DHARAMDAS

Jas Panihar Dhare Sir Gagar 11

Eleventh Discourse from the series of 11 discourses - Jas Panihar Dhare Sir Gagar by Osho. These discourses were given during JAN 30 - FEB 10 1978.
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गांठ परी पिया बोले न हमसे।
माल मुलुक कछु संग न जैहे, नाहक बैर कियो है जग से।।
जो मैं जनितिउं पिया रिसियैहे, नाहक प्रीति लगाती न जग से।।
निसुवासर पिया संग मैं सूतिऊं, नैन अलसानी निकरि गए घर से।।
जस पनिहार धरे सिर गागर, सुरति न टरे बतरावत सब से।।
धरमदास बिनवै कर जोरी, साहिब कबीर को पावै भाग से।।

साहिब मोहिं दरसन दीजे हो, करुना-निधि मिहर करीजो हो।
पपिहा के चित स्वांति बसै, भावै नहिं जल दूजा हो।
जैसे काग जहाज चढ़े, वाको और न सूझा हो।।
बार-बार बिंनती करूं, मेरी अरज सुनीजे हो।
भवसागर से काढ़िके, अपना करि लीजे हो।।

झरि लागे महलिया, गगन घइराय।
खन गरजे खन बिजुली चमकै, लहर उठे सोभा बरनि न जाय।
सुन्न महल से अमृत बरसे, प्रेम अनंद होय साध नहाय।।
खुली किवरिया मिटो अंधियरिया, धन सतगुरु जिन दिया है लखाय।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय।।

मंगल

सतगुरु के उपदेश, फिरो घन बावरी।
उठि चलो आपन देस, इहै भल दाब री।।
हम कहि दिया है सनेस, तुम्हारे पीव का।
बिनु समझे नहिं काज, आपने जीव का।।
जुगन जुगन हम आइ कहा समुझाइकै।
बिनु समुझै धनि परिहौं, कालमुख जाइकै।।
गांठ परी पिया बोले न हमसे।
प्रेम के मार्ग पर प्रेम भी है और उससे भी ज्यादा प्रीतिकर भक्त और भगवान के बीच झगड़ा है। जहां प्रेम है वहां झगड़ा भी है। शत्रु ही नहीं लड़ते, मित्र भी लड़ते हैं।
लड़ाई हर हाल में बुरी नहीं होती। शांति भी हर हाल में भली नहीं होती। शत्रुओं के बीच शांति भी कुरूप होती है, मित्रों के बीच झगड़ा भी प्यारा होता है, सुंदर होता है।
प्रेमी का लड़ना प्रेम का अनिवार्य अंग है। मनस्विद कहते हैं, जो प्रेमी लड़ना बंद कर दें, समझना कि प्रेम समाप्त हो गया। जब तक प्रेमी लड़ते रहते हैं, तब तक समझना कि प्रेम जारी है।
और हर लड़ाई प्रेम को एक नई ऊंचाई पर ले आती है। एक नया आयाम, एक नया आकाश खुल जाता है। हर लड़ाई के बाद प्रेम फिर ताजा हो जाता है, नया हो जाता है, पुनरुज्जीवित हो जाता है। लड़ाई धूल को झाड़ देती है। दर्पण फिर ताजा हो जाता है। इसलिए प्रेमी लड़ाई का रस जानते हैं।
और भक्त और भगवान तो प्रेम की अंतिम घटना है; आत्यंतिक। उसके पार तो फिर और कोई प्रेम नहीं है। वहां झगड़ा भी बड़े अपूर्व रूप में प्रकट होता है।
गांठ परी पिया बोले न हमसे।
धनी धरमदास कहते हैं: बड़ी गांठ पड़ गई है, बड़ा झगड़ा हो गया है, बड़ा मनमुटाव हो गया है। परमात्मा हमसे बोल नहीं रहा है। पीठ किए खड़ा है। रूठ गया है। रूठने के इस तत्व को ठीक से समझो।
तेरे लड़ने में खुला मुझपे तेरे इश्क का हाल
तुझे इतनी थी मोहब्बत, मुझे मालूम न था
लड़ता ही कौन है? लड़ने योग्य कोई समझता ही कब है? इतनी झंझट कोई लेता कब है? जब प्रेम की गहराई होती है। तुम क्रोधित भी होते हो तो इसीलिए न, कि प्रेम किया! तुम अपने बेटे पर क्रोधित हो जाते हो; हर किसी पर तो नहीं। बेटे को चाहा है इसलिए।
पश्चिम में एक हवा चली पिछले तीस-चालीस वर्षों में। उसके बड़े दुष्परिणाम हुए। कुछ विचारकों ने समझाना शुरू किया कि अपने बच्चों पर नाराज नहीं होना चाहिए। और यह बात जंचती है कि बच्चों पर नाराज नहीं होना चाहिए। क्योंकि नाराजगी घाव बना देगी। यह नाराजगी का एक पहलू है। नाराजगी जरूर घाव बनाती है अगर ठंडी हो। नाराजगी अगर उष्ण हो तो तो घाव नहीं बनाती, फूल खिलाती है।
यह बात तर्क से ठीक मालूम हुई और पश्चिम में मां-बाप ने बच्चों पर नाराज होना बंद कर दिया। उसके बड़े दुष्परिणाम हुए। जब नाराजगी चली गई तो प्रेम भी चला गया। एक उपेक्षा आ गई। ठीक है, जिसको जो करना हो, करे। जिसको जो होना हो, हो जाए। नाराजगी के मरने के साथ पश्चिम में प्रेम मर गया। मां-बाप और बच्चों का संबंध दूर का हो गया।
जिस बाप ने अपने बेटे को कभी मारा नहीं वह बेटा अपने बाप को कभी क्षमा नहीं कर पाएगा। लेकिन क्रोध होना चाहिए उष्ण, जीवंत; ठंडा नहीं। ठंडा क्रोध खतरनाक है।
इसे समझना। दुनिया में सदा कहा गया है, क्रोध खतरनाक है, मैं तुमसे कहता हूं, ठंडा क्रोध खतरनाक है, गर्म क्रोध खतरनाक नहीं है। ठंडे क्रोध का अर्थ होता है, उपेक्षा से मारा, उपेक्षा से चोट की। ठंडे क्रोध का अर्थ है, क्रोध में प्रेम की कोई आभा नहीं थी। क्रोध में प्रेम की कोई भनक नहीं थी। क्रोध प्रेमशून्य था।
घृणा, उपेक्षा, इनसे भी क्रोध होता है लेकिन तब क्रोध में सौंदर्य नहीं होता, कुरूपता होती है। प्रेम भी क्रुद्ध होता है; होगा ही। जिसने तुम्हें चाहा है, जिसने तुम्हारे सौभाग्य की कामना की है, तुम्हें गलत जाते देख कर कभी वह रुष्ट भी होगा। अगर उसने चाहा है तो वह इतना भी करेगा; इतनी झंझट भी लेगा।
पश्चिम में मां-बाप और बच्चों की पीढ़ी में जो फासला पैदा हो गया है--जनरेशन गैप, जो पीढ़ियों का दुराव पैदा हुआ उसके पीछे यह गलत धारणा थी कि मां-बाप अपने बच्चों पर क्रोध करें ही नहीं। और आदमी की यह आदत है, जब वह किसी एक बात को पकड़ लेता है तो उसकी अतिशयोक्ति तक चला जाता है, उसके तार्किक अंत तक चला जाता है।
एक मनोवैज्ञानिक की कहानी मैंने सुनी है, एक स्त्री उसके पास आई है। वह अपने बेटे के संबंध में पूछ रही है क्योंकि बेटा बड़ी झंझटें पैदा कर रहा है। गलत काम कर रहा है, गलत रास्ते पकड़ रहा है, गलत आदतों में पड़ रहा है। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं, क्रोध मत करना तो वह मनोवैज्ञानिक से सलाह लेने आई है कि अब मैं करूं क्या? मनोवैज्ञानिक कहता है, क्रोध तो करना ही मत। क्रोध के तो बड़े दुष्परिणाम होंगे। बच्चे के भीतर गांठें पड़ जाएंगी। वह विकृत हो जाएगा। फिर बड़े मानसिक रोग पैदा होंगे बाद में। क्रोध तो करना ही मत।
वह स्त्री भरोसा नहीं कर पाती। वह पूछती है, तुम्हारा बेटा है? तुम ईमानदारी से कह सकते हो कि तुमने कभी अपने बेटे पर क्रोध नहीं किया, या अपने बेटे पर कभी हाथ नहीं उठाया? वह मनोवैज्ञानिक कहता है, अगर सच ही पूछती हो तो सच यह है--ऐसे तो मैं अपने बेटे पर कभी हाथ नहीं उठाता लेकिन आत्म-रक्षा के लिए कभी-कभी उठाता हूं। आत्मरक्षा के लिए!
प्रेम के साथ क्रोध भी महिमावान हो जाता है। यह कीमिया खयाल में रखना। प्रेम के साथ मिट्टी भी जुड़ जाए तो सोना हो जाती है। और अगर क्रोध को काट डाला तो तुम पाओगे, तुमने पंख काट डाले प्रेम के। जो आदमी क्रोध नहीं कर सकता वह आदमी प्रेम भी नहीं कर सकता।
इसलिए तो तुम्हारे तथाकथित साधु-संत प्रेम शून्य हो जाते हैं। क्योंकि उन्होंने सारी चेष्टा यही की है कि क्रोध न हो पाए। बस किसी तरह क्रोध को रोक लेना है। क्रोध तो रुक गया, साथ ही प्रेम भी रुक गया। कांटे तो नहीं ऊगते अब उनके बगीचे में लेकिन फूल भी नहीं ऊगते। यह कोई सौदा हुआ? कांटों की वजह से फूल न ऊगें, यह कोई समझदारी हुई? हजार कांटे ऊगें, अगर एक फूल भी निकल आता है तो झंझट उठाने जैसी है।
और इसका परम रूप प्रकट होता है भक्त और भगवान के बीच क्योंकि वहां प्रेम की आखिरी ऊंचाई है, आखिरी गहराई है। वहां भी झगड़ा उठता है--कभी भगवान की तरफ से, कभी भक्त की तरफ से।
गैर को जामे-शराब और हमें साफ जबाब?
याद रह जाएगी साकी यह इनायत तेरी
कभी भक्त को लगता है कि सब तरफ बरसा रहे हो, एक मुझे ही तरसा रहे हो?
गैर को जामे-शराब और हमें साफ जबाब?
याद रह जाएगी साकी यह इनायत तेरी
भूलेंगे नहीं, भूल नहीं पाएंगे यह बात।
बजाहिर मेरे लब हैं खामोश
लेकिन बड़ा शोर है मेरी तनहाइयों में
भक्त कहता है, चाहे कहूं और चाहे न कहूं; चाहे चुप रह जाऊं; अशोभन है यह सोच कर चुप रह जाऊं, तुम से क्या लड़ना यह सोचकर कुछ न कहूं--
बजाहिर मेरे लब हैं खामोश
लेकिन बड़ा शोर है मेरी तनहाइयों में
लेकिन मेरे अंतस से पूछो, वहां बड़ी नाराजगियां हैं, बड़ा शोर है।
यह स्वाभाविक है। क्योंकि भक्त की आकांक्षा क्या है, अभीप्सा क्या है? कि परमात्मा उसके दिल में बसे। और यह बड़ी मुश्किल से हो पाता है और कभी-कभी हो पाता है। और क्षण भर को होता है, फिर-फिर चूक जाता है। इतनी अभीप्सा कि सब दांव पर लगा दिया है। और बस कभी-कभी किरण मिलती है और वह भी पकड़ पाए इसके पहले खो जाती है। झलक मिलती है। झरोखा खुलता है और बंद हो जाता है। नाराज न हो तो क्या करे?
मेरे पल्लू में रहो, मेरी निगाहों में फिरो
मैं इसी बात की रखता हूं तमन्ना दिल में
जितनी बड़ी तमन्ना, जितनी बड़ी अभीप्सा, उतने ही विषाद के क्षण भी होंगे। सांसारिक आदमी क्या खाक विषाद जानेगा। उसने पाना ही चाहा क्षुद्र को है, न भी मिला तो उसका विषाद भी क्षुद्र होगा। धन पाने वाले को धन न मिला तो विषाद बहुत बड़ा नहीं हो सकता। पद पाने वाले को पद नहीं मिला तो विषाद क्या बड़ा होगा? जिसे पाने चले थे वही छोटा था। दो कौड़ी की चीज पाते तो कोई आनंद नहीं होने वाला था; नहीं पाई तो कोई विषाद नहीं हो जाएगा।
लेकिन जो परमात्मा को पाने चला है उसकी कठिनाई समझना; उसके रास्ते के उपद्रव समझना। उसका अभियान बड़ा है। और जितने ऊंचे शिखर पर चढ़ोगे उतने ही गिरने का डर भी है। गिरे तो बड़ी खाइयों में गिरोगे। सपाट जमीन पर चलने वाले खाइयों में नहीं गिरते। वे तो शिखरों पर चढ़ने वाले गिरते हैं।
तो भक्त ऊंचाइयां जानता है और नीचाइयां जानता है। भक्त कभी-कभी स्वर्ग को छू लेता है और कभी-कभी नरक में गिर जाता है। तुमने तो सिर्फ स्वर्ग और नरक शब्द सुने हैं। न तुमने कभी स्वर्ग को छुआ है और न कभी तुमने नरक को जाना है। ये शब्द तुम्हारे लिए कोरे शब्द हैं, भाषाकोश में लिखे हैं। भक्त इनका अनुभव करता है। अभी क्षण भर पहले स्वर्ग में उड़ा जाता था और क्षणभर बाद नरक के गहरे अंधेरे में पड़ जाता है। तुम उसकी पीड़ा समझो। और जिसने स्वर्ग का स्वाद जाना हो उसे नरक कितना कष्टपूर्ण हो जाता है।
तुम तो दुख में ही जी रहे हो। तुम्हें सुख की तो कभी कोई अनुभूति नहीं हुई है। इसलिए तुम दुख से आदी हो गए हो। तुम दुख के साथ राजी हो गए हो। दुख तुम्हें काटता भी नहीं है। तुम तो दुख को जिंदगी समझ लिए हो। तुम तो कहते हो, यही जिंदगी है। और कोई जिंदगी होती कहां है?
लेकिन जो उड़ा आकाश में और जिसने जाना कि उड़ान संभव है और जमीन बहुत पीछे छूट जाती है। और जिसने खुले आकाश का स्वातंत्र्य देखा, और जिसने चांद-तारों से क्षण भर को सही बातचीत की, वह जब जमीन पर वापस गिरता है, तुम उसकी पीड़ा न समझ पाओगे।
कदम फलक ही पर अहले तलक के पड़ते हैं
दयारे-इश्क में कोसों जमीं नहीं मिलती
आकाश पर पैर पड़ने लगते हैं। दयारे-इश्क में--उस प्रेम के रास्ते पर--कदम फलक ही पर अहले तलक के पड़ते हैं।
प्रेमियों के पैर आकाश पर पड़ने लगते हैं।
दयारे-इश्क में कोसों जमीं नहीं मिलती
लेकिन जब फिर मिलती है तो उस पीड़ा का तुम सिर्फ अनुमान ही कर सकोगे। उसी पीड़ा में भक्त नाराज होता है। उसी पीड़ा में कभी पूजा का थाल फेंक देता है। कभी आरती के दीये बुझा देता है। कभी मंदिर के द्वार बंद कर देता है।
रामकृष्ण के साथ निरंतर ऐसा होता था। कभी पूजा करते तो करते ही रहते। सुबह आई, कब सांझ हो गई, पता न चलता। और कभी दो-चार दिन के लिए पट बंद हो जाते तो मंदिर के खुलते ही नहीं।
मंदिर जो कमेटी चलाती थी उसको खबर लगी। रामकृष्ण को तो नौकरी पर रखा था। यह तो संयोग की बात थी कि रामकृष्ण जैसा आदमी मिल गया था। संयोग भी कहना नहीं चाहिए। दक्षिणेश्वर का मंदिर बनाया था एक महिला ने जो शूद्र थी। शूद्र का मंदिर था.धनी थी बहुत--रानी रासमणी। रानी का ओहदा था लेकिन शूद्र थी। तो कोई ब्राह्मण राजी नहीं होता था उसके मंदिर में पूजा करने को। कौन राजी हो शूद्र के मंदिर में पूजा करने को? शूद्र के मंदिर में तो भगवान भी शूद्र हो जाता है न! मंदिरों पर निर्भर है। ब्राह्मणों के मंदिर में भगवान ब्राह्मण होता है, शूद्रों के मंदिर में भगवान शूद्र हो जाता है। तुम्हारे साथ भगवान की भी तुम फजीहत करवाते हो।
मैं जबलपुर बहुत वर्षों तक रहा। वहां गणेश-उत्सव पर गणेश का जुलूस निकलता है। सब मोहल्लों में गणेश की झांकियां रखी जाती हैं, फिर सारे मोहल्लों के अलग-अलग लोग अपनी-अपनी झांकियां लेकर, फिर विशाल यात्रा में सम्मिलित होते हैं। वहां नियम है, पहले ब्राह्मणों के मोहल्ले का गणेश होता है, फिर दूसरा मोहल्ला, फिर तीसरा, फिर ऐसा.आखिर में चमारों के मोहल्ले का गणेश होता है।
एक बार ऐसा हुआ कि ब्राह्मणों के गणेश को आने में जरा देर हो गई। ब्राह्मणों का ही गणेश है! कोई ऐसी जल्दी भी क्या है? उनकी तो ठेकेदारी है। लेकिन जुलूस को निकालने में देर थी, इतनी देर नहीं की जा सकती थी, सांझ तक जुलूस पूरा होना चाहिए। तो जो पहले आ गया.चमारों के गणेश पहले आ गए थे तो चमारों के गणेश आगे हो गए। जब ब्राह्मणों के गणेश आए तो ब्राह्मणों ने जुलूस रुकवा दिया और कहा, हटाओ चमारों के गणेश को पीछे। गणेश चमार हो गए चमारों के साथ!
तो रासमणी ने जब मंदिर बनाया तो शूद्र का मंदिर था, कौन ब्राह्मण पूजा के लिए राजी हो? कोई असली ब्राह्मण ही राजी हो सकता था। रामकृष्ण राजी हो गए। रामकृष्ण पुजारी थे दक्षिणेश्वर में। अठारह रुपये महीना उनकी कुल तनख्वाह थी। उन दिनों लेकिन अठारह रुपये बहुत थे।
जब रानी रासमणी को खबर लगी और कमेटी को पता चला कि यह तो कुछ अजीब सा आदमी है, कुछ पागल सा आदमी है। कभी करता है पूजा तो दिन भर करता है। दिन भर करने को कहा किसने? एक घड़ी भर सुबह कर ली, घड़ी भर शाम कर दी, बस ठीक है। उपचार पूरा हो गया। यह कभी करता है तो सुबह से सांझ हो जाती है, रात भी हो जाती है। ऐसी भी खबरें आई हैं कि कभी-कभी रात-रात भर भी करता है, सोता ही नहीं। करता ही रहता है। कोई देखने वाला भी नहीं रहता और यह अकेला ही नाचता रहता है। और कभी-कभी दो-चार दिन के लिए दरवाजे पर ताला मार देता है।
पूछा बुला कर रामकृष्ण को। रामकृष्ण ने कहा: कभी-कभी झगड़ा हो जाता है इसलिए दरवाजा बंद कर देता हूं कि अब रहो! बैठे रहो भीतर! अब न कोई आएगा पूजा को, न कोई करेगा प्रार्थना। नाराज हो जाता हूं, रूठ जाता हूं। कभी-कभी वह भी रूठ जाते हैं। तो मैं पूजा करता हूं सुबह से सांझ तक और एक बार उन ओंठों पर मुस्कुराहट नहीं आती। नाचता ही रहता हूं, नाचता ही रहता हूं। वे भी रूठ जाते हैं तो मैं भी रूठ जाता हूं। ऐसा कभी-कभी झगड़ा हो जाता है।
यह तो कभी सुना नहीं था लोगों ने। उन्होंने कहा: तुम कहते क्या हो? पूजा तो नियम से रोज होनी चाहिए। तो रामकृष्ण ने कहा: नियम से पूजा करवानी हो तो किसी और को रख लो। पूजा तो भाव से होगी, नियम से नहीं होगी।
इसको खयाल में रखना। जो पूजा भाव से करता है वह कभी-कभी नाराज भी हो जाएगा। वह कहेगा, बैठे रहो। आज स्नान नहीं करवाएंगे। आज खड़े ही रहो। आज सुलाएंगे नहीं झूले में, बहुत हो गया झूला झुलाते।
यह जब भाव से उठता है तो इसमें रस है। इसमें अपूर्व रस है। जब यह भाव से उठता है तो यही पूजा है। इससे गहरी और पूजा क्या होगी? दूसरी तरफ भी यह बात इसी तरह घटती है। यह आग दोनों तरफ लगती है।
गांठ परी पिया बोले न हमसे।
धनी धरमदास कह रहे हैं, बड़ी गांठ पड़ गई है। झगड़ा जरा बढ़ गया है। प्यारा बोलता नहीं, पीठ किए खड़ा है।
मेरे रोने पे दुनिया हंस रही है
मुझे हंसने पे रोना आ रहा है
भक्त जब रोता है तो दुनिया हंसती है। दुनिया की समझ में नहीं आती यह क्या बात हो रही है? यह किससे बात हो रही है? तुमने रामकृष्ण को देखा होता काली के सामने खड़े होकर बात करते तो तुम चौंकते। तुम ज्यादा से ज्यादा यही कह सकते थे कि आदमी पागल है। मनोवैज्ञानिक यही कहेंगे, दिमाग खराब हो गया है। रुग्ण-चित्त की दशा है, हिस्टेरिकल है। क्योंकि तुम भीतर के तत्व को तो पकड़ नहीं पाओगे। तुम हंसते।
मेरे रोने पे दुनिया हंस रही है
मुझे हंसने पे रोना आ रहा है
और भक्त तुम्हें हंसते देख कर और रोता है। यह देख कर रोता है कि तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। तुम बीच में खड़े हो परमात्मा के और तुम्हें पता नहीं है। तुम सागर की मछली जैसे हो। सागर में हो और सागर का पता नहीं है।
इधर झगड़ा भी होता है, राह भी देखी जाती है। झगड़ा भी होता है, शिकायत भी की जाती है।
किसी रात आ जाएं वह चुपके-चुपके
कब आएगी वह इत्तेफाक की रात?
आते दिखाई नहीं पड़ता परमात्मा। पुकार है, प्रार्थना है, प्यास है। और उसकी तरफ से कोई उत्तर नहीं, कोई प्रतिसंवाद नहीं।
बंदा परवर, मैं वह बंदा हूं कि बहरे-बंदगी
जिसके आगे सर झुका दूंगा, खुदा हो जाएगा
तुम अपनी अकड़ में बैठे रहो। मैं जिसके सामने सिर झुका दूंगा, खुदा हो जाएगा।
मिलन के क्षण भी होते हैं--
कहके यह और कुछ कहा न गया
कि मुझे आपसे शिकायत है
वे घड़ियां भी आ जाती हैं जब आमना-सामना होता है।
इन बातों का तर्क से कोई भी संबंध नहीं है। तर्क से सोचा तो चूके। ये बातें अतर्क्य हैं। थोड़ा अनुभव, थोड़ा सजाओ पूजा का थाल। थोड़े दीये जलाओ, कभी-कभी डूबो, रोओ, मुस्कुराओ। कभी अनंत के साथ बांधो अपनी गांठ। सगाई ही करनी हो तो उससे ही करनी चाहिए। सात फेरे डालने हों तो उसी से डालने चाहिए। और सब विवाह झूठे हैं, कामचलाऊ हैं। विवाह तो उससे हो जाए, तो ही तुम्हारे जीवन में पहली दफा शाश्वत की थोड़ी सी धुन उठनी शुरू होगी। तो ही तुम्हारी वीणा छिड़ेगी। तुम्हारे भीतर सोया हुआ नाद जगेगा।
भक्त कहता है: मान लो तुमसे रूठ जाए कोई
तुम भला किस तरह मनाओगे?
तुम्हीं से पूछते हैं!
मान लो तुमसे रूठ जाए कोई
तुम भला किस तरह मनाओगे?
कभी डरता भी है।
और बिगड़ जाए न कहीं
बिगड़ी बात बनाने से
ऐसे सब मौसम आते हैं। सब भाव-भंगिमाएं उठती हैं। भक्ति का शास्त्र विराट है। ज्ञान का शास्त्र एकांगी है, भक्ति का शास्त्र अनेकांगी है; उसके बहुत पहलू हैं।
बुद्धि तो एक ही चाल जानती है--तर्क की चाल। हृदय और बहुत चालें जानता है। उड़ना भी जानता है, छलांग लगाना भी जानता है। अंधेरे में रोशनी पैदा करने की कला हृदय को आती है। जहर से अमृत बना लेने की रसायन हृदय को आती है।
ये थोड़े से दिन, जो हमने धरमदास के साथ बिताए, बड़े प्यारे थे। यह यात्रा मधुर थी। धनी धरमदास जैसा मार्गदर्शक मिले और यात्रा प्यारी न हो ऐसा तो हो नहीं सकता। लेकिन इसमें वे ही उतर पाए होंगे जिन्होंने अपनी बुद्धि को किनारे रख दिया होगा।
गांठ परी पिया बोले न हमसे।
माल मुलुक कछु संग न जैहे, नाहक बैर कियो है जग से।
धनी धरमदास कहते हैं: अब मेरी समझ में आ रहा है कि मेरा प्यारा मुझसे क्यों रूठ गया है! इसीलिए रूठ गया है कि मैंने क्षुद्र बातों पर अपने प्रेम को लुटाया और लगाया। मेरे प्रेम में अपवित्रता है।
माल मुलुक कछु संग न जैहे,.
न तो धन जाएगा, न पद जाएगा, न प्रतिष्ठा जाएगी और इसी पर मैंने अपने प्रेम को लगाया। इसके संग-साथ मेरा प्रेम कलुषित हो गया है। मेरे प्रेम में फूलों की ताजगी नहीं है। मेरे प्रेम में पक्षियों के पंख नहीं हैं। मेरे प्रेम में सूरज के किरण की उष्मा नहीं है। क्षुद्र के साथ लगाया, क्षुद्र हो गया।
ध्यान रखना, यह प्रेम का सूत्र है बुनियादी--जिससे प्रेम लगाओगे, प्रेम वैसा ही हो जाएगा। और प्रेम नहीं वैसा हो जाएगा, तुम भी वैसे हो जाओगे, क्योंकि प्रेम तुम्हारी आत्मा है।
जिसने धन से प्रेम लगाया, तुम उसके चेहरे पर देखो। वही घिसा-पिटा भाव जैसा चलते-फिरते नोटों में हो जाता है, बहुत दिन चले-फिरे नोट में हो जाता है घिसा-पिटा रंग; वैसा उस आदमी के चेहरे पर हो जाता है। जैसी घिसते-घिसते रुपये में एक तरह की घिनौनी चमक आ जाती है ऐसी घिनौनी चमक उस आदमी के चेहरे पर आ जाती है, जो बस रुपये ही गिनता रहा। तुम जरा गौर से देखो।
जो आदमी पद की ही यात्रा पर रहा है और दूसरों के कंधों पर पैर रख कर चढ़ने की जिसकी आदत है, जिसने आदमियों की सीढ़ियां बनाई हैं उसके चेहरे पर तुम कठोरता पाओगे, पथरीलापन पाओगे। वह हंसेगा भी तो भी उसकी हंसी झूठी मालूम पड़ेगी।
राजनीतिज्ञ हंसते हैं, उनकी हंसी तुम देखते हो? कैसी झूठी मालूम पड़ती है! मोरार जी देसाई हंसते हैं, उनकी हंसी देखते? बड़ा अभ्यास करना पड़ता होगा ऐसा मालूम पड़ता है। और ओंठों से ज्यादा गहरी जाती मालूम नहीं होती। ओंठ पर भी मुश्किल से आती मालूम होती है, खींच-तान कर लाई गई होती है। चेष्टा होती है, प्रयत्न होता है, नहीं तो चेहरा पथरीला है। उतना पत्थर होना जरूरी है, नहीं तो पद की यात्रा नहीं होती।
पद की यात्रा के लिए अहंकार चाहिए। अहंकार आदमी के भीतर सारे कोमल तंतुओं को तोड़ डालता है। अहंकार आदमी को जड़ बना देता है। अहंकार आदमी के भीतर से प्रेम के सारे स्रोत सुखा देता है। अहंकार बस एक बात जानता है--और ऊपर, और ऊपर, और ऊपर। और अहंकार सिर्फ लेना जानता है, देना नहीं जानता। अहंकार लोभ है।
धरमदास कहते हैं, मैं जानता हूं कि तुम क्यों रूठ गए। तुम रूठ गए हो क्योंकि मेरा प्रेम अपवित्र है। क्योंकि मैंने प्रेम गलत से लगाया था। गलत की छाया मेरे प्रेम पर पड़ गई है।
माल मुलुक कछु संग न जैहे,.
अब समझ में आ रहा है कि यह कुछ साथ नहीं जाएगा। लेकिन बहुत समय गंवाया इसी में।
.नाहक बैर कियो है जग से।
और इधर तुम रूठ गए और इसी माल-मुलुक के लिए मैंने सारे जग से भी झगड़ा लिया। ध्यान रखना, जब तुम धन के पीछे दीवाने हो तो जितने लोग धन के पीछे दीवाने हैं वे सब तुम्हारे दुश्मन, तुम उनके दुश्मन। जब तुम पद के लिए दीवाने हो तो जितने लोग पद के लिए दीवाने हैं वे तुम्हारे दुश्मन, तुम उनके दुश्मन।
राजनीति में दोस्ती होती ही नहीं। दोस्ती दिखावा होती है, दुश्मनी असली होती है। और यह मत सोचना कि जो विरोधी होते हैं राजनीति में वे दुश्मन होते हैं। वे तो होते ही हैं, राजनीतिज्ञ के पास जो निकटतम होता है वह भी उतना ही दुश्मन होता है। क्योंकि उसको भी पद की दौड़ है। वही पद उसे भी चाहिए। राजनीति में दोस्ती होती ही नहीं; हो ही नहीं सकती। दोस्ती तो सिर्फ धर्म जानता है। और अगर धर्म में भी दोस्ती न हो तो समझना कि राजनीति है। फिर वह भी पद की ही दौड़ है। फिर वह भी अहंकार की ही यात्रा है।
धरमदास कहते हैं कि दोहरी झंझट ले ली। इधर तुम नाराज होकर बैठ गए क्योंकि मैंने गलत से प्रेम लगाया। उधर सारी दुनिया से बैर लिया क्योंकि वे भी सब गलत के लिए आकांक्षा से भरे थे।
एक और बात खयाल में लेना कि जब तुम गलत की आकांक्षा से भरते हो, प्रतिस्पर्धा होगी, प्रतियोगिता होगी। और जब तुम सही की आकांक्षा से भरते हो तो कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती, कोई प्रतियोगिता नहीं होती। क्यों? क्योंकि गलत की सीमा है और सही की कोई सीमा नहीं है, इसलिए सही में कोई खतरा नहीं है। अगर तुम भगवान को पा लो तो इससे यह नहीं होता कि मैं भगवान को नहीं पा सकूंगा। तुम्हारा भगवान का पा लेना मेरे भगवान के पा लेने में बाधा नहीं बनता। सचाई तो यह है, अगर तुमने भगवान को पा लिया तो मेरे भगवान के पाने में सुगमता हो जाती है। यह भरोसा आ जाता है कि एक आदमी को मिल सका तो मुझे भी मिल सकेगा।
लेकिन धन के मामले में बात दूसरी है। तुमने पा लिया तो मैं चूका। मैंने पा लिया तो तुम चूके। एक आदमी धनी बने तो हजारों को गरीब हो जाना जरूरी है। लेकिन एक आदमी ध्यानी बने तो हजारों लोगों को ध्यान से रिक्त रह जाना आवश्यक नहीं है। सच तो यह है, एक आदमी के ध्यानी बनने में हजारों लोगों के लिए ध्यानी बनने का मार्ग खुल जाता है।
बुद्ध के पास जो लोग इकट्ठे हो गए वे किसलिए इकट्ठे हो गए थे? महावीर के पास जो लोग इकट्ठे हो गए वे किसलिए इकट्ठे हो गए थे? कबीर और नानक के पास दूर-दूर से चल कर जो लोग आ गए वे किसलिए आ गए थे? ध्यान उपलब्ध हुआ था। ध्यान का धन ऐसा है कि एक को मिले तो सबको मिलने के लिए रास्ता खुल जाता है। लेकिन और धन ऐसे नहीं हैं।
अब किसी को प्रधानमंत्री होना है तो एक ही हो सकता है। साठ करोड़ के मुल्क में एक प्रधानमंत्री! तो निश्चित ही छीना-झपटी होने ही वाली है। गलाघोंट छीना-झपटी होने वाली है। आगे से छुरे, पीछे से छुरे, सब तरफ से छुरेबाजी होने की है क्योंकि एक ही पहुंच सकता है। एक आदमी साठ करोड़ की दुश्मनी करे, तब प्रधानमंत्री हो सकता है।
इसलिए इस जगत में मित्रता खो गई है। मित्रता यहां हो ही नहीं सकती। हम बचपन से ही महत्वाकांक्षा का जहर भर देते हैं। छोटा सा बच्चा स्कूल जाता है, और तुमने उसको जहर भरना शुरू कर दिया। तुम उससे कहते हो, प्रथम आना अपनी कक्षा में। तुम क्या कह रहे हो तुम्हें पता है? तुम यह कह रहे हो कि जो तीस बच्चे तुम्हारे साथ पढ़ते हैं वे दुश्मन हैं। तुम्हें प्रथम आना है। उनके मां-बाप ने भी कहा है उनको कि प्रथम आना है। तुम तीस बच्चों को लड़ाना शुरू कर रहे हो। तुमने राजनीति शुरू कर दी।
तुम्हारा सारा शिक्षाशास्त्र राजनीति का अंग है। हर बच्चे को तुम विकृत कर देते हो। और फिर बड़ा मजा यह है कि राजनीतिज्ञ समझाते हैं विश्वविद्यालयों में जाकर कि विद्यार्थियों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए। और तुम्हारी पूरी शिक्षा राजनीति का ही विस्तार है।
कब वह सौभाग्य का दिन आएगा जब बच्चे स्कूल में वस्तुतः मित्र हो सकेंगे? वह दिन तभी आ सकता है जब महत्वाकांक्षा न होगी। स्कूल जब कुछ इस तरह की बातें सिखाएंगे जिसमें एक के मिलने से दूसरे की हानि नहीं होती। जब ध्यान सिखाएंगे, जब प्रेम सिखाएंगे, जब परमात्मा सिखाएंगे तो फिर कोई अड़चन न होगी।
धनी धरमदास कहते हैं, दोहरी झंझट कर ली मैंने। इधर तुझे नाराज कर दिया क्योंकि क्षुद्र से प्रेम लगाया, प्रेम तेरे योग्य न रहा, तू पीठ करके खड़ा है। इधर मैं पुकारता हूं और तू देखता नहीं। तेरे मेरे बीच यह गांठ पड़ गई। और उधर सारी दुनिया को भी बैरी बना लिया।
माल मुलुक कछु संग न जैहे, नाहक बैर कियो है जग से।।
जो मैं जनितिउं पिया रिसियैहे, नाहक प्रीति लगाती न जग से।।
कहते हैं, अगर मुझे पता होता कि तुम रिसिया जाओगे, तुम नाराज हो जाओगे, तुम रूठ जाओगे, तुम पीठ कर लोगे तो मैंने कभी जग से कोई प्रेम न लगाया होता।
लेकिन यह तो लगा-लगा कर ही पता चलता है इसका पता भी तो नहीं चलता बिना लगाए। इस जिंदगी में कहां-कहां गड्ढे हैं, गिर कर ही पता चलता है।
मेरे पास कोई आ जाता है, वह कहता है मुझे किसी स्त्री से प्रेम हो गया। मैं कहता हूं, गिरो। मैं पूरी सहायता देता हूं कि गिरो। मेरा आशीर्वाद जितनी जल्दी गिरो, उतनी जल्दी जगो। देर मत करो। क्योंकि गड्ढों का पता गिर कर ही पता चलता है।
कोई कहता है, मुझे किसी पुरुष से प्रेम हो गया है। मैं कहता हूं, जाओ। इस नरक से गुजरना जरूरी है। शायद तुम्हारी भावनाओं का खयाल करके मैं इतना साफ कहता भी नहीं कि इस नरक से गुजरना जरूरी है। तुम्हारी भावनाओं का खयाल करके कहता हूं कि स्वर्ग है, जाओ।
लेकिन आशा यही रखता हूं कि पीड़ा से ही तुम्हें अनुभव होगा। भटकने से ही तुम समझोगे एक दिन कि यहां के सब प्रेम गड्ढे हैं। यहां कोई प्रेम परिपूर्ति नहीं लाता।
और तब एक दिन तुम्हें धनी धरमदास की बात समझ में आएगी कि क्षुद्र से प्रेम लगाते-लगाते प्रेम भी क्षुद्र हो गया। अब इसको विराट को कैसे चढ़ाएं? अब यही मन, जो किसी पुरुष के चरणों में चढ़ा दिया था, किसी स्त्री के चरणों में चढ़ा दिया था, यही चित्त जो किसी वेश्या के पीछे भागा-फिरता था, जो पद के लिए लोलुप था, जिसे रात नींद नहीं आती थी और सोचता था, यह चुनाव तो चूकना ही नहीं है। इसी चित्त को अब परमात्मा के चरणों में किस मुंह से रखें? यह चित्त रखने योग्य नहीं रहा। इसको इतनी जगह रख चुके हैं, इतने चरणों में चढ़ा चुके हैं कि अब यह उन परम चरणों के योग्य नहीं रहा।
इसी पीड़ा में चित्त धुलता है। इसी रुदन में, इन्हीं आंसुओं में चित्त साफ हो जाता है, फिर परमात्मा के योग्य हो जाता है। इस सारे संसार का जो-जो मैल तुम्हारे ऊपर जम जाता है, भक्त कहता है, अगर तुम ठीक से रो पाओ, बह जाएगा।
त्यागी कहता है त्याग करो, योगी कहता है योग करो, लेकिन भक्त सुगमतम बात कहता है; भक्त कहता है, आंखों को आंसुओं से भरो। क्योंकि योग के करने में भी हो सकता है, अहंकार मजबूत हो जाए। अक्सर हो जाता है। तुम जैसा तुम्हारे महात्मा को देखोगे दंभ से भरा हुआ, वैसा तुम किसी को न देखोगे। उसकी अकड़ देखो। वह धार्मिक है, महात्मा है। वह अकड़ कर चलता है। उसने इतना योग किया, इतना त्याग किया, इतने व्रत किए, अकड़े नहीं तो क्या करे? उसके पास काफी पुण्य की संपदा है।
मगर सब संपदा ठीकरा है। पाप की संपदा तो व्यर्थ है ही, पुण्य की संपदा भी व्यर्थ है। क्योंकि पुण्य से भी अहंकार ही मजबूत होगा। और जहां अहंकार मजबूत होता है वहां छिपा हुआ पाप है। इसको खयाल में लेना। भक्त कहते हैं, उसके सामने तो रोओ। उसके सामने तो सब तरफ से दीन हो जाओ। उसके सामने तो अपने को उघाड़ दो, नग्न कर दो। अपने सब घाव दिखा दो। उस परम चिकित्सक को अपने घाव न दिखाओगे तो किसको दिखाओगे?
उसकी मौजूदगी में अगर तुमने अपने को खोल दिया जैसे तुम हो--बुरे-भले, बस उसी खोलने में स्वास्थ्य है। उसी खोलने में तुम पाओगे, घाव भर गए। और तुम्हारे आंसू तुम्हें शुद्ध कर जाएंगे। आंसुओं से ज्यादा पवित्र करने वाली और कोई गंगा नहीं है। जिनके पास आंसू नहीं हैं वे गंगा जाएं। जिनके पास आंसू हैं, गंगा उनके पास है।
जो मैं जनितिउं पिया रिसियै है, नाहक प्रीति लगाती न जग से।।
निसुवासर पिया संग मैं सूतिऊं, नैन अलसानी निकरि गए घर से।।
एक परम अनुभव की बात कह रहे हैं। कह रहे हैं कि कभी-कभी संग-साथ भी जुड़ जाता है। ऐसा नहीं कि गांठ सदा ही पड़ी रहती है। कभी-कभी वैसे अमूल्य क्षण भी आते हैं जब साथ जुड़ जाता है, जब प्रिय से मिलन हो जाता है। मगर फिर मैं झपकी खा जाती हूं, आंख लग जाती है। और जैसे ही मेरी आंख लगती है कि वे घर से निकल जाते हैं। वे तो सिर्फ जाग्रत चित्त में निवास करते हैं।
परमात्मा सिर्फ जाग्रत चित्त में ही आवास कर सकता है, सोए हुए चित्त में नहीं। तो जब तुम जागते हो, तब उसे पाते हो करीब। जब तुम सो जाते हो तब वह दूर हो जाता है। जैसे ही तुम्हारी मूर्च्छा आई, परमात्मा से संबंध टूट गया। जैसे ही मूर्च्छा हटी, संबंध जुड़ गया।
सुरति चाहिए। सुरति यानी होश। सुरति शब्द आया है बुद्ध के स्मृति शब्द से। बुद्ध ने बहुत जोर दिया है सम्मा सति: सम्यक स्मृति पर। ठीक-ठीक होश से जीओ। वही शब्द--बुद्ध का स्मृति धीरे-धीरे, धीरे-धीरे बदलते-बदलते रूप संतों का सुरति हो गया। सुरति का अर्थ होता है: भीतर रोशनी हो, जागरण हो।
तुम सोए ही सोए हो। तुम सोए ही सुबह उठ आते हो, काम-धाम भी कर लेते हो, बाजार भी हो आते हो, दुकान भी चला लेते हो मगर तुम्हारी नींद नहीं टूटती। यह कौन सी नींद है? यह नींद है आत्म-विस्मरण की। तुम्हें अपनी याद नहीं; और तुम्हें सब याद है। तुम्हें दूसरे दिखाई पड़ते हैं सिर्फ तुम ही तुमको नहीं दिखाई पड़ते। तुम्हारी आंखें दूसरों को देखती हैं लेकिन स्वयं को नहीं देख पातीं। भीतर ही नहीं मुड़तीं तो स्वयं को देखें कैसे? तुम बाहर ही बाहर झांकते रहते हो, अपने भीतर टटोलते ही नहीं। तो होश आए कहां से?
धनी धरमदास कहते हैं:
निसुवासर पिया संग मैं सूतिऊं,.
चाहती थी कि तुम जब मिल जाते हो तो रात-दिन तुम्हारे साथ सोऊं, तुम्हारे साथ रहूं। तुम्हारी छाया हो जाऊं, तुम्हारे साथ एकात्म हो जाए। मगर एक बड़ी मुश्किल है--
.नैन अलसानी निकरि गए घर से।
इधर मेरी आंख झपकी कि तुम नदारद।
जागरण परमात्मा के होने की शर्त है। होश परमात्मा के होने की शर्त है। कहो ध्यान, या जो नाम तुम्हें पसंद हो। लेकिन ध्यान के मंदिर में ही परमात्मा विराजमान होता है। ध्यान के सिंहासन पर ही विराजमान होता है। ध्यान का इससे प्यारा और कोई दृष्टांत नहीं हो सकता।
जस पनिहार धरे सिर गागर, सुरति न टरे बतरावत सबसे।
यह ध्यान की परिभाषा है--सुगम, सीधी, साफ, सूक्ष्म। और ध्यान की पूरी आत्मा इसमें समा जाती है।
जस पनिहार धरे सिर सागर,.
तुमने कभी देखा, गांव में ग्रामीण स्त्रियां सिर पर गागर रख कर, पानी भर कर कुएं से लौटती हैं या नदी-तट से। हाथ भी नहीं लगातीं, गपशप भी करती हैं, बातचीत करती हैं, गीत भी गाती हैं, हंसी-ठिठोली भी करती हैं, राह पर कोई मिल जाता है उससे भी बातचीत हो जाती है, साथ में चलती सहेलियों से भी बात होती है और गागर सिर पर रखी है। और हाथ का सहारा भी नहीं दिया हुआ है लेकिन भीतर होश बना रहता है कि गागर सिर पर है।
तुमने एक प्रसिद्ध कहानी शायद सुनी हो। एक युवा संन्यासी अपने गुरु के आश्रम में वर्षों तक रहा, लेकिन ध्यान उपलब्ध न हो सका। गुरु ने कहा: तू ऐसा कर, इस देश का जो सम्राट है, अब तू उसके पास चला जा। वहीं तू सीख सके तो सीख सके। उस युवक ने कहा: आप जैसे परम ज्ञानी के पास रह कर मैं न सीख सका तो एक संसारी सम्राट के पास कैसे सीख सकूंगा? गुरु ने कहा: तू मेरी मान। तूने मेरी अब तक नहीं मानी इसीलिए नहीं सीख सका। अब भी तू नहीं मान रहा है। तू जा।
अब जब गुरु ने ऐसा कहा तो बेमन से वह गया। सोचता तो था कि यहां क्या मिलेगा! इस सम्राट को तो मैं ही कुछ सिखा सकता हूं। इतने दिन वेदपाठ किया, उपनिषद कंठस्थ हैं, गीता याद है, इसको तो मैं ही सिखा दूंगा।
गया सम्राट के पास। जब पहुंचा तो महात्मा आया है दूर आश्रम से, जंगल से--पुरानी कहानी है--तो तत्क्षण उसे ले जाया गया। देख कर तो दंग रह गया। उसकी अपनी धारणाएं ही सत्य सिद्ध हुईं। सोचा मन में कि गुरु को कुछ पता नहीं है। वे जंगल में रहते हैं, उन्हें मालूम नहीं यहां क्या चल रहा है।
सम्राट बैठा था अपने दरबार में। शराब के दौर चल रहे थे, वेश्या नाच रही थी। उस संन्यासी ने कहा: क्षमा करिए, मेरे गुरु ने जिद की इसलिए मैं आ गया हूं। और अभी लौट जाता हूं क्योंकि ऐसी पाप की जगह में मैं खड़ा भी नहीं होना चाहता।
सम्राट ने कहा: आप आ गए, बड़ी कृपा की। पर उन्होंने भेजा है--आपके गुरु ने, उन्हें मैं जानता हूं। उन्होंने भेजा है तो किसी कारण से भेजा है। अब आ ही गए हैं तो रात तो रुक ही जाएं। सुबह फिर बैठ कर आराम से बात कर लेंगे और फिर आपको जंगल वापस पहुंचवा देंगे। रथ जाकर छोड़ आएगा। उसने भी सोचा कि थका-मांदा है, फिर अब चलना--रात सो जाना ही ठीक है। सुबह रथ पर लौट जाएगा। रात सो गया।
सब तरह से उसका स्वागत किया गया। सम्राट ने खुद बैठ कर पंखा झला, जब वह भोजन कर रहा था। अच्छे से अच्छा भोजन। जो श्रेष्ठतम भवन का हिस्सा था उसमें उसे ठहराया गया। सुंदर से सुंदर सेज बिछाई गई, जैसी सेज उसने देखी भी नहीं थी कभी। उस पर सोया। लेकिन रात भर सो न सका।
सुबह सम्राट ने पूछा: नींद तो ठीक से आई? उसने कहा: आप मजाक करते हैं। मेरी आंखें देखें, लाल हो रही हैं, सूज गईं। आपने भी खूब मजाक किया। सम्राट ने कहा: हुआ क्या? उस युवक ने कहा: नींद आती कैसे? सेज तो सुंदर थी और खूब गहरी नींद आ सकती थी मगर मेरी छाती पर ऊपर एक नंगी तलवार लटकी है और कच्चे धागे में बंधी है। उसकी याद नहीं भूली। आंख बंद करूं तो भी दिखाई पड़े। डरा-डरा रहा। कब गिर जाए, कब खतरा हो जाए। उतारने की भी कोशिश की लेकिन इतनी ऊंची टांगी है कि मैं उस तक पहुंच भी नहीं सका। यह भी खूब मजाक रही!
सम्राट ने कहा: जैसे पूरे रात तलवार की याद बनी रही ऐसी ही जब तुम्हें चौबीस घड़ी स्वयं की याद बनी रहेगी तब ध्यान होगा। अब तुम जा सकते हो।
ध्यान का अर्थ होता है: स्व-बोध बना रहे।
तो पनिहारिन लाती है पानी, बात भी करती है, मगर ध्यान बना रहता है कि सिर पर गागर है, गिर न जाए। एक भीतरी तल पर सम्हाले रहती है, सम्हाले रहती है, सम्हाले रहती है। जस पनिहार धरे सिर गागर, सुरति न टरे! एक क्षण को भूलती नहीं है। सुरति न टरे बतरावत सबसे! और सबसे बातचीत करती है। लेकिन बातचीत के बीच में ही, बातचीत की गहराई में ही सुरति बनी रहती है।
ऐसी जब तुम्हारी याद होगी, स्व-स्मरण होगा, तब परमात्मा तुम्हारी तरफ पीठ नहीं करेगा।
गांठ परी पिया बोले न हमसे।
निसुवासर पिया संग मैं सूतिऊं,.
मिलन भी हो जाता है, क्षण भर को झलक भी मिलती है, आकांक्षा भी बंधती है कि साथ ही रहूं अब, साथ ही सोऊं अब, साथ ही उठूं-बैठूं।
.नैन अलसानी निकरि गए घर से।
लेकिन इधर जरा सी झलक लगी कि परमात्मा कब खो जाता है, पता भी नहीं पड़ता।
एक रोशनी सी दिल में थी वह भी नहीं रही
वह क्या गए चरागे-तमन्ना बुझा गए
और उनके जाते ही सब अंधेरा हो जाता है। उनके होते प्रकाश है, उनके जाते अंधेरा है। इसलिए उपनिषद गाते हैं: तमसो मा ज्योतिर्गमय! हमें अंधेरे से प्रकाश की तरफ ले चलो। कुरान कहती है, परमात्मा प्रकाश है। बाइबिल भी वही कहती है, वेद भी वही कहते हैं। सभी ने परमात्मा को प्रकाश के साथ तादात्म्य किया है। क्यों? क्योंकि जहां परमात्मा होता है वहां प्रकाश होता है। एक आभा तुम्हारे भीतर जलती रहती है। स्रोतरहित, बिन बाती बिन तेल, तुम्हारे भीतर एक दीया जलता है।
लेकिन जैसे ही तुम्हारी स्मृति चूकी, जैसे ही तुम्हारी सुरति गई, परमात्मा भी गया। तुम परमात्मा की फिकर न भी करो, अगर सिर्फ सुरति सम्हाल लो तो परमात्मा तुम्हारी फिकर कर लेगा।
इसीलिए तो कुछ धर्म हैं, जो परमात्मा की चिंता ही नहीं करते, सिर्फ सुरति सम्हालते हैं। परमात्मा तो अपने से आ जाता है। इसलिए बुद्ध ने परमात्मा को मानने का कोई जोर नहीं दिया। और बुद्ध ने कहा: तुम मानना भी चाहोगे तो कैसे मानोगे? जब तक देखा नहीं है, मानोगे कैसे? तब तक हजार शंकाएं उठेंगी, हजार संदेह उठेंगे। मन न मालूम कितने-कितने तर्क-वितर्क के जाल खड़े करेगा। देखोगे तो ही मान सकोगे। इसलिए उसकी बात ही मत करो। जो तुम कर सकते हो वह करो।
तुम यह कर सकते हो कि सुरति को जगा सकते हो। ध्यान पैदा कर सकते हो। ध्यान की रोशनी आ जाए, तुम अचानक पाओगे परमात्मा आ गया। तुम्हारे खोजने की जरूरत भी नहीं पड़ती।
जिसके खयाल में हूं गुम उसको भी कुछ खयाल है?
मेरे लिए यही सवाल सबसे बड़ा सवाल है
नहीं, लेकिन इसमें चिंता की कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम उसके खयाल में गुम हो, अगर तुम उसके खयाल में जगे हो, अगर उसका खयाल तुम्हारी स्मृति बन गया है, सातत्य सध गया है तो तुम उसकी चिंता छोड़ दो। वह अपने आप, अनायास आ जाएगा।
इससे तुम्हें एक बात समझ में आ जाएगी, बुद्ध ने, महावीर ने, पतंजलि ने, कपिल ने--इन महर्षियों ने ईश्वर को मानने की कोई जरूरत नहीं समझी; और फिर भी वे नास्तिक नहीं थे। ईश्वर को नहीं माना और नास्तिक नहीं थे। क्योंकि उन्होंने मौलिक बात स्वीकार की--सुरति। फिर ईश्वर उसका परिणाम है।
दुनिया में ईश्वर को पाने के दो उपाय हैं--एक गलत और एक सही। गलत उपाय है, ईश्वर को मानो पहले फिर खोजो। और सही उपाय है, पहले खोजो फिर मानो। जो मान लेता है पहले, फिर खोजने जाता है वह खोजेगा क्या? खोजने को बचा क्या? वह अपनी ही मान्यता के प्रतिफलन उपलब्ध कर लेगा। तुम्हारा मन जिन बातों को मान लिया है उनके सपने देखने लगेगा।
तुम अगर कृष्ण को मानते हो तो धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर कृष्ण की कल्पना प्रगाढ़ होने लगेगी और तुम्हारी कल्पना में कृष्ण के दर्शन होने लगेंगे। यह वास्तविक परमात्मा का अनुभव नहीं है। या तुम राम को मानते हो तो धनुर्धारी राम खड़े हो जाएंगे कल्पना में। लेकिन यह तुम्हारी ही कल्पना का खेल है।
वास्तविक परमात्मा न तो धनुर्धारी है, न मोरमुकुट बांधे है। वास्तविक परमात्मा तो एक ऐसा अनिर्वचनीय अनुभव है जिसका कोई रूप नहीं, जिसका कोई रंग नहीं, जिसका कोई गुण नहीं। वास्तविक परमात्मा तो तभी अनुभव होता है जब तुम्हारा चित्त सब धारणाओं से शून्य होता है।
सुरति की अवस्था में चित्त सब धारणाओं से शून्य हो जाता है। तुम स्वयं को जगाने की चेष्टा में लगे रहो। चलो तो होशपूर्वक, उठो तो होशपूर्वक।
सूफी फकीर अक्सर अपने शिष्यों को इस बात को समझाने के लिए पहाड़ों की कगार पर ले जाते रहे हैं। और ऐसे रास्तों पर चलाते रहे हैं जहां अगर तुम एक क्षण को भी बेहोश हुए तो गिर ही जाओगे खड्ड में। जहां होश सम्हाल कर चलना पड़ता है। और जब तुम होश सम्हाल कर चलते हो तो फकीर तुमसे कहता है कि यही होश तुम्हारे जिंदगी भर सम्हला रहे।
तुमने देखा? अगर कोई आदमी अचानक छाती पर एक छुरा लेकर आ जाए तो उस क्षण में सब विचार खो जाते हैं। उस क्षण क्या होता है, जब सब विचार खो जाते हैं? तब एक अपूर्व होश होता है। इस खतरे के कारण तुम तंद्रा में नहीं रह सकते, मूर्च्छा में नहीं रह सकते। होश आ ही जाएगा।
एक प्रसिद्ध झेन कथा है, सुरति के संबंध में उपयोगी है। एक सम्राट अपने बेटे को गुरु के पास भेजा--ध्यान सीख आओ। मैं बूढ़ा हो गया हूं, बाप ने कहा, और धन तो व्यर्थ है यह मैंने जिंदगी में जान लिया। मुझसे ज्यादा और कौन जानेगा? जितना धन मेरे पास है, देश में किसी के पास नहीं। पद व्यर्थ है। और कौन जानेगा? मैं सम्राट हूं। मैं तुम्हें धन और पद ही नहीं दे जाना चाहता, मेरे जीते जी मैं देखना चाहता हूं कि मेरा बेटा ध्यान से जुड़ जाए।
अदभुत बाप रहा होगा। जो बाप अपने बेटे को ध्यान से जोड़ना चाहे वही बाप है। बाप जैसा बाप रहा होगा। क्योंकि इससे बड़ी कोई संपदा बाप अपने बेटे को नहीं दे सकता। तुम्हारा तो बेटा ध्यान करने जाने लगे तो तुम उसे रुकावट डालना शुरू कर देते हो। तुम घबड़ाते हो कि कहीं ध्यान इत्यादि में न फंस जाए। पढ़ाई-लिखाई करो। सिनेमा जाए, चलेगा। नाच-गाना सुने, चलेगा। लेकिन ध्यान में न उलझ जाए। क्योंकि घबड़ाहट लगती है कि वह रास्ता तो अगम का रास्ता है, उसमें पता नहीं खो न जाए, कहीं उलझ न जाए।
इधर मेरे पास लोग आ जाते हैं। उनके बाप आ जाते हैं उनके ही पीछे। वे कहते हैं, हमारा बेटा इधर आ रहा है, आप किसी तरह रोकिए। उलझ न जाए। अभी तो संसार में रहना है। अभी-अभी तो उसकी शादी हुई है। अभी-अभी तो नौकरी लगी है, अभी ध्यान की क्या जरूरत? ध्यान तो बुढ़ापे में करना चाहिए।
एक युवक ने संन्यास लिया। उसके पिता कोई पचहत्तर साल की उम्र के बूढ़े आदमी हैं। वे मेरे पास आए, उन्होंने कहा कि आप ठीक नहीं करते। युवकों को संन्यास देते हैं! आप इसको.संन्यास इसका वापस लें। और यह किसी और की सुनता नहीं है, आपकी ही सुनेगा। मैं आपसे अर्जी करता हूं कि इसका संन्यास वापस लें। संन्यास तो बुढ़ापे में लेने की चीज है, उन्होंने कहा।
तो मैंने कहा: ठीक, मैं वापस लेता हूं। आप संन्यास लेते हैं? आपकी तो उम्र पचहत्तर साल की हो गई--आप संन्यास ले लो, इसको मैं छुट्टी दे देता हूं। बदले में कोई तो चाहिए। वे कहने लगे, सोचना पड़ेगा। तो फिर कहा, मुझे भी सोचना पड़ेगा। तुम कहते हो, बुढ़ापे में संन्यास? तुम पचहत्तर के हो गए, बुढ़ापा कब आएगा? बहानेबाजी कर रहे हो सिर्फ इसको टालने के लिए कि इसका संन्यास हटाने के लिए कि बुढ़ापे में ले लेना; अभी तो छूट। और बुढ़ापा तुम्हारा आ गया है। अगर तुम ईमानदार हो अपने वचन में तो तुम संन्यास ले लो, मैं इसको छुट्टी दे देता हूं।
वे फिर दुबारा नहीं आए। सोचने गए हैं। आज कोई साल भर हो गया। उनका कोई पता नहीं है। आदमी बहाने करता है, टालता है।
उस बाप ने अपने बेटे को ध्यान करने भेजा और कहा कि जल्दी करना, पूरी चेष्टा लगाना क्योंकि मैं बूढ़ा हुआ हूं। मैं तेरी आंख में ध्यान की झलक देख कर मरना चाहता हूं।
जो उस देश का सबसे बड़ा सदगुरु था उसके पास भेजा। बेटा बड़ा हैरान हुआ क्योंकि वह सदगुरु असल में ध्यान सिखाने का काम ही नहीं करता था। वह तो तलवार चलाने की कला में सबसे ज्यादा निष्णात व्यक्ति था। वह जरा हैरान हुआ कि तलवार चलाना सिखाता है यह आदमी, इसके पास मुझे ध्यान सीखने के लिए भेजा जा रहा है। लेकिन पिता भेजते हैं, ठीक ही भेजते होंगे।
जब वह गुरु के पास गया तो उसने कहा गुरु को कि मेरे पिता बूढ़े हैं और उन्होंने कहा: जल्दी सीख कर आ जाना। कितना समय लगेगा? गुरु ने कहा, समय की सीमा हो तो तू अभी लौट जा। क्योंकि यह बात कुछ ऐसी है, कभी क्षण में हो जाती है, कभी वर्षों लग जाते हैं। इसकी भविष्यवाणी नहीं हो सकती। यह सब तुझ पर निर्भर है कि कितना तू श्रम करेगा। और धैर्य तो चाहिए होगा। अनंत धैर्य चाहिए होगा। तो या तो अभी लौट जा, या सब मुझ पर छोड़ दे। बीच का नहीं चलेगा।
बाप ने कहा था, लौट कर तो आना ही मत, जब तक ध्यान न सीख ले। तो झुकना पड़ा गुरु के चरणों में। कहा ठीक है। गुरु ने कहा तो बस तू आश्रम में बुहारी लगाने का काम शुरू कर।
उसकी तो छाती बैठ गई। पहले तो यह आदमी तलवार चलाना सिखाता है, इसके पास ध्यान सिखाने भेजा है। यही कुछ साफ नहीं मालूम पड़ता कि मामला क्या है। और अब यह कह रहा है, आश्रम में बुहारी लगाना शुरू कर। सम्राट का बेटा! और बुहारी लगाने से ध्यान कैसे आएगा?
लेकिन अब बाप ने भेज दिया, समर्पण कर दिया उसने गुरु को तो बुहारी लगानी शुरू कर दी। बुहारी लगा रहा था दूसरे दिन और जैसे तुम लगाओगे बुहारी सोए-सोए, हजार विचारों में खोए-खोए, ऐसा ही लगा रहा था। गुरु पीछे से आया और एक लकड़ी की तलवार से उस पर हमला कर दिया। पीछे से आकर! भारी चोट लगी। चौंक कर खड़ा हो गया किंकर्तव्यविमूढ़ कि यह मामला क्या है! उसने पूछा यह बात क्या है? आप होश में हैं? आप मुझे मारे क्यों? गुरु ने कहा, यह तो अब रोज चलेगा। तुझे सावधानी बरतनी पड़ेगी। तू होश रख। यह तो कभी भी मौके बेमौके चलेगा। यह तो तेरे ध्यान का पाठ है।
फिर कठिनाइयां शुरू हुईं। लेकिन उन्हीं कठिनाइयों से रास्ता बना। गुरु कब हमला कर दे, पता न चले। उसकी चाल भी ऐसी धीमी थी कि पैर की आवाज न हो। बुहारी लगा रहा है युवक या खाना खा रहा है या किताब पढ़ रहा है, वह पीछे से आ जाए, इधर-उधर से आ जाए और हमला कर दे। चोट पर चोट पड़ने लगीं, घाव पर घाव होने लगे। लकड़ी की ही तलवार, मगर फिर भी तो चोट तो हो।
धीरे-धीरे होश सम्हालना ही पड़ा। कोई और उपाय न था। किताब भी पढ़ता रहे और खयाल भी रखे कि आता ही होगा। जस पनिहार धरे सिर गागर! बुहारी लगा रहा है अब, मगर कब आ जाएं गुरुदेव, कुछ पता नहीं। तीन महीने में यह हालत आ गई कि कितने ही धीमे गुरु आए, वह झट मुड़ कर खड़ा हो जाए। तीन महीने में वह वक्त आ गया कि चोट करना मुश्किल हो गई। उसको कभी बेहोश पाना मुश्किल हो गया।
एक दिन रात सोया था कि नींद में गुरु ने हमला कर दिया। वह तो उठ कर बैठ गया। उसने कहा, यह जरा जरूरत से ज्यादा हो गया। अब क्या मुझे सोने भी न दोगे? उसने कहा, अब यह दूसरा पाठ शुरू होता है। अब दिन में तो तू सध गया, अब रात में सधना है।
लेकिन अब शिष्य को भी समझ में तो बात आने लगी थी। ये तीन महीने में तकलीफ तो बहुत हुई थी लेकिन तीन महीने में जो जागरण फला था उसका सुख अपूर्व था। ऐसी शांति कभी जानी नहीं थी। ऐसा सन्नाटा! विचार तो कहां खो गए थे पता ही न चलता था। जैसे दीया जल जाए, अंधेरा खो जाता है ऐसे ही ध्यान जग जाए तो विचार खो जाते हैं। न वासना उठती थी, न चाह उठती थी, न चिंता उठती थी। जगह ही नहीं थी, सदा होश सधा था। तो अब समझ में तो आने लगा था कि गुरु जो कर रहा है, ठीक ही कर रहा है। तो अब यह तो कह ही नहीं सकता था कि, कि मुझे सताओ मत। राजी हो गया।
रात हमले शुरू हो गए। वह बूढ़ा कब उठ आता रात में दो-चार, आठ-दस दफा! उसको नींद भी नहीं आती होगी। बूढ़ा आदमी, उसको नींद का कोई कारण भी न था। तीन महीने बीतते-बीतते घावों से भर गया शरीर उस युवक का लेकिन बात फलित हो गई। तीन महीने पूरे होते-होते नींद में भी जैसे ही गुरु कदम रखे कमरे में कि वह आंख खोल दे। वह कहे कि बस महाराज, मैं जागा हुआ हूं। आप नाहक कष्ट न करें।
तीन महीने पूरे होने पर गुरु एक दिन नकली तलवार फेंक कर असली तलवार ले आया। उस युवक ने कहा: आप अब मार ही डालोगे। नकली तो ऐसा था कि चोट लगती थी, भर जाती थी। यह असली तलवार! गुरु ने कहा: अब तू जानता है कि नींद में भी घटना घट गई। अब तू नींद में भी जागा रहता है।
इसी को कृष्ण ने कहा है: या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यह अर्थ है उस वचन का। जब सब सो जाते हैं तब भी संयमी जागता है। इसका यह मतलब नहीं है कि वह आंखें खोले पड़ा रहता है। आंख लगी रहती है, शरीर सोया रहता है फिर भी भीतर कोई जागता है। भीतर एक जागरण सतत बना रहता है।
गुरु ने कहा: अब तू घबड़ा मत। और उसे बात जंचने भी लगी थी। अब इन तीन महीनों में जो घटा था वह तो इतना गहरा था। स्वप्न तक खो गए थे। विचार खो गए, स्वप्न खो गए, सन्नाटा ही सन्नाटा था। रात और दिन एक अपूर्व शून्यता भीतर जग रही थी। उस शून्यता का आनंद फलने लगा था। पहले तीन महीनों में शांति मिली थी, इन दूसरे तीन महीनों में आनंद की पहली झलक मिलनी शुरू हो गई थी। झोंका आ जाता था आनंद का, जैसे वसंत आ गया। फूल खिल जाते थे।
असली तलवार! अब तो जागना और भी सजगता का हो गया। तीन महीने गुरु ने असली तलवार लेकर उसका पीछा किया, लेकिन एक भी बार चोट करने का मौका न पा सके। तीन महीने पूरे हो जाने पर--एक दिन गुरु बैठा वृक्ष के नीचे किताब पढ़ रहा था। उस युवक को खयाल आया कि यह बूढ़ा मुझे नौ महीने से सता रहा है। यद्यपि परिणाम भारी हुए हैं इसमें कोई शक-शुबहा नहीं है। जो नौ महीने में मिला है, नौ जन्मों में नहीं मिलता। लेकिन यह मुझे इतना सताता है, कभी मैं भी तो इस पर हमला करके देखूं, यह भी इतने होश में है या नहीं?
ऐसा सोच ही रहा था बुहारी लगाते हुए, उस ब़ूढे ने कहा कि सुन, मैं बूढ़ा आदमी हूं, ऐसा करना मत। वह तो बड़ा चौंका। उसने कहा कि मैंने कुछ किया नहीं। उसने कहा: तूनेसोचा, इतना काफी है। तू मेरे पैर की आवाज सुनने लगा नींद में, मेरा कमरे में प्रवेश करना--और तुझे पता चल जाता है। एक दिन तेरे जीवन में भी ऐसी घड़ी आएगी कि विचार का प्रवेश और उसकी भी पगध्वनि सुनाई पड़ जाती है। तेरे भीतर विचार आया, बस काफी है। अब तुझे कोई उठा कर मुझ बूढ़े आदमी पर हमला करने की जरूरत नहीं है।
गुरु के चरणों में गिर पड़ा युवक। ध्यान की अंतिम घड़ी वही है। वह समाधि है। उस दिन उसके जीवन में पहली दफा समाधि का अनुभव उसे हुआ।
जस पनिहार धरे सिर गागर, सुरति न टरे बतरावत सबसे।।
तुम भी ऐसे चलो, ऐसे उठो, ऐसे बैठो कि होश सधा रहे। और जरूरत नहीं है कि कोई तुम्हारे पीछे तलवार लेकर पड़े। मौत तो पड़ी ही हुई है तुम्हारे पीछे तलवार लेकर। उतना क्या काफी नहीं है? जरा उसका ही स्मरण करो और होश सध जाएगा। जिसको मौत की याद साफ होने लगी वह आदमी होश से भर जाता है।
इसीलिए तो लोग मौत को.बात भी नहीं करते मौत की। मौत की चर्चा भी नहीं उठाते। मौत जैसी महत्वपूर्ण दुनिया की घटना, और लोग उसकी बात ही नहीं करते। सब तरह की बातें करते हैं, मौत को चर्चा के बाहर रखते हैं। मरघट पर भी लोग जाते हैं तो और दूसरी चीजों की बात करते हैं।
मैं बचपन में, मुझे आदत थी, कोई मरे, मैं मरघट जाता था। जो भी मरा गांव में.लोग जानने लगे थे कि अगर कोई भी मरा तो मैं जरूर जाऊंगा मरघट। मेरे घर के लोग भी जानने लगे थे। अगर मैं कहीं दिखाई न पड़ता दो-चार घंटे तो वे समझते मरघट पर खोजो।
पर वहां मैं चकित होता। मैं तो देखने जाता मौत। क्योंकि मौत ठीक-ठीक दिखाई पड़ जाए तो ध्यान सुगमता से फल जाता है। लेकिन वहां मैं बैठे लोगों को देखता, वे बातें कर रहे हैं राजनीति की, वे बातें कर रहे हैं बाजार की। इधर लाश जल रही है और वे पीठ किए गपशप कर रहे हैं। वह गपशप तरकीब है इस जलती हुई लाश को न देखने की।
मौत को आदमी भुलाना चाहते हैं। जो मौत को भुलाता है वही सांसारिक है। जो मौत को याद रखता है वही संन्यासी है। और जिसको मौत याद है वह जाग ही जाएगा। और जो जाग गया, परमात्मा उसे उपलब्ध है।
धरमदास बिनवै कर जोरी, साहिब कबीर को पावै भाग से।
धरमदास कहते हैं कि कबीर साहब मिल गए। यह परमात्मा का जीता जागता रूप मिल गया। ये कबीर मिल गए। इनको भाग से पा लिया। इन्होंने ही सिखाया--जस पनिहार धरे सिर गागर! इन्होंने जगाया। बड़े भाग की बात। इस जगत में सबसे सौभाग्यशाली वही है जिसे गुरु मिल जाए।
साहिब मोहिं दरसन दीजे हो, करुना-निधि मिहर करीजो हो।
पपिहा के चित स्वांति बसै, भावै नहिं जल दूजा हो।
धरमदास कहते हैं, जैसे चातक के मन में बस स्वांति का जल ही बसा है, और कोई जल नहीं भाता, ऐसे ही तुम्हारे अतिरिक्त अब मुझे और कुछ नहीं भाता। अब सारा संसार फीका है।
दिन गुजरा, शाम हुई, अब आगे क्या होगा?
धूप की उम्र तमाम हुई, अब आगे क्या होगा?
लोग तो सोचते ही नहीं आगे की। भरमाए रखते हैं अपने को धूप में। मगर धूप की उम्र तमाम हो जाती है। दिन गुजर जाता है, शाम हो जाती है। जवानी अभी है, कल बुढ़ापा होगा। जीवन अभी है, कल मृत्यु होगी। इसके पहले कि मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे, तुम जरा विचार कर लो। इस जगत में कुछ भी ऐसा है जिससे तृप्ति हो जाएगी? कोई जल ऐसा है जिससे तृप्ति हो जाएगी? तुम कितने तो घाटों का पानी पी चुके, कहीं तो तृप्ति नहीं हुई। जहां से लौटे, प्यास को वापस लेकर लौटे। जहां से लौटे, और उदास होकर लौटे।
इस जगत में वह पानी है ही नहीं जिससे तृप्ति हो जाए। तुम्हारे चित्त में चातक कब पैदा होगा? स्वाति के जल की आकांक्षा कब जगेगी? तुम परमात्मा को कब पुकारोगे? इतनी अतृप्तियों के बाद भी तुम्हारे भ्रम नहीं टूटते हैं?
पपिहा के चित स्वाति बसै, भावै नहिं जल दूजा हो।
जिसको एक बार यह बात समझ में आने लगी कि यहां सब है तो, मगर कुछ भी तृप्तिदायी नहीं है। धन मिल जाता है और निर्धनता नहीं मिटती। पद मिल जाता है और दीनता नहीं जाती, बनी रहती है। बाहर तुम कितना ही सजा लो, भीतर मौत खड़ी है।
शामिल नहीं हैं जिसमें तेरी मुस्कुराहटें
वह जिंदगी किसी भी जहन्नुम से कम नहीं है
परमात्मा जब तक तुम्हारे भीतर सम्मिलित न हो जाए, उसकी मुस्कुराहट जब तक तुम्हारे जीवन का अंग न बन जाए तब तक समझना कि तुम नरक में हो। कितना ही धोखा दो अपने को, नरक को कितना ही सजा लो, बंदन वार बांध लो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ेगा। तुम अपना समय और अपना जीवन गंवा रहे हो।
जैसे काग जहाज चढ़े, वाको और न सूझा हो।।
पुराने दिनों में जहाज से यात्रा करने वाले लोग पक्षियों को साथ लेकर चलते थे। वे पक्षी परीक्षा का काम देते थे। पक्षी को छोड़ते थे, अगर पक्षी चला जाता और लौटता नहीं तो तय हो जाता था जमीन करीब है। अगर पक्षी लौट आता तो तय होता कि अभी जमीन करीब नहीं है, यात्रा और करनी पड़ेगी।
कोलंबस ने तीन महीने यात्रा की। भारत की खोज के लिए निकला था, भूल से पहुंच गया था अमरीका। तीन महीने में सारा भोजन चुक गया। केवल तीन दिन के लिए भोजन और बचा। और जो नब्बे आदमी उसके साथ यात्रा पर थे, वे सब धीरे-धीरे घबड़ा गए थे कि अब मौत के सिवाय कुछ और होना नहीं है। न कोई जमीन दिखाई पड़ती है, न कोई आसार। इस पागल आदमी के चक्कर में हम पड़ गए।
और इस पागल को लोग पागल समझते ही थे, कोलंबस को। क्योंकि कोलंबस की यह धारणा थी कि जमीन गोल है। किसी को गोल नहीं मालूम पड़ती थी तब तक। चपटी दिखती है सबको। कोलंबस की धारणा थी जमीन गोल है। और अगर गोल है तो जहां से हम चलेंगे, अगर चलते ही गए, चलते ही गए तो वापस अपनी जगह लौट आएंगे। गोल का मतलब ही यह होता है।
तो उसने कहा, भूलने का तो कोई डर नहीं है, अगर मिल गया भारत तो ठीक है। नहीं मिला भारत तो वापस अपनी जगह लौट आएंगे। बामुश्किल कुछ लोग हिम्मतवर राजी हुए थे उसके साथ जाने को। एक झक्की किस्म की महारानी ने उसे पैसा दे दिया था। मगर लोग समझते थे, यह पागल है और लौटेगा नहीं। घर के लोगों ने भी आखिरी विदा दे दी थी। रो-धो लिया था कि बात खत्म हो गई।
अब तो पक्का हो गया था इन नब्बे साथियों को कि यह बिलकुल पागल है। क्योंकि वे कहते थे, अब हम लौट चलें। आखिर उन्होंने यह तय कर लिया कि अगर यह कल राजी नहीं होता लौटने को तो इसको हम पानी में फेंक दें और हम वापस लौट चलें।
उसने उनकी बातचीत सुन ली। रात को वे सब इकट्ठे होकर षडयंत्र कर रहे थे। वह सुबह उठा और उसने कहा कि तुम ठीक कहते हो। मैं खुद ही कूद जाऊंगा पानी में, तुम वापस लौट जाओ। लेकिन एक बात समझ लो, तुम्हारे पास भोजन केवल तीन दिन का बचा है। वापसी की यात्रा तीन महीने की होगी। मर तो तुम जाओगे ही। अब वापस लौटने का उपाय नहीं है। तुम मेरी मानो, मैं तुमसे कहता हूं कि तीन दिन में हम पहुंच जाएंगे जमीन पर, क्योंकि मैंने जो कबूतर छोड़े कल सांझ, वे लौटे नहीं। जमीन करीब होनी चाहिए।
यह सूत्र उन्हीं पुराने समुद्र्र यात्रा का स्मरण दिलाता है।
जैसे काग जहाज चढ़े, वाको और न सूझा हो।
जब पक्षी घूमता और कुछ जगह नहीं सूझती जहां उतर जाए, जल ही जल, जल ही जल, वह वापस जहाज पर चढ़ जाता है।
ऐसे धनी धरमदास कहते हैं कि इस संसार में मैंने मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा। तुम ही मेरे जहाज हो। नानक नाम जहाज। परमात्मा, तुम्हारे सिवाय और कोई सहारा नहीं। तुम ही जीवन हो। शेष सब मृत्यु है। जो परमात्मा से जुड़ गया वह महाजीवन ने जुड़ गया। जो परमात्मा से बिना जुड़े जी रहा है वह मृत्यु के सागर में डुबकियां खा रहा है। जन्मेगा और मरेगा, मरेगा और जन्मेगा और यह चलता रहेगा। डूबेगा और उबरेगा, उबरेगा और डूबेगा। इस प्रक्रिया का कोई अंत नहीं है।
जहाज चढ़ो। और जहाज उपलब्ध है। और जहाज सदा उपलब्ध है। परमात्मा एक क्षण को भी अनुपलब्ध नहीं है, तुम भर राजी हो जाओ। हमारी हालत ऐसे है जैसे सूरज निकलता है और हम आंख बंद किए खड़े हैं और कहते हैं, दुनिया में अंधेरा है। आंख खोलो। परमात्मा की रोशनी चारों तरफ बरस रही है।
बार बार बिंनती करूं, मेरी अरज सुनीजे हो।
भवसागर से काढ़िके, अपना करि लीजे हो।।
आरजू भी, हसरत भी, दर्द भी, मसर्रत भी
सैकड़ों हैं हंगामे जिंदगी मगर तनहा
यहां सब है और फिर भी तुम अकेले हो। जरा देखो। पत्नी है, बच्चे हैं, पति है, मां हैं, पिता हैं, बेटे हैं, बेटियां हैं, सगे संबंधी हैं, मित्र-प्रियजन हैं, सब है।
आरजू भी, हसरत भी, दर्द भी, मसर्रत भी
सुख भी हैं, दुख भी हैं, सुविधाएं हैं, असुविधाएं हैं, सफलताएं-असफलताएं हैं, यश-अपयश है।
आरजू भी, हसरत भी, दर्द भी, मसर्रत भी
सैकड़ों हैं हंगामे जिंदगी मगर तनहा
शोरगुल खूब, हंगामे खूब, तमाशा चल रहा है, और फिर भी तुम अकेले हो। कब तुम्हें यह बात दिखाई पड़ेगी कि मैं अकेला हूं? परमात्मा के बिना तुम अकेले ही रहोगे। उससे ही संग जुड़े तो अकेलापन मिटता है।
भवसागर से काढ़िके, अपना करि लीजे हो।
कब तुम प्रार्थना करोगे कि निकाल लो मुझे इस जीवन और मृत्यु के सागर से, इस जन्म-मरण की प्रक्रिया से? भवसागर! भव का अर्थ होता है, होना, न होना। होने न होने का यह जो सागर है इससे मुझे खींच लो--अपना करि लीजे हो!
कुशल है, कुशल हूं, कुशल चाहता हूं
दिल में लगन है, मिलन चाहता हूं
बस एक ही लगन तुम्हारे भीतर रह जाए--मिलन चाहता हूं।
और तुम सब जगह उसी को खोज रहे हो अनजाने। जब तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़े हो या किसी पुरुष के, तो तुमने क्षण भर को उसीको खोजा है। पद की खोज में तुम किसे खोज रहे हो? जीवन को पकड़ कर तुम क्या पकड़ रहे हो? तुम सोचते हो, अमृत इस तरह मिल जाएगा। पद की खोज में तुम सोचते हो, इस तरह मैं मृत्यु के पार हो जाऊंगा। धन होगा तो सुरक्षित हो जाऊंगा। लेकिन उसके सिवाय उसको पाने का और कोई उपाय नहीं।
इस कायनाते हुस्न में आईना के सिवा
पैदा कहीं हुई न तेरी हमसरीकी बात
उस जैसा यहां कोई है ही नहीं। आईने बहुत हैं यहां। आईनों में कहीं-कहीं उसकी झलक भी पड़ती है।
इस कायनाते हुस्न में आईना के सिवा
पैदा कहीं हुई न तेरी हमसरीकी बात
तुम आईनों में कब तक खोजते रहोगे? अब मूल की खोज शुरू होनी चाहिए।
झरि लागे महलिया, गगन घइराए।
जो उसकी तरफ चातक की तरह देखने लगता है, स्वाति की प्रतीक्षा करता है, ध्यान मग्न होकर पुकारता है--पी कहां? पी कहां? पपीहे की तरह टेरता है।
नानक के जीवन में उल्लेख है। एक रात वे पुकार रहे हैं परमात्मा को.पुकार रहे हैं परमात्मा को। आधी रात बीत गई और नानक की मां ने आकर उनको कहा कि अब बहुत हो गया, अब तुम सो भी जाओ, अब यह भजन कब तक चलेगा? नानक ने कहा: मत कहो। मत रोको मुझे। सुनो! बाहर बगीचे में आम की बाड़ी में पपीहा पुकार रहा है, पी कहां? पी कहां? नानक ने कहा: सुनो! उससे मेरी होड़ बंधी है। जब तक वह चुप नहीं होगा, मैं भी चुप होने वाला नहीं हूं।
उसी रात नानक के जीवन में क्रांति घटी। पपीहे से होड़ लगाओ। पपीहा नहीं थका, नानक ने कहा अपनी मां को, तो मैं क्यों थकूं? अभी पपीहे का गीत चल रहा है तो मेरा गीत क्यों रुके? मैं पपीहे से गया बीता नहीं हूं।
और जो पपीहा बन गया--और पी कहां? पी कहां? पुकारा और पुकारा, और पुकारा, और सब पुकार पर दांव पर लगा दिया उसे पी निश्चित मिलते हैं। यही इस सूत्र की सूचना है।
झरि लागे महलिया--जो चातक बन गया उसके शून्य महल में झर लग जाती है अमृत की। स्वाति बरसती है।
झरि लागे महलिया, गगन घइराय।
नाद होता अनहद का और अमृत की वर्षा होती। जैसे बादल गरजते हैं ऐसे भीतर ओंकार का नाद गरजता है। एक ओंकार सतनाम। और जैसे वर्षा होती है और भूखी-प्यासी धरती तृप्त होती है ऐसे ही तुम्हारे भीतर अमृत बरसता है। और तुम्हारे भूखे-प्यासे प्राण, जन्मों-जन्मों की भूखी आत्मा तृप्त होती है।
झरि लागे महलिया, गगन घइराय।
खन गरजे खन बिजुली चमकै,.
कभी प्रकाश हो जाता है, कभी नाद हो जाता है।
खन गरजे खन बिजुली चमकै, लहर उठे सोभा बरनि न जाए।
और ऐसी मस्ती की लहर आती है कि उसकी शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता। नाद भी है, प्रकाश भी है। अमृत बरस रहा है।
.लहर उठे सोभा बरनि न जाए।
ऐसी मस्ती, ऐसी मादकता की लहर आती है कि आदमी डूब ही जाता उसमें, तल्लीन हो जाता है। उसका वर्णन नहीं हो सकता।
सुन्न महल से अमृत बरसे, प्रेम अनंद होए साध नहाए।
लेकिन वही नहा सकता है जिसने चातक जैसी साधना की हो। वही नहा सकता है जिसने--जस पनिहार धरे सिर गागर--ऐसा ध्यान संजोया हो। उसको ही साधु कहते हैं।
साधु का अर्थ: जो सरल हो गया। साधु का अर्थ: जिसने अपने चित्त को उसकी तरफ साध लिया। जो काम से विमुख हुआ, राम के सन्मुख हो गया। जिसने संसार की तरफ पीठ कर ली और परमात्मा की तरफ मुंह कर लिया--चातक की तरह--पी कहां! पी कहां!
सुन्न महल से अमृत बरसे, प्रेम अनंद होए साध नहाए।
और तब साधु के जीवन में दो फूल खिलते हैं प्रेम के और आनंद के।
आनंद होता है अपने लिए वह आंतरिक फूल है। उसके प्राण आनंद की सुगंध से भर जाते हैं। और उसी आनंद की सुगंध जब दूसरों के नासापुटों में पड़ती है तो उनको प्रेम का अनुभव होता है।
इसको खयाल में ले लेना। साधु के यह दो लक्षण है: भीतर उसके परम आनंद। लेकिन उसके भीतर तो तुम जा न सकोगे। उसे तो वही जानेगा, या उस जैसे जो हैं, वे जानेंगे। लेकिन तुम्हें उसके पास एक बात दिखाई जरूर पड़ेगी, वह तुम्हें भी दिखाई पड़ जाएगी, वह प्रेम। उसके भीतर जो घटा है, उसकी थोड़ी-थोड़ी बूंदें तुम पर भी पड़ेंगी।
तो जहां तुम्हें आनंद और प्रेम घटता हुआ अनुभव में आ जाए, समझना कि मंदिर करीब है। समझना कि तुम तीर्थ के करीब आ गए।
और जहां न प्रेम हो और न आनंद हो, जहां प्रेम की जगह सिर्फ द्वेष हो, जहां प्रेम की जगह सिर्फ कठोरता हो, जहां प्रेम की जगह सिर्फ तुम्हारी निंदा हो, जहां प्रेम की जगह तुम्हें पापी ठहराने का प्रयास हो, जहां प्रेम की जगह तुम्हें नरक भेजने का आयोजन हो, और जहां भीतर आनंद की जगह सिर्फ एक अहंकार हो, वहां से बच जाना। वहां से भाग खड़े हो जाना। वहां से जितनी जल्दी दूर निकल जाओ उतना अच्छा है क्योंकि तुम असाधु के पास पहुंच गए हो।
और तुम्हारे तथाकथित साधुओं में सौ में निन्यानबे असाधु हैं। क्योंकि न तो वहां आनंद है, न वहां प्रेम है।
सुन्न महल से अमृत बरसे, प्रेम अनंद होए साध नहाए।।
खुली किवरिया मिटो अंधियरिया, धन सतगुरु जिन दिया है लखाए।
अब किवाड़ खुल गए हैं। पुकारते रहोगे तो खुल ही जाते हैं। यह आश्वासन पक्का। यह गवाही पक्की। इस गवाही के पीछे बुद्ध और महावीर, और कृष्ण और कबीर, और मोहम्मद और मंसूर--सबके हाथ हैं। बड़ी लंबी महिमाशाली पुरुषों की कतार है, जो कहते हैं यह आश्वासन पक्का है। यह निरपवाद होता है। तुम पुकारो भर। तुम पूरे प्राण से पुकारो भर।
खुली किवरिया मिटो अंधियरिया, धन सतगुरु जिन दिया है लखाए।
और उसी घड़ी तुम अपने सदगुरु का धन्यवाद कर पाओगे। उसी घड़ी तुम जानोगे कि तुमने तो कुछ भी नहीं दिया था। तुमने समर्पण के नाम पर दिया क्या था? तुम्हारे पास देने को क्या था? जब तुमने गुरु के चरणों में जाकर सिर रखा था तो तुम्हारे सिर में सिवाय भुस के और था क्या? तुमने दिया क्या था? लेकिन जो तुम्हें मिल गया है उसका मूल्य नहीं कूता जा सकता।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाए।
उसी घड़ी तुम्हारा सिर चरणों में नहीं रहता, चरणों में एक हो जाता है, लीन हो जाता है, मिल ही जाता है। सदगुरु के चरण और तुम्हारा सिर तब दो चीजें नहीं रह जातीं।
सतगुरु के उपदेश, फिरो घन बावरी।
कहते हैं, लौट आओ पागलो! लौट आओ अपने घर। फिरो!
सतगुरु के उपदेश, फिरो घन बावरी।
जाओ, खोजो सतगुरु को। सुनो उसकी बात और लौटो अपने घर की तरफ। बहुत हो गई भटकन। परदेस में बहुत जी लिए।
उठि चलो आपन देस, इहै भल दाब री।।
अब अपने घर की तलाश करो। अब लौटो अपने घर।
उठि चलो आपन देस, इहै भल दाब री।।
और सदगुरु मिल जाए तो अवसर मिला अपने घर लौटने का। क्योंकि कोई मिला जो राह दिखा दे। कोई मिला जो तुम्हें राह सुझा दे। उस अवसर को चूकना मत।
पहले तो सदगुरु का मिलना मुश्किल। मिल जाए तो तुम चूकने में बड़े कुशल हो। तुम कहते हो, कल करेंगे। तुम कहते हो, अभी जल्दी क्या है! तुम कहते हो, अभी तो जवान हैं। अभी तो जिंदगी थोड़ी और देख लें। अभी थोड़ा राग-रंग और कर लें। अभी कहां मौत आई जाती है! तुम टालने में कुशल हो। तुम स्थगित करने में कुशल हो।
सतगुरु के उपदेश, फिरो घन बावरी।
लौट चलो। अगर वहां की खबर कोई देने वाला मिल जाए तो फिर क्षण भर भी सोचना मत, विचारना मत। फिर यह मत कहना, सोचें-विचारें।
उठि चलो आपन देस, इहै भल दाब री।।
इस अवसर को चूकना मत।
हम कहि दिया है सनेस, तुम्हारे पीव का।
धनी धरमदास कहते हैं, हमने संदेश कह दिया है तुमसे। तुम्हारे पिया का संदेश तुम तक पहुंचा दिया है। यही सारे सदगुरु करते रहे हैं।
हम कहि दिया है सनेस, तुम्हारे पीव का।
बिनु समझे नहिं काज, आपने जीव का।।
अब समझो। अब समझ लो तो तुम्हारे जीवन का काज सध जाए। तुम्हारे जीवन का काम पूरा हो जाए, परिपूर्ति हो जाए। तुम्हारे दुख मिटें। तुम्हारा नरक मिटे। तुम्हारा विषाद जाए, समाधि फले।
जुगन जुगन हम आइ कहा समुझाइकै।
यह बड़ा प्यारा वचन है। धनी धरमदास यह कह रहे हैं कि जिन्होंने हमसे पहले आकर कहा वे भी हम ही थे।
गुरु अलग-अलग नहीं हैं। रंग अलग हों, ढंग अलग हों, वाणी अलग हो, शैली अलग हो, मगर गुरु अलग-अलग नहीं हैं। कृष्ण ने कहा न कि आऊंगा! जब जरूरत होगी तब आऊंगा! संभवामि युगे-युगे। युग-युग में संभव हो जाऊंगा, जब जरूरत होगी। अब लोग सोचते हैं कि कृष्ण उतरेंगे--वही मोरमुकुट, पीतांबर, वही बांसुरी लिए हुए तो गलती में हो तुम। जो भी सत्य को जान लेता है वही कृष्ण है।
जीसस ने कहा है: मैं फिर आऊंगा, लौटूंगा। और ईसाई प्रतीक्षा कर रहे हैं। जो सत्य को जान लेता है वही जीसस है।
और बुद्ध ने कहा है: मैं आऊंगा मैत्रेय के रूप में। लेकिन जो भी तुम्हारा मित्र है--और मित्र कौन? जो तुम्हें अपने देश पहुंचा दे वही मित्र है। बुद्ध उसी में आ गए।
ठीक कहते हैं धरमदास--
जुगन जुगन हम आइ कहा समुझाइकै।
इसका यह मतलब मत समझना कि एक ही आदमी बार-बार आता है। अनेक-अनेक आदमियों में एक ही सत्य बार-बार आता है। अनेक-अनेक घड़ों में एक ही जल बार-बार भरता है। अनेक-अनेक आंखों में एक ही रोशनी बार-बार पड़ती है। व्यक्ति बदल जाते हैं, सत्य थोड़े ही बदलता है। सत्य एक है, अभिव्यक्तियां अनेक हैं। अनेक-अनेक वीणाओं पर वही गीत फिर-फिर गाया जाता है। वीणाओं के भेद से थोड़े बहुत भेद पड़ते हैं, मगर गीत वही है, लय वही है, छंद वही है।
जुगन जुगन हम आइ कहा समुझाइकै।
तो जो पहले आए और जो बाद में आएंगे वे, और जो आज हैं वे सब एक ही धागे से जुड़े हैं। मनके अलग-अलग, मनकों को जोड़ने वाला धागा एक है। कृष्ण और क्राइस्ट एक ही धागे से जुड़े हैं। मोहम्मद और महावीर एक ही धागे से जुड़े हैं। जरथुस्त्र और जीसस एक ही धागे से जुड़े हैं।
इसलिए तुम इन प्रतीक्षाओं में मत बैठे रहो कि कृष्ण आएंगे तब तुम जगोगे। यह भी तुम्हारी तरकीब है बचने की। अब तुम यह प्रतीक्षा मत करो कि जीसस जब आएंगे तब जगेंगे।
पृथ्वी कभी भी परमात्मा से खाली नहीं होती। कहीं न कहीं कोई दीया जलता है। आंख वाले खोज लेते हैं और पार हो जाते हैं। और अंधे बैठे प्रतीक्षा करते रहते हैं, अवसर खो देते हैं।
जुगन जुगन हम आइ कहा समुझाइकै।
बिनु समुझै धनि परिहौं, कालमुख जाइकै।।
और बार-बार यही कहा है कि अगर नहीं समझा सत्य को तो तुम बार-बार मृत्यु के मुंह में पड़ते रहोगे। कितना तो दुख पा लिया, दुख से मन नहीं भरा? अभी और दुख उठाने की इच्छा है? समझो।
धरमदास के ये सूत्र ऐसे थे कि बैठ जाएं तुम्हारे हृदय में तो तुम्हें उड़ा ले चलें आकाश की तरफ, कि तुम्हारे पैर फिर जमीन पर दुबारा न पड़ें। मगर तुम इन पर विचार करते मत बैठे रहना। इनका विचार से कुछ संबंध नहीं है। ये विचार नहीं हैं, यह धरमदास ने अपना हृदय तुम्हारे सामने उंड़ेला है। यह धनी धरमदास ने अपना सारा धन तुम्हारे सामने बिखेर दिया है। इसे चुन लो, इसे गुन लो, इसे कर लो।
सतगुरु के उपदेश, फिरो घन बावरी।
उठि चलो आपन देस, इहै भल दाब री।।
हम कहि दिया है सनेस, तुम्हारे पीव का।
बिनु समझे नहिं काज, आपने जीव का।
जुगन जुगन हम आई कहा समुझाइकै।
बिनु समुझै धनि परिहौं, कालमुख जाइकै।।

आज इतना ही।