं, मगर कभी-कभी दुर्घटनाएं घट जाती हैं। मजबूरी है, सब तरह से परीक्षा कर ली, और कोई बीमारी नहीं है, तुम सिर्फ गर्भवती हो।
पत्नी ने कहा: यह भी खूब रही! क्या मैं फोन कर सकती हूं अपने पति को, दफ्तर? उसने फोन किया। कहा कि अरे खूसट बुड्ढे! तूने मुझे गर्भवती कर दिया।
उधर से कंपती हुई, डरती हुई आवाज आई, कौन फोन कर रहा है?
क्योंकि खूसट कितने ही हो मगर और भी नाते-रिश्ते होंगे। घबड़ाया कि फोन कौन कर रहा है?
पति खाक परमात्मा होंगे। न पत्नी देवी है, न पति देवता है। परमात्मा जरूर पति है। और संन्यास परमात्मा से जुड़ जाने का नाम है। और परमात्मा की दृष्टि से न तो कोई पुरुष है, न कोई स्त्री है। परमात्मा ही एकमात्र पुरुष है--प्रतीक के अर्थ में--और सब तो स्त्रियां हैं। इस अर्थ में स्त्रियां हैं कि सभी को अपने भीतर परमात्मा को आमंत्रित करना है, निमंत्रण देना है, झुकना है परमात्मा के प्रति, समर्पित होना है।
प्रीति, तुझे ठीक लगता है कि तरु जब गाती है तो जैसे तेरी शादी की तैयारियां हो रही हैं। शादी की ही तैयारियां हो रही हैं; लेकिन साधारण शादी की नहीं। यह संन्यास की ही तैयारियां हो रही हैं; और संन्यास ही सच्ची शादी है।
कोई कल का निरा अपरिचित--
जीवन का आधार बन गया।

बांध रही एकाकी मन को--
यादों की जंजीर सुनहली,
निंदियारी पलकों ने खोई--
सपनों की जागीर रूपहली;
रोम-रोम पर एक अजानी,
मीठी-सी सिहरन का पहरा,
दृष्टि-परिधि में भी न रहा जो--
सांसों का आगार बन गया।

आश्वासन के शब्द-पखेरू--
वचनों की शाखों पर चहके,
अभिलाषा के कमल वनों में--
सुरभित धीरज पद-पद महके;

उग आए हैं बोल प्यार के,
भोले-भाले प्रणय-अजिर में;
नाम किसी का अनजाने ही--
गीतों का आधार बन गया।

अंतर के दर्पण में मैंने--
ज्योति-विनिंदक रूप उतारा,
पर असीम को सीमित करना--
सहज नहीं इससे मैं हारा;
निर्वसना, असफल रेखाएं,
हाथ उठा कर गगन निहारें;
चित्र किसी का प्राण अजाने--
मेरा ही आकार बन गया!
यहां तो प्रार्थना की जा रही है। ये सब गीत प्रार्थनाएं हैं। यहां तो हाथ आकाश की तरफ उठाए जा रहे हैं। यहां तो झोली फैलाई जा रही है परमात्मा के सामने कि भर दे! आज जो अपरिचित है, बिलकुल अपरिचित है, उससे ही सगाई होनी है। जो बहुत दूर मालूम होता है, उसे ही पास लाना है। जिससे हमारे सारे संबंध टूट गए हैं, उससे फिर से संबंध निर्मित करने हैं। जिसे हम विस्मृत कर बैठे हैं, उसका पुनः स्मरण करना है; उसकी सुरति जगानी है।
और प्रीति, तुझे तो प्रीति का नाम दिया इसीलिए। प्रेम तेरा पथ है। प्रेम तेरा मार्ग है। होने दे परमात्मा से सगाई।
और जब मैं कहता हूं परमात्मा से सगाई होने दे, तो मेरा कुछ ऐसा अर्थ नहीं है कि इस जगत में किसी को प्रेम मत करना। क्योंकि जगत भी वही है। और जगत में जो हैं, वे सब उसी के ही रूप हैं। खूब प्रेम करना, जी भर कर प्रेम करना! प्रेम कहीं रुके ही नहीं, बस इतना खयाल रखना। कोई प्रेम पर दीवाल न हो। प्रेम बढ़ता ही रहे, फैलता ही रहे। जैसे हम एक कंकड़ फेंकते हैं झील में, छोटा सा वर्तुल उठता है, फिर फैलता चला जाता है--दूर-दूर तक, अनंत तक। ऐसे ही प्रेम चाहे एक व्यक्ति के साथ क्यों न हो, लेकिन फैलता चला जाए दूर-दूर तक, अनंत को छू ले, तो ही तृप्ति है।
मैं तुम्हारे मन-सुमन में--
प्रीति बन महकूं।

चू पडूं अंजलि-सरों में,
लाज-क्लयित मधुकरों में,
आज अपनापन डुबो दूं--
सुरभि-चर्चित निर्झरों में,
मैं तुम्हारे दृग-गगन में--
स्वप्न बन बहकूं।
प्रीति बन महकूं।।

गुनगुनाऊं सप्त स्वर में,
राग-रंजित मींड़-कर में,
कभी आरोह में गमकूं,
कभी अवरोह के वर में,
मैं तुम्हारे छंद-वन में,
गीत बन चहकूं।
प्रीति बन महकूं।।

वचन तोडूं संवरण के,
मौन के अंतःकरण के,
स्पर्श के संकेत से ही--
बज उठे नूपुर चरण के;
मैं तुम्हारे प्रणय-प्रण में--
प्राण बन दहकूं।
प्रीति बन महकूं।।

प्रीति, इन सूत्रों को याद रख!--
मैं तुम्हारे मन-सुमन में--
प्रीति बन महकूं।

मैं तुम्हारे दृग-गगन में--
स्वप्न बन बहकूं।

मैं तुम्हारे छंद-वन में,
गीत बन चहकूं।

मैं तुम्हारे प्रणय-प्रण में--
प्राण बन दहकूं।
प्रीति बन महकूं।।
मेरा संन्यास जीवन-विरोधी नहीं है। मेरा संन्यास जीवन के साथ अनंत प्रेम है। जीवन का त्याग नहीं, मूढ़ता का त्याग। जीवन का त्याग नहीं, अज्ञान का त्याग। जीवन का त्याग नहीं, मूर्च्छा का त्याग। जीवन का त्याग नहीं, घृणा का, ईर्ष्या का, वैमनस्य का त्याग। घर-द्वार छोड़ कर नहीं भाग जाना है--घर-द्वार ने क्या बिगाड़ा है?--छोड़ना हो कुछ तो भीतर का अंधेरा छोड़ो, भीतर की बेहोशी छोड़ो, भीतर होश का दीया जलाओ, भीतर कमल खिलाओ--आनंद के, प्रेम के, उत्सव के।
मेरा संन्यास निश्चित ही सगाई है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, कल से पड़ोस में ही लाउड स्पीकर लगा कर कोई प्रवचन में बाधा डालने की कोशिश कर रहा है। उसका उपद्रव आज भी जारी है। क्या इसे रोका नहीं जा सकता है?
प्रेम चैतन्य! बहुत कठिन! यह छब्बीस जनवरी का मौसम! नेतागण किसी तरह साल भर अपने को रोके रहते हैं, आखिर उनकी भी होली-दीवाली आनी चाहिए! यह समझो होली है।
बुरा न मानो! उनको बकवास कर लेने दो।
और यह तो कुछ भी नहीं है। पिछले साल तो और भी गजब हुआ था। पड़ोस के लोगों ने एक वयोवृद्ध नेताजी से छब्बीस जनवरी को झंडा फहराने का निवेदन किया।
नेताजी ने प्रसन्न होकर कहा: ठीक है। मेरे पास एक पुराना झंडा पड़ा है, मैं अभी नौकर को भेज कर स्कूल के मैदान में गड़वा देता हूं। नया खरीदने की क्या जरूरत है! मैं सुबह आ जाऊंगा फहराने, आप लोग कुछ फिकर न करिए। नेताजी ने नौकर से झंडा गड़ा आने को कहा। नौकर था शराबी--आखिर नेताजी का नौकर ठहरा। भूल गया। रात तीन बजे उसे याद आई। बेचारा घबड़ा कर झंडा गड़ा आया। गलती केवल इतनी हुई कि तिरंगे झंडे की जगह रात के अंधेरे में वह अपनी पत्नी का पेटीकोट बांध आया।
सुबह जब नेताजी ने रस्सी खींची, तो पेटीकोट हवा में लहरा उठा! भीड़ ने उचक-उचक कर तालियां पीटीं। नेताजी बोले: भाइयो और बहनो, गणतंत्र-दिवस मुबारक हो! फिर उन्होंने झंडे की तरफ इशारा करके कहा: यही है वह राष्ट्रीय प्रतीक, जिसकी छत्रछाया में हम पिछले तीस सालों से पल रहे हैं। हमें इस पर नाज है। दुनिया में किसी भी राष्ट्र का प्रतीक इतना सुंदर नहीं है।
लोग यह सुन कर हंस-हंस कर लोट-पोट हो गए। भीड़ को इतना खुश देख कर नेताजी को भी जोश आ गया, वे झंडे की तरफ हाथ उठा कर बोले: यही है वह, जिस पर मैंने अपनी सारी जवानी न्यौछावर कर दी। इसी की इज्जत बचाने के लिए मैं भी तीन बार जेल गया। सच कहता हूं, मैंने तो कसम खा ली थी कि जीऊंगा तो इसके लिए और अगर मरना पड़ा तो मरूंगा भी इसी के लिए।
भीड़ को बहुत मजा आया। नेताजी ने कहना जारी रखा: यद्यपि यह भी एक कपड़े का टुकड़ा ही है, मगर इसमें ऐसे-ऐसे राज छिपे हैं कि इसके पीछे सुभाषचंद्र और भगतसिंह जैसे कई मर्दों ने अपने प्राण तक कुर्बान कर दिए हैं। अरे, यह चीज ही ऐसी है कि इसे देख कर खून जोश मारता है; जवान ही नहीं, बूढ़ों की रगों में भी गर्मी आ जाती है।
तालियों की करतल ध्वनि से मैदान गूंज उठा। नेताजी बोले: आप सब लोग इतने उल्लास से भर कर अपने राष्ट्रीय प्रतीक को इतने प्रेम-भाव से देख रहे हैं, यह जान कर मैं अति आनंदित हूं। जब यह हवा में लहराता है, और ऊपर-नीचे उठता-गिरता है, तो सभी भारतीय नागरिक मुग्ध-भाव से टकटकी बांध कर देखते रह जाते हैं, इसी से यह ज्ञात हो जाता है कि हमारे देशवासियों के मन में भारतमाता के प्रति कैसी पवित्र भावना है। और जब हम इसे ऊपर उठा कर शान से सड़कों पर चलते हैं, तो क्या जवान, क्या बूढ़े, सभी आह्लादित हो उठते हैं--और इस तरह भारतमाता के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
लोग बहुत शोरगुल करने लगे। नेताजी ने कहा: भाइयो और बहनो, बस एक बात और कह कर मैं आज का भाषण खत्म करता हूं, फिर हम इसके बाद जन-गण-मन करेंगे। मुझ बूढ़े की यह प्रार्थना है कि जब मैं मर जाऊं, तो मेरे ऊपर कफन की जगह इसी को उढ़ा देना, ताकि जिसे जिंदगी भर चाहा, मरते वक्त उसी के नीचे लेटने से मेरी आत्मा को संतोष मिले। जयहिंद! और अब मैं जाता हूं उस हरामजादे नौकर की तलाश में, जो कि झंडे की जगह लगता है भारतमाता का पेटीकोट डंडे से बांध गया है।
एकाध दिन साल में बेचारों को मौका मिलता है, उनको थोड़ा शोरगुल कर लेने दो। और यह मत सोचो, प्रेम चैतन्य, कि वे कोई यहां चल रहे प्रवचन में बाधा डालने की चेष्टा कर रहे हैं। वे तो अपना बुखार निकाल रहे हैं। उन्हें किसी को बाधा डालने से कोई प्रयोजन नहीं है। ये दो ही तो अवसर आते हैं उनको: पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी; बक लें जो बकना हो, कह लें जो कहना हो।
एक तो नेता और फिर मराठी भाषा! मराठी भाषा में प्रेम भी किसी से करो तो ऐसा लगता झगड़ा कर रहे हो। मैं तो कभी-कभी सोचता हूं कि मराठी में प्रेम कैसे करते होंगे? ऐसा लगता है कि अब मार-पीट हुई, अब बस होती ही है मार-पीट!
उनकी चिंता न करो, उनसे कुछ बाधा पड़ भी नहीं रही है।

चौथा प्रश्न: भगवान,
ये दिल ये जां ये जिंदगी तेरी इक नजर पे निसार है।। मुझे क्यों न हो तेरी जुस्तजू तेरी जुस्तजू में करार है।। मैंने पी है मुझको है कुछ खबर तेरी इक नजर में है क्या असर।। कभी देखता हूं कि हैं मस्तियां कभी देखता हूं कि खुमार है।।
कृष्ण चैतन्य! मैं कोई शास्त्र नहीं समझा रहा हूं। न सिद्धांतों में मेरी रुचि है। मैं तुम्हें जानकारियां नहीं दे रहा हूं, अपना हृदय खोल कर तुम्हारे सामने रख रह हूं। जो रस मैंने पीआ है, उस रस की थोड़ी सी गंध भी तुम्हें मिल जाए, एकाध बूंद भी तुम्हारे कंठ से उतर जाए, तो बस! फिर तुम चल पड़ोगे तलाश में उस सागर की जिससे उस बूंद का आगमन हुआ है।
सदगुरु तो एक बूंद है परमात्मा के सागर की। थोड़ा सा स्वाद तुम्हें देने की चेष्टा है। यहां बैठ कर हम कोई तत्वचर्चा नहीं कर रहे हैं। यहां बैठ कर तो हम जो मुझे मिला है, उसके लिए तुम्हें निमंत्रण दे रहा हूं, पुकार दे रहा हूं, आवाहन दे रहा हूं कि तुम्हें भी मिल सकता है। तुम्हें भरोसा दिलाना चाहता हूं, तुम पर ही। तुम्हें श्रद्धा करवाना चाहता हूं, तुम पर ही।
तुमने श्रद्धा खो दी है। तुम यह भूल ही गए हो कि तुम क्या हो सकते हो। तुम वही नहीं हो, जो तुम दिखाई पड़ रहे हो। बहुत कुछ बीज की तरह तुम्हारे भीतर पड़ा है, जिसे भूमि चाहिए; ठीक मौसम और ठीक माली मिल जाए तो तुम्हारे भीतर हजार-हजार रंग के फूल खिल सकते हैं। तुम इंद्रधनुष बन सकते हो जो पृथ्वी और आकाश को जोड़ दे। तुम सतरंगे हो। तुम्हारे भीतर बहुत गंध है--और तुम भटके फिर रहे हो। जैसे कस्तूरी मृग भागा फिरता है। उसे पता ही नहीं: कस्तूरी कुंडल बसै; कि उसके भीतर ही, उसकी नाभि में ही कस्तूरी बसी है। इतनी ही तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं--कस्तूरी कुंडल बसै!
बस, मेरी सारी चेष्टाएं इस एक छोटे से सूत्र में कबीर के समा जाती हैं।
तुम यहां-वहां दौड़ रहे हो, भागे-भागे फिर रहे हो, रुकते ही नहीं, ठहरते ही नहीं। कहना चाहता हूं कि रुको, ठहरो, थोड़ा भीतर झांको, जिसे तुम तलाश रहे हो वह वहां मौजूद है। तुम्हारी खोज के पहले से मौजूद है। तुम जिसे खोजने चले हो, वह खोजने वाले में ही छिपा है। तुम्हारा परमधन तुम्हारे भीतर है। प्रभु का राज्य तुम्हारे भीतर है। और यह जिस दिन स्मरण आता है, उस दिन मस्ती में डोल उठता है हृदय; बांछें खिल जाती हैं।
तुम कहते हो:
‘ये दिल ये जां ये जिंदगी
तेरी इक नजर पे निसार है।।’
अगर तुम मेरी आंखों को पहचान सको, तो मेरी आंखों में तुम्हें मैं नहीं दिखाई पडूंगा, एक गहराई दिखाई पड़ेगी जो तुम्हारी ही है। मेरी आंखें दर्पण हो जाएंगी। तुम्हें अपना ही चेहरा दिखाई पड़ेगा। अपना ही मौलिक चेहरा। और तब तुम मस्त न हो जाओगे तो क्या होगा! तुम आनंदित न हो जाओगे तो क्या होगा! तुम नाच न उठोगे तो क्या होगा!
तुम कहते हो:
‘मुझे क्यों न हो तेरी जुस्तजू
तेरी जुस्तजू में करार है।।’
खोज होती ही तब है, जुस्तजू होती ही तब है, जब थोड़ा सा रस लग जाता है, थोड़े से प्राण उस गीत की कड़ियों को पकड़ने लगते हैं; उस संगीत में रमने लगते हैं; हरि-रस में भीगने लगते हैं।
तुम कहते हो:
‘मैंने पी है मुझको है कुछ खबर’
निश्चित ही यह पीना ऐसा है कि इसमें बेहोशी नहीं आती, होश आता है। यह शराब ऐसी है, इसमें तुम सोते नहीं, जाग जाते हो, सदा को जाग जाते हो। जो सुला दे, जो बेहोश कर दे, उस शराब से बचना। जो शराब जगा दे और ऐसा होश ला दे कि तोड़ना भी चाहो तो न टूट सके, ऐसी शराब जी भर कर पीना।
तुम कहते हो:
‘मैंने पी है मुझको है कुछ खबर
तेरी इक नजर में है क्या असर।।
कभी देखता हूं कि हैं मस्तियां
कभी देखता हूं कि खुमार है।।’
पर तुम्हें याद दिला दूं कि जो तुम देखते हो, वह तुम्हारी ही छवि है। भूल कर भी यह मत सोच लेना--नहीं तो तुम मुझ पर निर्भर हो जाओगे--यह मत सोच लेना कि वह खुमार मेरा है, कि वह मस्ती मेरी है। अन्यथा पर-निर्भरता पैदा हो जाती है। और सदगुरु है इसलिए कि तुम्हें सारी पर-निर्भरताओं से मुक्त कर सके। अगर तुम गुरु के प्रति निर्भर हो जाओ, अगर उसके पास बैठो तो आनंदित और दूर जाओ तो दुखी हो जाओ, तो यह गुरु के पास बैठना न हुआ। गुरु के पास बैठने का अर्थ यही है कि तुम यह राज सीख लो कि तुम जहां होओ, वहीं आनंदित।
गुरु के पास बैठना तो सिर्फ पाठ सीखना है। एक दफा सीख लिया, जैसे बच्चों को हम सिखाते हैं कि ग गणेश जी का... आजकल नहीं सिखाते, आजकल कहते हैं: ग गधे का। क्योंकि भारत हो गया है सेक्युलर, धर्मनिरपेक्ष। गणेश जी का तो नाम नहीं ले सकते। गणेश जी तो किसी धर्म के प्रतीक हैं। गधे का नाम लिया जा सकता है। जैसे गधा सर्व-धर्मों का प्रतीक है। जैसे गधे में सर्व-धर्म-समभाव पैदा हुआ है। ग गधे का, या ग गणेश का--कुछ भी हो, बच्चे को सिखाने के लिए कोई बहाना चाहिए। उससे सीधा ग कहो तो वह नहीं समझ में आएगा। ग गधे का कहो तो फौरन समझ जाता है; क्योंकि गधे को वह पहचानता है। गधे को वह जानता है। गधे को चलते-फिरते उसने देखा है। गधे का चित्र उसकी आंखों में है। ग उससे जुड़ जाता है। गधे के बहाने वह ग को समझ जाता है। हालांकि ग पर गधे की कोई बपौती नहीं है।
फिर यह बच्चा बड़ा हो जाए और जब भी कहीं ग पढ़े तो पहले कहे: ग गधे का, फिर पढ़े, तो तुम कहोगे यह पागल है।
वह तो सिखाने की बात थी, वह तो शुरुआत थी, वह तो निमित्त था। उसे भुला देना है। जब सीख गए पढ़ना, तो फिर बार-बार ग गधे का, अगर हर चीज में यह जोड़ना पड़े, तो तुम पढ़ोगे कैसे? फिर तो पढ़ना बहुत मुश्किल हो जाएगा। पढ़ना असंभव ही हो जाएगा। अगर हर वर्ण के साथ तुम पुरानी याददाश्तें जारी रखो... अब तो तुम्हें याद भी न होगा, कि स्कूल में तुम्हें जो शब्द सिखाए गए थे, किस तरह सिखाए गए थे। आ आम का, और आम की तस्वीर बनी थी। अब अगर हर बार आ पढ़ो और आ आम का पढ़ो, तो आ को कैसे पढ़ोगे? आम में उलझ जाओगे, आ पढ़ना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन भूल-भाल गए। वे निमित्त गए।
गुरु तो निमित्त है। वह तो आ आम का। फिर जब सीख गए, आ आ गया, तो आम से मुक्त हो जाना है। फिर तो जहां बैठो वहीं परमात्मा से संबंध जुड़ जाना चाहिए।
सदगुरु उथला पानी है, जहां हमने तैरना सीख लिया। अब तो कितने ही गहरे में जाओ! तैरना आ गया तो अब इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। पांच फीट गहरा है पानी, कि पांच सौ फीट गहरा है पानी, कि पांच मील गहरा है पानी--कुछ फर्क नहीं पड़ता। तैरने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता।
कृष्ण चैतन्य, यहां जो मस्ती, जो खुमार तुम्हें अनुभव होता है, वह धीरे-धीरे हर जगह अनुभव होना चाहिए। वृक्षों के पास, तारों के नीचे, नदी के किनारे, सागर के तट पर; मित्रों में, परिवार में; मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजों में, गुरुद्वारों में--जहां बैठो--दुकान में, बाजार में, वह मस्ती छाई ही रहनी चाहिए। वह उतरनी ही नहीं चाहिए। तो ही समझना कि सच्ची है। नहीं तो तुम मुझ पर निर्भर हो जाओगे। और मुझ पर निर्भर हो गए तो वह एक नई परतंत्रता हो गई। शायद शुरू-शुरू में निर्भर होना पड़ता है। होना पड़ेगा। शायद अभी थोड़ी देर तुम्हें निर्भर रहना पड़ेगा। मगर तुम्हें याद दिला देना चाहता हूं कि उस निर्भरता से मुक्त हो जाना है।
जब गुरु तुम्हें उस निर्भरता से भी मुक्ति दिला दे जो शिष्य में गुरु के प्रति पैदा होती है, तो समझना कि तुम्हें सच्चा गुरु मिला है।
लेकिन अभी जल्दी भी मत करना। पाठ को बैठ जाने दो। कच्चा ही न रहे पाठ। अभी ऐसे ही थोड़ा-थोड़ा तैरना आया हो, एकदम गहरे में मत चले जाना। नहीं तो डूबोगे। व्यर्थ सारा श्रम हो जाएगा।
भौहों पर खिंचने दो--
रतनारे बान!
अभी और, अभी और!!

सुरधनु को सरसा,
ओ! आंचल के देश;
सपनों को बरसा,
ओ! नभ के परिवेश;
संयम से मत बांधो,
दर्शन के प्रान!
अभी चलने दो दौर!!
अभी और!!!

कन-कन को महका,
ओ! माटी के गीत;
जीवन को दहका,
ओ! सुमनों के मीत;
अधरों को करने दो,
छक कर मधुपान!
कहीं सौरभ के ठौर!!
अभी और!!!

तन-मन को पुलका,
ओ! रागों के छोर;
प्रीत-कलश ढुलका,
ओ! वंशी के पोर,
कुंजों में छिड़ने दो,
भ्रमरों की तान!
धरो स्वर के सिर मौर!!
अभी और!!!
थोड़ा और! थोड़ा और डूबो! जब तुम्हें मेरी आंखें दिखाई पड़नी बंद हो जाएं, जब तुम्हें मैं दिखाई ही पड़ना बंद हो जाऊं और तुम्हारी ही छवि झलकने लगे, जब मैं सिर्फ दर्पण रह जाऊं--और जब दर्पण बिलकुल शुद्ध होता है तो दर्पण दिखाई नहीं पड़ता, सिर्फ छवि ही दिखाई पड़ती है।
लेकिन दर्पण में मत उलझ जाना। दर्पण में क्या है! दर्पण ने तुम्हारा चेहरा दिखा दिया, धन्यवाद दो, आभारी रहो, मगर दर्पण से मत बंध जाना, दर्पण को लिए मत घूमने लगना, दर्पण को सिर पर मत ढोना!
बुद्ध ने कहा है: पागल ऐसे हैं लोग कि जिस नाव में पार होते हैं फिर उस नाव को सिर पर रख कर ढोते हैं; कि इस नाव ने बड़ी कृपा की, हमें नदी पार करवाया! नदी से पार कराया, धन्यवाद, अनुग्रह, लेकिन अब नाव को सिर पर ढोने की कोई जरूरत नहीं है! लेकिन नदी से पार हो जाना, जल्दी मत करना, बीच नदी में मत उतर जाना कि अब नाव की क्या जरूरत है; बुद्ध ने तो कहा है। बीच में मत उतर जाना, नहीं तो डूबोगे। पार हो जाओ। शुरुआत हो गई है, शुभ शुरुआत हो गई है, किरणें छन-छन कर आने लगी हैं, जल्दी ही पूरा सूरज भी तुम्हारा होगा।

पांचवां प्रश्न:
भगवान, संन्यासी और गृहस्थ के बीच में जो ‘और’ आ पड़ा है, वह क्या है, कैसा है और कब तक रहेगा?
अर्जुन! संन्यासी और गृहस्थ के बीच में जो ‘और’ आ पड़ा है, वह तुम्हारे महात्माओं की कृपा से। नहीं तो और की कोई जरूरत नहीं है। गार्हस्थ्य संन्यास की ही सीढ़ी है। दोनों में भेद करने की जरूरत नहीं है, कोई सीमा खींचने की जरूरत नहीं है। कहां गार्हस्थ्य समाप्त होता है और कहां संन्यास शुरू होता है--कोई ठीक-ठीक कह भी नहीं सकता। गार्हस्थ्य ही संन्यास हो जाता है। तुम ठीक से समझो गृहस्थ के जीवन को बस, गृहस्थ का जीवन पाठशाला है संन्यास की। अगर गृहस्थ बीज है तो संन्यास उसका फूल है। अगर गार्हस्थ्य वातावरण है, भूमिका है, प्रस्तावना है, तो संन्यास उसकी निष्पत्ति है।
लेकिन तुम्हारे महात्माओं ने संन्यास को और गार्हस्थ्य को विपरीत बता कर उपद्रव खड़ा कर दिया। सदियों से यह बात तुम्हें समझाई गई है कि संन्यास जीवन का त्याग है--घर का, द्वार का, पत्नी का, बच्चे का। इस कारण एक घबड़ाहट व्याप्त हो गई है। कोई संन्यासी हो जाता है तो उसके घर के लोग घबड़ाते हैं। पुराना शब्द उन्हें बड़ी मुश्किल में डाल देता है। उनको लगता है अब वह छोड़ कर जाएगा; अब वह भागेगा, पहाड़ चला जाएगा। घर का क्या होगा, बच्चों का क्या होगा? कच्ची उम्र है, कच्ची गृहस्थी है। तो सब मिल कर उसे रोकने की कोशिश करते हैं।
संन्यास की तुम पूजा भी करते हो--मगर कोई और के घर में संन्यासी हो तो। तुम्हारे घर में कोई संन्यासी हो, तो तुम सब विरोध में खड़े हो जाते हो। यह अजीब विरोधाभास है।
और चूंकि संन्यास जीवन-विरोधी रहा, इसलिए पृथ्वी उस रंग में रंगी नहीं जा सकी। कितने लोग जीवन-विरोधी हो सकते हैं? जीवन-विरोधी जो होते हैं, वे रुग्ण लोग हैं, स्वस्थ नहीं। नहीं तो जीवन तो परमात्मा है, इसका विरोध कैसे करोगे? जीवन का विरोध तो परमात्मा का विरोध है।
मेरा संन्यास जीवन-विरोधी नहीं है, जीवन के प्रति गहन प्रेम है; यह जीवन से सगाई है। इसलिए मेरे संन्यास में और गार्हस्थ्य में कोई ‘और’ बीच में नहीं है। एक ही प्रक्रिया के अंग हैं। गार्हस्थ्य प्रारंभ है, संन्यास अंत। गार्हस्थ्य से शुरू होना चाहिए जीवन, संन्यास पर पूर्ण होना चाहिए जीवन। कहीं कोई व्यवधान नहीं है।
और अगर हम इस नये संन्यास को जगत को समझा सकें तो अनंत-अनंत लोग संन्यास का रस पीएं, संन्यास की खुमारी में डूबें। क्योंकि फिर कोई भय न रह जाए। पुराना संन्यास तो बहुत दुष्ट था, बहुत क्रूर था, बहुत हिंसात्मक था। अगर तुम हिसाब लगाओगे तो बहुत घबड़ाओगे। चंगीज खान और तैमूरलंग और नादिरशाह जैसे लोगों ने भी इतनी हत्याएं नहीं कीं जितनी संन्यास के नाम पर हुईं। क्योंकि संन्यासी जितने लोग हो गए, उनकी पत्नियों का क्या हुआ, कोई हिसाब नहीं! कितनों ने भीख मांगी, कितनों ने आत्महत्याएं कर लीं, कितनी स्त्रियां वेश्याएं हो गईं--उसका सबका जिम्मा किस पर है? जो लोग घर छोड़ कर चले गए, संन्यासी हो गए, उनके बच्चों का क्या हुआ? उनके बच्चे कहां खो गए? अनाथ हो गए वे। उन्होंने कितने दुख पाए, इसका कोई हिसाब करे तो बहुत तुम्हें हैरानी होगी! भारत में करोड़ों संन्यासी हुए। तो कई करोड़ लोग उनके कारण दुखी हुए।
यह कोई संन्यास है जो दूसरों को दुख देने पर निर्भर हो! यह सुख भी कुछ पाने जैसा सुख है, जो इतने लोगों को दुख देने पर निर्भर हो! यह तो शुद्ध हिंसा है।
इसलिए मैं संन्यास की पूरी परिभाषा बदल रहा हूं। क ख ग से फिर से परिभाषा शुरू कर रहा हूं। संन्यासी वही है जो स्वयं भी आनंदित हो, औरों को भी आनंदित करे। क्यों किसी को दुख दे! दूसरे के भीतर भी तो वही परमात्मा विराजमान है। जिस पत्नी को तुम छोड़ कर जा रहे हो, उसमें वही परमात्मा विराजमान है। जिन बच्चों को तुम छोड़ कर जा रहे हो, उन बच्चों में भी वही परमात्मा फिर-फिर उतरा है। यहां तुम परमात्मा को सता रहे हो और परमात्मा की खोज करने जा रहे हो! तुम जैसा मूढ़ कोई न होगा! परमात्मा तुम्हारे द्वार पर खड़ा है और तुम पहाड़ों की तरफ भागे जा रहे हो!
संन्यास का अर्थ है: जो है, जहां हो तुम, जैसी स्थिति है, वैसी स्थिति में ही परम तृप्ति। जिन्होंने तुम्हें घेर रखा है, उनमें ही परमात्मा का दर्शन। पत्नी में परमात्मा का दर्शन, पति में परमात्मा का दर्शन, बच्चों में परमात्मा का दर्शन; पड़ोसियों में परमात्मा का दर्शन। कठिन है यह काम! गुफा में बैठ जाना बहुत आसान है। कोई भी मूढ़ कर सकता है। पशु-पक्षी कर लेते हैं, तुम्हारी खूबी क्या! भेड़िए कर लेते हैं, तुम्हारी खूबी क्या! लेकिन बीच बाजार में बैठ कर, जीवन के घने संघर्ष में खड़े होकर भी शांत होना, मौन होना, प्रार्थनापूर्ण रहना, धन्यवाद से भरे रहना, अनुग्रह से न चूकना, वह बात कठिन है। वही चुनौती है। स्वीकार करने योग्य वही है।
लोग सोचते हैं मैंने संन्यास को सरल कर दिया है, वे गलत सोचते हैं। मैंने संन्यास को उसकी परम गरिमा में, ऊंचाई पर ले जाने की चेष्टा की है। पुराना संन्यास सरल था, भगोड़ों का था। भगोड़ापन हमेशा सरल है। युद्ध से पीठ दिखा कर भाग जाने में कोई बड़ी कुशलता होती है! युद्ध से जो पीठ दिखा देता है, उसको हम भगोड़ा कहते हैं, पलायनवादी कहते हैं, कायर कहते हैं। और जीवन के युद्ध से जो भाग जाता है, उसको संन्यासी कहोगे तुम? यह भी कायर है; यह भी भगोड़ा है।
जीवन से भागना नहीं है। जीवन में जागना है। भागो मत, जागो! और तब, अर्जुन, तुम पाओगे कि संन्यासी और गृहस्थ के बीच कोई ‘और’ नहीं है: दोनों जुड़े हैं। एक ही लहर के दो हिस्से हैं, दो छोर; एक ही लहर के दो छोर।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, क्या यह सत्य है कि सत्य को छिपाना असंभव है? वह किसी न किसी रूप में प्रकट हो ही जाता है।
शरणानंद! यह सत्य है कि सत्य को छिपाना असंभव है। सत्य तो प्रकाश जैसा है। कैसे छिपाओगे उसे? वह तो अंधेरे से अंधेरे में भी प्रकट हो जाएगा। सत्य को छिपाने का कोई उपाय नहीं। हालांकि हम छिपाने के उपाय करते हैं, मगर हमारे सब उपाय व्यर्थ सिद्ध होते हैं। फिर भी हम उपाय करते चले जाते हैं इस आशा में कि शायद कभी सफल हो जाएं। सब झूठ हमारे पकड़े जाते हैं, देर-अबेर। यह हो सकता है थोड़ी देर लगे, मगर सब झूठ हमारे पकड़े जाते हैं। मगर फिर भी आदमी सोचता है कि शायद इस बार न पकड़ा जाऊं।
झूठ के पैर ही नहीं होते, वह चल नहीं सकता। वह चलता भी है तो सत्य के पैर ही उधार लेकर चलता है, यह भी खयाल रखना। इसलिए हर झूठे आदमी को सिद्ध करना होता है कि जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है। उसे चिल्ला-चिल्ला कर सिद्ध करना होता है कि यह सत्य है। यह उस सत्य से पैर उधार ले रहा है। क्योंकि झूठ अपने आप तो चल नहीं सकता, वह तो लंगड़ा है, सत्य के पैर मिल जाएं तो थोड़ा-बहुत चले।
मगर दूसरों के पैरों से कितनी दूर चल सकते हो? ज्यादा दूर नहीं चल सकते।
मुल्ला नसरुद्दीन पर अदालत में मुकदमा था कि उसने दो शादियां कर लीं, जो कानून के खिलाफ है। उसके वकील ने सिद्ध किया कि यह बात गलत है। और मुल्ला ने कहा कि नहीं, मैंने दो शादी नहीं कीं, मेरी तो एक ही पत्नी है। वकील होशियार था, झूठ चल गई। उसने कानून की बड़ी बारीकियां निकालीं और सिद्ध हो गई बात, और मजिस्ट्रेट ने कहा कि ठीक है नसरुद्दीन, यह सिद्ध हो गया कि तुम्हारी एक ही पत्नी है, तुम जुर्म से बरी किए जाते हो; अब तुम घर जा सकते हो।
नसरुद्दीन ने कहा: हुजूर, एक बात और। मैं किस घर जाऊं? क्योंकि दोनों पत्नियां राह देख रही होंगी।
छिपाते रहो, ज्यादा देर न छिपा पाओगे; कहीं न कहीं से सत्य प्रकट हो जाएगा। किसी न किसी तरह सत्य प्रकट हो जाएगा।
जब श्री मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो चंदूलाल और ढब्बू जी चौरस्ते से बातें करते निकल रहे थे। चंदूलाल बड़े जोश में कह रहा था कि यह खूसट बुड्ढा अब छाती पर आ बैठा। अब तो भगवान ही बचाए तो बचाए। गधों के हाथ में देश पड़ गया है। हर शाख पे उल्लू बैठे हैं, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा!
चौरास्ते पर खड़े पुलिसवाले ने कहा कि रुक, अबे चंदूलाल, तू मोरारजी देसाई के खिलाफ बोल रहा है, तू देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ बोल रहा है, थाने चल!
चंदूलाल फौरन बदल गया। उसने कहा: अरे, आप भी क्या बातें कर रहे हैं? मैं अपने देश की बात थोड़े ही कर रहा हूं, मैं तो लंका की बात कर रहा हूं।
उस पुलिसवाले ने कहा: तूने हमें पागल समझा है? हमें पता नहीं कि खूसट बुड्ढा किस देश में छाती पर बैठा है!
छिपा न सकोगे। बात प्रकट हो ही जाएगी। इधर से नहीं उधर से।
सत्य में एक सरलता है। इसलिए सत्य बोलने वाले व्यक्ति को बहुत याददाश्त नहीं रखनी पड़ती उसने क्या कहा, क्या नहीं कहा। झूठ बोलने वाले को बहुत हिसाब रखना पड़ता है। झूठ बोलने वाले को एक बात पक्की समझ लेनी चाहिए कि स्मृति उसकी अच्छी होनी चाहिए। सच बोलने वाले की स्मृति अच्छी न हो तो भी चल जाएगा, लेकिन झूठ बोलने वाले के पास तो अच्छी स्मृति होनी ही चाहिए। क्योंकि उसे सदा याद रखना पड़ेगा कहां उसने क्या झूठ बोला। और उस झूठ को बचाने के लिए उसको और झूठ बोलने पड़ते हैं। एक झूठ को बचाने के लिए हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। और जब एक ही पकड़ में आ जाता है तो हजार से फिर कैसे बचोगे? जितने झूठ बोलोगे उतने ही जाल में उलझते जाओगे, पकड़े जाओगे।
झूठ बोलने वाले आदमी का जीवन अपने ही हाथ से उलझ जाता है। सत्य बोलने वाला व्यक्ति सरलता से जी सकता है। उसे चित्त में बहुत से हिसाब नहीं रखने पड़ते। उसका चित्त जो है, उसी को कहता है; जैसा है, वैसा ही कहता है। वहीं बात समाप्त हो जाती है। झूठ के बच्चे पैदा होते हैं। बच्चों के बच्चे पैदा होते हैं। झूठ बिलकुल शुद्ध भारतीय है, वह संतति-नियमन में विश्वास ही नहीं करता। सत्य के बच्चे पैदा होते ही नहीं, सत्य बिलकुल ब्रह्मचारी है। सत्य बोल दिए कि पूर्ण विराम आ गया। न उसके बचाने के लिए कुछ करना पड़ता है, न छिपाने के लिए कुछ करना पड़ता है।
सत्य में एक महिमा भी है, एक सुरभि भी है। जिस व्यक्ति के जीवन में जितना ज्यादा सत्य होगा उतनी ही ज्यादा सुगंध होगी, सुवास होगी। और जिस व्यक्ति के जीवन में जितना ज्यादा झूठ होगा, उतनी ही दुर्गंध होगी। इसलिए राजनीतिज्ञों से अगर दुर्गंध आती हो तो कुछ आश्चर्य नहीं। पंडित-पुरोहितों से अगर दुर्गंध आती हो तो कुछ आश्चर्य नहीं। ये सब झूठ में जी रहे हैं। ये सिंहासनों पर भी बैठ जाएं तो भी इनसे दुर्गंध आती है। और जीसस जैसा व्यक्ति सूली पर भी चढ़ जाए तो भी सुगंध ही छोड़ जाता है अपने पीछे। जो सदियों तक गूंजती रहती है। उसका संगीत सदी-सदी तक सुना जाता है।
सत्य शाश्वत है और झूठ क्षणभंगुर है। झूठ तो ऐसा है जैसे पानी का बबूला। सुंदर लगता है जब होता है; और सुबह की सूरज की किरणों में बड़ा रंगीन भी लग सकता है--हीरे का धोखा दे! पानी की बूंद रुकी हो घास के पत्ते पर और सूरज की रोशनी में चमकती है तो ऐसी लगती है जैसे मोती हो--मगर जरा सा हवा का झोंका कि सब राज खुल जाता है। झूठ भी जल्दी ही खुल जाता है, ज्यादा देर नहीं चलता।
और तुम सबने जीवन को झूठ पर खड़ा कर रखा है। और मजा तो यह है कि जो तुम्हें सत्य की बातें समझाते हैं, उन्होंने ही तुम्हारे जीवन को झूठ पर खड़ा करवा दिया है। सबसे बड़ा झूठ तो यह है कि तुमने मान लिया है कि ईश्वर है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर है, निश्चित है, मगर मानना मत--जानना! जब है तो जानेंगे, मानें क्यों? जो चीज न हो, उसको मानना पड़ता है। जो चीज है, उसे जानना चाहिए, मानना क्यों?
मगर झूठ सस्ता होता है और सत्य के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। मानना बिलकुल सस्ती बात है। जो चाहो मान लो। लेकिन जानना महंगी प्रक्रिया है। क्रांति से गुजरना होगा। जानने के लिए चित्त को निर्मल करना होगा। जानने के लिए चेतना को जगाना होगा, जानने के लिए मन से मुक्त होना होगा, जानने के लिए समाधि को निर्मित करना होगा। तब समाधान होगा, तब सत्य का अवतरण होगा। वह सब महंगा काम है! मानने में क्या रखा है? मान लिया कि ईश्वर है; मान लिया कि नर्क है, स्वर्ग है; मान लिया कि कुरान सही, बाइबिल सही, वेद सही; मानने में क्या लगा? कुछ लगता नहीं, कुछ खर्च होता नहीं, कुछ करना नहीं पड़ता। और जब इतने सस्ते में ईश्वर मिलता हो तो कौन न ले ले! मगर इतना सस्ता ईश्वर झूठा ही होगा।
तुम्हारा ईश्वर झूठा है; तुम्हारे मंदिर झूठे हैं, तुम्हारी मस्जिदें झूठी हैं। क्योंकि तुम्हारा बुनियाद ही झूठ पर, तुम्हारी आधारशिला ही झूठ पर।
विश्वास सब झूठे होते हैं; अनुभव चाहिए। मेरा जोर है अनुभव पर--अस्तित्वगत अनुभव। मैं तुम्हें विश्वास नहीं दिलाना चाहता कि ईश्वर है। मैं तुम्हें अनुभव कराना चाहता हूं कि ईश्वर है। और इसलिए मुझे पहले तुम्हें तुम्हारे विश्वासों से मुक्त कराना होगा। तुम अगर हिंदू हो, तो मुझे तुमसे तुम्हारा हिंदुत्व छीनना होगा। और अगर तुम मुसलमान हो, तो मुझे तुमसे तुम्हारा मुसलमान होना छीनना होगा। तुम अगर जैन हो, तो जब तक तुम्हारा जैनत्व न छूटे तुमसे, तब तक तुम्हारे जीवन में कोई आशा की किरण नहीं फूट सकती। क्योंकि तुम्हारा जैन, हिंदू, मुसलमान, यहूदी होना सब झूठ है। मान्यताओं पर खड़ा है। तुम्हें लोगों ने कह दिया है और तुमने मान लिया है। तुम्हारे बापदादे मानते थे तो तुमने मान लिया है। तुम्हारे चारों तरफ की हवा में बात है तो तुमने मान लिया है।
लेकिन तुमने खोजा? तुमने जिज्ञासा की? तुमने अभीप्सा की? तुमने मुमुक्षा की? तुमने प्राण लगाए दांव पर? अगर नहीं लगाए, तो इन झूठों से मुक्ति नहीं हो सकती। इन झूठों के कारण ही तुम जन्मों-जन्मों से भटक रहे हो। और इसीलिए तो तुम्हारे ईश्वर की मान्यता और तुम्हारी पूजा और तुम्हारी प्रार्थना, सब दो कौड़ी की मालूम पड़ती हैं। काश, तुम ईश्वर का एक कण भी जान लो तो तुम्हारे जीवन में ज्योति फैल जाए, तुम ज्योतिर्मय हो उठो।
सत्य को छिपाया नहीं जा सकता। सत्य की जरा सी झलक तुम्हारे जीवन में आ जाए कि अपने आप दूसरों को उसकी खबर मिलने लगेगी। अपने आप दूर-दूर से लोग आने लगेंगे तुम्हारा पता पूछते। कोई अज्ञात जैसे उन्हें खबर देने लगेगा कि जाओ, सत्य कहां घटित हो गया है, सत्य कहां अवतरित हो गया है। ऐसे ही तो सदगुरु खोजे जाते हैं। नहीं तो सदगुरु को खोजोगे कैसे? कोई शकल-सूरत पर छाप नहीं होती। सदगुरु की खोज कैसे होती है? इसी तरह होती है। उसका सत्य अभिव्यक्त होने लगता है, सूक्ष्म तरंगों की तरह, और दूर-दूर जहां-जहां प्यासे लोग हैं, उनके हृदय में आकर्षण... जैसे कोई चुंबक खींचने लगे।
तुम ठीक पूछते हो, शरणानंद: ‘सत्य को नहीं छिपाया जा सकता।’
छिपाने की जरूरत भी नहीं है। छिपाते ही लोग झूठ को हैं। छिपाना ही झूठ को पड़ता है। झूठ है, इसलिए छिपाना पड़ता है। सत्य को छिपाने की जरूरत भी नहीं है, छिपाओगे भी क्यों? सत्य को तो प्रकट होने दो। जीसस ने कहा है: चढ़ जाओ मकानों के मुंडेरों पर और आवाज दो; सत्य को बोलने दो, गूंजने दो; सत्य को कंठ दो, गीत दो, ताकि जितने अधिक लोग उसे सुन सकें, पहचान सकें, उतना अच्छा!
इस पृथ्वी पर थोड़े से लोग हुए हैं, जिन्होंने सत्य को उसकी परिपूर्णता में जाना है। उन थोड़े से लोगों के कारण ही मनुष्य में मनुष्यता है। हटा दो दस-बारह नाम पृथ्वी से--बुद्ध का, जरथुस्त्र का, जीसस का, मोहम्मद का, महावीर का, लाओत्सु का--एक दस-बारह नाम हटा दो पृथ्वी से, और आदमी जंगली जानवर हो जाएगा। तुम्हारे भीतर जो कुछ भी गरिमामय है, गौरवमय है; तुम्हारे भीतर जो थोड़ा-बहुत काव्य है, सौंदर्य है, संगीत है, वह इन थोड़े से लोगों के कारण है। इनका सत्य आज भी तुम में गूंज पैदा कर रहा है। एक व्यक्ति सत्य को उपलब्ध होता है तो उसके साथ पूरी मनुष्यता एक सीढ़ी ऊपर चढ़ जाती है।
तुम्हें अगर सत्य कोई बात लगे, अनुभव में लगे, तो बांटना उसे। बेझिझक बांटना; कृपणता मत करना, कंजूसी मत करना, उसे छिपा कर मत रखना। और तुम छिपा कर भी रखो तो भी न छिपा पाओगे। उसे छिपाया जा नहीं सकता है।

आज इतना ही।

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