QUESTION & ANSWER
Jeevan Darshan 04
Fourth Discourse from the series of 7 discourses - Jeevan Darshan by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
बहुत से प्रश्न मेरे सामने हैं। सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सभी के उत्तर तो आज संभव नहीं हो पाएंगे। कुछ शेष रह जाएंगे, जिन पर कल सुबह मैं आपसे बात करूंगा।
सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि परमात्मा की अनुभूति, उसका प्रसाद, उसका आनंद किन्हीं-किन्हीं क्षणों में अचानक मिल जाता है और फिर, फिर खो जाता है। फिर बहुत प्रयास करने पर भी वह झलक दिखाई नहीं पड़ती। तो हम क्या करें?
मनुष्य के जीवन में निश्चित ही कभी-कभी अनायास ही कोई आनंद का स्रोत खुल जाता है, कोई अंतर्नाद सुनाई पड़ने लगता है, कोई स्वर-संगीत प्राणों को घेर लेता है। सभी के जीवन में ऐसे कुछ क्षण स्मृति में होंगे। फिर हमारा मन करता है उस अनुभूति को और पाने के लिए। और तब, तब जैसे उस अनुभूति के द्वार बंद हो जाते हैं।
इसमें दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
एक तो, जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है और श्रेष्ठ है, वह कभी मनुष्य के प्रयास से नहीं उपलब्ध होता है। मनुष्य बहुत क्षुद्र और छोटा है। उसकी सीमाएं हैं। और आनंद की कोई सीमा नहीं है। जब मनुष्य अनुपस्थित होता है, तभी वे आनंद के द्वार खुलते हैं। और जब मनुष्य बहुत प्रयास करके उपस्थित हो जाता है, तब वे द्वार बंद हो जाते हैं।
परमात्मा को आज तक किसी ने प्रयास से नहीं पाया है। अप्रयास से ही। एफर्ट से नहीं, एफर्टलेसनेस में ही उसकी प्रतीति और अनुभव होता है।
मैं किसी को प्रेम दूं, और अगर प्रयास से दूं, तो वह प्रेम झूठा हो जाता है। वह अप्रयास से बहे, सहज, तो ही सत्य होगा। जीवन में जो भी सत्य है, सुंदर है वह मनुष्य के प्रयास से पैदा नहीं होता।
तो अनायास तो अनुभूति मिलती है, फिर हम प्रयास करके जब उसे लाना चाहते हैं, वह छूट जाती है।
एक छोटी सी घटना कहूं, उससे शायद मेरी बात खयाल में आए।
एक ईसाई फकीर हुआ, अगस्तीन। तीस वर्षों से निरंतर प्रयास करता था परमात्मा की झलक पाने के लिए। कोई कोर-कसर न छोड़ी थी अपने प्रयास में। तीस वर्ष आंखें आंसू बहा-बहा कर भीग गई थीं। रात और दिन नहीं जानी थी, सोया नहीं था, भोजन नहीं किया था। उसकी ही आकांक्षा में, उसकी ही प्यास में, उसकी ही प्रार्थना में दिन और रात बिताए थे। सूख कर हड्डी हो गया था। लेकिन उसकी कोई झलक का पता न था। बल्कि जितने उसने प्रयास किए थे, जैसे वह उतने ही दूर होता चला गया था। वह दूर होता चला गया था, उसके प्रयास तीव्र होते चले गए थे। जितने प्रयास तीव्र होते गए, उतना वह और दूर होता चला गया।
एक दिन सुबह रात भर रोने के बाद उठा था वह और समुद्र के किनारे घूमने निकल गया था। कोई भी न था समुद्र के तट पर। अभी सूरज भी उगने को था। अचानक उसने देखा कि एक पत्थर के पास एक छोटा सा बच्चा खड़ा है। उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। वह खुद भी रात भर रोता रहा था। यह छोटा सा बच्चा समुद्र के किनारे आंखों में आंसू लिए क्यों खड़ा है यहां? कोई उसके साथ न था। अगस्तीन उसके पास गया और कहा: मेरे बेटे, क्यों रोते हो? क्या हो गया तुम्हें? और अकेले कैसे आए समुद्र-तट पर?
उस बच्चे ने कहा: रोने का कारण है। एक छोटी सी प्याली वह हाथ में लिए था। और उसने कहा: इस प्याली में मैं सागर को भरना चाहता हूं, सागर भरता नहीं है। इसलिए रोता हूं! क्या करूं न रोऊं तो? सागर को भर कर घर ले जाने का मन है मेरा। लेकिन सागर भरता नहीं है। प्याली छोटी पड़ जाती है।
उस बच्चे का यह कहना जैसे अगस्तीन के लिए परमात्मा की ध्वनि हो गई। वह खूब जोर से हंसने लगा। और उस बच्चे से बोला: तू ही ऐसी भूल में पड़ा हो, ऐसा नहीं, मैं भी ऐसी ही भूल में तीस साल से पड़ा हूं। अपनी बुद्धि की छोटी सी प्याली में परमात्मा के सागर को भरने के लिए मैं भी बहुत रोया हूं। यह हो भी सकता है कि तेरी प्याली में सागर कभी भर जाए, क्योंकि सागर की फिर भी सीमा है; लेकिन मेरी बुद्धि की प्याली में तो परमात्मा कैसे भरेगा, उसकी तो कोई सीमा नहीं है। अगस्तीन ने उस बच्चे से कहा: मैं तो अपनी प्याली तोड़े देता हूं।
अगस्तीन नाचता हुआ वापस लौट आया अपनी कुटी पर। उसके मित्र हैरान हुए। समझा शायद अगस्तीन को वह मिल गया, जिसके लिए उसके प्राण रोते रहे थे। वे सब उसके निकट इकट्टे हो गए। उसकी आंखों में आज बड़ी अदभुत ज्योति थी। आज उसके प्राणों में अदभुत पुलक थी। आज वह हर्षोन्माद से नाच रहा था। उन्होंने पूछा: अगस्तीन, मिल गया है क्या वह?
अगस्तीन ने कहा: नहीं, वह तो नहीं मिला, लेकिन मैंने खुद को खो दिया। और जिस क्षण मैंने खुद को खोया, मैंने पाया कि वह तो सदा से ही मिला हुआ है।
मनुष्य का अहंकार ही बाधा है परमात्मा को पाने में।
अप्रयास के क्षणों में कभी अचानक जब मनुष्य का अहंकार सोया होता है, अनुपस्थित होता है, उसकी एक झलक किनारे से निकल जाती है। जैसे ही उसकी झलक निकल जाती है, भीतर एक आनंद उमग उठता है। फिर उस आनंद को पकड़ने को हम लालायित हो जाते हैं, लोभी हो जाते हैं। फिर हम उसके पीछे दौड़ने लगते हैं। अहंकार वापस आ जाता है। ‘मैं फिर खड़ा हो जाता हूं, फिर उसे खोजता हूं, खोजता हूं, उस पर कोई हाथ नहीं पड़ता।’ अहंकार उसे कभी भी नहीं पा सका है।
इसलिए जिन मित्र ने पूछा है...
अगर अनायास उसकी झलक मिलती हो, तो फिर प्रयास न करें उसके लिए, क्योंकि प्रयास बाधा बन जाएगा। फिर ऐसे जीएं--बिना प्रयास के, बिना इफर्ट के, बिना कोशिश के। तब उसकी झलकें बढ़ती चली जाएंगी। और जिस दिन कोई कोशिश मन में न होगी उसे पाने की, उसी दिन वह उपलब्ध हो जाता है।
संसार और सत्य को पाने की दिशाएं बड़ी विपरीत हैं। संसार में कुछ भी पाना हो, तो प्रयत्न करना होता है, प्रयास करना होता है; क्योंकि संसार की सारी दौड़ अहंकार की दौड़ है। परमात्मा को पाने में बात बिलकुल उलटी है। वहां जो प्रयास करेगा, प्रयत्न करेगा, वह खो देगा उसे। वहां तो जो अप्रयास में छोड़ देगा अपने को, उसे पा लेगा।
नदी में कोई आदमी गिर पड़े, तो तैर भी सकता है और बह भी सकता है। जो तैरता है, वह प्रयास कर रहा है; जो बहता है, वह प्रयास नहीं कर रहा है। जो बहता है, फिर नदी की ताकत उसे बहाए ले जाती है; जो तैरता है, उसे अपने श्रम पर निर्भर रहना होता है। खुद के श्रम की सीमा है, थक जाएगा। लेकिन जो बहा है, उसके सामर्थ्य की कोई सीमा नहीं है, क्योंकि अपनी शक्ति उसने लगाई ही नहीं है।
परमात्मा की खोज में तैरने वाले लोग असफल हो जाते हैं, बहने वाले लोग सफल हो जाते हैं। तैरना सीखना पड़ता है, बहना नहीं। तैरना हमारी अस्मिता है, हमारी ईगो है--मैं पा लूं!
एक छोटी सी कहानी, फिर मैं दूसरे प्रश्न का उत्तर आपको दूं।
एक बड़ी झूठी कहानी, लेकिन बड़ी सच भी है। एक बहुत अदभुत मूर्तिकार हुआ। उसकी मृत्यु आ गई। वह डरा हुआ था, मृत्यु से बचना चाहता था। उसने अपनी ही बारह मूर्तियां बना लीं और उनमें छिप कर खड़ा हो गया। मौत भीतर आई, उसने उन मूर्तियों पर आंख डाली। वह मूर्तिकार भी श्वास को रोके उन्हीं मूर्तियों में छिपा था। मृत्यु पहचान न पाई, कौन है असली आदमी जिसे ले जाना है? वहां एक जैसे बारह लोग थे। मौत वापस लौट गई। और उसने परमात्मा को जाकर कहा: वहां तो एक जैसे बारह लोग हैं, मैं किसको लाऊं ?
परमात्मा ने मौत के कान में एक सूत्र कहा। कहा, इस सूत्र को बोल देना, जो असली आदमी है वह अपने आप बाहर निकल आएगा।
वह मौत वापस लौटी। वह फिर उस कमरे में गई, जहां पर मूर्तियों में छिपा हुआ मूर्तिकार खड़ा था। उसने जाकर मूर्तियों पर गौर से दृष्टि डाली और उसके बाद वह जोर से बोली: और तो सब ठीक है, एक छोटी सी भूल रह गई है।
वह मूर्तिकार बोल उठा: कौन सी भूल?
उस मृत्यु ने कहा: यही कि तुम अपने को नहीं भूल सकोगे। बाहर आ जाओ। तुम यह न भूल सके कि तुमने इन मूर्तियों को बनाया है। तुम यह न भूल सके कि तुम बनाने वाले हो। अगर इतना भी तुम भूल जाते, तो फिर तुम्हें खोजने का मेरे पास कोई उपाय न था।
अहंकार जहां खड़ा है, वहां मृत्यु से तो मिलन हो सकता है, लेकिन अमृत से नहीं।
जहां अहंकार नहीं है, वहां अमृत से मिलन है। वह अमृत ही परमात्मा है। वह अमृत ही आनंद है। वह अमृत ही सत्य है।
छोड़ दें अपने को, ताकि वह आ सके। मत अपने को बीच में खड़ा करें, ताकि दीवाल बन जाए। हमारे अतिरिक्त परमात्मा और हमारे बीच कोई भी नहीं है। हम जितना प्रयास करते हैं, उतना ही यह मेरा ‘मैं’ मजबूत होता चला जाता है। उतनी ही दीवाल मजबूत होती चली जाती है। उतनी ही उसकी झलकें मिलनी कठिन हो जाती हैं।
अपने को छोड़ दें, अपने को बिलकुल छोड़ दें, जैसे नहीं हैं। जिस क्षण आप नहीं हैं, उसी क्षण द्वार मिल जाता है।
कबीर ने कहा है: मैं बांस की एक पोंगरी हूं, एक बांसुरी हूं। उसके स्वर मेरे भीतर से बहते हैं। अगर मैं ठोस हो जाऊं, तो उसके स्वर बहने बंद हो जाएंगे। चूंकि मैं पोली हूं, भीतर ठोस नहीं हूं, उसके स्वर मुझसे बह पाते हैं।
हम जितने ठोस हैं, उतने ही उसके स्वर हमारे भीतर से नहीं बह पाते हैं। हम जितने खाली हो जाते हैं, रिक्त अपने ‘मैं’ से, अपने प्रयास से, उतने ही उसके स्वर हमारे भीतर बहने शुरू हो जाते हैं। वह तो निरंतर द्वार पर खड़ा है, लेकिन हमारे द्वार बंद हैं। और अपने ही अहंकार से बंद हैं।
इसलिए यदि अप्रयास में अनायास उसकी झलक मिली हो, तो यह सूत्र समझ लें, इसमें सारी बात छिपी है। इसमें यह छिपा है कि फिर प्रयास मत करें, छोड़ दें अपने को, उसकी झलकें मिलेंगी। और जिस दिन आप पूरा छोड़ देंगे, उस दिन वह पूरा मिल जाता है। अपने को हटा लें।
एक और मित्र ने पूछा है:
भगवान, जीवन में दुख ही दुख मालूम होता है, क्या करें? जीवन में सब बुरा-बुरा ही मालूम होता है, निराशा और उदासी मालूम होती है, क्या करें?
जीवन में न तो दुख है और न सुख। जीवन को तो जैसा हम देखने में समर्थ हो जाते हैं, वह वैसा ही हो जाता है। जीवन तो वैसा ही है, जैसी देखने की हमारे पास दृष्टि होती है। हमारे ही बीच इसी जीवन में वे लोग भी जीते हैं जो आनंद से भरे होते हैं और वे लोग भी जो दुख और अंधकार से। जीवन यही है, देखने की दृष्टियां भिन्न होती हैं। अगर हमने जीवन में उदासी और अंधकार और दुख और पीड़ा को ही देखने की दृष्टि को अर्जित कर लिया हो, तो जीवन के आनंद से हम वंचित रह जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं है।
मैंने सुना है, एक मां अपने बच्चे से परेशान थी। वह किसी भी तरह के भोजन में कोई रुचि न लेता था और हर तरह के भोजन में कुछ न कुछ आलोचना, शिकायत खड़ी कर देता था। वह किसी तरह के वस्त्रों में भी कोई रुचि न लेता था और हर तरह के वस्त्रों में कोई न कोई भूल-चूक खोज लेता था। वह किन्हीं मित्रों में भी कोई रुचि न लेता था और हर मित्र में कोई न कोई खराबी खोज लेता था। उसकी मां घबड़ा गई। उसका भविष्य सुखद न था।
जिसकी दृष्टि हर जगह भूल ही और अंधकारपूर्ण पक्ष को खोज लेने की हो, उसका जीवन नरक हो जाएगा।
तो वह घबड़ाई। उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले गई। सबसे बड़ा प्रश्न तो उसके भोजन का था। क्योंकि वह भोजन करना ही बंद कर दिया था। हर चीज में--दूध में उसे बास आती थी, रोटियां उसे पसंद न थीं। इस चीज में यह खराबी थी, उस चीज में वह खराबी थी। और सब तो ठीक था, लेकिन भोजन के बिना तो जीना भी कठिन है। वह एक बड़े मनोवैज्ञानिक के पास ले गई।
उस मनोवैज्ञानिक की बड़ी ख्याति थी। वह न मालूम कैसे-कैसे विक्षिप्त लोगों को भी ठीक कर चुका था। यह तो एक छोटा सा बच्चा था, अभी जीवन की शुरुआत थी। इसे ठीक करने में कौन सी कठिनाई होने वाली थी। उस मनोवैज्ञानिक ने उस बच्चे को बहुत तरह से समझाया। भोजन की खूबियां समझाईं, फायदे समझाए। बहुत अच्छी-अच्छी मिठाइयां बुलवाईं, उस बच्चे के सामने रखीं। लेकिन उसने कोई न कोई आलोचना निकाल दी। आलोचक था जन्मजात। उसने कोई न कोई बात निकाल दी कि इसमें यह भूल है, इसका रंग मुझे पसंद नहीं है, इसकी बास मुझे पसंद नहीं, इसे खाऊंगा तो वमन हो जाएगा।
मनोवैज्ञानिक भी थोड़ा घबड़ाया। लेकिन उसकी मां के सामने वह यह बताना नहीं चाहता था कि मैं घबड़ा गया हूं इस छोटे से बच्चे से। आखिर उसने उसी से पूछा कि फिर तू ही बता, इस जमीन पर कोई भी चीज तुझे खाने जैसी लगती है?
उसने कहा: हां, मैं केंचुए खाना पसंद करूंगा।
वह भी घबड़ाया कि वह... मां भी घबड़ाई। केंचुए! बाहर वर्षा के दिन थे और केंचुए बाहर थे। मनोवैज्ञानिक उससे हारना नहीं चाहता था। उसने सोचा कि शायद यह केंचुए खाने की बात कह कर मुझे डराना भर चाहता है, खाएगा कैसे! वह उस बच्चे से हारना नहीं चाहता था। वह बाहर गया और एक प्लेट में दस-पंद्रह केंचुए वर्षा से उठा कर ले आया। उस बच्चे के सामने रखे। उस बच्चे ने कहा: ऐसे नहीं, मैं तले हुए केंचुए खाना पसंद करूंगा! आपको शर्म नहीं आती, गैर-तली हुई चीज मुझे देते हैं!
नहीं हारना चाहता था वह मनोवैज्ञानिक। वह बेचारा गया, उन केंचुओं को तल कर लाया। उसके प्राण खुद घबड़ा रहे थे कि यह क्या कर रहा है। लेकिन उस बच्चे को वह चाहता था कि किसी भी तरह निकटता में ले ले, घनिष्टता बन जाए। उसकी कोई मांग पूरी हो जाए, तो शायद वह मेरी बातें समझ सके।
वह केंचुए लेकर आया। उस बच्चे ने कहा: इतने नहीं, मैं केवल एक केंचुआ खाना पसंद करूंगा। वह बाहर गया, सारे केंचुए फेंक कर एक केंचुआ ले आया। उसके सामने प्लेट पर रखा और कहा: लो खाओ।
उसने कहा: क्या मैं अकेला खाऊंगा, आधा आप खाइए!
नहीं हारना चाहता था वह। केंचुआ खाने का जरा भी मन नहीं था। प्राण घबड़ा रहे थे। लेकिन उस बच्चे को जीतना जरूरी था। तो वह आधा केंचुआ खा गया किसी तरह आंख बंद करके। और तब उसने बड़े गुस्से से उससे कहा--क्योंकि उसने केंचुआ उसको खिलवा दिया था--उस बच्चे से कहा: अब खाओ!
बच्चा रोने लगा। और उसने कहा: आपने मेरा आधा वाला, मेरा आधा वाला खा लिया। यह आपका आधा वाला है। आपने मेरा हिस्सा खा लिया।
उस मनोवैज्ञानिक ने हाथ जोड़े और उसकी मां से कहा: यह लाइलाज है। इसका इलाज करना बहुत मुश्किल है। इसे दिखाई ही नहीं पड़ता कुछ सिवाय शिकायत के!
हममें से भी बहुत लोग हैं, जिन्हें जीवन में सिवाय शिकायत के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
जीवन का कसूर नहीं है इसमें, हमारा ही कसूर है। हमारे देखने का ढंग गलत है। हमारी दृष्टि भूलभरी है।
एक आदमी चाहे तो गुलाब के फूल के एक पौधे के पास खड़ा होकर देख सकता है--ईश्वर की निंदा कर सकता है, क्रोध से भर सकता है, दुख और चिंता से कि कैसी है यह दुनिया, मुश्किल से एकाध फूल लगता है और हजार कांटे होते हैं। हजार कांटों में एक फूल के लिए कौन खुश हो। तो कोई देख सकता है कि हजारों कांटें हैं और एक फूल है, इसमें खुशी की बात क्या है। लेकिन कोई दूसरा व्यक्ति यह भी देख सकता है: कितनी अदभुत है यह दुनिया, जहां हजार कांटे लगते हैं, वहां भी एक फूल के पैदा होने की संभावना है। कोई ऐसा भी देख सकता है। और इस देखने के ऊपर निर्भर करेगा उनके पूरे जीवन का ढांचा, उनके पूरे जीवन की गतिविधि।
कोई आदमी देख सकता है: सूरज से चमकता हुआ एक दिन होता है और दोनों तरफ दो अंधेरी रातें होती हैं। और तब उसे लगेगा: दो अंधेरी रातें और बीच में छोटा सा प्रकाश-भरा दिन? कैसी बुरी है यह दुनिया! और कोई यह भी देख सकता है: दो चमकते हुए दिन, बीच में छोटी सी अंधेरी रात होती है। कितनी भली है यह दुनिया! यह हमारे देखने पर निर्भर होता है।
क्या हम जीवन के प्रकाशोज्ज्वल पक्ष को देखने को उत्सुक हुए हैं, या कि उसके अंधकारपूर्ण पक्ष को? असल में, हमारी आदत नहीं है यह।
एक प्रोफेसर अपनी कक्षा में अपने बच्चों को कोई बात समझा रहा था। पीछे एक ब्लैक-बोर्ड था। उसने उस पर एक बड़े कागज, सफेद कागज का टुकड़ा चिपकाया। उस कागज पर छोटा सा एक काला बिंदु बनाया। और फिर अपने विद्यार्थियों से पूछा: तुम्हें कुछ दिखाई पड़ता है, यहां क्या है? हर विद्यार्थी ने हाथ उठा दिए। सभी को दिखाई पड़ रहा था। और हरेक से उसने पूछा: क्या तुम्हें दिखाई पड़ता है? विद्यार्थियों ने कहा: एक छोटा सा काला बिंदु दिखाई पड़ता है। पूरी कक्षा में पूछने के बाद वह जोर से हंसने लगा। और उसने कहा: मैं हैरान हूं, इतना बड़ा यह सफेद कागज किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता! उस कागज पर बना हुआ छोटा सा काला बिंदु सबको दिखाई पड़ता है, इतना बड़ा सफेद कागज लगा है किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता!
एक विद्यार्थी न था उस कक्षा में जिसने यह कहा हो कि बोर्ड पर सफेद कागज मुझे दिखाई पड़ता है। नहीं, सफेद कागज पर काला बिंदु सबको दिखाई पड़ रहा था।
हम सारे लोग भी जीवन को इसी तरह देखते हैं। उसके फूल हमें दिखाई नहीं पड़ते, कांटे दिखाई पड़ते हैं। उसकी शुभ्रता हमें नहीं दिखाई पड़ती, उसकी कालिमा हमें दिखाई पड़ती है। उसका प्रेम हमें नहीं दिखाई पड़ता, उसकी घृणा दिखाई पड़ती है। उसका आनंद नहीं दिखाई पड़ता, उसका दुख दिखाई पड़ता है। और तब हम इसको संग्रह करते चले जाते हैं। फिर सारा चित्त हमारा इस तरह निर्मित हो जाता है कि फिर हम इसी को खोज पाते हैं, इसी को देख पाते हैं। और तब अगर जीवन नरक हो जाता हो तो आश्चर्य कैसा है?
जीवन स्वर्ग भी हो सकता है।
स्वर्ग और नरक मनुष्य के जीवन को देखने के दृष्टिकोण हैं। न तो नरक कहीं नीचे है और न कहीं स्वर्ग ऊपर, मनुष्य की दृष्टि में वे छिपे हैं। कैसे हम देखते हैं। तो यदि दुख पाना है, तो जीवन में अंधेरी रातों को खोजें। और अगर आनंद की तरफ आंखें उठानी हैं, तो जीवन में फूल भी खिलते हैं, उनको देखें। जो आप देखेंगे उससे आपकी दृष्टि, देखने की क्षमता, आपका एटिट्यूड निर्मित होता जाएगा, बनता जाएगा। आज अगर आप दिन भर फूल देखेंगे, तो कल फूलों को देखने की क्षमता आपकी विकसित हो जाएगी। अगर आज आप दिन भर कांटे देखेंगे, तो कल सुबह से ही कांटों से मिलना सुनिश्चित है।
तो रोज-रोज पल-पल जब हम जी रहे हैं, तब जीवन में प्रकाश कहीं हो, उसे खोजते हुए जीना चाहिए। आनंद कहीं हो, उसकी तलाश में जीना चाहिए।
एक फकीर एक रात अपने घर में बैठा हुआ था। कोई बारह बजे होंगे। कुछ पत्र लिखता था। और तभी किसी ने द्वार पर धक्का दिया। द्वार अटके थे, जिसने धक्का दिया था वह भीतर आ गया। जो आदमी भीतर आया था, उसकी कल्पना भी न थी कि फकीर जागता होगा। वह उस गांव का सबसे प्रमुख चोर था। लेकिन फकीर जागा हुआ था, तो वह घबड़ाया, उसने छुरा बाहर निकाल लिया। समझा कि कोई झगड़े-झंझट की स्थिति बनेगी। लेकिन फकीर ने कहा: मेरे मित्र, छुरा भीतर रख लो! तुम किसी बुरे आदमी के घर में नहीं आए हो कि छुरे की जरूरत पड़े। छुरा अंदर कर लो और बैठ जाओ। जरा मैं चिट्ठी पूरी कर लूं, फिर तुमसे बात करूं।
वह घबड़ाहट में बैठ गया। फकीर ने अपना पत्र पूरा किया और उससे कहा: कैसे आए इतनी रात? और इतना बड़ा नगर है, इतनी-इतनी बड़ी हवेलियां हैं, इतने-इतने बड़े महल हैं और तुमने मुझ गरीब की कुटिया पर ध्यान दिया! कैसे आए?
उस चोर ने कहा: अब आप जब पूछ ही लिए हैं, तो बताना जरूरी हो गया। और शायद आपसे मैं झूठ न बोल सकूं, मैं चोरी करने आया हूं।
फकीर ने ठंडी श्वास ली और उसने कहा: बड़े नासमझ हो! भलेमानुष, एकाध-दो दिन पहले खबर तो कर देते, तो मैं कुछ इंतजाम कर रखता। यह फकीर की झोपड़ी है, यहां हमेशा कुछ मिल जाए, यह तो बहुत मुश्किल है। और मुझे क्या पता था, आज सुबह ही एक आदमी कुछ रुपये भेंट करने आया था, मैंने वापस कर दिए। तुम्हारा अंदाज होता तो मैं रोक कर रखता। आगे जब भी आओ, ऐसा कभी मत करना कि बिना कहे, बिना खबर किए आ जाओ। थोड़े से रुपये पड़े हैं, नाराज न हो तो मैं उन्हें तुम्हें दे दूं। दस रुपये उसके पास थे। उसने कहा: उस आले पर दस रुपये रखे हैं, वह तुम ले लो।
वह चोर तो घबड़ाया हुआ था। उसकी समझ के बाहर थीं ये बातें। चोरी उसने बहुत की थी, लेकिन ऐसा आदमी कभी मिला न था। वह जल्दी से घबड़ाहट में दस रुपये उठाया, तो उस फकीर ने कहा: इतनी कृपा कर सकोगे क्या कि एक रुपया छोड़ दो। सुबह-सुबह मुझे जरूरत भी पड़ सकती है। एक रुपया मुझ पर उधारी रही, कभी न कभी चुका दूंगा। उसने जल्दी से रुपया रखा और वह भागने लगा बाहर, तो उस फकीर ने कहा: मेरे मित्र, रुपये तो कल खत्म हो जाएंगे, उन पर इतना भरोसा मत करो, कम से कम मुझे धन्यवाद तो देते जाओ, धन्यवाद बाद में भी काम पड़ सकता है। उस चोर ने उसे धन्यवाद दिया और वह चला गया।
बाद में वह पकड़ा गया। उस पर और चोरियां भी थीं, यह चोरी भी थी। इस फकीर को भी अदालत में जाना पड़ा। वह चोर घबड़ाया हुआ था कि अगर उस फकीर ने इतना भी कह दिया कि हां, यह आदमी चोरी करने आया था, तो फिर और किसी गवाही की कोई जरूरत नहीं है। वह इतना जाना-माना आदमी था। उसकी बात पर्याप्त प्रमाण हो जाएगी। वह डरा हुआ खड़ा था। मजिस्ट्रेट ने पूछा उस फकीर को: आप इस आदमी को पहचानते हैं?
उस फकीर ने कहा: पहचानने की बात कर रहे हैं? ये मेरे मित्र हैं। और मित्र तो तभी पहचाना जाता है न--दुख में जो अपने पर भरोसा करे, वही तो मित्र है। एक रात जब इस व्यक्ति को जरूरत पड़ गई थी, तो यह किसी महल में नहीं गया, मेरे झोपड़े पर आया था। मेरा मित्र है, मुझ पर विश्वास करता है।
मजिस्टे्रट ने पूछा: इसने आपकी कभी चोरी की थी?
उसने कहा: कभी भी नहीं। मैंने इसे नौ रुपये भेंट किए थे। और एक रुपया अब भी इसका मेरे ऊपर उधार है, जो मैं चुका नहीं पाया। वह मुझे इसका चुका देना है। और चोरी का तो सवाल ही नहीं है। मैंने इसे रुपये दिए थे, इसने मुझे धन्यवाद दे दिया था। बात समाप्त हो गई थी।
वह चोर तीन वर्ष बाद छूटा और उस फकीर के झोपड़े पर पहुंच गया। और उसने कहा कि उस दिन तुमने कहा था, मित्र हूं, और इन तीन वर्षों में मैं निरंतर सोचता रहा, तुम्हारे अतिरिक्त मेरा कोई भी मित्र नहीं है। और उस दिन तो रात आया था जाने को, अब न जाने को आ गया हूं। अब यहां से नहीं जाऊंगा। तुमने मेरी जिंदगी बदल दी, उस चोर ने कहा।
उस फकीर ने कहा: मैंने तो कुछ भी नहीं किया।
उस चोर ने कहा: तुम पहले आदमी हो जिंदगी में जिसने मेरे भीतर भी कुछ अच्छाई देखी। तुम पहले आदमी हो जिसने मेरी जिंदगी का कोई प्रकाशोज्जवल पहलू देखा। तुम पहले आदमी हो जिसने मेरी आत्मा को चुनौती दे दी। तुम पहले आदमी हो जिसने मेरे भीतर के सारे संगीत को खींच कर बाहर ला दिया। और तो जो भी मुझे मिला था, उसने मेरा अंधेरा पहलू देखा था। और जब सारी दुनिया मुझमें अंधकार देखती थी, तो मैं धीरे-धीरे उसी अंधकार में घिरता चला गया और उसी अंधकार को मैंने स्वीकार कर लिया था। तुमने मेरे जीवन को चुनौती दे दी। तुमने पहली दफा मुझे यह खयाल पैदा कर दिया: मैं भी एक अच्छा आदमी हो सकता हूं!
तो जब हम जीवन में आनंद को, शुभ को, मंगल को, प्रकाश को देखना शुरू करते हैं, तो न केवल हमारी दृष्टि आनंद से भर जाती है, बल्कि हम जहां भी मंगल और शुभ को देखते हैं, वहां भी हम चुनौती खड़ी कर देते हैं--उस व्यक्ति के लिए भी कि उसके भीतर से शुभ का आविर्भाव हो जाए और विकास हो जाए। यह दुनिया इतनी बुरी दिखाई पड़ रही है, इस कारण नहीं कि लोग इतने बुरे हैं, बल्कि इस कारण कि सभी लोगों को बुराई के अतिरिक्त देखने की और कोई आदत नहीं है।
और अगर इतने लोग यहां बैठे हैं, वे सभी मुझमें बुराई देखने लगें, और वे सभी मेरी बुराई की चर्चा करने लगें, और सभी मेरे अंधकार को उघाड़ने लगें, तो मैं कितनी देर, कितनी देर उनके खिलाफ खड़ा रह सकूंगा। धीरे-धीरे वे सब मिल कर मुझे विश्वास दिला देंगे कि मैं बुरा आदमी हूं। वे धीरे-धीरे मुझे इतने क्रोध से भर देंगे कि मुझे ऐसा लगेगा कि ठीक है तुम जो कहते हो, मैं उससे भी ज्यादा बुरा हूं। मेरे भीतर शुभ के आविर्भाव की सारी संभावना समाप्त हो जाएगी।
तिब्बत के एक गांव में मारपा नाम का एक साधु था। एक आदमी ने आकर मारपा से कहा: आप हमारे गांव चलिए, कुछ दिन वहां ठहरिए। मारपा ने कहा: उस गांव में जिस गांव से तुम आए हो, एक आदमी है जो बांसुरी बहुत अच्छी बजाता है। सुना है कभी, देखा है उसे? वह आदमी बोला: वह क्या बांसुरी बजाएगा! शराब पीता है, जुआ खेलता है, बेईमान है। वह क्या बांसुरी बजाएगा! मारपा ने कहा: मैं तुम्हारे गांव न जाऊंगा।
एक दूसरा आदमी उसके जाने के बाद आया और उसने कहा कि आप हमारे गांव चलें और यह चतुर्मास वहीं ठहर जाएं। मारपा ने कहा: मैंने सुना है, तुम्हारे गांव में एक आदमी है जो बांसुरी बजाता है। बहुत अच्छी बांसुरी बजाता है। सुना है कभी उसे? उस आदमी ने कहा: इतना बेईमान है वह, इतना चोर है, इतना निपट अनैतिक है, वह क्या बांसुरी बजाएगा! उसकी बांसुरी कौन सुनने जाएगा? मारपा ने कहा: रहने दो, तुम्हारे गांव मैं न जा सकूंगा।
और तीसरा आदमी उस सांझ को आया जिसका निमंत्रण उसने स्वीकार कर लिया। उस तीसरे आदमी से उसने कहा कि मैंने सुना है, तुम्हारे गांव में एक बेईमान और चोर, अनैतिक आदमी है। उसने कहा: मुझे पता नहीं है, लेकिन वह बांसुरी इतनी अच्छी बजाता है कि मैं मान नहीं सकता कि वह चोर हो सकता है!
उसने कहा: मैं तुम्हारे गांव चलता हूं। तुम्हारे गांव में जिंदगी की अच्छाइयां देखने वाले लोग हैं। जिस गांव में अच्छाइयां देखने वाले लोग हैं, वह गांव जमीन पर स्वर्ग बन जाता है।
हमने अपनी जमीन को नरक बना लिया है।
दुख बाहर नहीं है, हमारी दृष्टि में है। और आनंद भी बाहर नहीं है, वह भी हमारी दृष्टि में है।
इसलिए बाहर मत थोपें अपने दुख को, खुद की दृष्टि को समझें, खोजें, और उस दृष्टि में ही आपको कारण मिल जाएंगे। और बाहर की दुनिया अगर नरक हो, तब तो फिर कोई आदमी कभी आनंदित नहीं हो सकता है। क्योंकि बाहर की दुनिया को बदलने की सामर्थ्य किसमें है? लेकिन अगर भीतर की दृष्टि में नरक हो, तब यह हमारे हाथ में है कि हम स्वर्ग में प्रवेश कर जाएं; क्योंकि भीतर की दृष्टि कोई भी व्यक्ति जब चाहे अपनी बदल ले सकता है।
इसलिए मैं प्रार्थना करूंगा: अपनी दृष्टि में खोजें कि दुख कहां है? पीड़ा कहां है? वहां देखें। और वहां कारण स्पष्ट मिल जाएंगे। और उन कारणों को बदलना जरा भी कठिन नहीं है। क्योंकि कोई भी आदमी दुख में रहने को राजी नहीं है। अगर उसे यह पता चल जाए कि मैं ही अपने दुख का स्रष्टा हूं, तो इसको बदलने में कोई कठिनाई नहीं रह जाती। यह पता ही नहीं होता कि मैं ही अपने दुख का स्रष्टा हूं। हम समझते हैं कि बाकी सब लोग, बाकी दुनिया में दुख है। और इसलिए फिर हम पीड़ा में घुलते चले जाते हैं, घुलते चले जाते हैं, और कोई मार्ग नहीं मिलता।
मार्ग है, स्वयं में मार्ग है। इस तरफ थोड़ा विचार करेंगे, तो बात दिखाई पड़ सकती है।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, आपने कल कहा था कि आदमी जितना बाहर से सुंदर होता है, उतना ही अंदर से खराब होता है, इसके बारे में हमें आपको क्या समझना चाहिए?
बहुत ठीक बात पूछी है। लेकिन मेरी बात समझ नहीं पाए। मैंने यह नहीं कहा कि बाहर से जो सुंदर होता है, वह भीतर से खराब होता है। मैंने यह कहा, बाहर के सौंदर्य की खोज भीतर की कुरूपता को छिपाने के लिए होती है। इन दोनों बातों में बड़ा फर्क है। मैंने यह नहीं कहा कि बाहर से जो कुरूप होता है, वह भीतर से सुंदर होता है। न मैंने यह कहा है कि बाहर से जो सुंदर होता है, वह भीतर से कुरूप होता है।
मैंने कहा है यह कि बाहर के सौंदर्य की खोज, भीतर की कुरूपता को छिपाने का उपाय है। उससे कुरूपता छिप जाती है, लेकिन सुदंर नहीं बन पाती है। लेकिन जो भीतर की कुरूपता को खोज ले और भीतर के जीवन को सुंदर बना ले, वह बाहर से तो अपने आप सुंदर हो जाता है। बाहर के सुंदर हो जाने में कोई कठिनाई नहीं है। जिसके भीतर प्रकाश जल जाए, उसके तो बाहर भी प्रकाश फैल जाता है। जिसके भीतर सुगंध आ जाए, उसके बाहर भी सुगंध आ जाती है।
लेकिन भीतर की दुर्गंध को दबाने के लिए जो बाहर की सुगंध खोजता है, वह भूल में है। वह मैंने आपसे कहा था।
मैं तो सब तरह के सौंदर्य का प्रेमी हूं। लेकिन जिस सौंदर्य के पीछे कुरूपता छिपी हो, वह सौंदर्य खतरनाक है। इसलिए नहीं कि वह सौंदर्य है, बल्कि इसलिए कि वह एक बड़ी कुरूपता को छिपाने का आवरण बन गया है। और वह कुरूपता उसके कारण छिपी रह जाएगी।
एक बहुत पुरानी कथा है। पृथ्वी बन गई थी और सारे लोग उसमें आबाद हो गए थे। और तब अंत में परमात्मा ने सौंदर्य को और कुरूपता को बनाया। सौंदर्य और कुरूपता की देवियां आकाश से पृथ्वी पर उतरीं। आकाश से पृथ्वी तक आने में बहुत धूल-धवांस उनके कपड़ों पर पड़ गई। वे एक तालाब के किनारे रुकीं और उन्होंने कहा, हम स्नान कर लें। उन दोनों ने वस्त्र छोड़ दिए किनारे पर और वे तालाब में स्नान करने को उतर गईं। सौंदर्य की देवी तैरती हुई आगे निकल गई। शायद कुरूपता की देवी यह प्रतीक्षा ही कर रही थी कि वह थोड़ा आगे निकल जाए। वह शीघ्र बाहर निकली और उसने सौंदर्य की देवी के कपड़े पहने और भाग खड़ी हुई।
सौंदर्य की देवी ने देखा, कुरूपता की देवी उसके कपड़े पहन कर भाग गई थी। वह बाहर आई। वह नग्न ख़ड़ी थी। सुबह होने के करीब थी, गांव के लोग जगने लगे थे। अब सिवाय इसके कोई रास्ता न रहा कि वह कुरूपता के कपड़े पहन ले। नंगे रहना बड़ा मुश्किल था। उसने वह कपड़े पहने। वह सौंदर्य की देवी कुरूपता के कपड़े पहन कर कुरूपता की देवी के पीछे अब तक सुनते हैं भागी चली जा रही है। लेकिन वह कपड़े उसने अभी तक वापस नहीं लौटाए हैं। वह भागती ही चली जा रही है, भागती ही चली जा रही है।
कुरूपता सौंदर्य के वस्त्र पहन लेना चाहती है, ताकि छिप जाए।
मैंने यह कहा कि ऐसे बाह्य सौंदर्य की खोज में खयाल करना, कहीं भीतर की कुरूपता को छिपाने का आग्रह तो नहीं है? अगर है, तो भीतर की कुरूपता ही मिटाने की कोशिश करना, ढांकने की नहीं। वह मिट जाएगी, तो भीतर तो सुंदर होगा, उस सुंदर की किरणें बाहर तक फैल जाएंगी।
जीवन सुंदर हो, सर्वांग सुंदर हो, यह कौन न चाहेगा। लेकिन जीवन भीतर से बाहर की ओर सुंदर हो। बाहर से केवल सुंदर न हो। क्योंकि बाहर से सौंदर्य फिर बहुत खतरनाक हो जाता है, आत्मघात हो जाता है, आत्मवंचना हो जाती है।
और बाहर के सौंदर्य से मेरा मतलब आप समझ गए होंगे?
अगर ज्ञान की बात हो, तो हम बाहर से शब्द सीख लेते हैं और भीतर अज्ञान छिपा लेते हैं। अज्ञान कुरूप है। सुंदर-सुंदर शब्द सीख लेते हैं। शास्त्रों के वचन सीख लेते हैं। वे ऊपर से चिपक जाते हैं। भीतर, भीतर अज्ञान खड़ा रह जाता है। अगर नीति का सवाल हो, तो भीतर, भीतर वासनाएं सरकती रहती हैं, ऊपर हम ब्रह्मचर्य के व्रत ले लेते हैं। भीतर सेक्स खड़ा होता है, ऊपर ब्रह्मचर्य के वस्त्र खड़े हो जाते हैं। भीतर क्रोध होता है, ऊपर हम शांत मुख-मुद्राएं सीख लेते हैं। भीतर आंसू होते हैं, ऊपर हम मुस्कुराहट चिपका लेते हैं। ऐसा हम जीवन को धोखा दे देते हैं। भीतर कुछ होता है, बाहर हम कुछ हो जाते हैं। और यह, इससे इतना तनाव, इतना टेंशन पैदा होता है, क्योंकि हम प्रतिक्षण भीतर कुछ होते हैं जो हम असली हैं और बाहर हम कुछ होते हैं जो हम नकली हैं। और इन दोनों के बीच एक द्वंद्व, एक कांफ्लिक्ट चलती रहती है। जो जीवन के सारे आनंद को क्षीण कर देती है, सारी शक्ति को पी जाती है।
भीतर से क्रांति होनी चाहिए, बाहर से नहीं। भीतर से कुछ बदल आनी चाहिए, बाहर से नहीं। भीतर की बदल बाहर की बदल बन जाएगी, लेकिन बाहर की बदलाहट भीतर की बदलाहट नहीं बन सकती है। क्योंकि भीतर हैं हमारे प्राण, भीतर है हमारा केंद्र, भीतर हैं हमारी जड़ें। जो उन जड़ों को भूल जाता है और पत्तों की फिकर करता है, उसका वृक्ष आज नहीं कल सूख जाएगा। और तब फिर उसे प्लास्टिक के पत्ते लाकर बाहर लगा लेने पड़ेंगे। और प्लास्टिक के फूल बाजार से खरीद लाना पड़ेंगे। पहले कागज के फूल मिलते थे, अब उनसे भी ज्यादा मजबूत नकली फूल मिलने शुरू हो गए हैं--वे प्लास्टिक के हैं। उनको लगा कर घर में हम बैठे रह जा सकते हैं। धोखा हो सकता है किसी को फूलों का, लेकिन प्लास्टिक का फूल भी फूल है कोई? ऐसे ही हमने जिंदगी में भी प्लास्टिक के फूल खोज लिए हैं।
तो मैंने जो कहा... मैं फूलों का दुश्मन नहीं हूं, फूलों से मुझे प्रेम है। आपके घर में फूल हों, इससे ज्यादा खुशी की बात क्या है। लेकिन आप प्लास्टिक के फूलों को फूल समझ रहे हों, तो बड़ी गड़बड़ है। प्लास्टिक के फूलों के मैं विरोध में हूं। इसलिए विरोध में हूं कि वे नकली सिक्के, खोटे सिक्के असली सिक्कों को बाहर कर देते हैं बाजार के। झूठे फूल असली फूलों की हत्या हो जाते हैं। झूठा आचरण सच्चे आचरण के जन्म में बाधा बन जाता है। और जब हम इस तरह उत्सुक हो जाते हैं फूल-पत्तों को सम्हालने में और जड़ों को भूल जाते हैं, तो सारी गड़बड़ हो जाती है। इस जीवन में यही गड़बड़ हो गई है।
एक छोटी सी घटना आपको कहूं।
माओत्से तुंग छोटा था। उसकी मां की एक बहुत खूबसूरत बगिया थी। उस इलाके में उसकी मां से ज्यादा अच्छे फूल किसी की बगिया में नहीं आते थे। बड़े प्रेम से उसने उन फूलों को सींचा था और बड़े प्रेम से उनको सम्हाला था। प्रेम पुरस्कार लाता था और फूल बड़े अदभुत होते थे। फिर वह बूढ़ी मां बीमार पड़ गई। तो उसे अपनी बीमारी की चिंता न थी, न अपनी मौत की। फिकर थी उसे अपने फूलों की, जो कुम्हला न जाएं। अपने पौधों की, जो मुर्झा न जाएं। माओ छोटा था, उसने कहा: मां, तुम घबड़ाओ मत, मैं उनकी फिकर कर लूंगा।
पंद्रह दिन तक उसकी मां बीमार थी और माओ बगीचे में मेहनत करता रहा। रात सोया नहीं, रात-दिन मेहनत करता रहा। लेकिन कोई भी मेहनत कारगर न हुई, फूल सूखते गए, पौधे कुम्हलाते गए। घबड़ाया कि बात क्या थी? पंद्रह दिन बाद मां जब थोड़ी ठीक हुई, वह बाहर आई। तो वह रोने लगी। माओ भी रोने लगा। माओ ने कहा: मैंने पूरी मेहनत की, लेकिन न मालूम क्या हुआ, ये फूल तो सूख गए हैं और पौधे कुम्हला गए हैं। उसकी मां ने कहा: तुम तो दिन-रात बगीचे में रहते थे, करते क्या थे? उसने कहा: मैं एक-एक पत्ते की धूल झाड़ता था, एक-एक फूल पर पानी छिड़कता था, पता नहीं क्या हुआ ये सब सूखते चले गए?
उसकी मां हंसने लगी। उसने कहा: पागल हो तुम। फूलों में और पत्तों में थोड़े ही प्राण होते हैं। प्राण तो होते हैं जड़ों में, जो दिखाई नहीं पड़तीं।
उसने जड़ों को पानी ही नहीं दिया, वह फूल-पत्तों को सम्हालता रहा। उनको झाड़ता रहा, उनकी धूल निकालता रहा, उन पर थोड़ा-थोड़ा पानी छिड़कता रहा। छोटा बच्चा था, जड़ें उसको दिखाई नहीं पड़ीं। जड़ों का उसने कोई खयाल नहीं किया। जो दिखाई नहीं पड़ता, उसका खयाल भी कौन करता है। जो दिखाई पड़ता है, उसी का हम खयाल करते हैं। उसे पता भी न था कि जमीन के नीचे जड़ें हैं, जिनमें प्राण हैं। और अगर उनको पानी मिल जाए, तो फूल-पत्तों को अपने आप मिल जाएगा। लेकिन फूल-पत्तों को पानी देने से जड़ों को पानी नहीं मिल सकता है।
वह तो बच्चा था, लेकिन हम सब भी जिंदगी के बगीचे में ऐसे ही बच्चे हैं। फूल-पत्तों को सम्हालते हैं। जड़ों की हमें कोई फिकर नहीं। बल्कि हम पूछते हैं, जो चीज दिखाई नहीं पड़ती, वह है कहां?
मनुष्य के भीतर जो चेतना है, वह उसकी जड़ है। वहां हैं रूट्स। मनुष्य की जो आत्मा है, वह उसकी जड़ है, वह दिखाई नहीं पड़ती।
जड़ें कभी दिखाई नहीं पड़तीं। अदृश्य उनका काम है। वहां जो सम्हाल लेता है, उसके बाहर के जीवन में बहुत फूल आते हैं, बहुत सौंदर्य प्रकट होता है। बहुत सत्य, बहुत संगीत का जन्म होता है। लेकिन भीतर जो जड़ों को भूल जाता है और बाहर के फूल-पत्तों को सम्हालने में लग जाता है, उसका जीवन मुर्झा जाता है।
हम सबका जीवन ऐसे ही मुर्झा गया है। इस मुर्झाएपन को छिपाने के लिए हम फिर बाजार से फूल खरीद लाते हैं, पत्ते लगा लेते हैं। असली पौधा मर ही जाता है। धीरे-धीरे नकली पत्ते ही और फूल ही हमारे पास रह जाते हैं। फिर नकली जीवन में आनंद कैसे हो? फिर नकली और झूठे जीवन में सुवास कैसे हो? फिर नकली और झूठे जीवन में वह पुलक, थिरक और नृत्य कैसे हो? वह नहीं हो सकता। वहां प्राण ही नहीं हैं, तो यह सब कैसे होगा?
इसलिए मैंने कहा, भीतर के सौंदर्य को जगाना, भीतर की कुरूपता को छिपाना मत। उसे मिटाना है, इसलिए छिपाना मत। अगर बचाना हो, तो छिपा लेना। जिसे हम छिपाते हैं, वह बच जाता है। जिसे हम उघाड़ते हैं, उसके मिटने की शुरुआत हो जाती है। मैं समझता हूं, मेरी बात खयाल में आई होगी।
एक छोटा सा प्रश्न और, और फिर चर्चा मैं पूरी करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि माताएं, पत्नी, बहिन इत्यादि अपने प्रिय व्यक्ति को युद्ध में भेजती हैं, इसलिए उनका प्रेम झूठा है। परंतु मेरी समझ से वह त्याग है। और उनका देश-प्रेम व्यक्ति-प्रेम से बढ़ कर है। क्या यह सच है?
प्रेम सिर्फ प्रेम होता है। न तो वह व्यक्ति का होता है, न देश का, न मनुष्यता का, न परमात्मा का। जिस हृदय में प्रेम है, वह प्रेम किसी तरह की हिंसा और घृणा बर्दाश्त नहीं कर सकता। लेकिन हम बहुत होशियार लोग हैं, हम कहते हैं, हम मनुष्यता को प्रेम करते हैं। और मनुष्यों की हत्या किए चले जाते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है। मनुष्यों को छोड़ कर मनुष्यता कहीं है? कहीं खोजने जाइएगा ह्यूमैनिटी कहीं मिलेगी? मनुष्यता कहीं मिलेगी? जहां भी मिलेगा, मनुष्य मिलेगा, मनुष्यता कहीं भी नहीं मिलेगी। और हम कहते हैं कि हम मनुष्यता को इतना प्रेम करते हैं कि अगर जरूरत पड़े तो हम मनुष्यों की हत्या कर सकते हैं। बड़ी होशियारी की, बड़ी कनिंगनेस की, बड़ी चालाकी की बात है।
जिस आदमी के हृदय में प्रेम है, उसका कोई देश हो सकता है?
उसका कोई देश नहीं हो सकता, क्योंकि प्रेम की कोई सीमा नहीं है। जिस आदमी के हृदय में प्रेम है, सारे देश उसके अपने हैं। वह यह नहीं कह सकता है कि हिंदुस्तान मेरा और पाकिस्तान मेरा नहीं है। उसका प्रेम कोई सीमा नहीं मानेगा। देश-प्रेम के नाम पर हम सारी दुनिया के प्रति हमारी जो घृणा है, उसे छिपाने का उपाय करते हैं।
जमीन एक है। सारी रेखाएं मनुष्य के बीच पैदा होने वाले कुछ शरारती लोगों की करतूतें हैं। जमीन कहीं भी कटी हुई नहीं है, कहीं भी बंटी हुई नहीं है। जमीन पर कोई देश का बंटवारा धार्मिक नहीं है, राजनैतिक है। प्रेम का बंटवारा नहीं है यह, यह घृणा का और हिंसा का बंटवारा है। और फिर इन सीमाओं पर युद्ध खड़े होते हैं। और हम कहते हैं: हम अपने देश-प्रेम के लिए इन सीमाओं पर अपने लोगों की हत्या करवाएंगे और दूसरों की हत्या करेंगे। और वह दूसरी कौम के राजनीतिज्ञ भी यही समझाते हैं कि तुम भी अपने देश-प्रेम के लिए मरो और मारो।
और देश-प्रेम के नाम पर दुनिया में अब तक पांच हजार वर्षों में चौदह हजार युद्ध हुए हैं। हर वर्ष तीन युद्ध! चौदह हजार युद्ध पांच हजार वर्षों में देश-प्रेम के नाम पर! और आदमी कटता है और मरता है! लेकिन हम बहुत होशियार हैं। जब भी हमें कोई बुरा काम करना होता है, तो हम कोई ऊंचा नारा खोज लेते हैं: देश-प्रेम! मनुष्यता का प्रेम! धर्म का प्रेम! निहायत बेवकूफियों को हम अच्छे-अच्छे शब्दों में छिपा लेते हैं।
जिस मनुष्य के हृदय में प्रेम है, वह किसी भी मूल्य पर हिंसा के लिए राजी नहीं हो सकता है। वह किसी भी मूल्य पर हिंसा के लिए तैयार नहीं हो सकता है। और जो चीजें हिंसा लाती हैं, उन चीजों के लिए भी राजी नहीं हो सकता है। देश की सीमाएं हिंसा लाने वाली सीमाएं हैं।
जिस आदमी के हृदय में प्रेम है, वह इस बात के पक्ष में होगा कि दुनिया में राष्ट्र नहीं रह जाने चाहिए। वह इस बात के पक्ष में नहीं हो सकता कि राष्ट्र बचने चाहिए। वह इस बात के पक्ष में नहीं हो सकता कि शूद्र और ब्राह्मण और क्षत्रिय और वैश्य बचने चाहिए। वह इस पक्ष में नहीं हो सकता कि हिंदू-मुसलमान बचने चाहिए। वह इस पक्ष में होगा कि ये सारी सीमाएं युद्ध लाती हैं, हिंसा लाती हैं, इसलिए दुनिया में कोई भी सीमा नहीं बचनी चाहिए।
यह सारी देश-प्रेम की बातें हिटलर भी करता है, मुसोलिनी भी करता है, स्टैलिन भी करता है, माओ भी करता है, सारी दुनिया में सब करते हैं। और अंत में परिणाम क्या होता है इस देश-प्रेम का? युद्ध, हत्या और हिंसा! हम कब समझेंगे इस बात को कि देश-प्रेम के शब्द झूठे हैं।
मनुष्य के भीतर अगर प्रेम होता, जो कि नहीं है, लेकिन पैदा हो सकता है। और वह तभी पैदा होगा, जब हम इस बात को ठीक से समझ लें कि जिसे हम अभी प्रेम समझ रहे हैं, वह प्रेम नहीं है।
अभी हिंदुस्तान पर हमला हुआ पाकिस्तान का, या चीन का हमला हुआ; सारे हिंदुस्तान में लोग कहते हैं: प्रेम की लहर दौड़ गई, लोग इकट्ठे हो गए, लोग संगठित हो गए, एकता आ गई।
मैं आपसे पूछता हूं: यह प्रेम की एकता है या कि घृणा की एकता है? सामने दुश्मन खड़ा है, उसे नष्ट करने की कामना तीव्रता से पैदा होती है। उससे जूझने की, हत्या की, हिंसा की तीव्र लहर दौड़ती है, हम इकट्ठे हो जाते हैं। वह इकट्ठा होना, प्रेम का इकट्ठा होना नहीं है।
आज तक दुनिया में प्रेम का कोई संगठन नहीं बना। सब संगठन घृणा के, हेटरेड के हैं। फिर वह घृणा हट जाती है, युद्ध हट जाता है, हम फिर अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। वह सारी एकता विलीन हो जाती है। फिर महाष्ट्रियन गुजराती से लड़ने लगता है; फिर हिंदू मुसलमान से लड़ने लगता है; फिर दक्षिण भारतीय उत्तर भारतीय से लड़ने लगता है; हिंदी बोलने वाला गैर-हिंदी बोलने वाले से लड़ने लगता है।
हमारे भीतर प्रेम नहीं है--इस सत्य को मनुष्यता जिस दिन स्वीकार कर लेगी कि अभी हम प्रेम को जन्म नहीं दे पाए हैं, उस दिन मनुष्य के जीवन में एक सौभाग्य का उदय होगा। क्योंकि तब हम सोच सकेंगे कि कैसे प्रेम को जन्म दें? और जब तक हम इस इलूजन में, इस भ्रम में रहेंगे कि प्रेम हमारे भीतर है, तब तक तो फिर प्रेम को जन्म देने का विज्ञान भी सोचा-विचारा नहीं जा सकता है।
कुछ और बहुत प्रश्न हैं, वह मैं कल सुबह आपसे बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
बहुत से प्रश्न मेरे सामने हैं। सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सभी के उत्तर तो आज संभव नहीं हो पाएंगे। कुछ शेष रह जाएंगे, जिन पर कल सुबह मैं आपसे बात करूंगा।
सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि परमात्मा की अनुभूति, उसका प्रसाद, उसका आनंद किन्हीं-किन्हीं क्षणों में अचानक मिल जाता है और फिर, फिर खो जाता है। फिर बहुत प्रयास करने पर भी वह झलक दिखाई नहीं पड़ती। तो हम क्या करें?
मनुष्य के जीवन में निश्चित ही कभी-कभी अनायास ही कोई आनंद का स्रोत खुल जाता है, कोई अंतर्नाद सुनाई पड़ने लगता है, कोई स्वर-संगीत प्राणों को घेर लेता है। सभी के जीवन में ऐसे कुछ क्षण स्मृति में होंगे। फिर हमारा मन करता है उस अनुभूति को और पाने के लिए। और तब, तब जैसे उस अनुभूति के द्वार बंद हो जाते हैं।
इसमें दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
एक तो, जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है और श्रेष्ठ है, वह कभी मनुष्य के प्रयास से नहीं उपलब्ध होता है। मनुष्य बहुत क्षुद्र और छोटा है। उसकी सीमाएं हैं। और आनंद की कोई सीमा नहीं है। जब मनुष्य अनुपस्थित होता है, तभी वे आनंद के द्वार खुलते हैं। और जब मनुष्य बहुत प्रयास करके उपस्थित हो जाता है, तब वे द्वार बंद हो जाते हैं।
परमात्मा को आज तक किसी ने प्रयास से नहीं पाया है। अप्रयास से ही। एफर्ट से नहीं, एफर्टलेसनेस में ही उसकी प्रतीति और अनुभव होता है।
मैं किसी को प्रेम दूं, और अगर प्रयास से दूं, तो वह प्रेम झूठा हो जाता है। वह अप्रयास से बहे, सहज, तो ही सत्य होगा। जीवन में जो भी सत्य है, सुंदर है वह मनुष्य के प्रयास से पैदा नहीं होता।
तो अनायास तो अनुभूति मिलती है, फिर हम प्रयास करके जब उसे लाना चाहते हैं, वह छूट जाती है।
एक छोटी सी घटना कहूं, उससे शायद मेरी बात खयाल में आए।
एक ईसाई फकीर हुआ, अगस्तीन। तीस वर्षों से निरंतर प्रयास करता था परमात्मा की झलक पाने के लिए। कोई कोर-कसर न छोड़ी थी अपने प्रयास में। तीस वर्ष आंखें आंसू बहा-बहा कर भीग गई थीं। रात और दिन नहीं जानी थी, सोया नहीं था, भोजन नहीं किया था। उसकी ही आकांक्षा में, उसकी ही प्यास में, उसकी ही प्रार्थना में दिन और रात बिताए थे। सूख कर हड्डी हो गया था। लेकिन उसकी कोई झलक का पता न था। बल्कि जितने उसने प्रयास किए थे, जैसे वह उतने ही दूर होता चला गया था। वह दूर होता चला गया था, उसके प्रयास तीव्र होते चले गए थे। जितने प्रयास तीव्र होते गए, उतना वह और दूर होता चला गया।
एक दिन सुबह रात भर रोने के बाद उठा था वह और समुद्र के किनारे घूमने निकल गया था। कोई भी न था समुद्र के तट पर। अभी सूरज भी उगने को था। अचानक उसने देखा कि एक पत्थर के पास एक छोटा सा बच्चा खड़ा है। उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। वह खुद भी रात भर रोता रहा था। यह छोटा सा बच्चा समुद्र के किनारे आंखों में आंसू लिए क्यों खड़ा है यहां? कोई उसके साथ न था। अगस्तीन उसके पास गया और कहा: मेरे बेटे, क्यों रोते हो? क्या हो गया तुम्हें? और अकेले कैसे आए समुद्र-तट पर?
उस बच्चे ने कहा: रोने का कारण है। एक छोटी सी प्याली वह हाथ में लिए था। और उसने कहा: इस प्याली में मैं सागर को भरना चाहता हूं, सागर भरता नहीं है। इसलिए रोता हूं! क्या करूं न रोऊं तो? सागर को भर कर घर ले जाने का मन है मेरा। लेकिन सागर भरता नहीं है। प्याली छोटी पड़ जाती है।
उस बच्चे का यह कहना जैसे अगस्तीन के लिए परमात्मा की ध्वनि हो गई। वह खूब जोर से हंसने लगा। और उस बच्चे से बोला: तू ही ऐसी भूल में पड़ा हो, ऐसा नहीं, मैं भी ऐसी ही भूल में तीस साल से पड़ा हूं। अपनी बुद्धि की छोटी सी प्याली में परमात्मा के सागर को भरने के लिए मैं भी बहुत रोया हूं। यह हो भी सकता है कि तेरी प्याली में सागर कभी भर जाए, क्योंकि सागर की फिर भी सीमा है; लेकिन मेरी बुद्धि की प्याली में तो परमात्मा कैसे भरेगा, उसकी तो कोई सीमा नहीं है। अगस्तीन ने उस बच्चे से कहा: मैं तो अपनी प्याली तोड़े देता हूं।
अगस्तीन नाचता हुआ वापस लौट आया अपनी कुटी पर। उसके मित्र हैरान हुए। समझा शायद अगस्तीन को वह मिल गया, जिसके लिए उसके प्राण रोते रहे थे। वे सब उसके निकट इकट्टे हो गए। उसकी आंखों में आज बड़ी अदभुत ज्योति थी। आज उसके प्राणों में अदभुत पुलक थी। आज वह हर्षोन्माद से नाच रहा था। उन्होंने पूछा: अगस्तीन, मिल गया है क्या वह?
अगस्तीन ने कहा: नहीं, वह तो नहीं मिला, लेकिन मैंने खुद को खो दिया। और जिस क्षण मैंने खुद को खोया, मैंने पाया कि वह तो सदा से ही मिला हुआ है।
मनुष्य का अहंकार ही बाधा है परमात्मा को पाने में।
अप्रयास के क्षणों में कभी अचानक जब मनुष्य का अहंकार सोया होता है, अनुपस्थित होता है, उसकी एक झलक किनारे से निकल जाती है। जैसे ही उसकी झलक निकल जाती है, भीतर एक आनंद उमग उठता है। फिर उस आनंद को पकड़ने को हम लालायित हो जाते हैं, लोभी हो जाते हैं। फिर हम उसके पीछे दौड़ने लगते हैं। अहंकार वापस आ जाता है। ‘मैं फिर खड़ा हो जाता हूं, फिर उसे खोजता हूं, खोजता हूं, उस पर कोई हाथ नहीं पड़ता।’ अहंकार उसे कभी भी नहीं पा सका है।
इसलिए जिन मित्र ने पूछा है...
अगर अनायास उसकी झलक मिलती हो, तो फिर प्रयास न करें उसके लिए, क्योंकि प्रयास बाधा बन जाएगा। फिर ऐसे जीएं--बिना प्रयास के, बिना इफर्ट के, बिना कोशिश के। तब उसकी झलकें बढ़ती चली जाएंगी। और जिस दिन कोई कोशिश मन में न होगी उसे पाने की, उसी दिन वह उपलब्ध हो जाता है।
संसार और सत्य को पाने की दिशाएं बड़ी विपरीत हैं। संसार में कुछ भी पाना हो, तो प्रयत्न करना होता है, प्रयास करना होता है; क्योंकि संसार की सारी दौड़ अहंकार की दौड़ है। परमात्मा को पाने में बात बिलकुल उलटी है। वहां जो प्रयास करेगा, प्रयत्न करेगा, वह खो देगा उसे। वहां तो जो अप्रयास में छोड़ देगा अपने को, उसे पा लेगा।
नदी में कोई आदमी गिर पड़े, तो तैर भी सकता है और बह भी सकता है। जो तैरता है, वह प्रयास कर रहा है; जो बहता है, वह प्रयास नहीं कर रहा है। जो बहता है, फिर नदी की ताकत उसे बहाए ले जाती है; जो तैरता है, उसे अपने श्रम पर निर्भर रहना होता है। खुद के श्रम की सीमा है, थक जाएगा। लेकिन जो बहा है, उसके सामर्थ्य की कोई सीमा नहीं है, क्योंकि अपनी शक्ति उसने लगाई ही नहीं है।
परमात्मा की खोज में तैरने वाले लोग असफल हो जाते हैं, बहने वाले लोग सफल हो जाते हैं। तैरना सीखना पड़ता है, बहना नहीं। तैरना हमारी अस्मिता है, हमारी ईगो है--मैं पा लूं!
एक छोटी सी कहानी, फिर मैं दूसरे प्रश्न का उत्तर आपको दूं।
एक बड़ी झूठी कहानी, लेकिन बड़ी सच भी है। एक बहुत अदभुत मूर्तिकार हुआ। उसकी मृत्यु आ गई। वह डरा हुआ था, मृत्यु से बचना चाहता था। उसने अपनी ही बारह मूर्तियां बना लीं और उनमें छिप कर खड़ा हो गया। मौत भीतर आई, उसने उन मूर्तियों पर आंख डाली। वह मूर्तिकार भी श्वास को रोके उन्हीं मूर्तियों में छिपा था। मृत्यु पहचान न पाई, कौन है असली आदमी जिसे ले जाना है? वहां एक जैसे बारह लोग थे। मौत वापस लौट गई। और उसने परमात्मा को जाकर कहा: वहां तो एक जैसे बारह लोग हैं, मैं किसको लाऊं ?
परमात्मा ने मौत के कान में एक सूत्र कहा। कहा, इस सूत्र को बोल देना, जो असली आदमी है वह अपने आप बाहर निकल आएगा।
वह मौत वापस लौटी। वह फिर उस कमरे में गई, जहां पर मूर्तियों में छिपा हुआ मूर्तिकार खड़ा था। उसने जाकर मूर्तियों पर गौर से दृष्टि डाली और उसके बाद वह जोर से बोली: और तो सब ठीक है, एक छोटी सी भूल रह गई है।
वह मूर्तिकार बोल उठा: कौन सी भूल?
उस मृत्यु ने कहा: यही कि तुम अपने को नहीं भूल सकोगे। बाहर आ जाओ। तुम यह न भूल सके कि तुमने इन मूर्तियों को बनाया है। तुम यह न भूल सके कि तुम बनाने वाले हो। अगर इतना भी तुम भूल जाते, तो फिर तुम्हें खोजने का मेरे पास कोई उपाय न था।
अहंकार जहां खड़ा है, वहां मृत्यु से तो मिलन हो सकता है, लेकिन अमृत से नहीं।
जहां अहंकार नहीं है, वहां अमृत से मिलन है। वह अमृत ही परमात्मा है। वह अमृत ही आनंद है। वह अमृत ही सत्य है।
छोड़ दें अपने को, ताकि वह आ सके। मत अपने को बीच में खड़ा करें, ताकि दीवाल बन जाए। हमारे अतिरिक्त परमात्मा और हमारे बीच कोई भी नहीं है। हम जितना प्रयास करते हैं, उतना ही यह मेरा ‘मैं’ मजबूत होता चला जाता है। उतनी ही दीवाल मजबूत होती चली जाती है। उतनी ही उसकी झलकें मिलनी कठिन हो जाती हैं।
अपने को छोड़ दें, अपने को बिलकुल छोड़ दें, जैसे नहीं हैं। जिस क्षण आप नहीं हैं, उसी क्षण द्वार मिल जाता है।
कबीर ने कहा है: मैं बांस की एक पोंगरी हूं, एक बांसुरी हूं। उसके स्वर मेरे भीतर से बहते हैं। अगर मैं ठोस हो जाऊं, तो उसके स्वर बहने बंद हो जाएंगे। चूंकि मैं पोली हूं, भीतर ठोस नहीं हूं, उसके स्वर मुझसे बह पाते हैं।
हम जितने ठोस हैं, उतने ही उसके स्वर हमारे भीतर से नहीं बह पाते हैं। हम जितने खाली हो जाते हैं, रिक्त अपने ‘मैं’ से, अपने प्रयास से, उतने ही उसके स्वर हमारे भीतर बहने शुरू हो जाते हैं। वह तो निरंतर द्वार पर खड़ा है, लेकिन हमारे द्वार बंद हैं। और अपने ही अहंकार से बंद हैं।
इसलिए यदि अप्रयास में अनायास उसकी झलक मिली हो, तो यह सूत्र समझ लें, इसमें सारी बात छिपी है। इसमें यह छिपा है कि फिर प्रयास मत करें, छोड़ दें अपने को, उसकी झलकें मिलेंगी। और जिस दिन आप पूरा छोड़ देंगे, उस दिन वह पूरा मिल जाता है। अपने को हटा लें।
एक और मित्र ने पूछा है:
भगवान, जीवन में दुख ही दुख मालूम होता है, क्या करें? जीवन में सब बुरा-बुरा ही मालूम होता है, निराशा और उदासी मालूम होती है, क्या करें?
जीवन में न तो दुख है और न सुख। जीवन को तो जैसा हम देखने में समर्थ हो जाते हैं, वह वैसा ही हो जाता है। जीवन तो वैसा ही है, जैसी देखने की हमारे पास दृष्टि होती है। हमारे ही बीच इसी जीवन में वे लोग भी जीते हैं जो आनंद से भरे होते हैं और वे लोग भी जो दुख और अंधकार से। जीवन यही है, देखने की दृष्टियां भिन्न होती हैं। अगर हमने जीवन में उदासी और अंधकार और दुख और पीड़ा को ही देखने की दृष्टि को अर्जित कर लिया हो, तो जीवन के आनंद से हम वंचित रह जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं है।
मैंने सुना है, एक मां अपने बच्चे से परेशान थी। वह किसी भी तरह के भोजन में कोई रुचि न लेता था और हर तरह के भोजन में कुछ न कुछ आलोचना, शिकायत खड़ी कर देता था। वह किसी तरह के वस्त्रों में भी कोई रुचि न लेता था और हर तरह के वस्त्रों में कोई न कोई भूल-चूक खोज लेता था। वह किन्हीं मित्रों में भी कोई रुचि न लेता था और हर मित्र में कोई न कोई खराबी खोज लेता था। उसकी मां घबड़ा गई। उसका भविष्य सुखद न था।
जिसकी दृष्टि हर जगह भूल ही और अंधकारपूर्ण पक्ष को खोज लेने की हो, उसका जीवन नरक हो जाएगा।
तो वह घबड़ाई। उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले गई। सबसे बड़ा प्रश्न तो उसके भोजन का था। क्योंकि वह भोजन करना ही बंद कर दिया था। हर चीज में--दूध में उसे बास आती थी, रोटियां उसे पसंद न थीं। इस चीज में यह खराबी थी, उस चीज में वह खराबी थी। और सब तो ठीक था, लेकिन भोजन के बिना तो जीना भी कठिन है। वह एक बड़े मनोवैज्ञानिक के पास ले गई।
उस मनोवैज्ञानिक की बड़ी ख्याति थी। वह न मालूम कैसे-कैसे विक्षिप्त लोगों को भी ठीक कर चुका था। यह तो एक छोटा सा बच्चा था, अभी जीवन की शुरुआत थी। इसे ठीक करने में कौन सी कठिनाई होने वाली थी। उस मनोवैज्ञानिक ने उस बच्चे को बहुत तरह से समझाया। भोजन की खूबियां समझाईं, फायदे समझाए। बहुत अच्छी-अच्छी मिठाइयां बुलवाईं, उस बच्चे के सामने रखीं। लेकिन उसने कोई न कोई आलोचना निकाल दी। आलोचक था जन्मजात। उसने कोई न कोई बात निकाल दी कि इसमें यह भूल है, इसका रंग मुझे पसंद नहीं है, इसकी बास मुझे पसंद नहीं, इसे खाऊंगा तो वमन हो जाएगा।
मनोवैज्ञानिक भी थोड़ा घबड़ाया। लेकिन उसकी मां के सामने वह यह बताना नहीं चाहता था कि मैं घबड़ा गया हूं इस छोटे से बच्चे से। आखिर उसने उसी से पूछा कि फिर तू ही बता, इस जमीन पर कोई भी चीज तुझे खाने जैसी लगती है?
उसने कहा: हां, मैं केंचुए खाना पसंद करूंगा।
वह भी घबड़ाया कि वह... मां भी घबड़ाई। केंचुए! बाहर वर्षा के दिन थे और केंचुए बाहर थे। मनोवैज्ञानिक उससे हारना नहीं चाहता था। उसने सोचा कि शायद यह केंचुए खाने की बात कह कर मुझे डराना भर चाहता है, खाएगा कैसे! वह उस बच्चे से हारना नहीं चाहता था। वह बाहर गया और एक प्लेट में दस-पंद्रह केंचुए वर्षा से उठा कर ले आया। उस बच्चे के सामने रखे। उस बच्चे ने कहा: ऐसे नहीं, मैं तले हुए केंचुए खाना पसंद करूंगा! आपको शर्म नहीं आती, गैर-तली हुई चीज मुझे देते हैं!
नहीं हारना चाहता था वह मनोवैज्ञानिक। वह बेचारा गया, उन केंचुओं को तल कर लाया। उसके प्राण खुद घबड़ा रहे थे कि यह क्या कर रहा है। लेकिन उस बच्चे को वह चाहता था कि किसी भी तरह निकटता में ले ले, घनिष्टता बन जाए। उसकी कोई मांग पूरी हो जाए, तो शायद वह मेरी बातें समझ सके।
वह केंचुए लेकर आया। उस बच्चे ने कहा: इतने नहीं, मैं केवल एक केंचुआ खाना पसंद करूंगा। वह बाहर गया, सारे केंचुए फेंक कर एक केंचुआ ले आया। उसके सामने प्लेट पर रखा और कहा: लो खाओ।
उसने कहा: क्या मैं अकेला खाऊंगा, आधा आप खाइए!
नहीं हारना चाहता था वह। केंचुआ खाने का जरा भी मन नहीं था। प्राण घबड़ा रहे थे। लेकिन उस बच्चे को जीतना जरूरी था। तो वह आधा केंचुआ खा गया किसी तरह आंख बंद करके। और तब उसने बड़े गुस्से से उससे कहा--क्योंकि उसने केंचुआ उसको खिलवा दिया था--उस बच्चे से कहा: अब खाओ!
बच्चा रोने लगा। और उसने कहा: आपने मेरा आधा वाला, मेरा आधा वाला खा लिया। यह आपका आधा वाला है। आपने मेरा हिस्सा खा लिया।
उस मनोवैज्ञानिक ने हाथ जोड़े और उसकी मां से कहा: यह लाइलाज है। इसका इलाज करना बहुत मुश्किल है। इसे दिखाई ही नहीं पड़ता कुछ सिवाय शिकायत के!
हममें से भी बहुत लोग हैं, जिन्हें जीवन में सिवाय शिकायत के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
जीवन का कसूर नहीं है इसमें, हमारा ही कसूर है। हमारे देखने का ढंग गलत है। हमारी दृष्टि भूलभरी है।
एक आदमी चाहे तो गुलाब के फूल के एक पौधे के पास खड़ा होकर देख सकता है--ईश्वर की निंदा कर सकता है, क्रोध से भर सकता है, दुख और चिंता से कि कैसी है यह दुनिया, मुश्किल से एकाध फूल लगता है और हजार कांटे होते हैं। हजार कांटों में एक फूल के लिए कौन खुश हो। तो कोई देख सकता है कि हजारों कांटें हैं और एक फूल है, इसमें खुशी की बात क्या है। लेकिन कोई दूसरा व्यक्ति यह भी देख सकता है: कितनी अदभुत है यह दुनिया, जहां हजार कांटे लगते हैं, वहां भी एक फूल के पैदा होने की संभावना है। कोई ऐसा भी देख सकता है। और इस देखने के ऊपर निर्भर करेगा उनके पूरे जीवन का ढांचा, उनके पूरे जीवन की गतिविधि।
कोई आदमी देख सकता है: सूरज से चमकता हुआ एक दिन होता है और दोनों तरफ दो अंधेरी रातें होती हैं। और तब उसे लगेगा: दो अंधेरी रातें और बीच में छोटा सा प्रकाश-भरा दिन? कैसी बुरी है यह दुनिया! और कोई यह भी देख सकता है: दो चमकते हुए दिन, बीच में छोटी सी अंधेरी रात होती है। कितनी भली है यह दुनिया! यह हमारे देखने पर निर्भर होता है।
क्या हम जीवन के प्रकाशोज्ज्वल पक्ष को देखने को उत्सुक हुए हैं, या कि उसके अंधकारपूर्ण पक्ष को? असल में, हमारी आदत नहीं है यह।
एक प्रोफेसर अपनी कक्षा में अपने बच्चों को कोई बात समझा रहा था। पीछे एक ब्लैक-बोर्ड था। उसने उस पर एक बड़े कागज, सफेद कागज का टुकड़ा चिपकाया। उस कागज पर छोटा सा एक काला बिंदु बनाया। और फिर अपने विद्यार्थियों से पूछा: तुम्हें कुछ दिखाई पड़ता है, यहां क्या है? हर विद्यार्थी ने हाथ उठा दिए। सभी को दिखाई पड़ रहा था। और हरेक से उसने पूछा: क्या तुम्हें दिखाई पड़ता है? विद्यार्थियों ने कहा: एक छोटा सा काला बिंदु दिखाई पड़ता है। पूरी कक्षा में पूछने के बाद वह जोर से हंसने लगा। और उसने कहा: मैं हैरान हूं, इतना बड़ा यह सफेद कागज किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता! उस कागज पर बना हुआ छोटा सा काला बिंदु सबको दिखाई पड़ता है, इतना बड़ा सफेद कागज लगा है किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता!
एक विद्यार्थी न था उस कक्षा में जिसने यह कहा हो कि बोर्ड पर सफेद कागज मुझे दिखाई पड़ता है। नहीं, सफेद कागज पर काला बिंदु सबको दिखाई पड़ रहा था।
हम सारे लोग भी जीवन को इसी तरह देखते हैं। उसके फूल हमें दिखाई नहीं पड़ते, कांटे दिखाई पड़ते हैं। उसकी शुभ्रता हमें नहीं दिखाई पड़ती, उसकी कालिमा हमें दिखाई पड़ती है। उसका प्रेम हमें नहीं दिखाई पड़ता, उसकी घृणा दिखाई पड़ती है। उसका आनंद नहीं दिखाई पड़ता, उसका दुख दिखाई पड़ता है। और तब हम इसको संग्रह करते चले जाते हैं। फिर सारा चित्त हमारा इस तरह निर्मित हो जाता है कि फिर हम इसी को खोज पाते हैं, इसी को देख पाते हैं। और तब अगर जीवन नरक हो जाता हो तो आश्चर्य कैसा है?
जीवन स्वर्ग भी हो सकता है।
स्वर्ग और नरक मनुष्य के जीवन को देखने के दृष्टिकोण हैं। न तो नरक कहीं नीचे है और न कहीं स्वर्ग ऊपर, मनुष्य की दृष्टि में वे छिपे हैं। कैसे हम देखते हैं। तो यदि दुख पाना है, तो जीवन में अंधेरी रातों को खोजें। और अगर आनंद की तरफ आंखें उठानी हैं, तो जीवन में फूल भी खिलते हैं, उनको देखें। जो आप देखेंगे उससे आपकी दृष्टि, देखने की क्षमता, आपका एटिट्यूड निर्मित होता जाएगा, बनता जाएगा। आज अगर आप दिन भर फूल देखेंगे, तो कल फूलों को देखने की क्षमता आपकी विकसित हो जाएगी। अगर आज आप दिन भर कांटे देखेंगे, तो कल सुबह से ही कांटों से मिलना सुनिश्चित है।
तो रोज-रोज पल-पल जब हम जी रहे हैं, तब जीवन में प्रकाश कहीं हो, उसे खोजते हुए जीना चाहिए। आनंद कहीं हो, उसकी तलाश में जीना चाहिए।
एक फकीर एक रात अपने घर में बैठा हुआ था। कोई बारह बजे होंगे। कुछ पत्र लिखता था। और तभी किसी ने द्वार पर धक्का दिया। द्वार अटके थे, जिसने धक्का दिया था वह भीतर आ गया। जो आदमी भीतर आया था, उसकी कल्पना भी न थी कि फकीर जागता होगा। वह उस गांव का सबसे प्रमुख चोर था। लेकिन फकीर जागा हुआ था, तो वह घबड़ाया, उसने छुरा बाहर निकाल लिया। समझा कि कोई झगड़े-झंझट की स्थिति बनेगी। लेकिन फकीर ने कहा: मेरे मित्र, छुरा भीतर रख लो! तुम किसी बुरे आदमी के घर में नहीं आए हो कि छुरे की जरूरत पड़े। छुरा अंदर कर लो और बैठ जाओ। जरा मैं चिट्ठी पूरी कर लूं, फिर तुमसे बात करूं।
वह घबड़ाहट में बैठ गया। फकीर ने अपना पत्र पूरा किया और उससे कहा: कैसे आए इतनी रात? और इतना बड़ा नगर है, इतनी-इतनी बड़ी हवेलियां हैं, इतने-इतने बड़े महल हैं और तुमने मुझ गरीब की कुटिया पर ध्यान दिया! कैसे आए?
उस चोर ने कहा: अब आप जब पूछ ही लिए हैं, तो बताना जरूरी हो गया। और शायद आपसे मैं झूठ न बोल सकूं, मैं चोरी करने आया हूं।
फकीर ने ठंडी श्वास ली और उसने कहा: बड़े नासमझ हो! भलेमानुष, एकाध-दो दिन पहले खबर तो कर देते, तो मैं कुछ इंतजाम कर रखता। यह फकीर की झोपड़ी है, यहां हमेशा कुछ मिल जाए, यह तो बहुत मुश्किल है। और मुझे क्या पता था, आज सुबह ही एक आदमी कुछ रुपये भेंट करने आया था, मैंने वापस कर दिए। तुम्हारा अंदाज होता तो मैं रोक कर रखता। आगे जब भी आओ, ऐसा कभी मत करना कि बिना कहे, बिना खबर किए आ जाओ। थोड़े से रुपये पड़े हैं, नाराज न हो तो मैं उन्हें तुम्हें दे दूं। दस रुपये उसके पास थे। उसने कहा: उस आले पर दस रुपये रखे हैं, वह तुम ले लो।
वह चोर तो घबड़ाया हुआ था। उसकी समझ के बाहर थीं ये बातें। चोरी उसने बहुत की थी, लेकिन ऐसा आदमी कभी मिला न था। वह जल्दी से घबड़ाहट में दस रुपये उठाया, तो उस फकीर ने कहा: इतनी कृपा कर सकोगे क्या कि एक रुपया छोड़ दो। सुबह-सुबह मुझे जरूरत भी पड़ सकती है। एक रुपया मुझ पर उधारी रही, कभी न कभी चुका दूंगा। उसने जल्दी से रुपया रखा और वह भागने लगा बाहर, तो उस फकीर ने कहा: मेरे मित्र, रुपये तो कल खत्म हो जाएंगे, उन पर इतना भरोसा मत करो, कम से कम मुझे धन्यवाद तो देते जाओ, धन्यवाद बाद में भी काम पड़ सकता है। उस चोर ने उसे धन्यवाद दिया और वह चला गया।
बाद में वह पकड़ा गया। उस पर और चोरियां भी थीं, यह चोरी भी थी। इस फकीर को भी अदालत में जाना पड़ा। वह चोर घबड़ाया हुआ था कि अगर उस फकीर ने इतना भी कह दिया कि हां, यह आदमी चोरी करने आया था, तो फिर और किसी गवाही की कोई जरूरत नहीं है। वह इतना जाना-माना आदमी था। उसकी बात पर्याप्त प्रमाण हो जाएगी। वह डरा हुआ खड़ा था। मजिस्ट्रेट ने पूछा उस फकीर को: आप इस आदमी को पहचानते हैं?
उस फकीर ने कहा: पहचानने की बात कर रहे हैं? ये मेरे मित्र हैं। और मित्र तो तभी पहचाना जाता है न--दुख में जो अपने पर भरोसा करे, वही तो मित्र है। एक रात जब इस व्यक्ति को जरूरत पड़ गई थी, तो यह किसी महल में नहीं गया, मेरे झोपड़े पर आया था। मेरा मित्र है, मुझ पर विश्वास करता है।
मजिस्टे्रट ने पूछा: इसने आपकी कभी चोरी की थी?
उसने कहा: कभी भी नहीं। मैंने इसे नौ रुपये भेंट किए थे। और एक रुपया अब भी इसका मेरे ऊपर उधार है, जो मैं चुका नहीं पाया। वह मुझे इसका चुका देना है। और चोरी का तो सवाल ही नहीं है। मैंने इसे रुपये दिए थे, इसने मुझे धन्यवाद दे दिया था। बात समाप्त हो गई थी।
वह चोर तीन वर्ष बाद छूटा और उस फकीर के झोपड़े पर पहुंच गया। और उसने कहा कि उस दिन तुमने कहा था, मित्र हूं, और इन तीन वर्षों में मैं निरंतर सोचता रहा, तुम्हारे अतिरिक्त मेरा कोई भी मित्र नहीं है। और उस दिन तो रात आया था जाने को, अब न जाने को आ गया हूं। अब यहां से नहीं जाऊंगा। तुमने मेरी जिंदगी बदल दी, उस चोर ने कहा।
उस फकीर ने कहा: मैंने तो कुछ भी नहीं किया।
उस चोर ने कहा: तुम पहले आदमी हो जिंदगी में जिसने मेरे भीतर भी कुछ अच्छाई देखी। तुम पहले आदमी हो जिसने मेरी जिंदगी का कोई प्रकाशोज्जवल पहलू देखा। तुम पहले आदमी हो जिसने मेरी आत्मा को चुनौती दे दी। तुम पहले आदमी हो जिसने मेरे भीतर के सारे संगीत को खींच कर बाहर ला दिया। और तो जो भी मुझे मिला था, उसने मेरा अंधेरा पहलू देखा था। और जब सारी दुनिया मुझमें अंधकार देखती थी, तो मैं धीरे-धीरे उसी अंधकार में घिरता चला गया और उसी अंधकार को मैंने स्वीकार कर लिया था। तुमने मेरे जीवन को चुनौती दे दी। तुमने पहली दफा मुझे यह खयाल पैदा कर दिया: मैं भी एक अच्छा आदमी हो सकता हूं!
तो जब हम जीवन में आनंद को, शुभ को, मंगल को, प्रकाश को देखना शुरू करते हैं, तो न केवल हमारी दृष्टि आनंद से भर जाती है, बल्कि हम जहां भी मंगल और शुभ को देखते हैं, वहां भी हम चुनौती खड़ी कर देते हैं--उस व्यक्ति के लिए भी कि उसके भीतर से शुभ का आविर्भाव हो जाए और विकास हो जाए। यह दुनिया इतनी बुरी दिखाई पड़ रही है, इस कारण नहीं कि लोग इतने बुरे हैं, बल्कि इस कारण कि सभी लोगों को बुराई के अतिरिक्त देखने की और कोई आदत नहीं है।
और अगर इतने लोग यहां बैठे हैं, वे सभी मुझमें बुराई देखने लगें, और वे सभी मेरी बुराई की चर्चा करने लगें, और सभी मेरे अंधकार को उघाड़ने लगें, तो मैं कितनी देर, कितनी देर उनके खिलाफ खड़ा रह सकूंगा। धीरे-धीरे वे सब मिल कर मुझे विश्वास दिला देंगे कि मैं बुरा आदमी हूं। वे धीरे-धीरे मुझे इतने क्रोध से भर देंगे कि मुझे ऐसा लगेगा कि ठीक है तुम जो कहते हो, मैं उससे भी ज्यादा बुरा हूं। मेरे भीतर शुभ के आविर्भाव की सारी संभावना समाप्त हो जाएगी।
तिब्बत के एक गांव में मारपा नाम का एक साधु था। एक आदमी ने आकर मारपा से कहा: आप हमारे गांव चलिए, कुछ दिन वहां ठहरिए। मारपा ने कहा: उस गांव में जिस गांव से तुम आए हो, एक आदमी है जो बांसुरी बहुत अच्छी बजाता है। सुना है कभी, देखा है उसे? वह आदमी बोला: वह क्या बांसुरी बजाएगा! शराब पीता है, जुआ खेलता है, बेईमान है। वह क्या बांसुरी बजाएगा! मारपा ने कहा: मैं तुम्हारे गांव न जाऊंगा।
एक दूसरा आदमी उसके जाने के बाद आया और उसने कहा कि आप हमारे गांव चलें और यह चतुर्मास वहीं ठहर जाएं। मारपा ने कहा: मैंने सुना है, तुम्हारे गांव में एक आदमी है जो बांसुरी बजाता है। बहुत अच्छी बांसुरी बजाता है। सुना है कभी उसे? उस आदमी ने कहा: इतना बेईमान है वह, इतना चोर है, इतना निपट अनैतिक है, वह क्या बांसुरी बजाएगा! उसकी बांसुरी कौन सुनने जाएगा? मारपा ने कहा: रहने दो, तुम्हारे गांव मैं न जा सकूंगा।
और तीसरा आदमी उस सांझ को आया जिसका निमंत्रण उसने स्वीकार कर लिया। उस तीसरे आदमी से उसने कहा कि मैंने सुना है, तुम्हारे गांव में एक बेईमान और चोर, अनैतिक आदमी है। उसने कहा: मुझे पता नहीं है, लेकिन वह बांसुरी इतनी अच्छी बजाता है कि मैं मान नहीं सकता कि वह चोर हो सकता है!
उसने कहा: मैं तुम्हारे गांव चलता हूं। तुम्हारे गांव में जिंदगी की अच्छाइयां देखने वाले लोग हैं। जिस गांव में अच्छाइयां देखने वाले लोग हैं, वह गांव जमीन पर स्वर्ग बन जाता है।
हमने अपनी जमीन को नरक बना लिया है।
दुख बाहर नहीं है, हमारी दृष्टि में है। और आनंद भी बाहर नहीं है, वह भी हमारी दृष्टि में है।
इसलिए बाहर मत थोपें अपने दुख को, खुद की दृष्टि को समझें, खोजें, और उस दृष्टि में ही आपको कारण मिल जाएंगे। और बाहर की दुनिया अगर नरक हो, तब तो फिर कोई आदमी कभी आनंदित नहीं हो सकता है। क्योंकि बाहर की दुनिया को बदलने की सामर्थ्य किसमें है? लेकिन अगर भीतर की दृष्टि में नरक हो, तब यह हमारे हाथ में है कि हम स्वर्ग में प्रवेश कर जाएं; क्योंकि भीतर की दृष्टि कोई भी व्यक्ति जब चाहे अपनी बदल ले सकता है।
इसलिए मैं प्रार्थना करूंगा: अपनी दृष्टि में खोजें कि दुख कहां है? पीड़ा कहां है? वहां देखें। और वहां कारण स्पष्ट मिल जाएंगे। और उन कारणों को बदलना जरा भी कठिन नहीं है। क्योंकि कोई भी आदमी दुख में रहने को राजी नहीं है। अगर उसे यह पता चल जाए कि मैं ही अपने दुख का स्रष्टा हूं, तो इसको बदलने में कोई कठिनाई नहीं रह जाती। यह पता ही नहीं होता कि मैं ही अपने दुख का स्रष्टा हूं। हम समझते हैं कि बाकी सब लोग, बाकी दुनिया में दुख है। और इसलिए फिर हम पीड़ा में घुलते चले जाते हैं, घुलते चले जाते हैं, और कोई मार्ग नहीं मिलता।
मार्ग है, स्वयं में मार्ग है। इस तरफ थोड़ा विचार करेंगे, तो बात दिखाई पड़ सकती है।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, आपने कल कहा था कि आदमी जितना बाहर से सुंदर होता है, उतना ही अंदर से खराब होता है, इसके बारे में हमें आपको क्या समझना चाहिए?
बहुत ठीक बात पूछी है। लेकिन मेरी बात समझ नहीं पाए। मैंने यह नहीं कहा कि बाहर से जो सुंदर होता है, वह भीतर से खराब होता है। मैंने यह कहा, बाहर के सौंदर्य की खोज भीतर की कुरूपता को छिपाने के लिए होती है। इन दोनों बातों में बड़ा फर्क है। मैंने यह नहीं कहा कि बाहर से जो कुरूप होता है, वह भीतर से सुंदर होता है। न मैंने यह कहा है कि बाहर से जो सुंदर होता है, वह भीतर से कुरूप होता है।
मैंने कहा है यह कि बाहर के सौंदर्य की खोज, भीतर की कुरूपता को छिपाने का उपाय है। उससे कुरूपता छिप जाती है, लेकिन सुदंर नहीं बन पाती है। लेकिन जो भीतर की कुरूपता को खोज ले और भीतर के जीवन को सुंदर बना ले, वह बाहर से तो अपने आप सुंदर हो जाता है। बाहर के सुंदर हो जाने में कोई कठिनाई नहीं है। जिसके भीतर प्रकाश जल जाए, उसके तो बाहर भी प्रकाश फैल जाता है। जिसके भीतर सुगंध आ जाए, उसके बाहर भी सुगंध आ जाती है।
लेकिन भीतर की दुर्गंध को दबाने के लिए जो बाहर की सुगंध खोजता है, वह भूल में है। वह मैंने आपसे कहा था।
मैं तो सब तरह के सौंदर्य का प्रेमी हूं। लेकिन जिस सौंदर्य के पीछे कुरूपता छिपी हो, वह सौंदर्य खतरनाक है। इसलिए नहीं कि वह सौंदर्य है, बल्कि इसलिए कि वह एक बड़ी कुरूपता को छिपाने का आवरण बन गया है। और वह कुरूपता उसके कारण छिपी रह जाएगी।
एक बहुत पुरानी कथा है। पृथ्वी बन गई थी और सारे लोग उसमें आबाद हो गए थे। और तब अंत में परमात्मा ने सौंदर्य को और कुरूपता को बनाया। सौंदर्य और कुरूपता की देवियां आकाश से पृथ्वी पर उतरीं। आकाश से पृथ्वी तक आने में बहुत धूल-धवांस उनके कपड़ों पर पड़ गई। वे एक तालाब के किनारे रुकीं और उन्होंने कहा, हम स्नान कर लें। उन दोनों ने वस्त्र छोड़ दिए किनारे पर और वे तालाब में स्नान करने को उतर गईं। सौंदर्य की देवी तैरती हुई आगे निकल गई। शायद कुरूपता की देवी यह प्रतीक्षा ही कर रही थी कि वह थोड़ा आगे निकल जाए। वह शीघ्र बाहर निकली और उसने सौंदर्य की देवी के कपड़े पहने और भाग खड़ी हुई।
सौंदर्य की देवी ने देखा, कुरूपता की देवी उसके कपड़े पहन कर भाग गई थी। वह बाहर आई। वह नग्न ख़ड़ी थी। सुबह होने के करीब थी, गांव के लोग जगने लगे थे। अब सिवाय इसके कोई रास्ता न रहा कि वह कुरूपता के कपड़े पहन ले। नंगे रहना बड़ा मुश्किल था। उसने वह कपड़े पहने। वह सौंदर्य की देवी कुरूपता के कपड़े पहन कर कुरूपता की देवी के पीछे अब तक सुनते हैं भागी चली जा रही है। लेकिन वह कपड़े उसने अभी तक वापस नहीं लौटाए हैं। वह भागती ही चली जा रही है, भागती ही चली जा रही है।
कुरूपता सौंदर्य के वस्त्र पहन लेना चाहती है, ताकि छिप जाए।
मैंने यह कहा कि ऐसे बाह्य सौंदर्य की खोज में खयाल करना, कहीं भीतर की कुरूपता को छिपाने का आग्रह तो नहीं है? अगर है, तो भीतर की कुरूपता ही मिटाने की कोशिश करना, ढांकने की नहीं। वह मिट जाएगी, तो भीतर तो सुंदर होगा, उस सुंदर की किरणें बाहर तक फैल जाएंगी।
जीवन सुंदर हो, सर्वांग सुंदर हो, यह कौन न चाहेगा। लेकिन जीवन भीतर से बाहर की ओर सुंदर हो। बाहर से केवल सुंदर न हो। क्योंकि बाहर से सौंदर्य फिर बहुत खतरनाक हो जाता है, आत्मघात हो जाता है, आत्मवंचना हो जाती है।
और बाहर के सौंदर्य से मेरा मतलब आप समझ गए होंगे?
अगर ज्ञान की बात हो, तो हम बाहर से शब्द सीख लेते हैं और भीतर अज्ञान छिपा लेते हैं। अज्ञान कुरूप है। सुंदर-सुंदर शब्द सीख लेते हैं। शास्त्रों के वचन सीख लेते हैं। वे ऊपर से चिपक जाते हैं। भीतर, भीतर अज्ञान खड़ा रह जाता है। अगर नीति का सवाल हो, तो भीतर, भीतर वासनाएं सरकती रहती हैं, ऊपर हम ब्रह्मचर्य के व्रत ले लेते हैं। भीतर सेक्स खड़ा होता है, ऊपर ब्रह्मचर्य के वस्त्र खड़े हो जाते हैं। भीतर क्रोध होता है, ऊपर हम शांत मुख-मुद्राएं सीख लेते हैं। भीतर आंसू होते हैं, ऊपर हम मुस्कुराहट चिपका लेते हैं। ऐसा हम जीवन को धोखा दे देते हैं। भीतर कुछ होता है, बाहर हम कुछ हो जाते हैं। और यह, इससे इतना तनाव, इतना टेंशन पैदा होता है, क्योंकि हम प्रतिक्षण भीतर कुछ होते हैं जो हम असली हैं और बाहर हम कुछ होते हैं जो हम नकली हैं। और इन दोनों के बीच एक द्वंद्व, एक कांफ्लिक्ट चलती रहती है। जो जीवन के सारे आनंद को क्षीण कर देती है, सारी शक्ति को पी जाती है।
भीतर से क्रांति होनी चाहिए, बाहर से नहीं। भीतर से कुछ बदल आनी चाहिए, बाहर से नहीं। भीतर की बदल बाहर की बदल बन जाएगी, लेकिन बाहर की बदलाहट भीतर की बदलाहट नहीं बन सकती है। क्योंकि भीतर हैं हमारे प्राण, भीतर है हमारा केंद्र, भीतर हैं हमारी जड़ें। जो उन जड़ों को भूल जाता है और पत्तों की फिकर करता है, उसका वृक्ष आज नहीं कल सूख जाएगा। और तब फिर उसे प्लास्टिक के पत्ते लाकर बाहर लगा लेने पड़ेंगे। और प्लास्टिक के फूल बाजार से खरीद लाना पड़ेंगे। पहले कागज के फूल मिलते थे, अब उनसे भी ज्यादा मजबूत नकली फूल मिलने शुरू हो गए हैं--वे प्लास्टिक के हैं। उनको लगा कर घर में हम बैठे रह जा सकते हैं। धोखा हो सकता है किसी को फूलों का, लेकिन प्लास्टिक का फूल भी फूल है कोई? ऐसे ही हमने जिंदगी में भी प्लास्टिक के फूल खोज लिए हैं।
तो मैंने जो कहा... मैं फूलों का दुश्मन नहीं हूं, फूलों से मुझे प्रेम है। आपके घर में फूल हों, इससे ज्यादा खुशी की बात क्या है। लेकिन आप प्लास्टिक के फूलों को फूल समझ रहे हों, तो बड़ी गड़बड़ है। प्लास्टिक के फूलों के मैं विरोध में हूं। इसलिए विरोध में हूं कि वे नकली सिक्के, खोटे सिक्के असली सिक्कों को बाहर कर देते हैं बाजार के। झूठे फूल असली फूलों की हत्या हो जाते हैं। झूठा आचरण सच्चे आचरण के जन्म में बाधा बन जाता है। और जब हम इस तरह उत्सुक हो जाते हैं फूल-पत्तों को सम्हालने में और जड़ों को भूल जाते हैं, तो सारी गड़बड़ हो जाती है। इस जीवन में यही गड़बड़ हो गई है।
एक छोटी सी घटना आपको कहूं।
माओत्से तुंग छोटा था। उसकी मां की एक बहुत खूबसूरत बगिया थी। उस इलाके में उसकी मां से ज्यादा अच्छे फूल किसी की बगिया में नहीं आते थे। बड़े प्रेम से उसने उन फूलों को सींचा था और बड़े प्रेम से उनको सम्हाला था। प्रेम पुरस्कार लाता था और फूल बड़े अदभुत होते थे। फिर वह बूढ़ी मां बीमार पड़ गई। तो उसे अपनी बीमारी की चिंता न थी, न अपनी मौत की। फिकर थी उसे अपने फूलों की, जो कुम्हला न जाएं। अपने पौधों की, जो मुर्झा न जाएं। माओ छोटा था, उसने कहा: मां, तुम घबड़ाओ मत, मैं उनकी फिकर कर लूंगा।
पंद्रह दिन तक उसकी मां बीमार थी और माओ बगीचे में मेहनत करता रहा। रात सोया नहीं, रात-दिन मेहनत करता रहा। लेकिन कोई भी मेहनत कारगर न हुई, फूल सूखते गए, पौधे कुम्हलाते गए। घबड़ाया कि बात क्या थी? पंद्रह दिन बाद मां जब थोड़ी ठीक हुई, वह बाहर आई। तो वह रोने लगी। माओ भी रोने लगा। माओ ने कहा: मैंने पूरी मेहनत की, लेकिन न मालूम क्या हुआ, ये फूल तो सूख गए हैं और पौधे कुम्हला गए हैं। उसकी मां ने कहा: तुम तो दिन-रात बगीचे में रहते थे, करते क्या थे? उसने कहा: मैं एक-एक पत्ते की धूल झाड़ता था, एक-एक फूल पर पानी छिड़कता था, पता नहीं क्या हुआ ये सब सूखते चले गए?
उसकी मां हंसने लगी। उसने कहा: पागल हो तुम। फूलों में और पत्तों में थोड़े ही प्राण होते हैं। प्राण तो होते हैं जड़ों में, जो दिखाई नहीं पड़तीं।
उसने जड़ों को पानी ही नहीं दिया, वह फूल-पत्तों को सम्हालता रहा। उनको झाड़ता रहा, उनकी धूल निकालता रहा, उन पर थोड़ा-थोड़ा पानी छिड़कता रहा। छोटा बच्चा था, जड़ें उसको दिखाई नहीं पड़ीं। जड़ों का उसने कोई खयाल नहीं किया। जो दिखाई नहीं पड़ता, उसका खयाल भी कौन करता है। जो दिखाई पड़ता है, उसी का हम खयाल करते हैं। उसे पता भी न था कि जमीन के नीचे जड़ें हैं, जिनमें प्राण हैं। और अगर उनको पानी मिल जाए, तो फूल-पत्तों को अपने आप मिल जाएगा। लेकिन फूल-पत्तों को पानी देने से जड़ों को पानी नहीं मिल सकता है।
वह तो बच्चा था, लेकिन हम सब भी जिंदगी के बगीचे में ऐसे ही बच्चे हैं। फूल-पत्तों को सम्हालते हैं। जड़ों की हमें कोई फिकर नहीं। बल्कि हम पूछते हैं, जो चीज दिखाई नहीं पड़ती, वह है कहां?
मनुष्य के भीतर जो चेतना है, वह उसकी जड़ है। वहां हैं रूट्स। मनुष्य की जो आत्मा है, वह उसकी जड़ है, वह दिखाई नहीं पड़ती।
जड़ें कभी दिखाई नहीं पड़तीं। अदृश्य उनका काम है। वहां जो सम्हाल लेता है, उसके बाहर के जीवन में बहुत फूल आते हैं, बहुत सौंदर्य प्रकट होता है। बहुत सत्य, बहुत संगीत का जन्म होता है। लेकिन भीतर जो जड़ों को भूल जाता है और बाहर के फूल-पत्तों को सम्हालने में लग जाता है, उसका जीवन मुर्झा जाता है।
हम सबका जीवन ऐसे ही मुर्झा गया है। इस मुर्झाएपन को छिपाने के लिए हम फिर बाजार से फूल खरीद लाते हैं, पत्ते लगा लेते हैं। असली पौधा मर ही जाता है। धीरे-धीरे नकली पत्ते ही और फूल ही हमारे पास रह जाते हैं। फिर नकली जीवन में आनंद कैसे हो? फिर नकली और झूठे जीवन में सुवास कैसे हो? फिर नकली और झूठे जीवन में वह पुलक, थिरक और नृत्य कैसे हो? वह नहीं हो सकता। वहां प्राण ही नहीं हैं, तो यह सब कैसे होगा?
इसलिए मैंने कहा, भीतर के सौंदर्य को जगाना, भीतर की कुरूपता को छिपाना मत। उसे मिटाना है, इसलिए छिपाना मत। अगर बचाना हो, तो छिपा लेना। जिसे हम छिपाते हैं, वह बच जाता है। जिसे हम उघाड़ते हैं, उसके मिटने की शुरुआत हो जाती है। मैं समझता हूं, मेरी बात खयाल में आई होगी।
एक छोटा सा प्रश्न और, और फिर चर्चा मैं पूरी करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि माताएं, पत्नी, बहिन इत्यादि अपने प्रिय व्यक्ति को युद्ध में भेजती हैं, इसलिए उनका प्रेम झूठा है। परंतु मेरी समझ से वह त्याग है। और उनका देश-प्रेम व्यक्ति-प्रेम से बढ़ कर है। क्या यह सच है?
प्रेम सिर्फ प्रेम होता है। न तो वह व्यक्ति का होता है, न देश का, न मनुष्यता का, न परमात्मा का। जिस हृदय में प्रेम है, वह प्रेम किसी तरह की हिंसा और घृणा बर्दाश्त नहीं कर सकता। लेकिन हम बहुत होशियार लोग हैं, हम कहते हैं, हम मनुष्यता को प्रेम करते हैं। और मनुष्यों की हत्या किए चले जाते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है। मनुष्यों को छोड़ कर मनुष्यता कहीं है? कहीं खोजने जाइएगा ह्यूमैनिटी कहीं मिलेगी? मनुष्यता कहीं मिलेगी? जहां भी मिलेगा, मनुष्य मिलेगा, मनुष्यता कहीं भी नहीं मिलेगी। और हम कहते हैं कि हम मनुष्यता को इतना प्रेम करते हैं कि अगर जरूरत पड़े तो हम मनुष्यों की हत्या कर सकते हैं। बड़ी होशियारी की, बड़ी कनिंगनेस की, बड़ी चालाकी की बात है।
जिस आदमी के हृदय में प्रेम है, उसका कोई देश हो सकता है?
उसका कोई देश नहीं हो सकता, क्योंकि प्रेम की कोई सीमा नहीं है। जिस आदमी के हृदय में प्रेम है, सारे देश उसके अपने हैं। वह यह नहीं कह सकता है कि हिंदुस्तान मेरा और पाकिस्तान मेरा नहीं है। उसका प्रेम कोई सीमा नहीं मानेगा। देश-प्रेम के नाम पर हम सारी दुनिया के प्रति हमारी जो घृणा है, उसे छिपाने का उपाय करते हैं।
जमीन एक है। सारी रेखाएं मनुष्य के बीच पैदा होने वाले कुछ शरारती लोगों की करतूतें हैं। जमीन कहीं भी कटी हुई नहीं है, कहीं भी बंटी हुई नहीं है। जमीन पर कोई देश का बंटवारा धार्मिक नहीं है, राजनैतिक है। प्रेम का बंटवारा नहीं है यह, यह घृणा का और हिंसा का बंटवारा है। और फिर इन सीमाओं पर युद्ध खड़े होते हैं। और हम कहते हैं: हम अपने देश-प्रेम के लिए इन सीमाओं पर अपने लोगों की हत्या करवाएंगे और दूसरों की हत्या करेंगे। और वह दूसरी कौम के राजनीतिज्ञ भी यही समझाते हैं कि तुम भी अपने देश-प्रेम के लिए मरो और मारो।
और देश-प्रेम के नाम पर दुनिया में अब तक पांच हजार वर्षों में चौदह हजार युद्ध हुए हैं। हर वर्ष तीन युद्ध! चौदह हजार युद्ध पांच हजार वर्षों में देश-प्रेम के नाम पर! और आदमी कटता है और मरता है! लेकिन हम बहुत होशियार हैं। जब भी हमें कोई बुरा काम करना होता है, तो हम कोई ऊंचा नारा खोज लेते हैं: देश-प्रेम! मनुष्यता का प्रेम! धर्म का प्रेम! निहायत बेवकूफियों को हम अच्छे-अच्छे शब्दों में छिपा लेते हैं।
जिस मनुष्य के हृदय में प्रेम है, वह किसी भी मूल्य पर हिंसा के लिए राजी नहीं हो सकता है। वह किसी भी मूल्य पर हिंसा के लिए तैयार नहीं हो सकता है। और जो चीजें हिंसा लाती हैं, उन चीजों के लिए भी राजी नहीं हो सकता है। देश की सीमाएं हिंसा लाने वाली सीमाएं हैं।
जिस आदमी के हृदय में प्रेम है, वह इस बात के पक्ष में होगा कि दुनिया में राष्ट्र नहीं रह जाने चाहिए। वह इस बात के पक्ष में नहीं हो सकता कि राष्ट्र बचने चाहिए। वह इस बात के पक्ष में नहीं हो सकता कि शूद्र और ब्राह्मण और क्षत्रिय और वैश्य बचने चाहिए। वह इस पक्ष में नहीं हो सकता कि हिंदू-मुसलमान बचने चाहिए। वह इस पक्ष में होगा कि ये सारी सीमाएं युद्ध लाती हैं, हिंसा लाती हैं, इसलिए दुनिया में कोई भी सीमा नहीं बचनी चाहिए।
यह सारी देश-प्रेम की बातें हिटलर भी करता है, मुसोलिनी भी करता है, स्टैलिन भी करता है, माओ भी करता है, सारी दुनिया में सब करते हैं। और अंत में परिणाम क्या होता है इस देश-प्रेम का? युद्ध, हत्या और हिंसा! हम कब समझेंगे इस बात को कि देश-प्रेम के शब्द झूठे हैं।
मनुष्य के भीतर अगर प्रेम होता, जो कि नहीं है, लेकिन पैदा हो सकता है। और वह तभी पैदा होगा, जब हम इस बात को ठीक से समझ लें कि जिसे हम अभी प्रेम समझ रहे हैं, वह प्रेम नहीं है।
अभी हिंदुस्तान पर हमला हुआ पाकिस्तान का, या चीन का हमला हुआ; सारे हिंदुस्तान में लोग कहते हैं: प्रेम की लहर दौड़ गई, लोग इकट्ठे हो गए, लोग संगठित हो गए, एकता आ गई।
मैं आपसे पूछता हूं: यह प्रेम की एकता है या कि घृणा की एकता है? सामने दुश्मन खड़ा है, उसे नष्ट करने की कामना तीव्रता से पैदा होती है। उससे जूझने की, हत्या की, हिंसा की तीव्र लहर दौड़ती है, हम इकट्ठे हो जाते हैं। वह इकट्ठा होना, प्रेम का इकट्ठा होना नहीं है।
आज तक दुनिया में प्रेम का कोई संगठन नहीं बना। सब संगठन घृणा के, हेटरेड के हैं। फिर वह घृणा हट जाती है, युद्ध हट जाता है, हम फिर अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। वह सारी एकता विलीन हो जाती है। फिर महाष्ट्रियन गुजराती से लड़ने लगता है; फिर हिंदू मुसलमान से लड़ने लगता है; फिर दक्षिण भारतीय उत्तर भारतीय से लड़ने लगता है; हिंदी बोलने वाला गैर-हिंदी बोलने वाले से लड़ने लगता है।
हमारे भीतर प्रेम नहीं है--इस सत्य को मनुष्यता जिस दिन स्वीकार कर लेगी कि अभी हम प्रेम को जन्म नहीं दे पाए हैं, उस दिन मनुष्य के जीवन में एक सौभाग्य का उदय होगा। क्योंकि तब हम सोच सकेंगे कि कैसे प्रेम को जन्म दें? और जब तक हम इस इलूजन में, इस भ्रम में रहेंगे कि प्रेम हमारे भीतर है, तब तक तो फिर प्रेम को जन्म देने का विज्ञान भी सोचा-विचारा नहीं जा सकता है।
कुछ और बहुत प्रश्न हैं, वह मैं कल सुबह आपसे बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।