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Hansa To Moti Chuge (हंसा तो मोती चुगैं) 06

Sixth Discourse from the series of 10 discourses - Hansa To Moti Chuge (हंसा तो मोती चुगैं) by Osho. These discourses were given during MAY 11-20 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, किसी अन्य आश्रम से--जैसे युग निर्माण योजना, मथुरा; रामकृष्ण आश्रम आदि--संबंधित कुछ मित्र आपके आश्रम आना चाहते हैं और यहां के विविध ध्यान-प्रयोगों में भाग लेना चाहते हैं। कुछ ऐसे मित्र हैं जिनके लिए शेगांव के प्रसिद्ध संत गजानन महाराज या शिरडी के साईंबाबा श्रद्धा-स्थान हैं; वे भी आपके आश्रम के ध्यान-शिविर में भाग लेना चाहते हैं। परंतु इस धारणा से कि किसी एक जगह श्रद्धा हो तो दूसरी ओर जाना नहीं चाहिए, वह पाप है--इसलिए हिचकिचाते हैं। भगवान, इस पर कुछ समझाने की कृपा करें!
युगल किशोर! श्रद्धा साहस की अभिव्यक्ति है। श्रद्धा कायरता नहीं है, श्रद्धा कमजोरी नहीं है। जीवन-ऊर्जा के कमल के खिलने का नाम श्रद्धा है--श्रद्धा इतनी नपुंसक नहीं होती कि हिचकिचाए, भयभीत हो।
श्रद्धा का तो अर्थ ही यही है कि अब कुछ भी उसे डिगा न सकेगा--जहां जाना हो जाओ, जो सुनना हो सुनो, जो समझना हो समझो। हिचकिचाहट तो बताती है कि श्रद्धा कमजोर की है, कायर की है, नपुंसक की है। श्रद्धा के पीछे कहीं संदेह छिपा है। श्रद्धा ऊपर-ऊपर है, भीतर संदेह है। तो डर है कि जरा सी खरोंच लग गई तो श्रद्धा तो टूट जाएगी। कांच की बनी है, सम्हाल-सम्हाल कर चलना होता है। और भीतर का पता है कि भीतर संदेह भरा है; कोई भी उकसा देगा, कोई भी भड़का देगा, तो संदेह प्रकट हो जाएगा।
जिन श्रद्धालुओं की तुम बात कर रहे हो उन्हें मैं श्रद्धालु नहीं कहता। वे तो संदेह से भरे लोग हैं। लेकिन इतना साहस भी नहीं है कि अपने संदेह को स्वीकार कर सकें। इतनी भी आत्मश्रद्धा नहीं है कि अपने संदेह को अंगीकार कर सकें; कि ईमानदारी से कह सकें कि हम संदिग्ध हैं, कि अभी श्रद्धा का जन्म नहीं हुआ है। बेईमान हैं, श्रद्धालु नहीं हैं। धोखा दे रहे हैं--दूसरों को ही नहीं, अपने को भी। और जो अपने को धोखा दे रहा है वह परमात्मा को धोखा दे रहा है। आत्मवंचक हैं। श्रद्धा का भय से क्या संबंध? श्रद्धा तो इतनी समर्थ है कि किसी भी परिस्थिति में प्रवेश कर सकती है। आग से गुजरने को राजी है। असली सोना तो आग से गुजर कर और शुद्ध हो जाता है। नकली सोना डरेगा, भयभीत होगा, हिचकिचाएगा, आग में जाने से घबड़ाएगा, भागेगा, बचेगा।
जिन श्रद्धालुओं की तुम बात कर रहे हो वे श्रद्धालु नहीं हैं; संदेहग्रस्त लोग हैं। भय के कारण श्रद्धा को ओढ़ लिया है। फिर चाहे वे रामकृष्ण के आश्रम में हों और चाहे अरविंद के और चाहे रमण के, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता कि वे कहां हैं। उनकी श्रद्धा ऊपर से ओढ़ी गई श्रद्धा है। और उन्हें अच्छी तरह, भलीभांति पता है कि भीतर संदेह की अग्नि जल रही है, जो कभी भी प्रकट हो सकती है। अवसर की भर बात है, अवसर मिल गया तो आग भीतर की प्रकट हो जाएगी; इसलिए डरते हैं, इसलिए भयभीत होते हैं।
श्रद्धालु को कोई भय नहीं है। रामकृष्ण में जिसकी श्रद्धा है वह मुझमें भी रामकृष्ण को ही पाएगा। मेरे कारण रामकृष्ण में उसकी श्रद्धा कम नहीं होगी, बढ़ेगी। और अगर मेरे कारण कम हो जाए तो न तो उसने रामकृष्ण को पहचाना है और न अभी श्रद्धा से उसका कोई संबंध हुआ है। स्वर होंगे अलग, गीत तो वही है। वाद्य होंगे अलग, संगीत तो वही है।
रामकृष्ण हों, रमण हों कि कोई और, अलग-अलग अभिव्यक्तियां हैं--एक ही सत्य की! और जिसकी सत्य पर श्रद्धा है वह सत्य की सारी अभिव्यक्तियों को प्रेम करने में समर्थ होगा। श्रद्धा की सीमा नहीं होती, और सीमा हो तो जानना वह श्रद्धा नहीं है। जो कहे मुझे तो सिर्फ गुलाब के फूल पर श्रद्धा है, मैं चंपा के फूल के पास नहीं जा सकता; कैसे जाऊं, मेरी तो गुलाब के फूल पर श्रद्धा है--वह सिर्फ इतना ही बता रहा है कि वह डरता है कि कहीं ऐसा न हो कि चंपा की सुगंध आवेष्टित कर ले! कहीं ऐसा न हो कि चंपा में डूब जाऊं और गुलाब भूल जाए! कहीं ऐसा न हो कि चंपा अटका ले, फिर गुलाब तक न आ सकूं!
नहीं; जिसकी श्रद्धा है वह तो गुलाब का भी आनंद लेगा और चंपा का भी और चमेली का भी। क्योंकि उसकी श्रद्धा सौंदर्य में होती है। सौंदर्य की कोई सीमा नहीं है; सौंदर्य असीम है, अमाप है, अपरिभाष्य है। श्रद्धा इतनी संकीर्ण नहीं होती कि एक से बंध जाए। श्रद्धा और संकीर्ण, विरोधाभासी शब्द हैं। श्रद्धा विस्तीर्ण होती है, आकाश जैसी होती है। चर्च में भी जा सकता है श्रद्धालु और मंदिर में भी और मस्जिद में भी और गुरुद्वारे में भी--और उसकी श्रद्धा को आंच नहीं आएगी। उसकी श्रद्धा पकेगी, बढ़ेगी, और फूलेगी, और समृद्ध होगी।
क्योंकि निश्चित ही जीसस के वचनों में कुछ है जो कृष्ण के वचनों में नहीं है। और कृष्ण के वचनों में कुछ है जो जीसस के वचनों में नहीं है। कृष्ण के वचनों में एक अपूर्व सुसंस्कृत अभिव्यक्ति है। जीसस के वचनों में एक ग्राम्य सौम्यता है, सरलता है, सीधापन है, सादगी है। बुद्ध के वचनों में कुछ है--सम्राट के बेटे के वचन हैं--बहुत परिष्कृत हैं। कबीर के वचनों में भी कुछ है--माटी की सुगंध है। होंगे बुद्ध के वचन आकाश के, लेकिन कबीर के वचनों में कुछ है जो बुद्ध के वचनों में नहीं है। माटी की सुगंध नहीं है बुद्ध के वचनों में। और पहली-पहली वर्षा में माटी की सुगंध फूलों को भी मात कर देती है। माटी की सोंधी सुगंध का अपना जगत है।
जिसको श्रद्धा है वह तो कबीर में भी डुबकी लगा लेगा और फरीद में भी और नानक में भी और सब जगह से हीरे बटोर लेगा।
ऐसा समझो कि एक आदमी कहता हो कि मुझे तैरना आता है, मगर मैं तो सिर्फ गंगा में ही तैर सकता हूं, मैं नर्मदा में न तैरूंगा। कहीं डूब जाऊं तो! मैं गोदावरी में न तैरूंगा, कोई जान थोड़े ही गंवानी है। मैं तो सिर्फ गंगा में ही तैर सकता हूं।
ऐसे तैरने वाले पर तुम्हारे मन में क्या विचार उठेगा? इसका तैरना जरूर भ्रांति है। क्योंकि जिसे तैरना आता है, गंगा में तैर सकता है तो नर्मदा में क्या अड़चन है? गोदावरी में क्या अड़चन है? तैरना जिसको आ गया उसके लिए नदियों की बाधा नहीं रह जाती। उसके लिए तो सारी नदियां अपनी हो गईं। उसके लिए तो सारे सागर भी एक दिन अपने हो जाने वाले हैं। और जो पृथ्वी पर तैर लिया है, अगर चांद पर कोई सागर होगा तो उसमें भी तैर सकेगा और मंगल पर कोई सागर होगा तो उसमें भी तैर सकेगा। क्योंकि तैरने की कला नदियों से नहीं बंधती, तालाबों से नहीं बंधती। ऐसी ही श्रद्धा है।
श्रद्धा एक कला है। जिसे भरोसा आ गया है कि परमात्मा है; जिसे प्रतीति होने लगी कि अस्तित्व मिट्टी और पत्थर से ही नहीं बना है, मिट्टी और पत्थर में भी चैतन्य छिपा है; मृण्मय में जिसे चिन्मय का बोध होने लगा--उस बोध का नाम श्रद्धा है। फिर यह बोध किस बहाने हुआ, रामकृष्ण के, कि रमण के, कि कृष्ण मूर्ति के, इससे क्या भेद पड़ता है? मेरी अंगुली से तुम्हें चांद दिखाई पड़ा कि कृष्ण की अंगुली से कि क्राइस्ट की अंगुली से, चांद में थोड़े ही फर्क पड़ जाएगा! अंगुलियां भिन्न होंगी--काली होगी अंगुली, गोरी होगी अंगुली, लंबी होगी, छोटी होगी, दुबली होगी, मोटी होगी; ये अंगुलियों के भेद हैं, इनसे चांद में कोई अंतर न पड़ेगा। जिसको चांद की झलक मिलने लगी वह श्रद्धालु है। और अब जितनी अंगुलियों से मिल सके, लूटेगा, बेधड़क लूटेगा! अब उसे कोई रुकावट नहीं। सारे मंदिर उसके हैं, सारे तीर्थ उसके हैं। काबा भी उसका, काशी भी उसकी, कैलाश भी उसका। लेकिन तुम जिनकी बातें कर रहे हो, युगल किशोर, ये नपुंसक लोग हैं। इन्हें श्रद्धा का कोई भी पता नहीं है। इनकी श्रद्धा भी बड़ी संकीर्ण है। इनकी श्रद्धा बड़ी छोटी है, बड़ी उथली है। है ही नहीं, ढांके बैठे हैं संदेह को। किसी भांति मना-मनु कर अपने को सम्हाल लिया है। इसलिए डरे हुए हैं।
नास्तिक से बात करने में आस्तिक डरता है, यह कैसा आस्तिक? नास्तिक नहीं डरता, आस्तिक डरता है! मैंने किसी नास्तिक को आस्तिक से बात करते डरते नहीं देखा। और मैं तथाकथित आस्तिकों को नास्तिकों से बात करते डरते देखता हूं। यह तो बड़ी उलटी बात हो गई। नास्तिक डरे, अकेला है बेचारा, ईश्वर का कोई सहारा नहीं है, अस्तित्व उसका सूना है, जीवन उसका अर्थहीन है--नास्तिक डरे, गणित ठीक बैठता है। लेकिन आस्तिक डरता है, जो कहता है सारा जगत, कण-कण परमात्मा से व्याप्त है--यह कंपता है! यह तो बड़ी बेबूझ बात हो गई। यह पहेली कैसे सुलझाओ! यह तो कबीर की उलटबांसी हो गई।
मगर कारण साफ है। नास्तिक ईमानदार है, आस्तिक बेईमान है। तुम्हारा तथाकथित आस्तिक बिलकुल बेईमान है, इसलिए डरता है। डर बाहर से नहीं आता--नास्तिक क्या कर लेगा? डर भीतर से आता है। उसे अपने ही संदेह का भय है। उसे पता है कि संदेह दबाए बैठा है। कहीं कोई उकसा दे, कहीं कोई कुरेद दे, कहीं कोई ऐसी बात कह दे कि संदेह प्रज्वलित हो उठे, कि श्रद्धा डगमगा जाए! तो ऐसी जगह जाना ही नहीं।
जैन शास्त्र कहते हैं: पागल हाथी भी तुम्हारे पीछे पड़ा हो और पास में हिंदू मंदिर हो तो शरण मत लेना। हाथी के नीचे दब कर मर जाना बेहतर है, हिंदू मंदिर में शरण लेना बेहतर नहीं है। क्यों? क्योंकि वहां कोई असद् वचन सुनने को मिल जाएं; वहां कोई मिथ्याज्ञान की बात कान में पड़ जाए तो जन्म-जन्म भटकोगे। हाथी क्या करेगा, सिर्फ शरीर ही ले सकता है; मगर मिथ्या वचन, मिथ्या गुरु, मिथ्या शास्त्र... अगर उनकी बात कान में पड़ गई तो शरीर ही नहीं आत्मा भ्रष्ट हो जाएगी।
और यही बात हिंदू ग्रंथों में भी लिखी है, क्योंकि ये सब ग्रंथ एक ही जैसे लोगों ने लिखे हैं--कि अगर जैन मंदिर के भीतर शरण मिलती हो तो उससे तो बेहतर हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना है।
तुमने घंटाकरण की कहानी तो सुनी है न, जो अपने कानों में घंटे बांधे रखता था! ये तुम्हारे आस्तिक बस घंटाकरण हैं। वह कानों में घंटे बांधे रखता था, क्यों? ताकि उसके कान में उसके इष्ट देवता के अतिरिक्त और कोई नाम सुनाई न पड़े। अगर उसके इष्ट देवता राम हैं तो राम-राम, राम-राम जपता है और कानों में घंटे बांधे हुए है; चलता है तो घंटे बजते रहते हैं। इसलिए कोई दूसरा इष्ट देवता, कोई कृष्ण-भक्त कहीं कृष्ण का नाम न डाल दे, कहीं कान में कृष्ण का नाम न पड़ जाए।
छोटे-छोटे आस्तिकों की तो बात छोड़ दो, तुम्हारे बड़े-बड़े आस्तिक, वे भी कसौटी पर उतरते नहीं। तुलसीदास के जीवन में कथा है कि उन्हें ले जाया गया मथुरा में कृष्ण के मंदिर में तो वे झुके नहीं। जो मित्र उन्हें ले गए थे उन्होंने कहा: आप नमस्कार न करेंगे? उन्होंने कहा: नहीं, मैं तो सिर्फ राम को ही नमस्कार करता हूं। जब तक धनुषबाण हाथ में न लोगे, मैं नमस्कार नहीं करूंगा।
तुलसीदास को कण-कण में राम दिखाई पड़ते हैं, लेकिन कृष्ण में राम नहीं दिखाई पड़ते। यह कैसा मजा हुआ! तो वह कण-कण में राम दिखाई पड़ने वाली बात बकवास है। तुलसीदास को कृष्ण से कुछ लेना-देना नहीं, राम से कुछ लेना-देना नहीं, धनुषबाण ज्यादा मूल्यवान मालूम होते हैं--मार्का, सरकारी मार्का, वह ज्यादा मूल्यवान मालूम होता है। लेबल। नहीं झुकेंगे कृष्ण के सामने, राम के सामने झुकेंगे! और शर्त कि धनुषबाण अगर हाथ लेते हो तो मैं झुक सकता हूं। अब यह कृष्ण पर छोड़ दिया कि तुम्हारी मर्जी, अगर मेरे झुकने का मजा लेना हो तो ले लो धनुषबाण हाथ में।
जिन्होंने कहानी लिखी है, बेईमान रहे होंगे। उन्होंने कहानी लिखी है कि और कृष्ण ने जल्दी से धनुषबाण हाथ में ले लिया। मूर्ति ने धनुषबाण हाथ में ले लिया। तब तुलसीदास झुके। मगर इसमें एक बात साफ है कि यह भक्ति न हुई, यह तो भगवान पर भी शर्त हुई! यह तो भगवान से भी सौदा हुआ। इसमें तुलसीदास तो दो कौड़ी के हो ही गए। अगर कृष्ण ने धनुषबाण हाथ लिया तो वे भी दो कौड़ी के हो गए। यह भी क्या बात हुई? तुलसीदास न झुकते तो क्या बिगड़ता है? यह तो झुकाने का बड़ा रस हुआ! ये तो जैसे बैठे ही थे। वह तो अच्छा हुआ कि उन्होंने धनुषबाण कहा, कोई और पहुंच जाते, कोई तुलाधर वैश्य के भक्त पहुंच जाते, कहते कि तराजू हाथ में लो, तो वे तराजू हाथ में लेते। कोई मोहम्मद के भक्त पहुंच जाते, वे कहते कि तलवार हाथ में लो। तो कृष्ण को पूरी दुकान ही सजानी पड़ती, सब सामान सामने रखना पड़ता, जब जो आए। कोई जैन भक्त पहुंच जाते, वे कहते नग्न खड़े होओ, दिगंबर, तो जल्दी से चड्ढी इत्यादि उतार कर खड़े होना पड़ता। यह तो बड़ी बेहूदगी हो जाती। मगर यही तुम्हारे आस्तिक की स्थिति है। तुम्हारा आस्तिक कमजोर है, झूठा है। मुझे तो वह नास्तिक प्यारा है जो कम से कम ईमानदार है; जो कहता है मुझे पता नहीं है, इसलिए मैं कैसे मानूं? इसे कभी पता चल सकता है, क्योंकि इसने अपने अज्ञान को छिपाया नहीं, स्वीकार किया है। और अज्ञान की स्वीकृति सत्य की तरफ पहला चरण है।
तो पहली तो बात, युगल किशोर, जिन मित्रों की तुम पूछ रहे हो उनकी आस्था झूठी है, उनकी श्रद्धा बांझ है। दूसरी बात, जहां-जहां वे अटके हैं वहां उन्हें कुछ मिला नहीं, नहीं तो यहां आने की जरूरत क्या? क्या प्रयोजन? गंगा के किनारे जो बसा है और जिसकी प्यास तृप्त हो रही है, अब वह किसलिए जाएगा ब्रह्मपुत्र की तलाश में? पानी तो पानी है। प्यास बुझ गई, बात समाप्त हो गई। तो तुम जिनकी बात कर रहे हो--रामकृष्ण आश्रम, अरविंद आश्रम, रमण आश्रम--वहां जो लोग हैं वे यहां आना चाहते हैं, उनका आना चाहना ही बता रहा है कि वहां कुछ हुआ नहीं है। और नपुंसक श्रद्धा से कहीं भी कुछ नहीं होता। रामकृष्ण क्या करेंगे? रमण क्या करेंगे? मैं क्या करूंगा? कोई भी क्या करेगा? तुम्हारी श्रद्धा ही अगर नहीं है, तुम अगर भीतर बिलकुल निर्बल हो, तुम अगर भीतर बिलकुल झूठे हो, थोथे हो, ओछे हो, तो तुम्हारी श्रद्धा लेकर तुम जहां भी जाओगे वहीं कुछ भी होने वाला नहीं। वहां कुछ हुआ नहीं है इसलिए यहां आना चाहते हैं। नहीं तो आने की बात क्या थी? अब डर भी लगता है कि कहीं छोड़ कर गए तो कहीं जिन पर अब तक श्रद्धा की वे नाराज न हो जाएं! मिला भी कुछ नहीं है वहां। ...नाराज न हो जाएं, कहीं श्रद्धा डांवाडोल न हो जाए।
और तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम्हें ऐसा सिखाते रहे हैं। तुम्हारे पंडित-पुरोहितों ने शिष्य और गुरु के संबंध को तो करीब-करीब पति-पत्नी का संबंध बना दिया है--एक पत्नी-व्रत! यह कोई विवाह थोड़े ही है--खोज है, अन्वेषण है, जिज्ञासा है। ठीक है तुमने तलाशा एक जगह, पूरा श्रम लगाओ, हो सकता है तुम्हें वहां न मिल सके। जरूरी नहीं है कि तुम्हें नहीं मिला, इसका यह अर्थ है कि वहां नहीं है। तुमसे तालमेल न बैठा हो, तुम्हारे व्यक्तित्व के अनुकूल न पड़ा हो।
रामकृष्ण सभी के अनुकूल नहीं पड़ सकते, नहीं तो वैविध्य मिट जाए। किसी को कुरान ही जमती है और कुरान के वचन ही किसी के प्राणों में पड़े हुए जन्मों-जन्मों के बीजों को अंकुरित करते हैं। और किसी को गीता में ही वर्षा होती है। जहां वर्षा हो जाए... प्रयोजन आम खाने से है या गुठलियां गिनने से? लेकिन लोग गुठलियों से बंधे हुए हैं; आम-वाम खाने का तो पता ही नहीं है, गुठलियों के ढेर लगाए बैठे हैं। तुम्हें अगर वहां मिल गया तो यहां आने का अकारण कष्ट न करो। अगर नहीं मिला है तो क्षण भर भी रुकना आत्मघात है क्योंकि कौन जाने कल मौत हो!
तो तलाशो, दौड़ो, भागो, जहां मिल सकता हो, जहां से खबर मिले कि सूरज उगा है वहां जाओ। यह तो खोजी की जिंदगी है। साधक की जिंदगी तलाश है। जहां तालमेल बैठ जाएगा, कौन जाने कहां बैठ जाए! किससे हृदय की लयबद्धता हो जाए, कौन सा वाद्य तुम्हें मोहित कर ले! जब तक वैसी जगह न आ जाए तब तक बहुत द्वार खटखटाने पड़ते हैं। अपने द्वार पर पहुंचने के लिए बहुत द्वार खटखटाने पड़ते हैं, अपना मंदिर खोजने के लिए बहुत मंदिरों में तलाश करनी पड़ती है।
लेकिन लोग तलाश नहीं करना चाहते--गोबरगणेश हैं! जहां बैठ गए बैठ गए। फिर वहां से उठने का नाम नहीं लेते, चाहे कुछ मिले, चाहे न मिले।
मैं पुनः याद दिला दूं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वहां कुछ नहीं है। होगा, जरूर होगा। लेकिन तुम्हें नहीं मिला, यह सवाल है। दूसरों को मिला होगा, दूसरे जानें। तुम्हें अगर नहीं मिला है तो उठो, चलो। पृथ्वी खाली नहीं है; यहां विविध-विविध रंगों में परमात्मा प्रकट होता है।
और फिर, शिरडी के साईंबाबा या गजानन महाराज अब तो मौजूद नहीं हैं, न रामकृष्ण, न रमण। जैसे ही सदगुरु विदा होता है वैसे ही एक जाल इकट्ठा हो जाता है वहां, जो सदगुरु के नाम का शोषण शुरू कर देते हैं। इसे रोका नहीं जा सकता। इसे रोकना असंभव है। कौन रोके, कैसे रोके? यह होता ही रहेगा। चालबाज आदमी, होशियार आदमी सदगुरु के नाम का लाभ उठाएंगे। उसकी जिंदगी में तो नहीं ले सकते, उसकी मौजूदगी में तो मुश्किल पड़ती है; लेकिन जब वह मौजूद नहीं रहेगा तो उसकी कब्र बना कर बैठ जाएंगे, चमत्कारों की चर्चाएं चलाएंगे, कहानियां फैलाएंगे, बाजार लगाएंगे, दुकान खोल लेंगे। ऐसी ही दुकानें शिरडी के साईंबाबा और गजानन महाराज, ऐसे लोगों के समाधि स्थलों पर इकट्ठी हो गई हैं। हर चीज की वे एक ही उपयोगिता जानते हैं--कैसे उससे शोषण किया जा सके? जरूर वे तुमसे कहेंगे कि यहां से अगर छोड़ कर गए तो बाबा नाराज हो जाएंगे। बाबा प्रसन्न तो हो नहीं रहे हैं, मगर नाराज जरूर हो जाएंगे! जो बाबा प्रसन्न ही नहीं हो रहे हैं, अब उनके नाराज होने से भी क्या होने वाला है? बाबा जा चुके। और वे बाबा ही नहीं हैं जो नाराज हो जाएं।
तुम अगर शिरडी छोड़ कर यहां आओगे तो शिरडी के साईंबाबा की आत्मा प्रसन्न होगी, आनंदित होगी, कि तुम फिर तलाश पर निकल पड़े हो, शायद कोई द्वार मिल जाए। वह द्वार तो बंद हो गया।
जैसे ही कोई सदगुरु विदा होता है इस पृथ्वी से, उसकी सुगंध आकाश में लीन हो जाती है, पीछे छूट जाते हैं पग-चिह्न और पग-चिह्नों के आस-पास इकट्ठे पंडितों-पुरोहितों की भीड़। और पंडित-पुरोहित बड़े कुशल हैं शोषण करने में। वे सब भांति का शोषण शुरू कर देते हैं।
युगल किशोर, अपने मित्रों को कहना: तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि श्रद्धा झूठी है। तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि अभी तुम्हें जो मिलना था नहीं मिला। तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि तुम्हें अभी मंदिर की तलाश करनी है। तुम्हारी हिचकिचाहट बताती है कि तुम दुकानदारों के चक्कर में पड़ गए हो।
और श्रद्धा इतनी बड़ी है, आकाश जैसी, सबको समा लेती है। श्रद्धा जिसके पास है उसमें राम और कृष्ण और बुद्ध और महावीर और नानक और कबीर सब समाविष्ट हो जाते हैं। श्रद्धा का जादू ऐसा है, श्रद्धा की रसायन ऐसी है कि उसमें राम और कृष्ण में भेद नहीं रह जाता, जीसस और जरथुस्त्र में भेद नहीं रह जाता, महावीर और मीरा में भेद नहीं रह जाता। श्रद्धा की रासायनिक प्रक्रिया ऐसी है कि वह सारे सत्यों को समाविष्ट कर लेती है। और सारे सत्यों को समाविष्ट करके जो परम सत्य प्रकट होता है उसकी समृद्धि अनूठी है, उसका आनंद अपूर्व है।
श्रद्धा सारे वाद्यों को इकट्ठा करके आर्केस्ट्रा बना लेती है। हां, बांसुरी का भी एक मजा है--एकाकी बजती बांसुरी का, जरूर मजा है! लेकिन जब तबले पर थाप भी पड़ती हो और बांसुरी बजती हो तो मजा और गहन हो गया। और जब पीछे कोई सितार भी, सोए सितार को भी जगा दे तो रस और बढ़ा। और फिर कोई तानपूरा भी लेकर बैठ जाए तो बात और गहन होने लगी, नये-नये आयाम जुड़ने लगे।
परमात्मा अभी भी चुक नहीं गया है, अभी बहुत महावीर होंगे और बहुत बुद्ध होंगे और बहुत मोहम्मद होंगे और बहुत जीसस होंगे। और परमात्मा तब भी चुकेगा नहीं। नये-नये वाद्य जुड़ते जाएंगे, संगीत और सघन होता जाएगा, संगीत और गहन होता जाएगा। कृपण न बनो, कंजूस न बनो। हृदय को खोलो इस विराट आकाश के प्रति। पूरे परमात्मा को ही अंगीकार करो, उसके सब रूपों को अंगीकार करो। फिर जो तुम्हें प्रीतिकर लगता हो, वहां रम रहो। लेकिन इनकार तो कोई भी न हो। श्रद्धा का अर्थ होता है भीतर ‘हां’ का भाव उठा। और ‘हां’ में ‘नहीं’ नहीं होती। ‘हां’ में कोई शर्तबंदी नहीं होती।
अपने मित्रों को कहना... और कौन जाने मित्रों के नाम से सिर्फ तुम अपने संबंध में पूछ रहे हो। इसका भी बहुत डर है। इसकी भी बहुत संभावना है। हम सीधा-सीधा भी नहीं पूछते, क्योंकि सीधा-सीधा पूछो, कौन जाने मैं लट्ठ की तरह तुम्हारे सिर पर चोट करूं! तो लोग मित्रों के नाम से पूछते हैं।
एक सज्जन आए। वे कहने लगे: मेरे मित्र नपुंसक हैं! उनके लिए कोई ध्यान की विधि हो सकती है?
मैंने कहा: तुमने नाहक कष्ट किया! अपने मित्र को क्यों नहीं भेज दिया?
उन्होंने कहा: मैंने तो उनसे बहुत कहा, मगर वे संकोचवश आए नहीं।
मैंने कहा: उनसे तुम यह कह सकते थे कि तुम चले जाओ और कहना कि मेरे एक मित्र हैं, जो नपुंसक हैं, उनको ध्यान की कोई विधि...।
वे थोड़े बेचैन हुए। मैंने कहा: तुम्हारी बेचैनी, तुम्हारी आंखें, तुम्हारा चेहरा सब कह रहा है कि तुम किस मित्र की बात कर रहे हो। सीधी-सीधी बात करो, अपनी बात करो।
युगल किशोर ठाकुर! ठाकुर होकर तुम भी कैसी बात कर रहे! कहां के मित्रों की बात उठा रहे हो? अपनी ही बात करो, सीधी-सीधी बात करो। ये परिकल्पित मित्र, अगर हों कोई तो जरूर उनको कह देना, मगर अपनी तो गुन लो। उनकी उन पर छोड़ो। यहां तुम आए हो, तुम भी कहीं दूर-दूर खड़े न रह जाना डर के मारे कि अपनी तो श्रद्धा और, आ तो गए तो ठीक, मगर दूर-दूर खड़े रहें। न ध्यान में उतरें, न प्रार्थना में डूबें। सुनें भी तो एक पर्दे की आड़ से, अपने सिद्धांतों की दीवाल बीच में खड़ी रख कर।
ऐसा करोगे तो चूक जाओगे। ऐसा करोगे तो एक अवसर और आया था, वह भी व्यर्थ चला जाएगा। अवसर खोओ नहीं, अवसर बहुत मुश्किल से आते हैं।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, एक ओर तो आप आधुनिक यंत्र-विधि के पक्ष में हैं और मानते हैं कि धर्म का फूल औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देशों में ही खिलेगा। दूसरी तरफ आप पश्चिम की औद्योगिक सभ्यताओं की विडंबनाओं का भी बखान करते हैं। ‘या तो यंत्र बचेगा या मनुष्य’--यह आपका ही वाक्य है। इसके अलावा आप अतीत के जिन महापुरुषों, संतों और भक्तों की वाणी की व्याख्या करते हैं, उनमें से कोई नहीं मानता था कि धर्म गरीबों के लिए नहीं है। इन सबकी पारस्परिक संगति कैसे बिठाई जाए?
राजकिशोर! मैं यंत्र-विधि के पक्ष में हूं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यंत्र-विधि के साथ जुड़ी कुछ घातक संभावनाएं नहीं हैं। उन घातक संभावनाओं से भी मैं सचेष्ट करता हूं। बुद्धिमान व्यक्ति तो जहर से भी अमृत बना लेता है और बुद्धू अमृत से भी जहर।
विज्ञान ने बहुत बड़ी शक्ति मनुष्य के हाथ में दी है--टेक्नालॉजी की, यंत्र-विधि की। इससे यह सारी पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है। सदियों-सदियों का सपना, जो हम देखते थे कहीं दूर आकाश में स्वर्ग है, वह पृथ्वी पर उतर सकता है। इस पृथ्वी पर, हमारी पृथ्वी पर उतर सकता है! विज्ञान ने एक विराट ऊर्जा का विस्फोट कर दिया है। लेकिन उसके खतरे हैं। उन खतरों से भी मैं सावधान करता हूं। सबसे बड़ा खतरा यह है कि कहीं यांत्रिकता मनुष्य के ऊपर हावी न हो जाए! कहीं ऐसा न हो कि मनुष्य सिर्फ मशीन का एक गुलाम होकर रह जाए। मनुष्य की मालकियत तो रहनी ही चाहिए। मनुष्य मालिक हो, यंत्र सेवक हो, तो शुभ है। यंत्र मालिक हो, मनुष्य सेवक हो जाए, तो अशुभ है।
इसलिए मैं एक ओर यंत्र-विधि का पूर्ण समर्थन करता हूं। क्योंकि उसके बिना अब पृथ्वी भूखी मरेगी। उसके बिना अब आदमी समृद्ध नहीं हो सकेगा। समृद्धि तो दूर, जीवन की सामान्य सुविधाएं भी आदमी को उपलब्ध नहीं हो सकेंगी। हमने इतनी संख्या बढ़ा ली है! संख्या रोज बढ़ती जा रही है। पृथ्वी उतनी की उतनी है। हर आदमी अपने साथ सौ-पचास एकड़ जमीन भी ले आता तो ठीक था। आदमी चले आते हैं, जमीन उतनी की उतनी है।
बुद्ध के जमाने में इस देश की कुल जनसंख्या दो करोड़ थी। आज पाकिस्तान को छोड़ कर, बंगलादेश को छोड़ कर इस देश की जनसंख्या साठ करोड़ है। अगर उन दोनों को भी हम जोड़ लें तो अस्सी करोड़ के करीब पहुंच रही है। इस सदी के पूरे होते-होते एक अरब जनसंख्या भारत की होगी। इस एक अरब जनसंख्या को न तुम भोजन दे सकोगे, न कपड़े दे सकोगे, न दवा दे सकोगे, न छप्पर दे सकोगे। लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह बिल्लाने लगेंगे। और तुम हो कि चरखे का गीत गाए जाते हो!
इस सदी के पूरे होते-होते तुम्हें पता चलेगा कि गांधीवाद के नाम पर तुमने जो मूढ़ता की है, उससे बड़ी और कोई मूढ़ता नहीं हो सकती थी। गांधी को भविष्य का कोई बोध नहीं था। गांधी मरे-मराए अतीत के प्रशंसक थे। वे रेलगाड़ी के खिलाफ थे, टेलीफोन के खिलाफ थे, पोस्ट ऑफिस के खिलाफ थे, दवाइयों के खिलाफ थे। मनुष्य ने जो भी मनुष्य के जीवन को सुसमृद्ध करने के लिए विकसित किया, सबके खिलाफ थे। वे चाहते थे, आदमी बाबा आदम के जमाने में वापस लौट चले। मगर यह हो नहीं सकता। यह करना हो, तो करोड़ों लोगों की हत्या करनी होगी पहले।
बुद्ध के जमाने में जब दो करोड़ आदमी थे भारत में तो एक तरह की संपन्नता थी। स्वभावतः, इतनी भूमि, इतना विशाल देश और कुल दो करोड़ आदमी! आज भी दो करोड़ हों तो फिर संपन्न हो जाएगा देश। कोई भूखा नहीं मरेगा। और आज भी दो करोड़ संख्या हो तो घरों में ताले न लगाने पड़ेंगे। ये कोई आदमियों की खूबियां नहीं थीं। ये कोई नैतिक गुण नहीं थे बुद्ध के जमाने में, कि लोग घरों में ताला नहीं लगाते थे। ताला लगाने का सवाल ही नहीं था।
लेकिन आज उसी देश में अस्सी करोड़ लोग हैं। चालीस गुनी संख्या बढ़ गई; और जमीन उतनी की उतनी है। और ढाई हजार साल में हमने जमीन का शोषण कर लिया। उसके जितने रासायनिक द्रव्य थे, हम सब पी गए। और वापस हमने कुछ नहीं डाला। दूसरे मुल्कों में तो लोग, आदमी मर जाता है तो उसे जमीन में गड़ा देते हैं। तो जो कुछ उसके शरीर में खनिज, विटामिन, जो कुछ भी होते हैं, वापस जमीन में पहुंच जाते हैं। हम वह भी नहीं करते, हम उसे जला देते हैं। तो जिंदगी भर जो खाया-पीया, उसको हम राख कर देते हैं। जमीन में वापस नहीं पहुंच पाता वह फिर। तो ढाई हजार सालों में हम आदमी जलाते रहे और जमीन का शोषण करते रहे। जमीन बांझ हो गई है। उसमें अब कुछ फलता-फूलता नहीं मालूम पड़ता। और संख्या बढ़ती जाती है। यंत्र के अतिरिक्त अब कोई उपाय नहीं है।
इसलिए मैं यंत्र-विधि के पूरे पक्ष में हूं, समग्ररूपेण पक्ष में हूं। देश के द्वार-दरवाजे खोल दिए जाने चाहिए। हमने देश को एक बंद कारागृह बना लिया है, इसलिए हम सड़ रहे हैं। मेरा बस चले तो मैं देश के सारे द्वार-दरवाजे खोल दूं; सारी दुनिया को निमंत्रित करूं कि आओ! सारी दुनिया की पूंजी निमंत्रित होनी चाहिए कि लोग पूंजी लाएं, कि लोग यंत्र लाएं, कि लोग विज्ञान के नये-नये उपकरण लाएं। और इस देश में जितने ज्यादा उद्योग हो सकें उतने उद्योग फैलें।
और दुनिया से लोग आना चाहते हैं। मगर इस देश की मूढ़ताएं ऐसी हैं कि हम चाहते हैं कि दुनिया की पूंजी भारत में न आ जाए, कहीं भारत का शोषण न हो जाए। है कुछ भी पास नहीं... शोषण हो जाने का बड़ा डर है! नंगा नहाए... नहाता ही नहीं। वह नहाता इसलिए नहीं कि अगर नहाऊंगा तो निचोडूंगा कहां? निचोड़ने को कुछ है ही नहीं! वह नहाता ही नहीं है, क्योंकि नहाऊंगा तो फिर सुखाऊंगा कहां? सुखाने को कुछ है ही नहीं। और इस देश के पूंजीपति हैं, उनको भय है कि अगर दुनिया की पूंजी भारत में आए, और दुनिया का विज्ञान भारत में आए तो उनके कचरा उत्पादन की क्या कीमत रह जाएगी! तुम सोचते हो एंबेसेडर कार की कितनी कीमत होगी? बैलगाड़ी से कम हो जाएगी! अगर इस देश में फोर्ड और शेवरलेट और रॉल्स रॉयस और बेंज़, ये सारे कारखाने खुल जाएं तो एंबेसेडर गाड़ी का तुम सोचते हो क्या हाल होगा? कोई मुफ्त भी लेने को राजी नहीं होगा। क्योंकि जितनी कीमत पर एंबेसेडर मिल रही है उतनी कीमत पर तो बेंज़ गाड़ी मिल सकती है। जो तीस साल, चालीस साल चले और फिर भी ऐसा लगे कि ताजी है, नई है। और एंबेसेडर गाड़ी तुम शोरूम से घर तक लाओ और खात्मा।
जब जुगल किशोर बिड़ला मरे, तो कहते हैं उन्हें स्वर्ग ले जाया गया... मुझे पक्का पता नहीं कहानी कहां तक सच है, मगर सच ही होगी... वे खुद भी चौंके। मगर फिर सोचा कि शायद मैंने इतने बिरला मंदिर बनवाए इसलिए मुझे स्वर्ग ले जाया जा रहा है। स्वर्ग में उन्होंने द्वारपाल से पूछा कि मुझे किसलिए स्वर्ग लाया जा रहा है? तो उन्होंने कहा, इसलिए कि जो-जो तुम्हारी गाड़ी खरीदते हैं, वे कहते हैं: हे राम! तुमने लोगों को जितना राम का नाम याद दिलवाया है, उतना किसी ने नहीं! बड़े-बड़े पंडित-पुरोहित हार गए। तुमने एंबेसेडर क्या बनाई है, ऐसी गाड़ी दुनिया में कोई नहीं! जिसमें हर चीज बजती है, सिर्फ हार्न को छोड़ कर!
तो यह हिंदुस्तानी पूंजीपति है, जिसकी पेइंग-लिस्ट पर इस देश के सारे नेताओं के नाम हैं; जो इस देश में बाहर की संपदा को, तकनीक को, विज्ञान को नहीं आने देना चाहता। इसलिए तुम गरीब हो, इसलिए तुम परेशान हो। और तुम परेशान रहोगे। इस देश के द्वार खोल दिए जाने चाहिए। अब यह पृथ्वी खंड-खंड में नहीं होनी चाहिए। अब दुनिया के पास इतना वैज्ञानिक विकास है कि अगर हम अपने द्वार खोल दें तो यह देश समृद्ध हो सकता है। लेकिन हम पिटी-पिटाई बातें दोहराए चले जाते हैं।
हमारे अर्थशास्त्री कौन हैं? चौधरी चरणसिंह जैसे लोग हमारे अर्थशास्त्री हैं। जिनको अर्थशास्त्र का अ ब स भी नहीं आता। अनर्थशास्त्र का आता होगा, अर्थशास्त्र का बिलकुल नहीं आता। वे अभी तक गांवों का गुणगान किए जा रहे हैं। वे अभी तक गांव की ही प्रशंसा में गीत गाए जा रहे हैं। गांव का कोई भविष्य नहीं है। गांव जा चुके, गांव का कोई भविष्य होना भी नहीं चाहिए। अब नगरों का भविष्य है--सुसंपन्न, सुशिक्षित, सुनियोजित नगरों का भविष्य है। दुनिया से गांव विदा हो रहे हैं। इधर हम गांव की तरफ सारी ताकत लगा रहे हैं। हमारे गांव भी विदा होने चाहिए। और गांव में कुछ भी नहीं है। बीमारी है, गरीबी है, मच्छर हैं, मक्खियां हैं, कीचड़ है, कबाड़ है। और एक गुलामी है। जब तक गांव नहीं मिटेगा, वह गुलामी नहीं मिटेगी। छोटे-छोटे गांव की गुलामी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। तुम कवियों की कहानियां और कविताएं पढ़ लेते हो, सोचते हो कि अहा, गांवों में कैसा रामराज्य! कैसा पंचायत राज्य! और गांव में कैसे लोग मजा कर रहे हैं--कैसी स्वाभाविकता, प्राकृतिकता!
तुम्हें गांव की स्थिति का कोई अंदाज नहीं है। इस देश का गांव एक तरह का कारागृह है। इस गांव में जितना शोषण हो सकता है, शहर में नहीं हो सकता। गांव में हरिजन है, उसको कुएं पर पानी नहीं भरने दिया जा सकता। वह सबके साथ पांत में बैठ कर भोजन नहीं कर सकता। पांत में बैठ कर भोजन करने की तो बात दूर, उसकी छाया किसी पर पड़ जाए, तो पाप हो जाए, तो गांव के लोग मिल कर उसकी हत्या कर दें। अगर हरिजनों से कोई मिले-जुले, तो उसका हुक्का-पानी बंद कर दें। गांव इतनी छोटी जगह है कि वहां कोई आदमी व्यक्तिगत जीवन तो जी ही नहीं सकता। वहां कोई निजी जीवन नहीं है। और जहां निजता नहीं है वहां स्वतंत्रता नहीं हो सकती।
शहरों ने निजता दी है। शहरों में व्यक्ति निजी हो गए हैं।
मैं पक्ष में हूं इस बात के कि यंत्र बढ़ने चाहिए। औद्योगिकता बढ़नी चाहिए। धीरे-धीरे हमारे गांव छोटे-छोटे नगरों में रूपांतरित होने चाहिए। लेकिन खतरे हैं, वे भी हमें जान लेने चाहिए।
एक खतरा है सबसे बड़ा कि कहीं मनुष्य यंत्र से छोटा न हो जाए। कहीं यंत्र मनुष्य की छाती पर न बैठ जाए। नहीं तो भंयकर गुलामी शुरू हो जाएगी। यंत्र का हमें उपयोग करना है, यंत्र हमारा उपयोग न करने लगे। वैसा डर पश्चिम में पैदा हो गया है कि यंत्र आदमी का उपयोग करने लगा है। हम सावधान हो सकते हैं उससे। कहीं ऐसा न हो जाए कि यंत्र मनुष्य की सारी गरिमा और गौरव छीन ले। यह भी हो सकता है, क्योंकि यंत्र इतना कुशल है। उससे प्रतिस्पर्धा मनुष्य नहीं कर पाएगा। यंत्र की कुशलता इतनी बड़ी है कि जो काम हजार आदमी करें, एक यंत्र कर देगा। तो हजार आदमी बेकार हो गए। तो ये बेकार आदमियों की गरिमा खो जाएगी। ये बेकार आदमी कहां जाएंगे, क्या करेंगे?
पश्चिम में जितना ही स्वचालित यंत्र बढ़ते जाते हैं उतना ही सवाल उठता है कि बेकार आदमियों का क्या करना? लेकिन पश्चिम में समझ है। यहां तो काम जो करता है उसको भी तनख्वाह नहीं मिलती, लेकिन पश्चिम के समृद्ध देशों में जिसे काम नहीं मिलता है, उसे काम नहीं मिलने की तनख्वाह मिलती है। बेरोजगारी के लिए तनख्वाह मिलती है। क्योंकि वह भी जिम्मा समाज का है। अगर तुमने यंत्रों के हाथ में काम दे दिया और लोगों को काम नहीं मिलता, तो उनको तनख्वाह दो! वे काम करने को तैयार हैं।
धीरे-धीरे यंत्र सारा काम सम्हाल लेंगे। तब खतरे बहुत हैं। एक खतरा तो यह है कि आदमी सदियों से काम का आदी रहा है, खाली बैठने की उसे अकल नहीं है। खाली बैठेगा तो उपद्रव करेगा। झगड़े-झांसे करेगा... झंडा ऊंचा रहे हमारा! चले! अब कुछ काम ही नहीं है...। हिंदू, मुसलमान, ईसाई जूझने लगेंगे, झगड़ने लगेंगे, व्यर्थ के विवाद खड़े हो जाएंगे। या लोग शराब पीएंगे। या दिन-दिन भर टेलीविजन देखेंगे, आंखें खराब करेंगे। या वेश्यागामी हो जाएंगे। तो ये खतरे हैं। और ये खतरे रोके जा सकते हैं। सच तो यह है, सदियों-सदियों का सपना पूरे होने के करीब है। अब आदमी के लिए मौका है संगीत सीखे; अब मौका है ध्यान करे; अब मौका है काव्य रचे, मूर्ति गढ़े; अब मौका है सुंदर बगीचा बनाए।
तो इसके पहले कि यंत्र मनुष्य से सारे काम छीन ले, हमें आदमी को जीवन का एक नया ढंग और एक नई शैली देनी होगी। ध्यान उसमें केंद्र होगा। बिना ध्यान के मनुष्य मर जाएगा, यंत्र उसकी छाती पर बैठ जाएगा। ध्यान का अर्थ ही होता है: खाली बैठने का मजा। पुराने जमानों में कहा जाता था: खाली मत बैठो, खाली बैठना शैतान का घर है। पुराने जमाने में जो खाली बैठता उसको गाली देनी ही पड़ती, क्योंकि दस आदमी कमाते, मेहनत करते, तब मुश्किल से पेट भरता था। खाली आदमी जो बैठता, आलसी होता, उसकी निंदा करनी होती थी। नये भविष्य में जब यंत्र सारा उद्योग हाथ में ले लेंगे तो हमें कहना पड़ेगा: खाली बैठो, खाली बैठना भगवान का मंदिर है। मैं उसी खाली बैठने की कला को सिखा रहा हूं, ध्यान कह रहा हूं उसको। तो ध्यान अनिवार्य होगा।
कला के नये-नये आयाम हमें खोल देने चाहिए, जो सिर्फ राजाओं-महाराजाओं को उपलब्ध थे। ठीक, किसी के दरबार में तानसेन था और किसी के दरबार में बैजू बावरा था, लेकिन अब हमें घर-घर में तानसेन और बैजू बावरा को लाना होगा। तो ही आदमी सुखी रह सकेगा। अन्यथा यंत्र सारा काम कर लेगा, आदमी क्या करेगा! और खाली आदमी खतरनाक हो सकता है। खाली आदमी बहुत खतरनाक हो सकता है। क्योंकि उसके भीतर सदियों-सदियों के दबे हुए रोग पड़े हैं--क्रोध के, घृणा के, ईर्ष्या के, वे उभरने लगेंगे।
इसीलिए यंत्र से जो खतरा है, उससे में सावधान करता हूं, लेकिन यंत्र-विरोधी मैं नहीं हूं। यंत्र के पूरे पक्ष में हूं। खतरा यंत्र से नहीं आता; खतरा आता है आदमी की नासमझी से। तो आदमी को समझदार किया जा सकता है।
यंत्र का दूसरा खतरा है कि कहीं प्रकृति को यंत्र नष्ट न कर दे। पश्चिम में वह खतरा पैदा हो गया है। ऐसी झीलें हैं जो मुर्दा हो गई हैं, जिनमें मछलियां मर गईं; क्योंकि फैक्ट्रियों का इतना तेल उन झीलों में पहुंच गया कि उस तेल ने जहर का काम किया। समुद्र तेल से भरे जा रहे हैं। कबीर ने कहा है... वे तो समझे थे उलटबांसी है, उन्हें क्या पता कि आगे क्या हालत होगी! और उन्होंने कहा: ‘एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागि आगि!’ अब लौटो महाराज! तब तुम ऐसा न कहोगे कि ‘एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागि आगि।’ नदियों में आग लग रही है। अब अचंभा नहीं है यह। क्योंकि नदियों में जहाजों का, कारखानों का इतना तेल पहुंच रहा है कि नदियों के ऊपर तेल की तह जम जाती है, उसमें आग लग जाती है। नदियां मर रही हैं, झीलें मर रही हैं। ऐसी झीलें हैं जिनकी सारी मछलियां मर गईं। और वह झील ही क्या जिसमें मछलियां न हों! उन झीलों का पानी पीया नहीं जा सकता, जहरीला हो गया है। समुद्र में लाखों मछलियां मर रही हैं, सिर्फ इसलिए कि बहुत तेल हमारे जहाजों से छूट रहा है। हवा में इतना धुआं फैल रहा है--कारखानों का, कारों का, हवाई जहाजों का! जंगल काटे जा रहे हैं, पृथ्वी की हरियाली नष्ट होती जा रही है। बस बनते जा रहे हैं कोलतार के रास्ते, और खड़ी होती जा रही हैं सीमेंट की बड़ी-बड़ी आकाश छूती हुई गगनचुंबी इमारतें और शेष सब नष्ट होता जा रहा है। इसलिए सावधान करना भी जरूरी है।
लाभ तो बहुत हैं यांत्रिकता के, हानियां भी बहुत हैं! और बुद्धिमानी इसमें नहीं है, जैसा गांधी कहते हैं कि यंत्र ही छोड़ दो। गांधी तो कह रहे हैं: न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। वे तो कहते हैं, यंत्र को ही जाने दो तो खतरा नहीं रहेगा। लेकिन यंत्र के जाने से जो खतरे पैदा होंगे, वे यंत्र के खतरे से ज्यादा बड़े हैं। जरा सोचो तो! बिजली न रह जाए, ट्रेनें न रह जाएं, सड़कों पर कारें और बसें न रह जाएं, कारखाने बंद हो जाएं, जरा सोचो सात दिन के लिए सब बंद हो जाएं, जैसे विज्ञान रहा ही नहीं, विज्ञान ने जो भी दिया सात दिन के लिए बंद हो जाए, तुम्हारी दुनिया की क्या स्थिति होगी? सात दिन में भस्मीभूत हो जाएगी। सात दिन में सब गिर जाएगा।
तीन दिन के लिए अमरीका के कुछ नगरों में बिजली चली गई, तो बड़ी हैरानी का अनुभव हुआ। एकदम लूट-पाट मच गई! अंधेरा हो गया तीन दिन के लिए, रास्तों पर गुंडे ही गुंडे हो गए! ये गुंडे कहां छिपे थे, पता ही नहीं चलता था पहले। बिजली की रोशनी में छिपे थे। अब अंधेरे में मौका मिल गया। बलात्कार हो गए, स्त्रियां चुरा ली गईं, बच्चों की हत्याएं हो गईं, दुकानें तोड़ डाली गईं; रास्तों पर निकलना खतरनाक हो गया। बिजली चली गई तो जैसे आदमियत चली गई। तुम जरा सोचो, सात दिन के लिए सारा विज्ञान ने जो भी दिया है बंद हो जाए...। तुम एकदम ऐसे भयंकर उत्पात में पड़ जाओगे कि कल्पना भी नहीं कर सकते। एकदम लूट-पाट, आदमी का जंगलीपन प्रकट हो जाएगा।
गांधी जो कहते हैं, मैं उसके पक्ष में नहीं हूं। विज्ञान ने जो टेक्नालॉजी दी है वह बहुत उपयोगी है। लेकिन आदमी को थोड़ा समझदार होना पड़ेगा। विज्ञान ने टेक्नालॉजी दी है वह अभी ऐसी है, जैसे बच्चे के हाथ में तलवार। आदमी उतने योग्य नहीं है जितना कि विज्ञान ने उसे साधन दे दिए हैं। आदमी की योग्यता बढ़ानी है; उसे ध्यान देना है, उसे शांति देनी है, उसे आनंदमग्न होने की अवस्था देनी है, उसे थोड़ी करुणा देनी है, उसे थोड़ा प्रेम देना है। वही प्रयोग मैं यहां कर रहा हूं, राजकिशोर!
उद्योग के बिना तो कोई उपाय नहीं है, विज्ञान के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है, पीछे लौटा नहीं जा सकता। आगे ही जाना है! लेकिन आदमी को इस योग्य बनाना है कि वह विज्ञान के खतरों से बच सके और विज्ञान का सदुपयोग कर ले। जरूरी नहीं है कि विज्ञान जंगलों को काटे। हमने गलती से काट डाले हैं।
विज्ञान ने अब इस तरह की सुविधा जुटा दी है कि अगर हम चाहें तो समुद्र में बस्तियां बस सकती हैं, जंगल काटने की जरूरत नहीं है। समुद्र में बस्तियां तैराई जा सकती हैं। जमीन पैदावार के काम में लाई जा सकती है और बस्तियां समुद्र में तैराई जा सकती हैं। और समुद्र काफी बड़ा है। पृथ्वी का जितना हिस्सा समुद्र के बाहर है, उससे बहुत ज्यादा हिस्सा समुद्र के भीतर है। सारी बस्तियां समुद्र में तैराई जा सकती हैं। अब विज्ञान ने इसके उपाय बता दिए हैं। अब इसमें कोई अड़चन नहीं है। यही नहीं, बस्तियां आकाश में उड़ाई जा सकती हैं--पूरी की पूरी बस्तियां! जैसे बादल तैरते हों आकाश में। जमीन पूरी की पूरी उत्पादन में लग सकती है। ये सारे कोलतार के रास्ते और ये बड़े-बड़े भवन, ये सब विदा किए जा सकते हैं जमीन से। ये सब आकाश में उठाए जा सकते हैं, जहां इनसे कोई खतरा नहीं होगा। और पृथ्वी एक सुंदर उपवन हो सकती है--जिसमें तुम उतर सकते हो कभी-कभी आनंद लेने को और फिर वापस जा सकते हो।
समुद्र में और आकाश में बस्तियां होंगी भविष्य में। जमीन को तो हमें खाली करना पड़ेगा। इतनी बड़ी संख्या के लिए तभी उत्पादन हो सकता है।
और अब हम चांद पर पहुंच गए हैं। आज नहीं कल, जो-जो खतरनाक उत्पादन हैं, जिनसे कि विषाक्त होता है वायुमंडल, वे चांद पर हटाए जा सकते हैं। जिनसे वायुमंडल में जहर फैलता है, वे सब चांद पर हटाए जा सकते हैं। चांद पर कोई खतरा नहीं है क्योंकि कोई आदमी नहीं, कोई जानवर नहीं, कोई पशु-पक्षी नहीं। अगर अणुबम बनाना है तो चांद पर बनाओ, जमीन पर बनाने की कोई जरूरत नहीं है।
यह सब संभव है--सिर्फ एक चीज की कमी है और वह यह कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता को मुक्त करो। मनुष्य की बुद्धिमत्ता पर से पुराने बंधन गिराओ; उसकी बुद्धिमत्ता को निखारो, तराशो, धार धरो। उसी महत कार्य में मैं संलग्न हूं। मेरे काम का मूल्य आज नहीं आंका जा सकता, इस मूल्य को आंकने में सदियां लग जाएंगी। तुम मेरे मूल्य को आंकते हो पुराने हिसाब-किताब से कि शंकराचार्य ने ऐसा किया, और बुद्ध ने ऐसा किया, और महावीर ने ऐसा किया, आप ऐसा क्यों नहीं करते हैं? मेरे लिए वे कोई मापदंड नहीं हैं। जो बीत गया बीत गया। उसका अब कोई मूल्य नहीं है। भविष्य एक बिलकुल नया भविष्य है--जिसका बुद्ध को कोई अंदाज नहीं था; जिसकी कबीर को कोई कल्पना नहीं थी। वे उसके संबंध में सोच भी क्या सकते थे! उसके संबंध में कह भी क्या सकते थे!
बीसवीं सदी का कोई बुद्ध ही भविष्य के संबंध में कुछ कह सकता है। एक विराट भविष्य हमारे सामने है। अगर हमने नासमझी की तो आदमी आत्महत्या कर लेगा। अगर हमने थोड़ी समझदारी बरती; अगर हम हिंदू, मुसलमान, ईसाई जैसी क्षुद्रताओं से ऊपर उठ गए; अगर हम भारतीय, पाकिस्तानी, चीनी, ऐसी बेहूदगियों से ऊपर उठ गए; अगर हम काले-गोरे की नासमझियों से ऊपर उठ गए--तो पृथ्वी इतना सुरम्य स्वर्ग बन सकती है कि हमारी सारी कल्पनाएं फीकी पड़ जाएं! स्वर्ग की जो हमने कल्पनाएं की थीं, वे फीकी पड़ सकती हैं। शक्ति हमारे हाथ में है। समझ अभी हमारे हाथ में नहीं है।
राजकुमार, तुमने पूछा: ‘एक ओर तो आप आधुनिक यंत्र-विधि के पक्ष में हैं और मानते हैं कि धर्म का फूल औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देशों में ही खिलेगा।’
निश्चित ही! क्योंकि धर्म मनुष्य की सर्वाधिक ऊंची अवस्था है।
जीवन में एक क्रमबद्धता है। भूखा पेट हो तो भजन नहीं हो सकता। भूखे भजन न होहिं गोपाला! पहले तो पेट भरा होना चाहिए, शरीर पर कपड़े होने चाहिए, छप्पर होना चाहिए। शरीर की जरूरत पहली सीढ़ी है। जिसकी शरीर की जरूरतें पूरी नहीं हुईं वह ईश्वर की बातें कर सकता है लेकिन ईश्वर का अनुभव नहीं कर सकेगा। उसकी ईश्वर की बातें भी सिर्फ भूखे पेट को भरने की बातें होंगी। उसकी ईश्वर की बातें वैसी ही होंगी जैसे सड़क के किनारे बैठे भिखमंगे की बातें, जो तुमसे कहता है कि दो, भगवान तुम्हें खूब देगा। जो भगवान तुम्हें खूब देगा, वह इसी को क्यों नहीं खूब दे देता? इससे कभी पूछो भी तो कि तू हमारे लिए आशीर्वाद दे रहा है, तू सीधे ही क्यों नहीं मांग लेता? हम तुझे दें, फिर भगवान हमें दे, इतना चक्कर क्यों? इतना सरकारी लालफीताबाजी क्यों? तू उसी से मांग ले सीधा, झंझट खत्म कर! जब इतना बड़ा दाता है भगवान, तो तुझे ही दे देगा, हम क्यों बीच में आएं? लेकिन वह तुमसे मांग रहा है कि दो मुझे कुछ, वह तुम्हें करोड़ गुना देगा। उसका न तो भगवान सच्चा है, न उसकी दान की बात सच्ची है, वह सिर्फ तुम्हारा शोषण कर रहा है, तुम्हारी धारणाओं का शोषण कर रहा है।
और ध्यान रखना, भिखमंगे को जो देता है, भिखमंगा समझता है कि बुद्धू है।... खूब बनाया! भिखमंगे आपस में बैठ कर बात करते हैं: किसको बनाया आज, आज किसको फांसा, आज कौन लुटा? जो नहीं देता, भिखमंगा जानता है: होशियार आदमी है। भिखमंगे के मन में सम्मान उसका है जो नहीं देता उसको, क्योंकि वह देखता है कि मेरी बातों में नहीं आता। लेकिन भिखमंगे तुम्हारे पुराने संस्कारों को जगा लेते हैं।
तुम अगर भूखे हो तो मंदिर में जाकर भी मांगोगे क्या? रोटी, रोजी, कपड़ा। तुम जरा मंदिरों में जाकर खड़े हो जाओ चुपचाप और लोगों की प्रार्थनाएं सुनो, लोग क्या मांग रहे हैं? कोई मांग रहा है कि बेटे को नौकरी मिल जाए; कोई मांग रहा है पत्नी की बीमारी ठीक हो जाए; कोई मांग रहा है कि मकान मिल जाए, मकान नहीं मिल रहा है। तुम भगवान से ये चीजें मांग रहे हो! तुम्हारा भगवान से कोई नाता नहीं है। तुम भगवान को नहीं मांग रहे हो; तुम कुछ और मांग रहे हो।
शरीर की जरूरतें पहले पूरी होनी चाहिए। शरीर की जरूरतें पूरी होती हैं तो मन की जरूरतें पैदा होती हैं।
मन की जरूरतें हैं: संगीत, कला, साहित्य। अब जिस आदमी का पेट भूखा है, उससे कहो: पढ़ो कालिदास! कि पढ़ो मेघदूत, कि यक्ष ने मेघदूत से अपनी प्रेयसी के लिए निवेदन भेजा है! वह कहेगा: भाड़ में जाने दो मेघदूत और उसकी प्रेयसी! अगर बादल कोई संदेश ले जाते हों, तो हमारा संदेश भगवान तक पहुंचा देना कि रोटी कब तक आएगी?
कल मैं पढ़ रहा था कि बुद्ध के सामने सुजाता ने जाकर खीर की थाली रखी। बुद्ध ने एक कौर खीर का लिया और थू-थू करके थूक दिया। कहा: यह किस तरह की खीर? सुजाता ने कहा: क्या करें महाराज, राशन के चावल हैं।
कालिदास, शेक्सपियर, बायरन, रवींद्रनाथ, इनको समझने के लिए शरीर तृप्त--छप्पर हो, बगिया हो, घर में पुस्तकालय हो, वीणा बजाने की सुविधा हो, रात दीया जला कर शांति से बैठ कर पढ़ने का अवसर हो, संग-साथ हो, वैसा वातावरण-माहौल हो, संगति हो, तो मजा है! भूखे पड़े हैं बंबई के रास्ते के किनारे और पढ़ रहे हैं मेघदूत, यह संभव नहीं है।
जब मन की जरूरतें पूरी हो जाती हैं तो आत्मा की जरूरतें पैदा होती हैं। जो तृप्त हो जाता है कला से, संगीत से, साहित्य से, उनके मन में ध्यान, प्रार्थना, योग, तंत्र, इन ऊंचाइयों की बातें आनी शुरू होती हैं। ये सीढ़ियां हैं।
इसलिए मैं कहता हूं कि धर्म तो जब कोई देश समृद्ध होता है तभी पैदा होता है। यह देश जब समृद्ध था तो धार्मिक था। अब यह देश धार्मिक नहीं है। लाख तुम्हारे शंकराचार्य चिल्लाते रहें। यह देश धार्मिक नहीं है। यह देश अब धार्मिक अभी हो नहीं सकता। पहले इस देश को... इसकी मौलिक जरूरतें पूरी होनी चाहिए, तब यह देश धार्मिक हो सकता है।
धर्म पश्चिम में ऊगेगा। सूरज पश्चिम में ऊगेगा, पूरब में तो डूब चुका। हमने ही डुबा दिया। हमने ही मूढ़तापूर्ण बातें कर-कर के डुबा दिया, कि संसार में कुछ सार नहीं है, कि सब माया है, कि शरीर में क्या रखा है, यह तो मिट्टी है! हमने इस तरह की बातें कर-कर के जीवन का एक ऐसा निषेध पैदा कर दिया कि उस निषेध का अंतिम परिणाम यह हुआ कि हम दीन हुए, दरिद्र हुए, गुलाम हुए, सड़ गए, गल गए। अब इस सड़े-गले देश में धर्म की बात करनी मखौल उड़ाना है, लोगों का मजाक करना है। धर्म तो औद्योगिक रूप से संपन्नता में ही पैदा होगा।
तो निश्चित ही मैं कहता हूं कि उन्नत देशों में ही धर्म का सूरज ऊगेगा।
और तुमने पूछा है: ‘दूसरी तरफ आप पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता की विडंबनाओं का बखान भी करते हैं।’
निश्चित ही! अगर मैं नाव की तारीफ करता हूं, तो इसका यह अर्थ नहीं कि नाव के छेदों की भी तारीफ करूं। नाव की तारीफ करता हूं और सचेत करता हूं कि नाव में छेद हों तो उन्हें भर लेना, अन्यथा डूबोगे, तैराने वाली नाव ही डुबाने वाली हो जाएगी। और पश्चिम की नाव में बहुत छेद हैं। नाव तो है उनके पास कम से कम; हमारे पास तो नाव ही नहीं है, छेद का तो सवाल ही कहां उठता है। पहले तो नाव होनी चाहिए, तब छेद हों। पश्चिम के पास कम से कम नाव तो है! छेद वाली है, छेद भरे जा सकते हैं। लेकिन नाव ही न हो तो क्या खाक भरोगे!
तो उन छेदों के प्रति भी मैं सचेत करता हूं। इसलिए एक ओर प्रशंसा भी करता हूं, एक ओर आलोचना भी करता हूं। मेरी आलोचना और मेरी प्रशंसा में विरोधाभास नहीं है। मेरी आलोचना और प्रशंसा, दोनों ही ऐसे हैं जैसे तुमने कुम्हार को कभी घड़ा बनाते देखा? एक हाथ से भीतर सम्हालता है और दूसरे हाथ से बाहर चोट करता है। एक हाथ से सम्हालता, एक से चोट करता, तब घड़ा बनता है। वैसे ही एक हाथ से सम्हाल रहा हूं और दूसरे हाथ से चोट कर रहा हूं। तुम यह मत समझना कि यह चोट करते हैं और सम्हालते हैं, यह तो बड़ा विरोधाभास हो गया, इसमें संगति कैसे बिठाएं? संगति बिठाने की जरूरत है नहीं, संगति बैठ ही रही है। इसी तरह संगति बैठती है--एक तरफ से सम्हालो, एक तरफ से चोट करो। प्रशंसा करो उनकी जो सदगुण हैं और विरोध करो उनका जो छिद्र हैं; ताकि हम एक ऐसी नाव बना सकें जो अछिद्र हो, जो हमें उस पार ले जा सके।
यह भी तुमने पूछा है: ‘इसके अलावा आप अतीत के जिन महापुरुषों, संतों और भक्तों की वाणी की व्याख्या करते हैं, उनमें से कोई नहीं मानता था कि धर्म गरीबों के लिए नहीं है। इन सबकी पारस्परिक संगति कैसे बिठाई जाए?’
अतीत के जिन संतों ने जीवन जीया, अभिव्यक्ति दी सत्य को, सत्य उतने पर ही सीमित नहीं है और समाप्त नहीं है। सत्य कभी सीमित नहीं होता, कभी समाप्त नहीं होता। सत्य बहुत विराट है। मेरे बाद जो आएंगे, उन्हें कुछ और नई बातें कहनी पड़ेंगी, जो मैं नहीं कहूंगा। क्योंकि बात भी कहने का समय होता है। बुद्ध ने जो कहा, वह बुद्ध के समय के लिए जरूरी था। पच्चीस सौ साल पहले बुद्ध अगर वह कहते जो मैं कह रहा हूं, तो किसके काम आता? हालत तो यह है कि अभी भी मैं कह रहा हूं तो कितनों के काम आ रहा है? पच्चीस सौ साल पहले तो लोग हंसते, कहते आप भी कहां की बातें, उड़नछू बातें कर रहे हैं! मैंने कहा कि आकाश में नगर बस सकते हैं, समुद्र में नगर तैर सकते हैं। बुद्ध अगर ये बातें करते, तो लोग कहते कल्पना की बातें हैं। आज ये कल्पना की बातें नहीं हैं। अब तो विज्ञान ने सब स्पष्ट कर दिया है कि यह सब काम हो सकते हैं। इनमें कोई अड़चन नहीं है। अब चांद पर बस्ती बस सकती है।
बुद्ध ने जो कहा: वह उनके समय के अनुकूल था--उनके समय की जरूरत थी। समय बदल गया है। बुद्ध में जो-जो महत्वपूर्ण है, वह मैं बचा लेना चाहता हूं। इसलिए बुद्ध पर बोलता हूं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि मैं बुद्ध की प्रत्येक बात का समर्थक हूं। बहुत सी बातें अब समय-बाह्य हो गईं; तिथि-बाह्य हो गईं; उनकी मैं चर्चा ही नहीं करता। उनका अब कोई मूल्य नहीं है। जैसे बुद्ध को स्त्रियों ने प्रार्थना की थी कि हमें भी दीक्षित करें। बुद्ध बहुत संकोच किए। दस साल तक टालते रहे। मैं जानता हूं, पच्चीस सौ साल पहले बुद्ध ने अगर स्त्रियों को दीक्षा देने से टाला, तो मैं समझ सकता हूं बुद्ध की अड़चन। मैं स्त्रियों को संन्यास देकर जिस अड़चन में पड़ रहा हूं, बुद्ध पच्चीस सौ साल पहले अगर शंकित हुए हों तो आश्चर्य नहीं है। बुद्ध टालते रहे, किसी तरह बचाने की कोशिश की कि स्त्रियों को संन्यास नहीं देना; क्योंकि जिस समाज में जी रहे थे, वह स्त्री-विरोधी समाज था। सदियों से स्त्रियों को दबाया गया था, शिक्षा नहीं दी गई थी, अपढ़ रखा गया था, समाज के बाहर घरों में बंद कर दिया गया था। उनको दीक्षा देनी, उनको संन्यास देना! और फिर जो लोग संन्यासी हुए थे पुरुष के रूप में, उनमें से अधिक लोग कामवासना को दमित किए हुए बैठे थे--यह भी बुद्ध को साफ था, क्योंकि सदियों की शिक्षा यही थी: कामवासना को दबाओ! तो ये कामवासना से उबलते हुए लोग और इनके साथ स्त्रियों को संन्यास दे देना, उपद्रव होगा। बारूद के पास आग हो जाएगी। तो टालते थे। मैं समझता हूं उनकी अड़चन। लेकिन फिर भी अंततः वे राजी हुए। राजी हुए अपने बुद्धत्व के कारण। टालते थे लोगों की मूढ़ता के कारण।
लेकिन मैं नहीं टालूंगा। अब हम एक नई दुनिया में रह रहे हैं--जहां स्त्री उदघोष कर रही है अपनी स्वतंत्रता का; जहां स्त्री वापस अपना स्थान ले रही है; जहां पुरुष और स्त्री के भेद समाप्त हो रहे हैं। फिर, कामवासना का दमन मेरी शिक्षा नहीं। जो मुझे समझेगा, उसके लिए स्त्री-पुरुष का भेद ही क्षीण हो जाता है। हो ही जाना चाहिए। जिस दिन स्त्री-पुरुष का भेद क्षीण हो जाए, उसी दिन जानना कि तुम्हारे जीवन में ब्रह्मचर्य का फूल खिला।
तो मैं बुद्ध की बहुत सी बातों से राजी भी नहीं होऊंगा। मैं महावीर की बहुत सी बातों से राजी भी नहीं होऊंगा। महावीर कहते थे: रात्रि भोजन मत करना, ठीक कहते थे। रोशनी नहीं थी, उजाला नहीं था, लोग अंधेरे में भोजन करते थे--अब भी गांव में करते हैं--मच्छर भी गिर जाते हैं, कीड़े-मकोड़े भी गिर जाते हैं। अगर अहिंसा की बात भी छोड़ दो, तो चिकित्सा-शास्त्र की दृष्टि से भी उचित नहीं है; भयानक है। लेकिन अब तो बिजली है। अब तो दिन से ज्यादा उजाला तुम रात में कर सकते हो। इसलिए मैं महावीर की इस बात का समर्थन नहीं करूंगा। और फिर भी मैं कहूंगा कि महावीर ने अपने समय में ठीक ही कहा था। लेकिन आज बात तिथि-बाह्य हो गई है।
तुमने पूछा है राजकुमार: ‘आप अतीत के जिन महापुरुषों, संतों और भक्तों की वाणी की व्याख्या करते हैं, उनमें कोई नहीं मानता था कि धर्म गरीबों के लिए नहीं है।’
यह प्रश्न ही ठीक से उठाया नहीं गया था। यह प्रश्न ही असामयिक था। गरीब नहीं थे ऐसा नहीं है। गरीब थे। लेकिन बुद्ध के दिन का गरीब आज के मध्यवर्गीय आदमी से बेहतर हालत में था। गरीबी नहीं थी, गरीब थे। बुद्ध का मध्यवर्गीय व्यक्ति भी आज के समृद्ध व्यक्ति से ज्यादा समृद्ध था। और बुद्ध के जमाने का जो गरीब था, वह आज के मध्यमवर्गीय से ज्यादा बेहतर था। उसके कई कारण थे। एक तो खूब धनधान्य था, भूख का कोई कारण नहीं था। यह तो इसी से प्रमाणित होता है कि लाखों लोग भिक्षु हुए बुद्ध के साथ, और लाखों लोग मुनि हुए महावीर के साथ और इन सबको भोजन देने की सामर्थ्य इस देश में थी। कोई भूखा नहीं मरा इनमें से। सच तो यह है कि इनको इतना भोजन मिला, इतना सत्कार मिला!... देश खूब संपन्न था। नहीं तो इतने भिक्षु, इतने मुनि, इतने संन्यासी, इनको कौन भोजन दे, कौन कपड़े दे? इनको लोग इतना भोजन-कपड़े दे देते थे कि बुद्ध को, महावीर को नियम बनाने पड़े कि इससे ज्यादा कपड़े मत लेना। और अगर कपड़े तुम्हें नये मिल जाएं तो अपने पुराने कपड़े तुम किसी को तत्काल दान कर देना, इकट्ठे मत करने लगना। नहीं तो लोग अंबार लगा देंगे। बुद्ध को कहना पड़ा कि भोजन कितना लेना, नहीं तो लोग इतना दे देते हैं कि तुम ज्यादा खा लोगे।
काफी था धनधान्य! गरीब कोई इस अर्थ में गरीब नहीं था जैसे आज गरीब है। हो भी नहीं सकता था। दो करोड़ की आबादी, इतना बड़ा देश! फिर इतने साधन नहीं थे; इतनी भोग की सामग्री नहीं थी। अगर तुम्हारे पास एक बैलगाड़ी थी, अच्छी छकड़ा-गाड़ी, तो तुम रईस थे। अगर एक अच्छा घोड़ा था शानदार, तो तुम मूंछ पर, अपनी मूंछ पर ताव देकर चल सकते थे। कोई अड़चन न थी। तुम्हारे मन में यह पीड़ा नहीं उठती थी कि अपने पास फियेट गाड़ी नहीं है, कि क्या बैलगाड़ी में बैठे जा रहे हैं! साधन बहुत कम थे, प्रतिस्पर्धा बहुत कम थी। साधन ही नहीं थे, इसलिए गरीब-अमीर के बीच बहुत फासला नहीं था। इस बात को समझने की कोशिश करो। अमीर भी वही खाता था जो गरीब खाता था। वही गेहूं, वही चावल, वही घी, वही दूध। इतना दूध था कि लोग दूध को बेचते नहीं थे। कौन खरीदता? सबके पास दूध था। ऐसी अवस्था में जहां साधन बहुत कम थे, प्रतिस्पर्धा कम थी, खरीदने की दौड़ कम थी, और भोग, जरूरी भोग के साधन पर्याप्त थे, गरीब का सवाल नहीं उठा था। आज सवाल उठा है। इसलिए उन संतों और महात्माओं ने ऐसी कोई बात नहीं की कि गरीबों के लिए धर्म नहीं। गरीब इस अर्थ में कोई था ही नहीं। इसलिए धर्म सबके लिए था।
फिर भी मैं तुमसे यह याद दिलाना चाहता हूं कि जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही राजाओं के बेटे हैं। बुद्ध भी राजा के बेटे हैं। हिंदुओं के अवतार राम और कृष्ण भी सब राजाओं के बेटे हैं। इससे क्या सिद्ध होता है? इससे यही सिद्ध होता है कि धर्म की ऊंचाइयां उस समय भी उन्हीं लोगों ने पाईं जिन लोगों ने जीवन की सारी सुख-सुविधाएं भोग ली थीं। मेरी बात फिर भी सिद्ध होती है। जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में एकाध गरीब आदमी क्यों नहीं है? एकाध दुकानदार क्यों नहीं है? सब राजपुत्र क्यों हैं? राजपुत्र ने सारी शिक्षा पाई, सब सुख भोगे, महल, सुंदरियां, संगीत, सुरा, जल्दी ही उन सबसे ऊब गया। और जीवन का आत्यंतिक प्रश्न उसके समक्ष खड़ा हो गया कि यह सब तो आज नहीं कल मौत छीन लेगी, फिर क्या है? मृत्यु के पार क्या है? इस सबमें कब तक खोया रहूंगा? इस पुनरुक्ति को दोहराने में सार क्या है? मैं कौन हूं? तो जैनों, हिंदुओं और बौद्धों के, तीनों के जो सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं, वे सभी के सभी राजपुत्र हैं। इससे मेरी बात को प्रमाण मिलता है कि धर्म की जो आत्यंतिक अभिव्यक्ति है, वह तभी होती है जब जीवन के और सब खेल चुक जाते हैं, जीवन के और सब भोग व्यर्थ हो जाते हैं।
मेरे हिसाब में अगर मनुष्य बचा--अगर मूढ़ राजनीतिज्ञों ने तीसरा महायुद्ध न करवा दिया और मनुष्य किसी तरह बच सका, और विज्ञान ने सारी पृथ्वी को एक कर दिया--कर ही दिया है, सिर्फ राजनीतिज्ञों की मूढ़ताएं हट जाएं तो पृथ्वी एक हो गई है--अगर विज्ञान के हमने लाभ उठाए और विज्ञान की हानियों से हम सावधान रहे, तो मेरे हिसाब में इक्कीसवीं सदी इस पृथ्वी पर सबसे बड़ी धार्मिक सदी होगी। इक्कीसवीं सदी इतने बुद्धों, इतने जिनों, इतने सिद्धों को पैदा करेगी जितने पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास ने कभी नहीं किए थे। करीब-करीब ऐसी हालत होगी--तुम्हें पता है, इस समय जो वैज्ञानिक हैं पृथ्वी पर जिंदा और पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में जो वैज्ञानिक हुए हैं, उनका अगर हिसाब लगाओ तो तुम चकित हो जाओगे! नब्बे प्रतिशत वैज्ञानिक आज जिंदा हैं। और पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में--पिछले दस हजार साल में--केवल दस प्रतिशत वैज्ञानिक हुए। और आज नब्बे प्रतिशत जिंदा हैं।
क्या हो गया? विज्ञान का विस्फोट हुआ है!
ठीक ऐसे ही धर्म के विस्फोट की घड़ी करीब आ रही है। नब्बे प्रतिशत बुद्ध जिंदा होंगे इक्कीसवीं सदी में। और अतीत के सारे बुद्ध और सारे जिन केवल दस प्रतिशत की गिनती में रह जाएंगे।
यह एक महान क्षण है--महाक्रांति का! उसकी पूर्व तैयारी के लिए मैं संन्यास का आयोजन कर रहा हूं। यह जो बुद्ध-क्षेत्र है, यह जो बुद्ध-संघ है, यह उस महा तैयारी के लिए, उस परम अवसर को निमंत्रित करने के लिए है, उसे आवाहन देने के लिए है। यह प्रार्थना है, कि इक्कीसवीं सदी राजनीतिज्ञों की मूढ़ता से बच जाए और विज्ञान हानिकर सिद्ध न हो, सौभाग्य सिद्ध हो, हम इतनी समझदारी बरत सकें, तो मनुष्य अपने असली स्वर्णयुग के करीब आ रहा है। जिनको हमने पहले स्वर्णयुग कहा है, वे कुछ भी नहीं थे, सब फीके पड़ जाएंगे! क्योंकि इतनी ऊर्जा, इतनी क्षमता, इतना विज्ञान, इतना बोध मनुष्य के पास कभी भी नहीं था जितना आज है।
अगर तुम्हें रात बहुत अंधेरी मालूम होती हो, राजकुमार, तो घबड़ाओ मत। इतना ही समझो कि सुबह बहुत करीब है। सुबह करीब होने के पहले रात बहुत अंधेरी हो जाती है। और मेरी बातों में चाहे ऊपर से संगति न दिखाई पड़े, लेकिन अगर गहरी खोज करोगे, जरा डुबकी मारोगे, तो एक भी असंगति न पाओगे।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, राजनीति क्या है?
रवींद्र! राजनीति नीति नहीं है, अनीति है। न मालूम किन बेईमानों ने उसे राजनीति का नाम दे दिया! नीति तो उसमें कुछ भी नहीं है। राजनीति है: शुद्ध बेईमानी की कला।
मुल्ला नसरुद्दीन के बेटे ने उससे पूछा कि पापा, आप बड़े राजनीति के खेल खेलते हैं; राजनीति क्या है? तो उसने कहा कि शब्दों में कहना कठिन है, यह बड़ी रहस्यमय बात है। मगर अनुभव से तुझे समझा सकता हूं। उसने कहा: समझाइए। तो बेटे को कहा: चढ़ सीढ़ी पर। सीढ़ी लगी थी दीवाल से, तो बेटा चढ़ गया। जब ऊपर के सोपान पर पहुंच गया, तो नसरुद्दीन ने कहा: कूद जा, मैं सम्हाल लूंगा। वह जरा झिझका। सीढ़ी ऊंची थी; कूदे और पिता के हाथ से छूट जाए, गिर जाए, न सम्हल पाए, तो हाथ-पैर टूट जाएंगे। नसरुद्दीन ने कहा: अरे, अपने बाप पर भरोसा नहीं करता! कूद जा, कूद जा बेटा। जब बार-बार कहा, तो बेटा कूद गया। और नसरुद्दीन हट कर खड़ा हो गया। दोनों घुटने छिल गए; नाक से खून गिरने लगा। बेटे ने कहा कि मतलब! तो नसरुद्दीन ने कहा: यह राजनीति है बेटा; अपने बाप पर भी भरोसा न करना। भूल करके भी किसी पर भरोसा न करना--यह पहला पाठ।
धोखा ही धोखा है। बेईमानी ही बेईमानी है। गलाघोंट प्रतियोगिता है।
राजनीति हिंसा है और बड़ी चालबाज हिंसा है। कहीं खून दिखाई नहीं पड़ता--और खून हो जाते हैं। हाथ नहीं रंगते--और हत्याएं हो जाती हैं। आदमी पोंछ दिए जाते हैं, उनका फिर पता भी नहीं चलता, और कहीं कोई आवाज भी नहीं होती।
एक राजनेता किसी को अपनी फटी-पुरानी छतरी बेचने का प्रयत्न कर रहे थे। लेकिन भावी ग्राहक छतरी की हालत देख कर थोड़ा सकुचा रहा था। एकदम इनकार भी नहीं कर सकता था। राजनेता कभी-कभी ताकत में आ जाते थे। अभी ताकत में नहीं थे, अभी हालत खराब थी, खस्ता थी, इसलिए तो छतरी बेच रहे थे। मगर फिर भी थे राजनेता और कब ताकत में वापस आ जाएं, कोई कुछ कह नहीं सकता, इसलिए वह एकदम इनकार भी नहीं कर सकता था।
उस भावी ग्राहक ने उनसे पूछा कि नेताजी, छतरी की ऐसे तो मुझे जरूरत नहीं है, लेकिन आपकी छतरी है, जरूर खूबी की होगी। इसकी खास खूबी क्या है? आपकी चीज और खूबी की न हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। एक तरफ छतरी को देखता था, एक तरफ नेताजी के चेहरे को देखता था। छतरी की हालत तो बिलकुल खराब थी; वह तो कोई मुफ्त में भी दे तो लेने योग्य नहीं थी। नेताजी ने कहा: इस छतरी में बड़ी खूबियां हैं। अगर आप सिर्फ एक बात का खयाल रखें, तो यह छतरी वर्षों आपके काम आएगी। ग्राहक ने पूछा: किस बात का खयाल रखना चाहिए? नेताजी ने कहा: बस इसे धूप और बरसात से बचाए रखना।
राजनीति शोषण है, धोखा है, प्रवंचना है। राजनीति प्रवंचना का शास्त्र है।
आश्वासन दो और सुंदर आश्वासन दो। और आश्वासन देने में डरो मत, क्योंकि पूरे तो उन्हें कोई न कभी करता है, न करना है। हां, पांच-सात साल में, नये चुनाव आने तक, लोग तुमसे ऊब जाएंगे, कोई फिकर न करो। तुम्हारे भाई-भतीजे तब तक लोगों को राजी कर लेंगे अपने आश्वासन से, वे सत्ता में आ जाएंगे।
जनता की स्मृति बड़ी कमजोर है, वह भूल ही जाती है कि तुमने आश्वासन दिए थे और पूरे नहीं किए। और अगर चुनाव में तुम्हें हरा भी देगी, तो तुम्हारे ही चचेरे भाई, तुम्हारे ही भाई-बंधु सत्ता में बैठ जाएंगे। वे भी उतने ही धोखेबाज हैं। यह राजनीति का खेल चलता है। और इन दो चक्कियों के बीच में लोग पिसते रहते हैं।
जैसे राजाओं के दिन चले गए, ऐसे ही अब राजनेताओं के दिन भी जाने चाहिए। तुम चौंकोगे यह बात जान कर। क्योंकि अगर आज से कोई पांच सौ साल पहले यह कहता कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि राजाओं के दिन चले जाएंगे, तो कोई भी न मानता। कोई मान सकता था कि राजाओं के दिन और कभी चले जाएंगे! यह हो ही नहीं सकता। राजा तो स्वयं परमात्मा ने बनाए हैं। वे तो उसकी प्रतिछवियां हैं। वे तो पृथ्वी पर उसके प्रतिनिधि हैं। वे कैसे चले जाएंगे? राजाओं के बिना तो पृथ्वी डगमगा जाएगी। राजा सुखी, तो प्रजा सुखी। राजा के बिना तो प्रजा ही कैसे बचेगी? यह कल्पना के बाहर रहा होता। लेकिन तुमने देखा कि राजा चले गए। अब सिर्फ पांच तरह के राजा दुनिया में बचे हैं। बचेंगे--पांच तरह के राजा बचेंगे। चार तो ताशों के--चिड़ी के, और लाल, और ईंट के, और पांचवां इंग्लैंड का। बस पांच राजा बचेंगे। इंग्लैंड का राजा बचेगा, क्योंकि उसकी स्थिति ताशों के राजा से भिन्न नहीं है। बस, बाकी सब राजा तो गए।
मैं तुमसे यह कहता हूं कि राजनेता भी जाने के करीब हैं। उनका वक्त भी गया। अब घसिट रहे हैं। अब बहुत ज्यादा देर नहीं है। उनकी मृत्यु की घड़ी भी करीब आ गई है। उन्होंने भी खूब उपद्रव कर लिया है। यह सदी उनका अंत देखेगी। राजनेता का अब कोई भविष्य नहीं है, न हो सकता है।
दुनिया में एक और तरह के शासन की जरूरत है। राजनेता का नहीं--विशेषज्ञ का; राजनेता का नहीं--वैज्ञानिक का; राजनेता का नहीं--बुद्धिमत्ता का। और तब दुनिया एक और तरह की दुनिया होगी। लेकिन आज तो कल्पना करनी भी कठिन है।
राजनेता का कुल धंधा इतना है कि किसी भी तरह तुम्हारी छाती पर बना रहे। और न केवल तुम्हारी छाती पर बना रहे, बल्कि तुम्हें यह भी समझाता रहे कि अगर वह तुम्हारी छाती से उतर गया, तो तुम्हारा बड़ा नुकसान होगा। तुम्हारे ही हित में वह तुम्हारी छाती पर बैठा है! राजनेता का इतना ही काम है: तुम्हें चूसता रहे, और तुमसे कहता रहे कि यह तुम्हारे ही हित में हो रहा है।
एक साहब ने एक आलसी और कामचोर आदमी को नौकर रख लिया। वह नौकर कोई और नहीं, चुनाव में हारा हुआ एक नेता ही था। एक दिन उन्होंने नौकर से कहा: जाओ, बाजार से सब्जी ले आओ। नौकर ने कहा: साहब, मैं इस शहर में नया आया हूं। कहीं गुम हो जाऊंगा। यह सुन कर मालिक ने खुद ही बाजार से जाकर सब्जी खरीदी और नौकर से कहा: लो, अब इसे पकाओ। इस पर नौकर ने कहा: साहब, इस गैस के चूल्हे की मुझे आदत नहीं। कहीं सब्जी जल गई तो? यह सुन कर मालिक ने खुद ही सब्जी पका कर नौकर से कहा: अब खाना खा लो! नौकर ने बड़े सहजभाव से कहा: हुजूर, हर बात पर न कहना अच्छा नहीं लगता! आप कहते हैं तो खा लेता हूं!
तुम पूछते हो: ‘राजनीति क्या है?’
जरा चारों तरफ आंख खोलो। जहां धोखा देखो, समझना वहीं राजनीति है। जहां बेईमानी देखो, वहीं समझना राजनीति है। जहां जेब कटती देखो, समझना वहीं राजनीति है। जहां तुम्हारी गर्दन को कोई दबाए और कहे कि मैं सेवक हूं, जन-सेवक हूं--समझना कि वहीं राजनीति है।
ध्यान रखना: गर्दन कोई सीधी नहीं दबाता। लोग पैर दबाने से शुरू करते हैं। फिर बढ़ते-बढ़ते, बढ़ते-बढ़ते गर्दन तक पहुंच जाते हैं! पहले सर्वोदय से शुरू करते हैं! सर्वोदय यानी पैर दबाओ--कि हम सेवा करने आए। अब सेवा करने को कोई मना भी नहीं करता। कि ठीक है भाई! सर्वोदयी है, करने दो। फिर वह बढ़ते-बढ़ते गर्दन दबाएगा। लेकिन तब तक बहुत देर हो जाती है।
तुम्हारी गर्दनों पर बहुत लोग फंदे कसे बैठे हैं। और तुम एक फंदे से छूटते हो, तो दूसरे में गिर जाते हो। तुम एक जेल से निकलते हो, दूसरी जेल में भर्ती हो जाते हो।
राजनीति की व्यर्थता को समझो। और राजनेता को इतना आदर देना बंद करो। क्या कारण है कि राजनेता को इतना सिर पर उठाए फिरते हो? यह क्षुद्र, क्रूर शक्ति की पूजा है। यह हिंसक संगीनों की पूजा है। राजनेता की ताकत क्या है? क्योंकि अब संगीनें उसके हाथ में हैं।
सत्ता की पूजा तुम्हारे भीतर इस बात की खबर देती है कि न तो तुम्हें संस्कार है, न तुम्हें समझ है।
आने दो राजनेताओं को, जाने दो राजनेताओं को। उपेक्षा करो। राजनेताओं की जितनी उपेक्षा की जाए, उतना अच्छा है--कि मोरार जी देसाई आएं, तो न कोई भीड़ इकट्ठी हो, न कोई फूलमालाएं पहनाए। आएं और चले जाएं! तो उनको पता चले कि गए दिन; लद गए दिन! मगर तुम हो तमाशबीन। तुम चले! जहां भीड़ चली वहां तुम चले! और तुम्हारी भीड़ शक्ति देती है राजनेताओं को। इस भीड़ को विदा करो।
कहीं सत्संग में बैठो। कहीं कोई हरिगुण गाता हो, वहां बैठो। कहीं राम की चर्चा होती हो, वहां बैठो। कहीं चार दीवाने बैठ कर प्रभु-चर्चा में संलग्न हों, वहां डूबो। कुछ प्रेम के गीत गाओ। कुछ करुणा के कृत्य करो। कुछ ध्यान में डुबकी लगाओ। समय ऐसी जगह लगाओ। राजनीति को उपेक्षित करो; उपेक्षा दो। इसी को मैं विद्रोह कहता हूं।
मैं राजनीति के विपरीत क्रांति नहीं सिखाता; विद्रोह सिखाता हूं। राजनीति की तरफ से पीठ मोड़ लो। ये राजनेता अपने आप उदास और व्यर्थ हो जाएं। इनको पता चल जाए कि लोगों को अब कोई रस नहीं रहा। तुम्हारा जितना रस इनमें कम हो जाएगा, उतना ही इनका बल कम हो जाएगा। जितना इनका बल कम हो जाएगा, उतना राजनीति की तरफ दौड़ने वाले लोगों की संख्या कम हो जाएगी। और धीरे-धीरे अपने जीवन को अपने हाथ में लो।
मैं राज्य की सत्ता के पक्ष में नहीं हूं। इसलिए मैं समाजवाद-विरोधी हूं। समाजवाद-विरोधी इसलिए नहीं हूं कि मैं नहीं चाहता कि गरीब दुनिया में मिट न जाएं। समाजवाद-विरोधी इसलिए हूं कि समाजवाद राजनेता के हाथ में पूरी सत्ता दे देता है। मैं चाहता हूं कि लोग सत्ता अपने हाथ में वापस ले लें।
जिंदगी अपनी है, उसे जीओ; जितने सुंदर ढंग से जी सको, जीओ। उसे राज्य पर मत छोड़ो।
और राज्य के हाथ में शक्ति को इकट्ठा मत होने दो। राज्य की इच्छा यही है कि बैंकों का भी राष्ट्रीयकरण हो जाए, कारखानों का भी राष्ट्रीयकरण हो जाए, जमीनों का भी राष्ट्रीयकरण हो जाए। और आज नहीं कल वे कहेंगे कि लोगों का भी राष्ट्रीयकरण हो जाए! वही हो रहा है।
मैं स्वतंत्रता का पक्षपाती हूं। कोई चीज के राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता नहीं है। लोगों को मुक्त करो। द्वार खोलो देश के, सारी दुनिया के लोगों को निमंत्रित करो कि आओ, सहयोग दो। अपना विज्ञान लाओ। अपना उद्योग लाओ। अपनी तकनीक लाओ। अपना धन लाओ। दुनिया में धन है बहुत।
अमरीका ने अरबों-खरबों डालर सारी दुनिया में लगा रखे हैं। भारत में केवल एक प्रतिशत अमरीकी पूंजी है, जब कि भारत में कम से कम बीस प्रतिशत होनी चाहिए। मगर हम दरवाजे नहीं खोलते। हम ऐसे भयभीत हैं!
यह देश संपन्न हो सकता है, सुख से भर सकता है। यह सारी पृथ्वी संपन्न हो सकती है, सुख से भर सकती है। लेकिन धीरे-धीरे इसकी बागडोर वैज्ञानिक, दार्शनिक, संत के हाथ में जानी चाहिए।
राजनेताओं का समय लद गया। राजनीति को नमस्कार करो, विदा करो।
एक राजनेता चुनाव में खड़े हुए हैं। किसी मतदाता से वोट मांग रहे हैं। मतदाता ने पूछा: क्या आप किसी जिम्मेवार व्यक्ति का नाम बता सकते हैं, जिससे आपके चाल-चलन के बारे में पता लगाया जा सके? क्यों नहीं, राजनेता ने कहा: यहीं के थानेदार से पूछ लो, जिन्होंने मुझे मेरे अच्छे चाल-चलन के लिए तीन माह पहले ही छोड़ दिया था!
सब तरह के अपराधी राजनीति के झंडे के नीचे इकट्ठे हैं।
राजनीति अपराधों को सुंदर-सुंदर रंग और सुंदर-सुंदर मुखौटे पहनाने की कला है।
तुम मुझसे पूछते हो, रवींद्र: ‘राजनीति क्या है?’ उससे पूछते हो, जिसको राजनीति का क ख ग भी पता नहीं! ऐसे कठिन प्रश्न मुझसे मत पूछा करो; इनमें मेरा रस नहीं है। मुझसे पूछो: धर्म क्या है? मुझसे पूछो: जीवन क्या है? मुझसे पूछो: प्रेम क्या है? मुझसे पूछो: परमात्मा क्या है?
आज इतना ही।

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