QUESTION & ANSWER

Jeevan Ki Khoj 05

Fifth Discourse from the series of 9 discourses - Jeevan Ki Khoj by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
मैं आपका स्वागत करता हूं। इससे बड़े आनंद की और कोई बात नहीं हो सकती कि कुछ लोग परमात्मा में उत्सुक हों। कुछ लोग जीवन के सत्य को और सार्थकता को जानने के लिए प्यासे हों। अगर सच में आपकी कोई प्यास है, कोई आकांक्षा है, जीवन को जानने के लिए कोई हृदय में पीड़ा है, तो मैं स्वागत करता हूं। यह भी हो सकता है कि बहुत लोग मात्र सुनने को आए हों; यह भी हो सकता है कि थोड़ा समय हो और उसे व्यतीत करने को आए हों, तो भी मैं उनका स्वागत करता हूं।
इस दृष्टि से स्वागत करता हूं कि कई बार अनायास ही हम जिन सत्यों के लिए तैयार नहीं दिखाई पड़ते हैं वे भी हमारे हृदय में, कई बार बिलकुल अनायास ही कोई सत्य हृदय के किसी तार को झनझना देता है और हम जिसके लिए पहले से तैयार भी नहीं थे उसकी तैयारी का प्रारंभ हो जाता है।
इसलिए वे लोग जो प्यासे हैं और वे लोग जो प्यासे नहीं भी हैं, उनके लिए भी इन चार दिनों में जो बातें होंगी वे किसी काम की हो सकती हैं।
इसलिए मैंने कहा कि मैं आपका स्वागत करता हूं। और आज इस प्राथमिक पहली चर्चा में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुझे मालूम होता है और जीवन में किसी भी खोज का प्रारंभ जिसके बिना नहीं हो सकता, उसके बाबत ही बात करूंगा।
चार चर्चाओं के लिए मैंने चार खयाल किए हैं। आज तो आकांक्षा के ऊपर विचार करूंगा। कल मार्ग के ऊपर। बाद में द्वार के ऊ पर और अंत में प्रवेश के ऊपर।
हम साधारणतः मान लेते हैं कि जी रहे हैं। लेकिन बहुत कम लोग हैं जो ठीक-ठीक अर्थों में जीते हैं। बहुत कम लोग हैं जिन्हें इस बात का पता भी चल पाता है कि उनके पास जीवन था। बहुत कम लोग हैं जिन्हें इस बात का बोध हो पाता है कि क्या रहस्यपूर्ण सत्ता उनके भीतर निवास कर रही थी। हम करीब-करीब अपरिचित और अनजान ही अपने से जी लेते हैं। निश्चित ही ऐसा जीवन कोई आनंद, कोई शांति न दे पाए तो अस्वाभाविक नहीं होगा। यही स्वाभाविक होगा कि जीवन एक दुख और चिंता और एक परेशानी और एक पीड़ा बन जाए। वैसा ही हमारा जीवन है।
स्वाभाविक है कि जीवन को जानने की उत्सुकता पैदा हो, हम जानना चाहें कि हम क्यों हैं? हमारी सत्ता क्यों है? कौन सा प्रयोजन है? कौन सा अर्थ है जिसकी वजह से हमें होना पड़ा है? और अगर हमें यह भी पता न चल पाए कि कौन सा प्रयोजन है, कौन सा अर्थ है, तो हम जीएंगे तो जरूर, लेकिन जीवन एक बोझ होगा। घटनाएं घटेंगी और समय व्यतीत हो जाएगा, जन्म से मृत्यु तक हम यात्रा पूरी कर लेंगे। लेकिन किसी सार्थकता को, कृतार्थता को और धन्यता को अनुभव नहीं कर पाएंगे।
बहुत थोड़े से लोग ही जीवन की सार्थकता को जान पाते हैं। हरेक मनुष्य के लिए जीवन को जानने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक होगा कि उसके भीतर कोई प्यास हो।
बुद्ध एक गांव के पास ठहरे हुए थे। और एक व्यक्ति ने सुबह-सुबह आकर उनसे कहा: आप इतने दिनों से, इतने वर्षों से लोगों को समझा रहे हैं--परमात्मा के लिए, मोक्ष के लिए, आत्मा के लिए, कितने लोगों को परमात्मा उपलब्ध हुआ है?
बुद्ध ने कहा:.
(इसी बीच एक महिला का जोर-जोर से बोलना. बोलना जारी रखते हैं.)
आपको शायद लगता होगा कि शायद वह कुछ गड़बड़ हैं, करीब-करीब सारे लोग वैसे ही हैं। कुछ लोग बोलते हैं, कुछ लोग चुप रह जाते हैं, इससे कोई बहुत भेद नहीं पड़ता है। जो चुप बैठे हैं वे कोई बहुत बेहतर हालत में नहीं हैं। हमारे मन इतने विक्षिप्त हैं, इतने पागल हैं, हमें पता भी नहीं कि हम क्या कर रहे हैं, क्या कह रहे हैं, क्या बोल रहे हैं, हम कैसे जी रहे हैं, इसका भी हमें कोई पता नहीं है। और इसलिए इस तरह की बातें हो जाती हैं।
.बुद्ध ने कहा: मैं लोगों को समझा रहा हूं, मैं लोगों को कह रहा हूं, कोई चालीस वर्षों से मैंने लोगों को परमात्मा के और जीवन के अर्थ के संबंध में बातें कही हैं। और यह भी तुम्हारा कहना ठीक है कि कितने लोगों को मोक्ष और कितने लोगों को परमात्मा का अनुभव हुआ? तुम ठीक ही पूछते हो। लेकिन इसके पहले कि मैं तुम्हें उत्तर दूं, मैं यह जानना चाहूंगा कि तुम गांव में जाओ, छोटा सा गांव है, और सारे लोगों से पूछो, कितने लोग परमात्मा को चाहते हैं? कितने लोगों की आकांक्षा है? कितने लोगों के मन में प्यास है?
वह आदमी गया। उसने गांव के सारे लोगों से सुबह से सांझ तक पूछा। थोड़े से लोग थे उस गांव में। उसने एक सारे लोगों की फेहरिस्त बनाई। कोई धन चाहता था; कोई पद चाहता था; कोई यश चाहता था; किसी की कोई और चाह थी, लेकिन परमात्मा को चाहने वाला कोई भी नहीं था।
वह वापस लौटा। बुद्ध ने कहा कि अगर कोई परमात्मा को न चाहता हो, तो ऊपर से परमात्मा किसी के ऊपर थोपा नहीं जा सकता है। कोई किसी को दे नहीं सकता है। भीतर प्यास होनी चाहिए, तो पानी की खोज होती है। और भीतर प्यास हो, तो पानी अवश्य मिल जाता है।
तो सबसे पहली जरूरत: जो लोग भी जीवन के संबंध में उत्सुक हों, जो जानना चाहते हों उस रहस्य को, उस अर्थ को जो उनके भीतर है, तो आवश्यक होगा कि वे इस बात को खोज लें कि उनके भीतर कोई प्यास भी है या नहीं है?
हममें से बहुत लोगों के भीतर कोई प्यास ही नहीं है। हममें से बहुत लोगों के भीतर कोई आकांक्षा ही नहीं है। हमारे भीतर कोई जलती हुई अतृप्ति नहीं है, कोई असंतोष नहीं है। हम करीब-करीब संतुष्ट लोग हैं। हम जैसे हैं, करीब-करीब उससे संतुष्ट हैं। और हमें खयाल भी पैदा नहीं होता, अतृप्ति भी पैदा नहीं होती! हमारे भीतर कोई तीव्र ज्वाला असंतोष की जलती नहीं है।
साधारणतः सारे धार्मिक लोग समझाते हैं संतुष्ट हो जाएं। तो मैं तो कहता हूं: असंतुष्ट हो जाएं। क्योंकि जो आदमी संतुष्ट हो जाएगा, उसके जीवन में कोई खोज, कोई अन्वेषण संभव नहीं होगा। जो आदमी तृप्त हो जाएगा, जैसा जीवन है उससे ही जो सहमत हो जाएगा, जो जहां है उससे ही संतुष्ट हो जाएगा, उसके जीवन में कोई विकास, कोई प्रगति, कोई ऊपर उठना असंभव है।
असंतोष धार्मिक आदमी का पहला लक्षण है। और सत्य की खोज में असंतोष चाहिए। जीवन जैसा है उससे असंतुष्टि चाहिए।
हम भी असंतुष्ट तो होते हैं, लेकिन हम जीवन से असंतुष्ट नहीं होते। हम जीवन की चीजों से असंतुष्ट होते हैं।
एक आदमी जिस पद पर है उससे असंतुष्ट हो जाता है, दूसरा पद चाहता है। एक आदमी के पास जितना धन है उससे असंतुष्ट हो जाता है, और ज्यादा धन चाहता है। एक आदमी के पास जो चीजें हैं उनसे असंतुष्ट हो जाता है, और दूसरी चीजें चाहता है। लेकिन हम जीवन से असंतुष्ट नहीं होते।
जो मनुष्य वस्तुओं से असंतुष्ट हो रहा है, उसकी धर्म में कोई उत्सुकता नहीं है। लेकिन जो मनुष्य जीवन से ही असंतुष्ट हो जाता है, उसका धर्म में प्रवेश प्रारंभ हो जाता है।
धार्मिक जीवन की शुरुआत जीवन के प्रति असंतोष से होती है।
लेकिन हम सारे लोग अपने असंतोष को वस्तुओं पर ही समाप्त कर देते हैं और जीवन से असंतुष्ट होने के लिए हमारे पास असंतोष की शक्ति भी शेष नहीं रह जाती है। हम सारे लोग ही असंतुष्ट हैं। लेकिन उन चीजों से असंतुष्ट हैं जिन चीजों का असंतोष हमें और संसार में गहरे ले जाएगा। लेकिन उस सत्ता के प्रति असंतुष्ट नहीं हैं जो हमें सत्य की तलाश में ले जा सके।
यह सोचना आवश्यक है, यह विचारणीय है कि असंतोष की दिशा बाहर की तरफ न हो और भीतर की तरफ हो जाए। जो व्यक्ति भी भीतर के प्रति असंतुष्ट हो जाएगा, वह अनिवार्यतया सत्य की खोज की आकांक्षा और प्यास को अपने भीतर जागता हुआ अनुभव करेगा।
हम जानते हैं, जीवन जैसा बाहर है, जीवन का जैसा विस्तार बाहर है, उससे हम परिचित हैं। लेकिन हमारे भीतर भी एक जीवन का विस्तार है, उससे हमारा कोई परिचय नहीं है। और परिचय न होने का कारण यह नहीं है कि हमारा ज्ञान कम है, परिचय न होने का कारण यह नहीं है कि हमारी योग्यता कम है, परिचय न होने का कारण यह नहीं है कि हमारी क्षमता कम है, और कुछ थोड़े से लोगों की ही क्षमता है कि वे उसको पा सकें। यह कारण नहीं है। क्षमता प्रत्येक के भीतर है, योग्यता प्रत्येक के भीतर है। लेकिन हमारा असंतोष भीतर की तरफ नहीं है। हम अपने होने से असंतुष्ट नहीं हैं। हम करीब-करीब तृप्त हैं अपने होने से।
और यह कितना आश्चर्यजनक मालूम होता है अगर हम खोजें, थोड़ा सोचें और यह विचार करें, तो क्या हमें यह दिखाई पड़ेगा कि हमारी सत्ता जैसी है, हमारी चेतना की जैसी स्थिति है, वह संतोष होने लायक है? क्या हम संतुष्ट होना पसंद करेंगे? लेकिन हम कभी इस तरफ कोई ध्यान नहीं देते। हमारा कोई खयाल, हमारा कोई विचार इस तरफ नहीं जाता। और यह स्मरण रखिए, जिस तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता, उस तरफ के द्वार बंद रह जाते हैं। ध्यान जहां जाता है वहीं के द्वार खुलने शुरू होते हैं, और जहां ध्यान नहीं जाता वहां के द्वार बंद हो जाते हैं।
आपने स्मरण किया हो, कभी खयाल किया हो--अभी आप मेरी बातें सुन रहे हैं, रास्ते पर गाड़ियां निकल रही हैं, उनकी आवाजें हो रही हैं, हो सकता है आप मेरी बातें सुनने में इतने तल्लीन हों कि आपको रास्ते पर निकलती हुई गाड़ियों का कोई पता न चले। लेकिन अगर मैं कहूं कि रास्ते पर गाड़ियां हैं और आवाजें हैं, आपका ध्यान उस तरफ जाएगा और आपको पता चलेगा कि रास्ते पर आवाजें हो रही हैं, रास्ते पर गाड़ियां चल रही हैं। अभी मैं बोल रहा हूं, आपका ध्यान मेरी तरफ लगा है, आपको पता भी नहीं होगा कि जिस कुर्सी पर आप बैठे हैं वह सख्त है और आपको गड़ रही है। लेकिन जब मैं कहूंगा कि आप कुर्सी पर बैठे हुए हैं, तत्क्षण आपका ध्यान कुर्सी की तरफ जाएगा, आपको अपने चारों तरफ कुर्सी घेरे हुए मालूम पड़ेगी। आपका ध्यान जिस तरफ जाएगा उस तरफ ही केवल आपको बोध उपलब्ध होते हैं।
एक युवा खेल रहा हो मैदान में, उसके पैर में चोट लग गई हो, जब तक खेल पूरा न हो जाए, तब तक उसे पता भी नहीं चलता कि पैर में चोट लगी हुई है। खेल पूरा होने पर उसे ज्ञात होता है कि मेरे पैर में चोट है और खून बह रहा है। इतनी देर तक चोट थी, खून बह रहा था, लेकिन उसे पता नहीं था। क्यों? ध्यान की धारा उस तरफ नहीं थी। ध्यान जिस तरफ जाएगा उस तरफ ही केवल बोध होने शुरू होते हैं।
काशी में एक नरेश थे। उन्नीस सौ बीस में उनका एक ऑपरेशन हुआ। उन्होंने कहा कि मैं ऑपरेशन के वक्त किसी तरह का क्लोरोफार्म, किसी तरह की बेहोशी की कोई दवा लेना पसंद नहीं करूं गा। तो कहा गया: फिर कैसे होगा ऑपरेशन? तो उन्होंने कहा कि मैं गीता पढ़ता रहूंगा। जब मैं गीता पढ़ता हूं, मुझे सारी दुनिया भूल जाती है। उस वक्त मेरा ऑपरेशन कर लिया जाए।
डॉक्टर बहुत दिक्कत में पड़े। खतरा भी हो सकता है। वे गीता पढ़ते हों और बीच में ध्यान टूट जाए। तो डॉक्टरों ने छोटा-मोटा ऑपरेशन करके पहले देखा, लेकिन पाया कि उनका हाथ भी काट दिया जाए, तो भी गीता पढ़ते वक्त उन्हें उसका कोई बोध नहीं होता।
फिर उनका पूरा ऑपरेशन हुआ। उस ऑपरेशन की सारी दुनिया में चर्चा हुई। बड़ा ऑपरेशन था। पेट का ऑपरेशन था। लेकिन वे गीता पढ़ते रहे और ऑपरेशन हुआ।
उमर हुआ, खलीफा उमर हुआ। एक बहुत अदभुत व्यक्ति हुआ। वह युद्ध के मैदान में था। उसको एक तीर मार दिया गया, उसको तीर चुभ गया। तीर इतने गहरे घुसा हुआ था, उसे निकालना इतना कठिन काम था, इतनी पीड़ा और दर्द की स्थिति थी कि उसे निकालना मुश्किल था।
चिकित्सकों ने कहा: हम क्या करें? लोगों ने कहा: जब उमरसुबह नमाज को बैठे, तब खींच कर उसे निकाल लेना। उसे कोई पता नहीं चलेगा।
खलीफा उमर सुबह नमाज पढ़ने बैठा और उसका तीर खींच कर निकाल लिया गया। उसे कोई पता नहीं चला। उसका ध्यान कहीं और था।
वस्तुतः जहां हमारा ध्यान होता है, उसी सत्ता का हमें केवल बोध होता है, और किसी सत्ता का हमें बोध नहीं होता।
हमारा ध्यान भीतर की तरफ नहीं है। हमारा ध्यान बाहर की तरफ है, इसलिए बाहर की दुनिया तो हमें ज्ञात होती है, भीतर की दुनिया हमें ज्ञात नहीं होती। हमारा ध्यान शरीर की तरफ है, इसलिए शरीर का हमें पता चलता है, और आत्मा का हमें कोई पता नहीं चलता।
फिर लोग हैं, जो पूछते हैं: आत्मा है?
उनसे केवल इतना ही कहना होगा: आत्मा तो जरूर है, लेकिन उसकी तरफ ध्यान नहीं है।
इसको स्मरण रखिए, जिस तरफ आपका ध्यान होता है, उसी सत्ता का केवल बोध होता है। और कोई बोध आपको उपलब्ध नहीं हो सकते हैं।
हमारा ध्यान भीतर की तरफ नहीं है, हमारा सारा ध्यान बाहर की तरफ बंटा हुआ है। एक चीज हमारे ध्यान से हटती है तो दूसरी आ जाती है; दूसरी हटती है तो तीसरी आ जाती है। कोई विराम नहीं मिल पाता जहां कि हम भीतर की तरफ ध्यान को ले जा सकें। और इसीलिए बाहर का असंतोष हमारे ध्यान को भीतर नहीं आने देता है। जीवन के प्रति असंतुष्ट होना आवश्यक है, तो ध्यान की धारा भीतर की तरफ आनी शुरू हो जाती है।
कैसे यह होगा? क्या रास्ता होगा? उसकी हम इन चार दिनों में चर्चा करेंगे।
कैसे ध्यान भीतर चला जाए और हम सत्ता को अनुभव कर सकें? और जो सत्ता है, वही सत्य है। और जो स्वयं को जान लेता है, वह परमात्मा को भी जान लेता है। क्योंकि मूलतः मैं अपने केंद्र में, अपनी जड़ों में, अपनी सत्ता के आंतरिक हिस्से में, जो कुछ हूं, वही सारा जगत भी है।
सारी बात, सारी चेष्टा, सारी साधना और सारे धर्म, एक ही बात से संबंधित हैं कि ध्यान की धारा, वह जो कांशसनेस है हमारी, उसकी जो धारा है, वह बाहर की तरफ न बह कर भीतर की तरफ कैसे बह जाए? इसका कोई यह अर्थ नहीं है कि हम बाहर की तरफ अंधे हो जाएं। इसका कोई यह अर्थ नहीं है कि हम बाहर की तरफ से ध्यान को इस भांति भीतर खींच लें कि बाहर की दुनिया में हम मुर्दे हो जाएं। इसका यह अर्थ नहीं है। इसका केवल इतना ही अर्थ है कि यदि बाहर के जीवन से हम थोड़ा सा विराम खोज लें, थोड़े से क्षणों को भी विराम खोज लें, और अपनी चेतना की धारा को भीतर ले जाने में समर्थ हो जाएं, तो एक अदभुत जीवन-स्रोत हमें उपलब्ध होगा। और हम उस सत्य को जान सकेंगे, जो हमारे भीतर शरीर को धारण किए है। जो हमारे भीतर अनेक जन्मों को धारण करता है। जो हमारे भीतर यात्रा करता है। जो हमारे भीतर जब हम बच्चे थे तब था; जब हम युवा हुए तब था; जब हम बूढ़े होंगे तब होगा। और अगर हम उसे जान लें, तो हमें ज्ञात होगा: जब हमारा जन्म नहीं था तब भी था, और जब हमारी मृत्यु हो जाएगी तब भी होगा। उसे जाने बिना जीवन की खोज में कोई सार्थकता कभी उपलब्ध न हुई है और न कभी हो सकती है।
ध्यान भीतर कैसे ले जाया जा सके?
इतना आज मैं कहना चाहूंगा कि ध्यान को भीतर ले जाने की बात तभी पैदा होती है जब हमें यह खयाल आ जाए कि हम जैसे हैं, वह संतुष्ट होने योग्य स्थिति नहीं है।
क्राइस्ट के पास निकोडेमस नाम के एक युवक ने रात को जाकर कहा था: मैं परमात्मा को जानना चाहता हूं। क्राइस्ट ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और कहा: परमात्मा को जानने के पहले तुझे दूसरा जन्म ग्रहण करना होगा। तुझे तो फिर से जन्म लेना होगा।
निकोडेमस शायद समझा नहीं कि फिर से जन्म लेने का क्या मतलब होगा? क्या मरने के बाद फिर मैं परमात्मा को जान सकूंगा?
क्राइस्ट ने कहा: नहीं, वैसा अर्थ नहीं है। तू जैसा अभी है, ठीक वैसा ही होकर परमात्मा को नहीं जाना जा सकता है। तुझे एक नया आदमी हो जाना पड़ेगा। और नये आदमी हो जाने का यह अर्थ है: नये आदमी होने का केवल एक ही अर्थ है कि मेरे ध्यान की धारा, मेरे बोध का जो प्रवाह है, मेरी चेतना का जो अनुभव है, मेरी स्मृति और मेरा ज्ञान जिस तरफ बह रहा है, उस तरफ न बह कर उसकी तरफ बहने लगे जहां मेरी आत्मा है, जहां मेरी सत्ता है, तो मैं एक नया आदमी हो जाऊंगा।
उसके लिए प्यास जरूरी है। प्यास कोई भी नहीं दे सकता। पानी तो कोई भी दे सकता है, लेकिन प्यास कोई भी नहीं दे सकता। पानी तो कोई भी दे सकता है, लेकिन प्यास कोई भी नहीं दे सकता। और प्यास न हो, तो पानी व्यर्थ हो जाता है। आपके सामने सागर भरा हो, लेकिन प्यास न हो, तो पानी व्यर्थ है।
जमीन पर बुद्ध हुए हैं, महावीर हुए हैं, क्राइस्ट हुए हैं, कृष्ण हुए हैं, राम हुए, मोहम्मद हुए। हजारों लोगों के करीब से वे निकले। लेकिन जिनके पास प्यास थी, वे उनके भीतर के पानी को पहचान सके। और जिनके भीतर प्यास नहीं थी, वे अपरिचित रह गए।
पानी हमेशा मौजूद है, लेकिन प्यास सबके भीतर मौजूद नहीं है। और प्यास कोई दूसरा मनुष्य पैदा नहीं कर सकता, प्यास आपको खुद ही पैदा करनी होगी।
कैसे प्यास पैदा होगी? अगर नहीं है तो प्यास कैसे पैदा होगी?
प्यास पैदा होती है पीड़ा से, पीड़ा के किसी अनुभव से। जीवन में बहुत पीड़ा है। और बहुत दुख है, लेकिन उस दुख को हम भुलाने के उपाय खोजते हैं। उस दुख से हम अपने भीतर पीड़ा को पैदा नहीं होने देते।
आपके पड़ोस में कोई मर जाए--रोज कोई मर रहा है--लेकिन क्या किसी को मरते देख कर आपको तत्क्षण यह प्रश्न खड़ा होता है कि मैं भी मरूंगा? अगर यह प्रश्न खड़ा नहीं होता, तो आपके भीतर कभी प्यास पैदा नहीं होगी। आप रोज अपने चारों तरफ क्या देख रहे हैं? जो आप देख रहे हैं, अगर आपकी आंखें खुली हों, तो आपके भीतर एक अदभुत प्यास का जन्म हो जाएगा। जीवन को जानने की, जीवन को पहचानने की, जीवन को जीतने की एक आकांक्षा पैदा हो जाएगी।
एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, उससे किसी ने पूछा, उसका नाम था, बायजीद। उससे किसी ने पूछा कि तुम्हारी परमात्मा की तरफ आंखें कैसे उठीं? उसने कहा: जब मैंने जीवन में दुख देखा, तो मेरी आंखें परमात्मा की तरफ उठ गईं।
लेकिन हम जीवन में दुख देखने में समर्थ नहीं हो पाते। हम सारे लोग दुख से घिरे हैं, लेकिन दुख हमें दिखाई नहीं पड़ता। और जब दुख हमें दिखाई पड़ता है, हम कई तरकीबों से उसे भुला लेने की कोशिश करते हैं।
एक मेरे मित्र हैं, उनका युवा पुत्र गुजर गया। वे मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे पूछा: क्या पुनर्जन्म होता है? मैंने पूछा: यह आप क्यों पूछते हैं? वे बोले कि मेरा युवा पुत्र गुजर गया है। मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या पुनर्जन्म होता है? मैंने कहा: उसकी मृत्यु से जो दुख हुआ है, उसे भुलाने का उपाय खोज रहे हैं। अगर मैं कह दूं कि पुनर्जन्म होता है, आपका पुत्र मरा नहीं, उसकी आत्मा जिंदा है, तो आप तृप्त होकर वापस लौट जाएंगे। वह जो पुत्र की मृत्यु से जो आघात आपके ऊपर पहुंचा है, उसे आप झुठला लेने की, भुला देने की कोशिश में लगे हुए हैं।
वे एक साधु के पास गए। और उन साधु ने उनसे कह दिया: चिंता की कोई भी बात नहीं, मैं जानता हूं, तुम्हारे पुत्र का जन्म तो स्वर्ग में हो गया है। वे बहुत तृप्त वापस लौट आए।
मैंने उनसे कहा कि मृत्यु एक मौका थी कि उसमें आप जाग सकते थे, और प्यास पैदा हो सकती थी। उस मौके को आपने खो दिया।
हम रोज मौका खो रहे हैं। जीवन में वे ही समस्याएं हैं, अगर हम उन्हें गौर से देखें तो एक जागरण, एक प्यास, एक असंतोष पैदा हो सकता है। और अगर हम उन्हें झुठलाने की कोशिश करें, भुलाने की कोशिश करें, एक्सप्लेनेशंस खोजने की कोशिश करें और जिंदगी के हर मसले पर कुछ विचार करके शांत हो जाएं, तो जीवन हमारे भीतर उतने दंश को पैदा नहीं कर पाएगा, जो कि हमें जगा दे और हमारी नींद को तोड़ दे। नींद को तोड़ने के लिए जरूरी है कि जीवन के दुख का भार बहुत तीव्र हो जाए।
आपने देखा होगा--अगर सपना आप देखते हों, सुखद सपना देखते हों, तो सपना टूटना आसान नहीं होता। लेकिन अगर आप दुखद सपना देखते हों, कोई नाइटमेयर देखते हों, किसी पहाड़ से गिर गए हों, कोई पत्थर आपके ऊपर गिर गया हो, तो सपना ज्यादा देर नहीं चल पाता, वह टूट जाता है।
सपना केवल दुख में टूटता है। और जीवन में भी जो सोए हुए हैं, वे भी केवल दुख में ही जागते हैं।
दुख एक वरदान है, अगर उसे कोई देख पाए। अन्यथा दुख एक अभिशाप है, अगर कोई उसे भुलाने की कोशिश करे। और जीवन में दुख बहुत है। चारों तरफ सारा जीवन दुख से भरा हुआ है। लेकिन हम अपने छोटे-छोटे सुखों में दुख को भुलाने का उपाय कर लेते हैं और अपनी आंखें बंद कर लेते हैं। तब प्यास नहीं पैदा हो पाती। फिर जो ईश्वर की और आत्मा की हम बातें करते हैं, वे सब बातें व्यर्थ होती हैं, वे हमारे भीतर कोई गहरी आकांक्षा पैदा नहीं करतीं। वह सब हमारी बातचीत होती है। हमारा संस्कार होता है, हमारी शिक्षा होती है, हमारी संस्कृति होती है। हम उन बातों को सीख गए हैं, उन बातों को दोहराते हैं। लेकिन उन बातों से हमारे भीतर कोई--कोई ऐसी आकांक्षा पैदा नहीं होती कि जीवन में क्रांति हो जाए।
क्रांति के लिए जरूरी है--अगर हम इस भवन में बैठे हुए हैं, अगर मुझे ज्ञात हो जाए कि भवन में आग लग गई है, आपको पता चल जाए कि भवन में आग लगी है, तो आप बाहर हो जाएंगे। उस वक्त आप किसी से भी नहीं पूछेंगे कि बाहर जाने का रास्ता कौन सा है? आप यह भी नहीं पूछेंगे कि बाहर कैसे जाऊं? आप यह भी नहीं पूछेंगे कि इतनी भीड़ है, मैं कैसे निकलूंगा? आप कुछ भी नहीं पूछेंगे, आप सिर्फ बाहर होने के प्रयास में लग जाएंगे। अगर आपको बोध हो जाए कि भवन में आग लगी हुई है।
अगर आपको दिखाई पड़ जाए कि संसार में आग लगी हुई है और जीवन दुख से घिरा है, तो आपके भीतर बाहर निकलने की और संसार के ऊपर उठने की आकांक्षा पैदा हो जाएगी। आपके भीतर एक क्रांति संभव हो जाएगी।
यह दुख कहीं से लाना नहीं है, वह चारों तरफ मौजूद है। मृत्यु कहीं से लानी नहीं है, उसकी कोई कल्पना नहीं करनी है, वह निरंतर मौजूद है और प्रतिक्षण घट रही है। सच तो यह है कि हम खुद भी प्रतिक्षण मरते जा रहे हैं। जैसे मैं रोज कहता हूं कि हम प्रतिक्षण मरते जा रहे हैं। अगर हम अपने पर भी विचार करें, तो हम पाएंगे, हम काफी मर चुके हैं। हर आदमी जन्म के बाद मर रहा है, और धीरे-धीरे मरता जा रहा है। जितने दिन आपके निकल गए हैं उतने ही आप मर चुके हैं। थोड़े-बहुत दिन और होंगे और आपकी यह मरण की क्रिया पूरी हो जाएगी और आप समाप्त हो जाएंगे।
महाराष्ट्र में एक साधु था, एकनाथ। उसके पास एक व्यक्ति बहुत दिनों तक आया। और उस व्यक्ति ने अनेक दफा एकनाथ से बहुत से प्रश्न पूछे। एक बार उसने एक अजीब बात एकनाथ से पूछी। सुबह ही थी और एकनाथ अपने मंदिर में बैठे हुए थे। उस युवक ने आकर पूछा कि मैं आपको जानता हूं, बहुत दिन से जानता हूं, और आपको जान कर मुझे कई तरह के विचार मन में उठते हैं। कई प्रश्न उठते हैं। एक प्रश्न मैं हमेशा छिपा लेता हूं, पूछता नहीं हूं। वह मैं आज पूछना चाहता हूं।
एकनाथ ने कहा: क्या है? पूछो।
उस युवा ने कहा कि मैं पूछना चाहता हूं, आपका बाहर से तो जीवन एकदम पवित्र है, लेकिन भीतर भी पवित्रता है या नहीं? आप बाहर से तो एकदम ही ईश्वरीय मालूम होते हैं, दिव्य मालूम होते हैं। लेकिन भीतर क्या है? मैं भीतर के संबंध में कुछ पूछना चाहता हूं। भीतर आपके पाप उठते हैं या नहीं? भीतर आपके
बुराइयां पैदा होती हैं या नहीं? भीतर आपके विकार उठते हैं या नहीं?
एकनाथ ने कहा कि मैं अभी-अभी बताता हूं। एक और जरूरी बात तुम्हें बता दूं, कहीं मुझे भूल न जाए। कल अचानक मैंने तुम्हारा हाथ देखा, तो मुझे दिखाई पड़ा कि तुम्हारी मृत्यु करीब आ गई है। सात दिन बाद तुम मर जाओगे। तो यह मैं तुम्हें बता दूं और फिर तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूं कि कहीं मुझे भूल न जाए, इसलिए मैं जल्दी बता दूं। एकनाथ ने कहा:अब पूछो कि तुम क्या पूछते हो?
वह युवक बैठा था, खड़ा हो गया। उसने कहा कि मौका मिला तो मैं कल आऊंगा। उसके हाथ-पैर कंपने लगे।
एकनाथ ने पूछा: इतनी जल्दी क्या है? सात दिन हैं, बहुत हैं। इतनी घबड़ाहट क्या है? और मरना तो सभी को पड़ता है।
लेकिन वह युवक अब एकनाथ की बातें नहीं सुन रहा था। उसने पीठ फेर ली और वह मंदिर के नीचे उतरने लगा। अभी जब आया था तो पैरों में एक बल था, एक शक्ति थी, एक सामर्थ्य था। अब जब लौट रहा था तो दीवाल का सहारा लिए हुए था। जिसकी मौत सात दिन बाद हो, वह बूढ़ा हो ही गया। उसके पैर कंपने लगे सीढ़ियों पर। वह रास्ते पर जाकर गिर पड़ा। बेहोश हो गया। लोगों ने उसे उठाया और घर पहुंचाया। उसके प्रियजन, उसके मित्र इकट्ठे हो गए, सब तरफ खबर फैल गई कि वह आदमी मरने के करीब है। सात दिन बाद उसकी मृत्यु आ जाएगी।
सातवें दिन संध्या को जब सूरज डूबने को था, तो सारे घर के लोग रो रहे थे। पड़ोसी इकट्ठे थे और वह युवा बिस्तर पर लेटा हुआ था। एकनाथ उसके घर गए। वे जब अंदर पहुंचे, तो वहां मौत का पूरा का पूरा वातावरण था। सारे लोग उनको देख कर रोने लगे। एकनाथ ने कहा: रोओ मत, मुझे जरा अंदर ले चलो। वे भीतर गए और उस व्यक्ति को उन्होंने हिला कर पूछा कि मेरे मित्र, एक बात पूछने आया हूं। सात दिन कोई पाप तुम्हारे भीतर उठा? कोई बुराई, कोई विकार? उस आदमी ने बहुत मुश्किल से आंखें खोलीं और उसने कहा कि आप भी एक मरते हुए आदमी से मजाक करते हैं! तो एकनाथ ने कहा: तुमने भी मरते हुए आदमी से मजाक किया था! एकनाथ ने कहा: तुम्हारी मौत अभी नहीं आई है, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है।
जिसे मौत दिखाई पड़ने लगे उसके भीतर पाप उठने अपने आप विलीन हो जाते हैं। विकार शून्य हो जाते हैं। और जिसे मौत दिखाई पड़ने लगे उसके भीतर एक क्रांति हो जाती है। उसकी संसार के प्रति पीठ हो जाती है और परमात्मा की तरफ उसका मुंह हो जाता है।
एकनाथ ने कहा: तुम्हारी मौत अभी आई नहीं, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है। तुम उठ आओ, घबड़ाओ मत। और एकनाथ ने कहा: सात दिन बाद मौत हो, या सात वर्ष बाद, या सत्तर वर्ष बाद, क्या फर्क पड़ता है? मौत का होना ही पर्याप्त है। दिनों की गिनती से कोई फर्क नहीं पड़ता है। कि कोई फर्क पड़ता है? सात दिन बाद मौत हो या सत्तर दिन बाद, क्या फर्क पड़ता है? मौत का होना ही अर्थपूर्ण है। दिनों की गिनती कोई अर्थ नहीं रखती। एकनाथ ने कहा: मृत्यु है, जिस दिन यह मुझे पता चला, उसी दिन जीवन में क्रांति हो गई। उसी दिन मैं दूसरा आदमी हो गया।
हम सारे लोगों को यह पता नहीं है कि मौत है। हालांकि हम देखते हैं कि मौत घटित होती है, लेकिन हमें पता नहीं है कि मौत है। अगर हमें पता हो कि मौत है, तो हमारे भीतर जीवन को जानने की प्यास पैदा हो जाएगी। जो इस जीवन को ही जीवन समझ रहे हैं, उनके भीतर जीवन को जानने की प्यास कैसे पैदा हो सकती है? और जो इस जीवन को ही जीवन मान रहे हैं, वे वास्तविक जीवन को पाने के लिए असंतुष्ट कैसे हो सकते हैं?
यह जीवन नहीं है, यह मृत्यु की ही लंबी क्रिया है। जब तक यह स्पष्ट बोध हमारे भीतर न बैठ जाए, तब तक परमात्मा की दिशा में हमारे कदम उठ नहीं सकते। तब तक उन कदमों का उठना असंभव ही है। और सच में ही अगर हम विचार करें तो इसे जीवन कैसे कह सकते हैं?
मैं जिस दिन पैदा हुआ--जैसा मुझे दिखाई पड़ता है--मैं उसी दिन से मरना शुरू हो गया हूं। मौत कोई आकस्मिक एक्सीडेंट नहीं है, कोई दुर्घटना नहीं है, एक क्रमिक विकास है, एक ग्रोथ है। मैं जिस दिन से पैदा हुआ, मेरी मौत विकसित हो रही है। मेरे भीतर मौत घनी होती जा रही है। एक दिन मौत अपने पूर्ण बिंदु पर पहुंच जाएगी। आप समझेंगे कि उस दिन मौत हुई। मैं आपसे कहना चाहता हूं, मैं उसी दिन मरना शुरू हो गया जिस दिन पैदा हुआ।
जन्म का दिन और मृत्यु का दिन अलग-अलग नहीं है। जन्म का दिन ही मृत्यु का दिन है। हम क्रमशः मरते जाते हैं, लेकिन इसका हमें बोध नहीं है। और हम सोचते हैं मौत ‘कभी’ आएगी, इसलिए निश्चिन्त होते हैं। मौत प्रतिक्षण है। और जो कभी आने के खयाल में हैं, वे गलती में हैं। और कभी यह विचार भी हम नहीं करते कि अगर हम जीवित होते तो मृत्यु आ कैसे सकती थी? यह कभी आपने खयाल किया कि अगर आप जीवित होते तो मौत आ कैसे सकती थी? जीवन और मृत्यु तो विरोधी बातें हैं।
एक फकीर था, उससे जाकर किसी ने पूछा कि मैं समझने आया हूं कि मौत क्या है? उस फकीर ने कहा: मौत पूछनी है तो मुर्दों से पूछो, मैं एक जीवित आदमी हूं, मैं मृत्यु को जानता ही नहीं, बताऊंगा कैसे? उस फकीर ने कहा: अगर मौत के संबंध में पूछना है तो मुर्दों से जाकर पूछो। वे जानते होंगे। मैं एक जीवित आदमी हूं, मैं कैसे बताऊं कि मौत क्या है? मैं तो कभी मरा ही नहीं और न मैं कभी मर सकता हूं। जीवन ‘जीवन’ है।
एक और मुझे स्मरण आता है। एक आश्रम में एक साधु मर गया था। बहुत लोग रोने को, दुख प्रकट करने को वहां इकट्ठे हुए। उस आश्रम का जो प्रधान साधु था, लोगों की अपेक्षा थी कि वह भी आएगा। लेकिन वह तो आया नहीं। सारे आश्रम के लोग इकट्ठे हो गए। कोई पांच सौ भिक्षु थे। वे सारे लोग इकट्ठे हो गए। लेकिन जो प्रमुख था, जो गुरु था आश्रम का, वह नहीं आया। जब लाश बिलकुल बंधने की तैयारी हो गई और लोगों ने अरथी तैयार कर ली, तब भागा हुआ वह बूढ़ा आदमी आया और उसने कहा कि मैंने एक बड़ी आश्चर्यजनक खबर सुनी है कि वह साधु मर गया? उसने कहा: मैंने एक बड़ी आश्चर्यजनक खबर सुनी है कि वह फलां-फलां साधु मर गया?
लोगों ने कहा: इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
उसने कहा: मैं भी जरा देखना चाहूंगा कि वह मरा हुआ साधु कहां है? वह अंदर गया। वहां उस साधु के मित्र सब रोते थे। उसकी लाश पड़ी थी। उसने जाकर, उस बूढ़े आदमी ने जाकर पूछा: इ़ज दिस मैन डेड आर अलाइव? लाश पड़ी थी। और उस बूढ़े ने जाकर पूछा: यह आदमी जिंदा है या मरा हुआ?
तो लोगों ने कहा: यह भी कोई पूछने की बात है? अरथी बंध रही है, श्वासें समाप्त हो गई हैं, और लाश आपको दिखाई नहीं पड़ती?
उसने कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। मुझे तो यह दिखाई पड़ता है कि जो जिंदा था, वह अब भी जिंदा है; जो मुर्दा था, वह अब भी मुर्दा है। दोनों का संबंध टूट गया है। इस आदमी के भीतर जो जिंदा था, वह अभी भी जिंदा है और जो मुर्दा था, वह अभी भी मुर्दा है। दोनों का संबंध टूट गया है। इसलिए जब तुम कहते हो कि वह साधु मर गया, तो मुझे हैरानी होती है, क्योंकि जो जीवित था वह मर कैसे सकता है? जीवन और मृत्यु तो विरोधी बातें हैं।
जैसे, अगर मैं आपसे पूछूं कि सफेद रंग क्या काला रंग भी हो सकता है? तो आप कहेंगे, सफेद रंग काला कैसे हो सकता है? और काला हो जाएगा तो सफेद नहीं रह जाएगा। और सफेद रहेगा तो काला नहीं हो पाएगा।
सफेद रंग सफेद रंग है, काला रंग काला रंग है। मृत्यु मृत्यु है, जीवन जीवन है। जीवन कभी भी मृत्यु नहीं हो सकता और मृत्यु कभी जीवन नहीं हो सकती है। और इसीलिए जब अंत में मृत्यु आती है, तो समझ लेना चाहिए कि जिसे हमने जन्म समझा था, वह जीवन का प्रारंभ नहीं था--मृत्यु का ही प्रारंभ था। क्योंकि जो प्रथम में होता है वही अंत में विकसित हो जाता है। जो बीज में होता है वही वृक्ष बन जाता है। मृत्यु अंतिम वृक्ष है, तो जन्म में मृत्यु का बीज छिपा होगा। जन्म जीवन का प्रारंभ नहीं है, वह मृत्यु का ही प्रारंभ है।
फिर जीवन क्या है?
उस जीवन के प्रति प्यास तभी पैदा हो सकती है, जब हमें यह स्पष्ट बोध हो जाए, हमारी चेतना इस बात को ग्रहण कर ले कि जिसे हम जीवन जान रहे हैं, वह जीवन नहीं है। जीवन को जीवन मान कर कोई व्यक्ति वास्तविक जीवन की तरफ कैसे जाएगा? जीवन जब मृत्यु की भांति दिखाई पड़ता है, तो अचानक हमारे भीतर कोई प्यास, जो जन्म-जन्म से सोई हुई है, जाग कर खड़ी हो जाती है। हम दूसरे आदमी हो जाते हैं। आप वही हैं, जो आपकी प्यास है। अगर आपकी प्यास धन के लिए है, मकान के लिए है, अगर आपकी प्यास पद के लिए है, तो आप वही हैं, उसी कोटि के व्यक्ति हैं। अगर आपकी प्यास जीवन के लिए है, तो आप दूसरे व्यक्ति हो जाएंगे। आपका पुनर्जन्म हो जाएगा।
आज के दिन, आकांक्षा कैसे पैदा हो, उस सिलसिले में मैं यह कहना चाहता हूं कि जीवन का भ्रम छोड़ दें। और जिसे जीवन समझ रहे हैं, उसे मृत्यु की भांति देखना प्रारंभ करें। और यह कोई मेरे कहने से नहीं, अगर किसी के कहने से प्रारंभ किया, तो झूठा होगा, थोथा होगा। आप खुद ही देखें, आंखें खोलें और देखें कि ये जहां इतने लोग बैठे दिखाई पड़ रहे हैं, इसमें आपको मुर्दे दिखाई पड़ते हैं या जीवित लोग दिखाई पड़ते हैं? यह जो सारी सड़कों पर लोग जा रहे हैं, ये जीवित लोग हैं या मरे हुए लोग हैं? अगर आपको ये जीवित लोग दिखाई पड़ते हैं, तो फिर धर्म के विचार को छोड़ दें, सत्य के खयाल को छोड़ दें। फिर उसमें अभी आपके जाने का मौका नहीं आया, अभी भूमिका नहीं बनी। और अगर आपको ये मुर्दे दिखाई पड़ते हैं, तो आपके जीवन में क्रांति का क्षण करीब आ गया। भूमिका तैयार हो गई है।
इससे क्या फर्क पड़ता है कि आपकी सबकी तारीखें लगी हुई हैं कि कौन कब मुर्दा हो जाएगा? आप सबके ऊपर तारीखें लगी हुई हैं--किसी की दो साल बाद, किसी की दस साल बाद, किसी की बीस साल बाद। सबके ऊपर चिट लगी हुई है कि कौन कब मुर्दा हो जाएगा? लेकिन जो देख सकता है, उसे तो आप सभी मुर्दे दिखाई पड़ेंगे। कोई देर-अबेर मरेगा, यह दूसरी बात है। लेकिन सारे लोग मरेंगे। सारे लोग मर रहे हैं, वस्तुतः सारे लोग मर गए हैं।
आपने सुना होगा, बुद्ध को उनके पिता ने बहुत सम्हाल-सम्हाल कर रखा। क्योंकि बचपन में ज्योतिषियों ने एक बात कह दी। बुद्ध के जन्म पर ज्योतिषि बुलाए गए और उन्होंने कह दिया कि इस व्यक्ति की दो ही संभावनाएं हैं इसके जीवन में: या तो यह चक्रवर्ती राजा हो जाएगा और या फिर भिखारी, संन्यासी हो जाएगा।
सिद्धार्थ के--गौतम के पिता ने कहा कि कैसे मैं इसे संन्यासी होने से बचाऊं?
तो ज्योतिषियों ने कहा: इसे इस भांति रखें कि इसे जीवन दिखाई न पड़े। अगर इसे जीवन दिखाई पड़ गया, तो फिर यह संन्यासी हो जाएगा।
असल में, जिसको भी जीवन दिखाई पड़ जाएगा, वह संन्यासी हो जाएगा। जिसको जीवन नहीं दिखाई पड़ेगा, वही संन्यासी नहीं हो सकता है।
तो उसके पिता ने उससे छिपाने की कोशिश की। अब जीवन से कैसे छिपाया जाएगा? आखिर जीवन तो चारों तरफ है, उससे कैसे छिपा सकते हैं? तो उसने ज्योतिषियों से पूछा कि जीवन से मैं कैसे छिपाऊंगा?
तो ज्योतिषियों ने कहा: एक ही काम करो: अगर मृत्यु से छिपा लो, तो जीवन से छिपा लिया। इसे मृत्यु का पता न चले।
तो बड़ी व्यवस्था की गई। वह तो राजपुत्र थे। सारी सुविधा थी। उनकी बगिया में कोई फूल कुम्हला जाता था, तो उसे हटा
दिया जाता था रातों-रात। कोई पत्ता सूख जाता था, तो रात में उसे हटा दिया जाता था। कहीं सुबह सूखे हुए पत्ते को देख कर मृत्यु का पता न चल जाए। कुम्हलाया हुआ फूल कहीं मृत्यु का बोध न दे दे। उनके महल के आस-पास युवक और युवतियों के सिवा कोई भी नहीं आ सकता था। कोई बूढ़ा नहीं आ सकता था। क्योंकि बूढ़ा कहीं यह खयाल न दे दे कि मृत्यु होती है। बुद्ध को यूं छिपा कर पाला गया।
एक युवक महोत्सव उनके गांव में था। और बुद्ध उसमें भाग लेने गए। रास्ते पर पहली दफा उन्होंने देखा एक बूढ़ा आदमी। बुद्ध ने अपने सारथी को पूछा कि इस आदमी को क्या हो गया है?
सारथी ने कहा: यह आदमी बूढ़ा हो गया। जवानी के बाद की अवस्था है।
बुद्ध ने कहा: अवस्थाएं भी होती हैं क्या? क्या मैं भी युवा होने के बाद इसी भांति बूढ़ा हो जाऊंगा? बड़ी अदभुत बात है! बुद्ध ने सीधा यह पूछा: क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा?
जब आप किसी बूढ़े को देखते हैं, तो क्या पूछते हैं अपने से कि मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा? आप सोचते हैं कि यह आदमी बूढ़ा हो गया। लेकिन यह घटना आपसे संबंधित नहीं हो पाती। आपको यह नहीं दिख पाता कि इस आदमी के बूढ़े होने में मैं भी बूढ़ा हो गया हूं। जब एक फूल कुम्हला कर गिरता है, तो आप देखते हैं--फूल कुम्हला कर गिर गया। लेकिन यह फूल का कुम्हलाना आपसे संबंधित नहीं हो पाता। क्या आपको यह दिखाई पड़ता है कि फूल के कुम्हलाने में आप भी कुम्हला गए? अगर नहीं दिखाई पड़ता तो प्यास कैसे पैदा होगी?
बुद्ध ने कहा: तब तो मैं भी बूढ़ा हो गया। रथ वापस लौटा लो! युवक महोत्सव में जाकर क्या करेंगे? मैं तो बूढ़ा हो गया। वह तो युवकों का महोत्सव है। वह तो यूथ फेस्टीवल है। मैं वहां जाकर क्या करूंगा? रथ वापस लौटा लो। मैं तो बूढ़ा हो गया।
सारथी ने कहा: आप कैसे पागल हैं! वह आदमी बूढ़ा हुआ है, आप कहां बूढ़े हुए?
और तभी एक मुर्दे की लाश निकली। और बुद्ध ने पूछा: यह क्या हुआ?
और सारथी ने बताया: यह आदमी मर गया।
बुद्ध ने पूछा: क्या मैं भी मर जाऊंगा?
यह बड़ी अर्थपूर्ण बात है कि वे पूछ रहे हैं कि क्या हुआ? ज्ञात हुआ कि आदमी मर गया। बुद्ध पूछते हैं: ‘क्या मैं भी मर जाऊंगा?’
जीवन के सारे तथ्य ‘मैं’ से संबंधित हो जाएं तो क्रंाति हो जाती है।
उसने कहा: मैं कैसे कहूं अपने मुंह से? लेकिन कोई भी अपवाद नहीं हो सकता। आप भी अपवाद नहीं हो सकते। मरना ही होगा। जो जन्मा है, उसे मरना ही होगा।
बुद्ध ने कहा: फिर मैं मर गया। रथ वापस लौटा लो! मुर्दे महोत्सव में नहीं जाया करते हैं।
इसलिए मैंने कहा कि हम सब मुर्दे हैं। और रथ वापस लौटा लिया गया। और उस युवक की जिंदगी में क्रांति हो गई।
जीवन के तथ्यों को स्वयं से संबंधित करें। जीवन में जो घट रहा है, उसे अपने पर घटा हुआ जानें। क्योंकि कोई भी अपवाद नहीं है। वे जो कब्रें बनी हैं, जब मैं उनके करीब से निकलता हूं, तो जानता हूं कि मेरी ही कब्रें हैं। आखिर वे किसकी कब्रें होंगी? निश्चित ही वे मेरी ही कब्रें हैं, वे आपकी ही कब्रें हैं।
अगर जीवन की यह सारी की सारी स्थिति के प्रति सजगता आ जाए, तो आप पाएंगे, आप एक बड़े सपने में हैं। और वह भी एक बड़े दुखद सपने में। और यह बोध, यह पीड़ा ही एक क्रांति आपके भीतर कर सकेगी। जीवन के दुख को जानना, वास्तविक जीवन के प्रति प्यास को पैदा करने का प्रारंभ है। जीवन की व्यर्थता को जानना. हम तो सब सार्थक समझते हैं जीवन को, हमें तो प्रतीत होता है कि बड़ी सार्थकता है। और हम कभी खयाल नहीं करते कि हमसे पहले अरबों-अरबों लोग इस जमीन पर रहे हैं और उन्होंने भी इसे सार्थक समझा है। और एक दिन पाते हैं कि सब व्यर्थ हो जाता है। एक दिन मिट्टी मिट्टी में मिल जाती है। एक दिन पाते हैं कि सब गिर गया और समाप्त हो गया। जिसे हम बड़ा सार्थक और बड़ा अर्थपूर्ण समझ रहे हैं, मृत्यु के क्षण में वह क्या होगा? सब विलीन हो जाएगा और सब मिट्टी हो जाएगा।
जीवन की सार्थकता के प्रति जो जागेगा, वह पाएगा कि जीवन व्यर्थ है। बिलकुल ही मीनिंगलेस है। उसमें कोई अर्थवत्ता नहीं है। और जो जीवन को गौर से देखेगा, पाएगा वहां तो मृत्यु छिपी हुई है। हर जीवित आदमी के पीछे मृत्यु छिपी हुई है। और अगर यह बोध हो जाए, अगर यह दिखाई पड़ने लगे--जरा गौर से देखें, आप अपने पड़ोसी के बगल में जरा झांक कर देखें कि क्या इस आदमी के भीतर मौत बैठी हुई है? तो आपको दिखाई पड़ेगी। और जब उसमें दिखाई पड़ेगी, तो आप अपने भीतर गौर करें कि क्या आपके भीतर मौत बैठी हुई है? तो आपको अनुभव होगा कि मौत बैठी हुई है। इस मौत का बोध हो जाए, इसकी तरफ ध्यान चला जाए, तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। जिसे हम जीवन कहते हैं वह व्यर्थ हो जाएगा। और वह व्यर्थ हो तो ही, जिसे लोगों ने जीवन जाना है, जो वास्तविक जीवन है, उसकी तरफ आंख उठनी प्रारंभ होती है। एक प्यास पैदा होती है। तब हम जानना चाहते हैं कि क्या सत्य है? क्या सार्थक है? क्या अर्थ है?
एक गांव में, मैंने सुना, दो आदमी पागल थे। ऐसा गांव के लोग समझते थे कि दोनों पागल हैं। एक दिन बाजार भरा हुआ था गांव का, और एक रास्ते पर जहां काफी भीड़ थी, वे दोनों पागल भी आए। उन दोनों पागलों ने एक-दूसरे को झुक कर नमस्कार किया। एक युवक खड़ा हुआ देखता था, उसे बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि लोग गांव के जानते थे कि वे दोनों पागल हैं। उसे यह हैरानी हुई कि उन दोनों पागलों में इतना होश है कि एक-दूसरे को नमस्कार करते हैं। उसे थोड़ा शक हुआ कि ये पागल हैं भी या नहीं? उन दो पागलों में से एक के पीछे वह युवक चला गया। वह पागल एक मस्जिद के पास पड़ा रहता था। वह युवक गया और उसने पूछा कि मैं यह पूछने आया हूं कि आपने उस भीड़ में उसी पागल को नमस्कार क्यों किया? क्या आप पहचानते हैं? क्या पागलों की भी कोई जाति-बिरादरी है? क्या पागलों का भी कोई संबंध होता है? क्या पागल भी आपस में किसी भांति एक-दूसरे के मित्र हैं? क्या पागलों का भी अपना कोई समाज है? उस भीड़ में इतने लोग थे, आपने उस पागल को नमस्कार किया और उस पागल ने भी आपको ही नमस्कार किया!
वह बूढ़ा पागल हंसने लगा। वह उठा और उस युवक को उसने अपनी बांहों में भर लिया और अपनी छाती से लगा लिया। और उससे कहा कि मेरी आंखो में देखो। युवक तो पहले घबड़ा भी गया। इस उत्तर की कोई अपेक्षा नहीं थी कि वह उसे छाती में दबा लेगा और उससे कहेगा मेरी आंखों में देखो!
उस युवक ने पहली दफा उसकी आंखों में देखा। उसकी आंखों में देखकर वह हैरान हो गया! वे आंखें कुछ अलग थीं। वे कोई सामान्य आदमी की आंखें नहीं थीं। वे किसी सोए हुए आदमी की आंखें नहीं थीं। उसने उन आंखों को देखा। और उस बूढ़े ने कहा कि अब तुम जाओ और उस भीड़ में जो लोग हैं, उनकी भी आंखों को देखना। और वह जिस पागल को मैंने नमस्कार किया था, उसकी भी आंखों को देखना।
वह युवक गया। उसने अनेक लोगों की आंखों में गौर से देखा। और वह उस पागल के पास भी गया और उसकी आंखों में भी देखा। वह वापस आया। उसने कहा: मैं हैरान हो गया, कि ये दो आंखें भर जगी हुई मालूम पड़ती हैं, बाकी सारी आंखें सोई हुई मालूम पड़ती हैं! बाकी लोग ऐसे चल रहे हैं जैसे सोए हुए हों। बाकी लोग देखते हुए भी ऐसे मालूम होते हैं जैसे उनका ध्यान कहीं और है। देख रहे हैं, लेकिन देख नहीं रहे हैं। चल रहे हैं, लेकिन चल नहीं रहे हैं। जैसे कोई सपने में चलता हो। जैसे सपने में चलने की बीमारी होती है। लोग सपने में उठते हैं और चलते हैं। जैसी धुंधली उनकी आंखें होती हैं, जैसी सोई हुई और मूर्च्छित उनकी आंखें होती हैं, ऐसी ही सारे लोगों की आंखें हैं--सिर्फ उस पागल को छो़ड़ कर।
तो उस वृद्ध ने कहा: मैंने उसे नमस्कार किया, कुछ सोच कर नमस्कार किया। गांव हमें पागल कहता है, क्योंकि हम गांव जैसे नहीं हैं। हम पूरे गांव को पागल समझते हैं। हम पूरे गांव के लोगों को सोया हुआ समझते हैं। और सच यही है। यह इतनी भीड़ है, ये इतने लोग हैं, ये करीब-करीब सोए हुए और मरे हुए लोग हैं। इनकी आंखों में कोई जागा हुआपन नहीं है। इनके भीतर कोई बोध नहीं है। ये जीवन को देख नहीं रहे हैं, अन्यथा इनकी यह गति नहीं हो सकती थी, जो यह है।
यह दुनिया इतनी बदतर नहीं हो सकती थी, अगर इसमें जागे हुए लोग हों। यह दुनिया इतनी हिंसक नहीं हो सकती, इतनी क्रूर नहीं हो सकती, इतनी करप्टेड नहीं हो सकती, इतना अनाचार नहीं हो सकता, अगर लोग जगे हुए हों। इस दुनिया में इतनी दुर्घटनाएं और पीड़ाएं नहीं हो सकतीं, अगर लोग जगे हुए हों। इस दुनिया में इतना शोषण नहीं हो सकता, अगर लोग जगे हुए हों।
लेकिन सारे लोग सोए हुए हैं। और सोए हुए लोग जिस दुनिया को बनाएंगे, वह तो ऐसी दुनिया होगी ही। इसमें कोई शक भी नहीं है। वह दुनिया बदतर से बदतर होती जाएगी, अगर लोगों की संख्या और ज्यादा से ज्यादा सोती चली जाएगी।
हम करीब-करीब सोए हुए और मरे हुए लोग हैं। और उसकी वजह से सारी दुनिया में सडांध हैं। सारी दुनिया में मुर्दों का अधिकार है। सारी दुनिया में ऐसे लोग, जिनका जीवन से कोई संबंध नहीं है। वे लोग सारी गंदगी, सारी परेशानी, सारा उपद्रव पैदा कर रहे हैं।
धर्म चाहता है कि मनुष्य जाग जाए। और धर्म इसलिए एक तरह का पागलपन सिखाना चाहता है। जागा हुआ आदमी पागल मालूम होता है। क्राइस्ट पागल मालूम हुए, इसलिए सूली लगा दी। सुकरात पागल मालूम हुआ, इसलिए जहर दे दिया। इस मुल्क में भी लोगों को गांधी पागल मालूम हुए, इसलिए गोली मार दी। जागा हुआ आदमी पागल मालूम होगा। क्योंकि वह सामान्य लोगों से बिलकुल भिन्न दुनिया से संबंधित हो जाता है। जिसे आप जीवन कहते हैं, उसे वह मृत्यु कहेगा। जिसे आप सुख कहते हैं, उसे वह दुख कहेगा। जिसे आप समझ कहते हैं, उसे वह आत्यंतिक मूर्खता कहेगा। तो निश्चित ही वह पागल मालूम होगा।
संत फ्रांसिस हुआ असीसी में। वह जब भी किसी गांव में जाता, तो वह एक घंटा बजा कर जोर से चिल्लाता था: कि आओ, मैं तुम्हें एक पागलपन सिखाऊं। तो लोग कहते: पागलपन सिखाने आए हो? और वह असीसी का जो फकीर था, फ्रांसिस, वह कहता: अब तक जितने भी मेरे जैसे लोग आए हैं, उन सभी ने पागलपन सिखाया है। क्योंकि पागलपन का अर्थ ही है कि तुमसे कुछ भिन्न हो जाना, तुमसे कुछ अलग हो जाना। और जो उस भांति अलग हो पाते हैं, वे ही केवल सत्य को जान पाते हैं, वे ही केवल जीवन के अर्थ को जान पाते हैं।
दुनिया में थोड़े से पागल हुए हैं जिन्होंने जीवन को जाना है। और दुनिया इन समझदारों से भरी हुई है जो कि जीवन को बिलकुल भी नहीं जानते हैं। इस समझदारी को छोड़ देना पड़ेगा, जिसे आप समझदारी समझ रहे हैं। यह समझदारी झूठी है। और इसके कोई आधार नहीं हैं। यह बिलकुल निराधार और बेमानी है। अगर यह समझदारी आपको मूर्खतापूर्ण मालूम होने लगे, यह समझदारी जिसको आप कहते हैं, यह जो आपकी दुनियादारी समझदारी है, अगर यह आपको मूर्खतापूर्ण मालूम होने लगे, तो ही आपके भीतर कोई प्यास पैदा हो सकती है। और यह तभी मालूम होगी जब इसमें दुख और मृत्यु दिखाई पड़े।
मृत्यु को देखना, मृत्यु से स्वयं को संबंधित कर लेना, प्राथमिक शर्त है परमात्मा की प्यास की। अगर ऐसा नहीं है, तो प्यास झूठी होगी। फिर आप गीता पढ़ें, कुरान पढ़ें, बाइबिल पढ़ें, सब पढ़ें--आपकी प्यास झूठी होगी। उसका कोई मतलब नहीं है।
उस तरह पढ़ने वाले लोग हैं। उस तरह मंदिर और मस्जिद हैं। उनका कोई उपयोग नहीं है। जिसे जीवन अभी सार्थक मालूम हो रहा है, उसे मंदिर और मस्जिद सब व्यर्थ हैं, उनका कोई उपयोग नहीं है। उसे गीता-कुरान सब व्यर्थ हैं, उनका कोई उपयोग नहीं है। जिसे जीवन मृत्यु दिखाई पड़े, उसके लिए नये अर्थ का संसार खुलना शुरू हो जाता है।
मैं चर्चा करूंगा पीछे कि कैसे वह नया संसार खुल सकता है? आज तो मैं आपसे यही कहूं कि थोड़ा सा यह पागलपन आपमें आना जरूरी है। यह थोड़ी सी मैडनेस आपमें आनी जरूरी है कि जीवन आपको व्यर्थ, अर्थहीन, मृत्यु से भरा हुआ दिखाई पड़े। यह दिख सकता है। जीवन ऐसा है। जीवन बिलकुल ऐसा है, इसलिए दिख सकता है। सिर्फ आंख खोलने की बात है और आपको जीवन दिखाई पड़ेगा कि यह क्या है? जरूर घबड़ाहट होगी, जरूर बेचैनी होगी, जरूर परेशानी होगी। क्योंकि इस दुनिया को मुर्दा देखना, जीवित लोगों को मरा हुआ देखना, अपने को आज ही मरा हुआ जानना, बहुत सी घबड़ाहट पैदा करेगा। उसी घबड़ाहट से गुजर जाने का नाम तपश्चर्या है। तपश्चर्या का यह अर्थ नहीं है कि धूप में खड़े हैं। तपश्चर्या का यह अर्थ नहीं है कि उपवास कर रहे हैं, भूखे मर रहे हैं। तपश्चर्या का यह अर्थ नहीं है कि नंगे खड़े हो गए। तपश्चर्या का अर्थ है: चित्त ऐसी स्थिति से गुजर जाए, जहां कि बहुत बेचैनी, बहुत घबड़ाहट है, जहां कि बहुत फियर मालूम होता है कि यह कैसे होगा? और अगर आप उस तप के लिए राजी हो जाएं, तो आप एक क्रांति, एक अदभुत क्रांति, एक अभिनव क्रांति अपने भीतर अनायास घटित होते हुए पाएंगे। आप दूसरे मनुष्य हो जाएंगे।
प्यास मनुष्य को बदल देती है। और दुख का स्मरण, मृत्यु का बोध, जीवन की व्यर्थता का बोध प्यास को उत्पन्न करता है।
जीवन से असंतुष्ट हो जाना, परम जीवन के प्रति दिशा में पहला धक्का है। इसलिए मैंने यह चर्चा की। इससे आकांक्षा पैदा होगी। इससे तीव्र आकांक्षा पैदा होगी। इससे बहुत जलन पैदा होगी। इससे बहुत असंतोष पैदा होगा। इससे बहुत ज्वालाएं पकड़ लेंगी मन को और आप बड़े कष्ट में पड़ जाएंगे।
परमात्मा करे आप ऐसे कष्ट में पड़ जाएं, क्योंकि उसके बिना कोई जन्म नहीं होता। परमात्मा करे आप ऐसी लपटें अनुभव करें, क्योंकि उसके बिना कोई जीवन की तरफ ऊपर नहीं उठता। जो नीचे तृप्त हैं, वे नीचे ही समाप्त हो जाते हैं। जो जितने नीचे तृप्त हैं, वे उतने ही जल्दी समाप्त हो जाते हैं।
इसलिए तृप्ति न खोजें, बल्कि ऊंची से ऊंची अतृप्ति खोजें। जितनी ऊंची अतृप्ति होगी, उतनी आपकी गति, उतना आपका विकास संभव हो जाता है। अपने भीतर असंतोष को पा लें--जीवन के प्रति असंतोष को। स्वयं के होने के प्रति असंतोष को जितना आप पा लेंगे उतना साधना में आपके चरण, आपकी भूमिका परिपक्व होती है।
आकांक्षा पैदा हो, प्यास पैदा हो, अभीप्सा बने--ऐसी अभीप्सा कि फिर उसके साथ जीना मुश्किल हो जाए। या तो उसे हल करना पड़े और या फिर खुद को समाप्त कर लेना पड़े।
एक छोटी सी कहानी और मैं अपनी चर्चा को आज पूरा करूंगा।
एक मुसलमान फकीर था, फरीद। एक छोटे से गांव में एक झोपड़े में रहता था। एक नदी के किनारे रहता था। अनेक-अनेक लोग उससे पूछने आते थे: ईश्वर है? आत्मा है? वह फरीद बड़ा अजीब था। जब भी कोई उसके पास आता, वह कहता: सच में उत्तर चाहते हो? तो चलो मेरे साथ। पहले स्नान कर लें, फिर नदी के किनारे बैठ कर पवित्र होकर मैं तुम्हें उत्तर दूंगा। जो भी उससे राजी होता,, उसे पहले नदी पर ले जाता। नदी गहरी थी। वे दोनों साथ नहाने उतरते। और जैसे ही वह दूसरा व्यक्ति, जिसने पूछा था, पानी में उतरता--वह फरीद तगड़ा फकीर था--वह उसकी गर्दन पानी में नीचे दबा देता। उसके प्राण छटपटाने लगते। वहां श्वास-श्वास के लिए प्राण पागल हो जाते और वह फकीर दबाता ही चला जाता। जब तक कि प्राण बिलकुल टूटने के करीब ही न आ जाएं, तब तक वह छोड़ता नहीं था।
लेकिन कितना ही कमजोर आदमी क्यों न हो, जब प्राणों पर बन आती है, तो अपनी पूरी ताकत लगाता है बाहर निकलने के लिए। वह जो व्यक्ति पूछता, पूरी ताकत लगाता। फरीद बहुत मजबूत था। लेकिन वह तभी छोड़ता था जब नीचे वाला अपनी ताकत से ही ऊपर उठ आए।
ऐसे ही एक दिन एक आदमी को उसने छोड़ा। उस आदमी ने कहा: आप हत्यारें हैं या साधु हैं? यह क्या कर रहे थे? मेरी जान लेने की कोशिश थी? मैं पूछने आया कि ईश्वर कहां है और आप मेरे प्राण लिए लेते हैं?
फरीद ने कहा: उसी की तरफ दिशा-निर्देश करने के लिए यह सब मुझे करना पड़ा। इसीलिए नदी के किनारे रहता हूं, ताकि जल्दी से कोई भी आए पूछने तो नदी में ला सकूं। क्योंकि बिना नदी में लाए कोई उत्तर नहीं है।
उसने पूछा: यह कौन सा उत्तर हुआ?
फरीद ने कहा कि जब तुम्हें मैं नीचे दबाए हुए था, तो तुम्हारे प्राणों में कितनी आकांक्षाएं थीं।
उसने कहा: आकांक्षाएं, बहुवचन में पूछते हैं? एक ही आकांक्षा थी कि एक श्वास हवा मिल जाए किसी तरह। और वह भी थोड़ी देर तक थी, फिर तो मुझे पता नहीं कि वह भी थी या नहीं। लेकिन सारे प्राण मेरे उसी के लिए प्यासे थे। मेरा कण-कण उसी के लिए प्यासा था। और मैं तो कमजोर हूं, लेकिन मुझमें एक अदभुत ताकत मालूम हुई और मैं ऊपर उठने लगा। मैं जहां हवा उपलब्ध हो सकती थी, उस तरफ ऊपर उठने लगा।
फरीद ने कहा: जिस दिन ईश्वर के लिए ऐसी प्यास होगी, उस दिन ईश्वर इतने निकट है जितने कि निकट श्वास है--उतने ही निकट। लेकिन अगर उतनी प्यास न होगी, तो ईश्वर बहुत दूर है, जितनी कि दूर कोई भी चीज हो सकती है।
प्यास प्रभु को निकट ले आती है। प्यास का न होना ही दूरी है।
तो मैंने आपसे कहा: अगर प्यास है, तो परमात्मा करीब है। हाथ बढ़ाएं और परमात्मा निकट है। लेकिन अगर प्यास नहीं है, तो खोजें पहाड़ों पर, हिमालय में, तीर्थस्थानों में, जमाने में खोजें, परमात्मा कहीं भी नहीं है। अगर प्यास नहीं है, तो परमात्मा कहीं भी नहीं है। और अगर प्यास है, तो इसी क्षण और यहीं है।
प्यास ही रूपांतर है। इसलिए प्यास पहली सीढ़ी है। सत्य की खोज में प्यास पहला चरण है।
और प्यास कैसे पैदा होगी? उसकी थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं।
जीवन को देखने से, जीवन के सत्य के प्रति जागने से प्यास पैदा होती है। जागें और देखें। और किसी शास्त्र में खोजने न जाएं, क्योंकि जीवन चारों तरफ है और शास्त्र सब मुर्दा हैं। जीवन को देखना है, चारों तरफ जीवन है, प्रतिक्षण जीवन है।
लोग मुझसे पूछते हैं: हम क्या अध्ययन करें सत्य को जानने को?
मैं कहता हूं: जीवन का अध्ययन करें। क्योंकि शास्त्र के अध्ययन से कुछ भी नहीं मिलेगा। जो मिलेगा वह जीवन के अध्ययन से मिलता है।
जीवन को देखें, पहचानें, जागें, ध्यान को उस तरफ ले जाएं। और तथ्यों के प्राणों में उतरने की कोशिश करें और हर तथ्य को अपने से जोड़ लें, आप पाएंगे कि आप क्रमशः दूसरे मनुष्य होते जा रहे हैं। प्यास जग रही है और आपके भीतर प्यास के साथ शक्ति जग रही है। प्यास जग रही है और उसके साथ-साथ आप परमात्मा की तरफ ऊपर उठना प्रारंभ हो गए हैं।
ये थोड़ी सी बातें ही आज मैंने आपसे कहीं। ये बातें थोड़ी हैं। ‘प्यास’ से छोटा शब्द और क्या होगा? लेकिन प्यास से बड़ी और कोई बात नहीं है। अगर जीवन में सच में कोई आकांक्षा है तो प्यास की पीड़ा को पैदा करना होगा। उस कष्ट से, उस तप से गुजरना होगा।
शेष कैसे हम आगे--इस प्यास के होने के बाद--आगे जा सकते हैं, उसकी मैं चर्चा आगे करूंगा।

मेरी बातों को प्रेम से और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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