QUESTION & ANSWER

Jeevan Ki Khoj 06

Sixth Discourse from the series of 9 discourses - Jeevan Ki Khoj by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
सत्य की खोज में या जीवन के अर्थ की खोज में जो सबसे पहली बात, सबसे पहली भूमिका आवश्यक है उसके संबंध में हमने विचार किया। जैसा मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैंने आपसे कहा। यदि प्यास न हो तो हमारे भीतर जीवन के अर्थ की प्राप्ति का कोई प्रारंभ भी नहीं हो पाता है। प्यास ही बीज है। और प्यास का बीज ही विकसित होकर, अंकुरित होकर मनुष्य के जीवन में साधना बनता है। प्यास कैसे पैदा हो, उसके संबंध में थोड़ा सा विचार हमने किया।
जीवन को यदि हम देखें और जीवन की सच्चाई को देखें, तो जिसे अभी हम संतुष्टि मान रहे हैं, वहीं असंतोष के अंकुर शुरू हो जाएंगे। और जिन बातों से अभी हम तृप्त हैं, वे ही बातें हमें अतृप्त कर देंगी। और जो अभी हमें प्रकाश मालूम हो रहा है, वही अंधकार मालूम होने लगेगा। और जो जीवन मालूम हो रहा है, वही मृत्यु के जैसा दिखाई पड़ेगा। अभी जिसे हमने सब-कुछ समझा हुआ है, प्रतीत होगा वह कुछ भी नहीं है और हम एक बड़े स्वप्न में हैं। यदि यह प्रतीति न हो, अगर यह अनुभव न हो, तो प्यास पैदा नहीं होती है।
जीवन का दुख और जीवन का मृत्यु में विलीन हो जाना ही मनुष्य के भीतर परमात्मा की खोज बनती है, इस संबंध में हमने विचार किया। और यह भी मैंने आपसे कहा कि अगर इस ओर ध्यान न जाए, अगर मनुष्य के अंतस की ओर ध्यान की धारा प्रवाहित न हो, तो हमें ज्ञात भी नहीं हो पाता कि भीतर कौन है? हम केवल उन्हीं बातों को जानने में समर्थ हो पाते हैं जिस ओर हमारे ध्यान की धारा होती है, जिस ओर हमारे चित्त की धारा होती है। जिस ओर हमारे अंतस की दृष्टि होती है, वही केवल सत्तावान हो जाता है। और जिस ओर हमारे अंतस की दृष्टि नहीं होती है, उसी की सत्ता खो जाती है।
एक छोटी सी कहानी मैं कहूंगा और फिर आज की चर्चा प्रारंभ करूंगा।
एक मुसलमान बादशाह के जीवन में उल्लेख है। वह जंगल में शिकार को गया। सूरज ढल गया, सांझ हो गई। वह गांव नहीं लौट पाया। रास्ता भटक गया। तो उसने जंगल की ही एक पगडंडी पर बैठ कर संध्या की प्रार्थना की। जब वह संध्या को प्रार्थना करने बैठा--वह प्रार्थना करने बैठा ही है, परमात्मा की इबादत के लिए उसने सिर को झुकाया ही है कि एक भागती हुई युवती उसको धक्का देती हुई, करीब-करीब उसके प्रार्थना के वस्त्र पर से निकलती हुई जंगल की ओर चली गई।
उसे बहुत क्रोध आया और उसके मन को हुआ कि यह कैसी नासमझ, कैसी अशिष्ट स्त्री है! इसे यह भी पता नहीं कि कोई प्रार्थना कर रहा है? फिर इसे यह भी ध्यान नहीं कि देश का बादशाह प्रार्थना कर रहा है और उसे धक्का नहीं देना चाहिए?
जब वह प्रार्थना करके उठा, उसने पाया, वह स्त्री वापस लौट रही है। उसने उसे रोका और कहा कि यह कैसी बदतमीजी है, यह कैसी अशिष्टता है, यह कैसी संस्कार-शून्यता है कि देश का बादशाह प्रार्थना कर रहा हो और उसको धक्का देते हुए जाया जाए? फिर अगर वह बादशाह न भी हो, तब भी कोई दूसरा मनुष्य भी प्रार्थना कर रहा है, तो उसके पास संकोच से उसे धक्के देते हुए निकलने की अशिष्टता नहीं होनी चाहिए?
उस युवती ने कहा: क्या आप रास्ते में प्रार्थना कर रहे थे? मुझे कुछ पता नहीं। मैं अपने प्रेमी से मिलने जा रही थी, मुझे कुछ पता नहीं कि रास्ते में कौन था और कौन नहीं था। मुझे कोई दिखाई नहीं पड़ा, मैंने आपको नहीं देखा। लेकिन उस युवती ने कहा: मुझे हैरानी होती है, आप प्रभु की प्रार्थना कर रहे थे और आपको मेरे धक्के का पता चल गया? अगर वह प्रभु की प्रार्थना थी और अगर ध्यान प्रभु की ओर था, तो मेरे धक्के का बोध नहीं होना चाहिए था। मैं तो अपने प्रेमी के पीछे पागल थी, तो मुझे आपका कोई पता नहीं चला। क्या आप इतने भी पागल परमात्मा के लिए नहीं थे? मेरी प्यास तो अपने प्रेमी की तरफ थी, इसलिए मुझे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। लेकिन आपकी प्यास क्या परमात्मा की ओर इतनी गहरी नहीं थी कि आपको मेरे होने का, मेरे निकलने का बोध न होता?
निश्चित ही, अगर बोध हमारा एक ओर हो, तो दूसरी ओर से बोध विलीन हो जाता है। और यदि प्रार्थना में कुछ और भी अनुभव हो रहा है, तो जानना चाहिए कि वह प्रार्थना झूठी है। बोध जिस ओर जाता है, केवल उसी तरफ की सत्ता को प्रकट कर देता है। शेष सारी सत्ता शून्य हो जाती है।
हमारा बोध भीतर की ओर नहीं है, इसलिए आत्मा हमें प्रतीत होती है कि नहीं है और संसार प्रतीत होता है कि है। यदि बोध भीतर की ओर जाए, तो हमें दूसरा सत्य ज्ञात होगा कि संसार नहीं है और आत्मा है। और अगर बोध दोनों ओर संयुक्त हो जाए, तो हमें ज्ञात होगा: संसार की भी सत्ता है और आत्मा की भी सत्ता है।
जीवन में केवल वही अनुभव होता है जिस ओर हमारा बोध प्रविष्ट हो जाता है। वह बोध कैसे विकसित हो, उसका ही हम विचार कर रहे हैं।
मैंने पहली बात कही: ‘प्यास’ चाहिए। मैं समझता हूं, वह आप समझे होंगे।
लेकिन अकेली प्यास हो, तो भी काफी नहीं है। क्योंकि प्यास गलत रास्तों पर भी ले जा सकती है। जरूरी नहीं है कि प्यास आपको सरोवर की तरफ ही ले जाए। यह भी हो सकता है कि प्यास आपको सरोवर के विपरीत ले जाए। क्योंकि प्यास अकेली मार्ग-दर्शक नहीं है। बहुत लोगों को तो प्यास ही नहीं होती है। फिर जिनको प्यास होती है, उनमें से बहुत से लोग प्यास के कारण गलत रास्तों पर भी चले जाते हैं। प्यास हो और ठीक रास्ता हो, तो ही जीवन में कुछ उपलब्ध होता है।
तो दूसरे चरण में मैं ‘मार्ग’ पर विचार करना चाहता हूं।
प्यास हो, लेकिन मार्ग क्या है, जिसके माध्यम से प्यास की तृप्ति हो सके?
साधारणतः हमारी प्यास हमें गलत ले जाती है। सारी दुनिया में प्यास लोगों को गलत रास्तों पर ले गई है। जब कोई मनुष्य परमात्मा के लिए प्यासा होता है, तो हम पाते हैं, उसने मंदिर जाना शुरू कर दिया, या मस्जिद जाना शुरू कर दिया, या चर्च जाना शुरू कर दिया। हम देखते हैं, एक आदमी परमात्मा में उत्सुक हुआ है, तो वह मंदिरों और मस्जिदों और चर्चों में उत्सुक हो जाता है। लेकिन मनुष्य का इतिहास बताता है कि मंदिर और चर्चों और मस्जिदों में जाने वाले लोग परमात्मा को तो शायद ही उपलब्ध हुए हैं--मनुष्य को खंडित करने में, मनुष्य को नुकसान पहुंचाने में, मनुष्यता को तोड़ देने में जरूर उपयोगी हुए हैं।
अगर हम मनुष्य के इतिहास को देखें, तो यह ज्ञात होगा कि जितने ये आस्तिक हैं, जितने ये धर्मों को मानने वाले लोग हैं--इनके नाम पर इतना पाप है, इतनी हत्या है, इतनी हिंसा है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। नास्तिकों के नाम पर इतने पाप नहीं हैं। दुनिया में नास्तिकों ने कोई बहुत बुराई नहीं की है, कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है मनुष्यता के लिए। लेकिन आस्तिकों ने पहुंचाया है। और उनके पहुंचाने वालों के अड्डे मंदिर और मस्जिद और चर्च हैं। और इन अड्डों ने मनुष्य को तोड़ा है। और जो चीज मनुष्य को मनुष्य से तोड़ देती हो, वह चीज मनुष्य को परमात्मा से कैसे जोड़ सकेगी? जो मुझे अपने पड़ोसी से तोड़ देती हो, वह मुझे परमात्मा तक ले जाने में कैसे समर्थ हो सकती है? लेकिन जो लोग धर्म में उत्सुक होंगे, उनकी उत्सुकता बहुत शीघ्र ही मंदिर और मस्जिद की उत्सुकता में बदल जाती है। यह प्यास ने गलत रास्ता ले लिया।
स्मरण रखें, मंदिर और मस्जिद भी बाहर हैं। जैसे दुकान बाहर है और मकान बाहर है, वैसे ही मंदिर और मंस्जिद भी बाहर हैं। और जो बाहर की तरफ परमात्मा को खोजने जा रहा है, उसका बोध भीतर की तरफ नहीं आएगा।
नानक मुसलमानों के तीर्थ मक्का में मेहमान थे। वे रात जब वहां सोए तो उन्होंने पैर काबा के पवित्र पत्थर की तरफ कर लिए। पुजारी ने आकर कहा कि ये पैर पवित्र पत्थर की तरफ हैं, परमात्मा की तरफ हैं, इन्हें किसी और तरफ करके सो जाओ।
नानक ने कहा: तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो जहां परमात्मा न हो। नानक ने बहुत अदभुत बात कही। उन्होंने कहा: तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो जहां परमात्मा न हो।
जिसकी दृष्टि मंदिर में है, उसे यह खयाल पैदा हो जाता है कि भगवान मंदिर में हैं, और शेष जगत में क्या है? जिसकी दृष्टि मस्जिद में होती है, उसका खयाल होता है कि भगवान मस्जिद में है, और शेष जगत में क्या है?
मंदिर और मस्जिद को मानने वाला भगवान को तो उपलब्ध नहीं होता, लेकिन भगवान के एक अत्यंत एकांगी धारणा को, भगवान के अत्यंत खंडित रूप को, भगवान के अत्यंत काराग्रह और बंधन में बंद रूप को उपलब्ध हो जाता है। और तब परिणाम यह होते हैं कि उसके जीवन में धर्म तो नहीं आता, उसके जीवन में संप्रदाय आता है। उसके जीवन में कोई साधुता तो नहीं आती, उसके जीवन में क्रूरता आती है। उसके जीवन में प्रेम तो नहीं आता, लेकिन विद्वेष आता है, संगठन आता है, घृणा आती है।
सारे दुनिया के धर्म इसी कारण संगठित हैं--घृणा के कारण। दूसरे धर्मों के विरोध में--मंदिर मस्जिद के विरोध में है; मस्जिद मंदिर के विरोध में है। और जो चीज भी किसी के विरोध में है, स्मरण रखें कि वह परमात्मा के पक्ष में नहीं हो सकती। क्योंकि परमात्मा तो समग्र का नाम है। उस समग्र में अगर किसी का भी विरोध है, अंततः वह परमात्मा का विरोध होगा। इसलिए कोई व्यक्ति अगर ईश्वर को खोजने चला है, तो कोई मंदिर और कोई मस्जिद उसे परमात्मा को नहीं दे सकेंगे। उसे तो समग्र जीवन को ही जानने में प्रवेश पाना होगा। और उसका द्वार उसके भीतर है, उसके बाहर नहीं है।
मैंने एक फकीर के संबंध में सुना है। वह कोई सत्तर वर्ष की उम्र तक निरंतर मंदिर जाता रहा। प्रभु की प्रार्थना में सम्मिलित होता रहा। एक भी दिन नहीं चूका। कोई पैंतालीस वर्षों से उसके गांव के लोगों ने देखा कि वह हमेशा मंदिर गया है। बीमार था, तो भी मंदिर गया है। अस्वस्थ था, तो भी मंदिर गया है। वृद्ध हो गया, तो भी मंदिर गया है। एक भी दिन वह कभी चूका नहीं। सत्तरवें वर्ष पर एक दिन लोगों ने पाया कि आज वह मंदिर नहीं आया है। और लोग बहुत हैरान हुए। सिवाय इसके कि वह मर गया हो और कोई भी कारण नहीं हो सकता था।
वे सारे लोग उस साधु के झोपड़े की तरफ गए। उन्होंने जाकर देखा, वह तो अपनी खंजड़ी लिए हुए एक दरख्त के नीचे बैठ कर खंजड़ी बजा रहा है। वह तो गीत गा रहा है। उन्हें आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा कि इस बुढ़ापे में तुम्हें यह नास्तिकता सूझी है? जीवन भर का उपक्रम, जीवन भर की साधना मंदिर जाने की समाप्त हो गई है क्या?
उस बूढ़े साधु ने कहा: जब तक मुझे भगवान के मंदिर का पता नहीं था, तब तक मैं तुम्हारे मंदिर में आता रहा। अब मुझे भगवान के मंदिर का पता है, इसलिए अब किसी मंदिर में मुझे जाने की कोई जरूरत नहीं रह गई है।
उन्होंने पूछा: भगवान का मंदिर क्या है?
उस साधु ने कहा: यह जो सारी प्रकृति है, यह जो सारी सृष्टि है; यदि कोई भगवान का मंदिर है, तो यही है। इसके अतिरिक्त और कोई मंदिर नहीं हो सकता है। और अगर भगवान के मंदिर में जाने का कोई द्वार है, तो वह मेरे भीतर है। वह द्वार कहीं बाहर नहीं हो सकता है। इस विश्वसत्ता के निकट हम अपने ही भीतर से निकटतम हैं। और अगर हमें उस सत्ता से संबंधित होना है, तो द्वार हमारे भीतर होगा।
इसलिए मैंने कहा कि प्यास अगर पैदा भी हो, तो अक्सर प्यास गलत रास्तों पर चली जाती है। और वैसे गलत रास्तों पर गई प्यास का ही परिणाम है कि दुनिया में इतने धर्म हैं। अन्यथा एक ही धर्म होना चाहिए।
धर्म इतने कैसे हो सकते हैं?
सत्य तो एक ही हो सकता है, असत्य बहुत हो सकते हैं।
ये इतने धर्म इस बात की सूचना हैं कि धर्म अपनी परिपूर्णता में, अपने परिपूर्ण सत्य में उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। अपने परिपूर्णविकास को प्राप्त नहीं कर पा रहा है। अगर लोगों की प्यास गलत न जाए, तो दुनिया में संगठन विसर्जित हो जाएंगे। मंदिर और मस्जिद विलीन हो जाएंगे। पादरी और पुरोहित, पंडित और उस तरह के लोग जिन्होंने कि शोषण का व्यापार कर रखा है, मनुष्य की प्यास का, वे सब विलीन हो जाएंगे। यह मनुष्य की प्यास का, मनुष्य की आंतरिक अभीप्सा का शोषण चल रहा है कोई पांच हजार वर्षों से। और उस शोषण के नाम पर न मालूम क्या-क्या हुआ है? अब यह वक्त है कि यह शोषण बंद हो जाना चाहिए। लेकिन यह तभी बंद होगा, जब हमारी प्यास ठीक रुख अख्तियार करे। अगर हमारी प्यास गलत रास्तों पर जाती है, तो यह आगे भी होता रहने वाला है।
और इस सारे शोषण की बुनियाद, हमारी प्यास को गलत ले जाने का रास्ता है--विश्वास। हमसे कहा गया है, हम विश्वास करें। तीन-चार हजार वर्षों से यह बात दोहराई गई है कि हमें विश्वास करना चाहिए--गीता पर, कुरान पर, बाइबिल पर, महावीर पर, बुद्ध पर, कृष्ण पर, क्राइस्ट पर विश्वास करना चाहिए। हमें खुद विवेक करने की कोई जरूरत नहीं है। हमें दूसरे लोगों को स्वीकार कर लेना चाहिए। यह बहुत आत्मघाती बात है। और जिस मनुष्य को सत्य को खोजना हो, उसका रास्ता विश्वास का रास्ता नहीं हो सकता है। विश्वास का रास्ता तो अज्ञान का और अंधकार का रास्ता है। और जो भी विश्वास कर लेता है, वह अपनी गति को अपने हाथ से कुंठित कर लेता है, वह अपने पैरों को अपने हाथ से काट लेता है।
आपने कभी किसी विश्वास करने वाले व्यक्ति को सत्य को उपलब्ध होते देखा है? आज तक यह नहीं हुआ और यह आगे भी नहीं हो सकता है। विश्वास कोई रास्ता ही नहीं है। और विश्वास के ही दुष्परिणाम हुए हैं। विश्वास का दुष्परिणाम यह हुआ है कि हमें बिना ज्ञान के ज्ञानी होने का भ्रम और दंभ पैदा हो जाता है।
हममें से अधिक लोग आत्मा को मानते होंगे, अधिक लोग ईश्वर को मानते होंगे, अगर मैं आपसे पूछूं कि यह मान्यता आपके ज्ञान पर खड़ी है या आपके अज्ञान पर खड़ी है? या आपने जाना है या स्वीकार कर लिया है? यह दूसरे लोगों ने आपसे कहा है कि आपकी अपनी अनुभूति से निष्पन्न हुआ है? अगर यह दूसरों की कही हुई बात है--चाहे वे मां-बाप हों, चाहे पुरानी पीढ़ी हो, चाहे बहुत बड़े-बड़े महापुरुष हों, अगर दूसरों की कही हुई यह बात है, तो स्मरण रखिए, दूसरे की आंखों से न कोई देख सकता है और न दूसरों के पैरों से कोई चल सकता है, तो दूसरों का ज्ञान आपका ज्ञान कैसे हो सकेगा? दूसरों का ज्ञान आपको ज्ञान होने का भ्रम दे देगा और आप अज्ञान में ही खड़े रह जाएंगे।
जो मनुष्य भी विश्वास कर लेता है, वह जीवन को अज्ञान में समाप्त कर देता है। विश्वास से कोई कभी, बिलीफ से, दूसरे पर आस्था कर लेने से कोई कभी कहीं नहीं पहुंचता है। और इसके घातक परिणाम हुए हैं।
उन्नीस सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई। क्रांति के पहले वह मुल्क धार्मिक मुल्क था। जैसे हम धार्मिक हैं, ऐसा ही वह भी धार्मिक था। वहां भी चर्च थे और मंदिर थे और मस्जिदें थीं। और वहां के लोग भी उनमें पूजा करते थे और प्रार्थना करते थे। और वहां के लोग भी कुरान और बाइबिल को पढ़ते थे। उन्नीस सौ सत्रह में क्रांति हुई। बीस-पच्चीस वर्षों तक निरंतर वहां की हुकूमत ने यह प्रचार किया कि न कोई ईश्वर है, न कोई आत्मा है, न कोई परलोक है, न कोई कर्म है, न कोई पुनर्जन्म है। बीस वर्षों के प्रचार से बीस करोड़ लोगों ने मान लिया कि कोई ईश्वर नहीं है, कोई आत्मा नहीं है, कोई परमात्मा नहीं है। आप कहेंगे, बड़े पागल लोग हैं!
लेकिन मैं आपको कहूं, वे पागल लोग नहीं हैं। उनको विश्वास की आदत दिलाई गई थी। पांच हजार वर्षों से उन्हें समझाया गया था कि विश्वास करो, विश्वास की उनकी आदत थी। उन्हें नया प्रचार किया गया, उन्होंने उस पर भी विश्वास कर लिया।
अगर इस मुल्क में कम्युनिज्म आएगा, इस मुल्क के ये सारे मंदिर जाने वाले लोग--यही मंदिर जाने वाले लोग मंदिर के विरोध में खड़े हो जाएंगे। यही मूर्ति को पूजने वाले लोग मूर्ति को तोड़ने वाले बन जाएंगे। क्योंकि इनकी आदत विश्वास करने की है। जो भी इनसे कहा जाए, उसको ये विश्वास कर लेंगे। अभी ये ईश्वर पर विश्वास करते हैं, कल ये ईश्वर के न होने पर विश्वास कर लेंगे। इनकी आदत विश्वास की है। इन्हें कुछ भी विश्वास कराया जा सकता है। कोई भी झूठ, कितना ही बड़ा झूठ अगर प्रचारित किया जाए, तो ये लोग विश्वास कर लेंगे।
आपके लिए ईश्वर सत्य है। आप एक बड़े झूठ पर विश्वास किए हुए हैं। आपके लिए तो झूठ है। जिन्होंने जाना होगा, उनके लिए सत्य होगा। लेकिन आप विश्वास किए हुए हैं कि ईश्वर है। और आपको उसका कोई भी पता नहीं। और आप विश्वास किए हुए हैं कि आत्मा है, और आपको आत्मा का कोई भी पता नहीं। और आप विश्वास किए हुए हैं कि अगला जन्म है, और आपको अगले जन्म का कोई भी पता नहीं। आप बड़ी से बड़ी झूठों पर विश्वास किए हुए हैं। और जो मस्तिष्क झूठ पर विश्वास करता है वह सत्य को कैसे पा सकेगा? अगर कल आपको दूसरी झूठें कही गईं, आप उन पर भी विश्वास कर लेंगे।
जर्मनी में हिटलर ने बहुत सी झूठें प्रचारित कीं। उसने अपनी आत्म-कथा में लिखा कि कितनी ही बड़ी झूठ हो, अगर बार-बार प्रचारित की जाए, लोग उसे मान ही लेते हैं। और यह सच है। हिटलर ने लोगों को समझाया कि जर्मनी का सारा पतन यहूदियों के कारण हुआ है। सारा पाप यहूदियों के सिर पर है। जर्मनी हारता है तो यहूदियों के पाप के कारण हारता है।
उसके मित्रों ने भी उससे कहा: यह क्या पागलपन की बात है? यह बिलकुल असत्य है। इसमें कोई तुक, कोई संगति नहीं है।
लेकिन हिटलर ने कहा: फिकर मत करो, प्रचार करने से असत्य सत्य हो जाता है। और उसने पांच-सात वर्षों तक प्रचार किया और सारा मुल्क, शिक्षित मुल्क राजी हो गया इस बात को मानने को कि यहूदियों के ऊपर सारा पाप है। और इनकी हत्या करने से ही मुल्क का विकास होगा।
सारी दुनिया में इस तरह के प्रचार हैं। और इसके पीछे कारण हैं। हममें विश्वास का जो आधार बिठाया गया है कि हम मान लें।
मैं चाहता हूं कि धर्म का संबंध विश्वास से टूट जाना चाहिए। अगर आपकी प्यास को सम्यक मार्ग लेना है, तो वह विश्वास का मार्ग नहीं होगा, वह विवेक का मार्ग होगा। जो भी विश्वास कर लेता है. सच पूछिए, हम क्यों विश्वास कर लेते हैं? हमारे भीतर काहिलपन है, सुस्ती है, श्रम करने का अभाव है। हम मान लेते हैं कि दूसरा जो कहता है वह ठीक कहता होगा।
सच यह है कि विश्वास करने का अर्थ ही यह हुआ कि हमारे भीतर खुद जानने की बहुत गहरी इच्छा नहीं है। इसलिए हम दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर स्वीकार कर लेते हैं कि तुम हमें मार्ग दिखाओ। लेकिन यह क्या कभी संभव है? क्या यह संभव है कि दूसरे की बात विश्वास कर लेने से हमारे भीतर का अज्ञान मिट जाए? हम कितने ही गहरेपन से विश्वास करें, कितना ही दृढ़ विश्वास करें, हमारा अज्ञान कैसे मिटेगा?
क्या आप सोच सकते हैं, आपको ईश्वर का कोई पता नहीं है? आप विश्वास कर लें कि ईश्वर है, बहुत गहरा विश्वास कर लें, सारे प्राणों से विश्वास कर लें, तो भी आपके भीतर किसी आंतरिक बिंदु पर आपको ज्ञात रहेगा कि मुझे ईश्वर का कोई पता नहीं है। आप कितना ही विश्वास कर लें, भीतर संदेह मौजूद रहेगा, वह नष्ट नहीं हो सकता है। विश्वास संदेह को नष्ट कभी नहीं कर पाता। नष्ट कैसे करेगा? विश्वास का संदेह से कोई विरोध ही नहीं है। विश्वास तो उसी भांति है, जैसे किसी आदमी को बीमारी हो जाए और वह कपड़ों से अपने को ढंक ले और सोचे कि बीमारी खत्म हो गई। जैसे किसी को बहुत गहरा फोड़ा हो जाए, किसी को कैंसर हो जाए, नासूर हो जाए, वह अच्छे-अच्छे फूलों से उसको ढंक ले और सोचे कि मेरी बीमारी खत्म हो गई। विश्वास तो ऊपर से ढांक लिया जाता है, लेकिन भीतर की रुग्णता, भीतर का अज्ञान उससे कैसे मिटेगा? विश्वास तो वस्त्रों की भांति है, वह आपके प्राणों को परिवर्तित नहीं कर सकता है। प्राणों का परिवर्तन तो विवेक से आएगा। स्वयं के अंतःविवेक से आएगा। स्वयं की प्रज्ञा के जागने से आएगा।
इसलिए विश्वास मार्ग नहीं है। लेकिन हमको तो समझाया गया है कि विश्वास मार्ग है। और हमको तो कहा गया है कि जो विश्वासी हैं वे ही स्वर्ग पहुंच जाएंगे। और जो विश्वास नहीं करते उनके लिए स्थान नरक होगा। और हमको तो कहा गया है कि विश्वास नहीं करोगे तो नष्ट हो जाओगे।
ये बातें बिलकुल झूठ हैं। ये बातें झूठ हैं और किसी चीज को प्रचारित करने के लिए बार-बार कहीं गई हैं। विश्वास से कहीं कोई कभी नहीं पहुंच सकता। क्योंकि विश्वास संदेह का विरोध नहीं है। विश्वास से संदेह का अंत नहीं होता। हां, संदेह मिट जाए, तो व्यक्ति सत्य को उपलब्ध होता है। और संदेह विश्वास से कभी नहीं मिटता। संदेह मिटता है विवेक से।
इसे थोड़ा समझें।
संदेह भीतर पैदा होता है और विश्वास बाहर से आते हैं। जो भीतर पैदा होता है, वह बाहर से आई हुई किसी भी चीज से ढांका जा सकता है, मिटाया नहीं जा सकता। संदेह भीतर पैदा होता है, विश्वास बाहर से आते हैं। विवेक भी भीतर पैदा होता है। जहां बीमारी है वहीं समाधान हो सकता है। विश्वास दूसरे देते हैं, संदेह आपका होता है। विवेक भी आपका होता है। इसलिए विवेक तो संदेह को नष्ट कर सकता है, लेकिन विश्वास नष्ट नहीं कर सकते। और यही कारण है कि इतना विश्वास है दुनिया में, लेकिन फिर भी धार्मिक मनुष्य कहां है? इतने विश्वासी लोग हैं, लेकिन धार्मिकता कहां है?
विश्वास से पैदा हुई धार्मिकता बिलकुल झूठी होगी। और न केवल झूठी होगी, बल्कि मनुष्य को एक गहरे पाखंड में भी ले जाने का कारण बन जाती है। जो व्यक्ति भी किसी दूसरे पर विश्वास करता है, विश्वास के कारण उस तरह का आचरण करने के प्रयोग करने लगता है। आचरण उसका थोपा हुआ होता है। हर आदमी इस भांति दो खंडों में टूट जाता है। एक उसकी अपनी असलियत होती है और एक उसका विश्वास से लादा हुआ आचरण होता है। इन दोनों मनुष्यों के भीतर बड़ी कलह शुरू हो जाती है। ये दोनों हिस्से आपस में लड़ने लगते हैं।
आप अपने भीतर देखें, तो आपको पता चलेगा, आपका विश्वास और आपका व्यक्तित्व, दोनों निरंतर लड़ रहे हैं। आपका विश्वास होगा, अहिंसा सत्य है; आपका व्यक्तित्व कहता है, हिंसा सत्य है। आपका विश्वास है, सत्य बोलना ठीक है; आपका व्यक्तित्व कहता है, असत्य बोलना ठीक है। आपका विश्वास कहता है, ब्रह्मचर्य ठीक है; आपका व्यक्तित्व कहता है कि सेक्स ठीक है। आपके भीतर निरंतर कलह है। और जो मस्तिष्क बहुत कलह में होता है, वह मस्तिष्क धीरे-धीरे जड़ हो जाता है। उसकी चेतना, उसकी चैतन्य की शक्ति कम हो जाती है। और जिसकी चैतन्य की शक्ति कम हो जाए, वह ईश्वर को या सत्य को कैसे जान सकेगा?
विश्वास आपको कलह में डालते हैं। और यही कारण है कि जितनी सभ्यता विकसित होती जाती है, उतनी मानसिक कलह बढ़ती जाती है। क्योंकि विश्वास खूब प्रचारित करने के उपाय हमारे पास हो गए हैं। विश्वास को खूब प्रचारित किया जा सकता है। लोगों के मनों में डाला जा सकता है। विश्वास वहां पहुंच जाएगा। उनका व्यक्तित्व जैसा था वैसा ही बना रहेगा। परिणाम यह होगा कि वे एक आंतरिक कलह में, एक इनर कांफ्लिक्ट में पड़ जाएंगे। अपने भीतर लड़ना शुरू कर देंगे। और जो अपने भीतर चौबीस घंटे लड़ता है, वह या तो विक्षिप्त हो जाएगा और या पाखंडी हो जाएगा। पाखंडी का अर्थ है कि व
ह कहेगा कुछ, करेगा कुछ। और अगर ईमानदार हुआ तो पागल हो जाएगा। क्योंकि इन दोनों के बीच कोई संगति नहीं बैठ सकेगी। तनाव तीव्र होगा, अंततः तनाव तोड़ देगा। जितना मनुष्य सभ्य होता जा रहा है, उतना ही उसके भीतर तनाव गहरा होता जा रहा है। और तनाव का कारण क्या है? विश्वास और व्यक्तित्व के बीच में विरोध है।
इसलिए अगर आपके मुल्क में विक्षिप्त लोग बढ़ते चले जाएं, मानसिक रूप से विकारग्रस्त लोग बढ़ते चले जाएं, तो आप समझना आप सभ्य हो रहे हैं। और जिस दिन आपकी कौम बिलकुल पागल हो जाए, सब मस्तिष्क खराब हो जाएं, समझना आप सभ्यता की परिपूर्णता पर पहुंच गए। सिविलाइजेशन पूरी हो गई। क्योंकि यही परिणाम हो सकता है। और अगर यह परिणाम न होगा, तो दूसरा परिणाम यह होगा कि आप सबके सब पाखंड में प्रविष्ट हो जाएंगे। आप कहेंगे कुछ, करेंगे कुछ। आप चाहेंगे कुछ, समझाएंगे कुछ। आपका उपदेश अलग होगा, आपका जीवन अलग होगा। आपके विचार अलग होंगे, आपका व्यक्तित्व अलग होगा। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई एक आदमी दो नाव पर एक साथ सवार हो जाए और दोनों नावें अलग-अलग दिशाओं में यात्रा शुरू कर दें। उसके प्राण संकट में पड़ जाएंगे। वैसे ही प्राण हम सबके संकट में पड़े हुए हैं।
इसलिए मैं कहता हूं: विश्वास मार्ग नहीं है।
लेकिन इसका क्या यह अर्थ है कि मैं यह कहूं कि अविश्वास मार्ग है?
अविश्वास भी मार्ग नहीं है।
क्योंकि अविश्वास भी विश्वास का ही एक रूपांतर है। एक आदमी कहता है, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं; दूसरा आदमी कहता है, मैं ईश्वर में अविश्वास करता हूं। लेकिन दोनों ही घोषणाएं अज्ञान से भरी हुई हैं। आस्तिक भी गलत है और नास्तिक भी गलत है। असल में आस्तिक का ही प्रतिरोध, आस्तिक का ही रिएक्शन नास्तिक है। विश्वास और अविश्वास का तल हमेशा एक ही होता है।
इसलिए जब मैं यह कह रहा हूं कि विश्वास गलत है और सत्य की खोज का वास्तविक मार्ग नहीं है, तो कोई यह न समझ ले कि मैं यह कह रहा हूं कि अविश्वास ठीक है। अविश्वास भी गलत है।
मेरे देखे, आस्तिक और नास्तिक दोनों ही सत्य के मार्ग पर नहीं होते हैं। क्योंकि दोनों ही बिना जाने कुछ बातों को स्वीकार कर लेते हैं। दोनों ही बिना जानें कुछ मान्यताओं को अंगीकार कर लेते हैं। सत्य के मार्ग पर तो वह होता है: जिसका न कोई विश्वास है और न कोई अविश्वास है। जिसका मस्तिष्क खुला हुआ है।
विश्वास भी मस्तिष्क को बंद कर देता है, क्लोज कर देता है। अविश्वास भी मस्तिष्क को बंद कर देता है। उसके द्वार बंद हो जाते हैं। जानने की क्षमता क्षीण हो जाती है। वह अपने विश्वास या अविश्वास में घिर कर बंद हो जाता है। और इन दोनों के परिणाम हुए हैं। नास्तिकों का परिणाम यह हुआ है कि लोग यह समझने लगे कि ईश्वर है ही नहीं, आत्मा है ही नहीं, इसलिए खोजने का क्या प्रयोजन है? एक बहुत बड़ी दिशा--नास्तिक का विश्वास बंद कर देता है। एक बहुत बड़ा आयाम, एक बहुत बड़ा डाइमेन्शन, जहां कि जीवन बहुत ऊपर उठ सकता था, जहां कि जीवन नई-नई अनुभूतियां और नये-नये सौंदर्य और आनंद को अनुभव कर सकता था, नास्तिक का द्वार उसे बंद कर देता है। नास्तिक कह देता है, यह कुछ है ही नहीं। बिना जाने, बिना प्रयोग किए, बिना उस जगत में प्रवेश किए, नास्तिक कह देता है, यह कुछ है ही नहीं।
सारी दुनिया में जो लोग नास्तिकों से प्रभावित होंगे, उनका जीवन शरीर के तल पर समाप्त हो जाएगा। जो नास्तिकता के विश्वास को पकड़ लेंगे, उनका जीवन शरीर के तल पर समाप्त हो जाएगा। क्योंकि नास्तिक उसके ऊपर किसी जीवन का निषेध कर देता है, इनकार कर देता है। और अगर नास्तिकता प्रचारित की जाए तो आपके दिमाग उसे स्वीकार कर लेंगे।
अभी दुनिया में नास्तिकता तीव्रता से प्रचार पर है। आस्तिक घबड़ाए हुए हैं, क्योंकि उनके विश्वास छिन रहे हैं। नास्तिकता जोर से प्रचार पर है। संभव है कि सौ-दो सौ वर्षों में दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा नास्तिक होगा। वह बड़े खतरे की बात होगी। खतरे की बात इसलिए होगी कि लोगों के जीवन में उठने का मार्ग ही विलीन हो जाएगा। अगर यह खयाल पैदा हो जाए कि ऊपर कुछ मार्ग है ही नहीं, तो उठने की आकांक्षा अपने आप शून्य हो जाती है। और तब हम एक नीचे के तल पर जीना शुरू कर देते हैं।
नास्तिक के विश्वास का खतरा है कि वह परमात्मा की तरफ उठने के द्वार बंद ही कर देता है।
आस्तिक के विश्वास का खतरा है कि वह परमात्मा के नाम से कुछ कल्पनाएं प्रचलित कर देता है; और जो लोग उनमें उत्सुक हो जाते हैं, वे भी परमात्मा से वंचित हो जाते हैं। और परमात्मा की जगह परमात्मा के स्वप्न देखने लगते हैं। कोई राम का स्वप्न देख रहा है, कोई कृष्ण का स्वप्न देख रहा है, कोई क्राइस्ट का। यह कोई भी परमात्मा का अनुभव नहीं है। ये हमारी कल्पनाएं हैं। और अगर हम कल्पनाओं को तीव्रता से करें, तो उनके अनुभव भी हो सकते हैं। दुनिया में जिनको भी राम के दर्शन हुए हों, या कृष्ण के दर्शन हुए हों, या क्राइस्ट के, या बुद्ध के, या महावीर के, जानना होगा कि वे अपनी ही किसी कल्पना का अनुभव कर रहे हैं।
मनुष्य के मन में स्वप्न देखने की बड़ी क्षमता है। बहुत क्षमता है इमैजिनेशन की। बहुत कल्पना करने की क्षमता है। इतने दूर तक कल्पना की जा सकती है कि दूसरा व्यक्ति बिलकुल साक्षात दिखाई पड़ने लगे। आखिर पागल क्या करते हैं? पागल यही करते हैं, उनकी कल्पना की क्षमता तीव्र हो जाती है। उनका विवेक शून्य हो जाता है, कल्पना तीव्र हो जाती है। वे जिसको भी देखना चाहें उसे देख लेते हैं। दुनिया के बड़े साहित्यकार, दुनिया के बड़े कवि, दुनिया के बड़े चित्रकार क्या करते हैं? उनकी भी कल्पना तीव्र हो जाती है। वे लोगों को अनुभव करने लगते हैं।
मैंने सुना है, टाल्सटाय हुआ वहां रूस में। उसने एक... एक उपन्यास लिख रहा था: रिसरेक्शन। उसमें एक महिला पात्रा है। एक सुबह वह एक लाइबे्ररी में कुछ ग्रंथ खोजने गया। सीढ़ियों पर चढ़ता था। वह भी चल रहा था, उसकी महिला जो पात्रा थी, वह जो उसके उपन्यास में, रिसरेक्शन में एक पात्र है महिला, वह भी उसके साथ चल रही थी। कोई था नहीं वहां। उसकी कल्पना में वह स्त्री उसके साथ चल रही थी। रास्ता संकरा था। सीढ़ियां छोटी थीं। ऊपर से एक पुरुष नीचे उतर रहा था। वह रास्ता दो के लायक था, तीन के लायक नहीं था। इस स्त्री को धक्का न लग जाए, इसलिए टाल्सटाय एकदम बचा, सीढ़ियों से नीचे गिर गया और टांग उसकी टूट गई।
लोगों ने उससे पूछा: तुम बचे क्यों? दो के लिए तो वहां काफी रास्ता था।
उसने कहा: तुम्हें दो दिखाई पड़ते थे, मेरे साथ एक तीसरा भी था। वह मेरी एक पात्र, मेरी एक महिला पात्र मेरे साथ थी। उससे मैं बातचीत करता ऊपर जा रहा था।
लोगों ने कहा: यह पागल होगा!
अलेक्जेंडर ड्यूमा के बाबत है कि कई दफा उसके घर को पड़ोसियों ने घेर लिया। वह अंदर अपने पात्रों से झगड़ा करने लगता था। वह जो उपन्यास लिखता था, या नाटक लिखता था, उनमें जो पात्र होते थे, वे इतने सजीव हो जाते थे कि वह बराबर उनसे बातचीत करते-करते झगड़े में उतर आता था। अकेला ही होता कमरे में। मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो आते, दरवाजा खुलवाते, पाते वह अकेला खड़ा है। किससे बात कर रहा था? तो वह कहता कि मेरे उपन्यास के पात्रों से बात कर रहा था।
दुनिया के सारे कवि, सारे साहित्यकार अपनी कल्पना में अपने पात्रों का साक्षात कर लेते हैं। दुनिया के सारे विक्षिप्त विकारग्रस्त लोग अपनी कल्पनाओं को साकार कर लेते हैं। न केवल बाहर अपनी कल्पना का साकार हो सकता है, भीतर भी अपनी कल्पना का साकार हो सकता है।
अभी हिंदुस्तान की जेलों में, जब नेहरू जिंदा थे, तो कोई दस नेहरू बंद थे। कोई दस पागल थे पूरे मुल्क में जो यह घोषणा करते थे कि हम जवाहरलाल नेहरू हैं। जब चर्चिल वहां हुकूमत में था, तो कोई पंद्रह आदमी ब्रिटेन के पागलखानों में बंद थे, जो यह कहते थे, हम विंस्टीन चर्चिल हैं। और वे कोई झूठ नहीं कहते थे। उन्होंने यह विश्वास किया हुआ था, इसकी पूरी कल्पना कर ली थी।
मैंने सुना, नेहरू एक पागलखाने को देखने गए थे। और उसी दिन एक पागल को उस पागलखाने से छोड़ा गया। वह ठीक हो गया था। उसका इलाज हो गया था। वह मुक्त हो रहा था। तो पागलखाने के अधिकारियों ने कहा कि नेहरू खुद अपने हाथ से उसे छुटकारा दे दें, तो वह बहुत खुश होगा। उसे छुटकारा नेहरू ने दिया। जब नेहरू से उसका परिचय कराया गया, तो पागलखाने के अधिकारियों ने कहा कि ये हैं पंडित जवाहरलाल नेहरू। तो उस पागल ने गौर से उनकी तरफ देखा और उसने कहा: अच्छा घबड़ाइए मत, आप भी साल-दो साल में ठीक हो जाएंगे। पहले मुझे भी यही वहम था कि मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू हूं। अगर इस स्थान में आप रहे, तो आप वर्ष-दो वर्ष में बिलकुल ठीक हो जाएंगे।
नेहरू बहुत घबड़ा गए होंगे कि यह क्या कह रहा है? लेकिन वह ठीक ही कह रहा था। वह जब आया था तो नेहरू था, अब ठीक होकर वापस लौट रहा है।
यह पागलों को क्या होता है? और आप सोचते हैं कि जो आदमी निरंतर कह रहा है कि मैं ब्रह्म हूं, मैं बह्म हूं, इसको अगर निरंतर दोहराता रहे, उपवास करे और दोहराए, तो धीरे-धीरे उसे यह वहम होने लगता है कि मैं ब्रह्म हूं। वह घोषणा करने लगता है कि मैं ब्रह्म हूं, मैं परमात्मा हूं।
अभी दुनिया में कोई तीन सौ लोग हैं जो यह घोषणा करते हैं कि हम ईश्वर हैं। हम ईश्वर के अवतार हैं। इनका दिमाग थोड़ा सा कहीं कुछ गड़बड़ है। इनके मस्तिष्क ने किसी विश्वास को बहुत गहरे रूप से प्रक्षेपित कर लिया है, प्रोजेक्ट कर लिया है। ये किसी बात को विश्वास करके बैठ गए हैं।
वहां उमर खलीफा हुआ। मुसलमान तो पसंद नहीं करते कि कोई आदमी यह कहे कि मैं ईश्वर हूं। एक आदमी ने घोषणा कर दी कि मैं ईश्वर का पैगंबर हूं। वह जरूर पागल था। उसने घोषणा की कि मैं ईश्वर का पैगंबर हूं। मुसलमानों ने कहा कि पैगंबर तो मोहम्मद हो गए, अब कोई पैगंबर नहीं होना है। उसे पकड़ कर लाया गया खलीफा उमर के दरबार में।
उमर ने कहा: यह पागलपन छोड़ो। ऐसे और भी पैगंबर मैंने कैद कर रखे हैं।
पर वह बोला कि पागलपन! मुझे खुद परमात्मा ने भेजा हुआ है। और मुझे कहा कि दुनिया को जाकर अपना संदेश दो। वह आदमी बंद कर दिया गया।
दूसरे दिन उमर उससे मिलने गया पागलखाने में कि शायद वह राजी हो जाए छूटने को, तो मैं उसे छोड़ दूं। जब वह वहां गया, तो उस एक कमरे की दहलान के बाहर दो लोग बैठे हुए थे। एक आदमी दीवाल की तरफ मुंह किए बैठा था और वह आदमी जो पैगंबर कहता था, सीढ़ियों पर बैठा हुआ था। उमर ने उससे कहा कि देखो, तुम्हारा दिमाग दुरुस्त कर लो। यह पागलपन छोड़ दो, तो मैं तुम्हें छोड़ सकता हूं। अन्यथा व्यर्थ ही जीवन तुम्हारा कैद में नष्ट हो जाएगा।
उस आदमी ने हंस कर कहा कि आप कैसी फिजूल बातें कर रहे हैं, मुझे खुद परमात्मा ने भेजा हुआ है। मैं ईश्वर का पैगंबर हूं। उसका संदेश लेकर आया हुआ हूं। और पैगंबरों पर तकलीफें तो हमेशा आती रही हैं। इतनी बात ही हुई थी कि वह जो आदमी दीवाल की तरफ मुंह किए हुए बैठा था, उसने मुंह इस तरफ किया और उसने खलीफा उमर से कहा कि उमर, इसकी बातों में विश्वास नहीं करना। मैं खुद परमात्मा हूं, मैंने इसे कभी भेजा ही नहीं! मोहम्मद के बाद मैंने किसी को भेजा ही नहीं है। वह दूसरा पागल था, जो अपने को ईश्वर ही मानता था।
पागलों के मन की क्षमता है कि वे कोई भी चीज पर गहरा विश्वास कर लें। असल में विश्वास पागलपन का ही एक रूप है। फिर चाहे वह खुद पर आरोपित हो, चाहे दूसरे पर आरोपित हो। जिन लोगों को राम के, कृष्ण के, क्राइस्ट के दर्शन होते हैं, ये इमैजिनरी लोग हैं। इन्हें किसी सत्य का अनुभव नहीं हो रहा है। ये किसी बड़ी गहरी कल्पना में प्रविष्ट हो गए हैं। और कल्पना में प्रविष्ट होने के कई उपाय हैं। अगर बहुत लंबा उपवास किया जाए, बुद्धि की क्षमता क्षीण हो जाती है। इसलिए सारे साधक, जो कल्पना में अनुभव करना चाहते हैं, उपवास को अनिवार्य बताएंगे। जितना उपवास गहरा होगा, बुद्धि की जो सतेजता है वह कम हो जाएगी, और स्वप्न की शक्ति मुक्त होने लगेगी। जितना कम भोजन शरीर को मिलेगा, उतना जानने का बोध कम होने लगेगा और कल्पना का बोध गहरा होने लगेगा। इसलिए सारे दुनिया के कल्पनाशील लोग उपवास के समर्थन में खड़े होते हैं। लंबा उपवास बुद्धि को क्षीण करता है और कल्पना को तीव्र कर देता है।
जैसे आपने लंबी बीमारी में अनुभव किया हो। बहुत दिन भोजन न मिला हो, लंबे दिन बीमार रहे हों, तो आपको अनेक-अनेक कल्पनाएं पकड़ने लगती हैं। आपका पलंग उड़ा जा रहा है, आप आसमान में चले गए हैं; आप न मालूम क्या हो गए हैं, पंख लग गए हैं और उड़ रहे हैं। और आपको ऐसा लगता है, यह सब सच है। जैसे-जैसे बुद्धि की क्षमता क्षीण हो वैसे-वैसे कल्पना प्रगाढ़ हो जाती है। और फिर अगर इसी कल्पना को बार-बार रिपीट किया जाए, दोहराया जाए, तो हिप्नोसिस पैदा हो जाती है, सम्मोहन पैदा हो जाता है।
अगर एक आदमी सुबह से सांझ तक यह दोहराता रहे, दोहराता रहे कि मैं बीमार हूं, मैं बिलकुल बीमार हूं, मैं बिलकुल बीमार हूं, वह दो-चार दिन में पाएगा, वह गहरे रूप से बीमार हो गया। अगर एक बीमार आदमी यह दोहराता रहे कि मैं मर जाऊंगा, फलां दिन मर जाऊंगा, फलां तारीख को मर जाऊंगा--निश्चित फलां तारीख को, फलां समय वह आदमी मर जाएगा।
आप जो भी दोहराएं, आपका चित्त उसे स्वीकार करने के लिए राजी हो जाता है। और अगर बहुत दोहराएं तो चित्त राजी हो जाता है।
जो लोग राम को पूजते हों, कृष्ण को, या महावीर को, या बुद्ध को और दोहराते हों कि उनके दर्शन हो जाएं, उनकी मूर्ति के सामने बैठ कर उनकी प्रतिमा को अपने मन में लेते हों, धीरे-धीरे उनकी कल्पना प्रगाढ़ हो सकती है और वह अनुभव कर सकते हैं। वह अनुभव बिलकुल ही असत्य होगा। वह अनुभव उनकी ही कल्पना का होगा। वह कोई सत्य का या परमात्मा का अनुभव नहीं है। क्योंकि परमात्मा का न कोई रूप है और न परमात्मा की कोई मूर्ति है।
वस्तुतः परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि आपको उसका साक्षात हो जाए। परमात्मा तो प्रेम जैसा एक अनुभव है। कोई मिलता नहीं है देखने को, लेकिन आपके जीवन की अनुभूति बदल जाती है। आप कुछ और हो जाते हैं।
उसकी हम चर्चा करेंगे कि वह सत्य या परमात्मा का अनुभव क्या है?
लेकिन मैं आपको कहूं: विश्वास उसका रास्ता नहीं है। विश्वास तो कल्पना का ही एक रूपांतरण है। विश्वास तो विक्षिप्त होने का ही मार्ग है। और अविश्वास भी उसका रास्ता नहीं है; क्योंकि अविश्वास द्वार ही बंद कर देता है। और विश्वास गलत द्वार दे देता है।
चित्त की ऐसी भूमि--जहां न कोई विश्वास है न अविश्वास है--सत्य को जानने में समर्थ होती है। ऐसा चित्त धार्मिक चित्त है जो न आस्तिक है और न नास्तिक है।
नास्तिक भी धार्मिक नहीं है, आस्तिक भी धार्मिक नहीं है। नास्तिक धर्म-विरोधी है, आस्तिक गलत धर्म के पीछे जाने वाला है। आस्तिक और नास्तिक, ऐसा जो दोनों नहीं है, ऐसा चित्त धार्मिक चित्त है। ऐसे मस्तिष्क को ही रिलिजियस माइंड, ऐसे मस्तिष्क को ही हम कह सकते हैं कि वह सत्य को जानने में समर्थ हो सकेगा। ऐसा मस्तिष्क ही निर्दोष होता है। न उसका कोई विश्वास होता है, न कोई अविश्वास होता है। वह उन्मुक्त होता है, खुला होता है। जैसा जीवन है, वैसा जानने में समर्थ हो सकता है।
विश्वास करने वाला अपने विश्वास थोपना चाहता है। अविश्वास करने वाला अपना अविश्वास थोपना चाहता है। जैसा जगत है, जैसा सत्य है, वैसा देखने को वे दोनों ही राजी नहीं होते हैं।
केवल ऐसा ही मन, दोनों के बाहर जो है, वस्तुतः सत्य जैसा है उसे देखने में समर्थ हो पाता है। सत्य को देखने के लिए आपके पास कोई भी धारणा नहीं होनी चाहिए। न हिंदू होने की, न मुसलमान होने की; न जैन होने की, न बौद्ध होने की; न आस्तिक होने की, न नास्तिक होने की। आपका चित्त बिलकुल ही धारणा-मुक्त और धारणा-शून्य होना चाहिए। आपका कोई बिलीफ नहीं होना चाहिए। आपकी कोई श्रद्धा नहीं होनी चाहिए। अगर मन इतना मुक्त हो, तो आप समर्थ होंगे। मार्ग खुलेगा।
तो मार्ग है: न विश्वास, न अविश्वास--बल्कि चित्त की स्वतंत्रता। स्वतंत्रता मार्ग है।
बंधा हुआ चित्त रुका हुआ चित्त है। जिसने अपने चित्त को कहीं बांध लिया है--चाहे राम से, चाहे कृष्ण से; चाहे गीता से या कुरान से, वैसा चित्त बंधा हुआ है। और बंधा हुआ चित्त क्या जान पाएगा? रुका हुआ चित्त कहां जा पाएगा? वह उस डबरे की तरह है जिसके चारों तरफ से दीवाल उठा दी गई है। वह डबरा सागर तक नहीं पहुंच सकता। उस डबरे का तो एक ही भाग्य होगा कि तपेगा, सड़ेगा, पानी हवा में उड़ेगा और सूख जाएगा।
जो मस्तिष्क बंधा हुआ है धारणाओं से, वह छोटे-मोटे गड्ढों में कैद पानी की तरह है। और जो मस्तिष्क किसी धारणा से नहीं बंधा हुआ है, वह मस्तिष्क सागर की ओर दौड़ती हुई नदी की भांति है। नदी के भी किनारे होते हैं, लेकिन नदी किनारों से बंधी नहीं होती।
एक किनारा विश्वास का है, एक किनारा अविश्वास का है। जिसका चित्त दोनों किनारों से नहीं बंधता और दोनों के बीच से पार निकल जाता है, वही केवल सागर तक पहुंचने में समर्थ हो पाता है। एक आस्तिक का किनारा है, एक नास्तिक का किनारा है। इन किनारों पर जिसने अपनी नौका बांध दी, वह वहीं रुक जाएगा। और जिसने दोनों किनारों पर अपनी नौका नहीं बांधी और बीच में जो धार है जीवन की, बीच में जो धार है चेतना की, बीच में जो धार है ज्ञान की, उस धार में बहा बिना कहीं रुके, तो निश्चित ही वह सागर तक पहुंच जाएगा। जैसे हिमालय से गंगा निकलती है और भागती है सागर की तरफ, वैसे ही चित्त को अपनी सारी कैद से निकल कर और सत्य की ओर जाना चाहिए, तो ही हम पहुंच सकेंगे। और अगर हम कहीं रुक गए, तो हम डबरे हो जाएंगे।
अधिक मस्तिष्क डबरों की भांति हो गए हैं, उनके भीतर का पानी सड़ गया है। और निरंतर जीवन से उत्ताप पाकर वह पानी उड़ा जा रहा है। वे सूखते जा रहे हैं। यह सूखता जाना ही बूढ़ा हो जाना है। और बहते जाना ही युवा होना है।
जो मस्तिष्क युवा है, वही सत्य को जान सकता है। जो मस्तिष्क बूढ़ा हो गया है और जिसने दीवालें बांध ली हैं, वह सत्य को नहीं जान सकेगा। असल में सत्य को जानने के लिए स्वतंत्रता अपरिहार्य है। सब भांति की स्वतंत्रता। और ये स्वतंत्रताएं बहुत बड़ी नहीं हैं, कि आप जेल के भीतर नहीं हैं, कि आपके हाथ में जंजीरे नहीं हैं।
मेरे एक मित्र थे। मुझे प्रेम करने वाले साधु थे। उन्होंने मुझे एक संस्मरण सुनाया। वे जेल में बंद थे। कुछ क्रांतिकारी थे, आंदोलन में जेल में बंद हुए। जब वे जेल में बंद थे, तो वहां एक चमार कैदी भी बंद था। वह मुसलमान था और चमार का काम करता था। वह इतना मजबूत, इतना पहलवान आदमी था, इतना शक्तिशाली आदमी था कि कैसी भी जंजीर को हाथ से तोड़ देता था। तो मेरे इन मित्र को बड़ी हैरानी हुई। इन्होंने कहा कि मैं अपनी आंख से देखना चाहता हूं। तो उसे बुलाया। जुम्मन उसका नाम था। और उससे कहा कि मैंने यह सुना है कि तुम कैसी भी जंजीर तोड़ सकते हो।
उसने कहा: मैं कैसी भी जंजीर तोड़ सकता हूं और कैसी भी कैद के बाहर निकल सकता हूं। लेकिन अगर हुकूमत यह विश्वास दिला दे कि मुझे फिर नहीं पकड़ेगी, तो मैं दो दिन के भीतर कैसे भी इंतजाम के बाहर हो जाऊंगा। इन्होंने उससे कहा कि क्या मैं देख सकता हूं कि तुम जंजीरे तोड़ देते हो?
उसने जंजीर तोड़ कर बता दी। उसने कहा: जंजीर कोई दिक्कत नहीं है।
मेरे इन मित्र ने उससे कहा--जब उसने जंजीर तोड़ी, तो उसने ‘अल्लाह’ का नाम लिया और जंजीर तोड़ी। इन्होंने उससे कहा: क्या तुम ‘राम’ का नाम लेकर भी जंजीर तोड़ सकते हो?
वह आदमी कंप गया। उसने कहा: राम का नाम! वह मुंह से भी नहीं ले सकता।
तो वह मेरे मित्र मुझसे कहते थे, वह आदमी इतना मजबूत और इतना ताकतवर था कि लोहे की जंजीर तोड़ देता था, लेकिन अल्लाह की जंजीर नहीं तोड़ सकता था! राम का नाम लेने में डर रहा था! वह जो लोहे की जंजीर तोड़ सकता है, वह भी राम का नाम लेने में डर रहा है! क्योंकि राम--कैसे ले सकता है वह नाम उसका! वह जो अल्लाह को मानता है, वह राम का नाम कैसे ले सकता है?
वहां चीन में एक फकीर हुआ है, फाहसान। उसकी ख्याति थी कि वह किसी भी चीज से भय नहीं खाता है। अगर कोई उसकी छाती में छुरा भोंक दे, तो उसकी आंख की पलक नहीं झपेगी। वह आह नहीं करेगा। अगर उस पर सांप आकर लिपट जाते हैं, तो वह उन सापों पर हाथ फेरता रहता है, कुछ कहता नहीं। अगर पीछे जंगल में आकर शेर भी दहाड़ दे देता है, तो वह लौट कर भी नहीं देखता।
एक युवा साधु उसको मिलने गया। वह जंगल में दूर पहाड़ में रहता था। फाहसान बुड्ढा हो चुका था, उसकी ख्याति सारे मुल्क में फैल गई थी--अभय, फियरलेसनेस की। यह नया युवा साधु उससे मिलने गया। इसने जाकर, जब यह उसके पास संध्या को बैठा, पीछे से एक रीछ ने आकर बहुत जोर से गर्जना की और एक झाड़ को हिलाया। फाहसान तो अपनी जगह ही बैठा रहा, जैसा बैठा था। यह युवक घबड़ा कर खड़ा हो गया और इसने कहा कि जान खतरे में है।
वह आदमी हंसने लगा। वह बूढ़ा फाहसान हंसा और उसने कहा: तुम डरते हो? जो डरता है वह ईश्वर को कभी नहीं पा सकता। भय वाला आदमी कहां जाएगा। भयभीत कहीं भी नहीं जा सकता है।
इस युवा ने कहा: मुझे बहुत घबड़ाहट लग गई है, मुझे प्यास आ गई है, आप थोड़ा पानी मुझे ले आएं।
वह फाहसान झोपड़े के भीतर पानी लेने गया। जब वह पानी लेकर लौटा, तब तक इस युवक ने, जिस चट्टान पर वह बूढ़ा साधु बैठा था, वहां लिख दिया: नमो बुद्धाय। बुद्ध का नाम लिख दिया। वह साधु वापस आया, इसे पानी दिया। जैसे ही चट्टान पर चढ़ने लगा, उसे नीचे भगवान का नाम दिखाई पड़ा, उसका पैर वहीं का वहीं रुक गया और कंप गया। भगवान के पवित्र नाम पर कैसे पैर रख सकता हूं?
वह युवा साधु बोला: डरते आप भी हैं। और भयभीत मन कैसे परमात्मा को पा सकेगा? फिर मेरा भय तो बिलकुल स्वाभाविक है। आपका भय बिलकुल अस्वाभाविक है। यह भगवान का पवित्र नाम है, इस पर पैर न रख जाए!
सूक्ष्म बंधन हैं मनुष्य के मन पर--उसके विश्वासों के, उसकी आस्थाओं के।
आप घूम रहे हैं दुनिया में, मुक्त हैं बिलकुल, कोई कारागृह नहीं है, आपके हाथों में जंजीरें नहीं हैं, लेकिन अपने मन को देखें, आपके मन पर जंजीरें ही जंजीरें हैं। कहीं हिंदू की जंजीर है, कहीं मुसलमान की जंजीर है, कहीं ईसाई की जंजीर है। आपका चित्त जंजीरों से घिरा हुआ है।
अभी एक जैन साधु मेरे पास मेहमान थे। सुबह ही सुबह उन्होंने कहा कि मैं मंदिर जाना चाहता हूं।
मैंने कहा: किसलिए जाना चाहते हो?
तो उन्होंने कहा कि मैं थोड़ा प्रार्थना-ध्यान करने के लिए जाना चाहता हूं।
तो मैंने कहा कि यह घर मेरा जो है, किसी भी मंदिर से ज्यादा शांत है, यहीं कर लें। वे बोले कि नहीं, मंदिर शांत हो
ता है।
मैंने कहा: यहां का जो जैन मंदिर है, वह बाजार में है, वहां बड़ा शोरगुल है। फिर अगर आप नहीं मानते, तो मेरे बगल में एक चर्च है, वहां चले जाएं। वह बिलकुल शांत है। आज रविवार का दिन भी नहीं है। वहां कोई भी नहीं होगा। मैं आपको साथ ले चल सकता हूं।
वे बोले: चर्च! मैं चर्च में कैसे जा सकता हूं?
तो मैंने उनसे कहा कि यह जो मन है, कैसे शांत होगा? कैसे ध्यान करेगा? जिसके बंधन इतने गहरे हैं कि जो सोचता है कि जैन मंदिर में जाकर ही मैं शांत हो सकता हूं। ऐसा चित्त कैसे शांत होगा? एकांत चाहिए तो चर्च में है। क्या खतरा है चर्च में? सिर्फ वहां एक बोर्ड लगा हुआ है ऊपर कि यह चर्च है, तो खतरा हो गया! यह आपके कुंद जहन, कुंठित मस्तिष्क का सबूत है, और क्या है?
हमारे मस्तिष्क बहुत गहरी जंजीरों में भीतर जकड़े हुए हैं। और ऐसा जकड़ा हुआ मस्तिष्क कैसे आकाश की तरफ उड़ान भर सकता है? और परमात्मा की तरफ उड़ान तो आकाश की तरफ उड़ान है। पंख फैलाने होंगे और जंजीरें तोड़ देनी होंगी। और चित्त की जंजीरें न तोड़ें, तो कोई मार्ग ठीक नहीं होगा। जंजीरों में बंधा हुआ यात्री कहीं भी पहुंच जाए, जहां भी पहुंचेगा, वहीं कैद होगी। कैद के बाहर नहीं पहुंच सकता है।
तो चित्त की जंजीरें तोड़ देना मार्ग है। सब भांति की जंजीरें तोड़ देना। एक भांति की तोड़ कर दूसरे भांति की पकड़ लेने को मैं नहीं कहता। हिंदू कहता है मुसलमान की, कि मुसलमान अपने चित्त की सारी जंजीरें तोड़ दे। लेकिन वह चाहता है कि हिंदू की जंजीरें स्वीकार कर ले। ईसाई चाहता है कि हिंदू अपने चित्त की सारी जंजीरें तोड़ दे। यह क्या राम और क्या रामायण, यह सब फिजूल है। लेकिन वह चाहता है कि बाइबिल और क्राइस्ट की जंजीर उसको जकड़ ले।
दुनिया भर के ये जितने धर्म हैं, ये अपनी जंजीरें लादना चाहते हैं और दूसरे की जंजीरों से मुक्त करवाना चाहते हैं। इसको वे कनवर्शन कहते हैं। इसको वे कहते हैं, आदमी बदल गया।
यह कनवर्शन नहीं है। यह सिर्फ गुलामी का परिवर्तन है। कनवर्शन जो मैं कह रहा हूं, वह है।
सब तरह की जंजीरें छोड़ दें और कोई नई जंजीर स्वीकार न करें, तो आपका कनवर्शन हो गया। आपका धर्म में प्रवेश हुआ। आप मुक्त हुए। हिंदू से, मुसलमान से, ईसाई से सबसे मुक्त हो जाएं। जब आपके ऊपर कोई जंजीर नहीं होगी, तब आप वहां खड़े होंगे जहां से सत्य की ओर नदी का प्रवाह शुरू होता है।
हिंदू से मुसलमान हो जाना कोई कनवर्शन नहीं है। यह तो गुलामी को बदलना है। जैसे कि लोग मुर्दे को ढोकर ले जाते हैं कब्र की तरफ, तो अरथी पर कंधे थक जाते हैं तो कंधे बदल लेते हैं। इस कंधे से अरथी को इस कंधे पर कर लेते हैं। थोड़ी देर राहत मिलती है। फिर कंधा बदलना पड़ता है। तो हिंदू मुसलमान हो जाता है, उसे लगता है कोई परिवर्तन हुआ। मुसलमान हिंदू हो जाता है, लगता है कोई परिवर्तन हुआ। जैन बौद्ध हो जाए, लगेगा कोई परिवर्तन हुआ। यह सब फिजूल है। गुलामियों का परिवर्तन कोई परिवर्तन नहीं है। दासता नई थोड़ी देर अच्छी लगती है, फिर पुरानी होकर वैसी ही बोझिल हो जाती है।
मैं जिस कनवर्शन के लिए कह रहा हूं, मैं जिस परिवर्तन के लिए कह रहा हूं, वह एक कारागृह से दूसरे कारागृह में जाने का नहीं है, बल्कि समस्त कारागृह के प्रति मुक्त हो जाने का है।
अपने चित्त को कहीं न बांधें, अगर सत्य तक उसे ले जाना है। अपनी बुद्धि को कहीं रोकें नहीं, अगर सागर तक उसे पहुंचाना है। अपनी आत्मा पर कोई आरोपण न करें--किसी विश्वास, किसी अविश्वास का; किसी सिद्धांत, किसी शास्त्र का--अगर सत्य के आकाश तक उड़ने के पंख अपनी आत्मा को देने हैं। वही आत्मा, जो उड़ने में मुक्त है, परमात्मा तक पहुंचने में समर्थ होती है।
मार्ग है: न विश्वास, न अविश्वास; न आस्तिकता, न नास्तिकता; न हिंदू, न मुसलमान; न जैन, न बौद्ध। इन सबका निषेध, इन सारे बंधनों का त्याग और चित्त की मुक्ति। चित्त स्वतंत्र हो, चित्त की स्वतंत्रता ही सत्य का मार्ग है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं सत्य के मार्ग के लिए।
कल सुबह हम चर्चा करेंगे सत्य के द्वार के संबंध में। और परसों सुबह हम चर्चा करेंगे उस द्वार में प्रवेश के संबंध में।
इन सारी चर्चाओं में मेरा खयाल होगा कि आप केवल सुनेंगे नहीं, बल्कि समझेंगे। क्योंकि सुनना काफी नहीं है। और अगर ठीक से आप समझते हैं, तो कुछ बातें अपने आप स्पष्ट होनी शुरू हो जाती हैं। और ठीक से समझने के लिए जरूरी है कि कम से कम जितनी देर मुझे सुन रहे हैं, उतनी देर अपने बंधन को बगल में उतार कर रख देंगे।
वे जो आपके बंधन हैं, वे जो आपकी जंजीरें हैं आपके हिंदू और मुसलमान होने की, अगर उनके ही पर्दे से आपने सुना, तो फिर मेरी बातों को सुनना कठिन हो जाएगा, वे आप तक नहीं पहुंच पाएंगी। मैं कहता रहूंगा, आप तक नहीं पहुंच पाएंगी बातें, क्योंकि बीच में आपकी दीवालें होंगी। कम से कम जितनी देर मुझे सुनें, अपनी जंजीरों को उतार कर रख दें। जैसा कि हम किसी घर में जाते हैं, तो जूते बाहर छोड़ देते हैं। जूते भीतर भी ले आएं, तो कोई हर्जा नहीं है, लेकिन अपनी जंजीरे वहां द्वार पर बाहर छोड़ आएं। वह अपना हिंदू होना, मुसलमान होना, जैन होना बाहर छोड़ आएं, तो फिर मुझे सुनना संभव हो सकेगा। और उस शांति से सुनने में शायद सुनते-सुनते ही आपके भीतर एक परिवर्तन और क्रांति होनी शुरू हो जाए। अगर ठीक से कोई बात सुनी जाए, तो तत्क्षण हमारे भीतर एक फर्क लाना शुरू कर देती है।
और मैं आशा करता हूं कि चार दिन में आप सुनेंगे। शायद कोई बात आपके हृदय के किसी तार को छेड़ दे। कोई स्वतंत्रता की आकांक्षा सजग हो जाए और आप मुक्त होने की आकांक्षा से भर जाएं।

मेरी बातों को प्रेम से सुना है, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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