YOG/DHYAN/SADHANA

Jeevan Sangeet 06

Sixth Discourse from the series of 9 discourses - Jeevan Sangeet by Osho.
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सत्य की खोज में, उसे जानने की दिशा में--जिसे जान कर फिर और कुछ जानने को शेष नहीं रह जाता है। और उसे पाने के लिए जिसे पाए बिना हम ऐसे तड़फते हैं, जैसे कोई मछली पानी के बाहर रेत पर फेंक दी गई हो। और जिसे पा लेने के बाद हम वैसे ही शांत और आनंदित हो जाएं, जैसे मछली सागर में वापस पहुंच गई हो। उस आनंद, उस अमृत की खोज में एक और दिशा और द्वार की चर्चा आज की संध्या मैं करूंगा।
सत्य को खोजने का उपकरण क्या है? रास्ता क्या है? साधन क्या है?
मनुष्य के पास एक ही साधन मालूम पड़ता है--विचार। एक ही शक्ति मालूम पड़ती है कि मनुष्य सोचे और खोजे। लेकिन सोचने और विचारने से कभी किसी को सत्य उपलब्ध नहीं हुआ है। विचार से कोई कभी कहीं नहीं पहुंचता। विचार से स्वयं के बाहर जो जगत है, उस संबंध में हम कुछ जान भी लें, लेकिन स्वयं के भीतर जो विराजमान है, उसे हम नहीं जान सकते हैं। और हम विचार ही करते-करते जीवन व्यतीत कर देते हैं।
न मालूम कैसे मनुष्य को यह भ्रम हो गया है कि हम सोचेंगे, तो हम जान लेंगे। जानने और सोचने का कोई भी संबंध नहीं है। सच तो यह है कि जो सोचना छोड़ दे, वही जान सकता है। सोचना और विचारना भी धुएं की तरह मन को घेरता है और मन के दर्पण को धूमिल करता है। मन का दर्पण पूरा--पूरा निश्छल, निर्दोष तो तभी होता है, जब मन में कोई विचार भी नहीं होते।
लेकिन, शायद आप कहेंगे, तो फिर हम विश्र्वास करें, श्रद्धा करें, उससे मिल जाएगा सत्य?
उससे भी नहीं मिलेगा। विश्र्वास विचार से भी नीचे की अवस्था है। विश्र्वास का अर्थ है: अंधापन।
विश्र्वास से नहीं मिलेगा। विचार से भी नहीं मिलेगा। और भी ऊपर उठना जरूरी है। इस बात को समझेंगे तो शायद साफ हो सके कि कैसे--कैसे हम खोजें।
तो पहले हम समझें कि विश्र्वास क्या है?
विश्र्वास है अंधी स्वीकृति। विश्र्वास का अर्थ है: न मैं सोचता, न मैं खोजता; न मैं ध्यान करता, न मैं निर्विचार में जाता; दूसरा कुछ कहता है उसे ही मान लेता हूं। दूसरे को इस भांति जो मानता है, उसके भीतर की आत्मा छिपी ही रह जाती है, उसे चुनौती ही नहीं मिलती कि वह जागे। और हम सब दूसरे की मान कर ही चल रहे हैं।
एक कहानी सुनी होगी आपने। लेकिन अधूरी सुनी होगी। कुछ ऐसा हुआ है कि आधी बातें, अधूरी बातें ही लोगों को बताई जाती रही हैं। और सत्य अगर आधा बताया जाए, तो असत्य से भी ज्यादा खतरनाक होता है। क्यों? क्योंकि असत्य तो दिख जाता है कि असत्य है; आधा सत्य दिखता भी नहीं कि असत्य है। आधा सत्य लगता है कि सत्य है। और ध्यान रहे, आधा सत्य जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। या तो सत्य होता है पूरा या नहीं होता है। अगर कोई आपसे आकर कहे कि मैं आधा प्रेम करता हूं आपको। तो आप कहेंगे, आधा प्रेम! सुना है कभी? आधा प्रेम होता नहीं; या तो होता है या नहीं होता है।
महत्वपूर्ण कुछ भी आधा नहीं होता; आधा करते ही नष्ट हो जाता है। और बहुत आधे सत्य प्रचलित हैं। यह कहानी भी आधी ही प्रचलित है। हर स्कूल में बच्चों को पढ़ाई जाती है। जब आप बच्चे होंगे, आपने भी पढ़ी होगी। और आपके बच्चे भी आधी ही कहानी पढ़ते रहेंगे। हम सबको पता है.।
एक सौदागर था, टोपियां बेचता था। किसी मेले में टोपियां बेचने जा रहा है। रास्ते में थक गया है, एक वृक्ष के नीचे रुका है। नींद लग गई है। वृक्ष पर से बंदर नीचे उतरे हैं। उन्होंने सौदागर को टोपी लगाए देखा है। उसकी टोकरी में टोपियां हैं बेचने को, उन्होंने टोपियां लगा लीं। सौदागर की नींद खुली, टोकरी खाली पड़ी है। हंसा सौदागर, क्योंकि सौदागर जानता था बंदरों की आदत। उसने ऊपर देखा, सब बंदर शान से टोपी लगाए बैठे हैं! बंदरों के सिवाय शान से टोपी लगा कर कोई बैठता ही नहीं है। टोपी लगाने में भी कोई शान होती है! और फिर अगर खादी की टोपी हो, तब तो शान बहुत बढ़ जाती है!
खादी की ही टोपी रही होगी, क्योंकि बंदर बड़े अकड़ कर बैठे हुए थे! फिर उस सौदागर ने अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। और सारे बंदरों ने अपनी टोपियां निकाल कर फेंक दीं। बंदर तो नकलची हैं। बंदर तो किसी के पीछे चलते हैं। खुद तो कुछ सोचते नहीं, विचारते नहीं। बंदर ही ठहरे, सोचेंगे-विचारेंगे क्यों, विश्र्वास करते हैं। सौदागर ने टोपी फेंकी, तो उन्होंने भी फेंक दी।
सौदागर टोपियां समेट कर घर आ गया। इतनी कहानी आपने पढ़ी होगी। आगे की कहानी भी मैं आपको कहता हूं।
सौदागर का बेटा बड़ा हुआ। और सौदागर के बेटे ने भी वही धंधा किया जो उसके बाप ने किया था। नासमझ बेटे हमेशा वही करते हैं जो बाप करते रहते हैं। अयोग्य बेटों का यह सबूत है। बेटे आगे बढ़ने चाहिए बाप से। लेकिन न बाप को यह पसंद है कि बेटे आगे बढ़ें और न बेटों की यह हिम्मत है कि वे आगे जाएं। वह भी टोपी बेचने लगा। वह भी उसी मेले की तरफ चला। वह भी उसी झाड़ के नीचे रुका, जहां बाप रुका था। क्योंकि उसने कहा, जहां हमारे बाप रुके, वहीं रुकना चाहिए। वह उसी झाड़ के नीचे वहीं उसने पेटी रखी, जहां बाप ने रखी थी। बंदर तो वृक्ष पर थे। वही बंदर न थे, उनके बेटे रहे होंगे। टोपियां बेटों ने देखीं। उन्होंने भी सुनी थी कहानी कि हमारे बाप ने टोपी निकाल कर पहन ली थी। सौदागर का बेटा सो गया। बंदर उतरे, टोपियां पहन कर ऊपर चले गए।
नींद खुली सौदागर के बेटे की, हंसा। लेकिन यह हंसी झूठी थी। यह बाप की कहानी पर आधारित थी। बाप ने कहा था: कभी डरना मत, अगर बंदर टोपी पहन ले, घबड़ाना मत। बंदरों से टोपी छीनना बहुत कठिन नहीं है। अपनी टोपी निकाल कर फेंक देना। बेटे ने भी टोपी निकाल कर फेंक दी। लेकिन एक चमत्कार हुआ। कोई बंदर ने टोपी नहीं फेंकी। एक बंदर के पास टोपी नहीं मिली थी, वह नीचे उतरा, उस टोपी को भी लगा कर वृक्ष पर चढ़ गया।
बंदर अब तक सीख चुके थे। और आदमी अब तक नहीं सीखा था। बंदर धोखा खा चुके थे एक बार। अब बार-बार यह धोखा नहीं चल सकता था। यह आधी कहानी किसी किताब में नहीं लिखी है। और यह आधी कहानी जब तक न लिखी हो, तब तक कहानी बिलकुल खतरनाक है।
कुछ लोग हैं जो दूसरों को देख कर चलते हैं; खुद कभी नहीं चलते। कुछ लोग हैं जो दूसरों से बंधे-बंधाए उत्तर सीख लेते हैं; खुद कभी कोई उत्तर नहीं खोजते। कुछ लोग हैं जो समाधान हमेशा उधार ले आते हैं; जिनके पास अपना कोई समाधान नहीं है। और समस्याएं रोज नई हो जाती हैं और समाधान पुराने रहते हैं, तो फिर बहुत मुश्किल हो जाती है।
सत्य की खोज में भी नकल नहीं चल सकती है। सत्य की खोज में भी बंधे-बंधाए रेडीमेड उत्तर नहीं चल सकते हैं। गीता, कुरान और बाइबिल से सीखी हुई, कंठस्थ की गई बातें सत्य की खोज में काम नहीं आती हैं। खुद ही खोजना पड़ता है।
और जितने विश्र्वास करने वाले लोग हैं, वे नकलचियों से ज्यादा नहीं हैं। वे अपना आदमी होना खोते हैं और बंदर हो जाते हैं। जो भी किसी दूसरे के पीछे आंख बंद करके चलता है, वह आदमी होने का अधिकार खो देता है। लेकिन गुरुओं को इसी में फायदा है कि आदमी आदमी न हो, बंदर हो। इसलिए हर गुरु के पास बहुत बंदरों की तादाद इकट्ठी मिलेगी।
जो लोग भी खुद हिम्मत नहीं जुटाते कुछ करने की और किसी के पीछे चल पड़ते हैं, उनका तो शोषण होता ही है। शोषण उतना बुरा नहीं--वे सत्य को जानने से भी सदा को वंचित रह जाते हैं। क्योंकि सत्य की तरफ जाने का जो पहला कदम है, वह अपने पैर पर खड़ा होना है। अपनी हिम्मत, अपना साहस, अपनी क्षमता, अपनी खोज। जो इसके लिए तैयार नहीं है और कहता है कि दूसरे से उधार मांग लेंगे, किसी का पैर पकड़ लेंगे, किसी की पूंछ पकड़ लेंगे, किसी के पीछे चल पड़ेंगे और सब हो जाएगा। वह गलती में है। विश्र्वास से कोई कहीं नहीं पहुंचता है।
विश्र्वास उधार विचार है। लेकिन इसका क्या यह अर्थ है कि हम विचार करें, तो कहीं पहुंच जाएंगे? हम खुद ही विचार करते रहें, तो कहीं पहुंच जाएंगे? अब थोड़े गहरे में अगर हम देखेंगे, तो विचार भी जो हम करते हुए मालूम पड़ते हैं, वह भी हमारा अपना नहीं होता है। विश्र्वास करने वाला भी उधार होता है। और विचार करने वाला दिखाई तो पड़ता है कि विश्र्वास नहीं करता, लेकिन अगर हम उसके विचारों की बहुत जांच-परख करेंगे, तो पाएंगे कि उसके विचार भी सब उधार हैं। थोड़ा सा फर्क है। और वह फर्क यह है कि उसने विचार तर्क कर-कर के संगृहीत किए हैं। अंधे होकर नहीं किए हैं, सोचा है। लेकिन आदमी सोच क्या सकता है? सोचेंगे क्या? जो पता नहीं है, क्या वह सोचा जा सकता है? जिसका कोई ज्ञान नहीं है, जिसका कोई बोध नहीं है, क्या वह विचारा जा सकता है? हम वही विचार सकते हैं, जो पता हो। जो पता नहीं है, वह तो विचार भी नहीं सकते हैं। जो अज्ञात है, अननोन है, उसे हम सोचेंगे कैसे?
विश्र्वास काम नहीं देगा, क्योंकि विश्र्वास दूसरे से उधार है। विचार थोड़ा बल देगा, हिम्मत देगा, अपने पैरों पर खड़ा करेगा। लेकिन अकेला विचार भी नहीं पहुंचा देगा; क्योंकि विचार वहां तक चल सकता है, जहां तक हमें ज्ञात है। जहां हमें ज्ञात नहीं है, वहां विचार ठप हो जाता है, उसके आगे कोई मार्ग नहीं पाता।
क्या आपने कभी कोई ऐसी बात विचारी है जो आपको ज्ञात ही न हो? आप कहेंगे, कई बार। आप कहेंगे, कई बार हम ऐसी बात विचारते हैं कि एक सोने के घोड़े पर बैठे हुए आकाश में उड़ रहे हैं। अब हमें सोने का घोड़ा ज्ञात भी नहीं है। सोने का घोड़ा देखा भी नहीं है। सोने का घोड़ा उड़ता भी नहीं है। सभी बातें अज्ञात हैं। फिर भी हम सोचते हैं।
लेकिन नहीं, यह सोचना न हुआ। आपको घोड़े का ज्ञान है, सोने का ज्ञान है, उड़ते हुए पक्षियों को देखा है। इन तीनों का जोड़-तोड़ करके आप सोने का उड़ता हुआ घोड़ा बना लेते हैं। यह कोई नई बात न हुई। यह तीन चीजों को जोड़ कर नया निर्माण हुआ।
तो विचार में आदमी बहुत से विचारों को संगृहीत करके नया दिखाई पड़ने वाला--ऑपेरन्ट, वस्तुतः नहीं--नया दिखाई पड़ने वाला विचार निर्मित कर सकता है। लेकिन उससे कोई सत्य का उदघाटन नहीं होगा। अगर हम अपने सारे विचारों को फैला कर रख लें अपने सामने और खोजें कि इनमें कौन मेरा है, तो हम पाएंगे कि सब विचार दूसरों से लिए गए हैं, कहीं से सुने गए हैं, पढ़े गए हैं, इकट्ठे किए गए हैं, और उन सब में नया संग्रह बना लिया है। नया संग्रह मौलिक मालूम पड़ता है, ओरिजिनल मालूम पड़ता है।
लेकिन कोई विचार मौलिक नहीं होता है। विचार मौलिक हो ही नहीं सकता है। विचार भी उधार ही है। विश्र्वासी भी उधार है, लेकिन वह अंधा होकर उधार है। विचार वाला भी उधार है, लेकिन वह तर्कनिष्ठ होकर, वह थोड़ा रीजन का और तर्क का उपयोग कर रहा है। लेकिन तर्क से भी क्या मिलता है? क्या मिला है?
जो विश्र्वासी हैं, वे आस्तिक हो जाते हैं; जो तार्किक हैं, वे नास्तिक हो जाते हैं। धार्मिक उनमें से कोई भी नहीं होता। आस्तिक भी धार्मिक नहीं है और नास्तिक भी धार्मिक नहीं है। आस्तिक विश्र्वासी है, उसने दूसरों के विश्र्वास को पकड़ लिया है। नास्तिक भी दूसरों के विचार को पकड़ता है, लेकिन तर्क की प्रक्रिया से गुजार कर पकड़ता है। लेकिन तर्क से क्या सिद्ध होता है? तर्क से भी कुछ सिद्ध नहीं होता। तर्क भी बूढ़े-बच्चों का खेल है। जिनकी उम्र ज्यादा हो गई है, वे एक खेल खेल सकते हैं तर्क का।
मैंने सुना है, एक आदमी अमरीका के एक बड़े नगर में गया और उसने सारे गांव में जाकर इत्तला की कि मैं एक ऐसा घोड़ा लाया हूं, जैसा किसी ने कभी नहीं देखा होगा। ऐसा घोड़ा कभी हुआ ही नहीं। यह बिलकुल मौलिक घोड़ाहै। इस घोड़े की खूबी यह है कि इस घोड़े की पूंछ वहां है जहां मुंह होना चाहिए और मुंह वहां है जहां पूंछ होनी चाहिए।
दस रुपये की टिकट रखी थी। हजारों लोग इकट्ठे हो गए। आप भी रहे होंगे उस नगर में तो जरूर गए होंगे। कोई गांव में बचा ही नहीं। सारे लोग गए। ऐसा घोड़ा तो देखना जरूरी था। हॉल खचाखच भर गया है, लोग चिल्ला रहे हैं कि जल्दी करो, घोड़ा निकालो।
वह आदमी कहता है, थोड़ा ठहरिए। यह कोई साधारण घोड़ा नहीं है। लाते-लाते वक्त लगता है। फिर बहुत मुश्किल हो गई, इंच भर जगह नहीं है। फिर वह घोड़ा ले आया, मंच पर से पर्दा उठा दिया। एक क्षण तो लोगों ने देखा, लेकिन घोड़ा तो बिलकुल साधारण था, जैसे घोड़े होते हैं। तो लोग चिल्लाए कि क्या धोखा दे रहे हो? मजाक कर रहे हो? यह घोड़ा तो बिलकुल साधारण है।
उस आदमी ने कहा: चुप! ठीक से समझ लो तर्क मेरा। मैंने घोषणा की थी कि घोड़े का मुंह वहां है जहां पूंछ होनी चाहिए, पूंछ वहां है जहां मुंह होना चाहिए। गौर से देखो!
लोगों ने फिर गौर से देखा, साधारण घोड़ा था, जहां पूंछ थी वहां पूंछ थी, जहां मुंह था वहां मुंह था। लेकिन तब खयाल आया लोगों को और हंसी छूट गई। जो तोबड़ा घोड़े के मुंह में बांधते हैं, वह उसने उसकी पूंछ में बांधा हुआ था।
उसने कहा: जो मैंने कहा था वह देख लो: मुंह वहां है जहां पूंछ होनी चाहिए और पूंछ वहां है जहां मुंह होना चाहिए। तोबड़ा पूंछ में बंधा है। दिखता है कि नहीं?
अब कुछ कहने का उपाय न था। तर्क तो ठीक ही था। लोग चुपचाप वापस निकल गए।
लेकिन तर्क से इतना ही खेल हो सकता है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हो सकता। तर्क ज्यादा से ज्यादा पूंछ वहां कर सकता है जहां मुंह हो, मुंह वहां कर सकता है जहां पूंछ हो। इससे ज्यादा तर्क कुछ भी नहीं कर सकता। चीजें जैसी हैं वे वैसी ही रहती हैं, तर्क से कोई फर्क नहीं पड़ता। और तर्क इसलिए दोहरी धार की चीज है--चाहे पक्ष में उपयोग करो, चाहे विपक्ष में उपयोग करो। उससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
मेरे एक बहुत निकट मित्र थे। एक बड़े वकील थे। ज्यादा काम होता था उनके ऊपर। बहुत भार था। हिंदुस्तान में भी वकालत थी और लंदन में भी थी। बहुत मुश्किल में रहते थे। कई बार तैयारी का मौका भी नहीं मिलता था। एक दिन अदालत में गए हैं। कोई मुकदमा लड़ रहे हैं। और उन्हें पक्का खयाल नहीं रहा कि वे किसकी तरफ से हैं--पक्ष में हैं कि विपक्ष में हैं। तो वे अपने ही ग्राहक के खिलाफ बोलने लगे। वह आदमी बहुत घबड़ाया कि यह आदमी क्या कह रहा है? और आधे घंटे तक जोर से उन्होंने पैरवी की। उनका जो ग्राहक था, उसके तो प्राण निकल गए कि मर गए, हमारा ही वकील हमारे खिलाफ सिद्ध कर रहा है! और इतने जोर से उन्होंने सिद्ध किया कि विरोधी वकील भी बहुत हैरान था कि मैं क्या सिद्ध करूं! और यह क्या हो रहा है? तब उनके मुंशी ने आकर पास में उनके कहा कि क्या कर रहे हैं आप? आप तो अपने ही आदमी के खिलाफ बोल रहे हैं!
उन्होंने कहा: ऐसा क्या। तो ठहरो। और तब उन्होंने कहा कि मजिस्ट्रेट महोदय, अभी मैंने वे बातें कहीं, जो मेरा विरोधी वकील कहेगा, अब मैं इनका खंडन शुरू करता हूं।
तर्क का कोई मतलब थोड़े ही है। सिर्फ खेल है। सिर्फ खेल है! पंडित भी वही कर रहे हैं, वकील भी वही कर रहे हैं, नेता भी वही कर रहे हैं। तर्क सिर्फ खेल है। और जब तक दुनिया तर्क के खेल में पड़ी रहेगी, तब तक सत्य का कोई निर्णय नहीं हो सकता। उसे कोई मतलब ही नहीं है। तर्क इस तरफ भी बोलता है, उस तरफ भी बोल सकता है। जो दलील ईश्र्वर को सिद्ध करती है, वही दलील ईश्र्वर को असिद्ध कर देती है।
ईश्र्वर को सिद्ध करने वाला कहता है कि ईश्र्वर के बिना दुनिया हो ही कैसे सकती है। दुनिया है, तो ईश्र्वर होना चाहिए। क्योंकि हर चीज को कोई बनाने वाला है। दुनिया है, तो बनाई गई है; तो बनाने वाला चाहिए। आस्तिक कहता है, यह मेरी दलील है, ईश्र्वर को सिद्ध करता हूं मैं। दुनिया है, उसका बनाने वाला होगा। बनाने वाला ईश्र्वर है।
नास्तिक कहता है, मानते हैं तुम्हारी दलील। लेकिन तुम्हारी दलील ईश्र्वर को सिद्ध नहीं करती। गलत करती है। क्योंकि हम यह कहते हैं कि ठीक है यह बात, हर चीज को बनाने वाला चाहिए। ईश्र्वर है, फिर ईश्र्वर को बनाने वाला कौन है? अगर तुम कहते हो, दुनिया बिना बनाए नहीं बन सकती, हम मानते हैं, ईश्र्वर ने बनाई दुनिया। अब हम यह पूछते हैं: ईश्र्वर को किसने बनाया? क्योंकि बिना बनाए ईश्र्वर भी कैसे बन सकता है? बिना बनाए कुछ बनता ही नहीं है।
अब यह खेल चले, अब इस खेल में खेलते रहो। नास्तिक-आस्तिक हजारों साल से खेल रहे हैं।
एक बार तो ऐसा हुआ, एक गांव में एक महा आस्तिक था और एक महा नास्तिक। और गांव बड़ी मुश्किल में था। जहां भी पंडित होते हैं, वहां गांव मुश्किल में हो जाता है। क्योंकि वह आस्तिक समझाता था, ईश्र्वर है और नास्तिक समझाता था, ईश्र्वर नहीं है। दिन-रात, लोग ऊब गए थे। वे कहते थे, हमें छोड़ो हमारे भरोसे पर। हमें कोई फिकर नहीं है ईश्र्वर हो या न हो। हमें दूसरे काम करने दो।
लेकिन वे कहां मानने वाले थे। एक समझा कर जाता और पीछे से दूसरा आता। आखिर गांव के लोगों ने कहा: यह बड़ी मुसीबत हो गई। हमें कुछ निर्णय करना चाहिए।
सारी दुनिया की यह हालत हो गई है। मुसलमान, हिंदू, ईसाई, जैन, बौद्ध सारी दुनिया को परेशान किए हुए हैं। एक का मुनि जाता है, दूसरे का संन्यासी आता है, तीसरे का पंडित आता है; वह कुछ कहता है, वह कुछ कहता है। वे सब गड़बड़ कर जाते हैं।
गांव के लोगों ने कहा: भई, तुम दोनों निपटारा कर लो एक रात, जो जीत जाए हम उसके साथ हैं। हम सदा जीतने वाले के साथ हैं। हमें कोई मतलब नहीं कि ईश्र्वर हो या न हो।
विवाद हुआ पूर्णिमा की रात। सारा गांव इकट्ठा हुआ। अदभुत विवाद था। आस्तिक ने ऐसी दलीलें दीं कि सिद्ध कर दिया कि ईश्र्वर है और नास्तिक ने ऐसी दलीलें दीं कि सिद्ध कर दिया कि ईश्र्वर नहीं है। और आखिरी में यह हुआ कि आस्तिक इतना प्रभावित हो गया नास्तिक से कि नास्तिक हो गया और नास्तिक इतना प्रभावित हो गया आस्तिक से कि आस्तिक हो गया। और गांव की मुसीबत कायम रही। क्योंकि फिर गांव में एक आस्तिक रहा और एक नास्तिक रहा। गांव के लोगों ने कहा: हमें क्या फायदा हुआ, हमारी परेशानी वही की वही है।
तर्क का कोई मतलब नहीं है बहुत। तर्क का कोई बहुत अर्थ नहीं है। तर्क जो सिद्ध करता है, उसी को असिद्ध कर देता है। तर्क बिलकुल खेल है, खिलवाड़ है। इसीलिए तो तर्क के द्वारा आज तक कुछ भी सिद्ध नहीं हो सका। सिद्ध हो सका कि हिंदू सही हैं? अगर सिद्ध हो जाता, सारी दुनिया हिंदू हो गई होती। सिद्ध हो सका कि जैन सही हैं? सिद्ध होता, सारी दुनिया जैन हो गई होती। सिद्ध हो जाता मुसलमान सही हैं, सारी दुनिया मुसलमान हो गई होती। कुछ सिद्ध नहीं होता। कुछ सिद्ध हो ही नहीं सकता। तर्क के रास्ते से जो चला है, वहां कुछ भी कभी सिद्ध नहीं होता। सिर्फ खेल चलता है।
और पंडित जो खेल खेलते हैं, वह हमें समझ में भी नहीं आता। क्योंकि वह बहुत बारीक खेल है। वह इतना बारीक खेल है कि वहां बाल की खाल निकलती रहती है और जनता को कुछ पता नहीं चलता। जनता कहती है, ठीक है।
इसीलिए तो सारे लोगों ने यह तय कर रखा है कि जहां हम पैदा हो गए, वही हमारा धर्म है। यह सस्ती तरकीब है। क्योंकि अगर तय करना पड़े तर्क से, तो कभी तय ही नहीं होगा। जिंदगी बीत जाएगी, आप तय न कर पाएंगे कि आप हिंदू हैं कि मुसलमान हैं कि ईसाई हैं। इसलिए सस्ता नुस्खा निकाला हमने कि जहां जो पैदा हो जाए। अब पैदा होने में भी कोई कसूर है? कोई आदमी मुसलमान के घर में पैदा हो गया, उसका बेटा मुसलमान है। क्यों? क्योंकि अगर बेटा तय करने चले विचार करके, तो जिंदगी बीत जाएगी, तय न होगा कि क्या होना है--हिंदू होना है कि मुसलमान होना है? कभी तय नहीं हो सकता। इसलिए हमने एक ऐसी तरकीब निकाली कि जिसमें तय करने की जरूरत ही नहीं है।
अब पैदा होने से क्या संबंध है हिंदू-मुसलमान होने का? यह तो बड़ी पागलपन की बात है! कल कोई कांग्रेसी कहने लगे कि हमारा बेटा कांग्रेसी, क्योंकि कांग्रेसी बाप है उसका। कम्युनिस्ट का बेटा कहे, मैं कम्युनिस्ट हूं, क्योंकि मेरा बाप कम्युनिस्ट है। अभी इतनी नासमझी नहीं आई। लेकिन आ जाएगी, क्योंकि इतना ही तर्क वहां चलता है। और कुछ जब तय नहीं होगा, तो लोग कहेंगे, अब जन्म से ही तय कर लो।
अब जन्म से कहीं सिद्धांत तय हुए हैं? सत्य तय हुए हैं? लेकिन हजारों साल से यह होता रहा है कि हम तर्क के आस-पास घूमते हैं। कुछ लोग विश्र्वास के आस-पास घूम कर भटक जाते हैं। कुछ लोग तर्क के आस-पास घूम कर भटक जाते हैं। और कभी कुछ निर्णय नहीं हो सकता; क्योंकि अंधेरे में टटोलना है यह, निर्णय क्या होना है।
एक गांव में एक सम्राट ने यह तय किया था कि मैं बहुत जल्दी अपने देश से असत्य का निकाला कर दूंगा, मैं असत्य को रहने ही नहीं दूंगा अपने देश में! और जो आदमी असत्य बोलेगा, उसको सूली पर लटका दूंगा! और रोज एक आदमी नियमित रूप से सूली पर लटकाया जाएगा, ताकि सारा गांव देखे कि क्या हालत होती है असत्य बोलने वाले की।
उसे पता नहीं था। किसी कानूनविद को कभी पता नहीं रहा है कि फांसियों से, कोड़े मारने से, जेलों में बंद करने से कोई चीज बंद नहीं होती। कोई चीज बंद ही नहीं होती। सब चीजें बढ़ती चली जाती हैं। चोरों को बंद करो--चोर बढ़ते हैं। बेईमानों को बंद करो--बेईमानी बढ़ती है। और बेईमानों को बंद करने के लिए जिनको नियुक्त करो, वे दोहरे बेईमान सिद्ध होते हैं। और चोरों को पकड़ने के लिए जिनको पहरे पर रखो, वे चोरों के बाप सिद्ध होते हैं। होने ही वाले हैं।
इंग्लैंड में तो कोड़े मारे जाते थे आज से सौ साल पहले तक, चोरी करने वाले को चौरस्ते पर खड़े करके कोड़े मारते थे। इसलिए ताकि सारा गांव देख ले कि क्या हालत होती है चोरों की।
लेकिन फिर बंद करने पड़े। और बंद क्यों करने पड़े, पता है आपको? गांव में जब कभी चोर को कोड़े लगते लंदन में, हजारों लोग देखने इकट्ठे होते। और पता यह चला कि जब हजारों लोग कोड़े मारते हुए देखते हैं, तब कइयों के जेब कट जाते हैं! अब एक चोर को कोड़े पड़ रहे हैं, और भीड़ आई है देखने, और जनता मुग्ध होकर देख रही है--यहां जेब कट गए! वहीं जेब कट रहे हैं जहां कोड़े पड़ रहे हैं!
तो फिर लोगों ने सोचा कि यह तो फिजूल का पागलपन है। इसमें कोई मतलब ही नहीं है। यह तो और जेबकटों के लिए सुविधा बनाना है। भीड़ इकट्ठी होती है, जेबकट जेब काट लेते हैं!
उस गांव के राजा ने कहा: मैं असत्य को बंद कर दूंगा!
लेकिन गांव के बूढ़े लोगों ने कहा: असत्य का पता लगाना ही आज तक मुश्किल हुआ है, तुम बंद कैसे करोगे? तुम कैसे तय करोगे कि क्या असत्य है और क्या सत्य है?
उसने कहा: सब तय हो जाएगा।
फिर उसे फिकर हुई कि सच में तय कैसे करेंगे?
तो गांव में एक बूढ़ा फकीर है। उसने कहा: उसे बुला कर पूछ लें, वह सत्य की बहुत बातें करता है।
उसे बुलाया और कहा कि हमने यह तय किया है कि कल सुबह वर्ष का पहला दिन है, एक झूठ बोलने वाले को हम दरवाजे पर सूली पर लटकाएंगे, ताकि सारा गांव देखे।
फकीर ने कहा: सत्य-असत्य का निर्णय कैसे करोगे?
उस राजा ने कहा: क्या कोई तर्क नहीं है जिससे तय हो सके कि क्या सत्य है और क्या असत्य है? मैं अपने देश के सारे पंडितों को लगा दूंगा।
उस फकीर ने कहा: तब ठीक है। कल सुबह दरवाजे पर मैं मिलूंगा।
राजा ने कहा: मतलब?
उसने कहा: दरवाजे पर पहला प्रवेश होने वाला मैं रहूंगा। तुम अपने सारे पंडितों को लेकर मौजूद रहना। मैं असत्य बोलूंगा। अगर सूली लगानी है तो पहली सूली पर मैं चढूंगा।
राजा ने कहा: हम पूछने बुलाए हैं! आप कैसी बातें करते हैं?
उसने कहा: बात वहीं कल होगी। अपने पंडितों को लेकर हाजिर रहना!
राजा अपने पंडितों को लेकर दरवाजे पर हाजिर हुआ। दरवाजा खुला गांव का। वह फकीर अपने गधे पर बैठ कर अंदर प्रवेश कर रहा है।
राजा ने कहा: गधे पर और आप! जा कहां रहे हैं?
उसने कहा: मैं सूली पर चढ़ने जा रहा हूं!
राजा ने कहा: पंडितो, तो तय करो कि यह आदमी सत्य बोलता है कि झूठ?
पंडितों ने कहा: हम हाथ जोड़ते हैं। यह बहुत झंझट का आदमी है। यह तो, इसमें कुछ तय ही नहीं हो सकता। अगर हम कहें कि यह सच बोलता है, तो फांसी लगानी पड़ेगी। और सच बोलने वाले को फांसी नहीं लगानी है। और हम कहें कि यह झूठ बोलता है, तो फांसी लगानी पड़ेगी। और फांसी लग गई, तो यह जो बोलता था, वह सच हो जाएगा।
उस फकीर ने कहा: बोलो सत्य क्या है, असत्य क्या है? तर्क से निर्णय करो। और अगर निर्णय नहीं कर सकते, जब निर्णय कर लो तब मेरे पास आना, उसके बाद फिर नियम बनाना।
फिर वह नियम कभी नहीं बना। क्योंकि वह निर्णय होना ही मुश्किल है कि क्या सच है! तर्क से निर्णय होना मुश्किल है। तर्क से, क्योंकि तर्क कुछ निर्णय करता ही नहीं, सिर्फ खेल है। और जब दो तर्कों में कोई एक तर्क जीतता है, तो उसका यह मतलब नहीं होता है कि जो जीत गया वह सत्य है। उसका केवल इतना मतलब होता है कि जो जीत गया वह खेल में ज्यादा कुशल है। और कोई मतलब नहीं होता। जब दो तर्कों में एक तर्क जीतता है, तो जीत जाने वाला सत्य नहीं होता; जीत जाने वाला उस खेल खेलने में कुशल होता है, बस।
जो आदमी शतरंज खेल रहे हैं, तो जो शतरंज में जीत जाता है, वह कोई सत्य होता है? नहीं, वह ज्यादा कुशल होता है। जो हार गया, वह असत्य होता है? नहीं, वह कम कुशल होता है। हार-जीत से सत्य-असत्य तय नहीं होता; सिर्फ कम कुशलता, ज्यादा कुशलता सिद्ध होती है। और ज्यादा कुशल जो जीत जाता है, वह कहता है, जो मैं हूं वह सत्य है। तर्क भी शब्दों और विचारों का शतरंज है, इससे ज्यादा नहीं है।
इसलिए कोई यह न सोचे कि जब मैं कहता हूं, विश्र्वास से नहीं मिलेगा, तो तर्क करने से मिलेगा?
मैं कहता हूं: तर्क करने से भी नहीं मिलेगा, विचार करने से भी नहीं मिलेगा। तो आप मुझसे कहेंगे, विश्र्वास करने से नहीं मिलेगा; और विश्र्वास न करना हो तो विचार करना पड़ेगा; फिर आप कहते हैं, विचार से भी नहीं मिलेगा?
निश्र्चित ही, यही मैं कहता हूं।
यह ऐसा ही है, जैसे किसी आदमी के पैर में कांटा लग गया हो और हम कहें कि दूसरा कांटा ले आओ, ताकि हम इसका यह कांटा निकाल दें। वह आदमी कहे कि क्या कर रहे हैं आप? मैं एक ही कांटे से मरा जा रहा हूं और आप दूसरा कांटा लाते हैं! तो हम उससे कहेंगे कि तुम घबड़ाओ मत, दूसरा कांटा हम पहले कांटे को निकालने को लाते हैं। अगर पहला कांटा न लगा होता, तो हम दूसरा कांटा कभी भी न लाते। लेकिन पहला लगा है, इसलिए दूसरा लाते हैं।
फिर हम दूसरे कांटे से उसके कांटे को निकाल कर बाहर कर देते हैं। वह आदमी दूसरे कांटे को नमस्कार करता है, और कहता है, अब इसे मेरे घाव में रख दो। क्योंकि इसने बड़ी कृपा की, पहले कांटे को निकालने का काम किया। तो हम उससे कहेंगे, तुम पागल हो। इसने पहले कांटे को निकाल कर यह बेकार हो गया, अब इसको भी फेंक दो।
तर्क का एक उपयोग है सिर्फ कि वह आपको विश्र्वास से मुक्त कर दे। इससे ज्यादा कोई उपयोग नहीं है। विचार का एक उपयोग है कि वह आपको विश्र्वास से मुक्त कर दे। विश्र्वास के कांटे को निकाल दे अगर विचार का कांटा, काम पूरा हो गया। फिर दोनों कांटे एक ही बराबर हैं। फिर दोनों फेंक देने हैं।
फिर कहां? फिर कहां जाना है?
फिर जाना है निर्विचार में। फिर जाना है वहां जहां कोई विचार भी नहीं है, चित्त परिपूर्ण मौन और शांत है। जहां कोई सोचना भी नहीं है। जहां हम सोच नहीं रहे कि सत्य क्या है, जहां हमने सब सोचना भी छोड़ दिया, जहां हम चुप होकर, बस हैं। अगर सत्य है तो दिख जाए, अगर नहीं है तो यह दिख जाए। जो भी है, दिख जाए। हम इतने मौन हैं कि हम सिर्फ देख रहे हैं। हम एक दर्पण की तरह हैं, और देख रहे हैं, जो है।
हम सोच नहीं रहे। दर्पण सोचता नहीं। जब आप दर्पण के सामने जाते हैं, तो वह यह नहीं सोचता कि यह आदमी सुंदर है कि असुंदर; यह आदमी अच्छा है या बुरा; यह आदमी काला है कि गोरा। दर्पण सोचता नहीं। दर्पण में सिर्फ वही दिखाई पड़ता है, जो है। क्योंकि दर्पण सिर्फ प्रतिफलन करता है।
लेकिन कुछ ऐसे दर्पण भी होते हैं, जो वही नहीं दिखलाते, जो आप हैं; वह दिखला देते हैं, जो आप नहीं हैं। आपने ऐसे दर्पण देखे होंगे कि आप लंबे होकर दिखाई पड़ रहे हैं, मोटे होकर दिखाई पड़ रहे हैं, तिरछे होकर दिखाई पड़ रहे हैं। इस तरह के दर्पण हैं। वे दर्पण यह बताते हैं कि उनका धरातल सीधा और साफ नहीं है; इरछा-तिरछा है, गोलाई लिए हुए है, उलटा-सीधा है। उनके धरातल पर जितनी भी इरछी-तिरछी स्थिति है, उतना ही जो दिखाई पड़ता है, वह विकृत हो जाता है।
सत्य की खोज के दो सूत्र हैं: एक तो सोचना नहीं; और दूसरा, चित्त सरल और सीधा हो। धरातल साफ हो, नीचा-ऊंचा न हो, बस। ऐसा चित्त हो, तो सत्य प्रतिफलित हो जाता है। हम उसे जान लेते हैं, जो वस्तुतः है और उससे मुक्त हो जाते हैं, जो नहीं है।
सोचना चित्त के ऊपर धूल का काम करता है; क्योंकि विचार चिपक जाते हैं; बहुत जोर से चिपकते हैं। और विचारों का इतना पर्दा बन जाता है कि उनके आर-पार जब आप देखते हैं, तो आप वही नहीं देखते, जो है, वह बीच में जो पर्दा होता है, वह काम करता है।
एक आदमी है, वह तय किए हुए है कि ईश्र्वर नहीं है। यह एक विचार है। वह तय किए हुए है कि ईश्र्वर नहीं है। अब वह जहां भी देखेगा, वहीं उसको ईश्र्वर का न होना दिखाई पड़ेगा।
अगर रास्ते पर एक आदमी मर रहा है तो वह कहेगा कि देखो, जिस दुनिया में आदमी मरते हैं, वहां ईश्र्वर हो सकता है? एक आदमी गरीब है तो वह कहेगा कि देखो, जिस दुनिया में गरीबी है, वहां ईश्र्वर हो सकता है? वह आदमी जाएगा फूलों के पौधे के पास और कहेगा कि गिनो कांटे--एक फूल निकला है, हजार कांटे हैं--जहां हजार कांटों में मुश्किल से एक फूल निकलता है, वहां ईश्र्वर हो सकता है? वह तय किए हुए है कि ईश्र्वर नहीं है। वह हर जगह ईश्र्वर नहीं है इसके उपाय खोज लेगा, मार्ग खोज लेगा, तर्क खोज लेगा, विचार खोज लेगा। वह प्रिज्युडिस्ड है, वह पक्षपात से भरा है। और पक्षपात, चित्त के दर्पण को ऊंचा-नीचा कर देते हैं।
एक दूसरा आदमी है, जो कहता है, ईश्र्वर है। वह हर जगह खोज लेगा कि ईश्र्वर है। अगर उनकी दुकान ठीक चल रही है, वह कहेगा कि देखो, ईश्र्वर के होने की वजह से दुकान ठीक चल रही है। अब बड़ा मजा है, ईश्र्वर को बेचारे को तुम्हारी दुकान से कोई भी सरोकार नहीं है। नहीं तो तुम्हारे साथ वह भी सजा काटे। लेकिन वह कहेगा कि देखो, ईश्र्वर की खुशी से सब चल रहा है। घर में कोई बीमार है और ठीक हो गया, वह कहेगा, देखो, ईश्र्वर की कृपा। जैसे और सब जो बीमार ठीक नहीं हुए ईश्र्वर उनका कोई दुश्मन है। आपके बीमार पर कृपा है उनकी। आप कुछ बड़े विशिष्ट हैं। एक पैसा गुम जाएगा किसी का और मिल जाएगा, वह कहेगा, ईश्र्वर की कृपा, देखो, ईश्र्वर है, गुमी हुई चीज वापस मिल गई। अब जैसे ईश्र्वर कोई यह धंधा करता हो कि जिसका एक पैसा गुम गया वह खोजे। कोई आपकी चाकरी में है वह कि आपका पैसा न गुम जाए, कि आपका हिसाब-किताब रखे।
वह जो आदमी, जो तय किए है, जो भी चारों तरफ हो रहा है, उसमें से वही अर्थ निकाल लेगा। और तब वह नहीं देखेगा, जो है।
मैंने सुना है, एक गांव में एक गरीब आदमी ने एक गाय खरीद ली। और गाय खरीद ली गांव के राजा की। सोचा कि राजा के पास अच्छी गाय होगी। थी भी। राजा की गाय खरीद ली। लेकिन गरीब आदमी यह भूल गया कि राजा की गाय खरीद लेना तो बहुत आसान है, लेकिन उसको रखना बहुत मुश्किल है। कई लोग इस मुसीबत में पड़ जाते हैं, राजा की गाएं खरीद कर।
कई तरह की राजा की गाएं होती हैं, फिर पीछे बहुत महंगी पड़ जाती हैं। अब ले आए राजा की गाय। उसके सामने रखा भूसा। सूखा भूसा था। गरीब के पास हरा घास कहां। और गाय जो थी, वह कश्मीर की दूब ही चरती रही होगी। उसने जब भूसा देखा, उसने एकदम अनशन कर दिया। वह जब से गांधी जी अनशन चला गए हैं--गाय-बैल हों, आदमी, गधे-घोड़े हों, सब अनशन करते हैं। एकदम अनशन कर दिया। उसने कहा कि नहीं खाएंगे। आंख बंद करके एकदम ध्यानमग्न होकर खड़ी हो गई। आंख ही न खोले।
गरीब आदमी ने बहुत कहा कि हम तुझे माता समझते हैं। हम वह पूरी के जगतगुरु शंकराचार्य के शिष्य हैं। हम तुझे बिलकुल माता मानते हैं। हे माता, हम पर कृपा कर! हम गरीब बेटे हैं तो भी क्या हुआ! अमीर भी बेटा होता है, गरीब भी बेटा होता है। माता सबको बराबर मानती है।
लेकिन गाय काहे को माने। गाय ने तो कभी किसी आदमी को अपना बेटा कहा नहीं! अभी तक कोई गाय ने ऐसी गलती नहीं की कि कहा हो कि आदमी हमारा बेटा है। आदमी खुद ही चिल्लाए चला जाता है, गऊ हमारी माता है। और किसी गऊ ने अब तक कोई गवाही नहीं दी कि यह बात सच है। क्योंकि कोई गाय आदमी को बेटा मानने योग्य स्थिति में नहीं मानती होगी। आदमी की योग्यता क्या कि वह गाय का बेटा हो सके!
नहीं मानी गाय। बहुत गुस्सा आया। लेकिन कर भी क्या सकता था। गांव में पूछने गया, कुछ पुराने बुजुर्गों से कि क्या करें? एक बूढ़े ने कहा: कुछ करने की ज्यादा जरूरत नहीं है, तू एक हरा चश्मा खरीद ला और गाय की आंख पर चढ़ा दे।
वह एक हरा चश्मा खरीद लाया और गाय की आंख पर चढ़ा दिया। गाय ने नीचे देखा, घास हरी दिखाई पड़ने लगी, गाय उसे चरने लगी। घास तो सूखी थी, लेकिन चश्मा हरा था। गाय धोखे में आ गई।
हम सब भी धोखे में आ जाते हैं। जो चश्मा है, वही हमें दिखाई पड़ता है। और जिसके पास भी पक्षपात का चश्मा है, वह आदमी कभी उसे नहीं जान सकता, जो है। और हम सबकी आंखों पर चश्मा है। किसी की आंख पर हिंदू का चश्मा है, किसी की मुसलमान का, किसी की आंख पर कम्युनिस्ट का, किसी की नास्तिक का, किसी का कोई, हजारों तरह के चश्मे बाजार में उपलब्ध हैं। और एक आदमी ऐसा न मिलेगा जो बिना चश्मे के जा रहा हो। सबके पास चश्मे हैं। और चश्मे से देखते हैं। बस, तब सब गड़बड़ हो जाता है। वह नहीं दिखाई पड़ता, जो है; वह दिखाई पड़ता है, जो हमारा चश्मा कहता है कि है। वही दिखाई पड़ता है।
रूस में उन्नीस सौ सत्रह की क्रांति हुई। एक गांव था, एक छोटा स्कूल था। उस स्कूल में एक मास्टर था और एक विद्यार्थी था। छोटा गांव था, छोटा स्कूल था। क्रांति के बाद उसमें दो विद्यार्थी हो गए। मास्टर तो एक ही रहा। रूस के अखबारों ने खबर छापी कि हमारे गांव-गांव में शिक्षा में इतनी प्रगति हुई है कि शिक्षा करीब-करीब दुगुनी हो गई है। जहां शत-प्रतिशत विकास हुआ है। एक गांव के स्कूल में जितने विद्यार्थी थे, आज उससे ठीक दुगुने हो गए हैं।
एक अमरीकन पत्रकार वहां देखने गया, उसने कहा कि हद हो गई, झूठ की भी कोई हद होती है, इस स्कूल में केवल एक विद्यार्थी था, अब दो हो गए हैं। मास्टर तो अब भी एक ही है।
उसने प्रचार किया कि रूस में कोई शिक्षा का विकास नहीं हो रहा। दो-दो विद्यार्थियों वाले स्कूल हैं। एक-एक मास्टर वाला स्कूल है। और रूस के अखबार छाप रहे थे कि दुगुनी प्रगति हो रही है, एकदम दुगुनी। जहां जितने विद्यार्थी थे, उससे दुगुने हो गए। झूठ तो कोई नहीं बोल रहा है। अपना चश्मा है। उससे देखने का ढंग है।
जीवन के संबंध में यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि जब तक हम पक्षपात से भरे हैं--चित्त का दर्पण स्वच्छ नहीं हो सकता है।
इसलिए सब पक्षपात से छुटकारा चाहिए। मुक्ति चाहिए। पक्षपात से मुक्त हुए बिना कोई भी उस अधिकार को उपलब्ध नहीं होता--जहां सत्य का प्रतिबिंब बने, जैसा सत्य है। वह तो सदा बन रहा है, लेकिन हम अपने चित्त में कुछ भाव लिए हुए हैं, वे भाव विकृत करते हैं--वे भाव एकदम विकृत करते हैं। हमारे भाव ही आरोपण करते हैं--हमें वही दिखाई पड़ने लगता है, जो हम देखना चाहते हैं।
निकलें आप एक मुसलमान की मस्जिद के पास से निकलें, आपको कुछ नहीं दिखाई पड़ता कि इसमें हाथ जोड़ने योग्य है। एक मुसलमान बिना हाथ जोड़े निकल जाए, तो ऐसा लगता है कि भारी भूल हो गई, पछतावा होता है।
हनुमान जी की मढिया के पास से आप निकलते हैं, हाथ एकदम जुड़ जाते हैं। कोई दूसरा आकर हनुमान जी की मढिया के पास आकर खड़ा होता है, देखता है, बड़े अजीब लोग हैं, एक पत्थर पर लाल रंग पोता हुआ है और उसको हाथ जोड़ कर नमस्कार कर रहे हैं। है क्या यहां?
हमें वही दिखता है जो हम देखने की तैयारी लिए हुए हैं। और वही दिखता चला जाता है। और यह सारे तलों पर सही है। इस बात को कि हम पक्षपात से भरे हैं, जो आदमी ठीक से समझ लेगा, उसे पक्षपात से मुक्त होने में जरा भी कठिनाई नहीं है। जरा भी कठिनाई नहीं है! कि वह अपने पक्षपात को छोड़ दे और चीजों को सीधा देखे। और साथ ही विचार करने के भ्रम को छोड़ दे, कि मैं विचार करके जान लूंगा उसे, जो है।
विचार करके हम कभी भी नहीं जान सकेंगे। विचार करके अगर हम जान सकते होते, तो हमने बहुत विचार किया है। जन्मों-जन्मों से विचार किया है। विचार का अंबार लगा दिया है। हमने जिंदगी भर सोचा है। सब सोच रहे हैं। लेकिन कहां कोई सोचने से कभी पहुंचता है? सोचते चले जाते हैं, सोचते चले जाते हैं। न मालूम कितना ढेर लग जाता है तर्कों का, शब्दों का, विचारों का। पांडित्य इकट्ठा हो जाता है। फिर भी हम वहीं के वहीं खड़े होते हैं।
पूछें किसी पंडित से कि क्या जान लिया है? उपनिषद दोहरा देगा, गीता दोहरा देगा, ब्रह्मसूत्र दोहरा देगा, सब दोहरा देगा। लेकिन उससे पूछें कि नहीं; तुमने जो सीखा वह हम नहीं पूछते; हम पूछते हैं, तुमने जो जाना है। तुमने जाना क्या है? हम वह नहीं पूछते, जो तुमने विचारा है; हम वह पूछते हैं, जो तुमने देखा है। तुम्हारा दर्शन क्या है? फिलॉसफी नहीं पूछते।
और ध्यान रहे, फिलॉसफी और दर्शन का एक ही मतलब नहीं होता। जैसे इस वक्त चलता है सारे मुल्क में कि एक ही मतलब होता है। और राधाकृष्णन जैसे लोग लिखते हैं: इंडियन फिलॉसफी। इससे ज्यादा गलत कोई बात नहीं हो सकती। दर्शन का मतलब फिलॉसफी होता ही नहीं। फिलॉसफी का मतलब होता है: सोचना और दर्शन का मतलब होता है: देखना। देखने और सोचने में जमीन-आसमान का फर्क है।
एक अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में सोचता है, देखता नहीं। इसलिए अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में जो कुछ कहे, वह उसकी फिलॉसफी है। एक आंख वाला आदमी प्रकाश को देखता है, तो वह प्रकाश के संबंध में जो कुछ कहे, वह उसका दर्शन है; फिलॉसफी नहीं है।
इंडियन फिलॅासफी जैसी कोई चीज ही नहीं होती। यह सरासर झूठ है। इंडियन दर्शन हो सकता है।
पश्र्चिम के एक विचारक ने एक नया शब्द गढ़ा है दर्शन के लिए: ‘फिलोसिया।’ कहता है: देखने की बात है; सोचने की बात नहीं है।
हम अगर अंधे हैं तो क्या प्रकाश को सोच सकते हैं? एक अंधा कोशिश करे, कोशिश करे, कोशिश करे, पढ़े. अंधों की किताबें होती हैं; और सच तो यह है कि अंधों की ही किताबें होती हैं। उन किताबों में पढ़ रहे हैं। निकाल रहे हैं। समझ रहे हैं। और मजा यह है कि प्रकाश चारों तरफ बरस रहा है।
एक अंधा आदमी अपनी किताब में पढ़ेगा--प्रकाश क्या है? प्रकाश का क्या अर्थ है? परिभाषा क्या है? प्रकाश कैसा होता है? कैसा नहीं होता है? कौन लोग प्रकाश को देखते हैं? कौन लोग नहीं देखते हैं?
प्रकाश के संबंध में अंधा आदमी पढ़ेगा। आंख वाला देखेगा। और देखने से जाना जा सकता है। पढ़ने से क्या जाना जा सकता है? हां, लेकिन कुछ जाना जा सकता है। पढ़-पढ़ कर अंधे आदमी को भी परिभाषा याद हो सकती है। और अगर कोई पूछे कि बोलो, प्रकाश क्या है? तो वह बता सकता है कि मैंने यह-यह पढ़ा। प्रकाश यह-यह है। उपनिषद में ऐसा लिखा है। गीता में ऐसा लिखा है। बाइबिल में ऐसा लिखा है। महावीर ने ऐसा लिखा। बुद्ध ने ऐसा लिखा। सबका लिखा मैं जानता हूं। प्रकाश ऐसा है। लेकिन थोड़ी देर बाद वह अंधा आदमी पूछता है: बाहर जाने का रास्ता कहां है? मुझे जरा बाहर जाना है। उससे कहो: तू तो प्रकाश को जानता है, चला जा बाहर। वह कहेगा कि नहीं, मेरे पास आंखें नहीं हैं, प्रकाश को मैं कहां जानता हूं, प्रकाश के संबंध में जानता हूं। संबंध में जानना एक बात है, प्रकाश को जानना बिलकुल दूसरी बात है।
मैंने सुना है, रामकृष्ण कहते थे कि एक आदमी था अंधा। कुछ मित्रों ने उसे भोजन पर बुलाया है। खीर बनाई है। वह खीर खाकर पूछने लगा: कैसी है यह खीर? कैसा है इसका रंग? कैसा है इसका रूप? मुझे बहुत स्वादिष्ट लगती है। मित्रों ने कहा: समझाएं बेचारे को। मित्र समझाने लगे--शुभ्र है, बिलकुल शुभ्र है, सफेद है। दूध की बनी है। दूध देखा है कभी?
अब पागल रहे होंगे मित्र। अंधे आदमी को अगर खीर दिखती तो दूध भी दिख सकता था। वे उससे पूछते हैं: दूध देखा है कभी?
वह आदमी कहता है: दूध! दूध क्या होता है? कैसा होता है? बताओ मुझे? समझाओ मुझे? और उलझाओ मत। क्योंकि मुझे खीर का ही पता नहीं। अब तुमने एक नया सवाल खड़ा कर दिया कि दूध क्या होता है?
वे कहने लगे: दूध से ही बनती है खीर।
उस आदमी ने कहा: तब ठीक है, पहले दूध समझाओ, फिर खीर समझ लेंगे।
मित्रों ने कहा: दूध? कभी बगुला देखा है आकाश में उड़ता है, नदियों के किनारे मछलियां मारता है, सफेदझक बगुला होता है, देखा है कभी बगुला?
उस आदमी ने कहा: क्या बातें करते हो? और मुश्किल खड़ी कर दी! यह बगुला क्या है? अब पहले बगुला समझाओ, तब मैं दूध समझूं, तब खीर समझूं। तुम और पहेली बढ़ा रहे हो। कुछ ऐसी बात बताओ जो मैं समझ सकूं। कुछ बगुले के संबंध में ऐसा समझाओ जो मुझ अंधे को समझ में आ सके।
एक मित्र आगे आया। ज्यादा होशियार होगा। ज्यादा होशियार लोग हमेशा खतरनाक होते हैं। आगे बढ़ कर उसने, वह अपना हाथ अंधे के पास ले गया और कहा: मेरे हाथ पर हाथ फेरो।
अंधे ने हाथ पर हाथ फेरा और कहा: क्या मतलब है?
उस आदमी ने कहा: बगुले की गर्दन इसी तरह सुडौल होती है। जैसा तुमने मेरे हाथ पर हाथ फेरा, ऐसी ही लंबी, सुडौल।
वह अंधा बोला: समझ गया, समझ गया, समझ गया कि खीर हाथ की तरह सुडौल होती है। दूध हाथ की तरह सुडौल होता है। समझ गया, बिलकुल समझ गया।
मित्रों ने कहा: खाक नहीं समझे! और मुश्किल हो गई! इससे तो नहीं समझते थे अच्छा था। कम से कम इतना तो था कि जो नहीं समझते थे, पता था। और एक झंझट हो गई। अब किसी को जाकर बता मत देना कि दूध और हाथ की तरह सुडौल होता है। नहीं तो तुम तो नासमझ बनोगे ही और हम भी नासमझ बनेंगे।
उस अंधे ने कहा: लेकिन तुम ही बताते हो।
अंधे को कुछ भी समझाएं प्रकाश के संबंध में, समझेगा कैसे? चाहिए आंख। हम भी सोचते हैं सत्य के संबंध में। सोचेंगे क्या? और जितना सोचेंगे उतनी मुश्किल हो जाएगी। उतनी ऐसी परिभाषाएं हमें पकड़ जाएंगी कि वही सुडौल हाथ वाली बात हो जाएगी।
पूछो किसी से, ईश्र्वर क्या है? तो वह कुछ न कुछ बताएगा। कोई आदमी इतनी हिम्मत का नहीं मिलेगा कि कहे कि मुझे पता नहीं, मेरे पास आंख ही नहीं है ईश्र्वर को देखने की, मैं कैसे बताऊं? मुझे पता नहीं, वह है या नहीं है? मुझे कुछ भी पता नहीं है।
नहीं; वह कहेगा कि है--चार हाथ हैं उसके, पद्म रखे हुए हैं, शंख रखे हुए हैं, गदा रखे हुए हैं! कोई नाटक है, यह क्या कर रहे हैं परमात्मा--यह पद्म, शंख, गदा रखे हुए?
कहीं से सीख लिया है बेचारे ने। वही सुडौल हाथ वाला मामला है। कमल पर खड़े हुए हैं। अब तक थक गए होंगे खड़े-खड़े। और कमल की तो जान निकल गई होगी। या नकली प्लास्टिक का कमल हो तो बात अलग है। मगर काहे के लिए कमल पर खड़े हुए हैं? किसी चित्रकार ने चित्र बना दिया है, वह अंधे ने उसी को पकड़ लिया है। वह कह रहा है, कमल पर भगवान खड़े हुए हैं!
क्या हम जो पकड़ लेंगे, वह ऐसा ही होगा; वह ऐसा ही हो सकता है। क्योंकि हम पकड़ेंगे कहां से? कोई हमने देखा नहीं है। हमने सोचा है, पढ़ा है, समझा है। हमने जाना तो नहीं है, नोइंग तो हमारी नहीं है, जानना तो हमें नहीं है। जानने से हमारा कोई संबंध नहीं हुआ कभी। बस हम इसी तरह की बातें पकड़ लेंगे। फिर अंधे-अंधे लड़ेंगे।
किसी का कोई ढंग का भगवान है, किसी का कोई ढंग का है। मुसलमान का और है, हिंदू का और है, किसी का और है। और वे सब आपस में लड़ रहे हैं कि तुम्हारा गलत है, हमारा सही है। अंधों की लड़ाई चल रही है। और अंधे ऐसी लड़ाई चलवा रहे हैं कि आदमी आदमी को कटवा देते हैं। देश देश को कटवा देते हैं। जमीन को टुकड़ों-टुकड़ों में करवा दिया है। अब यह हमारे ही मुल्क में, दो तरह के अंधों ने मुल्क बंटवा दिया--हिंदू और मुसलमान।
मैंने सुना है कि जब हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटता था, तो जिस सीमा-रेखा पर सीमा खींची जाने वाली थी, वहां एक पागलखाना था। अब पागलखाना कहां जाए--हिंदुस्तान में कि पाकिस्तान में? तो लोगों ने सोचा कि चलो पागलों से ही पूछ लो कि तुम कहां जाना चाहते हो? तो पागलों से उन्होंने पूछा कि तुम कहां जाना चाहते हो--हिंदुस्तान में कि पाकिस्तान में?
पागलों ने कहा: हम यहीं रहना चाहते हैं। क्योंकि हिंदुस्तान-पाकिस्तान के नाम पर जो पागलपन हो रहा है, उससे हमको शक होता है कि हम ठीक हो गए हैं और सब पागल हो गए हैं! हम पर कृपा करो। हम यहीं रहना चाहते हैं, हम कहीं नहीं जाना चाहते। क्योंकि जो हो रहा है, उससे हमको पक्का भरोसा आ गया कि भगवान की हम पर कृपा है। और दीवाल के भीतर हम हैं। बाहर होते तो बड़ी मुश्किल हो जाती। बाहर तो सब पागल हो गए हैं।
पर अधिकारियों ने कहा: इस तरह नहीं चलेगा। तुम साफ-साफ कहो, तुम्हें कहां जाना है? हालांकि रहोगे तुम इसी पागलखाने में। लेकिन तुम जो निर्णय करो, चाहे हिंदुस्तान में चले जाओ, चाहे पाकिस्तान में।
पागलों ने कहा: बड़ी अदभुत बातें कर रहे हैं। रहेंगे हम यहीं--और चाहें तो हिंदुस्तान में चले जाएं, चाहें पाकिस्तान में! यह हो कैसे सकता है? जब हम रहेंगे यहीं, तो हिंदुस्तान में कैसे जा सकते हैं, पाकिस्तान में कैसे जा सकते हैं?
फिर उन्होंने कहा कि ऐसे नहीं मामला हल होता, तो फिर ऐसा करो: जो हिंदू हैं, वे हिंदुस्तान में चले जाएं; जो मुसलमान हैं, वे पाकिस्तान में चले जाएं।
उन्होंने कहा: हम तो सिर्फ पागल हैं, हमें पता ही नहीं कि हम हिंदू हैं कि मुसलमान हैं! ज्यादा से ज्यादा इतना समझ में आता है कि हम आदमी हैं। बाकी हमें यह पता नहीं चलता कि हम हिंदू हैं कि मुसलमान हैं!
तब कोई रास्ता न रहा। तब कोई रास्ता न रहा कि क्या करो। तो फिर यही तय हुआ कि आधे पागलखाने को हिंदुस्तान में भेज दो,
आधे पागलखाने को पाकिस्तान में भेज दो। बांट दो। पागलखाना आधा-आधा बांट दो। और क्या करोगे?
बीच से दीवाल उठा दी। पागलखाना बांट दिया। आधे पागल हिंदुस्तान में चले गए, आधे पागल पाकिस्तान में चले गए। बीच में दीवाल खड़ी हो गई।
अब वे पागल कभी-कभी एक-दूसरे की दीवाल पर चढ़ जाते हैं और चिल्लाते हैं पाकिस्तान लेकर रहेंगे, कोई चिल्लाता है हिंदुस्तान लेकर रहेंगे। अब वे पागल दीवाल पर चढ़ जाते हैं। कुछ समझदार पागल भी हैं। वे एक-दूसरे की दीवाल के पार से कहते हैं, यह मामला क्या है? यह हो क्या गया? हम हैं तो वहीं के वहीं, और तुम हिंदुस्तान में चले गए और हम पाकिस्तान में आ गए!
यह जो बांटने वाला विचार है, मान्यता है, पक्षपात है, उसने सारी दुनिया को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया--सारे आदमी को, सारी आदमी की आत्मा को।
विचार हमेशा बांटेगा। विचार कभी भी जोड़ता नहीं, तोड़ता है। इसलिए जहां किसी आदमी ने एक विचार पकड़ा कि वह दूसरे विचार का दुश्मन हुआ। जहां एक विचार पकड़ा कि हम दूसरे के दुश्मन हुए, झगड़ा शुरू हुआ। सारी दुनिया में झगड़ा विचार का है।
फिर विचार बदल जाते हैं। फिर कभी इस्लाम, कभी हिंदू लड़ते हैं। फिर कभी पूंजीवाद और साम्यवाद लड़ता है। शक्लें बदल जाती हैं, लेकिन आइडियालॉजिस लड़ती चली जाती हैं, विचार लड़ते चले जाते हैं।
सत्य से विचार का कोई भी संबंध नहीं है।
विचार से मत बन सकता है, ओपिनियन बन सकता है; सत्य, ट्रूथ उससे उदघाटित नहीं होता।
वह तो वही उदघाटित कर पाता है, जो सब मत छोड़ देता है। मताग्रह छोड़ देता है। जो कहता है: न मैं हिंदू हूं, न मैं मुसलमान हूं; न मैं यह हूं, न मैं वह हूं; न आस्तिक हूं, न नास्तिक हूं। मेरा कोई पक्ष नहीं है। मैं निष्पक्ष भाव से जानना चाहता हूं क्या है? जो सब पक्ष छोड़ कर, सब विचार छोड़ कर मौन में झांकता है, उसे सत्य उपलब्ध हो जाता है। सत्य वहां सदा है। हम अपने पक्षों से घिरे हैं और बंद हैं, और सत्य का हमें कोई अनुभव नहीं है।
लेकिन दो तरह के लोग ही हैं दुनिया में: या तो विश्र्वास करने वाले लोग हैं और या विचार करने वाले लोग हैं। लेकिन निर्विचार करने वाले लोग नहीं हैं। और वह निर्विचार करने वाला आदमी जब भी होता है--चाहे कोई कृष्ण, चाहे कोई बुद्ध, चाहे कोई महावीर, चाहे कोई क्राइस्ट, चाहे कोई मोहम्मद, चाहे कोई मूसा, कोई भी। जब भी कोई आदमी निर्विचार में उतर जाता है, निष्पक्षता में, तभी सत्य उसके द्वार पर खड़ा हो जाता है। वह तो खड़ा ही है। लेकिन हम खाली हों, तो वह आ जाए। हमारा द्वार खुले, तो वह आ जाए। हमारा द्वार है बंद!
विश्र्वास से नहीं, विचार से नहीं; निर्विचार से उसकी उपलब्धि है। उसका द्वार है: निर्विचार चेतना। इसे ही मैं ध्यान कहता हूं। पूरी तरह शांत, निर्विचार हो जाने का नाम ही ध्यान है।
अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
एक दस मिनट के लिए इस निर्विचार में जाएं--जहां सब पक्ष छोड़ दें, सब विचार छोड़ दें।
कोई जाएगा नहीं। क्योंकि किसी के जाने से दूसरे को बाधा न हो। जिसको न भी बैठना हो, वह भी चुपचाप दस मिनट बैठा रहे, सिर्फ दूसरों का ध्यान करके। और प्रकाश हम बुझा देंगे। उसके पहले आप थोड़े-थोड़े हट जाएं, कोई किसी को छूता हुआ न हो। सब अकेले हो सकें।
शांत होकर बैठ जाएं। यह प्रकाश बुझा दें। सबसे पहले तो बिलकुल आराम से शरीर को शिथिल छोड़ कर बैठ जाएं। कोई तनाव न हो शरीर पर। बातचीत नहीं कोई करेगा।
शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें। अब मैं सुझाव देता हूं, मेरे साथ अनुभव करें। सबसे पहले, शरीर शिथिल हो रहा है, ऐसा भाव करें। शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है. ऐसा भाव करें कि शरीर बिलकुल ढीला और शिथिल हो गया है, ताकि हम शरीर से पीछे हट सकें। शरीर को ढीला छोड़ देना है, ताकि हम पीछे चले जाएं। शरीर को जोर से जो पकड़े है, वह शरीर के पीछे कैसे जाएगा? वह शरीर पर ही रुक जाएगा। जिसे हम पकड़ते हैं, उसी पर रुक जाते हैं।
छोड़ दें.मन से शरीर को छोड़ दें.पीछे हट जाएं.शरीर बिलकुल ढीला हो गया है.शरीर एकदम शिथिल हो गया है, जैसे हो ही नहीं।
श्र्वास शांत हो रही है.भाव करें, श्र्वास शांत हो रही है.श्र्वास बिलकुल शांत होती जा रही है.शरीर शिथिल हो रहा है.श्र्वास शांत हो रही है.श्र्वास शांत हो रही है.शरीर शिथिल हो रहा है.श्र्वास शांत हो रही है.।
शरीर को ढीला छोड़ दें; श्र्वास को भी ढीला छोड़ दें--अपने आप आए-जाए--बिलकुल ढीला छोड़ दें। और दस मिनट के लिए अब एक भाव करें कि मैं सिर्फ साक्षी हूं, मैं सिर्फ जानने वाला हूं, मैं सिर्फ ज्ञाता हूं। हवाएं बह रही हैं, मैं सिर्फ जान रहा हूं। हवाएं छू रही हैं, मैं जान रहा हूं। शीतलता छा गई है, मैं जान रहा हूं। कोई आवाज उठेगी, मैं जानूंगा। जो भी हो रहा है, मैं जान रहा हूं।
पैर में दर्द होगा, मैं जानूंगा। शरीर शिथिल हो रहा है, मैं जान रहा हूं। श्र्वास धीमी पड़ गई है, मैं जान रहा हूं। मन में कोई विचार चलता है, मैं जान रहा हूं। मन शांत हो रहा है, मैं जान रहा हूं। भीतर कोई आनंद फूट पड़ेगा, तो भी मैं जानूंगा। मैं सिर्फ जानने वाला हूं। मैं सिर्फ साक्षीमात्र हूं।
इसी भाव को--मैं साक्षी हूं, मैं बस साक्षी हूं, मैं सिर्फ जान रहा हूं, मैं जानने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हूं, मैं जानने की शक्तिमात्र हूं। मैं साक्षी हूं.मैं साक्षी हूं. जैसे-जैसे यह भाव गहरा होगा, वैसे-वैसे शांति और शून्य छा जाएगा। जैसे-जैसे भाव गहरा होगा, वैसे-वैसे एक आनंद शीतलता छा जाएगी। जैसे-जैसे भाव गहरा होगा, वैसे-वैसे भीतर प्रवेश हो जाता है।
करें भाव--मैं साक्षी हूं.मैं बस साक्षी हूं.मैं सिर्फ साक्षी हूं.।

दस मिनट के लिए अब मैं चुप हो जाता हूं। दस मिनट तक भाव करते रहें--मैं साक्षी हूं.मैं साक्षी हूं.मैं साक्षी हूं.मैं साक्षी हूं.।

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