DHARAMDAS
Jas Panihar Dhare Sir Gagar 10
Tenth Discourse from the series of 11 discourses - Jas Panihar Dhare Sir Gagar by Osho. These discourses were given during JAN 30 - FEB 10 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं कि परमात्मा की चाह मात्र बाधा है। और पूर्ण प्यास के बिना परमात्मा से मिलन नहीं हो पाता। परमात्मा की चाह और परमात्मा की प्यास में क्या फर्क है? कृपा करके समझाइए।
दिव्या! फर्क है दोनों में, और थोड़ा नहीं, बहुत फर्क है। जमीन-आसमान का फर्क है। चाह में आक्रमण है। प्यास में सिर्फ प्यास है। चाह खोजने निकलती है। प्यास प्रतीक्षा करती है। चाह सक्रिय है, प्यास निष्क्रिय है। चाह पुरुष है, प्यास स्त्री है। चाह में थोड़ा न बहुत बलात्कार है। प्यास में सिर्फ आतुर प्रतीक्षा है। चाह का अर्थ होता है, मैं पाकर रहूंगा। जोर ‘मैं’ पर है, जोर पाने पर है--जोर अपनी शक्ति पर है, जोर अहंकार का है।
प्यास कहती है, मिलो तो मेरा सौभाग्य। मिल जाओ तो मैं धन्यभागी। प्यास में मैं का जोर नहीं है। प्यास में तू महत्वपूर्ण है, मैं नहीं। प्रयत्न महत्वपूर्ण नहीं है, प्रसाद महत्वपूर्ण है। उसकी कृपा होगी तो होगा। चाह का भरोसा अपने पर है, प्यास का भरोसा उस पर है। इसलिए मैं कहता हूं कि चाह बाधा बन जाती है। जो ईश्वर को सक्रिय रूप से खोजने निकल पड़ते हैं आक्रामक की तरह, हिंसक की तरह, वे ईश्वर को कभी उपलब्ध नहीं करते। ईश्वर खोजे से नहीं मिलता, स्वयं खो जाओ तो मिलता है।
कबीर ने कहा है: हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई। खोजता था। खोजते-खोजते, ढूंढते-ढूंढते मैं खो गया। और जब मैं खो गया तब उससे मिलन हुआ।
चाह में तो मैं बना ही रहेगा। चाह तो मैं का ही विस्तार है। प्यास मैं का बुझ जाना है, प्यास मैं का मिट जाना है प्यास कहती है, मैं नहीं हूं, तू है। चाह कहती है दुनिया को करके दिखा दूंगा कि मैं कुछ हूं। धन भी मैंने पाया, ध्यान भी पाकर रहूंगा। पद भी मैंने पाया, परमात्मा को भी पाकर रहूंगा। चाह मुट्ठी बांधना चाहती है परमात्मा पर। चाह परमात्मा को भी तिजोड़ी में बंद करना चाहती है, बैंक-बैलेंस में रख देना चाहती है।
प्यास सिर्फ हृदय का खुलना है। आओ तो आओ। न आओ तो रोएंगे। और करने का उपाय क्या है? आओ तो नाचेंगे। न आओ तो शिकायत क्या करें? हमारी पात्रता क्या है? भेद को समझ लेना। भेद बड़ा है। चाह कहती है मिलोगे कैसे नहीं? सब योजना करेंगे, उपाय करेंगे, योग करेंगे, जप, तप, व्रत, तीर्थयात्रा करेंगे। जो किया जा सकता है करके दिखाएंगे। सब शर्तें पूरी करेंगे, अपनी योग्यता प्रमाणित करेंगे। मिलोगे कैसे नहीं? मिलना ही पड़ेगा। चाह कहती है, मेरे प्रयास निष्फल नहीं जाएंगे। प्रयास का फल होता है।
चाह पुरुषार्थ का भाव है। चाह परमात्मा को नहीं मानती। चाह तो परमात्मा को भी अपना एक विषय बनाती है। जैसे कभी धन को बनाया था, पद को बनाया, यश को बनाया, ऐसे परमात्मा को भी। चाह सिकंदर है। विजय-यात्रा पर निकली है, झंडा फहराना चाहती है जगत पर।
प्यास विनम्र है। विजय की यात्रा कहां! हार की आकांक्षा है। उसके चरणों में हार जाऊं। ऐसा हारूं कि कुछ भी बचे नहीं। सब तरह शून्य हो जाऊं। प्यास मिटना जानती है। चाह मिटना नहीं जानती। चाह तो अपने को भरने का उपाय है।
यह भेद खयाल में आ जाए तो मेरे वचनों में तुम्हें विरोधाभास न दिखाई पड़ेगा। मैं निरंतर कहता हूं, चाहोगे, चूकोगे। खोजोगे, कभी न पाओगे। और फिर भी कहता हूं, पूर्ण प्यास चाहिए। गहन अभीप्सा चाहिए। बिना अभीप्सा के कैसे उसका अवतरण होगा? तुम्हें कहीं जाना नहीं है। द्वार-दरवाजे खोलो। प्यास इतना ही करती है, अपने द्वार-दरवाजे खोल देती है। जब सूरज आएगा तो रोशनी भीतर आएगी। और जब हवा बहेगी तो हवा की लहरें भीतर आएंगी। जब परमात्मा आना चाहेगा, प्यास इतना ही कहती है कि तुम मुझे सोया हुआ नहीं पाओगे। जब तुम आओगे, तुम मुझे देहली पर खड़ा पाओगे।
कहा नहीं धरमदास ने! प्रतीक्षा, खड़े रहना, ठहरे रहना। खोजो मत और पा लो। बस प्यास ऐसी हो कि तुम्हारे भीतर प्यास को जानने वाला कोई भी न बचे। प्यास ही प्यास रह जाए, इस छोर से उस छोर तक।
फकत दिल ही नहीं है टुकड़े-टुकड़े
जिगर भी पारा-पारा हो गया है
एक-एक रोआं टूट जाए, श्वास-श्वास प्रज्वलित हो उठे।
क्या जानिए यह आह है कि क्या है
कुछ आग सी आई है जुबां पर
कोरे शब्दों से भरी प्रार्थनाओं का कोई मूल्य नहीं है। कुछ आग सी जबान पर आए। तुम अपने भीतर ही जलने लगो, तड़फने लगो। विरह की अग्नि एकमात्र यज्ञ है करने योग्य। धोखा देना हो दुनिया को तो फिर बहुत यज्ञ हैं। परमात्मा को पुकारना हो तो एक ही यज्ञ है कि तुम प्रज्वलित हो जाओ। तुम्हारे भीतर आग की लपट उठे; ऐसी उठे कि और सब जल जाए सिर्फ लपट ही बचे।
भक्त अपनी पीड़ा रोता है, अपना विरह रोता है। अपना सौभाग्य गाता है। क्यों? पीड़ा इसलिए कि परमात्मा अभी मिला नहीं, सौभाग्य इसलिए कि कम से कम उसकी प्यास तो मिली। प्यास मिली तो आधा मिलन तो हुआ ही। मिलन तो अभी नहीं हुआ है लेकिन विरह हो गया यह भी क्या कम है! इस दुनिया में असली अभागे तो वे हैं जिन्हें विरह भी नहीं है। मिलन की तो बात दूर। मिलन तो बाद की बात है। विरह की पूर्णता पर मिलन है। इस दुनिया में अधिक अभागे तो वे हैं जिनके मन में विरह का भाव ही नहीं। जिन्हें यह समझ ही नहीं है कि वे कुछ खो रहे हैं।
मैं अर्जे-हाल में कब तक जबां को रोकूं?
तेरी बदलती हुई चितवनों ने क्या न किया
भक्त अपना हाल कह देता है--अर्ज-ए-हाल। भक्त अपनी पीड़ा को निवेदन कर देता है, अपने विरह को रो देता है। लेकिन इनमें सिर्फ दुख का ही भाव नहीं है। यह कोरी शिकायत ही नहीं है। इसमें साथ-साथ एक गीत भी जुड़ा है, एक आनंद का भाव भी जुड़ा है। आनंद इसलिए कि तुमने मुझ पर इतनी कृपा की यही क्या कम है कि मुझे विरह दिया। यहां करोड़ों लोग हैं जिनको विरह ही नहीं है। तुमने मुझे प्यास दी यही क्या कम है? प्यास है तो सरोवर भी होगा। प्यास है तो तृप्ति भी होगी। प्यास ही नहीं तो कैसा सरोवर, कैसी तृप्ति?
दोनों के भेद को स्पष्ट समझ लेना। चाह से बचना, प्यास में डूबना। प्यास पहुंचाती है, चाह भटकाती है। चाह संसार है, प्यास प्रार्थना है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, न सोचा न समझा न सीखा न जाना मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना जरा देख कर अपना जलवा दिखाना सिमट कर यहीं आ न जाए जमाना जबां पर लगी हैं वफाओं की मुहरें खामोशी मेरी कह रही है फसाना
प्रश्न है भी, प्रश्न नहीं भी है। कुछ पूछा भी है, कुछ कहा भी है। राधा मोहम्मद का प्रश्न है।
‘न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना’
इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है वह खुद-ब-खुद आता है। इस जगत में जो व्यर्थ है वही सीखना पड़ता है। विश्वविद्यालय व्यर्थ को ही सिखाते हैं। सार्थक को सिखाने की कोई जरूरत ही नहीं है।
गणित सिखाए बिना नहीं आता। प्रेम बिना सिखाए आता है। तर्क बिना सिखाए नहीं आता, श्रद्धा बिना सिखाए उतरती है। ज्ञान बिना सिखाए नहीं आता। भक्ति कब अनायास, किस दिशा से आ जाती है कोई भी नहीं जानता। कब बाढ़ की तरह आती है और तुम्हें बहा ले जाती है, कोई भी नहीं जानता। इस जीवन में जो महत्वपूर्ण है वह अनसीखा है। महत्वपूर्ण की तलाश हो तो इस अनसीखेपन के तत्व को समझ लेना।
बच्चा पैदा होता है, श्वास लेना कौन सिखाता है? इसके पहले कभी ली न थी। मां के पेट में बच्चा स्वयं श्वास नहीं लेता। मां की श्वास से ही काम चलाता है। पैदा होने के बाद, जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घड़ी होती है वे दो-तीन क्षण, जब बच्चे की श्वास नहीं होती। मां के गर्भ से बाहर आ गया है और अभी अपनी श्वास ली नहीं। कौन सिखाता है श्वास लेना? और उस श्वास के बिना कोई जीवन नहीं होगा। कभी कोई जीवन नहीं होगा। कहां से आती है श्वास? कैसे भर जाते हैं नासापुट जीवन से? कौन फूंक जाता है? सोचते हो इन जीवन के रहस्यों पर? सिखाया किसी ने भी नहीं। बच्चे ने इसके पहले कभी श्वास ली भी नहीं थी। पुराना कोई अनुभव भी नहीं है। मगर फिर भी घटना घटती है। मां-बाप, चिकित्सक, नर्सें अवाक रह जाते हैं क्षण भर को। यह बच्चा चीखेगा, रोएगा, चिल्लाएगा या नहीं? वह चिल्लाना, रोना-चीखना, सिर्फ श्वास लेने का सबूत है। वह श्वास लेने का पहला उपाय है। वह बच्चे का रो उठना श्वास लेने का पहला उपाय है।
ऐसे ही जिस दिन तुम परमात्मा के लिए रो उठोगे, वह परमात्मा को पाने का पहला उपाय है। मगर तुम्हारे किए करने की कोई बात नहीं है। तुम क्या करोगे?
बच्चा श्वास ले लेता है, जीवन की यात्रा शुरू हो गई। सबसे महत्वपूर्ण कदम उठा लिया। इससे महत्वपूर्ण कदम अब जिंदगी में दूसरा नहीं होगा। और यह बिना सीखे उठाया। न कहीं स्कूल जाना पड़ा, न किसी से प्रशिक्षण लेना पड़ा। यह अपने से हुआ। यह स्वयंभू है। या कहो परमात्मा से हुआ। परमात्मा का और कुछ अर्थ नहीं होता, जो अपने से हो रहा है उसका नाम परमात्मा है। जो तुम करते हो उसका नाम आदमी है। जो अपने से होता है वही परमात्मा।
फिर एक दिन तुम किसी के प्रेम में पड़ गए। जैसे एक दिन जीवन शुरू हुआ था वैसे एक दिन प्रेम भी शुरू हुआ। वह भी नहीं सीखा। उसके भी कोई विद्यालय नहीं हैं, पाठशालाएं नहीं हैं। वह भी हुआ। और जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, इसी तरह होता रहता है।
तुम जानते हो न! किसी-किसी कवि को हम कहते हैं, वह जन्मजात कवि है। क्या अर्थ? जन्मजात कवि की क्या महिमा? इतना ही कि कविता उसे अपने से हुई है। बाकी तुकबंद हैं, जिन्होंने सीखी है। भाषा सीख सकते हो, व्याकरण सीख सकते हो, छंद के नियम सीख सकते हो। कितनी मात्राएं होनी चाहिए, कितनी नहीं होनी चाहिए, सब सीख सकते हो, मगर तुकबंद रहोगे। काव्य का जन्म नहीं होगा। काव्य का जन्म जन्मजात है। होता है तो होता है, नहीं होता है तो नहीं होता है। उपाय से तुम धोखा दे सकते हो दुनिया को, मगर परमात्मा को धोखा न दे पाओगे।
तुम जरा अपने भीतर तलाश करना, कितनी चीजें अनसीखी हो रही हैं। जो अनसीखा हो रहा है उसमें परमात्मा का हाथ है। जो सीख-सीख कर होता है वह आदमी की बनावट है। आदमी की बनावट से यंत्र बन सकते हैं, जीवन नहीं। आदमी की बनावट से मृत वस्तुएं हो सकती हैं। लेकिन जीवन का प्रवाह आदमी के हाथ में नहीं है। जीवन के प्रवाह का ही नाम तो धर्म है, जो सारे जीवन को सम्हाले हुए है।
रमण महर्षि के पास एक जर्मन विचारक ने कहा कि मैं दूर से आया हूं सत्य को सीखने। आप मुझे सिखाएं। रमण ने उसकी तरफ आंख उठा कर देखा। ऐसे वे ज्यादा नहीं बोलते थे। कम से कम बोलने वाले आदमी थे। इतना ही कहा कि अगर सीखना है तो कहीं और जाओ। यहां तो अनसीखना हो तो रुको। बड़ी अजीब बात। सीखना हो तो कहीं और जाओ। यहां तो अनसीखना हो, यहां तो सीखे को भी भूलना हो तो रुको।
मैं भी यही तुमसे कहता हूं, गुरु वही है जिसके पास तुम्हारा ज्ञान गल जाए। और जहां तुम्हारा ज्ञान बढ़ता हो वह अध्यापक होगा, शिक्षक होगा, गुरु नहीं है। जहां तुम्हारी जानकारी में और थोड़ा जोड़ हो जाए, तुम कुछ और सीख कर लौटो, समझना वहां शिक्षक था। शिक्षक सिखाता है, शिक्षा देता है। गुरु छीनता है। जो तुमने सीख लिया उसे हटाता है ताकि तुम्हारे भीतर अनसीखे तत्व फिर सक्रिय हो जाएं। दब गए हैं बुरी तरह। तुम्हारी सिखावन में इस तरह दब गई है तुम्हारी जीवन-ऊर्जा, उसे मुक्त करना है। पत्थरों की तरह तुम्हारा ज्ञान तुम्हारी छाती पर बैठ गया है। उसे हटाना है। तुम्हारी जीवन-चेतना पर शास्त्र लद गए हैं, उन्हें उतारना है। उनके उतरते ही तुम्हारे भीतर वास्तविक प्रज्ञान का जन्म होगा।
ज्ञान बाहर से आता है, प्रज्ञान भीतर से आता है। ज्ञान उधार होता है, प्रज्ञान अपना होता है, निजी होता है। जो निजी है वही सत्य है।
तो राधा, ठीक ही हो रहा है।
‘न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना’
सोचते सिर्फ अंधे हैं। आंख जिनके पास है वे सोचते नहीं, चल पड़ते हैं। सोच-विचार अंधे की लकड़ी है। वह उससे टटोलता है। जिसको दिखाई पड़ता है, जो आंख खोल कर देखता है वह लकड़ी लेकर नहीं चलता, वह टटोलता भी नहीं। उसे दिखाई पड़ता है दरवाजा कहां है, निकल जाता है।
सोचना कोई बहुत बड़ी गुणवत्ता नहीं है। असली राज तो बिना सोचे जीवन में गति करने में है।
मेरे पास दो तरह के लोग आते हैं। एक जो कहते हैं, संन्यास लेना है, सोचेंगे-विचारेंगे। उन्हें मैं नहीं दिखाई पड़ रहा हूं। जो कहते हैं सोचेंगे-विचारेंगे, वे आंख बंद किए मेरे सामने बैठे हैं। फिर दूसरा कोई आता है, जो मुझे देखता है और जिसकी आंख से आंसू बहने लगते हैं। और वह कहता है, अगर मैं पात्र हूं तो मुझे संन्यास दे दें। वह यह नहीं कहता कि मैं संन्यास लूंगा या नहीं। वह कहता है, दे दें। अगर मैं पात्र हूं, अगर मुझे योग्य मानें, अगर मेरी कोई संभावना हो, मेरा कोई भविष्य हो, तो मुझे दे दें।
सोचने-विचारने का सवाल कहां है? सोचना-विचारना कायर का लक्षण है। कायर झिझकता है, सोचता-विचारता है। इसलिए सोचने-विचारने वाले लोग जगत में कुछ कर नहीं पाते। करने का समय कहां है? सोचने-विचारने से फुर्सत मिले तब न! निर्णय आए पहले सोच-विचार के तब न! और सोचने-विचारने से निर्णय कभी नहीं आता। तुम यह जान कर हैरान होओगे, निर्णय सब हृदय में होते हैं। सोचना-विचारना सिर में होता है। और सिर कोई निर्णय नहीं ले सकता और हृदय कुछ सोच-विचार नहीं कर सकता। हृदय के पास आंखें हैं और सिर के पास अंधापन है। अंधेपन के कारण सिर खूब सोचता-विचारता है। ये दो तरह के लोग।
और एक तीसरे तरह का व्यक्ति भी कभी-कभी आता है। वह मुझे भी उलझन में डाल देता है। क्योंकि उसका हृदय कहता है, तैयार हूं। और उसका सिर कहता है, अभी सोचूंगा-विचारूंगा। अब मैं किसकी मानूं, किसकी सुनूं? उसके हृदय की सुनूं या उसके मस्तिष्क की सुनूं? उसका हृदय हाथ फैलाए है, उसका मस्तिष्क झिझक रहा है। मैं भी मुश्किल में पड़ जाता हूं, अब किसकी सुनूं? इसके हृदय की सुनूं? इसके हृदय की सुनूं तो इसका मस्तिष्क इनकार कर रहा है। कह रहा है, ना। इसके मस्तिष्क की सुनूं तो इसके हृदय के साथ अनाचार हो रहा है। क्योंकि इसका हृदय मांग रहा है, और हृदय ही मूल्यवान है। हृदय सदा हां कहना जानता है, हृदय आस्तिक है। और सिर सदा नास्तिक है। जो आदमी सिर से आस्तिक होना चाहता है वह कभी आस्तिक हो ही न पाएगा।
तर्क हां कहता ही नहीं और अगर कभी कहता है तो सिर्फ मजबूरी में कहता है। भेद समझ लेना। मजबूरी में! तर्क नहीं सूझता कुछ तो कहता है, ठीक। लेकिन प्रतीक्षा करता है कि कल अगर कोई तर्क मिल जाएगा तो फिर नहीं पर उतर आऊंगा।
हृदय हां कहता है, मजबूरी में नहीं, अहोभाव में। हृदय को अगर कभी ना कहना पड़ता है तो मजबूरी में। मगर इसी आशा में न कहता है कि ठीक है, आज मजबूरी है, न कह रहा हूं, लेकिन कल जैसे ही सुविधा होगी फिर मेरे हां का फूल खिल जाएगा। हृदय श्रद्धा है। और हृदय को कोई सीखने की जरूरत नहीं है, न सोचने की जरूरत है, न जानने की जरूरत है। हृदय जानता है, इसलिए जानने की जरूरत नहीं है।
हृदय के तल पर तुम परमात्मा को जानते ही हो। बस इतना ही करना है कि तुम्हें मस्तिष्क से उतर कर हृदय पर आ जाना है। वहां जानना घटा ही हुआ है; सदा से घटा हुआ है, प्रथम से घटा हुआ है। वहां अज्ञान कभी आया ही नहीं। तुम्हारे हृदय पर रोशनी अभी भी है। वहां दीया अभी भी जला है। अंधकार सिर में है। और तुम सिर में बस गए हो। तुम्हें अपने हृदय की गैल ही भूल गई है। भक्ति का कुछ और अर्थ नहीं है, हृदय की गैल को वापस खोज लो। सिर से उतरो, हृदय में आ जाओ।
‘न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना
जरा देख कर अपना जलवा दिखाना
सिमट कर यहीं आ न जाए जमाना
जबां पर लगी हैं वफाओं की मुहरें
खामोशी मेरी कह रही है फसाना’
खामोशी ही कह सकती है उस फसाने को। शब्द नपुंसक हैं। कहते मालूम पड़ते हैं, कह नहीं पाते। शब्दों के पास पंख नहीं हैं कि उस विराट के आकाश में उड़ जाएं। वहां तो शून्य का पक्षी ही उड़ता है। वहां तो मौन का ही आवागमन है। मौन की ही गति है।
ध्यान रहे, जब तुम्हारे जीवन में प्रेम घटेगा, तुम्हारी जबान लड़खड़ा जाएगी। जब तुम्हारे जीवन में जितना गहरा प्रेम घटेगा उतनी ही जबान चुप हो जाएगी। जैसे-जैसे तुम हृदय के करीब पहुंचोगे वैसे-वैसे सन्नाटे के करीब पहुंचोगे। वैसे ही वाणी दूर और दूर होती जाएगी। वैसे ही तुम अनुभव करने लगोगे, कुछ है जो न कभी कहा गया है और न कहा जा सकता है। इसीलिए वह जूठा नहीं हुआ है।
परमात्मा न कभी कहा गया है और न कहा जा सकता है, इसलिए परमात्मा जूठा नहीं हुआ है। और जब भी किसी को मिलता है तो जूठन नहीं होता। कबीर को मिले तो जूठन नहीं। धनी धरमदास को मिले तो जूठन नहीं। मुझे मिले तो जूठन नहीं, तुम्हें मिल तो जूठन नहीं। परमात्मा कभी भी जूठा नहीं होता। जब मिलता है, तभी ताजा और नया होता है। उस पर किसी के ओंठ कभी लगे ही नहीं। वाणी में वह कभी आया नहीं।
‘खामोशी मेरी कह रही है फसाना’
जो मेरे पास हैं, जो सच में मेरे पास हैं उनकी आंखें धीरे-धीरे खामोश होने ही लगती हैं। धीरे-धीरे वे अपनी चुप्पी से गुफ्तगू करने ही लगते हैं। चुपचाप कहने लगते हैं। जब कुछ कहने योग्य है तब चुपचाप ही कहा जा सकता है। लेकिन फिर भी छिपता कुछ भी नहीं। जब कोई प्रेम से भरता है तो कैसे छिपाओगे? जब घर में दीया जला हो तो रोशनी कहां छिपाओगे? जब फूल खिलेगा तो सुगंध को कहां छिपाओगे? सुगंध कुछ कहती तो नहीं, फिर भी पता तो पड़ जाती है। रोशनी कुछ कहती तो नहीं, कोई डुंडी तो नहीं पीटती, फिर भी पता तो पड़ जाती है। जब सुबह हो गई, सूरज कुछ कहे या न कहे, हजार-हजार पक्षी गीत गाने लगते हैं। हजार-हजार फूल खिल जाते हैं। हजार-हजार आरती के थाल सज जाते हैं।
छिपता नहीं छिपाए से चेहरा अताब का
होता चला गया है रंग गुलाबी नकाब का
वह प्रेम अगर घटे तो घूंघट तक गुलाबी हो जाता है। घूंघट के भीतर का चेहरा तो गुलाबी होता ही है, घूंघट तक पर आभा पड़ जाती है। आत्मा तो लाल हो ही जाती है।
लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
उस प्रेम के रंग में रंग कर तुम्हारी आत्मा तो सुर्ख हो ही उठती है, तुम्हारी देह तक गुलाबी हो जाती है।
छिपता नहीं छिपाए से चेहरा अताब का
होता चला गया है रंग गुलाबी नकाब का
तो राधा कहे कि न कहे, चुप रहे, सदा चुप रहे तो भी मुझे सुनाई पड़ रहा है। तो भी उसका घूंघट लाल हो गया है।
नजर बन कर वह दिल पर छा रहा है
तजल्ली का मजा अब आ रहा है
जैसे-जैसे परमात्मा तुम्हारे ऊपर छाएगा, जिंदगी में एक नई बहार, एक नया बसंत! कहने की कोई जरूरत नहीं। वसंत आ गया तो कहने की क्या जरूरत? वसंत कोई विज्ञापन तो देता नहीं। जब आ जाता है तो धड़ल्ले से आ जाता है। चारों तरफ से आ जाता है। हर वृक्ष पर आ जाता है। हर पक्षी के कंठ में आ जाता है। कहां छिपाओगे? वसंत पर कैसे घूंघट डालोगे? जल गई है प्यार की ज्योति।
जला दी आपने शमे-मोहब्बत खाने-दिल में
मगर न कौन किसके काम आता है जमाने में
बात होने लगी है। परमात्मा ही काम आता है। और तो कोई काम आता भी नहीं। उसी के जलाए यह शमा जलती है। यह जल जाए, शब्दों की कोई जरूरत नहीं। यह कहानी चुप की है, चुप्पी की है। चुपचाप कही जाती है, चुपचाप सुनी जाती है। शब्दों का अगर कोई उपयोग है तो इतना ही है कि तुम्हें मौन की तरफ ले चलें।
मैं इतना बोलता हूं, और सिर्फ इसलिए कि तुम चुप हो जाओ। मेरी दशा कारलाइल जैसी है। कहते हैं कारलाइल ने पचास किताबें लिखी हैं मौन की प्रशंसा में। फिर भी मैं मानता हूं कि पचास किताबें भी मौन की प्रशंसा में कम हैं। पचास हजार भी लिखो तो कम हैं। मौन की प्रशंसा में कितना ही लिखो, कम है। प्रशंसा पूरी हो ही नहीं पाती। इतनी महिमा है मौन की।
शब्दों का एक ही उपयोग है। कबीर भी बोले, और कृष्ण भी बोले, और क्राइस्ट भी, और महावीर, और मूसा, और मोहम्मद--सब बोले। लेकिन सब बोले इस बात को ध्यान में रख कर कि कैसे तुम चुप हो जाओ। बोलना तुम्हारा रोग है। इसलिए बोलने से शुरू करना पड़ता है। बोल-बोल कर ही तुम्हें अबोल की तरफ ले जाना होता है। तुम जहां हो वहीं से तो यात्रा शुरू करवानी पड़ेगी।
कठिन भी है प्रेम का मार्ग।
‘जरा देख कर अपना जलवा दिखाना
सिमट कर यहीं आ न जाए जमाना’
प्रेमी डरता भी है। जब परमात्मा का थोड़ा सा जलवा दिखाई पड़ना शुरू होता है तो घबड़ाहट भी होती है। उसकी एक किरण भी इतनी बड़ी है, उस पूरे सूरज का दर्शन कैसा होगा? उस विराट के सामने हाथ-पैर कंपने लगते हैं। कंपकंपी छा जाती है।
नरेंद्र ने पूछा है एक सवाल कि जब भी यहां बैठ कर आपको सुनता हूं तो कभी-कभी ऐसे क्षण आ जाते हैं कि एक गहरी कंपकंपी पैदा होती है। यह क्यों होती है? वह तभी होती होगी, जब तुम शब्द से छूट कर निःशब्द के करीब आते होओगे। वह तभी होती होगी जब मन से मुक्त होकर थोड़ी देर को समाधि की तरफ सरकते होओगे। वह तभी होती होगी जब संसार भूलता होगा और परमात्मा की तरफ आंख उठती होगी। तभी सब कंप जाता है। तब भीतर एक कंपकंपी आ जाती है। रोआं-रोआं कंपने लगता है, एक घबड़ाहट हो जाती है। घबड़ाहट कि मैं मरा। क्योंकि परमात्मा के साथ दो का उपाय नहीं है। तुम मरोगे तो परमात्मा हो सकेगा।
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय।
परमात्मा के सामने तो मिटना ही होगा। उसी मिटने की जो खबर आती है, मिटने का जो पहला संदेश आता है उसी में सब कंप जाता है।
जरा देख कर अपना जलवा दिखाना
भय भी लगता है प्रेम के मार्ग पर बहुत। घबड़ाहट भी होती है। प्रेम मृत्यु है इसलिए। और जो मरने को तैयार नहीं वह प्रेमी न हो सकेगा। मगर धन्यभागी हैं वे जो इस मृत्यु की यात्रा पर निकलते हैं।
लाख नादानों का वह नादान है
जो फरेबे-आस की खाता नहीं
इस दुनिया में सबसे बड़ा नादान वही है जो प्रेम में नहीं उतरता। उसके जीवन में सभी कुछ रेत ही रेत रह जाता है। मरुस्थल ही मरुस्थल! उसके जीवन में मरूद्यान कभी नहीं उपलब्ध होते।
साधारण जीवन का प्रेम भी उस परम प्रेम की तरफ पहल है, शुरुआत है। प्रेम का फरेब खाना! प्रेम के भ्रम में पड़ना क्योंकि प्रेम ही सत्य है। प्रेम इतना सत्य है कि उसका भ्रम भी सार्थक है। और जगत इतना असत्य है कि उसका भ्रम न भी हो तो भी सार्थक नहीं है। गणित कितना ही तथ्यपूर्ण मालूम पड़े तो भी कहीं न ले जाएगा और प्रेम कितना ही भ्रामक मालूम पड़े तो भी ले जाता है।
जरा अपनी तिरछी निगाहों को रोको
जिगर चोट खाने के काबिल नहीं है
डरता है। भक्त पहले पुकारता है, बुलाता है, तड़फता है, रोता है और जब परमात्मा के पद्चाप सुनाई पड़ते हैं, जब उसके स्वर करीब आने लगते हैं तब घबड़ाता भी है। जब उसकी आंख पड़ती है तब घबड़ाता भी है।
जरा अपनी तिरछी निगाहों को रोको
जिगर चोट खाने के काबिल नहीं है
मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। परमात्मा का आना शुरू हो जाए तो फिर रुकने का कोई उपाय नहीं है। एक बार उसकी पगचाप सुनाई पड़ जाए फिर तुम कहीं भी भागो, वह तुम्हें खोज ही लेगा। तुम कितने ही छिपो, वह तुम्हें पुकार ही लेगा।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं, प्रार्थना मांग नहीं, मात्र अहोभाव प्रकट करना है। और धनी धरमदास कहते हैं, ‘अर्जी सुनो, कर दो भवपार।’ क्या भवसागर से पार करने की प्रार्थना मांग नहीं है?
हो भी सकती है, नहीं भी हो। आदमी आदमी पर निर्भर है। धनी धरमदास की तो नहीं है, उतना मैं तुमसे पक्का कहता।
तुम करोगे यही प्रार्थना तो मांग होगी। किस ओंठ पर शब्द हैं इससे असली निर्णय होता है। शब्दों में अर्थ नहीं होते, ओंठों में अर्थ होते हैं। वही शब्द कृष्ण बोलें, वही शब्द तुम बोलो। कितने तोते तो गीता रट रहे हैं! शब्द वही हैं लेकिन फिर भी वही नहीं हैं। ओंठ ही और हो गए। कृष्ण के ओंठों पर उन शब्दों में एक स्वर्ण था। तोतों-पंडितों के ओंठों पर उन्हीं शब्दों में राख हो जाती है, धूल जम जाती है।
अगर तुम कहोगे, ‘अर्जी सुनो, कर दो भव पार।’ तो इसमें मांग होगी। क्योंकि तुम्हें अभी भव का पता ही नहीं। भवपार की बात उधार होगी। तुम्हें अभी भवपार का ठीक-ठीक अर्थ भी पता नहीं है कि तुम क्या मांग रहे हो। शायद ठीक-ठीक पता हो तो तुम मांगो भी नहीं। तुमने यह शब्द सुन लिया है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं ऐसा आशीर्वाद दें कि आवागमन न हो। मैं उनसे पूछता हूं, तुम्हें ठीक-ठीक पता है? आवागमन न होने का क्या अर्थ होता है? जैसे बूंद सागर में खो जाती है ऐसे खो जाओगे। फिर बचोगे नहीं। फिर बिलकुल नहीं बचोगे। रेख भी नहीं रह जाएगी। अस्तित्व में कहीं निशान भी नहीं रह जाएगा। तब वे जरा झिझकते हैं। मैं उनसे कहता हूं, फिर से सोच कर कहो। यही तुम चाहते हो? नहीं, वे कहते हैं, हम तो सोचते थे कि स्वर्ग में रहेंगे कि मोक्ष में रहेंगे। आप कहते हैं बिलकुल रहोगे ही नहीं। उससे तो फिर यहीं बेहतर हैं। अगर यही होना है कि बिलकुल मिट जाना है तो यहां क्या बुरे हैं?
बुद्ध धर्म का इसीलिए तो इस देश से वृक्ष उखड़ गया। बुद्ध धर्म के उखड़ने की कथा भारत के ऊपर भारी लांछन है। शायद तुमने इस तरह कभी सोचा न हो। बुद्ध में भारत की सबसे बड़ी प्रतिभा प्रकट हुई। और बुद्ध की जीवन-धारा भारत में नहीं चल सकी। भारत ने बुद्ध के अस्वीकार में अपनी अपात्रता सिद्ध कर दी। बुद्ध का कसूर क्या था? यहां सब तरह की चीजें चल रही हैं, बुद्ध क्यों न चल सके? बुद्ध का कसूर यही था कि उन्होंने तुम्हारी चीजों को साफ-साफ करके तुम्हारे सामने रख दिया। उन्होंने कहा कि तुम नहीं बचोगे, निर्वाण में तुम नहीं बचोगे। तुम बिलकुल नहीं बचोगे। तुम तो पूर्णतः समाप्त हो जाओगे। लोग जाकर पूछते हैं, वे कहते हैं कि देह चली जाएगी वह तो हमें मालूम है लेकिन मैं तो बचूंगा, आत्मा तो बचेगी! बुद्ध ने कहा: आत्मा भी नहीं बचेगी। क्योंकि तुम जिसे आत्मा समझे हो वह तो आत्मा भी नहीं है। वह तो तुम्हारा मन ही है।
लोग बार-बार आकर पूछते हैं, कुछ तो बचेगा! और बुद्ध इस मामले में बिलकुल ही कठोर थे। वे कहते, कुछ भी न बचेगा। मिटने की प्रार्थना है यह। तो लोग कहते, फिर सार क्या? फिर यहीं बेहतर है, दुख भी है तो ठीक। संसार की पीड़ाएं और कष्ट हैं तो ठीक। कम से कम हम हैं तो! तुम जरा सोचो, अगर दो चीजों में चुनना पड़े।
ऐसा समझो कि तुम कारागृह में पड़े हो, हाथ में जंजीरें हैं। भोजन भी ठीक नहीं मिलता। भोजन, साग-सब्जी में कंकड़ भी होते हैं। दुर्व्यवहार भी किया जाता है। जूतों की ठोकरें भी मारी जाती हैं। कोई स्वतंत्रता नहीं है, कालकोठरी है, अंधकार है। सूरज के कभी दर्शन नहीं होते। चांद-तारे कभी दिखाई नहीं पड़ते। फूल खिलते हैं बाहर दुनिया में या नहीं, अब पता ही नहीं है। उसी बदबू से भरी सीलन भरी कोठरी में तुम जी रहे हो। लेकिन अगर तुम्हारे सामने दो विकल्प हों कि या तो तुम इसी सीलन बदबू भरी, इसी अपमानित जिंदगी को जीए जाओ या मर जाओ। फांसी या यह कोठरी--तुम क्या चुनोगे? तुम कोठरी चुनोगे। तुम कहोगे कम से कम जिंदा तो हैं। दुख है माना, मगर कम से कम जिंदा तो हैं।
लोगों को फांसी की सजा होती है। तो वे प्रार्थना करते हैं, अर्जी करते हैं कि हमारी सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया जाए। मिटना कोई चाहता नहीं।
भवसागर से पार होने का मतलब समझते हो? भव यानी होना, बीइंग। भवसागर के पार होने का अर्थ होता है न होने में उतर जाना। होने से मुक्त हो जाना। तुम्हारी तैयारी है होने से मुक्त हो जाने की? तुम जब कहते हो, आवागमन से मुक्त करवा दीजिए तब तुम्हारा मतलब इतना ही होता है, आने-जाने की झंझट न रहे। कल्पवृक्ष मिल जाए, वहीं आराम से बैठें। मगर आवागमन मिटा कि तुम मिटे। तुम आवागमन में हो। तुम्हारा होना ही आने और जाने के बीच में है। आने-जाने की प्रक्रिया में ही तुम्हारा होना है। आना-जाना गया कि तुम गए। तुम बने आने-जाने से हो। आवागमन तुम्हारा अस्तित्व है।
और बुद्ध ने जब यह बात खोल कर कह दी, जैसी थी वैसी कह दी। जैसी की वैसी कह दी। इसमें जरा भी लीप-पोत न की। इसमें जरा भी ऊपर से शक्कर न लगाई। तुम्हारे भ्रम और तुम्हारे धोखों को किसी तरह का पोषण न दिया। बुद्ध धर्म इस देश से उखड़ गया। बुद्ध धर्म के उखड़ जाने ने साबित कर दिया कि यह देश अधार्मिक है। तुम लाख चिल्लाओ कि भारत धार्मिक है, लेकिन बुद्ध का इस देश से उखड़ जाना तुम्हारे जीवन पर सदा के लिए लांछन हो गया। भारत अधार्मिक है उस दिन से, जिस दिन से बुद्ध धर्म इस देश के बाहर गया। तुमने अपनी सबसे बड़ी प्रतिभा को इनकार कर दिया।
तुम दो कौड़ी के पंडित-पुजारियों की पूजा करते हो जिनका कोई मूल्य नहीं है। और तुमने अपनी सबसे बड़ी प्रज्ञा को, इस देश की सबसे बड़ी ज्योति को इनकार कर दिया! उस ज्योति को दूसरे देशों में जाकर शरण लेनी पड़ी! उस ज्योति के लिए दूसरे देशों में मंदिर बने, तुमने नहीं बनाए। और तुम क्षुद्र-क्षुद्र चीजों के मंदिर बनाते हो। राह के किनारे पत्थरों को रख लेते हो, सिंदूर ढाल देते हो और मंदिर शुरू हो जाता है। और बुद्ध के मंदिर तुमने न बनाए? तुम बुद्ध से इतने डर क्यों गए? बुद्ध ने तुम्हारे साथ ऐसा क्या दुर्व्यवहार किया? हां किया। यही कि तुम्हारी झूठी आकांक्षाओं को सहारा न दिया। तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन खींच ली।
तुम जब कहते हो: भवसागर से पार कर दो। ऐसी अर्जी करोगे, तो मैं मानता हूं कि उसमें मांग होगी। लेकिन धनी धरमदास की बात और। उसमें मांग नहीं है।
मैं निरंतर कहता हूं कि अगर चाह रही तो अड़चन बनी रहेगी। क्योंकि चाह संसार है। तुम कुछ भी चाहो, इससे भेद नहीं पड़ता। जब चाहा, बस तभी संसार शुरू हो गया। अचाह में मुक्ति है। चाह में संसार है।
हसरते-दीदार परदा बन गई दीदार का
शौक कहता ही रहा जी भरके सूरत देखिए
हसरते-दीदार--वह जो देखने की आकांक्षा थी वही देखने में परदा बन गई।
हसरते-दीदार परदा बन गई दीदार का
शौक कहता ही रहा जी भरके सूरत देखिए
तुम्हारी पाने की चाह बाधा बन जाएगी। इसलिए तो मैं कहता हूं, परमात्मा के लिए प्यासे होओ, परमात्मा की चाह मत करो। चाह में अहंकार है। प्यास निरहंकार भाव है। चाह विचार है, वासना है। विचार भाव है।
धनी धरमदास तो ठीक ही कहते हैं। तुम्हारा प्रश्न भी विचारणीय है, सम्यक है।
बाकी अभी है तर्के-तमन्ना की आरजू
क्यों कर कहूं कि कोई तमन्ना नहीं मुझे!
अभी एक तमन्ना बाकी है कि तमन्ना से छूट जाऊं। एक चाह बाकी है कि चाह से छुटकारा हो।
बाकी अभी है तर्के-तमन्ना की आरजू
क्यों कर कहूं कि कोई तमन्ना नहीं मुझे
ठीक है बात। अगर इतनी भी आरजू बाकी है कि मेरी चाह मिट जाए, हे प्रभु, मेरी चाह मिट जाए, मेरी चाहत को मिटा दो, तो यह भी चाह है। यही बाधा बन जाएगी।
इसलिए स्मरण रखना, जो मैंने कहा है ठीक ही कहा है। चाह संसार है। इसलिए मोक्ष की कोई चाह नहीं हो सकती। फिर ये धनी धरमदास का क्या करें? वे कहते हैं, अर्जी सुनो, कर दो भव पार। शब्द तो वही उपयोग करते हैं जो तुम उपयोग करते हो। शब्द और दूसरे हैं भी नहीं। सब शब्द बाजार के हैं।
‘अर्जी सुनो, कर दो भव पार।’ जब धरमदास यह कह रहे हैं कि मेरे होने को मिटा दो। अगर यह अनुभव से, जीवन के प्रति जागरण से, अवलोकन से यह स्थिति बनी है और इसमें कहीं भी छिपी हुई कोई आकांक्षा नहीं है कि रहूं बैकुंठ में, कि रहूं मोक्ष में। इसमें कहीं भी कोई और आकांक्षा नहीं है, इसमें सिर्फ एक निवेदन है कि यह होना कष्टपूर्ण है। कष्ट ही कष्ट है, इस होने को वापस ले लो।
फर्क समझना। जब तुम चाहते हो बैकुंठ, तब तुम सुख की मांग कर रहे हो। स्वर्ग--सुख की मांग कर रहे हो। और जब तुम जीवन के दुख को सिर्फ देखते हो और कहते हो यह दुख व्यर्थ है। सुख की तुम मांग नहीं कर रहे क्योंकि सुख की मांग के ही कारण तो यह संसार है और यह दुख है। सुख मांगा है इसीलिए तो दुख पा रहे हो। अब तुम सुख नहीं मांगते। अब तुम सिर्फ इतना ही कहते हो, देख लिया यह दुख। इस दुख में कुछ भी सार नहीं है। ले लो वापस। इसके पीछे कोई भी शर्त नहीं है कि इसके उत्तर में कुछ मुझे देना। इसलिए बुद्ध से जब भी कोई पूछता था कि आपके निर्वाण में क्या होगा? तो वे कहते थे दुख-निरोध। वे कभी नहीं कहते थे, सुख का अनुभव। वे कभी नहीं कहते थे, आनंद की प्रतीति। वे कहते थे, दुख-निरोध। दुख नहीं होगा। इससे ज्यादा नहीं।
बुद्ध बड़े वैज्ञानिक थे। ठीक उतनी ही बात कहते थे जितने से काम चल जाए, रत्ती भर ज्यादा नहीं। क्योंकि तुम बात में से बतंगड़ बना लेने में बड़े कुशल हो। जरा सी, रत्ती भर कुछ बात निकल जाए, तुम उसी में से रास्ते खोज लोगे। और तुम अपने सारे संसार को वापस ले आओगे।
स्वर्ग के नाम पर लोग संसार को वापस ले आए पीछे के दरवाजे से। तुम जरा पुराणों में, शास्त्रों में अपनी स्वर्ग की कल्पना तो देखो। उसमें तुम्हें अपनी सारी चाहत की झलक मिल जाएगी। यहां तक हालतें बिगड़ी हैं कि जिन चीजों को तुम यहां रुग्ण कहो, उनकी भी मांग वहां है।
जब कुरान का जन्म हुआ तो अरबी मुल्कों में होमोसेक्सुअलिटी का बड़ा प्रचार था--अब भी है--समलैंगिकता का। पुरुष पुरुष को प्रेम करने के लिए आतुर थे। सुंदर युवकों की बड़ी मांग थी, जैसे सुंदर युवतियों की। यह विकृति है। यह रुग्ण दशा है। लेकिन जब कुरान का अवतरण हो रहा था तो किसी कामी ने दिखता है, कुरान में यह बात भी डाल दी कि स्वर्ग में अप्सराएं तो होंगी ही, सुंदर स्त्रियां तो होंगी ही, सुंदर लड़के भी मिलेंगे।
तुम्हारे रोग तक स्वर्ग में पहुंच गए हैं। इस जमीन पर के रोग भी तुम वहां प्रक्षेपित कर लेते हो। शराब पीने के लिए लोग पागल थे। तो बहिश्त में शराब का इंतजाम है। कि वहां शराब भी मिलेगी। तुम जो यहां चाहते हो वही तुमने वहां चाह लिया है। तो तुम अगर यह कहो, अर्जी सुनो, कर दो भव पार, तो तुम्हारा मतलब यह होगा कि हे प्रभु, अब मुझे स्वर्ग दो। अब बहुत हो गया। जरा मेरी पात्रता तो देखो! इतना पुण्यधर्मी, इतना दानी, इतने व्रत-उपवास! अब मुझे स्वर्ग दो। अब यह संसार मेरे योग्य नहीं। अब मेरे लिए योग्य कोई जगह दो।
लेकिन जब धनी धरमदास कहते हैं, ‘अर्जी सुनो, कर दो भवपार,’ तो वे इतना ही कह रहे हैं, देख लिया सब। चाह दुख है। अब इतना ही निवेदन है--अर्जी है समझ लेना, निवेदन है। इतना ही विनम्र निवेदन है, सब देख लिया कुछ सार नहीं। अब मुझे मिटा दो। अब मेरी मिट्टी को मिट्टी में मिल जाने दो। मेरे आकाश को आकाश में मिल जाने दो। अब मुझे बिखेर दो। जैसा बनाया था एक दिन वैसा ही बिखेर दो। मैं बचूं नहीं।
इन शब्दों का कैसा अर्थ लोगे इस पर सब निर्भर है। धनी धरमदास को मैं जानता हूं। इसलिए उनकी तरफ से तुम्हें आश्वासन दे सकता हूं कि वहां कोई चाहत नहीं है। एक ही चीज अलग-अलग व्याख्याएं ले लेती है।
चाहा था गुलशन में एक घर बनाना
मगर बिजलियों को गंवारा नहीं है
यह एक दृष्टि। एक दूसरी दृष्टि--
बिजलियों रोशनी दिए जाओ
हम नशेमन तलाश करते हैं
एक दृष्टि: चाहा था गुलशन में एक घर बनाना। कि वसंत आ गया था और फुलवारी में एक घर बना लेते, एक घोसला बना लेते। मगर बिजलियों को गंवारा नहीं। लेकिन बिजलियां हैं कि नष्ट किए जाती हैं। हम घोसला बनाते हैं कि जला देती हैं।
एक दूसरी दृष्टि है: बिजलियों, रोशनी दिए जाओ। चमकती रहना, रोशनी देते रहना। हम नशेमन तलाश करते हैं! हम अपना घोसला खोज रहे हैं।
वही बिजली दुश्मन हो सकती है, वही मित्र। कैसे तुम देखते हो!
कोई सुख की आकांक्षा कर रहा है, इसलिए मांगता है कि भवसागर से छुड़ा दो। भव पार करवा दो। और किसी को दुख दिखाई पड़ गया है, दुख स्पष्ट हो गया है, दुख ही दुख है। वह कहता है, भवसागर के पार कर दो।
दोनों की बातों में भेद है। शब्द एक है, शब्द पर बहुत मत जाना। शब्द के पीछे खड़े आदमी को गौर से देखना। उस आदमी में ही अर्थ होता है, शब्द में नहीं। शब्द में नहीं, ओंठ में अर्थ होता है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मुझे तो इस जन्म में आप मिल गए हो। अब मुझे आपके योग्य पात्र बना लें। भगवान, मरण में भी तो आप मेरे साथ होंगे न? मुझे आपमें ओतप्रोत कर लो, और क्या मांगूं आपसे? मुझमें जो भी कमी हो, बाधाएं हों आपको पाने में, वे सभी दूर कर दो। मेरा सारा अस्तित्व निचुड़ कर मेरी दो आंखों में समा गया है। ये दो आंखें आपकी विशाल आंखों में समा जाने को, डूब जाने को आतुर हो उठी हैं। सारा शरीर मस्ती से भर गया है। मैं और क्या कहूं?
पूछा है सरोज ने।
उसकी आंखों को इधर मैं देखता रहा हूं। प्रश्न वास्तविक है। उसका सारा अस्तित्व निचुड़ कर आंखों में आ गया है। आ ही जाता है।
जब उसकी दीदार की आकांक्षा जगती है तो भक्त आंख ही आंख हो जाता है। जब उसे सुनने की आकांक्षा जगती है तो भक्त कान ही कान हो जाता है। इससे कम में काम भी नहीं चलता। जब उसे देखना है तो सारी जीवन ऊर्जा आंख बन जाती है। देखने की आकांक्षा जितनी प्रबल होगी उतना ही तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर आंखें ही आंखें फैलती चली जा रही हैं। देह भी आंख हो गई, मन भी आंख हो गई, आत्मा भी आंख हो गई।
वे कहते हैं हमें हर वक्त क्यों देखा करे कोई
निगाहे-शौक करती है तकाजा, देखते जाओ
जरा सी झलक मिल जाए, फिर निगाहे-शौक करती है तकाजा देखते जाओ।
सुना नहीं? धनी धरमदास ने कहा कि अब रात भी आंखों में नींद नहीं, रात भी पलकें खुली रहती हैं कि पता नहीं तेरा दीदार कब हो जाए! तू कब आ जाए? सोएं तो सोएं कैसे? आंख झपकें तो झपकें कैसे? कहीं ऐसा न हो कि मैं सोया रहूं और प्राण प्यारा आए। तो यह तो बड़ी दुर्भाग्य की बात हो जाएगी।
और ऐसा ही हो रहा है। लोग सोए हैं, परमात्मा आता है। परमात्मा रोज आता है। अनेक-अनेक ढंगों में आता है, अनेक रंग-रूपों में आता है। उसके अतिरिक्त और तो कोई है ही नहीं। वही आता है। लेकिन तुम सोए हो। तुम्हारी आंखें बंद हैं। और जो तुम्हारी आंखें खुली भी मालूम पड़ती हैं वे भी बहुत खुली नहीं हैं। वे आंखें भी वही देखती हैं जो उनकी चाह है।
तुमने देखा, एक चमार रास्ते पर बैठा रहता है, वह लोगों के चेहरे नहीं देखता, वह सिर्फ जूते देखता है। उसकी आंखें हैं, तुम्हारे जैसी ही आंखें हैं, मगर वह लोगों के जूते देखता रहता है। दर्जी तुम्हारा चेहरा नहीं देखता, तुम्हारे कपड़े देखता है। उसकी आंखों ने एक तरह का विशेष ढंग ले लिया है। उसकी आंखें विशेषज्ञ हो गई हैं। वही देखता है, जो वह खोज रहा है, जो वह तलाश रहा है।
ध्यान रखना, हम वही देखते हैं जो हमारी प्यास है। अगर तुम हीरे खरीदने गए हो तो तुम्हें हीरे की दुकान बाजार में दिखाई पड़ती है। अगर तुम हीरे खरीदने नहीं गए हो, तुम दुकान के सामने से निकल जाते हो.ऐसा नहीं कि तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। है तो दिखाई तो पड़ती ही है मगर कहां दिखाई पड़ती है? एक दफे भी खयाल नहीं आता। दुकानदार का बोर्ड भी पढ़ते हो, ऐसा नहीं कि नहीं पढ़ते हो, आंख है तो पढ़ ही जाता होगा। मगर कहां होश रहता है? अगर कोई तुमसे पूछे कि उस बोर्ड पर क्या लिखा है? ठीक-ठीक क्या लिखा है? और तुम वर्षों गुजरते रहे हो वहां से। तुम बता न सकोगे। रंग क्या है बोर्ड का? तुम कहोगे कि निकलता तो वहां से हूं लेकिन कभी खयाल नहीं किया; देखा तो है मगर खयाल नहीं किया।
बायजीद अपने गुरु के घर था। गुरु का विशाल आश्रम था। और गुरु के कक्ष में जाने के लिए उसे बीच के एक बड़े हॉल से गुजरना पड़ता था। वह बारह साल तक गुरु के पास था। एक दिन गुरु ने उससे कहा, वह पास ही बैठा था, कि तू जा, जिस हॉल से गुजर कर आया है उसमें ताक पर एक किताब रखी है वह तू उठा ला। उसने कहा: आप कहते हैं तो मैं जाता हूं मगर मैंने कभी देखी नहीं। गुरु ने कहा: हद्द हो गई! तू बारह साल से यहां आता है, उसी कमरे से रोज गुजरता है। दिन में दस बार गुजरता है, तूने ताक पर रखी किताबें नहीं देखीं? बायजीद ने कहा कि मैं आपके पास आता हूं। नजर आपमें उलझी रहती है। ताक मैं है क्या, किसको फिकर? किताबें हैं या नहीं, किसको फिकर? देखी जरूर होंगी, लेकिन फिर भी नहीं देखीं। अब जाता हूं, देख कर ले आता हूं।
गुरु ने कहा: जाने की जरूरत नहीं। मैं तो सिर्फ इसलिए पूछा था कि तू यहां आता है तो कुछ और भी देखता है या नहीं? तो तू कुछ नहीं देखता। तो तेरे अनुभव की परम घड़ी करीब आ गई।
हम जो खोजते हैं वही देखते हैं। जब तुम कामातुर होते हो, तुम्हें स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं, अगर स्त्री हो तो पुरुष दिखाई पड़ते हैं। जब तुम कामातुर नहीं होते तब कोई सवाल नहीं उठता। पता भी नहीं चलता कि स्त्री गुजरी कि पुरुष गुजरा।
बुद्ध जंगल में बैठे थे। कुछ युवक शहर से एक वेश्या को लेकर आ गए थे जंगल में। चांदनी रात थी, पूर्णिमा की रात थी। मजा करेंगे। खूब शराब पी गए। उस वेश्या के सब कपड़े छीन लिए, उसको नग्न कर दिया। लेकिन शराब में इतने धुत हो गए कि वह वेश्या भाग निकली डर कर; उनके ढंग देख कर। जब सुबह थोड़े चार बजे होंगे, ठंडी हवाएं बहीं, और नंगे थे, उघाड़े थे, और शराब में मस्त पड़े थे। थोड़ा होश आया। ठंडी हवाओं ने होश लाया। याद आया कि वेश्या को लेकर आए थे, वेश्या कहां गई? उसको खोजने लगे। कपड़े तो वहीं पड़े थे। वह वेश्या नंगी ही भाग गई थी। उसकी खोज में निकले कि गई कहां होगी नंगी? जाएगी कहां? यहीं कहीं होगी।
उसको तो खोजने निकले, वह तो मिली नहीं लेकिन बुद्ध मिल गए एक वृक्ष के नीचे। वे ध्यान कर रहे थे। उनको ध्यान करते देख कर उन्होंने पूछा: हे भिक्षु, हम एक वेश्या को लाए थे। वह नग्न थी। हम शराब पीकर मस्त हो गए। वह कहां भाग गई पता नहीं। यहां से जरूर गुजरी होगी। क्योंकि यही एकमात्र रास्ता है। आपको याद है? कोई वेश्या नग्न थी? बड़ी सुंदर स्त्री है। और नंगी स्त्री गुजरे पुरुष के सामने से और पुरुष न देखे!
बुद्ध ने कहा: कोई गुजरा तो जरूर लेकिन स्त्री थी या पुरुष, यह कहना मुश्किल है। कोई गुजरा तो जरूर, सुंदर था कि असुंदर, यह भी कहना मुश्किल है। कोई गुजरा तो जरूर क्योंकि मैंने पैर की आवाज सुनी। क्योंकि मैंने कोई प्रतिमा आंख के सामने से जाती देखी। लेकिन वह नग्न थी या नग्न था, वस्त्र पहने थे या नहीं पहने थे, यह जरा कहना मुश्किल है।
उन्होंने कहा: आप हमें चकित करते हो। सामने से इतनी सुंदर नग्न स्त्री निकले, आप कर क्या रहे थे? बुद्ध ने कहा: दस साल पहले निकली होती तो मैं उसके पीछे ही चला गया होता। यहां थोड़े ही बैठा रहता! तुम मुझे यहां पाते? वे दिन थे जब मैं पुरुष था तो स्त्री दिखाई पड़ती थी। अब तो मैं देह ही नहीं रहा तो कौन पुरुष, कौन स्त्री? जब तक मैं पुरुष था तो स्त्री दिखाई पड़ती थी। जब से मैं पुरुष नहीं रहा तो स्त्री कहां से दिखाई पड़े? स्त्री पुरुष को दिखाई पड़ती है, कामातुर पुरुष को दिखाई पड़ती है। स्त्री के गुजरने से स्त्री नहीं दिखाई पड़ती, तुम्हारे भीतर वासना के गुजरने से स्त्री दिखाई पड़ती है। तुम वही देख लेते हो जो तुम्हारी वासना होती है।
सरोज की आंखें सारी ऊर्जा से ओतप्रोत हो गई हैं। सारी ऊर्जा वहां समा गई है। यह शुभ हो रहा है। यही लक्षण है। ऐसे ही बढ़ते-बढ़ते एक दिन कोई उसकी परम अनुभूति को, उसके दर्शन को उपलब्ध होता है। ये आंखें पास हों तो कुछ और चाहिए नहीं, फिकर न करो।
और क्या मैकस को साकी चाहिए
तू है, शीशा है, सुराही जाम है
तैयारी हो रही है। जल्दी ही मस्ती परम हो जाएगी।
किसकी चितवन का वह खंजर था
ये अब कहने से क्या!
कर दिए अब जिसने मेरे दिल के टुकड़े, कर दिए
सरोज बही जा रही है। ऐसे ही सबको बहना है। एक-दूसरे से सीखो। एक दूसरे से तरंग लो। एक-दूसरे के पास बैठ कर परमात्मा की बातें करो। एक-दूसरे के पास बैठ कर मस्त होओ। एक-दूसरे की मस्ती में भागीदार बनो। इसीलिए तुम्हें संन्यास की यात्रा पर भेजा है। तुम्हें एक रंग में रंगा है इसीलिए कि भीतर भी एक रंग आ जाए। बाहर का रंग तो बाहर का ही है। उस पर ही तृप्त मत हो जाना। उससे तो सिर्फ शुरुआत है, अंत नहीं है।
मिलो एक-दूसरे से, चर्चा करो प्रेम की। गीत गाओ! नाचो! रोओ! डूबो एक दूसरे में। कोई थोड़ा आगे जाएगा, उसके साथ तुम भी आगे जाओगे। चाहता हूं, संन्यासियों की एक इतनी प्रबल ज्वाला बन जाए कि नया व्यक्ति आए तो तिनके की तरह उस ज्वाला में सम्मिलित हो जाए।
दिल में यारों की तरह आंख में आंसू की तरह
तुम मेरे पास रहो फूल की खुशबू की तरह
आकांक्षा तो यही है हरेक की कि जैसे फूल के पास खुशबू है ऐसे परमात्मा हमारे चारों तरफ हो। है ही। सिर्फ हमारे पास संवेदना नहीं है। हम जड़ हो गए हैं। हमारी चमड़ी मोटी हो गई है।
परमात्मा तो पास ही है। हमें अनुभव नहीं होता। जरा पिघलो। जरा तरल होओ। इधर तुम पिघले कि उधर अनुभव शुरू हुआ।
पूछा है सरोज ने कि ‘जन्म में--इस जन्म में तो आप मिल गए। मरण में भी आप मेरे साथ रहेंगे न?’
जन्म और मरण अलग-अलग नहीं हैं। जन्म एक पहलू है, मरण दूसरा पहलू है। जो जन्म में मिल गया वह मरण में भी मिल गया।
मृत्यु है क्या?
सच तो यह है कि एक पहेली है
जिंदगी मौत की सहेली है
साथ-साथ हैं। जीवन में जो पा लिया वह मृत्यु में खोता नहीं। हां अगर मृत्यु में खो जाता हो तो इससे इतना ही सिद्ध होता है कि जीवन में भी पाया नहीं था, पाने का धोखा खाया था। धन पा लिया जीवन में, मृत्यु में खो जाएगा। वह धोखा था। उसको संपत्ति सिर्फ नासमझ कहते हैं, जानने वाले उसको विपत्ति कहते हैं। उसको संपदा अज्ञानी कहते हैं, ज्ञानी उसको विपदा कहते हैं। क्योंकि जिंदगी भर गंवाई कमाने में और फिर मौत आई और सब खो गया।
ध्यान संपदा है। भक्ति संपदा है। कमा ली तो कमा ली, फिर मौत उसे छीन नहीं सकती।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।
उसे पा लिया फिर, जिसे शस्त्र छेद नहीं सकते और आग जला नहीं सकती।
जिन्होंने मेरे साथ प्रेम का संबंध जोड़ा है वे मृत्यु में भी मुझे इतना ही करीब पाएंगे। सच तो यह है, थोड़ा ज्यादा करीब पाएंगे। क्योंकि अभी तो शरीर की थोड़ी बाधा होती है। फिर वह बाधा भी गई। फिर दो आत्माओं के बीच मिलने का कोई.न मिलने का कोई कारण नहीं रह गया। शरीर के पीछे से मिलते हैं। यह तो ऐसा ही है कि जैसे हाथ पर दस्ताना पहना हुआ हो किसी से हाथ मिलाते, दस्ताने के पीछे हाथ है। फिर मौत आई, दस्ताना गिर गया। अब हाथ से हाथ मिलता है। अब आत्मा से आत्मा मिलती है।
खत्म होगा न जिंदगी का सफर
मौत बस रास्ता बदलती है
यह सफर तो चलता रहा, चलता रहेगा। इस सफर में तुम्हें कुछ ऐसा मिल जाए जो मौत न छीन सके तो तुमने कमाई कर ली। तुम खाली हाथ न गए।
इतना मैं कह सकता हूं सरोज, कि फिकर न कर। तेरे हाथ में संपदा आनी शुरू हो गई है। वह बढ़ती ही जाएगी। यह ऐसी संपदा है जो बढ़ती ही जाती है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, जिस दिन आपने नदी-नाव-संयोग की चर्चा की उस दिन संसार छूट गया। और जब आपने अपने जन्म-दिन पर इस भक्त को अनिमेष नयन से निहारा तब से आपका मोह भी छूट गया। आप इस कदर मुझमें उतर गए हैं कि उसको कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं बस आपकी ही हो गई हूं। और आप मेरे भीतर विराजमान हो गए हैं। किसको धन्यवाद दूं? मैं लायक तो नहीं हूं तो भी आपकी कृपा बरसती रहती है।
पूछा है तरु ने।
मैं देखता रहता हूं किसमें क्या हो रहा है। चुपचाप देखता रहता हूं किसमें क्या हो रहा है। वही मेरा दायित्व है, जिस दिन मैं तुम्हें संन्यास देता हूं उस दिन से मेरे ऊपर आया। उस दिन से मेरी नजर तुम्हारा पीछा करती है।
जो संन्यासी नहीं हैं उनके लिए मैं यह नहीं कह सकता। क्योंकि जिन्होंने इतनी ही हिम्मत नहीं की कि मेरे साथ पागल हो सकें। जिन्होंने इतनी हिम्मत नहीं की कि दुनिया उनकी हंसी उड़ाए तो मेरे लिए हंसी सह सकें। निश्चित दुनिया हंसी उड़ाएगी। लोग पागल कहेंगे कि दिमाग खराब हुआ। जिनका इतना साहस नहीं है उनके साथ मेरा श्रम करना भी व्यर्थ है। जिनमें इतना साहस नहीं है वे ले भी न सकेंगे, अगर मैं कुछ देना चाहूं। लेकिन जिन्होंने संन्यास लिया है, जिन्होंने मेरे साथ पागल होने की झंझट ली है उनका पीछा तो मेरी नजर करती ही रहती है। तरु ठीक कह रही है।
अगर तुमने मुझे ठीक से समझने की कोशिश की, ठीक से सुना भी तो कई बातें होने लगेंगी जो तुम्हें करने की जरूरत नहीं है। क्योंकि ठीक-ठीक किसी बात को देख लेना उस बात का हो जाना भी है।
तरु कहती है, जिस दिन आपने नदी-नाव-संयोग की चर्चा की.वह दिन मुझे याद है। उस दिन मैंने उसे टूटते देखा। कह रहा था मैं उस दिन कि इस जगत के सारे संबंध नदी-नाव-संयोग हैं। नदी नाव के बिना हो सकती है, नाव नदी के बिना हो सकती है। कोई अनिवार्यता नहीं है। ऐसे ही मां, पिता, पत्नी, भाई, बंधु और अंततः गुरु भी नदी-नाव-संयोग हैं। सब संयोग टूट जाएंगे। इसलिए जो व्यक्ति अकेले होने की हिम्मत नहीं रखता वह कष्ट में पड़ जाएगा। अकेले होने का साहस चाहिए और कोई संबंध छोड़ कर भाग जाने के लिए नहीं कह रहा हूं। सिर्फ इतना जानना काफी है कि ये संबंध बस नाममात्र के हैं। संबंध तो एक ही है जो कभी नहीं टूटेगा; वह परमात्मा से है। वह नदी-नाव-संयोग नहीं है।
दुनिया बस इससे ज्यादा नहीं है कुछ
कुछ रोज हैं गुजारने और कुछ गुजर गए हैं
यहां तो सब मिटता ही जा रहा है। पानी पर खींची गई लकीरें हैं।
ऐ शमा, सुबह होती है, रोती है किसलिए?
थोड़ी सी रह गई है, इसे भी गुजार दे
जल्दी ही सब टूट जाएगा। यहां का बनाया हुआ खेल बार-बार मिट जाता है। और मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं कि इस खेल को मिटा दो। इतना ही जान लो कि यह खेल है कि बात समाप्त हो गई। कई बार ऐसा हो जाता है कि नाटक देखते-देखते तुम इतने तल्लीन हो जाते हो कि भूल ही जाते हो कि नाटक है। तुमने सिनेमागृह में लोगों को रोते देखा होगा। अपने को रोते पाया होगा। और तुम भलीभांति जानते हो मगर भूल गए हो। भलीभांति जानते हो कि परदे पर कुछ भी नहीं है, परदा कोरा है। वहां केवल धूप-छांव का खेल चल रहा है। मगर फिर भी कोई मार्मिक दृश्य देख कर, कोई दुखांत घड़ी आती है और तुम रोने लगते हो। फिर बाद में तुम भी हंसोगे। और अचानक अगर सिनेमा हॉल में रोशनी हो जाए तो जल्दी से अपने आंसू पोंछ लोगे कि कहीं कोई और न देख ले। लोग कहेंगे कि कैसे पागल हो? सिनेमा हॉल का अंधेरा लोगों के लिए बड़ा सहयोगी है। रो भी लेते हैं, हंस भी लेते हैं। प्रसन्न भी हो लेते हैं, भयभीत भी हो लेते हैं; सब चीजों से गुजर जाते हैं। और हर बार जानते हुए, भलीभांति भीतर यह बात तो पता ही है कि परदा खाली है।
जिस व्यक्ति को यह साफ दिखाई पड़ गया है कि संसार केवल धूप-छांव का खेल है, यहां सब संयोग नदी-नाव-संयोग। कहीं जाने को नहीं कह रहा हूं, फिर मजे से बैठे रहो सिनेमा हॉल में। कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन फिर न आंसू होंगे, न सुख, न दुख। बाहर की चीज फिर प्रभावित न करेगी। और जब बाहर की चीज प्रभावित नहीं करती तब भीतर की चीज जागती है। जब बाहर के सब प्रभाव समाप्त हो जाते हैं तो सारी ऊर्जा भीतर इकट्ठी हो जाती है। वही ऊर्जा उस परमात्मा तक ले जाने का आधार बनती है। उस तक जाने के लिए ऊर्जा चाहिए। उसी ऊर्जा पर चढ़ कर कोई यात्रा कर पाता है।
दो दिन की जिंदगी है रहना नहीं हमेशा
हम खुद हैं एक मुसाफिर दुनिया है एक सराय
समझा कि हो गया। करने की बात नासमझ करते हैं। समझा, कि हो गया। जो तुम्हारे बीच सर्वाधिक प्रतिभाशाली हैं, वे सुनते-सुनते ही मुक्त हो जाएंगे। जो उतने प्रतिभाशाली नहीं हैं उन्हें कुछ करना होगा। वह प्रतिभा की कमी है।
महावीर ने कहा है कि परमात्मा तक पहुंचने के दो तीर्थ हैं--श्रावक और साधु। या चार--श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी। श्रावक का अर्थ होता है: जो सुन कर ही जान ले। श्रावक यानी श्रवण से जान ले। जो गुरु की बात सुने, इधर सुने, उधर हो जाए। साधु का अर्थ होता है: जो सुने, फिर अभ्यास करे। साधु नंबर दो है। मगर मजा यह है कि करने वाला जीत गया और साधु ऊपर बैठ गया है। और साधु श्रावक से कहता है तुम नीचे हो। असल में श्रावक श्रावक नहीं है और साधु भी साधु नहीं है अब। श्रावक का मतलब ही यह था जो सुन कर हो जाए जिसे। बुद्ध ने भी यही कहा है।
बुद्ध का एक श्रावक था, विमलकीर्ति। उसकी बड़ी प्यारी कथाएं हैं। वह गृहस्थ ही रहा। उसने कभी घर नहीं छोड़ा, पत्नी नहीं छोड़ी, दुकान नहीं छोड़ी। और बुद्ध के बोधिसत्व भी सारिपुत्र, मोग्गलायन, महाकाश्यप--ऐसे-ऐसे प्रतिभाशाली भिक्षु बुद्ध के विमलकीर्ति से डरते थे।
एक बार विमलकीर्ति बीमार पड़ा, तो बुद्ध ने कहा सारिपुत्र को कि जाओ और विमलकीर्ति को पूछो, क्या बीमारी है, क्या हुआ? कुशलक्षेम पूछ कर मुझे खबर कर दो। सारिपुत्र ने कहा: आप कहते हैं तो मैं जाऊंगा, मगर मैं जाना नहीं चाहता। आप मुझे क्षमा करें, किसी और को भेज दें। अगर यह संभव हो किसी और का भेजना तो कोई और ही चला जाए। आप कहेंगे तो जाऊंगा लेकिन मैं जाना नहीं चाहता।
बुद्ध ने कहा: क्यों? तो सारिपुत्र ने कहा कि विमलकीर्ति को देख कर ही मेरे छक्के छूट जाते हैं। मेरी घिग्घी बंध जाती है। वह ऐसे प्रश्न उठा देता है। मैं एक बार बोल रहा था एक सभा में और विमलकीर्ति आ गया। उसके आने से बड़ी अड़चन हो गई। वह आकर बैठ गया। उसके बैठते ही मैं कुछ का कुछ बोलने लगा। क्योंकि उसकी मौजूदगी ऐसी है। और फिर उसने बीच में उठ कर पूछा कि सारिपुत्र, सत्य अगर बोला नहीं जा सकता तो बोल क्यों रहे हो? उसने और फजीहत करवा दी। उससे विवाद भी नहीं किया जा सकता। उसके तर्क भी बड़े प्रखर हैं।
उन्होंने मोग्गलायन से कहा कि मोग्गलायन तू चला जा। मोग्गलायन ने कहा कि आप कहेंगे तो जाना पड़ेगा। मगर किसी और को भेज देते तो अच्छा था। क्योंकि मैं उपवास किए था और विमलकीर्ति आ गया और उसने कहा कि आदमी न देह है, न आत्मा है, उपवास कौन कर रहा है? उपवास किसलिए कर रहे हो? उसे देख कर मुझे पसीना छूट जाता है। सिर्फ एक शिष्य मंजुश्री राजी हुआ जाने को। वह भी झिझकते-झिझकते ही गया। कोई जाने को राजी नहीं था तो वह गया। मंजुश्री बुद्ध के भिक्षुओं में सर्वाधिक प्रतिभाशाली भिक्षु था। मगर उसको भी मुश्किल में डाल दिया।
डरते थे, वे ठीक ही डरते थे। क्योंकि उससे कुछ भी बात करनी खतरनाक थी। उसकी प्रज्ञा ऐसी प्रखर थी, वह बुद्ध को सुन कर ही बुद्ध हो गया था। उसने कभी कुछ नहीं किया था। कृत्य करने की जरूरत ही न आई थी। इधर बुद्ध ने कहा, उधर उसने समझा और बात हो गई थी।
जब मंजुश्री गया.स्वभावतः जब तुम किसी बीमार आदमी को देखने जाओ.तो उसने जाकर पूछा कि हे विमलकीर्ति, क्या आप रुग्ण हैं? उसने आंख खोलीं और उसने कहा कि सारा संसार रुग्ण है। तूने बुद्ध को सुना कि नहीं। अरे मूढ़! बुद्ध कहते हैं, जन्म दुख, जीवन दुख, मृत्यु दुख। सारा दुख ही दुख है। और तू इधर पूछने आया है कौन रुग्ण है? तू स्वस्थ है?
अब ऐसे आदमी से बीमारी का कुशलक्षेम पूछने जाना भी कठिन है। लेकिन विमलकीर्ति श्रावक था। सिर्फ सुन कर जाग गया था। अनूठी प्रतिभा रही होगी।
जो तुम्हारे बीच वस्तुतः प्रतिभाशाली हैं वे सुन कर जाग जाएंगे। वे मुझे देख कर जाग जाएंगे। मेरे साथ बैठ कर जाग जाएंगे। जो प्रतिभाशाली नहीं हैं उन्हें कुछ करना पड़ेगा। करना उनकी प्रतिभा को थोड़ा निखारेगा। कुछ धार रखनी पड़ेगी। थोड़ा समय लगेगा।
‘नदी-नाव-संयोग की चर्चा उस दिन आपने की, संसार छूट गया।’ ऐसे ही छूट जाना चाहिए।
‘और जब आपने जन्म-दिन पर इस भक्त को अनिमेष नयन से निहारा तब से आपका मोह छूट गया।’ छूट ही जाना चाहिए।
तुम्हारा मुझसे मोह बन जाए तो यह मोह का नया ढंग हुआ। ध्यान रखना, प्रेम मोह नहीं है। और जहां मोह है वहां प्रेम कहां है? प्रेम बड़ी और बात है। प्रेम और ही लोक है। मोह में पकड़ने की इच्छा है। प्रेम में कोई इच्छा नहीं। जैसा है वैसा ठीक है ऐसा प्रेम में भाव है। जो है, सब सुंदर है। जो होगा सुंदर होगा, ऐसी श्रद्धा है।
मोह में श्रद्धा नहीं है, मोह में बड़ा संदेह है। मोह कहता है पकड़ रखूं। कहीं मेरा प्रेमी मुझसे छूट न जाए। कहीं मेरा प्रेमी किसी और को प्रेम न करने लगे। कहीं मेरी प्रेमी की नजर से मैं उतर न जाऊं। पकड़ रखूं, बांध रखूं, सब तरफ से घेरा डाल दूं! इसी तरह तो प्रेमी एक-दूसरे के पास जेल खड़ी कर देते हैं। कारागृह बना देते हैं, जंजीरें पहना देते हैं।
जिस दिन पति अपनी पत्नी को गहने पहनाता है, गहने नहीं पहनाता जंजीरें पहना देता है। जिस दिन पत्नी अपने पति के चरण पर हाथ रखती है, चरण नहीं पकड़ती, गर्दन पकड़ लेती है। वहां मोह है। वहां दावा है। प्रेम मोह नहीं है। प्रेम तो निर्मोह दशा है, इसलिए निर्मल है।
गुरु और शिष्य के बीच जो प्रेम है वहां मोह का जरा भी अंश आ जाए तो फिर परमात्मा की तरफ यात्रा जाना मुश्किल हो जाएगी। वहां प्रेम है, अपूर्व प्रेम है, धन्यभाव है। आभार है। मगर कोई मोह नहीं।
अगर ठीक से समझ सको तो ऐसा समझो कि मैंने तुमसे बार-बार कहा है कि गुरु शिष्य का संबंध इस जगत में सबसे ऊंचा संबंध है। अब तुमसे मैं यह भी कहूं वह सबसे ऊंचा इसीलिए है कि वह नाममात्र का संबंध है। वहां संबंध है क्या? असंबंध है। उसी असंबंध में ही सारा रस है। इसलिए सदगुरु की परिभाषा मैं करता हूं, जो तुम्हें एक दिन संसार से छुड़ाए और फिर एक दिन अपने से भी छुड़ा दे। तभी तो तुम परमात्मा तक पहुंच पाओगे। नहीं तो संसार से छूटे फिर गुरु से बंध गए। और अक्सर इस दुनिया में गुरु हैं, गुरु नहीं कहना चाहिए उन्हें मगर कहे जाते हैं, जो तुम्हें जकड़ लेंगे। जो तुम पर कब्जा कर लेंगे। जो तुम्हें नई तरह की जंजीरें पहना देंगे धर्म के नाम पर।
गुरु वही है, जो सारी जंजीरें छीन ले और स्वयं जंजीर न बने।
मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं
मेरे खयाल की दुनिया में मेरे पास हो तुम
क्या जुदाई का रंज? अलग होने का कोई डर क्या? मेरे खयाल की दुनिया में मेरे पास हो तुम। और फिर धीरे-धीरे तो खयाल की दुनिया में ही पास नहीं रह जाते, आत्मिक भाव हो जाता है। एकता सध जाती है।
शिष्य और गुरु जहां मिलते हैं वहीं परमात्मा का आविर्भाव है। जहां शिष्य और गुरु दोनों शून्य होकर एक दूसरे में लीन हो जाते हैं वहीं पूर्ण का दीया जलता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, भक्त संतों ने भजन की बहुत महिमा गाई है। यह भजन क्या है?
भजन है, भाव का निवेदन। भजन कोई बंधी-बंधाई औपचारिकता नहीं है, निर्बंध भाव का निवेदन है। भजन है हृदय के द्वारा उतारी गई आरती। बाह्य उपकरणों से नहीं, अंतर उपकरणों से। भजन है प्यास का गीत।
क्या करे आदमी? विवश है, असहाय है। परमात्मा कहां है, पता नहीं। भजन है कभी रोना, कभी मुस्कुराना। मुस्कुराना उस सबके लिए जो उसने किया है। और रोना उसके लिए, जो अभी होने को है और हुआ नहीं। धन्यवाद उसके लिए जो हुआ है और प्रार्थना उसके लिए जो होना है। तुम जीवित हो यह उसका प्रसाद--इसके लिए धन्यवाद। तुम अभी देह में बंधे हो, यह तुम्हारा कष्ट। इस देह से छुटकारा हो। तुम अभी भव में बंधे हो, यह तुम्हारी पीड़ा। इसकी अर्जी--कि भव सागर से मुझे पार उठा।
और भक्त की यह आस्था है कि मेरे किए कुछ भी न होगा। मेरे किए कभी कुछ नहीं हुआ। मैं हूं ही नहीं। तो तू ही करे तो कुछ हो।
ज्ञानी भजन नहीं गाता। त्यागी भजन नहीं गाता। गाएगा ही नहीं। गाएगा कैसे? त्यागी तप करता है। ज्ञानी ज्ञान संजोता है। व्रती व्रत करता है। उन सबकी यह मान्यता है कि हमारे किए होगा। हम करके रहेंगे।
भक्त क्या तप करे? क्या जप करे? भक्त सिर्फ भजन करता है। भजन मतलब स्मरण करता है। वह कहता, तू करेगा तो होगा। जब करेगा तब होगा। हम तब तक प्रतीक्षा करेंगे।
तुमने देखा गांवों में किसानों को? जब ग्रीष्म की भयंकर लू बहती है और जमीन तप-तप कर टूटने लगती है, और वृक्ष सूखने लगते हैं तब तुमने उनकी आंखों को देखा आकाश को निहारते, आषाढ़ कब आएगा? आषाढ़ के मेघ कब घिरेंगे? तुमने उनकी आंखों को देखा आकाश को देखते? वह भजन है। वैसा ही भक्त आकाश की तरफ देखता है--प्रतीक्षारत। कब उसके अंतर के आकाश में आषाढ़ के मेघ घिरेंगे! कब घनश्याम का दर्शन होगा? कब वर्षा होगी?
किसान भी कुछ कहता नहीं, देखता है आकाश को। कहने को है भी क्या? उसकी आंखें सब कह रही हैं। भक्त भी कुछ कहता नहीं। कहने को है क्या? ऐसा क्या है जो परमात्मा नहीं जानता है, जो कहना पड़े? उसकी आंखें सब कह रही हैं, उसका हृदय सब कह रहा है। लेकिन कभी-कभी यह भाव गीतों में फूट भी पड़ता है। कभी-कभी यह अनूठे-अनूठे रंगों में व्यक्त भी होता है। कभी आंसू बन कर बहता है। और कभी पैरों में घूंघर बंध जाते हैं और भक्त नाचता है। कभी वीणा को छेड़ता है।
लेकिन यह होना चाहिए अनौपचारिक। यह सीखा-सिखाया न हो। यह पिटा-पिटाया न हो। यह चला चलाया न हो। यह लकीर की फकीर आदत नहीं होनी चाहिए कि सीख लिया एक भजन और रोज उसी को घोंटते रहे। उससे कुछ भी न होगा।
कथा है: मूसा एक जंगल से गुजरते थे--यहूदी पैगंबर। उन्होंने एक आदमी को प्रार्थना करते देखा, वे बड़े चौंके। उन्होंने बहुत प्रार्थना करने वाले देखे थे। मगर यह बड़ी अजीब प्रार्थना कर रहा था। गरीब आदमी था। गड़रिया था। अब गड़रिए की प्रार्थना गड़रिए की प्रार्थना थी। उसके ही अंतर का भाव था। वह कह रहा था हे प्रभु, अगर तुम मुझे मिल जाओ ऐसा स्नान करवाऊं तुम्हें, ऐसी मालिश करूं तुम्हारी कि अगर जूएं इत्यादि तुम्हारे शरीर में पड़ गए हो, सबको धो डालूं।
मूसा तो बहुत चौंके कि हद्द हो गई। यह आदमी क्या कह रहा है जैसे ईश्वर ने स्नान न किया हो! और यह उनके जूएं इत्यादि की बातें कर रहा है? और पैर ऐसे धोकर साफ करूंगा कि बिमाई भी पड़ गई हों तो ठीक कर दूंगा। मेरे जैसी मालिश कोई कर ही नहीं सकता। और भोजन भी बना दूंगा। और रात बिस्तर भी लगा दूंगा।
आखिर मूसा से न रहा गया, वह बीच में आकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा, कि सुन नासमझ! तू यह क्या कह रहा है? यह कैसी प्रार्थना कर रहा है? पहले प्रार्थना करना सीख। वह आदमी गरीब था, वह गिर पड़ा पैर पर। उसने कहा, मैं तो जानता नहीं, सीखा पढ़ा भी नहीं। आप मुझे सिखा दें। तो जो मूसा को लगता था प्रार्थना नियमबद्ध जैसी यहूदी करते हैं वह प्रार्थना उसे समझाई कि इस-इस तरह।
उसने फिर दुबारा पूछा कि देखो मैं भूल जाऊंगा, एक दफा और बता दो। फिर मूसा दूसरी दफा बता कर जा रहे थे, वह भागा फिर आया और उसने कहा, एक बस--एक दफे और। क्योंकि मैं भूल जाऊंगा। ये कठिन शब्द हैं। और अगर भूल-चूक हो गई तो--तो फिर बड़ा नुकसान होगा। अब तक अज्ञानी था, जो करता रहा सो करता रहा। मगर अब, अब भूल-चूक नहीं सही जाएगी। अब मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा। तुम्हें कहां खोजूंगा?
वह तो मेरी प्रार्थना थी, उसमें कुछ अड़चन ही नहीं थी। रोज अपनी बना लेता था, जो जैसी करनी थी कर लेता था। अब तो एक नियम से चलना होगा। जब मूसा बड़े प्रसन्न भाव से उसको समझा कर तीसरी बार अपने रास्ते पर चले तो उन्होंने आकाश से एक बड़ी गंभीर गर्जना सुनी। ईश्वर बहुत नाराज था। और ईश्वर ने कहा कि सुनो, मैंने तुम्हें दुनिया में भेजा है कि तुम जो मुझसे भटक गए हैं उन्हें मुझसे मिलाना। लेकिन तुम जो मुझसे मिले हुए हैं उनको भटका रहे हो। तुम वापस जाकर उस आदमी से क्षमा मांगो। वह अकेला है इस प्रांत में जो प्रार्थना जानता है। उसका भाव तो देखो! उसका प्रेम तो देखो! तुमने सब खराब कर दिया। तुम्हारे दो कौड़ी के शब्द अब वह दोहराता रहेगा उधार। अब प्रार्थना कभी नहीं हो सकेगी। तुम जाकर उसके पैरों पर गिरो, और क्षमा मांगो। और आइंदा खयाल रखो, मेरे किसी भक्त को इस तरह बरबाद मत करना।
यह कहानी बड़ी अदभुत है। वह भजन था जो गड़रिया कर रहा था, मूसा ने उसका भजन खराब कर दिया। भजन कोई विधि नहीं है। भजन अनौपचारिक चर्चा है परमात्मा से; विराट से वार्ता है, गुफ्तगू है। और जो तुम्हारे हृदय का भाव हो वही। कभी चुप तो चुप, कभी बोलना हो तो बोलना। कभी गाना आ जाए तो गाना। कभी नाचना आ जाए तो नाचना। स्मरण करना उसका--किसी बहाने से सही। मगर जो भी तुम करो वह तुम्हारा हो, निजी हो। उसमें तुम्हारा हस्ताक्षर हो। फिर सभी प्रार्थनाएं जिन पर तुम्हारे हस्ताक्षर हैं, पहुंच जाती हैं, और जो उधार हैं, बासी हैं वे यहीं भटकती रह जाती हैं। अगर तुम्हारी प्रार्थनाएं नहीं सुनी गई हैं तो उसका कुल कारण इतना है कि तुमने प्रार्थना किसी से सीख ली है। सीखने में ही भूल हो जाती है।
न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना
प्रार्थना, भजन: खुद-ब-खुद दिल लगाना।
जबां पर लगी हैं वफाओं की मुहरें
खामोशी मेरी कह रही है फसाना
कभी मौन भी हो जाता है। भजन मस्ती है।
तुमने पूछा: ‘भक्त संतों ने भजन की बहुत महिमा गाई है, यह भजन क्या है?’
तुम शायद चाहते हो कि मैं तुम्हें एक बंधा हुआ भजन बता दूं कि यह है भजन। मैं यहां तुम्हें परमात्मा से अलग करने नहीं आया हूं। मूसा की भूल मैं न करूंगा। मैं यहां तुम्हें जोड़ने आया हूं। मैं चाहता हूं तुम जुड़ो। मैं तुम्हें स्वतंत्रता देता हूं। अपने एकांत में बैठ कर जो तुम्हारी मौज में आए, करना। बस उसकी याद हो, किसी बहाने सही। सब बहाने हैं और तो, याद असली बात है। बुहारी लगाना और उसकी याद करना; और बुहारी लगाना भजन। भोजन बनाना और उसकी याद करना; और भोजन बनाना भजन। राह चलना और उसकी याद करना और चलना भजन।
कबीर ने कहा है: चलूं-फिरूं सो परिक्रमा! वह हो गई परिक्रमा। खाऊं-पीऊं सो सेवा! वह जो मैं खा-पी लेता हूं वह भी उसी को लगाया हुआ भोग है। अब और कहां जाना है? भजन एक सहज स्वाभाविक जीवन है जिसमें परमात्मा की याद थिरकती है। बस, याद थिरकती रहे। फिर तुम क्या करते हो इससे बहुत भेद नहीं पड़ता। उस करने में परमात्मा की ज्योति भीतर जलती रहे।
प्रत्येक कृत्य भजन हो सकता है, भाव की बात है।
आज इतना ही।
भगवान, आप कहते हैं कि परमात्मा की चाह मात्र बाधा है। और पूर्ण प्यास के बिना परमात्मा से मिलन नहीं हो पाता। परमात्मा की चाह और परमात्मा की प्यास में क्या फर्क है? कृपा करके समझाइए।
दिव्या! फर्क है दोनों में, और थोड़ा नहीं, बहुत फर्क है। जमीन-आसमान का फर्क है। चाह में आक्रमण है। प्यास में सिर्फ प्यास है। चाह खोजने निकलती है। प्यास प्रतीक्षा करती है। चाह सक्रिय है, प्यास निष्क्रिय है। चाह पुरुष है, प्यास स्त्री है। चाह में थोड़ा न बहुत बलात्कार है। प्यास में सिर्फ आतुर प्रतीक्षा है। चाह का अर्थ होता है, मैं पाकर रहूंगा। जोर ‘मैं’ पर है, जोर पाने पर है--जोर अपनी शक्ति पर है, जोर अहंकार का है।
प्यास कहती है, मिलो तो मेरा सौभाग्य। मिल जाओ तो मैं धन्यभागी। प्यास में मैं का जोर नहीं है। प्यास में तू महत्वपूर्ण है, मैं नहीं। प्रयत्न महत्वपूर्ण नहीं है, प्रसाद महत्वपूर्ण है। उसकी कृपा होगी तो होगा। चाह का भरोसा अपने पर है, प्यास का भरोसा उस पर है। इसलिए मैं कहता हूं कि चाह बाधा बन जाती है। जो ईश्वर को सक्रिय रूप से खोजने निकल पड़ते हैं आक्रामक की तरह, हिंसक की तरह, वे ईश्वर को कभी उपलब्ध नहीं करते। ईश्वर खोजे से नहीं मिलता, स्वयं खो जाओ तो मिलता है।
कबीर ने कहा है: हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई। खोजता था। खोजते-खोजते, ढूंढते-ढूंढते मैं खो गया। और जब मैं खो गया तब उससे मिलन हुआ।
चाह में तो मैं बना ही रहेगा। चाह तो मैं का ही विस्तार है। प्यास मैं का बुझ जाना है, प्यास मैं का मिट जाना है प्यास कहती है, मैं नहीं हूं, तू है। चाह कहती है दुनिया को करके दिखा दूंगा कि मैं कुछ हूं। धन भी मैंने पाया, ध्यान भी पाकर रहूंगा। पद भी मैंने पाया, परमात्मा को भी पाकर रहूंगा। चाह मुट्ठी बांधना चाहती है परमात्मा पर। चाह परमात्मा को भी तिजोड़ी में बंद करना चाहती है, बैंक-बैलेंस में रख देना चाहती है।
प्यास सिर्फ हृदय का खुलना है। आओ तो आओ। न आओ तो रोएंगे। और करने का उपाय क्या है? आओ तो नाचेंगे। न आओ तो शिकायत क्या करें? हमारी पात्रता क्या है? भेद को समझ लेना। भेद बड़ा है। चाह कहती है मिलोगे कैसे नहीं? सब योजना करेंगे, उपाय करेंगे, योग करेंगे, जप, तप, व्रत, तीर्थयात्रा करेंगे। जो किया जा सकता है करके दिखाएंगे। सब शर्तें पूरी करेंगे, अपनी योग्यता प्रमाणित करेंगे। मिलोगे कैसे नहीं? मिलना ही पड़ेगा। चाह कहती है, मेरे प्रयास निष्फल नहीं जाएंगे। प्रयास का फल होता है।
चाह पुरुषार्थ का भाव है। चाह परमात्मा को नहीं मानती। चाह तो परमात्मा को भी अपना एक विषय बनाती है। जैसे कभी धन को बनाया था, पद को बनाया, यश को बनाया, ऐसे परमात्मा को भी। चाह सिकंदर है। विजय-यात्रा पर निकली है, झंडा फहराना चाहती है जगत पर।
प्यास विनम्र है। विजय की यात्रा कहां! हार की आकांक्षा है। उसके चरणों में हार जाऊं। ऐसा हारूं कि कुछ भी बचे नहीं। सब तरह शून्य हो जाऊं। प्यास मिटना जानती है। चाह मिटना नहीं जानती। चाह तो अपने को भरने का उपाय है।
यह भेद खयाल में आ जाए तो मेरे वचनों में तुम्हें विरोधाभास न दिखाई पड़ेगा। मैं निरंतर कहता हूं, चाहोगे, चूकोगे। खोजोगे, कभी न पाओगे। और फिर भी कहता हूं, पूर्ण प्यास चाहिए। गहन अभीप्सा चाहिए। बिना अभीप्सा के कैसे उसका अवतरण होगा? तुम्हें कहीं जाना नहीं है। द्वार-दरवाजे खोलो। प्यास इतना ही करती है, अपने द्वार-दरवाजे खोल देती है। जब सूरज आएगा तो रोशनी भीतर आएगी। और जब हवा बहेगी तो हवा की लहरें भीतर आएंगी। जब परमात्मा आना चाहेगा, प्यास इतना ही कहती है कि तुम मुझे सोया हुआ नहीं पाओगे। जब तुम आओगे, तुम मुझे देहली पर खड़ा पाओगे।
कहा नहीं धरमदास ने! प्रतीक्षा, खड़े रहना, ठहरे रहना। खोजो मत और पा लो। बस प्यास ऐसी हो कि तुम्हारे भीतर प्यास को जानने वाला कोई भी न बचे। प्यास ही प्यास रह जाए, इस छोर से उस छोर तक।
फकत दिल ही नहीं है टुकड़े-टुकड़े
जिगर भी पारा-पारा हो गया है
एक-एक रोआं टूट जाए, श्वास-श्वास प्रज्वलित हो उठे।
क्या जानिए यह आह है कि क्या है
कुछ आग सी आई है जुबां पर
कोरे शब्दों से भरी प्रार्थनाओं का कोई मूल्य नहीं है। कुछ आग सी जबान पर आए। तुम अपने भीतर ही जलने लगो, तड़फने लगो। विरह की अग्नि एकमात्र यज्ञ है करने योग्य। धोखा देना हो दुनिया को तो फिर बहुत यज्ञ हैं। परमात्मा को पुकारना हो तो एक ही यज्ञ है कि तुम प्रज्वलित हो जाओ। तुम्हारे भीतर आग की लपट उठे; ऐसी उठे कि और सब जल जाए सिर्फ लपट ही बचे।
भक्त अपनी पीड़ा रोता है, अपना विरह रोता है। अपना सौभाग्य गाता है। क्यों? पीड़ा इसलिए कि परमात्मा अभी मिला नहीं, सौभाग्य इसलिए कि कम से कम उसकी प्यास तो मिली। प्यास मिली तो आधा मिलन तो हुआ ही। मिलन तो अभी नहीं हुआ है लेकिन विरह हो गया यह भी क्या कम है! इस दुनिया में असली अभागे तो वे हैं जिन्हें विरह भी नहीं है। मिलन की तो बात दूर। मिलन तो बाद की बात है। विरह की पूर्णता पर मिलन है। इस दुनिया में अधिक अभागे तो वे हैं जिनके मन में विरह का भाव ही नहीं। जिन्हें यह समझ ही नहीं है कि वे कुछ खो रहे हैं।
मैं अर्जे-हाल में कब तक जबां को रोकूं?
तेरी बदलती हुई चितवनों ने क्या न किया
भक्त अपना हाल कह देता है--अर्ज-ए-हाल। भक्त अपनी पीड़ा को निवेदन कर देता है, अपने विरह को रो देता है। लेकिन इनमें सिर्फ दुख का ही भाव नहीं है। यह कोरी शिकायत ही नहीं है। इसमें साथ-साथ एक गीत भी जुड़ा है, एक आनंद का भाव भी जुड़ा है। आनंद इसलिए कि तुमने मुझ पर इतनी कृपा की यही क्या कम है कि मुझे विरह दिया। यहां करोड़ों लोग हैं जिनको विरह ही नहीं है। तुमने मुझे प्यास दी यही क्या कम है? प्यास है तो सरोवर भी होगा। प्यास है तो तृप्ति भी होगी। प्यास ही नहीं तो कैसा सरोवर, कैसी तृप्ति?
दोनों के भेद को स्पष्ट समझ लेना। चाह से बचना, प्यास में डूबना। प्यास पहुंचाती है, चाह भटकाती है। चाह संसार है, प्यास प्रार्थना है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, न सोचा न समझा न सीखा न जाना मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना जरा देख कर अपना जलवा दिखाना सिमट कर यहीं आ न जाए जमाना जबां पर लगी हैं वफाओं की मुहरें खामोशी मेरी कह रही है फसाना
प्रश्न है भी, प्रश्न नहीं भी है। कुछ पूछा भी है, कुछ कहा भी है। राधा मोहम्मद का प्रश्न है।
‘न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना’
इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है वह खुद-ब-खुद आता है। इस जगत में जो व्यर्थ है वही सीखना पड़ता है। विश्वविद्यालय व्यर्थ को ही सिखाते हैं। सार्थक को सिखाने की कोई जरूरत ही नहीं है।
गणित सिखाए बिना नहीं आता। प्रेम बिना सिखाए आता है। तर्क बिना सिखाए नहीं आता, श्रद्धा बिना सिखाए उतरती है। ज्ञान बिना सिखाए नहीं आता। भक्ति कब अनायास, किस दिशा से आ जाती है कोई भी नहीं जानता। कब बाढ़ की तरह आती है और तुम्हें बहा ले जाती है, कोई भी नहीं जानता। इस जीवन में जो महत्वपूर्ण है वह अनसीखा है। महत्वपूर्ण की तलाश हो तो इस अनसीखेपन के तत्व को समझ लेना।
बच्चा पैदा होता है, श्वास लेना कौन सिखाता है? इसके पहले कभी ली न थी। मां के पेट में बच्चा स्वयं श्वास नहीं लेता। मां की श्वास से ही काम चलाता है। पैदा होने के बाद, जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घड़ी होती है वे दो-तीन क्षण, जब बच्चे की श्वास नहीं होती। मां के गर्भ से बाहर आ गया है और अभी अपनी श्वास ली नहीं। कौन सिखाता है श्वास लेना? और उस श्वास के बिना कोई जीवन नहीं होगा। कभी कोई जीवन नहीं होगा। कहां से आती है श्वास? कैसे भर जाते हैं नासापुट जीवन से? कौन फूंक जाता है? सोचते हो इन जीवन के रहस्यों पर? सिखाया किसी ने भी नहीं। बच्चे ने इसके पहले कभी श्वास ली भी नहीं थी। पुराना कोई अनुभव भी नहीं है। मगर फिर भी घटना घटती है। मां-बाप, चिकित्सक, नर्सें अवाक रह जाते हैं क्षण भर को। यह बच्चा चीखेगा, रोएगा, चिल्लाएगा या नहीं? वह चिल्लाना, रोना-चीखना, सिर्फ श्वास लेने का सबूत है। वह श्वास लेने का पहला उपाय है। वह बच्चे का रो उठना श्वास लेने का पहला उपाय है।
ऐसे ही जिस दिन तुम परमात्मा के लिए रो उठोगे, वह परमात्मा को पाने का पहला उपाय है। मगर तुम्हारे किए करने की कोई बात नहीं है। तुम क्या करोगे?
बच्चा श्वास ले लेता है, जीवन की यात्रा शुरू हो गई। सबसे महत्वपूर्ण कदम उठा लिया। इससे महत्वपूर्ण कदम अब जिंदगी में दूसरा नहीं होगा। और यह बिना सीखे उठाया। न कहीं स्कूल जाना पड़ा, न किसी से प्रशिक्षण लेना पड़ा। यह अपने से हुआ। यह स्वयंभू है। या कहो परमात्मा से हुआ। परमात्मा का और कुछ अर्थ नहीं होता, जो अपने से हो रहा है उसका नाम परमात्मा है। जो तुम करते हो उसका नाम आदमी है। जो अपने से होता है वही परमात्मा।
फिर एक दिन तुम किसी के प्रेम में पड़ गए। जैसे एक दिन जीवन शुरू हुआ था वैसे एक दिन प्रेम भी शुरू हुआ। वह भी नहीं सीखा। उसके भी कोई विद्यालय नहीं हैं, पाठशालाएं नहीं हैं। वह भी हुआ। और जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, इसी तरह होता रहता है।
तुम जानते हो न! किसी-किसी कवि को हम कहते हैं, वह जन्मजात कवि है। क्या अर्थ? जन्मजात कवि की क्या महिमा? इतना ही कि कविता उसे अपने से हुई है। बाकी तुकबंद हैं, जिन्होंने सीखी है। भाषा सीख सकते हो, व्याकरण सीख सकते हो, छंद के नियम सीख सकते हो। कितनी मात्राएं होनी चाहिए, कितनी नहीं होनी चाहिए, सब सीख सकते हो, मगर तुकबंद रहोगे। काव्य का जन्म नहीं होगा। काव्य का जन्म जन्मजात है। होता है तो होता है, नहीं होता है तो नहीं होता है। उपाय से तुम धोखा दे सकते हो दुनिया को, मगर परमात्मा को धोखा न दे पाओगे।
तुम जरा अपने भीतर तलाश करना, कितनी चीजें अनसीखी हो रही हैं। जो अनसीखा हो रहा है उसमें परमात्मा का हाथ है। जो सीख-सीख कर होता है वह आदमी की बनावट है। आदमी की बनावट से यंत्र बन सकते हैं, जीवन नहीं। आदमी की बनावट से मृत वस्तुएं हो सकती हैं। लेकिन जीवन का प्रवाह आदमी के हाथ में नहीं है। जीवन के प्रवाह का ही नाम तो धर्म है, जो सारे जीवन को सम्हाले हुए है।
रमण महर्षि के पास एक जर्मन विचारक ने कहा कि मैं दूर से आया हूं सत्य को सीखने। आप मुझे सिखाएं। रमण ने उसकी तरफ आंख उठा कर देखा। ऐसे वे ज्यादा नहीं बोलते थे। कम से कम बोलने वाले आदमी थे। इतना ही कहा कि अगर सीखना है तो कहीं और जाओ। यहां तो अनसीखना हो तो रुको। बड़ी अजीब बात। सीखना हो तो कहीं और जाओ। यहां तो अनसीखना हो, यहां तो सीखे को भी भूलना हो तो रुको।
मैं भी यही तुमसे कहता हूं, गुरु वही है जिसके पास तुम्हारा ज्ञान गल जाए। और जहां तुम्हारा ज्ञान बढ़ता हो वह अध्यापक होगा, शिक्षक होगा, गुरु नहीं है। जहां तुम्हारी जानकारी में और थोड़ा जोड़ हो जाए, तुम कुछ और सीख कर लौटो, समझना वहां शिक्षक था। शिक्षक सिखाता है, शिक्षा देता है। गुरु छीनता है। जो तुमने सीख लिया उसे हटाता है ताकि तुम्हारे भीतर अनसीखे तत्व फिर सक्रिय हो जाएं। दब गए हैं बुरी तरह। तुम्हारी सिखावन में इस तरह दब गई है तुम्हारी जीवन-ऊर्जा, उसे मुक्त करना है। पत्थरों की तरह तुम्हारा ज्ञान तुम्हारी छाती पर बैठ गया है। उसे हटाना है। तुम्हारी जीवन-चेतना पर शास्त्र लद गए हैं, उन्हें उतारना है। उनके उतरते ही तुम्हारे भीतर वास्तविक प्रज्ञान का जन्म होगा।
ज्ञान बाहर से आता है, प्रज्ञान भीतर से आता है। ज्ञान उधार होता है, प्रज्ञान अपना होता है, निजी होता है। जो निजी है वही सत्य है।
तो राधा, ठीक ही हो रहा है।
‘न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना’
सोचते सिर्फ अंधे हैं। आंख जिनके पास है वे सोचते नहीं, चल पड़ते हैं। सोच-विचार अंधे की लकड़ी है। वह उससे टटोलता है। जिसको दिखाई पड़ता है, जो आंख खोल कर देखता है वह लकड़ी लेकर नहीं चलता, वह टटोलता भी नहीं। उसे दिखाई पड़ता है दरवाजा कहां है, निकल जाता है।
सोचना कोई बहुत बड़ी गुणवत्ता नहीं है। असली राज तो बिना सोचे जीवन में गति करने में है।
मेरे पास दो तरह के लोग आते हैं। एक जो कहते हैं, संन्यास लेना है, सोचेंगे-विचारेंगे। उन्हें मैं नहीं दिखाई पड़ रहा हूं। जो कहते हैं सोचेंगे-विचारेंगे, वे आंख बंद किए मेरे सामने बैठे हैं। फिर दूसरा कोई आता है, जो मुझे देखता है और जिसकी आंख से आंसू बहने लगते हैं। और वह कहता है, अगर मैं पात्र हूं तो मुझे संन्यास दे दें। वह यह नहीं कहता कि मैं संन्यास लूंगा या नहीं। वह कहता है, दे दें। अगर मैं पात्र हूं, अगर मुझे योग्य मानें, अगर मेरी कोई संभावना हो, मेरा कोई भविष्य हो, तो मुझे दे दें।
सोचने-विचारने का सवाल कहां है? सोचना-विचारना कायर का लक्षण है। कायर झिझकता है, सोचता-विचारता है। इसलिए सोचने-विचारने वाले लोग जगत में कुछ कर नहीं पाते। करने का समय कहां है? सोचने-विचारने से फुर्सत मिले तब न! निर्णय आए पहले सोच-विचार के तब न! और सोचने-विचारने से निर्णय कभी नहीं आता। तुम यह जान कर हैरान होओगे, निर्णय सब हृदय में होते हैं। सोचना-विचारना सिर में होता है। और सिर कोई निर्णय नहीं ले सकता और हृदय कुछ सोच-विचार नहीं कर सकता। हृदय के पास आंखें हैं और सिर के पास अंधापन है। अंधेपन के कारण सिर खूब सोचता-विचारता है। ये दो तरह के लोग।
और एक तीसरे तरह का व्यक्ति भी कभी-कभी आता है। वह मुझे भी उलझन में डाल देता है। क्योंकि उसका हृदय कहता है, तैयार हूं। और उसका सिर कहता है, अभी सोचूंगा-विचारूंगा। अब मैं किसकी मानूं, किसकी सुनूं? उसके हृदय की सुनूं या उसके मस्तिष्क की सुनूं? उसका हृदय हाथ फैलाए है, उसका मस्तिष्क झिझक रहा है। मैं भी मुश्किल में पड़ जाता हूं, अब किसकी सुनूं? इसके हृदय की सुनूं? इसके हृदय की सुनूं तो इसका मस्तिष्क इनकार कर रहा है। कह रहा है, ना। इसके मस्तिष्क की सुनूं तो इसके हृदय के साथ अनाचार हो रहा है। क्योंकि इसका हृदय मांग रहा है, और हृदय ही मूल्यवान है। हृदय सदा हां कहना जानता है, हृदय आस्तिक है। और सिर सदा नास्तिक है। जो आदमी सिर से आस्तिक होना चाहता है वह कभी आस्तिक हो ही न पाएगा।
तर्क हां कहता ही नहीं और अगर कभी कहता है तो सिर्फ मजबूरी में कहता है। भेद समझ लेना। मजबूरी में! तर्क नहीं सूझता कुछ तो कहता है, ठीक। लेकिन प्रतीक्षा करता है कि कल अगर कोई तर्क मिल जाएगा तो फिर नहीं पर उतर आऊंगा।
हृदय हां कहता है, मजबूरी में नहीं, अहोभाव में। हृदय को अगर कभी ना कहना पड़ता है तो मजबूरी में। मगर इसी आशा में न कहता है कि ठीक है, आज मजबूरी है, न कह रहा हूं, लेकिन कल जैसे ही सुविधा होगी फिर मेरे हां का फूल खिल जाएगा। हृदय श्रद्धा है। और हृदय को कोई सीखने की जरूरत नहीं है, न सोचने की जरूरत है, न जानने की जरूरत है। हृदय जानता है, इसलिए जानने की जरूरत नहीं है।
हृदय के तल पर तुम परमात्मा को जानते ही हो। बस इतना ही करना है कि तुम्हें मस्तिष्क से उतर कर हृदय पर आ जाना है। वहां जानना घटा ही हुआ है; सदा से घटा हुआ है, प्रथम से घटा हुआ है। वहां अज्ञान कभी आया ही नहीं। तुम्हारे हृदय पर रोशनी अभी भी है। वहां दीया अभी भी जला है। अंधकार सिर में है। और तुम सिर में बस गए हो। तुम्हें अपने हृदय की गैल ही भूल गई है। भक्ति का कुछ और अर्थ नहीं है, हृदय की गैल को वापस खोज लो। सिर से उतरो, हृदय में आ जाओ।
‘न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना
जरा देख कर अपना जलवा दिखाना
सिमट कर यहीं आ न जाए जमाना
जबां पर लगी हैं वफाओं की मुहरें
खामोशी मेरी कह रही है फसाना’
खामोशी ही कह सकती है उस फसाने को। शब्द नपुंसक हैं। कहते मालूम पड़ते हैं, कह नहीं पाते। शब्दों के पास पंख नहीं हैं कि उस विराट के आकाश में उड़ जाएं। वहां तो शून्य का पक्षी ही उड़ता है। वहां तो मौन का ही आवागमन है। मौन की ही गति है।
ध्यान रहे, जब तुम्हारे जीवन में प्रेम घटेगा, तुम्हारी जबान लड़खड़ा जाएगी। जब तुम्हारे जीवन में जितना गहरा प्रेम घटेगा उतनी ही जबान चुप हो जाएगी। जैसे-जैसे तुम हृदय के करीब पहुंचोगे वैसे-वैसे सन्नाटे के करीब पहुंचोगे। वैसे ही वाणी दूर और दूर होती जाएगी। वैसे ही तुम अनुभव करने लगोगे, कुछ है जो न कभी कहा गया है और न कहा जा सकता है। इसीलिए वह जूठा नहीं हुआ है।
परमात्मा न कभी कहा गया है और न कहा जा सकता है, इसलिए परमात्मा जूठा नहीं हुआ है। और जब भी किसी को मिलता है तो जूठन नहीं होता। कबीर को मिले तो जूठन नहीं। धनी धरमदास को मिले तो जूठन नहीं। मुझे मिले तो जूठन नहीं, तुम्हें मिल तो जूठन नहीं। परमात्मा कभी भी जूठा नहीं होता। जब मिलता है, तभी ताजा और नया होता है। उस पर किसी के ओंठ कभी लगे ही नहीं। वाणी में वह कभी आया नहीं।
‘खामोशी मेरी कह रही है फसाना’
जो मेरे पास हैं, जो सच में मेरे पास हैं उनकी आंखें धीरे-धीरे खामोश होने ही लगती हैं। धीरे-धीरे वे अपनी चुप्पी से गुफ्तगू करने ही लगते हैं। चुपचाप कहने लगते हैं। जब कुछ कहने योग्य है तब चुपचाप ही कहा जा सकता है। लेकिन फिर भी छिपता कुछ भी नहीं। जब कोई प्रेम से भरता है तो कैसे छिपाओगे? जब घर में दीया जला हो तो रोशनी कहां छिपाओगे? जब फूल खिलेगा तो सुगंध को कहां छिपाओगे? सुगंध कुछ कहती तो नहीं, फिर भी पता तो पड़ जाती है। रोशनी कुछ कहती तो नहीं, कोई डुंडी तो नहीं पीटती, फिर भी पता तो पड़ जाती है। जब सुबह हो गई, सूरज कुछ कहे या न कहे, हजार-हजार पक्षी गीत गाने लगते हैं। हजार-हजार फूल खिल जाते हैं। हजार-हजार आरती के थाल सज जाते हैं।
छिपता नहीं छिपाए से चेहरा अताब का
होता चला गया है रंग गुलाबी नकाब का
वह प्रेम अगर घटे तो घूंघट तक गुलाबी हो जाता है। घूंघट के भीतर का चेहरा तो गुलाबी होता ही है, घूंघट तक पर आभा पड़ जाती है। आत्मा तो लाल हो ही जाती है।
लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
उस प्रेम के रंग में रंग कर तुम्हारी आत्मा तो सुर्ख हो ही उठती है, तुम्हारी देह तक गुलाबी हो जाती है।
छिपता नहीं छिपाए से चेहरा अताब का
होता चला गया है रंग गुलाबी नकाब का
तो राधा कहे कि न कहे, चुप रहे, सदा चुप रहे तो भी मुझे सुनाई पड़ रहा है। तो भी उसका घूंघट लाल हो गया है।
नजर बन कर वह दिल पर छा रहा है
तजल्ली का मजा अब आ रहा है
जैसे-जैसे परमात्मा तुम्हारे ऊपर छाएगा, जिंदगी में एक नई बहार, एक नया बसंत! कहने की कोई जरूरत नहीं। वसंत आ गया तो कहने की क्या जरूरत? वसंत कोई विज्ञापन तो देता नहीं। जब आ जाता है तो धड़ल्ले से आ जाता है। चारों तरफ से आ जाता है। हर वृक्ष पर आ जाता है। हर पक्षी के कंठ में आ जाता है। कहां छिपाओगे? वसंत पर कैसे घूंघट डालोगे? जल गई है प्यार की ज्योति।
जला दी आपने शमे-मोहब्बत खाने-दिल में
मगर न कौन किसके काम आता है जमाने में
बात होने लगी है। परमात्मा ही काम आता है। और तो कोई काम आता भी नहीं। उसी के जलाए यह शमा जलती है। यह जल जाए, शब्दों की कोई जरूरत नहीं। यह कहानी चुप की है, चुप्पी की है। चुपचाप कही जाती है, चुपचाप सुनी जाती है। शब्दों का अगर कोई उपयोग है तो इतना ही है कि तुम्हें मौन की तरफ ले चलें।
मैं इतना बोलता हूं, और सिर्फ इसलिए कि तुम चुप हो जाओ। मेरी दशा कारलाइल जैसी है। कहते हैं कारलाइल ने पचास किताबें लिखी हैं मौन की प्रशंसा में। फिर भी मैं मानता हूं कि पचास किताबें भी मौन की प्रशंसा में कम हैं। पचास हजार भी लिखो तो कम हैं। मौन की प्रशंसा में कितना ही लिखो, कम है। प्रशंसा पूरी हो ही नहीं पाती। इतनी महिमा है मौन की।
शब्दों का एक ही उपयोग है। कबीर भी बोले, और कृष्ण भी बोले, और क्राइस्ट भी, और महावीर, और मूसा, और मोहम्मद--सब बोले। लेकिन सब बोले इस बात को ध्यान में रख कर कि कैसे तुम चुप हो जाओ। बोलना तुम्हारा रोग है। इसलिए बोलने से शुरू करना पड़ता है। बोल-बोल कर ही तुम्हें अबोल की तरफ ले जाना होता है। तुम जहां हो वहीं से तो यात्रा शुरू करवानी पड़ेगी।
कठिन भी है प्रेम का मार्ग।
‘जरा देख कर अपना जलवा दिखाना
सिमट कर यहीं आ न जाए जमाना’
प्रेमी डरता भी है। जब परमात्मा का थोड़ा सा जलवा दिखाई पड़ना शुरू होता है तो घबड़ाहट भी होती है। उसकी एक किरण भी इतनी बड़ी है, उस पूरे सूरज का दर्शन कैसा होगा? उस विराट के सामने हाथ-पैर कंपने लगते हैं। कंपकंपी छा जाती है।
नरेंद्र ने पूछा है एक सवाल कि जब भी यहां बैठ कर आपको सुनता हूं तो कभी-कभी ऐसे क्षण आ जाते हैं कि एक गहरी कंपकंपी पैदा होती है। यह क्यों होती है? वह तभी होती होगी, जब तुम शब्द से छूट कर निःशब्द के करीब आते होओगे। वह तभी होती होगी जब मन से मुक्त होकर थोड़ी देर को समाधि की तरफ सरकते होओगे। वह तभी होती होगी जब संसार भूलता होगा और परमात्मा की तरफ आंख उठती होगी। तभी सब कंप जाता है। तब भीतर एक कंपकंपी आ जाती है। रोआं-रोआं कंपने लगता है, एक घबड़ाहट हो जाती है। घबड़ाहट कि मैं मरा। क्योंकि परमात्मा के साथ दो का उपाय नहीं है। तुम मरोगे तो परमात्मा हो सकेगा।
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय।
परमात्मा के सामने तो मिटना ही होगा। उसी मिटने की जो खबर आती है, मिटने का जो पहला संदेश आता है उसी में सब कंप जाता है।
जरा देख कर अपना जलवा दिखाना
भय भी लगता है प्रेम के मार्ग पर बहुत। घबड़ाहट भी होती है। प्रेम मृत्यु है इसलिए। और जो मरने को तैयार नहीं वह प्रेमी न हो सकेगा। मगर धन्यभागी हैं वे जो इस मृत्यु की यात्रा पर निकलते हैं।
लाख नादानों का वह नादान है
जो फरेबे-आस की खाता नहीं
इस दुनिया में सबसे बड़ा नादान वही है जो प्रेम में नहीं उतरता। उसके जीवन में सभी कुछ रेत ही रेत रह जाता है। मरुस्थल ही मरुस्थल! उसके जीवन में मरूद्यान कभी नहीं उपलब्ध होते।
साधारण जीवन का प्रेम भी उस परम प्रेम की तरफ पहल है, शुरुआत है। प्रेम का फरेब खाना! प्रेम के भ्रम में पड़ना क्योंकि प्रेम ही सत्य है। प्रेम इतना सत्य है कि उसका भ्रम भी सार्थक है। और जगत इतना असत्य है कि उसका भ्रम न भी हो तो भी सार्थक नहीं है। गणित कितना ही तथ्यपूर्ण मालूम पड़े तो भी कहीं न ले जाएगा और प्रेम कितना ही भ्रामक मालूम पड़े तो भी ले जाता है।
जरा अपनी तिरछी निगाहों को रोको
जिगर चोट खाने के काबिल नहीं है
डरता है। भक्त पहले पुकारता है, बुलाता है, तड़फता है, रोता है और जब परमात्मा के पद्चाप सुनाई पड़ते हैं, जब उसके स्वर करीब आने लगते हैं तब घबड़ाता भी है। जब उसकी आंख पड़ती है तब घबड़ाता भी है।
जरा अपनी तिरछी निगाहों को रोको
जिगर चोट खाने के काबिल नहीं है
मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। परमात्मा का आना शुरू हो जाए तो फिर रुकने का कोई उपाय नहीं है। एक बार उसकी पगचाप सुनाई पड़ जाए फिर तुम कहीं भी भागो, वह तुम्हें खोज ही लेगा। तुम कितने ही छिपो, वह तुम्हें पुकार ही लेगा।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं, प्रार्थना मांग नहीं, मात्र अहोभाव प्रकट करना है। और धनी धरमदास कहते हैं, ‘अर्जी सुनो, कर दो भवपार।’ क्या भवसागर से पार करने की प्रार्थना मांग नहीं है?
हो भी सकती है, नहीं भी हो। आदमी आदमी पर निर्भर है। धनी धरमदास की तो नहीं है, उतना मैं तुमसे पक्का कहता।
तुम करोगे यही प्रार्थना तो मांग होगी। किस ओंठ पर शब्द हैं इससे असली निर्णय होता है। शब्दों में अर्थ नहीं होते, ओंठों में अर्थ होते हैं। वही शब्द कृष्ण बोलें, वही शब्द तुम बोलो। कितने तोते तो गीता रट रहे हैं! शब्द वही हैं लेकिन फिर भी वही नहीं हैं। ओंठ ही और हो गए। कृष्ण के ओंठों पर उन शब्दों में एक स्वर्ण था। तोतों-पंडितों के ओंठों पर उन्हीं शब्दों में राख हो जाती है, धूल जम जाती है।
अगर तुम कहोगे, ‘अर्जी सुनो, कर दो भव पार।’ तो इसमें मांग होगी। क्योंकि तुम्हें अभी भव का पता ही नहीं। भवपार की बात उधार होगी। तुम्हें अभी भवपार का ठीक-ठीक अर्थ भी पता नहीं है कि तुम क्या मांग रहे हो। शायद ठीक-ठीक पता हो तो तुम मांगो भी नहीं। तुमने यह शब्द सुन लिया है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं ऐसा आशीर्वाद दें कि आवागमन न हो। मैं उनसे पूछता हूं, तुम्हें ठीक-ठीक पता है? आवागमन न होने का क्या अर्थ होता है? जैसे बूंद सागर में खो जाती है ऐसे खो जाओगे। फिर बचोगे नहीं। फिर बिलकुल नहीं बचोगे। रेख भी नहीं रह जाएगी। अस्तित्व में कहीं निशान भी नहीं रह जाएगा। तब वे जरा झिझकते हैं। मैं उनसे कहता हूं, फिर से सोच कर कहो। यही तुम चाहते हो? नहीं, वे कहते हैं, हम तो सोचते थे कि स्वर्ग में रहेंगे कि मोक्ष में रहेंगे। आप कहते हैं बिलकुल रहोगे ही नहीं। उससे तो फिर यहीं बेहतर हैं। अगर यही होना है कि बिलकुल मिट जाना है तो यहां क्या बुरे हैं?
बुद्ध धर्म का इसीलिए तो इस देश से वृक्ष उखड़ गया। बुद्ध धर्म के उखड़ने की कथा भारत के ऊपर भारी लांछन है। शायद तुमने इस तरह कभी सोचा न हो। बुद्ध में भारत की सबसे बड़ी प्रतिभा प्रकट हुई। और बुद्ध की जीवन-धारा भारत में नहीं चल सकी। भारत ने बुद्ध के अस्वीकार में अपनी अपात्रता सिद्ध कर दी। बुद्ध का कसूर क्या था? यहां सब तरह की चीजें चल रही हैं, बुद्ध क्यों न चल सके? बुद्ध का कसूर यही था कि उन्होंने तुम्हारी चीजों को साफ-साफ करके तुम्हारे सामने रख दिया। उन्होंने कहा कि तुम नहीं बचोगे, निर्वाण में तुम नहीं बचोगे। तुम बिलकुल नहीं बचोगे। तुम तो पूर्णतः समाप्त हो जाओगे। लोग जाकर पूछते हैं, वे कहते हैं कि देह चली जाएगी वह तो हमें मालूम है लेकिन मैं तो बचूंगा, आत्मा तो बचेगी! बुद्ध ने कहा: आत्मा भी नहीं बचेगी। क्योंकि तुम जिसे आत्मा समझे हो वह तो आत्मा भी नहीं है। वह तो तुम्हारा मन ही है।
लोग बार-बार आकर पूछते हैं, कुछ तो बचेगा! और बुद्ध इस मामले में बिलकुल ही कठोर थे। वे कहते, कुछ भी न बचेगा। मिटने की प्रार्थना है यह। तो लोग कहते, फिर सार क्या? फिर यहीं बेहतर है, दुख भी है तो ठीक। संसार की पीड़ाएं और कष्ट हैं तो ठीक। कम से कम हम हैं तो! तुम जरा सोचो, अगर दो चीजों में चुनना पड़े।
ऐसा समझो कि तुम कारागृह में पड़े हो, हाथ में जंजीरें हैं। भोजन भी ठीक नहीं मिलता। भोजन, साग-सब्जी में कंकड़ भी होते हैं। दुर्व्यवहार भी किया जाता है। जूतों की ठोकरें भी मारी जाती हैं। कोई स्वतंत्रता नहीं है, कालकोठरी है, अंधकार है। सूरज के कभी दर्शन नहीं होते। चांद-तारे कभी दिखाई नहीं पड़ते। फूल खिलते हैं बाहर दुनिया में या नहीं, अब पता ही नहीं है। उसी बदबू से भरी सीलन भरी कोठरी में तुम जी रहे हो। लेकिन अगर तुम्हारे सामने दो विकल्प हों कि या तो तुम इसी सीलन बदबू भरी, इसी अपमानित जिंदगी को जीए जाओ या मर जाओ। फांसी या यह कोठरी--तुम क्या चुनोगे? तुम कोठरी चुनोगे। तुम कहोगे कम से कम जिंदा तो हैं। दुख है माना, मगर कम से कम जिंदा तो हैं।
लोगों को फांसी की सजा होती है। तो वे प्रार्थना करते हैं, अर्जी करते हैं कि हमारी सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया जाए। मिटना कोई चाहता नहीं।
भवसागर से पार होने का मतलब समझते हो? भव यानी होना, बीइंग। भवसागर के पार होने का अर्थ होता है न होने में उतर जाना। होने से मुक्त हो जाना। तुम्हारी तैयारी है होने से मुक्त हो जाने की? तुम जब कहते हो, आवागमन से मुक्त करवा दीजिए तब तुम्हारा मतलब इतना ही होता है, आने-जाने की झंझट न रहे। कल्पवृक्ष मिल जाए, वहीं आराम से बैठें। मगर आवागमन मिटा कि तुम मिटे। तुम आवागमन में हो। तुम्हारा होना ही आने और जाने के बीच में है। आने-जाने की प्रक्रिया में ही तुम्हारा होना है। आना-जाना गया कि तुम गए। तुम बने आने-जाने से हो। आवागमन तुम्हारा अस्तित्व है।
और बुद्ध ने जब यह बात खोल कर कह दी, जैसी थी वैसी कह दी। जैसी की वैसी कह दी। इसमें जरा भी लीप-पोत न की। इसमें जरा भी ऊपर से शक्कर न लगाई। तुम्हारे भ्रम और तुम्हारे धोखों को किसी तरह का पोषण न दिया। बुद्ध धर्म इस देश से उखड़ गया। बुद्ध धर्म के उखड़ जाने ने साबित कर दिया कि यह देश अधार्मिक है। तुम लाख चिल्लाओ कि भारत धार्मिक है, लेकिन बुद्ध का इस देश से उखड़ जाना तुम्हारे जीवन पर सदा के लिए लांछन हो गया। भारत अधार्मिक है उस दिन से, जिस दिन से बुद्ध धर्म इस देश के बाहर गया। तुमने अपनी सबसे बड़ी प्रतिभा को इनकार कर दिया।
तुम दो कौड़ी के पंडित-पुजारियों की पूजा करते हो जिनका कोई मूल्य नहीं है। और तुमने अपनी सबसे बड़ी प्रज्ञा को, इस देश की सबसे बड़ी ज्योति को इनकार कर दिया! उस ज्योति को दूसरे देशों में जाकर शरण लेनी पड़ी! उस ज्योति के लिए दूसरे देशों में मंदिर बने, तुमने नहीं बनाए। और तुम क्षुद्र-क्षुद्र चीजों के मंदिर बनाते हो। राह के किनारे पत्थरों को रख लेते हो, सिंदूर ढाल देते हो और मंदिर शुरू हो जाता है। और बुद्ध के मंदिर तुमने न बनाए? तुम बुद्ध से इतने डर क्यों गए? बुद्ध ने तुम्हारे साथ ऐसा क्या दुर्व्यवहार किया? हां किया। यही कि तुम्हारी झूठी आकांक्षाओं को सहारा न दिया। तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन खींच ली।
तुम जब कहते हो: भवसागर से पार कर दो। ऐसी अर्जी करोगे, तो मैं मानता हूं कि उसमें मांग होगी। लेकिन धनी धरमदास की बात और। उसमें मांग नहीं है।
मैं निरंतर कहता हूं कि अगर चाह रही तो अड़चन बनी रहेगी। क्योंकि चाह संसार है। तुम कुछ भी चाहो, इससे भेद नहीं पड़ता। जब चाहा, बस तभी संसार शुरू हो गया। अचाह में मुक्ति है। चाह में संसार है।
हसरते-दीदार परदा बन गई दीदार का
शौक कहता ही रहा जी भरके सूरत देखिए
हसरते-दीदार--वह जो देखने की आकांक्षा थी वही देखने में परदा बन गई।
हसरते-दीदार परदा बन गई दीदार का
शौक कहता ही रहा जी भरके सूरत देखिए
तुम्हारी पाने की चाह बाधा बन जाएगी। इसलिए तो मैं कहता हूं, परमात्मा के लिए प्यासे होओ, परमात्मा की चाह मत करो। चाह में अहंकार है। प्यास निरहंकार भाव है। चाह विचार है, वासना है। विचार भाव है।
धनी धरमदास तो ठीक ही कहते हैं। तुम्हारा प्रश्न भी विचारणीय है, सम्यक है।
बाकी अभी है तर्के-तमन्ना की आरजू
क्यों कर कहूं कि कोई तमन्ना नहीं मुझे!
अभी एक तमन्ना बाकी है कि तमन्ना से छूट जाऊं। एक चाह बाकी है कि चाह से छुटकारा हो।
बाकी अभी है तर्के-तमन्ना की आरजू
क्यों कर कहूं कि कोई तमन्ना नहीं मुझे
ठीक है बात। अगर इतनी भी आरजू बाकी है कि मेरी चाह मिट जाए, हे प्रभु, मेरी चाह मिट जाए, मेरी चाहत को मिटा दो, तो यह भी चाह है। यही बाधा बन जाएगी।
इसलिए स्मरण रखना, जो मैंने कहा है ठीक ही कहा है। चाह संसार है। इसलिए मोक्ष की कोई चाह नहीं हो सकती। फिर ये धनी धरमदास का क्या करें? वे कहते हैं, अर्जी सुनो, कर दो भव पार। शब्द तो वही उपयोग करते हैं जो तुम उपयोग करते हो। शब्द और दूसरे हैं भी नहीं। सब शब्द बाजार के हैं।
‘अर्जी सुनो, कर दो भव पार।’ जब धरमदास यह कह रहे हैं कि मेरे होने को मिटा दो। अगर यह अनुभव से, जीवन के प्रति जागरण से, अवलोकन से यह स्थिति बनी है और इसमें कहीं भी छिपी हुई कोई आकांक्षा नहीं है कि रहूं बैकुंठ में, कि रहूं मोक्ष में। इसमें कहीं भी कोई और आकांक्षा नहीं है, इसमें सिर्फ एक निवेदन है कि यह होना कष्टपूर्ण है। कष्ट ही कष्ट है, इस होने को वापस ले लो।
फर्क समझना। जब तुम चाहते हो बैकुंठ, तब तुम सुख की मांग कर रहे हो। स्वर्ग--सुख की मांग कर रहे हो। और जब तुम जीवन के दुख को सिर्फ देखते हो और कहते हो यह दुख व्यर्थ है। सुख की तुम मांग नहीं कर रहे क्योंकि सुख की मांग के ही कारण तो यह संसार है और यह दुख है। सुख मांगा है इसीलिए तो दुख पा रहे हो। अब तुम सुख नहीं मांगते। अब तुम सिर्फ इतना ही कहते हो, देख लिया यह दुख। इस दुख में कुछ भी सार नहीं है। ले लो वापस। इसके पीछे कोई भी शर्त नहीं है कि इसके उत्तर में कुछ मुझे देना। इसलिए बुद्ध से जब भी कोई पूछता था कि आपके निर्वाण में क्या होगा? तो वे कहते थे दुख-निरोध। वे कभी नहीं कहते थे, सुख का अनुभव। वे कभी नहीं कहते थे, आनंद की प्रतीति। वे कहते थे, दुख-निरोध। दुख नहीं होगा। इससे ज्यादा नहीं।
बुद्ध बड़े वैज्ञानिक थे। ठीक उतनी ही बात कहते थे जितने से काम चल जाए, रत्ती भर ज्यादा नहीं। क्योंकि तुम बात में से बतंगड़ बना लेने में बड़े कुशल हो। जरा सी, रत्ती भर कुछ बात निकल जाए, तुम उसी में से रास्ते खोज लोगे। और तुम अपने सारे संसार को वापस ले आओगे।
स्वर्ग के नाम पर लोग संसार को वापस ले आए पीछे के दरवाजे से। तुम जरा पुराणों में, शास्त्रों में अपनी स्वर्ग की कल्पना तो देखो। उसमें तुम्हें अपनी सारी चाहत की झलक मिल जाएगी। यहां तक हालतें बिगड़ी हैं कि जिन चीजों को तुम यहां रुग्ण कहो, उनकी भी मांग वहां है।
जब कुरान का जन्म हुआ तो अरबी मुल्कों में होमोसेक्सुअलिटी का बड़ा प्रचार था--अब भी है--समलैंगिकता का। पुरुष पुरुष को प्रेम करने के लिए आतुर थे। सुंदर युवकों की बड़ी मांग थी, जैसे सुंदर युवतियों की। यह विकृति है। यह रुग्ण दशा है। लेकिन जब कुरान का अवतरण हो रहा था तो किसी कामी ने दिखता है, कुरान में यह बात भी डाल दी कि स्वर्ग में अप्सराएं तो होंगी ही, सुंदर स्त्रियां तो होंगी ही, सुंदर लड़के भी मिलेंगे।
तुम्हारे रोग तक स्वर्ग में पहुंच गए हैं। इस जमीन पर के रोग भी तुम वहां प्रक्षेपित कर लेते हो। शराब पीने के लिए लोग पागल थे। तो बहिश्त में शराब का इंतजाम है। कि वहां शराब भी मिलेगी। तुम जो यहां चाहते हो वही तुमने वहां चाह लिया है। तो तुम अगर यह कहो, अर्जी सुनो, कर दो भव पार, तो तुम्हारा मतलब यह होगा कि हे प्रभु, अब मुझे स्वर्ग दो। अब बहुत हो गया। जरा मेरी पात्रता तो देखो! इतना पुण्यधर्मी, इतना दानी, इतने व्रत-उपवास! अब मुझे स्वर्ग दो। अब यह संसार मेरे योग्य नहीं। अब मेरे लिए योग्य कोई जगह दो।
लेकिन जब धनी धरमदास कहते हैं, ‘अर्जी सुनो, कर दो भवपार,’ तो वे इतना ही कह रहे हैं, देख लिया सब। चाह दुख है। अब इतना ही निवेदन है--अर्जी है समझ लेना, निवेदन है। इतना ही विनम्र निवेदन है, सब देख लिया कुछ सार नहीं। अब मुझे मिटा दो। अब मेरी मिट्टी को मिट्टी में मिल जाने दो। मेरे आकाश को आकाश में मिल जाने दो। अब मुझे बिखेर दो। जैसा बनाया था एक दिन वैसा ही बिखेर दो। मैं बचूं नहीं।
इन शब्दों का कैसा अर्थ लोगे इस पर सब निर्भर है। धनी धरमदास को मैं जानता हूं। इसलिए उनकी तरफ से तुम्हें आश्वासन दे सकता हूं कि वहां कोई चाहत नहीं है। एक ही चीज अलग-अलग व्याख्याएं ले लेती है।
चाहा था गुलशन में एक घर बनाना
मगर बिजलियों को गंवारा नहीं है
यह एक दृष्टि। एक दूसरी दृष्टि--
बिजलियों रोशनी दिए जाओ
हम नशेमन तलाश करते हैं
एक दृष्टि: चाहा था गुलशन में एक घर बनाना। कि वसंत आ गया था और फुलवारी में एक घर बना लेते, एक घोसला बना लेते। मगर बिजलियों को गंवारा नहीं। लेकिन बिजलियां हैं कि नष्ट किए जाती हैं। हम घोसला बनाते हैं कि जला देती हैं।
एक दूसरी दृष्टि है: बिजलियों, रोशनी दिए जाओ। चमकती रहना, रोशनी देते रहना। हम नशेमन तलाश करते हैं! हम अपना घोसला खोज रहे हैं।
वही बिजली दुश्मन हो सकती है, वही मित्र। कैसे तुम देखते हो!
कोई सुख की आकांक्षा कर रहा है, इसलिए मांगता है कि भवसागर से छुड़ा दो। भव पार करवा दो। और किसी को दुख दिखाई पड़ गया है, दुख स्पष्ट हो गया है, दुख ही दुख है। वह कहता है, भवसागर के पार कर दो।
दोनों की बातों में भेद है। शब्द एक है, शब्द पर बहुत मत जाना। शब्द के पीछे खड़े आदमी को गौर से देखना। उस आदमी में ही अर्थ होता है, शब्द में नहीं। शब्द में नहीं, ओंठ में अर्थ होता है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मुझे तो इस जन्म में आप मिल गए हो। अब मुझे आपके योग्य पात्र बना लें। भगवान, मरण में भी तो आप मेरे साथ होंगे न? मुझे आपमें ओतप्रोत कर लो, और क्या मांगूं आपसे? मुझमें जो भी कमी हो, बाधाएं हों आपको पाने में, वे सभी दूर कर दो। मेरा सारा अस्तित्व निचुड़ कर मेरी दो आंखों में समा गया है। ये दो आंखें आपकी विशाल आंखों में समा जाने को, डूब जाने को आतुर हो उठी हैं। सारा शरीर मस्ती से भर गया है। मैं और क्या कहूं?
पूछा है सरोज ने।
उसकी आंखों को इधर मैं देखता रहा हूं। प्रश्न वास्तविक है। उसका सारा अस्तित्व निचुड़ कर आंखों में आ गया है। आ ही जाता है।
जब उसकी दीदार की आकांक्षा जगती है तो भक्त आंख ही आंख हो जाता है। जब उसे सुनने की आकांक्षा जगती है तो भक्त कान ही कान हो जाता है। इससे कम में काम भी नहीं चलता। जब उसे देखना है तो सारी जीवन ऊर्जा आंख बन जाती है। देखने की आकांक्षा जितनी प्रबल होगी उतना ही तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर आंखें ही आंखें फैलती चली जा रही हैं। देह भी आंख हो गई, मन भी आंख हो गई, आत्मा भी आंख हो गई।
वे कहते हैं हमें हर वक्त क्यों देखा करे कोई
निगाहे-शौक करती है तकाजा, देखते जाओ
जरा सी झलक मिल जाए, फिर निगाहे-शौक करती है तकाजा देखते जाओ।
सुना नहीं? धनी धरमदास ने कहा कि अब रात भी आंखों में नींद नहीं, रात भी पलकें खुली रहती हैं कि पता नहीं तेरा दीदार कब हो जाए! तू कब आ जाए? सोएं तो सोएं कैसे? आंख झपकें तो झपकें कैसे? कहीं ऐसा न हो कि मैं सोया रहूं और प्राण प्यारा आए। तो यह तो बड़ी दुर्भाग्य की बात हो जाएगी।
और ऐसा ही हो रहा है। लोग सोए हैं, परमात्मा आता है। परमात्मा रोज आता है। अनेक-अनेक ढंगों में आता है, अनेक रंग-रूपों में आता है। उसके अतिरिक्त और तो कोई है ही नहीं। वही आता है। लेकिन तुम सोए हो। तुम्हारी आंखें बंद हैं। और जो तुम्हारी आंखें खुली भी मालूम पड़ती हैं वे भी बहुत खुली नहीं हैं। वे आंखें भी वही देखती हैं जो उनकी चाह है।
तुमने देखा, एक चमार रास्ते पर बैठा रहता है, वह लोगों के चेहरे नहीं देखता, वह सिर्फ जूते देखता है। उसकी आंखें हैं, तुम्हारे जैसी ही आंखें हैं, मगर वह लोगों के जूते देखता रहता है। दर्जी तुम्हारा चेहरा नहीं देखता, तुम्हारे कपड़े देखता है। उसकी आंखों ने एक तरह का विशेष ढंग ले लिया है। उसकी आंखें विशेषज्ञ हो गई हैं। वही देखता है, जो वह खोज रहा है, जो वह तलाश रहा है।
ध्यान रखना, हम वही देखते हैं जो हमारी प्यास है। अगर तुम हीरे खरीदने गए हो तो तुम्हें हीरे की दुकान बाजार में दिखाई पड़ती है। अगर तुम हीरे खरीदने नहीं गए हो, तुम दुकान के सामने से निकल जाते हो.ऐसा नहीं कि तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। है तो दिखाई तो पड़ती ही है मगर कहां दिखाई पड़ती है? एक दफे भी खयाल नहीं आता। दुकानदार का बोर्ड भी पढ़ते हो, ऐसा नहीं कि नहीं पढ़ते हो, आंख है तो पढ़ ही जाता होगा। मगर कहां होश रहता है? अगर कोई तुमसे पूछे कि उस बोर्ड पर क्या लिखा है? ठीक-ठीक क्या लिखा है? और तुम वर्षों गुजरते रहे हो वहां से। तुम बता न सकोगे। रंग क्या है बोर्ड का? तुम कहोगे कि निकलता तो वहां से हूं लेकिन कभी खयाल नहीं किया; देखा तो है मगर खयाल नहीं किया।
बायजीद अपने गुरु के घर था। गुरु का विशाल आश्रम था। और गुरु के कक्ष में जाने के लिए उसे बीच के एक बड़े हॉल से गुजरना पड़ता था। वह बारह साल तक गुरु के पास था। एक दिन गुरु ने उससे कहा, वह पास ही बैठा था, कि तू जा, जिस हॉल से गुजर कर आया है उसमें ताक पर एक किताब रखी है वह तू उठा ला। उसने कहा: आप कहते हैं तो मैं जाता हूं मगर मैंने कभी देखी नहीं। गुरु ने कहा: हद्द हो गई! तू बारह साल से यहां आता है, उसी कमरे से रोज गुजरता है। दिन में दस बार गुजरता है, तूने ताक पर रखी किताबें नहीं देखीं? बायजीद ने कहा कि मैं आपके पास आता हूं। नजर आपमें उलझी रहती है। ताक मैं है क्या, किसको फिकर? किताबें हैं या नहीं, किसको फिकर? देखी जरूर होंगी, लेकिन फिर भी नहीं देखीं। अब जाता हूं, देख कर ले आता हूं।
गुरु ने कहा: जाने की जरूरत नहीं। मैं तो सिर्फ इसलिए पूछा था कि तू यहां आता है तो कुछ और भी देखता है या नहीं? तो तू कुछ नहीं देखता। तो तेरे अनुभव की परम घड़ी करीब आ गई।
हम जो खोजते हैं वही देखते हैं। जब तुम कामातुर होते हो, तुम्हें स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं, अगर स्त्री हो तो पुरुष दिखाई पड़ते हैं। जब तुम कामातुर नहीं होते तब कोई सवाल नहीं उठता। पता भी नहीं चलता कि स्त्री गुजरी कि पुरुष गुजरा।
बुद्ध जंगल में बैठे थे। कुछ युवक शहर से एक वेश्या को लेकर आ गए थे जंगल में। चांदनी रात थी, पूर्णिमा की रात थी। मजा करेंगे। खूब शराब पी गए। उस वेश्या के सब कपड़े छीन लिए, उसको नग्न कर दिया। लेकिन शराब में इतने धुत हो गए कि वह वेश्या भाग निकली डर कर; उनके ढंग देख कर। जब सुबह थोड़े चार बजे होंगे, ठंडी हवाएं बहीं, और नंगे थे, उघाड़े थे, और शराब में मस्त पड़े थे। थोड़ा होश आया। ठंडी हवाओं ने होश लाया। याद आया कि वेश्या को लेकर आए थे, वेश्या कहां गई? उसको खोजने लगे। कपड़े तो वहीं पड़े थे। वह वेश्या नंगी ही भाग गई थी। उसकी खोज में निकले कि गई कहां होगी नंगी? जाएगी कहां? यहीं कहीं होगी।
उसको तो खोजने निकले, वह तो मिली नहीं लेकिन बुद्ध मिल गए एक वृक्ष के नीचे। वे ध्यान कर रहे थे। उनको ध्यान करते देख कर उन्होंने पूछा: हे भिक्षु, हम एक वेश्या को लाए थे। वह नग्न थी। हम शराब पीकर मस्त हो गए। वह कहां भाग गई पता नहीं। यहां से जरूर गुजरी होगी। क्योंकि यही एकमात्र रास्ता है। आपको याद है? कोई वेश्या नग्न थी? बड़ी सुंदर स्त्री है। और नंगी स्त्री गुजरे पुरुष के सामने से और पुरुष न देखे!
बुद्ध ने कहा: कोई गुजरा तो जरूर लेकिन स्त्री थी या पुरुष, यह कहना मुश्किल है। कोई गुजरा तो जरूर, सुंदर था कि असुंदर, यह भी कहना मुश्किल है। कोई गुजरा तो जरूर क्योंकि मैंने पैर की आवाज सुनी। क्योंकि मैंने कोई प्रतिमा आंख के सामने से जाती देखी। लेकिन वह नग्न थी या नग्न था, वस्त्र पहने थे या नहीं पहने थे, यह जरा कहना मुश्किल है।
उन्होंने कहा: आप हमें चकित करते हो। सामने से इतनी सुंदर नग्न स्त्री निकले, आप कर क्या रहे थे? बुद्ध ने कहा: दस साल पहले निकली होती तो मैं उसके पीछे ही चला गया होता। यहां थोड़े ही बैठा रहता! तुम मुझे यहां पाते? वे दिन थे जब मैं पुरुष था तो स्त्री दिखाई पड़ती थी। अब तो मैं देह ही नहीं रहा तो कौन पुरुष, कौन स्त्री? जब तक मैं पुरुष था तो स्त्री दिखाई पड़ती थी। जब से मैं पुरुष नहीं रहा तो स्त्री कहां से दिखाई पड़े? स्त्री पुरुष को दिखाई पड़ती है, कामातुर पुरुष को दिखाई पड़ती है। स्त्री के गुजरने से स्त्री नहीं दिखाई पड़ती, तुम्हारे भीतर वासना के गुजरने से स्त्री दिखाई पड़ती है। तुम वही देख लेते हो जो तुम्हारी वासना होती है।
सरोज की आंखें सारी ऊर्जा से ओतप्रोत हो गई हैं। सारी ऊर्जा वहां समा गई है। यह शुभ हो रहा है। यही लक्षण है। ऐसे ही बढ़ते-बढ़ते एक दिन कोई उसकी परम अनुभूति को, उसके दर्शन को उपलब्ध होता है। ये आंखें पास हों तो कुछ और चाहिए नहीं, फिकर न करो।
और क्या मैकस को साकी चाहिए
तू है, शीशा है, सुराही जाम है
तैयारी हो रही है। जल्दी ही मस्ती परम हो जाएगी।
किसकी चितवन का वह खंजर था
ये अब कहने से क्या!
कर दिए अब जिसने मेरे दिल के टुकड़े, कर दिए
सरोज बही जा रही है। ऐसे ही सबको बहना है। एक-दूसरे से सीखो। एक दूसरे से तरंग लो। एक-दूसरे के पास बैठ कर परमात्मा की बातें करो। एक-दूसरे के पास बैठ कर मस्त होओ। एक-दूसरे की मस्ती में भागीदार बनो। इसीलिए तुम्हें संन्यास की यात्रा पर भेजा है। तुम्हें एक रंग में रंगा है इसीलिए कि भीतर भी एक रंग आ जाए। बाहर का रंग तो बाहर का ही है। उस पर ही तृप्त मत हो जाना। उससे तो सिर्फ शुरुआत है, अंत नहीं है।
मिलो एक-दूसरे से, चर्चा करो प्रेम की। गीत गाओ! नाचो! रोओ! डूबो एक दूसरे में। कोई थोड़ा आगे जाएगा, उसके साथ तुम भी आगे जाओगे। चाहता हूं, संन्यासियों की एक इतनी प्रबल ज्वाला बन जाए कि नया व्यक्ति आए तो तिनके की तरह उस ज्वाला में सम्मिलित हो जाए।
दिल में यारों की तरह आंख में आंसू की तरह
तुम मेरे पास रहो फूल की खुशबू की तरह
आकांक्षा तो यही है हरेक की कि जैसे फूल के पास खुशबू है ऐसे परमात्मा हमारे चारों तरफ हो। है ही। सिर्फ हमारे पास संवेदना नहीं है। हम जड़ हो गए हैं। हमारी चमड़ी मोटी हो गई है।
परमात्मा तो पास ही है। हमें अनुभव नहीं होता। जरा पिघलो। जरा तरल होओ। इधर तुम पिघले कि उधर अनुभव शुरू हुआ।
पूछा है सरोज ने कि ‘जन्म में--इस जन्म में तो आप मिल गए। मरण में भी आप मेरे साथ रहेंगे न?’
जन्म और मरण अलग-अलग नहीं हैं। जन्म एक पहलू है, मरण दूसरा पहलू है। जो जन्म में मिल गया वह मरण में भी मिल गया।
मृत्यु है क्या?
सच तो यह है कि एक पहेली है
जिंदगी मौत की सहेली है
साथ-साथ हैं। जीवन में जो पा लिया वह मृत्यु में खोता नहीं। हां अगर मृत्यु में खो जाता हो तो इससे इतना ही सिद्ध होता है कि जीवन में भी पाया नहीं था, पाने का धोखा खाया था। धन पा लिया जीवन में, मृत्यु में खो जाएगा। वह धोखा था। उसको संपत्ति सिर्फ नासमझ कहते हैं, जानने वाले उसको विपत्ति कहते हैं। उसको संपदा अज्ञानी कहते हैं, ज्ञानी उसको विपदा कहते हैं। क्योंकि जिंदगी भर गंवाई कमाने में और फिर मौत आई और सब खो गया।
ध्यान संपदा है। भक्ति संपदा है। कमा ली तो कमा ली, फिर मौत उसे छीन नहीं सकती।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।
उसे पा लिया फिर, जिसे शस्त्र छेद नहीं सकते और आग जला नहीं सकती।
जिन्होंने मेरे साथ प्रेम का संबंध जोड़ा है वे मृत्यु में भी मुझे इतना ही करीब पाएंगे। सच तो यह है, थोड़ा ज्यादा करीब पाएंगे। क्योंकि अभी तो शरीर की थोड़ी बाधा होती है। फिर वह बाधा भी गई। फिर दो आत्माओं के बीच मिलने का कोई.न मिलने का कोई कारण नहीं रह गया। शरीर के पीछे से मिलते हैं। यह तो ऐसा ही है कि जैसे हाथ पर दस्ताना पहना हुआ हो किसी से हाथ मिलाते, दस्ताने के पीछे हाथ है। फिर मौत आई, दस्ताना गिर गया। अब हाथ से हाथ मिलता है। अब आत्मा से आत्मा मिलती है।
खत्म होगा न जिंदगी का सफर
मौत बस रास्ता बदलती है
यह सफर तो चलता रहा, चलता रहेगा। इस सफर में तुम्हें कुछ ऐसा मिल जाए जो मौत न छीन सके तो तुमने कमाई कर ली। तुम खाली हाथ न गए।
इतना मैं कह सकता हूं सरोज, कि फिकर न कर। तेरे हाथ में संपदा आनी शुरू हो गई है। वह बढ़ती ही जाएगी। यह ऐसी संपदा है जो बढ़ती ही जाती है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, जिस दिन आपने नदी-नाव-संयोग की चर्चा की उस दिन संसार छूट गया। और जब आपने अपने जन्म-दिन पर इस भक्त को अनिमेष नयन से निहारा तब से आपका मोह भी छूट गया। आप इस कदर मुझमें उतर गए हैं कि उसको कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं बस आपकी ही हो गई हूं। और आप मेरे भीतर विराजमान हो गए हैं। किसको धन्यवाद दूं? मैं लायक तो नहीं हूं तो भी आपकी कृपा बरसती रहती है।
पूछा है तरु ने।
मैं देखता रहता हूं किसमें क्या हो रहा है। चुपचाप देखता रहता हूं किसमें क्या हो रहा है। वही मेरा दायित्व है, जिस दिन मैं तुम्हें संन्यास देता हूं उस दिन से मेरे ऊपर आया। उस दिन से मेरी नजर तुम्हारा पीछा करती है।
जो संन्यासी नहीं हैं उनके लिए मैं यह नहीं कह सकता। क्योंकि जिन्होंने इतनी ही हिम्मत नहीं की कि मेरे साथ पागल हो सकें। जिन्होंने इतनी हिम्मत नहीं की कि दुनिया उनकी हंसी उड़ाए तो मेरे लिए हंसी सह सकें। निश्चित दुनिया हंसी उड़ाएगी। लोग पागल कहेंगे कि दिमाग खराब हुआ। जिनका इतना साहस नहीं है उनके साथ मेरा श्रम करना भी व्यर्थ है। जिनमें इतना साहस नहीं है वे ले भी न सकेंगे, अगर मैं कुछ देना चाहूं। लेकिन जिन्होंने संन्यास लिया है, जिन्होंने मेरे साथ पागल होने की झंझट ली है उनका पीछा तो मेरी नजर करती ही रहती है। तरु ठीक कह रही है।
अगर तुमने मुझे ठीक से समझने की कोशिश की, ठीक से सुना भी तो कई बातें होने लगेंगी जो तुम्हें करने की जरूरत नहीं है। क्योंकि ठीक-ठीक किसी बात को देख लेना उस बात का हो जाना भी है।
तरु कहती है, जिस दिन आपने नदी-नाव-संयोग की चर्चा की.वह दिन मुझे याद है। उस दिन मैंने उसे टूटते देखा। कह रहा था मैं उस दिन कि इस जगत के सारे संबंध नदी-नाव-संयोग हैं। नदी नाव के बिना हो सकती है, नाव नदी के बिना हो सकती है। कोई अनिवार्यता नहीं है। ऐसे ही मां, पिता, पत्नी, भाई, बंधु और अंततः गुरु भी नदी-नाव-संयोग हैं। सब संयोग टूट जाएंगे। इसलिए जो व्यक्ति अकेले होने की हिम्मत नहीं रखता वह कष्ट में पड़ जाएगा। अकेले होने का साहस चाहिए और कोई संबंध छोड़ कर भाग जाने के लिए नहीं कह रहा हूं। सिर्फ इतना जानना काफी है कि ये संबंध बस नाममात्र के हैं। संबंध तो एक ही है जो कभी नहीं टूटेगा; वह परमात्मा से है। वह नदी-नाव-संयोग नहीं है।
दुनिया बस इससे ज्यादा नहीं है कुछ
कुछ रोज हैं गुजारने और कुछ गुजर गए हैं
यहां तो सब मिटता ही जा रहा है। पानी पर खींची गई लकीरें हैं।
ऐ शमा, सुबह होती है, रोती है किसलिए?
थोड़ी सी रह गई है, इसे भी गुजार दे
जल्दी ही सब टूट जाएगा। यहां का बनाया हुआ खेल बार-बार मिट जाता है। और मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं कि इस खेल को मिटा दो। इतना ही जान लो कि यह खेल है कि बात समाप्त हो गई। कई बार ऐसा हो जाता है कि नाटक देखते-देखते तुम इतने तल्लीन हो जाते हो कि भूल ही जाते हो कि नाटक है। तुमने सिनेमागृह में लोगों को रोते देखा होगा। अपने को रोते पाया होगा। और तुम भलीभांति जानते हो मगर भूल गए हो। भलीभांति जानते हो कि परदे पर कुछ भी नहीं है, परदा कोरा है। वहां केवल धूप-छांव का खेल चल रहा है। मगर फिर भी कोई मार्मिक दृश्य देख कर, कोई दुखांत घड़ी आती है और तुम रोने लगते हो। फिर बाद में तुम भी हंसोगे। और अचानक अगर सिनेमा हॉल में रोशनी हो जाए तो जल्दी से अपने आंसू पोंछ लोगे कि कहीं कोई और न देख ले। लोग कहेंगे कि कैसे पागल हो? सिनेमा हॉल का अंधेरा लोगों के लिए बड़ा सहयोगी है। रो भी लेते हैं, हंस भी लेते हैं। प्रसन्न भी हो लेते हैं, भयभीत भी हो लेते हैं; सब चीजों से गुजर जाते हैं। और हर बार जानते हुए, भलीभांति भीतर यह बात तो पता ही है कि परदा खाली है।
जिस व्यक्ति को यह साफ दिखाई पड़ गया है कि संसार केवल धूप-छांव का खेल है, यहां सब संयोग नदी-नाव-संयोग। कहीं जाने को नहीं कह रहा हूं, फिर मजे से बैठे रहो सिनेमा हॉल में। कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन फिर न आंसू होंगे, न सुख, न दुख। बाहर की चीज फिर प्रभावित न करेगी। और जब बाहर की चीज प्रभावित नहीं करती तब भीतर की चीज जागती है। जब बाहर के सब प्रभाव समाप्त हो जाते हैं तो सारी ऊर्जा भीतर इकट्ठी हो जाती है। वही ऊर्जा उस परमात्मा तक ले जाने का आधार बनती है। उस तक जाने के लिए ऊर्जा चाहिए। उसी ऊर्जा पर चढ़ कर कोई यात्रा कर पाता है।
दो दिन की जिंदगी है रहना नहीं हमेशा
हम खुद हैं एक मुसाफिर दुनिया है एक सराय
समझा कि हो गया। करने की बात नासमझ करते हैं। समझा, कि हो गया। जो तुम्हारे बीच सर्वाधिक प्रतिभाशाली हैं, वे सुनते-सुनते ही मुक्त हो जाएंगे। जो उतने प्रतिभाशाली नहीं हैं उन्हें कुछ करना होगा। वह प्रतिभा की कमी है।
महावीर ने कहा है कि परमात्मा तक पहुंचने के दो तीर्थ हैं--श्रावक और साधु। या चार--श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी। श्रावक का अर्थ होता है: जो सुन कर ही जान ले। श्रावक यानी श्रवण से जान ले। जो गुरु की बात सुने, इधर सुने, उधर हो जाए। साधु का अर्थ होता है: जो सुने, फिर अभ्यास करे। साधु नंबर दो है। मगर मजा यह है कि करने वाला जीत गया और साधु ऊपर बैठ गया है। और साधु श्रावक से कहता है तुम नीचे हो। असल में श्रावक श्रावक नहीं है और साधु भी साधु नहीं है अब। श्रावक का मतलब ही यह था जो सुन कर हो जाए जिसे। बुद्ध ने भी यही कहा है।
बुद्ध का एक श्रावक था, विमलकीर्ति। उसकी बड़ी प्यारी कथाएं हैं। वह गृहस्थ ही रहा। उसने कभी घर नहीं छोड़ा, पत्नी नहीं छोड़ी, दुकान नहीं छोड़ी। और बुद्ध के बोधिसत्व भी सारिपुत्र, मोग्गलायन, महाकाश्यप--ऐसे-ऐसे प्रतिभाशाली भिक्षु बुद्ध के विमलकीर्ति से डरते थे।
एक बार विमलकीर्ति बीमार पड़ा, तो बुद्ध ने कहा सारिपुत्र को कि जाओ और विमलकीर्ति को पूछो, क्या बीमारी है, क्या हुआ? कुशलक्षेम पूछ कर मुझे खबर कर दो। सारिपुत्र ने कहा: आप कहते हैं तो मैं जाऊंगा, मगर मैं जाना नहीं चाहता। आप मुझे क्षमा करें, किसी और को भेज दें। अगर यह संभव हो किसी और का भेजना तो कोई और ही चला जाए। आप कहेंगे तो जाऊंगा लेकिन मैं जाना नहीं चाहता।
बुद्ध ने कहा: क्यों? तो सारिपुत्र ने कहा कि विमलकीर्ति को देख कर ही मेरे छक्के छूट जाते हैं। मेरी घिग्घी बंध जाती है। वह ऐसे प्रश्न उठा देता है। मैं एक बार बोल रहा था एक सभा में और विमलकीर्ति आ गया। उसके आने से बड़ी अड़चन हो गई। वह आकर बैठ गया। उसके बैठते ही मैं कुछ का कुछ बोलने लगा। क्योंकि उसकी मौजूदगी ऐसी है। और फिर उसने बीच में उठ कर पूछा कि सारिपुत्र, सत्य अगर बोला नहीं जा सकता तो बोल क्यों रहे हो? उसने और फजीहत करवा दी। उससे विवाद भी नहीं किया जा सकता। उसके तर्क भी बड़े प्रखर हैं।
उन्होंने मोग्गलायन से कहा कि मोग्गलायन तू चला जा। मोग्गलायन ने कहा कि आप कहेंगे तो जाना पड़ेगा। मगर किसी और को भेज देते तो अच्छा था। क्योंकि मैं उपवास किए था और विमलकीर्ति आ गया और उसने कहा कि आदमी न देह है, न आत्मा है, उपवास कौन कर रहा है? उपवास किसलिए कर रहे हो? उसे देख कर मुझे पसीना छूट जाता है। सिर्फ एक शिष्य मंजुश्री राजी हुआ जाने को। वह भी झिझकते-झिझकते ही गया। कोई जाने को राजी नहीं था तो वह गया। मंजुश्री बुद्ध के भिक्षुओं में सर्वाधिक प्रतिभाशाली भिक्षु था। मगर उसको भी मुश्किल में डाल दिया।
डरते थे, वे ठीक ही डरते थे। क्योंकि उससे कुछ भी बात करनी खतरनाक थी। उसकी प्रज्ञा ऐसी प्रखर थी, वह बुद्ध को सुन कर ही बुद्ध हो गया था। उसने कभी कुछ नहीं किया था। कृत्य करने की जरूरत ही न आई थी। इधर बुद्ध ने कहा, उधर उसने समझा और बात हो गई थी।
जब मंजुश्री गया.स्वभावतः जब तुम किसी बीमार आदमी को देखने जाओ.तो उसने जाकर पूछा कि हे विमलकीर्ति, क्या आप रुग्ण हैं? उसने आंख खोलीं और उसने कहा कि सारा संसार रुग्ण है। तूने बुद्ध को सुना कि नहीं। अरे मूढ़! बुद्ध कहते हैं, जन्म दुख, जीवन दुख, मृत्यु दुख। सारा दुख ही दुख है। और तू इधर पूछने आया है कौन रुग्ण है? तू स्वस्थ है?
अब ऐसे आदमी से बीमारी का कुशलक्षेम पूछने जाना भी कठिन है। लेकिन विमलकीर्ति श्रावक था। सिर्फ सुन कर जाग गया था। अनूठी प्रतिभा रही होगी।
जो तुम्हारे बीच वस्तुतः प्रतिभाशाली हैं वे सुन कर जाग जाएंगे। वे मुझे देख कर जाग जाएंगे। मेरे साथ बैठ कर जाग जाएंगे। जो प्रतिभाशाली नहीं हैं उन्हें कुछ करना पड़ेगा। करना उनकी प्रतिभा को थोड़ा निखारेगा। कुछ धार रखनी पड़ेगी। थोड़ा समय लगेगा।
‘नदी-नाव-संयोग की चर्चा उस दिन आपने की, संसार छूट गया।’ ऐसे ही छूट जाना चाहिए।
‘और जब आपने जन्म-दिन पर इस भक्त को अनिमेष नयन से निहारा तब से आपका मोह छूट गया।’ छूट ही जाना चाहिए।
तुम्हारा मुझसे मोह बन जाए तो यह मोह का नया ढंग हुआ। ध्यान रखना, प्रेम मोह नहीं है। और जहां मोह है वहां प्रेम कहां है? प्रेम बड़ी और बात है। प्रेम और ही लोक है। मोह में पकड़ने की इच्छा है। प्रेम में कोई इच्छा नहीं। जैसा है वैसा ठीक है ऐसा प्रेम में भाव है। जो है, सब सुंदर है। जो होगा सुंदर होगा, ऐसी श्रद्धा है।
मोह में श्रद्धा नहीं है, मोह में बड़ा संदेह है। मोह कहता है पकड़ रखूं। कहीं मेरा प्रेमी मुझसे छूट न जाए। कहीं मेरा प्रेमी किसी और को प्रेम न करने लगे। कहीं मेरी प्रेमी की नजर से मैं उतर न जाऊं। पकड़ रखूं, बांध रखूं, सब तरफ से घेरा डाल दूं! इसी तरह तो प्रेमी एक-दूसरे के पास जेल खड़ी कर देते हैं। कारागृह बना देते हैं, जंजीरें पहना देते हैं।
जिस दिन पति अपनी पत्नी को गहने पहनाता है, गहने नहीं पहनाता जंजीरें पहना देता है। जिस दिन पत्नी अपने पति के चरण पर हाथ रखती है, चरण नहीं पकड़ती, गर्दन पकड़ लेती है। वहां मोह है। वहां दावा है। प्रेम मोह नहीं है। प्रेम तो निर्मोह दशा है, इसलिए निर्मल है।
गुरु और शिष्य के बीच जो प्रेम है वहां मोह का जरा भी अंश आ जाए तो फिर परमात्मा की तरफ यात्रा जाना मुश्किल हो जाएगी। वहां प्रेम है, अपूर्व प्रेम है, धन्यभाव है। आभार है। मगर कोई मोह नहीं।
अगर ठीक से समझ सको तो ऐसा समझो कि मैंने तुमसे बार-बार कहा है कि गुरु शिष्य का संबंध इस जगत में सबसे ऊंचा संबंध है। अब तुमसे मैं यह भी कहूं वह सबसे ऊंचा इसीलिए है कि वह नाममात्र का संबंध है। वहां संबंध है क्या? असंबंध है। उसी असंबंध में ही सारा रस है। इसलिए सदगुरु की परिभाषा मैं करता हूं, जो तुम्हें एक दिन संसार से छुड़ाए और फिर एक दिन अपने से भी छुड़ा दे। तभी तो तुम परमात्मा तक पहुंच पाओगे। नहीं तो संसार से छूटे फिर गुरु से बंध गए। और अक्सर इस दुनिया में गुरु हैं, गुरु नहीं कहना चाहिए उन्हें मगर कहे जाते हैं, जो तुम्हें जकड़ लेंगे। जो तुम पर कब्जा कर लेंगे। जो तुम्हें नई तरह की जंजीरें पहना देंगे धर्म के नाम पर।
गुरु वही है, जो सारी जंजीरें छीन ले और स्वयं जंजीर न बने।
मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं
मेरे खयाल की दुनिया में मेरे पास हो तुम
क्या जुदाई का रंज? अलग होने का कोई डर क्या? मेरे खयाल की दुनिया में मेरे पास हो तुम। और फिर धीरे-धीरे तो खयाल की दुनिया में ही पास नहीं रह जाते, आत्मिक भाव हो जाता है। एकता सध जाती है।
शिष्य और गुरु जहां मिलते हैं वहीं परमात्मा का आविर्भाव है। जहां शिष्य और गुरु दोनों शून्य होकर एक दूसरे में लीन हो जाते हैं वहीं पूर्ण का दीया जलता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, भक्त संतों ने भजन की बहुत महिमा गाई है। यह भजन क्या है?
भजन है, भाव का निवेदन। भजन कोई बंधी-बंधाई औपचारिकता नहीं है, निर्बंध भाव का निवेदन है। भजन है हृदय के द्वारा उतारी गई आरती। बाह्य उपकरणों से नहीं, अंतर उपकरणों से। भजन है प्यास का गीत।
क्या करे आदमी? विवश है, असहाय है। परमात्मा कहां है, पता नहीं। भजन है कभी रोना, कभी मुस्कुराना। मुस्कुराना उस सबके लिए जो उसने किया है। और रोना उसके लिए, जो अभी होने को है और हुआ नहीं। धन्यवाद उसके लिए जो हुआ है और प्रार्थना उसके लिए जो होना है। तुम जीवित हो यह उसका प्रसाद--इसके लिए धन्यवाद। तुम अभी देह में बंधे हो, यह तुम्हारा कष्ट। इस देह से छुटकारा हो। तुम अभी भव में बंधे हो, यह तुम्हारी पीड़ा। इसकी अर्जी--कि भव सागर से मुझे पार उठा।
और भक्त की यह आस्था है कि मेरे किए कुछ भी न होगा। मेरे किए कभी कुछ नहीं हुआ। मैं हूं ही नहीं। तो तू ही करे तो कुछ हो।
ज्ञानी भजन नहीं गाता। त्यागी भजन नहीं गाता। गाएगा ही नहीं। गाएगा कैसे? त्यागी तप करता है। ज्ञानी ज्ञान संजोता है। व्रती व्रत करता है। उन सबकी यह मान्यता है कि हमारे किए होगा। हम करके रहेंगे।
भक्त क्या तप करे? क्या जप करे? भक्त सिर्फ भजन करता है। भजन मतलब स्मरण करता है। वह कहता, तू करेगा तो होगा। जब करेगा तब होगा। हम तब तक प्रतीक्षा करेंगे।
तुमने देखा गांवों में किसानों को? जब ग्रीष्म की भयंकर लू बहती है और जमीन तप-तप कर टूटने लगती है, और वृक्ष सूखने लगते हैं तब तुमने उनकी आंखों को देखा आकाश को निहारते, आषाढ़ कब आएगा? आषाढ़ के मेघ कब घिरेंगे? तुमने उनकी आंखों को देखा आकाश को देखते? वह भजन है। वैसा ही भक्त आकाश की तरफ देखता है--प्रतीक्षारत। कब उसके अंतर के आकाश में आषाढ़ के मेघ घिरेंगे! कब घनश्याम का दर्शन होगा? कब वर्षा होगी?
किसान भी कुछ कहता नहीं, देखता है आकाश को। कहने को है भी क्या? उसकी आंखें सब कह रही हैं। भक्त भी कुछ कहता नहीं। कहने को है क्या? ऐसा क्या है जो परमात्मा नहीं जानता है, जो कहना पड़े? उसकी आंखें सब कह रही हैं, उसका हृदय सब कह रहा है। लेकिन कभी-कभी यह भाव गीतों में फूट भी पड़ता है। कभी-कभी यह अनूठे-अनूठे रंगों में व्यक्त भी होता है। कभी आंसू बन कर बहता है। और कभी पैरों में घूंघर बंध जाते हैं और भक्त नाचता है। कभी वीणा को छेड़ता है।
लेकिन यह होना चाहिए अनौपचारिक। यह सीखा-सिखाया न हो। यह पिटा-पिटाया न हो। यह चला चलाया न हो। यह लकीर की फकीर आदत नहीं होनी चाहिए कि सीख लिया एक भजन और रोज उसी को घोंटते रहे। उससे कुछ भी न होगा।
कथा है: मूसा एक जंगल से गुजरते थे--यहूदी पैगंबर। उन्होंने एक आदमी को प्रार्थना करते देखा, वे बड़े चौंके। उन्होंने बहुत प्रार्थना करने वाले देखे थे। मगर यह बड़ी अजीब प्रार्थना कर रहा था। गरीब आदमी था। गड़रिया था। अब गड़रिए की प्रार्थना गड़रिए की प्रार्थना थी। उसके ही अंतर का भाव था। वह कह रहा था हे प्रभु, अगर तुम मुझे मिल जाओ ऐसा स्नान करवाऊं तुम्हें, ऐसी मालिश करूं तुम्हारी कि अगर जूएं इत्यादि तुम्हारे शरीर में पड़ गए हो, सबको धो डालूं।
मूसा तो बहुत चौंके कि हद्द हो गई। यह आदमी क्या कह रहा है जैसे ईश्वर ने स्नान न किया हो! और यह उनके जूएं इत्यादि की बातें कर रहा है? और पैर ऐसे धोकर साफ करूंगा कि बिमाई भी पड़ गई हों तो ठीक कर दूंगा। मेरे जैसी मालिश कोई कर ही नहीं सकता। और भोजन भी बना दूंगा। और रात बिस्तर भी लगा दूंगा।
आखिर मूसा से न रहा गया, वह बीच में आकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा, कि सुन नासमझ! तू यह क्या कह रहा है? यह कैसी प्रार्थना कर रहा है? पहले प्रार्थना करना सीख। वह आदमी गरीब था, वह गिर पड़ा पैर पर। उसने कहा, मैं तो जानता नहीं, सीखा पढ़ा भी नहीं। आप मुझे सिखा दें। तो जो मूसा को लगता था प्रार्थना नियमबद्ध जैसी यहूदी करते हैं वह प्रार्थना उसे समझाई कि इस-इस तरह।
उसने फिर दुबारा पूछा कि देखो मैं भूल जाऊंगा, एक दफा और बता दो। फिर मूसा दूसरी दफा बता कर जा रहे थे, वह भागा फिर आया और उसने कहा, एक बस--एक दफे और। क्योंकि मैं भूल जाऊंगा। ये कठिन शब्द हैं। और अगर भूल-चूक हो गई तो--तो फिर बड़ा नुकसान होगा। अब तक अज्ञानी था, जो करता रहा सो करता रहा। मगर अब, अब भूल-चूक नहीं सही जाएगी। अब मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा। तुम्हें कहां खोजूंगा?
वह तो मेरी प्रार्थना थी, उसमें कुछ अड़चन ही नहीं थी। रोज अपनी बना लेता था, जो जैसी करनी थी कर लेता था। अब तो एक नियम से चलना होगा। जब मूसा बड़े प्रसन्न भाव से उसको समझा कर तीसरी बार अपने रास्ते पर चले तो उन्होंने आकाश से एक बड़ी गंभीर गर्जना सुनी। ईश्वर बहुत नाराज था। और ईश्वर ने कहा कि सुनो, मैंने तुम्हें दुनिया में भेजा है कि तुम जो मुझसे भटक गए हैं उन्हें मुझसे मिलाना। लेकिन तुम जो मुझसे मिले हुए हैं उनको भटका रहे हो। तुम वापस जाकर उस आदमी से क्षमा मांगो। वह अकेला है इस प्रांत में जो प्रार्थना जानता है। उसका भाव तो देखो! उसका प्रेम तो देखो! तुमने सब खराब कर दिया। तुम्हारे दो कौड़ी के शब्द अब वह दोहराता रहेगा उधार। अब प्रार्थना कभी नहीं हो सकेगी। तुम जाकर उसके पैरों पर गिरो, और क्षमा मांगो। और आइंदा खयाल रखो, मेरे किसी भक्त को इस तरह बरबाद मत करना।
यह कहानी बड़ी अदभुत है। वह भजन था जो गड़रिया कर रहा था, मूसा ने उसका भजन खराब कर दिया। भजन कोई विधि नहीं है। भजन अनौपचारिक चर्चा है परमात्मा से; विराट से वार्ता है, गुफ्तगू है। और जो तुम्हारे हृदय का भाव हो वही। कभी चुप तो चुप, कभी बोलना हो तो बोलना। कभी गाना आ जाए तो गाना। कभी नाचना आ जाए तो नाचना। स्मरण करना उसका--किसी बहाने से सही। मगर जो भी तुम करो वह तुम्हारा हो, निजी हो। उसमें तुम्हारा हस्ताक्षर हो। फिर सभी प्रार्थनाएं जिन पर तुम्हारे हस्ताक्षर हैं, पहुंच जाती हैं, और जो उधार हैं, बासी हैं वे यहीं भटकती रह जाती हैं। अगर तुम्हारी प्रार्थनाएं नहीं सुनी गई हैं तो उसका कुल कारण इतना है कि तुमने प्रार्थना किसी से सीख ली है। सीखने में ही भूल हो जाती है।
न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया खुद-ब-खुद दिल लगाना
प्रार्थना, भजन: खुद-ब-खुद दिल लगाना।
जबां पर लगी हैं वफाओं की मुहरें
खामोशी मेरी कह रही है फसाना
कभी मौन भी हो जाता है। भजन मस्ती है।
तुमने पूछा: ‘भक्त संतों ने भजन की बहुत महिमा गाई है, यह भजन क्या है?’
तुम शायद चाहते हो कि मैं तुम्हें एक बंधा हुआ भजन बता दूं कि यह है भजन। मैं यहां तुम्हें परमात्मा से अलग करने नहीं आया हूं। मूसा की भूल मैं न करूंगा। मैं यहां तुम्हें जोड़ने आया हूं। मैं चाहता हूं तुम जुड़ो। मैं तुम्हें स्वतंत्रता देता हूं। अपने एकांत में बैठ कर जो तुम्हारी मौज में आए, करना। बस उसकी याद हो, किसी बहाने सही। सब बहाने हैं और तो, याद असली बात है। बुहारी लगाना और उसकी याद करना; और बुहारी लगाना भजन। भोजन बनाना और उसकी याद करना; और भोजन बनाना भजन। राह चलना और उसकी याद करना और चलना भजन।
कबीर ने कहा है: चलूं-फिरूं सो परिक्रमा! वह हो गई परिक्रमा। खाऊं-पीऊं सो सेवा! वह जो मैं खा-पी लेता हूं वह भी उसी को लगाया हुआ भोग है। अब और कहां जाना है? भजन एक सहज स्वाभाविक जीवन है जिसमें परमात्मा की याद थिरकती है। बस, याद थिरकती रहे। फिर तुम क्या करते हो इससे बहुत भेद नहीं पड़ता। उस करने में परमात्मा की ज्योति भीतर जलती रहे।
प्रत्येक कृत्य भजन हो सकता है, भाव की बात है।
आज इतना ही।