BHAGWAD GEETA

Geeta Darshan Vol-5 07

Seventh Discourse from the series of 11 discourses - Geeta Darshan Vol-5 by Osho. These discourses were given in BOMBAY during MAR 13-23 1971.
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न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।। 14।।
और परमेश्वर भी भूतप्राणियों के न कर्तापन को और न कर्मों को तथा न कर्मों के फल के संयोग को वास्तव में रचता है। किंतु परमात्मा के सकाश से प्रकृति ही बर्तती है, अर्थात गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं।
परमात्मा स्रष्टा तो है, लेकिन कर्ता नहीं है। इस सूत्र में कृष्ण ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है, परमात्मा स्रष्टा तो है, लेकिन कर्ता नहीं है। कर्ता इसलिए नहीं कि परमात्मा को यह स्मरण भी नहीं है--स्मरण हो भी नहीं सकता है--कि मैं हूं। मैं का खयाल ही तू के विरोध में पैदा होता है। तू हो, तो ही मैं पैदा होता है। परमात्मा के लिए तू जैसा अस्तित्व में कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं का कोई खयाल परमात्मा को पैदा नहीं हो सकता है।
मैं के लिए जरूरी है कि तू सामने खड़ा हो। तू के खिलाफ, तू के विरोध में, तू के साथ-सहयोग में मैं निर्मित होता है। परमात्मा के मैं का, अहंकार के निर्माण का कोई भी उपाय नहीं है। इसलिए कर्ता का कोई खयाल परमात्मा को नहीं हो सकता। लेकिन स्रष्टा वह है। और स्रष्टा से अर्थ है कि जीवन की सारी सृजन-धारा उससे ही बहती है। सारा जीवन उससे ही जन्मता और उसी में लीन होता है। लेकिन इस स्रष्टा की बात को भी थोड़ा-सा समझ लेना जरूरी होगा।
स्रष्टा भी बहुत तरह से हो सकता है कोई। एक मूर्तिकार एक मूर्ति का निर्माण करता है। मूर्ति बनती जाती है, मूर्तिकार से अलग होती चली जाती है। जब मूर्ति बन जाती है, तो मूर्तिकार अलग होता है, मूर्ति अलग होती है। मूर्तिकार मर भी जाए, तो जरूरी नहीं कि मूर्ति मरे। मूर्तिकार के बाद भी मूर्ति जिंदा रह सकती है। मूर्तिकार ने जो सृष्टि की, वह सृष्टि अपने से अन्य है, अलग है, बाहर है। मूर्तिकार बनाएगा जरूर, लेकिन मूर्तिकार पृथक है।
एक नृत्यकार नाचता है। एक नर्तक नाचता है। वह भी सृजन करता है नृत्य का। लेकिन नृत्य नर्तक से अलग नहीं होता है। नर्तक चला गया, नृत्य भी चला गया। नर्तक मर जाएगा, तो नृत्य भी मर जाएगा। नर्तक ठहर जाएगा, तो नृत्य भी ठहर जाएगा। नृत्य नर्तक से भिन्न कहीं भी नहीं है, फिर भी भिन्न है। इस अर्थ में तो भिन्न नहीं है नर्तक से नृत्य, जिस अर्थ में मूर्ति मूर्तिकार से भिन्न होती है। लेकिन फिर भी भिन्न है। भिन्न इसलिए है कि नर्तक तो नृत्य के बिना हो सकता है, लेकिन नृत्य नर्तक के बिना नहीं हो सकता। नर्तक नृत्य के बिना हो सकता है, लेकिन नृत्य नर्तक के बिना नहीं हो सकता।
मूर्तिकार और मूर्ति में जो भेद है, वैसा भेद तो नृत्यकार और नर्तक में नहीं है, लेकिन पूरा अभेद भी नहीं है। एक भी नहीं हैं दोनों। क्योंकि नृत्यकार हो सकता है, नृत्य न हो, लेकिन नृत्य नहीं हो सकेगा। ठीक ऐसे ही, जैसे सागर हो सकता है, लहर न हो। लेकिन लहर नहीं हो सकती सागर के बिना। सागर के होने में कोई कठिनाई नहीं है बिना लहर के। लेकिन लहर सागर के बिना नहीं हो सकती है। इसलिए सागर और लहर एक भी हैं और एक नहीं भी हैं।
परमात्मा का जगत से जो संबंध है, वह नर्तक जैसा है। इसलिए अगर हिंदुओं ने नटराज की धारणा की, तो बड़ी कीमती है। नाचते हुए परमात्मा की धारणा की है। नृत्य करते शिव को सोचा, तो बहुत गहरा है। शायद पृथ्वी पर नृत्य करते हुए परमात्मा की धारणा हिंदू धर्म के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है। जहां भी लोगों ने परमात्मा की सृष्टि की बात सोची है, वहां सृष्टि मूर्ति और मूर्तिकार वाली सोची है, नृत्य और नर्तक वाली नहीं।
लोग उदाहरण देते हैं कि जैसे कुम्हार घड़े को बनाता है। नहीं, परमात्मा इस तरह जगत को नहीं बनाता है। परमात्मा इसी तरह जगत को बनाता है, जैसे नर्तक नृत्य को बनाता है--एक। पूरे समय डूबा हुआ नृत्य में और फिर भी अलग। क्योंकि चाहे तो नृत्य को छोड़ दे और अलग खड़ा हो जाए। नृत्य बचेगा नहीं उसके बिना। नर्तक उसके बिना बच सकता है। इसलिए नृत्य नर्तक पर निर्भर है, नर्तक नृत्य पर निर्भर नहीं है।
परमात्मा और प्रकृति के बीच नर्तक और नृत्य जैसा संबंध है। प्रकृति निर्भर है परमात्मा पर। परमात्मा प्रकृति पर निर्भर नहीं है। परमात्मा न हो, तो प्रकृति खो जाएगी, शून्य हो जाएगी। लेकिन परमात्मा प्रकृति के बिना भी हो सकता है। भेद भी है और अभेद भी, भिन्नता भी है और अभिन्नता भी, दोनों एक साथ।
प्रकृति के बीच परमात्मा वैसे ही है, जैसे नृत्य के बीच नर्तक है। लेकिन जब नर्तक नाचता है, तो शरीर का उपयोग करता है। शरीर की सीमाएं शुरू हो जाती हैं। पैर थक जाएगा, जरूरी नहीं कि नर्तक थके। पैर टूट भी सकता है, जरूरी नहीं कि नर्तक टूटे। पैर चलने से थकेगा, पैर की सीमा है। हो सकता है, नर्तक अभी न थका हो। नर्तक नृत्य करते शरीर के भीतर कैटेलिटिक एजेंट की तरह है। कैटेलिटिक एजेंट की बात थोड़ी खयाल में ले लें, तो कृष्ण का सूत्र समझ में आएगा।
विज्ञान में कैटेलिटिक एजेंट का बड़ा मूल्य है, अर्थ है। कैटेलिटिक एजेंट से ऐसे तत्वों का प्रयोजन है, जो स्वयं भाग तो नहीं लेते किसी क्रिया में, लेकिन उनके बिना क्रिया हो भी नहीं सकती। जैसे कि हाइड्रोजन और आक्सीजन को हम मिला दें, तो पानी नहीं बनेगा। बनना चाहिए, क्योंकि हाइड्रोजन और आक्सीजन के अतिरिक्त पानी में और कुछ भी नहीं होता। हाइड्रोजन और आक्सीजन को मौजूद कर देने से पानी नहीं बनेगा। बनना चाहिए। क्योंकि पानी को अगर हम तोड़ें, तो सिवाय हाइड्रोजन और आक्सीजन के कुछ भी नहीं होता।
फिर पानी कैसे बनेगा? अगर हाइड्रोजन और आक्सीजन के बीच में बिजली कौंधा दें, तो पानी बनेगा।
बिजली क्या करती है कौंधकर? वैज्ञानिक कहते हैं, बिजली कुछ भी नहीं करती; सिर्फ उसकी मौजूदगी, प्रेजेंस कुछ करती है। सिर्फ मौजूदगी! बिजली कुछ नहीं करती, सिर्फ उसकी मौजूदगी कुछ करती है। सिर्फ मौजूदगी। ध्यान रहे, बिजली कर्ता नहीं बनती; कुछ करती नहीं। सिर्फ मौजूदगी; बस उसके मौजूद होने में, उसकी मौजूदगी की छाया में हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बन जाते हैं।
इसीलिए अगर हम पानी को तोड़ें, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन तो हमको मिलेंगे, लेकिन बिजली नहीं मिलेगी। क्योंकि बिजली कृत्य में प्रवेश नहीं करती। लेकिन बड़े मजे की बात यह है कि बिजली अगर मौजूद न हो, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलते भी नहीं हैं। इनके मिलन के लिए बिजली की मौजूदगी जरूरी है। अब इस मौजूदगी को हम क्या कहें? इस मौजूदगी ने कुछ किया जरूर, फिर भी कुछ भी नहीं किया; कर्ता नहीं है।
परमात्मा को इस सूत्र में कृष्ण बिलकुल कैटेलिटिक एजेंट कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि सारी प्रकृति बर्तती है। यद्यपि परमात्मा की मौजूदगी के बिना प्रकृति बर्त नहीं सकेगी। फिर भी परमात्मा की मौजूदगी में प्रकृति ही बर्तती है, परमात्मा नहीं बर्तता।
जैसे मैंने उदाहरण के लिए कल आपको कहा था, उसे थोड़ा गहरे में देख लें। आपको भूख लगी है। मैंने आपसे कहा, भूख आपको नहीं लगती, पेट को लगती है। निश्चित ही भूख आपको नहीं लगती, पेट को लगती है। आपको सिर्फ पता चलता है कि पेट को भूख लगी। लेकिन अगर आप शरीर के बाहर हों, तो फिर पेट को भूख लग सकती है या नहीं? आप मर गए समझिए। शरीर अब भी है, पेट अब भी है। भूख अब भी लगनी चाहिए; क्योंकि पेट को भूख लगती थी, आपको तो लगती नहीं थी। आप अब नहीं हैं, पेट को भूख अब नहीं लगती है। यद्यपि इससे यह मतलब नहीं कि आपको भूख लगती थी। आपकी मौजूदगी पेट को भूख लगने के लिए जरूरी थी। अन्यथा उसको भूख भी नहीं लगती। फिर भी भूख आपको नहीं लगती थी, भूख पेट को ही लगती थी।
सारी प्रकृति बर्तती है अपने-अपने गुणधर्म से, परमात्मा की मौजूदगी में। सिर्फ उसकी पे्रजेंस काफी है। बस वह है, और प्रकृति बर्तती चली जाती है। लेकिन वर्तन का कोई भी कृत्य परमात्मा को कर्ता नहीं बनाता है। कर्ता और स्रष्टा में मैं यही फर्क कर रहा हूं। उसके बिना सृष्टि चल नहीं सकती, इसलिए उसे मैं स्रष्टा कहता हूं। वह सृष्टि को चलाता नहीं रोज-रोज, इसलिए उसे मैं कर्ता नहीं कहता हूं।
कृष्ण के इस सूत्र में उन्होंने कहा है, जो जानते हैं, वे जानते हैं कि प्रकृति अपने गुणधर्म से काम करती रहती है।
पानी भाप बनता रहता है। परमात्मा पानी को भाप नहीं बनाता। लेकिन परमात्मा की मौजूदगी के बिना पानी भाप नहीं बनेगा। पानी भाप बनकर बादल बन जाएगा। बादल सर्द होंगे, बरसा होगी। पहाड़ों पर पानी गिरेगा। गंगाओं से बहेगा। सागर में पहुंचेगा। फिर बादल बनेंगे। यह चलता रहेगा। बीज वृक्षों से गिरेंगे जमीन में, फिर अंकुर आएंगे। परमात्मा किसी बीज को अंकुर बनाता नहीं, लेकिन परमात्मा के बिना कोई बीज अंकुरित नहीं हो सकता है। उसकी मौजूदगी! लेकिन मौजूदगी का यह जो कैटेलिटिक एजेंट का खयाल है, इसे एक तरफ से और समझें।
पश्चिम में एक वैज्ञानिक है, जीन पियागेट। उसने मां और बेटे के बीच, मां और बच्चे के बीच, जीवनभर क्या-क्या होता है, इसका ही अध्ययन किया है। वह कुछ अजीब नतीजों पर पहुंचा है, वह मैं आपसे कहना चाहूंगा। वे भी कैटेलिटिक एजेंट जैसे नतीजे हैं। लेकिन कैटेलिटिक एजेंट तो पदार्थ की बात है। मां का संबंध और बेटे का संबंध पदार्थ की बात नहीं, चेतना की घटना है।
जीन पियागेट का कहना है कि मां से बच्चे को दूध मिलता है, यह तो हम जानते हैं। लेकिन कुछ और भी मिलता है, जो हमारी पकड़ में नहीं आता। क्योंकि पियागेट ने ऐसे बहुत-से प्रयोग किए, जिनमें बच्चे को मां से अलग कर लिया। सब दिया, जो मां से मिलता था। दूध दिया। सेवा दी। सब दिया। लेकिन फिर भी मां से जो बच्चा अलग हुआ, उसकी ग्रोथ रुक गई, उसका विकास रुक गया। उसके विकास में कोई बाधा पड़ गई। वह रुग्ण और बीमार रहने लगा।
चालीस साल के निरंतर अध्ययन के बाद पियागेट यह कहता है कि मां की मौजूदगी, प्रेजेंस कुछ करती है। सिर्फ उसकी मौजूदगी। बच्चा खेल रहा है बाहर। मां बैठी है अपने मकान के भीतर। मां भीतर मौजूद है, बच्चा कुछ और है। सिर्फ मौजूदगी, एक मिल्यू, एक हवा मां की मौजूदगी की!
अरब में एक बहुत पुरानी कहावत है कि चूंकि परमात्मा सब जगह नहीं हो सकता था, इसलिए उसने माताओं का निर्माण किया। बहुत बढ़िया कहावत है। चूंकि परमात्मा सब जगह कहां-कहां आता, इसलिए उसने बहुत-सी मां बना दीं, ताकि परमात्मा की मौजूदगी मां से बह सके।
मां से कुछ बहता है, जो इम्मैटीरियल है, पदार्थगत नहीं है। जिसको नापा नहीं जा सकता है। कोई ऊष्मा, कोई प्रीति, कोई स्नेह की धार--शायद किसी दिन हम जान लें।
बहुत-सी चीजें हैं, जो हमारे चारों तरफ हैं, अभी हम नाप नहीं पाए। जमीन में ग्रेविटेशन है, हम जानते हैं। पत्थर को ऊपर फेंकें, नीचे आ जाता है। लेकिन अभी तक ग्रेविटेशन नापा नहीं जा सका कि है क्या! यह जमीन की जो कशिश है, यह क्या है! चांद पर हम पहुंच गए हैं, लेकिन अभी कशिश के मामले में हम कहीं नहीं पहुंचे हैं। अभी हमें पता नहीं कि यह कशिश क्या है, जमीन जो खींचती है।
पियागेट कहता है कि मां और बेटे के बीच भी ठीक ऐसी ही कशिश है, कोई ग्रेविटेशन है। जिससे बेटा वंचित हो जाए, तो हमें पता नहीं चलेगा, लेकिन सूखना शुरू हो जाएगा, मुर्झाना शुरू हो जाएगा।
कोई आश्चर्य नहीं है कि अमेरिका में जिस दिन से परिवार शिथिल हुआ और मां और बेटे के संबंध क्षीण हुए, उसी दिन से अमेरिका विक्षिप्त होता जा रहा है। पचास सालों में अमेरिका रोज पागलपन के करीब गया है। और अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उस पागलपन का सबसे बड़ा कारण यह है कि मां और बेटे के बीच संबंध की जो धारा थी, वह क्षीण हो गई।
अमेरिका की स्त्री बच्चे को दूध पिलाने को राजी नहीं है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, इतना ही दूध तो बोतल से भी पिलाया जा सकता है। और कोई हैरानी नहीं है कि मां के स्तन से भी अच्छा स्तन बनाया जा सकता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। लेकिन फिर भी उसके भीतर से जो अनजानी धारा बहती थी, वह जो कैटेलिटिक एजेंट था मदरहुड का, मातृत्व का, वह नहीं पैदा किया जा सकता। दूध के साथ वह भी बहता था। अभी हमारे पास नापने का उसेकोई उपाय नहीं है।
लेकिन हम आज नहीं कल.रोज-रोज जितनी हमारी समझ बढ़ती है, यह बात साफ होती चली जाती है कि मानवीय संबंधों में भी कुछ बहता है। जब भी ऐसा कोई बहाव होता है, तभी हमें प्रेम का अनुभव होता है। और जब परमात्मा और हमारे बीच ऐसा कोई बहाव होता है, तो हमें प्रार्थना का अनुभव होता है। ये दोनों अनुभव किसी अदृश्य मौजूदगी के अनुभव हैं।
लेकिन कृष्ण कहते हैं, परमात्मा कुछ करता नहीं।
ध्यान रहे, करना उसे पड़ता है, जो कमजोर हो। करना कमजोरी का लक्षण है। जो शक्तिशाली है, उसकी मौजूदगी ही करती है।
एक शिक्षक क्लास में आता है और आकर डंडा बजाकर विद्यार्थियों को कहता है कि देखो, मैं आ गया। मैं तुम्हारा शिक्षक हूं। चुप हो जाओ! यह शिक्षक कमजोर है। सच में जब कोई शिक्षक कमरे में आता है, तो सन्नाटा छा जाता है, उसकी मौजूदगी से। कहना पड़े, तो शिक्षक है ही नहीं।
इसलिए पुराने सूत्र यह नहीं कहते कि गुरु को आदर करो। पुराने सूत्र कहते हैं, जिसको आदर करना ही पड़ता है, उसका नाम गुरु है।
जिस गुरु को आदर करने के लिए कहना पड़े, वह गुरु नहीं है। जो गुरु कहे, मुझे आदर करो, वह दो कौड़ी के योग्य है। वह कोई गुरु-वुरु नहीं है। गुरु है ही वह कि आप न भी चाहें कि आदर करो, तो भी आदर करना ही पड़े। उसकी मौजूदगी, तत्काल भीतर से कुछ बहना शुरू हो जाए। नहीं; वह चाहता भी नहीं। नहीं; वह कहता भी नहीं। उसे पता भी नहीं है कि कोई उसे आदर करे। लेकिन उसकी मौजूदगी, और आदर बहना शुरू हो जाता है।
परमात्मा परम शक्ति का नाम है। अगर उसको भी कुछ करके करना पड़े, तो कमजोर है। कृष्ण कहते हैं, वह कुछ करता नहीं है। वह है, इतना ही काफी है। उसका होना पर्याप्त है। पर्याप्त से थोड़ा ज्यादा ही है। और प्रकृति काम करती चली जाती है। उसकी मौजूदगी में सारा काम चलता चला जाता है।
लेकिन प्रकृति बर्तती है अपने गुणों से, अपने नियमों से। इसलिए जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, जो इस मौलिक तत्व को और आधार को समझ लेता है, वह फिर मैं करता हूं, इस भ्रांति से छूट जाता है।
इतना बड़ा विराट अस्तित्व चल रहा है बिना कर्ता के, तो मेरी छोटी-सी गृहस्थी बिना कर्ता के नहीं चल पाएगी? इतने चांद-तारे यात्राएं कर रहे हैं बिना कर्ता के! रोज सुबह सूरज उग आता है। हर वर्ष वसंत आ जाता है। अरबों-खरबों वर्षों से पृथ्वियां घूमती हैं, निर्मित होती हैं, मिटती हैं। अनंत तारों का जाल चलता रहता है। बिना किसी कर्ता के इतना सब चल रहा है। लेकिन मैं कहता हूं, मेरी दुकान बिना कर्ता के कैसे चलेगी!
जो व्यक्ति इस मूल आधार को समझ लेता है कि इतना विराट अस्तित्व चलता चला जा रहा है, तो मेरे क्षुद्र कामों में मैं नाहक ही कर्ता को पकड़कर बैठा हुआ हूं। इतना विराट चल सकता है कर्ता से मुक्त होकर, तो मैं भी चल सकता हूं। जिस व्यक्ति को यह स्मरण आ गया, वह संन्यासी है। जिस व्यक्ति को यह स्मरण आ गया कि इतना विराट चलता है बिना कर्ता के, तो अब मैं भी बिना कर्ता के चलता हूं। उठूंगा सुबह, दुकान पर जाकर बैठ जाऊंगा। काम कर लूंगा। भूख लगेगी, खाना खा लूंगा। नींद आएगी, सो जाऊंगा। लेकिन अब मैं कर्ता नहीं रहूंगा। प्रकृति करेगी, मैं देखता रहूंगा। बाधा भी नहीं डालूंगा। क्योंकि जो बाधा डालेगा, वह भी कर्ता हो जाएगा।
आपको नींद आ रही है और आपने कहा, हम न सोएंगे, तो भी आप कर्ता हो गए। सुबह नींद आ रही है और आप जबर्दस्ती बोले कि हम तो ब्रह्ममुहूर्त में उठकर रहेंगे, तो भी कर्ता हो गए।
जीवन को सहज, जैसा जीवन है, उसको कर्ता को छोड़कर प्रकृति पर छोड़ देने वाला व्यक्ति संन्यासी है। कृष्ण उसी निष्काम कर्मयोगी की बात कर रहे हैं।
लेकिन हमारे मन में बड़ी-बड़ी भ्रांत धारणाएं हैं। आज दोपहर एक बहुत मजेदार बात हुई। एक महिला मुझे मिलने आई। आते ही उसने एक चांटा मेरे मुंह पर मार दिया। मैंने उससे पूछा, और क्या कहना है? तो उसने कहा, दूसरा गाल भी मेरे सामने करिए। मैंने दूसरा गाल भी उसके सामने कर दिया। उसने दूसरा चांटा भी मार दिया। मैंने कहा, और क्या कहना है? उसने कहा कि नहीं, और कुछ नहीं कहना। मैं तो आपकी परीक्षा लेने आई थी। मैंने कहा, मेरे शरीर को चांटा मारकर मेरी परीक्षा कैसे होगी? उससे नहीं कहा, क्योंकि जिसकी शरीर पर बुद्धि अटकी हो, उससे कुछ भी कहना कठिन है।
मेरे शरीर को चोट पहुंचाकर मेरी परीक्षा कैसे होगी? लेकिन हमारा भरोसा शरीर पर है। तुम मुझे छुरा भी मारोगे, तो भी शरीर अपना काम जो करता है, कर लेगा। चांटा मारोगे, तो मेरे गाल पर हाथ का निशान बन जाएगा। शरीर अपना काम बर्त लेगा। अगर मेरे भीतर खयाल हो कि मुझे मारा गया, तो उपद्रव भीतर तक प्रवेश कर जाएगा। अन्यथा मैं देखूंगा कि मेरे शरीर को मारा गया। शरीर को मारा गया; शरीर को जो करना है, वह अपना कर लेगा।
और हैरानी की बात है कि शरीर चुपचाप अपने नियम में बर्तकर अपनी जगह वापस लौट जाता है। प्रकृति बड़ी शांति से अपना काम कर लेती है। उसके हाथ का निशान बन गया था, थोड़ी देर बाद मैंने देखा, वह खो गया; शरीर उसे पी गया। लेकिन अगर मैं कर्ता बन जाऊं, मुझे मारा गया या मैं मारूं या उत्तर दूं या कुछ करूं, तो फिर उपद्रव शुरू हुआ। लेकिन हमारी पकड़ शरीर की भाषा से, प्रकृति की भाषा से ऊपर नहीं उठती।
अगर मुझे मजाक करना होता, तो एक चांटा मैं भी उसे मार सकता था। मजाक करना होता! लेकिन गरीब नासमझ औरत, उसके साथ मजाक करनी ठीक भी नहीं। लेकिन हम भाषा कौन-सी समझते हैं!
जब वह चली गई, तो मुझे खयाल आया। एक फकीर हुआ, नसरुद्दीन। उसके पास एक गधा था, जिस पर वह यात्रा करता रहता था। एक दिन पड़ोस का एक आदमी उसका गधा मांगने आया और उसने नसरुद्दीन से कहा कि अपना गधा मुझे दे दें; बहुत जरूरी काम है। नसरुद्दीन ने कहा कि गधा तो कोई और उधार मांग ले गया है। लेकिन तभी--गधा ही तो ठहरा--पीछे से अस्तबल से गधे ने आवाज दी। वह आदमी क्रोध से भर गया। उसने कहा कि धोखा देते हैं मुझे? गधा अंदर बंधा हुआ मालूम पड़ता है। नसरुद्दीन ने कहा, क्या मतलब तुम्हारा? मेरी बात नहीं मानते; गधे की बात मानते हो? मैं कहता हूं, मेरा तुम्हें भरोसा नहीं आता। गधा आवाज देता है, उसका तुम्हें भरोसा आता है! किस तरह की भाषा समझते हो? आदमी हो कि गधे?
मैं जो कह रहा हूं, वह समझ में नहीं आएगा। मेरे शरीर को एक चांटा मारकर कोई परीक्षा लेने आता है। लेकिन शरीर सवारी से ज्यादा नहीं है, गधे से ज्यादा नहीं है। पर कुछ लोग उसकी ही भाषा समझते हैं।
प्रकृति की भाषा से ऊपर हम नहीं उठ पाते, इसलिए परमात्मा की हमें कोई झलक भी नहीं मिल पाती है। परमात्मा की झलक लेनी हो, तो प्रकृति की भाषा से थोड़ा पार जाना पड़ेगा। और यह चारों तरफ जो भी हमें दिखाई पड़ रहा है, सब प्रकृति का खेल है। जो भी हमारी आंख में दिखाई पड़ता है, जो भी हमारे कान में सुनाई पड़ता है, जिसे भी हम हाथ से छूते हैं, वह सब प्रकृति का खेल है। प्रकृति अपने गुणधर्म से बरत रही है। अगर इतने पर ही कोई रुक गया, तो वह कभी परमात्मा की झलक को उपलब्ध न होगा।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, उसकी झलक को अगर उपलब्ध होना हो, तो यह प्रकृति का काम है, ऐसा समझकर गहरे में इसे प्रकृति को ही करने दो। तुम मत करो। तुम कर्ता मत रह जाओ, तुम सिर्फ द्रष्टा हो जाओ; साक्षी हो जाओ कि प्रकृति ऐसा कर रही है। तुम सिर्फ देखते रहो एक दर्शक की भांति। और धीरे-धीरे-धीरे वह द्वार खुल जाएगा, जहां से, जिसने कभी कुछ नहीं किया, यद्यपि जिसके बिना कभी कुछ नहीं हुआ, उस परमात्मा की प्रतिमा झलकनी शुरू हो जाएगी।

प्रश्न:
भगवान, आपने पिछली एक चर्चा में कहा है कि परमात्मा अर्थात अस्तित्व, एक्झिस्टेंस, समग्रता, टोटेलिटी। लेकिन इस श्लोक में भूतप्राणी और परमात्मा, या प्रकृति और परमात्मा ऐसे दो अलग-अलग विभाग कैसे कहे गए हैं, इसके क्या कारण हैं?
वही, जैसा मैंने कहा, नृत्य और नृत्यकार। अगर हम नृत्यकार की तरफ से देखें, तो दोनों एक हैं। लेकिन अगर नृत्य की तरफ से देखें, तो दोनों एक नहीं हैं। जैसे लहर और सागर। सागर की तरफ से देखें, तो दोनों एक हैं। लहर की तरफ से देखें, तो दोनों एक नहीं हैं।
तो यदि हम परमात्मा की तरफ से देखें, तब तो प्रकृति है ही नहीं; वही है। लेकिन अगर प्रकृति की तरफ से देखें, तो प्रकृति है।
ये जो भेद हैं, सब भेद मनुष्य की बुद्धि से निर्मित हैं--सब भेद। और अगर कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी समझाना हो किसी को--कृष्ण भलीभांति जानते हैं अभेद को, नहीं कोई भेद है, एक ही है। लेकिन समझाना हो किसी को, तो तत्काल दो करने पड़ेंगे।
यह बहुत समझने जैसी बात है। जैसे कि कांच के एक प्रिज्म में से हम सूरज की किरण को निकालें, तो सात टुकड़ों में बंट जाती है। किरण तो एक होती है, लेकिन तत्काल प्रिज्म में से निकलते ही के साथ सात हो जाती है।
कभी पानी में एक लकड़ी के डंडे को डालकर देखें। डंडा सीधा हो, पानी में जाते ही तिरछा दिखाई पड़ने लगता है। बाहर निकालें, फिर सीधा हो गया। फिर पानी में डालें, फिर तिरछा हो गया! क्या, बात क्या है? डंडा तिरछा हो जाता है? हो नहीं जाता। लेकिन पानी के माध्यम में किरणों का प्रवाह, किरणों की धारा और दिशा थोड़ी-सी झुक जाती है पानी की मौजूदगी से, इसलिए डंडा तिरछा दिखाई देने लगता है। और आप दस दफे निकालकर देख लें कि डंडा सीधा है, ग्यारहवीं बार फिर डालें, तो भी तिरछा ही दिखाई पड़ेगा। आप यह मत सोचना कि हम दस बार देख लिए कि सीधा है, इसलिए ग्यारहवीं बार धोखा नहीं होगा, अब की दफे सीधा दिखाई पड़ेगा। तिरछा ही दिखाई पड़ेगा।
बुद्धि का एक माध्यम है। समझाया तो जाता है बुद्धि से और समझा भी जाता है बुद्धि से। सत्य है अद्वैत, लेकिन समझ सदा द्वैत की होती है। ट्रुथ इज़ नान-डुअल; अंडरस्टैंडिंग इज़ आलवेज डुअल। सत्य तो है एक, लेकिन समझ सदा होती है द्वैत की। समझाना हो, तो दो करने ही पड़ेंगे। असल में जब भी कोई किसी को समझाता है, तभी दो हो गए। समझाने वाला और समझने वाला जहां आ गए, वहां दो आ गए। कोई समझा रहा है, कोई समझ रहा है--दो हो गए।
एक फकीर का मुझे स्मरण आता है। एक झेन फकीर बांकेई के पास एक आदमी गया और उसने कहा कि मुझे कुछ सत्य के संबंध में कहो। बांकेई बैठा रहा; कुछ भी न बोला। उस आदमी ने समझा कि शायद बहरा मालूम पड़ता है। जोर से कहा कि मुझे सत्य के संबंध में कुछ कहिए! लेकिन बांकेई वैसे ही बैठा रहा। लगा कि वज्र बहरा मालूम होता है। हिलाया जोर से बांकेई को उस आदमी ने। बांकेई हिल गया। उसने कहा कि मैं पूछ रहा हूं सत्य के संबंध में। बांकेई ने कहा, मुझे सुनाई पड़ता है। उस आदमी ने कहा, जवाब क्यों नहीं देते? तो बांकेई ने कहा, अगर मैं जवाब दूं, तो द्वैत हो जाएगा। और अगर मैं चुप रहूं, तो तुम समझोगे नहीं। तुमने मुझे बड़ी मुश्किल में डाल दिया है।
कृष्ण को अगर अद्वैत की ओर इशारा करना हो, तो मौन रह जाना पड़े। लेकिन अर्जुन की समझ के बाहर होगा मौन। और भाषा जब भी विचार शुरू करती है, तभी टूट शुरू हो जाती है। तोड़ना ही पड़ेगा। अनिवार्य रूप से बुद्धि खंडन करती है, खंड करती है, एनालिसिस करती है, टुकड़े करती है।
इसीलिए तो विज्ञान की जो पद्धति है, वह एनालिसिस है। तोड़ो, खंड-खंड करते जाओ, और तोड़ते चले जाओ। हर चीज को, जिसको भी समझना हो, तोड़ना पड़ेगा।
अभी पचास साल पहले डाक्टर होता था, तो वह पूरे आदमी का डाक्टर होता था। वह आपकी बीमारी का इलाज कम करता था, बीमार का इलाज ज्यादा करता था। आपसे परिचित होता था भलीभांति। मरीज को पूरी तरह पहचानता था। आज हालत बिलकुल बदल गई है। अगर बाएं कान में दर्द है, तो एक डाक्टर के पास जाइए; दाएं कान में दर्द है, तो दूसरे डाक्टर के पास जाइए। उसको आपसे मतलब नहीं है। बस, उस कान के टुकड़े से मतलब है। बाकी मरीज बेकार है; हो या न हो। वह अपने कान की जांच कर लेगा।
इसलिए आज मरीज की कोई चिकित्सा नहीं होती, सिर्फ बीमारी की चिकित्सा होती है। और इनमें बड़ा फर्क है। टु ट्रीट ए डिसीज एंड टु ट्रीट ए पेशेंट, बहुत फर्क बातें हैं। क्योंकि जब मरीज की चिकित्सा करनी हो, तो करुणा की जरूरत पड़ती है। और जब सिर्फ बीमारी की चिकित्सा करनी हो, तो यांत्रिकता पर्याप्त है। स्पेशलिस्ट जो है, वह कान की जांच करके और लिख देगा कि क्या गड़बड़ है।
विज्ञान जैसे विकसित होगा, चीजें खंड-खंड होती चली जाएंगी। विज्ञान की प्रक्रिया बुद्धि की प्रक्रिया है। धर्म जैसे विकसित होगा, चीजें जुड़ती चली जाएंगी, खंड इकट्ठे होते जाएंगे। विज्ञान का मैथड है एनालिसिस, धर्म का मैथड है सिंथीसिस, जोड़ते चले जाओ। इसलिए धर्म जब परम स्थिति को उपलब्ध होता है, तो एक ही रह जाता है। और विज्ञान जब परम स्थिति को उपलब्ध होता है, तो परमाणु हाथ में रह जाते हैं, अनंत परमाणु। और जब धर्म विकसित होता है, तो अनंत अद्वैत, एक ही हाथ में रह जाता है।
कृष्ण की कठिनाई है, और वह सब कृष्णों की कठिनाई है, चाहे वे कहीं पैदा हुए हों--जेरूसलम में, कि मक्का में, कि चीन में, कि तिब्बत में--कहीं भी पैदा हुआ हो कोई जानता हुआ आदमी, उसकी कठिनाई यही है कि बुद्धि से कहते ही दो करने पड़ते हैं।
इसलिए कृष्ण दो कर रहे हैं, अर्जुन की तरफ से--इस बात को स्मरण रखना--लहर की तरफ से दो कर रहे हैं। कह रहे हैं कि प्रकृति है एक अर्जुन! यह सारा काम प्रकृति कर रही है। इतना तू समझ और द्रष्टा हो जा। अगर अर्जुन द्रष्टा हो जाए, तो एक दिन वह पाएगा कि न कोई प्रकृति है, न कोई परमात्मा है, एक ही है। जैसे कि हम एक आदमी से कहें कि ये जो लहरें तुझे दिखाई पड़ रही हैं, ये सागर नहीं हैं।
आपको खयाल नहीं होगा; आप सागर के किनारे बहुत बार गए होंगे, लेकिन लहरों को देखकर लौट आए और समझा कि सागर को देखकर आ रहे हैं। सागर को आपने कभी नहीं देखा होगा; सिर्फ लहरों को देखा है। सागर की छाती पर लहरें ही होती हैं, सागर नहीं होता। लेकिन कहते यही हैं कि हम सागर को देखकर चले आ रहे हैं। सागर का दर्शन कर आए। दर्शन किया है सिर्फ लहरों का। सागर बड़ी गहरी चीज है; लहरें बड़ी उथली चीज हैं। कहां लहरों का उथलापन और कहां सागर की गहराई! पर लहरों को हम सागर समझ लेते हैं।
आप अगर मेरे पास आएं और कहें कि मैं सागर का दर्शन करके आ रहा हूं, तो मैं कहूंगा, ध्यान रखो, सागर और लहरें दो चीज हैं। तुम लहरों का दर्शन करके आ रहे हो, उसको सागर मत समझ लेना। सागर बहुत बड़ा है। बहुत गहरे, भीतर छिपा है। और अगर सागर को देखना हो, तो तब देखना, जब लहरें बिलकुल शांत हों। तब तुम झांक पाओगे सागर में।
आप मुझसे कह सकते हैं कि बड़ी गलत बात आप कह रहे हैं। सागर और लहरें तो एक ही हैं! लेकिन यह उसका अनुभव है, जिसने सागर को जाना। जिसने लहरों को जाना, उसका यह अनुभव नहीं है।
तो कृष्ण की कठिनाई है। वे तो सागर को जानते हुए खड़े हैं। लेकिन अर्जुन तो लहरों पर जी रहा है। उससे वे कहते हैं कि जिसे तू जान रहा है, वह प्रकृति है। इस लहरों की उथल-पुथल को, इस लहरों की अशांति को तू सागर मत समझ लेना। यह सागर का हृदय नहीं है। सागर के हृदय को तो पता ही नहीं है कि कहीं लहरें भी उठ रही हैं। सागर के गहरे में तो पता भी नहीं है। वहां कभी कोई लहर उठी ही नहीं है। इसलिए दो हिस्सों में तोड़ लेना पड़ता है।
ज्ञान में सब द्वैत गलत है। अज्ञान में सब अद्वैत समझ के बाहर है। अज्ञान में अद्वैत समझ के अतीत है, पार है। ज्ञान में द्वैत विदा हो जाता है, बचता नहीं।
फिर क्या किया जाए? जब ज्ञानी अज्ञानी से बोले, तो क्या करे? मजबूरी में अज्ञानी की भाषा का ही उपयोग करना पड़ता है, इस आशा में कि उसी भाषा का उपयोग करके क्रमशः इशारा करते हुए, किसी घड़ी धक्का दिया जा सकेगा।
एक बच्चे को हम सिखाने बैठते हैं। उससे हम कहते हैं कि ग गणेश का। अब सेकुलर गवर्नमेंट आ गई, तो अब हम कहते हैं, ग गधे का! धर्मनिरपेक्ष राज्य हो गया, अब गणेश को तो उपयोग कर नहीं सकते! गधा सेकुलर है, धर्मनिरपेक्ष! गणेश तो धार्मिक बात हो जाएगी। इसलिए बदलना पड़ा किताबों में। पर गधे से या गणेश से ग का क्या लेना-देना? फिर बच्चा बड़ा हो जाएगा, तो हर बार जब भी पढ़ेगा कुछ, तो क्या पढ़ेगा कि ग गणेश का, ग गधे का? भूल जाएंगे। गधे भी भूल जाएंगे, गणेश भी भूल जाएंगे। ग बचेगा। मुक्त हो जाएगा, जिससे जोड़कर बताया था। लेकिन बताते वक्त बहुत जरूरी था।
अगर हम बच्चे को बिना किसी प्रतीक के बताना चाहें, तो बता न सकेंगे। और अगर बड़ा होकर भी बच्चा प्रतीक को पकड़े रहे, तो गलती हो गई; वह पागल हो गया। दोनों करने पड़ेंगे। प्रतीक से यात्रा शुरू करनी पड़ेगी, और एक घड़ी आएगी, जब प्रतीक छीन लेना पड़ेगा।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यंति जन्तवः।। 15।।
और सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभकर्म को भी ग्रहण करता है, किंतु माया के द्वारा ज्ञान ढंका हुआ है। इससे सब जीव मोहित हो रहे हैं।
तो कृष्ण द्वैत की बात करेंगे, करते रहेंगे, करते रहेंगे। और जब लगेगा कि अर्जुन उस जगह आया, जहां द्वैत छीना जा सकता है, तो अद्वैत की बात भी करेंगे। उस इशारे की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन इस घड़ी तक, अभी तक अर्जुन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। इसलिए कृष्ण प्रकृति और परमात्मा, दो की बात कर रहे हैं।
और न ही वह परम शक्ति किसी के पाप या किसी के पुण्य या अशुभ या शुभ कर्मों को ग्रहण करती है। उस परम शक्ति को शुभ-अशुभ का भी कोई परिणाम, कोई प्रभाव नहीं होता है। लेकिन हम, वे जो अज्ञान से दबे हैं, वे जो स्वप्न में खोए हैं, वे उस स्वप्न और अज्ञान और माया में डूबे हुए, पाप और पुण्य के जाल में घूमते रहते हैं। इसमें दो-तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।
पहली बात तो यह कि पाप और पुण्य केवल उसी के जीवन की धारणाएं हैं, जिसे खयाल है कि मैं कर्ता हूं। इसे ठीक से खयाल में ले लें। जो मानता है, मैं कर्ता हूं, करने वाला हूं, फिर उसे यह भी मानना पड़ेगा कि मैंने बुरा किया, अच्छा किया। अगर परमात्मा कर्ता नहीं है, तो अच्छे-बुरे का सवाल नहीं उठता है। जो आदमी मानता है कि मैंने किया, फिर वह दूसरी चीज से न बच सकेगा कि जो उसने किया, वह ठीक था, गलत था, सही था, शुभ था, अशुभ था!
कर्म को मान लिया कि मैंने किया, तो फिर नैतिकता से बचना असंभव है। फिर नीति आएगी। क्योंकि कोई भी कर्म सिर्फ कर्म नहीं है। वह अच्छा है या बुरा है। और कर्ता के साथ जुड़ते ही आप अच्छे और बुरे के साथ भी जुड़ जाते हैं। अच्छे और बुरे से हमारा संबंध कर्ता के बिना नहीं होता। जिस क्षण हमने सोचा कि मैंने किया, उसी क्षण हमारा कर्म विभाजन हो गया, अच्छे या बुरे का निर्णय हमारे साथ जुड़ गया। तो परमात्मा तक अच्छा और बुरा नहीं पहुंच पाता, क्योंकि कर्ता की कोई धारणा वहां नहीं है।
ऐसा समझें कि पानी हमने बहाया। जहां गड्ढा होगा, वहां पानी भर जाता है। गड्ढा न हो, तो पानी उस तरफ नहीं जाता। कर्ता का गड्ढा भीतर हो, तो ही अच्छे और बुरे कर्म उसमें भर पाते हैं। वह न हो, तो नहीं भर पाते हैं। कर्ता एक गड्ढे का काम करता है। परमात्मा के पास कोई गड्ढा नहीं है, जिसमें कोई कर्म भर जाए। कर्ता नहीं है। परमात्मा की तो बात दूर, हममें से भी कोई अगर कर्ता न रह जाए, तो न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है। बात ही समाप्त हो गई। अच्छे और बुरे का खयाल तभी तक है, जब तक हमें भी खयाल है कि मैं कर्ता हूं।
मुझे निरंतर प्रीतिकर रही है एक घटना। कलकत्ते के एक मुहल्ले में एक नाटक चलता था। पुरानी बात है। एक बड़े बुद्धिमान आदमी विद्यासागर देखने गए हैं। सामने ही बैठे हैं। प्रतिष्ठित, नगर के जाने-माने पंडित हैं। सामने बैठे हैं। फिर नाटक कुछ ऐसा है, कथा कुछ ऐसी है कि उसमें एक पात्र है, जो एक स्त्री को निरंतर सता रहा है, परेशान कर रहा है। बढ़ती जाती है कहानी। उस स्त्री की परेशानी और उस आदमी के हमले और आक्रमण भी बढ़ते चले जाते हैं। और फिर एक दिन एक अंधेरी गली में उसने उस स्त्री को पकड़ ही लिया। बस, फिर बरदाश्त के बाहर हो गया विद्यासागर के। छलांग लगाकर मंच पर चढ़ गए, निकाला जूता और पीटने लगे उस आदमी को!
लेकिन उस आदमी ने विद्यासागर से भी ज्यादा बुद्धिमानी का परिचय दिया। उसने सिर झुकाकर उनका जूता सिर पर ले लिया। जूता हाथ में लेकर जनता से कहा कि इतना बड़ा पुरस्कार मुझे कभी नहीं मिला। मैं सोच नहीं सकता था कि विद्यासागर जैसा बुद्धिमान आदमी मेरे अभिनय को वास्तविक समझ लेगा!
तो कृष्ण द्वैत की बात करेंगे, करते रहेंगे, करते रहेंगे। और जब लगेगा कि अर्जुन उस जगह आया, जहां द्वैत छीना जा सकता है, तो अद्वैत की बात भी करेंगे। उस इशारे की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन इस घड़ी तक, अभी तक अर्जुन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। इसलिए कृष्ण प्रकृति और परमात्मा, दो की बात कर रहे हैं।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यंति जन्तवः।। 15।।
और सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभकर्म को भी ग्रहण करता है, किंतु माया के द्वारा ज्ञान ढंका हुआ है। इससे सब जीव मोहित हो रहे हैं।
और न ही वह परम शक्ति किसी के पाप या किसी के पुण्य या अशुभ या शुभ कर्मों को ग्रहण करती है। उस परम शक्ति को शुभ-अशुभ का भी कोई परिणाम, कोई प्रभाव नहीं होता है। लेकिन हम, वे जो अज्ञान से दबे हैं, वे जो स्वप्न में खोए हैं, वे उस स्वप्न और अज्ञान और माया में डूबे हुए, पाप और पुण्य के जाल में घूमते रहते हैं। इसमें दो-तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।
पहली बात तो यह कि पाप और पुण्य केवल उसी के जीवन की धारणाएं हैं, जिसे खयाल है कि मैं कर्ता हूं। इसे ठीक से खयाल में ले लें। जो मानता है, मैं कर्ता हूं, करने वाला हूं, फिर उसे यह भी मानना पड़ेगा कि मैंने बुरा किया, अच्छा किया। अगर परमात्मा कर्ता नहीं है, तो अच्छे-बुरे का सवाल नहीं उठता है। जो आदमी मानता है कि मैंने किया, फिर वह दूसरी चीज से न बच सकेगा कि जो उसने किया, वह ठीक था, गलत था, सही था, शुभ था, अशुभ था!
कर्म को मान लिया कि मैंने किया, तो फिर नैतिकता से बचना असंभव है। फिर नीति आएगी। क्योंकि कोई भी कर्म सिर्फ कर्म नहीं है। वह अच्छा है या बुरा है। और कर्ता के साथ जुड़ते ही आप अच्छे और बुरे के साथ भी जुड़ जाते हैं। अच्छे और बुरे से हमारा संबंध कर्ता के बिना नहीं होता। जिस क्षण हमने सोचा कि मैंने किया, उसी क्षण हमारा कर्म विभाजन हो गया, अच्छे या बुरे का निर्णय हमारे साथ जुड़ गया। तो परमात्मा तक अच्छा और बुरा नहीं पहुंच पाता, क्योंकि कर्ता की कोई धारणा वहां नहीं है।
ऐसा समझें कि पानी हमने बहाया। जहां गड्ढा होगा, वहां पानी भर जाता है। गड्ढा न हो, तो पानी उस तरफ नहीं जाता। कर्ता का गड्ढा भीतर हो, तो ही अच्छे और बुरे कर्म उसमें भर पाते हैं। वह न हो, तो नहीं भर पाते हैं। कर्ता एक गड्ढे का काम करता है। परमात्मा के पास कोई गड्ढा नहीं है, जिसमें कोई कर्म भर जाए। कर्ता नहीं है। परमात्मा की तो बात दूर, हममें से भी कोई अगर कर्ता न रह जाए, तो न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है। बात ही समाप्त हो गई। अच्छे और बुरे का खयाल तभी तक है, जब तक हमें भी खयाल है कि मैं कर्ता हूं।
मुझे निरंतर प्रीतिकर रही है एक घटना। कलकत्ते के एक मुहल्ले में एक नाटक चलता था। पुरानी बात है। एक बड़े बुद्धिमान आदमी विद्यासागर देखने गए हैं। सामने ही बैठे हैं। प्रतिष्ठित, नगर के जाने-माने पंडित हैं। सामने बैठे हैं। फिर नाटक कुछ ऐसा है, कथा कुछ ऐसी है कि उसमें एक पात्र है, जो एक स्त्री को निरंतर सता रहा है, परेशान कर रहा है। बढ़ती जाती है कहानी। उस स्त्री की परेशानी और उस आदमी के हमले और आक्रमण भी बढ़ते चले जाते हैं। और फिर एक दिन एक अंधेरी गली में उसने उस स्त्री को पकड़ ही लिया। बस, फिर बरदाश्त के बाहर हो गया विद्यासागर के। छलांग लगाकर मंच पर चढ़ गए, निकाला जूता और पीटने लगे उस आदमी को!
लेकिन उस आदमी ने विद्यासागर से भी ज्यादा बुद्धिमानी का परिचय दिया। उसने सिर झुकाकर उनका जूता सिर पर ले लिया। जूता हाथ में लेकर जनता से कहा कि इतना बड़ा पुरस्कार मुझे कभी नहीं मिला। मैं सोच नहीं सकता था कि विद्यासागर जैसा बुद्धिमान आदमी मेरे अभिनय को वास्तविक समझ लेगा!
विद्यासागर को तो पसीना छूट गया। खयाल आया कि नाटक देख रहे थे! नाटक था; कर्ता बन गए। दर्शक न रह पाए। भूल गए। समझा कि स्त्री की इज्जत जा रही है, तो बचाने कूद पड़े। बहुत उस आदमी से कहा, जूता वापस कर दो। माफ कर दो। उसने कहा, यह मेरा पुरस्कार है। इसे तो मैं घर में सम्हालकर रखूंगा। क्योंकि मैंने सोचा भी नहीं था कि इतना कुशल हो सकेगा मेरा अभिनय कि आप धोखे में आ जाएं।
क्या, हुआ क्या? विद्यासागर को बचाने का खयाल पकड़ गया। कर्ता आ गया कहीं से, सात्विक अहंकार। बुरा नहीं था, पायस ईगोइज्म। बड़ा शुद्ध अहंकार रहा होगा। लेकिन अहंकार कितना ही शुद्ध हो, जहर कितना ही शुद्ध हो, जहर ही है। शुद्ध जहर और खतरनाक है। आजकल तो मिलता नहीं शुद्ध जहर।
मैंने सुना है, एक आदमी ने जहर खा लिया और सो गया। सुबह पाया कि सब ठीक है। वापस गया। दुकानदार को उसने कहा कि कैसा जहर दिया? उसने कहा, भई हम क्या करें, अडल्ट्रेशन! जहर शुद्ध अब कहां मिलता है!
लेकिन अहंकार तो शुद्ध मिलता है। जिनको हम अच्छे लोग कहते हैं, उनके पास शुद्ध अहंकार होता है। जिनको हम बुरे लोग कहते हैं, उनके पास अशुद्ध अहंकार होता है। जिनको हम अच्छे लोग कहते हैं, हम चाहे कहें या न कहें, जो अपने को अच्छे लोग समझते हैं, उनके पास बड़ा सूक्ष्म और पैना अहंकार होता है। सूक्ष्म, सुई की तरह। पता भी नहीं चलता कि कहां पड़ा है, लेकिन चुभता रहता है।
विद्यासागर कूद पड़े। भीतर लगा होगा, बचाऊं। स्त्री की इज्जत चली जा रही है! लेकिन उस अभिनेता ने ठीक ही कहा। क्योंकि ये जूते अभिनय में नहीं पड़े थे; ये जूते तो वास्तविक पड़े थे एक अर्थ में। स्त्री को सताना तो अभिनय था, एक्टिंग था। लेकिन विद्यासागर के जूते जो अभिनेता को पड़े थे, ये तो वास्तविक थे। लेकिन उस अभिनेता ने इनको भी अभिनय में लिया। और उसने कहा कि बड़ी कृपा है कि पुरस्कार दिया। विद्यासागर अभिनय को वास्तविक समझ लिए, उसने वास्तविक को भी अभिनय माना। इसलिए फिर जूते का लगना बुरा और भला न रहा। और विद्यासागर के बाबत निर्णय लेने की कोई जरूरत न रही कि उन्होंने बुरा किया कि अच्छा किया।
जहां कर्ता है, वहां शुभ और अशुभ पैदा होते हैं। जहां कर्ता नहीं, वहां शुभ और अशुभ पैदा नहीं होते हैं। कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा तक हमारे शुभ और अशुभ कुछ भी नहीं पहुंचते। हम ही परेशान हैं, अपनी ही माया में।
यह माया क्या है जिसमें हम परेशान हैं? इस माया शब्द को थोड़ा वैज्ञानिक रूप से समझना जरूरी है।
अंग्रेजी में एक शब्द है, हिप्नोसिस। मैं माया का अर्थ हिप्नोसिस करता हूं, सम्मोहन। माया का अर्थ इलूजन नहीं करता, माया का अर्थ भ्रम नहीं है। माया का अर्थ है, सम्मोहन। माया का अर्थ है, हिप्नोटाइज्ड हो जाना।
कभी आपने अगर किसी हिप्नोटिस्ट को देखा है, मैक्स कोली या किसी को देखा है; नहीं तो घर में छोटा-मोटा प्रयोग खुद भी कर सकते हैं, तो आपकी समझ में आएगा कि माया क्या है।
अगर एक व्यक्ति सुझाव देकर, सजेशन देकर बेहोश कर दिया जाए, और कोई भी सहयोग करे तो बेहोश हो जाता है। घर जाकर प्रयोग करके देखें। अगर पत्नी आपकी मानती हो--जिसकी संभावना बहुत कम है--तो उसे लिटा दें और सुझाव दें कि तू बेहोश हो रही है। और सहयोग कर। और अगर न मानती हो, तो खुद लेट जाएं और उससे कहें कि तू मुझको सुझाव दे--जिसकी संभावना ज्यादा है--और मानें। पांच-सात मिनट में आप बेहोश हो जाएंगे। या जिसको आप बेहोश करना चाहते हैं, वह बेहोश हो जाएगा। इंड्यूस्ड स्लीप पैदा हो जाएगी। पैदा की हुई नींद में चले जाएंगे। उस नींद में चेतन मन खो जाता है, अचेतन मन रह जाता है।
मन के दो हिस्से हैं। चेतन बहुत छोटा-सा हिस्सा है, दसवां भाग। अचेतन, अनकांशस नौ हिस्से का नाम है; और एक हिस्सा चेतन है। जैसे बर्फ के टुकड़े को पानी में डाल दें, तो जितना ऊपर रहता है, उतना चेतन; और जितना नीचे डूब जाता है, उतना अचेतन। नौ हिस्से भीतर अंधेरे में पड़े हैं। एक हिस्सा भर थोड़ा-सा होश में भरा हुआ है। सुझाव से वह एक हिस्सा भी नीचे डूब जाता है। बरफ का टुकड़ा पूरा पानी में डूब जाता है।
अचेतन मन की एक खूबी है कि वह तर्क नहीं करता, विचार नहीं करता, सोच नहीं करता। जो भी कहा जाए, उसे मानता है। बस, मान लेता है। बड़ा श्रद्धालु है! जो बेहोश हो गया, उससे अब आप कुछ भी कहिए। उससे आप कहिए कि अब तुम आदमी नहीं हो, घोड़े हो गए। घोड़े की आवाज करो! तो वह हिनहिनाने लगेगा। उसका मन मान लेता है कि मैं घोड़ा हो गया। अब उसको खयाल भी नहीं रहा कि वह आदमी है। वह घोड़े की तरह हिनहिनाने लगेगा। उसके मुंह में प्याज डाल दो और कहना कि यह बहुत सुगंधित मिठाई का टुकड़ा डाल रहे हैं। वह प्याज की दुर्गंध उसे नहीं आएगी, उसे सुगंधित मिठाई मालूम पड़ेगी। वह बड़े रस से लेगा और कहेगा, बहुत मीठी है, बड़ी सुगंधित है।
अचेतन मन में हमारे, मूर्च्छित मन में हमारे, कुछ भी हो जाने की संभावना है। जो भी हम होना चाहें, वह हम हो जा सकते हैं। यह तो आपने कोशिश करके सम्मोहन पैदा किया, लेकिन जन्म के साथ हम अनंत जन्मों के सजेशन साथ लेकर आते हैं। उनका एक गहरा सम्मोहन हमारे पीछे अचेतन में दबा रहता है। अनंत जन्मों में हम जो संस्कार इकट्ठे करते हैं, वे हमारे अनकांशस माइंड में, अचेतन मन में इकट्ठे हैं। वे इकट्ठे संस्कार भीतर से धक्का देते रहते हैं। हमसे कहते रहते हैं, यह करो, यह करो। यह हो जाओ, यह हो जाओ, यह बन जाओ। वे हमारे भीतर से हमें पूरे समय धक्का दे रहे हैं।
जब आप क्रोध से भरते हैं, तो आपने कई बार तय किया है कि अब दुबारा क्रोध नहीं करूंगा। लेकिन फिर जब क्रोध का मौका आता है, तो सब भूल जाते हैं कि वह तय किया हुआ क्या हुआ! फिर क्रोध आ जाता है। फिर तय करते हैं, अब क्रोध नहीं करूंगा। शर्म भी नहीं खाते कि अब तय नहीं करना चाहिए। कितनी बार तय कर चुके! अब कम से कम तय करना ही छोड़ो। फिर तय करते हैं कि अब क्रोध नहीं करेंगे। फिर कल सुबह!
आदमी की स्मृति बड़ी कमजोर है। वह भूल जाता है, कितनी दफे तय कर चुका। अब तो मुझे खोजना चाहिए कि तय कर लेता हूं, फिर भी करता हूं, इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि आपके अचेतन से क्रोध आता है और निर्णय तो चेतन में होता है। तो चेतन का निर्णय काम नहीं करता। ऊपर-ऊपर निर्णय होता है, भीतर तो जन्मों का क्रोध भरा है। जब वह फूटता है, सब निर्णय वगैरह दो कौड़ी के अलग हट जाते हैं, वह फूटकर बाहर आ जाता है। वह सम्मोहित क्रोध है; वह माया है।
कितनी बार तय किया है कि ब्रह्मचर्य से रहेंगे! लेकिन वह सब बह जाता, वह कहीं बचता नहीं। जन्मों-जन्मों की यात्रा में कामवासना गहरी होती चली गई है, वह बड़ी भीतर बैठ गई है, वह सम्मोहक है।
मैं एक युवक पर प्रयोग कर रहा था। उसे मैंने बेहोश किया। और मैंने उसे बेहोशी में पोस्ट-हिप्नोटिक सजेशन के लिए कहा कि जब तू होश में आ जाएगा, तब यह जो तकिया रखा हुआ है तेरे पास, तू इसे बिना छाती से लगाए, बिना चूमे नहीं रहेगा, इसका तू चुंबन लेकर रहेगा। यह बड़ा प्यारा तकिया है। इससे ज्यादा सुंदर न तो कोई स्त्री है पृथ्वी पर, न कोई पुरुष है। यह मैंने उसे बेहोशी में कहा। मान लिया उसने। उसने तकिए पर हाथ फिराकर देखा। मैंने कहा, देखता है कितनी सुकोमल त्वचा है इसकी! इस तकिए की चमड़ी कितनी सुकोमल है! उसने कहा, हां, बहुत सुकोमल है। कितनी गुदगुदी है! उसने कहा, बहुत गुदगुदी है। मैंने कहा, होश में आने के बीस मिनट बाद तू रुक न सकेगा। इस तकिए को छाती से लगाकर रहेगा और चुंबन भी लेगा।
फिर उसे होश में ला दिया गया। दस-पांच मित्र बैठकर इसको देखते थे। फिर वह होश में आ गया, सब बातचीत करने लगा। सब तरह से सब दस मित्रों ने जांच कर ली कि वह बराबर होश में आ गया है। बाथरूम गया; लौटकर आया। उससे एक गणित करवाया; उसने जोड़ करके बताया। किताब पढ़वाई। किताब पढ़कर उसने बताई। उसने कहा, यह सब क्या करवा रहे हैं! वह बिलकुल होश में है। लेकिन बस, अठारह मिनट के बाद, जैसे बीस मिनट करीब घड़ी आने लगी, उसकी बेचैनी बढ़ने लगी और माथे पर पसीना आने लगा। वही पसीना, जो कोई पुरुष किसी स्त्री के सामने प्रेम निवेदन करते वक्त अनुभव करता है। अब वह तकिए से जुड़ गया है अचेतन में।
अब हम सारे लोग, और वह तकिया मेरे पीछे रखा है, वे सज्जन मेरे बगल में बैठे हैं। लेकिन अब उनका किसी में रस नहीं है। वे चोरी-चोरी से उस तकिए को बार-बार देखने लगे हैं! वैसे ही जैसे कि कोई किसी के प्रेम की माया में पड़ता है, तो सारी दुनिया बैठी रहे, कोई नहीं दिखाई पड़ता! सम्मोहन है। बिलकुल अचेतन की बेहोशी है।
मैंने तकिया और दूर हटा दिया। जब मैंने तकिया छुआ, तो उसको वैसी ही चोट लगी, जैसे कोई किसी की प्रेयसी को छू दे। उसके चेहरे पर सारा भाव झलक गया। फिर मैं उठा, और जैसे ही बीस मिनट करीब आने को थे, मैं तकिए को उठाकर जाकर अलमारी में बंद करने लगा। वह भागा हुआ मेरे पास आया और बिलकुल होश के बाहर उसने तकिया छीना, चूमा और छाती से लगाया।
सारे लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम यह क्या कर रहे हो? वह रोने लगा। उसने कहा, मेरी भी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या कर रहा हूं। लेकिन अब मुझे बड़ी राहत, बड़ी रिलीफ मिली। कुछ ऐसी बेचैनी हो रही थी कि इसको बिना किए रुक ही नहीं सकता; इस तकिए को छाती से लगाना ही पड़े। मैं बिलकुल पागल हूं!
उसे कुछ पता नहीं कि बेहोशी में उसे क्या कहा गया है।
क्या स्त्री और पुरुष के बीच जो आकर्षण है, वह ऐसा ही नहीं है! लेकिन किसी ने आपको सम्मोहित नहीं किया। आप ही सम्मोहित हैं अनंत जन्मों की यात्रा से। प्रकृति का ही सम्मोहन है। इसको माया--पुराना शब्द है इसके लिए माया, नया शब्द है हिप्नोसिस।
माया से आवृत, अपने ही चक्कर में डूबा हुआ आदमी भटकता रहता है स्वप्न में। एक ड्रीमलैंड बनाया हुआ है अपना-अपना। खोए हैं अपने-अपने सपनों में। कोई पैसे से सम्मोहित है। तो देखें, जब पैसा वह देखता है, तो कैसे उसके प्राण! छोटे-मोटे लोगों की बात छोड़ दें। जो पैसे के बड़े त्यागी मालूम पड़ते हैं, उनको भी अगर बहुत गौर से देखें, तो पाएंगे कि वे हिप्नोटाइज्ड हैं पैसे से।
अभी खान अब्दुल गफ्फार उर्फ सरहदी गांधी भारत होकर गए। वे तो गांधीजी के प्रतिनिधि आदमी हैं। लेकिन अभी उनकी कमेटी के आदमी ने खबर दी है, टी.एन.सिंह ने, कि वह रात जो दिन में उनको थैली मिलती थी, जब थैली मिलती थी, तब तो वे ऐसा दिखाते थे कि कोई बात नहीं; लेकिन रात दरवाजा बंद करके दो बजे रात तक रुपया गिनते थे! उस आदमी ने लिखा है कि मैं तो जब उनको पहली दफे दिल्ली के एयर पोर्ट पर स्वागत करने गया था--रिसेप्शन कमेटी का आदमी है--तो जब मैंने उन्हें पोटली हाथ में दबाए हुए उतरते देखा, तो मेरे हृदय में बड़ा भाव उठा था कि कितना सीधा-सादा आदमी है। लेकिन जब रात मैंने दो-दो तीन-तीन बजे तक उन्हें दरवाजा बंद करके रुपए गिनते देखा, तब मुझे बड़ी हैरानी हुई कि क्या बात है!
जब वे गए, तब भी पोटली उनके हाथ में थी। वही पोटली, जिसे लेकर वे आए थे। दिल्ली के एयर पोर्ट पर तब भी वही पोटली थी विदा करने वालों को। लेकिन टी.एन.सिंह ने कहा कि लेकिन तब मुझे धोखा नहीं हो सका, क्योंकि बाईस सूटकेस एयर पोर्ट पर थे, जो पीछे आ रहे थे। और अस्सी लाख का वायदा किया था उनको उनके मित्रों ने, कि भारत से भेंट करेंगे। लेकिन चालीस लाख ही हो पाया, इसलिए बड़े नाराज गए कि सिर्फ चालीस लाख!
आदमी की पकड़ बड़ी हैरानी की है! त्याग भी करता हुआ दिखाई पड़ता हुआ आदमी जरूर नहीं कि हिप्नोसिस के बाहर हो। त्याग भी एंटी हिप्नोटिक हो सकता है, वह भी सम्मोहन का ही विपरीत वर्ग हो सकता है। अक्सर ऐसा होता है। पैसे को पकड़ने वाले, पैसे को छोड़ने वाले--सम्मोहित होते हैं। शरीर को पकड़ने वाले, शरीर को छोड़ने वाले--सम्मोहित होते हैं।
सम्मोहन के बाहर जो जाग जाता है, एक अवेकनिंग, होश से भर जाता है कि यह सब प्रकृति का खेल है और इस खेल में मैं इतना लीन होकर डूब जाऊं, तो पागल हूं। और एक-एक इंच पर जागने लगता है। तो जब वह किसी स्त्री से या किसी पुरुष से आकर्षित होकर उसके हाथ को छूता है, तब जानता है कि यह शरीर और शरीर का कोई आंतरिक आकर्षण मालूम होता है। मैं दूर खड़े होकर देखता रहूं।
कभी इसको प्रयोग करके देखें। कभी अपनी प्रेयसी के हाथ में हाथ रखकर आंख बंद करके साक्षी रह जाएं कि हाथ में हाथ मैं नहीं रखे हूं; हाथ ही हाथ पर पड़ा है। और तब थोड़ी देर में सिवाय पसीने के हाथ में कुछ भी नहीं रह जाएगा। लेकिन अगर सम्मोहन रहा, तो पसीने में भी सुगंध आती है! कवियों से पूछें न।
हमारी पृथ्वी पर कवियों से ज्यादा हिप्नोटाइज्ड आदमी खोजना मुश्किल है। वे पसीने में भी गुलाब के इत्र को खोज लेते हैं! आंखों में कमल खोज लेते हैं! पैरों में कमल खोज लेते हैं। पागलपन की भी कुछ हद होती है। सम्मोहित! क्या-क्या खोज लेते हैं! जो कहीं नहीं है, वह सब उन्हें दिखाई पड़ने लगता है उनकी हिप्नोसिस में, उनके भीतर के सम्मोहन में। ऐसा भी नहीं है कि उनको दिखाई नहीं पड़ता। उनको दिखाई पड़ने लगता है। प्रोजेक्शन शुरू हो जाता है।
किसी के प्रेम में अगर आप गिरे हों, तो पता होगा कि कैसा प्रोजेक्शन शुरू होता है। दिनभर उसी का नाम गूंजने लगता है। किसी के भी पैर की आहट सुनाई पड़े, पता लगता है, वही आ रहा है। कोई दरवाजा खटखटा दे, लगता है कि उसी की खबर आ गई। हवा दरवाजा खटखटा जाए, तो लगता है कि पोस्टमैन आ गया, चिट्ठी आ गई।
फिर जब डिसइलूजनमेंट होता है, प्रेम जा चुका होता है, सम्मोहन टूट जाता है, तब? तब उस आदमी की शकल देखने जैसी भी नहीं लगती। तब वह रास्ते पर मिल जाए, तो ऐसा लगता है, कैसे बचकर निकल जाएं! क्या हो जाता है? वही आदमी है! उसी के पदचाप संगीत से मधुर मालूम होते थे। उसी के पदचाप आज सुनने में अत्यंत कर्णकटु हो गए! उसी के शब्द ओंठों से निकलते थे, तो लगता था, अमृत में भीगकर आते हैं। आज उसके ओंठों से सिवाय जहर के कुछ और मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता है। उसी की आंखें कल गिरती थीं, तो लगता था कि आशीर्वाद बरस रहे हैं। आज उसकी आंखों में सिवाय तिरस्कार और घृणा के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हो क्या गया? वही आंख है, वही आदमी है। भीतर की हिप्नोसिस उखड़ गई। भीतर का सम्मोहन उखड़ गया, टूट गया, विजड़ित हो गया।
कृष्ण कहते हैं, प्रकृति की माया, प्रकृति की हिप्नोसिस में डूबा हुआ आदमी अपने ही अच्छे और बुरे के सोच-विचार में भटकता रहता है।
समझें, एक रात आपने सपना देखा कि चोरी की है। और एक रात आपने सपना देखा कि साधु हो गए हैं। सुबह जब उठते हैं, तो क्या चोरी का जो सपना था, वह बुरा; और साधु का जो सपना था, वह अच्छा! सुबह जागकर दोनों सपने हो जाते हैं। न कुछ अच्छा रह जाता है, न बुरा रह जाता है। दोनों सपने हो जाते हैं।
संत उसे ही कहते हैं, जो अच्छे और बुरे दोनों के सपने के बाहर आ गया। और जो कहता है कि वह भी सपना है, यह भी सपना है। बुरा भी, अच्छा भी, दोनों सम्मोहन हैं।
इस सम्मोहन से कोई जाग जाए, तो ही--तो ही केवल--जीवन में वह परम घटना घटती है, जिसकी ओर कृष्ण इशारा कर रहे हैं।

प्रश्न:
भगवान, माया और परमात्मा में क्या भिन्नता है? माया से ज्ञान कैसे व क्यों ढंकता है?
माया और परमात्मा में क्या भिन्नता है?
जो माया में डूबे हैं, उन्हें तो बड़ी भिन्नता है। जैसे जो रात सपने में डूबा है, उसे तो सपने में और जागने में बड़ी भिन्नता है। लेकिन जो जाग गया, उसे सपने में और जागने में भिन्नता नहीं होती, क्योंकि जागकर सपना बचता ही नहीं। भिन्नता किससे? इसको ठीक से समझ लें।
एक रस्सी पड़ी है और मुझे सांप दिखाई पड़ रहा है। तो जब तक मुझे सांप दिखाई पड़ रहा है, तब तक तो रस्सी और सांप में बड़ी भिन्नता है। क्योंकि रस्सी को देखकर मैं भागूंगा नहीं, सांप को देखकर भागूंगा। रस्सी को देखकर डरूंगा नहीं, सांप को देखकर डरूंगा। रस्सी को देखकर मारने की तैयारी नहीं करूंगा, सांप को देखकर मारने की तैयारी करूंगा। सांप पैर पर पड़ जाए, तो मर भी जा सकता हूं। रस्सी पैर पर पड़ जाए, तो मरने का कोई सवाल ही नहीं है।
जिस आदमी को अंधेरे में रस्सी सांप जैसी दिखाई पड़ रही है, उससे अगर आप कहो कि रस्सी और सांप सब एक हैं; बेफिक्री से जा। तो वह कहेगा, माफ करो। रस्सी और सांप एक नहीं हैं! रस्सी भी सांप दिखाई पड़ रही हो, तो भी उसके लिए तो सांप ही है।
सांपों का जो लोग अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं कि सत्तानबे परसेंट सांप में जहर ही नहीं होता। सिर्फ सौ में तीन सांपों में जहर होता है। लेकिन जिन सांपों में जहर नहीं होता, उनके काटे हुए लोग भी मर जाते हैं। अब जहर होता ही नहीं, तो बड़ा चमत्कार है। जब जहर नहीं है, तो यह आदमी काटने से मर क्यों गया?
आदमी सांप के जहर से कम मरता है। सांप ने काटा, इस सम्मोहन से मरता है। इसीलिए तो जहर उतारने वाले जहर उतार देते हैं। जहर वगैरह कोई नहीं उतारता। अगर सांप बिना जहर का रहा, तो मंत्र वगैरह काम कर जाते हैं। और सत्तानबे परसेंट सांप बिना जहर के हैं। इसलिए बड़ी आसानी से उतर जाता है। कठिनाई नहीं पड़ती। इतना भरोसा भर दिलाना है कि उतार दिया। चढ़ा तो था ही नहीं! उतर जाता है! लेकिन जरूरी नहीं है कि न उतारा, तो नहीं मरता आदमी। आदमी मर सकता था। इसलिए काम तो पूरा हुआ, आदमी को बचाया तो है ही।
इसलिए मैं मंत्र के खिलाफ में नहीं हूं। जब तक नकली सांप से मरने वाले लोग हैं, तब तक नकली मंत्र से जिलाने वाले लोगों की जरूरत रहेगी। जरूरत है। रस्सी पर भी पैर पड़ जाए और अगर आपको खयाल है कि सांप है, तो मौत हो सकती है। आपके लिए फर्क है।
मैंने सुना है, एक गांव में एक फकीर रहता है गांव के बाहर। और एक काली छाया अंदर जा रही है। उस फकीर ने पूछा, तू कौन है? उसने कहा, मैं मौत हूं। तू इस गांव में किसलिए जा रही है? उसने कहा कि गांव में प्लेग आ रही है और मुझे दस हजार आदमी मारने हैं!
महीनेभर में कोई पचास हजार आदमी मर गए। फकीर ने कहा, हद हो गई! आदमी झूठ बोलते हैं, बोलते हैं; लेकिन मौत भी झूठ बोलने लगी! अब तो परमात्मा का भी भरोसा करना ठीक नहीं है। पता नहीं, वह भी झूठ बोलने लगा हो!
जागता रहा कि कब लौटे, तो पकडूं। एक रात मौत वापस लौटती थी। कहा, ठहर। हद हो गई! इतना झूठ! मुझसे कहा, दस हजार लोग मारने हैं। पचास हजार तो मर चुके! उस मौत ने कहा, मैंने दस हजार मारे हैं; बाकी अपने आप मर गए। बाकी घबड़ाहट में मर गए। मेरा कोई हाथ नहीं है। बाकी यह समझकर कि प्लेग आई, मर गए। दस हजार मारकर मैं जा रही हूं, बाकी चालीस हजार अपने आप मरे हैं। और आगे भी मरें, तो मेरा कोई जिम्मा नहीं है।
रस्सी और सांप एक नहीं हैं उसे, जिसे रस्सी सांप दिखाई पड़ रही है। जगत जिन्हें दिखाई पड़ रहा है अभी, उनसे यह कहना कि माया और परमात्मा एक हैं, बड़ा कठिन है समझना। कैसे एक हो सकते हैं? एक नहीं हैं।
जगत दिखाई पड़ रहा है, तब तक परमात्मा है ही नहीं। एक का सवाल कहां है! माया ही है। नींद है गहरी; वही है। जिस दिन नींद से कोई जागता है, तो परमात्मा ही बचता है, जगत नहीं बचता।
इसलिए एक बहुत कठिन पहेली है यह। बहुत कठिन पहेली है। पहेली इसलिए कठिन है कि जिन लोगों ने जाना, उन्होंने कहा, परमात्मा ही है, जगत नहीं है। पर हम, जो जानते हैं, जगत है, उनसे पूछते ही गए कि कुछ तो बताओ! जगत है तो ही। शंकर कहते हैं कि जगत माया है। माया मतलब, नहीं है। पर हम पूछते हैं, हम कैसे मान लें कि माया है। पैर में कांटा गड़ता है, तो खून निकलता है!
योरोप में एक विचारक हुआ, इंग्लैंड में, बर्कले। वह भी कहता था शंकर की तरह कि सब जगत इलूजन है, एपियरेंस है, दिखावा है, कुछ है नहीं। वह डाक्टर जानसन के साथ एक दिन सुबह घूमने निकला। और उसने डाक्टर जानसन से भी कहा कि सब जगत माया है।
जानसन बहुत यथार्थवादी। उसने एक पत्थर उठाकर बर्कले के पैर पर पटक दिया। लहूलुहान हो गया पैर। बर्कले पैर पकड़कर बैठ गए। जानसन खड़ा है बगल में। वह कहता है कि जब सब माया है, तो पैर किसलिए पकड़कर बैठे हो! पत्थर है ही नहीं।
शंकर से लोग पूछते हैं कि जगत माया है, कैसे मानें? तुम भी तो भिक्षा मांगते हो। भूख लगती है। खाना भी खाते हो। सोते भी हो। कैसे मानें? शंकर का वश चले, तो शंकर कहें, जगत है ही नहीं। लेकिन लोग, जिनसे उन्हें बात करनी है, वे कहते हैं, जगत है। परमात्मा नहीं है तुम्हारा। कहीं दिखाई नहीं पड़ता! जगत तो दिखाई पड़ता है। उलटी बातें कहते हो। जो है, उसको कहते हो, नहीं है। और जो नहीं है, उसको कहते हो, है। तो शंकर क्या कहें? शंकर कहते हैं, परमात्मा तो है। यह जगत नहीं है, लेकिन तुम्हें दिखाई पड़ता है।
माया का अर्थ है, जो नहीं है और दिखाई पड़ता है। जिस दिन तुम जानोगे उसे, जो है, उस दिन जो दिखाई पड़ता था और नहीं था, वह खो जाएगा, तिरोहित हो जाएगा। संबंध कभी जोड़ना नहीं पड़ेगा।
जब तक जगत है, जगत है; परमात्मा नहीं है। संबंध का कोई सवाल नहीं है। जिस दिन परमात्मा होता है, परमात्मा ही होता है; जगत नहीं होता। संबंध का कोई सवाल नहीं है।
इसलिए परमात्मा और माया के बीच कोई भी संबंध नहीं है, रिलेटेड नहीं हैं। संबंध हो नहीं सकता। एक सत्य और एक असत्य के बीच संबंध हो कैसे सकता है? नदी पर अगर हमें एक ब्रिज बनाना हो, एक सेतु, एक पुल बनाना हो; एक किनारा सच हो और दूसरा किनारा झूठ हो, पुल बना सकते हैं आप? कैसे बनाइएगा पुल? सच्चे किनारे पर एक हिस्सा पुल का रख जाएगा, पर दूसरे हिस्से को कहां रखिएगा? और अगर दूसरा हिस्सा झूठ पर भी रखा जा सकता है, तो फिर सच का भी शक हो जाएगा।
माया और ब्रह्म दोनों कभी आमने-सामने खड़े नहीं होते किसी मनुष्य के अनुभव में, लेकिन इस तरह के मनुष्य आमने-सामने खड़े हो जाते हैं, एक का अनुभव ब्रह्म का और एक का अनुभव माया का। वे आमने-सामने बातचीत करते हैं। तब इन दो शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। वह जो ब्रह्म को जानता है, उसे मानना तो पड़ता है कि जगत है, क्योंकि सामने वाला कह रहा है कि है। इस चर्चा को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता, अगर वह कह दे कि नहीं ही है। तब भी सामने वाला कहेगा कि जिसको तुम इतने जोर से कहते हो, नहीं है, वह कुछ तो होना चाहिए, नहीं तो इतने जोर की जरूरत क्या है? जब तुम कहते हो, नहीं है, तो तुम किस चीज को कह रहे हो कि नहीं है। किसी चीज को तो नहीं कह रहे हो! मान लो, नहीं है जगत; लेकिन जिससे कह रहे हो, वह तो है! यह कठिनाई है।
संसार और सत्य, माया और ब्रह्म, आमने-सामने एनकाउंटर उनका कभी होता नहीं। उनका कभी कोई मिलन नहीं होता। उनके बीच कोई संबंध नहीं है। माया का मतलब ही है कि जो नहीं है और दिखाई पड़ता है।
सांप दिखाई पड़ रहा है और नहीं है; रस्सी है। अब बड़ी कठिनाई है कि वह कहां से आ रहा है! क्यों दिखाई पड़ रहा है! कृष्ण कहेंगे, वह तुम्हारा प्रोजेक्शन है, तुम्हारी माया है। तुमने ही किसी भय के क्षण में, डर के क्षण में रस्सी को सांप समझ लिया है। वहां कहीं है नहीं।
रस्सी और सांप के बीच क्या संबंध है? कोई संबंध नहीं है। क्योंकि जो उठा लेगा जाकर रस्सी, देखेगा, रस्सी है, उसके लिए सांप खो गया। संबंध कैसे बनाएगा? जिसको रस्सी नहीं दिखाई पड़ती, सांप दिखाई पड़ता है, उसके पास रस्सी नहीं है। संबंध कैसे बनाएगा?
ब्रह्म और माया के बीच कोई भी संबंध नहीं है। माया है ही नहीं सिवाय प्रोजेक्शन के, प्रक्षेपण के। मन की कल्पनाओं की क्षमता है कि हम फैलाव कर लेते हैं। फैलाव बड़ा कर ले सकते हैं। इतना फैल सकता है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। उसमें हम जीते हैं।
एक छोटी-सी कहानी और आज की बात मैं पूरी करूं।
हमारा सपना कितनी ही बार टूटे, हम फिर सम्हाल लेते हैं। रोज टूटता है। सुबह टूटता है, दोपहर टूटता है, सांझ टूटता है, हम फिर थेगड़े लगा लेते हैं। हम बड़े कुशल कारीगर हैं अपने सपने में थेगड़े लगाने में। एक इच्छा हार जाती है, कुछ नहीं पाते। तत्काल दूसरी इच्छा निर्मित कर लेते हैं। कारण खोज लेते हैं, इसलिए हार हो गई! अगली बार ऐसा नहीं होगा। एक आशा खंडित हो जाती है, दूसरी आशा तत्काल निर्मित कर लेते हैं। जिंदगी रोज, यथार्थ रोज हमारे प्रोजेक्शन को तोड़ता है, लेकिन हम बनाए चले जाते हैं, निर्मित किए चले जाते हैं!
मैंने सुना है, सांझ एक धनपति अपने दरवाजे को बंद करने के ही करीब है कि उसके चपरासी ने फिर भीतर आकर कहा कि सुनिए, चौबीस, दो दर्जन बीमा एजेंटों को हम आज दिनभर में बाहर निकाल चुके हैं। पच्चीसवां हाजिर है। कहता है, भीतर आने दें। चौबीस लोगों को भगाया जा चुका है। उस धनपति को भी दया आ गई। उसने कहा, अच्छा, उस पच्चीसवें को आ जाने दो। अब दरवाजा बंद ही होने के करीब है।
वह अंदर आया। धनपति ने उसे देखा और कहा कि तुम सौभाग्यशाली हो। क्योंकि चौबीस, दो दर्जन बीमा एजेंट आज मैं दरवाजे के बाहर से ही भगा चुका हूं। तुम्हें पता है! तुम सौभाग्यशाली हो। तुम्हें भीतर आने दिया। उस आदमी ने कहा कि आई नो वेरी वेल सर, बिकाज आई एम देम! मुझे अच्छी तरह पता है, क्योंकि वे चौबीस आदमी मैं ही हूं।
वह आदमी चौबीस दफे आ चुका है दिनभर में। वह एक ही आदमी है। मुझे भलीभांति पता है, वह मैं ही हूं। मालिक तो हैरान हो गया। उसने कहा, चकित करते हो तुम। तुम अभी तक थके नहीं? उस बीमा एजेंट ने कहा कि कौन कब थकता है?
कोई थकता नहीं। कितनी ही आशाएं निराशाएं हों, फिर भी लगता है कि शायद एक मौका और! एक बार और! जाल को हम फैलाए चले जाते हैं। मौत भी सामने आ जाए, तो भी हम मौत के पार प्रोजेक्शन को फैलाए चले जाते हैं। मरता हुआ आदमी सोचता है, गाय को दान कर दें, स्वर्ग में इंतजाम हो जाएगा। प्रोजेक्शन फैला रहे हैं अभी भी। मौत दरवाजे पर खड़ी है, लेकिन उनकी फिल्म का प्रोजेक्टर अभी भी काम कर रहा है। वह बंद नहीं हो रहा है। वे अभी फैलाए चले जा रहे हैं! वे सोच रहे हैं कि चार आने किसी ब्राह्मण को दे दें, तो भगवान को बता सकेंगे कि चार आने एक ब्राह्मण को दिए थे, जरा अच्छी-सी जगह! और अगर आपके मकान में ही हो सके, तो बहुत अच्छा है। यहीं ठहरा लें!
लंदन में, लंदन यूनिवर्सिटी का मेडिकल हास्पिटल है। हर तीन महीने में वहां एक अजीब घटना घटती है। उस हास्पिटल की हर तीन महीने में ट्रस्टीज की बैठक होती है।
अगर कभी आप उस बैठक को देखें, तो बहुत हैरान होंगे। थोड़ी देर में चकित हो जाएंगे। आप देखेंगे कि प्रेसिडेंट की जगह जो आदमी प्रेसिडेंट की चेयर पर बैठा हुआ है, कुर्सी पर बैठा हुआ है अध्यक्ष की, न तो हिलता, न तो डुलता, न उसकी पुतली हिलती। बहुत हैरान होंगे। थोड़ी देर में आपको शक होगा कि वह आदमी जिंदा है या मरा हुआ! जब आप पास जाएंगे, तो पाएंगे, वह तो मुर्दा है। लाश रखी है सौ साल से!
जरेमी बैंथम नाम के आदमी ने वह हास्पिटल बनाया था। फिर वह अपनी वसीयत में लिख गया कि यह मैं मरने के बाद भी बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मैं अस्पताल बनाऊं और अध्यक्षता कोई और करे। इसलिए मेरी लाश को यहां रखना। और मैं ही अध्यक्षता करूंगा, जब भी ट्रस्टीज की बैठक होगी। प्रेसिडेंट मैं ही रहूंगा।
तो अभी भी उसकी लाश रखी हुई है। सामने प्रेसिडेंट की तख्ती उसके रखी रहती है। हर बार जब ट्रस्टीज की बैठक पूरी होती है और किसी मसले पर वोटिंग होती है, तो उनको लिखना पड़ता है, दि प्रेसिडेंट इज़ प्रेजेंट, बट नाट वोटिंग। मौजूद हैं सभापति, लेकिन वोट नहीं कर रहे हैं! यह सौ साल से चल रहा है।
आदमी का पागलपन! ऐसा हमारा सारा मन है। इसको हम फैलाए चले जाते हैं। इस मन से जागे बिना कोई प्रभु की यात्रा पर नहीं निकला है।
आज इतना। लेकिन पांच मिनट बैठे रहेंगे। मुर्दा आदमी बैठे हैं, तो जिंदा आदमी को तो बैठे रहना चाहिए। इट मैटर्स नाट इफ यू डोंट वोट, मगर बैठें! कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जो वोट कर सकते हों, वे ताली बजाएं और भजन में साथ दें।