QUESTION & ANSWER
Jeevan Darshan 06
Sixth Discourse from the series of 7 discourses - Jeevan Darshan by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, आपके कथनानुसार सब धर्मशास्त्र, धार्मिक पुस्तकें व्यर्थ हैं, जिनमें बुद्ध, महावीर वगैरह के विचार व्यक्त होते हैं। तो आपके विचारों की अभिव्यक्ति जिन पुस्तकों से है, उन्हें भी व्यर्थ क्यों न माना जाए? मानव अपने अनुभवों से ही क्यों न आगे बढ़े, आपको सुनने की भी क्या आवश्यकता है?
बहुत ही ठीक प्रश्न है। जरूरी है उस संबंध में पूछना और जानना। लेकिन किसी गलतफहमी पर खड़ा हुआ है। मैंने कब कहा कि किताबें व्यर्थ हैं? मैंने कहा, शास्त्र व्यर्थ हैं।
किताब और शास्त्र में फर्क है।
शास्त्र हम उस किताब को कहते हैं, जिस पर विचार नहीं करते और श्रद्धा करते हैं। श्रद्धा और विश्वास अंधे हैं। और विश्वास के अंधेपन के कारण किताबें शास्त्र बन जाती हैं, आप्तवचन बन जाती हैं, ऑथेरिटी बन जाती हैं। फिर उन पर चिंतन नहीं किया जाता, फिर उन्हें केवल स्वीकार किया जाता है। फिर उन पर विचार नहीं किया जाता, उन पर विवेक नहीं किया जाता, अंधानुकरण किया जाता है।
किताबों के मैं पक्ष में हूं, शास्त्रों के पक्ष में मैं नहीं हूं।
शास्त्र बनाते हैं व्यक्ति को अंधा, शास्त्र के साथ एक ऑथेरिटी जुड़ी है। उसमें जो भी कहा है, वह ठीक है। उस पर चिंतन और मनन की कोई गुंजाइश नहीं है। उसमें परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं है। और अगर कोई भी चीज उसके विरोध में पड़ती हो, तो वह अनिवार्य रूप से गलत है।
एक मुसलमान खलीफा सिकंदरिया गया। सिकंदरिया में दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय था। और दुनिया के लाखों हस्तलिखित ग्रंथ वहां इकट्ठे थे। कहते हैं, उस संग्रह के नष्ट हो जाने से पुरानी दुनिया का सारा ज्ञान हमें उपलब्ध नहीं हो सका, हम उससे वंचित हो गए। उस पुस्तकालय को उस मुसलमान खलीफा ने आग लगवा दी। बड़ा था पुस्तकालय इतना कि छह महीने तक आग बुझ नहीं सकी।
किस वजह से आग लगा दी, उसने क्या तर्क दिया?
वह अपने हाथ में मशाल लेकर एक हाथ में और दूसरे हाथ में कुरान लेकर वहां पहुंचा। और उसने उस पुस्तकालय के सबसे प्रमुख आचार्य को कहा: ये जो लाखों ग्रंथ हैं तुम्हारे इस पुस्तकालय में, क्या इनमें वे ही बातें लिखी हैं जो कुरान में लिखी हैं? अगर वे ही बातें लिखी हैं, तो इनकी कोई जरूरत नहीं है, कुरान काफी है। और अगर इन किताबों में ऐसी बातें भी लिखी हैं, जो कुरान में नहीं हैं, तब तो इन किताबों की बिलकुल भी जरूरत नहीं है। क्योंकि जो कुरान में नहीं है, वह सत्य नहीं है। और दोनों हालतों में मैं इसको आग लगा देता हूं।
और उसने उस पुस्तकालय में आग लगा दी। जो छह महीने तक जलती रही। दुनिया की बहुत बड़ी संपदा उस आदमी ने नष्ट कर दी।
कुरान उसके लिए किताब न थी, कुरान उसके लिए शास्त्र था। शास्त्र खतरनाक सिद्ध हो गया। कुरान भी एक किताब होती, तो उस बड़े किताब के संग्रह में वह भी अपना स्थान पा जाती। लेकिन वह किताब न थी।
बाइबिल कहती है कि दुनिया ईसा से चार हजार वर्ष पहले निर्मित हुई। और जब वैज्ञानिकों ने खोज की, तो उन्होंने पाया, जमीन तो कई अरब वर्ष पुरानी है। तो जिन लोगों ने यह कहा कि जमीन अरब वर्ष पुरानी है, दो अरब वर्ष पुरानी है, ईसाई जगत उनके खिलाफ खड़ा हो गया। और उन्होंने कहा: यह कभी नहीं हो सकता, जो हमारे शास्त्र में है, वह गलत नहीं हो सकता। तो वैज्ञानिकों की हत्याएं की गईं, उनको सजाएं दी गईं, उनको जलाया गया। और उनसे कहा गया कि लिखित रूप से माफी मांगो, कि तुमने जो लिखा है वह गलत है। तुम्हारी खोज गलत। तुम्हारा विज्ञान गलत। हमारा शास्त्र कभी गलत नहीं हो सकता। वे आप्तवचन हैं, वे परमात्मा के शब्द हैं।
बाइबिल एक किताब हो, तो उसका स्वागत है। लेकिन बाइबिल एक शास्त्र हो, उसका कोई विचारशील व्यक्ति स्वागत नहीं कर सकता। क्योंकि शास्त्र आप्तता, ऑथेरिटी हो जाना मनुष्य के मानसिक विकास में बाधा बनती है।
मैं शास्त्रों के विरोध में हूं, किताबों के विरोध में नहीं हूं।
तो, मेरी जो किताबें आपको दिखाई पड़ रही हैं, वे कोई भी शास्त्र नहीं हैं। वे गलत हो सकती हैं। उनमें बहुत सी गलतियां होंगी। और उनका कोई दावा नहीं है कि वे सत्य का अंतिम प्रमाण हैं। वे आपको मानने के लिए नहीं दी गई हैं; आपको विचार करने के लिए दी गई हैं। आप सोचें, और कचरा पाएं तो फेंक दें उनको। उनको एक क्षण भी घर में रखने की जरूरत नहीं है। और अगर कोई बात ठीक लगे, खुद के सोच-विचार से, तो वह आपकी अपनी हो गई। उससे मेरा कोई नाता नहीं है। वह आपके चिंतन का फल है। तो वे जो किताबें हैं शास्त्र नहीं हैं। उन्हें मान लिए जाने का कोई आग्रह नहीं है।
शास्त्र का आग्रह खतरनाक है। शास्त्र का आग्रह है कि मैं ही सत्य हूं। और फिर इससे भिन्न जो है, वह असत्य है। और फिर यह प्रवृत्ति अंत में अत्यंत खतरनाक परिणामों पर ले जाती है। परसिक्यूशन पैदा होता है। फिर जो विरोधी है, उसको खत्म करो, अलग करो, क्योंकि वह असत्य है। फिर उसकी किताबों को जलाओ, उसके मंदिरों को गिराओ, उसके लोगों की हत्या करो, क्योंकि वह असत्य है। और सत्य के नाम पर ये सब पाप चलते रहे हैं। और इन पापों के पीछे एक ही कारण है कि हमने कुछ किताबों को शास्त्र का ओहदा दे दिया।
सब किताबें किताबें हैं; कोई किताब शास्त्र नहीं है।
कोई किताब परमात्मा की बनाई हुई नहीं है। कोई किताब अंतिम नहीं है। मनुष्य निरंतर विकास कर रहा है। और सब किताबें मनुष्य की बनाई हुई हैं। और मनुष्य की समझ आगे बढ़ती है, तो किताबें उसमें बाधा नहीं बन सकतीं। समझ आगे बढ़ेगी, तो किताबों को पीछे हट जाना पड़ेगा।
लेकिन शास्त्र पीछे हटने का नाम नहीं लेते। क्योंकि उनका दावा है कि वे पूर्ण रूप से सत्य हैं। उनके आगे-पीछे कोई फर्क नहीं हो सकता।
मैं किताब के विरोध में नहीं हूं। नहीं तो मेरी किताब कैसे आपके सामने हो सकती थी? आपको दिख गई यह भूल, तो मुझको न दिखती? मैं शास्त्र के विरोध में हूं। एक ऐसी दुनिया चाहिए, जहां किताबें तो बहुत हों, विचार तो बहुत हों; लेकिन अंधे लोग न हों, शास्त्र न हों, ऑथेरिटीज न हों। तो दुनिया में जो क्लेश है, संघर्ष है, विवाद है, वह न हो।
एक मित्र के घर मैं मेहमान था। उन्होंने मुझसे कहा कि मेरी मां बहुत धार्मिक है। मैंने कहा: मैं जरूर आपकी मां को, दो-चार दिन यहां हूं, अध्ययन करूंगा; क्योंकि धार्मिक आदमी मुश्किल से ही मिलते हैं। दूसरे दिन सुबह मैं एक किताब पढ़ रहा था। सर्दी के दिन थे। और बाहर बैठा हुआ था उनके बगीचे में। उनकी मां वहां आईं। उसने मुझसे पूछा: आप क्या पढ़ रहे हैं? मैं पढ़ तो कुछ और ही रहा था, लेकिन मैंने उससे कहा कि मैं कुरान-शरीफ पढ़ रहा हूं। वह थी कट्टर हिंदू। उसने मेरे हाथ से किताब छीन कर फेंक दी। और उसने कहा: क्या हमारे धर्म में किताबें नहीं हैं पढ़ने को, जो आप कुरान-शरीफ पढ़ रहे हैं?
मैंने उनके पुत्र को कहा: आपकी मां होगी हिंदू, लेकिन धार्मिक नहीं हैं।
धार्मिक आदमी किसी की किताब छीन कर फेंकेगा? लेकिन हिंदू फेंक सकता है, मुसलमान फेंक सकता है, जैन फेंक सकता है। फेंकते रहे हैं। ऐसी किताबें हैं इस मुल्क में--हिंदुओं की भी, जैनों की भी, जिनमें यह लिखा है: हिंदुओं की किताब में लिखा है कि अगर पागल हाथी तुम्हारे पीछे दौड़ रहा हो तो उसके पैर के नीचे दब कर मर जाना, लेकिन जैन मंदिर सामने हो तो उसमें शरण मत लेना। मर जाना बेहतर है, लेकिन जैन मंदिर में जाना बेहतर नहीं है। ठीक इसके उत्तर में जैन किताबें भी हैं, उनमें भी यही लिखा हुआ है: कि पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना बेहतर है, लेकिन हिंदू शिवालय में शरण मत लेना। वह बहुत बड़ा पाप है। उससे मरना अच्छा है।
इस बुद्धि के मैं विरोध में हूं। इस बुद्धि ने बहुत अहित किया है।
मेरा किताबों से, विचारों से, जीवन को जिन्होंने समृद्ध किया है उनकी अनुभूतियों से क्या विरोध हो सकता है? लेकिन जड़ता से मेरा विरोध है। और इस आग्रह से कि जो हम पकड़ कर बैठे हैं, वही सत्य है। यह बहुत हिंसात्मक, वायलेंट माइंड की सूचना है। यह अहिंसक, प्रेमपूर्ण चित्त ऐसे आग्रह नहीं करता है। वह हमेशा खुला होता है सोचने को, विचार करने को। हमेशा निष्पक्ष होता है। उस संबंध में मैंने परसों आपसे बात की है, इसलिए और उस संबंध में आगे कुछ नहीं कहूंगा। इतना ही पुनः कह देता हूं: किताबों के मैं पक्ष में हूं, शास्त्रों के मैं पक्ष में नहीं हूं। और मेरा फर्क आप समझ लें।
जिस किताब को हम आत्यंतिक पवित्रता से मंडित कर देते हैं, वह किताब शास्त्र बन जाती है। और शास्त्र बनते ही वह किताब अत्यंत खतरनाक हो जाती है।
सभी किताबों का यह तेजोमंडल छीन लेना है--कुरान का भी, बाइबिल का भी, गीता का भी, वेद का भी। महावीर, बुद्ध के वचनों का भी। यह तेजोमंडल छीन लेना है। उन्हें किताबों की गरिमा देनी है, लेकिन शास्त्रों की नहीं। तो धर्म भी विकसित होगा।
विज्ञान विकसित हो रहा है; क्योंकि विज्ञान में कोई शास्त्र नहीं हैं, सिर्फ किताबें हैं।
धर्म रुका हुआ है; क्योंकि धर्म में शास्त्र हैं, किताबें नहीं हैं।
किताबें परिवर्तित होने को राजी हैं, शास्त्र परिवर्तित होने को राजी नहीं होते हैं।
जीवन का नियम है परिवर्तन। उसमें जो चीज भी अपरिवर्तित होने की जिद करती है, वह खुद तो मर जाती है, उसके आस-पास जो लोग इकट्ठे हो जाते हैं, वे भी मुर्दा हो जाते हैं। शास्त्रों के कारण समाज मुर्दों का एक घर हो गया है। किताबें तो गतिमान कर सकती हैं, लेकिन शास्त्र रोक लेते हैं।
मैं समझता हूं, मेरा फर्क आपके खयाल में आ गया होगा। फर्क बहुत बारीक नहीं है; बहुत स्पष्ट है, बहुत साफ है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि यदि मनुष्य के प्रयास से सत्य या परमात्मा नहीं पाया जा सकता, तब तो फिर परमात्मा की कृपा या प्रसाद या ग्रेस से ही पाया जा सकेगा?
हमें दो ही विकल्प दिखाई पड़ते हैं: या तो हमारे प्रयास से मिलेगा और या फिर किसी की कृपा से मिलेगा। तीसरे विकल्प का हमें कोई भी पता नहीं है। मैं उस तीसरे विकल्प के संबंध में थोड़ी बातें आपको कहना चाहूंगा।
एक ऑल्टरनेटिव तो यह है कि हम अपने प्रयास से सत्य को पा लेंगे। मैंने आपसे परसों कहा, आपके प्रयास से सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि मनुष्य की बुद्धि अत्यंत सीमित है, उसकी सामर्थ्य अत्यंत छोटी है। वैसी ही है उसकी सामर्थ्य, जैसे कोई प्याली में सागर को भरने चला जाए। इसलिए मनुष्य के प्रयास से तो परमात्मा नहीं पाया जा सकता। परमात्मा है विराट, सत्य है विशाल और अनंत और मनुष्य है छोटा सा। यह केवल अहंकार है मनुष्य का कि वह सोचे कि मैं परमात्मा को पा लूंगा। मनुष्य के प्रयास से तो परमात्मा नहीं पाया जा सकता। तो एकदम से हमें दूसरे नतीजे पर पहुंच जाना स्वाभाविक हो जाता है कि फिर उसकी ही कृपा से वह प्राप्त होगा।
नहीं, उसकी कृपा से भी नहीं। क्योंकि कृपा केवल वही कर सकता है, जो अकृपा भी करने में समर्थ हो। दया केवल वही कर सकता है, जो क्रूर और कठोर भी हो। परमात्मा की कृपा का कोई मतलब नहीं होता, क्योंकि परमात्मा अकृपा करने में समर्थ नहीं है। उसकी कृपा का कोई अर्थ नहीं है।
सूरज अपनी किरणें फेंक रहा है। आपका द्वार खुला होता है, तो प्रकाश भीतर आ जाता है; नहीं खुला होता, बाहर ठहर जाता है। सूरज न तो किसी पर कृपा कर रहा है और न किसी पर अकृपा कर रहा है। न किसी को शत्रु मान रहा है, न किसी को मित्र। परमात्मा तो सभी को सूरज की भांति उपलब्ध है। जिनके द्वार खुले हैं, उन्हें उपलब्ध हो जाता है। जिनके द्वार बंद हैं, वे वंचित रह जाते हैं। इसमें परमात्मा की कृपा और अकृपा का कोई सवाल नहीं है। सवाल है हमारे द्वार के खुले होने का।
और मैंने आपसे कहा, आपके प्रयास से होगा नहीं, क्योंकि आपका प्रयास ही द्वार बंद कर लेता है। आपका एफर्ट ही बीच में दीवाल बन जाता है।
एक छोटी सी कहानी कहूं, शायद उससे मेरी बात खयाल में आए।
यूरोप में एक बहुत बड़ा जादूगर था, हुदिनी। उसकी बड़ी कुशलता थी। उसकी बड़ी ख्याति थी। उसके जादू के करिश्मे सारी दुनिया में प्रख्यात थे। एक खास उसकी कुशलता थी जिसकी वजह से वह और जादूगरों से ज्यादा प्रसिद्ध था। वह यह था कि वह कैसे भी ताले खोलने में क्षण भर में समर्थ हो जाता था। यूरोप और अमरीका की बड़ी से बड़ी कारागृहों में उसे बंद किया गया और तीन मिनट के भीतर वह दीवाल के बाहर आ गया। सब तरह की हथकड़ियां और सब तरह की बेड़ियां उसको पहनाई गईं, लेकिन तीन मिनट से ज्यादा कोई जेल का अधिकारी उसे भीतर बंद नहीं रख सका। यूरोप, अमरीका के सभी बड़े-बड़े जेलों में उसका प्रदर्शन हुआ।
हैरानी की बात थी। और अगर यह संभव था, तब तो कोई भी कैदी बाहर हो सकता है उस शिल्प को सीख कर, उस कला को सीख कर। सब तरह के उपाय किए गए, लेकिन तीन मिनट से ज्यादा उसे किसी कोठरी में कभी बंद नहीं रखा जा सका। सब तरह के ताले और सब तरह की जंजीरें वह खोल कर बाहर आ जाता था।
लेकिन एक दिन एक छोटे से द्वीप पर वह असफल हो गया। तीन घंटे लग गए और कोठरी के बाहर नहीं निकल सका। थक गया, सब उपाय कर लिए, लेकिन न मालूम कैसा ताला था कि खुलता न था। आखिर वह थक कर गिर पड़ा। और गिरते ही उसका धक्का लगा और दरवाजा खुल गया। दरवाजा बंद था ही नहीं। दरवाजा बंद होता तो वह खोल भी लेता। दरवाजा खुला हुआ अटका था। ताला झूठा था, ताला लगा नहीं था। वह ताला ही खोलने में लगा रहा। ताला लगा होता तो खुल जाता, ताला लगा ही नहीं था। दरवाजा सिर्फ अटका था। तीन घंटे लग गए। बाहर भीड़ खड़ी थी। हैरान हो गई भीड़। जो तीन मिनट में निकल आया था कभी भी, आज क्या हो गया था!
लेकिन उस कारागृह का जो जेलर था, वह अदभुत होशियार रहा होगा। उसने और भी बड़ी जादू की ट्रिक कर दी। उसने दरवाजा खुला छोड़ दिया। ताला नहीं लगाया। वह गैर-लगे ताले को खोलने की कोशिश करता रहा। गैर-लगा ताला कहीं खुल सकता है? जो लगा ही न हो वह खुलेगा कैसे?
थक गया और गिर पड़ा--पसीने से लथपथ। सारा जीवन मिट्टी हो गया था। जीवन भर की प्रसिद्धि खाक हुई जाती थी। पसीने से तरबतर वह गिरा, धक्का लगा, दरवाजा खुल गया। वह हैरान होकर रह गया।
यह घटना मैं क्यों कह रहा हूं? इस आदमी को तीन घंटे कौन सी चीज रोके रही--ताला? ताला तो खुला हुआ था।
इसका प्रयास। इसकी खोलने की कोशिश इसको अटकाए रखी।
कौन सी चीज इसे बाहर ले आई?
इसका थक जाना, इसका गिर जाना, इसका असफल हो जाना। इसके प्रयास कोई काम नहीं किए।
परमात्मा के द्वार पर भी कोई ताला नहीं लगा है, जिसे आप किसी चाबी से खोलने की कोशिश कर लें। परमात्मा के द्वार खुले हुए हैं। प्रेम के द्वार बंद कैसे हो सकते हैं? उन पर ताले कैसे हो सकते हैं? ताले तो उन दरवाजों पर होते हैं, जो प्रेम के नहीं हैं। परमात्मा का द्वार तो खुला हुआ है। कोई ताला नहीं है। इसलिए जो खोलने की कोशिश करेगा, वह भटक जाएगा।
फिर आप क्या करें?
अपनी इस असमर्थता को देख लेना, अपनी इस सीमितता को देख लेना, अपनी इस क्षुद्रता को पहचान लेना। अपनी सामर्थ्य और सीमा को जान लेते ही व्यक्ति सारा प्रयास छोड़ देता है। और उस प्रयास के छूटने में ही, उस लेट-गो में, जहां मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं--अचानक, अचानक उसकी किरणें आनी शुरू हो जाती हैं। द्वार खुल जाता है।
न तो यह मेरे प्रयास का कारण है, न उसकी कृपा का। यह मेरे अप्रयास का फल है। यह मेरी एफर्टलेसनेस का फल है। मैंने छोड़ दिया अपने को, मैंने अपनी कोई कोशिश जारी नहीं रखी।
देखें, करके देखें। छोड़ कर देखें कभी क्षण भर को चौबीस घंटे में। कुछ भी न करें, बिलकुल ऐसे हो जाएं जैसे नहीं हैं। और देखें, क्या धीरे-धीरे उस न होने में से कोई क्रांति आनी शुरू होती है? क्या उस परिपूर्ण रूप से छूट जाने में से, कुछ भी न करने में से कुछ उपलब्ध होता है? देखें। यह कोई समझ लेने भर की बात नहीं हो सकती। इसे तो देखना ही पड़ेगा, इसमें से तो गुजरना ही पड़ेगा।
कोई आदमी तैरने के संबंध में कितने ही शास्त्र पढ़ ले, और अगर नदी में न उतरा हो तो चाहे तैरने पर व्याख्यान दे, चाहे तैरने पर किताबें लिखे, चाहे तैरने के संबंध में किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो जाए, लेकिन पानी में धक्का देते ही उसका ज्ञान दो कौड़ी का साबित हो जाएगा। वहां पानी में, तैरने के शास्त्र पढ़ने का सवाल नहीं है, तैरना आना चाहिए। और जो अनुभव है तैरने वाले का, वह गैर-तैरने वाला कितना ही शास्त्र पढ़े, नहीं हो सकता है।
ध्यान का जो अनुभव है, वह परमात्मा के सागर में कूदने का अनुभव है।
कूदे बिना नहीं हो सकता। इशारे किए जा सकते हैं। उस दिशा में थोड़ी सी सूचनाएं दी जा सकती हैं। उस दिशा में थोड़े से इंगित किए जा सकते हैं। लेकिन उन इंगित को पकड़ मत लेना, वे बहुत मूल्य के नहीं हैं। जैसे अगर मैं रात बाहर आपको ले जाऊं और अंगुली से दिखाऊं कि देखो वह चांद है और आप मेरी अंगुली पकड़ लें, तो सब गड़बड़ हो जाएगी। अंगुली को भूल जाना है और चांद को देखना है।
लेकिन अक्सर यही हो जाता है, इशारे पकड़ लिए जाते हैं और जिसकी तरफ इशारा है वह भूल जाता है।
मैं जो कह रहा हूं, उस पर बहुत सोच-विचार करने की जरूरत नहीं है। उसको पकड़ लेने की बहुत जरूरत नहीं है। जिस तरफ मैं इशारा कर रहा हूं, उस तरफ थोड़ी आंख उठाने की जरूरत है।
मैं यह कह रहा हूं, थोड़ा करके देखें कि न करने की स्थिति क्या है? स्टेट ऑफ नो एक्शन क्या है? थोड़ी देर नो एक्शन में होना क्या है? अकर्म में होना क्या है? थोड़ा छोड़ें और देखें। और तब आप पाएंगे: न तो आपके प्रयास से वह मिलता है, न उसकी कृपा से। मिलता है आपके अप्रयास से। मिलता है आपके मिट जाने से, मिलता है आपके न हो जाने से।
एक सूफी गीत है। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया। उसने द्वार खटखटाए हैं। पीछे से पूछा गया: कौन है?
उसने कहा: मैं हूं तेरा प्रेमी!
फिर भीतर सन्नाटा हो गया। वह द्वार खटखटाने लगा जोर से, जैसा कि सभी प्रेमी आकुलता में खटखटाते हैं। उसके प्राण छटपटाने लगे, भीतर से आवाज बंद हो गई थी। वह चिल्लाया कि क्या हो गया है तुम्हें, बोलती क्यों नहीं हो?
उसकी प्रेयसी ने कहा: लौट जाओ, प्रेम के घर में दो नहीं समा सकते। तुम कहते हो--‘मैं हूं।’ तुम अभी हो, तो प्रेम के घर में दो कैसे बन सकेंगे? जाओ, जिस दिन न हो जाओ, उस दिन आना।
वह वापस लौट गया। फिर वर्ष आए और गए। वर्षों के बाद वह फिर वापस आया। द्वार पर उसने दस्तक दी। फिर वही प्रश्न: कौन हो?
अबकी बार उसने कहा: तू ही है, और कोई भी नहीं।
सूफी गीत कहता है कि द्वार खुल गए।
मैं अभी द्वार खुलवाने को राजी नहीं हूं। अगर मैं उस गीत को लिखता, तो गीत अभी थोड़ा और आगे जाता। मैं उसे वापस लौटा दूंगा। क्योंकि प्रेयसी भीतर से कहेगी: जिसे अभी ‘तू’ का पता है, उसे ‘मैं’ का भी पता है, अन्यथा ‘तू’ का भी पता नहीं हो सकता। लौट जाओ, प्रेम के घर में दो नहीं बन सकते हैं। और मेरा गीत आगे चला जाता है। वह प्रेमी लौट गया और फिर कभी नहीं आया। क्योंकि न मैं रहा, न तू। और तब प्रेयसी उसके पास आ गई, उसे खोजती हुई।
प्रेम के द्वार पर अहंकार प्रवेश नहीं कर सकता। और हमारा सब प्रयास हमारा अहंकार है। मैं कर रहा हूं--मैं कर रहा हूं पूजा; मैं कर रहा हूं प्रार्थना; मैं फेर रहा हूं माला; मैं जाता हूं मंदिर; मैं पढ़ता हूं शास्त्र; मैं करता हूं उपवास। मैं कर रहा हूं यह सब। और इन सब करने से मेरा ‘मैं’ और मजबूत होता चला जा रहा है।
यह ‘मैं’ जितना मजबूत हो जाएगा, उतने परमात्मा के द्वार बंद हो जाएंगे। परमात्मा का सूरज प्रतिक्षण प्रति घर के बाहर खड़ा है। जो अप्रयास में हैं, उनके द्वार खुल जाएंगे। क्योंकि कई बार हमारे प्रयास ही सारी नासमझी कर देते हैं।
कभी आपने खयाल किया है, जिंदगी में और भी कुछ चीजें हैं, जो आपके प्रयास से नहीं आ सकती हैं। अगर किसी को रात नींद न आती हो, तो क्या प्रयास से नींद आ सकती है? क्या कोशिश करने से कभी नींद आ सकती है? जितनी कोशिश करेंगे, नींद उतनी मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि कोशिश नींद की बिलकुल विरोधी है। नींद है विश्राम, कोशिश है श्रम। तो जितनी कोशिश करेंगे नींद लाने की--करवट बदलेंगे, उठेंगे, यह करेंगे, वह करेंगे, जितनी कोशिश करेंगे, उतनी ही ज्यादा नींद मुश्किल हो जाएगी।
एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञनिक था। एक नींद का मरीज उसके पास गया। जिसे नींद न आती थी, अनिद्रा की बीमारी थी। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: तुम कोई फिकर न करो। किस चीज का धंधा करते हो?
उस आदमी ने कहा: मैं भेड़ों को पालता हूं। उनके ही ऊन को बेचता हूं, भेड़ों को बेचता हूं, भेड़ों का ही मेरा धंधा है।
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: तब तुम एक काम करो, नींद लाने के लिए रात को आंख बंद कर लो और समझो की भेड़ों की कतार खड़ी है, तुम भेड़ों की गिनती करो। करते ही चले जाओ, एक से लेकर गिनती--हजार, दो हजार... तुम्हें गिनती करते-करते अपने आप नींद आ जाएगी।
वह आदमी गया। और दूसरे दिन वापस लौटा और उसने आकर मनोवैज्ञानिक की गर्दन पकड़ ली। उसने कहा: तुमने मुझे बड़ी मुसीबत में डाल दिया। भेड़ों का कोई अंत ही न हुआ और सुबह हो गई। वैसे तो कभी-कभी मैं थोड़ा-बहुत सो भी लेता था, आज तो नींद असंभव हो गई।
प्रयास करता रहा भेड़ों को गिनने का। मनोवैज्ञानिक ने सोचा होगा, चित्त हो जाएगा एकाग्र तो नींद आ जाएगी।
लेकिन जहां एफर्ट है, जहां चेष्टा है, वहां तनाव है। और तनाव नींद के विरोध में है। तनाव से नींद नहीं आ सकती। नींद कभी आप अपने श्रम से लाए हैं आज तक? नहीं, बल्कि जब आप निढाल हो जाते हैं थक कर, कोई श्रम करने का सवाल नहीं रह जाता, तब आप पाते हैं कि नींद उतर आई।
ठीक ऐसा ही आगमन होता है परमात्मा का भी। जब आपके सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं, जब आपकी सारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है--और आप रुक जाते हैं, ठहर जाते हैं, छोड़ देते हैं सब, उसी क्षण आप पाते हैं कि एक अदभुत घटना घटित हो गई है। कोई ऊपर से उतर आया और आपके सारे प्राणों को उसने घेर लिया है। इसे थोड़ा देखें, करें। इस संबंध में बात करने से बहुत कुछ नहीं हो सकता है।
एक मित्र पूछते हैं कि क्या निरंतर जागरूक रहना चाहिए, निरंतर सचेत रहना चाहिए, होश से रहना चाहिए?
अगर आप बहुत चेष्टा करेंगे होश से रहने की, तो आप निरंतर होश से नहीं रह सकते। क्योंकि हर चेष्टा थक जाती है एक सीमा पर। और जब थक जाती है तो समाप्त हो जाती है। अगर होश से रहने का बहुत एफर्ट किया, बहुत कोशिश की, तो फिर चौबीस घंटे होश से नहीं रह सकेंगे। क्योंकि हर श्रम थकता है और तब विश्राम करना पड़ता है। लेकिन अगर बहुत सरलता से और सहजता से होश से रहने का खयाल किया, तो चौबीस घंटे होश से रहा जा सकता है सतत। और जब सतत होश से रहेंगे, तभी, तभी वह घटना घट सकती है। सतत जागे हुए रहेंगे।
एक छोटी सी घटना कहूं, उससे शायद खयाल में बात आ जाए।
क्योंकि बातें बारीक हैं। घटनाएं थोड़ी स्थूल होती हैं और इशारा बन सकती हैं।
एक छोटे से गांव में गांव के बाहर एक बहुत प्राचीन मंदिर था। उस मंदिर में बहुत पुजारी थे। एक दिन सुबह-सुबह एक पुजारी ने उठ कर शेष पुजारियों से कहा: रात मैंने सपना देखा है और सपने में मुझे दिखाई पड़ा है कि भगवान आज हमारे मंदिर में आने को हैं।
यह बड़ी अनहोनी घटना थी। क्योंकि भगवान कभी किसी मंदिर में नहीं गया है। सारे पुजारी उत्सुक हो गए। हो सकता है सपना सच हो और भगवान आने को हो।
उन्होंने मंदिर को धोया और पोंछा। उन्होंने मंदिर को सजाया और संवारा। उन्होंने मंदिर में सुगंधियां छिड़कीं, धूप-दीप जलाए। सारे मंदिर को अतिथि की तैयारी के लिए तैयार किया। जगत का राजा ही आने को था। लेकिन दोपहर हो गई और उस राजा के आगमन की कोई खबर न मिली। और सांझ आ गई और उस राजा के आने की कोई खबर न मिली। और रात पड़ गई, सूरज डूब गया और रात का अंधेरा घिर गया और उस राजा का कोई भी पता न था। वे थक गए। और उन्होंने कहा: होगा सपना झूठा। सपने कब सच हुए हैं!
दिन भर के श्रम से वे थक गए थे और द्वार बंद करके सो गए। थोड़ी देर में दीये बुझ गए, तेल चुक गया। थोड़ी देर में जलाई गई धूप समाप्त हो गई, प्रकाश विलीन हो गया। अंधेरे में वह मंदिर डूब गया।
आधी रात गए एक रथ राजपथ से उस मंदिर की पगडंडी पर मुड़ा। जोर से पहियों की आवाज आने लगी। राजा के घोड़ों की टापें सुनाई पड़ने लगीं। नींद में एक पुजारी को लगा, शायद कोई आवाज होती है, तो उसने कहा: मित्रो उठो, शायद वह राजा आ गया जिसकी हम प्रतीक्षा करते थे! रथ की आवाज सुनाई पड़ती है। लेकिन किसी दूसरे पुजारी ने कहा: सो जाओ, गड़बड़ मत करो, नींद मत तोड़ो, बादल की आवाज होगी। कहां इस अंधेरी रात में, कहां रथ, कहां का राजा, सब सपना है, सब झूठा है। बादल की आवाज है, सो जाओ। वे फिर सो गए।
रथ द्वार पर आकर रुका। वह राजा जिसकी चिरंतन से प्रतीक्षा थी, उतरा। दरवाजे पर उसने दस्तक दी, उसके पदचिह्न सुनाई पड़े। द्वार पर उसने भड़भड़ाया, आवाज हुई। फिर किसी की नींद थोड़ी टूटी होगी। आधी नींद में उस पुजारी ने कहा: मालूम होता है वह आ गया जिसके लिए हम प्रतीक्षा में थे, द्वार कोई खटखटाता है! लेकिन फिर किसी सोए हुए ने कहा: चुप रहो, नींद मत तोड़ो बार-बार, हवा के झोंके होंगे। सपने सपने हैं, कौन राजा कब आता है! फिर वे सो गए। राजा वापस लौट गया।
सुबह जब वे उठे और द्वार खोला, तो धक से रह गए उनके प्राण। जरूर रथ द्वार तक आया था। कच्ची मिट्टी पर रथ के पैरों के चिह्न थे, रथ के चाक बने थे। सीढ़ियों की धूल पर राजा के पैरों के चिह्न थे। वे बैठ कर सीढ़ियों पर रोने लगे।
मैं भी सुबह-सुबह उस मंदिर की तरफ निकला था। उन पुजारियों को सीढ़ियों पर बैठे रोता देखा, तो मैंने पूछा: क्या हो गया, कैसे रोते हो?
उन्होंने कहा: अवसर हम चूक गए। जिसकी प्रतीक्षा थी, वह आया था, लेकिन हमारे द्वार बंद थे।
मैंने उनसे कहा: जो चौबीस घंटे जागा हुआ नहीं है, उसके द्वार बंद ही रहेंगे, जब भी वह राजा आएगा। उसके आने की कोई घड़ी, मुहूर्त, कोई टाइम-टेबल तय तो नहीं है। वह कब आएगा, इसका कोई पता नहीं है। चौबीस घंटे ही जागा हुआ चित्त चाहिए--शांत और निर्मल; ताकि जब भी वह आए, द्वार बंद न पाए। उसके आने की कोई घड़ी, मुहूर्त तय होता, रास्ते के किनारे बैठने वाला ज्योतिषी अगर कुछ बता सकता, तो आसान हो जाती बात। लेकिन नहीं, उसके आगमन का कोई निश्चय नहीं है। प्रेमपूर्ण प्रतीक्षा में किसी भी क्षण वह आ सकता है।
तो चित्त चाहिए सतत प्रतीक्षारत। चित्त चाहिए सतत दीये से जला हुआ। चित्त चाहिए सतत अतिथि के लिए तैयार। और सतत जो तैयार है, वही तैयार है। क्योंकि ऐसा हो ही कैसे सकता है कि एक आदमी तेईस घंटे तो बेहोश रहे और एक घंटा होश में आ जाए? यह नहीं हो सकता। यह कैसे हो सकता है कि एक आदमी तेईस घंटे पागल रहे और एक घंटा गैर-पागल हो जाए? यह कैसे हो सकता है कि तेईस घंटे कोई बीमार रहे और घंटे भर को रोज स्वस्थ हो जाए? यह नहीं हो सकता।
चेतना एक अविच्छिन्न धारा है, एक कंटीन्युटी है।
ऐसा नहीं हो सकता कि हिमालय से गंगा निकले और काशी के घाट पर आकर पवित्र हो जाए। उसके पीछे अपवित्र रही हो, फिर काशी के घाट के आगे फिर अपवित्र हो जाए, और काशी के घाट पर पवित्र हो जाए। ऐसा नहीं हो सकता। गंगा एक अविच्छिन्न धारा है। अगर काशी के घाट पर पवित्र है, तो वह पहले भी पवित्र रही हो, तभी पवित्र हो सकती है। और फिर आगे भी पवित्र रहेगी। यह नहीं हो सकता कि वह धारा थोड़ी देर को पवित्र हो जाए, फिर अपवित्र हो जाए।
यह नहीं हो सकता है कि मैं तेईस घंटे क्रोध में और चिंता में, दुख में और अंधकार में जीऊं, और फिर एक घंटे मंदिर में जाऊं और शांत हो जाऊं और जाग्रत हो जाऊं। यह नहीं हो सकता। मंदिर की सीढ़ियों पर जो चढ़ेगा, वही तो मंदिर के भीतर प्रवेश करेगा, वही गंगा तो मंदिर के भीतर जाएगी। तो मंदिर के बाहर जो अपवित्र था, वह मंदिर के भीतर पवित्र कैसे हो जाएगा? कोई मंदिर जादू थोड़े ही कर सकेगा। चेतना मेरी जिस भांति की है मंदिर के बाहर, वही मंदिर के भीतर भी होगी। अगर मैं निरंतर बदलता हूं, तो ही मैं बदलता हूं। अगर मेरी चेतना की धारा सतत बहती है, पवित्र होती है, तो ही मैं बदलता हूं। अन्यथा बदलाहट नहीं हो सकती है।
मैंने सुना है, एक धनपति मरने के करीब था। उसकी मृत्यु आ गई थी। धनपतियों को कभी विश्वास तो नहीं होता कि उनकी मृत्यु आएगी, लेकिन फिर भी आती है। गरीब आदमी तो दिन-रात प्रतीक्षा करता है मौत की। धनपति तो उसे छिपाए रहता है धन की आड़ में। लेकिन एक न एक दिन वह दीवाल को तोड़ देती है और सामने खड़ी हो जाती है। और तब पता चलता है कि धन कोई मित्र न था। उसकी भी वैसी ही हालत हो गई थी। आज दिखाई पड़ रहा था। सब उसके पास था। सब धन था उसके पास। लेकिन मौत से बचने का कोई उपाय न था। जिस पैसे को उसने प्राणों से भी कीमती जाना था, वह पैसा आज किसी भी तरह साथ देने को तैयार न था। खाट पर पड़ा था। मरने की प्रतीक्षा पल-पल थी। चिकित्सकों ने कहा, बचेगा नहीं।
सांझ होने को थी, सूरज ढल गया और घर में अंधेरा उतर आया था। और मरणासन्न व्यक्ति के घर में कौन दीया जलाए। अंधेरा पड़ा था वह घर। सारे घर के लोग खाट के आस-पास बैठे थे। उस धनपति ने आंखें खोलीं और अपनी पत्नी से पूछा: मेरा बड़ा लड़का कहां है?
उसकी पत्नी ने सोचा, जीवन में यह पहला मौका है कि शायद उसे अपने लड़कों पर प्रेम आया है। क्योंकि जिसे पैसे पर प्रेम है, उसे और किसी से कभी प्रेम नहीं होता है। शायद प्रेम ने आज आकांक्षा जाहिर की है। पत्नी खुश हुई। उसने उसके पैरों पर हाथ रखा और कहा: आप निश्चिंतता रहें, आपके सिर के पास ही आपका बड़ा लड़का बैठा है।
उस धनपति ने पूछा: और उससे छोटा? वह भी मौजूद था। और उससे छोटा? वह भी मौजूद था। उसके पांच लड़के थे। उसने कहा: सबसे छोटा?
उसकी पत्नी ने कहा: वह भी मौजूद है। आप बेफिकर, शांत रहें, सब मौजूद हैं। वह धनपति मरणासन्न उठ कर बैठ गया और उसने कहा: इसका क्या मतलब, फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है?
भूलभरी थी वह बात कि वह प्रेम से किसी को याद कर रहा था। जीवन भर जिसकी चेतना पैसे के इर्द-गिर्द घूमी हो, मौत के क्षण में भी प्रेम के इर्द-गिर्द नहीं घूम सकती है।
चेतना एक अविच्छिन्न धारा है, एक कंटीन्युअस, उसमें कहीं बीच-बीच में अवरोध नहीं हैं।
तो जागना है, तो सतत ही जागना है। शांत होना है, तो सतत ही शांत होना है। प्रेम से भरना है, तो सतत ही प्रेम से भरना है। यह कोई खंड-खंड में किया जाने वाला काम नहीं है। यह कोई ऐसा काम नहीं है कि थोड़ी देर मैं प्रेम से भर जाऊं और फिर देख लूंगा जो कुछ होना है। फिर दुनिया जैसी चलेगी, चलेगी। ऐसा नहीं हो सकता। जीवन बदलता है, तो आमूल बदलता है। टुकड़ों में जीवन नहीं बदलता। क्योंकि जीवन के कोई टुकड़े नहीं हैं। जीवन एक अखंड, जीवन एक पूर्ण चीज है, इकट्ठी, उसमें अलग-अलग खंड नहीं हैं। जीवन के भवन में अलग-अलग कक्ष नहीं हैं, अलग-अलग कमरे नहीं हैं। जीवन इकट्ठा है और सतत है।
इसलिए जिन मित्र ने पूछा है: ‘क्या हम सतत ही शांत, जागरूक रहें?’
निश्चित ही। अगर सत्य और परमात्मा की दिशा में कोई भी अनुभव होना है, तो वह जो सतत जागा हुआ है, सतत प्रेम से भरा हुआ है, सतत अहंकार-शून्य है, वही, और केवल वही उसको पाने का हकदार हो सकता है।
और बहुत से प्रश्न हैं। उन सबके उत्तर संभव नहीं हो पाएंगे। इसलिए नहीं कि उनके कोई उत्तर नहीं हैं। जो भी प्रश्न होगा, अपने जन्म के साथ ही अपने उत्तर को भी पैदा कर लेता है। कोई प्रश्न बिना उत्तर के नहीं है। ऐसा कोई प्रश्न ही नहीं हो सकता, जिसका उत्तर न हो। लेकिन दूसरे का उत्तर आपके प्रश्न का उत्तर बनेगा या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। प्रश्न आपका है, उत्तर मेरा है। यह बड़ा फासला हो गया। यह इतनी बड़ी दूरी हो गई कि जरूरी नहीं कि यह दूरी पार होगी, बीच में ब्रिज बन सकेगा। प्रश्न आपका है, उत्तर मेरा, यह बड़ी फासले की बात हो गई, यह बहुत डिस्टेंस हो गया। तो जरूरी नहीं कि मेरा उत्तर आपका उत्तर बने। बन नहीं सकता। बहुत कठिनाई है। आप आप हैं, मैं मैं हूं। कैसे कोई सेतु जुड़ेगा?
तो फिर मैं क्यों यह व्यर्थ मेहनत करता हूं और आपके प्रश्नों के उत्तर दे रहा हूं?
इसलिए नहीं कि मेरे उत्तर आपके उत्तर बन जाएं, बल्कि इसलिए कि आपको यह खयाल पैदा हो जाए कि कोई प्रश्न बिना उत्तर के नहीं है, और आप अपने उत्तर की खोज में निकल सकें। इतना खयाल भर मेरी बात से आपको आ जाए। मेरे उत्तरों को मान लेने की कोई भी जरूरत नहीं है। जरा भी जरूरत नहीं है। इतना भर खयाल आपको आ जाए, इतनी भर दिशा आपको मिल जाए, इतना भर धक्का आपको मिल जाए कि प्रश्न हैं, तो उत्तर हो सकते हैं। बस इतनी ही बात खयाल में आ जाए, तो मेरा श्रम पूरा हो जाता है।
मैं नहीं चाहता कि मैं आपको उत्तर दूं। मैं तो चाहता हूं, आप अपने उत्तर को खोजें। लेकिन शायद आप प्रश्न पूछते-पूछते निराश हो गए होंगे और आपने उत्तर की खोज बंद कर दी होगी, इसलिए इतनी मैंने बात की।
निराश होने का कोई भी कारण नहीं है। खोदे जाएं अपने भीतर। जिस चित्त ने प्रश्न पैदा किया है, वह चित्त उसका उत्तर भी पैदा करने में समर्थ है।
आप हैरान होंगे, प्रश्न कठिन है, उत्तर हमेशा सरल है। प्रश्न पूछना ही असली बात है। उत्तर तो बहुत आसान है। लेकिन न तो हम प्रश्न पूछते हैं और न उत्तर खोजते हैं। और जो प्रश्न हम पूछते हैं, वे भी करीब-करीब उधार होते हैं, वे भी अपने नहीं होते, वे भी सुने-सुनाए होते हैं, वे भी किताबों से सीखे होते हैं। वे भी हमारे नहीं होते। और इसलिए, जब हमारा प्रश्न ही न हो, तो हमारा उत्तर कैसे हो सकता है?
तो अंतिम निवेदन यह है: अपना प्रश्न खोजिए। बड़ी उपलब्धि है, अगर आप अपने जीवन में उठने वाले प्रश्नों को खोज पाएं। बंधे-बंधाए, रटे-रटाए, सुने-सुनाए प्रश्न मत पूछिए। उनका कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि वे आपके प्रश्न नहीं हैं। इसलिए कोई भी उत्तर दिया जाए, कोई भी उत्तर मिल जाए, उससे आपको कोई तृप्ति न होगी। वह वैसा ही है, जैसे बिना प्यासे आदमी को हम पानी पिला दें। उससे और घबड़ाहट पैदा होगी। उससे कोई लाभ नहीं होगा। प्यास अपनी होनी चाहिए। सच्ची होनी चाहिए।
प्रश्न खोजें, पहली बात। और फिर शांत, मौन होकर उस प्रश्न को अपने चित्त में छोड़ दें और मौन हो जाएं। जल्दी उत्तर देने की कोशिश न करें। क्योंकि अगर जल्दी उत्तर देने की कोशिश की, तो वह उत्तर भी कहीं का सीखा हुआ हो जाएगा। वह आपके भीतर से नहीं आएगा। स्मृति उत्तर दे देगी।
अगर मैं आपसे पूछूं, ईश्वर है? तो आप अपने भीतर देखें, फौरन उत्तर आ जाएगा, हां है। किसी का उत्तर आ जाएगा, नहीं है। ये झूठे उत्तर हैं, ये सीखे हुए उत्तर हैं।
अगर भीतर कोई उत्तर न आए, तो समझना कि अब स्थिति आई कि उत्तर मेरा मिल सकता है। ये सीखे हुए उत्तर हैं। इसलिए परख रखना हमेशा भीतर कि यह कोई सीखा हुआ उत्तर तो नहीं आ रहा है। ईश्वर है, यह मुझे सिखा दिया गया बचपन से। मुझे पता नहीं है। और आज उत्तर उठता है, ईश्वर है, यह झूठा उत्तर है। बिलकुल झूठा है। इस झूठे उत्तर से कुछ होने वाला नहीं है।
तो पहले तो झूठे उत्तर को विदा कर देना, दूसरे नंबर की बात। पहले नंबर की बात, उधार प्रश्न कभी जीवन में पूछना मत। उनका कोई मूल्य नहीं है। अपना प्रश्न! दूसरी बात, उधार उत्तर से तृप्त मत होना। उससे कोई हल नहीं है। उसे विदा कर देना। सब उत्तर विदा कर देना। अपना प्रश्न अकेला रह जाए भीतर, जलते हुए एक अंगारे की तरह। और कोई उत्तर स्वीकार मत करना जो स्मृति दे, जो हमने सीख लिया, लर्निंग कर ली जिसकी। तब वह अंगार की तरह प्रश्न प्राणों में छिदता चला जाएगा। वह तीर की तरह भीतर घुसने लगेगा। और एक घड़ी आएगी कि आपकी आत्मा उत्तर देगी। वही उत्तर आपके जीवन में अर्थपूर्ण होगा। वही उत्तर आपके जीवन को बदलने वाला होगा।
प्रश्न के साथ जीना एक कला है।
जल्दी से उत्तर दे देना, कोई कला नहीं है।
प्रश्न के साथ जीने की जरूरत है। जो शांति से अपने प्रश्न को बीज की तरह अपने हृदय में छिपा लेता है और जीए चला जाता है, वह जरूर, जरूर एक दिन उत्तर को उपलब्ध होता है।
एक अंतिम बात और चर्चा को मैं पूरी करूंगा।
मनुष्य के जीवन में शायद सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण प्रश्न इसके सिवाय कुछ भी नहीं है कि ‘मैं कौन हूं?’ लेकिन इतने प्रश्न आए हैं, किसी ने भी यह नहीं पूछा। पूरे मुल्क में मैं घूमता हूं, अब तक मुझे वह आदमी नहीं मिला, जो पूछता हो: मैं कौन हूं?
कोई पूछता है, ईश्वर क्या है? इसकी परिभाषा दीजिए, डेफिनेशन दीजिए। क्या मतलब है आपको ईश्वर से? कोई पूछता है, स्वर्ग और नरक होते या नहीं? कोई पूछता है, परद्रव्य क्या है? कोई कुछ, कोई कुछ... लेकिन बुनियादी प्रश्न जो आदमी के भीतर होना चाहिए, वह कोई भी नहीं पूछता। शायद हमने यह मान ही लिया है कि हम अपने को जानते हैं, इसलिए पूछने की जरूरत क्या है। और बड़े आश्चर्य की बात यह है कि आदमी स्वयं को नहीं जानता है।
इधर तीन दिनों की चर्चा मेरी इसी दिशा में थी कि आपके भीतर शायद यह प्रश्न पैदा हो जाए कि मैं कौन हूं? शायद कोई पूछे।
तो अंतिम एक घटना की बात करके मैं चर्चा पूरी कर दूंगा। शायद उस घटना से आपके भीतर प्रश्न गूंजता रह जाए। और किसी दिन आपके प्राण उसके उत्तर पाने में समर्थ हो सकें। वही घड़ी धन्यता की घड़ी होती है।
एक भिखारिन, एक बूढ़ी भिखारिन एक मेले से भीख मांग कर वापस लौटती थी। थक गई थी, बूढ़ी स्त्री थी। एक झाड़ के नीचे घनी छाया में सो गई। दोपहर थी। राह से निकलते हुए किसी एक मसखरे आदमी ने उस बूढ़ी स्त्री के सारे कपड़े कैंची से काट डाले। उसके चेहरे पर कोई स्याही पोत दी। सांझ होते-होते उसकी आंख खुली। वह करीब-करीब अर्धनग्न थी। हाथ-पैर काले थे। कपड़े पहचान में न आते थे। उसकी पोटली, उसकी भिक्षा का पात्र, वे सब नदारद थे। वह हैरान हो गई। उसने अपने से पूछा: मैं कौन हूं? क्योंकि मैं जो सोई थी, उसके कपड़े दूसरे थे। मैं जो भिखारिन थी, उसके पास पोटली थी, पैसे थे। वे सब नहीं हैं, हाथ-पैर नंगे हैं। मैं तो नंगी न थी? वह हैरान हो गई कि मैं कौन हूं फिर? क्योंकि रोज अपने वस्त्रों में अपने को पहचान लेना बहुत आसान था, आज अपने वस्त्र नहीं थे तो कैसे पहचानती?
हम सब भी अपने को वस्त्रों से ही पहचानते हैं। वस्त्र न हो, तो पहचानना मुश्किल हो जाए। नाम के वस्त्र हैं, पद के वस्त्र हैं, धन के वस्त्र हैं, प्रतिष्ठा के वस्त्र हैं। हमारी आइडेंटिटी क्या है? हमारे वस्त्र और हमारे चेहरे! हमारा ऊपर का जो ढंग है, वही हमारी पहचान है। उससे ही दूसरे हमको पहचानते हैं, उससे ही हम भी अपने को पहचानते हैं। दूसरे पहचानें वह तो ठीक, लेकिन हम भी उसी से अपने को पहचानते हैं।
अगर कल सुबह आप आईने के सामने खड़े हों और देखें कि यह चेहरा, अरे, यह तो बदल गया, यह तो दूसरा हो गया, तो आप भी घबड़ा जाएंगे और मन में प्रश्न उठेगा--मैं कौन हूं? चेहरा तो रोज बदल जाता है, लेकिन इतने धीरे-धीरे बदलता है कि आपकी आंखें उसे पहचान नहीं पाती हैं। लेकिन अगर एकदम से कोई जादूगर आए और आपके चेहरे को दस साल आगे बदल दे, तो सुबह उठ कर आपको मुश्किल हो जाएगी पूछने में कि मैं कौन हूं? अपने फोटो से मिलाएंगे, पाएंगे यह तो मैं नहीं हूं!
वह बूढ़ी भिखारिन भी दिक्कत में पड़ गई। उसने कभी अपने को नग्न नहीं देखा था। कौन अपने को कब नग्न देखता है? नंगी आज थी तो घबड़ा गई। सोचा कि चलूं किसी आईने में देख लूं। लेकिन पोटली तो नदारद थी, उसमें उसका आईना भी था। आप कहेंगे, भिखारियों को आईने की क्या जरूरत, तो आप गलती में हैं। सम्राट ही अपने को देख कर खुश होते हों, ऐसा नहीं है, भिखारी भी अपने को देख कर खुश होते हैं। कौन अपने को देख कर खुश नहीं होता है। आईना उसी पोटली में, लेकिन चला गया था। पहचानना बड़ा मुश्किल था।
क्या करे, कैसे जाने कि वह कौन है? तो उसे खयाल आया, अपने घर की तरफ की चलें। उसके पास एक कुत्ता था। रोज वह तो उसे पहचान लेता था और दौड़ कर उसके आगे-पीछे पूंछ हिलाने लगता था। तो वहीं चली चलें अपने झोपड़े पर। अगर कुत्ते ने पहचान लिया, तो पक्का हो जाएगा कि मैं, मैं ही हूं। और अगर कुत्ता न पहचान पाया, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
भागी वह घर की तरफ। रात हो गई थी। कुत्ते ने भी उसे हमेशा कपड़ों में देखा था। नग्न उसने कभी उसे देखा नहीं था। कुत्ता घबड़ा गया और भौंकने लगा। वह भिखारिन बुढ़िया बड़ी दिक्कत में पड़ गई। वह उस द्वार पर खड़ी होकर सोचने लगी, बड़ी मुश्किल हो गई--जो मैं हूं, अगर मैं नहीं हूं, तो फिर मैं कहां हूं?
हर आदमी अपने घर के सामने जाकर अगर पूछेगा अपने से, तो इसी मुश्किल में पड़ जाएगा--कि मैं कौन हूं और कहां हूं? इसी प्रश्न के साथ अपनी इस चर्चा को मैं समाप्त कर देता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। परमात्मा करे, इतनी ही शांति और मौन से आपके भीतर जो है, उसे आप सुन सकें। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को मैं पुनः प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, आपके कथनानुसार सब धर्मशास्त्र, धार्मिक पुस्तकें व्यर्थ हैं, जिनमें बुद्ध, महावीर वगैरह के विचार व्यक्त होते हैं। तो आपके विचारों की अभिव्यक्ति जिन पुस्तकों से है, उन्हें भी व्यर्थ क्यों न माना जाए? मानव अपने अनुभवों से ही क्यों न आगे बढ़े, आपको सुनने की भी क्या आवश्यकता है?
बहुत ही ठीक प्रश्न है। जरूरी है उस संबंध में पूछना और जानना। लेकिन किसी गलतफहमी पर खड़ा हुआ है। मैंने कब कहा कि किताबें व्यर्थ हैं? मैंने कहा, शास्त्र व्यर्थ हैं।
किताब और शास्त्र में फर्क है।
शास्त्र हम उस किताब को कहते हैं, जिस पर विचार नहीं करते और श्रद्धा करते हैं। श्रद्धा और विश्वास अंधे हैं। और विश्वास के अंधेपन के कारण किताबें शास्त्र बन जाती हैं, आप्तवचन बन जाती हैं, ऑथेरिटी बन जाती हैं। फिर उन पर चिंतन नहीं किया जाता, फिर उन्हें केवल स्वीकार किया जाता है। फिर उन पर विचार नहीं किया जाता, उन पर विवेक नहीं किया जाता, अंधानुकरण किया जाता है।
किताबों के मैं पक्ष में हूं, शास्त्रों के पक्ष में मैं नहीं हूं।
शास्त्र बनाते हैं व्यक्ति को अंधा, शास्त्र के साथ एक ऑथेरिटी जुड़ी है। उसमें जो भी कहा है, वह ठीक है। उस पर चिंतन और मनन की कोई गुंजाइश नहीं है। उसमें परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं है। और अगर कोई भी चीज उसके विरोध में पड़ती हो, तो वह अनिवार्य रूप से गलत है।
एक मुसलमान खलीफा सिकंदरिया गया। सिकंदरिया में दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय था। और दुनिया के लाखों हस्तलिखित ग्रंथ वहां इकट्ठे थे। कहते हैं, उस संग्रह के नष्ट हो जाने से पुरानी दुनिया का सारा ज्ञान हमें उपलब्ध नहीं हो सका, हम उससे वंचित हो गए। उस पुस्तकालय को उस मुसलमान खलीफा ने आग लगवा दी। बड़ा था पुस्तकालय इतना कि छह महीने तक आग बुझ नहीं सकी।
किस वजह से आग लगा दी, उसने क्या तर्क दिया?
वह अपने हाथ में मशाल लेकर एक हाथ में और दूसरे हाथ में कुरान लेकर वहां पहुंचा। और उसने उस पुस्तकालय के सबसे प्रमुख आचार्य को कहा: ये जो लाखों ग्रंथ हैं तुम्हारे इस पुस्तकालय में, क्या इनमें वे ही बातें लिखी हैं जो कुरान में लिखी हैं? अगर वे ही बातें लिखी हैं, तो इनकी कोई जरूरत नहीं है, कुरान काफी है। और अगर इन किताबों में ऐसी बातें भी लिखी हैं, जो कुरान में नहीं हैं, तब तो इन किताबों की बिलकुल भी जरूरत नहीं है। क्योंकि जो कुरान में नहीं है, वह सत्य नहीं है। और दोनों हालतों में मैं इसको आग लगा देता हूं।
और उसने उस पुस्तकालय में आग लगा दी। जो छह महीने तक जलती रही। दुनिया की बहुत बड़ी संपदा उस आदमी ने नष्ट कर दी।
कुरान उसके लिए किताब न थी, कुरान उसके लिए शास्त्र था। शास्त्र खतरनाक सिद्ध हो गया। कुरान भी एक किताब होती, तो उस बड़े किताब के संग्रह में वह भी अपना स्थान पा जाती। लेकिन वह किताब न थी।
बाइबिल कहती है कि दुनिया ईसा से चार हजार वर्ष पहले निर्मित हुई। और जब वैज्ञानिकों ने खोज की, तो उन्होंने पाया, जमीन तो कई अरब वर्ष पुरानी है। तो जिन लोगों ने यह कहा कि जमीन अरब वर्ष पुरानी है, दो अरब वर्ष पुरानी है, ईसाई जगत उनके खिलाफ खड़ा हो गया। और उन्होंने कहा: यह कभी नहीं हो सकता, जो हमारे शास्त्र में है, वह गलत नहीं हो सकता। तो वैज्ञानिकों की हत्याएं की गईं, उनको सजाएं दी गईं, उनको जलाया गया। और उनसे कहा गया कि लिखित रूप से माफी मांगो, कि तुमने जो लिखा है वह गलत है। तुम्हारी खोज गलत। तुम्हारा विज्ञान गलत। हमारा शास्त्र कभी गलत नहीं हो सकता। वे आप्तवचन हैं, वे परमात्मा के शब्द हैं।
बाइबिल एक किताब हो, तो उसका स्वागत है। लेकिन बाइबिल एक शास्त्र हो, उसका कोई विचारशील व्यक्ति स्वागत नहीं कर सकता। क्योंकि शास्त्र आप्तता, ऑथेरिटी हो जाना मनुष्य के मानसिक विकास में बाधा बनती है।
मैं शास्त्रों के विरोध में हूं, किताबों के विरोध में नहीं हूं।
तो, मेरी जो किताबें आपको दिखाई पड़ रही हैं, वे कोई भी शास्त्र नहीं हैं। वे गलत हो सकती हैं। उनमें बहुत सी गलतियां होंगी। और उनका कोई दावा नहीं है कि वे सत्य का अंतिम प्रमाण हैं। वे आपको मानने के लिए नहीं दी गई हैं; आपको विचार करने के लिए दी गई हैं। आप सोचें, और कचरा पाएं तो फेंक दें उनको। उनको एक क्षण भी घर में रखने की जरूरत नहीं है। और अगर कोई बात ठीक लगे, खुद के सोच-विचार से, तो वह आपकी अपनी हो गई। उससे मेरा कोई नाता नहीं है। वह आपके चिंतन का फल है। तो वे जो किताबें हैं शास्त्र नहीं हैं। उन्हें मान लिए जाने का कोई आग्रह नहीं है।
शास्त्र का आग्रह खतरनाक है। शास्त्र का आग्रह है कि मैं ही सत्य हूं। और फिर इससे भिन्न जो है, वह असत्य है। और फिर यह प्रवृत्ति अंत में अत्यंत खतरनाक परिणामों पर ले जाती है। परसिक्यूशन पैदा होता है। फिर जो विरोधी है, उसको खत्म करो, अलग करो, क्योंकि वह असत्य है। फिर उसकी किताबों को जलाओ, उसके मंदिरों को गिराओ, उसके लोगों की हत्या करो, क्योंकि वह असत्य है। और सत्य के नाम पर ये सब पाप चलते रहे हैं। और इन पापों के पीछे एक ही कारण है कि हमने कुछ किताबों को शास्त्र का ओहदा दे दिया।
सब किताबें किताबें हैं; कोई किताब शास्त्र नहीं है।
कोई किताब परमात्मा की बनाई हुई नहीं है। कोई किताब अंतिम नहीं है। मनुष्य निरंतर विकास कर रहा है। और सब किताबें मनुष्य की बनाई हुई हैं। और मनुष्य की समझ आगे बढ़ती है, तो किताबें उसमें बाधा नहीं बन सकतीं। समझ आगे बढ़ेगी, तो किताबों को पीछे हट जाना पड़ेगा।
लेकिन शास्त्र पीछे हटने का नाम नहीं लेते। क्योंकि उनका दावा है कि वे पूर्ण रूप से सत्य हैं। उनके आगे-पीछे कोई फर्क नहीं हो सकता।
मैं किताब के विरोध में नहीं हूं। नहीं तो मेरी किताब कैसे आपके सामने हो सकती थी? आपको दिख गई यह भूल, तो मुझको न दिखती? मैं शास्त्र के विरोध में हूं। एक ऐसी दुनिया चाहिए, जहां किताबें तो बहुत हों, विचार तो बहुत हों; लेकिन अंधे लोग न हों, शास्त्र न हों, ऑथेरिटीज न हों। तो दुनिया में जो क्लेश है, संघर्ष है, विवाद है, वह न हो।
एक मित्र के घर मैं मेहमान था। उन्होंने मुझसे कहा कि मेरी मां बहुत धार्मिक है। मैंने कहा: मैं जरूर आपकी मां को, दो-चार दिन यहां हूं, अध्ययन करूंगा; क्योंकि धार्मिक आदमी मुश्किल से ही मिलते हैं। दूसरे दिन सुबह मैं एक किताब पढ़ रहा था। सर्दी के दिन थे। और बाहर बैठा हुआ था उनके बगीचे में। उनकी मां वहां आईं। उसने मुझसे पूछा: आप क्या पढ़ रहे हैं? मैं पढ़ तो कुछ और ही रहा था, लेकिन मैंने उससे कहा कि मैं कुरान-शरीफ पढ़ रहा हूं। वह थी कट्टर हिंदू। उसने मेरे हाथ से किताब छीन कर फेंक दी। और उसने कहा: क्या हमारे धर्म में किताबें नहीं हैं पढ़ने को, जो आप कुरान-शरीफ पढ़ रहे हैं?
मैंने उनके पुत्र को कहा: आपकी मां होगी हिंदू, लेकिन धार्मिक नहीं हैं।
धार्मिक आदमी किसी की किताब छीन कर फेंकेगा? लेकिन हिंदू फेंक सकता है, मुसलमान फेंक सकता है, जैन फेंक सकता है। फेंकते रहे हैं। ऐसी किताबें हैं इस मुल्क में--हिंदुओं की भी, जैनों की भी, जिनमें यह लिखा है: हिंदुओं की किताब में लिखा है कि अगर पागल हाथी तुम्हारे पीछे दौड़ रहा हो तो उसके पैर के नीचे दब कर मर जाना, लेकिन जैन मंदिर सामने हो तो उसमें शरण मत लेना। मर जाना बेहतर है, लेकिन जैन मंदिर में जाना बेहतर नहीं है। ठीक इसके उत्तर में जैन किताबें भी हैं, उनमें भी यही लिखा हुआ है: कि पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना बेहतर है, लेकिन हिंदू शिवालय में शरण मत लेना। वह बहुत बड़ा पाप है। उससे मरना अच्छा है।
इस बुद्धि के मैं विरोध में हूं। इस बुद्धि ने बहुत अहित किया है।
मेरा किताबों से, विचारों से, जीवन को जिन्होंने समृद्ध किया है उनकी अनुभूतियों से क्या विरोध हो सकता है? लेकिन जड़ता से मेरा विरोध है। और इस आग्रह से कि जो हम पकड़ कर बैठे हैं, वही सत्य है। यह बहुत हिंसात्मक, वायलेंट माइंड की सूचना है। यह अहिंसक, प्रेमपूर्ण चित्त ऐसे आग्रह नहीं करता है। वह हमेशा खुला होता है सोचने को, विचार करने को। हमेशा निष्पक्ष होता है। उस संबंध में मैंने परसों आपसे बात की है, इसलिए और उस संबंध में आगे कुछ नहीं कहूंगा। इतना ही पुनः कह देता हूं: किताबों के मैं पक्ष में हूं, शास्त्रों के मैं पक्ष में नहीं हूं। और मेरा फर्क आप समझ लें।
जिस किताब को हम आत्यंतिक पवित्रता से मंडित कर देते हैं, वह किताब शास्त्र बन जाती है। और शास्त्र बनते ही वह किताब अत्यंत खतरनाक हो जाती है।
सभी किताबों का यह तेजोमंडल छीन लेना है--कुरान का भी, बाइबिल का भी, गीता का भी, वेद का भी। महावीर, बुद्ध के वचनों का भी। यह तेजोमंडल छीन लेना है। उन्हें किताबों की गरिमा देनी है, लेकिन शास्त्रों की नहीं। तो धर्म भी विकसित होगा।
विज्ञान विकसित हो रहा है; क्योंकि विज्ञान में कोई शास्त्र नहीं हैं, सिर्फ किताबें हैं।
धर्म रुका हुआ है; क्योंकि धर्म में शास्त्र हैं, किताबें नहीं हैं।
किताबें परिवर्तित होने को राजी हैं, शास्त्र परिवर्तित होने को राजी नहीं होते हैं।
जीवन का नियम है परिवर्तन। उसमें जो चीज भी अपरिवर्तित होने की जिद करती है, वह खुद तो मर जाती है, उसके आस-पास जो लोग इकट्ठे हो जाते हैं, वे भी मुर्दा हो जाते हैं। शास्त्रों के कारण समाज मुर्दों का एक घर हो गया है। किताबें तो गतिमान कर सकती हैं, लेकिन शास्त्र रोक लेते हैं।
मैं समझता हूं, मेरा फर्क आपके खयाल में आ गया होगा। फर्क बहुत बारीक नहीं है; बहुत स्पष्ट है, बहुत साफ है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि यदि मनुष्य के प्रयास से सत्य या परमात्मा नहीं पाया जा सकता, तब तो फिर परमात्मा की कृपा या प्रसाद या ग्रेस से ही पाया जा सकेगा?
हमें दो ही विकल्प दिखाई पड़ते हैं: या तो हमारे प्रयास से मिलेगा और या फिर किसी की कृपा से मिलेगा। तीसरे विकल्प का हमें कोई भी पता नहीं है। मैं उस तीसरे विकल्प के संबंध में थोड़ी बातें आपको कहना चाहूंगा।
एक ऑल्टरनेटिव तो यह है कि हम अपने प्रयास से सत्य को पा लेंगे। मैंने आपसे परसों कहा, आपके प्रयास से सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि मनुष्य की बुद्धि अत्यंत सीमित है, उसकी सामर्थ्य अत्यंत छोटी है। वैसी ही है उसकी सामर्थ्य, जैसे कोई प्याली में सागर को भरने चला जाए। इसलिए मनुष्य के प्रयास से तो परमात्मा नहीं पाया जा सकता। परमात्मा है विराट, सत्य है विशाल और अनंत और मनुष्य है छोटा सा। यह केवल अहंकार है मनुष्य का कि वह सोचे कि मैं परमात्मा को पा लूंगा। मनुष्य के प्रयास से तो परमात्मा नहीं पाया जा सकता। तो एकदम से हमें दूसरे नतीजे पर पहुंच जाना स्वाभाविक हो जाता है कि फिर उसकी ही कृपा से वह प्राप्त होगा।
नहीं, उसकी कृपा से भी नहीं। क्योंकि कृपा केवल वही कर सकता है, जो अकृपा भी करने में समर्थ हो। दया केवल वही कर सकता है, जो क्रूर और कठोर भी हो। परमात्मा की कृपा का कोई मतलब नहीं होता, क्योंकि परमात्मा अकृपा करने में समर्थ नहीं है। उसकी कृपा का कोई अर्थ नहीं है।
सूरज अपनी किरणें फेंक रहा है। आपका द्वार खुला होता है, तो प्रकाश भीतर आ जाता है; नहीं खुला होता, बाहर ठहर जाता है। सूरज न तो किसी पर कृपा कर रहा है और न किसी पर अकृपा कर रहा है। न किसी को शत्रु मान रहा है, न किसी को मित्र। परमात्मा तो सभी को सूरज की भांति उपलब्ध है। जिनके द्वार खुले हैं, उन्हें उपलब्ध हो जाता है। जिनके द्वार बंद हैं, वे वंचित रह जाते हैं। इसमें परमात्मा की कृपा और अकृपा का कोई सवाल नहीं है। सवाल है हमारे द्वार के खुले होने का।
और मैंने आपसे कहा, आपके प्रयास से होगा नहीं, क्योंकि आपका प्रयास ही द्वार बंद कर लेता है। आपका एफर्ट ही बीच में दीवाल बन जाता है।
एक छोटी सी कहानी कहूं, शायद उससे मेरी बात खयाल में आए।
यूरोप में एक बहुत बड़ा जादूगर था, हुदिनी। उसकी बड़ी कुशलता थी। उसकी बड़ी ख्याति थी। उसके जादू के करिश्मे सारी दुनिया में प्रख्यात थे। एक खास उसकी कुशलता थी जिसकी वजह से वह और जादूगरों से ज्यादा प्रसिद्ध था। वह यह था कि वह कैसे भी ताले खोलने में क्षण भर में समर्थ हो जाता था। यूरोप और अमरीका की बड़ी से बड़ी कारागृहों में उसे बंद किया गया और तीन मिनट के भीतर वह दीवाल के बाहर आ गया। सब तरह की हथकड़ियां और सब तरह की बेड़ियां उसको पहनाई गईं, लेकिन तीन मिनट से ज्यादा कोई जेल का अधिकारी उसे भीतर बंद नहीं रख सका। यूरोप, अमरीका के सभी बड़े-बड़े जेलों में उसका प्रदर्शन हुआ।
हैरानी की बात थी। और अगर यह संभव था, तब तो कोई भी कैदी बाहर हो सकता है उस शिल्प को सीख कर, उस कला को सीख कर। सब तरह के उपाय किए गए, लेकिन तीन मिनट से ज्यादा उसे किसी कोठरी में कभी बंद नहीं रखा जा सका। सब तरह के ताले और सब तरह की जंजीरें वह खोल कर बाहर आ जाता था।
लेकिन एक दिन एक छोटे से द्वीप पर वह असफल हो गया। तीन घंटे लग गए और कोठरी के बाहर नहीं निकल सका। थक गया, सब उपाय कर लिए, लेकिन न मालूम कैसा ताला था कि खुलता न था। आखिर वह थक कर गिर पड़ा। और गिरते ही उसका धक्का लगा और दरवाजा खुल गया। दरवाजा बंद था ही नहीं। दरवाजा बंद होता तो वह खोल भी लेता। दरवाजा खुला हुआ अटका था। ताला झूठा था, ताला लगा नहीं था। वह ताला ही खोलने में लगा रहा। ताला लगा होता तो खुल जाता, ताला लगा ही नहीं था। दरवाजा सिर्फ अटका था। तीन घंटे लग गए। बाहर भीड़ खड़ी थी। हैरान हो गई भीड़। जो तीन मिनट में निकल आया था कभी भी, आज क्या हो गया था!
लेकिन उस कारागृह का जो जेलर था, वह अदभुत होशियार रहा होगा। उसने और भी बड़ी जादू की ट्रिक कर दी। उसने दरवाजा खुला छोड़ दिया। ताला नहीं लगाया। वह गैर-लगे ताले को खोलने की कोशिश करता रहा। गैर-लगा ताला कहीं खुल सकता है? जो लगा ही न हो वह खुलेगा कैसे?
थक गया और गिर पड़ा--पसीने से लथपथ। सारा जीवन मिट्टी हो गया था। जीवन भर की प्रसिद्धि खाक हुई जाती थी। पसीने से तरबतर वह गिरा, धक्का लगा, दरवाजा खुल गया। वह हैरान होकर रह गया।
यह घटना मैं क्यों कह रहा हूं? इस आदमी को तीन घंटे कौन सी चीज रोके रही--ताला? ताला तो खुला हुआ था।
इसका प्रयास। इसकी खोलने की कोशिश इसको अटकाए रखी।
कौन सी चीज इसे बाहर ले आई?
इसका थक जाना, इसका गिर जाना, इसका असफल हो जाना। इसके प्रयास कोई काम नहीं किए।
परमात्मा के द्वार पर भी कोई ताला नहीं लगा है, जिसे आप किसी चाबी से खोलने की कोशिश कर लें। परमात्मा के द्वार खुले हुए हैं। प्रेम के द्वार बंद कैसे हो सकते हैं? उन पर ताले कैसे हो सकते हैं? ताले तो उन दरवाजों पर होते हैं, जो प्रेम के नहीं हैं। परमात्मा का द्वार तो खुला हुआ है। कोई ताला नहीं है। इसलिए जो खोलने की कोशिश करेगा, वह भटक जाएगा।
फिर आप क्या करें?
अपनी इस असमर्थता को देख लेना, अपनी इस सीमितता को देख लेना, अपनी इस क्षुद्रता को पहचान लेना। अपनी सामर्थ्य और सीमा को जान लेते ही व्यक्ति सारा प्रयास छोड़ देता है। और उस प्रयास के छूटने में ही, उस लेट-गो में, जहां मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं--अचानक, अचानक उसकी किरणें आनी शुरू हो जाती हैं। द्वार खुल जाता है।
न तो यह मेरे प्रयास का कारण है, न उसकी कृपा का। यह मेरे अप्रयास का फल है। यह मेरी एफर्टलेसनेस का फल है। मैंने छोड़ दिया अपने को, मैंने अपनी कोई कोशिश जारी नहीं रखी।
देखें, करके देखें। छोड़ कर देखें कभी क्षण भर को चौबीस घंटे में। कुछ भी न करें, बिलकुल ऐसे हो जाएं जैसे नहीं हैं। और देखें, क्या धीरे-धीरे उस न होने में से कोई क्रांति आनी शुरू होती है? क्या उस परिपूर्ण रूप से छूट जाने में से, कुछ भी न करने में से कुछ उपलब्ध होता है? देखें। यह कोई समझ लेने भर की बात नहीं हो सकती। इसे तो देखना ही पड़ेगा, इसमें से तो गुजरना ही पड़ेगा।
कोई आदमी तैरने के संबंध में कितने ही शास्त्र पढ़ ले, और अगर नदी में न उतरा हो तो चाहे तैरने पर व्याख्यान दे, चाहे तैरने पर किताबें लिखे, चाहे तैरने के संबंध में किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो जाए, लेकिन पानी में धक्का देते ही उसका ज्ञान दो कौड़ी का साबित हो जाएगा। वहां पानी में, तैरने के शास्त्र पढ़ने का सवाल नहीं है, तैरना आना चाहिए। और जो अनुभव है तैरने वाले का, वह गैर-तैरने वाला कितना ही शास्त्र पढ़े, नहीं हो सकता है।
ध्यान का जो अनुभव है, वह परमात्मा के सागर में कूदने का अनुभव है।
कूदे बिना नहीं हो सकता। इशारे किए जा सकते हैं। उस दिशा में थोड़ी सी सूचनाएं दी जा सकती हैं। उस दिशा में थोड़े से इंगित किए जा सकते हैं। लेकिन उन इंगित को पकड़ मत लेना, वे बहुत मूल्य के नहीं हैं। जैसे अगर मैं रात बाहर आपको ले जाऊं और अंगुली से दिखाऊं कि देखो वह चांद है और आप मेरी अंगुली पकड़ लें, तो सब गड़बड़ हो जाएगी। अंगुली को भूल जाना है और चांद को देखना है।
लेकिन अक्सर यही हो जाता है, इशारे पकड़ लिए जाते हैं और जिसकी तरफ इशारा है वह भूल जाता है।
मैं जो कह रहा हूं, उस पर बहुत सोच-विचार करने की जरूरत नहीं है। उसको पकड़ लेने की बहुत जरूरत नहीं है। जिस तरफ मैं इशारा कर रहा हूं, उस तरफ थोड़ी आंख उठाने की जरूरत है।
मैं यह कह रहा हूं, थोड़ा करके देखें कि न करने की स्थिति क्या है? स्टेट ऑफ नो एक्शन क्या है? थोड़ी देर नो एक्शन में होना क्या है? अकर्म में होना क्या है? थोड़ा छोड़ें और देखें। और तब आप पाएंगे: न तो आपके प्रयास से वह मिलता है, न उसकी कृपा से। मिलता है आपके अप्रयास से। मिलता है आपके मिट जाने से, मिलता है आपके न हो जाने से।
एक सूफी गीत है। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया। उसने द्वार खटखटाए हैं। पीछे से पूछा गया: कौन है?
उसने कहा: मैं हूं तेरा प्रेमी!
फिर भीतर सन्नाटा हो गया। वह द्वार खटखटाने लगा जोर से, जैसा कि सभी प्रेमी आकुलता में खटखटाते हैं। उसके प्राण छटपटाने लगे, भीतर से आवाज बंद हो गई थी। वह चिल्लाया कि क्या हो गया है तुम्हें, बोलती क्यों नहीं हो?
उसकी प्रेयसी ने कहा: लौट जाओ, प्रेम के घर में दो नहीं समा सकते। तुम कहते हो--‘मैं हूं।’ तुम अभी हो, तो प्रेम के घर में दो कैसे बन सकेंगे? जाओ, जिस दिन न हो जाओ, उस दिन आना।
वह वापस लौट गया। फिर वर्ष आए और गए। वर्षों के बाद वह फिर वापस आया। द्वार पर उसने दस्तक दी। फिर वही प्रश्न: कौन हो?
अबकी बार उसने कहा: तू ही है, और कोई भी नहीं।
सूफी गीत कहता है कि द्वार खुल गए।
मैं अभी द्वार खुलवाने को राजी नहीं हूं। अगर मैं उस गीत को लिखता, तो गीत अभी थोड़ा और आगे जाता। मैं उसे वापस लौटा दूंगा। क्योंकि प्रेयसी भीतर से कहेगी: जिसे अभी ‘तू’ का पता है, उसे ‘मैं’ का भी पता है, अन्यथा ‘तू’ का भी पता नहीं हो सकता। लौट जाओ, प्रेम के घर में दो नहीं बन सकते हैं। और मेरा गीत आगे चला जाता है। वह प्रेमी लौट गया और फिर कभी नहीं आया। क्योंकि न मैं रहा, न तू। और तब प्रेयसी उसके पास आ गई, उसे खोजती हुई।
प्रेम के द्वार पर अहंकार प्रवेश नहीं कर सकता। और हमारा सब प्रयास हमारा अहंकार है। मैं कर रहा हूं--मैं कर रहा हूं पूजा; मैं कर रहा हूं प्रार्थना; मैं फेर रहा हूं माला; मैं जाता हूं मंदिर; मैं पढ़ता हूं शास्त्र; मैं करता हूं उपवास। मैं कर रहा हूं यह सब। और इन सब करने से मेरा ‘मैं’ और मजबूत होता चला जा रहा है।
यह ‘मैं’ जितना मजबूत हो जाएगा, उतने परमात्मा के द्वार बंद हो जाएंगे। परमात्मा का सूरज प्रतिक्षण प्रति घर के बाहर खड़ा है। जो अप्रयास में हैं, उनके द्वार खुल जाएंगे। क्योंकि कई बार हमारे प्रयास ही सारी नासमझी कर देते हैं।
कभी आपने खयाल किया है, जिंदगी में और भी कुछ चीजें हैं, जो आपके प्रयास से नहीं आ सकती हैं। अगर किसी को रात नींद न आती हो, तो क्या प्रयास से नींद आ सकती है? क्या कोशिश करने से कभी नींद आ सकती है? जितनी कोशिश करेंगे, नींद उतनी मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि कोशिश नींद की बिलकुल विरोधी है। नींद है विश्राम, कोशिश है श्रम। तो जितनी कोशिश करेंगे नींद लाने की--करवट बदलेंगे, उठेंगे, यह करेंगे, वह करेंगे, जितनी कोशिश करेंगे, उतनी ही ज्यादा नींद मुश्किल हो जाएगी।
एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञनिक था। एक नींद का मरीज उसके पास गया। जिसे नींद न आती थी, अनिद्रा की बीमारी थी। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: तुम कोई फिकर न करो। किस चीज का धंधा करते हो?
उस आदमी ने कहा: मैं भेड़ों को पालता हूं। उनके ही ऊन को बेचता हूं, भेड़ों को बेचता हूं, भेड़ों का ही मेरा धंधा है।
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: तब तुम एक काम करो, नींद लाने के लिए रात को आंख बंद कर लो और समझो की भेड़ों की कतार खड़ी है, तुम भेड़ों की गिनती करो। करते ही चले जाओ, एक से लेकर गिनती--हजार, दो हजार... तुम्हें गिनती करते-करते अपने आप नींद आ जाएगी।
वह आदमी गया। और दूसरे दिन वापस लौटा और उसने आकर मनोवैज्ञानिक की गर्दन पकड़ ली। उसने कहा: तुमने मुझे बड़ी मुसीबत में डाल दिया। भेड़ों का कोई अंत ही न हुआ और सुबह हो गई। वैसे तो कभी-कभी मैं थोड़ा-बहुत सो भी लेता था, आज तो नींद असंभव हो गई।
प्रयास करता रहा भेड़ों को गिनने का। मनोवैज्ञानिक ने सोचा होगा, चित्त हो जाएगा एकाग्र तो नींद आ जाएगी।
लेकिन जहां एफर्ट है, जहां चेष्टा है, वहां तनाव है। और तनाव नींद के विरोध में है। तनाव से नींद नहीं आ सकती। नींद कभी आप अपने श्रम से लाए हैं आज तक? नहीं, बल्कि जब आप निढाल हो जाते हैं थक कर, कोई श्रम करने का सवाल नहीं रह जाता, तब आप पाते हैं कि नींद उतर आई।
ठीक ऐसा ही आगमन होता है परमात्मा का भी। जब आपके सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं, जब आपकी सारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है--और आप रुक जाते हैं, ठहर जाते हैं, छोड़ देते हैं सब, उसी क्षण आप पाते हैं कि एक अदभुत घटना घटित हो गई है। कोई ऊपर से उतर आया और आपके सारे प्राणों को उसने घेर लिया है। इसे थोड़ा देखें, करें। इस संबंध में बात करने से बहुत कुछ नहीं हो सकता है।
एक मित्र पूछते हैं कि क्या निरंतर जागरूक रहना चाहिए, निरंतर सचेत रहना चाहिए, होश से रहना चाहिए?
अगर आप बहुत चेष्टा करेंगे होश से रहने की, तो आप निरंतर होश से नहीं रह सकते। क्योंकि हर चेष्टा थक जाती है एक सीमा पर। और जब थक जाती है तो समाप्त हो जाती है। अगर होश से रहने का बहुत एफर्ट किया, बहुत कोशिश की, तो फिर चौबीस घंटे होश से नहीं रह सकेंगे। क्योंकि हर श्रम थकता है और तब विश्राम करना पड़ता है। लेकिन अगर बहुत सरलता से और सहजता से होश से रहने का खयाल किया, तो चौबीस घंटे होश से रहा जा सकता है सतत। और जब सतत होश से रहेंगे, तभी, तभी वह घटना घट सकती है। सतत जागे हुए रहेंगे।
एक छोटी सी घटना कहूं, उससे शायद खयाल में बात आ जाए।
क्योंकि बातें बारीक हैं। घटनाएं थोड़ी स्थूल होती हैं और इशारा बन सकती हैं।
एक छोटे से गांव में गांव के बाहर एक बहुत प्राचीन मंदिर था। उस मंदिर में बहुत पुजारी थे। एक दिन सुबह-सुबह एक पुजारी ने उठ कर शेष पुजारियों से कहा: रात मैंने सपना देखा है और सपने में मुझे दिखाई पड़ा है कि भगवान आज हमारे मंदिर में आने को हैं।
यह बड़ी अनहोनी घटना थी। क्योंकि भगवान कभी किसी मंदिर में नहीं गया है। सारे पुजारी उत्सुक हो गए। हो सकता है सपना सच हो और भगवान आने को हो।
उन्होंने मंदिर को धोया और पोंछा। उन्होंने मंदिर को सजाया और संवारा। उन्होंने मंदिर में सुगंधियां छिड़कीं, धूप-दीप जलाए। सारे मंदिर को अतिथि की तैयारी के लिए तैयार किया। जगत का राजा ही आने को था। लेकिन दोपहर हो गई और उस राजा के आगमन की कोई खबर न मिली। और सांझ आ गई और उस राजा के आने की कोई खबर न मिली। और रात पड़ गई, सूरज डूब गया और रात का अंधेरा घिर गया और उस राजा का कोई भी पता न था। वे थक गए। और उन्होंने कहा: होगा सपना झूठा। सपने कब सच हुए हैं!
दिन भर के श्रम से वे थक गए थे और द्वार बंद करके सो गए। थोड़ी देर में दीये बुझ गए, तेल चुक गया। थोड़ी देर में जलाई गई धूप समाप्त हो गई, प्रकाश विलीन हो गया। अंधेरे में वह मंदिर डूब गया।
आधी रात गए एक रथ राजपथ से उस मंदिर की पगडंडी पर मुड़ा। जोर से पहियों की आवाज आने लगी। राजा के घोड़ों की टापें सुनाई पड़ने लगीं। नींद में एक पुजारी को लगा, शायद कोई आवाज होती है, तो उसने कहा: मित्रो उठो, शायद वह राजा आ गया जिसकी हम प्रतीक्षा करते थे! रथ की आवाज सुनाई पड़ती है। लेकिन किसी दूसरे पुजारी ने कहा: सो जाओ, गड़बड़ मत करो, नींद मत तोड़ो, बादल की आवाज होगी। कहां इस अंधेरी रात में, कहां रथ, कहां का राजा, सब सपना है, सब झूठा है। बादल की आवाज है, सो जाओ। वे फिर सो गए।
रथ द्वार पर आकर रुका। वह राजा जिसकी चिरंतन से प्रतीक्षा थी, उतरा। दरवाजे पर उसने दस्तक दी, उसके पदचिह्न सुनाई पड़े। द्वार पर उसने भड़भड़ाया, आवाज हुई। फिर किसी की नींद थोड़ी टूटी होगी। आधी नींद में उस पुजारी ने कहा: मालूम होता है वह आ गया जिसके लिए हम प्रतीक्षा में थे, द्वार कोई खटखटाता है! लेकिन फिर किसी सोए हुए ने कहा: चुप रहो, नींद मत तोड़ो बार-बार, हवा के झोंके होंगे। सपने सपने हैं, कौन राजा कब आता है! फिर वे सो गए। राजा वापस लौट गया।
सुबह जब वे उठे और द्वार खोला, तो धक से रह गए उनके प्राण। जरूर रथ द्वार तक आया था। कच्ची मिट्टी पर रथ के पैरों के चिह्न थे, रथ के चाक बने थे। सीढ़ियों की धूल पर राजा के पैरों के चिह्न थे। वे बैठ कर सीढ़ियों पर रोने लगे।
मैं भी सुबह-सुबह उस मंदिर की तरफ निकला था। उन पुजारियों को सीढ़ियों पर बैठे रोता देखा, तो मैंने पूछा: क्या हो गया, कैसे रोते हो?
उन्होंने कहा: अवसर हम चूक गए। जिसकी प्रतीक्षा थी, वह आया था, लेकिन हमारे द्वार बंद थे।
मैंने उनसे कहा: जो चौबीस घंटे जागा हुआ नहीं है, उसके द्वार बंद ही रहेंगे, जब भी वह राजा आएगा। उसके आने की कोई घड़ी, मुहूर्त, कोई टाइम-टेबल तय तो नहीं है। वह कब आएगा, इसका कोई पता नहीं है। चौबीस घंटे ही जागा हुआ चित्त चाहिए--शांत और निर्मल; ताकि जब भी वह आए, द्वार बंद न पाए। उसके आने की कोई घड़ी, मुहूर्त तय होता, रास्ते के किनारे बैठने वाला ज्योतिषी अगर कुछ बता सकता, तो आसान हो जाती बात। लेकिन नहीं, उसके आगमन का कोई निश्चय नहीं है। प्रेमपूर्ण प्रतीक्षा में किसी भी क्षण वह आ सकता है।
तो चित्त चाहिए सतत प्रतीक्षारत। चित्त चाहिए सतत दीये से जला हुआ। चित्त चाहिए सतत अतिथि के लिए तैयार। और सतत जो तैयार है, वही तैयार है। क्योंकि ऐसा हो ही कैसे सकता है कि एक आदमी तेईस घंटे तो बेहोश रहे और एक घंटा होश में आ जाए? यह नहीं हो सकता। यह कैसे हो सकता है कि एक आदमी तेईस घंटे पागल रहे और एक घंटा गैर-पागल हो जाए? यह कैसे हो सकता है कि तेईस घंटे कोई बीमार रहे और घंटे भर को रोज स्वस्थ हो जाए? यह नहीं हो सकता।
चेतना एक अविच्छिन्न धारा है, एक कंटीन्युटी है।
ऐसा नहीं हो सकता कि हिमालय से गंगा निकले और काशी के घाट पर आकर पवित्र हो जाए। उसके पीछे अपवित्र रही हो, फिर काशी के घाट के आगे फिर अपवित्र हो जाए, और काशी के घाट पर पवित्र हो जाए। ऐसा नहीं हो सकता। गंगा एक अविच्छिन्न धारा है। अगर काशी के घाट पर पवित्र है, तो वह पहले भी पवित्र रही हो, तभी पवित्र हो सकती है। और फिर आगे भी पवित्र रहेगी। यह नहीं हो सकता कि वह धारा थोड़ी देर को पवित्र हो जाए, फिर अपवित्र हो जाए।
यह नहीं हो सकता है कि मैं तेईस घंटे क्रोध में और चिंता में, दुख में और अंधकार में जीऊं, और फिर एक घंटे मंदिर में जाऊं और शांत हो जाऊं और जाग्रत हो जाऊं। यह नहीं हो सकता। मंदिर की सीढ़ियों पर जो चढ़ेगा, वही तो मंदिर के भीतर प्रवेश करेगा, वही गंगा तो मंदिर के भीतर जाएगी। तो मंदिर के बाहर जो अपवित्र था, वह मंदिर के भीतर पवित्र कैसे हो जाएगा? कोई मंदिर जादू थोड़े ही कर सकेगा। चेतना मेरी जिस भांति की है मंदिर के बाहर, वही मंदिर के भीतर भी होगी। अगर मैं निरंतर बदलता हूं, तो ही मैं बदलता हूं। अगर मेरी चेतना की धारा सतत बहती है, पवित्र होती है, तो ही मैं बदलता हूं। अन्यथा बदलाहट नहीं हो सकती है।
मैंने सुना है, एक धनपति मरने के करीब था। उसकी मृत्यु आ गई थी। धनपतियों को कभी विश्वास तो नहीं होता कि उनकी मृत्यु आएगी, लेकिन फिर भी आती है। गरीब आदमी तो दिन-रात प्रतीक्षा करता है मौत की। धनपति तो उसे छिपाए रहता है धन की आड़ में। लेकिन एक न एक दिन वह दीवाल को तोड़ देती है और सामने खड़ी हो जाती है। और तब पता चलता है कि धन कोई मित्र न था। उसकी भी वैसी ही हालत हो गई थी। आज दिखाई पड़ रहा था। सब उसके पास था। सब धन था उसके पास। लेकिन मौत से बचने का कोई उपाय न था। जिस पैसे को उसने प्राणों से भी कीमती जाना था, वह पैसा आज किसी भी तरह साथ देने को तैयार न था। खाट पर पड़ा था। मरने की प्रतीक्षा पल-पल थी। चिकित्सकों ने कहा, बचेगा नहीं।
सांझ होने को थी, सूरज ढल गया और घर में अंधेरा उतर आया था। और मरणासन्न व्यक्ति के घर में कौन दीया जलाए। अंधेरा पड़ा था वह घर। सारे घर के लोग खाट के आस-पास बैठे थे। उस धनपति ने आंखें खोलीं और अपनी पत्नी से पूछा: मेरा बड़ा लड़का कहां है?
उसकी पत्नी ने सोचा, जीवन में यह पहला मौका है कि शायद उसे अपने लड़कों पर प्रेम आया है। क्योंकि जिसे पैसे पर प्रेम है, उसे और किसी से कभी प्रेम नहीं होता है। शायद प्रेम ने आज आकांक्षा जाहिर की है। पत्नी खुश हुई। उसने उसके पैरों पर हाथ रखा और कहा: आप निश्चिंतता रहें, आपके सिर के पास ही आपका बड़ा लड़का बैठा है।
उस धनपति ने पूछा: और उससे छोटा? वह भी मौजूद था। और उससे छोटा? वह भी मौजूद था। उसके पांच लड़के थे। उसने कहा: सबसे छोटा?
उसकी पत्नी ने कहा: वह भी मौजूद है। आप बेफिकर, शांत रहें, सब मौजूद हैं। वह धनपति मरणासन्न उठ कर बैठ गया और उसने कहा: इसका क्या मतलब, फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है?
भूलभरी थी वह बात कि वह प्रेम से किसी को याद कर रहा था। जीवन भर जिसकी चेतना पैसे के इर्द-गिर्द घूमी हो, मौत के क्षण में भी प्रेम के इर्द-गिर्द नहीं घूम सकती है।
चेतना एक अविच्छिन्न धारा है, एक कंटीन्युअस, उसमें कहीं बीच-बीच में अवरोध नहीं हैं।
तो जागना है, तो सतत ही जागना है। शांत होना है, तो सतत ही शांत होना है। प्रेम से भरना है, तो सतत ही प्रेम से भरना है। यह कोई खंड-खंड में किया जाने वाला काम नहीं है। यह कोई ऐसा काम नहीं है कि थोड़ी देर मैं प्रेम से भर जाऊं और फिर देख लूंगा जो कुछ होना है। फिर दुनिया जैसी चलेगी, चलेगी। ऐसा नहीं हो सकता। जीवन बदलता है, तो आमूल बदलता है। टुकड़ों में जीवन नहीं बदलता। क्योंकि जीवन के कोई टुकड़े नहीं हैं। जीवन एक अखंड, जीवन एक पूर्ण चीज है, इकट्ठी, उसमें अलग-अलग खंड नहीं हैं। जीवन के भवन में अलग-अलग कक्ष नहीं हैं, अलग-अलग कमरे नहीं हैं। जीवन इकट्ठा है और सतत है।
इसलिए जिन मित्र ने पूछा है: ‘क्या हम सतत ही शांत, जागरूक रहें?’
निश्चित ही। अगर सत्य और परमात्मा की दिशा में कोई भी अनुभव होना है, तो वह जो सतत जागा हुआ है, सतत प्रेम से भरा हुआ है, सतत अहंकार-शून्य है, वही, और केवल वही उसको पाने का हकदार हो सकता है।
और बहुत से प्रश्न हैं। उन सबके उत्तर संभव नहीं हो पाएंगे। इसलिए नहीं कि उनके कोई उत्तर नहीं हैं। जो भी प्रश्न होगा, अपने जन्म के साथ ही अपने उत्तर को भी पैदा कर लेता है। कोई प्रश्न बिना उत्तर के नहीं है। ऐसा कोई प्रश्न ही नहीं हो सकता, जिसका उत्तर न हो। लेकिन दूसरे का उत्तर आपके प्रश्न का उत्तर बनेगा या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। प्रश्न आपका है, उत्तर मेरा है। यह बड़ा फासला हो गया। यह इतनी बड़ी दूरी हो गई कि जरूरी नहीं कि यह दूरी पार होगी, बीच में ब्रिज बन सकेगा। प्रश्न आपका है, उत्तर मेरा, यह बड़ी फासले की बात हो गई, यह बहुत डिस्टेंस हो गया। तो जरूरी नहीं कि मेरा उत्तर आपका उत्तर बने। बन नहीं सकता। बहुत कठिनाई है। आप आप हैं, मैं मैं हूं। कैसे कोई सेतु जुड़ेगा?
तो फिर मैं क्यों यह व्यर्थ मेहनत करता हूं और आपके प्रश्नों के उत्तर दे रहा हूं?
इसलिए नहीं कि मेरे उत्तर आपके उत्तर बन जाएं, बल्कि इसलिए कि आपको यह खयाल पैदा हो जाए कि कोई प्रश्न बिना उत्तर के नहीं है, और आप अपने उत्तर की खोज में निकल सकें। इतना खयाल भर मेरी बात से आपको आ जाए। मेरे उत्तरों को मान लेने की कोई भी जरूरत नहीं है। जरा भी जरूरत नहीं है। इतना भर खयाल आपको आ जाए, इतनी भर दिशा आपको मिल जाए, इतना भर धक्का आपको मिल जाए कि प्रश्न हैं, तो उत्तर हो सकते हैं। बस इतनी ही बात खयाल में आ जाए, तो मेरा श्रम पूरा हो जाता है।
मैं नहीं चाहता कि मैं आपको उत्तर दूं। मैं तो चाहता हूं, आप अपने उत्तर को खोजें। लेकिन शायद आप प्रश्न पूछते-पूछते निराश हो गए होंगे और आपने उत्तर की खोज बंद कर दी होगी, इसलिए इतनी मैंने बात की।
निराश होने का कोई भी कारण नहीं है। खोदे जाएं अपने भीतर। जिस चित्त ने प्रश्न पैदा किया है, वह चित्त उसका उत्तर भी पैदा करने में समर्थ है।
आप हैरान होंगे, प्रश्न कठिन है, उत्तर हमेशा सरल है। प्रश्न पूछना ही असली बात है। उत्तर तो बहुत आसान है। लेकिन न तो हम प्रश्न पूछते हैं और न उत्तर खोजते हैं। और जो प्रश्न हम पूछते हैं, वे भी करीब-करीब उधार होते हैं, वे भी अपने नहीं होते, वे भी सुने-सुनाए होते हैं, वे भी किताबों से सीखे होते हैं। वे भी हमारे नहीं होते। और इसलिए, जब हमारा प्रश्न ही न हो, तो हमारा उत्तर कैसे हो सकता है?
तो अंतिम निवेदन यह है: अपना प्रश्न खोजिए। बड़ी उपलब्धि है, अगर आप अपने जीवन में उठने वाले प्रश्नों को खोज पाएं। बंधे-बंधाए, रटे-रटाए, सुने-सुनाए प्रश्न मत पूछिए। उनका कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि वे आपके प्रश्न नहीं हैं। इसलिए कोई भी उत्तर दिया जाए, कोई भी उत्तर मिल जाए, उससे आपको कोई तृप्ति न होगी। वह वैसा ही है, जैसे बिना प्यासे आदमी को हम पानी पिला दें। उससे और घबड़ाहट पैदा होगी। उससे कोई लाभ नहीं होगा। प्यास अपनी होनी चाहिए। सच्ची होनी चाहिए।
प्रश्न खोजें, पहली बात। और फिर शांत, मौन होकर उस प्रश्न को अपने चित्त में छोड़ दें और मौन हो जाएं। जल्दी उत्तर देने की कोशिश न करें। क्योंकि अगर जल्दी उत्तर देने की कोशिश की, तो वह उत्तर भी कहीं का सीखा हुआ हो जाएगा। वह आपके भीतर से नहीं आएगा। स्मृति उत्तर दे देगी।
अगर मैं आपसे पूछूं, ईश्वर है? तो आप अपने भीतर देखें, फौरन उत्तर आ जाएगा, हां है। किसी का उत्तर आ जाएगा, नहीं है। ये झूठे उत्तर हैं, ये सीखे हुए उत्तर हैं।
अगर भीतर कोई उत्तर न आए, तो समझना कि अब स्थिति आई कि उत्तर मेरा मिल सकता है। ये सीखे हुए उत्तर हैं। इसलिए परख रखना हमेशा भीतर कि यह कोई सीखा हुआ उत्तर तो नहीं आ रहा है। ईश्वर है, यह मुझे सिखा दिया गया बचपन से। मुझे पता नहीं है। और आज उत्तर उठता है, ईश्वर है, यह झूठा उत्तर है। बिलकुल झूठा है। इस झूठे उत्तर से कुछ होने वाला नहीं है।
तो पहले तो झूठे उत्तर को विदा कर देना, दूसरे नंबर की बात। पहले नंबर की बात, उधार प्रश्न कभी जीवन में पूछना मत। उनका कोई मूल्य नहीं है। अपना प्रश्न! दूसरी बात, उधार उत्तर से तृप्त मत होना। उससे कोई हल नहीं है। उसे विदा कर देना। सब उत्तर विदा कर देना। अपना प्रश्न अकेला रह जाए भीतर, जलते हुए एक अंगारे की तरह। और कोई उत्तर स्वीकार मत करना जो स्मृति दे, जो हमने सीख लिया, लर्निंग कर ली जिसकी। तब वह अंगार की तरह प्रश्न प्राणों में छिदता चला जाएगा। वह तीर की तरह भीतर घुसने लगेगा। और एक घड़ी आएगी कि आपकी आत्मा उत्तर देगी। वही उत्तर आपके जीवन में अर्थपूर्ण होगा। वही उत्तर आपके जीवन को बदलने वाला होगा।
प्रश्न के साथ जीना एक कला है।
जल्दी से उत्तर दे देना, कोई कला नहीं है।
प्रश्न के साथ जीने की जरूरत है। जो शांति से अपने प्रश्न को बीज की तरह अपने हृदय में छिपा लेता है और जीए चला जाता है, वह जरूर, जरूर एक दिन उत्तर को उपलब्ध होता है।
एक अंतिम बात और चर्चा को मैं पूरी करूंगा।
मनुष्य के जीवन में शायद सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण प्रश्न इसके सिवाय कुछ भी नहीं है कि ‘मैं कौन हूं?’ लेकिन इतने प्रश्न आए हैं, किसी ने भी यह नहीं पूछा। पूरे मुल्क में मैं घूमता हूं, अब तक मुझे वह आदमी नहीं मिला, जो पूछता हो: मैं कौन हूं?
कोई पूछता है, ईश्वर क्या है? इसकी परिभाषा दीजिए, डेफिनेशन दीजिए। क्या मतलब है आपको ईश्वर से? कोई पूछता है, स्वर्ग और नरक होते या नहीं? कोई पूछता है, परद्रव्य क्या है? कोई कुछ, कोई कुछ... लेकिन बुनियादी प्रश्न जो आदमी के भीतर होना चाहिए, वह कोई भी नहीं पूछता। शायद हमने यह मान ही लिया है कि हम अपने को जानते हैं, इसलिए पूछने की जरूरत क्या है। और बड़े आश्चर्य की बात यह है कि आदमी स्वयं को नहीं जानता है।
इधर तीन दिनों की चर्चा मेरी इसी दिशा में थी कि आपके भीतर शायद यह प्रश्न पैदा हो जाए कि मैं कौन हूं? शायद कोई पूछे।
तो अंतिम एक घटना की बात करके मैं चर्चा पूरी कर दूंगा। शायद उस घटना से आपके भीतर प्रश्न गूंजता रह जाए। और किसी दिन आपके प्राण उसके उत्तर पाने में समर्थ हो सकें। वही घड़ी धन्यता की घड़ी होती है।
एक भिखारिन, एक बूढ़ी भिखारिन एक मेले से भीख मांग कर वापस लौटती थी। थक गई थी, बूढ़ी स्त्री थी। एक झाड़ के नीचे घनी छाया में सो गई। दोपहर थी। राह से निकलते हुए किसी एक मसखरे आदमी ने उस बूढ़ी स्त्री के सारे कपड़े कैंची से काट डाले। उसके चेहरे पर कोई स्याही पोत दी। सांझ होते-होते उसकी आंख खुली। वह करीब-करीब अर्धनग्न थी। हाथ-पैर काले थे। कपड़े पहचान में न आते थे। उसकी पोटली, उसकी भिक्षा का पात्र, वे सब नदारद थे। वह हैरान हो गई। उसने अपने से पूछा: मैं कौन हूं? क्योंकि मैं जो सोई थी, उसके कपड़े दूसरे थे। मैं जो भिखारिन थी, उसके पास पोटली थी, पैसे थे। वे सब नहीं हैं, हाथ-पैर नंगे हैं। मैं तो नंगी न थी? वह हैरान हो गई कि मैं कौन हूं फिर? क्योंकि रोज अपने वस्त्रों में अपने को पहचान लेना बहुत आसान था, आज अपने वस्त्र नहीं थे तो कैसे पहचानती?
हम सब भी अपने को वस्त्रों से ही पहचानते हैं। वस्त्र न हो, तो पहचानना मुश्किल हो जाए। नाम के वस्त्र हैं, पद के वस्त्र हैं, धन के वस्त्र हैं, प्रतिष्ठा के वस्त्र हैं। हमारी आइडेंटिटी क्या है? हमारे वस्त्र और हमारे चेहरे! हमारा ऊपर का जो ढंग है, वही हमारी पहचान है। उससे ही दूसरे हमको पहचानते हैं, उससे ही हम भी अपने को पहचानते हैं। दूसरे पहचानें वह तो ठीक, लेकिन हम भी उसी से अपने को पहचानते हैं।
अगर कल सुबह आप आईने के सामने खड़े हों और देखें कि यह चेहरा, अरे, यह तो बदल गया, यह तो दूसरा हो गया, तो आप भी घबड़ा जाएंगे और मन में प्रश्न उठेगा--मैं कौन हूं? चेहरा तो रोज बदल जाता है, लेकिन इतने धीरे-धीरे बदलता है कि आपकी आंखें उसे पहचान नहीं पाती हैं। लेकिन अगर एकदम से कोई जादूगर आए और आपके चेहरे को दस साल आगे बदल दे, तो सुबह उठ कर आपको मुश्किल हो जाएगी पूछने में कि मैं कौन हूं? अपने फोटो से मिलाएंगे, पाएंगे यह तो मैं नहीं हूं!
वह बूढ़ी भिखारिन भी दिक्कत में पड़ गई। उसने कभी अपने को नग्न नहीं देखा था। कौन अपने को कब नग्न देखता है? नंगी आज थी तो घबड़ा गई। सोचा कि चलूं किसी आईने में देख लूं। लेकिन पोटली तो नदारद थी, उसमें उसका आईना भी था। आप कहेंगे, भिखारियों को आईने की क्या जरूरत, तो आप गलती में हैं। सम्राट ही अपने को देख कर खुश होते हों, ऐसा नहीं है, भिखारी भी अपने को देख कर खुश होते हैं। कौन अपने को देख कर खुश नहीं होता है। आईना उसी पोटली में, लेकिन चला गया था। पहचानना बड़ा मुश्किल था।
क्या करे, कैसे जाने कि वह कौन है? तो उसे खयाल आया, अपने घर की तरफ की चलें। उसके पास एक कुत्ता था। रोज वह तो उसे पहचान लेता था और दौड़ कर उसके आगे-पीछे पूंछ हिलाने लगता था। तो वहीं चली चलें अपने झोपड़े पर। अगर कुत्ते ने पहचान लिया, तो पक्का हो जाएगा कि मैं, मैं ही हूं। और अगर कुत्ता न पहचान पाया, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
भागी वह घर की तरफ। रात हो गई थी। कुत्ते ने भी उसे हमेशा कपड़ों में देखा था। नग्न उसने कभी उसे देखा नहीं था। कुत्ता घबड़ा गया और भौंकने लगा। वह भिखारिन बुढ़िया बड़ी दिक्कत में पड़ गई। वह उस द्वार पर खड़ी होकर सोचने लगी, बड़ी मुश्किल हो गई--जो मैं हूं, अगर मैं नहीं हूं, तो फिर मैं कहां हूं?
हर आदमी अपने घर के सामने जाकर अगर पूछेगा अपने से, तो इसी मुश्किल में पड़ जाएगा--कि मैं कौन हूं और कहां हूं? इसी प्रश्न के साथ अपनी इस चर्चा को मैं समाप्त कर देता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। परमात्मा करे, इतनी ही शांति और मौन से आपके भीतर जो है, उसे आप सुन सकें। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को मैं पुनः प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।