DHARAMDAS

Jas Panihar Dhare Sir Gagar 04

Fourth Discourse from the series of 11 discourses - Jas Panihar Dhare Sir Gagar by Osho. These discourses were given during JAN 30 - FEB 10 1978.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


पहला प्रश्न:
भगवान, आपने अनेक बार समझाया है कि परमात्मा के द्वार पर दीन-हीन, भिखारी की तरह नहीं, वरन सम्राट की तरह जाना चाहिए तो ही प्रवेश मिलता है। परमात्मा से मिलना हो तो कुछ-कुछ उस जैसा होना जरूरी है। क्योंकि समान ही समान से मिलता है। फिर आपने यह भी कहा है कि जब तक कोई सर्वहारा होकर, भिखारी की तरह सदगुरु के पास नहीं जाता, तब तक मिलन संभव नहीं है। इन दो विरोधी दिखने वाली स्थितियों का अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें।
परमात्मा के समक्ष जो भिखारी की तरह जाता है, वही सम्राट की तरह गया। जो सर्वहारा होकर गया, वही विजेता होकर गया। इन दोनों बातों में विरोध नहीं है।
परमात्मा के पास सम्राट की तरह जाएगा ही कौन? जिसकी कोई मांग नहीं है। मांग ही इस जगत में भिखारी बनाती है। मांग के कारण ही हम भिखमंगे हैं। परमात्मा के पास वही जाता है जिसकी संसार की सारी मांगें समाप्त हो गईं। जिसको यहां मांगने को कुछ नहीं बचा। जिसने मांग कर भी देख लिया और दुख पाया। पाकर भी देख लिया और दुख पाया। नहीं मिला तो पीड़ा हुई, मिला तो पीड़ा हुई। जिसने जीवन के सब रंग-ढंग देख लिए, जो जीवन से भलीभांति परिचित हो गया, जिसकी मांग खो गई। मांग भिखारी बनाती है। मांग खो गई तो वह सम्राट हो गया।
लेकिन जिसकी मांग खो गई, जिसके पास कुछ मांगने को न बचा, स्वभावतः वह परमात्मा से भी कुछ नहीं मांगेगा। मांग ही संसार की होती है। तुम जो भी मांगते हो वही संसार का है। तुम जरा अपनी मांगों का निरीक्षण करना। जिन मांगों को तुम धार्मिक कहते हो, वे भी धार्मिक नहीं हैं। मांग धार्मिक होती ही नहीं। मांग ही संसार है। इसलिए मांग पारलौकिक नहीं होती। तुम जब मोक्ष भी मांगते हो, तब भी तुम सुख ही मांग रहे हो; नाम बदल लिया। जब तुम स्वर्ग मांगते हो, तब भी तुम सफलता ही मांग रहे हो, नाम बदल दिया। तब तुम इंद्रियों की तृप्ति ही मांग रहे हो।
तुम्हारा स्वर्ग भी तो कल्पवृक्षों से भरा है। वहां सुंदर अप्सराएं हैं, और शराब के चश्मे हैं। तुम्हारा स्वर्ग भी तो तुम्हारी ही मांगों का प्रतिफलन है, तुम्हारे ही मन का बिंब है। तुम अगर रोशनी मांगते हो, तुम अगर अमरत्व मांगते हो, तो भी तुम मांग ही रहे हो। और मांग कैसे अमृत तक ले जाएगी? इसलिए सारी मांगें छूट जाएं तो तुम भिखमंगे नहीं रहे, सम्राट हुए। इस अर्थ में मैंने कहा है कि परमात्मा के सामने सम्राट की तरह जाना, कुछ मांगते हुए मत जाना।
और मैंने यह भी कहा है कि परमात्मा के सामने भिखारी की तरह जाना; अर्थात शून्य होकर जाना। भिक्षा के पात्र! मांग कुछ भी नहीं। सिर्फ एक शून्य! झोली फैली हो। झोली किस चीज से भरी जाए इसकी कोई आकांक्षा नहीं। झोली भरी जाए इसकी भी आकांक्षा नहीं, लेकिन झोली फैली हो। तुम्हारा हृदय खाली हो। तुम्हारे हृदय में मैं की अकड़ न हो। इस अर्थ में मैंने कहा है, भिखारी होकर जाना। मैं की अकड़ न हो, मैं न हो, मैं भाव न हो। इन दोनों बातों में विरोध नहीं है, ये दोनों बातें एक साथ घटती हैं। जिसकी मांग गई उसका मैं भाव भी गया।
इस संसार में हम मांगते इसीलिए हैं ताकि मैं को सिद्ध कर दें। मेरे पास धन होगा तो मेरा मैं बड़ा होगा। मेरे पास पद होगा तो मेरा मैं बड़ा होगा। ये सारी चेष्टाएं मैं को बड़ा करने की चेष्टाएं हैं। जिसने मांग छोड़ी, जिसने मेरा छोड़ा, उसका मैं भी गया। मैं मेरे के भोजन पर जीता है। मेरे का जितना विस्तार हो उतना ही मजबूत मैं हो जाता है। छोटे मकान वाले का छोटा मैं होता है, बड़े मकान वाले का बड़ा मैं होता है। छोटी संपत्ति में छोटा मैं, बड़ी संपत्ति में बड़ा मैं। तुम्हारे पास जितना होगा परिग्रह, उतनी ही मैं की अकड़ होगी। इसलिए तो जब परिग्रह छूटता है या छोड़ना पड़ता है तो ऐसे लगता है जैसे मेरी मृत्यु हुई, जैसे मैं मरा।
दिवाला निकल जाता है किसी का, वह आत्महत्या कर लेता है; जी नहीं सकता अब। क्यों? धन ही उसका मैं था। अब धन ही न रहा तो अब दीन-हीन होकर सड़कों पर से गुजरना शोभा नहीं देता। इससे बेहतर मर ही जाओ। जैसे ही मांग गई, परिग्रह गया, वासना गई, वैसे ही भीतर से मैं भी चला जाता है।
तो एक बड़ी अपूर्व घटना घटती है। एक तरफ से व्यक्ति भिखारी हो जाता है क्योंकि मैं नहीं बचा। शून्य हो गया भिक्षापात्र। और एक तरफ से सम्राट हो जाता है क्योंकि मांग नहीं बची। इसलिए तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को सम्राट भी कहा और भिक्षु भी कहा। दो ही नाम उपयोग किए गए हैं संन्यासी के लिए--एक भिक्षु और एक स्वामी। यह इन दोनों बातों की वजह से। जिन्होंने इस परम दशा के सम्राट होने पर जोर दिया उन्होंने अपने संन्यासियों को स्वामी कहा। जिन्होंने इस परम दशा की शून्यता पर जोर दिया, निर-अहंकारिता पर जोर दिया, उन्होंने भिक्षु कहा। मगर ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो स्वामी है वह भिक्षु है। जो भिक्षु है वही स्वामी है। उसके दरवाजे पर हार जाना जीत जाना है। जीत और हार वहां भिन्न नहीं है। वहां वही जीतता है जो हारता है।
इसलिए इन दोनों बातों में कहीं कोई विरोध नहीं है। दोनों बातें एक साथ साधना। समझो फर्क। अगर दो में से एक साधी तो चूक जाओगे। अगर तुमने कहा कि ठीक है, सम्राट होकर जाएंगे और अकड़ कर गए, अहंकार से भरे गए तो तुम उसके प्रसाद को न पा सकोगे। तुम्हारे भीतर जगह ही न होगी प्रसाद को लेने की। तुम्हारे द्वार ही बंद होंगे। परमात्मा द्वार से प्रवेश भी करना चाहेगा तो न कर पाएगा। स्थान न होगा, अवकाश न होगा, तुम्हारे भीतर आकाश न होगा। अहंकार हो तो कहां आकाश! जगह कहां? प्रवेश का उपाय कहां? परमात्मा चाहेगा तो भी तुम्हारे भीतर आ न सकेगा। सम्राट से तुम यह मतलब मत ले लेना कि बड़े अकड़ कर जाना, बैंड-बाजे के साथ जाना, हाथी-घोड़ों पर सवार होकर जाना, दुदुंभी बजाते हुए जाना, नगाड़े पीटते हुए जाना। सम्राट होने का यह मतलब नहीं है।
सम्राट होने का इतना ही अर्थ है, वहां वासनाएं लेकर मत जाना। निर्वासना से भरे हुए जाना। और साथ ही भिखारी भी रहना। मैं समझता हूं कि तुम्हें विरोधाभास क्यों दिखता है। क्योंकि सम्राट और भिखारी का शब्दकोश में विपरीत अर्थ है। शब्दकोश में होगा। परमात्मा के सामने सब शब्दकोश व्यर्थ हो जाते हैं। वहां तर्क की सामान्य व्यवस्थाएं नहीं चलतीं। और शब्दों की सामान्य परिभाषाएं काम में नहीं आतीं। वहां नये अर्थ, नई अभिव्यंजनाओं को पकड़ना होता है। वहां शब्दों के पार उठना होता है।
तो तुम भिखारी की तरह जाना--खाली, रिक्त पात्र, भिक्षा-पात्र। कि वह भरना चाहे तो तुम्हारे भीतर जरा भी अड़चन न हो। पूरा का पूरा भरना चाहे तो तुम पूरे के पूरे भरने को राजी रहो। ऐसे जाना जैसे खाई-खड्ड होता है। ऐसे नहीं जैसे पहाड़ होता है। वर्षा तो होती है, पहाड़ पर भी होती है, खाई-खड्ड में भी होती है। पहाड़ वंचित रह जाता है। वर्षा तो होती है लेकिन पहाड़ भरता नहीं। खाई-खड्ड भरते हैं। क्योंकि खाली थे इसलिए भरते हैं। जो खाली है वह भरेगा।
तो जो खाली जाएगा वही परमात्मा से जुड़ेगा। भिखारी की तरह जाना और सम्राट की तरह भी। इन दोनों बातों की अर्थवत्ता को खूब खयाल में ले लेना। और ये दोनों बातें एक साथ सध जाएं तो तुम्हारे जीवन का परम धन्यता का क्षण आ गया। न तो अहंकार हो और न वासना हो।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, ध्यान में थोड़ी झलकें मिली हैं। तबसे एक ही विचार रह-रह कर मन में उठता है कि प्रभु मिलन न हो तो मैं अब जीना भी नहीं चाहता हूं। मेरा प्रभु से मिलन करवा दें या जीवन से छुटकारा।
ध्यान में झलक मिलती है तो जीवन में क्रांतिकारी अंतर पड़ने शुरू होते हैं। क्योंकि जीवन के आधार बदल जाते हैं। अब तक तो पता ही न था कि ये झरोखे भी हैं। ऐसी हवाएं भी बहती हैं। ऐसी रोशनी भी उतरती है, ऐसे दीये भी जलते हैं। अब तक तो पता नहीं था, ऐसा संगीत भी है।
जब तक पता नहीं था तब तक एक बात थी; जिंदगी का एक ढंग, एक दौर था, एक शैली थी। जब किसी नये अनुभव का पता चलता है तो जिंदगी की शैली को फिर से व्यवस्थित करना होता है। सब अस्त व्यस्त हो जाता है। जीवन के भवन को फिर से रखना पड़ता है, फिर से निर्माण करना होता है। इस नये को जगह देनी होती है।
तो ध्यान की झलकें जीवन में निश्चित ही अस्त व्यस्तता लाती हैं। कल तक जो सार्थक मालूम होता था, अब सार्थक नहीं मालूम होता। और कल तक जिसके संबंध में सपना भी नहीं देखा था, वही आज प्राणों को पकड़ लेता है। उसी की पुकार, उसी की प्यास उठने लगती है।
तुझसे मिले न थे तो कोई आरजू न थी
देखा तुझे तो तेरे तलबगार हो गए
जिसका हमें अनुभव नहीं हुआ है उसकी आरजू भी नहीं होती। जिसने कभी मिठाई नहीं चखी है उसे मिठाई की आकांक्षा भी नहीं होती है। और जो कभी महलों में नहीं सोया है और महल नहीं देखे हैं उसे महलों का सवाल भी नहीं उठता। जो अनुभव में आ जाता है उसकी आकांक्षा जगती है।
और ध्यान अपूर्व अनुभव है। उसकी एक किरण भी ऐसी संपदा है कि इस जगत की सारी संपदाएं फीकी पड़ जाती हैं। लेकिन सम्हल कर, बहुत होश सम्हाल कर चलना। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी वासना ध्यान पर इतने जोर से पकड़ जाए कि ध्यान को नष्ट कर दे। इस नियम को खयाल में लेना--ध्यान फलता तभी है जब वासना नहीं होती। ध्यान की वासना भी ध्यान में बाधा बन जाती है।
इसलिए यह यहां रोज का अनुभव है। यहां जो लोग आते हैं, नये-नये आते हैं, ध्यान में उतरते हैं, तो पहली बार अनुभव बड़ी आसानी से हो जाता है। बस फिर अड़चन शुरू होती है। पहली झलक तो मिल जाती है। क्योंकि पहली झलक के पहले तो कोई वासना नहीं होती। प्रयोगात्मक होता है कि देखें क्या होगा। करके देखें, क्या होगा। उतरें ध्यान में, नाचें, गाएं, कीर्तन करें, नाम स्मरण करें, कि शांत बैठें, कि मौन में उतरें। देखें क्या होता है। कुछ अनुभव तो नहीं है इसलिए वासना नहीं होती।
तो पहला अनुभव सुगमता से हो जाता है। और दूसरे अनुभव में बड़ी झंझट होती है। क्योंकि पहले अनुभव के बाद वासना जग जाती है। फिर वासना कहती है, अब बार-बार हो। अब ऐसा ही फिर हो, अब ऐसा रोज-रोज हो। जब ध्यान को बैठूं तभी हो। और इतना ही न हो, और आगे, और आगे हो। बस, वासना का जाल फैला।
वही वासना जो बाजार में भटकाती थी, वही ध्यान में भी भटका देगी। वही वासना जो धन के पीछे दौड़ाती थी, वही ध्यान के पीछे दौड़ा देगी। वासना का रूप क्या है, रंग क्या है? वासना का रूप और रंग है--और! जो हुआ है यह और हो, फिर-फिर हो, ज्यादा हो। सौ रुपये हैं तो हजार हो जाएं। हजार हैं तो लाख हो जाएं। इतनी प्रतिष्ठा है तो उतनी हो जाए। इतनी ध्यान की झलक मिली तो अब और होनी चाहिए। अब इतने से चित्त राजी नहीं होता। अब तो परमात्मा मिलना चाहिए। नहीं मिलेगा तो हम जीवन ही गंवा देने को राजी हैं। तब तुम विक्षिप्त हुए, तब ध्यान के करीब आते-आते चूक गए।
और अक्सर ऐसा हो जाता है कि पहले अनुभव के बाद अनुभव इतना कठिन हो जाता है.। यह रोज का अवलोकन है। और जिसको अनुभव एक दफे हुआ है उसकी बेचैनी भी मैं समझता हूं। क्योंकि वह कहता है, अब क्यों नहीं होता है? और मैं उसे लाख समझाता हूं कि अब इसीलिए नहीं होता है कि अब तू मांग कर रहा है, और पहली दफे जब हुआ था तो कोई मांग न थी। अब मांग का नया तत्व तूने जोड़ दिया जो कि बाधा बन रहा है। कभी चार महीने, कभी छह महीने, कभी साल लग जाते हैं, जब दुबारा अनुभव आता है।
दुबारा अनुभव तभी आता है, जब पहला अनुभव भूल चुका होता है। दुबारा अनुभव तभी आता है, जब पहले अनुभव की सतत आकांक्षा कर-कर के आदमी थक जाता है और सोचता है, जाने भी दो! सोचने लगता है शायद कल्पना ही रही होगी। क्योंकि अब क्यों नहीं होता है? शायद किसी सम्मोहन में आ गया था। शायद परिस्थिति, वातावरण ऐसा था। और लोग नाचते थे, मग्न होते थे, मैं भी उनके रौ में बह गया। मैं भी उस धारा में बह गया था। अब नहीं होता है। वह सच बात नहीं थी, जो हुई थी। तब उसकी आकांक्षा फिर गिर गई। और अगर आकांक्षा गिर जाने के बाद प्रयास जारी रहा तो फिर से होगा।
दुबारा हो जाने के बाद तीसरी बार आसान होता है। क्योंकि तब तुम्हें यह भी समझ में आ जाता है कि मेरी आकांक्षा बाधा बनती है। इसलिए आकांक्षा न करूं। ध्यान तो करूं, आकांक्षा न करूं। ध्यान तो करूं, मांग न करूं। ध्यान में तो जाऊं और प्रतीक्षा करूं, आकांक्षा नहीं। राह देखूं, मांग नहीं। दावेदार न बनूं। यह न कहूं कि आज होना ही चाहिए।
अब तुम्हारी अड़चन वही हो रही है।
तुम कहते हो: ‘ध्यान में झलक मिली, तबसे एक ही विचार रह-रह कर मन में उठता है कि प्रभु मिलन न हो तो अब मैं जीना भी नहीं चाहता।’
अब तुमने प्रभु मिलन को अपने अहंकार की यात्रा बना लिया। अब प्रभु मिलन जो है, वह वैसे ही तुम्हारे अहंकार को पुष्ट करने वाली बात बन रही है, जैसे कोई कहता है जब तक मैं प्रधानमंत्री न हो जाऊं, मैं जीऊं ही न; कि मैं राष्ट्रपति न हो जाऊं तो मेरे जीने में कोई सार नहीं है। मैं तो सारी दुनिया को जीतूंगा तो ही जीऊंगा। मैं तो इस स्त्री को पा लूंगा, तो जीऊंगा। मैं तो यह मकान खरीद लूंगा तो जीऊंगा। नहीं तो जीने में क्या रखा है? तुमने जीने पर शर्त लगा दी।
जीने पर जिसने शर्त लगाई, वही अधार्मिक है। और जो जीवन पर बिना शर्त जीता है, वही धार्मिक है। जो कहता है, जीवन उसकी भेंट है, मेरे हाथ में क्या है? जीना न जीना.कल सुना नहीं, धनी धरमदास ने क्या कहा? डोरा उसके हाथ! हम तो कागज की पुतलियां हैं। डोरा उसके हाथ है। तुम ऐसा कहो ही क्यों कि मैं जीऊंगा नहीं? यह तो फिर मैं की ही घोषणा हुई। यह तो तुम शिकायत करने लगे। यह तो अहंकार ने फिर नई उदघोषणा की।
और ध्यान रखना, अहंकार बहुत चालाक है, बहुत सूक्ष्म है। नये-नये रास्ते खोज लेता है अपनी घोषणा के। एक रास्ता तुम बंद करते हो, वह दूसरा रास्ता खोज लेता है। अब उसने एक नया लक्ष्य बनाया कि परमात्मा को पाकर रहूंगा मैं। मैं जैसा विशिष्ट आदमी, जिसको ध्यान की झलकें भी मिली हैं, परमात्मा को नहीं पाएगा तो कौन पाएगा? और मजा यह है कि यह बात अच्छी भी लगेगी। और तुम इसे किसी से कहोगे तो वह भी कहेगा कि बड़ी धार्मिक बात पैदा हुई है।
लेकिन मैं तुम्हें सावधान करूं, मैं का कोई दावा धार्मिक नहीं होता। फिर वह ध्यान का ही दावा क्यों न हो, समाधि का ही दावा क्यों न हो! इसलिए तो उपनिषद कहते हैं कि जो कहे, मैंने जान लिया है, उससे सावधान रहना; उसने अभी जाना न होगा। जो कहे, मैं नहीं जानता हूं, उसके पास बैठना। शायद उसे पता हो। क्यों? क्योंकि जहां दावा है वहां अहंकार पीछे खड़ा मजा ले रहा है। मैं तुमसे कहूंगा:
लोग जिस हाल में मरने की दुआ करते हैं
मैंने उस हाल में जीने की कसम खाई है
तुम कहो कि परमात्मा जैसे रखेगा, जिस हाल में रखेगा, वैसे ही रहूंगा। मैं कौन हूं जो निर्णय करे? मैं कौन हूं जो कहे, ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए। जब मेरी पात्रता होगी, वह उतरेगा। और जब तक मेरी पात्रता नहीं है तब तक मेरे चीखने-चिल्लाने से कुछ भी न होगा। इतनी बात सदा खयाल रखो, इसी का नाम श्रद्धा है--कि जब मैं पात्र होऊंगा, तो क्षण भर भी चूक नहीं होगी।
श्रद्धा का और क्या अर्थ है? श्रद्धा का इतना ही अर्थ है कि जीवन सदा ही न्याय संगत है। जो जिस चीज को पाने के योग्य होता है वह उसे मिलती ही है। नहीं मिलती तो उसका एक ही अर्थ होता है कि अभी मेरी पात्रता नहीं। पात्रता होते ही मिलती है, तत्क्षण मिलती है।
श्रद्धा का यही अर्थ है कि मुझे जीवन पर भरोसा है। कि जब मौसम आ जाएगा तो बीज टूटेगा, अंकुरित होगा। जब वसंत आएगा तो फूल खिलेंगे, हवाएं सुवासित होंगी। जब रात बीत जाएगी तो सूरज निकलेगा। जो जब होना है तब होगा। और तभी होना चाहिए। हर चीज पकने में समय लेती है। और कोई चीज कच्ची घट जाए तो महंगी पड़ती है।
जैसे कोई पांच वर्ष का बच्चा यौन-दृष्टि से जवान हो जाए तो अड़चन में पड़ जाएगा। जैसे कोई नब्बे साल का बूढ़ा कामवासना की दृष्टि से जवान रह जाए तो अड़चन में पड़ जाएगा। सब चीजें अपने समय पर। सब चीजें अपने मौसम में, अपनी ऋतु में।
ऋतु का यह भरोसा ही धर्म का भरोसा है। जगत एक अपूर्व नियम से चल रहा है। वहां अन्याय नहीं है। तुमने कहावत सुनी न! कहते हैं देर हो, अंधेर नहीं है। देर भी नहीं है। हमें देर लगती है क्योंकि हमें बड़ी जल्दी पड़ी है। देर भी नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे आम के गुही को जमीन में गड़ा आते हैं। सांझ गड़ा देते हैं, सुबह उखाड़ कर देखते हैं कि अभी तक आम नहीं हुआ? अब तक वृक्ष पैदा नहीं हुआ? अब तक फल नहीं लगे? कहीं पत्ते भी नहीं दिखाई पड़ते, हो क्या रहा है? जमीन में गड़ी गुही को फिर निकाल कर देख लेते हैं, अभी तक कुछ नहीं हुआ; फिर गड़ा देते हैं। ऐसा अगर रोज-रोज उखाड़ कर देखा तो वृक्ष कभी पैदा नहीं होगा। वृक्ष को पैदा होने का मौका ही नहीं मिलेगा।
जरूरत है, भरोसा करो। बीज को जमीन में डाल दिया है, अब प्रतीक्षा करो। ठीक समय पर, ठीक मुहूर्त में अचानक एक दिन जमीन को तोड़ कर अंकुर आ जाएगा। तुम पानी दो, प्रतीक्षा करो। ऐसे आग्रह मत करो कि मैं अब जीना भी नहीं चाहता हूं।
कहते हो: ‘मेरा प्रभु से मिलन करवा दें या जीवन से छुटकारा।’
मैं से छुटकारा करवाता हूं मैं। जीवन से तो छुटकारा कभी होता ही नहीं। यहां रहोगे, कहीं और रहोगे, रहोगे जरूर। मृत्यु तो एक झूठी बात है, एक भ्रम है। मृत्यु न कभी घटी है और न कभी घटती है। मृत्यु घट ही नहीं सकती है। यह सारा अस्तित्व अमृत से भरा है। अमृतरस-घट है यह अस्तित्व। रसो वै सः। वही बह रहा है। इसमें मृत्यु कहां?
जिसको तुम मृत्यु कहते हो वह बहुत से बहुत रूप का परिवर्तन है, देह का बदल लेना है। जैसे कोई आदमी घर बदल लेता है। एक पड़ोस से घर बदल लिया, दूसरे पड़ोस में चले गए। इस पड़ोस के लोग सोचते हैं, शायद सज्जन मर गए। वे कहीं मरते-धरते नहीं, वे किसी दूसरी जगह रहने लगे। यात्रा चलती जाती है, देहें बदलती हैं, वस्त्र बदलते हैं।
इसलिए कृष्ण ने कहा है, जैसे जीर्ण वस्त्र बदल जाते हैं, बस ऐसे ही अर्जुन, मृत्यु नहीं है, जीर्ण वस्त्रों का गिर जाना है। और फिर नये वस्त्रों की शुरुआत है। इधर मरे नहीं कि उधर जन्मे नहीं। तुम जब तक मरघट ले जाते हो किसी को, तब तक तो वह पैदा भी हो चुका। तुम्हें जितनी देर मरघट पहुंचने में लगती है.और हो सकता है वहां क्यू लगी हो, बड़ी बस्तियों में क्यू लगी होती है। तुम्हें जब तक मुर्दे को जलाने का मौका आए, तब तक जिन सज्जन को तुम विदा करने गए हो, वह पुनः जीवित हो उठे। उन्होंने कोई गर्भ धारण कर लिया। उन्होंने फिर श्वासें लेनी शुरू कर दीं। उन्होंने नये घर में वास कर लिया है। वे किसी और पड़ोस में बस गए, किसी और रंग में, किसी और ढंग में।
जीवन का कोई अंत नहीं है। यही थोड़े ही जीवन है, जो तुम आज जी रहे हो! कल जो तुम जीते थे वह भी जीवन था। जन्म के पहले तुम जीते थे वह भी जीवन था। मृत्यु के बाद तुम जीओगे वह भी जीवन होगा। और ध्यान रखना, जो मुक्त हो गए हैं, जिनको हम जीवन मुक्त कहते हैं, वे भी वस्तुतः जीवन से मुक्त नहीं हो गए हैं, इस तथाकथित जीवन से मुक्त हो गए हैं। बुद्ध अब भी हैं, महावीर अब भी हैं। अब रूप में नहीं हैं, अब रंग में नहीं हैं, अब आकार में नहीं हैं, अब निराकार में हैं। अब विश्वसत्ता के साथ एक हो गए हैं। अब उन्होंने अपना भेद छोड़ दिया है। मिट्टी का घड़ा गल गया है और जल जल से मिल गया है।
जीवन से छुटकारा नहीं है।
तुम जीवन हो; छुटकारा कैसे होगा? सिर्फ एक छुटकारा हो सकता है--खयाल रखना, इसे बहुत खयाल में ले लेना, सिर्फ उसी से छुटकारा हो सकता है जो तुम वस्तुतः नहीं हो। झूठ से छुटकारा हो सकता है; सत्य से कोई छुटकारा नहीं हो सकता। इसीलिए तो उसे सत्य कहते हैं जिससे छुटकारा न हो सके, जो शाश्वत हो। उसे झूठ कहते हैं, जो क्षणभंगुर हो। अभी है, अभी नहीं हो जाए। जिससे छुटकारा हो सकता हो, वही झूठ है।
इस जगत में दो झूठ हैं, और दोनों जुड़े हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उन्हें तुम समझ लो। इस जगत के दो झूठ हैं बड़े। एक झूठ है अहंकार--कि मैं हूं; और दूसरा झूठ है मृत्यु। और दोनों संयुक्त हैं। इस मैं के कारण ही मृत्यु का भाव पैदा होता है। यह मैं झूठ है इसलिए एक दिन इसे मरना पड़ता है। इसलिए मैं घबड़ाया रहता है कि मर न जाऊं। मैं सदा कंपा रहता है कि मृत्यु आती है। आती ही होगी। मैं को कभी भरोसा नहीं आता कि मैं जीवित हूं। मैं इतना बड़ा झूठ है!
मैं का अर्थ होता है, मैं इस विराट अस्तित्व से अलग-थलग हूं। एक क्षण को भी अलग-थलग नहीं हो। श्वास ले रहे हो और देखते नहीं कि अस्तित्व तुम्हारे भीतर जाता है, बाहर जाता है। एक क्षण को अलग नहीं हो। और एक क्षण को अलग होकर देखो और तुम पाओगे कितनी चिंता पैदा हो जाती है।
एक युवक मेरे पास आया, उसने पूछा कि मुझे बड़ी चिंता रहती है। मैं क्या करूं? मैंने उससे कहा कि पहले तू यह सोच, कि तू क्या करता है जिसके कारण चिंता रहती है। कुछ कर रहा होगा। क्योंकि वृक्षों को कोई चिंता नहीं है, पौधों को कोई चिंता नहीं है, पक्षियों को कोई चिंता नहीं है, तुझे चिंता है? तू एक छोटा सा काम कर। मैंने उससे कहा कि तू श्वास को, भीतर है उसको भीतर ही रोक ले। उसने कहा: फिर क्या होगा? मैंने कहा: फिर तू आंख बंद करके भीतर देख कि क्या होता है।
मिनट भी बीतना मुश्किल हो गया। उसने एकदम आंख खोल दी--उसने कहा कि बहुत घबड़ाहट होती है। श्वास को रोकोगे तो घबड़ाहट तो होगी ही। तो मैंने कहा, अब तू श्वास को बाहर रोक दे। भीतर देख लिया, घबड़ाहट होती है, अब बाहर रोक दे। उसने कहा: उससे क्या होगा? मैंने कहा: तू भीतर आंख बंद करके देख। उसने श्वास को बाहर रोक दिया, मिनट भी मुश्किल हो गया, पसीना-पसीना हो गया। आंख खोल दी, कहा कि आप मुझे मार डालेंगे। बड़ी घबड़ाहट पैदा होती है।
तो मैंने कहा तूने देखा, चिंता पैदा करने का उपाय क्या है? अस्तित्व से अपने को तोड़ लो और चिंता पैदा हो जाती है। तूने श्वास भीतर रख ली, टूट गया; बाहर रख दी, टूट गया। दोनों के बीच का सेतु टूट गया। चिंता पैदा हो गई। अब तू अपनी चिंताओं को गौर से देख। जहां-जहां तूने अस्तित्व से अपने को तोड़ लिया होगा, वहीं-वहीं चिंता पैदा होती है। इसलिए तो हम धार्मिक व्यक्ति को निश्चिंत पाते हैं। अगर न पाओ निश्चिंत तो वह धार्मिक नहीं है। कहा न मलूकदास ने--
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
अब मलूक को चिंता नहीं हो सकती। क्या चिंता? सबके दाता राम! डोरा उसके हाथ! अब क्या चिंता है? सब भांति अपने को जोड़ दिया। जिलाए तो जीएंगे, मारे तो मरेंगे। चलाए तो चलेंगे, बिठाए तो बैठेंगे। उठाए तो उठेंगे। अपने को बीच से हटा ही लिया।
अब तुम इसे एक और तरह से भी देखो। हर बच्चे के जीवन में एक वक्त आता है। कोई तीन-चार साल, पांच साल की उम्र में, जब बच्चा अचानक आज्ञा का खंडन करना शुरू करता है। और हर बात में नहीं कहने लगता है। तुमने खयाल किया? हर बच्चे की जिंदगी में वह घड़ी आती है। जब वह हां कहना कम कर देता है और न कहना ज्यादा कर देता है। न कहने में रस लेने लगता है। तुम कहो यह काम मत करना तो वह जरूर करेगा। तुम कहो कि उधर मत जाना तो वह जरूर जाएगा। यही तो ईसाइयों की मूल कथा है आदमी के पतन की। कि ईश्वर ने कहा था, ज्ञान के वृक्ष के फल को मत खाना अदम, और अदम ने खाया। यह घटना हर एक के जीवन में घटती है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह बच्चे के अहंकार की शुरुआत है। जिस दिन बच्चा कहता है नहीं, उस दिन बच्चे का अहंकार जन्मा। यह थोड़ा सोचने जैसा मामला है।
अहंकार नहीं के साथ जन्मता है। अहंकार का स्वर नकार का है। इसलिए जितना अहंकारी आदमी हो, उतना नास्तिक होता है। वह आखिरी नकार है--कि ईश्वर नहीं है; उससे बड़ा कोई नकार नहीं है। इसलिए जो सदी बहुत अहंकारी होती है वह उतनी ही नास्तिक हो जाती है।
अगर अहंकार नहीं के साथ पैदा होता है तो फिर अहंकार के विसर्जन का क्या उपाय है? हां। हां का जन्म--वही आस्तिकता है। आस्तिक का अर्थ यह है, वह कहता है, हां। जैसी मर्जी! प्रभु जैसा रखें, रहेंगे। हर हाल में हां कहेंगे। नहीं निकलेगा ही नहीं। यह जो हां का जन्म है, यही आस्तिकता है। इसका परम रूप है कि ईश्वर है। ईश्वर ही है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। मैं नहीं हूं, ईश्वर है, यह आस्तिकता; मैं हूं, ईश्वर नहीं है, यह नास्तिकता।
नास्तिक अति चिंतित हो जाता है। इसलिए जो देश जितना नास्तिक होता है उतने ही मानसिक रोगों से ग्रस्त होता है। जो देश जितना आस्तिक होता है, उतने ही मानसिक रोगों से मुक्त होता है। और कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जिनको बहुत मानसिक रोग होने चाहिए--भूखे हैं, गरीब हैं, दीन हैं, बीमार हैं, वे मानसिक रूप से बीमार नहीं दिखाई पड़ते। मानसिक रूप से स्वस्थ मालूम होते हैं। और जिनके पास धन है, पद है, प्रतिष्ठा है, सब साधन हैं, सुविधाएं हैं, वे एकदम मानसिक रूप से रुग्ण मालूम पड़ते हैं। मामला क्या है? असल में धन, पद-प्रतिष्ठा पाने वाला आदमी अहंकारी होता है। अहंकारी होता है तभी तो धन, पद-प्रतिष्ठा की दौड़ में दौड़ता है। फिर अहंकार की छायाएं हैं मानसिक रोग।
अगर पश्चिम मानसिक रोगों से बहुत ग्रस्त है तो अकारण नहीं। पश्चिम ने न कह दिया है परमात्मा को। नीत्शे का वचन है: गॉड इज़ डेड एण्ड मैन इज़ फ्री। आदमी ने घोषणा कर दी कि ईश्वर मर चुका है, और मनुष्य स्वतंत्र है। अब मनुष्य की स्वतंत्रता उसे पागल बनाए दे रही है, विक्षिप्त किए दे रही है। इस देश के मनीषियों की क्या घोषणा है? उनकी घोषणा ठीक उलटी है: वे कहते हैं, मैं मर गया, तू है। नीत्शे कहता है, मैं हूं, तू मर गया।
मैं को इस विराट के समक्ष खड़ा करना चिंता लेना है। जीवन तो तुम्हारा उसके साथ है, उसमें है। उसकी ही श्वास तुममें आती-जाती है। वही तुममें प्राणों को डालता है। वही फूंकता है। तुम उसकी ही भाव-भंगिमा हो। उसका ही एक ढंग हो।
इसलिए यह तो पूछो ही मत कि जीवन से छुटकारा हो जाए; मैं से छुटकारा हो जाए यह पूछो। तुम उलटी बात पूछ रहे हो। तुम मैं को तो बचाना चाहते हो और जीवन से छुटकारा चाहते हो। जीवन को बचाओ, जीवन बचेगा। जीवन ही बचता है। मैं को जाने दो, पिघलो! याद करो उसकी। पुकारो उसे। प्रार्थना करो उसकी।
यह बता दे कि तुझे दिल से भुलाऊं कैसे
तेरी यादों के चिरागों को बुझाऊं कैसे
आना तेरा मुहाल है, यह तो मुझे खयाल है
दर पे जमी हुई है यह अपनी नजर को क्या करूं
आना तेरा मुहाल है, यह तो मुझे खयाल है
दर पे जमी हुई है यह अपनी नजर को क्या करूं
परमात्मा की प्रार्थना में डूबो। प्रतीक्षा करो, द्वार पर नजर को अटकाओ। जानते हुए कि आना तेरा मुहाल है, यह तो मुझे खयाल है! आना तेरा मुश्किल है। मेरी पात्रता कहां?
दर पे जमी हुई है यह अपनी नजर को क्या करूं
लेकिन फिर भी नजर तो लगाए हूं। नजर लगाए रखूंगा। कभी तो पात्रता होगी, कभी तो कृपा होगी, कभी करुणा होगी, कभी मेरे भाग्य भी खुलेंगे। और आस्था रखो। अब तक नहीं आया है तो भी आस्था रखो, आएगा।
मैं उसके वादे का अब भी यकीन करता हूं
हजार बार जिसे आजमा लिया मैंने
और तुमने बहुत बार पुकारा है और नहीं आना हुआ। लेकिन यही आस्था धीरे-धीरे तुम्हारी रग-रग में समा जाएगी। जब तुम्हारे भीतर जरा भी अनास्था का कोई कण न बचेगा उसी क्षण क्रांति घटती है; उसी क्षण वह उतर आता है। अभी याद करो, फिर जल्दी ही याद इतनी सघन हो जाएगी कि भुलाए भी न भूलेगी।
भूलने की जो मैंने कोशिश की
सांस बन-बन के उनका नाम आया।
फिर तो भूल भी न सकोगे। अभी याद करना कठिन, फिर भूलना कठिन हो जाएगा। ये दो कदम हैं प्रार्थना के: पहले याद करना कठिन, फिर भूलना कठिन। फिर उठो-बैठो, चलो-फिरो, मगर याद बनी ही रहती है। जस पनिहार धरे सिर गागर।
देखा न, पनिहारिन सिर पर गागर रख कर चलती है, हाथ का सहारा भी नहीं देती। सहेलियों से बात भी करती है, राह में कोई मिल जाता है, हंसी-ठिठोली भी कर लेती है, गपशप भी कर लेती है। और सिर पर गागर सम्हली है। और भीतर बोध है गागर का। यह सब चलता है--बातचीत चलती है, गाना-गीत चलता है, सखियों से गुफ्तगू चलती है, हंसी-ठिठोली चलती है, यह सब चलता है। जस पनिहार धरे सिर गागर! लेकिन भीतर मन, सुरति गागर में लगी रहती है। गागर को सम्हाले रखती है। गागर गिर नहीं जाती।
ऐसे ही धीरे-धीरे तुम्हारी प्रार्थना चौबीस घंटे सम्हली रहेगी। बाजार में बैठोगे, दुकान पर बैठोगे, काम करोगे, धंधा करोगे, घर सम्हालोगे--जस पनिहार धरे सिर गागर।
मगर इस तरह की वासना को जन्म ना दो। हालांकि तुम्हारी बात मैं समझता हूं। तुम्हारी पीड़ा समझता हूं, तुम्हारी प्यास समझता हूं। जानता हूं कि जब झलकें मिलनी शुरू होती हैं तो मन में भाव उठता है कि अब पूरा हो जाए। अब पूरा ही हो जाए। अधूरा-अधूरा क्या! यह बूंद-बूंद आती है तो और तरसाती है। इससे तो प्यासे ही भले थे, जब स्वाद नहीं लगा था। अब यह रस की जो बूंद-बूंद आनी शुरू हुई है, इससे और कठिनाई खड़ी होती है। अब लगता है कि रस है। आशा बंधती है। और पूरे सागर को पाने की आकांक्षा जन्मती है। लेकिन उस आकांक्षा को अगर तुमने वासना बना लिया तो वही वासना ध्यान का खंडन हो जाएगी। वे जो झलकें आनी शुरू हुई थीं, वे भी खो जाएंगी। जल्दी ही तुम भूल जाओगे कि वे झलकें आईं थीं। सावधानी बरतो।
ध्यान को किसी भी स्थिति में वासना मत बनाना। ध्यान चाहा नहीं जा सकता। जब कोई चाह नहीं होती तब घटता है। परमात्मा मांगा नहीं जा सकता। जब कोई मांग नहीं होती तब उतरता है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा है कि ध्यान अंतर्यात्रा है। क्या भक्ति भी अंतर्यात्रा है? ध्यान की अंतर्यात्रा और भक्ति की अंतर्यात्रा में क्या आधारभूत भिन्नता है, समझाने की अनुकंपा करें।
ध्यान भी अंतर्यात्रा है, प्रार्थना भी। लेकिन दोनों के यात्रा-पथ भिन्न हैं।
प्रार्थना, प्रेम या भक्ति, पर से होकर आती है। ध्यान सीधा-सीधा स्वयं में जाता है। जो व्यक्ति अपनी आंख बंद कर लेता है और अपने भीतर डुबकी मार लेता है, जिसको परमात्मा को भी बीच में लेने की जरूरत नहीं पड़ती, जो प्रेम-पात्र को बीच में नहीं लेता डुबकी लगाने के लिए, वह ध्यान कर रहा है। जो प्रेम-पात्र को बीच में लेता है--परमात्मा को, उस परम प्रेमी को, उस परम प्यारे को, और उसके द्वारा डुबकी लगाता है, वह भक्ति कर रहा है। डुबकी तो भीतर ही लगती है, लेकिन एक में सहारा है और एक में सहारा नहीं है। एक में आलंबन है, एक में आलंबन नहीं है। भक्ति आलंबन सहित ध्यान है और ध्यान निरालंब भक्ति है।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं, क्योंकि दुनिया में स्त्रियां हैं और पुरुष हैं। स्त्री से मेरा अर्थ है: जिसका हृदय प्रधान है। हृदय सीधी डुबकी नहीं मार सकता। उसे आलंबन की जरूरत है। हृदय को ऐसे ही आलंबन चाहिए, जैसे तुम्हें अपना चेहरा देखना हो तो दर्पण चाहिए। हृदय प्रेम के संबंध को दर्पण बनाता है और अपने को देखता है। हृदय सीधा नहीं जा सकता। वह मार्ग वर्तुलाकार है। वह दूसरे से होकर जाता है। इसलिए रसपूर्ण भी है।
अकेला व्यक्ति नीरस होता है, इसलिए ध्यानी को तुम नीरस पाओगे। ध्यानी को तुम सूखा-सूखा पाओगे। ध्यानी में तुम्हें फूल खिलते नहीं मालूम पड़ेंगे। और न ध्यानी में नाच उठता दिखाई पड़ेगा। इसलिए बुद्ध नहीं नाचते, मीरा नाचती है। इसलिए महावीर नहीं नाचते, चैतन्य नाचते हैं। क्योंकि महावीर ध्यानी हैं, बुद्ध ध्यानी हैं। उन्होंने दूसरे का आलंबन नहीं लिया। बिना दूसरे के आलंबन के रसधार नहीं बहती। ज्ञान की घटना घट जाती है--रूखी-रूखी, सूखी-सूखी, मरुस्थल जैसी।
मरुस्थल का भी अपना सौंदर्य है। जिसको पसंद है उसको पसंद है। तुम कभी मरुस्थल गए? विशाल मरुस्थल, दूर-दूर तक एक रेत ही रेत! सन्नाटा ही सन्नाटा! मरुस्थल में रात का सन्नाटा, अपूर्व सुंदर है। मरुस्थल में आकाश के तारे अपूर्व सुंदर हैं। पर मरुस्थल में न तो फूल लगते, न वृक्ष हरे लगते, न जलधार बहती है।
तुम जान कर यह चकित होओगे कि बहुत से ईसाई फकीरों ने मरुस्थल चुना था ध्यान के लिए। ध्यान के लिए मरुस्थल ही ठीक है। ध्यान और मरुस्थल का मेल है। सूखे पहाड़ ध्यानियों के लिए योग्य मालूम पड़े। तुमने खयाल किया, भारत में जैनों के जितने तीर्थ हैं, वे सब पहाड़ों पर। हिंदुओं के जितने तीर्थ हैं, सब नदियों के किनारे। वह भक्ति और ध्यान का भेद है।
ध्यान पत्थर जैसा है। यह आकस्मिक नहीं है कि जैनों और बौद्धों ने ही सबसे पहले पत्थर की मूर्तियां बनाईं। यह आकस्मिक नहीं है। पत्थर में कुछ गुण हैं, जो ध्यान से मेल खाता है। बुद्ध वस्तुतः जैसे बैठे थे उसमें और बुद्ध की संगमरमर की मूर्ति में ज्यादा फर्क नहीं है। लेकिन मीरा की मूर्ति कैसे बनाओगे? नाच की मूर्ति बनाना मुश्किल है। मीरा की मूर्ति बनानी हो तो किसी फव्वारे में बनानी पड़े, पत्थर में नहीं बन सकती। जलधार में बन सकती है शायद। मीरा की मूर्ति में नृत्य तो होना ही चाहिए। अब पत्थर कैसे नाचेगा? नाचता हुआ भी खड़ा कर दो पत्थर को, तो भी पत्थर नाचता नहीं, पत्थर जड़ है।
बुद्ध के साथ तालमेल है पत्थर का! बुद्ध की इतनी मूर्तियां बनीं कि उर्दू में जो शब्द है बुत, वह बुद्ध का ही रूप है। इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध का मतलब ही मूर्ति हो गया। सारी दुनिया में बुद्ध की सर्वाधिक मूर्तियां हैं। कारीगरों को आसानी पड़ी। बुद्ध की मूर्ति बनाना सबसे सुगम बात थी। क्योंकि बुद्ध का अंतस्तल और मूर्ति में तालमेल था।
मीरा की मूर्ति बनाना मुश्किल। शायद अब बना सकते हैं हम। किसी फव्वारे में या बिजली की कौंध में मूर्ति बन सकती है मीरा की, लेकिन पत्थर में नहीं। पत्थर का तो तालमेल नहीं होगा। पत्थर नाचेगा कैसे? हां, कोई वीणा बजती हो तो स्वर-ताल में शायद मीरा की मौजूदगी अनुभव हो जाए। कोई घूंघर बांध कर नाचता हो तो शायद घूंघर की आवाज में मीरा की मौजूदगी अनुभव हो जाए।
यह प्रेम का मार्ग है। इसमें दूसरा जरूरी है। दो के मिलन से वैविध्य पैदा होता है, रस धार बहती है। पुरुष अकेला बच्चे को जन्म नहीं दे सकता है। स्त्री अकेली बच्चे को जन्म नहीं दे सकती है। बच्चे को जन्म देने के लिए इन दोनों विपरीत का मिलना जरूरी है। हां, पुरुष चाहे तो चित्र बना सकता है, पेंटिंग कर सकता है अकेला, स्त्री चाहे तो मूर्ति बना सकती है अकेली, लेकिन बच्चे को जन्म नहीं दे सकती।
भक्ति के लिए दो का होना जरूरी है। भक्ति दो के बीच घटी एकता है। और ज्ञान एक का अनुभव है। दोनों में अंततः एक बचता है इसलिए दोनों अंततः एक ही जगह ले जाते हैं। मगर ज्ञान शुरू से ही एक को मान कर चलता है। ज्ञान अद्वैतवादी है। भक्ति मौलिक रूप से द्वैत को स्वीकार करती है। भक्ति का हृदय बड़ा है। भक्ति कहती है दो को चलो, मानेंगे; फिर मिला लेंगे। भक्ति को भरोसा है मिलन का। दो के बीच सेतु बन सकता है, इस आस्था का नाम भक्ति है।
इसलिए जैनों में भगवान की कोई जगह नहीं है, परमात्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। बुद्ध को भी परमात्मा में कुछ लेना-देना नहीं है। पतंजलि ने भी परमात्मा को स्वीकार किया है तो न के बराबर। इतना ही कहा है कि यह भी एक उपाय है। परमात्मा कोई अस्तित्व नहीं है, ध्यान और समाधि को पाने का एक उपाय है। बहुत उपायों से समाधि पाई जा सकती है, परमात्मा का मानना भी उन उपायों में एक उपाय है; एक आलंबन, डिवाइस। उसका कोई सत्य नहीं है परमात्मा का।
ऐसे ही एक उपाय है जैसे बच्चे को हम सिखाते हैं, ग गणेश का। इसमें कोई सत्य नहीं है; ‘ग’ गधे का भी है। यह तो सिर्फ उपाय है। बच्चे की किताब होती है तो आ आम का; और आम, बड़ा आम--किताब में रखना पड़ता है। क्योंकि बच्चा अभी आम शब्द को नहीं समझ सकता। लेकिन आम चित्र को समझ सकता है। फिर जब समझ जाएगा तो चित्र किताबों से हट जाएंगे। जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बड़ी होगी वैसे-वैसे किताबों में चित्र छोटे होते जाएंगे। फिर रंगीन नहीं रह जाएंगे। फिर छोटे होते-होते समाप्त हो जाएंगे। विश्वविद्यालय पहुंचते-पहुंचते किताब में चित्र नहीं रह जाएंगे। लेकिन पहले दिन चित्र ही चित्र थे। शब्द तो बहुत थोड़े थे। उपाय था।
पतंजलि कहते हैं, ईश्वर भी एक अवधारणा है, एक उपाय है। इसके माध्यम से भी समाधि पाई जा सकती है। लेकिन इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है। इसके बिना भी पाई जा सकती है। समस्त ज्ञानी निरीश्वरवादी हुए हैं। सांख्य निरीश्वरवादी हैं, जैन निरीश्वरवादी हैं, बौद्ध निरीश्वरवादी हैं। क्यों? क्या ईश्वर नहीं है? नहीं, उनके ईश्वर को जानने का ढंग और है। उनके लिए परमात्मा आत्मा की तरह जाना जाता है। वह दूसरे की तरह नहीं, बाहर नहीं, वहां नहीं, यहां। बाहर तो वे कहते हैं, नेति-नेति। यह भी नहीं, यह भी नहीं। बाहर तो वे इनकार करते चले जाते हैं। जब सब इनकार हो जाता है और सिर्फ भीतर की शुद्ध चेतन अवस्था रह जाती है, उसको वे कहते हैं, यही भगवत्ता है।
इसलिए मजे की बात है, जैन भगवान को नहीं मानते लेकिन महावीर को भगवान कहते हैं। बुद्ध भगवान को नहीं मानते लेकिन बुद्ध को भगवान कहते हैं। आस्तिकों को बड़ी चिंता होती है कि मामला क्या है? जब भगवान है ही नहीं तो फिर बुद्ध भगवान कैसे? बुद्ध फिर भी भगवान हैं। यह भगवान को पाने का ध्यानी का ढंग है। अपने भीतर पाया जाता है। उसकी घोषणा है, अहं ब्रह्मास्मि। मैं ही ब्रह्म हूं। भक्त कहता है, तू ही है, मैं नहीं हूं। ज्ञानी कहता है, मैं ही हूं, तू नहीं है। ये दो रास्ते हैं। मगर दोनों का अंतिम अर्थ तो अंतर्यात्रा ही है।
भक्त भगवान के सहारे अपने तक पहुंचता है। आता अपने तक ही है। ज्ञानी भी अपने तक आता है। लेकिन बीच में कोई सहारा नहीं लेता। बेसहारा आता है। तुम्हारी मर्जी। जैसी तुम्हारी इच्छा हो।
अगर तुम्हारे भीतर पुरुष-चित्त हो तो सहारे की जरूरत नहीं है। लेकिन स्त्री-चित्त बिना सहारे के नहीं चल सकता। कुछ भूल भी नहीं है, कुछ गलती भी नहीं है। वृक्ष बिना सहारे खड़ा हो जाता है, बेलों को सहारे की जरूरत होती है। वह वृक्ष का सहारा लेती है।
और ध्यान रखना, सभी पुरुषों के पास पुरुष-चित्त नहीं होता। और सभी स्त्रियों के पास स्त्री-चित्त नहीं होता। इसलिए विभाजन सिर्फ जैविक नहीं है, बायोलॉजिकल नहीं है। कि हमने देख लिया कि यह स्त्री है तो यह भक्ति के मार्ग से जाएगी और यह पुरुष है तो ज्ञान के मार्ग से जाएगा। इतना सुगम नहीं है मामला। क्योंकि चैतन्य भक्ति के मार्ग से गए और कश्मीर में हुई एक परम ध्यानी--लल्ला, वह ध्यान के मार्ग से गई। लल्ला अकेली स्त्री है दुनिया में जो नग्न होकर रही। महावीर जैसे नग्न रहने वाले तो बहुत पुरुष हुए। लेकिन लल्ला अकेली स्त्री है फकीरों में, जो नग्न होकर रही।
साधारणतः स्त्री अपने को छिपाती है। वह स्त्री का गुण है। वह उसका माधुर्य है, लज्जा है, मर्यादा है। वह अपने को अवगुंठन में छिपाती है। घूंघट आकस्मिक नहीं है, स्त्री का स्वभाव है।
स्त्री से घूंघट छीन लो तो कुछ उसका स्वाभाविक गुण नष्ट हो जाता है। इसलिए पश्चिम की स्त्रियां उतनी स्त्रैण नहीं मालूम होतीं जितनी पूरब की स्त्रियां स्त्रैण मालूम होती हैं। पूरब की स्त्री में जो एक प्रसाद है, एक लावण्य है, वह पश्चिम की स्त्री में नहीं होता। पश्चिम की स्त्री पुरुष के बहुत करीब आ गई। उसने पुरुष के रंग-ढंग सीख लिए। वह पुरुष के ढंग से उठती है, बैठती है, चलती है। उसकी देह भी धीरे-धीरे, धीरे-धीरे पुरुष जैसी होती जा रही है। उसके कपड़े भी पुरुष जैसे होते जा रहे हैं। उसका व्यवहार, उसकी भाषा भी पुरुष जैसी हो रही है, होती जा रही है। भेद टूट रहा है।
और भेद टूटने का परिणाम बुरा हो रहा है। जितनी ही स्त्री पुरुष जैसी होती जा रही है उतना ही पुरुष का रस उसमें कम होता जा रहा है। क्योंकि रस विपरीत में होता है। स्त्री का स्वाभाविक भाव है, छिपा ले अपने को। वह इस दुनिया में चल रहे खेल का अंग है। वह छिपा ले तो पुरुष खोजे। पुरुष खोजी है। वह छिपे, तो पुरुष खोजे। यह छिया-छी है।
स्त्री बिना प्रेम-पात्र के सोच ही नहीं सकती कि कोई जीवन में क्रांति घट सकती है। उसका सारा भाव प्रेमी से जुड़ा होता है। अगर परमात्मा भी उसके जीवन में आएगा तो प्रेमी की तरह आएगा। वह परमात्मा के आस-पास नाचेगी, वह परमात्मा की सेवा करेगी, उसके चरण धोएगी, उसके लिए भोजन बनाएगी, उसके लिए भोग लगाएगी। वह परमात्मा के लिए खटोला बनाएगी। उसे सुलाएगी, जगाएगी, उठाएगी। और इसी में डूबेगी। और इसी में डूबते-डूबते अपने भीतर उतर जाएगी। लेकिन इसी बहाने उतरेगी। इस सीढ़ी से उसे गुजरना ही होगा।
ध्यान भी अंतर्यात्रा है, सीधी-सीधी। भक्ति भी अंतर्यात्रा है, सीधी-सीधी नहीं, परोक्ष। भक्ति का अपना सौंदर्य है, ध्यान का अपना सौंदर्य है। जो जिसको रुचे।

चौथा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि किसी और बुद्धपुरुष के पास जाना गुरु में श्रद्धा का अभाव है। यह बात समझ में तो आती है, परंतु भगवान, हम तो साधारणजन ही हैं, अभी तो साधारण से स्त्री-पुरुष से, नाटक-फिल्म और संगीत से मिलने वाले सुख के पार भी नहीं हो पाए हैं। उसके लिए भी कामचोरी करते हैं।
मैंने यह कहा नहीं कि बुद्धपुरुष के पास जाना, किसी और बुद्धपुरुष के पास जाना अपने गुरु में श्रद्धा का अभाव है। यह मैंने कहा नहीं। मैंने सिर्फ इतना ही कहा कि अभी तुम्हें गुरु मिला नहीं। अगर गुरु मिल गया तो फिर कहीं आना-जाना नहीं। फिर अभी गुरु की तलाश चल रही है। श्रद्धा का अभाव तो मैंने कहा ही नहीं। गुरु में श्रद्धा का अभाव तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि गुरु बनता ही श्रद्धा के भाव से है। नहीं तो वह संबंध ही नहीं है।
इसको समझने की कोशिश करना। किसी व्यक्ति के और तुम्हारे बीच गुरु-शिष्य का संबंध बनता कैसे है? वह तो श्रद्धा होती है तो ही बनता है। श्रद्धा न हो तो न वह गुरु है तुम्हारा, न तुम शिष्य हो उसके। इसलिए गुरु-शिष्य में श्रद्धा के अभाव का तो कोई अर्थ ही नहीं होता। संबंध ही न रहा। बात ही खतम हो गई।
यही मैंने तुमसे कहा कि अगर तुम्हें तुम्हारा गुरु मिल गया हो तो फिर सब आवागमन छूट जाएगा। फिर कहां जाना है? जाने में कहीं भीतर खोज चल रही है। कृष्णमूर्ति का कोई भक्त मेरे पास आ जाता है तो मैं उससे पूछता ही हूं निश्चित, कि क्यों? क्या जरूरत यहां आने की? कृष्णमूर्ति मिले, सब नहीं मिला?
पिछले वर्ष कृष्णमूर्ति बोल रहे थे बंबई में। तो मेरे कुछ संन्यासी वहां होंगे। उन्होंने कहा भी इन गैरिक वस्त्रधारियों को देख कर कि तुम्हें तो तुम्हारा गुरु मिल गया है, फिर यहां क्या कर रहे हो?
उसका सिर्फ एक ही अर्थ होता है कि तुमने कामचलाऊ नाता बना लिया होगा। तुम धोखे में हो। तुम सोचते हो कि तुम गुरु को पा लिए, लेकिन तुम्हें मिला नहीं। तुम अभी तलाश रहे हो। तुम चोरी-छिपे अभी भी देख रहे हो कि शायद इससे बेहतर कोई व्यक्ति मिल जाए। शायद कहीं कोई और भी जल्दी से परमात्मा से मिला देने वाला हो।
अभी श्रद्धा जन्मी ही नहीं है, अभाव का तो सवाल ही कहां है! अभी पैदा ही नहीं हुई है। और श्रद्धा, ध्यान रखना, कम ज्यादा नहीं होती। होती है या नहीं होती। श्रद्धा के खंड नहीं होते कि बीस परसेंट श्रद्धा है, कि तीस परसेंट है, कि पचास परसेंट है, कि साठ परसेंट है। श्रद्धा होती है तो सौ प्रतिशत या शून्य प्रतिशत। इसमें खंड नहीं होते। तुम यह नहीं कह सकते किसी से कि मुझे आपमें थोड़ी-थोड़ी श्रद्धा है। थोड़ी-थोड़ी श्रद्धा का कोई अर्थ ही नहीं होता। या तो आदमी जिंदा होता है या मरा होता है; थोड़ा-थोड़ा जिंदा नहीं होता कि यह आदमी थोड़ा-थोड़ा जिंदा है। वह जो थोड़ा-थोड़ा जिंदा है वह भी पूरा जिंदा है। ऐसी जिंदगी बंटती नहीं।
जिसे गुरु मिल गया उसकी ये सब बेचैनियां मिट जाती हैं। अगर ये बेचैनियां जारी हों तो इतना ही समझना चाहिए कि गुरु नहीं मिला।
और मैंने तुमसे यह नहीं कहा है कि तुम जाओ मत। मैंने तुमसे सिर्फ इतना ही कहा है कि सजग हो जाओ कि तुम्हें गुरु नहीं मिला है। फिर खोजो। मगर खोज फिर सचेतन होनी चाहिए। फिर बेईमानी की नहीं होनी चाहिए, धोखेधड़ी की नहीं होनी चाहिए। ऐसा भी मानते रहो कि मुझे मेरा गुरु मिल गया, फिर भी थोड़ा यहां-वहां देख आते हैं, चले जाते हैं। सिर्फ मैंने तुम्हें स्थिति को स्पष्ट किया है।
मैंने तुमसे कुछ कहा नहीं है, ध्यान रखना, कोई मैंने आदेश नहीं दिया है। मैंने तुमसे कहा नहीं है कि तुम किसी और बुद्धपुरुष के पास मत जाओ। तुम्हें बुद्धुओं के पास जाना हो, वहां जाओ। मुझे क्या लेना-देना है? मगर जानते हुए जाओ। कहीं इस धोखे में मत रहना कि तुम्हें गुरु भी मिल गया है और यहां थोड़े बहुत मनोरंजन के लिए यहां-वहां चले जाते हैं। इस धोखे में मत रहना। तुम्हें गुरु नहीं मिला है। इतना साफ हो तो फिर ठीक से खोजो।
जिंदगी की सारी उलझन यही है कि हम कुछ का कुछ माने बैठे रहते हैं। तो जो करना चाहिए वह नहीं कर पाते। अगर गुरु नहीं मिला है तो खोजना ही चाहिए। फिर जाना ही चाहिए। फिर एक के पास क्या, जहां कहीं खबर मिले वहां जाना चाहिए। जब तक गुरु न मिल जाए तब तक तो खोज जारी रखनी ही पड़ेगी। लेकिन जब गुरु मिल जाए तो आ गया विश्राम का स्थल। फिर वहां पूरे समर्पित हो जाना चाहिए। जहां तुम्हें मिल जाए।
तुम भूल कर भी यह मत सोचना कि मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम यहां समर्पित हो जाओ। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि कहीं भी समर्पित हो जाओ, लेकिन जहां समर्पित हो जाओ फिर वहां समर्पित हो ही जाना। फिर बचाना मत; फिर अपने को थोड़ा-बहुत बचा कर मत रखना कि शायद फिर कभी कोई और बेहतर गुरु मिल जाए।
गुरु बेहतर और गैर बेहतर होते ही नहीं। यह तो प्रेम का आत्यंतिक संबंध है। यह तो अतुलनीय है। एक गुरु मिल गया कि तुम्हें सब गुरु उसी में मिल गए। उसी में तुम्हारा बुद्ध है, उसी में तुम्हारा महावीर है, उसी में तुम्हारे क्राइस्ट, उसी में तुम्हारे कृष्ण, उसी में तुम्हारा सब कुछ पूरा हो गया। और जब तक ऐसा व्यक्ति न मिल जाए जिसमें तुम्हारी सब आकांक्षाएं प्रकाश को देखने की पूरी हो गईं तब तक समझना, अभी गुरु नहीं मिला। जल्दी क्या है? खोजो।
और इंदिरा ने कहा है कि हम तो साधारणजन हैं। मजे से साधारणजन रहो। इससे ऊपर उठना है कभी या नहीं? अगर साधारणजन ही रहना है तो मुझे कोई अड़चन नहीं तुम्हारे साधारणजन रहने से। मुझे क्या अड़चन हो सकती है? तुम साधारणजन मजे से रहो। लेकिन आदमी गुरु की तलाश में निकलता इसीलिए है कि यह जो साधारण जीवन है, यह जो दो कौड़ी का जीवन है इससे पार उठ जाए। इससे पार होने के लिए तुम मेरे पास हो। और जब मैं तुमसे पार होने को कहूं तो तुम यह दलील नहीं दे सकते कि हम साधारणजन हैं, हम कैसे उठें पार? हम तो साधारणजन हैं; साधारण ही रहेंगे। तो फिर मेरे पास क्या कर रहे हो? फिर यहां प्रयोजन क्या है? फिर इतनी बड़ी दुनिया है, वहां सब साधारणजन रह रहे हैं, तुम भी वहीं रहो।
यहां कोई अनूठा प्रयोग हो रहा है जिसमें तुम्हें पार ले जाने की चेष्टा चल रही है। जिसमें तुम्हें नाव दी जा रही है कि उस किनारे चले जाओ। नाव को भी पकड़े हो, नाव में सवार भी हो, और जब नाव चलती है तो चिल्लाते हो; कहते हो, हम तो साधारणजन हैं, हम तो इसी किनारे रहेंगे। फिर नाव में किसलिए चढ़े हो?
जिंदगी को साफ-सुथरा करो। जिंदगी के गणित को व्यर्थ उलझाओ मत। वैसे ही बहुत उलझन है। मैं तुमसे कह नहीं रहा कि तुम सिनेमा मत जाओ, नाटक मत देखो, फिल्म में मत जाओ, मैं कुछ कह नहीं रहा। मैं तो तुमसे इतना ही कह रहा हूं कि जो भी तुम करो, सोच-विचार कर करो कि क्या कर रहे हो। वेश्यालय जाओ, शराबघर जाओ, बस समझ कर जाओ कि यह मैं कर रहा हूं। और यही मैंने अपने जीवन को माना है और इससे ऊपर मुझे जाना नहीं है। यहीं मुझे रह जाना है। तुम मालिक हो अपने।
मेरे पास अगर तुम हो तो इसीलिए हो कि तुम इसके ऊपर जाना चाहते हो। गिरोगे बहुत बार, मगर फिर भी ऊपर जाने की चेष्टा, उठने की चेष्टा--फिर-फिर उठोगे, गिर-गिर कर उठोगे। गिरने को तुम स्वीकार न कर लोगे। गिरने को तुम अंगीकार न कर लोगे। तुम कहोगे, चेष्टा जारी रहेगी। कितना ही फिसलूं और कितना ही गिरूं, लेकिन उठने की चेष्टा जारी रहेगी। इस उठने की चेष्टा का नाम ही संन्यास है। उत्तिष्ठित, जाग्रत, वरान्निबोधत। उठो, जागो।
अब सामान्यता का यहां आकर तुम आग्रह करो तो यहां होने की कोई जरूरत नहीं है। और ध्यान रखना, मैं कठोर नहीं हूं। मैं सिर्फ तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम्हारी जिंदगी है, उसको व्यर्थ मत उलझाओ। सिनेमा देखना हो तो सिनेमा देखो, मंदिर में मत बैठो। अक्सर लोग यह कर रहे हैं बैठे मंदिर में हैं, देखना सिनेमा चाहते हैं। कुछ लोग मंदिर में न बैठ कर सिनेमा में बैठे हैं, होना चाहते हैं मंदिर में।
दो युवक एक सांझ घूमने निकले। राम की कथा चलती थी। एक ने कहा कि भई, राम की कथा सुनें। कहते हैं, कथा के श्रवण से तो आदमी के सब दुख हट जाते हैं। भवसागर से आदमी पार हो जाता है। दूसरे ने कहा: तुम्हारी मर्जी, तुम्हें सुनना हो, सुनो। मैं तो गांव में एक वेश्या आई है, उसका नृत्य देखने जा रहा हूं।
एक वेश्या का नृत्य देखने चला गया, एक राम की कथा सुनने बैठ गया। जिसने वेश्या का नृत्य देखा उसने बार-बार सोचा वेश्या का नृत्य देख कर कि यह भी मैं कहां आ गया! पता नहीं वहां कैसे आनंद की वर्षा हो रही हो--राम-कथा में! प्रभु का स्मरण होता होगा। एक मैं अभागा कि इस बदशक्ल सी औरत के ऊधम को देख रहा हूं। मैं वहीं रुक गया होता तो अच्छा था। और उस युवक ने, जो वहां रुक गया था, उसने सोचा मैं भी क्या यह वही पुरानी पिटी-पिटाई कथा--कि राम और उनकी सीता चोरी चली गईं और रावण, और यही सब--वही मूढ़ता, यह हनुमान! मैं कहां पड़ गया, बैठ गया! मेरा मित्र न मालूम कितने मजे कर रहा होगा! कैसा आनंद न ले रहा होगा! पता नहीं कैसी सुंदर हो स्त्री। पता नहीं कैसा नाच हो रहा हो। मैं भी बुद्धू!
पहला युवक जो वेश्यालय में बैठा रहा, वहां से लौटा तो बड़ा शांत होकर लौटा। क्योंकि राम का स्मरण चलता रहा पूरे समय। और दूसरा युवक, जो रामकथा सुनता था, बड़ा अशांत होकर लौटा। क्योंकि पूरे वक्त वेश्या का स्मरण चलता रहा।
ऐसी उलझनें हैं। मैं चाहता हूं तुम सुलझ जाओ। तुम्हारी जिंदगी में एक साफ-साफ दिशा हो। साधारण होना है, साधारण रहो। मेरे पूरे आशीर्वाद। साधारण होने से ऊपर उठना है तो फिर ऊपर उठने के संकल्प में समर्पित हो जाओ। तो फिर कुछ करो ऊपर उठने के लिए। ऊपर उठने की बातें करो और जब मैं ऊपर उठने को कहूं तो नीचे खिसको; कहो कि हम तो साधारणजन हैं, हम कहां ऊपर उठेंगे? तो फिर ऊपर उठने की बात ही मत करो। जीवन में अकारण तनाव पैदा नहीं करने चाहिए। तनाव रहित जीवन सुंदर होता है, स्वाभाविक होता है।
मेरे पास यहां हो तो उसका अर्थ ही यही होता है कि तुमने कुछ असाधारण की खोज की है, आकांक्षा की है कम से कम, जिज्ञासा की है। साधारण तुम हो, लेकिन साधारण नहीं रहना चाहते हो, इस बात का सूत्रपात हुआ है। अब लौट-लौट कर पीछे मत गिरो, और साधारण होने की दुहाई मत दो।
अब इंदिरा ने कहा है कि आपने कहा है कि और किसी बुद्धपुरुष के पास जाना गुरु में श्रद्धा का अभाव है। यह बात समझ में तो आती है--जरा भी समझ में नहीं आती। समझ में आ गई होती तो प्रश्न नहीं उठता। यह समझ झूठी है। यह सिर्फ चालबाजी की समझ है। यह सिर्फ दिखाने वाली समझ है। ये दिखाने के दांत हैं, ये असली दांत नहीं हैं। अगर समझ में बात आ गई तो आ गई समझ में, फिर क्या पूछने को है?
नहीं, समझ में नहीं आती, लेकिन यह भी मानने की हिम्मत नहीं है कि मैं नासमझ हूं। इसलिए यह भी चलता है साथ-साथ कि समझ में भी आती है और किंतु-परंतु। किंतु-परंतु शुभ लक्षण नहीं हैं। समझ में आ गई बात, समझ में आ गई। फिर कोई किंतु-परंतु नहीं होते। और किंतु-परंतु हों तो समझ में बात आती नहीं।
हमेशा साफ रहो। न समझ में आती हो तो जबरदस्ती दिखाओ मत कि समझ में आ गई। साफ-साफ कहो। मेरे पास इसीलिए तो हो कि समझ में आ सके। धोखा किसको देना है? किंतु, परंतु जोड़ो ही मत। साफ कह दो कि यह बात हमारी समझ में नहीं आई। तो मैं तुम्हें फिर से समझाऊं; तो तुम्हें हजार बार समझाऊं। लेकिन तुम यह भी नहीं कहते कि समझ में नहीं आई।
तुम कहते हो: ‘बात तो समझ में आ गई है, किंतु.!’
अब यह किंतु बड़ा बेहूदा है। समझ में आ गई तो बात समाप्त हो जानी चाहिए। लेकिन हर किंतु बताता है कि समझ का अहंकार भी नहीं छोड़ा जाता और बात समझ में आई भी नहीं। तो तुम फिर दलीलें खोजते हो कि ऐसा हमने इसलिए किया कि हम तो साधारणजन हैं। ऐसा हमने इसलिए किया कि हमारे भीतर सत्य की जिज्ञासा है। ऐसा हमने इसलिए किया कि आप और वे कहते तो एक ही बात हैं। ऐसा हमने इसलिए किया कि सभी का अंतिम लक्ष्य तो एक ही है।
ये सारी की सारी बातें जो तुम लाते हो, अगर ये समझ में आ गई हों, तो तुम परम ज्ञानी हो गए। फिर तुम्हें शिष्य होने की जरूरत नहीं, तुम गुरु हो गए। लेकिन यह तुम्हें कुछ भी समझ में नहीं है। न तुम्हें यह पता है कि मेरी बात और उनकी बात एक है। तुम्हें क्या पता होगा! तुम्हें अभी यही पता नहीं है कि बात क्या है। दोनों बातें एक हैं यह तो तब पता चलेगा, जब बात क्या है यह पता चल जाए। और वह अनुभव से होगा। अभी तुम मान लेना चाहते हो कि दोनों की बात एक होनी ही चाहिए। मान लेना चाहते हो। क्योंकि तुम इस झंझट में भी नहीं पड़ना चाहते कि दोनों की बातें भिन्न हों तो तुम्हारे भीतर चिंता पैदा होगी।
यहां रोज यह होता है। रोज मेरे पास पत्र आते हैं। जो जिसको मानता है.कोई लिखता है कि आपकी बात तो बिलकुल ठीक रामकृष्ण परमहंस देव जैसी है। मैं उनका भक्त हूं। कोई कहता है, आपकी बात तो ठीक कृष्णमूर्ति जैसी है। मैं उनका भक्त हूं। कोई कहता है, आपकी बात तो ठीक वही है जो कुरान में लिखी है।
ये लोग क्या कह रहे हैं? न इन्हें कुरान का पता है, न रामकृष्ण का, न कृष्णमूर्ति का, न मेरा। इनकी अड़चन क्या है? इनकी अड़चन यह है, ये यह समझाना चाह रहे हैं अपने को, कि बात अलग नहीं होनी चाहिए, नहीं तो झंझट खड़ी होगी। फिर कौन ठीक है यह सवाल उठेगा। फिर कृष्णमूर्ति ठीक हैं कि रामकृष्ण ठीक हैं कि रमण ठीक हैं? कौन ठीक हैं? ये इतनी झंझट में नहीं पड़ना चाहते। ये इतना महंगा सौदा नहीं करना चाहते। ये कहते हैं, सभी ठीक हैं, इसलिए जो भी पकड़े हो ठीक ही पकड़े हो। अब कुछ फिर विचार करने की, पुनर्विचार करने की कोई जरूरत नहीं है।
तुम्हें दुनिया में जितने समन्वयवादी दिखाई पड़ें उनमें से सौ में से निन्यानबे सिर्फ बेईमान होते हैं, जो कहते हैं, अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। वे सिर्फ यह कर रहे हैं कि कौन झंझट में पड़े! कि उसका नाम अल्लाह है कि ईश्वर है, कि क्या है। जो भी हो ठीक हो, लेना-देना क्या है? होगा, एक ही होगा। वे सिर्फ उपेक्षा कर रहे हैं। वह इतने भी--समादर नहीं है उनके भीतर कि इतनी शक्ति भी लगाएं कि तय कर लें कि क्या ठीक है।
अधिकतर लोग, सब धर्म एक ही बात कहते हैं, इसीलिए कहते हैं ताकि चुनाव करने की झंझट से बचा जा सके। इसलिए नहीं कि उन्हें पता हो गया कि सभी धर्म एक हैं। यह तो पता होता है उसको जिसने धर्म के सार को अनुभव किया; जो पहुंचा उस शिखर पर। यह रामकृष्ण को पता था कि सभी धर्म एक हैं। यह मुझे पता है कि सभी धर्म एक है। यह तुम्हें पता नहीं है। और अगर तुम ऐसा मान कर चले कि सभी धर्म एक हैं तो इसका कुल परिणाम इतना होगा कि तुम किसी धर्म की मान कर चल न सकोगे। तुम कहोगे, सभी एक हैं। चलना क्या है? हमें मालूम ही है। वही तो गीता कहती है, वही कुरान कहता है। न तुमने गीता पढ़ी है, न तुमने कुरान पढ़ा।
और गीता, कुरान पढ़ कर भी तुम हो सकता है सोच लो कि दोनों एक हैं। लेकिन तुम्हें उस एक का अभी पता ही नहीं है तो तुम गीता में भी उसे कैसे खोजोगे और कुरान में भी तुम उसे कैसे खोजोगे? मैंने ऐसी किताबें देखी हैं जो सिद्ध करती हैं कि गीता-कुरान एक हैं; हिंदुओं के द्वारा लिखी गईं। और ऐसी किताबें देखी हैं, जो सिद्ध करती हैं कि कुरान और गीता एक हैं; मुसलमानों के द्वारा लिखी गईं। और बड़ा मजा है, उन दोनों की किताबें बिलकुल अलग-अलग हैं।
जो आदमी गीता को ठीक मानता है वह कुरान में वे ही बातें खोज लेता है जो गीता में हैं। शेष को छोड़ देता है। उसकी किताब का अलग ही अर्थ निकलता है। जो आदमी कुरान को ठीक मानता है, वह गीता में वही बातें खोज लेता है जो कुरान में हैं। और उनको छोड़ देता है जो गीता में हैं और कुरान में नहीं हैं। उसकी किताब का बिलकुल ही अलग अर्थ निकलता है। वे दोनों बिलकुल भिन्न-भिन्न हो जाते हैं।
महात्मा गांधी ने भी यही कहा कि कुरान में वही बात है जो गीता में है; लेकिन कुरान के वे हिस्से उन्होंने बिलकुल छोड़ दिए जो वस्तुतः कुरान है। उन्होंने सिर्फ गीता की प्रतिध्वनियां पकड़ लीं। गीता तो ठीक है यह उनको पता है। अब कुरान में भी जो-जो गीता से मिलता है, ठीक होना चाहिए। होना ही चाहिए क्योंकि गीता ठीक है। मगर जो गीता से नहीं मिलता उसके संबंध में क्या कहोगे? और बहुत सी बातें हैं जो नहीं मिलतीं। और बहुत सी बातें हैं जो न केवल नहीं मिलतीं बल्कि विपरीत जाती हैं, उनके संबंध में क्या कहोगे?
वहां अड़चन खड़ी हो जाती है। उनके संबंध में तो वही आदमी कह सकता है जिसने सत्य को जाना। और यह जाना कि सत्य के अनेक पहलू हैं। और गीता एक पहलू कहती है और कुरान दूसरा पहलू कहता है। एक ही नहीं हैं। दोनों के दृश्य बड़े अलग-अलग हैं।
तुमने अपने कमरे की एक खिड़की खोली जो पूरब की तरफ खुलती है। और तुमने सूरज को ऊगते देखा। यह एक दृश्य है। हालांकि उसी सूरज का है, उसी आकाश का है, लेकिन यह एक दृश्य है। फिर तुमने पश्चिम की खिड़की खोली और वहां अभी कोई सूरज नहीं है। वहां तुमने दूसरे दृश्य देखे--पहाड़ देखे, आकाश में उड़ते पक्षी देखे। यह माना कि वही आकाश है, लेकिन यह दृश्य बिलकुल दूसरा है। अब पक्षी और सूरज एक नहीं हैं। पहाड़ और सूरज एक नहीं हैं।
अब जो व्यक्ति गीता और कुरान को एक करने में लगा है, वह सिद्ध करने की कोशिश करेगा कि पहाड़ का मतलब सूरज होता है। अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम। कि सूरज का मतलब पहाड़ होता है। होना तो चाहिए एक ही। पूरब की खिड़की पूरब का दृश्य देती है, पश्चिम की खिड़की पश्चिम का दृश्य देती है। दक्षिण की खिड़की दक्षिण का दृश्य देती है। उत्तर की खिड़की उत्तर का दृश्य देती है।
और सत्य के अनेक पहलू हैं। और एक धर्म एक ही पहलू की बात करता है। एक की ही कर सकता है। और सत्य के इतने पहलू हैं कि कुछ पहलू ऐसे हैं जो इस पहलू के ठीक विपरीत पड़ते हैं। वे बातें एक नहीं हैं। एक ही सत्य के संबंध में हैं लेकिन बातें बिलकुल अलग-अलग हैं।
तो कोई मेरे पास पत्र लिख कर भेज देता है कि हम तो सभी को सुनते हैं। आपको भी सुनते हैं, उनको भी सुनते हैं। मेरे को कोई एतराज नहीं है। मुझे भी सुनें, उन्हें भी सुनें। लेकिन चलेंगे कब? सुनते ही रहेंगे? सुनते-सुनते तो तुम्हारे कान वैसे ही पक गए हैं। और कब तक सुनते रहोगे? आदमी सुनता है गुनने के लिए, गुनता है करने के लिए। तुम सिर्फ सुन ही रहे हो। सुनते-सुनते ही तुम सोचते हो कुछ हो जाने वाला है? और फिर इसको भी सुन लिया, उसको भी सुन लिया।
तुम बड़े वणिक हो। तुम सोचते हो, पता नहीं किसके सुनने से मिल जाए! सभी को सुन लो, हर्ज क्या है! आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास भी चले गए और दवा ले आए और एलोपैथिक चिकित्सक के पास भी चले गए और दवा ले आए। और हकीम के भी पास चले गए और होम्योपैथ के पास भी चले गए। और सबकी दवाएं घोल-घाल कर पी गए। मरोगे! बीमारी तो मिटेगी नहीं, बीमार मिट जाएगा। और सब दवाएं ठीक हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि दवाओं में कुछ गलती है। मगर होम्योपैथी का अपना विश्लेषण है, वह अलग खिड़की है। और एलोपैथी का अपना विश्लेषण है, वह अलग दृश्य है। और जीवन को पकड़ने की उनकी शैली भिन्न है। अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, होम्योपैथी-एलोपैथी तेरे नाम--ऐसा मत करना।
अल्लाह का अपना ध्वनि शास्त्र है, राम का अपना ध्वनि शास्त्र है। राम के मंत्र की अलग प्रक्रिया है। अल्लाह के मंत्र की अलग प्रक्रिया है। अल्लाह का मंत्र अलग केंद्र से पैदा होता है तुम्हारे भीतर। राम का मंत्र अलग केंद्र से पैदा होता है। वे नक्शे अलग हैं। और उन नक्शों को मिला मत लेना। नहीं तो तुम राम से भी चूकोगे और अल्लाह से भी चूकोगे। कहीं ऐसा न हो कि बीमार तो मर जाए और बीमारी बनी रहे।
चिकित्सा शास्त्रों का कभी घोलमेल मत करना। ये सब चिकित्सा शास्त्र हैं। बुद्ध ने कहा है कि मैं वैद्य हूं। ये सब चिकित्सा शास्त्र हैं। और प्रत्येक शास्त्र की अपनी पूर्णता है, अपनी निजता है। प्रत्येक शास्त्र का अपना निदान है, अपना व्यक्तित्व है। उसे खराब मत कर देना। और जब तुम एक शास्त्र की मान कर चलो तो सारे शास्त्रों को भूल जाना। तभी तुम निमज्जित हो सकोगे, तभी तुम पूरे उसमें डूब सकोगे। इतना ही मैंने कहा है। तुम्हें जहां रुचि लगे, जहां प्रीति लगे, वहां पूरे डूब जाओ ताकि तुम पहुंच सको।

इसी संबंध में पांचवां प्रश्न:
भगवान, जिस भूल के लिए आपने उस दिन हमारी आलोचना की, उसका दोषी मैं भी हूं और हृदय से क्षमा मांगता हूं। आपकी कठोरता भी आपकी करुणा, आपके प्रेम से आती है ऐसा मेरा अनुमान है। जहां तक मैं समझता हूं, प्रेम और स्वतंत्रता आपकी देशना का आधार है। और मुझे लगा कि उस दिन प्रेम तो उभर कर ऊपर आया, लेकिन स्वतंत्रता थोड़ी खंडित हुई। क्या मैं भूल में हूं?
स्वतंत्रता तभी संभव है जब स्व का आविर्भाव हो जाए। वही उस शब्द का अर्थ भी है। अभी तो स्व का भी तुम्हें पता नहीं है, स्वतंत्रता तो कैसे संभव होगी? स्व के बिना स्वतंत्रता नहीं हो सकती। अभी बीज नहीं बोया गया, तुम फसल काट रहे हो। पहले बोओ तो, फिर काटना भी। अगर मैं तुमसे कहूं कि अभी तुमने बीज नहीं बोए, तुम फसल काट रहे हो। तुम कहते हो, हमें आप फसल नहीं काटने देते। तुम्हारी मर्जी, काटो! मगर फसल है कहां? फसल होनी भी चाहिए।
स्वतंत्रता स्व की छाया है। इसलिए तो उसका नाम स्व-तंत्रता। वह स्व का तंत्र है। लेकिन स्व कहां है? अभी तुम स्वयं कहां हो? अभी तुमने जाना कहां उस बात को जो तुम्हारी स्वयं की निजता है? अभी तुमने आत्मा को पहचाना कहां? अभी तुम स्वतंत्रता की बातें करोगे, भटक जाओगे। गड्ढों में गिरोगे। और फिर मैं यह भी नहीं कह रहा हूं, मना भी नहीं कर रहा हूं। तुम्हें अगर स्वतंत्रता में ही रस हो, अभी रस हो बिना स्व के, तो तुम करो। सिर्फ परिणाम तुम्हें सचेत कर देना चाहता हूं। उसके परिणाम घातक होंगे।
यह ऐसा ही होगा जैसे छोटा बच्चा अपनी मां से कहे कि मुझे तो आग की तरफ जाना है। और मेरी स्वतंत्रता है, स्वतंत्रता तो सभी का अधिकार है। तो मैं उस बच्चे से कहूंगा कि तू मजे से जा लेकिन जलने की तैयारी रखना। अगर जल जाए तो फिर मां को दोषी मत ठहराना। लेकिन मजा यह है कि अगर बच्चा जल जाए तो वह मां को दोषी ठहराता है कि तुमने रोका क्यों नहीं? तुम तो जानती थीं कि आग जलाती है। खैर मैं तो अबोध हूं; तुमने क्यों नहीं रोका? और अगर मां रोके तो स्वतंत्रता में बाधा आती है।
मैं अगर तुम्हें रोकूं कुछ गलत करने से तो तुम्हारी स्वतंत्रता में बाधा आ जाती है। अगर मैं न रोकूं तो कल तुम मुझ ही को उत्तरदायी ठहराओगे कि आपने क्यों नहीं रोका? हम तो अंधे थे, आप तो अंधे नहीं थे। अगर हम दीवाल की तरफ जा रहे थे तो आपने कहा क्यों नहीं कि टकराओगे, चोट खाओगे? अगर हम जहर पीते थे तो चौंकाया क्यों नहीं हमें कि यह जहर है, अमृत नहीं?
तुम मेरी मुसीबत समझते हो? अगर तुम्हें रोकूं तो निश्चित तुम्हें लगता है, तुम्हारी स्वतंत्रता में बाधा पड़ी। अगर तुम्हें जाने दूं तो आज नहीं कल तुम कहोगे कि आपने गुरु होने का दायित्व नहीं निभाया। इसलिए मैं तुम्हें सिर्फ स्थिति साफ कर देना चाहता हूं, फिर तुम्हारी मर्जी।
सदा याद रखना कि मैं जो भी तुमसे कहता हूं, उपदेश है, आदेश नहीं। उपदेश आदेश का भेद खयाल में रखना। यह कोई सेना नहीं है, जहां कोई आदेश दिए जा रहे हैं, कि ऐसा करो, बाएं घूमो, दाएं घूमो। सिर्फ तुमसे वही कह रहा हूं जो तुम्हारे काम पड़ जाए। फिर अंततः निर्णय तुम्हारा है। अगर मैं तुमसे कहता हूं कि मत जाओ उस तरफ गड्ढा है, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम जा नहीं सकते। कि जाओगे तो सजा दूंगा। नहीं, सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि उस तरफ गड्ढा है, जाओगे तो गिरोगे, सजा पाओगे। मैं दूंगा ऐसा नहीं। वह गड्ढे में गिरने से सजा हो जाएगी। फिर भी तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि मत जाओ, इतना ही कह रहा हूं कि जानते हुए जाना। स्वीकार करते हुए जाना। अगर गड्ढे में गिरने की स्थिति को स्वीकार करने की हिम्मत हो तो मजे से जाना। लेकिन फिर लौट कर यह मत कहना कि मुझे रोका क्यों नहीं?
प्रेम और स्वतंत्रता के बीच कठिनाई है। वही तो सारे माता-पिताओं की कठिनाई है। वही तो सभी गुरुओं की कठिनाई है। अगर बच्चे को प्रेम करो तो वह स्वतंत्रता मांगता है। अगर उसे स्वतंत्रता दो तो मां-बाप का प्रेम प्रमाणित नहीं होता। अगर पूरी स्वतंत्रता दे दो तो तभी संभव है, जब मां-बाप को कोई प्रेम न हो। तब तुम कहोगे प्रेम खंडित हुआ। मां-बाप अपने बच्चे को पूरी स्वतंत्रता दे सकते हैं--पूरी, बेशर्त, तभी जब प्रेम न हो। तब बच्चा छत से गिर रहा हो तो वे मजे से खड़े देखते रह सकते हैं। यह उसकी स्वतंत्रता है, वह आग में जा रहा हो यह उसकी स्वतंत्रता है। जहर पी रहा हो यह उसकी स्वतंत्रता है। लेकिन इनको तुम मां-बाप कहोगे? इनके पास प्रेम नहीं है। और अगर ये प्रेम का उपयोग करें, और जगह-जगह उसे खींचें और आग में न जाने दें, और छत से न गिरने दें तो तुम कहोगे यह क्या हुआ! ये बच्चे को मार डालेंगे। उनकी स्वतंत्रता नष्ट हो रही है।
मां-बाप को देखना पड़ता है कि दोनों के बीच एक संतुलन बना रहे। प्रेम इतना ज्यादा न हो जाए कि बच्चे का जीवन नष्ट हो जाए। स्वतंत्रता इतनी ज्यादा न हो जाए कि बच्चे का जीवन कष्ट में पड़ जाए या नष्ट हो जाए। प्रेम और स्वतंत्रता के बीच एक संतुलन चाहिए। ठीक वैसा ही जैसे तुमने कभी किसी नट को रस्सी पर चलते देखा हो। हाथ में एक लकड़ी लिए रहता है, संतुलन के लिए। जब बाईं तरफ ज्यादा झुक जाता है तो जल्दी से दाईं तरफ झुक जाता है ताकि संतुलन बन जाए। जरा और गया होता कि गिरता। बाईं तरफ गिरने से बचना है तो दाईं तरफ झुक जाता है। और दाईं तरफ थोड़ी दूर तक झुकता है और फिर तत्क्षण बाईं तरफ झुक जाता है, नहीं तो दाईं तरफ गिर जाएगा। तब रस्सी पर चल पाता है। और जीवन रस्सी पर चलने जैसा है। उतना ही कठिन है। उतने ही गिरने की संभावना है। प्रेम और स्वतंत्रता के बीच ऐसी ही व्यवस्था साधनी होती है।
गुरु प्रेम भी करेगा और स्वतंत्रता भी देगा। लेकिन जब देखेगा कि प्रेम इतना ज्यादा हुआ जा रहा है कि स्वतंत्रता टूटने लगी, तो स्वतंत्रता की तरफ झुक जाएगा। और जब देखेगा स्वतंत्रता इतनी ज्यादा हुई जा रही है कि अब प्रेम की गर्दन कट जाएगी, तो प्रेम की तरफ झुक जाएगा। वही सदगुरु है, जो न तो प्रेम के लिए स्वतंत्रता को नष्ट होने दे, न स्वतंत्रता के लिए प्रेम को नष्ट होने दे। जो दोनों को साध ले वही सदगुरु।
उसी की कीमिया से गुजर कर तुम्हारे जीवन में दोनों पंख होंगे--स्वतंत्रता का भी और प्रेम का भी। तुम आकाश की गति कर पाओगे। एक पंख से कोई नहीं उड़ सकता। अकेला स्वतंत्रता का पंख काफी नहीं है। और अकेला प्रेम का पंख भी काफी नहीं है। प्रेमपूर्ण स्वतंत्रता--ये विरोधाभासी शब्द हैं। लेकिन यही जीवन का रसायन है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं प्रेम के संबंध में बहुत सोचता हूं। आपकी बातें ठीक भी लगती हैं; कभी ठीक और कभी ठीक नहीं भी लगती हैं। मेरे लिए क्या मार्गदर्शन है?
प्रेम का सोचने से क्या संबंध? करो! जीओ! जलो! सोचते-सोचते जीवन गंवा दोगे। अक्सर सोचने वाले प्रेम नहीं कर पाते। क्योंकि सोचना होता है मस्तिष्क में और प्रेम होता है हृदय में। वे दोनों अलग केंद्र हैं। उनके अलग आयाम हैं। सोचने वाला धन कमा सकता है, प्रेम गंवा देगा। प्रेम करने वाला प्रेम कमा लेगा, हो सकता है धन गंवा दे। वे दोनों अलग यात्राएं हैं। और व्यक्ति को साफ-साफ निर्णीत हो जाना चाहिए कि उसे प्रेम के मार्ग पर जाना है? जाना है तो सोचो मत।
प्रेम भाव है, विचार नहीं। क्या सोचोगे प्रेम के संबंध में? सोच-सोच कर भी क्या सोच पाओगे? यह ऐसा है जैसा अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में सोचे.सोचता रहे, सोचता रहे। क्या सोचेगा? आंख की चिकित्सा करवानी होगी, सोचने से कुछ भी न होगा। तुम प्रेम के संबंध में क्या सोचोगे? प्रेम की पीड़ा से गुजरना होगा।
और ध्यान रखना, तुम अगर तथाकथित सांसारिक प्रेम की पीड़ा से न गुजरे, तो तुम ईश्वरीय प्रेम को भी न पा सकोगे। यह संसार सीढ़ी है। इस सीढ़ी पर चढ़ना होगा। इसी संसार के प्रेम में धीरे-धीरे तुम्हें उस प्रेम की भनक सुनाई पड़ती है। मैं इस संसार से भागने को नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं, इस संसार का पूरा उपयोग कर लो। यह एक अवसर है, महान अवसर है। यहां प्रेम के बहुत-बहुत मौके हैं। इन सब मौकों को ठीक-ठीक तलाश लो, खोज लो, इनका अनुभव ले लो, निचोड़ लो, इनका इत्र बना लो। यही इत्र तुम्हारी प्रार्थना में काम आएगा। आखिर तुम्हारी प्रार्थना में इन्हीं सबका तो रंग होगा!
जिसने कभी अपनी पत्नी को प्रेम नहीं किया उसका परमात्मा से प्रेम भी कुछ अधूरा रहेगा, कुछ कमी रहेगी। जिसने कभी अपने बेटे को नहीं चाहा, जिसने कभी अपने पति को नहीं चाहा, अपने पिता को नहीं चाहा उसके परमात्मा के प्रेम का क्या अर्थ होगा? कैसा होगा वह प्रेम? सोचो!
जीसस ने परमात्मा को पिता कहा है--अब्बा। अगर जीसस ने अपने पिता को प्रेम न किया हो तो जब वे परमात्मा को अब्बा कहेंगे, उसमें क्या अर्थ होगा? वह अब्बा शब्द कोरा होगा, खाली होगा। उसमें कुछ भी नहीं होगा। विषय वस्तु होगी ही नहीं। मीरा ने कृष्ण को प्रीतम कहा है। अगर अपने पति में, अपने प्रेमी में कभी कोई अनुभव न हुआ हो तो यह प्रीतम शब्द का क्या अर्थ होगा? इसका कुछ भी अर्थ नहीं होगा। यह अर्थहीन शब्द होगा।
सूफियों ने परमात्मा को अपनी प्रेयसी कहा है, अपनी प्यारी कहा है। लेकिन जिसने किसी स्त्री के प्रेम में आंसू न बहाए हों और जो किसी स्त्री के प्रेम में तड़पा न हो उसको क्या पता होगा? वह कैसे परमात्मा को प्रेयसी कहेगा? कैसे पुकारेगा प्राण प्यारी कह कर? उसके शब्द ओंठों पर होंगे, हृदय में नहीं होंगे। जिसने अपने बच्चे को प्रेम नहीं किया--जैसे सूरदास कृष्ण के बालपन की ऐसी प्यारी-प्यारी, मीठी-मीठी गीतिकाएं गाते हैं, जिसने अपने बच्चे को प्रेम नहीं किया वह कृष्ण के बालरूप को कैसे प्रेम कर पाएगा? क्या प्रेम कर पाएगा! वह कितना ही लाख गाए कि बाल गोपाल नाचते, कि उनकी पांवों की पैजनियां बजतीं। वह लाख करे, लेकिन उसके घर में जो गोपाल पांवों की पैंजनियां बजा रहे हैं उनसे उसको कुछ लेना-देना नहीं है। असंभव है।
तुम्हारे शब्दों का अर्थ तुम्हारे जीवन से आता है। इस जीवन के प्रेम को ठीक-ठीक पहचानो। इस पर रुक मत जाना, यह जरूर सच है। मगर इसके अनुभव से तो गुजरना ही है। रुकना भी नहीं है इस पर और इससे बच कर भी नहीं निकल जाना है। सोचते क्या हो? जिंदगी हाथ से गुजरी जाती है।
मैं कल एक गीत देखता था--
सोचता हूं कि मोहब्बत से किनारा कर लूं
दिल को बेगाना-ए-तरगीबो-तमन्ना कर लूं
सोचता हूं कि मोहब्बत है जुनूने-रुसवा
चंद बेकार-से बेहूदा खयालों का हुजूम
एक आजाद को पाबंद बनाने की हवस
एक बेगाने को अपनाने की सअइ-ए-मौहूम
सोचता हूं कि मोहब्बत है सरूरो-मस्ती
इसकी तन्वीर से रौशन है फजाए-हस्ती
सोचता हूं कि मोहब्बत है वसर की फितरत
इसका मिट जाना, मिटा देना बहुत मुश्किल है
सोचता हूं कि मोहब्बत से है ताबिंदा हयात
आपसे ये शमा बुझा देना बहुत मुश्किल है
सोचता हूं कि मोहब्बत पे कड़ी शर्तें हैं
इस तमुद्दन में मसर्रत पर बड़ी शर्तें हैं
सोचता हूं कि मोहब्बत है एक अफसुर्दा-सी लाश
चादरे इज्जतो-नामूस में कफनाई हुई
दौरे-सरमाया की रौंदी हुई रुसवा हस्ती
दरगहे-मजहबो-इखलाक से ठुकराई हुई
सोचता हूं कि बशर और मुहब्बत का जुनूं
ऐसे बोसूदा तमुद्दन में है इक कारे-जबूं
सोचता हूं कि मोहब्बत न बचेगी जिंदा
पेश-अज-वक्त की सड़ जाए ये गलती हुई लाश
यही बेहतर है कि बेगाना-ए-उल्फत होकर
अपने सीने में करूं जज्बा-ए-नफरत की तलाश
और सौदा-ए-मोहब्बत से किनारा कर लूं
दिल को बेगाना-ए-तरगीबो-तमन्ना कर लूं
यह गीत शुरू होता है इस बात से कि--सोचता हूं मोहब्बत से किनारा कर लूं। हट जाऊं मोहब्बत से। क्योंकि मोहब्बत में बड़ी झंझटें हैं। बड़े रस भी हैं, बड़े फूल भी हैं, उतने ही बड़े कांटे भी हैं।
सोचने वाला तो सभी सोचेगा न! फूल भी, कांटे भी, दिन भी, रातें भी, सुख भी, दुख भी।
सोचता हूं कि मोहब्बत से किनारा कर लूं
दिल को बेगाना-ए-तरगीबो-तमन्ना कर लूं
अभिलाषाओं से हृदय को रिक्त कर लूं क्योंकि अभिलाषा कष्ट में ले जाती है। लेकिन अभी कष्ट में तुम गए नहीं। हां, बुद्धों ने कहा है, अभिलाषा कष्ट में ले जाती है। मगर यह जाकर कहा है, अनुभव से कहा है। तुम अभी गए नहीं। तुम सोचते हो, मोहब्बत से किनारा कर लूं। किनारा करके भागोगे कहां? जाओगे कहां? वंचित रह जाओगे एक अनुभव से। बुद्ध कभी न हो पाओगे। बुद्ध ने मोहब्बत की, और जाना। उस जानने से ऊपर उठे। किनारा नहीं किया, भागे नहीं, बचे नहीं, घाव सहे। कांटों से उनके हाथ लहूलुहान हुए। फूलों को पकड़ने की कोशिश की और कांटों से लहूलुहान हुए। लेकिन उसी से समझ आई। उसी से प्रौढ़ता आई।
सोचता हूं कि मोहब्बत से किनारा कर लूं
दिल को बेगाना-ए-तरगीबो-तमन्ना कर लूं
सोचता हूं कि मोहब्बत है जुनूने-रुसवा
क्योंकि मोहब्बत तो एक पागलपन मालूम होती है। जो मोहब्बत में नहीं गए उनको सभी को पागलपन मालूम होती है। जो मोहब्बत में गए और उसके ऊपर उठे उनको भी पागलपन मालूम होती है। लेकिन दोनों के मालूम होने में बड़ा भेद है। मालूम मालूम होने में बड़ा भेद है। जो गए नहीं उनको इसलिए मालूम होती है पागलपन क्योंकि उनकी बुद्धि कहती है, फायदा क्या, मिलेगा क्या? रखा क्या है? जो गए उनको भी पागलपन मालूम होती है, लेकिन क्यों? क्योंकि उनको अब और बड़ा पागलपन दिखाई पड़ने लगा--परमात्मा का प्रेम। उसके सामने यह छोटा पागलपन अब जंचता नहीं।
सोचता हूं कि मोहब्बत है जुनूने-रुसवा
चंद बेकार-से बेहूदा खयालों का हुजूम
एक आजाद को पाबंद बनाने की हवस
एक बेगाने को अपनाने की सअइ-ए-मौहूम
एक झूठा प्रयत्न है, भ्रमात्मक प्रयत्न है आदमी को उलझाने का, गुलाम बनाने का, दास बनाने का।
सोचता हूं कि मोहब्बत है सरूरो-मस्ती
इसकी तन्वीर से रोशन है फजाए-हस्ती
फिर कभी लगता है कि मोहब्बत तो सरूर है, मस्ती है। और इसी की रोशनी से तो सारा जगत झिलमिला रहा है। इसी प्रेम के कारण तो लोग जी रहे हैं। इसी प्रेम के कारण तो पिता मजदूर है, चट्टानें तोड़ रहा है। इसी प्रेम के कारण तो मां अपने को गला रही है। इसी प्रेम के कारण तो पति अपनी जिंदगी को दांव पर लगा रहा है। पत्नी है, अपना सब लुटा रही है। इसी प्रेम के कारण तो इस जगत में थोड़ी रोशनी दिखाई पड़ती है। थोड़े दीये जलते दिखाई पड़ते हैं। नहीं तो सब जगह मरघट हो।
जरा सोचो एक दिन को, कि प्रेम एकदम विदा हो जाए। एकदम प्रेम तय कर ले कि बहुत हो गया। जैसे तुम थक गए प्रेम से, एक दिन प्रेम तुम से थक जाए और कहे कि बहुत हो गया। अब विदा हो जाएं इस जगत से। अब यह जमीन रहने योग्य नहीं। फिर क्या होगा? जरा सोचो। चौबीस घंटे भी पृथ्वी टिक न सकेगी। सब टूट जाएगा, सब बिखर जाएगा। यहां सब धागे प्रेम के हैं। यहां सारी व्यवस्था प्रेम की है।
सोचता हूं कि मोहब्बत है वसर की फितरत
फिर कभी सोच आता है कि आदमी का स्वभाव है।
इसका मिट जाना, मिटा देना बहुत मुश्किल है
सोचता हूं कि मोहब्बत से है ताबिंदा हयात
यह जीवन उसी से तो रोशन है।
आपसे ये शमा बुझा देना बहुत मुश्किल है
सोचता हूं कि मोहब्बत पे कड़ी शर्तें हैं
बस, यह सोच ही सोच चलता है कि मोहब्बत पर बहुत शर्तें लगा रखी हैं लोगों ने; बड़ी झंझटें लगा रखी हैं। जो करे, मुश्किल में पड़ जाता है।
इस तमुद्दन में मसर्रत पर बड़ी शर्तें हैं
और लोगों ने खुशी पर भी बड़ी शर्तें लगा रखी हैं। बड़ा महंगा हो गया है सौदा।
सोचता हूं कि मोहब्बत है एक अफसुर्दा-सी लाश
फिर कभी यह भी खयाल आता है कि यह तो बड़ी पुरानी चीज हो गई; मोहब्बत कोई नई चीज तो है नहीं। सदा से चली आ रही है, सड़ गई है, लाश है।
चादरे-इज्जतो-नामूस में कफनाई हुई
दौरे-सरमाया की रौंदी हुई रुसवा हस्ती
दरगहे-मजहबो-इखलाक से ठुकराई हुई
धार्मिकों ने, नीतिज्ञों ने, भले लोगों ने, संतों-साधुओं ने, सबने तो ठुकराया है इसे। यह ठुकराने ही योग्य है।
सोचता हूं कि बशर और मोहब्बत का जुनूं
ऐसे बोसीदा तमुद्दन में है इक कारे-जबूं
सोचता हूं कि मोहब्बत न बचेगी जिंदा
यह तो मरेगी ही। इस मरी हुई या मरती हुई चीज से क्या संबंध जोड़ना!
सोचता हूं कि मोहब्बत न बचेगी जिंदा
पेश-अज-वक्त कि सड़ जाए ये गलती हुई लाश
इसके पहले कि यह सड़ जाए,
यही बेहतर है कि बेगाना-ए-उल्फत होकर
प्रेम से अपने को अलग करके--
अपने सीने में करूं जज्बा-ए-नफरत की तलाश
इससे तो बेहतर यही है कि अपने हृदय में घृणा के भाव को खोजूं, बजाय प्रेम के।
यह बड़े मजे की कविता है। प्रेम से शुरू होती है, घृणा पर अंत होता है। अगर प्रेम इतना फिजूल है, झंझट का है तो फिर बेहतर यही है कि घृणा की तलाश की जाए।
यही बेहतर है कि बेगाना-ए-उल्फत होकर
अपने सीने में करूं जज्बा-ए-नफरत की तलाश
और सौदा-ए-मोहब्बत से किनारा कर लूं
दिल को बेगाना-ए-तरगीबो-तमन्ना कर लूं
और यह सत्य भी है बात। एडोल्फ हिटलर का जीवन तुम पढ़ो। पढ़ना चाहिए। जैसे महात्माओं के जीवन पढ़ने योग्य हैं वैसे ही इन महात्माओं के जीवन भी पढ़ने योग्य हैं। उससे भी बड़ी दृष्टियां मिलती हैं। एडोल्फ हिटलर प्रेम की तलाश करता रहा और नहीं पा सका। और तब उसने सारी जिंदगी घृणा से भर दी। बनना चाहता था चित्रकार, नहीं बन सका। तो सृजनात्मक की जगह विध्वंसात्मक हो गया।
और तुम जिनको तथाकथित महात्मा कहते हो उनको भी जरा गौर से देखना। उनके जीवन का सार-तत्व भी परमात्मा से प्रेम कम है, संसार से घृणा ज्यादा है। उन्होंने भी घृणा की तलाश कर ली है। इन दोनों बातों में बड़ा फर्क है।
कोई आदमी परमात्मा के प्रेम से भर कर नाचता है, ध्यान करता है, भक्ति करता है। और कोई आदमी केवल संसार की घृणा से भर कर मंदिर में जा बैठा है। ये दोनों एक जैसे आदमी नहीं हैं। इन दोनों के पहलू अलग, इनकी प्रेरणा अलग। एक रुग्ण है, एक स्वस्थ है।
जो आदमी संसार से घृणा करके मंदिर में जा बैठा है, इसके कारण मंदिर भी गंदा हो जाएगा। इसके जीवन का तत्व घृणा है। जो आदमी संसार के प्रेम को देखा, जाना, पहचाना और इसी प्रेम से धीरे धीरे उसे परमात्मा का सुराग मिला। इसी प्रेम के सहारे-सहारे उसे धीरे-धीरे यह समझ में आया कि यह सारा जगत प्रेम के तत्व से ही बना है। इस सारे जगत के पीछे कोई प्रेम का विराट तत्व खड़ा है। मैं उसी को खोज लूं। मैं छोटी छोटी बूंदों में क्यों जीऊं? मैं पूरे सागर को क्यों न पा लूं?
जो इस जगत के प्रेम को अनुभव करके परमात्मा की खोज में गया, यह आदमी जहां बैठ जाएगा वहां मंदिर बन जाएंगे। यह जहां बैठेगा वहीं तीर्थ होंगे, वहीं काबा, वहीं काशी, वहीं कैलाश। और जो आदमी संसार की घृणा से भर कर--न प्रेम कर पाया, न दे पाया, न ले पाया और धीरे-धीरे उद्विग्न हो गया, जिसकी ऊर्जा खट्टी हो गई, सड़ गई, जिसका प्रेम विकसित न हो पाया तो जहर हो गया, जिसकी सृजनात्मक शक्ति विध्वंसात्मक हो गई, यह आदमी अगर मंदिर और मस्जिद में जाकर बैठ जाएगा तो मंदिर और मस्जिद भी उदास हो जाएंगे।
तुम जरा देखो, तुम्हारे मंदिर, मस्जिद, चर्च कितने उदास हो गए हैं! किनके कारण उदास हो गए हैं? जो लोग वहां बैठे हैं, इन्होंने प्रेम की खोज की थी, सफल नहीं हो पाए, और घृणा की तलाश कर ली।
तुम कहते हो: ‘मैं सोचता हूं प्रेम के संबंध में बहुत। कभी आपकी बातें ठीक लगती हैं, कभी गलत।’
सोचोगे तो ऐसे ही बिगूचन में पड़े रहोगे--यह ठीक कि वह ठीक। जानो! जानने से निर्णय होता है। सोचने से निर्णय नहीं होता। अनुभव करो। जिंदगी तो ऐसे ही चली जाएगी, प्रेम ही कर लो। और मैं तुमसे कोई शर्त नहीं लगाता। कैसा भी प्रेम--मित्र से, गुरु से, पत्नी से, पति से, बेटे से, बेटी से। किसी से प्रेम कर लो।
यह बड़ी पुरानी कथा है कि एक आदमी नागार्जुन के पास आया और उसने कहा कि मुझे ध्यान करना है। नागार्जुन ने कहा: तेरा किसी से प्रेम है? वह आदमी बोला कि अब आपसे क्या छिपाना? मगर कहते संकोच लगता है। नागार्जुन ने कहा: फिर भी तू कह। उसने कहा: मुझे मेरी भैंस से.! ग्वाला था और एक ही भैंस थी। वही उसका भोजन, वही उसकी जीवनचर्या, वही उसका सब। वह उसको चराने ले जाता, चराता, नहलाता, घर लाता, दूध बेचता और मस्त था। उसने कहा: मुझे बड़ा संकोच होता है। आप भी क्या सोचेंगे कि भैंस से प्रेम? कुछ और न मिला तुझे करने को?
नागार्जुन ने कहा: कुछ फर्क नहीं पड़ता। पात्र से कुछ नहीं फर्क पड़ता, प्रेम से फर्क पड़ता है। तू फिकर न कर। तू यह सामने की गुफा में बैठ जा और अपनी भैंस का विचार कर। उसने कहा, आप भी क्या कह रहे हैं! भैंस का विचार? मैं तो सोचता था आप परमात्मा के विचार करने को कहेंगे। नागार्जुन ने कहा: तू बैठ उस सामने की गुफा में और भैंस का विचार कर। और इतना विचार कर कि धीरे-धीरे लवलीन हो जा।
उस आदमी को भरोसा तो न आया। सोचा कि कोई मजाक तो नहीं कर रहे हैं? लेकिन नागार्जुन कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। वह जाकर बैठ गया। नागार्जुन ने कहा कि जब तक तुझे ऐसा न लगने लगे कि मैं भैंस ही हो गया, तब तक जारी रखना। फिर मैं आऊंगा। मैं जब तक न पुकारूं तब तक तू निकलना भी मत। वह चला गया भीतर। एक दिन बीता, दो दिन बीते, तीन दिन बीत गए। तब नागार्जुन उसके द्वार पर जाकर दस्तक दिए। खुला दरवाजा था गुफा का। कहा कि अब तू बाहर निकल आ भाई। वह आदमी उठा, चारों हाथ पैर पर चला, और दरवाजे पर आकर अटक गया। नागार्जुन ने कहा: निकलता क्यों नहीं? उसने कहा: सींग फंसते हैं। तीन दिन तक एक ही भाव में तल्लीन रहा--भैंस, भैंस, भैंस! हो गया भैंस।
नागार्जुन ने कहा: तेरे हाथ में सूत्र आ गया। यहां लोग हैं, जो वर्षों से मेहनत कर रहे हैं और इस सत्य को अनुभव नहीं कर पाए कि ध्यान रूपांतरण है। जिसका करोगे वही हो जाओगे। तेरे हाथ में सूत्र आ गया। अब इसी सूत्र का तू परमात्मा पर प्रयोग कर लेना। अब तू परमात्मा का विचार करना शुरू कर। यही प्रेम उनमें डाल। प्रेम यही है; भैंस में डाला, भैंस हो गया। परमात्मा में डालें, परमात्मा हो जाएगा।
जिन्होंने घोषणा की अहं ब्रह्मास्मि, उनमें और इस आदमी में कोई फर्क नहीं है। दोनों ने एक ही प्रक्रिया का अनुसरण किया है।
तुम प्रेम करो। तुम प्रेम से परिचित होओ। सोचे-सोचे जीवन मत गंवाओ। अनुभव की संपदा कमाओ। और फिर एक दिन जब तुम प्रेम को जान लो कि प्रेम क्या है, उसी प्रेम को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर देना। वही है असली फूल, जो परमात्मा के चरणों में चढ़ाया जाना है--तुम्हारा प्रेम का फूल। कहां खिला इसकी फिकर छोड़ो। ध्यान रखना, कमल कीचड़ में ही खिलते हैं। तो यह मत सोचो कि कीचड़ में कैसे कमल को खिलाऊं! कमल कीचड़ में ही खिलते हैं। यह संसार की कीचड़ है, यहां कमल को खिला लो। प्रेम इसमें कमल है। और जब प्रेम का कमल खिल जाए, तो चढ़ा देना उसे परमात्मा के चरणों में। तुम निश्चित अंगीकार हो जाओगे। तुम पर प्रसाद की वर्षा अनिवार्य है।

आज इतना ही।

Spread the love