QUESTION & ANSWER

Jeevan Kranti Ke Sutra 01

First Discourse from the series of 10 discourses - Jeevan Kranti Ke Sutra by Osho. These discourses were given during JUN 2 1969.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


मेरे प्रिय आत्मन्‌!
एक अंधेरी रात छोटा सा गांव और एक फकीर की झोपड़ी के द्वार पर कोई जोर से दस्तक दे रहा है। आमतौर से आपके घर पर कोई द्वार ठोके, तो आप पूछेंगे: कौन है? बुलाने वाला कौन है? लेकिन उस फकीर ने उलटी बात पूछी। उस फकीर ने पूछा: किसको बुला रहे हैं? किसको बुलाया जा रहा है? वह फकीर अपनी झोपड़ी के भीतर है, बाहर कोई द्वार ठोकता है, वह फकीर भीतर से पूछता है: किसको बुला रहे हैं? आमतौर से ऐसा नहीं पूछा जाता। पूछा जाता है: कौन बुला रहा है?
उस बाहर से द्वार पीटने वाले आदमी ने कहा: मैं बायजीद को बुलाता हूं। बायजीद घर में है?
और फिर भीतर से वह फकीर जोर से हंसने लगा, हंसता ही चला गया। वह बाहर का आदमी बेचैन हो गया। उसने कहा: हंसने से कुछ भी न होगा। मैं पूछता हूं: बायजीद भीतर है?
उस फकीर ने कहा: बायजीद को खोजने निकले हो, तो बहुत मुश्किल है। मैं खुद बायजीद को पचास साल से खोज रहा हूं, अभी तक खोज नहीं पाया। ऐसे लोग मुझको ही बायजीद समझते हैं! लेकिन बायजीद को मैं पचास साल से खोज रहा हूं और अब तक खोज नहीं पाया हूं! इसलिए मैं हंसता हूं कि तुम भी किस आदमी को खोजने निकल पड़े हो जो अपने को ही अभी नहीं खोज पाया है!
उस आदमी ने शायद समझा होगा कि कोई पागल आदमी है। यह बायजीद भी खुद है और कहता है कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं!
हम सारे लोग सोचते हैं कि हम जानते हैं कि हम कौन हैं। और इस झूठे ज्ञान की वजह से ही जीवन के सत्य को उपलब्ध नहीं हो पाते, न जीवन के आनंद को, न जीवन का रहस्य पता चल पाता है। एक बुनियादी भूल हो जाती है कि हमने यह मान ही लिया है कि हम जानते हैं--कौन हैं। यह हमने मान ही लिया है कि जीवन क्या है वह हमें पता है। और जिस आदमी को यह भ्रांति हो गई हो कि उसे जीवन का पता है, वह जीवन को जानने से सदा के लिए वंचित रह जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है।
पहली बात: जो हमें पता नहीं है, पता होना चाहिए कि हमें पता नहीं है।
जो हमें नहीं मालूम है, उसे जान लेना कि मालूम है, बहुत बड़ी भ्रांतियों के रास्तों पर भटक जाने का द्वार है।
जीवन क्या है, यह भी पता नहीं है, तो जीवन में क्रांति कैसे हो सकती है!
और हमें चूंकि यह खयाल बैठ गया है कि हमें पता है जीवन क्या है, इसलिए चारों ओर जीवन हजार-हजार इशारे करता है, उन इशारों को भी हम नहीं देखते। हजार खबरें भेजता है, उन खबरों को भी नहीं सुनते। हजार रूपों में प्रकट होता है, हमारी आंखें अंधी रह जाती हैं। हजार स्वर में गीत गाता है, हमारे कान नहीं सुन पाते। हजार-हजार रूपों में आता है, हमारी बाहें आलिंगन नहीं कर पातीं। क्योंकि हमें यह पता है कि हमें पता ही है, इसलिए जानने के लिए न हम आंख उठाते हैं, न हाथ फैलाते हैं, न कानों से सुनते हैं, न प्राणों को उस दिशा में लगाते हैं, जहां जीवन जाना जा सकता है!
और भी आश्चर्य की बात है कि जो हम जीवन को बिलकुल नहीं जानते, जीवन की हजार भांति निंदा करते हैं, जीवन को हजार गालियां देते हैं, जीवन की हजार भूलें खोजते हैं, जीवन में हजार कांटे खोज लेते हैं। जिन्हें जीवन के एक भी फूल का पता नहीं है, वे कांटों का ढेर लगा लेते हैं। और जिन्हें रोशनी की एक किरण नहीं मिली, वे अंधकार को इकट्ठा करते चले जाते हैं। ऐसे हम लोग हैं, हमारे जीवन में कैसे क्रांति हो सकती है?
एक छोटी सी कहानी से मैं इन सूत्रों की चर्चा को शुरू करना चाहता हूं।
मैंने सुना है, एक सम्राट अपने पहाड़ी राज्य के हिस्से से गुजरता था। कभी नहीं आया था उस मार्ग पर। दुर्गम पहाड़ियां थीं और उन दुर्गम पहाड़ियों में बहुत गहरे घनी खोह में बसे हुए लोग थे। पता था कि वह उसके राज्य की सीमा है, लेकिन कभी वहां गया नहीं था। उस राज्य से गुजरा तो हैरान हो गया। उस पहाड़ के रहने वालों को मकान बनाने का पता ही नहीं था। वे वृक्षों के नीचे ही सोते थे। और वर्षा होती थी तो चट्टानों के नीचे छिप जाते थे। उन्हें मकान बनाने की कला का कोई बोध ही नहीं था। उन्होंने मकान देखे भी नहीं थे। वे कभी मैदानों में उतर कर न आए थे और मैदानों के लोग कभी वहां न जाते थे।
वह राजा वापस लौटा। तो उसने अपने सबसे बड़े शिल्पी को बुलाया, राजभवन बनाने वाले सबसे बड़े कारीगर को बुलाया। और उस कारीगर को कहा कि जाओ, उस राज्य में एक सुंदर भवन बनाओ, ताकि जो ठहरना चाहें वे ठहर सकें, जिनको जरूरत हो वे मेहमान बन सकें। और वहां के लोग मकान बनाना सीख जाएं। वहां कोई मकान ही नहीं है।
वह शिल्पी उस राज्य में गया। बहुत बड़ा महल बनाने के लिए राजा ने आज्ञा दी थी। उतने लोगों को वहां तक ले जाना कठिन था। फिर यह भी उचित था कि वहीं के लोगों से काम करवाया जाए, ताकि वे महल बनाना भी सीख जाएं और सारा, सारा उनका फैलाव पहाड़ों में दूर-दूर तक बसे हुए लोगों तक महल बनाने की खबर भी पहुंच जाए।
उसने जाकर लोगों को इकट्ठा किया और उसने कहा कि मैं सम्राट के द्वारा भेजा गया हूं कि यहां एक महल बनाऊं।
वे लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा: महल! महल तो कुछ होता ही नहीं। ये क्या झूठी बातें हमसे कर रहे हैं आप! महल क्या होता है?
बहुत मुश्किल था उन लोगों को बताना कि मकान क्या होता है, क्योंकि मकान उन्होंने नहीं देखा था। और वह सारी भीड़ आपस में हंसने लगी और आपस में सोचने लगी कि यह आदमी कोई धोखेबाज मालूम होता है, कोई षडयंत्रकारी मालूम होता है, हम गरीब सीधे आदमियों को भटकाना चाहता है। मकान! कभी देखा है? सुना है?
वहां भीड़ उन्हीं लोगों की थी। वह अकेला कारीगर, शिल्पी बहुत मुश्किल में पड़ गया। जीवन में उसने बहुत महल बनाए थे, लेकिन उन लोगों को समझाना मुश्किल था कि महल क्या होता है। और वे अपने अज्ञान में इतने ठहरे हुए थे कि उन्होंने यह इनकार कर दिया कि महल हो भी सकता है।
फिर भी उस शिल्पी ने मेहनत की और उसने कहा कि मैं तुम्हें बना कर बताऊंगा। उसने कुछ लोग चुने। सारे लोग ही महल बनाने के लिए खुद मजदूर बनना चाहते थे, क्योंकि बहुत संपत्ति राजा की तरफ से मिलने को थी। लेकिन सभी लोग नहीं चुने जा सके। उतने लोगों की जरूरत भी न थी। और वे उतने कुशल भी न थे, उतने बुद्धिमान भी न थे। जो बुद्धिमान लोग थे और जिनकी संभावना थी कि वे महल बना सकेंगे, उनको शिल्पी ने चुना और महल बनाना शुरू किया।
जो लोग नहीं चुने गए थे, उन्होंने जाकर आस-पास खबर फैलानी शुरू कर दी कि उसने अपने ही आदमियों को चुन लिया है मालूम होता है। और यह महल हम नहीं बनने देंगे। यह महल खतरनाक है। जिस चीज का हमें पता नहीं है, उसे हम अपनी भूमि पर बनने दें, यह उचित नहीं है। और उन्होंने हजार-हजार तरह की अफवाहें उड़ाईं कि इस महल में जो जाएगा, वह मर जाएगा। यह महल जो बनेगा, तो हमारा राज्य अभिशाप से भर जाएगा। जो चीज हमने कभी नहीं देखी और हमारे बापदादाओं ने नहीं देखी, उस चीज को न हम देखना चाहते हैं और न बनाना चाहते हैं।
दिन भर शिल्पी महल बनाता था और रात बाकी लोग आकर उसकी ईंटें उखाड़ कर फेंक देते थे। वह महल उनके लिए ही बनाया जा रहा था और वे ही उस महल को उखाड़ने की दिन-रात कोशिश करते थे! बहुत मुश्किल से उन्हें समझा कर राजी किया जा सका कि पूरा बन जाने दो, फिर तुम्हें पसंद न आए तो तुम गिरा देना।
आधे के करीब महल बन कर तैयार हुआ होगा और तब गांव के आस-पास के लोगों ने खबर उड़ाई कि यह हमारे लिए नहीं बन रहा है, यह शिल्पी स्वयं अपने लिए बना रहा है। क्योंकि हमने... कभी सुना है कि किसी आदमी ने पहाड़ चढ़ कर किसी दूसरे के लिए कोई सेवा का काम किया हो? कौन किसी दूसरे के लिए कुछ करता है? उस शिल्पी ने बहुत समझाया कि मैं तुम्हारे लिए बना रहा हूं, लेकिन कोई भी मानने को तैयार नहीं हुआ। कौन किसी के लिए पहाड़ पर आकर मेहनत करता है? यह शिल्पी अपने लिए ही बना रहा है।
जो लोग उसके साथ काम किए थे, उसने उन लोगों को भेजा कि तुम समझाओ उन्हें, उनकी भाषा में। उन्होंने जाकर समझाया, लेकिन उन लोगों ने कहा: ये सब उस शिल्पी के नौकर हैं, उसके जासूस हैं, उसका भोजन खाते हैं और उसकी बजाते हैं, इनकी बात हम नहीं सुन सकते। शिल्पी को स्वयं भेजो, वह हमें समझाने आए।
शिल्पी खुद समझाने गया। जो समय लगाना जरूरी था महल के बनाने में, वह उन लोगों को समझाने में लग रहा था जिनके लिए महल बनाया जा रहा था। वह हजार काम छोड़ कर लोगों को समझाने गया।
उन लोगों ने कहा: अब तुम समझाने आए हो? जब हमने दोषारोपण किया, तब तुम उत्तर देने आए हो? उत्तर पहले दिया जाना चाहिए था।
उस शिल्पी ने कहा: पहले मैं उत्तर कैसे देता? तुमने पूछा, इसलिए मैं कहने आया हूं।
उन लोगों ने कहा: हमें तुम बुद्धू मत समझो। इतना हम काफी समझते हैं कि कोई आदमी पहाड़ पर चढ़ कर हमारे लिए मेहनत करने नहीं आएगा। इसके पीछे कोई षडयंत्र है। और हम मुसीबत में पड़ जाएंगे। हम यह महल नहीं चाहते।
उसने बहुत समझाने की कोशिश की।
उन लोगों ने कहा: तर्क से समझाना व्यर्थ है। इतनी बुद्धि हमारे पास है, हम भटकने को राजी नहीं हैं। लेकिन उस भीड़ में किसी एक समझदार आदमी ने कहा कि अगर यह आदमी कहता है कि सम्राट ने भेजा है महल बनाने को, तो इसके पास कुछ प्रमाण-पत्र होना चाहिए। उन सारे लोगों ने कहा: अगर प्रमाण-पत्र हो तो हमें दिखा दो।
वह आदमी, वह शिल्पी प्रमाण-पत्र लेकर आया। लेकिन उस पूरे राज्य में कोई पढ़ना-लिखना नहीं जानता था। वे सारे लोग कहने लगे: हमें बुद्धू बनाने की कोशिश करते हो। इस कागज पर सिर्फ काली लकीरें खींची हुई हैं और कुछ भी नहीं है। प्रमाण-पत्र कहां है?
उस शिल्पी ने कहा: यह प्रमाण-पत्र है। सम्राट के हस्ताक्षर हैं। लेकिन वहां कोई पढ़ने वाला नहीं था, तब बड़ी मुश्किल हो गई।
और वे लोग यह कहने लगे कि हमें धोखा दिया जा रहा है। इसमें तो कुछ भी नहीं लिखा हुआ है, इसमें तो कोई प्रमाण-पत्र नहीं है--कागज है और काली लकीरें हैं।
जो पढ़ना नहीं जानते हों, उन्हें लिखा हुआ काली लकीरों से ज्यादा और कुछ भी नहीं होता, उससे ज्यादा नहीं होता। बामुश्किल उस भीड़ में एक आदमी बाहर आया और उसने कहा कि मैं पढ़ना जानता हूं। लेकिन शिल्पी को एक तरफ ले जाकर उसने कहा कि मैं इतने हजार रुपये चाहूंगा, तो मैं पढ़ कर बता सकता हूं।
शिल्पी ने कहा कि प्रमाण-पत्र सही है, उसके लिए मैं रिश्वत देने को राजी नहीं हूं।
उस आदमी ने जाकर भीड़ में अफवाह उड़ा दी कि उस कागज में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। वह बिलकुल धोखाधड़ी है। और वह शिल्पी धोखा देने की कोशिश कर रहा है।
लोग कहने लगे कि हम तुमसे पूछने आए हैं कि तुम क्या बना रहे हो? किसलिए बना रहे हो? और तुम हमें पढ़ने-लिखने की बातों में भटकाना चाहते हो?
वह महल नहीं बन सका। उस राज्य के लोगों ने एक-एक ईंट उखाड़ कर फेंक दी। और उस शिल्पी को वापस लौट आना पड़ा।
यह कहानी मैंने सुनी, और यह कहानी इस जिंदगी के बाबत बहुत सही मालूम पड़ती है, जो हम जीते हैं। हम करीब-करीब ऐसी जिंदगी जीते हैं, जिसे बनाने की कोई कला हमें मालूम नहीं है। पहली तो बात, जिंदगी क्या है, यही हमें मालूम नहीं। मकान क्या है, यही मालूम न हो, तो मकान को बनाने की कला बहुत मुश्किल है। और अगर कोई कभी आए और जिंदगी को जान कर आकर कहे कि जिंदगी ऐसी है, तो हम मानने को राजी नहीं होते। क्योंकि हम जो जानते हैं, हम उसे पूरी तरह जानते हैं। हम उससे भिन्न जानने को जरा भी राजी नहीं हैं।
इसलिए जीसस जैसे आदमी को सूली पर लटका दिया जाता है, मंसूर जैसे आदमी के हाथ-पैर काट दिए जाते हैं, सुकरात जैसे आदमी को जहर पिला दिया जाता है। ये वे लोग हैं, जो जिंदगी के महल की खबर लाते हैं--वे शिल्पी। और हम क्रोध से भर जाते हैं! क्योंकि हमने न ऐसे जीवन के बाबत सुना है, न देखा है, न हम मानने को राजी हैं। वे प्रमाण-पत्र भी लाते हैं अपने साथ, लेकिन उन प्रमाण-पत्रों में हमें सिवाय कागजों के और लकीरों के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। और हम कहते हैं कि हम चाहते हैं प्रमाण-पत्र और तुम हमें कागज और लकीरें दिखलाते हो? तुम हमें पढ़ने-लिखने की बात करते हो? तुम हमें सोचने-समझने की बात करते हो? हम सीधे प्रमाण चाहते हैं। और जो भाषा हम नहीं जानते हैं, उसे हम कैसे पढ़ें? और जिस जीवन के द्वार पर हमने कभी दस्तक नहीं दी है और कभी झांक कर नहीं देखा, उसे हम कैसे पहचानें?
उस शिल्पी ने उस गांव के लोगों के बीच जैसा अनुभव किया होगा, जीवन के शिल्पी हमारे बीच सदा ऐसा ही अनुभव करते हैं।
इसलिए पहला सूत्र आपसे मैं यह कहना चाहता हूं: जीवन क्या है, यह हमें ज्ञात नहीं है। अगर इतना हमें अनुभव हो जाए, तो हम जीवन को जानने की यात्रा पर निकल सकते हैं। जीवन क्या है, इसका हमें कोई पता नहीं है। अगर यह हमें अनुभव हो जाए, तो हम जहां जड़ होकर बैठ गए हैं, वहां से हिलना हो सकता है और नई यात्रा शुरू हो सकती है। अगर हम यह मानने को राजी हो जाएं कि जो हम जानते हैं, उतना ही जानने को नहीं है, जानने को बहुत-कुछ बाकी है और शेष है। अगर हम यह मानने को राजी हो जाएं कि जो हमें दिखाई पड़ता है, वही पर्याप्त नहीं है, बहुत-कुछ अनदीखा रह जाता है, बहुत-कुछ अनसुना रह जाता है, बहुत-कुछ अस्पर्शित रह जाता है। अगर हमें यह खयाल आ जाए कि हमारे चारों तरफ जितने से हम परिचित हैं, उससे बहुत ज्यादा अपरिचित सदा शेष रह जाता है, तो शायद हम अपरिचित को जानने की दिशा में आंखें उठाएं, कदम बढ़ाएं, हाथ फैलाएं, कुछ श्रम करें, कुछ मेहनत करें, कोई नाव बनाएं, कोई मकान बनाएं, उस तरफ जाने का कोई रास्ता, कोई प्रयत्न, कोई साधना शुरू हो।
जीवन की क्रांति एक साधना है।
जीवन को जानना जन्म ले लेने से पूरा नहीं हो जाता। कोई आदमी पैदा हो गया, इसलिए जीवन को नहीं जान लेता है। जन्म तो बीज की भांति है। अगर बीज को हम बगीचे में बोएं, तो वह कभी फूल बन सकता है। बीज के भीतर फूल छिपा है, लेकिन बीज खुद फूल नहीं है। और अगर बीज यह समझ ले कि मैं फूल हूं, तो बात खत्म हो गई। फिर बीज बीज ही रह जाएगा--सड़ेगा, नष्ट हो जाएगा, लेकिन कभी फूल नहीं बन सकेगा। बीज को जानना पड़ेगा कि वह कुछ होने की यात्रा है, कोई संभावना, कोई पॉसिबिलिटी, कोई पोटेंशियलिटी। वह अभी है नहीं, हो सकता है।
आदमी हो सकता है कुछ, आदमी है नहीं। हम कुछ हो सकते हैं, हम कुछ हैं नहीं। हम सिर्फ होने की एक संभावना मात्र हैं। हम एक बीज हैं, जो टूट जाए, तो फूल खिल सकते हैं। और अगर न टूटे, तो सड़ सकता है, नष्ट हो सकता है, दुर्गंध फैल सकती है।
जिस बीज के फूल बन जाने से सुगंध फैलेगी, आकाश में नृत्य होगा रंगों का। वही फूल अगर न बन पाए, बीज ही रह जाए, तो सिर्फ दुर्गंध फैलेगी, न कोई नृत्य होगा, न कोई सुगंध होगी, सिर्फ दुर्गंध फैलेगी। सड़ेगा बीज, नष्ट होगा और मरेगा।
हम मरते हैं, नष्ट होते हैं, लेकिन न तो हम जीवित हैं और न हम जीवन को उपलब्ध होते हैं। हम उन बीजों की तरह हैं, जो पागल हो गए हों और समझते हैं कि हम फूल हो गए हैं।
मनुष्य को जानना पड़ेगा कि वह सिर्फ बीज है। एक संभावना है। कुछ हो सकता है; लेकिन हो नहीं गया है। यह मैं पहला सूत्र कहना चाहता हूं आपसे।
हम हैं, कुछ होने के लिए। जैसे कोई तीर किसी प्रत्यंचा पर चढ़ा हो, कोई तीर किसी धनुषबाण पर चढ़ा हो; और धनुष पर चढ़ा हुआ तीर सिर्फ संभावना है। वह जा सकता है वहां जहां अभी गया नहीं है, वह पहुंच सकता है उन लक्ष्यों पर जो बहुत दूर हैं, लेकिन अभी वह धनुष पर चढ़ा है, अभी कहीं गया नहीं है।
आदमी धनुष पर चढ़ा हुआ तीर है। चल जाए तो परमात्मा तक पहुंच सकता है, रुक जाए तो धनुष पर ही रह जाता है। हम शरीर पर चढ़ी हुई आत्माएं हैं। चल जाएं तो परमात्मा तक पहुंच सकते हैं, रुक जाएं तो कब्र के अतिरिक्त और कहीं नहीं पहुंचते, कहीं नहीं पहुंच सकते हैं। लेकिन जन्म को ही हमने सब-कुछ समझ लिया है।
एक आदमी पैदा हो जाता है और मान लेता है कि बस बात पूरी हो गई, अब जीना है। जो जीवन मिला ही नहीं, उसे जीएंगे कैसे? सिर्फ जन्म मिला है। जन्म जीवन नहीं है। जन्म केवल मौका है। चाहें तो जीवन मिल सकता है, चाहें तो नहीं भी मिल सकता है।
लेकिन चारों तरफ सारे लोग मानते हैं कि यही जीवन है! बच्चा पैदा हो गया, बड़ा हो गया, शिक्षित हो गया, नौकरी कर रहा है, मकान बना रहा है, धन कमा रहा है और जीवन मिल गया। यह जीवन है? फिर मकान बनाते, धन कमाते, नये बच्चों को पैदा करते, यह आदमी एक दिन मर जाता है। यह जन्म से लेकर मरने तक की पूरी यात्रा हो जाती है। लेकिन जीवन का रस कहां मिलता है? जीवन की सुगंध कहां मिलती है? जीवन का संगीत कहां सुनाई पड़ता है?
जैसे कोई आदमी वीणा को कंधे पर रखे हुए जीवन भर घूमता रहे और कहे कि मेरे पास संगीत है। वह झूठ नहीं कहता है; लेकिन झूठ कहता है। एक अर्थ में वह सही कहता है, क्योंकि वीणा उसके पास है, जिससे संगीत पैदा हो सकता है। लेकिन वीणा ही संगीत नहीं है। और एक आदमी जिंदगी भर वीणा को रखे घूमता रहे, तो भी संगीत अपने आप पैदा नहीं हो जाएगा।
वीणा स्वयं संगीत नहीं है, वीणा से संगीत पैदा हो सकता है।
जन्म स्वयं जीवन नहीं है, जन्म से जीवन पैदा हो सकता है।
और कोई चाहे तो जन्म की वीणा को कंधे पर रखे हुए मृत्यु के दरवाजे तक पहुंच जाए, उसे जीवन नहीं मिल जाएगा।
जन्म तो मिलता है मां-बाप से, जीवन कमाना पड़ता है स्वयं। जन्म मिलता है दूसरों से, जीवन पाना पड़ता है खुद।
जन्म मिलता है, जीवन खोजना पड़ता है।
जीवन की खोज एक कला है।
और जन्म ले लेना बिलकुल ही प्राकृतिक घटना है, जिसका कोई बहुत बड़ा मूल्य नहीं है। इतना ही मूल्य है कि उसके बाद जीवन मिल सकता है। लेकिन करोड़ों-करोड़ों में कभी कोई एक आदमी जीवन को उपलब्ध होता है।
हम सब मरे हुए ही जीते हैं और मरे हुए ही मर जाते हैं। हम सिर्फ जन्मते हैं और मर जाते हैं। जन्म और मृत्यु के बीच जो लंबा फासला है, हम सोचते हैं, वही जीवन है।
धन जरूर हम इकट्ठा करते हैं, ज्ञान भी इकट्ठा करते हैं, पद-प्रतिष्ठा भी इकट्ठी करते हैं और फिर शायद सोचते हैं, यह जो इकट्ठा कर लिया, यही जीवन है। कितना ही धन इकट्ठा हो जाए, जीवन का धन से क्या संबंध है? और कितने ही शास्त्रों का ज्ञान जान लिया जाए, और कितना ही बड़ा कोई पंडित हो जाए, जीवन को जानने से पांडित्य का क्या संबंध है? और चाहे कोई सारे जगत को जीत ले, सारी पृथ्वी का सम्राट हो जाए, और चाहे कोई चांद-तारों पर जाकर झंडे गाड़ दे, लेकिन इस सबसे जीवन का क्या संबंध है?
मैंने एक रूसी लोककथा सुनी है। मैंने सुना है कि एक कवि एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ है। सुबह सूरज निकला है और वह कवि उस वृक्ष के नीचे बैठ कर अपनी कविताएं पढ़ रहा है। वहां कोई भी नहीं है, सिर्फ वृक्ष पर एक कौआ बैठा हुआ है। वह कवि अपनी पहली कविता पढ़ता है और कहता है कि मैंने सारी दुनिया के धन को पा लिया, मैं सोलोमन का खजाना पा लिया हूं, मैं कुबेर हो गया हूं। मेरे पास सब-कुछ है। जो भी पाया जा सकता है, वह मैंने पा लिया है। और वह बहुत गौरव से चारों तरफ देखता है।
वहां तो कोई भी नहीं है, सिर्फ ऊपर कौआ बैठा हुआ है। वह कौआ जोर से हंसता है और कहता है: सो वॉट? इससे क्या हुआ?
उस कवि ने बहुत घबड़ा कर देखा। वहां कोई भी नहीं है। एक कौआ ऊपर बैठा हुआ है। उसने कहा: क्या यह कौआ बोल रहा है--सो वॉट? मैंने बड़े-बड़े मनुष्यों के सामने अपनी कविताएं पढ़ी हैं और लोगों ने प्रशंसा की है और तू एक मूर्ख कौआ कहता है: सो वॉट? इससे क्या हुआ?
वह कौआ कहता है कि निश्चित ही मैं कहता हूं, क्योंकि जहां तक हम समझते हैं, धन की मूढ़ता मनुष्यों को छोड़ कर न किसी पशु को है, न किसी पक्षी को है, न किसी पौधे को है। तो अगर तुम मनुष्यों के बीच में यह कविता पढ़ोगे कि मैंने सोलोमन का खजाना पा लिया है, तो लोग ताली बजाएंगे, क्योंकि वे भी सोलोमन का खजाना भीतर से पाना चाहते हैं। वे उतने ही नासमझ हैं, जितने नासमझ तुम हो। उनकी नासमझी कविता नहीं बन पाती, तुम्हारी नासमझी कविता बन गई है। इसके अतिरिक्त और कोई फर्क नहीं है।
वह कौआ कहता है: लेकिन पा लिया तुमने सारा खजाना, फिर क्या होगा? इससे क्या होता है?
उस कवि ने कहा: नासमझ कौए, तू समझेगा नहीं। मैं तुझे दूसरी कविता सुनाता हूं। लेकिन वह आदमी तो वही है, कविताएं कितनी ही करे, उसका मन वही है, उसका लोभ वही है। दूसरी कविता में वह कहता है: मैंने सारी पृथ्वी जीत ली, मैं चक्रवर्ती सम्राट हो गया हूं। मुझसे ऊपर अब कोई भी नहीं है, सब मेरे पैरों के नीचे हैं।
वह कौआ फिर हंसता है और कहता है: सो वॉट? इससे क्या होगा? माना कि सारे लोग तुम्हारे नीचे आ गए, तुम्हारे पैरों के नीचे और तुम सबके मालिक हो गए, लेकिन इससे होगा क्या? इससे तुम पा क्या लोगे?
उस कवि ने क्रोध में तीसरी कविता पढ़ी। उसने कहा: छोड़ो इसे भी। मैंने सारे शास्त्र पढ़ लिए हैं--मैंने गीता, कुरान, उपनिषद, बाइबिल सब पढ़ लिए हैं। जितना भी ज्ञान है मैंने जान लिया है, मुझसे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं है। मैं सर्वज्ञ हो गया हूं। मैं सब-कुछ जानता हूं।
उस कौए ने कहा: सो वॉट? इससे क्या होगा? तुमने सब जान लिया, तो भी क्या होगा? एक चीज फिर भी अनजानी रह गई। तुमने सब धन पा लिया, लेकिन एक धन बिना पाया रह गया। तुमने सारा साम्राज्य पा लिया, लेकिन एक राज्य अपरिचित रह गया। वह कौआ अपनी बातें कहता जाता है, कवि क्रोध से कविता फेंक कर चल पड़ता है।
उस कौए से किसी दूसरे कौए ने पूछा: तू हर बात में कहता गया--सो वॉट? इससे क्या होगा? कविता कौन सी पढ़ी जाती कि तू दाद देता?
उस कौए ने कहा: एक ही कविता है जीवन की और वह है जीवन को जानने की! न तो धन को जानने से कविता पैदा होती है, और न यश को जानने से, और न पांडित्य को जानने से। एक ही कविता है जीवन की, वह जीवन को जानने से पैदा होती है। और उस कवि को उस कविता का कोई पता नहीं है। जब तक वह वह कविता न गाता, तब तक मैं कहता ही चला जाता--सो वॉट?
आपसे मैं कहना चाहूंगा कि जब आपका मन कहे कि सारा धन इकट्ठा कर लो, तो अपने से पूछना--सो वॉट? क्या होगा इससे? और जब मन कहे कि सारी दुनिया जीत लो, राज-सिंहासनों पर पहुंच जाओ, तो अपने मन से पूछना--सो वॉट? इससे क्या होगा? और जब मन इस तरह की दौड़ों की बातें करें, जिनकी बातें मन रोज करता है, तो निरंतर अपने से पूछना--इससे क्या होगा?
जब तक मैं स्वयं को नहीं जानता और जीवन के स्वर को नहीं जानता, मेरा सारा जानना, सारा पाना क्या अर्थ रखता है? यह प्रश्न उठ जाए, तो आदमी की दुनिया में धर्म की शुरुआत हो जाती है।
उस आदमी को मैं धार्मिक नहीं कहता, जो पूछता है: ईश्वर है या नहीं? धार्मिक आदमी को ईश्वर से कोई भी प्रयोजन नहीं है। उस आदमी को मैं धार्मिक नहीं कहता, जो कहता है: सृष्टि किसने बनाई? सृष्टि के बनाने के न बनाने के प्रश्न वैज्ञानिक पूछ सकते हैं, धार्मिक आदमी को दो कौड़ी का मतलब नहीं है कि किसने बनाई। मैं उस आदमी को धार्मिक नहीं कहता, जो
कहता है: कितने नरक हैं, कितने स्वर्ग? स्वर्ग और नरक से धार्मिक आदमी को क्या प्रयोजन? नरक की चिंता वे करते हैं, जो ऐसे काम कर रहे हों कि नरक जाना पड़े। या स्वर्ग की चिंता ऐसे लोग करते हैं, जो नरक जाने के काम कर रहे हैं; लेकिन स्वर्ग का पता चल जाए, तो कुछ रिश्वत देकर स्वर्ग में भी प्रवेश पा सकें। लेकिन धार्मिक आदमी को स्वर्ग-नरक से क्या प्रयोजन?
धार्मिक आदमी का एक ही प्रश्न है, एक ही जिज्ञासा है, उसका एक ही अल्टीमेट कनसर्न जिसको कहें, उसका जो आखिरी लगाव है, वह एक है--इस बात को जान लेने का कि मैं हूं, लेकिन मैं क्या हूं? मेरा अस्तित्व है, लेकिन मेरा अस्तित्व क्यों है? अगर मैं न होता, तो क्या हर्ज था? और अगर मैं हूं, तो प्रयोजन क्या है? क्या मैं अपने इस होने को क्षुद्रतम में खोता चला जाऊं? रोज सुबह उठूं और वही करूं चालीस-पचास वर्षों तक--रोज दफ्तर, रोज दुकान, रोज मकान, रोज सोना, रोज खाना? क्या मैं पचास वर्षों तक एक कोल्हू के बैल की तरह यही करता रहूं या यह भी पूछूं कि मैं क्यों हूं, किसलिए हूं, क्या प्रयोजन है मेरे होने का?
धार्मिक आदमी यह जानना चाहता है कि मैं क्यों हूं आखिर? आखिर मेरे होने की जरूरत क्या है? और जैसे ही कोई आदमी यह प्रश्न पूछेगा कि ‘मेरी जरूरत क्या है’ वैसे ही वह पूछना शुरू करेगा कि मैं यह भी तो जान लूं कि मैं कौन हूं, क्या हूं, कहां से हूं, क्यों हूं? और इस सारी बात की खोज की तरफ अगर ध्यान चला जाए, तो जीवन को जाना जा सकता है।
लेकिन हम तो जीवन वहां खोज रहे हैं, जहां जीवन नहीं है। हम तो वहां खोज रहे हैं, जहां जीवन का कोई संबंध नहीं है। हम वहां खोजते रहें, खोजते रहें, हम खोजते-खोजते खुद मिट जाएंगे, पर जीवन का हमें कोई पता नहीं पड़ पाएगा।
मरते हुए आदमी से पूछो, वह भी यही कर रहा था, जो आप कर रहे हैं। लेकिन उसके पहले भी मरने वाले लोगों से उसने यह नहीं पूछा था। हर आदमी मर रहा है और हर आदमी वही कर रहा है, जो दूसरे मरने वालों ने किया है। और कोई भी यह नहीं पूछ रहा है कि हम यह क्या कर रहे हैं?
एक रात एक महल के ऊपर सम्राट सोया है। सो नहीं पा रहा है, नींद नहीं लग रही है। किस सम्राट को नींद लगती है? सम्राट को नींद लगना बहुत मुश्किल है। जो बहुत लोगों की नींद छीन लेते हैं, उनकी खुद की नींद कैसे लग सकती है? वह करवटें बदल रहा है। सम्राट हमेशा ही करवटें बदलते हैं। और इसलिए, सम्राटों को करवट बदलने में सुविधा रहे, इसलिए बहुत अच्छे गद्दे-तकियों का इंतजाम करना पड़ता है। सोने वाला बहुत गद्दे-तकियों की फिकर नहीं करता। जिसे नींद आती है, उसे जमीन भी बहुत बहुमूल्य गद्दी हो जाती है। और जिसे नींद नहीं आती है, उसे गद्दियां भी कांटें ही मालूम पड़ती रहती हैं।
वह करवटें बदल रहा है, आधी रात बीत गई है, तब उसे खयाल आता है कि कोई ऊपर छप्पर पर चल रहा है। वह पूछता है: कौन है ऊपर? वह घबड़ा गया है। सम्राटों के पास बंदूकें हैं, तलवारें हैं, पहरे हैं। असल में, पहरे उन्हीं के पास हैं जो भीतर बहुत डरे हुए हैं। जो भीतर डरा हुआ न हो, उसके आस-पास पहरे की कोई भी जरूरत नहीं है। सिर्फ डरे हुए आदमी के आस-पास बंदूकों के पहरे होते हैं। वह एकदम डर गया है। कौन है ऊपर? उसने चिल्ला कर पूछा।
ऊपर से किसी ने कहा: घबड़ाइए मत, परेशान मत होइए, आपसे मुझे कोई मतलब नहीं। मेरा ऊंट खो गया है, मैं अपने ऊंट को खोज रहा हूं।
उस सम्राट ने कहा: कोई पागल आदमी मालूम पड़ते हो! महलों की छतों पर ऊंट खोया करते हैं? छप्परों पर, खपड़ों पर ऊंट खोते हैं?
सम्राट ने पहरेदार को उठाया और कहा कि देखो, कौन है ऊपर, पकड़ो उसे। लेकिन वह आदमी न मालूम कहां चला गया।
लेकिन सम्राट रात भर सोचता रहा: इसका मतलब क्या है, कोई आदमी छप्पर पर ऊंट खोजता है! वैसे ही नींद नहीं आई, रात भर सोचता रहा, रात भर सोचता रहा। सुबह-सुबह झपकी लगी, तो उसे सपना दिखाई पड़ा कि सपने में वह आदमी फिर छप्पर पर ऊंट खोज रहा है। वह उससे पूछता है कि क्या ऊंट छप्परों पर खोजे जाते हैं? ऊंट छप्परों पर खोते ही नहीं! तो वह आदमी उससे सपने में कहता है: और तुम वहां जीवन खोज रहे हो, जहां जीवन खोया ही नहीं! अगर जीवन मिल सकता है धन में, यश में, पद में, प्रतिष्ठा में, तो ऊंट भी छप्परों पर मिल सकते हैं। ऊंट तो छप्परों पर खो भी सकते हैं, लेकिन जीवन? जीवन न तो धन में खोया है, न पद में, न बाहर के सामान में, न मकानों में। जीवन तो वहां है, जहां तुम हो। वह घबड़ा कर जाग गया है।
सुबह वह अपने दरबार में बैठा है, चिंतित है। और तभी एक आदमी दरबार में घुसता हुआ भीतर चला आया। द्वारपाल ने रोकने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं रुका। द्वारपाल ने उससे पूछा भी: कहां जाते हो?
उस आदमी ने कहा कि मैं इस धर्मशाला में थोड़े दिन के लिए मेहमान होना चाहता हूं, मैं इस सराय में रुकना चाहता हूं।
उस द्वारपाल ने कहा: पागल हो गए हो! मालूम होता है इस बस्ती में पागल छूट गए हैं। रात एक पागल मकान के ऊपर चढ़ा हुआ था और जो कहता था कि ऊंट खो गया है। एक तुम पागल हो कि राजा के महल को तुम सराय कह रहे हो, धर्मशाला कह रहे हो। यह सराय नहीं है, सम्राट का निवास-स्थान है।
उसने कहा कि तुमसे बात नहीं करूंगा, सम्राट से ही बात करूंगा।
वह भीतर गया। दरबार में उसने जाकर सम्राट से कहा कि मैं इस सराय में कुछ दिन मेहमान होना चाहता हूं। आपको कोई एतराज तो नहीं है?
उस सम्राट ने कहा कि बड़ी मुश्किल की बातें हैं। यह मेरा निवास-स्थान है, सराय नहीं है।
लेकिन वह अजनबी आदमी कहने लगा: निवास-स्थान! कुछ वर्षों पहले मैं आया था, तब यहां मैंने इसी सिंहासन पर दूसरे आदमी को बैठे देखा था।
सम्राट ने कहा कि वे मेरे पिता थे। उनका देहावसान हो गया।
उस अजनबी आदमी ने कहा: मैं उनके पहले भी आया था, तब मैंने तीसरे ही आदमी को बैठे देखा था।
सम्राट ने कहा: वे मेरे पिता के पिता थे। वे भी चल बसे।
वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा कि जहां मेरे देखते-देखते रहने वाले बदल जाते हैं, उसको निवास-स्थान कहना उचित होगा? तुम कितने दिन तक यहां रहोगे? जहां तक मैं समझता हूं, जब मैं दुबारा आऊंगा, चौथा आदमी मिलेगा और वह कहेगा कि पिताजी थे वे, जो पहले बैठे थे, उनका देहावसान हो गया। इसलिए मैं इसे सराय कहता हूं और कुछ दिन यहां ठहर जाना चाहता हूं। तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है?
उस सम्राट को एकदम खयाल आया कि यह आदमी वही होना चाहिए जो रात ऊंट खोज रहा था। उसने, उस सम्राट ने उतर कर उसके पैर पकड़ लिए।
उस आदमी ने कहा: मेरे पैर मत पकड़ो, अपने ही पैर पकड़ लो! क्योंकि तुम्हारे पैर तुम्हें वहां ले जा रहे हैं, जहां तुम्हें जाना नहीं है। तुम्हारे पैर तुम्हें वहां पहुंचा रहे हैं, जहां पहुंचने को कुछ नहीं है। तुम्हारे पैर तुम्हें उस यात्रा पर गतिमान किए हुए हैं, जो शून्य में समाप्त होती है। अपने ही पैर पकड़ो और उस तरफ चलो, जहां जीवन है, जहां सत्य है।
वह आदमी, वह सम्राट उसी दिन उस महल को छोड़ कर चला गया। उसके घर के लोग कहने लगे: महल को छोड़ कर आप कहां जा रहे हैं? उसने कहा: महल होता तो मैं छोड़ कर न जाता। सराय है, जिसे छोड़ ही देना पड़ेगा। उसे पकड़ कर रखने से परेशानी ही होने को है और कुछ भी नहीं।
लेकिन हम जिंदगी में सराय को घर समझे हुए हैं। कौड़ियों को धन समझे हुए हैं। आस-पास की भीड़ को मित्र-परिवार समझे हुए हैं। और एक चीज जिसे समझने से कुछ हो सकता था, उसको भर अंधेरे में डाले हुए हैं--वह स्वयं के होने को अंधेरे में डाले हुए हैं।
कोई अगर आपकी छाती पर आकर द्वार खटखटाए और पूछे कौन है भीतर? तो जैसा बायजीद ने कहा था: खोज रहा हूं पचास साल से, मुझे पता नहीं चला। ऐसा आप कह सकेंगे कि खोज रहा हूं, पता नहीं चला? खोजा ही नहीं है। खोजा ही नहीं है! खोजें और पता न चले, तो भी एक बात है, लेकिन खोजा ही न हो, तब तो किसी दूसरे को उत्तरदायी भी नहीं ठहराया जा सकता है।
जीवन क्रांति की दिशा में पहला सवाल है: मैं क्यों हूं? यह अस्तित्व क्यों है? हम किसलिए श्वास ले रहे हैं, किसलिए सुबह उठते हैं, किसलिए रात सो जाते हैं? जीवन एक प्रश्न बनना जरूरी है। जीवन एक इंक्वायरी बननी जरूरी है। जीवन एक जिज्ञासा और खोज बननी जरूरी है।
लेकिन हम तो दूसरों की मान लेते हैं, खुद तो खोजते नहीं। दूसरे कह देते हैं, यही जीवन है। बाप बेटे से कह देता है, यही जीवन है और बेटा मान लेता है। गुरु विद्यार्थियों से कह देते हैं, यही जीवन है। नेता अनुयायियों को कह देते हैं, यही जीवन है। जाने वाले आने वालों को कहते चले जाते हैं, यही जीवन है। और हम सब मानते चले जाते हैं।
जो इस तरह मानते चला जाता है, वह आदमी तो अपने को आदमी कहलाने का हकदार भी नहीं है। उसने अपनी तरफ से प्रश्न भी नहीं पूछा। उसने यह भी नहीं पूछा--यह जीवन है! और अगर यह जीवन नहीं है, तो फिर जीवन क्या है? हम तो जैसे मालूम होता है जीवन के संबंध में भी लोकतंत्र का उपयोग कर रहे हैं, वोट लेकर पता लगा लेते हैं कि जीवन क्या है, जो सारे लोग कहते हैं वह हम मान लेते हैं।
मैंने सुना है, एक गांव में एक आदमी मर गया। वह मरा नहीं था, बेहोश हो गया था। लेकिन गांव के लोग तो जल्दी में होते हैं, कोई मर जाए तो जल्दी उसे विदा करना चाहते हैं। जगह खाली हो, एक और आदमी उसकी जगह आ सके।
एक राष्ट्रपति मरता है, वह मर भी नहीं पाता और दूसरे की दौड़ शुरू हो जाती है। उसको पहुंचा भी नहीं पाते--कि जहां पहुंचाने जाते हैं वहां चेहरे तो लटके रहते हैं, लेकिन भीतर खोज जारी रहती है कि कौन, कौन बैठ रहा है इसकी जगह?
वह आदमी मर गया था। उसे जल्दी से वह कब्र में--उसको जल्दी से उन्होंने बांधा अरथी और ले चले। वह आदमी मरा नहीं था, सिर्फ बेहोश था। गांव के अधिकारियों ने भी प्रमाण-पत्र दे दिया कि वह मर गया है। जिंदा आदमी की कोई तलाश नहीं करता, मरे हुए आदमी की कौन तलाश करता है! प्रमाण-पत्र दे दिया गया कि वह मर गया है।
वे उसे ले गए। वह जब उसे कब्र में उतारने को नीचे उतारा, तो वह आदमी करवट लेकर उठ कर बैठ गया। और उसने कहा: लेकिन मैं जिंदा हूं!
गांव के लोगों ने कहा: ऐसा कैसे हो सकता है! हम प्रमाण-पत्र लाए हैं कि तुम मरे हो। और अधिकारी ने दिया हुआ है। और हमारा अधिकारी कभी भूल नहीं कर सकता।
उस आदमी ने कहा: होगा यह, लेकिन मैं जिंदा हूं!
लेकिन उन लोगों ने कहा: हम कैसे मान सकते हैं? ऐसा कभी हुआ नहीं।
उस आदमी ने चारों तरफ नजर दौड़ाई, पचास आदमी उसको विदा करने आए थे, उसमें गांव का एक न्यायाधीश भी था। उसके निष्पक्ष होने का खयाल था। उसने उस न्यायाधीश से हाथ जोड़े कि आप कृपा करके कुछ निर्णय करें--मैं जिंदा हूं!
उस न्यायाधीश ने कहा: आप लोगों ने कथित मरे हुए आदमी का वक्तव्य सुना, आप सब लोगों की क्या गवाही है?
उन सब लोगों ने कहा: हम कैसे, अधिकारी के खिलाफ हम कैसे बोल सकते हैं? सारे गांव के सामने प्रमाण-पत्र दिया गया है कि यह आदमी मर गया है। हम मानते हैं कि यह आदमी मर गया है।
उस न्यायाधीश ने कहा: तब मैं भी निर्णय देता हूं कि इसे दफना दिया जाए। यह आदमी जिंदा नहीं है!
आप क्यों हंसते हैं? वह तो मरने के संबंध में दूसरों से निर्णय लिया था, हमने तो जीवन के संबंध में दूसरों से निर्णय लिया हुआ है! जीवन के संबंध में हम दूसरों की बात माने हुए बैठे हैं! दूसरे कहते हैं, यही जीवन है--दौड़ो, धन कमाओ, मकान ऊंचे से ऊंचा बनाते चले जाओ, जमीन से चांद तक की यात्राएं करो और मरो, यही जीवन है। दूसरे कहते हैं, हजारों-हजारों साल की गवाही--न्यायाधीश कहते हैं, नेता कहते हैं, समझदार लोग कहते हैं, चारों तरफ की भीड़ कहती है। और इस भीड़ के दबाव में हर आदमी मान लेता है, यही जीवन है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं: यह जीवन बिलकुल नहीं है। यह मरने से भी ज्यादा बदतर है। इसका जीवन से कोई भी संबंध नहीं है। जीवन कुछ बात ही और है। यह सिर्फ आजीविका है। यह लाइफ नहीं है, सिर्फ लिविंग है। यह सिर्फ रोटी-रोजी कमाना है। और रोटी-रोजी कमाने का उपयोग है, अगर उस जीवन की खोज जारी हो। और अगर उस जीवन की खोज जारी नहीं है, तो रोजी-रोटी को कमाना बिलकुल फिजूल है, बेमानी है, उसका कोई अर्थ नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है।
जिस बीज से फूल आने को न हों, उसमें फिर पानी और खाद डालना बेमानी है। खाद और पानी हम इसलिए डालते हैं कि फूल आ सकें। फूलों के लिए खाद और पानी है। लेकिन खाद और पानी हम दिए चले जा रहे हैं। और ऐसा लगता है कि जैसे पौधे के जीवन का एक ही लक्ष्य है कि खाद और पानी मिलता चला जाए! न कभी फूल आते हैं, न कभी सुगंध फैलती है, न कभी कोई वीणा बजती है! क्या है यह? कैसा जीवन?
एक प्रश्न उठ जाना जरूरी है: क्या यही जीवन है?
बहुत कठिन है प्रश्न पूछना। दूसरों से पूछना तो बहुत सरल है, क्योंकि बंधे-बंधाए उत्तर दूसरों के पास तैयार हैं। खुद से पूछना बहुत मुश्किल है, क्योंकि वहां बंधे-बंधाए उत्तर नहीं हैं। वहां प्रश्न पूछने का मतलब, वहां प्रश्न पूछने का मतलब एक लंबे श्रम और एक साधना और यात्रा से गुजरना है। लेकिन हमने जीवन के सब महत्वपूर्ण प्रश्नों को, जवाबों को बांध कर, तय करके रख लिया है। सब हमें सिखा दिया गया है। सब कल्टिवेटेड उत्तर हैं हमारे पास। और जब भी जिंदगी सवाल उठाती है, हम फौरन उत्तर दे देते हैं! अपना दे देते हैं, दूसरों से दिलवा लेते हैं!
हम भी जो उत्तर देते हैं, वह भी दूसरों से सीखा हुआ उत्तर ही है। वह भी हमें फीड-इन किया गया है, वह भी बचपन से हमारे दिमाग में डाला गया है। अगर कोई आदमी कहता है कि नहीं, यह जीवन नहीं है, शरीर का जीवन जीवन नहीं है, आत्मा का जीवन जीवन है। वह आदमी भी हो सकता है किसी किताब में पढ़ कर कह रहा हो, किसी गुरु से सुन कर कह रहा हो। और सौ में निन्यानबे मौके यही हैं कि उसने किसी से सुन कर यह बात कही है। अगर वह सुन कर कह रहा है, तो यह भी बेमानी है, इसमें भी कोई अर्थ नहीं है।
कौन जानता है आत्मा है या नहीं? खुद ही जानना पड़ेगा। दूसरे के उत्तर काम नहीं दे सकते।
कौन कह सकता है कि शरीर के साथ सब नहीं मर जाता है? जो जानता है, वही कह सकता है। लेकिन उसके कहे हुए का उपयोग दूसरे के लिए क्या है? दूसरे के लिए तो आकाश में गूंजती हुई आवाज से ज्यादा नहीं है उसकी बात।
कोई कहता है कि आत्मा है, मैं कहता हूं कि आत्मा है, क्या मतलब है इससे आपका? कोई भी तो मतलब नहीं है। एक शब्द गूंजता है और खत्म हो जाता है। हम शरीर ही रह जाते हैं, इस शब्द के सुनने से हम आत्मा नहीं हो जाते। हां, यह हो सकता है कि आप इस शब्द को सीख लें और याद कर लें और जब जिंदगी सवाल पूछे तो आप कहने लगें: मैं आत्मा हूं! मैं अमर हूं! मैं ब्रह्म हूं! मैं परमात्मा हूं! वह सब झूठी बकवास होगी। यह जानना पड़ेगा। और यह जानना तब होगा, जब यह इंक्वायरी, यह प्रश्न हमारे प्राणों में तीर की तरह उतर जाए, हमारे रोएं-रोएं को घेर ले, हमारा कण-कण पूछने लगे कि मैं हूं कौन? मैं किसलिए हूं?
हमने कभी नहीं पूछा। अगर प्यास लग आए हमें, तो जितने जोर से हम पूछते हैं पानी कहां है, उतने जोर से भी हमने नहीं पूछा कि जीवन कहां है। अगर भूख लग आए, तो जितना प्राणों में क्रंदन होने लगता है, उतना भी जीवन के लिए हमारे प्राणों में कभी कोई रुदन नहीं उठा।
फिर लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, ईश्वर को खोजना है! उनके मन में इतनी प्यास भी नहीं, जितनी पानी के लिए हो। वे कहते हैं: मोक्ष कहां है? और वे ऐसे पूछते हैं कि जैसे कोई उन्हें उठाए और वहां पहुंचा दे।
कौन पहुंचाएगा किसको? और ईश्वर कहीं बैठा है कि आप चले जाएंगे और वह मिल जाएगा? कि आप किसी मंदिर में हाथ जोड़ लेंगे और नारियल फोड़ देंगे और कोई मंत्र पढ़ लेंगे और वह मिल जाएगा? वह है, तो आपके भीतर है। अगर कुछ भी है सत्य, तो वह आपके साथ है। उसे खोजना पड़ेगा। खोजना बहुत कष्टपूर्ण है, बहुत आरडुअस है।
असल में, बंधे हुए उत्तर हमेशा आसान हैं। लेकिन बंधे हुए उत्तर आदमी को पागल किए दे रहे हैं। सारी दुनिया एक मैडहाउस हो गई है, बंधे हुए उत्तरों के कारण।
मैंने सुना है, एक गांव में सम्राट आने को था। गांव के जो खास-खास बड़े लोग थे, उन सबको सम्राट के सामने दरबार में पेश किया जाने को था। गांव में एक फकीर भी था। वह गांव का फकीर भी बहुत प्रसिद्ध था। गांव के लोग उसे पूजते थे। गांव के लोगों ने कहा: हमारा फकीर भी जाएगा। और नंबर एक वही खड़ा होगा हमारे गांव की तरफ से सम्राट से मिलने को।
लेकिन सम्राट के काम करने वाले नौकर-चाकरों ने कहा: फकीर कभी सम्राट से मिला नहीं, उसे तौर-तरीका मालूम नहीं, शिष्टाचार मालूम नहीं, वह कुछ गड़बड़ कर दे, उससे कुछ कह दे, तो फकीर को सब सिखा दिया जाना चाहिए कि वह क्या-क्या उत्तर दे।
गांव के लोगों ने कहा: हम इसके लिए राजी हैं। फकीर भी राजी हो गया। उसने कहा: मुझे पता नहीं दरबार में क्या कहना है, क्या पूछा जाएगा, सब गड़बड़ हो सकता है। राजा के आदमियों ने फकीर को कुछ चार-छह बातें सिखाईं। पहला तो उन्होंने कहा कि सम्राट आपसे पूछेंगे कि आपकी उम्र क्या है। वृद्ध फकीर है। आपकी उम्र कितनी है? उसने कहा: मेरी उम्र सत्तर वर्ष है। तो आप ठीक से याद रखना। पहले पूछेंगे: आपकी उम्र कितनी है? फिर आपसे वे पूछेंगे: कितने दिन से आप साधना कर रहे हैं? उसने कहा: मैं तीस वर्ष से साधना कर रहा हूं। ऐसे चार-छह प्रश्न तैयार करवा दिए।
फिर सम्राट आए और सब गड़बड़ हो गई। सम्राट ने पहले पूछा कि आप कितने दिन से फकीर हो गए हैं? कितने दिन से साधना कर रहे हैं?
उस आदमी ने कहा: सत्तर वर्ष से। क्योंकि उत्तर तो तैयार था।
सम्राट ने कहा: सत्तर वर्ष से! तब तो आपकी उम्र बहुत होगी। आपकी उम्र कितनी है?
उस आदमी ने कहा: तीस वर्ष। उत्तर तो तैयार था।
सम्राट ने कहा कि इंपॉसिबल! यह तो हो नहीं सकता, यह तो असंभव है। तीस साल आपकी उम्र है और सत्तर साल से आप साधना कर रहे हैं! आप पागल तो नहीं हैं? या तो आप पागल हैं या मैं पागल हूं!
उस फकीर ने कहा: हम दोनों पागल हैं।
सम्राट ने कहा: क्या मतलब? तुम मुझे पागल कहते हो!
उस फकीर ने कहा कि निश्चित! क्योंकि आप गलत सवाल पूछ रहे हैं और मुझे गलत जवाब देने पड़ रहे हैं। और सब तैयार हैं। और पहले से नौकर-चाकरों ने सब सिखा कर रखा है कि गड़बड़ करना मत। आप पागल हैं, क्योंकि आप गलत सवाल पूछ रहे हैं और मैं पागल हूं, क्योंकि मैं गलत जवाब दे रहा हूं। लेकिन मेरी मजबूरी है, सब उत्तर तैयार हैं।
हमारे सब उत्तर भी तैयार हैं। अगर परमात्मा के सामने कभी हम खड़े किए गए और परमात्मा ने हमसे कुछ सवाल पूछे, तो एकाध उत्तर आपका अपना होगा? एकाध ऐसा उत्तर होगा, जो आप कह सकें, मैं दे रहा हूं? अगर एक भी उत्तर ऐसा आपके पास नहीं है, तो आपको जीवन की कोई, कोई रूप-रेखा, कोई ओर-छोर, कुछ भी नहीं मिल सकता।
परमात्मा के सामने आप खड़े हैं, समझ लें, और पूछा गया है कुछ, एक भी उत्तर आपके पास अपना है, या कि सब सीखा हुआ है? स्कूल में सीखा हुआ, पाठशाला में सीखा हुआ, गुरु के पास, साधु के पास, मुनि के पास, शास्त्र में, समाज से, मां-बाप से, सब सीखा हुआ है, एक उत्तर आपका अपना नहीं है! कम से कम जीवन के संबंध में तो एक उत्तर अपना होना चाहिए।
जीवन क्या है, यह प्रश्न ही पैदा नहीं होता हमारे भीतर, उत्तर कहां से आएगा? यह प्रश्न ही हमने नहीं पूछा है। और हम पूछने में डरते भी हैं। क्योंकि अगर हम यह पूछेंगे, तो जिसे हम जीवन समझ रहे हैं, वह सब अस्त-व्यस्त होना शुरू हो सकता है।
एक आदमी पागल की तरह धन इकट्ठा किए जा रहा है। अगर वह पूछे कि जीवन क्या है, तो निश्चित है यह बात कि पागल की तरह कल धन इकट्ठा नहीं कर सकेगा। यह प्रश्न सब गड़बड़ कर देगा। अगर धन पागल की तरह इकट्ठा करते चले जाना है, तो प्रश्न से बचना जरूरी है। इसलिए हम सब अवाइड कर रहे हैं, जिंदगी के असली सवालों को हटाते हैं। कहते हैं, कल पूछ लेंगे।
जवान आदमी कहता है, अभी तो मैं जवान हूं, परमात्मा की बातचीत, बुढ़ापे में पूछ लूंगा। आदमी कहता है, कल पूछ लेंगे, परसों पूछ लेंगे। रोज हम आगे टालते हैं। रोज हम आगे टालते हैं! क्यों इतना डर है? जीवन के असली सवाल जो अभी, इसी वक्त पूछे जाने चाहिए। क्योंकि जिंदगी का अगर कोई भी अर्थ खुल सकता है, तो अभी और यहां, हियर एंड नाउ। कल नहीं, क्योंकि कल तो है ही नहीं; जब भी है आज और अभी है।
मैंने सुना है, एक सूफी फकीर एक तीर्थयात्रा पर निकला हुआ था। चार-छह मित्र और साथ थे। एक गांव में ठहरे। उन चारों ने भीख मांगी। फिर उस सूफी फकीर को कहा कि तुम जाओ और बाजार से हलवा खरीद लाओ।
वह हलवा खरीद कर ले आया। फिर उन पांचों में विवाद होने लगा, क्योंकि हलवा थोड़ा था, और पांच वे ज्यादा थे, और भूख ज्यादा थी। और उनमें विवाद होने लगा कि सबसे ज्यादा हिस्सा किसे मिलना चाहिए। उनमें एक भक्त था, उसने कहा: मैं भगवान का सबसे ज्यादा प्यारा हूं, मुझे हिस्सा ज्यादा मिलना चाहिए।
उनमें एक योगी था, उसने कहा: क्या बात करते हो, मुझसे ज्यादा शीर्षासन किसी ने कभी नहीं किया। मुझे ज्यादा मिलना चाहिए।
उनमें तीसरा एक पंडित था, उसने कहा: मेरे से ज्यादा शास्त्र जानने वाला कोई भी नहीं है। हलवे पर पहला हक मेरा है। जो बचे वह तुम्हारा। पहले मैं लूंगा।
आखिर विवाद बढ़ गया। और सुबह तो बीत गई, सांझ आ गई। वह हलवा एक तरफ रखा है। विवाद बढ़ता चला गया। और निर्णय नहीं हो सका कि कौन ले।
तब उस सूफी फकीर ने कहा: एक काम किया जाए, हम पांचों सो जाएं और रात जो सबसे श्रेष्ठ सपना देखे, वह सुबह बताए। हम पांचों अपने सपने बताएं, जिसका श्रेष्ठतम सपना होगा, वही मालिक है।
रात भर सोना पड़ा। सुबह उठते ही भक्त ने कहा कि मैंने सपना देखा कि भगवान खड़े हैं और कह रहे हैं, तुझसे ज्यादा प्यारा भक्त मेरा कोई भी नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं कि हलवे पर मेरा हक है।
योगी ने कहा कि मैं जैसे ही सोया, देखा कि समाधि की अवस्था में चला गया हूं। ऐसी निर्विकल्प समाधि, जैसी मुश्किल कभी किसी को मिलती है। हकदार मैं हूं। उन चारों ने अपने दावे किए। फिर पांचवां, उस सूफी फकीर का सवाल आया। उससे पूछा: तुम्हारा क्या कहना है?
उसने कहा कि मुझे, मैंने रात में देखा कि भगवान मुझसे कह रहे हैं कि उठ और हलवा खा! तो मजबूरी थी, आज्ञा मुझे पालन करनी पड़ी। मैं तो हलवा खा गया!
उस सूफी फकीर ने अपनी आत्म-कथा में यह कहानी लिखी है और उसने लिखा है कि यह कहानी सिर्फ हंसने के लिए नहीं है। जिन्हें जीवन का स्वाद चखना है, उन्हें भी ‘उठ और अभी चख’--वही आदेश है। वह कल के लिए नहीं हो सकता है। और जो सपने देख रहे हैं, वे कल के लिए खोते चले जाएंगे।
जीवन एक प्रश्न बनना चाहिए।
अपनी जिंदगी को एक प्रश्न बनाइए।
कठिनाई होगी। बेचैनी होगी। जिंदगी में बहुत प्रश्न वैसे ही हैं, यह प्रश्न और परेशान करेगा। लेकिन इस प्रश्न की बेचैनी बड़ी सार्थक है। अगर यह प्रश्न बेचैन कर दे, तो हम बहुत शीघ्र जीवन के द्वार पर भी पहुंच सकते हैं। अगर यह प्रश्न पूरे प्राणों को मथ डाले, तो वह अमृत भी निकल स
कता है जो मंथन से निकलता है। अगर यह प्रश्न धक्का दे दे और किसी यात्रा पर पहुंचा दे, तो हम वहां भी पहुंच सकते हैं जहां प्रभु का मंदिर है। लेकिन यह प्रश्न की बेचैनी लेनी जरूरी है।
इसलिए पहला सूत्र जीवन क्रांति के लिए आपसे कहता हूं: एक प्रश्न पूछने वाला चित्त चाहिए। जवाब पकड़ लेने वाला नहीं, उत्तर पकड़ लेने वाला नहीं--प्रश्न पूछने वाला चित्त!
हिम्मतवर आदमी पूछता है, नपुंसक और कमजोर केवल दूसरों के उत्तर पकड़ लेता है और बैठ जाता है। कोई हिंदू बन कर बैठ गया है, कोई मुसलमान, कोई जैन, कोई ईसाई, कोई सिख, कोई कुछ और। हम सारे लोग कुछ बन कर बैठ गए हैं।
यह हम कैसे बन कर बैठ गए हैं?
ये उत्तर हमारे सीखे हुए हैं। ये हमने नहीं पूछे हैं। यह हमने परमात्मा से सीधी टक्कर नहीं ली है, हम आमने-सामने खड़े नहीं हुए हैं, हमने कोई एनकाउंटर नहीं किया है। हमने जिंदगी को पकड़ कर नहीं पूछा है कि क्या हो? हमने दूसरों के उधार उत्तर मान लिए हैं। और फिजूल की चीजों को हम नापते फिर रहे हैं।
एक आदमी बाजार में दो पैसे की मटकी खरीदता है, तो चारों तरफ ठोक-बजा कर देख रहा है। एक मटकी दो पैसे की खरीदने वाला ठोक-बजा कर देख रहा है। और जिंदगी? जिंदगी हम सब उधार, बारोड, दूसरे के ज्ञान पर बैठे हुए हैं।
दूसरे के ज्ञान पर बैठा हुआ आदमी अज्ञान पर बैठा हुआ है। दूसरे के ज्ञान को जिसने अपनी मुट्ठी में बांधा है, वह समझ ले, उसकी मुट्ठी में कुछ भी नहीं है। दूसरे के ज्ञान के आधार पर जिसने समझ लिया कि मैं जान गया हूं, उससे ज्यादा खतरनाक अज्ञानी खोजना मुश्किल है। दूसरों के उधार उत्तर जिसके पास हैं और अपना प्रश्न नहीं है, वह आदमी मुर्दा है, वह आदमी जिंदा नहीं है।
एक तीर चाहिए पूछने वाला प्राणों में, जो पूछे। और अगर हम पूछने की हिम्मत जुटाएं, तो परमात्मा उत्तर देने को हमेशा तैयार है। लेकिन हम पूछें ही नहीं, तो उत्तर भी उसका नहीं आ सकता है। जो पूछते हैं, उन्हें उत्तर मिलता है।
एक फकीर था, वह रोज-रोज यह कहता था कि द्वार खटखटाओ और द्वार खुलेंगे।
जैसा जीसस ने कहा है: ‘नॉक, एंड दि डोर शैल बी ओपन्ड अनटु यू। खटखटाओ और द्वार खुलेंगे।’
एक बूढ़ी औरत राबिया भी उसकी, उसकी सभाओं में बैठ कर सुना करती थी। वह रोज कहता था: खटखटाओ दरवाजे, दरवाजे खुलेंगे। एक दिन राबिया खड़ी हुई और उस बूढ़ी औरत ने कहा: बहुत हो चुका सुनते-सुनते खटखटाओ-खटखटाओ, कब तक कहते रहोगे खटखटाओ? द्वार बंद ही नहीं हैं। आंख खोल कर देखो, द्वार खुला हुआ है। लेकिन आंख कौन उठाए?
प्रश्न से भरी आंख खोज शुरू कर देती है, प्रश्न से भरी आंख उठती है, प्रश्न से भरी आंख पूछती है। और जो पूछता है, वह किसी न किसी क्षण उपलब्ध हो जाता है उस उत्तर को जिसे पा लेने के बाद जीवन क्या है यह हमें दूसरों से नहीं मांगना पड़ता, जीवन क्या है यह हम जान लेते हैं।
और जब हम जीवन को जानते हैं इस तरह, जैसे खून दौड़ता हो अपनी नसों में; और जब हम जीवन को जानते हैं इस तरह, जैसे श्वास दौड़ती हो फेफड़ों में; और जब हम जीवन को जानते हैं इस तरह, जैसे प्रेम हृदय के कोनों में सरकता हो; और जब हम जीवन को जानते हैं, इस तरह जैसे गंगा बहती है, हवाएं बहती हैं, आकाश में तारे खिलते हैं। जब हम जीवन को उसकी पूरी समग्रता में अपने प्राणों से जानते हैं, तो एक विस्फोट, एक एक्सप्लोजन हो जाता है। एक नया आदमी हमारी जगह आ जाता है। हम गए, दि ओल्ड मैन, वह जो पुराना आदमी था, गया। उसकी जगह एक बिलकुल नया आदमी आ जाता है। उस नये, ताजे आदमी का नाम ही धार्मिक आदमी है।
इन तीन दिनों में मैं उन सूत्रों की बात करूंगा कि वह नया धार्मिक आदमी कैसे आ जाए।
प्रत्येक के भीतर वह मौजूद है। बुलाना है, पुकारना है, उसे बाहर लाना है। ऊपर हम खोल, पुराने कपड़े पहने हुए बैठे हैं। इन्हें फेंक देना है। इनके फेंकते ही नया अंकुर भीतर से निकल आएगा। और उस अंकुर पर बड़े फूल खिलते हैं। उन खिले हुए फूलों का नाम ही परमात्मा का अनुभव है। उन फूलों से बड़ी सुगंध फैलती है। उस फैली हुई सुगंध का नाम ही प्रार्थना है। उन फूलों में बड़ा अमृत है। उस अमृत को जो जान लेता है, उसे जानने को फिर कुछ शेष नहीं रह जाता। और उस अमृत को जो पा लेता है, वह सब पा लेता है।
उस अमृत को पा लेने वाले से तुम सब छीन लो, तो वह हंसता रहेगा। क्योंकि तुम उसका कुछ भी नहीं छीन सकते हो। उसने वह चीज पा ली, जो नहीं छीनी जा सकती है। और हमारे पास जो कुछ भी है, वह सब छीना जा सकता है। जिसके पास वही संपदा है, जो छीनी जा सकती है, वह आदमी निर्धन है। और जिसके पास वह संपदा आ जाती है, जो नहीं छीनी जा सकती, वह आदमी संपत्तिशाली हो जाता है, वह प्रभु के राज्य का मालिक हो जाता है।
तो आज एक प्रश्न पूछने के सूत्र पर आपको छोड़ देता हूं। पूछें--रात सोते पूछें, सुबह उठते पूछें, खाना खाते पूछें, दुकान पर काम करते पूछें, दफ्तर में जाकर पूछें: जीवन क्या है? क्या यही जीवन है--कोल्हू के बैल की तरह मैं घूमता रहूं, घूमता रहूं--यही है जीवन? और किसी बंधे हुए बासे उत्तर को स्वीकार न करें। निश्चित ही वह उत्तर आएगा, जो आपका अपना है; और जो परमात्मा देता है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।





Spread the love