LAL
Hansa To Moti Chuge (हंसा तो मोती चुगैं) 05
Fifth Discourse from the series of 10 discourses - Hansa To Moti Chuge (हंसा तो मोती चुगैं) by Osho. These discourses were given during MAY 11-20 1979.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
पहला प्रश्न:
भगवान, एक बार किसी ने मुझे बतलाया था कि पूना भारत का ऑक्सफोर्ड है--संस्कृति का नगर और देश के विशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधि। लेकिन यहां प्रायः हर रात अच्छी पोशाकें पहने लोग स्कूटर पर या कार पर चढ़ कर कोरेगांव पार्क के इर्द-गिर्द घूमते हैं और संन्यासियों को, खासकर संन्यासिनियों को डंडे से बेरहमी से पीटते हैं। और अब तो मानो डंडे पर्याप्त नहीं रहे, इसलिए उन्होंने लोहे की चेनों का उपयोग करना शुरू किया है। भगवान, ये कैसे लोग हैं?
कृष्ण प्रेम! भारत की संस्कृति एक बड़ा पाखंड है। शायद पृथ्वी पर इतना बड़ा पाखंड कोई दूसरा और नहीं है। हो भी नहीं सकता, क्योंकि यह पाखंड सर्वाधिक प्राचीन है; कोई दस हजार वर्षों का लंबा इसका इतिहास है। यह रोग पुराने से पुराना रोग है इस पृथ्वी पर। इसका मुखौटा एक है, इसकी अंतरात्मा बिलकुल सड़ी-गली है। यहां बातें अच्छी हैं, विचार अच्छे हैं, लेकिन वे सब बातें हैं और विचार हैं, व्यवहार बिलकुल भिन्न है। यहां खाने के दांत और, दिखाने के दांत और हैं।
सामने के द्वार से भारत को जो समझेगा, नहीं समझ पाएगा। क्योंकि सामने के द्वार पर तो स्वागतम लिखा है, बंदनवार लगा है, फूलों से सजावट है। लेकिन भारत सामने के द्वार पर रहता नहीं--रहता है पीछे के द्वार पर; आता-जाता है पीछे के द्वार से। भारत की इस विकृति को समझोगे, तो ही यह जो दुर्घटना रोज यहां घट रही है वह भी समझ में आ सकेगी।
हजारों साल से भारत ने जीवन का निषेध किया है। और जीवन का निषेध किया नहीं जा सकता। हम जीवन हैं, जीवन का निषेध कैसे होगा? जीवन स्वभाव है; स्वभाव का निषेध कैसे होगा? और जो स्वभाव के प्रतिकूल जाएगा वह पाखंड में पड़ेगा। और जो चाहेगा कि स्वभाव को मटियामेट कर दे, स्वभाव तो मटियामेट नहीं होगा, वह स्वयं मटियामेट हो जाएगा। फिर एक ही उपाय रह जाता है चेहरे को बचाने का कि हम बाजार में बने सस्ते मुखौटे खरीद लें, उनके पीछे अपनी गंदी स्थिति को छिपा लें, अपनी गंदी आंखों को छिपा लें। ऐसा ही भारत कर रहा है, करता रहा है।
इसीलिए जो लोग पश्चिम से आते हैं वे एक दृष्टिकोण लेकर आते हैं, क्योंकि उन्होंने भारत जाना है किताबों से; उन्होंने वेदों से, उपनिषदों से, धम्मपद, गीता, रामकृष्ण, रमण, कृष्णमूर्ति, इनसे भारत को जाना है। ये भारत नहीं हैं। ये तो भारत के इस विशाल सागर में चम्मच भर भी इनकी सत्ता नहीं है। भारत इनसे बिलकुल विपरीत है। जरूर बुद्ध हुए हैं लेकिन उनको तो अंगुलियों पर गिना जा सकता है। और उन बुद्धों की प्रतिष्ठा के कारण भारत को एक प्रतिष्ठा मिली, जो उधार है, बासी है, जो भारत की अपनी नहीं है। बुद्धों की आभा से भारत ने अपने को मंडित कर लिया है। वह झूठी आभा है। उस आभा के पीछे कोई भी अस्तित्वगत समर्थन नहीं है।
जो पश्चिम से आता है वह तो किताबों के भारत को जानता है, उसे असली भारत से कोई पहचान नहीं है। यहां असली भारत से पहचान होती है, तब उसके मन में बड़ी दुविधा पैदा होती है। वही दुविधा, कृष्ण प्रेम, तुम्हारे मन में पैदा हुई है। तब उसकी समझ में ही नहीं आता इस विसंगति को कैसे सुलझाएं, इस विरोधाभास को कैसे निपटाएं? उसके मन में तो खयाल होता है कि ये सभी भारतीय बुद्ध होंगे। और यहां आकर पाता है कि आदमी पश्चिम से भी ज्यादा बदतर है। पश्चिम में बुद्ध न होंगे बहुत, लेकिन आदमी बेहतर है; क्योंकि आदमी ने वे सारी व्यवस्थाएं बना ली हैं जो आदमी को बेहतर करती हैं।
एक खास पृष्ठभूमि चाहिए संपन्नता की, तो मनुष्य के जीवन में पाखंड कम होता है। भारत विपन्न है, तो बातें तो करता है त्याग की, लेकिन नजर लगी होती है धन पर। रामकृष्ण कहते थे: चील उड़ती तो है आकाश में बहुत ऊपर, इससे धोखा मत खा जाना; उसकी नजर लगी होती है नीचे किसी कूड़े-घर पर; मरा हुआ चूहा पड़ा हो, उस पर उसकी नजर लगी होती है। भारत बातें तो त्याग की करता है, लेकिन नजर भोग पर लगी है। और यह नजर वह बताना भी नहीं चाहता किसी को। इसलिए उसने काले चश्मे पहन रखे हैं कि नजर मरे चूहों पर भी लगी रहे और बातें आकाश की होती रहें। बातें आकाश की, वह जो नजर चूहों पर लगी है उसे छिपाने का उपाय हो गई हैं, कारगर उपाय हो गई हैं।
पश्चिम ने एक संपन्नता पैदा की है। पश्चिम जीवन को स्वीकार करता है। पश्चिम जीवन का विरोधी नहीं है। पश्चिम ने ईसाइयत से अपना छुटकारा कर लिया है। भारत अभी भी धर्म की रूढ़ियों से, अंधविश्वासों से छुटकारा नहीं कर पाया है। भारत अभी भी अतीत से बंधा है। उसकी छाती पर पत्थर हैं अतीत के। भारत में कोई गति नहीं हो रही है। भारत बिलकुल ही गत्यावरोध की अवस्था में है। भारत सरिता नहीं है। एक डबरा है, जहां सब सड़ रहा है। पश्चिम में थोड़ा बहाव है। जहां बहाव होता है वहां जल शुद्ध होता है। और जहां संपन्नता होती है वहां छोटी-छोटी बातों पर बेईमानी, चोरी अपने आप बंद हो जाती है।
पश्चिम ने मनुष्य की देह को स्वीकार किया है। देह का सम्मान है, देह का सत्कार है। देह के सौंदर्य को भी पुरस्कार है। भारत देह-विरोधी है, शरीर का शत्रु है। मगर कैसे तुम शरीर के शत्रु हो सकते हो--तुम शरीर हो! माना कि तुम शरीर से भी ज्यादा हो, लेकिन शरीर तुम पहले हो, फिर तुम ज्यादा हो। शरीर की सीढ़ी बने तो शायद तुम ज्यादा को भी जान पाओ।
पश्चिम की भ्रांति यहां है कि शरीर पर रुक गया है। और भारत की मुसीबत यह है कि भारत शरीर को अभी तक स्वीकार ही नहीं कर पाया है। अगर इन दोनों भूलों में कोई भूल ही चुननी हो तो पश्चिम की भूल को चुनना मैं ज्यादा पसंद करूंगा। क्योंकि पश्चिम की भूल के बाद दूसरी बात, ठीक बात होनी बहुत कठिन नहीं है। मगर भारत की भूल ऐसी है कि पहली बात हो ही न सकेगी, तो दूसरी के होने का उपाय ही नहीं उठता।
पश्चिम की भूल में एक तर्कसंगति है। शरीर है मनुष्य, ऐसी मान्यता है तो गलत, लेकिन फिर भी इस मान्यता से दूसरी मान्यता तक जाना असंभव नहीं है कि मनुष्य शरीर से भी ज्यादा है। भारत मानता है मनुष्य शरीर है ही नहीं; यहीं अटक जाता है। जब शरीर ही नहीं है तो दूसरी बात कि मनुष्य आत्मा है, उस तक पहुंचना असंभव हो जाता है। हमने मंदिर की सीढ़ियां तोड़ दी हैं। तुमने मंदिर तोड़ दिया है। पश्चिम में मंदिर नहीं है, सीढ़ियां ही हैं। भारत में मंदिर बनाने की चेष्टा चली है, मगर बिना सीढ़ियों के। मंदिर बनेगा कैसे? मंदिर बनता नहीं, कल्पना में रह गया है। पश्चिम के पास कम से कम सीढ़ियां तो हैं। कभी मंदिर भी बन जाएगा; सीढ़ियां काम आ जाएंगी। सीढ़ियों के बिना मंदिर नहीं बन सकता। सीढ़ियां हों तो मंदिर बन सकता है।
पश्चिम की भूल ज्यादा सार्थक भूल है, ज्यादा अर्थपूर्ण भूल है। मैं चाहूंगा कि भारत को भी अगर भूल ही करनी हो तो पश्चिम जैसी भूल करे। शरीर के विरोध ने भारत के मन को बहुत कामवासना से भर दिया है। ब्रह्मचर्य का उदघोष होता है। ब्रह्मचर्य ही जीवन है, ऐसी बातें होती हैं। मगर ये बातें ही हैं। जब तक कामवासना का रूपांतरण न हो, कैसा ब्रह्मचर्य? और कामवासना का रूपांतरण कामवासना के दमन से नहीं होता। जिसे दबाओगे उससे जीवन भर परेशान रहोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सुबह-सुबह अपने कुछ मित्रों से मिलने जा रहा था, कि तभी बहुत वर्षों का बिछुड़ा हुआ मित्र अपने घोड़े से उतरा। मुल्ला ने कहा कि बड़े बेवक्त आए हो। तुम विश्राम करो। मैं दो-तीन घंटे मैं वापस आता हूं। कुछ मित्रों को आश्वासन दे दिया है, उनके घर तक जाऊं, जाना होगा।
मित्र ने कहा: इतने वर्षों बाद मिले हो, कितनी आकांक्षा से आया हूं! चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं। लेकिन मेरे कपड़े सब धूल-धूसरित हैं। लंबी राह, रेगिस्तानी रास्ता। मुझे थोड़ा ढंग के कपड़े दे दो, मैं जल्दी से कपड़े बदल लूं और साथ हो लूं।
मुल्ला ने सम्राट के द्वारा भेंट किए हुए कपड़ों को सम्हाल कर रखा था। पहना नहीं था कभी। मित्र को देना तो फिर कुछ शानदार चीज देनी, उसने वे ही कपड़े लाकर दे दिए। दे तो दिए, लेकिन मन कचोटता था। खुद पहने नहीं आज तक, सम्हाल कर रखे रहा कि किसी सुअवसर पर पहनेगा और आज दे तो रहा है मित्र को, मगर मन में बड़ी चोट भी है। दे तो दिए ऊपर-ऊपर, भीतर नहीं दे पाया।
पहले ही घर पहुंचे। स्वभावतः वे शानदार कपड़े, सम्राट के द्वारा दिए गए कीमती कपड़े! मित्र की नजर मुल्ला से ज्यादा भी उसके मित्र, मुल्ला के मित्र पर पड़ी। बार-बार वह मित्र को देखने लगा। मुल्ला ने कहा: ये हैं मेरे मित्र, जलील। बहुत वर्षों बाद आए हैं। और रहे कपड़े, सो कपड़े मेरे हैं।
जलील तो बहुत हैरान हुआ। बाहर आकर उसने कहा कि यह तो बात कुछ शोभा की नहीं है। कपड़ों की बात ही क्यों उठाई? ऐसा मेरा अपमान करना था तो मुझे साथ ही क्यों लाए? अब दूसरी जगह कपड़े की बात मत उठाना और अगर उठानी ही थी तो कम से कम अपने तो न बताते।
मुल्ला ने कहा: क्षमा करो!
दूसरे मित्र के घर फिर बात चली और फिर मित्र की नजरें उन कपड़ों पर अटक गईं। मुल्ला ने कहा: ये रहे मेरे मित्र, जलील। रहे कपड़े, सो कपड़े इन्हीं के हैं।
बाहर आकर मित्र ने कहा कि तुम बाज न आओगे? कपड़ों की बात ही क्यों उठानी! परिचय मेरा देना चाहिए।
मुल्ला ने कहा: माफ करो। मैंने समझा कि पहली जो भूल हो गई उसको ठीक कर लूं।
तीसरे घर फिर वही हुआ। घरवालों की नजरें मित्र पर लग गईं। मुल्ला ने कहा: ये रहे मेरे मित्र, जलील। रहे कपड़े, सो कपड़ों की बात न करना ही अच्छा है। किसी के भी हों, इससे क्या लेना-देना! कपड़ों के संबंध में तो हम चुप ही रहेंगे।
तुम जो दबाओगे वह निकल-निकल कर बाहर आएगा, उभर-उभर कर बाहर आएगा।
भारत ने काम को बुरी तरह दबाया है। सो सब तरफ से उभर रहा है, सब तरफ से प्रकट हो रहा है।
रोज पूना में यह हो रहा है। संन्यासिनियों का चलना मुश्किल है। धक्के मारे जाएंगे, गालियां दी जाएंगी, पत्थर फेंके जाएंगे। डंडे मारे जाते हैं, सांकलें लोहे की। अब किसी चलती हुई स्त्री को लोहे की सांकल से पीटना बड़े रुग्ण-चित्त का लक्षण है। इस आदमी ने कभी स्त्री को प्रेम से छुआ नहीं है, उसकी यह विकृति है। प्रेम से छू लेने का अपना रस है, आनंद है। आखिर यह स्त्री भी परमात्मा की अभिव्यक्ति है। अगर तुमने किसी स्त्री को प्रेम किया है और आह्लाद से उसे छुआ है तो उसको छूने में एक अध्यात्म है, एक प्रसाद है, एक काव्य है। लेकिन किसी स्त्री को तो प्रेम से छुआ नहीं, अब उसकी विकृति हुई है। उसकी विकृति है कि सांकल से उसकी देह पर घाव कर दो, कि डंडे मार कर उसकी चमड़ी उखाड़ दो। यह प्रेम से छूने की जो महत्वपूर्ण बात थी उसके दमन का विकृत रूप है। यह दूसरा छोर है।
जो लोग बलात्कार करते हैं, वे वे ही लोग हैं जिन्होंने कभी किसी स्त्री को प्रेम नहीं किया। जिन्होंने किसी भी स्त्री को प्रेम किया है उनके मन में सारी स्त्रियों के प्रति एक सम्मान का भाव पैदा हो जाता है। और जिसने किसी स्त्री को प्रेम नहीं किया बल्कि प्रेम को पाप समझा है, उसके मन में इतनी कुंठा इकट्ठी हो जाती है, इतना जहर कि वह जहर फूटेगा, निकलेगा।
और भारत में इस तरह की बातें कहने की आदत है लोगों की कि पूना ऑक्सफर्ड है। भारत में इस तरह की आदतें हैं। इन आदतों से बहुत परेशान न होना, बहुत चिंता न करना। यहां तो हर छोटी चीज को बड़ा करने की आदत है। यहां तो कोई छोटा-मोटा सम्मेलन होता है तो उसका नाम होता है: अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन! यहां छोटी-मोटी बातें होती ही नहीं। भारत इतना दीन हो गया है, इसका स्वाभिमान इतना पददलित हो गया है कि हर चीज को बड़ा कर लेता है। यहां एकाध पोस्ट ऑफिस हो गांव में, और बस रुकती हो तो बस काफी है युनिवर्सिटी बन जाने के लिए। गांव के लोग कोशिश करने लगेंगे: यहां युनिवर्सिटी होनी चाहिए, क्या कमी है? बस भी रुकती है, पोस्ट ऑफिस भी है। और क्या चाहिए? भारत में गांव-गांव युनिवर्सिटियां फैलती जा रही हैं।
इन तीस सालों में आजादी के, इतनी युनिवर्सिटियां बनी हैं, एक भी युनिवर्सिटी की कोई बड़ी प्रतिष्ठा नहीं है। आधी युनिवर्सिटियां बंद रहती हैं साल में, क्योंकि दंगे-फसाद, हड़तालें, मार-पीट, कुलपतियों, उप-कुलपतियों के घेराव। अध्यापक सांझ को घर लौट आते हैं तो भगवान को धन्यवाद देते हैं कि एक दिन कट गया, कि अपनी जान बचाई और घर आ गए। जान बची और लाखों पाए, लौट कर बुद्धू घर को आए! विश्वविद्यालय की तरफ जाते हैं अध्यापक तो हनुमान-चालीसा पहले पढ़ कर जाते हैं, के हे हनुमान जी, रक्षा करना!
यहां कहां ऑक्सफर्ड? और पूना?
ये पांच वर्ष जो हम यहां रहे हैं उसका अनुभव कहता है: है एक दकियानूसी किस्म का नगर, सड़ी-गली मान्यताओं से भरा हुआ। लेकिन, कहां की संस्कृति, कहां की सभ्यता? थोथे, तोतों की तरह रटे हुए पंडित हैं और उन पंडितों की अतीत पर पकड़ है और अतीत से वे जकड़े हुए हैं। मगर संस्कृति तो विकासमान होती है, गतिमान होती है। सच तो यह है, अभी संस्कृति पैदा कहां हुई? अभी हम संस्कृति की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अभी यह घटना घटने को है।
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ को किसी ने कहा कि आपका सभ्यता के संबंध में क्या खयाल है? जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा: सभ्यता का विचार बहुत सुंदर है, मगर किसी को इसका प्रयोग करना चाहिए। अभी सभ्यता हुई कहां है?
इस देश के दावों से जरा सावधान रहना, यह बड़े दावे करने में कुशल है। यहां हर चीज पर दावे हो जाते हैं। दावे ही बचे हैं। भीतर तो कुछ और नहीं, भीतर सब थोथापन है।
लोगों को देखो, लोगों के व्यवहार को देखो, लोगों की अंतरात्मा में झांको, तो बड़ा अंधेरा है। हां, ऊपर-ऊपर एक आवरण है शिष्टाचार का। वह आवरण बस आवरण ही है; चमड़ी जितनी भी उसकी गहराई नहीं है; जरा खरोंचो और भीतर का जंगली आदमी प्रकट हो जाता है। और किसी को भी खरोंचो...।
कृष्ण प्रेम, इस तरह के दावों के धोखे में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है।
संन्यासिनियों का जीना मुश्किल है।... स्त्री जैसे अनूठी चीज है! जैसे भारतीय आदमी को स्त्री एक अजूबा है! जैसे चांद-तारों से आई हुई कोई अप्सरा है! क्योंकि सदियों-सदियों से स्त्री का संस्पर्श नहीं रहा है। न तो स्त्री की समाज में कोई जगह है, न घर के बाहर कोई स्थान है, न कार्यकलाप के संसार में उसकी कोई गति है। बंद है घर में।
एक आदमी की स्त्री अचानक पागल हो गई। मनोवैज्ञानिक के पास ले जाया गया। उसने पूछा कि यह अचानक कैसे हुआ? कोई इतिहास होगा पागलपन का। पहले भी कभी ऐसी कोई घटना घटी थी?
उस आदमी ने कहा कि बीस साल से हम विवाहित हैं, कभी कोई घटना नहीं घटी। मैं भी चकित हूं: सच तो यह है कि बीस साल में यह कभी चौके के बाहर निकली ही नहीं।
अब बीस साल में जो स्त्री चौके के बाहर न निकली हो वह पागल न हो जाए तो और क्या हो? स्त्री को बंद कर रखा है घरों में, कटघरों में। और जब स्त्रियां कटघरों में बंद हो जाती हैं और समाज केवल पुरुषों का रह जाता है तो समाज में एक तरह की कठोरता हो जाती है--एक तरह की परुषता। क्योंकि पुरुष परुष है, कठोर है। तब समाज में एक तरह की सौम्यता खो जाती है।
तुमने देखा, दस पुरुष बैठे हों और एक स्त्री आ जाए, उसके आते ही एक सौम्यता आ जाती है। उसकी मौजूदगी एक तरलता ले आती है। उसकी मौजूदगी से ही अगर गाली-गलौज चल रही थी तो बंद हो जाती है। अगर लोग कुछ भी ऊलजलूल बातें कर रहे थे तो बदल देते हैं। उसकी मौजूदगी एक रूपांतरण लाती है।
जिस समाज में स्त्रियां घरों में बंद हो जाती हैं वह समाज कठोर हो जाता है, जंगली हो जाता है। और इस देश में स्त्रियां घरों में बंद हैं। उन्हें घरों के बाहर लाना है। उन्हें समाज में प्रवेश दिलाना है। उन्हें उनका अधिकार मिलना चाहिए। उन्हें उनकी समानता मिलनी चाहिए। उनका समाज में वापस लौट आना पूरे समाज के लिए सौम्य हो जाने के लिए बिलकुल जरूरी है। इसीलिए यह अड़चन होती है।
मेरी संन्यासिनियां हैं, वे मुक्त-भाव से विचरण करती हैं--यह मान कर कि यह मनुष्यों का समाज है। लेकिन उन्हें रोज अपनी मान्यता को खंडित होते हुए देखना पड़ता है। जहां जाती हैं वहीं आंखें गिद्धों की उन्हें घेर लेती हैं। वे जो गिद्ध की तरह उन्हें देखने लगते हैं और अगर मौका मिल जाए उन्हें, तो जो भी दुर्व्यवहार वे कर सकते हैं करने को राजी हो जाते हैं--उसका कारण है। स्त्री से परिचय टूट गया है। स्त्री से संबंध टूट गया है। पुरुष अलग-थलग हो गया है। उसने एक अपनी दुनिया बना ली है--स्त्रियों को बिलकुल अलग छोड़ दिया है। स्त्रियां जैसे इस भारतीय जीवन का हिस्सा ही नहीं हैं!
इसलिए तुम्हें अड़चन हो रही है, तुम्हें कठिनाई हो रही है। फिर यहां स्त्रियां बिलकुल ढंकी-ढकाई होती हैं। सब तरफ से ढंकी होनी चाहिए। यह पुरुष की निंदा है। स्त्रियों को इतना ढंका होना चाहिए, यह इस बात की खबर है कि पुरुष की आंखें गंदी हैं, कि पुरुष लुच्चे हैं।
‘लुच्चा’ शब्द समझने जैसा है। लुच्चा शब्द बनता है लोचन से, आंख से। लुच्चा का अर्थ होता है: घूर-घूर कर देखने वाला। यहां पुरुष लुच्चे हैं, इसलिए स्त्री को अपने को ढांक-ढांक कर चलना होता है। पश्चिम से आई हुई मेरी संन्यासिनियों को बड़ी हैरानी होती है, क्योंकि वे मुक्त-भाव से विचरण करती हैं। न अपने को ढांकती हैं, न ढांकने की कोई जरूरत समझती हैं, क्योंकि वे मानती हैं कि सभ्य लोगों की दुनिया है! बस वहीं भूल हो जाती है। यहां सभ्य लोगों की दुनिया कहां? यहां सब तरह की असभ्यता है। सब तरह की कठोरता है।
जैसे पश्चिम में तुम समुद्र के तट पर नग्न भी स्नान करो तो कोई चिंता नहीं है। कोई पुरुष तुम पर आकर एकदम हमला नहीं कर देगा। यहां हालत बिलकुल उलटी है। यहां अगर तुम्हारी बांह भी उघड़ी है तो उसका मतलब यह है कि तुम कोई सच्चरित्र स्त्री नहीं हो, तुम पर हमला किया जा सकता है। साड़ी में छिपी होतीं तो सबूत होता कि कोई कुलीन घर की महिला है। यहां कपड़ों से आदमी तोले जाते हैं!
पश्चिम से जो लोग आएंगे उनके लिए स्वाभाविक अड़चन होने वाली है। वे अपने उसी व्यवहार को जारी रखेंगे जो उन्होंने बचपन से सीखा है। और उस व्यवहार में कहीं भी कोई भूल नहीं है। अच्छे लोग हों तो नदी-तट पर, समुद्र-तट पर नग्न नहाने में कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए। आखिर नग्नता स्वाभाविक है। ठीक है दफ्तर में, दुकान में, बाजार में कपड़े पहनो, लेकिन कभी तो कोई स्थान तो हो जहां आदमी मुक्त विचरण कर सके। मगर यहां कोई मुक्त विचरण का उपाय नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने डॉक्टर के घर गया। डॉक्टर ने नई-नई, पढ़ी-लिखी एक पाश्चात्य लड़की को अपने सहयोगी की तरह रखा था। मुल्ला घूर-घूर कर उस लड़की को देखता रहा। जब भीतर गया तो डॉक्टर से उसने कहा कि तुमने इतनी सुंदर लड़की सहयोगी के लिए रखी है कि उसकी बांहें देख कर मेरा मन उसकी बांहें काट लेने का हुआ, कि काट खाऊं। डॉक्टर ने कहा कि उसमें कुछ ज्यादा हर्जा नहीं था। मैंने तुमसे कहा है कि ज्यादा कैलरी का भोजन मत करना। उसमें केवल पैंतीस कैलरी होती है। कोई हर्जा नहीं। अगर काट भी लेते तो कोई हर्जा नहीं, सिर्फ पैंतीस कैलरी।
हंसो मत, क्योंकि यही तुम्हारी मनोदशा है। सुंदर स्त्री को देख कर तुम्हें परमात्मा की याद नहीं आती। काट खाओ, चबा लो--ऐसे सुंदर-सुंदर विचार उठते हैं! कुछ न हो, धक्का मार दो। और अभी कोई देख भी नहीं रहा है। और वैसे तो तुम खादी के वस्त्र पहने हो। कोई देख भी लेगा तो भी मानेगा नहीं कि खादीधारी, सर्वोदयी नेता और ऐसा कर सकता है। असंभव! मौका चूको मत।... जहां मौका मिल जाता है वहां तुम्हारे भीतर की दबी हुई सारी वासनाएं प्रकट होने लगती हैं। बस अवसर की कमी है। तो रात के अंधेरे में अगर कोई स्त्री अकेले चलती मिल जाए तो बस मुश्किल है। भारतीय स्त्रियां तो चलती भी नहीं, उन्होंने तो जमाने हो गए तब से स्वतंत्रता खो दी है। उन्हें पता भी नहीं रहा, उन्हें याद भी नहीं कि रात जब चांद निकला हो दस-ग्यारह-बारह बजे रात जब चांद आकाश में हो, सारा नगर सो गया हो, तब वृक्षों के नीचे घूमने का एक मजा है। यह तो उन्हें याद ही नहीं रहा, यह तो बात ही खत्म हो गई। यह तो उनकी स्मृति में भी नहीं है। यह तो उनकी कल्पना में भी नहीं उठ सकता।
लेकिन पश्चिम से आई हुई स्त्रियों की कल्पना में उठता है। चांद निकला है, सुंदर मौसम है, दिन भर की गर्मी चली गई है, वृक्ष हवाओं से डोल रहे हैं, आधी रात है--इस सन्नाटे में घूमने जैसा है! मगर इस सन्नाटे में घूमने कोई स्त्री निकलेगी तो झंझट होने वाली है। चारों तरफ भूखे भेड़िए हैं। जिनको तुम भारतीय संस्कृति के संरक्षक कहते हो--भूखे भेड़िए हैं। तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। झंझट होगी। भाव तो अच्छा था रात घूमने निकलने का।
ऐसा ही समाज होना चाहिए कि कोई आधी रात भी घूमे तो घूम सके। यह रात हमारी है, यह चांद हमारा है, ये तारे हमारे हैं। मगर भारतीय स्त्रियों ने तो सदियों पहले ही यह अधिकार छोड़ दिया है। वे तो पति के पीछे छाया की तरह चलती हैं। वे तो पति की दासी हैं, पति उनका रक्षक है। अकेले घूमने निकलने का तो सवाल ही नहीं उठता। पहले तो घूमने निकलने का सवाल ही नहीं उठता--और रात में! यह तो सवाल ही नहीं है। और अगर कभी स्त्री निकलेगी भी दिन की भर दुपहरी में तो भी पति को साथ लेकर निकलती है, भाई को साथ लेकर निकलती है।
यहां भाई को हर वर्ष रक्षाबंधन बांधा जाता है कि हे भैया, साल भर हमारी रक्षा करना!... किससे रक्षा करना? भारतीय संस्कृति से रक्षा करना! ये चारों तरफ जो धूर्तों का जाल है, इससे रक्षा करना! अपमानजनक है। कोई सम्मानपूर्ण स्त्री भाई को रक्षाबंधन नहीं बांधेगी, क्योंकि रक्षा की आकांक्षा करना पुरुष से स्त्री की गरिमा को खोना है।
मेरे पास कभी कोई आ जाता है कि राखी बांधनी है आपको। किसलिए?
कि आप रक्षा करना।
रक्षा की बात ही क्यों उठती है? रक्षा किससे करनी है? मगर सदियों-सदियों से भारतीय स्त्री को यह सिखाया गया है।
तो तुम जब पश्चिम से यहां आते हो तो तुम्हें इन सारी धारणाओं का कुछ पता नहीं है कि यहां पुरुष रक्षक है। और जिसका पुरुष रक्षक नहीं है, दूसरे पुरुष उसके भक्षक हो जाते हैं। फिर यह सुंदर स्त्री, जिसको किसी ने डंडा मार दिया, अगर पुलिस में रिपोर्ट करने जाती है तो वह पुलिस का इंस्पेक्टर भी उसको घूर-घूर कर वैसे ही देखता है। क्योंकि वह भी उतना ही पीड़ित और परेशान है। उसकी भी सहानुभूति इस स्त्री के साथ नहीं होती! अगर वह सहानुभूति भी दिखाता है तो उसका इरादा यही होता है कि कुछ थोड़ी दोस्ती बन जाए, कुछ थोड़ा पहचान बन जाए, तो वह भी वही करे।
अभी-अभी एक युवा लड़की पर--युवा भी कहना मुश्किल है, अभी किशोर ही है, केवल पंद्रह वर्ष की उम्र है--उस पर पूना के एक बड़े पुलिस ऑफिसर ने बलात्कार करने की चेष्टा की। अब तुम जाओ कहां? मजिस्ट्रेट के पास जाओ तो उसकी नजर भी घूर कर देखती है। यहां एक ही तरह के लोगों का जाल है। तुम्हें थोड़ा सावधान होना होगा। तुम मेरे पास आए हो किसी सत्य की खोज में, तुम्हें यह कीमत चुकानी होगी। मैं जानता हूं यह व्यर्थ है, इसकी कोई जरूरत नहीं। यह कीमत तुम्हें मुझे नहीं चुकानी पड़ रही है। यह कीमत तुम्हें इसलिए चुकानी पड़ रही है कि इस देश की स्थिति ऐसी है।
बहुत बार मैं सोचता हूं कि यह देश छोड़ दूं। लेकिन तब दूसरी झंझटें होंगी। तब मेरा किसी दूसरे देश में टिकना एक क्षण के लिए भी आसान नहीं रह जाएगा, क्योंकि जो मैं कह रहा हूं उसे कोई भी समाज पी नहीं सकेगा, पचा नहीं सकेगा। इस देश से तो मुझे वे बाहर कर नहीं सकते। मगर दूसरे किसी देश से तो मुझे किसी भी क्षण बाहर किया जा सकता है। तुम्हारी तकलीफें देख कर मैं बहुत बार सोचता हूं कि छोड़ ही दूं यह देश। लेकिन कहीं तो होना होगा। और झंझटें होने ही वाली हैं। और तब झंझटें ज्यादा बढ़ जाएंगी। तुम्हारे लिए थोड़ी सुविधा होगी। लेकिन मेरा टिकना कहीं भी ज्यादा देर नहीं हो सकता। वहां से मुझे हटना होगा। और मेरे हटने के साथ तुम्हें बार-बार हटना होगा। फिर कहीं भी हम जो एक बुद्ध-क्षेत्र निर्मित करना चाहते हैं वह निर्मित नहीं हो सकेगा।
इसीलिए जल्दी मेरी फिकर है... छह महीने शायद ज्यादा और लग जाएंगे... जल्दी ही हम हट जाएंगे पहाड़ियों में जहां तुम उन्मुक्त मन से विचरण कर सको; जहां तुम्हें ध्यान करना हो वृक्षों के नीचे तो ध्यान कर सको; जहां कोई तुम पर हमला न करे; जहां कोई खूंखार की तरह तुम्हें देखे न। हमें अपनी एक छोटी सी अलग दुनिया ही बना लेनी है, तो ही तुम्हारी सुरक्षा हो सकती है। अब इस पूरे समाज को बदलने अगर हम बैठेंगे, यह तो सदियों का काम है, तो तुम पर मेरा जो काम चल रहा है वह बंद हो जाएगा। इसलिए मैं इस झंझट में पड़ना भी नहीं चाहता। इसमें कुछ अर्थ भी नहीं है। उन्हें सड़ने दो जिन्हें सड़ना है। उन्हें जीने दो जैसा उन्हें जीना है। जो लोग जीवन-रूपांतरण करने को राजी हैं वे मेरे पास आ जाएं। हम अपनी एक अलग दुनिया बना लेंगे। उसमें भी हजार बाधाएं डाली जा रही हैं; क्योंकि घबड़ाहट है; क्योंकि वह एक वैकल्पिक समाज होगा और एक विकल्प बनेगा। और सारी दुनिया से लोग वहां आकर देख सकेंगे कि समाज हो तो कैसा हो, कि लोग हों तो कैसे हों, कि कोई नग्न भी बैठा रहे वृक्ष के नीचे तो किसी को कोई अड़चन नहीं है, कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं होने की पूरी स्वतंत्रता है। न कोई बाधा डालेगा, न कोई हस्तक्षेप करेगा, कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजता में जीने का स्वरूप-सिद्ध अधिकार है।
कृष्ण प्रेम, थोड़ी देर और भारतीय संस्कृति को सह लो, थोड़ी देर और इन पाखंडियों के साथ गुजार लो--होशियारी से, समझदारी से। थोड़ी देर और ये डंडे, ये सांकलें, ये चोटें स्वीकार कर लो। थोड़ी देर और। और शायद यह सब भी तुम उपयोग कर सकते हो अपने आत्म-विकास में। यह सब भी! यह जो जंगलीपन है चारों तरफ, यह है, यह मनुष्य की वास्तविक दशा है। इसका अनुभव भी बुरा नहीं है। इस अनुभव से भी तुम बड़े नतीजे, बड़े निष्कर्ष ले सकते हो।
हम जिस क्रांति की बात कर रहे हैं अभी तो छोटे पैमाने पर होगी, थोड़े से लोगों की होगी; एक वैकल्पिक समाज होगा, उसमें होगी। लेकिन अगर यह क्रांति सफल होती है तो इसके बीज सारी दुनिया में पहुंच जाएंगे।
जिस गैरिक-क्रांति की मैं बात कर रहा हूं, उसके लिए पहले एक प्रयोग-स्थल बन जाना चाहिए। मैं थोथी बातें करने में भरोसा नहीं रखता, कि मैं क्रांति की जाकर बड़ी-बड़ी बातें सारे देश में करता रहूं, उसका मुझे कोई मूल्य नहीं मालूम होता। इस देश में तो क्रांति रोज ही होती है।
अभी-अभी दूसरी क्रांति हो गई! न पहली क्रांति से कुछ हुआ, न दूसरी क्रांति से कुछ हुआ। दूसरी क्रांति ने और इस देश के मुर्दों को सत्ता में बिठा दिया। जिनको कब्र में होना चाहिए था वे कुर्सियों पर हैं। यह देश और सड़े-गले हाथों में पड़ गया। ऐसी क्रांतियों से कुछ होने वाला नहीं है। मैं तो क्रांति का एक प्रयोग-स्थल बनाना चाहता हूं--एक रासायनिक प्रक्रिया, जिससे गुजर कर कुछ लोग सबूत बन जाएं, प्रमाण बन जाएं कि मनुष्य ऐसा होना चाहिए--ऐसा सुंदर, ऐसा काव्यपूर्ण, ऐसा प्रेमपूर्ण, ऐसा स्वतंत्र! स्वयं स्वतंत्र और दूसरों को स्वतंत्रता देने में समर्थ। जहां व्यक्ति का परम मूल्य होगा। वैसा छोटा सा समाज बन जाए तो फिर वहां से हम भेजने लगेंगे किरणें सारे जगत में। किरणें पहुंचनी शुरू हो जाएंगी।
लेकिन पहले एक प्रयोगशाला। उसी प्रयोगशाला की यह शुरुआत है। तुम्हारी कठिनाइयां मुझे पता हैं। तुम्हारी कठिनाइयां मेरे हृदय में कांटों की तरह चुभती हैं। तुम्हारी कठिनाइयां मेरी आंखों को गीला करती हैं। जानता हूं लेकिन कोई और उपाय नहीं है। थोड़े दिन और गुजार लो।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, भारत जैसे देश में, जहां विषमता और दरिद्रता की जड़ें गहरी हैं, क्या आपकी शिक्षाएं यथास्थिति को बनाए रखने में मददगार नहीं हैं? धर्म ने अतीत में सामंती अन्याय को कोई कारगर चुनौती नहीं दी। गरीबी, बेकारी और भ्रष्टाचार को बनाए रखने वाले इस यंत्र के साथ आप क्या सलूक कर रहे हैं?
राजकिशोर! तंत्र के कारण गरीबी नहीं है, गरीबी के कारण यह तंत्र है। इस भ्रष्टाचार के तंत्र को मिटाया नहीं जा सकता जब तक गरीबी न मिट जाए। गरीबी सारी बीमारियों की जड़ है। लेकिन तुम्हें उलटी बातें समझाई जाती हैं; तुम्हें इन झूठे वायदों पर भरोसा दिलाया जाता है कि भ्रष्टाचार का तंत्र मिटाना है। भ्रष्टाचार का तंत्र मिट जाएगा तो गरीबी मिट जाएगी, यह बात मूढ़तापूर्ण है। भ्रष्टाचार का तंत्र मिट ही नहीं सकता गरीब देश में। गरीबी भ्रष्टाचार को जन्म देती है। तंत्र मौलिक नहीं है, गरीबी मौलिक है।
लेकिन इस देश में चर्चा होती है--भ्रष्टाचार मिटाओ, रिश्वतखोरी मिटाओ, बेईमानी मिटाओ! न बेईमानी मिटती है, न भ्रष्टाचार न मिटता है--बढ़ते जाते हैं रोज उलटे। और इन्हें मिटाने के लिए तुम जितने कानून बनाते हो उतने ही कानून को तोड़ने की सुविधा होती जाती है। आखिर भ्रष्टाचार तुम मिटवाओगे किससे? जिनसे भ्रष्टाचार मिटवाओगे वे भी इसी गरीब देश के हिस्से हैं, वे भी उतने ही भ्रष्टाचारी हैं। जिन नेताओं को तुम पदों पर बिठा देते हो, वे उतने ही भ्रष्टाचारी हैं जितना कोई और। हां, फर्क इतना ही है कि उनके भ्रष्टाचार का पता तुम्हें तब तक न चलेगा जब तक वे पद पर हैं। पद से उतरेंगे तब तुम्हें उनके भ्रष्टाचार का पता चलेगा। जब तक पद पर हैं तब तक तो वे सब छिपा कर बैठे रहेंगे।
मैं नहीं कहता कि भ्रष्टाचार का तंत्र मिटाओ। मिटाया नहीं जा सकता। जयप्रकाश के चिंतन की भूल वहीं है। उस चिंतन की भूल का परिणाम यह हुआ--इतनी उथल-पुथल, हाथ कुछ भी न लगा। गरीबी मिटनी चाहिए। जहां गरीब हैं वहां भ्रष्टाचार रहेगा। भ्रष्टाचार मिट सकता है केवल, जहां लोग संपन्न हों। जहां संपन्न हों वहां एक गरिमा होती है। आदमी भ्रष्टाचारी मजबूरी में होता है।
अब पुलिसवाले को तनख्वाह कितनी मिलती है? और इससे तुम चाहते हो कि रिश्वत न ले? यह असंभव है। तुम असंभव की आकांक्षा कर रहे हो। इसे रिश्वत लेनी ही होगी अगर इसे जीना है। और यह रिश्वत लेगा तो तुम और एक दूसरी गुप्त पुलिस बिठाओ, जो भ्रष्टाचार-विरोधी होगी। मगर उनकी भी तनख्वाह, उनकी भी गरीबी...। उनको भी बच्चों को स्कूल में पढ़ाना है, कॉलेज भेजना है, युनिवर्सिटी भेजना है। उनके पास भी पैसे नहीं हैं, वे भी रिश्वत खाएंगे।
रवींद्रनाथ ने बड़ी मीठी कथा लिखी है अपने परिवार की। बड़ा परिवार था उनका, सौ लोग परिवार में थे। बहुत दूध खरीदा जाता था। तो दूध में पानी मिल कर आ जाता था। तो रवींद्रनाथ ने कहा कि एक इंस्पेक्टर रख दिया जाए, जो जांच-पड़ताल करे। पिता हंसे और उन्होंने कहा: ठीक है, इंस्पेक्टर रख दो। एक इंस्पेक्टर रख दिया गया, जिसका काम ही यह था कि दूध की जांच-पड़ताल करे कि पानी न मिलाया जा सके। उस दिन से दूध में पानी और थोड़ा ज्यादा आने लगा। रवींद्रनाथ तो बहुत हैरान हुए। मगर गणित तो ऐसे चलता है। रवींद्रनाथ ने कहा: तो एक और इंस्पेक्टर रखो इंस्पेक्टर के ऊपर, कि जो उसकी नजर रखे कि यह कोई बेईमानी न कर सके। उस दिन तो गजब हो गया, पानी तो आया ही आया, एक मछली भी दूध में आ गई! क्योंकि हर इंस्पेक्टर का हिस्सा जुड़ता गया।
बाप ने कहा: तू पागल है! विदा कर इन इंस्पेक्टरों को। यह और एक मुफ्त का खर्चा सिर पर बंधा। दो इंस्पेक्टरों को तनख्वाह दो और इन दोनों के हिस्से बंध गए। जैसा चल रहा था ठीक था। इतना पानी नहीं था, कम से कम मछलियां तो नहीं आती थीं।
ऐसी इस देश की दशा है। यहां तुम भ्रष्टाचार किससे रुकवाओगे? यह तंत्र कौन बदलेगा? जो बदलेगा उसको ही इस तंत्र का हिस्सा होना पड़ेगा। इस तंत्र में जीना है तो इस तंत्र के बाहर खड़ा नहीं हो सकता वह। जिन राजनेताओं से तुम आशा करते हो कि वे इस तंत्र को बदलेंगे, वे कैसे बदलेंगे? उनको चुनाव लड़ने के लिए पैसे चाहिए। पैसे कोई ऐसे नहीं देता।
जयप्रकाश नारायण जिंदगी भर बिड़ला से रुपये लेते रहे हैं, आमूल-क्रांति होगी कैसे? बिड़ला के पास इस देश के सारे क्रांतिकारियों को तनख्वाह देने का उपाय है। बिड़ला के पास लिस्ट है कि किन-किन को तनख्वाह देनी...। इन सबको तनख्वाह मिलती है! इन सबके मासिक बंधे हुए हैं! जयप्रकाश नारायण की सबसे बड़ी नाराजगी का कारण इंदिरा से यही था कि इंदिरा ने जयप्रकाश से यह पूछा कि आप यह तो बताइए कि आपका खर्च कैसे चलता है? यह तुम जान कर हैरान होओगे कि ये बड़ी उपद्रव की जो बातें हैं, बड़े-बड़े सिद्धांतों से शुरू नहीं होती हैं, बड़ी छोटी-छोटी बातों से शुरू होती हैं। आदमी छोटा है! इंदिरा का यह पूछना कि आपका खर्च कैसे चलता है, यह बताइए--यह था असली उपद्रव का कारण, जिससे जयप्रकाश भन्ना उठे; जिससे उनके अहंकार को बड़ी चोट लगी और उन्होंने तय कर लिया कि इंदिरा को उखाड़ कर रहेंगे। इंदिरा का पूछना ठीक था, क्योंकि इंदिरा के पास फेहरिस्त है कि जयप्रकाश को वर्षों से बिड़ला से पैसा मिलता है। और बिड़ला से पैसा क्यों मिलता है? गांधी जी की सिफारिश से मिलता है! गांधी जी ने पत्र दिया था कि जयप्रकाश को पैसा हर महीने मिलना चाहिए।
कैसे क्रांति होगी? जिसको चुनाव लड़ना है उसको लाखों रुपये चाहिए। जिनसे लाखों रुपये लेगा उनके खिलाफ कैसे काम करेगा? और नहीं लाखों रुपये लेगा तो चुनाव नहीं लड़ सकता।
तंत्र बदलेगा कौन, राजकिशोर?
नहीं; मेरी चिंतना और है। मैं तंत्र इत्यादि को बदलने में बहुत समय खराब नहीं करता, न सोचता उस बाबत। यह तो तंत्र स्वाभाविक परिणाम है इस देश की दरिद्रता का। दरिद्रता बदली जा सकती है, क्योंकि दरिद्रता को बदलने के लिए अब विज्ञान ने उपाय जुटा दिए हैं। अब अगर हम दरिद्र हैं तो अपनी मूढ़ता के कारण, अन्यथा और कोई कारण नहीं है। और हमें शक्ति नहीं लगानी चाहिए भ्रष्टाचार को बदलने में। भ्रष्टाचार को तो हमें स्वीकार कर लेना चाहिए; व्यर्थ की झंझट उससे क्यों करनी; वह तो होगा ही। इस स्थिति में इससे अन्यथा नहीं हो सकता। बन सके तो हमें भ्रष्टाचार को, रिश्वतखोरी को, सबको नैतिक मान्यता दे देनी चाहिए; कानूनी स्वीकृति दे देनी चाहिए, ताकि यह फिजूल की बकवास बंद हो। इसे हम लोगों की तनख्वाह ही मान लें। इसको क्यों उपद्रव बनाना?
सारी ताकत लगानी चाहिए देश के औद्योगीकरण में। सारी ताकत लगानी चाहिए देश के भीतर नये-नये उपकरण पैदा करने में। और अब उपकरण उपलब्ध हैं दुनिया में। इस देश की गरीबी मिट सकती है, कोई कारण नहीं है गरीबी के रहने का। लेकिन हम फिजूल की बकवास में लगे रहते हैं। हम चरखे की चिंता कर रहे हैं। चरखे से कहीं गरीबी मिटी है? गरीबी मिटानी हो तो उद्योग की चिंता करो। मगर उद्योगों पर हम उपद्रव खड़े किए रखते हैं। जिन कारणों से गरीबी मिट सकती है उनको तो हर तरह की बाधाएं हैं और जिन कारणों से गरीबी बढ़ेगी उनको हर तरह की सुविधाएं दी जाती हैं।
खादी के लिए सरकार न मालूम कितना करोड़ों का खर्च करती है कि खादी चले! खादी को चलाने की जरूरत क्या है? खादी में क्यों प्राण अटके हुए हैं? जब कि मिल के वस्त्र ज्यादा टिकाऊ, ज्यादा सस्ते, ज्यादा सुंदर, ज्यादा उपयोगी, तो क्यों खादी के पीछे मरे जाते हो?
मगर हमारा देश अजीब है, इसके सोचने के ढंग अजीब हैं! हम पकड़ लेते हैं किसी चीज को। फिर छोड़ना नहीं आता हमें। और भी दुनिया में देश हैं, और भी दुनिया में नेता होते हैं, लेकिन कोई इस तरह नहीं करता। अब गांधी को गए तीस साल हो गए, मगर चल रही है पूजा--चलेगी। विदा देना भी आना चाहिए, अलविदा देना भी आना चाहिए। अब बेचारों को उनको भी जाने दो और तुम भी किसी दूसरे काम में लगो। मगर नहीं, चूंकि गांधी ने खादी की बात की थी इसलिए खादी हमारा नैतिक कर्तव्य हो गई, हमारा धर्म हो गई।
नये-नये यंत्र... इस देश के पास प्रतिभा है लेकिन हम प्रतिभा को तो अड़चन डालते हैं। इस देश को हमेशा चिंता होती है, बहुत चर्चा चलती है इस बात की कि दुनिया के दूसरे देश हमारी प्रतिभाओं को शोषित कर लेते हैं। अगर कोई अच्छा इंजीनियर होता है, अच्छा वैज्ञानिक होता है, स्वभावतः अमरीका चला जाता है। कोई अच्छा डॉक्टर होगा, अच्छा सर्जन होगा, स्वभावतः अमरीका चला जाएगा। तनख्वाह अच्छी है, जीवन का स्तर अच्छा है, सुविधा है; सोचने, विचारने, खोजने के उपाय हैं। क्यों रहे यहां? मगर इससे हमें बड़ा नुकसान होता है। प्रतिभा हमारी, पढ़ा-लिखा कर हम तैयार करते हैं बामुश्किल और फिर चला जाता है पश्चिम। इस पर बड़ा विचार चलता है कि कैसे प्रतिभा को रोकें! मगर तुम कैसे रोकोगे?
इधर मेरे आश्रम में प्रतिभा पश्चिम से आ रही है तो आने नहीं देते। वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, चिकित्सक, प्रोफेसर यहां आकर रहना चाहते हैं, लेकिन मोरार जी देसाई उन्हें प्रवेश नहीं करने देना चाहते। सारे राजदूतावासों को भारत के बाहर सूचना दी गई है कि जो व्यक्ति भी मेरे आश्रम आना चाहता हो, उसे तो प्रवेश ही मत देना। और तुम भारतीय कुशलता तो जानते ही हो... मूढ़ता ऐसी है कि इस तरह के पत्र भी लिख देते हैं भारतीय राजदूतावास के लोग।
एक प्रसिद्ध डेंटिस्ट डॉक्टर भारत आकर यहां रहना चाहता था। उसने पत्र लिखा, तो अमरीकन भारतीय राजदूतावास से उसको उत्तर मिला कि अगर आप श्री रजनीश आश्रम पूना जाना चाहते हैं तो स्वीकृति नहीं मिल सकती। यह लिख ही दिया उसमें। भारतीय कुशलता के भी क्या कहने! यह तो कम से कम छिपा कर रखते। अगर किसी और आश्रम जाना हो तो स्वीकृति मिल सकती है। मगर और किसी आश्रम उन्हें जाना नहीं है।
मैं सारी दुनिया की प्रतिभा को यहां इकट्ठा कर सकता हूं। यहां दुनिया से वे सारे लोग इकट्ठे हो सकते हैं, इस देश का कायाकल्प कर दें। मगर प्रवेश नहीं दोगे, उन्हें टिकने नहीं दोगे। एक तरफ रोओगे कि हमारी प्रतिभा जा रही है और यहां हम प्रतिभा को बुलाने का निमंत्रण भेज रहे हैं और प्रतिभा आना चाहती है, तो आने नहीं दोगे। ऐसा अभागा देश है!
राजकुमार! तंत्र को नहीं बदला जा सकता भ्रष्टाचार के, लेकिन दरिद्रता बदली जा सकती है। और दरिद्रता बदल जाए तो भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। दरिद्रता बदल जाए तो रिश्वत अपने आप खो जाएगी। तुम किसी समृद्ध देश में किसी व्यक्ति को रिश्वत दो, एक चांटा मारेगा तुम्हारे चेहरे पर। तुम अपमान कर रहे हो... यह रिश्वत। उसके पास काफी है, तुम क्या उसे दे रहे हो! जिसके पास नहीं है कुछ वही खुशी से लेता है और तुम्हें धन्यवाद देता है।
तुम पूछते हो: ‘भारत जैसे देश में, जहां विषमता और दरिद्रता की जड़ें गहरी हैं।’
क्यों गहरी हैं? तुमने आज तक दरिद्रता का सम्मान किया है। जिसका सम्मान करोगे उसकी जड़ें गहरी हो जाएंगी। तुमने सदियों-सदियों से दरिद्रता को आदर दिया है। आदर दोगे जिसको, वह बढ़ेगा। और महात्मा गांधी ने आखिरी सील लगा दी--दरिद्रनारायण कह दिया दरिद्र को! दरिद्रता बीमारी है, रोग है, कैंसर है। दरिद्रनारायण मत कहो दरिद्र को! दरिद्र को विदा करना है, दरिद्र से छुटकारा लेना है। अगर दरिद्र दरिद्रनारायण है, तो छुटकारा कैसे लोगे? वह तो फिर ‘नारायण’ से छुटकारा लेना हो जाएगा। दरिद्र को मिटाना तो फिर ‘नारायण’ को मिटाना हो जाएगा।
दरिद्र नारायण नहीं हैं। दरिद्रता सिर्फ रोग है, बीमारी है, अस्वास्थ्य है। ठीक-ठीक मूल्यांकन करो। और तुमने सदियों से इस बात की बड़ी चर्चा की है। बुद्ध ने धन छोड़ दिया, महावीर ने घर छोड़ दिया! बड़ा सम्मान! बड़ा आदर! मैं महावीर का आदर इसलिए नहीं करता कि उन्होंने घर छोड़ दिया; मैं उनका आदर इसलिए करता हूं कि उन्होंने आत्मा को पा लिया। छोड़ने के कारण मेरे मन में कोई आदर नहीं है, पाने के कारण आदर है। मैं बुद्ध का सम्मान इसलिए नहीं करता हूं कि उन्होंने राज्य छोड़ दिया; बुद्ध का सम्मान मैं इसलिए करता हूं कि उन्होंने भीतर का राज्य पा लिया। मेरे सम्मान भी भिन्न हैं। मैं बुद्ध की चर्चा करता हूं, महावीर की भी चर्चा करता हूं, लेकिन मेरे कारण उन्हें आदर देने के बड़े भिन्न हैं। तुमने उन्हें गलत कारणों से आदर दिया है।
और तुमने फकीरी को, गरीबी को सदियों तक सिर पर उठाया है; हो गए तुम गरीब, स्वाभाविक था। पश्चिम भी गरीब था, इन तीन सौ वर्षों में पश्चिम ने गरीबी मिटा डाली। ये तीन सौ वर्षों में पश्चिम ईसाइयत की जो गरीबी की धारणा है उससे छुटकारा पा लिया।
तुम्हें अपने धर्म की जो धारणाएं हैं उनसे छुटकारा पाना होगा। तुम्हें धर्म की नई धारणा को अपने भीतर जड़ें देनी होंगी। मैं उसी नये धर्म की बात कर रहा हूं। मैं एक ऐसे धर्म की बात कर रहा हूं जो संपन्नता का विरोधी नहीं है, जो समृद्धि का विरोधी नहीं है। मैं एक ऐसे धर्म की बात कर रहा हूं जो इस पृथ्वी का सम्मान करता है, इस पृथ्वी को प्रेम करता है; जो इस पृथ्वी का आलिंगन करता है। इस पृथ्वी में हमारी जड़ें जमनी चाहिए, तो आकाश में हमारी शाखाएं उठ सकती हैं। जो वृक्ष पृथ्वी के विपरीत हो वह आकाश में अपनी शाखाओं को न फैला सकेगा। हमने वही भूल कर ली है।
तुम दरिद्र हो क्योंकि तुम्हारे मन में कहीं दरिद्रता का आदर है। इस आदर को खंडित करो, इस आदर को जाने दो। इसकी जगह संपन्न को, संपन्नता को, समृद्धि को, ऐश्वर्य को आदर दो; वही ‘ईश्वर’ शब्द का अर्थ है।
पूछते हो तुम: ‘भारत जैसे देश में जहां विषमता और दरिद्रता की जड़ें गहरी हैं, क्या आपकी शिक्षाएं यथास्थिति को बनाए रखने में मददगार नहीं हैं?’
जरा भी नहीं! महात्मा गांधी मददगार हैं यथास्थिति को बनाए रखने में। जयप्रकाश नारायण मददगार हैं यथास्थिति को बनाए रखने में। विनोबा भावे मददगार हैं यथास्थिति को बनाए रखने में। और तुम्हारे सारे शंकराचार्य और तुम्हारे शाही ईमाम, सब मददगार हैं यथास्थिति को बनाए रखने में। मैं तो जो बात कह रहा हूं वह मौलिक रूप से इन सबके विपरीत है।
हालांकि एक बात सच है कि मैं कोई क्रांतिवादी नहीं हूं, क्योंकि क्रांति की बात ही मुझे असफलता की बात मालूम होती है। अब तक कोई क्रांति सफल नहीं हो सकी--न रूस में, न चीन में, न फ्रांस में, न कहीं और, न कहीं और सफल होगी। क्रांति सफल हो ही नहीं सकती। मनुष्य का तीन हजार साल का इतिहास कहता है कि सब क्रांतियां असफल हो गईं। क्रांति की असफलता को समझो, क्योंकि क्रांति की मौलिक प्रक्रिया क्या है? मौलिक प्रक्रिया है--तुम्हें लड़ना होता है--जिनसे तुम लड़ते हो तुम्हें उनके ही लड़ने के ढंग सीखने होते हैं; नहीं तो उनसे लड़ोगे कैसे? लड़ते-लड़ते तुम उन्हीं जैसे हो जाते हो। जब तक तुम सत्ता में आते हो तब तक तुममें और तुमने जिनको सत्ता से हटाया, रत्ती भर भेद नहीं रह जाता। और अगर कुछ भेद होता भी होगा तो यही कि तुम उनसे भी बदतर होते हो, इसीलिए तुम जीत पाते हो, नहीं तो तुम जीत नहीं सकते।
अगर रूस में कम्युनिस्ट पार्टी--स्टैलिन, लेनिन और ट्राटस्की की पार्टी अगर ज़ार से जीत सकी तो इसीलिए कि उन्होंने ज़ार से भी ज्यादा बदतर, हिंसात्मक प्रवत्तियां दिखलाईं। और फिर पूरा इतिहास प्रमाण है--स्टैलिन ने जहर देकर लेनिन को मारा, हथौड़े की चोट से ट्राटस्की को मरवाया। फिर जितने भी क्रांतिकारी थे, जो भी क्रांति में अग्रणी थे, एक-एक करके मारे गए, या जेलों में सड़े, या साइबेरिया में गले। स्टैलिन जितना बड़ा ़जार साबित हुआ दुनिया में, कोई ज़ार इतना बड़ा ज़ार साबित नहीं हुआ था। स्टैलिन ने जितनी हिंसा की उतनी ईवान टैरीबल ने भी नहीं की थी। सब सिकंदर, सब नेपोलियन छोटे पड़ गए। यह हुआ कैसे? स्टैलिन इन्हीं से तो लड़ कर, इन्हीं ज़ारों से लड़ कर सत्ता में पहुंचा। जिनसे तुम लड़ोगे तुम उन्हीं जैसे हो जाते हो।
तुमने यहां भारत में नहीं देखा? भारत में एक क्रांति हुई। भारतीय लोग अंग्रेजों से लड़ कर सत्ता में बैठे। बस ठीक अंग्रेजों जैसे साबित हुए; उनसे बदतर; हर स्थिति में उनसे बदतर साबित हुए! फिर अभी इंदिरा को हटा कर मोरार जी सत्ता में बैठे; हर स्थिति में इंदिरा से बदतर साबित हो रहे हैं। जिससे तुम लड़ोगे, तुम उससे जीत ही तब सकते हो जब तुम और भी ज्यादा बेईमान, और भी ज्यादा चालबाज, और भी ज्यादा कूटनीतिज्ञ, और भी ज्यादा उपद्रवी... तो ही जीत सकते हो, अन्यथा जीत नहीं सकते।
मैं क्रांति का पक्षधर नहीं हूं। मेरा सूत्र विद्रोह है, क्रांति नहीं। और फर्क दोनों में मैं क्या करता हूं, वह समझ लेना चाहिए। क्रांति होती है संगठित, सामूहिक। उसके लिए पार्टी बनानी होती है, उसके लिए राजनीति में उतरना होता है। विद्रोह होता है वैयक्तिक, निजी; एक-एक व्यक्ति कर सकता है। मैं विद्रोही हूं और मेरे संन्यासी विद्रोही हैं, क्रांतिकारी नहीं हैं। विद्रोह क्रांति से बहुत ऊपर की बात है।
विद्रोह का अर्थ होता है: मैं अपने को अलग करता हूं; इस सड़े-गले जाल से मैं अपने अंतर-संबंध तोड़ता हूं; मैं इस तंत्र से अपने को भिन्न करता हूं।
समाज के सड़े-गले जाल से अपने को भिन्न कर लेने का नाम ही संन्यास है। इसका भी यह अर्थ नहीं कि तुम जंगल भाग जाओ, क्योंकि जंगल भागने से कुछ भी नहीं होता। जहां हो वहीं रहो, लेकिन अंतर्तम से इससे पृथक हो जाओ, इसको तुम सहारा मत दो। और तुम एक इस ढंग से जीओ जीवन कि तुम्हारा जीवन और लोगों को भी संक्रामक होने लगे। बहुत लोग वैयक्तिक रूप से जब विद्रोह को उपलब्ध हो जाएंगे तो स्वभावतः यह सड़ी-गली व्यवस्था अपने आप गिर जाएगी। मगर इस व्यवस्था को लड़ कर नहीं गिराना है, इस व्यवस्था से सहयोग छोड़ लेना है, इस व्यवस्था से अपने तार अलग कर लेने हैं। इस व्यवस्था से और इस व्यवस्था की मूल मान्यताओं से अपने को मुक्त कर लेना है।
और व्यवस्था उतनी बड़ी बात नहीं है, जितनी इसकी मूल मान्यताएं बड़ी हैं। इसकी मूल मान्यताएं क्या हैं? एक तो है: राजनीति का बड़ा समादर। मैं अपने संन्यासी को सिखाता हूं कि राजनीति दो कौड़ी की है। समादर की तो बात ही नहीं, अपमानजनक है। राजनीति में जो है वह गुंडा है, उसने चाहे कितने ही खादी के वस्त्र पहने हों। राजनीति गुंडों के लिए है, या तो वे राजनीति में होंगे या फिर गुंडागर्दी में होंगे। उनके लिए दो ही विकल्प हैं।
मैं राजनीति का असम्मान सिखाता हूं। राजनीति हीन लोगों के लिए है, हीनता की ग्रंथि से पीड़ित लोगों के लिए है। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं कि तेरे चित्त से राजनीति के सारे बीज उखाड़ कर फेंक दे। राजनीति महत्वाकांक्षा है, मैं महत्वाकांक्षा-विरोधी हूं। राजनीति स्पर्धा है, मैं स्पर्धा-विरोधी हूं। राजनीति दूसरे के ऊपर शासन है, मैं आत्मानुशासन का पक्षपाती हूं। मैं राजनीति की मूल जड़ें काट रहा हूं। क्रांतिकारी पत्ते काटता है, विद्रोही जड़ें काटता है। पत्ते काटने वाला दिखाई पड़ता है; जड़ें काटने वाला दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि जड़ें ही तुम्हें दिखाई नहीं पड़तीं।
मेरा जो काम है उसके परिणाम वर्षों में प्रकट होंगे, सदियां भी लग सकती हैं। मगर मेरा मौलिक स्वर विद्रोह का है, क्रांति का नहीं है। इसलिए ऊपर से तुम्हें ऐसा लग सकता है कि मैं यथास्थिति को बनाए रखने में मददगार हूं; क्योंकि मैं कोई झंडा लेकर, डंडा लेकर, न तो कोई घेराव कर रहा हूं, न कोई हड़ताल कर रहा हूं, न कोई जुलूस निकाल रहा हूं। तुम्हें लग सकता है कि मैं तो बिलकुल यथास्थिति को स्वीकार कर रहा हूं।
नहीं; यहां कुछ गहरा काम चल रहा है। यहां मैं वे मूल आधार गिरा रहा हूं जिन पर सारी राजनीति खड़ी है, जिन पर सारा आज का व्यवस्था-सूत्र खड़ा है। मैं ध्यान सिखा रहा हूं। क्योंकि राजनीति मन की विक्षिप्तता का अंग है। शोषण रुग्ण लोगों की आकांक्षा है। ध्यानस्थ अपने आप इतना शांत हो जाता है कि नहीं किसी के जीवन में बाधा डालता। ध्यानस्थ अपने आप सृजनात्मक हो जाता है, विध्वंसक नहीं रह जाता। ध्यानस्थ अपने आप प्रेम से लबालब हो जाता है, प्रेम से भरपूर हो जाता है, प्रेम बांटता है, प्रेम ही जीता है।
यह बात आज राजकुमार, समझ में शायद नहीं आएगी, समय लगेगा। और धर्म की पुरानी धारणाओं ने--तुम ठीक कहते हो--सामंती अन्याय को कोई चुनौती नहीं दी थी। इसलिए मैं धर्म की भी एक नई अवधारणा कर रहा हूं। मैं बुद्ध पर भी बोलता हूं, महावीर पर, कृष्ण पर भी, क्राइस्ट पर भी, लाओत्सु पर भी, कबीर पर भी; लेकिन अगर तुम गौर करोगे तो तुम पाओगे--मैं उन्हें नई व्याख्या दे रहा हूं, नये मूल्य दे रहा हूं, नये अर्थ दे रहा हूं।
कबीर-पंथी मुझसे राजी नहीं हैं। कबीर-पंथियों के पत्र मेरे पास आते हैं कि यह आपने क्या किया? कबीर का ऐसा अर्थ नहीं है जैसा आप कर रहे हैं।
मुझे जैनों के पत्र आते हैं कि आपने महावीर का यह कैसा अर्थ किया? यह अर्थ शास्त्रों में नहीं है। मैं कहता हूं: भाड़ में डालो तुम्हारे शास्त्र। महावीर तो खूंटी हैं मेरे लिए, टांगूंगा तो मैं अपने को। कबीर तो बस मेरे लिए बहाना हैं; बोलूंगा तो मैं वही जो मुझे बोलना है।
फिर तुम पूछ सकते हो--फिर मैं कबीर पर क्यों बोलता, महावीर पर क्यों बोलता? ये हीरे हैं कीचड़ में पड़े; कीचड़ धोऊंगा, हीरे बचाऊंगा। ये हीरे बचाने योग्य हैं। कीचड़ के साथ हीरे नहीं फेंक सकता और हीरों के साथ कीचड़ नहीं बचा सकता। दुनिया में ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि यह सब कीचड़ ही कीचड़ है, फेंको। नीत्शे और कार्ल मार्क्स और ज्यांपाल सार्त्र कहते हैं: यह सब कीचड़ ही कीचड़ है। इनसे मैं राजी नहीं हूं, इनमें हीरे भी हैं। और दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि यह सब हीरा ही हीरा है, इसमें कीचड़ कहां है! मैं दोनों से राजी नहीं हूं। मैं कीचड़ को काटूंगा, हीरों को बचाऊंगा। अतीत पर बोलता हूं, ताकि अतीत में जो भी सुंदर है वह बचाया जा सके। वह हमारी धरोहर है। लेकिन यह बात सच है कि अतीत में धर्म की धारणाओं ने सामंती शासन को, सामंती शोषण को, सामंती अर्थव्यवस्था को कोई चुनौती नहीं दी। धर्म पलायनवादी था। धर्म भगोड़ा था। मेरा धर्म भगोड़ा नहीं है, पलायनवादी नहीं है। यह चुनौती दे रहा है। नहीं तो तुम सोचते हो, अगर मैं भी सिर्फ धर्म की बात करता, उसमें कोई चुनौती न होती, तो मेरे विरोध में इस देश में इतनी अफवाहें चलतीं, इतना विरोध का वातावरण बनता? नहीं; जैसे लोग विनोबा के आश्रम पहुंचते हैं--प्रधानमंत्री और मंत्री--ऐसे यहां भी आते। यहां आने में छाती कंपती है! इस दरवाजे के भीतर घुसने की हिम्मत करना मुश्किल है। डर लगता है, मुझसे संबंधित होने में डर लगता है। लोग जान लें कि यहां कोई आया तो पता नहीं उसका उनकी राजनीति पर क्या असर पड़े!
अगर मैं यथास्थिति का सहयोगी होता तो मेरे काम में अड़चन ही न होती, कोई अड़चन न होती। मैं यथास्थिति का सबसे बड़ा दुश्मन हूं। न लेनिन इतना बड़ा दुश्मन था, न माओ। क्योंकि उन्होंने बदली व्यवस्था, लेकिन कहां, बदली कहां जा सकी? फिर वही लौट कर आ जाती है। मैं व्यवस्था बदलने में उत्सुक नहीं हूं। मैं व्यवस्था का मूल आधार बदल देना चाहता हूं। समय लगेगा, समझ की जरूरत होगी। यह क्रांति नारों से पूरी होने वाली नहीं है; यह क्रांति तो ध्यानस्थ लोगों से होगी। शोरगुल से नहीं, शांति से इसका जन्म होगा। उपद्रव से नहीं, संगीत से इसका स्वर उठेगा। यह एक मौलिक ही धारणा है और इसलिए एकदम से पहचानी भी नहीं जा सकेगी; इसे पहचानने में भी समय लगेगा, सदियां लग सकती हैं।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, ‘है कोई लेवनहारा?’ आपने बार-बार पुकारा। वह पुकार मेरे दिल में तीर की तरह चुभ गई, पर अब भी कुछ रुकावट महसूस होती है। वह क्या है, आप ही बता सकते हैं। आपको सुनते-सुनते बार-बार आंसू बहते हैं, वह क्या है? कल दर्शन में आपके स्पर्शमात्र से फिर आंसू फूट पड़े, क्यों?
अक्षय विवेक! आंसू से सुंदर इस जगत में और कुछ भी नहीं। काश आंसू आनंद से आए हों, काश आंसू उत्सव से जन्मे हों!
और तुम्हारे आंसू उत्सव के आंसू हैं। कल जब तुम्हारी आंखों में आंसू देखे तो मैं आह्लादित हुआ था। यह प्रारंभ है पिघलने का। अक्षय विवेक मजबूत आदमी हैं। लोह-पुरुष जैसे व्यक्ति हैं। इसलिए चिंता भी होती होगी कि यह मुझे क्या हो रहा है; कभी रोया नहीं और आज अचानक आंखों में आंसू भर-भर आते हैं! बात सुन कर, स्पर्शमात्र से! यह मुझे हो क्या रहा है!
यह शुभ हो रहा है--यह वसंत का आगमन है। ये पहले फूल खिलने लगे। ये आंसू तुम्हारे जीवन के पहले फूल हैं। इन आंसुओं से तुम नहा जाओगे, तुम नये हो जाओगे, तुम्हारा पुनरुज्जीवन होगा। इन आंसुओं का सत्कार करो। और जब ये आएं तो रोकना मत। जब ये आएं तो संकोच मत करना।
लोकलाज छोड़ो! दिल खोल कर, दिल डुबा कर, दिल भर कर आंसुओं में बहो! इन्हीं आंसुओं के पीछे और भी बहुत कुछ छिपा चला आएगा। ये आंसू तो पहली बाढ़ हैं। इसके पीछे बहुत कुछ आने को है। इसलिए आंसुओं को रोकना मत।
आंसुओं के पीछे ही हंसी भी आएगी, मुस्कुराहट भी आएगी। आंसुओं के पीछे ही नृत्य भी आएगा, गीत भी आएंगे।
आंसू तो केवल सुबह की पहली किरण हैं। तुम कहते हो: आप पुकारते हैं, ‘है कोई लेवनहारा’, तो पुकार मेरे दिल में तीर की तरह चुभ जाती है, मगर फिर भी कहीं कुछ रुकावट महसूस होती है।
स्वाभाविक है। अहंकार जाते-जाते ही जाता है। समय लगता है। चोट होने लगी, चट्टान टूटने लगी। काम शुरू हो गया है, अब देर-अबेर की बात है। सब तुम पर निर्भर है। अगर सहयोग करोगे तो जल्दी हो जाएगी क्रांति। अगर सहयोग न करोगे, अगर संघर्ष करोगे, प्रतिरोध करोगे, तो देर लग जाएगी।
प्रतिरोध छोड़ो! समर्पित भाव से, वह जो तीर चुभ रहा है, उसे अतिथि की तरह अपने हृदय में विराजमान करो। पीड़ा होगी तीर के चुभने से, लेकिन पीड़ा के माधुर्य को पहचानो। यह पीड़ा सिर्फ पीड़ा नहीं है; इसमें छिपी एक मिठास भी है। इस तीर के पूरे चुभने से मृत्यु होगी। अक्षय विवेक, तुम तो मरोगे! लेकिन तुम्हारी मृत्यु ही तुम्हारे भीतर एक नये जीवन का प्रारंभ है।
मृत्यु कहीं होती ही नहीं। मृत्यु तो सिर्फ रूपांतरण है। तुम एक नये सोपान पर आरोहण करोगे। अमृत का दर्शन होगा।
अहंकार डरता है, घबड़ाता है। कुछ और घबड़ाहट नहीं है--घबड़ाहट मरने की, कि यह क्या हो रहा है! यह मुझे क्या हो रहा है! संतुलित व्यक्ति था, नियंत्रित व्यक्ति था, अपने पर शासन था, अपना मालिक था--यह आज क्या होने लगा! क्या स्त्रियों जैसा रोने लगा! क्या बच्चों जैसा रोने लगा! मिट तो न जाऊंगा? मेरा पुराना तादात्म्य टूट तो न जाएगा?
टूटेगा! टूटना ही चाहिए। टूटने में सहयोग करो।
लोचनों के बंद पिंजर से गया उड़ कीर सुधि का।
श्वास ने सहला अनेकों
बार उसके घाव धोए,
सजल रोमों में छिपा
संकल्प स्वप्नों ने संजोए;
मृदुल पलकों के तिमिर में खो गया है नीड़ सुधि का।
प्रणय के संगीत अधरों
ने सुना उसको बुलाया,
पलक-पुलिनों पर बिठा
सौगात अक्षय दे रिझाया;
तड़ित-आहों में अखंडित खो गया है नीर सुधि का।
अब नहीं कुछ शेष प्राणों
में व्यथा को छोड़ केवल,
सघन विस्मृति का उमड़ता
हृदय में आकाश पागल;
रह गया है शेष अब तो स्वप्न यह बेपीर सुधि का!
यह तीर याद दिलाएगा तुम्हें अपने स्वरूप की। यह तीर सुधि बनेगा, मगर सुधि पीड़ादायी है। सदियों-सदियों से भूले बैठे हो, याद ही नहीं रही कि कौन हूं मैं! यह तीर स्मरण दिलाएगा तुम्हारे परमात्म-स्वरूप का।
निश्चित ही तुम्हारे निहित स्वार्थों के विपरीत होगी यह बात। तुम्हारे छोटे-छोटे निहित स्वार्थ हैं। वे सब तुम्हारे अहंकार के इर्द-गिर्द खड़े किए गए हैं। अहंकार गिरेगा तो वे भी गिर जाएंगे। इसलिए डर भी लगेगा, सोच भी उठेगा कि यह मैं किस राह पर चल पड़ा! मगर अब लौटना हो भी नहीं सकता है, अक्षय विवेक! कल तुम्हारी आंखों में देख कर यह पक्का मुझे भरोसा आ गया है कि अब लौटने का उपाय नहीं। लौटने की जगह तो समाप्त हो गई।
अतीत में तुमने लौटना बहुत बार चाहा भी है, लौट-लौट भी गए हो। बहुत बार करीब आते-आते छिटक गए हो। भय जीत गया, प्रेम हार गया। अब यह नहीं हो सकेगा। अब प्रेम जीतेगा, अब भय हारेगा।
सिर्फ मुश्किल ही नहीं,
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
यह तो मुमकिन ही नहीं
प्यार में गम न मिले,
अपनी बस्ती हो कहीं
आंख पुरनम न मिले,
एक मंजिल ही नहीं
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
यह तो मुमकिन ही नहीं
आज को कल न मिले,
कोई सागर हो यहां
नाव को जल न मिले,
एक साहिल ही नहीं
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
यह तो मुमकिन ही नहीं
प्यास को दर न मिले,
रूप को छांह कहीं
उम्र को घर न मिले,
एक संगदिल ही नहीं
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
घबड़ाओ न! जिस जिंदगी को तुमने जिंदगी समझा वह कोई जिंदगी ही नहीं है।
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
पुकार उठी है, अज्ञात ने स्मरण किया है। चल पड़ो!
यह तो मुमकिन ही नहीं
प्यार में गम न मिले,
पीड़ा तो होगी। और जितना बड़ा प्रेम होगा उतनी बड़ी पीड़ा होगी। धन्यभागी हैं वे जो अनंत प्रेम की अनंत पीड़ा को झेलने को तत्पर होते हैं।
यह तो मुमकिन ही नहीं
प्यार में गम न मिले,
अपनी बस्ती हो कहीं
आंख पुरनम न मिले,
आंख तो गीली होगी ही!
एक मंजिल ही नहीं
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
अब तक तुमने जो जाना है, वह कुछ भी नहीं अक्षय विवेक! अभी असली तो जानने को शेष है। अब तक तुमने जो जीया है वह कुछ भी नहीं, अक्षय विवेक! असली जीने को तो अभी शेष है।
‘है कोई लेवनहारा?’--उसी के लिए पुकार उठाई जा रही है। और तुम्हारे हृदय तक पुकार पहुंची। अब साहस करो। अब हिम्मत जुड़ाओ। चुनौती अंगीकार करो।
अज्ञात सागर की चुनौती है! और माना कि नाव हम सबकी छोटी-छोटी है और सागर की उत्ताल तरंगें और अपनी छोटी नाव और अपने छोटे हाथ और अपनी छोटी पतवार देख कर भरोसा नहीं आता कि पार हो सकेंगे! मगर मैं तुमसे कहता हूं: इतने ही छोटे हाथ मेरे, इतनी ही छोटी नाव मेरी--और मैं पार हुआ। इतने ही छोटे हाथ बुद्ध के, इतनी ही छोटी नाव बुद्ध की और बुद्ध पार हुए। तुम भी पार हो सकोगे। असल में जिसने साहस कर लिया नाव को छोड़ देने का सागर में, वह उसी क्षण पार हो जाता है। जिसने साहस कर लिया सागर में उतरने का, सागर की लहरें ही उसको पार करा देती हैं।
रामकृष्ण कहते थे: दो ढंग हैं नाव को नदी में छोड़ने के। एक तो पतवार उठाओ, खेओ नाव; और एक है पाल खोलो। रामकृष्ण कहते थे: जिसमें साहस होता है, वह तो पाल खोल देता है। पतवार रख देता है और मस्त होकर लेट जाता है। हवाएं ले चलती हैं।
तुम ही परमात्मा से मिलने को उत्सुक नहीं हो, परमात्मा भी तुमसे इतना ही मिलने को उत्सुक है। उसकी हवाएं तुम्हें ले चलेंगी। मगर साहस तो चाहिए, नहीं तो हम किनारे से ही जंजीर बांध कर बैठे रहते हैं। हम किनारा नहीं छोड़ते, किनारे की सुरक्षा नहीं छोड़ते, किनारे की सुविधा नहीं छोड़ते।
और मैं तुमसे कह दूं: किनारे पर जीए भी तो मौत से बदतर है। और जिस सागर ने तुम्हें पुकारा है, अगर मझधार में भी डूब गए तो किनारा मिल जाता है।
आखिरी प्रश्न: भगवान, प्रार्थना कैसे करें?
सुशीला! प्रार्थना प्रेम का परिष्कार है। प्रार्थना प्रेम की सुगंध है। प्रेम अगर फूल तो प्रार्थना फूल की सुवास। प्रेम थोड़ा स्थूल है, प्रार्थना बिलकुल सूक्ष्म है।
प्रेम के जगत में तो शायद शब्दों का थोड़ा लेन-देन हो जाए, प्रार्थना के जगत में तो शब्द बिलकुल ही व्यर्थ हो जाते हैं। वहां तो मौन ही निवेदन करना होता है।
तू पूछती है: ‘प्रार्थना कैसे करें?’
प्रार्थना कोई विधि नहीं है। ध्यान की तो विधि होती है, प्रार्थना की कोई विधि नहीं होती। प्रार्थना तो स्वस्फूर्त है, सहज भाव है। जो विधि से करेगा प्रार्थना, उसकी प्रार्थना तो व्यर्थ हो गई; उसकी प्रार्थना तो नकली हो गई; प्रथम से ही झूठी हो गई।
प्रार्थना तो आंख खोल कर, हृदय को खोल कर इस जगत में जो महा उत्सव चल रहा है, इसके साथ सम्मिलित हो जाने का नाम है। वृक्ष हरे हैं, तुम भी हरे हो जाओ--प्रार्थना हो गई! फूल खिले हैं, तुम भी खिल जाओ--प्रार्थना हो गई। सूर्य निकला है, तुम भी जग जाओ--प्रार्थना हो गई। हवाएं नाच रही हैं, तुम भी नाचो--प्रार्थना हो गई।
प्रार्थना का कोई ढंग नहीं, रूप नहीं, आकार नहीं, व्यवस्था नहीं। प्रार्थना तो मस्ती है, उन्मत्तता है, दीवानगी है। प्रार्थना तो परमात्मा की शराब को पी लेने का नाम है।
बस मत कर देना अरे पिलाने वाले!
हम नहीं विमुख हो वापस जाने वाले!
अपनी असीम तृष्णा है--तेरा वैभव
अक्षय है अक्षय--अरे लुटाने वाले!
हम अलख जगाने आए तेरे दर पै!
हम मिट जाने आए तेरे दर पै!
इस रिक्त पात्र को भर दे, भर दे, भर दे!
मदहोश हमें तू कर दे, कर दे, कर दे!
हम खड़े द्वार पर हाथ पसारे कब के,
हो जाएं अमर--ऐ अमर हमें तू वर दे!
है एक बिंदु में सिंधु भरा जीवन का;
परिपूरित कर दे मानस सूनेपन का!
फिर और! यहां पर पाना ही है खोना,
हंस कर पीने में छिपा प्यास का रोना!
चलने दे, सुख के दौर अरे चलने दे!
भर जाए दुख से उर का कोना-कोना!
अपना असीम अस्तित्व दिखा दे हमको!
बस लय हो जाना अरे सिखा दे हमको!
तेरी मदिरा का बूंद-बूंद दीवाना!
हम नहीं जानते अपना हाथ हटाना!
इस पथ का अथ है नहीं, न इसकी इति है,
गति है, गति है, गति है बस बढ़ते जाना!
किस ओर चले, है हुआ कहां से आना?
किसने जाना, निज को किसने पहचाना?
माना कि कल्पना और ज्ञान है--माना!
पर अविश्वास का, भ्रम का यहीं ठिकाना!
है एक आवरण, बुना हुआ जिसमें,
दिन-रात और सुख-दुख का ताना-बाना!
उस ओर? व्यर्थ का यह प्रयास--जाने दे!
पाने दे, हमको मुक्ति यहीं पाने दे!
लाने दे अपनी भुक्ति, हमें लाने दे!
निज आत्मघात कर जग को पछताने दे!
इस रिक्त पात्र को भर दे, भर दे, भर दे!
मदहोश हमें तू कर दे, कर दे, कर दे!
हम खड़े द्वार पर हाथ पसारे कब के,
हो जाएं अमर--ऐ अमर, हमें तू वर दे!
है एक बिंदु में सिंधु भरा जीवन का;
परिपूरित कर दे मानस सूनेपन का!
प्रार्थना है: अपने भिक्षापात्र को अस्तित्व के सामने फैला देना।
प्रार्थना है: अपने आंचल को चांद-तारों के सामने फैला देना।
कहने की बात नहीं। प्रार्थना एक भाव-दशा है, वक्तव्य नहीं। कोई हरे कृष्ण, हरे राम, ऐसा कहने से प्रार्थना नहीं होती। कि ‘अल्ला-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान,’ ऐसा कहने से कोई प्रार्थना नहीं होती! प्रार्थना मौन निवेदन है।
प्रार्थना झुकने की कला है। जहां झुक जाओ घुटने टेक कर पृथ्वी पर, वहीं प्रार्थना है।
प्रार्थना अंतर्तम की बात है। शायद आंसू टपकें, या शायद गीत फूटे--कौन जाने! कि शायद नाच उठो, कि पैरों में घूंघर बांध लो, कि बांसुरी उठा कर बजाने लगो--कौन जाने! कि चुप हो जाओ, कि बिलकुल चुप जाओ, कि वाणी सदा को खो जाए--कौन जाने!
प्रत्येक को प्रार्थना अनूठे ढंग से घटती है। अद्वितीय ढंग से घटती है। एक की प्रार्थना दूसरे की प्रार्थना नहीं होती। इसलिए प्रार्थना की नकल मत करना। और वहीं अड़चन हो गई है। हमें प्रार्थनाएं सिखा दी गई हैं--हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की, ईसाइयों की। कोई पढ़ रहा है गायत्री; दोहराए जा रहा है तोतों की तरह। कोई पढ़ रहा है नमोकार मंत्र; दोहराए जा रहा है तोतों की तरह। कोई पढ़ रहा है कुरान की आयतें। सुंदर हैं वे आयतें और सुंदर हैं वे मंत्र और प्यारे हैं उनके अर्थ; मगर प्रार्थना इतने से नहीं होती। उधार नहीं होती प्रार्थना। प्रार्थना तो तुम्हारे हृदय का बहाव है।
सुशीला, सौंदर्य के प्रति संवेदना को बढ़ाओ, फिर प्रार्थना अपने से पैदा होगी।
संगीत सुनो--झरनों का, वृक्षों से गुजरती हुई हवाओं का, कि किसी वीणा पर किसी वीणावादक का। संगीत सुनो सुबह पक्षियों का, कि रात सन्नाटे में झींगुरों का। सौंदर्य देखो--वृक्षों का, चांद-तारों का, पशुओं का, पक्षियों का, मनुष्यों का! जहां-जहां तुम्हें सौंदर्य का, संगीत का, लयबद्धता का, रसमयता का बोध हो, वहां-वहां अपने हृदय को खोल कर बैठ जाओ। वहीं मंदिर है, वहीं तीर्थ है। धीरे-धीरे प्रार्थना का स्वाद लग जाएगा।
मैं नहीं कह सकता प्रार्थना क्या है। मैं इतना ही कह सकता हूं कि प्रार्थना कैसी परिस्थिति में अनुभव होती है। संवेदनशीलता की जितनी गहराई बढ़ेगी उतनी ही प्रार्थना अनुभव होगी। फिर जब जगेगी प्रार्थना, तो तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी होगी। उस पर किसी की छाप नहीं होगी। उस पर बस तुम्हारे हस्ताक्षर होंगे। और ईश्वर तक वही प्रार्थना पहुंचती है जो तुम्हारी है, अपनी है, निज है। उधार बातें वहां तक नहीं पहुंचतीं।
लोग तो प्रेम-पत्र तक दूसरों से लिखवा लेते हैं। प्रेम-पत्र दूसरों से लिखवाए का क्या मूल्य होगा? कितना ही सुंदर कोई लिख दे, कितने ही बड़े पंडित से तुम प्रेम-पत्र लिखवा लो...।
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। फिर प्रेम टूटा, तो अपनी चीजें वापस मांगने आया, जो-जो उसने भेंट की थीं। स्त्री भी गुस्से में थी, उसने सब चीजें लौटा दीं। फिर भी मुल्ला खड़ा था। तो उसने कहा: अब और क्या चाहिए! सब तो दे दिया जो तुमने मुझे दिया था। उसने कहा: मेरे प्रेम-पत्र? स्त्री ने कहा: उनका क्या करोगे, प्रेम-पत्रों का?
मुल्ला ने कहा: अब तुझसे क्या छिपाना, एक पंडित जी से लिखवाता था! और अभी मेरी जिंदगी खत्म तो नहीं हो गई। अभी किसी और से प्रेम करूंगा। अब नाहक फिर पंडित जी को पैसे देने पड़ेंगे। तू लौटा दे वे प्रेम-पत्र, फिर मेरे काम आ जाएंगे। जरा नाम ऊपर का बदल दिया।
प्रेम-पत्र भी तुम दूसरों से लिखवाओगे? प्रार्थनाएं भी तुम दूसरों से सीखोगे? बस वहीं चूक हो जाएगी।
मैं तुम्हें प्रार्थना नहीं सिखा सकता। इतना ही कह सकता हूं कि किन अवसरों में प्रार्थना पैदा होती है। किस परिप्रेक्ष्य में, किस पृष्ठभूमि में प्रार्थना का जन्म होता है।
तुम मुझसे यह पूछो अगर कि कलियों को फूल कैसे बनाएं, तो मैं कुछ नहीं कह सकता। क्या मैं तुमसे कहूं कि कलियों को खींच-खींच कर खोल देना, ताकि वे फूल बन जाएं? मर जाएंगी कलियां, फूल तो नहीं बनेंगी। तुम अगर मुझसे पूछो कि वृक्षों से हम फूलों को कैसे निकालें, तो क्या मैं तुमसे कहूं कि खींचो, ताकत लगाओ? ऐसे तो नहीं होगा। मैं इतना ही कह सकता हूं--खाद देना, पानी देना, भूमि देना, बागुड़ लगा देना। सूरज आ सके, इसका खयाल रखना। बस तुम परिस्थिति पैदा करना। एक दिन फूल खिलेंगे। कलियां अपने से फूल बन जाएंगी। तुम परिस्थिति देना।
प्रार्थना मत सीखो, परिस्थिति दो। और परिस्थिति है--सौंदर्य का बोध, संगीत का बोध। परिस्थिति है--गहन संवेदनशीलता। उसी भाव-भूमि में तुम्हारी प्रार्थना का फूल खिलेगा। और जब फूल खिले, तो फिर फूल जो करवाए करना। पहले से बंधी हुई धारणाएं लेकर मत बैठे रहना। फिर फूल जो करवाए, वही करना।
और फूल रास्ता दिखाएगा। फूल मार्गदर्शक हो जाएगा। फूल कहेगा नाचो तो नाचना। फूल कहे गाओ तो गाना। फूल कहे चुप बैठ जाओ तो चुप बैठ जाना। अपने भीतर संवेदना में खिले फूल का इशारा पहचानना और उसके पीछे चले चलना। वह कच्चा सा धागा तुम्हें परमात्मा तक पहुंचा देगा; या उस कच्चे धागे में बंधा हुआ परमात्मा तुम तक आ जाएगा। कुछ भी हो, बूंद सागर में गिरे कि सागर बूंद में गिरे, बात एक ही है।
आज इतना ही।
भगवान, एक बार किसी ने मुझे बतलाया था कि पूना भारत का ऑक्सफोर्ड है--संस्कृति का नगर और देश के विशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधि। लेकिन यहां प्रायः हर रात अच्छी पोशाकें पहने लोग स्कूटर पर या कार पर चढ़ कर कोरेगांव पार्क के इर्द-गिर्द घूमते हैं और संन्यासियों को, खासकर संन्यासिनियों को डंडे से बेरहमी से पीटते हैं। और अब तो मानो डंडे पर्याप्त नहीं रहे, इसलिए उन्होंने लोहे की चेनों का उपयोग करना शुरू किया है। भगवान, ये कैसे लोग हैं?
कृष्ण प्रेम! भारत की संस्कृति एक बड़ा पाखंड है। शायद पृथ्वी पर इतना बड़ा पाखंड कोई दूसरा और नहीं है। हो भी नहीं सकता, क्योंकि यह पाखंड सर्वाधिक प्राचीन है; कोई दस हजार वर्षों का लंबा इसका इतिहास है। यह रोग पुराने से पुराना रोग है इस पृथ्वी पर। इसका मुखौटा एक है, इसकी अंतरात्मा बिलकुल सड़ी-गली है। यहां बातें अच्छी हैं, विचार अच्छे हैं, लेकिन वे सब बातें हैं और विचार हैं, व्यवहार बिलकुल भिन्न है। यहां खाने के दांत और, दिखाने के दांत और हैं।
सामने के द्वार से भारत को जो समझेगा, नहीं समझ पाएगा। क्योंकि सामने के द्वार पर तो स्वागतम लिखा है, बंदनवार लगा है, फूलों से सजावट है। लेकिन भारत सामने के द्वार पर रहता नहीं--रहता है पीछे के द्वार पर; आता-जाता है पीछे के द्वार से। भारत की इस विकृति को समझोगे, तो ही यह जो दुर्घटना रोज यहां घट रही है वह भी समझ में आ सकेगी।
हजारों साल से भारत ने जीवन का निषेध किया है। और जीवन का निषेध किया नहीं जा सकता। हम जीवन हैं, जीवन का निषेध कैसे होगा? जीवन स्वभाव है; स्वभाव का निषेध कैसे होगा? और जो स्वभाव के प्रतिकूल जाएगा वह पाखंड में पड़ेगा। और जो चाहेगा कि स्वभाव को मटियामेट कर दे, स्वभाव तो मटियामेट नहीं होगा, वह स्वयं मटियामेट हो जाएगा। फिर एक ही उपाय रह जाता है चेहरे को बचाने का कि हम बाजार में बने सस्ते मुखौटे खरीद लें, उनके पीछे अपनी गंदी स्थिति को छिपा लें, अपनी गंदी आंखों को छिपा लें। ऐसा ही भारत कर रहा है, करता रहा है।
इसीलिए जो लोग पश्चिम से आते हैं वे एक दृष्टिकोण लेकर आते हैं, क्योंकि उन्होंने भारत जाना है किताबों से; उन्होंने वेदों से, उपनिषदों से, धम्मपद, गीता, रामकृष्ण, रमण, कृष्णमूर्ति, इनसे भारत को जाना है। ये भारत नहीं हैं। ये तो भारत के इस विशाल सागर में चम्मच भर भी इनकी सत्ता नहीं है। भारत इनसे बिलकुल विपरीत है। जरूर बुद्ध हुए हैं लेकिन उनको तो अंगुलियों पर गिना जा सकता है। और उन बुद्धों की प्रतिष्ठा के कारण भारत को एक प्रतिष्ठा मिली, जो उधार है, बासी है, जो भारत की अपनी नहीं है। बुद्धों की आभा से भारत ने अपने को मंडित कर लिया है। वह झूठी आभा है। उस आभा के पीछे कोई भी अस्तित्वगत समर्थन नहीं है।
जो पश्चिम से आता है वह तो किताबों के भारत को जानता है, उसे असली भारत से कोई पहचान नहीं है। यहां असली भारत से पहचान होती है, तब उसके मन में बड़ी दुविधा पैदा होती है। वही दुविधा, कृष्ण प्रेम, तुम्हारे मन में पैदा हुई है। तब उसकी समझ में ही नहीं आता इस विसंगति को कैसे सुलझाएं, इस विरोधाभास को कैसे निपटाएं? उसके मन में तो खयाल होता है कि ये सभी भारतीय बुद्ध होंगे। और यहां आकर पाता है कि आदमी पश्चिम से भी ज्यादा बदतर है। पश्चिम में बुद्ध न होंगे बहुत, लेकिन आदमी बेहतर है; क्योंकि आदमी ने वे सारी व्यवस्थाएं बना ली हैं जो आदमी को बेहतर करती हैं।
एक खास पृष्ठभूमि चाहिए संपन्नता की, तो मनुष्य के जीवन में पाखंड कम होता है। भारत विपन्न है, तो बातें तो करता है त्याग की, लेकिन नजर लगी होती है धन पर। रामकृष्ण कहते थे: चील उड़ती तो है आकाश में बहुत ऊपर, इससे धोखा मत खा जाना; उसकी नजर लगी होती है नीचे किसी कूड़े-घर पर; मरा हुआ चूहा पड़ा हो, उस पर उसकी नजर लगी होती है। भारत बातें तो त्याग की करता है, लेकिन नजर भोग पर लगी है। और यह नजर वह बताना भी नहीं चाहता किसी को। इसलिए उसने काले चश्मे पहन रखे हैं कि नजर मरे चूहों पर भी लगी रहे और बातें आकाश की होती रहें। बातें आकाश की, वह जो नजर चूहों पर लगी है उसे छिपाने का उपाय हो गई हैं, कारगर उपाय हो गई हैं।
पश्चिम ने एक संपन्नता पैदा की है। पश्चिम जीवन को स्वीकार करता है। पश्चिम जीवन का विरोधी नहीं है। पश्चिम ने ईसाइयत से अपना छुटकारा कर लिया है। भारत अभी भी धर्म की रूढ़ियों से, अंधविश्वासों से छुटकारा नहीं कर पाया है। भारत अभी भी अतीत से बंधा है। उसकी छाती पर पत्थर हैं अतीत के। भारत में कोई गति नहीं हो रही है। भारत बिलकुल ही गत्यावरोध की अवस्था में है। भारत सरिता नहीं है। एक डबरा है, जहां सब सड़ रहा है। पश्चिम में थोड़ा बहाव है। जहां बहाव होता है वहां जल शुद्ध होता है। और जहां संपन्नता होती है वहां छोटी-छोटी बातों पर बेईमानी, चोरी अपने आप बंद हो जाती है।
पश्चिम ने मनुष्य की देह को स्वीकार किया है। देह का सम्मान है, देह का सत्कार है। देह के सौंदर्य को भी पुरस्कार है। भारत देह-विरोधी है, शरीर का शत्रु है। मगर कैसे तुम शरीर के शत्रु हो सकते हो--तुम शरीर हो! माना कि तुम शरीर से भी ज्यादा हो, लेकिन शरीर तुम पहले हो, फिर तुम ज्यादा हो। शरीर की सीढ़ी बने तो शायद तुम ज्यादा को भी जान पाओ।
पश्चिम की भ्रांति यहां है कि शरीर पर रुक गया है। और भारत की मुसीबत यह है कि भारत शरीर को अभी तक स्वीकार ही नहीं कर पाया है। अगर इन दोनों भूलों में कोई भूल ही चुननी हो तो पश्चिम की भूल को चुनना मैं ज्यादा पसंद करूंगा। क्योंकि पश्चिम की भूल के बाद दूसरी बात, ठीक बात होनी बहुत कठिन नहीं है। मगर भारत की भूल ऐसी है कि पहली बात हो ही न सकेगी, तो दूसरी के होने का उपाय ही नहीं उठता।
पश्चिम की भूल में एक तर्कसंगति है। शरीर है मनुष्य, ऐसी मान्यता है तो गलत, लेकिन फिर भी इस मान्यता से दूसरी मान्यता तक जाना असंभव नहीं है कि मनुष्य शरीर से भी ज्यादा है। भारत मानता है मनुष्य शरीर है ही नहीं; यहीं अटक जाता है। जब शरीर ही नहीं है तो दूसरी बात कि मनुष्य आत्मा है, उस तक पहुंचना असंभव हो जाता है। हमने मंदिर की सीढ़ियां तोड़ दी हैं। तुमने मंदिर तोड़ दिया है। पश्चिम में मंदिर नहीं है, सीढ़ियां ही हैं। भारत में मंदिर बनाने की चेष्टा चली है, मगर बिना सीढ़ियों के। मंदिर बनेगा कैसे? मंदिर बनता नहीं, कल्पना में रह गया है। पश्चिम के पास कम से कम सीढ़ियां तो हैं। कभी मंदिर भी बन जाएगा; सीढ़ियां काम आ जाएंगी। सीढ़ियों के बिना मंदिर नहीं बन सकता। सीढ़ियां हों तो मंदिर बन सकता है।
पश्चिम की भूल ज्यादा सार्थक भूल है, ज्यादा अर्थपूर्ण भूल है। मैं चाहूंगा कि भारत को भी अगर भूल ही करनी हो तो पश्चिम जैसी भूल करे। शरीर के विरोध ने भारत के मन को बहुत कामवासना से भर दिया है। ब्रह्मचर्य का उदघोष होता है। ब्रह्मचर्य ही जीवन है, ऐसी बातें होती हैं। मगर ये बातें ही हैं। जब तक कामवासना का रूपांतरण न हो, कैसा ब्रह्मचर्य? और कामवासना का रूपांतरण कामवासना के दमन से नहीं होता। जिसे दबाओगे उससे जीवन भर परेशान रहोगे।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सुबह-सुबह अपने कुछ मित्रों से मिलने जा रहा था, कि तभी बहुत वर्षों का बिछुड़ा हुआ मित्र अपने घोड़े से उतरा। मुल्ला ने कहा कि बड़े बेवक्त आए हो। तुम विश्राम करो। मैं दो-तीन घंटे मैं वापस आता हूं। कुछ मित्रों को आश्वासन दे दिया है, उनके घर तक जाऊं, जाना होगा।
मित्र ने कहा: इतने वर्षों बाद मिले हो, कितनी आकांक्षा से आया हूं! चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं। लेकिन मेरे कपड़े सब धूल-धूसरित हैं। लंबी राह, रेगिस्तानी रास्ता। मुझे थोड़ा ढंग के कपड़े दे दो, मैं जल्दी से कपड़े बदल लूं और साथ हो लूं।
मुल्ला ने सम्राट के द्वारा भेंट किए हुए कपड़ों को सम्हाल कर रखा था। पहना नहीं था कभी। मित्र को देना तो फिर कुछ शानदार चीज देनी, उसने वे ही कपड़े लाकर दे दिए। दे तो दिए, लेकिन मन कचोटता था। खुद पहने नहीं आज तक, सम्हाल कर रखे रहा कि किसी सुअवसर पर पहनेगा और आज दे तो रहा है मित्र को, मगर मन में बड़ी चोट भी है। दे तो दिए ऊपर-ऊपर, भीतर नहीं दे पाया।
पहले ही घर पहुंचे। स्वभावतः वे शानदार कपड़े, सम्राट के द्वारा दिए गए कीमती कपड़े! मित्र की नजर मुल्ला से ज्यादा भी उसके मित्र, मुल्ला के मित्र पर पड़ी। बार-बार वह मित्र को देखने लगा। मुल्ला ने कहा: ये हैं मेरे मित्र, जलील। बहुत वर्षों बाद आए हैं। और रहे कपड़े, सो कपड़े मेरे हैं।
जलील तो बहुत हैरान हुआ। बाहर आकर उसने कहा कि यह तो बात कुछ शोभा की नहीं है। कपड़ों की बात ही क्यों उठाई? ऐसा मेरा अपमान करना था तो मुझे साथ ही क्यों लाए? अब दूसरी जगह कपड़े की बात मत उठाना और अगर उठानी ही थी तो कम से कम अपने तो न बताते।
मुल्ला ने कहा: क्षमा करो!
दूसरे मित्र के घर फिर बात चली और फिर मित्र की नजरें उन कपड़ों पर अटक गईं। मुल्ला ने कहा: ये रहे मेरे मित्र, जलील। रहे कपड़े, सो कपड़े इन्हीं के हैं।
बाहर आकर मित्र ने कहा कि तुम बाज न आओगे? कपड़ों की बात ही क्यों उठानी! परिचय मेरा देना चाहिए।
मुल्ला ने कहा: माफ करो। मैंने समझा कि पहली जो भूल हो गई उसको ठीक कर लूं।
तीसरे घर फिर वही हुआ। घरवालों की नजरें मित्र पर लग गईं। मुल्ला ने कहा: ये रहे मेरे मित्र, जलील। रहे कपड़े, सो कपड़ों की बात न करना ही अच्छा है। किसी के भी हों, इससे क्या लेना-देना! कपड़ों के संबंध में तो हम चुप ही रहेंगे।
तुम जो दबाओगे वह निकल-निकल कर बाहर आएगा, उभर-उभर कर बाहर आएगा।
भारत ने काम को बुरी तरह दबाया है। सो सब तरफ से उभर रहा है, सब तरफ से प्रकट हो रहा है।
रोज पूना में यह हो रहा है। संन्यासिनियों का चलना मुश्किल है। धक्के मारे जाएंगे, गालियां दी जाएंगी, पत्थर फेंके जाएंगे। डंडे मारे जाते हैं, सांकलें लोहे की। अब किसी चलती हुई स्त्री को लोहे की सांकल से पीटना बड़े रुग्ण-चित्त का लक्षण है। इस आदमी ने कभी स्त्री को प्रेम से छुआ नहीं है, उसकी यह विकृति है। प्रेम से छू लेने का अपना रस है, आनंद है। आखिर यह स्त्री भी परमात्मा की अभिव्यक्ति है। अगर तुमने किसी स्त्री को प्रेम किया है और आह्लाद से उसे छुआ है तो उसको छूने में एक अध्यात्म है, एक प्रसाद है, एक काव्य है। लेकिन किसी स्त्री को तो प्रेम से छुआ नहीं, अब उसकी विकृति हुई है। उसकी विकृति है कि सांकल से उसकी देह पर घाव कर दो, कि डंडे मार कर उसकी चमड़ी उखाड़ दो। यह प्रेम से छूने की जो महत्वपूर्ण बात थी उसके दमन का विकृत रूप है। यह दूसरा छोर है।
जो लोग बलात्कार करते हैं, वे वे ही लोग हैं जिन्होंने कभी किसी स्त्री को प्रेम नहीं किया। जिन्होंने किसी भी स्त्री को प्रेम किया है उनके मन में सारी स्त्रियों के प्रति एक सम्मान का भाव पैदा हो जाता है। और जिसने किसी स्त्री को प्रेम नहीं किया बल्कि प्रेम को पाप समझा है, उसके मन में इतनी कुंठा इकट्ठी हो जाती है, इतना जहर कि वह जहर फूटेगा, निकलेगा।
और भारत में इस तरह की बातें कहने की आदत है लोगों की कि पूना ऑक्सफर्ड है। भारत में इस तरह की आदतें हैं। इन आदतों से बहुत परेशान न होना, बहुत चिंता न करना। यहां तो हर छोटी चीज को बड़ा करने की आदत है। यहां तो कोई छोटा-मोटा सम्मेलन होता है तो उसका नाम होता है: अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन! यहां छोटी-मोटी बातें होती ही नहीं। भारत इतना दीन हो गया है, इसका स्वाभिमान इतना पददलित हो गया है कि हर चीज को बड़ा कर लेता है। यहां एकाध पोस्ट ऑफिस हो गांव में, और बस रुकती हो तो बस काफी है युनिवर्सिटी बन जाने के लिए। गांव के लोग कोशिश करने लगेंगे: यहां युनिवर्सिटी होनी चाहिए, क्या कमी है? बस भी रुकती है, पोस्ट ऑफिस भी है। और क्या चाहिए? भारत में गांव-गांव युनिवर्सिटियां फैलती जा रही हैं।
इन तीस सालों में आजादी के, इतनी युनिवर्सिटियां बनी हैं, एक भी युनिवर्सिटी की कोई बड़ी प्रतिष्ठा नहीं है। आधी युनिवर्सिटियां बंद रहती हैं साल में, क्योंकि दंगे-फसाद, हड़तालें, मार-पीट, कुलपतियों, उप-कुलपतियों के घेराव। अध्यापक सांझ को घर लौट आते हैं तो भगवान को धन्यवाद देते हैं कि एक दिन कट गया, कि अपनी जान बचाई और घर आ गए। जान बची और लाखों पाए, लौट कर बुद्धू घर को आए! विश्वविद्यालय की तरफ जाते हैं अध्यापक तो हनुमान-चालीसा पहले पढ़ कर जाते हैं, के हे हनुमान जी, रक्षा करना!
यहां कहां ऑक्सफर्ड? और पूना?
ये पांच वर्ष जो हम यहां रहे हैं उसका अनुभव कहता है: है एक दकियानूसी किस्म का नगर, सड़ी-गली मान्यताओं से भरा हुआ। लेकिन, कहां की संस्कृति, कहां की सभ्यता? थोथे, तोतों की तरह रटे हुए पंडित हैं और उन पंडितों की अतीत पर पकड़ है और अतीत से वे जकड़े हुए हैं। मगर संस्कृति तो विकासमान होती है, गतिमान होती है। सच तो यह है, अभी संस्कृति पैदा कहां हुई? अभी हम संस्कृति की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अभी यह घटना घटने को है।
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ को किसी ने कहा कि आपका सभ्यता के संबंध में क्या खयाल है? जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा: सभ्यता का विचार बहुत सुंदर है, मगर किसी को इसका प्रयोग करना चाहिए। अभी सभ्यता हुई कहां है?
इस देश के दावों से जरा सावधान रहना, यह बड़े दावे करने में कुशल है। यहां हर चीज पर दावे हो जाते हैं। दावे ही बचे हैं। भीतर तो कुछ और नहीं, भीतर सब थोथापन है।
लोगों को देखो, लोगों के व्यवहार को देखो, लोगों की अंतरात्मा में झांको, तो बड़ा अंधेरा है। हां, ऊपर-ऊपर एक आवरण है शिष्टाचार का। वह आवरण बस आवरण ही है; चमड़ी जितनी भी उसकी गहराई नहीं है; जरा खरोंचो और भीतर का जंगली आदमी प्रकट हो जाता है। और किसी को भी खरोंचो...।
कृष्ण प्रेम, इस तरह के दावों के धोखे में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है।
संन्यासिनियों का जीना मुश्किल है।... स्त्री जैसे अनूठी चीज है! जैसे भारतीय आदमी को स्त्री एक अजूबा है! जैसे चांद-तारों से आई हुई कोई अप्सरा है! क्योंकि सदियों-सदियों से स्त्री का संस्पर्श नहीं रहा है। न तो स्त्री की समाज में कोई जगह है, न घर के बाहर कोई स्थान है, न कार्यकलाप के संसार में उसकी कोई गति है। बंद है घर में।
एक आदमी की स्त्री अचानक पागल हो गई। मनोवैज्ञानिक के पास ले जाया गया। उसने पूछा कि यह अचानक कैसे हुआ? कोई इतिहास होगा पागलपन का। पहले भी कभी ऐसी कोई घटना घटी थी?
उस आदमी ने कहा कि बीस साल से हम विवाहित हैं, कभी कोई घटना नहीं घटी। मैं भी चकित हूं: सच तो यह है कि बीस साल में यह कभी चौके के बाहर निकली ही नहीं।
अब बीस साल में जो स्त्री चौके के बाहर न निकली हो वह पागल न हो जाए तो और क्या हो? स्त्री को बंद कर रखा है घरों में, कटघरों में। और जब स्त्रियां कटघरों में बंद हो जाती हैं और समाज केवल पुरुषों का रह जाता है तो समाज में एक तरह की कठोरता हो जाती है--एक तरह की परुषता। क्योंकि पुरुष परुष है, कठोर है। तब समाज में एक तरह की सौम्यता खो जाती है।
तुमने देखा, दस पुरुष बैठे हों और एक स्त्री आ जाए, उसके आते ही एक सौम्यता आ जाती है। उसकी मौजूदगी एक तरलता ले आती है। उसकी मौजूदगी से ही अगर गाली-गलौज चल रही थी तो बंद हो जाती है। अगर लोग कुछ भी ऊलजलूल बातें कर रहे थे तो बदल देते हैं। उसकी मौजूदगी एक रूपांतरण लाती है।
जिस समाज में स्त्रियां घरों में बंद हो जाती हैं वह समाज कठोर हो जाता है, जंगली हो जाता है। और इस देश में स्त्रियां घरों में बंद हैं। उन्हें घरों के बाहर लाना है। उन्हें समाज में प्रवेश दिलाना है। उन्हें उनका अधिकार मिलना चाहिए। उन्हें उनकी समानता मिलनी चाहिए। उनका समाज में वापस लौट आना पूरे समाज के लिए सौम्य हो जाने के लिए बिलकुल जरूरी है। इसीलिए यह अड़चन होती है।
मेरी संन्यासिनियां हैं, वे मुक्त-भाव से विचरण करती हैं--यह मान कर कि यह मनुष्यों का समाज है। लेकिन उन्हें रोज अपनी मान्यता को खंडित होते हुए देखना पड़ता है। जहां जाती हैं वहीं आंखें गिद्धों की उन्हें घेर लेती हैं। वे जो गिद्ध की तरह उन्हें देखने लगते हैं और अगर मौका मिल जाए उन्हें, तो जो भी दुर्व्यवहार वे कर सकते हैं करने को राजी हो जाते हैं--उसका कारण है। स्त्री से परिचय टूट गया है। स्त्री से संबंध टूट गया है। पुरुष अलग-थलग हो गया है। उसने एक अपनी दुनिया बना ली है--स्त्रियों को बिलकुल अलग छोड़ दिया है। स्त्रियां जैसे इस भारतीय जीवन का हिस्सा ही नहीं हैं!
इसलिए तुम्हें अड़चन हो रही है, तुम्हें कठिनाई हो रही है। फिर यहां स्त्रियां बिलकुल ढंकी-ढकाई होती हैं। सब तरफ से ढंकी होनी चाहिए। यह पुरुष की निंदा है। स्त्रियों को इतना ढंका होना चाहिए, यह इस बात की खबर है कि पुरुष की आंखें गंदी हैं, कि पुरुष लुच्चे हैं।
‘लुच्चा’ शब्द समझने जैसा है। लुच्चा शब्द बनता है लोचन से, आंख से। लुच्चा का अर्थ होता है: घूर-घूर कर देखने वाला। यहां पुरुष लुच्चे हैं, इसलिए स्त्री को अपने को ढांक-ढांक कर चलना होता है। पश्चिम से आई हुई मेरी संन्यासिनियों को बड़ी हैरानी होती है, क्योंकि वे मुक्त-भाव से विचरण करती हैं। न अपने को ढांकती हैं, न ढांकने की कोई जरूरत समझती हैं, क्योंकि वे मानती हैं कि सभ्य लोगों की दुनिया है! बस वहीं भूल हो जाती है। यहां सभ्य लोगों की दुनिया कहां? यहां सब तरह की असभ्यता है। सब तरह की कठोरता है।
जैसे पश्चिम में तुम समुद्र के तट पर नग्न भी स्नान करो तो कोई चिंता नहीं है। कोई पुरुष तुम पर आकर एकदम हमला नहीं कर देगा। यहां हालत बिलकुल उलटी है। यहां अगर तुम्हारी बांह भी उघड़ी है तो उसका मतलब यह है कि तुम कोई सच्चरित्र स्त्री नहीं हो, तुम पर हमला किया जा सकता है। साड़ी में छिपी होतीं तो सबूत होता कि कोई कुलीन घर की महिला है। यहां कपड़ों से आदमी तोले जाते हैं!
पश्चिम से जो लोग आएंगे उनके लिए स्वाभाविक अड़चन होने वाली है। वे अपने उसी व्यवहार को जारी रखेंगे जो उन्होंने बचपन से सीखा है। और उस व्यवहार में कहीं भी कोई भूल नहीं है। अच्छे लोग हों तो नदी-तट पर, समुद्र-तट पर नग्न नहाने में कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए। आखिर नग्नता स्वाभाविक है। ठीक है दफ्तर में, दुकान में, बाजार में कपड़े पहनो, लेकिन कभी तो कोई स्थान तो हो जहां आदमी मुक्त विचरण कर सके। मगर यहां कोई मुक्त विचरण का उपाय नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने डॉक्टर के घर गया। डॉक्टर ने नई-नई, पढ़ी-लिखी एक पाश्चात्य लड़की को अपने सहयोगी की तरह रखा था। मुल्ला घूर-घूर कर उस लड़की को देखता रहा। जब भीतर गया तो डॉक्टर से उसने कहा कि तुमने इतनी सुंदर लड़की सहयोगी के लिए रखी है कि उसकी बांहें देख कर मेरा मन उसकी बांहें काट लेने का हुआ, कि काट खाऊं। डॉक्टर ने कहा कि उसमें कुछ ज्यादा हर्जा नहीं था। मैंने तुमसे कहा है कि ज्यादा कैलरी का भोजन मत करना। उसमें केवल पैंतीस कैलरी होती है। कोई हर्जा नहीं। अगर काट भी लेते तो कोई हर्जा नहीं, सिर्फ पैंतीस कैलरी।
हंसो मत, क्योंकि यही तुम्हारी मनोदशा है। सुंदर स्त्री को देख कर तुम्हें परमात्मा की याद नहीं आती। काट खाओ, चबा लो--ऐसे सुंदर-सुंदर विचार उठते हैं! कुछ न हो, धक्का मार दो। और अभी कोई देख भी नहीं रहा है। और वैसे तो तुम खादी के वस्त्र पहने हो। कोई देख भी लेगा तो भी मानेगा नहीं कि खादीधारी, सर्वोदयी नेता और ऐसा कर सकता है। असंभव! मौका चूको मत।... जहां मौका मिल जाता है वहां तुम्हारे भीतर की दबी हुई सारी वासनाएं प्रकट होने लगती हैं। बस अवसर की कमी है। तो रात के अंधेरे में अगर कोई स्त्री अकेले चलती मिल जाए तो बस मुश्किल है। भारतीय स्त्रियां तो चलती भी नहीं, उन्होंने तो जमाने हो गए तब से स्वतंत्रता खो दी है। उन्हें पता भी नहीं रहा, उन्हें याद भी नहीं कि रात जब चांद निकला हो दस-ग्यारह-बारह बजे रात जब चांद आकाश में हो, सारा नगर सो गया हो, तब वृक्षों के नीचे घूमने का एक मजा है। यह तो उन्हें याद ही नहीं रहा, यह तो बात ही खत्म हो गई। यह तो उनकी स्मृति में भी नहीं है। यह तो उनकी कल्पना में भी नहीं उठ सकता।
लेकिन पश्चिम से आई हुई स्त्रियों की कल्पना में उठता है। चांद निकला है, सुंदर मौसम है, दिन भर की गर्मी चली गई है, वृक्ष हवाओं से डोल रहे हैं, आधी रात है--इस सन्नाटे में घूमने जैसा है! मगर इस सन्नाटे में घूमने कोई स्त्री निकलेगी तो झंझट होने वाली है। चारों तरफ भूखे भेड़िए हैं। जिनको तुम भारतीय संस्कृति के संरक्षक कहते हो--भूखे भेड़िए हैं। तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। झंझट होगी। भाव तो अच्छा था रात घूमने निकलने का।
ऐसा ही समाज होना चाहिए कि कोई आधी रात भी घूमे तो घूम सके। यह रात हमारी है, यह चांद हमारा है, ये तारे हमारे हैं। मगर भारतीय स्त्रियों ने तो सदियों पहले ही यह अधिकार छोड़ दिया है। वे तो पति के पीछे छाया की तरह चलती हैं। वे तो पति की दासी हैं, पति उनका रक्षक है। अकेले घूमने निकलने का तो सवाल ही नहीं उठता। पहले तो घूमने निकलने का सवाल ही नहीं उठता--और रात में! यह तो सवाल ही नहीं है। और अगर कभी स्त्री निकलेगी भी दिन की भर दुपहरी में तो भी पति को साथ लेकर निकलती है, भाई को साथ लेकर निकलती है।
यहां भाई को हर वर्ष रक्षाबंधन बांधा जाता है कि हे भैया, साल भर हमारी रक्षा करना!... किससे रक्षा करना? भारतीय संस्कृति से रक्षा करना! ये चारों तरफ जो धूर्तों का जाल है, इससे रक्षा करना! अपमानजनक है। कोई सम्मानपूर्ण स्त्री भाई को रक्षाबंधन नहीं बांधेगी, क्योंकि रक्षा की आकांक्षा करना पुरुष से स्त्री की गरिमा को खोना है।
मेरे पास कभी कोई आ जाता है कि राखी बांधनी है आपको। किसलिए?
कि आप रक्षा करना।
रक्षा की बात ही क्यों उठती है? रक्षा किससे करनी है? मगर सदियों-सदियों से भारतीय स्त्री को यह सिखाया गया है।
तो तुम जब पश्चिम से यहां आते हो तो तुम्हें इन सारी धारणाओं का कुछ पता नहीं है कि यहां पुरुष रक्षक है। और जिसका पुरुष रक्षक नहीं है, दूसरे पुरुष उसके भक्षक हो जाते हैं। फिर यह सुंदर स्त्री, जिसको किसी ने डंडा मार दिया, अगर पुलिस में रिपोर्ट करने जाती है तो वह पुलिस का इंस्पेक्टर भी उसको घूर-घूर कर वैसे ही देखता है। क्योंकि वह भी उतना ही पीड़ित और परेशान है। उसकी भी सहानुभूति इस स्त्री के साथ नहीं होती! अगर वह सहानुभूति भी दिखाता है तो उसका इरादा यही होता है कि कुछ थोड़ी दोस्ती बन जाए, कुछ थोड़ा पहचान बन जाए, तो वह भी वही करे।
अभी-अभी एक युवा लड़की पर--युवा भी कहना मुश्किल है, अभी किशोर ही है, केवल पंद्रह वर्ष की उम्र है--उस पर पूना के एक बड़े पुलिस ऑफिसर ने बलात्कार करने की चेष्टा की। अब तुम जाओ कहां? मजिस्ट्रेट के पास जाओ तो उसकी नजर भी घूर कर देखती है। यहां एक ही तरह के लोगों का जाल है। तुम्हें थोड़ा सावधान होना होगा। तुम मेरे पास आए हो किसी सत्य की खोज में, तुम्हें यह कीमत चुकानी होगी। मैं जानता हूं यह व्यर्थ है, इसकी कोई जरूरत नहीं। यह कीमत तुम्हें मुझे नहीं चुकानी पड़ रही है। यह कीमत तुम्हें इसलिए चुकानी पड़ रही है कि इस देश की स्थिति ऐसी है।
बहुत बार मैं सोचता हूं कि यह देश छोड़ दूं। लेकिन तब दूसरी झंझटें होंगी। तब मेरा किसी दूसरे देश में टिकना एक क्षण के लिए भी आसान नहीं रह जाएगा, क्योंकि जो मैं कह रहा हूं उसे कोई भी समाज पी नहीं सकेगा, पचा नहीं सकेगा। इस देश से तो मुझे वे बाहर कर नहीं सकते। मगर दूसरे किसी देश से तो मुझे किसी भी क्षण बाहर किया जा सकता है। तुम्हारी तकलीफें देख कर मैं बहुत बार सोचता हूं कि छोड़ ही दूं यह देश। लेकिन कहीं तो होना होगा। और झंझटें होने ही वाली हैं। और तब झंझटें ज्यादा बढ़ जाएंगी। तुम्हारे लिए थोड़ी सुविधा होगी। लेकिन मेरा टिकना कहीं भी ज्यादा देर नहीं हो सकता। वहां से मुझे हटना होगा। और मेरे हटने के साथ तुम्हें बार-बार हटना होगा। फिर कहीं भी हम जो एक बुद्ध-क्षेत्र निर्मित करना चाहते हैं वह निर्मित नहीं हो सकेगा।
इसीलिए जल्दी मेरी फिकर है... छह महीने शायद ज्यादा और लग जाएंगे... जल्दी ही हम हट जाएंगे पहाड़ियों में जहां तुम उन्मुक्त मन से विचरण कर सको; जहां तुम्हें ध्यान करना हो वृक्षों के नीचे तो ध्यान कर सको; जहां कोई तुम पर हमला न करे; जहां कोई खूंखार की तरह तुम्हें देखे न। हमें अपनी एक छोटी सी अलग दुनिया ही बना लेनी है, तो ही तुम्हारी सुरक्षा हो सकती है। अब इस पूरे समाज को बदलने अगर हम बैठेंगे, यह तो सदियों का काम है, तो तुम पर मेरा जो काम चल रहा है वह बंद हो जाएगा। इसलिए मैं इस झंझट में पड़ना भी नहीं चाहता। इसमें कुछ अर्थ भी नहीं है। उन्हें सड़ने दो जिन्हें सड़ना है। उन्हें जीने दो जैसा उन्हें जीना है। जो लोग जीवन-रूपांतरण करने को राजी हैं वे मेरे पास आ जाएं। हम अपनी एक अलग दुनिया बना लेंगे। उसमें भी हजार बाधाएं डाली जा रही हैं; क्योंकि घबड़ाहट है; क्योंकि वह एक वैकल्पिक समाज होगा और एक विकल्प बनेगा। और सारी दुनिया से लोग वहां आकर देख सकेंगे कि समाज हो तो कैसा हो, कि लोग हों तो कैसे हों, कि कोई नग्न भी बैठा रहे वृक्ष के नीचे तो किसी को कोई अड़चन नहीं है, कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं होने की पूरी स्वतंत्रता है। न कोई बाधा डालेगा, न कोई हस्तक्षेप करेगा, कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजता में जीने का स्वरूप-सिद्ध अधिकार है।
कृष्ण प्रेम, थोड़ी देर और भारतीय संस्कृति को सह लो, थोड़ी देर और इन पाखंडियों के साथ गुजार लो--होशियारी से, समझदारी से। थोड़ी देर और ये डंडे, ये सांकलें, ये चोटें स्वीकार कर लो। थोड़ी देर और। और शायद यह सब भी तुम उपयोग कर सकते हो अपने आत्म-विकास में। यह सब भी! यह जो जंगलीपन है चारों तरफ, यह है, यह मनुष्य की वास्तविक दशा है। इसका अनुभव भी बुरा नहीं है। इस अनुभव से भी तुम बड़े नतीजे, बड़े निष्कर्ष ले सकते हो।
हम जिस क्रांति की बात कर रहे हैं अभी तो छोटे पैमाने पर होगी, थोड़े से लोगों की होगी; एक वैकल्पिक समाज होगा, उसमें होगी। लेकिन अगर यह क्रांति सफल होती है तो इसके बीज सारी दुनिया में पहुंच जाएंगे।
जिस गैरिक-क्रांति की मैं बात कर रहा हूं, उसके लिए पहले एक प्रयोग-स्थल बन जाना चाहिए। मैं थोथी बातें करने में भरोसा नहीं रखता, कि मैं क्रांति की जाकर बड़ी-बड़ी बातें सारे देश में करता रहूं, उसका मुझे कोई मूल्य नहीं मालूम होता। इस देश में तो क्रांति रोज ही होती है।
अभी-अभी दूसरी क्रांति हो गई! न पहली क्रांति से कुछ हुआ, न दूसरी क्रांति से कुछ हुआ। दूसरी क्रांति ने और इस देश के मुर्दों को सत्ता में बिठा दिया। जिनको कब्र में होना चाहिए था वे कुर्सियों पर हैं। यह देश और सड़े-गले हाथों में पड़ गया। ऐसी क्रांतियों से कुछ होने वाला नहीं है। मैं तो क्रांति का एक प्रयोग-स्थल बनाना चाहता हूं--एक रासायनिक प्रक्रिया, जिससे गुजर कर कुछ लोग सबूत बन जाएं, प्रमाण बन जाएं कि मनुष्य ऐसा होना चाहिए--ऐसा सुंदर, ऐसा काव्यपूर्ण, ऐसा प्रेमपूर्ण, ऐसा स्वतंत्र! स्वयं स्वतंत्र और दूसरों को स्वतंत्रता देने में समर्थ। जहां व्यक्ति का परम मूल्य होगा। वैसा छोटा सा समाज बन जाए तो फिर वहां से हम भेजने लगेंगे किरणें सारे जगत में। किरणें पहुंचनी शुरू हो जाएंगी।
लेकिन पहले एक प्रयोगशाला। उसी प्रयोगशाला की यह शुरुआत है। तुम्हारी कठिनाइयां मुझे पता हैं। तुम्हारी कठिनाइयां मेरे हृदय में कांटों की तरह चुभती हैं। तुम्हारी कठिनाइयां मेरी आंखों को गीला करती हैं। जानता हूं लेकिन कोई और उपाय नहीं है। थोड़े दिन और गुजार लो।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, भारत जैसे देश में, जहां विषमता और दरिद्रता की जड़ें गहरी हैं, क्या आपकी शिक्षाएं यथास्थिति को बनाए रखने में मददगार नहीं हैं? धर्म ने अतीत में सामंती अन्याय को कोई कारगर चुनौती नहीं दी। गरीबी, बेकारी और भ्रष्टाचार को बनाए रखने वाले इस यंत्र के साथ आप क्या सलूक कर रहे हैं?
राजकिशोर! तंत्र के कारण गरीबी नहीं है, गरीबी के कारण यह तंत्र है। इस भ्रष्टाचार के तंत्र को मिटाया नहीं जा सकता जब तक गरीबी न मिट जाए। गरीबी सारी बीमारियों की जड़ है। लेकिन तुम्हें उलटी बातें समझाई जाती हैं; तुम्हें इन झूठे वायदों पर भरोसा दिलाया जाता है कि भ्रष्टाचार का तंत्र मिटाना है। भ्रष्टाचार का तंत्र मिट जाएगा तो गरीबी मिट जाएगी, यह बात मूढ़तापूर्ण है। भ्रष्टाचार का तंत्र मिट ही नहीं सकता गरीब देश में। गरीबी भ्रष्टाचार को जन्म देती है। तंत्र मौलिक नहीं है, गरीबी मौलिक है।
लेकिन इस देश में चर्चा होती है--भ्रष्टाचार मिटाओ, रिश्वतखोरी मिटाओ, बेईमानी मिटाओ! न बेईमानी मिटती है, न भ्रष्टाचार न मिटता है--बढ़ते जाते हैं रोज उलटे। और इन्हें मिटाने के लिए तुम जितने कानून बनाते हो उतने ही कानून को तोड़ने की सुविधा होती जाती है। आखिर भ्रष्टाचार तुम मिटवाओगे किससे? जिनसे भ्रष्टाचार मिटवाओगे वे भी इसी गरीब देश के हिस्से हैं, वे भी उतने ही भ्रष्टाचारी हैं। जिन नेताओं को तुम पदों पर बिठा देते हो, वे उतने ही भ्रष्टाचारी हैं जितना कोई और। हां, फर्क इतना ही है कि उनके भ्रष्टाचार का पता तुम्हें तब तक न चलेगा जब तक वे पद पर हैं। पद से उतरेंगे तब तुम्हें उनके भ्रष्टाचार का पता चलेगा। जब तक पद पर हैं तब तक तो वे सब छिपा कर बैठे रहेंगे।
मैं नहीं कहता कि भ्रष्टाचार का तंत्र मिटाओ। मिटाया नहीं जा सकता। जयप्रकाश के चिंतन की भूल वहीं है। उस चिंतन की भूल का परिणाम यह हुआ--इतनी उथल-पुथल, हाथ कुछ भी न लगा। गरीबी मिटनी चाहिए। जहां गरीब हैं वहां भ्रष्टाचार रहेगा। भ्रष्टाचार मिट सकता है केवल, जहां लोग संपन्न हों। जहां संपन्न हों वहां एक गरिमा होती है। आदमी भ्रष्टाचारी मजबूरी में होता है।
अब पुलिसवाले को तनख्वाह कितनी मिलती है? और इससे तुम चाहते हो कि रिश्वत न ले? यह असंभव है। तुम असंभव की आकांक्षा कर रहे हो। इसे रिश्वत लेनी ही होगी अगर इसे जीना है। और यह रिश्वत लेगा तो तुम और एक दूसरी गुप्त पुलिस बिठाओ, जो भ्रष्टाचार-विरोधी होगी। मगर उनकी भी तनख्वाह, उनकी भी गरीबी...। उनको भी बच्चों को स्कूल में पढ़ाना है, कॉलेज भेजना है, युनिवर्सिटी भेजना है। उनके पास भी पैसे नहीं हैं, वे भी रिश्वत खाएंगे।
रवींद्रनाथ ने बड़ी मीठी कथा लिखी है अपने परिवार की। बड़ा परिवार था उनका, सौ लोग परिवार में थे। बहुत दूध खरीदा जाता था। तो दूध में पानी मिल कर आ जाता था। तो रवींद्रनाथ ने कहा कि एक इंस्पेक्टर रख दिया जाए, जो जांच-पड़ताल करे। पिता हंसे और उन्होंने कहा: ठीक है, इंस्पेक्टर रख दो। एक इंस्पेक्टर रख दिया गया, जिसका काम ही यह था कि दूध की जांच-पड़ताल करे कि पानी न मिलाया जा सके। उस दिन से दूध में पानी और थोड़ा ज्यादा आने लगा। रवींद्रनाथ तो बहुत हैरान हुए। मगर गणित तो ऐसे चलता है। रवींद्रनाथ ने कहा: तो एक और इंस्पेक्टर रखो इंस्पेक्टर के ऊपर, कि जो उसकी नजर रखे कि यह कोई बेईमानी न कर सके। उस दिन तो गजब हो गया, पानी तो आया ही आया, एक मछली भी दूध में आ गई! क्योंकि हर इंस्पेक्टर का हिस्सा जुड़ता गया।
बाप ने कहा: तू पागल है! विदा कर इन इंस्पेक्टरों को। यह और एक मुफ्त का खर्चा सिर पर बंधा। दो इंस्पेक्टरों को तनख्वाह दो और इन दोनों के हिस्से बंध गए। जैसा चल रहा था ठीक था। इतना पानी नहीं था, कम से कम मछलियां तो नहीं आती थीं।
ऐसी इस देश की दशा है। यहां तुम भ्रष्टाचार किससे रुकवाओगे? यह तंत्र कौन बदलेगा? जो बदलेगा उसको ही इस तंत्र का हिस्सा होना पड़ेगा। इस तंत्र में जीना है तो इस तंत्र के बाहर खड़ा नहीं हो सकता वह। जिन राजनेताओं से तुम आशा करते हो कि वे इस तंत्र को बदलेंगे, वे कैसे बदलेंगे? उनको चुनाव लड़ने के लिए पैसे चाहिए। पैसे कोई ऐसे नहीं देता।
जयप्रकाश नारायण जिंदगी भर बिड़ला से रुपये लेते रहे हैं, आमूल-क्रांति होगी कैसे? बिड़ला के पास इस देश के सारे क्रांतिकारियों को तनख्वाह देने का उपाय है। बिड़ला के पास लिस्ट है कि किन-किन को तनख्वाह देनी...। इन सबको तनख्वाह मिलती है! इन सबके मासिक बंधे हुए हैं! जयप्रकाश नारायण की सबसे बड़ी नाराजगी का कारण इंदिरा से यही था कि इंदिरा ने जयप्रकाश से यह पूछा कि आप यह तो बताइए कि आपका खर्च कैसे चलता है? यह तुम जान कर हैरान होओगे कि ये बड़ी उपद्रव की जो बातें हैं, बड़े-बड़े सिद्धांतों से शुरू नहीं होती हैं, बड़ी छोटी-छोटी बातों से शुरू होती हैं। आदमी छोटा है! इंदिरा का यह पूछना कि आपका खर्च कैसे चलता है, यह बताइए--यह था असली उपद्रव का कारण, जिससे जयप्रकाश भन्ना उठे; जिससे उनके अहंकार को बड़ी चोट लगी और उन्होंने तय कर लिया कि इंदिरा को उखाड़ कर रहेंगे। इंदिरा का पूछना ठीक था, क्योंकि इंदिरा के पास फेहरिस्त है कि जयप्रकाश को वर्षों से बिड़ला से पैसा मिलता है। और बिड़ला से पैसा क्यों मिलता है? गांधी जी की सिफारिश से मिलता है! गांधी जी ने पत्र दिया था कि जयप्रकाश को पैसा हर महीने मिलना चाहिए।
कैसे क्रांति होगी? जिसको चुनाव लड़ना है उसको लाखों रुपये चाहिए। जिनसे लाखों रुपये लेगा उनके खिलाफ कैसे काम करेगा? और नहीं लाखों रुपये लेगा तो चुनाव नहीं लड़ सकता।
तंत्र बदलेगा कौन, राजकिशोर?
नहीं; मेरी चिंतना और है। मैं तंत्र इत्यादि को बदलने में बहुत समय खराब नहीं करता, न सोचता उस बाबत। यह तो तंत्र स्वाभाविक परिणाम है इस देश की दरिद्रता का। दरिद्रता बदली जा सकती है, क्योंकि दरिद्रता को बदलने के लिए अब विज्ञान ने उपाय जुटा दिए हैं। अब अगर हम दरिद्र हैं तो अपनी मूढ़ता के कारण, अन्यथा और कोई कारण नहीं है। और हमें शक्ति नहीं लगानी चाहिए भ्रष्टाचार को बदलने में। भ्रष्टाचार को तो हमें स्वीकार कर लेना चाहिए; व्यर्थ की झंझट उससे क्यों करनी; वह तो होगा ही। इस स्थिति में इससे अन्यथा नहीं हो सकता। बन सके तो हमें भ्रष्टाचार को, रिश्वतखोरी को, सबको नैतिक मान्यता दे देनी चाहिए; कानूनी स्वीकृति दे देनी चाहिए, ताकि यह फिजूल की बकवास बंद हो। इसे हम लोगों की तनख्वाह ही मान लें। इसको क्यों उपद्रव बनाना?
सारी ताकत लगानी चाहिए देश के औद्योगीकरण में। सारी ताकत लगानी चाहिए देश के भीतर नये-नये उपकरण पैदा करने में। और अब उपकरण उपलब्ध हैं दुनिया में। इस देश की गरीबी मिट सकती है, कोई कारण नहीं है गरीबी के रहने का। लेकिन हम फिजूल की बकवास में लगे रहते हैं। हम चरखे की चिंता कर रहे हैं। चरखे से कहीं गरीबी मिटी है? गरीबी मिटानी हो तो उद्योग की चिंता करो। मगर उद्योगों पर हम उपद्रव खड़े किए रखते हैं। जिन कारणों से गरीबी मिट सकती है उनको तो हर तरह की बाधाएं हैं और जिन कारणों से गरीबी बढ़ेगी उनको हर तरह की सुविधाएं दी जाती हैं।
खादी के लिए सरकार न मालूम कितना करोड़ों का खर्च करती है कि खादी चले! खादी को चलाने की जरूरत क्या है? खादी में क्यों प्राण अटके हुए हैं? जब कि मिल के वस्त्र ज्यादा टिकाऊ, ज्यादा सस्ते, ज्यादा सुंदर, ज्यादा उपयोगी, तो क्यों खादी के पीछे मरे जाते हो?
मगर हमारा देश अजीब है, इसके सोचने के ढंग अजीब हैं! हम पकड़ लेते हैं किसी चीज को। फिर छोड़ना नहीं आता हमें। और भी दुनिया में देश हैं, और भी दुनिया में नेता होते हैं, लेकिन कोई इस तरह नहीं करता। अब गांधी को गए तीस साल हो गए, मगर चल रही है पूजा--चलेगी। विदा देना भी आना चाहिए, अलविदा देना भी आना चाहिए। अब बेचारों को उनको भी जाने दो और तुम भी किसी दूसरे काम में लगो। मगर नहीं, चूंकि गांधी ने खादी की बात की थी इसलिए खादी हमारा नैतिक कर्तव्य हो गई, हमारा धर्म हो गई।
नये-नये यंत्र... इस देश के पास प्रतिभा है लेकिन हम प्रतिभा को तो अड़चन डालते हैं। इस देश को हमेशा चिंता होती है, बहुत चर्चा चलती है इस बात की कि दुनिया के दूसरे देश हमारी प्रतिभाओं को शोषित कर लेते हैं। अगर कोई अच्छा इंजीनियर होता है, अच्छा वैज्ञानिक होता है, स्वभावतः अमरीका चला जाता है। कोई अच्छा डॉक्टर होगा, अच्छा सर्जन होगा, स्वभावतः अमरीका चला जाएगा। तनख्वाह अच्छी है, जीवन का स्तर अच्छा है, सुविधा है; सोचने, विचारने, खोजने के उपाय हैं। क्यों रहे यहां? मगर इससे हमें बड़ा नुकसान होता है। प्रतिभा हमारी, पढ़ा-लिखा कर हम तैयार करते हैं बामुश्किल और फिर चला जाता है पश्चिम। इस पर बड़ा विचार चलता है कि कैसे प्रतिभा को रोकें! मगर तुम कैसे रोकोगे?
इधर मेरे आश्रम में प्रतिभा पश्चिम से आ रही है तो आने नहीं देते। वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, चिकित्सक, प्रोफेसर यहां आकर रहना चाहते हैं, लेकिन मोरार जी देसाई उन्हें प्रवेश नहीं करने देना चाहते। सारे राजदूतावासों को भारत के बाहर सूचना दी गई है कि जो व्यक्ति भी मेरे आश्रम आना चाहता हो, उसे तो प्रवेश ही मत देना। और तुम भारतीय कुशलता तो जानते ही हो... मूढ़ता ऐसी है कि इस तरह के पत्र भी लिख देते हैं भारतीय राजदूतावास के लोग।
एक प्रसिद्ध डेंटिस्ट डॉक्टर भारत आकर यहां रहना चाहता था। उसने पत्र लिखा, तो अमरीकन भारतीय राजदूतावास से उसको उत्तर मिला कि अगर आप श्री रजनीश आश्रम पूना जाना चाहते हैं तो स्वीकृति नहीं मिल सकती। यह लिख ही दिया उसमें। भारतीय कुशलता के भी क्या कहने! यह तो कम से कम छिपा कर रखते। अगर किसी और आश्रम जाना हो तो स्वीकृति मिल सकती है। मगर और किसी आश्रम उन्हें जाना नहीं है।
मैं सारी दुनिया की प्रतिभा को यहां इकट्ठा कर सकता हूं। यहां दुनिया से वे सारे लोग इकट्ठे हो सकते हैं, इस देश का कायाकल्प कर दें। मगर प्रवेश नहीं दोगे, उन्हें टिकने नहीं दोगे। एक तरफ रोओगे कि हमारी प्रतिभा जा रही है और यहां हम प्रतिभा को बुलाने का निमंत्रण भेज रहे हैं और प्रतिभा आना चाहती है, तो आने नहीं दोगे। ऐसा अभागा देश है!
राजकुमार! तंत्र को नहीं बदला जा सकता भ्रष्टाचार के, लेकिन दरिद्रता बदली जा सकती है। और दरिद्रता बदल जाए तो भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। दरिद्रता बदल जाए तो रिश्वत अपने आप खो जाएगी। तुम किसी समृद्ध देश में किसी व्यक्ति को रिश्वत दो, एक चांटा मारेगा तुम्हारे चेहरे पर। तुम अपमान कर रहे हो... यह रिश्वत। उसके पास काफी है, तुम क्या उसे दे रहे हो! जिसके पास नहीं है कुछ वही खुशी से लेता है और तुम्हें धन्यवाद देता है।
तुम पूछते हो: ‘भारत जैसे देश में, जहां विषमता और दरिद्रता की जड़ें गहरी हैं।’
क्यों गहरी हैं? तुमने आज तक दरिद्रता का सम्मान किया है। जिसका सम्मान करोगे उसकी जड़ें गहरी हो जाएंगी। तुमने सदियों-सदियों से दरिद्रता को आदर दिया है। आदर दोगे जिसको, वह बढ़ेगा। और महात्मा गांधी ने आखिरी सील लगा दी--दरिद्रनारायण कह दिया दरिद्र को! दरिद्रता बीमारी है, रोग है, कैंसर है। दरिद्रनारायण मत कहो दरिद्र को! दरिद्र को विदा करना है, दरिद्र से छुटकारा लेना है। अगर दरिद्र दरिद्रनारायण है, तो छुटकारा कैसे लोगे? वह तो फिर ‘नारायण’ से छुटकारा लेना हो जाएगा। दरिद्र को मिटाना तो फिर ‘नारायण’ को मिटाना हो जाएगा।
दरिद्र नारायण नहीं हैं। दरिद्रता सिर्फ रोग है, बीमारी है, अस्वास्थ्य है। ठीक-ठीक मूल्यांकन करो। और तुमने सदियों से इस बात की बड़ी चर्चा की है। बुद्ध ने धन छोड़ दिया, महावीर ने घर छोड़ दिया! बड़ा सम्मान! बड़ा आदर! मैं महावीर का आदर इसलिए नहीं करता कि उन्होंने घर छोड़ दिया; मैं उनका आदर इसलिए करता हूं कि उन्होंने आत्मा को पा लिया। छोड़ने के कारण मेरे मन में कोई आदर नहीं है, पाने के कारण आदर है। मैं बुद्ध का सम्मान इसलिए नहीं करता हूं कि उन्होंने राज्य छोड़ दिया; बुद्ध का सम्मान मैं इसलिए करता हूं कि उन्होंने भीतर का राज्य पा लिया। मेरे सम्मान भी भिन्न हैं। मैं बुद्ध की चर्चा करता हूं, महावीर की भी चर्चा करता हूं, लेकिन मेरे कारण उन्हें आदर देने के बड़े भिन्न हैं। तुमने उन्हें गलत कारणों से आदर दिया है।
और तुमने फकीरी को, गरीबी को सदियों तक सिर पर उठाया है; हो गए तुम गरीब, स्वाभाविक था। पश्चिम भी गरीब था, इन तीन सौ वर्षों में पश्चिम ने गरीबी मिटा डाली। ये तीन सौ वर्षों में पश्चिम ईसाइयत की जो गरीबी की धारणा है उससे छुटकारा पा लिया।
तुम्हें अपने धर्म की जो धारणाएं हैं उनसे छुटकारा पाना होगा। तुम्हें धर्म की नई धारणा को अपने भीतर जड़ें देनी होंगी। मैं उसी नये धर्म की बात कर रहा हूं। मैं एक ऐसे धर्म की बात कर रहा हूं जो संपन्नता का विरोधी नहीं है, जो समृद्धि का विरोधी नहीं है। मैं एक ऐसे धर्म की बात कर रहा हूं जो इस पृथ्वी का सम्मान करता है, इस पृथ्वी को प्रेम करता है; जो इस पृथ्वी का आलिंगन करता है। इस पृथ्वी में हमारी जड़ें जमनी चाहिए, तो आकाश में हमारी शाखाएं उठ सकती हैं। जो वृक्ष पृथ्वी के विपरीत हो वह आकाश में अपनी शाखाओं को न फैला सकेगा। हमने वही भूल कर ली है।
तुम दरिद्र हो क्योंकि तुम्हारे मन में कहीं दरिद्रता का आदर है। इस आदर को खंडित करो, इस आदर को जाने दो। इसकी जगह संपन्न को, संपन्नता को, समृद्धि को, ऐश्वर्य को आदर दो; वही ‘ईश्वर’ शब्द का अर्थ है।
पूछते हो तुम: ‘भारत जैसे देश में जहां विषमता और दरिद्रता की जड़ें गहरी हैं, क्या आपकी शिक्षाएं यथास्थिति को बनाए रखने में मददगार नहीं हैं?’
जरा भी नहीं! महात्मा गांधी मददगार हैं यथास्थिति को बनाए रखने में। जयप्रकाश नारायण मददगार हैं यथास्थिति को बनाए रखने में। विनोबा भावे मददगार हैं यथास्थिति को बनाए रखने में। और तुम्हारे सारे शंकराचार्य और तुम्हारे शाही ईमाम, सब मददगार हैं यथास्थिति को बनाए रखने में। मैं तो जो बात कह रहा हूं वह मौलिक रूप से इन सबके विपरीत है।
हालांकि एक बात सच है कि मैं कोई क्रांतिवादी नहीं हूं, क्योंकि क्रांति की बात ही मुझे असफलता की बात मालूम होती है। अब तक कोई क्रांति सफल नहीं हो सकी--न रूस में, न चीन में, न फ्रांस में, न कहीं और, न कहीं और सफल होगी। क्रांति सफल हो ही नहीं सकती। मनुष्य का तीन हजार साल का इतिहास कहता है कि सब क्रांतियां असफल हो गईं। क्रांति की असफलता को समझो, क्योंकि क्रांति की मौलिक प्रक्रिया क्या है? मौलिक प्रक्रिया है--तुम्हें लड़ना होता है--जिनसे तुम लड़ते हो तुम्हें उनके ही लड़ने के ढंग सीखने होते हैं; नहीं तो उनसे लड़ोगे कैसे? लड़ते-लड़ते तुम उन्हीं जैसे हो जाते हो। जब तक तुम सत्ता में आते हो तब तक तुममें और तुमने जिनको सत्ता से हटाया, रत्ती भर भेद नहीं रह जाता। और अगर कुछ भेद होता भी होगा तो यही कि तुम उनसे भी बदतर होते हो, इसीलिए तुम जीत पाते हो, नहीं तो तुम जीत नहीं सकते।
अगर रूस में कम्युनिस्ट पार्टी--स्टैलिन, लेनिन और ट्राटस्की की पार्टी अगर ज़ार से जीत सकी तो इसीलिए कि उन्होंने ज़ार से भी ज्यादा बदतर, हिंसात्मक प्रवत्तियां दिखलाईं। और फिर पूरा इतिहास प्रमाण है--स्टैलिन ने जहर देकर लेनिन को मारा, हथौड़े की चोट से ट्राटस्की को मरवाया। फिर जितने भी क्रांतिकारी थे, जो भी क्रांति में अग्रणी थे, एक-एक करके मारे गए, या जेलों में सड़े, या साइबेरिया में गले। स्टैलिन जितना बड़ा ़जार साबित हुआ दुनिया में, कोई ज़ार इतना बड़ा ज़ार साबित नहीं हुआ था। स्टैलिन ने जितनी हिंसा की उतनी ईवान टैरीबल ने भी नहीं की थी। सब सिकंदर, सब नेपोलियन छोटे पड़ गए। यह हुआ कैसे? स्टैलिन इन्हीं से तो लड़ कर, इन्हीं ज़ारों से लड़ कर सत्ता में पहुंचा। जिनसे तुम लड़ोगे तुम उन्हीं जैसे हो जाते हो।
तुमने यहां भारत में नहीं देखा? भारत में एक क्रांति हुई। भारतीय लोग अंग्रेजों से लड़ कर सत्ता में बैठे। बस ठीक अंग्रेजों जैसे साबित हुए; उनसे बदतर; हर स्थिति में उनसे बदतर साबित हुए! फिर अभी इंदिरा को हटा कर मोरार जी सत्ता में बैठे; हर स्थिति में इंदिरा से बदतर साबित हो रहे हैं। जिससे तुम लड़ोगे, तुम उससे जीत ही तब सकते हो जब तुम और भी ज्यादा बेईमान, और भी ज्यादा चालबाज, और भी ज्यादा कूटनीतिज्ञ, और भी ज्यादा उपद्रवी... तो ही जीत सकते हो, अन्यथा जीत नहीं सकते।
मैं क्रांति का पक्षधर नहीं हूं। मेरा सूत्र विद्रोह है, क्रांति नहीं। और फर्क दोनों में मैं क्या करता हूं, वह समझ लेना चाहिए। क्रांति होती है संगठित, सामूहिक। उसके लिए पार्टी बनानी होती है, उसके लिए राजनीति में उतरना होता है। विद्रोह होता है वैयक्तिक, निजी; एक-एक व्यक्ति कर सकता है। मैं विद्रोही हूं और मेरे संन्यासी विद्रोही हैं, क्रांतिकारी नहीं हैं। विद्रोह क्रांति से बहुत ऊपर की बात है।
विद्रोह का अर्थ होता है: मैं अपने को अलग करता हूं; इस सड़े-गले जाल से मैं अपने अंतर-संबंध तोड़ता हूं; मैं इस तंत्र से अपने को भिन्न करता हूं।
समाज के सड़े-गले जाल से अपने को भिन्न कर लेने का नाम ही संन्यास है। इसका भी यह अर्थ नहीं कि तुम जंगल भाग जाओ, क्योंकि जंगल भागने से कुछ भी नहीं होता। जहां हो वहीं रहो, लेकिन अंतर्तम से इससे पृथक हो जाओ, इसको तुम सहारा मत दो। और तुम एक इस ढंग से जीओ जीवन कि तुम्हारा जीवन और लोगों को भी संक्रामक होने लगे। बहुत लोग वैयक्तिक रूप से जब विद्रोह को उपलब्ध हो जाएंगे तो स्वभावतः यह सड़ी-गली व्यवस्था अपने आप गिर जाएगी। मगर इस व्यवस्था को लड़ कर नहीं गिराना है, इस व्यवस्था से सहयोग छोड़ लेना है, इस व्यवस्था से अपने तार अलग कर लेने हैं। इस व्यवस्था से और इस व्यवस्था की मूल मान्यताओं से अपने को मुक्त कर लेना है।
और व्यवस्था उतनी बड़ी बात नहीं है, जितनी इसकी मूल मान्यताएं बड़ी हैं। इसकी मूल मान्यताएं क्या हैं? एक तो है: राजनीति का बड़ा समादर। मैं अपने संन्यासी को सिखाता हूं कि राजनीति दो कौड़ी की है। समादर की तो बात ही नहीं, अपमानजनक है। राजनीति में जो है वह गुंडा है, उसने चाहे कितने ही खादी के वस्त्र पहने हों। राजनीति गुंडों के लिए है, या तो वे राजनीति में होंगे या फिर गुंडागर्दी में होंगे। उनके लिए दो ही विकल्प हैं।
मैं राजनीति का असम्मान सिखाता हूं। राजनीति हीन लोगों के लिए है, हीनता की ग्रंथि से पीड़ित लोगों के लिए है। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं कि तेरे चित्त से राजनीति के सारे बीज उखाड़ कर फेंक दे। राजनीति महत्वाकांक्षा है, मैं महत्वाकांक्षा-विरोधी हूं। राजनीति स्पर्धा है, मैं स्पर्धा-विरोधी हूं। राजनीति दूसरे के ऊपर शासन है, मैं आत्मानुशासन का पक्षपाती हूं। मैं राजनीति की मूल जड़ें काट रहा हूं। क्रांतिकारी पत्ते काटता है, विद्रोही जड़ें काटता है। पत्ते काटने वाला दिखाई पड़ता है; जड़ें काटने वाला दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि जड़ें ही तुम्हें दिखाई नहीं पड़तीं।
मेरा जो काम है उसके परिणाम वर्षों में प्रकट होंगे, सदियां भी लग सकती हैं। मगर मेरा मौलिक स्वर विद्रोह का है, क्रांति का नहीं है। इसलिए ऊपर से तुम्हें ऐसा लग सकता है कि मैं यथास्थिति को बनाए रखने में मददगार हूं; क्योंकि मैं कोई झंडा लेकर, डंडा लेकर, न तो कोई घेराव कर रहा हूं, न कोई हड़ताल कर रहा हूं, न कोई जुलूस निकाल रहा हूं। तुम्हें लग सकता है कि मैं तो बिलकुल यथास्थिति को स्वीकार कर रहा हूं।
नहीं; यहां कुछ गहरा काम चल रहा है। यहां मैं वे मूल आधार गिरा रहा हूं जिन पर सारी राजनीति खड़ी है, जिन पर सारा आज का व्यवस्था-सूत्र खड़ा है। मैं ध्यान सिखा रहा हूं। क्योंकि राजनीति मन की विक्षिप्तता का अंग है। शोषण रुग्ण लोगों की आकांक्षा है। ध्यानस्थ अपने आप इतना शांत हो जाता है कि नहीं किसी के जीवन में बाधा डालता। ध्यानस्थ अपने आप सृजनात्मक हो जाता है, विध्वंसक नहीं रह जाता। ध्यानस्थ अपने आप प्रेम से लबालब हो जाता है, प्रेम से भरपूर हो जाता है, प्रेम बांटता है, प्रेम ही जीता है।
यह बात आज राजकुमार, समझ में शायद नहीं आएगी, समय लगेगा। और धर्म की पुरानी धारणाओं ने--तुम ठीक कहते हो--सामंती अन्याय को कोई चुनौती नहीं दी थी। इसलिए मैं धर्म की भी एक नई अवधारणा कर रहा हूं। मैं बुद्ध पर भी बोलता हूं, महावीर पर, कृष्ण पर भी, क्राइस्ट पर भी, लाओत्सु पर भी, कबीर पर भी; लेकिन अगर तुम गौर करोगे तो तुम पाओगे--मैं उन्हें नई व्याख्या दे रहा हूं, नये मूल्य दे रहा हूं, नये अर्थ दे रहा हूं।
कबीर-पंथी मुझसे राजी नहीं हैं। कबीर-पंथियों के पत्र मेरे पास आते हैं कि यह आपने क्या किया? कबीर का ऐसा अर्थ नहीं है जैसा आप कर रहे हैं।
मुझे जैनों के पत्र आते हैं कि आपने महावीर का यह कैसा अर्थ किया? यह अर्थ शास्त्रों में नहीं है। मैं कहता हूं: भाड़ में डालो तुम्हारे शास्त्र। महावीर तो खूंटी हैं मेरे लिए, टांगूंगा तो मैं अपने को। कबीर तो बस मेरे लिए बहाना हैं; बोलूंगा तो मैं वही जो मुझे बोलना है।
फिर तुम पूछ सकते हो--फिर मैं कबीर पर क्यों बोलता, महावीर पर क्यों बोलता? ये हीरे हैं कीचड़ में पड़े; कीचड़ धोऊंगा, हीरे बचाऊंगा। ये हीरे बचाने योग्य हैं। कीचड़ के साथ हीरे नहीं फेंक सकता और हीरों के साथ कीचड़ नहीं बचा सकता। दुनिया में ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि यह सब कीचड़ ही कीचड़ है, फेंको। नीत्शे और कार्ल मार्क्स और ज्यांपाल सार्त्र कहते हैं: यह सब कीचड़ ही कीचड़ है। इनसे मैं राजी नहीं हूं, इनमें हीरे भी हैं। और दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि यह सब हीरा ही हीरा है, इसमें कीचड़ कहां है! मैं दोनों से राजी नहीं हूं। मैं कीचड़ को काटूंगा, हीरों को बचाऊंगा। अतीत पर बोलता हूं, ताकि अतीत में जो भी सुंदर है वह बचाया जा सके। वह हमारी धरोहर है। लेकिन यह बात सच है कि अतीत में धर्म की धारणाओं ने सामंती शासन को, सामंती शोषण को, सामंती अर्थव्यवस्था को कोई चुनौती नहीं दी। धर्म पलायनवादी था। धर्म भगोड़ा था। मेरा धर्म भगोड़ा नहीं है, पलायनवादी नहीं है। यह चुनौती दे रहा है। नहीं तो तुम सोचते हो, अगर मैं भी सिर्फ धर्म की बात करता, उसमें कोई चुनौती न होती, तो मेरे विरोध में इस देश में इतनी अफवाहें चलतीं, इतना विरोध का वातावरण बनता? नहीं; जैसे लोग विनोबा के आश्रम पहुंचते हैं--प्रधानमंत्री और मंत्री--ऐसे यहां भी आते। यहां आने में छाती कंपती है! इस दरवाजे के भीतर घुसने की हिम्मत करना मुश्किल है। डर लगता है, मुझसे संबंधित होने में डर लगता है। लोग जान लें कि यहां कोई आया तो पता नहीं उसका उनकी राजनीति पर क्या असर पड़े!
अगर मैं यथास्थिति का सहयोगी होता तो मेरे काम में अड़चन ही न होती, कोई अड़चन न होती। मैं यथास्थिति का सबसे बड़ा दुश्मन हूं। न लेनिन इतना बड़ा दुश्मन था, न माओ। क्योंकि उन्होंने बदली व्यवस्था, लेकिन कहां, बदली कहां जा सकी? फिर वही लौट कर आ जाती है। मैं व्यवस्था बदलने में उत्सुक नहीं हूं। मैं व्यवस्था का मूल आधार बदल देना चाहता हूं। समय लगेगा, समझ की जरूरत होगी। यह क्रांति नारों से पूरी होने वाली नहीं है; यह क्रांति तो ध्यानस्थ लोगों से होगी। शोरगुल से नहीं, शांति से इसका जन्म होगा। उपद्रव से नहीं, संगीत से इसका स्वर उठेगा। यह एक मौलिक ही धारणा है और इसलिए एकदम से पहचानी भी नहीं जा सकेगी; इसे पहचानने में भी समय लगेगा, सदियां लग सकती हैं।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, ‘है कोई लेवनहारा?’ आपने बार-बार पुकारा। वह पुकार मेरे दिल में तीर की तरह चुभ गई, पर अब भी कुछ रुकावट महसूस होती है। वह क्या है, आप ही बता सकते हैं। आपको सुनते-सुनते बार-बार आंसू बहते हैं, वह क्या है? कल दर्शन में आपके स्पर्शमात्र से फिर आंसू फूट पड़े, क्यों?
अक्षय विवेक! आंसू से सुंदर इस जगत में और कुछ भी नहीं। काश आंसू आनंद से आए हों, काश आंसू उत्सव से जन्मे हों!
और तुम्हारे आंसू उत्सव के आंसू हैं। कल जब तुम्हारी आंखों में आंसू देखे तो मैं आह्लादित हुआ था। यह प्रारंभ है पिघलने का। अक्षय विवेक मजबूत आदमी हैं। लोह-पुरुष जैसे व्यक्ति हैं। इसलिए चिंता भी होती होगी कि यह मुझे क्या हो रहा है; कभी रोया नहीं और आज अचानक आंखों में आंसू भर-भर आते हैं! बात सुन कर, स्पर्शमात्र से! यह मुझे हो क्या रहा है!
यह शुभ हो रहा है--यह वसंत का आगमन है। ये पहले फूल खिलने लगे। ये आंसू तुम्हारे जीवन के पहले फूल हैं। इन आंसुओं से तुम नहा जाओगे, तुम नये हो जाओगे, तुम्हारा पुनरुज्जीवन होगा। इन आंसुओं का सत्कार करो। और जब ये आएं तो रोकना मत। जब ये आएं तो संकोच मत करना।
लोकलाज छोड़ो! दिल खोल कर, दिल डुबा कर, दिल भर कर आंसुओं में बहो! इन्हीं आंसुओं के पीछे और भी बहुत कुछ छिपा चला आएगा। ये आंसू तो पहली बाढ़ हैं। इसके पीछे बहुत कुछ आने को है। इसलिए आंसुओं को रोकना मत।
आंसुओं के पीछे ही हंसी भी आएगी, मुस्कुराहट भी आएगी। आंसुओं के पीछे ही नृत्य भी आएगा, गीत भी आएंगे।
आंसू तो केवल सुबह की पहली किरण हैं। तुम कहते हो: आप पुकारते हैं, ‘है कोई लेवनहारा’, तो पुकार मेरे दिल में तीर की तरह चुभ जाती है, मगर फिर भी कहीं कुछ रुकावट महसूस होती है।
स्वाभाविक है। अहंकार जाते-जाते ही जाता है। समय लगता है। चोट होने लगी, चट्टान टूटने लगी। काम शुरू हो गया है, अब देर-अबेर की बात है। सब तुम पर निर्भर है। अगर सहयोग करोगे तो जल्दी हो जाएगी क्रांति। अगर सहयोग न करोगे, अगर संघर्ष करोगे, प्रतिरोध करोगे, तो देर लग जाएगी।
प्रतिरोध छोड़ो! समर्पित भाव से, वह जो तीर चुभ रहा है, उसे अतिथि की तरह अपने हृदय में विराजमान करो। पीड़ा होगी तीर के चुभने से, लेकिन पीड़ा के माधुर्य को पहचानो। यह पीड़ा सिर्फ पीड़ा नहीं है; इसमें छिपी एक मिठास भी है। इस तीर के पूरे चुभने से मृत्यु होगी। अक्षय विवेक, तुम तो मरोगे! लेकिन तुम्हारी मृत्यु ही तुम्हारे भीतर एक नये जीवन का प्रारंभ है।
मृत्यु कहीं होती ही नहीं। मृत्यु तो सिर्फ रूपांतरण है। तुम एक नये सोपान पर आरोहण करोगे। अमृत का दर्शन होगा।
अहंकार डरता है, घबड़ाता है। कुछ और घबड़ाहट नहीं है--घबड़ाहट मरने की, कि यह क्या हो रहा है! यह मुझे क्या हो रहा है! संतुलित व्यक्ति था, नियंत्रित व्यक्ति था, अपने पर शासन था, अपना मालिक था--यह आज क्या होने लगा! क्या स्त्रियों जैसा रोने लगा! क्या बच्चों जैसा रोने लगा! मिट तो न जाऊंगा? मेरा पुराना तादात्म्य टूट तो न जाएगा?
टूटेगा! टूटना ही चाहिए। टूटने में सहयोग करो।
लोचनों के बंद पिंजर से गया उड़ कीर सुधि का।
श्वास ने सहला अनेकों
बार उसके घाव धोए,
सजल रोमों में छिपा
संकल्प स्वप्नों ने संजोए;
मृदुल पलकों के तिमिर में खो गया है नीड़ सुधि का।
प्रणय के संगीत अधरों
ने सुना उसको बुलाया,
पलक-पुलिनों पर बिठा
सौगात अक्षय दे रिझाया;
तड़ित-आहों में अखंडित खो गया है नीर सुधि का।
अब नहीं कुछ शेष प्राणों
में व्यथा को छोड़ केवल,
सघन विस्मृति का उमड़ता
हृदय में आकाश पागल;
रह गया है शेष अब तो स्वप्न यह बेपीर सुधि का!
यह तीर याद दिलाएगा तुम्हें अपने स्वरूप की। यह तीर सुधि बनेगा, मगर सुधि पीड़ादायी है। सदियों-सदियों से भूले बैठे हो, याद ही नहीं रही कि कौन हूं मैं! यह तीर स्मरण दिलाएगा तुम्हारे परमात्म-स्वरूप का।
निश्चित ही तुम्हारे निहित स्वार्थों के विपरीत होगी यह बात। तुम्हारे छोटे-छोटे निहित स्वार्थ हैं। वे सब तुम्हारे अहंकार के इर्द-गिर्द खड़े किए गए हैं। अहंकार गिरेगा तो वे भी गिर जाएंगे। इसलिए डर भी लगेगा, सोच भी उठेगा कि यह मैं किस राह पर चल पड़ा! मगर अब लौटना हो भी नहीं सकता है, अक्षय विवेक! कल तुम्हारी आंखों में देख कर यह पक्का मुझे भरोसा आ गया है कि अब लौटने का उपाय नहीं। लौटने की जगह तो समाप्त हो गई।
अतीत में तुमने लौटना बहुत बार चाहा भी है, लौट-लौट भी गए हो। बहुत बार करीब आते-आते छिटक गए हो। भय जीत गया, प्रेम हार गया। अब यह नहीं हो सकेगा। अब प्रेम जीतेगा, अब भय हारेगा।
सिर्फ मुश्किल ही नहीं,
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
यह तो मुमकिन ही नहीं
प्यार में गम न मिले,
अपनी बस्ती हो कहीं
आंख पुरनम न मिले,
एक मंजिल ही नहीं
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
यह तो मुमकिन ही नहीं
आज को कल न मिले,
कोई सागर हो यहां
नाव को जल न मिले,
एक साहिल ही नहीं
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
यह तो मुमकिन ही नहीं
प्यास को दर न मिले,
रूप को छांह कहीं
उम्र को घर न मिले,
एक संगदिल ही नहीं
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
घबड़ाओ न! जिस जिंदगी को तुमने जिंदगी समझा वह कोई जिंदगी ही नहीं है।
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
पुकार उठी है, अज्ञात ने स्मरण किया है। चल पड़ो!
यह तो मुमकिन ही नहीं
प्यार में गम न मिले,
पीड़ा तो होगी। और जितना बड़ा प्रेम होगा उतनी बड़ी पीड़ा होगी। धन्यभागी हैं वे जो अनंत प्रेम की अनंत पीड़ा को झेलने को तत्पर होते हैं।
यह तो मुमकिन ही नहीं
प्यार में गम न मिले,
अपनी बस्ती हो कहीं
आंख पुरनम न मिले,
आंख तो गीली होगी ही!
एक मंजिल ही नहीं
ए मेरे दिल,
जिंदगी और भी है।
अब तक तुमने जो जाना है, वह कुछ भी नहीं अक्षय विवेक! अभी असली तो जानने को शेष है। अब तक तुमने जो जीया है वह कुछ भी नहीं, अक्षय विवेक! असली जीने को तो अभी शेष है।
‘है कोई लेवनहारा?’--उसी के लिए पुकार उठाई जा रही है। और तुम्हारे हृदय तक पुकार पहुंची। अब साहस करो। अब हिम्मत जुड़ाओ। चुनौती अंगीकार करो।
अज्ञात सागर की चुनौती है! और माना कि नाव हम सबकी छोटी-छोटी है और सागर की उत्ताल तरंगें और अपनी छोटी नाव और अपने छोटे हाथ और अपनी छोटी पतवार देख कर भरोसा नहीं आता कि पार हो सकेंगे! मगर मैं तुमसे कहता हूं: इतने ही छोटे हाथ मेरे, इतनी ही छोटी नाव मेरी--और मैं पार हुआ। इतने ही छोटे हाथ बुद्ध के, इतनी ही छोटी नाव बुद्ध की और बुद्ध पार हुए। तुम भी पार हो सकोगे। असल में जिसने साहस कर लिया नाव को छोड़ देने का सागर में, वह उसी क्षण पार हो जाता है। जिसने साहस कर लिया सागर में उतरने का, सागर की लहरें ही उसको पार करा देती हैं।
रामकृष्ण कहते थे: दो ढंग हैं नाव को नदी में छोड़ने के। एक तो पतवार उठाओ, खेओ नाव; और एक है पाल खोलो। रामकृष्ण कहते थे: जिसमें साहस होता है, वह तो पाल खोल देता है। पतवार रख देता है और मस्त होकर लेट जाता है। हवाएं ले चलती हैं।
तुम ही परमात्मा से मिलने को उत्सुक नहीं हो, परमात्मा भी तुमसे इतना ही मिलने को उत्सुक है। उसकी हवाएं तुम्हें ले चलेंगी। मगर साहस तो चाहिए, नहीं तो हम किनारे से ही जंजीर बांध कर बैठे रहते हैं। हम किनारा नहीं छोड़ते, किनारे की सुरक्षा नहीं छोड़ते, किनारे की सुविधा नहीं छोड़ते।
और मैं तुमसे कह दूं: किनारे पर जीए भी तो मौत से बदतर है। और जिस सागर ने तुम्हें पुकारा है, अगर मझधार में भी डूब गए तो किनारा मिल जाता है।
आखिरी प्रश्न: भगवान, प्रार्थना कैसे करें?
सुशीला! प्रार्थना प्रेम का परिष्कार है। प्रार्थना प्रेम की सुगंध है। प्रेम अगर फूल तो प्रार्थना फूल की सुवास। प्रेम थोड़ा स्थूल है, प्रार्थना बिलकुल सूक्ष्म है।
प्रेम के जगत में तो शायद शब्दों का थोड़ा लेन-देन हो जाए, प्रार्थना के जगत में तो शब्द बिलकुल ही व्यर्थ हो जाते हैं। वहां तो मौन ही निवेदन करना होता है।
तू पूछती है: ‘प्रार्थना कैसे करें?’
प्रार्थना कोई विधि नहीं है। ध्यान की तो विधि होती है, प्रार्थना की कोई विधि नहीं होती। प्रार्थना तो स्वस्फूर्त है, सहज भाव है। जो विधि से करेगा प्रार्थना, उसकी प्रार्थना तो व्यर्थ हो गई; उसकी प्रार्थना तो नकली हो गई; प्रथम से ही झूठी हो गई।
प्रार्थना तो आंख खोल कर, हृदय को खोल कर इस जगत में जो महा उत्सव चल रहा है, इसके साथ सम्मिलित हो जाने का नाम है। वृक्ष हरे हैं, तुम भी हरे हो जाओ--प्रार्थना हो गई! फूल खिले हैं, तुम भी खिल जाओ--प्रार्थना हो गई। सूर्य निकला है, तुम भी जग जाओ--प्रार्थना हो गई। हवाएं नाच रही हैं, तुम भी नाचो--प्रार्थना हो गई।
प्रार्थना का कोई ढंग नहीं, रूप नहीं, आकार नहीं, व्यवस्था नहीं। प्रार्थना तो मस्ती है, उन्मत्तता है, दीवानगी है। प्रार्थना तो परमात्मा की शराब को पी लेने का नाम है।
बस मत कर देना अरे पिलाने वाले!
हम नहीं विमुख हो वापस जाने वाले!
अपनी असीम तृष्णा है--तेरा वैभव
अक्षय है अक्षय--अरे लुटाने वाले!
हम अलख जगाने आए तेरे दर पै!
हम मिट जाने आए तेरे दर पै!
इस रिक्त पात्र को भर दे, भर दे, भर दे!
मदहोश हमें तू कर दे, कर दे, कर दे!
हम खड़े द्वार पर हाथ पसारे कब के,
हो जाएं अमर--ऐ अमर हमें तू वर दे!
है एक बिंदु में सिंधु भरा जीवन का;
परिपूरित कर दे मानस सूनेपन का!
फिर और! यहां पर पाना ही है खोना,
हंस कर पीने में छिपा प्यास का रोना!
चलने दे, सुख के दौर अरे चलने दे!
भर जाए दुख से उर का कोना-कोना!
अपना असीम अस्तित्व दिखा दे हमको!
बस लय हो जाना अरे सिखा दे हमको!
तेरी मदिरा का बूंद-बूंद दीवाना!
हम नहीं जानते अपना हाथ हटाना!
इस पथ का अथ है नहीं, न इसकी इति है,
गति है, गति है, गति है बस बढ़ते जाना!
किस ओर चले, है हुआ कहां से आना?
किसने जाना, निज को किसने पहचाना?
माना कि कल्पना और ज्ञान है--माना!
पर अविश्वास का, भ्रम का यहीं ठिकाना!
है एक आवरण, बुना हुआ जिसमें,
दिन-रात और सुख-दुख का ताना-बाना!
उस ओर? व्यर्थ का यह प्रयास--जाने दे!
पाने दे, हमको मुक्ति यहीं पाने दे!
लाने दे अपनी भुक्ति, हमें लाने दे!
निज आत्मघात कर जग को पछताने दे!
इस रिक्त पात्र को भर दे, भर दे, भर दे!
मदहोश हमें तू कर दे, कर दे, कर दे!
हम खड़े द्वार पर हाथ पसारे कब के,
हो जाएं अमर--ऐ अमर, हमें तू वर दे!
है एक बिंदु में सिंधु भरा जीवन का;
परिपूरित कर दे मानस सूनेपन का!
प्रार्थना है: अपने भिक्षापात्र को अस्तित्व के सामने फैला देना।
प्रार्थना है: अपने आंचल को चांद-तारों के सामने फैला देना।
कहने की बात नहीं। प्रार्थना एक भाव-दशा है, वक्तव्य नहीं। कोई हरे कृष्ण, हरे राम, ऐसा कहने से प्रार्थना नहीं होती। कि ‘अल्ला-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान,’ ऐसा कहने से कोई प्रार्थना नहीं होती! प्रार्थना मौन निवेदन है।
प्रार्थना झुकने की कला है। जहां झुक जाओ घुटने टेक कर पृथ्वी पर, वहीं प्रार्थना है।
प्रार्थना अंतर्तम की बात है। शायद आंसू टपकें, या शायद गीत फूटे--कौन जाने! कि शायद नाच उठो, कि पैरों में घूंघर बांध लो, कि बांसुरी उठा कर बजाने लगो--कौन जाने! कि चुप हो जाओ, कि बिलकुल चुप जाओ, कि वाणी सदा को खो जाए--कौन जाने!
प्रत्येक को प्रार्थना अनूठे ढंग से घटती है। अद्वितीय ढंग से घटती है। एक की प्रार्थना दूसरे की प्रार्थना नहीं होती। इसलिए प्रार्थना की नकल मत करना। और वहीं अड़चन हो गई है। हमें प्रार्थनाएं सिखा दी गई हैं--हिंदुओं की, मुसलमानों की, जैनों की, ईसाइयों की। कोई पढ़ रहा है गायत्री; दोहराए जा रहा है तोतों की तरह। कोई पढ़ रहा है नमोकार मंत्र; दोहराए जा रहा है तोतों की तरह। कोई पढ़ रहा है कुरान की आयतें। सुंदर हैं वे आयतें और सुंदर हैं वे मंत्र और प्यारे हैं उनके अर्थ; मगर प्रार्थना इतने से नहीं होती। उधार नहीं होती प्रार्थना। प्रार्थना तो तुम्हारे हृदय का बहाव है।
सुशीला, सौंदर्य के प्रति संवेदना को बढ़ाओ, फिर प्रार्थना अपने से पैदा होगी।
संगीत सुनो--झरनों का, वृक्षों से गुजरती हुई हवाओं का, कि किसी वीणा पर किसी वीणावादक का। संगीत सुनो सुबह पक्षियों का, कि रात सन्नाटे में झींगुरों का। सौंदर्य देखो--वृक्षों का, चांद-तारों का, पशुओं का, पक्षियों का, मनुष्यों का! जहां-जहां तुम्हें सौंदर्य का, संगीत का, लयबद्धता का, रसमयता का बोध हो, वहां-वहां अपने हृदय को खोल कर बैठ जाओ। वहीं मंदिर है, वहीं तीर्थ है। धीरे-धीरे प्रार्थना का स्वाद लग जाएगा।
मैं नहीं कह सकता प्रार्थना क्या है। मैं इतना ही कह सकता हूं कि प्रार्थना कैसी परिस्थिति में अनुभव होती है। संवेदनशीलता की जितनी गहराई बढ़ेगी उतनी ही प्रार्थना अनुभव होगी। फिर जब जगेगी प्रार्थना, तो तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी होगी। उस पर किसी की छाप नहीं होगी। उस पर बस तुम्हारे हस्ताक्षर होंगे। और ईश्वर तक वही प्रार्थना पहुंचती है जो तुम्हारी है, अपनी है, निज है। उधार बातें वहां तक नहीं पहुंचतीं।
लोग तो प्रेम-पत्र तक दूसरों से लिखवा लेते हैं। प्रेम-पत्र दूसरों से लिखवाए का क्या मूल्य होगा? कितना ही सुंदर कोई लिख दे, कितने ही बड़े पंडित से तुम प्रेम-पत्र लिखवा लो...।
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। फिर प्रेम टूटा, तो अपनी चीजें वापस मांगने आया, जो-जो उसने भेंट की थीं। स्त्री भी गुस्से में थी, उसने सब चीजें लौटा दीं। फिर भी मुल्ला खड़ा था। तो उसने कहा: अब और क्या चाहिए! सब तो दे दिया जो तुमने मुझे दिया था। उसने कहा: मेरे प्रेम-पत्र? स्त्री ने कहा: उनका क्या करोगे, प्रेम-पत्रों का?
मुल्ला ने कहा: अब तुझसे क्या छिपाना, एक पंडित जी से लिखवाता था! और अभी मेरी जिंदगी खत्म तो नहीं हो गई। अभी किसी और से प्रेम करूंगा। अब नाहक फिर पंडित जी को पैसे देने पड़ेंगे। तू लौटा दे वे प्रेम-पत्र, फिर मेरे काम आ जाएंगे। जरा नाम ऊपर का बदल दिया।
प्रेम-पत्र भी तुम दूसरों से लिखवाओगे? प्रार्थनाएं भी तुम दूसरों से सीखोगे? बस वहीं चूक हो जाएगी।
मैं तुम्हें प्रार्थना नहीं सिखा सकता। इतना ही कह सकता हूं कि किन अवसरों में प्रार्थना पैदा होती है। किस परिप्रेक्ष्य में, किस पृष्ठभूमि में प्रार्थना का जन्म होता है।
तुम मुझसे यह पूछो अगर कि कलियों को फूल कैसे बनाएं, तो मैं कुछ नहीं कह सकता। क्या मैं तुमसे कहूं कि कलियों को खींच-खींच कर खोल देना, ताकि वे फूल बन जाएं? मर जाएंगी कलियां, फूल तो नहीं बनेंगी। तुम अगर मुझसे पूछो कि वृक्षों से हम फूलों को कैसे निकालें, तो क्या मैं तुमसे कहूं कि खींचो, ताकत लगाओ? ऐसे तो नहीं होगा। मैं इतना ही कह सकता हूं--खाद देना, पानी देना, भूमि देना, बागुड़ लगा देना। सूरज आ सके, इसका खयाल रखना। बस तुम परिस्थिति पैदा करना। एक दिन फूल खिलेंगे। कलियां अपने से फूल बन जाएंगी। तुम परिस्थिति देना।
प्रार्थना मत सीखो, परिस्थिति दो। और परिस्थिति है--सौंदर्य का बोध, संगीत का बोध। परिस्थिति है--गहन संवेदनशीलता। उसी भाव-भूमि में तुम्हारी प्रार्थना का फूल खिलेगा। और जब फूल खिले, तो फिर फूल जो करवाए करना। पहले से बंधी हुई धारणाएं लेकर मत बैठे रहना। फिर फूल जो करवाए, वही करना।
और फूल रास्ता दिखाएगा। फूल मार्गदर्शक हो जाएगा। फूल कहेगा नाचो तो नाचना। फूल कहे गाओ तो गाना। फूल कहे चुप बैठ जाओ तो चुप बैठ जाना। अपने भीतर संवेदना में खिले फूल का इशारा पहचानना और उसके पीछे चले चलना। वह कच्चा सा धागा तुम्हें परमात्मा तक पहुंचा देगा; या उस कच्चे धागे में बंधा हुआ परमात्मा तुम तक आ जाएगा। कुछ भी हो, बूंद सागर में गिरे कि सागर बूंद में गिरे, बात एक ही है।
आज इतना ही।