MEDITATION
Jeevan Hi Hain Prabhu 05
Fifth Discourse from the series of 7 discourses - Jeevan Hi Hain Prabhu by Osho. These discourses were given in JUNAGADH during DEC9-12 1969.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
‘जीवन ही है प्रभु’ इस संबंध में एक मित्र ने पूछा है,
भगवान, कैसे दिखाई पड़े फिर हमें कि जीवन ही प्रभु है? क्योंकि हमें तो चारों ओर दोष ही दिखाई पड़ते हैं। सबमें दोष दिखाई पड़ते हैं। ‘क्यों दिखाई पड़ते हैं सबमें दोष?’ इस संबंध में उन्होंने पूछा है।
प्रभु की खोज में एक सूत्र यह भी है, इसलिए इसे समझ लेना जरूरी है। निश्र्चित ही दोष दिखाई पड़ते हैं दूसरों में। कारण क्या है? कारण है सिर्फ एक--अपने अहंकार की तृप्ति। दूसरे में दोष दिखाई पड़ता है। दूसरे में दोष की खोज चलती है। उसका राज छोटा सा है।
शायद यह घटना सुनी होगी कि अकबर ने एक दिन अपने दरबार में एक लकीर खींच दी और अपने दरबारियों से कहा: इसे बिना छुए, बिना मिटाए छोटी कर दो। वे बहुत हार गए, परेशान हो गए। बीरबल उठा और उसने एक बड़ी लकीर खींच दी। उसी छोटी लकीर के पास एक बड़ी लकीर खींच दी। वह लकीर उतनी ही रही, न मिटाई, न छोटी की, लेकिन छोटी हो गई।
जब हम दूसरे में दोष की तलाश में निकल जाते हैं, तब हम दूसरे की लकीर छोटी कर रहे हैं; ताकि हमें अपनी लकीर बड़ी लकीर मालूम पड़ने लगे। अपने को बड़ा देखने का सरलतम रास्ता यही है कि हम दूसरे को छोटा करके देखना शुरू कर दें। दूसरा रास्ता अपने को बड़ा करने का बहुत कठिन है, कि हम सच में अपने को बड़ा करें। उसमें अपने को छूना पड़ेगा, बदलना पड़ेगा, मिटाना पड़ेगा, नया करना पड़ेगा। सरल रास्ता यह है कि अपने को छूना ही न पड़े। अपने में कुछ फर्क ही न करना पड़े। हम जैसे हैं वैसे ही रहें, और बड़े हो जाएं। तो सरल रास्ता यह है कि हमारे पास जो भी आते हों, उनको हम छोटा करके देखें।
अगर जिंदगी में बड़ी यात्रा करनी हो और जीवन को उन महान रास्तों पर ले जाना हो कि जीवन में महानता का सूर्य निकले, तब तो फिर बहुत कुछ करना पड़ेगा। खुद को मिटाना पड़ेगा, नया करना पड़ेगा; खुद को बदलना पड़ेगा। मेहनत की बात होगी, श्रम लगेगा, साधना लगेगी। इतनी मेहनत में जाने को कोई आतुर नहीं है, उत्सुक नहीं है।
तो सरल तरकीब, शॉर्टकट, निकटतम का रास्ता, जिसमें बिना कुछ किए मुफ्त में हम बड़े हो जाते हैं, वह एक ही है कि जो भी हमारे निकट आता हो, उसे हम छोटा करके देख लें। और जब हम तय ही कर लें किसी को छोटा करके देखने का तो दुनिया की कोई ताकत हमें रोक नहीं सकती। क्योंकि हमारी मर्जी की बात है। हम छोटा करके देख ही सकते हैं। हम किसी को भी छोटा करके देख सकते हैं।
लेकिन इस भांति जो हमारे भीतर बड़ा हो जाता है, वह हमारी आत्मा नहीं है। इस भांति जो हमारे भीतर बड़ा हो जाता है, उसी का नाम अहंकार है। अगर हम अपने को बदलेंगे तो आत्मा बड़ी हो जाएगी। इतनी बड़ी हो सकती है कि पूरे परमात्मा के साथ एक हो जाए। अपने को बदलेंगे तो आत्मा बड़ी होगी और अपने को बिना बदले अगर बड़ा करना है तो अहंकार बड़ा होगा, मैं बड़ा हो जाऊंगा। आत्मा तो और छोटी हो जाएगी।
और यह भी ध्यान रहे, अहंकार जितना बड़ा होगा, आत्मा उतनी छोटी हो जाएगी और अहंकार जितना छोटा होगा, आत्मा उतनी बड़ी हो जाएगी।
तो जो व्यक्ति भी अपने अहंकार को बड़ा करने में लगा है, वह जाने अनजाने बहुत गहरे अर्थों में नुकसान उठा रहा है। हां, ऊपर उसे फायदे दिखाई पड़ेंगे। अहंकार को बड़ा करके देखेगा, दूसरे छोटे दिखाई पड़ेंगे, खुद बड़ा दिखाई पड़ेगा। लेकिन जितना अहंकार बड़ा होगा, उतनी भीतर आत्मा छोटी होती चली जाएगी। और जितना अहंकार बड़ा होगा, परमात्मा से मिलन का रास्ता उतना ही मुश्किल होता चला जाएगा। क्योंकि मेरे ‘मैं’ के अतिरिक्त मुझे और कोई भी रोके हुए नहीं है। और जब तक मैंने जिद्द की है कि मैं ‘मैं’ रहूंगा, तब तक मैं विराट से मिल नहीं सकता हूं। वही तो बाधा बनेगी।
इसीलिए हम दूसरे में दोष देखने के लिए आतुर होते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि दूसरों में दोष नहीं होते। इसका यह मतलब भी नहीं है कि दूसरों में दोष हैं ही नहीं। दूसरों में दोष हों या न हों, यह सवाल गौण है। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हम दूसरों में दोष देख कर अपने को बड़ा करने की चेष्टा में संलग्न हैं? अगर हम इस चेष्टा में संलग्न हैं तो हम बहुत आत्मघाती हैं। हम अपने हाथ से अपने को नुकसान पहुंचा रहे हैं, किसी और को नहीं। जिसके हम दोष देख रहे हैं उसे तो फायदा भी हो सकता है हमारे दोष देखने से। लेकिन हमें फायदा नहीं हो सकता। हो सकता है, हमारे दोष देखने से वह दोष को बदलने में लग जाए। वह अपनी कमियों को बदलने में लग जाए, हमारे दोष देखने से। लेकिन अगर हमारा अहंकार तृप्त होता हो तो हम बहुत खतरनाक ढंग से अपने ही हाथ-पैर काटने में लगे हैं। हमें कोई हित न होगा।
लेकिन एक इससे उलटी भ्रांति भी चलती है। एक भ्रांति तो यह है कि हम सबमें दोष ही देखेंगे। इससे एक उलटी भ्रांति भी है कि अगर दोष होंगे भी तो हम आंख बंद कर लेंगे, हम दोष न देखेंगे। वह उलटी भ्रांति भी खतरनाक हो सकती है; और वह भी अहंकार को बढ़ाने वाली हो सकती है। अगर मैंने यह तय कर लिया है कि मैं किसी के दोष देखूंगा ही नहीं, तो मेरे भीतर एक नये तरह का अहंकार बढ़ना शुरू होगा कि मैं ऐसा आदमी हूं जो किसी के दोष कभी नहीं देखता। चोर सामने चोरी करेगा तो मैं आंखें बंद कर लूंगा, और चार गुंडे एक स्त्री पर हमला करेंगे तो मैं पीठ फेर कर अपने रास्ते पर चला जाऊंगा। मैं किसी के दोष नहीं देखता हूं। और चूंकि मैं दोष नहीं देखता हूं इसलिए मैं एक बहुत महान आदमी हूं।
पहली भूल में अहंकार तृप्त होता है, दूसरी भूल में भी तृप्त हो सकता है। इसलिए असली सवाल दोष देखने और न देखने का नहीं है, सवाल है देखने से, न देखने से अहंकार को तो नहीं भर रहे हैं हम अपने?
लेकिन जो आदमी अहंकार नहीं भर रहा है, वह सिर्फ देखता है। उसे दोष दिखाई पड़ सकते हैं, निर्दोषता भी दिखाई पड़ सकती है। वह वही देखता है जो है, उस जो है के देखने से अपने अहंकार को न भरता है, न छोटा करता है, न बड़ा करता है।
एक बात चलती है कि साधु को किसी के दोष नहीं दिखाई पड़ते। गलत है वह बात। एकदम व्यर्थ है वह बात। असाधु को सबमें दोष ही दोष दिखाई पड़ते हैं, यह भी झूठ है। और साधु को बिलकुल दोष न दिखाई पड़ें, यह भी उतना ही झूठ है। दोष हैं। और एक ही आदमी में दोनों बातें हो सकती हैं। एक आदमी पापी भी हो सकता है और साथ ही बड़ा पुण्यात्मा भी हो सकता है। इन दोनों में कुछ विरोध नहीं है। ऐसा नहीं है कि एक आदमी पुण्यात्मा ही होता है, और ऐसा भी नहीं है कि एक आदमी पापी ही होता हो। जिंदगी बहुत जटिल है। यहां एक ही आदमी में काले और सफेद रंग के सब भूत दिखाई पड़ सकते हैं। यहां एक ही आदमी घड़ी भर पहले इतनी महानता प्रकट कर सकता है, और घड़ी भर बाद एकदम क्षुद्र हो सकता है। यहां एक आदमी प्रेम कर सकता है, घृणा कर सकता है। वही आदमी। वही आदमी एकदम स्वार्थी हो सकता है, और वही आदमी किसी क्षण में परार्थ में अपना जीवन भी लगा सकता है।
जीवन बहुत जटिल है। आदमी सरल-सीधा नहीं है कि हम एक निर्णय कर लें कि यह आदमी कांटा ही कांटा है, और वह आदमी फूल ही फूल है। नहीं, यहां एक ही गुलाब पर फूल भी लगते हैं और कांटे भी। यहां जिंदगी बहुत जटिल है। यहां कांटे और फूल एक ही पौधे में भी लग जाते हैं। असाधु की एक भूल है कि वह कहता है, हमें दोष ही दोष दिखाई पड़ते हैं। साधु की उलटी भूल है और असल में साधु जिसे हम कहते हैं वह असाधु का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। असाधु जैसा खड़ा है, साधु उससे उलटा शीर्षासन करके खड़ा हो जाता है और साधु हो जाता है। जो-जो असाधु करता है वह वह नहीं करता है। उससे उलटा करने लगता है। असाधु को दोष दिखाई पड़ते हैं तो साधु को दोष दिखाई ही नहीं पड़ते।
लेकिन जो आदमी शांत, मौन, सिर्फ देखने में साक्षी भाव रखेगा, उसे दोष भी दिखाई पड़ेंगे और निर्दोषता भी दिखाई पड़ने लगेगी। उसे जो बुरा है, वह बुरा भी दिखाई पड़ेगा, जो भला है, वह भला भी दिखाई पड़ेगा। फर्क इतना ही पड़ेगा कि वह दूसरे में भला देखने के लिए आतुर नहीं है, न दूसरे में बुरा देखने को आतुर है। वह वही देखने को आतुर है जो है। जो है, सत्य को ही देखने को आतुर है। अपनी तरफ से कुछ भी थोपने को आतुर नहीं है।
असाधु कहता है--हम सब पर दोष थोप कर रहेंगे। साधु कहता है--हम सबको निर्दोष करके रहेंगे। वे दोनों अपनी इच्छाएं दूसरों पर थोपते हैं। लेकिन इन दोनों से भिन्न, जिसको हम ठीक-ठीक द्रष्टा कहें, वह वही देखता है, जो है। वह उस जो है में जरा भी फर्क नहीं करता। जो जैसा है, वैसा ही देखता है। और जब कोई दूसरे को वैसा ही देखता है जैसा है, तभी वह समर्थ हो पाता है अपने को भी वैसा ही देखने में जैसा वह है।
जो दूसरे में दोष देखेगा, वह सदा अपने को निर्दोष देखेगा। जो दूसरे को निर्दोष देखेगा, वह सदा अपने को दोषी देखेगा। मैंने कहा कि एक-दूसरे के उलटे हैं ये। अगर एक आदमी तय कर ले कि मैं सबमें बुरा देखूंगा तो उसे सबमें बुराई दिखाई पड़ेगी, सिर्फ अपने को छोड़ कर। क्योंकि नहीं तो फिर मजा ही न रह जाएगा दूसरे में बुराई देखने से। अपने को भला बनाता जाएगा, दूसरे को बुरा बनाता जाएगा। इससे उलटा आदमी भी है। वह कहता है कि हम किसी में दोष नहीं देखेंगे। सबको निर्दोष देखेगा तो अपने में दोष देखना शुरू कर देगा। यहां तक भी कर सकता है साधु कि भूल आप करें और दंड वह अपने को दे। चोरी आप करें, उपवास वह करे, यह भी कर सकता है। लेकिन यह उलटी स्थिति हो गई, यह सम्यक दर्शन न हुआ, राइट व़िजन न हुआ। यह ठीक-ठीक दर्शन न हुआ।
ठीक दर्शन का मतलब है, सोने को सोना देखेंगे, मिट्टी को मिट्टी देखेंगे। वह भी आदमी पागल है जो मिट्टी को सोना देखता है और वह आदमी भी पागल है जो सोने को मिट्टी देखता है। मिट्टी को तो मिट्टी देखता है, सोने को वह सोना देखता है।
तो मैं आपसे नहीं कहता कि किसी में दोष न देखें। मैं आपसे यह कहता हूं--किसी में दोष इसलिए मत देखें कि अपने को निर्दोष सिद्ध करना है। तब गलत बात है। और मैं यह भी नहीं कहता कि सभी को निर्दोष देखें, क्योंकि सभी निर्दोष नहीं हैं। अगर सभी निर्दोष होते तो दुनिया बहुत अच्छी हो गई होती, जिंदगी बदल गई होती, फिर तो साधु-संन्यासी की कोई जरूरत न होती। हम कहते तो हैं कि साधु किसी में दोष नहीं देखता, तो फिर साधु समझाता क्या है? बताता क्या है? लोगों को सुधारने की कोशिश क्या कर रहा है? अगर सभी निर्दोष हैं, तो साधु को आत्महत्या कर लेनी चाहिए। क्योंकि फिर बदलना किसको है? अगर सभी परमात्मा हैं, तो उपदेश किसको दिया जा रहा है? समझाया किसको जा रहा है? नहीं, कहीं कुछ भूल है जिसको बदलना है। कहीं कोई चूक है जिसे बदलना है। नहीं तो जरूरत ही नहीं है कोई।
ठीक दर्शन चाहिए, अपना भी, दूसरे का भी। स्वयं का भी, बाहर का भी। और ठीक दर्शन बहुत अदभुत बातें दिखाएगा। उस ठीक दर्शन में यह भी दिखाई पड़ेगा कि जब मैं दूसरे में दोष देख रहा हूं तो मूल कारण दूसरे का दोष है या दूसरे में दोष देखने का मेरा आनंद है, यह भी दिखाई पड़ेगा। तब मैं सोचूंगा, समझूंगा कि जब मैं किसी को चोर कहना चाहता हूं तो सच में मैं उसकी चोरी के कारण कहना चाहता हूं, या कि सिर्फ इसलिए चोर कहना चाहता हूं ताकि मैं अपने भीतर समझ सकूं कि मैं चोर नहीं हूं।
बर्ट्रेंड रसल ने कहीं कहा है कि अगर कहीं चोरी हो जाए तो जो आदमी सबसे जोर से चिल्ला रहा हो कि चोरी हो गई, पकड़ो कोई, चोर भाग गया, पहले उसको पकड़ लेना। क्योंकि बहुत संभावना यह है कि उसी ने चोरी की है। क्योंकि चोरी से बचने की सबसे सरल तरकीब यही है कि आप इतने जोर से चोरी के खिलाफ चिल्लाएं कि कोई यह सोच ही न सकेकि इसने चोरी की है। कैसे आप सोचेंगे, जो आदमी खुद ही चिल्ला रहा है उसको तो फिर कोई नहीं पकड़ेगा। जो नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत ज्यादा शोरगुल मचाता हो और कहता हो कि मिटा देंगे भ्रष्टाचार, एक साल में खतम कर देंगे, ऐसा कर देंगे, उसको तो फौरन पकड़ कर सूली पर लटका देना चाहिए। यह आदमी खतरनाक है। यह आदमी शोरगुल जो मचा रहा है, इसके पीछे कारण है। इसके पीछे कारण यह है कि इतने शोरगुल में एक बात तो पक्की हो जाएगी कि यह आदमी भ्रष्टाचारी नहीं है। फिर बाकी दुनिया होगी। कोई बदल नहीं पाता। दुनिया को अभी तक कोई नहीं बदल पाया कि एक साल में कोई बदल दे। वह नेता का ही पता नहीं चलता कि साल भर बाद वह नेता रहा कि नहीं, कहां है, कहां नहीं। लेकिन इतने जोर से जब कोई चिल्लाता है तो उसका कारण है मनोवैज्ञानिक। सरलतम तरकीब यही है। इसीलिए जब एक चोर पकड़ा जाता है तो बाकी चोर उसकी निंदा में संलग्न हो जाते हैं फौरन। गांव में एक चोर पकड़ा जाएगा तो पूरा गांव निंदा करेगा, पूरा गांव निंदा करेगा कि बहुत बुरी बात है, चोरी बहुत बुरी बात है। और हर आदमी बढ़-बढ़ कर जोर से बात करेगा कि पड़ोसी ठीक से सुन लें कि मैं भी चोरी के खिलाफ हूं। ताकि पता चल जाए कि कम से कम मैं चोर नहीं होने वाला हूं।
जो व्यक्ति ठीक-ठीक देखने की कोशिश करेगा, उसे यह भी दिखाई पड़ेगा। उसे यह भी दिखाई पड़ेगा कि जब मैं दूसरे में भला देख रहा हूं तो मैं थोप तो नहीं रहा हूं! है भी भला वह या मैं थोप रहा हूं! क्योंकि कुछ लोग जिद्द किए हुए हैं कि वे भला ही देखेंगे। वे लोग भी खतरनाक हैं। इस देश में ऐसा ही हो गया है। इस देश में पांच हजार साल से ऐसे लोग हुए हैं, उन्होंने कहा, हम सबमें भलाई ही देखेंगे। इसलिए आज पृथ्वी पर इस देश से बुरा देश खोजना मुश्किल है। क्योंकि बुराई देखी नहीं, तो बुराई को बदलने का उपाय भी न रहा। जब किसी देश के सब समझदार आदमी यह तय कर लें कि हम भलाई ही देखेंगे, तो फिर उस देश में बुराई इकट्ठी होती चली जाएगी, उसको बदलेगा कौन? जब दिखाई ही न पड़ेगी तो बदलेगा कौन? तो हिंदुस्तान ने अपने साधुओं को अलग खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा, हम तो सबमें भला देखते हैं, हम तो बुरा देखते ही नहीं। तो फिर बुराई को बदला कैसे जाए?
समझ लें कि सब डाक्टर तय कर लें कि हम तो बीमारी देखते नहीं, सभी में स्वास्थ्य देखते हैं, तो फिर वह देश बीमार हो जाएगा। फिर उस देश में बीमारी जब कोई देखेगा ही नहीं तो बीमारी न देखने से समाप्त थोड़े ही हो जाएगी। न देखने से और बढ़ेगी। क्योंकि देखने से पकड़ी जा सकती थी, तोड़ी जा सकती थी, मिटाई जा सकती थी। लेकिन डाक्टर सब भले आदमी हो जाएं और वे कहें कि हम बुराई देखेंगे नहीं, हम बीमारी देखते ही नहीं। हम तो मरते आदमी में भी परम जीवन देखते हैं, हम तो कहते हैं कि यह तो बिलकुल स्वस्थ है। वह कैंसर से सड़ रहा है और हम देखते हैं कि कितना स्वास्थ्य का आनंद ले रहा है। हम तो बुराई देखते नहीं, हम तो साधु हैं। तो फिर कठिनाई हो जाएगी।
मेरी थोड़ी कठिनाई है, क्योंकि मैं जिंदगी को ठीक-ठीक देखने का आग्रह करना चाहता हूं। न तो मैं यह कहता हूं कि आप किसी पर बुराई थोप दें, उससे भी अहंकार बढ़ेगा। न मैं यह कहता हूं कि आप जबरदस्ती किसी पर भलाई थोपें, उससे भी अहंकार बढ़ेगा। मैं यह कहता हूं, जिंदगी जैसी है, उसको वैसा देखने की कोशिश करें। लकीरें मत खींचें। जितनी जो लकीर है, उसको वैसा ही देख लें कि वे कितनी हैं। दूसरी लकीर खींचने की कोशिश मत करें।
और देखने का दूसरा सूत्र भी समझ लें कि जो दूसरे में देखें, वह अपने में भी देखें। जिंदगी अलग-अलग नियम नहीं मानती है। जिंदगी के नियम एक हैं। अगर हम जिस भांति दूसरे में देखते हैं और जो नियम दूसरे के लिए बनाते हैं, वही नियम अपने लिए भी बना सकें तो जिंदगी बहुत ऊपर उठती है। लेकिन हम सब दोहरे स्टैंडर्ड में जीते हैं, दोहरे मापदंडों में। दूसरों के लिए दूसरा मापदंड होता है, अपने लिए दूसरा मापदंड होता है।
अगर मैं क्रोध करता हूं तो मैं कहता हूं कि वह परिस्थिति की वजह से भूल हो गई है। और अगर दूसरा क्रोध करता है तो वह पापी है, उसको नर्क जाना पड़ेगा। अगर मैं चोरी करता हूं तो मैं कहता हूं, मजबूरी थी। घर में खाना न था, पत्नी बीमार पड़ी थी, बच्चे रो रहे थे--मुझे चोरी करनी पड़ी। और अगर दूसरा चोरी करता है तो वह पापी है। दोहरे स्टैंडर्ड--दूसरे को और तराजू पर तौलते हैं, अपने को और तराजू पर तौलते हैं। दो तरह के बहीखाते ही नहीं हैं, दो तरह के एकाउंट्स ही नहीं हैं दुकानों में, आदमी के दिमाग में भी दोहरे बहीखाते हैं, दोहरे नियम हैं। दूसरे के लिए और हैं, अपने लिए और हैं। अपने को वह किसी और तराजू पर तौलता है, दूसरे को और तराजू पर तौलता है। यह बेईमानी की हद्द है। यह अनैतिकता की हद्द है। मैं इसको बड़ी से बड़ी अनैतिकता, इम्मारैलिटी कहता हूं जब हम दोहरे मापदंड का उपयोग करते हैं।
इकहरा मापदंड चाहिए। ठीक से जीवन को देखने वाला आदमी इकहरा मापदंड बनाता है। जिस तराजू पर अपने को तौलता है, उसी पर दूसरे को तौलता है। और ध्यान रहे, जब भी कोई आदमी एक तराजू बनाएगा, बहुत करुणावान हो जाएगा; कठोर कभी भी नहीं रह सकता। दो तराजू बनाएगा तो कठोर हो जाएगा, क्योंकि दूसरे को वह बिलकुल पाप के तराजू पर तौल लेगा कि यह आदमी पापी है, नरक में डालो, अदालत में घसीटो, सजाएं दो, फांसी लगाओ। लेकिन जब वह एक ही तराजू रखेगा तो वह समझेगा कि जब किसी को फांसी लग रही है तो वह सिर्फ इसीलिए लग रही है कि वह फंस गया है और मैं फंसा नहीं हूं। इससे ज्यादा फर्क नहीं है। और जब वह देखेगा, जब किसी और ने पाप किया है, तो वह यह समझेगा कि किसी और ने पाप किया है; उसका कुल कारण इतना है कि उसका पाप पकड़ गया है और मेरा पाप पकड़ नहीं पाया। अगर एक तराजू होगा तो हम जानेंगे कि हर अपराधी के साथ हम अपराधी हैं और हर पापी के साथ हम पापी हैं और हर बुरे आदमी के साथ हमारी बुराई का भी हिस्सा जुड़ा हुआ है। हम भी साथ में खड़े हुए हैं। तब हम इस भांति कंडेमनेशन, इस तरह की निंदा में न लगेंगे कि लगा दो गोली, मार दो, आग लगाओ, नरक में डालो। तब हम यह कहेंगे कि जो यह आदमी कर रहा है, जो इस आदमी से हो रहा है, वह हमसे भी हो रहा है। और तब हम सोचना शुरू करेंगे कि क्या उपाय बने, कैसे उपाय बने कि आदमी का समाज बदले, जिसमें मैं भी बदलूं और वह दूसरा भी बदले।
पुराने इतिहास का लंबा काल दोहरे मापदंड का काल है, इसलिए मनुष्य नैतिक नहीं हो पाया। क्योंकि नैतिकता का मूल-बिंदु करुणा ही, कंपेशन ही आदमी में पैदा नहीं हो सकी। आदमी कठोर हो गया। और यह बड़े मजे की बात है, जिसको हम नैतिक कहते हैं वह बहुत कठोर हो गया है। नैतिक आदमी बहुत ही कठोर होता है। नैतिक आदमी हद्द दर्जे की दुष्टता कर सकता है। लेकिन वह अपनी दुष्टता को भी नैतिकता का जामा पहना देता है। वह अपनी नैतिकता के लिए भी, अपनी कठोरता के लिए भी नैतिकता का करार देगा, उसको एकदम कठोरता का जामा पहना देगा। और चूंकि वह खुद भी अपने प्रति कठोर होता है इसलिए दूसरे के प्रति कठोर होने का लाइसेंस उसे मिल जाता है। अगर किसी को सताना हो तो सबसे सरल तरकीब यह है कि पहले अपने को सताना शुरू करो। अगर दूसरों से उपवास करवाना हो, भूखों मरवाना हो तो पहले उपवास खुद शुरू करो। अगर खुद उपवास करने की हिम्मत जुटा ली तो फिर आप किसी से भी उपवास करवाने की हिम्मत जुटा सकते हैं। और जो न करें, वे पापी हो जाएंगे, वे निंदित हो जाएंगे। अगर दूसरों को भी सिर के बल खड़ा करवाने की तकलीफ देनी है तो पहले खुद अभ्यास करके सिर के बल खड़े हो जाओ। फिर कोई आदमी यह न कह सकेगा कि यह आदमी कठोर है। बल्कि कोई भी आदमी यही कहेगा कि मैं बड़ा पापी हूं इसलिए शीर्षासन नहीं कर पा रहा हूं। आप बड़े पुण्यात्मा हैं।
नैतिकता जिसे हम कहते रहे हैं अब तक, वह भी दूसरे को सताने की बड़ी गहरी व्यवस्था है। इसलिए एक घर में एक आदमी नैतिक हो जाए तो सारा घर परेशान हो जाता है। एक आदमी को नैतिकता का भूत चढ़ जाए तो घर भर की गर्दन दबा लेता है। इसलिए नैतिक आदमी बहुत गहरी हिंसा में उतर जाता है। लेकिन दिखाई नहीं पड़ती। और उसका सारा कारण कितना है? सारा कारण इतना है कि उस सारी मनुष्यता की कमजोरी के साथ कभी अपने को एक साथ रख कर नहीं देख पाता, अपने को अलग रख लेता है। सारी मनुष्यता को अलग तराजू पर तौल देता है।
तो जो व्यक्ति जीवन के सत्य की खोज में निकला हो उसे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हम सब एक साथ ही एक ही तराजू पर तौले जाएंगे। हमारा पुण्यात्मा और हमारा पापी सब एक साथ खड़े हुए हैं। और जो बहुत गहरा देखेगा उसको यह भी पता चलेगा कि हमारा पुण्यात्मा और हमारे पापी अलग-अलग भी नहीं हैं, भीतर से जुड़े हुए हैं। बल्कि उसे यह भी दिखाई पड़ेगा कि हमारा पुण्यात्मा भी इसलिए पुण्यात्मा मालूम पड़ता है कि कोई पापी होने के लिए तैयार हो गया है। अगर रावण रावण होने से इनकार कर दे तो राम की कहानी एकदम विदा हो जाए, वह कहीं भी न रह जाए। वह रावण रावण होने को तैयार है इसलिए राम की कहानी प्रकट हो पाती है। और अगर जीवन के अंत में कहीं कोई निर्णय होता होगा तो उस निर्णय में राम की कहानी रावण के बिना अर्थहीन मालूम पड़ेगी और राम को महात्मा बनाने में रावण का हाथ भी अनिवार्य रूप से स्वीकार करना पड़ेगा। और रावण ने कितनी ही बुराइयां की हों, कम से कम एक तो बहुत बड़ा काम किया है कि राम को जन्म दे दिया है। और राम ने कितने ही अच्छे काम किए हों, एक बात तो पक्की है कि रावण को जन्म देने वाले वही हैं। इसलिए मैं यह कहता हूं कि महात्मा से महात्मा में पापी मिल जाएगा, पापी से पापी में महात्मा मिल जाएगा। ये चीजें टूटी हुई नहीं हैं, बहुत भीतर से जुड़ी हुई हैं।
आप एक नाटक देखने जाते हैं, तो आप देखते हैं कि नाटक में एक दुष्ट पात्र है, वह सता रहा है, सता रहा है, परेशान कर रहा है। वह चोरियां कर रहा है, वह स्त्रियों से बलात्कार कर रहा है, वह बच्चों की गर्दन दबा रहा है, वह बहुत दुष्ट है, वह सब तरह के उपद्रव कर रहा है। आपका मन उसके प्रति बड़े क्रोध से भर जाता है। फिर एक अच्छा पात्र है, एक साधु है, संत है, महात्मा है। वह उस बुरे आदमी से बचाने के लिए सेवा कर रहा है। आश्रम बना रहा है, सब उपाय कर रहा है। आपका मन उसके प्रति बड़े आदर से भर गया है। फिर नाटक समाप्त हो जाता है। वह जिसने पापी का काम किया, जिसने पुण्यात्मा का काम किया, वे दोनों गले में हाथ डाल कर पर्दे के पीछे से बाहर आते हैं। तब आप ऐसा नहीं कहते हैं उस बुरे आदमी से कि मारो इसको। तब आप उससे भी कहते कि बहुत अच्छा अभिनय किया। और तब आप उससे यह भी कहते हैं कि अगर तुम न होते तो महात्मा का पार्ट उभर न पाता। तुम थे तो उभरा। असल में कहानी के लेखक ने उस पापी को गहरे से गहरा पापी बनाने की कोशिश की है ताकि वह पुण्यात्मा उतने गहरे काले रंगों में सफेद और साफ और शुद्ध दिखाई पड़ सके। लेकिन वह पुण्यात्मा दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन नाटक के बाहर निकल कर हम जिसने पापी का काम किया है उसको सजा नहीं देते। लेकिन जिंदगी, जिंदगी में हम बड़े कठोर हैं।
लेकिन कौन कहता है कि जिंदगी एक बड़ा नाटक नहीं है? और कौन कहता है कि जिंदगी के पर्दे के बाहर राम और रावण गले में हाथ डाल कर बैठ कर चाय न
हीं पी रहे हैं? लेकिन हम बहुत थोड़ी दूर तक देखते हैं। असल में जिंदगी को हम पूरा नहीं समझ पाते, क्योंकि जिंदगी को हम एक बड़े नाटक की तरह नहीं देख पाते हैं।
मेरे पास, मैं अभी बंबई से आया, तो एक फिल्म अभिनेता मिलने आया। उसने मुझसे कहा कि मुझे कुछ आपसे अभिनय के बाबत पूछना है, और आपसे कैसे पूछूं, लेकिन किसी ने मुझे कहा है कि आप शायद कोई काम की बात कह सकें। मैं ठीक अभिनय कैसे करूं? उसने कहा कि बड़ी अजीब सी बात आपसे पूछ रहा हूं, क्योंकि पता नहीं आप इसका उत्तर भी देंगे कि नहीं देंगे। मैंने उनसे कहा कि ठीक ही तुम पूछते हो। पूछना ही चाहिए। तो मैं तुम्हें एक सूत्र, मैंने उसे लिख कर दे दिया। उसे मैंने एक सूत्र लिख कर दे दिया कि जिन्हें ठीक से जीवन जीना हो, उन्हें जीवन इस भांति जीना चाहिए कि जैसे वह अभिनय हो। और जिन्हें ठीक से अभिनय करना हो, उन्हें अभिनय ऐसे करना चाहिए जैसे कि वह जीवन हो। अगर कोई व्यक्ति अभिनय ऐसे कर सके जैसे कि वह जीवन है, तो वह कुशल अभिनेता हो जाएगा। और अगर कोई व्यक्ति जीवन ऐसे जी सके कि वह अभिनय है तो वह सत्य का ज्ञाता हो जाएगा।
जीवन में प्रभु है, जीवन ही प्रभु है, यह हमें तभी पता चलेगा जब हम जीवन को भी एक अभिनय की तरह देख सकें। तब बुरे में भी उसके दर्शन हो जाएंगे, भले में भी उसके दर्शन हो जाएंगे। तब बुरे और भले से उसके दर्शन में बाधा नहीं पड़ेगी।
मैंने एक बहुत अदभुत कहानी सुनी है। मैंने सुना है कि एक भिक्षु ने जाकर एक सम्राट से कहा कि सभी में ब्रह्म का आवास है। उस संन्यासी ने सम्राट को कहा: सभी में ब्रह्म का आवास है। और सम्राट बहुत अदभुत था। उसने कहा: बातचीत तो हम न करेंगे, लेकिन परीक्षा कर लेना चाहेंगे। उस भिक्षु ने कहा कि बातचीत ही सब जगह होती है, ब्रह्म की तो चर्चा ही होती है। परीक्षा क्या होगी ब्रह्म की? सबमें ब्रह्म है, यह मैं तर्क से सिद्ध कर सकता हूं। उस राजा ने कहा: तर्क की हम चिंता नहीं करते। हम तो जीवन में प्रयोग करके देख लेना चाहते हैं। उस भिक्षु ने कहा: प्रयोग कर लें। तो राजा के पास पागल हाथी था। उसने पागल हाथी छुड़वा दिया उस भिक्षु के ऊपर। सारी राजधानी में लोग खड़े हो गए अपने-अपने महलों के ऊपर। बीच राजपथ खाली हो गया। पागल हाथी छूटा। वह भिक्षु भागा, वह चिल्लाया। पहले बहुत डरा। लेकिन सम्राट ने उससे कहा: अरे भूल गए! कहते थे, सभी में ब्रह्म है, तो पागल हाथी में ब्रह्म नहीं है? तब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। अपने ही तर्क कभी-कभी आदमी को बुरी तरह फंसा देते हैं। अब उसे बड़ी मुश्किल हुई।
उसने कहा: अब क्या करें? तो वह खड़ा हो गया आंख बंद करके, हाथ-पैर कंपे जा रहे हैं। लेकिन वह खड़ा है, पागल हाथी ने आकर सूंड में उसे पकड़ लिया। महावत चिल्ला रहा है कि हट जा पागल! छोड़ अपने ज्ञान को, कहां की बातों में पड़ा है। क्यों तू जिंदगी गंवाता है! कह दे कि सबमें ब्रह्म नहीं है; कम से कम पागल हाथी में मैं नहीं मानता। बाकी सबमें होगा। एक क्षण तो उसने भागना चाहा। लेकिन राजा ने कहा: क्या भूल गया? वह अपनी छत के ऊपर से चिल्ला रहा है कि भूल गया? सारा गांव हंसेगा, कहां गया ब्रह्मज्ञान? तब वह फिर रुक गया। महावत ने बहुत कहा कि इन बातों में मत पड़, जान चली जाएगी। महावत की सुनता था तो भागने की कोशिश भी करता था और राजा चिल्लाता तो फिर खड़ा हो जाता। आखिर उस हाथी ने उसको पकड़ कर फेंक दिया दूर, दस-बीस फीट दूर जाकर गिरा। हाथ-पैर टूट गए। उठा कर उसे ऊपर लाया गया। राजा उससे कहने लगा, क्या हुआ? उसने कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया। जब आपकी बात सुनाई पड़ती थी तब खड़ा हो जाता था, क्योंकि अहंकार को चोट लगती थी कि अपनी ही बात गलत हुई जा रही है। महावत जब कहता था कि भाग जा, तो सोचता था जान क्यों गंवानी है! ज्ञान के पीछे जान थोड़े ही गंवानी पड़ेगी। तो दोनों की दुविधा में पड़ गया था। राजा ने उससे कहा: लेकिन हाथी में तुझे ब्रह्म दिखाई पड़ा कि नहीं? उसने कहा: बिलकुल नहीं दिखाई पड़ा। दिखाई तो नहीं पड़ा, लेकिन देखने की मैंने कोशिश पूरी की, क्योंकि अगर बिलकुल दिखाई न पड़ सके तब तो मैं भाग ही जाता। तो आंख बंद कर ली थी इसीलिए। आंख खुले में तो पागल हाथी दिखाई पड़ता था। आंख बंद कर ली थी, कि किसी तरह ब्रह्म थोड़ी देर को भी दिखाई पड़ जाए, फिर जो हो, हो। महावत ने कहा, लेकिन तुझे मुझमें ब्रह्म दिखाई न पड़ा? कि मैं जो चिल्ला रहा था कि हट जा? अगर पागल हाथी में ब्रह्म था तो मुझमें न था? और छोड़ मेरी बात। हाथी की भी छोड़, राजा की भी छोड़। तेरे भीतर भी तो ब्रह्म था, वह क्या कह रहा था? तो कम से कम उसकी तो तुम्हें सुन लेनी थी? उस आदमी ने कहा: तब तो बड़ी भूल हो गई। मेरा ब्रह्म तो पूरे वक्त कह रहा था कि भाग, वह पूरे समय कह रहा था कि भाग।
जिंदगी बहुत जटिल है। उस पागल हाथी में भी ब्रह्म है, लेकिन वह पागल ब्रह्म है, यह जानना। नहीं तो पागल ब्रह्म से बहुत मुसीबत हो जाएगी। चोर में ब्रह्म है, लेकिन वह चोर ब्रह्म है, यह समझना। और रावण में भी ब्रह्म है, लेकिन वह रावण का पार्ट अदा कर रहा है, यह भी समझना। जीवन अगर एक अभिनय दिखाई पड़े तो हम बुरे में भी ब्रह्म देख पाएंगे।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम बुरे की पूजा करने लग जाएं। इसका यह मतलब भी नहीं है कि हम रावण के भक्त हो जाएं और रावण जैसा जीने लगेंगे। इसका यह मतलब भी नहीं है कि बुरा हमारे लिए भला और बुरे में कोई भेद न रह जाएगा। इसका केवल इतना मतलब है कि जिंदगी तब हमें एक बोझ न मालूम पड़ेगी, गंभीरता न मालूम पड़ेगी। जिंदगी एक खेल और एक लीला हो जाएगी।
और जिसे जीवन में ही प्रभु को देखना हो उसे जीवन को लीला बना लेना जरूरी है। सीरियस और गंभीर लोग जीवन में परमात्मा को कभी नहीं देख सकते।
लेकिन हमारा अनुभव उलटा है। हम आमतौर से ऐसा ही समझते हैं कि जितनी गंभीर सूरतें हैं वे सभी भगवान को उपलब्ध हो गई हैं। हम यह तो सोच ही नहीं सकते कि संत भी और हंस सकते हैं। हम सोच ही नहीं सकते। असल में संत होने के लिए रोती हुई सूरत भी मिलना बहुत जरूरी चीज है। हम कल्पना ही नहीं कर सकते। अगर महावीर कहीं रास्ते पर खड़े हुए खिलखिलाते मिल जाएं तो महावीर के भक्त एकदम भाग जाएंगे वहां से कि कोई गलत आदमी है, महावीर हो ही नहीं सकते। महावीर और खिलखिला कर हंसते हों रास्ते पर? असंभव है! बुद्ध किसी होटल में मिल जाएं। हम कल्पना नहीं कर सकेंगे। हम विश्र्वास नहीं कर सकेंगे कि यह बुद्ध हो सकते हैं।
हम जिंदगी को ऐसी कठोरता से लिए हैं कि जिंदगी का हलकापन, वेटलेसनेस नहीं। जिंदगी एक लीला, एक अभिनय नहीं। जिंदगी एक बड़ी गंभीरता की बात है। और गंभीरता एक रोग है। और गंभीरता एक बीमारी है। धार्मिक आदमी गंभीर नहीं है, धार्मिक आदमी इतना हलका है, इतना हलका-फुलका है। इतना प्रसन्न, इतना प्रसन्न, इतना प्रफुल्लित है कि जीवन के सब रूपों के साथ नाच सकता है, हंस सकता है, उठ सकता है, बैठ सकता है। लेकिन अब तक की धार्मिक गंभीरता की ही परंपरा है और इसलिए मैं कहता हूं कि इस धार्मिक परंपरा की वजह से सिर्फ रोते हुए, उदास लोग ही धार्मिक हो सके हैं। हंसते हुए, प्रसन्न लोगों को धार्मिक होने का मौका ही न रहा। वे तो निंदित हो गए। वे तो कभी धार्मिक हो ही नहीं सकते।
यही वजह है कि मरने के करीब पहुंचते-पहुंचते लोग मंदिरों और मस्जिदों में जाना शुरू करते हैं, क्योंकि तब तक हंसी व्यतीत हो गई होती है। इसलिए मंदिरों और मस्जिदों में वृद्ध और वृद्धाओं के सिवाय कोई दिखाई नहीं पड़ता। जवान वहां नहीं दिखाई पड़ते, बच्चे वहां नहीं दिखाई पड़ते। बल्कि बच्चों को भी अगर ले जाते हैं मां-बाप तो मंदिरों में गंभीर बना कर बिठा देते हैं कि बिलकुल गंभीर बन कर बैठ जाओ। यह मंदिर है। तो बच्चों को भी बूढ़ा बना कर बिठाल सकें तो ही मंदिरों में उनका प्रवेश है। मंदिर बड़े गंभीर होते हैं।
गंभीरता रुग्ण है। प्रसन्नता, जीवन की सहजता, तो ही हम जीवन में परमात्मा को देख सकेंगे। गंभीर लोग न देख सकेंगे। गंभीर लोग इतने हलके ही नहीं कि उतनी बड़ी उड़ान भर सकें; पत्थर की तरह वजनी हो जाते हैं।
तो मेरे देखे फूल में गंभीरता नहीं है और न हवाओं में गंभीरता है और न वृक्षों में। और न पक्षियों की आवाजों में, और न आकाश के तारों में, और न सूरज में। अगर हम सारे जगत में खोजने चले जाएं तो सिर्फ आदमी में कुछ आदमी मिल जाएंगे जो गंभीर और उदास और दुखी हैं और भारी हैं। लेकिन जगत में और विश्र्व में कहीं भी भारीपन नहीं मिलेगा। सारा जगत एक नृत्य में डूबा हुआ है, एक प्रफुल्लता में डूबा हुआ है, एक रस में डूबा हुआ है।
यह भी सूत्र मैं आपको कहना चाहता हूं कि रस में विभोर हो सकेंगे, हलके होकर जीवन के सब रूपों में, तो शायद प्रभु का दर्शन हो सके सब तरफ। क्योंकि प्रभु तो बहुत आनंद-रस में विभोर होकर नाच रहा है।
और हमने तय कर लिया है कि सिर्फ गंभीर भगवान से मिलेंगे। और वह कहीं है नहीं। कहीं कोई गंभीर भगवान नहीं है। लेकिन हमने तय कर लिया है कि गंभीर भगवान की खोज करनी है। और शायद इसीलिए हमने असली भगवान की फिकर छोड़ दी है, और पत्थर की मूर्तियां मंदिरों में बना कर रख ली हैं। क्योंकि पत्थर की मूर्तियों से ज्यादा गंभीर और वजनी क्या हो सकता है? मरे हुए पत्थर की मूर्तियों से ज्यादा और क्या हो सकता है डेड? जिसमें जीवन का कोई अंकुर नहीं निकलता; जिसमें कोई फूल नहीं खिलता, जिसमें कभी कोई हेर-फेर, कोई बदल नहीं होती, बिलकुल मरा हुआ पत्थर पड़ा हुआ है। तो जिंदा पत्थर को भी पूजते तो भी ठीक था। उसमें भी कुछ भगवान हो सकता है। जिंदा से भी काम नहीं चलता। पहले खीला-हथौड़ी लेकर उसको मारना पड़ता है। जब उसकी सब जिंदगी काट डालते हैं और अपने हिसाब से ढाल लेते हैं.वह तो भगवान शायद इसीलिए बचा फिरता है आदमियों से कि अगर कहीं मिल जाए तो पता नहीं वह छैनी-हथौड़ी लेकर उसको काट-पीट डालें और किस शक्ल में ढाल कर उसको मंदिर में बिठाएं। क्योंकि हम उसको वैसा का वैसा कभी स्वीकार न करेंगे। क्योंकि निश्र्चित वह हंसता होगा। अगर वह न हंसता होगा तो हंसी कहां से आती होगी? अगर वह नहीं हंसता है तो हंसी कहां से आती है? अगर वह गीत नहीं गाता है तो गीत कहां से जन्मते हैं? अगर वह प्रेम नहीं करता है तो प्रेम की इतनी बड़ी धारा, इतनी बड़ी गंगा कैसे बहती है? अगर फूलों में उसको कोई उत्सुकता नहीं तो फूल खिलते क्यों हैं? वह तो बहुत आमोद में, वह तो बहुत रस में बंद मालूम होता है। उसकी तो घड़ी-घड़ी नृत्य और नाच में डूबी हुई मालूम पड़ती है। हमें अगर मिल जाए तो पहले तो हमें उसका नाच छीनना पड़े, हाथ-पैर बांध देने पड़ें।
लेकिन जिंदा भगवान भरोसे का नहीं हो सकता। हम कहीं बिठाएं, वह कहीं चला जाए। तो हम पत्थर के ही बना लेते हैं, वह बड़ा सुविधापूर्ण है। हम जहां बिठा देते हैं, फिर वहीं बैठा रहता है। फिर कोई फर्क नहीं होता। रोज जाते हैं, वहीं मिल जाता है जहां बिठाया था। कभी ऐसा नहीं होता है कि यहां-वहां हो जाए। फिर कभी गड़बड़ भी नहीं करता। हमने जैसा मान रखा है वैसा ही रहता है। उससे अन्यथा कभी नहीं होता। पत्थर के भगवान के प्रति हम प्रेडिक्ट कर सकते हैं, हम घोषणा कर सकते हैं कि वह ऐसा ही रहेगा। असली भगवान के साथ कुछ भरोसा नहीं, कि हम उसे एक मंदिर में गंभीर खड़ा करके लौटें और सुबह जब जाएं तब वह नाच रहा हो। अनप्रेडिक्टेबल होगा। असल में सभी जिंदा चीजें अनप्रेडिक्टेबल हैं; जिंदा चीजों के बाबत घोषणा नहीं हो सकती है, भविष्यवाणी नहीं हो सकती है। इसलिए मुर्दों के सिवाय ज्योतिषी किसी के संबंध में कुछ नहीं बता सकता।
जो बिलकुल मरे-मराए लोग हैं, उन्हीं के संबंध में ज्योतिषी कुछ बता सकता है। जिंदा आदमी के बाबत ज्योतिष कुछ नहीं बता सकता। जिंदा आदमी हाथ की सब रेखाएं गलत कर दे सकता है।
मैंने सुना है कि बुद्ध एक गांव के पास से गुजरे थे, एक नदी के किनारे। दोपहर थी भरी, धूप थी तेज। नदी की रेत पर उनके पैर के चिह्न बन गए। पीछे काशी से बारह वर्ष ज्योतिष का अध्ययन करके एक पंडित लौटता था। बड़ी किताबें, ज्योतिष के ग्रंथ साथ में बांधे हुए था। पंडितों के पास सिवाय ग्रंथों के और कुछ है भी नहीं जीवन में। पंडित बड़े दीन हैं कि उनके पास कागज की किताबों के सिवाय कुछ भी नहीं है। अपना बोझ लिए चला आता था। बारह साल मेहनत की थी ज्योतिष में। असल में लोग फिजूल की चीजों में इतनी मेहनत करते हैं कि अगर ठीक चीजों में उतनी मेहनत करें तो कभी के परम को उपलब्ध हो जाएं। लेकिन बारह साल ज्योतिष सीखने में गंवाए। अब वह लौट रहा था। वहां देखा, पैर के चिह्न पड़े रेत पर, चौंक गया। क्योंकि पैरों में वह चिह्न था जिसको ज्योतिष के शास्त्र कहते हैं कि इस आदमी को चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिए। और भरी दोपहरी में, इस छोटे से गांव में, साधारण सी नदी की रेत पर चक्रवर्ती राजा नंगे पैर चलेगा? उसने कहा कि कुछ गड़बड़ हो गई है। चक्रवर्ती और एक साधारण से गांव में? और इस गंदी सी नदी की रेत में? और नंगे पैर, और भरी दोपहरी में? तो अगर चक्रवर्ती ऐसा घूम रहा हो, तो इन किताबों को नदी में डुबा कर, बारह साल व्यर्थ गए, सोचकर घर लौट जाना चाहता था। पर उसने सोचा कि जरा खोज तो लें कि चक्रवर्ती आस-पास ही में हो कहीं। क्योंकि पैर के निशान इतने ताजे हैं कि अभी-अभी ही गुजरा होगा। वह पैरों के पीछे-पीछे चल कर गया।
एक वृक्ष की छाया में बुद्ध विश्राम करते थे। आंख बंद थी, पैर थे टिके, तो उसने पैरों के पास जाकर देखा यही आदमी, बड़ी मुश्किल में पड़ गया। पास में भिक्षा का पात्र रखा है, चक्रवर्ती होने का सवाल नहीं। देखा भिक्षु है, फटे कपड़े पहने हुए है। लेकिन चेहरा तो चक्रवर्ती का ही मालूम पड़ता है। जगाया और कहा कि मुश्किल में डाल दिया है। बारह साल की मेहनत पानी हुई चली जाती है। आप हैं कौन? यहां क्या कर रहे हैं? आपके पैर के चिह्न तो कहते हैं, चक्रवर्ती सम्राट हो। तो इस भरी दोपहरी में, इस साधारण से गरीब गांव की नदी की रेत पर यहां किसलिए आए हो? साथी कहां हैं? संगी कहां हैं? दरबारी कहां हैं? अकेले इस वृक्ष के नीचे क्या कर रहे हो? फटे-पुराने कपड़े क्यों पहने हो? यह क्या नाटक है? यह भिक्षा का पात्र क्यों लिए हो?
बुद्ध ने कहा: मैं तो भिक्षु ही हूं। उसने कहा: फिर मेरी किताबों का क्या होगा? नदी में फेंक दूं? बारह साल मेहनत बेकार गई? बुद्ध ने कहा: नहीं, किताबें काम पड़ेंगी। किताबें ले जाओ। बहुत मरे हुए लोग हैं जिनके चिह्न मिलाओगे तो मिल जाएंगे। लेकिन जिंदा आदमी पर रेखाएं नहीं बनतीं। जिंदगी पर कोई बंधन नहीं है। जिंदगी निर्बंध है, जिंदगी मुक्त है। इसीलिए प्रेडिक्शन नहीं हो पाता, भविष्यवाणी नहीं हो पाती।
जितना जीवंत व्यक्ति होगा, उतना उसके कल के बाबत कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कल वह क्या कहेगा, क्या करेगा, कैसे उठेगा, कैसे जीएगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। हां, जितना मरा हुआ आदमी, कल के बाबत कहा जा सकता है कि कल वह सुबह उठ कर यह करेगा, यह बोलेगा। पत्नी से लड़ेगा, बाजार जाएगा, दुकान चलाएगा, सांझ को लौटेगा, बेटे को डांटेगा कि पढ़ाई नहीं की, परीक्षा ठीक से नहीं दी। रात झंझट और कुछ करेगा। रात सो जाएगा। सुबह फिर उठेगा। सब बताया जा सकता है।
इसलिए हमने पत्थर के परमात्मा बना कर रखे हुए हैं। वे असली परमात्मा से बचने के लिए हैं। क्योंकि असली परमात्मा के बाबत कुछ भी भरोसा नहीं है, रिलायबल नहीं है। असली परमात्मा भरोसे योग्य नहीं है।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, जब सभी में परमात्मा है, तो फिर मंदिर में मूर्ति की पूजा करें तो आपको एतराज क्या है?
मैंने कहा, सभी में परमात्मा! उनको मंदिर की मूर्ति फौरन याद आ गई। हम उसकी पूजा करें तो एतराज क्या?
अगर सभी में परमात्मा है, यह समझ में आ गया, तो मंदिर की मूर्ति का सवाल ही नहीं रह जाता। मंदिर की मूर्ति का सवाल तभी तक है जब तक सभी में परमात्मा नहीं है तब तक मंदिर की मूर्ति में परमात्मा देखने की चेष्टा चलती है। जिस दिन सभी में दिख गया तो फिर कौन मंदिर की मूर्ति है और कौन मंदिर के बाहर है? कौन मंदिर की मूर्ति है और कौन मंदिर की मूर्ति नहीं है? फिर कैसे पता चलेगा? फिर कैसे पक्का करोगे कि दरवाजे पर जो भिखारी बैठा है, वह मंदिर की मूर्ति नहीं है? और मंदिर के भीतर जो पत्थर रखा है, वह भगवान है? नहीं, फिर उपाय नहीं है। लेकिन मंदिर की मूर्ति सब्स्टीट्यूट है, इसलिए खतरनाक है।
मैं कहता हूं, मत करना मंदिर की मूर्ति की पूजा। इसलिए नहीं कि उसमें परमात्मा नहीं है। परमात्मा तो सब जगह है। लेकिन मंदिर की मूर्ति उन्होंने ईजाद की है जो सब तरफ से परमात्मा से बचना चाहते हैं। उन्होंने इसको ईजाद किया है। अधार्मिक लोगों ने मंदिर की मूर्ति ईजाद की है। परमात्मा के शत्रुओं ने मंदिर की मूर्ति ईजाद की है ताकि जीवंत परमात्मा से बचा जा सके। और एक मरे हुए, ढांचे में ढले हुए, अपने ही हाथ से बनाए हुए भगवान के सामने हाथ जोड़ कर घुटने टेक कर बैठा जा सके। अगर दुनिया में कहीं पृथ्वी के बाहर और भी लोग हैं और हमें देखते होंगे अपनी ही ढाली गई, अपनी ही बनाई गई मूर्तियों के सामने घुटने टेके हुए, तो बहुत हंसते होंगे कि पृथ्वी के आदमी पागल मालूम होते हैं।
छोटे बच्चों पर हम नाराज होते हैं और छोटे बच्चों को हम नासमझ कहते हैं, क्योंकि वे गुड्डे-गुड्डियों के विवाह रचाते हैं। और जब हम रामचंद्रजी की बरात निकालते हैं, हम बड़े बुद्धिमान हो जाते हैं। हम जरा बड़े गुड्डा-गुड्डी बनाते हैं तो हम बहुत बुद्धिमान हैं, हम बचकाने नहीं हैं, और छोटे बच्चे बचकाने हैं! वे बच्चे हैं, इसलिए गुड्डे-गुड्डी का विवाह रचा रहे हैं। और छोटी लड़कियां गुड्डियों को रख कर सुला रही हैं, बच्चे समझ कर। हम उन पर हंसते हैं, कि बच्चे हैं, थोड़े दिन में बड़े हो जाएंगे फिर छोड़ देंगे ये नासमझियां। लेकिन बड़े बच्चे जो हैं, वे भी छोटे नहीं हैं, उनसे बड़ी आशा नहीं बंधती। बड़े बच्चे बड़ी गुड्डियां बनाएंगे, छोटे बच्चे छोटी गुड्डियां बनाएंगे। छोटे बच्चों की गुड्डियां बड़ी सस्ती हैं, बड़े बच्चों की गुड्डियां बहुत मंहगी हैं। इतनी मंहगी हैं कि आदमी मर जाते हैं गुड्डियों के पीछे। रामचंद्र जी का हाथ कोई तोड़ दे, फिर दस-पचास मुसलमानों को मारना पड़ेगा। मस्जिद की दीवाल कोई गिरा दे तो सौ-पचास हिंदुओं को मारना पड़े। बड़ी मंहगी ईंटें हैं इन मंदिरों और मस्जिदों की। इनमें खून ही खून लगा है आदमी का। और ये मूर्तियां, जिनको आप भगवान कह रहे हैं, ये भी बड़ी मंहगी हैं। इनके नीचे कब्रें बिछी हैं आदमी की, लाशें पड़ी हैं आदमी की, और उनकी पूजा चली जा रही है।
मैं नहीं कहता हूं कि वहां भगवान नहीं है। क्योंकि जब भगवान सभी में है तो मूर्ति भर को छोड़ कर कैसे बचेगा। यह मैं नहीं कह रहा हूं। मेरी बात ठीक समझ लेना। जिन्होंने मूर्ति ईजाद की है उन्होंने इसीलिए की है कि ताकि वह सबमें न दिखाई पड़े। इधर मरे-मराए को पकड़ा दें, इसको हम पूजते रहें। फिर और सुविधा है। मरे-मराए भगवान का ही पुजारी हो सकता है। जिंदा भगवान का कोई पुजारी नहीं हो सकता। जिंदा भगवान से सीधा संबंध करना होगा। मरे हुए भगवान में बीच में एक एजेंट होगा। क्योंकि मरे भगवान खुद तो बोल नहीं सकते। एजेंट से बोलेंगे। मरे भगवान खुद तो कुछ कर नहीं सकते। भोग लगेगा मरे भगवान को, भोग लेगा पुजारी। तो मरा भगवान पुजारी को बीच में खड़े होने का अवसर देता है। इसलिए पुजारी मरे भगवान में बहुत उत्सुक है, जीवित भगवान में उसकी कोई उत्सुकता नहीं है। बल्कि मरे भगवान के लिए जीवित भगवान की वे हत्या करवा सकते हैं, उसकी उन्हें कोई तकलीफ नहीं है। सारे हिंदू-मुस्लिम, सारे ईसाई, सारे जैन सारी दुनिया में ऐसी गंवारियां, ऐसी बेवकूफियां कर रहे हैं। सोच कर हैरानी होती है कि ये धार्मिक लोग हैं? और जो यह आदमी को छुरा भोंक दें, इनको जब आदमी में भगवान नहीं दिखता, इतना जीवन, उनको पत्थर की मूर्ति में दिखता होगा, यह विश्र्वास नहीं आ रहा है। जिनको आदमी में नहीं दिखता, वे कहते हैं आदमी मुसलमान है। आदमी में भगवान नहीं दिखता है, आदमी हिंदू है। पत्थर में उन्हें भगवान दिख जाता है। पत्थर में भगवान दिख जाता है। अब हो सकता है किसी मुसलमान कारीगर ने ही भगवान खोदा हो। और अक्सर ऐसा ही होता है कि सब कारीगर अधिकतर मुसलमान हैं जो पत्थर खोदते हैं। वह मुसलमान कारीगर ने पत्थर खोदा, वह भगवान हो गया। और मुसलमान की छाती पर छुरे भोंक सकते हैं और आग लगा सकते हैं। धर्म के नाम पर जो अब तक चला है उसे बचाने की अब आगे जरूरत नहीं है। उसके लिए बहाने मत खोजें।
वह जो पूछा है मित्र ने, कि
भगवान, जब सभी में भगवान है तब तो फिर मूर्ति में भी भगवान हो गया। तो अगर हम मूर्ति की पूजा करें, आपको एतराज क्या है?
बहुत एतराज है। एतराज बहुत है। और एतराज यही है कि जब तक वह मूर्ति पकड़ी रहेगी तब तक वह सबमें दिखाई नहीं पड़ेगा। और एक दफे सबमें दिख जाने दें, फिर मूर्ति में भी होगा। लेकिन पूजा की क्या जरूरत रह जाएगी। कौन पूजेगा? किसको पूजेगा? जब सबमें ही दिखाई पड़ जाएगा।
एकनाथ लौटते थे काशी से और सारे मित्र साथ थे। तो पानी लेकर जा रहे हैं रामेश्र्वरम चढ़ाने। बीच में एक मरुस्थल पड़ा और एक प्यासा गधा पड़ा था। गधे में और भगवान हो सकते हैं? कभी नहीं हो सकते। गधे में कहीं भगवान हो सकता है?
अभी पहले किताबों में हुआ करता था ग गणेश जी का, तो कुछ किताबों में लोगों ने लिख दिया, ग गधे का। तो धार्मिक लोगों ने बड़ा विरोध किया कि यह तो बड़ी गलत बात है। ग गणेश जी का ही होना चाहिए, ग गधे का कैसे हो सकता है? गधे में कहीं भगवान हो सकते हैं? अब मजा यह है कि गणेश जी बिलकुल मरे हुए हैं और गधा बहुत जिंदा है। जब मरे-मराए गणेश जी में भी हो सकते हैं तो गधे में क्यों नहीं हो सकते?
एकनाथ की मित्र-मंडली जा रही है। वह गधा प्यासा तड़प रहा है। रेगिस्तान है, पास पानी नहीं है। लेकिन वह भगवान के पुजारी काशी से पानी लेकर रामेश्र्वरम चले जा रहे हैं। बड़े भक्त हैं, पक्के भक्त मालूम होते हैं। इतनी लंबी यात्रा कर रहे हैं।
नासमझियों में कष्ट उठाने से कोई भक्त नहीं हो जाता। सिर्फ बुद्धिहीन सिद्ध होता है। अब पहला तो यही पागलपन है कि काशी का पानी काशी में ही ठीक है, रामेश्र्वरम का रामेश्र्वरम में। तुम यह परेशानी क्यों कर रहे हो कि तुम काशी से भर कर और रामेश्र्वरम ले जा रहे हो? और जो भगवान वहां पानी गिरा रहा है वह रामेश्र्वरम में भी काफी गिरा रहा है, वहां कोई कमी नहीं है। और तुम्हारे एक तंबू से वहां कुछ बढ़ती हो जाने वाली नहीं है। लेकिन बुद्धिहीनता धर्म के नाम से चल रही है। और वे बड़ा कष्ट उठा रहे हैं, गांव-गांव में उनका स्वागत हो रहा है, क्योंकि उन्हीं तरह के बुद्धिहीन वहां भी इकट्ठे हैं। वे कह रहे हैं, ये बहुत बड़ा कार्य कर रहे हैं। ये तीर्थयात्रा से लौट रहे हैं, ये तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं।
कौन सी तीर्थयात्रा हो गई? यह पड़ा है गधा और प्यास से चिल्ला रहा है। एकनाथ भी उस मंडली में हैं। उन्होंने अपना वह जो कमंडल भर कर लाए थे वह गधे को पिला दिया। सारी मंडली टूट पड़ी कि तुम बड़े अधार्मिक हो, पागल हो गए हो? यह तो रामेश्र्वरम के भगवान के लिए लाए थे। एकनाथ ने कहा: रामेश्र्वरम के भगवान पता नहीं प्यासे होंगे या नहीं। और होंगे तो वहां हम और पानी भर लेंगे। लेकिन ये भगवान बहुत प्यासे हैं। एकनाथ को मंडली ने अलग किया कि हटो तुम अलग, नास्तिक मालूम होते हो। धार्मिक नहीं मालूम होते हो। गधे को पानी पिलाते हो। गधे में भगवान है?
यह जो जीवन हमारे चारों तरफ फैला है उसमें हमें दिखाई नहीं पड़ते हैं और एक पत्थर की मूर्ति हम बाजार से खरीद कर लाते हैं, उसमें हमें दिखाई पड़ जाते हैं? संभव नहीं दिखता है। गणित उलटा मालूम होता है। हां, जिस दिन सबमें दिख जाएंगे, उस दिन उस पत्थर में भी दिख जाएंगे। लेकिन सबमें तो नहीं दिखाई पड़ रहे हैं।
वे मेरे मित्र पूछते हैं कि
भगवान, सबमें आप मानते हैं?
मैं मानता नहीं हूं। मानने की जरूरत ही नहीं है। सबमें है, इसको देखने की जरूरत है, मानने की कोई जरूरत नहीं है।
यह अंतिम बात और। एक सूत्र आपसे कहूं, कि जो मान लेगा कि सबमें है, वह कभी न जान पाएगा। मान लेना बाधा बनेगी, मान लेने का कोई मतलब नहीं है। मानने की क्या जरूरत है? अगर दिखते हों तो ठीक, न दिखते हों तो ठीक। कम से कम सच्चाई की घोषणा तो करनी चाहिए कि मुझे नहीं दिखते।
एक फकीर हुआ, सरमद। इस्लाम में पवित्र मंत्र की तरह यह बात कही जाती है: एक ही अल्लाह है, और कोई अल्लाह नहीं है। एक ही ईश्र्वर है, और कोई ईश्र्वर नहीं। लेकिन वह जो सरमद था वह आधा ही हिस्सा कहता था। वह पूरा नहीं कहता था। वह कहता था: कोई ईश्र्वर नहीं है। पहला हिस्सा है, एक ही ईश्र्वर है। उसके सिवाय कोई ईश्र्वर नहीं है। वह सरमद आखिरी का टुकड़ा ही कहता था। वह कहता था: कोई ईश्र्वर नहीं। उसको औरंगजेब ने बुलवाया और उससे कहा कि मैंने सुना है तुम बड़ी अधार्मिक बातें कहते हो। हमने सुना है, तुम कहते हो, कोई ईश्र्वर नहीं है?
उसने कहा: अभी हम इतना ही जान पाए। हम जितना जान पाए हैं उतना ही कहेंगे, उससे ज्यादा हम कैसे कहें? हम कैसे कहें कि एक ही ईश्र्वर है। हमने देखा ही नहीं, हमने जाना ही नहीं। अभी तो हम इतना ही जान पाए हैं कि कोई ईश्र्वर नहीं है। बहुत खोजा, कहीं ईश्र्वर नहीं दिखाई पड़ा। औरंगजेब ने कहा: यह नास्तिक है, इसकी हत्या कर देनी चाहिए। औरंगजेब ने कहा: इतना कह देने में तुम्हारा क्या बिगड़ता है? उसने कहा: बहुत बिगड़ता है। क्योंकि भगवान की खोज में निकले हैं हम, और अगर झूठ से शुरुआत की तो सत्य तक कैसे पहुंचेंगे? खोज में निकला हूं कि है कहीं ईश्र्वर? अभी इतना ही जान पाया कि कहीं नहीं है। जिस दिन जान लूंगा कि है, उस दिन कहूंगा। उसके पहले नहीं कहूंगा।
आखिर बहुत समझाने-बुझाने का कोई परिणाम नहीं हुआ। वह राजी न हुआ यह बात कहने को। उसने कहा, झूठ मैं कैसे कहूं? मुझे दिखे। तुम्हें दिखता होगा, तुम कहते हो। मुझे नहीं दिख रहा है। आखिर उसकी गर्दन काट डाली गई। बड़ी अदभुत कहानी है, बहुत अदभुत कहानी है। पता नहीं कैसे घटी। गर्दन उसकी काटी गई। जैसे ही उसकी गर्दन गिरी, कहते हैं और कोई एक लाख आदमी इकट्ठे थे देखने को। आंखों के गवाह इतने मौजूद थे। जैसे ही उसकी गर्दन कटी, उसने कहा: एक ही ईश्र्वर है, और कोई ईश्र्वर नहीं। तो लोगों ने कहा: पागल! पहले क्यों नहीं कह दिया? तो उसने कहा: तब तक नहीं दिखाई पड़ा था तो कैसे कहता? अब दिख गया, तो कहता हूं।
कटी हुई गर्दन ने पता नहीं कहा कि नहीं, लेकिन कटी हुई गर्दन से यह आवाज है। सरमद ने कहा: अब दिखाई पड़ गया। उसकी गर्दन लुढ़कती है मस्जिद पर, जिस पर वह काटा गया है। सीढ़ियों पर लहू के निशान और उसकी गर्दन लुढ़कती आती है। और भीड़ उससे पूछती है, कि अब क्यों दिख गया? उसने कहा: तब तक सरमद था, इसलिए दिखाई नहीं पड़ा। अब सरमद कट गया तो दिखाई पड़ गया। और मैं कहता हूं, एक ही ईश्र्वर है, और कोई ईश्र्वर नहीं।
यह आपसे मैं नहीं कहता कि आप मान लें कि ईश्र्वर सबमें है, जीवन ईश्र्वर है। यह मैं नहीं कहता हूं कि आप मान लें। आप मान लेंगे तो झूठ में पड़ जाएंगे। ऐसे झूठ में कभी मत पड़ना। ऐसे तो झूठ में काफी पड़े हुए हैं। ईश्र्वर तक के संबंध में हमने झूठ ईजाद कर लिए हैं। जो मुझे पता है, उससे ज्यादा कहीं नहीं है, उससे ज्यादा मानने की कोई जरूरत ही नहीं है। कौन कहता है कि उससे ज्यादा मानें? अभी इतना ही मानें कि मुझे पता नहीं है, अच्छा है। इतनी सच्चाई काफी है। इतनी सच्चाई यात्रा के लिए काफी पाथेय है, इसको लेकर यात्रा हो जाएगी। इतना बहुत है। इतनी ईमानदारी काफी है कि मुझे पता नहीं; मुझे तो वृक्ष दिखाई पड़ता है, मुझे ईश्र्वर दिखाई नहीं पड़ता। नहीं दिखाई पड़ता है तो बहुत अच्छा है, वृक्ष भी क्या खराब है। वृक्ष भी बहुत अच्छा है। न दिखाई पड़े ईश्र्वर तो वृक्ष को ही देखें अभी कुछ दिन। जल्दी क्या है?
लेकिन मैं कहता हूं कि वृक्ष को गहरे देखेंगे तो ईश्र्वर दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन और गहरे, और गहरे, और गहरे। लेकिन सच्चाई गहरे में जा सकती है, झूठ गहरे में नहीं जा सकता है। सब विश्र्वास झूठे हैं; सब बिलीफ झूठी हैं; सब मान्यताएं झूठी हैं। सब पकड़े हुए शास्त्र, चूंकि हमारे अनुभव से नहीं आते हैं, हमारे लिए बिलकुल झूठे हैं। और उनको पकड़ कर हम बैठे हैं इसलिए सत्य की कोई यात्रा नहीं हो पाती है।
मैं तो कहता हूं कि जिसे आस्तिक होना हो उसे नास्तिक होना ही पड़ता है। जिसे परम आस्तिक होना हो उसे परम नास्तिकता तक जाना पड़ता है। जिसे ‘हां’ भरना हो किसी दिन पूरे प्राणों से, उसे पूरे प्राणों से एक दिन ‘नहीं’ भी कहनी पड़ती है। लेकिन हम ‘हां’ कहने में ऐसे लोलुप हैं कि नहीं कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते और ‘हां’ कह देते हैं। हमारी ‘हां’ नपुंसक होती है। जो आदमी ‘न’ नहीं कह सकता उसकी ‘हां’ का कोई मतलब नहीं है। इसलिए जो आदमी ‘हां’ कहने की हिम्मत जुटाना चाहता हो उसे ‘न’ कहने की हिम्मत पहले जुटा लेनी चाहिए। लेकिन इतना पक्का है कि हमारी ‘न’ से वह ‘न’ नहीं हो जाता। वह है, तो हमारी ‘न’ भी टूट जाएगी और नहीं है तो ठीक है हमारी ‘न’ ठीक रहेगी। इतना मैं कहता हूं कि ‘न’ कहने वाला अगर हिम्मत से ‘न’ कहे तो वह परमात्मा की आंखों में एक जगह बना लेता है। नास्तिक की एक जगह है, झूठे आस्तिक की कोई भी जगह नहीं है। जो आदमी कहता है, मुझे नहीं दिखाई पड़ता, वह भगवान भी सामने खड़ा हो जाए तो वह कहेगा, अभी मुझे दिखाई नहीं पड़ता है तो मैं कैसे हां कह दूं।
भगवान झूठ के लिए किसी को मजबूर कर सकता है? नहीं, नास्तिकों की उसके हृदय में एक जगह है, क्योंकि कम से कम वे सच्चे तो हैं। इतना तो कहते हैं--नहीं मालूम पड़ता। लेकिन जो कहता है--हमें मालूम नहीं पड़ता, वह खोज पर निकल जाता है। क्योंकि न मालूम पड़ने पर कोई भी कभी रुक नहीं सकता। ‘न’ पर कभी कोई ठहर सकता है? ‘न’ कभी मंजिल नहीं हो सकती। मंजिल तो ‘हां’ ही हो सकती है। ‘न’ में तो पीड़ा बनी ही रहेगी। तो और खोजो, पता नहीं और आगे हो, और आगे हो, और आगे हो। खोजते-खोजते ‘न’ गिर जाती है और ‘हां’ आ जाती है। लेकिन यह मान्यता की बात नहीं है, यह जानने की ही जरूरत है। और जानने का उपाय है, जानने का मार्ग है। उसे ही मैं ध्यान कहता हूं।
कल सुबह हम उस मार्ग पर फिर प्रवेश करेंगे कि हम उसे कैसे जान सकते हैं। तो सुबह साढ़े आठ बजे जो मित्र आते हैं, आ जाएं।
आज की रात की बात पूरी हुई।
सबके भीतर बैठे परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूं।
‘जीवन ही है प्रभु’ इस संबंध में एक मित्र ने पूछा है,
भगवान, कैसे दिखाई पड़े फिर हमें कि जीवन ही प्रभु है? क्योंकि हमें तो चारों ओर दोष ही दिखाई पड़ते हैं। सबमें दोष दिखाई पड़ते हैं। ‘क्यों दिखाई पड़ते हैं सबमें दोष?’ इस संबंध में उन्होंने पूछा है।
प्रभु की खोज में एक सूत्र यह भी है, इसलिए इसे समझ लेना जरूरी है। निश्र्चित ही दोष दिखाई पड़ते हैं दूसरों में। कारण क्या है? कारण है सिर्फ एक--अपने अहंकार की तृप्ति। दूसरे में दोष दिखाई पड़ता है। दूसरे में दोष की खोज चलती है। उसका राज छोटा सा है।
शायद यह घटना सुनी होगी कि अकबर ने एक दिन अपने दरबार में एक लकीर खींच दी और अपने दरबारियों से कहा: इसे बिना छुए, बिना मिटाए छोटी कर दो। वे बहुत हार गए, परेशान हो गए। बीरबल उठा और उसने एक बड़ी लकीर खींच दी। उसी छोटी लकीर के पास एक बड़ी लकीर खींच दी। वह लकीर उतनी ही रही, न मिटाई, न छोटी की, लेकिन छोटी हो गई।
जब हम दूसरे में दोष की तलाश में निकल जाते हैं, तब हम दूसरे की लकीर छोटी कर रहे हैं; ताकि हमें अपनी लकीर बड़ी लकीर मालूम पड़ने लगे। अपने को बड़ा देखने का सरलतम रास्ता यही है कि हम दूसरे को छोटा करके देखना शुरू कर दें। दूसरा रास्ता अपने को बड़ा करने का बहुत कठिन है, कि हम सच में अपने को बड़ा करें। उसमें अपने को छूना पड़ेगा, बदलना पड़ेगा, मिटाना पड़ेगा, नया करना पड़ेगा। सरल रास्ता यह है कि अपने को छूना ही न पड़े। अपने में कुछ फर्क ही न करना पड़े। हम जैसे हैं वैसे ही रहें, और बड़े हो जाएं। तो सरल रास्ता यह है कि हमारे पास जो भी आते हों, उनको हम छोटा करके देखें।
अगर जिंदगी में बड़ी यात्रा करनी हो और जीवन को उन महान रास्तों पर ले जाना हो कि जीवन में महानता का सूर्य निकले, तब तो फिर बहुत कुछ करना पड़ेगा। खुद को मिटाना पड़ेगा, नया करना पड़ेगा; खुद को बदलना पड़ेगा। मेहनत की बात होगी, श्रम लगेगा, साधना लगेगी। इतनी मेहनत में जाने को कोई आतुर नहीं है, उत्सुक नहीं है।
तो सरल तरकीब, शॉर्टकट, निकटतम का रास्ता, जिसमें बिना कुछ किए मुफ्त में हम बड़े हो जाते हैं, वह एक ही है कि जो भी हमारे निकट आता हो, उसे हम छोटा करके देख लें। और जब हम तय ही कर लें किसी को छोटा करके देखने का तो दुनिया की कोई ताकत हमें रोक नहीं सकती। क्योंकि हमारी मर्जी की बात है। हम छोटा करके देख ही सकते हैं। हम किसी को भी छोटा करके देख सकते हैं।
लेकिन इस भांति जो हमारे भीतर बड़ा हो जाता है, वह हमारी आत्मा नहीं है। इस भांति जो हमारे भीतर बड़ा हो जाता है, उसी का नाम अहंकार है। अगर हम अपने को बदलेंगे तो आत्मा बड़ी हो जाएगी। इतनी बड़ी हो सकती है कि पूरे परमात्मा के साथ एक हो जाए। अपने को बदलेंगे तो आत्मा बड़ी होगी और अपने को बिना बदले अगर बड़ा करना है तो अहंकार बड़ा होगा, मैं बड़ा हो जाऊंगा। आत्मा तो और छोटी हो जाएगी।
और यह भी ध्यान रहे, अहंकार जितना बड़ा होगा, आत्मा उतनी छोटी हो जाएगी और अहंकार जितना छोटा होगा, आत्मा उतनी बड़ी हो जाएगी।
तो जो व्यक्ति भी अपने अहंकार को बड़ा करने में लगा है, वह जाने अनजाने बहुत गहरे अर्थों में नुकसान उठा रहा है। हां, ऊपर उसे फायदे दिखाई पड़ेंगे। अहंकार को बड़ा करके देखेगा, दूसरे छोटे दिखाई पड़ेंगे, खुद बड़ा दिखाई पड़ेगा। लेकिन जितना अहंकार बड़ा होगा, उतनी भीतर आत्मा छोटी होती चली जाएगी। और जितना अहंकार बड़ा होगा, परमात्मा से मिलन का रास्ता उतना ही मुश्किल होता चला जाएगा। क्योंकि मेरे ‘मैं’ के अतिरिक्त मुझे और कोई भी रोके हुए नहीं है। और जब तक मैंने जिद्द की है कि मैं ‘मैं’ रहूंगा, तब तक मैं विराट से मिल नहीं सकता हूं। वही तो बाधा बनेगी।
इसीलिए हम दूसरे में दोष देखने के लिए आतुर होते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि दूसरों में दोष नहीं होते। इसका यह मतलब भी नहीं है कि दूसरों में दोष हैं ही नहीं। दूसरों में दोष हों या न हों, यह सवाल गौण है। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हम दूसरों में दोष देख कर अपने को बड़ा करने की चेष्टा में संलग्न हैं? अगर हम इस चेष्टा में संलग्न हैं तो हम बहुत आत्मघाती हैं। हम अपने हाथ से अपने को नुकसान पहुंचा रहे हैं, किसी और को नहीं। जिसके हम दोष देख रहे हैं उसे तो फायदा भी हो सकता है हमारे दोष देखने से। लेकिन हमें फायदा नहीं हो सकता। हो सकता है, हमारे दोष देखने से वह दोष को बदलने में लग जाए। वह अपनी कमियों को बदलने में लग जाए, हमारे दोष देखने से। लेकिन अगर हमारा अहंकार तृप्त होता हो तो हम बहुत खतरनाक ढंग से अपने ही हाथ-पैर काटने में लगे हैं। हमें कोई हित न होगा।
लेकिन एक इससे उलटी भ्रांति भी चलती है। एक भ्रांति तो यह है कि हम सबमें दोष ही देखेंगे। इससे एक उलटी भ्रांति भी है कि अगर दोष होंगे भी तो हम आंख बंद कर लेंगे, हम दोष न देखेंगे। वह उलटी भ्रांति भी खतरनाक हो सकती है; और वह भी अहंकार को बढ़ाने वाली हो सकती है। अगर मैंने यह तय कर लिया है कि मैं किसी के दोष देखूंगा ही नहीं, तो मेरे भीतर एक नये तरह का अहंकार बढ़ना शुरू होगा कि मैं ऐसा आदमी हूं जो किसी के दोष कभी नहीं देखता। चोर सामने चोरी करेगा तो मैं आंखें बंद कर लूंगा, और चार गुंडे एक स्त्री पर हमला करेंगे तो मैं पीठ फेर कर अपने रास्ते पर चला जाऊंगा। मैं किसी के दोष नहीं देखता हूं। और चूंकि मैं दोष नहीं देखता हूं इसलिए मैं एक बहुत महान आदमी हूं।
पहली भूल में अहंकार तृप्त होता है, दूसरी भूल में भी तृप्त हो सकता है। इसलिए असली सवाल दोष देखने और न देखने का नहीं है, सवाल है देखने से, न देखने से अहंकार को तो नहीं भर रहे हैं हम अपने?
लेकिन जो आदमी अहंकार नहीं भर रहा है, वह सिर्फ देखता है। उसे दोष दिखाई पड़ सकते हैं, निर्दोषता भी दिखाई पड़ सकती है। वह वही देखता है जो है, उस जो है के देखने से अपने अहंकार को न भरता है, न छोटा करता है, न बड़ा करता है।
एक बात चलती है कि साधु को किसी के दोष नहीं दिखाई पड़ते। गलत है वह बात। एकदम व्यर्थ है वह बात। असाधु को सबमें दोष ही दोष दिखाई पड़ते हैं, यह भी झूठ है। और साधु को बिलकुल दोष न दिखाई पड़ें, यह भी उतना ही झूठ है। दोष हैं। और एक ही आदमी में दोनों बातें हो सकती हैं। एक आदमी पापी भी हो सकता है और साथ ही बड़ा पुण्यात्मा भी हो सकता है। इन दोनों में कुछ विरोध नहीं है। ऐसा नहीं है कि एक आदमी पुण्यात्मा ही होता है, और ऐसा भी नहीं है कि एक आदमी पापी ही होता हो। जिंदगी बहुत जटिल है। यहां एक ही आदमी में काले और सफेद रंग के सब भूत दिखाई पड़ सकते हैं। यहां एक ही आदमी घड़ी भर पहले इतनी महानता प्रकट कर सकता है, और घड़ी भर बाद एकदम क्षुद्र हो सकता है। यहां एक आदमी प्रेम कर सकता है, घृणा कर सकता है। वही आदमी। वही आदमी एकदम स्वार्थी हो सकता है, और वही आदमी किसी क्षण में परार्थ में अपना जीवन भी लगा सकता है।
जीवन बहुत जटिल है। आदमी सरल-सीधा नहीं है कि हम एक निर्णय कर लें कि यह आदमी कांटा ही कांटा है, और वह आदमी फूल ही फूल है। नहीं, यहां एक ही गुलाब पर फूल भी लगते हैं और कांटे भी। यहां जिंदगी बहुत जटिल है। यहां कांटे और फूल एक ही पौधे में भी लग जाते हैं। असाधु की एक भूल है कि वह कहता है, हमें दोष ही दोष दिखाई पड़ते हैं। साधु की उलटी भूल है और असल में साधु जिसे हम कहते हैं वह असाधु का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। असाधु जैसा खड़ा है, साधु उससे उलटा शीर्षासन करके खड़ा हो जाता है और साधु हो जाता है। जो-जो असाधु करता है वह वह नहीं करता है। उससे उलटा करने लगता है। असाधु को दोष दिखाई पड़ते हैं तो साधु को दोष दिखाई ही नहीं पड़ते।
लेकिन जो आदमी शांत, मौन, सिर्फ देखने में साक्षी भाव रखेगा, उसे दोष भी दिखाई पड़ेंगे और निर्दोषता भी दिखाई पड़ने लगेगी। उसे जो बुरा है, वह बुरा भी दिखाई पड़ेगा, जो भला है, वह भला भी दिखाई पड़ेगा। फर्क इतना ही पड़ेगा कि वह दूसरे में भला देखने के लिए आतुर नहीं है, न दूसरे में बुरा देखने को आतुर है। वह वही देखने को आतुर है जो है। जो है, सत्य को ही देखने को आतुर है। अपनी तरफ से कुछ भी थोपने को आतुर नहीं है।
असाधु कहता है--हम सब पर दोष थोप कर रहेंगे। साधु कहता है--हम सबको निर्दोष करके रहेंगे। वे दोनों अपनी इच्छाएं दूसरों पर थोपते हैं। लेकिन इन दोनों से भिन्न, जिसको हम ठीक-ठीक द्रष्टा कहें, वह वही देखता है, जो है। वह उस जो है में जरा भी फर्क नहीं करता। जो जैसा है, वैसा ही देखता है। और जब कोई दूसरे को वैसा ही देखता है जैसा है, तभी वह समर्थ हो पाता है अपने को भी वैसा ही देखने में जैसा वह है।
जो दूसरे में दोष देखेगा, वह सदा अपने को निर्दोष देखेगा। जो दूसरे को निर्दोष देखेगा, वह सदा अपने को दोषी देखेगा। मैंने कहा कि एक-दूसरे के उलटे हैं ये। अगर एक आदमी तय कर ले कि मैं सबमें बुरा देखूंगा तो उसे सबमें बुराई दिखाई पड़ेगी, सिर्फ अपने को छोड़ कर। क्योंकि नहीं तो फिर मजा ही न रह जाएगा दूसरे में बुराई देखने से। अपने को भला बनाता जाएगा, दूसरे को बुरा बनाता जाएगा। इससे उलटा आदमी भी है। वह कहता है कि हम किसी में दोष नहीं देखेंगे। सबको निर्दोष देखेगा तो अपने में दोष देखना शुरू कर देगा। यहां तक भी कर सकता है साधु कि भूल आप करें और दंड वह अपने को दे। चोरी आप करें, उपवास वह करे, यह भी कर सकता है। लेकिन यह उलटी स्थिति हो गई, यह सम्यक दर्शन न हुआ, राइट व़िजन न हुआ। यह ठीक-ठीक दर्शन न हुआ।
ठीक दर्शन का मतलब है, सोने को सोना देखेंगे, मिट्टी को मिट्टी देखेंगे। वह भी आदमी पागल है जो मिट्टी को सोना देखता है और वह आदमी भी पागल है जो सोने को मिट्टी देखता है। मिट्टी को तो मिट्टी देखता है, सोने को वह सोना देखता है।
तो मैं आपसे नहीं कहता कि किसी में दोष न देखें। मैं आपसे यह कहता हूं--किसी में दोष इसलिए मत देखें कि अपने को निर्दोष सिद्ध करना है। तब गलत बात है। और मैं यह भी नहीं कहता कि सभी को निर्दोष देखें, क्योंकि सभी निर्दोष नहीं हैं। अगर सभी निर्दोष होते तो दुनिया बहुत अच्छी हो गई होती, जिंदगी बदल गई होती, फिर तो साधु-संन्यासी की कोई जरूरत न होती। हम कहते तो हैं कि साधु किसी में दोष नहीं देखता, तो फिर साधु समझाता क्या है? बताता क्या है? लोगों को सुधारने की कोशिश क्या कर रहा है? अगर सभी निर्दोष हैं, तो साधु को आत्महत्या कर लेनी चाहिए। क्योंकि फिर बदलना किसको है? अगर सभी परमात्मा हैं, तो उपदेश किसको दिया जा रहा है? समझाया किसको जा रहा है? नहीं, कहीं कुछ भूल है जिसको बदलना है। कहीं कोई चूक है जिसे बदलना है। नहीं तो जरूरत ही नहीं है कोई।
ठीक दर्शन चाहिए, अपना भी, दूसरे का भी। स्वयं का भी, बाहर का भी। और ठीक दर्शन बहुत अदभुत बातें दिखाएगा। उस ठीक दर्शन में यह भी दिखाई पड़ेगा कि जब मैं दूसरे में दोष देख रहा हूं तो मूल कारण दूसरे का दोष है या दूसरे में दोष देखने का मेरा आनंद है, यह भी दिखाई पड़ेगा। तब मैं सोचूंगा, समझूंगा कि जब मैं किसी को चोर कहना चाहता हूं तो सच में मैं उसकी चोरी के कारण कहना चाहता हूं, या कि सिर्फ इसलिए चोर कहना चाहता हूं ताकि मैं अपने भीतर समझ सकूं कि मैं चोर नहीं हूं।
बर्ट्रेंड रसल ने कहीं कहा है कि अगर कहीं चोरी हो जाए तो जो आदमी सबसे जोर से चिल्ला रहा हो कि चोरी हो गई, पकड़ो कोई, चोर भाग गया, पहले उसको पकड़ लेना। क्योंकि बहुत संभावना यह है कि उसी ने चोरी की है। क्योंकि चोरी से बचने की सबसे सरल तरकीब यही है कि आप इतने जोर से चोरी के खिलाफ चिल्लाएं कि कोई यह सोच ही न सकेकि इसने चोरी की है। कैसे आप सोचेंगे, जो आदमी खुद ही चिल्ला रहा है उसको तो फिर कोई नहीं पकड़ेगा। जो नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत ज्यादा शोरगुल मचाता हो और कहता हो कि मिटा देंगे भ्रष्टाचार, एक साल में खतम कर देंगे, ऐसा कर देंगे, उसको तो फौरन पकड़ कर सूली पर लटका देना चाहिए। यह आदमी खतरनाक है। यह आदमी शोरगुल जो मचा रहा है, इसके पीछे कारण है। इसके पीछे कारण यह है कि इतने शोरगुल में एक बात तो पक्की हो जाएगी कि यह आदमी भ्रष्टाचारी नहीं है। फिर बाकी दुनिया होगी। कोई बदल नहीं पाता। दुनिया को अभी तक कोई नहीं बदल पाया कि एक साल में कोई बदल दे। वह नेता का ही पता नहीं चलता कि साल भर बाद वह नेता रहा कि नहीं, कहां है, कहां नहीं। लेकिन इतने जोर से जब कोई चिल्लाता है तो उसका कारण है मनोवैज्ञानिक। सरलतम तरकीब यही है। इसीलिए जब एक चोर पकड़ा जाता है तो बाकी चोर उसकी निंदा में संलग्न हो जाते हैं फौरन। गांव में एक चोर पकड़ा जाएगा तो पूरा गांव निंदा करेगा, पूरा गांव निंदा करेगा कि बहुत बुरी बात है, चोरी बहुत बुरी बात है। और हर आदमी बढ़-बढ़ कर जोर से बात करेगा कि पड़ोसी ठीक से सुन लें कि मैं भी चोरी के खिलाफ हूं। ताकि पता चल जाए कि कम से कम मैं चोर नहीं होने वाला हूं।
जो व्यक्ति ठीक-ठीक देखने की कोशिश करेगा, उसे यह भी दिखाई पड़ेगा। उसे यह भी दिखाई पड़ेगा कि जब मैं दूसरे में भला देख रहा हूं तो मैं थोप तो नहीं रहा हूं! है भी भला वह या मैं थोप रहा हूं! क्योंकि कुछ लोग जिद्द किए हुए हैं कि वे भला ही देखेंगे। वे लोग भी खतरनाक हैं। इस देश में ऐसा ही हो गया है। इस देश में पांच हजार साल से ऐसे लोग हुए हैं, उन्होंने कहा, हम सबमें भलाई ही देखेंगे। इसलिए आज पृथ्वी पर इस देश से बुरा देश खोजना मुश्किल है। क्योंकि बुराई देखी नहीं, तो बुराई को बदलने का उपाय भी न रहा। जब किसी देश के सब समझदार आदमी यह तय कर लें कि हम भलाई ही देखेंगे, तो फिर उस देश में बुराई इकट्ठी होती चली जाएगी, उसको बदलेगा कौन? जब दिखाई ही न पड़ेगी तो बदलेगा कौन? तो हिंदुस्तान ने अपने साधुओं को अलग खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा, हम तो सबमें भला देखते हैं, हम तो बुरा देखते ही नहीं। तो फिर बुराई को बदला कैसे जाए?
समझ लें कि सब डाक्टर तय कर लें कि हम तो बीमारी देखते नहीं, सभी में स्वास्थ्य देखते हैं, तो फिर वह देश बीमार हो जाएगा। फिर उस देश में बीमारी जब कोई देखेगा ही नहीं तो बीमारी न देखने से समाप्त थोड़े ही हो जाएगी। न देखने से और बढ़ेगी। क्योंकि देखने से पकड़ी जा सकती थी, तोड़ी जा सकती थी, मिटाई जा सकती थी। लेकिन डाक्टर सब भले आदमी हो जाएं और वे कहें कि हम बुराई देखेंगे नहीं, हम बीमारी देखते ही नहीं। हम तो मरते आदमी में भी परम जीवन देखते हैं, हम तो कहते हैं कि यह तो बिलकुल स्वस्थ है। वह कैंसर से सड़ रहा है और हम देखते हैं कि कितना स्वास्थ्य का आनंद ले रहा है। हम तो बुराई देखते नहीं, हम तो साधु हैं। तो फिर कठिनाई हो जाएगी।
मेरी थोड़ी कठिनाई है, क्योंकि मैं जिंदगी को ठीक-ठीक देखने का आग्रह करना चाहता हूं। न तो मैं यह कहता हूं कि आप किसी पर बुराई थोप दें, उससे भी अहंकार बढ़ेगा। न मैं यह कहता हूं कि आप जबरदस्ती किसी पर भलाई थोपें, उससे भी अहंकार बढ़ेगा। मैं यह कहता हूं, जिंदगी जैसी है, उसको वैसा देखने की कोशिश करें। लकीरें मत खींचें। जितनी जो लकीर है, उसको वैसा ही देख लें कि वे कितनी हैं। दूसरी लकीर खींचने की कोशिश मत करें।
और देखने का दूसरा सूत्र भी समझ लें कि जो दूसरे में देखें, वह अपने में भी देखें। जिंदगी अलग-अलग नियम नहीं मानती है। जिंदगी के नियम एक हैं। अगर हम जिस भांति दूसरे में देखते हैं और जो नियम दूसरे के लिए बनाते हैं, वही नियम अपने लिए भी बना सकें तो जिंदगी बहुत ऊपर उठती है। लेकिन हम सब दोहरे स्टैंडर्ड में जीते हैं, दोहरे मापदंडों में। दूसरों के लिए दूसरा मापदंड होता है, अपने लिए दूसरा मापदंड होता है।
अगर मैं क्रोध करता हूं तो मैं कहता हूं कि वह परिस्थिति की वजह से भूल हो गई है। और अगर दूसरा क्रोध करता है तो वह पापी है, उसको नर्क जाना पड़ेगा। अगर मैं चोरी करता हूं तो मैं कहता हूं, मजबूरी थी। घर में खाना न था, पत्नी बीमार पड़ी थी, बच्चे रो रहे थे--मुझे चोरी करनी पड़ी। और अगर दूसरा चोरी करता है तो वह पापी है। दोहरे स्टैंडर्ड--दूसरे को और तराजू पर तौलते हैं, अपने को और तराजू पर तौलते हैं। दो तरह के बहीखाते ही नहीं हैं, दो तरह के एकाउंट्स ही नहीं हैं दुकानों में, आदमी के दिमाग में भी दोहरे बहीखाते हैं, दोहरे नियम हैं। दूसरे के लिए और हैं, अपने लिए और हैं। अपने को वह किसी और तराजू पर तौलता है, दूसरे को और तराजू पर तौलता है। यह बेईमानी की हद्द है। यह अनैतिकता की हद्द है। मैं इसको बड़ी से बड़ी अनैतिकता, इम्मारैलिटी कहता हूं जब हम दोहरे मापदंड का उपयोग करते हैं।
इकहरा मापदंड चाहिए। ठीक से जीवन को देखने वाला आदमी इकहरा मापदंड बनाता है। जिस तराजू पर अपने को तौलता है, उसी पर दूसरे को तौलता है। और ध्यान रहे, जब भी कोई आदमी एक तराजू बनाएगा, बहुत करुणावान हो जाएगा; कठोर कभी भी नहीं रह सकता। दो तराजू बनाएगा तो कठोर हो जाएगा, क्योंकि दूसरे को वह बिलकुल पाप के तराजू पर तौल लेगा कि यह आदमी पापी है, नरक में डालो, अदालत में घसीटो, सजाएं दो, फांसी लगाओ। लेकिन जब वह एक ही तराजू रखेगा तो वह समझेगा कि जब किसी को फांसी लग रही है तो वह सिर्फ इसीलिए लग रही है कि वह फंस गया है और मैं फंसा नहीं हूं। इससे ज्यादा फर्क नहीं है। और जब वह देखेगा, जब किसी और ने पाप किया है, तो वह यह समझेगा कि किसी और ने पाप किया है; उसका कुल कारण इतना है कि उसका पाप पकड़ गया है और मेरा पाप पकड़ नहीं पाया। अगर एक तराजू होगा तो हम जानेंगे कि हर अपराधी के साथ हम अपराधी हैं और हर पापी के साथ हम पापी हैं और हर बुरे आदमी के साथ हमारी बुराई का भी हिस्सा जुड़ा हुआ है। हम भी साथ में खड़े हुए हैं। तब हम इस भांति कंडेमनेशन, इस तरह की निंदा में न लगेंगे कि लगा दो गोली, मार दो, आग लगाओ, नरक में डालो। तब हम यह कहेंगे कि जो यह आदमी कर रहा है, जो इस आदमी से हो रहा है, वह हमसे भी हो रहा है। और तब हम सोचना शुरू करेंगे कि क्या उपाय बने, कैसे उपाय बने कि आदमी का समाज बदले, जिसमें मैं भी बदलूं और वह दूसरा भी बदले।
पुराने इतिहास का लंबा काल दोहरे मापदंड का काल है, इसलिए मनुष्य नैतिक नहीं हो पाया। क्योंकि नैतिकता का मूल-बिंदु करुणा ही, कंपेशन ही आदमी में पैदा नहीं हो सकी। आदमी कठोर हो गया। और यह बड़े मजे की बात है, जिसको हम नैतिक कहते हैं वह बहुत कठोर हो गया है। नैतिक आदमी बहुत ही कठोर होता है। नैतिक आदमी हद्द दर्जे की दुष्टता कर सकता है। लेकिन वह अपनी दुष्टता को भी नैतिकता का जामा पहना देता है। वह अपनी नैतिकता के लिए भी, अपनी कठोरता के लिए भी नैतिकता का करार देगा, उसको एकदम कठोरता का जामा पहना देगा। और चूंकि वह खुद भी अपने प्रति कठोर होता है इसलिए दूसरे के प्रति कठोर होने का लाइसेंस उसे मिल जाता है। अगर किसी को सताना हो तो सबसे सरल तरकीब यह है कि पहले अपने को सताना शुरू करो। अगर दूसरों से उपवास करवाना हो, भूखों मरवाना हो तो पहले उपवास खुद शुरू करो। अगर खुद उपवास करने की हिम्मत जुटा ली तो फिर आप किसी से भी उपवास करवाने की हिम्मत जुटा सकते हैं। और जो न करें, वे पापी हो जाएंगे, वे निंदित हो जाएंगे। अगर दूसरों को भी सिर के बल खड़ा करवाने की तकलीफ देनी है तो पहले खुद अभ्यास करके सिर के बल खड़े हो जाओ। फिर कोई आदमी यह न कह सकेगा कि यह आदमी कठोर है। बल्कि कोई भी आदमी यही कहेगा कि मैं बड़ा पापी हूं इसलिए शीर्षासन नहीं कर पा रहा हूं। आप बड़े पुण्यात्मा हैं।
नैतिकता जिसे हम कहते रहे हैं अब तक, वह भी दूसरे को सताने की बड़ी गहरी व्यवस्था है। इसलिए एक घर में एक आदमी नैतिक हो जाए तो सारा घर परेशान हो जाता है। एक आदमी को नैतिकता का भूत चढ़ जाए तो घर भर की गर्दन दबा लेता है। इसलिए नैतिक आदमी बहुत गहरी हिंसा में उतर जाता है। लेकिन दिखाई नहीं पड़ती। और उसका सारा कारण कितना है? सारा कारण इतना है कि उस सारी मनुष्यता की कमजोरी के साथ कभी अपने को एक साथ रख कर नहीं देख पाता, अपने को अलग रख लेता है। सारी मनुष्यता को अलग तराजू पर तौल देता है।
तो जो व्यक्ति जीवन के सत्य की खोज में निकला हो उसे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हम सब एक साथ ही एक ही तराजू पर तौले जाएंगे। हमारा पुण्यात्मा और हमारा पापी सब एक साथ खड़े हुए हैं। और जो बहुत गहरा देखेगा उसको यह भी पता चलेगा कि हमारा पुण्यात्मा और हमारे पापी अलग-अलग भी नहीं हैं, भीतर से जुड़े हुए हैं। बल्कि उसे यह भी दिखाई पड़ेगा कि हमारा पुण्यात्मा भी इसलिए पुण्यात्मा मालूम पड़ता है कि कोई पापी होने के लिए तैयार हो गया है। अगर रावण रावण होने से इनकार कर दे तो राम की कहानी एकदम विदा हो जाए, वह कहीं भी न रह जाए। वह रावण रावण होने को तैयार है इसलिए राम की कहानी प्रकट हो पाती है। और अगर जीवन के अंत में कहीं कोई निर्णय होता होगा तो उस निर्णय में राम की कहानी रावण के बिना अर्थहीन मालूम पड़ेगी और राम को महात्मा बनाने में रावण का हाथ भी अनिवार्य रूप से स्वीकार करना पड़ेगा। और रावण ने कितनी ही बुराइयां की हों, कम से कम एक तो बहुत बड़ा काम किया है कि राम को जन्म दे दिया है। और राम ने कितने ही अच्छे काम किए हों, एक बात तो पक्की है कि रावण को जन्म देने वाले वही हैं। इसलिए मैं यह कहता हूं कि महात्मा से महात्मा में पापी मिल जाएगा, पापी से पापी में महात्मा मिल जाएगा। ये चीजें टूटी हुई नहीं हैं, बहुत भीतर से जुड़ी हुई हैं।
आप एक नाटक देखने जाते हैं, तो आप देखते हैं कि नाटक में एक दुष्ट पात्र है, वह सता रहा है, सता रहा है, परेशान कर रहा है। वह चोरियां कर रहा है, वह स्त्रियों से बलात्कार कर रहा है, वह बच्चों की गर्दन दबा रहा है, वह बहुत दुष्ट है, वह सब तरह के उपद्रव कर रहा है। आपका मन उसके प्रति बड़े क्रोध से भर जाता है। फिर एक अच्छा पात्र है, एक साधु है, संत है, महात्मा है। वह उस बुरे आदमी से बचाने के लिए सेवा कर रहा है। आश्रम बना रहा है, सब उपाय कर रहा है। आपका मन उसके प्रति बड़े आदर से भर गया है। फिर नाटक समाप्त हो जाता है। वह जिसने पापी का काम किया, जिसने पुण्यात्मा का काम किया, वे दोनों गले में हाथ डाल कर पर्दे के पीछे से बाहर आते हैं। तब आप ऐसा नहीं कहते हैं उस बुरे आदमी से कि मारो इसको। तब आप उससे भी कहते कि बहुत अच्छा अभिनय किया। और तब आप उससे यह भी कहते हैं कि अगर तुम न होते तो महात्मा का पार्ट उभर न पाता। तुम थे तो उभरा। असल में कहानी के लेखक ने उस पापी को गहरे से गहरा पापी बनाने की कोशिश की है ताकि वह पुण्यात्मा उतने गहरे काले रंगों में सफेद और साफ और शुद्ध दिखाई पड़ सके। लेकिन वह पुण्यात्मा दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन नाटक के बाहर निकल कर हम जिसने पापी का काम किया है उसको सजा नहीं देते। लेकिन जिंदगी, जिंदगी में हम बड़े कठोर हैं।
लेकिन कौन कहता है कि जिंदगी एक बड़ा नाटक नहीं है? और कौन कहता है कि जिंदगी के पर्दे के बाहर राम और रावण गले में हाथ डाल कर बैठ कर चाय न
हीं पी रहे हैं? लेकिन हम बहुत थोड़ी दूर तक देखते हैं। असल में जिंदगी को हम पूरा नहीं समझ पाते, क्योंकि जिंदगी को हम एक बड़े नाटक की तरह नहीं देख पाते हैं।
मेरे पास, मैं अभी बंबई से आया, तो एक फिल्म अभिनेता मिलने आया। उसने मुझसे कहा कि मुझे कुछ आपसे अभिनय के बाबत पूछना है, और आपसे कैसे पूछूं, लेकिन किसी ने मुझे कहा है कि आप शायद कोई काम की बात कह सकें। मैं ठीक अभिनय कैसे करूं? उसने कहा कि बड़ी अजीब सी बात आपसे पूछ रहा हूं, क्योंकि पता नहीं आप इसका उत्तर भी देंगे कि नहीं देंगे। मैंने उनसे कहा कि ठीक ही तुम पूछते हो। पूछना ही चाहिए। तो मैं तुम्हें एक सूत्र, मैंने उसे लिख कर दे दिया। उसे मैंने एक सूत्र लिख कर दे दिया कि जिन्हें ठीक से जीवन जीना हो, उन्हें जीवन इस भांति जीना चाहिए कि जैसे वह अभिनय हो। और जिन्हें ठीक से अभिनय करना हो, उन्हें अभिनय ऐसे करना चाहिए जैसे कि वह जीवन हो। अगर कोई व्यक्ति अभिनय ऐसे कर सके जैसे कि वह जीवन है, तो वह कुशल अभिनेता हो जाएगा। और अगर कोई व्यक्ति जीवन ऐसे जी सके कि वह अभिनय है तो वह सत्य का ज्ञाता हो जाएगा।
जीवन में प्रभु है, जीवन ही प्रभु है, यह हमें तभी पता चलेगा जब हम जीवन को भी एक अभिनय की तरह देख सकें। तब बुरे में भी उसके दर्शन हो जाएंगे, भले में भी उसके दर्शन हो जाएंगे। तब बुरे और भले से उसके दर्शन में बाधा नहीं पड़ेगी।
मैंने एक बहुत अदभुत कहानी सुनी है। मैंने सुना है कि एक भिक्षु ने जाकर एक सम्राट से कहा कि सभी में ब्रह्म का आवास है। उस संन्यासी ने सम्राट को कहा: सभी में ब्रह्म का आवास है। और सम्राट बहुत अदभुत था। उसने कहा: बातचीत तो हम न करेंगे, लेकिन परीक्षा कर लेना चाहेंगे। उस भिक्षु ने कहा कि बातचीत ही सब जगह होती है, ब्रह्म की तो चर्चा ही होती है। परीक्षा क्या होगी ब्रह्म की? सबमें ब्रह्म है, यह मैं तर्क से सिद्ध कर सकता हूं। उस राजा ने कहा: तर्क की हम चिंता नहीं करते। हम तो जीवन में प्रयोग करके देख लेना चाहते हैं। उस भिक्षु ने कहा: प्रयोग कर लें। तो राजा के पास पागल हाथी था। उसने पागल हाथी छुड़वा दिया उस भिक्षु के ऊपर। सारी राजधानी में लोग खड़े हो गए अपने-अपने महलों के ऊपर। बीच राजपथ खाली हो गया। पागल हाथी छूटा। वह भिक्षु भागा, वह चिल्लाया। पहले बहुत डरा। लेकिन सम्राट ने उससे कहा: अरे भूल गए! कहते थे, सभी में ब्रह्म है, तो पागल हाथी में ब्रह्म नहीं है? तब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। अपने ही तर्क कभी-कभी आदमी को बुरी तरह फंसा देते हैं। अब उसे बड़ी मुश्किल हुई।
उसने कहा: अब क्या करें? तो वह खड़ा हो गया आंख बंद करके, हाथ-पैर कंपे जा रहे हैं। लेकिन वह खड़ा है, पागल हाथी ने आकर सूंड में उसे पकड़ लिया। महावत चिल्ला रहा है कि हट जा पागल! छोड़ अपने ज्ञान को, कहां की बातों में पड़ा है। क्यों तू जिंदगी गंवाता है! कह दे कि सबमें ब्रह्म नहीं है; कम से कम पागल हाथी में मैं नहीं मानता। बाकी सबमें होगा। एक क्षण तो उसने भागना चाहा। लेकिन राजा ने कहा: क्या भूल गया? वह अपनी छत के ऊपर से चिल्ला रहा है कि भूल गया? सारा गांव हंसेगा, कहां गया ब्रह्मज्ञान? तब वह फिर रुक गया। महावत ने बहुत कहा कि इन बातों में मत पड़, जान चली जाएगी। महावत की सुनता था तो भागने की कोशिश भी करता था और राजा चिल्लाता तो फिर खड़ा हो जाता। आखिर उस हाथी ने उसको पकड़ कर फेंक दिया दूर, दस-बीस फीट दूर जाकर गिरा। हाथ-पैर टूट गए। उठा कर उसे ऊपर लाया गया। राजा उससे कहने लगा, क्या हुआ? उसने कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया। जब आपकी बात सुनाई पड़ती थी तब खड़ा हो जाता था, क्योंकि अहंकार को चोट लगती थी कि अपनी ही बात गलत हुई जा रही है। महावत जब कहता था कि भाग जा, तो सोचता था जान क्यों गंवानी है! ज्ञान के पीछे जान थोड़े ही गंवानी पड़ेगी। तो दोनों की दुविधा में पड़ गया था। राजा ने उससे कहा: लेकिन हाथी में तुझे ब्रह्म दिखाई पड़ा कि नहीं? उसने कहा: बिलकुल नहीं दिखाई पड़ा। दिखाई तो नहीं पड़ा, लेकिन देखने की मैंने कोशिश पूरी की, क्योंकि अगर बिलकुल दिखाई न पड़ सके तब तो मैं भाग ही जाता। तो आंख बंद कर ली थी इसीलिए। आंख खुले में तो पागल हाथी दिखाई पड़ता था। आंख बंद कर ली थी, कि किसी तरह ब्रह्म थोड़ी देर को भी दिखाई पड़ जाए, फिर जो हो, हो। महावत ने कहा, लेकिन तुझे मुझमें ब्रह्म दिखाई न पड़ा? कि मैं जो चिल्ला रहा था कि हट जा? अगर पागल हाथी में ब्रह्म था तो मुझमें न था? और छोड़ मेरी बात। हाथी की भी छोड़, राजा की भी छोड़। तेरे भीतर भी तो ब्रह्म था, वह क्या कह रहा था? तो कम से कम उसकी तो तुम्हें सुन लेनी थी? उस आदमी ने कहा: तब तो बड़ी भूल हो गई। मेरा ब्रह्म तो पूरे वक्त कह रहा था कि भाग, वह पूरे समय कह रहा था कि भाग।
जिंदगी बहुत जटिल है। उस पागल हाथी में भी ब्रह्म है, लेकिन वह पागल ब्रह्म है, यह जानना। नहीं तो पागल ब्रह्म से बहुत मुसीबत हो जाएगी। चोर में ब्रह्म है, लेकिन वह चोर ब्रह्म है, यह समझना। और रावण में भी ब्रह्म है, लेकिन वह रावण का पार्ट अदा कर रहा है, यह भी समझना। जीवन अगर एक अभिनय दिखाई पड़े तो हम बुरे में भी ब्रह्म देख पाएंगे।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम बुरे की पूजा करने लग जाएं। इसका यह मतलब भी नहीं है कि हम रावण के भक्त हो जाएं और रावण जैसा जीने लगेंगे। इसका यह मतलब भी नहीं है कि बुरा हमारे लिए भला और बुरे में कोई भेद न रह जाएगा। इसका केवल इतना मतलब है कि जिंदगी तब हमें एक बोझ न मालूम पड़ेगी, गंभीरता न मालूम पड़ेगी। जिंदगी एक खेल और एक लीला हो जाएगी।
और जिसे जीवन में ही प्रभु को देखना हो उसे जीवन को लीला बना लेना जरूरी है। सीरियस और गंभीर लोग जीवन में परमात्मा को कभी नहीं देख सकते।
लेकिन हमारा अनुभव उलटा है। हम आमतौर से ऐसा ही समझते हैं कि जितनी गंभीर सूरतें हैं वे सभी भगवान को उपलब्ध हो गई हैं। हम यह तो सोच ही नहीं सकते कि संत भी और हंस सकते हैं। हम सोच ही नहीं सकते। असल में संत होने के लिए रोती हुई सूरत भी मिलना बहुत जरूरी चीज है। हम कल्पना ही नहीं कर सकते। अगर महावीर कहीं रास्ते पर खड़े हुए खिलखिलाते मिल जाएं तो महावीर के भक्त एकदम भाग जाएंगे वहां से कि कोई गलत आदमी है, महावीर हो ही नहीं सकते। महावीर और खिलखिला कर हंसते हों रास्ते पर? असंभव है! बुद्ध किसी होटल में मिल जाएं। हम कल्पना नहीं कर सकेंगे। हम विश्र्वास नहीं कर सकेंगे कि यह बुद्ध हो सकते हैं।
हम जिंदगी को ऐसी कठोरता से लिए हैं कि जिंदगी का हलकापन, वेटलेसनेस नहीं। जिंदगी एक लीला, एक अभिनय नहीं। जिंदगी एक बड़ी गंभीरता की बात है। और गंभीरता एक रोग है। और गंभीरता एक बीमारी है। धार्मिक आदमी गंभीर नहीं है, धार्मिक आदमी इतना हलका है, इतना हलका-फुलका है। इतना प्रसन्न, इतना प्रसन्न, इतना प्रफुल्लित है कि जीवन के सब रूपों के साथ नाच सकता है, हंस सकता है, उठ सकता है, बैठ सकता है। लेकिन अब तक की धार्मिक गंभीरता की ही परंपरा है और इसलिए मैं कहता हूं कि इस धार्मिक परंपरा की वजह से सिर्फ रोते हुए, उदास लोग ही धार्मिक हो सके हैं। हंसते हुए, प्रसन्न लोगों को धार्मिक होने का मौका ही न रहा। वे तो निंदित हो गए। वे तो कभी धार्मिक हो ही नहीं सकते।
यही वजह है कि मरने के करीब पहुंचते-पहुंचते लोग मंदिरों और मस्जिदों में जाना शुरू करते हैं, क्योंकि तब तक हंसी व्यतीत हो गई होती है। इसलिए मंदिरों और मस्जिदों में वृद्ध और वृद्धाओं के सिवाय कोई दिखाई नहीं पड़ता। जवान वहां नहीं दिखाई पड़ते, बच्चे वहां नहीं दिखाई पड़ते। बल्कि बच्चों को भी अगर ले जाते हैं मां-बाप तो मंदिरों में गंभीर बना कर बिठा देते हैं कि बिलकुल गंभीर बन कर बैठ जाओ। यह मंदिर है। तो बच्चों को भी बूढ़ा बना कर बिठाल सकें तो ही मंदिरों में उनका प्रवेश है। मंदिर बड़े गंभीर होते हैं।
गंभीरता रुग्ण है। प्रसन्नता, जीवन की सहजता, तो ही हम जीवन में परमात्मा को देख सकेंगे। गंभीर लोग न देख सकेंगे। गंभीर लोग इतने हलके ही नहीं कि उतनी बड़ी उड़ान भर सकें; पत्थर की तरह वजनी हो जाते हैं।
तो मेरे देखे फूल में गंभीरता नहीं है और न हवाओं में गंभीरता है और न वृक्षों में। और न पक्षियों की आवाजों में, और न आकाश के तारों में, और न सूरज में। अगर हम सारे जगत में खोजने चले जाएं तो सिर्फ आदमी में कुछ आदमी मिल जाएंगे जो गंभीर और उदास और दुखी हैं और भारी हैं। लेकिन जगत में और विश्र्व में कहीं भी भारीपन नहीं मिलेगा। सारा जगत एक नृत्य में डूबा हुआ है, एक प्रफुल्लता में डूबा हुआ है, एक रस में डूबा हुआ है।
यह भी सूत्र मैं आपको कहना चाहता हूं कि रस में विभोर हो सकेंगे, हलके होकर जीवन के सब रूपों में, तो शायद प्रभु का दर्शन हो सके सब तरफ। क्योंकि प्रभु तो बहुत आनंद-रस में विभोर होकर नाच रहा है।
और हमने तय कर लिया है कि सिर्फ गंभीर भगवान से मिलेंगे। और वह कहीं है नहीं। कहीं कोई गंभीर भगवान नहीं है। लेकिन हमने तय कर लिया है कि गंभीर भगवान की खोज करनी है। और शायद इसीलिए हमने असली भगवान की फिकर छोड़ दी है, और पत्थर की मूर्तियां मंदिरों में बना कर रख ली हैं। क्योंकि पत्थर की मूर्तियों से ज्यादा गंभीर और वजनी क्या हो सकता है? मरे हुए पत्थर की मूर्तियों से ज्यादा और क्या हो सकता है डेड? जिसमें जीवन का कोई अंकुर नहीं निकलता; जिसमें कोई फूल नहीं खिलता, जिसमें कभी कोई हेर-फेर, कोई बदल नहीं होती, बिलकुल मरा हुआ पत्थर पड़ा हुआ है। तो जिंदा पत्थर को भी पूजते तो भी ठीक था। उसमें भी कुछ भगवान हो सकता है। जिंदा से भी काम नहीं चलता। पहले खीला-हथौड़ी लेकर उसको मारना पड़ता है। जब उसकी सब जिंदगी काट डालते हैं और अपने हिसाब से ढाल लेते हैं.वह तो भगवान शायद इसीलिए बचा फिरता है आदमियों से कि अगर कहीं मिल जाए तो पता नहीं वह छैनी-हथौड़ी लेकर उसको काट-पीट डालें और किस शक्ल में ढाल कर उसको मंदिर में बिठाएं। क्योंकि हम उसको वैसा का वैसा कभी स्वीकार न करेंगे। क्योंकि निश्र्चित वह हंसता होगा। अगर वह न हंसता होगा तो हंसी कहां से आती होगी? अगर वह नहीं हंसता है तो हंसी कहां से आती है? अगर वह गीत नहीं गाता है तो गीत कहां से जन्मते हैं? अगर वह प्रेम नहीं करता है तो प्रेम की इतनी बड़ी धारा, इतनी बड़ी गंगा कैसे बहती है? अगर फूलों में उसको कोई उत्सुकता नहीं तो फूल खिलते क्यों हैं? वह तो बहुत आमोद में, वह तो बहुत रस में बंद मालूम होता है। उसकी तो घड़ी-घड़ी नृत्य और नाच में डूबी हुई मालूम पड़ती है। हमें अगर मिल जाए तो पहले तो हमें उसका नाच छीनना पड़े, हाथ-पैर बांध देने पड़ें।
लेकिन जिंदा भगवान भरोसे का नहीं हो सकता। हम कहीं बिठाएं, वह कहीं चला जाए। तो हम पत्थर के ही बना लेते हैं, वह बड़ा सुविधापूर्ण है। हम जहां बिठा देते हैं, फिर वहीं बैठा रहता है। फिर कोई फर्क नहीं होता। रोज जाते हैं, वहीं मिल जाता है जहां बिठाया था। कभी ऐसा नहीं होता है कि यहां-वहां हो जाए। फिर कभी गड़बड़ भी नहीं करता। हमने जैसा मान रखा है वैसा ही रहता है। उससे अन्यथा कभी नहीं होता। पत्थर के भगवान के प्रति हम प्रेडिक्ट कर सकते हैं, हम घोषणा कर सकते हैं कि वह ऐसा ही रहेगा। असली भगवान के साथ कुछ भरोसा नहीं, कि हम उसे एक मंदिर में गंभीर खड़ा करके लौटें और सुबह जब जाएं तब वह नाच रहा हो। अनप्रेडिक्टेबल होगा। असल में सभी जिंदा चीजें अनप्रेडिक्टेबल हैं; जिंदा चीजों के बाबत घोषणा नहीं हो सकती है, भविष्यवाणी नहीं हो सकती है। इसलिए मुर्दों के सिवाय ज्योतिषी किसी के संबंध में कुछ नहीं बता सकता।
जो बिलकुल मरे-मराए लोग हैं, उन्हीं के संबंध में ज्योतिषी कुछ बता सकता है। जिंदा आदमी के बाबत ज्योतिष कुछ नहीं बता सकता। जिंदा आदमी हाथ की सब रेखाएं गलत कर दे सकता है।
मैंने सुना है कि बुद्ध एक गांव के पास से गुजरे थे, एक नदी के किनारे। दोपहर थी भरी, धूप थी तेज। नदी की रेत पर उनके पैर के चिह्न बन गए। पीछे काशी से बारह वर्ष ज्योतिष का अध्ययन करके एक पंडित लौटता था। बड़ी किताबें, ज्योतिष के ग्रंथ साथ में बांधे हुए था। पंडितों के पास सिवाय ग्रंथों के और कुछ है भी नहीं जीवन में। पंडित बड़े दीन हैं कि उनके पास कागज की किताबों के सिवाय कुछ भी नहीं है। अपना बोझ लिए चला आता था। बारह साल मेहनत की थी ज्योतिष में। असल में लोग फिजूल की चीजों में इतनी मेहनत करते हैं कि अगर ठीक चीजों में उतनी मेहनत करें तो कभी के परम को उपलब्ध हो जाएं। लेकिन बारह साल ज्योतिष सीखने में गंवाए। अब वह लौट रहा था। वहां देखा, पैर के चिह्न पड़े रेत पर, चौंक गया। क्योंकि पैरों में वह चिह्न था जिसको ज्योतिष के शास्त्र कहते हैं कि इस आदमी को चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिए। और भरी दोपहरी में, इस छोटे से गांव में, साधारण सी नदी की रेत पर चक्रवर्ती राजा नंगे पैर चलेगा? उसने कहा कि कुछ गड़बड़ हो गई है। चक्रवर्ती और एक साधारण से गांव में? और इस गंदी सी नदी की रेत में? और नंगे पैर, और भरी दोपहरी में? तो अगर चक्रवर्ती ऐसा घूम रहा हो, तो इन किताबों को नदी में डुबा कर, बारह साल व्यर्थ गए, सोचकर घर लौट जाना चाहता था। पर उसने सोचा कि जरा खोज तो लें कि चक्रवर्ती आस-पास ही में हो कहीं। क्योंकि पैर के निशान इतने ताजे हैं कि अभी-अभी ही गुजरा होगा। वह पैरों के पीछे-पीछे चल कर गया।
एक वृक्ष की छाया में बुद्ध विश्राम करते थे। आंख बंद थी, पैर थे टिके, तो उसने पैरों के पास जाकर देखा यही आदमी, बड़ी मुश्किल में पड़ गया। पास में भिक्षा का पात्र रखा है, चक्रवर्ती होने का सवाल नहीं। देखा भिक्षु है, फटे कपड़े पहने हुए है। लेकिन चेहरा तो चक्रवर्ती का ही मालूम पड़ता है। जगाया और कहा कि मुश्किल में डाल दिया है। बारह साल की मेहनत पानी हुई चली जाती है। आप हैं कौन? यहां क्या कर रहे हैं? आपके पैर के चिह्न तो कहते हैं, चक्रवर्ती सम्राट हो। तो इस भरी दोपहरी में, इस साधारण से गरीब गांव की नदी की रेत पर यहां किसलिए आए हो? साथी कहां हैं? संगी कहां हैं? दरबारी कहां हैं? अकेले इस वृक्ष के नीचे क्या कर रहे हो? फटे-पुराने कपड़े क्यों पहने हो? यह क्या नाटक है? यह भिक्षा का पात्र क्यों लिए हो?
बुद्ध ने कहा: मैं तो भिक्षु ही हूं। उसने कहा: फिर मेरी किताबों का क्या होगा? नदी में फेंक दूं? बारह साल मेहनत बेकार गई? बुद्ध ने कहा: नहीं, किताबें काम पड़ेंगी। किताबें ले जाओ। बहुत मरे हुए लोग हैं जिनके चिह्न मिलाओगे तो मिल जाएंगे। लेकिन जिंदा आदमी पर रेखाएं नहीं बनतीं। जिंदगी पर कोई बंधन नहीं है। जिंदगी निर्बंध है, जिंदगी मुक्त है। इसीलिए प्रेडिक्शन नहीं हो पाता, भविष्यवाणी नहीं हो पाती।
जितना जीवंत व्यक्ति होगा, उतना उसके कल के बाबत कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कल वह क्या कहेगा, क्या करेगा, कैसे उठेगा, कैसे जीएगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। हां, जितना मरा हुआ आदमी, कल के बाबत कहा जा सकता है कि कल वह सुबह उठ कर यह करेगा, यह बोलेगा। पत्नी से लड़ेगा, बाजार जाएगा, दुकान चलाएगा, सांझ को लौटेगा, बेटे को डांटेगा कि पढ़ाई नहीं की, परीक्षा ठीक से नहीं दी। रात झंझट और कुछ करेगा। रात सो जाएगा। सुबह फिर उठेगा। सब बताया जा सकता है।
इसलिए हमने पत्थर के परमात्मा बना कर रखे हुए हैं। वे असली परमात्मा से बचने के लिए हैं। क्योंकि असली परमात्मा के बाबत कुछ भी भरोसा नहीं है, रिलायबल नहीं है। असली परमात्मा भरोसे योग्य नहीं है।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, जब सभी में परमात्मा है, तो फिर मंदिर में मूर्ति की पूजा करें तो आपको एतराज क्या है?
मैंने कहा, सभी में परमात्मा! उनको मंदिर की मूर्ति फौरन याद आ गई। हम उसकी पूजा करें तो एतराज क्या?
अगर सभी में परमात्मा है, यह समझ में आ गया, तो मंदिर की मूर्ति का सवाल ही नहीं रह जाता। मंदिर की मूर्ति का सवाल तभी तक है जब तक सभी में परमात्मा नहीं है तब तक मंदिर की मूर्ति में परमात्मा देखने की चेष्टा चलती है। जिस दिन सभी में दिख गया तो फिर कौन मंदिर की मूर्ति है और कौन मंदिर के बाहर है? कौन मंदिर की मूर्ति है और कौन मंदिर की मूर्ति नहीं है? फिर कैसे पता चलेगा? फिर कैसे पक्का करोगे कि दरवाजे पर जो भिखारी बैठा है, वह मंदिर की मूर्ति नहीं है? और मंदिर के भीतर जो पत्थर रखा है, वह भगवान है? नहीं, फिर उपाय नहीं है। लेकिन मंदिर की मूर्ति सब्स्टीट्यूट है, इसलिए खतरनाक है।
मैं कहता हूं, मत करना मंदिर की मूर्ति की पूजा। इसलिए नहीं कि उसमें परमात्मा नहीं है। परमात्मा तो सब जगह है। लेकिन मंदिर की मूर्ति उन्होंने ईजाद की है जो सब तरफ से परमात्मा से बचना चाहते हैं। उन्होंने इसको ईजाद किया है। अधार्मिक लोगों ने मंदिर की मूर्ति ईजाद की है। परमात्मा के शत्रुओं ने मंदिर की मूर्ति ईजाद की है ताकि जीवंत परमात्मा से बचा जा सके। और एक मरे हुए, ढांचे में ढले हुए, अपने ही हाथ से बनाए हुए भगवान के सामने हाथ जोड़ कर घुटने टेक कर बैठा जा सके। अगर दुनिया में कहीं पृथ्वी के बाहर और भी लोग हैं और हमें देखते होंगे अपनी ही ढाली गई, अपनी ही बनाई गई मूर्तियों के सामने घुटने टेके हुए, तो बहुत हंसते होंगे कि पृथ्वी के आदमी पागल मालूम होते हैं।
छोटे बच्चों पर हम नाराज होते हैं और छोटे बच्चों को हम नासमझ कहते हैं, क्योंकि वे गुड्डे-गुड्डियों के विवाह रचाते हैं। और जब हम रामचंद्रजी की बरात निकालते हैं, हम बड़े बुद्धिमान हो जाते हैं। हम जरा बड़े गुड्डा-गुड्डी बनाते हैं तो हम बहुत बुद्धिमान हैं, हम बचकाने नहीं हैं, और छोटे बच्चे बचकाने हैं! वे बच्चे हैं, इसलिए गुड्डे-गुड्डी का विवाह रचा रहे हैं। और छोटी लड़कियां गुड्डियों को रख कर सुला रही हैं, बच्चे समझ कर। हम उन पर हंसते हैं, कि बच्चे हैं, थोड़े दिन में बड़े हो जाएंगे फिर छोड़ देंगे ये नासमझियां। लेकिन बड़े बच्चे जो हैं, वे भी छोटे नहीं हैं, उनसे बड़ी आशा नहीं बंधती। बड़े बच्चे बड़ी गुड्डियां बनाएंगे, छोटे बच्चे छोटी गुड्डियां बनाएंगे। छोटे बच्चों की गुड्डियां बड़ी सस्ती हैं, बड़े बच्चों की गुड्डियां बहुत मंहगी हैं। इतनी मंहगी हैं कि आदमी मर जाते हैं गुड्डियों के पीछे। रामचंद्र जी का हाथ कोई तोड़ दे, फिर दस-पचास मुसलमानों को मारना पड़ेगा। मस्जिद की दीवाल कोई गिरा दे तो सौ-पचास हिंदुओं को मारना पड़े। बड़ी मंहगी ईंटें हैं इन मंदिरों और मस्जिदों की। इनमें खून ही खून लगा है आदमी का। और ये मूर्तियां, जिनको आप भगवान कह रहे हैं, ये भी बड़ी मंहगी हैं। इनके नीचे कब्रें बिछी हैं आदमी की, लाशें पड़ी हैं आदमी की, और उनकी पूजा चली जा रही है।
मैं नहीं कहता हूं कि वहां भगवान नहीं है। क्योंकि जब भगवान सभी में है तो मूर्ति भर को छोड़ कर कैसे बचेगा। यह मैं नहीं कह रहा हूं। मेरी बात ठीक समझ लेना। जिन्होंने मूर्ति ईजाद की है उन्होंने इसीलिए की है कि ताकि वह सबमें न दिखाई पड़े। इधर मरे-मराए को पकड़ा दें, इसको हम पूजते रहें। फिर और सुविधा है। मरे-मराए भगवान का ही पुजारी हो सकता है। जिंदा भगवान का कोई पुजारी नहीं हो सकता। जिंदा भगवान से सीधा संबंध करना होगा। मरे हुए भगवान में बीच में एक एजेंट होगा। क्योंकि मरे भगवान खुद तो बोल नहीं सकते। एजेंट से बोलेंगे। मरे भगवान खुद तो कुछ कर नहीं सकते। भोग लगेगा मरे भगवान को, भोग लेगा पुजारी। तो मरा भगवान पुजारी को बीच में खड़े होने का अवसर देता है। इसलिए पुजारी मरे भगवान में बहुत उत्सुक है, जीवित भगवान में उसकी कोई उत्सुकता नहीं है। बल्कि मरे भगवान के लिए जीवित भगवान की वे हत्या करवा सकते हैं, उसकी उन्हें कोई तकलीफ नहीं है। सारे हिंदू-मुस्लिम, सारे ईसाई, सारे जैन सारी दुनिया में ऐसी गंवारियां, ऐसी बेवकूफियां कर रहे हैं। सोच कर हैरानी होती है कि ये धार्मिक लोग हैं? और जो यह आदमी को छुरा भोंक दें, इनको जब आदमी में भगवान नहीं दिखता, इतना जीवन, उनको पत्थर की मूर्ति में दिखता होगा, यह विश्र्वास नहीं आ रहा है। जिनको आदमी में नहीं दिखता, वे कहते हैं आदमी मुसलमान है। आदमी में भगवान नहीं दिखता है, आदमी हिंदू है। पत्थर में उन्हें भगवान दिख जाता है। पत्थर में भगवान दिख जाता है। अब हो सकता है किसी मुसलमान कारीगर ने ही भगवान खोदा हो। और अक्सर ऐसा ही होता है कि सब कारीगर अधिकतर मुसलमान हैं जो पत्थर खोदते हैं। वह मुसलमान कारीगर ने पत्थर खोदा, वह भगवान हो गया। और मुसलमान की छाती पर छुरे भोंक सकते हैं और आग लगा सकते हैं। धर्म के नाम पर जो अब तक चला है उसे बचाने की अब आगे जरूरत नहीं है। उसके लिए बहाने मत खोजें।
वह जो पूछा है मित्र ने, कि
भगवान, जब सभी में भगवान है तब तो फिर मूर्ति में भी भगवान हो गया। तो अगर हम मूर्ति की पूजा करें, आपको एतराज क्या है?
बहुत एतराज है। एतराज बहुत है। और एतराज यही है कि जब तक वह मूर्ति पकड़ी रहेगी तब तक वह सबमें दिखाई नहीं पड़ेगा। और एक दफे सबमें दिख जाने दें, फिर मूर्ति में भी होगा। लेकिन पूजा की क्या जरूरत रह जाएगी। कौन पूजेगा? किसको पूजेगा? जब सबमें ही दिखाई पड़ जाएगा।
एकनाथ लौटते थे काशी से और सारे मित्र साथ थे। तो पानी लेकर जा रहे हैं रामेश्र्वरम चढ़ाने। बीच में एक मरुस्थल पड़ा और एक प्यासा गधा पड़ा था। गधे में और भगवान हो सकते हैं? कभी नहीं हो सकते। गधे में कहीं भगवान हो सकता है?
अभी पहले किताबों में हुआ करता था ग गणेश जी का, तो कुछ किताबों में लोगों ने लिख दिया, ग गधे का। तो धार्मिक लोगों ने बड़ा विरोध किया कि यह तो बड़ी गलत बात है। ग गणेश जी का ही होना चाहिए, ग गधे का कैसे हो सकता है? गधे में कहीं भगवान हो सकते हैं? अब मजा यह है कि गणेश जी बिलकुल मरे हुए हैं और गधा बहुत जिंदा है। जब मरे-मराए गणेश जी में भी हो सकते हैं तो गधे में क्यों नहीं हो सकते?
एकनाथ की मित्र-मंडली जा रही है। वह गधा प्यासा तड़प रहा है। रेगिस्तान है, पास पानी नहीं है। लेकिन वह भगवान के पुजारी काशी से पानी लेकर रामेश्र्वरम चले जा रहे हैं। बड़े भक्त हैं, पक्के भक्त मालूम होते हैं। इतनी लंबी यात्रा कर रहे हैं।
नासमझियों में कष्ट उठाने से कोई भक्त नहीं हो जाता। सिर्फ बुद्धिहीन सिद्ध होता है। अब पहला तो यही पागलपन है कि काशी का पानी काशी में ही ठीक है, रामेश्र्वरम का रामेश्र्वरम में। तुम यह परेशानी क्यों कर रहे हो कि तुम काशी से भर कर और रामेश्र्वरम ले जा रहे हो? और जो भगवान वहां पानी गिरा रहा है वह रामेश्र्वरम में भी काफी गिरा रहा है, वहां कोई कमी नहीं है। और तुम्हारे एक तंबू से वहां कुछ बढ़ती हो जाने वाली नहीं है। लेकिन बुद्धिहीनता धर्म के नाम से चल रही है। और वे बड़ा कष्ट उठा रहे हैं, गांव-गांव में उनका स्वागत हो रहा है, क्योंकि उन्हीं तरह के बुद्धिहीन वहां भी इकट्ठे हैं। वे कह रहे हैं, ये बहुत बड़ा कार्य कर रहे हैं। ये तीर्थयात्रा से लौट रहे हैं, ये तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं।
कौन सी तीर्थयात्रा हो गई? यह पड़ा है गधा और प्यास से चिल्ला रहा है। एकनाथ भी उस मंडली में हैं। उन्होंने अपना वह जो कमंडल भर कर लाए थे वह गधे को पिला दिया। सारी मंडली टूट पड़ी कि तुम बड़े अधार्मिक हो, पागल हो गए हो? यह तो रामेश्र्वरम के भगवान के लिए लाए थे। एकनाथ ने कहा: रामेश्र्वरम के भगवान पता नहीं प्यासे होंगे या नहीं। और होंगे तो वहां हम और पानी भर लेंगे। लेकिन ये भगवान बहुत प्यासे हैं। एकनाथ को मंडली ने अलग किया कि हटो तुम अलग, नास्तिक मालूम होते हो। धार्मिक नहीं मालूम होते हो। गधे को पानी पिलाते हो। गधे में भगवान है?
यह जो जीवन हमारे चारों तरफ फैला है उसमें हमें दिखाई नहीं पड़ते हैं और एक पत्थर की मूर्ति हम बाजार से खरीद कर लाते हैं, उसमें हमें दिखाई पड़ जाते हैं? संभव नहीं दिखता है। गणित उलटा मालूम होता है। हां, जिस दिन सबमें दिख जाएंगे, उस दिन उस पत्थर में भी दिख जाएंगे। लेकिन सबमें तो नहीं दिखाई पड़ रहे हैं।
वे मेरे मित्र पूछते हैं कि
भगवान, सबमें आप मानते हैं?
मैं मानता नहीं हूं। मानने की जरूरत ही नहीं है। सबमें है, इसको देखने की जरूरत है, मानने की कोई जरूरत नहीं है।
यह अंतिम बात और। एक सूत्र आपसे कहूं, कि जो मान लेगा कि सबमें है, वह कभी न जान पाएगा। मान लेना बाधा बनेगी, मान लेने का कोई मतलब नहीं है। मानने की क्या जरूरत है? अगर दिखते हों तो ठीक, न दिखते हों तो ठीक। कम से कम सच्चाई की घोषणा तो करनी चाहिए कि मुझे नहीं दिखते।
एक फकीर हुआ, सरमद। इस्लाम में पवित्र मंत्र की तरह यह बात कही जाती है: एक ही अल्लाह है, और कोई अल्लाह नहीं है। एक ही ईश्र्वर है, और कोई ईश्र्वर नहीं। लेकिन वह जो सरमद था वह आधा ही हिस्सा कहता था। वह पूरा नहीं कहता था। वह कहता था: कोई ईश्र्वर नहीं है। पहला हिस्सा है, एक ही ईश्र्वर है। उसके सिवाय कोई ईश्र्वर नहीं है। वह सरमद आखिरी का टुकड़ा ही कहता था। वह कहता था: कोई ईश्र्वर नहीं। उसको औरंगजेब ने बुलवाया और उससे कहा कि मैंने सुना है तुम बड़ी अधार्मिक बातें कहते हो। हमने सुना है, तुम कहते हो, कोई ईश्र्वर नहीं है?
उसने कहा: अभी हम इतना ही जान पाए। हम जितना जान पाए हैं उतना ही कहेंगे, उससे ज्यादा हम कैसे कहें? हम कैसे कहें कि एक ही ईश्र्वर है। हमने देखा ही नहीं, हमने जाना ही नहीं। अभी तो हम इतना ही जान पाए हैं कि कोई ईश्र्वर नहीं है। बहुत खोजा, कहीं ईश्र्वर नहीं दिखाई पड़ा। औरंगजेब ने कहा: यह नास्तिक है, इसकी हत्या कर देनी चाहिए। औरंगजेब ने कहा: इतना कह देने में तुम्हारा क्या बिगड़ता है? उसने कहा: बहुत बिगड़ता है। क्योंकि भगवान की खोज में निकले हैं हम, और अगर झूठ से शुरुआत की तो सत्य तक कैसे पहुंचेंगे? खोज में निकला हूं कि है कहीं ईश्र्वर? अभी इतना ही जान पाया कि कहीं नहीं है। जिस दिन जान लूंगा कि है, उस दिन कहूंगा। उसके पहले नहीं कहूंगा।
आखिर बहुत समझाने-बुझाने का कोई परिणाम नहीं हुआ। वह राजी न हुआ यह बात कहने को। उसने कहा, झूठ मैं कैसे कहूं? मुझे दिखे। तुम्हें दिखता होगा, तुम कहते हो। मुझे नहीं दिख रहा है। आखिर उसकी गर्दन काट डाली गई। बड़ी अदभुत कहानी है, बहुत अदभुत कहानी है। पता नहीं कैसे घटी। गर्दन उसकी काटी गई। जैसे ही उसकी गर्दन गिरी, कहते हैं और कोई एक लाख आदमी इकट्ठे थे देखने को। आंखों के गवाह इतने मौजूद थे। जैसे ही उसकी गर्दन कटी, उसने कहा: एक ही ईश्र्वर है, और कोई ईश्र्वर नहीं। तो लोगों ने कहा: पागल! पहले क्यों नहीं कह दिया? तो उसने कहा: तब तक नहीं दिखाई पड़ा था तो कैसे कहता? अब दिख गया, तो कहता हूं।
कटी हुई गर्दन ने पता नहीं कहा कि नहीं, लेकिन कटी हुई गर्दन से यह आवाज है। सरमद ने कहा: अब दिखाई पड़ गया। उसकी गर्दन लुढ़कती है मस्जिद पर, जिस पर वह काटा गया है। सीढ़ियों पर लहू के निशान और उसकी गर्दन लुढ़कती आती है। और भीड़ उससे पूछती है, कि अब क्यों दिख गया? उसने कहा: तब तक सरमद था, इसलिए दिखाई नहीं पड़ा। अब सरमद कट गया तो दिखाई पड़ गया। और मैं कहता हूं, एक ही ईश्र्वर है, और कोई ईश्र्वर नहीं।
यह आपसे मैं नहीं कहता कि आप मान लें कि ईश्र्वर सबमें है, जीवन ईश्र्वर है। यह मैं नहीं कहता हूं कि आप मान लें। आप मान लेंगे तो झूठ में पड़ जाएंगे। ऐसे झूठ में कभी मत पड़ना। ऐसे तो झूठ में काफी पड़े हुए हैं। ईश्र्वर तक के संबंध में हमने झूठ ईजाद कर लिए हैं। जो मुझे पता है, उससे ज्यादा कहीं नहीं है, उससे ज्यादा मानने की कोई जरूरत ही नहीं है। कौन कहता है कि उससे ज्यादा मानें? अभी इतना ही मानें कि मुझे पता नहीं है, अच्छा है। इतनी सच्चाई काफी है। इतनी सच्चाई यात्रा के लिए काफी पाथेय है, इसको लेकर यात्रा हो जाएगी। इतना बहुत है। इतनी ईमानदारी काफी है कि मुझे पता नहीं; मुझे तो वृक्ष दिखाई पड़ता है, मुझे ईश्र्वर दिखाई नहीं पड़ता। नहीं दिखाई पड़ता है तो बहुत अच्छा है, वृक्ष भी क्या खराब है। वृक्ष भी बहुत अच्छा है। न दिखाई पड़े ईश्र्वर तो वृक्ष को ही देखें अभी कुछ दिन। जल्दी क्या है?
लेकिन मैं कहता हूं कि वृक्ष को गहरे देखेंगे तो ईश्र्वर दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन और गहरे, और गहरे, और गहरे। लेकिन सच्चाई गहरे में जा सकती है, झूठ गहरे में नहीं जा सकता है। सब विश्र्वास झूठे हैं; सब बिलीफ झूठी हैं; सब मान्यताएं झूठी हैं। सब पकड़े हुए शास्त्र, चूंकि हमारे अनुभव से नहीं आते हैं, हमारे लिए बिलकुल झूठे हैं। और उनको पकड़ कर हम बैठे हैं इसलिए सत्य की कोई यात्रा नहीं हो पाती है।
मैं तो कहता हूं कि जिसे आस्तिक होना हो उसे नास्तिक होना ही पड़ता है। जिसे परम आस्तिक होना हो उसे परम नास्तिकता तक जाना पड़ता है। जिसे ‘हां’ भरना हो किसी दिन पूरे प्राणों से, उसे पूरे प्राणों से एक दिन ‘नहीं’ भी कहनी पड़ती है। लेकिन हम ‘हां’ कहने में ऐसे लोलुप हैं कि नहीं कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते और ‘हां’ कह देते हैं। हमारी ‘हां’ नपुंसक होती है। जो आदमी ‘न’ नहीं कह सकता उसकी ‘हां’ का कोई मतलब नहीं है। इसलिए जो आदमी ‘हां’ कहने की हिम्मत जुटाना चाहता हो उसे ‘न’ कहने की हिम्मत पहले जुटा लेनी चाहिए। लेकिन इतना पक्का है कि हमारी ‘न’ से वह ‘न’ नहीं हो जाता। वह है, तो हमारी ‘न’ भी टूट जाएगी और नहीं है तो ठीक है हमारी ‘न’ ठीक रहेगी। इतना मैं कहता हूं कि ‘न’ कहने वाला अगर हिम्मत से ‘न’ कहे तो वह परमात्मा की आंखों में एक जगह बना लेता है। नास्तिक की एक जगह है, झूठे आस्तिक की कोई भी जगह नहीं है। जो आदमी कहता है, मुझे नहीं दिखाई पड़ता, वह भगवान भी सामने खड़ा हो जाए तो वह कहेगा, अभी मुझे दिखाई नहीं पड़ता है तो मैं कैसे हां कह दूं।
भगवान झूठ के लिए किसी को मजबूर कर सकता है? नहीं, नास्तिकों की उसके हृदय में एक जगह है, क्योंकि कम से कम वे सच्चे तो हैं। इतना तो कहते हैं--नहीं मालूम पड़ता। लेकिन जो कहता है--हमें मालूम नहीं पड़ता, वह खोज पर निकल जाता है। क्योंकि न मालूम पड़ने पर कोई भी कभी रुक नहीं सकता। ‘न’ पर कभी कोई ठहर सकता है? ‘न’ कभी मंजिल नहीं हो सकती। मंजिल तो ‘हां’ ही हो सकती है। ‘न’ में तो पीड़ा बनी ही रहेगी। तो और खोजो, पता नहीं और आगे हो, और आगे हो, और आगे हो। खोजते-खोजते ‘न’ गिर जाती है और ‘हां’ आ जाती है। लेकिन यह मान्यता की बात नहीं है, यह जानने की ही जरूरत है। और जानने का उपाय है, जानने का मार्ग है। उसे ही मैं ध्यान कहता हूं।
कल सुबह हम उस मार्ग पर फिर प्रवेश करेंगे कि हम उसे कैसे जान सकते हैं। तो सुबह साढ़े आठ बजे जो मित्र आते हैं, आ जाएं।
आज की रात की बात पूरी हुई।
सबके भीतर बैठे परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूं।