BHAGWAD GEETA

Geeta Darshan Vol-16 05

Fifth Discourse from the series of 8 discourses - Geeta Darshan Vol-16 by Osho. These discourses were given during MAR 30-APR 06 1974.
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काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्‌राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।। 10।।
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः।। 11।।
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान्‌।। 12।।
और वे मनुष्य दंभ, मान और मद से युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर तथा मोह से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार में बर्तते हैं।
तथा वे मरणपर्यंत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय किए हुए और विषय-भोगों को भोगने के लिए तत्पर हुए, इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं।
इसलिए आशारूप सैकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम-क्रोध के परायण हुए विषय-भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत-से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।
पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न:
भगवान, कल के सूत्र में कहा गया कि आसुरी संपदा वाले कहते हैं कि जगत आश्चर्यरहित है और सर्वथा झूठा है। विज्ञान यह अवश्य सोचता था कि जगत में कुछ रहस्य नहीं है, लेकिन यह तो वह नहीं कहता कि जगत झूठा है। इसे समझाएं।
आसुरी संपदा वाले लोग जगत को रहस्यशून्य और झूठा मानते हैं, ऐसा कहने का कृष्ण का प्रयोजन काफी गहरे से समझेंगे, तो ही समझ में आ सकेगा। साधारणतः तो धार्मिक, दैवी संपदा वाले पुरुष जगत को माया कहते हैं, जगत को झूठा कहते हैं। इसलिए बात थोड़ी उलझी हुई है। लेकिन दोनों के प्रयोजन अलग हैं।
शंकर या दूसरे अद्वैतवादी जब जगत को माया या असत्य कहते हैं, तो उनका प्रयोजन केवल इतना ही है कि इस जगत से भी सत्यतर कुछ और है। यह एक सापेक्ष वक्तव्य है। यह जगत ही सत्य नहीं है, इस जगत से ज्यादा सत्यतर कुछ और है। और उस सत्यतर की खोज की तरफ हम अग्रसर हो सकें, इसलिए वे इस जगत को झूठा कहते हैं। इस जगत को झूठा सिद्ध करने का इतना ही प्रयोजन है, ताकि हम इसी को सत्य मानकर इसी की खोज में न उलझ जाएं। सत्य कहीं और छिपा है। और इसे हम असत्य समझेंगे, तो ही उस सत्य की खोज में जा सकेंगे।
लेकिन कृष्ण यहां कह रहे हैं कि आसुरी संपदा वाले लोग इस जगत को झूठा कहते हैं। इस वक्तव्य का प्रयोजन बिलकुल दूसरा है। आसुरी संपदा वाले लोग इस जगत को झूठा इसलिए नहीं कहते कि कोई और जगत है, जो सत्य है। वे कहते हैं, सत्य है ही नहीं। इसलिए जो भी है, वह झूठ है। इस फर्क को ठीक से समझ लें।
शंकर कहते हैं, यह जगत मिथ्या है, असत्य है, माया है। क्योंकि सत्य कहीं और है और उस सत्य की तुलना में यह झूठा है। आसुरी संपदा वाले लोग कहते हैं, यह संसार झूठा है, क्योंकि सत्य कुछ है ही नहीं। यह किसी तुलना में असत्य नहीं है, क्योंकि सत्य है ही नहीं है, इसलिए जो भी है, वह असत्य है। उनका ऐसा मानने और कहने का प्रयोजन समझने जैसा है।
जगत को असत्य अगर कह दिया जाए, और कोई सत्य हो न, तो फिर जीवन में कोई मूल्य, जीवन में कोई लक्ष्य, कोई गंतव्य नहीं रह जाता; फिर बुरे और भले का कोई भेद नहीं रह जाता।
आप स्वप्न में देखें कि आप साधु हैं या स्वप्न में देखें कि असाधु हैं, क्या फर्क पड़ता है! दोनों ही स्वप्न हैं। स्वप्न में किसी की हत्या करें या स्वप्न में किसी को बचाएं, क्या फर्क पड़ता है! दोनों ही स्वप्न हैं। दो स्वप्नों के बीच कोई मूल्य का भेद नहीं हो सकता। सत्य और स्वप्न के बीच मूल्य का भेद हो सकता है। लेकिन अगर दोनों ही स्वप्न हैं, तो फिर कोई भी भेद नहीं।
आसुरी संपदा वाला व्यक्ति मानता है, यह सब असत्य है। सब असत्य का उसके कहने का प्रयोजन इतना ही है कि यह जगत एक संयोग है। यह जगत एक रचना-प्रक्रिया नहीं है। इस जगत के पीछे कोई प्रयोजन अंतर्निहित नहीं है। यह जगत कहीं जा नहीं रहा है। इस जगत की कोई मंजिल नहीं है। हम सिर्फ दुर्घटनाएं हैं। न कुछ पाने को है यहां, न कुछ खोने को है। हमारे होने का कोई मूल्य नहीं है। हमारा होना मीनिंगलेस है, सर्वथा मूल्यरहित है।
अगर जगत में थोड़ा भी सत्य है, तो मूल्य पैदा हो जाएगा; तब चुनाव करना होगा, असत्य को छोड़ना होगा, सत्य को पाना होगा। फिर असत्य और सत्य के बीच हमें यात्रा करनी पड़ेगी; साधना-पथ निर्मित होगा। लेकिन अगर सभी कुछ असत्य है; कुछ पाने योग्य नहीं, कुछ खोने योग्य नहीं; बुरा आदमी भी, भला आदमी भी, असाधु, साधु, संत, अज्ञानी या ज्ञानी सब बराबर हैं--फिर कोई भेद नहीं है।
और अगर बुरे और भले का भेद मिट जाए, तो आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को जो सुख मिलता है, वह किसी और तरह से नहीं मिलता। क्योंकि आसुरी संपदा वाले व्यक्ति की यही पीड़ा है कि कहीं ऐसा न हो कि मैं जो कर रहा हूं, वह गलत हो। कहीं ऐसा न हो कि जिस धारा के मैं विपरीत चल रहा हूं, उस धारा में ही सत्य छिपा हो! कहीं ऐसा न हो कि प्रार्थना में, पूजा में, परमात्मा में कोई सत्य छिपा हो! मैं जैसा जीवन को चला रहा हूं, यह अगर असत्य है, तो फिर मैं कुछ खो रहा हूं।
लेकिन अगर सभी कुछ असत्य है, तो फिर खोने-पाने का कोई सवाल नहीं है। तब महावीर कुछ पा नहीं रहे हैं, बुद्ध को कुछ मिल नहीं रहा है, वे भी भ्रम में हैं। जो धन कमाकर इकट्ठा कर रहा है, वह भी भ्रम में है। वह जो स्त्रियों के पीछे दौड़ रहा है, वह भी भ्रम में है। जो परमात्मा के पीछे दौड़ रहा है, वह भी भ्रम में है।
आसुरी संपदा वाला यह कहता है कि जो भी यहां मंजिल खोज रहा है, जो भी यहां जीवन में निहित किसी प्रयोजन की तलाश कर रहा है, जो भी सोचता है कि यहां कोई सत्य मिल जाएगा, अमृत मिल जाएगा, जीवन मिल जाएगा, कोई परम उपलब्धि होगी, कोई मोक्ष मिल जाएगा, वह भ्रांति में है। यह पूरा जगत असत्य है। यहां कुछ पाने जैसा नहीं है।
एक बार यह साफ हो जाए कि सभी कुछ असत्य है, तो जीवन में साधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता। साधना में अर्थ आता है तभी, जब जीवन में कुछ चुनने को हो। कुछ गलत हो, जो छोड़ा जा सके; कुछ सही हो, जो पकड़ा जा सके। कोई दिशा भ्रांत हो, जिस तरफ पीठ की जा सके; कोई दिशा सही हो, जिस तरफ मुख किया जा सके। कहीं पहुंचने की कोई मंजिल हो, कोई गंतव्य हो, कोई तारा हो--कितने ही दूर--लेकिन जिस तरफ हम चल सकें।
आसुरी संपदा वाला व्यक्ति कहता है, यहां चलने का कोई उपाय नहीं है। तुम यहां हो एक दुर्घटना की तरह। यह एक आकस्मिक घटना है। जगत को न कोई चला रहा है, न कोई जगत को सोच रहा है, न जगत के पीछे कोई चेतना है। जगत एक सांयोगिक घटना है। सांयोगिक घटना का अर्थ यह होता है कि इसमें कुछ भी प्रयोजन खोजना व्यर्थ है। प्रयोजन नहीं है, अर्थ नहीं है, कोई मूल्य नहीं है, इस बात की घोषणा करने के लिए आसुरी संपदा वाला व्यक्ति कहता है, जगत झूठा है।
दैवी संपदा वाला व्यक्ति भी जगत को मिथ्या कहता है। यहां यह बात खयाल में लेनी जरूरी है कि कभी-कभी हमारे एक से वक्तव्य भी बड़े भिन्न अर्थ रखते हैं। वक्तव्य का बहुत कम मूल्य है। वक्तव्य कौन देता है, इसी का मूल्य ज्यादा है। वही वक्तव्य राम के मुंह से अलग अर्थ रखेगा; वही वक्तव्य रावण के मुंह से अलग अर्थ रखेगा। वक्तव्य बिलकुल एक जैसे हो सकते हैं, लेकिन वक्तव्य के पीछे नजर क्या है?
अगर राम कहते हैं, जगत मिथ्या है, तो इसका अर्थ यह है कि इस पर रुको मत; सत्य कहीं और है, उसे खोजो। रावण अगर कहे, जगत मिथ्या है, तो वह यह कहता है कि कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं, सत्य है ही नहीं, इसलिए यहां जो मिला है, उसे भोग लो। यह क्षणभर का भोग है, न इसके पीछे कुछ है, न इसके आगे कुछ है। और परिणाम की बिलकुल चिंता मत करो। क्योंकि परिणाम केवल सत्य जगत में ही घटित हो सकते हैं; असत्य जगत में कोई परिणाम घटित नहीं होते।
मैंने सुना है, एक आदमी ने रात स्वप्न देखा। फिर सुबह वह जब बाजार की तरफ चला, तो बड़ा उदास था। किसी मित्र ने उसे पूछा कि इतने उदास हो, बात क्या है? उसने कहा, मैंने एक स्वप्न देखा है। और स्वप्न में मैंने देखा कि मुझे बीस हजार रुपए पड़े हुए रास्ते पर मिल गए हैं। तो मित्र ने कहा, इसमें भी उदास होने की क्या बात है! यह तो सपना है। सपने के रुपयों की क्या चिंता करनी, क्या उदासी! उस आदमी ने कहा, उससे मैं परेशान नहीं हूं। मैंने यह पत्नी को बता दिया और वह सुबह से ही रो-पीट रही है। वह कहती है, उसी वक्त बैंक में जमा क्यों न कर दिए?
स्वप्न में भी मोह तो हमारा पकड़ता है। वह जो झूठ है, उसमें भी आसक्ति बनती है। वह जो नहीं है, उसको भी हम सम्हाल लेना चाहते हैं।
आसुरी संपदा वाला व्यक्ति यह कह रहा है कि ये स्वप्न में जो रुपए मिले हैं, इनको जमा कर ही देना। क्योंकि ये रुपए भी झूठ हैं, जमा करना भी झूठ है, बैंक भी झूठ है, जमा करने वाला भी झूठ है। स्वप्न ही झूठ नहीं है, जिसने स्वप्न देखा, वह भी झूठ है। जमा करने का मजा ले लेना। यद्यपि वह झूठ है; लेकिन नहीं जमा कर पाए, उसका दुख लेने की बजाय बेहतर है। दोनों झूठ हैं। यहां सुख भी झूठ है, दुख भी झूठ है। इसलिए क्षणभर की बात है; जो रुचिकर लगे, वह कर लेना।
इस भेद को खयाल में ले लें।
आसुरी संपदा वाला व्यक्ति कहता है, जो सुखपूर्ण मालूम पड़े, वह कर लेना, झूठ तो सभी कुछ है। दैवी संपदा वाला व्यक्ति कहता है कि सुख-दुख की फिक्र मत करना; जो सत्य हो, उसकी फिक्र करना; जो असत्य हो, उसको छोड़ना।
दैवी संपदा वाले के लिए सत्य कसौटी है। आसुरी संपदा वाले के लिए सुख कसौटी है। झूठ तो सभी है, इसलिए यह तो कोई उपाय ही नहीं है इसमें तौलने का कि कौन सा सच है, कौन सा झूठ है। एक ही उपाय है कि जिससे सुख मिलता हो।
नास्तिकों ने सदा एक दलील दी है, आस्तिक भी उस दलील का उपयोग करते हैं; पर दोनों के प्रयोजन बड़े भिन्न हैं। आस्तिक कहता है, यह कहां तुम दौड़ रहे हो स्त्री के पीछे, धन के पीछे, पद-प्रतिष्ठा के पीछे; ये सब झूठ हैं। नास्तिक भी कहता है कि ये सब झूठ हैं। लेकिन कहीं और दौड़ने को कोई जगह भी नहीं है। इस झूठ को भी छोड़ दें, तो कोई सत्य तो है नहीं, जिसको हम पकड़ लें। झूठ को हम खो सकते हैं, लेकिन सत्य को पा नहीं सकते--नास्तिक की दृष्टि में।
इसलिए खोने का भी क्या अर्थ है? सपना भी अगर मधुर देखा जा सकता है, तो देख लेना चाहिए। सिर्फ सपना होने से ही छोड़ने योग्य नहीं है। क्योंकि सत्य अगर कहीं होता, तो हम सपने को छोड़ भी देते। लेकिन सत्य कहीं है ही नहीं। इसलिए दो तरह के सपने हैं, सुखद और दुखद। जो सुखद सपनों को खोज लेता है, वह होशियार है। जो दुखद सपनों में पड़ा रहता है, वह नासमझ है। और सपने के अतिरिक्त कोई सत्य नहीं है। यह आसुरी संपदा वाले की वृत्ति है।
विज्ञान निश्चित ही आसुरी संपदा वाले से राजी है। दोनों कारणों से राजी है। एक तो इस कारण राजी है कि जगत में कोई रहस्य नहीं है; जगत में कोई छिपा हुआ राज नहीं है। जगत एक खुली किताब है। और अगर हम न पढ़ पाते हों, तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि हमें पढ़ने की कुशलता और बढ़ानी चाहिए।
विज्ञान जगत को दो हिस्सों में तोड़ता है, नोन और अननोन, ज्ञात और अज्ञात। वह जो अज्ञात है, वह कल ज्ञात हो जाएगा; जो आज ज्ञात है, वह भी कल अज्ञात था। एक दिन ऐसा आएगा, जब सब ज्ञात हो जाएगा; अज्ञात की कोटि नष्ट हो जाएगी।
धर्म जगत को तीन हिस्सों में तोड़ता है, ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय--नोन, अननोन और अननोएबल। वह जो अननोएबल है, अज्ञेय है, वह धर्म की विशिष्ट कोटि है। अज्ञात ज्ञात हो जाएगा; ज्ञात फिर अज्ञात हो सकता है। क्योंकि बहुत-से सत्य आदमी को ज्ञात हो गए, फिर खो गए।
अभी काबुल के करीब कोई पंद्रह वर्ष पहले एक छोटा-सा यंत्र मिला। समझना ही मुश्किल हुआ कि वह यंत्र क्या है। बहुत खोजबीन करने पर पता चला कि वह विद्युत पैदा करने की बैटरी है, और कोई पांच हजार वर्ष पुराना है। पांच हजार वर्ष पहले विद्युत पैदा करने का उपाय किन्हीं ने खोज लिया था; वह ज्ञात हो गया था; फिर वह खो गया।
कुछ तीस वर्ष पहले पेरिस की एक लाइब्रेरी में सात सौ वर्ष पुराने पृथ्वी के नक्शे मिले। उन नक्शों में पृथ्वी गोल बताई गई है, और उन नक्शों में अमेरिका भी अंकित है। तो यह खयाल गलत है कि कोलंबस ने अमेरिका खोजा। कोलंबस से बहुत साल पहले अमेरिका नक्शे पर अंकित है।
न केवल यही, बल्कि वह जो नक्शा मिला है सात सौ वर्ष पुराना, वह और भी अनूठा है। वह ऐसा है कि बिना हवाई जहाज के वह बन ही नहीं सकता। जब तक बहुत ऊंचाई से पृथ्वी न देखी जाए, तब तक पृथ्वी का वैसा नक्शा बनाने का कोई उपाय ही नहीं है।
तो न केवल वह नक्शा सिद्ध करता है कि अमेरिका पहले खोजा जा चुका था, फिर खो गया; वह यह भी सिद्ध करता है कि मनुष्य के पास वायुयान थे। तभी वह नक्शा बन सकता है। उसके बनने का कोई और रास्ता ही नहीं है। और वह नक्शा नब्बे प्रतिशत वैसा ही है, जैसा हम आज बनाते हैं। उसमें जरा-सा ही भेद है।
तो पहले तो यह खयाल था कि भेद भूल-चूक की वजह से हो गए होंगे। कुछ वैज्ञानिकों की धारणा है कि हो सकता है कि पृथ्वी में, जब वह नक्शा बनाया गया--क्योंकि सात सौ साल पहले जिसने बनाया, उसने उस पर नोट लिखा है कि वह किसी पुराने नक्शे की नकल कर रहा है--तो इस बात की संभावना ज्यादा है कि पृथ्वी में फर्क हो गए हैं, जब वह नक्शा बना होगा। इसलिए थोड़े से भेद हैं। लेकिन इतना तो बिलकुल ही स्पष्ट है कि वह बिना हवाई जहाज के, पृथ्वी का चक्कर न लगाया गया हो, तो उस नक्शे को बनाया ही नहीं जा सकता।
हिंदू तो बहुत समय से सोचते रहे हैं कि उनके पास पुष्पक विमान थे। और दुनिया की हर जाति के पास आकाश में उड़ने की कथाएं हैं।
जो ज्ञात है, वह अज्ञात हो जाता है; जो अज्ञात है, वह ज्ञात होता रहता है। दिन और रात की तरह यह बदलाहट नोन और अननोन में होती रहती है। लेकिन धर्म कहता है, एक और चीज है, जो दोनों के पार है, वह अज्ञेय है। वह कभी ज्ञात भी नहीं होता, कभी अज्ञात भी नहीं होता।
हम परमात्मा को वही तत्व कहते हैं। वह सदा अज्ञेय ही बना रहता है। हम उसे जान भी लेते हैं, तब भी हम उसे पूरा जान नहीं पाते। और जो उसे जान लेता है, वह दावा नहीं कर पाता कि मैंने जान लिया। क्योंकि उसके जानने की एक अनिवार्य शर्त है कि जानने वाला उसे जानने में ही खो जाता है। इसलिए दावा करने को कोई पीछे बचता नहीं।
उपनिषदों ने कहा है, जो कहे कि मैं जानता हूं, जानना कि उसे अभी कुछ पता नहीं। जानने वाले की शर्त ही यही है कि वह कह नहीं सकेगा कि मैं जानता हूं। क्योंकि वहां कोई मैं नहीं बचता।
कबीर ने कहा है कि मैं खोजता था; और बहुत खोजा और तू न मिला। और जब तू मिला तब बड़ी अड़चन हुई, क्योंकि तब तक मैं खो चुका था।
अगर ठीक से समझें, तो मनुष्य और परमात्मा का मिलन कभी भी नहीं होता। क्योंकि जब तक मनुष्य होता है, तब तक परमात्मा से मिलना नहीं हो पाता। और जब परमात्मा प्रकट होता है, तब तक मनुष्य पिघलकर उसमें लीन हो गया होता है। इसलिए मिलन की घटना नहीं घटती दो के बीच। या तो मनुष्य होता है, या परमात्मा होता है।
एक अमेरिकी विचारक एलन वाट एक झेन फकीर के पास साधना कर रहा था। उस झेन फकीर ने एलन वाट को पूछा कि तुम क्या खोज रहे हो? ध्यान तुम कर रहे हो किस लिए? तो एलन वाट ने कहा कि परमात्मा की तलाश के लिए। तो वह झेन फकीर हंसने लगा। उसने कहा कि तुम बड़े अजीब काम में लगे हो। यह काम पूरा हो नहीं पाएगा।
एलन वाट हैरान हुआ। उसने कहा कि हम तो सोचते थे कि पूरब के लोग मानते हैं कि यही काम करने योग्य है। और तुम यह क्या कह रहे हो! उसने कहा कि यह नहीं होगा; या तो तुम न बचोगे या परमात्मा न बचेगा। मगर मिलन नहीं हो सकता। या तो तुम खो जाओगे, तो परमात्मा बचेगा; या परमात्मा खो जाएगा, तो तुम बचोगे।
जो उसे जानते हैं, वे जानने में ही शून्य हो जाते हैं। जितना जानते हैं, उतने ही शून्य हो जाते हैं। इसलिए दावा करने को कोई बचता नहीं। इसलिए वह तत्व सदा ही अज्ञेय बना रहता है, अननोएबल बना रहता है। जाना भी जाता है, फिर भी जाना नहीं जाता। जान भी लिया जाता है, फिर भी ज्ञान का हिस्सा नहीं बनता, जानकारी नहीं बन पाती।
इसीलिए तो हम विज्ञान की शिक्षा दे सकते हैं, लेकिन धर्म की कोई शिक्षा नहीं दे सकते।
एडिसन एक सत्य को जान लेता है, या न्यूटन एक सत्य को जान लेता है, या आइंस्टीन एक थइरी खोज लेता है, एक सिद्धांत खोज लेता है, फिर हर एक को खोजने की जरूरत नहीं है। एक दफा एक आदमी ने खोज लिया, फिर वह किताब में लिख गया, फिर उसे बच्चे पढ़ते रहेंगे। जिस काम को करने में आइंस्टीन को वर्षों लगेंगे, उसे कोई भी व्यक्ति दो घंटे में समझ लेगा, घंटे में समझ लेगा। फिर साधारण बच्चे, जिनमें बुद्धि नहीं है, वे भी उसे समझ लेंगे और परीक्षा देकर उत्तीर्ण होते रहेंगे। फिर दुबारा उसे खोजने की जरूरत नहीं। एक दफा विज्ञान जो जान लेता है, वह ज्ञान का हिस्सा हो जाता है।
लेकिन धर्म के मामले में बड़ी अजीब बात है। हजारों लोगों ने परमात्मा को जाना, फिर भी हम किताब में लिखकर उसको दूसरे को नहीं जना सकते। कृष्ण ने जाना होगा, बुद्ध ने जाना होगा, क्राइस्ट ने जाना होगा, मोहम्मद ने जाना होगा। लेकिन फिर उस जानने से कोई फर्क नहीं पड़ता। आप सिर्फ पढ़कर नहीं जान सकते। आपको भी जानना है, तो उसी जगह से गुजरना होगा, जहां से कृष्ण गुजरते हैं। और जब तक आप कृष्ण जैसे न हो जाएं, कृष्ण-चैतन्य का जन्म न हो आपके भीतर, तब तक आप न जान सकेंगे।
आइंस्टीन की थइरी आफ रिलेटिविटी समझने के लिए आइंस्टीन होना जरूरी नहीं है, न आइंस्टीन की बुद्धि चाहिए। कोई आवश्यकता नहीं है। एक दफा सिद्धांत जान लिया गया, वह ज्ञान का हिस्सा हो गया। लेकिन धर्म के सत्य जाने भी जाते हैं, तो भी कभी ज्ञान के हिस्से नहीं होते। वे सदा ही अज्ञेय बने रहते हैं।
इसलिए विज्ञान आसुरी संपदा वाले व्यक्ति से राजी है। या हम ऐसा कह सकते हैं कि अभी जो विज्ञान है, वह आसुरी संपदा के ही वर्तुल में काम कर रहा है। मनुष्य अगर और विकसित होगा, तो हम दैवी संपदा वाले विज्ञान को भी विकसित करेंगे। तब विज्ञान एक नए आयाम में गति करेगा।
और दूसरी बात में भी विज्ञान राजी है आसुरी संपदा वाले व्यक्ति से। क्योंकि विज्ञान भी मानता है कि जगत में कोई प्रयोजन नहीं है, कोई परपज नहीं है। यह सिर्फ घटनाओं का जोड़ है। इसलिए यहां प्रार्थना-पूजा व्यर्थ है। यहां ध्यान करने से कुछ भी न होगा। यहां प्रार्थना किससे करिएगा? यहां कोई है नहीं, जो प्रार्थना सुनेगा। और मनुष्य केवल संघात है, कुछ वस्तुओं का जोड़ है। अगर उन वस्तुओं को हम अलग कर लें, तो पीछे कोई आत्मा बचेगी नहीं।
विज्ञान जैसा आज तक विकसित हुआ है, वह आसुरी संपदा के अंतर्गत ही विकसित हुआ है। भविष्य में द्वार खुल सकता है; दैवी संपदा का विज्ञान भी विकसित हो सकता है। या आप ऐसा समझ सकते हैं कि आसुरी संपदा की जो विद्या है, उसका नाम विज्ञान है। और दैवी संपदा की जो विद्या है, उसका नाम धर्म है।
धर्म विज्ञान है अंतर्जगत का, उस रहस्य लोक का, जिसे प्रयोगशाला में नहीं परखा जा सकता, जिसे हम अपने ही भीतर खोज सकते हैं। वह भीतर की डुबकी है।
विज्ञान पदार्थों की खोज है और धर्म परमात्मा की खोज है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, प्रज्ञावान पुरुष को हमारे जीवन का जो आसुरीपन दिखाई देता है, वह हमें भी दिखे, इसके लिए हम क्या करें?
प्रश्न महत्वपूर्ण है; सभी के काम का है। जिन्हें भी जीवन में थोड़ा-बहुत रूपांतरण करना हो, उन्हें इस पर काफी सोच-विचार करना होगा।
प्रज्ञावान पुरुष को हमारे जीवन का आसुरीपन दिखाई पड़ता है, हमें भी दिखाई पड़े, इसके लिए हम क्या करें?
पहला काम तो यह है कि प्रज्ञावान पुरुष का सान्निध्य खोजें। शास्त्र काफी नहीं है, क्योंकि शास्त्र मुर्दा है। शास्त्र बहुमूल्य है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। और शास्त्र में आप वही पढ़ लेंगे, जो आप पढ़ सकते हैं। शास्त्र को आप धोखा दे सकते हैं, शास्त्र आपको रोक नहीं सकता। शास्त्र की आप व्याख्या कर सकते हैं, वह व्याख्या आपकी अपनी होगी। शास्त्र यह नहीं कह सकता कि यह व्याख्या गलत है। और अर्थ और व्याख्या तो आप करेंगे। तो शास्त्र तो आपके हाथ में आप ही जैसा हो जाता है। कितना ही कीमती शास्त्र हो, पढ़ने वाले के हाथ में पड़ते ही पढ़ने वाले के ढंग का हो जाता है।
आप बाइबिल पढ़ेंगे, तो बाइबिल में जो अर्थ निकलेगा, वह आपकी ही मनोदशा का होगा। गीता पढ़ेंगे, जो अर्थ निकलेगा, वह अर्थ आपका होगा, कृष्ण का नहीं हो सकता। तो शास्त्र में कितना ही छिपा हो, वह आपको प्रकट नहीं होगा।
प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि खोजें। इसलिए गुरु का इस पूर्वीय परंपरा में इतना मूल्यवान स्थान रहा है। उसका केवल इतना अर्थ है कि आप जीवंत सत्य को खोजें। क्योंकि उसे आप धोखा न दे सकेंगे, और उसकी आप व्याख्या अपने हिसाब से न कर सकेंगे। वह आपको रोक सकेगा। जहां भूल होगी, वहां चेता सकेगा।
प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि का नाम ही सत्संग है। उसका केवल इतना अर्थ है कि जो जानता है, उसके पास होना। क्योंकि बहुत-सी चीजें हैं, जो केवल संक्रमण से ही अनुभव में आती हैं, उन्हें कोई दे भी नहीं सकता। वे कोई भौतिक वस्तुएं नहीं कि उठाकर कोई आपको दे दे। चुपचाप पास होने पर धीरे-धीरे उनका संक्रमण होता है।
तो पहली बात तो आपको भी कैसे आसुरीपन दिखाई पड़े, उसके लिए जरूरी है कि आप सन्निधि खोजें प्रज्ञावान पुरुष की, तो धीरे-धीरे उसकी आंखों से आपको भी देखने का मौका मिलेगा। उसके साथ उठते-बैठते, चलते-फिरते आपको एक नए जीवन की प्रतीति होनी शुरू होगी। तभी तुलना पैदा होती है। नहीं तो तुलना भी कैसे पैदा हो! आप जहां जी रहे हैं, जिनके बीच जी रहे हैं, जिनके साथ जी रहे हैं, वे सब एक से हैं। इसलिए पहचानना बहुत मुश्किल है।
एक पागलखाने में सभी पागल हैं, वहां कोई पागल यह कभी भी नहीं समझ सकता कि मैं पागल हूं। वहां सारे पागल उसके ही जैसे हैं। अगर एक पागलखाने में ठीक आदमी पहुंच जाए, तो उस ठीक आदमी को लगेगा कि मुझे कुछ गड़बड़ हो गई है, क्योंकि भीड़ और बहुमत पागलों का होगा।
ऐसा अक्सर हुआ है। इसलिए हमने बुद्ध को, क्राइस्ट को, सुकरात को पागल कहा है। वह हमारे पागलों की भीड़ में एक आदमी अगर ठीक हो जाए, तो हमें उस पर शक आता है बजाय हम पर शक आने के। हम काफी हैं; हमारी संख्या बड़ी है। और संख्या हमें बड़ी सत्य मालूम पड़ती है। हम सभी चीजों को संख्या से तौलते हैं। करोड़-करोड़ लोग जिस बात को मानते हैं, वही हमें ठीक मालूम पड़ती है। तो हमने जीसस को सूली पर लटका दिया, सुकरात को जहर दिया, यही सोचकर कि ये पागल हो गए हैं, विक्षिप्त हो गए हैं।
इस भीड़ में आपको पहचान ही नहीं हो पाएगी, क्योंकि तुलना कैसे पैदा हो! कहते हैं, ऊंट जब तक पहाड़ के नीचे न जाए, तब तक उसे पता ही नहीं चलता कि मुझसे ऊंचा भी कुछ है; तब तक ऊंट पहाड़ है।
आप जब तक अपने से बिलकुल भिन्न जीवन चेतना के करीब न जाएं, तब तक आपको अपना आसुरीपन दिखाई पड़ेगा नहीं। उसके पास जाते ही आपको झलक होनी शुरू हो जाएगी, क्योंकि विपरीत पृष्ठभूमि में आप दिखाई पड़ने शुरू हो जाएंगे।
तो प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि खोजें।
दूसरी बात, प्रज्ञावान पुरुषों ने जो-जो कहा है--गीता है, उपनिषद हैं, लाओत्से का ताओ तेह किंग है, महावीर के वचन हैं, बुद्ध का धम्मपद है, और हजारों-हजारों वक्तव्य हैं सारी जमीन पर फैले हुए--प्रज्ञावान पुरुषों ने जो कहा है, उस पर तर्क मत करें, उस पर प्रयोग करें। वही तर्क है। उस पर सोच-विचार मत करें, क्योंकि सोच-विचार करने का कोई उपाय नहीं है। जिस बात की आपको कोई प्रतीति नहीं है, आप सोच-विचार भी कैसे करिएगा? उस पर प्रयोग करें, और प्रयोग करके देखें।
प्रयोग ही तर्क है। क्योंकि प्रयोग से आपको लगेगा कि वे ठीक कह रहे हैं। उसका स्वाद आएगा, तो ही लगेगा कि वे ठीक कह रहे हैं। और जब तक आपको आपसे अन्यथा कोई चीज ठीक न लगने लगे, तब तक आप अपने को गलत न मान पाएंगे। गलत के लिए तुलना चाहिए।
सुना है मैंने कि अकबर के समय में एक धार्मिक व्यक्ति तीर्थयात्रा पर गया। उन दिनों बड़े खतरे के दिन थे। संपत्ति को पीछे छोड़ जाना और अकेला ही आदमी था, बच्चे-पत्नी भी नहीं थे, काफी संपदा थी। तो एक मित्र के पास रख गया, जिस पर भरोसा था। और कहा कि अगर जीवित लौट आया, तो मुझे लौटा देना; अगर जीवित न लौटूं, तो इसका जो भी सदुपयोग बन सके कर लेना। यात्रा कठिन भी थी पुराने दिनों में, तीर्थ से बहुत लोग नहीं भी लौट पाते थे।
वह लंबी मानसरोवर तक की यात्रा पर गया था। पर भाग्य से जीवित वापस लौट आया। मित्र ने तो मान ही लिया था कि लौटेगा नहीं। लेकिन जब वह लौट आया, तो अड़चन हुई। संपत्ति काफी थी और देना मित्र को भी मुश्किल हुआ। मित्र नट गया। उसने कहा कि रख ही नहीं गए! कैसी बातें करते हो? तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया?
कोई गवाह भी नहीं था। वह बात अकबर की अदालत तक पहुंची। एक भी गवाह नहीं, उपाय भी नहीं कोई। यह आदमी कहता है, रख गया। और दूसरा आदमी कहता है, नहीं रख गया। अब कैसे निर्णय हो?
अकबर ने बीरबल से सलाह ली। बीरबल ने, जो आदमी रुपए रख गया था, उससे कहा कि कोई भी तो गवाह हो! उसने कहा, गवाह तो कोई भी नहीं है; सिर्फ जिस वृक्ष के नीचे बैठकर मैंने इसे संपत्ति दी थी, वह वृक्ष ही गवाह है। बीरबल ने कहा, तब काम चल जाएगा। तुम जाओ, वृक्ष को कहो कि बुलाया है अदालत ने।
लगा तो उस आदमी को कि यह पागलपन का मामला है, लेकिन कोई और उपाय भी नहीं है। सोचा, पता नहीं इसमें कुछ राज हो। उसने कहा, मैं जाता हूं प्रार्थना करूंगा।
वह आदमी गया। दूसरा, जिसके पास रुपए जमा थे, वह बैठा रहा, बैठा रहा। बड़ी देर हो गई। तो बीरबल ने कहा, बड़ी देर हो गई, यह आदमी लौटा क्यों नहीं! तो उस आदमी ने कहा कि जनाब, वह वृक्ष बहुत दूर है। तो बीरबल ने कहा, मामला हल हो गया। तुमने रुपए लिए हैं, अन्यथा तुम्हें उस वृक्ष का पता कैसे चला कि वह कितने दूर है!
हमारे भीतर भी हमें पता चलने के लिए कुछ संकेत चाहिए, परोक्ष। प्रत्यक्ष तो कोई उपाय नहीं है। प्रत्यक्ष तो आप जैसे हैं, उससे भिन्न होने का कोई उपाय नहीं है। परोक्ष कोई उपाय चाहिए।
प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि में आपको परोक्ष झलकें मिलना शुरू होंगी और लगेगा कि आप गलत हैं। क्योंकि जैसे ही आपको लगेगा कि प्रज्ञावान पुरुष सही है, वैसे ही आपको लगेगा कि मैं गलत हूं।
और यहां एक बड़ी महत्वपूर्ण बात समझ लेनी जरूरी है। अगर आप बहुत चालाक हैं, तो आप प्रज्ञावान पुरुष के पास भी बैठकर यही सोचते रहेंगे कि वह गलत है। क्योंकि अपने को बचाने का वही एक उपाय है, और कोई उपाय नहीं है।
इसलिए लोग गुरुओं के पास भी जाते हैं और गुरुओं की गलती देखकर वापस लौट आते हैं। उन्होंने अपनी सुरक्षा कर ली। क्योंकि दो ही रास्ते थे। अगर गुरु ठीक था, तो उनको गलत होना पड़ता। और अगर उनको ठीक ही बने रहना है जैसे वे हैं, तो गुरु को गलत सिद्ध कर लेना जरूरी है।
लेकिन गुरु को गलत सिद्ध करने से गुरु का तो कुछ भी खोता नहीं; आपको एक परोक्ष मौका मिला था--सोचने का, विमर्श का, तुलना का--वह खो गया।
अगर प्रज्ञावान जीवित पुरुष मिल सके, तो भाग्यशाली हैं। और प्रज्ञावान पुरुषों की कभी भी कमी नहीं है। अगर नहीं मिलता, तो आप आंख बंद किए हैं, इसलिए नहीं मिलता। अगर नहीं मिलता, तो आप कुछ चालाकी अपने साथ कर रहे हैं, कुछ धोखा कर रहे हैं, इसलिए नहीं मिलता। अन्यथा प्रज्ञावान पुरुष की कोई भी कमी नहीं है। उनकी एक निश्चित मात्रा हमेशा पृथ्वी पर है। उस मात्रा में कोई अंतर नहीं पड़ता। एक प्रज्ञावान पुरुष खोता है, तो तत्क्षण दूसरा प्रज्ञावान पुरुष उसकी जगह हो जाता है।
एक यहूदी फकीर मेरे पास आया। वह बड़ा चिंतित और परेशान था। और बहुत जगह घूमकर आया था, और अनेक लोगों को कुछ कहना चाहता था, लेकिन कोई उसे मिला नहीं जिससे वह कहे या कोई उसका भरोसा करेगा! उसने मुझसे संन्यास लिया, दीक्षा ली, ध्यान में लगा। फिर बाद में एक दिन उसने कहा कि अब मैं आपसे कह सकता हूं।
उस यहूदी ने मुझे कहा कि मुझे धर्म में कोई भी रुचि न थी और मैं धार्मिक आदमी भी न था। इतना ही नहीं, बल्कि मेरा स्पष्ट विरोध भी रहा है। तो मैं कभी यहूदियों के मंदिर में, सिनागाग में कभी गया नहीं। मैंने कभी तालमुद पढ़ी नहीं। और कभी कोई धर्म की बात करे, तो मुझे सिर्फ ऊब ही पैदा होती थी। किसी रबाई, किसी फकीर को मैंने कभी सुना नहीं।
यहूदियों के उत्सव का दिन था एक, धार्मिक उत्सव का दिन, और यह युवक लौट रहा था बाजार से घर की तरफ अचानक उसे एकदम बेचैनी हुई, और उसे लगा कि मुझे सिनागाग जाना चाहिए। उसे खुद भी हैरानी हुई। कुछ ऐसा लगा, जैसे कोई खींचता हो, जैसे परवश हो गया। भागा हुआ घर गया, अपनी प्रार्थना की शाल उठाई, जिसको सिर पर डालकर यहूदी प्रार्थना करते हैं.।
यह प्रार्थना की शाल यहूदियों की बड़ी कीमती है। दूसरे धर्मों के लोगों को भी इसका उपयोग करना चाहिए। पूरे शरीर को ढंक लेते हैं एक चादर से और भीतर प्रार्थना की धुन, आप चाहें ओंकार की धुन या कोई भी धुन को भीतर पैदा करते हैं। वह धुन न केवल शरीर के भीतर गूंजती है, बल्कि उस चादर के भीतर भी एक वातावरण निर्मित करती है, और शरीर के चारों तरफ एक ऑरा निर्मित हो जाता है। और वह धुन शरीर को चारों तरफ से घेर लेती है और आप जगत के साधारण वातावरण से बिलकुल कट जाते हैं। उस प्रार्थना की शाल के भीतर जितनी आसानी से प्रार्थना में लीन हुआ जा सकता है, उतनी आसानी से बिना अपने को ढंके लीन होना कठिन है।
भागा हुआ घर गया, प्रार्थना की शाल उठाई, जाकर सिनागाग पहुंचा। लेकिन उत्सव का दिन था और उस उत्सव के दिन नास्तिक से नास्तिक यहूदी भी मंदिर आता है। बिलकुल भरा हुआ था। कोई आशा नहीं थी उसे कि भीतर जगह मिल जाएगी। लेकिन वह चकित हुआ कि द्वार पर ही उसका स्वागत किया गया और उसे ले जाकर विशिष्ट अतिथियों के स्थान पर बिठाया गया। वह और भी हैरान हुआ कि यह क्या हो रहा है! उसने अपनी चादर ओढ़ ली और चादर ओढ़ते ही उसे सुनाई पड़ा.।
अभी कोई बीस साल पहले की घटना है, जब उसे सुनाई पड़ा। सालभर पहले आकर उसने मुझे सारा ब्योरा दिया।
उसे सुनाई पड़ा कि तू चुना गया है! छत्तीस में से एक मर गया है, उसकी जगह तुझे चुना गया है। वह कई लोगों से बताना चाहता है कि क्या मामला है! छत्तीस कौन हैं! कौन मर गया है! मुझे किस लिए चुना गया है! लेकिन बस, उस आवाज के बाद उसका जीवन बदल गया।
यहूदियों में पुराना एक नियम है। छत्तीस यहूदी सदा ही प्रज्ञावान पुरुष होंगे। उनमें से जब भी एक समाप्त होगा, तब तत्क्षण बाकी पैंतीस एक व्यक्ति को चुन लेंगे। तो छत्तीस की संख्या उनकी सदा पूरी रहेगी।
सभी धर्मों के भीतर उस तरह के अंतर्वतुल हैं, इनर सीक्रेट सर्किल्स हैं। उनकी संख्याओं में कभी कोई कमी नहीं होती। वे हमेशा मौजूद हैं। और जब भी कहीं कोई साधक उनको खोजने को तैयार हो, तब वे खुद उस साधक की तलाश में आ जाते हैं।
तो जरूरत भी नहीं कि आप हिमालय जाएं। अगर आकांक्षा प्रबल हो, तो जहां आप हैं, वहीं जिस प्रज्ञावान पुरुष से आपको सन्निधि चाहिए, वह मौजूद होगा; वह वहीं चला आएगा।
लेकिन हम अपने ही हाथ से दरिद्र बने रहते हैं। हम हाथ भी नहीं फैलाते। अगर स्वर्ण की वर्षा भी हो रही हो, तो हमारी झोली बंद रहती है।
यह जो प्रज्ञावान पुरुष की सन्निधि खोजने की बात है, इसके लिए हमें अपनी सुरक्षा की, बचाव की पुरानी आदतें छोड़ना जरूरी हैं, अपने को थोड़ा खोलना जरूरी है। जोखिम तो है, खतरा तो है। लेकिन बिना खतरे के जीवन में कोई क्रांति भी नहीं होती।
फिर प्रज्ञावान पुरुषों का साहित्य है, उनके वचन हैं, जिनको हम वेद कहते हैं। वेद कोई किताब नहीं है; सभी प्रज्ञावान पुरुषों के वचन वेद हैं। इन वचनों को अगर हम मनन करें, विचार नहीं! और विचार और मनन का फर्क ठीक से समझ लेना चाहिए।
विचार का तो मतलब होता है, मैं अपनी बुद्धि लगाऊं कि क्या ठीक है, क्या गलत है; पक्ष-विपक्ष में सोचूं। मेरे पास बुद्धि ही होती, तो फिर क्या था! और मैं जानता कि क्या ठीक है और क्या गलत है, तो वेद की कोई जरूरत न थी। फिर मैं खुद ही प्रज्ञावान था। वह मेरे पास नहीं है।
मनन! मनन बड़ी अलग बात है। मनन का अर्थ है, प्रज्ञावान पुरुष के वचन को अपने हृदय में उतार लेना, उसका रस चूसना, उसका स्वाद लेना। सोचना नहीं कि ठीक है कि गलत है। उसको पीना। इसको हम पाठ कहते हैं।
इसलिए एक आदमी रोज गीता का पाठ करता है। पश्चिम के लोग पूछते हैं कि यह क्या पागलपन है! एक दफा किताब पढ़ ली, बात खतम हो गई। और किताब को दुबारा पढ़ने का क्या अर्थ है! तिबारा पढ़ने का क्या अर्थ है! और फिर जिंदगीभर रोज सुबह उठकर पढ़ने का तो कोई भी अर्थ नहीं है। वही किताब है, उसको बार-बार पढ़कर क्या फायदा? इससे तो बुद्धि और जड़ हो जाएगी!
उनकी बात थोड़ी दूर तक सही है। अधिक लोगों की बुद्धि जड़ हो गई है। लेकिन जड़ हो जाने का कारण है कि उन्हें पाठ का रहस्य मालूम नहीं है। गीता रोज सुबह पढ़ने का अर्थ पढ़ना है ही नहीं। वह तो जैसे रोज आदमी भोजन करता है, पानी पीता है, श्वास लेता है, ऐसे रोज सुबह प्रज्ञावान पुरुष के वचनों को आत्मसात करना है, अपने में डुबाना है, उनको अपने में फेंकना है, उलीचना है। क्योंकि वे वचन बीज की तरह भीतर पड़ जाएंगे और किसी सम्यक क्षण में--और हम नहीं जानते वह सम्यक क्षण कब आएगा, इसलिए रोज करना है--किसी भी दिन वह सम्यक क्षण आ जाएगा, तो बीज ठीक जगह पहुंच जाएंगे। उनसे अंकुरण होगा। और उस अंकुरण में हमको पहली बार दिखाई पड़ना शुरू होगा कि क्या आसुरी है, क्या दैवी है। उसके पहले दिखाई नहीं पड़ सकता।
तो दो उपाय हैं। अगर हिम्मत हो, तो जीवित प्रज्ञावान पुरुष की शरण में चले जाना चाहिए। अगर कमजोर आदमी हो, हिम्मत न हो, तो शास्त्र की शरण में चले जाना चाहिए। आपको उलटा लगेगा। आप अक्सर सोचते हैं कि जो ताकतवर है, वह किसी की शरण में नहीं जाता। और मैं आपसे कह रहा हूं कि ताकत हो, तो शरण में चले जाना चाहिए।
कमजोर शरण में जा ही नहीं सकता, क्योंकि वह डरता है कि शरण में गए तो दूसरा कब्जा कर लेगा। वह कमजोरी का डर है। शक्तिशाली चला जाता है। शक्तिशाली ही समर्पण करता है। कमजोर तो सदा डरता है, भयभीत रहता है कि कहीं किसी के हाथ में अपने को सौंप दिया, फिर पता नहीं, क्या हो। सिर्फ शक्तिशाली सौंपने की हिम्मत करता है कि सौंप दिया, अब जो भी हो।
और ध्यान रहे, जो सौंपने की हिम्मत जुटाता है, उसके पास प्रज्ञावान पुरुष अनिवार्य रूप से प्रकट हो जाते हैं। अगर तुमने गलत आदमी के भी चरणों में अपने को सौंपा और सौंपना बेशर्त रहा, तो गलत आदमी हट जाएगा और ठीक आदमी प्रकट हो जाएगा। और अगर तुम ठीक आदमी के पास भी अपने को सिकोड़कर बैठे रहे, बचाते रहे, तो ठीक आदमी भी तुम्हारे लिए गलत आदमी ही है।
यह न हो सके, मन बहुत कमजोर हो, निर्बल हो, तो फिर शास्त्र खोजना चाहिए। गुरु शक्तिशाली के लिए, शास्त्र कमजोर के लिए। मगर हिम्मत तो वहां भी जुटानी पड़ेगी। क्योंकि वहां भी शास्त्र को मौका देना होगा कि आपके भीतर जा सके, रोएं-रोएं में डूब जाए, उतर जाए, श्वास-श्वास में समा जाए, जगह-जगह आपके कण-कण में उसकी ध्वनि गूंजने लगे।
स्वामी राम अमेरिका से वापस लौटे, तो पंजाब के एक बहुत बड़े विचारक सरदार पूर्णसिंह उनके साथ थे। तो एक ही कोठरी में एक रात हिमालय में सोए थे। चारों तरफ सन्नाटा था, हिमालय का सन्नाटा। न कोई पास गांव, न कोई आवाज, न कोई शोरगुल।
अचानक पूर्णसिंह को लगा कि कोई राम-राम की रट लगाए हुए है। तो नींद न आए। उठकर वे बाहर गए, बरांडे में चारों तरफ घूमकर देखा, सन्नाटा है। कोई नहीं है वहां। हैरानी तो तब हुई कि जब बाहर गए, तो आवाज कम आने लगी। और जरा दूर जाकर बरांडे में घूमे, तो और कम आने लगी। नीचे के कंपाउंड में उतरकर दरवाजे तक गए, तो आवाज बिलकुल खो गई। फिर जैसे वापस लौटे करीब, आवाज बढ़ने लगी। कोठरी में आए, तो आवाज फिर सुनाई पड़ने लगी। तब वे चकित हुए। क्योंकि सिवाय राम और उनके कोई नहीं है। राम तो सो रहे हैं।
तो राम की खाट के पास गए। जैसे पास गए, तो आवाज और बढ़ने लगी। तब उन्हें खयाल आया कि यह तो कुछ अनूठा घट रहा है! राम के शरीर के अंग-अंग से राम की आवाज निकल रही है। तो पैर के पास कान रखकर देखा, तो आवाज; हाथ के पास कान रखकर देखा, तो आवाज; सिर के पास कान रखकर देखा, तो आवाज।
जब कोई व्यक्ति ठीक से स्मरण करता है, पाठ करता है, वेद के वचन को अपने में डूब जाने देता है, तो रोएं-रोएं से वही प्रतिध्वनित होने लगता है। उस प्रतिध्वनि के क्षण में आपको समझ आएगा, क्या आसुरी है, क्या दैवी है। उसके पहले समझ नहीं आ सकता।
ये दो उपाय हैं। हिम्मत हो, तो जीवित पुरुष खोज लेना चाहिए; हिम्मत कमजोर हो, तो प्रज्ञावान पुरुषों के मरे हुए वचन शास्त्रों में संगृहीत हैं, उनकी शरण चले जाना चाहिए।
लेकिन फिर भी दोनों में हिम्मत की तो जरूरत है ही, क्योंकि शरण जाए बिना कोई भी उपाय नहीं है। कहीं अपने को खोना होगा, छोड़ना होगा; कहीं अपनी अस्मिता को हटाकर रख देना होगा। तब जैसे बिजली कौंध जाए और अंधेरे में रास्ता दिखाई पड़ने लगे, ठीक ऐसे ही, क्या दैवी है, क्या आसुरी है, उसकी प्रतीति होने लगती है।
और ध्यान रखें, जैसे ही प्रतीत होता है कि यह आसुरी और यह दैवी, वैसे ही जीवन में परिवर्तन शुरू हो जाता है। क्योंकि जिसको प्रतीत हो जाए कि यह आसुरी वृत्ति है, फिर उस वृत्ति में रहना असंभव है।
हम तभी तक आसुरी वृत्ति में रह सकते हैं, जब तक हमें लगता हो कि यह दैवी वृत्ति है। हम तभी तक असत्य में जी सकते हैं, जब तक हमें लगता हो कि यह सत्य है। और हम तभी तक दुख में जी सकते हैं, जब तक हमने दुख को सुख माना हो।
दुख दुख दिखाई पड़े, छुटकारा शुरू हो गया। असत्य असत्य मालूम पड़े, क्रांति शुरू हो गई। आसुरी है हमारी संपदा, ऐसा बोध हो जाए, उस संपदा से हमारे हाथ अलग होने लगे। हम उसे ही पकड़ते हैं, जिसे हम ठीक समझते हैं। वह गलत हो, पर हमारी समझ में ठीक है, तो हम पकड़ते हैं। जैसे ही समझ आ जाती है कि गलत है, छूटना शुरू हो जाता है।
सुकरात का प्रसिद्ध वचन है, नालेज इज़ वर्च्यू, ज्ञान सदाचरण है!
जैसे ही कोई जान लेता है कि ठीक क्या है, ठीक करना शुरू हो जाता है। जब तक हम सोचते हैं कि हमें पता है कि ठीक क्या है; फिर भी क्या करें, हम गलत करते हैं! तब तक जानना कि हमें पता ही नहीं है कि ठीक क्या है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें मालूम है कि क्रोध बुरा है; पर क्या करें, मजबूरी है, क्रोध हो जाता है। तो मैं उनसे कहता हूं, तुम गलती कर रहे हो, तुम पूरी बात को ही उलटा समझ रहे हो। तुम्हें मालूम ही नहीं कि क्रोध बुरा है। यह तुमने सुना है; और तुम सोचते हो, सुना हुआ तुम्हारा ज्ञान हो गया। तुम्हें पता हो जाए कि क्रोध बुरा है, तो जैसे आग में हाथ डालना मुश्किल है, वैसे ही क्रोध में भी हाथ डालना मुश्किल हो जाएगा। शायद ज्यादा मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि आग तो केवल शरीर को जलाती है, क्रोध तो भीतर तक झुलसा देता है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, मंजिल पर पहुंचकर प्रज्ञावान पुरुष को यही पता चलता है कि स्वयं को जानना असंभव है, क्योंकि वहां ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान सब एक हो जाते हैं। इस हालत में वे हमें क्यों समझाते हैं कि स्वयं को जानो? इसमें उनका अभिप्राय क्या है?
निश्चित ही, उस परम अवस्था में ज्ञाता भी खो जाता है, ज्ञान भी खो जाता है, ज्ञेय भी खो जाता है। यह जो त्रिवेणी है, यह खोकर एक ही धारा बन जाती है। गंगा, यमुना, सरस्वती तीनों खो जाती हैं, सागर ही रह जाता है। वह जो खोजने चला था, वह भी नहीं बचता; जिसे खोजने चला था, वह भी नहीं बचता। फिर भी कुछ बचता है। और जो बचता है, वह तीनों से बड़ा है। जो बचता है, वह तीनों से ज्यादा है। जो खो जाता है, वह तो कचरा था। जो बचता है, वही सार है।
फिर भी प्रज्ञावान पुरुष आपसे कहते हैं, स्वयं को जानो। क्या मिटाने के लिए आमंत्रण देते हैं?
अगर मिटना ही मिटना होता और कुछ पाना न होता, तो यह आमंत्रण न दिया जाता। एक तरफ से मिटना है और दूसरी तरफ से होना है। जो आप हैं, वह खो जाएगा। और जो आपका वास्तविक होना है, वह बचेगा। जो आपका झूठा-झूठा होना है, वह तिरोहित हो जाएगा। और जो आपकी शाश्वत सत्ता है, जो आपका सनातन स्वरूप है, वह बचेगा। आप खो जाएंगे, जैसा आप अपने को अभी समझते हैं। और जैसा आपने कभी अपने को नहीं समझा, लेकिन आप हैं, वह बच रहेगा।
तो प्रज्ञावान पुरुष आपको बुलाते हैं कि मिटो, ताकि हो सको। खो जाओ, ताकि बच सको। वे कहते हैं, बूंद सागर में गिर जाए, खो जाएगी। अगर आप बूंद की तरफ से देखें, तो खो जाएगी। लेकिन खोएगी कहां? खोना हो कैसे सकता है? जो भी है, वह खोएगा कैसे? अगर होने की तरफ से देखें, तो बूंद खोएगी नहीं, सागर हो जाएगी। एक तरफ से बूंद का क्षुद्रपन चला जाएगा, दूसरी तरफ से सागर की विराटता उसमें उतर आएगी।
कबीर ने कहा है कि पहले तो मैं सोचता था जब मिलन हुआ कि बूंद सागर में गिर गई और खो गई। प्रथम तो ऐसा ही अनुभव हुआ कि बूंद सागर में गिरकर खो गई। बाद में समझ में आया कि यह तो उलटा कुछ हुआ है, सागर बूंद में गिरकर खो गया।
ये दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं। चाहे हम एक बूंद को सागर में गिराएं, चाहे एक सागर को बूंद में गिराएं; दोनों हालतों में घटना एक ही घटती है। तो चाहे आप कहें कि आप खो गए और चाहे आप कहें कि परमात्मा आप में खो गया, एक ही बात है। सिर्फ दो कोने से कहने की बात है।
बुद्ध ने पहली बात पसंद की। उन्होंने कहा, तुम खो जाओगे, निर्वाण हो जाएगा, सब शून्य हो जाएगा। शंकर ने दूसरी बात पसंद की़, ब्रह्म हो जाओगे, कुछ खोएगा नहीं, सब कुछ पा लिया जाएगा।
चाहे कहो शून्य, चाहे कहो पूर्ण। शून्य का अर्थ है, बूंद खो गई। पूर्ण का अर्थ है, सागर बूंद में उतर आया। पर दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। एक विधेय का ढंग है, एक निषेध का ढंग है; जो भी प्रीतिकर हो।
प्रज्ञावान पुरुष बुलाते हैं कि मिटो, क्योंकि उन्होंने अपनी तरफ से अनुभव किया है कि जब तक वे मिटे नहीं, तभी तक दुख में रहे। जब वे मिटे, तब आनंद हो गया।
आपका होना ही कष्ट है। आप ही कांटा हो, जो चुभता है। और जब तक आप हो, कांटा चुभता ही रहेगा। आप लाख उपाय करो सुख की व्यवस्था के, वे असफल होंगे, क्योंकि कांटा आप हो। आप कितना ही सुखद बिस्तर तैयार कर लो और सुंदर भवन बना लो, लेकिन वह कांटा चुभता ही रहेगा।
महल बड़े होते जाते हैं, दुख नष्ट नहीं होता। संपत्ति के ढेर लगते जाते हैं, दुख नष्ट नहीं होता। संपदा, यश, कीर्ति मिलती जाती है, दुख नष्ट नहीं होता, बल्कि कांटा चुभता ही चला जाता है। शायद और जोर से चुभता है। जितना सुख का आप इंतजाम करते हैं, कांटा उतने जोर से चुभता है। क्योंकि सुख में पृष्ठभूमि बन जाती है, और कांटा और भी ज्यादा पीड़ादायी मालूम होता है।
एक गरीब आदमी के पैर में कांटा उतना नहीं चुभता; पैर उसके आदी हैं। अमीर आदमी के पैर में कांटा और बुरी तरह चुभता है; पैर उसके आदी नहीं हैं। जैसे-जैसे आदमी अमीर होता है, वैसे-वैसे दुख एक घाव, एक नासूर भीतर हृदय में बनता चला जाता है।
प्रज्ञावान पुरुष बुलाते हैं आपको कि मिट जाओ; कहते हैं कि स्वयं को जान लो। क्योंकि स्वयं को जानते ही आप मिट जाओगे। यह जरा उलटा लगेगा, विरोधाभासी। क्योंकि जब हम कहते हैं, स्वयं को जान लो, तो हमें ऐसा लगता है कि अपने को हम बचा लेंगे।
स्वयं को जानने की शर्त ही यह है कि जब तक आप हो, तब तक आप स्वयं को जान न सकोगे। आप बाधा हो। वह जो अहंकार है कि मैं हूं, वही रुकावट है। वह मिटेगा, तो स्वयं का जानना हो जाएगा। स्वयं का मिटना ही स्वयं का ज्ञान है। और उसके साथ ही कांटा खो जाता है।
बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो उन्होंने पहला उदघोष किया कि अब मुझे दुख में कोई भी डाल न सकेगा। अब मुझे दुख में डालने का कोई उपाय न रहा। तो कथा है कि ब्रह्मा ने उनको पूछा कि आप ऐसा क्यों कहते हैं? तो बुद्ध ने कहा, चूंकि अब मैं हूं ही नहीं। मुझे दुख में डालने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि अब मैं हूं ही नहीं। जब तक मैं था, तब तक मुझे दुख में डाला जा सकता था।
बुद्ध शून्य की भाषा पसंद करते हैं। अगर आपको पूर्ण की भाषा पसंद हो, तो समझें पूर्ण की तरफ से। शून्य की भाषा पसंद हो, तो शून्य की तरफ से। लेकिन सिर्फ भाषा में मत खोए रहें; कुछ करें। या तो बूंद को मिटाएं सागर में या सागर को बुलाएं बूंद में। जब तक यह महामिलन न हो, तब तक दुख बना ही रहता है।
अब हम सूत्र को लें।
और वे मनुष्य दंभ, मान और मद से युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर तथा मोह से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार में बर्तते हैं।
तथा वे मरणपर्यंत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय किए हुए और विषय-भोगों के भोगने में तत्पर हुए इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं।
इसलिए आशारूप सैकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम-क्रोध के परायण हुए विषय-भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत-से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।
आसुरी संपदा वाले व्यक्तियों के लक्षणों में कृष्ण और भी प्रवेश करते हैं।
दंभ, मान और मद से युक्त.।
आसुरी संपदा वाला व्यक्ति सदा ही अपने को ठीक मानता है, सदा ही दूसरे को गलत मानता है। दूसरे का दूसरा होना ही उसकी गलती है। यह सवाल नहीं है कि सही क्या है, गलत क्या है। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति को उसका स्वयं का वक्तव्य सही है, दूसरे का वक्तव्य गलत है।
कभी-कभी आपको भी खयाल आता होगा कि अगर दूसरा व्यक्ति वही बात कह रहा हो, जो कल आप कह रहे थे, तो भी आप विवाद करते हैं। क्योंकि सवाल यह है नहीं कि क्या सही है। सवाल तो यह है कि आप सही हैं और दूसरा गलत है। हमेशा आप इस कोशिश में होते हैं कि मैं सही हूं।
दुनिया में जो इतने विवाद चलते हैं, उन विवादों में सत्य की कोई तलाश नहीं है। उन विवादों में सिर्फ अहंकार की घोषणा है। चाहे कोई कुछ भी कहे, सही मैं ही हूं। और इस मैं के सही होने को हम हजार तरह से सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। आसुरी संपदा वाले व्यक्ति का यह आंतरिक लक्षण है।
दैवी संपदा वाला व्यक्ति, इसके पहले कि दूसरे को गलत कहे, अपने को गलत सोचने की चेष्टा करता है। और इसीलिए दैवी संपदा वाला व्यक्ति सीख पाता है, आसुरी संपदा वाला व्यक्ति सीख नहीं पाता। क्योंकि सीखना तो तभी संभव है, जब हम गलत हों, दूसरा सही हो। जब हम सदा ही सही होते हैं और दूसरा गलत होता है, तो सीखने की कोई गुंजाइश नहीं है। शिष्यत्व, डिसाइपलशिप पैदा ही नहीं हो सकती।
इसलिए आसुरी संपदा का व्यक्ति कभी भी शिष्य नहीं बनता। हालांकि कहेगा वह यही कि कोई गुरु है ही नहीं। मिले कोई गुरु, तो हम शिष्यत्व ग्रहण करें। लेकिन वह शिष्यत्व ग्रहण नहीं कर सकता। वह बुद्ध के पास से भी कुछ भूल-चूक निकालकर आगे बढ़ जाएगा।
शिष्यत्व के लिए झुकना जरूरी है। और मैं गलत हूं, दूसरा सही होगा, इसकी प्रतीति जरूरी है। मैं अज्ञानी हूं और दूसरा जानता होगा, इसकी प्रतीति जरूरी है। और जो व्यक्ति को ऐसा भाव हो कि मैं अज्ञानी हूं, वह एक छोटे-से बच्चे से भी सीख लेता है। वह पौधों, पक्षियों से भी सीख लेता है। उसके लिए सारा जगत गुरु हो जाता है।
और जो व्यक्ति सोचता है, मैं सही हूं, उसके लिए इस जगत में सीखने का कोई उपाय नहीं। वह अटका रह जाता है, ठहरा रह जाता है। उसका हृदय पत्थर की तरह हो जाता है; फूल की तरह वह कभी भी खिल नहीं पाता है।
आप भी सोचें कि जब आप विवाद करते हैं कि यह ठीक है, तब सच में ही आपको सत्य की तलाश होती है? या आपका वक्तव्य है, तो उसके साथ आपका अहंकार जुड़ गया। वक्तव्य टूटेगा, तो अहंकार टूटेगा। तो आप लड़-मर सकते हैं, विवाद कर सकते हैं, तर्क कर सकते हैं, हजार तर्क खोज ले सकते हैं। लेकिन उन तर्कों से आप कभी बदलेंगे नहीं। क्योंकि वे तर्क सत्य के लिए दिए ही नहीं गए।
सत्य का तलाशी हमेशा तैयार है कि वह गलत हो सकता है। और जो व्यक्ति जितना तैयार है अपनी गलती स्वीकार करने को, उसके जीवन में विकास की उतनी ही ज्यादा संभावना है। वह जीवन के अंतिम क्षण तक सीखता रहेगा, मरते क्षण तक सीखता रहेगा। उसके सीखने का कोई अंत नहीं है; उसके ज्ञान का कोई पारावार नहीं होगा।
आसुरी संपदा वाला अज्ञानी रह जाता है, क्योंकि सीख नहीं सकता। दैवी संपदा वाला सीखता चला जाता है, उसके पास सागर जैसा ज्ञान हो जाता है।
किसी भी प्रकार न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर.।
और आसुरी संपदा वाला व्यक्ति अपने जीवन की गति को उन वासनाओं के सहारे चलाता है, जिनका कभी कोई अंत नहीं है; जो कभी पूरी नहीं हो सकतीं, जो कभी पूरी हुई नहीं हैं, जिनका स्वभाव पूरा होना नहीं है।
बुद्ध ने कहा है, कामनाएं दुष्पूर हैं, उनको भरा ही नहीं जा सकता। इसलिए नहीं कि आपकी ताकत कम है, इसलिए भी नहीं कि जीवन का समय कम है, इसलिए भी नहीं कि दूसरे लोग बाधा डाल रहे हैं, बल्कि इसलिए कि उनका स्वभाव ही दुष्पूर है। वासना का स्वभाव दुष्पूर है; उसे पूरा नहीं किया जा सकता।
क्या कारण होगा कि वासना का स्वभाव दुष्पूर है? अगर आप वासना को पूरा न करें, दमन करें, दबाएं, तो वासना धक्के मारती है कि मुझे पूरा करो! और सदा धक्के मारती रहेगी जन्मों-जन्मों तक। अगर आप वासना को पूरा करें, तो हर बार पूरा करें, तो वासना की आदत बनती है। और जितनी आदत बनती है, उतनी मांग बढ़ती है।
बड़ी कठिनाई है, बड़ी दुविधा है। अगर वासना को दबाएं, तो पीछा करती है; अगर पूरा करें, तो आदत बनती है। दोनों स्थितियों में वासना उलझा देती है। और तीसरे का हम कभी प्रयोग नहीं करते, कि हम वासना को सिर्फ देखें; न तो दबाएं, न पूरा करें; न तो उससे लड़ें, और न उसके गुलाम बनकर उसके पीछे चलें।
दो पंथ हैं जगत में। एक पंथ है वासना पूरे करने वालों का; उनको ही आसुरी संपदा वाले लोग कहा है। एक पंथ है वासनाओं से लड़ने वालों का; उनको दैवी संपदा वाले लोग नहीं कहा है, वे भी आसुरी संपदा वाले लोग हैं। फर्क इतना ही है कि कुछ आसुरी संपदा वाले लोग सीधे पैर के बल खड़े हैं; कुछ आसुरी संपदा वाले लोग सिर के बल खड़े हैं, शीर्षासन कर रहे हैं।
एक तीसरा वर्ग है दैवी संपदा वाले व्यक्ति का। वह लड़ता ही नहीं, वह वासना का सिर्फ साक्षी होता है। और जितना गहरा साक्षीभाव होता है, वासना उसी तरह जड़-मूल से जलकर नष्ट हो जाती है। न तो उसे दबाना पड़ता है, न उसे पूरा करना पड़ता है।
दोनों हालतों में कठिनाई है। और ये दोनों पंथ खड़े हैं और आप सब भी इन दोनों पंथों में डांवाडोल होते रहते हैं। सुबह सोचते हैं कि गलत; सांझ सोचते हैं सही। आज सोचते हैं, वासना पूरी कर लें; कल वासना से लड़कर दमन करते हैं। और ऐसा डोलते रहते हैं और जीवन नष्ट होता चला जाता है।
हमारी अवस्था ऐसी है। मैंने सुना है, एक गांव में एक साधु का आगमन हुआ। वह अद्वैतवादी साधु था। गांव में एक गरीब सीधा आदमी था। इस साधु ने उसे पकड़ लिया; रास्ते से जा रहा था। वह सीधा आदमी अपने खेत जा रहा था, सो उसे पकड़ लिया और कहा कि रुको, क्या जिंदगी खेत में ही गंवा दोगे? कुछ स्मरण करो! यह जगत माया है। उस सीधे आदमी ने कहा, अब आपने शिक्षा ही दी, तो कुछ रास्ता बता दें। तो साधु ने उसे एक मंत्र दिया। मंत्र था सोहम्‌, कि सदा सोहम्‌-सोहम्‌ का जाप करते रहो; मैं वही हूं, आई एम दैट, सोहम्‌। कुछ दिनों बाद वह गरीब सीधा आदमी सोहम्‌ का जाप करता रहा।
गांव में दूसरे साधु का आगमन हुआ। लोगों ने उस दूसरे साधु को बताया कि हमारे गांव में एक सीधा-सादा किसान है, लेकिन सोहम्‌ का जाप करता है, और बड़ा प्रसन्न रहता है। साधु ने कहा, बिलकुल गलत। उसे बुलाकर ले आओ। उससे कहा कि यह बिलकुल गलत है। यह साधु द्वैतवादी था। सोहम्‌ अद्वैतवादी का मंत्र है। इसने कहा, यह बिलकुल गलत है; यह पाठ ठीक नहीं है। इससे तुम भटक जाओगे।
उस गरीब सीधे आदमी ने कहा, आप सुधार कर दें। उस साधु ने कहा, दासोहम्‌, मैं तेरा दास हूं, यह पाठ करो। सोहम्‌ नहीं, दासोहम्‌। उसमें दा और जोड़ दो। उस गरीब आदमी ने दा जोड़ दिया।
दो-चार महीने बाद फिर एक अद्वैतवादी साधु का गांव में आगमन हुआ। लोगों ने खबर दी। उसने कहा कि बिलकुल गलत है। द्वैत तो आना ही नहीं चाहिए मंत्र में। यह दासोहम्‌ ठीक नहीं है। तुम इसमें एक स और जोड़ दो, सदा सोहम्‌, सदा मैं वही हूं। गरीब आदमी ने कहा, अब जैसी आपकी मरजी!
थोड़ी-बहुत शांति पहले मिली थी, दूसरे में उससे भी कम हो गई। अब तीसरे में वह बहुत उलझ गया। वह भी कम हो गई। लेकिन अब साधु ने कहा, तो वह सदा सोहम्‌ करने लगा।
कुछ ही दिन बाद फिर एक द्वैतवादी साधु का गांव में आगमन हुआ। उसने कहा कि यह बिलकुल गलत है। अद्वैत की बात ही गलत है। तुम इसमें एक दा और जोड़ दो, दास दासोहम्‌। तो उस गरीब ने कहा कि मैं बिलकुल पागल हो जाऊंगा। थोड़ी-बहुत शांति मिलना शुरू हुई थी, सब नष्ट हो गई। और अब कब अंत होगा इसका!
मनुष्य की अवस्था करीब-करीब ऐसी है। वहां दो वर्ग हैं हमारे जीवन में। चारों तरफ दोनों वर्गों में बंटे हुए लोग हैं। कुछ हैं, जो भोग की तरफ धक्का दे रहे हैं। कुछ हैं, जो दमन की तरफ धक्का दे रहे हैं। कुछ हैं, जो जीवन के विषाद से भरे हैं और कह रहे हैं, सब तोड़ डालो। और कुछ हैं, जो जीवन के उत्साह से भरे हैं और कह रहे हैं, सब भोग डालो। और उन दोनों के बीच में मनुष्य विक्षिप्त हुआ जाता है।
और इन दोनों को अगर आप रोज बदलते रहे, तो एक कनफ्यूजन, चित्त का खंड-खंड हो जाना, एक स्कीजोफ्रेनिक, खंडित चित्त की दशा पैदा होती है। जहां फिर कुछ भी नहीं सूझता, जहां कुछ ठीक नहीं मालूम पड़ता, कुछ गलत नहीं मालूम पड़ता। और कहां जाएं, और कहां न जाएं! एक पैर बाएं चलता है, दूसरा दाएं चलता है। एक आगे जाता है, दूसरा पीछे जाता है। जीवन अस्तव्यस्त हो जाता है।
लेकिन हमारी भी अड़चन है। और वह अड़चन यह है कि इन दो के अतिरिक्त तीसरे का हमें कोई स्वर सुनाई नहीं पड़ता।
तीसरा एक स्वर है। और वह है वासनाओं की प्रक्रिया का जागरूक साक्षीभाव से दर्शन। भोगी और त्यागी दोनों ही बंध जाते हैं, सिर्फ साक्षी मुक्त होता है।
यह जो आसुरी संपदा से भरा हुआ व्यक्ति है, वह कभी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर चलता है, इसलिए सदा दुखी होता है। क्योंकि जो पूरा नहीं होने वाला, उसके साथ चलने वाला दुख पाएगा ही। और सदा अतृप्ति, सदा असंतोष, और सदा अनुभव करता है, कुछ पाया नहीं; और दौड़ो, और दौड़ो। और वह कहीं भी पहुंच जाए, वह जो और की आवाज है, वह चलती ही रहेगी।
मोह से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्त हुए संसार में बर्तते हैं। तथा वे मरणपर्यंत रहने वाली अनंत चिंताओं को आश्रय किए हुए और विषय-भोगों के भोगने में तत्पर हुए, इतना मात्र ही आनंद है, ऐसा मानने वाले हैं।
जो भी छोटा-मोटा उच्छिष्ट मिल जाता है, इस भाग-दौड़ में, असंतोष में, दुख में जो थोड़ी-बहुत सुख की आभास जैसी झलक मिल जाती है, बस, आसुरी संपदा वाला मानता है, इतना ही आनंद है, यही सब कुछ है।
आप भी सोचें, इतने दिन आप जीए हैं, कम से कम इस जीवन के दिन का तो आपको स्मरण है ही। और जीवनों में जीए हैं, उसे छोड़ दें। इस सारे जीवन में आपको कोई सुख मिला है?
अगर खोजबीन करेंगे, तो बड़ी मुश्किल होगी। जितनी सचेतता से खोजबीन करेंगे, उतना ही खोजना मुश्किल होगा कि कोई सुख मिला है। कभी-कभी शायद कोई झलक मिली हो, आभास लगा हो, इंद्रधनुष जैसा कुछ दूर दिखाई पड़ा हो। हाथ में तो पकड़ते से खो जाता है इंद्रधनुष। बस दूर से थोड़ा दिखाई पड़ा हो, तो उतना ही सुख है, ऐसा मानकर हम अपने जीवन को ढोते हैं।
दैवी संपदा वाला व्यक्ति इतने सस्ते में राजी नहीं होता। साधारणतः लोग कहते हैं कि दैवी संपदा वाला व्यक्ति संतुष्ट होता है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, दैवी संपदा वाला व्यक्ति पहले तो बहुत असंतुष्ट होता है। वह इतना असंतुष्ट होता है कि आसुरी संपदा वाले व्यक्ति भी उसके सामने संतुष्ट मालूम पड़ेंगे। क्योंकि आसुरी संपदा वाला कहता है, इतना ही सुख है; इस पर ही राजी होता है। दैवी संपदा वाला कहता है, इसमें सुख कुछ भी नहीं है। यह दूर दिखाई पड़ने वाला इंद्रधनु है। और हाथ में आते ही पानी की बूंदें हाथ लगती हैं, कुछ भी हाथ नहीं लगता। यहां सुख बिलकुल नहीं है।
तो आसुरी संपदा वाला तो किसी तरह असंतोष में भी थोड़ा-सा संतोष खोज लेता है। दैवी संपदा वाला इसमें पूरी तरह असंतोष पाता है। और इसी असंतोष के कारण वह किसी नए आयाम में, एक नई दिशा में, एक नए क्षितिज की खोज में निकलता है। वासनाओं में पाता है कि कुछ नहीं मिला। आभास भी झूठे थे। तो फिर निर्वासना में, वासना के अतीत, अतिक्रमण में उसकी यात्रा शुरू होती है।
दैवी संपदा वाला व्यक्ति पहले तो संसार से पूर्ण असंतुष्ट हो जाता है, क्योंकि वही उसकी परमात्मा की खोज का आधार है, वही स्रोत है। लेकिन आसुरी संपदा वाला मानता है कि ठीक है, यह जो थोड़ा-सा सुख मिल रहा है, बस यही सुख है, इससे ज्यादा जीवन में पाने योग्य है भी नहीं, मिल भी नहीं सकता।
आपको मैं याद दिलाना चाहूं, अनेक बार मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम संतुष्ट हैं। और वे सोचते हैं कि बड़ी कीमती बात मुझसे कह रहे हैं। जो भी भगवान ने दिया है, हम उससे राजी हैं। भगवान ने दिया क्या है उनको? लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, सब ठीक है। पत्नी है, बच्चा है, सब ठीक चल रहा है। काम भी ठीक है, पैसा भी निकल आता है, रोटी-रोजी चल जाती है; हम संतुष्ट हैं।
ऐसे व्यक्ति यह सोचकर मुझसे ये बातें कहते हैं कि मैं शायद उनकी प्रशंसा करूंगा; कहूंगा कि बड़े धार्मिक व्यक्ति हैं। पर यह आसुरी संपदा वाले व्यक्ति का लक्षण है। वह कहता है कि इतना ही सुख है बस, इससे ज्यादा तो कुछ है भी नहीं।
दैवी संपदा वाला व्यक्ति तो प्रखर आंखों से जीवन को देखता है और पूरी तरह असंतुष्ट हो जाता है। अगर यही जीवन है, तो वह इसी समय मरने को तैयार है। कुछ सार नहीं है।
लेकिन जैसे ही कोई व्यक्ति यह देखने में समर्थ होता है कि यह सब व्यर्थ है, उसकी आंखों का रस इस जगत से अलग हो जाता है, उसकी आंखें मुक्त हो जाती हैं। और वह दूसरे जगत में अपनी आंखों को फैलाने के लिए समर्थ हो जाता है। ध्यान, जो इस जगत में लिप्त था, हट आता है। और फिर ध्यान को दूसरे जगत में ले जाना आसान हो जाता है। परिपूर्ण असंतुष्ट चेतना ही परमात्मा के परम संतोष को खोज सकती है।
इसलिए आशारूप सैकड़ों फांसियों से बंधे हुए और काम-क्रोध के परायण हुए विषय-भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत-से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।
और जो व्यक्ति भी अपने को नहीं खोज रहा है, वह जाने-अनजाने पदार्थ खोजेगा। खोज तो जारी रखनी ही पड़ेगी। खोज से बचना असंभव है। कुछ न कुछ तो आप खोजेंगे ही। अगर स्वयं को न खोजेंगे, तो कुछ और खोजेंगे। और जो स्वयं को नहीं खोजेगा, उसके पास सिवाय पदार्थों की खोज के कुछ भी नहीं बचता।
इस जगत में दो ही आयाम हैं। या तो मैं चेतना को खोजूं या पदार्थ को खोजूं। बस, दो ही इस जगत के तल हैं, पदार्थ है, चेतना है। अगर आप चेतना की खोज में नहीं हैं, तो क्या करेंगे? तो फिर पदार्थ का संग्रह। आपकी जीवन-ऊर्जा फिर धन इकट्ठा करने में, बड़े पद पर पहुंच जाने में, बड़ा साम्राज्य निर्मित करने में संलग्न हो जाएगी।
यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, वह फिर पदार्थ इकट्ठे करने में लग जाता है। और पदार्थ का संग्रह समझ लेने जैसा है। उसके कुछ आधारभूत नियम हैं।
पहला, जो व्यक्ति पदार्थ का संग्रह करने में लगा हो, वह न्याय-अन्याय का विचार नहीं कर सकता। क्योंकि पदार्थ किसी का भी नहीं है। जिस जमीन को आज आप अपना कह रहे हैं, कल वह किसी और की थी, परसों किसी और की थी। अगर आप यह बैठकर सोचें कि जो मेरा नहीं है, उस पर मैं कैसे कब्जा करूं! तो फिर आप पदार्थ पर कब्जा कर ही नहीं सकते।
इसलिए पदार्थ को इकट्ठा करने वाला तो येन केन प्रकारेण, कैसे भी हो, इकट्ठा करने में लग जाता है। और पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दूसरे से छीनना पड़ता है। परिग्रह शोषण के बिना संभव नहीं है। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दूसरे को वंचित करना पड़ता है। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो हिंसा करनी ही होगी, सूक्ष्म, स्थूल, लेकिन हिंसा करनी ही होगी। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दान, दया और करुणा से अपने को बचाना होगा। चाहे चोरी करनी पड़े, चाहे भीख मांगनी पड़े, कुछ भी उपाय करना पड़े।
एक दिन एक स्टेशन पर मैं बैठा था, एक ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। और एक भिखारी ने मुझसे आकर भीख मांगी। चेहरे से वह आदमी पढ़ा-लिखा, ढंग से सुसंस्कृत मालूम होता था। तो मैंने उससे कहा कि बैठो, कुछ अपने संबंध में मुझे बताओ। तो काफी प्रसन्न हो गया। मैं एक किताब रखे हुए बैठा पढ़ रहा था। ट्रेन लेट थी।
तो उसने कहा, आप किताब पढ़ रहे हैं, तो आपसे मैं बात कर सकता हूं। मैं भी कभी एक लेखक था; मैंने भी एक किताब लिखी थी। मैंने उससे पूछा कि कौन-सी किताब लिखी थी? उसने बताया कि जीविका कमाने के बीस ढंग। मैं थोड़ा चौंका और मैंने उससे पूछा कि फिर भी तुम भीख मांग रहे हो! उसने कहा, हां, क्योंकि यह इक्कीसवां ढंग है, जो मैंने बाद में खोजा। और वे बीस तो असफल हो जाएं, मगर यह इक्कीसवां कभी असफल नहीं होता। यह बिलकुल रामबाण है।
एक आदमी चोरी कर रहा है, वह भी जो दूसरे का है, छीन रहा है। एक आदमी भीख मांग रहा है, वह भी चोरी का ही एक ढंग है, लेकिन ज्यादा कुशल ढंग है। वह दूसरे को इस तरह से फांस रहा है कि दूसरा अगर न दे, तो आत्मग्लानि पैदा हो; अगर दे, तो दुख पाए।
तो आप यह मत सोचना कि जब भिखमंगा आपसे भीख मांगता है और आप उसे भीख दे देते हैं, तो वह समझता है कि आप बड़े दानी हैं। वह यही समझता है कि वह होशियार था, आप बुद्धू थे। जब आप भीख नहीं देते और बच जाते हैं; तभी वह सोचता है कि यह भी आदमी कुशल है। उसके मन में इज्जत आपकी तभी होती है, जब आप नहीं देते। देते हैं, तब तो वह जानता है कि ठीक है। लेकिन वह स्थिति ऐसी पैदा करता है कि आपको अड़चन हो जाए, और दो पैसे के लिए उस अड़चन से निकलने को आप दो पैसा देना ही उचित समझेंगे।
चोर भी छीन रहा है, भिखारी भी छीन रहा है। जिसको हम व्यवसायी कहते हैं, जो दोनों के बीच है, वह भी छीन रहा है। और सबकी आकांक्षा एक है, संपदा का ढेर लग जाए।
संपदा का कितना भी ढेर लग जाए, अंततः वह संपदा आपकी कब्र बनती है, अंततः सिवाय उसके नीचे दबकर मर जाने के और कुछ प्रयोजन नहीं है।
लेकिन एक नियम समझने का है कि मनुष्य की जीवन-ऊर्जा बिना खोज के नहीं रह सकती। वह जीवन-ऊर्जा का स्वभाव है--खोज, सर्च। अगर आप कुछ भी नहीं खोज रहे हैं आंतरिक, तो आपको बाहर कुछ न कुछ खोजना ही पड़ेगा।
यह खोज तो तभी बाहर की बंद हो सकती है, जब भीतर की खोज शुरू हो जाए। जैसे ही भीतर की तरफ चेतना मुड़नी शुरू होती है, बाहर की खोज अपने आप खो जाती है। खो जाती है इसलिए कि अब आपको बड़ी संपदा मिलनी शुरू हो गई। खो जाती है इसलिए कि अब असली संपदा मिलनी शुरू हो गई। खो जाती है इसलिए कि आपको खुद हंसी आएगी, मैं भी किन बच्चों के खेल में उलझा था!
धन बच्चों के खेल से ज्यादा नहीं है। लेकिन चूंकि बूढ़े भी उसे खेल रहे हैं, हमें खयाल नहीं आता। खयाल नहीं आता, क्योंकि बूढ़े भी हमारे बच्चों से ज्यादा नहीं हैं। सिर्फ शरीर से बूढ़ा हो जाना कोई बहुत मूल्य नहीं रखता। वृत्ति तो बचपन की ही बनी रहती है।
बच्चे डाक की टिकटें इकट्ठी कर रहे हैं, तितलियां इकट्ठी कर रहे हैं, कंकड़-पत्थर जोड़ रहे हैं। बूढ़े हंसते हैं कि क्या पागलपन कर रहे हो! लेकिन डाक की टिकट में और हजार रुपए के नोट में कोई फर्क है? दोनों ही छापाखाने का खेल है। और दोनों पर लगी मुहर केवल सामाजिक स्वीकृति है।
बच्चे टिकटें इकट्ठी कर रहे हैं, या सिगरेट के लेबल इकट्ठे कर रहे हैं; बूढ़े नोट इकट्ठे कर रहे हैं! बाकी फर्क नहीं है। यह जो बूढ़ा नोट इकट्ठे कर रहा है, यह बस शरीर से बूढ़ा हो गया है; भीतर इसका बचकानापन कायम है; भीतर यह अभी भी जुवेनाइल है, अभी भी बाल-बुद्धि है।
यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, इसकी बाल-बुद्धि नष्ट होती नहीं। यह मरते वक्त भी बाल-बुद्धि का ही मरता है। मरते वक्त भी उसकी चिंता पदार्थ के लिए होती है। जो समझदार है, वह शीघ्र ही पदार्थ की व्यर्थ दौड़ से अपने को मुक्त कर लेता है और परमात्मा की खोज में निकल जाता है।
पदार्थ की खोज बाहर, परमात्मा की खोज भीतर। पदार्थ की खोज दूसरों से छीनकर, परमात्मा की खोज अपने को निखारकर। पदार्थ की खोज में दूसरे का शोषण, परमात्मा की खोज में आत्मा की साधना।
और दो ही खोज हैं। और यह ध्यान रहे कि दोनों खोज कोई सोचता हो कि मैं एक साथ साधूं, तो वह गलती में है। इसका यह मतलब नहीं है कि आप संसार को छोड़कर भाग जाएं, तो ही परमात्मा को खोज सकते हैं। इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप परमात्मा को खोजें, तो आप दीन-दरिद्र, भिखारी ही हो जाएंगे। यह कोई मतलब नहीं है।
लेकिन जो परमात्मा को खोजता है, पदार्थ पर उसकी पकड़ नहीं रह जाती। पदार्थ उसके पास भी पड़ा हो, तो भी उसकी पकड़ नहीं रह जाती। पदार्थ उससे छिन भी जाए, तो वह छाती पीटकर रोता नहीं है। पदार्थ हो तो ठीक; पदार्थ न हो तो ठीक। वह उसका लक्ष्य नहीं है। और अगर भीतर की खोज के लिए सब छोड़ना पड़े, तो वह तैयार है। भीतर की खोज के लिए सब खो जाए, तो भी वह तैयार है। वह पूरा दांव बाहर के जगत का भीतर के लिए लगाने के लिए सदा उत्सुक है। उस क्षण की प्रतीक्षा में है, जब वह सब गंवा देगा, स्वयं को बचा लेगा।
जीसस ने कहा है, जो स्वयं को बचाना चाहते हों, उन्हें सब गंवाने की तैयारी चाहिए। और जो सब बचाने को उत्सुक हैं, वे स्मरण रखें कि सब तो बच जाएगा, लेकिन स्वयं खो जाएंगे।
जगत में एक सौदा है, या तो आप पदार्थ बचा लें अपने को बेचकर। तो आप जो भी कमाते हैं, वह अपने को बेच-बेच कर कमाते हैं। आत्मा के टुकड़े निकाल-निकालकर बेच देते हैं। तिजोरी भरती जाती है, आत्मा खाली होती जाती है। एक दिन तिजोरी पास में होती है, आप नहीं होते। यही समृद्ध व्यक्ति की दरिद्रता है, यही समृद्ध व्यक्ति की भीतरी दीनता है, भिखमंगापन है।
मैंने सुना है, एक भिखारी एक दिन अमेरिका के एक अरबपति एण्ड्रू कारनेगी के पास गया। सुबह ही सुबह जाकर उसने बड़ा शोरगुल मचाया।
तो एण्ड्रू कारनेगी खुद बाहर आया और उसने कहा कि इतना शोरगुल मचाते हो! और भीख मांगनी हो तो वक्त से मांगने आओ! अभी सूरज भी नहीं निकला है, अभी मैं सो रहा था।
उस भिखारी ने कहा, रुकिए; अगर मैं आपके व्यवसाय के संबंध में कोई सलाह दूं, आपको अच्छा लगेगा? एण्ड्रू कारनेगी ने कहा कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा। तुम सलाह दे भी क्या सकते हो मेरे व्यवसाय के संबंध में! तुम्हारा कोई अनुभव नहीं है।
उस भिखारी ने कहा, आप भी मत दें सलाह। आपको भी कोई अनुभव नहीं है। जब तक हम उत्पात न करें, तब तक कोई देता है? वक्त से आने पर आपसे मिलना ही मुश्किल था। सेक्रेटरी होता, पहरेदार होते। अभी बेवक्त आया हूं, तो सीधा आपसे मिलना हो गया। सलाह आप मुझको मत दें, मेरा पुराना धंधा है, और बपौती है, बाप-दादे भी यही करते रहे हैं।
एण्ड्रू कारनेगी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं खुश हुआ उस आदमी की बात से। मैंने उससे कहा कि तुम क्या चाहते हो? उस आदमी ने कहा कि मैं ऐसे मुफ्त कभी किसी से कुछ लेता नहीं। मैं कोई भिखारी नहीं हूं। लेकिन एक काम मैं कर सकता हूं, जो आप नहीं कर सकते। और अगर कुछ दांव पर लगाने की इच्छा हो, तो बोलिए!
एण्ड्रू कारनेगी ने लिखा है कि मुझे भी रस लगा कि वह क्या कह रहा है। कौन-सा काम है, जो वह कर सकता है और मैं नहीं कर सकता! तो मैंने उससे कहा, अच्छा, सौ डालर दांव पर। वह कौन-सा काम है? उसने कहा कि मैं एक सर्टिफिकेट ला सकता हूं कि मैं भिखारी हूं, पर आप सर्टिफिकेट नहीं ला सकते।
एण्ड्रू कार्नेगी ने अपने संस्मरण में लिखा है, सौ डालर मैंने उसे दिए, लेकिन फिर मैं सोचता रहा कि सर्टिफिकेट मैं ला सकूं या न ला सकूं, भिखारी तो मैं भी हूं। अरबों रुपए मेरे पास हैं, इससे क्या फर्क पड़ता है! भीख तो जारी है, अभी भी मांग तो जारी है, अभी भी मैं खोज तो रहा ही हूं। कोई मुझे सर्टिफिकेट नहीं देगा, क्योंकि अगर मैं भिखारी हूं, तो इस जगत में कोई भी समृद्ध नहीं है।
दस अरब रुपए एण्ड्रू कारनेगी छोड़कर मरा है। पर उसने लिखा है कि भिखारी तो मैं हूं, उस आदमी ने बात तो ठीक ही कही है। क्योंकि अभी भी मेरी मांग है, आकांक्षा है। मेरा भिक्षा का पात्र अभी भी हाथ में है। अभी भी मुझे कुछ मिल जाए, तो मैं सब खोने को तैयार हूं, कुछ मिल जाए तो अपने को और लगाने को तैयार हूं।
एण्ड्रू कारनेगी जब मरा, तो मरने के दो दिन पहले जो आदमी उसकी जीवन-कथा लिख रहा था, उससे उसने पूछा कि अगर तुम्हें परमात्मा यह मौका दे, तो तुम एण्ड्रू कारनेगी के सेक्रेटरी होकर उसकी आत्म-कथा लिखना पसंद करोगे? या तुम एण्ड्रू कारनेगी बनना पसंद करोगे और एण्ड्रू कार्नेगी तुम्हारी आत्म-कथा लिखे? तो उस सेक्रेटरी ने कहा, क्षमा करें; आप बुरा न मानें; एण्ड्रू कारनेगी बनना मैं कभी पसंद नहीं करूंगा। मैं ठीक हूं कि आपकी आत्म-कथा लिख रहा हूं। तो एण्ड्रू कारनेगी ने कहा, इसका क्या कारण है?
तो उसने कहा कि देखें, मैं आता हूं ग्यारह बजे; पांच बजे मेरी छुट्टी हो जाती है। आपके दफ्तर के क्लर्क आते हैं दस बजे, पांच बजे उनकी छुट्टी हो जाती है। चपरासी आता है नौ बजे, पांच बजे उसकी भी छुट्टी हो जाती है। आपको मैं सुबह सात बजे से दफ्तर में रात ग्यारह बजे तक देखता हूं। चपरासी से गई बीती हालत आपकी है। एण्ड्रू कार्नेगी भगवान मुझे कभी न बनाए। वह मैं नहीं होना चाहता।
एण्ड्रू कारनेगी ठीक ही कह रहा है कि मैं भी भिखारी तो हूं ही।
सब पाकर भी अगर आत्मा न मिले, तो भिखमंगेपन का अनुभव होगा। और सब खो जाए, आत्मा बच जाए, तो भीतर के सम्राट का पहली दफा अनुभव होता है।

आज इतना ही।

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