QUESTION & ANSWER

Jevan Rahasya 01

First Discourse from the series of 13 discourses - Jevan Rahasya by Osho.
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करीब आ जाएं! जितने करीब होंगे, मुझे थोड़ा, धीमे बोलता हूं, इसलिए दिक्कत न होगी।

आपने एक बढ़िया सवाल पूछा है। पूछा है कि
भगवान, ऐसे कोई लालच बताएं कि जिससे हम भगवान की तरफ चल पड़ें, ऐसे कोई प्रलोभन जिससे हमारा मन भगवत्‌-प्राप्ति में लग जाए।
यह सवाल कीमती है और बहुत महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए है कि जब तक किसी भी तरह का लालच हो, तब तक कोई भगवत्‌-प्राप्ति में नहीं लग सकता--चाहे वह लालच भगवत्‌-प्राप्ति का ही क्यों न हो। लालच से भरा हुआ चित्त ही अशांत होता है। जहां लालच है, वहां चित्त अशांत है। और जब तक चित्त अशांत है तब तक भगवान से क्या संबंध हो सकता है?
लालच का मतलब क्या है?
लालच का मतलब यह है कि जो मैं हूं, उससे तृप्ति नहीं; कुछ और होना चाहिए। फिर चाहे यह कुछ और होना धन का हो, स्वास्थ्य का हो, यश का हो, आनंद का हो, भगवान का हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लालच का मतलब है: एक टेंशन, एक तनाव। जो मैं हूं वह नहीं, जो होना चाहिए वह हो। और जो मैं हूं वह अभी हूं और जो होना चाहिए वह कल होगा। तो कल के लिए मैं खिंचा हुआ हूं, तना हुआ हूं। यह तना हुआ चित्त ही लालच से भरा हुआ चित्त है। इसलिए सब तरह की ग्रीड, सब तरह का लोभ अशांति पैदा करेगा। और जहां अशांति है वहां भगवत्‌-प्राप्ति कैसे?
अशांत चित्त का भगवान से संबंधित होने का कोई उपाय ही नहीं है। अशांति ही तो बाधा है। फिर हम पूछते हैं कि कोई लालच? क्योंकि हमारा मन तो लालच को ही समझता है, एक ही भाषा समझता है, वह है लालच की भाषा। धन के लिए इसलिए दौड़ते हैं, यश के लिए इसलिए दौड़ते हैं। फिर इस सब से ऊब जाते हैं तो हम कहते हैं: भगवान के लिए कैसे दौड़ें?
यह थोड़ा समझ लेना चाहिए कि उसके लिए दौड़ना तो संभव है जो हमसे दूर हो, लेकिन जो हमारे भीतर ही हो उसके लिए दौड़ना असंभव है। और अगर दौड़े तो चूक जाएंगे।
तो कुछ चीजें ऐसी हैं जो दौड़ कर पाई जा सकती हैं। क्योंकि असल में वे हमारा स्वभाव नहीं हैं, हमसे अलग हैं। अगर धन पाना है तो बिना दौड़े नहीं मिल जाएगा। अगर यश पाना है तो दौड़ना पड़ेगा।
अब यह बड़े मजे की बात है कि धन के संबंध में लालच स्वाभाविक है। क्योंकि बिना लालच के धन पाया ही नहीं जा सकता। क्योंकि बिना दौड़े धन कैसे आ जाएगा? धन कहीं और है, आप कहीं और हैं, दौड़ना पड़ेगा, दौड़ना पड़ेगा, तो शायद आप पहुंच जाएं। फिर भी जरूरी नहीं कि पहुंच जाएं।
लेकिन परमात्मा कहीं दूर नहीं है, एक इंच का भी फासला होता तो थोड़ा दौड़ लेते। एक इंच का भी फासला नहीं है। हम वहीं खड़े हैं जहां परमात्मा है। हम वही हैं, वही हैं जो वह है, तो दौड़ेंगे कहां? खोजने कहां जाएंगे? जिसे खोया हो उसे खोज सकते हैं। और जिसे खोया ही न हो, उसे खोजा तो भटक जाएंगे, सिर्फ परेशानी में पड़ जाएंगे।
मैंने सुना है, एक आदमी ने शराब पी ली थी और वह रात बेहोश हो गया। आदत के वश अपने घर चला आया, पैर चले आए घर। लेकिन बेहोश था, घर पहचान नहीं सका। सीढ़ियों पर खड़े होकर पास-पड़ोस के लोगों से पूछने लगा कि मैं अपना घर भूल गया हूं, मेरा घर कहां है मुझे बता दो! लोगों ने कहा, यही तुम्हारा घर है। उसने कहा, मुझे भरमाओ मत, मुझे मेरे घर जाना है, मेरी बूढ़ी मां मेरा रास्ता देखती होगी। और कोई कृपा करो, मुझे मेरे घर पहुंचा दो।
शोरगुल सुन कर उसकी बूढ़ी मां भी उठ आई, दरवाजा खोल कर उसने देखा कि उसका बेटा चिल्ला रहा है, रो रहा है कि मुझे मेरे घर पहुंचा दो। उसने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा, बेटा, यह तेरा घर है और मैं तेरी मां हूं।
उसने कहा, हे बुढ़िया, तेरे ही जैसी मेरी बूढ़ी मां है, वह मेरा रास्ता देखती होगी। मुझे मेरे घर का रास्ता बता दो। पर ये सब लोग हंस रहे हैं, कोई मुझे घर का रास्ता नहीं बताता। मैं कहां जाऊं? मैं कैसे अपने घर को पाऊं?
तब एक आदमी ने, जो उसके साथ ही शराब पीकर लौटा था, उसने कहा, ठहर, मैं बैलगाड़ी ले आता हूं, तुझे तेरे घर पहुंचा देता हूं।
तो उस भीड़ में से लोगों ने कहा कि पागल, इसकी बैलगाड़ी में मत बैठ जाना, नहीं तो घर से और दूर निकल जाएगा; क्योंकि तू घर पर ही खड़ा हुआ है। तुझे कहीं भी नहीं जाना है, सिर्फ तुझे जागना है। तुझे कहीं जाना नहीं है, सिर्फ जागना है, सिर्फ होश में आना है और तुझे पता चल जाएगा कि तू अपने घर पर खड़ा है। और किसी की बैलगाड़ी में मत बैठ जाना, नहीं तो जितना, जितना खोज पर जाएगा उतना ही दूर निकल जाएगा।
हम सब वहीं खड़े हुए हैं, जहां से हमें कहीं भी जाना नहीं है।
लेकिन हमारा चित्त एक ही तरह की भाषा समझता है--जाने की, दौड़ने की, लालच की, पाने की, खोज की, उपलब्धि की। तो वह जो हमारा चित्त एक तरह की भाषा समझता है.अब आप पूछते हैं कि गृहस्थ.असल में अगर ठीक से समझें, तो जो पाने की, खोजने की, पहुंचने की, दौड़ने की, लोभ की भाषा समझता है, ऐसे चित्त का नाम ही गृहस्थ है। और गृहस्थ का कोई मतलब नहीं होता। जिसको इस तरह की लैंग्वेज भर समझ में आती है वह गृहस्थ है। और जो पाने की, दौड़ने की, खोजने की, पहुंचने की भाषा छोड़ देता है, पहुंचा ही हुआ हूं, पाया ही हुआ हूं, हुआ ही हुआ हूं, ऐसी भाषा समझने लगता है, उसका नाम संन्यस्त है। और अगर संन्यासी भी पहुंचने और दौड़ने की बात कर रहा हो तो गृहस्थ है, वह अभी संन्यासी नहीं है। कपड़े बदल लिए होंगे, यह हो सकता है। लेकिन अगर वह यह कह रहा है कि पाना है परमात्मा को, तो अभी वह गृहस्थ है। अभी वह संन्यासी हुआ ही नहीं, अभी उसने भाषा ही नहीं जानी कि संन्यासी होने का मतलब क्या है।
संन्यासी होने का मतलब यह है कि पाने को कुछ है ही नहीं। जो भी पाने को है वह पाया ही हुआ है। लोभ करने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि जिसका हम लोभ करें वह हमारे भीतर ही बैठा हुआ है। और यदि हमने लोभ किया तो हम भटक जाएंगे भीतर से, कहीं और चले जाएंगे। और वही लोभ और लालच हमें भटका रहा है।
अक्सर तो यही होता है कि एक आदमी गृहस्थ है और संन्यासी हो जाता है, तो लोभ के कारण ही। वह कहता है, गृहस्थी में नहीं मिलता आनंद, संन्यस्त होने से आनंद मिल जाएगा। वह कहता है, गृहस्थी में नहीं मिलता परमात्मा, और मैं परमात्मा को पाए बिना कैसे रह सकता हूं, तो मैं संन्यासी होता हूं।
लेकिन अभी उसकी जो भाषा है वह गृहस्थ की है। अभी उसे पता भी नहीं चला कि वह गृहस्थ का जो फ्रेमवर्क है गृहस्थ के दिमाग का, उसके बाहर नहीं हो रहा है। वह उसी के भीतर चल रहा है। अब वह नये उपाय में लग जाएगा--पूजा करेगा, प्रार्थना करेगा, जप करेगा, तप करेगा। ये सब प्रयत्न होंगे पाने के। लेकिन जो पाया ही हुआ है, उसे पाने का कोई भी प्रयत्न उचित नहीं है, अनुचित है। उसे जानना है, पाना नहीं है। इस फर्क को समझ लेना चाहिए कि उसे सिर्फ जानना है, पाना नहीं है। वह पाया हुआ है। ऐसे ही जैसे हमारी जेब में कुछ चीज पड़ी है और हम भूल गए हैं। और अब उसे खोजते फिर रहे हैं, खोजते फिर रहे हैं, और वह नहीं मिलती, क्योंकि वह जेब में पड़ी है।
सत्य की, प्रभु की, आनंद की सब खोज व्यर्थ है। असल में मत खोजिए, एक क्षण को भी कुछ मत खोजिए। एक क्षण को भी अगर सारी खोज रुक जाए, सारा लोभ रुक जाए, तो चित्त का आवागमन रुक जाएगा।
अब आप कहते थे कि कभी चित्त यहां जाता, कभी वहां जाता, कभी वहां जाता।
वह जाएगा ही, वह जाता ही रहेगा जब तक लालच है। तो जहां लालच दिखेगा वहीं चला जाएगा। एक जगह भर नहीं आएगा--जहां हमारा होना है, वहां भर नहीं आएगा, क्योंकि वहां कोई लालच नहीं दिखाई पड़ता। वहां पाने को क्या है? भीतर पाने को क्या है? भीतर पाने को कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। सब बाहर दिखाई पड़ता है पाने को। बड़े मकान हैं, वे बाहर हैं; धन के ढेर हैं, वे बाहर हैं; और परमात्मा है तो वह भी कहीं दूर आकाश में बाहर है। भीतर कुछ दिखाई नहीं पड़ता कि वहां जाएं किसलिए? क्या पाने को मिलेगा वहां? इसलिए चित्त सब जगह जाता है, एक जगह छोड़ देता है।
मैंने सुनी है एक कहानी कि भगवान ने सारी दुनिया बनाई है और जब आदमी को बनाया तो वह बहुत परेशान हो गया। क्योंकि आदमी को जैसे ही बनाया आदमी हजार शिकायतें, हजार सवाल, हजार समस्याएं लेकर पहुंचने लगा। तो उसने देवताओं से कहा कि यह तो मुझे सोने भी नहीं देगा, जीने भी नहीं देगा। ऐसी कुछ बताओ तरकीब कि मैं आदमी से बच सकूं।
तो किसी देवता ने कहा, हिमालय पर बैठ जाइए।
उसने कहा, कितनी देर हम बचेंगे हिमालय पर? आज नहीं कल कोई हिलेरी, कोई तेनसिंह चढ़ जाएगा।
तो किसी ने कहा, चांद पर बैठ जाइए।
उसने कहा, वह भी बहुत दिन दूर नहीं जब आदमी वहां पहुंच जाएगा।
दूर के तारे सुझाए। लेकिन उन्होंने कहा कि नहीं, वह कहीं काम नहीं करेगा। कुछ ऐसी जगह बताओ जहां आदमी पहुंचे ही नहीं।
तब एक बूढ़े देवता ने कहा, फिर एक ही जगह है, आप आदमी के भीतर बैठ जाइए। और वहां वह कभी नहीं जाएगा। चांद पर पहुंच जाएगा, लेकिन वहां कभी नहीं आएगा।
और भगवान इसके लिए राजी हो गए, यह बात उनकी समझ में आ गई।
यह तो कहानी है। लेकिन सच्चाई भी यही है। लोभ ले जाता है बाहर, लोभ ले जाता है दूर, लोभ ले जाता है भविष्य में। और जिसकी आप बात कर रहे हैं भगवत्‌-प्राप्ति की, वह है अभी, यहीं, इसी वक्त, हियर एंड नाउ; न कल, न परसों; भविष्य में नहीं; अभी, इसी क्षण, यहीं, आपके पास ही, आप में ही, आप ही मौजूद है।
वह जो कह रहा है कि कहां खोजूं? वही है जिसको खोजना है। जो कह रहा है कि कहां जाऊं? किस लालच से जाऊं? वह जो यह कह रहा है, जो यह पूछ रहा है, उसका ही पता लगा लेना है। और उसका पता लगा लेने के लिए किसी लोभ की, किसी लालच की, किसी दौड़ की, किसी खोज की, किसी उपाय की, किसी एफर्ट की कोई भी जरूरत नहीं है। उसके लिए चाहिए एफर्टलेसनेस, उसके लिए चाहिए सब प्रयत्नों का छोड़ देना, उसके लिए चाहिए सब दौड़ का बंद हो जाना, उसके लिए चाहिए लालच का निरस्त हो जाना, शून्य हो जाना। तब आप कहां जाएंगे? तब आप क्या करेंगे? तब आप वहीं होंगे जहां आप हैं। वहां करने की कोई जरूरत नहीं, वहां बिना किए ही आप हैं, किया कि चूक गए।
इसलिए न कोई उपाय है उसे पाने का, न कोई विधि, न कोई मेथड है उसे पाने का, न कोई मार्ग है उसे पाने का, न कोई गुरु उसे पहुंचा सकता है आपको, न कोई सहारा दे सकता है। जिस दिन आपके ये सारे भ्रम टूट जाएंगे, उस दिन आप पाएंगे कि उसे आपने पा लिया है।
और इसलिए यह तो पूछिए ही मत, मैं तो कोई लालच उसके लिए नहीं बता सकता। मैं तो यह भी नहीं कहूंगा कि वहां आनंद मिलेगा, मुक्त हो जाएंगे, अमृत हो जाएगा, अमर हो जाएंगे। ये सब लालच हमारे मन को पकड़ते हैं, क्योंकि मरने का हमें डर है, मृत्यु से हम भयभीत हैं। इसलिए हम चाहते हैं कि कोई विश्वास दिला दे कि उसे पा लेने से अमर हो जाएंगे, फिर मरेंगे नहीं। दुख हमें खा रहा है, तो हम चाहते हैं कि कोई आश्वासन दे दे कि आनंद वहां मिल जाएगा। जिंदगी हाथ से निकली चली जा रही है, कोई विश्वास दिला दे कि वहां परम जीवन मिल जाएगा। तो हम कुछ दौड़ने लगे, हम दौड़ने लगे। और मजा यह है कि दौड़ रहे हैं इसीलिए उसे पा नहीं सकते।
तो यह जो कंट्राडिक्शन है, यह अगर खयाल में आ जाए, दौड़ने की भाषा छूट जाएगी। तब रुकने की भाषा। तब भागने का खयाल नहीं, ठहरने का खयाल। तब इसलिए नहीं कि वहां क्या मिल जाएगा, बल्कि इसलिए उसे जानना है कि हम वहां हैं ही, चाहे कुछ मिले और चाहे कुछ न मिले। हम वहां हैं ही। और उस स्थल को तो जानना ही चाहिए जहां हम हैं। नहीं तो हमारा जीवन, हो सकता है कि जो हम कर रहे हैं वह बिलकुल विपरीत हो, जो हम हैं उसके बिलकुल विपरीत हो। उसे जान लेने की बात ही पर्याप्त है। और दो ही तरह की, दो ही तरह की संभावनाएं हैं। एक तो वे चीजें हैं जिन्हें हम कोशिश करके पा सकते हैं। और कुछ चीजें ऐसी हैं जिन्हें कोशिश करके हम खो सकते हैं।
जैसे आपको रात नींद न आती हो, और आप कोशिश करें नींद लाने की। क्योंकि आप कहेंगे कि बिना कोशिश के नींद कैसे आएगी? बिना प्रयास के कैसे नींद आएगी? तो आप प्रयास करें--गिनती गिनें, भगवान का नाम लें, मंत्र पढ़ें, उठें-बैठें, पैर धोएं, सिर धोएं, हजार उपाय करें, करवट बदलें--आप कहें कि बिना उपाय के नींद कैसे आएगी, तो मुझे कोई उपाय चाहिए।
तो मैं आपको कहता हूं कि फिर नींद रात भर नहीं आएगी; क्योंकि सब उपाय नींद में बाधा बनेंगे। नींद है विश्राम। किसी भी तरह का श्रम विरोध है उसका। नींद है अप्रयास, अप्रयत्न। और आपने प्रयत्न किया तो उलटा हो जाएगा। तो अगर नींद न आती हो तो अब कोई प्रयास न करें, बस चुपचाप पड़े रहें। प्रयास ही न करें नींद का, नींद की बात ही छोड़ दें, नींद लाने की कोशिश ही न करें। तो नींद आ सकती है। और आपने प्रयास किया कि आप गए, आप खो गए, फिर नींद नहीं आ सकेगी।
कुछ चीजें हैं जो आती हैं और हमें लानी नहीं पड़ती हैं। और परमात्मा इन चीजों में अंतिम चीज है--जो आता है, जिसे हम ला नहीं सकते।
लेकिन आप कहेंगे, फिर? फिर क्या हम कुछ भी न करें?
यह मैं नहीं कह रहा हूं।
सूरज निकला है, आपका द्वार बंद है, भीतर नहीं जाएगा, द्वार पर ठहरा रहेगा। लेकिन आप गठरी बांध कर सूरज की रोशनी को घर के भीतर नहीं ले जा सकते। आप ज्यादा से ज्यादा इतना कर सकते हैं कि द्वार खोल कर बैठ जाएं, प्रतीक्षा करें। आपकी तरफ से बाधा न रहे, बस इतना ही प्रयास है, अगर ठीक से समझें तो। पाजिटिवली आप कुछ भी नहीं कर सकते सूरज को भीतर लाने के लिए। विधायक रूप से आप नहीं उसको गठरी में बांध कर ला सकते हैं। निगेटिवली, नकारात्मक रूप से इतना कर सकते हैं कि आपकी तरफ से बाधा न रहे, सूरज आए तो आपकी तरफ से रुकावट न रहे। आप दरवाजा खोल सकते हैं, खिड़की खोल सकते हैं, फिर बैठ कर प्रतीक्षा कर सकते हैं।
सूरज आएगा, आप ला नहीं सकते। लेकिन आप रोक सकते हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए। आप ला नहीं सकते सूरज को भीतर, लेकिन आप आने से रोक जरूर सकते हैं। और अगर आने से रोक रहे हैं, तो नहीं आएगा सूरज। हालांकि ला नहीं सकते। सिर्फ आपकी रुकावट न हो, बाधा न हो, हिंडरेंस न हो, दरवाजा बंद न हो, वह आ जाएगा। लेकिन तब भी आप यह नहीं कह सकते कि मैं ले आया; यह आप कहेंगे तो गलती हो जाएगी।
इसलिए जो परमात्मा को उपलब्ध होता है, वह यह भी नहीं कह सकता कि मैंने पा लिया; वह इतना ही कहता है--उसकी कृपा। वह यह भी नहीं कह सकता कि मैंने पा लिया; क्योंकि मैं क्या पा सकता हूं? उसका प्रसाद! उसकी ग्रेस! उसकी अनुकंपा! वह मिला है! जिसको भी मिला है, वह यह नहीं कह सकता कि मैंने पा लिया है। वह अहंकार भी वहां काम नहीं कर सकता। क्योंकि अहंकार वहीं काम कर सकता है जहां हमारा प्रयत्न सफल होता हो। लेकिन जहां हमारा कोई प्रयत्न सफल नहीं होता, वहां अहंकार के खड़े होने का कोई उपाय नहीं। हम इतना ही कह सकते हैं कि मैंने बाधा नहीं दी। हम इतना ही कह सकते हैं कि मैं तैयार था कि वह आए। हम इतना ही कह सकते हैं कि मेरा द्वार खुला था। आया वही है, हम उसे लाए नहीं हैं, सिर्फ हमने रोका नहीं है।
इसे ठीक से समझ लें। जैसे मैं मुट्ठी बांधा हुआ हूं, और मैं जोर से मुट्ठी बांधे हुए हूं, और मैं किसी से पूछूं कि मैं मुट्ठी को कैसे खोलूं? क्या उपाय करूं? क्या प्रयत्न करूं? तो वह आदमी मुझे बताएगा उपाय मुट्ठी खोलने का! वह मुझे यही बताएगा कि तुम बांधो भर मत। तुम बांधने के लिए जो प्रयास कर रहे हो, वह भर कृपा करके मत करो, मुट्ठी खुल जाएगी। मुट्ठी खोली नहीं जाती; मुट्ठी सिर्फ खुलती है। हां, बांधी जा सकती है। खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है। हमारे बिना कुछ किए मुट्ठी खुल जाती है, हमारे बिना कुछ किए मुट्ठी बंधती नहीं।
स्वभाव का मतलब है: जो हमारे बिना किए होता है। विभाव का मतलब है: जो हमारे करने से होता है। परमात्मा हमारा स्वभाव है, इसलिए करने से नहीं होगा। लेकिन हम कोशिश करके उसे खो सकते हैं, हम उपाय करके उसे रोक सकते हैं।
मुट्ठी मुझे बांधनी पड़ती है, खोलनी नहीं पड़ती। हालांकि भाषा में दोनों बातें हम कहते हैं कि मुट्ठी खोल रहे हैं। खोलना बिलकुल झूठा शब्द है। खोलना क्रिया नहीं है, बांधना क्रिया है। बांधने में एक्ट है आपका। खोलने में कौन सा एक्ट है? खोलने में इनएक्ट है, इनएक्शन है। कहना चाहिए कि खोलने में बांधना भर नहीं कर रहे हैं आप। आप नहीं बांध रहे हैं, और मुट्ठी खुल गई है।
इस बात को अगर खयाल में ले लें, तो परमात्मा को खोजना नहीं है; हमने कैसे खोया है, यह भर समझ लेना है। यानी हमने किन तरकीबों से, किन उपाय से दीवालें और दरवाजे खड़े कर दिए हैं--कि जो हम से मिला ही हुआ है उससे भी मिलना मुश्किल हो गया है!
तो पूछना यह नहीं है कि हम कैसे उसे पाएं, पूछना यह है कि हमने कैसे उसे खोया है?
यह फर्क आप समझ रहे हैं न? क्योंकि फिर पूरी बात भिन्न हो जाएगी आगे जाकर। इतना फर्क खयाल में आ गया, तो सारी साधना का रूप बदल जाता है।
पूछना यह है कि किस उपाय से मैं उससे दूर हो गया हूं जिससे दूर होने का उपाय न था? कैसी तरकीब से मैंने सूरज को बाहर ठहरा दिया है? किस तरकीब से मैं अंधेरे में जी रहा हूं? कौन से दरवाजे हैं जो मैंने बंद कर दिए हैं और कौन से ताले हैं जिन पर मैंने चाबी जड़ दी है? यह पूछना जरूरी है।
लेकिन हम आमतौर से पूछते हैं, परमात्मा को कैसे पाएं? वह प्रश्न ही गलत है। पूछना चाहिए कि हमने परमात्मा को कैसे खोया? हाउ वी हैव लॉस्ट हिम? कैसे खो दिए हैं हम? क्योंकि परमात्मा को खोने का मतलब है अपने को खोना! हमने अपने को कैसे खो दिया है? हम अपने को कैसे भूल गए हैं? यह कैसे संभव हो गया है यह इंपासिबल? यह असंभव कैसे संभव हुआ है कि हम अपने को ही नहीं जान पा रहे हैं कि कौन हैं? इससे ज्यादा असंभव कोई बात हो सकती है!
मैं हूं, मैं जानता भी हूं कि हूं, और फिर भी नहीं जानता कि कौन हूं! बड़ी अदभुत घटना घट गई है! अगर दुनिया में कोई मिरेकल, कोई चमत्कार घटित हुआ है, तो वह चमत्कार यह नहीं है कि किसी ने ताबीज बना दिया हवा से और किसी ने राख गिरा दी है हवा से, कि किसी ने किसी अंधे की आंखें ठीक कर दी हैं। इस जगत में जो सबसे बड़ा चमत्कार हो गया है, वह यह कि हम हैं, जानते हैं कि हैं, और पता नहीं कि कौन हैं! और पता नहीं कहां थे! और पता नहीं कहां के लिए जा रहे हैं! यह एकमात्र मिरेकल है! और यह कैसे संभव हुआ है, यह समझना चाहिए। और अगर यह हमारी समझ में आ जाए कि यह कैसे संभव हुआ है, तो कठिन नहीं है यह बात कि हम मुट्ठी बांधना बंद कर दें और मुट्ठी खुल जाए।
कुछ तरकीबें हैं मन की जिनसे यह संभव हुआ है। पहली तो मन की तरकीब यह है कि वह आपको कभी वर्तमान में नहीं जीने देता। जीने ही नहीं देता! आप कभी वर्तमान में होते ही नहीं! यहां और अभी आप कभी नहीं होते। या तो पीछे अतीत में होते हैं, जो जा चुका, जो अब नहीं है; या भविष्य में होते हैं, जो अभी आया नहीं और नहीं है। जो है, जो अभी है इसी वक्त, उसमें आप कभी होते ही नहीं। तो मन की एक ट्रिक है कि वह आपको वर्तमान से चुकाता रहता है। और वर्तमान से अगर आप चूक गए तो दरवाजा बंद हो गया, क्योंकि वर्तमान दरवाजा है--सत्य का, अस्तित्व का, एक्झिस्टेंस का।
अगर इसे ठीक से समझ लें कि अस्तित्व में न तो अतीत है कुछ और न भविष्य है कुछ। अस्तित्व तो सदा वर्तमान है। इसलिए आप परमात्मा के लिए पास्ट टेंस का या फ्यूचर टेंस का उपयोग नहीं कर सकते। आप यह नहीं कह सकते: गॉड वाज़। नहीं कह सकते: ईश्वर था। आप यह भी नहीं कह सकते: गॉड विल बी; कि ईश्वर होगा। आप तो जब भी कहेंगे तब: गॉड इज़। ईश्वर के लिए अतीत और भविष्य का उपयोग नहीं हो सकता, वह है।
सच बात यह है कि ‘है’ कहना भी परमात्मा को गलत है, क्योंकि हम ‘है’ उस चीज को कहते हैं जो ‘नहीं है’ भी हो सकती है। हम कहते हैं: तख्त है, टेबल है। क्योंकि कल टेबल नहीं हो सकती है; कल नहीं थी। जो कल नहीं थी, कल नहीं हो सकती है, उसको है कहने का कोई मतलब है। परमात्मा को है कहना भी मुश्किल है, क्योंकि वह है-पन है। गॉड इज़, ऐसा कहना गलत है, इज़नेस, वह जो होना है, वही परमात्मा है। और वह सदा वर्तमान है, वह न कभी अतीत है, न कभी भविष्य। और हम, हम कभी वर्तमान में नहीं हैं। द्वार बंद हो गया।
मैंने सुनी है एक कहानी कि एक आदमी, अंधा आदमी, एक बहुत बड़े भवन में कैद कर दिया गया है। हजारों दरवाजे हैं उस भवन में, सब बंद हैं, सिर्फ एक दरवाजा खुला है। और वह अंधा आदमी एक-एक दरवाजे को टटोलते हुआ घूमता है--दरवाजा बंद, दरवाजा बंद, दरवाजा बंद। घूमते, घूमते, घूमते उस दरवाजे के पास आता है जो दरवाजा खुला है। लेकिन उसे खुजान चली और उसने सिर खुजाया और वह दरवाजा चूक गया। वह फिर आगे के दरवाजे पर टटोल रहा है, वह फिर बंद है। फिर वहां से घूमता है, घूमता है, घूमता है। फिर वहां आता है, और फिर थक जाता है, सब दरवाजे बंद हैं, ऊब जाता है और फिर दो-चार दरवाजे नहीं टटोलता, फिर वह दरवाजा चूक जाता है। लेकिन क्या करेगा अंधा आदमी? फिर टटोलना शुरू करता है। ऐसी कहानी चलती है कि वह बार-बार उस दरवाजे को चूक जाता है जो खुला है, जहां से वह निकल सकता है वह चूक जाता है।
कहानी के सच होने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन हम वर्तमान के दरवाजे को निरंतर चूक जाते हैं। पर वही खुला है सिर्फ। और बड़ा संकरा दरवाजा है, क्योंकि हमारे हाथ में क्षण का हजारवां हिस्सा ही होता है एक बार में, दो हिस्से भी नहीं होते। बस वह क्षण का एक हिस्सा हमारे हाथ में है, वही अस्तित्व है, बारीक लकीर एग्झिस्टेंस की वही है। और उसे हम चूक जाते हैं, क्योंकि मन या तो पीछे की सोचता रहता है या आगे की सोचता रहता है।
तो मैं आपको यह कह रहा हूं कि कैसे आप चूक गए। आपसे यह नहीं कह रहा हूं कि कैसे आप पा लेंगे। मैं कह रहा हूं कि इस भांति आप चूक गए। उस अंधे आदमी से मैं यह कहूंगा कि तूने खुजाया, उसमें तू चूक गया। अब किसी दरवाजे पर खुजाना मत। तू ऊब गया, घबड़ा गया और दो-चार दरवाजे तूने बिना टटोले छोड़ दिए। अब तू मत घबड़ाना, अब मत ऊबना, नहीं तो फिर चूकने का डर, संभावना है।
वर्तमान में होना दरवाजे पर खड़े हो जाना है।
और ऐसा कभी नहीं हुआ कि जो आदमी वर्तमान में खड़ा हो गया है, उस आदमी को परमात्मा से क्षण भर के लिए भी वंचित रहना पड़ा हो, ऐसा कभी हुआ ही नहीं।
चित्त को वर्तमान में ले आना ही ध्यान है, वही मेडिटेशन है, वही समाधि है। और चित्त को वर्तमान से यहां-वहां भटकाए रहना, वही चंचलता है, वही उपद्रव है। और ध्यान में रहे कि हम आखिर वर्तमान से चूक क्यों जाते हैं? लोभ चुका देता है, लालच चुका देता है। क्योंकि लोभ हमेशा भविष्य की बातें करता है। लोभ वर्तमान की बात करता ही नहीं। करेगा कैसे? जो भी पाना है वह अभी तो पाया नहीं जा सकता। जो भी पाना है वह कल ही पाया जा सकता है, आगे ही पाया जा सकता है, इसी वक्त पाने का तो कोई उपाय नहीं है। इसलिए लोभ हमेशा भविष्य की भाषा बोलता है।
लोभ चुका देता है और अहंकार चुका देता है। अहंकार सदा अतीत की भाषा बोलता है, पास्ट की--जो पाया, जो मिला, जो किया, जो बनाया, वह सब पास्ट में है। अहंकार सदा ही अतीत की भाषा बोलता है कि मैं फलां आदमी का बेटा हूं! क्यों? जो होगा उस
का तो पता नहीं है, जो हो चुका है उसी का मैं दावा कर सकता हूं। मेरे पास इतने करोड़ रुपये हैं! होंगे उनका तो दावा नहीं कर सकते आप, जो हो चुका है। मेरी तिजोड़ी इतनी बड़ी! और मैं इतनी बड़ी कुर्सी पर रहा हूं! मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं। वह जो समबडी हूं, मैं कुछ हूं, वह हमेशा पास्ट से आता है। वह हमारे अतीत का संग्रह है, जिसको हमने जोड़ कर खड़ा कर लिया है। वह हमारा अहंकार है। अहंकार हमें पीछे ले जाता है, लोभ हमें आगे ले जाता है। और गौर से देखें तो लोभ और अहंकार एक ही चीज के दो हिस्से हैं। जो लोभ पूरा हो चुका है वह अहंकार बन गया, जो लोभ पूरा होगा वह अहंकार बनेगा। जो लोभ पूरा हो चुका वह अहंकार बन गया, जो पूरा होगा वह अहंकार बनेगा। जो अहंकार बन गया है वह लोभ है, जिससे आप गुजरे; और वह लोभ जो अभी आगे पकड़ रहा है, वह भविष्य में बनने वाला अहंकार है, जिससे आप गुजरेंगे।
समस्त लोभ का संग्रह अहंकार है, वह अतीत में भटकाता है।
इसलिए बूढ़ा आदमी होगा तो वह अतीत में भटकता रहेगा, क्योंकि आगे तो मौत है, तो अब वहां लोभ की गुंजाइश कम है। तो वहां क्या लोभ करिएगा? तो बूढ़े आदमी का मन हमेशा अतीत में भटकता रहता है, वह बैठा है और सोच रहा है--जवानी जो थी, दिन जो गए, यादें जो हैं भीतर छिपी, वह उनका सोचता रहेगा। बूढ़ा आदमी अतीत में सोचता रहेगा, क्योंकि भविष्य में दिखाई पड़ती है मौत। वहां वह देखना भी नहीं चाहता। वह लौट कर पीछे देखता रहता है। बच्चे, जवान सदा भविष्य में देखते रहेंगे; अभी उनका अहंकार बना नहीं, बनने की प्रतीक्षा कर रहा है। तो बच्चे और जवान सदा भविष्य-उन्मुख होंगे, फ्यूचर सेंटर्ड होंगे। लोभ अभी बनेगा। बूढ़े आदमी हमेशा पास्ट सेंटर्ड होंगे, बीत गया जो, वे उसी में खोए रहेंगे, उन्हीं स्मृतियों में। क्योंकि बूढ़े ने यात्रा कर ली अहंकार की, बच्चा अभी यात्रा करेगा।
तो बच्चे और जवान लोभ में जीते हैं, बूढ़ा आदमी अहंकार में जीता है। जितनी उम्र बीतती जाती है, अहंकार उतना मजबूत होता चला जाता है, सख्त होता चला जाता है। इसलिए वृद्ध आदमी क्रोधी हो जाता है, चिड़चिड़ा हो जाता है। क्योंकि आगे तो कुछ भी नहीं है अब, जो है पीछे है। और अहंकार की गांठ मजबूत हो गई है। अहंकार की गांठ चिड़चिड़ापन, क्रोध, सब पैदा करती है।
अगर इसे समझ लेंगे तो खयाल में आ जाएगा कि अहंकार पीछे ले जाता है, लोभ आगे ले जाता है, वे एक ही चीज के दो हिस्से हैं। मरे हुए लोभ का नाम अहंकार है। मरे हुए लोभ का नाम अहंकार है और अजन्मे अहंकार का नाम लोभ है, वह जो अभी जन्म लेगा। और इस वजह से हम चूक रहे हैं वर्तमान से जहां कि सत्य है, जहां कि अस्तित्व है। लेकिन लोभ बड़ा कुशल है, जब सब तरह के लोभ से चुक जाएगा तो वह कहता है: अब परमात्मा को भी पाना चाहिए। यह भी अहंकार ही है। लोभ बड़ा कुशल है, अहंकार की बड़ी अनंत आकांक्षाएं हैं, जब सब पा लेता है वह--धन पा लेता, यश पा लेता, प्रेम पा लेता, आदर पा लेता--तब वह कहता है कि ठीक है, यह सब पा लिया, अब परमात्मा को भी पाना है, अमृत को भी पाना है, आनंद को भी पाना है, मोक्ष को भी पाना है। अब मोक्ष कैसे मिले? फिर वह लोभ की भाषा में मोक्ष की बातें सोचने लगता है।
चूक गया। उसे पता नहीं है कि यही भाषा तो इतने दिन चुकाती रही है, यही भाषा फिर आगे भी पकड़े रहेगा वह। हो सकता है वह ढंग बदल ले अपना, मधुशाला न जाकर मंदिर जाने लगे, फिल्में न देख कर भजन-कीर्तन करने लगे। यह सब कर लेगा वह। लेकिन उसके चित्त का जो तनाव था--लोभ का और अहंकार का--वह जारी है और उसी से वह चूक रहा है।
तो मैं कैसे कहूं आपसे कि आप क्या लोभ करें! मैं तो आपसे कहूंगा, आप लोभ को समझ लें, कि लोभ चुकाने वाला है; और आप अहंकार को समझ लें, कि अहंकार चुकाने वाला है। और आप यह समझ लें कि अतीत और भविष्य चुकाने वाले हैं, वर्तमान मिलाने वाला है, वही अस्तित्व है।
तो एक क्षण को भी अगर आप उस जगह पहुंच जाएं जहां आप कह सकें: अब कोई अतीत नहीं मेरे पास और कोई भविष्य नहीं मेरे पास, बस मैं हूं। आप उसी क्षण परमात्मा में प्रविष्ट हो जाएंगे। उसी क्षण! एक क्षण में भी यह घटना घट जाएगी। कोई ऐसा सवाल नहीं है कि इसके लिए जन्म-जन्म लगें। हां, चूकने में जन्म-जन्म लग सकते हैं। दरवाजा बंद है तो वर्षों तक यह हो सकता है कि दरवाजा बंद हो और रोशनी भीतर न आए। लेकिन यह नहीं हो सकता कि दरवाजा खुले और रोशनी एक क्षण भी बाहर ठहरी रह जाए। रोशनी तो कभी ठहरना ही नहीं चाहती, क्योंकि वह तो निरंतर आने के लिए पुकार ही कर रही थी, द्वार को ठोंके ही चली जा रही थी। आप थे कि द्वार बंद किए थे।
तो यह तो हो सकता है कि एक आदमी जीवन भर दरवाजा बंद रखे और अंधेरे में जीए, लेकिन यह नहीं हो सकता कि एक क्षण को दरवाजा खोले और अंधेरे में जीए। यह असंभव है। और ऐसा भी नहीं हो सकता कि कोई आदमी कहे कि चूंकि मेरा दरवाजा इतने दिन तक बंद था, इसलिए एक क्षण में कैसे रोशनी भीतर आएगी? ऐसा भी नहीं होता।
इसलिए जो लोग कहते हैं कि इतने जन्मों का कर्म है, इतने जन्मों का पाप है। निपट नासमझी की बात कहते हैं। हजारों जन्मों का पाप भी एक क्षण को वर्तमान में खड़े हुए व्यक्ति को परमात्मा से नहीं रोक सकता। पाप ही क्या था? पाप सिर्फ इतना ही था कि आप वर्तमान में खड़े नहीं हुए थे। और पाप क्या था? आप भविष्य में या अतीत में भागते रहे थे।
एक कमरे में हजारों साल से अंधेरा घिरा हो, तो ऐसा नहीं हो सकता कि आप दीया जलाएं, तो अंधेरा कहे, मैं हजारों साल का हूं, इतनी जल्दी कैसे मिट सकता हूं? हजारों साल तक दीये जलाओ, तब मैं मिटूंगा। अंधेरा ऐसा नहीं कह सकता। अंधेरा एक रात का हो कि हजार साल का हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। दीया जलता है और अंधेरा मिटता है। असल में अंधेरे की कोई पर्तें नहीं होतीं कि एक दिन का अंधेरा, और दो दिन का अंधेरा तो दोहरी पर्त हो जाए, कि तीन दिन का अंधेरा तो तिहरी पर्त हो जाए। अंधेरे की कोई पर्त नहीं होती कि वह डेंस हो जाए, घना हो जाए। अंधेरा घना नहीं होता, अंधेरा बस अंधेरा है और एक दीये की लौ सब तोड़ देती है।
पाप की भी कोई पर्त नहीं होती, क्योंकि पाप भी अंधेरा है, अज्ञान है, अविद्या है, उसकी भी कोई पर्त नहीं होती। लेकिन सवाल सिर्फ इतना है, सवाल सिर्फ इतना है कि हम वहां खड़े हो जाएं जहां द्वार खुलता है।
हां, पाप की आदत होती है, पर्त नहीं होती। अंधेरे की भी आदत होती है। यह हो सकता है कि एक आदमी वर्षों से अंधेरे में रहा हो, द्वार खोल दे, रोशनी आ जाए, लेकिन उसकी आंख बंद हो जाए, यह हो सकता है। यह हो सकता है कि सालों से अंधेरे में रहा आदमी द्वार खोल दे, रोशनी भीतर आ जाएगी फौरन, उसके द्वार खोलने में और रोशनी के आने में क्षण का भी फासला नहीं होगा--युगपत। ऐसा द्वार खुला, इधर रोशनी आई; इधर द्वार खुलता गया, रोशनी आती गई। द्वार का खुलना और रोशनी का आना एक ही क्रिया के दो हिस्से होंगे। लेकिन यह हो सकता है कि सैकड़ों वर्षों से अंधेरे में रहे आदमी की आंखें रोशनी देखने में असमर्थ हो जाएं। वह आंख बंद कर ले और फिर अंधेरे में हो जाए, यह हो सकता है। अंधेरे की आदत हो सकती है। पाप की भी आदत हो सकती है, पर्त नहीं होती।
लेकिन आदत तोड़ी जा सकती है। आदत समझपूर्वक अपने आप ही टूट जाती है। आदत तोड़ना बहुत कठिन नहीं है। अगर अंधेरे की पर्तें होतीं तो तोड़ना बहुत कठिन था। रोशनी आ गई है, आंख बंद हो गई है, अब वह आदमी धीरे-धीरे आंख--एक बार, दो बार, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे रोशनी का अभ्यस्त हो सकता है, आंखें थोड़ी देर में खोल लेगा, रोशनी देख लेगा, बंद भी कर सकता है बीच-बीच में, खोल भी सकता है, धीरे-धीरे रोशनी का भय मिट जाएगा, वह रोशनी में जीने लगेगा।
परमात्मा का अनुभव एक क्षण में हो जाता है। लेकिन परमात्मा को सहने में थोड़ा वक्त लग जाता है। सहने में! क्योंकि इतनी बड़ी शक्ति और इतना बड़ा प्रकाश हम पर उतरता है, थोड़ा वक्त लग जाता है। कई बार तो हम घबड़ा कर वापस तक लौट सकते हैं, डर भी सकते हैं। क्योंकि आनंद भी अगर एकदम से उतर आए, तो प्राणों को कंपा जाता है। परमात्मा की उपलब्धि तो एक क्षण में हो जाती है। हां, उपलब्धि के लिए राजी होने में थोड़ा वक्त लग सकता है, वह दूसरी बात है।
उपलब्धि का द्वार है: वर्तमान में खड़े होना। और इसलिए इस दिशा में थोड़ा सा काम शुरू करें। इस दिशा में थोड़ा सा काम शुरू करें, चौबीस घंटे में आधे घंटे, पंद्रह मिनट के लिए द्वार बंद करके अंधेरे में चुपचाप बैठ जाएं, कुछ भी न करें। कुछ भी न करें, चुपचाप बैठ जाएं।
बोलने में ऐसा लगता है कि बैठना भी करना ही हुआ। बोलने में वैसा ही लगता है कि मुट्ठी खोलना भी करना ही हुआ। बोलने में भर ऐसा लगता है। असल में बैठ जाने का मतलब है कि जो-जो आप करते थे वह न करें, जो-जो कर रहे थे चौबीस घंटे वह न करें। चुपचाप अंधेरे में बैठ जाएं आधा घंटे को और ऐसा छोड़ दें अपने को कि हम कुछ कर ही नहीं रहे हैं। जैसे एक सूखा पत्ता वृक्ष से गिरे, बस, हवाएं उसको पूरब ले जाएं तो पूरब चला जाए, पश्चिम ले जाएं तो पश्चिम चला जाए, न ले जाएं तो गिर जाए जमीन पर। लेकिन अपनी तरफ से कहीं न जाए।
इस बात को थोड़ा समझना। एक गिरता हुआ पत्ता है वृक्ष से, सूखा पत्ता गिर रहा है नीचे। उसकी अब अपनी कोई इच्छा नहीं, अब उसे कहीं पहुंचना नहीं, अब उसे कुछ होना नहीं। अब तो हवाओं की इच्छा पर उसने छोड़ दिया अपने को--सरेंडर्ड--समर्पित है। हवाएं पूरब ले जाती हैं, पूरब चला; पश्चिम ले जाती हैं, पश्चिम चला; नहीं ले जाती हैं, गिर गया। उठा लेती हैं आकाश में, उठ गया; नहीं उठाती हैं, जमीन पर विश्राम करता है। बस सूखे पत्ते का भाव समझ लें और एक आधा घंटे के लिए द्वार बंद करके सूखे पत्ते हो जाएं। अपनी तरफ से कुछ न करें।
इसका मतलब यह नहीं कि सब होना बंद हो जाएगा। विचार चलेंगे, पर उनको हवाओं का धक्का समझें, इससे ज्यादा नहीं। हवाएं विचार इधर ले जाएं, जाने दें; हवाएं विचार इधर ले जाएं, जाने दें। आप न रोकें, न ले जाएं, आप कोई भी काम न करें। ले जाने का भी काम मत करें, रोकने का भी काम मत करें। आप बस साक्षी हो जाएं और देखते रहें कि सूखे पत्ते की तरह हैं, हवाएं जो कर रही हैं, कर रही हैं। परमात्मा जो करवा रहा है, हो रहा है। परमात्मा कह रहा है बुरे विचार करो, तो बुरे विचार हो रहे हैं। परमात्मा कह रहा है अच्छे विचार करो, तो अच्छे विचार हो रहे हैं। न हमें अच्छे से मतलब है, न हमें बुरे से मतलब है। हम निर्णायक ही नहीं हैं, हम कोई डिसीजन नहीं लेते, हम कुछ भी नहीं करते, हम सिर्फ ना-कुछ होकर बैठ गए हैं।
बड़ा मुश्किल है। क्योंकि धार्मिक आदमी को निरंतर यह सिखाया जाता है: बुरा विचार छोड़ो, अच्छा विचार करो; बुरे विचार को मत आने दो, अच्छे को लाओ।
फिर आपने करना शुरू कर दिया। फिर आप उलझ गए चक्कर में। फिर आप वर्तमान में न हो सकेंगे। क्योंकि वर्तमान में बुरा विचार आया है और भविष्य में अच्छा विचार है जिसको लाना है; और वर्तमान को हटाना है और भविष्य को लाना है। आप उपद्रव में पड़ गए, फिर वर्तमान में होना असंभव है।
ध्यान के प्रयोग में आदमी बुरे-भले का भी विचार नहीं करता। वह विचार ही नहीं करता। जो आता है, चुपचाप देखता रहता है। जैसे सड़क पर खड़ा हुआ एक आदमी देख रहा है--लोग गुजर रहे हैं, अच्छे भी, बुरे भी, रास्ता चल रहा है--वह चुपचाप खड़ा देख रहा है। आधा घंटे के लिए चुपचाप खड़े हो जाएं और देखते रहें; जो भी हो रहा है होने दें। रोकें जरा भी नहीं, क्योंकि रोकना आपका कृत्य बन जाता है और आप काम में लग गए। और करें भी न, राम-राम भी न करें, क्योंकि वह भी आपका कृत्य बन जाता है, आप फिर काम में लग गए।
आप कुछ करें ही मत अपनी तरफ से, आप अपनी तरफ से बिलकुल शून्य हो जाएं। और जो हो रहा है आंख के पर्दे पर, होने दें। जो भी गुजर रहा है, गुजरने दें; आ रहा है, आने दें; जा रहा है, जाने दें। न आप रोकें, न आप छेड़ें, न आप बीच में उतरें, आप किसी तरह का इनवॉल्वमेंट न लें, दूर खड़े देखते रहें।
कठिन होगा, क्योंकि हमारी आदत निरंतर हर चीज के साथ उलझ जाने की है। चुपचाप बैठ जाना कठिन होगा। चुपचाप का यह मतलब नहीं कि विचार नहीं होंगे, विचार तो होंगे। लेकिन आप चुपचाप हों, विचारों को चलने दें। जैसे एक फिल्म चल रही है पर्दे पर। मस्तिष्क का भी एक पर्दा है, एक प्रोजेक्टर है उसका, जो फिल्म चलाता रहता है। एक फिल्म चल रही है पर्दे पर, बस इतना समझें कि विचार चल रहे हैं, स्मृतियां आ रही हैं, भविष्य के खयाल आ रहे हैं। आने दो, चुपचाप बैठे रहो, देखते रहो।
आज कठिन होगा, कल कठिन होगा, परसों कठिन नहीं होगा। बस हिम्मत इतनी रखनी है कि कूद मत जाना, कि अरे यह बुरा विचार आ गया, इसे अलग करो। बुरे-भले से कुछ लेना-देना नहीं है। साक्षी को न कुछ बुरा है, न कुछ भला है। कांटे भी उतना ही अर्थ रखते हैं, फूल जितना अर्थ रखते हैं। न कांटा बुरा है, न फूल अच्छा है। हम हमारी अपनी समझ के हिसाब से अच्छा-बुरा कर लेते हैं। सब चीजें हैं, और आप चुपचाप बैठे रहें।
कुछ ही दिनों में, अगर चुपचाप बैठे हैं, तो एक अदभुत अनुभव शुरू होगा। और वह अनुभव यह होगा कि कभी-कभी ऐसा होगा कि गैप आ जाएगा, इंटरवल आ जाएगा, अंतराल आ जाएगा। कभी-कभी ऐसा होगा कि विचार थोड़ी देर के लिए नहीं होंगे, एकदम लुप्त हो जाएंगे। एक विचार आया और फिर दूसरा नहीं आया और बीच में खाली जगह छूट जाएगी।
उसी खाली जगह से आपको पहली झलकें मिलनी शुरू होंगी। और उस खाली जगह में आप भी नहीं होंगे, इतनी खाली जगह होगी कि बस खालीपन होगा, जस्ट एंप्टीनेस। वही द्वार है, वहीं से पहली झलकें आपको मिलनी शुरू होंगी। और निरंतर इस प्रक्रिया में लगे रहे तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे विचार कम होने लगेंगे, खाली जगह ज्यादा होने लगेंगी।
ऐसा जैसे रास्ते पर एक आदमी निकला और फिर घंटे भर तक दूसरा आदमी नहीं निकला और रास्ता खाली रह गया। एक विचार आया पर्दे पर, फिर दूसरा नहीं आया और बहुत देर के लिए पर्दा खाली सफेद रह गया। उस सफेदी में से, उस खालीपन में से, उस एंप्टीनेस में से आपके पहले संपर्क परमात्मा से शुरू होंगे, क्योंकि उस क्षण में आप वर्तमान में होंगे। उस क्षण में न आप अतीत में हो सकते, न आप भविष्य में हो सकते। क्योंकि विचार अतीत में ले जा सकता है, विचार भविष्य में ले जा सकता है। जहां विचार नहीं है वहां आप कहीं भी नहीं जा सकते, आप वही होंगे जहां हैं। विचाररहित हुए कि आप वर्तमान में हुए। वर्तमान में होने का अर्थ है: विचाररहित हो जाना।
लेकिन विचाररहित होने की कोशिश मत करना, नहीं तो कभी विचाररहित नहीं हो सकते। बस चुपचाप देखना विचार को, वह अपने से जाता है। जितना-जितना हमारा देखना बढ़ता है उतना-उतना विचार कम होता है। प्रपोर्सनेटली! जितना हम जागते हैं भीतर उतना विचार खतम होता है। जिस दिन हम पूरे जाग जाते हैं उस दिन विचार नहीं रह जाता। और जहां विचार नहीं रहा और हम पूरे जागे हुए रहे, टोटली अवेयर--विचार गए, हम जागे हैं, अब हम कहां होंगे? अब हम वहीं होंगे जहां हम हैं, एक इंच इधर-उधर नहीं हो सकते। तब हम खड़े हो गए उस द्वार पर, जहां से मिलन हो जाता है।
और इसलिए इसे लोभ की भाषा में मत समझना। आनंद मिलेगा, लेकिन आनंद पाने की भाषा में मत समझना। आनंद आएगा, लेकिन आनंद को लक्ष्य मत बनाना। अमृतत्व मिलेगा, लेकिन अमृतत्व की चेष्टा मत करना। भगवत्‌-प्राप्ति होगी, लेकिन भगवत्‌-प्राप्ति की नहीं जा सकती। इस छोटे से बारीक भेद को समझ लेना। भगवत्‌-प्राप्ति होगी, लेकिन भगवत्‌-प्राप्ति की नहीं जा सकती। करने वाला अहंकार भी वहां नहीं चल सकता है। और इसलिए मैंने कहा कि लोभ और प्रलोभन, लालच, इस दिशा में इनकी इंच भर गति नहीं है।

यत्न तो, महाराज, करना पड़ता है न?
नहीं, वही मैं समझा रहा हूं।

यत्न करना ही नहीं।
नहीं, जरा भी नहीं।

ऐसे ही सरेंडर हो जाना।
बिलकुल सरेंडर। क्योंकि यत्न किया तो सरेंडर नहीं हो सकता। उसका मतलब है कि हम कुछ करेंगे। सरेंडर का मतलब है कि हम क्या कर सकते हैं?

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
कुछ भी समझिए।

कि मैं आपके सुपुर्द करता हूं।
आपके किसके? आपका तो आपको पता ही नहीं है अभी। और सुपुर्द करता हूं, तब फिर एक्ट शुरू हो गया। इसे थोड़ा समझने की बात है न! इतने बारीक फासले हैं। जब हम कहते हैं कि सुपुर्द करता हूं, तो हो सकता है कल हम कहें कि वापस लेता हूं। वह क्या कर लेगा?

तो जीरो बन जाएं?
हां, वही मैं कह रहा हूं। सुपुर्द करता हूं, इसमें भी हमारा एक्ट जारी है। हम कुछ कर रहे हैं। करने के मालिक हम ही हैं। तो मेरा कहना है, यू कैन नॉट सरेंडर, यू कैन ओनली बी सरेंडर्ड।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां, समझे न! लेकिन वह जो, जो बारीक फासला अगर न दिखाई पड़े, तो निरंतर भूल होती चली जाती है।
हम समर्पण कर नहीं सकते। क्योंकि हम करेंगे तो समर्पण हमारा कृत्य हुआ। और जो हमारा कृत्य है उसे हम वापस ले सकते हैं। कल हम कह सकते हैं कि बस ठीक है, अब हम वापस लेते हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
इसकी कठिनाई जो है न, कठिनाई जो है, कृष्ण क्या कह रहे हैं वही हम समझ रहे हैं, यह बहुत मुश्किल है। हम करने की भाषा में ही समझेंगे।
असल में समर्पण का अर्थ ही है, समर्पण का अर्थ ही है कि तू कुछ भी न कर। और जब आप कुछ भी नहीं करते, समर्पण हो जाता है। क्योंकि फिर होगा क्या? समर्पण किया नहीं जा सकता। आप कुछ भी न करें, समर्पण हो जाता है। कुछ भी न करने का अंतिम फल समर्पण है। और समर्पण भी किया तो चूक गए आप। इसको अगर हम ठीक से समझें, तो समर्पण मैं कर रहा हूं, मैं करूंगा.

यह तो अहंकार हो गया!
तो गड़बड़ हो गई सब। फिर समर्पण कैसे होगा? नहीं, समझना यह है कि मैं समर्पित हूं, मैं समर्पित ही रहा हूं। उपाय क्या है? श्वास आपने ली है आज तक? लेकिन हम रोज यही कहते हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। श्वास सिर्फ आती-जाती है, आपने कभी भी ली नहीं आज तक जिंदगी में, किसी आदमी ने श्वास ली ही नहीं कभी, सिर्फ आती-जाती है। क्योंकि अगर हम लेते होते, मौत दरवाजे पर आ जाती, हम कहते, थोड़ा ठहरो, हम अभी श्वास जारी रखते हैं। लेकिन हमें पता है कि मौत द्वार पर आई तो जो श्वास बाहर गई तो बाहर, फिर हम उसे भीतर भी न ला सकेंगे।
लेकिन जिंदगी भर कहते हम यही हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। बड़ी भूल की बात कहते हैं। सवाल यह है समझने का कि श्वास मैंने कभी ली है? सिर्फ आई-गई है। मैं कहां हूं? न मैं जन्मा हूं, न मैं मरूंगा। जन्म भी हुआ है, मृत्यु भी होगी, श्वास भी चली है, विचार भी आए हैं, जीवन भी घटा है, जस्ट हैपंड, हमने कुछ किया क्या है? यह बोध हमारे खयाल में आ जाए कि मेरे किए बिना सब हुआ है। यह समझ में आ जाए, तो अब मैं क्या करूं? मैं कुछ भी नहीं करता, जो हो रहा है, हो रहा है।
ऐसी स्थिति में समर्पण हो जाता है, वह आपको करना नहीं पड़ता, वह घट जाता है। और जब वह घटता है तब आप वापस नहीं लौटा सकते। क्योंकि आपने किया होता तो आप वापस लौटा सकते थे; आपने किया ही नहीं, घट गया है, आप उसे वापस नहीं लौटा सकते।
वहां अमेरिका में एक नया, चित्रकारों का एक मूवमेंट है, उसको वे कहते हैं हैपनिंग। चित्रों की प्रदर्शनी करते हैं, अगर सौ चित्र प्रदर्शनी में लगाए गए हैं, तो दर्शक देखने आएंगे, तो हर चित्र के बगल में एक खाली कैनवस भी लगाते हैं, और खाली कैनवस के नीचे रंग और ब्रश भी रखे रहते हैं। फिर दर्शक देख रहे हैं, देख रहे हैं, देख रहे हैं.और किसी दर्शक को एकदम लगा और उसने ब्रश उठाया और उस खाली कैनवस पर कुछ पेंट किया तो पेंट किया। फर्क यही है कि अपनी तरफ से पेंट मत करना, क्योंकि अपनी तरफ से करोगे तो वह बेकार हो गया। होने देना, उस सिचुएशन में अगर ऐसा पकड़ जाए और होने लगे पेंट तो होने देना, रोकना भी मत। तो उसको वे हैपनिंग पेंटिंग कहते हैं। वह किसी ने बनाई नहीं है, उस पर किसी का नाम नहीं होता फिर, वह घटी, वह घट गई।
ईसाइयों में एक साधकों का संप्रदाय है क्वेकर। क्वेकरों की जो बैठक होती है, उस बैठक में कोई बोलने के लिए निमंत्रित नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं होता, बैठक भर होती है, इकट्ठे होते हैं, बैठ जाते हैं। नियम यह है कि अगर किसी को कभी बोलने जैसा हो जाए, तो वह खड़ा हो जाए और बोलने लगे, बाकी लोग सुनेंगे बिना कोई धन्यवाद दिए, फिर विदा हो जाएंगे। कई बार ऐसा होता है कि महीनों बीत जाते हैं, कोई नहीं बोलता। क्योंकि नियम का खयाल यह है, अपनी तरफ से बोलना ही मत। अगर ऐसा जरा भी लगे कि मैं बोल रहा हूं, फिर बोलना ही मत। क्योंकि वह पाप हो गया। हां, ऐसा लगे कि परमात्मा बोल रहा है, मैं हूं नहीं, ऐसा किसी दिन लगे तो खड़े हो जाना, बोल देना, हम सुन लेंगे और विदा हो जाएंगे। तो कई दफा महीनों बीत जाते हैं, उनकी बैठक में बोलना नहीं होता। लोग आकर बैठते हैं--चुपचाप बैठे रहते हैं, बैठे रहते हैं, बैठे रहते हैं--फिर विदा हो जाते हैं। लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई खड़ा हो जाता है और बोलता है। वे जो रिकार्ड्‌स हैं उनके बोलने के वे बड़े अदभुत हैं। क्योंकि तब वह आदमी की भाषा ही नहीं होती, वह आदमी की बात ही नहीं है, वह हैपनिंग हो रही है। उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
तो बैठें और शून्य हो जाएं, और जो होता है होने दें। बाहर सड़क पर कुत्ते की आवाज होगी, हॉर्न बजेगा, बच्चे चिल्लाएंगे, सड़क चलेगी, आवाजें आएंगी, आने दें! विचार चलेंगे, आने दें। मन में भाव उठेंगे, उठने दें। जो भी हो रहा है, होने दें। आप कर्ता न रह जाएं। आप बस साक्षी रह जाएं, देखते रहें, यह हो रहा है, यह हो रहा है, यह हो रहा है। जो हो रहा है, देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें।
इसी देखने में वह क्षण आ जाता है जब अचानक आप पाते हैं कि कुछ भी नहीं हो रहा, सब ठहरा हुआ है। और तब वह आपका लाया हुआ क्षण नहीं है। और तब आप एकदम समर्पित हो गए हैं और आप उस मंदिर पर पहुंच गए, जिसको खोज कर आप कभी भी नहीं पहुंच सकते थे। और वह मंदिर आ गया सामने और द्वार खुल गया है। और जिस परमात्मा के लिए लाखों बार सोचा था कि मिलना है, मिलना है, मिलना है, और नहीं मिला था, उसे बिना सोचे वह सामने खड़ा है, वह मिल गया है। और जिस आनंद के लिए लाखों उपाय किए थे और कभी उसकी एक बूंद न गिरी थी, आज उसकी वर्षा हो रही है और बंद नहीं होती। और जिस संगीत के लिए प्राण प्यासे थे वह अब चारों तरफ बज रहा है और बंद नहीं होता।
यह घटना घटती है, यह आपके घटाए नहीं घट सकती है। इसलिए आप अपने को हटा लेना और घटना को घटने देना। अपने को हटा लेना, अपने को बीच में खड़ा मत करना। आप हट ही जाना और घटना को घटने देना। बस इसको ही मैं भक्त का भाव कहता हूं या साधक की चेष्टा कहता हूं। कहना नहीं चाहिए, क्योंकि चेष्टा नहीं है यह, लेकिन भाषा में कोई और उपाय नहीं है।

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