QUESTION & ANSWER

Jeevan Darshan 05

Fifth Discourse from the series of 7 discourses - Jeevan Darshan by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
एक वृद्ध लेकिन कुंआरी महिला ने अकेलेपन से घबड़ा कर, एकाकीपन से ऊब कर एक तोते को खरीद लिया था। तोता बहुत बातूनी था, बहुत चतुर और बुद्धिमान था। उसे शास्त्रों के सुंदर-सुंदर श्लोक याद थे, सुभाषित कंठस्थ थे। भजन वह तोता कह पाता था। वह वृद्धा उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उसके अकेलेपन में एक साथी मिल गया। लेकिन थोड़े दिनों ही बाद उस तोते में एक खराबी भी दिखाई पड़ी। जब घर में कोई भी न होता था और उसकी मालकिन अकेली होती, तब तो वह भजन और कीर्तन करता, सुभाषित बोलता, सुमधुर वाणी और शब्दों का प्रयोग करता। लेकिन जब घर में कोई मेहमान आ जाते, तो वह तोता एकदम बदल जाता था। वह फिल्मी गाने गाने लगता और सीटियां बजाने लगता। और कभी-कभी अश्लील गालियां भी बकने लगता।
वह महिला बहुत घबड़ाई। लेकिन उस तोते से उसे प्रेम भी हो गया था। और अकेले में वह उसका बड़ा साथी था। लेकिन जब भी घर में कोई आता, तो वह कुछ ऐसी अभद्र बातें करता कि वह महिला बड़ी संकोच और परेशानी में पड़ जाती।
वह तोता ही तो था, आदमी होता तो ऐसा कभी न करता। आदमी इससे उलटा करता है। अकेले में फिल्मी गाने गाता है, सबके सामने भजन कहता है। वह तोता ही तो था आखिर, वह कोई बहुत समझदार नहीं था। वह पागल अकेले में तो भजन गाता और सबके सामने फिल्मी गाने गाता और सीटियां बजाता और अश्लील शब्द बोलता।
वह महिला घबड़ाई। क्या करे? तो उसने अपने चर्च के पादरी को कहा। क्योंकि चर्च के पादरी का धंधा यही था: लोगों को सुधारना, उनके जीवन को अच्छा बनाना, उनके आचरण को शुद्ध करना। तो उस महिला ने सोचा कि जो हजारों लोगों के जीवन को शुद्ध करता है, क्या एक तोते के जीवन को नहीं बदल सकेगा?
उसने जाकर चर्च के पादरी को प्रार्थना की कि मेरे तोते में एक खराब आदत है, क्या आप इसे नहीं बदल सकेंगे?
चर्च के पादरी को तोतों के संबंध में कोई भी ज्ञान नहीं था। लेकिन उपदेशक कभी भी अपना अज्ञान स्वीकार करने को राजी नहीं होते। वह भी राजी नहीं हुआ। और उसने कहा: हां, इसमें कौन सी कठिनाई है, मैंने तो सैकड़ों तोतों को ठीक किया है। यद्यपि यह पहले ही तोते से उसका पाला था। रात भर वह सोचता रहा, क्या करे क्या न करे? और तभी उसे खयाल आया, उसके पास खुद भी एक तोता है। और वह तोता चूंकि चर्च के पादरी के पास था, इसलिए चर्च का पादरी जितने उपदेश देता था, उतने ही उपदेश उसे भी याद हो गए थे। और निरंतर चर्च में कीर्तन और भजन चलता और अच्छी बातें चलतीं, तो उस तोते ने उनको भी याद कर लिया था। वह तोता बहुत धार्मिक था। पादरी ने सोचा, मैं तो नहीं समझा पाऊंगा उस बिगड़े हुए तोते को, लेकिन क्या यह अच्छा न होगा कि मैं अपने तोते को कुछ दिनों के लिए उस तोते के पास छोड़ दूं। यह धार्मिक तोता है, उस अधार्मिक को ठीक कर लेगा।
और वह अपने तोते को लेकर दूसरे दिन उस महिला के घर गया। और उसने कहा: एक मादा तोता मेरे पास भी है। और यह बहुत धार्मिक है। और निरंतर धर्म की चर्चा के अतिरिक्त इसे किसी बात में कोई रुचि नहीं। इसकी प्रार्थनाएं तो इतनी हृदय से भरी होती हैं कि सुनने वाले के आंसू आ जाएं। इसके प्राणपण निरंतर प्रार्थना में जुटे रहते हैं। तो मैं इस अपने मादा तोते को तुम्हारे तोते के पास छोड़े जाता हूं। यह सप्ताह, दो सप्ताह में ही उसका हृदय परिवर्तन कर देगा।
वह अपने मादा तोते को उसके पास छोड़ गया। एक ही पिंजड़े में उन दोनों को बंद कर दिया गया। बिगड़ा हुआ तोता थोड़ी देर तक तो स्तब्ध होकर इस नये अजनबी को देखता रहा। फिर उसने दोस्ती के लिए हाथ बढ़ाया। थोड़ी बातचीत हुई। उन दोनों में मित्रता हो गई। और जैसा स्वाभाविक था, मित्रता के बाद उसने प्रेम के लिए भी आमंत्रण दिया। और मादा तोते के आस-पास उसने प्रेम का जाल रचा। लेकिन वह मन में डरा हुआ था, क्योंकि मादा तोता धार्मिक थी।
धार्मिक लोग प्रेम से बहुत डरते हैं। वह तोता भी डरा हुआ था कि पता नहीं, प्रेम के संबंध में यह आमंत्रण स्वीकार भी होगा या नहीं? लेकिन प्रयास करना जरूरी था। उसने कोशिश की। वह नाचा, कूदा, उसने गीत गाए। और अंत में इस वजह से उसने पूछा कि कहीं मेरी ये सारी हरकतें उसे नाराज तो नहीं कर रही हैं? उसने उस मादा तोते को पूछा: मेरे गीत और मेरे प्रेम का आमंत्रण तुम्हें नाराज तो नहीं कर रहा है? क्योंकि मैंने सुना है, तुम तो दिन-रात प्रार्थनाओं में लीन रहने वाली हो। उस मादा तोते ने कहा: तुम पागल हो, मैं प्रार्थनाएं करती ही किसलिए थी? उस मादा तोते ने कहा: मैं प्रार्थनाएं करती ही किसलिए थी? तुम्हें पाने को!
दूसरे दिन से उस मादा तोते ने प्रार्थनाएं करनी बंद कर दीं। और उस बिगड़े हुए तोते ने गालियां देना बंद कर दीं। वह भी किसी पत्नी की तलाश में था और इसलिए क्रोध में गालियां दे रहा था। और वह मादा तोता किसी पति की तलाश में थी और इसलिए प्रार्थनाएं कर रही थी। वे प्रार्थनाएं और गालियां एक ही अर्थ रखती थीं, उनमें कोई भेद नहीं था।
यह घटना मैं इसलिए कहना चाहता हूं कि यदि आदमी का अंतःकरण न बदले, तो उसकी गालियों और प्रार्थनाओं में कोई भेद नहीं होता है। उसके मंदिर जाने में, उसके शिवालय जाने में और उसके मधुशाला जाने में कोई भेद नहीं होता है। मनुष्य का हृदय न बदले, तो वह चाहे कुछ भी करे, उसके करने के पीछे वे ही क्षुद्र आकांक्षाएं, इच्छाएं और वासनाएं काम करती हैं। ऊपर से रूप बदल जाता है, ऊपर से ढंग बदल जाता है और वस्त्र बदल जाते हैं, लेकिन भीतर, भीतर की बात वही रहती है।
इसलिए मैंने यह बात कही। वे दोनों बातें अलग दिखाई पड़ती हैं। एक तोते का गालियां बकना और एक तोते का प्रार्थनाएं करना बहुत भिन्न मालूम होता है। लेकिन जो नहीं जानते, उन्हीं को यह भिन्न मालूम होगा। जो गहरे देखेंगे, वे पाएंगे, उनके अंतःकरण की आकांक्षा और वासना एक ही है।
मनुष्य के ऊपरी आचरण के बदल जाने से कुछ भी नहीं होता। और न ही मनुष्य के शब्द बदल जाने से कुछ होता है। और न ही मनुष्य के वस्त्र और स्थान बदल जाने से कुछ होता है। बदलनी चाहिए मनुष्य की अंतरात्मा।
लेकिन हम हजारों वर्षों से शब्दों के बदलने में, कृत्य के बदलने में, वस्त्र के बदलने में इतने संलग्न रहे हैं कि हम यह बात ही भूल गए हैं कि ये चीजें बदलने से कुछ बदलाहट नहीं होती, कोई क्रांति नहीं होती। और हम इतने भटक गए हैं इस बदलाहट, बदलाहट के सिलसिले में कि आज हमें खयाल ही नहीं आता कि वस्त्रों और शब्दों और कृत्यों के अतिरिक्त भी हमारे भीतर क्या कोई बदलने के लिए चीज है? क्या कोई चेतना है? क्या कोई आत्मा है जिसे बदलना है? इधर तीन दिनों में मैंने इसी संबंध में आपसे बात की है।
वस्त्रों में जो अपने को छिपा लेता है वह आत्मवंचक है, सेल्फ-डिसेप्शन, अपने आप को धोखा दे रहा है। और हम सारे लोग इस बड़ी, इस बड़ी विक्षिप्तता में सम्मिलित हैं।
आज की रात अंतरात्मा को बदलने के कुछ सूत्रों के संबंध में मुझे आपसे कहना है।
पहली रात मैंने आपसे कहा: जीवन के तथ्यों को, नग्न तथ्यों को जानना जरूरी है। क्योंकि उन्हें जाने बिना जीवन को बदलने का कोई विज्ञान समझ में नहीं आ सकता।
दूसरी रात मैंने आपसे कहा: विचार की क्षमता विकसित होनी चाहिए। अंधा आदमी सत्य को नहीं खोज सकता। विचार की आंख, सजग, सचेतन, चिंतन, मनन, होश, जागरूकता चाहिए, ताकि वह खोज सके जीवन के अंधेरे पथ पर अपने मार्ग को और अपनी मंजिल को।
और आज की रात मैं आपसे कहना चाहता हूं: मनुष्य के भीतर जो चेतना है, वह जब तक आमूल-परिवर्तित न हो जाए, तब तक न तो केवल तथ्यों का जानना कुछ अर्थ रखेगा, बल्कि खतरा भी हो सकता है। अगर केवल तथ्यों को हम जान लें और हमारी चेतना परिवर्तित न हो, तो यह भी हो सकता है, हम समझ लें कि इन तथ्यों के ऊपर कोई जीवन नहीं है। पश्चिम ऐसी ही भूल में पड़ गया है।
फ्रायड ने मनुष्य के चित्त के तथ्य खोजे और पाया कि मनुष्य के चित्त में सेक्स, कामवासना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। और तब उसने इससे यह परिणाम निकाल लिया कि सेक्स के तल पर ही जीना जीवन का लक्ष्य है। यह भूल हो गई। तथ्य को देखना तो उचित था, लेकिन उसी तथ्य पर रुक जाना खतरनाक है।
तथ्य इसलिए देखे जाने चाहिए, ताकि हम उनका अतिक्रमण कर सकें, उनके ऊपर उठ सकें। सड़क में गड्ढा इसलिए देखा जाना चाहिए, ताकि हम उस गड्ढे के पार हो सकें, न कि इसलिए कि हम उस गड्ढे में गिर जाएं।
तो मैंने तथ्यों को देखने की बात कही है। इसलिए नहीं कि उन तथ्यों में हम रुक जाएं, बल्कि इसलिए, ताकि देख कर हम उन्हें पार कर सकें।
और वह पार करने की क्षमता विचार से पैदा होगी। लेकिन अकेला विचार भी काफी नहीं है। अकेला विचार भी खतरनाक हो सकता है। अकेला विचार इसलिए खतरनाक हो सकता है कि जो आदमी बस विचार मात्र करता रह जाता है, उसके जीवन से सक्रियता विलीन हो जाती है, वह निष्क्रिय हो जाता है। और जीवन में जो भी परिवर्तन है, वह एक सक्रिय, क्रिएटिव, एक रचनात्मक परिवर्तन है, जिसमें श्रम उठाना होता है।
मुझे खयाल आती है एक घटना। पिछले महायुद्ध में एक युवक सेना में भरती हुआ। बहुत सैनिकों की जरूरत थी। तो बहुत जल्दी में, बिना बहुत परीक्षा के वह भरती कर लिया गया। किसी को पता भी न था कि वह एक विचारक है। क्योंकि विचारक सैनिक नहीं हो सकता। लेकिन वह भरती हो गया था। और जिस दिन पहले ही उसकी टुकड़ी कवायद करने को खड़ी हुई और उसके प्रधान ने आज्ञा दी: बाएं घूम जाओ! सारे सैनिक बाएं घूम गए, वह सीधा खड़ा रहा। उसके प्रधान ने कहा: क्या तुमने सुना नहीं?
उसने कहा: बिना विचार किए कुछ करने की मेरी आदत नहीं है। मैं थोड़ा सोच लूं कि बाएं घूमना या नहीं घूमना?
प्रधान तो हैरान हो गया। यह पहला ही मौका था कि सिपाही इस तरह की बात कहे। दो-चार दिन में ही यह बात जाहिर हो गई कि वह आदमी कुछ भी करने में असमर्थ है। लेकिन वह भरती हो गया था, तो उसे कोई न कोई काम खोजना जरूरी था। तो उसे फिर टुकड़ी से हटा कर सिपाहियों का जो भोजनालय था, उसमें भेज दिया गया। सोचा कि वहां यह कुछ थोड़ा-बहुत काम कर सकेगा।
और पहले ही दिन उसे मटर के दाने बहुत से दिए गए और उससे कहा गया: बड़े दानों को अलग कर लो, छोटे दानों को अलग कर लो। कोई घंटे भर बाद उसका प्रधान वापस लौटा। उसने देखा कि वह थाली में मटर के दाने वैसे के वैसे रखे हैं। और वह आदमी आंख बंद किए हुए उन्हीं के पास बैठा हुआ है, सिर से हाथ लगाए हुए। उसने उसे हिलाया और कहा: क्या कर रहे हो?
उसने कहा: आपने मुझे बड़ी मुसीबत में डाल दिया। आपने कहा: बड़े दाने एक तरफ करो, छोटे दाने दूसरी तरफ; लेकिन कुछ दाने मझोल हैं, उनको मैं कहां करूं? मैं इतने उलझन में पड़ गया हूं सोच-विचार की, और जब तक यह तय न हो जाए कि मझोल दाने कहां जाएं, तब तक काम में हाथ लगाना उचित नहीं है। इसलिए मैं रुका हुआ हूं।
ऐसे विचार के लिए मैंने नहीं कहा है। मेरी बात सुन कर कई बार भूल हो जाती है। ऐसे विचार के लिए मैंने नहीं कहा है! यह विचार तो फिर एक रोग हो गया।
यही वजह है कि अब तक दुनिया में जो लोग विचारशील रहे, उन्होंने कुछ भी नहीं किया। और जो बिलकुल अविचारशील थे, उन्होंने बहुत कुछ किया। ये दोनों खतरनाक बातें हैं। अविचारशील आदमी कुछ करे, खतरा होना निश्चित है। और विचारशील कुछ न करे, तो जीवन में कुछ भी विकसित कैसे होगा?
अब तक जो लोग बिलकुल विचार नहीं करते रहे हैं, वे बहुत सक्रिय रहे हैं। उनकी सक्रियता से दुष्परिणाम आया है। और जो लोग विचारशील रहे हैं, वे निष्क्रिय हो गए हैं। उनकी निष्क्रियता से जीवन विकसित नहीं हुआ।
मैं किस विचार की बात किया हूं?
उस विचार की नहीं, जो अपने में ही खोकर समाप्त हो जाता है; बल्कि उस विचार की, जो कि जीवन के लिए पथ बनता है और मार्ग बनता है।
सृजनात्मक चिंतन, क्रिएटिव थिंकिंग होनी चाहिए। विचार तो केवल एक साधन है। और अगर उससे कुछ जीवन में सृजन न होता हो, तो व्यर्थ है, फिजूल है, कल्पना से ज्यादा नहीं है।
इन दो तथ्यों के संबंध में मैंने आपसे बात की। लेकिन ये दोनों तथ्य अधूरे हैं। जीवन के तथ्यों को जानना अधूरा है। केवल विचार करना अधूरा है। तीसरी बात पूरी हो, तो वे दोनों बातें भी सहयोगी हो जाती हैं, अन्यथा बाधा बन जाती हैं।
और वह तीसरी बात मुझे आज आपसे कहनी है। वह है अंतरात्मा के आमूल-परिवर्तन के सूत्र।
अंतरात्मा के आमूल-परिवर्तन के कौन से सूत्र हैं?
पहला सूत्र, पहली बात, मनुष्य अपनी अंतरात्मा से परिचित नहीं है। जिससे हम परिचित नहीं हैं, उसे हम बदलेंगे कैसे?
अंतरात्मा से परिचित कैसे हों?
हैरानी होगी यह बात जान कर कि एक बड़ा सरल सूत्र है, जो अंतरात्मा से परिचय में ले जाता है। जिससे व्यक्ति स्वयं को जान पाता है, पहचान पाता है, देख पाता है, खुद का दर्शन कर पाता है। और वह सूत्र है: मौन।
हम निरंतर अपने भीतर इतने ज्यादा व्यस्त हैं, इतने ज्यादा ऑक्युपाइड हैं, इतने ज्यादा उलझे हुए हैं, अपने भीतर निरंतर इतने काम में लगे हुए हैं कि उस उलझेपन के कारण, उस काम के कारण, वह जो हमारे भीतर है, उसे देखने का अवकाश हमें नहीं मिल पाता।
अगर एक आदमी के घर में आग लग गई हो और कोई जाकर उससे कहे कि तुम्हारे घर में आग लग गई है और वह बाजार से अपने घर की तरफ दौड़े, रास्ते पर मैं उसे मिल जाऊं और उसे नमस्कार करूं, क्या आप सोचते हैं, वह मुझे देख सकेगा और मेरे नमस्कार को सुन सकेगा? नहीं। और कल अगर मैं उससे पूछूं कि मैं राह पर तुम्हें मिला था और मैंने तुम्हें नमस्कार की थी, तुमने मुझे देखा था, नमस्कार का उत्तर तुमने नहीं दिया? वह कहेगा: उस वक्त मैं कुछ भी देखने में समर्थ न था, मन मेरा इतना अशांत और उलझा हुआ था।
भीतर जब मन उलझा हुआ होता है, तो उसके देखने की क्षमता कम हो जाती है। वह अपने से बाहर उठ ही नहीं पाता। अपने ही उलझाव में इतना लीन हो जाता है कि उस उलझाव के बाहर क्या है उसे दिखाई नहीं पड़ता।
हम सब बहुत उलझे हुए हैं। हम सब इतने ज्यादा व्यस्त हैं कि एक क्षण को भी चित्त के तल पर कोई विराम नहीं, कोई मौन नहीं, कोई विश्राम नहीं। फिर कैसे हो स्वयं का साक्षात?
स्वयं को देखने के लिए विश्राम करता हुआ चित्त चाहिए। और विश्राम चित्त करता है मौन, जब चुप हो जाता है तब।
हम तो कभी चुप नहीं होते। दिन भर किसी और से बात करते हैं, या फिर अपने भीतर बात करते हैं, या फिर रात आ जाती है तो सपने में बात करते हैं। और यह बात करना चलता रहता है। हाथ-पैर थक जाते हैं, रात सो जाते हैं; लेकिन केवल शरीर ही सोता है, मन काम करता रहता है। शरीर विश्राम कर लेता है, लेकिन मन विश्राम नहीं कर पाता। और मन धीरे-धीरे इतना व्यस्त, इतना उलझा हुआ हो जाता है कि फिर उस उलझाव के बाहर क्या है, उसे देखने की उसकी कोई क्षमता, कोई शक्ति नहीं रह जाती।
पहला सूत्र है इसलिए आत्म-परिवर्तन की दिशा में: मौन।
मौन की तरफ आंखें उठानीं, मौन की तरफ थोड़े से कदम उठाने।
कैसे उठाएंगे मौन की तरफ थोड़े से कदम?
अगर ध्यान में बात आ जाए तो बड़ी आसान है। इससे ज्यादा आसान और कोई बात नहीं है। चौबीस घंटे की दौड़ में थोड़े से क्षण, थोड़ी सी घड़ी इस बात के लिए खोजी जा सकती है, एक छोटा सा कोना इस बात के लिए खोजा जा सकता है, जहां मैं अपने मन को सब भांति शांति में और मौन में छोड़ दूं, जहां उसे साइलेंट हो जाने का एक अवसर और मौका दे दूं।
और मैं आपसे कहता हूं: मन शांत होना चाहता है, मन की पूरी आकांक्षा मौन में जाने की है। लेकिन आप उसे छोड़ते ही नहीं, दौड़ाए चले जाते हैं, दौड़ाए चले जाते हैं। आप कभी मौका नहीं देते कि उसे छोड़ दें और वह शांत हो जाए।
कौन दौड़ना चाहता है, दुनिया में कोई दौड़ना चाहता है? कौन भागना चाहता है, कोई भागना चाहता है? मन भी नहीं दौड़ना चाहता है और न भागना चाहता है। लेकिन हम मौका नहीं देते कि वह रुक जाए, ठहर जाए।
एक दफा काशी से एक कुत्ते ने दिल्ली की यात्रा की थी। दिल्ली की सभी लोग यात्रा करते हैं। उस कुत्ते को भी यह खयाल आ गया कि मैं दिल्ली जाऊं। वह सबसे पहला ही कुत्ता रहा होगा। अब तो मुल्क भर के कुत्तों को खयाल आता है कि वे दिल्ली जाएं। उसने काशी से दिल्ली की यात्रा की। कुत्तों के भूगोल में, बुजुर्गों से उसने जो सुना था, वह यह था कि काशी से दिल्ली जाते-जाते कम से कम एक महीना लग जाएगा। लेकिन वह सात दिन में ही दिल्ली पहुंच गया।
दिल्ली के कुत्ते भी हैरान हुए। और उन्होंने उस कुत्ते को पूछा: आश्चर्य है, बड़ा आश्चर्य है, महीने भर की यात्रा तुमने सात दिनों में पूरी कर ली?
वह कुत्ता बोला: मेरा तो मन होता था कि दो महीने और तीन महीने में करूं, लेकिन बीच में जो गांव पड़े उनके कुत्तों ने मुझे ठहरने नहीं दिया। एक गांव के कुत्ते मेरा पीछा छोड़ते थे तो दूसरे गांव के मेरे पीछे पड़ जाते थे। मुझे एक क्षण रुकने का मौका नहीं मिला। लेकिन आपको पता है, यात्रा तो सात दिन में पूरी हो गई, लेकिन इतनी बात कहते-कहते ही वह कुत्ता मर गया। दिल्ली के कुत्तों ने मिल कर उसकी कब्र बना दी है और उस पर पत्थर लगा दिया है और यह बात लिख दी है। अगर आप दिल्ली जाएं तो खोजने की कोशिश करना, कहीं न कहीं वह कब्र मिल जाएगी।
हम भी अपने मन के पीछे इसी भांति पड़े हुए हैं, जैसे उस काशी के कुत्ते के पीछे हर गांव के कुत्ते पड़ गए थे। उसे ठहरने का हम कोई मौका ही नहीं देते, हम कोई अवसर नहीं देते, हम कोई कोना नहीं देते कि वह ठहर जाए, रुक जाए, विश्राम कर ले। और तब, तब मन अगर थक जाता हो, टूट जाता हो, और तब उसी दिन रुक पाता हो जिस दिन कि मौत आ जाए, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। और इस बात को छिपाने के लिए कि हम मन को मौका नहीं देते हैं ठहरने का, हमने अजीब-अजीब सिद्धांत गढ़ लिए हैं। हमने यह गढ़ लिया है कि मन तो बहुत चंचल है, वह ठहरता ही नहीं।
झूठी है यह बात, सरासर झूठी है यह बात। मन तो बिलकुल अभी ठहर जाए, आपने उसे ठहराने का मौका और अवसर नहीं दिया। आप अवसर तो देते हैं दौड़ाने का और सोचते हैं ठहराने की बात। तब फिर आपके गणित में भूल है।
मैं आपसे निवेदन करता हूं: मन तो अभी इसी क्षण ठहर सकता है। मन तो आकुल होता है ठहरने को। लेकिन आप, आप उसे दौड़ाए चले जाते हैं। आप उसके लिए कोई मौका नहीं जुटाते। दौड़ने का मौका तो जुटाते हैं, लेकिन ठहरने का मौका नहीं जुटाते। क्या कभी आपने सोचा है इस संबंध में?
मुझे आश्चर्य होता है कि शायद ही आपने कभी सोचा हो--कि मैंने कोई मौका जुटाया है मन को ठहराने का, रुक जाने का? और जो आप करते हैं ठहराने की कोशिश, वह भी दौड़ाने की ही कोशिश है। कोई आदमी जाकर मंदिर में भगवान का नाम जपने लगता है, यह कोई ठहराने की कोशिश है? पागल है वह आदमी! क्योंकि भगवान का नाम जपना खुद एक तरह की दौड़ है। मन को फिर एक काम मिल गया। अब वह राम-राम जप रहा है, ओम-ओम जप रहा है, अल्लाह-अल्लाह जप रहा है, लेकिन काम फिर दे दिया आपने। आप काम देने से नहीं चूके। माला पकड़ा दी, अब वह माला के गुरिए फेर रहा है।
यह तो काम बदलना हुआ, काम बंद करना न हुआ। सब्स्टीट्यूट आपने फिर खोज लिया। मन फिल्मी गाने गा रहा था, आपने भजन पकड़ा दिया। अब वह भजन कह रहा है। आप समझ रहे हैं कोई फर्क हो गया? मन का काम जारी है, विश्राम उसे नहीं मिला।
मैं आपसे कहता हूं: फिल्मी गाने में मन पर जितना श्रम पड़ता है, भजन में उससे कम नहीं पड़ता। भजन भी एक ऑक्यूपेशन है, वह भी एक काम है, वह भी एक व्यस्तता है। मन उसमें भी खिंचता और तनता है और संलग्न होता है।
क्या मैं गांव की मधुशाला की तरफ दौड़ा हुआ जाऊं, तो मेरे पैरों को दूसरी तरह का श्रम पड़ेगा और मैं गांव के मंदिर की तरफ दौड़ा हुआ जाऊं, तो दूसरा श्रम पड़ेगा? मेरे पैर दोनों हालत में चलेंगे और थकेंगे। इससे फर्क नहीं पड़ता कि मैं कहां दौड़ रहा हूं। मैं दौड़ रहा हूं, यह सवाल है।
मन किसलिए दौड़ रहा है, यह सवाल नहीं है; मन दौड़ रहा है, यह सवाल है।
तो जो लोग कोशिश भी करते हुए मालूम पड़ते हैं, वे भी मन को मौका नहीं देते रुक जाने का। वे भी दौड़ने की नई तरकीब खोज लेते हैं। और मन दौड़ने से इतना ऊबा हुआ है कि वह नई दौड़ की बजाय अगर पुरानी दौड़ पसंद करता हो, तो इसमें भी कोई हैरानी की बात नहीं है। पुरानी दौड़ का वह अभ्यासी होता है, अभ्यस्त होता है। वह दौड़ उसे परिचित लगती है, वह रास्ता जाना-माना लगता है। उस पर जाने में उसे आसानी होती है। आप नई दौड़ दौड़ाना चाहते हैं, उसको परेशानी होती है। थोड़े दिन कोशिश करते जाइए, वह नई दौड़ भी दौड़ने लगेगा। लेकिन इससे वह मौन नहीं होगा, शांत नहीं होगा।
मन को मौका देना जरूरी है, बिलकुल सब तरह के काम से रिक्त होने का मौका देना जरूरी है। वैसी रिक्तता को ही मैं ध्यान कहता हूं। उसको ही मौन कहता हूं, वही साइलेंस है, जहां मन कुछ भी नहीं कर रहा है।
क्या करें? फिर भी आप यही पूछेंगे कि ऐसी स्थिति लाने के लिए क्या करें? क्योंकि हमारी भाषा इसको भी एक तरह का करना ही समझेगी।
जापान में एक बहुत बड़ा फकीर था। उसकी एक बहुत बड़ी मोनेस्ट्री थी, बड़ा आश्रम था। कोई पांच सौ भिक्षु उस आश्रम में थे। दूर, जंगल के दूर-दूर घेरे तक उसके आश्रम का फैलाव था। एक बहुत बड़ा विशाल भवन था। छोटी-छोटी कोठरियां थीं, जो दूर पहाड़ी में फैली हुई थीं। जापान का सम्राट उसके आश्रम को देखने गया। उस फकीर ने मीलों का चक्कर लगवाया उस सम्राट को। एक-एक कोठरी के बाबत समझाया कि यहां क्या होता है, यहां कौन रहता है। यह भोजनालय है, यह स्नानगृह है, यह यह है, यह यह है, पुस्तकालय है। सारी पहाड़ी पर घूम कर उसने बताया।
लेकिन बीच में बार-बार सम्राट पूछता था: यह तो मैं समझ गया, लेकिन बीच में यह जो बड़ा भवन बना है...?
वही भवन सबसे विशालकाय था। बाकी तो सब छोटी-छोटी झोपड़ियां थीं। वही भवन उत्तुंग था, दूर से उसका शिखर दिखाई पड़ता था। उसी को देखने वह सम्राट आया था। और इस फकीर की बातचीत से हैरान था। वह बार-बार पूछता था: समझ गया मैं कि यहां फकीर स्नान करते हैं, इसको मुझे क्या समझाना है। यह बीच के भवन में क्या होता है?
लेकिन फकीर बीच के भवन की बात जैसे सुनता ही नहीं था! आखिर पूरा आश्रम भी घूम लिया गया और सम्राट की विदाई का क्षण भी आ गया, लेकिन वह बड़े भवन की उसने कोई बात न कही। दरवाजे पर उस सम्राट ने कहा कि या तो मैं पागल हूं या तुम पागल हो! मैं जिस भवन को देखने आया था, उसको बिना देखे वापस लौट रहा हूं। और तुम जैसा आदमी मैंने कभी देखा नहीं। मैंने तीन-चार बार तुम्हें याद दिलाई कि इस भवन में क्या होता है? तुम जैसे बहरे हो जाते हो उस भवन की बात उठते ही, कुछ बोलते नहीं हो! और न मालूम कहां-कहां की फिजूल झोपड़ियां मुझे घुमाईं और दिखाईं, जिनसे कोई मतलब न था।
उस फकीर ने कहा: क्षमा करें, कुछ कठिनाई है इसलिए। उस भवन में हम कुछ भी नहीं करते हैं। वहां जाकर न करने की स्थिति में बैठ जाते हैं। आप पूछते हैं, वहां क्या करते हो? अब मैं क्या बताऊं कि क्या करते हैं? बाकी सब जगह तो हम कुछ करते हैं--कहीं खाना खाते हैं, कहीं स्नान करते हैं। कोई न कोई एक्शन वहां होता है। लेकिन वह जो भवन है, वह हमारे ध्यान का भवन है। वहां हम कुछ भी नहीं करते हैं। जब किसी को कुछ भी नहीं करना होता है, तो उस भवन में चला जाता है। और आप पूछते हैं, वहां क्या करते हो? अगर मैं कहूं कि ध्यान करते हैं, तो गलती हो जाएगी। क्योंकि करने का खयाल गलत है, वहां हम कुछ करते नहीं। असल में, जब हम कुछ भी नहीं करते हैं, उसी अवस्था का नाम ध्यान है। वही हम वहां करते हैं।
मौन या ध्यान का अर्थ है: थोड़े क्षणों के लिए कुछ भी न करने की अवस्था में छूट जाना।
लेकिन आप कहेंगे, मान भी लें कि हम एक कोने में, अंधेरे कोने में बैठ जाएं, आंख बंद कर लें, शरीर को निश्चेष्ट छोड़ दें, तो भी मन तो अपना काम किए ही चला जाएगा, उसे हम कैसे रोकेंगे?
रोकने की भूल मत करना। रोकने की भूल की, तो वह कभी भी नहीं रुकेगा। क्योंकि रोकना एक काम है। रोकना एक एफर्ट है। रोकना--फिर एक सब्स्टीट्यूट मिल गया, फिर वह एक काम शुरू हो गया कि मुझे रोकना है। रोकने से कभी कोई मन को न रोक पाएगा। बल्कि नियम तो यही है कि जितनी रोकने की आप कोशिश करेंगे, मन उतना ही गतिशील हो जाएगा।
क्यों ऐसा हो जाएगा?
अगर इस भवन के द्वार पर हम एक तख्ती लगा दें कि यहां झांकना मना है, फिर यहां से कोई आदमी ऐसा निकल सकता है जो बिना झांके निकल जाए? नहीं, इतना त्यागी और तपस्वी बंबई में खोजना कठिन है जो बिना झांके निकल जाए। और अगर कोई निकल भी गया, तो उसकी जिंदगी एक मुश्किल हो जाएगी। लौट-लौट कर मन इसी तख्ती पर अटका रहेगा कि न मालूम वहां क्या था। रात सोएगा तो सपने देखेगा इसी मकान के सामने खड़े होने के कि झांक कर देख लूं कि पता नहीं क्या है? फिर जिंदगी भर एक बेचैनी उसके भीतर सरकती रहेगी कि न मालूम वहां क्या था?
निषेध आकर्षण बन जाता है, इनकार आमंत्रण बन जाता है।
जो मन को रोकने की कोशिश करता है, वह मन को चलाने का काम शुरू कर देता है।
रोकना भी मत। फिर क्या करेंगे आप? आप कुछ भी न करना। और अगर मन चलता हो, तो चलने देना। चलने देना, आप कुछ भी मत करना।
हम एक साइकिल के चक्के को चला दें, फिर हम हाथ अलग कर लें, तो साइकिल का चाक उसी वक्त नहीं रुक जाएगा, मोमेंटम पकड़ लेगा, थोड़ी देर चलता रहेगा, हमारे हाथ अलग कर लेने के बाद भी। उसने गति पकड़ ली है। अब वह उतने चक्कर पूरे लेगा, जितनी शक्ति उसको चलने की मिल चुकी है।
तो मन भी आपके छोड़ देने से एकदम से न रुक जाएगा। उसका मोमेंटम है जिंदगी भर का। और जो लोग जानते हैं, वे कहते हैं, बहुत सी जिंदगियों का। उसमें गति है और शक्ति है बहुत चलाने की। वह आपने भर दी है। वह पूरा चक्कर लेगा। आप घबड़ाएं न, आप उसको चक्कर मारने दें। आप चुपचाप ऐसे बैठ जाएं, मन के किनारे पर, जैसे कोई नदी के किनारे पर बैठ गया हो। और नदी बही जा रही है और वह बैठा हुआ है। मन चले जा रहा है और वह चुचाप बैठा हुआ है। वह नहीं रोक रहा मन को--न चला रहा, न रोक रहा। मन चल रहा है, वह चुपचाप देख रहा है। वह सिर्फ साक्षी है, वह एक विटनेस है।
जैसे ही आप अपने मन के एक साक्षीमात्र रह जाएंगे, आप थोड़े ही दिनों मे पाएंगे कि मन ठहर गया है, मन रुक गया है, उसकी गति बंद है। और जिस क्षण मन की गति बंद है, उसी क्षण आपको मन के भीतर जो छिपा है, उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाएगी।
लेकिन माला फेरने से यह न होगा, और न भगवान का नाम जपने से यह होगा, न कोई मंत्र दोहराने से यह होगा, न मन को रोकने की कोशिश से यह होगा। मन को सब भांति छोड़ देने से और सिर्फ साक्षी रह जाने से यह होगा।
आप कहेंगे, साक्षी होना भी तो एक काम हो गया।
नहीं, साक्षी होना एक काम नहीं है, साक्षी होना हमारा स्वभाव है।
दिन भर हम जागे रहते हैं, देखते रहते हैं सड़क पर चलते लोगों को, रास्ते के किनारे लगे दरख्तों को, आकाश में उड़ते पक्षियों को, क्या देखने के लिए आप कोई कोशिश करते हैं? रात आप सो जाते हैं तो सपनों को देखते रहते हैं, देखने के लिए कोई कोशिश करते हैं? जब रात सपने भी नहीं होते और नींद इतनी गहरी होती है, तब भी सुबह आप उठ कर कहते हैं कि रात बड़ी गहरी नींद आई। जरूर किसी ने देखा होगा, नहीं तो यह आप कैसे कहते कि रात बड़ी गहरी नींद आई? उस गहरी नींद को भी कोई देखने वाला था। सपने होते हैं, उनको देखने वाला कोई है; सपने नहीं होते हैं, तो सुबह आप कहते हैं, आज रात सपने नहीं थे। यह बात भी देखी गई।
जीवन भर आदमी देखता रहता है। देखना, दर्शन या साक्षी होना उसका स्वभाव है। यह कोई काम नहीं, कोई एक्टिविटी नहीं।
इसलिए मन के किनारे बैठ कर सिर्फ देखते रह जाएं। एक कोना खोज लें घड़ी दो घड़ी को, आधा घड़ी को। सारी दुनिया को सब समय दे दें, आधी घड़ी अपने लिए बचा लें। और अंत में आप पाएंगे, वह आधी घड़ी ही असली बचाई हुई सिद्ध हुई, बाकी सारी घड़ियां खो गईं।
तेईस घंटे हम जो काम कर रहे हैं जिंदगी में, वह पानी पर खींची हुई लकीरों की भांति सिद्ध होता है अंत में। हम खींच भी नहीं पाते और लकीरें मिट जाती हैं। रेत पर बनाए हुए महलों की भांति सिद्ध होता है। हम बना भी नहीं पाते कि भवन गिर जाते हैं। ताश के महलों की भांति प्रमाणित होता है। एक जरा सा हवा का झोंका और सारे सपने धूल-धूसरित हो जाते हैं। लेकिन थोड़ा सा समय जो आदमी अपने लिए बचा लेता है और उसमें मौन हो जाता है और शांत हो जाता है, उन क्षणों में जो संपदा मिलती है, जो राज्य मिलता है, जो अनुभव मिलते हैं, वे जीवन की स्थायी निधि बन जाते हैं। वहीं है जीवन।
इसलिए पहला सूत्र है अंतरात्मा के परिवर्तन का: मौन।
जो चुप नहीं हो सकता, वह जीवन को कभी भी नहीं बदल सकता है। गहरी चुप्पी में ही, गहरे मौन में, गहरे साइलेंस में ही मनुष्य के भीतर क्रांति की, आत्म-परिवर्तन की क्षमता के दर्शन होते हैं। इतनी विराट शक्ति का अनुभव होता है कि कुछ भी बदला जा सकता है। इतनी बड़ी आग उपलब्ध हो जाती है कि कचरे को जलाया जा सकता है। उसके पहले तो जिंदगी में कोई क्रांति, कोई ट्रांसफार्मेशन नहीं हो सकता है।
इसलिए पहला ध्यान इस तरफ दें। चौबीस घंटे दौड़ते हैं, आधा घंटा न दौड़ें। चौबीस घंटे मन को काम में रखते हैं, आधा घंटा बेकाम छोड़ दें। चौबीस घंटे उलझे हुए हैं, आधा घंटे केवल साक्षी रह जाएं। यह तो पहला सूत्र है।
और आज तक जगत में जिन लोगों ने भी कुछ जाना है, इस सूत्र के बिना नहीं जाना है। जो भी सत्य, जो भी सौंदर्य, जो भी श्रेष्ठ अनुभूतियां उपलब्ध हुई हैं, वे मौन में, एकांत में, शांति में, ध्यान में उपलब्ध हुई हैं। तो जिसकी भी आकांक्षा है, जिसके प्राणों में भी प्यास है, उसे मौन की दिशा में कदम रखने होंगे। यह पहला सूत्र है।
दूसरा सूत्र भी इतना ही महत्वपूर्ण, इतना ही गहरा और इतना ही जरूरी है।
मन के तल पर चाहिए मौन।
हृदय के तल पर चाहिए प्रेम।
मन तो हो जाए चुप, शून्य और हृदय भर जाए प्रेम से, हो जाए पूर्ण। लेकिन हम प्रेम को भी जीवन में जीते नहीं। प्रेम भी हमारे जीवन में छिपा ही पड़ा रह जाता है, उसे हम कभी विकसित नहीं करते। प्रेम के बीज भी हमारे जीवन में कभी वृक्ष नहीं बन पाते। पता नहीं किस कारण इतनी बड़ी संपत्ति को पाकर भी हम दरिद्र रह जाते हैं। एक ही डर काम करता है, जिससे जीवन में प्रेम विकसित नहीं हो पाता। एक ही भूल काम करती है, वह भूल मैं आपको कहूं, तो शायद प्रेम के द्वार खुल सकते हैं।
और वह भूल यह है, उस आदमी के जीवन में प्रेम कभी विकसित न होगा, जो हमेशा दूसरों से प्रेम मांगता रहेगा। उसके जीवन में कभी प्रेम विकसित न होगा। जो प्रेम को मांगेगा, उसके भीतर प्रेम हमेशा बीज की भांति पड़ा रह जाएगा, प्रेम कभी विकसित न होगा।
और यह भी समझ लें, जिसके भीतर प्रेम विकसित न होगा, वह चाहे दर-दर भीख मांगता फिरे, उसे प्रेम मिल भी नहीं सकता। क्योंकि प्रेम मिलता है प्रेम देने से, मांगने से नहीं। और जितना वह प्रेम को मांगता फिरता है, उतना ही उसके भीतर प्रेम विकसित नहीं हो पाता, क्योंकि प्रेम विकसित होता है देने से। प्रेम दान से विकसित होता है। और अपने भीतर गठरियां बांध कर रख लेने से सड़ जाता है और नष्ट हो जाता है।
हम सब अपने-अपने प्रेम की गठरियां बांधे हुए हैं, तिजोड़ियां बंद किए हुए हैं। शायद हम समझते हों कि जिस भांति रुपयों पर लोहे की तिजोड़ियां लगानी पड़ती हैं तभी रुपया बचता है, इसी भांति प्रेम पर भी हम तिजोड़ियां बंद किए हुए हैं। हमको पता ही नहीं रुपये का कानून अलग है और प्रेम का कानून अलग है। रुपया बंद करने से सुरक्षित होता है, प्रेम बंद करने से मर जाता है। रुपयों को तिजोड़ी में बंद करने वाला अगर कहीं फूलों को ले जाकर तिजोड़ी में बंद कर दे तो क्या होगा? फूल मर जाएंगे। क्योंकि फूलों का नियम अलग है, रुपयों का नियम अलग है।
हम प्रेम के साथ भी संपत्ति जैसा व्यवहार करते हैं, इसलिए प्रेम विकसित नहीं हो पाता। बड़ा मजा यह है, प्रेम बांटने से विकसित होता है, लुटाने से विकसित होता है। जो जितने जोर से अपने भीतर से प्रेम उलीचता है, उतना ही उसका हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है, उतना ही भर जाता है। और हम सब बहुत कृपण और कंजूस हैं।
रुपये के संबंध में कोई कंजूस हो तो कोई हर्जा नहीं, लेकिन प्रेम के संबंध में कंजूसी आत्मघात सिद्ध होती है। प्रेम के संबंध में जो कृपण है, वही अधार्मिक है, उसी को मैं इररिलिजियस कहता हूं। और प्रेम के संबंध में जो मुक्तहस्त बांटने को उत्सुक है, वही धार्मिक है। प्रेम को जो उलीचता रहता है और बांटता रहता है, वही धार्मिक है।
एक छोटी सी कहानी कहूं।
एक सुबह एक भिक्षु अपने घर के बाहर निकला। सुबह हो गई थी। लोग उठने लगे होंगे। और आप जानते हैं भिखारी सुबह-सुबह ही भीख मांगने आ जाते हैं। सांझ को कोई भिखारी भीख मांगने नहीं आता। भिखारी भलीभांति जानते हैं, सुबह आदमी का दिल थोड़ा नरम होता है, सांझ कठोर हो जाता है। दिन भर, दिन भर क्रोध, श्रम, कमाना, रुपया, रुपया--सांझ तक हृदय पत्थर हो जाता है। रात थोड़ा सोता है, मौके-बेमौके मन थोड़ा शांत हो जाता है। सुबह भीख मिल सकती है, सांझ भीख नहीं मिल सकती। भिखारी बहुत पहले ही यह तरकीब समझ गए, इसलिए वे सुबह भीख मांगने आते हैं।
वह भी, सुबह हुई थी, अपनी झोली लेकर भीख मांगने निकल पड़ा। और चलते वक्त उसने चावल के थोड़े से दाने अपनी झोली में डाल लिए। क्योंकि भिखारी यह भी समझ गए हैं कि अगर अपनी झोली में थोड़े दाने न पड़े हों, तो जिसके द्वार पर भीख मांगने जाओ, बहुत संभावना है कि वह इनकार कर दे। लेकिन चावल पड़े हों झोली में, तो इनकार करने की संभावना थोड़ी कम हो जाती है। उस आदमी को लगता है, किसी और ने भी दिया है, इससे उसके अहंकार को चोट लगती है, मैं भी दूं। अगर झोली खाली लेकर कोई भिखारी पहुंच जाए, तो वह इनकार कर सकता है; पड़ोसी ने भी इनकार किया है। फिर कोई घबड़ाने की बात नहीं। क्योंकि आदमी इसलिए थोड़े ही देता है कि भिखारी को जरूरत है, आदमी इसलिए देता है ताकि पता चले कि मैं भी देने वाला हूं।
तो वह भिखारी अपनी झोली में थोड़े से चावल के दाने डाल कर चल पड़ा था। सभी समझदार भिखारी कुछ न कुछ घर से लेकर चलते हैं। इधर भी कोई मौजूद हो, और ऐसी भूल करता हो, तो कभी न करे। कुछ डाल कर ही चलना अच्छा है।
वह निकला ही था, राजपथ पर पहुंचा ही था, सूरज की पहली किरणें फूटनी शुरू हो गई थीं। एक तरफ सूरज था और दूसरी तरफ उतना ही चमकता हुआ स्वर्ण-रथ राजा का दिखाई पड़ा। वह तो आनंद से विभोर होकर नाचने लगा। वह भिखारी राजा के द्वार पर बहुत बार गया था, लेकिन संतरी बाहर से ही लौटा देते थे। राजा तक पहुंचना कभी न हो पाया था। गरीब-गरीब घरों से भिक्षा मिल गई थी, लेकिन राजा के घर से कभी कोई भिक्षा न मिली थी। क्योंकि संतरी भीतर ही न जाने देते थे। आज मौका मिल गया, शुभ अवसर, शुभ घड़ी, राजा खुद चला आता है रथ पर। आज तो रथ के सामने खड़ा हो जाऊंगा, सोचा उस भिखारी ने, फैला दूंगा अपनी बाहें और मांग लूंगा। आखिर राजा ही है, थोड़ा भी देगा तो मेरा तो जन्म-जन्म, मेरे तो बच्चों की पीढ़ियों तक पहुंच जाएगा। अब भिक्षा मांगने की कोई जरूरत न रहेगी।
वह इन सपनों में खोया खड़ा ही था कि रथ आकर रुक गया। और इसके पहले कि वह अपनी झोली फैलाता... राजा का स्वर्ण-रथ सूरज की किरणों में चमकता हुआ, राजा का तेजस्वी व्यक्तित्व... राजा नीचे उतर आया। भिक्षु तो हतप्रभ रह गया। भूल गया सब। झोली फैलाने की बात क्षण भर खयाल में न रही। और जब खयाल में आई तब तक समय बीत चुका था। उलटी ही बात हो गई थी। जिंदगी में ऐसे मजाक भी कभी-कभी हो जाते हैं। राजा ने खुद ही अपनी झोली उस भिक्षु के सामने फैला दी थी। और उस राजा ने कहा: मैं भिक्षा मांगने ही आज निकला हूं। मेरे राज्य पर पड़ोसी राज्य के हमले का डर है, बादल घिरे हैं युद्ध के। और ज्योतिषियों ने कहा है कि अगर मैं इतना दीन-हीन हो जाऊं कि आज जाकर नगर में जो भी पहला व्यक्ति मुझे मिले उससे भिक्षा मांग लूं, तो शायद युद्ध में मेरी विजय हो सकती है। ज्योतिषियों ने कहा है, अहंकार युद्ध में हरा देगा। अगर मैं विनम्र हो जाऊं और भीख मांग लूं, तो शायद जीत भी सकता हूं। इसलिए मैं भीख मांगने आया। और तुम ही मुझे पहले व्यक्ति मिले हो, और शुभ है यह कि एक भिखारी से मैं भिक्षा मांग लूं।
भिखारी पर क्या गुजरी होगी, यह आप सोच सकते हैं। कैसी मुसीबत का क्षण आ गया। जीवन भर उसने मांगा था और दिया तो कभी भी न था, देने की कोई आदत ही न थी, कोई खयाल ही न था। हाथों को देने का कोई अभ्यास न था, मन को देने का विचार भी कभी नहीं आया था। लेना और लेना और लेना! डर गया। लेकिन और कोई होता तो इनकार भी कर देता, राजा को इनकार कैसे करे?
सपने तो खो ही गए। जो राजा से मिलने की कल्पनाएं थीं, वे तो धूल में गिर गईं। और पास जो थोड़े से चावल के दाने थे, उनके जाने का डर पैदा हो गया था। राजा ने कहा: जल्दी करो। झोली में हाथ डाला, चावल पर मुट्ठी बांधता था, मुट्ठी खुल-खुल जाती थी। इतने चावल दे दें! अपनी गांठ से कभी दिया न था। राजा ने कहा: जल्दी करो, कुछ भी दे दो। और तब उसने मुट्ठी बाहर निकाली, बड़ी मुश्किल से एक चावल का दाना वह मुट्ठी में बांध कर ला पाया था--धड़कते हृदय से, घबड़ाते मन से। पसीना-पसीना हो गया था वह भिक्षु। उसने एक चावल का दाना उसकी झोली में डाल दिया। श्वास जैसे रुकी रह गई। राजा तो रथ पर बैठा और चल पड़ा, धूल के बादल उड़ते पीछे रह गए और खड़ा रह गया भिखारी। आंखों में आंसू आ गए। एक चावल का दाना अपने ही हाथ से खो दिया था।
फिर दिन भर उसने भिक्षा मांगी। आश्चर्य की बात थी, उस दिन उसकी पूरी झोली भर गई, जो कभी भी न भरी थी। लेकिन चित्त उदास था, आंखें भारी थीं, पैर ढीले थे। दुख उस दाने का था, जो दिया था। जो मिला था, उसकी कोई खुशी न थी। किसको होती है? जो मिलता है, उसकी खुशी किसको होती है? किसी को भी नहीं। जो खो जाता है, उसका दुख जरूर होता है।
उस भिखारी पर हंसें मत। बहुत थोड़े से लोग हैं, जो इसमें हंसने के हकदार हैं। क्योंकि अधिकतर लोग उसी हालत में हैं, जिसमें वह था। जो मिलता है, उससे किसको खुशी होती है? लेकिन जो खो जाता है, उससे दुख जरूर होता है। जो आपके पास है, उससे आपको कब खुशी हुई है? लेकिन जो आपके पास नहीं है, उससे दुख जरूर हुआ है। वह भिखारी भी एक सामान्य आदमी था।
रोते मन से घर लौटा। पत्नी ने देखा कि झोली भरी है, तो खुश हो गई। उसने कहा कि आज तो भाग्य खुल गए, इतना तो कभी मिला न था!
उसने कहा: पागल है तू, झोली थोड़ी खाली है। एक दाना इसमें नहीं है, जो होता, जो हो सकता था। अगर मैं थोड़ा ही कठोर होता तो आज एक दाना ज्यादा हो सकता था हमारे पास। आज हम दरिद्र हैं उस लिहाज से जितने कि हम हो सकते थे समृद्ध।
पत्नी तो कुछ समझी नहीं। उसने झोली उलटाई। अब तक तो उदास था, झोली उलटाते ही छाती पीट कर रोने लगा। झोली उलटाते ही जो दाने नीचे गिरे, उनमें एक चावल का दाना सोने का हो गया था। तब वह रोने लगा कि मैंने सारे दाने क्यों न दे दिए, वे सब सोने के हो जाते!
मुझे पता नहीं है यह कहानी सच है या झूठ। जरूरत भी नहीं है इस बात के पता लगाने की। लेकिन जिंदगी में जो भी खोजेगा, वह पाएगा कि यह कहानी सच है।
जिंदगी में जो दिया जाता है, वह सोने का हो जाता है।
जिंदगी में जितना हम प्रेम बांटते हैं, उतना ही जीवन स्वर्णिम होता चला जाता है। जीवन में जो हम रोक लेते हैं, वही मिट्टी हो जाता है। जो बांट देते हैं, वह स्वर्ण हो जाता है। धन्य हैं वे लोग, जो अपने पूरे जीवन को बांटने में समर्थ हो जाते हैं। उनका पूरा जीवन ही स्वर्णिम हो जाता है।
जीवन की कीमिया बदलने की केमिस्ट्री का दूसरा फार्मूला, दूसरा सूत्र है: प्रेम।
और प्रेम का अर्थ है देना।
और प्रेम का अर्थ है मांगना नहीं।
जो प्रेम देगा, वह रोज-रोज पाएगा कि उसके भीतर तो जैसे और झरने फूटने लगे हैं, और नया-नया उसके जीवन में रस आने लगा, और उसके भीतर प्रेम के नये-नये स्रोत आ गए हैं। और तब उसका हृदय परिवर्तित होना शुरू होता है।
लेकिन हम सब मांगते हैं। हम सब हाथ जोड़े खड़े हैं एक-दूसरे के द्वार पर--प्रेम दो! पत्नी पति से मांगती है, प्रेम दो! पत्नी पति से मांगती है, पति पत्नी से मांग रहा है, प्रेम दो! बच्चे मां-बाप से मांग रहे हैं, मां-बाप बच्चों से मांग रहे हैं; विद्यार्थी शिक्षक से मांग रहे हैं, शिक्षक विद्यार्थियों से मांग रहे हैं। हर आदमी एक-दूसरे से मांग रहा है, प्रेम दो! और किसी को भी यह खयाल नहीं है कि प्रेम मांगने की बात नहीं, देने की बात है। दें, और पाएंगे कि प्रेम आना शुरू हो गया है। मांगें, और पाएंगे कि प्रेम के आने के सब द्वार बंद हैं।
पहला सूत्र है: मौन।
दूसरा सूत्र है: प्रेम।
ऐसे जीएं प्रतिपल, प्रतिक्षण, जैसे जीवन प्रेम को लुटाने की एक प्रक्रिया हो।
ब्लावट्‌स्की हिंदुस्तान आई। सारी जमीन के हर मुल्कों में गई। जगह-जगह लोगों ने देखा, उसमें एक अजीब आदत थी। एक झोला हमेशा अपने कंधे पर टांगे रहती। बस में बैठी होती, ट्रेन में बैठी होती, तो झोले में हाथ डालती और कोई चीज बाहर फेंकती जाती। जगह-जगह जमीन पर, हर जगह लोगों ने उससे पूछा: क्या है इस झोले में? क्या फेंकती रहती हो? लोग झोला छीन कर देखते। उसमें वह फूलों के बीज लिए रहती थी। ट्रेन में बैठी है, सड़क के किनारे फूलों के बीज फेंक रही है। कोई पूछता कि तुम पागल हो! क्या पता कि इन बीजों में से कभी फूल निकलेंगे?
वह कहती: इसकी चिंता तुम मत करो, इसकी चिंता परमेश्वर करता है। बीज है, तो फूल निकल सकता है।
और लोग कहते कि कौन जानता है कि तुम दुबारा इस रास्ते से निकलोगी भी जो अपने फूलों को देख सको?
वह कहती: इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई तो उन फूलों को देखेगा, कोई तो उन फूलों से खुश होगा। यह कल्पना करके भी मेरा हृदय आनंदित हो उठता है। मैं वे फूल भी देख लेती हूं, जो खिलेंगे और वे आखें भी देख लेती हूं, जो उनको देख कर खुश होंगी। और मेरा जीवन, और मेरा जीवन इन फूलों को बांटते-बांटते ही इतनी खुशी से भर गया, इतनी सुगंध से, जिसका कोई हिसाब नहीं।
नहीं मैं आपसे कह रहा हूं कि आप भी कल से झोले लटका लें और फूलों के बीज फेंकने लगें। नहीं, बंबई की सड़कें बहुत सख्त हैं, यहां बीजों से फूल आना मुश्किल है, पैदा नहीं होंगे। जहां आदमी का दिल सख्त हो जाता है, वहां सड़कें भी सख्त हो जाती हैं। यहां बहुत मुश्किल है।
लेकिन आदमी का मन इतना सख्त कभी नहीं होता कि उससे प्रेम के बीज न फेंके जा सकें। और दुनिया के किसी नगर की सड़कें इतनी सख्त नहीं हो सकतीं कि प्रेम के बीजों पर फूल न आएं। वे जरूर आ जाएंगे। झोला मत लटकाएं। लेकिन हृदय के झोले से प्रेम के फूल जितने फेंक सकें, जितने बीज फेंक सकें, फेंके। और कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता।
अंग्रेजी में एक कहावत है: ‘इट कॉस्ट्‌स नथिंग टु बी काइंड, टु बी लविंग। नहीं कोई खर्च करना पड़ता प्रेमपूर्ण होने के लिए, दयापूर्ण होने के लिए कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता।’ और तो कुछ भी बांटेंगे, तो कुछ खर्च होगा। और प्रेम बांटने में, कुछ भी खर्च नहीं करना होता। और जो मिलता है, वह इतना अमूल्य है कि उसका कोई हिसाब नहीं हो सकता। उठते-बैठते, चलते-बोलते, जैसे चौबीस घंटे जीवन एक प्रेम का विस्तार हो। ऐसा जो आदमी जीने लगता है, वह आदमी धार्मिक है, वह आदमी मंदिर में है, वह आदमी परमात्मा के निकट है, वह प्रार्थना कर रहा है।
लेकिन हम तो किसी से मिलते हैं तो ऐसे जैसे शत्रु से मिलते हों। लेकिन हम तो किसी को देखते हैं तो ऐसे जैसे दुश्मनों को देखा जाता है। हम तो किसी मित्र से भी हाथ मिलाते हैं तो ऐसे जैसे दो मुर्दा आदमी हाथ मिलाते हैं। कोई प्रेम नहीं होता, कोई लहर नहीं होती, भीतर कोई पुलक नहीं होती, हृदय कहीं मिलने को आतुर नहीं होता, कोई आलिंगन नहीं होता। उन हाथों में, उन आंखों में दूसरे के प्राणों तक पहुंचने का कोई स्पर्श, कोई कामना नहीं होती।
कभी देखें किसी की आंख में प्रेम से भर कर, तो लगेगा कि भीतर कोई दो प्राण स्पर्श हो गए। कभी किसी के हाथ पर हाथ रख कर देखें और बहने दें प्राणों के प्रेम को, तो पता चलेगा, जैसे कोई विद्युत दौड़ गई। और जिंदगी चौबीस घंटे मौका देती है कि प्रेमपूर्ण हो जाओ। और हम कठोर, कृपण बने रह जाते हैं। फिर हम मंदिरों में पूजा करते हैं, और फिर हम शास्त्र पढ़ते हैं, और फिर हम सत्संग करते हैं। दो कौड़ी के हैं सब सत्संग और सब मंदिर और सब पूजा।
जिस आदमी के हृदय में प्रेम नहीं, उस आदमी के जीवन में परमात्मा तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं, कोई द्वार नहीं।
प्रेम से भर कर जीएं, श्वास-श्वास प्रेम बन जाए, तो जरूर ही जीवन बदल जाएगा और एक नये आदमी का जन्म हो जाएगा। यह दूसरा सूत्र है।
और तीसरा अंतिम सूत्र:...
पहला सूत्र है: मौन से भरा हुआ मन।
दूसरा सूत्र है: प्रेम से भरा हुआ हृदय।
और तीसरा सूत्र है: अहंकार से शून्य व्यक्तित्व।
हम सब जीते हैं ‘मैं’ के केंद्र पर, ईगो। हम सब जीते हैं--‘मैं।’ इस केंद्र पर सारा जीवन हम बुनते हैं। और यह केंद्र इतना झूठा है, कि इस केंद्र पर बुना गया जीवन अगर बाद में एक सपना सिद्ध हो जाता है तो कोई आश्चर्य नहीं है। यह ‘मैं’ कहीं है ही नहीं। यह ‘मैं’ सबसे बड़ा झूठ जगत में है। और इसी पर हम जीते हैं, इसी पर हम चलते हैं, इसी पर श्रम और मेहनत करते हैं।
पूछें किसी आदमी से: किसलिए जी रहा है? किसलिए कर रहा है? किसलिए चल रहा है? तो पता चलेगा, अपने ‘मैं’ को परिपुष्ट करने को। एक यात्रा चल रही है निरंतर। और यह ‘मैं’ इतनी झूठी बात है, जिसका कोई हिसाब नहीं।
एक संन्यासी हिंदुस्तान से, कोई चौदह सौ वर्ष हुए, चीन गया। चीन का बादशाह उसके पास आया। और उस बादशाह ने कहा: मैंने सब भांति ‘मैं’ को भरने के उपाय कर लिए। जितनी दूर तक जमीन दिखाई पड़ती थी मुझे, मैंने उसे जीत लिया। मेरा राज्य दूर सीमाओं तक पहुंच गया है। लेकिन मेरे ‘मैं’ की कोई तृप्ति न हुई, मेरा अहंकार न भरा। और जब मैं बूढ़ा होने लगा और घबड़ा गया कि इस अहंकार को तो भरता हुआ नहीं पाता हूं। तो मैंने साधुओं की, बुजुर्गों की सलाह ली। उन्होंने कहा: सब त्याग कर दो। तो मैंने सब त्याग करके भी देख लिया। लेकिन मेरा अहंकार अब भी वहीं का वहीं खड़ा है। मैं निराश हो गया हूं, क्या करूं? किसी ने मुझे कहा कि तुम यहां आते हो, तुम्हारे पास जाऊं।
उस फकीर ने कहा: अभी लौट जाओ। सुबह चार बजे आ जाना। और या तो कल तुम रहोगे या तुम्हारा अहंकार रहेगा। दो में से एक को मैं खत्म कर दूंगा।
उस फकीर की बात तो बड़ी अजीब थी। लेकिन फकीर अक्सर अजीब होते रहे हैं। उस राजा ने सोचा कोई बात नहीं। कहा कि मैं चार बजे आ जाऊंगा। क्या आप विश्वास दिलाते हैं कि मेरे अहंकार को समाप्त कर देंगे?
उस फकीर ने कहा: निश्चित। लेकिन एक बात खयाल में रहे, अहंकार को साथ ले आना, घर मत छोड़ आना। नहीं तो मैं खत्म क्या करूंगा?
राजा को पक्का हो गया कि यह आदमी पागल है। अहंकार भी कहीं कोई घर छोड़ कर आ सकता है? वह तो प्राणों में गुथा है। उसे छोड़ने का उपाय ही अगर होता, तो राजा कभी का छोड़ आता। सब उपाय कर चुका था, वह तो छूटता न था और यह पागल कहता है कि छोड़ कर मत आ जाना!
लेकिन चार बजे वह आया। अंधेरी रात, वह फकीर अपने डंडे को लेकर मौजूद था। राजा डरा भी। यह आदमी पागल है। अंधेरी रात, अकेली पहाड़ी, डंडा लिए हुए है, यह क्या करना चाहता है, इरादे क्या हैं? इसकी नियत, नियत क्या है?
उस फकीर ने कहा: ले आए अपने अहंकार को?
राजा ने कहा: आप अजीब बातें कर रहे हैं। अहंकार तो मेरे भीतर बैठा हुआ है, मैं उसे छोड़ कर कहां आ सकता हूं?
उस फकीर ने कहा: तब ठीक है। तुमने कभी भीतर खोजा है? कि बिना खोजे कह रहे हो भीतर अहंकार बैठा हुआ है। कोई हर्ज नहीं, तो तुम ले तो आए हो, भीतर ही सही। बैठ जाओ आंख बंद करके और खोजो भीतर कहां है? मैं डंडा लिए बाहर मौजूद हूं। जैसे ही मिले, मुझे खबर करना।
उस राजा ने आंख बंद की। अंधेरी रात, सन्नाटा पहाड़ी का, वह पागल फकीर सामने डंडा लिए हुए है। और वह राजा भीतर खोजने लगा, कोने-कातर मन के झांकने लगा, भीतर यात्रा करने लगा, कहां है यह ‘मैं?’ आधी घड़ी बीत गई। फकीर ने उसे हिलाया कि सो तो नहीं गए हो, खोज रहे हो न?
उस राजा ने कहा: तुम्हारे डंडे के कारण सो तो नहीं सकूंगा। और खोज भी रहा हूं। और बड़ी हैरानी की बात है कि मैं सब तरफ देख रहा हूं, वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता है।
उस फकीर ने कहा: एक बार और देख लो, किसी कोने में कहीं छिपा हो?
राजा ने फिर आंख बंद की और खोजा। और वह राजा जो बहुत तनाव से भरा हुआ आया था। सुबह सूरज की किरणें फूटने लगीं और वह आंख बंद किए बैठा है। उसके चेहरे का सारा तनाव विलीन हो गया है। उसका चेहरा जैसे एक शांत मूर्ति बन गया है। जैसे एक निर्मल झील बन गया है। जैसे भीतर कोई चीज विलीन हो गई है और उसकी खबर चेहरे तक आ गई है।
उस फकीर ने उसे फिर पूछा कि मेरे मित्र, मिला?
वह राजा हंसने लगा। उसने फकीर के पैर छुए और कहा: मैं जाता हूं, वह नहीं मिला। और मैं जान गया कि वह नहीं है। मैंने खोजा न था भीतर आज तक, इसलिए वह था। मैंने खोजा, और वह नहीं है।
अहंकार अंधकार की भांति है। अगर दीया लेकर चले जाएं खोजने, तो वह कहीं न मिलेगा।
मैंने सुना है कि एक बार अंधकार ने भगवान से शिकायत कर दी थी कि सूरज मेरे पीछे बहुत बुरी तरह पड़ा हुआ है। सुबह से मेरा पीछा करता है, अकारण। कोई झगड़ा नहीं, कोई मनमुटाव नहीं, कभी कोई बातचीत नहीं हुई उससे। सुबह से मेरे पीछे पड़ता है, सांझ तक खदेड़ता है। मैं थक मरता हूं, परेशान हो जाता हूं। रात विश्राम भी नहीं कर पाता कि यह बेईमान फिर सुबह से खड़ा हो जाता है। और मेरी समझ में नहीं आता कि कहां जाऊं, किससे शिकायत करूं? तो भगवान से उसने जाकर कहा कि कुछ समझाएं इस सूरज को। यह कब तक चलेगा? यह बहुत दिन से चल रहा है। और मैं घबड़ा गया हूं। दुश्मनी भी होती तो एक बात थी।
भगवान ने सूरज को बुलाया, कहते हैं। भगवान पर ऐसी मुसीबतें आती रहती होंगी। इतना उपद्रव बना दिया है, मुसीबत आनी स्वाभाविक है। सूरज को बुलाया और उससे कहा कि क्यों यह नासमझी करते हो? अंधेरे ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? क्यों उसका पीछा करते हो? क्यों उसे परेशान किए हुए हो? तुम भी रहो, उसे भी रहने दो। को-एक्झिस्टेंस में क्या बुराई है? कोई बुराई है क्या? दुनिया के सब राजनीतिज्ञ को-एक्झिस्टेंस की बातें करते हैं। सब साथ-साथ रहो। हर्जा क्या है, तुम भी साथ-साथ रहो। हिंदू-मुसलमान साथ-साथ रहते हैं। कम्युनिस्ट रूस और कैपिटलिस्ट अमरीका साथ-साथ रहते हैं। और शूद्र और ब्राह्मण साथ-साथ रहते हैं। तो तुममें कौन सा झगड़ा है? न तुम मुसलमान हो, न हिंदू हो, न कम्युनिस्ट हो, न कैपिटलिस्ट हो। साथ-साथ रह सकते हो। को-एक्झिस्टेंस में कोई बुराई नहीं है।
सूरज भौचक्का खड़ा रहा! और उसने कहा कि मैं समझ नहीं पाता, कौन है यह अंधकार? कहां है यह? मेरा आज तक उससे कोई मिलना नहीं हुआ। मैं उसे क्यों सताऊंगा? मेरी मुलाकात भी नहीं है। झगड़े की तो बात दूर, मेरी दोस्ती भी नहीं है। दोस्ती न हो तो झगड़ा भी नहीं हो सकता। उसने कहा: आप कृपा करें और उसे मेरे सामने बुला दें, मैं माफी मांग लूं। भूल-चूक में कोई गलती हो गई हो। और आइंदा के लिए खयाल रखूं, उसके पीछे न जाऊं।
इस बात को हुए भी कई हजार साल हो गए। भगवान तब से कोशिश में लगा है कि अंधेरे को सूरज के सामने ले आए। अब तक ला नहीं पाया। और मैं आपको कह देता हूं, कितना ही सर्वशक्तिमान हो, कभी भी न ला पाएगा। यह मामला फाइल में ही पड़ा रहेगा। यह मुकदमा निपट नहीं सकता। इसके निपटने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि सूरज, जब तक सामने न आए अंधकार, तब तक मानने को राजी नहीं है शिकायत को।
अंधकार कैसे सूरज के सामने लाया जाए? नहीं लाया जा सकता। क्यों, कभी सोचा? रोज हम देखते हैं कि घर में दीया जलता है और अंधेरा विलीन हो जाता है। कभी सोचा, क्यों? नहीं, सोच-विचार तो हम करते ही नहीं, इसलिए काहे को सोचा होगा।
अंधकार अगर घर में लाना हो, तो कहीं से पोटलियां बांध कर आप ला सकते हैं? कि अगर दुश्मन के घर में अंधकार डालना हो, तो पेटियों में बंद करके अंधकार ला सकते हैं दुश्मन के घर में छोड़ने को? नहीं। घर में अंधकार हो और निकालना हो, निकाल सकते हैं? नहीं।
अंधकार है ही नहीं, इसलिए न उसे लाया जा सकता है और न निकाला जा सकता है। अंधकार की अपनी कोई सत्ता नहीं है। अंधकार सिर्फ प्रकाश का अभाव है, प्रकाश की गैर-मौजूदगी, प्रकाश की एब्सेंस। अंधकार किसी चीज की प्रेजेंस नहीं है, किसी चीज की उपस्थिति नहीं है, किसी चीज की अनुपस्थिति है। इसलिए अंधकार के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। लेकिन दीया जलाओ और वह नहीं है; क्योंकि वह दीये की गैर-मौजूदगी थी।
अहंकार भी अंधकार की भांति है। और तब तक है, जब तक हम भीतर जागरण का दीया नहीं जलाते। और जिस दिन हम भीतर जाग कर खोजने जाएंगे, उस दिन वह नहीं पाया जाएगा।
तीसरा सूत्र है: अहंकार-शून्य व्यक्तित्व की उपलब्धि।
कैसे होगी यह?
घर-द्वार छोड़ने से?
नहीं होगी। घर-द्वार छोड़ने से यह अहंकार और पैदा हो जाएगा कि मैं त्यागी हूं।
धन छोड़ने से?
नहीं होगी यह। धन छोड़ने से और खयाल हो जाएगा कि मैंने, मैंने इतने धन पर लात मार दी।
वस्त्र छोड़ कर नग्न खड़े हो जाने से?
नहीं छूटेगा यह। वस्त्रों का अपना अहंकार होता है, नग्नता का अपना अहंकार होता है। बच नहीं सकते इससे इस तरह। इससे मुक्त होने का एक ही उपाय है कि भीतर जाएं और खोजें।
और मैंने जो पहले दो सूत्र कहे हैं, जो उन दो सूत्रों पर काम करेगा, उसे भीतर जाकर खोजना एकदम आसान हो जाएगा। खयाल करें फिर से लौट कर। जो आदमी मौन हो जाएगा, वह भीतर खोज सकता है। और जो आदमी प्रेम से भर जाएगा, उसके अहंकार की तो वैसे ही मृत्यु हो जाती है; क्योंकि प्रेम दान करने में अहंकार विसर्जित हो जाता है।
हम प्रेम तभी कर सकते हैं, जब हम अहंकार से भरे हुए न हों। जब मैं अपने ‘मैं’ से बहुत भरा होता हूं, तो कैसे प्रेम करूंगा? वही मेरा ‘मैं’ तो लोहे की दीवाल है, तिजोड़ी है, जिसमें मैं अपने प्रेम को बंद करता हूं। जब मुझे अपने प्रेम को फैलाना पड़ेगा, तो मुझे अपने अहंकार की दीवाल तोड़ कर बहना पड़ेगा।
तो पहले दो सूत्र--मौन और प्रेम--को जो जीवन में साधेगा, तीसरा सूत्र बहुत आसान हो जाएगा। वह अपने भीतर जाकर खोज सकता है और देख सकता है कि वहां कोई अहंकार नहीं है। और जहां अहंकार नहीं है, जिस क्षण चित्त मौन है, प्रेम से परिपूर्ण है और अहंकार से शून्य है, वही क्षण परमात्मा की उपलब्धि का क्षण बन जाता है। वही सत्य की उपलब्धि का क्षण बन जाता है। वही सत्य जीवन की क्रांति का सूत्र हो जाता है, आधार हो जाता है।
जीवन को बदलना है, तो इन तीन सूत्रों पर जीवन को गतिमय करना होता है।
मेरे कहने से नहीं कोई जीवन को गतिमय करेगा, और न करना चाहिए। लेकिन सोचना, विचार करना, थोड़ा प्रयोग करके देखना। हो सकता है, हो सकता है कि साधारण सी दिखती देह के भीतर, इस साधारण से पार्थिव शरीर के भीतर वह ज्योति जग जाए जो परमात्मा की है।
अगर एक मनुष्य के भीतर भी कभी वह ज्योति जगी है, तो हर, हर मनुष्य, हर पीढ़ी में, हर सदी में हकदार हो गया है उसको पाने का। अगर एक बीज से भी पौधा निकला है और फूल आए हैं, तो सब बीज हकदार हो गए उसे पाने के। हम सबके भीतर परमात्मा मौजूद है। काश, हम उसे विकसित कर पाएं, देख पाएं, जान पाएं, तो जीवन धन्य हो जाता है और कृतार्थ हो जाता है।
परमात्मा ऐसी धन्यता सभी को दे, इसकी अंत में प्रार्थना करता हूं।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, इतने मौन से, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में पुनः सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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