YOG/DHYAN/SADHANA
Jeevan Sangeet 01
First Discourse from the series of 9 discourses - Jeevan Sangeet by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
अंधकार का अपना आनंद है, लेकिन प्रकाश की हमारी चाह क्यों है? प्रकाश के लिए हम इतने पीड़ित क्यों हैं? यह शायद ही आपने सोचा हो कि प्रकाश के लिए हमारी चाह हमारे भीतर बैठे हुए भय का प्रतीक है, फियर का प्रतीक है। हम प्रकाश इसलिए चाहते हैं ताकि हम निर्भय हो सकें। अंधकार में मन भयभीत हो जाता है। प्रकाश की चाह कोई बहुत बड़ा गुण नहीं है, सिर्फ अंतरात्मा में छाए हुए भय का सबूत है। भयभीत आदमी प्रकाश चाहता है। और जो अभय है, उसे अंधकार भी अंधकार नहीं रह जाता है। अंधकार की जो पीड़ा है, जो द्वंद्व है, वह भय के कारण है। और जिस दिन मनुष्य निर्भय हो जाएगा, उस दिन प्रकाश की यह चाह भी विलीन हो जाएगी।
और यह भी ध्यान रहे कि पृथ्वी पर बहुत थोड़े से ऐसे कुछ लोग हुए हैं, जिन्होंने परमात्मा को अंधकार-स्वरूप भी कहने की हिम्मत की है। अधिक लोगों ने तो परमात्मा को प्रकाश माना है। गॉड इ़ज लाइट। परमात्मा प्रकाश है, ऐसा ही कहने वाले लोग हुए हैं। लेकिन हो सकता है, ये वे ही लोग हों, जिन्होंने परमात्मा को भय के कारण माना हुआ है। जिन लोगों ने भी ‘परमात्मा प्रकाश है’, ऐसी व्याख्या की है, ये जरूर भयभीत लोग होंगे। ये परमात्मा को प्रकाश के रूप में ही स्वीकार कर सकते हैं। डरा हुआ आदमी अंधकार को स्वीकार नहीं कर सकता।
लेकिन कुछ थोड़े से लोगों ने यह भी कहा है कि परमात्मा परम अंधकार है। मैं खुद सोचता हूं, तो परमात्मा को परम अंधकार के रूप में ही पाता हूं।
क्यों?
क्योंकि प्रकाश की सीमा है; अंधकार असीम है। प्रकाश की कितनी ही कल्पना करें, उसकी सीमा मिल जाएगी। कैसा ही सोचें, कितना ही दूर तक सोचें, पाएंगे कि प्रकाश सीमित है।
अंधकार की सोचें, अंधकार कहां सीमित है? अंधकार की सीमा को कल्पना करना भी मुश्किल है। अंधकार की कोई सीमा नहीं है। अंधकार असीम है।
इसलिए भी कि प्रकाश एक उत्तेजना है, एक तनाव है। अंधकार एक शांति है, विश्राम है। लेकिन, चूंकि हम सब भयभीत लोग हैं, डरे हुए लोग हैं, हम जीवन को प्रकाश कहते हैं और मृत्यु को अंधकार कहते हैं।
सच यह है कि जीवन एक तनाव है और मृत्यु एक विश्राम है। दिन एक बेचैनी है, रात एक विराम है। हमारी जो भाग-दौड़ है अनंत-अनंत जन्मों की, उसे अगर कोई प्रकाश कहे तो ठीक भी है। लेकिन जो परम मोक्ष है, वह तो अंधकार ही होगा।
यह शायद आपने सोचा भी न हो: प्रकाश की किरण आंख पर पड़ती है, तो तनाव होता है, परेशानी होती है। रात आप सोना चाहें तो प्रकाश में सो नहीं सकते। प्रकाश में विश्राम करना मुश्किल है। अंधकार परम शांति में, गहन शांति में ले जाता है।
लेकिन जरा सा अंधकार और हम बेचैन और हम परेशान! जरा सा अंधकार और हम मुश्किल में कि क्या होगा, क्या न होगा! अंधकार से जो इतने परेशान, भयभीत, डरे हुए हैं, ध्यान रहे, वे शांत होने से भी इतने ही डरेंगे। अंधकार से जो इतना डरा है, ध्यान रहे, वह समाधि में जाने से भी इतना ही डरेगा। क्योंकि समाधि तो इस अंधकार से भी परम शांति है।
हम मरने से भी इसीलिए डरते हैं। मृत्यु का डर क्या है? मृत्यु ने कब किसका क्या बिगाड़ा है? अब तक तो नहीं सुना कि मृत्यु ने किसी का कुछ बिगाड़ा हो। जीवन ने बहुत कुछ बिगाड़ा होगा, मृत्यु ने--नहीं सुना किसी का कुछ बिगाड़ा हो।
मृत्यु ने किसको तकलीफ दी है? जीवन तो बहुत तकलीफें देता है। जिंदगी है क्या एक लंबी तकलीफों की कतार है। मृत्यु ने कब किसको सताया है? और कब किसको परेशान किया? कब किसको दुख दिया? लेकिन मृत्यु से हम भयभीत हैं। और जीवन को हम छाती से लगाए हुए हैं।
और फिर मृत्यु परिचित भी नहीं है, और जो परिचित नहीं है, उससे डर कैसा? डरना चाहिए उससे, जो परिचित हो। जिसे हम जानते ही नहीं, वह अच्छी है कि बुरी, यह भी पता नहीं, उससे डर कैसा?
डर मृत्यु का नहीं है, डर वही अंधकार में फिर खो जाने का है। जिंदगी रोशन मालूम पड़ती है, सब दिखाई पड़ता है--परिचित, पहचाने हुए लोग, अपना घर, मकान, गांव, सब दिखाई पड़ता है। मृत्यु एक घनघोर अंधकार मालूम होती है। जहां खो जाने पर कुछ दिखेगा नहीं--न अपने संगी-साथी, न मित्र; न परिवार, न प्रियजन; न वह सब जो हमने बनाया था। वह सब खो जाएगा और न मालूम किस अंधकार में हम उतर जाएंगे। मन डरता है उस अंधकार में जाने से।
ध्यान रहे, अंधकार में जाने का डर एक डर और है, और वह डर है, अकेले हो जाने का डर। आपको पता है, रोशनी में आप कभी अकेले नहीं होते, दूसरे लोग दिखाई पड़ते रहते हैं। अंधकार में कितने ही लोग इस जगह बैठे हों, आप अकेले हो जाएंगे। दूसरा दिखाई नहीं पड़ता। पता नहीं, है या नहीं। अंधकार में हो जाता है आदमी अकेला। और आदमी को अकेला होना हो, तो भी अंधकार में उतरना पड़ता है।
ध्यान और समाधि और योग गहन अंधकार में प्रवेश की सामर्थ्य के नाम हैं।
(सो अच्छा हुआ है कि नहीं है प्रकाश। और बड़ी गड़बड़ हो गई है कि दो-तीन बत्तियां वह हीरालाल जी ले आए हैं। बरात एक-दो और लगतीं और ये दो बत्तियां और न मिलतीं, तो अच्छा होता।)
अपरिचित है अंधकार। उसमें हम अकेले हो जाते हैं। सब खोया-खोया लगता है। जाना-परिचित सब मिट गया लगता है। और ध्यान रहे, सत्य के रास्ते पर वे ही जा सकते हैं, जो परिचित को खोने की, जाने-माने को छोड़ने की; अनजान में, अपरिचित में, वहां जहां कोई मार्ग नहीं, पगडंडी नहीं, उतरने की जो क्षमता रखते हैं, वे ही सत्य में उतर पाते हैं।
ये थोड़ी सी बातें प्रारंभ में मैंने कहीं, और इसलिए कहीं कि अंधकार को जो प्रेम नहीं कर पाएगा, वह जीवन के बहुत बड़े सत्यों को प्रेम करने से वंचित रह जाता है। अब दुबारा जब अंधकार में हों, तो एक बार अंधकार को भी गौर से देखना, इतना घबड़ाने वाला नहीं है। और जब दुबारा अंधकार घेर ले, तो उसमें लीन हो जाना, एक हो जाना। और आप पाएंगे, जो प्रकाश ने कभी नहीं दिया, वह अंधकार देता है।
जीवन के सारे महत्वपूर्ण रहस्य अंधकार में छिपे हैं।
वृक्ष है ऊपर, जड़ें हैं अंधेरे में नीचे, दिखती नहीं हैं। दिखते हैं वृक्ष के तने, पत्ते, पौधे, सब दिखता है। फल लगते हैं। जड़ दिखती नहीं; जड़ अंधकार में काम करती रहती है। निकाल लो जड़ों को प्रकाश में और वृक्ष मर जाएगा। वह जो जीवन की अनंत लीला चल रही है, वह अंधकार में है।
मां के गर्भ में, अंधेरे में जन्म होता है जीवन का। जन्मते हैं हम अंधकार से; मृत्यु में फिर खो जाते हैं अंधकार में।
कोई कहता था, किसी ने गाया है कि जीवन क्या है? जैसे किसी भवन में जहां एक दीया जलता हो, थोड़ी सी रोशनी हो, और जिस भवन के चारों ओर घनघोर अंधकार का सागर हो--कोई एक पक्षी उस अंधेरे आकाश से भागता हुआ उस दीये जलते हुए भवन में घुस जाए, थोड़ी देर तड़फड़ाए, फिर दूसरी खिड़की से बाहर निकल जाए। ऐसे एक अंधकार से हम आते हैं और दूसरे अंधकार में जीवन के दीये में थोड़ी देर पंख फड़फड़ा कर फिर खो जाते हैं।
अंततः तो अंधकार ही साथी होगा। उससे इतना डरेंगे तो कब्र में बड़ी मुश्किल होगी। उससे इतने भयभीत होंगे तो मृत्यु में जाने में बड़ा कष्ट होगा। नहीं, उसे भी प्रेम करना सीखना पड़ेगा।
और प्रकाश को प्रेम करना तो बहुत आसान है। प्रकाश को कौन प्रेम नहीं करने लगता है? सो प्रकाश को प्रेम करना बड़ी बात नहीं है। अंधकार को प्रेम! अंधकार को भी प्रेम!! और ध्यान रहे, जो प्रकाश को प्रेम करता है, वह तो अंधकार को नफरत करने लगेगा। लेकिन जो अंधकार को भी प्रेम करता है, वह प्रकाश को तो प्रेम करता ही रहेगा। इसको भी खयाल में ले लें।
क्योंकि जो अंधकार तक को प्रेम करने को तैयार हो गया, अब प्रकाश को कैसे प्रेम नहीं करेगा? अंधकार का प्रेम प्रकाश के प्रेम को तो अपने में समा लेता है, लेकिन प्रकाश का प्रेम अंधकार के प्रेम को अपने में नहीं समाता।
जैसे, मैं सुंदर को प्रेम करूं, सो तो बहुत आसान है। सुंदर को कौन प्रेम नहीं करता? लेकिन असुंदर को प्रेम करने लगूं, तो जो असुंदर को प्रेम कर लेगा वह सुंदर को तो प्रेम कर ही लेगा। लेकिन इससे उलटा सही नहीं है। सुंदर को प्रेम करने वाला असुंदर को प्रेम नहीं कर पाता है। फूलों को कोई प्रेम करे, तो फूल को तो प्रेम कर ही लेगा, लेकिन कांटों को कोई प्रेम नहीं कर पाएगा। फूलों को प्रेम करने के कारण कांटों को प्रेम करने में बाधा पड़ सकती है; लेकिन कांटों को कोई प्रेम करने लगे तो फूलों को प्रेम करने में तो बाधा नहीं पड़ती है।
ये ऐसे ही दो शब्द शुरू में कहे हैं।
एक छोटी सी कहानी मुझे याद आती है, उससे आने वाली तीन दिन की चर्चाओं की शुरुआत करूंगा।
ऐसी ही रात होगी, आकाश में चांद था--और एक पागल आदमी एक अकेले रास्ते से गुजरता था। एक वृक्ष के पास रुका। और वृक्ष के पास ही एक बड़ा कुआं है। और उस पागल आदमी ने उस कुएं में झांक कर देखा। कुएं में चांद की परछाईं बनती थी। उस पागल आदमी ने सोचा, बेचारा चांद कुएं में कैसे गिर पड़ा! क्या करूं? कैसे बचाऊं? और कोई दिखता नहीं। नहीं बचाया, मर भी जा सकता है।
और फिर एक मुश्किल और थी; रमजान का महीना था, और चांद कुएं में पड़ा रहा तो रमजान के उपवास करने वालों का क्या होगा, वे कब खत्म करेंगे? वे तो मर जाएंगे। वह रमजान का उपवास करने वाला तो चौबीस घंटे सोचता है कि कब खत्म हो, कब खत्म हो! सभी उपवास करने वाले ऐसे ही सोचते हैं। सभी धार्मिक क्रियाकांड करने वाले यही सोचते हैं कि कब घंटा बजे, छुट्टी हो! स्कूल के बच्चों से ज्यादा अच्छी धार्मिक लोगों की हालत नहीं होती है!
क्या होगा--रमजान का महीना है और चांद फंस गया कुएं में? उस पागल आदमी ने सोचा, अपने को तो इन रमजान वगैरह से कोई मतलब नहीं, लेकिन यहां कोई दूसरा दिखाई भी नहीं पड़ता है।
न मालूम कहां से खोज-बीन कर रस्सी लाया बेचारा, कुएं में फेंकी, फंदा बनाया, चांद को फंसाया। चांद तो फंसा नहीं, चांद तो वहां था नहीं; लेकिन एक चट्टान फंस गई! वह जोर से रस्सी खींचने लगा। चट्टान में फंसी रस्सी ऊपर नहीं आती। उसने कहा, चांद बड़ा वजनी है--अकेला आदमी, खींचूं भी तो कैसे खींचूं! और न मालूम कब से गिरा है, मरा है कि जिंदा है, भार भी कितना हो गया है! और कैसे लोग हैं कि दुनिया में किसी को खबर नहीं! कितने लोग चांद की कविताएं पढ़ते हैं, गीत गाते हैं, और जब चांद फंस गया मुसीबत में तो किसी कवि को यहां दिखाई नहीं पड़ रहा कि कोई उसे बचाए! कुछ होते हैं जो कविता ही गाते हैं, वक्त पर कभी नहीं आते! सच तो यह है कि जो वक्त पर नहीं आते हैं, वे कविता करना सीख जाते हैं। खींच रहा है, खींच रहा है; आखिर फंदा था, टूट गया, जोर लगाया, चट्टान थी मजबूत, धड़ाम से गिरा है। आंख मिंच गई, सिर खुल गया, छींटे उचटे, ऊपर आंख गई, चांद आकाश में भागा चला जा रहा है! उसने कहा, चलो बचा दिया बेचारे को! अपने को थोड़ा लगा तो लगा, निकल गया!
उस पर हमें हंसी आती है उस पागल आदमी पर। बाकी गलती क्या थी उसकी?
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं: मुक्त कैसे हो जाएं? मैं उनको यह कहानी सुना देता हूं। वे पूछते हैं: मोक्ष कैसे पाएं? मैं उनको यह कहानी सुना देता हूं।
वे हंसते हैं कहानी पर, और फिर पूछते हैं: कोई मुक्ति का रास्ता बताइए? तब मैं सोचता हूं, समझे नहीं कहानी। कोई फंसा हो, तो मुक्त हो सकता है। कोई बंधा हो, तो छोड़ा जा सकता है। लेकिन कोई कभी बंधा ही न हो और केवल प्रतिबिंब में देख कर समझा हो कि बंध गए हैं, तो मुसीबत हो जाती है।
सारी मनुष्यता इस उलझन में पड़ी है उस पागल की तरह, जिसका चांद कुएं में फंस गया था। सारी दुनिया इस मुश्किल में पड़ी है।
दो तरह के लोग हैं दुनिया में। वह पागल तो इकट्ठा था। दुनिया में दो तरह के पागल हैं। एक वे हैं, जो मानते हैं कि चांद फंसा है। दूसरे वे हैं, जो फंसे चांद को निकालने की कोशिश करते हैं। पहले का नाम गृहस्थ है, दूसरे का नाम संन्यासी है। दो तरह के पागल हैं। संन्यासी कहता है: हम तो आत्मा को मुक्त करके रहेंगे! और गृहस्थ कहता है: अब फंस गए हैं, अब क्या करें? कैसे निकलें! फंसे हैं! वे जो फंस गए हैं, वे उनके पैर छूते हैं, जो मुक्त करने की कोशिश कर रहे हैं। दो तरह के पागल हैं। एक कहता है, चांद फंस गया है! दूसरा निकाल रहा है! जो फंस गया है, वह उसके पैर छूता है, जो निकाल रहा है।
सत्य बहुत और है। और वह सत्य खयाल में आ जाए तो सारी जिंदगी बदल जाती है, और हो जाती है।
सत्य यह है कि मनुष्य कभी फंसा ही नहीं है। वह जो हमारे भीतर है, वह निरंतर मुक्त है, वह किसी बंधन में कभी नहीं हुआ है। लेकिन परछाईं फंस गई है, रिफ्लेक्शन फंस गया है। हम तो बाहर हैं और हमारी तस्वीर फंस गई है। और हमें कुछ पता ही नहीं कि हम तस्वीर से ज्यादा भी हैं! हमें यही पता है कि हम अपनी तस्वीर हैं! फिर मुश्किल हो गई है। हम सब अपनी तस्वीर को ही अपना होना समझे बैठे हैं!
एक आदमी नेता है, एक आदमी गरीब है, एक आदमी अमीर है; एक आदमी गुरु है, एक आदमी शिष्य है; एक आदमी पति है, कोई पत्नी है--ये सब तस्वीरें हैं, जो दूसरों की आंखों में हमें दिखाई पड़ती हैं। मैं जैसा हूं, वह मैं वैसा हूं। मैं वैसा नहीं हूं, जैसा आपकी आंख में दिखाई पड़ता है। आपकी आंख में जो दिखाई पड़ता है, वह मेरी परछाईं है। वह उसी परछाईं में मैं फंस गया हूं।
आज आप रास्ते पर मिले और मुझे नमस्कार किया और मैं खुश हुआ कि मैं बहुत अच्छा आदमी हूं; चार आदमी नमस्कार करते हैं। अब बड़ा मजा है कि चार आदमियों के नमस्कार करने से कोई आदमी अच्छा कैसे हो जाएगा? चार नहीं पचास करें, हजार करें। अच्छे होने से किसी के नमस्कार करने का क्या संबंध है? और इस दुनिया में जहां कि बुरे आदमियों को हजारों नमस्कार मिल जाते हों, वहां इस भ्रम में पड़ना कि चार आदमियों ने नमस्कार कर लिया तो मैं अच्छा आदमी हो गया! बड़ी परछाईं में फंस जाना है। फिर कल ही ये चार आदमी नमस्कार नहीं करते, पीठ फेर कर चले जाते हैं, फिर मुसीबत शुरू हो जाती है। वह परछाईं फंस गई है; अब वह परछाईं मांग करती है कि नमस्कार करो! और हमने परछाईं पकड़ ली है। अब हम कहते हैं कि नमस्कार करो, नमस्कार नहीं की जाएगी तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा।
देखें न, एक आदमी मिनिस्टर हो जाए, और फिर न मिनिस्टर हो जाए। देखें, उसकी कैसी हालत हो जाती है? जैसे कपड़े से इस्तरी उतर गई हो, सब कलफ उतर गया हो। जैसे कपड़े को पहने-पहने सो गए हों और कई दिनों से सो रहे हों और उसी को पहने चले जा रहे हों, जो शक्ल उसकी हो जाती है। वह एक आदमी मिनिस्टर हो जाए एक दफे, फिर उतर जाए नीचे, वह उसकी हालत हो जाती है, बिलकुल लुंज-पुंज। क्या हो गया इस आदमी को?
परछाईं में फंस गया। परछाईं पकड़ गई। अब वह कहता है, वही परछाईं जो दिखाई पड़ी थी, वही मैं हूं! अब मैं दूसरा अपने को मानने को राजी नहीं हूं! हां, परछाईं और गहरी हो तो ठीक है: छोटा मिनिस्टर बड़ा मिनिस्टर बने तो ठीक है; छोटा क्लर्क बड़ा क्लर्क बने--कोई भी और बात हो। परछाईं बढ़े तो ठीक है। परछाईं घटे तो मुश्किल है। क्योंकि समझ लिया कि मैं परछाईं हूं।
आदमी इज्जत देता है तो, आदमी अपमान करता है तो; हमने कभी यह खयाल किया कि हमने अपनी शक्ल देखी ही नहीं! वह जो ओरिजिनल फेस, जिसको हम कहें, मेरा चेहरा, वह मुझे पता ही नहीं है! सब परछाईं देखी हैं।
बाप जब बेटे के सामने खड़ा होता है, तो देखी उसकी अकड़? बाप जब बेटे से कहता है कि तू भी क्या जानता है, मैंने जिंदगी देखी है, मैंने उम्र देखी है। अभी उम्र आएगी, अनुभव होगा, तब पता चलेगा। वह बाप किससे बोल रहा है? वह बाप बेटे से बोल रहा है? नहीं। वह खुद बोल रहा है? नहीं। एक परछाईं बोल रही है। एक परछाईं जो बेटे की आंख में पकड़ रहा है। बेटा डरा हुआ है। बाप के हाथ में बेटे की गर्दन है। बेटा डरा हुआ है। आंख में परछाईं बन रही है। और जो डरा हुआ है, उसे और डराया जा सकता है। यही बाप अपने मालिक के सामने बिलकुल पूंछ दबा कर खड़ा हो जाता है। और मालिक कुछ भी कहता है, वह कहता है, जी हां!
मैंने सुना है, एक फकीर था। वह कुछ दिनों के लिए एक राजा का नौकर हो गया था। ऐसे ही। फकीर क्या किसी के नौकर होते हैं? जो किसी का मालिक नहीं होना चाहता, वह किसी का नौकर हो भी नहीं सकता है। फिर क्यों हो गया था? ऐसे ही। कुछ कारण था। जानना चाहता था कि राजाओं के नौकर कैसे जीते होंगे?
नौकर हो गया था राजा का। तो राजा ने पहले दिन ही--सब्जी बनी थी कोई--सब्जी खाई, इस नौकर को भी खिलाई, और रसोइए को कहा कि रोज यह सब्जी बनाना। और इससे पूछा, क्या खयाल है फकीर, तुम्हारा क्या खयाल है? सब्जी कैसी है?
उसने कहा: मालिक, इससे अच्छी सब्जी दुनिया में होती ही नहीं। यह तो अमृत है। सात दिन रसोइया वही सब्जी बनाता रहा। राजा की आज्ञा थी।
अब सात दिन एक ही सब्जी खानी पड़े, तो पता है क्या हालत हो जाए? घबड़ा गई तबीयत। स्वर्ग से भी घबड़ा जाता है आदमी, अगर सात दिन रहना पड़े। कहेगा कि थोड़ा नरक तफरी कर आएं, फिर वापस भला आ जाएं। लेकिन, अब सात दिन स्वर्ग रहते-रहते तबीयत घबड़ा जाती है। इसीलिए तो देवता जमीन पर उतरते हैं। किसलिए उतरते हैं? उधर तबीयत घबड़ा जाती है, जी मचलाता है कि छोड़ो, थोड़े दिन जमीन पर हो आओ।
घबड़ा गई तबीयत। सात दिन बाद उसने चिल्ला कर थाली पर लात मार दी और रसोइए से कहा: क्या बदतमीजी है, रोज-रोज वही!
रसोइए ने कहा: मालिक आपने कहा था।
फकीर ने कहा कि जहर है यह सब्जी, रोज खाओगे, मर जाओगे।
राजा ने कहा: अरे, हद है, तू सात दिन पहले कहता था अमृत है!
उस फकीर ने कहा: मालिक, हम आपके नौकर हैं, सब्जी के नौकर नहीं हैं। हम तो आपके नौकर हैं, जो देखते हैं कि कौन सी परछाईं बन रही है, वही कह देते हैं। उस दिन आपने कहा, अमृत है, बहुत पसंद आई। हमने कहा, अमृत है, इससे ऊंची सब्जी नहीं। हम कोई सब्जी के नौकर हैं? हम तो आपके नौकर हैं। आज आप कहते हैं, नहीं जंच रही। हम कहते हैं, जहर है, जो खाएगा वह मर जाएगा। कल आप कहोगे कि अमृत है, बहुत अच्छी लग रही है। हम कहेंगे, इससे बढ़िया अमृत मिलता ही नहीं कहीं, यही अमृत है। हम आपके नौकर हैं, हम कोई सब्जी के नौकर थोड़े ही हैं। हम तो आपकी आंख की परछाईं देख कर जीते हैं।
हम सब ऐसे जीते हैं। वह जो भीतर बैठा हुआ है, उसका न तो हमें पता है, न वह कहीं फंस गया है। न वह फंस सकता है। न कोई उपाय है उसके बंधन में पड़ जाने का। और मजा यह है कि उसको छुटाने की कोशिश चल रही है कि उसे हम कैसे मुक्त करें! उसका सवाल ही नहीं है। वह कभी बंधन में पड़ा ही नहीं है। बंधन में कोई और चीज पड़ गई है। और जो चीज पड़ गई है, उसको हम सोच भी नहीं रहे हैं, ध्यान पर भी नहीं ले रहे हैं।
क्या है अशांति आदमी को? कौन सा दुख है? कौन सी पीड़ा है?
वह परछाईं है। वह परछाईं डगमगाती है, चित्त अशांत होता है। वह परछाईं टूटती है, चित्त दुखी होता है। वह परछाईं बढ़ती है, चित्त बड़ा प्रसन्न होता है।
मैंने सुना है, एक दिन सुबह ही सुबह एक छोटा सा सियार शिकार के लिए निकला है, कुछ खाने-पीने की खोज करने। रेगिस्तान है, सूरज निकला है और सियार की बड़ी लंबी परछाईं बन रही है। और वह सियार कहता है कि आज छोटे-मोटे खाने से काम नहीं चलेगा। क्योंकि वह समझ रहा है, मैं ऊंट हूं। इतनी लंबी परछाईं! इसलिए आज इस छोटे-मोटे खाने से काम नहीं चलेगा, हम कोई छोटे जानवर नहीं हैं। आज काफी शिकार करनी पड़ेगी।
अब वह अकड़ कर चल रहा है। और वह शिकार खोज रहा है। तब तक सूरज ऊपर बढ़ता चला गया है। अभी शिकार मिला नहीं, दोपहर आ गई है। शिकार मिला नहीं। उसने वापस एक दफा परछाईं देखी, वह तो सिकुड़ कर छोटी सी हो गई। उसने कहा, अरे, खाना न मिलने से कैसी खराब हालत हो गई! क्या शरीर लेकर निकले थे, क्या शरीर हो गया! अब तो कोई छोटा-मोटा शिकार ही मिल जाए, तो भी काम चल जाएगा। लेकिन मन बड़ा दुखी है। मन बड़ा दुखी है!
हम सब भी जिंदगी के शुरू में ऐसे ही निकलते हैं, बड़ी लंबी छाया बनती है। सूरज निकलता है जिंदगी के शुरू-शुरू में और हर बच्चा ऐसा भर कर निकलता है कि जीत लेंगे दुनिया को। हर आदमी सिकंदर होता है बचपन में। बुढ़ापे में सिकुड़ जाती है छाया। वह सोचता है, सब बेकार है, कुछ सार नहीं है। लेकिन जीता छाया पर है! और छाया बनती है हमारे आस-पास जो दूसरे लोग हैं उनकी आंखों में। और मजा यह है कि जो मुक्त होना चाहते हैं, वे भी इसी छाया पर जीते हैं!
एक संन्यासी है, गेरुआ वस्त्र पहने हुए है। अब संन्यास का गेरुआ वस्त्रों से क्या मतलब है? लेकिन गेरुआ वस्त्र दूसरे की आंख में जो परछाईं बनाते हैं, वह बड़ी रिस्पेक्टेबल है, वह बड़ी आदरपूर्ण है। गेरुआ वस्त्र देख कर ही दूसरा आदमी एकदम झुका-झुका हो जाता है। वह जो तस्वीर बनती दूसरे की आंख में। वह तस्वीर बनाने के लिए गेरुआ वस्त्र है। नहीं तो गेरुआ वस्त्र की क्या जरूरत है?
कोई संन्यासी होने के लिए दो पैसे की गेरू कुछ काम कर सकती है? नहीं तो सारी गेरू खरीद लो, अपने घर में रख लो; सब रंग दो--सारा घर, सारे कपड़े--सब रंग दो। अपना शरीर भी रंग लो। उससे सर्कस के शेर बन जाओगे। संन्यासी तो नहीं बन जाओगे। और संन्यासी के नाम पर सर्कस के शेर इकट्ठे हैं।
चित्त क्या है?
एक आदमी मंदिर जा रहा है सुबह-सुबह, जोर से भजन गा रहा है। जरा खयाल करें उसको, अगर सड़क पर कोई न दिखेगा, तो भजन धीरे हो जाएगा। कोई दो-चार आदमी आते दिखेंगे, तो जोर से आवाज निकलने लगेगी। बड़ा मजा है! तुम्हें भगवान से मतलब कि चार आदमी जो आ-जा रहे हैं इनसे मतलब है? वह पूजा कर रहा है, वह बार-बार लौट कर देख लेता है कि कोई देखने वाला आया कि नहीं? कोई नहीं आया, तो जल्दी पूजा खत्म हो जाती है; कोई आया, तो देर तक भी चलती है! कोई ऐसा आदमी आ गया जिससे कोई और काम भी निकालना हो, तो और देर तक चलती है!
यह क्या हो रहा है? यह परछाईं पर जी रहे हैं।
एक आदमी रोज सुबह-सुबह मंदिर होकर घर लौट आता है। चाहता है कि लोग कहें धार्मिक है। लोगों के कहने से क्या मतलब है? लेकिन हम, लोगों की आंखों में जो बन रहा है, उस पर जी रहे हैं।
वह जो कुएं में छाया बन रही है चांद की, वह फंस गई है। और बड़ी कठिनाई है, कैसे निकालें इसको, कैसे मुक्त करें? तो मुक्ति के न मालूम कितने पंथ बन गए हैं। कोई कहता है, राम-राम जपो, इससे निकल जाओगे बाहर! कोई कहता है, ओम के बिना रास्ता नहीं है! कोई कहता है, अल्लाह-अल्लाह करो! कुछ और भी मिल गए हैं, खिचड़ी बनाने वाले, वे कहते हैं, अल्लाह-ईश्र्वर तेरे नाम, दोनों ही इकट्ठे जोड़ दो! एक से नहीं चलेगा, दोनों की ताकत लगाओ! शायद दोनों काम कर जाएं। पता नहीं कौन असली हो। दोनों को ही जोड़ दो। सब, सबको ही, सभी साधुओं को नमस्कार कर लो। नमो लोए सव्वसाहूणं! जितने भी साधु हैं, सबको ही नमस्कार कर लो! सबकी टांग प
कड़ लो! एक साधु से न चले काम तो सब साधुओं को पकड़ लो! और बचने का उपाय करो। बचना जरूरी है। क्योंकि बड़े दुख हैं, जिंदगी में कष्ट हैं।
सच है यह बात। जिंदगी में कष्ट हैं और दुख हैं, तकलीफें हैं। और बहुत बेचैनी है आदमी को। लेकिन बेचैनी किसलिए है? तकलीफ किसलिए है? जिस वजह से तकलीफ है उस वजह को देखो मत!
एक आदमी मेरे पास आया और उसने मुझे आकर कहा कि मैं बहुत अशांत हूं, शांति का कोई रास्ता बताइए। मेरे पैर पकड़ लिए। मैंने कहा: पैर से दूर रखो हाथ, क्योंकि मेरे पैरों से तुम्हारी शांति का क्या संबंध हो सकता है? सुना नहीं कहीं। और मेरे पैर को कितना ही काटो-पीटो, उससे कुछ पता नहीं चलेगा कि तुम्हारी शांति मेरे पैर में कहां है। मेरे पैर का कसूर भी क्या है तुमसे? तुम अशांत हुए तो मेरे पैर ने कुछ बिगाड़ा तुम्हारा?
वह आदमी बहुत चौंका। उसने कहा: आप यह क्या बात कहते हैं! मैं ऋषिकेश गया, वहां शांति नहीं मिली; अरविंद आश्रम गया, वहां शांति नहीं मिली; अरुणाचल होकर आया, रमण के आश्रम में चला गया, वहां शांति नहीं मिली। कहीं शांति नहीं मिली। सब ढोंग-धतूरा चल रहा है। किसी ने मुझे आपका नाम लिया, तो मैं आपके पास आया हूं।
मैंने कहा: तुम उठो दरवाजे के एकदम बाहर हो जाओ, नहीं तो तुम जाकर कल यह भी कहोगे कि वहां भी गया, वहां भी शांति नहीं मिली.। और मजा यह है कि जब तुम अशांत हुए थे--तब तुम किस आश्रम में गए थे, किस गुरु से पूछने गए थे अशांत होने के लिए? तुमने किससे शिक्षा ली थी अशांत होने के लिए? मेरे पास आए थे? किसके पास गए थे पूछने कि मैं अशांत होना चाहता हूं गुरुदेव, अशांत होने का रास्ता बताइए? अशांत सज्जन आप खुद हो गए थे, अकेले काफी थे। और शांत होना है, दूसरे के ऊपर दोष देने आए हो? अगर नहीं हुए तो हम जिम्मेवार होंगे! आप अगर शांत नहीं हुए तो हम जिम्मेवार होंगे! जैसे कि हमने आपको अशांत किया हो! आप हमसे पूछने आए थे?
उसने कहा: नहीं, आपसे तो पूछने नहीं आया। किससे पूछने गए थे? किसी से पूछने नहीं गया। तो मैंने कहा: फिर ठीक से समझने की कोशिश करो कि खुद अशांत हो गए हो। कैसे हो गए हो, किस बात से हो गए हो, उसकी खोज करो। पता चल जाएगा कि इस बात से हो गए, वह बात करना बंद कर देना। शांत हो जाओगे।
शांत होने की कोई विधि थोड़े ही होती है। अशांत होने की विधि होती है। और अशांत होने की विधि जो छोड़ देता है, वह शांत हो जाता है। मुक्त होने का कोई रास्ता थोड़े ही होता है। अमुक्त होने का रास्ता होता है। बंधने की तरकीब होती है। जो नहीं बंधता, वह मुक्त हो जाता है।
मैं मुट्ठी बांधे हुए हूं, जोर से बांधे हुए हूं, और आपसे पूछूं कि मुट्ठी कैसे खोलूं? तो आप कहेंगे, खोल लीजिए, इसमें पूछना क्या है। बांधिए मत कृपा करके, खुल जाएगी। मुट्ठी खोलने के लिए कुछ और थोड़े ही करना पड़ता है, सिर्फ मुट्ठी को बांधो मत। बांधते हो, तो मुट्ठी बंधती है। मत बांधो, खुल जाती है। खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है। बांधना चेष्टा है, श्रम है। खुला होना, सहजता है।
आदमी की आत्मा सहज ही मुक्त है, शांत है, आनंदित है। दुखी हैं--आप तरकीब लगा रहे हैं। बंधन में हैं--आपने हथकड़ियां बनाई हैं। कष्ट भोग रहे हैं--आप कष्ट पैदा करने में बड़े कुशल मालूम होते हैं। यह आपकी कुशलता है कि आप कष्ट पैदा कर रहे हैं। यह आपकी कारीगिरी है कि आप दुख निर्माण कर रहे हैं। और साधारण कारीगर नहीं हैं आप। क्योंकि उस आत्मा पर आप दुख का मकान बना लेते हैं जिस आत्मा को दुख छूना मुश्किल है। और आप कोई साधारण होशियार लोहार नहीं हैं। आप उस आत्मा पर जंजीरें बिठा देते हैं जिस आत्मा पर कभी कोई जंजीर न बैठी है, न बैठ सकती है। और हद मजा है। खुद जंजीरें बिठा देते हैं और फिर उन जंजीरों को लेकर घूमते हैं कि हम इनसे कैसे मुक्त हो जाएं? कोई रास्ता चाहिए? शांत कैसे हो जाएं, आनंदित कैसे हो जाएं, दुख के बाहर कैसे हो जाएं?
पहले दिन इस प्राथमिक चर्चा में मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि परछाईं दुख है, परछाईं पीड़ा है, परछाईं बंधन है। और हम सब परछाईं में जीते हैं। और जो आदमी परछाईं में जीता है, वह कभी स्वयं में नहीं जी सकता। परछाईं में जो जीता है, वह स्वयं में कैसे जीएगा? और जिसकी नजर परछाईं पर लगी है, वह अपने पर कैसे वापस आएगा?
मैंने सुना है, एक घर में एक छोटा सा बच्चा है, और वह भाग रहा है और रो रहा है, भाग रहा है और रो रहा है। और उसकी मां उससे पूछती है कि बात क्या है? वह कहता है कि मुझे मेरी परछाईं पकड़नी है। वह भागता है। अब बड़ी मुश्किल है। परछाईं बड़ी चालाक है, आप भागो वह आपके आगे निकल जाती है। वह बच्चा रो रहा है, छाती पीट रहा है। भागता है, फिर परछाईं आगे निकल जाती है। वह अपने सिर को पकड़ना चाहता है--वह कैसे सिर को पकड़े? कैसे सिर को पकड़े? और एक फकीर द्वार पर भीख मांगने आया है, वह हंसने लगा है। मां भी परेशान है। और वह हंसने लगा है और उस फकीर ने कहा: ऐसे नहीं, ऐसे नहीं; यह कोई रास्ता नहीं है। यह लड़का मुश्किल में पड़ जाएगा। यह लड़का संसार के रास्ते पर निकल गया।
उसकी मां ने कहा: कैसा संसार का रास्ता? यह तो खेल रहा है।
उसने कहा: खेलने में यह बच्चा संसार के रास्ते पर उलझा हुआ है।
क्या करें?
वह फकीर भीतर गया। उसने उस रोते हुए लड़के का हाथ पकड़ कर उसके सिर पर रखवा दिया। इधर हाथ सिर पर गया उधर परछाईं के सिर पर भी हाथ चला गया। वह लड़का कहने लगा, पकड़ ली! आश्र्चर्य, आपने इतनी आसानी से पकड़ा दी! अपने सिर पर हाथ रखने से परछाईं पकड़ में आ गई, क्योंकि परछाईं के सिर पर भी हाथ चला गया।
परछाईं तो वही बन जाती है, जो हम होते हैं। लेकिन परछाईं को कुछ करने आप जाएं, तो आप नहीं बदलते; आप बदल जाएं, तो परछाईं बदल जाती है। और हम सारे लोग परछाईं के साथ कुछ करने की कोशिश में लगे हुए हैं, जन्म से लेकर मरने तक। और एक जन्म नहीं, अनंत जन्मों तक। हम परछाईं के पीछे दौड़ने वाले लोग हैं--छाया के पीछे। और छाया के पीछे दौड़ने से न तो छाया पकड़ में आती है, चित्त दुखी हो जाता है। न छाया मिलती है, चित्त हार जाता है। छाया बार-बार हाथ से छूट जाती है और लगता है कि हम हीन हैं, हम शक्तिशाली नहीं हैं। हम हार गए। और फिर छाया न मालूम किन-किन कारागृहों में फंसती हुई मालूम पड़ती है। फिर हम उसके छुटकारे के उपाय में लग जाते हैं। मंत्र पढ़ते हैं, जाप करते हैं, गीता पढ़ते हैं, रामायण पढ़ते हैं, कुरान पढ़ते हैं। न मालूम क्या-क्या उपाय करते हैं। सब करते हैं! और कुछ भी नहीं हो सकता है। क्योंकि जो करना है, वह हम करते ही नहीं।
करना है यह कि हम यह देखें और पहचानें ठीक से कि कौन उलझ गया है?--मैं? मैं उलझा हूं कभी? मैं उलझा हूं कभी?? कौन अशांत हो गया है?--मैं? मैं कभी अशांत हुआ हूं? आप कहेंगे, हजार बार हुए हैं, रोज हुए हैं, अभी हुए बैठे हुए हैं।
लेकिन मैं फिर आपसे कहता हूं कि खोज करेंगे तो हैरान हो जाएंगे। कभी आप अशांत नहीं हुए। वह जो आपका अंतर्तम है, वह जो गहरे से गहरे आपका होना है, वह जो इनरमोस्ट बीइंग है, वह जो भीतर से भीतर आपका सत्व है, वह जो आप हैं, वह कभी अशांत नहीं हुआ है। परछाईं फंस गई है। वह कभी अशांत नहीं हुआ, दुखी नहीं हुआ। लेकिन परछाईं दुखी हो रही है, अशांत हो रही है, पीड़ित हो रही है।
एक नदी है छोटी सी शांत। ज्यादा बहती नहीं। भारतीय नदी है। क्योंकि भारत में कोई चीज बहती ही नहीं। नदी तक नहीं बहती। सब चीजें ठहरी रहती हैं। सब खड़ा है, इसलिए सब सड़ गया है। खड़ी होगी चीज, सड़ जाएगी। भारतीय नदी होगी। ठहरी हुई है बिलकुल, कोई चीज बहती नहीं। कचरा डाल दो, वह वहीं पड़ा रहता है। जन्मों के बाद आओ, वहीं मिलेगा। वहीं सड़ा हुआ मिलेगा। सब गंदा हो गया है।
एक कुत्ता उसके किनारे पानी पीने को आया हुआ है। ठहरी हुई नदी है। छाया बनती है, प्रतिबिंब बनता है। नीचे देख कर कि कोई दूसरा कुत्ता है, कुत्ता डर कर पीछे हट जाता है। तेज प्यास है, बड़ी प्यास है। पानी पीना है जरूर। प्यास धक्के मारती है, कुत्ता किनारे पर आता है। लेकिन नीचे कोई कुत्ता है, उससे डर कर वह फिर पीछे हट आता है। पानी पास है, प्यास भीतर है। पानी बाहर है, प्यास भीतर है। प्यास मौजूद है, पानी मौजूद है, कोई बाधा नहीं है। एक बाधा पड़ जाती है। कुत्ता नदी के पास जाता है, फिर लौट आता है डर कर, नीचे कोई कुत्ता है! लेकिन कब तक लौटेगा?
कोई गुजरता है आदमी पास से, देखता है, खूब हंसता है। कुत्ते पर नहीं। कुत्ते पर तो नासमझ हंसते हैं। अपने पर हंसता है कि ऐसा ही अपनी छाया के आस-पास डोल-डोल कई दफे मैं भी लौट आया हूं।
जाता है पास और कुत्ते को धक्का दे देता है। कुत्ता बड़ा इनकार करता है। किसी को भी धक्का दो, इनकार करेगा वह। चाहे आप अमृत के कुंड में धक्का दो, तो इनकार करेगा। धक्का दिए जाने से आदमी इनकार करता है। आदमी जड़ होकर खड़ा हो जाता है, वहां से हिलना नहीं चाहता।
वह आदमी जबर्दस्ती कुत्ते को धक्का दे देता है। एक धक्का लगता है, कुत्ता पानी में गिर जाता है। वहां कोई छाया नहीं, छाया खत्म हो गई। वह कुत्ता पानी पीता है। वह फकीर फिर हंसता है।
अगर कुत्ता पूछ सकता होता तो पूछता कि क्यों हंसते हो? लेकिन कुत्ता नहीं पूछ सकता, हम तो पूछ सकते हैं। पूछो उस आदमी से: क्यों हंसते हो? वह आदमी कहता है: इसलिए हंसता हूं कि यही मेरी हालत रही है। यही मेरी हालत रही है--अपनी ही परछाईं, न मालूम कितनी मुश्किलों में, बाधाओं में, न मालूम कितनी दीवालें बन जाती है। अपनी ही परछाईं आड़े आ जाती है।
अपनी परछाईं किसकी आंख में बनती है? कोई नदी पर नहीं बनती हमारी परछाईं। कोई दर्पण पर नहीं बनती। दर्पण और नदी में तो सब ठीक ही है; असली तो आस-पास के आदमी की आंख में हमारी जो परछाईं बनती है, वहीं हम उलझे हैं, वहीं हम खड़े हैं! जो कहा जाता है कि संसार में उलझ गया है आदमी--वह आदमी की आत्मा नहीं उलझ जाती है, सिर्फ परछाईं उलझ जाती है।
स्वयं से निरंतर पूछना जरूरी है--जब आप दुख में हों; जब भारी दुख हो, तब एक क्षण को द्वार बंद करके एकांत में बैठ जाना और पूछना अपने से, मैं दुखी हूं? और मैं आपसे कहता हूं कि अगर आपने ईमानदारी से और पूरी प्रामाणिकता से अपने से यह पूछा कि मैं दुखी हूं, तो आप तत्क्षण पाएंगे, आपके भीतर से आता हुआ उत्तर, कि दुख मेरे चारों तरफ हो सकता है, लेकिन मैं दुखी नहीं हूं।
आपकी टांग टूट गई है, पैर दुख रहा है, पीड़ा हो रही है, तो पूछना आप अपने से कि मुझे हो रही है, मैं पीड़ित हूं? और निश्र्चित ही साफ-साफ दिखाई पड़ जाएगा कि पैर दुख रहा है, दुखने की खबर हो रही है, लेकिन मैं? मैं तो दूर खड़ा एक साक्षी हूं, मैं तो देख रहा हूं।
एक मेरे मित्र हैं, गिर पड़े सीढ़ियों से। बूढ़े आदमी हैं। पैर टूट गया। डॉक्टरों ने बांध दिया बिस्तर पर। तीन महीने के लिए कहा कि हिलना-डुलना भी मत। सक्रिय आदमी हैं, बिना हिले-डुले काम नहीं चलता। चाहे बेकार ही हिलें-डुलें, लेकिन बिना हिले-डुले काम नहीं चलता।
और कितने लोग हैं जो मतलब से हिलते-डुलते होंगे? और कितने वक्त मतलब से हिलते-डुलते होंगे? सुबह से शाम तक अपने हिलने-डुलने का अगर कोई हिसाब रखे, तो पाएगा कि अट्ठानबे प्रतिशत तो बेकार हिल-डुल रहा है। मगर बेचैनी होती है। खाली बैठने से कई चीजें
दिखाई पड़ती हैं, जो आदमी नहीं देखना चाहता।
बिस्तर पर लग गए हैं। मैं उन्हें देखने गया। रोने लगे। कहने लगे कि बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। मर जाता इससे अच्छा था। ये तो तीन महीने, कैसे जीऊंगा, कैसे पड़ा रहूंगा? बहुत तकलीफ है।
मैंने उनसे कहा: आंख बंद करें और खोजें: तकलीफ और आप एक हैं या दो?
उन्होंने कहा: इससे क्या होगा?
मैंने कहा: वह करके देखें, फिर हम पीछे बात करें। आप आंख बंद कर लें। मैं बैठा हूं। और जब तक साफ न हो जाए, तब तक आंख मत खोलें। यह खोजें कि आप और तकलीफ दो हैं या एक? अगर आप और तकलीफ एक ही हैं, तो आपको कभी पता नहीं चल सकता कि तकलीफ हो रही है। तकलीफ को कैसे पता चलेगा कि तकलीफ हो रही है? तकलीफ को पता चल सकता है कि तकलीफ हो रही है!
यह तो ऐसे ही हुआ कि कांटे को पता चल जाए कि मैं चुभ रहा हूं। कांटा दूसरे को चुभता है। चुभन दूसरे को पता चलती है। दो होना जरूरी हैं। तकलीफ है, एक, दुख है, एक; और जिसको हो रहा है, मालूम हो रहा है, वह है, दो। वह अलग है। अगर वह एक ही हो जाए तो पता ही नहीं चलेगा।
आपको पता चलता है न कि क्रोध आ गया? अगर आप और क्रोध एक ही हों, तो पता चलेगा? फिर तो आप ही क्रोध हो जाएंगे। फिर तो क्रोध मिटेगा भी नहीं। मिट भी नहीं सकता। क्योंकि जब आप ही क्रोध हो गए, तो मिटेगा कैसे? और अगर क्रोध मिट जाएगा, तो आप भी खत्म हो जाएंगे।
नहीं, आप तो सदा अलग हैं। क्रोध आता है और चला जाता है; दुख आता है और चला जाता है; अशांति आती है और चली जाती है। घिरता है धुआं चारों तरफ और खो जाता है। लेकिन वह जो बीच में है खड़ा, वह सदा खड़ा है। इसकी निरंतर खोज का नाम ध्यान है। इस तत्व की खोज का नाम--जो बंधन में नहीं, जो दुख में नहीं, जो पीड़ा में नहीं, जो अशांति में नहीं, जो सदा सबके बाहर है। सदा सबके बाहर है! कितना ही कोशिश करो, भीतर नहीं है। सदा ही बाहर है। हर घटना के बाहर है, हर हैपनिंग के बाहर है; हर बिकमिंग के बाहर है, जो भी हो रहा है, उसके बाहर है।
एक रास्ते पर मैं एक गाड़ी से जा रहा था। तीन साथ और मित्र हैं। वे मुझे ले जा रहे हैं किसी गांव, और गाड़ी उलट गई एक सड़क पर आकर--एक ब्रिज पर, एक पुल पर। कोई आठ फीट नीचे गिर पड़े होंगे। पूरी गाड़ी उलटी हो गई, चक्के ऊपर हो गए। सारी गाड़ी दब गई। छोटी गाड़ी, दो ही दरवाजे हैं। एक दरवाजा चट्टान से बंद हो गया है। दूसरा दरवाजा है, लेकिन वे मेरे मित्र, उनकी पत्नी, उनका ड्राइवर, सब ऐसे घबड़ा गए हैं कि रोते हैं, चिल्लाते हैं, लेकिन बाहर नहीं निकलते! और चिल्लाते हैं कि मर गए, मर गए!
मैंने उनसे कहा: अगर मर गए होते तो चिल्लाता कौन? तुम कृपा करके बाहर निकलो। अगर मर ही गए होते तो झंझट ही खत्म थी, चिल्लाता कौन? तुम चिल्ला रहे हो, सो जाहिर है कि मर नहीं गए हो।
मगर वे सुनते ही नहीं हैं। वह पत्नी कहे चली जाती कि अरे, मर गए!
मैं उसे हिलाता हूं कि तू पागल हो गई! अगर मर गई होती, तो शांति हो जाती। फिर चिल्लाता कौन?
वह कहती है कि ठीक है, लेकिन मर गए।
अब यह बड़े मजे की बात है। कौन मर गया? कौन मर गया--अगर यह पता चल रहा है, तो मर नहीं गए। क्योंकि पता चलने वाला दूसरा है। जो हो रहा है, वह और है। जिसे मालूम हो रहा है, वह और है। और मालूम जिसे हो रहा है, वह मौजूद है।
फिर हम बाहर निकल आए। मैं उनसे कहने लगा. वे सब इस हिसाब में लगे हुए हैं कि क्या टूट गया, क्या फूट गया। तो मैंने उनसे कहा कि तुम्हारी गाड़ी का इंश्योरेंस तो है?
उन्होंने कहा: है।
फिर मैंने कहा: फिकर छोड़ दो, उसकी बात खत्म हुई। तुम्हारा इंश्योरेंस है और कोई?
उन्होंने कहा: हमारा भी है।
तो मैंने कहा: वह भी अच्छा, तुम मर जाते तो भी कोई झंझट न थी। अब सवाल यह है कि यह जो घटना घट गई, इस घटना से कुछ सीखोगे कि नहीं सीखोगे?
उन्होंने कहा: इसमें क्या सीखना है? इसमें सीखना यही है कि जहां तक बने कार में बैठना ही नहीं, पहली बात। और इस ड्राइवर को घर जाकर फौरन छुट्टी देनी है। और तीस की स्पीड से ऊपर गाड़ी कभी चलने नहीं देना। यह सीखना है।
मैंने कहा कि इतना बढ़िया मौका हुआ और इतनी रद्दी बातें सीखीं! किसी युनिवर्सिटी से पढ़ कर निकले और दस तक गिनती सीख कर घर आ गए! कि दस तक गिनती सीख ली है, विश्र्वविद्यालय से लौट आए हैं! इतना बड़ा मौका मिला और तुम दस तक गिनती सीखे?
उन्होंने कहा: और क्या सीखने योग्य है?
मैंने उनसे कहा कि इस वक्त तो अदभुत मौका था। जब गाड़ी गिरी थी, एक क्षण को देखना था, कौन मर रहा है? कौन गिर रहा है? दुर्घटना किस पर हो रही है? बहुत बढ़िया मौका था, क्योंकि इतने खतरे में चेतना पूरी जग जाती है। पूरी चेतना होश में होती है इतने खतरे में।
अगर एक आदमी छाती पर आपके छुरा लेकर चढ़ जाए, तो एक सेकेंड को सब विचार-विचार बंद हो जाएंगे, कि आज फिल्म जाना कि नहीं जाना; या क्या करना या नहीं करना; या अखबार में क्या छपा है, या कौन से भाई राष्ट्रपति हो गए कि नहीं हो गए। यह सब-कुछ नहीं। एक सेकेंड सब रुक जाएगा। उस वक्त एक मौका मिलता है कि पूरी तरह देख लें कि क्या हो रहा है? तो उस क्षण में यह भी दिखाई पड़ेगा कि जो हो रहा है, वह बाहर है। और सब होने के बाहर भी कोई एक खड़ा है और देख रहा है।
ध्यान का अर्थ है: इस एक की खोज; जो हर घटना के बाहर है और कभी भीतर नहीं हुआ। ध्यान का और कोई अर्थ नहीं होता। इन तीन दिनों में, हम इस पर ही प्रयोग करने को हैं।
कैसे उसका हम पता लगा लें, जो सबके बीच होते भी सबके बाहर है? हम कैसे उसका पता लगा लें, जो जन्मता है, मरता है; और न कभी जन्मता है और न कभी मरता है? हम कैसे उसका पता लगा लें, जो शरीर में है, शरीर ही मालूम पड़ता है और शरीर नहीं है? हम कैसे उसको खोज लें, जो विचार करता है और जिसने कभी विचार नहीं किया? जो चिंतित होता दिखाई पड़ता है, क्रोधित होता दिखाई पड़ता है, और जिस पर न कभी क्रोध छुआ और न कभी कोई चिंता गई, हम कैसे उसे खोज लें?
लेकिन उसकी खोज तब तक नहीं हो सकती, जब तक कुएं में चांद को देख रहे हैं। और चांद वहां कहीं बाहर खड़ा है और कुएं में कभी भी नहीं गया। कभी जाते देखा है? लेकिन दिखता है गया हुआ। बड़ा दिखता है। और कई बार तो ऊपर उतना साफ नहीं दिखता, जितना कुएं में दिखता है। कुएं की सफाई पर निर्भर करता है, इसमें चांद का कोई हाथ नहीं है। अगर कुआं बिलकुल साफ है, तो बहुत साफ दिखाई पड़ेगा।
इसीलिए तो हम दुश्मन की आंख में देखना नहीं चाहते, क्योंकि दुश्मन की आंख गंदा कुआं है, उसमें तस्वीर अच्छी नहीं बनती। मित्र की आंखों में देखना चाहते हैं। पति अपनी पत्नी की आंखों में देख रहे हैं, और पत्नी को पहले से ही सिखाया हुआ है कि ये परमात्मा हैं! अब उसकी आंख साफ है बिलकुल, उसमें वे परमात्मा मालूम पड़ रहे हैं! और बड़े प्रसन्न हो रहे हैं कि मैं परमात्मा हूं! और पत्नी चिट्ठी लिख रही है कि आपकी दासी, और वे बड़े प्रसन्न हो रहे हैं कि मैं स्वामी हूं! अब बड़ा मजा है कि किसकी आंख में देख रहे हो? अपनी ही पत्नी की आंख में?
एक आदमी ने एक दिन गांव में, बाजार में आकर खबर कर दी थी कि मेरी पत्नी से ज्यादा सुंदर और दुनिया में कोई भी नहीं है।
तो गांव के लोगों ने पूछा: लेकिन बताया किसने?
उसने कहा: बताएगा कौन, मेरी पत्नी ने ही बताया हुआ है।
अरे, लोगों ने कहा: तुम बड़े पागल हो! अपनी ही पत्नी की बातों में आ गए!
तो उस आदमी ने कहा: सब अपनी पत्नी की बातों में आए हुए हैं, सब अपने पतियों की बातों में आए हुए हैं। सब अपने आस-पास के लोगों की बातों में आए हुए हैं। तो मैं आ गया तो कौन सा कसूर है, कौन सी गलती है?
कुएं कई तरह के हैं। गंदा कुआं होगा, नहीं दिखाई पड़ेगा चांद ठीक। साफ कुआं होगा, चांद दिखाई पड़ जाएगा ठीक। लेकिन चांद कभी किसी कुएं के भीतर नहीं गया है, यह ध्यान रखना। और अगर मान लिया कि चांद कुएं के भीतर गया है, तो सारी जिंदगी मुश्किल में पड़ जाएगी। पहली तो यह मुश्किल हो जाएगी कि वह चांद पकड़ में नहीं आएगा जो कुएं के भीतर गया है। और जब बार-बार फिसल जाएगा, फिसल-फिसल जाएगा हाथ से, तो जिंदगी दुख हो जाएगी। फिर तबीयत होगी, इस चांद को मुक्त कैसे करें! अब हम कुएं के बाहर होना चाहते हैं! हम मुक्ति चाहते हैं! हम संन्यासी होना चाहते हैं! तब एक दूसरी झंझट शुरू होगी। क्योंकि जो भीतर नहीं गया था, उसे बाहर कैसे निकालोगे?
चांद सदा बाहर खड़ा है। आत्मा सदा बाहर खड़ी है। वह किसी कुएं में कभी नहीं गई। लेकिन बहुत कुओं में जाने का भ्रम पैदा होता है। और जितने ज्यादा कुओं में जाता हुआ दिखाई पड़ता है, उतना ही ऐसा लगता है कि हमारा फैलाव हो रहा है। इसीलिए तो, अगर एक आदमी नमस्कार करे तो उतना मजा नहीं आता, दस करें तो ज्यादा आता है; दस लाख करें तो और ज्यादा मजा आता है; दस करोड़ करें तो फिर कहना ही क्या! सारी दुनिया करे, तब तो फिर कहना ही क्या! क्योंकि उतने कुओं में प्रतिबिंब दिखने लगता है, और लगता है इतना फैल गया मैं! इतना हो गया मैं! इतनी जगह हो गया मैं! मैं इतनी जगह हो गया! और एक जगह भर चूक जाती है, जहां मैं हूं और वहां दिखाई पड़ने लगता हूं, जहां मैं नहीं हूं।
ध्यान का अर्थ है, मेडिटेशन का अर्थ है: बाहर हो जाएं उन कुओं के जिनमें आप कभी नहीं गए। अब यह बड़ी उलटी बात है। उन कुओं के बाहर कैसे होंगे जिनमें गए नहीं?
उनसे बाहर होने का एक ही मतलब है कि खोजें कि कहीं आप बाहर ही तो नहीं हैं? इस खोज को हम आज से शुरू करते हैं। अभी यहां भी हम पंद्रह मिनट बैठ कर यह खोज करेंगे।
यह प्रकाश भी हटा दिया जाएगा, अंधकार पूरा हो जाएगा, आप अकेले हो जाएंगे। उस अकेलेपन में सब तरह से शांत शरीर को शिथिल छोड़ कर बैठ जाना है। आंख बंद कर लेनी है। श्र्वास धीमी छोड़ देनी है। और भीतर यह खोज करनी है कि क्या मैं बाहर हूं? क्या मैं हर अनुभव के बाहर हूं?
ऐसा मान नहीं लेना है कि अपने मन में दोहराने लगे कि मैं बाहर हूं, मैं बाहर हूं, मैं बाहर हूं। इससे कुछ नहीं होगा। क्योंकि जब आप कहते हैं कि मैं बाहर हूं, तो उसका मतलब है कि आपको पता तो चल रहा है कि भीतर हूं, अब समझा रहे हैं अपने को कि मैं बाहर हूं। ऐसा अक्सर होता है। आपको कहना नहीं है, आपको खोज करनी है: सच मैं भीतर हूं? मैं किसी अनुभव के भीतर हूं?
पैर में एक चींटी काट रही होगी, उस वक्त खोज करनी है कि चींटी मुझे काट रही है या पैर को काट रही है? और मैं देख रहा हूं। पैर भारी हो जाएगा, शून्य हो जाएगा, सुइयां चलने लगेंगी। तब देखना है कि यह पैर, ये सुइयां, यह भारीपन--यह मैं हूं या मैं जान रहा हूं? आवाज सुनाई पड़ेगी, शोरगुल होगा, रास्ते से कोई निकलेगा, कोई चिल्लाएगा, कोई हॉर्न बजेगा--तब देखना है कि यह जो सुनाई पड़ रही है आवाज, यही आवाज मैं हूं या सुनने वाला बिलकुल अलग खड़ा है? चारों तरफ अंधेरा है--यह अंधेरा मालूम पड़ रहा है, यह अंधेरे की शांति मालूम पड़ रही है।
ध्यान रहे, ऐसा नहीं समझना कि अशांति के आप बाहर हैं। बहुत गहरे में जाने पर शांति के भी आप बाहर हैं। जहां अशांति नहीं गई कभी, वहां शांति भी कहां जा सकती है। दोनों के बाहर हैं। वहां न अंधकार है न प्रकाश है।
इसकी गहरे से गहरी, भीतर से भीतर खोज कि क्या मैं बाहर हूं, क्या मैं बाहर हूं--यह पूछना है; जानना है, खोजना है। और जैसे ही आप यह खोज जारी करेंगे,
चित्त शांत होता चला जाएगा। एक ऐसा सन्नाटा छाएगा, जिसका आपको शायद कभी कोई अनुभव न हुआ हो। एक इतना बड़ा भीतर से विस्फोट हो जाएगा, जिसका आपको शायद कभी पता न हुआ हो। आपको पहली दफा पता चलेगा कि कुएं के बाहर हूं, और कभी भी भीतर नहीं था।
इन तीन दिनों में इसकी इंटेंसिव, इसकी गहरी से गहरी खोज करनी है। रोज इसके कुछ भिन्न सूत्रों पर मैं बात करूंगा, लेकिन सब सूत्र इसी तरफ ले जाने वाले होंगे। अलग-अलग जगह से धक्के दूंगा, लेकिन धक्के एक ही जगह पटक देने वाले होंगे।
पहला प्रयोग हम आज की रात्रि का करें।
थोड़े फासले पर बैठ जाएंगे। कोई किसी को छूता हुआ न बैठे। जरा-जरा फासले पर, कोई किसी को छूता हुआ न हो। और आवाज जरा भी न करें, चुपचाप हट जाएं, कहीं भी हट कर बैठ जाएं। आवाज मेरी सुनाई पड़ती रहे, बस इतना। और बातचीत जरा भी न करें किसी से, क्योंकि इस मामले में दूसरा कोई साथी-सहयोगी नहीं हो सकता। और चुपचाप, बात नहीं।
अपनी-अपनी जगह पर, शरीर को बिलकुल शिथिल छोड़ कर। अब बातचीत नहीं चलेगी जरा भी। बातचीत नहीं चलेगी अब। अब बातचीत बंद कर दें।
बिलकुल शांत बैठें, आंख बंद कर लें। मैं कुछ सुझाव दूंगा, पहले मेरे सुझाव अनुभव करें और फिर धीरे से उसकी खोज में चले जाएं जो आपके ही भीतर है।
सबसे पहले सारे शरीर को शिथिल छोड़ दें और ऐसा समझें कि जैसे शरीर है ही नहीं। ढीला छोड़ दें, जैसे मुर्दा हो शरीर। बिलकुल शिथिल छोड़ दें, रिलैक्स छोड़ दें। शरीर ढीला छोड़ दें.शरीर बिलकुल ढीला छोड़ दें.।
आंख बंद कर ली है, शरीर ढीला छोड़ दिया है.शरीर ढीला छोड़ दिया है.शरीर शिथिल छोड़ दिया है.शरीर बिलकुल शिथिल छोड़ दें.।
अब श्र्वास भी बिलकुल धीमी छोड़ दें। धीमी करनी नहीं है, छोड़ दें, धीमी छोड़ दें। अपने आप आए-जाए; न आए न आए, न जाए न जाए और जितनी आए उतनी आए, उतनी जाए। छोड़ दें बिलकुल शिथिल.श्र्वास एकदम धीमी हो जाएगी, बहुत धीमी आएगी-जाएगी, जैसे ऊपर ही अटक जाएगी। श्र्वास भी धीमी छोड़ दें.।
शरीर शिथिल छोड़ दिया, श्र्वास धीमी छोड़ दी, अब अपने ही भीतर, वह जो सबसे दूर खड़ा है--ये आवाजें आ रही हैं, ये सुनाई पड़ेंगी। आप सुन रहे हैं। आप अलग हैं, आप भिन्न हैं, आप दूसरे हैं। मैं और हूं, जो भी हो रहा है मेरे चारों तरफ--चाहे मेरे शरीर के बाहर, चाहे मेरे शरीर के भीतर--जो भी हो रहा है, सब मुझसे बाहर है।
बिजली चमकेगी, पानी गिर सकता है, आवाजें आएंगी। शरीर शिथिल हो जाएगा--शरीर गिर भी सकता है। सब मेरे बाहर है। सब मेरे बाहर है। मैं अलग हूं। मैं अलग हूं, मैं अलग खड़ा हूं। मैं देख रहा हूं, यह सब हो रहा है। मैं एक द्रष्टा से ज्यादा नहीं हूं। मैं एक साक्षी हूं, सिर्फ साक्षी हूं। मैं एक साक्षी हूं, मैं एक साक्षी हूं। मैं देख रहा हूं, सब है, सब मुझसे बाहर है; सब हो रहा है, सब मुझसे दूर हो रहा है, मैं दूर खड़ा हूं, अलग खड़ा हूं, ऊपर खड़ा हूं, भिन्न खड़ा हूं। मैं सिर्फ देख रहा हूं, मैं सिर्फ जान रहा हूं, मैं सिर्फ साक्षी हूं.।
मैं साक्षी हूं, इसी भाव में गहरे से गहरे उतरें। दस मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। आप इसी भाव में गहरे से गहरे उतरें। एक-एक सीढ़ी, एक-एक सीढ़ी गहरे।
मैं साक्षी हूं, मैं सिर्फ जान रहा हूं, मैं सिर्फ जान रहा हूं.जो हो रहा है जान रहा हूं, मैं सिर्फ साक्षी हूं.।
और यह भाव गहरा होते-होते इतनी गहरी शांति में ले जाएगा, जिसे कभी नहीं जाना। इतने बड़े मौन में ले जाएगा, जो बिलकुल अपरिचित है। इतने बड़े आनंद में डुबा देगा, जिसकी हमें कोई भी खबर नहीं।
मैं साक्षी हूं.मैं साक्षी हूं.मैं बस साक्षी हूं.।
अंधकार का अपना आनंद है, लेकिन प्रकाश की हमारी चाह क्यों है? प्रकाश के लिए हम इतने पीड़ित क्यों हैं? यह शायद ही आपने सोचा हो कि प्रकाश के लिए हमारी चाह हमारे भीतर बैठे हुए भय का प्रतीक है, फियर का प्रतीक है। हम प्रकाश इसलिए चाहते हैं ताकि हम निर्भय हो सकें। अंधकार में मन भयभीत हो जाता है। प्रकाश की चाह कोई बहुत बड़ा गुण नहीं है, सिर्फ अंतरात्मा में छाए हुए भय का सबूत है। भयभीत आदमी प्रकाश चाहता है। और जो अभय है, उसे अंधकार भी अंधकार नहीं रह जाता है। अंधकार की जो पीड़ा है, जो द्वंद्व है, वह भय के कारण है। और जिस दिन मनुष्य निर्भय हो जाएगा, उस दिन प्रकाश की यह चाह भी विलीन हो जाएगी।
और यह भी ध्यान रहे कि पृथ्वी पर बहुत थोड़े से ऐसे कुछ लोग हुए हैं, जिन्होंने परमात्मा को अंधकार-स्वरूप भी कहने की हिम्मत की है। अधिक लोगों ने तो परमात्मा को प्रकाश माना है। गॉड इ़ज लाइट। परमात्मा प्रकाश है, ऐसा ही कहने वाले लोग हुए हैं। लेकिन हो सकता है, ये वे ही लोग हों, जिन्होंने परमात्मा को भय के कारण माना हुआ है। जिन लोगों ने भी ‘परमात्मा प्रकाश है’, ऐसी व्याख्या की है, ये जरूर भयभीत लोग होंगे। ये परमात्मा को प्रकाश के रूप में ही स्वीकार कर सकते हैं। डरा हुआ आदमी अंधकार को स्वीकार नहीं कर सकता।
लेकिन कुछ थोड़े से लोगों ने यह भी कहा है कि परमात्मा परम अंधकार है। मैं खुद सोचता हूं, तो परमात्मा को परम अंधकार के रूप में ही पाता हूं।
क्यों?
क्योंकि प्रकाश की सीमा है; अंधकार असीम है। प्रकाश की कितनी ही कल्पना करें, उसकी सीमा मिल जाएगी। कैसा ही सोचें, कितना ही दूर तक सोचें, पाएंगे कि प्रकाश सीमित है।
अंधकार की सोचें, अंधकार कहां सीमित है? अंधकार की सीमा को कल्पना करना भी मुश्किल है। अंधकार की कोई सीमा नहीं है। अंधकार असीम है।
इसलिए भी कि प्रकाश एक उत्तेजना है, एक तनाव है। अंधकार एक शांति है, विश्राम है। लेकिन, चूंकि हम सब भयभीत लोग हैं, डरे हुए लोग हैं, हम जीवन को प्रकाश कहते हैं और मृत्यु को अंधकार कहते हैं।
सच यह है कि जीवन एक तनाव है और मृत्यु एक विश्राम है। दिन एक बेचैनी है, रात एक विराम है। हमारी जो भाग-दौड़ है अनंत-अनंत जन्मों की, उसे अगर कोई प्रकाश कहे तो ठीक भी है। लेकिन जो परम मोक्ष है, वह तो अंधकार ही होगा।
यह शायद आपने सोचा भी न हो: प्रकाश की किरण आंख पर पड़ती है, तो तनाव होता है, परेशानी होती है। रात आप सोना चाहें तो प्रकाश में सो नहीं सकते। प्रकाश में विश्राम करना मुश्किल है। अंधकार परम शांति में, गहन शांति में ले जाता है।
लेकिन जरा सा अंधकार और हम बेचैन और हम परेशान! जरा सा अंधकार और हम मुश्किल में कि क्या होगा, क्या न होगा! अंधकार से जो इतने परेशान, भयभीत, डरे हुए हैं, ध्यान रहे, वे शांत होने से भी इतने ही डरेंगे। अंधकार से जो इतना डरा है, ध्यान रहे, वह समाधि में जाने से भी इतना ही डरेगा। क्योंकि समाधि तो इस अंधकार से भी परम शांति है।
हम मरने से भी इसीलिए डरते हैं। मृत्यु का डर क्या है? मृत्यु ने कब किसका क्या बिगाड़ा है? अब तक तो नहीं सुना कि मृत्यु ने किसी का कुछ बिगाड़ा हो। जीवन ने बहुत कुछ बिगाड़ा होगा, मृत्यु ने--नहीं सुना किसी का कुछ बिगाड़ा हो।
मृत्यु ने किसको तकलीफ दी है? जीवन तो बहुत तकलीफें देता है। जिंदगी है क्या एक लंबी तकलीफों की कतार है। मृत्यु ने कब किसको सताया है? और कब किसको परेशान किया? कब किसको दुख दिया? लेकिन मृत्यु से हम भयभीत हैं। और जीवन को हम छाती से लगाए हुए हैं।
और फिर मृत्यु परिचित भी नहीं है, और जो परिचित नहीं है, उससे डर कैसा? डरना चाहिए उससे, जो परिचित हो। जिसे हम जानते ही नहीं, वह अच्छी है कि बुरी, यह भी पता नहीं, उससे डर कैसा?
डर मृत्यु का नहीं है, डर वही अंधकार में फिर खो जाने का है। जिंदगी रोशन मालूम पड़ती है, सब दिखाई पड़ता है--परिचित, पहचाने हुए लोग, अपना घर, मकान, गांव, सब दिखाई पड़ता है। मृत्यु एक घनघोर अंधकार मालूम होती है। जहां खो जाने पर कुछ दिखेगा नहीं--न अपने संगी-साथी, न मित्र; न परिवार, न प्रियजन; न वह सब जो हमने बनाया था। वह सब खो जाएगा और न मालूम किस अंधकार में हम उतर जाएंगे। मन डरता है उस अंधकार में जाने से।
ध्यान रहे, अंधकार में जाने का डर एक डर और है, और वह डर है, अकेले हो जाने का डर। आपको पता है, रोशनी में आप कभी अकेले नहीं होते, दूसरे लोग दिखाई पड़ते रहते हैं। अंधकार में कितने ही लोग इस जगह बैठे हों, आप अकेले हो जाएंगे। दूसरा दिखाई नहीं पड़ता। पता नहीं, है या नहीं। अंधकार में हो जाता है आदमी अकेला। और आदमी को अकेला होना हो, तो भी अंधकार में उतरना पड़ता है।
ध्यान और समाधि और योग गहन अंधकार में प्रवेश की सामर्थ्य के नाम हैं।
(सो अच्छा हुआ है कि नहीं है प्रकाश। और बड़ी गड़बड़ हो गई है कि दो-तीन बत्तियां वह हीरालाल जी ले आए हैं। बरात एक-दो और लगतीं और ये दो बत्तियां और न मिलतीं, तो अच्छा होता।)
अपरिचित है अंधकार। उसमें हम अकेले हो जाते हैं। सब खोया-खोया लगता है। जाना-परिचित सब मिट गया लगता है। और ध्यान रहे, सत्य के रास्ते पर वे ही जा सकते हैं, जो परिचित को खोने की, जाने-माने को छोड़ने की; अनजान में, अपरिचित में, वहां जहां कोई मार्ग नहीं, पगडंडी नहीं, उतरने की जो क्षमता रखते हैं, वे ही सत्य में उतर पाते हैं।
ये थोड़ी सी बातें प्रारंभ में मैंने कहीं, और इसलिए कहीं कि अंधकार को जो प्रेम नहीं कर पाएगा, वह जीवन के बहुत बड़े सत्यों को प्रेम करने से वंचित रह जाता है। अब दुबारा जब अंधकार में हों, तो एक बार अंधकार को भी गौर से देखना, इतना घबड़ाने वाला नहीं है। और जब दुबारा अंधकार घेर ले, तो उसमें लीन हो जाना, एक हो जाना। और आप पाएंगे, जो प्रकाश ने कभी नहीं दिया, वह अंधकार देता है।
जीवन के सारे महत्वपूर्ण रहस्य अंधकार में छिपे हैं।
वृक्ष है ऊपर, जड़ें हैं अंधेरे में नीचे, दिखती नहीं हैं। दिखते हैं वृक्ष के तने, पत्ते, पौधे, सब दिखता है। फल लगते हैं। जड़ दिखती नहीं; जड़ अंधकार में काम करती रहती है। निकाल लो जड़ों को प्रकाश में और वृक्ष मर जाएगा। वह जो जीवन की अनंत लीला चल रही है, वह अंधकार में है।
मां के गर्भ में, अंधेरे में जन्म होता है जीवन का। जन्मते हैं हम अंधकार से; मृत्यु में फिर खो जाते हैं अंधकार में।
कोई कहता था, किसी ने गाया है कि जीवन क्या है? जैसे किसी भवन में जहां एक दीया जलता हो, थोड़ी सी रोशनी हो, और जिस भवन के चारों ओर घनघोर अंधकार का सागर हो--कोई एक पक्षी उस अंधेरे आकाश से भागता हुआ उस दीये जलते हुए भवन में घुस जाए, थोड़ी देर तड़फड़ाए, फिर दूसरी खिड़की से बाहर निकल जाए। ऐसे एक अंधकार से हम आते हैं और दूसरे अंधकार में जीवन के दीये में थोड़ी देर पंख फड़फड़ा कर फिर खो जाते हैं।
अंततः तो अंधकार ही साथी होगा। उससे इतना डरेंगे तो कब्र में बड़ी मुश्किल होगी। उससे इतने भयभीत होंगे तो मृत्यु में जाने में बड़ा कष्ट होगा। नहीं, उसे भी प्रेम करना सीखना पड़ेगा।
और प्रकाश को प्रेम करना तो बहुत आसान है। प्रकाश को कौन प्रेम नहीं करने लगता है? सो प्रकाश को प्रेम करना बड़ी बात नहीं है। अंधकार को प्रेम! अंधकार को भी प्रेम!! और ध्यान रहे, जो प्रकाश को प्रेम करता है, वह तो अंधकार को नफरत करने लगेगा। लेकिन जो अंधकार को भी प्रेम करता है, वह प्रकाश को तो प्रेम करता ही रहेगा। इसको भी खयाल में ले लें।
क्योंकि जो अंधकार तक को प्रेम करने को तैयार हो गया, अब प्रकाश को कैसे प्रेम नहीं करेगा? अंधकार का प्रेम प्रकाश के प्रेम को तो अपने में समा लेता है, लेकिन प्रकाश का प्रेम अंधकार के प्रेम को अपने में नहीं समाता।
जैसे, मैं सुंदर को प्रेम करूं, सो तो बहुत आसान है। सुंदर को कौन प्रेम नहीं करता? लेकिन असुंदर को प्रेम करने लगूं, तो जो असुंदर को प्रेम कर लेगा वह सुंदर को तो प्रेम कर ही लेगा। लेकिन इससे उलटा सही नहीं है। सुंदर को प्रेम करने वाला असुंदर को प्रेम नहीं कर पाता है। फूलों को कोई प्रेम करे, तो फूल को तो प्रेम कर ही लेगा, लेकिन कांटों को कोई प्रेम नहीं कर पाएगा। फूलों को प्रेम करने के कारण कांटों को प्रेम करने में बाधा पड़ सकती है; लेकिन कांटों को कोई प्रेम करने लगे तो फूलों को प्रेम करने में तो बाधा नहीं पड़ती है।
ये ऐसे ही दो शब्द शुरू में कहे हैं।
एक छोटी सी कहानी मुझे याद आती है, उससे आने वाली तीन दिन की चर्चाओं की शुरुआत करूंगा।
ऐसी ही रात होगी, आकाश में चांद था--और एक पागल आदमी एक अकेले रास्ते से गुजरता था। एक वृक्ष के पास रुका। और वृक्ष के पास ही एक बड़ा कुआं है। और उस पागल आदमी ने उस कुएं में झांक कर देखा। कुएं में चांद की परछाईं बनती थी। उस पागल आदमी ने सोचा, बेचारा चांद कुएं में कैसे गिर पड़ा! क्या करूं? कैसे बचाऊं? और कोई दिखता नहीं। नहीं बचाया, मर भी जा सकता है।
और फिर एक मुश्किल और थी; रमजान का महीना था, और चांद कुएं में पड़ा रहा तो रमजान के उपवास करने वालों का क्या होगा, वे कब खत्म करेंगे? वे तो मर जाएंगे। वह रमजान का उपवास करने वाला तो चौबीस घंटे सोचता है कि कब खत्म हो, कब खत्म हो! सभी उपवास करने वाले ऐसे ही सोचते हैं। सभी धार्मिक क्रियाकांड करने वाले यही सोचते हैं कि कब घंटा बजे, छुट्टी हो! स्कूल के बच्चों से ज्यादा अच्छी धार्मिक लोगों की हालत नहीं होती है!
क्या होगा--रमजान का महीना है और चांद फंस गया कुएं में? उस पागल आदमी ने सोचा, अपने को तो इन रमजान वगैरह से कोई मतलब नहीं, लेकिन यहां कोई दूसरा दिखाई भी नहीं पड़ता है।
न मालूम कहां से खोज-बीन कर रस्सी लाया बेचारा, कुएं में फेंकी, फंदा बनाया, चांद को फंसाया। चांद तो फंसा नहीं, चांद तो वहां था नहीं; लेकिन एक चट्टान फंस गई! वह जोर से रस्सी खींचने लगा। चट्टान में फंसी रस्सी ऊपर नहीं आती। उसने कहा, चांद बड़ा वजनी है--अकेला आदमी, खींचूं भी तो कैसे खींचूं! और न मालूम कब से गिरा है, मरा है कि जिंदा है, भार भी कितना हो गया है! और कैसे लोग हैं कि दुनिया में किसी को खबर नहीं! कितने लोग चांद की कविताएं पढ़ते हैं, गीत गाते हैं, और जब चांद फंस गया मुसीबत में तो किसी कवि को यहां दिखाई नहीं पड़ रहा कि कोई उसे बचाए! कुछ होते हैं जो कविता ही गाते हैं, वक्त पर कभी नहीं आते! सच तो यह है कि जो वक्त पर नहीं आते हैं, वे कविता करना सीख जाते हैं। खींच रहा है, खींच रहा है; आखिर फंदा था, टूट गया, जोर लगाया, चट्टान थी मजबूत, धड़ाम से गिरा है। आंख मिंच गई, सिर खुल गया, छींटे उचटे, ऊपर आंख गई, चांद आकाश में भागा चला जा रहा है! उसने कहा, चलो बचा दिया बेचारे को! अपने को थोड़ा लगा तो लगा, निकल गया!
उस पर हमें हंसी आती है उस पागल आदमी पर। बाकी गलती क्या थी उसकी?
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं: मुक्त कैसे हो जाएं? मैं उनको यह कहानी सुना देता हूं। वे पूछते हैं: मोक्ष कैसे पाएं? मैं उनको यह कहानी सुना देता हूं।
वे हंसते हैं कहानी पर, और फिर पूछते हैं: कोई मुक्ति का रास्ता बताइए? तब मैं सोचता हूं, समझे नहीं कहानी। कोई फंसा हो, तो मुक्त हो सकता है। कोई बंधा हो, तो छोड़ा जा सकता है। लेकिन कोई कभी बंधा ही न हो और केवल प्रतिबिंब में देख कर समझा हो कि बंध गए हैं, तो मुसीबत हो जाती है।
सारी मनुष्यता इस उलझन में पड़ी है उस पागल की तरह, जिसका चांद कुएं में फंस गया था। सारी दुनिया इस मुश्किल में पड़ी है।
दो तरह के लोग हैं दुनिया में। वह पागल तो इकट्ठा था। दुनिया में दो तरह के पागल हैं। एक वे हैं, जो मानते हैं कि चांद फंसा है। दूसरे वे हैं, जो फंसे चांद को निकालने की कोशिश करते हैं। पहले का नाम गृहस्थ है, दूसरे का नाम संन्यासी है। दो तरह के पागल हैं। संन्यासी कहता है: हम तो आत्मा को मुक्त करके रहेंगे! और गृहस्थ कहता है: अब फंस गए हैं, अब क्या करें? कैसे निकलें! फंसे हैं! वे जो फंस गए हैं, वे उनके पैर छूते हैं, जो मुक्त करने की कोशिश कर रहे हैं। दो तरह के पागल हैं। एक कहता है, चांद फंस गया है! दूसरा निकाल रहा है! जो फंस गया है, वह उसके पैर छूता है, जो निकाल रहा है।
सत्य बहुत और है। और वह सत्य खयाल में आ जाए तो सारी जिंदगी बदल जाती है, और हो जाती है।
सत्य यह है कि मनुष्य कभी फंसा ही नहीं है। वह जो हमारे भीतर है, वह निरंतर मुक्त है, वह किसी बंधन में कभी नहीं हुआ है। लेकिन परछाईं फंस गई है, रिफ्लेक्शन फंस गया है। हम तो बाहर हैं और हमारी तस्वीर फंस गई है। और हमें कुछ पता ही नहीं कि हम तस्वीर से ज्यादा भी हैं! हमें यही पता है कि हम अपनी तस्वीर हैं! फिर मुश्किल हो गई है। हम सब अपनी तस्वीर को ही अपना होना समझे बैठे हैं!
एक आदमी नेता है, एक आदमी गरीब है, एक आदमी अमीर है; एक आदमी गुरु है, एक आदमी शिष्य है; एक आदमी पति है, कोई पत्नी है--ये सब तस्वीरें हैं, जो दूसरों की आंखों में हमें दिखाई पड़ती हैं। मैं जैसा हूं, वह मैं वैसा हूं। मैं वैसा नहीं हूं, जैसा आपकी आंख में दिखाई पड़ता है। आपकी आंख में जो दिखाई पड़ता है, वह मेरी परछाईं है। वह उसी परछाईं में मैं फंस गया हूं।
आज आप रास्ते पर मिले और मुझे नमस्कार किया और मैं खुश हुआ कि मैं बहुत अच्छा आदमी हूं; चार आदमी नमस्कार करते हैं। अब बड़ा मजा है कि चार आदमियों के नमस्कार करने से कोई आदमी अच्छा कैसे हो जाएगा? चार नहीं पचास करें, हजार करें। अच्छे होने से किसी के नमस्कार करने का क्या संबंध है? और इस दुनिया में जहां कि बुरे आदमियों को हजारों नमस्कार मिल जाते हों, वहां इस भ्रम में पड़ना कि चार आदमियों ने नमस्कार कर लिया तो मैं अच्छा आदमी हो गया! बड़ी परछाईं में फंस जाना है। फिर कल ही ये चार आदमी नमस्कार नहीं करते, पीठ फेर कर चले जाते हैं, फिर मुसीबत शुरू हो जाती है। वह परछाईं फंस गई है; अब वह परछाईं मांग करती है कि नमस्कार करो! और हमने परछाईं पकड़ ली है। अब हम कहते हैं कि नमस्कार करो, नमस्कार नहीं की जाएगी तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा।
देखें न, एक आदमी मिनिस्टर हो जाए, और फिर न मिनिस्टर हो जाए। देखें, उसकी कैसी हालत हो जाती है? जैसे कपड़े से इस्तरी उतर गई हो, सब कलफ उतर गया हो। जैसे कपड़े को पहने-पहने सो गए हों और कई दिनों से सो रहे हों और उसी को पहने चले जा रहे हों, जो शक्ल उसकी हो जाती है। वह एक आदमी मिनिस्टर हो जाए एक दफे, फिर उतर जाए नीचे, वह उसकी हालत हो जाती है, बिलकुल लुंज-पुंज। क्या हो गया इस आदमी को?
परछाईं में फंस गया। परछाईं पकड़ गई। अब वह कहता है, वही परछाईं जो दिखाई पड़ी थी, वही मैं हूं! अब मैं दूसरा अपने को मानने को राजी नहीं हूं! हां, परछाईं और गहरी हो तो ठीक है: छोटा मिनिस्टर बड़ा मिनिस्टर बने तो ठीक है; छोटा क्लर्क बड़ा क्लर्क बने--कोई भी और बात हो। परछाईं बढ़े तो ठीक है। परछाईं घटे तो मुश्किल है। क्योंकि समझ लिया कि मैं परछाईं हूं।
आदमी इज्जत देता है तो, आदमी अपमान करता है तो; हमने कभी यह खयाल किया कि हमने अपनी शक्ल देखी ही नहीं! वह जो ओरिजिनल फेस, जिसको हम कहें, मेरा चेहरा, वह मुझे पता ही नहीं है! सब परछाईं देखी हैं।
बाप जब बेटे के सामने खड़ा होता है, तो देखी उसकी अकड़? बाप जब बेटे से कहता है कि तू भी क्या जानता है, मैंने जिंदगी देखी है, मैंने उम्र देखी है। अभी उम्र आएगी, अनुभव होगा, तब पता चलेगा। वह बाप किससे बोल रहा है? वह बाप बेटे से बोल रहा है? नहीं। वह खुद बोल रहा है? नहीं। एक परछाईं बोल रही है। एक परछाईं जो बेटे की आंख में पकड़ रहा है। बेटा डरा हुआ है। बाप के हाथ में बेटे की गर्दन है। बेटा डरा हुआ है। आंख में परछाईं बन रही है। और जो डरा हुआ है, उसे और डराया जा सकता है। यही बाप अपने मालिक के सामने बिलकुल पूंछ दबा कर खड़ा हो जाता है। और मालिक कुछ भी कहता है, वह कहता है, जी हां!
मैंने सुना है, एक फकीर था। वह कुछ दिनों के लिए एक राजा का नौकर हो गया था। ऐसे ही। फकीर क्या किसी के नौकर होते हैं? जो किसी का मालिक नहीं होना चाहता, वह किसी का नौकर हो भी नहीं सकता है। फिर क्यों हो गया था? ऐसे ही। कुछ कारण था। जानना चाहता था कि राजाओं के नौकर कैसे जीते होंगे?
नौकर हो गया था राजा का। तो राजा ने पहले दिन ही--सब्जी बनी थी कोई--सब्जी खाई, इस नौकर को भी खिलाई, और रसोइए को कहा कि रोज यह सब्जी बनाना। और इससे पूछा, क्या खयाल है फकीर, तुम्हारा क्या खयाल है? सब्जी कैसी है?
उसने कहा: मालिक, इससे अच्छी सब्जी दुनिया में होती ही नहीं। यह तो अमृत है। सात दिन रसोइया वही सब्जी बनाता रहा। राजा की आज्ञा थी।
अब सात दिन एक ही सब्जी खानी पड़े, तो पता है क्या हालत हो जाए? घबड़ा गई तबीयत। स्वर्ग से भी घबड़ा जाता है आदमी, अगर सात दिन रहना पड़े। कहेगा कि थोड़ा नरक तफरी कर आएं, फिर वापस भला आ जाएं। लेकिन, अब सात दिन स्वर्ग रहते-रहते तबीयत घबड़ा जाती है। इसीलिए तो देवता जमीन पर उतरते हैं। किसलिए उतरते हैं? उधर तबीयत घबड़ा जाती है, जी मचलाता है कि छोड़ो, थोड़े दिन जमीन पर हो आओ।
घबड़ा गई तबीयत। सात दिन बाद उसने चिल्ला कर थाली पर लात मार दी और रसोइए से कहा: क्या बदतमीजी है, रोज-रोज वही!
रसोइए ने कहा: मालिक आपने कहा था।
फकीर ने कहा कि जहर है यह सब्जी, रोज खाओगे, मर जाओगे।
राजा ने कहा: अरे, हद है, तू सात दिन पहले कहता था अमृत है!
उस फकीर ने कहा: मालिक, हम आपके नौकर हैं, सब्जी के नौकर नहीं हैं। हम तो आपके नौकर हैं, जो देखते हैं कि कौन सी परछाईं बन रही है, वही कह देते हैं। उस दिन आपने कहा, अमृत है, बहुत पसंद आई। हमने कहा, अमृत है, इससे ऊंची सब्जी नहीं। हम कोई सब्जी के नौकर हैं? हम तो आपके नौकर हैं। आज आप कहते हैं, नहीं जंच रही। हम कहते हैं, जहर है, जो खाएगा वह मर जाएगा। कल आप कहोगे कि अमृत है, बहुत अच्छी लग रही है। हम कहेंगे, इससे बढ़िया अमृत मिलता ही नहीं कहीं, यही अमृत है। हम आपके नौकर हैं, हम कोई सब्जी के नौकर थोड़े ही हैं। हम तो आपकी आंख की परछाईं देख कर जीते हैं।
हम सब ऐसे जीते हैं। वह जो भीतर बैठा हुआ है, उसका न तो हमें पता है, न वह कहीं फंस गया है। न वह फंस सकता है। न कोई उपाय है उसके बंधन में पड़ जाने का। और मजा यह है कि उसको छुटाने की कोशिश चल रही है कि उसे हम कैसे मुक्त करें! उसका सवाल ही नहीं है। वह कभी बंधन में पड़ा ही नहीं है। बंधन में कोई और चीज पड़ गई है। और जो चीज पड़ गई है, उसको हम सोच भी नहीं रहे हैं, ध्यान पर भी नहीं ले रहे हैं।
क्या है अशांति आदमी को? कौन सा दुख है? कौन सी पीड़ा है?
वह परछाईं है। वह परछाईं डगमगाती है, चित्त अशांत होता है। वह परछाईं टूटती है, चित्त दुखी होता है। वह परछाईं बढ़ती है, चित्त बड़ा प्रसन्न होता है।
मैंने सुना है, एक दिन सुबह ही सुबह एक छोटा सा सियार शिकार के लिए निकला है, कुछ खाने-पीने की खोज करने। रेगिस्तान है, सूरज निकला है और सियार की बड़ी लंबी परछाईं बन रही है। और वह सियार कहता है कि आज छोटे-मोटे खाने से काम नहीं चलेगा। क्योंकि वह समझ रहा है, मैं ऊंट हूं। इतनी लंबी परछाईं! इसलिए आज इस छोटे-मोटे खाने से काम नहीं चलेगा, हम कोई छोटे जानवर नहीं हैं। आज काफी शिकार करनी पड़ेगी।
अब वह अकड़ कर चल रहा है। और वह शिकार खोज रहा है। तब तक सूरज ऊपर बढ़ता चला गया है। अभी शिकार मिला नहीं, दोपहर आ गई है। शिकार मिला नहीं। उसने वापस एक दफा परछाईं देखी, वह तो सिकुड़ कर छोटी सी हो गई। उसने कहा, अरे, खाना न मिलने से कैसी खराब हालत हो गई! क्या शरीर लेकर निकले थे, क्या शरीर हो गया! अब तो कोई छोटा-मोटा शिकार ही मिल जाए, तो भी काम चल जाएगा। लेकिन मन बड़ा दुखी है। मन बड़ा दुखी है!
हम सब भी जिंदगी के शुरू में ऐसे ही निकलते हैं, बड़ी लंबी छाया बनती है। सूरज निकलता है जिंदगी के शुरू-शुरू में और हर बच्चा ऐसा भर कर निकलता है कि जीत लेंगे दुनिया को। हर आदमी सिकंदर होता है बचपन में। बुढ़ापे में सिकुड़ जाती है छाया। वह सोचता है, सब बेकार है, कुछ सार नहीं है। लेकिन जीता छाया पर है! और छाया बनती है हमारे आस-पास जो दूसरे लोग हैं उनकी आंखों में। और मजा यह है कि जो मुक्त होना चाहते हैं, वे भी इसी छाया पर जीते हैं!
एक संन्यासी है, गेरुआ वस्त्र पहने हुए है। अब संन्यास का गेरुआ वस्त्रों से क्या मतलब है? लेकिन गेरुआ वस्त्र दूसरे की आंख में जो परछाईं बनाते हैं, वह बड़ी रिस्पेक्टेबल है, वह बड़ी आदरपूर्ण है। गेरुआ वस्त्र देख कर ही दूसरा आदमी एकदम झुका-झुका हो जाता है। वह जो तस्वीर बनती दूसरे की आंख में। वह तस्वीर बनाने के लिए गेरुआ वस्त्र है। नहीं तो गेरुआ वस्त्र की क्या जरूरत है?
कोई संन्यासी होने के लिए दो पैसे की गेरू कुछ काम कर सकती है? नहीं तो सारी गेरू खरीद लो, अपने घर में रख लो; सब रंग दो--सारा घर, सारे कपड़े--सब रंग दो। अपना शरीर भी रंग लो। उससे सर्कस के शेर बन जाओगे। संन्यासी तो नहीं बन जाओगे। और संन्यासी के नाम पर सर्कस के शेर इकट्ठे हैं।
चित्त क्या है?
एक आदमी मंदिर जा रहा है सुबह-सुबह, जोर से भजन गा रहा है। जरा खयाल करें उसको, अगर सड़क पर कोई न दिखेगा, तो भजन धीरे हो जाएगा। कोई दो-चार आदमी आते दिखेंगे, तो जोर से आवाज निकलने लगेगी। बड़ा मजा है! तुम्हें भगवान से मतलब कि चार आदमी जो आ-जा रहे हैं इनसे मतलब है? वह पूजा कर रहा है, वह बार-बार लौट कर देख लेता है कि कोई देखने वाला आया कि नहीं? कोई नहीं आया, तो जल्दी पूजा खत्म हो जाती है; कोई आया, तो देर तक भी चलती है! कोई ऐसा आदमी आ गया जिससे कोई और काम भी निकालना हो, तो और देर तक चलती है!
यह क्या हो रहा है? यह परछाईं पर जी रहे हैं।
एक आदमी रोज सुबह-सुबह मंदिर होकर घर लौट आता है। चाहता है कि लोग कहें धार्मिक है। लोगों के कहने से क्या मतलब है? लेकिन हम, लोगों की आंखों में जो बन रहा है, उस पर जी रहे हैं।
वह जो कुएं में छाया बन रही है चांद की, वह फंस गई है। और बड़ी कठिनाई है, कैसे निकालें इसको, कैसे मुक्त करें? तो मुक्ति के न मालूम कितने पंथ बन गए हैं। कोई कहता है, राम-राम जपो, इससे निकल जाओगे बाहर! कोई कहता है, ओम के बिना रास्ता नहीं है! कोई कहता है, अल्लाह-अल्लाह करो! कुछ और भी मिल गए हैं, खिचड़ी बनाने वाले, वे कहते हैं, अल्लाह-ईश्र्वर तेरे नाम, दोनों ही इकट्ठे जोड़ दो! एक से नहीं चलेगा, दोनों की ताकत लगाओ! शायद दोनों काम कर जाएं। पता नहीं कौन असली हो। दोनों को ही जोड़ दो। सब, सबको ही, सभी साधुओं को नमस्कार कर लो। नमो लोए सव्वसाहूणं! जितने भी साधु हैं, सबको ही नमस्कार कर लो! सबकी टांग प
कड़ लो! एक साधु से न चले काम तो सब साधुओं को पकड़ लो! और बचने का उपाय करो। बचना जरूरी है। क्योंकि बड़े दुख हैं, जिंदगी में कष्ट हैं।
सच है यह बात। जिंदगी में कष्ट हैं और दुख हैं, तकलीफें हैं। और बहुत बेचैनी है आदमी को। लेकिन बेचैनी किसलिए है? तकलीफ किसलिए है? जिस वजह से तकलीफ है उस वजह को देखो मत!
एक आदमी मेरे पास आया और उसने मुझे आकर कहा कि मैं बहुत अशांत हूं, शांति का कोई रास्ता बताइए। मेरे पैर पकड़ लिए। मैंने कहा: पैर से दूर रखो हाथ, क्योंकि मेरे पैरों से तुम्हारी शांति का क्या संबंध हो सकता है? सुना नहीं कहीं। और मेरे पैर को कितना ही काटो-पीटो, उससे कुछ पता नहीं चलेगा कि तुम्हारी शांति मेरे पैर में कहां है। मेरे पैर का कसूर भी क्या है तुमसे? तुम अशांत हुए तो मेरे पैर ने कुछ बिगाड़ा तुम्हारा?
वह आदमी बहुत चौंका। उसने कहा: आप यह क्या बात कहते हैं! मैं ऋषिकेश गया, वहां शांति नहीं मिली; अरविंद आश्रम गया, वहां शांति नहीं मिली; अरुणाचल होकर आया, रमण के आश्रम में चला गया, वहां शांति नहीं मिली। कहीं शांति नहीं मिली। सब ढोंग-धतूरा चल रहा है। किसी ने मुझे आपका नाम लिया, तो मैं आपके पास आया हूं।
मैंने कहा: तुम उठो दरवाजे के एकदम बाहर हो जाओ, नहीं तो तुम जाकर कल यह भी कहोगे कि वहां भी गया, वहां भी शांति नहीं मिली.। और मजा यह है कि जब तुम अशांत हुए थे--तब तुम किस आश्रम में गए थे, किस गुरु से पूछने गए थे अशांत होने के लिए? तुमने किससे शिक्षा ली थी अशांत होने के लिए? मेरे पास आए थे? किसके पास गए थे पूछने कि मैं अशांत होना चाहता हूं गुरुदेव, अशांत होने का रास्ता बताइए? अशांत सज्जन आप खुद हो गए थे, अकेले काफी थे। और शांत होना है, दूसरे के ऊपर दोष देने आए हो? अगर नहीं हुए तो हम जिम्मेवार होंगे! आप अगर शांत नहीं हुए तो हम जिम्मेवार होंगे! जैसे कि हमने आपको अशांत किया हो! आप हमसे पूछने आए थे?
उसने कहा: नहीं, आपसे तो पूछने नहीं आया। किससे पूछने गए थे? किसी से पूछने नहीं गया। तो मैंने कहा: फिर ठीक से समझने की कोशिश करो कि खुद अशांत हो गए हो। कैसे हो गए हो, किस बात से हो गए हो, उसकी खोज करो। पता चल जाएगा कि इस बात से हो गए, वह बात करना बंद कर देना। शांत हो जाओगे।
शांत होने की कोई विधि थोड़े ही होती है। अशांत होने की विधि होती है। और अशांत होने की विधि जो छोड़ देता है, वह शांत हो जाता है। मुक्त होने का कोई रास्ता थोड़े ही होता है। अमुक्त होने का रास्ता होता है। बंधने की तरकीब होती है। जो नहीं बंधता, वह मुक्त हो जाता है।
मैं मुट्ठी बांधे हुए हूं, जोर से बांधे हुए हूं, और आपसे पूछूं कि मुट्ठी कैसे खोलूं? तो आप कहेंगे, खोल लीजिए, इसमें पूछना क्या है। बांधिए मत कृपा करके, खुल जाएगी। मुट्ठी खोलने के लिए कुछ और थोड़े ही करना पड़ता है, सिर्फ मुट्ठी को बांधो मत। बांधते हो, तो मुट्ठी बंधती है। मत बांधो, खुल जाती है। खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है। बांधना चेष्टा है, श्रम है। खुला होना, सहजता है।
आदमी की आत्मा सहज ही मुक्त है, शांत है, आनंदित है। दुखी हैं--आप तरकीब लगा रहे हैं। बंधन में हैं--आपने हथकड़ियां बनाई हैं। कष्ट भोग रहे हैं--आप कष्ट पैदा करने में बड़े कुशल मालूम होते हैं। यह आपकी कुशलता है कि आप कष्ट पैदा कर रहे हैं। यह आपकी कारीगिरी है कि आप दुख निर्माण कर रहे हैं। और साधारण कारीगर नहीं हैं आप। क्योंकि उस आत्मा पर आप दुख का मकान बना लेते हैं जिस आत्मा को दुख छूना मुश्किल है। और आप कोई साधारण होशियार लोहार नहीं हैं। आप उस आत्मा पर जंजीरें बिठा देते हैं जिस आत्मा पर कभी कोई जंजीर न बैठी है, न बैठ सकती है। और हद मजा है। खुद जंजीरें बिठा देते हैं और फिर उन जंजीरों को लेकर घूमते हैं कि हम इनसे कैसे मुक्त हो जाएं? कोई रास्ता चाहिए? शांत कैसे हो जाएं, आनंदित कैसे हो जाएं, दुख के बाहर कैसे हो जाएं?
पहले दिन इस प्राथमिक चर्चा में मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि परछाईं दुख है, परछाईं पीड़ा है, परछाईं बंधन है। और हम सब परछाईं में जीते हैं। और जो आदमी परछाईं में जीता है, वह कभी स्वयं में नहीं जी सकता। परछाईं में जो जीता है, वह स्वयं में कैसे जीएगा? और जिसकी नजर परछाईं पर लगी है, वह अपने पर कैसे वापस आएगा?
मैंने सुना है, एक घर में एक छोटा सा बच्चा है, और वह भाग रहा है और रो रहा है, भाग रहा है और रो रहा है। और उसकी मां उससे पूछती है कि बात क्या है? वह कहता है कि मुझे मेरी परछाईं पकड़नी है। वह भागता है। अब बड़ी मुश्किल है। परछाईं बड़ी चालाक है, आप भागो वह आपके आगे निकल जाती है। वह बच्चा रो रहा है, छाती पीट रहा है। भागता है, फिर परछाईं आगे निकल जाती है। वह अपने सिर को पकड़ना चाहता है--वह कैसे सिर को पकड़े? कैसे सिर को पकड़े? और एक फकीर द्वार पर भीख मांगने आया है, वह हंसने लगा है। मां भी परेशान है। और वह हंसने लगा है और उस फकीर ने कहा: ऐसे नहीं, ऐसे नहीं; यह कोई रास्ता नहीं है। यह लड़का मुश्किल में पड़ जाएगा। यह लड़का संसार के रास्ते पर निकल गया।
उसकी मां ने कहा: कैसा संसार का रास्ता? यह तो खेल रहा है।
उसने कहा: खेलने में यह बच्चा संसार के रास्ते पर उलझा हुआ है।
क्या करें?
वह फकीर भीतर गया। उसने उस रोते हुए लड़के का हाथ पकड़ कर उसके सिर पर रखवा दिया। इधर हाथ सिर पर गया उधर परछाईं के सिर पर भी हाथ चला गया। वह लड़का कहने लगा, पकड़ ली! आश्र्चर्य, आपने इतनी आसानी से पकड़ा दी! अपने सिर पर हाथ रखने से परछाईं पकड़ में आ गई, क्योंकि परछाईं के सिर पर भी हाथ चला गया।
परछाईं तो वही बन जाती है, जो हम होते हैं। लेकिन परछाईं को कुछ करने आप जाएं, तो आप नहीं बदलते; आप बदल जाएं, तो परछाईं बदल जाती है। और हम सारे लोग परछाईं के साथ कुछ करने की कोशिश में लगे हुए हैं, जन्म से लेकर मरने तक। और एक जन्म नहीं, अनंत जन्मों तक। हम परछाईं के पीछे दौड़ने वाले लोग हैं--छाया के पीछे। और छाया के पीछे दौड़ने से न तो छाया पकड़ में आती है, चित्त दुखी हो जाता है। न छाया मिलती है, चित्त हार जाता है। छाया बार-बार हाथ से छूट जाती है और लगता है कि हम हीन हैं, हम शक्तिशाली नहीं हैं। हम हार गए। और फिर छाया न मालूम किन-किन कारागृहों में फंसती हुई मालूम पड़ती है। फिर हम उसके छुटकारे के उपाय में लग जाते हैं। मंत्र पढ़ते हैं, जाप करते हैं, गीता पढ़ते हैं, रामायण पढ़ते हैं, कुरान पढ़ते हैं। न मालूम क्या-क्या उपाय करते हैं। सब करते हैं! और कुछ भी नहीं हो सकता है। क्योंकि जो करना है, वह हम करते ही नहीं।
करना है यह कि हम यह देखें और पहचानें ठीक से कि कौन उलझ गया है?--मैं? मैं उलझा हूं कभी? मैं उलझा हूं कभी?? कौन अशांत हो गया है?--मैं? मैं कभी अशांत हुआ हूं? आप कहेंगे, हजार बार हुए हैं, रोज हुए हैं, अभी हुए बैठे हुए हैं।
लेकिन मैं फिर आपसे कहता हूं कि खोज करेंगे तो हैरान हो जाएंगे। कभी आप अशांत नहीं हुए। वह जो आपका अंतर्तम है, वह जो गहरे से गहरे आपका होना है, वह जो इनरमोस्ट बीइंग है, वह जो भीतर से भीतर आपका सत्व है, वह जो आप हैं, वह कभी अशांत नहीं हुआ है। परछाईं फंस गई है। वह कभी अशांत नहीं हुआ, दुखी नहीं हुआ। लेकिन परछाईं दुखी हो रही है, अशांत हो रही है, पीड़ित हो रही है।
एक नदी है छोटी सी शांत। ज्यादा बहती नहीं। भारतीय नदी है। क्योंकि भारत में कोई चीज बहती ही नहीं। नदी तक नहीं बहती। सब चीजें ठहरी रहती हैं। सब खड़ा है, इसलिए सब सड़ गया है। खड़ी होगी चीज, सड़ जाएगी। भारतीय नदी होगी। ठहरी हुई है बिलकुल, कोई चीज बहती नहीं। कचरा डाल दो, वह वहीं पड़ा रहता है। जन्मों के बाद आओ, वहीं मिलेगा। वहीं सड़ा हुआ मिलेगा। सब गंदा हो गया है।
एक कुत्ता उसके किनारे पानी पीने को आया हुआ है। ठहरी हुई नदी है। छाया बनती है, प्रतिबिंब बनता है। नीचे देख कर कि कोई दूसरा कुत्ता है, कुत्ता डर कर पीछे हट जाता है। तेज प्यास है, बड़ी प्यास है। पानी पीना है जरूर। प्यास धक्के मारती है, कुत्ता किनारे पर आता है। लेकिन नीचे कोई कुत्ता है, उससे डर कर वह फिर पीछे हट आता है। पानी पास है, प्यास भीतर है। पानी बाहर है, प्यास भीतर है। प्यास मौजूद है, पानी मौजूद है, कोई बाधा नहीं है। एक बाधा पड़ जाती है। कुत्ता नदी के पास जाता है, फिर लौट आता है डर कर, नीचे कोई कुत्ता है! लेकिन कब तक लौटेगा?
कोई गुजरता है आदमी पास से, देखता है, खूब हंसता है। कुत्ते पर नहीं। कुत्ते पर तो नासमझ हंसते हैं। अपने पर हंसता है कि ऐसा ही अपनी छाया के आस-पास डोल-डोल कई दफे मैं भी लौट आया हूं।
जाता है पास और कुत्ते को धक्का दे देता है। कुत्ता बड़ा इनकार करता है। किसी को भी धक्का दो, इनकार करेगा वह। चाहे आप अमृत के कुंड में धक्का दो, तो इनकार करेगा। धक्का दिए जाने से आदमी इनकार करता है। आदमी जड़ होकर खड़ा हो जाता है, वहां से हिलना नहीं चाहता।
वह आदमी जबर्दस्ती कुत्ते को धक्का दे देता है। एक धक्का लगता है, कुत्ता पानी में गिर जाता है। वहां कोई छाया नहीं, छाया खत्म हो गई। वह कुत्ता पानी पीता है। वह फकीर फिर हंसता है।
अगर कुत्ता पूछ सकता होता तो पूछता कि क्यों हंसते हो? लेकिन कुत्ता नहीं पूछ सकता, हम तो पूछ सकते हैं। पूछो उस आदमी से: क्यों हंसते हो? वह आदमी कहता है: इसलिए हंसता हूं कि यही मेरी हालत रही है। यही मेरी हालत रही है--अपनी ही परछाईं, न मालूम कितनी मुश्किलों में, बाधाओं में, न मालूम कितनी दीवालें बन जाती है। अपनी ही परछाईं आड़े आ जाती है।
अपनी परछाईं किसकी आंख में बनती है? कोई नदी पर नहीं बनती हमारी परछाईं। कोई दर्पण पर नहीं बनती। दर्पण और नदी में तो सब ठीक ही है; असली तो आस-पास के आदमी की आंख में हमारी जो परछाईं बनती है, वहीं हम उलझे हैं, वहीं हम खड़े हैं! जो कहा जाता है कि संसार में उलझ गया है आदमी--वह आदमी की आत्मा नहीं उलझ जाती है, सिर्फ परछाईं उलझ जाती है।
स्वयं से निरंतर पूछना जरूरी है--जब आप दुख में हों; जब भारी दुख हो, तब एक क्षण को द्वार बंद करके एकांत में बैठ जाना और पूछना अपने से, मैं दुखी हूं? और मैं आपसे कहता हूं कि अगर आपने ईमानदारी से और पूरी प्रामाणिकता से अपने से यह पूछा कि मैं दुखी हूं, तो आप तत्क्षण पाएंगे, आपके भीतर से आता हुआ उत्तर, कि दुख मेरे चारों तरफ हो सकता है, लेकिन मैं दुखी नहीं हूं।
आपकी टांग टूट गई है, पैर दुख रहा है, पीड़ा हो रही है, तो पूछना आप अपने से कि मुझे हो रही है, मैं पीड़ित हूं? और निश्र्चित ही साफ-साफ दिखाई पड़ जाएगा कि पैर दुख रहा है, दुखने की खबर हो रही है, लेकिन मैं? मैं तो दूर खड़ा एक साक्षी हूं, मैं तो देख रहा हूं।
एक मेरे मित्र हैं, गिर पड़े सीढ़ियों से। बूढ़े आदमी हैं। पैर टूट गया। डॉक्टरों ने बांध दिया बिस्तर पर। तीन महीने के लिए कहा कि हिलना-डुलना भी मत। सक्रिय आदमी हैं, बिना हिले-डुले काम नहीं चलता। चाहे बेकार ही हिलें-डुलें, लेकिन बिना हिले-डुले काम नहीं चलता।
और कितने लोग हैं जो मतलब से हिलते-डुलते होंगे? और कितने वक्त मतलब से हिलते-डुलते होंगे? सुबह से शाम तक अपने हिलने-डुलने का अगर कोई हिसाब रखे, तो पाएगा कि अट्ठानबे प्रतिशत तो बेकार हिल-डुल रहा है। मगर बेचैनी होती है। खाली बैठने से कई चीजें
दिखाई पड़ती हैं, जो आदमी नहीं देखना चाहता।
बिस्तर पर लग गए हैं। मैं उन्हें देखने गया। रोने लगे। कहने लगे कि बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। मर जाता इससे अच्छा था। ये तो तीन महीने, कैसे जीऊंगा, कैसे पड़ा रहूंगा? बहुत तकलीफ है।
मैंने उनसे कहा: आंख बंद करें और खोजें: तकलीफ और आप एक हैं या दो?
उन्होंने कहा: इससे क्या होगा?
मैंने कहा: वह करके देखें, फिर हम पीछे बात करें। आप आंख बंद कर लें। मैं बैठा हूं। और जब तक साफ न हो जाए, तब तक आंख मत खोलें। यह खोजें कि आप और तकलीफ दो हैं या एक? अगर आप और तकलीफ एक ही हैं, तो आपको कभी पता नहीं चल सकता कि तकलीफ हो रही है। तकलीफ को कैसे पता चलेगा कि तकलीफ हो रही है? तकलीफ को पता चल सकता है कि तकलीफ हो रही है!
यह तो ऐसे ही हुआ कि कांटे को पता चल जाए कि मैं चुभ रहा हूं। कांटा दूसरे को चुभता है। चुभन दूसरे को पता चलती है। दो होना जरूरी हैं। तकलीफ है, एक, दुख है, एक; और जिसको हो रहा है, मालूम हो रहा है, वह है, दो। वह अलग है। अगर वह एक ही हो जाए तो पता ही नहीं चलेगा।
आपको पता चलता है न कि क्रोध आ गया? अगर आप और क्रोध एक ही हों, तो पता चलेगा? फिर तो आप ही क्रोध हो जाएंगे। फिर तो क्रोध मिटेगा भी नहीं। मिट भी नहीं सकता। क्योंकि जब आप ही क्रोध हो गए, तो मिटेगा कैसे? और अगर क्रोध मिट जाएगा, तो आप भी खत्म हो जाएंगे।
नहीं, आप तो सदा अलग हैं। क्रोध आता है और चला जाता है; दुख आता है और चला जाता है; अशांति आती है और चली जाती है। घिरता है धुआं चारों तरफ और खो जाता है। लेकिन वह जो बीच में है खड़ा, वह सदा खड़ा है। इसकी निरंतर खोज का नाम ध्यान है। इस तत्व की खोज का नाम--जो बंधन में नहीं, जो दुख में नहीं, जो पीड़ा में नहीं, जो अशांति में नहीं, जो सदा सबके बाहर है। सदा सबके बाहर है! कितना ही कोशिश करो, भीतर नहीं है। सदा ही बाहर है। हर घटना के बाहर है, हर हैपनिंग के बाहर है; हर बिकमिंग के बाहर है, जो भी हो रहा है, उसके बाहर है।
एक रास्ते पर मैं एक गाड़ी से जा रहा था। तीन साथ और मित्र हैं। वे मुझे ले जा रहे हैं किसी गांव, और गाड़ी उलट गई एक सड़क पर आकर--एक ब्रिज पर, एक पुल पर। कोई आठ फीट नीचे गिर पड़े होंगे। पूरी गाड़ी उलटी हो गई, चक्के ऊपर हो गए। सारी गाड़ी दब गई। छोटी गाड़ी, दो ही दरवाजे हैं। एक दरवाजा चट्टान से बंद हो गया है। दूसरा दरवाजा है, लेकिन वे मेरे मित्र, उनकी पत्नी, उनका ड्राइवर, सब ऐसे घबड़ा गए हैं कि रोते हैं, चिल्लाते हैं, लेकिन बाहर नहीं निकलते! और चिल्लाते हैं कि मर गए, मर गए!
मैंने उनसे कहा: अगर मर गए होते तो चिल्लाता कौन? तुम कृपा करके बाहर निकलो। अगर मर ही गए होते तो झंझट ही खत्म थी, चिल्लाता कौन? तुम चिल्ला रहे हो, सो जाहिर है कि मर नहीं गए हो।
मगर वे सुनते ही नहीं हैं। वह पत्नी कहे चली जाती कि अरे, मर गए!
मैं उसे हिलाता हूं कि तू पागल हो गई! अगर मर गई होती, तो शांति हो जाती। फिर चिल्लाता कौन?
वह कहती है कि ठीक है, लेकिन मर गए।
अब यह बड़े मजे की बात है। कौन मर गया? कौन मर गया--अगर यह पता चल रहा है, तो मर नहीं गए। क्योंकि पता चलने वाला दूसरा है। जो हो रहा है, वह और है। जिसे मालूम हो रहा है, वह और है। और मालूम जिसे हो रहा है, वह मौजूद है।
फिर हम बाहर निकल आए। मैं उनसे कहने लगा. वे सब इस हिसाब में लगे हुए हैं कि क्या टूट गया, क्या फूट गया। तो मैंने उनसे कहा कि तुम्हारी गाड़ी का इंश्योरेंस तो है?
उन्होंने कहा: है।
फिर मैंने कहा: फिकर छोड़ दो, उसकी बात खत्म हुई। तुम्हारा इंश्योरेंस है और कोई?
उन्होंने कहा: हमारा भी है।
तो मैंने कहा: वह भी अच्छा, तुम मर जाते तो भी कोई झंझट न थी। अब सवाल यह है कि यह जो घटना घट गई, इस घटना से कुछ सीखोगे कि नहीं सीखोगे?
उन्होंने कहा: इसमें क्या सीखना है? इसमें सीखना यही है कि जहां तक बने कार में बैठना ही नहीं, पहली बात। और इस ड्राइवर को घर जाकर फौरन छुट्टी देनी है। और तीस की स्पीड से ऊपर गाड़ी कभी चलने नहीं देना। यह सीखना है।
मैंने कहा कि इतना बढ़िया मौका हुआ और इतनी रद्दी बातें सीखीं! किसी युनिवर्सिटी से पढ़ कर निकले और दस तक गिनती सीख कर घर आ गए! कि दस तक गिनती सीख ली है, विश्र्वविद्यालय से लौट आए हैं! इतना बड़ा मौका मिला और तुम दस तक गिनती सीखे?
उन्होंने कहा: और क्या सीखने योग्य है?
मैंने उनसे कहा कि इस वक्त तो अदभुत मौका था। जब गाड़ी गिरी थी, एक क्षण को देखना था, कौन मर रहा है? कौन गिर रहा है? दुर्घटना किस पर हो रही है? बहुत बढ़िया मौका था, क्योंकि इतने खतरे में चेतना पूरी जग जाती है। पूरी चेतना होश में होती है इतने खतरे में।
अगर एक आदमी छाती पर आपके छुरा लेकर चढ़ जाए, तो एक सेकेंड को सब विचार-विचार बंद हो जाएंगे, कि आज फिल्म जाना कि नहीं जाना; या क्या करना या नहीं करना; या अखबार में क्या छपा है, या कौन से भाई राष्ट्रपति हो गए कि नहीं हो गए। यह सब-कुछ नहीं। एक सेकेंड सब रुक जाएगा। उस वक्त एक मौका मिलता है कि पूरी तरह देख लें कि क्या हो रहा है? तो उस क्षण में यह भी दिखाई पड़ेगा कि जो हो रहा है, वह बाहर है। और सब होने के बाहर भी कोई एक खड़ा है और देख रहा है।
ध्यान का अर्थ है: इस एक की खोज; जो हर घटना के बाहर है और कभी भीतर नहीं हुआ। ध्यान का और कोई अर्थ नहीं होता। इन तीन दिनों में, हम इस पर ही प्रयोग करने को हैं।
कैसे उसका हम पता लगा लें, जो सबके बीच होते भी सबके बाहर है? हम कैसे उसका पता लगा लें, जो जन्मता है, मरता है; और न कभी जन्मता है और न कभी मरता है? हम कैसे उसका पता लगा लें, जो शरीर में है, शरीर ही मालूम पड़ता है और शरीर नहीं है? हम कैसे उसको खोज लें, जो विचार करता है और जिसने कभी विचार नहीं किया? जो चिंतित होता दिखाई पड़ता है, क्रोधित होता दिखाई पड़ता है, और जिस पर न कभी क्रोध छुआ और न कभी कोई चिंता गई, हम कैसे उसे खोज लें?
लेकिन उसकी खोज तब तक नहीं हो सकती, जब तक कुएं में चांद को देख रहे हैं। और चांद वहां कहीं बाहर खड़ा है और कुएं में कभी भी नहीं गया। कभी जाते देखा है? लेकिन दिखता है गया हुआ। बड़ा दिखता है। और कई बार तो ऊपर उतना साफ नहीं दिखता, जितना कुएं में दिखता है। कुएं की सफाई पर निर्भर करता है, इसमें चांद का कोई हाथ नहीं है। अगर कुआं बिलकुल साफ है, तो बहुत साफ दिखाई पड़ेगा।
इसीलिए तो हम दुश्मन की आंख में देखना नहीं चाहते, क्योंकि दुश्मन की आंख गंदा कुआं है, उसमें तस्वीर अच्छी नहीं बनती। मित्र की आंखों में देखना चाहते हैं। पति अपनी पत्नी की आंखों में देख रहे हैं, और पत्नी को पहले से ही सिखाया हुआ है कि ये परमात्मा हैं! अब उसकी आंख साफ है बिलकुल, उसमें वे परमात्मा मालूम पड़ रहे हैं! और बड़े प्रसन्न हो रहे हैं कि मैं परमात्मा हूं! और पत्नी चिट्ठी लिख रही है कि आपकी दासी, और वे बड़े प्रसन्न हो रहे हैं कि मैं स्वामी हूं! अब बड़ा मजा है कि किसकी आंख में देख रहे हो? अपनी ही पत्नी की आंख में?
एक आदमी ने एक दिन गांव में, बाजार में आकर खबर कर दी थी कि मेरी पत्नी से ज्यादा सुंदर और दुनिया में कोई भी नहीं है।
तो गांव के लोगों ने पूछा: लेकिन बताया किसने?
उसने कहा: बताएगा कौन, मेरी पत्नी ने ही बताया हुआ है।
अरे, लोगों ने कहा: तुम बड़े पागल हो! अपनी ही पत्नी की बातों में आ गए!
तो उस आदमी ने कहा: सब अपनी पत्नी की बातों में आए हुए हैं, सब अपने पतियों की बातों में आए हुए हैं। सब अपने आस-पास के लोगों की बातों में आए हुए हैं। तो मैं आ गया तो कौन सा कसूर है, कौन सी गलती है?
कुएं कई तरह के हैं। गंदा कुआं होगा, नहीं दिखाई पड़ेगा चांद ठीक। साफ कुआं होगा, चांद दिखाई पड़ जाएगा ठीक। लेकिन चांद कभी किसी कुएं के भीतर नहीं गया है, यह ध्यान रखना। और अगर मान लिया कि चांद कुएं के भीतर गया है, तो सारी जिंदगी मुश्किल में पड़ जाएगी। पहली तो यह मुश्किल हो जाएगी कि वह चांद पकड़ में नहीं आएगा जो कुएं के भीतर गया है। और जब बार-बार फिसल जाएगा, फिसल-फिसल जाएगा हाथ से, तो जिंदगी दुख हो जाएगी। फिर तबीयत होगी, इस चांद को मुक्त कैसे करें! अब हम कुएं के बाहर होना चाहते हैं! हम मुक्ति चाहते हैं! हम संन्यासी होना चाहते हैं! तब एक दूसरी झंझट शुरू होगी। क्योंकि जो भीतर नहीं गया था, उसे बाहर कैसे निकालोगे?
चांद सदा बाहर खड़ा है। आत्मा सदा बाहर खड़ी है। वह किसी कुएं में कभी नहीं गई। लेकिन बहुत कुओं में जाने का भ्रम पैदा होता है। और जितने ज्यादा कुओं में जाता हुआ दिखाई पड़ता है, उतना ही ऐसा लगता है कि हमारा फैलाव हो रहा है। इसीलिए तो, अगर एक आदमी नमस्कार करे तो उतना मजा नहीं आता, दस करें तो ज्यादा आता है; दस लाख करें तो और ज्यादा मजा आता है; दस करोड़ करें तो फिर कहना ही क्या! सारी दुनिया करे, तब तो फिर कहना ही क्या! क्योंकि उतने कुओं में प्रतिबिंब दिखने लगता है, और लगता है इतना फैल गया मैं! इतना हो गया मैं! इतनी जगह हो गया मैं! मैं इतनी जगह हो गया! और एक जगह भर चूक जाती है, जहां मैं हूं और वहां दिखाई पड़ने लगता हूं, जहां मैं नहीं हूं।
ध्यान का अर्थ है, मेडिटेशन का अर्थ है: बाहर हो जाएं उन कुओं के जिनमें आप कभी नहीं गए। अब यह बड़ी उलटी बात है। उन कुओं के बाहर कैसे होंगे जिनमें गए नहीं?
उनसे बाहर होने का एक ही मतलब है कि खोजें कि कहीं आप बाहर ही तो नहीं हैं? इस खोज को हम आज से शुरू करते हैं। अभी यहां भी हम पंद्रह मिनट बैठ कर यह खोज करेंगे।
यह प्रकाश भी हटा दिया जाएगा, अंधकार पूरा हो जाएगा, आप अकेले हो जाएंगे। उस अकेलेपन में सब तरह से शांत शरीर को शिथिल छोड़ कर बैठ जाना है। आंख बंद कर लेनी है। श्र्वास धीमी छोड़ देनी है। और भीतर यह खोज करनी है कि क्या मैं बाहर हूं? क्या मैं हर अनुभव के बाहर हूं?
ऐसा मान नहीं लेना है कि अपने मन में दोहराने लगे कि मैं बाहर हूं, मैं बाहर हूं, मैं बाहर हूं। इससे कुछ नहीं होगा। क्योंकि जब आप कहते हैं कि मैं बाहर हूं, तो उसका मतलब है कि आपको पता तो चल रहा है कि भीतर हूं, अब समझा रहे हैं अपने को कि मैं बाहर हूं। ऐसा अक्सर होता है। आपको कहना नहीं है, आपको खोज करनी है: सच मैं भीतर हूं? मैं किसी अनुभव के भीतर हूं?
पैर में एक चींटी काट रही होगी, उस वक्त खोज करनी है कि चींटी मुझे काट रही है या पैर को काट रही है? और मैं देख रहा हूं। पैर भारी हो जाएगा, शून्य हो जाएगा, सुइयां चलने लगेंगी। तब देखना है कि यह पैर, ये सुइयां, यह भारीपन--यह मैं हूं या मैं जान रहा हूं? आवाज सुनाई पड़ेगी, शोरगुल होगा, रास्ते से कोई निकलेगा, कोई चिल्लाएगा, कोई हॉर्न बजेगा--तब देखना है कि यह जो सुनाई पड़ रही है आवाज, यही आवाज मैं हूं या सुनने वाला बिलकुल अलग खड़ा है? चारों तरफ अंधेरा है--यह अंधेरा मालूम पड़ रहा है, यह अंधेरे की शांति मालूम पड़ रही है।
ध्यान रहे, ऐसा नहीं समझना कि अशांति के आप बाहर हैं। बहुत गहरे में जाने पर शांति के भी आप बाहर हैं। जहां अशांति नहीं गई कभी, वहां शांति भी कहां जा सकती है। दोनों के बाहर हैं। वहां न अंधकार है न प्रकाश है।
इसकी गहरे से गहरी, भीतर से भीतर खोज कि क्या मैं बाहर हूं, क्या मैं बाहर हूं--यह पूछना है; जानना है, खोजना है। और जैसे ही आप यह खोज जारी करेंगे,
चित्त शांत होता चला जाएगा। एक ऐसा सन्नाटा छाएगा, जिसका आपको शायद कभी कोई अनुभव न हुआ हो। एक इतना बड़ा भीतर से विस्फोट हो जाएगा, जिसका आपको शायद कभी पता न हुआ हो। आपको पहली दफा पता चलेगा कि कुएं के बाहर हूं, और कभी भी भीतर नहीं था।
इन तीन दिनों में इसकी इंटेंसिव, इसकी गहरी से गहरी खोज करनी है। रोज इसके कुछ भिन्न सूत्रों पर मैं बात करूंगा, लेकिन सब सूत्र इसी तरफ ले जाने वाले होंगे। अलग-अलग जगह से धक्के दूंगा, लेकिन धक्के एक ही जगह पटक देने वाले होंगे।
पहला प्रयोग हम आज की रात्रि का करें।
थोड़े फासले पर बैठ जाएंगे। कोई किसी को छूता हुआ न बैठे। जरा-जरा फासले पर, कोई किसी को छूता हुआ न हो। और आवाज जरा भी न करें, चुपचाप हट जाएं, कहीं भी हट कर बैठ जाएं। आवाज मेरी सुनाई पड़ती रहे, बस इतना। और बातचीत जरा भी न करें किसी से, क्योंकि इस मामले में दूसरा कोई साथी-सहयोगी नहीं हो सकता। और चुपचाप, बात नहीं।
अपनी-अपनी जगह पर, शरीर को बिलकुल शिथिल छोड़ कर। अब बातचीत नहीं चलेगी जरा भी। बातचीत नहीं चलेगी अब। अब बातचीत बंद कर दें।
बिलकुल शांत बैठें, आंख बंद कर लें। मैं कुछ सुझाव दूंगा, पहले मेरे सुझाव अनुभव करें और फिर धीरे से उसकी खोज में चले जाएं जो आपके ही भीतर है।
सबसे पहले सारे शरीर को शिथिल छोड़ दें और ऐसा समझें कि जैसे शरीर है ही नहीं। ढीला छोड़ दें, जैसे मुर्दा हो शरीर। बिलकुल शिथिल छोड़ दें, रिलैक्स छोड़ दें। शरीर ढीला छोड़ दें.शरीर बिलकुल ढीला छोड़ दें.।
आंख बंद कर ली है, शरीर ढीला छोड़ दिया है.शरीर ढीला छोड़ दिया है.शरीर शिथिल छोड़ दिया है.शरीर बिलकुल शिथिल छोड़ दें.।
अब श्र्वास भी बिलकुल धीमी छोड़ दें। धीमी करनी नहीं है, छोड़ दें, धीमी छोड़ दें। अपने आप आए-जाए; न आए न आए, न जाए न जाए और जितनी आए उतनी आए, उतनी जाए। छोड़ दें बिलकुल शिथिल.श्र्वास एकदम धीमी हो जाएगी, बहुत धीमी आएगी-जाएगी, जैसे ऊपर ही अटक जाएगी। श्र्वास भी धीमी छोड़ दें.।
शरीर शिथिल छोड़ दिया, श्र्वास धीमी छोड़ दी, अब अपने ही भीतर, वह जो सबसे दूर खड़ा है--ये आवाजें आ रही हैं, ये सुनाई पड़ेंगी। आप सुन रहे हैं। आप अलग हैं, आप भिन्न हैं, आप दूसरे हैं। मैं और हूं, जो भी हो रहा है मेरे चारों तरफ--चाहे मेरे शरीर के बाहर, चाहे मेरे शरीर के भीतर--जो भी हो रहा है, सब मुझसे बाहर है।
बिजली चमकेगी, पानी गिर सकता है, आवाजें आएंगी। शरीर शिथिल हो जाएगा--शरीर गिर भी सकता है। सब मेरे बाहर है। सब मेरे बाहर है। मैं अलग हूं। मैं अलग हूं, मैं अलग खड़ा हूं। मैं देख रहा हूं, यह सब हो रहा है। मैं एक द्रष्टा से ज्यादा नहीं हूं। मैं एक साक्षी हूं, सिर्फ साक्षी हूं। मैं एक साक्षी हूं, मैं एक साक्षी हूं। मैं देख रहा हूं, सब है, सब मुझसे बाहर है; सब हो रहा है, सब मुझसे दूर हो रहा है, मैं दूर खड़ा हूं, अलग खड़ा हूं, ऊपर खड़ा हूं, भिन्न खड़ा हूं। मैं सिर्फ देख रहा हूं, मैं सिर्फ जान रहा हूं, मैं सिर्फ साक्षी हूं.।
मैं साक्षी हूं, इसी भाव में गहरे से गहरे उतरें। दस मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। आप इसी भाव में गहरे से गहरे उतरें। एक-एक सीढ़ी, एक-एक सीढ़ी गहरे।
मैं साक्षी हूं, मैं सिर्फ जान रहा हूं, मैं सिर्फ जान रहा हूं.जो हो रहा है जान रहा हूं, मैं सिर्फ साक्षी हूं.।
और यह भाव गहरा होते-होते इतनी गहरी शांति में ले जाएगा, जिसे कभी नहीं जाना। इतने बड़े मौन में ले जाएगा, जो बिलकुल अपरिचित है। इतने बड़े आनंद में डुबा देगा, जिसकी हमें कोई भी खबर नहीं।
मैं साक्षी हूं.मैं साक्षी हूं.मैं बस साक्षी हूं.।