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Hansa To Moti Chuge (हंसा तो मोती चुगैं) 08
Eighth Discourse from the series of 10 discourses - Hansa To Moti Chuge (हंसा तो मोती चुगैं) by Osho. These discourses were given during MAY 11-20 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, बिहारी की एक अन्योक्ति है: फूल्यो अनफूल्यो रह्यो गंवई गांव गुलाब। क्या भारत में आपके साथ भी यही हो रहा है? दूर-दिगंत तक तो आपकी सुवास फैल रही है और भारत अछूता रहा जा रहा है?
कृष्ण वेदांत! यह सहज है, स्वाभाविक है, जीवन का सामान्य क्रम है। इससे अन्यथा नहीं हो सकता। जीसस ने कहा है: पैगंबरों को उनके ही गांव में समादर नहीं मिलता। मिले भी कैसे! जीसस जिस गांव में पैदा हुए, जिस गांव में बड़े हुए, जिस गांव की धूल में खेले, पढ़े-लिखे, जिस गांव में पिता की लकड़ी की दुकान पर लकड़ियां बेचीं, जंगल से लकड़ियां काटीं, पिता को लकड़ियों के सामान बनाने में साथ-सहयोग दिया--वह गांव अचानक कैसे स्वीकार कर ले कि जीसस में परमात्मा का अवतरण हुआ है! और यह घटना इतनी आकस्मिक है, इतनी अविच्छिन्न है अतीत से कि दोनों के बीच तालमेल बिठाना गांव के लोगों को असंभव है। यह बढ़ई का लड़का अचानक ईश्वर-पुत्र हो गया! इससे गांव के अहंकार को भी चोट लगती है, ईर्ष्या भी जगती है, संदेह भी उठता है, अविश्वास भी पकड़ता है। और मानने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता।
जीसस को देखने के लिए थोड़ी दूरी चाहिए। हर चीज को देखने के लिए परिप्रेक्ष्य चाहिए। अगर तुम्हें दर्पण में अपनी तस्वीर देखनी है तो थोड़े फासले पर खड़ा होना होगा। अगर तुम बिलकुल दर्पण से नाक लगा कर खड़े हो जाओ तो अपना चेहरा भी दिखाई न पड़ेगा। थोड़ी दूरी, और चीजें साफ होती हैं।
जब पहली बार यूरी गागरिन अंतरिक्ष में गया और पहली बार उसने दूर से पृथ्वी को देखा तो उसने अपने संस्मरणों में कहा है कि मेरे मन में ऐसा भाव नहीं उठा कि मैं रूसी हूं; ऐसा भाव नहीं उठा कि कम्युनिज्म की विजय हो; ऐसा भाव नहीं उठा कि पृथ्वी देशों में विभक्त है। उतने अंतर से देखने पर सारी पृथ्वी एक मालूम हुई। देशों की सब सीमाएं झूठी हो गईं, सब कल्पित नक्शों पर रह गईं। असली पृथ्वी तो कहीं भी बंटी नहीं है, न असली सागर बंटे हैं, न असली नदियां बंटी हैं। आदमी के नक्शों में सब बंटाव है।
यूरी गागरिन ने कहा है कि जो मेरे मन में भाव उठा वह यह--मेरी पृथ्वी! मेरा देश नहीं, मेरी जाति नहीं, मेरा धर्म नहीं, मेरा विचार नहीं, मेरी विचारधारा नहीं, मेरी राजनैतिक कल्पना-परिकल्पना नहीं--मेरी पृथ्वी, बस मेरी पृथ्वी! हरी-भरी इतनी प्यारी!
पृथ्वी से दूर जाकर यूरी गागरिन को पृथ्वी की वास्तविकता अनुभव में आई। जीसस के गांव के लोग जीसस को न पहचान सके। बुद्ध जब बारह वर्षों के बाद जागरूक होकर घर आए तो खुद बुद्ध के पिता न पहचान सके। बुद्ध के पिता ने कहा कि अभी भी तुझे क्षमा कर सकता हूं। ऐसे तूने मुझे बहुत आघात पहुंचाया है। इस बुढ़ापे में, इकलौता बेटा तू मेरा और छोड़ कर भाग गया, न शर्म, न संकोच। यह भगोड़ापन है। और यह भिखमंगों का समूह इकट्ठा कर लिया। अभी भी लौट आ। यद्यपि घाव गहरा है, क्षमा करना कठिन है; लेकिन पिता का हृदय है, मैं तुझे क्षमा कर दूंगा। आ और सम्हाल अपने राज्य को। इसे मैं किसे सौंप जाऊं, मेरी मौत करीब आती है!
बुद्ध के पिता की आंखें क्रोध से भरी हैं। बुद्ध ने कहा: मेरी भी सुनेंगे, मेरा निवेदन सुनेंगे? जो घर छोड़ कर गया था मैं वही नहीं हूं।
बुद्ध के पिता उस क्रोध में भी हंसने लगे और कहा: यह भी खूब मजाक रही! मैं तुझे नहीं पहचानता? मेरे खून से तू बना है। मेरी हड्डी-मांस-मज्जा से तू बना है। तू मेरा ही एक अंग है, मेरा ही एक विस्तार। मैं तुझे नहीं पहचानता? तू मुझे समझा रहा है कि तू वही नहीं है जो गया था! तू वही है।
थोड़ा सोचो, बुद्ध के पिता भी ठीक कहते हैं कि तू वही है और बुद्ध भी ठीक कहते हैं कि मैं वही नहीं हूं। एक क्रांति घट गई है बीच में। चेतना में एक रूपांतरण हो गया है। लेकिन वह रूपांतरण तो आंतरिक है। वह रूपांतरण तो उनको दिखाई पड़ेगा जो झुकेंगे; बुद्ध के पिता तो झुक नहीं सकते। पिता-भाव, अहंकार खड़ा है। वे तो क्रोध से भरे हैं, झुकने की बात कहां? वे तो नाराज हैं। वे तो क्षमा करने में भी सोच रहे हैं कि बहुत उपकार कर रहे हैं। और जब उन्होंने यह कहा कि तू मुझसे पैदा हुआ, मैं तुझे नहीं पहचानता! तो बुद्ध ने कहा: फिर मैं निवेदन करता हूं कि मैं आपसे आया हूं लेकिन आपसे पैदा नहीं हुआ। आप रास्ता थे मेरे आने के, लेकिन आप मेरे जन्मदाता नहीं हैं। और मैं यह भी निवेदन कर दूं कि आपके भी पहले मैं था। और-और जन्मों में भी मैं था। और-और मेरे पिता हुए, और-और मेरी माताएं हुईं। न मालूम कितने गर्भों से मैं गुजरा हूं, लेकिन वे सब मार्ग थे। उनसे मैं उत्पन्न नहीं हुआ था, उनसे गुजरा था। आपसे भी गुजरा हूं। आप जरा क्रोध को शमन करें, गौर से मेरी तरफ देखें, मेरी आंखों में झांकें।
बुद्ध की पत्नी भी बहुत नाराज थी। बारह वर्ष बाद ये घर लौटे थे। बारह वर्ष का इकट्ठा क्रोध संगृहीभूत था। बड़ी मानिनी थी; राजपुत्री थी। किसी से कहा भी न था और कभी आंख से एक आंसू भी न गिराया था। क्षत्राणी थी। ऐसे आंसू गिराना शोभा भी न देता था। शिकायत भी न की थी। किसी ने कभी शिकायत भी न सुनी थी। पी गई थी, सब पी गई थी, जहर पी गई थी; मगर जहर कंठ तक भरा था! बुद्ध आए तो सब टूट पड़ा। एकदम पागल सिंहनी की भांति बुद्ध पर क्रुद्ध हो उठी। लांछना करने लगी, शिकायत करने लगी, निंदा करने लगी, व्यंग्य करने लगी।
बुद्ध अपने बेटे को छोड़ कर गए थे, तब बेटा केवल नया-नया पैदा हुआ था, एक ही दिन का था। अब वह बारह वर्ष का हो गया था। क्रोध में मां ने अपने बेटे से कहा कि ले, ये तेरे पिता हैं, तू बार-बार पूछता था कि मेरे पिता कौन हैं, मेरे पिता कहां हैं, ये रहे सज्जन! ये जो भाग गए थे छोड़ कर--मुझे और तुझे, असहाय! इनसे मांग ले अपनी बपौती! इन्होंने तुझे पैदा किया है! मांग ले इनसे अपना अधिकार!
मजाक कर रही थी वह, व्यंग्य कर रही थी। बुद्ध के पास देने को था भी क्या? बेटा तो समझा नहीं, मां की बात सुन कर उसने अपनी झोली फैला दी। उसने कहा कि अगर आप ही मेरे पिता हैं--तो मुझे संपदा, मेरा अधिकार, मेरी वसीयत! बुद्ध हंसने लगे और उन्होंने अपना भिक्षापात्र... वही उनके पास था और तो कुछ था नहीं... अपना भिक्षापात्र राहुल को दे दिया और कहा: राहुल, यह तेरी दीक्षा हुई! तू संन्यस्त हुआ, क्योंकि मेरे पास एक संपदा है जो मैं केवल संन्यासियों को दे सकता हूं। वह संपदा बाहर की नहीं है, राहुल। वह संपदा सोना-चांदी, हीरे-जवाहरातों की नहीं है--आत्मा की है। तू अभी छोटा है, मगर शायद इसीलिए कि तू अभी छोटा है समझ पाए। बड़े तो बड़े ज्ञान से भरे हैं। पिता तो सुनने को भी राजी नहीं हैं, शायद बेटा सुन ले!
और बेटे ने पहले सुना। राहुल झुका चरणों में और उसने कहा: मुझे अंगीकार करें! राहुल को झुकते देख कर, राहुल की आंखों से गिरते आनंद के आंसू टपकते देख कर, यशोधरा झुकी--बुद्ध की पत्नी झुकी। उसे भी स्मरण आया कि मैं क्या कर रही हूं, किससे लड़ रही हूं! मैं जरा गौर से तो देखूं, यह वही व्यक्ति तो नहीं है! इतनी गालियां मैंने दी होतीं, जो बारह वर्ष मुझे पहले छोड़ कर गया था, तो मेरी गर्दन दबा दी होती, कि गर्दन मेरी तलवार से उतार दी होती। लेकिन यह चुपचाप खड़ा है, जैसे फूल बरसते हों, जैसे अंगारे नहीं, जैसे गालियां नहीं, स्वागत का गीत गाया जा रहा हो, मंगल गीत गाए जा रहे हों! अविक्षुब्ध, निस्तरंग, यह जो सामने खड़ी है प्रतिमा, यह वही तो नहीं है जिसे मैंने पति की तरह जाना था। नहीं; यह कोई और है। भीतर कुछ बात बदल गई है। भीतर की व्यवस्था बदल गई है।
राहुल को झुकते देख कर... पर ध्यान रखना, राहुल बारह साल का लड़का, पहले झुका; सरल था, पुरानी कोई धारणा नहीं थी। पिता की कोई पुरानी याद नहीं थी। इसलिए पुरानी कोई बाधा नहीं थी। इसलिए पुरानी कोई अपेक्षा नहीं थी। सीधा देख सका। बीच में कोई धारणाओं का जाल न था, आंख पर कोई पट्टियां न थीं। कोई विचार न थे कि पिता कैसे होने चाहिए। पहली ही बार देखा था और अभिभूत हो गया था, आनंदमग्न हो गया था। अगर यही मेरे पिता हैं... तो अहोभाव उतर आया था। निर्दोष उस चित्त में बुद्ध की प्रतिमा सीधी-सीधी बनी थी। उसकी क्रांति को होते देख कर यशोधरा झुकी। यशोधरा को झुकते देख कर बुद्ध के पिता शुद्धोधन झुके। फिर पूरा परिवार झुका।
कठिन है, जो निकट रहे हैं, जिन्होंने बचपन से देखा है, जो साथ बड़े हुए हैं, साथ खेले हैं, लड़े हैं, झगड़े हैं, उन्हें समझना निश्चित कठिन है। उन पर नाराज न होना।
बिहारी ठीक कहते हैं:
‘फूल्यो अनफूल्यो रह्यो गंवई गांव गुलाब।’
गंवारों के गांव में गुलाब खिला, खिला नहीं खिला बराबर रहा। ‘फूल्यो अनफूल्यो रह्यो।’ किसी ने देखा ही नहीं। आखिर गुलाब के लिए भी तो पारखी चाहिए! हीरे के लिए भी तो जौहरी चाहिए! और ये हीरे तो बड़े गहराई के हीरे हैं। प्रशांत महासागर की गहराई ऐसी नहीं और गौरीशंकर की ऊंचाई ऐसी नहीं।
एक आदमी को राह पर चलते हीरा मिल गया--बड़ा हीरा! मगर गंवार था। अपने गधे पर सामान लाद कर अपने गांव लौट रहा था बाजार से, सोचा उठा लें इस पत्थर को, बच्चों के खेलने के काम आ जाएगा। फिर जब पत्थर उठाया और चमकदार दिखाई पड़ा, अपने गधे से उसे बहुत प्रेम था तो सोचा कि इसी गधे के गले में बांध दें। और तो गधे को कुछ दे भी नहीं पाया कभी, यह बड़ी सेवा भी करता है, इसके गले में लटकता रहेगा, सूरज की रोशनी में चमकता रहेगा, गांव के सब गधों को मात कर दूंगा। गधे के गले में बांध दिया। लाखों का हीरा गधे के गले में बांध दिया!
थोड़ी ही दूर गया होगा कि एक जौहरी आता था अपने घोड़े पर सवार, उसने इतना बड़ा हीरा अपनी जिंदगी में देखा नहीं था। वह तो एकदम अवाक रह गया। रुका, उसने कहा: भाई, इस पत्थर का क्या लोगे? बहुत हिम्मत की उस गंवार ने, क्योंकि पत्थर के कोई दाम होते हैं! बहुत हिम्मत करके कहा कि ठीक है, आठ आने दे दो। लेकिन जौहरी पक्का कंजूस, उसने सोचा: चार आने में मिल जाए तो आठ आने क्यों खराब करने हैं। लाखों का हीरा! तो उसने कहा: चार आने ले ले, इस पत्थर का तू करेगा क्या? इस पत्थर के कौन तुझे आठ आने देगा?
गंवार ने सोचा कि चार आने में क्या बेचना, इससे तो गधे के गले में ही पहनाए रखेगा तो ठीक है। कहा कि चार आने में नहीं बेचना है। जौहरी चला गया दो-चार कदम कि शायद दो-चार कदम जाने पर इसको अक्ल आए कि पत्थर के चार आने भी कौन देगा। लेकिन तभी संयोग की बात है, एक दूसरा जौहरी आ गया और उसने आठ आने में वह हीरा खरीद लिया।
पहला जौहरी वापस लौटा, देख कर कि नहीं कोई रास्ता बनता तो चलो आठ आने में ही खरीद लो। लेकिन तब तक तो सौदा हो चुका था। तो उस पहले जौहरी ने उस गांव के गंवार को कहा कि तू महामूढ़ है। अरे पागल, यह लाखों का हीरा तूने आठ आने में बेच दिया! उसने कहा: मैं महामूढ़ हूं तो तुम कौन हो? मैं तो मूढ़ हूं, इसलिए इस हीरे को आठ आने में बेच दिया; मगर तुम्हें तो पता था कि यह लाखों का है, तुम आठ आने में न ले सके! मूढ़ फिर कौन है?
हीरों को पारखी चाहिए। और चेतना के हीरों को जानने के लिए तो बहुत मुश्किल से पारखी मिलते हैं। तो बुद्धपुरुष अपने ही जगहों में नहीं पहचाने जाते। तीर्थंकरों को अपने ही स्थानों पर सम्मान नहीं मिलता। यह स्वाभाविक क्रम है। इसमें न तो चिंतित होना, न नाराज होना। इसमें न क्रोधित होना, न लोगों की लांछना करना। जैसा होना चाहिए वैसा ही हो रहा है। जो सदा हुआ है वही मेरे साथ भी हो रहा है। वही होना भी चाहिए।
दूर-दूर से लोग आ रहे हैं। लेकिन भारतीय मन को थोड़ी अड़चन है; उसकी धारणाएं हैं। जब पश्चिम से कोई आता है तो उसके पास कोई धारणा नहीं होती। वह तलाश में आता है। उसके पास एक खोज होती है जरूर, एक प्रश्न होता है जरूर, एक जिज्ञासा होती है जरूर कि जानूं; लेकिन साफ-साफ स्पष्ट धारणा नहीं होती, कि वह क्या जानने आ रहा है। भारतीय जब आता है तो वह पहले से ही मान कर आ रहा है। कोई कृष्ण को मानता है, कोई राम को मानता है, कोई बुद्ध को मानता है, कोई महावीर को मानता है।
पश्चिम में एक सौभाग्य घटित हुआ है कि पश्चिम में कोई कुछ भी नहीं मानता। मान्यताओं के दिन गए। लोग न मोज़ेज़ को मानते हैं और न जीसस को मानते हैं। इन तीन सौ वर्षों में पश्चिम में एक महाक्रांति घटी है, लोगों के चित्त निर्भार हो गए हैं। लोग अतीत की तरफ देखते ही नहीं, वह आदत ही छोड़ दी। पीछे देखने की आदत ही समाप्त हो गई। लोग आगे देखते हैं।
भारत पीछे देखता है। अब जो आदमी राम को मानता है, वह एक खास राम की प्रतिमा मुझमें देखना चाहेगा। वह प्रतिमा तो मुझमें मिलेगी नहीं; कहां राम, कहां मैं! वे अगर मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो मैं अमर्यादा पुरुषोत्तम हूं! यहां कोई मर्यादा नहीं है। मैं कोई धनुषबाण लिए भी नहीं खड़ा हूं। एक राम का अपना व्यक्तित्व है, अपना एक जीवन का रंग है। सुंदर है, पर उन्हीं को सोहता है। अगर दूसरा कोई वैसा करने की कोशिश करेगा तो वह रामलीला का राम होगा, वह असली राम नहीं होगा। तो तुम्हें रामलीला के राम भी जंच जाएंगे, रामलीला में भी जो राम बन जाते हैं, गांव का कोई लफंगा ही राम बन जाए, तो भी गांव के लोग उसके पैर छूते हैं। जानते हैं कि ये सज्जन कौन हैं, भलीभांति जानते हैं, मगर मुकुट-वुकुट इत्यादि बांधे हुए, धनुषबाण लिए...। सीता जी भी जो बनी बैठी हैं वह भी गांव का ही कोई लड़का बना बैठा है। उसके भी पैर पड़ रहे हैं--जय हो सीता मैया की! और जानते हैं भलीभांति कि कौन हैं। लेकिन उनकी धारणा से मेल खा रहा है। बस धारणा से मेल खा जाए तो उनका सिर झुक जाता है।
मैं राम नहीं हूं। तो जो राम की धारणा से मेरे पास आएगा, वह तो खाली हाथ लौट जाएगा--निराश, हताश। कोई कृष्ण की धारणा से भरा आया है, कोई बुद्ध की, कोई महावीर की। यहां सबकी अपनी धारणाएं हैं। यह देश अतीत की धारणाओं से इतना दबा है कि यहां बहुत थोड़े से व्यक्ति हैं जो खाली आंख से देखने में समर्थ हैं।
निश्चित, जो खाली आंख से देखने में समर्थ हैं वे भारतीय मेरे पास आ रहे हैं, आते रहेंगे। मुझसे तो केवल उन भारतीयों का संबंध जुड़ सकता है जो अब एक अर्थ में भारतीय नहीं हैं--सिर्फ मनुष्य हैं, मानवीय हैं, जागतिक हैं; जिनके चित्त का आकाश बड़ा है, छोटी-छोटी सीमाओं में संकुचित नहीं है--हिंदू की, मुसलमान की, ईसाई की, जैन की, सिक्ख की। उन भारतीयों से मेरा संबंध जुड़ेगा। वे ही केवल परख पाएंगे इस हीरे को, क्योंकि उनके पास आंख होगी--खाली, अपेक्षा-शून्य, और एक परिप्रेक्ष्य होगा, एक फासला होगा, एक दूरी होगी। वे देख सकेंगे। मेरे और उनके बीच में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर कोई खड़े नहीं होंगे। अगर मेरे और तुम्हारे बीच में कोई भी खड़ा है तो आड़ बन जाएगी, तुम मुझे नहीं देख पाओगे।
और मैं किसी की भी धारणा को पूरा नहीं कर सकता। मैं अपने ढंग से ही जीऊंगा। मैं किसी भी समझौते को राजी नहीं हूं। लाखों भारतीय आ सकते हैं, अगर मैं जरा समझौता करूं। और समझौता कठिन नहीं है। मैं बुद्ध जैसे कपड़े पहन कर बैठ सकता हूं, तो जो बौद्ध धारणा के लोग हैं वे तत्क्षण मेरे पास आने लगेंगे। मगर वैसा झूठ संभव नहीं है, वैसा समझौता संभव नहीं है। मैं तो जैसा हूं वैसा ही जीऊंगा; कोई आए ठीक, कोई न आए ठीक; कोई बिलकुल न आए तो भी ठीक। कोई उपाय नहीं है। मैं जैसा हूं उससे रत्ती भर समझौता नहीं किया जा सकता। इसलिए मुझसे उनके ही संबंध जुड़ेंगे जो किसी तरह का समझौता कराने की आकांक्षा लेकर नहीं आए हैं--जो सीधा-सीधा मुझे देखने को राजी हैं।
स्वामी रामतीर्थ अमरीका से वापस लौटे। अमरीका में उन्हें अपूर्व सत्कार और सम्मान मिला। हजारों लोग उनकी सुगंध में नाचे। राम थे भी आदमी बहुत अदभुत! परमात्मा की झलक उनके शब्द-शब्द में थी, उनके उठने-बैठने में थी, उनकी पलक-पलक में थी। लेकिन जब वे भारत आए तो सोचा कि काशी से ही यात्रा शुरू करें भारत की। बस काशी में ही मुश्किल हो गई। मुझसे पूछते तो कहता कि काशी को तो बिलकुल छोड़ ही दो; काशी से तो यात्रा शुरू हो ही न पाएगी। और वही हुआ। सोचा था कि काशी के लोग तो समझेंगे; जब अमरीका जैसे देश के लोग, जिनको धर्म से कोई संबंध नहीं रहा, वे इतने आह्लादित हुए हैं, इतने आनंदमग्न हुए हैं, नाच उठे हैं, तो काशी में तो लोग अपने हृदय खोल देंगे, पलक-पांवड़े बिछा देंगे; में जो कहता हूं उसे काशी में तो लोग समझेंगे ही। लेकिन काशी में कोई नहीं समझा। उलटे एक पंडित बीच में खड़ा हो गया और उस पंडित ने कहा कि यह क्या बकवास लगा रखी है, यह कोई वेदांत है? संस्कृत आती है?
रामतीर्थ को संस्कृत नहीं आती थी। फारसी से पढ़े थे। पंजाब में पैदा हुए थे। उन दिनों फारसी के दिन थे। उर्दू जानते थे, फारसी जानते थे, अंग्रेजी जानते थे, संस्कृत नहीं आती थी। दुनिया में किसी ने पूछा नहीं था कि संस्कृत आती है या नहीं! अब बुद्ध होने के लिए कोई संस्कृत का आना अनिवार्य है? अगर ऐसा हो तो बुद्ध भी बुद्ध नहीं थे, क्योंकि उनको भी संस्कृत नहीं आती थी और महावीर भी जिन नहीं थे, क्योंकि उनको भी संस्कृत नहीं आती थी। और मोहम्मद, बेचारे मोहम्मद का तो क्या हिसाब लगाओ! और जीसस और मूसा और जरथुस्त्र और लाओत्सु, इनको तो हिसाब के बाहर छोड़ दो।
रामतीर्थ ने कहा: संस्कृत तो मुझे नहीं आती। वह पंडित तो खिलखिला कर हंसा ही, और भी लोग खिलखिला कर हंसे। उन्होंने कहा: संस्कृत नहीं आती तो क्या वेदांत बघार रहे हो! पहले संस्कृत सीखो। बिना संस्कृत जाने वेदांत जानोगे कैसे? ब्रह्मसूत्र पढ़ो पहले।
ब्रह्मसूत्र राम ने नहीं पढ़ा था। राम ने ब्रह्म को पढ़ था, ब्रह्मसूत्र क्या खाक पढ़ते! जब ब्रह्म को ही पढ़ लिया था तो अब ब्रह्मसूत्र क्या पढ़ना? जहां से बादरायण ने ब्रह्मसूत्र पाया था, जब उस मूलस्रोत में ही डुबकी खुद राम ने मार ली थी तो अब उधार बादरायण को क्यों जाना? न उपनिषद पढ़े थे, न वेद पढ़ा था। पंडितों ने सलाह दी कि पहले संस्कृत सीखो, फिर वेदांत; नहीं तो तुम समझोगे ही नहीं। खुद ही नहीं समझोगे, दूसरों को क्या समझाओगे?
उनमें से एक ने भी इस आदमी के भीतर नहीं झांका। राम यह स्थिति देख कर इतने चकित हुए, अवाक हुए कि उन्होंने कहा कि इस तरह के लोगों के बीच श्रम करने से फायदा क्या है! और इन्हीं लोगों के गैरिक वस्त्र पहन कर मैं सारी दुनिया में संदेश देने गया था। उन्होंने उसी दिन गैरिक वस्त्र छोड़ दिए। साधारण वस्त्र पहन लिए और हिमालय चले गए। उनके मित्रों ने कहा भी कि आपने गैरिक वस्त्र क्यों छोड़ दिए? तो उन्होंने कहा: इसलिए छोड़ दिए कि जिनसे गैरिक वस्त्रों को पहचाने जाने की आशा थी वे नहीं पहचान पाए, तो अब इनको रखने का क्या सार है? इनका कोई मूल्य नहीं रहा। असल में गैरिक वस्त्र छोड़ कर उन्होंने यह घोषणा कर दी कि मैं तुम्हारी तथाकथित सड़ी-गली परंपरा से मुक्त होता हूं, अलग होता हूं। अब तुम मुझे अपना संन्यासी मत समझो।
यह ऐसा ही सदा होता रहा है। जो लोग दूर-दूर देशों से यहां आए हैं और करीब-करीब तीस देशों से लोग यहां आए हैं, दुनिया के कोने-कोने से--वे धारणा-शून्य, दर्पण जैसा खाली मन लेकर आते हैं। उनके दर्पण जैसे मन में मेरा वही रूप उभरता है जो है। यहां जो लोग दूसरे देशों से आए हैं, वे मुझमें जीसस को पाना नहीं चाहते। कभी-कभी वैसे लोग आ जाते हैं, वे चूक जाते हैं। कभी-कभी कोई बूढ़ा, कभी कोई वृद्धा आ जाती है, जो कहती है कि मैं तो जीसस को मानती हूं, आपको कैसे मान सकती हूं? तो ठीक है, मेरा संबंध नहीं बन पाता। तो एक अवसर उसे मिला था वह चूक गई।
मगर भारत में तो ऐसे निन्यानबे प्रतिशत लोग हैं, जो पहले से ही धारणाएं बना कर बैठे हैं। उनकी धारणाएं ही अड़चन हैं। थोड़े से सौभाग्यशाली जिनकी कोई धारणा नहीं है या जो इतने साहसी हैं कि धारणा को छोड़ सकते हैं, जो मन को एक तरफ सरका कर रख सकते हैं और सीधे-सीधे देख सकते हैं--आंख में आंख डाल कर, हृदय में हृदय डाल कर--वे मुझे जरूर पहचान लेंगे। वे नहीं पहचानेंगे तो कौन पहचानेगा? मैं उन थोड़े से लोगों के लिए ही हूं।
यह देश बहुत पुराणपंथी है। इसलिए अड़चन है। फूल तो खिला है, सुगंध भी उड़ रही है, मगर तुम्हारे नासापुट सड़ गए हैं। तुम्हारे नासापुट विशिष्ट तरह की सुगंध के आदी हो गए हैं। अब तुम किसी और सुगंध को समझ ही नहीं सकते। और जिन सुगंधों को तुम समझ सकते हो उनका उड़ना कभी का बंद हो चुका है। वे अब अतीत की बातें हो गईं।
अब राम काम नहीं आ सकते, न कृष्ण, न बुद्ध, न महावीर। जैसे ही कोई सदगुरु विदा होता है, बस कहानी रह जाती है। फिर पत्थर में बनी मूर्तियां रह जाती हैं। कागजों पर खुदे हुए शब्द रह जाते हैं। फिर पूजते रहो, पूजा हो सकती है, जीवन-रूपांतरण नहीं। फिर पूजो लाख, पटको सिर जितना पटकना हो, मगर तुम जैसे हो वैसे के वैसे रहोगे। शायद इसलिए तुम मजे से सिर पटकते हो क्योंकि तुम्हें डर भी नहीं है, कुछ होगा भी नहीं। गीता पर सिर पटको कि कुरान पर सिर पटको, क्या फर्क पड़ता है? तुम जानते हो कि तुम जैसे हो वैसे ही रहोगे, न कुरान कुछ बिगाड़ लेगा, न गीता कुछ बिगाड़ लेगी। न राम कुछ कर सकते हैं, न कृष्ण कुछ कर सकते हैं। राम-कृष्ण क्या करेंगे? तुम्हारे ही हाथ के बनाए हुए खिलौने हैं, तुम्हारी ही मूर्तियां हैं। तुम्हारे ही बस में हैं। चाहो तो मुकुट पहना दो, चाहो तो उतार लो। चाहो तो प्रसाद लगाओ, चाहो तो न लगाओ। चाहो तो नहला दो, चाहो तो न नहलाओ। तुम्हारे हाथ में है, तुम्हारे बस में है।
सदगुरु तुम्हारे हाथ में नहीं होता, तुम्हारे बस में नहीं होता। सदगुरु के हाथ में तुम्हें होना पड़ता है। वही जोखिम है। इसलिए जीवित गुरु से जो नहीं जुड़ पाता, वह सिर्फ धोखा दे रहा है, आत्मवंचना कर रहा है। वह मुर्दा गुरुओं की पूजा करके अपने को समझा रहा है कि मैं धार्मिक हूं, लेकिन धार्मिक नहीं है।
जो फूल अब नहीं रहे, उनकी सुवास कैसे रहेगी? जो वृक्ष ही अब नहीं रहे, उनकी छाया में बैठे हो तुम! किसको धोखा दे रहे हो? जो नदियां सूख गईं, उनके किनारे बैठे हो कि तुम्हारी प्यास तृप्त हो जाएगी! होश सम्हालो! उन नदियों को तलाशो जहां जलधार अभी बहती है। उन वृक्षों को खोजो जहां अभी शाखाएं हरे पत्तों से लदी हैं और जहां फूल खिलते हैं और फल हैं। उन व्यक्तियों को खोजो जहां अभी परमात्मा बोल रहा है; जहां अभी परमात्मा जाग रहा है; जहां अभी परमात्मा जी रहा है; जहां अभी परमात्मा नाच रहा है। उसी नृत्य के साथ जुड़ सको तो तुम्हारे जीवन में क्रांति हो सकती है।
पर कृष्ण वेदांत चिंतित मत होना। जैसा मेरे साथ हो रहा है वैसा ही अपेक्षित है। वैसा ही होता है। वैसा ही होता रहा है। वैसा ही होता रहेगा। इसमें समय मत गंवाओ। इसलिए मेरी उनमें चिंता ही नहीं है जरा भी। मेरी तो सिर्फ उन्हीं की तरफ सारी जीवन-ऊर्जा लगी है, जो राजी हैं बदलने को। जो मुझे पहचानने को राजी हैं बस उनके साथ ही मेरा संबंध है, बाकी से मेरा कोई संबंध नहीं है।
मेरी अपनी दुनिया है। जो मुझे पहचानने को राजी हैं, बस वही मेरी दुनिया है। बाकी दुनिया को उपेक्षा कर देना है।
सदा ही बुद्धों के पास एक अलग दुनिया बसती है--इस दुनिया से बहुत भिन्न। उसे बुद्ध-क्षेत्र कहो, जिन-क्षेत्र कहो, उसे जो भी नाम देना हो दो। वह बुद्ध-क्षेत्र, वह जिन-क्षेत्र बन रहा है। प्रेमी आते जा रहे हैं, आते जाएंगे। लाखों लोग रूपांतरित होने वाले हैं। और मैं अपनी सारी ऊर्जा और सारी शक्ति उन पौधों पर ही निछावर करना चाहता हूं जो तैयार हैं खिलने को। उन बीजों के
साथ सिर मारने की मेरी तैयारी नहीं जो पत्थर होने की जिन्होंने जिद कर रखी है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं मोक्ष नहीं चाहता हूं। मैं तो चाहता हूं कि बार-बार जीवन मिले। आप क्या कहते हैं?
रामाधार! मोक्ष तो चाहो भी, तो भी मिलना आसान कहां? नहीं चाहते हो, नहीं मिलेगा, घबड़ाओ मत। नाहक की चिंताएं न लो। कोई मोक्ष ऐसे तुम्हारे पीछे नहीं पड़ा है! मोक्ष के पीछे भी तुम पड़ो तो भी मिलेगा कि नहीं, आसान नहीं। तुम व्यर्थ की दुश्ंिचताओं से घिर रहे हो। कोई मोक्ष तुम्हें दे रहा है? कहीं मोक्ष मिल रहा है, जो तुम कहते हो मैं मोक्ष नहीं चाहता हूं? तुम तो ऐसे डरे मालूम पड़ते हो कि जैसे मैं तुम्हारे ऊपर मोक्ष डालने को ही तैयार हूं!
मोक्ष कोई वस्त्र तो नहीं कि मैं बदल दूंगा। और मोक्ष कोई रंग तो नहीं कि मैं तुम्हें रंग दूंगा। मोक्ष कोई वस्तु तो नहीं कि तुम न भी चाहो तो तुम्हें दे दूंगा। मोक्ष कोई जबरदस्ती तो नहीं।
मोक्ष का अर्थ समझते हो? परम स्वातंत्र्य! तुम नहीं चाहते हो, तो नहीं घटेगा। निश्चिंत रहो, जन्मों-जन्मों तक निश्चिंत रहो। अनंतकाल तक निश्चिंत रहो। तुम नहीं चाहते तो नहीं घटेगा। मोक्ष तुम्हारी परम स्वतंत्रता में घटेगा। तुम जब परिपूर्णता से चाहोगे तो घटेगा। और तब भी आसान नहीं कि तुमने चाहा और घट गया। बड़ी परीक्षाएं और बड़ी अग्नियों से गुजरना है। बड़ी मुश्किल से घटता है। यह कोई उतार नहीं है, चढ़ाव है। यह पर्वत-शिखरों की ऊंचाइयों पर चढ़ना है; श्वास घुटने लगती है, पैर टूटने लगते हैं, हिम्मत छूटने लगती है। यह कोई छोटी-मोटी नदी की जलधार नहीं है कि छलांग लगा गए। यह अपार सागर है, जिसमें दूसरा किनारा तो दिखाई ही नहीं पड़ता। और नावें हमारी बड़ी छोटी हैं और हाथ हमारे छोटे हैं, पतवार हमारी छोटी है। इनमें तो सिर्फ दुस्साहसी उतर पाते हैं।
तुम चिंतित न होओ रामाधार, तुम मोक्ष नहीं चाहते, तथास्तु! मोक्ष नहीं होगा!
तुम कहते हो: ‘मैं तो चाहता हूं कि बार-बार जीवन मिले।’
जरूर मिलेगा। अब तक मिलता रहा, आगे भी मिलता रहेगा। अब तक अनंत-अनंत जीवन मिले हैं। चौरासी कोटि योनियों में भटके हो, तब मनुष्य हुए हो। कीड़े-मकोड़ों से लेकर अब तक की लंबी यात्रा है। जैसी तुम्हारी मर्जी। फिर चौरासी कोटि योनियों में जाना हो तो जा सकते हो। तुम जो कामना करोगे, परमात्मा उसी को आशीष दे देता है। तुम्हारी ही मौज है। अगर तुम्हें नालियों में ही सरकना है, आकाश में उड़ना नहीं, तो नालियों में सरको। गुबरीले को तो गोबर ही स्वर्ग मालूम होता है। गुबरीले को गोबर से अलग करो तो कहेगा: यह क्या करते हो? मुझे तो बार-बार गुबरीला ही होना है। तुम जानते हो कि बेचारा गोबर में सड़ रहा है। मगर गुबरीले की तो समझ ही उतनी है। गोबर ही उसकी दुनिया है। उस दुनिया के पार तुम उसे गुलाब के फूलों के पास बिठाओ, वह कहेगा: यहां कहां ले आए? तुम उसे कमल के फूलों पर बिठा दो, वह कहेगा: भाई, क्यों मुझे मार रहे हो? क्यों मेरा जीवन लेने को तैयार हो? मुझे तो गऊ माता का गोबर चाहिए।
तुम्हें अगर बार-बार जन्म लेना है तो बार-बार जन्म मिलेगा। परमात्मा तुम्हारे विपरीत कभी कुछ न करेगा। परमात्मा ने तुम्हें परम स्वतंत्रता दी है। यही मनुष्य का गौरव है और यही मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना भी है। गौरव है कि तुम जो चुनो वही हो जाओगे और दुर्घटना, कि तुम गलत चुनते हो, कि तुम्हारे सौ चुनाव में निन्यानबे चुनाव गलत होते हैं, कि तुम भूल-चूक से ही कभी ठीक चुन पाते हो। तुम्हारे सब गणित गलत हैं। तुम्हारे हिसाब-किताब गलत हैं।
क्यों तुम बार-बार जन्म लेना चाहते हो? इस जन्म में क्या पाया है? जरा पूछो, इस जन्म में क्या पाया है? दौड़े-धापे, मिला क्या? और अगर कुछ मिल भी गया, थोड़ा धन भी मिल गया, थोड़ा पद भी मिल गया--कि हो गए देश के प्रधानमंत्री कि राष्ट्रपति--तो भी क्या मिला?
थोड़ा सोचो, जीवन तो तुम्हारे पास है, इस जीवन में तुमने क्या पा लिया है, जो तुम फिर-फिर जीवन पाना चाहते हो? मेरा अनुभव कुछ और। मेरा अवलोकन कुछ और। मेरा अवलोकन यह है कि जिनको जीवन में कुछ नहीं मिला वे ही बार-बार जीवन पाना चाहते हैं। जिनको कुछ मिला है वे तो कहेंगे: अब बहुत हुआ।
क्यों? तुम्हें बात उलटी लगेगी, पर समझने चलोगे तो साफ है, साफ-सुथरी है--दो और दो चार जैसी साफ-सुथरी है। जिन्हें कुछ नहीं मिला, वे ही बार-बार जीवन पाना चाहते हैं। क्योंकि कुछ मिला नहीं, इस जीवन में भी नहीं मिला, शायद अगले में मिल जाए; अब तक नहीं मिला, शायद कल मिल जाए।
कल की आशा उन्हीं को होती है जिनका आज खाली है। और मजा यह है कि जिनका आज खाली है उनका कल और भी खाली होगा, क्योंकि कल आएगा कहां से? आज से ही तो निकलेगा! कल आज का ही तो विकसित रूप होगा! कल कहीं आसमान से नहीं आता; तुम्हारे आज में से ही निकला हुआ अंकुर होता है। जब आज खाली है, कल और भी खाली होगा। खालीपन का और चौबीस घंटे का अभ्यास बढ़ जाएगा। जब आज तुम रिक्त हो तो कल तुम और भी दरिद्र हो जाओगे।
बच्चे समृद्ध होते हैं, बूढ़े दरिद्र हो जाते हैं। बच्चे भरे-पूरे होते हैं, बूढ़े बिलकुल चुक जाते हैं। रस उनका बह जाता है छिद्रों से। बच्चों में तो थोड़ा उल्लास दिखाई पड़ता है; बूढ़ों में न कोई उमंग, न कोई उल्लास, सब सूख गया होता है। क्या हुआ? जीवन अगर महत्वपूर्ण था तो बूढ़े तो शिखर हो जाते स्वर्ण के; मंदिर की गरिमा हो जाते, कलश हो जाते। नहीं; चूंकि जीवन में कुछ नहीं मिला है, इसलिए तुम डरते हो कि कहीं जीवन छिन न जाए; अभी कुछ मिला ही नहीं, और कहीं जीवन छिन न जाए! इसलिए कहते हो, और-और जीवन मिले। मगर जिस ढंग से तुम जी रहे हो, इसी ढंग से फिर भी जीओगे। इस ढंग से जीने से तुम्हें कुछ नहीं मिला; तुम कितनी ही बार इसी ढंग से जीओ, कुछ भी न मिलेगा।
एक व्यक्ति ने जीवन में आठ बार विवाह किया। अमरीका में तो आसान है। आठवीं बार विवाह करने के बाद उसे यह बोध आया, यह खयाल आया--बड़ी हैरानी का खयाल कि मैंने हर बार स्त्रियां बदलीं लेकिन हर बार मैंने फिर उसी तरह की स्त्री खोज ली। आठों बार बार-बार उसने उसी तरह की स्त्री खोजी। आखिर खोजने वाला तो वही है।
तुम थोड़ा सोचो, एक स्त्री के प्रेम में तुम पड़े या एक पुरुष के प्रेम में पड़े, किसने खोजा? तुमने खोजा। तुम्हारी खोजने की एक दृष्टि है। तुम्हें कौन सी चीजें जंचीं, तुम्हें कौन सी चीजें मन भाईं, कौन सी बात तुम्हें मनचीती लगी? तुम्हारे पास एक मन है, उस मन से तुमने एक स्त्री को प्रेम किया। फिर ऊब गए क्योंकि आशाएं पूरी नहीं हुईं। आशाएं कभी पूरी होती ही नहीं। आशाएं सिर्फ आशाएं हैं, सपने सिर्फ सपने हैं। सपनों में ही अच्छे लगते हैं; जब यथार्थ में उतारने चलोगे, सब व्यर्थ हो जाते हैं, सब टूट-फूट जाते हैं। पानी के बबूले हैं। ओस की बूंदें हैं; दूर से लगती हैं कि मोती चमक रहे हैं, हाथ से पकड़ने जाते हो पानी रह जाता है, हाथ में कुछ और लगता नहीं।
एक स्त्री से ऊब गए, एक पुरुष से ऊब गए; तुमने सोचा कि यह स्त्री काम न आई, गलत स्त्री चुन ली। तुम सोचते हो कि गलत स्त्री चुन ली; तुम यह नहीं सोचते कि मेरा चुनना ही गलत है, चुनने वाला ही गलत है। तुम यह नहीं सोचते। कोई अपने पर जिम्मेवारी थोड़े ही लेता है। यही तो अहंकार के अपने को बचाए रखने के गहरे से गहरे उपाय हैं। कोई यह नहीं कहता कि मेरी भूल है। यह गलत स्त्री चुन ली--चूक हो गई। समझा था कुछ और, निकली कुछ और। धोखा दे गई, बेईमान थी। ऊपर-ऊपर रंग बना रखा था, भीतर-भीतर कुछ और थी। मुझ भोले-भाले आदमी को ठग गई। अब फिर चुनूंगा, दूसरी स्त्री चुनूंगा।
मगर चुनेगा कौन? तुम फिर चुनोगे। तुम ही तो चुनोगे! फिर तुम्हें वे ही बातें जंचेगी। वही चाल फिर तुम्हें पसंद आएगी। वही नाक, वही बालों का रंग, वही शरीर की आकृति-अनुपात फिर तुम्हें जंचेगा। तुम्हें फिर वैसी ही स्त्री पसंद पड़ेगी। थोड़े-बहुत हेर-फेर होंगे, मगर उन हेर-फेरों से कुछ फर्क नहीं पड़ता। बुनियादी रूप से तुम्हें फिर वैसी स्त्री पसंद पड़ेगी जैसी पहली स्त्री थी और फिर चार-छह महीने में वही उपद्रव। फिर भ्रांति का टूटना।
उस आदमी ने आठ बार विवाह किया और फिर अपने संस्मरणों में लिखा कि आज मैं यह कह सकता हूं कि हर बार मैंने जैसे फिर-फिर उसी स्त्री से विवाह किया और हर बार वही हुआ। हर बार वही दुख, दुखांत, नाटक एक ही जगह आकर समाप्त हुआ। तुम पूछो उसने नौवीं बार विवाह किया या नहीं? नहीं किया, क्योंकि एक बात उसे समझ में आ गई कि मैं जो भी चुनूंगा वह गलत होगा। मैं गलत हूं; जब तक मैं नहीं बदल जाता तब तक मेरा सारा चुनाव गलत ही रहेगा।
मोक्ष का अर्थ क्या है? आत्म-रूपांतरण। जीवन को चुनने का अर्थ है: तुम वही के वही, फिर जीवन चुनोगे, करोगे क्या? समझो कि मैं तुमसे कह दूं कि सौ वर्ष तुम्हें और दिए, तुम करोगे क्या? तुमने जो कल किया था, परसों किया था, उससे कुछ अन्यथा करोगे? क्या करोगे भिन्न तुम? तुम वही मूढ़ता फिर-फिर दोहराओगे। तुम पुनरुक्ति करोगे। सौ वर्ष भी तुम गंवा दोगे--ऐसे ही जैसे तुमने इतने वर्ष अभी गंवा दिए।
और जन्मों के साथ तो एक अड़चन और भी है कि हर मृत्यु के बाद ही तुम पुराने जन्म के संबंध में सब भूल जाते हो। इसलिए उनको पुनरुक्त करना भूलों को और आसान हो जाता है। याद ही नहीं रहती कि पहले कभी भूलें की हैं। हर नये जन्म में ऐसा लगता है कि नया-नया कुछ कर रहे हो। हर बार जब प्रेम होता है तो ऐसा लगता है नया-नया कुछ... हर बार पद की आकांक्षा, नया-नया कुछ...। कितनी बार तुम यह कर चुके हो, कितनी बार!
महावीर के पास एक युवक दीक्षित हुआ, राजकुमार था। महावीर की बातें सुनीं, समझ पड़ीं, दीक्षित हो गया। बात समझ पड़ना और दीक्षित हो जाना एक बात है; फिर दीक्षा की अपनी कठिनाइयां हैं, अपनी अड़चनें हैं। महावीर के संघ का नियम था कि जो पहले दीक्षित हुए हैं उनको आदर दिया जाए। जो बाद में दीक्षित हुए हैं--चाहे उनकी उम्र ज्यादा हो, धनी हों, शिक्षा ज्यादा हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जो पीछे दीक्षित हुए हैं वे अपने से बड़ों को आदर दें।
पहली ही रात एक गांव में विश्राम हुआ। धर्मशाला छोटी थी तो उसके कमरों में तो उनको जगह मिली जो वृद्ध थे, जो पहले... वृद्ध से मेरा मतलब उम्र में वृद्ध नहीं, दीक्षा में जो वृद्ध थे। उनमें कई उम्र में छोटे भी होंगे। उनमें कई भिखमंगे भी होंगे, दीन-दरिद्र भी होंगे अपनी जिंदगी में। लेकिन राजकुमार तो अभी-अभी दीक्षित हुआ था। उसको किसी कमरे में जगह न मिल सकी। उसको गलियारे में सोना पड़ा। रात भर लोग आते-जाते रहे और गलियारे में उसे नींद न आए। मच्छर काटें। कभी सोया नहीं था गलियारे में। राजमहलों में रहा था। रात भर नींद न आई। उसे लगा यह तो एक झंझट मोल ले ली। सुबह होते ही माफी मांग लूंगा कि क्षमा करो, जो गलती हो गई माफ करो, मैं घर चला। लेकिन इसके पहले कि वह महावीर से जाकर कुछ कहता, सुबह होते ही महावीर उसके पास आए और कहा: तो चले घर? वह तो बहुत चौंका। उसने कहा: आपसे किसने कह दिया? महावीर ने कहा: जो तुमसे कह गया वही मुझसे भी कह गया। ...तो चले घर? मगर एक बात जतला दूं, यह पहला मौका नहीं है जब तुम घर जा रहे हो। और यह पहली दीक्षा नहीं है, ऐसी दीक्षाएं तुम पहले जन्मों में भी कई बार ले चुके हो। और ऐसी ही छोटी-छोटी बातों में उलझ कर वापस लौट गए हो। इस बार जरा हिम्मत कर लो। आया अवसर हाथ फिर न चूक जाए।
महावीर का यह कहना कि पहले भी तू ऐसी ही दीक्षा ले चुका है और बार-बार छोटी-छोटी अड़चनों से लौट गया है, लौट गया है, कभी टिक नहीं पाया--किसी अचेतन गर्भ से स्मृति उठी, आंख के सामने दृश्य पर दृश्य खुलने लगे। उसे दिखाई पड़ा कि हां, पहले भी ऐसा हुआ है। वह महावीर के चरणों में झुक गया और उसने कहा: अब ऐसा न होने दूंगा। महावीर और बुद्ध दोनों ने एक बहुत अदभुत विज्ञान का प्रयोग किया था--जाति-स्मरण। वह प्रत्येक अपने संन्यासी को पिछले जन्मों की याद दिलाते थे। उसके ध्यान के प्रयोग हैं, जिनसे पिछले जन्मों की याद आनी शुरू हो जाती है। क्योंकि याद तो तुम्हारे अचेतन में पड़ी है, सिर्फ उठाने की बात है। और पिछले जन्मों की याद आने लगे तो बड़े हैरान होओगे तुम। रामाधार, फिर ऐसा प्रश्न न पूछ सकोगे। क्योंकि जन्म तो कई बार हुए, जीवन तो कई बार लिए, हाथ तो कभी कुछ न लगा। हाथ तो सदा राख से ही भरे रहे! आगे भी बहुत बार लेकर क्या करोगे? मन को लोग समझा लेते हैं, अच्छी-अच्छी बातें समझा लेते हैं।
कल मैं एक कविता पढ़ रहा था—
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
श्रमिक विहग देखे हैं प्रतिदिन,
भू से नभ तक दौड़ लगाते!
बंध दो तिनकों के बंधन में,
वे पुनरपि नीड़ों में आते!
बार-बार कह उठता है मन,
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
सरिता तब तक ही सरिता है,
जब तक तट का मिले सहारा!
बंधन टूटे कौन कहे फिर--
सरिता, कहते जल की धारा,
बंधन सौम्य रूप आकर्षण!
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
बंधन सरल स्नेह-बंधन पर,
अगणित बार मुक्ति मैं वारूं।
हार अगर यह है जीवन की,
जन्म-जन्म यों ही मैं हारूं!
बंधन जीवन का अवलंबन,
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
तुम चाहो तो अच्छी-अच्छी कविताएं गढ़ सकते हो। अच्छे-अच्छे विचार के पीछे इस भ्रांत धारणा को छिपा ले सकते हो। तुम कह सकते हो कि सरिता सागर में उतर कर खो जाएगी, फायदा क्या उतरने से?
सरिता तब तक ही सरिता है,
जब तक तट का मिले सहारा!
बंधन टूटे कौन कहे फिर--
सरिता, कहते जल की धारा,
बंधन सौम्य रूप आकर्षण!
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
तुम कह सकते हो: मुक्ति तो मृत्यु मालूम होती है, बंधन में ही जीवन है! सरिता देखो किनारों से बंधी जीवित है और किनारों से छूटी कि मरी! बात सच है। किनारों से छूटी कि मरी, यह आधी बात है लेकिन। और आधे सत्य पूरे झूठों से भी बदतर होते हैं। सरिता किनारों से छूट कर मरती नहीं, मुक्त होती है, सागर होती है। सरिता को अब सरिता तो कोई न कहेगा, लेकिन अब सागर हो गई, सरिता कोई कहेगा कैसे? छोटा विराट हो गया, सीमित असीम हो गया। परिभाषा में बंधा अपरिभाष्य हो गया।
अहंकार तो चाहता है बंधनों में बंधा रहे, क्योंकि अहंकार जी ही सकता है सीमित में। जितनी सीमित स्थिति हो उतना ही अहंकार मजबूत रहता है और जितने ही बड़े होने लगो उतना ही अहंकार क्षीण होने लगता है। जितने फैलोगे, जितने विस्तीर्ण होओगे, जितने ब्रह्म के करीब आओगे--उतना ही अहंकार विदा होने लगेगा। और अहंकार समझाएगा, अपने को बचाने की सब तरह से चेष्टा करेगा।
बंधन सरल स्नेह-बंधन पर,
अगणित बार मुक्ति मैं वारूं!
अहंकार कहेगा, हजार मोक्ष निछावर कर दूंगा मैं बंधन पर!
बंधन सरल स्नेह-बंधन पर,
अगणित बार मुक्ति मैं वारूं।
हार अगर है यह जीवन की,
जन्म-जन्म यूं ही मैं हारूं!
बंधन जीवन का अवलंबन
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
लेकिन जरा सावधान। मीठी-मीठी बातों से कुछ भी न होगा। सुंदर-सुंदर तर्कों से कुछ भी न होगा। सत्य छिपाए जा सकते हैं, झुठलाए नहीं जा सकते। जहर कितना ही मीठा क्यों न हो--जहर है। और अमृत कितना ही कड़वा क्यों न हो--अमृत है। और अमृत अक्सर कड़वा होता है और जहर अक्सर मीठा होता है। जहर को मीठा होना ही पड़ता है, नहीं तो पीएगा कौन? अमृत को क्या पड़ी कि मीठा हो। पीने वाले, पहचानने वाले पी ही लेंगे। और अमृत उन्हीं के लिए है--जो पीने वाले हैं, जो पहचानने वाले हैं। जहर तो अपना विज्ञापन करता है, अपनी मिठास का विज्ञापन करता है। अमृत तो विज्ञापन करता ही नहीं। आ जाएंगे खोजी।
तो रामाधार, तुम्हारा मन तुम्हें समझा दे सकता है कि जीवन बड़ा सुंदर है। और मैं नहीं कहता कि जीवन सुंदर नहीं है, मगर मैं किसी और जीवन की बात कर रहा हूं! मैं उस जीवन की बात कर रहा हूं, जब तुम्हारे भीतर मोक्ष का आकाश खुल गया। और तुम उस जीवन की बात कर रहे हो, जब तुम्हारे भीतर न कोई प्रकाश है, न कोई आत्मा है, न कोई बोध है। तुम्हारे भीतर छोटी सी किरण भी नहीं है जागरण की। मूर्च्छित, तंद्रित, सोए हुए--तुम्हारा यह जीवन कोई जीवन है? यह केवल एक लंबी रात है, अंधेरी रात, जिसमें तुम बड़बड़ा रहे हो, सपने देख रहे हो और सपनों को ही सत्य समझ रहे हो।
मगर जैसी तुम्हारी मर्जी। जबरदस्ती तुम्हारे ऊपर कोई मोक्ष थोपा नहीं जा सकता। कम से कम मैं तो ऐसा न करूंगा। अगर तुम्हारी यही इच्छा है कि बार-बार जीवन मिले, तथास्तु!
तीसरा प्रश्न:
भगवान, संन्यास लेने के बाद बहुत मिला--प्रेम, जीने का ढंग...! धन्यभागी हूं। परंतु कभी-कभी काफी घृणा से भर जाता हूं आपके प्रति--इतना कि गोली मार दूं। यह क्या है प्रभु, कुछ समझ नहीं आता!
आनंद सत्यार्थी! जहां प्रेम है--साधारण प्रेम--वहां छिपी हुई घृणा भी होती है। उस प्रेम का दूसरा पहलू है, घृणा। जहां आदर है--साधारण आदर--वहां एक छिपा हुआ पहलू है, अनादर का।
जीवन की प्रत्येक सामान्य भाव-दशा अपने से विपरीत भाव-दशा को साथ ही लिए रहती है। तुमने अभी जो प्रेम जाना है, बड़ा साधारण प्रेम है, बड़ा सांसारिक प्रेम है। इसलिए घृणा से मुक्ति नहीं हो पाएगी। अभी तुम्हें प्रेम का एक और नया आकाश देखना है, एक और नई सुबह, एक और नये प्रेम का कमल खिलाना है! वैसा प्रेम ध्यान के बाद ही संभव होगा।
मेरे साथ दो तरह के लोग प्रेम में पड़ते हैं। एक तो वे, जिन्हें मेरी बातें भली लगती हैं, मेरी बातें प्रीतिकर लगती हैं। और कौन जाने मेरी बातें प्रीतिकर गलत कारणों से लगती हों! समझो कोई शराबी यहां आ जाए और मैं कहता हूं: मुझे सब स्वीकार है, मेरे मन में किसी की निंदा नहीं है। अब इस शराबी की सभी ने निंदा की है। जहां गया वहीं गाली खाई हैं। जो मिला उसी ने समझाया है। जो मिला उसी ने इसको सलाह दी है कि बंद करो यह शराब पीना। मेरी बात सुन कर कि मुझे सब स्वीकार है, शराबी को बड़ा अच्छा लगता है; जैसे किसी ने उसकी पीठ थपथपा दी! उसे मेरे प्रति प्रेम पैदा होता है। यह प्रेम बड़े गलत कारण से हो रहा है। यह प्रेम इसलिए पैदा हो रहा है कि उसके अहंकार को जाने-अनजाने पुष्टि का एक वातावरण मिल रहा है। यह प्रेम मेरी बात को समझ कर नहीं हो रहा है। इस बात का वह आदमी अपने ही व्यक्तित्व को मजबूत कर लेने के लिए उपयोग कर रहा है। तो प्रेम हो जाएगा। लेकिन इस प्रेम में पीछे घृणा छिपी रहेगी।
तुम्हारे जीवन में प्रेम की कमी है। न तुम्हें किसी ने प्रेम दिया है, न किसी ने तुमसे प्रेम लिया है। और जब मैं तुम्हें पूरे हृदय से स्वीकार करता हूं तो तुम्हारा दमित प्रेम उभर कर ऊपर आ जाता है। लेकिन यह प्रेम अपने पीछे घृणा को छिपाए हुए है। और ध्यान रखना, जैसे दिन के पीछे रात है और रात के पीछे दिन है, ऐसे ही प्रेम के पीछे घृणा है। तो कई बार प्रेम समाप्त हो जाएगा, तुम एकदम घृणा से भर जाओगे। बेबूझ घृणा से! और तुम्हें समझ में ही नहीं आएगा कि इतना तुम प्रेम करते हो, फिर यह घृणा क्यों! घृणा इसीलिए है कि वह जो तुम प्रेम करते हो अभी ध्यान से पैदा नहीं हुआ है--वैचारिक है, भावनागत है।
एक दूसरा प्रेम है जो ध्यान से पैदा होता है। ध्यान से जब प्रेम गुजरता है तो सोने में जो कूड़ा-कचरा है वह सब जल जाता है--ध्यान की अग्नि में। और ध्यान की अग्नि से गुजरता है जब प्रेम तो कुंदन होकर प्रकट होता है। फिर उसमें कोई घृणा नहीं होती। फिर एक समादर है जिसमें कोई अनादर नहीं होता। नहीं तो समादर करने वालों को अनादर करने में देर नहीं लगती। वे ही लोग फूलमालाएं पहनाते हैं, वे ही लोग गालियां देने लगते हैं। वे ही लोग चरण छूते हैं, वे ही लोग गर्दन काटने को तैयार हो जाते हैं।
ऐसी ही तुम्हारी दशा है, आनंद सत्यार्थी!
तुम कहते हो: ‘कभी घृणा से भर जाता हूं, इतना कि गोली मार दूं।’
स्वभावतः, इसके पीछे एक और कारण है, वह भी समझ लेना चाहिए, वह सबके उपयोग का है। संन्यास से जो भी तुम्हें मिलेगा वह इतना ज्यादा है कि तुम उसका कोई भी मूल्य न चुका सकोगे। संन्यास से तुम्हें जो भी मिलेगा वह इतना ज्यादा है कि तुम्हारे सब धन्यवाद छोटे पड़ जाएंगे। और तब तुम मुझे क्षमा न कर पाओगे। तुम्हें जरा बेबूझ बात मालूम पड़ेगी। जो व्यक्ति हमें कुछ दे, हम उसके सामने छोटे हो जोते हैं। अगर हम उसे कुछ लौटा सकें प्रत्युत्तर में तो हम फिर समतुल हो जाते हैं। लेकिन अगर ऐसी कोई चीज दी जाए कि उसके उत्तर में हम कुछ भी न लौटा सकें, ऋण को चुकाने का उपाय ही न हो, तो फिर हम ऐसे व्यक्ति को कभी क्षमा नहीं कर पाते, माफ नहीं कर पाते।
मेरे एक परिचित हैं, बड़े धनपति हैं। एक बार मेरे साथ ट्रेन में सफर किया। कभी मुझे कहा नहीं था, लेकिन ट्रेन में अकेले ही थे साथ मेरे। बात होते-होते बात में से बात निकल आई। उन्होंने कहा कि आज पूछने का साहस करता हूं। मेरी जिंदगी में एक दुर्घटना अमावस की तरह छाई हुई है। और दुर्घटना यह है कि मैंने अपने सारे रिश्तेदारों को, मित्रों को, सबको इतना दिया कि आज मेरे सब रिश्तेदार धनी हैं, सब मित्र धनी हैं, सब परिचित धनी हैं।
धन उनके पास काफी है। और उन्होंने जरूर दिल खोल कर दिया है। मगर कोई भी मुझसे प्रसन्न नहीं! उलटे वे सब मुझसे नाराज हैं। उलटे वे मुझे बरदाश्त ही नहीं कर सकते। यह मेरी समझ में नहीं आता कि मैंने इतना किया, सबके लिए किया।...
और यह सच है। मैं उनके रिश्तेदारों को जानता हूं; जो भिखमंगे थे, आज अमीर हैं। मैं उनके मित्रों को जानता हूं; जिनके पास कुछ नहीं था, आज सब कुछ है। यह बात सच है। इस बात में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं कि उन्होंने बहुत दिया है और देने में उन्होंने जरा भी कृपणता नहीं की है। उनके हाथ बड़े मुक्त हैं। मुक्त-भाव से दिया है। तो स्वभावतः उनका प्रश्न सार्थक है कि मुझसे लोग नाराज क्यों हैं?
मैंने कहा कि आपको समझ में नहीं आता, लेकिन मैं एक बात पूछता हूं, उससे बात स्पष्ट हो जाएगी। आपने इन मित्रों को, परिजनों को, परिवार वालों को उत्तर में कुछ आपके लिए करने दिया है कभी? उन्होंने कहा कि नहीं, कोई जरूरत ही नहीं है। मेरे पास सब है। और अगर कभी कोई कुछ करना भी चाहा है तो मैंने इनकार किया है कि क्या फायदा! मेरे पास बहुत है। तो मैंने किसी से कोई प्रत्युत्तर में तो लिया नहीं।
बस मैंने कहा: बात साफ हो गई, क्यों वे नाराज हैं। वे आपको क्षमा नहीं कर पा रहे। वे आपको कभी क्षमा नहीं कर पाएंगे। आपने उनको नीचा दिखाया है। उनके भीतर ग्लानि है। वे जानते हैं कि आप ऊपर हैं, दानी हैं, दाता हैं और हम भिखमंगे हैं। भिखमंगे कभी दाताओं को क्षमा नहीं कर सकते।
आप एक काम करो। उनसे मैंने कहा: छोटे-छोटे काम उनको भी आपके लिए करने दो। मुझे पता है आपको कोई जरूरत नहीं, मगर छोटे-छोटे काम...। आप बीमार हो, अगर कोई एक गुलाब का फूल ले आए, तो ले आने दो और गुलाब का फूल लेकर अनुग्रह मानो। कभी किसी मित्र को कह दिया कि भाई यह काम तुमसे ही हो सकेगा, यह मुझसे नहीं हो पा रहा, तुम्हीं निपटाओ। जरा मौका दो उन्हें कुछ करने का। छोटे-छोटे मौके। जरूरत मुझे पता है कि आपको कुछ भी नहीं, आप सारे अपने काम खुद ही कर ले सकते हैं। लेकिन अगर उनको थोड़ा कुछ करने का आप मौका दे सको तो वे आपको धीरे-धीरे क्षमा करने में समर्थ हो पाएंगे। उनको लगेगा: हमने लिया ही नहीं, दिया भी! उनको लगेगा: हम नीचे ही नहीं हैं, समतुल हो गए।
मगर यह उनके अहंकार के विपरीत है। यह वे नहीं कर पाए। दो वर्ष बाद जब मैंने उनसे पूछा, उन्होंने कहा: मुझे क्षमा करें! मैं किसी से ले नहीं सकता। गुलाब का फूल भी नहीं ले सकता! यह मेरी जीवन-प्रक्रिया के विपरीत है। मैं यह बात मान ही नहीं सकता कि मैं और किसी से लूं। मैंने देना ही जाना है, लेना नहीं।
फिर मैंने कहा कि जिनको आपने दिया है वे आपके दुश्मन रहेंगे।
आनंद सत्यार्थी, यही कठिनाई यहां है: इसलिए नहीं कि मैं तुमसे कुछ लेने में संकोच करूं। इसलिए नहीं कि मेरा कोई अहंकार है। मगर यह जो देना है यह ऐसा है कि इसका लौटाना हो ही नहीं सकता। मैं तो सब उपाय करता हूं, छोटे-छोटे उपाय करता हूं, जो भी मुझसे बन सकता है वह उपाय करता हूं। छोटे-छोटे काम लोगों को दे देता हूं। कोई जा रहा है अमरीका, उसको कह देता हूं: एक कलम मेरे लिए खरीद लाना, कि एक पौधा मेरे बगीचे के लिए ले आना। ऐसे मेरे बगीचे में जगह नहीं है। और कलमें इतनी इकट्ठी हो गई हैं कि विवेक मुझसे बार-बार पूछती है, इनका करिएगा क्या? उसको सम्हालना पड़ता है, साफ-सुथरा रखना पड़ता है। और जब फिर कोई जाने लगता है और मैं कहता हूं कि मेरे लिए एक कलम ले आना, तो उसकी समझ के बाहर है कि यह जरूरत क्या है?
जरूरत केवल इतनी है कि मैं तुम्हें भी एक मौका देना चाहता हूं कि कुछ तुमने मेरे लिए किया।
अभी मैं जल्दी नहीं चाहता कि कोई मुझे गोली मार दे। बाद में मार देना। जरा ठहरो, थोड़ा काम हो जाने दो। वह तो आखिरी पुरस्कार है। लेकिन अभी तो काम शुरू ही शुरू हुआ। अभी जरा सम्हालना। आनंद सत्यार्थी, गोली वगैरह रखना तैयार, मगर सम्हालना। थोड़ा काम व्यवस्थित हो जाने दो। थोड़े संन्यास का यह रंग छितर जाने दो पृथ्वी पर!
हां, कोई न कोई गोली मारेगा। और संभावना यही है कि कोई संन्यासी ही गोली मारेगा--जिसके बिलकुल बरदाश्त के बाहर हो जाएगा, जो सह न सकेगा; जिसको इतना मिलेगा कि उत्तर देने का उसके पास कोई उपाय न रह जाएगा। आखिर जीसस को जुदास ने बेचा--तीस रुपये में! और जुदास जीसस का सबसे बड़ा शिष्य था, सबसे प्रमुख शिष्य था। उसने ही जीसस को मरवाया। उसने ही सूली लगवाई। और देवदत्त ने बुद्ध को मारने की बहुत चेष्टाएं कीं--और देवदत्त बुद्ध का भाई था, चचेरा भाई था और प्रमुख शिष्य था। अग्रणी शिष्य था।
यह सब स्वाभाविक है। इसके पीछे एक जीवन का गणित है। गणित यह है कि तुम इतने दब जाते हो ऋण से कि तुम करो क्या, गोली न मारो तो करो क्या?
मगर अभी नहीं, जरा रुको। ठीक समय पर मैं खुद ही तुमसे कह दूंगा, सत्यार्थी, कहां है गोली?
साधारण प्रेम का यही रूपांतरण होने वाला है। हर साधारण प्रेम घृणा में बदल जाएगा। इसलिए अगर सच में ही तुम चाहते हो कि मेरे प्रति तुम्हारे मन में कोई घृणा न रह जाए, तो तुम्हें ध्यान से गुजरना होगा। ध्यान शुद्धि की प्रक्रिया है--प्रेम को शुद्ध करने का आयोजन है, रसायन है।
यहां कुछ लोग हैं जो मुझे प्रेम करते हैं, मगर ध्यान नहीं करते। वे कहते हैं: हमें तो आपसे प्रेम है, अब ध्यान की क्या जरूरत? उनका प्रेम खतरनाक है। उनका प्रेम कभी भी महंगा पड़ सकता है। क्योंकि घृणा इकट्ठी होती जाएगी। ध्यान से घृणा को धोते चलो, ताकि प्रेम निखरता चले। तो एक दिन जरूर ऐसे प्रेम का जन्म होता है, जिसके विपरीत तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं होता। उस प्रेम को अनुभव कर लेना अमृत को अनुभव करना है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, सुलभ तेरी चाह है, पर तू कठिन। पर कर न पाया, चाह का तेरी शमन। चाह में बीती उमर, पर तुम न आए। मृत्यु जीवन में झलकने लग गई, पर तुम न आए।
संतोष सरस्वती! परमात्मा को पाने के लिए पहले तो बड़ी तीव्र चाह चाहिए--प्रथम चरण में--अदम्य, अडिग, अचल! ऐसी चाह कि सब दांव पर लगा देने की हिम्मत हो, साहस हो। जैसे पतंगा दौड़ पड़ता शमा की तरफ, ऐसी चाह! मिट जाने की चाह। सब जोखिम उठाने की चाह। ऐसी त्वरा, ऐसी सघनता कि एक ही चाह रह जाए, सारी चाहें उसी एक चाह में समाविष्ट हो जाएं। एक तीर बन जाए तुम्हारा हृदय, परमात्मा की गति को पकड़ ले, परमात्मा के गंतव्य की तरफ चल पड़े।
पहले तो चाहिए ऐसी चाह। और फिर बड़ा विरोधाभासी नियम है, फिर चाहिए चाह का विसर्जन। चाह से ही कोई नहीं पहुंचता; बिना चाह के भी कोई नहीं पहुंचता। चाह तो चाहिए ही चाहिए। लेकिन अंतिम घड़ी में चाह ही बाधा बन जाती है। अंतिम घड़ी में चाह भी छूट जानी चाहिए। उसी क्षण।
पहले चाह तुम्हें निखारती है, संवारती है, अखंडित करती है; फिर चाह भी चली जाती है। जैसे एक कांटे से हम दूसरा कांटा निकालते हैं, फिर दोनों कांटों को फेंक देते हैं। संसार की चाहें हैं--याद रखना, चाहें, चाह नहीं; क्योंकि संसार में बहुवचन का उपयोग करना होगा, बहुत चाहें हैं--धन की, पद की, प्रतिष्ठा की, इसकी, उसकी, न मालूम कितनी चाहें हैं! चाहें ही चाहें हैं! सब दिशाओं में खींचती हैं। इन सारे कांटों को निकालने के लिए परमात्मा की चाह चाहिए; ताकि एक ही कांटा रह जाए, सारे कांटे समाप्त हो जाएं। और जब एक ही कांटा बचे तो उसको भी सम्हाल कर रखने की जरूरत नहीं, उसको भी नमस्कार कर लेना। उसको भी जाकर नदी में अर्पित कर आना। धन्यवाद के साथ, क्योंकि उसने और सारी चाहों से छुटकारा दिलवा दिया।
पहले तो कठिनाई है सारी चाहों को एक चाह पर समर्पित करना, मगर उससे भी बड़ी कठिनाई आखिर में आती है, अंतिम चरण में आती है--जब परमात्मा की चाह भी छोड़ देनी होती है। क्योंकि उस चाह के छोड़ने में ही तुम्हारा अहंकार विसर्जित हो जाता है। आखिर चाह भी तो अहंकार का प्रक्षेपण है। ‘मैं चाहता हूं!’ हर चाह के पीछे ‘मैं’ खड़ा है। सब चाहों के पीछे ‘मैं’ खड़ा है। परमात्मा की चाह के पीछे भी ‘मैं’ खड़ा है।
जिस दिन तुम परमात्मा की चाह को भी छोड़ दोगे, और सब चाहें तो पहले छोड़ चुके, अब परमात्मा की चाह भी गई, अब ‘मैं’ के लिए कोई सहारा न बचा--‘मैं’ एकदम गिर जाएगा, बिखर जाएगा, भस्मीभूत हो जाएगा। और जहां मैं नहीं है वहां परमात्मा है।
तुम पूछते हो: ‘सुलभ तेरी चाह है, पर तू कठिन।’
चाह तो सुलभ है, परमात्मा भी सुलभ है, लेकिन चाह को छोड़ना कठिन है। और जिस चाह के लिए सब छोड़ दिया उस चाह को छोड़ना बहुत कठिन हो जाता है।
और संतोष सरस्वती, तुम तो नये-नये साधक हो अभी, बड़े प्रौढ़ साधकों के लिए भी, करीब-करीब जो सिद्धि की अवस्था में पहुंच गए उनके लिए भी कठिन होता है। रामकृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए कठिन होता है।
जब रामकृष्ण को उनके अंतिम गुरु तोतापुरी का मिलना हुआ, तो रामकृष्ण करीब-करीब सिद्ध-अवस्था में थे। करीब-करीब में कहता हूं, खयाल रखना। जरा सी कमी बची थी। लेकिन जगत में तो ख्याति हो गई थी कि रामकृष्ण पहुंच गए। रामकृष्ण को पता था कि अभी थोड़ी सी कमी है, बस एक सीढ़ी और; मगर दूसरों को क्या पता! दूसरे तो देखते थे कि इतनी ऊंचाई, इतनी ऊंचाई, आकाश में पहुंच गए हैं! उनको क्या पता कि एक सीढ़ी और कम रह गई!
तोतापुरी से जब रामकृष्ण का मिलना हुआ तो रामकृष्ण ने निवेदन किया कि बस एक सीढ़ी और रह गई है, इसे मैं कैसे पार करूं? तोतापुरी ने कहा: कठिन नहीं, ऐसे कठिन भी है। कठिन नहीं, क्योंकि इतनी सीढ़ियां पार कर आए तो अब एक पार करने में क्या अड़चन होगी? जैसे और सीढ़ियां पार की हैं ऐसे यह भी सीढ़ी पार करो। सूत्र वही है। जैसे और सब चाहें छोड़ दीं, अब यह परमात्मा की चाह भी छोड़ दो।
और ऐसे कठिन भी है, क्योंकि और सब चाहें तो क्षुद्र थीं। धन की चाह छोड़ने में, पद की चाह छोड़ने में, प्रतिष्ठा की चाह छोड़ने में एक तरह का आनंद ही आया था, आह्लाद हुआ था--कि हलके हुए, कि व्यर्थ का बोझ कटा, कूड़ा-करकट फेंका! मगर परमात्मा की चाह छोड़ना! जिसने सब इसी चाह पर दांव लगाया, उससे कहना इसको भी छोड़ दो! जिसने इसे बचाने के लिए सब छोड़ा, अब उससे कहना इसे भी छोड़ दो! तो कठिन भी है। मगर चेष्टा करो तो हो सकता है।
रामकृष्ण ने कहा: मेरी सहायता करें। मुझ अकेले से न हो सकेगा। मैं तो आंख बंद करता हूं कि काली सामने खड़ी हो जाती है। मैं तो भूल ही जाता हूं। मैं तो रसलीन हो जाता हूं। मुझे तो द्वैत बना ही रहता है--भक्त का और भगवान का। अद्वैत घटता ही नहीं।
तोतापुरी ने कहा: मैं एक काम करूंगा। तू आंख बंद करके बैठ और जैसे ही मैं देखूंगा कि खड़ी हो गई है प्रतिमा और द्वैत उठने लगा और काली की प्रतिमा, तेरी आराध्य की प्रतिमा सामने आ गई, मैं आवाज दूंगा--रामकृष्ण उठा तलवार, कर दे दो टुकड़े! तो फिर देर मर करना, उठा लेना तलवार और कर देना दो टुकड़े।
रामकृष्ण जैसे अदभुत व्यक्ति ने भी पूछा: लेकिन तलवार कहां से लाऊंगा? तोतापुरी ने कहा: यह भी खूब रही! और यह काली मैया कहां से लाया? यह भी कल्पना है तेरी। सतत कल्पना करने से यह प्रतिमा खड़ी हो गई है। जहां से यह लाया वहीं से एक तलवार भी ले आ।
मगर रामकृष्ण ने कहा: मां को और तलवार से काट दूं! इससे तो खुद ही मर जाना पसंद करूंगा।
तोतापुरी ने कहा: फिर जैसी तेरी मर्जी। मगर यह करना ही होगा। अगर तू एक सीढ़ी और पार करना चाहता है तो यह काली को छोड़ ही देना होगा। अब यही बाधा है। यही तेरी आराध्य, यही तेरी पूजा और प्रार्थना, यही तेरी भक्ति-अर्चना, यही बाधा है। तू कोशिश कर।
बार-बार रामकृष्ण आंख बंद करें, कोशिश करें, मगर कोशिश न हो पूरी। आंख बंद करें कि आंसुओं की धार, कि आनंदमग्न हो डोलने लगें। और तोतापुरी कहें: फिर वही! अब तू यह किसलिए डोल रहा है? क्योंकि अद्वैत-भाव में डोलना वगैरह नहीं होता। और आंसू वगैरह की क्या जरूरत है? अद्वैत-भाव में तो सब थिर हो जाता है।
रामकृष्ण कहें: मगर मैं भूल ही जाता हूं, आपकी याद ही नहीं रहती। आपने जो कहा वह भी भूल जाता है। जैसे ही आंख बंद करता हूं और मां के दर्शन होते हैं--अहा, बस फिर मुझे न आपकी याद रहती है, न आपके उपदेश की याद रहती है।
तो तोतापुरी ने कहा कि मैं अब आखिरी उपाय करूंगा, क्योंकि कल सुबह मुझे जाना है। वे गए और रास्ते से एक कांच का टुकड़ा उठा लाए। पड़ा होगा किसी बोतल का टूटा हुआ। और उन्होंने रामकृष्ण को कहा कि तू आंख बंद कर और जैसे ही मैं देखूंगा कि डोलने लगा, आंख में आंसू आने लगे, जैसे ही मुझे लगेगा कि अब प्रतिमा खड़ी हुई, मैं तेरे माथे को इस कांच के टुकड़े से काट दूंगा। और जब मैं तेरे माथे को काटूं, उस वक्त तू भी एक बार हिम्मत करके उठा कर तलवार दो टुकड़े कर देना। इधर मैं तेरा माथा काटूं उधर तू मैया को काट देना।
बात तो बड़ी कठिन थी। बड़ी मुश्किल थी। अपनी मां को साधारणतः मारना बहुत मुश्किल है। और फिर काली मां को मारना तो और भी बहुत मुश्किल है। और यही तो जिंदगी भर की साधना थी रामकृष्ण की। और इस साधना में खूब फूल खिले थे और खूब रस बहा था, खूब आनंद उमगा था, खूब गीत जन्मे थे। इस सबको पोंछ देना एकबारगी! मगर तोतापुरी कल सुबह चला जाए... और तोतापुरी जैसा आदमी मिलना फिर मुश्किल है।
तो हिम्मत की, तोतापुरी ने काट दिया माथा। लहूलुहान, खून की धार बह गई रामकृष्ण के माथे से। और जब तोतापुरी ने माथा काटा तब उन्हें भी याद आई भीतर। उठाई उन्होंने एक तलवार कल्पना की और दो टुकड़े कर दिए काली के। छह घंटे के लिए थिर हो गए। रोआं भी न हिला। छह घंटे के लिए पत्थर हो गए! और जब आंख खोली तो आज एक अपूर्व दशा थी--जो आनंद के भी पार है, जो सारी अभिव्यक्तियों के पार है! रामकृष्ण ने जो वचन, पहला वचन बोला छह घंटे के बाद वह यही था: आज अंतिम बाधा गिर गई। बहुत-बहुत धन्यवाद दिया तोतापुरी को कि तुम्हारी करुणा अपार है। आज अंतिम बाधा गिर कई! आज आखिरी सीढ़ी पार हो गई।
चाह भी छोड़नी होती है। वही कठिनाई है।
पूछते तुम संतोष:
‘सुलभ तेरी चाह है,
पर तू कठिन।
पर कर न पाया,
चाह का तेरी शमन।
चाह में बीती उमर,
पर तुम न आए।
मृत्यु जीवन में झलकने लग गई,
पर तुम न आए।’
अगर चाहते हो कि परमात्मा आए तो चाह को भी जाने दो। यह मांग भी मत उठाओ। यह शर्त भी मत लगाओ।
ज्यों-ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों-त्यों तुम अनजान बन गए!
--ऐसा जीवन का गणित है। यह चाह तो ‘मैं’ का ही भाव है। यह चाह तो ममता ही है--परमात्मा मेरा हो जाए, मेरी मुट्ठी में हो जाए। यह अहंकार की अंतिम सूक्ष्म प्रक्रिया है। सावधान! सावचेत!
ज्यों-ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों-त्यों तुम अनजान बन गए!
मानव की सामर्थ्य नहीं है
मानव की अवहेला कर दे!
ओ अभिमानी इसीलिए क्या,
तुम निर्मम पाषाण बन गए!
ज्यों-ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों-त्यों तुम अनजान बन गए!
युग-युग तुम्हें सजीव बना कर,
अक्षत, रोली, फूल चढ़ाए!
किंतु दान देने की बेला,
तुम तो फिर निष्प्राण बन गए!
ज्यों-ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों-त्यों तुम अनजान बन गए!
चाहा कब था पलकों से,
बाहर नयनों का आए पानी!
पर उर के उदगार अधर पर,
आते-आते गान बन गए!
ज्यों-ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों-त्यों तुम अनजान बन गए!
परमात्मा को अपना बनाना हो तो ‘मैं’ को मिटाना पड़ता है। नहीं तो परमात्मा और-और अनजान बनता जाता है। जब तक ‘मैं’ है तब तक दूरी है। ‘मैं’ ही दूरी है। ‘मैं’ के अतिरिक्त और कोई दूरी नहीं है।
तुम हृदय के पास हो
है पास जितनी सांस ये,
दूर हो तुम दूर जितनी
चिर मिलन की आस है!
तुम मधुर हो मधुर जितनी
प्रीति की मृदु भावना,
किंतु कटु इतने कि जितनी
स्वार्थों की साधना!
तुम सरल हो सरल जितनी
शिशु-हृदय की भावना,
तुम कुटिल हो कुटिल जितनी
है कपट की कामना!
तुम विकल हो विकल जितनी
मृदु-मिलन की कामना,
शांत हो तुम शांत जितनी
है विरागी भावना!
तुम करुण हो करुण जितनी
विफल आंसू-धार है,
तुम निठुर हो निठुर जितना
मृत्यु का प्रहार है!
तुम हृदय के पास हो
है पास जितनी सांस ये,
दूर हो तुम दूर जितनी
चिर मिलन की आस है!
सब तुम पर निर्भर है। तुम्हारा परमात्मा तुम्हारा ही प्रतिबिंब है। जब तक तुम हो तब तक तुम्हारा परमात्मा तुम्हारी ही छाया होगा। तुम्हारे मंदिरों में तुम्हारी ही मूर्तियां विराजमान हैं, क्योंकि तुमने उन मूर्तियों को अपनी ही कल्पना में गढ़ा है। तुम्हारी मस्जिदों में तुम्हारी ही प्रार्थनाएं की जा रही हैं--तुम्हारे ही द्वारा। और तुम्हारे चर्चों में तुम अपने ही सामने, अपने ही प्रतिबिंबों के सामने घुटने टेके खड़े हो।
जब तक ‘मैं’ शेष है तब तक तुम जो भी करोगे उसमें भ्रांति कायम रहेगी। एक ही सूत्र है--परम सूत्र: ‘मैं’ को विदा कर दो! शून्य हो जाओ, रिक्त हो जाओ।
घबड़ाहट होगी रिक्तता में बहुत, बेचैनी होगी बहुत, डर लगेगा बहुत। लगेगा कि मृत्यु हो गई। मृत्यु है भी वह। अहंकार की मृत्यु--महामृत्यु है! लेकिन उसी मृत्यु में महा जीवन का अवतरण होता है।
धन्य हैं वे जो अहंकार की दृष्टि से मर जाते हैं, क्योंकि उनके जीवन में परमात्मा उतरता है।
तुम जब तक हो, परमात्मा नहीं है। तुम जहां नहीं वहां परमात्मा है। तुम खो जाओ तो परमात्मा मिल जाए। तुम बने रहो तो परमात्मा खोया रहेगा।
परमात्मा का पाना सहज है। पहले पाने की गहन आकांक्षा करो, फिर पाने की आकांक्षा को छोड़ दो!
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। मेरी बात को सुन कर एक तो वे हैं, जो कहेंगे: जब छोड़ना ही है तो फिर आकांक्षा करना ही क्यों? उनको परमात्मा कभी नहीं मिलेगा। और दूसरे वे हैं, जो कहते हैं: जब आकांक्षा को ही करना है पूरा-पूरा, तो फिर छोड़ना क्या, छोड़ना क्यों? उनको भी परमात्मा नहीं मिलेगा।
परमात्मा का गणित जरा दुरूह है। पहले पकड़ो पूरा-पूरा। और पकड़ो इसलिए कि छोड़ सको। पकड़ो इतना पूरा-पूरा कि कुछ कंजूसी न रह जाए। और तब छोड़ दो और हाथ खाली हो जाने दो। और तुम चकित हो जाओगे, विस्मयविमुग्ध--रस का सागर तुममें उतर आएगा!
बूंद ही सागर में नहीं गिरती, सागर भी बूंद में गिरता है--लेकिन उस बूंद में सागर गिरता है जो शून्य है। तभी तो सागर को समा पाएगी; नहीं तो छोटी सी बूंद सागर को कैसे समाएगी?
संतोष, अभी तुम बूंद हो--भरी-भरी! खाली हो जाओ। सागर फिर तुम्हारा है। फिर कोई रुकावट नहीं है।
खाली होना सूत्र है। शून्य होना सूत्र है। शून्य होना साधना है। और जो शून्य है वह पूर्ण होकर सिद्ध हो जाता है। शून्य होना साधना है--पूर्णता सिद्धि है।
आज इतना ही।
भगवान, बिहारी की एक अन्योक्ति है: फूल्यो अनफूल्यो रह्यो गंवई गांव गुलाब। क्या भारत में आपके साथ भी यही हो रहा है? दूर-दिगंत तक तो आपकी सुवास फैल रही है और भारत अछूता रहा जा रहा है?
कृष्ण वेदांत! यह सहज है, स्वाभाविक है, जीवन का सामान्य क्रम है। इससे अन्यथा नहीं हो सकता। जीसस ने कहा है: पैगंबरों को उनके ही गांव में समादर नहीं मिलता। मिले भी कैसे! जीसस जिस गांव में पैदा हुए, जिस गांव में बड़े हुए, जिस गांव की धूल में खेले, पढ़े-लिखे, जिस गांव में पिता की लकड़ी की दुकान पर लकड़ियां बेचीं, जंगल से लकड़ियां काटीं, पिता को लकड़ियों के सामान बनाने में साथ-सहयोग दिया--वह गांव अचानक कैसे स्वीकार कर ले कि जीसस में परमात्मा का अवतरण हुआ है! और यह घटना इतनी आकस्मिक है, इतनी अविच्छिन्न है अतीत से कि दोनों के बीच तालमेल बिठाना गांव के लोगों को असंभव है। यह बढ़ई का लड़का अचानक ईश्वर-पुत्र हो गया! इससे गांव के अहंकार को भी चोट लगती है, ईर्ष्या भी जगती है, संदेह भी उठता है, अविश्वास भी पकड़ता है। और मानने का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता।
जीसस को देखने के लिए थोड़ी दूरी चाहिए। हर चीज को देखने के लिए परिप्रेक्ष्य चाहिए। अगर तुम्हें दर्पण में अपनी तस्वीर देखनी है तो थोड़े फासले पर खड़ा होना होगा। अगर तुम बिलकुल दर्पण से नाक लगा कर खड़े हो जाओ तो अपना चेहरा भी दिखाई न पड़ेगा। थोड़ी दूरी, और चीजें साफ होती हैं।
जब पहली बार यूरी गागरिन अंतरिक्ष में गया और पहली बार उसने दूर से पृथ्वी को देखा तो उसने अपने संस्मरणों में कहा है कि मेरे मन में ऐसा भाव नहीं उठा कि मैं रूसी हूं; ऐसा भाव नहीं उठा कि कम्युनिज्म की विजय हो; ऐसा भाव नहीं उठा कि पृथ्वी देशों में विभक्त है। उतने अंतर से देखने पर सारी पृथ्वी एक मालूम हुई। देशों की सब सीमाएं झूठी हो गईं, सब कल्पित नक्शों पर रह गईं। असली पृथ्वी तो कहीं भी बंटी नहीं है, न असली सागर बंटे हैं, न असली नदियां बंटी हैं। आदमी के नक्शों में सब बंटाव है।
यूरी गागरिन ने कहा है कि जो मेरे मन में भाव उठा वह यह--मेरी पृथ्वी! मेरा देश नहीं, मेरी जाति नहीं, मेरा धर्म नहीं, मेरा विचार नहीं, मेरी विचारधारा नहीं, मेरी राजनैतिक कल्पना-परिकल्पना नहीं--मेरी पृथ्वी, बस मेरी पृथ्वी! हरी-भरी इतनी प्यारी!
पृथ्वी से दूर जाकर यूरी गागरिन को पृथ्वी की वास्तविकता अनुभव में आई। जीसस के गांव के लोग जीसस को न पहचान सके। बुद्ध जब बारह वर्षों के बाद जागरूक होकर घर आए तो खुद बुद्ध के पिता न पहचान सके। बुद्ध के पिता ने कहा कि अभी भी तुझे क्षमा कर सकता हूं। ऐसे तूने मुझे बहुत आघात पहुंचाया है। इस बुढ़ापे में, इकलौता बेटा तू मेरा और छोड़ कर भाग गया, न शर्म, न संकोच। यह भगोड़ापन है। और यह भिखमंगों का समूह इकट्ठा कर लिया। अभी भी लौट आ। यद्यपि घाव गहरा है, क्षमा करना कठिन है; लेकिन पिता का हृदय है, मैं तुझे क्षमा कर दूंगा। आ और सम्हाल अपने राज्य को। इसे मैं किसे सौंप जाऊं, मेरी मौत करीब आती है!
बुद्ध के पिता की आंखें क्रोध से भरी हैं। बुद्ध ने कहा: मेरी भी सुनेंगे, मेरा निवेदन सुनेंगे? जो घर छोड़ कर गया था मैं वही नहीं हूं।
बुद्ध के पिता उस क्रोध में भी हंसने लगे और कहा: यह भी खूब मजाक रही! मैं तुझे नहीं पहचानता? मेरे खून से तू बना है। मेरी हड्डी-मांस-मज्जा से तू बना है। तू मेरा ही एक अंग है, मेरा ही एक विस्तार। मैं तुझे नहीं पहचानता? तू मुझे समझा रहा है कि तू वही नहीं है जो गया था! तू वही है।
थोड़ा सोचो, बुद्ध के पिता भी ठीक कहते हैं कि तू वही है और बुद्ध भी ठीक कहते हैं कि मैं वही नहीं हूं। एक क्रांति घट गई है बीच में। चेतना में एक रूपांतरण हो गया है। लेकिन वह रूपांतरण तो आंतरिक है। वह रूपांतरण तो उनको दिखाई पड़ेगा जो झुकेंगे; बुद्ध के पिता तो झुक नहीं सकते। पिता-भाव, अहंकार खड़ा है। वे तो क्रोध से भरे हैं, झुकने की बात कहां? वे तो नाराज हैं। वे तो क्षमा करने में भी सोच रहे हैं कि बहुत उपकार कर रहे हैं। और जब उन्होंने यह कहा कि तू मुझसे पैदा हुआ, मैं तुझे नहीं पहचानता! तो बुद्ध ने कहा: फिर मैं निवेदन करता हूं कि मैं आपसे आया हूं लेकिन आपसे पैदा नहीं हुआ। आप रास्ता थे मेरे आने के, लेकिन आप मेरे जन्मदाता नहीं हैं। और मैं यह भी निवेदन कर दूं कि आपके भी पहले मैं था। और-और जन्मों में भी मैं था। और-और मेरे पिता हुए, और-और मेरी माताएं हुईं। न मालूम कितने गर्भों से मैं गुजरा हूं, लेकिन वे सब मार्ग थे। उनसे मैं उत्पन्न नहीं हुआ था, उनसे गुजरा था। आपसे भी गुजरा हूं। आप जरा क्रोध को शमन करें, गौर से मेरी तरफ देखें, मेरी आंखों में झांकें।
बुद्ध की पत्नी भी बहुत नाराज थी। बारह वर्ष बाद ये घर लौटे थे। बारह वर्ष का इकट्ठा क्रोध संगृहीभूत था। बड़ी मानिनी थी; राजपुत्री थी। किसी से कहा भी न था और कभी आंख से एक आंसू भी न गिराया था। क्षत्राणी थी। ऐसे आंसू गिराना शोभा भी न देता था। शिकायत भी न की थी। किसी ने कभी शिकायत भी न सुनी थी। पी गई थी, सब पी गई थी, जहर पी गई थी; मगर जहर कंठ तक भरा था! बुद्ध आए तो सब टूट पड़ा। एकदम पागल सिंहनी की भांति बुद्ध पर क्रुद्ध हो उठी। लांछना करने लगी, शिकायत करने लगी, निंदा करने लगी, व्यंग्य करने लगी।
बुद्ध अपने बेटे को छोड़ कर गए थे, तब बेटा केवल नया-नया पैदा हुआ था, एक ही दिन का था। अब वह बारह वर्ष का हो गया था। क्रोध में मां ने अपने बेटे से कहा कि ले, ये तेरे पिता हैं, तू बार-बार पूछता था कि मेरे पिता कौन हैं, मेरे पिता कहां हैं, ये रहे सज्जन! ये जो भाग गए थे छोड़ कर--मुझे और तुझे, असहाय! इनसे मांग ले अपनी बपौती! इन्होंने तुझे पैदा किया है! मांग ले इनसे अपना अधिकार!
मजाक कर रही थी वह, व्यंग्य कर रही थी। बुद्ध के पास देने को था भी क्या? बेटा तो समझा नहीं, मां की बात सुन कर उसने अपनी झोली फैला दी। उसने कहा कि अगर आप ही मेरे पिता हैं--तो मुझे संपदा, मेरा अधिकार, मेरी वसीयत! बुद्ध हंसने लगे और उन्होंने अपना भिक्षापात्र... वही उनके पास था और तो कुछ था नहीं... अपना भिक्षापात्र राहुल को दे दिया और कहा: राहुल, यह तेरी दीक्षा हुई! तू संन्यस्त हुआ, क्योंकि मेरे पास एक संपदा है जो मैं केवल संन्यासियों को दे सकता हूं। वह संपदा बाहर की नहीं है, राहुल। वह संपदा सोना-चांदी, हीरे-जवाहरातों की नहीं है--आत्मा की है। तू अभी छोटा है, मगर शायद इसीलिए कि तू अभी छोटा है समझ पाए। बड़े तो बड़े ज्ञान से भरे हैं। पिता तो सुनने को भी राजी नहीं हैं, शायद बेटा सुन ले!
और बेटे ने पहले सुना। राहुल झुका चरणों में और उसने कहा: मुझे अंगीकार करें! राहुल को झुकते देख कर, राहुल की आंखों से गिरते आनंद के आंसू टपकते देख कर, यशोधरा झुकी--बुद्ध की पत्नी झुकी। उसे भी स्मरण आया कि मैं क्या कर रही हूं, किससे लड़ रही हूं! मैं जरा गौर से तो देखूं, यह वही व्यक्ति तो नहीं है! इतनी गालियां मैंने दी होतीं, जो बारह वर्ष मुझे पहले छोड़ कर गया था, तो मेरी गर्दन दबा दी होती, कि गर्दन मेरी तलवार से उतार दी होती। लेकिन यह चुपचाप खड़ा है, जैसे फूल बरसते हों, जैसे अंगारे नहीं, जैसे गालियां नहीं, स्वागत का गीत गाया जा रहा हो, मंगल गीत गाए जा रहे हों! अविक्षुब्ध, निस्तरंग, यह जो सामने खड़ी है प्रतिमा, यह वही तो नहीं है जिसे मैंने पति की तरह जाना था। नहीं; यह कोई और है। भीतर कुछ बात बदल गई है। भीतर की व्यवस्था बदल गई है।
राहुल को झुकते देख कर... पर ध्यान रखना, राहुल बारह साल का लड़का, पहले झुका; सरल था, पुरानी कोई धारणा नहीं थी। पिता की कोई पुरानी याद नहीं थी। इसलिए पुरानी कोई बाधा नहीं थी। इसलिए पुरानी कोई अपेक्षा नहीं थी। सीधा देख सका। बीच में कोई धारणाओं का जाल न था, आंख पर कोई पट्टियां न थीं। कोई विचार न थे कि पिता कैसे होने चाहिए। पहली ही बार देखा था और अभिभूत हो गया था, आनंदमग्न हो गया था। अगर यही मेरे पिता हैं... तो अहोभाव उतर आया था। निर्दोष उस चित्त में बुद्ध की प्रतिमा सीधी-सीधी बनी थी। उसकी क्रांति को होते देख कर यशोधरा झुकी। यशोधरा को झुकते देख कर बुद्ध के पिता शुद्धोधन झुके। फिर पूरा परिवार झुका।
कठिन है, जो निकट रहे हैं, जिन्होंने बचपन से देखा है, जो साथ बड़े हुए हैं, साथ खेले हैं, लड़े हैं, झगड़े हैं, उन्हें समझना निश्चित कठिन है। उन पर नाराज न होना।
बिहारी ठीक कहते हैं:
‘फूल्यो अनफूल्यो रह्यो गंवई गांव गुलाब।’
गंवारों के गांव में गुलाब खिला, खिला नहीं खिला बराबर रहा। ‘फूल्यो अनफूल्यो रह्यो।’ किसी ने देखा ही नहीं। आखिर गुलाब के लिए भी तो पारखी चाहिए! हीरे के लिए भी तो जौहरी चाहिए! और ये हीरे तो बड़े गहराई के हीरे हैं। प्रशांत महासागर की गहराई ऐसी नहीं और गौरीशंकर की ऊंचाई ऐसी नहीं।
एक आदमी को राह पर चलते हीरा मिल गया--बड़ा हीरा! मगर गंवार था। अपने गधे पर सामान लाद कर अपने गांव लौट रहा था बाजार से, सोचा उठा लें इस पत्थर को, बच्चों के खेलने के काम आ जाएगा। फिर जब पत्थर उठाया और चमकदार दिखाई पड़ा, अपने गधे से उसे बहुत प्रेम था तो सोचा कि इसी गधे के गले में बांध दें। और तो गधे को कुछ दे भी नहीं पाया कभी, यह बड़ी सेवा भी करता है, इसके गले में लटकता रहेगा, सूरज की रोशनी में चमकता रहेगा, गांव के सब गधों को मात कर दूंगा। गधे के गले में बांध दिया। लाखों का हीरा गधे के गले में बांध दिया!
थोड़ी ही दूर गया होगा कि एक जौहरी आता था अपने घोड़े पर सवार, उसने इतना बड़ा हीरा अपनी जिंदगी में देखा नहीं था। वह तो एकदम अवाक रह गया। रुका, उसने कहा: भाई, इस पत्थर का क्या लोगे? बहुत हिम्मत की उस गंवार ने, क्योंकि पत्थर के कोई दाम होते हैं! बहुत हिम्मत करके कहा कि ठीक है, आठ आने दे दो। लेकिन जौहरी पक्का कंजूस, उसने सोचा: चार आने में मिल जाए तो आठ आने क्यों खराब करने हैं। लाखों का हीरा! तो उसने कहा: चार आने ले ले, इस पत्थर का तू करेगा क्या? इस पत्थर के कौन तुझे आठ आने देगा?
गंवार ने सोचा कि चार आने में क्या बेचना, इससे तो गधे के गले में ही पहनाए रखेगा तो ठीक है। कहा कि चार आने में नहीं बेचना है। जौहरी चला गया दो-चार कदम कि शायद दो-चार कदम जाने पर इसको अक्ल आए कि पत्थर के चार आने भी कौन देगा। लेकिन तभी संयोग की बात है, एक दूसरा जौहरी आ गया और उसने आठ आने में वह हीरा खरीद लिया।
पहला जौहरी वापस लौटा, देख कर कि नहीं कोई रास्ता बनता तो चलो आठ आने में ही खरीद लो। लेकिन तब तक तो सौदा हो चुका था। तो उस पहले जौहरी ने उस गांव के गंवार को कहा कि तू महामूढ़ है। अरे पागल, यह लाखों का हीरा तूने आठ आने में बेच दिया! उसने कहा: मैं महामूढ़ हूं तो तुम कौन हो? मैं तो मूढ़ हूं, इसलिए इस हीरे को आठ आने में बेच दिया; मगर तुम्हें तो पता था कि यह लाखों का है, तुम आठ आने में न ले सके! मूढ़ फिर कौन है?
हीरों को पारखी चाहिए। और चेतना के हीरों को जानने के लिए तो बहुत मुश्किल से पारखी मिलते हैं। तो बुद्धपुरुष अपने ही जगहों में नहीं पहचाने जाते। तीर्थंकरों को अपने ही स्थानों पर सम्मान नहीं मिलता। यह स्वाभाविक क्रम है। इसमें न तो चिंतित होना, न नाराज होना। इसमें न क्रोधित होना, न लोगों की लांछना करना। जैसा होना चाहिए वैसा ही हो रहा है। जो सदा हुआ है वही मेरे साथ भी हो रहा है। वही होना भी चाहिए।
दूर-दूर से लोग आ रहे हैं। लेकिन भारतीय मन को थोड़ी अड़चन है; उसकी धारणाएं हैं। जब पश्चिम से कोई आता है तो उसके पास कोई धारणा नहीं होती। वह तलाश में आता है। उसके पास एक खोज होती है जरूर, एक प्रश्न होता है जरूर, एक जिज्ञासा होती है जरूर कि जानूं; लेकिन साफ-साफ स्पष्ट धारणा नहीं होती, कि वह क्या जानने आ रहा है। भारतीय जब आता है तो वह पहले से ही मान कर आ रहा है। कोई कृष्ण को मानता है, कोई राम को मानता है, कोई बुद्ध को मानता है, कोई महावीर को मानता है।
पश्चिम में एक सौभाग्य घटित हुआ है कि पश्चिम में कोई कुछ भी नहीं मानता। मान्यताओं के दिन गए। लोग न मोज़ेज़ को मानते हैं और न जीसस को मानते हैं। इन तीन सौ वर्षों में पश्चिम में एक महाक्रांति घटी है, लोगों के चित्त निर्भार हो गए हैं। लोग अतीत की तरफ देखते ही नहीं, वह आदत ही छोड़ दी। पीछे देखने की आदत ही समाप्त हो गई। लोग आगे देखते हैं।
भारत पीछे देखता है। अब जो आदमी राम को मानता है, वह एक खास राम की प्रतिमा मुझमें देखना चाहेगा। वह प्रतिमा तो मुझमें मिलेगी नहीं; कहां राम, कहां मैं! वे अगर मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो मैं अमर्यादा पुरुषोत्तम हूं! यहां कोई मर्यादा नहीं है। मैं कोई धनुषबाण लिए भी नहीं खड़ा हूं। एक राम का अपना व्यक्तित्व है, अपना एक जीवन का रंग है। सुंदर है, पर उन्हीं को सोहता है। अगर दूसरा कोई वैसा करने की कोशिश करेगा तो वह रामलीला का राम होगा, वह असली राम नहीं होगा। तो तुम्हें रामलीला के राम भी जंच जाएंगे, रामलीला में भी जो राम बन जाते हैं, गांव का कोई लफंगा ही राम बन जाए, तो भी गांव के लोग उसके पैर छूते हैं। जानते हैं कि ये सज्जन कौन हैं, भलीभांति जानते हैं, मगर मुकुट-वुकुट इत्यादि बांधे हुए, धनुषबाण लिए...। सीता जी भी जो बनी बैठी हैं वह भी गांव का ही कोई लड़का बना बैठा है। उसके भी पैर पड़ रहे हैं--जय हो सीता मैया की! और जानते हैं भलीभांति कि कौन हैं। लेकिन उनकी धारणा से मेल खा रहा है। बस धारणा से मेल खा जाए तो उनका सिर झुक जाता है।
मैं राम नहीं हूं। तो जो राम की धारणा से मेरे पास आएगा, वह तो खाली हाथ लौट जाएगा--निराश, हताश। कोई कृष्ण की धारणा से भरा आया है, कोई बुद्ध की, कोई महावीर की। यहां सबकी अपनी धारणाएं हैं। यह देश अतीत की धारणाओं से इतना दबा है कि यहां बहुत थोड़े से व्यक्ति हैं जो खाली आंख से देखने में समर्थ हैं।
निश्चित, जो खाली आंख से देखने में समर्थ हैं वे भारतीय मेरे पास आ रहे हैं, आते रहेंगे। मुझसे तो केवल उन भारतीयों का संबंध जुड़ सकता है जो अब एक अर्थ में भारतीय नहीं हैं--सिर्फ मनुष्य हैं, मानवीय हैं, जागतिक हैं; जिनके चित्त का आकाश बड़ा है, छोटी-छोटी सीमाओं में संकुचित नहीं है--हिंदू की, मुसलमान की, ईसाई की, जैन की, सिक्ख की। उन भारतीयों से मेरा संबंध जुड़ेगा। वे ही केवल परख पाएंगे इस हीरे को, क्योंकि उनके पास आंख होगी--खाली, अपेक्षा-शून्य, और एक परिप्रेक्ष्य होगा, एक फासला होगा, एक दूरी होगी। वे देख सकेंगे। मेरे और उनके बीच में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर कोई खड़े नहीं होंगे। अगर मेरे और तुम्हारे बीच में कोई भी खड़ा है तो आड़ बन जाएगी, तुम मुझे नहीं देख पाओगे।
और मैं किसी की भी धारणा को पूरा नहीं कर सकता। मैं अपने ढंग से ही जीऊंगा। मैं किसी भी समझौते को राजी नहीं हूं। लाखों भारतीय आ सकते हैं, अगर मैं जरा समझौता करूं। और समझौता कठिन नहीं है। मैं बुद्ध जैसे कपड़े पहन कर बैठ सकता हूं, तो जो बौद्ध धारणा के लोग हैं वे तत्क्षण मेरे पास आने लगेंगे। मगर वैसा झूठ संभव नहीं है, वैसा समझौता संभव नहीं है। मैं तो जैसा हूं वैसा ही जीऊंगा; कोई आए ठीक, कोई न आए ठीक; कोई बिलकुल न आए तो भी ठीक। कोई उपाय नहीं है। मैं जैसा हूं उससे रत्ती भर समझौता नहीं किया जा सकता। इसलिए मुझसे उनके ही संबंध जुड़ेंगे जो किसी तरह का समझौता कराने की आकांक्षा लेकर नहीं आए हैं--जो सीधा-सीधा मुझे देखने को राजी हैं।
स्वामी रामतीर्थ अमरीका से वापस लौटे। अमरीका में उन्हें अपूर्व सत्कार और सम्मान मिला। हजारों लोग उनकी सुगंध में नाचे। राम थे भी आदमी बहुत अदभुत! परमात्मा की झलक उनके शब्द-शब्द में थी, उनके उठने-बैठने में थी, उनकी पलक-पलक में थी। लेकिन जब वे भारत आए तो सोचा कि काशी से ही यात्रा शुरू करें भारत की। बस काशी में ही मुश्किल हो गई। मुझसे पूछते तो कहता कि काशी को तो बिलकुल छोड़ ही दो; काशी से तो यात्रा शुरू हो ही न पाएगी। और वही हुआ। सोचा था कि काशी के लोग तो समझेंगे; जब अमरीका जैसे देश के लोग, जिनको धर्म से कोई संबंध नहीं रहा, वे इतने आह्लादित हुए हैं, इतने आनंदमग्न हुए हैं, नाच उठे हैं, तो काशी में तो लोग अपने हृदय खोल देंगे, पलक-पांवड़े बिछा देंगे; में जो कहता हूं उसे काशी में तो लोग समझेंगे ही। लेकिन काशी में कोई नहीं समझा। उलटे एक पंडित बीच में खड़ा हो गया और उस पंडित ने कहा कि यह क्या बकवास लगा रखी है, यह कोई वेदांत है? संस्कृत आती है?
रामतीर्थ को संस्कृत नहीं आती थी। फारसी से पढ़े थे। पंजाब में पैदा हुए थे। उन दिनों फारसी के दिन थे। उर्दू जानते थे, फारसी जानते थे, अंग्रेजी जानते थे, संस्कृत नहीं आती थी। दुनिया में किसी ने पूछा नहीं था कि संस्कृत आती है या नहीं! अब बुद्ध होने के लिए कोई संस्कृत का आना अनिवार्य है? अगर ऐसा हो तो बुद्ध भी बुद्ध नहीं थे, क्योंकि उनको भी संस्कृत नहीं आती थी और महावीर भी जिन नहीं थे, क्योंकि उनको भी संस्कृत नहीं आती थी। और मोहम्मद, बेचारे मोहम्मद का तो क्या हिसाब लगाओ! और जीसस और मूसा और जरथुस्त्र और लाओत्सु, इनको तो हिसाब के बाहर छोड़ दो।
रामतीर्थ ने कहा: संस्कृत तो मुझे नहीं आती। वह पंडित तो खिलखिला कर हंसा ही, और भी लोग खिलखिला कर हंसे। उन्होंने कहा: संस्कृत नहीं आती तो क्या वेदांत बघार रहे हो! पहले संस्कृत सीखो। बिना संस्कृत जाने वेदांत जानोगे कैसे? ब्रह्मसूत्र पढ़ो पहले।
ब्रह्मसूत्र राम ने नहीं पढ़ा था। राम ने ब्रह्म को पढ़ था, ब्रह्मसूत्र क्या खाक पढ़ते! जब ब्रह्म को ही पढ़ लिया था तो अब ब्रह्मसूत्र क्या पढ़ना? जहां से बादरायण ने ब्रह्मसूत्र पाया था, जब उस मूलस्रोत में ही डुबकी खुद राम ने मार ली थी तो अब उधार बादरायण को क्यों जाना? न उपनिषद पढ़े थे, न वेद पढ़ा था। पंडितों ने सलाह दी कि पहले संस्कृत सीखो, फिर वेदांत; नहीं तो तुम समझोगे ही नहीं। खुद ही नहीं समझोगे, दूसरों को क्या समझाओगे?
उनमें से एक ने भी इस आदमी के भीतर नहीं झांका। राम यह स्थिति देख कर इतने चकित हुए, अवाक हुए कि उन्होंने कहा कि इस तरह के लोगों के बीच श्रम करने से फायदा क्या है! और इन्हीं लोगों के गैरिक वस्त्र पहन कर मैं सारी दुनिया में संदेश देने गया था। उन्होंने उसी दिन गैरिक वस्त्र छोड़ दिए। साधारण वस्त्र पहन लिए और हिमालय चले गए। उनके मित्रों ने कहा भी कि आपने गैरिक वस्त्र क्यों छोड़ दिए? तो उन्होंने कहा: इसलिए छोड़ दिए कि जिनसे गैरिक वस्त्रों को पहचाने जाने की आशा थी वे नहीं पहचान पाए, तो अब इनको रखने का क्या सार है? इनका कोई मूल्य नहीं रहा। असल में गैरिक वस्त्र छोड़ कर उन्होंने यह घोषणा कर दी कि मैं तुम्हारी तथाकथित सड़ी-गली परंपरा से मुक्त होता हूं, अलग होता हूं। अब तुम मुझे अपना संन्यासी मत समझो।
यह ऐसा ही सदा होता रहा है। जो लोग दूर-दूर देशों से यहां आए हैं और करीब-करीब तीस देशों से लोग यहां आए हैं, दुनिया के कोने-कोने से--वे धारणा-शून्य, दर्पण जैसा खाली मन लेकर आते हैं। उनके दर्पण जैसे मन में मेरा वही रूप उभरता है जो है। यहां जो लोग दूसरे देशों से आए हैं, वे मुझमें जीसस को पाना नहीं चाहते। कभी-कभी वैसे लोग आ जाते हैं, वे चूक जाते हैं। कभी-कभी कोई बूढ़ा, कभी कोई वृद्धा आ जाती है, जो कहती है कि मैं तो जीसस को मानती हूं, आपको कैसे मान सकती हूं? तो ठीक है, मेरा संबंध नहीं बन पाता। तो एक अवसर उसे मिला था वह चूक गई।
मगर भारत में तो ऐसे निन्यानबे प्रतिशत लोग हैं, जो पहले से ही धारणाएं बना कर बैठे हैं। उनकी धारणाएं ही अड़चन हैं। थोड़े से सौभाग्यशाली जिनकी कोई धारणा नहीं है या जो इतने साहसी हैं कि धारणा को छोड़ सकते हैं, जो मन को एक तरफ सरका कर रख सकते हैं और सीधे-सीधे देख सकते हैं--आंख में आंख डाल कर, हृदय में हृदय डाल कर--वे मुझे जरूर पहचान लेंगे। वे नहीं पहचानेंगे तो कौन पहचानेगा? मैं उन थोड़े से लोगों के लिए ही हूं।
यह देश बहुत पुराणपंथी है। इसलिए अड़चन है। फूल तो खिला है, सुगंध भी उड़ रही है, मगर तुम्हारे नासापुट सड़ गए हैं। तुम्हारे नासापुट विशिष्ट तरह की सुगंध के आदी हो गए हैं। अब तुम किसी और सुगंध को समझ ही नहीं सकते। और जिन सुगंधों को तुम समझ सकते हो उनका उड़ना कभी का बंद हो चुका है। वे अब अतीत की बातें हो गईं।
अब राम काम नहीं आ सकते, न कृष्ण, न बुद्ध, न महावीर। जैसे ही कोई सदगुरु विदा होता है, बस कहानी रह जाती है। फिर पत्थर में बनी मूर्तियां रह जाती हैं। कागजों पर खुदे हुए शब्द रह जाते हैं। फिर पूजते रहो, पूजा हो सकती है, जीवन-रूपांतरण नहीं। फिर पूजो लाख, पटको सिर जितना पटकना हो, मगर तुम जैसे हो वैसे के वैसे रहोगे। शायद इसलिए तुम मजे से सिर पटकते हो क्योंकि तुम्हें डर भी नहीं है, कुछ होगा भी नहीं। गीता पर सिर पटको कि कुरान पर सिर पटको, क्या फर्क पड़ता है? तुम जानते हो कि तुम जैसे हो वैसे ही रहोगे, न कुरान कुछ बिगाड़ लेगा, न गीता कुछ बिगाड़ लेगी। न राम कुछ कर सकते हैं, न कृष्ण कुछ कर सकते हैं। राम-कृष्ण क्या करेंगे? तुम्हारे ही हाथ के बनाए हुए खिलौने हैं, तुम्हारी ही मूर्तियां हैं। तुम्हारे ही बस में हैं। चाहो तो मुकुट पहना दो, चाहो तो उतार लो। चाहो तो प्रसाद लगाओ, चाहो तो न लगाओ। चाहो तो नहला दो, चाहो तो न नहलाओ। तुम्हारे हाथ में है, तुम्हारे बस में है।
सदगुरु तुम्हारे हाथ में नहीं होता, तुम्हारे बस में नहीं होता। सदगुरु के हाथ में तुम्हें होना पड़ता है। वही जोखिम है। इसलिए जीवित गुरु से जो नहीं जुड़ पाता, वह सिर्फ धोखा दे रहा है, आत्मवंचना कर रहा है। वह मुर्दा गुरुओं की पूजा करके अपने को समझा रहा है कि मैं धार्मिक हूं, लेकिन धार्मिक नहीं है।
जो फूल अब नहीं रहे, उनकी सुवास कैसे रहेगी? जो वृक्ष ही अब नहीं रहे, उनकी छाया में बैठे हो तुम! किसको धोखा दे रहे हो? जो नदियां सूख गईं, उनके किनारे बैठे हो कि तुम्हारी प्यास तृप्त हो जाएगी! होश सम्हालो! उन नदियों को तलाशो जहां जलधार अभी बहती है। उन वृक्षों को खोजो जहां अभी शाखाएं हरे पत्तों से लदी हैं और जहां फूल खिलते हैं और फल हैं। उन व्यक्तियों को खोजो जहां अभी परमात्मा बोल रहा है; जहां अभी परमात्मा जाग रहा है; जहां अभी परमात्मा जी रहा है; जहां अभी परमात्मा नाच रहा है। उसी नृत्य के साथ जुड़ सको तो तुम्हारे जीवन में क्रांति हो सकती है।
पर कृष्ण वेदांत चिंतित मत होना। जैसा मेरे साथ हो रहा है वैसा ही अपेक्षित है। वैसा ही होता है। वैसा ही होता रहा है। वैसा ही होता रहेगा। इसमें समय मत गंवाओ। इसलिए मेरी उनमें चिंता ही नहीं है जरा भी। मेरी तो सिर्फ उन्हीं की तरफ सारी जीवन-ऊर्जा लगी है, जो राजी हैं बदलने को। जो मुझे पहचानने को राजी हैं बस उनके साथ ही मेरा संबंध है, बाकी से मेरा कोई संबंध नहीं है।
मेरी अपनी दुनिया है। जो मुझे पहचानने को राजी हैं, बस वही मेरी दुनिया है। बाकी दुनिया को उपेक्षा कर देना है।
सदा ही बुद्धों के पास एक अलग दुनिया बसती है--इस दुनिया से बहुत भिन्न। उसे बुद्ध-क्षेत्र कहो, जिन-क्षेत्र कहो, उसे जो भी नाम देना हो दो। वह बुद्ध-क्षेत्र, वह जिन-क्षेत्र बन रहा है। प्रेमी आते जा रहे हैं, आते जाएंगे। लाखों लोग रूपांतरित होने वाले हैं। और मैं अपनी सारी ऊर्जा और सारी शक्ति उन पौधों पर ही निछावर करना चाहता हूं जो तैयार हैं खिलने को। उन बीजों के
साथ सिर मारने की मेरी तैयारी नहीं जो पत्थर होने की जिन्होंने जिद कर रखी है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं मोक्ष नहीं चाहता हूं। मैं तो चाहता हूं कि बार-बार जीवन मिले। आप क्या कहते हैं?
रामाधार! मोक्ष तो चाहो भी, तो भी मिलना आसान कहां? नहीं चाहते हो, नहीं मिलेगा, घबड़ाओ मत। नाहक की चिंताएं न लो। कोई मोक्ष ऐसे तुम्हारे पीछे नहीं पड़ा है! मोक्ष के पीछे भी तुम पड़ो तो भी मिलेगा कि नहीं, आसान नहीं। तुम व्यर्थ की दुश्ंिचताओं से घिर रहे हो। कोई मोक्ष तुम्हें दे रहा है? कहीं मोक्ष मिल रहा है, जो तुम कहते हो मैं मोक्ष नहीं चाहता हूं? तुम तो ऐसे डरे मालूम पड़ते हो कि जैसे मैं तुम्हारे ऊपर मोक्ष डालने को ही तैयार हूं!
मोक्ष कोई वस्त्र तो नहीं कि मैं बदल दूंगा। और मोक्ष कोई रंग तो नहीं कि मैं तुम्हें रंग दूंगा। मोक्ष कोई वस्तु तो नहीं कि तुम न भी चाहो तो तुम्हें दे दूंगा। मोक्ष कोई जबरदस्ती तो नहीं।
मोक्ष का अर्थ समझते हो? परम स्वातंत्र्य! तुम नहीं चाहते हो, तो नहीं घटेगा। निश्चिंत रहो, जन्मों-जन्मों तक निश्चिंत रहो। अनंतकाल तक निश्चिंत रहो। तुम नहीं चाहते तो नहीं घटेगा। मोक्ष तुम्हारी परम स्वतंत्रता में घटेगा। तुम जब परिपूर्णता से चाहोगे तो घटेगा। और तब भी आसान नहीं कि तुमने चाहा और घट गया। बड़ी परीक्षाएं और बड़ी अग्नियों से गुजरना है। बड़ी मुश्किल से घटता है। यह कोई उतार नहीं है, चढ़ाव है। यह पर्वत-शिखरों की ऊंचाइयों पर चढ़ना है; श्वास घुटने लगती है, पैर टूटने लगते हैं, हिम्मत छूटने लगती है। यह कोई छोटी-मोटी नदी की जलधार नहीं है कि छलांग लगा गए। यह अपार सागर है, जिसमें दूसरा किनारा तो दिखाई ही नहीं पड़ता। और नावें हमारी बड़ी छोटी हैं और हाथ हमारे छोटे हैं, पतवार हमारी छोटी है। इनमें तो सिर्फ दुस्साहसी उतर पाते हैं।
तुम चिंतित न होओ रामाधार, तुम मोक्ष नहीं चाहते, तथास्तु! मोक्ष नहीं होगा!
तुम कहते हो: ‘मैं तो चाहता हूं कि बार-बार जीवन मिले।’
जरूर मिलेगा। अब तक मिलता रहा, आगे भी मिलता रहेगा। अब तक अनंत-अनंत जीवन मिले हैं। चौरासी कोटि योनियों में भटके हो, तब मनुष्य हुए हो। कीड़े-मकोड़ों से लेकर अब तक की लंबी यात्रा है। जैसी तुम्हारी मर्जी। फिर चौरासी कोटि योनियों में जाना हो तो जा सकते हो। तुम जो कामना करोगे, परमात्मा उसी को आशीष दे देता है। तुम्हारी ही मौज है। अगर तुम्हें नालियों में ही सरकना है, आकाश में उड़ना नहीं, तो नालियों में सरको। गुबरीले को तो गोबर ही स्वर्ग मालूम होता है। गुबरीले को गोबर से अलग करो तो कहेगा: यह क्या करते हो? मुझे तो बार-बार गुबरीला ही होना है। तुम जानते हो कि बेचारा गोबर में सड़ रहा है। मगर गुबरीले की तो समझ ही उतनी है। गोबर ही उसकी दुनिया है। उस दुनिया के पार तुम उसे गुलाब के फूलों के पास बिठाओ, वह कहेगा: यहां कहां ले आए? तुम उसे कमल के फूलों पर बिठा दो, वह कहेगा: भाई, क्यों मुझे मार रहे हो? क्यों मेरा जीवन लेने को तैयार हो? मुझे तो गऊ माता का गोबर चाहिए।
तुम्हें अगर बार-बार जन्म लेना है तो बार-बार जन्म मिलेगा। परमात्मा तुम्हारे विपरीत कभी कुछ न करेगा। परमात्मा ने तुम्हें परम स्वतंत्रता दी है। यही मनुष्य का गौरव है और यही मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना भी है। गौरव है कि तुम जो चुनो वही हो जाओगे और दुर्घटना, कि तुम गलत चुनते हो, कि तुम्हारे सौ चुनाव में निन्यानबे चुनाव गलत होते हैं, कि तुम भूल-चूक से ही कभी ठीक चुन पाते हो। तुम्हारे सब गणित गलत हैं। तुम्हारे हिसाब-किताब गलत हैं।
क्यों तुम बार-बार जन्म लेना चाहते हो? इस जन्म में क्या पाया है? जरा पूछो, इस जन्म में क्या पाया है? दौड़े-धापे, मिला क्या? और अगर कुछ मिल भी गया, थोड़ा धन भी मिल गया, थोड़ा पद भी मिल गया--कि हो गए देश के प्रधानमंत्री कि राष्ट्रपति--तो भी क्या मिला?
थोड़ा सोचो, जीवन तो तुम्हारे पास है, इस जीवन में तुमने क्या पा लिया है, जो तुम फिर-फिर जीवन पाना चाहते हो? मेरा अनुभव कुछ और। मेरा अवलोकन कुछ और। मेरा अवलोकन यह है कि जिनको जीवन में कुछ नहीं मिला वे ही बार-बार जीवन पाना चाहते हैं। जिनको कुछ मिला है वे तो कहेंगे: अब बहुत हुआ।
क्यों? तुम्हें बात उलटी लगेगी, पर समझने चलोगे तो साफ है, साफ-सुथरी है--दो और दो चार जैसी साफ-सुथरी है। जिन्हें कुछ नहीं मिला, वे ही बार-बार जीवन पाना चाहते हैं। क्योंकि कुछ मिला नहीं, इस जीवन में भी नहीं मिला, शायद अगले में मिल जाए; अब तक नहीं मिला, शायद कल मिल जाए।
कल की आशा उन्हीं को होती है जिनका आज खाली है। और मजा यह है कि जिनका आज खाली है उनका कल और भी खाली होगा, क्योंकि कल आएगा कहां से? आज से ही तो निकलेगा! कल आज का ही तो विकसित रूप होगा! कल कहीं आसमान से नहीं आता; तुम्हारे आज में से ही निकला हुआ अंकुर होता है। जब आज खाली है, कल और भी खाली होगा। खालीपन का और चौबीस घंटे का अभ्यास बढ़ जाएगा। जब आज तुम रिक्त हो तो कल तुम और भी दरिद्र हो जाओगे।
बच्चे समृद्ध होते हैं, बूढ़े दरिद्र हो जाते हैं। बच्चे भरे-पूरे होते हैं, बूढ़े बिलकुल चुक जाते हैं। रस उनका बह जाता है छिद्रों से। बच्चों में तो थोड़ा उल्लास दिखाई पड़ता है; बूढ़ों में न कोई उमंग, न कोई उल्लास, सब सूख गया होता है। क्या हुआ? जीवन अगर महत्वपूर्ण था तो बूढ़े तो शिखर हो जाते स्वर्ण के; मंदिर की गरिमा हो जाते, कलश हो जाते। नहीं; चूंकि जीवन में कुछ नहीं मिला है, इसलिए तुम डरते हो कि कहीं जीवन छिन न जाए; अभी कुछ मिला ही नहीं, और कहीं जीवन छिन न जाए! इसलिए कहते हो, और-और जीवन मिले। मगर जिस ढंग से तुम जी रहे हो, इसी ढंग से फिर भी जीओगे। इस ढंग से जीने से तुम्हें कुछ नहीं मिला; तुम कितनी ही बार इसी ढंग से जीओ, कुछ भी न मिलेगा।
एक व्यक्ति ने जीवन में आठ बार विवाह किया। अमरीका में तो आसान है। आठवीं बार विवाह करने के बाद उसे यह बोध आया, यह खयाल आया--बड़ी हैरानी का खयाल कि मैंने हर बार स्त्रियां बदलीं लेकिन हर बार मैंने फिर उसी तरह की स्त्री खोज ली। आठों बार बार-बार उसने उसी तरह की स्त्री खोजी। आखिर खोजने वाला तो वही है।
तुम थोड़ा सोचो, एक स्त्री के प्रेम में तुम पड़े या एक पुरुष के प्रेम में पड़े, किसने खोजा? तुमने खोजा। तुम्हारी खोजने की एक दृष्टि है। तुम्हें कौन सी चीजें जंचीं, तुम्हें कौन सी चीजें मन भाईं, कौन सी बात तुम्हें मनचीती लगी? तुम्हारे पास एक मन है, उस मन से तुमने एक स्त्री को प्रेम किया। फिर ऊब गए क्योंकि आशाएं पूरी नहीं हुईं। आशाएं कभी पूरी होती ही नहीं। आशाएं सिर्फ आशाएं हैं, सपने सिर्फ सपने हैं। सपनों में ही अच्छे लगते हैं; जब यथार्थ में उतारने चलोगे, सब व्यर्थ हो जाते हैं, सब टूट-फूट जाते हैं। पानी के बबूले हैं। ओस की बूंदें हैं; दूर से लगती हैं कि मोती चमक रहे हैं, हाथ से पकड़ने जाते हो पानी रह जाता है, हाथ में कुछ और लगता नहीं।
एक स्त्री से ऊब गए, एक पुरुष से ऊब गए; तुमने सोचा कि यह स्त्री काम न आई, गलत स्त्री चुन ली। तुम सोचते हो कि गलत स्त्री चुन ली; तुम यह नहीं सोचते कि मेरा चुनना ही गलत है, चुनने वाला ही गलत है। तुम यह नहीं सोचते। कोई अपने पर जिम्मेवारी थोड़े ही लेता है। यही तो अहंकार के अपने को बचाए रखने के गहरे से गहरे उपाय हैं। कोई यह नहीं कहता कि मेरी भूल है। यह गलत स्त्री चुन ली--चूक हो गई। समझा था कुछ और, निकली कुछ और। धोखा दे गई, बेईमान थी। ऊपर-ऊपर रंग बना रखा था, भीतर-भीतर कुछ और थी। मुझ भोले-भाले आदमी को ठग गई। अब फिर चुनूंगा, दूसरी स्त्री चुनूंगा।
मगर चुनेगा कौन? तुम फिर चुनोगे। तुम ही तो चुनोगे! फिर तुम्हें वे ही बातें जंचेगी। वही चाल फिर तुम्हें पसंद आएगी। वही नाक, वही बालों का रंग, वही शरीर की आकृति-अनुपात फिर तुम्हें जंचेगा। तुम्हें फिर वैसी ही स्त्री पसंद पड़ेगी। थोड़े-बहुत हेर-फेर होंगे, मगर उन हेर-फेरों से कुछ फर्क नहीं पड़ता। बुनियादी रूप से तुम्हें फिर वैसी स्त्री पसंद पड़ेगी जैसी पहली स्त्री थी और फिर चार-छह महीने में वही उपद्रव। फिर भ्रांति का टूटना।
उस आदमी ने आठ बार विवाह किया और फिर अपने संस्मरणों में लिखा कि आज मैं यह कह सकता हूं कि हर बार मैंने जैसे फिर-फिर उसी स्त्री से विवाह किया और हर बार वही हुआ। हर बार वही दुख, दुखांत, नाटक एक ही जगह आकर समाप्त हुआ। तुम पूछो उसने नौवीं बार विवाह किया या नहीं? नहीं किया, क्योंकि एक बात उसे समझ में आ गई कि मैं जो भी चुनूंगा वह गलत होगा। मैं गलत हूं; जब तक मैं नहीं बदल जाता तब तक मेरा सारा चुनाव गलत ही रहेगा।
मोक्ष का अर्थ क्या है? आत्म-रूपांतरण। जीवन को चुनने का अर्थ है: तुम वही के वही, फिर जीवन चुनोगे, करोगे क्या? समझो कि मैं तुमसे कह दूं कि सौ वर्ष तुम्हें और दिए, तुम करोगे क्या? तुमने जो कल किया था, परसों किया था, उससे कुछ अन्यथा करोगे? क्या करोगे भिन्न तुम? तुम वही मूढ़ता फिर-फिर दोहराओगे। तुम पुनरुक्ति करोगे। सौ वर्ष भी तुम गंवा दोगे--ऐसे ही जैसे तुमने इतने वर्ष अभी गंवा दिए।
और जन्मों के साथ तो एक अड़चन और भी है कि हर मृत्यु के बाद ही तुम पुराने जन्म के संबंध में सब भूल जाते हो। इसलिए उनको पुनरुक्त करना भूलों को और आसान हो जाता है। याद ही नहीं रहती कि पहले कभी भूलें की हैं। हर नये जन्म में ऐसा लगता है कि नया-नया कुछ कर रहे हो। हर बार जब प्रेम होता है तो ऐसा लगता है नया-नया कुछ... हर बार पद की आकांक्षा, नया-नया कुछ...। कितनी बार तुम यह कर चुके हो, कितनी बार!
महावीर के पास एक युवक दीक्षित हुआ, राजकुमार था। महावीर की बातें सुनीं, समझ पड़ीं, दीक्षित हो गया। बात समझ पड़ना और दीक्षित हो जाना एक बात है; फिर दीक्षा की अपनी कठिनाइयां हैं, अपनी अड़चनें हैं। महावीर के संघ का नियम था कि जो पहले दीक्षित हुए हैं उनको आदर दिया जाए। जो बाद में दीक्षित हुए हैं--चाहे उनकी उम्र ज्यादा हो, धनी हों, शिक्षा ज्यादा हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जो पीछे दीक्षित हुए हैं वे अपने से बड़ों को आदर दें।
पहली ही रात एक गांव में विश्राम हुआ। धर्मशाला छोटी थी तो उसके कमरों में तो उनको जगह मिली जो वृद्ध थे, जो पहले... वृद्ध से मेरा मतलब उम्र में वृद्ध नहीं, दीक्षा में जो वृद्ध थे। उनमें कई उम्र में छोटे भी होंगे। उनमें कई भिखमंगे भी होंगे, दीन-दरिद्र भी होंगे अपनी जिंदगी में। लेकिन राजकुमार तो अभी-अभी दीक्षित हुआ था। उसको किसी कमरे में जगह न मिल सकी। उसको गलियारे में सोना पड़ा। रात भर लोग आते-जाते रहे और गलियारे में उसे नींद न आए। मच्छर काटें। कभी सोया नहीं था गलियारे में। राजमहलों में रहा था। रात भर नींद न आई। उसे लगा यह तो एक झंझट मोल ले ली। सुबह होते ही माफी मांग लूंगा कि क्षमा करो, जो गलती हो गई माफ करो, मैं घर चला। लेकिन इसके पहले कि वह महावीर से जाकर कुछ कहता, सुबह होते ही महावीर उसके पास आए और कहा: तो चले घर? वह तो बहुत चौंका। उसने कहा: आपसे किसने कह दिया? महावीर ने कहा: जो तुमसे कह गया वही मुझसे भी कह गया। ...तो चले घर? मगर एक बात जतला दूं, यह पहला मौका नहीं है जब तुम घर जा रहे हो। और यह पहली दीक्षा नहीं है, ऐसी दीक्षाएं तुम पहले जन्मों में भी कई बार ले चुके हो। और ऐसी ही छोटी-छोटी बातों में उलझ कर वापस लौट गए हो। इस बार जरा हिम्मत कर लो। आया अवसर हाथ फिर न चूक जाए।
महावीर का यह कहना कि पहले भी तू ऐसी ही दीक्षा ले चुका है और बार-बार छोटी-छोटी अड़चनों से लौट गया है, लौट गया है, कभी टिक नहीं पाया--किसी अचेतन गर्भ से स्मृति उठी, आंख के सामने दृश्य पर दृश्य खुलने लगे। उसे दिखाई पड़ा कि हां, पहले भी ऐसा हुआ है। वह महावीर के चरणों में झुक गया और उसने कहा: अब ऐसा न होने दूंगा। महावीर और बुद्ध दोनों ने एक बहुत अदभुत विज्ञान का प्रयोग किया था--जाति-स्मरण। वह प्रत्येक अपने संन्यासी को पिछले जन्मों की याद दिलाते थे। उसके ध्यान के प्रयोग हैं, जिनसे पिछले जन्मों की याद आनी शुरू हो जाती है। क्योंकि याद तो तुम्हारे अचेतन में पड़ी है, सिर्फ उठाने की बात है। और पिछले जन्मों की याद आने लगे तो बड़े हैरान होओगे तुम। रामाधार, फिर ऐसा प्रश्न न पूछ सकोगे। क्योंकि जन्म तो कई बार हुए, जीवन तो कई बार लिए, हाथ तो कभी कुछ न लगा। हाथ तो सदा राख से ही भरे रहे! आगे भी बहुत बार लेकर क्या करोगे? मन को लोग समझा लेते हैं, अच्छी-अच्छी बातें समझा लेते हैं।
कल मैं एक कविता पढ़ रहा था—
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
श्रमिक विहग देखे हैं प्रतिदिन,
भू से नभ तक दौड़ लगाते!
बंध दो तिनकों के बंधन में,
वे पुनरपि नीड़ों में आते!
बार-बार कह उठता है मन,
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
सरिता तब तक ही सरिता है,
जब तक तट का मिले सहारा!
बंधन टूटे कौन कहे फिर--
सरिता, कहते जल की धारा,
बंधन सौम्य रूप आकर्षण!
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
बंधन सरल स्नेह-बंधन पर,
अगणित बार मुक्ति मैं वारूं।
हार अगर यह है जीवन की,
जन्म-जन्म यों ही मैं हारूं!
बंधन जीवन का अवलंबन,
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
तुम चाहो तो अच्छी-अच्छी कविताएं गढ़ सकते हो। अच्छे-अच्छे विचार के पीछे इस भ्रांत धारणा को छिपा ले सकते हो। तुम कह सकते हो कि सरिता सागर में उतर कर खो जाएगी, फायदा क्या उतरने से?
सरिता तब तक ही सरिता है,
जब तक तट का मिले सहारा!
बंधन टूटे कौन कहे फिर--
सरिता, कहते जल की धारा,
बंधन सौम्य रूप आकर्षण!
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
तुम कह सकते हो: मुक्ति तो मृत्यु मालूम होती है, बंधन में ही जीवन है! सरिता देखो किनारों से बंधी जीवित है और किनारों से छूटी कि मरी! बात सच है। किनारों से छूटी कि मरी, यह आधी बात है लेकिन। और आधे सत्य पूरे झूठों से भी बदतर होते हैं। सरिता किनारों से छूट कर मरती नहीं, मुक्त होती है, सागर होती है। सरिता को अब सरिता तो कोई न कहेगा, लेकिन अब सागर हो गई, सरिता कोई कहेगा कैसे? छोटा विराट हो गया, सीमित असीम हो गया। परिभाषा में बंधा अपरिभाष्य हो गया।
अहंकार तो चाहता है बंधनों में बंधा रहे, क्योंकि अहंकार जी ही सकता है सीमित में। जितनी सीमित स्थिति हो उतना ही अहंकार मजबूत रहता है और जितने ही बड़े होने लगो उतना ही अहंकार क्षीण होने लगता है। जितने फैलोगे, जितने विस्तीर्ण होओगे, जितने ब्रह्म के करीब आओगे--उतना ही अहंकार विदा होने लगेगा। और अहंकार समझाएगा, अपने को बचाने की सब तरह से चेष्टा करेगा।
बंधन सरल स्नेह-बंधन पर,
अगणित बार मुक्ति मैं वारूं!
अहंकार कहेगा, हजार मोक्ष निछावर कर दूंगा मैं बंधन पर!
बंधन सरल स्नेह-बंधन पर,
अगणित बार मुक्ति मैं वारूं।
हार अगर है यह जीवन की,
जन्म-जन्म यूं ही मैं हारूं!
बंधन जीवन का अवलंबन
मुक्ति मरण, बंधन है जीवन!
लेकिन जरा सावधान। मीठी-मीठी बातों से कुछ भी न होगा। सुंदर-सुंदर तर्कों से कुछ भी न होगा। सत्य छिपाए जा सकते हैं, झुठलाए नहीं जा सकते। जहर कितना ही मीठा क्यों न हो--जहर है। और अमृत कितना ही कड़वा क्यों न हो--अमृत है। और अमृत अक्सर कड़वा होता है और जहर अक्सर मीठा होता है। जहर को मीठा होना ही पड़ता है, नहीं तो पीएगा कौन? अमृत को क्या पड़ी कि मीठा हो। पीने वाले, पहचानने वाले पी ही लेंगे। और अमृत उन्हीं के लिए है--जो पीने वाले हैं, जो पहचानने वाले हैं। जहर तो अपना विज्ञापन करता है, अपनी मिठास का विज्ञापन करता है। अमृत तो विज्ञापन करता ही नहीं। आ जाएंगे खोजी।
तो रामाधार, तुम्हारा मन तुम्हें समझा दे सकता है कि जीवन बड़ा सुंदर है। और मैं नहीं कहता कि जीवन सुंदर नहीं है, मगर मैं किसी और जीवन की बात कर रहा हूं! मैं उस जीवन की बात कर रहा हूं, जब तुम्हारे भीतर मोक्ष का आकाश खुल गया। और तुम उस जीवन की बात कर रहे हो, जब तुम्हारे भीतर न कोई प्रकाश है, न कोई आत्मा है, न कोई बोध है। तुम्हारे भीतर छोटी सी किरण भी नहीं है जागरण की। मूर्च्छित, तंद्रित, सोए हुए--तुम्हारा यह जीवन कोई जीवन है? यह केवल एक लंबी रात है, अंधेरी रात, जिसमें तुम बड़बड़ा रहे हो, सपने देख रहे हो और सपनों को ही सत्य समझ रहे हो।
मगर जैसी तुम्हारी मर्जी। जबरदस्ती तुम्हारे ऊपर कोई मोक्ष थोपा नहीं जा सकता। कम से कम मैं तो ऐसा न करूंगा। अगर तुम्हारी यही इच्छा है कि बार-बार जीवन मिले, तथास्तु!
तीसरा प्रश्न:
भगवान, संन्यास लेने के बाद बहुत मिला--प्रेम, जीने का ढंग...! धन्यभागी हूं। परंतु कभी-कभी काफी घृणा से भर जाता हूं आपके प्रति--इतना कि गोली मार दूं। यह क्या है प्रभु, कुछ समझ नहीं आता!
आनंद सत्यार्थी! जहां प्रेम है--साधारण प्रेम--वहां छिपी हुई घृणा भी होती है। उस प्रेम का दूसरा पहलू है, घृणा। जहां आदर है--साधारण आदर--वहां एक छिपा हुआ पहलू है, अनादर का।
जीवन की प्रत्येक सामान्य भाव-दशा अपने से विपरीत भाव-दशा को साथ ही लिए रहती है। तुमने अभी जो प्रेम जाना है, बड़ा साधारण प्रेम है, बड़ा सांसारिक प्रेम है। इसलिए घृणा से मुक्ति नहीं हो पाएगी। अभी तुम्हें प्रेम का एक और नया आकाश देखना है, एक और नई सुबह, एक और नये प्रेम का कमल खिलाना है! वैसा प्रेम ध्यान के बाद ही संभव होगा।
मेरे साथ दो तरह के लोग प्रेम में पड़ते हैं। एक तो वे, जिन्हें मेरी बातें भली लगती हैं, मेरी बातें प्रीतिकर लगती हैं। और कौन जाने मेरी बातें प्रीतिकर गलत कारणों से लगती हों! समझो कोई शराबी यहां आ जाए और मैं कहता हूं: मुझे सब स्वीकार है, मेरे मन में किसी की निंदा नहीं है। अब इस शराबी की सभी ने निंदा की है। जहां गया वहीं गाली खाई हैं। जो मिला उसी ने समझाया है। जो मिला उसी ने इसको सलाह दी है कि बंद करो यह शराब पीना। मेरी बात सुन कर कि मुझे सब स्वीकार है, शराबी को बड़ा अच्छा लगता है; जैसे किसी ने उसकी पीठ थपथपा दी! उसे मेरे प्रति प्रेम पैदा होता है। यह प्रेम बड़े गलत कारण से हो रहा है। यह प्रेम इसलिए पैदा हो रहा है कि उसके अहंकार को जाने-अनजाने पुष्टि का एक वातावरण मिल रहा है। यह प्रेम मेरी बात को समझ कर नहीं हो रहा है। इस बात का वह आदमी अपने ही व्यक्तित्व को मजबूत कर लेने के लिए उपयोग कर रहा है। तो प्रेम हो जाएगा। लेकिन इस प्रेम में पीछे घृणा छिपी रहेगी।
तुम्हारे जीवन में प्रेम की कमी है। न तुम्हें किसी ने प्रेम दिया है, न किसी ने तुमसे प्रेम लिया है। और जब मैं तुम्हें पूरे हृदय से स्वीकार करता हूं तो तुम्हारा दमित प्रेम उभर कर ऊपर आ जाता है। लेकिन यह प्रेम अपने पीछे घृणा को छिपाए हुए है। और ध्यान रखना, जैसे दिन के पीछे रात है और रात के पीछे दिन है, ऐसे ही प्रेम के पीछे घृणा है। तो कई बार प्रेम समाप्त हो जाएगा, तुम एकदम घृणा से भर जाओगे। बेबूझ घृणा से! और तुम्हें समझ में ही नहीं आएगा कि इतना तुम प्रेम करते हो, फिर यह घृणा क्यों! घृणा इसीलिए है कि वह जो तुम प्रेम करते हो अभी ध्यान से पैदा नहीं हुआ है--वैचारिक है, भावनागत है।
एक दूसरा प्रेम है जो ध्यान से पैदा होता है। ध्यान से जब प्रेम गुजरता है तो सोने में जो कूड़ा-कचरा है वह सब जल जाता है--ध्यान की अग्नि में। और ध्यान की अग्नि से गुजरता है जब प्रेम तो कुंदन होकर प्रकट होता है। फिर उसमें कोई घृणा नहीं होती। फिर एक समादर है जिसमें कोई अनादर नहीं होता। नहीं तो समादर करने वालों को अनादर करने में देर नहीं लगती। वे ही लोग फूलमालाएं पहनाते हैं, वे ही लोग गालियां देने लगते हैं। वे ही लोग चरण छूते हैं, वे ही लोग गर्दन काटने को तैयार हो जाते हैं।
ऐसी ही तुम्हारी दशा है, आनंद सत्यार्थी!
तुम कहते हो: ‘कभी घृणा से भर जाता हूं, इतना कि गोली मार दूं।’
स्वभावतः, इसके पीछे एक और कारण है, वह भी समझ लेना चाहिए, वह सबके उपयोग का है। संन्यास से जो भी तुम्हें मिलेगा वह इतना ज्यादा है कि तुम उसका कोई भी मूल्य न चुका सकोगे। संन्यास से तुम्हें जो भी मिलेगा वह इतना ज्यादा है कि तुम्हारे सब धन्यवाद छोटे पड़ जाएंगे। और तब तुम मुझे क्षमा न कर पाओगे। तुम्हें जरा बेबूझ बात मालूम पड़ेगी। जो व्यक्ति हमें कुछ दे, हम उसके सामने छोटे हो जोते हैं। अगर हम उसे कुछ लौटा सकें प्रत्युत्तर में तो हम फिर समतुल हो जाते हैं। लेकिन अगर ऐसी कोई चीज दी जाए कि उसके उत्तर में हम कुछ भी न लौटा सकें, ऋण को चुकाने का उपाय ही न हो, तो फिर हम ऐसे व्यक्ति को कभी क्षमा नहीं कर पाते, माफ नहीं कर पाते।
मेरे एक परिचित हैं, बड़े धनपति हैं। एक बार मेरे साथ ट्रेन में सफर किया। कभी मुझे कहा नहीं था, लेकिन ट्रेन में अकेले ही थे साथ मेरे। बात होते-होते बात में से बात निकल आई। उन्होंने कहा कि आज पूछने का साहस करता हूं। मेरी जिंदगी में एक दुर्घटना अमावस की तरह छाई हुई है। और दुर्घटना यह है कि मैंने अपने सारे रिश्तेदारों को, मित्रों को, सबको इतना दिया कि आज मेरे सब रिश्तेदार धनी हैं, सब मित्र धनी हैं, सब परिचित धनी हैं।
धन उनके पास काफी है। और उन्होंने जरूर दिल खोल कर दिया है। मगर कोई भी मुझसे प्रसन्न नहीं! उलटे वे सब मुझसे नाराज हैं। उलटे वे मुझे बरदाश्त ही नहीं कर सकते। यह मेरी समझ में नहीं आता कि मैंने इतना किया, सबके लिए किया।...
और यह सच है। मैं उनके रिश्तेदारों को जानता हूं; जो भिखमंगे थे, आज अमीर हैं। मैं उनके मित्रों को जानता हूं; जिनके पास कुछ नहीं था, आज सब कुछ है। यह बात सच है। इस बात में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं कि उन्होंने बहुत दिया है और देने में उन्होंने जरा भी कृपणता नहीं की है। उनके हाथ बड़े मुक्त हैं। मुक्त-भाव से दिया है। तो स्वभावतः उनका प्रश्न सार्थक है कि मुझसे लोग नाराज क्यों हैं?
मैंने कहा कि आपको समझ में नहीं आता, लेकिन मैं एक बात पूछता हूं, उससे बात स्पष्ट हो जाएगी। आपने इन मित्रों को, परिजनों को, परिवार वालों को उत्तर में कुछ आपके लिए करने दिया है कभी? उन्होंने कहा कि नहीं, कोई जरूरत ही नहीं है। मेरे पास सब है। और अगर कभी कोई कुछ करना भी चाहा है तो मैंने इनकार किया है कि क्या फायदा! मेरे पास बहुत है। तो मैंने किसी से कोई प्रत्युत्तर में तो लिया नहीं।
बस मैंने कहा: बात साफ हो गई, क्यों वे नाराज हैं। वे आपको क्षमा नहीं कर पा रहे। वे आपको कभी क्षमा नहीं कर पाएंगे। आपने उनको नीचा दिखाया है। उनके भीतर ग्लानि है। वे जानते हैं कि आप ऊपर हैं, दानी हैं, दाता हैं और हम भिखमंगे हैं। भिखमंगे कभी दाताओं को क्षमा नहीं कर सकते।
आप एक काम करो। उनसे मैंने कहा: छोटे-छोटे काम उनको भी आपके लिए करने दो। मुझे पता है आपको कोई जरूरत नहीं, मगर छोटे-छोटे काम...। आप बीमार हो, अगर कोई एक गुलाब का फूल ले आए, तो ले आने दो और गुलाब का फूल लेकर अनुग्रह मानो। कभी किसी मित्र को कह दिया कि भाई यह काम तुमसे ही हो सकेगा, यह मुझसे नहीं हो पा रहा, तुम्हीं निपटाओ। जरा मौका दो उन्हें कुछ करने का। छोटे-छोटे मौके। जरूरत मुझे पता है कि आपको कुछ भी नहीं, आप सारे अपने काम खुद ही कर ले सकते हैं। लेकिन अगर उनको थोड़ा कुछ करने का आप मौका दे सको तो वे आपको धीरे-धीरे क्षमा करने में समर्थ हो पाएंगे। उनको लगेगा: हमने लिया ही नहीं, दिया भी! उनको लगेगा: हम नीचे ही नहीं हैं, समतुल हो गए।
मगर यह उनके अहंकार के विपरीत है। यह वे नहीं कर पाए। दो वर्ष बाद जब मैंने उनसे पूछा, उन्होंने कहा: मुझे क्षमा करें! मैं किसी से ले नहीं सकता। गुलाब का फूल भी नहीं ले सकता! यह मेरी जीवन-प्रक्रिया के विपरीत है। मैं यह बात मान ही नहीं सकता कि मैं और किसी से लूं। मैंने देना ही जाना है, लेना नहीं।
फिर मैंने कहा कि जिनको आपने दिया है वे आपके दुश्मन रहेंगे।
आनंद सत्यार्थी, यही कठिनाई यहां है: इसलिए नहीं कि मैं तुमसे कुछ लेने में संकोच करूं। इसलिए नहीं कि मेरा कोई अहंकार है। मगर यह जो देना है यह ऐसा है कि इसका लौटाना हो ही नहीं सकता। मैं तो सब उपाय करता हूं, छोटे-छोटे उपाय करता हूं, जो भी मुझसे बन सकता है वह उपाय करता हूं। छोटे-छोटे काम लोगों को दे देता हूं। कोई जा रहा है अमरीका, उसको कह देता हूं: एक कलम मेरे लिए खरीद लाना, कि एक पौधा मेरे बगीचे के लिए ले आना। ऐसे मेरे बगीचे में जगह नहीं है। और कलमें इतनी इकट्ठी हो गई हैं कि विवेक मुझसे बार-बार पूछती है, इनका करिएगा क्या? उसको सम्हालना पड़ता है, साफ-सुथरा रखना पड़ता है। और जब फिर कोई जाने लगता है और मैं कहता हूं कि मेरे लिए एक कलम ले आना, तो उसकी समझ के बाहर है कि यह जरूरत क्या है?
जरूरत केवल इतनी है कि मैं तुम्हें भी एक मौका देना चाहता हूं कि कुछ तुमने मेरे लिए किया।
अभी मैं जल्दी नहीं चाहता कि कोई मुझे गोली मार दे। बाद में मार देना। जरा ठहरो, थोड़ा काम हो जाने दो। वह तो आखिरी पुरस्कार है। लेकिन अभी तो काम शुरू ही शुरू हुआ। अभी जरा सम्हालना। आनंद सत्यार्थी, गोली वगैरह रखना तैयार, मगर सम्हालना। थोड़ा काम व्यवस्थित हो जाने दो। थोड़े संन्यास का यह रंग छितर जाने दो पृथ्वी पर!
हां, कोई न कोई गोली मारेगा। और संभावना यही है कि कोई संन्यासी ही गोली मारेगा--जिसके बिलकुल बरदाश्त के बाहर हो जाएगा, जो सह न सकेगा; जिसको इतना मिलेगा कि उत्तर देने का उसके पास कोई उपाय न रह जाएगा। आखिर जीसस को जुदास ने बेचा--तीस रुपये में! और जुदास जीसस का सबसे बड़ा शिष्य था, सबसे प्रमुख शिष्य था। उसने ही जीसस को मरवाया। उसने ही सूली लगवाई। और देवदत्त ने बुद्ध को मारने की बहुत चेष्टाएं कीं--और देवदत्त बुद्ध का भाई था, चचेरा भाई था और प्रमुख शिष्य था। अग्रणी शिष्य था।
यह सब स्वाभाविक है। इसके पीछे एक जीवन का गणित है। गणित यह है कि तुम इतने दब जाते हो ऋण से कि तुम करो क्या, गोली न मारो तो करो क्या?
मगर अभी नहीं, जरा रुको। ठीक समय पर मैं खुद ही तुमसे कह दूंगा, सत्यार्थी, कहां है गोली?
साधारण प्रेम का यही रूपांतरण होने वाला है। हर साधारण प्रेम घृणा में बदल जाएगा। इसलिए अगर सच में ही तुम चाहते हो कि मेरे प्रति तुम्हारे मन में कोई घृणा न रह जाए, तो तुम्हें ध्यान से गुजरना होगा। ध्यान शुद्धि की प्रक्रिया है--प्रेम को शुद्ध करने का आयोजन है, रसायन है।
यहां कुछ लोग हैं जो मुझे प्रेम करते हैं, मगर ध्यान नहीं करते। वे कहते हैं: हमें तो आपसे प्रेम है, अब ध्यान की क्या जरूरत? उनका प्रेम खतरनाक है। उनका प्रेम कभी भी महंगा पड़ सकता है। क्योंकि घृणा इकट्ठी होती जाएगी। ध्यान से घृणा को धोते चलो, ताकि प्रेम निखरता चले। तो एक दिन जरूर ऐसे प्रेम का जन्म होता है, जिसके विपरीत तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं होता। उस प्रेम को अनुभव कर लेना अमृत को अनुभव करना है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, सुलभ तेरी चाह है, पर तू कठिन। पर कर न पाया, चाह का तेरी शमन। चाह में बीती उमर, पर तुम न आए। मृत्यु जीवन में झलकने लग गई, पर तुम न आए।
संतोष सरस्वती! परमात्मा को पाने के लिए पहले तो बड़ी तीव्र चाह चाहिए--प्रथम चरण में--अदम्य, अडिग, अचल! ऐसी चाह कि सब दांव पर लगा देने की हिम्मत हो, साहस हो। जैसे पतंगा दौड़ पड़ता शमा की तरफ, ऐसी चाह! मिट जाने की चाह। सब जोखिम उठाने की चाह। ऐसी त्वरा, ऐसी सघनता कि एक ही चाह रह जाए, सारी चाहें उसी एक चाह में समाविष्ट हो जाएं। एक तीर बन जाए तुम्हारा हृदय, परमात्मा की गति को पकड़ ले, परमात्मा के गंतव्य की तरफ चल पड़े।
पहले तो चाहिए ऐसी चाह। और फिर बड़ा विरोधाभासी नियम है, फिर चाहिए चाह का विसर्जन। चाह से ही कोई नहीं पहुंचता; बिना चाह के भी कोई नहीं पहुंचता। चाह तो चाहिए ही चाहिए। लेकिन अंतिम घड़ी में चाह ही बाधा बन जाती है। अंतिम घड़ी में चाह भी छूट जानी चाहिए। उसी क्षण।
पहले चाह तुम्हें निखारती है, संवारती है, अखंडित करती है; फिर चाह भी चली जाती है। जैसे एक कांटे से हम दूसरा कांटा निकालते हैं, फिर दोनों कांटों को फेंक देते हैं। संसार की चाहें हैं--याद रखना, चाहें, चाह नहीं; क्योंकि संसार में बहुवचन का उपयोग करना होगा, बहुत चाहें हैं--धन की, पद की, प्रतिष्ठा की, इसकी, उसकी, न मालूम कितनी चाहें हैं! चाहें ही चाहें हैं! सब दिशाओं में खींचती हैं। इन सारे कांटों को निकालने के लिए परमात्मा की चाह चाहिए; ताकि एक ही कांटा रह जाए, सारे कांटे समाप्त हो जाएं। और जब एक ही कांटा बचे तो उसको भी सम्हाल कर रखने की जरूरत नहीं, उसको भी नमस्कार कर लेना। उसको भी जाकर नदी में अर्पित कर आना। धन्यवाद के साथ, क्योंकि उसने और सारी चाहों से छुटकारा दिलवा दिया।
पहले तो कठिनाई है सारी चाहों को एक चाह पर समर्पित करना, मगर उससे भी बड़ी कठिनाई आखिर में आती है, अंतिम चरण में आती है--जब परमात्मा की चाह भी छोड़ देनी होती है। क्योंकि उस चाह के छोड़ने में ही तुम्हारा अहंकार विसर्जित हो जाता है। आखिर चाह भी तो अहंकार का प्रक्षेपण है। ‘मैं चाहता हूं!’ हर चाह के पीछे ‘मैं’ खड़ा है। सब चाहों के पीछे ‘मैं’ खड़ा है। परमात्मा की चाह के पीछे भी ‘मैं’ खड़ा है।
जिस दिन तुम परमात्मा की चाह को भी छोड़ दोगे, और सब चाहें तो पहले छोड़ चुके, अब परमात्मा की चाह भी गई, अब ‘मैं’ के लिए कोई सहारा न बचा--‘मैं’ एकदम गिर जाएगा, बिखर जाएगा, भस्मीभूत हो जाएगा। और जहां मैं नहीं है वहां परमात्मा है।
तुम पूछते हो: ‘सुलभ तेरी चाह है, पर तू कठिन।’
चाह तो सुलभ है, परमात्मा भी सुलभ है, लेकिन चाह को छोड़ना कठिन है। और जिस चाह के लिए सब छोड़ दिया उस चाह को छोड़ना बहुत कठिन हो जाता है।
और संतोष सरस्वती, तुम तो नये-नये साधक हो अभी, बड़े प्रौढ़ साधकों के लिए भी, करीब-करीब जो सिद्धि की अवस्था में पहुंच गए उनके लिए भी कठिन होता है। रामकृष्ण जैसे व्यक्ति के लिए कठिन होता है।
जब रामकृष्ण को उनके अंतिम गुरु तोतापुरी का मिलना हुआ, तो रामकृष्ण करीब-करीब सिद्ध-अवस्था में थे। करीब-करीब में कहता हूं, खयाल रखना। जरा सी कमी बची थी। लेकिन जगत में तो ख्याति हो गई थी कि रामकृष्ण पहुंच गए। रामकृष्ण को पता था कि अभी थोड़ी सी कमी है, बस एक सीढ़ी और; मगर दूसरों को क्या पता! दूसरे तो देखते थे कि इतनी ऊंचाई, इतनी ऊंचाई, आकाश में पहुंच गए हैं! उनको क्या पता कि एक सीढ़ी और कम रह गई!
तोतापुरी से जब रामकृष्ण का मिलना हुआ तो रामकृष्ण ने निवेदन किया कि बस एक सीढ़ी और रह गई है, इसे मैं कैसे पार करूं? तोतापुरी ने कहा: कठिन नहीं, ऐसे कठिन भी है। कठिन नहीं, क्योंकि इतनी सीढ़ियां पार कर आए तो अब एक पार करने में क्या अड़चन होगी? जैसे और सीढ़ियां पार की हैं ऐसे यह भी सीढ़ी पार करो। सूत्र वही है। जैसे और सब चाहें छोड़ दीं, अब यह परमात्मा की चाह भी छोड़ दो।
और ऐसे कठिन भी है, क्योंकि और सब चाहें तो क्षुद्र थीं। धन की चाह छोड़ने में, पद की चाह छोड़ने में, प्रतिष्ठा की चाह छोड़ने में एक तरह का आनंद ही आया था, आह्लाद हुआ था--कि हलके हुए, कि व्यर्थ का बोझ कटा, कूड़ा-करकट फेंका! मगर परमात्मा की चाह छोड़ना! जिसने सब इसी चाह पर दांव लगाया, उससे कहना इसको भी छोड़ दो! जिसने इसे बचाने के लिए सब छोड़ा, अब उससे कहना इसे भी छोड़ दो! तो कठिन भी है। मगर चेष्टा करो तो हो सकता है।
रामकृष्ण ने कहा: मेरी सहायता करें। मुझ अकेले से न हो सकेगा। मैं तो आंख बंद करता हूं कि काली सामने खड़ी हो जाती है। मैं तो भूल ही जाता हूं। मैं तो रसलीन हो जाता हूं। मुझे तो द्वैत बना ही रहता है--भक्त का और भगवान का। अद्वैत घटता ही नहीं।
तोतापुरी ने कहा: मैं एक काम करूंगा। तू आंख बंद करके बैठ और जैसे ही मैं देखूंगा कि खड़ी हो गई है प्रतिमा और द्वैत उठने लगा और काली की प्रतिमा, तेरी आराध्य की प्रतिमा सामने आ गई, मैं आवाज दूंगा--रामकृष्ण उठा तलवार, कर दे दो टुकड़े! तो फिर देर मर करना, उठा लेना तलवार और कर देना दो टुकड़े।
रामकृष्ण जैसे अदभुत व्यक्ति ने भी पूछा: लेकिन तलवार कहां से लाऊंगा? तोतापुरी ने कहा: यह भी खूब रही! और यह काली मैया कहां से लाया? यह भी कल्पना है तेरी। सतत कल्पना करने से यह प्रतिमा खड़ी हो गई है। जहां से यह लाया वहीं से एक तलवार भी ले आ।
मगर रामकृष्ण ने कहा: मां को और तलवार से काट दूं! इससे तो खुद ही मर जाना पसंद करूंगा।
तोतापुरी ने कहा: फिर जैसी तेरी मर्जी। मगर यह करना ही होगा। अगर तू एक सीढ़ी और पार करना चाहता है तो यह काली को छोड़ ही देना होगा। अब यही बाधा है। यही तेरी आराध्य, यही तेरी पूजा और प्रार्थना, यही तेरी भक्ति-अर्चना, यही बाधा है। तू कोशिश कर।
बार-बार रामकृष्ण आंख बंद करें, कोशिश करें, मगर कोशिश न हो पूरी। आंख बंद करें कि आंसुओं की धार, कि आनंदमग्न हो डोलने लगें। और तोतापुरी कहें: फिर वही! अब तू यह किसलिए डोल रहा है? क्योंकि अद्वैत-भाव में डोलना वगैरह नहीं होता। और आंसू वगैरह की क्या जरूरत है? अद्वैत-भाव में तो सब थिर हो जाता है।
रामकृष्ण कहें: मगर मैं भूल ही जाता हूं, आपकी याद ही नहीं रहती। आपने जो कहा वह भी भूल जाता है। जैसे ही आंख बंद करता हूं और मां के दर्शन होते हैं--अहा, बस फिर मुझे न आपकी याद रहती है, न आपके उपदेश की याद रहती है।
तो तोतापुरी ने कहा कि मैं अब आखिरी उपाय करूंगा, क्योंकि कल सुबह मुझे जाना है। वे गए और रास्ते से एक कांच का टुकड़ा उठा लाए। पड़ा होगा किसी बोतल का टूटा हुआ। और उन्होंने रामकृष्ण को कहा कि तू आंख बंद कर और जैसे ही मैं देखूंगा कि डोलने लगा, आंख में आंसू आने लगे, जैसे ही मुझे लगेगा कि अब प्रतिमा खड़ी हुई, मैं तेरे माथे को इस कांच के टुकड़े से काट दूंगा। और जब मैं तेरे माथे को काटूं, उस वक्त तू भी एक बार हिम्मत करके उठा कर तलवार दो टुकड़े कर देना। इधर मैं तेरा माथा काटूं उधर तू मैया को काट देना।
बात तो बड़ी कठिन थी। बड़ी मुश्किल थी। अपनी मां को साधारणतः मारना बहुत मुश्किल है। और फिर काली मां को मारना तो और भी बहुत मुश्किल है। और यही तो जिंदगी भर की साधना थी रामकृष्ण की। और इस साधना में खूब फूल खिले थे और खूब रस बहा था, खूब आनंद उमगा था, खूब गीत जन्मे थे। इस सबको पोंछ देना एकबारगी! मगर तोतापुरी कल सुबह चला जाए... और तोतापुरी जैसा आदमी मिलना फिर मुश्किल है।
तो हिम्मत की, तोतापुरी ने काट दिया माथा। लहूलुहान, खून की धार बह गई रामकृष्ण के माथे से। और जब तोतापुरी ने माथा काटा तब उन्हें भी याद आई भीतर। उठाई उन्होंने एक तलवार कल्पना की और दो टुकड़े कर दिए काली के। छह घंटे के लिए थिर हो गए। रोआं भी न हिला। छह घंटे के लिए पत्थर हो गए! और जब आंख खोली तो आज एक अपूर्व दशा थी--जो आनंद के भी पार है, जो सारी अभिव्यक्तियों के पार है! रामकृष्ण ने जो वचन, पहला वचन बोला छह घंटे के बाद वह यही था: आज अंतिम बाधा गिर गई। बहुत-बहुत धन्यवाद दिया तोतापुरी को कि तुम्हारी करुणा अपार है। आज अंतिम बाधा गिर कई! आज आखिरी सीढ़ी पार हो गई।
चाह भी छोड़नी होती है। वही कठिनाई है।
पूछते तुम संतोष:
‘सुलभ तेरी चाह है,
पर तू कठिन।
पर कर न पाया,
चाह का तेरी शमन।
चाह में बीती उमर,
पर तुम न आए।
मृत्यु जीवन में झलकने लग गई,
पर तुम न आए।’
अगर चाहते हो कि परमात्मा आए तो चाह को भी जाने दो। यह मांग भी मत उठाओ। यह शर्त भी मत लगाओ।
ज्यों-ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों-त्यों तुम अनजान बन गए!
--ऐसा जीवन का गणित है। यह चाह तो ‘मैं’ का ही भाव है। यह चाह तो ममता ही है--परमात्मा मेरा हो जाए, मेरी मुट्ठी में हो जाए। यह अहंकार की अंतिम सूक्ष्म प्रक्रिया है। सावधान! सावचेत!
ज्यों-ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों-त्यों तुम अनजान बन गए!
मानव की सामर्थ्य नहीं है
मानव की अवहेला कर दे!
ओ अभिमानी इसीलिए क्या,
तुम निर्मम पाषाण बन गए!
ज्यों-ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों-त्यों तुम अनजान बन गए!
युग-युग तुम्हें सजीव बना कर,
अक्षत, रोली, फूल चढ़ाए!
किंतु दान देने की बेला,
तुम तो फिर निष्प्राण बन गए!
ज्यों-ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों-त्यों तुम अनजान बन गए!
चाहा कब था पलकों से,
बाहर नयनों का आए पानी!
पर उर के उदगार अधर पर,
आते-आते गान बन गए!
ज्यों-ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों-त्यों तुम अनजान बन गए!
परमात्मा को अपना बनाना हो तो ‘मैं’ को मिटाना पड़ता है। नहीं तो परमात्मा और-और अनजान बनता जाता है। जब तक ‘मैं’ है तब तक दूरी है। ‘मैं’ ही दूरी है। ‘मैं’ के अतिरिक्त और कोई दूरी नहीं है।
तुम हृदय के पास हो
है पास जितनी सांस ये,
दूर हो तुम दूर जितनी
चिर मिलन की आस है!
तुम मधुर हो मधुर जितनी
प्रीति की मृदु भावना,
किंतु कटु इतने कि जितनी
स्वार्थों की साधना!
तुम सरल हो सरल जितनी
शिशु-हृदय की भावना,
तुम कुटिल हो कुटिल जितनी
है कपट की कामना!
तुम विकल हो विकल जितनी
मृदु-मिलन की कामना,
शांत हो तुम शांत जितनी
है विरागी भावना!
तुम करुण हो करुण जितनी
विफल आंसू-धार है,
तुम निठुर हो निठुर जितना
मृत्यु का प्रहार है!
तुम हृदय के पास हो
है पास जितनी सांस ये,
दूर हो तुम दूर जितनी
चिर मिलन की आस है!
सब तुम पर निर्भर है। तुम्हारा परमात्मा तुम्हारा ही प्रतिबिंब है। जब तक तुम हो तब तक तुम्हारा परमात्मा तुम्हारी ही छाया होगा। तुम्हारे मंदिरों में तुम्हारी ही मूर्तियां विराजमान हैं, क्योंकि तुमने उन मूर्तियों को अपनी ही कल्पना में गढ़ा है। तुम्हारी मस्जिदों में तुम्हारी ही प्रार्थनाएं की जा रही हैं--तुम्हारे ही द्वारा। और तुम्हारे चर्चों में तुम अपने ही सामने, अपने ही प्रतिबिंबों के सामने घुटने टेके खड़े हो।
जब तक ‘मैं’ शेष है तब तक तुम जो भी करोगे उसमें भ्रांति कायम रहेगी। एक ही सूत्र है--परम सूत्र: ‘मैं’ को विदा कर दो! शून्य हो जाओ, रिक्त हो जाओ।
घबड़ाहट होगी रिक्तता में बहुत, बेचैनी होगी बहुत, डर लगेगा बहुत। लगेगा कि मृत्यु हो गई। मृत्यु है भी वह। अहंकार की मृत्यु--महामृत्यु है! लेकिन उसी मृत्यु में महा जीवन का अवतरण होता है।
धन्य हैं वे जो अहंकार की दृष्टि से मर जाते हैं, क्योंकि उनके जीवन में परमात्मा उतरता है।
तुम जब तक हो, परमात्मा नहीं है। तुम जहां नहीं वहां परमात्मा है। तुम खो जाओ तो परमात्मा मिल जाए। तुम बने रहो तो परमात्मा खोया रहेगा।
परमात्मा का पाना सहज है। पहले पाने की गहन आकांक्षा करो, फिर पाने की आकांक्षा को छोड़ दो!
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। मेरी बात को सुन कर एक तो वे हैं, जो कहेंगे: जब छोड़ना ही है तो फिर आकांक्षा करना ही क्यों? उनको परमात्मा कभी नहीं मिलेगा। और दूसरे वे हैं, जो कहते हैं: जब आकांक्षा को ही करना है पूरा-पूरा, तो फिर छोड़ना क्या, छोड़ना क्यों? उनको भी परमात्मा नहीं मिलेगा।
परमात्मा का गणित जरा दुरूह है। पहले पकड़ो पूरा-पूरा। और पकड़ो इसलिए कि छोड़ सको। पकड़ो इतना पूरा-पूरा कि कुछ कंजूसी न रह जाए। और तब छोड़ दो और हाथ खाली हो जाने दो। और तुम चकित हो जाओगे, विस्मयविमुग्ध--रस का सागर तुममें उतर आएगा!
बूंद ही सागर में नहीं गिरती, सागर भी बूंद में गिरता है--लेकिन उस बूंद में सागर गिरता है जो शून्य है। तभी तो सागर को समा पाएगी; नहीं तो छोटी सी बूंद सागर को कैसे समाएगी?
संतोष, अभी तुम बूंद हो--भरी-भरी! खाली हो जाओ। सागर फिर तुम्हारा है। फिर कोई रुकावट नहीं है।
खाली होना सूत्र है। शून्य होना सूत्र है। शून्य होना साधना है। और जो शून्य है वह पूर्ण होकर सिद्ध हो जाता है। शून्य होना साधना है--पूर्णता सिद्धि है।
आज इतना ही।