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Hansa To Moti Chuge (हंसा तो मोती चुगैं) 10

Tenth Discourse from the series of 10 discourses - Hansa To Moti Chuge (हंसा तो मोती चुगैं) by Osho. These discourses were given during MAY 11-20 1979.
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अवल गरीबी अंग बसै, सीतल सदा सुभाव।
पावस बूठा परेम रा, जल सूं सींचो जाव।।
लागू है बोला जणा, घर घर माहीं दोखी।
गुज कुणा सो कीजिए, कुण है थारो सोखी।।
जोबन हा जद जतन हा, काया पड़ी बुढ़ांण।
सूकी लकड़ी न लुलै, किस बिध निकसे काण।।
लाय लगी घर आपणे, घट भीतर होली।
शील समंद में न्हाइए, जहं हंसा टोली।।
स्वामी शिव साधक गुरु, अब इक बात कहूं।
कूंकर हो हम आवणू, बिच में लागी दूं।।
करमां सूं काला भया, दीसो दूं दाध्या।
इक सुमरण सामूं करो, जद पड़सी लाधा।।
अलख पुरी अलगी रही, ओखी घाटी बीच।
आगैं कूंकर जाइए, पग पग मांगैं रीच।।
प्रेम कटारी तन बहै, ज्ञान सेल का घाव।
सनमुख जूझैं सूरवां, से लोपैं दरियाव।।
यह महलों, यह तख्तों, यह ताजों की दुनिया
यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
हर एक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती
यह बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
जवानी भटकती है बदकार बन कर
जवां जिस्म सजते हैं बाजार बन कर
यहां प्यार होता है व्यापार बन कर
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यह दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है
वफा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है
जहां प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
जला दो इसे फूंक डालो यह दुनिया
मेरे सामने से हटा लो यह दुनिया
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो यह दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
मनुष्य के समक्ष जो शाश्वत प्रश्न है वह एक है। वह प्रश्न है कि मैं क्या पाऊं कि तृप्त हो जाऊं? धन मिल जाता है, तृप्ति नहीं मिलती। पद मिल जाता है, तृप्ति नहीं मिलती। यश मिल जाता है, तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलनी तो दूर, जैसे धन, पद और यश बढ़ता है वैसे ही वैसे अतृप्ति बढ़ती है। जैसे-जैसे ढेर लगते हैं धन के वैसे-वैसे भीतर की निर्धनता प्रकट होती है। बाहर तो अंबार लग जाते हैं स्वर्णों के--और भीतर? भीतर की राख और भी प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ने लगती है।
धन के बढ़ने के साथ दुनिया में निर्धनता बढ़ती है। इस अनूठे गणित को ठीक से समझ लेना। जितना धनी व्यक्ति होता है उतना ही उसका निर्धनता का बोध गहरा होता है। जितना सम्मानित व्यक्ति होता है, उतना ही उसे अपने भीतर की दीनता प्रतीत होती है। सिर पर ताज होता है तो आत्मा की दरिद्रता पता चलती है। गरीब को, भूखे को तो फुर्सत कहां? भूख और गरीबी में ही उलझा रहता है। भूख और गरीबी को देखने के लिए भी समय कहां, सुविधा कहां? लेकिन जिसकी भूख मिट गई, गरीबी मिट गई, उसके पास समय होता है, सुविधा होती है कि जरा झांक कर देखे, कि जरा लौट कर देखे, कि जिंदगी पर एक सरसरी नजर डाले। कहां पहुंचा हूं? क्या पाया है? और दिन चुके जाते हैं और मौत करीब आई जाती है। और मौत कब दस्तक देगी द्वार पर, कहा नहीं जा सकता। और हाथ से जीवन की संपदा लुट गई। और जो इकट्ठा किया है वह कौड़ियां हैं!
यह महलों, यह तख्तों, यह ताजों की दुनिया
यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
यह दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
लेकिन मिल जाने पर ही पता चलता है। जब तक यह मिल न जाए, तब तक पता भी चले तो कैसे चले? हीरे हाथ में आते हैं तो ही पता चलता है कि न इनसे प्यास बुझती है, न भूख मिटती है। हीरे हाथ में आते हैं तो ही पता चलता है कि ये भी कंकड़ ही हैं; हमने प्यारे नाम दे दिए हैं। हमने अपने को धोखा देने के लिए बड़े सुंदर जाल रच लिए हैं।
हर एक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
यह दुनिया है या आलमे-बदहवासी
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
यहां लोग सोए हुए हैं, मूर्च्छित हैं। चले जा रहे हैं नींद में। क्यों जा रहे हैं, कहां जा रहे हैं, किसलिए जा रहे हैं, कौन हैं--कुछ भी पता नहीं। और सब जा रहे हैं इसलिए वे भी जा रहे हैं। भीड़ जहां जा रही है वहां लोग चले जा रहे हैं--इस आशा में कि भीड़ ठीक ही तरफ जा रही होगी; इतने लोग जाते हैं तो ठीक ही तरफ जाते होंगे। मां-बाप जाते हैं, पीढ़ियां दर पीढ़ियां इसी राह पर गई हैं, सदियों-सदियों से लोग इसी पर चलते रहे हैं--तो यह राज-पथ ठीक ही होगा। और कोई भी नहीं देखता कि यह राज-पथ सिवाय कब्र के और कहीं नहीं ले जाता। ये सब राज-पथ मरघट की तरफ जाते हैं।
इब्राहिम सूफी फकीर हुआ, सम्राट था। एक रात सोया था। नींद आती नहीं थी। सम्राट होकर नींद आनी मुश्किल ही हो जाती है--इतनी चिंताएं, इतने उलझाव, जिनका कोई सुलझाव नहीं सूझता; इतनी समस्याएं, जिनका कोई समाधान दिखाई नहीं पड़ता! सोए तो कैसे सोए? और तभी उसे आवाज सुनाई पड़ी कि ऊपर छप्पर पर कोई चल रहा है। चोर होगा कि लुटेरा होगा कि हत्यारा होगा? जिनके पास बहुत कुछ है तो भय भी बहुत हो जाता है। आवाज दी जोर से कि कौन है ऊपर? ऊपर से उत्तर जो आया, उसने जिंदगी बदल दी इब्राहिम की। ऊपर से उत्तर आया, एक बहुत बुलंद और मस्त आवाज ने कहा: कोई नहीं, निश्चिंत सोए रहो! मेरा ऊंट खो गया है। उसे खोज रहा हूं।
छप्परों पर ऊंट नहीं खोते--मकानों के छप्परों पर! महलों के छप्परों पर ऊंट नहीं खोते। इब्राहिम उठा, सैनिक दौड़ाए कि पकड़ो कौन आदमी है, क्योंकि आवाज में एक मस्ती थी। आवाज में एक गीत था, एक मादकता थी। आवाज जैसे किसी और लोक की थी! जैसे आवाज में एक गहराई थी--जैसी गहराई इब्राहिम ने कभी किसी आवाज में नहीं देखी थी! आवाज इब्राहिम के भीतर कोई तार छेड़ गई। बेबूझ भी थी। उलटबांसी थी। महलों के छप्परों पर ऊंटों की तलाश आधी रात... या तो कोई पागल है या कोई परमहंस है। पागल हो नहीं सकता, क्योंकि आवाज का जादू कुछ और कहता है। पागल हो नहीं सकता, क्योंकि आवाज का गणित कुछ और कहता है। पागल हो नहीं सकता।
पागल तो इब्राहिम ने बहुत देखे थे। पागलों से ही घिरा था। सारा दरबार पागलों से भरा था। सारी दुनिया पागलों से भरी है। यह आदमी कुछ और ही ढंग का आदमी होगा। लेकिन नहीं पकड़ा जा सका। सिपाही भागे-दौड़े, लेकिन वह आदमी हाथ नहीं आया। सुबह इब्राहिम उदास है, चिंतित है कि उस आदमी से मिलना न हो सका। जिसकी आवाज में जादू था, उसकी आंख में भी झांकने के इरादे थे। उसके पास दो क्षण बैठ लेने की आकांक्षा जगी थी।
और तभी द्वारपाल से कोई आदमी झगड़ा करने लगा, द्वारपाल से कोई आदमी उलझने लगा। आवाज पहचानी हुई लगी। हां, वही आवाज है और वह जो कह रहा था फिर उलटबांसी थी। द्वारपाल से वह कह रहा था कि मुझे इस सराय में कुछ दिन ठहर जाने दो। और द्वारपाल कह रहा था: तुम पागल तो नहीं हो! यह सराय नहीं, सम्राट का निवास-स्थान है। और वह आदमी कह रहा था कि मेरी मानो, यह सराय है। यहां कौन सम्राट है और किसके निवास-स्थान हैं? यह सारी दुनिया सराय है। ठहर जाने दो चार दिन, देखो, कहता हूं ठहर जाने दो चार दिन। चार दिन के लिए सराय से इनकार न करो।
आवाज पहचानी सी लगी और फिर बात में भी वही उलझाव था, बात में वही राज और रहस्य था। इब्राहिम भागा, बाहर आया। था आदमी अदभुत, उसे भीतर ले गया और पूछा: शर्म नहीं आती, राजमहल को सराय कहते हो! यह सिर्फ उकसाने को पूछा, यह भड़काने को पूछा। वह आदमी खिलखिला कर हंसने लगा। उसने कहा: राजमहल, तुम्हारा निवास-स्थान? तो तुम्हारा ही यह निवास-स्थान है? लेकिन कुछ वर्षों पहले मैं आया था तब एक दूसरा आदमी यही दावा करता था।
इब्राहिम ने कहा: वे मेरे पिता थे, स्वर्गीय हो गए। और उस फकीर ने कहा: उसके पहले भी मैं आया था, तब एक तीसरा आदमी यही दावा करता था। इब्राहिम ने कहा: वे मेरे पिता के पिता थे, मेरे पितामह थे; वे भी स्वर्गीय हो गए। वह फकीर कहने लगा: तो फिर जो मैं कहता हूं, ठीक ही कहता हूं कि यह निवास नहीं है, सराय है। तुम कब तक स्वर्गीय होने का इरादा रखते हो? फिर भी मैं आऊंगा, फिर कोई चौथा आदमी कहेगा कि यह मेरा निवास-स्थान है। यहां लोग आते हैं और जाते हैं। मानो मेरी, चार दिन ठहर जाने दो। यह कोई महल नहीं है, न कोई निवास-स्थान है।
बात चोट कर गई। किन्हीं क्षणों में बात चोट कर जाती है। कोई अपूर्व क्षण होते हैं तब छोटी सी बात भी चोट कर जाती है। बात दिखाई पड़ गई। जैसे किसी ने झकझोर कर जगा दिया। जैसे किसी ने जबरदस्ती आंख खोल दी। इब्राहिम थोड़ी देर तो ठिठका रह गया, जवाब दे तो क्या दे! जवाब देने को कुछ था भी नहीं। और इस आदमी की मौजूदगी, और इस आदमी का आह्लाद, और इस आदमी की सचाई, और इस आदमी की वाणी की गहराई प्राणों के आर-पार हो गई। उसने कहा कि आप सिंहासन पर विराजें और इस सराय में जब तक ठहरना हो ठहरें। मैं चला।
इब्राहिम बाहर हो गया। महल छोड़ दिया। सराय में क्या रुकना! फिर वह गांव के बाहर रहता था। और अक्सर ऐसा हो जाता था, कि राहगीर आते... वह एक चौराहे पर रहने लगा था, एक झाड़ के नीचे... राहगीर उससे पूछते कि बाबा, बस्ती का रास्ता किस तरफ है? तो कह देता कि बाएं चले जाओ। देखो बाएं ही जाना, तो बस्ती पहुंच जाओगे। दाएं भूल कर मत जाना, नहीं तो मरघट पहुंच जाओगे।
फकीर की बात मान कर लोग बाएं चले जाते, दो-चार मील चलने के बाद मरघट पहुंच जाते। वह मरघट का रास्ता था। लौट कर बड़े नाराज आते कि यह भी कोई मजाक की बात है। हम थके-मांदे यात्री, दूर से आए यात्री और तुमने कहा बाएं ही जाना तो बस्ती पहुंचोगे और हम मरघट पहुंच गए!
तो इब्राहिम कहता: तो फिर हमारी भाषाओं में कुछ भेद है। क्योंकि वहां मरघट जिसको तुम कह रहे हो, जो लोग बसे हैं वे कभी उखड़ते नहीं। इसलिए मैं उसे बस्ती कहता हूं--जो बस गया सो बस गया। बस्ती उसको कहना चाहिए, जहां से लोग कभी उखड़ते न हों। बस गए तो बस गए! तो फिर तुम मरघट की पूछते थे, लेकिन तुमने बस्ती क्यों कहा? तो मरघट इस तरफ है, दाईं तरफ चले जाओ। जिसको तुम बस्ती कह रहे हो वह मरघट है, क्योंकि वहां सब आदमी मरने को तत्पर हैं। आज कोई मरा, कल कोई मरा, परसों कोई मरा!
यहां इक खिलौना है इन्सां की हस्ती
यह बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती
यहां पर तो जीवन से मौत सस्ती
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
लेकिन दौड़ रहे हैं लोग...। कितनी आपाधापी है इस दुनिया को पा लेने के लिए! और इस पाने में सिर्फ एक बात घटती है--खुद लुट जाते हैं। कंकड़-पत्थर इकट्ठे हो जाते हैं, आत्मा बिक जाती है। खुद को बर्बाद कर लेते हैं। हां, कुछ चीजें छोड़ जाते हैं। कुछ मकान बना जाते हैं। कुछ पत्थरों पर नाम खोद जाते हैं। इससे जो सावधान होता है वही व्यक्ति धर्म के जगत में प्रवेश करता है। इस वस्तुस्थिति के प्रति जो जागरूक होता है वही धार्मिक है।
धर्म का मंदिर-मस्जिदों और गिरजों से कुछ लेना नहीं; गीता-कुरान और बाइबिल से कुछ लेना नहीं। धर्म का संबंध है इस बोध से--‘यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!’ तीर की तरह यह बात चुभ जाए भीतर, तो जीवन में एक झरना फूटता है। तुम्हारे ही प्राणों में, तुम्हारे ही अंतःकरण में एक संगीत उमगता है--तुम्हारे भीतर ही एक ज्योति जलनी शुरू होती है--जो शायद जल ही रही थी, लेकिन तुम्हारी आंखें चूंकि बाहर भटक रही थीं, चूंकि तुम दुनिया की तलाश पर निकले थे और तुमने कभी पीछे लौट कर अपने भीतर नहीं देखा था, इसलिए पता न चला था। इसलिए प्रत्यभिज्ञा न हो सकी थी।
जिस दिन दिखाई पड़ जाता है कि यह पूरी दुनिया भी मिल जाए, तो कुछ मिलेगा नहीं, उस दिन आदमी आंख बंद करता है और अपने भीतर देखता है। तब अपना स्वरूप दिखाई पड़ता है--मैं कौन हूं! और जिसने जान लिया मैं कौन हूं, उसने सब जान लिया। जो भी जानने योग्य है सब जान लिया। जो भी पाने योग्य है सब पा लिया।
स्वयं को जानते ही तृप्ति की वर्षा हो जाती है, अमृत के मेघ घिर आते हैं। शाश्वत जीवन का द्वार खुल जाता है। बाहर तो जो कुछ है सब क्षणभंगुर है। पानी के बबूले हैं। इंद्रधनुष हैं। क्षितिज की तरह जो कुछ भी है सब झूठ है; दिखाई पड़ता है और फिर भी नहीं है।
देखते नहीं, थोड़ी ही दूर पर आकाश पृथ्वी से मिलता हुआ दिखाई पड़ता है--और कहीं मिलता नहीं! दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, दौड़ते रहो... दौड़ते-दौड़ते गिर जाओगे। दौड़ते-दौड़ते कब्र में पड़ जाओगे। झूले से लेकर कब्र तक दौड़ते ही रहोगे और क्षितिज कभी आएगा नहीं।
इस दुनिया के मिल जाने से भी कुछ मिलता नहीं है, ऐसी प्रतीति और एक क्रांति घटती है। कंकड़-पत्थरों से नजर हट जाती है और आत्मा की तलाश शुरू होती है। धन मूल्यहीन हो जाता है, ध्यान का मूल्य प्रतिष्ठित होता है। उसी ध्यान के मूल्य के ये सूत्र हैं।
हंसा तो मोती चुगैं! हंस बनो! चुगना हो तो मोती चुगो! कब तक कंकड़-पत्थरों को इकट्ठा करते रहोगे? कब तक ठीकरों में उलझे रहोगे? कब तक व्यर्थ को ही सार्थक समझ कर दौड़ते रहोगे? कब जागोगे मृग-मरीचिका से? कब स्मरण करोगे कि हंस हो तुम, कि मानसरोवर तुम्हारा देश है! कि मोती ही तुम्हारा भोजन हो सकते हैं! कि मोती चुगो तो ही तृप्ति है, तो ही तोष है, तो ही मुक्ति है, तो ही मोक्ष है! कि मोती ही चुगो तो निर्वाण है।
चहल-पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं,
हम इतने अज्ञानी, निज को हम ही स्वयं अजाने हैं!
इसीलिए हम तुमसे कहते
दोस्त हमारा नाम न पूछो!
हम तो रमते-राम सदा के
दोस्त हमारा गाम न पूछो!
एक यंत्र-सा, जो कि नियति के
हाथों से संचालित होता
कुछ ऐसा अस्तित्व हमारा,
दोस्त हमारा काम न पूछो!
यहां सफलता या असफलता, ये तो सिर्फ बहाने हैं।
केवल इतना सत्य कि निज को हम ही स्वयं अजाने हैं।
चरणों में कंपन है, मस्तक पर शत-शत शंकाएं हैं,
अंधकार आंखों में, उर में चुभती हुई व्यथाएं हैं!
अपनी इन निर्बलताओं का,
हम कहते हैं--हमें ज्ञान है,
इसीलिए हम ढूंढ रहे हैं
जो शाश्वत है, जो महान है!
जितने देखे--मिटने वाले।
जितने देखे--मरने वाले।
जीवन औ’ निर्माण लिए जो
प्रेम अकेला शक्तिवान है!
बुरा न मानो, जनम-जनम के हम तो प्रेम दीवाने हैं,
इसीलिए हम तुमसे कहते, हम तो निपट बिराने हैं!
चहल-पहल की इस नगरी में हम तो निपट बिराने हैं,
हम इतने अज्ञानी, निज को हम ही स्वयं अजाने हैं!
अपने से ही परिचय नहीं है, दूसरे का परिचय हम करने चले हैं। अपने से संबंध नहीं है, दूसरों से संबंध बनाने चले हैं। इसलिए हमारे सारे संबंध विषाद लाते हैं, संताप लाते हैं।
जिसे हम प्रेम कहते हैं वह सच्चा नहीं हो सकता, क्योंकि जब तक ध्यान से न उमगे तब तक कैसे सच्चा होगा? जो अपने से ही संबंध नहीं बना पाया, वह किस और से संबंध बना सकेगा? पति पत्नी से, भाई बहिन से, मित्र मित्र से, मां बेटे से, किससे संबंध बनाओगे? कैसे बनाओगे? अभी तो प्राथमिक संबंध का पाठ भी पूरा नहीं हुआ। अभी तो तुम पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़े।
ध्यान पहली सीढ़ी है। ध्यान का अर्थ होता है: अपने से संबंध। ध्यान को ठीक से समझो तो ध्यान का अर्थ होता है: अपने से प्रेम। और जो निज के प्रेम में डुबकी मारता है, उसे पता चलता है कि वहां ‘मैं’ जैसी कोई इकाई नहीं है। लहर हूं सागर की। जिसने मैं में डुबकी मारी वह पाता है कि मैं तो हूं ही नहीं। तब एक नये अर्थों में, एक नये आयाम में, एक नई भाव-भंगिमा में प्रेम का उदय होता है। वह प्रेम संबंध नहीं है, वह प्रेम तुम्हारी स्वयं की सहज, स्वस्फूर्त अवस्था है।
लाल के सूत्र ध्यान से प्रेम कैसे जन्मे, इसके सूत्र हैं।
अवल गरीबी अंग बसै, सीतल सदा सुभाव।
पावस बूठा परेम रा, जल सूं सींचो जाव।।
अवल गरीबी अंग बसै,...
सबसे पहले तो यह समझ लो कि तुम हो ही नहीं। इतने गरीब हो कि तुम हो ही नहीं। यह ‘मैं’ जब तक है तब तक तुम अपने को कुछ न कुछ समझे बैठे हो--कुछ न कुछ अमीरी का दावा। ‘मैं’ तुम्हारी सबसे बड़ी संपदा है, शेष सारी संपदाएं तो ‘मैं’ का ही विस्तार हैं। मेरा मकान, मेरी दुकान, मेरा मंदिर, मेरा धन, मेरा पद, मेरी प्रतिष्ठा--यह सारा मेरा ‘मैं’ का ही विस्तार है। और हम मेरे का विस्तार इसीलिए तो करते हैं ताकि ‘मैं’ मजबूत होता जाए, सघन होता जाए, सुदृढ़ होता जाए। ‘मेरा’ ‘मैं’ का रक्षण करता है। ‘मेरा’ जैसे जल बन जाता है ‘मैं’ की मछली को जिलाए रखने को। लेकिन ‘मेरे’ के पीछे छिपा हमेशा ही ‘मैं’ है।
और अगर अपने में उतरो तो पाओगे पहली बात कि मैं तो है ही नहीं। इसलिए प्रथम ही भूल हो गई। इसलिए यात्रा का पहला कदम ही गलत दिशा में पड़ गया। फिर तुम मंजिल तक न पहुंचो तो आश्चर्य क्या!
अवल गरीबी अंग बसै,...
सबसे पहले तो अपने अंतर में, अंतर्तम में, अपने भीतर से भीतर एक बात को समझ लेना कि मैं नहीं हूं। ऐसे गरीब हो जाना कि मैं नहीं हूं। ऐसे निर्बल हो जाना कि मैं नहीं हूं। और जो इतना निर्बल हो जाता है, उसे बहुत कुछ मिलता है। निर्बल के बलराम! जो इतना भीतर शून्य हो जाता है, वह पूर्ण को पाने का पात्र हो जाता है, अधिकारी हो जाता है। जिसने अपने को मिटा ही दिया, वह मंदिर बन गया। उसके भीतर परमात्मा को उतरना ही होगा, अपरिहार्य रूप से उतरना होगा।
अवल गरीबी अंग बसै,...
तो सबसे पहले तो अंग-अंग में यह ‘मैं-भाव’ मर जाए, यह अहंकार चला जाए कि मैं पृथक हूं, कि मैं विशिष्ट हूं, कि मैं दूसरों से ऊपर हूं, कि मैं कुछ खास हूं। और यह ‘मैं-भाव’ इतना सूक्ष्म है और इतना चालबाज है कि बड़े बारीक रास्ते खोज लेता है। धन हो तो अकड़ जाता है, पद हो तो अकड़ जाता है। इतना ही नहीं, पद छोड़ दे तो अकड़ जाता है--कि मैंने पद का त्याग कर दिया! धन छोड़ दे तो अकड़ जाता है--कि मैंने धन का त्याग कर दिया। बाजार में होता है तो अकड़ा, बाजार छोड़ कर पहाड़ की गुफा में बैठ जाता है तो अकड़ा--कि मैंने लाखों पर लात मार दी! मगर अकड़ अपनी जगह खड़ी रहती है। रस्सी जल भी जाती है तो भी ऐंठन नहीं जाती।
इस ‘मैं’ के प्रति बड़ी सचेतना चाहिए। इसके एक-एक ढंग को पहचानना होगा। पर्त-पर्त इसको उघाड़ना होगा। इसका साक्षात्कार करना होगा। इसे देखना होगा--इसकी हर भाव-भंगिमा में, हर मुद्रा में। यह कभी पीछे के दरवाजों से भी आता है, वहां भी जांच-पड़ताल रखनी होगी। सावचेत रहना होगा।
अवल गरीबी अंग बसै, सीतल सदा सुभाव।
और जिस दिन तुम पाओगे कि यह ‘मैं’ मर गया और तुम ‘मैं’ से गरीब हो गए, उसी दिन तुम्हारे जीवन में एक शीतलता उतर आएगी। तुम्हारा स्वभाव एकदम शीतल हो जाएगा। क्योंकि सारी उष्णता और गरमी अहंकार की है। सारा क्रोध, सारा उत्ताप अहंकार का है। तुम जो जले-भुने जाते हो, सारा बुखार अहंकार का है। अहंकार गया तो रोग गया।
तुम खयाल करो, जितना अहंकार हो उतनी ही जीवन में ज्वालाएं सहनी पड़ती हैं; उतना ही उत्ताप झेलना पड़ता है; उतने ही घाव...। जितना अहंकार कम हो उतने ही घाव नहीं। अहंकार ही नहीं तो घाव लगेंगे कैसे? अहंकार ही नहीं तो कोई गाली भी दे जाएगा तो फूल जैसी पड़ेगी। और अहंकार हो तो फूल भी मार दो किसी को, तो पत्थर जैसा लगेगा।
अहंकार के कारण ही तुम्हारा जीवन आग की लपटों में झुलसा जा रहा है। तुम शीतल नहीं हो पा रहे। तुम शांत नहीं हो पा रहे। तुम जीवन का परम आनंद नहीं अनुभव कर पा रहे। तुम अपने ही हाथों नरक में हो। स्वर्ग तुम्हारा हो सकता है। स्वर्ग तुम्हारा अधिकार है, तुम्हारा स्वरूप-सिद्ध अधिकार है। मगर शर्त पूरी करनी होगी।
मेरी भूलों से मत उलझो, जनम-जनम का मैं अज्ञानी!
कांटों से निज राह सजा कर,
मैंने उस पर चलना सीखा,
श्वासों में निःश्वास बसा कर
मैंने उस पर पलना सीखा
गलना सीखा मैंने निशि-दिन
निज आंखों का पानी बन कर,
अपने घर में आग लगा कर
मैंने उसमें जलना सीखा।
मुझे नियति ने दे रक्खी है पागलपन से भरी जवानी!
मेरी भूलों से मत उलझो, जनम-जनम का मैं अज्ञानी!
लगातार मैं पीता जाता, भरता जाता मेरा प्याला!
मैं क्या जानूं क्या है अमृत?
क्या जानूं क्या यहां हलाहल?
खारा-खारा नीर उदधि का,
मीठा-मीठा है गंगा-जल!
सुनने को तो सुन लेता हूं,
कड़वे-मीठे बोल जगत के,
तड़प-तड़प उठती है बिजली,
बरस-बरस पड़ते हैं बादल!
कौन पिलाने वाला, बोलो, कौन यहां पर पीने वाला?
लगातार मैं पीता जाता, भरता जाता मेरा प्याला!
सीधा-सादा ज्ञान तुम्हारा, बहकी-बहकी मेरी बातें!
एक तरफ उसकी हर धड़कन,
जिसको तुम सब कहते हो दिल,
और स्वयं मैं एक लहर हूं,
मैं क्या जानूं क्या है साहिल?
मेरे मन में नई उमंगें,
मेरे पैरों में चंचलता,
पिछली मंजिल छोड़ चुका हूं,
ज्ञात नहीं है अगली मंजिल!
सबके सपने अलग-अलग हैं, यद्यपि वही हैं सबकी रातें!
सीधा-सादा ज्ञान तुम्हारा, बहकी-बहकी मेरी बातें!
जरा मनुष्य को देखो। उसके डांवाडोल होते पैरों को देखो। ऐसे चलता है जैसे शराबी चल रहा हो। चलता जाता है। गिरता है, उठता है, चलने लगता है। मगर कुछ स्पष्ट नहीं है। न कोई दिशा-बोध है। न कोई जीवन में क्रम है। अगर किसी को झकझोर कर पूछो कि कहां जा रहे हो, तो किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह जाता है। कंधे बिचकाता है।
इसलिए लोग इस तरह के प्रश्न पूछते भी नहीं एक-दूसरे से। अशिष्टाचार मालूम होगा ऐसे प्रश्न पूछो तो। लोग फिजूल की बातें करते हैं, मौसम की बातें करते हैं--कि आज बादल घिरे हैं, कि आज सूरज निकला है, कि तबीयत कैसी है, कि स्वास्थ्य कैसा है? लोग फिजूल की बातें पूछते हैं। मतलब की कोई बात पूछता नहीं।
रवींद्रनाथ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब गीतांजलि, उनकी प्रसिद्ध कृति प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने ठीक वैसे अमृत-वचन लिखे हैं जैसे उपनिषदों के वचन हैं, तो एक पड़ोस का व्यक्ति, एक बूढ़ा आदमी सुबह-सुबह घूमते उन्हें पकड़ लिया, दोनों कंधे हिला कर बोला: ईश्वर को देखा है? उसकी आंखें बड़ी पैनी कि भेद जाएं भीतर तक। और जिस ढंग से उसने पूछा और जिस बेवक्त पकड़ कर पूछा, रवींद्रनाथ न कह सके कि देखा है। चुप खड़े रह गए। वह आदमी खिलखिला कर हंसने लगा। उसकी खिलखिलाहट छाती में छुरी की तरह चुभ गई। और फिर वह आदमी जब भी मिलता और अक्सर मिल जाता, पड़ोस में ही था, कहीं भी आते-जाते मिल जाता--तो वह छोड़ता नहीं था मौका, पकड़ लेता: ईश्वर को देखा है? ईमान से बोलो, ईश्वर को देखा है?
रवींद्रनाथ ने एक दिन उससे कहा: भई, यह प्रश्न मुझसे बार-बार क्यों पूछते हो? उसने कहा: गीतांजलि क्यों लिखी? अगर ईश्वर को देखा नहीं है तो क्यों ये गीत लिखे? कैसे ये गीत लिखे? ये सब गीत झूठे हैं!
रवींद्रनाथ बचते थे। अगर उनको निकलना भी होता तो चक्कर मार कर जाते उसके घर के आस-पास से न निकलते। तो वह आदमी उनके घर आने लगा। दरवाजा खटखटाने लगा। सुबह से ही आकर बैठ जाता। जब तक मिल न ले तब तक जाता नहीं। और मिलता तो वही सवाल, वही तीखी आंखें, जिनके सामने झूठ न बोला जा सके।
लेकिन एक सुबह रवींद्रनाथ सागर तट पर गए थे। वहां उन्होंने सूरज को सागर पर चमकते देखा; सुबह होती थी और सूरज निकलता था। और सूरज की लालिमा आकाश में भी फैल गई थी और सागर में भी। रात वर्षा हुई थी। रास्ते के किनारे गड्ढों में जल भर गया था। जब लौटने लगे तो एक अपूर्व बोध हुआ। सूरज में जो सौंदर्य था, वह सागर में भी झलक रहा था, विराट सागर में! और रास्ते के किनारे गंदे डबरों में भी चमक रहा था, उतना ही सुंदर! कुछ भेद न था डबरों में और सागर में। सूरज के लिए कोई भेद न था, बिलकुल अभेद था। सूरज के लिए सब एक था, कोई बुरा न था, कोई भला न था। डबरे भी वैसे ही थे जैसे सागर। गंदे थे डबरे और सागर स्वच्छ था। लेकिन सूरज का जो प्रतिबिंब बन रहा था, वह न तो गंदा होता है और न स्वच्छ होता है। प्रतिबिंब गंदा नहीं होता। गंदे पानी में भी बने, तो भी प्रतिबिंब गंदा नहीं होता। गंदगी प्रतिबिंब को कैसे छुएगी? प्रतिबिंब तो अछूता रहता है। प्रतिबिंब तो संन्यासी है। उसे कुछ भी नहीं छूता।
यह भाव-बोध और जैसे एक द्वार खुल गया! अब तक जो मन में खयाल था बुरे आदमी और अच्छे आदमियों का; सज्जन का, दुर्जन का; साधु का, असाधु का--गिर गया, एक क्षण में गिर गया! और वह आदमी सामने मिल गया। आज पहली बार उस आदमी से भय नहीं लगा। और आज पहली बार उस आदमी पर क्रोध नहीं आया। उलटा रवींद्रनाथ आगे बढ़े और उस आदमी को गले लगा लिए। और वह आदमी हंसने लगा। तो उसने कहा कि फिर, दर्शन हुआ! तो लगता है दर्शन हुआ! तो लगता है झलक मिली! अब बात ठीक हुई। अब तुम गीतांजलि के गीत गाने के योग्य हुए।
क्या हो गया उस दिन? बुरे-भले का भेद मिट गया। पदार्थ-परमात्मा का भेद मिट गया। संसार-संन्यास का भेद मिट गया। भेद मिट गया!
जिस दिन तुम्हारे भीतर अहंकार गिर जाएगा, उस दिन तुम्हारे भीतर से सारे भेद मिट जाएंगे, क्योंकि सारे भेदों का निर्माता अहंकार है। जिस दिन अहंकार गया, तुलना गई। फिर तुम तौलोगे नहीं--कौन अच्छा, कौन बुरा; कौन ऊपर, कौन नीचे।
अवल गरीबी अंग बसै, सीतल सदा सुभाव।
पावस बूठा परेम रा, जल सूं सींचो जाव।।
जैसे खेत, जैसे भूमि--जैसे ग्रीष्म की उत्तप्त भूमि बादलों की प्रतीक्षा करती है, निमंत्रण भेजती है, नेह-निमंत्रण मेघों को कि आओ, बरसो! ऐसे ही जिस दिन तुम्हारे भीतर शून्य होगा, परमात्मा को नेह-निमंत्रण मिलेगा कि आओ, बरसो! जैसे सूखी धरती बादलों को खींच लेती है अपने पास, वर्षा करवा लेती है, वैसे ही जो भीतर अहंकार से शून्य हो गया, वही गरीब है।
गरीब से तुम यह अर्थ मत ले लेना कि जिसके पास खाने-पीने को नहीं है, झोपड़ा नहीं है, रहने को मकान नहीं है, कपड़े-लत्ते नहीं हैं। अगर ऐसी गरीबी से परमात्मा मिलता होता तो इस देश में सभी को मिल गया होता। ऐसी गरीबी से परमात्मा के मिलने का कोई संबंध नहीं है। और तुम अगर धन को छोड़ कर इस तरह गरीब भी हो जाओ तो यह मत सोच लेना कि परमात्मा मिल जाएगा।
एक और तरह की गरीबी है। जीसस ने उसके लिए ठीक शब्दों का उपयोग किया है--पुअर इन स्प्रिट! अंतर्तम में दरिद्र हो जाओ। ब्लैस्ड आर दि पुअर इन स्प्रिट। धन्यभागी हैं वे जो अंतर्तम में दरिद्र हैं--जो आध्यात्मिक अर्थों में दरिद्र हैं। और क्यों वे धन्यभागी है?... फॉर देयर्स इज़ दि किंग्डम ऑफ गॉड। क्योंकि उनका ही है प्रभु का राज्य।
जैसे उत्तप्त गरमी की भूमि एक ही प्यास जानती है और एक ही प्रेम--कि जल बरसे! ऐसे ही अहंकार से शून्य व्यक्ति के भीतर एक अपूर्व प्यास उठती है, एक अदम्य प्यास उठती है कि परमात्मा बरसे। फिर प्रार्थना करनी नहीं होती, फिर प्रार्थना होती है--उठते, बैठते, चलते, सोते, जागते। उस प्यास का नाम ही प्रार्थना है। और जिसके भीतर वैसी प्यास वाली प्रार्थना पैदा हो गई, जल बरसता है, निश्चित बरसता है। पक्का आश्वासन है! क्योंकि सदा बरसा है। एक बार भी अपवाद नहीं हुआ। एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि जल न बरसा हो। अगर न बरसे जल तो एक ही बात का सबूत समझना कि तुम्हारे भीतर अभी वह प्यास पैदा नहीं हुई, जो निर-अहंकारिता से जन्मती है।
बहुत लोग हैं जो ईश्वर को पाना चाहते हैं, मगर इस पाने में भी अहंकार की ही दौड़ है। तो फिर ईश्वर नहीं मिलेगा। बहुत लोग हैं जो ईश्वर को भी वैसे ही पाना चाहते हैं जैसे बड़ा मकान, धन-दौलत...। जैसे उन्होंने सब चीजें मुट्ठी में कर ली हैं, वे ईश्वर को भी मुट्ठी में कर लेना चाहते हैं। वे चाहते हैं यह दावा भी कर सकें कि हमने ईश्वर को भी पा लिया।
ईश्वर को इस ढंग से नहीं पाया जाता। ईश्वर को पाया जाता है, यह भाषा ही गलत है। ईश्वर तो मिलता है, पाया नहीं जाता। और मिलता तब है जब पाने वाला खो जाता है।
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाइ।।
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाइ।।
कबीर कहते हैं कि खोजते-खोजते खोजने वाला खो गया, तब मिलन हुआ। अटपटी बात है। क्योंकि हम तो चाहेंगे कि मिलन का तो अर्थ ही यह होना चाहिए कि खोजने वाला हो। मिलन तो दो का होना चाहिए। लेकिन यह जो परमात्म-मिलन है यह दो का मिलन नहीं है; यह एक का मिलन है।
झेन फकीर कहते हैं, ऐसी ताली, जो एक हाथ से बजती है। अब एक हाथ से कोई ताली नहीं बजती। मगर एक ताली है, परम अनुभव की, जो एक हाथ से बजती है। वहां दो नहीं होते। वहां एक ही बचता है। वहां देखने वाला भी वही और दिखाई पड़ने वाला भी वही। द्रष्टा भी वही, दृश्य भी वही। वहां द्रष्टा और दृश्य एक हो जाते हैं।
कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं: दि ऑब्जर्वर इज़ दि ऑब्जर्वड। वहां दोनों एक हो गए हैं। वहां भक्त और भगवान अलग-अलग नहीं हैं। वहां भक्त ही भगवान है। वहां भगवान स्वयं भक्त है।
लागू है बोला जणा, घर घर माहीं दोखी।
गुज कुणा सो कीजिए, कुण है थारो सोखी।।
लाल कहते हैं कि यहां लाग-डांट रखने वाले लोगों से तो संसार भरा है--ईर्ष्या से, जलन से भरे हुए लोगों से। यहां दोष देखने वाले तो घर-घर हैं।
लागू है बोला जणा, घर घर माहीं दोखी।
यहां दोष देखने वाली आंख तो सबके पास है। यहां कांटों को गिनने वाले लोग तो अनंत हैं। यहां फूलों को देखने वाले लोग बड़े मुश्किल। और परमात्मा तो परम फूल है।
इसलिए जो दोष देखने की आदत में घिरा है, वह परमात्मा से वंचित रह जाएगा। दोष देखना भी अहंकार का ही एक अंग है। हम दोष देखते क्यों हैं? हम दोष देखते इसीलिए हैं ताकि अहंकार रस ले सके कि देखो, मैं तुमसे अच्छा! तुम चोर, मैं ईमानदार! तुम असाधु, मैं साधु! हम दोषों को खूब बढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं, क्योंकि जितना दोष बढ़ा-चढ़ा कर देखा जाए उतने ही हम अपनी आंखों में पवित्र हो जाते हैं।
तुमने कहानी तो सुनी न, अकबर ने एक दिन दरबार में एक लकीर खींच दी आकर दीवाल पर और दरबारियों से कहा: इसे बिना छुए छोटा कर दो। कोई कर न सका। फिर बीरबल उठा और उसने एक और बड़ी लकीर उस लकीर के नीचे खींच दी। उस लकीर को नहीं छुआ। हाथ नहीं लगाया। बिना छुए उसे छोटा कर दिया। एक बड़ी लकीर खींच दी।
यही हमारा गणित है--भीतरी अहंकार का गणित। हम हर आदमी में दोष देखते हैं। हम हर स्थिति में दोष देखते हैं। क्यों? क्योंकि दोष की बड़ी-बड़ी लकीरें खिंच जाएं तो खुद के दोष छोटे दिखाई पड़ने लगते हैं। दूसरे का दोष देखना हो तो हम उसे अनंत गुना बड़ा करके देखते हैं। और अगर दूसरे का गुण देखना ही पड़े मजबूरी में, कि कोई उपाय ही न हो, तो हम उसे बहुत छोटा करके देखते हैं। जितना छोटा कर सकें उतना छोटा करके देखते हैं। दूसरे का दोष देखना हो तो राई का पर्वत बनाते हैं। और दूसरे का गुण देखना हो तो पर्वत को राई बनाते हैं। यह हमारे अहंकार का ही हिसाब है। इसके भीतर हमारी अस्मिता बैठी है। वह कह रही है--मुझसे और अच्छा कोई कैसे हो सकता है!
फ्रेड्रिक नीत्शे ने लिखा है कि ईश्वर नहीं है, क्योंकि मेरे रहते और कोई ईश्वर कैसे हो सकता है? बात उसने पते की कही है।
दुनिया में जो नास्तिक हैं, जो कहते हैं, ईश्वर नहीं है, उन्हें ईश्वर का ‘नहीं है’ ऐसा पता नहीं चल गया है। लेकिन उनके रहते और ईश्वर हो, यह बरदाश्त के बाहर है। दुनिया में जो आस्तिक हैं, वे भी बड़े मजेदार लोग हैं, नास्तिकों से बहुत भिन्न नहीं हैं। वे भी कहते हैं: राम ईश्वर थे, क्योंकि राम अब मौजूद नहीं। मरों की प्रशंसा तो सभी करते हैं। राम की तो बात ही छोड़ दो, गांव का बुरा से बुरा आदमी भी मर जाए तो भी हम उसकी प्रशंसा करते हैं।
एक गांव में एक आदमी मरा। बड़ा दुष्ट था। राजनेता था। बड़ा हिंसक था, बड़ा बेईमान, बड़ा चोर, दगाबाज... सब गुण थे जो राजनेता में होने चाहिए। गांव में एक आदमी नहीं था जो उससे परेशान न हुआ हो; एक आदमी नहीं था जिसको उसने सताया न हो। वह मरा... लेकिन उस गांव का रिवाज था कि जब कोई मर जाए तो उसकी प्रशंसा में दो शब्द कहने चाहिए, तब उसको दफनाया जा सकता है। अब सारा गांव इकट्ठा है और कैसे उसको दफनाएं, क्योंकि कोई आदमी उसके संबंध में दो प्रशंसा के शब्द कहने को तैयार नहीं। और वह रिवाज है, बिना प्रशंसा में बोले उसे दफनाया नहीं जा सकता। फिर गांव के एक पंडित को लोगों ने कहा: अब आप ही कुछ करिए, कुछ सोचिए। कुछ दो शब्द कहिए किसी तरह से।
पंडित खड़ा हुआ और पंडित ने कहा: भाइयो, ये सज्जन जो चल बसे, ये अपने पीछे पांच भाई छोड़ गए हैं। उनके मुकाबले ये देवता थे।
तब उनको दफनाया जा सका।
‘तुलना’ अहंकार का सूत्र है। तुम तौलते रहते हो कि अरे, पड़ोसी के मुकाबले तो मैं देवता हूं, कि फलां के मुकाबले तो मैं देवता हूं। रोज अखबार पढ़ कर आत्मा को बड़ी तृप्ति मिलती है कि देखो दंगा-फसाद, गुंडागिरी, जोर-जुल्म, व्यभिचार, बलात्कार, आगजनी, हत्या सब हो रहा है। इससे तो मैं ही भला। छोटी-मोटी रिश्वत ले लेता हूं, क्या रखा है रिश्वत में? जहां यह सब हो रहा है। अगर नरक मिलेगा तो इन सबको मिलेगा, मुझको तो जगह भी कहां मिलेगी नरक में! हमारी तो पूछ ही कहां होगी वहां! हमको तो बाहर ही निकाल देंगे, भगा ही देंगे--भाग जा! दो-चार-दस रुपये रिश्वत लिए थे, नरक चले आए। उठाया मुंह और नरक चले आए! कुछ अपनी हैसियत का भी खयाल करो, जाओ स्वर्ग में।
रोज अखबार पढ़ कर बड़ी तृप्ति मिलती है। जिस दिन अखबार में व्यर्थ की खबरें न हों--लूट-पाट, दंगा-फसाद, आगजनी, हिंदू-मुस्लिम दंगे, हरिजनों पर बलात्कार, उनके झोपड़ों का जलाया जाना--जिस दिन इस तरह की बातें न हों, उस दिन तुम्हें बड़ी उदासी होती है कि आज तो कुछ भी खबर नहीं। अखबार को तुम ऐसे पटक देते हो कि आज कुछ भी खबर नहीं। कोई पूछे क्यों भाई, क्या खबर है, तो बड़े उदास, कहते हो कोई खबर नहीं।
जरा एक दिन सोचो तो कि अखबार आए जिसमें अच्छी ही अच्छी खबरें हों, फूलों ही फूलों की चर्चा हो, कांटों का पता ही न चले--तुम अखबार ही लेना बंद कर दोगे! इसीलिए तो अखबार बुरे आदमी के आधार पर जीते हैं। अखबारों को बुरे आदमी चलवाते हैं। अच्छे आदमी की कोई कहानी ही नहीं होती। और अच्छे आदमी की कहानी भी हो तो सुनने को कौन राजी?
तुम जरा सुनो, अच्छे आदमी की क्या कहानी होती है? किसी अच्छे आदमी की जिंदगी पर कहानी लिखो, कहानी न लिख सकोगे। किसी अच्छे आदमी की जिंदगी पर फिल्म बनाओ, फिल्म न बन सकेगी। जरा तुम सोचो तो कि राम की जिंदगी में से रावण को हटा दो, फिर रामलीला खत्म। राम की थोड़े ही है रामलीला; राम नहीं हैं उसके नायक, रावण है। क्योंकि रावण के बिना खेल खत्म हो जाता है। न चुराएगा राम की सीता को रावण... रामलीला खत्म।
एक गांव में ऐसा हो गया था। रामलीला हुई। मैनेजर से कुछ झगड़ा हो गया रावण का। रोज रामलीला के बाद जो मिठाई वगैरह बंटती थी उनको, उसको कुछ कम मिली। कुछ बातचीत हो गई। उसने कहा: देख लेंगे। मैनेजर ने सोचा भी नहीं था कि यह कहां देखेगा। उसने देखा रामलीला में। जब परदा उठा और स्वयंवर रचा गया तो सारे लोग इकट्ठे हुए हैं, सारे राजा-महाराजा, सीता को वरने आए हैं, राम-लक्ष्मण भी आए हैं, रावण भी आया है। और तभी लंका से भागा हुआ दूत आता है, और वह कहता है कि हे रावण, तू यहां क्या कर रहा है, लंका में आग लग गई, घर चल! तो रावण लंका चला जाता है आग बुझाने और तब तक राम धनुष को तोड़ देते हैं, स्वयंवर हो जाता है। सीता से विवाह हो जाता है।
आया दूत, उसने रावण को कहा कि हे रावण, लंका में आग लगी है। उसने कहा: लगी रहने दो। जनता बड़ी हैरान हुई। जनता भी हर साल देखती थी रामलीला, यह कोई... यह क्या कह रहा है कि लगी रहने दो! दूत भी बड़ा चौंका।
दूत ने कहा: सुनते हो? लंका में आग लगी है। आपका आना आवश्यक है।
उसने कहा: लंका जाए भाड़ में। इस बार सीता का स्वयंवर करके ही आऊंगा।
अब तो बड़ी घबड़ाहट फैल गई। अब कहानी आगे कैसे बढ़े? और उसने आव देखा न ताव, उठा और धनुष उठा कर, तोड़ कर, टुकड़े-मुकड़े करके फेंक दिया। धनुष तो धनुष ही था, कोई असली, कोई शिवजी का तो धनुष था नहीं। रामलीला रामलीला ही थी। और जनक से कहा: ला, कहां है तेरी सीता? निकालो सीता को! सीता को लेकर ही जाएंगे, फिर आग बुझाएंगे। और एक से दो भले!
जनक बूढ़ा आदमी था। कई दफे रामलीला में जनक का काम कर चुका था। होशियार था। उसको भी एक दफे तो कुछ समझ में नहीं आया। आंखें चकरा गईं कि अब क्या करना! और जनता है कि ताली पीट रही है। लोग जो सोए थे, जो रोज सोए रहते थे, वे भी जाग गए और खड़े हो गए। उनको लगा कि आज हो रही है रामलीला! ऐसी न देखी, न सुनी; न आंखों देखी, न कानों सुनी! गजब हो रहा है!
वह तो जनक बूढ़ा आदमी था, उसने कहा: भृत्यो, परदे गिराओ! यह तुम कहां मेरे बच्चों के खेलने का धनुष उठा लाए! शिवजी का धनुष लाओ।
परदा गिरवाया। बामुश्किल किसी तरह रावण को धक्का देकर निकाला बाहर। क्योंकि रावण, जो गांव का सबसे मजबूत आदमी था, उसको ही रावण बनाते थे। वह दो-चार को तो वैसे ही धक्का देकर गिरा दे। रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी और जनक जी और सब लगे, बामुश्किल उसको पीछे घसीट कर ले गए कि भई, तू कैसा आदमी! मैनेजर से तेरा झगड़ा हुआ तो रामलीला तो खराब मत कर। ज्यादा मिठाई ले लेना। सबकी मिठाई आज तू ही ले लेना, मगर सीता को तो मत ले जा ऐसे! नहीं तो फिर कल क्या होगा?
तत्क्षण दूसरे आदमी को रावण बनाया, क्योंकि उसका क्या भरोसा, वह फिर गड़बड़ करने लगे!
रावण असली नायक है।... रामलीला को असल में रावणलीला कहनी चाहिए। राम तो बेचारे दर्शक मात्र हैं। अच्छे आदमी की कोई कहानी नहीं होती। और अगर अच्छे आदमी की भी कोई कहानी होती है तो वह बुरे आदमियों के कारण होती है। अच्छे आदमी की जिंदगी में कुछ लिखावट नहीं होती--कोरा कागज होता है। कोरे कागज को पढ़ोगे तो क्या पढ़ोगे?
बुरे आदमी की जिंदगी में बहुत लिखावट होती है, बहुत इरछी-तिरछी, बहुत उलझी, बहुत दांव-पेंच वाली। तुम बुरे आदमी को देख कर खुश होते हो, अच्छे आदमी को देख कर उदास हो जाते हो। इस पर ध्यान करना। अगर कोई तुमसे कहे कि फलां आदमी बड़ा साधु है और तुम फौरन कहोगे: अरे, वह क्या साधु होगा! देख लिए सब साधु, वह साधु नहीं है! तुम हजार प्रमाण इकट्ठे करोगे कि क्यों वह साधु नहीं है। अगर कोई तुमसे कहे कि फलां आदमी चोर है तो तुम बिलकुल एकदम राजी हो जाते हो, एक भी प्रमाण नहीं मांगते। तुम कहते हो कि होना ही चाहिए। मुझे पहले ही शक था। मुझे संदेह तो था ही, आज तुमने समर्थन कर दिया। अगर कोई तुमसे कहे कि फलां आदमी बड़ी सुंदर बांसुरी बजाता है, तुम कहोगे: अरे, वह क्या खाक बांसुरी बजाएगा! जमाने भर का झूठ बोलने वाला, चोर, बेईमान! अनुभव से कह रहे हैं, वह क्या खाक बांसुरी बजाएगा!
लेकिन इससे उलटी बात कहीं तुमने सुनी है कि कोई आदमी कहे कि वह आदमी बड़ा चोर है, बड़ा बेईमान है--तुम कहोगे कि नहीं-नहीं, वह चोर-बेईमान कैसे हो सकता है, इतनी अच्छी बांसुरी बजाता है! यह कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता है। इतनी अच्छी बांसुरी बजाने वाला कैसे चोर, कैसे बेईमान होगा?
नहीं; ऐसी बात नहीं सुनने में आएगी। कौन कहता है ऐसी बात? जिस दिन लोग ऐसी बात कहने लगेंगे, यह पृथ्वी स्वर्ग होगी। यहां हम बुरे को बढ़ाते हैं, अच्छे को गिराते हैं, क्योंकि इसी में हमारे अहंकार की तृप्ति है।
लागू है बोला जणा,...
यहां जलन-ईर्ष्या से भरे हुए लोग तो जगह-जगह हैं।
...घर घर माहीं दोखी।
और दोष देखने वाले लोग घर-घर बैठे हुए हैं, उनकी कोई कमी नहीं है।
आत्माएं गिरवी रख
सुविधाएं ले आए।
लोथड़ा कलेजे का, वनबिलाव चीलों में,
गंगा की गोदी में या कि ताल-झीलों में,
कुंआरी मां जैसे
अपना बच्चा दे आए।
देकर के जन्म जन्म के कर्जे ब्याज सहित,
मांग रहे यौवन, कुछ वय भोरी राज सहित।
यज्ञ फल उन्हें दे
हम समिधाएं ले आए।
उजालों भरी आंखें, मुंह पर पट्टी बांधे,
अपनों पर अपने ही आज निशाने साधे।
शांति वनों से लौटे
दुविधाएं ले आए।
आत्माएं गिरवी रख
सुविधाएं ले आए।
लोगों ने आत्माएं बेच दी हैं--छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए! जीवन का पाप क्या है? छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए आत्माओं को बेच देना। समझौता एकमात्र पाप है। किसी भी कीमत पर आत्मा को बेचना पाप है। और किसी भी कीमत पर आत्मा को न बेचना पुण्य है।
संन्यास की यही मेरी व्याख्या है कि जो आदमी आत्मा को बेचने को राजी नहीं--चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े; चाहे लोग उसे पापी कहें, दुश्चरित्र कहें; चाहे लोग उसे सब तरह से त्याग दें; चाहे लोग उसे सब तरह से बहिष्कृत कर दें; चाहे लोग पत्थर मारें और सूली चढ़ा दें--मगर सुविधाओं के लिए जो अपनी आत्मा न बेचे, वह पुण्यात्मा है।
लेकिन इतनी सामर्थ्य तो उसी में हो सकती है जिसने अपने भीतर शून्य देखा हो। शून्य ही इतना सहने की क्षमता रख सकता है। अहंकार की सहने की क्षमता ज्यादा नहीं होती। होती ही नहीं। ज्यादा तो क्या, कम भी नहीं होती।
देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ’ जानो
इसको, उसको संभव हो निज को पहचानो
लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो
जीवन की धारा में अपने को बहने दो
तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो!
वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो
लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो
ऊपर से ठोस दिखो, अंदर से पोले हो
बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो!
पल में रो देते हो, पल में हंस पड़ते हो,
अपने में रम कर तुम अपने से लड़ते हो
पर यह सब तुम करते--इस पर मुझको शक है,
दर्शन, मीमांसा--यह फुरसत की बक-झक है,
जमने की कोशिश में तुम रोज उखड़ते हो!
थोड़ी सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में,
चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में,
जिंदगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है,
इससे जो कुछ ज्यादा, वह सब तो लालच है,
दोस्त उम्र कटने दो इस तमाशबीनी में!
धोखा है प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानो
कड़वा या मीठा, रस तो है छक कर छानो,
चलने का अंत नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है
जब-जब थक कर उलझो, तब-तब लंबी तानो!
ऐसा समझाने वाले चारों तरफ मौजूद हैं।
चलने का अंत नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है
छोड़ो सत्य की चिंता। जब सारे लोग ही भ्रमित हो रहे तो तुम भी उन्हीं के साथ चलते रहो--भेड़चाल... भीड़ में बने रहो। भीड़ के साथ सुरक्षा है। भीड़ से हट कर चले तो भीड़ नाराज होती है। भीड़ व्यक्तियों को बरदाश्त नहीं करती, क्योंकि व्यक्तित्व विद्रोह है। भीड़ चाहती है आज्ञा मानो उसकी। भीड़ चाहती है तुम्हारे पास कोई आत्मा न हो।
खयाल करना, भीड़ अहंकार तो देती है तुम्हें, आत्मा छीन लेती है। भीड़ कहती है: अहा, कितने सच्चरित्र! भीड़ कहती है: कैसे पवित्र! भीड़ कहती है: कैसे ज्ञानवान! अगर भीड़ की मानो तो भीड़ अहंकार को खूब सम्मानित करती है। और अगर भीड़ की न मानो तो भीड़ दुर्जन कहती है, दुश्चरित्र कहती है; अहंकार को अपमानित करती है। वह भी तरकीब है भीड़ की।
भीड़ के पास एक ही तरकीब है अहंकार को फुसलाए, बढ़ाए; या अहंकार को काटे, छेदे, गिराए। जो आदमी अपना अहंकार बचाना चाहता है वह भीड़ की मान कर चलता है। जो आदमी अपना अहंकार खंडित होना नहीं देखना चाहता, वह सब तरह के समझौते कर लेता है। और कौन अहंकार का खंडित होना देखना चाहता है? दुर्जन भी नहीं चाहता कि उसका अपमान हो। झूठ बोलने वाला भी लोगों को यही प्रतीति कराए रखता है कि मैं सच बोलता हूं। झूठ के भी पैर नहीं होते, सच के ही पैर उधार लेकर चलता है। झूठ भी सच का मुखौटा ओढ़ता है।
पापी भी पुण्यात्मा बनने की घोषणाएं करते हैं और भोगी साधुओं के आवरण बना लेते हैं। चाहे उनके भोग की आकांक्षा स्वर्ग में ही क्यों न हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? मगर भोग की आकांक्षा ही साधुता का आवरण बन जाती है।
भीड़ एक ही बात चाहती है कि तुम्हारे पास निजता न हो, आत्मा न हो। भीड़ चाहती है तुम सोए रहो। तुम सोए रहो, भीड़ की मानते रहो। भीड़ जैसी जीती है वैसी छाया की तरह उसका अनुगमन करते रहो--तुम भले आदमी हो, तुम सज्जन हो।
तुम देखते नहीं, जीसस जैसे आदमी को भीड़ ने सूली दे दी! महात्मा नहीं कहा, सूली दी। सुकरात को जहर पिलाया, महात्मा नहीं कहा। बुद्ध को पत्थर मारे। महावीर के कानों में सलाखें ठोक दीं, महात्मा नहीं कहा। और महावीर के समय में पंडित थे, पुरोहित थे--जो महात्मा थे। और जीसस को जिन लोगों ने सूली दी, बड़े-बड़े रबाई, बड़े पुरोहित, वे सम्मानित थे, वे आदृत थे।
भीड़ दो कौड़ी के लोगों का तो आदर करती है, लेकिन जिनकी आत्मा प्रकट हुई है और जिनका अहंकार विलीन हुआ है, उनको नष्ट करना चाहती है, क्योंकि उनकी मौजूदगी भीड़ के लिए खतरा है। भीड़ के लिए सबसे बड़ा खतरा है आत्मवान व्यक्ति!
इसलिए खयाल रखो, निंदा करने वाले बहुत मिलेंगे। तुम्हारा सम्मान नहीं करेगा कोई। अगर तुम सच्चे हो, अगर तुम चले हो सत्य की तलाश में, तो तुम्हें बहुत कष्ट झेलने होंगे। दुर्गम है मार्ग।
गुज कुणा सो कीजिए, कुण है थारो सोखी।
और जिंदगी इतनी अजीब है, लाल कहते हैं कि यहां अपने हृदय की बात किससे कहो? यहां कोई संगी-साथी भी नहीं है। जिस दिन तुमने अपनी आत्मा की घोषणा की, सब तुम्हारे दुश्मन हैं। कौन तुम्हारी गुप्त बात सुनेगा? कौन तुम्हारे अंतर्तम का संवाद सुनेगा? थोड़े से ही लोग, बहुत चुने हुए लोग, अंगुलियों पर गिने जा सकें इतने लोग--तुम्हारी बात सुनने को राजी होंगे। खतरा ले सकें जो, जोखिम उठा सकें जो, वे थोड़े से लोग सत्य की बात सुनेंगे। शेष सब तो असत्य की चादर ओढ़ कर ताने सोए रहेंगे।
जोबन हा जद जतन हा, काया पड़ी बुढ़ांण।
सूकी लकड़ी न लुलै, किस बिध निकसे काण।।
लाल कहते हैं: और जल्दी करो, क्योंकि जल्दी ही बुढ़ापा आ जाएगा। देह सूख जाएगी जैसे लकड़ी सूख गई। और सूखी लकड़ी को झुकाना मुश्किल हो जाता है। जल्दी करो! समय बीता जाता है। जब जीवन में लोच है, जब जीवन युवा है और जब चेतना बूढ़ी नहीं हो गई है, तब क्रांति को घटित कर लो। तब रूपांतरण कर लो।
रूपांतरण का समय युवावस्था है। जितने जल्दी हो सके, उतने जल्दी अहंकार को छोड़ दो और आत्मा को पकड़ लो। भीड़ को छोड़ दो और स्वयं के दीये के पीछे चल पड़ो। अप्प दीपो भव! अपने दीये बन जाओ।
यह जितनी जल्दी हो सके, क्योंकि लोच धीरे-धीरे खो जाती है। बच्चों में सर्वाधिक लोच होती है, बूढ़ों में सबसे कम लोच रह जाती है। मगर वे बूढ़े जो अपनी चेतना को सजग रखते हैं, उनमें उतनी ही लोच रहती है जितनी बच्चों में। जो अपनी चेतना को अतीत से विमुक्त रखते हैं; जो रोज-रोज अतीत के प्रति मरते हैं, मरते जाते हैं; जो अतीत के कूड़े-करकट को इकट्ठा नहीं करते; जो एक अर्थों में जवान ही बने रहते हैं, एक अर्थ में युवा ही बने रहते हैं; जिनकी चेतना के दर्पण पर धूल नहीं जमती समय की--वे कभी भी मुड़ सकते हैं।
पर साधारणतः लाल ठीक कहते हैं:
जोबन हा जद जतन हा, काया पड़ी बुढ़ांण।
जैसे-जैसे बुढ़ापा आएगा, सूखी लकड़ी की तरह हो जाओगे, सख्त--झुकना मुश्किल हो जाएगा। जैसे-जैसे बुढ़ापा आएगा वैसे-वैसे पुरुषार्थ भी कम हो जाएगा। वैसे-वैसे संकल्प की क्षमता भी क्षीण हो जाएगी। वैसे-वैसे साहस करना भी मुश्किल हो जाएगा, जोखिम उठानी मुश्किल हो जाएगी।
लोग मुझसे पूछते हैं कि आप जवानों को क्यों संन्यास देते हैं? जवान ही सदा से संन्यासी होता रहा है। फिर जवान चाहे पचहत्तर साल का हो और चाहे पच्चीस साल का, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जवान ही संन्यासी होता रहा है। बूढ़ा तो संन्यासी हो ही नहीं सकता। फिर बूढ़ा चाहे पच्चीस साल का हो और चाहे पचहत्तर साल का; उम्र से बुढ़ापे का कोई संबंध नहीं है। कुछ लोग तो पच्चीस साल में ही ऐसे जड़ हो जाते हैं कि उनकी लोच खो जाती है। पच्चीस साल में ही निष्कर्षों पर पहुंच जाते हैं। पच्चीस साल में ही सिद्धांतों से जकड़ जाते हैं। कोई हिंदू हो गया, कोई मुसलमान, कोई जैन, कोई ईसाई; इसका अर्थ है, ये सब बूढ़े हो गए। इनकी खोज समाप्त हो गई। बिना खोजे मान कर बैठ गए। जिसने भी विश्वास किया वह बूढ़ा हो गया।
खोजी विश्वास नहीं करता, जब तक जान न ले। जानने की सतत चेष्टा करता है। और जानने के लिए जिन रास्तों पर चलना हो चलता है और जो जोखिम उठानी हो उठाता है। और जानने के लिए जो कीमत चुकानी हो चुकाता है।
लेकिन यहां तो पैदा होते से ही लोग जैन हो गए, हिंदू हो गए, मुसलमान हो गए। मां-बाप ने किसी को हिंदू बना दिया, किसी को मुसलमान बना दिया। बूढ़े हो गए। पैदा होते से ही बूढ़े हो गए। खोज का समय ही न मिला। अन्वेषण की सुविधा ही न मिली। जिज्ञासा कभी की ही नहीं। जिज्ञासा के पहले ही उत्तर पकड़ लिए। प्रश्न पूछे ही नहीं।
यह हालत वैसी है जैसे स्कूल में बच्चे चोरी करते हैं। उनको सवाल देते हैं, वे गणित की किताब को उलटा कर पीछे उत्तर देख लेते हैं। उत्तर तो लिख देंगे वे लेकिन उत्तर तक कैसे पहुंचे, वहां अटक हो जाएगी, वहां मुश्किल हो जाएगी। प्रश्न भी उन्हें मालूम है, उत्तर भी उन्हें मालूम है; लेकिन प्रश्न और उत्तर को जोड़ने वाला सेतु उनके पास नहीं है।
वही हालत है लोगों की। किताब उलट कर उत्तर ले लिया। गीता उलट कर उत्तर देख लिया। कुरान उलट कर उत्तर देख लिया। उत्तर पकड़ कर बैठ गए। लेकिन तुम जब तक उत्तर तक न पहुंचो तब तक कोई उत्तर तुम्हारा उत्तर नहीं है। और पराए, बासे उत्तर काम नहीं आते। दूसरे का सत्य तुम्हारे लिए असत्य है। तुम्हारा सत्य ही केवल तुम्हारे लिए सत्य होता है।
सूकी लकड़ी न लुलै, किस बिध निकसे काण।
और एक दफा लकड़ी सूख गई, उसने निष्कर्ष ले लिए, नतीजे ले लिए, सिद्धांत पकड़ लिए, पक्षपाती हो गए--फिर बहुत मुश्किल है। फिर झुकाना असंभव हो जाएगा। और फिर जो तिरछापन रह जाएगा लकड़ी में उसको सीधा करना कैसे संभव हो? लकड़ी टूट जाए, लेकिन झुके नहीं।
लोच जिंदा रखो!
धार्मिक व्यक्ति में लोच होती है। अधार्मिक व्यक्ति में मतांधता होती है। अधार्मिक व्यक्ति सूखा होता है, बिलकुल सूखा होता है। उसमें जलधार होती ही नहीं, क्योंकि उसमें प्रेम की धारा ही नहीं होती। लेकिन यही अधार्मिक लोग धार्मिक समझे जाते हैं। जो मंदिरों को जलाते हैं और मस्जिदों में आग लगाते हैं, ये अधार्मिक लोग हैं। इनको धार्मिक मत समझ लेना। जो जेहाद को चले जाते हैं, जो धर्मयुद्ध खड़े करते हैं--ये धार्मिक लोग नहीं हैं। इनसे ज्यादा अधार्मिक और कौन होगा?
तुम्हें अगर अधार्मिक लोग देखने हो तो मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में, गिरजों में मिलेंगे। वहां चले जाना। वहां देख लेना, कौन-कौन अधार्मिक आदमी है। जिस गांव के अधार्मिक आदमियों की तुम्हें गणना करनी हो, उस गांव के मंदिर-मस्जिदों में जाकर हिसाब लगा लेना। तुम्हें पक्का पता चल जाएगा कितने लोग अधार्मिक हैं।
धार्मिक व्यक्ति खोज करता है, मानता नहीं। जिज्ञासा करता है। जरूर एक दिन श्रद्धा को उपलब्ध होता है, लेकिन उसकी श्रद्धा संदेह के विपरीत नहीं होती, संदेह से छन-छन कर आती है। उसकी श्रद्धा संदेह को दबा कर नहीं आती, संदेह के निखार से आती है।
संदेह बड़ा शुभ है। संदेह अदभुत कीमिया है। संदेह की क्षमता धन्यभाग है। जो संदेह करना जानता है वह एक दिन श्रद्धा पर पहुंच जाएगा। न तो आस्तिक संदेह करते, न नास्तिक संदेह करते। एक ने मान लिया ईश्वर है; एक ने मान लिया ईश्वर नहीं है। दोनों ने खोजा नहीं। धार्मिक न तो आस्तिक होता है, न नास्तिक होता है। धार्मिक तो सिर्फ खोजी होता है, जिज्ञासु होता है, मुमुक्षु होता है। वह कहता है: मैं खोज पर निकला हूं। और पूरे संदेह का उपयोग करूंगा, ताकि कोई गलत चीज पकड़ में न आ जाए।
संदेह तो ऐसे है जैसे सोने को कसने का पत्थर होता है। सोने को कसौटी पर कसते हैं। पक्का पता चल जाता है कि असली है या नकली है। ऐसे ही संदेह पर कसता है खोजी--अपनी हर खोज को, अपनी हर अनुभूति को। और जो संदेह पर खरी उतरती है, जिसको संदेह इनकार नहीं कर पाता, जिसको संदेह को भी स्वीकार करना पड़ता है--वही श्रद्धा है। संदेह भी जिसके समर्थन में खड़ा होता है, वही श्रद्धा है।
श्रद्धा जीवन की परम दशा है। मगर संदेह की सीढ़ियों से पहुंचा जाता है उस मंदिर तक।
लाय लगी घर आपणे, घट भीतर होली।
शील समंद में न्हाइए, जहं हंसा टोली।।
होना तो क्या था और हो क्या गया है! होना तो यह था कि तुम्हारे भीतर आनंद का सागर होता; शांति का, शील का सागर होता--कि तुम उसमें नहाते, कि तुम उसमें डुबकी मारते, कि हंसों की टोली में बैठते, कि परमहंसों के साथ उड़ते! होना तो यह था, मगर हो क्या गया?
लाय लगी घर आपणे,...
आग लगी है घर में। कहां की शीतलता? कहां का आनंद? सिवाय दुख, सिवाय पीड़ा के हमारा अनुभव ही कुछ और नहीं।
...घट भीतर होली।
होली जल रही है भीतर! तुम जल रहे हो उस होली में। होना तो क्या था! होना था स्वर्ग! होना था, खिलते मोक्ष के फूल! और हो क्या रहा है? नरक की आग जल रही है!
और कौर जिम्मेवार है? सिवाय तुम्हारे और कोई जिम्मेवार नहीं है। यह तुम्हारा ही चुनाव है। तुमने समझौते कर लिए हैं। तुम सस्ती बातों के लिए महंगी बातें गंवा बैठे। तुमने कचरा इकट्ठा कर लिया और आत्मा बेच दी।
स्वामी शिव साधक गुरु, अब इक बात कहूं।
कूंकर हो हम आवणू, बिच में लागी दूं।।
लाल कहते हैं कि एक प्रश्न पूछूं, एक प्रश्न उठाऊं?
कूंकर हो हम आवणू,...
इतने आनंद के स्वभाव में, ऐसे सच्चिदानंद रूप में।
...बिच में लागी दूं।
यह आग बीच में कैसे लग गई? जहां परमानंद होना चाहिए वहां आग कैसे बीच में लग गई?
किसी और ने नहीं लगा दी है। कोई और लगा भी नहीं सकता। यह तुम्हारा ही दायित्व है। यह तुम्हारा ही निर्णय है। तुमने गलत चुन लिया है। चुनाव की तुम्हें स्वतंत्रता है।
लेकिन कुछ लोग गलत को चुनने में रस पाते हैं। क्यों? कुछ क्यों, अधिक लोग गलत को चुनने में रस पाते हैं। क्यों? क्योंकि अहंकार गलत से पुष्ट होता है। राजनीति चुनोगे तुम, नीति न चुनोगे। क्योंकि राजनीति से अहंकार पुष्ट होगा और नीति तो अहंकार को ले जाएगी बहा कर, जैसे बाढ़ में कूड़ा-करकट बह जाता है। धन की दौड़ चुनोगे तुम, क्योंकि धन की दौड़ में अहंकार मजबूत होता चलेगा। ध्यान की दौड़ नहीं चुनोगे तुम, क्योंकि ध्यान में तो शून्य हो जाएगा।
कौन मिटना चाहता है! सब बचना चाहते हैं। और पता नहीं तुम्हें कि तुम मिटना भी चाहो तो मिट नहीं सकते। तुम शाश्वत हो! तुम सनातन हो! तुम नित्य हो! मृत्युएं आती रही हैं, होती रही हैं, जाती रही हैं, तुम्हारा कुछ बिगड़ा नहीं। तुम जैसे के तैसे हो--जस के तस! तुममें रत्ती भर भेद नहीं पड़ा। लेकिन तुम्हें अपने स्वभाव का बोध ही नहीं है।
और बचपन से ही तुम्हें जो शिक्षाएं दी जाती हैं, प्रायमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक, वे सारी शिक्षाएं तुम्हारे अहंकार को ही परिपुष्ट करने के उपाय हैं। उन सबके द्वारा तुम्हारे अहंकार की दौड़ को ही उकसाया जाता है। तुम्हारी आग में घी डाला जाता है। तुम्हारे मां-बाप भी कहते हैं कि देखो, कुल की लाज रखना। कुलीन हो तुम! अपनी वंश-परंपरा का खयाल रखना कि तुम कौन हो, किसके बेटे हो!
यह सब अहंकार की भाषा है। नहीं तो सब मिट्टी है। कहां की कुलीनता और कहां के कुल! सब मिट्टी में पड़े हैं और मिट्टी में मिल गए हैं। बड़े भी और छोटे भी, प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध भी। जो बहुत उचके-कूदे थे जगत में, वे भी मिट्टी में गिर गए हैं। जो चुपचाप रहे थे, वे भी मिट्टी में गिर गए हैं।
नहीं; लेकिन हम चारों तरफ एक हवा पैदा करते हैं--प्रतिष्ठा, सम्मान! हम अच्छे को भी बुरे का सहारा देकर खड़ा करना चाहते हैं। हम कहते हैं झूठ मत बोलना, क्योंकि हमारे कुल में कभी कोई झूठ नहीं बोला। रघुकुल रीति सदा चलि आई! अहंकार है हमारे कुल का कि हम झूठ नहीं बोले। सत्य बुलवाने के लिए भी अहंकार का सहारा ले रहे हो। और अहंकार का सहारा लेकर जो सत्य बोला जाएगा वह झूठ से बदतर हो जाता है। उससे झूठ ही अच्छा था; कम से कम सरल तो होता, सीधा तो होता।
हम कहते हैं कि सादगी से रहना, क्योंकि सादगी को ही समादर मिलता है। अब ये जरा मजे की बातें सुनो। सादगी से रहना, क्योंकि सादगी को समादर मिलता है। समादर पाने के लिए जो सादगी से रहेगा, यह आदमी सादा है? यह आदमी तो बड़ा तिरछा है। यह आदमी तो बहुत ही उलटा है।
हम कहते हैं कि विद्वान को वहां भी आदर मिलता है जहां सम्राटों को भी आदर नहीं मिलता। इसलिए विद्या को अर्जित करो। विद्वान की तो सर्वत्र पूजा होती है। सम्राट की तो सीमा होती है। उसका जितना राज्य है उतने में पूजा होगी; राज्य के बाहर गया कि दो कौड़ी का है। लेकिन विद्वान सर्वत्र पूजा जाता है। तो विद्वान बनो! ...मगर नजर है पूजा पर।
समझाते हैं हम लोगों को: त्यागी बनो, व्रती बनो, क्योंकि त्यागी और व्रती को देखो कितना सम्मान मिलता है! हजारों लोग उसके चरणों में झुकते हैं! मगर अगर चरणों में झुकाने के लिए ही कोई त्यागी-व्रती बना है... और अक्सर सौ में निन्यानबे त्यागी-व्रती लोगों को चरणों में झुकाने के लिए ही बने हैं। तो यह त्याग-व्रत क्या हुआ? फिर चाहे ये पहलवान बन जाते, चाहे मुनि बन जाते, कुछ भेद नहीं है। मोहम्मद अली बने कि मुनि बने, एक ही बात है। कोई भेद नहीं है। क्योंकि नजर तो एक है। नजरिया एक है। आधारशिला एक है।
हम लोगों को समझाते हैं कि बना जाओ मंदिर, नाम रह जाएगा। लोग मंदिर भी बना देते हैं, ताकि नाम रह जाए। मगर नाम रह जाने के लिए मंदिर बनता है!
अब तुम देखते हो, देश में कितने बिड़ला मंदिर हैं! अब यह बड़े मजे की बात है। यह पहली दफा हुआ है भारत में। मंदिर तो पहले भी बनते रहे, लेकिन कोई कृष्ण का मंदिर होता था, कोई राम का मंदिर होता था। बिड़ला मंदिर पहली घटना है! पता ही नहीं चलता कि राम का है कि कृष्ण का है कि किसका है--बिड़ला मंदिर है! तो बिड़ला ने खूब मंदिर बना दिए। मंदिर ही मंदिर खड़े कर दिए। मंदिर बना जाओ, नाम रह जाएगा! मगर नाम की आकांक्षा है। तो यह सब झूठ हो जाता है।
हमारी पूरी की पूरी शिक्षा, व्यवस्था, हमारी पूरी संस्कृति और संस्कार और हमारी पूरी सभ्यता रुग्ण है। क्योंकि इस सबके केंद्र में खड़ा हुआ एक ही तत्व है अहंकार का; सब तरह उसको समर्थन देना है।
स्वामी शिव साधक गुरु, अब इक बात कहूं।
कूंकर हो हम आवणू, बिच में लागी दूं।।
हम किस परम लोक से आ रहे हैं! परमात्मा हमारे भीतर बसा है, फिर ये आग की लपटें क्यों जल रही हैं, क्या मैं पूछूं?
बस प्रश्न उठा कर ही छोड़ देते हैं लाल, उत्तर नहीं देते। ठीक किया, उत्तर क्या देना! तुम्हीं सोचना। तुम्हीं सोचना कि तुम्हारे जीवन में आग क्यों लगी है।
यह सूत्र अदभुत है। सिर्फ प्रश्न ही उठाया है, उत्तर नहीं दिया। परम ज्ञानी केवल प्रश्न ही उठा देते हैं, उत्तर नहीं देते। उत्तर तो तुम्हीं को खोजना होगा। उत्तर तो तुम्हारा होगा तभी उत्तर होगा।
करमां सूं काला भया, दीसो दूं दाध्या।
देखो तो तुम्हारे कर्म कैसे काले हो गए हैं! और काले कर्म तुम्हें काला कर गए हैं।
...दीसो दूं दाध्या।
और दावानल की तरह तुम भीतर जल रहे हो।
इक सुमरण सामूं करो, जद पड़सी लाधा।
लेकिन अगर तुम एक परमात्मा को याद कर लो तो एकदम जल-वर्षा हो जाए, आग बुझ जाए, कालिख धुल जाए। फिर लाभ ही लाभ है--असली लाभ! फिर तृप्ति ही तृप्ति है!
करमां सूं काला भया, दीसो दूं दाध्या।
इक सुमरण सामूं करो, जद पड़सी लाधा।।
एक स्मरण, सिर्फ एक छोटी सी घटना! एक छोटी सी चिनगारी और जीवन और का और हो जाता है। और उस चिनगारी का नाम है: सुमरण! महावीर ने उसे कहा है: विवेक। बुद्ध ने उसे कहा है: सम्मासति। कबीर और नानक ने उसे कहा है: सुरति। उसी को लाल कह रहे हैं: सुमरण। एक स्मरण कर लो कि मैं कौन हूं?
रमण महर्षि के पास जो भी जाता था, अनेक-अनेक तरह के लोग अनेक-अनेक तरह के प्रश्न लेकर जाते थे। मगर उनका उत्तर सदा एक था, वे कहते हैं कि शांत बैठ कर एक प्रश्न पूछो अपने से--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? कई बार लोगों ने कहा भी, कि अलग-अलग हम प्रश्न लाते हैं मगर आप उत्तर एक ही देते हैं? सब बीमारों को एक ही दवा? तो वे कहते: यह रामबाण दवा है। यह सब बीमारियों पर लागू होती है।
किसी की बीमारी क्रोध है और किसी की बीमारी लोभ है और किसी की बीमारी काम है और किसी की बीमारी कुछ और है। बीमारियां तो बहुत हैं। बीमारियां तो अनंत हैं। लेकिन इलाज एक है। उसे ध्यान कहो, सुरति कहो, स्मरण कहो--जो शब्द तुम्हें प्रीतिकर लगे। मगर अर्थ तो सभी शब्दों का एक है कि किसी तरह शांत बैठ कर स्मरण करो कि मैं कौन हूं।
और ध्यान रखना, स्मरण का यह अर्थ नहीं है कि तुम भीतर बैठ कर यंत्रवत दोहराने लगो--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? उससे कुछ भी न होगा। रमण महर्षि के आश्रम में यही चल रहा है अब। लोग यंत्रवत बैठे हुए हैं और दोहरा रहे हैं कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? रमण महर्षि ने कहा था: यह भाव होना चाहिए, कि मैं कौन हूं! शब्दों में दोहराने से क्या होगा? शब्द तो खोपड़ी में गूंजते रहेंगे, शोरगुल मचाते रहेंगे। उनसे शांति भी नहीं होगी। उनसे अड़चन ही पड़ेगी। यह तो निःशब्द भाव होना चाहिए कि मैं कौन हूं।
मुझे तुमसे कहना पड़ रहा है, तो शब्दों का उपयोग कर रहा हूं। लेकिन तुम जब अपने भीतर बैठो, तो तुम्हें शब्दों की कोई उपयोग करने की जरूरत नहीं। तुम किसी से कुछ कह थोड़े ही रहे हो। यह तो भाव की दशा हो--सघन भाव, कि मैं कौन हूं! यह भाव इतना एकाग्र हो जाए कि और सारी चीजें गौण हो जाएं, सारा अस्तित्व खो जाए। संसार कहीं दूर छूट जाए पीछे हजारों मील दूर! फिर धीरे-धीरे मन के विचार भी दूर छूट जाएं--हजारों मील दूर! बस यह एक भाव ही रह जाए।
सूफी फकीर फरीद से एक आदमी ने पूछा: ईश्वर से कैसे मिलूं? फरीद ने कहा: आ, मौका लगा तो मिला दूं। वह आदमी थोड़ा डरा भी। इतनी तैयारी करके आया भी न था। जिज्ञासा ही करने आया था, दार्शनिक जिज्ञासा थी। और ये सज्जन मिलाने ही चले! मगर अब नहीं भी न कर सका। अब इज्जत का भी सवाल था। थोड़ा झिझकने भी लगा, कहा कि कल आऊंगा। फरीद ने कहा: कल का क्या भरोसा? मैं रहूं न रहूं। और कल पर क्यों टालना? जब आज सवाल पूछा है तो आज ही उत्तर होगा। चल मेरे साथ।
उस आदमी ने कहा: लेकिन कहीं जाने की जरूरत क्या, यहीं बैठ कर इसी झाड़ के नीचे उत्तर दे दें।
फरीद ने कहा: यहां मैं उतर देता ही नहीं, मैं तो नदी पर ही उत्तर देता हूं।
डरते-डरते वह आदमी फरीद के साथ नदी पर गया। फरीद ने कहा: उतार कपड़े। उसने कहा: कपड़े पहने उत्तर नहीं देंगे? कहा कि नहीं, पहले नदी में डुबकी मार, स्नान कर, पवित्र हो ले। बस मौका भर मिल जाए मुझे एक। ऐसा उत्तर दूंगा कि सदा के लिए बस फिर कभी नहीं पूछेगा।
आदमी डरा तो बहुत, लेकिन अब भाग भी नहीं सकता। अब यह आदमी सामने खड़ा है, यह भागने भी नहीं देगा। इतना आसान दिखता भी नहीं। और अब यह इसी में सार है। हुज्जत करने में कोई सार भी नहीं। इसी में सार है। और यह मस्त-तड़ंग फकीर था फरीद, कि अगर भागा-भूगी की तो पकड़ कर फेंकेगा पानी में और उसमें हाथ-पैर टूट जाएं!
चुपचाप कपड़े उतार कर उस आदमी ने डुबकी मारी। जैसे ही डुबकी मारी, फरीद उसके ऊपर सवार हो गया और उसको पानी में दबा लिया। और दबाए जाए... और वह तड़पे मछली की तरह और फरीद दबाए जाए। सोचा होगा उस आदमी ने--गए काम से! चले थे राम की तलाश में, यह अपनी जिंदगी गई। किस असमय में इस आदमी से सवाल पूछ लिया! ये सब सवाल उठे होंगे, एक क्षण में सब दौड़ गई होंगी बातें--कि अब भूल कर किसी से न पूछूंगा, सब सोचा होगा। मगर अभी तो सवाल यह है कि कैसे निकलो बाहर। कैसे इसका पिंड छूटे? और यह आदमी मजबूत है और दबाए जा रहा है, दबाए जा रहा है।
लेकिन जब मौत की घड़ी आ जाए, तो कमजोर आदमी भी बड़ा ताकतवर हो जाता है। सारी शक्ति उठ आती है--चुनौती! उसने भी सारी ताकत लगा दी। था तो दुबला-पतला, जैसे कि दार्शनिक होते हैं आमतौर से। था तो दुबला-पतला लेकिन उसने भी सारी ताकत लगा दी। इतनी ताकत कि उसने इस मस्त-तड़ंग फकीर को फेंक दिया और निकल आया पानी के बाहर। हांफ रहा था। आंखें लाल हो गई थीं। फरीद ने पूछा कि एक बात पूछूं? उसने कहा कि अब बिलकुल कोई बात हमें नहीं पूछनी... आपसे हमें बात ही नहीं करनी है।
नहीं, उसने कहा कि हम कोई उत्तर देंगे नहीं; यह उत्तर था। तो एक सिर्फ सवाल पूछना है कि जब मैंने तुझे दबा लिया पानी में तो क्या हुआ? उसने कहा कि क्या होना था, जान निकलने लगी।
फिर भी विस्तार से बता, फरीद ने कहा।
अब विस्तार से, उसने कहा, क्या बताना! पहले यह कि मारे गए। बहुत विचार उठे मन में कि कैसे बचूं, कैसे निकलूं? फिर धीरे-धीरे विचार भी खो गए। फिर तो एक ही सवाल रहा कि किसी तरह बाहर निकल आऊं। फिर वह भी खो गया। फिर तो भाव ही रह गया बाहर निकलने का, विचार भी नहीं।
बस, फरीद ने कहा, तू समझ गया। आदमी होशियार है। तू उत्तर पा गया। जिस दिन परमात्मा को पाने का भाव ही रह जाएगा--शब्द नहीं, विचार नहीं--उस दिन मिल जाएगा। और अगर भूल जाए कभी भी, फिर आ जाना। मगर उत्तर मैं हमेशा नदी में देता हूं। ऐसे कम ही लोग आते हैं, कभी-कभी आते हैं। जो एक दफा आता है दुबारा नहीं आता। या तो उत्तर मिल ही जाता है उसको या फिर वह उत्तर की तलाश ही छोड़ देता है। तू जब भी चाहे हम हाजिर हैं।
मैं कौन हूं, यह नहीं दोहराना है। मैं कौन हूं, यह भाव रह जाए। बस भाव! भाव सघन होता जाए। संसार भी छूट जाएगा दूर, मन भी छूट जाएगा दूर। और तब उसी भाव के मध्य में दीया जलेगा। उसी भाव के मध्य में शाश्वत ज्योति जलेगी--बिन बाती बिन तेल! उसे सुमरण कहते हैं।
इक सुमरण सामूं करो,...
बस उस दीये के सामने हो जाओ, आमने-सामने हो जाओ।
...जद पड़सी लाधा।
फिर लाभ ही लाभ है। फिर संपदा ही संपदा है। फिर साम्राज्य ही साम्राज्य है। फिर तुम सम्राट हो; अभी तुम भिखारी हो। फिर तुम मालिक हो; अभी तुम गुलाम हो।
बोया था आम जो, बबूल हो गया
सोने-सा सपना था, धूल हो गया!
बाग में गुलाब
कांपने लगा
बेला पर काली छाया पड़ी
चंपे की टूट गईं टहनियां
सूख गईं
सोनजुही खड़ी-खड़ी
सारा मौसम ही प्रतिकूल हो गया!
दिग्गज आपस में
टकरा गए
सिहर उठा सारा वातावरण
असमय ही विग्रह के ज्वार उठे
मुश्किल है
सागर का संतरण
किश्ती से गायब मस्तूल हो गया!
गांव-गांव जाकर
बांटे गए
आखिर उन वादों का क्या हुआ?
घर-आंगन जगमग करने वाले
निश्चयी इरादों का
क्या हुआ?
हर कोई खुद में मशगूल हो गया!
बस यह खुद, यह खुदी खुदा को अटकाए है।
हर कोई खुद में मशगूल हो गया!
किश्ती से गायब मस्तूल हो गया!
सारा मौसम ही प्रतिकूल हो गया!
बोया था आम, बबूल हो गया
सोने-सा सपना था, धूल हो गया!
यह जिंदगी स्वर्ण की हो सकती है; धूल हुई जा रही है! फूल हो सकती है; धूल हुई जा रही है! आम हो सकती है; बबूल हुई जा रही है! नाव तो डूबेगी, क्योंकि मस्तूल खो गया है। नाव तो डूबेगी, क्योंकि तुम्हारा स्मरण ही, आत्म-स्मरण ही खो गया है। वही मस्तूल है। वही पतवार है। वही उस पार ले जाने का साधन है।
अलख पुरी अलगी रही, ओखी घाटी बीच।
वह जो परमात्मा का नगर है, दूर का दूर रह गया।
...ओखी घाटी बीच।
और बीच में भयंकर घाटी बन गई।
आगैं कूंकर जाइए, पग पग मांगैं रीच।
और आगे कैसे जाएं? एक-एक पग पर प्रमाण-पत्र मांगा जाता है पात्रता का।
अलख पुरी अलगी रही,...
दूर ही रही उस अलख की नगरी, उस परमात्मा का देश। और बीच में बन गई एक बड़ी घाटी--जिसका कोई सेतु नहीं बनता; जिसको पार करने जाओ तो पग-पग पर पात्रता का प्रमाण-पत्र मांगा जाता है।
कौन सी पात्रता? एक ही पात्रता है परमात्मा के मार्ग पर--शून्य की, समाधि की, ध्यान की, स्मरण की।
प्रेम कटारी तन बहे, ज्ञान सेल का घाव।
प्रेम की कटारी को छिद जाने दो। प्रार्थना की कटारी को छिद जाने दो। बोध का, ज्ञान का, ध्यान का भाला प्राणों में उतर जाने दो।
सनमुख जूझैं सूरवां, से लोपैं दरियाव।
अगर हो हिम्मतवर, अगर शूरवीर हो, अगर शूरमा हो, तो जूझो! भागो मत। भगोड़े मत बनो। जीवन की समस्याओं से जूझो। तो यह संसार-सागर को पार करना कठिन नहीं है। यह संसार-सागर पार हुआ जा सकता है। और जूझना है तो स्मरण को जगाना होगा। जूझना है तो साहस, जोखम... जीवन को दांव पर लगाना होगा।
मत दुखी हो मुक्ति की आकांक्षाओ,
क्योंकि मेरा धैर्य तो हारा नहीं है।
जी रहे हैं और हम जीना सिखाते,
दर्द पीकर दर्द को पीना सिखाते,
क्या हमारी राह में रोड़े अड़ेंगे
जब कि रोड़ों को स्वयं ठोकर लगाते,
जो स्वयं के ताप से ऊपर चढ़ेगा,
वह अडिग संकल्प है पारा नहीं है।
आज तक हमने उठाया है गिरों को,
और अपना कर चले हैं सहचरों को,
सामने जब पर्वतों ने राह रोकी
कर दिया तब चूर ऐसे पत्थरों को,
शौर्य की उत्तालता क्यों देखते हो,
सिंधु है यह सूखती धारा नहीं है।
गीत में जो लय न बांधे छंद कैसा,
एकता लाए न वह संबंध कैसा,
जन्म से स्वाधीनता पर स्वत्व सबका
व्यक्ति पर संगीन का प्रतिबंध कैसा,
कोकिला उन्मुक्त गाती है विपिन में,
स्वर-लहरियों को कहीं कारा नहीं है।
लोक में आलोक ही करता रहेगा,
युद्ध में तमतोम को हरता रहेगा,
है मनुजता की जहां भी मांग सूनी,
उस जगह आदर्श को भरता रहेगा,
सूर्य तो सन्मुख उदय लेकर चला है,
यह अमावस से घिरा तारा नहीं है।
सूर्य बनो--स्मरण के सूर्य, सुरति के सूर्य! जागरण के दीये बनो।
सूर्य तो सन्मुख उदय लेकर चला है,
यह अमावस से घिरा तारा नहीं है।
कोकिला उन्मुक्त गाती है विपिन में,
स्वर-लहरियों को कहीं कारा नहीं है।
शौर्य की उत्तालता क्यों देखते हो,
सिंधु है यह सूखती धारा नहीं है।
जो स्वयं के ताप से ऊपर चढ़ेगा,
वह अडिग संकल्प है पारा नहीं है।
मत दुखी हो मुक्ति की आकांक्षाओ,
क्योंकि मेरा धैर्य तो हारा नहीं है।
हारो मत! धीरज को छोड़ो मत! अडिग अनंत धैर्य चाहिए, तो ही परमात्मा की परम संपदा उपलब्ध होती है।
लाल के इन वचनों पर खूब ध्यान देना, खूब मनन करना। पर मनन पर ही रुक न जाना। ये वचन साधन बनने चाहिए। ये वचन निदिध्यासन बनने चाहिए। ये वचन जैसा उन्होंने कहा:
प्रेम-कटारी तन बहे...
छिद जाएं प्रेम की कटारी की तरह।
...ज्ञान सेल का घाव।
ये वचन भाले की तरह प्राणों में उतर जाएं।
सनमुख जुझैं सूरवां, से लोपैं दरियाव।
जूझो! यह संसार सागर विलीन हो जाता है। विलीन हुआ है। अगर बुद्ध का हुआ, महावीर का, कृष्ण का, मोहम्मद का, कबीर का, लाल का--तो तुम्हारा भी होगा। तुम्हारी भी उतनी ही क्षमता है जितनी किसी और बुद्ध की। भेद है तो इतना कि तुमने अपनी क्षमता को पुकारा नहीं। भेद है तो इतना कि तुम सोए पड़े हो और वे जाग गए हैं। बस इससे ज्यादा भेद नहीं है।
जगाओ अपने को! बहुत हो चुके ये सपने--धन के, दौलत के, व्यर्थ की आपाधापी के। अब छोड़ो इन सपनों को।
यह महलों, यह तख्तों, यह ताजों की दुनिया
यह इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
यह दौलत के भूखे रिवाजों कि दुनिया
यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!
आज इतना ही।

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