BHAGWAD GEETA

Geeta Darshan Vol-9 05

Fifth Discourse from the series of 13 discourses - Geeta Darshan Vol-9 by Osho. These discourses were given in BOMBAY during MAR 03-15 1972.
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महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्‌।। 13।।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।। 14।।
परंतु हे पार्थ, दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन हैं, वे तो मेरे को सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त हुए निरंतर भजते हैं।
और वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए, और मेरे को बारंबार नमस्कार करते हुए, सदा मेरे ध्यान में युक्त हुए अनन्य भक्ति से मुझे उपासते हैं।
मनुष्य की मूढ़ता के संबंध में थोड़ी बातें और जान लेनी जरूरी हैं। क्योंकि उन्हें जानकर ही हम आज के सूत्र में प्रवेश कर सकेंगे। तीन लक्षण कृष्ण ने मूढ़ता के और कहे हैं, वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले।
इन तीन शब्दों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है। क्योंकि व्यर्थ आशा में जो उलझा हुआ है, वह सार्थक आशा करने में असमर्थ हो जाता है। व्यर्थ ज्ञान में जो उलझा है, सार्थक ज्ञान की ओर उसकी आंख नहीं उठ पाती। व्यर्थ कर्म में जो लीन है, वह उस कर्म को खोज ही नहीं पाता, जिसकी खोज से समस्त कर्मों के बंधन से मुक्ति संभव है।
व्यर्थ आशा क्या है? और हम सब जिस आशा में जीते हैं, उसमें हमने कभी कोई सार्थकता पाई है? सभी आशा में जीते हैं। आशा के बिना जीना तो कठिन है। आशा के सहारे ही जीते हैं। आशा का अर्थ है भविष्य। अतीत तो दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे जाता। अपने अतीत को लौटकर देखें, तो दुख का एक समूह, दुख की एक राशि मालूम पड़ती है, विफलताओं का एक ढेर, सभी सपनों की राख। पीछे लौटकर देखें, तो कोई कणभर को भी आनंद की कोई झलक नहीं दिखाई पड़ती है।
अगर मनुष्य को अतीत के सहारे ही जीना हो, तो मनुष्य इसी क्षण गिर जाए और जी न सके। क्योंकि अतीत में कुछ भी तो नहीं है, जो प्रेरणा बने। अतीत में कुछ भी तो नहीं है, जो सहारा बने। अतीत में कुछ भी तो नहीं है, जो जीवन को आगे ले जाने के लिए गति दे।
तो अतीत से हम जी नहीं सकते, क्योंकि अतीत में हमारा कोई अनुभव जीवन का नहीं है। अतीत तो दुख की एक लंबी कथा है। फिर भी हम जीते हैं, तो हमारे जीने की प्रेरणा कहां से आती होगी? पीछे से तो यह धक्का आता नहीं है। निश्चित ही यह खिंचाव आगे से आता होगा। भविष्य हमें खींचता है, और भविष्य के खिंचाव में हम चलते हैं। अतीत के धक्के में नहीं, भविष्य के खिंचाव में, भविष्य के आकर्षण में। भविष्य के आकर्षण का नाम आशा है।
आशा का अर्थ है, जो कल नहीं हुआ, वह आने वाले कल में हो सकेगा। जो कल नहीं मिला, वह कल मिलेगा। जो पीछे संभव नहीं हुआ, वह भी आगे संभव हो सकता है। इस संभावना का जो सपना है, वही हमें जिलाता है। अतीत व्यर्थ गया, कोई हर्ज नहीं; भविष्य में सार्थकता मिल जाएगी। असफलता लगी हाथ में अब तक, लेकिन कल सफलता के फूल भी खिल सकते हैं। यह संभावना, यह आशा हमें खींचती चली जाती है। आशा के वश हम जीते हैं।
उमर खय्याम ने अपने एक गीत की कड़ी में कहा है कि मैंने लोगों को दुख झेलते देखा और फिर भी जीते देखा! लोगों को पीड़ा पाते देखा और फिर भी जीवेषणा से भरा देखा, तो मैं बहुत चिंतित हुआ। इतना दुख है कि समस्त मनुष्य-जाति को आत्महत्या कर लेनी चाहिए। दुख इतना है कि जीवन कभी का असंभव हो जाना चाहिए था। लेकिन जीवन असंभव नहीं होता। दुखी से दुखी व्यक्ति भी जीए चला जाता है।
तो उमर खय्याम ने कहा है कि मैंने पूछा ज्ञानियों से, बुद्धिमानों से, लेकिन कोई उत्तर न पाया। क्योंकि उन ज्ञानियों और बुद्धिमानों को भी मैंने दुख में ही पड़े हुए देखा। और उनके दरवाजे पर, उनके मकान पर, मैं जिस दरवाजे से प्रवेश किया, सब चर्चा के बाद उसी दरवाजे से मुझे वापस आ जाना पड़ा, वही का वही। कोई उत्तर हाथ न आया। सब जगह से निराश होकर एक दिन मैंने आकाश से पूछा कि जमीन पर इतने लोग रह चुके हैं अरबों-अरबों, न मालूम कितने कालों से! आकाश, तूने सबको देखा है। सब दुख में जीए। क्या तू मुझे बता सकता है कि उनके जीने का राज क्या है? सीक्रेट क्या है? इतना दुख, फिर भी आदमी जीए क्यों चला जाता है?
तो उमर खय्याम ने कहा है, आकाश ने एक ही शब्द उच्चारा, आशा, होप। एक ही छोटा-सा शब्द, आशा।
आदमी जीए चला जाता है, दौड़े चला जाता है। कोई स्वप्न पूरा हो सकेगा, इसलिए पैरों में गति बनी रहती है, प्राणों में ऊर्जा बनी रहती है। लेकिन यहीं व्यर्थ आशा को समझ लेना जरूरी होगा।
आदमी आशा करता है भविष्य की। जिसे उसने आज अतीत बना लिया है, वह भी कल भविष्य था। आज का दिन बीत गया, अतीत हो गया। कल चौबीस घंटे पहले यह भी भविष्य था और मैंने अपनी आशा का दीया इस चौबीस घंटे पर जला रखा था, आज वह भी अतीत हो गया। लेकिन मैं लौटकर भी न देखूंगा कि कल जो मैंने दीया जलाया था आशा का, वह इन चौबीस घंटों में पूरा हुआ या नहीं!
न, बिना यह फिक्र किए मैं अपने दीए की ज्योति को आगे आने वाले चौबीस घंटों में सरका दूंगा। रोज अतीत होता चला जाएगा समय, और मैं कभी लौटकर यह न देखूंगा कि मेरी आशा व्यर्थ तो नहीं है? क्योंकि रोज समय बीत जाता है और वह पूरी नहीं होती।
वृथा आशा का अर्थ है, इस बात की प्रतीति न हो पाए कि जो मैं चाहता हूं, वह चाहना ही व्यर्थ है; वह कभी पूरा नहीं होगा। उस चाह का स्वभाव ही अपूर रहना है। जो मैं मांगता हूं, वह कभी नहीं मिलेगा। लेकिन समय का धोखा! हम रोज आगे सरका देते हैं, पोस्टपोन करते चले जाते हैं। और कभी यह नहीं सोचते कि जिसे हम आज अतीत कह रहे हैं, वह भी कभी भविष्य था। उसमें भी हमने आशा के बहुत-बहुत बीज बोकर रखे थे, वे एक भी फलित नहीं हुए, एक भी अंकुर नहीं निकला, एक भी फूल नहीं खिला।
तो पहली तो आशा की व्यर्थता इससे बनती है कि समय बीतता चला जाता है, लेकिन जो भूल हमने कल की थी, वही हम आज भी करते हैं, वही हम कल भी करेंगे। मौत आ जाएगी, लेकिन हमारी भूल नहीं बदलेगी।
बुद्धिमान व्यक्ति वह है, जो लौटकर यह देखे कि मैं पचास साल जी लिया, कौन-सी आशा पूरी हुई? अगर मैंने चाहा था प्रेम, तो मुझे मिला? अगर मैंने चाहा था सुख, तो मैंने पाया? अगर मैंने चाही थी शांति, तो फलित हुई? अगर मैंने आनंद की आशा बांधी थी, तो उसकी बूंद भी मिली? मैं पचास वर्ष जी लिया हूं, मैंने जो भी चाहा था, जो आशाएं लेकर जीवन की यात्रा पर निकला था, जीवन के रास्ते में वह कोई भी मंजिल घटित नहीं हुई। फिर भी मैं उन्हीं आशाओं को बांधे चला जा रहा हूं! कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी आशाएं ही दुराशाएं हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो मैं चाहता हूं, वह जीवन का नियम ही नहीं है कि मिले; और वह मैंने चाहा ही नहीं, जो कि मिल सकता था।
हमने क्या चाहा है, उसे हम थोड़ा विस्तार में देखें, तो खयाल में आ जाएगा कि दुराशा कैसी है।
हमने क्या चाहा है? जो भी चाहा है, एक बात पक्की है, वह मिला नहीं है। और ऐसा नहीं कि आपने ही ऐसा किया है। पूछें पड़ोसियों से! इतिहास में पीछे लौटें। पूछें उन सबसे, जिन्होंने यही चाहा है। किसी को भी नहीं मिला है। आज तक एक भी मनुष्य ने यह नहीं कहा है कि मुझे दूसरे से सुख मिल गया हो। लेकिन सभी ने दूसरे से सुख चाहा है। अब तक पृथ्वी पर एक भी मनुष्य ने यह नहीं कहा है कि मैं दूसरे से सुख पाने में समर्थ हो गया हूं। जिन्होंने कहा है कि मुझे सुख मिला है, उन्होंने कहा है, सुख मैंने अपने भीतर खोजा, तब मिला। और जब तक मैंने दूसरे के पास से सुख पाने की कोशिश की, तब तक केवल दुख पाया, सुख नहीं मिला।
लेकिन हम सभी दूसरे से सुख चाह रहे हैं। दूसरे बदल जाते हैं, लेकिन दूसरे से सुख चाहना नहीं बदलता। आज मैं एक स्त्री से सुख चाह सकता हूं, कल दूसरी स्त्री से, परसों तीसरी स्त्री से। स्त्रियां बदल जाती हैं। आज मैं बेटे से सुख चाहता हूं, कल मित्र से चाहता हूं, परसों किसी और से चाहता हूं। आज अपनी मां से सुख चाहता हूं, आज अपने पिता से सुख चाहता हूं, कल अपनी पत्नी से सुख चाहता हूं, लेकिन दूसरा, दि अदर मेरे सुख का केंद्र होता है। और मनुष्य के पूरे इतिहास में एक भी अपवाद नहीं है, एक भी एक्सेप्शन नहीं है, एक भी मनुष्य ने यह नहीं कहा है आज तक कि मुझे दूसरे से सुख मिला। आपको भी नहीं मिला है।
लेकिन एक बड़े मजे की बात है। जब दूसरे से सुख नहीं मिलता, तब आप एक दूसरी भूल करते हैं। और वह दूसरी भूल यह है कि दूसरे से दुख मिला। जब दूसरे से सुख नहीं मिल सकता, तो ध्यान रखना, दूसरे से दुख भी नहीं मिल सकता। भ्रांति एक ही है।
कोई सोचता है, दूसरे से सुख मिल जाए, यह हो नहीं सकता। क्योंकि सुख की सारी संभावना स्वयं से खुलती है, दूसरे से नहीं। खुलती ही नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे कोई रेत से तेल निकालना चाहे और न निकले। इसमें कोई रेत का कसूर नहीं है। रेत में तेल है ही नहीं। दूसरे में सुख है ही नहीं। लेकिन जब दूसरे में विफलता आती है--जो कि आएगी ही--तो हम सोचते हैं, दूसरे से दुख मिला। यह दूसरी भूल है। क्योंकि जिससे सुख नहीं मिल सकता, उससे दुख भी नहीं मिल सकता।
तब दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं। सब दुख स्वयं के कारण मिलते हैं और सब सुख स्वयं के कारण मिलते हैं। सुख और दुख का केंद्र स्वयं की तरफ है। लेकिन हमारी आशा के जो तीर हैं, वे दूसरे की तरफ लगे रहते हैं। यह वृथा आशा है; और ऐसा व्यक्ति मूढ़ है। मूढ़ वह इसलिए है कि वह जीवन के नियम को समझ ही नहीं पा रहा है। और जीवन का नियम प्रतिपल प्रकट हो रहा है।
जब भी चाहोगे दूसरे से सुख, तत्काल दुख मिलेगा। यह दुख दूसरे से नहीं मिलता, दूसरे से सुख चाहने के कारण मिलता है। आपने नियम के विपरीत चलने की कोशिश की, इसलिए दुख मिल जाता है। आपने नियम के प्रतिकूल बहने की कोशिश की, टांग टूट जाती है। आपने नियम के प्रतिकूल चलने की कोशिश की, दीवाल से सिर टकरा जाता है। इसमें दीवाल का कसूर नहीं है। दीवाल निकलने के लिए नहीं है। निकलना हो, तो दरवाजे से निकलना चाहिए।
लेकिन अगर आपका एक दीवाल से सिर टकराता है, तो आप तत्काल दूसरी दीवाल चुन लेते हैं कि इससे निकलने की कोशिश करेंगे। और जिंदगीभर दीवालें चुनते चले जाते हैं; और वह जो दरवाजा है, उसे चूकते चले जाते हैं। एक दीवाल से ऊबते हैं, तो दूसरी दीवाल को पकड़ लेते हैं। दूसरी से ऊबते हैं, तो तीसरी दीवाल को पकड़ लेते हैं। लेकिन दीवाल को नहीं छोड़ते!
हर आदमी दुखी है। दुख का कारण जीवन नहीं है। दुख का कारण जीवन बिलकुल नहीं है। क्योंकि जीवन तो परमात्मा का स्वरूप है। दुख वहां हो नहीं सकता। दुख का कारण है, जीवन के जो शाश्वत नियम हैं, उनकी नासमझी।
जमीन में कशिश है। आप एक झाड़ पर से गिर पड़ेंगे, तो टांग टूट जाएगी। इसमें न तो झाड़ का कोई हाथ है और न जमीन का कोई हाथ है। जमीन तो सिर्फ चीजों को नीचे की तरफ खींचती है। आपको झाड़ पर सम्हलकर चढ़ना चाहिए। आप गिरते हैं, तो आप जिम्मेवार हैं। आप यह नहीं कह सकते हैं कि जमीन की कशिश ने मेरे पैर तोड़ डाले। जमीन को कोई आपसे मतलब नहीं है। आप न गिरे होते, तो जमीन की कशिश भीतर पड़ी रहती। वह नियम आप पर लागू न होता। नियम तो काम कर रहे हैं। जब आप उनके प्रतिकूल होते हैं, तो दुख उत्पन्न हो जाता है; जब उनके अनुकूल होते हैं, तो सुख उत्पन्न हो जाता है।
ध्यान रखें, सुख का एक ही अर्थ है, जीवन के नियम के जो अनुकूल है, वह सुख को उपलब्ध हो जाता है। दुख का एक ही अर्थ है कि जीवन के नियम के जो प्रतिकूल है, वह दुख को उपलब्ध हो जाता है। अगर आप दुखी हैं, तो स्मरण कर लें कि आप जीवन के आधारभूत नियम के प्रतिकूल चल रहे हैं। कभी भूल-चूक से अगर आपको सुख की कोई झलक मिलती है, तो वह इसीलिए मिलती है कि कभी भूल-चूक से आप जीवन के नियम के अनुकूल पड़ जाते हैं। कभी भूल से आप दीवाल से निकलना भूल जाते हैं और दरवाजे से निकल जाते हैं। या कभी ऐसा हो जाता है कि आप दरवाजे को दीवाल समझ लेते हैं और निकल जाते हैं। लेकिन जब भी सुख फलित होता है, तो नियम की अनुकूलता से।
वृथा आशा का अर्थ है, नियमों के प्रतिकूल आशा। जैसा मैंने उदाहरण के लिए आपसे कहा, दूसरे से सुख मिल सकता है, यह एक वृथा आशा है। इसका चुकता परिणाम दुख होगा। और जब दुख होगा, तो हम कहेंगे, दूसरे से दुख मिल रहा है। हम अपनी भ्रांति नहीं छोड़ेंगे, यह मूढ़ता है। दुख मिल रहा है, सबूत हो गया कि मैंने जो चाह की, वह नियम के प्रतिकूल थी।
दूसरे से कुछ भी नहीं मिल सकता है। दूसरे से मिलने का कोई उपाय ही नहीं है। इस जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, वह हम अपने ही भीतर खोदकर पाते हैं।
और दूसरी तरफ से समझने की कोशिश करें। प्रत्येक व्यक्ति अपने चारों ओर आशाओं का, इच्छाओं का एक जाल बुनता है। अगर आशाएं टूटती हैं, जाल टूटता है, इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तो वह समझता है कि परमात्मा नाखुश है, भाग्य साथ नहीं दे रहा है। लेकिन वह यह कभी नहीं सोचता कि मैंने जो जाल बुना है, वह जाल गलत है।
भाग्य हर एक के साथ है। भाग्य का अर्थ है, जीवन का परम नियम, दि अल्टिमेट ला। भाग्य सबके साथ है। जब आप भाग्य के साथ होते हैं, तो सफल हो जाते हैं। जब आप भाग्य के विपरीत हो जाते हैं, तो असफल हो जाते हैं। भाग्य किसी के विपरीत नहीं है। लेकिन हमारे जाल में ही बुनियादी भूलें होती हैं। थोड़ा अपने जाल की तरफ देखें।
एक आदमी चाहता है कि धन मुझे मिल जाए, तो मैं धनी हो जाऊंगा। भीतर एक निर्धनता का बोध है हर आदमी को, एक इनर पावर्टी है। हर आदमी को लगता है भीतर, मेरे पास कुछ भी नहीं है; एक खालीपन, एंप्टीनेस, रिक्तता है। भीतर कुछ भी नहीं है। इसे कैसे भर लूं! इस रिक्तता को भरने की दौड़ शुरू होती है।
कोई आदमी धन से भरना चाहता है। गलत जाल रचना शुरू कर दिया। क्योंकि ध्यान रहे, धन भीतर नहीं जा सकता, और भीतर है निर्धनता। और धन बाहर रह जाएगा। धन भीतर जाता ही नहीं।
इसलिए एक बड़े मजे की घटना घटती है, जितना धन इकट्ठा होता है, उतनी भीतर की निर्धनता और प्रकट होने लगती है। इसलिए अमीर आदमी से ज्यादा गरीब आदमी जमीन पर खोजना मुश्किल है। इसलिए कई बार ऐसा हुआ कि अमीरों के बेटे--बुद्ध और महावीर--अमीरी को छोड़कर सड़क पर भीख मांगने चले गए।
यह बड़े मजे की बात है! जैसे ही किसी मुल्क में अमीरी बढ़ती है, वैसे ही उस मुल्क में एक भीतरी दीनता का भाव गहन हो जाता है। जब तक मुल्क गरीब होता है, तब तक भीतरी गरीबी का पता नहीं चलता। आज पश्चिम के सभी विचारक आंतरिक दरिद्रता की बात करते हैं। चाहे सार्त्र, चाहे कामू, चाहे हाइडेगर, वे सभी यह कहते हैं कि आदमी भीतर बिलकुल खाली है, एंप्टी है। इसको हम कैसे भरें?
गरीब आदमी को पता चलता है, पेट खाली है; अमीर आदमी को पता चलता है, आत्मा खाली है। पेट को भरना बहुत कठिन नहीं है, आत्मा को भरना बहुत कठिन है। असल में पेट खाली होता है, तो आत्मा के खाली होने का खयाल ही नहीं उठ पाता। इसलिए असली गरीबी तो उस दिन शुरू होती है, जिस दिन यह बाहरी गरीबी मिटती है। उस दिन असली गरीबी शुरू होती है।
एक और गहरी गरीबी है। उस गरीबी को भरने का भाव मन में होता है। क्योंकि खाली कोई भी नहीं रहना चाहता। खाली होना पीड़ा है। भरापन चाहिए, एक फुलफिलमेंट चाहिए।
कैसे उसको भरें? आदमी धन इकट्ठा करने में लग जाता है। नियम की भूल हुई जा रही है। धन इकट्ठा हो जाएगा, तो भी भीतर भर नहीं सकता। क्योंकि बैंक बैलेंस किसी भी तरह इनर बैलेंस नहीं बन सकता। वह तिजोड़ी में भरता जाएगा। आत्मा में कैसे धन जाएगा?
तो जो आदमी धन इकट्ठा करके सोचता हो कि मैं भरापन पा लूं, वह वृथा आशा कर रहा है। अगर असफल हुआ, तब तो असफल होगा ही; अगर सफल हुआ, तो भी असफल हो जाएगा।
इसको और ठीक से समझ लें।
अगर असफल हुआ, धन न कमा पाया, तब तो असफल होगा ही। क्योंकि जीवन दुख से भर जाएगा, फ्रस्ट्रेशन से, विषाद से, कि इतनी कोशिश की और धन भी न कमा पाया! और अगर सफल हो गया, तो और भी बड़ी असफलता अनुभव होगी कि धन कमा लिया; पूरा जीवन गंवा दिया; और धन का ढेर लग गया; और मैं तो खाली का खाली हूं!
कठिनाई धन में नहीं है, बुराई धन में नहीं है। धन का कोई कसूर नहीं है। आपको नियम की समझ नहीं है। आप उससे भरना चाहते थे भीतर की कमी को, जो भीतर नहीं जा सकता! इसमें धन का क्या कसूर है? फिर यह पागल धन को गालियां देना शुरू करेगा। दूसरी भूल शुरू हुई। फिर यह धन को गाली देना शुरू करेगा कि धन पाप है, कि धन बुरा है, कि धन मैं छूना नहीं चाहता। यह वही की वही भूल है। धन का इसमें कोई कसूर नहीं है। धन क्या कर सकता है? धन बाहर की चीज है, बाहर के काम आ सकता है। उसे भीतर भरने की कोशिश आपकी भूल थी, धन का कोई कसूर न था।
तीसरी तरफ से देखें।
एक आदमी यश पाना चाहता है, प्रतिष्ठा पाना चाहता है, अहंकार पाना चाहता है--जाना जाए कि वह कोई है! एक अर्थ में ठीक है। खोज है यह भी आंतरिक। हर आदमी जानना चाहता है, वस्तुतः मैं कौन हूं। यह बिलकुल भीतरी भूख है। जानना चाहता है, मैं कौन हूं। लेकिन गलत रास्ते पर जा सकता है। बजाय यह जानने के कि मैं कौन हूं, दूसरों को जनाने चल पड़े कि मैं कौन हूं। तो उपद्रव शुरू हो गया! बजाय जानने के कि मैं कौन हूं, क्योंकि मैं कौन हूं यह तो भीतरी खोज है, दूसरों को जनाने की कोशिश कि मैं कौन हूं.।
जरा देखें, किसी राजनीतिज्ञ को आपका धक्का लग जाए, तो वह आपकी तरफ आंख उठाकर कहेगा, जानते नहीं, मैं कौन हूं? उसको खुद भी पता नहीं है। लेकिन जब वह कह रहा है, जानते नहीं, मैं कौन हूं, तो उसका मतलब है कि अखबार में रोज फोटो छपती है, फिर भी जानते नहीं, मैं कौन हूं! अभी न भी होऊं मिनिस्टर, तो कोई हर्ज नहीं। पहले मिनिस्टर रह चुका हूं, भूतपूर्व हूं, एक्स मिनिस्टर हूं! जानते नहीं, मैं कौन हूं!
आदमी जानना चाहता है स्वयं कि मैं कौन हूं; यह उसकी भीतरी भूख है। लेकिन नियम की भूल हो सकती है। और तब वह आदमी दूसरों को जनाने निकल पड़ेगा कि मैं कौन हूं। जिंदगी बीत जाएगी दूसरों को समझाते-समझाते कि मैं यह हूं, मैं यह हूं। और आखिर में वह पाएगा, अगर सफल हो गया, तो भी असफल हो जाएगा। आखिर में पाएगा, सबने जान लिया है कि मैं कौन हूं--प्रधानमंत्री हूं, कि राष्ट्रपति हूं, कि यह हूं या वह हूं--और मुझे खुद तो अभी तक पता ही नहीं चला कि मैं कौन हूं। तब एक भारी विफलता हाथ लगेगी। अगर असफल हुआ, तो असफल होगा। अगर सफल हुआ, तो भी असफल हो जाएगा।
वृथा आशा का अर्थ है, सफलता संभव ही नहीं है। चाहे जीतो, चाहे हारो, हार निश्चित है। सफलता संभव ही नहीं है। तो दुनिया में जो लोग बहुत यश पा लेते हैं, बड़ी पीड़ा से भर जाते हैं। जिंदगीभर कोशिश की यश को कमाने के लिए। अखबारों की कटिंग काटकर घर में रख लेते हैं। फाइल बना लेते हैं। फिर कोई पूछता ही नहीं। फिर एक वक्त आता है कि सब जान लेते हैं। अब बात समाप्त हो गई। भीतर कुछ घटित नहीं होता। भीतर कुछ घटित नहीं होता।
इसलिए बहुत प्रतिष्ठित लोग भीतर बहुत अप्रतिष्ठा में मरते हैं। बहुत यशस्वी लोग भीतर बड़ी हीनता के बोध से भर जाते हैं; बड़ी इनफीरिआरिटी पकड़ लेती है। सब जानते हैं उन्हें, वे खुद ही अपने को नहीं जानते हैं! सब पहचानते हैं उन्हें, खुद ही वे अपने को नहीं पहचानते हैं! सारी दुनिया उन्हें जान लेती है, और वे अपने से अपरिचित खड़े हैं! पीड़ा पैदा होगी। वृथा आशा!
तो कृष्ण कहते हैं, मूढ़ता का पहला लक्षण, वृथा आशा।
वृथा कर्म। ऐसे कर्म हैं, जो वृथा हैं, लेकिन हम किए चले जाते हैं। वृथा कर्म से अर्थ है, ऐसा कर्म, जिससे सिवाय अहित के और कुछ भी नहीं होता। उदाहरण के लिए, आप जानते हैं, क्रोध वृथा कर्म है, लेकिन रोज किए चले जाते हैं। रोज करते हैं, रोज पछता भी लेते हैं। रोज मन में तय भी कर लेते हैं कि अब नहीं करूंगा, क्योंकि वृथापन समझ में आता है। लेकिन घड़ी दो घड़ी भी नहीं बीत पाती है कि क्रोध फिर होता है।
इस कर्म से आपको कोई फायदा नहीं होता। कभी किसी को नहीं हुआ। हो नहीं सकता है। क्योंकि क्रोध का अर्थ है, दूसरे की गलती के लिए अपने को सजा देना। एक आदमी ने मुझे गाली दे दी, यह गलती उसकी है। क्रोध मैं कर रहा हूं, सजा मैं अपने को दे रहा हूं। वृथा कर्म का अर्थ है, गलती किसी और की, अपराधी कोई और, सजा कोई और भुगत रहा है।
बुद्ध को किसी ने गाली दी। बुद्ध ने सुन ली और अपने रास्ते पर चलने लगे। बुद्ध के भिक्षु आनंद ने कहा, इस आदमी ने गाली दी है, इसको कुछ उत्तर नहीं देते हैं?
बुद्ध ने कहा, मैंने बहुत समय पहले से दूसरों की गलतियों के लिए अपने को सजा देना बंद कर दिया है। दूसरे ने गलती की, गाली देना उसका काम है, वह जाने। मैं कहां आता हूं? दे, न दे; वजनी गाली दे, कम वजनी गाली दे; ताकत लगाए, न लगाए। उसने मेहनत की। गांव से यात्रा करके रास्ते तक आया गाली देने; दे दी। उसने अपना काम पूरा किया, वह लौट गया। मेरा क्या लेना-देना है? न मैंने उसे गाली देने को उकसाया, न मैंने उसे प्रेरित किया। मेरा कोई संबंध ही नहीं है। मैं असंबंधित हूं। मैंने बहुत समय पहले दूसरों की गलतियों के लिए अपने को सजा देना बंद कर दिया है। क्योंकि क्रोध मैं करूं, जलूंगा मैं, आग मेरे भीतर उठेगी। रोआं-रोआं मेरा झुलस जाएगा। प्राण मेरे कंप उठेंगे। रक्तचाप मेरा बढ़ेगा। रात मुझे नींद नहीं आएगी। और यह आदमी, हो सकता है, गाली देकर मजे से सो जाए। इसने अपना काम पूरा कर लिया।
वृथा कर्म का अर्थ है, जिससे सिवाय हानि के और कुछ भी नहीं होता, लेकिन फिर भी हम किए चले जाते हैं। क्यों किए चले जाते हैं? एक यांत्रिक आदत के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। एक मूर्च्छा, एक निद्रा पकड़े हुए है, और किए चले जाते हैं। कल भी किया था, आज भी किया है। सौ में निन्यानबे मौके हैं कि कल भी करेंगे। जीवनभर--अगर आप अपने वृथा कर्मों का अनुपात जोड़ें, तो आपको पता चलेगा कि आपका पूरा जीवन वृथा कर्मों का एक जोड़ है।
अहंकार के लिए हम कितने कर्म करते रहते हैं! शायद हमारे जीवन का निन्यानबे प्रतिशत हिस्सा ऐसे कर्मों में संलग्न होता है, जिससे हम अपने अहंकार को मजबूत करके दूसरों को दिखाना चाहते हैं। चाहे हम कपड़े पहनते हों, चाहे हम मकान बनाते हों, चाहे हम अपनी पत्नी को गहने से लाद देते हों, इन सबके पीछे, इस सारी दौड़ के पीछे, एक मैं को प्रकट करने की चेष्टा चल रही है कि मैं हूं। और मैं साधारण नहीं हूं, नोबडी नहीं हूं, समबडी हूं।
इस मैं को मजबूत करने की कोशिश चल रही है। इस कोशिश में हम सारा जीवन गंवा देते हैं। एक आदमी बड़ा मकान बनाता है, सिर्फ इसलिए कि दूसरों के मकानों को छोटा करके दिखा दे। समझ लीजिए, दिखा भी दिया। दूसरों के मकान छोटे भी हो गए, आपका मकान बड़ा हो गया। होगा क्या? इससे क्या फलित होगा?
यह छोटे बच्चे जैसी दौड़ है। छोटे बच्चे अक्सर अपने बाप के पास टेबल पर ऊपर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं, मैं आपसे बड़ा हो गया। अगर आपके मकान के बड़े होने से आप पड़ोसी से बड़े होते हैं, तो इस बच्चे के तर्क में कोई गलती नहीं है। तब तो जो छिपकली आपकी छत पर चल रही है, वह आपसे बड़ी हो गई! अगर मकान ऊंचा होने से आप बड़े हो सकते, तो बड़ा होना एकदम आसान था। तब तो आकाश में पक्षी उड़ रहे हैं, बड़ी मुश्किल हो गई। तब तो उनके ऊपर और बादल उड़ रहे हैं, बड़ी मुश्किल हो गई। और चांद-तारे हैं; कहां तक ऊपर जाइएगा? और कहीं ऊंचाई, भौतिक ऊंचाई, भीतरी ऊंचाई से कोई संबंध रखती है?
अक्सर उलटा होता है। अक्सर यह होता है कि भीतरी ऊंचाई से भरा हुआ आदमी बाहरी ऊंचाई की चिंता ही नहीं करता। क्योंकि इतना आश्वस्त होता है भीतरी ऊंचाई से कि बाहरी ऊंचाई से क्या फर्क पड़ता है! इसलिए अक्सर अगर बाप से उसका बेटा कुर्सी पर चढ़कर कहे कि मैं तुमसे बड़ा हो गया
, तो बाप खुश होता है, और कहता है, बिलकुल ठीक, जरूर बड़े हो गए। अगर बाप से बेटा कुश्ती लड़ता है, तो बाप चित जमीन पर लेट जाता है, बेटे को जीत जाने देता है। क्योंकि खुद की जीत इतनी सुनिश्चित है कि उसे सिद्ध करने की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती। बेटे को हराने में भी क्या अर्थ है? हारा ही हुआ है।
लेकिन अगर बाप कभी ऐसा मिल जाए--और बहुत बाप मिल जाएंगे, जो छोटे-से बेटे को दबाकर उसकी छाती पर बैठ जाएंगे कि मैं तेरा बाप हूं, तू मुझे हराने की कोशिश कर रहा है?
यह जो छाती पर बेटे की बैठा हुआ बाप है, यह हार गया। इसे भरोसा ही नहीं है, बाप होने का भी भरोसा नहीं है। जो गुरु अपने शिष्य को हराने में लगा हो, वह हार गया। गुरु की तो गुरुता इसमें है कि शिष्य अगर लड़ने आ जाए, तो वह हार जाए और कह दे कि बैठ जाओ मेरी छाती पर; जीत गए तुम।
जितना आश्वासन हो अपने भीतर की स्थिति का, यथार्थ का, उतनी ही बाहर की बातें बेमानी हो जाती हैं। लेकिन हम जो कर्म कर रहे हैं, वे बाहर की बातों के लिए हैं। हम सफल भी हो जाएंगे, तब हम पाएंगे कि वृथा हुआ कर्म, वृथा हुई दौड़।
नेपोलियन भी मरते वक्त वैसा ही दीन और दरिद्र है, सिकंदर भी मरते वक्त वैसा ही दीन और दरिद्र है, जैसा कोई बड़े से बड़ा भिखारी हो सकता है।
यह सारे जीवन की दौड़ का क्या हुआ? क्या है निष्पत्ति? यह इतना कर्म, इतने विराट कर्म का आयोजन, फल क्या है? इतनी दौड़-धूप, पहुंचना कहां होता है? पसीना बहुत बह जाता है, हाथ तो कुछ आता नहीं है!
कृष्ण इसे वृथा कर्म कहते हैं। कृष्ण कहते हैं, यह कर्म व्यर्थ है। मूढ़जन व्यर्थ कर्म करते रहते हैं।
सार्थक कर्म क्या है? सार्थक कर्म का अर्थ है, व्यर्थ कर्म से कितना ही हम कुछ करें, कभी कुछ नहीं निकलता; और सार्थक कर्म से अभी निकलता है और यहीं निकलता है। व्यर्थ कर्म से कभी कुछ नहीं निकलता। और सार्थक कर्म से अभी निकलता है, यहीं निकलता है, कल की प्रतीक्षा नहीं करनी होती।
जैसा मैंने कहा, जब आप क्रोध करते हैं, तो आप भीतर जल जाते हैं। रास्ते पर चलते हुए एक अनजान बच्चे की तरफ देखकर आप मुस्कुरा देते हैं, तो भीतर आप खिल जाते हैं। एक आदमी रास्ते पर चला जा रहा है, उसका सामान गिर जाता है, आप उठाकर दे देते हैं और अपने रास्ते पर चले जाते हैं। यह कृत्य बहुत छोटा है, लेकिन भीतर बहुत अर्थ रखता है। कृत्य बिलकुल छोटा है। एक आदमी का छाता गिर गया है और आपने उठाकर दे दिया और अपने रास्ते पर चले गए। कहीं कोई विराट कर्म नहीं हो गया है। कोई अखबारों में इसकी खबर नहीं छपेगी। इतिहास में कोई लेखा-खोजा नहीं होगा।
लेकिन जो आदमी दूसरे के छाते के लिए झुक जाता है, उठाकर हाथ में दे देता है और चल पड़ता है, इसके भीतर इसी वक्त कुछ हो गया। दूसरे के लिए इतना करने का जो सदभाव है, वह भीतर आनंद को इसी क्षण जन्म दे जाता है--इसी क्षण; कल के लिए नहीं रुकना पड़ेगा।
लेकिन हम किसी का छाता भी इतनी आसानी से उठाकर नहीं दे सकते। छाता उठाकर हम खड़े होकर देखेंगे कि धन्यवाद देता है या नहीं। तब हमने व्यर्थ आशा शुरू कर दी। और हम चूक गए एक मौका, एक शुद्ध प्रेम के कृत्य का, ए प्योर एक्ट आफ लव। मौका चूक गए। हमने धन्यवाद में उसको भी बेच दिया। अपेक्षा ने उसे भी नष्ट कर दिया।
सार्थक कर्म वह है, जो हमारी आत्मा से सहज फलित होता है और जिस कर्म में अनिवार्य रूप से प्रेम मौजूद होता है। व्यर्थ कर्म वह है, जो हानिकर है, और जिसमें अनिवार्य रूप से क्रोध मौजूद रहता है; या अहंकार मौजूद रहता है; या ईर्ष्या मौजूद रहती है। वे सब एक ही बीमारी के अलग-अलग नाम हैं।
सार्थक कर्म अगर हमारे जीवन में बढ़ जाएं, तो हमें कल के लिए आशा नहीं रखनी पड़ती, आज ही हम धनी हो जाते हैं। लेकिन सार्थक कर्म को पहचानने का क्या रास्ता है? एक ही रास्ता है, जो कर्म इसी क्षण सारे प्राण को आनंद से भर जाए--इसी क्षण।
और ध्यान रहे, इसी क्षण केवल वे ही कृत्य आपके प्राण को आनंद से भर सकते हैं, जिन्हें पुराने धर्मशास्त्रों में पुण्य कहा है। पाप का अर्थ है, वृथा कर्म, जिससे कभी कोई निष्पत्ति न होगी। पुण्य का अर्थ है, ऐसा कर्म, जो अभी आनंद से भर जाता है।
लेकिन हम ऐसे बेईमान हैं और ऐसे चालाक हैं कि हम पुण्य को भी वृथा कर्म की कोटि में बना लिए हैं, रख दिए हैं। हम अगर पुण्य भी करते हैं, तो इसलिए कि आगे कुछ मिले। एक आदमी अगर एक पैसा भी दान करता है, तो वह पक्का कर लेता है कि इसके कितने गुना ज्यादा मुझे स्वर्ग में मिलेगा।
व्यर्थ हो गया। पुण्य का शुद्ध कृत्य, किसी आदमी को एक पैसा देने का, यह छोटा-सा कृत्य भी बहुत बड़ा हो सकता था, अगर इसके पीछे कोई मांग न होती, इसके पीछे अगर कोई आशा न होती, कोई अपेक्षा न होती। सिर्फ इस घड़ी में एक आदमी पीड़ा में था और मैंने, चूंकि मेरे पास था, दे दिया था। इससे ज्यादा इसमें कुछ भी न होता, तो यह पुण्य का कृत्य था और एक फूल की तरह मेरे जीवन में खिल जाता और इसकी सुगंध कभी भी समाप्त न होती। और यह फूल कभी भी मुर्झाता नहीं। और यह मेरे प्राणों की अनिवार्य संपत्ति हो जाती।
धन से प्राण नहीं भरे जा सकते, लेकिन ऐसे फूल इकट्ठे होते चले जाएं, तो प्राण भर जाते हैं। और फुलफिलमेंट, एक भरापन अनुभव होने लगता है।
लेकिन मैं चूक गया। मैंने पहले पक्का कर लिया कि यह एक पैसा जो मैं दे रहा हूं, इसका कितने गुना मुझे मिलेगा। मैंने इसको भी भविष्य में खींच दिया। मैंने इसे भी वासना बना दिया। मैंने इसमें भी भविष्य को निर्मित कर लिया और आशा निर्मित कर ली। अब मैं दुख पाऊंगा। यह क्षण भी मैंने खोया, यह पैसा भी मैंने खोया, और अब यह भविष्य मुझे दुख देगा। क्योंकि कोई स्वर्ग इसके उत्तर में मिलने वाला नहीं है। स्वर्ग इतना सस्ता नहीं है।
पुण्य से स्वर्ग नहीं मिलता; पुण्य स्वयं स्वर्ग है। तो पुण्यों के जोड़ से स्वर्ग नहीं मिलता; पुण्य में होना ही स्वर्ग में होना है। पुण्य एटामिक एक्ट का नाम है; एक-एक आणविक कृत्य। बस, मुझे आनंद था, बात समाप्त हो गई। इसके आर-पार नहीं देखना है। लेकिन हम हमेशा आशा में जीते हैं।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक टर्किश स्नानगृह में स्नान करने गया। यात्रा से आया था, फटे-पुराने उसके कपड़े थे, धूल-धंवास से भरा था। शक्ल पर भी धूल थी, लंबी यात्रा की थकान थी, दीन-हीन उसके कपड़े थे। तो टर्किश बाथ के सेवकों ने समझा कि कोई गरीब आदमी है।
स्वभावतः, जहां आशा में आदमी जीता है, वहां अमीर की सेवा की जा सकती है, गरीब की सेवा नहीं की जा सकती। होना तो उलटा चाहिए कि गरीब की सेवा हो; क्योंकि वह सेवा की ज्यादा उसे जरूरत है। अमीर को उतनी जरूरत नहीं है; उसे सेवा मिलती ही रही होगी। लेकिन आशा का जो जगत है.।
नौकर-चाकरों ने उस पर कोई ध्यान ही न दिया। फटी-पुरानी तौलिया उसे दे दी; क्योंकि पुरस्कार की कोई संभावना न थी। उपयोग में लाया हुआ साबुन उसे दे दिया। पानी की भी किसी ने चिंता नहीं की कि गरम है कि ठंडा है। मालिश करने वाले ने भी ऐसे ही हाथ फेरा, जैसे जिंदा आदमी पर हाथ न फेरता हो।
नसरुद्दीन सब देखता रहा। स्नान करके बाहर निकला। कपड़े पहने। किसी नौकर को आशा ही नहीं थी कि इससे कुछ टिप भी मिलेगी, कोई पुरस्कार भी होगा। लेकिन उसने अपने खीसे से उस देश की जो सबसे कीमती स्वर्णमुद्रा थी, वह बाहर निकाली। प्रत्येक नौकर को एक-एक स्वर्णमुद्रा दी, और अपने रास्ते पर चल पड़ा।
अवाक रह गए नौकर। छाती पीट ली दुख से। दुख से कह रहा हूं! छाती पीट ली दुख से। क्योंकि अगर इसकी सेवा ठीक से की होती, तो आज पता नहीं क्या हो जाता! स्वर्णमुद्रा कभी किसी ने नहीं दी थी। नवाब भी वहां से गुजरे थे, वजीर भी वहां से गुजरे थे। एक-एक नौकर को एक-एक स्वर्णमुद्रा किसी ने कभी भेंट न दी थी। और इतनी सेवा की थी! और यह आदमी सब को मात कर गया। छाती पर सांप लोट गया। उस रात नौकर सो नहीं सके। बार-बार यही खयाल आया, बड़ी भूल हो गई। अगर ठीक से सेवा की होती--सेवा तो की ही नहीं उस आदमी की--अगर ठीक से सेवा की होती, तो पता नहीं क्या दे जाता!
मुल्ला नसरुद्दीन दूसरे दिन फिर उपस्थित हुआ। और भी फटे-पुराने कपड़े थे, और भी धूल-धंवास से भरा था। लेकिन ऐसे उसका स्वागत हुआ, जैसे सम्राट का हो। जो श्रेष्ठतम तेल था उनके पास, निकाला गया। जो श्रेष्ठतम साबुन थी, वह आई। नए ताजे तौलिए आए। गरम पानी आया। घंटों उसकी सेवा हुई। घंटों उसे नहलाया गया। वह शांत, जैसे कल नहाता रहा, वैसे ही नहाता रहा। जाते वक्त, जब जाने लगा, अपने खीसे में हाथ डाला। नौकर सब हाथ फैलाकर आशा में खड़े हो गए। जो उस देश का सबसे छोटा पैसा था, वह उसने एक-एक पैसा उनको भेंट दिया!
छाती पर पत्थर पड़ गया। वे सब चिल्लाने लगे कि तुम आदमी पागल तो नहीं हो! यह तुम क्या कर रहे हो? कल जब हमने कुछ भी नहीं किया, तुमने स्वर्णमुद्राएं दीं! और आज जब हमने सब कुछ किया, तो ये पैसे तुम दे रहे हो?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, यह कल का पुरस्कार है। आज का पुरस्कार कल दे चुका हूं।
उस रात भी नौकर नहीं सो सके!
हम जो भी अपेक्षाएं बांधकर जीते हों। कुछ भी हो जाए, कुछ न करें और स्वर्णमुद्रा मिल जाए, तो भी दुख होता है। कुछ करें, स्वर्णमुद्रा न मिले, तो भी दुख होता है। अपेक्षा में दुख है, अपेक्षा में पीड़ा है।
कृष्ण कहते हैं, और वृथा ज्ञान वाले.।
वृथा ज्ञान क्या है? जो ज्ञान अपने काम न आए, वह वृथा है। और हम सबके पास ऐसा-ऐसा ज्ञान है, जो काम कभी भी नहीं आता। दुनिया में ज्ञान की कोई भी कमी नहीं है। शायद जरूरत से ज्यादा है। और हर आदमी के पास पर्याप्त मात्रा में है, जरूरत से ज्यादा है। इसलिए हरेक बांटता रहता है, हर किसी को बांटता रहता है।
इस दुनिया में जितने मुक्तहस्त होकर हम ज्ञान बांटते हैं, और कोई चीज नहीं बांटते। हालांकि कोई लेता नहीं आपके ज्ञान को, पर आप बांटते चले जाते हैं। क्योंकि दूसरे के पास भी पहले से ही काफी है। कोई किसी की सलाह नहीं मानता। इस दुनिया में जो सबसे ज्यादा दी जाती है चीज, वह सलाह है। और जो सबसे कम ली जाती है, वह भी सलाह है। कोई नहीं मानता, लेकिन आप बांटे चले जाते हैं।
यह ज्ञान, जो आप बांटते फिरते हैं, आपके किसी काम आया है कभी? इसका आपने कभी कोई उपयोग किया? यह ज्ञान कभी आपके जीवन का अंतरंग हिस्सा बना? यह ज्ञान आपकी बीइंग, आपकी आत्मा बना? यह ज्ञान कभी आपके हृदय में धड़का और आपके खून में बहा? यह ज्ञान कभी आपके मस्तिष्क की मज्जा बन पाया? या बस कोरे शब्द हैं, जो आपके भीतर गूंजते रह जाते हैं? आप एक ग्रामोफोन रिकार्ड हैं?
जरा खयाल करेंगे अपनी बुद्धि का तो आपको पता लगेगा कि बिलकुल ग्रामोफोन रिकार्ड हैं। कुछ है, जो डाल दिया जाता है भीतर, फिर आप उसे बाहर डालते रहते हैं। यह ज्ञान वृथा है। क्योंकि जो ज्ञान जीवन को रूपांतरित न कर जाए, आपके खुद ही काम न आए, वह इस दुनिया में किसी और के काम न आ सकेगा।
ज्ञान वही सार्थक है, जिसे जानने से ही मेरे जीवन में रूपांतरण हो। ज्ञान का अर्थ ही है, जो क्रांति हो जाए! जानूं और बदल जाऊं। जानूं और बदलूं न, जानकर भी वही रह जाऊं, जो अनजाने में था, अज्ञान में था, तो इस ज्ञान और अज्ञान में फर्क क्या है?
आप गीता पढ़ जाएं और वही के वही आदमी रहें, जो गीता पढ़ने के पहले थे, तो इस गीता के साथ जो मेहनत हुई, वह व्यर्थ गई। और इस गीता ने जो आपको दिया, वह बेकार है, दो कौड़ी का भी नहीं है। क्योंकि आप वही के वही हैं; कहीं कोई फर्क नहीं हुआ।
मैं देखता हूं, गीतापाठी हैं, चालीस साल से गीता पढ़ रहे हैं। यहां बंबई में कई सत्संगी हैं, वे रोज सुबह से उठकर सत्संग करते रहते हैं। नियमित करते रहते हैं। कौन वहां बोल रहा है, कौन नहीं बोल रहा है, इससे भी कोई प्रयोजन नहीं है, सत्संग करना उनका धंधा है। अपना रोज सुबह सत्संग कर आते हैं। वह वैसे ही, जैसे कोई आदमी रोज सुबह उठकर चाय पीता है, कोई रोज सुबह उठकर सिगरेट पीता है, ये सत्संग करते हैं!
चालीस साल से ये सत्संग कर रहे हैं। शायद सिगरेट पीने वाले को कुछ असर भी हुआ हो, कैंसर हो गया हो, टी.बी. हो गई हो, वह भी इनको नहीं हुआ। कुछ नहीं हुआ इन्हें। ये सत्संग से ऐसे बचकर निकल जाते हैं! और इनको करवाने वाले लोग भी बैठे हुए हैं कि वे इनको करवाते रहते हैं! वे भी इनको करवाते रहते हैं! उनको भी इससे प्रयोजन नहीं है।
कुछ हैं, जिनको सत्संग करवाना ही है, वह उनकी बीमारी है। कुछ हैं, जिनको सत्संग करना ही है, वह उनकी बीमारी है। ये दोनों तरह के बीमार मिल जाते हैं, फिर चलता रहता है ज्ञान का लेन-देन! कहीं कोई फल नहीं होता। हां, एक फल होता दिखाई पड़ता है कि धीरे-धीरे ये सुनने वाले सुनाने वाले बन जाते हैं, यह एक फल दिखाई पड़ता है! जो सुनते रहे काफी दिन, फिर इतना ज्ञान इकट्ठा हो जाता है कि अब उसका क्या करें? तो ज्ञान का एक ही उपयोग मालूम पड़ता है कि दूसरे को ज्ञानी बनाओ! स्वयं से उसका कोई लेना-देना नहीं है।
अपने भीतर आप जांच करना, कौन-सा ज्ञान है, जिसने आपको छुआ हो, जिसने आपको स्पर्श किया हो, जिसके बाद आप वही आदमी न रह गए हों, जो आप पहले थे; रत्तीभर भी बदल गया हो कुछ!
कुछ बदलता दिखाई नहीं पड़ता हो, तो कृष्ण कहते हैं, यह वृथा ज्ञान है। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति, ऐसा वृथा ज्ञानी मूढ़ है। थोड़ा-सा ज्ञान काफी है, जो बदले। ऐसी आग को घर में जलाकर भी क्या करेंगे, जिससे आंच भी न निकलती हो! एक प्याली चाय भी बनानी हो, तो न बनती हो! और जला रहे हैं जिंदगीभर से, और घर में चिल्लाते फिर रहे हैं कि आग जल रही है! कुछ नहीं होता।
थोड़ा-सा इंचभर भी जीवन बदलता हो, ऐसे ज्ञान की तलाश करनी चाहिए; और ऐसे ही ज्ञान पर भरोसा करना चाहिए; और ऐसे ही ज्ञान को भीतर जाने देना चाहिए। व्यर्थ के ज्ञान को भीतर नहीं जाने देना चाहिए, क्योंकि भीतर कचरा भरने के लिए स्थान नहीं है। जो बहुत कचरा भीतर भर लेता है, फिर कभी सार्थक भी दरवाजे पर आ जाए, तो वह कचरे की वजह से भीतर नहीं जा सकता।
ऐसा मैं देखता हूं बहुत लोगों को। वे मेरे पास आकर कभी कहते हैं कि यह बात तो ठीक लगती है, लेकिन पहले जो बातें सुनी हैं, उनकी वजह से बड़ी मुश्किल हो रही है!
मैं उनसे कहता हूं कि अगर पहली सुनी बातों ने तुम्हारी जिंदगी बदल दी हो, तो मेरी बात को भूल जाओ! और अगर पहली सुनी बातों ने तुम्हारी जिंदगी न बदली हो, तो कचरे की तरह उनको बाहर फेंक दो! इतनी हिम्मत रखनी चाहिए कि जिस ज्ञान से मेरे में कोई अंतर नहीं पड़ा, उसे मैं बाहर उतारकर रख सकूं। जिस दवा से कोई फायदा न हुआ हो, बल्कि बीमारी और सघन हो गई हो, उस दवा को कब तक लेते रहिएगा?
लेकिन बड़े खतरनाक बीमार भी हैं दुनिया में! वे बीमारी को ही नहीं पकड़ लेते, दवा तक को जोर से पकड़ लेते हैं! वे कहते हैं, एक दफे बीमारी रहे कि जाए, लेकिन दवा को हम न छोड़ेंगे!
दवा को कोई पकड़ ले, तो उस मरीज को क्या कहिएगा? यह पागल हो गया। ज्ञान पकड़ने की चीज नहीं है, रूपांतरित होने की है, बदलने की है, आत्मक्रांति की है, ट्रांसफार्मेशन की है।
तो कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान वृथा है, जिस ज्ञान से कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसा व्यक्ति मूढ़ है। वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान से भरे हुए मूढ़जन.।
इसके बाद वे दूसरे हिस्से में उनकी बात करते हैं, जो मूढ़ नहीं हैं।
वे कहते हैं, हे पार्थ, दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन, मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त हुए निरंतर भजते हैं।
इसमें दो बातें समझ लेने की हैं। एक तो दैवी प्रकृति के आश्रित हुए--यह कीमती हिस्सा है।
इस जगत में ऊपर की तरफ जाने वाला प्रवाह है, नीचे की तरफ जाने वाला प्रवाह है। आप जिस प्रवाह को चुन लेते हैं, वही प्रवाह आपके जीवन को गतिमान करने लगता है। इस जीवन में पूरब की तरफ भी हवाएं चलती हैं, और पश्चिम की तरफ भी। जब पश्चिम की तरफ हवाएं चलती हैं, तब अगर आप अपनी नाव को खोल देते हैं, तो आप पश्चिम की तरफ पहुंच जाते हैं। इस जगत में पूरब की तरफ भी हवाएं चलती हैं। जरा प्रतीक्षा करें और नाव का पाल तब खोलें, जब पूरब की तरफ हवाएं चलती हैं, तो आप पूरब पहुंच जाते हैं।
प्रतिपल जीवन में नीचे की तरफ जाने वाली हवाएं भी बहती हैं और ऊपर की तरफ जाने वाली हवाएं भी बहती हैं। आप जिन हवाओं का सहारा ले लेते हैं, आप उसी यात्रा पर निकल जाते हैं। जब कोई आपको गाली देता है, तब यह हवा दूसरी तरफ जा रही है। अगर आपने अभी पाल खोल दी अपनी नाव की, तो आप क्रोध के जगत में उतर जाएंगे। यह आपका जिम्मा है, यह गाली देने वाले का नहीं है। इस जगत में सब हो रहा है, यह आप पर निर्भर है। जब कोई शांत ध्यान में बैठा है, तब भी एक हवा दूसरी तरफ बह रही है। काश, आप भी इसके पास शांत होकर थोड़ी देर बैठ जाएं, तो शायद आपकी नाव किसी दूसरी यात्रा पर निकल जाए।
बुद्ध एक गांव में बहुत बार गए। उस गांव में एक दुकानदार है। मित्र उसको कहते हैं कि बुद्ध आए हैं। वह कहता है कि अभी तो दुकान पर बहुत ग्राहक हैं। कभी बुद्ध आते हैं, वह कहता है, इस बार तो लड़के की शादी है। कभी बुद्ध आते हैं, वह कहता है कि आज तो मौसम ठीक नहीं है; आज बाहर न जा सकूंगा। कभी कहता है, आज तबियत खराब है।
तीस वर्ष बुद्ध उस गांव से अनेक बार गुजरे, लेकिन वह आदमी यही कहता रहा, कभी यह कारण है, कभी वह कारण है। लेकिन इस आदमी को कोई जाकर गाली दे, ग्राहकों को छोड़कर दरवाजे से बाहर निकल आएगा। कोई इसको गाली दे, धुआंधार वर्षा हो रही हो, फिक्र छोड़ देगा। कोई इसको गाली दे, बीमार हो, मर भी गया हो, तो फिर से प्राण आ जाएंगे; बाहर निकल आएगा कि किसने गाली दी? लेकिन बुद्ध इसके गांव से गुजरते हैं, तो यह तीस साल तक कोई न कोई बहाना खोजता रहता है।
मैं पटना में था, वहां के कलेक्टर मुझे रात ग्यारह बजे मिलने आए। तो मैंने उनसे कहा कि अब तो मैं सोने जा रहा हूं, बिस्तर पर बैठ गया हूं, आप देख ही रहे हैं। बस, अब सिर रखने की देर थी और आप आ गए हैं। आप कल सुबह आठ बजे आ जाएं। उन्होंने कहा, आठ बजे तो मैं आ ही नहीं सकता, क्योंकि आठ बजे तो मैं सोकर ही नहीं उठता।
मैंने उनको कहा कि नौ बजे आ जाएं, क्योंकि फिर नौ से ग्यारह मैं उलझा रहूंगा। उन्होंने कहा, नौ बजे मैं बिलकुल नहीं आ सकता।
क्या तकलीफ है?
उन्होंने कहा, नौ बजे तक तो मैं स्नान वगैरह करके कोर्ट जाने की तैयारी करता हूं।
तो मैंने उनको कहा कि आप पांच बजे आ जाएं। उन्होंने कहा कि पांच बजे भी नहीं आ सकता, क्योंकि साढ़े चार बजे तो दफ्तर से लौटता हूं, थका-मांदा होता हूं।
तो मैंने उनसे पूछा कि आप मुझसे मिलना चाहते हैं कि मैं आपसे मिलना चाहता हूं? कौन किससे मिलना चाहता है, यह तय हो जाए!
अनेक लोग ऐसे हैं, वे कहते हैं कि हम तो इसी वक्त नाव छोड़ेंगे; हवा को पूरब की तरफ ले जाना चाहिए। हवा को पूरब की तरफ जाना है कि आपको पूरब की तरफ जाना है?
फिर मैंने उनसे कहा कि सोना छोड़ नहीं सकते पंद्रह मिनट पहले; स्नान पंद्रह मिनट पहले कर नहीं सकते; दफ्तर से थककर आए, तो मिलने आ नहीं सकते। तो यह जो आप कहते हैं कि मुझे परमात्मा की तलाश है, यह परमात्मा लास्ट आइटम मालूम पड़ता है! यह आखिरी, फेहरिस्त में आखिरी मालूम पड़ता है। क्योंकि नींद भी इससे महत्वपूर्ण है, दफ्तर भी इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है, थकान भी इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है। तो ऐसा मालूम पड़ता है कि परमात्मा पर बड़ा उपकार कर रहे हैं!
कृष्ण कहते हैं, यह मूढ़ता है, यह मूढ़-भाव है।
अमूढ़, बुद्धिमान वह है, जो अपने को दैवी प्रकृति के आश्रित कर लेता है। जो चौबीस घंटे इस खोज में रहता है कि परमात्मा की तरफ कहां हवा बह रही है, मैं उसमें सम्मिलित हो जाऊं। मेरे सहारे तो शायद मैं न जा सकूं। शायद अकेला मेरा इतना बल नहीं; शायद मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं; लेकिन हवा जब बह रही हो, तो मैं सम्मिलित हो जाऊं।
हम भी खोजते हैं हवाएं, लेकिन हम वे हवाएं खोजते हैं, जो हमें नर्क की तरफ ले जाएं। हवाओं का कोई कसूर नहीं है। आप खोल लेते हैं पाल बेवक्त, फिर दुख पाते हैं। समझदार आदमी समय पर पाल खोलना जानता है। और सदा तलाश में रहता है कि कब पाल बंद कर ले, कब पाल को खोल ले; कब नाव को छोड़ दे; कब नाव को रोक ले। थोड़े ही दिन में उसे पता चल जाता है कि इस जीवन में दो धाराएं हैं, दो आकर्षण हैं, दो मैग्नेट्‌स हैं, जो काम कर रहे हैं।
जैसा मैंने आपको कल कहा कि मनुष्य अपूर्ण है और वह नीचे की तरफ भी जा सकता है, आखिरी नीचाई तक जा सकता है; और वह आखिरी ऊंचाई तक भी जा सकता है। वह निम्नतम हो सकता है और श्रेष्ठतम भी। अब यह उस पर ही निर्भर है कि वह किस धारा के वशीभूत होता है।
दैवी धारा उसे कहते हैं, जो आपके भीतर रोज-रोज दिव्यता को बढ़ाती चली जाए। तो जांचते रहें अपने भीतर कि मैं जिस जीवन में चल रहा हूं, उसमें मेरी दिव्यता बढ़ रही है या घट रही है?
अक्सर तो ऐसा होता है कि बूढ़े लोग कहते हैं कि बचपन बहुत अच्छा था; स्वर्ग था। इसका मतलब क्या हुआ? मैं बूढ़े कवियों को मिलता हूं, तो वे गीत गाते हैं बचपन के। वे कहते हैं, बचपन स्वर्ग था। वह शांति! वह निर्दोषता!
तो जिंदगीभर कहां बहे तुम? बचपन तो शुरुआत थी यात्रा की। अब बूढ़े हो गए, अस्सी साल के हो गए, अभी भी कहते हो, बचपन बड़ा निर्दोष था, तो यह पूरी जिंदगी यात्रा तुमने किस दिशा में की? गलत; कहीं तुम उलटे ही बहे। अन्यथा बूढ़े आदमी को कहना चाहिए कि बचपन निर्दोष था, अब महानिर्दोषता फलित हुई है। बचपन आनंद था, लेकिन इस आनंद के सामने कुछ भी नहीं था, जो आज उतरा है। तब तो यात्रा बढ़ती हुई, तब तो आप दिव्य की ओर बढ़े।
अगर एक आदमी बगीचे की तरफ जाता है, तो बगीचा नहीं भी आता, तो भी बहुत पहले ठंडी हवाएं मालूम पड़ने लगती हैं, तो भरोसा बढ़ता है कि बगीचा करीब होगा। अभी बगीचा नहीं आया, लेकिन फूलों की सुगंध आने लगती है, तो भरोसा बढ़ता है कि बगीचा करीब होगा। अभी बगीचा नहीं आया, लेकिन पक्षियों की चहचहाहट सुनाई पड़ने लगती है, तो भरोसा बढ़ता है कि बगीचा करीब आया। अगर आप बगीचे की तरफ बढ़ रहे हैं, और पक्षियों की आवाज खो जाती है, फूलों की सुगंध आनी बंद हो जाती है, फिर ठंडी हवाओं का भी पता नहीं चलता, तो एक दफा तो रुककर सोचें कि बगीचे की तरफ बढ़ रहे हैं कि बगीचे से विपरीत चले जा रहे हैं?
हम जिसे जिंदगी कहते हैं, वह जिंदगी हमें और घने दुख में ले जाती है। हम जिसे जिंदगी कहते हैं, वह और बड़े नर्कों का द्वार खोलती चली जाती है। तो हम विकसित होते हैं या पतित होते हैं? हम नीचे गिरते हैं या ऊपर उठते हैं?
दैवी धारा का अर्थ है, जहां से भी, जिस परिस्थिति में भी, जिस घटना में भी खड़े हों, वहां तत्काल खोजें कि इसमें दैवता की तरफ जाने का मार्ग क्या है? और मैं आपसे कहता हूं, ऐसी कोई घटना नहीं है, जहां दोनों धाराएं मौजूद न हों।
एक आदमी आपको गाली देता है। आप यह भी सोच सकते हैं कि इस आदमी ने गाली दी। अगर ऐसे मैंने बरदाश्त कर लिया, तब तो हर कोई मुझे गाली देने लगेगा। इसका मुंह बं
द करना जरूरी है। आपने एक धारा चुनी। आप वहीं खड़े होकर यह भी सोच सकते थे कि इस आदमी ने एक ही गाली दी; सिर्फ गाली ही दी, मुझे मारा नहीं। बड़ी कृपा है। आदमी बड़ा भला है। मार भी सकता था। आपने दूसरी धारा चुनी।
प्रत्येक घटना में दोनों धाराएं मौजूद हैं, चुनाव आपका है। ऐसा आदमी नहीं है बुरे से बुरा, जिसमें परमात्मा की झलक न हो। और ऐसा आदमी नहीं है भले से भला, जिसमें आप शैतान को न खोज लें। चुनाव आपका है। चुनाव बिलकुल आपका है। और जो आप चुनेंगे, वही आपके जीवन का प्रवाह हो जाएगा।
तो कृष्ण कहते हैं, दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन हैं.।
और महात्मा का इतना ही अर्थ होता है कि जो दैवी प्रकृति के आश्रित हुआ, जो अब सब जगह दैवता का मार्ग खोजता है, जो सब जगह मंदिर की तलाश करता है।
मैंने लोगों को मंदिर में जाते देखा है। वहां वे पता नहीं क्या तलाश करते हैं! अगर मंदिर में बैठे हुए लोगों की बातचीत सुनें, तो पता चलेगा कि वे क्या बात कर रहे हैं! साधु समझा रहे हैं, उनके आस-पास बैठी हुई स्त्रियों की बातचीत सुनें कि वे क्या बातचीत कर रही हैं?
स्त्रियां इसलिए कह रहा हूं कि पुरुष तो अब साधुओं को सुनने जाते ही नहीं, इसलिए उनकी बात छोड़ दें। या जाते भी हैं, तो कुछ अपनी पत्नी के पीछे चले जाते हैं, कुछ दूसरों की पत्नियों के पीछे चले जाते हैं! साधु से कुछ लेना-देना नहीं होता।
ये जो बैठे हुए लोग हैं, इनसे पूछें कि वहां किसलिए जाते हैं? क्या बात करते हैं? क्या सोचते हो मंदिर में बैठकर? चर्च में भी बैठकर चिंतन क्या चलता है? मस्जिद में भी भीतर क्या होता रहता है? क्योंकि मस्जिद काम नहीं आएगी; वह जो भीतर हो रहा है, वही काम आएगा।
वेश्या के घर में भी बैठकर अगर भीतर दैवी आश्रित कोई बह रहा हो, तो शायद परमात्मा तक पहुंच जाए। और मंदिर में भी बैठकर अगर भीतर कोई उलटी धारा में जा रहा हो, तो परमात्मा कुछ भी नहीं कर सकता, कोई उपाय नहीं है। आप कहां है, यह सवाल नहीं है। आपकी अंतर्धारा किस ओर बही जा रही है!
मैंने सुना है कि एक साधु और एक वेश्या की एक साथ मृत्यु हुई, एक ही दिन। आमने-सामने घर था। मृत्यु के दूत लेने आए, तो दूत बड़ी मुश्किल में पड़ गए। उन्हें फिर जाकर हेड आफिस में पता लगाना पड़ा कि मामला क्या है! क्योंकि संदेश में कुछ भूल मालूम पड़ती है। साधु को ले जाने की आज्ञा हुई है नर्क, और वेश्या को आज्ञा हुई है स्वर्ग! तो उन्होंने कहा, इसमें जरूर कहीं भूल हो गई है! साधु बड़ा साधु था; वेश्या भी कोई छोटी वेश्या नहीं थी। मामला सीधा साफ है, गणित में कोई गड़बड़ है। वेश्या को नर्क जाना चाहिए, साधु को स्वर्ग जाना चाहिए।
काश, जिंदगी इतनी सीधी होती, तो सभी वेश्याएं नर्क चली जातीं और सभी साधु स्वर्ग चले जाते। लेकिन जिंदगी इतनी सीधी नहीं है, जिंदगी बहुत जटिल है।
ऊपर से पता लगाकर लौटे। खबर मिली कि वही ठीक आज्ञा है, वेश्या को स्वर्ग ले आओ, साधु को नर्क। उन्होंने पूछा, थोड़ा हम समझ भी लें, क्योंकि हम बड़ी दुविधा में पड़ गए हैं। तो दफ्तर से उन्हें खबर मिली कि तुम जरा नए दूत हो; तुम्हें अनुभव नहीं है। पहले ही दिन ड्यूटी पर गए थे। पुरानों से पूछो! यह सदा से होता आया है; यही नियम है। फिर भी उन्होंने कहा, थोड़ा हम समझ लें।
तो पता चला कि जब भी साधु के घर में सुबह कीर्तन होता, तो वेश्या रोती अपने घर में। सामने ही घर था। रोती, रोती इस मन से कि मेरा जीवन व्यर्थ गया। कब वह क्षण आएगा सौभाग्य का कि ऐसे कीर्तन में मैं भी सम्मिलित हो जाऊं! मन भी होता, तो कभी द्वार के बाहर निकल आती। साधु के मंदिर के पास कान लगाकर खड़ी हो जाती दीवाल के। लेकिन मन में ऐसा लगता कि मुझ जैसी पापी मंदिर में कैसे प्रवेश करे! तो कहीं साधु को पता न चल जाए, इसलिए चुपचाप छिप-छिपकर कीर्तन सुन लेती। मंदिर की सुगंध उठती, धूप जलती, मंदिर के फूलों की खबर आती, मंदिर का घंटा बजता; और चौबीस घंटे, पूरे जीवन वेश्या मंदिर में रही। चित्त मंदिर में घूमता रहा, घूमता रहा, घूमता रहा। और एक ही कामना थी कि अगले जन्म में चाहे बुहारी ही लगानी पड़े, पर मंदिर में ही जन्म हो। मंदिर के द्वार पर ही!
साधु भी कुछ पीछे न थे वेश्या से। जब भी वेश्या के घर रात राग-रंग छिड़ जाता, आधी रात होती, तो वे करवट बदलते रहते! वे सोचते, सारी दुनिया मजा लूट रही है। हम कहां फंस गए! और सामने ही, भगवान! सामने के सामने ही आनंद लुटा जा रहा है और एक हम मुसीबत में फंस गए। यह साधुता कहां से ले फंसे! कई बार भाग जाते निकलकर घर से; वेश्या के घर का चक्कर लगा आते। भीतर घुसने की कोशिश भी करते, तो हिम्मत न होती कि मैं साधु, भीतर कैसे जा सकता हूं! कोई देख न ले!
वेश्या मंदिर में रही, साधु वेश्यालय में रहे। देखा किसी ने नहीं यह, क्योंकि यह घटना भीतर की है। और जो बाहर से तौलते हैं, वे नहीं देख पाएंगे।
महात्मा, कृष्ण उसे कहते हैं, जो दैवी प्रवाह में है। जो शुभ की, सौंदर्य की, सत्य की, सब दिशाओं से खोज करता रहता है। जिसका चुनाव शुभ का है। अशुभ दिखाई भी पड़े, तो आंख बंद कर लेता है। शुभ दिखाई न भी पड़े, तो भी देखता है। धीरे-धीरे सारा जगत शुभ हो जाता है।
सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त हुए निरंतर मुझे भजते हैं।
कुछ भी वे करते हों, कुछ भी वे सोचते हों, एक बात निरंतर, सब ओर, मैं उन्हें दिखाई पड़ता हूं। सबमें आत्यंतिक कारण की भांति छिपा हुआ, सबके भीतर सनातन मूल की तरह अप्रकट, सब स्थितियों में, सब दशाओं में मेरा भजन उनके चित्त में अनन्य रूप से चलता रहता है।
और वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए, तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मेरे को बारंबार नमस्कार करते हुए, सदा मेरे ध्यान में युक्त हुए भक्ति से मुझे उपासते हैं।
इसमें दो-तीन बातें समझ लेने की हैं।
एक, परमात्मा है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है; आप भक्त हो सकते हैं या नहीं, यह महत्वपूर्ण है। इसे फिर से दोहरा दूं, परमात्मा न हो, चलेगा। आप भक्त न हुए, नहीं चलेगा। भगवान मूल्यवान नहीं, भक्त मूल्यवान है।
ऐसा समझें कि भगवान तो खूंटी की तरह है, भक्त टांग दिए कपड़े की भांति है। खूंटी के लिए तो कोई खूंटी नहीं लगाता, कपड़ा टांगने के लिए कोई लगाता है। कपड़ा टांगने को ही न हो, तो खूंटी व्यर्थ है। और कपड़ा टांगने को हो, तो हम किसी भी चीज को खूंटी बना सकते हैं। जिस घर में खूंटी नहीं होती, लोग दरवाजे पर टांग देते हैं, खिड़की पर टांग देते हैं, खीली पर टांग देते हैं। खूंटी हो, कपड़ा ही न हो, तो क्या टांगिएगा? कपड़ा हो, खूंटी न हो, तो कहीं भी टांग लेते हैं।
असली सवाल भगवान नहीं है; असली सवाल भक्त है। भगवान तो केवल निमित्त है। क्योंकि उसके बिना भक्त होना मुश्किल हो जाएगा। वह तो केवल सहारा है।
इसलिए योग के जो पुराने शास्त्र हैं, वे बहुत अदभुत हैं। वे कहते हैं कि भगवान भी एक साधन है; वह भी एक उपकरण है, जस्ट ए मीन्स। परम उपलब्धि के लिए, जीवन के परम आनंद की उपलब्धि के लिए भगवान भी एक उपकरण है, एक साधन है। और ऐसे लोग भी हुए हैं, जैसे कि बौद्ध हैं या जैन हैं; वे कहते हैं, भगवान के बिना भी चला लेंगे।
लेकिन भगवान के बिना भक्त होना बहुत मुश्किल है। भगवान के होते हुए भक्त होना मुश्किल है, तो भगवान के बिना भक्त होना बहुत मुश्किल हो जाएगा। महावीर ने चला लिया, लेकिन महावीर के भक्त नहीं चला पाए। उनको फिर महावीर को ही भगवान बना लेना पड़ा। महावीर ने कहा, कोई भगवान की जरूरत नहीं, उपासना काफी है, साधना काफी है, सदभाव काफी है, सत्य काफी है। और कोई जरूरत नहीं है।
महावीर बहुत सबल व्यक्ति हैं, वे बिना भगवान के भक्त हो सके। बड़ा कठिन है। कठिन ऐसा है कि प्रेमी मौजूद न हो, प्रेमिका मौजूद न हो और आप प्रेमी हो सकें। हो सकते हैं; कठिन नहीं है। जब कोई आदमी पूरे प्रेम से भरा होता है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि प्रेमी पास है या नहीं है। न हो, तो भी प्रेम तो मौजूद ही रहेगा। कोई प्रेमी के कारण तो प्रेम पैदा होता नहीं। प्रेम तो भीतर होता है; उसके कारण प्रेमी पैदा होता है। लेकिन हमारा प्रेम तो ऐसा है कि प्रेमी क्षणभर को हट जाए, तो प्रेम खो गया!
वह था ही नहीं। धोखा था, प्रवंचना थी, बहाना था। एक शक्ल थी, एक चेहरा था, कोई अंतर-अवस्था न थी।
बुद्ध बैठे हैं एक जंगल में। कोई निकले या न निकले; रास्ते से कोई गुजरे या न गुजरे; उनकी करुणा तो बरसती ही रहेगी; उनका प्रेम तो झरता ही रहेगा। जैसे निर्जन में एक फूल खिले; रास्ते पर कोई न निकले, तो भी फूल तो खिला ही रहेगा; सुगंध तो फैलती ही रहेगी। फूल यह तो नहीं सोचेगा कि बंद करो दरवाजे, कोई ग्राहक तो दिखाई नहीं पड़ता! फूल कोई दुकानदार तो नहीं है।
ठीक ऐसे ही, प्रेमी भी हो सकता है बिना प्रेम-पात्र के, लेकिन बड़ा कठिन है। प्रेम-पात्र के साथ होते हुए हम प्रेमी नहीं हो पाते, तो बिना उसके बहुत कठिन होगा। कोई महावीर कभी हो सकता है। इसमें कठिनाई नहीं है। महावीर हो सके, वे पा सके परम अवस्था बिना भगवान की धारणा के; भगवान को पा सके बिना भगवान की धारणा के। लेकिन उनके पीछे का आदमी तो नहीं पा सकेगा; फिर उसे कठिनाई हुई। कोई भगवान नहीं रहा जैन विचार में, तो फिर महावीर को भगवान की तरह मानकर पूजा करनी शुरू करनी पड़ी।
खूंटी तो चाहिए ही। भक्त हुआ नहीं जा सकता बिना भगवान के; भगवान होना चाहिए।
कृष्ण कहते हैं कि ये जो भक्तजन हैं, यह जो भक्ति की धारा है, यह जो सतत अनन्य चिंतन है, यह जो परमात्मा का स्मरण है--उसके नाम का, उसके गुणों का; उसकी स्तुति है--यह भक्त के हृदय को निर्मित करती है।
ठीक वैसे ही, जैसे बीज को हम बो देते हैं। वृक्ष तो बीज में छिपा होता है, वृक्ष बाहर से नहीं आता, वह तो बीज में छिपा होता है; लेकिन अगर पानी न डाला जाए, और अगर सूरज की धूप न मिले, तो वह जो छिपा है, वह भी प्रकट नहीं हो पाता। और अगर प्रकट भी हो जाए, और अगर माली का सहारा न मिले, और माली की सुरक्षा न मिले, तो प्रकट हो जाए, तो भी टूट जाता है।
जो है, वह तो बीज में है, लेकिन गौण सहारे आस-पास खड़े करने होते हैं। एक दिन जरूर बीज इतना बड़ा वृक्ष बन जाता है कि फिर पशुओं का डर नहीं रहता; कि फिर उसे कोई तोड़ सकेगा, इसका भय नहीं रहता। फिर वर्षा न भी हो, तो अब बीज वर्षा के भरोसे नहीं है। अब उसने अपनी जड़ें फैला ली हैं। वह दूर नीचे पाताल तक पहुंच गया है। अब वह अपना पानी खुद खींच सकता है। अब सूरज कुछ दिन न भी निकले, तो वृक्ष को बहुत चिंता नहीं है। अब उसने सूर्य की बहुत-सी ऊर्जा को छिपाकर अपने भीतर राशि-कोष निर्मित कर लिए हैं। अब वह उनसे काम चला लेगा। अब माली भूल भी जाए और छूट भी जाए, तो वृक्ष अब अपनी खुद ही सुरक्षा करने में समर्थ हो गया है। लेकिन बीज ये बातें नहीं कर सकता।
तो महावीर तो वृक्ष जैसे व्यक्ति हैं, इसलिए बिना ईश्वर के चला लेते हैं। कोई कठिनाई नहीं आती। और ईश्वर को पा लेते हैं। लेकिन हम तो छोटे-छोटे बीज हैं, इनके लिए आस-पास बहुत तरह की व्यवस्था चाहिए।
तो कृष्ण कहते हैं, ईश्वर की धारणा, ईश्वर की तरफ उन्मुखता, उपासना उपयोगी है।
उपासना का अर्थ होता है, उसके पास बैठना। उपासना का अर्थ होता है, उसके पास बैठना। कहीं भी बैठे हों, अगर अनुभव करें कि परमात्मा के पास बैठे हैं, तो उपासना हो गई। घर में बैठे हों, कि मंदिर में, कि जंगल में, कहीं भी बैठे हों, अगर उसकी उपस्थिति अनुभव कर सकें, अगर अनुभव कर सकें उसका स्पर्श--कि हवाओं में वही छूता है, और सूरज की किरणों में वही आता है, और पक्षियों के गीत में उसी के गीत हैं, और वृक्षों में जो सरसराहट होती है हवा की, पत्ते जो कंपते हैं, वही कंपता है; सागर की जो लहर हिलती है, यह उसी की तरंगें हैं--अगर ऐसी प्रतीति हो सके, तो उपासना हो गई।
उपासना का अर्थ यह नहीं कि गए मंदिर में, घंटा बजाया, पूजा की; घर लौट आए। ऐसा भी नहीं है कि उसमें उपासना नहीं हो सकती है। उसमें हो सकती है। लेकिन जितनी जल्दबाजी में आदमी घंटे बजाते हैं, उससे शक होता है। जितनी जल्दी में घंटा बजाते हैं, जितनी जल्दी में पूजा-प्रार्थना करते हैं!
और देखें उनकी पूजा-प्रार्थना का जो समय है, वह काफी फ्लेक्सिबल होता है। कभी जब उन्हें फुर्सत होती है, या पत्नी से घर झगड़ा हो गया हो, या दुकान आज बंद हो, या आज अदालत न जाना हो, तो उपासना लंबी हो जाती है। आज जल्दी दफ्तर पहुंचना हो, उपासना सिकुड़कर छोटी हो जाती है। संक्षिप्त में भी निपटा देते हैं। जल्दी से घंटी बजाई है, जल्दी से सब किया है!
जो और भी ज्यादा जल्दी में हैं और जिनके पास सुविधा है, वे खुद उपासना नहीं करते, नौकर-चाकर रख लेते हैं, उनसे करवा देते हैं। पंडित हैं, पुजारी हैं, उपासना के लिए आप बीच में दलाल रख लेते हैं। भगवान से आपको लेना-देना है, पंडित-पुजारी को आपसे कुछ लेना-देना है; दोनों के बीच संबंध हो जाता है, समझौता हो जाता है, सौदा हो जाता है। वह कहता है, हमें आप इतना दे देना, हम इतनी उपासना कर देंगे। और आप निश्चिंत हैं कि उपासना चल रही है!
उपासना भी उधार हो सकती है? उपासना का अर्थ है, खुद उसके पास होना। दूसरा उसके पास कैसे होगा? और वह दूसरा भी हो सकता था, उसको उसकी चिंता नहीं है। उसको चिंता आपसे पैसे लेने की है। वह जब उपासना कर रहा है मंदिर में, तब वह गिनती कर रहा है, महीने के कितने दिन बाकी बचे, कि आज तनख्वाह का दिन आ गया कि नहीं आ गया; कि वह देख रहा है, यहां से उपासना करके दूसरे के घर जाना है, फिर तीसरे के घर जाना है। दिन में एक पंडित दस-पांच घरों को निपटा देता है! निपटाना है उसे।
इसलिए ध्यान रहे, पुजारी परमात्मा से जितने दूर रह जाते हैं, उतना शायद ही कोई रह पाता हो। क्योंकि पुजारी को प्रयोजन ही नहीं रह जाता। उसका मतलब कुछ और है। यह उसके लिए धंधा है।
उपासना आप उधार नहीं करवा सकते, आपको ही करनी पड़ेगी। और ऐसी उपासना का कोई मूल्य नहीं है कि मंदिर में तो परमात्मा के निकट होते हों और मंदिर के बाहर निकलते ही परमात्मा खो जाता हो। ऐसी उपासना से क्या होगा? अगर वह है, तो सब जगह है। और अगर नहीं है, तो कहीं भी नहीं है; मंदिर में भी नहीं है। अगर नहीं है, तो सब मंदिर व्यर्थ हैं। और अगर है, तो सारी पृथ्वी, सारा जगत उसका मंदिर है।
इन दो के बीच उपासक को चुन लेना चाहिए। या तो वह समझ ले कि वह मंदिर में भी नहीं है; और या फिर वह जान ले कि जहां भी अस्तित्व है, वहीं वह है। और उसकी यह जो खोज चलती रहे, जहां भी वह है।.
एक वृक्ष के पास बैठें, तो भी परमात्मा के पास बैठें। और एक पशु के पास खड़े हों, तो भी परमात्मा के पास खड़े हों। एक मित्र पास हो, तो भी परमात्मा पास हो; और एक शत्रु पास हो, तो भी परमात्मा पास हो। आपके लिए वही रह जाए। जितना यह बढ़ता चला जाए विस्तार, जितनी यह प्रतीति उसकी गहन होती चली जाए, उतने ही आप उपासना में रत हो रहे हैं।
उसके गुणों की चर्चा उपयोगी होगी। लेकिन हम गुणों की क्या चर्चा करते हैं? हम उसके गुणों की चर्चा कम करते हैं। हम गुणों की चर्चा में भी अपना हिसाब ज्यादा रखते हैं। मंदिर में मैं सुनता हूं लोगों को जाकर, वे कहते हैं कि हम पापी हैं और तुम पापियों का उद्धार करने वाले। इन्हें उसकी चर्चा से कम प्रयोजन है। इन्हें प्रयोजन इसका है, इनको एक बात का पक्का है कि ये पापी हैं! इसका बिलकुल पक्का नहीं है कि वह पापियों का उद्धार करने वाला है। ये तो केवल अपने पापों से बचाव का उपाय खोज रहे हैं। ये अपने पापों से बचाव का उपाय कर रहे हैं। इन्हें उसमें उत्सुकता नहीं है।
और मजा यह है कि बाहर निकलकर मंदिर के, ये कोई पापों में कमी करने वाले नहीं हैं। अब ये बड़े निश्चिंत हैं, क्योंकि वह पापियों का उद्धार करने वाला है। अगर ये पाप न करेंगे, तो वह बेचारा किसका उद्धार करेगा! परमात्मा भी खाली पड़ जाए, अनएंप्लायड हो जाए, अगर ये पापी जो हैं, पाप न करें! इसलिए उसको काम में लगाए रखने के निमित्त ये बाहर आकर पाप किए चले जाते हैं।
नहीं, कोई उससे प्रयोजन नहीं है। उसके गुणों की स्तुति का मतलब यह नहीं है कि हम एक खुशामद करें। स्तुति खुशामद नहीं है, वह फ्लैटरी नहीं है। और परमात्मा की आप कभी भी खुशामद नहीं कर सकते। क्योंकि खुशामद आप उसी की कर सकते हैं, जिसके और आपके बीच मूल्यों की समानता हो।
आप एक आदमी के पास जाकर कह सकते हैं कि आप जैसा महान कोई भी नहीं है। और वह खुश होगा, क्योंकि वह अहंकार की तलाश में है। परमात्मा से आप यह कहकर उसे खुश न कर पाएंगे कि आपसे महान कोई भी नहीं है। क्योंकि अहंकार की कोई तलाश नहीं है। और आप कितना भी कहें, वह जितना विराट है, आपके शब्द उतना विराट होना प्रकट न कर पाएंगे। और वह जितना महान है, आपके कोई शब्द उसको छू न पाएंगे। इसलिए आपके कहने का कोई मतलब नहीं है।
उसकी स्तुति का क्या अर्थ है? उसकी प्रार्थना का क्या अर्थ है? उसके गुणों के कीर्तन का क्या अर्थ है?
बड़े अलग अर्थ हैं। बड़े अलग अर्थ हैं।
मंसूर निकल रहा है एक गली से, एक सूफी फकीर। फूल खिला है। खड़ा हो गया मंसूर। हाथ जोड़े, आकाश की तरफ देखा। उसके साधकों ने पूछा, यहां किसको हाथ जोड़ रहे हैं? कोई मस्जिद नजर नहीं आती! मंसूर ने कहा, फूल खिला है, प्रभु की कृपा! अन्यथा फूल कैसे खिल सकते हैं!
यह कीर्तन है।
सूरज निकला है, मंसूर हाथ जोड़े खड़ा है। साथी कहते हैं, क्या कर रहे हैं? क्या मूर्तिपूजक हो गए! मंसूर कहता है, सूरज निकल रहा है। इतना प्रकाश, इतना प्रकाश, प्रभु की कृपा है!
यह स्तुति है।
मंसूर मर रहा है, उसके हाथ-पैर काट दिए गए हैं। वह आकाश की तरफ आंखें उठाकर मुस्कुरा देता है। भीड़ पूछती है, यह तुम क्या कर रहे हो? दुश्मन इकट्ठे हैं, वे उसको मार रहे हैं। मंसूर कहता है, प्रभु की कृपा है! क्योंकि इधर तुम मुझे मार रहे हो, उधर वह मुझे मिलने को बिलकुल तत्पर खड़ा है। इधर तुम मुझे गिराओगे, उधर मैं उसमें डूब जाऊंगा। प्रभु की बड़ी कृपा है। और शायद तुम सहायता न करते मुझे मारने में, तो मुझे पहुंचने में थोड़ी देर भी हो जाती।
यह स्तुति है।
जीसस को सूली लग रही है। और सूली पर आखिरी क्षण वे कहते हैं, हे परमात्मा, इन सबको माफ कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं, ये क्या कर रहे हैं!
यह उसका गुणगान है। यह उसका कीर्तन है। यहां भी अनुकंपा ही जीसस को खयाल में आती है।
जीवन में कोई भी अवसर न जाए जब हम उसकी अनुकंपा को अनुभव न करें। दुख हो कि सुख, शांति हो कि अशांति, सफलता मिले कि असफलता, रात हो कि दिन, सूरज उगता हो कि ढलता हो--उसकी अनुकंपा हमें प्रतीत होती रहे, उसके गुणों का एक सरगम हमारे भीतर बजता रहे, तो स्तुति है, तो कीर्तन है। हम जीएं कैसे ही, लेकिन भीतर एक सतत स्मरण उसका बना रहे। उसके स्मरण से हम न चूकें, तो उसका स्मरण है।
कृष्ण कहते हैं, ऐसे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरा कीर्तन करते हुए मुझे बार-बार नमस्कार करते हुए.।
बार-बार कैसे नमस्कार करिएगा? जहां भी आपको उसकी अनुकंपा अनुभव हो--और कहां उसकी अनुकंपा नहीं अनुभव होगी? अनुभव करने की दृष्टि हो, तो सब जगह उसकी अनुकंपा अनुभव होगी।
मंसूर जा रहा है एक रास्ते से। पैर में पत्थर लग गया है, लहूलुहान हो गया। वहीं बैठकर, हाथ जोड़कर घुटने टेक दिए हैं। साथियों ने कहा, क्या करते हो? पागल हो गए हो! पैर से लहू बह रहा है।
मंसूर ने कहा, जहां तक मैं जानता हूं, जैसा मैं आदमी हूं, मुझे फांसी होती तो भी कम था। उसकी कृपा है। फांसी बची, सिर्फ पैर में जरा-सा पत्थर लगा है। जैसा मैं आदमी हूं, उसे तो फांसी भी हो, तो कम है। उसकी कृपा है कि फांसी बच गई और पैर में सिर्फ पत्थर लगा है।
अगर आपके पैर में पत्थर लगता, तो मालूम है आपके मुंह से क्या निकलता? आपके मुंह से गाली निकलती। सारी दुनिया उस क्षण में बिलकुल बेकार हो जाती। सारा जीवन असार हो जाता। अगर आपका वश चले, तो आप उस वक्त पूरी दुनिया में आग लगा दें, सब नष्ट-भ्रष्ट कर दें। नहीं चलता वश, बात अलग है। लेकिन भीतर तो सोच लेते हैं। जरा-सा दांत में दर्द हो जाए, तो जगत में ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता। जरा-सी सिर में पीड़ा हो जाए, तो जगत एकदम नास्तिकता से भर जाता है, सब अंधेरा हो जाता है।
यह मंसूर कुछ और ढंग का आदमी है। यह हाथ जोड़कर उससे कह रहा है कि तेरी बड़ी कृपा है। ऐसे तो मैं आदमी ऐसा हूं कि फांसी भी लगे, तो कम है। तूने इतने में ही बचा लिया!
यह उसको बार-बार नमन है। और ऐसे भाव में जो जीएगा सतत, अगर उसकी जिंदगी क्रमशः उस परमात्मा की तरफ बहने लगे, तो.
(किसी व्यक्ति ने उठकर मंसूर के संबंध में कुछ उलटा-सीधा प्रश्न पूछा, निकट बैठे लोगों ने उसे पागल समझ वापस बैठा दिया। इस पर भगवान श्री ने हंसते हुए उसे समझाकर अपनी बात जारी रखी।)
कुछ फिक्र न करिए। कोई मंसूर के प्रेमी आ गए हैं। उन पर नाराज मत हो जाइए। उन पर नाराज हो गए, तो आसुरी प्रवृत्ति की तरफ बहना शुरू हो जाता है। उन पर खुश हो जाइए। एक मौका आपको दिया नाराज होने का, अगर नहीं हों, तो यात्रा दूसरी तरफ शुरू हो जाती है।
जीवन प्रतिपल एक चुनाव है। परमात्मा की तरफ, हर जगह से हम खोज लें। अब ये सज्जन आ गए, उनमें भी हम शैतान को देख सकते हैं; उनमें भी हम पागल को देख सकते हैं; उनमें भी हम परमात्मा को देख सकते हैं। हम पर निर्भर करेगा, उन पर निर्भर नहीं है। वे पागल हैं कि नहीं हैं, यह उनकी बात है। लेकिन हम यह देख सकते हैं, उनकी इस वृत्ति में भी हमें एक मौका है, अगर हम उनमें भी उसकी ही अनुकंपा अनुभव करें। उन्होंने सिर्फ कहा, आकर पत्थर ही मार सकते थे। उन्होंने सिर्फ कहा, कुछ और तो किया नहीं। जैसे हम आदमी हैं, इनके साथ कुछ भी किया जाए, तो थोड़ा है।
जीवन में हर घड़ी चुनते रहें, जहां से उसकी स्तुति और उसका स्मरण हो सके, तो एक दिन भीतर वह सघन भाव उपस्थित हो जाता है भक्त का, जो कि द्वार है भगवान के अनुभव के लिए।
आज इतना ही।
लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन करेंगे। एक बात कह दूं,
बीच में जब कीर्तन चले, तो आप उठें मत। कोई एक खड़ा हो जाता है, तो पीछे लोगों को खड़ा होना पड़ता है।
दूसरी बात, यहां नीचे जो लोग भी आकर खड़े होते हैं, वे अगर कीर्तन में नाचते हों, तो ही खड़े हों। आकर खड़े होकर देखना नहीं है। फिर वहीं बैठकर देखते रहें। यहां नीचे भी कोई आकर खड़ा नहीं होगा। कीर्तन में सम्मिलित होना हो, तो आ जाएं!