QUESTION & ANSWER

Jeevan Kranti Ke Sutra 03

Third Discourse from the series of 10 discourses - Jeevan Kranti Ke Sutra by Osho. These discourses were given during JUN 2 1969.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
मैंने सुना है, एक माली वृद्ध हो गया था। कितना वृद्ध हो गया था, यह उसे खुद भी पता नहीं था। क्योंकि जिंदगी भर जो बीजों को फूल बनाने में लगा रहा हो, उसे अपनी उम्र नापने का मौका नहीं मिलता है। उम्र का पता सिर्फ उन्हें चलता है, जो सिर्फ उम्र गिनते हैं और कुछ भी नहीं करते हैं। और मैंने सुना है कि मौत कई बार उस माली के पास आकर वापस लौट गई थी। क्योंकि जब भी मौत आई थी, वह अपने काम में इतना लीन था कि उसके काम को तोड़ देने की हिम्मत मौत भी नहीं जुटा पाई।
जिंदगी को तोड़ देने की हिम्मत जुटाना तो बहुत आसान है, किसी सृजन हो रहे काम को बीच में तोड़ देने की हिम्मत जुटाना बहुत मुश्किल है।
वह बहुत बूढ़ा हो गया था। उसने पौधों की जिंदगी के संबंध में बहुत राज जान लिए थे। उसने नये फूल पैदा किए थे। उसने ऐसे फूल पैदा किए थे, जो वर्षों टिकते। उसने पौधों को सम्हालने, ताजा करने, जिंदा करने, लंबे वर्षों तक जीवित रखने की बहुत सी रासायनिक विद्याएं खोज ली थीं।
मृत्यु के पहले उसने अपने जवान बेटों को बहुत समझाने की कोशिश की कि बता दे कौन सा फूल किस काम आता है। और यह भी बता दे कि सभी रंगीन फूल सार्थक नहीं होते। और यह भी बता दे बहुत चमकने वाले पौधे सभी उपयोगी नहीं होते। और यह भी बता दे कि कांटों में भी बहुत से जीवन के रहस्य छिपे हुए हैं, फूलों में ही नहीं। और यह भी बता दे कि जल्दी खिल जाने वाले फूलों पर ही मत रुक रह जाना, क्योंकि जो जल्दी खिलते हैं, वे जल्दी मुर्झा भी जाते हैं। बहुत देर तक, मुश्किल से खिलने वाले फूल भी हैं। और यह भी बता दे कि इन पौधों में वे औषधियां भी हैं, जो जीवन को अमृत बन सकती हैं। सारी बातें जवान बेटों को बताने की कोशिश की--कब किस पौधे में खाद देना, कब मत देना; कब कम पानी देना, कब ज्यादा पानी देना; किस मौसम में रक्षा करना, किस मौसम में फिकर मत करना। लेकिन बेटे नहीं समझे।
बेटे कभी भी नहीं समझते हैं। बूढ़ों की भाषा अगर बेटे समझ जाएं, तो दुनिया बहुत बेहतर हो सकती है। लेकिन बेटों को बूढ़ों की भाषा न कभी समझ में आई है और न आज ही आ रही है, और न ही आगे बहुत उम्मीद बंधती है कि समझ में आ सकती है।
शायद, अनुभव की भाषा गैर-अनुभव को समझ में आए भी तो कैसे आए? जो जानते हैं, उनकी भाषा उनकी समझ में आए भी तो कैसे आए, जो नहीं जानते हैं। जो अंधेरे में हों, उन्हें रोशनी की भाषा कैसे समझ में आ सकती है? और जो अभी जिंदगी की धारा में हों, उन्हें मौत के करीब पहुंचने वाले लोगों को जो सत्य दिखाई पड़ते हैं, वे उनकी समझ के बाहर होते हैं।
बेटों ने अनसुनी कर दी। बेटे समझते थे, फूल ऐसे ही खिल जाते हैं। सभी नासमझ यही समझते हैं। फूल ऐसे ही नहीं खिल जाते। पीछे श्रम है, पीछे संकल्प है, पीछे साधना है।
बाप बीमार पड़ गया है। वह अपने मकान में, झोपड़े में बंद है। वह खिड़की से झांक कर देखता है फूलों को मुर्झाते हुए, पौधों को मरते हुए। उसके बेटे कभी पानी भी डालते हैं, लेकिन जब पानी नहीं डालना होता है तब डाल देते हैं। और जिन पौधों की हिफाजत करनी है, उनकी उन्होंने फिकर छोड़ दी है। और जिन पौधों में कुछ भी नहीं है, सिर्फ चमकते हुए रंगीन फूल लग जाते हैं, वे उन्हीं पौधों पर मरे जा रहे हैं। वह बहुत उन्हें समझाने की कोशिश करता है। लेकिन बेटे इनकार करते हैं। और आखिर उससे कहते हैं: अब तुम चुप रहो! अब तुम्हारी बातें हमें प्रीतिकर नहीं मालूम पड़तीं। हम जो कर सकते हैं, कर रहे हैं। जो प्रीतिकर लगता है, वह हो रहा है।
वह बूढ़ा उन पौधों को मरते देखता है, जिन्हें अपना जीवन सींच कर उसने बड़ा किया था--वह उन फूलों को कुम्हलाते देखता है। और उन पौधों को बढ़ते देखता है, घास-पात को, जिनका कोई उपयोग नहीं है, कोई अर्थ नहीं है।
उस बूढ़े की जो हालत होगी, अगर परमात्मा कहीं भी है, तो आदमी की बगिया को देख कर उसकी वही हालत हो रही होगी।
आदमी की जिंदगी में जो महत्वपूर्ण है, उसे खोया जाता देखा जाता है। जो गैर-महत्वपूर्ण है, वह जोर से बढ़ता दिखाई पड़ता है। जो पौधे बिलकुल व्यर्थ हैं, उन्होंने बहुत बड़ी-बड़ी जमीन घेर ली है और जो सार्थक हैं, वे खोते गए हैं, सिकुड़ते गए हैं, जंगल में दब गए हैं और मर गए हैं।
आदमी के साथ क्या किया जाए कि जीवन के फूलों को खिलाने का रहस्य उसे फिर से स्पष्ट हो सके?
दो सूत्रों के संबंध में मैंने दो दिनों में बात की है, आज तीसरे सूत्र के संबंध में बात करना चाहता हूं।
पहले दिन मैंने कहा: एक शाश्वत जिज्ञासा चाहिए, एक न मरने वाली खोज चाहिए। एक ऐसी आकांक्षा चाहिए, जो वहां न ठहरने दे, जहां हम ठहर गए हैं--अज्ञात की तरफ उठाती रहे, अनंत की तरफ बुलाती रहे। दूर, जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह भी आकर्षण बना रहे। जो नहीं पाया गया है, जो हाथ से बहुत दूर हैं, वे उत्तुंग शिखर भी आत्मा को निमंत्रण देते रहें और हमारे पैर उनकी तरफ बढ़ते रहें, ऐसी एक खोज जीवन में चाहिए।
जिसके जीवन में खोज नहीं है, वह एक मरा हुआ डबरा है, जो सड़ेगा, नष्ट होगा, लेकिन सागर तक नहीं पहुंच सकता। सागर तक तो केवल वे सरिताएं ही पहुंचती हैं, जो रोज अनजान रास्तों से खोजती ही खोजती अनजान अपरिचित सागर को तलाशती ही तलाशती चली जाती हैं। एक दिन वे वहां पहुंच जाती हैं, जहां पहुंचने पर सागर मिल जाता है। जहां पहुंचने पर वह मिल जाता है, जिसके मिल जाने के बाद और कुछ मिल जाने की कामना नहीं रह जाती है।
जीवन एक सरिता की भांति जिज्ञासा की खोज होनी चाहिए, यह पहले सूत्र में मैंने कहा।
और दूसरे सूत्र में मैंने कहा कि यह खोज का केंद्र कहां हो, यह खोज कहां केंद्रित हो। हमारे इस व्यक्तित्व में वह कहां है जगह, जहां ऊर्जा छिपी है, जहां शक्ति छिपी है, जहां वह आग छिपी है, जिसको हम जगाएं और दीया बनाएं। जहां वे स्रोत छिपे हैं शक्तियों के, जिन्हें हम उठाएं और ऊपर की तरफ ले जाएं।
अगर हम न उठाएं शक्तियों को ऊपर की तरफ, तो भी शक्तियां बहेंगी, लेकिन तब वे नीचे की तरफ बहेंगी। नीचे की तरफ बहाव प्रकृति का नियम है। और जो आदमी कुछ भी नहीं करेगा, वह भी नीचे की तरफ बहेगा। ऊपर की तरफ उठना, प्रकृति के ऊपर उठना है, परमात्मा की तरफ उठना है। वह नियम से नहीं होता, नियम को तोड़ने से, नियम के प्रतिकूल जाने से होता है, वह नियम से उलटे जाने से होता है।
दूसरे सूत्र में मैंने कहा: कहां, किस केंद्र पर? काम के केंद्र पर हमारी ऊर्जा इकट्ठी है, वह नीचे बहेगी और बह जाएगी, अगर हम उसे ऊपर ले जाने में समर्थ नहीं होते हैं। लेकिन हम समर्थ हो सकते हैं, यदि हम उस स्पंदन के केंद्र को ध्यान करें, मेडिटेट करें और हमारी चेतना को ले जाएं उस केंद्र पर और खोजें कि कहां है वह जगह, जहां जीवन हमारे भीतर कुंडली मार कर बैठा हुआ है, जहां जीवन की शक्ति हमारे भीतर छिपी है। अगर हम वहां निरीक्षण को, आंख को, बोध को ले जाएं, तो वह शक्ति जग जाएगी और उठना शुरू हो जाएगी।
लेकिन उसके उठने के लिए एक रासायनिक बात समझ लेनी जरूरी है, वह आज तीसरे सूत्र में मैं समझाना चाहता हूं।
जिंदगी एक बहुत बड़ा रासायनिक रहस्य है, एक बहुत बड़ी केमिकल मिस्ट्री है। और जो लोग जीवन के रसायन को नहीं समझ पाते, वे जीवन की क्रांति को भी उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। जीवन बहुत छोटे-छोटे तत्वों से मिल कर बना है। और हम जो हैं, वह हमारे चारों तरफ से अनंत से आए हुए तत्व हमें जोड़ कर बना रहे हैं। और हम जिस भांति व्यवहार कर रहे हैं, उस व्यवहार करने में, जो तत्वों ने हमें जोड़ा है, उनका हाथ है। अगर बदलाहट की जा सके इस रसायन में, तो दूसरे तरह की यात्रा शुरू हो सकती है।
साधारणतः लोहा समुद्र में डूब जाता है, लेकिन थोड़ी सी डिवाइस, थोड़ी सी तरकीब और लोहा नाव बन जाता है और सागर को पार करा देता है। कोई चीज हवा से भारी हवा में नहीं उठ सकती। इसलिए हजारों साल तक आदमी ने चाहा कि उठे; लेकिन सपना देखा, उठ नहीं सका। पुष्पक विमानों की कहानियां लिखीं किताबों में, सपने देखे, लेकिन उठ नहीं सका। क्योंकि हवा से भारी चीज कैसे ऊपर उठे? लेकिन फिर थोड़ी सी तरकीब और हवा से बहुत भारी चीजें ऊपर उठने लगीं और गति करने लगीं।
मनुष्य का व्यक्तित्व भी एक रासायनिक पुंज है। और उस रासायनिक पुंज के साथ वही हालत है--जैसे, अगर कोई कहे कि एक पौधे को हम पानी न दें, तो हर्ज क्या है? थोड़ा सा पानी नहीं मिलेगा, तो क्या हर्ज है? लेकिन हमें पता है कि बड़े से बड़ा दरख्त भी थोड़े से पानी के न मिलने पर मर जाएगा। अगर हम कहें कि थोड़ी सी खाद न दी पौधे में, तो हर्ज क्या है? खाद की दुर्गंध डालने से फायदा भी क्या है? लेकिन हमें पता नहीं है, वह खाद की दुर्गंध ही पौधों की नसों से जाकर फूल की सुगंध बनती है। अगर खाद नहीं डाली गई, तो फूल भी नहीं आएंगे।
मनुष्य के शरीर के साथ, मनुष्य के शरीर-वृक्ष के साथ बहुत नासमझी हो रही है, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। आदमी खाता गलत है, आदमी पहनता गलत है, आदमी उठता गलत है, आदमी सोता गलत है, आदमी का सब-कुछ गलत है, इसलिए आदमी का ऊर्ध्वगमन नहीं हो सकता है। यह ऐसा ही है, जैसे दीये को हमने उलटा कर दिया हो, उसका सब तेल बह गया हो। अब उलटे दीये में, बह गए तेल में हम बाती जलाने की कोशिश कर रहे हों और वह न जलती हो। और कोई हमसे आकर कहे कि पहले दीये को सीधा करो।
आदमी बिलकुल उलटा है, इसलिए नीचे की तरफ सारी गति होती है, ऊपर की कोई ज्योति नहीं जलती।
इन थोड़ी सी मनुष्य की रासायनिक उलटी स्थिति को समझ लेना जरूरी है। कुछ थोड़ी सी बातें जिनसे कि इशारा मिल सके।
शायद कभी खयाल में भी नहीं आया होगा कि सारी पृथ्वी पर, सारे जगत में कोई भी पशु मां का दूध तो पीता है, लेकिन इसके बाद दूध कभी नहीं पीता, सिर्फ आदमी को छोड़ कर। प्रकृति की व्यवस्था में आदमी अकेला मां का दूध छोड़ देने के बाद भी दूध पीए चला जाता है। और हम कभी सोचते भी नहीं कि कुछ उपद्रव तो नहीं हो रहा है! और भी मजे की बात है कि मां का दूध छोड़ देने के बाद आदमी, आदमी का दूध तो नहीं पीता, जानवरों का दूध पीए चला जाता है।
और ध्यान रहे, जब तक आदमी एनिमल फूड पर, जानवर के दूध पर जिंदा है, तब तक आदमी सेक्सुअलिटी से ऊपर नहीं उठ सकता, कामुकता से ऊपर नहीं उठ सकता।
यह आपको शायद कल्पना में भी नहीं होगा कि गाय का जो दूध है, वह सांड के शरीर की सेक्सुअलिटी पैदा करने की ताकत रखता है। वह जो गाय का दूध है, वह एक सांड के शरीर में दौड़ने की ताकत रखता है। वह उसके लिए बना है। और सांड के व्यक्तित्व में जितनी कामुकता है, गाय का दूध पीने वाले मनुष्य में उतनी ही कामुकता पैदा हो जाए तो आश्चर्य नहीं है। भैंस का दूध है, या और कोई भी दूध है।
दूध को हम समझते हैं सबसे ज्यादा सात्विक आहार। दूध सात्विक बन सकता है, लेकिन जब भीतर की कामुकता--जैसे मैंने कल के सूत्र में कहा, ऊपर की तरफ बढ़नी शुरू हो जाए, फिर दूध कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है। लेकिन जब तक सेक्स-एनर्जी, जब तक वीर्य-ओज ऊपर की तरफ गतिमान नहीं हुआ है, तब तक दूध वीर्य को नीचे की तरफ बहाने का अनिवार्य रास्ता बन गया है। सच तो यह है कि मां के स्तन को छोड़ देने के बाद किसी को दूध की कोई जरूरत नहीं है।
हम सोचते हैं, मांस खाना बुरा है; हम सोचते हैं, पशुओं को मारना बुरा है; अंडे खाने बुरे हैं, लेकिन हम कभी भी नहीं सोचते, दूध क्या है? दूध खून का हिस्सा है। मां के पेट में, किसी भी मादा के पेट में खून को दो हिस्सों में करने की विधि है। खून में दो हिस्से होते हैं--लाल और सफेद। लाल कणों को मादा का यंत्र अलग कर देता है, सफेद कणों को अलग। सफेद कण दूध बन जाते हैं। इसीलिए तो दूध पीने से जल्दी खून बढ़ जाता है। दूध खून है।
लेकिन और भी कठिन बात है, यह हम खयाल भी नहीं करते हैं कि जिस पशु का दूध है, वह उस पशु के व्यक्तित्व के योग्य है। गाय का दूध गाय के बेटे के योग्य है। और गाय के बेटे आप नहीं हैं। चाहे शंकराचार्य कितना ही कहें। गाय के बेटे बैल ही हैं। और बैल को भी दूध सारे जीवन जरूरी नहीं है।
क्या आपके खयाल में है कि जब तक बच्चे छोटे हैं और कामुक रूप से परिपक्व नहीं हो गए हैं, तब तक तो दूध किसी तरह उपयोगी हो सकता है। लेकिन जैसे ही सेक्स मैच्योरिटी पूरी हुई, जैसे ही एक व्यक्ति काम के, यौन की दृष्टि से प्रौढ़ हुआ, उसके बाद दूध बहुत खतरनाक है। और सारी मनुष्यता दूध से परेशान और पीड़ित है। यह दूध जिन जानवरों से आता है, उन्हीं तरह की जानवरों की वृत्तियों को मनुष्य के भीतर पैदा करता है।
यह भी ध्यान रहे, दूध अत्यंत अस्वाभाविक आहार है। बस मां का दूध बच्चे के लिए जब तक प्रकृति की जरूरत है तब तक, उसके बाद अत्यंत अननेचुरल फूड है। और इस अस्वाभाविक आहार से मनुष्य के व्यक्तित्व का पूरा रासायनिक उपद्रव हो गया है। इसलिए दुनिया में पशुओं के भीतर भी काम है, लेकिन कामुकता नहीं है। सेक्स है, सेक्सुअलिटी नहीं है। सेक्सुअलिटी सिर्फ आदमी में है!
पशुओं के भीतर काम तो है, वे बच्चे तो पैदा करते हैं, और काम से प्रभावित भी होते हैं। लेकिन न तो काम के आधार को लेकर दिन-रात सोचते हैं, न फिल्में बनाते हैं, न संगीत रचते हैं, न साहित्य बनाते हैं, न कविता रचते हैं। इसके बाद वे कोई फिकर नहीं करते। आदमी चौबीस घंटे में जितना काम करता है, उसमें अट्ठानबे प्रतिशत किसी न किसी रूप से काम-केंद्रित होता है। वह दो प्रतिशत भी, और बहुत गहरे खोजेंगे, तो इसी कामवासना से संबंधित मिल जाएगा। आदमी को क्या हो गया? आदमी विक्षिप्त हो गया है। और आदमी की विक्षिप्तता में उसके व्यक्तित्व का पूरा का पूरा रासायनिक विघटन हो गया है।
हमने मांसाहार के लिए मना किया है। लोग सोचते हैं कि शायद महावीर या बुद्ध जैसे लोगों ने मांसाहार के लिए इसलिए मना किया होगा कि मांसाहार में हिंसा होती है, तो उन्हें सच्ची बात का पता नहीं है। महावीर और बुद्ध ने हिंसा के कारण मांसाहार के लिए इनकार नहीं किया है। और जो लोग यह ऐसा समझ रहे हैं और इस तरह का प्रचार कर रहे हैं, वह प्रचार एकदम नासमझी से भरा हुआ है। उन्हें महावीर और बुद्ध के आंतरिक विज्ञान का कोई भी पता नहीं है। महावीर और बुद्ध मांसाहार से इसलिए इनकार कर रहे हैं कि जिस जानवर का मांस है, उस मांसाहार के करने के बाद उस जानवर की प्रवृत्तियां उस मनुष्य में प्रविष्ट होती हैं। और वह मनुष्य उसी तल का हो जाता है, जिस जानवर का मांस खाता है।
सवाल महत्वपूर्ण यह नहीं है कि जानवर की हिंसा हो गई। बहुत महत्वपूर्ण यह है कि मांस खाने वाला अपनी आत्मा को नीचे की तरफ ले जाता है, ऊपर की तरफ नहीं।
यह मैंने अभी मजाक में कहा कि चाहे कितना ही गऊ माता कहे कोई, गऊ माता कहने से आदमी गऊ का बेटा नहीं हो जाता। लेकिन इस संबंध में थोड़ी सी बात और भी जान लेनी जरूरी है। और वह यह कि एक अर्थ में गऊ माता है, लेकिन उन अर्थों में नहीं जिन अर्थों में हिंदुस्तान के नासमझ गऊ-भक्त गऊ माता की चर्चा कर रहे हैं। वे समझाते हैं कि चूंकि गऊ से दूध मिलता है, इसलिए वह मां है। वे समझाते हैं कि गऊ से बछड़े मिलते हैं, खेती-बाड़ी होती है, इसलिए मां है। ये सब बेमानी बातें हैं। उन्हें कुछ पता नहीं है। गऊ माता और दूसरे ही अर्थों में है।
डार्विन ने जिन अर्थों में बंदर को पिता कहा है, गऊ उस अर्थों में मां है। डार्विन और पश्चिम का पूरा विज्ञान यह खोज कर रहा था कि आदमी का शरीर कहां से आया है, आदमी की बॉडिली हेरिडिटी क्या है, आदमी का शरीर कैसे विकसित हुआ है? तो शरीर के विकास को खोजते-खोजते उनको पता चला कि आदमी का शरीर बंदर के शरीर की कड़ी के बाद की कड़ी है। आदमी का शरीर बंदर से आया है। यह बिलकुल सच है कि आदमी का शरीर बंदर से आया है।
लेकिन हिंदुस्तान में कभी किसी को यह बात नहीं सूझी कि आदमी का शरीर बंदर से आया है, और हिंदुस्तान में मनुष्य के विकास पर हजारों वर्षों से लोग सोच रहे हैं। क्या कारण है?
एक कारण है, और वह यह कि हिंदुस्तान ने बॉडिली हेरिडिटी की कोई फिकर ही नहीं की। हिंदुस्तान कहता है, शरीर कहां से आया, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि आत्मा कहां से आई है। और हिंदुस्तान के खोजी जब आत्मा की खोज में गए, तो उन्होंने पाया कि आत्मा की, आदमी की आत्मा की पहली कड़ी गाय से आई है। आदमी की आत्मा का विकास तो गाय की परंपरा से हुआ है और आदमी के शरीर का विकास बंदर की परंपरा से हुआ है। और आदमी के पास बंदर का शरीर है और गाय की आत्मा है।
जैसे एक लोहार लोहे की कुल्हाड़ी बनाए और एक बढ़ई उसके लिए डंडा बनाए और फिर दोनों मिल कर कुल्हाड़ी बन जाए।
एक तरफ से प्रकृति शरीर को विकसित करती आ रही है, वह बंदर की तरफ से है--और बंदर की यात्रा में सबसे श्रेष्ठ शरीर विकसित हो सका है। और एक तरफ से आत्मा का विकास चल रहा है--और गाय की आत्मा की यात्रा में सबसे श्रेष्ठ आत्मा विकसित हो सकी है। और इन दोनों के मिलन से आदमी विकसित हुआ है।
आदमी बहुत सी विकास की यात्राओं का संगम-स्थल है। शरीर कहीं और से आया है, आत्मा कहीं और से आई है। इसलिए हिंदुस्तान ने बंदर की कोई फिकर नहीं की और पश्चिम गाय की अभी बहुत वर्षों तक फिकर नहीं कर पाएगा। उसे पता भी नहीं चल सकता कि आत्मा का भी एक जीनिसिस, आत्मा का भी एक श्रृंखलाबद्ध इतिहास है।
इस अर्थों में गऊ माता है। इस अर्थों में नहीं कि आप सदैव उसका दूध पीते रहें। अपनी माता का भी सदा दूध पीने की चेष्टा करेंगे, तो मां भी अदालत में मुकदमा चला देगी।
दूध मनुष्य के व्यक्तित्व को कामुक बनाने में केंद्रीय तत्व है। और अगर मनुष्य के भोजन से दूध से मुक्ति नहीं मिलती, तो बहुत खतरा है। हां, यह मैं जानता हूं कि अगर वीर्य की ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन शुरू हो जाए, तो दूध का उपयोग किया जा सकता है। इसलिए ऋषि-मुनियों और योगियों ने अगर दूध को परम आहार कहा हो, तो गलत नहीं कहा है। लेकिन वह उस यात्रा के प्रारंभ हो जाने के बाद, वह उस यात्रा के प्रारंभ होने के पहले नहीं।
मनुष्य के रासायनिक व्यक्तित्व में फलों, सब्जियों का ही मौलिक स्थान है।
क्यों?
क्योंकि फल, सब्जी, हरी चीजें, वे सेक्स के पैदा होने के पहले विकास की अवस्थाएं हैं। फलों का, सब्जियों का पैदा होना सेक्सुअल प्रोडक्शन नहीं है। वह कामुक उत्पत्ति नहीं है। जैसे ही पशुओं की दुनिया शुरू होती है, कामुक उत्पत्ति शुरू हो जाती है। इसलिए पशुओं का मांस, या दूध सब बराबर है, सब एनिमल फूड है। वह कोई भी मनुष्य की चेतना को ऊपर ले जाने में बाधा बनता है।
आप क्या खाते हैं, उससे आप बनते हैं, उससे आप निर्मित होते हैं। आप नब्बे प्रतिशत तो भोजन हैं। आपने जो ले लिया है अपने भीतर, वही काम कर रहा है। थोड़ी देर शराब पीकर देखें और आपको पता चलेगा कि जितनी देर शराब काम कर रही है, उतनी देर आप नहीं हैं, उतनी देर शराब है।
मैंने सुना है, एक सम्राट की सवारी निकलती थी एक रास्ते पर। और एक आदमी चौराहे पर खड़े होकर गालियां देने लगा। सारे लोग फूल फेंक रहे थे, वह गालियां फेंकने लगा। उसे उसी क्षण पकड़ कर बंद कर दिया गया। दूसरे दिन उसे सम्राट के सामने लाया गया। और सम्राट ने पूछा: क्या हो गया तुम्हें? गालियां क्यों बक रहे थे कल?
उसने कहा: महाराज, अगर ठीक पूछें, तो मैं तो था ही नहीं, शराब थी। मैं तो... मुझे पता ही नहीं। गालियां बकी होंगी, शराब ने बकी होंगी। हम तो थे ही नहीं! हम तो जब से होश में आए हैं, तब से हम परेशान हैं कि यह क्या मामला है, हम कारागृह में बंद क्यों हैं? हमें एक पता है, उस समय का जब हम शराब पीए थे मधुशाला में, और जब होश आया, तो पता चला कि सींकचों में बंद हैं! बीच में क्या हुआ है, इसका हमें कोई पता नहीं है। अगर इसके संबंध में पूछना हो, तो शराब से आप पूछ ले सकते हैं। बीच में हम नहीं थे!
थोड़ी देर शराब पीकर आप आप नहीं रह जाते, शराब सक्रिय हो जाती है।
हम जो ले रहे हैं अपने भीतर--जो हम आहार ले रहे हैं, वह हमारे सारे व्यक्तित्व की ज्योति को नीचे या ऊपर ले जाने का कारण बनता है। लेकिन हमें इसका कोई खयाल ही नहीं है। या जो इसकी बहुत बातें करते हैं, वे इतनी नासमझी की बातें करते हैं कि उनकी बातें सुनना भी कठिन मालूम पड़ता है।
धीरे-धीरे एक बहुत बड़ा विज्ञान, जो मनुष्य की चेतना को रासायनिक सहारा दे, केमिकल डिवाइस बने, सहारा दे कि उसकी चेतना ऊपर उठे। क्योंकि ध्यान रहे, मनुष्य क्या है, नब्बे प्रतिशत रसायन है, और अभी तो निन्यानबे प्रतिशत रसायन है, वह आत्मा तो एक ही प्रतिशत है अभी मुश्किल से। हां, वह सौ प्रतिशत किसी दिन हो सकती है, लेकिन वह अभी है नहीं। और उस पर ध्यान रखना पड़ेगा--और अत्यंत छोटी बातों का ध्यान रखना पड़ेगा।
तो पहली बात: सब्जियों, फलों की दुनिया से आया हुआ भोजन मनुष्य की चेतना को ऊपर उठाने वाला होता है। जानवरों से आया हुआ भोजन मनुष्य की चेतना को नीचे ले जाने वाला होता है। और इसलिए प्रकृति ने बड़ी अदभुत व्यवस्था की है, क्या आपको पता है?
मां के पेट में एक बच्चा होता है... हालांकि हम यही कहते हैं कि मेरी नसों में मेरे मां-बाप का खून दौड़ रहा है। यह सरासर झूठ है। किसी की नसों में किसी के मां-बाप का खून नहीं दौड़ता। प्रकृति ने एक अदभुत व्यवस्था की हुई है। मां के पेट में जो बच्चा होता है, उसमें मां का खून नहीं जाता। पेट में, बच्चे तक खून पहुंचने के पहले डिसइंटिग्रेट होता है, मां का पूरा का पूरा खून अपने मौलिक तत्वों में टूट जाता है। फिर उन मौलिक तत्वों को बच्चा फिर से चुनाव करता है, फिर नया खून निर्माण करता है।
इसलिए यह हो सकता है कि मां को खून की जरूरत हो और बेटे का खून काम न पड़े। अगर मां का खून बेटे में दौड़ रहा हो, तो मां को खून की जरूरत है, निकालो बेटे का खून और लगा दो। नहीं, खोज-बीन करनी पड़ेगी कि किसका खून इससे मेल खाता है। बेटे का मेल खाए, यह जरूरी नहीं है।
क्यों?
बेटे ने अपना खून निर्मित किया है। प्रकृति ने व्यवस्था की है कि तुम अपना निर्मित करो, ताकि तुम मुक्त हो सको। और अगर हम दूसरे से निर्मित खून या मांस को ग्रहण कर लें, तो हम कभी मुक्त नहीं हो सकते। हमारा व्यक्तित्व उस दूसरे जैसा बनना शुरू हो जाएगा। इसलिए प्रकृति ने तो इतना अदभुत इंतजाम किया है कि तुम्हारी मां का व्यक्तित्व भी तुम पर हावी न हो जाए। इसलिए खून को तोड़ कर फिर से पुनर्निमित करना होता है।
किसी के खून में मां और बाप का खून नहीं दौड़ रहा है, यह ध्यान रखना। अपना ही खून दौड़ रहा है। और एक-एक आदमी का खून अपने-अपने ढंग का है। सबका खून एक जैसा नहीं है।
अगर मेरे पैर पर चोट आ जाए और मेरे पैर का ऑपरेशन करना पड़े, तो आपके पैर की चमड़ी को निकाल कर उसी जगह लगाएं, तो वह नहीं लगेगी। बड़ी मुश्किल बात है, चमड़ी को क्या पता है कि किसकी है! आपकी चमड़ी है, उसी पैर से, उसी जगह से निकाली गई जहां मेरे पैर में चोट है, उसको काट कर लगा दें, वह नहीं जुड़ेगी, वह इनकार कर देगी। यह पूरा शरीर इनकार कर देगा कि इसे हम स्वीकार नहीं करते।
क्यों?
चमड़ी को क्या पता हो सकता है कि चमड़ी किसकी है? क्या चमड़ी की भी कोई इंडिविजुअलिटी है, कोई व्यक्तित्व है?
निश्चित है। आपके ही दूसरे पैर की चमड़ी निकाल कर लगाइएगा, वह लग जाएगी और दूसरे के पैर की चमड़ी लगने से इनकार कर देगी। आपका शरीर उसे इनकार कर देगा। वह फॉरेन है, वह विजातीय है, वह अंगीकार नहीं हो सकती।
अगर यह बात सच है कि खुद की चमड़ी ही खुद के शरीर पर लग सकती है, दूसरे की चमड़ी लगानी मुश्किल है, तो हम तैयार भोजन को जहां से भी स्वीकार कर रहे हैं जानवरों से, हम अपने व्यक्तित्व में एक डिसइंटिग्रेशन पैदा कर रहे हैं, एक खतरा पैदा कर रहे हैं। हमारे व्यक्तित्व में कई तल हो जाएंगे। हमारा व्यक्तित्व एक नहीं रह जाएगा।
इसलिए वहां से भोजन चाहिए, जहां से सीधा भोजन मिलता है और जहां से सीधा भोजन अवशोषित होता है। और आपके व्यक्तित्व के योग्य आप चुनते हैं और आपका व्यक्तित्व एक हॉर्मनी, एक संगीतपूर्ण व्यवस्था बनता है। आपके व्यक्तित्व ने अपने लिए चुना है और वह अपने ढंग का बनता है। तब उस व्यक्तित्व की ज्योति ऊपर की तरफ जानी शुरू होती है।
पहली तो हालत यह है कि हम इतने जानवरों से संबंधित हो गए हैं कि हमारे भीतर कई तरह के जानवरों की आवाजें हैं! और कई बार आपको समझ में नहीं आएगा, एक आदमी को आप क्रोध में ला दें और जब वह आपके ऊपर टूटेगा, तो आपको विश्वास नहीं होगा कि यह आदमी मेरे ऊपर टूट रहा है या कोई जानवर मेरे ऊपर टूट रहा है! क्रोध में आदमी के भीतर न मालूम कैसे जानवर प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। दंगा-फसाद हो जाए और आप देखें कि आदमी में भेड़िए निकल आएंगे, कुत्ते निकल आएंगे, शेर निकल आएंगे। आदमी भर नहीं निकलेगा। आदमी भीतर है ही नहीं! आदमी सिर्फ ऊपर है। जरा खोल फाड़ दो, स्किन-डीप है आदमी बिलकुल, चमड़ी की मोटाई से भी कम पतला है। फाड़ दो जरा और भीतर से जो निकलेगा, वह कई तरह के जानवर निकल सकते हैं। आदमी नहीं निकलेगा। भीतर आदमी है ही नहीं! हम आदमी को निर्मित नहीं कर रहे हैं।
और आदमी को कैसे निर्मित किया जाए?
क्योंकि आदमी इस पूरे विकास की अंतिम कड़ी है फिलहाल। उसके आगे कड़ियां होंगी। लेकिन आदमी पर ही विकास रुक गया है। तो आदमी को बहुत स्मरणपूर्वक अपने व्यक्तित्व को ऊपर ले जाने वाले सारे तत्वों से इस शरीर को निर्मित करना चाहिए।
आहार का मतलब सिर्फ भोजन नहीं है, यह भी ध्यान रहे। आहार का मतलब है: जो भी भीतर लिया जाए। आहार का मतलब है: जो भी भीतर लिया जाए! आहार का मतलब सिर्फ भोजन नहीं है, भोजन भी एक आहार है। आंख से मैं जो भीतर ले जाता हूं, वह भी आहार है। और कान से जो भीतर ले जाता हूं, वह भी आहार है। और हाथ के स्पर्श से जो भीतर ले जाता हूं, वह भी आहार है। आहार का मतलब: इंद्रियों से जो भीतर जाए और मेरे व्यक्तित्व को बनाए। इसलिए आहार का मतलब सिर्फ भोजन मत समझ लेना। भोजन एक प्रकार का आहार है।
और भी आहार हैं।
जब मैं रास्ते पर चलते हुए लोगों को देखता हूं, तब भी मैं भोजन कर रहा हूं आंख के द्वारा। तब मैं जो देख रहा हूं, वह मेरे व्यक्तित्व को बना रहा है।
आप क्या देख रहे हैं?
क्या आपको पता है, अगर एक आदमी को एक ऐसे मकान में रखा जाए, जहां सब चीजें लाल हैं, तो उस आदमी का मस्तिष्क चक्कर खाने लगेगा। और अगर उसी आदमी को एक ऐसे मकान में रखा जाए, जहां सब चीजें हरी हैं, तो उसी आदमी का मस्तिष्क शांत हो जाएगा। क्योंकि हरे रंग का आहार व्यक्तित्व को शांत करता है और लाल रंग का आहार व्यक्तित्व को उद्विग्न करता है।
आप क्या देख रहे हैं, रासायनिक काम जारी है। एक-एक रंग आपके भीतर जाकर कुछ कर रहा है। आप क्या देख रहे हैं, आप कहां देख रहे हैं, आप किसको देख रहे हैं--आप जो देख रहे हैं, उससे आप निर्मित हो रहे हैं। आप क्या सुन रहे हैं, एक-एक आवाज आपके भीतर की वीणा पर चोट कर रही है, आपको रूपांतरित कर रही है।
आप कुछ भी सुन रहे हैं, आप कुछ भी पढ़ रहे हैं, कुछ भी खा रहे हैं, कुछ भी देख रहे हैं! फिर यह चेतना में क्रांति नहीं हो सकती। यह क्रांति एक अत्यंत सुव्यवस्थित योजना का परिणाम हो सकती है।
देख कर हैरानी होती है, आदमी जो देखता है, जो सुनता है। बहुत हैरानी होती है। अगर कुछ ठीक देखने को न हो, तो आंख बंद करना बहुत बुरा तो नहीं है। लेकिन आंख बंद करने को कोई भी राजी नहीं है। गलत देखने को कोई भी राजी है, आंख बंद करने को कोई भी राजी नहीं है। कान बंद कर लेना बुरा तो नहीं है, गलत सुनने की बजाय। लेकिन सुनने की इतनी तीव्र आकांक्षा है कि कुछ भी सुनने को हम राजी हैं, कुछ भी! और तब हमारे भीतर सब तरह का कचरा इकट्ठा होता चला जाता है।
आदमी सुबह से उठता है और पहली बात पूछता है, अखबार कहां है? उसने कचरा इकट्ठा करना शुरू कर दिया। उसने नीचे के रास्ते पर जाने की खोज-बीन शुरू कर दी है। अखबार में क्या पढ़ता है वह? अखबार में वह सब पढ़ जाता है पहले कोने से लेकर आखिरी तक। जिसमें नब्बे प्रतिशत दंगा-फसाद, झगड़े, दुर्घटनाओं की खबरें होती हैं। बेईमानी, डकैतियां, चोरियां, अदालतों की खबरें होती हैं। और समाज में जो सबसे ज्यादा जघन्य अपराधी हैं राजनीतिज्ञ, उनकी खबरें होती हैं बड़े-बड़े अक्षरों में। और इनको वह पी रहा है। और बिना सोचे पी रहा है, क्योंकि ये उसके व्यक्तित्व को बनाएंगी। यह सिर्फ कैजुअल, यह सिर्फ सामान्य बात नहीं है कि आपने अखबार देख लिया और फेंक दिया। अखबार तो आपने फेंक दिया, अखबार तो रद्दी में बिक जाएगा, लेकिन अखबार जो आपके भीतर डाल गया है, वह जन्मों-जन्मों तक आपके भीतर चक्कर लगाएगा।
याद रखना, स्मृति में एक बार जो अंकित होता है, वह जब तक समाधि उपलब्ध न हो जाए, तब तक पोंछा नहीं जा सकता। उसके पहले पुछता ही नहीं है। तब तक उसको फिर आपको बोझ को ढोना ही पड़ेगा।
अनंत-अनंत जन्मों का बोझ हम ढो रहे हैं। न मालूम किस-किस तरह के कचरे को हमने इकट्ठा किया है।
एक आदमी आता है और वह कहता है: फलां आदमी ने चोरी की, तो हम इतने रसविमुग्ध हो जाते हैं कि पच्चीस काम छोड़ कर पूछते हैं: और क्या हुआ? और क्या हुआ? किस आदमी ने चोरी की इससे प्रयोजन? इससे अर्थ? और इस कचरे को अपने भीतर इकट्ठा करने की जरूरत? आप बगिया बनाना चाहते हैं, फूल लगाना चाहते हैं जिंदगी के और यह कचरा इकट्ठा करेंगे! और ये कंकड़-पत्थर लाएंगे घर में! यह घास-पात इकट्ठा करेंगे! और फिर एक सुंदर बगिया बनाने का खयाल है, तो फिर यह नहीं हो सकता। एक माली की तरह सजग, चुनाव करने वाला बनना पड़ेगा और देखना पड़ेगा: क्या मैं अपने भीतर ले जाता हूं।
तो पहली बात है, हम क्या अपने भीतर ले जा रहे हैं, चाहे भोजन की शक्ल में, चाहे शब्दों की शक्ल में--शब्द भी भोजन हैं।
अभी कंप्यूटर बने हैं सारी दुनिया में, तो उसको जो ज्ञान देते हैं, उसको आप जानते हैं, वे कहते हैं, फीड, भोजन करवाना। उसको फीड कर रहे हैं कंप्यूटर को। हम भी सब अपने कंप्यूटरों को फीड कर रहे हैं। चौबीस घंटे भोजन दे रहे हैं--अखबार से, किताब से, किसी से भी।
प्रति सप्ताह पांच हजार नई किताबें छप कर बाहर आ जाती हैं! इस जमाने में आदमी की जितनी भूख है जानने की उतनी कभी नहीं थी। लेकिन जितना अज्ञानी आज आदमी है, शायद कभी नहीं रहा होगा। इतना बड़ा अंबार लग रहा है किताबों का, पांच हजार किताबें हर सप्ताह जमीन पर नई बढ़ जाती हैं। मास्को और वाशिंगटन के लाइब्रेरियनों के सामने सवाल खड़ा हो गया है कि अगर इसी रफ्तार से किताबें बढ़ती रहीं, तो इस सदी के पूरे होने-होने तक किताबों को रखने की जगह नहीं रह जाएगी। कहां रखेंगे किताबों को? तो फिर छोटी किताबें बनाने का उपाय होना चाहिए, जिनको खुर्दबीन से पढ़ा जा सके; या फिर माइक्रोफिल्म की किताबें बनानी चाहिए, जिनको पर्दे पर पढ़ा जा सके। क्योंकि इतनी किताबें रखेंगे कहां? आज मास्को या लंदन की लाइब्रेरी में इतनी किताबें हैं कि अगर उनकी अलमारियों को एक के बाद एक रखा जाए, तो जमीन के तीन चक्कर लगा लेंगी।
यह सारा बढ़ता हुआ अंबार और आदमी की इतनी ज्ञान की लालसा कि वह सुबह से शाम तक जानने को उत्सुक है--अखबार से, रेडियो से, टेलीविजन से, जो मिल जाए उससे--नेताओं से, गुरुओं से, साधुओं से, संन्यासियों से--सबसे जानने को उत्सुक है। इतना जानने के लिए हम इकट्ठा करते चले जा रहे हैं और आदमी के ज्ञान का कोई पता नहीं चलता! ज्ञान का दीया जलता हुआ दिखाई नहीं पड़ता! आदमी बुझ गया बिलकुल, ज्ञान बिलकुल नहीं है और ज्ञान का ढेर लगा है! जरूर कहीं कोई गड़बड़ हो रही है।
हम कुछ कचरा इकट्ठा करते हुए मालूम पड़ रहे हैं। हम कोई चुनाव नहीं कर रहे हैं। जैसे कोई आदमी कुछ भी खाना शुरू कर दे--पत्थर-कंकड़, जो मिल जाए, खा ले। तो खाए तो बहुत, लेकिन मरने भी लगे। और लोग कहें: भोजन तो बहुत करता है, लेकिन मरता क्यों है? बीमार क्यों पड़ता है? आदमी कुछ भी भीतर डाल रहा है। और एक-एक चीज का मूल्य है। एक छोटा सा शब्द अगर आपके भीतर गलत चला जाए, तो आपके सारे व्यक्तित्व को डांवाडोल करता है। एक छोटा सा शब्द, एक जरा सा शब्द!
आप रास्ते पर चले जा रहे हैं और एक आदमी मिल जाए और कह दे, यह आदमी बड़ा मूर्ख है। अब एक ‘मूर्ख’ एक छोटा सा शब्द है, जो सिर्फ एक ध्वनि है। जो आदमी हिंदी न जानता हो, वह सुन लेगा कि मूर्ख कहा गया और मजे से चला जाएगा, उसे कुछ पता नहीं चलेगा। लेकिन आप जानते हैं, और आपकी रात हराम हो गई। अब आप करवटें बदल रहे हैं। वह एक छोटा सा ‘मूर्ख’ नाम का शब्द भीतर घुस गया। वह आपको करवटें दिलवा रहा है। माथे पर पसीना छूट रहा है। आप उठते हैं, बैठते हैं, सिर धोते हैं, लेकिन वह ‘मूर्ख’ चक्कर काट रहा है। वह कहता है कि उस आदमी ने कहा--मूर्ख!
एक छोटा सा शब्द और भीतर जाकर इतने आंदोलन खड़ा कर रहा है, इतनी तरंगें पैदा कर रहा है, तो हमने तो न मालूम कितने कचरे इकट्ठे कर रखे हैं! और उस सारे कचरे को इकट्ठा करके हम ऊपर जाने की यात्रा का विचार कर रहे हैं!
हमने गलत सुना है, गलत खाया है। गलत पहने हुए हैं। कोई आदमी नहीं पूछता कि हम जो पहने हुए हैं, वह किसलिए पहने हुए हैं, क्या कर रहे हैं?
कभी आपने सोचा कि जब भी युग ज्यादा कामुक होता है, तो कपड़े चुस्त हो जाते हैं। और जब भी युग आध्यात्मिक होता है, कपड़े ढीले हो जाते हैं। कभी आपने सोचा? अचानक यह हो जाता है। यह आकस्मिक नहीं है, यह एक्सीडेंटल नहीं है। इसके पीछे कारण हैं।
जितने शरीर पर चुस्त कपड़े होंगे, उतना आदमी तना हुआ होगा। इसलिए युद्ध के मैदान पर चुस्त कपड़े बहुत जरूरी हैं। युद्ध के मैदान पर चुस्त कपड़े बिलकुल जरूरी हैं, क्योंकि युद्ध के मैदान पर आदमी से हमें ऐसी नालायकियां करवानी हैं कि उसका शांत होना खतरनाक हो सकता है। उसका तनाव में होना चाहिए। वह इतने तनाव में होना चाहिए कि पूरे वक्त अपने कपड़ों की वजह से उनके बाहर छलांग लगाने का मन होता रहे। कूदा-कूदा रहे उसका मन कि कब इन कपड़ों से बाहर निकल जाऊं। वह इतने क्रोध में रहे अपने होने से ही, खिंचा हुआ रहे, भागा हुआ रहे।
कभी आपने देखा, अगर आप चुस्त कपड़े पहने हुए हैं, तो एक ही साथ दो-दो सीढ़ियां चढ़ जाएंगे। ढीले कपड़े पहने हुए आदमी को आपने दो-दो सीढ़ियां एक साथ चढ़ते हुए नहीं देखा होगा। ढीले कपड़े वाला आदमी एक शान, एक डिग्निटी, एक गरिमा से एक-एक कदम चढ़ेगा। इसलिए पुराने मकानों में नौकरों की सीढ़ियां अलग होती थीं, मालिकों की सीढ़ियां अलग होती थीं। नौकरों के कपड़े चुस्त होते थे, उनके लिए लंबी सीढ़ियां बनाई जाती थीं, वे छलांग लगा कर चढ़ें। मालिक के कपड़े ढीले होते थे, दूर तक लटकते होते थे, शायद दो नौकर उसे पकड़ कर चलते थे। उसकी सीढ़ियां छोटी होती थीं। वे आहिस्ता एक-एक कदम उठाते थे।
दुनिया में किन्हीं भी साधुओं के कपड़े कभी भी चुस्त नहीं हुए हैं। कुछ बात है। और बात यह है कि शरीर को आप जितना कसेंगे, उतना नीचे की तरफ प्रवृत्ति होगी। शरीर को जितना रिलैक्स छोड़ेंगे, मुक्त, उतना ऊपर की तरफ उठाव होगा।
ये मैं छोटी-छोटी बातें कह रहा हूं सिर्फ उदाहरण के लिए कि इस शरीर की पूरी की पूरी केमिस्ट्री आपके खयाल में सिर्फ आ जाए, इशारा। फिर पूरी बात तो आपको अपनी व्यवस्था देनी होगी। लेकिन इशारा आपके खयाल में आ जाए कि क्या-क्या हम करें कि वह जो भीतर ध्यान लगाना है उस केंद्र पर ऊर्जा के, वह ध्यान में ये सारी बातें सहयोगी हो सकें।
अब एक आदमी कैसे भी कपड़े पहने हुए है, कैसे भी रंग के कपड़े पहने हुए है, कितने ही रंग-बिरंगा एक साथ उसने कपड़े पर पट्टियां लगा रखी हैं। और कोई भी नहीं पूछता कि इस आदमी को क्या हो गया! क्योंकि बहुत रंग-बिरंगी पट्टियों वाले कपड़े यह खबर दिलाते हैं कि आदमी का मस्तिष्क भीतर अशांत है। शांत आदमी एक लंबे विस्तार वाले रंग को पसंद करेगा।
कभी आपने आकाश देखा है, जब एकदम नीला आकाश होता है पूरा, कोई भेद नहीं होता है, एक अभेद रंग होता है। कभी आंख खोल कर आधा घंटा लेट गए हैं रेत पर और देखा है उस नीले आकाश को? उस नीले आकाश को देखते-देखते ही आप पाएंगे, आप भी उस आकाश के साथ एक हो गए हैं। कुछ भीतर शांत हो गया है। लेकिन सोचें, आकाश में हमने रंग-बिरंगी पट्टियां लगा दीं, हजारों रंग-बिरंगी पट्टियां लगा दीं आकाश में, उसको देखें आध घंटे तक, पागल होकर घर लौटेंगे। पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि अपना घर कहां है, हम कौन हैं!
सारी दुनिया पागल हुई जा रही है, एक मैडहाउस बनाया हुआ है। सब तरह से पागल हुई जा रही है। क्योंकि जो भी हम कर रहे हैं, वह सब उत्तेजित कर रहा है, शांत नहीं कर रहा।
पहाड़ों पर जाकर आपको अच्छा क्यों लगता है? पहाड़ों में क्या है? सिर्फ हरियाली है और कुछ भी नहीं। वह दूर तक फैला हुआ हरे रंग का एक विस्तार भीतर कुछ शांत कर जाता है। भीतर कोई प्रतिध्वनि गूंज जाती है हमारे।
असल में, हमारे शरीर का भी पूरा व्यक्तित्व इन्हीं हरी वनस्पतियों से बना है। एक इनर हार्मनी है, वह बाहर जो वृक्ष है उसमें और हमारे भीतर। और जब हम हरे वृक्षों के करीब पहुंचते हैं, तो हमारे भीतर भी उन वृक्षों की जो परिणतियां हैं, वे कंपित होती हैं और एक मेल हो जाता है, एक मिलाप हो जाता है।
आदमी के बनाए हुए किसी मकान के पास जाकर ऐसा नहीं होता। न्यूयार्क में, या चंडीगढ़ में, या बंबई के बड़े मकानों के पास पहुंच कर थोड़ी देर खड़े रहें, तो उदासी आएगी, ताजगी नहीं। आदमी के बनाए हुए सारे के सारे सीमेंट-कांक्रीट और पत्थर के मकान आपके प्राणों में किसी प्रतिध्वनि को नहीं छेड़ते। लेकिन एक वृक्ष के पास, एक पुराने वृक्ष के पास, एक हरी शाखाएं फैली हैं आकाश में, उसके पास जब आप चुपचाप बैठ जाते हैं, तो कुछ हो जाता है।
मैंने एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है कि मजनू से लैला का पिता बहुत डर गया, घबड़ा गया और लैला को लेकर भाग गया उस गांव से दूसरे गांव। ये बाप नाम के जो प्राणी हैं, ये प्रेम से हमेशा ही घबड़ाते रहे हैं। और इन्होंने दुनिया में प्रेम की दुनिया नहीं बसने दी, नहीं बनने दी। वह भाग गया। मजनू को पता लगा है, वह लैला की तलाश में गया है। गांव-गांव खोजते उसे पता चला कि इस रास्ते से वह काफिला निकलने वाला है जिसमें लैला और उसका बाप है। वह उस काफिले के रास्ते पर एक किनारे एक झाड़ के पास टिक कर खड़ा हो गया। बरगद का एक वृक्ष है, बड़ का और दूर घना जंगल फैला हुआ है उस वृक्ष से लगा हुआ। वह उस बड़ के वृक्ष से टिक कर खड़ा हो गया कि कम से कम देख लूंगा। ऊंट पर बैठी हुई लैला उसे दिखाई पड़ी। उस लैला ने हाथ से इशारा किया कि घबड़ाओ मत, मैं जल्दी ही लौट कर आऊंगी। वह तो काफिला आगे चला गया। पिता की मौजूदगी में वह बोल भी नहीं सकी, सिर्फ हाथ से इशारा किया।
वह मजनू वहीं टिका खड़ा है। और वह प्रतीक्षा करता है कि लैला अब आएगी, अब आएगी, अब आएगी। दिन बीता, रात बीती, सप्ताह बीता। गांव के लोगों ने आकर कहा: पागल हो गए हो! इस झाड़ के पास क्यों खड़े हो?
उसने कहा: जाओ। उसने बोला भी नहीं, हाथ से कहा, जाओ। क्योंकि उसे डर है कि वह एक क्षण को कहीं जाए और उसी बीच कहीं काफिला गुजरे और लैला निकल जाए और वह पाए कि मजनू को मैं कह गई थी कि राह देखना और वह नहीं है यहां मौजूद। क्या सोचेगी?
वह नहीं हटा, नहीं हटा। महीने बीत गए। कहते हैं, वर्ष बीत गए। कहते हैं, बारह वर्ष बीत गए। कहानी है। वह नहीं हटा। धीरे-धीरे खड़े-खड़े उस वृक्ष से उसका शरीर जुड़ गया, और वृक्ष को दया आ गई, और जैसे वह अपनी शाखाओं में रस भेजता था, ऐसे ही जुड़ कर उसने मजनू के हाथ-पैर में भी रस भेजना शुरू कर दिया। फिर मजनू के हाथ-पैर पर पत्ते निकल आए और शाखाएं निकल गईं और जड़ों ने ढंक लिया और मजनू उस वृक्ष के साथ एक हो गया। कभी-कभी, कभी अंधेरे में, कभी रात, कभी सुबह, कभी एकांत में बस इतना होता था, उस जंगल में एक आवाज गूंज जाती थी: लैला! लैला! गांव के लोग डरने लगे। रात वहां से निकलने में डरने लगे। और खयाल हुआ कि शायद मजनू मर गया है और उसका भूत हो गया है और वह उस जंगल में चिल्लाता फिरता है!
बारह वर्ष बाद लैला लौटी है। उसने गांव के लोगों को पूछा कि मजनू कहां है?
उन्होंने कहा: कुछ दिनों तक वह उसी वृक्ष के नीचे खड़ा दिखाई पड़ा था, फिर हमें कुछ पता नहीं वह कहां गया। लेकिन रात में जरूर आवाज जंगल में सुनाई पड़ती है।
वह लैला रात गई। वहां आवाज आई: लैला! वह खोजती हुई उस वृक्ष के पास पहुंची। वह चारों तरफ घूमती है, उसे मजनू कहीं दिखाई नहीं पड़ता। वह फिर पूछती है: मजनू, तुम कहां हो?
मजनू कहता है: मैं यहीं हूं, मैं तो सदा से यही हूं, मैं तो बारह वर्षों से यहीं हूं!
वह सब तरफ हाथ से टटोलती है, वह मजनू तो वृक्ष हो गया, उस पर से पत्ते निकल आए हैं। और वह रोती है और चिल्लाती है। वह कहती हैः तुम कैसे पागल हो! तुम यहां क्यों रुक गए? तुम कैसे पागल हो! तुम यहां क्यों ठहरे रहे इतनी देर तक?
वह मजनू कहता है: मैं धन्य हो गया, दो बातों से, तुम मिलीं सो तो मिलीं, इस वृक्ष के नीचे निकट रह कर मैं वृक्ष से जुड़ गया और वृक्ष से क्या जुड़ा परमात्मा से भी जुड़ गया हूं! आदमी से जब तक जुड़ा था, परमात्मा से टूट गया था और जब से इस वृक्ष से जुड़ गया हूं, तब से परमात्मा से जुड़ गया हूं।
वह जो पहाड़ पर, वृक्षों में, समुद्र की लहरों में, सरिताओं में वह जो कोई चीज आकर्षित करती है और हम शांत हो जाते हैं, वह क्या है? वह हमारे भीतर छिपी हुई किसी प्रतिध्वनि का मेल है बाहर के किसी सत्य से। वे दोनों मिल गए हैं। थोड़ी देर को हम खो गए हैं।
लेकिन आदमी का बनाया हुआ सब गलत है। आदमी का बनाया हुआ सब परमात्मा के उलटा मालूम पड़ता है। और हम उससे घिर गए हैं। कपड़े में भी उससे घिर गए हैं, मकानों में भी उससे घिर गए हैं, भोजन में भी उससे घिर गए हैं; किताबों में, अखबारों में भी उससे घिर गए हैं। और इस सबने हमारे पूरे व्यक्तित्व की जो केमिस्ट्री है, हमारे पूरे व्यक्तित्व के रसायन को एकदम ही विघ्न, उत्पात से भर दिया है।
मनुष्य एक उजड़ी हुई बगिया हो गई है। जहां घास उग रहा है, वहां फूल उगने थे। और जहां अमृत की औषधि पैदा होती, वहां सिवाय झाड़-झंकाड़ के कुछ भी पैदा नहीं होता। जब पानी पड़ना चाहिए, तब पानी नहीं पड़ता है। जब पानी नहीं पड़ना चाहिए, तब हम पानी बरसा देते हैं। जहां खाद चाहिए, वहां खाद नहीं है। जहां खाद नहीं चाहिए, वहां हमने खाद के ढेर लगा दिए हैं। अब ऐसी हालत में अगर परमात्मा कहीं होगा और अपनी खिड़की से झांकता होगा, तो क्या सोचता होगा? उसकी समझ के बाहर हो जाता होगा कि यह क्या है!
लेकिन यह बदला जा सकता है। कुछ लोग सदा इसे बदलने की कोशिश करते रहे हैं। और कुछ सूत्र कभी नहीं खोए हैं, वे आज भी मौजूद हैं। और जो भी समझने को राजी हों, उन्हें वे सूत्र स्पष्ट हो सकते हैं और वे अपने पूरे व्यक्तित्व को बदल सकते हैं।
आज तीसरे सूत्र में मैं आपसे यह कहता हूं: यह ध्यान रख कर जीने की कोशिश करना कि जो ऊपर ले जाता हो, वही मैं करूंगा। वही सुनूंगा, जो ऊपर ले जाता हो। वही पहनूंगा, जो ऊपर ले जाता हो। उसी से मिलूंगा, जो ऊपर ले जाता हो। उसी को देखूंगा, जो ऊपर ले जाता हो। जीवन को अगर साधना बनाना है, तो सब तरफ से हमला करना पड़ेगा, सब तरफ से ऊंचाई की तरफ चोट करनी पड़ेगी। अगर वीणा भी सुनना तो वही, जो ऊपर ले जाती हो। अगर दृश्य भी देखना तो वही, जो ऊपर ले जाता हो। अगर किसी से गले भी मिलना तो उससे ही, जो ऊपर ले जाता हो। अगर किन्हीं चरणों पर सिर भी रखना तो उसी के ही, जो ऊपर ले जाता हो।
पैसे के चरणों पर सिर रखे जा रहे हैं! राजनीतिज्ञों के चरणों पर सिर रखे जा रहे हैं, जो नीचे ले जाएगा और नरक पहुंचाएगा। पता है आपको, अब नरक में अगर जाओगे भी, तो मिलने के लिए जगह मिलना बहुत मुश्किल है, क्योंकि इतने राजनीतिज्ञ सब, जिनको आप कहते हो, स्वर्गीय हो गए। वे कोई स्वर्गीय नहीं होते, वे सब नरक में पहुंचते चले जा रहे हैं। वहां एकदम भीड़-भड़क्का हो गया है। और वहां जगह खोजनी मुश्किल है।
झुकना भी तो वहां, जो ऊपर ले जाए। वहां मत झुकना, जहां नीचे जाना हो। ऐसे झुकने से तो टूट जाना बेहतर है, जो नीचे ले जाता हो। ऐसे भोजन से भूखा मर जाना बेहतर है, जो नीचे ले जाता हो। ऐसे कपड़ों से नंगे खड़े होना बेहतर है, जो नीचे ले जाते हों। ऐसे साथ से अकेला होना बेहतर है, जो नीचे ले जाता हो। ऐसी रोशनी की क्या जरूरत, जो अंधा करती हो। इससे तो अंधेरा बेहतर है, जहां आंख तो हम आसानी से खोल सकते हैं!
यह विचार करना जरूरी है। एक-एक इंच जिंदगी के, एक-एक पहलू पर, सुबह से सांझ तक, जागते और सोते भी, जो सत्य की साधना में लगता है, जीवन की क्रांति के, वह न केवल दिन का विचार करता है, वह रात के सपनों तक की जांच करता है कि ये सपने देखने हैं कि नहीं देखने हैं। ये सपने मैं देखूंगा, तो नीचे जाऊंगा कि ऊंचा जाऊंगा? वह अपने सपनों तक की जांच-परख रखता है।
हमारे तो जागरण का, होश का भी ठिकाना नहीं है, सपनों का क्या ठिकाना! वह सपनों के लिए भी रोता है कि यह सपना क्यों आया? वह सपनों को भी बदलने की कोशिश करता है कि ये सपने नहीं आने देंगे, बदलेंगे इन्हें। सपने भी वही देखेंगे, जो ऊपर ले जाएं। श्वास भी वही लेंगे, जो ऊपर ले जाए। खून भी वही दौड़ाएंगे, जो ऊपर ले जाए। अगर जिंदगी इस तरह एक सामूहिक उपक्रम बन जाए ऊपर जाने का, तो कोई कारण नहीं है कि कोई भी मनुष्य परमात्मा क्यों नहीं हो सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है, लेकिन छिपा हुआ, अप्रकट।
प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है, लेकिन संभावना है, सत्य नहीं।
संभावना सत्य बन सकती है। वह जो पॉसिबिलिटी है, वह जो पोटेंशियलिटी है, वह जो बीज-रूप है, वह प्रकट हो सकता है। और जो आदमी उसे बिना प्रकट किए मर जाता है, उस आदमी ने एक अवसर खो दिया। और ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता है।
ये थोड़ी सी बातें तीन दिनों में मैंने कहीं। इस संबंध में जो भी प्रश्न हों--सिर्फ इन तीन दिन की बातों के ही संबंध में, और फिजूल की बातों के संबंध में प्रश्न लिख कर मत भेज देना, मैं उनके जवाब नहीं दूंगा। इन तीन दिन में जो बातें मैंने कहीं, उस संबंध में जो भी प्रश्न हों, उनके उत्तर कल संध्या आपको दूंगा।

मेरी बातों को इतने शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।





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