BHAGWAD GEETA
Geeta Darshan Vol-6 10
Tenth Discourse from the series of 21 discourses - Geeta Darshan Vol-6 by Osho. These discourses were given during MAY 02-12 1971.
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यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।। 20।।
और हे अर्जुन, जिस अवस्था में योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमेश्वर के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही संतुष्ट होता है।
योग से उपराम हुआ चित्त!
इस सूत्र में, कैसे योग से चित्त उपराम हो जाता है और जब चित्त उपराम को उपलब्ध होता है, तो प्रभु में कैसी प्रतिष्ठा होती है, उसकी बात कही गई है।
चित्त के संबंध में दो-तीन बातें स्मरणीय हैं।
एक, चित्त तब तक उपराम नहीं होता, जब तक चित्त का विषयों की ओर दौड़ना सुखद है, ऐसी भ्रांति हमें बनी रहती है। तब तक चित्त उपराम, तब तक चित्त विश्रांति को नहीं पहुंच सकता है। जब तक हमें यह खयाल बना हुआ है कि विषयों की ओर दौड़ता हुआ चित्त सुखद प्रतीतियों में ले जाएगा, तब तक स्वाभाविक है कि चित्त दौड़ता रहे।
चित्त के दौड़ने का नियम है। जहां सुख मालूम होता है, चित्त वहां दौड़ता है। जहां दुख मालूम होता है, चित्त वहां नहीं दौड़ता है। जहां भी सुख मालूम हो, चाहे भ्रांत ही सही, चित्त वहां दौड़ता है। जैसे पानी गड्ढों की तरफ दौड़ता है, ऐसा चित्त सुख की तरफ दौड़ता है। दुख के पहाड़ों पर चित्त नहीं चढ़ता, सुख की झीलों की तरफ भागता है। चाहे वे झील कितनी ही मृग-मरीचिकाएं क्यों न हों; चाहे पहुंचकर झील पर पता चले कि वहां कुछ भी नहीं है--न झील है, न गड्ढा है, न पानी है। लेकिन जहां भी चित्त को दिखाई पड़ता है सुख, चित्त वहीं दौड़ता है। चित्त की दौड़ सुखोन्मुख है।
और दौड़ जब तक है, तब तक चित्त विश्राम को उपलब्ध नहीं होता, तब तक तो वह श्रम में ही लगा रहता है। एक सुख से जैसे ही मुक्त हो पाता है--मुक्त होने का अर्थ? अर्थ यह नहीं कि एक सुख को जान लेता है। जैसे ही पता चलता है कि यह सुख सुख सिद्ध नहीं हुआ, मन तत्काल दूसरे सुखों की ओर दौड़ना शुरू कर देता है। दौड़ जारी रहती है। मन अगर जी सकता है, तो दौड़ने में ही जी सकता है। अगर गहरी बात कहनी हो, तो कह सकते हैं कि दौड़ का नाम ही मन है। चेतना की दौड़ती हुई स्थिति का नाम मन है और चेतना की उपराम स्थिति का नाम आत्मा है।
करीब-करीब चित्त की स्थिति वैसी है, जैसे साइकिल आप चलाते हैं रास्ते पर। जब तक पैडल चलाते हैं, साइकिल चलती है; पैडल बंद कर लेते हैं, थोड़ी ही देर में साइकिल रुक जाती है। साइकिल को चलाना जारी रखना हो, तो पैरों का चलते रहना जरूरी है। चित्त का चलना जारी रखना हो, तो सुखों की खोज जारी रखना जरूरी है। अगर एक क्षण को भी ऐसा लगा कि सुख कहीं भी नहीं है, तो चित्त विश्राम में आना शुरू हो जाता है।
इसलिए बुद्ध ने चित्त के विश्राम और चित्त के उपराम अवस्था के लिए चार आर्य-सत्य कहे हैं। वह मैं आपको कहूं। वे योग की बहुत बुनियादी साधना में सहयोगी हैं।
बुद्ध ने कहा है, जीवन दुख है, इसकी प्रतीति पहला आर्य-सत्य है। जो भी हम चाहते हैं, सुख दिखाई पड़ता है, निकट पहुंचते ही दुख सिद्ध होता है। जो भी हम खोजते हैं, दूर से सुहावना, प्रीतिकर लगता है; निकट आते ही कुरूप, अप्रीतिकर हो जाता है।
जीवन दुख है, ऐसा साक्षात्कार न हो, तो चित्त उपराम में नहीं जा सकेगा। ऐसा साक्षात्कार हुआ, कि चित्त की दौड़ अपने से ही खो जाती है। उसको पैडल मिलने बंद हो जाते हैं। फिर आपके पैर उसे गति नहीं देते, ठहर जाते हैं। और चित्त चल नहीं सकता आपके बिना सहयोग के। आपके बिना कोआपरेशन के चित्त दौड़ नहीं सकता।
इसलिए आप ऐसा कभी मत कहना कि मैं क्या करूं! यह चित्त भटका रहा है। ऐसा कभी भूलकर मत कहना। क्योंकि आपके सहयोग के बिना चित्त भटका नहीं सकता। आपका सहयोग अनिवार्य है। आपका सहयोग टूटा कि चित्त की गति टूटी।
हां, थोड़ी देर मोमेंटम चल सकता है। साइकिल के पैडल बंद कर दिए, तो भी दस-बीस गज साइकिल चल सकती है। लेकिन बंद करते ही पैर साइकिल के प्राण छूटने शुरू हो जाएंगे। पुरानी गति से दस-बीस कदम चल सकती है; लेकिन वह चलना सिर्फ मरना ही होगा। साइकिल की गति मरती चली जाएगी।
जीवन दुख है, इसकी प्रतीति। पूछेंगे हम कि कैसे इसकी प्रतीति हो? बड़ा गलत सवाल पूछते हैं। इसकी प्रतीति प्रतिपल हो रही है। लेकिन उस प्रतीति से आप कभी कोई निर्णय नहीं लेते। प्रतीति की कोई कमी नहीं है। पूरा जीवन इसका ही अनुभव है कि जीवन दुख है, लेकिन निष्कर्ष नहीं लेते। और निष्कर्ष न लेने की तरकीब यह है कि अगर एक सुख दुख सिद्ध होता है, तो आप कभी ऐसा नहीं सोचते कि दूसरा सुख भी दुख सिद्ध होगा।
नहीं; दूसरे का मोह कायम रहता है। वह भी दुख सिद्ध हो जाता है, तो तीसरे पर मन सरक जाता है; और तीसरे का मोह कायम रहता है। हजार बार अनुभव हो, फिर भी निष्पत्ति हम नहीं ले पाते कि जीवन दुख है। हां, ऐसा लगता है कि एक सुख दुख सिद्ध हुआ, लेकिन समस्त सुख दुख सिद्ध हो गया है, ऐसी निष्पत्ति हम नहीं ले पाते।
यह निष्पत्ति कब लेंगे? हर जन्म में वही अनुभव होता है। पीछे जन्मों को छोड़ भी दें, तो एक ही जन्म में लाख बार अनुभव होता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि मनुष्य निष्पत्तियां लेने वाला प्राणी नहीं है; वह कनक्लूजन लेता ही नहीं है! और निरंतर वही भूलें करता है, जो उसने कल की थीं। बल्कि कल की थीं, इसलिए आज और सुगमता से करता है। भूल से एक ही बात सीखता है, भूल को करने की कुशलता! भूल से कोई निष्पत्ति नहीं लेता, सिर्फ भूल को करने में और कुशल हो जाता है।
एक बार क्रोध किया; पीड़ा पाई, दुख पाया, नर्क निर्मित हुआ; उससे यह निष्कर्ष नहीं लेता कि क्रोध दुख है। न, उससे सिर्फ अभ्यास मजबूत होता है। कल क्रोध करने की कुशलता और बढ़ जाती है। कल फिर दुख, पीड़ा। तब एक नतीजा फिर ले सकता है कि क्रोध दुख है। वह नहीं लेता, बल्कि दुबारा क्रोध करने से दुख का जो आघात है, मन उसके लिए तैयार हो जाता है, और कम दुख मालूम पड़ता है। तीसरी बार और कम, चौथी बार और कम। धीरे-धीरे दुख का अभ्यासी हो जाता है। और यह अभ्यास इतना गहरा हो सकता है कि दुख की प्रतीति ही क्षीण हो जाए; मन की संवेदना ही क्षीण हो जाए।
अगर आप दुर्गंध के पास बैठे रहते हैं, बैठे रहते हैं--एक दफा, दो दफा, तीन दफा--धीरे-धीरे नाक की संवेदना क्षीण हो जाएगी, दुर्गंध की खबर देनी बंद हो जाएगी। अगर आप शोरगुल में जीते हैं, तो पहले खबर देगा मन कि बहुत शोरगुल है, बहुत उपद्रव है। फिर धीरे-धीरे-धीरे खबर देना बंद कर देगा, संवेदनशीलता कुंठित हो जाएगी। ऐसा भी हो सकता है कि फिर बिना शोरगुल के बैठना आपको मुश्किल हो जाए।
जो लोग दिन-रात ट्रेन में सफर करते हैं, जब कभी विश्राम के दिन घर पर रुकते हैं, तो उनको नींद ठीक से नहीं आती! इतनी अधिक शांति की आदत नहीं रह जाती। उतना शोरगुल चाहिए। उसके बीच एट होम मालूम होता है; घर में ही हैं!
हम अपने मन से दो ही स्थितियां पैदा कर पाते हैं--अभ्यास गलत का। क्योंकि हम गलत करते हैं, उसका अभ्यास होता है। और दूसरा, कुशलता। और भी कुशल हो जाते हैं वही करने में। लेकिन जो निष्पत्ति लेनी चाहिए, वह हम कभी नहीं लेते।
बुद्ध को दिखाई पड़ा है एक मुर्दा। और बुद्ध ने पूछा कि यह क्या हो गया? बुद्ध के सारथी ने कहा कि यह आदमी मर गया है। तो बुद्ध ने तत्काल पूछा कि क्या मैं भी मर जाऊंगा! अगर आप होते बुद्ध की जगह, तो आप कहते, बेचारा! बड़ा बुरा हुआ। इसके बच्चों का क्या होगा? इसकी पत्नी का क्या होगा? अभी तो कोई उम्र भी न थी मरने की। लेकिन एक बात पक्की है कि बुद्ध ने जो पूछा, वह आप न पूछते।
बुद्ध ने न तो यह कहा कि बेचारा; न कहा यह कि इसकी पत्नी का क्या होगा; कि इसके बच्चों का क्या होगा; अभी तो कोई उम्र न थी, अभी तो मरने का कोई समय न था। बुद्ध ने दूसरा सवाल सीधा जो पूछा, वह यह कि क्या मैं भी मर जाऊंगा?
यह आपने, कभी कोई रास्ते पर मरे हुए आदमी की अर्थी निकली, तब पूछा है कि क्या मैं भी मर जाऊंगा? जब किसी को बूढ़ा हुआ देखा है, तो पूछा है कि क्या मैं भी ब़ूढा हो जाऊंगा? जब किसी को अपमानित होते देखा है, तो पूछा है कि क्या मैं भी अपमानित हो जाऊंगा? जब कोई स्वर्ण-सिंहासन से उतरकर और धूल में गिर गया है, तब कभी पूछा है कि क्या मैं भी गिर जाऊंगा?
नहीं पूछा, तो फिर बुद्ध जैसे योग की प्रतिष्ठा को आप उपलब्ध होने वाले नहीं। आपने बुनियादी सवाल ही नहीं पूछा है कि जो यात्रा शुरू करे।
बुद्ध ने पूछा, क्या मैं भी मर जाऊंगा? सारथी भयभीत हुआ। कैसे कहे! पर बुद्ध की आंखों में देखा, तो और भी डरा। क्योंकि झूठ बोले, तो भी ठीक नहीं है। उसने कहा, क्षमा करें। कैसे अपने मुंह से कहूं कि आप भी मर जाएंगे! लेकिन कोई भी अपवाद नहीं। मृत्यु तो होगी।
तो बुद्ध ने यह नहीं पूछा कि कोई उपाय है कि मैं अपवाद हो जाऊं? यह नहीं पूछा कि मृत्यु आने ही वाली है, तो जल्दी से जीवन में जो भी भोगा जा सकता है, उसको भोग लूं। यह नहीं पूछा कि फिर समय खोना ठीक नहीं; फिर समय खोना ठीक नहीं। मौत करीब आती है, तो जीवन जितनी देर है, उसका पूरा रस निचोड़ लूं।
बुद्ध ने कहा, कोई अपवाद नहीं है, तो फिर घर वापस लौट चलो। मैं मर ही गया। सारथी ने कहा, अभी आप नहीं मर गए हैं। मैंने यह नहीं कहा। अभी तो आप जिंदा हैं! बुद्ध ने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है कि कल मौत होगी कि परसों मौत होगी। जब मौत निश्चित है, तो जीवन व्यर्थ हो गया। अब जितना भी समय मेरे पास है, मैं मौत की खोज में लगा दूं कि मौत क्या है! क्योंकि जो निश्चित है, उसी की खोज उचित है। जीवन तो अनिश्चित हो गया कि समाप्त हो जाएगा। मौत, एक तुम कहते हो, निरपवाद है; होगी ही। निश्चित एक तथ्य दिखाई पड़ा है, मौत। अब मैं इसकी खोज कर लूं कि मौत क्या है! क्योंकि निश्चित की ही खोज करने में कोई अर्थ है। अनिश्चित की, खो जाने वाले की खोज करना व्यर्थ है।
हैरानी होगी हमें। हम सुख की खोज करते हैं, बुद्ध दुख की खोज करते हैं। हम जीवन की खोज करते हैं, बुद्ध मृत्यु की खोज करते हैं। और बुद्ध मृत्यु की खोज करके परम जीवन को पा लेते हैं। और हम जीवन को खोजते-खोजते सिवाय मृत्यु के और कुछ भी नहीं पाते! और बुद्ध दुख की खोज करते हैं और परम आनंद को उपलब्ध हो जाते हैं। और हम सुख को खोजते-खोजते सिवाय कचरे के हाथ में ढेर लग जाने के और छाती पर व्यर्थ का भार इकट्ठा हो जाने के, कहीं भी नहीं पहुंचते हैं।
उलटा दिखाई पड़ेगा, लेकिन यही सत्य है। जो मृत्यु को खोजता है, वह अमृत को खोज लेता है। जो दुख के प्रति सजग होकर दुख की खोज करता है, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है।
इसलिए बुद्ध ने जब अपने भिक्षुओं को पहला उपदेश दिया, तो कहा कि तुम्हें मैं पहला आर्य-सत्य कहता हूं। पहला महान सत्य, वह यह है कि जीवन दुख है। तुम इसकी खोज करो।
योग का आधारभूत वही है कि जीवन दुख है। तभी चित्त उपराम होगा। यह तो पहली प्रतीति है कि जीवन दुख है।
दूसरी बात आपसे कहूं। जैसे ही आपको यह स्पष्ट हो जाएगा कि जीवन दुख है, आप जीवन के अतिक्रमण की चेष्टा में संलग्न हो जाएंगे। क्योंकि दुख के बीच कोई भी विश्राम को उपलब्ध नहीं हो सकता। अगर यह प्रतीत हो जाए कि पूरा जीवन दुख है, तो आप इस जीवन से छलांग लगाने की कोशिश में लग जाएंगे। क्योंकि दुख के साथ ठहर जाना असंभव है।
सुख के साथ हम ठहर सकते हैं, चाहे भ्रांत ही क्यों न हो। चाहे चेहरे पर ही क्यों न सिर्फ सुख मालूम पड़ता हो और भीतर सब दुख छिपा हो, लेकिन फिर भी हम रात ठहर सकते हैं, इस सुख को हम बिस्तर में सुला सकते हैं अपने साथ। चाहे चेहरा ही सुख का क्यों न हो, भीतर सब दुख ही क्यों न भरा हो, रात हम इस सुख के साथ सो सकते हैं। लेकिन अगर चौंककर रात में पता चल जाए कि दुख है, तो हम छलांग लगाकर बिस्तर के बाहर हो जाएंगे। दुख के साथ जीना असंभव है।
तो पहला आर्य-सत्य, बुद्ध कहते हैं, जीवन दुख है। दूसरा आर्य-सत्य, बुद्ध कहते हैं कि दुख से मुक्ति का उपायहै। जैसे ही प्रतीत हो, वैसे ही उपाय की खोज शुरू हो जाती है कि दुख से मुक्ति का उपाय क्या!
ध्यान रखें, हम सुख खोजते हैं, बुद्ध दुख से मुक्ति खोजते हैं। इन दोनों की दिशाएं बिलकुल अलग हैं।
सुख की खोज संसार है। दुख से मुक्ति की खोज योग है। सुख की खोज संसार है। दुख से मुक्ति की खोज, बहुत निगेटिव खोज है योग की। और संसारी की खोज बड़ी पाजिटिव मालूम पड़ती है। लगता है, हम सुख को खोज रहे हैं। योग कहता है, दुख से मुक्ति खोजी जा सकती है। और जब दुख से मुक्ति हो जाती है, तो जो शेष रह जाता है, वही आनंद है। क्योंकि वह स्वभाव है। सिर्फ व्यर्थ को हटा देना है, जो स्वभाव है, वह प्रकट हो जाएगा।
तो बुद्ध कहते हैं, दूसरा आर्य-सत्य भिक्षुओ, दुख से मुक्ति का उपाय है। लेकिन वह उपाय तुम्हारी समझ में तभी आएगा, जब दुख तुम्हारी प्रतीति, साक्षात्कार बन जाए।
सच तो यह है, प्रतीति से ही उपाय निकलता है। आपके घर में आग लग गई है, तो आप उपाय खोजते हैं घर के बाहर निकलने का? आप शास्त्र पढ़ते हैं, कि कोई किताब देखें, जिसमें घर में आग लगती हो, तो निकलने की विधियां लिखी हों? कि किसी गुरु के चरणों में जाएं और उससे पूछें कि घर में आग लगी है, निकलने का उपाय क्या है? कि भगवान से प्रार्थना करें कि घर में आग लगी है, घुटने टेककर भगवान से कहें कि हे प्रभु, रास्ता बता, घर में आग लगी है!
घर में अगर आग लगी है और इसकी प्रतीति हो गई। हां, प्रतीति न हो, तो बात अलग है। तब, लगी न लगी बराबर है। घर में आग लगी है, इसकी प्रतीति उपाय बन जाती है। आप छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। खिड़की से कूद सकते हैं, दरवाजे से निकल सकते हैं, छत से कूद सकते हैं। यह प्रतीति उपाय खोज लेगी। जैसे ही यह प्रतीति हुई कि घर में आग लगी है, आपकी पूरी चेतना संलग्न हो जाएगी और उपाय खोज लेगी।
अगर ठीक समझा जाए, तो इस बात का साक्षात्कार कि घर जल रहा है, आपके निकलने का मार्ग बन जाता है। लेकिन हमें लगता ही नहीं कि घर जल रहा है। हां, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण कहते हैं, घर जल रहा है। तो हम कहते हैं कि महाराज, आप ठीक कहते हैं! क्योंकि हम में इतनी भी हिम्मत नहीं कि हम बुद्ध और कृष्ण से कह सकें कि आप गलत कहते हैं। किस मुंह से कहें कि गलत कहते हैं? कहीं गहरे में तो हम भी जानते हैं कि ठीक ही कहते हैं। जीवन में सिवाय दुख के कुछ हाथ तो लगा नहीं; सिवाय आग और राख के कुछ हाथ तो लगा नहीं। सिवाय लपटों में झुलसने के और कुछ हाथ तो लगा नहीं।
इसलिए गहरे मन में हम जानते तो हैं कि ठीक कहते हैं। इसलिए हिम्मत भी नहीं होती कि बुद्ध को कह दें कि गलत कहते हैं। जीवन सुख है। किस चेहरे से कहें? चेहरे पर एक भी रेखा नहीं बताती कि जीवन सुख है। अनुभव का एक टुकड़ा नहीं बताता कि जीवन सुख है। और बुद्ध से किस मुंह से कहें, क्योंकि बुद्ध के रोएं-रोएं से आनंद झलक रहा है। तो बुद्ध से किस मुंह से कहें कि जीवन सुख है!
अगर जीवन सुख है, तो बुद्ध ही कहते, तो कह सकते थे। लेकिन बुद्ध तो कहते हैं कि जीवन दुख है। और हम, जो कि दुख में डूबे खड़े हैं सराबोर, हम किस मुंह से कहें कि जीवन सुख है! तो बुद्ध को इनकार भी नहीं कर सकते कि आप गलत कहते हैं। लेकिन हमारी प्रतीति भी नहीं होती कि जीवन दुख है।
तो हम कहते हैं कि आप ठीक कहते हैं। समय पर, अनुकूल समय पर मैं भी इस घर को छोड़ दूंगा। कृपा करके, जब तक अभी इस घर में हूं, मुझे इतना बताएं कि कैसे इस घर में शांति से रहूं! और वह रास्ता भी बता दें, क्योंकि फिर दुबारा आप मिलें न मिलें, जब मुझे प्रतीति हो कि घर में आग लगी है, तो मुझे वह मेथड, वह विधि भी बता दें कि घर के बाहर कैसे निकलूं!
बुद्ध कहा करते थे कि जो आदमी पूछता है कि घर में आग लगी हो, तो मुझे रास्ता बता दें कि कैसे निकलूं, वह सिर्फ इतनी ही खबर देता है कि उसे पता नहीं है कि घर में आग लगी है। और कुछ पता नहीं देता। क्योंकि जिसके घर में आग लगी है, वह विधि की बात नहीं पूछता। वह छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। बताने वाला पीछे रह जाए; जिसको पता चला, घर में आग लगी है, वह मकान के बाहर हो जाएगा।
दूसरा सत्य बुद्ध कहते हैं, उपाय है। योग उपाय है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, योग से उपराम को उपलब्ध हुआ चित्त। योग उपाय है, विधि है, मेथड है। योग नाव है, साधन है, जिससे दुख-मुक्ति हो सकती है। सुख नहीं मिलेगा।
इसलिए जो व्यक्ति योग के पास सुख की खोज में आए हों, वे गलत जगह आ गए हैं। योग से सुख नहीं मिलेगा। जब मैं ऐसा कहता हूं, तो इसलिए कह रहा हूं कि आप सुख की तलाश में योग के पास न जाएं। योग से दुख-मुक्ति मिलेगी। इसलिए अगर आपको जीवन दुख प्रतीत हो गया हो, तो योग आपके काम का हो सकता है।
लेकिन हममें से अधिक लोग योग के पास सुख की तलाश में जाते हैं। हम योग को भी अपने सांसारिक चित्त की दौड़ के लिए एक साधन बनाना चाहते हैं! हम योग से भी चित्त की साइकिल को पैडल देना चाहते हैं! तब हम बड़ा कंट्राडिक्टरी, बड़ा व्यर्थ का, बड़ा स्वविरोधी काम कर रहे हैं। हम चाहते हैं, योग से धन मिल जाए। और ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो कहेंगे, हां मिल जाएगा! हम चाहते हैं, योग से शांति मिल जाए, ताकि शांति के द्वारा हम धन और यश और कामनाओं की दौड़ को ज्यादा आसानी से पूरा कर सकें!
हम योग को भी संसार का एक वाहन बनाना चाहते हैं। यह नहीं होगा। क्योंकि योग दूसरा सूत्र है। पहला सूत्र तो है, दुख का अनिवार्य बोध, तभी उपाय का बोध पैदा होता है।
बुद्ध तीसरा आर्य-सत्य भी कहते हैं। यह दूसरे आर्य-सत्य को मैं और समझाना चाहूंगा। तीसरा आर्य-सत्य भी बुद्ध कहते हैं। कहते हैं, दुख है। कहते हैं, दुख से मुक्ति का उपाय है। कहते हैं, दुख की मुक्ति के बाद की अवस्था है।
यह बुद्ध अपने अनुभव से कहते हैं कि दुख-मुक्ति के बाद की अवस्था है। दुख-मुक्ति को उपलब्ध हुए लोग हैं। बुद्ध खुद प्रमाण हैं। कोई पूछे, क्या है प्रमाण? तो योग का प्रमाण बहिर्प्रमाण नहीं हो सकता है। योग का प्रमाण तो अंतर्साक्ष्य हो सकता है। बुद्ध कह सकते हैं, मैं हूं प्रमाण।
जब जीसस से कोई पूछता है कि क्या है मार्ग? तो जीसस कहते हैं, आई एम दि वे--मैं हूं मार्ग। देखो मेरी तरफ; प्रवेश कर जाओ मेरी आंखों में। जब बुद्ध से कोई पूछता है, क्या है प्रमाण? तो बुद्ध कहते हैं, मैं हूं प्रमाण। देखो मुझे। दुख से उपराम पाया हुआ चित्त है, मैं हूं।
यह तीसरा सत्य तो केवल वे ही लोग उदघोषित कर सकते हैं, जो प्रमाण हैं। दो तक, पहला और दूसरा सत्य तो हम समझ सकते हैं बुद्धि से, लेकिन तीसरा सत्य बुद्धि का सवाल नहीं रह जाता, प्रमाण का सवाल है। लेकिन एक बात हम तीसरे सत्य के संबंध में भी समझ सकते हैं। और वह यह कि जब अशांत चित्त होता है जगत में, तो शांत हो सके, इसकी असंभावना नहीं है। जब कोई आदमी बीमार हो सकता है जगत में, तो स्वस्थ हो सके, इसकी असंभावना क्यों कर है? जब दुखी हो सकता है कोई, तो दुख के पार हो सके, इसकी असंभावना क्या है?
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।। 20।।
और हे अर्जुन, जिस अवस्था में योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमेश्वर के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही संतुष्ट होता है।
योग से उपराम हुआ चित्त!
इस सूत्र में, कैसे योग से चित्त उपराम हो जाता है और जब चित्त उपराम को उपलब्ध होता है, तो प्रभु में कैसी प्रतिष्ठा होती है, उसकी बात कही गई है।
चित्त के संबंध में दो-तीन बातें स्मरणीय हैं।
एक, चित्त तब तक उपराम नहीं होता, जब तक चित्त का विषयों की ओर दौड़ना सुखद है, ऐसी भ्रांति हमें बनी रहती है। तब तक चित्त उपराम, तब तक चित्त विश्रांति को नहीं पहुंच सकता है। जब तक हमें यह खयाल बना हुआ है कि विषयों की ओर दौड़ता हुआ चित्त सुखद प्रतीतियों में ले जाएगा, तब तक स्वाभाविक है कि चित्त दौड़ता रहे।
चित्त के दौड़ने का नियम है। जहां सुख मालूम होता है, चित्त वहां दौड़ता है। जहां दुख मालूम होता है, चित्त वहां नहीं दौड़ता है। जहां भी सुख मालूम हो, चाहे भ्रांत ही सही, चित्त वहां दौड़ता है। जैसे पानी गड्ढों की तरफ दौड़ता है, ऐसा चित्त सुख की तरफ दौड़ता है। दुख के पहाड़ों पर चित्त नहीं चढ़ता, सुख की झीलों की तरफ भागता है। चाहे वे झील कितनी ही मृग-मरीचिकाएं क्यों न हों; चाहे पहुंचकर झील पर पता चले कि वहां कुछ भी नहीं है--न झील है, न गड्ढा है, न पानी है। लेकिन जहां भी चित्त को दिखाई पड़ता है सुख, चित्त वहीं दौड़ता है। चित्त की दौड़ सुखोन्मुख है।
और दौड़ जब तक है, तब तक चित्त विश्राम को उपलब्ध नहीं होता, तब तक तो वह श्रम में ही लगा रहता है। एक सुख से जैसे ही मुक्त हो पाता है--मुक्त होने का अर्थ? अर्थ यह नहीं कि एक सुख को जान लेता है। जैसे ही पता चलता है कि यह सुख सुख सिद्ध नहीं हुआ, मन तत्काल दूसरे सुखों की ओर दौड़ना शुरू कर देता है। दौड़ जारी रहती है। मन अगर जी सकता है, तो दौड़ने में ही जी सकता है। अगर गहरी बात कहनी हो, तो कह सकते हैं कि दौड़ का नाम ही मन है। चेतना की दौड़ती हुई स्थिति का नाम मन है और चेतना की उपराम स्थिति का नाम आत्मा है।
करीब-करीब चित्त की स्थिति वैसी है, जैसे साइकिल आप चलाते हैं रास्ते पर। जब तक पैडल चलाते हैं, साइकिल चलती है; पैडल बंद कर लेते हैं, थोड़ी ही देर में साइकिल रुक जाती है। साइकिल को चलाना जारी रखना हो, तो पैरों का चलते रहना जरूरी है। चित्त का चलना जारी रखना हो, तो सुखों की खोज जारी रखना जरूरी है। अगर एक क्षण को भी ऐसा लगा कि सुख कहीं भी नहीं है, तो चित्त विश्राम में आना शुरू हो जाता है।
इसलिए बुद्ध ने चित्त के विश्राम और चित्त के उपराम अवस्था के लिए चार आर्य-सत्य कहे हैं। वह मैं आपको कहूं। वे योग की बहुत बुनियादी साधना में सहयोगी हैं।
बुद्ध ने कहा है, जीवन दुख है, इसकी प्रतीति पहला आर्य-सत्य है। जो भी हम चाहते हैं, सुख दिखाई पड़ता है, निकट पहुंचते ही दुख सिद्ध होता है। जो भी हम खोजते हैं, दूर से सुहावना, प्रीतिकर लगता है; निकट आते ही कुरूप, अप्रीतिकर हो जाता है।
जीवन दुख है, ऐसा साक्षात्कार न हो, तो चित्त उपराम में नहीं जा सकेगा। ऐसा साक्षात्कार हुआ, कि चित्त की दौड़ अपने से ही खो जाती है। उसको पैडल मिलने बंद हो जाते हैं। फिर आपके पैर उसे गति नहीं देते, ठहर जाते हैं। और चित्त चल नहीं सकता आपके बिना सहयोग के। आपके बिना कोआपरेशन के चित्त दौड़ नहीं सकता।
इसलिए आप ऐसा कभी मत कहना कि मैं क्या करूं! यह चित्त भटका रहा है। ऐसा कभी भूलकर मत कहना। क्योंकि आपके सहयोग के बिना चित्त भटका नहीं सकता। आपका सहयोग अनिवार्य है। आपका सहयोग टूटा कि चित्त की गति टूटी।
हां, थोड़ी देर मोमेंटम चल सकता है। साइकिल के पैडल बंद कर दिए, तो भी दस-बीस गज साइकिल चल सकती है। लेकिन बंद करते ही पैर साइकिल के प्राण छूटने शुरू हो जाएंगे। पुरानी गति से दस-बीस कदम चल सकती है; लेकिन वह चलना सिर्फ मरना ही होगा। साइकिल की गति मरती चली जाएगी।
जीवन दुख है, इसकी प्रतीति। पूछेंगे हम कि कैसे इसकी प्रतीति हो? बड़ा गलत सवाल पूछते हैं। इसकी प्रतीति प्रतिपल हो रही है। लेकिन उस प्रतीति से आप कभी कोई निर्णय नहीं लेते। प्रतीति की कोई कमी नहीं है। पूरा जीवन इसका ही अनुभव है कि जीवन दुख है, लेकिन निष्कर्ष नहीं लेते। और निष्कर्ष न लेने की तरकीब यह है कि अगर एक सुख दुख सिद्ध होता है, तो आप कभी ऐसा नहीं सोचते कि दूसरा सुख भी दुख सिद्ध होगा।
नहीं; दूसरे का मोह कायम रहता है। वह भी दुख सिद्ध हो जाता है, तो तीसरे पर मन सरक जाता है; और तीसरे का मोह कायम रहता है। हजार बार अनुभव हो, फिर भी निष्पत्ति हम नहीं ले पाते कि जीवन दुख है। हां, ऐसा लगता है कि एक सुख दुख सिद्ध हुआ, लेकिन समस्त सुख दुख सिद्ध हो गया है, ऐसी निष्पत्ति हम नहीं ले पाते।
यह निष्पत्ति कब लेंगे? हर जन्म में वही अनुभव होता है। पीछे जन्मों को छोड़ भी दें, तो एक ही जन्म में लाख बार अनुभव होता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि मनुष्य निष्पत्तियां लेने वाला प्राणी नहीं है; वह कनक्लूजन लेता ही नहीं है! और निरंतर वही भूलें करता है, जो उसने कल की थीं। बल्कि कल की थीं, इसलिए आज और सुगमता से करता है। भूल से एक ही बात सीखता है, भूल को करने की कुशलता! भूल से कोई निष्पत्ति नहीं लेता, सिर्फ भूल को करने में और कुशल हो जाता है।
एक बार क्रोध किया; पीड़ा पाई, दुख पाया, नर्क निर्मित हुआ; उससे यह निष्कर्ष नहीं लेता कि क्रोध दुख है। न, उससे सिर्फ अभ्यास मजबूत होता है। कल क्रोध करने की कुशलता और बढ़ जाती है। कल फिर दुख, पीड़ा। तब एक नतीजा फिर ले सकता है कि क्रोध दुख है। वह नहीं लेता, बल्कि दुबारा क्रोध करने से दुख का जो आघात है, मन उसके लिए तैयार हो जाता है, और कम दुख मालूम पड़ता है। तीसरी बार और कम, चौथी बार और कम। धीरे-धीरे दुख का अभ्यासी हो जाता है। और यह अभ्यास इतना गहरा हो सकता है कि दुख की प्रतीति ही क्षीण हो जाए; मन की संवेदना ही क्षीण हो जाए।
अगर आप दुर्गंध के पास बैठे रहते हैं, बैठे रहते हैं--एक दफा, दो दफा, तीन दफा--धीरे-धीरे नाक की संवेदना क्षीण हो जाएगी, दुर्गंध की खबर देनी बंद हो जाएगी। अगर आप शोरगुल में जीते हैं, तो पहले खबर देगा मन कि बहुत शोरगुल है, बहुत उपद्रव है। फिर धीरे-धीरे-धीरे खबर देना बंद कर देगा, संवेदनशीलता कुंठित हो जाएगी। ऐसा भी हो सकता है कि फिर बिना शोरगुल के बैठना आपको मुश्किल हो जाए।
जो लोग दिन-रात ट्रेन में सफर करते हैं, जब कभी विश्राम के दिन घर पर रुकते हैं, तो उनको नींद ठीक से नहीं आती! इतनी अधिक शांति की आदत नहीं रह जाती। उतना शोरगुल चाहिए। उसके बीच एट होम मालूम होता है; घर में ही हैं!
हम अपने मन से दो ही स्थितियां पैदा कर पाते हैं--अभ्यास गलत का। क्योंकि हम गलत करते हैं, उसका अभ्यास होता है। और दूसरा, कुशलता। और भी कुशल हो जाते हैं वही करने में। लेकिन जो निष्पत्ति लेनी चाहिए, वह हम कभी नहीं लेते।
बुद्ध को दिखाई पड़ा है एक मुर्दा। और बुद्ध ने पूछा कि यह क्या हो गया? बुद्ध के सारथी ने कहा कि यह आदमी मर गया है। तो बुद्ध ने तत्काल पूछा कि क्या मैं भी मर जाऊंगा! अगर आप होते बुद्ध की जगह, तो आप कहते, बेचारा! बड़ा बुरा हुआ। इसके बच्चों का क्या होगा? इसकी पत्नी का क्या होगा? अभी तो कोई उम्र भी न थी मरने की। लेकिन एक बात पक्की है कि बुद्ध ने जो पूछा, वह आप न पूछते।
बुद्ध ने न तो यह कहा कि बेचारा; न कहा यह कि इसकी पत्नी का क्या होगा; कि इसके बच्चों का क्या होगा; अभी तो कोई उम्र न थी, अभी तो मरने का कोई समय न था। बुद्ध ने दूसरा सवाल सीधा जो पूछा, वह यह कि क्या मैं भी मर जाऊंगा?
यह आपने, कभी कोई रास्ते पर मरे हुए आदमी की अर्थी निकली, तब पूछा है कि क्या मैं भी मर जाऊंगा? जब किसी को बूढ़ा हुआ देखा है, तो पूछा है कि क्या मैं भी ब़ूढा हो जाऊंगा? जब किसी को अपमानित होते देखा है, तो पूछा है कि क्या मैं भी अपमानित हो जाऊंगा? जब कोई स्वर्ण-सिंहासन से उतरकर और धूल में गिर गया है, तब कभी पूछा है कि क्या मैं भी गिर जाऊंगा?
नहीं पूछा, तो फिर बुद्ध जैसे योग की प्रतिष्ठा को आप उपलब्ध होने वाले नहीं। आपने बुनियादी सवाल ही नहीं पूछा है कि जो यात्रा शुरू करे।
बुद्ध ने पूछा, क्या मैं भी मर जाऊंगा? सारथी भयभीत हुआ। कैसे कहे! पर बुद्ध की आंखों में देखा, तो और भी डरा। क्योंकि झूठ बोले, तो भी ठीक नहीं है। उसने कहा, क्षमा करें। कैसे अपने मुंह से कहूं कि आप भी मर जाएंगे! लेकिन कोई भी अपवाद नहीं। मृत्यु तो होगी।
तो बुद्ध ने यह नहीं पूछा कि कोई उपाय है कि मैं अपवाद हो जाऊं? यह नहीं पूछा कि मृत्यु आने ही वाली है, तो जल्दी से जीवन में जो भी भोगा जा सकता है, उसको भोग लूं। यह नहीं पूछा कि फिर समय खोना ठीक नहीं; फिर समय खोना ठीक नहीं। मौत करीब आती है, तो जीवन जितनी देर है, उसका पूरा रस निचोड़ लूं।
बुद्ध ने कहा, कोई अपवाद नहीं है, तो फिर घर वापस लौट चलो। मैं मर ही गया। सारथी ने कहा, अभी आप नहीं मर गए हैं। मैंने यह नहीं कहा। अभी तो आप जिंदा हैं! बुद्ध ने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है कि कल मौत होगी कि परसों मौत होगी। जब मौत निश्चित है, तो जीवन व्यर्थ हो गया। अब जितना भी समय मेरे पास है, मैं मौत की खोज में लगा दूं कि मौत क्या है! क्योंकि जो निश्चित है, उसी की खोज उचित है। जीवन तो अनिश्चित हो गया कि समाप्त हो जाएगा। मौत, एक तुम कहते हो, निरपवाद है; होगी ही। निश्चित एक तथ्य दिखाई पड़ा है, मौत। अब मैं इसकी खोज कर लूं कि मौत क्या है! क्योंकि निश्चित की ही खोज करने में कोई अर्थ है। अनिश्चित की, खो जाने वाले की खोज करना व्यर्थ है।
हैरानी होगी हमें। हम सुख की खोज करते हैं, बुद्ध दुख की खोज करते हैं। हम जीवन की खोज करते हैं, बुद्ध मृत्यु की खोज करते हैं। और बुद्ध मृत्यु की खोज करके परम जीवन को पा लेते हैं। और हम जीवन को खोजते-खोजते सिवाय मृत्यु के और कुछ भी नहीं पाते! और बुद्ध दुख की खोज करते हैं और परम आनंद को उपलब्ध हो जाते हैं। और हम सुख को खोजते-खोजते सिवाय कचरे के हाथ में ढेर लग जाने के और छाती पर व्यर्थ का भार इकट्ठा हो जाने के, कहीं भी नहीं पहुंचते हैं।
उलटा दिखाई पड़ेगा, लेकिन यही सत्य है। जो मृत्यु को खोजता है, वह अमृत को खोज लेता है। जो दुख के प्रति सजग होकर दुख की खोज करता है, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है।
इसलिए बुद्ध ने जब अपने भिक्षुओं को पहला उपदेश दिया, तो कहा कि तुम्हें मैं पहला आर्य-सत्य कहता हूं। पहला महान सत्य, वह यह है कि जीवन दुख है। तुम इसकी खोज करो।
योग का आधारभूत वही है कि जीवन दुख है। तभी चित्त उपराम होगा। यह तो पहली प्रतीति है कि जीवन दुख है।
दूसरी बात आपसे कहूं। जैसे ही आपको यह स्पष्ट हो जाएगा कि जीवन दुख है, आप जीवन के अतिक्रमण की चेष्टा में संलग्न हो जाएंगे। क्योंकि दुख के बीच कोई भी विश्राम को उपलब्ध नहीं हो सकता। अगर यह प्रतीत हो जाए कि पूरा जीवन दुख है, तो आप इस जीवन से छलांग लगाने की कोशिश में लग जाएंगे। क्योंकि दुख के साथ ठहर जाना असंभव है।
सुख के साथ हम ठहर सकते हैं, चाहे भ्रांत ही क्यों न हो। चाहे चेहरे पर ही क्यों न सिर्फ सुख मालूम पड़ता हो और भीतर सब दुख छिपा हो, लेकिन फिर भी हम रात ठहर सकते हैं, इस सुख को हम बिस्तर में सुला सकते हैं अपने साथ। चाहे चेहरा ही सुख का क्यों न हो, भीतर सब दुख ही क्यों न भरा हो, रात हम इस सुख के साथ सो सकते हैं। लेकिन अगर चौंककर रात में पता चल जाए कि दुख है, तो हम छलांग लगाकर बिस्तर के बाहर हो जाएंगे। दुख के साथ जीना असंभव है।
तो पहला आर्य-सत्य, बुद्ध कहते हैं, जीवन दुख है। दूसरा आर्य-सत्य, बुद्ध कहते हैं कि दुख से मुक्ति का उपायहै। जैसे ही प्रतीत हो, वैसे ही उपाय की खोज शुरू हो जाती है कि दुख से मुक्ति का उपाय क्या!
ध्यान रखें, हम सुख खोजते हैं, बुद्ध दुख से मुक्ति खोजते हैं। इन दोनों की दिशाएं बिलकुल अलग हैं।
सुख की खोज संसार है। दुख से मुक्ति की खोज योग है। सुख की खोज संसार है। दुख से मुक्ति की खोज, बहुत निगेटिव खोज है योग की। और संसारी की खोज बड़ी पाजिटिव मालूम पड़ती है। लगता है, हम सुख को खोज रहे हैं। योग कहता है, दुख से मुक्ति खोजी जा सकती है। और जब दुख से मुक्ति हो जाती है, तो जो शेष रह जाता है, वही आनंद है। क्योंकि वह स्वभाव है। सिर्फ व्यर्थ को हटा देना है, जो स्वभाव है, वह प्रकट हो जाएगा।
तो बुद्ध कहते हैं, दूसरा आर्य-सत्य भिक्षुओ, दुख से मुक्ति का उपाय है। लेकिन वह उपाय तुम्हारी समझ में तभी आएगा, जब दुख तुम्हारी प्रतीति, साक्षात्कार बन जाए।
सच तो यह है, प्रतीति से ही उपाय निकलता है। आपके घर में आग लग गई है, तो आप उपाय खोजते हैं घर के बाहर निकलने का? आप शास्त्र पढ़ते हैं, कि कोई किताब देखें, जिसमें घर में आग लगती हो, तो निकलने की विधियां लिखी हों? कि किसी गुरु के चरणों में जाएं और उससे पूछें कि घर में आग लगी है, निकलने का उपाय क्या है? कि भगवान से प्रार्थना करें कि घर में आग लगी है, घुटने टेककर भगवान से कहें कि हे प्रभु, रास्ता बता, घर में आग लगी है!
घर में अगर आग लगी है और इसकी प्रतीति हो गई। हां, प्रतीति न हो, तो बात अलग है। तब, लगी न लगी बराबर है। घर में आग लगी है, इसकी प्रतीति उपाय बन जाती है। आप छलांग लगाकर बाहर हो जाएंगे। खिड़की से कूद सकते हैं, दरवाजे से निकल सकते हैं, छत से कूद सकते हैं। यह प्रतीति उपाय खोज लेगी। जैसे ही यह प्रतीति हुई कि घर में आग लगी है, आपकी पूरी चेतना संलग्न हो जाएगी और उपाय खोज लेगी।
अगर ठीक समझा जाए, तो इस बात का साक्षात्कार कि घर जल रहा है, आपके निकलने का मार्ग बन जाता है। लेकिन हमें लगता ही नहीं कि घर जल रहा है। हां, कोई बुद्ध, कोई कृष्ण कहते हैं, घर जल रहा है। तो हम कहते हैं कि महाराज, आप ठीक कहते हैं! क्योंकि हम में इतनी भी हिम्मत नहीं कि हम बुद्ध और कृष्ण से कह सकें कि आप गलत कहते हैं। किस मुंह से कहें कि गलत कहते हैं? कहीं गहरे में तो हम भी जानते हैं कि ठीक ही कहते हैं। जीवन में सिवाय दुख के कुछ हाथ तो लगा नहीं; सिवाय आग और राख के कुछ हाथ तो लगा नहीं। सिवाय लपटों में झुलसने के और कुछ हाथ तो लगा नहीं।
इसलिए गहरे मन में हम जानते तो हैं कि ठीक कहते हैं। इसलिए हिम्मत भी नहीं होती कि बुद्ध को कह दें कि गलत कहते हैं। जीवन सुख है। किस चेहरे से कहें? चेहरे पर एक भी रेखा नहीं बताती कि जीवन सुख है। अनुभव का एक टुकड़ा नहीं बताता कि जीवन सुख है। और बुद्ध से किस मुंह से कहें, क्योंकि बुद्ध के रोएं-रोएं से आनंद झलक रहा है। तो बुद्ध से किस मुंह से कहें कि जीवन सुख है!
अगर जीवन सुख है, तो बुद्ध ही कहते, तो कह सकते थे। लेकिन बुद्ध तो कहते हैं कि जीवन दुख है। और हम, जो कि दुख में डूबे खड़े हैं सराबोर, हम किस मुंह से कहें कि जीवन सुख है! तो बुद्ध को इनकार भी नहीं कर सकते कि आप गलत कहते हैं। लेकिन हमारी प्रतीति भी नहीं होती कि जीवन दुख है।
तो हम कहते हैं कि आप ठीक कहते हैं। समय पर, अनुकूल समय पर मैं भी इस घर को छोड़ दूंगा। कृपा करके, जब तक अभी इस घर में हूं, मुझे इतना बताएं कि कैसे इस घर में शांति से रहूं! और वह रास्ता भी बता दें, क्योंकि फिर दुबारा आप मिलें न मिलें, जब मुझे प्रतीति हो कि घर में आग लगी है, तो मुझे वह मेथड, वह विधि भी बता दें कि घर के बाहर कैसे निकलूं!
बुद्ध कहा करते थे कि जो आदमी पूछता है कि घर में आग लगी हो, तो मुझे रास्ता बता दें कि कैसे निकलूं, वह सिर्फ इतनी ही खबर देता है कि उसे पता नहीं है कि घर में आग लगी है। और कुछ पता नहीं देता। क्योंकि जिसके घर में आग लगी है, वह विधि की बात नहीं पूछता। वह छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। बताने वाला पीछे रह जाए; जिसको पता चला, घर में आग लगी है, वह मकान के बाहर हो जाएगा।
दूसरा सत्य बुद्ध कहते हैं, उपाय है। योग उपाय है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, योग से उपराम को उपलब्ध हुआ चित्त। योग उपाय है, विधि है, मेथड है। योग नाव है, साधन है, जिससे दुख-मुक्ति हो सकती है। सुख नहीं मिलेगा।
इसलिए जो व्यक्ति योग के पास सुख की खोज में आए हों, वे गलत जगह आ गए हैं। योग से सुख नहीं मिलेगा। जब मैं ऐसा कहता हूं, तो इसलिए कह रहा हूं कि आप सुख की तलाश में योग के पास न जाएं। योग से दुख-मुक्ति मिलेगी। इसलिए अगर आपको जीवन दुख प्रतीत हो गया हो, तो योग आपके काम का हो सकता है।
लेकिन हममें से अधिक लोग योग के पास सुख की तलाश में जाते हैं। हम योग को भी अपने सांसारिक चित्त की दौड़ के लिए एक साधन बनाना चाहते हैं! हम योग से भी चित्त की साइकिल को पैडल देना चाहते हैं! तब हम बड़ा कंट्राडिक्टरी, बड़ा व्यर्थ का, बड़ा स्वविरोधी काम कर रहे हैं। हम चाहते हैं, योग से धन मिल जाए। और ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो कहेंगे, हां मिल जाएगा! हम चाहते हैं, योग से शांति मिल जाए, ताकि शांति के द्वारा हम धन और यश और कामनाओं की दौड़ को ज्यादा आसानी से पूरा कर सकें!
हम योग को भी संसार का एक वाहन बनाना चाहते हैं। यह नहीं होगा। क्योंकि योग दूसरा सूत्र है। पहला सूत्र तो है, दुख का अनिवार्य बोध, तभी उपाय का बोध पैदा होता है।
बुद्ध तीसरा आर्य-सत्य भी कहते हैं। यह दूसरे आर्य-सत्य को मैं और समझाना चाहूंगा। तीसरा आर्य-सत्य भी बुद्ध कहते हैं। कहते हैं, दुख है। कहते हैं, दुख से मुक्ति का उपाय है। कहते हैं, दुख की मुक्ति के बाद की अवस्था है।
यह बुद्ध अपने अनुभव से कहते हैं कि दुख-मुक्ति के बाद की अवस्था है। दुख-मुक्ति को उपलब्ध हुए लोग हैं। बुद्ध खुद प्रमाण हैं। कोई पूछे, क्या है प्रमाण? तो योग का प्रमाण बहिर्प्रमाण नहीं हो सकता है। योग का प्रमाण तो अंतर्साक्ष्य हो सकता है। बुद्ध कह सकते हैं, मैं हूं प्रमाण।
जब जीसस से कोई पूछता है कि क्या है मार्ग? तो जीसस कहते हैं, आई एम दि वे--मैं हूं मार्ग। देखो मेरी तरफ; प्रवेश कर जाओ मेरी आंखों में। जब बुद्ध से कोई पूछता है, क्या है प्रमाण? तो बुद्ध कहते हैं, मैं हूं प्रमाण। देखो मुझे। दुख से उपराम पाया हुआ चित्त है, मैं हूं।
यह तीसरा सत्य तो केवल वे ही लोग उदघोषित कर सकते हैं, जो प्रमाण हैं। दो तक, पहला और दूसरा सत्य तो हम समझ सकते हैं बुद्धि से, लेकिन तीसरा सत्य बुद्धि का सवाल नहीं रह जाता, प्रमाण का सवाल है। लेकिन एक बात हम तीसरे सत्य के संबंध में भी समझ सकते हैं। और वह यह कि जब अशांत चित्त होता है जगत में, तो शांत हो सके, इसकी असंभावना नहीं है। जब कोई आदमी बीमार हो सकता है जगत में, तो स्वस्थ हो सके, इसकी असंभावना क्यों कर है? जब दुखी हो सकता है कोई, तो दुख के पार हो सके, इसकी असंभावना क्या है?