SUNDERDAS
Hari Bolo Hari Bol (हरि बोलो हरि बोल) 05
Fifth Discourse from the series of 10 discourses - Hari Bolo Hari Bol (हरि बोलो हरि बोल) by Osho. These discourses were given during JUN 01-10 1978.
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हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।
सुंदर सहजै चीन्हियां, एकै राम अलाह।।
मेरी मेरी करत हैं, देखहु नर की भोल।
फिरि पीछे पछिताहुगे, हरि बोलौ हरि बोल।।
किए रुपइया एकठे, चौकूंटे अरु गोल।
रीते हाथिन वै गए, हरि बोलौ हरि बोल।।
चहल-पहल सी देखिकै, मान्यौ बहुत अंदोल।
काल अचानक लै गयौ, हरि बोलौ हरि बोल।
सुकृत कोऊ ना कियौ, राच्यौ झंझट झोल।।
अंति चल्यौ सब छाड़िकै, हरि बोलौ हरि बोल।।
मूंछ मरोरत डोलई, एंठयो फिरत ठठोल।
ढेरी ह्वै है राख की, हरि बोलौ हरि बोल।।
पैंडो ताक्यौ नरक कौ, सुनि-सुनि कथा कपोल।
बूड़े काली धार में, हरि बोलौ हरि बोल।।
माल मुलक हय गय घने, कामिनी करत कलोल।
कतहुं गए बिलाइकै, हरि बोलौ हरि बोल।।
मोटे मीर कहावते, करते बहुत डफोल।
मरद गरद में मिलि गए, हरि बोलौ हरि बोल।।
ऐसी गति संसार की, अजहूं राखत जोल।
आपु मुए ही जानिहै, हरि बोलौ हरि बोल।।
ख्यालो-शेर की दुनिया में जान थी जिनसे
फजाए-फिक्रो-अमल अरगवान भी जिनसे
वो जिनके नूर से शादाब थे महो-अंजुम
जुनूने-इश्क की हिम्मत जवान थी जिनसे
वो आरजूएं कहां सो गई हैं मेरे नदीम?
वो नासबूर निगाहें, वो मुंतजिर राहें
वो पासे जब्त से दिल में दबी हुई आहें
वो इंतिजार की रातें, तबील तीरह-व तार
वो नीम-ख्वाब शबिस्तां, वो मखमली बाहें
कहानियां थीं कहीं खो गई हैं मेरे नदीम!
मचल रहा है रंगे-जिंदगी में खूने-बहार
उलझ रहे हैं पुराने गमों से रूह के तार
चलो, कि चलके चिरागां करें दियारे-हबीब
है इंतिजार में अगली मोहब्बतों के मजार
मोहब्बतें जो फना हो गई हैं मेरे नदीम!
यहां जो भी है सब खो जाता है। यहां जो भी है खोने को ही है। यहां मित्रता खो जाती है, प्रेम खो जाता है; धन, पद, प्रतिष्ठा खो जाती है। यहां कोई भी चीज जीवन को भर नहीं पाती; भरने का भ्रम देती है, आश्वासन देती है, आशा देती है। लेकिन सब आशाएं मिट्टी में मिल जाती हैं, और सब आश्वासन झूठे सिद्ध होते हैं। और जिन्हें हम सत्य मान कर जीते हैं, वे आज नहीं कल सपने सिद्ध हो जाते हैं। जिसे समय रहते यह दिखाई पड़ जाए उसके जीवन में क्रांति घटित हो जाती है। मगर बहुत कम हैं सौभाग्यशाली जिन्हें समय रहते यह दिखाई पड़ जाए। यह दिखाई सभी को पड़ता है, लेकिन उस समय पड़ता है जब समय हाथ में नहीं रह जाता। उस समय दिखाई पड़ता है जब कुछ किया नहीं जा सकता। आखिरी घड़ी में दिखाई पड़ता है। श्वास टूटती होती है तब दिखाई पड़ता है। जब सब छूट ही जाता है हाथ से तब दिखाई पड़ता है। लेकिन तब सुधार का कोई उपाय नहीं रह जाता। जो समय के पहले देख लें, और समय के पहले देखने का अर्थ है, जो मौत के पहले देख लें। मौत ही समय है।
खयाल किया है तुमने, हम मृत्यु को और समय को एक ही नाम दिए हैं--काल। काल समय का भी नाम है, मृत्यु का भी। अकारण नहीं, बहुत सोच कर ऐसा किया है। समय मृत्यु है; मृत्यु समय है। मृत्यु आ गई, फिर कुछ करने का उपाय नहीं। मृत्यु के पहले जो जागता है उसके जीवन में संन्यास फलित होता है; उसकी जीवन-यात्रा नये अर्थ लेती, नई दिशाएं लेती। यदि जो हम यहां इकट्ठा कर रहे हैं व्यर्थ है तो स्वभावतः हमारी इकट्ठे करने की दौड़ कम हो जाती है। करनी नहीं पड़ती, हो जाती है कम। हमारी जो पकड़ है शिथिल हो जाती है। आयोजन नहीं करना पड़ता शिथिल करने का; अभ्यास नहीं करना पड़ता। अगर राख ही है तो तुम मुट्ठी को जोर से बांध कर रखोगे कैसे? हीरा मानते थे तो मुट्ठी जोर से बांधी थी; समझ में आनी शुरू हो गई राख है, मुट्ठी खुलने लगी। सहज ही खुल जाती है। इसलिए संन्यास सहज ही है।
और जो संन्यास आयोजित करना पड़ता है, व्यवस्था जमानी पड़ती है, अभ्यास करना पड़ता है, जिस संन्यास के लिए संघर्ष करना पड़ता है, वह झूठ है। संन्यास साधना नहीं है, जीवन की व्यर्थता का बोध है। और जीवन व्यर्थ है, उसमें सार्थकता देखना चमत्कार है। रोज कोई मरता है, फिर भी तुम्हें अपनी मौत दिखाई नहीं पड़ती! रोज किसी की अरथी उठती है, मगर तुम सोचते हो तुम्हारी शहनाई सदा बजती रहेगी। रोज तुम देखते हो, कोई उठ गया और सब पड़ा रह गया, फिर भी तुम पकड़े चले जाते हो, फिर भी तुम दौड़े चले जाते हो, उसी सबको इकट्ठे करने में लगे रहते हो। और ऐसा नहीं है कि दूर अपरिचित लोग मरते हैं; ऐसा कोई घर कहां है जहां मृत्यु न घटी हो? तुमने बुद्ध की कहानी तो सुनी है न?
किसा गौतमी नाम की एक स्त्री का बेटा मर गया। एक ही बेटा था; पति पहले ही जा चुका था, विधवा का बेटा था। सारा सहारा था। अचानक उसकी मृत्यु हो गई। रात सोया, सुबह नहीं जागा। बीमारी भी नहीं हुई; बीमारी भी होती तो इलाज करने का तो कम से कम आयोजन कर लेती, कुछ उपाय कर लेती। कुछ उपाय का मौका भी न मिला, उतनी सांत्वना भी न मिली। किसा गौतमी पागल जैसी हो गई। छाती पीटती थी और गांव भर में अपने बेटे की लाश को लेकर घूमती थी कि कोई मेरे बेटे को जिला दो। लोग समझाते कि पागल, जो मर गया, मर गया; उसके जीने का कोई उपाय नहीं है। ऐसा कभी हुआ नहीं। लेकिन उसकी आशा, उसकी कामना, पीछा न छोड़ती।
फिर किसी ने सलाह दी कि बुद्ध का गांव में आगमन हुआ है; तू उन्हीं के पास जा। शायद उनके आशीष से कुछ हो जाए। किसा गौतमी ने बुद्ध के चरणों में ले जाकर अपने बेटे की लाश रख दी और उसने बुद्ध से कहा: जिला दो मेरे बेटे को। तुम्हारे आशीर्वाद से क्या न हो सकेगा? तुम एक बार कह दो कि मेरा बेटा जी उठे। बुद्ध ने कहा: जिला दूंगा, जरूर जिला दूंगा, लेकिन पहले एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी। और शर्त यह है कि तू गांव में जा, और किसी के घर से थोड़े से सरसों के दाने मांग ला; मगर घर ऐसा हो जिसमें मौत कभी न घटी हो।
मोह में, आशा में, उत्फुल्लता से भरी हुई किसा गौतमी गांव में दौड़ी घर-घर, उस गांव में सारे किसान ही थे। सभी के घरों में सरसों के बीज थे। यह भी कोई शर्त बुद्ध ने लगाई है! मगर उस किसा गौतमी को अपने मोह में यह दिखाई न पड़ा कि शर्त ऐसी है कि पूरी हो न सकेगी--जिस घर में कोई मृत्यु न हुई हो। द्वार-द्वार जाकर उसने झोली फैलाई और कहा: मुझे थोड़े से दाने दे दो, शर्त एक ही है कि तुम्हारे घर में कोई मृत्यु न हुई हो। ऐसा कोई तो घर होगा। लेकिन लोग कहते: किसा गौतमी, तू पागल है, सब घरों में मृत्यु हुई है। मृत्यु जीवन की अनिवार्यता है; इससे कोई नहीं बच सकता। भिखमंगे से लेकर सम्राट के द्वार तक किसा गौतमी गई, सांझ होते-होते उसे सूझ आई। सांझ होते-होते उसे खयाल आया कि बुद्ध ने यह शर्त क्यों लगाई है--यही दिखाने को कि मौत सब जगह होती है, तू निरपवाद रूप से जान ले कि मौत सबकी होती है। मरना ही है। मरण जीवन का स्वभाव है। सांझ होते-होते हर द्वार से लौटी खाली हाथ, दिखाई पड़ा।
सांझ जब लौटी बुद्ध के चरणों में, उसने कहा: मेरे बेटे को मत जिलाएं; अब तो ऐसा कुछ करें कि मेरी मौत के पहले मैं जान लूं कि यह जीवन क्या है? बेटा तो गया; मैं भी जाऊंगी, यह भी स्पष्ट हो गया है। जो यहां है, सभी जाएंगे। अब मेरी सुबह की जिज्ञासा नहीं है, वह बात समाप्त हो गई। मुझे दीक्षा दें। अगर मृत्यु होनी ही है तो हो गई मृत्यु। अब जो थोड़े दिन बचे हों, थोड़ी श्वास बची हों, इन थोड़ी श्वासों से अमृत से संबंध जोड़ लूं, उससे संबंध जोड़ लूं जो मिलता है तो कभी खोता नहीं। अब पानी के बबूलों से और संबंध नहीं जोड़ने हैं। अब शाश्वत से नाता मेरा बना दें।
बुद्ध ने कहा: इसीलिए किसा गौतमी तुझे घर-घर भेजा था ताकि तेरी भ्रांति टूट जाए।
लोग ऐसा ही मान कर जीते हैं कि कहीं तो कोई अपवाद होगा। कहीं कोई अपवाद नहीं है। समय रहते जो जाग जाता है, वह रूपांतरित हो जाता है। लेकिन हम अपने को समझाए चले जाते हैं। हम कहते हैं: मौत होगी कल, आज तो अभी नहीं हुई है। अभी तो नहीं हुई है। अभी तो जी लें। सच तो यह है कि हम उलटे तर्क बना लेते हैं। हम कहते हैं: कल मौत होनी है इसलिए आज ठीक से जी लें। खाओ, पीओ, मौज करो, क्योंकि कल मौत है।
ये दो तर्क हैं। दोनों मौत को तो मानते हैं। एक तर्क कहता है: कल मौत है इसलिए सोच लो, समझ लो, ध्यान कर लो, जाग लो। दूसरा तर्क कहता है: कल मौत है, समय मत गंवाओ ध्यान-प्रार्थना इत्यादि में, भोग लो, चूस लो रस जितना संभव हो। ये दोनों एक ही बात को मान कर चलते हैं कि मौत है। अगर मौत है तो रस चूस कर भी क्या होगा? ये थोड़ी सी देर के स्वाद कितने दूर तक काम आएंगे? भुलावा हो जाएगा। थोड़ी देर के लिए मूर्च्छा सम्हल जाएगी। थोड़ी देर के लिए और सो लोगे। एक करवट और बदल लोगे। एक नया सुख यानी एक और करवट। फिर थोड़ी चादर ओढ़ ली, फिर एक झपकी ले ली, मगर नींद टूटनी ही है। सुबह होनी ही है।
आज की रात साजे-दर्द न छेड़!
दुख से भरपूर दिन तमाम हुए
और कल की खबर किसे मालूम
दोशो-फर्दा की मिट चुकी हैं हुदूद
हो न यो सब सहर किसे मालूम
जिंदगी हेच! लेकिन आज की रात
एजदियत है मुमकिन आज की रात
आज की रात साजे-दर्द न छेड़!
कल का तो कुछ पक्का नहीं है। सुबह हो न हो। कम से कम आज तो दर्द की बात मत उठाओ। आज तो साज मत छेड़ो दर्द का। कल तो मौत है, भुलाओ उसे। आज तो थोड़े रंगीन गीत गा लें।
अब न दोहरा फसानहाय अलम,
अपनी किस्मत पे सोगवार न हो।
फिक्रे-फर्दा उतार दे दिल से
उम्रे-रफ्ता पे अश्कबार न हो
अहदे-गम की हिकायतें मत पूछ
हो चुकीं सब शिकायतें मत पूछ
आज की रात साजे-दर्द न छेड़!
मत छेड़ो साजे-दर्द; किसी तरह आज की रात रंगीन कर लो। पी लो मदिरा, नाच लो, गा लो।
क्या फर्क पड़ेगा?
कल मौत आएगी, और सब धूल में मिला जाएगी। वे क्षण, जो तुमने सोचे थे मस्ती के थे, केवल भुलावे के सिद्ध होंगे। आदमी डरता है इस सत्य को देखने से। इसलिए दुनिया में धर्म की बात तो बहुत होती है, धार्मिक आदमी बहुत कम होते हैं। लोग बात ही करते हैं, धर्म की यात्रा पर निकलते नहीं। निकलने में एक ही खतरा है कि मौत स्वीकार करनी पड़ेगी। और मौत कौन स्वीकार करना चाहता है!
सच तो यह है, तुममें से बहुतों ने आत्मा अमर है, इसीलिए मान रखा है कि तुम मौत को स्वीकार नहीं करना चाहते। तुमने आत्मा अमर है, इस सिद्धांत के पीछे भी अपने को छिपा लिया है। आत्मा अमर है, इस कारण तुम धार्मिक होने से बच रहे हो। यह बात तुम्हें उलटी लगेगी। तुम तो सोचते हो कि मैं मानता हूं, आत्मा अमर है, इसलिए मैं धार्मिक हूं। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं; तुम धार्मिक होने के कारण नहीं मानते हो कि आत्मा अमर है, तुम धार्मिक नहीं होना चाहते हो, इसलिए तुम मान लिए हो कि आत्मा अमर है। मरना कहां है? भोगो, जीओ।
न केवल तुमने भोग के यहां आयोजन कर लिए हैं, तुमने इन्हीं भोगों के आयोजन स्वर्ग में भी कर लिए हैं, तुम्हारा बैकुंठ भी तुम्हारे यहां से बहुत भिन्न नहीं है, बस ऐसा ही है। थोड़ा और परिष्कृत, थोड़ा और रंगीन, थोड़ा और रूपवाला। तुम्हारे स्वर्ग में तुम्हारी वासनाओं की झलक है, तुम्हारी वासनाओं के ही गीत हैं। सुधरे हुए, सुधारे हुए। यहां गुलाब की झाड़ी में थोड़े कांटे भी होते हैं, वहां तुमने कांटे भी अलग कर दिए हैं--कल्पना में--फूल ही फूल बचा लिए। यहां आदमी के जीवन में दुख-दर्द भी होते हैं; तुमने वहां दुख-दर्द अलग कर दिए हैं, सुख ही सुख बचा लिए। तुमने दिन ही दिन बचा लिया; रात काट डाली। तुमने जीवन ही जीवन बचा लिया; मौत अलग कर दी है।
और मैं तुमसे कहना चाहता हूं: ये सब भुलावे हैं। तुम्हारे यहां के सुख भी धोखे हैं; तुम्हारे स्वर्ग के सुख भी धोखे हैं। इस धोखे से जो जागता है, सुख के धोखे से जो जागता है, उसे पहली बार पता चलता है कि सुख क्या है। उस सुख का नाम आनंद है। और वह आनंद न तो यहां है, न वहां है। वह आनंद तुम्हारे भीतर है, वह आनंद तुम हो, वह सच्चिदानंद तुम हो। बाहर की खोज भटकाती रहेगी। बाहर ही तुम्हारी दुनिया है, बाहर ही तुम्हारे स्वर्ग हैं। भीतर कब आओगे?
जब आदमी मर जाता है तो देखते हैं, अरथी हम उठाते हैं और कहते हैं: राम नाम सत है। मुर्दे के सामने दोहरा रहे हो, राम-नाम सत है! इस आदमी को जिंदगी में स्वयं जानना था कि राम-नाम सत है और सब असत है। जैसे यहां राम-नाम सत कहते हैं, ऐसे बंगाल में ‘हरि बोलौ हरि बोल।’ जब आदमी मर जाता है, उसकी अरथी उठा कर ले जाते हैं, तो कहते हैं: ‘हरि बोलौ हरि बोलो।’ जिंदगी भर हरि न बोला, अब दूसरे बोल रहे हैं, इसके तो ओंठ अब कंपेंगे भी नहीं।
और दूसरे भी अपने लिए नहीं बोल रहे हैं, खयाल रखना। इस मुर्दे के लिए बोल रहे हैं कि भई, अब तेरा तो सब समाप्त हुआ, ‘हरि बोलौ हरि बोल!’ नमस्कार! अब हमसे पिंड छुड़ा। अब हमें क्षमा कर। अब जा, अब हमें मत सता। घर लौट गए। मुर्दे के लिए बोले, अपने लिए नहीं। मुर्दा भी जिंदा रहा जब तक, नहीं बोला।
जो आदमी जीवित-जीवित बोल देता है, हरि को स्मरण कर लेता है, उसके जीवन में स्वर्ण की आभा उतर आती है, उसके जीवन में शाश्वत की किरणें उतर आती हैं।
हरि को पुकारना है तो जीते जी पुकार लो। तुम पुकारो तो ही पुकार पाओगे, दूसरे तुम्हारे लिए नहीं पुकार सकते। यह पुकार उधार नहीं हो सकती। और हरि को न पुकारा तो गया जीवन व्यर्थ। हारा तुमने जीवन अगर हरि को न पुकारा।
हरि को पुकारने का अर्थ केवल इतना ही है कि इस जीवन में, इस जीवन की पर्तों में छिपा हुआ कुछ हीरा पड़ा है, कुछ ऐसा पड़ा है जो मिल जाए तो तुम सम्राट हो जाओ, जो न मिले तो तुम भिखारी बने रहोगे।
बीत गई सुखबेला
दूर कहीं शहनाई बाजी, कोई हुआ अकेला
बीत गई सुखबेला।
होनी प्रीत के होने खेल में फांक लिए अंगारे
पग-पग अंधियार बरसाएं धुंदले चांद-सितारे
छेड़ गया चिंता-नगरी में आज सुनहला अंधेला
बीत गई सुखबेला।
सांस कटारी बन-बन अटके अंखियां भर-भर आएं
कुंदन की तपती भट्टी में झुलस गई आशाएं
आशाओं की चिता पे नाचे, दुखड़ा नया नवेला
बीत गई सुखबेला।
परबत और पाताल मिला के सुपन ने जोत जगाई
बैरी लेख से नैन मिले तो टूट गई अंगड़ाई
अब मन सोचे पड़े अकेला क्यों अग्नि से खेला
बीत गई सुखबेला।
दूर कहीं शहनाई बाजी, कोई हुआ अकेला
बीत गई सुखबेला।
सब बीता जा रहा है। संसार का अर्थ है: जो बीत रहा है, जो थिर नहीं है, जो नदी की धार है। यह धार भागी जा रही है। इस धार में दुबारा उतरना भी संभव नहीं है। तुम्हारी मुट्ठी से सब बहा जा रहा है। तुम खुद बहे जा रहे हो।
अब मन सोचे पड़ा अकेला क्यों अग्नि से खेला
बीत गई सुखबेला।
लेकिन चिता पर पड़े हुए सोचोगे भी तो बहुत देर हो गई होगी। फिर करने का कोई उपाय न बचेगा। अभी पुकार लो: हरि बोलौ हरि बोल। अभी बुला लो। अभी तलाश लो। अभी खोज लो। अभी खोद लो--घर में आग लगे इसके पहले कुआं तैयार कर लो। ऐसा मत सोचना कि जब लगेगी घर में आग तब कुआं तैयार कर लेंगे। अभी तैयार कर लो। आग तो लगनी सुनिश्चित है। जिस घर में तुम रह रहे हो, इस में आग लगनी ही है। यह लपटों में जलने को ही बना है, यह चिता पर चढ़ने को ही बना है। यह इसकी नियति है। इसकी नियति से इसे भिन्न नहीं किया जा सकता। यह इसका अंतरस्थ स्वभाव है। तुम्हारा जो घर है, साधारण घर, वह तो जले न जले, मगर तुम्हारी देह तो जलेगी। यह इतनी सुनिश्चित बात है, इस में कोई संदेह करने का प्रश्न ही नहीं उठता। ईश्वर को मत मानो, आत्मा को मत मानो, मोक्ष को मत मानो, जरूरत नहीं है। इतना तो मानो कि यह देह चिता पर चढ़ेगी। बस उतने से ही क्रांति हो जाएगी।
ये तुम गैरिक वस्त्र देखते हो संन्यासियों के, यह चिता की अग्नि का रंग है। संन्यास का अर्थ होता है: मरने के पहले हम चिता पर चढ़ें, कि हमें यह बात स्वीकृत हो गई कि हमें चिता पर चढ़ना है, कि हमने यह अग्नि वेष धारण किया है, कि हमें याद दिलाता रहेगा यह वेष कि हम अग्नि पर चढ़े हैं। यह देह अग्नि पर चढ़ी ही है। देर-अबेर से कुछ फर्क नहीं पड़ता। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। मगर संन्यासी यह घोषणा कर रहा है अपने समक्ष और संसार के समक्ष कि मैं अग्नि पर चढ़ा हूं, इस तथ्य को मैं झुठलाना नहीं चाहता, इस तथ्य को मैं अपने जीवन का केंद्र बना लेना चाहता हूं। और इसी केंद्र पर मैं सारे जीवन के वर्तुल को घुमाना चाहता हूं।
तुम्हारे जीवन का केंद्र क्या है? किसी का धन है, किसी का पद है, किसी का काम, किसी का लोभ, किसी का मोह। मगर ये सब छिन जाएंगे, ये असली केंद्र नहीं हैं। तुम्हारे जीवन के केंद्र को कुछ ऐसा बनाओ कि मौत उसे छीन न सके। तुम मौत से पार जाने वाली कोई किरण अपने भीतर पकड़ो। उस किरण को भक्तों ने प्रेम कहा है, ज्ञानियों ने ध्यान कहा है। वे एक ही बात के दो नाम हैं।
आज के सूत्र।
हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।
सुंदर सहजै चीन्हियां, एकै राम अलाह।।
बड़ा प्यारा वचन है। अमूल्य अर्थों से भरा वचन है।
हिंदू की हदि छाड़िकै,.
जब तक हद है तब तक तुम बेहद को न पा सकोगे। जब तक सीमा में बंधे हो तब तक असीम से तुम्हारा कोई संबंध न हो सकेगा। अगर हिंदू हो तो धार्मिक नहीं हो सकते; अगर मुसलमान हो तो धार्मिक नहीं हो सकते। तुम्हारी हद है। बेहद से कैसे जुड़ोगे?
गंगा अगर जिद करे कि मैं गंगा ही रहूंगी तो सागर से न मिल पाएगी, इतना पक्का है। गंगा कहे कि मैं तो अपने किनारों में ही आबद्ध रहूंगी, मैं तो अपने व्यक्तित्व को बचाऊंगी, मैं गंगा हूं, मैं ऐसे सागर में नहीं उतर सकती, अगर गंगा गंगा होने की जिद रखे तो सागर में न उतर पाएगी। सागर में उतरने के पहले गंगा को एक बात तो तय कर लेनी होगी कि अब मैं नहीं हूं। सीमा छोड़ देनी होगी।
फिर सीमाएं किसी भी तरह की हों, सभी सीमाएं मनुष्य को कारागृह में डालती हैं, जंजीरों से बांधती हैं। हिंदू हो तो तुमने एक जंजीर पहन ली; ईसाई हो तो दूसरी जंजीर पहन ली। क्यों अपने को छोटा करते हो? बड़े से मिलने चले हो, विराट से मिलने चले हो, क्यों अपने को क्षुद्र में आबद्ध करते हो? भारतीय हो, चूकोगे; चीनी हो, चूकोगे।
और हमारी तो हद है। हिंदू होने से भी हमारा काम नहीं चलता, वह भी सीमा बड़ी मालूम पड़ती है। उसमें भी कोई ब्राह्मण है, कोई शूद्र है। ब्राह्मण होने से भी हमारा काम नहीं चलता; वह भी सीमा बड़ी मालूम पड़ती है। तो उसमें कोई कानकुब्ज ब्राह्मण है, कोई कोकणस्थ है, कोई देशस्थ है। और उसमें भी फिर सीमाएं हैं, सीमाएं हैं, और सीमाएं हैं। तुम छोटे से छोटे होते चले जाते हो।
और अनहद की तलाश पर चले! और परमात्मा को पुकारना चाहते हो: हरि बोलौ हरि बोल! हिंदू रह कर हरि को पुकारना चाहते हो? तुम्हारी पुकार नहीं पहुंचेगी। इतनी संकीर्ण पुकारें नहीं पहुंचतीं। पुकार विराट से जोड़नी है तो विराट हृदय से उठनी चाहिए। और मजा ऐसा है कि मुसलमानों की किताब भी कहती है कि परमात्मा असीम है और हिंदुओं की किताब भी कहती है कि परमात्मा असीम है। और हिंदू भी दोहराते हैं कि परमात्मा असीम है और मुसलमान भी दोहराते हैं कि परमात्मा असीम है। लेकिन यह बात दोहराने से उन्हें यह याद नहीं आती कि हम असीम कब होंगे। अगर परमात्मा असीम है और हम उससे जुड़ना चाहते हैं तो कुछ तो उसका रंग लें, कुछ तो उसका रूप लें, कुछ तो उसका ढंग लें, कुछ तो उसकी हवा बहने दें अपने भीतर।
लोग संकीर्ण हो गए हैं? और जितने संकीर्ण हो गए हैं, उतने ही परमात्मा से दूर हो गए हैं। तुम देह में ही आबद्ध नहीं हो, देह से भी बड़े बंधन तुम्हारे मन में हैं। तुमने वहां तय कर रखा है कि झुकेंगे तो मस्जिद में, झुकेंगे तो गुरुद्वारा में। झुकने पर भी सीमा लगा ली!
यह आकाश किसका है? ये चांद-तारे किसके हैं? ये वृक्ष, ये पक्षी, ये लोग किसके हैं? झुकने में क्या सीमा लगा रहे हो? जहां खड़े हो वहीं झुको; जहां बैठे हो, वहीं झुको। भूमि का प्रत्येक कण उसका तीर्थ है। सब पत्थर काबा के पत्थर हैं, और सब घाट काशी के घाट हैं। कैलाश ही कैलाश है। चलते वहीं हो, जीते वहीं हो, उठते वहीं हो, मरते वहीं हो। सीमाएं तोड़ो!
सुंदरदास ठीक कहते हैं:
हिंदू की हदि छाड़िकै,.
हद छोड़ दी हिंदू की, उस दिन जाना। हद छोड़ते ही ज्ञान अवतरित होता है।
.तजी तुरक की राह।
और मुसलमान की राह भी छोड़ दी। परमात्मा को राह से थोड़ा ही पाना होता है!
राह तो बाहर जाने के लिए होती है, भीतर जाने की कोई राह नहीं होती। मार्ग तो दूर से जोड़ने के लिए होते हैं। जो पास से भी पास है उसे जोड़ने के लिए किस मार्ग की जरूरत है? चले कि भटके! रुको। सब राह जाने दो। सारे पंथ जाने दो। तुम तो आंख बंद करो, अपंथी हो जाओ, अमार्गी हो जाओ। परमात्मा दूर नहीं है कि रास्ता बनाना पड़े। परमात्मा तुम्हारे अंतस्तल में विराजमान है। कोई रास्ता बनाने की जरूरत नहीं है, तुम वहां हो ही। सिर्फ आंख खोलनी है। सिर्फ बोध जगाना है। सिर्फ स्मरण करना है--‘हरि बोलौ हरि बोल।’
इसका मतलब समझते हो?
इसका मतलब इतना ही है कि बस इतने से ही हो जाएगा, स्मरण मात्र से हो जाएगा। सुरति काफी है। आदमी ने परमात्मा को खोया नहीं है। खो देता तो बड़ी मुश्किल हो जाती। खो देता तो कहां खोजते? कैसे खोजते इस विराट अस्तित्व में, अगर खो देते?
बामुश्किल चांद तक पहुंच पाए। अस्तित्व बहुत बड़ा है। पहले तारे पर पहुंचने के लिए. अगर हमारे पास ऐसे यान हों जो प्रकाश की गति से चलें--प्रकाश की गति बहुत है--एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड। उसमें साठ का गुणा करना, तो एक मिनट में प्रकाश उतना चलता है। फिर उसमें साठ का गुणा करना, तो एक घंटे में प्रकाश उतना चलता है। फिर उसमें चौबीस का गुणा करना, तो चौबीस घंटे में उतना चलता है। फिर उसमें तीन सौ पैंसठ का गुणा करना। तो वह सबसे छोटा प्रकाश का मापदंड है--एक प्रकाश-वर्ष। प्रकाश को नापने का वह तराजू है। सबसे छोटा माप, जैसे सोने को रत्ती से नापते हैं, ऐसी वह रत्ती है। एक वर्ष में प्रकाश जितना चलता है, वह सबसे छोटा मापदंड है। और एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलता है।. अगर हमारे पास प्रकाश की गति से चलने वाले यान हों, जिसकी अभी कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती, तो सबसे निकट के तारे में पहुंचने में चालीस वर्ष लगेंगे। और यह निकट का तारा है।
फिर इससे और दूर तारे हैं, और दूर तारे हैं। ऐसे तारे हैं जिन तक पहुंचने में अरबों-खरबों वर्ष लगेंगे। जीएगा कहां आदमी? ऐसे तारे हैं जिनसे रोशनी चली थी उस दिन जब पृथ्वी बनी; अभी तक पहुंची नहीं। और ऐसे तारे हैं जिनकी रोशनी तब चली थी, जब पृथ्वी नहीं बनी थी और तब पहुंचेगी जब पृथ्वी मिट चुकी होगी। उन तारों की रोशनी को मिलना ही नहीं होगा पृथ्वी से। पृथ्वी को बने करोड़ों वर्ष हो गए, और करोड़ों वर्ष अभी जी सकती है, अगर आदमी पगला न जाए। जिसकी बहुत ज्यादा संभावना है कि आदमी पागल हो जाएगा और अपने को नष्ट कर लेगा। तो उन तारों की रोशनी को पता ही नहीं चलेगा कि पृथ्वी बीच में बनी, गई, खो गई; कभी थी या नहीं। उन तक हम कैसे पहुंचेंगे?
और उसके पार भी विस्तार है। विस्तार अंतहीन है। अगर परमात्मा खो जाए तो कहां खोजेंगे, कैसे खोजेंगे, किससे पूछेंगे उसका पता-ठिकाना? नहीं, असंभव हो जाएगी बात फिर। परमात्मा मिल जाता है, क्योंकि खोया नहीं है। मेरी इस बात को खूब गांठ बांध कर रख लेना: परमात्मा मिलता है, क्योंकि खोया नहीं है। मिला ही हुआ है, इसलिए मिलता है। सिर्फ याद खो गई है, परमात्मा नहीं खोया है। हीरा खीसे में पड़ा है, तुम भूल गए हो। कभी-कभी हो जाता है न, आदमी चश्मा आंख पर रखे रहता है और चश्मा ही खोजने लगता है; कलम कान में खोंस लेता है और चारों तरफ कलम खोजने लगता है। ऐसी ही दशा है, विस्मरण हुआ है।
‘हरि बोलौ हरि बोल’ में यही तुम्हें याद दिलाया जा रहा है कि अगर तुम पुकार लो मन भर कर, पूरे हृदय से, रोएं-रोएं से, श्वास-श्वास से, तो बस बात हो जाएगी। और कुछ करना नहीं है।
हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।
सुंदर सहजै चीन्हियां,.
और जैसे ही हिंदू को छोड़ा, मुसलमान को छोड़ा कि सहज ही उसकी पहचान आ गई। इन्हीं की वजह से पहचान अटकी थी। अब तुम और जरा मुश्किल में पड़ोगे। मेरी बात तुम्हें और थोड़ी झंझट में डालेगी। हिंदू होने की वजह से बाधा पड़ रही है। तुम्हारे वेद बीच में आ रहे हैं। तुम्हारी गीता, तुम्हारी रामायण बीच में आ रही हैं। तुम्हारे राम-कृष्ण बीच में आ रहे हैं। मुसलमान होने से बाधा पड़ रही है, तुम्हारा कुरान बीच में आ रहा है। तुम्हारी नमाज बीच में आ रही है। तुम्हारी मस्जिद, तुम्हारे मौलवी बीच में आ रहे हैं। उसकी याद के लिए किसी मध्यस्थ की कोई जरूरत नहीं है। उसकी याद तो सीधी उठनी चाहिए। उसकी याद के लिए तुम्हें किसी शास्त्र में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। अपने भीतर जाना है। शास्त्र में नहीं, स्वयं में जाना है।
इसलिए मैं कहता हूं, यह वचन बहुत अदभुत है--
हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।
सुंदर सहजै चीन्हियां,.
और सहज ही पहचान हो गई। इन्हीं की वजह से पहचान नहीं हो रही थी। अब जिसने सोच रखा है कि भगवान तो वही है जो मंदिर में धनुषबाण लिए खड़े हैं--राम ही भगवान हैं--इसको अड़चन होगी। यही प्रतिमा इसके लिए बाधा बनेगी। यही आकृति इसे निराकार में न जाने देगी। या जिसने सोचा है कि भगवान तो वही जो मोरमुकुट बांधे मंदिर में खड़े हैं, बांसुरी बजा रहे हैं, अब यह जिस तलाश में चल पड़ा यह कल्पना की तलाश है।
ऐसा नहीं है कि कृष्ण कभी हुए नहीं। हो भी गए, उठी लहर, वह नाच भी हुआ, वह बांसुरी भी बजी, और खो भी गए। उनको हमने भगवान कहा, क्योंकि उनमें सागर की झलक हमें सुनाई पड़ी, सागर की गरिमा का थोड़ा सा हमें उनमें बोध हुआ। हमने उन्हें भगवान कहा। ठीक कहा। लेकिन मंदिर में उनकी मूर्ति रख कर बैठ जाओगे तो चूक हो जाएगी। वह लहर की प्रतिमा है, सागर की नहीं। सागर की कोई प्रतिमा नहीं होती। सागर विराट है। लहर से सागर को पहचान लो बस। लहर का साथ मिल जाए तो थोड़ी दूर चल लो, मगर लहर को पूजते मत बैठे रहो। सदियां बीत गई हैं, और अब तुम लहर को ही पूज रहे हो। अब वह लहर कहां है? कब की सागर में खो गई और लीन हो गई, कब की विराट में एक हो गई! विराट में एक हो गए थे, इसीलिए तो हमने उनको भगवान कहा था। अपनापन छोड़ दिया था, आपा छोड़ दिया था, इसलिए भगवान कहा था। कोई अहंकार भाव नहीं रह गया था, इसलिए भगवान कहा था। देह गिर गई, भीतर तो शून्य हो ही गए थे। देह के गिरते ही शून्य शून्य में मिल गया, आकाश आकाश में खो गया। घड़ा फूट गया। अब तुम किसकी बातें कर रहे हो? अब घड़े की प्रतिमा बना कर बैठे हो! उसकी पूजा में लगे हो! वही बाधा बन रही है।
बुद्ध ने कहा है: अगर मैं भी तुम्हारे मार्ग पर आ जाऊं तो तलवार उठा कर मेरे दो टुकड़े कर देना।
मुझे कुछ ही दिन पहले अमरीका से एक पत्र मिला। कहीं मैंने बुद्ध के इस वचन का उल्लेख किया है; इफ यू मीट मी ऑन दि वे, किल मी। किसी ने बड़े क्रोध से मुझे पत्र लिखा है कि आप कौन हैं? आप कैसे यह कह सकते हैं कि बुद्ध रास्ते में मिल जाएं तो उनकी हत्या कर दें। उसे पता नहीं कि यह मैंने कहा नहीं, यह बुद्ध ने ही कहा हुआ है, यह बुद्ध का वचन ही मैंने उद्धृत किया है। उस आदमी को बड़ा क्रोध आ गया है कि कोई यह कैसे कह सकता है। मगर समस्त बुद्धों ने यही कहा है। कहेंगे ही। अगर यह न कह सकें तो बुद्ध नहीं हैं।
बुद्धों ने कहा है: हमसे पार हो जाओ, हममें अटक मत जाना। हम द्वार हैं, हमसे गुजर जाओ। हम पर रुक मत जाना। हम सेतु हैं, उस पार निकल जाओ। सेतु पर घर मत बना लेना। मगर तुमने सेतु पर घर बना लिया। तुम द्वार की ही पूजा करते बैठे हो। तुम भूल ही गए कि द्वार गुजरने को है, पार जाने को है। द्वार के पार जाना है। द्वार पर अटक नहीं जाना। कितना ही सुंदर हो द्वार, और कितनी ही प्यारी नक्काशी हो, और बहुमूल्य से बहुमूल्य लकड़ी का बना हो, कि सोने का बना हो, कि चांदी का बना हो, कि हीरे-जवाहरात जड़े हों, कितना ही मूल्यवान हो द्वार, मगर द्वार का अर्थ ही होता है: जिससे गुजर जाना। आगे कुछ है। द्वार से देखो आकाश, आगे तक बढ़ो।
सुंदरदास कह रहे हैं:
सुंदर सहजै चीन्हियां, एकै राम अलाह।
पहचान सरलता से हो गई जिस दिन हिंदू न रहे, जिस दिन मुसलमान न रहे। जिस दिन सीमा छूटी उसी दिन असीम से पहचान हो गई। असीम से पहचान होने में बाधा ही क्या है? असीम की तरफ से कोई बाधा नहीं है, तुम्हारी तरफ से बाधा है। तुम सीमा को पकड़े बैठे हो। सीमा को जाने दो, और असीम प्रवाहित होगा। और उस असीम के ही सब नाम हैं।
.एकै राम अलाह।
और तब तुम जानोगे कि मंदिर में जो पूजा जा रहा है वह वही है; और मस्जिद में जो पूजा जा रहा है वह भी वही है। आकार में भी वही है, निराकार में भी वही है। जो मानते हैं परमात्मा में वे भी उसकी ही बात कर रहे हैं, और जैसे बुद्ध और महावीर जो नहीं मानते हैं परमात्मा में, वे भी उसी की बात कर रहे हैं। हां भी उसी का रूप है, नहीं भी उसी का रूप है। क्योंकि वह रूपातीत है। पर तुम सीमा के पार जाओगे, असीम का स्वाद मिलेगा, तो ही यह अनुभव होगा।
अब यह बड़े मजे की बात है: राम में उलझ जाओ, तो राम अल्लाह के विपरीत हैं, अल्लाह में उलझ जाओ तो अल्लाह राम के विपरीत हैं। कृष्ण में उलझ जाओ तो कृष्ण राम के विपरीत हैं, राम में उलझ जाओ तो कृष्ण के विपरीत हैं। और अगर तुम सारी उलझनों से छूट जाओ तो तुम अचानक पाओगे कि वे सब एक ही अनुभव के नाम हैं, अलग-अलग नाम हैं। भाषा के भेद हैं, व्याख्याओं की भिन्नता है, पर इशारा एक ही तरफ है।
तो मैं तुमसे यह भी कह दूं कि जो हिंदू है, कभी भी धार्मिक नहीं हो पाता; हालांकि जो धार्मिक है वह जान लेता है कि हिंदू भी सच हैं, मुसलमान भी सच हैं, ईसाई भी सच हैं, जैन भी सच हैं, बौद्ध भी सच हैं। शास्त्रों में उलझ कर कोई सत्य तक नहीं पहुंचता, लेकिन जो सत्य तक पहुंच जाता है उसके लिए सभी शास्त्र सत्य हो जाते हैं। इसलिए सारे शास्त्रों पर मैं बोल रहा हूं, सिर्फ इसी बात की तुम्हें याद दिलाने के लिए--‘एकै राम अलाह।’
और यह ‘सहज’ शब्द भी खूब समझ लेने जैसा है।
सुंदर सहजै चीन्हियां,.
सहज का मतलब होता है: बिना प्रयास के, बिना साधना के, बिना साधे, बिना किसी योजना के, बिना यत्न के, अपने से हो गया। बस इतना ही किया कि दरवाजा खोल दिया जैसे सुबह सूरज निकला और तुमने दरवाजा खोल दिया, पर्दा खोल दिया, और रोशनी भर गई। यह रोशनी को जाकर बाहर बांध-बांध कर भीतर नहीं लाना पड़ता, रोशनी अपने से आ जाती है। द्वार खुला कि रोशनी आ जाती है। यह सहज है। ठीक ऐसे ही परमात्मा से तुम भर जाओगे, अगर तुम हद छोड़ दो।
मगर हद को हम बड़ी जोर से पकड़े हैं। हद हमारा प्राण बन गई है। हद हमारे लिए इतनी मूल्यवान हो गई है कि हम मरने-मारने को तैयार हैं। मुसलमान हिंदू को काटने को तैयार है; हिंदू मुसलमान को काटने को तैयार है। ईसाई यहूदियों को काटते रहे हैं। काटने के लिए तैयार हैं, मरने-मारने को तैयार हैं। हद ज्यादा मूल्यवान हो गई, और बेहद की बातें हो रही हैं। आदमी की मूढ़ता देखते हो! अगर बेहद की बात हो रही है तो फिर मारना-काटना क्या? धर्म के नाम पर हत्या कैसी?
और जब भी तुम किसी को मारते हो, उसी को मार रहे हो। ‘एकै राम अलाह।’ किसको मार रहे हो? तुम सोचते हो हिंदू को, मुसलमान को, तुम उसी को मार रहे हो। तुम जो भी नष्ट कर रहे हो, उसी के विपरीत तुम्हारा आयोजन चल रहा है। चाहे तुम उसका नाम ही लेकर क्यों न करो। चाहे उसके नाम पर ही क्यों न करो।
जागो तो सहज ही पहचान हो जाती है। एक ही काम करना है: हद छोड़ देनी है।
मेरी उपदेशना यही है: हद छोड़ो। यहां मैं तुम्हें यही सिखा रहा हूं कि हद छोड़ो। तो मेरे संन्यासी में कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई यहूदी, कोई बौद्ध, कोई जैन। मगर उसकी सब हदें गईं। वह स्मरण मात्र रह गए। वह अतीत हो गया। जैसे सांप सरक जाता है, पुरानी चमड़ी से छोड़ देता है खोल को पीछे, ऐसे संन्यासी अपनी खोलों को छोड़ कर पीछे सरक आया है। अब सिर्फ धार्मिकता रह गई है। सिर्फ एक सत्य की खोज की आकांक्षा रह गई है--एक शुद्ध अभीप्सा--एक लपट कि जानना है कि क्या है। बस, फिर सहज ही हो जाता है।
मेरी-मेरी करत हैं, देखहु नर की भोल।
फिरि पीछे पछिताहुगे, हरि बोलौ हरि बोल।।
मेरी-मेरी करत हैं,.
हद पर इतना आग्रह है कि कहते हैं मेरा धर्म, मेरी किताब, मेरी प्रतिमा, मेरा सिद्धांत, मेरा दर्शनशास्त्र!
मेरी-मेरी करत हैं, देखहु नर की भोल।
फिर पीछे पछिताहुगे, हरि बोलौ हरि बोल।।
समय मत गंवाओ, इन व्यर्थ की भूलों में भटको मत। झांको किसी की आंखों में, जो हरि को पुकारा हो, जिसके भीतर हरि की पहचान हुई हो। सुंदर सहजै चीन्हियां। कहीं कोई मिल जाए सुंदरदास तो उसकी आंखों में झांको, जहां सहज पहचान हुई हो।
तुम अगर जाते भी हो तो उनके पास जाते हो जो खुद ही साध रहे हैं। कोई आसन लगाए बैठा है; कोई शीर्षासन लगाए बैठा है; कोई उपवास कर रहा है। उन्हें अभी मिला नहीं है। अभी तो साधना चल रही है।
और साधने से कभी किसी को मिलता नहीं है। परमात्मा तो मिला ही हुआ है; शीर्षासन करने की कोई आवश्यकता नहीं। परमात्मा कोई पागल तो नहीं है कि तुम सिर के बल खड़े होओ तब मिले। अगर सिर के बल ही खड़े होने से मिलना था तो तुम्हें सिर के बल पहले से ही खड़ा करता। पैर पर ख़ड़े करने की जरूरत क्या थी? यह भूल क्यों करता? परमात्मा कुछ पागल तो नहीं है कि जब तुम भूखे मरो और उपवास करो तब मिले। भूखे ही मारना होता तो भूखे ही मारता; भूख ही न देता, पेट ही न देता, उपवास ही उपवास चलता। कोई परमात्मा तुम्हारी भूख-प्यास से थोड़े ही मिल जाने वाला है। तुम कर क्या रहे हो? करने का प्रश्न ही नहीं है, कृत्य की बात ही नहीं है, सिर्फ स्मरण की बात है।
मगर जब कोई करने वाला तुम्हें मिल जाता है, तुम्हें बहुत प्रभाव होता है। कोई आदमी भूखा पड़ा है, महीने भर का उपवास किया है, तुम झुके। कोई कांटों पर लेटा है, तुम झुके। किसी ने अपने शरीर को सुखा लिया है धूप में खड़े होकर, बस तुम गिरे चरणों पर। कृत्य से परमात्मा के पाने का क्या संबंध है? क्या तुम सोचते हो कि सूखे वृक्ष में परमात्मा ज्यादा होता है हरे वृक्ष की बजाय? तुम कौन सा गणित पकड़े हो? अगर होगा तो हरे में ज्यादा होगा, सूखे में क्या होगा? सूखने का मतलब ही होता है कि परमात्मा सूख गया, अब वृक्ष में प्राण-ऊर्जा नहीं बहती है। तुम्हारे महात्मा, तुम्हारे साधु उदास बैठे हैं। उनके जीवन का आनंद खो गया है। कम से कम तुम आनंदित तो हो, चलो भ्रांति ही सही। तुम्हारा आनंद क्षणभंगुर ही सही, उनके पास क्षणभंगुर आनंद भी नहीं रहा है। बैठे हैं मुर्दों की भांति। लेकिन जब तक कोई महात्मा मुर्दा न हो जाए बिलकुल, तब तक तुम पूजते नहीं, क्योंकि तब तक वह तुम्हारे जैसा मालूम पड़ता है। जब तक जीवित है, भोजन करता है, कपड़े पहनता है, सोता, उठता-बैठता है, जैसे तुम उठते-बैठते, सोते हो, जब तक वह ठीक सामान्य होता है, तब तक तुम्हें जंचता नहीं, क्योंकि तुम्हें लगता है, हमारे ही जैसा है।
तुम्हारी आत्मनिंदा अदभुत है! तुम यह मान ही नहीं सकते कि तुम्हारे भीतर परमात्मा हो सकता है। और यही तुम्हारी मान्यता अटका रही है। परमात्मा तुम्हारे भीतर है। लेकिन तुम इतनी आत्मनिंदा से भर गए हो, तुम इतने अपराध-भाव से भर गए हो कि तुम्हारे भीतर तो हो ही नहीं सकता, तुम्हारे जैसा जो मालूम पड़ता है उसके भीतर भी नहीं हो सकता। कुछ भिन्न होना चाहिए। अब सिर के बल कोई खड़ा है, वह भिन्न मालूम पड़ता है। उपवास कोई कर रहा है, वह भिन्न मालूम पड़ता है। कोई जंगल में जाकर बैठ गया है, धूप सह रहा है, सर्दी सह रहा है, वह तुम्हें विशिष्ट मालूम पड़ता है। यह विशिष्ट नहीं है, सिर्फ विक्षिप्त है।
परमात्मा सामान्य में व्याप्त है। यह सारा जगत उससे भरा है। किसने तुम्हें सिखा दिया है कि तुम्हारे भीतर नहीं है? और अगर यह बात तुमने मान ली है, तो फिर निश्चित ही तुम कैसे स्मरण कर पाओगे? अगर यह बात ही मान ली कि मेरे भीतर नहीं हो सकता, कृत्य करने पड़ेंगे कुछ, उपलब्धियां करनी पड़ेंगी कुछ, सिद्धियां करनी पड़ेंगी कुछ, तब मिलेगा--तो तुम चूकते रहोगे।
परमात्मा सहज मिलता है, सिद्धियों से नहीं। परमात्मा मिला ही हुआ है, सिर्फ स्मरण से मिलता है।
गर्मी-ए-शौके-नजारा का असर तो देखो।
गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-दर तो देखो।।
ऐसे नादां भी न थे जां से गुजरने वाले।
नासहो, पंदगरो, राहगुजर तो देखो।।
वो तो वो हैं तुम्हें हो जाएगी उल्फत मुझसे।
एक नजर तुम मेरा महबूबे-नजर तो देखो।।
अगर किसी सहज उपलब्ध व्यक्ति के पास पहुंच जाओगे तो परमात्मा की तो फिकर छोड़ो, उसकी आंख में झांकने से सब हो जाएगा।
वो तो वो हैं तुम्हें हो जाएगी उल्फत मुझसे।
तुम्हें उससे प्रेम हो जाएगा। तुम्हारे भीतर प्रार्थना अंकुरित होने लगेगी। तुम्हारे भीतर आह्लाद का जन्म हो जाएगा। तुम्हारे भीतर कोई शराब का चश्मा बहने लगेगा।
एक नजर तुम मेरा महबूबे-नजर तो देखो।
जिसने प्यारे को देख लिया है, उसकी आंख में भी अगर तुम झांक लोगे तो प्यारे की थोड़ी भनक तुम्हारे पास आ जाएगी।
परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है; कोई जगाने वाला चाहिए, कोई पुकार देने वाला चाहिए। किसी का बजता गीत तुम्हारे भीतर सोए हुए गीतों को जगा देता है। कहते हैं: अगर कोई कुशल वीणावादक वीणा बजाए और दूसरी वीणा पास रख दी जाए तो बिना बजाए बजने लगती है। क्योंकि वीणावादक जब अपनी वीणा पर संगीत छेड़ देता है तो वे तरंगें पास में रखी खाली वीणा पर, जिसे कोई छेड़ नहीं रहा है, वे तरंगें उसके तारों को कंपाने लगती हैं। ठीक ऐसी ही घटना गुरु और शिष्य के बीच घटती है। एक की वीणा बज उठी है, तुम्हारी वीणा अभी बिना बजी पड़ी है। वीणा पूरी है। जरा कम नहीं है। जरा भिन्न नहीं है। किसी की बजती वीणा के पास तुम बैठ गए कि तुम्हारे तार थरथराने लगेंगे, तुम्हारी आंखों में छिपे आनंद के आंसू बहने लगेंगे। तुमने देखा है किसी नर्तक को नाचते? तुमने अपने पैर में थिरक अनुभव नहीं की? कोई नर्तक जब नाचता है, तुम्हारे पैर थाप नहीं देने लगते हैं? तुम संगीत में मस्त होकर सिर नहीं हिलाने लगे हो? मृदंग बजती देख कर तुम्हारे हाथ ताल नहीं देने लगे हैं? बस, ऐसा ही, ठीक ऐसा ही, जिसके भीतर की मृदंग बज उठी है उसके पास बैठ कर तुम ताल देने लगोगे। जहां यह ताल देने की घटना घटने लगे वहीं सत्संग हो रहा है।
वो तो वो हैं तुम्हें हो जाएगी उल्फत मुझसे।
एक नजर तुम मेरा महबूबे-नजर तो देखो।
वो, जो अब चाक गिरेबां भी नहीं करते हैं।
देखने वाले कभी उनका जिगर तो देखो।
दामने-दर्द को गुलजार बना रखा है।
आओ, इक दिन, दिले पुरखूं का हुनर तो देखो।।
सुबह की तरह झमकता है शबे-गम का उफक।
फैज ताबंदगी-ए-दीद-ए-तर तो देखो।।
कभी कोई गीली आंख तो देख लो; फिर रात का अंधेरा भी सुबह की तरह झलकने लगेगा। कहीं कोई परमात्मा से भीग गई आंख देख लो। चूंकि अनुभूति साधना का परिणाम नहीं है वरन सहज स्मरण है, इसलिए सत्संग में घट जाती है।
सुंदरदास को घट गई, दादू की आंख में देखते-देखते। और छोटे ही थे। शायद इसलिए घट गई कि छोटे थे। अभी ज्ञान और अकड़ और दूसरे पागलपन पैदा नहीं हुए थे। सात ही साल के थे। छोटा बच्चा--भोला-भाला होगा, निर्दोष होगा। घट गई। दादू की आंख में झांका होगा इस भोले-भाले बच्चे ने। अभी शास्त्रों की परतें नहीं थीं। अभी इसे कुछ हद भी नहीं थी। इसे खयाल भी नहीं था कि मैं हिंदू कि मुसलमान कि ईसाई कि क्या, कि क्या। अभी तो सब साफ था; अभी किताब पर कुछ लिखा नहीं गया था। अभी किताब खाली थी। अभी सब कोरा था; आकाश में कोई बादल नहीं थे। देखी होंगी दादू की आंखें जो उस प्यारे के रस से लबालब हैं, झूम गया होगा। यह बजती वीणा दादू की; इसके भीतर कोई स्वर थिरक उठे होंगे। यह नृत्य दादू का और इसके भीतर नाच आ गया होगा। यह मृदंग दादू की और फिर यह बच्चा नहीं रुक सका होगा; झुक गया होगा। सात वर्ष की उम्र में।
हमें हैरानी होती है। लेकिन अभी इस पर बड़ी मनोवैज्ञानिक शोध चलती है और जो नई से नई शोधें हैं वे यह कहती हैं कि छोटे बच्चे अगर बिगाड़े न जाएं--हम बिगाड़ते हैं, हमने बिगाड़ने के अच्छे-अच्छे नाम रखे हैं, शिक्षा, धर्म-शिक्षा, इत्यादि-इत्यादि--अगर छोटे बच्चे बिगाड़े न जाएं, अगर उनके भोलेपन को हम बचा सकें, अगर उनकी निर्दोषता को हम बचा सकें, उसे ढांके न, तो यह दुनिया बहुत सुंदर हो जाए। यह दुनिया वैसी हो जाए जैसी होनी चाहिए। लेकिन हमने बड़े आयोजन कर रखे हैं। बच्चा पैदा हुआ कि हमारे आयोजन शुरू हुए। बच्चा पैदा हुआ कि बस पंडित आया, पुरोहित आया, मौलवी आया, बप्तिस्मा शुरू, खतना शुरू। बच्चा पैदा नहीं हुआ कि हमने आयोजन शुरू किए कि इसको जल्दी से बांधो, अपनी व्यवस्था इसके ऊपर लादो। इसे हिंदू बनाओ, मुसलमान बनाओ, ईसाई बनाओ। इसे आदमी नहीं रहने देना है। आदमी से बड़ा खतरा मालूम होता है। इसे मंदिर ले चलो, मस्जिद ले चलो। इसके पहले कि कहीं यह जाग जाए, इसे सुला दो, इसे जहर पिला दो। इसे कंठस्थ करवा दो रामायण, इसे गीता की पंक्तियां याद करवा दो। इसे तोता बना दो। इसके पहले कि इसमें बोध जागे, इसको यंत्रवत स्मृति से भर दो।
और हम कहते हैं: ये बड़ी ऊंची बातें हम कर रहे हैं, हम धर्म सिखा रहे हैं। यह धर्म नहीं सिखाया जा रहा; इसी की वजह से दुनिया में अधर्म है। किसी बच्चे को धर्म सिखाया नहीं जा सकता; बच्चा तो धर्म लेकर ही आता है। अगर हम उसे नष्ट न करें, अगर हम उसके साथ ज्यादा छेड़खानी न करें, अगर हम उसको सिर्फ सहारा दें, जो उसके भीतर छिपा है उसी को प्रकट होने के लिए सहारा दें, तो यह पृथ्वी बड़े सौंदर्य से भर जाए। लेकिन हम यह बरदाश्त नहीं कर सकते। मां-बाप को तो मौका मिल जाता है, बच्चे की गर्दन पकड़ो, बच्चे को बनाओ जैसा बनाना चाहते हो। बाप जो नहीं बन पाया, वह बच्चे को बनाना चाहता है। बाप बड़ा धनी होना चाहता था, नहीं हो पाया। अब वह बच्चे की छाती पर चढ़ कर महत्वाकांक्षा का भूत बन कर बच्चे पर सवार हो जाएगा। वह बच्चे को कहेगा कि बेटा हम नहीं कर पाए, तू करना।
मैंने सुना है, एक आदमी मर रहा था। उपद्रवी आदमी था। उसके चारों बेटे इकट्ठे थे। उस आदमी ने कहा कि बेटो, मेरी एक ही इच्छा है मरते वक्त, पूरी कर दोगे तो मेरी आत्मा को बड़ी शांति मिलेगी। कहो, पूरी करोगे? बड़े तीनों बेटे चुप रहे, क्योंकि वे बाप को भलीभांति जानते थे कि वह किसी झंझट में डाल जाएगा। जिंदगी भर झंझट में डाला उसने। छोटा, छोटा था अभी, उसने कहा: आप कहें, जो भी हो सकेगा हम करेंगे। बाप ने कहा: तू मेरे पास आ। और उसके कान में बोला कि जब मैं मर जाऊं तो मैं तो मर ही गया, मेरी लाश के टुकड़े करके मोहल्ले वालों के घर में डाल देना, और पुलिस में रपट लिखवा देना। ये सबके सब बंधे जाते होंगे पुलिसथाने की तरफ, मेरी आत्मा को बड़ी शांति मिलेगी। जिंदगी भर इनसे झंझटें रहीं, मरते वक्त इनके हाथ में जंजीरें देख लूं, मैं तो मर ही जाऊंगा। अब तो बात खतम ही हो गई। इसलिए तुम फिकर मत करना, काट कर मेरे शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर के डाल देना सबके घरों में, सबको फंसवा देना।
जिंदगी भर भी वह यही आयोजन करता रहा था। अब मरते वक्त भी वह यही आयोजन करके जा रहा है। इतने सीधे-सीधे आयोजन सभी लोग नहीं करते। मगर बड़े सूक्ष्म आयोजन यही हैं। जब तुमने अपने बेटे को सिखाया कि तू हिंदू हो जा, तब तुमने क्या सिखाया? हिंदू मुसलमानों से लड़ते रहे हैं। तुमने अपने बेटे को सिखाया, तू मुसलमान हो जा। मुसलमान हिंदुओं से लड़ते रहे हैं। तुम लड़ाई सिखा रहे हो। तुम वैमनस्य सिखा रहे हो। तुम दुश्मनी सिखा रहे हो। तुम इस पृथ्वी को प्रेम का स्थान नहीं बनने देना चाहते हो। जब तुमने कहा: किताब कंठस्थ कर ले तो तुम उधार थे, इसको भी उधार किए जा रहे हो।
और परमात्मा सहज घटता है। बच्चा जितनी आसानी से परमात्मा के पास पहुंच सकता है, बूढ़े नहीं पहुंच सकते। क्योंकि बच्चा अभी आया है, स्रोत से अभी बहुत करीब है। अभी दूर नहीं निकला है। अभी उसे याद दिलाई जा सकती है।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं: आप छोटे-छोटे बच्चों को संन्यास दे देते हैं, यह तो ठीक नहीं है। मैं उनसे कहता हूं कि बच्चे निकटतम हैं। बूढ़े के भीतर तो बहुत कुछ पहले काटना-छांटना पड़ेगा। जिंदगी भर का कूड़ा-कचरा है, सफाई करनी पड़ेगी। बच्चा अभी दर्पण की तरह है; अभी धूल जमी नहीं। अगर इसको परमात्मा की तरफ मोड़ा जा सके, इसको हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध बनने से बचाया जा सके, इसे सिर्फ आदमी का भाव दिया जा सके, तो यह अभी, अभी हद के बाहर हो सकता है, क्योंकि अभी यह हद के भीतर हुआ ही नहीं, हद के बाहर ही है। इसमें क्रांति सुगमता से घट सकती है। शायद दादू के पास सुंदरदास में इसीलिए क्रांति घट गई। सात वर्ष का छोटा बच्चा था।
जीसस ने कहा है: जब तक तुम छोटे बच्चों की भांति न हो जाओगे तब तक परमात्मा को न जान सकोगे। न जान सकोगे। छोटे बच्चों की भांति पुनः हो जाना जरूरी है। लेकिन लोग मेरी-मेरी कर रहे हैं।
मेरी मेरी करत हैं, देखहु नर की भोल।
फिरि पीछे पछिताहुगे, हरि बोलौ हरि बोल।।
यह मेरी-मेरी जाने दो। यह मेरी-मेरी का उपद्रव छोड़ो। क्या मेरा, क्या तेरा, सब उसका! मेरे का दावा अहंकार का दावा है। जरा इस दावे को छोड़ो और तुम्हारी जिंदगी में सत्संग की सुगंध आने लगेगी।
फिर हरीफे बहार हो बैठे
जाने किस किस को आज रो बैठे
थी, मगर इतनी रायगां न थी
आज कुछ जिंदगी से खो बैठे
सारी दुनिया से दूर हो जाए
जो जरा तेरे पास हो बैठे
सुबह फूटी तो आसमां पे तेरे
रंगे रुख्सार की फुहार गिरी
रात छाई तो रूए-अलम पर
तेरे जुल्फों की आबशार गिरी
जरा परमात्मा के पास कोई बैठने लगे, सारी दुनिया से दूर हो जाए। जो जरा तेरे पास हो बैठे! जरा से पास हो उठो।
सुबह फूटी तो आसमां पे तेरे,
रंगे रुख्सार की फुहार गिरी।
फिर हर चीज में उसी की झलक दिखाई पड़ने लगती है। सुबह होगी, आकाश पर लाली फैलेगी, और जो उसके थोड़ा भी पास सरका है उसे लगेगा यह उसके ही कपोलों का रंग!
सुबह फूटी तो आसमां पे तेरे
रंगे रुख्सार की फुहार गिरी
रात छाई तो रूए अलम पर
तेरे जुल्फों की आबशार गिरी
रात का अंधेरा ऐसा लगेगा जैसे उसके बाल पृथ्वी पर गिर गए हैं। जैसे उसने अपने आंचल में सारी पृथ्वी को ले लिया। जो उसके पास थोड़ा सरका उसके जीवन के कोण, देखने के ढंग, अनुभूति की प्रक्रियाएं बदलनी शुरू हो जाती हैं। फिर फूल नहीं खिलते, वही खिलता है। फिर बादल नहीं घिरते, वही घिरता है। फिर कोयल नहीं कूकती, वही कूकता है। फिर लोग नहीं दिखाई पड़ते चलते-फिरते, वही चलता है। इतने-इतने रंग, इतने-इतने रूपों में! सारा जगत एक महोत्सव का रूप ले लेता है।
किए रुपइया एकठे, चौकूंठे अरु गोल।
रीते हाथिन वै गए, हरि बोलौ हरि बोल।।
क्या कर रहे हो यहां? रुपये इकट्ठे कर रहे हैं लोग। सुंदरदास ने जब यह पद लिखा, तब दो तरह के रुपये होते थे; गोल भी होते थे, चौखटे भी होते थे।
किए रुपइया एकठे, चौकूंटे अरु गोल।
रीते हाथिन वै गए,.
और सब, जिन्होंने भी इकट्ठे किए, वे सब रीते हाथ गए। खाली आए, खाली गए। सच तो यह है, मुट्ठी बंधी आती है जब बच्चा पैदा होता है; और जब आदमी मरता है, मुट्ठी खुली होती है। शायद कुछ लेकर आता है, वह भी गंवा देता है।
रीते हाथिन वै गए, हरि बोलौ हरि बोल।
अब देर न करो। स्मरण करो उसका, जिसके स्मरण मात्र से हाथ भर जाते हैं; हाथ ही नहीं, प्राण भी भर जाते हैं। संपदा तो एक ही है, वह सत्य की है, वह समाधि की है। और कोई संपदा नहीं है इस जगत में। धोखे में मत रहो।
चहल-पहल सी देखिकै, मान्यौ बहुत अंदोल।
काल अचानक ले गयौ, हरि बोलौ हरि बोल।।
चहल-पहल यहां बहुत है, दुनिया में आपा-धापी बहुत है। भाग-दौड़ बहुत है, लेकिन पहुंचता कोई भी नहीं। चलते हैं, चलते हैं; गिर जाते हैं। लोग गिरते जाते हैं, और उनके करीब जो लोग हैं वे चलते जाते हैं। वे यह नहीं देखते कि यह गिरा एक आदमी, यह गिरा दूसरा आदमी, यह गिरा तीसरा आदमी, अब मेरी भी बारी आती होगी। लोग गिरते जाते हैं। इतना ही नहीं कि तुम लोगों को गिरते देख कर चौंकते नहीं; तुम लोगों की गिरी हुई लाशों पर पैर रख कर सीढ़ियां बना लेते हो। तुम थोड़ी और तेजी से ऊपर उठने लगते हो, तुम सोचते हो यह भी अच्छा हुआ, प्रतिद्वंद्वी मरा, अब जरा सुगमता है, अब थोड़े रुपये ज्यादा इकट्ठा कर लूंगा। तुम मुर्दे के खीसे में भी कुछ रुपये हों, वे भी निकाल लोगे। तुम मुर्दे की मृत्यु को नहीं देखोगे। तुम्हारी दौड़ जारी रहेगी।
चहल-पहल सी देखिकै, मान्यौ बहुत अंदोल।
और चूंकि चहल-पहल बहुत मची हुई है, शोरगुल बहुत मचा हुआ है--यह भ्रांति पैदा होती है कि बड़ा आनंद मनाया जा रहा है, बड़ा आनंद उत्सव हो रहा है।
मान्यौ बहुत अंदोल।
पर मान्यता की ही बात है। कहां आनंद? तुम जब बैंड-बाजे बजाते हो तब भी कहां आनंद है? तुम्हारी शहनाई भी गाती कहां, रोती है। तुम हंसते भी हो तो हंसते कहां हो? तुम्हारी सब हंसी झूठी है। ओंठ ही ओंठ पर है, चिपकी है, चिपकाई गई है, ऊपर-ऊपर लगाई गई है। जैसे स्त्रियां लिपिस्टिक लगाए हुए हैं, वह प्रतीक है तुम्हारी जिंदगी का। लाली भी ओंठ के भीतर से नहीं आ रही है, वह भी ऊपर से लगा ली गई है। मुस्कुराहट भी वैसे ही ऊपर से लगा ली गई है। कुछ आश्चर्य न होगा, कुछ दिनों में कोई स्प्रे बन जाए कि जब मुस्कुराना हुआ, स्प्रे कर लिया, एकदम से हंसी आ गई।
मैंने सुना है, अमरीका में एक बड़ी फैक्टरी है जो एक खास तरह का स्प्रे बनाती है। उसे पुरानी कारों में छिड़क देने से नई कार की बास आने लगती है। बनाया तो था पुरानी कारों के लिए ही, लेकिन अब मजे की बात यह घटी है कि नई कारें बनाने वाले भी स्प्रे कर रहे हैं। उसी को, नई कार में भी। क्योंकि वह स्प्रे इतना अच्छा आया है कि पुरानी कार को स्प्रे कर दो तो नई कार से भी बेहतर नई खुशबू उसमें आ रही है। तो अब नई कारों में भी उसी को स्प्रे करना पड़ रहा है।
झूठ ऐसे बढ़ता चला जाता है। झूठ बड़ी सफलताएं पाता है जिंदगी में, क्योंकि जिंदगी झूठ है। यहां झूठ ही सफलता पाता है। यहां सच कहां सफल हो पाता है? यहां सच को सूली लग जाती है; झूठ सिंहासन पर बैठ जाते हैं। चहल-पहल बहुत है। शोरगुल बहुत है। ऐसी भ्रांति होनी बिलकुल स्वाभाविक है कि बड़ा आनंद मनाया जा रहा है। सभी लोग हंसते मालूम पड़ते हैं। सभी लोग सजे-बजे जा रहे हैं। मगर इनकी जिंदगी में जरा झांक कर देखो; यह सब बाहर-बाहर है।
जब तुम घर से बाहर निकलते हो आईने के सामने सज-बज कर, यह तुम्हारा असली चेहरा नहीं है। असली चेहरे और हैं जो तुम घर ही छोड़ आए। जब कोई मेहमान तुम्हारे घर में आ जाए तो जो चेहरा तुम उसे दिखलाते हो वह असली चेहरा नहीं है। भीतर तो शायद तुम सोच रहे हो कि यह दुष्ट कहां से आ गया; ऊपर से कहते हो: स्वागत, अतिथि तो देवता हैं, आइए! विराजिए! और भीतर दिल हो रहा है कि गर्दन उतार दें इसकी। ऊपर से कहते हो: आप से मिल कर बड़ा आनंद हुआ, और भीतर सोच रहे हो कि आज पता नहीं दिन कैसा गुजरेगा, इस दुष्ट को सुबह-सुबह ही देख लिया। भीतर कुछ है, बाहर कुछ है। तुम जरा जांचना अपनी ही जिंदगी; उससे तुम्हें सबकी जिंदगियों का पता चल जाएगा। जब हंसी भी नहीं आती तब तुम हंसते हो। जब प्रेम नहीं आता तब प्रेम दिखाते हो। और इस तरह तुम दूसरों को धोखा दे रहे हो। दूसरे तुमको धोखा दे रहे हैं। शोरगुल बहुत है।
चहल-पहल सी देखिकै, मान्यौ बहुत अंदोल।
लेकिन यह सब चहल-पहल रह जाएगी रखी, पड़ी रह जाएगी।
काल अचानक ले गयौ, हरि बोलौ हरि बोल।
उठा लिए जाओगे इस भरी भीड़ में से; यह सब चहल-पहल यहीं पड़ी रह जाएगी। और जब तुम्हें ले जाने लगेगी मौत तो कोई बीच में बाधा नहीं देगा। कोई बाधा दे नहीं सकता है। और यह चहल-पहल ऐसी ही जारी रहेगी।
कब ठहरेगा दर्दे दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएंगे, सुनते थे सहर होगी
कब जान लहू होगी कब अश्क गोहर होगा
किस दिन तेरी सुनवाई दीदा-ए-तर होगी
कब चमकेगी फस्ले गुल कब बहकेगा मयखाना
कब सुबहे सुखन होगी, कब शामए नजर होगी
कभी होती नहीं। पूछते रहो, सोचते रहो, विचारते रहो, कभी कुछ होता नहीं।
कब ठहरेगा दर्दे दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएंगे, सुनते थे सहर होगी
सुनते ही रहो कि सुबह होती है। यहां सुबह होती नहीं, बाहर तो रात ही रात है--अमावस की रात है। सुबह तो भीतर होती है। सुबह ही सुबह है भीतर। वहां कुछ और नहीं है। लेकिन यहां तो सुनते हो, बातें सुनते रहते हो। सोचते रहते हो, अब हुआ, अब हुआ। इतना और मिल जाए तो सब ठीक हो जाएगा। इतना धन और कमा लूं, इस पद पर और पहुंच जाऊं तो बस।
कब ठहरेगा दर्दे दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएंगे सुनते थे सहर होगी
कब जान लहू होगी कब अश्क गुहर होगा
आंसू मोती कब बनेंगे? कभी नहीं बनते। कविताओं में बनते हैं, असलियत में नहीं बनते। लेकिन आदमी आशाएं संजोए रहता है। आशाओं में जीए चला जाता है।
किस दिन तेरी सुनवाई दीदा-ए-तर होगी
कब चमकेगी फस्ले गुल,.
कब आएगा वसंत?
कब चमकेगी फस्ले गुल, कब बहकेगा मयखाना
कब आएगी मस्ती? कब हम नाचेंगे? कब हम झूमेंगे आनंद से? कभी यह नहीं होता। बस करो प्रतीक्षा, करो प्रतीक्षा और मौत आती है, और कुछ भी नहीं आता। न सुबह आती है, न मयखाना मस्त होता, न वसंत आता, न फूल खिलते।
कब सुबह सुखन होगी, कब शामे नजर होगी
नहीं, बाहर तो कभी कुछ हुआ नहीं है, मृग-मरीचिका है। चहल-पहल बहुत है, परिणाम कुछ भी नहीं हैं।
सुकृत कोऊ ना कियौ, राच्यौ झंझट झोल।
कभी कुछ अच्छा न किया। अच्छा करते कैसे? यहां तो बुरा करने वाले को सफलता मिलती है। और मजा ऐसा है कि जब कोई सफल हो जाता है, तो लोग कहते हैं: जो भी किया, अच्छा किया। यहां सफलता सब बुराइयों पर सील लगा देती है अच्छाई की। देखते हो तुम, जो पद पर पहुंच जाता है वही ठीक। जब तक पद पर होता है तभी तक ठीक। जैसे ही पद से उतरा कि गलत। फिर देर नहीं लगती गलत होने में। जो गुहार मचाते थे ठीक होने की, वे ही गुहार मचाने लगते हैं गलत होने की। वे ही लोग जो प्रशंसा के गीत गाते थे, वे ही निंदा के नारे लगाने लगते हैं। जो स्वागत में झंडे दिखाते थे, वे ही काली झंडियां बना रखते हैं। वही के वही लोग। बड़ा आश्चर्यजनक है। तुम देखते रहते हो, मगर समझोगे कब?
सुकृत कोऊ न कियौ,.
सुकृत तो कोई कर ही नहीं सकता, अगर बाहर से उसकी आशा जुड़ी है। अगर सोचता है थोड़ा और धन, थोड़ा और पद तो जीवन में सब ठीक हो जाएगा, वह सुकृत नहीं कर सकता। सुकृत तो उसी से होता है जिसके भीतर परमात्मा की सहज स्मृति झलकने लगती है। उससे सुकृत होता है। जो भीतर स्वयं सत्य हुआ, उसी से सुकृत बहता है। कृत्य तो पीछे है, आत्मा पहले है। आचरण पीछे है, अंतस पहले है। जब भीतर रोशनी होती है तो तुम्हारे कृत्यों में भी रोशनी होती है। अपने आप हो जाती है। लेकिन साधारणतः जो आदमी संसार में सफलता चाहता है वह सुकृत कर नहीं सकता। सुकृत करने वाले को सफलता मिलती कहां है?
मैंने सुना है, एक भिखमंगे ने एक अमीर आदमी को रास्ते में रोका और कहा कि कुछ मिल जाए, चार दिन का भूखा हूं। अमीर ने आदमी को गौर से देखा, भिखमंगा तो जरूर था, कपड़े पुराने थे, फटे थे, मगर कीमती थे। कभी कीमती रहे होंगे। ढंग के बने थे। भिखमंगे की चाल में भी एक सुसंस्कार था, चेहरे पर भी एक सुसंस्कार था। भिखमंगेपन की धूल जम गई थी बहुत, लेकिन सुसंस्कार था। एक प्रसाद था, एक गरिमा थी, एक भाव-भंगिमा थी। उस अमीर ने सौ रुपए का नोट निकाल कर उसे दिया और कहा कि एक बात पूछना चाहता हूं। तुम्हें देख कर, तुम्हारी भाषा से, तुम्हारे बोलने के ढंग से, तुम्हारे चलने के ढंग से, तुम्हारे वस्त्रों से, तुम्हारे चेहरे, तुम्हारी आंखों से मुझे ऐसा लगता है कि तुम अच्छे कुलीन घर से आते हो। क्या हुआ, कैसे बर्बाद हुए? वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा: अब आप मत पूछो। जिस तरह आप सौ-सौ रुपये बांट रहे हैं भिखमंगों को, मुझे अभी दे दिए, अगर ऐसी हालत रही तो कुछ दिन में यही हालत आपकी हो जाएगी। ऐसी ही मेरी हालत खराब हुई। सुकृत किए, उसी में बर्बाद हुआ। जो भी दे सकता था, दिया, उसी में बरबाद हुआ।
यहां तो सुकृत करने वाला बर्बाद हो जाता है। यहां तो दुष्कृत्य करने वाले सफल हो जाते हैं, सिर पर बैठ जाते हैं। और जब सिर पर बैठ जाते हैं तो स्वभावतः सब ठीक हो जाता है। सब दुष्कृत्यों पर पानी फेर दिया जाता है। इतिहास फिर से लिख दिए जाते हैं। जब स्टैलिन हुकूमत में आया, उसने सारा इतिहास बदलवा दिया रूस का। अपने दुश्मनों के चित्र निकलवा दिए तस्वीरों में से। ट्राटस्की के चित्र निकलवा दिए तस्वीरों में से, नाम हटवा दिए। सारा इतिहास बदलवा डाला। जब तक सत्ता में रहा तब तक उसकी जय-जयकार होती रही। इस तरह जय-जयकार हुई कि जैसे वेद में देवताओं की प्रशंसा में ऋचाएं कही जाती हैं, उस तरह कम्युनिस्ट सारी दुनिया में उसकी जय-जयकार करते रहे। फिर मरा तो जहां उसकी लाश दफनाई गई थी, क्रेमलिन के निकट लेनिन की समाधि के पास, वहां से उखाड़ी। यह उसके योग्य नहीं मानी गई जगह। वहां से लाश निकलवा कर--अक्सर मुर्दों को लोग इतना कष्ट नहीं देते--वहां से मुर्दा निकाला गया, और किसी साधारण कब्रिस्तान में दफनाया गया। और स्टैलिन का नाम इतिहास में से पोंछ दिया गया। उसकी तस्वीरें अलग कर दी गईं। आज स्टैलिन को जानने वाला रूस में कोई भी नहीं। सौ पचास साल बाद यह पता ही नहीं चलेगा कि स्टैलिन कभी हुआ था रूस में, इतिहास में नाम ही नहीं बचने दिया।
अभी तुम देखते हो, भारत में भी वही हो रहा है। सारी दुनिया में वही होता है। इंदिरा ने कालपत्र गाड़ा था, मोरार जी ने निकलवा लिया। उनका नाम उसमें नहीं था। अब जब तक उनका नाम उसमें न हो जाए, इंदिरा का न निकल जाए, तब तक कालपत्र नहीं गाड़ा जाएगा। मगर ऐसे क्या होगा? पांच-सात साल बाद कोई दूसरा कालपत्र निकालेगा! इंदिरा पर मुकदमे की बात चलती है और जिन पर मुकदमे चल रहे थे, उन सब पर से मुकदमे वापस ले लिए गए हैं। खूब मजा है। जो सत्ता में है वह ठीक मालूम पड़ता है। वह जो करता है ठीक मालूम पड़ता है। जैसे ही सत्ता से उतरता है गलत हो जाता है। इंदिरा वापस लौट आई कभी तो जो-जो मुकदमे वापस ले लिए गए हैं, बड़ौदा डाइनामाइट कांड इत्यादि, वे सब वापस शुरू हो जाएंगे। फिर से फाइलें खुल जाएंगी। फिर से मुकदमा चलने लगेगा। वे ही लोग मुकदमा चलाने वाले थे, वे ही ऑफिसर, वे ही वापस ले लिए हैं, वे ही फिर चला देंगे। जिसकी सत्ता है वह ठीक। जिसके हाथ में ताकत है वह ठीक। दुनिया बहुत बदली नहीं है। जिसकी लाठी उसकी भैंस, अभी भी वही नियम चालू है। जंगल का नियम। अभी भी आदमी जंगली है। और ऐसा लगता है, बाहर के हिसाब से, आदमी सदा जंगली रहेगा।
सुकृत कोऊ ना कियौ, राच्यौ झंझट झोल।
अच्छा तो करने की फुरसत कहां है यहां? अच्छा करने वाला तो मुश्किल में पड़ जाता है। अच्छे करने वाले की तो खबर भी नहीं छपती। अगर तुम ध्यान करते हो, दुनिया को कभी पता नहीं चलेगा कि तुमने ध्यान किया। किसी की हत्या करो, तब अखबारों में खबर छपती है। चोरी करो, बेईमानी करो, जाहिर हो जाओगे। घर में बैठ कर ध्यान करते हो, प्रार्थना करते हो, पूजा करते हो तो कौन तुम्हारी फिकर करता है। तुम थे या नहीं, कहीं कोई खबर न होगी। कभी तुम्हारा नाम कहीं सुना न जाएगा।
अच्छे समाचार को लोग समाचार मानते ही नहीं; समाचार बुरा हो तो ही समाचार होता है। बर्नार्ड शॉ ने समाचार की व्याख्या की है--अगर कुत्ता आदमी को काटे तो यह कोई समाचार नहीं, आदमी कुत्ते को काटे तो यह समाचार है। जब तक कुछ उलटा न करो तब तक तुम ख्यातिलब्ध नहीं होते।
इस जगत में झंझटें ही खड़ी की जाती हैं। जितनी बड़ी झंझट खड़ी करते हो उतनी ही ऊंचाई पर पहुंच जाते हो। झंझटों की सीढ़ियां बनाते हैं लोग; झंझटों की सीढ़ियों पर चढ़ते हैं।
.राच्यौ झंझट झोल।
अब देखते हो तुम? इस देश में आज जो सत्ता में पहुंच गए हैं, झंझट करके पहुंच गए हैं। और अब अगर दूसरों को सत्ता में पहुंचना है तो झंझट खड़ी करनी पड़ेगी। क्यों झंझट खड़ी की जा रही है? जब झंझट इतनी हो जाएगी ज्यादा कि सत्ता में रहने का मजा चला जाएगा। जो सत्ता में हैं उनके लिए झंझट ज्यादा हो जाएगी सत्ता में रहने के मजे से, तभी हटेंगे। उसके पहले कोई हटता भी नहीं। इस दुनिया में तो लोग झंझटों से जीते हैं। सुकृत करने की सुविधा कहां है?
अंति चल्यौ सब छाड़िकै,.
और फिर आखिर में सब चला जाना पड़ेगा। सब झंझटें पड़ी रह जाएंगी, सब शोरगुल पड़ा रह जाएगा।
.हरि बोलौ हरि बोल।
उसके पहले हरि को बोल लो। हरि को बुला लो, हरि को पुकार लो। उसे निमंत्रण दे दो।
मूंछ मरोरत डोलई, एंठयो फिरत ठठोल।
ढेरी ह्वै है राख की, हरि बोलौ हरि बोल।।
समय रहते, इसके पहले कि राख में मिल जाओ, पुकार लो उसे; अमृत से नाता जोड़ लो। उसके साथ भांवर पाड़ लो।
मूंछ मरोरत डोलई,.
मगर लोग तो मूंछ मरोड़ते डोल रहे हैं! मूंछ मोरड़ने के लिए ही लोग उपाय करते रहते हैं जिंदगी भर। कोई एक तरह से मरोड़ता है मूंछ, कोई दूसरी तरह से मरोड़ता है मूंछ। नहीं है जिनकी मूंछ वे भी मरोड़ रहे हैं। ऐसा मत सोचना कि नहीं मरोड़ रहे हैं। कोई मूंछ होने की जरूरत नहीं है मरोड़ने के लिए। मूंछ ही मरोड़ रहे हैं लोग। कोई धन से कमा कर करेगा, कोई पद से, कोई ज्ञान से, कोई प्रतिष्ठा से, मगर मूंछ मरोड़ कर दिखा देना है।
मैंने सुना है, एक गांव में एक सरदार था। राजस्थानी कहानी है। राजस्थानी सरदार! मूंछ मरोड़ कर चलता था। और इतना ही नहीं कि खुद मूंछ मरोड़ता था, किसी दूसरे को गांव में मरोड़ने नहीं देता था। क्योंकि फिर मजा ही क्या? जब सभी मूंछ मरोड़ रहे हों तो फिर क्या सार? अकेले ही मरोड़ता था। और सारे गांव की मूंछ नीची रखवाता था। सारे गांव के लिए आज्ञा थी कि अपनी मूंछ दोनों तरफ झुकी रखो। एक नया-नया बनिया गांव में आया। उसको भी मूंछ मरोड़ने की बात थी। उसके पास धन काफी था। होगा सरदार अपने घर का। वह मूंछ मरोड़ कर गांव में निकला, यह सरदार को बर्दाश्त के बाहर हो गया। उसने कहा: मूंछ नीची कर। इस गांव में बस एक ही मूंछ मरोड़ी जा सकती है। दो एक साथ नहीं। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। मूंछ नीची कर ले।
बनिया भी होशियार तो था। बनिए तो होशियार होते ही हैं। बनिया ने कहा कि ठीक, तो नहीं रहेंगी दो तलवारें। तो हो जाए टक्कर। तो या तो यह गर्दन बचेगी या वह गर्दन बचेगी। मगर इसके पहले कि हम जूझें, मैं जरा घर जाकर अपनी पत्नी-बच्चों का सफाया कर आऊं। क्योंकि पता नहीं मैं मर जाऊं तो नाहक बच्चे-पत्नी क्यों दुख पाएं मेरी मूंछ के पीछे। मैं तुझसे भी कहता हूं: तू भी जा और घर सफा कर आ। क्योंकि यह बात ठीक नहीं है, तू मर जाए हो सकता है, फिर पत्नी-बच्चे विधवा हो जाएं, भीख मांगें, फिर तेरी मूंछ मरोड़ने के पीछे उनकी हालत को सोच। बात सरदार को भी जंची कि बात तो ठीक है।
दोनों घर गए। सरदार ने जाकर फौरन सफाया कर दिया--पत्नी, बच्चे, सबको मार कर घर से लौट कर आ गया। और बनिया अपनी मूंछ नीची करके आ गया। उसने कहा: मैंने सोचा, क्या झंझट करनी। जरा सी मूंछ के पीछे क्यों मार-पीट करनी!
अब तुम देखते हो किसकी मूंछ ऊंची रही। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि मूंछ नीची करके भी लोग मरोड़ लेते हैं। यह बनिए ने नीची करके मरोड़ ली। तो कभी-कभी विनम्रता भी सिर्फ मूंछ मरोड़ने का एक ढंग होता है, कि हम तो आपके पैर की धूल हैं। तो ऊपर-ऊपर मत देखना कि मूंछ मरोड़ी है कि नहीं। लोग तो गोंद इत्यादि लगा कर मरोड़ते हैं, कि अब गोंद न लगाओ तुम, तो क्या पता हवा चले जोर की, मूंछ झुक जाए, चार आदमी में फजीहत हो जाए। रास्ते पर निकलो, पानी गिर जाए। बालों का क्या भरोसा कि अकड़े ही रहें? अब बाल कोई आदमी तो हैं नहीं। तो गोंद इत्यादि लगा कर, बिलकुल मरोड़ कर चलते हैं।
मगर तुम देखोगे, जिंदगी में लोग वही कर रहे हैं--अलग-अलग ढंग से। हर आदमी मूंछ मरोड़े बैठा है। जब उसे मौका मिल जाता है तो दिखा देता है कि देख ले। रास्ते पर खड़ा पुलिसवाला है--वह तुम्हें बता देता है मौके पर कि देख लो, किसकी मूंछ ऊंची है! रेलवे स्टेशन पर बैठा टिकट बेचने वाला, वह बता देता है तुमको कि मूंछ किसकी है ऊंची। चपरासी, तहसीलदार का, वह तुम्हें मजा चखा देता है बाहर ही, खड़े रहो! होओगे अपने घर के मालिक और राजा, इधर मूंछ किसी और की चलती है।
हर आदमी एक-दूसरे के पीछे पड़ा है।
मूंछ मरोरत डोलई, एंठयो फिरत ठठोल।
और लोग हंसी-मजाक कर रहे हैं, जैसे जिंदगी बस हंसी-मजाक है! जैसे जिंदगी एक मखौल है! जिंदगी गंभीर मामला है। मौत आ रही है। इसे यूं ही मत गंवा दो। लेकिन लोग ताश खेलने में गंवा रहे हैं। लोग सिनेमा देखने में गंवा रहे हैं। लोग गपशप करने में गंवा रहे हैं। और उन्हें पता नहीं है, समय कितना मूल्यवान है।
ढेरी ह्वै है राख की, हरि बोलौ हरि बोल।
इसके पहले कि ढेरी हो जाओ राख की, पुकार लो हरि को। जोड़ लो उससे नाता।
ख्वाब ही ख्वाब कहां तक झलकें
खस्तगी रात की उठता हुआ दर्द
आहनी नींद से बोझल पलकें
ओस खिड़की के खुनक सीसे पर
बर्स के दाग की सूरत तारे
तन्ज एक रात के आईने पर
नींद आंखों की बिखर जाती है
सर्द झोंकों में वो आहट है अभी
जुम्बिशे-दिल में ठहर जाती है
रात कटती नहीं कट जाएगी
और तेरे ख्वाब की दुनिया ऐ दोस्त
वक्त की धूल में अट जाएगी।
लोग कहते हैं: समय नहीं कट रहा है।
रात कटती नहीं कट जाएगी
और तेरे ख्वाब की दुनिया ऐ दोस्त
वक्त की धूल में अट जाएगी।
जल्दी ही सब नष्ट हो जाएगा। कल का भी कुछ भरोसा नहीं है। कल भी तुम होओगे इसका कुछ पक्का नहीं है। आज ही पुकारो।
ढेरी ह्वै है राख की, हरि बोलौ हरि बोल।
पैंडो ताक्यौ नरक कौ, सुनि-सुनि कथा कपोल।
कैसी कपोल-कल्पनाओं में लोग उलझें हैं! धन से कुछ मिल जाएगा, यह कपोल-कल्पना है। किसी को कभी नहीं मिला, तुम्हें कैसे मिल जाएगा? धन में कुछ है ही नहीं तो तुम्हें कैसे मिल जाएगा? पद से कभी किसी को कुछ नहीं मिला। कपोल-कल्पना है कि तुम पद पर बैठ जाओगे तो तुम्हें कुछ मिल जाएगा। कितनी ही ऊंची कुर्सी पर बैठो, तुम तुम ही रहोगे, यह अज्ञान ऐसा का ऐसा रहेगा। यह दुख और दर्द ऐसे के ऐसे रहेंगे। यह पीड़ा ऐसी की ऐसी रहेगी। बढ़ जाए भला, घटने वाली नहीं है, क्योंकि पद की झंझटें हैं। पद पर कोई आसानी से थोड़े ही बैठने देगा। चारों तरफ से लोग खींचातानी करेंगे। कोई टांग खींच रहा है, कोई पैर खींच रहा है, कोई कुर्सी ही सरकाने की कोशिश कर रहा है। तुम्हें आनंद मिल नहीं सकता पद पर, न धन से, न यश से।
पैंडो ताक्यौ नरक कौ, सुनि-सुनि कथा कपोल।
लेकिन इन कपोल कल्पनाओं में नरक बना लिया है जीवन को।
बूड़े काली धार में, हरि बोलौ हरि बोल।
यह जो काली धार है जिंदगी की, काली धार है, क्योंकि यह मौत में समाप्त होती है। इस स्याह काली रात में हरि को पुकार लो, दीये जला लो उसके स्मरण के। थोड़ी सी रोशनी जन्मा लो।
माल मुलक हय गए घने,.
सब छिन जाएगा--माल भी, मुलक भी, हाथी घोड़े भी।
.कामिनी करत कलोल।
ये सुंदर स्त्रियां, ये प्यार चेहरे, ये सब छिन जाएंगे।
कतहुं गए बिलाइकै, हरि बोलौ हरि बोल।
पता भी नहीं चलेगा कि कहां बिला गए, कहां खो गए! कितनी सुंदर स्त्रियां इस पृथ्वी पर रहीं। किल्योपैत्रा और मुमताज महल और कितने सुंदर लोग इस पृथ्वी पर रहे। सब खो गए। मिट्टी से उठे, मिट्टी में गिर गए।
लेकिन आदमी यह देखना नहीं चाहता, यह देखने में डर लगता है। फिर उसके सपनों का क्या होगा? आदमी तो बड़े सपने देखता है।
कभी-कभी तेरे ओंठों की मुस्कुराहट से
मुझे बहार की आहट सुनाई देती है।
तेरी निगाह की वह बेहिसाब सरगोशी
मुझे फवार सी पड़ती दिखाई देती है।
जब आस्मां पै लपकता है बांकपन तेरा
तनी कमान से कोई तीर छूट जाता है।
तेरे बदन के जबां साल जमजमे सुनकर
गरूर मेरी समाअत का टूट जाता है।
महकी हुई गुफ्तार में फूलों का तबुस्सुम
बहकी हुई रफ्तार में झोंकों की रवानी।
मुमकिन है खिजाओं का तस्व्वुर ही बदल दे
ऐ जाने-बहारां, तेरी गुलपोस जवानी।
जब हम भरते हैं सौंदर्य के मोह से, युवापन के मोह से, तो हम भूल ही जाते हैं कि ये सपने बहुत बार देखे गए हैं; ये कुछ नये नहीं हैं। यह प्रेम बहुत बार हुआ है; यह कुछ नया नहीं है। कितने मजनू और कितने फरिहाद प्रेम करते रहे और गलते रहे और गिरते रहे। प्रेम ही करना हो तो परमात्मा से करो। उसके साथ प्रेम जुड़ जाता है तो व्यक्ति परिवर्तन के पार हो जाता है। और जहां तक परिवर्तन है वहां तक दुख है। जैसे ही परिवर्तन के पार गए कि वहां शाश्वत शांति है।
माल मुलक हय गए घने, कामिनी करत कलोल।
कतहुं गए बिलाइकै, हरि बोलौ हरि बोल।।
मगर जवानी तो जवानी, बुढ़ापे में भी लोग बीती जवानी की याद कर-कर के जीते हैं। आंखें बूढ़ी हो गईं, देह टूटने लगी, कब्र करीब आ गई, एक पांव कब्र में उतर गया, दूसरा अब उतरा, तब उतरा; लेकिन तब भी उनकी याददाश्त जवानी की ही बनी रहती है। वे पुराने दिन लौट-लौट कर उनके ध्यान में तैरते रहते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मरते समय सौ में निन्यानबे लोगों के मन में कामवासना का विचार होता है। और इससे जिन्होंने आत्मिक जीवन की खोज की है उनकी पूर्ण सहमति है। होगा ही, क्योंकि जिंदगी भर वही विचार सर्वाधिक महत्वपूर्ण विचारा था। उसी के इर्द-गिर्द जीवन कोल्हू के बैल की तरह घूमा है। मरते वक्त तो और भी प्रगाढ़ होकर प्रकट होगा। और चूंकि मरते वक्त कामवासना का विचार ही चित्त में होता है, इसलिए तत्क्षण नया जन्म हो जाता है किसी गर्भ में। क्योंकि फिर कामवासना की यात्रा शुरू हो गई। मरते वक्त राम का खयाल रहे, काम का नहीं, तो मुक्ति है। फिर दुबारा गर्भ की गंदगी में उतरने की संभावना न रही। फिर दुबारा यही वर्तुल शुरू न होगा।
लेकिन राम का नाम कोई अंत में एकदम से नहीं ले सकता, जब तक जीवन भर अपने को राम के नाम से सिक्त न किया हो।
कभी-कभी मेरे अहसास के हिजाबों में
किसी की याद दुल्हन बन कर मुस्कुराती है
निशातो-नूर में भीगी हुई फजाओं से
किसी के गर्म तनफ्फुस की आंच आती है।
दमागो-रूह में जलते हैं जमजमों के दीये
तसव्वुरात में खिलती हैं मरमरी कलियां
बुझी-बुझी आंखों में फैल जाती हैं
वे झेंपती हुई राहें वे शरमगीं गलियां
जहां किसी ने बड़ी मुल्तफित निगाहों से
धनुक के रंग बिखेरे थे मेरे सीने में
तरबनवाज बहारों का रंग उंड़ेला था
खिजां नसीब के ख्यालों के आबगीने में
उजड़ चुकी है वो सपनों भरी हसीं दुनिया
सुलगते जहन पै माजी का है असर फिर भी
न अब वो दिल हैं, न अब दिल के हैं वो हंगामे
हयात साकिनो-खामोश हैं मगर फिर भी.
कभी-कभी मेरे अहसास के हिजाबों में
किसी की याद दुल्हन बन कर मुस्कुराती है
निशातो-नूर में भीगी हुई फजाओं से
किसी के गर्म तनफ्फु स की आंच आती है
जब सब खो जाता है, सब सपने टूट जाते हैं.
उजड़ चुकी है वो सपनों भरी हसीं दुनिया
सुलगते जहन पे माजी का है असर फिर भी
लेकिन फिर भी बीत गए अतीत के संस्कार मन पर जमे रहते हैं, जमे रहते हैं।
उजड़ चुकी है वो सपनों भरी हसीं दुनिया
सुलगते जहन पे माजी का है असर फिर भी।
न अब वो दिल हैं, न दिल के हैं वो हंगामे
हयात साकिनो-खामोश है मगर फिर भी
उस ‘मगर फिर भी’ पर ध्यान दो। आदमी मरते-मरते भी सपनों में ही खोया रहता है। जीता है सपनों में, मरता है सपनों में। जागोगे कब? और जो जागा नहीं वह व्यर्थ ही जीआ और व्यर्थ ही मरा।
मोटे मीर कहावते, करते बहुत डफोल।
बड़े रईस समझते हैं लोग अपने को। बड़े अहंकारी! यह समझते हैं, वह समझते हैं। और बड़ा आडंबर और बड़ी डींगें हांकते हैं।
मोटे मीर कहावते, करते बहुत डफोल।
मरद गरद में मिलि गए, हरि बोलौ हरि बोल।।
बड़े-बड़े मरद, बड़े-बड़े हिम्मतवर लोग, बड़े साहसी, दुस्साहसी, वे भी मिट्टी में मिल जाते हैं। कायर भी मिल जाते मिट्ठी में और बहादुर भी मिल जाते हैं मिट्टी में। कुछ बहुत भेद नहीं है। धनी और गरीब, सफल और असफल एक साथ गिर जाते हैं। मौत कुछ फर्क नहीं करती, मौत बड़ी समाजवादी है। कहना चाहिए, साम्यवादी है। इसलिए छोटी-छोटी बातों में मत उलझो कि गरीब हूं तो अमीर कैसे हो जाऊं, कायर हूं तो वीर कैसे हो जाऊं? इन छोटी-मोटी बातों में मत उलझो। रस तो एक ही बात का है, जिसमें लेना, कि बाहर हूं, भीतर कैसे हो जाऊं; आंखें बहार की तरफ खुली हैं, भीतर की तरफ कैसे खुल जाएं।
मरद गरद में मिलि गए, हरि बोलौ हरि बोल।
वही है हरि का स्मरण!
ऐसी गति संसार की, अजहूं राखत जोल।
आपु मुए ही जानिहै, हरि बोलौ हरि बोल।।
क्या मरोगे तभी जानोगे?
ऐसी गति संसार की,.
जरा देखो, गौर करो। इतने लोग मर गए हैं, इतने लोग मर रहे हैं। जरा गौर से पहचानो।
ऐसी गति संसार की,.
यह गति है, संसार की व्यवस्था है, यह उसका नियम है: यहां जो जन्मा है वह मरेगा। यहां सब मिट्टी में मिल जाने वाला है।
ऐसी गति संसार की, अजहूं राखत जोल।
और फिर भी तुम जोर मार रहे हो, इस नियम के विपरीत अभी भी जोर लगा रहे हो कि शायद मैं निकल भागूं। जो सिकंदर को नहीं हुआ, शायद मुझे हो जाए।
.अजहूं राखत जोल।
.आपु मुए ही जानिहै।
क्या तुमने तय ही कर रखा है, कि मरोगे तभी जानोगे? मगर तब चूक जाओगे, बहुत देर हो जाएगी। फिर करने का कोई उपाय न रह जाएगा। फिर पछताए होत का जब चिड़िया चुग गई खेत!
.हरि बोलौ हरि बोल।
इसके पहले कि मौत आ जाए, परमात्मा को पुकार लो। इसके पहले कि मौत द्वार पर दस्तक दे, अमृत को निवासी बना लो, अमृत के अतिथि को बुला लो। फिर मौत नहीं आती है। आती भी है तो तुम्हारी नहीं आती। फिर देह गिरेगी; देह तो गिरनी है। देह तुम्हारी है भी नहीं। रंग-रूप सब गिर जाएगा और मिट जाएगा; तुम रहोगे, सदा रहोगे।
मृत्यु को जीता जा सकता है, अमृत को पुकार कर। और ऐसा भी नहीं है कि अमृत बहुत दूर है, तुम्हारी पहुंच के भीतर है। तुम अमृत-कलश हो। अमृतस्य पुत्रः। जरा हाथ भीतर बढ़ाओ, अमृत के कलश को पा लोगे। और एक घूंट अमृत का पी लिया, एक बार स्मरण आ गया, एक बार हरि की तरफ आंख उठ गई।.
हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।
सुंदर सहजै चीन्हियां, एकै राम अलाह।।
एक बार राम और अल्लाह एक हैं, उस एक का पता चल गया, बस यात्रा पूरी हुई। गंतव्य आ गया। तुम अपने घर आ गए। फिर सुख ही सुख है। फिर शांति ही शांति है। फिर मौन, फिर आनंद, फिर संगीत, और फिर एक मस्ती है जो कभी टूटती नहीं। फिर एक बेखुदी है, एक बेहोशी है, जिसमें होश का दीया भी जलता है। एक अपूर्व अनुभव। उस अपूर्व अनुभव का नाम ही समाधि है।
हरि बोलौ हरि बोल।
आज इतना ही।
सुंदर सहजै चीन्हियां, एकै राम अलाह।।
मेरी मेरी करत हैं, देखहु नर की भोल।
फिरि पीछे पछिताहुगे, हरि बोलौ हरि बोल।।
किए रुपइया एकठे, चौकूंटे अरु गोल।
रीते हाथिन वै गए, हरि बोलौ हरि बोल।।
चहल-पहल सी देखिकै, मान्यौ बहुत अंदोल।
काल अचानक लै गयौ, हरि बोलौ हरि बोल।
सुकृत कोऊ ना कियौ, राच्यौ झंझट झोल।।
अंति चल्यौ सब छाड़िकै, हरि बोलौ हरि बोल।।
मूंछ मरोरत डोलई, एंठयो फिरत ठठोल।
ढेरी ह्वै है राख की, हरि बोलौ हरि बोल।।
पैंडो ताक्यौ नरक कौ, सुनि-सुनि कथा कपोल।
बूड़े काली धार में, हरि बोलौ हरि बोल।।
माल मुलक हय गय घने, कामिनी करत कलोल।
कतहुं गए बिलाइकै, हरि बोलौ हरि बोल।।
मोटे मीर कहावते, करते बहुत डफोल।
मरद गरद में मिलि गए, हरि बोलौ हरि बोल।।
ऐसी गति संसार की, अजहूं राखत जोल।
आपु मुए ही जानिहै, हरि बोलौ हरि बोल।।
ख्यालो-शेर की दुनिया में जान थी जिनसे
फजाए-फिक्रो-अमल अरगवान भी जिनसे
वो जिनके नूर से शादाब थे महो-अंजुम
जुनूने-इश्क की हिम्मत जवान थी जिनसे
वो आरजूएं कहां सो गई हैं मेरे नदीम?
वो नासबूर निगाहें, वो मुंतजिर राहें
वो पासे जब्त से दिल में दबी हुई आहें
वो इंतिजार की रातें, तबील तीरह-व तार
वो नीम-ख्वाब शबिस्तां, वो मखमली बाहें
कहानियां थीं कहीं खो गई हैं मेरे नदीम!
मचल रहा है रंगे-जिंदगी में खूने-बहार
उलझ रहे हैं पुराने गमों से रूह के तार
चलो, कि चलके चिरागां करें दियारे-हबीब
है इंतिजार में अगली मोहब्बतों के मजार
मोहब्बतें जो फना हो गई हैं मेरे नदीम!
यहां जो भी है सब खो जाता है। यहां जो भी है खोने को ही है। यहां मित्रता खो जाती है, प्रेम खो जाता है; धन, पद, प्रतिष्ठा खो जाती है। यहां कोई भी चीज जीवन को भर नहीं पाती; भरने का भ्रम देती है, आश्वासन देती है, आशा देती है। लेकिन सब आशाएं मिट्टी में मिल जाती हैं, और सब आश्वासन झूठे सिद्ध होते हैं। और जिन्हें हम सत्य मान कर जीते हैं, वे आज नहीं कल सपने सिद्ध हो जाते हैं। जिसे समय रहते यह दिखाई पड़ जाए उसके जीवन में क्रांति घटित हो जाती है। मगर बहुत कम हैं सौभाग्यशाली जिन्हें समय रहते यह दिखाई पड़ जाए। यह दिखाई सभी को पड़ता है, लेकिन उस समय पड़ता है जब समय हाथ में नहीं रह जाता। उस समय दिखाई पड़ता है जब कुछ किया नहीं जा सकता। आखिरी घड़ी में दिखाई पड़ता है। श्वास टूटती होती है तब दिखाई पड़ता है। जब सब छूट ही जाता है हाथ से तब दिखाई पड़ता है। लेकिन तब सुधार का कोई उपाय नहीं रह जाता। जो समय के पहले देख लें, और समय के पहले देखने का अर्थ है, जो मौत के पहले देख लें। मौत ही समय है।
खयाल किया है तुमने, हम मृत्यु को और समय को एक ही नाम दिए हैं--काल। काल समय का भी नाम है, मृत्यु का भी। अकारण नहीं, बहुत सोच कर ऐसा किया है। समय मृत्यु है; मृत्यु समय है। मृत्यु आ गई, फिर कुछ करने का उपाय नहीं। मृत्यु के पहले जो जागता है उसके जीवन में संन्यास फलित होता है; उसकी जीवन-यात्रा नये अर्थ लेती, नई दिशाएं लेती। यदि जो हम यहां इकट्ठा कर रहे हैं व्यर्थ है तो स्वभावतः हमारी इकट्ठे करने की दौड़ कम हो जाती है। करनी नहीं पड़ती, हो जाती है कम। हमारी जो पकड़ है शिथिल हो जाती है। आयोजन नहीं करना पड़ता शिथिल करने का; अभ्यास नहीं करना पड़ता। अगर राख ही है तो तुम मुट्ठी को जोर से बांध कर रखोगे कैसे? हीरा मानते थे तो मुट्ठी जोर से बांधी थी; समझ में आनी शुरू हो गई राख है, मुट्ठी खुलने लगी। सहज ही खुल जाती है। इसलिए संन्यास सहज ही है।
और जो संन्यास आयोजित करना पड़ता है, व्यवस्था जमानी पड़ती है, अभ्यास करना पड़ता है, जिस संन्यास के लिए संघर्ष करना पड़ता है, वह झूठ है। संन्यास साधना नहीं है, जीवन की व्यर्थता का बोध है। और जीवन व्यर्थ है, उसमें सार्थकता देखना चमत्कार है। रोज कोई मरता है, फिर भी तुम्हें अपनी मौत दिखाई नहीं पड़ती! रोज किसी की अरथी उठती है, मगर तुम सोचते हो तुम्हारी शहनाई सदा बजती रहेगी। रोज तुम देखते हो, कोई उठ गया और सब पड़ा रह गया, फिर भी तुम पकड़े चले जाते हो, फिर भी तुम दौड़े चले जाते हो, उसी सबको इकट्ठे करने में लगे रहते हो। और ऐसा नहीं है कि दूर अपरिचित लोग मरते हैं; ऐसा कोई घर कहां है जहां मृत्यु न घटी हो? तुमने बुद्ध की कहानी तो सुनी है न?
किसा गौतमी नाम की एक स्त्री का बेटा मर गया। एक ही बेटा था; पति पहले ही जा चुका था, विधवा का बेटा था। सारा सहारा था। अचानक उसकी मृत्यु हो गई। रात सोया, सुबह नहीं जागा। बीमारी भी नहीं हुई; बीमारी भी होती तो इलाज करने का तो कम से कम आयोजन कर लेती, कुछ उपाय कर लेती। कुछ उपाय का मौका भी न मिला, उतनी सांत्वना भी न मिली। किसा गौतमी पागल जैसी हो गई। छाती पीटती थी और गांव भर में अपने बेटे की लाश को लेकर घूमती थी कि कोई मेरे बेटे को जिला दो। लोग समझाते कि पागल, जो मर गया, मर गया; उसके जीने का कोई उपाय नहीं है। ऐसा कभी हुआ नहीं। लेकिन उसकी आशा, उसकी कामना, पीछा न छोड़ती।
फिर किसी ने सलाह दी कि बुद्ध का गांव में आगमन हुआ है; तू उन्हीं के पास जा। शायद उनके आशीष से कुछ हो जाए। किसा गौतमी ने बुद्ध के चरणों में ले जाकर अपने बेटे की लाश रख दी और उसने बुद्ध से कहा: जिला दो मेरे बेटे को। तुम्हारे आशीर्वाद से क्या न हो सकेगा? तुम एक बार कह दो कि मेरा बेटा जी उठे। बुद्ध ने कहा: जिला दूंगा, जरूर जिला दूंगा, लेकिन पहले एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी। और शर्त यह है कि तू गांव में जा, और किसी के घर से थोड़े से सरसों के दाने मांग ला; मगर घर ऐसा हो जिसमें मौत कभी न घटी हो।
मोह में, आशा में, उत्फुल्लता से भरी हुई किसा गौतमी गांव में दौड़ी घर-घर, उस गांव में सारे किसान ही थे। सभी के घरों में सरसों के बीज थे। यह भी कोई शर्त बुद्ध ने लगाई है! मगर उस किसा गौतमी को अपने मोह में यह दिखाई न पड़ा कि शर्त ऐसी है कि पूरी हो न सकेगी--जिस घर में कोई मृत्यु न हुई हो। द्वार-द्वार जाकर उसने झोली फैलाई और कहा: मुझे थोड़े से दाने दे दो, शर्त एक ही है कि तुम्हारे घर में कोई मृत्यु न हुई हो। ऐसा कोई तो घर होगा। लेकिन लोग कहते: किसा गौतमी, तू पागल है, सब घरों में मृत्यु हुई है। मृत्यु जीवन की अनिवार्यता है; इससे कोई नहीं बच सकता। भिखमंगे से लेकर सम्राट के द्वार तक किसा गौतमी गई, सांझ होते-होते उसे सूझ आई। सांझ होते-होते उसे खयाल आया कि बुद्ध ने यह शर्त क्यों लगाई है--यही दिखाने को कि मौत सब जगह होती है, तू निरपवाद रूप से जान ले कि मौत सबकी होती है। मरना ही है। मरण जीवन का स्वभाव है। सांझ होते-होते हर द्वार से लौटी खाली हाथ, दिखाई पड़ा।
सांझ जब लौटी बुद्ध के चरणों में, उसने कहा: मेरे बेटे को मत जिलाएं; अब तो ऐसा कुछ करें कि मेरी मौत के पहले मैं जान लूं कि यह जीवन क्या है? बेटा तो गया; मैं भी जाऊंगी, यह भी स्पष्ट हो गया है। जो यहां है, सभी जाएंगे। अब मेरी सुबह की जिज्ञासा नहीं है, वह बात समाप्त हो गई। मुझे दीक्षा दें। अगर मृत्यु होनी ही है तो हो गई मृत्यु। अब जो थोड़े दिन बचे हों, थोड़ी श्वास बची हों, इन थोड़ी श्वासों से अमृत से संबंध जोड़ लूं, उससे संबंध जोड़ लूं जो मिलता है तो कभी खोता नहीं। अब पानी के बबूलों से और संबंध नहीं जोड़ने हैं। अब शाश्वत से नाता मेरा बना दें।
बुद्ध ने कहा: इसीलिए किसा गौतमी तुझे घर-घर भेजा था ताकि तेरी भ्रांति टूट जाए।
लोग ऐसा ही मान कर जीते हैं कि कहीं तो कोई अपवाद होगा। कहीं कोई अपवाद नहीं है। समय रहते जो जाग जाता है, वह रूपांतरित हो जाता है। लेकिन हम अपने को समझाए चले जाते हैं। हम कहते हैं: मौत होगी कल, आज तो अभी नहीं हुई है। अभी तो नहीं हुई है। अभी तो जी लें। सच तो यह है कि हम उलटे तर्क बना लेते हैं। हम कहते हैं: कल मौत होनी है इसलिए आज ठीक से जी लें। खाओ, पीओ, मौज करो, क्योंकि कल मौत है।
ये दो तर्क हैं। दोनों मौत को तो मानते हैं। एक तर्क कहता है: कल मौत है इसलिए सोच लो, समझ लो, ध्यान कर लो, जाग लो। दूसरा तर्क कहता है: कल मौत है, समय मत गंवाओ ध्यान-प्रार्थना इत्यादि में, भोग लो, चूस लो रस जितना संभव हो। ये दोनों एक ही बात को मान कर चलते हैं कि मौत है। अगर मौत है तो रस चूस कर भी क्या होगा? ये थोड़ी सी देर के स्वाद कितने दूर तक काम आएंगे? भुलावा हो जाएगा। थोड़ी देर के लिए मूर्च्छा सम्हल जाएगी। थोड़ी देर के लिए और सो लोगे। एक करवट और बदल लोगे। एक नया सुख यानी एक और करवट। फिर थोड़ी चादर ओढ़ ली, फिर एक झपकी ले ली, मगर नींद टूटनी ही है। सुबह होनी ही है।
आज की रात साजे-दर्द न छेड़!
दुख से भरपूर दिन तमाम हुए
और कल की खबर किसे मालूम
दोशो-फर्दा की मिट चुकी हैं हुदूद
हो न यो सब सहर किसे मालूम
जिंदगी हेच! लेकिन आज की रात
एजदियत है मुमकिन आज की रात
आज की रात साजे-दर्द न छेड़!
कल का तो कुछ पक्का नहीं है। सुबह हो न हो। कम से कम आज तो दर्द की बात मत उठाओ। आज तो साज मत छेड़ो दर्द का। कल तो मौत है, भुलाओ उसे। आज तो थोड़े रंगीन गीत गा लें।
अब न दोहरा फसानहाय अलम,
अपनी किस्मत पे सोगवार न हो।
फिक्रे-फर्दा उतार दे दिल से
उम्रे-रफ्ता पे अश्कबार न हो
अहदे-गम की हिकायतें मत पूछ
हो चुकीं सब शिकायतें मत पूछ
आज की रात साजे-दर्द न छेड़!
मत छेड़ो साजे-दर्द; किसी तरह आज की रात रंगीन कर लो। पी लो मदिरा, नाच लो, गा लो।
क्या फर्क पड़ेगा?
कल मौत आएगी, और सब धूल में मिला जाएगी। वे क्षण, जो तुमने सोचे थे मस्ती के थे, केवल भुलावे के सिद्ध होंगे। आदमी डरता है इस सत्य को देखने से। इसलिए दुनिया में धर्म की बात तो बहुत होती है, धार्मिक आदमी बहुत कम होते हैं। लोग बात ही करते हैं, धर्म की यात्रा पर निकलते नहीं। निकलने में एक ही खतरा है कि मौत स्वीकार करनी पड़ेगी। और मौत कौन स्वीकार करना चाहता है!
सच तो यह है, तुममें से बहुतों ने आत्मा अमर है, इसीलिए मान रखा है कि तुम मौत को स्वीकार नहीं करना चाहते। तुमने आत्मा अमर है, इस सिद्धांत के पीछे भी अपने को छिपा लिया है। आत्मा अमर है, इस कारण तुम धार्मिक होने से बच रहे हो। यह बात तुम्हें उलटी लगेगी। तुम तो सोचते हो कि मैं मानता हूं, आत्मा अमर है, इसलिए मैं धार्मिक हूं। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं; तुम धार्मिक होने के कारण नहीं मानते हो कि आत्मा अमर है, तुम धार्मिक नहीं होना चाहते हो, इसलिए तुम मान लिए हो कि आत्मा अमर है। मरना कहां है? भोगो, जीओ।
न केवल तुमने भोग के यहां आयोजन कर लिए हैं, तुमने इन्हीं भोगों के आयोजन स्वर्ग में भी कर लिए हैं, तुम्हारा बैकुंठ भी तुम्हारे यहां से बहुत भिन्न नहीं है, बस ऐसा ही है। थोड़ा और परिष्कृत, थोड़ा और रंगीन, थोड़ा और रूपवाला। तुम्हारे स्वर्ग में तुम्हारी वासनाओं की झलक है, तुम्हारी वासनाओं के ही गीत हैं। सुधरे हुए, सुधारे हुए। यहां गुलाब की झाड़ी में थोड़े कांटे भी होते हैं, वहां तुमने कांटे भी अलग कर दिए हैं--कल्पना में--फूल ही फूल बचा लिए। यहां आदमी के जीवन में दुख-दर्द भी होते हैं; तुमने वहां दुख-दर्द अलग कर दिए हैं, सुख ही सुख बचा लिए। तुमने दिन ही दिन बचा लिया; रात काट डाली। तुमने जीवन ही जीवन बचा लिया; मौत अलग कर दी है।
और मैं तुमसे कहना चाहता हूं: ये सब भुलावे हैं। तुम्हारे यहां के सुख भी धोखे हैं; तुम्हारे स्वर्ग के सुख भी धोखे हैं। इस धोखे से जो जागता है, सुख के धोखे से जो जागता है, उसे पहली बार पता चलता है कि सुख क्या है। उस सुख का नाम आनंद है। और वह आनंद न तो यहां है, न वहां है। वह आनंद तुम्हारे भीतर है, वह आनंद तुम हो, वह सच्चिदानंद तुम हो। बाहर की खोज भटकाती रहेगी। बाहर ही तुम्हारी दुनिया है, बाहर ही तुम्हारे स्वर्ग हैं। भीतर कब आओगे?
जब आदमी मर जाता है तो देखते हैं, अरथी हम उठाते हैं और कहते हैं: राम नाम सत है। मुर्दे के सामने दोहरा रहे हो, राम-नाम सत है! इस आदमी को जिंदगी में स्वयं जानना था कि राम-नाम सत है और सब असत है। जैसे यहां राम-नाम सत कहते हैं, ऐसे बंगाल में ‘हरि बोलौ हरि बोल।’ जब आदमी मर जाता है, उसकी अरथी उठा कर ले जाते हैं, तो कहते हैं: ‘हरि बोलौ हरि बोलो।’ जिंदगी भर हरि न बोला, अब दूसरे बोल रहे हैं, इसके तो ओंठ अब कंपेंगे भी नहीं।
और दूसरे भी अपने लिए नहीं बोल रहे हैं, खयाल रखना। इस मुर्दे के लिए बोल रहे हैं कि भई, अब तेरा तो सब समाप्त हुआ, ‘हरि बोलौ हरि बोल!’ नमस्कार! अब हमसे पिंड छुड़ा। अब हमें क्षमा कर। अब जा, अब हमें मत सता। घर लौट गए। मुर्दे के लिए बोले, अपने लिए नहीं। मुर्दा भी जिंदा रहा जब तक, नहीं बोला।
जो आदमी जीवित-जीवित बोल देता है, हरि को स्मरण कर लेता है, उसके जीवन में स्वर्ण की आभा उतर आती है, उसके जीवन में शाश्वत की किरणें उतर आती हैं।
हरि को पुकारना है तो जीते जी पुकार लो। तुम पुकारो तो ही पुकार पाओगे, दूसरे तुम्हारे लिए नहीं पुकार सकते। यह पुकार उधार नहीं हो सकती। और हरि को न पुकारा तो गया जीवन व्यर्थ। हारा तुमने जीवन अगर हरि को न पुकारा।
हरि को पुकारने का अर्थ केवल इतना ही है कि इस जीवन में, इस जीवन की पर्तों में छिपा हुआ कुछ हीरा पड़ा है, कुछ ऐसा पड़ा है जो मिल जाए तो तुम सम्राट हो जाओ, जो न मिले तो तुम भिखारी बने रहोगे।
बीत गई सुखबेला
दूर कहीं शहनाई बाजी, कोई हुआ अकेला
बीत गई सुखबेला।
होनी प्रीत के होने खेल में फांक लिए अंगारे
पग-पग अंधियार बरसाएं धुंदले चांद-सितारे
छेड़ गया चिंता-नगरी में आज सुनहला अंधेला
बीत गई सुखबेला।
सांस कटारी बन-बन अटके अंखियां भर-भर आएं
कुंदन की तपती भट्टी में झुलस गई आशाएं
आशाओं की चिता पे नाचे, दुखड़ा नया नवेला
बीत गई सुखबेला।
परबत और पाताल मिला के सुपन ने जोत जगाई
बैरी लेख से नैन मिले तो टूट गई अंगड़ाई
अब मन सोचे पड़े अकेला क्यों अग्नि से खेला
बीत गई सुखबेला।
दूर कहीं शहनाई बाजी, कोई हुआ अकेला
बीत गई सुखबेला।
सब बीता जा रहा है। संसार का अर्थ है: जो बीत रहा है, जो थिर नहीं है, जो नदी की धार है। यह धार भागी जा रही है। इस धार में दुबारा उतरना भी संभव नहीं है। तुम्हारी मुट्ठी से सब बहा जा रहा है। तुम खुद बहे जा रहे हो।
अब मन सोचे पड़ा अकेला क्यों अग्नि से खेला
बीत गई सुखबेला।
लेकिन चिता पर पड़े हुए सोचोगे भी तो बहुत देर हो गई होगी। फिर करने का कोई उपाय न बचेगा। अभी पुकार लो: हरि बोलौ हरि बोल। अभी बुला लो। अभी तलाश लो। अभी खोज लो। अभी खोद लो--घर में आग लगे इसके पहले कुआं तैयार कर लो। ऐसा मत सोचना कि जब लगेगी घर में आग तब कुआं तैयार कर लेंगे। अभी तैयार कर लो। आग तो लगनी सुनिश्चित है। जिस घर में तुम रह रहे हो, इस में आग लगनी ही है। यह लपटों में जलने को ही बना है, यह चिता पर चढ़ने को ही बना है। यह इसकी नियति है। इसकी नियति से इसे भिन्न नहीं किया जा सकता। यह इसका अंतरस्थ स्वभाव है। तुम्हारा जो घर है, साधारण घर, वह तो जले न जले, मगर तुम्हारी देह तो जलेगी। यह इतनी सुनिश्चित बात है, इस में कोई संदेह करने का प्रश्न ही नहीं उठता। ईश्वर को मत मानो, आत्मा को मत मानो, मोक्ष को मत मानो, जरूरत नहीं है। इतना तो मानो कि यह देह चिता पर चढ़ेगी। बस उतने से ही क्रांति हो जाएगी।
ये तुम गैरिक वस्त्र देखते हो संन्यासियों के, यह चिता की अग्नि का रंग है। संन्यास का अर्थ होता है: मरने के पहले हम चिता पर चढ़ें, कि हमें यह बात स्वीकृत हो गई कि हमें चिता पर चढ़ना है, कि हमने यह अग्नि वेष धारण किया है, कि हमें याद दिलाता रहेगा यह वेष कि हम अग्नि पर चढ़े हैं। यह देह अग्नि पर चढ़ी ही है। देर-अबेर से कुछ फर्क नहीं पड़ता। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। मगर संन्यासी यह घोषणा कर रहा है अपने समक्ष और संसार के समक्ष कि मैं अग्नि पर चढ़ा हूं, इस तथ्य को मैं झुठलाना नहीं चाहता, इस तथ्य को मैं अपने जीवन का केंद्र बना लेना चाहता हूं। और इसी केंद्र पर मैं सारे जीवन के वर्तुल को घुमाना चाहता हूं।
तुम्हारे जीवन का केंद्र क्या है? किसी का धन है, किसी का पद है, किसी का काम, किसी का लोभ, किसी का मोह। मगर ये सब छिन जाएंगे, ये असली केंद्र नहीं हैं। तुम्हारे जीवन के केंद्र को कुछ ऐसा बनाओ कि मौत उसे छीन न सके। तुम मौत से पार जाने वाली कोई किरण अपने भीतर पकड़ो। उस किरण को भक्तों ने प्रेम कहा है, ज्ञानियों ने ध्यान कहा है। वे एक ही बात के दो नाम हैं।
आज के सूत्र।
हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।
सुंदर सहजै चीन्हियां, एकै राम अलाह।।
बड़ा प्यारा वचन है। अमूल्य अर्थों से भरा वचन है।
हिंदू की हदि छाड़िकै,.
जब तक हद है तब तक तुम बेहद को न पा सकोगे। जब तक सीमा में बंधे हो तब तक असीम से तुम्हारा कोई संबंध न हो सकेगा। अगर हिंदू हो तो धार्मिक नहीं हो सकते; अगर मुसलमान हो तो धार्मिक नहीं हो सकते। तुम्हारी हद है। बेहद से कैसे जुड़ोगे?
गंगा अगर जिद करे कि मैं गंगा ही रहूंगी तो सागर से न मिल पाएगी, इतना पक्का है। गंगा कहे कि मैं तो अपने किनारों में ही आबद्ध रहूंगी, मैं तो अपने व्यक्तित्व को बचाऊंगी, मैं गंगा हूं, मैं ऐसे सागर में नहीं उतर सकती, अगर गंगा गंगा होने की जिद रखे तो सागर में न उतर पाएगी। सागर में उतरने के पहले गंगा को एक बात तो तय कर लेनी होगी कि अब मैं नहीं हूं। सीमा छोड़ देनी होगी।
फिर सीमाएं किसी भी तरह की हों, सभी सीमाएं मनुष्य को कारागृह में डालती हैं, जंजीरों से बांधती हैं। हिंदू हो तो तुमने एक जंजीर पहन ली; ईसाई हो तो दूसरी जंजीर पहन ली। क्यों अपने को छोटा करते हो? बड़े से मिलने चले हो, विराट से मिलने चले हो, क्यों अपने को क्षुद्र में आबद्ध करते हो? भारतीय हो, चूकोगे; चीनी हो, चूकोगे।
और हमारी तो हद है। हिंदू होने से भी हमारा काम नहीं चलता, वह भी सीमा बड़ी मालूम पड़ती है। उसमें भी कोई ब्राह्मण है, कोई शूद्र है। ब्राह्मण होने से भी हमारा काम नहीं चलता; वह भी सीमा बड़ी मालूम पड़ती है। तो उसमें कोई कानकुब्ज ब्राह्मण है, कोई कोकणस्थ है, कोई देशस्थ है। और उसमें भी फिर सीमाएं हैं, सीमाएं हैं, और सीमाएं हैं। तुम छोटे से छोटे होते चले जाते हो।
और अनहद की तलाश पर चले! और परमात्मा को पुकारना चाहते हो: हरि बोलौ हरि बोल! हिंदू रह कर हरि को पुकारना चाहते हो? तुम्हारी पुकार नहीं पहुंचेगी। इतनी संकीर्ण पुकारें नहीं पहुंचतीं। पुकार विराट से जोड़नी है तो विराट हृदय से उठनी चाहिए। और मजा ऐसा है कि मुसलमानों की किताब भी कहती है कि परमात्मा असीम है और हिंदुओं की किताब भी कहती है कि परमात्मा असीम है। और हिंदू भी दोहराते हैं कि परमात्मा असीम है और मुसलमान भी दोहराते हैं कि परमात्मा असीम है। लेकिन यह बात दोहराने से उन्हें यह याद नहीं आती कि हम असीम कब होंगे। अगर परमात्मा असीम है और हम उससे जुड़ना चाहते हैं तो कुछ तो उसका रंग लें, कुछ तो उसका रूप लें, कुछ तो उसका ढंग लें, कुछ तो उसकी हवा बहने दें अपने भीतर।
लोग संकीर्ण हो गए हैं? और जितने संकीर्ण हो गए हैं, उतने ही परमात्मा से दूर हो गए हैं। तुम देह में ही आबद्ध नहीं हो, देह से भी बड़े बंधन तुम्हारे मन में हैं। तुमने वहां तय कर रखा है कि झुकेंगे तो मस्जिद में, झुकेंगे तो गुरुद्वारा में। झुकने पर भी सीमा लगा ली!
यह आकाश किसका है? ये चांद-तारे किसके हैं? ये वृक्ष, ये पक्षी, ये लोग किसके हैं? झुकने में क्या सीमा लगा रहे हो? जहां खड़े हो वहीं झुको; जहां बैठे हो, वहीं झुको। भूमि का प्रत्येक कण उसका तीर्थ है। सब पत्थर काबा के पत्थर हैं, और सब घाट काशी के घाट हैं। कैलाश ही कैलाश है। चलते वहीं हो, जीते वहीं हो, उठते वहीं हो, मरते वहीं हो। सीमाएं तोड़ो!
सुंदरदास ठीक कहते हैं:
हिंदू की हदि छाड़िकै,.
हद छोड़ दी हिंदू की, उस दिन जाना। हद छोड़ते ही ज्ञान अवतरित होता है।
.तजी तुरक की राह।
और मुसलमान की राह भी छोड़ दी। परमात्मा को राह से थोड़ा ही पाना होता है!
राह तो बाहर जाने के लिए होती है, भीतर जाने की कोई राह नहीं होती। मार्ग तो दूर से जोड़ने के लिए होते हैं। जो पास से भी पास है उसे जोड़ने के लिए किस मार्ग की जरूरत है? चले कि भटके! रुको। सब राह जाने दो। सारे पंथ जाने दो। तुम तो आंख बंद करो, अपंथी हो जाओ, अमार्गी हो जाओ। परमात्मा दूर नहीं है कि रास्ता बनाना पड़े। परमात्मा तुम्हारे अंतस्तल में विराजमान है। कोई रास्ता बनाने की जरूरत नहीं है, तुम वहां हो ही। सिर्फ आंख खोलनी है। सिर्फ बोध जगाना है। सिर्फ स्मरण करना है--‘हरि बोलौ हरि बोल।’
इसका मतलब समझते हो?
इसका मतलब इतना ही है कि बस इतने से ही हो जाएगा, स्मरण मात्र से हो जाएगा। सुरति काफी है। आदमी ने परमात्मा को खोया नहीं है। खो देता तो बड़ी मुश्किल हो जाती। खो देता तो कहां खोजते? कैसे खोजते इस विराट अस्तित्व में, अगर खो देते?
बामुश्किल चांद तक पहुंच पाए। अस्तित्व बहुत बड़ा है। पहले तारे पर पहुंचने के लिए. अगर हमारे पास ऐसे यान हों जो प्रकाश की गति से चलें--प्रकाश की गति बहुत है--एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड। उसमें साठ का गुणा करना, तो एक मिनट में प्रकाश उतना चलता है। फिर उसमें साठ का गुणा करना, तो एक घंटे में प्रकाश उतना चलता है। फिर उसमें चौबीस का गुणा करना, तो चौबीस घंटे में उतना चलता है। फिर उसमें तीन सौ पैंसठ का गुणा करना। तो वह सबसे छोटा प्रकाश का मापदंड है--एक प्रकाश-वर्ष। प्रकाश को नापने का वह तराजू है। सबसे छोटा माप, जैसे सोने को रत्ती से नापते हैं, ऐसी वह रत्ती है। एक वर्ष में प्रकाश जितना चलता है, वह सबसे छोटा मापदंड है। और एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलता है।. अगर हमारे पास प्रकाश की गति से चलने वाले यान हों, जिसकी अभी कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती, तो सबसे निकट के तारे में पहुंचने में चालीस वर्ष लगेंगे। और यह निकट का तारा है।
फिर इससे और दूर तारे हैं, और दूर तारे हैं। ऐसे तारे हैं जिन तक पहुंचने में अरबों-खरबों वर्ष लगेंगे। जीएगा कहां आदमी? ऐसे तारे हैं जिनसे रोशनी चली थी उस दिन जब पृथ्वी बनी; अभी तक पहुंची नहीं। और ऐसे तारे हैं जिनकी रोशनी तब चली थी, जब पृथ्वी नहीं बनी थी और तब पहुंचेगी जब पृथ्वी मिट चुकी होगी। उन तारों की रोशनी को मिलना ही नहीं होगा पृथ्वी से। पृथ्वी को बने करोड़ों वर्ष हो गए, और करोड़ों वर्ष अभी जी सकती है, अगर आदमी पगला न जाए। जिसकी बहुत ज्यादा संभावना है कि आदमी पागल हो जाएगा और अपने को नष्ट कर लेगा। तो उन तारों की रोशनी को पता ही नहीं चलेगा कि पृथ्वी बीच में बनी, गई, खो गई; कभी थी या नहीं। उन तक हम कैसे पहुंचेंगे?
और उसके पार भी विस्तार है। विस्तार अंतहीन है। अगर परमात्मा खो जाए तो कहां खोजेंगे, कैसे खोजेंगे, किससे पूछेंगे उसका पता-ठिकाना? नहीं, असंभव हो जाएगी बात फिर। परमात्मा मिल जाता है, क्योंकि खोया नहीं है। मेरी इस बात को खूब गांठ बांध कर रख लेना: परमात्मा मिलता है, क्योंकि खोया नहीं है। मिला ही हुआ है, इसलिए मिलता है। सिर्फ याद खो गई है, परमात्मा नहीं खोया है। हीरा खीसे में पड़ा है, तुम भूल गए हो। कभी-कभी हो जाता है न, आदमी चश्मा आंख पर रखे रहता है और चश्मा ही खोजने लगता है; कलम कान में खोंस लेता है और चारों तरफ कलम खोजने लगता है। ऐसी ही दशा है, विस्मरण हुआ है।
‘हरि बोलौ हरि बोल’ में यही तुम्हें याद दिलाया जा रहा है कि अगर तुम पुकार लो मन भर कर, पूरे हृदय से, रोएं-रोएं से, श्वास-श्वास से, तो बस बात हो जाएगी। और कुछ करना नहीं है।
हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।
सुंदर सहजै चीन्हियां,.
और जैसे ही हिंदू को छोड़ा, मुसलमान को छोड़ा कि सहज ही उसकी पहचान आ गई। इन्हीं की वजह से पहचान अटकी थी। अब तुम और जरा मुश्किल में पड़ोगे। मेरी बात तुम्हें और थोड़ी झंझट में डालेगी। हिंदू होने की वजह से बाधा पड़ रही है। तुम्हारे वेद बीच में आ रहे हैं। तुम्हारी गीता, तुम्हारी रामायण बीच में आ रही हैं। तुम्हारे राम-कृष्ण बीच में आ रहे हैं। मुसलमान होने से बाधा पड़ रही है, तुम्हारा कुरान बीच में आ रहा है। तुम्हारी नमाज बीच में आ रही है। तुम्हारी मस्जिद, तुम्हारे मौलवी बीच में आ रहे हैं। उसकी याद के लिए किसी मध्यस्थ की कोई जरूरत नहीं है। उसकी याद तो सीधी उठनी चाहिए। उसकी याद के लिए तुम्हें किसी शास्त्र में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। अपने भीतर जाना है। शास्त्र में नहीं, स्वयं में जाना है।
इसलिए मैं कहता हूं, यह वचन बहुत अदभुत है--
हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।
सुंदर सहजै चीन्हियां,.
और सहज ही पहचान हो गई। इन्हीं की वजह से पहचान नहीं हो रही थी। अब जिसने सोच रखा है कि भगवान तो वही है जो मंदिर में धनुषबाण लिए खड़े हैं--राम ही भगवान हैं--इसको अड़चन होगी। यही प्रतिमा इसके लिए बाधा बनेगी। यही आकृति इसे निराकार में न जाने देगी। या जिसने सोचा है कि भगवान तो वही जो मोरमुकुट बांधे मंदिर में खड़े हैं, बांसुरी बजा रहे हैं, अब यह जिस तलाश में चल पड़ा यह कल्पना की तलाश है।
ऐसा नहीं है कि कृष्ण कभी हुए नहीं। हो भी गए, उठी लहर, वह नाच भी हुआ, वह बांसुरी भी बजी, और खो भी गए। उनको हमने भगवान कहा, क्योंकि उनमें सागर की झलक हमें सुनाई पड़ी, सागर की गरिमा का थोड़ा सा हमें उनमें बोध हुआ। हमने उन्हें भगवान कहा। ठीक कहा। लेकिन मंदिर में उनकी मूर्ति रख कर बैठ जाओगे तो चूक हो जाएगी। वह लहर की प्रतिमा है, सागर की नहीं। सागर की कोई प्रतिमा नहीं होती। सागर विराट है। लहर से सागर को पहचान लो बस। लहर का साथ मिल जाए तो थोड़ी दूर चल लो, मगर लहर को पूजते मत बैठे रहो। सदियां बीत गई हैं, और अब तुम लहर को ही पूज रहे हो। अब वह लहर कहां है? कब की सागर में खो गई और लीन हो गई, कब की विराट में एक हो गई! विराट में एक हो गए थे, इसीलिए तो हमने उनको भगवान कहा था। अपनापन छोड़ दिया था, आपा छोड़ दिया था, इसलिए भगवान कहा था। कोई अहंकार भाव नहीं रह गया था, इसलिए भगवान कहा था। देह गिर गई, भीतर तो शून्य हो ही गए थे। देह के गिरते ही शून्य शून्य में मिल गया, आकाश आकाश में खो गया। घड़ा फूट गया। अब तुम किसकी बातें कर रहे हो? अब घड़े की प्रतिमा बना कर बैठे हो! उसकी पूजा में लगे हो! वही बाधा बन रही है।
बुद्ध ने कहा है: अगर मैं भी तुम्हारे मार्ग पर आ जाऊं तो तलवार उठा कर मेरे दो टुकड़े कर देना।
मुझे कुछ ही दिन पहले अमरीका से एक पत्र मिला। कहीं मैंने बुद्ध के इस वचन का उल्लेख किया है; इफ यू मीट मी ऑन दि वे, किल मी। किसी ने बड़े क्रोध से मुझे पत्र लिखा है कि आप कौन हैं? आप कैसे यह कह सकते हैं कि बुद्ध रास्ते में मिल जाएं तो उनकी हत्या कर दें। उसे पता नहीं कि यह मैंने कहा नहीं, यह बुद्ध ने ही कहा हुआ है, यह बुद्ध का वचन ही मैंने उद्धृत किया है। उस आदमी को बड़ा क्रोध आ गया है कि कोई यह कैसे कह सकता है। मगर समस्त बुद्धों ने यही कहा है। कहेंगे ही। अगर यह न कह सकें तो बुद्ध नहीं हैं।
बुद्धों ने कहा है: हमसे पार हो जाओ, हममें अटक मत जाना। हम द्वार हैं, हमसे गुजर जाओ। हम पर रुक मत जाना। हम सेतु हैं, उस पार निकल जाओ। सेतु पर घर मत बना लेना। मगर तुमने सेतु पर घर बना लिया। तुम द्वार की ही पूजा करते बैठे हो। तुम भूल ही गए कि द्वार गुजरने को है, पार जाने को है। द्वार के पार जाना है। द्वार पर अटक नहीं जाना। कितना ही सुंदर हो द्वार, और कितनी ही प्यारी नक्काशी हो, और बहुमूल्य से बहुमूल्य लकड़ी का बना हो, कि सोने का बना हो, कि चांदी का बना हो, कि हीरे-जवाहरात जड़े हों, कितना ही मूल्यवान हो द्वार, मगर द्वार का अर्थ ही होता है: जिससे गुजर जाना। आगे कुछ है। द्वार से देखो आकाश, आगे तक बढ़ो।
सुंदरदास कह रहे हैं:
सुंदर सहजै चीन्हियां, एकै राम अलाह।
पहचान सरलता से हो गई जिस दिन हिंदू न रहे, जिस दिन मुसलमान न रहे। जिस दिन सीमा छूटी उसी दिन असीम से पहचान हो गई। असीम से पहचान होने में बाधा ही क्या है? असीम की तरफ से कोई बाधा नहीं है, तुम्हारी तरफ से बाधा है। तुम सीमा को पकड़े बैठे हो। सीमा को जाने दो, और असीम प्रवाहित होगा। और उस असीम के ही सब नाम हैं।
.एकै राम अलाह।
और तब तुम जानोगे कि मंदिर में जो पूजा जा रहा है वह वही है; और मस्जिद में जो पूजा जा रहा है वह भी वही है। आकार में भी वही है, निराकार में भी वही है। जो मानते हैं परमात्मा में वे भी उसकी ही बात कर रहे हैं, और जैसे बुद्ध और महावीर जो नहीं मानते हैं परमात्मा में, वे भी उसी की बात कर रहे हैं। हां भी उसी का रूप है, नहीं भी उसी का रूप है। क्योंकि वह रूपातीत है। पर तुम सीमा के पार जाओगे, असीम का स्वाद मिलेगा, तो ही यह अनुभव होगा।
अब यह बड़े मजे की बात है: राम में उलझ जाओ, तो राम अल्लाह के विपरीत हैं, अल्लाह में उलझ जाओ तो अल्लाह राम के विपरीत हैं। कृष्ण में उलझ जाओ तो कृष्ण राम के विपरीत हैं, राम में उलझ जाओ तो कृष्ण के विपरीत हैं। और अगर तुम सारी उलझनों से छूट जाओ तो तुम अचानक पाओगे कि वे सब एक ही अनुभव के नाम हैं, अलग-अलग नाम हैं। भाषा के भेद हैं, व्याख्याओं की भिन्नता है, पर इशारा एक ही तरफ है।
तो मैं तुमसे यह भी कह दूं कि जो हिंदू है, कभी भी धार्मिक नहीं हो पाता; हालांकि जो धार्मिक है वह जान लेता है कि हिंदू भी सच हैं, मुसलमान भी सच हैं, ईसाई भी सच हैं, जैन भी सच हैं, बौद्ध भी सच हैं। शास्त्रों में उलझ कर कोई सत्य तक नहीं पहुंचता, लेकिन जो सत्य तक पहुंच जाता है उसके लिए सभी शास्त्र सत्य हो जाते हैं। इसलिए सारे शास्त्रों पर मैं बोल रहा हूं, सिर्फ इसी बात की तुम्हें याद दिलाने के लिए--‘एकै राम अलाह।’
और यह ‘सहज’ शब्द भी खूब समझ लेने जैसा है।
सुंदर सहजै चीन्हियां,.
सहज का मतलब होता है: बिना प्रयास के, बिना साधना के, बिना साधे, बिना किसी योजना के, बिना यत्न के, अपने से हो गया। बस इतना ही किया कि दरवाजा खोल दिया जैसे सुबह सूरज निकला और तुमने दरवाजा खोल दिया, पर्दा खोल दिया, और रोशनी भर गई। यह रोशनी को जाकर बाहर बांध-बांध कर भीतर नहीं लाना पड़ता, रोशनी अपने से आ जाती है। द्वार खुला कि रोशनी आ जाती है। यह सहज है। ठीक ऐसे ही परमात्मा से तुम भर जाओगे, अगर तुम हद छोड़ दो।
मगर हद को हम बड़ी जोर से पकड़े हैं। हद हमारा प्राण बन गई है। हद हमारे लिए इतनी मूल्यवान हो गई है कि हम मरने-मारने को तैयार हैं। मुसलमान हिंदू को काटने को तैयार है; हिंदू मुसलमान को काटने को तैयार है। ईसाई यहूदियों को काटते रहे हैं। काटने के लिए तैयार हैं, मरने-मारने को तैयार हैं। हद ज्यादा मूल्यवान हो गई, और बेहद की बातें हो रही हैं। आदमी की मूढ़ता देखते हो! अगर बेहद की बात हो रही है तो फिर मारना-काटना क्या? धर्म के नाम पर हत्या कैसी?
और जब भी तुम किसी को मारते हो, उसी को मार रहे हो। ‘एकै राम अलाह।’ किसको मार रहे हो? तुम सोचते हो हिंदू को, मुसलमान को, तुम उसी को मार रहे हो। तुम जो भी नष्ट कर रहे हो, उसी के विपरीत तुम्हारा आयोजन चल रहा है। चाहे तुम उसका नाम ही लेकर क्यों न करो। चाहे उसके नाम पर ही क्यों न करो।
जागो तो सहज ही पहचान हो जाती है। एक ही काम करना है: हद छोड़ देनी है।
मेरी उपदेशना यही है: हद छोड़ो। यहां मैं तुम्हें यही सिखा रहा हूं कि हद छोड़ो। तो मेरे संन्यासी में कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई यहूदी, कोई बौद्ध, कोई जैन। मगर उसकी सब हदें गईं। वह स्मरण मात्र रह गए। वह अतीत हो गया। जैसे सांप सरक जाता है, पुरानी चमड़ी से छोड़ देता है खोल को पीछे, ऐसे संन्यासी अपनी खोलों को छोड़ कर पीछे सरक आया है। अब सिर्फ धार्मिकता रह गई है। सिर्फ एक सत्य की खोज की आकांक्षा रह गई है--एक शुद्ध अभीप्सा--एक लपट कि जानना है कि क्या है। बस, फिर सहज ही हो जाता है।
मेरी-मेरी करत हैं, देखहु नर की भोल।
फिरि पीछे पछिताहुगे, हरि बोलौ हरि बोल।।
मेरी-मेरी करत हैं,.
हद पर इतना आग्रह है कि कहते हैं मेरा धर्म, मेरी किताब, मेरी प्रतिमा, मेरा सिद्धांत, मेरा दर्शनशास्त्र!
मेरी-मेरी करत हैं, देखहु नर की भोल।
फिर पीछे पछिताहुगे, हरि बोलौ हरि बोल।।
समय मत गंवाओ, इन व्यर्थ की भूलों में भटको मत। झांको किसी की आंखों में, जो हरि को पुकारा हो, जिसके भीतर हरि की पहचान हुई हो। सुंदर सहजै चीन्हियां। कहीं कोई मिल जाए सुंदरदास तो उसकी आंखों में झांको, जहां सहज पहचान हुई हो।
तुम अगर जाते भी हो तो उनके पास जाते हो जो खुद ही साध रहे हैं। कोई आसन लगाए बैठा है; कोई शीर्षासन लगाए बैठा है; कोई उपवास कर रहा है। उन्हें अभी मिला नहीं है। अभी तो साधना चल रही है।
और साधने से कभी किसी को मिलता नहीं है। परमात्मा तो मिला ही हुआ है; शीर्षासन करने की कोई आवश्यकता नहीं। परमात्मा कोई पागल तो नहीं है कि तुम सिर के बल खड़े होओ तब मिले। अगर सिर के बल ही खड़े होने से मिलना था तो तुम्हें सिर के बल पहले से ही खड़ा करता। पैर पर ख़ड़े करने की जरूरत क्या थी? यह भूल क्यों करता? परमात्मा कुछ पागल तो नहीं है कि जब तुम भूखे मरो और उपवास करो तब मिले। भूखे ही मारना होता तो भूखे ही मारता; भूख ही न देता, पेट ही न देता, उपवास ही उपवास चलता। कोई परमात्मा तुम्हारी भूख-प्यास से थोड़े ही मिल जाने वाला है। तुम कर क्या रहे हो? करने का प्रश्न ही नहीं है, कृत्य की बात ही नहीं है, सिर्फ स्मरण की बात है।
मगर जब कोई करने वाला तुम्हें मिल जाता है, तुम्हें बहुत प्रभाव होता है। कोई आदमी भूखा पड़ा है, महीने भर का उपवास किया है, तुम झुके। कोई कांटों पर लेटा है, तुम झुके। किसी ने अपने शरीर को सुखा लिया है धूप में खड़े होकर, बस तुम गिरे चरणों पर। कृत्य से परमात्मा के पाने का क्या संबंध है? क्या तुम सोचते हो कि सूखे वृक्ष में परमात्मा ज्यादा होता है हरे वृक्ष की बजाय? तुम कौन सा गणित पकड़े हो? अगर होगा तो हरे में ज्यादा होगा, सूखे में क्या होगा? सूखने का मतलब ही होता है कि परमात्मा सूख गया, अब वृक्ष में प्राण-ऊर्जा नहीं बहती है। तुम्हारे महात्मा, तुम्हारे साधु उदास बैठे हैं। उनके जीवन का आनंद खो गया है। कम से कम तुम आनंदित तो हो, चलो भ्रांति ही सही। तुम्हारा आनंद क्षणभंगुर ही सही, उनके पास क्षणभंगुर आनंद भी नहीं रहा है। बैठे हैं मुर्दों की भांति। लेकिन जब तक कोई महात्मा मुर्दा न हो जाए बिलकुल, तब तक तुम पूजते नहीं, क्योंकि तब तक वह तुम्हारे जैसा मालूम पड़ता है। जब तक जीवित है, भोजन करता है, कपड़े पहनता है, सोता, उठता-बैठता है, जैसे तुम उठते-बैठते, सोते हो, जब तक वह ठीक सामान्य होता है, तब तक तुम्हें जंचता नहीं, क्योंकि तुम्हें लगता है, हमारे ही जैसा है।
तुम्हारी आत्मनिंदा अदभुत है! तुम यह मान ही नहीं सकते कि तुम्हारे भीतर परमात्मा हो सकता है। और यही तुम्हारी मान्यता अटका रही है। परमात्मा तुम्हारे भीतर है। लेकिन तुम इतनी आत्मनिंदा से भर गए हो, तुम इतने अपराध-भाव से भर गए हो कि तुम्हारे भीतर तो हो ही नहीं सकता, तुम्हारे जैसा जो मालूम पड़ता है उसके भीतर भी नहीं हो सकता। कुछ भिन्न होना चाहिए। अब सिर के बल कोई खड़ा है, वह भिन्न मालूम पड़ता है। उपवास कोई कर रहा है, वह भिन्न मालूम पड़ता है। कोई जंगल में जाकर बैठ गया है, धूप सह रहा है, सर्दी सह रहा है, वह तुम्हें विशिष्ट मालूम पड़ता है। यह विशिष्ट नहीं है, सिर्फ विक्षिप्त है।
परमात्मा सामान्य में व्याप्त है। यह सारा जगत उससे भरा है। किसने तुम्हें सिखा दिया है कि तुम्हारे भीतर नहीं है? और अगर यह बात तुमने मान ली है, तो फिर निश्चित ही तुम कैसे स्मरण कर पाओगे? अगर यह बात ही मान ली कि मेरे भीतर नहीं हो सकता, कृत्य करने पड़ेंगे कुछ, उपलब्धियां करनी पड़ेंगी कुछ, सिद्धियां करनी पड़ेंगी कुछ, तब मिलेगा--तो तुम चूकते रहोगे।
परमात्मा सहज मिलता है, सिद्धियों से नहीं। परमात्मा मिला ही हुआ है, सिर्फ स्मरण से मिलता है।
गर्मी-ए-शौके-नजारा का असर तो देखो।
गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-दर तो देखो।।
ऐसे नादां भी न थे जां से गुजरने वाले।
नासहो, पंदगरो, राहगुजर तो देखो।।
वो तो वो हैं तुम्हें हो जाएगी उल्फत मुझसे।
एक नजर तुम मेरा महबूबे-नजर तो देखो।।
अगर किसी सहज उपलब्ध व्यक्ति के पास पहुंच जाओगे तो परमात्मा की तो फिकर छोड़ो, उसकी आंख में झांकने से सब हो जाएगा।
वो तो वो हैं तुम्हें हो जाएगी उल्फत मुझसे।
तुम्हें उससे प्रेम हो जाएगा। तुम्हारे भीतर प्रार्थना अंकुरित होने लगेगी। तुम्हारे भीतर आह्लाद का जन्म हो जाएगा। तुम्हारे भीतर कोई शराब का चश्मा बहने लगेगा।
एक नजर तुम मेरा महबूबे-नजर तो देखो।
जिसने प्यारे को देख लिया है, उसकी आंख में भी अगर तुम झांक लोगे तो प्यारे की थोड़ी भनक तुम्हारे पास आ जाएगी।
परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है; कोई जगाने वाला चाहिए, कोई पुकार देने वाला चाहिए। किसी का बजता गीत तुम्हारे भीतर सोए हुए गीतों को जगा देता है। कहते हैं: अगर कोई कुशल वीणावादक वीणा बजाए और दूसरी वीणा पास रख दी जाए तो बिना बजाए बजने लगती है। क्योंकि वीणावादक जब अपनी वीणा पर संगीत छेड़ देता है तो वे तरंगें पास में रखी खाली वीणा पर, जिसे कोई छेड़ नहीं रहा है, वे तरंगें उसके तारों को कंपाने लगती हैं। ठीक ऐसी ही घटना गुरु और शिष्य के बीच घटती है। एक की वीणा बज उठी है, तुम्हारी वीणा अभी बिना बजी पड़ी है। वीणा पूरी है। जरा कम नहीं है। जरा भिन्न नहीं है। किसी की बजती वीणा के पास तुम बैठ गए कि तुम्हारे तार थरथराने लगेंगे, तुम्हारी आंखों में छिपे आनंद के आंसू बहने लगेंगे। तुमने देखा है किसी नर्तक को नाचते? तुमने अपने पैर में थिरक अनुभव नहीं की? कोई नर्तक जब नाचता है, तुम्हारे पैर थाप नहीं देने लगते हैं? तुम संगीत में मस्त होकर सिर नहीं हिलाने लगे हो? मृदंग बजती देख कर तुम्हारे हाथ ताल नहीं देने लगे हैं? बस, ऐसा ही, ठीक ऐसा ही, जिसके भीतर की मृदंग बज उठी है उसके पास बैठ कर तुम ताल देने लगोगे। जहां यह ताल देने की घटना घटने लगे वहीं सत्संग हो रहा है।
वो तो वो हैं तुम्हें हो जाएगी उल्फत मुझसे।
एक नजर तुम मेरा महबूबे-नजर तो देखो।
वो, जो अब चाक गिरेबां भी नहीं करते हैं।
देखने वाले कभी उनका जिगर तो देखो।
दामने-दर्द को गुलजार बना रखा है।
आओ, इक दिन, दिले पुरखूं का हुनर तो देखो।।
सुबह की तरह झमकता है शबे-गम का उफक।
फैज ताबंदगी-ए-दीद-ए-तर तो देखो।।
कभी कोई गीली आंख तो देख लो; फिर रात का अंधेरा भी सुबह की तरह झलकने लगेगा। कहीं कोई परमात्मा से भीग गई आंख देख लो। चूंकि अनुभूति साधना का परिणाम नहीं है वरन सहज स्मरण है, इसलिए सत्संग में घट जाती है।
सुंदरदास को घट गई, दादू की आंख में देखते-देखते। और छोटे ही थे। शायद इसलिए घट गई कि छोटे थे। अभी ज्ञान और अकड़ और दूसरे पागलपन पैदा नहीं हुए थे। सात ही साल के थे। छोटा बच्चा--भोला-भाला होगा, निर्दोष होगा। घट गई। दादू की आंख में झांका होगा इस भोले-भाले बच्चे ने। अभी शास्त्रों की परतें नहीं थीं। अभी इसे कुछ हद भी नहीं थी। इसे खयाल भी नहीं था कि मैं हिंदू कि मुसलमान कि ईसाई कि क्या, कि क्या। अभी तो सब साफ था; अभी किताब पर कुछ लिखा नहीं गया था। अभी किताब खाली थी। अभी सब कोरा था; आकाश में कोई बादल नहीं थे। देखी होंगी दादू की आंखें जो उस प्यारे के रस से लबालब हैं, झूम गया होगा। यह बजती वीणा दादू की; इसके भीतर कोई स्वर थिरक उठे होंगे। यह नृत्य दादू का और इसके भीतर नाच आ गया होगा। यह मृदंग दादू की और फिर यह बच्चा नहीं रुक सका होगा; झुक गया होगा। सात वर्ष की उम्र में।
हमें हैरानी होती है। लेकिन अभी इस पर बड़ी मनोवैज्ञानिक शोध चलती है और जो नई से नई शोधें हैं वे यह कहती हैं कि छोटे बच्चे अगर बिगाड़े न जाएं--हम बिगाड़ते हैं, हमने बिगाड़ने के अच्छे-अच्छे नाम रखे हैं, शिक्षा, धर्म-शिक्षा, इत्यादि-इत्यादि--अगर छोटे बच्चे बिगाड़े न जाएं, अगर उनके भोलेपन को हम बचा सकें, अगर उनकी निर्दोषता को हम बचा सकें, उसे ढांके न, तो यह दुनिया बहुत सुंदर हो जाए। यह दुनिया वैसी हो जाए जैसी होनी चाहिए। लेकिन हमने बड़े आयोजन कर रखे हैं। बच्चा पैदा हुआ कि हमारे आयोजन शुरू हुए। बच्चा पैदा हुआ कि बस पंडित आया, पुरोहित आया, मौलवी आया, बप्तिस्मा शुरू, खतना शुरू। बच्चा पैदा नहीं हुआ कि हमने आयोजन शुरू किए कि इसको जल्दी से बांधो, अपनी व्यवस्था इसके ऊपर लादो। इसे हिंदू बनाओ, मुसलमान बनाओ, ईसाई बनाओ। इसे आदमी नहीं रहने देना है। आदमी से बड़ा खतरा मालूम होता है। इसे मंदिर ले चलो, मस्जिद ले चलो। इसके पहले कि कहीं यह जाग जाए, इसे सुला दो, इसे जहर पिला दो। इसे कंठस्थ करवा दो रामायण, इसे गीता की पंक्तियां याद करवा दो। इसे तोता बना दो। इसके पहले कि इसमें बोध जागे, इसको यंत्रवत स्मृति से भर दो।
और हम कहते हैं: ये बड़ी ऊंची बातें हम कर रहे हैं, हम धर्म सिखा रहे हैं। यह धर्म नहीं सिखाया जा रहा; इसी की वजह से दुनिया में अधर्म है। किसी बच्चे को धर्म सिखाया नहीं जा सकता; बच्चा तो धर्म लेकर ही आता है। अगर हम उसे नष्ट न करें, अगर हम उसके साथ ज्यादा छेड़खानी न करें, अगर हम उसको सिर्फ सहारा दें, जो उसके भीतर छिपा है उसी को प्रकट होने के लिए सहारा दें, तो यह पृथ्वी बड़े सौंदर्य से भर जाए। लेकिन हम यह बरदाश्त नहीं कर सकते। मां-बाप को तो मौका मिल जाता है, बच्चे की गर्दन पकड़ो, बच्चे को बनाओ जैसा बनाना चाहते हो। बाप जो नहीं बन पाया, वह बच्चे को बनाना चाहता है। बाप बड़ा धनी होना चाहता था, नहीं हो पाया। अब वह बच्चे की छाती पर चढ़ कर महत्वाकांक्षा का भूत बन कर बच्चे पर सवार हो जाएगा। वह बच्चे को कहेगा कि बेटा हम नहीं कर पाए, तू करना।
मैंने सुना है, एक आदमी मर रहा था। उपद्रवी आदमी था। उसके चारों बेटे इकट्ठे थे। उस आदमी ने कहा कि बेटो, मेरी एक ही इच्छा है मरते वक्त, पूरी कर दोगे तो मेरी आत्मा को बड़ी शांति मिलेगी। कहो, पूरी करोगे? बड़े तीनों बेटे चुप रहे, क्योंकि वे बाप को भलीभांति जानते थे कि वह किसी झंझट में डाल जाएगा। जिंदगी भर झंझट में डाला उसने। छोटा, छोटा था अभी, उसने कहा: आप कहें, जो भी हो सकेगा हम करेंगे। बाप ने कहा: तू मेरे पास आ। और उसके कान में बोला कि जब मैं मर जाऊं तो मैं तो मर ही गया, मेरी लाश के टुकड़े करके मोहल्ले वालों के घर में डाल देना, और पुलिस में रपट लिखवा देना। ये सबके सब बंधे जाते होंगे पुलिसथाने की तरफ, मेरी आत्मा को बड़ी शांति मिलेगी। जिंदगी भर इनसे झंझटें रहीं, मरते वक्त इनके हाथ में जंजीरें देख लूं, मैं तो मर ही जाऊंगा। अब तो बात खतम ही हो गई। इसलिए तुम फिकर मत करना, काट कर मेरे शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर के डाल देना सबके घरों में, सबको फंसवा देना।
जिंदगी भर भी वह यही आयोजन करता रहा था। अब मरते वक्त भी वह यही आयोजन करके जा रहा है। इतने सीधे-सीधे आयोजन सभी लोग नहीं करते। मगर बड़े सूक्ष्म आयोजन यही हैं। जब तुमने अपने बेटे को सिखाया कि तू हिंदू हो जा, तब तुमने क्या सिखाया? हिंदू मुसलमानों से लड़ते रहे हैं। तुमने अपने बेटे को सिखाया, तू मुसलमान हो जा। मुसलमान हिंदुओं से लड़ते रहे हैं। तुम लड़ाई सिखा रहे हो। तुम वैमनस्य सिखा रहे हो। तुम दुश्मनी सिखा रहे हो। तुम इस पृथ्वी को प्रेम का स्थान नहीं बनने देना चाहते हो। जब तुमने कहा: किताब कंठस्थ कर ले तो तुम उधार थे, इसको भी उधार किए जा रहे हो।
और परमात्मा सहज घटता है। बच्चा जितनी आसानी से परमात्मा के पास पहुंच सकता है, बूढ़े नहीं पहुंच सकते। क्योंकि बच्चा अभी आया है, स्रोत से अभी बहुत करीब है। अभी दूर नहीं निकला है। अभी उसे याद दिलाई जा सकती है।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं: आप छोटे-छोटे बच्चों को संन्यास दे देते हैं, यह तो ठीक नहीं है। मैं उनसे कहता हूं कि बच्चे निकटतम हैं। बूढ़े के भीतर तो बहुत कुछ पहले काटना-छांटना पड़ेगा। जिंदगी भर का कूड़ा-कचरा है, सफाई करनी पड़ेगी। बच्चा अभी दर्पण की तरह है; अभी धूल जमी नहीं। अगर इसको परमात्मा की तरफ मोड़ा जा सके, इसको हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध बनने से बचाया जा सके, इसे सिर्फ आदमी का भाव दिया जा सके, तो यह अभी, अभी हद के बाहर हो सकता है, क्योंकि अभी यह हद के भीतर हुआ ही नहीं, हद के बाहर ही है। इसमें क्रांति सुगमता से घट सकती है। शायद दादू के पास सुंदरदास में इसीलिए क्रांति घट गई। सात वर्ष का छोटा बच्चा था।
जीसस ने कहा है: जब तक तुम छोटे बच्चों की भांति न हो जाओगे तब तक परमात्मा को न जान सकोगे। न जान सकोगे। छोटे बच्चों की भांति पुनः हो जाना जरूरी है। लेकिन लोग मेरी-मेरी कर रहे हैं।
मेरी मेरी करत हैं, देखहु नर की भोल।
फिरि पीछे पछिताहुगे, हरि बोलौ हरि बोल।।
यह मेरी-मेरी जाने दो। यह मेरी-मेरी का उपद्रव छोड़ो। क्या मेरा, क्या तेरा, सब उसका! मेरे का दावा अहंकार का दावा है। जरा इस दावे को छोड़ो और तुम्हारी जिंदगी में सत्संग की सुगंध आने लगेगी।
फिर हरीफे बहार हो बैठे
जाने किस किस को आज रो बैठे
थी, मगर इतनी रायगां न थी
आज कुछ जिंदगी से खो बैठे
सारी दुनिया से दूर हो जाए
जो जरा तेरे पास हो बैठे
सुबह फूटी तो आसमां पे तेरे
रंगे रुख्सार की फुहार गिरी
रात छाई तो रूए-अलम पर
तेरे जुल्फों की आबशार गिरी
जरा परमात्मा के पास कोई बैठने लगे, सारी दुनिया से दूर हो जाए। जो जरा तेरे पास हो बैठे! जरा से पास हो उठो।
सुबह फूटी तो आसमां पे तेरे,
रंगे रुख्सार की फुहार गिरी।
फिर हर चीज में उसी की झलक दिखाई पड़ने लगती है। सुबह होगी, आकाश पर लाली फैलेगी, और जो उसके थोड़ा भी पास सरका है उसे लगेगा यह उसके ही कपोलों का रंग!
सुबह फूटी तो आसमां पे तेरे
रंगे रुख्सार की फुहार गिरी
रात छाई तो रूए अलम पर
तेरे जुल्फों की आबशार गिरी
रात का अंधेरा ऐसा लगेगा जैसे उसके बाल पृथ्वी पर गिर गए हैं। जैसे उसने अपने आंचल में सारी पृथ्वी को ले लिया। जो उसके पास थोड़ा सरका उसके जीवन के कोण, देखने के ढंग, अनुभूति की प्रक्रियाएं बदलनी शुरू हो जाती हैं। फिर फूल नहीं खिलते, वही खिलता है। फिर बादल नहीं घिरते, वही घिरता है। फिर कोयल नहीं कूकती, वही कूकता है। फिर लोग नहीं दिखाई पड़ते चलते-फिरते, वही चलता है। इतने-इतने रंग, इतने-इतने रूपों में! सारा जगत एक महोत्सव का रूप ले लेता है।
किए रुपइया एकठे, चौकूंठे अरु गोल।
रीते हाथिन वै गए, हरि बोलौ हरि बोल।।
क्या कर रहे हो यहां? रुपये इकट्ठे कर रहे हैं लोग। सुंदरदास ने जब यह पद लिखा, तब दो तरह के रुपये होते थे; गोल भी होते थे, चौखटे भी होते थे।
किए रुपइया एकठे, चौकूंटे अरु गोल।
रीते हाथिन वै गए,.
और सब, जिन्होंने भी इकट्ठे किए, वे सब रीते हाथ गए। खाली आए, खाली गए। सच तो यह है, मुट्ठी बंधी आती है जब बच्चा पैदा होता है; और जब आदमी मरता है, मुट्ठी खुली होती है। शायद कुछ लेकर आता है, वह भी गंवा देता है।
रीते हाथिन वै गए, हरि बोलौ हरि बोल।
अब देर न करो। स्मरण करो उसका, जिसके स्मरण मात्र से हाथ भर जाते हैं; हाथ ही नहीं, प्राण भी भर जाते हैं। संपदा तो एक ही है, वह सत्य की है, वह समाधि की है। और कोई संपदा नहीं है इस जगत में। धोखे में मत रहो।
चहल-पहल सी देखिकै, मान्यौ बहुत अंदोल।
काल अचानक ले गयौ, हरि बोलौ हरि बोल।।
चहल-पहल यहां बहुत है, दुनिया में आपा-धापी बहुत है। भाग-दौड़ बहुत है, लेकिन पहुंचता कोई भी नहीं। चलते हैं, चलते हैं; गिर जाते हैं। लोग गिरते जाते हैं, और उनके करीब जो लोग हैं वे चलते जाते हैं। वे यह नहीं देखते कि यह गिरा एक आदमी, यह गिरा दूसरा आदमी, यह गिरा तीसरा आदमी, अब मेरी भी बारी आती होगी। लोग गिरते जाते हैं। इतना ही नहीं कि तुम लोगों को गिरते देख कर चौंकते नहीं; तुम लोगों की गिरी हुई लाशों पर पैर रख कर सीढ़ियां बना लेते हो। तुम थोड़ी और तेजी से ऊपर उठने लगते हो, तुम सोचते हो यह भी अच्छा हुआ, प्रतिद्वंद्वी मरा, अब जरा सुगमता है, अब थोड़े रुपये ज्यादा इकट्ठा कर लूंगा। तुम मुर्दे के खीसे में भी कुछ रुपये हों, वे भी निकाल लोगे। तुम मुर्दे की मृत्यु को नहीं देखोगे। तुम्हारी दौड़ जारी रहेगी।
चहल-पहल सी देखिकै, मान्यौ बहुत अंदोल।
और चूंकि चहल-पहल बहुत मची हुई है, शोरगुल बहुत मचा हुआ है--यह भ्रांति पैदा होती है कि बड़ा आनंद मनाया जा रहा है, बड़ा आनंद उत्सव हो रहा है।
मान्यौ बहुत अंदोल।
पर मान्यता की ही बात है। कहां आनंद? तुम जब बैंड-बाजे बजाते हो तब भी कहां आनंद है? तुम्हारी शहनाई भी गाती कहां, रोती है। तुम हंसते भी हो तो हंसते कहां हो? तुम्हारी सब हंसी झूठी है। ओंठ ही ओंठ पर है, चिपकी है, चिपकाई गई है, ऊपर-ऊपर लगाई गई है। जैसे स्त्रियां लिपिस्टिक लगाए हुए हैं, वह प्रतीक है तुम्हारी जिंदगी का। लाली भी ओंठ के भीतर से नहीं आ रही है, वह भी ऊपर से लगा ली गई है। मुस्कुराहट भी वैसे ही ऊपर से लगा ली गई है। कुछ आश्चर्य न होगा, कुछ दिनों में कोई स्प्रे बन जाए कि जब मुस्कुराना हुआ, स्प्रे कर लिया, एकदम से हंसी आ गई।
मैंने सुना है, अमरीका में एक बड़ी फैक्टरी है जो एक खास तरह का स्प्रे बनाती है। उसे पुरानी कारों में छिड़क देने से नई कार की बास आने लगती है। बनाया तो था पुरानी कारों के लिए ही, लेकिन अब मजे की बात यह घटी है कि नई कारें बनाने वाले भी स्प्रे कर रहे हैं। उसी को, नई कार में भी। क्योंकि वह स्प्रे इतना अच्छा आया है कि पुरानी कार को स्प्रे कर दो तो नई कार से भी बेहतर नई खुशबू उसमें आ रही है। तो अब नई कारों में भी उसी को स्प्रे करना पड़ रहा है।
झूठ ऐसे बढ़ता चला जाता है। झूठ बड़ी सफलताएं पाता है जिंदगी में, क्योंकि जिंदगी झूठ है। यहां झूठ ही सफलता पाता है। यहां सच कहां सफल हो पाता है? यहां सच को सूली लग जाती है; झूठ सिंहासन पर बैठ जाते हैं। चहल-पहल बहुत है। शोरगुल बहुत है। ऐसी भ्रांति होनी बिलकुल स्वाभाविक है कि बड़ा आनंद मनाया जा रहा है। सभी लोग हंसते मालूम पड़ते हैं। सभी लोग सजे-बजे जा रहे हैं। मगर इनकी जिंदगी में जरा झांक कर देखो; यह सब बाहर-बाहर है।
जब तुम घर से बाहर निकलते हो आईने के सामने सज-बज कर, यह तुम्हारा असली चेहरा नहीं है। असली चेहरे और हैं जो तुम घर ही छोड़ आए। जब कोई मेहमान तुम्हारे घर में आ जाए तो जो चेहरा तुम उसे दिखलाते हो वह असली चेहरा नहीं है। भीतर तो शायद तुम सोच रहे हो कि यह दुष्ट कहां से आ गया; ऊपर से कहते हो: स्वागत, अतिथि तो देवता हैं, आइए! विराजिए! और भीतर दिल हो रहा है कि गर्दन उतार दें इसकी। ऊपर से कहते हो: आप से मिल कर बड़ा आनंद हुआ, और भीतर सोच रहे हो कि आज पता नहीं दिन कैसा गुजरेगा, इस दुष्ट को सुबह-सुबह ही देख लिया। भीतर कुछ है, बाहर कुछ है। तुम जरा जांचना अपनी ही जिंदगी; उससे तुम्हें सबकी जिंदगियों का पता चल जाएगा। जब हंसी भी नहीं आती तब तुम हंसते हो। जब प्रेम नहीं आता तब प्रेम दिखाते हो। और इस तरह तुम दूसरों को धोखा दे रहे हो। दूसरे तुमको धोखा दे रहे हैं। शोरगुल बहुत है।
चहल-पहल सी देखिकै, मान्यौ बहुत अंदोल।
लेकिन यह सब चहल-पहल रह जाएगी रखी, पड़ी रह जाएगी।
काल अचानक ले गयौ, हरि बोलौ हरि बोल।
उठा लिए जाओगे इस भरी भीड़ में से; यह सब चहल-पहल यहीं पड़ी रह जाएगी। और जब तुम्हें ले जाने लगेगी मौत तो कोई बीच में बाधा नहीं देगा। कोई बाधा दे नहीं सकता है। और यह चहल-पहल ऐसी ही जारी रहेगी।
कब ठहरेगा दर्दे दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएंगे, सुनते थे सहर होगी
कब जान लहू होगी कब अश्क गोहर होगा
किस दिन तेरी सुनवाई दीदा-ए-तर होगी
कब चमकेगी फस्ले गुल कब बहकेगा मयखाना
कब सुबहे सुखन होगी, कब शामए नजर होगी
कभी होती नहीं। पूछते रहो, सोचते रहो, विचारते रहो, कभी कुछ होता नहीं।
कब ठहरेगा दर्दे दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएंगे, सुनते थे सहर होगी
सुनते ही रहो कि सुबह होती है। यहां सुबह होती नहीं, बाहर तो रात ही रात है--अमावस की रात है। सुबह तो भीतर होती है। सुबह ही सुबह है भीतर। वहां कुछ और नहीं है। लेकिन यहां तो सुनते हो, बातें सुनते रहते हो। सोचते रहते हो, अब हुआ, अब हुआ। इतना और मिल जाए तो सब ठीक हो जाएगा। इतना धन और कमा लूं, इस पद पर और पहुंच जाऊं तो बस।
कब ठहरेगा दर्दे दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएंगे सुनते थे सहर होगी
कब जान लहू होगी कब अश्क गुहर होगा
आंसू मोती कब बनेंगे? कभी नहीं बनते। कविताओं में बनते हैं, असलियत में नहीं बनते। लेकिन आदमी आशाएं संजोए रहता है। आशाओं में जीए चला जाता है।
किस दिन तेरी सुनवाई दीदा-ए-तर होगी
कब चमकेगी फस्ले गुल,.
कब आएगा वसंत?
कब चमकेगी फस्ले गुल, कब बहकेगा मयखाना
कब आएगी मस्ती? कब हम नाचेंगे? कब हम झूमेंगे आनंद से? कभी यह नहीं होता। बस करो प्रतीक्षा, करो प्रतीक्षा और मौत आती है, और कुछ भी नहीं आता। न सुबह आती है, न मयखाना मस्त होता, न वसंत आता, न फूल खिलते।
कब सुबह सुखन होगी, कब शामे नजर होगी
नहीं, बाहर तो कभी कुछ हुआ नहीं है, मृग-मरीचिका है। चहल-पहल बहुत है, परिणाम कुछ भी नहीं हैं।
सुकृत कोऊ ना कियौ, राच्यौ झंझट झोल।
कभी कुछ अच्छा न किया। अच्छा करते कैसे? यहां तो बुरा करने वाले को सफलता मिलती है। और मजा ऐसा है कि जब कोई सफल हो जाता है, तो लोग कहते हैं: जो भी किया, अच्छा किया। यहां सफलता सब बुराइयों पर सील लगा देती है अच्छाई की। देखते हो तुम, जो पद पर पहुंच जाता है वही ठीक। जब तक पद पर होता है तभी तक ठीक। जैसे ही पद से उतरा कि गलत। फिर देर नहीं लगती गलत होने में। जो गुहार मचाते थे ठीक होने की, वे ही गुहार मचाने लगते हैं गलत होने की। वे ही लोग जो प्रशंसा के गीत गाते थे, वे ही निंदा के नारे लगाने लगते हैं। जो स्वागत में झंडे दिखाते थे, वे ही काली झंडियां बना रखते हैं। वही के वही लोग। बड़ा आश्चर्यजनक है। तुम देखते रहते हो, मगर समझोगे कब?
सुकृत कोऊ न कियौ,.
सुकृत तो कोई कर ही नहीं सकता, अगर बाहर से उसकी आशा जुड़ी है। अगर सोचता है थोड़ा और धन, थोड़ा और पद तो जीवन में सब ठीक हो जाएगा, वह सुकृत नहीं कर सकता। सुकृत तो उसी से होता है जिसके भीतर परमात्मा की सहज स्मृति झलकने लगती है। उससे सुकृत होता है। जो भीतर स्वयं सत्य हुआ, उसी से सुकृत बहता है। कृत्य तो पीछे है, आत्मा पहले है। आचरण पीछे है, अंतस पहले है। जब भीतर रोशनी होती है तो तुम्हारे कृत्यों में भी रोशनी होती है। अपने आप हो जाती है। लेकिन साधारणतः जो आदमी संसार में सफलता चाहता है वह सुकृत कर नहीं सकता। सुकृत करने वाले को सफलता मिलती कहां है?
मैंने सुना है, एक भिखमंगे ने एक अमीर आदमी को रास्ते में रोका और कहा कि कुछ मिल जाए, चार दिन का भूखा हूं। अमीर ने आदमी को गौर से देखा, भिखमंगा तो जरूर था, कपड़े पुराने थे, फटे थे, मगर कीमती थे। कभी कीमती रहे होंगे। ढंग के बने थे। भिखमंगे की चाल में भी एक सुसंस्कार था, चेहरे पर भी एक सुसंस्कार था। भिखमंगेपन की धूल जम गई थी बहुत, लेकिन सुसंस्कार था। एक प्रसाद था, एक गरिमा थी, एक भाव-भंगिमा थी। उस अमीर ने सौ रुपए का नोट निकाल कर उसे दिया और कहा कि एक बात पूछना चाहता हूं। तुम्हें देख कर, तुम्हारी भाषा से, तुम्हारे बोलने के ढंग से, तुम्हारे चलने के ढंग से, तुम्हारे वस्त्रों से, तुम्हारे चेहरे, तुम्हारी आंखों से मुझे ऐसा लगता है कि तुम अच्छे कुलीन घर से आते हो। क्या हुआ, कैसे बर्बाद हुए? वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा: अब आप मत पूछो। जिस तरह आप सौ-सौ रुपये बांट रहे हैं भिखमंगों को, मुझे अभी दे दिए, अगर ऐसी हालत रही तो कुछ दिन में यही हालत आपकी हो जाएगी। ऐसी ही मेरी हालत खराब हुई। सुकृत किए, उसी में बर्बाद हुआ। जो भी दे सकता था, दिया, उसी में बरबाद हुआ।
यहां तो सुकृत करने वाला बर्बाद हो जाता है। यहां तो दुष्कृत्य करने वाले सफल हो जाते हैं, सिर पर बैठ जाते हैं। और जब सिर पर बैठ जाते हैं तो स्वभावतः सब ठीक हो जाता है। सब दुष्कृत्यों पर पानी फेर दिया जाता है। इतिहास फिर से लिख दिए जाते हैं। जब स्टैलिन हुकूमत में आया, उसने सारा इतिहास बदलवा दिया रूस का। अपने दुश्मनों के चित्र निकलवा दिए तस्वीरों में से। ट्राटस्की के चित्र निकलवा दिए तस्वीरों में से, नाम हटवा दिए। सारा इतिहास बदलवा डाला। जब तक सत्ता में रहा तब तक उसकी जय-जयकार होती रही। इस तरह जय-जयकार हुई कि जैसे वेद में देवताओं की प्रशंसा में ऋचाएं कही जाती हैं, उस तरह कम्युनिस्ट सारी दुनिया में उसकी जय-जयकार करते रहे। फिर मरा तो जहां उसकी लाश दफनाई गई थी, क्रेमलिन के निकट लेनिन की समाधि के पास, वहां से उखाड़ी। यह उसके योग्य नहीं मानी गई जगह। वहां से लाश निकलवा कर--अक्सर मुर्दों को लोग इतना कष्ट नहीं देते--वहां से मुर्दा निकाला गया, और किसी साधारण कब्रिस्तान में दफनाया गया। और स्टैलिन का नाम इतिहास में से पोंछ दिया गया। उसकी तस्वीरें अलग कर दी गईं। आज स्टैलिन को जानने वाला रूस में कोई भी नहीं। सौ पचास साल बाद यह पता ही नहीं चलेगा कि स्टैलिन कभी हुआ था रूस में, इतिहास में नाम ही नहीं बचने दिया।
अभी तुम देखते हो, भारत में भी वही हो रहा है। सारी दुनिया में वही होता है। इंदिरा ने कालपत्र गाड़ा था, मोरार जी ने निकलवा लिया। उनका नाम उसमें नहीं था। अब जब तक उनका नाम उसमें न हो जाए, इंदिरा का न निकल जाए, तब तक कालपत्र नहीं गाड़ा जाएगा। मगर ऐसे क्या होगा? पांच-सात साल बाद कोई दूसरा कालपत्र निकालेगा! इंदिरा पर मुकदमे की बात चलती है और जिन पर मुकदमे चल रहे थे, उन सब पर से मुकदमे वापस ले लिए गए हैं। खूब मजा है। जो सत्ता में है वह ठीक मालूम पड़ता है। वह जो करता है ठीक मालूम पड़ता है। जैसे ही सत्ता से उतरता है गलत हो जाता है। इंदिरा वापस लौट आई कभी तो जो-जो मुकदमे वापस ले लिए गए हैं, बड़ौदा डाइनामाइट कांड इत्यादि, वे सब वापस शुरू हो जाएंगे। फिर से फाइलें खुल जाएंगी। फिर से मुकदमा चलने लगेगा। वे ही लोग मुकदमा चलाने वाले थे, वे ही ऑफिसर, वे ही वापस ले लिए हैं, वे ही फिर चला देंगे। जिसकी सत्ता है वह ठीक। जिसके हाथ में ताकत है वह ठीक। दुनिया बहुत बदली नहीं है। जिसकी लाठी उसकी भैंस, अभी भी वही नियम चालू है। जंगल का नियम। अभी भी आदमी जंगली है। और ऐसा लगता है, बाहर के हिसाब से, आदमी सदा जंगली रहेगा।
सुकृत कोऊ ना कियौ, राच्यौ झंझट झोल।
अच्छा तो करने की फुरसत कहां है यहां? अच्छा करने वाला तो मुश्किल में पड़ जाता है। अच्छे करने वाले की तो खबर भी नहीं छपती। अगर तुम ध्यान करते हो, दुनिया को कभी पता नहीं चलेगा कि तुमने ध्यान किया। किसी की हत्या करो, तब अखबारों में खबर छपती है। चोरी करो, बेईमानी करो, जाहिर हो जाओगे। घर में बैठ कर ध्यान करते हो, प्रार्थना करते हो, पूजा करते हो तो कौन तुम्हारी फिकर करता है। तुम थे या नहीं, कहीं कोई खबर न होगी। कभी तुम्हारा नाम कहीं सुना न जाएगा।
अच्छे समाचार को लोग समाचार मानते ही नहीं; समाचार बुरा हो तो ही समाचार होता है। बर्नार्ड शॉ ने समाचार की व्याख्या की है--अगर कुत्ता आदमी को काटे तो यह कोई समाचार नहीं, आदमी कुत्ते को काटे तो यह समाचार है। जब तक कुछ उलटा न करो तब तक तुम ख्यातिलब्ध नहीं होते।
इस जगत में झंझटें ही खड़ी की जाती हैं। जितनी बड़ी झंझट खड़ी करते हो उतनी ही ऊंचाई पर पहुंच जाते हो। झंझटों की सीढ़ियां बनाते हैं लोग; झंझटों की सीढ़ियों पर चढ़ते हैं।
.राच्यौ झंझट झोल।
अब देखते हो तुम? इस देश में आज जो सत्ता में पहुंच गए हैं, झंझट करके पहुंच गए हैं। और अब अगर दूसरों को सत्ता में पहुंचना है तो झंझट खड़ी करनी पड़ेगी। क्यों झंझट खड़ी की जा रही है? जब झंझट इतनी हो जाएगी ज्यादा कि सत्ता में रहने का मजा चला जाएगा। जो सत्ता में हैं उनके लिए झंझट ज्यादा हो जाएगी सत्ता में रहने के मजे से, तभी हटेंगे। उसके पहले कोई हटता भी नहीं। इस दुनिया में तो लोग झंझटों से जीते हैं। सुकृत करने की सुविधा कहां है?
अंति चल्यौ सब छाड़िकै,.
और फिर आखिर में सब चला जाना पड़ेगा। सब झंझटें पड़ी रह जाएंगी, सब शोरगुल पड़ा रह जाएगा।
.हरि बोलौ हरि बोल।
उसके पहले हरि को बोल लो। हरि को बुला लो, हरि को पुकार लो। उसे निमंत्रण दे दो।
मूंछ मरोरत डोलई, एंठयो फिरत ठठोल।
ढेरी ह्वै है राख की, हरि बोलौ हरि बोल।।
समय रहते, इसके पहले कि राख में मिल जाओ, पुकार लो उसे; अमृत से नाता जोड़ लो। उसके साथ भांवर पाड़ लो।
मूंछ मरोरत डोलई,.
मगर लोग तो मूंछ मरोड़ते डोल रहे हैं! मूंछ मोरड़ने के लिए ही लोग उपाय करते रहते हैं जिंदगी भर। कोई एक तरह से मरोड़ता है मूंछ, कोई दूसरी तरह से मरोड़ता है मूंछ। नहीं है जिनकी मूंछ वे भी मरोड़ रहे हैं। ऐसा मत सोचना कि नहीं मरोड़ रहे हैं। कोई मूंछ होने की जरूरत नहीं है मरोड़ने के लिए। मूंछ ही मरोड़ रहे हैं लोग। कोई धन से कमा कर करेगा, कोई पद से, कोई ज्ञान से, कोई प्रतिष्ठा से, मगर मूंछ मरोड़ कर दिखा देना है।
मैंने सुना है, एक गांव में एक सरदार था। राजस्थानी कहानी है। राजस्थानी सरदार! मूंछ मरोड़ कर चलता था। और इतना ही नहीं कि खुद मूंछ मरोड़ता था, किसी दूसरे को गांव में मरोड़ने नहीं देता था। क्योंकि फिर मजा ही क्या? जब सभी मूंछ मरोड़ रहे हों तो फिर क्या सार? अकेले ही मरोड़ता था। और सारे गांव की मूंछ नीची रखवाता था। सारे गांव के लिए आज्ञा थी कि अपनी मूंछ दोनों तरफ झुकी रखो। एक नया-नया बनिया गांव में आया। उसको भी मूंछ मरोड़ने की बात थी। उसके पास धन काफी था। होगा सरदार अपने घर का। वह मूंछ मरोड़ कर गांव में निकला, यह सरदार को बर्दाश्त के बाहर हो गया। उसने कहा: मूंछ नीची कर। इस गांव में बस एक ही मूंछ मरोड़ी जा सकती है। दो एक साथ नहीं। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। मूंछ नीची कर ले।
बनिया भी होशियार तो था। बनिए तो होशियार होते ही हैं। बनिया ने कहा कि ठीक, तो नहीं रहेंगी दो तलवारें। तो हो जाए टक्कर। तो या तो यह गर्दन बचेगी या वह गर्दन बचेगी। मगर इसके पहले कि हम जूझें, मैं जरा घर जाकर अपनी पत्नी-बच्चों का सफाया कर आऊं। क्योंकि पता नहीं मैं मर जाऊं तो नाहक बच्चे-पत्नी क्यों दुख पाएं मेरी मूंछ के पीछे। मैं तुझसे भी कहता हूं: तू भी जा और घर सफा कर आ। क्योंकि यह बात ठीक नहीं है, तू मर जाए हो सकता है, फिर पत्नी-बच्चे विधवा हो जाएं, भीख मांगें, फिर तेरी मूंछ मरोड़ने के पीछे उनकी हालत को सोच। बात सरदार को भी जंची कि बात तो ठीक है।
दोनों घर गए। सरदार ने जाकर फौरन सफाया कर दिया--पत्नी, बच्चे, सबको मार कर घर से लौट कर आ गया। और बनिया अपनी मूंछ नीची करके आ गया। उसने कहा: मैंने सोचा, क्या झंझट करनी। जरा सी मूंछ के पीछे क्यों मार-पीट करनी!
अब तुम देखते हो किसकी मूंछ ऊंची रही। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि मूंछ नीची करके भी लोग मरोड़ लेते हैं। यह बनिए ने नीची करके मरोड़ ली। तो कभी-कभी विनम्रता भी सिर्फ मूंछ मरोड़ने का एक ढंग होता है, कि हम तो आपके पैर की धूल हैं। तो ऊपर-ऊपर मत देखना कि मूंछ मरोड़ी है कि नहीं। लोग तो गोंद इत्यादि लगा कर मरोड़ते हैं, कि अब गोंद न लगाओ तुम, तो क्या पता हवा चले जोर की, मूंछ झुक जाए, चार आदमी में फजीहत हो जाए। रास्ते पर निकलो, पानी गिर जाए। बालों का क्या भरोसा कि अकड़े ही रहें? अब बाल कोई आदमी तो हैं नहीं। तो गोंद इत्यादि लगा कर, बिलकुल मरोड़ कर चलते हैं।
मगर तुम देखोगे, जिंदगी में लोग वही कर रहे हैं--अलग-अलग ढंग से। हर आदमी मूंछ मरोड़े बैठा है। जब उसे मौका मिल जाता है तो दिखा देता है कि देख ले। रास्ते पर खड़ा पुलिसवाला है--वह तुम्हें बता देता है मौके पर कि देख लो, किसकी मूंछ ऊंची है! रेलवे स्टेशन पर बैठा टिकट बेचने वाला, वह बता देता है तुमको कि मूंछ किसकी है ऊंची। चपरासी, तहसीलदार का, वह तुम्हें मजा चखा देता है बाहर ही, खड़े रहो! होओगे अपने घर के मालिक और राजा, इधर मूंछ किसी और की चलती है।
हर आदमी एक-दूसरे के पीछे पड़ा है।
मूंछ मरोरत डोलई, एंठयो फिरत ठठोल।
और लोग हंसी-मजाक कर रहे हैं, जैसे जिंदगी बस हंसी-मजाक है! जैसे जिंदगी एक मखौल है! जिंदगी गंभीर मामला है। मौत आ रही है। इसे यूं ही मत गंवा दो। लेकिन लोग ताश खेलने में गंवा रहे हैं। लोग सिनेमा देखने में गंवा रहे हैं। लोग गपशप करने में गंवा रहे हैं। और उन्हें पता नहीं है, समय कितना मूल्यवान है।
ढेरी ह्वै है राख की, हरि बोलौ हरि बोल।
इसके पहले कि ढेरी हो जाओ राख की, पुकार लो हरि को। जोड़ लो उससे नाता।
ख्वाब ही ख्वाब कहां तक झलकें
खस्तगी रात की उठता हुआ दर्द
आहनी नींद से बोझल पलकें
ओस खिड़की के खुनक सीसे पर
बर्स के दाग की सूरत तारे
तन्ज एक रात के आईने पर
नींद आंखों की बिखर जाती है
सर्द झोंकों में वो आहट है अभी
जुम्बिशे-दिल में ठहर जाती है
रात कटती नहीं कट जाएगी
और तेरे ख्वाब की दुनिया ऐ दोस्त
वक्त की धूल में अट जाएगी।
लोग कहते हैं: समय नहीं कट रहा है।
रात कटती नहीं कट जाएगी
और तेरे ख्वाब की दुनिया ऐ दोस्त
वक्त की धूल में अट जाएगी।
जल्दी ही सब नष्ट हो जाएगा। कल का भी कुछ भरोसा नहीं है। कल भी तुम होओगे इसका कुछ पक्का नहीं है। आज ही पुकारो।
ढेरी ह्वै है राख की, हरि बोलौ हरि बोल।
पैंडो ताक्यौ नरक कौ, सुनि-सुनि कथा कपोल।
कैसी कपोल-कल्पनाओं में लोग उलझें हैं! धन से कुछ मिल जाएगा, यह कपोल-कल्पना है। किसी को कभी नहीं मिला, तुम्हें कैसे मिल जाएगा? धन में कुछ है ही नहीं तो तुम्हें कैसे मिल जाएगा? पद से कभी किसी को कुछ नहीं मिला। कपोल-कल्पना है कि तुम पद पर बैठ जाओगे तो तुम्हें कुछ मिल जाएगा। कितनी ही ऊंची कुर्सी पर बैठो, तुम तुम ही रहोगे, यह अज्ञान ऐसा का ऐसा रहेगा। यह दुख और दर्द ऐसे के ऐसे रहेंगे। यह पीड़ा ऐसी की ऐसी रहेगी। बढ़ जाए भला, घटने वाली नहीं है, क्योंकि पद की झंझटें हैं। पद पर कोई आसानी से थोड़े ही बैठने देगा। चारों तरफ से लोग खींचातानी करेंगे। कोई टांग खींच रहा है, कोई पैर खींच रहा है, कोई कुर्सी ही सरकाने की कोशिश कर रहा है। तुम्हें आनंद मिल नहीं सकता पद पर, न धन से, न यश से।
पैंडो ताक्यौ नरक कौ, सुनि-सुनि कथा कपोल।
लेकिन इन कपोल कल्पनाओं में नरक बना लिया है जीवन को।
बूड़े काली धार में, हरि बोलौ हरि बोल।
यह जो काली धार है जिंदगी की, काली धार है, क्योंकि यह मौत में समाप्त होती है। इस स्याह काली रात में हरि को पुकार लो, दीये जला लो उसके स्मरण के। थोड़ी सी रोशनी जन्मा लो।
माल मुलक हय गए घने,.
सब छिन जाएगा--माल भी, मुलक भी, हाथी घोड़े भी।
.कामिनी करत कलोल।
ये सुंदर स्त्रियां, ये प्यार चेहरे, ये सब छिन जाएंगे।
कतहुं गए बिलाइकै, हरि बोलौ हरि बोल।
पता भी नहीं चलेगा कि कहां बिला गए, कहां खो गए! कितनी सुंदर स्त्रियां इस पृथ्वी पर रहीं। किल्योपैत्रा और मुमताज महल और कितने सुंदर लोग इस पृथ्वी पर रहे। सब खो गए। मिट्टी से उठे, मिट्टी में गिर गए।
लेकिन आदमी यह देखना नहीं चाहता, यह देखने में डर लगता है। फिर उसके सपनों का क्या होगा? आदमी तो बड़े सपने देखता है।
कभी-कभी तेरे ओंठों की मुस्कुराहट से
मुझे बहार की आहट सुनाई देती है।
तेरी निगाह की वह बेहिसाब सरगोशी
मुझे फवार सी पड़ती दिखाई देती है।
जब आस्मां पै लपकता है बांकपन तेरा
तनी कमान से कोई तीर छूट जाता है।
तेरे बदन के जबां साल जमजमे सुनकर
गरूर मेरी समाअत का टूट जाता है।
महकी हुई गुफ्तार में फूलों का तबुस्सुम
बहकी हुई रफ्तार में झोंकों की रवानी।
मुमकिन है खिजाओं का तस्व्वुर ही बदल दे
ऐ जाने-बहारां, तेरी गुलपोस जवानी।
जब हम भरते हैं सौंदर्य के मोह से, युवापन के मोह से, तो हम भूल ही जाते हैं कि ये सपने बहुत बार देखे गए हैं; ये कुछ नये नहीं हैं। यह प्रेम बहुत बार हुआ है; यह कुछ नया नहीं है। कितने मजनू और कितने फरिहाद प्रेम करते रहे और गलते रहे और गिरते रहे। प्रेम ही करना हो तो परमात्मा से करो। उसके साथ प्रेम जुड़ जाता है तो व्यक्ति परिवर्तन के पार हो जाता है। और जहां तक परिवर्तन है वहां तक दुख है। जैसे ही परिवर्तन के पार गए कि वहां शाश्वत शांति है।
माल मुलक हय गए घने, कामिनी करत कलोल।
कतहुं गए बिलाइकै, हरि बोलौ हरि बोल।।
मगर जवानी तो जवानी, बुढ़ापे में भी लोग बीती जवानी की याद कर-कर के जीते हैं। आंखें बूढ़ी हो गईं, देह टूटने लगी, कब्र करीब आ गई, एक पांव कब्र में उतर गया, दूसरा अब उतरा, तब उतरा; लेकिन तब भी उनकी याददाश्त जवानी की ही बनी रहती है। वे पुराने दिन लौट-लौट कर उनके ध्यान में तैरते रहते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मरते समय सौ में निन्यानबे लोगों के मन में कामवासना का विचार होता है। और इससे जिन्होंने आत्मिक जीवन की खोज की है उनकी पूर्ण सहमति है। होगा ही, क्योंकि जिंदगी भर वही विचार सर्वाधिक महत्वपूर्ण विचारा था। उसी के इर्द-गिर्द जीवन कोल्हू के बैल की तरह घूमा है। मरते वक्त तो और भी प्रगाढ़ होकर प्रकट होगा। और चूंकि मरते वक्त कामवासना का विचार ही चित्त में होता है, इसलिए तत्क्षण नया जन्म हो जाता है किसी गर्भ में। क्योंकि फिर कामवासना की यात्रा शुरू हो गई। मरते वक्त राम का खयाल रहे, काम का नहीं, तो मुक्ति है। फिर दुबारा गर्भ की गंदगी में उतरने की संभावना न रही। फिर दुबारा यही वर्तुल शुरू न होगा।
लेकिन राम का नाम कोई अंत में एकदम से नहीं ले सकता, जब तक जीवन भर अपने को राम के नाम से सिक्त न किया हो।
कभी-कभी मेरे अहसास के हिजाबों में
किसी की याद दुल्हन बन कर मुस्कुराती है
निशातो-नूर में भीगी हुई फजाओं से
किसी के गर्म तनफ्फुस की आंच आती है।
दमागो-रूह में जलते हैं जमजमों के दीये
तसव्वुरात में खिलती हैं मरमरी कलियां
बुझी-बुझी आंखों में फैल जाती हैं
वे झेंपती हुई राहें वे शरमगीं गलियां
जहां किसी ने बड़ी मुल्तफित निगाहों से
धनुक के रंग बिखेरे थे मेरे सीने में
तरबनवाज बहारों का रंग उंड़ेला था
खिजां नसीब के ख्यालों के आबगीने में
उजड़ चुकी है वो सपनों भरी हसीं दुनिया
सुलगते जहन पै माजी का है असर फिर भी
न अब वो दिल हैं, न अब दिल के हैं वो हंगामे
हयात साकिनो-खामोश हैं मगर फिर भी.
कभी-कभी मेरे अहसास के हिजाबों में
किसी की याद दुल्हन बन कर मुस्कुराती है
निशातो-नूर में भीगी हुई फजाओं से
किसी के गर्म तनफ्फु स की आंच आती है
जब सब खो जाता है, सब सपने टूट जाते हैं.
उजड़ चुकी है वो सपनों भरी हसीं दुनिया
सुलगते जहन पे माजी का है असर फिर भी
लेकिन फिर भी बीत गए अतीत के संस्कार मन पर जमे रहते हैं, जमे रहते हैं।
उजड़ चुकी है वो सपनों भरी हसीं दुनिया
सुलगते जहन पे माजी का है असर फिर भी।
न अब वो दिल हैं, न दिल के हैं वो हंगामे
हयात साकिनो-खामोश है मगर फिर भी
उस ‘मगर फिर भी’ पर ध्यान दो। आदमी मरते-मरते भी सपनों में ही खोया रहता है। जीता है सपनों में, मरता है सपनों में। जागोगे कब? और जो जागा नहीं वह व्यर्थ ही जीआ और व्यर्थ ही मरा।
मोटे मीर कहावते, करते बहुत डफोल।
बड़े रईस समझते हैं लोग अपने को। बड़े अहंकारी! यह समझते हैं, वह समझते हैं। और बड़ा आडंबर और बड़ी डींगें हांकते हैं।
मोटे मीर कहावते, करते बहुत डफोल।
मरद गरद में मिलि गए, हरि बोलौ हरि बोल।।
बड़े-बड़े मरद, बड़े-बड़े हिम्मतवर लोग, बड़े साहसी, दुस्साहसी, वे भी मिट्टी में मिल जाते हैं। कायर भी मिल जाते मिट्ठी में और बहादुर भी मिल जाते हैं मिट्टी में। कुछ बहुत भेद नहीं है। धनी और गरीब, सफल और असफल एक साथ गिर जाते हैं। मौत कुछ फर्क नहीं करती, मौत बड़ी समाजवादी है। कहना चाहिए, साम्यवादी है। इसलिए छोटी-छोटी बातों में मत उलझो कि गरीब हूं तो अमीर कैसे हो जाऊं, कायर हूं तो वीर कैसे हो जाऊं? इन छोटी-मोटी बातों में मत उलझो। रस तो एक ही बात का है, जिसमें लेना, कि बाहर हूं, भीतर कैसे हो जाऊं; आंखें बहार की तरफ खुली हैं, भीतर की तरफ कैसे खुल जाएं।
मरद गरद में मिलि गए, हरि बोलौ हरि बोल।
वही है हरि का स्मरण!
ऐसी गति संसार की, अजहूं राखत जोल।
आपु मुए ही जानिहै, हरि बोलौ हरि बोल।।
क्या मरोगे तभी जानोगे?
ऐसी गति संसार की,.
जरा देखो, गौर करो। इतने लोग मर गए हैं, इतने लोग मर रहे हैं। जरा गौर से पहचानो।
ऐसी गति संसार की,.
यह गति है, संसार की व्यवस्था है, यह उसका नियम है: यहां जो जन्मा है वह मरेगा। यहां सब मिट्टी में मिल जाने वाला है।
ऐसी गति संसार की, अजहूं राखत जोल।
और फिर भी तुम जोर मार रहे हो, इस नियम के विपरीत अभी भी जोर लगा रहे हो कि शायद मैं निकल भागूं। जो सिकंदर को नहीं हुआ, शायद मुझे हो जाए।
.अजहूं राखत जोल।
.आपु मुए ही जानिहै।
क्या तुमने तय ही कर रखा है, कि मरोगे तभी जानोगे? मगर तब चूक जाओगे, बहुत देर हो जाएगी। फिर करने का कोई उपाय न रह जाएगा। फिर पछताए होत का जब चिड़िया चुग गई खेत!
.हरि बोलौ हरि बोल।
इसके पहले कि मौत आ जाए, परमात्मा को पुकार लो। इसके पहले कि मौत द्वार पर दस्तक दे, अमृत को निवासी बना लो, अमृत के अतिथि को बुला लो। फिर मौत नहीं आती है। आती भी है तो तुम्हारी नहीं आती। फिर देह गिरेगी; देह तो गिरनी है। देह तुम्हारी है भी नहीं। रंग-रूप सब गिर जाएगा और मिट जाएगा; तुम रहोगे, सदा रहोगे।
मृत्यु को जीता जा सकता है, अमृत को पुकार कर। और ऐसा भी नहीं है कि अमृत बहुत दूर है, तुम्हारी पहुंच के भीतर है। तुम अमृत-कलश हो। अमृतस्य पुत्रः। जरा हाथ भीतर बढ़ाओ, अमृत के कलश को पा लोगे। और एक घूंट अमृत का पी लिया, एक बार स्मरण आ गया, एक बार हरि की तरफ आंख उठ गई।.
हिंदू की हदि छाड़िकै, तजी तुरक की राह।
सुंदर सहजै चीन्हियां, एकै राम अलाह।।
एक बार राम और अल्लाह एक हैं, उस एक का पता चल गया, बस यात्रा पूरी हुई। गंतव्य आ गया। तुम अपने घर आ गए। फिर सुख ही सुख है। फिर शांति ही शांति है। फिर मौन, फिर आनंद, फिर संगीत, और फिर एक मस्ती है जो कभी टूटती नहीं। फिर एक बेखुदी है, एक बेहोशी है, जिसमें होश का दीया भी जलता है। एक अपूर्व अनुभव। उस अपूर्व अनुभव का नाम ही समाधि है।
हरि बोलौ हरि बोल।
आज इतना ही।