MEDITATION

Jeevan Hi Hain Prabhu 02

Second Discourse from the series of 7 discourses - Jeevan Hi Hain Prabhu by Osho. These discourses were given in JUNAGADH during DEC9-12 1969.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
ध्यान के संबंध में थोड़ी सी बातें समझ लेनी जरूरी हैं। क्योंकि बहुत गहरे में तो समझ का ही नाम ध्यान है।
ध्यान का अर्थ है: समर्पण। ध्यान का अर्थ है: अपने को पूरी तरह छोड़ देना परमात्मा के हाथों में। ध्यान कोई क्रिया नहीं है, जो आपको करनी है। ध्यान का अर्थ है: कुछ भी नहीं करना है और छोड़ देना है उसके हाथों में, जो कि सचमुच ही हमें सम्हाले हुए है।
जैसा मैंने कल रात कहा, परमात्मा का अर्थ है--मूल-स्रोत, जिससे हम आते हैं और जिसमें हम लौट जाते हैं। लेकिन न तो आना हमारे हाथ में है और न लौटना हमारे हाथ में है। हमें पता नहीं चलता, कब हम आते हैं और कब हम लौट जाते हैं। ध्यान, जानते हुए लौटने का नाम है। जब आदमी मरता है तो बिना चाहे, बिना जाने लौट जाता है। ध्यान, जानते हुए लौटने का नाम है। जानते हुए अपने को उस मूल-स्रोत में खो देना है, ताकि हम जान सकें कि वह क्या है और यह भी जान सकें कि हम क्या हैं।
तो ध्यान के लिए पहली बात तो स्मरण रखना: समर्पण, सरेंडर, टोटल सरेंडर। पूरी तरह अपने को छोड़ देने का नाम ध्यान है। जिसने अपने को थोड़ा भी पकड़ा वह ध्यान में नहीं जा सकेगा; क्योंकि अपने को पकड़ना यानी रुक जाना अपने तक और छोड़ देना यानी पहुंच जाना उस तक, जहां छोड़ कर हम पहुंच ही जाते हैं।
इस समर्पण की बात को समझने के लिए पहले हम तीन छोटे-छोटे प्रयोग करेंगे, ताकि यह समर्पण की बात पूरी समझ में आ जाए। फिर चौथा प्रयोग हम ध्यान का करेंगे। समर्पण को भी समझने के लिए सिर्फ समझ लेना जरूरी नहीं है, करना जरूरी है, ताकि हमें खयाल में आ सके कि क्या अर्थ हुआ समर्पण का।
तो पहला प्रयोग हम करेंगे पांच मिनट तक, फिर दूसरा, फिर तीसरा, ऐसे पांच-पांच मिनट के तीन प्रयोग समर्पण की पूर्ण भावना को खयाल में ले आने के लिए; फिर चौथा प्रयोग ध्यान का। क्योंकि इन तीन को समझ कर ही ध्यान किया जा सकता है।
एक तो थोड़े फासले पर बैठें, कोई किसी का स्पर्श न करता हो। ध्यान में कोई गिर भी सकता है। इसलिए इतनी दूरी पर बैठें कि कोई गिर जाए तो उससे कोई किसी के ऊपर न पड़ जाए। और इतनी जगह यहां है कि फैल कर बैठ जाएं, पास बैठने की कोई जरूरत नहीं है। थोड़े फासले पर ही हो जाएं, ताकि अपने को पूरी तरह छोड़ सकें; अन्यथा यही खयाल बना रहेगा कि अपने को सम्हाले रखें। अपने को सम्हाले रखना बाधा हो जाएगी। उसमें कंजूसी न करें। इतना दूर फासला पड़ा है, सब हट जाएं। और बातचीत नहीं, आवाज नहीं, चुपचाप।
अब पहली बात, पहला प्रयोग। पहला प्रयोग है: बहने का प्रयोग। नदी में कोई आदमी तैरता है, हममें से भी बहुत लोग तैरे होंगे; अन्यथा लोगों को तैरते देखा होगा। जब कोई तैरता है तो कुछ करता है। लेकिन तैरने से बिलकुल उलटी दशा है बह जाना, फ्लोटिंग। एक आदमी बहता है, तैरता नहीं। अपने हाथ-पैर रोक लेता है और बहा चला जाता है। फिर नदी जहां ले जाए, वहीं चला जाता है। फिर उसकी अपनी जाने की कोई इच्छा न रही। तैरने वाले की इच्छा है। तैरने वाला कहीं पहुंचना चाहता है। तैरने वाला नदी से लड़ेगा। तैरने वाले को उस किनारे पहुंचना है, उस जगह पहुंचना है। नदी अगर बाधा देगी तो दुश्मन मालूम पड़ेगी। और नदी बाधा देगी; क्योंकि नदी अपने रास्ते भागी जा रही है। तैरने वाले का अपना रास्ता होगा तो भेद पड़ने ही वाला है। बहने के साथ नदी का कोई विरोध नहीं है। बहने का मतलब है, नदी के साथ एक हो जाना है। नदी जहां ले जाए वहीं हमारी मंजिल है। तब फिर नदी से कोई दुश्मनी नहीं रह जाती है। समर्पण का पहला अर्थ है: इस जीवन के साथ हमारी कोई दुश्मनी न रह जाए। इस जीवन के साथ हम बह सकें, तैरें न। ध्यान की पहली सीढ़ी है: बहने का अनुभव। वह हम पहला अनुभव करेंगे पांच मिनट तक। जैसा मैं कहूं वैसा थोड़ा प्रयोग करें, ताकि भीतर उसका फील, उसका अनुभव हो सके।
आंखें बंद कर लें। बंद करने का मतलब भी कि आंखों को बंद हो जाने दें, उन पर भी जोर न डालें। पलकों को ढीला छोड़ दें, ताकि आंखें बंद हो जाएं। आंख बंद कर लें--बंद हो जाने दें। पलकें ढीली छोड़ दें, ताकि आंखें बंद हो जाएं। शरीर को ढीला छोड़ दें, कोई अकड़, कोई कड़ापन शरीर में न रखें। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। क्योंकि हम कोई काम करने नहीं जा रहे हैं, हम बहने जा रहे हैं, तो हम अपने को बिलकुल रिलैक्स और ढीला छोड़ दें। आंख बंद हो गई, शरीर ढीला छोड़ दिया।
देखिए बीच में आकर न बैठें। अब आप लोग पीछे चले जाएं। और जो भी पीछे आएं, पीछे बैठें, वहां बीच में न बैठें, पीछे.।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। अब एक छोटा सा चित्र देखें, ताकि हम अनुभव कर सकें। देखें, पहाड़ों के बीच में सूरज की रोशनी में चमकते हुए पहाड़ों के बीच में एक नदी भागी चली जा रही है। सूरज की रोशनी में पहाड़ चमक रहे हैं और नदी तेज गति से भागी चली जा रही है। आंखों के पर्दे पर ठीक से देखें--नदी तेजी से भागी चली जा रही है, पहाड़ चमक रहे हैं सूरज में, नदी की लहरें चमक रही हैं, नदी तेजी से भागी चली जा रही है। नदी जोर से शोरगुल करती भागी चली जा रही है। नदी बह रही है, ऐसा अपनी आंख के पर्दे पर ठीक से देखें। नदी को बहुत ठीक से देखें, पहाड़ों के बीच भागती हुई नदी सागर की तरफ--गहरी है बहुत, नीला है रंग, तेज हैं लहरें, गति है जोर की। जब ठीक से देखेंगे तो बराबर दिखाई पड़ने लगेगा--नदी भागी जा रही है। इसके भागने को भी ठीक से देख लें। इसकी गहराई को भी ठीक से समझ लें; क्योंकि थोड़ी ही देर में इसके साथ हम भी बह रहे होंगे। इसकी गहराई में हम भी उतर जाएंगे।
नदी भाग रही है, नदी तेजी से भाग रही है.उसे देखते-देखते ही मन पर हलकी शांति छा जाएगी। अब इस नदी में हमें भी उतर जाना है। उतर जाएं। मन के चित्र पर, मन की कल्पना पर देखें कि हम भी इस नदी में उतर गए--और तैरना नहीं है, बहना है--और इस नदी में बहने लगे। जैसे एक सूखा पत्ता नदी में बहने लगे। अब सूखा पत्ता तैरेगा कैसे? उसके पास हाथ-पैर ही नहीं हैं। सूखे पत्ते की भांति हो जाएं और नदी में बहना शुरू कर दें। लहरें बहाने लगेंगी, बहाने लगेंगी। सागर की तरफ नदी भागने लगेगी, आप भी उसके साथ बहने लगेंगे। नदी के साथ एक हो जाएं। अब पांच मिनट के लिए नदी के साथ बहने का अनुभव करें। सिर्फ बहने का। ध्यान रहे, तैरना नहीं है। हाथ-पैर मत चलाना, छोड़ देना अपने को। नदी डुबाए तो डूब जाना, उबारे तो उबर आना। जहां ले जाए वहां चले जाना। हमारी कोई मंजिल नहीं है, हम बहने को तैयार हैं। अब मैं पांच मिनट के लिए चुप हो जाता हूं। आप नदी में बहें। ताकि बहने का ठीक-ठीक अनुभव खयाल में आ जाए कि बहने का अर्थ क्या है। ध्यान की यह पहली सीढ़ी बनेगी। इसे ठीक से पहचान लेना जरूरी है।
दो पहाड़ चमकते हैं सूरज की रोशनी में, नदी भागती है बीच से, उसमें हम भी बहे चले जा रहे हैं। और बहते-बहते ही इतनी शांति मालूम होने लगेगी, इतनी ताजगी घेर लेगी, इतना आनंद भीतर प्रकट होने लगेगा; सब चिंताएं गिर जाएंगी, सब भार गिर जाएगा। क्योंकि सभी चिंताएं तैरने की चिंताएं हैं, बहने वाले को चिंता की कोई जरूरत नहीं। सब तनाव गिर जाएगा, क्योंकि सब तनाव तैरने वाले के तनाव हैं। बहने वाले को तनाव की कोई जरूरत नहीं।
अब मैं चुप होता हूं। आप पांच मिनट तक बहते रहें। और अपने को बिलकुल ढीला छोड़ दें और बह जाएं।
छोड़ दें.बह जाएं.बिलकुल बह जाएं.नदी में छोड़ दें और बह जाएं। नदी भागी चली जाती है और आप बहे चले जाते हैं। छोड़ दें.बह जाएं.बिलकुल बह जाएं.छोड़ दें.नदी बहा ले जाए, नदी के साथ एक हो जाएं। नदी भागी जाती है, आप बहे चले जाते हैं। बहने का ठीक से अनुभव करें, मन एकदम शांत होने लगेगा। एकदम शीतलता और ताजगी भीतर प्रवेश कर जाएगी।
बहें.छोड़ दें.शरीर को छोड़ दें, सब छोड़ दें और बह जाएं। बिलकुल छोड़ दें। नदी भागी चली जाती है। देखें.पहाड़ चमकते हैं धूप में, नदी भागी चली जाती है और आप भी बहे जा रहे हैं। अपने को बहता हुआ देखें। यह बहने का अनुभव ठीक से कर लें, ध्यान की पहली सीढ़ी यही है। बह रहे हैं.बह रहे हैं.बह रहे हैं.तैर नहीं रहे हैं, कुछ कर नहीं रहे हैं, नदी बहाए लिए जा रही है, बहाए लिए जा रही है। नदी भाग रही है, आप भी बहे चले जा रहे हैं। आपको कुछ भी नहीं करना, बस बह जाना है। देखें, मन बिलकुल शांत हो जाएगा। एक ताजगी घेर लेगी। अब धीरे-धीरे नदी से बाहर निकल आएं, किनारे पर खड़े हो जाएं। नदी अब भी बही जा रही है, किनारे पर खड़े होकर दो क्षण अनुभव करें, नदी में बहने में कैसा सुख, कैसी शांति, कैसा आनंद भीतर भर दिया है! बाहर निकल आए हैं।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें और दूसरा प्रयोग समझें। धीरे-धीरे आंख खोल लें, दूसरा प्रयोग समझें।
पहला प्रयोग है: बहने का, फ्लोटिंग; ध्यान की पहली सीढ़ी है। दूसरा प्रयोग है: मरने का, मृत्यु का, मिट जाने का। जैसे कोई बीज मिटता है तो फिर अंकुर हो जाता है। जैसे कोई कली मिटती है तो फिर फूल हो जाती है। जब कुछ मिटता है, तभी कुछ हो पाता है। जब हम आदमी की तरह मिटेंगे, तभी हम परमात्मा की तरह हो पाएंगे। जन्म की पहली कड़ी मृत्यु है। और जो मरना नहीं सीख पाता, मिटना नहीं सीख पाता, वह कभी भी उस विराट तक नहीं पहुंच पाता, जहां तक पहुंचने में सब कुछ छूट जाना जरूरी है। जीसस का एक वचन है: जो अपने को बचाएंगे, वे मिट जाएंगे और जो मिट जाते हैं, वे बचा लिए जाते हैं।
दूसरा प्रयोग है, ध्यान की दूसरी सीढ़ी: मिट जाने का। अब हम दूसरा प्रयोग करेंगे। यह खयाल में ले लेंगे अनुभव, ताकि फिर ध्यान में वे अनुभव हम काम में ला सकें। दूसरा प्रयोग करने के लिए बैठें। आंख बंद कर लें अर्थात आंख बंद हो जाने दें। आंख को ढीला छोड़ दें, ताकि आंख बंद हो जाए। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें। शरीर ढीला छूट गया है, आंख बंद हो गई है। बिलकुल ढीला छोड़ दें शरीर को, उसको हमें पकड़ कर नहीं रखना है, हमने छोड़ ही दिया और आंख बंद हो गई है।
अब दूसरा चित्र देखें, आंखों के सामने एक चिता जल रही है। जोर से चिता में लपटें उठ रही हैं। चिता के चारों तरफ अंधेरे में भी चेहरे पहचाने जा सकते हैं। आपके मित्र, प्रियजन सब इकट्ठे हो गए हैं। चिता की लपटें बढ़ती चली जा रही हैं। ठीक से चिता को देख लें, क्योंकि इसी चिता पर थोड़ी देर में चढ़ जाना है। अभी हम नदी में बहे थे, अब आग में बह जाना है। नदी बहा सकती है, आग मिटा ही देगी। देख लें ठीक से आंखों के पर्दे पर आग जल रही है, चिता जल रही है। जोर से लपटें उठती हैं आकाश की तरफ। घेरा बांध कर मित्र, प्रियजन सब इकट्ठे खड़े हैं, उनके चेहरे भी दिखाई पड़ते हैं। आग की लपटों में उनके चेहरे चमकते हैं। आग की लपटों को ठीक से देख लें। अभी इसमें हमें ही उतर जाना है। यह किसी और की चिता नहीं, हमारी ही चिता है।
देखें, चिता जल रही है और आप ही चिता पर चढ़ा दिए गए हैं। अब चिता ही नहीं जल रही, आप भी जल रहे हैं। अपने को जलता हुआ देखें, थोड़ी देर में सब राख हो जाएगा, सब मिट जाएगा। न चिता रह जाएगी, न हम रह जाएंगे, थोड़ी सी राख मरघट पर पड़ी रह जाएगी। एक पांच मिनट के लिए अपने को जलता हुआ देखें। सब जल रहा है। भागने का मन होगा, भाग नहीं सकते हैं। मर ही गए हैं, भागेंगे कहां? चिता से उतर आने का मन होगा, उतर नहीं सकते हैं। उतरेगा कौन? थोड़ी देर में राख बनने लगेगी। मित्र, प्रियजन विदा हो जाएंगे। मरघट शांत, सन्नाटे में रह जाएगा। ठीक से देखें, चढ़े हैं चिता पर, जल रहे हैं। आग की लपटें उठ रही हैं, सब जला जा रहा है, हम ही जले जा रहे हैं। पांच मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। अपने को जलता हुआ देखें। थोड़ी देर में राख पड़ी रह जाएगी। मरघट पर सन्नाटा हो जाएगा। छोड़ दें आग में अपने को.आग जोर पकड़ती जा रही है और हम जल रहे हैं। सब जल जाएगा। सिर्फ वही बच रहेगा जो जल नहीं सकता है। जो जल सकता है, वह जल जाएगा। और उसी की तो हमें पहचान करनी है जो जल न सके। जो जलता है उसे जल जाने दें।
देखें.आग लगी है, चिता की लपटें जल रही हैं, आप भी जले जा रहे हैं, जले जा रहे हैं, जले जा रहे हैं.लपटें बढ़ती जाती हैं, शरीर जलता जा रहा है। लपटें बढ़ती जा रही हैं, शरीर जलता जा रहा है। थोड़ी देर में सब राख हो जाएगा। हम ही राख हो जाएंगे। और अपने को राख हुआ देखना बड़ा गहरा अनुभव है।
देखें.सब राख हुआ जा रहा है, सब जलता जा रहा है। मित्र, प्रियजन जाने शुरू हो गए हैं। उनकी पीठ दिखाई पड़ने लगी, मुंह अब दिखाई नहीं पड़ता। वे लौट रहे हैं। आखिर वे मरघट में कब तक खड़े रहेंगे? वे जाने लगे हैं, वे जा रहे हैं। लपटें बढ़ती जाती हैं, राख बढ़ती जाती है। इधर लपटें बढ़ती हैं, उधर राख बढ़ रही है। हम जले जा रहे हैं, जले जा रहे हैं, समाप्त हुए जा रहे हैं.बिलकुल मिट जाना है.मिट जाएं.बिलकुल मिट जाएं.।
अब मरघट पर कोई भी दिखाई नहीं पड़ता। लपटें भी बुझने लगीं, राख का ढेर ही रह गया है। मरघट पर सन्नाटा छा गया है। सब मिट जाएगा। थोड़ी देर में अंगारे भी बुझ जाएंगे और राख ही पड़ी रह जाएगी। देखते रहें, अपने को मिटते देखना बहुत गहरा अनुभव है। ध्यान की दूसरी सीढ़ी वही है। मरघट पर सन्नाटा छा गया है। लपटों की आवाज भी बंद हो गई। अंगारे भी बुझने लगे हैं। राख का एक ढेर पड़ा है।
देखें, ठीक से देखें, मरघट पर अब कोई नहीं है, राख का एक ढेर पड़ा रह गया है--हमारी ही राख का ढेर! हम मिट गए हैं, राख का एक ढेर पड़ा रह गया है। और मरघट है, और सन्नाटा है। हवाएं आती हैं और राख उड़ जाती है। उस राख को सम्हालने को भी कोई न रहा। यही हैं हम! यही थे हम! राख के इस ढेर को ठीक से पहचान लें, यही है वह चेहरा जिसको बहुत बार दर्पण में देखा है। यही है वह शरीर, जिसे जीवन भर, अनेक-अनेक जीवन सम्हाला। यह राख का ढेर बहुत बड़ी सच्चाई है। इसे ठीक से अनुभव कर लें। ध्यान का दूसरा चरण यही है। सब मिट गया है, सब मिट गया है, सन्नाटा है। राख का ढेर पड़ा है, उसे ठीक से देखें। देख लिया राख के ढेर को, अपने होने को, अपनी आखिरी परिणति को?
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें। फिर तीसरा प्रयोग समझें और पांच मिनट के लिए तीसरा प्रयोग करें।
पहला प्रयोग है: बहने का अनुभव।
दूसरा प्रयोग है: मरने का अनुभव।
और तीसरा प्रयोग है: तथाता।
तीसरा प्रयोग सबसे गहरा प्रयोग है। उसे ठीक से समझ लेना जरूरी है। तथाता का अर्थ है: चीजें जैसी हैं वैसी हैं। हमें उनसे कोई विरोध नहीं। पक्षी आवाज कर रहे हैं, कर रहे हैं। धूप गरम है, है। हवाएं चलती हैं और ठंड मालूम पड़ती है, मालूम पड़ती है। जिंदगी जैसी है वैसी हमें स्वीकार है। न हम उसमें कोई बदल करना चाहते हैं, न कोई हेर-फेर करना चाहते हैं। हमारा कोई विरोध नहीं, हमारी कोई अस्वीकृति नहीं। तथाता का अर्थ है: थिंग्स आर सच। चीजें ऐसी हैं और हम उनके लिए राजी हैं। तथाता का अर्थ है: परिपूर्ण राजी हो जाना, टोटल एक्सेप्टेबिलिटी।
जब हम किसी चीज के लिए पूरी तरह राजी हो जाते हैं, तो चित्त की सब शांति-अशांति सब खो जाती है। तब चित्त का सब रोग, सब बीमारी विनष्ट हो जाती है। तब चित्त का सब तनाव सब समाप्त हो जाता है। हमारे मन का तनाव और अशांति हमारे विरोध से पैदा होती है। हम चाहते हैं, चीजें ऐसी हों। अब एक कौआ आवाज करेगा, एक पक्षी चिल्लाएगा और हम चाहेंगे कि ध्यान कर रहे हैं हम, पक्षी चुप हों। लेकिन पक्षियों को आपके ध्यान से क्या प्रयोजन? हवाएं चलेंगी और हम चाहेंगे हवाएं न चलें, थोड़ी देर ठहर जाएं। रास्ते पर गाड़ियां निकलेंगी, आवाज होगी, हार्न बजेगा और हम चाहेंगे, यह सब बड़ी बाधा, बड़ा डिस्टर्बेंस। तब फिर ध्यान में आप कभी भी न जा सकेंगे।
जिंदगी आपके लिए ठहर नहीं सकती है। जिंदगी चलेगी, चलती रहेगी। फिर क्या रास्ता है? जो लोग भी ध्यान करने बैठते हैं, उनकी परेशानी यह है कि कभी कोई रास्ते पर हार्न बजा देता, कभी कोई बच्चा रोने लगता, कभी कोई कुत्ता आवाज करने लगता, कभी कोई सड़क पर झगड़ा हो जाता, उनकी मुसीबत यह है कि डिस्टर्बेंस हो जाते हैं। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं: अगर तथाता की बात समझी, तो इस दुनिया में डिस्टर्बेंस जैसी चीज है ही नहीं। तथाता का मतलब है: जो हो रहा है, हमें स्वीकार है। डिस्टर्बेंस का सवाल कहां है? डिस्टर्बेंस तो तब होता है, विघ्न-बाधा तब होती है, जब हम कहते हैं, ऐसा न हो और होता है, तब परेशानी होती है।
लेकिन हम कहते हैं, जैसा हो रहा है वैसा हो रहा है, हम राजी हैं। हार्न बजता है तो हम सुनने को राजी हैं। बच्चा रोता है तो हम सुनने को राजी हैं। पक्षी चिल्लाते हैं तो हम सुनने को राजी हैं। हमारा कोई विरोध ही नहीं। हम इस जीवन में एक विरोधी की तरह खड़े नहीं होते, हम इस जीवन को एक मित्र की तरह स्वीकार कर लेते हैं। स्वीकृति का भाव ध्यान की गहरी से गहरी बात है। और जो व्यक्ति सब स्वीकार कर लेता है, वह व्यक्ति सबसे मुक्त हो जाता है। जहां तक हमारा विरोध है, वहां तक हमारा बंधन है। जहां तक हम अकड़े हैं, वहां तक हमारी मुसीबत है। जहां तक हम कह रहे हैं, ऐसा हो, ऐसा न हो, वहां तक, वहां तक परेशानी है। लेकिन जब हम कहते हैं, जैसा हो रहा है, वैसा हो रहा है, हमें स्वीकार है, हम राजी हैं, हम भी उसी के एक हिस्से हैं, तब फिर सब विरोध खो जाता है।
तो ध्यान का तीसरा पांच मिनट प्रयोग करें और फिर चौथा प्रयोग ध्यान का होगा। इन तीनों के जोड़ से ध्यान निकलेगा। तथाता का तीसरा प्रयोग करें।
आंख बंद करें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख को बंद हो जाने दें और शरीर को ढीला छोड़ दें। शरीर को ढीले छोड़ने होने का मतलब है, हम अपने चारों तरफ से एक हो गए, अलग न रहे। अब जो कुछ भी हो रहा है, उसे चुपचाप अनुभव करते रहें, जानते रहें। विरोध न लें। देखें, गाड़ी आवाज करती है, पक्षी गीत गाते हैं, सब स्वीकार कर लें। जो भी हो रहा है, हो रहा है, हम राजी हैं। हम राजी हैं, इसको भीतर मन में गहरे गूंज जाने दें। हम राजी हैं, हम सबसे राजी हैं। जो भी हो रहा है, जो भी हो रहा है, जो भी हो रहा है, हम राजी हैं। हमारा कोई विरोध नहीं। और बाहर ही नहीं, भीतर भी राजी हैं। अगर पैर शून्य हो गया, अगर पैर पर चींटी काटती है, हम उसके लिए भी राजी हैं। अगर भीतर कोई विचार चलता, हम उसके लिए भी राजी हैं। हमारा विरोध ही नहीं है; बाहर-भीतर सब तरफ हम राजी हैं।
एक पांच मिनट के लिए तथाता की स्थिति में अपने को छोड़ दें। धूप पड़ रही चेहरे पर, पसीना बहने लगे, हम राजी हैं। ठीक है, धूप पड़ेगी, पसीना बहेगा। और जब हम राजी होंगे, तो धूप भी बड़ी शीतल मालूम पड़ने लगेगी। देखें, सड़क की आवाज भी बहुत प्रीतिकर मालूम होगी, जब हम राजी हैं। जब हम राजी हैं, तब सारे जगत से प्रीतिकर अनुभव होने लगता है। और उसी प्रेम के द्वार से परमात्मा का आगमन होता है। जब हम राजी हैं, तब प्रेम और जब प्रेम, तब परमात्मा।
अब पांच मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं।
आप राजी हो जाएं। सब समग्र रूप से स्वीकार कर लें और देखें फिर मन कैसा शांत हो जाता है, जैसा कभी न हुआ होगा। मन के भीतर शांति के झरने फूट पड़ते हैं, जैसे कभी न फूटे होंगे। एक भीतर प्रकाश छा जाता है। एक आलोक शीतल, एक ठंडी प्रकाश की छाया फैल जाती है। देखें, चुपचाप अनुभव करें। जो है, है और हम राजी हैं। पक्षियों आवाज करो! हवाएं बहो! सूरज तपो! हम राजी हैं.हम राजी हैं.हम राजी हैं.जो भी है उसके लिए हम राजी हैं। हमारा कोई विरोध नहीं है। हम इस बड़े जगत के एक हिस्से मात्र हैं। इन हवाओं के भी हम हिस्से हैं, इन आवाज करते पक्षियों के भी, इस तपती हुई धूप के भी, सड़क पर होते शोरगुल के भी--हम इस बड़े जगत के एक हिस्से हैं। हमारा कोई विरोध नहीं। हिस्सा विरोध कैसे कर सकता है? हम राजी हैं। हम बिलकुल राजी हैं। छोड़ दें अपने को इस स्वीकृति में। जो भी हो रहा है, हो रहा है, हो रहा है। जो भी हो रहा है, ठीक है, शुभ है। जो भी हो रहा है, सुंदर है। जो भी हो रहा है, हो रहा है, हम राजी हैं, हमारा कोई विरोध नहीं है। और देखें, मन कैसी शांति से भरता चला जाता है। और देखें, मन कैसा मौन होता चला जाता है। और देखें, भीतर कैसा नया प्रकाश फैलने लगता है.ट्रेन की आवाज कैसी प्रीतिकर है। पक्षियों की आवाजें, हवाओं की आवाजें, वृक्षों का, पत्तों का हिलना--सब स्वीकृत है। जीवन जैसा है, स्वीकृत है।
स्वीकार.स्वीकार.समग्र स्वीकार.जो भी है, स्वीकृत है। और जैसे ही स्वीकार होता है, हम समस्त के एक हिस्से मात्र हो जाते हैं। फिर सूरज अलग नहीं, पक्षी अलग नहीं, वृक्ष अलग नहीं, कोई अलग नहीं, पृथ्वी अलग नहीं, आकाश अलग नहीं, सब जुड़ गया, सब एक हो गया। हम सबके साथ एक हो जाते हैं।
ठीक से अनुभव कर लें तथाता को, इस स्वीकृति को, इस राजी होने को ठीक से अनुभव कर लें। यह ध्यान का तीसरा चरण है। ठीक से पहचान लें क्या अर्थ है स्वीकार का। देखें, भीतर कहीं कोई विरोध तो नहीं? देखें, भीतर कहीं किसी चीज को इनकार करने का भाव तो नहीं? देखें, कहीं किसी चीज के कारण भीतर विघ्न और बाधा तो नहीं बनती है? अनुभव कर लें, सब स्वीकृत है, सब स्वीकृत है, जो हो रहा है, स्वीकृत है। अस्वीकार है ही नहीं।
अब धीरे-धीरे आंख खोल लें। फिर ध्यान का प्रयोग समझें और हम ध्यान का प्रयोग करेंगे।
ये तीन प्रयोग समझने के लिए किए। ये तीन चरण हैं ध्यान के।
पहला प्रयोग है: बह जाने का। प्रयोग हमने इसलिए किए, ताकि शायद शब्द से समझ में न आए, तो अनुभव से समझ में आ जाए, इसलिए कल्पना की। तैरने और बहने के विरोध को समझ लिया होगा। तैरना नहीं है, बह जाना है। तैरना एक अहंकार है, बह जाना समर्पण है।
दूसरा प्रयोग हमने किया: मिट जाने का, समाप्त हो जाने का। अपने को बचाने की कोशिश बड़ा पागलपन है। जो अपने को बचाने की कोशिश में लगता है, वह समग्र को कभी भी न जान सकेगा। अगर कोई बूंद बूंद ही रहना चाहे, तो फिर सागर को नहीं जान सकती। बूंद को सागर को जानना है तो मिटना पड़ेगा। लेकिन बूंद सागर में खोकर मिटती नहीं है, सागर हो जाती है। छोटे से और विराट हो जाती है। असल में छोटे हम हैं। अगर बड़े को जानना हो, तो मिटना पड़ेगा। छोटा होना मिटे, तो ही बड़ा होना हो सके। क्षुद्र हम हैं, सीमा में बंधे हम हैं। सीमाएं टूटें, तो ही हम असीम हो सकें। लेकिन हम सब अपने को बचाने में लगे हैं।
तो ध्यान की दूसरी कड़ी है: अपने को बचाना नहीं; छोड़ देना, मिट जाना, समाप्त हो जाना। निश्र्चित ही, जो मिट सकता है, वही मिटेगा। जो नहीं मिट सकता, वह नहीं मिटेगा। और हमारे भीतर दोनों हैं--वह भी जो मिट सकता है, वह भी जो नहीं मिट सकता है। जो मिट सकता है, वह मिट जाएगा, वह मिटेगा ही। हम चाहें, चाहे न चाहें। जो नहीं मिट सकता है, वह हम चाहें तो भी नहीं मिट सकता है। वह रहेगा, रहेगा। तो दूसरा प्रयोग हमने किया: चिता पर चढ़ जाने का, जल जाने का, राख हो जाने का। ध्यान में बहुत जरूरी है; क्योंकि मिटना पड़ेगा, मरना पड़ेगा। ध्यान स्वेच्छा से लाई गई मृत्यु का ही नाम है।
तीसरा प्रयोग हमने किया: तथाता का। तथाता का अर्थ है: चीजें जैसी हैं, उनकी स्वीकृति। और यदि कोई स्वीकार कर ले, तो फिर अशांत नहीं हो सकता।
अशांति आती है अस्वीकार से। तनाव आता है अस्वीकार से। हमारी जिंदगी की सब परेशानी और चिंता आती है अस्वीकार से।
एक बैलगाड़ी जाती हो, एक शराबी बैठा हो, साथ में आप भी बैठे हुए हैं और बैलगाड़ी उलट जाए, तो ध्यान रखना, आपको चोट लगेगी, शराबी को चोट नहीं लगेगी। और बड़े मजे की बात है, चोट शराबी को लगनी चाहिए थी; क्योंकि शराबी पीए हुए था। हमें क्यों चोट लग गई? हम तो शराब न पीए हुए थे। लेकिन गाड़ी उलटे तो शराबी बच जाए और आपको चोट लग जाए। क्योंकि शराबी सब स्वीकार कर लेता है; होश ही नहीं है विरोध करने का। वह गिरता है तो पूरी तरह ही गिर जाता है। गिरने से भी बचने का भाव नहीं होता।
जो होश में है, वह बचेगा। गाड़ी उलटेगी तो तन जाएगा, बचने की चेष्टा में लग जाएगा। हड्डियां खिंच जाएंगी, सजग हो जाएगा। तनी हुई हड्डियां चोट खा जाएंगी और टूट जाएंगी। शराबी रोज सड़क पर गिरता है, चोट नहीं खाता। आप गिरें तो मुश्किल में पड़ जाएं। रोज बच्चे गिरते हैं और चोट नहीं खाते। हम गिरें तो हड्डियां टूट जाएं। बच्चे गिरने को भी स्वीकार कर लेते हैं, उसको भी राजी हो जाते हैं। और जब कोई गिरने को भी राजी हो जाए तो फिर चोट लगनी बहुत मुश्किल हो जाए। उसके राजी होने के कारण विरोध बंद हो जाता है।
जिंदगी को स्वीकार के भाव से जो लेता है, जिंदगी उसे चोट नहीं पहुंचा पाती। और जो जिंदगी का विरोध करता है, उसे जिंदगी बहुत चोट पहुंचा जाती है, बहुत घाव कर जाती है, बहुत अल्सर बना जाती है। जिंदगी को जो पूरी तरह स्वीकार कर लेता है, जैसी जिंदगी आती है, द्वार खोल कर राजी हो जाता है, उसे जिंदगी कभी चोट नहीं पहुंचा पाती।
इसलिए तीसरा प्रयोग है: स्वीकार का। क्योंकि परमात्मा को जानना है अगर, तो जीवन को पूरी तरह स्वीकार करके ही तो जान सकेंगे। जिसे हम अस्वीकार करते हैं, उससे हमारी दुश्मनी हो जाती है। जिसका हम विरोध करते हैं, उसके लिए हमारे द्वार बंद हो जाते हैं। जिसके हम खिलाफ खड़े हो जाते हैं, हमारा चित्त क्लोज्ड हो जाता है, बंद हो जाता है। फिर वह खुलता नहीं। लेकिन जब हम स्वीकार कर लेते हैं, तो सब खुल जाता है। उस खुले मन में ही अवतरण होता है, वही द्वार बनता है। इसलिए तीसरा चरण है: तथाता, सब स्वीकृति।
अब ध्यान में हम तीनों का एक साथ प्रयोग करेंगे।
ध्यान के प्रयोग में बैठने के पहले और मैं चाहूंगा थोड़े दूर-दूर हट जाएं, ताकि--अब पूरा ही छोड़ना पड़ेगा शरीर को, वह गिर भी सकता है--गिर जाए तो चिंता नहीं लेनी है। अगर उसे रोकने में लग गए, तो वहीं अटक जाएंगे। वह गिरता हो तो गिर जाए। इसलिए अब और थोड़े फासले पर हट जाएं। कुछ और मित्र आ गए हैं, वे वहां जो खुली जगह है, वहां थोड़े हट जाएं चुपचाप बिना आवाज किए, ताकि कोई गिरे तो किसी के ऊपर न गिर जाए, या किसी को अपने को सम्हालना न पड़े। और वहां कुछ पीछे मित्र बैठे हैं, वे अगर उनको प्रयोग न भी करना हो, तो कम से कम बातचीत न करें। वहां पीछे बात न करें और थोड़ा दूर हट कर बैठें। कोई लेटना चाहे तो पहले ही चुपचाप किसी कोने में जाकर लेट जा सकता है।
अब हम प्रयोग करेंगे।
पहला, आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद करें, शरीर को ढीला छोड़ दें। और मैं थोड़ी देर सुझाव देता हूं, मेरे साथ अनुभव करें, ताकि शरीर पूरा-पूरा ढीला छूट जाए। मैं सुझाव देता हूं--शरीर शिथिल हो रहा है, आप मेरे साथ अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है। और शरीर को शिथिल छोड़ते जाएं, छोड़ते चले जाएं। चाहे वह गिरे तो गिर जाए, झुके तो झुक जाए, आप रोक कर मत रखें। शरीर शिथिल हो रहा है, अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.छोड़ दें, जरा भी पकड़ें नहीं। शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है. शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है, जैसे उसमें कोई प्राण ही न हों।
छोड़ें, बिलकुल छोड़ें, जैसे नदी में बह गए थे, ऐसा शिथिलता में बह जाएं। छोड़ दें. छोड़ दें.शरीर शिथिल हो रहा है.एक-एक अंग ढीला और शिथिल होता जा रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल हो रहा है.शरीर शिथिल होता जा रहा है.छोड़ दें.बिलकुल छोड़ दें.शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.छोड़ दें, पकड़ें नहीं, झुकता हो झुके, गिरता हो गिरे, जो होना हो हो, शरीर पर आप अपनी पकड़ न रखें। शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.देखें, छोड़ें, जरा भी पकड़ न रखें। शरीर शिथिल हो गया है.शरीर शिथिल हो गया है.
श्वास शांत होती जा रही है.श्वास को भी छोड़ दें। श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है.छोड़ दें, श्वास को भी ढीला छोड़ दें। श्वास शांत हो रही है.अनुभव करें, भाव करें, श्वास शांत होती जा रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास शांत होती जा रही है.श्वास के शांत होते-होते शरीर और शिथिल हो जाएगा, बिलकुल ढीला हो जाएगा। शरीर बिलकुल शिथिल हो जाएगा। श्वास शांत होती जा रही है.श्वास शांत हो रही है.श्वास को बिलकुल ढीला छोड़ दें, वह धीरे-धीरे शांत होते-होते इतनी शांत हो जाती है कि पता ही नहीं चलता कब आई, कब गई। उसकी पहचान ही बंद हो जाती है। जैसा चिता पर चढ़ गए थे और मिट गए थे, ऐसा ही श्वास को शांत हो जाने दें, मिट जाने दें। श्वास ही हमारा आधार बना है हमारे अहंकार का, उसे छोड़ दें ढीला.ढीला.ढीला.फिर वह खो जाए.खो जाए.श्वास शांत हो गई है.श्वास शांत हो गई है.
और अब तीसरा कदम तथाता का। अब सब स्वीकार में डूब जाएं। जो है, है। उसके साक्षी बने रहें। पक्षी आवाज कर रहे हैं, हम सुन रहे हैं। धूप गरम है, हम अनुभव कर रहे हैं। रास्ते पर शोरगुल है, हम उसके ज्ञाता हैं। पैर में दर्द हो रहा है, हम जान रहे हैं। शरीर गिर रहा है, हम पहचान रहे हैं, रोक नहीं रहे हैं। हम कर्ता नहीं, सिर्फ ज्ञाता हैं। शरीर गिरे तो उसे भी जान रहे हैं। शरीर झुके तो उसे भी जान रहे हैं। आंख से आंसू बहने लगें तो उसे भी जान रहे हैं। रोना निकलने लगे, उसे भी जान रहे हैं। जो भी हो रहा है, हो रहा है। हम रोकने वाले नहीं, करने वाले नहीं, सिर्फ जान रहे हैं, जान रहे हैं, जान रहे हैं। और सब स्वीकार है। और जो भी जान रहे हैं वह स्वीकार है, उससे कोई इनकार नहीं है। अब दस मिनट के लिए सर्व स्वीकार में अपने को छोड़ दें। और धीरे-धीरे सब शून्य हो जाएगा, सब मिट जाएगा, सब खो जाएगा। उसी शून्य में पहली दफे परमात्मा के चरण सुनाई पड़ते हैं। उसका दीया जलता हुआ मालूम पड़ता है। उसकी वीणा का संगीत आता हुआ मालूम पड़ता है। छोड़ दें.।
अब मैं चुप हो जाता हूं। दस मिनट के लिए साक्षीभाव में, स्वीकार भाव में लीन हो जाएं।
साक्षी बने रहें, जानते रहें। हवाएं बह रही हैं, हम जान रहे हैं। पक्षी आवाज कर रहे हैं, हम जान रहे हैं। वृक्षों के पत्तों में शोरगुल है, हम जान रहे हैं। हम सिर्फ जान रहे हैं और स्वीकार है। हम मात्र ज्ञाता, मात्र साक्षी हैं। देख रहे हैं, जान रहे हैं, पहचान रहे हैं और सब स्वीकार है। धीरे-धीरे भीतर शून्य हो जाएगा। धीरे-धीरे भीतर शून्य बन जाएगा। उसी शून्य के मंदिर में प्रभु का साक्षात्कार होता है। जानते रहें, सुनते रहें, पहचानते रहें, साक्षीमात्र, सर्व स्वीकार से भरे।
छोड़ दें.छोड़ दें.खो जाएं.बह जाएं--इस होने में, इस अस्तित्व में पूरी तरह लीन हो जाएं। हम इसके ही हिस्से हैं। ये हवाएं, यह सूरज, ये वृक्ष अलग नहीं हैं, हम सब एक हैं। पूरी तरह छोड़ दें। जानते रहें, स्वीकार करें। और मन धीरे-धीरे शून्य हो जाएगा। उस शून्य मन में आनंद के झरने फूट पड़ेंगे। उस शून्य मन में आनंद के दीये जल जाएंगे। उस शून्य मन में आनंद की वीणा बजने लगेगी। छोड़ दें, सब भांति अपने को छोड़ दें। बह जाएं, मिट जाएं, साक्षीमात्र रह जाएं।
मन शून्य हो गया है, मन शांत हो गया है, मन बड़ी शीतलता और आनंद से भर गया है।
साक्षी रहें.साक्षी रहें.सर्व स्वीकार, जो है, है। सब स्वीकार कर लें और मात्र साक्षी रह जाएं। आपके आनंद में हवाएं भी आनंदित, वृक्ष भी आनंदित, सूरज भी आनंदित। सिर्फ जानते रहें, स्वीकार कर लें, सब स्वीकार कर लें और इस सबमें खो जाएं।
मन शून्य हो गया है, मन शांत हो गया है, मन आनंद से भर गया है, इसी शांत आनंद से भरे मन में प्रभु की मौजूदगी का पता चलता है। वह चारों तरफ अनुभव होने लगता है। सूरज की किरणें उसकी किरणें हो जाती हैं। हवाओं के झोंके उसके झोंके हो जाते हैं। वृक्षों के पत्तों के गीत उसके गीत हो जाते हैं। पक्षियों का शोरगुल उसका शोरगुल और पुकार बन जाती है। अब अंतिम रूप से उसकी मौजूदगी को अनुभव करें, चारों तरफ वही मौजूद है, सबमें वही मौजूद है।
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्र्वास लें, प्रत्येक श्र्वास में वही मौजूद है, प्रत्येक श्वास बहुत आनंद से भरी हुई मालूम होगी। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्र्वास लें, प्रत्येक श्र्वास में वही मौजूद है। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्र्वास लें। वही भीतर जाता, वही बाहर जाता। सब तरफ वही है--बाहर भी, भीतर भी। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्र्वास लें। फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। अगर आंख न खुले, तो दोनों आंखों पर हाथ रख लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। आंख बंद करके भी वही मौजूद था, आंख खोल कर भी चारों तरफ वही मौजूद है। धीरे-धीरे आंख खोल लें। जो लोग गिर गए हैं, वे थोड़ी गहरी श्वास लेंगे फिर बहुत धीरे-धीरे उठेंगे। जल्दी नहीं करेंगे। उठते न बने, तो लेटे हुए और थोड़ी श्वास लें फिर बाद में उठें। और धीरे-धीरे, झटके से नहीं।
रात्रि इस प्रयोग को सोते समय करें और फिर सो जाएं, ताकि कल सुबह जब यहां आएं तो रात भर की गहरी शांति आपके साथ हो और हम और प्रयोग में गहरे उतर सकें। रात सोते समय बिस्तर पर ही प्रयोग को करें और सो जाएं, ताकि रात पूरी रात वही शांति, वही आनंद भीतर सरकता रहे। और सुबह जब आप यहां आएं तो हम और गहरे जा सकें।

हमारी सुबह की बैठक पूरी हुई।

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