QUESTION & ANSWER
Jeevan Kranti Ke Sutra 02
Second Discourse from the series of 10 discourses - Jeevan Kranti Ke Sutra by Osho. These discourses were given during JUN 2 1969.
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मेरे प्रिय आत्मन!
जीवन क्रांति के सूत्रों के संबंध में पहले सूत्र पर कल हमने बात की।
एक पूछती हुई चेतना, एक जिज्ञासा से भरा हुआ मन, एक ऐसा व्यक्तित्व, जो जो है वहीं ठहर नहीं गया है, बल्कि वह होना चाहता है जो होने के लिए पैदा हुआ है। एक तो ऐसा बीज है जो बीज होकर ही नष्ट हो जाता है और एक ऐसा बीज है जो फूल के खिलने तक की यात्रा करता है, सूरज का साक्षात्कार करता है और अपनी सुगंध से दिग-दिगंत को भर जाता है।
मनुष्य भी दो प्रकार के हैं। एक वे, जो जन्म के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। जीते हैं, लेकिन वह जीना उनकी यात्रा नहीं है। वह जीना केवल श्वास लेना है। वह जीना केवल मरने की प्रतीक्षा करना है। उस जीवन का एक ही अर्थ हो सकता है, उम्र। उस जीवन का एक ही अर्थ है, समय को बिता देना। जन्म और मृत्यु के बीच के काल को बिता देने को बहुत लोग जीवन समझ लेते हैं। एक तो ऐसे लोग हैं।
एक वे लोग हैं, जो जन्म को एक बीज मानते हैं और उस बीज के साथ श्रम करते हैं कि जीवन का पौधा विकसित हो सके।
जो जिज्ञासा करते हैं, वे दूसरे तरह के मनुष्य होने का पहला कदम उठाते हैं।
दूसरा कदम क्या है? दूसरा सूत्र क्या है?
दूसरे सूत्र के संबंध में पहली बात, हम निरंतर सुनते हैं, ‘स्वयं को जानो--नो दाई सेल्फ।’ सुनते हैं, लेकिन कुछ अर्थ जाहिर नहीं होता। हम यह भी सुनते हैं कि ‘जो ऊपर आकाश में है, वह परमात्मा जिसकी तरफ हाथ उठते हैं कभी, वह प्रत्येक के भीतर भी है।’ यह भी हम सुनते हैं कि ‘हमारे भीतर वह है।’ लेकिन हमारे भीतर उसका कोई भी पता हमें नहीं चलता है। हमारे भीतर तो हम ही हैं, उसका तो कोई पता नहीं चलता है! और हम अगर परमात्मा हैं, तो हंसी आने जैसी बात है। हम कैसे परमात्मा हैं? पशु तो मिल सकता है हमारे भीतर, परमात्मा का तो कोई पता नहीं चलता है। लेकिन सुनते हैं, सुन लेते हैं, यह भी सुन लेते हैं कि जिसे खोजना है, वह बाहर नहीं है। यह भी सुन लेते हैं कि भीतर छिपा है सारा राज, सारा रहस्य। वहीं खोजना है। लेकिन कहां खोजें? भीतर यानी क्या? कहां जाएं? किससे पूछें भीतर? कहां है द्वार? कहां है रास्ता? कहां है मार्ग? कहां छिपी है वह ऊर्जा? कहां है वह शक्ति का स्रोत? वह बीज कहां है जो हमारे भीतर है और फूल बन सकता है? उस बीज का पता चले, तो हम खाद भी खोज लें, भूमि भी खोज लें, पानी भी जुटा दें। लेकिन वह बीज कहां है?
आज इस दूसरे सूत्र में उस बीज के संबंध में ही कुछ मैं आपसे कहना चाहता हूं।
निश्चित ही, वह बीज प्रत्येक के भीतर है। हम प्रत्येक वही बीज हैं। लेकिन वह कहां है?
अगर हम पशुओं को खोजने जाएं, तो एक बात स्पष्ट दिखाई पड़ेगी। पशुओं का केंद्र, उनके जीवन-ऊर्जा का बिंदु, जहां से वे जीते हैं, जहां वे रहते हैं, वह बिंदु कहां है? पशु का बिंदु खोजें, तो अपना बिंदु भी खोजने में सरलता होगी। क्योंकि हम भी पशुओं की कड़ी में आगे के एक पशु से ज्यादा नहीं हैं। अभी तो ज्यादा नहीं हैं। ज्यादा हो सकते हैं, लेकिन हैं नहीं। मनुष्य भी पशुओं की कड़ी में आगे की एक कड़ी है। और उस कड़ी में जन्म के साथ कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ जाता है। जहां पशु जीता है, वहीं हम जीते हैं। जहां पशु का केंद्र है, वहीं हमारा केंद्र है।
पशुओं का केंद्र कहां है?
पशुओं के लिए न तो कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा है। पशुओं के लिए न कोई सत्य है, न कोई जीवन की खोज है।
पशु कहां जीते हैं?
पशुओं के जीवन का केंद्र है: सेक्स। उनके जीवन का केंद्र है: काम, यौन।
जिस मनुष्य के जीवन का केंद्र भी सेक्स रह जाए, वह मनुष्य पशुओं से ऊपर नहीं उठ सका है। आमतौर से साधारणतः हमारे जीवन का केंद्र भी वही है।
मकान भी हम बनाते हैं, तो उस मकान बनाने में पशुओं के बनाए हुए घोसलों से ज्यादा अर्थ नहीं है। धन भी हम इकट्ठा करते हैं, उस धन में भी पशुओं के संग्रह की जो वृत्ति है--चींटियां संग्रह करती हैं, चिड़ियां संग्रह करती हैं, उससे भिन्न कोई स्थिति नहीं है। अपनी जमीन पर हम लड़ते हैं, एक-एक इंच जमीन पर कि मेरी जमीन है--मेरे देश की जमीन है, मेरे राष्ट्र की जमीन है। उसमें भी पशुओं का जमीन पर जो कब्जे की प्रवृत्ति होती है, उससे भिन्न प्रवृत्ति नहीं है। पशु भी जिस जमीन पर रहता है, दूसरे पशु का प्रवेश बर्दाश्त नहीं करता है।
ध्यान रहे, जब तक जमीन पर हक करने वाले लोग हैं--चाहे व्यक्ति, चाहे समाज, चाहे राष्ट्र, तब तक आदमी पशुता के ऊपर नहीं उठ सकता है। सारी राष्ट्रीयताएं, सारे जमीन के दावे, पशु का जो दावा है जमीन का, उसी से निकले हुए हैं।
और पशु जीता है सेक्स के आस-पास, काम के आस-पास, यौन के आस-पास। वही है उसके जीवन का केंद्र। जीता है, जन्मता है, दूसरों को जन्म देता है और मर जाता है। उसके जन्म का एक ही अर्थ है कि दूसरों को जन्म दे जाए। यह बड़ी अजीब बात है! अंडा मुर्गी बने, मुर्गी फिर अंडे रख जाए। अंडे फिर मुर्गियां बनते रहें, मुर्गियां फिर अंडे रखती रहें। अंडे का काम है मुर्गी पैदा करे, मुर्गी का काम है अंडे पैदा करे। और यह एक चक्र वीसियस चलता रहे।
किसी ने पूछा कि अंडा क्या है? तो किसी ने कहा: अंडा, अंडा मुर्गी के द्वारा फिर अंडा होने का रास्ता है। अंडा ही फिर मुर्गी है, फिर अंडा हो जाता है।
पशु जनन के आस-पास घूम रहे हैं। सारी पशु-प्रकृति, सारे पौधों का जगत अपने से दूसरे को जन्म करके मर जाता है। यही उसका लक्ष्य है। अगर कोई आदमी भी सिर्फ इसलिए जी रहा है कि वह कुछ बच्चे पैदा कर जाए, तो वह आदमी पशुओं और पौधों से भिन्न कहां है!
साधारणतः लेकिन हमारा केंद्र भी सेक्स है। इसे समझ लेना जरूरी है। क्योंकि उसी केंद्र से वह शक्ति उठ सकती है, वह बीज उठ सकता है, जो परमात्मा तक पहुंच जाए। जैसे एक बीज को हम जमीन में बो दें, तो बीज की खोल टूट जाती है, एक पौधा निकलता है, आकाश की तरफ उठने लगता है, जमीन के बाहर आ जाता है, फिर फूल खिलते हैं, सुगंध फैलती है।
सेक्स, वह जो मनुष्य के काम की इंद्रिय है, वह जो वासना है, उस वासना के आस-पास ही सारी शक्ति इकट्ठी है, सारी ऊर्जा इकट्ठी है। वह ऊर्जा या तो और बच्चों को पैदा करने में समाप्त होती रहेगी और आदमी नष्ट हो जाएगा, या वह ऊर्जा ऊपर की तरफ गतिमान हो सकती है। नीचे की तरफ द्वार छोड़ कर ऊपर की तरफ आगे बढ़ सकती है। और सेक्स की ऊर्जा अगर ऊपर उठने लगे, तो वह मस्तिष्क के उन केंद्रों तक पहुंच जाती है, जहां फूल खिलते हैं, जहां फूल खिल सकते हैं।
कहां छिपा है हमारा जीवन?
हमारा जीवन हमारे शरीर के ठीक मध्य में छिपा हुआ है। वहां से या तो वह नीचे की तरफ बहेगा, और तब आने वाली संततियां पैदा होती रहेंगी, या फिर ऊपर की तरफ उठेगा, और परमात्मा के अनुभव को उपलब्ध होगा। हम उसे कहां ले जाएंगे, यह हमारे ऊपर निर्भर है। हम उसे कहां ले जा रहे हैं, यह भी हमारे ऊपर निर्भर है। हम उसे नीचे की तरफ बहाते रहेंगे और नष्ट हो जाएंगे, तो हम जो ऊपर की तरफ छिपे हुए रास्ते थे, उनसे कभी परिचित नहीं होंगे। और जो छिपे थे राज और रहस्य और आनंद और सत्य, वे भी अपरिचित रह जाएंगे।
तो जब मैं कहता हूं कि जिज्ञासा करें--मैं कौन हूं?... कल मैंने आपसे कहा कि चौबीस घंटे के सामान्य जीवन में एक जिज्ञासा पकड़ ले कि मैं कौन हूं? यह प्राणों में हमारे प्रश्न उठने लगे कि मैं कौन हूं? उठते, बैठते, रास्ते पर चलते चौंक कर हमारे भीतर कोई पूछने लगे कि मैं कौन हूं? रात सोते, बिस्तर पर जाते, सुबह उठते कोई चीखने लगे हमारे भीतर कि मैं कौन हूं? तो आप हैरान हो जाएंगे। जितने जोर से यह प्रश्न भीतर उठेगा, जितना यह प्रश्न सक्रिय होगा, जितना यह प्रश्न भीतर घूमने लगेगा, उतना ही आप हैरान होंगे कि आपके सेक्स-केंद्रों के आस-पास कोई चीज गतिमान होने लगेगी, कोई चीज कंपने लगेगी, कोई चीज हिलने लगेगी, कोई नया अंकुर आपको भीतर कंपता हुआ, डोलता हुआ, उठता हुआ मालूम पड़ने लगेगा।
इसलिए अक्सर यह होता है कि जो लोग आध्यात्मिक साधना में उतरते हैं, एकदम से उनकी सेक्स की कामना जोर से बढ़ती हुई मालूम होती है। उसके बढ़ने का और कोई कारण नहीं है। जो भी जीवन की जिज्ञासा करेगा, जो भी जीवन की खोज में निकलेगा, सबसे पहले जन्म का जो स्रोत है, वहीं उसकी चोट होगी। वहीं से यात्रा शुरू होगी।
इसलिए जो भी कोई जिज्ञासा करेगा, साधना में लगेगा, पूछेगा, खोजेगा, उसे अचानक पता चलेगा कि जैसे उसकी काम की वासना तीव्र हो रही है। लेकिन उससे घबड़ाना मत। और जोर से पूछना, और खोजना कि किस जगह हमारे शरीर के भीतर कौन सी वह जगह है, उसे पिनपॉइंट करना, कहां है वह केंद्र, जहां कंपन हो रहा है। और अगर उसको ध्यान किया, एकांत में बैठ कर सारे ध्यान को वहां ले गए, जहां कंपन हो रहा है, नई शक्ति उठ रही है, तो आपके भीतर एक नया द्वार खुल जाएगा, जो अभी बंद पड़ा है। एक बीज टूट जाएगा, एक नई यात्रा शुरू हो जाएगी। एक झरने का पत्थर हट जाएगा और एक झरना बहना शुरू हो जाएगा।
लेकिन हमने कभी पूछा नहीं है। अगर कोई व्यक्ति थोड़ी देर एकांत में बैठ कर सिर्फ यही पूछे कि मैं कौन हूं? और सिर्फ एक ही बात पूछता चला जाए कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? तो वह हैरान हो जाएगा। ‘मैं कौन हूं’ की सारी चोट कामवासना के केंद्र पर पड़ती है। वह जो ‘हूं’ की आखिरी चोट है, वह कामवासना के केंद्र पर पड़ती है, वहां कोई चीज कंपनी शुरू हो जाती है और जगनी शुरू हो जाती है। वहां शक्ति इकट्ठी है, वहां रिजर्वायर है, वहां संगृहीत है सब-कुछ। वह नीचे की तरफ भी बह सकता है, वह ऊपर की तरफ भी ले जाया जा सकता है। सिर्फ शास्त्र पढ़ लेने से और मैं आत्मा हूं, इस तरह की बातें सीख लेने से कोई कहीं पहुंच नहीं सकता। कुछ करना पड़ेगा।
पहली बात है: जिज्ञासा।
दूसरी बात है: जिज्ञासा का केंद्र।
कहां हम जिज्ञासा को केंद्रित करें? कहां हम पूछें? किस जगह हम चोट करें? कहां सारा चित्त एकाग्र होकर चोट करे?
जैसे कोई आदमी जमीन खोदता हो, तो एक ही जगह जमीन खोदे, तो थोड़ी देर में पत्थर निकल जाएंगे, मिट्टी निकल जाएगी, कचरा-कूड़ा निकल जाएगा और जलस्रोत प्रकट होने शुरू हो जाएंगे। लेकिन कोई दूसरा आदमी एक जगह दो हाथ जमीन खोदे, दूसरी जगह चार हाथ जमीन खोदे, तीसरी जगह कुछ और जमीन खोदे, तो खोद तो बहुत लेगा, लेकिन कभी कहीं से पानी नहीं निकलेगा।
ध्यान रहे, जो लोग साधना में जा रहे हैं, वे जीवन के कुएं को खोदने के लिए जा रहे हैं। उनके सामने बहुत स्पष्ट होना चाहिए कि उनकी सारी जिज्ञासा, उनकी सारी साधना, उनका सारा ध्यान, उनके सारे जीवन का जो बोध है, जो अवेयरनेस है, वह किसी एक जगह पर निरंतर चोट करती रहे--निरंतर चोट करती रहे, ताकि वहां के पर्दे टूट जाएं, वहां की मिट्टी कट जाए, वहां की चट्टान कट जाए और जीवन के जो स्रोत हैं वे प्रकट होने शुरू हो जाएं।
एक बात ध्यान में ले लेना, और यह बात मनुष्यता के ध्यान से बिलकुल हट गई है, और इसके हट जाने का कारण यह है कि सेक्स के संबंध में हम किसी को कभी कुछ नहीं कहते हैं। बच्चों से कुछ बात नहीं करते हैं। और हमें यह पता नहीं कि जिसकी हम बात नहीं कर रहे हैं, वहीं वह शक्ति भी छिपी है, जो परमात्मा तक ले जाने का रास्ता बनेगी। निश्चित ही, वहीं वह शक्ति भी छिपी है, जो पशु तक ले जाती है। वहीं वह शक्ति भी छिपी है, जो अंधकार में उतार देती है। वहीं वह शक्ति भी छिपी है, जो प्रकाश में ले जाती है। लेकिन अगर उसकी बात छिपा ली, अगर सब तरफ से पर्दे में कर ली और किसी को पता नहीं चला, तो वह बीज प्रकाश की तरफ तो नहीं जा सकेगा, ध्यान रखना, अंधेरे की तरफ अपने आप चला जाएगा। क्योंकि नीचे जाने के लिए किसी के सहारे की, साथ की, ज्ञान की कोई भी जरूरत नहीं होती है, नीचे उतरना अपने से हो जाता है। नीचे उतरना इंस्ंिटक्टिव है, नीचे उतरना प्राकृतिक है।
इसलिए जब बच्चा जवान होगा, सेक्स की, नीचे की यात्रा अपने आप शुरू हो जाएगी। और ऊपर की यात्रा के संबंध में न उसे कभी कहा गया है, न उसे कभी बताया गया है। उसके मां-बाप ने, उसके समाज ने, उसके शिक्षकों ने डर कर कि कहीं खतरा न हो जाए, अंधकार में कोई न चला जाए, सारी बात छिपा ली है। वह छिपाना बहुत खतरनाक हो गया है। क्योंकि उसका परिणाम एक हुआ है कि जो शक्ति ऊपर ले जा सकती थी, वह सिर्फ नीचे ले जाती है और कहीं भी नहीं ले जाती।
तो आज दूसरे सूत्र पर मैं आपको उस केंद्र की तरफ इशारा करना चाहता हूं, जिसके प्रति आप सजग हो जाएं, तो आपके जीवन में क्रांति हो जाएगी। और अगर उसके प्रति आप सजग नहीं होते हैं, तो आपके जीवन में कभी कोई क्रांति नहीं हो सकती है।
जीवन की क्रांति कहां से होगी? कहां है वह आग, जहां से हम जलाएंगे दीये को? वह हमारे भीतर कहां है?
वह हमारे भीतर मस्तिष्क में नहीं है वह आग, वह हमारे हृदय में भी नहीं है। वह आग हमारे सेक्स सेंटर पर केंद्रित है। और वह वहां से उठे, तो वह हृदय तक भी आएगी। और जब वह आग, वह जलती हुई ज्योति हृदय पर आती है, तो सारा जीवन प्रेम हो जाता है। और जब वही आग और जलती हुई ज्योति मस्तिष्क तक आती है, तो सारा जीवन ज्ञान हो जाता है। लेकिन वही है आग, और वह अभी सेक्स सेंटर पर केंद्रित है, वह वहीं रुकी हुई है। वह वहीं से छेद है, वह वहीं से बहती जा रही है। वहीं जैसे किसी घड़े में छेद हो, उसका सारा पानी गिरता जाता हो। और वहां से ऊपर उठाने का तो कोई सवाल नहीं है।
अगर सेक्स की ऊर्जा नीचे की तरफ बहती रहे, तो हम सिर्फ पशु की तरह व्यवहार करते हैं, हम मनुष्य कभी नहीं हो पाते हैं। हम कितना ही ढांक लें अपने को, छिपा लें, लेकिन हमारे भीतर पशु ही बैठा होता है। हमारी सारी शिष्टता, हमारी सारी सभ्यता, हमारी सारी संस्कृति हमें सुसंस्कृत पशु बना देती है और कुछ भी नहीं। लेकिन हमारे भीतर वही बैठा होता है। जाएं, हमारी फिल्म देख लें, हमारी साहित्य की किताब पढ़ लें, हमारी कविता पढ़ें, हमारा संगीत सुनें, हमारा नृत्य देखें, और सबके पीछे घूम-फिर कर सेक्स खड़ा हुआ दिखाई पड़ेगा!
हमारे जीवन के सारे पहलुओं में हमने सब तरफ से छिपाने की कोशिश की है, लेकिन सेक्स वहां खड़ा हुआ है। उसे हम छिपा भी नहीं सकते। हम उसे बदल सकते हैं, छिपा नहीं सकते। और अगर हम उसे बदल लें, तो जिसे हम सेक्स जानते हैं, जिसे हम काम कहते हैं, वही राम बन जाता है। लेकिन उसे हम बदलेंगे तब, जब हम पहचान लें कि वह कहां है। उसका ठीक ऑब्जर्वेशन, ठीक निरीक्षण चाहिए, ठीक जगह पर श्रम चाहिए। और ठीक जगह पर श्रम न हो, तो हम भटकते रहें, हम श्रम करते रहें, उसका कोई परिणाम नहीं हो सकता है।
इसलिए दूसरे सूत्र में आपसे कहना चाहता हूं: अपनी सेक्स-ऊर्जा को, अपनी वीर्य की शक्ति को छिपा कर भूल कर अंधेरे में डाल कर मत बैठे रहना, अन्यथा जीवन के सत्य के मंदिर तक कभी भी नहीं पहुंच सकोगे। वही वीर्य की शक्ति है, जो ले जाएगी। उसके प्रति सचेत होना जरूरी है, उसके प्रति जागरूक होना जरूरी है।
और तीसरे सूत्र में आपको कहना चाहूंगा कि उसे फिर कैसे ट्रांसफार्म करें? कैसे रूपांतरित करें?
लेकिन दूसरे सूत्र में उसे पहचानना जरूरी है। हमारे प्रत्येक के शरीर के भीतर कहां है केंद्र ऊर्जा का, शक्ति का, वह हमें जान लेना चाहिए।
एक छोटे से अणु को तोड़ कर वैज्ञानिक कितनी बड़ी शक्ति को उपलब्ध हुए हैं! अणु तो हमेशा से थे। लेकिन इस सदी के पहले अणु की शक्ति का किसी को पता नहीं था। और अगर आज से सौ साल पहले, दो सौ साल पहले, हजार साल पहले कोई कहता कि एक छोटे से अणु के विस्फोट से हिरोशिमा और नागासाकी के एक लाख बीस हजार लोग जल कर राख हो जाएंगे--एक छोटे से अणु के विस्फोट से, तो लोग हंसते और कहते, तुम पागल हो गए हो! एक छोटे से अणु में इतना विस्फोट कैसे हो सकता है?
लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि एक साधारण से ऑक्सीजन या हाइड्रोजन के या किसी के भी अणु के विस्फोट से इतना परिणाम हो सकता है, तो सेक्स का अणु तो जीवित अणु है, वह तो लिविंग एटम है? अभी तो हमने डेड एटम, मरे हुए अणु का विस्फोट किया है। जिस दिन हम जीवित अणु का विस्फोट कर सकेंगे, उस दिन क्या होगा?
धर्म की सारी खोज, योग की सारी साधना, तंत्र के सारे नियम, वह जो लिविंग एटम है, वह जो जीवित अणु है, उसमें छिपी हुई शक्ति को विस्फोट करके ऊपर की तरफ ले जाने की विधि के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
लेकिन उसका हमें कोई बोध नहीं है। उससे हम डरे हुए भी हैं। खतरनाक भी है। आखिर एटम का विस्फोट खतरनाक सिद्ध हुआ। खतरनाक हाथों में कोई भी शक्ति खतरनाक हो सकती है। शायद इसीलिए शक्ति का जो सबसे महत्वपूर्ण पुंज है मनुष्य के भीतर, उसे छिपा देने का आयोजन किया गया है कि वह छिपा रहे, किसी को पता न चले। कहीं शक्ति खतरनाक हाथों में न पड़ जाए।
लेकिन शक्ति अपने आप में अशुभ नहीं होती, न शुभ होती है। उसे शुभ की तरफ ले जाया जा सकता है और अशुभ की तरफ भी। और जो अशुभ के डर से रुक जाएगा, वह शुभ की तरफ भी नहीं ले जा सकेगा।
इसलिए मनुष्यता ठहर गई है। मनुष्य को जमीन पर आए हुए अंदाजन बीस लाख वर्ष होते हैं। लेकिन बीस लाख वर्षों में सौ-दो सौ मनुष्य उस स्थिति को उपलब्ध हो सके हैं, जहां प्रत्येक मनुष्य को पहुंच जाना चाहिए था। कुछ अंगुलियों पर गिने जाने वाले लोग ठीक अर्थों में मनुष्य हो सके हैं बीस लाख वर्षों में!
और यह जो वृहत्तर मनुष्यता है, यह सिर्फ पशु के तल पर जी रही है। बच्चों को पैदा करता है आदमी और समाप्त हो जाता है। मां बेटी को जन्म दे जाती है, बाप बेटे को जन्म दे देता है और समाप्त हो जाता है। लेकिन स्वयं के भीतर जो छिपे थे ऊपर के द्वार, उनसे वह परिचित भी नहीं हो पाता है।
बाहर से देख कर शरीर को कोई पहचान भी नहीं सकता कि इसके भीतर परमात्मा भी छिपा हुआ हो सकता है। और अगर एक फिजियोलॉजिस्ट के पास जाएंगे, शरीरशास्त्री के पास, तो वह काट कर सारे शरीर को बता देगा और कहेगा: यहां तो ऐसी कोई चीज नहीं दिखाई पड़ती है। यहां तो ऐसा कुछ नहीं दिखाई पड़ता। यहां तो कोई ऐसी शक्ति नहीं दिखाई पड़ती, जो ऊपर उठ जाए।
नहीं दिखाई पड़ती है। सच तो यह है कि जो भी गहरा है और महत्वपूर्ण है, वह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। एटम दिखाई पड़ते हैं? इलेक्ट्रॉन दिखाई पड़ता है? न्यूट्रॉन दिखाई पड़ता है? क्या दिखाई पड़ता है? जितना हम पदार्थ के भीतर घुसे हैं, उतना हम वहां पहुंच गए हैं, जहां दिखाई पड़ना बंद हो गया है। जहां हम सिर्फ परिणाम देखते हैं, इफेक्ट्स दिखाई पड़ते हैं; लेकिन क्या है, वह तो कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
जितने हम पदार्थ के भीतर गए हैं, वहां भी वह जगह आ गई है, जहां दिखाई नहीं पड़ता। जितना आदमी स्वयं के भीतर गया, वहां भी वह जगह आ जाती है, जहां दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। लेकिन हम पदार्थ के संबंध में अदृश्य को मान लेते हैं और मनुष्य के संबंध में आदमी के शरीर की चीर-फाड़ करते हैं और कहते हैं, यहां तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
लेकिन वहां भी दिखाई पड़ सकता है। दूसरे को नहीं, मेरे भीतर मुझे दिखाई पड़ सकता है। आपके भीतर आपको दिखाई पड़ सकता है। और अगर मुझे मेरे भीतर दिखाई पड़ जाए, तो आपके भीतर भी दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। लेकिन मैं किसी दूसरे को नहीं दिखा सकता।
अब आप यहां इतने लोग बैठे हैं। अगर मैं यह कहूं कि यहां आप ही मुझे नहीं दिखाई पड़ रहे, बल्कि वह भी दिखाई पड़ रहा है, जो आपके भीतर इकट्ठा है। लेकिन इसे मैं किसी दूसरे को नहीं दिखा सकता। और वह कहां तक बढ़ा है, वह भी दिखाई पड़ सकता है। लेकिन वह दिखाई पड़ना पार्थिव नहीं है। और जीवन में जो पार्थिव पर ही रुक जाता है और कहता है: ‘जो दिखाई पड़ेगा, वहीं तक हम ठहर जाएंगे’--वह आदमी, बीज को अगर उसे दे दें, तो बीज को तोड़-फोड़ कर देख लेगा, उसमें फूल कहीं नहीं दिखाई पड़ेगा। उसमें फूल है!
शायद आपको पता न हो, एक वैज्ञानिक कुछ प्रयोग कर रहा था और एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह एक बहुत ही बारीक दूरबीन से किसी बीज को देख रहा था। और देख कर हैरान हुआ कि जब वह उस बीज को देख रहा था, अचानक एक क्षण को उसे फूल दिखाई पड़ा, बीज नहीं था! उसने आंखें तिलमिला कर वापस गौर से देखा, लेकिन उसे फिर भी फूल दिखाई पड़ा। दूरबीन अलग की है, तो वहां बीज है। वह दूसरों को बताने लगा। लेकिन दूसरों को तो वहां कुछ नहीं, बीज ही दिखाई पड़ता था। वह वैज्ञानिक उस बीज को बोया, उस बीज में फूल आया और वह देख कर दंग रह गया कि वह फूल वही है, जो उसे दूरबीन से दिखाई पड़ा था!
यह तो बिलकुल असंभव मालूम पड़ता है। लेकिन बहुत असंभव नहीं भी है, क्योंकि फूल किसी न किसी अर्थ में बीज के भीतर छिपा है। और आज नहीं कल हम कुछ ऐसी बातें खोज सकते हैं कि वह जो छिपा है, कल प्रकट होगा, वह आज दिखाई पड़ जाए। जो भविष्य में है, वह आज दिखाई पड़ जाए। असल में, जो भविष्य में है, वह हमारी देखने की सीमा के बाहर है।
हम यहां बैठे हुए हैं, हमारे ऊपर एक दरख्त पर एक आदमी बैठा हुआ हो। रास्ता चल रहा है, हम दरख्त के नीचे बैठे हैं। एक बैलगाड़ी दिखाई पड़ती है थोड़ी दूर पर, दो फर्लांग दूर पर एक बैलगाड़ी आ रही है। उसके पार हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। उसके पार भी कोई बैलगाड़ी आती है, लेकिन हमें दिखाई नहीं पड़ती है। वह दरख्त पर बैठा हुआ आदमी कहता है, एक बैलगाड़ी और है। लेकिन हम कहते हैं, हमें दिखाई नहीं पड़ती, नहीं हो सकती। वह आदमी कहता है, आती है। हम कहते हैं, भविष्य में है, अभी कैसे पता चल सकता है? लेकिन हमें भविष्य में है, क्योंकि हम नीचे बैठे हैं। वह ऊपर वृक्ष पर बैठे वाले को वर्तमान में हो सकती है, क्योंकि वह ऊपर बैठा है। और जितनी चेतना ऊपर उठती चली जाए, वे सारी संभावनाएं जो कल हो सकती हैं, वे आज दिखाई पड़ सकती हैं।
शायद आपको पता हो, बुद्ध का जन्म हुआ और एक बहुत अदभुत घटना घटी। बुद्ध का जन्म हुआ और हिमालय से एक संन्यासी उतरा। और जब वह अपने आश्रम से उतरने लगा, तो उसके मित्रों ने कहा: कहां जाते हो? उसने कहा: मैं जाता हूं, उस व्यक्ति का जन्म हुआ है, जो शीघ्र ही बुद्ध हो जाएगा। लेकिन तब तक मैं नहीं बचूंगा। मैं उसका बुद्ध रूप में कभी भी दर्शन नहीं कर पाऊंगा। मैं उसका अभी दर्शन कर आता हूं।
वह संन्यासी बुद्ध के घर आया। बुद्ध के पिता अपने छोटे से बच्चे को लेकर उसके सामने आए। उस संन्यासी ने पैर पड़े और उसकी आंख से आंसू बहने लगे। बुद्ध के पिता बहुत घबड़ा गए। और उन्होंने कहा: आप रोते हैं? आशीर्वाद दें। आप रोते हैं, तो हम घबड़ाते हैं। कोई अपशगुन तो होने को नहीं है? उस वृद्ध संन्यासी ने कहा: नहीं, अपशगुन होने को नहीं है। मैं अपने लिए रोता हूं। जिसे मैं बीज की तरह देख रहा हूं, इसे मैं फूल की तरह नहीं देख पाऊंगा। मैं तो खत्म हो जाने को हूं छह महीने में। यह फूल खिलेगा, लेकिन मैं नहीं देख पाऊंगा। यह व्यक्ति बुद्ध होगा, यह जागेगा। इसकी छाया, इसके प्रकाश के नीचे बहुत लोगों को बहुत कुछ दिखाई पड़ेगा। मैं चूक जाऊंगा, मैं वंचित रह जाऊंगा।
बुद्ध के पिता को कुछ भी समझ में नहीं आता है। एक बीज के पास बैठ कर कोई फूल की बात करने लगे, तो हमको समझ में आएगा? एक बीज के पास बैठ कर फूल की बात करने वाला पागल मालूम होगा। बुद्ध के पिता को भी वह आदमी पागल मालूम हुआ था। लेकिन जब बुद्ध का फूल खिला, तो बुद्ध के पिता ने क्षमा मांगी कि मैं हंसा था उस दिन, उस बूढ़े आदमी पर। मुझे क्या पता था! मुझे क्या पता था कि चीजें आगे दिखाई पड़ सकती हैं!
हम सबके भीतर भी छिपा है जो, वह आगे की पूरी खबरें अभी दे रहा है। अगर हम खोजने चलें, तो हमें पता चलेगा: वह कितनी दूर तक विकसित हुआ है। अगर कोई व्यक्ति जिज्ञासा करे और सेक्स के केंद्र के आस-पास ध्यान को मंडराए, ध्यान को वहां ले जाए और देखे कि वहां क्या हो रहा है, तो वहां शक्ति के कंपन मालूम पड़ेंगे। वे कंपन कहां तक आते हैं, वहीं तक हमारे विकास की अवस्था है। उसके ऊपर तक उन कंपनों को लाना है। उन्हें वहां तक लाना है, जहां मस्तिष्क के आखिरी छोर तक वे कंपन पहुंच जाते हैं और जहां जीवन की पूरी धारा जग जाती है।
इस सेक्स के केंद्र पर सोई हुई शक्ति का नाम कुंडलिनी है। वह सोई है कुंडल लगा कर, जैसे सांप सोया हो। वह जाग जाए, तो फन की तरह उठ जाती है ऊपर तक। वह जो देखे होंगे कुछ जैन तीर्थंकरों की मूर्ति पर सांप का फन उठाए हुए, तो आप यह मत सोचना कि वह कोई सांप उनके ऊपर आ गया था, या कहानियां गढ़ी हुई हैं कि वे बैठे थे और सांप ने आकर छाया कर दी। वे सब फिजूल की बातें हैं। वे प्रतीक हैं। वे उस शक्ति के प्रतीक हैं, जिसने अपना सारा कुंडल छोड़ दिया है और जिसका फन आकर पूरा खिल गया है, पूरा फूल बन गया है, ऊपर जाकर प्रकट हो गया है।
वह कुंडल मारे हुए शक्ति प्रत्येक के भीतर छिपी हुई है। उसी शक्ति का नाम जीवन-शक्ति है। और हम सबके भीतर वह काम के केंद्र के पास ही सोई पड़ी है, उसके ऊपर नहीं उठ पाती। और चाहे हम गृहस्थ हो जाएं और चाहे हम भाग कर संन्यासी हो जाएं, अगर हमारा चित्त काम के आस-पास ही घूमता रहता है--चाहे पक्ष में, चाहे विपक्ष में--तो हमारा केंद्र वहीं बना रहेगा, उसके ऊपर हम नहीं उठ सकते हैं।
उसे ऊपर उठाना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। उस वैज्ञानिक प्रक्रिया में पहली बात है: पहचानना, रिकग्निशन, कहां है?
यह मैं आपके ऊपर हाथ रख कर कह सकता हूं कि यहां है। लेकिन मेरे हाथ रख कर कहने का कोई बहुत प्रयोजन नहीं है। यह आपको ही अपने भीतर शांत कभी घड़ी-आधा घड़ी चौबीस घंटे में खोज कर बैठ जाना पड़ेगा--कि खोजें कि मेरी जीवन की ऊर्जा कहां है? कहां है मेरे जीवन की ऊर्जा?
आप हैरान होंगे, आज से तीन सौ वर्ष पहले तक यह पता नहीं था कि शरीर में खून चक्कर लगाता है। यही पता था कि खून भरा हुआ है। तीन सौ साल पहले तक! बीस लाख साल से आदमी जमीन पर है, उसे यह पता नहीं था कि खून चक्कर लगाता है। उस तरफ ध्यान नहीं दिया था, कैसे पता चलता! हम समझते थे खून भरा हुआ है, कहीं से काटो, खून निकल आता है। जैसे किसी बर्तन में पानी भरा हो, ऐसा खून भरा हुआ है। यह तो अभी तीन सौ वर्षों में पता चला कि खून चक्कर लगाता है।
कुछ थोड़े से लोगों को पता चला है कि सेक्स की ऊर्जा ऊपर की तरफ भी उठती है। अधिक लोगों को यही पता है कि वह नीचे की तरफ ही जाती है। जिनको यह पता है कि वह नीचे की तरफ ही जाती है, वे एक बात ध्यान में ले लें: जो चीज भी नीचे जा सकती है, वह चीज ऊपर भी जा सकती है। जो चीज भी नीचे ले जा सकती है, वह ऊपर भी ले जा सकती है। और जितने दूर तक नीचे ले जा सकती है, उतने ही दूर तक ऊपर ले जा सकती है।
कभी किसी वृक्ष के पास जाएं। ऊपर वृक्ष दिखाई पड़ता है। जितना वृक्ष ऊपर दिखाई पड़ता है, ध्यान रहे, जड़ें उतनी ही नीचे गई होंगी। और जितनी जिस वृक्ष की जड़ें गहरी जाती हैं, उस वृक्ष का तना उतना ही ऊपर उठ जाता है। जिस वृक्ष को स्वर्ग छूना हो, उस वृक्ष को नीचे पाताल तक जड़ें भेजना पड़ेंगी। उसके बिना कोई वृक्ष स्वर्ग नहीं छू सकता। लेकिन कोई आदमी कहे कि हम एक ऐसे वृक्ष को जानते हैं, जिसमें ऊपर तो कुछ भी नहीं जाता, जड़ें बस नीचे ही नीचे जाती हैं। हम कहेंगे, वह आदमी पागल है और या फिर उसे ऊपर के वृक्ष का कोई पता नहीं है। क्योंकि ये दोनों चीजें संतुलित होती हैं। ऊपर और नीचे संतुलित है। बीच में केंद्र है।
नीचे की तरफ भी यात्रा संभव है, ऊपर की तरफ भी यात्रा संभव है। और जितनी पॉसिबिलिटी है नीचे जाने की, जितनी संभावना है नीचे जाने की, उतनी ही संभावना है ऊपर जाने की। लेकिन बहुत थोड़े लोगों को सेक्स की ऊर्जा के ऊपर जाने का पता चल पाता है।
जब वीर्य की शक्ति ऊपर के मार्ग पर जाने वाली शक्ति बन जाती है, तब उसे हम ब्रह्मचर्य कहते हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ काम की शक्ति को जबरदस्ती रोक लेना नहीं है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है काम की शक्ति की ऊर्ध्वयात्रा शुरू हो जाए। वह नीचे न जाए, ऊपर जाने लगे! रोक न ली जाए। क्योंकि रोकी हुई ऊर्जा अगर ऊपर भी न जाए और नीचे भी न जाए, तो मनुष्य को सिर्फ विक्षिप्त कर सकती है, पागल कर सकती है और कुछ भी नहीं कर सकती है।
इसलिए जिन्हें ऊपर ले जाने का कोई पता नहीं है, अगर वे रोक लें, जैसा कि किताबों में लिखा है कि ब्रह्मचर्य ही जीवन है और ब्रह्मचर्य से रहो और यह करो और वह करो। अगर वे रोक लें, तो वे विक्षिप्त होंगे और कुछ भी नहीं। क्योंकि जो शक्ति न ऊपर जा सके, न नीचे जा सके, बीच में ठहर जाए, तो विस्फोट होगा, वह शक्ति पागल कर देगी। आज जमीन पर जितने लोग पागल हैं, वे किसी न किसी अर्थों में सेक्स की शक्ति के गलत रास्तों पर भटक जाने, विस्फोट हो जाने, विकृत हो जाने, विरूप हो जाने के कारण हैं।
तो तीन संभावनाएं हैं: या तो नीचे की तरफ जाएं, जहां पशु की यात्रा चल रही है; या फिर विकृत और विक्षिप्त हो जाएं, जैसा कि सभ्य आदमी के साथ होता चला जा रहा है; और या फिर ऊपर की तरफ उठें।
लेकिन ऊपर की तरफ जाने के लिए पहले शक्ति को ठीक से पहचान लेना जरूरी है कि वह कहां है। और जिस शक्ति को बदलना हो, उसे ठीक से समझे बिना कोई नहीं बदल सकता है। उसे ठीक से पहचाने बिना कोई छू भी नहीं सकता है।
यह जो आपने देखा होगा... हम सारे लोग कपड़े पहने हुए हैं। और आपको शायद पता भी नहीं होगा कि जंगल से जंगल में, घने से घने जंगल में आदिम से आदिम आदमी भी और चाहे कहीं कपड़ा न पहने, सिर्फ सेक्स केंद्र पर, सिर्फ काम-केंद्र पर एक पत्ता ही बांध लेगा! कभी आपने सोचा कि और चाहे पूरा शरीर नंगा हो, काम के केंद्र पर एक पत्ता ही बांध लेने का भाव क्यों पैदा होता है?
शायद आपको खयाल में भी नहीं आया होगा। काम के केंद्र पर इतनी शक्ति इकट्ठी है कि अगर दूसरे व्यक्ति की आंखें भी उसके ऊपर पड़ें, तो वे उसे विचलित करती हैं और कंपित करती हैं।
यह तो अभी नवीनतम खोज है कि पदार्थ भी ऑब्जर्वेशन से अपना व्यवहार बदलता है। अगर हम बहुत बड़ी दूरबीनों से भागते हुए छोटे-छोटे एटम और इलेक्ट्रॉन को देखने की कोशिश करें, तो वे जैसे बिना देखे हुए भाग रहे थे, वैसे ही देखते हुए नहीं भागते हैं। जब हम उन्हें देखने की कोशिश करें, तो उनकी गति में अंतर हो जाता है, परिवर्तन हो जाता है।
जैसे समझ लें, रास्ते पर एक आदमी जा रहा है अकेला, कोई भी नहीं है रास्ते पर। अचानक उसे पता चलता है कि पीछे कोई आ रहा है और देख रहा है। समझ लें, आप ही हैं। आप अकेले जा रहे हैं। जब आप अकेले होते हैं रास्ते पर, तब आप और तरह से चलते हैं। तब आप दूसरे तरह के आदमी होते हैं। फिर एक आदमी पीछे से आ गया है, उसके पैरों की चाप सुनाई पड़ने लगी। आप फिर वही नहीं रह जाते, जो आप अकेले थे, आप फौरन बदल जाते हैं। आपके भीतर कोई सटल डिफरेंस, कोई बहुत सूक्ष्म सा अंतर हो जाता है। आप दूसरे आदमी हो गए, आप सम्हल गए। आप अब उसी तरह से नहीं चल रहे, जैसे चल रहे थे। आप उसी तरह से नहीं गुनगुना रहे, जैसे गुनगुना रहे थे। आपके पैर सम्हल गए, आप बदल गए। आप सभ्य आदमी हो गए, आप सरल आदमी नहीं रहे। आप बाथरूम में स्नान कर रहे हैं, आप आईने के सामने मुंह चिढ़ा रहे हैं, नंगे खड़े होकर नाच रहे हैं। और आपको पता चल जाए कि छोटे से की-होल से कोई देख रहा है, आप फौरन बदल गए। सिर्फ पता चल गया कि कोई देख रहा है, आप बदल गए।
ऑब्जर्वेशन इतनी मुश्किल पैदा कर देता है, आप दूसरे हो जाते हैं!
यह बहुत पहले अनुभव में आ गया कि सेक्स केंद्र पर इतनी शक्ति इकट्ठी है कि दूसरे की आंख अगर पड़े, तो उसे सक्रिय करती है। उसे सक्रिय करती है, उसे बदलाहट करती है। अगर प्रेम करने वाले की आंख पड़ जाए, तो उसे ऊपर की तरफ ले जाती है। अगर घृणा करने वाले की आंख पड़ जाए, तो उसे नीचे की तरफ ले जाती है। इसलिए हम प्रेम करने वाले के सामने नग्न हो सकते हैं। सिर्फ इसलिए, और कोई कारण नहीं है। जिसे हम प्रेम करते हैं, उसके सामने हम बिलकुल नग्न हो सकते हैं। उससे कोई डर नहीं है।
क्यों? कौन सा डर नहीं है?
उससे हम सारे पर्दे अलग कर देते हैं, सारे वस्त्र अलग कर देते हैं।
क्यों?
उससे कोई भय नहीं है। उसकी प्रेम से भरी हुई आंख, उसका प्रेम से भरा हुआ निरीक्षण उन शक्तियों को ऊपर ले जाने वाला बनता है। यह बहुत पहले खयाल में आ गया होगा, इसलिए उस केंद्र को ढांक कर छिपाने की बात पैदा हो गई।
आपने देखा होगा साधु-संन्यासियों को, जो नंगे बैठे हुए हैं, लेकिन सारे शरीर पर राख लगाए हुए हैं। अब जब नंगे बैठे हो, तो राख किसलिए लगाए हुए हो? राख लगाए हुए हैं कि वह जो शक्तियों का काम चल रहा है भीतर, उस पर हर कोई नजर न पड़ जाए। उसको रोका जा रहा है।
आपने देखा होगा कि मंदिरों में जाने वाले लोग तिलक लगा कर आ जाते हैं। उन्हें कुछ भी पता नहीं कि वे क्यों लगा रहे हैं। उन्हें कुछ भी पता नहीं कि यह तिलक सिर्फ उनके लगाने के लिए सार्थक है, जिनके आज्ञा-चक्र तक सेक्स की एनर्जी आ गई हो। और यहां वह दिखाई न पड़े किसी को, इसलिए उसके ऊपर चंदन लगा लेना है, ताकि वह पीछे छिप जाए, नजर में न आए, कोई आंख उस पर न पड़े। अन्यथा वह बहुत उत्ताप पैदा कर देगी, घबड़ाहट पैदा कर देगी, मुश्किल पैदा कर देगी। अब तो कोई भी लगा रहा है, जिसे कुछ पता नहीं है।
जिंदगी बहुत अजीब हो गई है। यहां सब चीजें गलत लोगों के हाथ में चली गईं, जिनका कोई हिसाब-ठिकाना नहीं कि यह क्या हो रहा है! किसलिए आप तिलक लगा कर चले आ रहे हैं? एक आदमी जल्दी से मंदिर में गया है, लगा कर चला आ रहा है। उसे पता ही नहीं कि जिस तिजोरी में वह ताला लगा रहा है, उसके पिता इसलिए लगाते थे कि उसमें कुछ था। आपकी तिजोरी में कुछ नहीं है, सिर्फ पिता ताला लगाते थे, आप भी ताला लगा रहे हैं और बड़े प्रसन्न होकर घर लौट रहे हैं कि मेरे पास कोई खजाना है। तिजोरी में ताला लगाना सार्थक हो सकता है, वह किसी विज्ञान की बात है। अन्यथा, अन्यथा व्यर्थ है, अन्यथा कोई प्रयोजन नहीं है।
जिन केंद्रों पर शक्ति काम कर रही है, वे दूसरों की आंखों में न आएं। लेकिन अगर वे प्रेम करने वालों की आंखों में आएं, तो उनको विकास मिलता है। इसलिए साधक मित्रों के बीच अपने केंद्रों को खुला छोड़ सकता है। उनकी आंखें उन केंद्रों में सोई हुई शक्तियों को आगे बढ़ाने में सहयोगी होंगी।
आपको शायद पता ही नहीं होगा, अब कहते हैं लोग... अब जाकर वनस्पतिशास्त्री से पूछें, तो वह कहता है: अगर पौधे को आप प्रेम करें, तो पौधे में ग्रोथ जल्दी होती है। अगर एक माली अपने पौधे को प्रेम करता है, तो पौधे में फूल जल्दी बढ़ेगा, बजाय उस माली के जो कोई प्रेम नहीं करता। अब प्रेम से पौधे का क्या संबंध है? लेकिन प्रेम कुछ अनजानी शक्तियां, कुछ अनजाने विद्युत-प्रवाह, कुछ प्राणों से निकलने वाली ऊर्जा, कोई वाइब्रेशंस उस पौधे तक पहुंचाता है, वह पौधा तेजी से बढ़ने लगता है।
एक बच्चे को मां के पास हम पालते हैं। और किसी दूसरी जगह उसे पालें--भोजन दें उसे, अच्छे वस्त्र दें, अच्छा इंतजाम दें, सारी सुविधा दें, जो उसकी गरीब मां कभी नहीं दे सकती। और फिर भी आप पाएंगे कि बच्चे में कुछ कमी रह गई। कुछ कमी रह गई! कोई एक विटामिन, जो मां से आता था, वह नहीं आ पाया। कोई एक विटामिन मां से भी आता है, जिसका अभी कोई कैपसूल नहीं बन सकता है। कोई मदर विटामिन। अभी कोई कैपसूल नहीं बनता। कभी आगे बन सकता है। लेकिन कुछ मां देती है, जो इतना सूक्ष्म है कि दवाएं नहीं दे सकतीं, कोई ड्रग नहीं दे सकता। वह मां की गर्मी, उसका निकट होना देता है। उसके निकट होने में वह बच्चा बढ़ने लगता है, कोई चीज उसमें गतिमान होने लगती है।
छोटे-छोटे, छोटे-छोटे मित्रों के ग्रुप एक-दूसरे के केंद्र को सजग कर सकते हैं। अगर पचास लोग एक साथ बैठ कर ध्यान करें केंद्र पर, तो उन पचासों लोगों के आस-पास जो वाइब्रेशंस, जो विद्युत वातावरण पैदा होता है, वह प्रत्येक के भीतर तीव्र गति पैदा कर देगा।
और अगर यह भीतर सोई हुई कुंडल की शक्ति थोड़ी-थोड़ी पहचान में आने लगे कि कहां है, तो जैसे ही आपको पहचान में आएगी कि कहां है, आपके जीवन की पूरी धारा बदल जाएगी। क्योंकि आपको पहली दफा पता चलेगा, खजाना तो यहां है और मैं कहां खोज रहा हूं! और आपको पहली दफा पता चलेगा, शक्ति तो यहां है, मैं कहां खोज रहा हूं! और आपको पहली दफा पता चलेगा, आनंद तो यहां है, मैं कहां खोज रहा हूं! और तब जीवन जैसे एक कनवर्शन...।
कनवर्शन का मतलब यह नहीं होता कि कोई हिंदू मुसलमान हो जाए। यह तो बेवकूफी है। इससे क्या मतलब है कि कोई मुसलमान हिंदू हो जाए, कि कोई ईसाई जैन हो जाए, कि कोई जैन ईसाई हो जाए, यह क्या मतलब है? इससे कोई मतलब नहीं है। कनवर्शन का मतलब है: कोई आदमी बाहर से भीतर हो जाए। वह चाहे हिंदू हो, चाहे मुसलमान हो, चाहे ईसाई हो, चाहे कोई भी हो, चाहे कोई भी न हो। कोई आदमी बाहर से भीतर हो जाए, उसके पूरे आकर्षण का केंद्र बाहर से हट जाए और भीतर पहुंच जाए, वह आदमी कनवर्ट हो गया, वह कनवर्शन हो गया। वह आदमी लौट गया, वह वापस लौट गया। वह वहां पहुंच गया, जहां पहुंचने की यात्रा सार्थक है, जरूरी है, सारपूर्ण है।
जिज्ञासा करें कि ‘मैं कौन हूं’ और अपने काम-केंद्र के आस-पास आंख बंद करके खोज करें कि सेंसेशन, शक्ति का कहां स्पंदन हो रहा है। किस जगह मालूम पड़ रहा है कि शक्ति है। वह स्पष्ट मालूम होने लगेगी। जैसे कोई मौन होकर बैठ जाए, तो हृदय की धड़कन मालूम होती है। आप दिन भर काम में लगे रहें, हृदय की धड़कन मालूम नहीं होती। आप मौन हो जाएं, आपको हृदय की धड़कन मालूम होगी। अगर आप और मौन होकर बैठेंगे और ध्यान वहीं ले जाएंगे, तो आपको बराबर एक नये तरह का स्पंदन, एक नये वाइब्रेशन से परिचय होगा, जिसका आपको कोई पता नहीं है। एक नई नाड़ी आपको मिलेगी--जीवन की नाड़ी; जहां कोई चीज कंप रही है, कोई कोंपल, कोई अंकुर तड़प रहा है निकलने को, कोई चीज फूट पड़ने को व्याकुल है, कोई झरना टूटना चाहता है। और जब वह वहां मालूम हो, तो उसको रोज-रोज पहचानने की कोशिश करना।
जैसे किसी को कोई खजाना मिल जाए, तो वह रोज जब कोई भी न हो, तब तिजोरी खोले, खजाने को जाकर देखे, तिजोरी बंद करे, वापस आ जाए। जैसे किसी के खीसे में एक हीरा रखा हो, वह सबसे बात करता रहे, कभी-कभी हाथ डाले, हीरे को देख ले कि वह है और वापस आ जाए। फिर ऐसे ही चौबीस घंटे जब मौका मिल जाए, तब उस स्पंदन के पास चले जाना, वह जहां भीतर केंद्र है, जहां चीजें कंप रही हैं और एक नये जीवन की दिशा में जाने का संघर्ष चल रहा है। जहां कांशसनेस मनुष्य को पार करने की कोशिश कर रही है, जहां चेतना ट्रांसेंड करना चाहती है, जहां चेतना पशु से ऊपर उठना चाहती है--दीवालें तोड़ कर, घेरे तोड़ कर, खोल तोड़ कर ऊपर उठ कर कहीं और जाना चाहती है। उस जगह को पहचान लेना। फिर कुछ भी हो जाए--फिर कोई दुकान पर बैठा हो, बाजार में बैठा हो, लेकिन मौके-बेमौके मौका मिलेगा और वह भीतर चला जाएगा। उस जगह को पहचान कर वापस लौट आएगा। और एक लविंग केयर, एक प्रेमपूर्ण हिफाजत पैदा हो जाएगी कि भीतर भी कोई एक जगह, कोई एक मंदिर है।
और जिस तरह से यह हिफाजत बढ़ेगी, यह ध्यान बढ़ेगा, यह सावधानी बढ़ेगी, वैसे-वैसे बहुत स्पष्ट ज्योति, बहुत स्पष्ट जागती हुई शक्ति का प्रवाह और लहर अनुभव होने लगेगी। वह लहर धीरे-धीरे किस मार्ग से आगे बढ़ सकती है और कैसे पहुंच सकती है वहां, जहां मिलन हो जाता है, जहां उससे मिलन हो जाता है, जिससे मिलने को हमारे प्राण तड़पे हुए हैं। जहां उसको हम पा लेते हैं, जिसे न मालूम कितने जन्मों से हम खोज रहे हैं। जिसे न मालूम कितनी-कितनी यात्राओं में हमने खोजा और पुकारा और चिल्लाया है और जिसकी कोई झलक नहीं मिली। और मजे की बात है, वह हमारे पास है!
वैसे ही, मैंने सुना है, एक आदमी अपने घोड़े को खोजने निकला था और वह जगह-जगह पूछता फिरता था कि मेरा घोड़ा कहां है? मेरा घोड़ा कहां है? वह घोड़े पर सवार था! लेकिन जिससे भी उसने पूछा, मेरा घोड़ा कहां है, उसने सोचा, इस घोड़े की बात न होगी, क्योंकि इस घोड़े पर तो यह सवार ही है। कोई दूसरा घोड़ा होगा। उसने कहा: हमने नहीं देखा; इस रास्ते से नहीं निकला। फिर वह दूसरे रास्ते पर जाता और पूछता, घोड़ा कहां है? मेरा घोड़ा कहां है? और जो भी मिलता, वह यह सोचता कि जिस घोड़े पर यह सवार है, इसकी बात न होगी, क्योंकि इसकी बात की जरूरत क्या है। और वह आदमी खोजता रहा सारी जमीन पर और एक आदमी न मिला जो उससे कहता कि घोड़ा! घोड़े पर तू सवार है। क्योंकि लोगों ने सोचा, यह तो इस घोड़े पर सवार है ही, यह तो घोड़ा इसे पता ही होगा। लेकिन वह उसी घोड़े को भूल गया था।
असल में, वह शराब पी गया था और घोड़े पर सवार हो गया था। और घोड़ा तेजी से भागता था और वह पूछता था: मेरा घोड़ा कहां है? और घोड़ा उसे ले जाता था नई-नई बस्तियों में और पूछता था: मेरा घोड़ा कहां है? और दूसरे लोग इसलिए नहीं कहते थे कि यही होगा घोड़ा, क्योंकि जिस पर तुम बैठे हो उसकी बात क्या करनी! वे दूसरे रास्ते बताते थे कि उस रास्ते पर और देखो, इस रास्ते पर तो नहीं मिला।
आप धन के रास्ते पर चले जाना पूछते कि आनंद कहां है? लोग कहेंगे, जो धन के रास्ते पर गए हैं, वे कहेंगे, हमें तो नहीं मिला। लेकिन दूसरे रास्ते पर चले जाओ--यश के रास्ते पर, शायद वहां मिल जाए। यश के रास्ते पर जाएंगे, वहां लोग मिलेंगे, वे कहेंगे, यहां तो हमें नहीं मिला। ज्ञान के रास्ते पर चले जाओ, शायद वहां मिल जाए। और ऐसे हजार-हजार रास्ते हैं। और आदमी भटकता रहता है, भटकता रहता है। और हर जिंदगी के बाद फिर भूल जाता है कि भटकन बहुत हो चुकी। फिर नई भटकन शुरू हो जाती है। और बार-बार वही भूल है, बार-बार वही भूल है, बार-बार वही भूल है। और धीरे-धीरे हम यह भूल ही जाते हैं कि हम जिसे खोज रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह इसीलिए न मिलता हो कि हम उसी पर सवार हैं! कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम वही हैं!
और मैं आपसे कहता हूं कि हम वही हैं, जिसकी खोज है! हम जिसे मांग रहे हैं, वही हैं! हम जिसे पुकार रहे हैं, वही हैं! इसलिए हम पुकारते रहें, खोजते रहें, दौड़ते रहें, हम उसे कभी नहीं पा सकेंगे। कितनी ही पुकार व्यर्थ जाएगी, कितनी ही दौड़ व्यर्थ जाएगी।
उसे तो अगर पाना है, तो पहले इसे ही खोज लेना होगा जो मैं हूं! और इस ‘जो मैं हूं’ की पहली खोज का बिंदु, जहां हम अभी हैं--अभी हम परमात्मा पर नहीं हैं, अभी हम राम पर नहीं हैं--अभी हम काम पर हैं, अभी हम सेक्स पर हैं। वहीं से चलना पड़ेगा। वहीं से खोज करनी पड़ेगी।
तो आज यह दूसरा सूत्र आपको देता हूं: अपने भीतर वह स्पंदित बिंदु खोजें जहां सब केंद्र है। चौबीस घंटे उसका स्मरण करें कि कहां है। और एक दफा दिखाई पड़ने लगेगा, फिर स्मरण भी नहीं करना पड़ेगा।
फिर जैसे एक स्त्री आती है गांव से पानी भर कर, कुएं की तरफ से, वह अपनी सहेलियों से बात कर रही है, वह घड़े की तरफ खयाल भी नहीं करती, हाथ भी नहीं लगाती, वह घड़ा सम्हला रहता है। कहीं भीतर कोई चेतना सम्हाले हुए है। सम्हाले हुए है! वह घड़े को हाथ भी नहीं लगाए हुए है। वह दूसरों से बात भी कर रही है, वह जोर से गपशप करती हुई जा रही है। आप सोचेंगे, इसने घड़े को बिलकुल छोड़ दिया है। उसने जरा भी नहीं छोड़ा है। पूरी कांशसनेस, पूरा ध्यान घड़े को पकड़े हुए है।
वैसे फिर आदमी सब करता रहता है और भीतर पूरा ध्यान उस बिंदु को पकड़े रहता है। और उस बिंदु को जैसे ही कोई ध्यानपूर्वक पकड़ता है, क्रांति शुरू हो जाती है। जैसे ही उस बिंदु को कोई ध्यानपूर्वक पकड़ता है, उसकी ऊपर की यात्रा शुरू हो जाती है। और जैसे ही कोई उस बिंदु की तरफ पीठ करता है, उसकी नीचे की तरफ यात्रा शुरू हो जाती है। सेक्स की नीचे की तरफ यात्रा होती है--अंधकार में, अज्ञान में, अनअवेयर, मूर्च्छित। और सेक्स की ऊपर की तरफ यात्रा होती है--होश में, जागृति में, अवेयरनेस में। बस यह एक बात: उस बिंदु की तरफ होश है, या बेहोशी है। अगर बेहोशी है, तो आप नीचे ही नीचे भटकते चले जाएंगे। और अगर होश है, तो ऊपर के पहले द्वार पर आप खड़े हो जाते हैं।
आगे की और यात्रा कैसे हो सकती है, वह कल सुबह हम बात करेंगे।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी कर दूंगा।
एक फकीर के आश्रम के पास से कुछ सौदागर निकलते थे। वे किसी दूर बाजार में अपना सामान बेचने जाते थे। रास्ते में सोचा, अपने ऊंट ठहरा लें, फकीर का आश्रम भी देख लें। सुबह का सूरज था, अभी-अभी किरणें फैली थीं। वे फकीर के आश्रम में पहुंच गए। लेकिन देख कर हैरान हुए। फकीर का आश्रम तो अजीब था। लोग नाच रहे थे, लोग कूद रहे थे, लोग हंस रहे थे, कोई वीणा बजा रहा था। उनमें से कुछ ने कहा: यह कैसा आश्रम है, यह कैसी साधना है, ये लोग क्या कर रहे हैं? कुछ ने कहा कि ऐसा आश्रम तो हमने कभी भी नहीं देखा। चलो, वापस लौट चलें, यह तो धोखा है। यहां आमोद-प्रमोद, यह राग-रंग!
लेकिन वह फकीर कुछ न बोला, हंसता रहा। उसके शिष्य नाचते रहे। वे सौदागर चले गए।
फिर वर्ष भर बाद वापस लौटते थे वे सौदागर। उन्होंने सोचा कि चलो, अब फिर उस आश्रम पर एक नजर डालते चलें, वहां क्या हाल है। आश्रम के पास आए, तो वहां बहुत सन्नाटा था। झांक कर भीतर देखा, तो सारे लोग जिनको नाचते पा गए थे, वे आंखें बंद किए वृक्षों के नीचे न मालूम कहां खोए हुए थे। उनमें से कुछ ने कहा: अब कुछ ठीक हुआ। यह कुछ बात समझ में आती है। यह कुछ अच्छा मालूम होता है।
वह फकीर फिर हंसने लगा। फिर भी कुछ न बोला। वे सौदागर चले गए।
फिर तीसरे वर्ष वे फिर व्यापार के लिए निकले हैं। उन्होंने सोचा कि चलो, उस आश्रम को भी देखते चलें।
वहां वे गए। पहली बार आए थे, तो नाच-रंग था। दूसरी बार आए थे, तो लोग बिलकुल मौन बैठे थे। इस बार गए, तो वहां घनघोर सन्नाटा था। अंदर भीतर झांक कर देखा, तो वहां कोई भी न था। सिर्फ गुरु एक झाड़ के नीचे चुपचाप बैठा था।
उन्होंने कहा: अरे! वे सारे शिष्य कहां गए?
उस गुरु ने कहा: अब तुम्हें मैं कह दूं। तुमने बार-बार पूछा, मैं चुप रह गया। क्योंकि राह चलने वाले लोगों को सब बातें बतानी संभव नहीं हैं। और सब बातें बताने से उनका हित भी नहीं होता। और फिर जो राह चलते कुछ भी कह जाता है, वह बहुत बुद्धिमानी का लक्षण भी नहीं देता। फिर भी, अब तुम आ गए हो, फिर तीसरी बार, तो तुम्हें मैं कहता हूं। पहली बार, मेरे शिष्य वहां थे, जहां सारे मनुष्य हैं। और वहीं से यात्रा शुरू हो सकती है, जहां हम हैं। तो मैं उन्हें अगर गंभीर बना कर बिठा देता, तो वह गंभीरता झूठी होती। जैसी कि अक्सर गंभीर लोगों की गंभीरता झूठी होती है। भीतर तो वही आदमी बैठा रहता है, वही नाचने-कूदने वाला। ऊपर से वे लांग फेसेस, चेहरे लंबे बनाए बैठे हैं। और भीतर? भीतर वही उछल-कूद चल रही है। उसने कहा कि नहीं, मैं तो यात्रा वहां से करवा सकता हूं, जहां आदमी है। वे शिष्य आए थे, वे यहीं थे, इस आमोद-प्रमोद की दुनिया में ही थे। यहीं से शुरू करना जरूरी था। मैंने उन्हें पहले नाचने-गाने के बीच सजग होना सिखाया कि नाचो और गाओ और अपने भीतर सजग हो जाओ कि कौन से बिंदु पर तुम्हारे जीवन का स्पंदन है।
उन्होंने कहा: अच्छा! हम तो यह समझे कि यह क्या हुल्लड़ मचा हुआ है! यह कैसा आश्रम है! यह कैसा गुरु है!
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा कि इतने जल्दी निर्णय सिर्फ नासमझ लेते हैं। सच तो यह है कि समझदार दूसरे के बाबत निर्णय ही नहीं लेते, अपने ही बाबत निर्णय लेते हैं।
फिर भी, उन्होंने कहा: दूसरी बार हम आए, तब क्या हो गया था?
उस गुरु ने कहा: उन्होंने अपने बिंदु को पहचान लिया था और वह बिंदु इतना रस देने लगा था कि अब नाचना बेमानी हो गया। अब वह बिंदु इतना संगीत देने लगा कि बाहर का संगीत--वीणा तोड़ दी, छोड़ दी। अब वे भीतर इतने आनंद में चले गए कि उन्होंने कहा कि हम बाहर चुप होना चाहते हैं। कनवर्शन हो गया। तो हमने कहा: अब तुम चुप होना चाहते हो, तो हो जाओ। फिर वे चुप हो गए। जब तुम दूसरी बार निकले थे, तब वे दूसरी हालत में थे।
उन लोगों ने पूछा: अब वे कहां हैं?
उस गुरु ने कहा: अब बात पूरी हो गई। अब वे वहां पहुंच गए, जहां पहुंचने के बाद फिर कोई आगे यात्रा नहीं रह जाती। मैंने उन्हें विदा कर दिया। अब वे जा चुके हैं। अब मैं यहां अकेला हूं। अब मैं फिर प्रतीक्षा कर रहा हूं उन लोगों की जो नाचते हुए आएं, ताकि मैं उनको शरीर के नाच से अंततः वहां पहुंचा दूं, जहां परमात्मा का नाच है।
लेकिन सब यात्रा वहां से होती है, जहां हम हैं। और हम सब, जहां हैं, उसको छिपाना चाहते हैं और जहां नहीं हैं, उसको मानना चाहते हैं। फिर कठिनाई शुरू हो जाती है। और सारी मनुष्य-जाति इस कठिनाई में पड़ी है कि मनुष्य पशु है और मनुष्य अपने को परमात्मा समझ रहा है।
मनुष्य परमात्मा हो सकता है। ध्यान रहे, हो सकता है, है नहीं। और जो मान लेगा कि हूं ही, उसकी यात्रा यहीं टूट गई।
मनुष्य पशु है; पशु मान लेने में कष्ट होता है। लेकिन जो सत्य है, उसे मानने में कष्ट नहीं होना चाहिए। हम पशु के बिंदु पर खड़े हैं, वहां से यात्रा करनी है और वहां तक पहुंच जाना है, जहां परमात्मा है।
यह यात्रा कैसे हो सकती है, इसके तीसरे चरण पर कल संध्या आपसे बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
जीवन क्रांति के सूत्रों के संबंध में पहले सूत्र पर कल हमने बात की।
एक पूछती हुई चेतना, एक जिज्ञासा से भरा हुआ मन, एक ऐसा व्यक्तित्व, जो जो है वहीं ठहर नहीं गया है, बल्कि वह होना चाहता है जो होने के लिए पैदा हुआ है। एक तो ऐसा बीज है जो बीज होकर ही नष्ट हो जाता है और एक ऐसा बीज है जो फूल के खिलने तक की यात्रा करता है, सूरज का साक्षात्कार करता है और अपनी सुगंध से दिग-दिगंत को भर जाता है।
मनुष्य भी दो प्रकार के हैं। एक वे, जो जन्म के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। जीते हैं, लेकिन वह जीना उनकी यात्रा नहीं है। वह जीना केवल श्वास लेना है। वह जीना केवल मरने की प्रतीक्षा करना है। उस जीवन का एक ही अर्थ हो सकता है, उम्र। उस जीवन का एक ही अर्थ है, समय को बिता देना। जन्म और मृत्यु के बीच के काल को बिता देने को बहुत लोग जीवन समझ लेते हैं। एक तो ऐसे लोग हैं।
एक वे लोग हैं, जो जन्म को एक बीज मानते हैं और उस बीज के साथ श्रम करते हैं कि जीवन का पौधा विकसित हो सके।
जो जिज्ञासा करते हैं, वे दूसरे तरह के मनुष्य होने का पहला कदम उठाते हैं।
दूसरा कदम क्या है? दूसरा सूत्र क्या है?
दूसरे सूत्र के संबंध में पहली बात, हम निरंतर सुनते हैं, ‘स्वयं को जानो--नो दाई सेल्फ।’ सुनते हैं, लेकिन कुछ अर्थ जाहिर नहीं होता। हम यह भी सुनते हैं कि ‘जो ऊपर आकाश में है, वह परमात्मा जिसकी तरफ हाथ उठते हैं कभी, वह प्रत्येक के भीतर भी है।’ यह भी हम सुनते हैं कि ‘हमारे भीतर वह है।’ लेकिन हमारे भीतर उसका कोई भी पता हमें नहीं चलता है। हमारे भीतर तो हम ही हैं, उसका तो कोई पता नहीं चलता है! और हम अगर परमात्मा हैं, तो हंसी आने जैसी बात है। हम कैसे परमात्मा हैं? पशु तो मिल सकता है हमारे भीतर, परमात्मा का तो कोई पता नहीं चलता है। लेकिन सुनते हैं, सुन लेते हैं, यह भी सुन लेते हैं कि जिसे खोजना है, वह बाहर नहीं है। यह भी सुन लेते हैं कि भीतर छिपा है सारा राज, सारा रहस्य। वहीं खोजना है। लेकिन कहां खोजें? भीतर यानी क्या? कहां जाएं? किससे पूछें भीतर? कहां है द्वार? कहां है रास्ता? कहां है मार्ग? कहां छिपी है वह ऊर्जा? कहां है वह शक्ति का स्रोत? वह बीज कहां है जो हमारे भीतर है और फूल बन सकता है? उस बीज का पता चले, तो हम खाद भी खोज लें, भूमि भी खोज लें, पानी भी जुटा दें। लेकिन वह बीज कहां है?
आज इस दूसरे सूत्र में उस बीज के संबंध में ही कुछ मैं आपसे कहना चाहता हूं।
निश्चित ही, वह बीज प्रत्येक के भीतर है। हम प्रत्येक वही बीज हैं। लेकिन वह कहां है?
अगर हम पशुओं को खोजने जाएं, तो एक बात स्पष्ट दिखाई पड़ेगी। पशुओं का केंद्र, उनके जीवन-ऊर्जा का बिंदु, जहां से वे जीते हैं, जहां वे रहते हैं, वह बिंदु कहां है? पशु का बिंदु खोजें, तो अपना बिंदु भी खोजने में सरलता होगी। क्योंकि हम भी पशुओं की कड़ी में आगे के एक पशु से ज्यादा नहीं हैं। अभी तो ज्यादा नहीं हैं। ज्यादा हो सकते हैं, लेकिन हैं नहीं। मनुष्य भी पशुओं की कड़ी में आगे की एक कड़ी है। और उस कड़ी में जन्म के साथ कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ जाता है। जहां पशु जीता है, वहीं हम जीते हैं। जहां पशु का केंद्र है, वहीं हमारा केंद्र है।
पशुओं का केंद्र कहां है?
पशुओं के लिए न तो कोई परमात्मा है, न कोई आत्मा है। पशुओं के लिए न कोई सत्य है, न कोई जीवन की खोज है।
पशु कहां जीते हैं?
पशुओं के जीवन का केंद्र है: सेक्स। उनके जीवन का केंद्र है: काम, यौन।
जिस मनुष्य के जीवन का केंद्र भी सेक्स रह जाए, वह मनुष्य पशुओं से ऊपर नहीं उठ सका है। आमतौर से साधारणतः हमारे जीवन का केंद्र भी वही है।
मकान भी हम बनाते हैं, तो उस मकान बनाने में पशुओं के बनाए हुए घोसलों से ज्यादा अर्थ नहीं है। धन भी हम इकट्ठा करते हैं, उस धन में भी पशुओं के संग्रह की जो वृत्ति है--चींटियां संग्रह करती हैं, चिड़ियां संग्रह करती हैं, उससे भिन्न कोई स्थिति नहीं है। अपनी जमीन पर हम लड़ते हैं, एक-एक इंच जमीन पर कि मेरी जमीन है--मेरे देश की जमीन है, मेरे राष्ट्र की जमीन है। उसमें भी पशुओं का जमीन पर जो कब्जे की प्रवृत्ति होती है, उससे भिन्न प्रवृत्ति नहीं है। पशु भी जिस जमीन पर रहता है, दूसरे पशु का प्रवेश बर्दाश्त नहीं करता है।
ध्यान रहे, जब तक जमीन पर हक करने वाले लोग हैं--चाहे व्यक्ति, चाहे समाज, चाहे राष्ट्र, तब तक आदमी पशुता के ऊपर नहीं उठ सकता है। सारी राष्ट्रीयताएं, सारे जमीन के दावे, पशु का जो दावा है जमीन का, उसी से निकले हुए हैं।
और पशु जीता है सेक्स के आस-पास, काम के आस-पास, यौन के आस-पास। वही है उसके जीवन का केंद्र। जीता है, जन्मता है, दूसरों को जन्म देता है और मर जाता है। उसके जन्म का एक ही अर्थ है कि दूसरों को जन्म दे जाए। यह बड़ी अजीब बात है! अंडा मुर्गी बने, मुर्गी फिर अंडे रख जाए। अंडे फिर मुर्गियां बनते रहें, मुर्गियां फिर अंडे रखती रहें। अंडे का काम है मुर्गी पैदा करे, मुर्गी का काम है अंडे पैदा करे। और यह एक चक्र वीसियस चलता रहे।
किसी ने पूछा कि अंडा क्या है? तो किसी ने कहा: अंडा, अंडा मुर्गी के द्वारा फिर अंडा होने का रास्ता है। अंडा ही फिर मुर्गी है, फिर अंडा हो जाता है।
पशु जनन के आस-पास घूम रहे हैं। सारी पशु-प्रकृति, सारे पौधों का जगत अपने से दूसरे को जन्म करके मर जाता है। यही उसका लक्ष्य है। अगर कोई आदमी भी सिर्फ इसलिए जी रहा है कि वह कुछ बच्चे पैदा कर जाए, तो वह आदमी पशुओं और पौधों से भिन्न कहां है!
साधारणतः लेकिन हमारा केंद्र भी सेक्स है। इसे समझ लेना जरूरी है। क्योंकि उसी केंद्र से वह शक्ति उठ सकती है, वह बीज उठ सकता है, जो परमात्मा तक पहुंच जाए। जैसे एक बीज को हम जमीन में बो दें, तो बीज की खोल टूट जाती है, एक पौधा निकलता है, आकाश की तरफ उठने लगता है, जमीन के बाहर आ जाता है, फिर फूल खिलते हैं, सुगंध फैलती है।
सेक्स, वह जो मनुष्य के काम की इंद्रिय है, वह जो वासना है, उस वासना के आस-पास ही सारी शक्ति इकट्ठी है, सारी ऊर्जा इकट्ठी है। वह ऊर्जा या तो और बच्चों को पैदा करने में समाप्त होती रहेगी और आदमी नष्ट हो जाएगा, या वह ऊर्जा ऊपर की तरफ गतिमान हो सकती है। नीचे की तरफ द्वार छोड़ कर ऊपर की तरफ आगे बढ़ सकती है। और सेक्स की ऊर्जा अगर ऊपर उठने लगे, तो वह मस्तिष्क के उन केंद्रों तक पहुंच जाती है, जहां फूल खिलते हैं, जहां फूल खिल सकते हैं।
कहां छिपा है हमारा जीवन?
हमारा जीवन हमारे शरीर के ठीक मध्य में छिपा हुआ है। वहां से या तो वह नीचे की तरफ बहेगा, और तब आने वाली संततियां पैदा होती रहेंगी, या फिर ऊपर की तरफ उठेगा, और परमात्मा के अनुभव को उपलब्ध होगा। हम उसे कहां ले जाएंगे, यह हमारे ऊपर निर्भर है। हम उसे कहां ले जा रहे हैं, यह भी हमारे ऊपर निर्भर है। हम उसे नीचे की तरफ बहाते रहेंगे और नष्ट हो जाएंगे, तो हम जो ऊपर की तरफ छिपे हुए रास्ते थे, उनसे कभी परिचित नहीं होंगे। और जो छिपे थे राज और रहस्य और आनंद और सत्य, वे भी अपरिचित रह जाएंगे।
तो जब मैं कहता हूं कि जिज्ञासा करें--मैं कौन हूं?... कल मैंने आपसे कहा कि चौबीस घंटे के सामान्य जीवन में एक जिज्ञासा पकड़ ले कि मैं कौन हूं? यह प्राणों में हमारे प्रश्न उठने लगे कि मैं कौन हूं? उठते, बैठते, रास्ते पर चलते चौंक कर हमारे भीतर कोई पूछने लगे कि मैं कौन हूं? रात सोते, बिस्तर पर जाते, सुबह उठते कोई चीखने लगे हमारे भीतर कि मैं कौन हूं? तो आप हैरान हो जाएंगे। जितने जोर से यह प्रश्न भीतर उठेगा, जितना यह प्रश्न सक्रिय होगा, जितना यह प्रश्न भीतर घूमने लगेगा, उतना ही आप हैरान होंगे कि आपके सेक्स-केंद्रों के आस-पास कोई चीज गतिमान होने लगेगी, कोई चीज कंपने लगेगी, कोई चीज हिलने लगेगी, कोई नया अंकुर आपको भीतर कंपता हुआ, डोलता हुआ, उठता हुआ मालूम पड़ने लगेगा।
इसलिए अक्सर यह होता है कि जो लोग आध्यात्मिक साधना में उतरते हैं, एकदम से उनकी सेक्स की कामना जोर से बढ़ती हुई मालूम होती है। उसके बढ़ने का और कोई कारण नहीं है। जो भी जीवन की जिज्ञासा करेगा, जो भी जीवन की खोज में निकलेगा, सबसे पहले जन्म का जो स्रोत है, वहीं उसकी चोट होगी। वहीं से यात्रा शुरू होगी।
इसलिए जो भी कोई जिज्ञासा करेगा, साधना में लगेगा, पूछेगा, खोजेगा, उसे अचानक पता चलेगा कि जैसे उसकी काम की वासना तीव्र हो रही है। लेकिन उससे घबड़ाना मत। और जोर से पूछना, और खोजना कि किस जगह हमारे शरीर के भीतर कौन सी वह जगह है, उसे पिनपॉइंट करना, कहां है वह केंद्र, जहां कंपन हो रहा है। और अगर उसको ध्यान किया, एकांत में बैठ कर सारे ध्यान को वहां ले गए, जहां कंपन हो रहा है, नई शक्ति उठ रही है, तो आपके भीतर एक नया द्वार खुल जाएगा, जो अभी बंद पड़ा है। एक बीज टूट जाएगा, एक नई यात्रा शुरू हो जाएगी। एक झरने का पत्थर हट जाएगा और एक झरना बहना शुरू हो जाएगा।
लेकिन हमने कभी पूछा नहीं है। अगर कोई व्यक्ति थोड़ी देर एकांत में बैठ कर सिर्फ यही पूछे कि मैं कौन हूं? और सिर्फ एक ही बात पूछता चला जाए कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? तो वह हैरान हो जाएगा। ‘मैं कौन हूं’ की सारी चोट कामवासना के केंद्र पर पड़ती है। वह जो ‘हूं’ की आखिरी चोट है, वह कामवासना के केंद्र पर पड़ती है, वहां कोई चीज कंपनी शुरू हो जाती है और जगनी शुरू हो जाती है। वहां शक्ति इकट्ठी है, वहां रिजर्वायर है, वहां संगृहीत है सब-कुछ। वह नीचे की तरफ भी बह सकता है, वह ऊपर की तरफ भी ले जाया जा सकता है। सिर्फ शास्त्र पढ़ लेने से और मैं आत्मा हूं, इस तरह की बातें सीख लेने से कोई कहीं पहुंच नहीं सकता। कुछ करना पड़ेगा।
पहली बात है: जिज्ञासा।
दूसरी बात है: जिज्ञासा का केंद्र।
कहां हम जिज्ञासा को केंद्रित करें? कहां हम पूछें? किस जगह हम चोट करें? कहां सारा चित्त एकाग्र होकर चोट करे?
जैसे कोई आदमी जमीन खोदता हो, तो एक ही जगह जमीन खोदे, तो थोड़ी देर में पत्थर निकल जाएंगे, मिट्टी निकल जाएगी, कचरा-कूड़ा निकल जाएगा और जलस्रोत प्रकट होने शुरू हो जाएंगे। लेकिन कोई दूसरा आदमी एक जगह दो हाथ जमीन खोदे, दूसरी जगह चार हाथ जमीन खोदे, तीसरी जगह कुछ और जमीन खोदे, तो खोद तो बहुत लेगा, लेकिन कभी कहीं से पानी नहीं निकलेगा।
ध्यान रहे, जो लोग साधना में जा रहे हैं, वे जीवन के कुएं को खोदने के लिए जा रहे हैं। उनके सामने बहुत स्पष्ट होना चाहिए कि उनकी सारी जिज्ञासा, उनकी सारी साधना, उनका सारा ध्यान, उनके सारे जीवन का जो बोध है, जो अवेयरनेस है, वह किसी एक जगह पर निरंतर चोट करती रहे--निरंतर चोट करती रहे, ताकि वहां के पर्दे टूट जाएं, वहां की मिट्टी कट जाए, वहां की चट्टान कट जाए और जीवन के जो स्रोत हैं वे प्रकट होने शुरू हो जाएं।
एक बात ध्यान में ले लेना, और यह बात मनुष्यता के ध्यान से बिलकुल हट गई है, और इसके हट जाने का कारण यह है कि सेक्स के संबंध में हम किसी को कभी कुछ नहीं कहते हैं। बच्चों से कुछ बात नहीं करते हैं। और हमें यह पता नहीं कि जिसकी हम बात नहीं कर रहे हैं, वहीं वह शक्ति भी छिपी है, जो परमात्मा तक ले जाने का रास्ता बनेगी। निश्चित ही, वहीं वह शक्ति भी छिपी है, जो पशु तक ले जाती है। वहीं वह शक्ति भी छिपी है, जो अंधकार में उतार देती है। वहीं वह शक्ति भी छिपी है, जो प्रकाश में ले जाती है। लेकिन अगर उसकी बात छिपा ली, अगर सब तरफ से पर्दे में कर ली और किसी को पता नहीं चला, तो वह बीज प्रकाश की तरफ तो नहीं जा सकेगा, ध्यान रखना, अंधेरे की तरफ अपने आप चला जाएगा। क्योंकि नीचे जाने के लिए किसी के सहारे की, साथ की, ज्ञान की कोई भी जरूरत नहीं होती है, नीचे उतरना अपने से हो जाता है। नीचे उतरना इंस्ंिटक्टिव है, नीचे उतरना प्राकृतिक है।
इसलिए जब बच्चा जवान होगा, सेक्स की, नीचे की यात्रा अपने आप शुरू हो जाएगी। और ऊपर की यात्रा के संबंध में न उसे कभी कहा गया है, न उसे कभी बताया गया है। उसके मां-बाप ने, उसके समाज ने, उसके शिक्षकों ने डर कर कि कहीं खतरा न हो जाए, अंधकार में कोई न चला जाए, सारी बात छिपा ली है। वह छिपाना बहुत खतरनाक हो गया है। क्योंकि उसका परिणाम एक हुआ है कि जो शक्ति ऊपर ले जा सकती थी, वह सिर्फ नीचे ले जाती है और कहीं भी नहीं ले जाती।
तो आज दूसरे सूत्र पर मैं आपको उस केंद्र की तरफ इशारा करना चाहता हूं, जिसके प्रति आप सजग हो जाएं, तो आपके जीवन में क्रांति हो जाएगी। और अगर उसके प्रति आप सजग नहीं होते हैं, तो आपके जीवन में कभी कोई क्रांति नहीं हो सकती है।
जीवन की क्रांति कहां से होगी? कहां है वह आग, जहां से हम जलाएंगे दीये को? वह हमारे भीतर कहां है?
वह हमारे भीतर मस्तिष्क में नहीं है वह आग, वह हमारे हृदय में भी नहीं है। वह आग हमारे सेक्स सेंटर पर केंद्रित है। और वह वहां से उठे, तो वह हृदय तक भी आएगी। और जब वह आग, वह जलती हुई ज्योति हृदय पर आती है, तो सारा जीवन प्रेम हो जाता है। और जब वही आग और जलती हुई ज्योति मस्तिष्क तक आती है, तो सारा जीवन ज्ञान हो जाता है। लेकिन वही है आग, और वह अभी सेक्स सेंटर पर केंद्रित है, वह वहीं रुकी हुई है। वह वहीं से छेद है, वह वहीं से बहती जा रही है। वहीं जैसे किसी घड़े में छेद हो, उसका सारा पानी गिरता जाता हो। और वहां से ऊपर उठाने का तो कोई सवाल नहीं है।
अगर सेक्स की ऊर्जा नीचे की तरफ बहती रहे, तो हम सिर्फ पशु की तरह व्यवहार करते हैं, हम मनुष्य कभी नहीं हो पाते हैं। हम कितना ही ढांक लें अपने को, छिपा लें, लेकिन हमारे भीतर पशु ही बैठा होता है। हमारी सारी शिष्टता, हमारी सारी सभ्यता, हमारी सारी संस्कृति हमें सुसंस्कृत पशु बना देती है और कुछ भी नहीं। लेकिन हमारे भीतर वही बैठा होता है। जाएं, हमारी फिल्म देख लें, हमारी साहित्य की किताब पढ़ लें, हमारी कविता पढ़ें, हमारा संगीत सुनें, हमारा नृत्य देखें, और सबके पीछे घूम-फिर कर सेक्स खड़ा हुआ दिखाई पड़ेगा!
हमारे जीवन के सारे पहलुओं में हमने सब तरफ से छिपाने की कोशिश की है, लेकिन सेक्स वहां खड़ा हुआ है। उसे हम छिपा भी नहीं सकते। हम उसे बदल सकते हैं, छिपा नहीं सकते। और अगर हम उसे बदल लें, तो जिसे हम सेक्स जानते हैं, जिसे हम काम कहते हैं, वही राम बन जाता है। लेकिन उसे हम बदलेंगे तब, जब हम पहचान लें कि वह कहां है। उसका ठीक ऑब्जर्वेशन, ठीक निरीक्षण चाहिए, ठीक जगह पर श्रम चाहिए। और ठीक जगह पर श्रम न हो, तो हम भटकते रहें, हम श्रम करते रहें, उसका कोई परिणाम नहीं हो सकता है।
इसलिए दूसरे सूत्र में आपसे कहना चाहता हूं: अपनी सेक्स-ऊर्जा को, अपनी वीर्य की शक्ति को छिपा कर भूल कर अंधेरे में डाल कर मत बैठे रहना, अन्यथा जीवन के सत्य के मंदिर तक कभी भी नहीं पहुंच सकोगे। वही वीर्य की शक्ति है, जो ले जाएगी। उसके प्रति सचेत होना जरूरी है, उसके प्रति जागरूक होना जरूरी है।
और तीसरे सूत्र में आपको कहना चाहूंगा कि उसे फिर कैसे ट्रांसफार्म करें? कैसे रूपांतरित करें?
लेकिन दूसरे सूत्र में उसे पहचानना जरूरी है। हमारे प्रत्येक के शरीर के भीतर कहां है केंद्र ऊर्जा का, शक्ति का, वह हमें जान लेना चाहिए।
एक छोटे से अणु को तोड़ कर वैज्ञानिक कितनी बड़ी शक्ति को उपलब्ध हुए हैं! अणु तो हमेशा से थे। लेकिन इस सदी के पहले अणु की शक्ति का किसी को पता नहीं था। और अगर आज से सौ साल पहले, दो सौ साल पहले, हजार साल पहले कोई कहता कि एक छोटे से अणु के विस्फोट से हिरोशिमा और नागासाकी के एक लाख बीस हजार लोग जल कर राख हो जाएंगे--एक छोटे से अणु के विस्फोट से, तो लोग हंसते और कहते, तुम पागल हो गए हो! एक छोटे से अणु में इतना विस्फोट कैसे हो सकता है?
लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि एक साधारण से ऑक्सीजन या हाइड्रोजन के या किसी के भी अणु के विस्फोट से इतना परिणाम हो सकता है, तो सेक्स का अणु तो जीवित अणु है, वह तो लिविंग एटम है? अभी तो हमने डेड एटम, मरे हुए अणु का विस्फोट किया है। जिस दिन हम जीवित अणु का विस्फोट कर सकेंगे, उस दिन क्या होगा?
धर्म की सारी खोज, योग की सारी साधना, तंत्र के सारे नियम, वह जो लिविंग एटम है, वह जो जीवित अणु है, उसमें छिपी हुई शक्ति को विस्फोट करके ऊपर की तरफ ले जाने की विधि के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
लेकिन उसका हमें कोई बोध नहीं है। उससे हम डरे हुए भी हैं। खतरनाक भी है। आखिर एटम का विस्फोट खतरनाक सिद्ध हुआ। खतरनाक हाथों में कोई भी शक्ति खतरनाक हो सकती है। शायद इसीलिए शक्ति का जो सबसे महत्वपूर्ण पुंज है मनुष्य के भीतर, उसे छिपा देने का आयोजन किया गया है कि वह छिपा रहे, किसी को पता न चले। कहीं शक्ति खतरनाक हाथों में न पड़ जाए।
लेकिन शक्ति अपने आप में अशुभ नहीं होती, न शुभ होती है। उसे शुभ की तरफ ले जाया जा सकता है और अशुभ की तरफ भी। और जो अशुभ के डर से रुक जाएगा, वह शुभ की तरफ भी नहीं ले जा सकेगा।
इसलिए मनुष्यता ठहर गई है। मनुष्य को जमीन पर आए हुए अंदाजन बीस लाख वर्ष होते हैं। लेकिन बीस लाख वर्षों में सौ-दो सौ मनुष्य उस स्थिति को उपलब्ध हो सके हैं, जहां प्रत्येक मनुष्य को पहुंच जाना चाहिए था। कुछ अंगुलियों पर गिने जाने वाले लोग ठीक अर्थों में मनुष्य हो सके हैं बीस लाख वर्षों में!
और यह जो वृहत्तर मनुष्यता है, यह सिर्फ पशु के तल पर जी रही है। बच्चों को पैदा करता है आदमी और समाप्त हो जाता है। मां बेटी को जन्म दे जाती है, बाप बेटे को जन्म दे देता है और समाप्त हो जाता है। लेकिन स्वयं के भीतर जो छिपे थे ऊपर के द्वार, उनसे वह परिचित भी नहीं हो पाता है।
बाहर से देख कर शरीर को कोई पहचान भी नहीं सकता कि इसके भीतर परमात्मा भी छिपा हुआ हो सकता है। और अगर एक फिजियोलॉजिस्ट के पास जाएंगे, शरीरशास्त्री के पास, तो वह काट कर सारे शरीर को बता देगा और कहेगा: यहां तो ऐसी कोई चीज नहीं दिखाई पड़ती है। यहां तो ऐसा कुछ नहीं दिखाई पड़ता। यहां तो कोई ऐसी शक्ति नहीं दिखाई पड़ती, जो ऊपर उठ जाए।
नहीं दिखाई पड़ती है। सच तो यह है कि जो भी गहरा है और महत्वपूर्ण है, वह कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। एटम दिखाई पड़ते हैं? इलेक्ट्रॉन दिखाई पड़ता है? न्यूट्रॉन दिखाई पड़ता है? क्या दिखाई पड़ता है? जितना हम पदार्थ के भीतर घुसे हैं, उतना हम वहां पहुंच गए हैं, जहां दिखाई पड़ना बंद हो गया है। जहां हम सिर्फ परिणाम देखते हैं, इफेक्ट्स दिखाई पड़ते हैं; लेकिन क्या है, वह तो कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
जितने हम पदार्थ के भीतर गए हैं, वहां भी वह जगह आ गई है, जहां दिखाई नहीं पड़ता। जितना आदमी स्वयं के भीतर गया, वहां भी वह जगह आ जाती है, जहां दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। लेकिन हम पदार्थ के संबंध में अदृश्य को मान लेते हैं और मनुष्य के संबंध में आदमी के शरीर की चीर-फाड़ करते हैं और कहते हैं, यहां तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
लेकिन वहां भी दिखाई पड़ सकता है। दूसरे को नहीं, मेरे भीतर मुझे दिखाई पड़ सकता है। आपके भीतर आपको दिखाई पड़ सकता है। और अगर मुझे मेरे भीतर दिखाई पड़ जाए, तो आपके भीतर भी दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। लेकिन मैं किसी दूसरे को नहीं दिखा सकता।
अब आप यहां इतने लोग बैठे हैं। अगर मैं यह कहूं कि यहां आप ही मुझे नहीं दिखाई पड़ रहे, बल्कि वह भी दिखाई पड़ रहा है, जो आपके भीतर इकट्ठा है। लेकिन इसे मैं किसी दूसरे को नहीं दिखा सकता। और वह कहां तक बढ़ा है, वह भी दिखाई पड़ सकता है। लेकिन वह दिखाई पड़ना पार्थिव नहीं है। और जीवन में जो पार्थिव पर ही रुक जाता है और कहता है: ‘जो दिखाई पड़ेगा, वहीं तक हम ठहर जाएंगे’--वह आदमी, बीज को अगर उसे दे दें, तो बीज को तोड़-फोड़ कर देख लेगा, उसमें फूल कहीं नहीं दिखाई पड़ेगा। उसमें फूल है!
शायद आपको पता न हो, एक वैज्ञानिक कुछ प्रयोग कर रहा था और एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह एक बहुत ही बारीक दूरबीन से किसी बीज को देख रहा था। और देख कर हैरान हुआ कि जब वह उस बीज को देख रहा था, अचानक एक क्षण को उसे फूल दिखाई पड़ा, बीज नहीं था! उसने आंखें तिलमिला कर वापस गौर से देखा, लेकिन उसे फिर भी फूल दिखाई पड़ा। दूरबीन अलग की है, तो वहां बीज है। वह दूसरों को बताने लगा। लेकिन दूसरों को तो वहां कुछ नहीं, बीज ही दिखाई पड़ता था। वह वैज्ञानिक उस बीज को बोया, उस बीज में फूल आया और वह देख कर दंग रह गया कि वह फूल वही है, जो उसे दूरबीन से दिखाई पड़ा था!
यह तो बिलकुल असंभव मालूम पड़ता है। लेकिन बहुत असंभव नहीं भी है, क्योंकि फूल किसी न किसी अर्थ में बीज के भीतर छिपा है। और आज नहीं कल हम कुछ ऐसी बातें खोज सकते हैं कि वह जो छिपा है, कल प्रकट होगा, वह आज दिखाई पड़ जाए। जो भविष्य में है, वह आज दिखाई पड़ जाए। असल में, जो भविष्य में है, वह हमारी देखने की सीमा के बाहर है।
हम यहां बैठे हुए हैं, हमारे ऊपर एक दरख्त पर एक आदमी बैठा हुआ हो। रास्ता चल रहा है, हम दरख्त के नीचे बैठे हैं। एक बैलगाड़ी दिखाई पड़ती है थोड़ी दूर पर, दो फर्लांग दूर पर एक बैलगाड़ी आ रही है। उसके पार हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। उसके पार भी कोई बैलगाड़ी आती है, लेकिन हमें दिखाई नहीं पड़ती है। वह दरख्त पर बैठा हुआ आदमी कहता है, एक बैलगाड़ी और है। लेकिन हम कहते हैं, हमें दिखाई नहीं पड़ती, नहीं हो सकती। वह आदमी कहता है, आती है। हम कहते हैं, भविष्य में है, अभी कैसे पता चल सकता है? लेकिन हमें भविष्य में है, क्योंकि हम नीचे बैठे हैं। वह ऊपर वृक्ष पर बैठे वाले को वर्तमान में हो सकती है, क्योंकि वह ऊपर बैठा है। और जितनी चेतना ऊपर उठती चली जाए, वे सारी संभावनाएं जो कल हो सकती हैं, वे आज दिखाई पड़ सकती हैं।
शायद आपको पता हो, बुद्ध का जन्म हुआ और एक बहुत अदभुत घटना घटी। बुद्ध का जन्म हुआ और हिमालय से एक संन्यासी उतरा। और जब वह अपने आश्रम से उतरने लगा, तो उसके मित्रों ने कहा: कहां जाते हो? उसने कहा: मैं जाता हूं, उस व्यक्ति का जन्म हुआ है, जो शीघ्र ही बुद्ध हो जाएगा। लेकिन तब तक मैं नहीं बचूंगा। मैं उसका बुद्ध रूप में कभी भी दर्शन नहीं कर पाऊंगा। मैं उसका अभी दर्शन कर आता हूं।
वह संन्यासी बुद्ध के घर आया। बुद्ध के पिता अपने छोटे से बच्चे को लेकर उसके सामने आए। उस संन्यासी ने पैर पड़े और उसकी आंख से आंसू बहने लगे। बुद्ध के पिता बहुत घबड़ा गए। और उन्होंने कहा: आप रोते हैं? आशीर्वाद दें। आप रोते हैं, तो हम घबड़ाते हैं। कोई अपशगुन तो होने को नहीं है? उस वृद्ध संन्यासी ने कहा: नहीं, अपशगुन होने को नहीं है। मैं अपने लिए रोता हूं। जिसे मैं बीज की तरह देख रहा हूं, इसे मैं फूल की तरह नहीं देख पाऊंगा। मैं तो खत्म हो जाने को हूं छह महीने में। यह फूल खिलेगा, लेकिन मैं नहीं देख पाऊंगा। यह व्यक्ति बुद्ध होगा, यह जागेगा। इसकी छाया, इसके प्रकाश के नीचे बहुत लोगों को बहुत कुछ दिखाई पड़ेगा। मैं चूक जाऊंगा, मैं वंचित रह जाऊंगा।
बुद्ध के पिता को कुछ भी समझ में नहीं आता है। एक बीज के पास बैठ कर कोई फूल की बात करने लगे, तो हमको समझ में आएगा? एक बीज के पास बैठ कर फूल की बात करने वाला पागल मालूम होगा। बुद्ध के पिता को भी वह आदमी पागल मालूम हुआ था। लेकिन जब बुद्ध का फूल खिला, तो बुद्ध के पिता ने क्षमा मांगी कि मैं हंसा था उस दिन, उस बूढ़े आदमी पर। मुझे क्या पता था! मुझे क्या पता था कि चीजें आगे दिखाई पड़ सकती हैं!
हम सबके भीतर भी छिपा है जो, वह आगे की पूरी खबरें अभी दे रहा है। अगर हम खोजने चलें, तो हमें पता चलेगा: वह कितनी दूर तक विकसित हुआ है। अगर कोई व्यक्ति जिज्ञासा करे और सेक्स के केंद्र के आस-पास ध्यान को मंडराए, ध्यान को वहां ले जाए और देखे कि वहां क्या हो रहा है, तो वहां शक्ति के कंपन मालूम पड़ेंगे। वे कंपन कहां तक आते हैं, वहीं तक हमारे विकास की अवस्था है। उसके ऊपर तक उन कंपनों को लाना है। उन्हें वहां तक लाना है, जहां मस्तिष्क के आखिरी छोर तक वे कंपन पहुंच जाते हैं और जहां जीवन की पूरी धारा जग जाती है।
इस सेक्स के केंद्र पर सोई हुई शक्ति का नाम कुंडलिनी है। वह सोई है कुंडल लगा कर, जैसे सांप सोया हो। वह जाग जाए, तो फन की तरह उठ जाती है ऊपर तक। वह जो देखे होंगे कुछ जैन तीर्थंकरों की मूर्ति पर सांप का फन उठाए हुए, तो आप यह मत सोचना कि वह कोई सांप उनके ऊपर आ गया था, या कहानियां गढ़ी हुई हैं कि वे बैठे थे और सांप ने आकर छाया कर दी। वे सब फिजूल की बातें हैं। वे प्रतीक हैं। वे उस शक्ति के प्रतीक हैं, जिसने अपना सारा कुंडल छोड़ दिया है और जिसका फन आकर पूरा खिल गया है, पूरा फूल बन गया है, ऊपर जाकर प्रकट हो गया है।
वह कुंडल मारे हुए शक्ति प्रत्येक के भीतर छिपी हुई है। उसी शक्ति का नाम जीवन-शक्ति है। और हम सबके भीतर वह काम के केंद्र के पास ही सोई पड़ी है, उसके ऊपर नहीं उठ पाती। और चाहे हम गृहस्थ हो जाएं और चाहे हम भाग कर संन्यासी हो जाएं, अगर हमारा चित्त काम के आस-पास ही घूमता रहता है--चाहे पक्ष में, चाहे विपक्ष में--तो हमारा केंद्र वहीं बना रहेगा, उसके ऊपर हम नहीं उठ सकते हैं।
उसे ऊपर उठाना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। उस वैज्ञानिक प्रक्रिया में पहली बात है: पहचानना, रिकग्निशन, कहां है?
यह मैं आपके ऊपर हाथ रख कर कह सकता हूं कि यहां है। लेकिन मेरे हाथ रख कर कहने का कोई बहुत प्रयोजन नहीं है। यह आपको ही अपने भीतर शांत कभी घड़ी-आधा घड़ी चौबीस घंटे में खोज कर बैठ जाना पड़ेगा--कि खोजें कि मेरी जीवन की ऊर्जा कहां है? कहां है मेरे जीवन की ऊर्जा?
आप हैरान होंगे, आज से तीन सौ वर्ष पहले तक यह पता नहीं था कि शरीर में खून चक्कर लगाता है। यही पता था कि खून भरा हुआ है। तीन सौ साल पहले तक! बीस लाख साल से आदमी जमीन पर है, उसे यह पता नहीं था कि खून चक्कर लगाता है। उस तरफ ध्यान नहीं दिया था, कैसे पता चलता! हम समझते थे खून भरा हुआ है, कहीं से काटो, खून निकल आता है। जैसे किसी बर्तन में पानी भरा हो, ऐसा खून भरा हुआ है। यह तो अभी तीन सौ वर्षों में पता चला कि खून चक्कर लगाता है।
कुछ थोड़े से लोगों को पता चला है कि सेक्स की ऊर्जा ऊपर की तरफ भी उठती है। अधिक लोगों को यही पता है कि वह नीचे की तरफ ही जाती है। जिनको यह पता है कि वह नीचे की तरफ ही जाती है, वे एक बात ध्यान में ले लें: जो चीज भी नीचे जा सकती है, वह चीज ऊपर भी जा सकती है। जो चीज भी नीचे ले जा सकती है, वह ऊपर भी ले जा सकती है। और जितने दूर तक नीचे ले जा सकती है, उतने ही दूर तक ऊपर ले जा सकती है।
कभी किसी वृक्ष के पास जाएं। ऊपर वृक्ष दिखाई पड़ता है। जितना वृक्ष ऊपर दिखाई पड़ता है, ध्यान रहे, जड़ें उतनी ही नीचे गई होंगी। और जितनी जिस वृक्ष की जड़ें गहरी जाती हैं, उस वृक्ष का तना उतना ही ऊपर उठ जाता है। जिस वृक्ष को स्वर्ग छूना हो, उस वृक्ष को नीचे पाताल तक जड़ें भेजना पड़ेंगी। उसके बिना कोई वृक्ष स्वर्ग नहीं छू सकता। लेकिन कोई आदमी कहे कि हम एक ऐसे वृक्ष को जानते हैं, जिसमें ऊपर तो कुछ भी नहीं जाता, जड़ें बस नीचे ही नीचे जाती हैं। हम कहेंगे, वह आदमी पागल है और या फिर उसे ऊपर के वृक्ष का कोई पता नहीं है। क्योंकि ये दोनों चीजें संतुलित होती हैं। ऊपर और नीचे संतुलित है। बीच में केंद्र है।
नीचे की तरफ भी यात्रा संभव है, ऊपर की तरफ भी यात्रा संभव है। और जितनी पॉसिबिलिटी है नीचे जाने की, जितनी संभावना है नीचे जाने की, उतनी ही संभावना है ऊपर जाने की। लेकिन बहुत थोड़े लोगों को सेक्स की ऊर्जा के ऊपर जाने का पता चल पाता है।
जब वीर्य की शक्ति ऊपर के मार्ग पर जाने वाली शक्ति बन जाती है, तब उसे हम ब्रह्मचर्य कहते हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ काम की शक्ति को जबरदस्ती रोक लेना नहीं है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है काम की शक्ति की ऊर्ध्वयात्रा शुरू हो जाए। वह नीचे न जाए, ऊपर जाने लगे! रोक न ली जाए। क्योंकि रोकी हुई ऊर्जा अगर ऊपर भी न जाए और नीचे भी न जाए, तो मनुष्य को सिर्फ विक्षिप्त कर सकती है, पागल कर सकती है और कुछ भी नहीं कर सकती है।
इसलिए जिन्हें ऊपर ले जाने का कोई पता नहीं है, अगर वे रोक लें, जैसा कि किताबों में लिखा है कि ब्रह्मचर्य ही जीवन है और ब्रह्मचर्य से रहो और यह करो और वह करो। अगर वे रोक लें, तो वे विक्षिप्त होंगे और कुछ भी नहीं। क्योंकि जो शक्ति न ऊपर जा सके, न नीचे जा सके, बीच में ठहर जाए, तो विस्फोट होगा, वह शक्ति पागल कर देगी। आज जमीन पर जितने लोग पागल हैं, वे किसी न किसी अर्थों में सेक्स की शक्ति के गलत रास्तों पर भटक जाने, विस्फोट हो जाने, विकृत हो जाने, विरूप हो जाने के कारण हैं।
तो तीन संभावनाएं हैं: या तो नीचे की तरफ जाएं, जहां पशु की यात्रा चल रही है; या फिर विकृत और विक्षिप्त हो जाएं, जैसा कि सभ्य आदमी के साथ होता चला जा रहा है; और या फिर ऊपर की तरफ उठें।
लेकिन ऊपर की तरफ जाने के लिए पहले शक्ति को ठीक से पहचान लेना जरूरी है कि वह कहां है। और जिस शक्ति को बदलना हो, उसे ठीक से समझे बिना कोई नहीं बदल सकता है। उसे ठीक से पहचाने बिना कोई छू भी नहीं सकता है।
यह जो आपने देखा होगा... हम सारे लोग कपड़े पहने हुए हैं। और आपको शायद पता भी नहीं होगा कि जंगल से जंगल में, घने से घने जंगल में आदिम से आदिम आदमी भी और चाहे कहीं कपड़ा न पहने, सिर्फ सेक्स केंद्र पर, सिर्फ काम-केंद्र पर एक पत्ता ही बांध लेगा! कभी आपने सोचा कि और चाहे पूरा शरीर नंगा हो, काम के केंद्र पर एक पत्ता ही बांध लेने का भाव क्यों पैदा होता है?
शायद आपको खयाल में भी नहीं आया होगा। काम के केंद्र पर इतनी शक्ति इकट्ठी है कि अगर दूसरे व्यक्ति की आंखें भी उसके ऊपर पड़ें, तो वे उसे विचलित करती हैं और कंपित करती हैं।
यह तो अभी नवीनतम खोज है कि पदार्थ भी ऑब्जर्वेशन से अपना व्यवहार बदलता है। अगर हम बहुत बड़ी दूरबीनों से भागते हुए छोटे-छोटे एटम और इलेक्ट्रॉन को देखने की कोशिश करें, तो वे जैसे बिना देखे हुए भाग रहे थे, वैसे ही देखते हुए नहीं भागते हैं। जब हम उन्हें देखने की कोशिश करें, तो उनकी गति में अंतर हो जाता है, परिवर्तन हो जाता है।
जैसे समझ लें, रास्ते पर एक आदमी जा रहा है अकेला, कोई भी नहीं है रास्ते पर। अचानक उसे पता चलता है कि पीछे कोई आ रहा है और देख रहा है। समझ लें, आप ही हैं। आप अकेले जा रहे हैं। जब आप अकेले होते हैं रास्ते पर, तब आप और तरह से चलते हैं। तब आप दूसरे तरह के आदमी होते हैं। फिर एक आदमी पीछे से आ गया है, उसके पैरों की चाप सुनाई पड़ने लगी। आप फिर वही नहीं रह जाते, जो आप अकेले थे, आप फौरन बदल जाते हैं। आपके भीतर कोई सटल डिफरेंस, कोई बहुत सूक्ष्म सा अंतर हो जाता है। आप दूसरे आदमी हो गए, आप सम्हल गए। आप अब उसी तरह से नहीं चल रहे, जैसे चल रहे थे। आप उसी तरह से नहीं गुनगुना रहे, जैसे गुनगुना रहे थे। आपके पैर सम्हल गए, आप बदल गए। आप सभ्य आदमी हो गए, आप सरल आदमी नहीं रहे। आप बाथरूम में स्नान कर रहे हैं, आप आईने के सामने मुंह चिढ़ा रहे हैं, नंगे खड़े होकर नाच रहे हैं। और आपको पता चल जाए कि छोटे से की-होल से कोई देख रहा है, आप फौरन बदल गए। सिर्फ पता चल गया कि कोई देख रहा है, आप बदल गए।
ऑब्जर्वेशन इतनी मुश्किल पैदा कर देता है, आप दूसरे हो जाते हैं!
यह बहुत पहले अनुभव में आ गया कि सेक्स केंद्र पर इतनी शक्ति इकट्ठी है कि दूसरे की आंख अगर पड़े, तो उसे सक्रिय करती है। उसे सक्रिय करती है, उसे बदलाहट करती है। अगर प्रेम करने वाले की आंख पड़ जाए, तो उसे ऊपर की तरफ ले जाती है। अगर घृणा करने वाले की आंख पड़ जाए, तो उसे नीचे की तरफ ले जाती है। इसलिए हम प्रेम करने वाले के सामने नग्न हो सकते हैं। सिर्फ इसलिए, और कोई कारण नहीं है। जिसे हम प्रेम करते हैं, उसके सामने हम बिलकुल नग्न हो सकते हैं। उससे कोई डर नहीं है।
क्यों? कौन सा डर नहीं है?
उससे हम सारे पर्दे अलग कर देते हैं, सारे वस्त्र अलग कर देते हैं।
क्यों?
उससे कोई भय नहीं है। उसकी प्रेम से भरी हुई आंख, उसका प्रेम से भरा हुआ निरीक्षण उन शक्तियों को ऊपर ले जाने वाला बनता है। यह बहुत पहले खयाल में आ गया होगा, इसलिए उस केंद्र को ढांक कर छिपाने की बात पैदा हो गई।
आपने देखा होगा साधु-संन्यासियों को, जो नंगे बैठे हुए हैं, लेकिन सारे शरीर पर राख लगाए हुए हैं। अब जब नंगे बैठे हो, तो राख किसलिए लगाए हुए हो? राख लगाए हुए हैं कि वह जो शक्तियों का काम चल रहा है भीतर, उस पर हर कोई नजर न पड़ जाए। उसको रोका जा रहा है।
आपने देखा होगा कि मंदिरों में जाने वाले लोग तिलक लगा कर आ जाते हैं। उन्हें कुछ भी पता नहीं कि वे क्यों लगा रहे हैं। उन्हें कुछ भी पता नहीं कि यह तिलक सिर्फ उनके लगाने के लिए सार्थक है, जिनके आज्ञा-चक्र तक सेक्स की एनर्जी आ गई हो। और यहां वह दिखाई न पड़े किसी को, इसलिए उसके ऊपर चंदन लगा लेना है, ताकि वह पीछे छिप जाए, नजर में न आए, कोई आंख उस पर न पड़े। अन्यथा वह बहुत उत्ताप पैदा कर देगी, घबड़ाहट पैदा कर देगी, मुश्किल पैदा कर देगी। अब तो कोई भी लगा रहा है, जिसे कुछ पता नहीं है।
जिंदगी बहुत अजीब हो गई है। यहां सब चीजें गलत लोगों के हाथ में चली गईं, जिनका कोई हिसाब-ठिकाना नहीं कि यह क्या हो रहा है! किसलिए आप तिलक लगा कर चले आ रहे हैं? एक आदमी जल्दी से मंदिर में गया है, लगा कर चला आ रहा है। उसे पता ही नहीं कि जिस तिजोरी में वह ताला लगा रहा है, उसके पिता इसलिए लगाते थे कि उसमें कुछ था। आपकी तिजोरी में कुछ नहीं है, सिर्फ पिता ताला लगाते थे, आप भी ताला लगा रहे हैं और बड़े प्रसन्न होकर घर लौट रहे हैं कि मेरे पास कोई खजाना है। तिजोरी में ताला लगाना सार्थक हो सकता है, वह किसी विज्ञान की बात है। अन्यथा, अन्यथा व्यर्थ है, अन्यथा कोई प्रयोजन नहीं है।
जिन केंद्रों पर शक्ति काम कर रही है, वे दूसरों की आंखों में न आएं। लेकिन अगर वे प्रेम करने वालों की आंखों में आएं, तो उनको विकास मिलता है। इसलिए साधक मित्रों के बीच अपने केंद्रों को खुला छोड़ सकता है। उनकी आंखें उन केंद्रों में सोई हुई शक्तियों को आगे बढ़ाने में सहयोगी होंगी।
आपको शायद पता ही नहीं होगा, अब कहते हैं लोग... अब जाकर वनस्पतिशास्त्री से पूछें, तो वह कहता है: अगर पौधे को आप प्रेम करें, तो पौधे में ग्रोथ जल्दी होती है। अगर एक माली अपने पौधे को प्रेम करता है, तो पौधे में फूल जल्दी बढ़ेगा, बजाय उस माली के जो कोई प्रेम नहीं करता। अब प्रेम से पौधे का क्या संबंध है? लेकिन प्रेम कुछ अनजानी शक्तियां, कुछ अनजाने विद्युत-प्रवाह, कुछ प्राणों से निकलने वाली ऊर्जा, कोई वाइब्रेशंस उस पौधे तक पहुंचाता है, वह पौधा तेजी से बढ़ने लगता है।
एक बच्चे को मां के पास हम पालते हैं। और किसी दूसरी जगह उसे पालें--भोजन दें उसे, अच्छे वस्त्र दें, अच्छा इंतजाम दें, सारी सुविधा दें, जो उसकी गरीब मां कभी नहीं दे सकती। और फिर भी आप पाएंगे कि बच्चे में कुछ कमी रह गई। कुछ कमी रह गई! कोई एक विटामिन, जो मां से आता था, वह नहीं आ पाया। कोई एक विटामिन मां से भी आता है, जिसका अभी कोई कैपसूल नहीं बन सकता है। कोई मदर विटामिन। अभी कोई कैपसूल नहीं बनता। कभी आगे बन सकता है। लेकिन कुछ मां देती है, जो इतना सूक्ष्म है कि दवाएं नहीं दे सकतीं, कोई ड्रग नहीं दे सकता। वह मां की गर्मी, उसका निकट होना देता है। उसके निकट होने में वह बच्चा बढ़ने लगता है, कोई चीज उसमें गतिमान होने लगती है।
छोटे-छोटे, छोटे-छोटे मित्रों के ग्रुप एक-दूसरे के केंद्र को सजग कर सकते हैं। अगर पचास लोग एक साथ बैठ कर ध्यान करें केंद्र पर, तो उन पचासों लोगों के आस-पास जो वाइब्रेशंस, जो विद्युत वातावरण पैदा होता है, वह प्रत्येक के भीतर तीव्र गति पैदा कर देगा।
और अगर यह भीतर सोई हुई कुंडल की शक्ति थोड़ी-थोड़ी पहचान में आने लगे कि कहां है, तो जैसे ही आपको पहचान में आएगी कि कहां है, आपके जीवन की पूरी धारा बदल जाएगी। क्योंकि आपको पहली दफा पता चलेगा, खजाना तो यहां है और मैं कहां खोज रहा हूं! और आपको पहली दफा पता चलेगा, शक्ति तो यहां है, मैं कहां खोज रहा हूं! और आपको पहली दफा पता चलेगा, आनंद तो यहां है, मैं कहां खोज रहा हूं! और तब जीवन जैसे एक कनवर्शन...।
कनवर्शन का मतलब यह नहीं होता कि कोई हिंदू मुसलमान हो जाए। यह तो बेवकूफी है। इससे क्या मतलब है कि कोई मुसलमान हिंदू हो जाए, कि कोई ईसाई जैन हो जाए, कि कोई जैन ईसाई हो जाए, यह क्या मतलब है? इससे कोई मतलब नहीं है। कनवर्शन का मतलब है: कोई आदमी बाहर से भीतर हो जाए। वह चाहे हिंदू हो, चाहे मुसलमान हो, चाहे ईसाई हो, चाहे कोई भी हो, चाहे कोई भी न हो। कोई आदमी बाहर से भीतर हो जाए, उसके पूरे आकर्षण का केंद्र बाहर से हट जाए और भीतर पहुंच जाए, वह आदमी कनवर्ट हो गया, वह कनवर्शन हो गया। वह आदमी लौट गया, वह वापस लौट गया। वह वहां पहुंच गया, जहां पहुंचने की यात्रा सार्थक है, जरूरी है, सारपूर्ण है।
जिज्ञासा करें कि ‘मैं कौन हूं’ और अपने काम-केंद्र के आस-पास आंख बंद करके खोज करें कि सेंसेशन, शक्ति का कहां स्पंदन हो रहा है। किस जगह मालूम पड़ रहा है कि शक्ति है। वह स्पष्ट मालूम होने लगेगी। जैसे कोई मौन होकर बैठ जाए, तो हृदय की धड़कन मालूम होती है। आप दिन भर काम में लगे रहें, हृदय की धड़कन मालूम नहीं होती। आप मौन हो जाएं, आपको हृदय की धड़कन मालूम होगी। अगर आप और मौन होकर बैठेंगे और ध्यान वहीं ले जाएंगे, तो आपको बराबर एक नये तरह का स्पंदन, एक नये वाइब्रेशन से परिचय होगा, जिसका आपको कोई पता नहीं है। एक नई नाड़ी आपको मिलेगी--जीवन की नाड़ी; जहां कोई चीज कंप रही है, कोई कोंपल, कोई अंकुर तड़प रहा है निकलने को, कोई चीज फूट पड़ने को व्याकुल है, कोई झरना टूटना चाहता है। और जब वह वहां मालूम हो, तो उसको रोज-रोज पहचानने की कोशिश करना।
जैसे किसी को कोई खजाना मिल जाए, तो वह रोज जब कोई भी न हो, तब तिजोरी खोले, खजाने को जाकर देखे, तिजोरी बंद करे, वापस आ जाए। जैसे किसी के खीसे में एक हीरा रखा हो, वह सबसे बात करता रहे, कभी-कभी हाथ डाले, हीरे को देख ले कि वह है और वापस आ जाए। फिर ऐसे ही चौबीस घंटे जब मौका मिल जाए, तब उस स्पंदन के पास चले जाना, वह जहां भीतर केंद्र है, जहां चीजें कंप रही हैं और एक नये जीवन की दिशा में जाने का संघर्ष चल रहा है। जहां कांशसनेस मनुष्य को पार करने की कोशिश कर रही है, जहां चेतना ट्रांसेंड करना चाहती है, जहां चेतना पशु से ऊपर उठना चाहती है--दीवालें तोड़ कर, घेरे तोड़ कर, खोल तोड़ कर ऊपर उठ कर कहीं और जाना चाहती है। उस जगह को पहचान लेना। फिर कुछ भी हो जाए--फिर कोई दुकान पर बैठा हो, बाजार में बैठा हो, लेकिन मौके-बेमौके मौका मिलेगा और वह भीतर चला जाएगा। उस जगह को पहचान कर वापस लौट आएगा। और एक लविंग केयर, एक प्रेमपूर्ण हिफाजत पैदा हो जाएगी कि भीतर भी कोई एक जगह, कोई एक मंदिर है।
और जिस तरह से यह हिफाजत बढ़ेगी, यह ध्यान बढ़ेगा, यह सावधानी बढ़ेगी, वैसे-वैसे बहुत स्पष्ट ज्योति, बहुत स्पष्ट जागती हुई शक्ति का प्रवाह और लहर अनुभव होने लगेगी। वह लहर धीरे-धीरे किस मार्ग से आगे बढ़ सकती है और कैसे पहुंच सकती है वहां, जहां मिलन हो जाता है, जहां उससे मिलन हो जाता है, जिससे मिलने को हमारे प्राण तड़पे हुए हैं। जहां उसको हम पा लेते हैं, जिसे न मालूम कितने जन्मों से हम खोज रहे हैं। जिसे न मालूम कितनी-कितनी यात्राओं में हमने खोजा और पुकारा और चिल्लाया है और जिसकी कोई झलक नहीं मिली। और मजे की बात है, वह हमारे पास है!
वैसे ही, मैंने सुना है, एक आदमी अपने घोड़े को खोजने निकला था और वह जगह-जगह पूछता फिरता था कि मेरा घोड़ा कहां है? मेरा घोड़ा कहां है? वह घोड़े पर सवार था! लेकिन जिससे भी उसने पूछा, मेरा घोड़ा कहां है, उसने सोचा, इस घोड़े की बात न होगी, क्योंकि इस घोड़े पर तो यह सवार ही है। कोई दूसरा घोड़ा होगा। उसने कहा: हमने नहीं देखा; इस रास्ते से नहीं निकला। फिर वह दूसरे रास्ते पर जाता और पूछता, घोड़ा कहां है? मेरा घोड़ा कहां है? और जो भी मिलता, वह यह सोचता कि जिस घोड़े पर यह सवार है, इसकी बात न होगी, क्योंकि इसकी बात की जरूरत क्या है। और वह आदमी खोजता रहा सारी जमीन पर और एक आदमी न मिला जो उससे कहता कि घोड़ा! घोड़े पर तू सवार है। क्योंकि लोगों ने सोचा, यह तो इस घोड़े पर सवार है ही, यह तो घोड़ा इसे पता ही होगा। लेकिन वह उसी घोड़े को भूल गया था।
असल में, वह शराब पी गया था और घोड़े पर सवार हो गया था। और घोड़ा तेजी से भागता था और वह पूछता था: मेरा घोड़ा कहां है? और घोड़ा उसे ले जाता था नई-नई बस्तियों में और पूछता था: मेरा घोड़ा कहां है? और दूसरे लोग इसलिए नहीं कहते थे कि यही होगा घोड़ा, क्योंकि जिस पर तुम बैठे हो उसकी बात क्या करनी! वे दूसरे रास्ते बताते थे कि उस रास्ते पर और देखो, इस रास्ते पर तो नहीं मिला।
आप धन के रास्ते पर चले जाना पूछते कि आनंद कहां है? लोग कहेंगे, जो धन के रास्ते पर गए हैं, वे कहेंगे, हमें तो नहीं मिला। लेकिन दूसरे रास्ते पर चले जाओ--यश के रास्ते पर, शायद वहां मिल जाए। यश के रास्ते पर जाएंगे, वहां लोग मिलेंगे, वे कहेंगे, यहां तो हमें नहीं मिला। ज्ञान के रास्ते पर चले जाओ, शायद वहां मिल जाए। और ऐसे हजार-हजार रास्ते हैं। और आदमी भटकता रहता है, भटकता रहता है। और हर जिंदगी के बाद फिर भूल जाता है कि भटकन बहुत हो चुकी। फिर नई भटकन शुरू हो जाती है। और बार-बार वही भूल है, बार-बार वही भूल है, बार-बार वही भूल है। और धीरे-धीरे हम यह भूल ही जाते हैं कि हम जिसे खोज रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह इसीलिए न मिलता हो कि हम उसी पर सवार हैं! कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम वही हैं!
और मैं आपसे कहता हूं कि हम वही हैं, जिसकी खोज है! हम जिसे मांग रहे हैं, वही हैं! हम जिसे पुकार रहे हैं, वही हैं! इसलिए हम पुकारते रहें, खोजते रहें, दौड़ते रहें, हम उसे कभी नहीं पा सकेंगे। कितनी ही पुकार व्यर्थ जाएगी, कितनी ही दौड़ व्यर्थ जाएगी।
उसे तो अगर पाना है, तो पहले इसे ही खोज लेना होगा जो मैं हूं! और इस ‘जो मैं हूं’ की पहली खोज का बिंदु, जहां हम अभी हैं--अभी हम परमात्मा पर नहीं हैं, अभी हम राम पर नहीं हैं--अभी हम काम पर हैं, अभी हम सेक्स पर हैं। वहीं से चलना पड़ेगा। वहीं से खोज करनी पड़ेगी।
तो आज यह दूसरा सूत्र आपको देता हूं: अपने भीतर वह स्पंदित बिंदु खोजें जहां सब केंद्र है। चौबीस घंटे उसका स्मरण करें कि कहां है। और एक दफा दिखाई पड़ने लगेगा, फिर स्मरण भी नहीं करना पड़ेगा।
फिर जैसे एक स्त्री आती है गांव से पानी भर कर, कुएं की तरफ से, वह अपनी सहेलियों से बात कर रही है, वह घड़े की तरफ खयाल भी नहीं करती, हाथ भी नहीं लगाती, वह घड़ा सम्हला रहता है। कहीं भीतर कोई चेतना सम्हाले हुए है। सम्हाले हुए है! वह घड़े को हाथ भी नहीं लगाए हुए है। वह दूसरों से बात भी कर रही है, वह जोर से गपशप करती हुई जा रही है। आप सोचेंगे, इसने घड़े को बिलकुल छोड़ दिया है। उसने जरा भी नहीं छोड़ा है। पूरी कांशसनेस, पूरा ध्यान घड़े को पकड़े हुए है।
वैसे फिर आदमी सब करता रहता है और भीतर पूरा ध्यान उस बिंदु को पकड़े रहता है। और उस बिंदु को जैसे ही कोई ध्यानपूर्वक पकड़ता है, क्रांति शुरू हो जाती है। जैसे ही उस बिंदु को कोई ध्यानपूर्वक पकड़ता है, उसकी ऊपर की यात्रा शुरू हो जाती है। और जैसे ही कोई उस बिंदु की तरफ पीठ करता है, उसकी नीचे की तरफ यात्रा शुरू हो जाती है। सेक्स की नीचे की तरफ यात्रा होती है--अंधकार में, अज्ञान में, अनअवेयर, मूर्च्छित। और सेक्स की ऊपर की तरफ यात्रा होती है--होश में, जागृति में, अवेयरनेस में। बस यह एक बात: उस बिंदु की तरफ होश है, या बेहोशी है। अगर बेहोशी है, तो आप नीचे ही नीचे भटकते चले जाएंगे। और अगर होश है, तो ऊपर के पहले द्वार पर आप खड़े हो जाते हैं।
आगे की और यात्रा कैसे हो सकती है, वह कल सुबह हम बात करेंगे।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी कर दूंगा।
एक फकीर के आश्रम के पास से कुछ सौदागर निकलते थे। वे किसी दूर बाजार में अपना सामान बेचने जाते थे। रास्ते में सोचा, अपने ऊंट ठहरा लें, फकीर का आश्रम भी देख लें। सुबह का सूरज था, अभी-अभी किरणें फैली थीं। वे फकीर के आश्रम में पहुंच गए। लेकिन देख कर हैरान हुए। फकीर का आश्रम तो अजीब था। लोग नाच रहे थे, लोग कूद रहे थे, लोग हंस रहे थे, कोई वीणा बजा रहा था। उनमें से कुछ ने कहा: यह कैसा आश्रम है, यह कैसी साधना है, ये लोग क्या कर रहे हैं? कुछ ने कहा कि ऐसा आश्रम तो हमने कभी भी नहीं देखा। चलो, वापस लौट चलें, यह तो धोखा है। यहां आमोद-प्रमोद, यह राग-रंग!
लेकिन वह फकीर कुछ न बोला, हंसता रहा। उसके शिष्य नाचते रहे। वे सौदागर चले गए।
फिर वर्ष भर बाद वापस लौटते थे वे सौदागर। उन्होंने सोचा कि चलो, अब फिर उस आश्रम पर एक नजर डालते चलें, वहां क्या हाल है। आश्रम के पास आए, तो वहां बहुत सन्नाटा था। झांक कर भीतर देखा, तो सारे लोग जिनको नाचते पा गए थे, वे आंखें बंद किए वृक्षों के नीचे न मालूम कहां खोए हुए थे। उनमें से कुछ ने कहा: अब कुछ ठीक हुआ। यह कुछ बात समझ में आती है। यह कुछ अच्छा मालूम होता है।
वह फकीर फिर हंसने लगा। फिर भी कुछ न बोला। वे सौदागर चले गए।
फिर तीसरे वर्ष वे फिर व्यापार के लिए निकले हैं। उन्होंने सोचा कि चलो, उस आश्रम को भी देखते चलें।
वहां वे गए। पहली बार आए थे, तो नाच-रंग था। दूसरी बार आए थे, तो लोग बिलकुल मौन बैठे थे। इस बार गए, तो वहां घनघोर सन्नाटा था। अंदर भीतर झांक कर देखा, तो वहां कोई भी न था। सिर्फ गुरु एक झाड़ के नीचे चुपचाप बैठा था।
उन्होंने कहा: अरे! वे सारे शिष्य कहां गए?
उस गुरु ने कहा: अब तुम्हें मैं कह दूं। तुमने बार-बार पूछा, मैं चुप रह गया। क्योंकि राह चलने वाले लोगों को सब बातें बतानी संभव नहीं हैं। और सब बातें बताने से उनका हित भी नहीं होता। और फिर जो राह चलते कुछ भी कह जाता है, वह बहुत बुद्धिमानी का लक्षण भी नहीं देता। फिर भी, अब तुम आ गए हो, फिर तीसरी बार, तो तुम्हें मैं कहता हूं। पहली बार, मेरे शिष्य वहां थे, जहां सारे मनुष्य हैं। और वहीं से यात्रा शुरू हो सकती है, जहां हम हैं। तो मैं उन्हें अगर गंभीर बना कर बिठा देता, तो वह गंभीरता झूठी होती। जैसी कि अक्सर गंभीर लोगों की गंभीरता झूठी होती है। भीतर तो वही आदमी बैठा रहता है, वही नाचने-कूदने वाला। ऊपर से वे लांग फेसेस, चेहरे लंबे बनाए बैठे हैं। और भीतर? भीतर वही उछल-कूद चल रही है। उसने कहा कि नहीं, मैं तो यात्रा वहां से करवा सकता हूं, जहां आदमी है। वे शिष्य आए थे, वे यहीं थे, इस आमोद-प्रमोद की दुनिया में ही थे। यहीं से शुरू करना जरूरी था। मैंने उन्हें पहले नाचने-गाने के बीच सजग होना सिखाया कि नाचो और गाओ और अपने भीतर सजग हो जाओ कि कौन से बिंदु पर तुम्हारे जीवन का स्पंदन है।
उन्होंने कहा: अच्छा! हम तो यह समझे कि यह क्या हुल्लड़ मचा हुआ है! यह कैसा आश्रम है! यह कैसा गुरु है!
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा कि इतने जल्दी निर्णय सिर्फ नासमझ लेते हैं। सच तो यह है कि समझदार दूसरे के बाबत निर्णय ही नहीं लेते, अपने ही बाबत निर्णय लेते हैं।
फिर भी, उन्होंने कहा: दूसरी बार हम आए, तब क्या हो गया था?
उस गुरु ने कहा: उन्होंने अपने बिंदु को पहचान लिया था और वह बिंदु इतना रस देने लगा था कि अब नाचना बेमानी हो गया। अब वह बिंदु इतना संगीत देने लगा कि बाहर का संगीत--वीणा तोड़ दी, छोड़ दी। अब वे भीतर इतने आनंद में चले गए कि उन्होंने कहा कि हम बाहर चुप होना चाहते हैं। कनवर्शन हो गया। तो हमने कहा: अब तुम चुप होना चाहते हो, तो हो जाओ। फिर वे चुप हो गए। जब तुम दूसरी बार निकले थे, तब वे दूसरी हालत में थे।
उन लोगों ने पूछा: अब वे कहां हैं?
उस गुरु ने कहा: अब बात पूरी हो गई। अब वे वहां पहुंच गए, जहां पहुंचने के बाद फिर कोई आगे यात्रा नहीं रह जाती। मैंने उन्हें विदा कर दिया। अब वे जा चुके हैं। अब मैं यहां अकेला हूं। अब मैं फिर प्रतीक्षा कर रहा हूं उन लोगों की जो नाचते हुए आएं, ताकि मैं उनको शरीर के नाच से अंततः वहां पहुंचा दूं, जहां परमात्मा का नाच है।
लेकिन सब यात्रा वहां से होती है, जहां हम हैं। और हम सब, जहां हैं, उसको छिपाना चाहते हैं और जहां नहीं हैं, उसको मानना चाहते हैं। फिर कठिनाई शुरू हो जाती है। और सारी मनुष्य-जाति इस कठिनाई में पड़ी है कि मनुष्य पशु है और मनुष्य अपने को परमात्मा समझ रहा है।
मनुष्य परमात्मा हो सकता है। ध्यान रहे, हो सकता है, है नहीं। और जो मान लेगा कि हूं ही, उसकी यात्रा यहीं टूट गई।
मनुष्य पशु है; पशु मान लेने में कष्ट होता है। लेकिन जो सत्य है, उसे मानने में कष्ट नहीं होना चाहिए। हम पशु के बिंदु पर खड़े हैं, वहां से यात्रा करनी है और वहां तक पहुंच जाना है, जहां परमात्मा है।
यह यात्रा कैसे हो सकती है, इसके तीसरे चरण पर कल संध्या आपसे बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।