MEDITATION
Jeevan Hi Hain Prabhu 06
Sixth Discourse from the series of 7 discourses - Jeevan Hi Hain Prabhu by Osho. These discourses were given in JUNAGADH during DEC9-12 1969.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
ध्यान की आधारशिला अक्रिया है, क्रिया नहीं है। लेकिन शब्द ‘ध्यान’ से लगता है कि कोई क्रिया करनी होगी। ध्यान से लगता है कुछ करना होगा। जब कि जब तक हम कुछ करते हैं, तब तक ध्यान में न हो सकेंगे। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं तब जो होता है, वही ध्यान है। ध्यान हमारा न करना है। लेकिन मनुष्य-जाति को एक बड़ा गहरा भ्रम है कि हम कुछ करेंगे तो ही होगा। हम कुछ न करेंगे तो कुछ न होगा।
बीज को कुछ करना नहीं पड़ता टूटने के लिए, और बीज को कुछ करना नहीं पड़ता अंकुर बनने के लिए, और बीज को कुछ करना नहीं पड़ता फूल बन जाने के लिए; होता है। हम भी बच्चे से जवान हो जाते हैं, कुछ करना नहीं पड़ता है। जन्म होता है, जीवन होता है, मृत्यु होती है, हमारे करने से नहीं; होता है। जीवन में बहुत कुछ है जो हो रहा है अपने से। और अगर हम कुछ करेंगे तो बाधा पड़ेगी होने में--गति नहीं आएगी।
खाना आपने खा लिया है, फिर वह पचता है, आपको पचाना नहीं पड़ता। और अगर आपको पचाना पड़े, तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। और अगर आपको खयाल भी आ जाए कि मुझे पचाना है खाना, तो आप बड़ी कठिनाई में पड़ जाएंगे और पाचन में बाधा पड़ जाएगी। न हो तो कभी प्रयोग करके देखें। खाना खाने के बाद खयाल रखें कि भोजन पेट में पच रहा है। तो आप पाएंगे चौबीस घंटे के बाद कि भोजन नहीं पच पाया। जो रोज पचता था, उसमें बाधा पड़ गई। कभी कोशिश करके सोकर देखें, प्रयास करें सोने का, तो फिर पाएंगे कि नींद आनी मुश्किल हो गई है। नींद आती है, लानी नहीं पड़ती है।
यह समझ लेना जरूरी है कि जीवन में बहुत कुछ है जो अपने से होता है, हमें नहीं करना होता। और यदि हम करते हैं तो उलटे बाधा ही पड़ती है, सहयोग नहीं मिलता है।
ध्यान भी उन्हीं दिशाओं में से एक है, जहां हम जा सकते हैं, लेकिन अपने को ले जा नहीं सकते; जहां हमारा विकास हो सकता है, लेकिन हम अपने को धक्का देकर विकास नहीं करवा सकते।
यह बात बहुत स्पष्ट रूप से मन के सामने प्रकट हो जानी चाहिए कि ध्यान हमारी कोई क्रिया नहीं है, ध्यान हमारा समर्पण है। लेकिन हमारी भाषा में बहुत बड़ी भूल हो जाती है, समर्पण भी एक क्रिया है। तो सरेंडर भी तो एक क्रिया है, समर्पण करना भी एक क्रिया है और ध्यान करना भी एक क्रिया है। असल में जिंदगी और भाषा में कुछ बुनियादी भेद हैं, और धीरे-धीरे हम भाषा के इतने आदी हो जाते हैं कि हम भूल ही जाते हैं कि जिंदगी कुछ बात और है। हिंदुस्तान का नक्शा हिंदुस्तान नहीं है और न घोड़ा शब्द घोड़ा है। घोड़ा शब्द तो लिखा है शब्दकोश में और घोड़ा बंधा है अस्तबल में। और दोनों में बड़ा भेद है। जिंदगी और शब्दों में बड़ा भेद है। शब्द प्रत्येक चीज को जो शक्ल दे देते हैं, हम अगर जिंदगी में भी उसको खोजने गए, तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे।
अब जैसे प्रेम करना एक क्रिया है शब्दों की दुनिया में; लेकिन जीवन में प्रेम किया ही नहीं जा सकता, होता है। वहां वह क्रिया नहीं है; वहां वह घटना है, हैपनिंग है। वहां कोई मनुष्य प्रेम में पड़ जाता है, कर नहीं सकता प्रेम। और अगर आपसे कहा जाए कि फलां व्यक्ति को प्रेम करो, तो ज्यादा से ज्यादा आप प्रेम का अभिनय कर सकते हैं, प्रेम नहीं कर सकते। अगर चेष्टा की प्रेम करने की, तो आप खुद ही भीतर पाएंगे कि भीतर तो प्रेम नहीं है। चेष्टा से प्रेम असंभव है। मां बेटे को प्रेम नहीं करती; मां का बेटे से प्रेम होता है। और प्रेमी भी प्रेयसी को प्रेम नहीं करता है; प्रेम होता है। लेकिन भाषा में प्रेम क्रिया है और जीवन में प्रेम एक घटना है, क्रिया नहीं है। भाषा और जीवन में भेद पड़ जाता है। ऐसे ही ध्यान किताब में पढ़ेंगे तो लगेगा करना पड़ेगा। और अगर ध्यान को समझने जाएंगे तो पता चलेगा करना नहीं है। करना हो तो बहुत आसान भी मालूम पड़ता है, न करना बहुत कठिन मालूम पड़ता है।
तो फिर क्या किया जाए? मैंने यह मुट्ठी बांध ली, तो मुट्ठी बांधना एक क्रिया है। बांधने के लिए मुझे कुछ करना पड़ रहा है। फिर मैं किसी के पास जाऊं और पूछूं कि मुझे मुट्ठी खोलनी है, अब मैं क्या करूं? बांधना एक क्रिया है भाषा में, खोलना भी एक क्रिया है भाषा में; लेकिन जिंदगी के तथ्यों में बांधना तो क्रिया है, खोलना क्रिया नहीं है। खोलने के लिए कुछ भी करना नहीं पड़ेगा, सिर्फ बांधना बंद कर देना काफी है। मैं बांधूं न, तो मुट्ठी खुल जाएगी--मुट्ठी का खुलना अपने से हो जाएगा।
बांधना पड़ता है हमें, खुलना अपने से हो जाता है। अशांत होना क्रिया है, शांत होना क्रिया नहीं है। अशांत होने के लिए हमें बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। अशांत होने के लिए बड़ा श्रम करना पड़ता है। और अशांति में सफल होने के लिए बड़ी कुशलता चाहिए। लेकिन शांत होना क्रिया नहीं है। अगर हम अशांत होना बंद कर दें, तो बस शांत होना हो जाएगा। इसको ऐसा भी समझ सकते हैं कि अशांति और शांति में विरोध नहीं है। अशांति और शांति एक-दूसरे के उलटे नहीं हैं। अशांति का अभाव, एब्सेंस शांति है। जहां अशांति नहीं रह जाती वहां शांति है। हमारी जो पकड़ है करने की, उसे पहले समझ कर छोड़ देना चाहिए।
ध्यान हम करेंगे नहीं, ध्यान में हम होंगे। ध्यान में हम जाएंगे, लेकिन ध्यान हम करेंगे नहीं। ध्यान में हम बहेंगे, तैरेंगे नहीं। तैरना क्रिया है, बहना क्रिया नहीं है, बहना एक घटना है। उसमें हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता। और इसलिए बड़े मजे की बात है, जिंदा आदमी नदी में डूब जाए, मरे हुए आदमी को कभी डूबते हुए नहीं देखा गया; बल्कि जिंदा आदमी भी डूब जाए तो मरते ही ऊपर आ जाता है वापस।
नदी भी बड़ा गजब का काम करती है! जिंदा को डुबा देती है और मुर्दे को उठा देती है! जिंदा को मार डालती है और मुर्दे को ऊपर तैरा देती है! आखिर मुर्दे में ऐसी कौन सी कला है कि वह ऊपर आ जाता है और जिंदा नीचे चला जाता है? मुर्दे के पास एक कला है जो जिंदा के पास नहीं है। मुर्दा तैर नहीं सकता, वह तैरने में असमर्थ है। तैरने का उपाय ही नहीं है, मुर्दा सिर्फ बह सकता है। जो तैरता नहीं, वह नदी के ऊपर आ जाता है; और जो तैरता है, वह नीचे चला जाता है। बात क्या है? तैरने में शक्ति का व्यय होता है, तैरने में नदी से लड़ना पड़ता है। नदी बहुत बड़ी है। और जीवन की नदी तो बहुत बड़ी है, उससे अगर हम लड़ेंगे तो डूबेंगे ही, मरेंगे ही; क्योंकि लड़ने में शक्ति नष्ट होगी। मुदार्र् लड़ता ही नहीं, वह नदी के साथ एक हो जाता है। वह कहता है नदी से, जहां ले चलो वहीं चलने को राजी हैं। डुबाओ तो डूबने को राजी हैं, उठाओ तो उठने को राजी हैं। किनारे फेंक दो, तो जिस किनारे फेंक दो वही हमारी मंजिल है। कहीं हमें जाना नहीं है, और ले चलो साथ तो साथ चलने को राजी हैं। मुर्दा कहता है कि हम अलग नहीं; तुम्हारे साथ हैं। फिर नदी बड़ी मुश्किल में पड़ जाती है। मुर्दे को नदी हरा नहीं पाती है। मुर्दा नदी से ज्यादा ताकतवर सिद्ध होता है। मुर्दा मरा हुआ और जिंदा आदमी कमजोर हो जाता है! जिंदा लड़ता है, इसलिए कमजोर हो जाता है। रेसिस्ट करता है, विरोध करता है, इसलिए टूट जाता है।
ध्यान--मुर्दे आदमी की भांति हो जाने का नाम है। हम कुछ भी नहीं करते हैं, हम जीवन के प्रवाह में छोड़ देते हैं अपने को। जो हो, हो। इस स्थिति को समझने के लिए तीन छोटे प्रयोग हम करेंगे। कल भी किए, परसों भी किए। तीन छोटे प्रयोग। पहला प्रयोग: बहने का, जैसा मुर्दा बह जाए।
कल एक मित्र ने आकर कहा कि सूखा पत्ता, सोच नहीं पाते कि सूखा पत्ता नदी में बह रहा है। तो हम सोच नहीं पाते अपने को सूखे पत्ते की तरह। तो मैंने कहा, अच्छा है, मुर्दे की तरह सोचें। एक मुर्दा बह रहा है, लाश बह रही है। और सूखे पत्ते में और मुर्दे में फर्क नहीं है, सूखा पत्ता हरे पत्ते की लाश है और मुर्दा हमारी लाश है। इसमें कोई बहुत फर्क नहीं है। हरा पत्ता जिंदा है और सूखा पत्ता मर गया है। वह भी लाश है हरे पत्ते की। हरा पत्ता लड़ता है हवाओं से। हवाएं पूरब जाती हैं, तो हरा पत्ता कहता है, नहीं जाएंगे। हवाएं पश्चिम जाती हैं, तो हरा पत्ता कहता है, अपनी जगह रहेंगे। इसलिए तो हरे पत्ते से गुजरती हवा में शोरगुल हो जाता है; क्योंकि पत्ते लड़ाई करते हैं। सूखा पत्ता कहता है, जहां ले चलो, जहां मर्जी, वहीं राजी हूं। सूखा पत्ता--पूरब ले जाती है हवा, पूरब चला जाता है; पश्चिम ले जाती है, पश्चिम चला जाता है। सूखा पत्ता विरोध नहीं करता।
ध्यान अविरोध है, नॉन-रेसिस्टेंस है। तो पहला प्रयोग बहने का हम करेंगे। दूसरा प्रयोग मरने का है। और तीसरा प्रयोग तथाता का। और चौथा प्रयोग ध्यान का है। पहले तीन प्रयोग पांच-पांच मिनट करेंगे, ताकि हमें खयाल में आ जाए। शब्द से भी खयाल में आ सकता है, लेकिन कठिन है। इसलिए मैं चाहता हूं कि प्रतीति.जब मैं कहूं, बहना, तो आपको भीतर प्रतीति हो जानी चाहिए कि बहने का क्या मतलब है। एक दफा प्रतीति हो जाए फिर तो शब्द भी काम करता है। जैसे मैं आपसे कहूं, नीबू, और आप थोड़ी देर नीबू को सोचें, तो आप पाएंगे मुंह में पानी आना शुरू हो गया। अभी नीबू तो नहीं है, लेकिन नीबू का शब्द भी मुंह में पानी ला सकता है। क्यों? नीबू का अनुभव है, वह पानी लाया है मुंह में। और नीबू शब्द में भी वह अनुभव समा गया है। तो नीबू शब्द को सोच कर भी मुंह में पानी आ सकता है। मुंह को क्या पता कि नीबू है या नहीं। जब होता है तब भी पता नहीं होता, आपके मन को पता होता है, वह खबर देता है मुंह को कि नीबू है, इसलिए मुंह पानी छोड़ देता है। नीबू नहीं है और आप मन को कहते हैं कि नीबू है, तो मुंह को तो कुछ पता नहीं है नीबू के होने न होने का, वह पानी छोड़ सकता है। शब्द भी सार्थक हो सकते हैं, अगर अनुभव से जुड़ जाएं।
इसलिए हम बहने का प्रयोग करके अनुभव करें कि बहने का मतलब क्या है। और जब हमें भीतर से समझ में आ जाए कि यह रहा बहने का मतलब, यह मुर्दे की तरह होकर बह गए। तो फिर जब मैं कहूंगा, बहें, तो आप समझ पाएंगे कि मैं क्या कह रहा हूं।
पहला प्रयोग करें। आंख बंद कर लें और शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, बंद कर लें मतलब बंद हो जाने दें। आंख को ढीला छोड़ दें, पलक झपक जाएं और बंद हो जाएं। हां, किसी को लेटना हो, लेट जाए। लेटने में और भी सुविधा हो जाएगी। और जगह तो काफी है, लेट सकते हैं। किसी को लेटने की पहले से ही तो पहले से ही लेट जाएं, क्योंकि तब और आसानी से बह सकेंगे। बैठने में भी थोड़ा तनाव तो रहा ही आता है कि हम बैठे हैं, बैठे हैं। बैठना एक क्रिया है और लेटना एक क्रिया नहीं है।
शरीर को ढीला छोड़ दें, आंखें बंद कर लें। और भीतर एक चित्र उभारें, मन के पर्दे पर देखें धूप में चमकते हुए, सुबह की धूप में चमकते हुए पहाड़ हैं। पहाड़ों के बीच में कलकल बही जाती एक तेज नदी की धार है। गहरी है बहुत, नीला है रंग। पहाड़ चमकते हैं धूप में, नदी का नीलापन चमकता है धूप में। उसकी भागती लहरें और गति चमकती है धूप में। नदी तेज भागी चली जा रही है। इस चित्र को ठीक से मन पर स्पष्ट कर लें। नदी तेजी से भागी चली जाती है। नदी बह रही है तेज सागर की तरफ, किसी अज्ञात सागर को खोजने निकल पड़ी है। ठीक से देख लें नदी के बहने को, चित्र को ठीक से उभार लें, ताकि बहना भी खयाल में आ जाए। नदी कैसे बह रही है, ऐसे ही हमें भी बहना है। नदी कुछ करती नहीं बहने में, बस बही चली जाती है। अब इस नदी में अपने को भी डाल दें एक मुर्दे की भांति। फिर डूबने का उपाय ही न रहेगा। अपनी लाश को बहता हुआ देखें इस नदीमें। अब लाश तैर नहीं सकती, इसलिए तैरने की कोशिश मत करना। तैरने का सवाल ही नहीं है। हाथ-पैर छोड़ कर पड़ गए हैं, मुर्दे की तरह बहे जा रहे हैं, भागे जा रहे हैं, नदी के साथ ही बहे जा रहे हैं। एक पांच मिनट तक नदी में बहने का अनुभव करें। ताकि भीतर मन के कोने-कोने तक बहने की प्रतीति प्रकट हो जाए।
ध्यान का पहला चरण है: फ्लोटिंग का अनुभव, बहने का अनुभव।
अब देखें, पहाड़ चमकते हुए, बहती, भागती नदी, उसकी नीली धार, उसमें पड़े हम मुर्दे की भांति। कोई प्राण नहीं, हाथ-पैर हिलाने का उपाय नहीं। चाहें भी तो नहीं हिला सकते। और बही जा रही है लाश तेजी से नदी के साथ। तैर नहीं रही, कहीं जाना नहीं, कहीं पहुंचना नहीं लाश को, सिर्फ नदी के साथ बहना है। देखें, अपने को बहता हुआ देखें। एक पांच मिनट तक अपने को बहता हुआ अनुभव करते रहें। बहते-बहते ही मन का बहुत सा कूड़ा-करकट बह जाएगा--अशांति बह जाएगी, तनाव बह जाएगा, चिंता बह जाएगी। हलका हो जाएगा भीतर सब, जैसे भीतर तक स्नान प्रवेश कर गया हो ऐसी ताजगी हो जाएगी।
बहें.बह जाएं, छोड़ दें अपने को, बिलकुल बह जाएं, छोड़ दें अपने को। नदी भागी जाती है और हम बहे जा रहे हैं। धूप में चमकते हुए पहाड़ हैं, नदी की धार है, ठंडी हवाएं हैं, पक्षियों के गीत हैं और हम बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं.छोड़ दिया अपने को एक मुर्दे की भांति। नदी भागी चली जाती है, उसी में हम बहे चले जा रहे हैं। मन हलका हो जाएगा, बिलकुल शांत हो जाएगा, ताजा हो जाएगा, जैसे भीतर तक स्नान हो गया हो, जैसे आत्मा तक नहा गई हो। बह जाएं, छोड़ दें अपने को। छोड़ते ही सब शांत हो जाता है। पकड़ ही अशांति, पकड़ ही तनाव है। छोड़ दिया फिर कैसा तनाव? फिर कैसी अशांति? नदी से जरा भी विरोध न करें, नदी जहां ले जाए, बहे जाएं, बहे जाएं, बहे जाएं। नदी डुबा दे तो डूब जाएं, नदी बहा दे तो बह जाएं। छोड़ दें अपने को, भागे चले जाएं नदी के साथ।
बहे जा रहे हैं.बहे जा रहे हैं.बहने के इस अनुभव को ठीक से समझ लें, ध्यान का यह पहला चरण है। तैरना नहीं है, बह जाना है। लड़ना नहीं है, छोड़ देना है। फिर जो हो, हो। नदी जहां ले जाए, ले जाए। मन बिलकुल हलका, भारहीन, शांत, मौन हो जाएगा। हो गया है, मन बिलकुल ताजा हो गया है।
धीरे-धीरे नदी के बाहर निकल आएं, किनारे पर खड़े हो जाएं। नदी अभी भी भागी चली जाती है, हवाएं बह रही हैं, सूरज की किरणों में पहाड़ चमक रहे हैं। हम नदी के तट पर खड़े हो गए हैं। पांच मिनट के बहने ने क्या-क्या फर्क किया, वह भीतर अनुभव कर लें। मन शांत हो गया है, हलका और ताजा हो गया है, प्रफुल्लित हो गया है, जैसे आत्मा तक नहा गई हो ऐसा स्वच्छ और ताजा हो गया है। जो बहना सीख लेता है, वह शांत हो जाता है। जो जीवन की सरिता में बहना सीख गया है, वह तनाव से मुक्त हो जाता है। यह पहला चरण है: बहना।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें। दूसरा प्रयोग समझें और पांच मिनट के लिए दूसरा प्रयोग करें।
दूसरा प्रयोग और भी गहरा है। बहते हैं, तो भी हम हैं। तैरते नहीं हैं, बहते हैं, लेकिन फिर भी हम हैं। हमारा होना भी बाधा है। दूसरे प्रयोग में ‘होने’ को भी मिटा देना है। दूसरा प्रयोग मिटने का प्रयोग है। दूसरा प्रयोग मर जाने का प्रयोग है। और अपने को ही मरा हुआ देख पाना बड़ा कीमती अनुभव है।
बुद्ध तो ऐसा करते थे कि जो ध्यान सीखने आते उनके पास उन्हें तीन महीने के लिए मरघट पर बिठा देते थे। तीन महीने मरघट पर ही निवास करना पड़ता ध्यान करने वाले को। और जब भी कोई लाश जलने आती तब उसे चिता के पास खड़ा हो जाना पड़ता। दिन में दो-चार-दस लोग भी मरते, कभी एक मरता, कभी दो मरते। रात मरघट का सुनसान होता। और ध्यान यह था कि जब लाश जलती हो किसी की तो वह जो ध्यानी है वह किनारे खड़ा हो जाए और अनुभव करता रहे कि मैं ही जल रहा हूं, मैं ही जल रहा हूं। यह और कोई नहीं जल रहा है, चिता पर मैं ही जल रहा हूं। तीन महीने में उस आदमी का शरीर-बोध नष्ट हो जाता। तीन महीने में ‘मैं शरीर हूं’ यह कल्पना ही मिट जाती। ‘मैं शरीर हूं’ यह भाव ही टूट जाता। तीन महीने निरंतर अपने को चिता पर चढ़ा कर वह अनुभव कर पाता कि मैं अलग हूं, मैं पृथक हूं।
दूसरा प्रयोग कल्पना में चिता पर अपने को चढ़ा देने का प्रयोग है। उससे हम समझ पाएंगे कि कुछ है जो हममें जल जाने वाला है, वह जल जाएगा। फिर भी कुछ बच रहता है।
किसी मित्र ने पूछा है कि चढ़ा तो देता हूं चिता पर अपने को, लेकिन फिर भी मैं तो किनारे खड़ा देखता रहता हूं।
निश्चित ही, कुछ हमारे भीतर है, जो सच में ही हम चिता पर चढ़ेंगे तो भी किनारे खड़े होकर ही देखता रहेगा। कल्पना की चिता पर ही नहीं, असली चिता पर भी जब आप चढ़ेंगे, मैं चढूंगा, तो कुछ है जो किनारे खड़े होकर देखता रहेगा। कुछ है जो बाहर खड़े होकर देखता रहेगा। वह अभी कल्पना में ही वही बाहर खड़ा है। शरीर तो चढ़ा दिया जा सकता है चिता पर, लेकिन कुछ है भीतर जो चिता पर चढ़ ही नहीं सकता, जिसे कोई अग्नि नहीं जला सकती, जिसकी कोई मृत्यु नहीं, वह तो बाहर खड़े होकर देखता रहेगा।
आंख बंद करें और दूसरे प्रयोग में उतरें। आंख बंद करें, शरीर को ढीला छोड़ दें। लेटना हो, लेट जाएं। शरीर ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें। और दूसरा चित्र उभारें आंखों में--चिता जल रही है, मरघट पर हैं। सुनसान मरघट अचानक आज लोगों से भर गया है, आपके प्रियजन, मित्र, बंधु सब इकट्ठे हैं। वे आपको विदा करने आए हैं। वे आखिरी नमस्कार करने आए हैं। चिता जल गई है। आपकी अरथी रखी है। चिता में लपटें उठने लगी हैं। चिता की लपटें आकाश की तरफ दौड़ी चली जा रही हैं, चमकती लाल लपटें, जो सब कुछ जला डालेंगी, जो कुछ भी बचने न देंगी, जो सब मिटा डालेंगी, वे आकाश की तरफ भागी चली जा रही हैं। चिता पूरी सुलग गई है। आग पूरी पकड़ गई है। अब आपकी अरथी खोली जा रही है और आपकी लाश को आपके प्रियजन चिता पर रख रहे हैं। आप ही को रखा जा रहा है। यह किसी और की चिता नहीं है, आपकी ही चिता है। यह किसी और का शरीर नहीं है, यह आपका ही शरीर है। दूसरों के शरीर को तो आपने भी जाकर चढ़ा दिया होगा, आज अपना ही शरीर चढ़ गया है। आग बढ़ती जा रही है, शरीर ने भी आग की लपटें पकड़ ली हैं, शरीर जल रहा है।
देखें.पांच मिनट तक इस अपने ही जलते हुए शरीर को देखें। अपने को ही जलता हुआ देखना बड़ा अनुभव है। अगर ठीक से देख लें, तो हम दूसरे ही आदमी हो जाएं। अपने को ही चिता पर देखना बड़ा गहरा अनुभव है। अगर ठीक से खयाल में आ जाए तो बाद में हम वही आदमी कभी नहीं हो सकते जो चिता पर चढ़ने के पहले थे। कुछ तो हममें जल ही जाएगा, कुछ तो हममें नष्ट ही हो जाएगा।
देखें.लपटें बढ़ती जा रही हैं, अंधेरी रात, अंधेरी रात के पर्दे पर चमकती लाल लपटें आकाश की तरफ भागती हुई। मित्र, प्रियजन घेरा बांध कर खड़े हैं, दूर जरा, अब उतने पास नहीं जितने सदा पास थे। लपटों के पास कौन होगा? और मरते के पास कौन होगा? और मर गए के पास कौन होगा? दूर खड़े हैं घेरा बांध कर। लपटें उनको झुलसाती हैं, वे और दूर हटते चले जा रहे हैं। और लपटें बढ़ती चली जा रही हैं और आप जल रहे हैं, आप जल रहे हैं.जानें मैं जल रहा हूं, नष्ट हो रहा हूं, समाप्त हो रहा हूं, मर रहा हूं। पांच मिनट तक देखते रहें।
लपटें बहुत बेरहम हैं, तेजी से जल रही हैं और जला रही हैं। लपटें बहुत तेज हैं। सब झुलसा जा रहा है, सब राख हुआ जा रहा है। देखें.देखते रहें अपने को जलता हुआ, मिटता हुआ, राख होता हुआ। तेज हवाएं हैं, लपटों को बढ़ाती हैं और लपटें तेज हो जाती हैं। सब जला जा रहा है.सब मिटा जा रहा है.सब राख हुआ जा रहा है। मित्र, प्रियजन धीरे-धीरे विदा होने लगे हैं। अब उनके चेहरे नहीं, पीठें दिखाई पड़ती हैं। अब वे जा रहे हैं, आखिरी नमस्कार भी हो गया। अब सब राख हो जाएगा। और राख से कौन प्रेम करता है? राख के लिए कौन रुकता है? सब जा चुके हैं, जा रहे हैं। अकेले रह गए हैं, लाश के जले हुए टुकड़े पड़े हैं, राख पड़ी है। लपटें हैं, सुनसान मरघट है, अंधेरी रात है। धीरे-धीरे लपटें भी बुझ जाएंगी, अंगारे भी बुझ जाएंगे, अंधेरे में दबी राख भर पड़ी रह जाएगी।
देखें.सब राख हुआ जा रहा है। लपटें बुझ गई हैं, अंगारे बुझ गए हैं, राख का ढेर पड़ा है। अंधेरी रात ने चारों तरफ से घेर लिया, कोई भी नहीं। राख का ढेर ही हम हो गए हैं। इस राख के ढेर को ठीक से पहचान लें--यही हम हैं! इसी राख के ढेर ने बहुत बार अपने को दर्पण के सामने खड़ा किया था। इसी राख के ढेर ने न मालूम कितने सपने देखे। इसी राख के ढेर ने न मालूम क्या-क्या सोचा, बनाया-बिगाड़ा था। इस राख के ढेर को ठीक से समझ लें, देख लें, पहचान लें। मिट्टी मिट्टी में वापस लौट गई है।
मिट जाने का अनुभव ध्यान का दूसरा चरण है। जो मिट सकता है, वही प्रभु को पा सकता है। जो मिटने में असमर्थ है, वह उसे पाने का पात्र भी नहीं है। देख लें इस राख के ढेर को ठीक से, प्रभु के चरणों में यही समर्पित करना है--अपनी ही राख, अपनी ही मृत्यु, अपना ही मिट जाना--और उसके द्वार खुल जाते हैं। राख का पड़ा हुआ ढेर है, मरघट है, सुनसान अंधेरी रात है। और यह राख का ढेर और कोई नहीं, हम ही हैं। सब समाप्त हो गया। अपने को ही मिटते हुए देखा है, समाप्त होते देखा है। रूप तो मिट गया, अब अरूप रह गया। आकार तो मिट गया, अब निराकार रह गया। देह तो मिट गई, आत्मा ही रह गई है। इसे ठीक से पहचान लें।
फिर धीरे-धीरे आंख खोलें, तीसरे प्रयोग को समझें और पांच मिनट उसे करें।
तीसरा प्रयोग और भी गहरा प्रयोग है। पहले प्रयोग में हम बहते हैं, लेकिन होते हैं। न बहने में भी हम कुछ किए होते हैं। तैरते नहीं हैं, लेकिन फिर भी होते तो हैं। दूसरे प्रयोग में मिट जाते हैं, लेकिन हम ही मिटते हैं। और सब मिट जाता है, फिर भी गहरे में जो हम हैं वह फिर भी हम शेष रह जाते हैं बाहर खड़े।
तीसरे प्रयोग में और भी गहरी दिशा में प्रयोग करना है। अब एक ही हो जाना है उस सबसे, जो है। पक्षियों की आवाजें हैं, वे पक्षियों की नहीं हमारी ही आवाजें हो जाएंगी। और हवाएं बह रही हैं, उनके झोंके पत्तों को हिला रहे हैं, वे हवाएं न रहेंगी, वे हम ही हो जाएंगे। और पत्ते हिल रहे हैं, सूरज की धूप में चमक रहे हैं, हवाओं में नाच रहे हैं, वे पत्ते न रह जाएंगे, वे हम ही हो जाएंगे। जो भी है, उसके साथ हम एक हो जाएंगे।
कैसे एक हो सकते हैं? स्वीकार से। अगर सब हमें स्वीकार हो जाए तो हमारा भेद गिर जाता है। अद्वैत को वही उपलब्ध होता है, अभेद को वही उपलब्ध होता है जो सर्व स्वीकार को उपलब्ध हो जाता है। जिससे हम विरोध करते हैं, उससे हम टूट जाते हैं। जिससे हमारा विरोध नहीं, उससे हम जुड़ जाते हैं। जिसे हम इनकार करते हैं, उसके हमारे बीच सीमा खिंच जाती है। जिसे हम स्वीकार कर लेते हैं, उसके हमारे बीच की सीमा विलीन हो जाती है। अगर हम सर्व और अपने बीच कोई सीमा न खींचें, कोई भेद-रेखा न खींचें, कोई विरोध न बांधें, तो सर्व और हमारे बीच न कोई रेखा है, न कोई भेद है, न कोई विरोध है। हमारा खींचा हुआ विरोध है, हमारी खींची हुई रेखा है। उस रेखा को हम अभी पोंछ डाल सकते हैं।
ध्यान के तीसरे प्रयोग में उस रेखा को बिलकुल पोंछ डालना है। तब ऐसा अनुभव नहीं करना है कि मैं यहां हूं और वहां पक्षी आवाज कर रहे हैं। न, जो आवाज कर रहा है पक्षियों में, वही यहां सुन भी रहा है। विरोध कैसा? किसका विरोध? मैं ही आवाज कर रहा हूं, मैं ही सुन रहा हूं। सर्व स्वीकार से ऐसी प्रतीति होनी शुरू हो जाती है। अब यह ट्रेन निकल रही है। अगर सारे मन से स्वीकार हो जाए, तो ट्रेन बाहर निकलती हुई मालूम नहीं पड़ेगी, कहीं हमारे भीतर ही निकलती हुई मालूम पड़ेगी। उसके पहियों की आवाज, उसकी सीटी का शोर, वह हमारे भीतर ही उठता हुआ मालूम पड़ेगा। ऐसा लगेगा, हम फैल कर बहुत बड़े हो गए हैं, सारे जगत को घेर लिया। और सब हमारे भीतर ही हो रहा है।
इस तीसरे प्रयोग को मैं कहता हूं: तथाता। थिंग्स आर सच। चीजें ऐसी हैं और हमने उन्हें स्वीकार कर लिया, हमारा कोई विरोध नहीं है। चीजों का जैसा होना है वैसे के लिए हम राजी हो गए हैं।
एक फकीर के पास एक आदमी गया था। और उस फकीर से उसने कहा कि आप तो बहुत शांत हैं और मैं बहुत अशांत हूं, तो मुझे शांत होने का रास्ता बता दें। उस फकीर ने कहा: रास्ते की क्या जरूरत है? मैं शांत हूं, तुम अशांत हो। मैं अपनी शांति में राजी हूं, तुम अपनी अशांति में राजी हो जाओ। उस आदमी ने कहा: मैं कैसे राजी हो जाऊं? मैं अशांत हूं, मुझे अशांति मिटानी है। उस फकीर ने कहा: जब तक मिटाना है, तब तक तुम शांत न हो सकोगे। अपनी अशांति में राजी हो जाओ, फिर देखो अशांति बचती है या नहीं बचती है! अगर कोई अपनी अशांति में भी राजी हो जाए, तो अशांति फिर कहां है? अशांति तो नाराजी में थी, अशांति तो विरोध में थी, अशांति तो इस बात में थी कि नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए, अशांति नहीं होनी चाहिए, मुझे शांत होना है। उस आदमी ने कहा: आप ठीक कहते हैं, लेकिन मुझे शांत होना है। उस फकीर ने कहा कि फिर तुम न हो सकोगे। और मैं तो कभी तुम्हारे पास पूछने न आया कि तुम बड़े अशांत हो, मैं बड़ा शांत हूं, तो मुझे अशंात होना है। मैं किसी के पास पूछने नहीं गया। मैं जैसा था, मैं वैसे को ही राजी हो गया और फिर मैं शांत हो गया। शांति परिणाम है, हम जैसे हैं, वैसे ही राजी होने का अंतिम फल है। शांत कोई भी नहीं हो सकता। जो जो है, वैसा ही होने को राजी हो जाए, शांति पीछे चली आती है छाया की तरह।
उस आदमी ने कहा: फिर भी मेरी समझ में नहीं आता। उस फकीर ने उसका हाथ पकड़ा और मकान के बाहर ले आया। वहां आकाश को छूता हुआ एक बड़ा दरख्त है--ऊपर चांद निकला है--वह ऊपर आकाश तक उठ गया है। और पास में ही एक छोटा सा पौधा भी है। उस फकीर ने कहा: देखते हो उस दरख्त को? उस आदमी ने कहा: हां, देखता हूं, बहुत बड़ा है, आकाश को छूता है। और उस फकीर ने कहा: देखते हो इस छोटे से पौधे को? उसने कहा: हां, देखता हूं, बड़ा छोटा है बेचारा। उस फकीर ने कहा: लेकिन बीस साल से मैं यहां हूं, मैंने इस छोटे दरख्त को बड़े से कभी पूछते नहीं देखा कि तू बहुत बड़ा है, मैं बहुत छोटा हूं, मैं बड़ा कैसे हो जाऊं? मैंने इनके बीच कभी चर्चा नहीं सुनी। छोटा अपने छोटे होने में राजी है और इसलिए छोटा नहीं रह गया। क्योंकि छोटा तो वह तभी मालूम पड़ सकता है जब वह छोटे होने को राजी न रह जाए और बड़े की कामना करने लगे। बड़ा अपने बड़े होने में राजी है इसलिए बड़ा नहीं है; क्योंकि बड़े का कोई सवाल ही नहीं, किसी से उसने तुलना ही नहीं की है।
वह फकीर कहने लगा, यह छोटे में राजी है, वह बड़े में राजी है, दोनों बड़े मजे में हैं। छोटा छोटा है, बड़ा बड़ा है। कोई झंझट नहीं, कोई झगड़ा नहीं, कोई तुलना नहीं, कोई अशांति नहीं। उस आदमी ने कहा: लेकिन फिर भी मैं नहीं समझा। तो उस फकीर ने कहा कि तू अपनी नासमझी में भी राजी हो जा। अब तू समझने की भी कोशिश मत कर। जा और समझ ले कि मेरी समझ में नहीं आता और इसके लिए राजी हो जा।
तथाता के प्रयोग का मतलब है: जो है, उसके लिए हम राजी हैं। अज्ञान के लिए भी, अशांति के लिए भी, जो भी हमारे भीतर-बाहर है, सबके लिए राजी हैं। हमारा कोई विरोध ही नहीं है। एक पांच मिनट के लिए अविरोध का प्रयोग करें। हमारा कोई विरोध ही नहीं है। सब स्वीकार है। सब स्वीकार है। श्वास-श्वास में, रोएं-रोएं में स्वीकार की भावना भर जाए, तो पांच मिनट में आप पाएंगे, ऐसे आनंद के स्रोत खुल गए जो बिलकुल अपरिचित थे, ऐसे द्वार खुल गए जो सदा बंद थे, और ऐसी शांति बह गई चारों तरफ जिसे हमने कभी न जाना।
आंख बंद कर लें, शरीर को शिथिल छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को शिथिल छोड़ दें। और जो है उसके लिए पूरे मन से राजी हो जाएं। जो है--पक्षियों की आवाजें हैं, हवाओं के झोंके हैं, सूरज की जलती हुई किरणें हैं, रास्ते पर शोर है, कोई ट्रेन गुजरेगी, कोई कार आवाज करेगी, ऐसा बाहर है इसके लिए राजी हो जाएं। ऐसा है और हम राजी हैं। फिर भीतर बहुत कुछ होगा--कोई विचार चलेगा, कोई भाव उठेगा, उसके लिए भी राजी हो जाएं, ऐसा है। जो भी हो रहा है, उसके लिए राजी हो जाएं, ऐसा है। और अपने को बिलकुल छोड़ दें स्वीकार के भाव में। तब धीरे-धीरे, धीरे-धीरे सब सीमाएं उठ जाएंगी, धीरे-धीरे सब भेद गिर जाएंगे। तब ऐसा न लगेगा कि धूप अलग और मैं अलग, और पक्षियों की आवाजें अलग और मैं अलग, तब हम फैल कर बड़े हो जाएंगे और सभी हमारे भीतर होने लगेगा। हम सबके साथ एक हो जाएंगे, अगर स्वीकार कर लें। पांच मिनट सब स्वीकार करके चुपचाप रह जाएं।
स्वीकार.स्वीकार.श्वास-श्वास में एक ही भाव--सब स्वीकार है। रोएं-रोएं में एक ही प्रार्थना--सब स्वीकार है। श्वास-श्वास में एक ही निवेदन--सब स्वीकार है। रोएं-रोएं में एक ही पुकार--सब स्वीकार है, सब स्वीकार है, सब स्वीकार है, सब स्वीकार है, सब स्वीकार है। एक ही निवेदन, एक ही प्रार्थना, एक ही भाव--सब स्वीकार है, सब स्वीकार है.पक्षी आवाज कर रहे हैं, सड़क पर शोरगुल है, हवाएं इन वृक्षों को कंपाती हैं, सब स्वीकार है। सूरज की तेज किरणें माथे पर पड़ती हैं, सब स्वीकार है। कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं.और मन एकदम शांत होता चला जाएगा, मन शांत होता चला जाएगा, मन शांत होता चला जाएगा, मन गहरे अर्थों में शून्य हो जाएगा। सीमाएं गिर जाएंगी और सब एक मालूम होने लगेगा।
सब स्वीकार है.सब स्वीकार है.जैसा है, है और हम उसके लिए राजी हैं। फिर देखें, मन कैसा शांत हो जाता है। फिर देखें, मन कैसे गहरे आनंद में उतर जाता है। फिर देखें, मन कैसे सारे जगत के साथ एकता साध लेता है।
इस भाव को ठीक से समझ लें, यह ध्यान की आत्मा है, प्राण है, ध्यान का केंद्र है। देखें, भीतर कोई रोक तो नहीं है, कोई अस्वीकृति तो नहीं है, जो हो रहा है वह वैसा न हो ऐसी कोई कामना तो नहीं है। हो तो उसे विदा कर दें। हो तो उसे विदा कर दें। सब स्वीकार कर लें, जो भी है, है। पक्षी आवाज कर रहे हैं, क्योंकि पक्षी आवाज करेंगे ही; हवाएं बह रही हैं, क्योंकि बहना हवाओं का धर्म है; सूरज की किरणें गरम हैं, गरम होंगी ही। जो है, वैसा उसका स्वभाव है और हम उसके लिए राजी हो गए हैं। हम उसके लिए राजी हो गए हैं। हमने अपना सब विरोध छोड़ दिया, हम सबके लिए राजी हो गए हैं। देखें, मन कैसी शांति से भर गया। देखें, मन कैसा मुक्त और शांत हो गया। देखें, भीतर कैसा सन्नाटा छा गया। इसे ठीक से पहचान लें। ध्यान में फिर इसी भाव में और गहरे जाना है। श्वास-श्वास शांत हो गई है, रोआं-रोआं शांत हो गया।
अब धीरे-धीरे आंखें खोल लें, ध्यान का अंतिम प्रयोग समझें और फिर ध्यान में प्रवेश करें।
बहने का भाव, मिट जाने का भाव, सर्व-स्वीकृति का भाव, ये ध्यान के तीन चरण हैं। इन तीनों को हमने अलग-अलग देखा और समझा, अब इन सबका तीनों का इकट्ठा प्रयोग करेंगे।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। कोई लेटना चाहे, पहले ही लेट जाए। और बीच में भी गिरने जैसा लगे तो अपने को कोई रोके न, छोड़ दे और गिर जाए। ठीक बीच ध्यान में भी लगे कि शरीर गिरता है तो रोकना नहीं है, गिर जाने देना है। बीच में गिर जाने देने की हिम्मत न हो तो पहले ही लेट जाएं। आंख बंद कर लें, शरीर ढीला छोड़ दें। और अब मैं थोड़ी देर तक सुझाव दूंगा, मेरे साथ अनुभव करें। अनुभव करेंगे वैसा ही होता चला जाएगा।
अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है। सबसे पहले शरीर की शिथिलता अनुभव करें। अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है। छोड़ दें ढीला और अनुभव करें.शरीर शिथिल हो रहा है.छोड़ते जाएं, एक-एक अंग ढीला छोड़ते जाएं और अनुभव करें.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल होता जा रहा है.भाव करते-करते शरीर बिलकुल मिट्टी की तरह ढीला और शिथिल हो जाएगा। गिर भी जाए, रोकें नहीं, गिर जाने दें। शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.छोड़ दें बिलकुल, जैसे नदी की धार में छोड़ा था, बह जाएं। शिथिलता की नदी में बिलकुल बह जाएं, सब छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.छोड़ दें.छोड़ दें.छोड़ दें.शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है, जैसे कोई प्राण ही न हो, जैसे शरीर में कोई शक्ति ही न हो, शरीर बिलकुल निष्प्राण, शिथिल और शांत हो गया है।
श्वास भी शांत हो रही है.श्वास भी शांत होती जा रही है.भाव करें, श्वास शांत हो रही है.शांत हो रही है.शांत हो रही है.शांत हो रही है.और श्वास भी शांत होती चली जाएगी। श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत होती जा रही है.श्वास शांत होती जा रही है.श्वास शांत होती जा रही है.छोड़ दें बिलकुल, श्वास को भी छोड़ दें, जैसे चिता पर सब छोड़ दिया था और जल गया था, ऐसे ही श्वास को भी छोड़ दें। श्वास के छोड़ते ही, श्वास के शांत होते ही शरीर खो जाएगा, विलीन हो जाएगा, पता ही न चलेगा कि शरीर है भी, ऐसा लगेगा शरीर न रहा और हम रह गए हैं। छोड़ दें श्वास को शांत, शांत, शंात.छोड़ दें।
शरीर शिथिल हुआ, श्वास शांत हो गई है और अब तथाता के सर्व स्वीकृति के भाव में डूब जाएं। जो है, जैसा है, है और हम राजी हैं। हम सिर्फ साक्षी हैं, हम सिर्फ जान रहे हैं। पक्षियों का शोरगुल है, हम जान रहे हैं। रास्ते पर हार्न की आवाज है, हम जान रहे हैं। हवाएं चलती हैं, पत्ते हिलते हैं, आवाज होती है, हम जान रहे हैं। धूप तेज है, माथे पर पसीना आता, हम जान रहे हैं। जो हो रहा है, हम उसके जानने वाले साक्षी के अतिरिक्त और कोई भी नहीं हैं। न हमारा कोई विरोध है, न हमें कुछ बदलना है, न कुछ हमारी आकांक्षा है। अब दस मिनट के लिए साक्षी के, सर्व स्वीकार के भाव में डूब जाएं। और जैसे-जैसे स्वीकृति बढ़ेगी, साक्षी बढ़ेगा, भीतर झरने फूटने लगेंगे शांति के, आनंद के। नये-नये अनुभव भीतर प्रकट होने लगेंगे। छोड़ दें.दस मिनट के लिए साक्षीमात्र रह जाएं।
मात्र साक्षी रह गए हैं, जान रहे हैं, पहचान रहे हैं, गवाह हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। जो भी हो रहा है चारों ओर, जो भी है, उसे जान रहे हैं, पहचान रहे हैं, उसके साक्षी हैं, उसके द्रष्टा हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। साक्षी होते ही मन शांत हो जाता है। साक्षी होते ही प्राण शांत हो जाते हैं। साक्षी होते ही आत्मा शून्य हो जाती है। साक्षी होते ही वे द्वार खुल जाते हैं जो प्रभु के मंदिर के हैं। साक्षी रह जाएं, बस साक्षी रह जाएं, साक्षी रह जाएं, बस साक्षी रह जाएं.। मन शांत हो गया है, शांति के फूल खिल गए हैं। मन आनंदित हो गया है, आनंद के झरने फूट पड़े हैं। मन आलोकित हो गया है, मन प्रकाश से भर गया है, परमात्मा के बहुत से दीये जल गए हैं.
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें, प्रत्येक श्वास के साथ बहुत शांति, बहुत आनंद अनुभव होगा। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। आंख खोलने में तकलीफ हो तो दोनों हाथ आंख पर रख लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। जो लोग लेटे हैं या गिर गए हैं, उनसे उठते न बने तो पहले थोड़ी श्वास लें, फिर बहुत धीरे आंख खोलें, फिर आहिस्ता से उठें। कोई झटके से न उठे।
एक छोटी सी सूचना खयाल में रख लें। पिछले तीन दिनों से आपसे कुछ बोल कर बात कर रहा हूं; लेकिन बहुत कुछ है, जो बोल कर नहीं कहा जा सकता। बहुत कुछ है, जो मौन में ही कहा जा सकता है। अगर कोई भी मौन होने को राजी हो तो भीतर से भी बहुत कुछ दिया जा सकता है, कहा जा सकता है। तो आज दोपहर साढ़े तीन से साढ़े चार मौन प्रवचन है। मैं चुपचाप घंटे भर यहां बैठा रहूंगा। और आप भी चुपचाप आकर घंटे भर बैठे रहेंगे और प्रतीक्षा भर करेंगे कि कुछ भीतर आ जाए, आ जाए, आ जाए। कुछ भी नहीं करेंगे। आंख बंद करके लेटना होगा लेटेंगे; बैठना होगा बैठेंगे; वृक्ष से टिकना होगा टिकेंगे, जो जिसकी मौज हो, वैसा चुपचाप आकर साढ़े तीन बजे के पांच मिनट पहले ही यहां पहुंच जाएं, ताकि पीछे कोई बाधा न हो। चुपचाप आकर बैठ जाएं मौन से। एक घंटे मैं भी आपके पास मौन बैठा रहूंगा। देखें, जो शब्द से नहीं कहा जा सकता है, हो सकता है मौन से आप तक पहुंच जाए। उस बीच किसी को भी ऐसा लगे कि मेरे पास आना है, तो वह दो मिनट के लिए मेरे पास आकर बैठ जाएगा, फिर चुपचाप उठ कर अपनी जगह चला जाएगा।
सुबह की हमारी बैठक पूरी हुई।
ध्यान की आधारशिला अक्रिया है, क्रिया नहीं है। लेकिन शब्द ‘ध्यान’ से लगता है कि कोई क्रिया करनी होगी। ध्यान से लगता है कुछ करना होगा। जब कि जब तक हम कुछ करते हैं, तब तक ध्यान में न हो सकेंगे। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं तब जो होता है, वही ध्यान है। ध्यान हमारा न करना है। लेकिन मनुष्य-जाति को एक बड़ा गहरा भ्रम है कि हम कुछ करेंगे तो ही होगा। हम कुछ न करेंगे तो कुछ न होगा।
बीज को कुछ करना नहीं पड़ता टूटने के लिए, और बीज को कुछ करना नहीं पड़ता अंकुर बनने के लिए, और बीज को कुछ करना नहीं पड़ता फूल बन जाने के लिए; होता है। हम भी बच्चे से जवान हो जाते हैं, कुछ करना नहीं पड़ता है। जन्म होता है, जीवन होता है, मृत्यु होती है, हमारे करने से नहीं; होता है। जीवन में बहुत कुछ है जो हो रहा है अपने से। और अगर हम कुछ करेंगे तो बाधा पड़ेगी होने में--गति नहीं आएगी।
खाना आपने खा लिया है, फिर वह पचता है, आपको पचाना नहीं पड़ता। और अगर आपको पचाना पड़े, तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। और अगर आपको खयाल भी आ जाए कि मुझे पचाना है खाना, तो आप बड़ी कठिनाई में पड़ जाएंगे और पाचन में बाधा पड़ जाएगी। न हो तो कभी प्रयोग करके देखें। खाना खाने के बाद खयाल रखें कि भोजन पेट में पच रहा है। तो आप पाएंगे चौबीस घंटे के बाद कि भोजन नहीं पच पाया। जो रोज पचता था, उसमें बाधा पड़ गई। कभी कोशिश करके सोकर देखें, प्रयास करें सोने का, तो फिर पाएंगे कि नींद आनी मुश्किल हो गई है। नींद आती है, लानी नहीं पड़ती है।
यह समझ लेना जरूरी है कि जीवन में बहुत कुछ है जो अपने से होता है, हमें नहीं करना होता। और यदि हम करते हैं तो उलटे बाधा ही पड़ती है, सहयोग नहीं मिलता है।
ध्यान भी उन्हीं दिशाओं में से एक है, जहां हम जा सकते हैं, लेकिन अपने को ले जा नहीं सकते; जहां हमारा विकास हो सकता है, लेकिन हम अपने को धक्का देकर विकास नहीं करवा सकते।
यह बात बहुत स्पष्ट रूप से मन के सामने प्रकट हो जानी चाहिए कि ध्यान हमारी कोई क्रिया नहीं है, ध्यान हमारा समर्पण है। लेकिन हमारी भाषा में बहुत बड़ी भूल हो जाती है, समर्पण भी एक क्रिया है। तो सरेंडर भी तो एक क्रिया है, समर्पण करना भी एक क्रिया है और ध्यान करना भी एक क्रिया है। असल में जिंदगी और भाषा में कुछ बुनियादी भेद हैं, और धीरे-धीरे हम भाषा के इतने आदी हो जाते हैं कि हम भूल ही जाते हैं कि जिंदगी कुछ बात और है। हिंदुस्तान का नक्शा हिंदुस्तान नहीं है और न घोड़ा शब्द घोड़ा है। घोड़ा शब्द तो लिखा है शब्दकोश में और घोड़ा बंधा है अस्तबल में। और दोनों में बड़ा भेद है। जिंदगी और शब्दों में बड़ा भेद है। शब्द प्रत्येक चीज को जो शक्ल दे देते हैं, हम अगर जिंदगी में भी उसको खोजने गए, तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे।
अब जैसे प्रेम करना एक क्रिया है शब्दों की दुनिया में; लेकिन जीवन में प्रेम किया ही नहीं जा सकता, होता है। वहां वह क्रिया नहीं है; वहां वह घटना है, हैपनिंग है। वहां कोई मनुष्य प्रेम में पड़ जाता है, कर नहीं सकता प्रेम। और अगर आपसे कहा जाए कि फलां व्यक्ति को प्रेम करो, तो ज्यादा से ज्यादा आप प्रेम का अभिनय कर सकते हैं, प्रेम नहीं कर सकते। अगर चेष्टा की प्रेम करने की, तो आप खुद ही भीतर पाएंगे कि भीतर तो प्रेम नहीं है। चेष्टा से प्रेम असंभव है। मां बेटे को प्रेम नहीं करती; मां का बेटे से प्रेम होता है। और प्रेमी भी प्रेयसी को प्रेम नहीं करता है; प्रेम होता है। लेकिन भाषा में प्रेम क्रिया है और जीवन में प्रेम एक घटना है, क्रिया नहीं है। भाषा और जीवन में भेद पड़ जाता है। ऐसे ही ध्यान किताब में पढ़ेंगे तो लगेगा करना पड़ेगा। और अगर ध्यान को समझने जाएंगे तो पता चलेगा करना नहीं है। करना हो तो बहुत आसान भी मालूम पड़ता है, न करना बहुत कठिन मालूम पड़ता है।
तो फिर क्या किया जाए? मैंने यह मुट्ठी बांध ली, तो मुट्ठी बांधना एक क्रिया है। बांधने के लिए मुझे कुछ करना पड़ रहा है। फिर मैं किसी के पास जाऊं और पूछूं कि मुझे मुट्ठी खोलनी है, अब मैं क्या करूं? बांधना एक क्रिया है भाषा में, खोलना भी एक क्रिया है भाषा में; लेकिन जिंदगी के तथ्यों में बांधना तो क्रिया है, खोलना क्रिया नहीं है। खोलने के लिए कुछ भी करना नहीं पड़ेगा, सिर्फ बांधना बंद कर देना काफी है। मैं बांधूं न, तो मुट्ठी खुल जाएगी--मुट्ठी का खुलना अपने से हो जाएगा।
बांधना पड़ता है हमें, खुलना अपने से हो जाता है। अशांत होना क्रिया है, शांत होना क्रिया नहीं है। अशांत होने के लिए हमें बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। अशांत होने के लिए बड़ा श्रम करना पड़ता है। और अशांति में सफल होने के लिए बड़ी कुशलता चाहिए। लेकिन शांत होना क्रिया नहीं है। अगर हम अशांत होना बंद कर दें, तो बस शांत होना हो जाएगा। इसको ऐसा भी समझ सकते हैं कि अशांति और शांति में विरोध नहीं है। अशांति और शांति एक-दूसरे के उलटे नहीं हैं। अशांति का अभाव, एब्सेंस शांति है। जहां अशांति नहीं रह जाती वहां शांति है। हमारी जो पकड़ है करने की, उसे पहले समझ कर छोड़ देना चाहिए।
ध्यान हम करेंगे नहीं, ध्यान में हम होंगे। ध्यान में हम जाएंगे, लेकिन ध्यान हम करेंगे नहीं। ध्यान में हम बहेंगे, तैरेंगे नहीं। तैरना क्रिया है, बहना क्रिया नहीं है, बहना एक घटना है। उसमें हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता। और इसलिए बड़े मजे की बात है, जिंदा आदमी नदी में डूब जाए, मरे हुए आदमी को कभी डूबते हुए नहीं देखा गया; बल्कि जिंदा आदमी भी डूब जाए तो मरते ही ऊपर आ जाता है वापस।
नदी भी बड़ा गजब का काम करती है! जिंदा को डुबा देती है और मुर्दे को उठा देती है! जिंदा को मार डालती है और मुर्दे को ऊपर तैरा देती है! आखिर मुर्दे में ऐसी कौन सी कला है कि वह ऊपर आ जाता है और जिंदा नीचे चला जाता है? मुर्दे के पास एक कला है जो जिंदा के पास नहीं है। मुर्दा तैर नहीं सकता, वह तैरने में असमर्थ है। तैरने का उपाय ही नहीं है, मुर्दा सिर्फ बह सकता है। जो तैरता नहीं, वह नदी के ऊपर आ जाता है; और जो तैरता है, वह नीचे चला जाता है। बात क्या है? तैरने में शक्ति का व्यय होता है, तैरने में नदी से लड़ना पड़ता है। नदी बहुत बड़ी है। और जीवन की नदी तो बहुत बड़ी है, उससे अगर हम लड़ेंगे तो डूबेंगे ही, मरेंगे ही; क्योंकि लड़ने में शक्ति नष्ट होगी। मुदार्र् लड़ता ही नहीं, वह नदी के साथ एक हो जाता है। वह कहता है नदी से, जहां ले चलो वहीं चलने को राजी हैं। डुबाओ तो डूबने को राजी हैं, उठाओ तो उठने को राजी हैं। किनारे फेंक दो, तो जिस किनारे फेंक दो वही हमारी मंजिल है। कहीं हमें जाना नहीं है, और ले चलो साथ तो साथ चलने को राजी हैं। मुर्दा कहता है कि हम अलग नहीं; तुम्हारे साथ हैं। फिर नदी बड़ी मुश्किल में पड़ जाती है। मुर्दे को नदी हरा नहीं पाती है। मुर्दा नदी से ज्यादा ताकतवर सिद्ध होता है। मुर्दा मरा हुआ और जिंदा आदमी कमजोर हो जाता है! जिंदा लड़ता है, इसलिए कमजोर हो जाता है। रेसिस्ट करता है, विरोध करता है, इसलिए टूट जाता है।
ध्यान--मुर्दे आदमी की भांति हो जाने का नाम है। हम कुछ भी नहीं करते हैं, हम जीवन के प्रवाह में छोड़ देते हैं अपने को। जो हो, हो। इस स्थिति को समझने के लिए तीन छोटे प्रयोग हम करेंगे। कल भी किए, परसों भी किए। तीन छोटे प्रयोग। पहला प्रयोग: बहने का, जैसा मुर्दा बह जाए।
कल एक मित्र ने आकर कहा कि सूखा पत्ता, सोच नहीं पाते कि सूखा पत्ता नदी में बह रहा है। तो हम सोच नहीं पाते अपने को सूखे पत्ते की तरह। तो मैंने कहा, अच्छा है, मुर्दे की तरह सोचें। एक मुर्दा बह रहा है, लाश बह रही है। और सूखे पत्ते में और मुर्दे में फर्क नहीं है, सूखा पत्ता हरे पत्ते की लाश है और मुर्दा हमारी लाश है। इसमें कोई बहुत फर्क नहीं है। हरा पत्ता जिंदा है और सूखा पत्ता मर गया है। वह भी लाश है हरे पत्ते की। हरा पत्ता लड़ता है हवाओं से। हवाएं पूरब जाती हैं, तो हरा पत्ता कहता है, नहीं जाएंगे। हवाएं पश्चिम जाती हैं, तो हरा पत्ता कहता है, अपनी जगह रहेंगे। इसलिए तो हरे पत्ते से गुजरती हवा में शोरगुल हो जाता है; क्योंकि पत्ते लड़ाई करते हैं। सूखा पत्ता कहता है, जहां ले चलो, जहां मर्जी, वहीं राजी हूं। सूखा पत्ता--पूरब ले जाती है हवा, पूरब चला जाता है; पश्चिम ले जाती है, पश्चिम चला जाता है। सूखा पत्ता विरोध नहीं करता।
ध्यान अविरोध है, नॉन-रेसिस्टेंस है। तो पहला प्रयोग बहने का हम करेंगे। दूसरा प्रयोग मरने का है। और तीसरा प्रयोग तथाता का। और चौथा प्रयोग ध्यान का है। पहले तीन प्रयोग पांच-पांच मिनट करेंगे, ताकि हमें खयाल में आ जाए। शब्द से भी खयाल में आ सकता है, लेकिन कठिन है। इसलिए मैं चाहता हूं कि प्रतीति.जब मैं कहूं, बहना, तो आपको भीतर प्रतीति हो जानी चाहिए कि बहने का क्या मतलब है। एक दफा प्रतीति हो जाए फिर तो शब्द भी काम करता है। जैसे मैं आपसे कहूं, नीबू, और आप थोड़ी देर नीबू को सोचें, तो आप पाएंगे मुंह में पानी आना शुरू हो गया। अभी नीबू तो नहीं है, लेकिन नीबू का शब्द भी मुंह में पानी ला सकता है। क्यों? नीबू का अनुभव है, वह पानी लाया है मुंह में। और नीबू शब्द में भी वह अनुभव समा गया है। तो नीबू शब्द को सोच कर भी मुंह में पानी आ सकता है। मुंह को क्या पता कि नीबू है या नहीं। जब होता है तब भी पता नहीं होता, आपके मन को पता होता है, वह खबर देता है मुंह को कि नीबू है, इसलिए मुंह पानी छोड़ देता है। नीबू नहीं है और आप मन को कहते हैं कि नीबू है, तो मुंह को तो कुछ पता नहीं है नीबू के होने न होने का, वह पानी छोड़ सकता है। शब्द भी सार्थक हो सकते हैं, अगर अनुभव से जुड़ जाएं।
इसलिए हम बहने का प्रयोग करके अनुभव करें कि बहने का मतलब क्या है। और जब हमें भीतर से समझ में आ जाए कि यह रहा बहने का मतलब, यह मुर्दे की तरह होकर बह गए। तो फिर जब मैं कहूंगा, बहें, तो आप समझ पाएंगे कि मैं क्या कह रहा हूं।
पहला प्रयोग करें। आंख बंद कर लें और शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, बंद कर लें मतलब बंद हो जाने दें। आंख को ढीला छोड़ दें, पलक झपक जाएं और बंद हो जाएं। हां, किसी को लेटना हो, लेट जाए। लेटने में और भी सुविधा हो जाएगी। और जगह तो काफी है, लेट सकते हैं। किसी को लेटने की पहले से ही तो पहले से ही लेट जाएं, क्योंकि तब और आसानी से बह सकेंगे। बैठने में भी थोड़ा तनाव तो रहा ही आता है कि हम बैठे हैं, बैठे हैं। बैठना एक क्रिया है और लेटना एक क्रिया नहीं है।
शरीर को ढीला छोड़ दें, आंखें बंद कर लें। और भीतर एक चित्र उभारें, मन के पर्दे पर देखें धूप में चमकते हुए, सुबह की धूप में चमकते हुए पहाड़ हैं। पहाड़ों के बीच में कलकल बही जाती एक तेज नदी की धार है। गहरी है बहुत, नीला है रंग। पहाड़ चमकते हैं धूप में, नदी का नीलापन चमकता है धूप में। उसकी भागती लहरें और गति चमकती है धूप में। नदी तेज भागी चली जा रही है। इस चित्र को ठीक से मन पर स्पष्ट कर लें। नदी तेजी से भागी चली जाती है। नदी बह रही है तेज सागर की तरफ, किसी अज्ञात सागर को खोजने निकल पड़ी है। ठीक से देख लें नदी के बहने को, चित्र को ठीक से उभार लें, ताकि बहना भी खयाल में आ जाए। नदी कैसे बह रही है, ऐसे ही हमें भी बहना है। नदी कुछ करती नहीं बहने में, बस बही चली जाती है। अब इस नदी में अपने को भी डाल दें एक मुर्दे की भांति। फिर डूबने का उपाय ही न रहेगा। अपनी लाश को बहता हुआ देखें इस नदीमें। अब लाश तैर नहीं सकती, इसलिए तैरने की कोशिश मत करना। तैरने का सवाल ही नहीं है। हाथ-पैर छोड़ कर पड़ गए हैं, मुर्दे की तरह बहे जा रहे हैं, भागे जा रहे हैं, नदी के साथ ही बहे जा रहे हैं। एक पांच मिनट तक नदी में बहने का अनुभव करें। ताकि भीतर मन के कोने-कोने तक बहने की प्रतीति प्रकट हो जाए।
ध्यान का पहला चरण है: फ्लोटिंग का अनुभव, बहने का अनुभव।
अब देखें, पहाड़ चमकते हुए, बहती, भागती नदी, उसकी नीली धार, उसमें पड़े हम मुर्दे की भांति। कोई प्राण नहीं, हाथ-पैर हिलाने का उपाय नहीं। चाहें भी तो नहीं हिला सकते। और बही जा रही है लाश तेजी से नदी के साथ। तैर नहीं रही, कहीं जाना नहीं, कहीं पहुंचना नहीं लाश को, सिर्फ नदी के साथ बहना है। देखें, अपने को बहता हुआ देखें। एक पांच मिनट तक अपने को बहता हुआ अनुभव करते रहें। बहते-बहते ही मन का बहुत सा कूड़ा-करकट बह जाएगा--अशांति बह जाएगी, तनाव बह जाएगा, चिंता बह जाएगी। हलका हो जाएगा भीतर सब, जैसे भीतर तक स्नान प्रवेश कर गया हो ऐसी ताजगी हो जाएगी।
बहें.बह जाएं, छोड़ दें अपने को, बिलकुल बह जाएं, छोड़ दें अपने को। नदी भागी जाती है और हम बहे जा रहे हैं। धूप में चमकते हुए पहाड़ हैं, नदी की धार है, ठंडी हवाएं हैं, पक्षियों के गीत हैं और हम बहे जा रहे हैं, बहे जा रहे हैं.छोड़ दिया अपने को एक मुर्दे की भांति। नदी भागी चली जाती है, उसी में हम बहे चले जा रहे हैं। मन हलका हो जाएगा, बिलकुल शांत हो जाएगा, ताजा हो जाएगा, जैसे भीतर तक स्नान हो गया हो, जैसे आत्मा तक नहा गई हो। बह जाएं, छोड़ दें अपने को। छोड़ते ही सब शांत हो जाता है। पकड़ ही अशांति, पकड़ ही तनाव है। छोड़ दिया फिर कैसा तनाव? फिर कैसी अशांति? नदी से जरा भी विरोध न करें, नदी जहां ले जाए, बहे जाएं, बहे जाएं, बहे जाएं। नदी डुबा दे तो डूब जाएं, नदी बहा दे तो बह जाएं। छोड़ दें अपने को, भागे चले जाएं नदी के साथ।
बहे जा रहे हैं.बहे जा रहे हैं.बहने के इस अनुभव को ठीक से समझ लें, ध्यान का यह पहला चरण है। तैरना नहीं है, बह जाना है। लड़ना नहीं है, छोड़ देना है। फिर जो हो, हो। नदी जहां ले जाए, ले जाए। मन बिलकुल हलका, भारहीन, शांत, मौन हो जाएगा। हो गया है, मन बिलकुल ताजा हो गया है।
धीरे-धीरे नदी के बाहर निकल आएं, किनारे पर खड़े हो जाएं। नदी अभी भी भागी चली जाती है, हवाएं बह रही हैं, सूरज की किरणों में पहाड़ चमक रहे हैं। हम नदी के तट पर खड़े हो गए हैं। पांच मिनट के बहने ने क्या-क्या फर्क किया, वह भीतर अनुभव कर लें। मन शांत हो गया है, हलका और ताजा हो गया है, प्रफुल्लित हो गया है, जैसे आत्मा तक नहा गई हो ऐसा स्वच्छ और ताजा हो गया है। जो बहना सीख लेता है, वह शांत हो जाता है। जो जीवन की सरिता में बहना सीख गया है, वह तनाव से मुक्त हो जाता है। यह पहला चरण है: बहना।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें। दूसरा प्रयोग समझें और पांच मिनट के लिए दूसरा प्रयोग करें।
दूसरा प्रयोग और भी गहरा है। बहते हैं, तो भी हम हैं। तैरते नहीं हैं, बहते हैं, लेकिन फिर भी हम हैं। हमारा होना भी बाधा है। दूसरे प्रयोग में ‘होने’ को भी मिटा देना है। दूसरा प्रयोग मिटने का प्रयोग है। दूसरा प्रयोग मर जाने का प्रयोग है। और अपने को ही मरा हुआ देख पाना बड़ा कीमती अनुभव है।
बुद्ध तो ऐसा करते थे कि जो ध्यान सीखने आते उनके पास उन्हें तीन महीने के लिए मरघट पर बिठा देते थे। तीन महीने मरघट पर ही निवास करना पड़ता ध्यान करने वाले को। और जब भी कोई लाश जलने आती तब उसे चिता के पास खड़ा हो जाना पड़ता। दिन में दो-चार-दस लोग भी मरते, कभी एक मरता, कभी दो मरते। रात मरघट का सुनसान होता। और ध्यान यह था कि जब लाश जलती हो किसी की तो वह जो ध्यानी है वह किनारे खड़ा हो जाए और अनुभव करता रहे कि मैं ही जल रहा हूं, मैं ही जल रहा हूं। यह और कोई नहीं जल रहा है, चिता पर मैं ही जल रहा हूं। तीन महीने में उस आदमी का शरीर-बोध नष्ट हो जाता। तीन महीने में ‘मैं शरीर हूं’ यह कल्पना ही मिट जाती। ‘मैं शरीर हूं’ यह भाव ही टूट जाता। तीन महीने निरंतर अपने को चिता पर चढ़ा कर वह अनुभव कर पाता कि मैं अलग हूं, मैं पृथक हूं।
दूसरा प्रयोग कल्पना में चिता पर अपने को चढ़ा देने का प्रयोग है। उससे हम समझ पाएंगे कि कुछ है जो हममें जल जाने वाला है, वह जल जाएगा। फिर भी कुछ बच रहता है।
किसी मित्र ने पूछा है कि चढ़ा तो देता हूं चिता पर अपने को, लेकिन फिर भी मैं तो किनारे खड़ा देखता रहता हूं।
निश्चित ही, कुछ हमारे भीतर है, जो सच में ही हम चिता पर चढ़ेंगे तो भी किनारे खड़े होकर ही देखता रहेगा। कल्पना की चिता पर ही नहीं, असली चिता पर भी जब आप चढ़ेंगे, मैं चढूंगा, तो कुछ है जो किनारे खड़े होकर देखता रहेगा। कुछ है जो बाहर खड़े होकर देखता रहेगा। वह अभी कल्पना में ही वही बाहर खड़ा है। शरीर तो चढ़ा दिया जा सकता है चिता पर, लेकिन कुछ है भीतर जो चिता पर चढ़ ही नहीं सकता, जिसे कोई अग्नि नहीं जला सकती, जिसकी कोई मृत्यु नहीं, वह तो बाहर खड़े होकर देखता रहेगा।
आंख बंद करें और दूसरे प्रयोग में उतरें। आंख बंद करें, शरीर को ढीला छोड़ दें। लेटना हो, लेट जाएं। शरीर ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें। और दूसरा चित्र उभारें आंखों में--चिता जल रही है, मरघट पर हैं। सुनसान मरघट अचानक आज लोगों से भर गया है, आपके प्रियजन, मित्र, बंधु सब इकट्ठे हैं। वे आपको विदा करने आए हैं। वे आखिरी नमस्कार करने आए हैं। चिता जल गई है। आपकी अरथी रखी है। चिता में लपटें उठने लगी हैं। चिता की लपटें आकाश की तरफ दौड़ी चली जा रही हैं, चमकती लाल लपटें, जो सब कुछ जला डालेंगी, जो कुछ भी बचने न देंगी, जो सब मिटा डालेंगी, वे आकाश की तरफ भागी चली जा रही हैं। चिता पूरी सुलग गई है। आग पूरी पकड़ गई है। अब आपकी अरथी खोली जा रही है और आपकी लाश को आपके प्रियजन चिता पर रख रहे हैं। आप ही को रखा जा रहा है। यह किसी और की चिता नहीं है, आपकी ही चिता है। यह किसी और का शरीर नहीं है, यह आपका ही शरीर है। दूसरों के शरीर को तो आपने भी जाकर चढ़ा दिया होगा, आज अपना ही शरीर चढ़ गया है। आग बढ़ती जा रही है, शरीर ने भी आग की लपटें पकड़ ली हैं, शरीर जल रहा है।
देखें.पांच मिनट तक इस अपने ही जलते हुए शरीर को देखें। अपने को ही जलता हुआ देखना बड़ा अनुभव है। अगर ठीक से देख लें, तो हम दूसरे ही आदमी हो जाएं। अपने को ही चिता पर देखना बड़ा गहरा अनुभव है। अगर ठीक से खयाल में आ जाए तो बाद में हम वही आदमी कभी नहीं हो सकते जो चिता पर चढ़ने के पहले थे। कुछ तो हममें जल ही जाएगा, कुछ तो हममें नष्ट ही हो जाएगा।
देखें.लपटें बढ़ती जा रही हैं, अंधेरी रात, अंधेरी रात के पर्दे पर चमकती लाल लपटें आकाश की तरफ भागती हुई। मित्र, प्रियजन घेरा बांध कर खड़े हैं, दूर जरा, अब उतने पास नहीं जितने सदा पास थे। लपटों के पास कौन होगा? और मरते के पास कौन होगा? और मर गए के पास कौन होगा? दूर खड़े हैं घेरा बांध कर। लपटें उनको झुलसाती हैं, वे और दूर हटते चले जा रहे हैं। और लपटें बढ़ती चली जा रही हैं और आप जल रहे हैं, आप जल रहे हैं.जानें मैं जल रहा हूं, नष्ट हो रहा हूं, समाप्त हो रहा हूं, मर रहा हूं। पांच मिनट तक देखते रहें।
लपटें बहुत बेरहम हैं, तेजी से जल रही हैं और जला रही हैं। लपटें बहुत तेज हैं। सब झुलसा जा रहा है, सब राख हुआ जा रहा है। देखें.देखते रहें अपने को जलता हुआ, मिटता हुआ, राख होता हुआ। तेज हवाएं हैं, लपटों को बढ़ाती हैं और लपटें तेज हो जाती हैं। सब जला जा रहा है.सब मिटा जा रहा है.सब राख हुआ जा रहा है। मित्र, प्रियजन धीरे-धीरे विदा होने लगे हैं। अब उनके चेहरे नहीं, पीठें दिखाई पड़ती हैं। अब वे जा रहे हैं, आखिरी नमस्कार भी हो गया। अब सब राख हो जाएगा। और राख से कौन प्रेम करता है? राख के लिए कौन रुकता है? सब जा चुके हैं, जा रहे हैं। अकेले रह गए हैं, लाश के जले हुए टुकड़े पड़े हैं, राख पड़ी है। लपटें हैं, सुनसान मरघट है, अंधेरी रात है। धीरे-धीरे लपटें भी बुझ जाएंगी, अंगारे भी बुझ जाएंगे, अंधेरे में दबी राख भर पड़ी रह जाएगी।
देखें.सब राख हुआ जा रहा है। लपटें बुझ गई हैं, अंगारे बुझ गए हैं, राख का ढेर पड़ा है। अंधेरी रात ने चारों तरफ से घेर लिया, कोई भी नहीं। राख का ढेर ही हम हो गए हैं। इस राख के ढेर को ठीक से पहचान लें--यही हम हैं! इसी राख के ढेर ने बहुत बार अपने को दर्पण के सामने खड़ा किया था। इसी राख के ढेर ने न मालूम कितने सपने देखे। इसी राख के ढेर ने न मालूम क्या-क्या सोचा, बनाया-बिगाड़ा था। इस राख के ढेर को ठीक से समझ लें, देख लें, पहचान लें। मिट्टी मिट्टी में वापस लौट गई है।
मिट जाने का अनुभव ध्यान का दूसरा चरण है। जो मिट सकता है, वही प्रभु को पा सकता है। जो मिटने में असमर्थ है, वह उसे पाने का पात्र भी नहीं है। देख लें इस राख के ढेर को ठीक से, प्रभु के चरणों में यही समर्पित करना है--अपनी ही राख, अपनी ही मृत्यु, अपना ही मिट जाना--और उसके द्वार खुल जाते हैं। राख का पड़ा हुआ ढेर है, मरघट है, सुनसान अंधेरी रात है। और यह राख का ढेर और कोई नहीं, हम ही हैं। सब समाप्त हो गया। अपने को ही मिटते हुए देखा है, समाप्त होते देखा है। रूप तो मिट गया, अब अरूप रह गया। आकार तो मिट गया, अब निराकार रह गया। देह तो मिट गई, आत्मा ही रह गई है। इसे ठीक से पहचान लें।
फिर धीरे-धीरे आंख खोलें, तीसरे प्रयोग को समझें और पांच मिनट उसे करें।
तीसरा प्रयोग और भी गहरा प्रयोग है। पहले प्रयोग में हम बहते हैं, लेकिन होते हैं। न बहने में भी हम कुछ किए होते हैं। तैरते नहीं हैं, लेकिन फिर भी होते तो हैं। दूसरे प्रयोग में मिट जाते हैं, लेकिन हम ही मिटते हैं। और सब मिट जाता है, फिर भी गहरे में जो हम हैं वह फिर भी हम शेष रह जाते हैं बाहर खड़े।
तीसरे प्रयोग में और भी गहरी दिशा में प्रयोग करना है। अब एक ही हो जाना है उस सबसे, जो है। पक्षियों की आवाजें हैं, वे पक्षियों की नहीं हमारी ही आवाजें हो जाएंगी। और हवाएं बह रही हैं, उनके झोंके पत्तों को हिला रहे हैं, वे हवाएं न रहेंगी, वे हम ही हो जाएंगे। और पत्ते हिल रहे हैं, सूरज की धूप में चमक रहे हैं, हवाओं में नाच रहे हैं, वे पत्ते न रह जाएंगे, वे हम ही हो जाएंगे। जो भी है, उसके साथ हम एक हो जाएंगे।
कैसे एक हो सकते हैं? स्वीकार से। अगर सब हमें स्वीकार हो जाए तो हमारा भेद गिर जाता है। अद्वैत को वही उपलब्ध होता है, अभेद को वही उपलब्ध होता है जो सर्व स्वीकार को उपलब्ध हो जाता है। जिससे हम विरोध करते हैं, उससे हम टूट जाते हैं। जिससे हमारा विरोध नहीं, उससे हम जुड़ जाते हैं। जिसे हम इनकार करते हैं, उसके हमारे बीच सीमा खिंच जाती है। जिसे हम स्वीकार कर लेते हैं, उसके हमारे बीच की सीमा विलीन हो जाती है। अगर हम सर्व और अपने बीच कोई सीमा न खींचें, कोई भेद-रेखा न खींचें, कोई विरोध न बांधें, तो सर्व और हमारे बीच न कोई रेखा है, न कोई भेद है, न कोई विरोध है। हमारा खींचा हुआ विरोध है, हमारी खींची हुई रेखा है। उस रेखा को हम अभी पोंछ डाल सकते हैं।
ध्यान के तीसरे प्रयोग में उस रेखा को बिलकुल पोंछ डालना है। तब ऐसा अनुभव नहीं करना है कि मैं यहां हूं और वहां पक्षी आवाज कर रहे हैं। न, जो आवाज कर रहा है पक्षियों में, वही यहां सुन भी रहा है। विरोध कैसा? किसका विरोध? मैं ही आवाज कर रहा हूं, मैं ही सुन रहा हूं। सर्व स्वीकार से ऐसी प्रतीति होनी शुरू हो जाती है। अब यह ट्रेन निकल रही है। अगर सारे मन से स्वीकार हो जाए, तो ट्रेन बाहर निकलती हुई मालूम नहीं पड़ेगी, कहीं हमारे भीतर ही निकलती हुई मालूम पड़ेगी। उसके पहियों की आवाज, उसकी सीटी का शोर, वह हमारे भीतर ही उठता हुआ मालूम पड़ेगा। ऐसा लगेगा, हम फैल कर बहुत बड़े हो गए हैं, सारे जगत को घेर लिया। और सब हमारे भीतर ही हो रहा है।
इस तीसरे प्रयोग को मैं कहता हूं: तथाता। थिंग्स आर सच। चीजें ऐसी हैं और हमने उन्हें स्वीकार कर लिया, हमारा कोई विरोध नहीं है। चीजों का जैसा होना है वैसे के लिए हम राजी हो गए हैं।
एक फकीर के पास एक आदमी गया था। और उस फकीर से उसने कहा कि आप तो बहुत शांत हैं और मैं बहुत अशांत हूं, तो मुझे शांत होने का रास्ता बता दें। उस फकीर ने कहा: रास्ते की क्या जरूरत है? मैं शांत हूं, तुम अशांत हो। मैं अपनी शांति में राजी हूं, तुम अपनी अशांति में राजी हो जाओ। उस आदमी ने कहा: मैं कैसे राजी हो जाऊं? मैं अशांत हूं, मुझे अशांति मिटानी है। उस फकीर ने कहा: जब तक मिटाना है, तब तक तुम शांत न हो सकोगे। अपनी अशांति में राजी हो जाओ, फिर देखो अशांति बचती है या नहीं बचती है! अगर कोई अपनी अशांति में भी राजी हो जाए, तो अशांति फिर कहां है? अशांति तो नाराजी में थी, अशांति तो विरोध में थी, अशांति तो इस बात में थी कि नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए, अशांति नहीं होनी चाहिए, मुझे शांत होना है। उस आदमी ने कहा: आप ठीक कहते हैं, लेकिन मुझे शांत होना है। उस फकीर ने कहा कि फिर तुम न हो सकोगे। और मैं तो कभी तुम्हारे पास पूछने न आया कि तुम बड़े अशांत हो, मैं बड़ा शांत हूं, तो मुझे अशंात होना है। मैं किसी के पास पूछने नहीं गया। मैं जैसा था, मैं वैसे को ही राजी हो गया और फिर मैं शांत हो गया। शांति परिणाम है, हम जैसे हैं, वैसे ही राजी होने का अंतिम फल है। शांत कोई भी नहीं हो सकता। जो जो है, वैसा ही होने को राजी हो जाए, शांति पीछे चली आती है छाया की तरह।
उस आदमी ने कहा: फिर भी मेरी समझ में नहीं आता। उस फकीर ने उसका हाथ पकड़ा और मकान के बाहर ले आया। वहां आकाश को छूता हुआ एक बड़ा दरख्त है--ऊपर चांद निकला है--वह ऊपर आकाश तक उठ गया है। और पास में ही एक छोटा सा पौधा भी है। उस फकीर ने कहा: देखते हो उस दरख्त को? उस आदमी ने कहा: हां, देखता हूं, बहुत बड़ा है, आकाश को छूता है। और उस फकीर ने कहा: देखते हो इस छोटे से पौधे को? उसने कहा: हां, देखता हूं, बड़ा छोटा है बेचारा। उस फकीर ने कहा: लेकिन बीस साल से मैं यहां हूं, मैंने इस छोटे दरख्त को बड़े से कभी पूछते नहीं देखा कि तू बहुत बड़ा है, मैं बहुत छोटा हूं, मैं बड़ा कैसे हो जाऊं? मैंने इनके बीच कभी चर्चा नहीं सुनी। छोटा अपने छोटे होने में राजी है और इसलिए छोटा नहीं रह गया। क्योंकि छोटा तो वह तभी मालूम पड़ सकता है जब वह छोटे होने को राजी न रह जाए और बड़े की कामना करने लगे। बड़ा अपने बड़े होने में राजी है इसलिए बड़ा नहीं है; क्योंकि बड़े का कोई सवाल ही नहीं, किसी से उसने तुलना ही नहीं की है।
वह फकीर कहने लगा, यह छोटे में राजी है, वह बड़े में राजी है, दोनों बड़े मजे में हैं। छोटा छोटा है, बड़ा बड़ा है। कोई झंझट नहीं, कोई झगड़ा नहीं, कोई तुलना नहीं, कोई अशांति नहीं। उस आदमी ने कहा: लेकिन फिर भी मैं नहीं समझा। तो उस फकीर ने कहा कि तू अपनी नासमझी में भी राजी हो जा। अब तू समझने की भी कोशिश मत कर। जा और समझ ले कि मेरी समझ में नहीं आता और इसके लिए राजी हो जा।
तथाता के प्रयोग का मतलब है: जो है, उसके लिए हम राजी हैं। अज्ञान के लिए भी, अशांति के लिए भी, जो भी हमारे भीतर-बाहर है, सबके लिए राजी हैं। हमारा कोई विरोध ही नहीं है। एक पांच मिनट के लिए अविरोध का प्रयोग करें। हमारा कोई विरोध ही नहीं है। सब स्वीकार है। सब स्वीकार है। श्वास-श्वास में, रोएं-रोएं में स्वीकार की भावना भर जाए, तो पांच मिनट में आप पाएंगे, ऐसे आनंद के स्रोत खुल गए जो बिलकुल अपरिचित थे, ऐसे द्वार खुल गए जो सदा बंद थे, और ऐसी शांति बह गई चारों तरफ जिसे हमने कभी न जाना।
आंख बंद कर लें, शरीर को शिथिल छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को शिथिल छोड़ दें। और जो है उसके लिए पूरे मन से राजी हो जाएं। जो है--पक्षियों की आवाजें हैं, हवाओं के झोंके हैं, सूरज की जलती हुई किरणें हैं, रास्ते पर शोर है, कोई ट्रेन गुजरेगी, कोई कार आवाज करेगी, ऐसा बाहर है इसके लिए राजी हो जाएं। ऐसा है और हम राजी हैं। फिर भीतर बहुत कुछ होगा--कोई विचार चलेगा, कोई भाव उठेगा, उसके लिए भी राजी हो जाएं, ऐसा है। जो भी हो रहा है, उसके लिए राजी हो जाएं, ऐसा है। और अपने को बिलकुल छोड़ दें स्वीकार के भाव में। तब धीरे-धीरे, धीरे-धीरे सब सीमाएं उठ जाएंगी, धीरे-धीरे सब भेद गिर जाएंगे। तब ऐसा न लगेगा कि धूप अलग और मैं अलग, और पक्षियों की आवाजें अलग और मैं अलग, तब हम फैल कर बड़े हो जाएंगे और सभी हमारे भीतर होने लगेगा। हम सबके साथ एक हो जाएंगे, अगर स्वीकार कर लें। पांच मिनट सब स्वीकार करके चुपचाप रह जाएं।
स्वीकार.स्वीकार.श्वास-श्वास में एक ही भाव--सब स्वीकार है। रोएं-रोएं में एक ही प्रार्थना--सब स्वीकार है। श्वास-श्वास में एक ही निवेदन--सब स्वीकार है। रोएं-रोएं में एक ही पुकार--सब स्वीकार है, सब स्वीकार है, सब स्वीकार है, सब स्वीकार है, सब स्वीकार है। एक ही निवेदन, एक ही प्रार्थना, एक ही भाव--सब स्वीकार है, सब स्वीकार है.पक्षी आवाज कर रहे हैं, सड़क पर शोरगुल है, हवाएं इन वृक्षों को कंपाती हैं, सब स्वीकार है। सूरज की तेज किरणें माथे पर पड़ती हैं, सब स्वीकार है। कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं, कोई विरोध नहीं.और मन एकदम शांत होता चला जाएगा, मन शांत होता चला जाएगा, मन शांत होता चला जाएगा, मन गहरे अर्थों में शून्य हो जाएगा। सीमाएं गिर जाएंगी और सब एक मालूम होने लगेगा।
सब स्वीकार है.सब स्वीकार है.जैसा है, है और हम उसके लिए राजी हैं। फिर देखें, मन कैसा शांत हो जाता है। फिर देखें, मन कैसे गहरे आनंद में उतर जाता है। फिर देखें, मन कैसे सारे जगत के साथ एकता साध लेता है।
इस भाव को ठीक से समझ लें, यह ध्यान की आत्मा है, प्राण है, ध्यान का केंद्र है। देखें, भीतर कोई रोक तो नहीं है, कोई अस्वीकृति तो नहीं है, जो हो रहा है वह वैसा न हो ऐसी कोई कामना तो नहीं है। हो तो उसे विदा कर दें। हो तो उसे विदा कर दें। सब स्वीकार कर लें, जो भी है, है। पक्षी आवाज कर रहे हैं, क्योंकि पक्षी आवाज करेंगे ही; हवाएं बह रही हैं, क्योंकि बहना हवाओं का धर्म है; सूरज की किरणें गरम हैं, गरम होंगी ही। जो है, वैसा उसका स्वभाव है और हम उसके लिए राजी हो गए हैं। हम उसके लिए राजी हो गए हैं। हमने अपना सब विरोध छोड़ दिया, हम सबके लिए राजी हो गए हैं। देखें, मन कैसी शांति से भर गया। देखें, मन कैसा मुक्त और शांत हो गया। देखें, भीतर कैसा सन्नाटा छा गया। इसे ठीक से पहचान लें। ध्यान में फिर इसी भाव में और गहरे जाना है। श्वास-श्वास शांत हो गई है, रोआं-रोआं शांत हो गया।
अब धीरे-धीरे आंखें खोल लें, ध्यान का अंतिम प्रयोग समझें और फिर ध्यान में प्रवेश करें।
बहने का भाव, मिट जाने का भाव, सर्व-स्वीकृति का भाव, ये ध्यान के तीन चरण हैं। इन तीनों को हमने अलग-अलग देखा और समझा, अब इन सबका तीनों का इकट्ठा प्रयोग करेंगे।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। कोई लेटना चाहे, पहले ही लेट जाए। और बीच में भी गिरने जैसा लगे तो अपने को कोई रोके न, छोड़ दे और गिर जाए। ठीक बीच ध्यान में भी लगे कि शरीर गिरता है तो रोकना नहीं है, गिर जाने देना है। बीच में गिर जाने देने की हिम्मत न हो तो पहले ही लेट जाएं। आंख बंद कर लें, शरीर ढीला छोड़ दें। और अब मैं थोड़ी देर तक सुझाव दूंगा, मेरे साथ अनुभव करें। अनुभव करेंगे वैसा ही होता चला जाएगा।
अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है। सबसे पहले शरीर की शिथिलता अनुभव करें। अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है। छोड़ दें ढीला और अनुभव करें.शरीर शिथिल हो रहा है.छोड़ते जाएं, एक-एक अंग ढीला छोड़ते जाएं और अनुभव करें.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल होता जा रहा है.भाव करते-करते शरीर बिलकुल मिट्टी की तरह ढीला और शिथिल हो जाएगा। गिर भी जाए, रोकें नहीं, गिर जाने दें। शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.छोड़ दें बिलकुल, जैसे नदी की धार में छोड़ा था, बह जाएं। शिथिलता की नदी में बिलकुल बह जाएं, सब छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.छोड़ दें.छोड़ दें.छोड़ दें.शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है, जैसे कोई प्राण ही न हो, जैसे शरीर में कोई शक्ति ही न हो, शरीर बिलकुल निष्प्राण, शिथिल और शांत हो गया है।
श्वास भी शांत हो रही है.श्वास भी शांत होती जा रही है.भाव करें, श्वास शांत हो रही है.शांत हो रही है.शांत हो रही है.शांत हो रही है.और श्वास भी शांत होती चली जाएगी। श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत होती जा रही है.श्वास शांत होती जा रही है.श्वास शांत होती जा रही है.छोड़ दें बिलकुल, श्वास को भी छोड़ दें, जैसे चिता पर सब छोड़ दिया था और जल गया था, ऐसे ही श्वास को भी छोड़ दें। श्वास के छोड़ते ही, श्वास के शांत होते ही शरीर खो जाएगा, विलीन हो जाएगा, पता ही न चलेगा कि शरीर है भी, ऐसा लगेगा शरीर न रहा और हम रह गए हैं। छोड़ दें श्वास को शांत, शांत, शंात.छोड़ दें।
शरीर शिथिल हुआ, श्वास शांत हो गई है और अब तथाता के सर्व स्वीकृति के भाव में डूब जाएं। जो है, जैसा है, है और हम राजी हैं। हम सिर्फ साक्षी हैं, हम सिर्फ जान रहे हैं। पक्षियों का शोरगुल है, हम जान रहे हैं। रास्ते पर हार्न की आवाज है, हम जान रहे हैं। हवाएं चलती हैं, पत्ते हिलते हैं, आवाज होती है, हम जान रहे हैं। धूप तेज है, माथे पर पसीना आता, हम जान रहे हैं। जो हो रहा है, हम उसके जानने वाले साक्षी के अतिरिक्त और कोई भी नहीं हैं। न हमारा कोई विरोध है, न हमें कुछ बदलना है, न कुछ हमारी आकांक्षा है। अब दस मिनट के लिए साक्षी के, सर्व स्वीकार के भाव में डूब जाएं। और जैसे-जैसे स्वीकृति बढ़ेगी, साक्षी बढ़ेगा, भीतर झरने फूटने लगेंगे शांति के, आनंद के। नये-नये अनुभव भीतर प्रकट होने लगेंगे। छोड़ दें.दस मिनट के लिए साक्षीमात्र रह जाएं।
मात्र साक्षी रह गए हैं, जान रहे हैं, पहचान रहे हैं, गवाह हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। जो भी हो रहा है चारों ओर, जो भी है, उसे जान रहे हैं, पहचान रहे हैं, उसके साक्षी हैं, उसके द्रष्टा हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। साक्षी होते ही मन शांत हो जाता है। साक्षी होते ही प्राण शांत हो जाते हैं। साक्षी होते ही आत्मा शून्य हो जाती है। साक्षी होते ही वे द्वार खुल जाते हैं जो प्रभु के मंदिर के हैं। साक्षी रह जाएं, बस साक्षी रह जाएं, साक्षी रह जाएं, बस साक्षी रह जाएं.। मन शांत हो गया है, शांति के फूल खिल गए हैं। मन आनंदित हो गया है, आनंद के झरने फूट पड़े हैं। मन आलोकित हो गया है, मन प्रकाश से भर गया है, परमात्मा के बहुत से दीये जल गए हैं.
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें, प्रत्येक श्वास के साथ बहुत शांति, बहुत आनंद अनुभव होगा। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। आंख खोलने में तकलीफ हो तो दोनों हाथ आंख पर रख लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। जो लोग लेटे हैं या गिर गए हैं, उनसे उठते न बने तो पहले थोड़ी श्वास लें, फिर बहुत धीरे आंख खोलें, फिर आहिस्ता से उठें। कोई झटके से न उठे।
एक छोटी सी सूचना खयाल में रख लें। पिछले तीन दिनों से आपसे कुछ बोल कर बात कर रहा हूं; लेकिन बहुत कुछ है, जो बोल कर नहीं कहा जा सकता। बहुत कुछ है, जो मौन में ही कहा जा सकता है। अगर कोई भी मौन होने को राजी हो तो भीतर से भी बहुत कुछ दिया जा सकता है, कहा जा सकता है। तो आज दोपहर साढ़े तीन से साढ़े चार मौन प्रवचन है। मैं चुपचाप घंटे भर यहां बैठा रहूंगा। और आप भी चुपचाप आकर घंटे भर बैठे रहेंगे और प्रतीक्षा भर करेंगे कि कुछ भीतर आ जाए, आ जाए, आ जाए। कुछ भी नहीं करेंगे। आंख बंद करके लेटना होगा लेटेंगे; बैठना होगा बैठेंगे; वृक्ष से टिकना होगा टिकेंगे, जो जिसकी मौज हो, वैसा चुपचाप आकर साढ़े तीन बजे के पांच मिनट पहले ही यहां पहुंच जाएं, ताकि पीछे कोई बाधा न हो। चुपचाप आकर बैठ जाएं मौन से। एक घंटे मैं भी आपके पास मौन बैठा रहूंगा। देखें, जो शब्द से नहीं कहा जा सकता है, हो सकता है मौन से आप तक पहुंच जाए। उस बीच किसी को भी ऐसा लगे कि मेरे पास आना है, तो वह दो मिनट के लिए मेरे पास आकर बैठ जाएगा, फिर चुपचाप उठ कर अपनी जगह चला जाएगा।
सुबह की हमारी बैठक पूरी हुई।