BHAGWAD GEETA
Geeta Darshan Vol-16 02
Second Discourse from the series of 8 discourses - Geeta Darshan Vol-16 by Osho. These discourses were given during MAR 30-APR 06 1974.
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अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।। 2।।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत।। 3।।
दैवी संपदायुक्त पुरुष के अन्य लक्षण हैं: अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव; तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर-भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु-भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव--ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
पहले कुछ प्रश्न।
पहला प्रश्न:
भगवान, आश्चर्य है कि जब आप बोलते हैं, तभी वाणी के माध्यम से हमें आपका शिखर थोड़ा दिखाई पड़ता है। ऐसा क्यों?
स्वभावतः, शब्द समझ में आते हैं; मौन समझ में नहीं आता। शब्द तो बुद्धि से भी पकड़ लिए जाते हैं, मौन को पकड़ने के लिए तो हृदय चाहिए। बुद्धि का शिक्षण है आपके पास; बुद्धि की धारणाओं की, बुद्धि के तर्क की, बुद्धि की भाषा की पकड़ है। मौन, शून्य, ध्यान की कोई पकड़ नहीं है।
जिसे आप समझ सकते हैं, उसे आप समझ लेते हैं। उसे भी पूरा समझते हैं, कहना कठिन है। क्योंकि जो केवल शब्द को ही समझता है और शून्य को नहीं, वह शब्द को भी पूरा नहीं समझ पाएगा।
साधारण बोलचाल के शब्द, साधारण जीवन और काम और चर्या के शब्द तो वस्तुओं के प्रतीक हैं। शास्त्रों के शब्द अनुभूतियों के प्रतीक हैं। और अनुभूतियां तो बड़ी सूक्ष्म हैं, आकार में उन्हें बांधा नहीं जा सकता; नाम देना संभव नहीं है; परिभाषाएं बनती नहीं हैं; फिर भी शब्द आपको सुनाई पड़ते हैं और सुनाई पड़ने से आपको लगता है कि समझ में आ गया।
थोड़ी-सी झलक मिलती है, तो उससे मुझसे संबंध बनता है। अगर मैं चुप बैठा हूं, तो फिर कोई संबंध नहीं बनता, सेतु खो जाता है। फिर जब मैं चुप बैठा हूं, तब आप अपनी ही बातों को सोचते हैं; मुझसे संबंध नहीं बनता, आपका अपने से ही संबंध रहता है। जब मैं बोल रहा हूं, तब थोड़ी देर को आपका मन बंद हो जाता है। आपका अपने मन से संबंध टूट जाता है और मुझसे संबंध जुड़ जाता है।
इसलिए सुनकर आपको जितनी शांति मिलती है, उतनी अगर मैं शांत बैठा हूं, तो मेरे पास शांत बैठकर न मिलेगी। मिलनी चाहिए ज्यादा। क्योंकि जब मैं मौन हूं, तब आप मेरे पास हैं ही नहीं। तब आप अपने पास हैं। आपका मन भीतर चल रहा है। आपका जो निरंतर का उपद्रव है, उसमें आप डूबे हैं। जब मैं बोल रहा हूं, तब बीच-बीच में आपका मन छिटक जाता है; आप थोड़े मेरे पास आ जाते हैं। उस क्षण में कुछ प्रतीतियां आपको हो सकती हैं।
लेकिन ध्यान रहे, जो मैं कह रहा हूं वह, शब्द में कहा जाने योग्य नहीं है। इसलिए शब्द से ही जो मुझे समझेंगे, वे नहीं समझ पाएंगे। और उनकी समझ अधकचरी होगी; नासमझी ज्यादा होगी उससे, समझदारी कम। मौन में भी मुझे समझने की कोशिश करनी होगी। स्वभावतः, शब्द की तैयारी है; जीवन भर शब्द आपने सीखा है, मौन आपने कभी सीखा नहीं। उसे भी सीखना होगा, उसके प्रशिक्षण से भी गुजरना होगा। ध्यान उसी का प्रशिक्षण है।
इसलिए आधा जोर मेरा मैं आपसे बोलता हूं उस पर है, और आधा जोर मेरा इस पर है कि आपके भीतर बोलने की प्रक्रिया बंद हो, आप ध्यानस्थ हों। जैसे-जैसे आप ध्यानस्थ होंगे, वैसे-वैसे ही मेरा न बोलना आपकी ज्यादा समझ में आएगा। और बोलने में भी जो आप समझेंगे, वह शब्दों के पार है, उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाएगी।
शब्द भी शून्य के संकेत बन जाते हैं, लेकिन उसके लिए हृदय की तैयारी चाहिए। और हम एक ही तरह का संबंध जानते हैं, एक ही कम्युनिकेशन, एक ही संवाद का रास्ता जानते हैं कि बोलें। भाषा के अतिरिक्त हमारे बीच कोई संबंध नहीं है। भाषा न हो, हमारे सब संबंध खो जाएं।
पश्चिम के मनसविद पति-पत्नियों को सलाह देते हैं कि जैसा प्राथमिक क्षणों में पति और पत्नी ने एक-दूसरे से प्रेम के शब्द बोले थे, उनको जारी रखना चाहिए।
स्वभावतः, पति-पत्नी उन्हें छोड़ देते हैं। उनकी जरूरत नहीं रह जाती। जब आप पहली बार किसी के प्रेम में पड़ते हैं, तो कुछ शब्द बोलते हैं, जो कि निरंतर साथ रहने पर, विवाहित हो जाने पर, फिजूल मालूम पड़ेंगे।
लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं, उन्हें दोहराते रहना चाहिए, अन्यथा प्रेम समाप्त हो जाएगा। क्योंकि शब्द ही हमारा कुल संबंध है। तो पति चाहे वह बीस वर्ष से पत्नी के साथ हो, तो भी उसे रोज दोहराना चाहिए कि मैं तेरे प्रेम में पागल हूं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, चाहे यह सत्य न भी मालूम पड़े, चाहे यह प्रतीति न भी होती हो, लेकिन प्रेम की भाव-भंगिमा, प्रेम के शब्द, प्रेम की मुद्राएं जारी रखनी चाहिए, अन्यथा संबंध टूट जाएगा।
अधिक पति-पत्नियों का जीवन उदास और ऊब से भर जाता है। उसका बहुत कारण यह नहीं है कि उनके जीवन का प्रेम समाप्त हो गया। प्रेम था, तो समाप्त होता भी नहीं। शब्द थे पहले, अब वे शब्द छूट गए। और निरंतर उन्हीं शब्दों को दोहराना बेहूदा मालूम पड़ता है। शब्द छूट गए, संबंध छूट गया।
मौन को तो कोई समझता नहीं। अगर कोई आपको प्रेम करता हो और कहे न, तो आप पकड़ ही न पाएंगे कि प्रेम करता है। किसी तरह प्रकट न करे--भाव-भंगिमा से, आंख के इशारे से, शब्दों से, ये सभी शब्द हैं--चुप रहे, तो आप कभी भी न पहचान पाएंगे कि कोई आपको प्रेम करता है। कहना पड़ेगा, प्रकट करना पड़ेगा।
और तब एक बड़े मजे की घटना घटती है। प्रेम न भी हो और अगर कोई कुशल हो प्रकट करने में, तो आपको लगेगा कि प्रेम है। बहुत बार, जो अभिव्यक्ति में कुशल है, वह प्रेमी बन जाता है। जरूरी नहीं है कि प्रेम हो। क्योंकि प्रेम को आप समझते नहीं, आप सिर्फ शब्दों को समझते हैं।
पति-पत्नी उदास होने लगते हैं, क्योंकि उन्हीं-उन्हीं शब्दों को क्या बार-बार कहना! फिर उनमें कुछ रस नहीं मालूम पड़ता। लेकिन शब्दों के खोते ही संबंध खो जाता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक नौकरी के लिए इंटरव्यू दे रहा था। और इंटरव्यू लेने वाले अफसर ने कहा कि क्या आप शादीशुदा हैं? उसने कहा कि नहीं, मैं वैसे ही दुखी हूं।
शादीशुदा आदमी की शक्ल दूर से ही पहचानी जा सकती है। एक ऊब घेर लेती है। और इस ऊब का कुल कारण इतना है कि जिन शब्दों के कारण प्रेम प्राथमिक रूप से संवादित हुआ था, वे शब्द आपने छोड़ दिए।
प्रेम भी समझ में नहीं आता शब्द के बिना, तो प्रार्थना तो कैसे समझ में आएगी, परमात्मा तो कैसे समझ में आएगा! क्योंकि प्रेम पहला चरण है, प्रार्थना दूसरा चरण है, परमात्मा अंतिम चरण है। फिर और गहरे चरण हैं; प्रेम, प्रार्थना, परमात्मा एक से ज्यादा गहरे हैं। परमात्मा को तो समझना बहुत ही कठिन है। उसके लिए भी हमें शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है।
इसलिए जब मैं बोलता हूं, तब आपको किसी शिखर की प्रतीति हो सकती है, लेकिन वह शिखर वास्तविक शिखर नहीं है। जिस दिन मैं चुप बैठा हूं आपके पास और आपको कुछ अनुभूति हो, उसी दिन जानना कि किसी वास्तविक की प्रतीति का पहला, पहला आघात, पहला संघात हुआ, पहली बिजली आपके भीतर कौंधी।
मेरे बोलने का सारा प्रयोजन ही इतना है कि कुछ लोगों को उस घड़ी के लिए तैयार कर लूं, जब मैं न बोलूं, तब भी वे समझ पाएं। और अगर कुछ लोग उसके लिए तैयार नहीं हो पाते, तो बोलना व्यर्थ गया जानना चाहिए।
बोलने की अपनी कोई सार्थकता नहीं है, सार्थकता तो मौन की ही है। बोलना ऐसे ही है, जैसे छोटे बच्चे को हम सिखाते हैं, ग गणेश का। ग का गणेश से कुछ लेना-देना नहीं है। ग गधे का भी उतना ही है। गणेश प्रतीक हैं; उसके सहारे हम ग को समझाते हैं। फिर समझ जाने के बाद गणेश को याद रखने की जरूरत नहीं है। और जब भी आप ग पढ़ें, तो बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं कि ग गणेश का। और अगर यह दोहराना पड़े, तो आप पढ़ ही न पाएंगे। तब तो कुछ पढ़ना संभव न होगा; तब आप पहली कक्षा के बाहर कभी जा ही न पाएंगे।
तो जो भी मैं कह रहा हूं, वह ग गणेश का है। सब कहा हुआ प्रतीक है। तैयारी इसकी करनी है कि वह छूट जाए और आप चुप होने में समर्थ हो जाएं, तब जो दर्शन होगा, वह दर्शन वास्तविक शिखर का है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, रात आपने कहा कि प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है और यह भी कहा कि प्रार्थना जीवन की शैली है। क्या इस विषय पर थोड़ा और प्रकाश डालेंगे? धर्म-साधना में प्रार्थना का क्या स्थान है?
प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है, शायद यह कहना बिलकुल ठीक नहीं है। ज्यादा ठीक होगा कहना कि प्रार्थना परमात्मा बना देती है। प्रार्थना करते-करते ऐसा नहीं होता कि आप परमात्मा को पा लेते हैं; प्रार्थना करते-करते ऐसा होता है कि आप खो जाते हैं और परमात्मा बचता है।
प्रार्थना की परिपूर्ण उपलब्धि आपके भीतर परमात्मा का आविष्कार है। प्रार्थना एक विधि है, जिससे हम अपने भीतर को निखारते हैं; वह एक छेनी है, जिससे हम पत्थर को तोड़ते हैं। और पत्थर में मूर्ति छिपी है। सिर्फ व्यर्थ पत्थर को तोड़कर अलग कर देना है, मूर्ति प्रकट हो जाएगी।
मूर्तिकार मूर्ति को बनाता नहीं, केवल उघाड़ता है। अनगढ़ पत्थर में छिपी जो पड़ी थी, मूर्तिकार उसे बाहर ले आता है। अनगढ़ पत्थर में जो-जो अंग व्यर्थ थे, गैर-जरूरी थे, उनको अलग करता है। इसे थोड़ा ठीक से समझें।
मूर्तिकार मूर्ति को बनाता नहीं है, केवल उघाड़ता है, निर्वस्त्र करता है; वह जो ढंका था, उसे अनढंका कर देता है। मूर्ति तो थी ही, उस पर कुछ अनावश्यक भी जुड़ा था, उस अनावश्यक को तोड़ता है।
प्रार्थना आप में जो अनावश्यक है, उसको तोड़ती है; जो अनिवार्य है, उसको बचाती है। जो आत्यंतिक है, वही शेष रह जाता है; और जो भी सांयोगिक है, वह हट जाता है।
आपके जीवन के सारे संबंध सांयोगिक हैं, कि आप पिता हैं, कि पति हैं, या पत्नी हैं, या बेटे हैं; कि आप अमीर हैं कि गरीब हैं; कि आप बच्चे हैं, कि जवान हैं, कि बूढ़े हैं; सब सांयोगिक है। यह आपका होना वास्तविक होना नहीं है, कि आप गोरे हैं, कि काले हैं; सुंदर हैं, कुरूप हैं। यह सब सांयोगिक है, यह ऊपर-ऊपर है; यह आपकी वास्तविकता नहीं है। यह सब छांट देगी प्रार्थना। केवल वही बच जाएगा, जो नहीं छांटा जा सकता। केवल वही बच जाएगा, जो आप जन्म के साथ हैं। केवल वही बच जाएगा, जो मृत्यु के बाद भी आपके साथ रहेगा।
तो प्रार्थना मृत्यु की तरह है। वह आपके भीतर सब छांट डालेगी, जो व्यर्थ है, कचरा है, जो संयोग था, जो स्वभाव नहीं है।
ये दो शब्द समझ लेने जैसे हैं, संयोग और स्वभाव। संयोग वह है, जो आपको रास्ते में मिल गया है। एक दिन आपके पास नहीं था, आज है, एक दिन फिर नहीं होगा। स्वभाव वह है, जो आपको रास्ते में नहीं मिला; जिसको लेकर ही आप रास्ते पर उतरे हैं। जो जीवन के पहले था, वह स्वभाव है; जीवन के बाद भी होगा, वह स्वभाव है। जो जन्म और मृत्यु के बीच में मिलता है, वह संयोग है। प्रार्थना की कला संयोग को काटना, स्वभाव को बचाना है।
जापान में झेन फकीर अपने शिष्यों को कहते हैं, एक ही चीज खोजने जैसी है, वह है ओरिजनल फेस, तुम्हारा मौलिक चेहरा। शिष्य सदियों से पूछते रहे हैं गुरुओं से, कि क्या अर्थ है आपका? मौलिक चेहरे का क्या अर्थ है? तो गुरुओं ने कहा है, जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तब तुम्हारा जो चेहरा था, या जब तुम मर जाओगे, तब जो शेष बचेगा, वह तुम्हारा मौलिक चेहरा है, वह स्वभाव है, वह ओरिजनल है।
प्रार्थना उसको बचा लेती है। और वही परमात्मा है। जो स्वभाव है, वही परमात्मा है। जिसे हमने कभी पाया नहीं, जिसे हमने कभी अर्जित नहीं किया और जिसे हम चाहें भी, तो खो न सकेंगे; जिसे खोने का कोई उपाय नहीं है; जो मेरी निजता है, जो मेरा होना है, मेरा बीइंग है; वही परमात्मा है और प्रार्थना उसकी तलाश है।
इसलिए मैंने कहा कि प्रार्थना परमात्मा को पहुंचने का मार्ग है। और यह भी कहा कि प्रार्थना जीवन की शैली है।
निश्चित ही, प्रार्थना कोई एक कोने में नहीं हो सकती। ऐसा नहीं हो सकता कि सुबह आप प्रार्थना कर लें और फिर भूल जाएं। ऐसा नहीं हो सकता कि एक दिन रविवार को चर्च में प्रार्थना कर लें, कि धार्मिक उत्सव के दिन प्रार्थना कर लें, और फिर विस्मरण कर दें। प्रार्थना कोई खंड नहीं हो सकती, प्रार्थना जीवन की शैली हो सकती है।
जीवन की शैली का अर्थ यह है कि आप प्रार्थनापूर्ण होंगे, तो आपके चौबीस घंटे प्रार्थनापूर्ण होंगे। प्रार्थना अगर होगी, तो श्वास जैसी होगी। आप ऐसा नहीं कह सकते कि सुबह श्वास लूंगा, दोपहर विश्राम करूंगा; कि जब फुरसत होगी तब श्वास ले लेंगे, बाकी काम बहुत हैं।
प्रार्थना श्वास जैसी बन जाए, तो शैली बनी। उसका अर्थ यह हुआ कि प्रार्थना करने की बात न हो, प्रार्थना आपके होने का ढंग हो जाए। उठें तो प्रार्थनापूर्ण हों; बैठें तो प्रार्थनापूर्ण हों; भोजन करें तो प्रार्थनापूर्ण हों।
हिंदू सदियों से भोजन के पहले ब्रह्म को स्मरण करता रहा है। वह भोजन को प्रार्थनापूर्ण बनाना है। स्वयं को भोजन दे, इसके पहले परमात्मा को देता रहा है। उसका अर्थ है कि संयोग के पहले स्वभाव स्मरणीय है। मैं गौण हूं; मेरे भीतर जो छिपा, सबके भीतर छिपा जो परमात्मा है, वह प्रथम है। तो सबसे पहले उसका स्मरण।
आप पूछेंगे कि उठना-बैठना कैसे प्रार्थनापूर्ण हो सकता है?
एक महाकवि रिल्के का जीवन मैं पढ़ता था। रिल्के के जीवन में उनके मित्रों ने उल्लेख किया है कि रिल्के अपना जूता भी उतारता था, तो इतने मैत्री-भाव से, कि आप अगर देखते, तो लगता कि रिल्के अपने जूते के साथ प्रेम में है। वह अपने कपड़े भी उतारता, तो इस भाव से, जैसे कपड़े जीवंत हों, जैसे कपड़ों की आत्मा हो। ऐसा नहीं कि कपड़े उतारे और फेंक दिए। वह कपड़ों को सम्हालता। वह घर में पैर रखता, तो ऐसे जैसे कि जीवंत घर में प्रवेश कर रहा हो; जैसे जरा भी बेहूदे ढंग से चलेगा, तो घर को चोट पहुंचेगी।
रिल्के फूल को पौधे से तोड़ नहीं सकता था। फूलों का प्रेमी था। फूलों के पास जाता, उनसे दो शब्द कहता, उनसे नमस्कार कर लेता, उनसे दो बातें भी कर लेता, लेकिन तोड़ना असंभव था।
हमें यह आदमी पागल लगेगा, क्योंकि जूते को क्या सदव्यवहार की जरूरत है! हम पूछेंगे कि जूते को क्या सदव्यवहार की जरूरत है! जूते को उतारकर फेंका जा सकता है। मकान में प्रवेश करते समय मंदिर में प्रवेश कर रहे हों, ऐसे भाव रखने की क्या जरूरत है! मकान मकान है; मंदिर मंदिर है।
लेकिन ध्यान रहे, हम जो भी करते हैं, वह हमें निर्मित करता है। और जिंदगी में बड़े-बड़े काम ज्यादा नहीं हैं। चौबीस घंटे तो छोटे-छोटे काम हैं। जूता उतारना है, भोजन करना है, कपड़े पहनना है, स्नान करना है, मकान में आना है, दुकान में जाना है। मंदिर तो आप कभी-कभी जाते हैं।
और ध्यान रहे, जो अपने मकान में निरंतर गैर-प्रार्थनापूर्ण ढंग से गया है, वह मंदिर में लाख कोशिश करे, प्रार्थनापूर्ण ढंग से नहीं जा सकेगा; उसकी आदत नहीं है। और जिसने अपने मकान को मकान समझा है, वह मंदिर को भी मकान से ज्यादा कैसे समझ सकता है! वस्तुतः मंदिर भी मकान ही है; नाम भर मंदिर है।
अगर मंदिर को मंदिर बनाना हो, तो हर मकान को मंदिर बनाना होगा, तभी यह संभव है। तब मकान मिट जाएंगे, तब सभी मंदिर हो जाएंगे। और जब आप हर मकान में मंदिर की तरह प्रवेश करेंगे, यह प्रवेश आपकी वृत्ति को बदलेगा। यह प्रवेश आपके भाव को बदलेगा। यह प्रवेश आपको निर्मित करेगा। फिर आप जहां भी जाएंगे, वह मंदिर हो, कि मस्जिद हो, कि गुरुद्वारा हो, कि साधारण मकान हो, कि एक झोपड़ा हो, कि महल हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सवाल मकानों का नहीं है, सवाल आपका है। सवाल कहां आप प्रवेश करते हैं, इसका नहीं; कौन प्रवेश करता है, इसका है।
अगर आपने जूते प्रेम से उतारे हैं, कपड़े सदभाव से रखे हैं, वस्तुओं से भी मैत्री का व्यवहार किया है, यह सारा व्यवहार आपको रूपांतरित करेगा। यह आपकी शैली बन जाएगी।
जीवन के प्रति प्रेम का जो व्यवहार है, उस शैली को मैं प्रार्थना कहता हूं। और अगर हम चौबीस घंटे उसमें डूब सकें, तो ही, तो ही जीवन में क्रांति हो सकती है। इसलिए प्रार्थना कोई खंड नहीं है, कोई अंश नहीं है, कि आपने किया और निपट गए।
लोग प्रार्थना कर रहे हैं, पर उनके जीवन में प्रार्थना का कोई सुर सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि प्रार्थना को उन्होंने एक काम बना लिया है। वे सुबह पांच मिनट बैठकर प्रार्थना कर लेते हैं। अगर जल्दी हो, तो पांच मिनट की प्रार्थना वे दो मिनट में कर लेते हैं। अगर फुरसत हो, कोई काम न हो, तो दस मिनट भी कर लेते हैं। लेकिन प्रार्थना उनके जीवन की आधारशिला नहीं है, हजार कामों में एक काम है।
और अगर प्रार्थना हजार कामों में एक काम है, तो प्रार्थना हो ही नहीं सकती। और परमात्मा अगर हजार खोजों में एक खोज है, तो उस खोज का कोई उपाय नहीं है। जिस दिन प्रार्थना ही जीवन की विधि हो जाए.।
कबीर को किसी ने पूछा है कि अब तुम सिद्ध हो गए, अब तुम यह कपड़ा बुनना बंद कर दो। क्योंकि कबीर जुलाहे थे और जुलाहे बने रहे। और तुम कपड़ा बुनने में लगे रहते हो, फिर कपड़ा बुन कर बेचने जाते हो बाजार में, तुम्हें समय कहां मिलता है? प्रार्थना-पूजा.!
तो कबीर ने कहा कि जो भी मैं कर रहा हूं, वह प्रार्थना है; जो भी मैं कर रहा हूं, वह पूजा है! जब मैं कपड़ा बुनता हूं, तो मैं परमात्मा को बुन रहा हूं। जब मैं कपड़ा बेचता हूं, तो मैं परमात्मा को बेच रहा हूं। जब मैं बाजार जा रहा हूं, तो मैं राम की तलाश में जा रहा हूं, जिसको कपड़े की जरूरत है। इसलिए अलग से प्रार्थना करने का क्या अर्थ है!
जब तक अलग से प्रार्थना करनी पड़े, तब तक जानना, प्रार्थना का स्वाद आपको लगा नहीं। जिस दिन प्रार्थना जीवन की शैली हो जाए; आप जो करें, वह प्रार्थनापूर्ण हो, प्रेयरफुल हो; जो करें, उसमें से परमात्मा की तरफ आपका बहाव हो; जो करें, उसमें परमात्मा का स्मरण हो; कुछ न भी कर रहे हों, तो उस न-होने के क्षण में भी परमात्मा की मौजूदगी हो। ऐसी सुरति से जो जीएगा, वह एक दिन परमात्मा तक पहुंच जाता है, ऐसा नहीं; एक दिन परमात्मा हो जाता है।
यह प्रार्थना का सतत प्रवाह, जैसे पानी गिरता हो प्रपात से, पत्थरों को काट देता है। कोमल सा जल, सख्त से सख्त पत्थर को तोड़ देता है और बहा देता है। ऐसे ही कोमल-सी प्रार्थना सतत बहती रहे जीवन में, तो आपका जो भी पथरीला हिस्सा है, वह जो भी व्यर्थ है, सांयोगिक है, वह जो भी कूड़ा-कर्कट जन्मों-जन्मों में इकट्ठा किया है, वह चाहे कितना ही कठोर हो, पाषाणवत हो, वह सब प्रार्थना की धार उसे बहा देगी। और केवल वही बच रहेगा, जो आपकी वास्तविकता है, जो आपकी आत्मा है। इसे पा लेना ही परमात्मा को पा लेना है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, रात आपने कहा कि परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो सकता है, लेकिन आपने यह भी कहा है कि अस्तित्व में पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं। क्या इसे स्पष्ट करिएगा?
अद्वैत स्थिति से पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है, द्वैत स्थिति से पीछे लौटने का सदा उपाय है। अद्वैत स्थिति अस्तित्व की स्थिति है; द्वैत स्थिति माया की स्थिति है। इसे थोड़ा समझ लें।
साधु हम किसे कहते हैं? वह जो असाधु से उलटा है। साधु की परिभाषा कौन करेगा? साधु की परिभाषा असाधु से होगी। अगर असाधु हिंसक है, तो साधु अहिंसक है। अगर असाधु चोर है, तो साधु अचोर है। अगर असाधु बुरा है, तो साधु भला है। अगर जगत में कोई असाधु न हो, तो साधु के होने की कोई जगह नहीं है। असाधु चाहिए साधु होने के लिए, द्वंद्व जरूरी है।
इसलिए साधुता, असाधुता दोनों ही माया के अंग हैं। अच्छा आदमी भी माया से भरा है, बुरा आदमी भी। दोनों ही अंधे हैं, क्योंकि दोनों ने एक हिस्से को चुना है दूसरे के विपरीत। और जिसके विपरीत हम लड़े हैं, उसमें गिर जाने का डर सदा है।
अगर आपके भीतर चोरी है.सबके भीतर चोरी है; सबके भीतर छीनने का मन है; सबके भीतर उसके मालिक हो जाने का मन है, जिसके हम मालिक नहीं हैं। तो चोरी की भावना सबके भीतर है; सबके भीतर चोर छिपा है। इस चोर से अगर आप राजी हो जाएं, इस चोर के साथ चलें, तो आप असाधु हो जाएंगे। इस चोर से आप लड़ें, इसकी आप न मानें, इसके विपरीत आप चलें, इससे उलटा चलना ही आपका ढंग हो जाए, तो आप साधु हो जाएंगे।
अगर आप साधु हो जाएंगे, तो भी चोर आपके भीतर छिपा है, मिट नहीं गया। सिर्फ आपने उसे दबाया है, उसकी मानी नहीं है। अगर आप चोर हो गए, तो भी आपके भीतर अचोर छिपा है।
जो कृष्ण कह रहे हैं दैवी संपदा, आसुरी संपदा, वे दोनों आपके भीतर हैं। तो जो चोरी कर रहा है, उसके भीतर भी अचोर छिपा है, वह भी नष्ट नहीं हो गया है, उसने उसे दबाया है। जब-जब चोर चोरी करने गया है, तब-तब उसके भीतर छिपे साधु ने कहा है, मत कर, बुरा है, पाप है। छोड़; इससे बच। लेकिन इन आवाजों को उसने अनसुना किया है; इन आवाजों के प्रति वह अपने को बधिर बना लिया है; इन आवाजों को उसने दबाया है; इन आवाजों की उसने उपेक्षा की है। पर ये वहां भीतर मौजूद हैं।
जो साधु हो गया है, अचोर हो गया है चोर को दबाकर, उसके भीतर भी चोर मौजूद है। वह भी कह रहा है कि कहां तू उलझा है! क्या तू कर रहा है! जीवन हाथ से जा रहा है। यह आत्मा-परमात्मा का पक्का नहीं है। स्वर्ग है या नहीं, निश्चित नहीं है। मृत्यु के बाद कोई बचता है, किसी ने लौटकर कहा नहीं है। यह सब कपोल-कल्पित हो सकता है। यह सब एक जागतिक गप्प हो सकती है। जिन्होंने कहा है, उन्होंने भी जीते-जी कहा है कि आत्मा अमर है। मरकर लौटकर उन्होंने भी नहीं कहा है। उनकी बात का भरोसा क्या है? और उनकी बातों में उलझकर तू जीवन का रस खो रहा है। ये लाख रुपए सामने पड़े हैं, कोई देखने वाला नहीं है, इन्हें तू उठा ले, इन्हें तू भोग ले।
साधु के भीतर भी चोर खड़ा है, असाधु के भीतर साधु खड़ा है; ये मिट नहीं गए हैं। और जो गणित की बात समझने की है, जो गहरे विज्ञान की बात समझने की है, वह यह कि जिसका हमने उपयोग किया है, वह थक जाता है। जैसे मेरे दो हाथ हैं; अगर मैं बाएं हाथ का उपयोग करूं दिनभर, तो बायां हाथ थक जाएगा; और दायां हाथ दिनभर विश्राम करेगा, ज्यादा शक्तिशाली होगा।
किसान जानते हैं कि अगर हमने इस वर्ष फसल एक जमीन पर ले ली है, तो वह थक गई जमीन। जो जमीन बंजर पड़ी रही, जिसका हमने उपयोग नहीं किया, वह थकी नहीं है, वह ऊर्जा से भरी है।
तो अगर आपने अपने भीतर के साधु का उपयोग किया है, तो असाधु शक्तिशाली है, साधु थक गया है। जिसका उपयोग करेंगे, वह थकेगा। जो नहीं थका है, जो बैठा विश्राम कर रहा है, वह शक्तिशाली है।
इसलिए मैं कहता हूं कि परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो सकता है, परम असाधु एक क्षण में परम साधु हो सकता है। दोनों तरह की घटनाएं घटती रही हैं। घटने का पीछे विज्ञान है। क्योंकि जिसको आपने पकड़ा है, वह थक गया, ऊब गया। उससे आप बेचैन हो गए हैं। उसको कर-कर के भी कुछ बहुत पाया नहीं है।
इसलिए बड़े मजे की बात है, भले लोग रात सपने बुरे देखते हैं; बुरे लोग बुरे सपने नहीं देखते, भले सपने देखते हैं। जो थका है, वह रात सोता है; जो नहीं थका, वह सक्रिय होता है। ब्रह्मचारी रात कामुकता के सपने देखता है; कामी रात सपने देखता है कि उसने बुद्ध से दीक्षा लेकर वह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गया है, वह संन्यस्त हो रहा है!
आपका सपना बताएगा आपको कि कौन-सा हिस्सा अनथका है, जो नींद में भी नहीं सोता। उसका मतलब है, बहुत सजग है। तो जो सजग है, शक्तिशाली है, उसका खतरा है, वह किसी भी क्षण में आपको पकड़ ले सकता है।
लेकिन निरंतर मैं कहता हूं, अस्तित्व से लौटने की कोई विधि, कोई व्यवस्था नहीं है। कोई पीछे नहीं लौटता अस्तित्व में। माया में तो पीछे लौटता है, क्योंकि द्वंद्व है।
इसलिए हमारे पास एक और शब्द है, वह शब्द साधु का पर्यायवाची नहीं है। वह शब्द है, संत। संत का अर्थ है, जो न साधु है न असाधु। जिसने दोनों का ही उपयोग करना बंद कर दिया है, जो दोनों में से किसी को भी नहीं चुनता; जो चुनावरहित, च्वाइसलेस है। जो न बाएं को चुनता है, न दाएं को। जो दोनों का साक्षी मात्र है। उसके भीतर चोर भी बोलता है, तो उसको भी सुनता है। उसके भीतर साधु बोलता है, उसको भी सुनता है। मानता किसी की भी नहीं। द्वंद्व को खड़ा नहीं होने देता। क्योंकि जब आप एक की मानेंगे, तो द्वंद्व खड़ा होगा। जब आप दोनों की सुनते हैं, मानते किसी की भी नहीं; जब आप दोनों के साक्षी बने रहते हैं, विटनेस बने रहते हैं; और आप कहते हैं, दोनों द्वंद्व खेल है, और ये दोनों की साजिश है, और ये दोनों साथी हैं.।
मैंने सुना है, एक सड़क पर एक आदमी बर्तन बेच रहा था। जो बर्तन बाजार में दो रुपए में मिलते हैं, वह उनके चार-चार रुपए दाम मांग रहा था। एक ठेले पर जोर से आवाज लगा रहा था कि बिलकुल सस्ते लुटा दिए, चार रुपए में। कोई आ भी नहीं रहा था। तभी अचानक बगल की गली से एक दूसरा आदमी आया एक ठेले पर बर्तन लिए और उसने कहा, क्यों लूट रहे हो लोगों को! चार रुपया? बर्तन तीन रुपए के हैं।
लोग ठहर गए। एक चिल्ला रहा था, चार रुपए! दूसरा कह रहा था कि लूटो मत; बर्तन तीन रुपए के हैं। भीड़ तीन रुपए वाली दुकान पर लग गई। सब बर्तन थोड़ी ही देर में खाली हो गए। दूसरा चिल्ला रहा है कि तू अपने समव्यवसायी को धोखा दे रहा है। तू क्यों मेरे पीछे पड़ा है? तू क्यों मेरे ग्राहक बिगाड़े दे रहा है?
थोड़ी ही देर बाद जब दूसरे के बर्तन समाप्त हो गए, वह ठेले को लेकर अंदर एक गली में चला गया। दूसरा भी पहुंचा और उसने कहा, तूने तो कमाल कर दिया भाई। फिर जिसके बर्तन बिलकुल नहीं बिके थे, आधे-आधे फिर उन्होंने ठेले पर रख लिए। वे दोनों सहयोगी हैं, साझेदार हैं। फिर दूसरी सड़क पर वही शुरू हो गया शोरगुल। एक चार रुपए चिल्ला रहा है। दूसरा कह रहा है कि तीन रुपए! मत लूटो लोगों को। वे तीन रुपए वाले बर्तन बिक रहे हैं। बाजार में दाम दो रुपए हैं।
वह जो आपके भीतर चोर है और जो आपके भीतर अचोर है, उन दोनों की कांस्पिरेसी है, दोनों साझीदार हैं। उनमें से किसी भी एक की आपने सुनी, तो दूसरे के जाल में भी आप गिरे।
यह जरा समझना कठिन है। और यहीं से धर्म की यात्रा शुरू होती है। नीति और धर्म का यही फर्क है।
नीति कहती है, भीतर जो साधु है, उसकी सुनो। धर्म कहता है, दोनों की मत सुनो; सुनो भी, तो साक्षी रहो। दोनों की मानो मत, क्योंकि उन दोनों की सांठ-गांठ है। वे दोनों एक ही धंधे में साझीदार हैं। एक की सुनी, तो दूसरे के चक्कर में तुम पड़े। जब तक एक तुम्हें चूसेगा, तब तक दूसरा विश्राम करेगा। जब तुम एक से थक जाओगे, दूसरा तुम पर हावी हो जाएगा। और ये दिन और रात की तरह अनंत जन्मों तक चल सकती है यह प्रक्रिया। यह रोज चल रही है।
सुबह आप भले आदमी होते हैं, दोपहर बुरे आदमी हो जाते हैं, सांझ भले आदमी हो जाते हैं। आप गलती में हैं अगर आप सोचते हैं कि दुनिया में साधु कटे हैं और असाधु अलग हैं। ऐसा नहीं है। सभी के साधु क्षण हैं, सभी के असाधु क्षण हैं।
सुबह-सुबह आप उठे हैं, तब साधु क्षण आप पर भारी होता है; भोर होती है, जीवन ताजा होता है, रातभर का विश्राम होता है, उपद्रव इतनी देर शांत रहे होते हैं, साधु क्षण होता है। भिखमंगे सुबह भीख इसीलिए मांगने आते हैं। सांझ को कोई उन्हें भीख देने वाला नहीं है। सुबह साधु क्षण को फुसलाया जा सकता है।
सुबह-सुबह एक आदमी उठा है, उसके सामने कोई भीख मांगता है, तो इनकार करना मुश्किल है। सांझ एक आदमी दिनभर दुकान में बेईमानी करके लौटा है। उससे दया पाने की आशा करनी कठिन है।
आपके भी क्षण होते हैं। दिन में आप कई बार साधु और कई बार असाधु होते हैं। और यह रूपांतर चलता रहता है। इस द्वंद्व के बाहर जाने का एक ही उपाय है कि हम दोनों में चुनना बंद कर दें।
संतत्व अस्तित्व है; साधुता, असाधुता माया है। संतत्व से कोई पीछे नहीं गिरता। क्योंकि जिसका साक्षी सध गया, उसके पीछे कुछ बचता ही नहीं, जहां गिर सके। द्वंद्व खो गया; स्वप्न टूट गया। वह जो षड्यंत्र था द्वैत का, वह शेष न रहा। गिरने की कोई जगह नहीं है। संत को गिरने की कोई जगह नहीं है। कुछ बचा नहीं, जहां वह गिर सके।
साधु गिर सकता है, इसलिए साधुता कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। खेल से ज्यादा नहीं है। संतत्व उपलब्धि है, लेकिन बड़ी दूभर है। क्योंकि पहली ही शर्त, चुनना नहीं। पहली ही शर्त, ज्ञान में ठहरना, जागरूकता में रुकना। पहली ही शर्त, साक्षी हो जाना।
अब हम सूत्र को लें।
दैवी संपदायुक्त पुरुष के अन्य लक्षण हैं: अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा, व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर-भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु-भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव--ये सब तो, हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
एक-एक लक्षण को समझें।
अहिंसा.।
अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को दुख पहुंचाने की वृत्ति का त्याग। हम सबको दूसरे को दुख पहुंचाने में रस आता है। दूसरे को दुखी देखकर हममें सुख का जन्म होता है। यह जरा कठिन लगेगा, क्योंकि हम कहेंगे, नहीं, ऐसा नहीं। दूसरे में दुख देखकर हममें सहानुभूति जन्मती है। लेकिन अगर आप अपनी सहानुभूति को भी थोड़ा-सा खोजेंगे, तो पाएंगे, उसमें रस है।
किसी के मकान में आग लग गई है, तब आप अपना स्वाध्याय करना। जब आप जाकर उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं कि बहुत बुरा हुआ, ऐसा नहीं होना चाहिए, तब अपना आप निरीक्षण करना कि भीतर कोई रस तो नहीं आ रहा है कि अपना मकान नहीं जला, दूसरे का जला! भीतर कोई रस तो नहीं आ रहा है कि हम सहानुभूति बताने की स्थिति में हैं और तुम सहानुभूति लेने की स्थिति में हो! कि अच्छा मौका मिला कि आज हमारा हाथ ऊपर है!
और वह आदमी अगर आपकी सहानुभूति न ले, तो आपको पता चल जाएगा। वह कह दे, कुछ हर्जा नहीं, बड़ा ही अच्छा हुआ कि मकान जल गया; सर्दी के दिन थे, और ताप मिल रहा है; बड़ा आनंद आ रहा है। तो आप दुखी घर लौटेंगे, क्योंकि उस आदमी ने आपको मौका नहीं दिया ऊपर चढ़ने का। एक मुफ्त अवसर मिला था, जहां आप दान कर लेते बिना कुछ दिए; जहां बिना कुछ बांटे आप सहानुभूति का सुख ले लेते, वह मौका उस आदमी ने नहीं दिया। आप उस आदमी के दुश्मन होकर घर लौटेंगे।
ध्यान रहे, अगर आप किसी को सहानुभूति दें और वह आपकी सहानुभूति न ले, तो आप सदा के लिए उसके दुश्मन हो जाएंगे, आप उसको कभी माफ न कर सकेंगे।
इसको पहचानना हो, तो दूसरे छोर से पहचानना आसान है। सभी को लगता है कि नहीं, यह बात ठीक नहीं। दूसरे के दुख में हमें दुख होता है। इसे छोड़कर दूसरे छोर से पहचानें, दूसरे के सुख में क्या आपको सुख होता है?
अगर दूसरे के सुख में सुख होता हो, तो ही दूसरे के दुख में दुख हो सकता है। और अगर दूसरे के सुख में पीड़ा होती है, तो गणित साफ है कि दूसरे के दुख में आपको सुख होगा, पीड़ा नहीं हो सकती। अगर दूसरे का सुख देखकर आप जलते हैं, तो दूसरे का दुख देखकर आप प्रफुल्लित होते होंगे। चाहे आपको भी पता न चलता हो, चाहे आप अपने को भी धोखा दे लेते हों, लेकिन भीतर आपको मजा आता होगा।
अखबार सुबह से उठाकर आप देखते हैं। अगर कोई उपद्रव न छपा हो, कहीं कोई हत्या न हुई हो, गोली न चली हो, तो आप थोड़ी देर में उसको ऐसा उदास पटक देते हैं। कहते हैं, कुछ भी नहीं है, कोई खबर ही नहीं! आप किस चीज की तलाश में हैं? आप कहीं दुख खोज रहे हैं, तो आपको लगता है, यह समाचार है, कुछ खबर है।
जब भी आप दुखी आदमी को देखते हैं, तो तुलनात्मक रूप से आप अनुभव करते हैं कि आप सुखी हैं। और न केवल साधारणजन, बल्कि नैतिक शिक्षक लोगों को समझाते हैं कि अगर तुम्हारा एक पैर टूट गया है, तो दुखी मत होओ। देखो, ऐसे लोग भी हैं, जिनके दो पैर टूटे हुए हैं। उनको देखो! तो निश्चित ही अगर आपका एक पैर टूट गया है, तो दो पैर टूटे आदमी को देखकर आपके जीवन में अकड़ आ जाएगी। आपको लगेगा कि कुछ हर्जा नहीं, ऐसा कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ गया है; दुनिया में और भी बुरी हालतें हैं।
नैतिक शिक्षक लोगों को समझाते हैं कि अपने से पीछे देखो; अपने से ज्यादा दुखी को देखो, तो तुम हमेशा सुखी अनुभव करोगे। अपने से सुखी को देखोगे, तो हमेशा दुखी अनुभव करोगे।
पर यह बात ही बुरी है। इसका मतलब हुआ कि दूसरे को दुखी देखकर आपको कुछ सुख मिल रहा है। यह कोई बड़ी नैतिक शिक्षा न हुई। और यह कोई भला संदेश न हुआ।
कृष्ण कहते हैं, दैवी संपदायुक्त व्यक्ति का लक्षण होगा अहिंसा।
अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को दुख न पहुंचाने की वृत्ति। और यह तभी हो सकता है, जब दूसरे के दुख में हमें सुख न हो। और यह तभी होगा, जब दूसरे के सुख में हमें सुख की थोड़ी-सी भाव-दशा बनने लगे।
तो अहिंसा कहां से शुरू करिएगा? पानी छानकर पीजिएगा, तो अहिंसा शुरू होगी? मांसाहार छोड़ने से अहिंसा शुरू होगी? ये सब गौण बातें हैं। छोड़ दें तो अच्छा है, लेकिन उतने से अहिंसा शुरू नहीं होती।
अहिंसा शुरू होती है, जब कोई सुखी हो, तो वहां सुख अनुभव करें। दूसरे के सुख को अपना उत्सव बनाएं। और जब कोई दुखी होता हो, तो दुख अनुभव करें; और दूसरे के दुख में समानुभूति में उतरें। दूसरे की जगह अपने को रखें, चाहे सुख हो, चाहे दुख।
दूसरे की जगह स्वयं को रखने की कला अहिंसा है। कोई सुखी है, तो उसकी जगह अपने को रखें, और उसके सुख को अनुभव करें, और प्रफुल्लित हो जाएं। कोई दुखी है, तो उसकी जगह अपने को रखें, और उसके दुख में लीन हो जाएं, जैसे वह दुख आप पर ही टूटा हो। तब आप पाएंगे कि जीवन में अहिंसा आनी शुरू हुई।
पानी छानकर पीना और मांसाहार छूट जाना बड़ी सरल बातें हैं, जो इस भाव-दशा के बाद अपने आप घट जाएंगी। लेकिन कोई कितना ही पानी छानकर पीए, सात बार छानकर पीए, तो भी अहिंसा नहीं होने वाली। मांसाहार बिलकुल न करे, तो भी अहिंसा होने वाली नहीं। ये सिर्फ आदतें हो जाती हैं। आदतों का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। बोधपूर्वक अहिंसा के सार-तत्व को पकड़ने की बात है।
मैं रोज देखता हूं, तो बड़ा जीवन विरोधों से भरा हुआ मालूम पड़ता है।
एक क्वेकर साधु पुरुष था। क्वेकर ईसाइयों का एक संप्रदाय है, जो अहिंसा में पक्का भरोसा करता है। जैनों जैसा संप्रदाय है ईसाइयों का। किसी को मारना नहीं। तो क्वेकर अपने हाथ में बंदूक या अस्त्र-शस्त्र भी नहीं रखते, अपने घर में भी नहीं रखते। लेकिन यह क्वेकर्स की मान्यता है कि जब किसी को मरना है, किसी की घड़ी आ गई, तो परमात्मा उसे खुद उठा लेगा, किसी को उसे मारने की जरूरत नहीं है। अगर अपनी घड़ी मरने की आ गई, तो परमात्मा हमें उठा लेगा। तो अस्त्र-शस्त्र का क्या प्रयोजन है!
लेकिन यह साधु पुरुष जब भी चर्च जाता--चर्च दूर था इसके गांव से--तो वह एक पिस्तौल लेकर जाता। और वह जाहिर अहिंसक था। तो मित्रों ने पूछा कि तुम भाग्य को मानते हो, अहिंसा को मानते हो, तुम किसी को मारना भी नहीं चाहते, तुम यह भी जानते हो कि जब तक परमात्मा की मरजी न हो, तब तक तुम्हें कोई मार नहीं सकता, तो तुम पिस्तौल लेकर किसलिए जा रहे हो?
उस क्वेकर ने क्या कहा! उसने कहा कि मैं अपने बचाव के लिए पिस्तौल लेकर नहीं जा रहा हूं। लेकिन इस पिस्तौल से अगर परमात्मा को किसी को मारना हो, तो यह मौजूद रहनी चाहिए। अगर मेरा उपयोग करना हो परमात्मा को.।
इस क्वेकर के घर में एक रात एक चोर घुस गया, तो उसने अपनी पिस्तौल उठा ली। चोर एक कोने में दबा हुआ खड़ा है। उस कोने की तरफ धीमा-सा प्रकाश है; रात का नीला प्रकाश थोड़ा-सा, पांच कैंडल का बल्ब है। वह कोने में छिपा खड़ा है। इसने कोने की तरफ पिस्तौल की और कहा कि मित्र, तुम्हें मैं नहीं मार रहा हूं; लेकिन जहां मैं गोली चला रहा हूं, तुम वहीं खड़े हो!
लेकिन यह हमें हंसी योग्य बात लगती है, लेकिन सारी दुनिया के अहिंसक इसी तरह के तर्क.। क्योंकि हिंसा तो बदलती नहीं, ऊपर से आचरण थोप लिया जाता है!
क्वेकर पक्के अहिंसक हैं। दूध भी नहीं पीते। कहते हैं, दूध खून है, आधा खून है, इसलिए पाप है। दूध से बनी कोई चीज नहीं लेते। क्योंकि वह एनिमल फुड है।
ये जो सोचने के ढंग हैं, इनमें से तरकीबें निकल आती हैं। अंडा खाते हैं, क्वेकर अंडा खाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, अंडा, जब तक बच्चा उसके बाहर नहीं आ गया, तब तक उसमें कोई जीवन नहीं है। अंडे को खाने में कोई पाप नहीं है। दूध पीने में पाप है, क्योंकि वह खून है।
और जीवन की सारी व्यवस्था हम इस ढंग की कर ले सकते हैं कि ऊपर से लगे कि सब अहिंसा है और भीतर सारी हिंसा जारी रहे।
जैनों ने अहिंसा का बड़ा प्रयोग किया, लेकिन उनकी सारी हिंसा धन को इकट्ठा करने में जुट गई। तो उन्होंने खेती-बाड़ी छोड़ दी, क्योंकि उसमें हिंसा है। पौधा काटेंगे, तो हिंसा होगी; इसलिए जैनों ने खेती-बाड़ी छोड़ दी। क्षत्रिय होने का उपाय न रहा उनका, क्योंकि वहां युद्ध में हिंसा होगी।
तो उनके व्यक्तित्व की सारी हिंसा, जो युद्ध में निकल सकती थी, खेती-बाड़ी में निकल सकती थी.।
आप जानकर हैरान होंगे कि किसान, माली भले लोग होते हैं, क्योंकि उनकी हिंसा निकल जाती है। एक किसान दिनभर काट रहा है जंगल में, लकड़ी काट रहा है, पौधे उखाड़ रहा है, तो उसकी जितनी क्रोध की वृत्ति है, वह सब इस उखाड़ने, तोड़ने में, मिटाने में निकल जाती है। वह भला आदमी होता है। किसान सरल आदमी होता है।
क्षत्रिय भी सरल आदमी होता है, क्योंकि युद्ध के मैदान पर लड़ लेता है। कुछ भी बचता नहीं, सब निकल जाता है। इसलिए क्षत्रिय भोले होते हैं। क्षत्रिय को आप जितनी आसानी से धोखा दे सकते हैं, दुकानदार को नहीं दे सकते, बनिया को नहीं दे सकते। होना चाहिए था उलटा; क्योंकि वह हिंसक है, दुष्ट है, उसको धोखा देना मुश्किल होना चाहिए। लेकिन ऐसी बात नहीं है। उसको धोखा देना बिलकुल आसान है।
मैंने सुना है, राजस्थान की एक कथा है, कि एक गांव का एक क्षत्रिय राजपूत बड़ा अकड़ीला आदमी था। वह अपने गांव में किसी को मूंछ सीधी नहीं करने देता था; सिर्फ अकेली अपनी मूंछ सीधी रखता था। दूसरा अगर उसके घर के सामने दूसरे गांव का भी आदमी निकले, तो कहता था, मूंछ नीची कर। इससे झगड़े, दंद-फंद हो जाते थे, तलवारें खिंच जाती थीं।
एक नया बनिया गांव में आया, जवान था। और वह भी मूंछ सीधी रखने का शौकीन था। क्षत्रिय के घर के सामने से निकला। उस क्षत्रिय ने कहा, मूंछ सीधी नहीं चल सकती। इस गांव में एक ही मूंछ सीधी रह सकती है; दो तलवारें एक म्यान में नहीं चलेंगी; तू मूंछ नीची कर ले। बनिये ने कहा, क्यों? मूंछ नीची नहीं होगी! तलवारें खिंच गईं।
बनिये ने कहा, एक दो मिनट रुक जा। क्योंकि मैं घर लौटकर जाकर अपने बच्चे और पत्नी को समाप्त कर आऊं; हो सकता है, मैं मर जाऊं; मेरे कारण मेरे बच्चे और पत्नी भूखे मरें, यह मुझे बरदाश्त के बाहर है। और मैं तुझे भी सलाह देता हूं, तू भी घर जा; बच्चे और पत्नी को खतम कर आ। क्योंकि हो सकता है, तू मर जाए।
क्षत्रिय ने कहा, बात बिलकुल ठीक है। वह घर गया। वह साफ करके आ गया। बनिया घर गया, वापस लौटकर उसने कहा, मैंने इरादा बदल दिया; मैंने मूंछ नीची कर ली।
यह जो बनिया है, हिंसक तो नहीं है, लेकिन इसकी हिंसा चालाकी बन जाएगी।
तो जैनों की सारी हिंसा धन को इकट्ठा करने में लगी; सब उपाय बंद हो गए। और धन सबसे सुविधापूर्ण साधन है दूसरे को दुख देने का। इससे ज्यादा आसान कोई तरकीब नहीं है। किसी की छाती में छुरा मारो, वह भी उपद्रव है, क्योंकि उसमें खुद को भी छुरा भोंका जाए, इसका डर सदा है। लेकिन धन चूस लो, दूसरा वैसे ही मर जाता है बिना छुरा मारे। और दूसरे को इससे ज्यादा दुखी करने की कोई सुविधापूर्ण व्यवस्था नहीं है कि तुम धन इकट्ठा कर लो। तुम धन इकट्ठा करते जाओ, दूसरा निर्धन होता जाए। वह मरता जाता है अपने आप। वह उसे इकट्ठा जहर देने की जरूरत नहीं है। एक-एक बूंद उसमें जहर उतरता जाता है। चारों तरफ सब सूख जाता है। सारा जीवन तुम शोषित कर लेते हो।
तो जैन बड़ी अहिंसा साधा। लेकिन वह अहिंसा चूंकि ऊपर-ऊपर थी, नैतिक थी; वह अहिंसा मौलिक आधार से नहीं जन्मी। वह महावीर की अहिंसा नहीं थी। इस जैन की, पीछे चलने वाले की अपने मन की, गणित की, अपनी बुद्धि की खोज थी। तो जटिल हो गया। और शोषण के रूप में अहिंसा दब गई और हिंसा व्यापक हो गई।
अहिंसा लक्षण है इस अर्थ में कि आप अपने मन से दूसरे को दुख देने का भाव विसर्जित कर दें। शुरू करना होगा दूसरे के सुख में सुख लेना। क्योंकि सुख लेना आसान है, दुख लेना कठिन है।
अपना ही दुख झेलना मुश्किल होता है, दूसरे का दुख झेलना तो और मुश्किल हो जाएगा। आप अपने ही दुख से काफी परेशान हैं, अगर हर एक का दुख लेने लगें और हर एक का दुख झेलने लगें; हर घर में आदमी मरेगा, अगर आप हर घर में बैठकर रोने लगें, जैसे आपका कोई मर गया हो--यह कठिन होगा। इससे शुरुआत नहीं हो सकती।
इसलिए शुरुआत का सूत्र है, दूसरे के सुख से शुरू करें। जब दूसरे के जीवन में फूल खिले, तो आपके जीवन में नाच आए। यह आसान होगा। हालांकि बहुत कठिन लगेगा, क्योंकि अभी हमें सुख देखकर तो बड़ी पीड़ा होती है; दुरूहतम मालूम होगा। लेकिन साधना दुरूह है। वह ऊंचे पहाड़ चढ़ने जैसा प्रयोग है। और यह ऊंचे से ऊंचा पहाड़ है, दूसरे के सुख में सुख अनुभव करना। तो आपका जीवन एक तरफ उत्सव से भर जाएगा।
और तब दूसरा प्रयोग है, दूसरे के दुख में दुख अनुभव करना, तब आपके जीवन में अंधकार भी भर जाएगा, प्रकाश और अंधकार दोनों। लेकिन चूंकि दूसरे के दुख में आप दुखी हो रहे हैं और दूसरे के सुख में आप सुखी हो रहे हैं, आपका साक्षीभाव दोनों में निर्मित हो सकेगा। आप दोनों अनुभव में डूबकर भी बाहर रह सकेंगे।
जब आपका खुद का दुख आता है, तो आप एकदम भीतर हो जाते हैं, आप उस दुख में लीन हो जाते हैं। जब आप दूसरे के दुख में डूबेंगे, तो आप कितने ही लीन हो जाएं, आपका आंतरिक आत्यंतिक हिस्सा बाहर खड़ा देखता रहेगा। जब आप पर सुख आता है, तो आप उसमें उत्तेजित हो जाते हैं। दूसरे के सुख में आप कितने ही डूबें, उत्तेजित न हो पाएंगे। वह एक धीमा, सौम्य उत्सव होगा, और आपके भीतर का साक्षी जगा रहेगा।
और ध्यान रहे, जो व्यक्ति दूसरे के सुख-दुख में साक्षी हो गया, वह धीरे-धीरे अपने सुख-दुख में भी साक्षी हो सकेगा। क्योंकि थोड़े ही समय में उसे पता चलेगा, सुख-दुख न तो मेरे हैं, न दूसरे के हैं। सुख-दुख घटनाएं हैं, जिनका मेरे और तेरे से कुछ लेना-देना नहीं है। सुख-दुख बाहर परिधि पर घटते हुए धूप-छाया के खेल हैं, जो मेरे आंतरिक केंद्र को छूते भी नहीं, जिनसे मैं अस्पर्शित रह जाता हूं।
सत्य.।
सत्य से इतना ही अर्थ नहीं है कि सच बोलना। सत्य से अर्थ है, प्रामाणिक होना, आथेंटिक होना। सत्य से अर्थ है, जैसे आप भीतर हैं, वैसे ही बाहर होना। लेकिन लोग सत्य का यह अर्थ नहीं लेते। लोग सत्य का अर्थ लेते हैं, सच बोलना। वह सिर्फ गौण हिस्सा है।
और सच बोलना.हमारा मन जैसा चालाक है, उसमें हम सच बोलने का भी दुरुपयोग कर लेते हैं। हम तब सच बोलते हैं, जब सच से दूसरे को चोट पहुंचती हो। और अगर दूसरे को चोट पहुंचाने का मौका हो, तो हम कहते हैं, हम झूठ कैसे बोल सकते हैं! सच बोलना ही पड़ेगा। खुद पर चोट पहुंचती हो, तो हमारे तर्क बदल जाते हैं।
मैंने सुना है, एक सुबह मुल्ला नसरुद्दीन अपनी छपरी में बैठा हुआ है। अचानक वर्षा का झोंका आया। गांव का जो मौलवी है, वह पानी की बूंदें पड़ीं तो तेजी से भागा। नसरुद्दीन ने कहा, रुको, यह परमात्मा का अपमान है। मौलवी भी घबड़ा गया; क्योंकि नसरुद्दीन वजनी आदमी था। और गांव में खबर हो जाए। और उससे कह रहा था, तो उसका कुछ मतलब होगा। उसने कहा, क्या मतलब? तो उसने कहा, जब परमात्मा वर्षा कर रहा है, तो तुम उसका अपमान कर रहे हो भागकर। धीमे-धीमे जाओ। मौलवी को भी बात समझ में आई। बेचारा धीरे-धीरे घर तक गया; भीग गया वर्षा में। बूढ़ा आदमी था, बुखार आ गया।
वह तीसरे दिन अपने बिस्तर में बुखार में बैठा हुआ था, तब उसने खिड़की से देखा कि वर्षा का फिर झोंका आया और नसरुद्दीन बाजार से भागा जा रहा है। तो उसने कहा, रुक, नसरुद्दीन! भूल गया? तो नसरुद्दीन रुका नहीं, भीतर भागता हुआ घर में आया और उसने कहा कि नहीं, भूला नहीं। इसीलिए भाग रहा हूं कि परमात्मा पानी गिरा रहा है, उसके पानी पर कहीं मेरे नापाक पैर न पड़ जाएं। गंदा आदमी हूं, नहाया भी नहीं। ये गंदे पैर उसके पानी पर न पड़ जाएं, इसीलिए तो भाग रहा हूं। भूला नहीं हूं।
बस, यही हमारे सबके तर्क हैं। जब खुद पर चोट पड़ती हो, तो हम झूठ को सच बना लेते हैं। जब दूसरे पर चोट पड़ती हो, तो हम सच का भी झूठ की तरह उपयोग करते हैं, हिंसक उपयोग करते हैं।
कुछ लोग सच बोलने में बड़ा रस लेते हैं, क्योंकि सच से काफी चोट पहुंचाई जा सकती है। तब मजे की बात यह है कि झूठ बोलकर भी हम दूसरे को नुकसान पहुंचाते हैं और सच बोलकर भी नुकसान पहुंचाते हैं। हमारा लक्ष्य सदा एक है; हिंसा हमारा लक्ष्य है।
इसलिए सत्य का अर्थ केवल सच बोलना नहीं है। सत्य का अर्थ है, प्रामाणिक होना। सत्य का अर्थ है कि जैसा मैं भीतर हूं, वैसा ही बाहर होना, परिस्थिति की बिना फिक्र किए कि क्या होगा परिणाम। इसे थोड़ा समझ लें।
जो व्यक्ति परिणाम की चिंता करता है, वह सत्य नहीं हो सकता। क्योंकि कई बार अच्छे परिणाम झूठ से आ सकते हैं। कम से कम जहां तक हमें दिखाई पड़ता है, वहां तक आ सकते हैं।
एक आदमी को फांसी लग रही है, आप झूठ बोल दें, बच सकता है वह आदमी। झूठ बोलने से, आपके देखने में तो जहां तक मनुष्य की बुद्धि जाती है, यह परिणाम हो रहा है कि एक आदमी का जीवन बच रहा है। अगर परिणाम की आप चिंता करेंगे, तो सौ में निन्यानबे मौकों पर लगेगा कि झूठ से अच्छे परिणाम आ सकते हैं, सत्य से बुरे परिणाम आ सकते हैं।
सत्य का अर्थ है कि परिणाम की चिंता ही मत करना। जैसा हो, उसे बेशर्त, बिना आगे-पीछे देखे, वैसा ही रख देना। भविष्य को सोचना ही मत, फल को सोचना ही मत।
कृष्ण का बहुत जोर है इस बात पर कि जो फल को सोचेगा, वह भटक जाएगा। जैसा हो, वैसा उसे प्रकट कर देना; अपने को बाहर-भीतर एक-सा कर देना, अपने को उघाड़ देना, सत्य है। और वह दैवी संपदा का अनिवार्य हिस्सा है।
अक्रोध.।
साधारणतः आप सोचते हैं कि कभी-कभी आप क्रोध करते हैं। यह बात झूठ है, यह बात बिलकुल ही झूठ है। आप चौबीस घंटे क्रोध में रहते हैं। कभी-कभी क्रोध उबलता है और कभी-कभी कुनकुना रहता है, बस। कुनकुने की वजह से पता नहीं चलता। क्योंकि उसकी आपको आदत है। उतने में तो आप जी ही रहे हैं सदा से।
आप अपने को पहचानें, निरीक्षण करें, तो आपको समझ में आएगा कि चौबीस घंटे आप में हल्का-सा क्रोध बना रहता है। कभी इस चीज के प्रति, कभी उस चीज के प्रति। कभी कोई भी कारण न हो, तो अकारण। अगर आपको चौबीस घंटे कमरे में बंद कर दिया जाए, जहां कोई कारण न दे आपको क्रोधित होने का, तो भी आप क्रोधित होंगे। तो आप इस पर ही क्रोधित होने लगेंगे कि कुछ भी नहीं हो रहा है; कोई भी नहीं है! कि मैं यहां बैठा क्या कर रहा हूं! कि मुझे यहां क्यों बिठाया गया है! अकेले में क्यों छोड़ा गया है!
क्रोध आपकी दशा है। हम सब सोचते हैं कि क्रोध घटना है। इसलिए हम सोचते हैं, क्रोध कभी-कभी आता है, यह कोई ऐसी बात नहीं है कि सदा है। लेकिन क्रोध सदा है। कभी-कभी कोई चिनगारी डाल देता है, तो आपकी बारूद भभक उठती है। लेकिन बारूद सदा है। बारूद न हो, तो चिनगारी डालने से भी भभकेगी नहीं।
अक्रोध का अर्थ है, चौबीस घंटे एक शांत स्थिति। यह तभी हो सकता है, जब आप दूसरे को दोष देना बंद कर दें।
क्रोध का तर्क क्या है? क्रोध का तर्क एक ही है कि दूसरा भूल-चूक कर रहा है, दूसरा गलत कर रहा है। दूसरा ऐसा कर रहा है, जैसा उसको नहीं करना चाहिए। इससे आप भभकते हैं।
अक्रोध की भाव-दशा तब निर्मित होगी, जब आप समझेंगे कि दूसरा जो कर रहा है, वह वही कर सकता है। दूसरा उसको इससे अन्यथा करने का उपाय नहीं है। अगर एक आदमी आपको गाली दे रहा है, तो आप सोचते हैं, इसे गाली नहीं देनी चाहिए। यह आदमी गलती कर रहा है, बुरा कर रहा है। इसलिए क्रोध भभकता है।
अगर आप इस आदमी का पूरा अनंत जीवन जानते हों अतीत का, तो आप कहेंगे, यह गाली इसमें ऐसे ही लग रही है, जैसे किसी पौधे में फूल लगते हैं। वे बीज में ही छिपे थे। बढ़ते-बढ़ते-बढ़ते वृक्ष बड़ा होता है, फिर फूल आते हैं। वे फूल कड़वे होते हैं, कि सुगंधित होते हैं, कि सुंदर होते हैं, कि कुरूप होते हैं, यह बीज में ही छिपे थे।
ये गालियां इस आदमी में लग रही हैं, इसका मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है। यह इस आदमी का स्वभाव है, यह इस आदमी के जीवन का ढंग है, यह इसकी उपलब्धि है कि गालियां बक रहा है। मैं सिर्फ बहाना हूं। अगर मैं यहां न होता, तो कोई दूसरा इसकी गाली खाता; वह भी नहीं होता, तो कोई तीसरा गाली खाता; कोई भी नहीं होता, तो यह शून्य में गाली देता; लेकिन गाली देता। यह गाली इसके कर्मों की अभिव्यक्ति है।
अक्रोध तब पैदा होगा, जब आप समझेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति में चल रहा है। आपसे कुछ लेना-देना नहीं है। आपसे रास्ते पर मिलना हो जाता है, इससे आप अकारण परेशान न हों।
एक झेन फकीर हुआ, रिंझाई। वह अपने शिष्यों को नाव में ले जाता था। और जब वह नाव को ले जाता, तो एक किनारे पर उसने एक मल्लाह रख छोड़ा था। एक झाड़ी की आड़ में वह मल्लाह एक नाव को छिपाए रखता। जब इसकी नाव निकलती, तो खाली नाव को वह झाड़ी के भीतर से धक्का देता। वह खाली नाव आकर रिंझाई की नाव को टकरा जाती। कोई भी कुछ नहीं बोलता, क्योंकि खाली नाव से क्या गाली बकनी, क्या झगड़ा करना। शिष्य भी हिल-डुलकर बैठकर रह जाते। फिर दुबारा कभी वह मल्लाह नाव में बैठकर और टक्कर देता; तब वे सारे शिष्य उबल पड़ते।
तो रिंझाई कहता कि एक दफे पहले भी यह हुआ था, जब नाव हमसे टकरा गई थी, तुम सब चुप रहे थे। वे कहते, तब यह आदमी उसमें नहीं था। और खाली नाव को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। खाली नाव से क्या कहना! संयोग की बात है। लेकिन यह आदमी बैठा है, यह रिस्पांसिबल है, यह जिम्मेवार है, इससे झगड़ा किया जा सकता है। लेकिन रिंझाई कहता कि आदमी बैठा हो, या न बैठा हो, यह संयोग की बात है कि नाव टकरा गई। और तुम दोनों स्थितियों में एक-सा व्यवहार करो, तो अक्रोध जन्मेगा!
कोई व्यक्ति क्या कर रहा है, वह उसकी अपनी नियति है। तुम अकारण उसे अपने ऊपर मत लो। तुम व्यर्थ ही मत समझो कि सारी दुनिया तुम पर हंस रही है; कि सारी दुनिया तुम्हारे संबंध में ही फुस-फुस कर रही है; कि सारे लोग तुम्हारे संबंध में सोच रहे हैं, कि तुम्हें कैसे बरबाद कर दें; कि सब तुम्हारे दुश्मन हैं। किसी को तुम्हारे लिए इतनी फुरसत नहीं है। सब अपने-अपने गोरखधंधे में लगे हैं। तुम अकारण बीच में खड़े हो। तुम व्यर्थ ही बीच में चीजें झेल लेते हो।
जैसे ही कोई व्यक्ति इस बात को ठीक से देखने लगता है कि हर व्यक्ति अपने ढंग से जा रहा है, और जो भी उसमें हो रहा है, वही उसमें हो सकता है, तब एक स्वीकृति पैदा होती है; तब क्रोध नहीं जन्मता; तब तथाता का भाव निर्मित होता है। तब हम कहते हैं कि जो होना था, वह हुआ है। इस व्यक्ति से जो हो सकता था, इसने किया है। तब अक्रोध।
अक्रोध बहुमूल्य है; दैवी संपदा में बड़ा मूल्यवान है। और ये दैवी संपदा के जो सूत्र हैं, इनमें से एक सध जाए, तो दूसरे अपने आप सध जाते हैं। इसलिए ऐसा मत सोचना कि एक-एक को साधना पड़ेगा। एक भी सध जाए, तो उसके पीछे दूसरे गुण अपने आप चले आते हैं, क्योंकि वे सब गुण संयुक्त हैं।
जो आदमी अक्रोध साधेगा, उसकी अहिंसा अपने आप सध जाएगी। जो आदमी अक्रोध साधेगा, वह अभय हो जाएगा। क्योंकि जो क्रोध ही नहीं करता, अब उसको भयभीत कौन कर सकता है? अगर वह भयभीत हो सकता था, तो क्रोधित होता। क्योंकि क्रोध भयभीत हो जाने के बाद अपनी रक्षा का उपाय है; वह डिफेंस मेजर है। उसके द्वारा हम अपना बल जगाते हैं और तत्पर हो जाते हैं कि आ जाओ, हम निपट लें। वह भय की सुरक्षा है।
और जो आदमी अक्रोध को उपलब्ध हो गया, जो कहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति से चल रहा है, मैं भी अपनी नियति से चल रहा हूं, वह क्यों छिपाएगा कुछ! किससे छिपाना है? परमात्मा के सामने मैं उघड़ा हुआ हूं। और यहां किससे क्या छिपाना है! किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। तब वह आदमी खुली किताब की तरह हो जाएगा।
ये सब गुण संयुक्त हैं। चर्चा के लिए अलग-अलग ले लिए हैं। इससे आप ऐसा मत समझना कि ये अलग-अलग हैं। और आपको इतने गुण साधने पड़ेंगे! आप नाहक घबड़ा जाएंगे। आप सोचेंगे, इतने गुण! अपने बस के बाहर है। और इतनी छोटी जिंदगी! यह होने वाला नहीं है। इनमें से एक साध लें, और आप पाएंगे कि बाकी उनके पीछे आने शुरू हो गए हैं।
त्याग.।
एक तो रस है भोग का, जिसे हम जानते हैं। एक और रस है त्याग का, जिसे हम नहीं जानते हैं। या शायद कभी-कभी कोई क्षण में हम जानते हैं। कभी आपने देखा; जब आप किसी को कुछ देते हैं, तो एक खुशी आपको पकड़ लेती है। किसी को सहारा दे देते हैं, कोई रास्ते पर गिर रहा हो और आप हाथ बढ़ा देते हैं; एक अहोभाव, एक आनंद की थिरक आप में समा जाती है। हृदय में कुछ संगीत बजने लगता है।
जब भी आप कुछ छोड़ते हैं, तभी आपके भीतर कुछ फैलता है। आप थोड़े से विराट हो जाते हैं। इसकी झलकें सबको मिलती हैं। उन झलकों को अगर हम समाहित करते जाएं, उन झलकों को अगर हम धीरे-धीरे विकसित करते जाएं, उनका अभ्यास गहन होने लगे, वे झलकें हमारे जीवन का पथ बन जाएं, तो उस पथ का नाम त्याग है।
त्याग का अर्थ है, देने का सुख, छोड़ने का सुख। और यह कोई कल्पना नहीं है, यह कोई दार्शनिक बात नहीं है। छोड़ते ही सुख मिलता है। पर हम एक ही सुख जानते हैं, पकड़ने का सुख। और मजे की बात यह है कि हमने कभी दोनों की तुलना भी नहीं की है।
दो फकीरों के संबंध में मैंने सुना है। उनमें बड़ा विवाद था। विवाद एक छोटी-सी बात को लेकर था कि एक फकीर कुछ पैसे पास रखता था, और एक फकीर कुछ भी पैसे पास नहीं रखता था। जो पास पैसे नहीं रखता था, वह कहता था, छोड़ने में आनंद है, पकड़ने में दुख है। जो पास पैसे रखता था, वह कहता था कि थोड़ा तो पकड़ना ही पड़े, नहीं तो बड़ा दुख होता है।
फिर वे एक नदी के किनारे पहुंचे। सांझ ढल गई, माझी नाव छोड़ने को था, उसने पैसे मांगे। इस तरफ रुकना खतरनाक था, जंगली जानवरों का डर था, उस तरफ जाना जरूरी था। तो जिसके पास पैसे थे, और जो पैसे का आग्रही था, उसने कहा, अब बोलो; अब तुम्हारा त्याग चलाओ! अब तुम्हारे पास जो त्याग की संपदा है, उसका उपयोग करो; हमें उस तरफ जाना है। पैसे मेरे पास हैं, अगर तुमसे कुछ न बन पड़े, तो मैं पैसे देता हूं, हम उस तरफ हो जाते हैं।
फकीर मुस्कुराता रहा, वह जो त्याग का पक्षपाती था। फिर जिसके पास पैसे थे, उसने पैसे दिए, वे नदी पार किए। नदी पार करके जिसके पास पैसे थे, उसने कहा, अब बोलो!
उस पहले फकीर ने कहा, लेकिन त्याग से ही हम पार हुए। तुम पैसे छोड़ सके, तुम पैसे दे सके, इसीलिए हम पार हुए हैं। पैसे होने से हम पार नहीं हुए हैं; पैसा छोड़ने से ही पार हुए हैं। और अगर मैं पार नहीं हो रहा था, तो उसका कारण यह नहीं था कि मेरा त्याग बाधा था; मेरे पास और त्याग की सुविधा न थी, और छोड़ने को नहीं था; बस। तकलीफ मेरे त्याग की नहीं थी, त्याग मेरा कम पड़ रहा था, और मेरे पास छोड़ने को नहीं था; थोड़ा और त्याग करने की जरूरत थी। तुम कर सके। लेकिन सही मैं ही हूं। हम छोड़ने से इस पार आए।
लेकिन हमें एक ही अनुभव है, इकट्ठा करने का। जैसा मैं देखता हूं। देखता हूं, जैसे-जैसे लोगों का धन बढ़ता है, वे दुखी होते जाते हैं। तब वे सोचते हैं कि शायद धन में दुख है। और तब शास्त्रों में उनको सहारा भी मिल जाता है कि धन से कोई सुख नहीं मिलता।
मेरी धारणा बिलकुल भिन्न है। धन से सुख मिल सकता है, अगर धन त्यागने की क्षमता हो। धन से दुख मिलता है, अगर पकड़े बैठे रहो। धन से कोई दुख नहीं पाता, कंजूसी से लोग दुख पाते हैं। धन क्यों दुख देगा? लेकिन धन छोड़ नहीं पाते।
और मजबूरी यह है कि जितना ज्यादा हो, उतना ही छोड़ना मुश्किल हो जाता है। जिसके पास एक पैसा है, वह एक पैसा दान दे सकता है; लेकिन जिसके पास एक करोड़ रुपया हो, वह एक करोड़ दान नहीं दे सकता। हालांकि दोनों के दान बराबर हैं। क्योंकि एक पैसा उसकी कुल संपदा है। औसत बराबर है। एक करोड़ दूसरे की कुल संपदा है। लेकिन जिसके पास एक पैसा है, वह पूरा दान दे सकता है; जिसके पास एक करोड़ रुपया है, वह पूरा दान नहीं दे सकता।
जितना ज्यादा धन हो, उतनी ही पकड़ने की वृत्ति बढ़ती है। जितना हम पकड़ लेते हैं, उतना ही और पकड़ना चाहते हैं। फिर दुखी होते हैं। अगर आज अमेरिका दुखी है, तो धन के कारण नहीं, धन की पकड़ के कारण।
इस फर्क को आप ठीक से समझ लेना। धन से कोई दुखी नहीं होता। और थोड़ी अकल हो, तो धन से आदमी सुखी हो सकता है। और बेअकल आदमी हो, तो निर्धन होकर भी दुखी होता है, धनी होकर भी दुखी होता है।
निर्धन का दुख समझ में आता है। मगर मजे की बात यह है कि निर्धन का भी दुख निर्धनता का दुख नहीं है। उसका भी दुख यही है कि पकड़ने को कुछ भी नहीं है। हाथ खाली है। धनी का दुख यह है कि हाथ भर गए हैं, छोड़ने की हिम्मत नहीं है।
जो भी छोड़ने की कला सीख लेता है--त्याग उस कला का नाम है--जीवन के आनंद के द्वार उसके लिए निरंतर खुलते जाते हैं। जितना ज्यादा छोड़ सकता है, उतना ही ज्यादा हलका होता जाता है। जितना छोड़ सकता है, उतनी ही आत्मा विकसित होती है। क्योंकि जितना हम पकड़ते हैं, उतने पदार्थ हम पर इकट्ठे होते जाते हैं, उसमें हम दब जाते हैं। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे ढेर लग जाता है वस्तुओं का; हमारा कुछ पता ही नहीं रहता कि हम कहां हैं!
त्याग दैवी संपदा का हिस्सा है।
शांति और किसी की भी निंदादि न करना.।
शांत होना हम भी चाहते हैं। लेकिन हम तभी शांत होना चाहते हैं, जब हम अशांत होते हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, बड़े अशांत हैं; शांति का कुछ रास्ता बताइए। ये लोग वे हैं, जिनके घर में जब आग लग जाए, तब वे कुआं खोदना शुरू करते हैं। इनका घर बचेगा नहीं। कुआं पहले खोदना पड़ता है।
जब आप पूरी तरह अशांत हैं, तब शांत होना बहुत मुश्किल है। लेकिन जब आप अशांत नहीं हैं, तब शांत होना बहुत आसान है। और जब आप अशांत नहीं हैं, तब अगर आप शांत होना सीख लें, तो अशांत होने की कोई जरूरत ही न होगी। घर में कुआं हो, तो शायद आग लगेगी ही नहीं। लग भी जाए, तो बुझाई जा सकती है।
तो आप जब अशांत हो जाएं, तब शांति की तलाश मत करें। यह तलाश ऐसी नहीं होनी चाहिए कि जब बुखार आ जाए, तब आप चिकित्सक की खोज पर चले जाते हैं। अब तो चिकित्साशास्त्री भी कहते हैं कि यह ढंग गलत है, आदमी जब बीमार हो जाए, तब उसका इलाज करना; बड़ी देर कर दी।
तो रूस में उन्होंने एक नई व्यवस्था ईजाद की है, वह यह कि डाक्टरों को तनख्वाह मिलती है बीमारों का इलाज करने के लिए नहीं, अपने मरीजों को बीमार न पड़ने देने के लिए। रूस में उन्होंने व्यवस्था बदली और सारी दुनिया में वह व्यवस्था आज नहीं कल हो ही जानी चाहिए।
तो हर डाक्टर के हिस्से में मरीज हैं। मरीज का मतलब वे बीमार नहीं हैं; लेकिन उनको बीमार नहीं होने देना है। तो उनको चेक करते रहना है, उनकी फिक्र करते रहना है, बीमारी के पहले इलाज कर देना है। क्योंकि बीमारी के बाद इलाज करना अत्यंत जटिल हो जाता है। बीमारी अलग परेशान करती है, इलाज अलग परेशान करता है।
कुछ लोग बीमारी से मरते हैं, ज्यादा लोग डाक्टरी से मरते हैं। किसी तरह बीमारी से बच गए, तो फिर डाक्टर से बचना बहुत मुश्किल है। औषधियां! फिर जहर को काटना हो, तो और जहर डालना पड़ता है। सारी औषधियां जहर हैं। फिर दो जहरों की लड़ाई आपके भीतर होती है, और आप केवल कुरुक्षेत्र हो जाते हैं। आप कुछ नहीं रह जाते फिर, दो जहर लड़ते हैं। फिर आपकी जो मट्टी पलीद उन दो जहरों के लड़ने में होती है, आप स्वस्थ भी हो जाएंगे, तो भी कभी स्वस्थ नहीं हो पाएंगे। बीमारी भी चली जाएगी, तो आपको मुर्दा छोड़ जाएगी। आप मरे हुए जीएंगे।
जब आप अशांत हो जाते हैं, तब शांत होना कठिन है। लेकिन इतनी देर रुकने की जरूरत क्या है? शांति तो साधी जा सकती है। शांति को तो जीवन का उठते-बैठते, रोजमर्रा का भोजन बनाया जा सकता है।
इसको ध्यान रखें कि आपको शांत रहना है। घर लौटे हैं, तो दरवाजे पर दो क्षण रुक जाएं, क्योंकि पत्नी कुछ कहेगी। वह दिन भर से अशांत है, वह अशांति आप पर फेंकेगी। दो क्षण रुक जाएं, तैयार हो जाएं। तैयारी का मतलब यह कि मैं शांत रहूंगा, चाहे पत्नी कुछ भी कहे; मैं इसको नाटक से ज्यादा नहीं समझूंगा। दया करूंगा, क्योंकि बेचारी परेशान है।
मुल्ला नसरुद्दीन की लड़की का विवाह हुआ। तो लड़की दहाड़ मार-मार कर, छाती पीट-पीट कर रो रही थी। सब समझा रहे थे, वह सुन नहीं रही थी। फिर मुल्ला उसके पास गया। उसने कहा, बेटी, तू मत रो; तुझे ले जाने वाले रोएंगे। तू मेरी बेटी है; तू बिलकुल मत घबड़ा; थोड़ी देर की बात है। थोड़ा धैर्य रख!
जीवन में चारों तरफ विक्षिप्त लोग हैं, दुखी लोग हैं। वे अपने दुख और विक्षिप्तता को फेंक रहे हैं। फेंकने के सिवाय उनके पास जीने का कोई ढंग नहीं है, उपाय नहीं है। फेंकते हैं, तो थोड़ा जी लेते हैं। यह उनकी कैथार्सिस है। अगर आप उसके शिकार हो जाते हैं, अगर आप उससे उद्विग्न होते हैं, अशांत होते हैं, तो फिर आपके जीवन में शांति का स्वर कभी भी नहीं बज पाएगा।
क्योंकि चारों तरफ अशांत लोग हैं, तो आपको शांति साधनी होगी, और आपको सजग रहना होगा। चारों तरफ बीमार लोग हैं, आपको अपने चारों तरफ एक कवच निर्मित करना होगा, एक मिल्यू, एक वातावरण आपके चारों तरफ, कि चाहे कोई कुछ भी फेंके, आप अपनी शांति में थिर रहेंगे। थोड़े से होश की जरूरत है। यह हो जाता है।
इसे थोड़ा प्रयोग करके देखें। जब पत्नी नाराज हो रही हो, तब आप खड़े होकर देखें कि आप नाटक देख रहे हैं। इससे वह और भी नाराज होगी, यह भी ध्यान रखना। मगर तब आप और प्रसन्न होकर उसको देखना।
अगर दो व्यक्तियों में एक व्यक्ति क्रोधित हो रहा हो और दूसरा नाटक की तरह देखता रहे, तो यह नाटक ज्यादा देर चल नहीं सकता। यह बढ़ेगा, उबलेगा, लेकिन फूट जाएगा, बिखर जाएगा, क्योंकि इसे बढ़ाने के लिए दोनों तरफ से सहारा चाहिए। समझदार पति-पत्नी निर्णय कर लेते हैं कि जब एक उपद्रव करेगा, तो दूसरा शांत रहेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन किसी को कह रहा था कि मेरे घर में कभी झगड़ा नहीं होता। दूसरे ने कहा कि यह मानने योग्य नहीं है। यह असंभव है कि घर हो और झगड़ा न हो! घर यानी झगड़ा। तुम झूठ बोल रहे हो। नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, हमने पहले ही दिन एक बात तय कर ली, और वह बात यह तय कर ली कि सब छोटे-छोटे मसले पत्नी तय करेगी, बड़े-बड़े मसले मैं तय करूंगा। बड़े-बड़े मसले आज तक आए नहीं और कभी आएंगे भी नहीं, क्योंकि पहले ही पत्नी तय कर देती है कि सब छोटे मसले हैं। तो वही तय कर रही है।
इंग्लैंड में एक आदमी एक सौ बीस वर्ष तक जीया। तो उसकी एक सौ बीसवीं वर्षगांठ पर लोगों ने उससे पूछा कि कैसे तुम इतने स्वस्थ हो?
उसने कहा कि हमने एक निर्णय कर लिया शादी के वक्त कि जब भी पत्नी नाराज होगी, मैं घर के बाहर चला जाऊंगा। तो यह अस्सी साल की घर के बाहर की जिंदगी, यह मेरे स्वास्थ्य का कारण है! क्योंकि मैं अक्सर बाहर ही घूमता रहा हूं। घर तो कभी-कभी भीतर जाता हूं, फिर ज्यादातर मुझे बाहर ही, आउट डोर!
चारों तरफ विक्षिप्तता है सभी संबंधों में। और अगर आप अपने को सम्हालकर नहीं चल रहे हैं, तो इतनी विक्षिप्त दुनिया में आप शांत नहीं रह सकते। और दूसरे को जिम्मेवार मत समझें। दूसरा जिम्मेवार है नहीं; वह अपने से परेशान है। कोई आपको परेशान करना नहीं चाह रहा है; वह अपने से परेशान है। परेशानी कोई कहां फेंके! जो निकट हैं, उन्हीं पर फेंकी जाती है।
तो जो व्यक्ति बिना अशांत हुए, सारी उपद्रवों की स्थिति में एक सूत्र ध्यान रखता है कि मुझे शांत रहना है चाहे कुछ भी हो, वह थोड़े ही दिनों में इस कला में पारंगत हो जाता है।
किसी की भी निंदादि न करना.।
बड़ा रस आता है किसी की निंदा करने में, क्योंकि किसी की निंदा परोक्ष में अपनी प्रशंसा है। जब भी आप कहते हैं, फलां आदमी बुरा है, तो आप भीतर से यह कह रहे हैं कि मैं अच्छा हूं। जब आप सिद्ध कर देते हैं कि फलां आदमी चोर है, आपने सिद्ध कर लिया कि मैं अचोर हूं।
और अक्सर चोर दूसरों को चोर सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं, क्योंकि यही उपाय है उनके पास। अगर यहां कोई किसी की जेब काट ले, तो जेबकतरे को बचने का सबसे अच्छा उपाय यह है
कि वह सबसे ज्यादा शोरगुल मचाए कि बहुत बुरा हुआ; चोरी नहीं होनी चाहिए; पकड़ो, किसने चोरी की! यह सबसे अच्छा उपाय है। उसको तो आप भूल ही जाएंगे कि यह आदमी चोरी कर सकता है।
जितने बुरे लोग हैं, वे दूसरे की निंदा में संलग्न हैं। वे इतना शोरगुल मचा रहे हैं दूसरे की बुराई का कि कोई सोच भी नहीं सकता कि ये बुरे हो सकते हैं। इसलिए साधु भी जब दूसरे की निंदा कर रहा हो, तब समझना कि साधुता खोटी है।
निंदा का एक ही प्रयोजन है, वह अपनी बुराई को छिपाना है। दूसरे की बुराई को हम जितना बड़ा करके बताते हैं, उतनी अपनी बुराई छोटी मालूम पड़ती है। अगर आपको पता चल जाए कि सब बेईमान हैं, तो आपको लगता है, फिर अपनी बेईमानी भी स्वीकार योग्य है। इसमें हम कुछ नया नहीं कर रहे हैं; हम कुछ ज्यादा बुरे नहीं हैं; दूसरों से हम बेहतर हैं।
दूसरे की निंदा का इसीलिए इतना रस है। जहां भी चार आदमी मिलते हैं, बस, चर्चा का एक ही आधार है। उन चार में से भी एक चला जाएगा, तो वे तीन, जो चला गया उसकी निंदा शुरू कर देंगे। और वे तीन फिर भी नहीं सोचते कि हममें से कोई गया यहां से, कि बाकी दो हटते ही से यही काम करने वाले हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर आपके मित्र जो आपके संबंध में पीठ पीछे कहते हैं, उस सबका आपको पता चल जाए, तो दुनिया में एक भी मित्र खोजना मुश्किल है। आपके मित्र आपकी पीठ पीछे जो कहते हैं, अगर आपके सामने कह दें, आपको पता चल जाए, तो दुनिया में मित्रता असंभव है!
लेकिन पता तो चल ही जाता है। और मित्रता सच में ही असंभव हो गई है। मित्र होना मुश्किल है। जो आदमी भी निंदा में रस लेता है, उसका इस जगत में कोई भी मित्र नहीं हो सकता। जो दूसरे को ओछा करने में, नीचा करने में, बुरा करने में शक्ति लगाता है, वह भला अपने मन में सोच रहा हो कि अपने को अच्छा सिद्ध कर रहा है, वह इस कोशिश में ही बुरा होता जा रहा है।
भले आदमी का लक्षण दूसरे में भलाई को खोजना है। और हम जितनी भलाई दूसरे में खोज लेते हैं, उतना ही हमारे भले होने के आधार निर्मित होते हैं।
सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव.।
जो भी शास्त्र में कहा गया है, जो भी समाज की प्रचलित व्यवस्था है, उस व्यवस्था में जहां तक दखल न बने। जब तक कि आत्मा का ही कोई सवाल न हो, जब तक आपके आत्मिक जीवन पर ही कोई आघात न पड़ता हो, तब तक समाज और शास्त्र की जो व्यवस्था है, उसको खेल का नियम मानकर चलना उचित है।
खेल के नियम का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। वह ऐसे ही है, जैसे रास्ते पर बाएं चलो; कोई दाएं चलने में पाप नहीं है। क्योंकि कुछ मुल्कों में लोग दाएं चलते हैं, तो वहां बाएं चलना कठिन है। तो बाएं चलो या दाएं चलो, यह कोई मूल्य की बात नहीं है। लेकिन एक नियम, खेल का नियम है। बाएं चलने में सुविधा है, आपको भी, दूसरों को भी। अगर सभी लोग अपना नियम बना लें, तो रास्ते पर चलना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि कोई नियम शाश्वत नहीं, सब सापेक्ष हैं, सबकी उपयोगिता है।
इस बड़े जगत में, जहां बहुत लोग हैं, मैं अकेला नहीं हूं, किसी व्यवस्था को चुपचाप मानकर चलना उचित है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह व्यवस्था कोई शाश्वत सत्य है; इसका केवल इतना अर्थ है कि हमने एक खेल का नियम तय किया है, उस नियम को हम पालन करके चलेंगे।
और ध्यान रहे, खेल नियम पर निर्भर होता है; नियम हटा कि खेल गड़बड़ हो जाता है। अगर आप ताश के पत्ते खेल रहे हैं, तो नियम है। चार खिलाड़ी खेल रहे हैं, तो नियम है। उनमें एक भी नियम के विपरीत करने लगे, या कहने लगे कि मेरा अपना अलग नियम है, खेल खराब हो गया।
यह समाज भी पूरा का पूरा एक खेल है। वह ताश के पत्ते से कोई बड़ा खेल नहीं है। उसमें सब नियम हैं। कोई पति है, कोई पत्नी है; कोई बेटा है, कोई बाप है; कोई छोटा है, कोई बड़ा है; कोई पूज्य है; कोई शिष्य है, कोई गुरु है--वे सारे खेल हैं। उस खेल को मानकर चलना दैवी संपदा का लक्षण है। लक्षण इसलिए कि अकारण ऐसा व्यक्ति उलझन में नहीं पड़ता, न दूसरों को उलझन में डालता है।
कुछ लोग व्यर्थ ही उलझन में पड़ते हैं, उनका कोई सार भी नहीं है। आप अगर बाएं को छोड़कर दाएं चलने लगें, तो कोई बड़ी क्रांति नहीं हो जाएगी; सिर्फ आप मूढ़ सिद्ध होंगे।
आसुरी वृत्ति का जो व्यक्ति होता है, उसको हमेशा नियम तोड़ने में रस आता है, उच्छृंखल होने में रस आता है, विद्रोह में रस आता है। उसे लगता है, जब भी वह कुछ तोड़ता है, तब उसका अहंकार सिद्ध होता है। उसे आज्ञा मानना कठिन है, आज्ञा तोड़ना आसान है। उससे अगर कोई काम करवाना हो, तो उलटी बात कहनी उचित है। उससे अगर कहना हो कि सीधे बैठो, तो उससे कहना चाहिए कि सिर के बल बैठो, तो वह सीधा बैठ जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को समझा रहा है कि यह मत कर, वह मत कर। बेटा सुनता नहीं। वह नसरुद्दीन का ही बेटा है! आखिर नसरुद्दीन उससे परेशान आ गया और उससे बोला, अच्छा, अब तुझे जो करना हो कर। अब मैं देखूं, तू कैसे मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है! जो तुझे करना हो कर, यह मेरी आज्ञा है। अब मैं देखता हूं कि तू कैसे मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है!
वह जो आसुरी वृत्ति का व्यक्तित्व है, उसे तोड़ने का रस है। आप कुछ कहें, वह उसको तोड़ेगा। जो आपको न करवाना हो, उससे कहें कि करो, तो वह नहीं करेगा।
दैवी संपदा का व्यक्ति व्यर्थ उलझन में नहीं पड़ेगा। जो कामचलाऊ है, उसे स्वीकार कर लेगा, हां भर देगा। खेल के नियम हैं, उनको मान लेगा। जब तक कि उसके जीवन का ही कोई सवाल न हो, जब तक कि उसकी आत्मा का कोई सवाल न हो, तब तक उसमें विद्रोह का स्वर नहीं होगा।
और ध्यान रहे, जो छोटी-छोटी बातों में न कहता है, उसके पास न कहने की शक्ति बचती नहीं कि बड़े मौके पर न कह सके। जो छोटी-छोटी बातों में हां भरता है, जब जरूरत हो, तो उसके पास न कहने की शक्ति होती है। तो वह कह सकता है, नहीं। फिर उसकी नहीं को तोड़ा नहीं जा सकता।
इसलिए जिसको वस्तुतः क्रांतिकारी होना हो, उसको विद्रोही नहीं होना चाहिए; उसे व्यर्थ के नियम तोड़ने में नहीं लगना चाहिए, जिसे अगर जीवन का कोई वास्तविक अतिक्रमण करना हो।
तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर-भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु-भाव का न होना, अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव--ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
इन सारे लक्षणों में गहन भाव है, अहंकार-शून्यता। मैं पूज्य हूं, दूसरे मुझे पूजें, दूसरे मुझे आदर दें, ऐसा सबके मन में होता है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि अहंकार इसके सहारे ही निर्मित होगा और रक्षित होगा। मैं दूसरे को पूजूं, यह कठिन है। गुरु होना एकदम आसान है, शिष्य होना बहुत कठिन है। क्योंकि शिष्य होने का अर्थ है, किसी और की पूजा, किसी और के सामने समर्पण।
इसलिए अगर आपसे कोई दिल से पूछे कि ठीक दिल की बात बता दें, कि आप गुरु होना चाहते हैं कि शिष्य? तो भीतर से आवाज आएगी, गुरु होना चाहते हैं। और यह आवाज अगर भीतर है, तो आप शिष्य कभी भी नहीं हो सकते। तो अगर आप किसी के चरणों में भी झुकेंगे, तो भी झूठा होगा। और तरकीबें आप ऐसी करेंगे कि किसी भांति गुरु को ही झुका लें। कोई उपाय, कि किसी दिन गुरु आपके प्रति झुक जाए!
अहंकार का स्वाभाविक लक्षण है कि सारा जगत मुझे पूजे। और कठिनाई यह है कि जब तक अहंकार हो, तब तक कोई आपको पूजेगा नहीं। पूजा हो सकती है, पर वह सदा निर-अहंकार भाव की है। जिस दिन अहंकार मिट जाएगा, उस दिन शायद सारा जगत पूजे, लेकिन आपकी वह आकांक्षा नहीं है। और जगत पूजे या न पूजे, आपका समभाव होगा।
मैं मिटूं, ऐसा जिसका लक्ष्य है, वह व्यक्ति दैवी संपदा को उपलब्ध हो जाता है। मैं बनूं, मैं रहूं, मैं बचूं; चाहे सारा जगत मिट जाए मेरे मैं के बचाने में, तो भी मैं मैं को बचाऊंगा, ऐसा व्यक्ति आसुरी संपदा को उपलब्ध हो जाता है।
आज इतना ही।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।। 2।।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत।। 3।।
दैवी संपदायुक्त पुरुष के अन्य लक्षण हैं: अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव; तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर-भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु-भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव--ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
पहले कुछ प्रश्न।
पहला प्रश्न:
भगवान, आश्चर्य है कि जब आप बोलते हैं, तभी वाणी के माध्यम से हमें आपका शिखर थोड़ा दिखाई पड़ता है। ऐसा क्यों?
स्वभावतः, शब्द समझ में आते हैं; मौन समझ में नहीं आता। शब्द तो बुद्धि से भी पकड़ लिए जाते हैं, मौन को पकड़ने के लिए तो हृदय चाहिए। बुद्धि का शिक्षण है आपके पास; बुद्धि की धारणाओं की, बुद्धि के तर्क की, बुद्धि की भाषा की पकड़ है। मौन, शून्य, ध्यान की कोई पकड़ नहीं है।
जिसे आप समझ सकते हैं, उसे आप समझ लेते हैं। उसे भी पूरा समझते हैं, कहना कठिन है। क्योंकि जो केवल शब्द को ही समझता है और शून्य को नहीं, वह शब्द को भी पूरा नहीं समझ पाएगा।
साधारण बोलचाल के शब्द, साधारण जीवन और काम और चर्या के शब्द तो वस्तुओं के प्रतीक हैं। शास्त्रों के शब्द अनुभूतियों के प्रतीक हैं। और अनुभूतियां तो बड़ी सूक्ष्म हैं, आकार में उन्हें बांधा नहीं जा सकता; नाम देना संभव नहीं है; परिभाषाएं बनती नहीं हैं; फिर भी शब्द आपको सुनाई पड़ते हैं और सुनाई पड़ने से आपको लगता है कि समझ में आ गया।
थोड़ी-सी झलक मिलती है, तो उससे मुझसे संबंध बनता है। अगर मैं चुप बैठा हूं, तो फिर कोई संबंध नहीं बनता, सेतु खो जाता है। फिर जब मैं चुप बैठा हूं, तब आप अपनी ही बातों को सोचते हैं; मुझसे संबंध नहीं बनता, आपका अपने से ही संबंध रहता है। जब मैं बोल रहा हूं, तब थोड़ी देर को आपका मन बंद हो जाता है। आपका अपने मन से संबंध टूट जाता है और मुझसे संबंध जुड़ जाता है।
इसलिए सुनकर आपको जितनी शांति मिलती है, उतनी अगर मैं शांत बैठा हूं, तो मेरे पास शांत बैठकर न मिलेगी। मिलनी चाहिए ज्यादा। क्योंकि जब मैं मौन हूं, तब आप मेरे पास हैं ही नहीं। तब आप अपने पास हैं। आपका मन भीतर चल रहा है। आपका जो निरंतर का उपद्रव है, उसमें आप डूबे हैं। जब मैं बोल रहा हूं, तब बीच-बीच में आपका मन छिटक जाता है; आप थोड़े मेरे पास आ जाते हैं। उस क्षण में कुछ प्रतीतियां आपको हो सकती हैं।
लेकिन ध्यान रहे, जो मैं कह रहा हूं वह, शब्द में कहा जाने योग्य नहीं है। इसलिए शब्द से ही जो मुझे समझेंगे, वे नहीं समझ पाएंगे। और उनकी समझ अधकचरी होगी; नासमझी ज्यादा होगी उससे, समझदारी कम। मौन में भी मुझे समझने की कोशिश करनी होगी। स्वभावतः, शब्द की तैयारी है; जीवन भर शब्द आपने सीखा है, मौन आपने कभी सीखा नहीं। उसे भी सीखना होगा, उसके प्रशिक्षण से भी गुजरना होगा। ध्यान उसी का प्रशिक्षण है।
इसलिए आधा जोर मेरा मैं आपसे बोलता हूं उस पर है, और आधा जोर मेरा इस पर है कि आपके भीतर बोलने की प्रक्रिया बंद हो, आप ध्यानस्थ हों। जैसे-जैसे आप ध्यानस्थ होंगे, वैसे-वैसे ही मेरा न बोलना आपकी ज्यादा समझ में आएगा। और बोलने में भी जो आप समझेंगे, वह शब्दों के पार है, उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाएगी।
शब्द भी शून्य के संकेत बन जाते हैं, लेकिन उसके लिए हृदय की तैयारी चाहिए। और हम एक ही तरह का संबंध जानते हैं, एक ही कम्युनिकेशन, एक ही संवाद का रास्ता जानते हैं कि बोलें। भाषा के अतिरिक्त हमारे बीच कोई संबंध नहीं है। भाषा न हो, हमारे सब संबंध खो जाएं।
पश्चिम के मनसविद पति-पत्नियों को सलाह देते हैं कि जैसा प्राथमिक क्षणों में पति और पत्नी ने एक-दूसरे से प्रेम के शब्द बोले थे, उनको जारी रखना चाहिए।
स्वभावतः, पति-पत्नी उन्हें छोड़ देते हैं। उनकी जरूरत नहीं रह जाती। जब आप पहली बार किसी के प्रेम में पड़ते हैं, तो कुछ शब्द बोलते हैं, जो कि निरंतर साथ रहने पर, विवाहित हो जाने पर, फिजूल मालूम पड़ेंगे।
लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं, उन्हें दोहराते रहना चाहिए, अन्यथा प्रेम समाप्त हो जाएगा। क्योंकि शब्द ही हमारा कुल संबंध है। तो पति चाहे वह बीस वर्ष से पत्नी के साथ हो, तो भी उसे रोज दोहराना चाहिए कि मैं तेरे प्रेम में पागल हूं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, चाहे यह सत्य न भी मालूम पड़े, चाहे यह प्रतीति न भी होती हो, लेकिन प्रेम की भाव-भंगिमा, प्रेम के शब्द, प्रेम की मुद्राएं जारी रखनी चाहिए, अन्यथा संबंध टूट जाएगा।
अधिक पति-पत्नियों का जीवन उदास और ऊब से भर जाता है। उसका बहुत कारण यह नहीं है कि उनके जीवन का प्रेम समाप्त हो गया। प्रेम था, तो समाप्त होता भी नहीं। शब्द थे पहले, अब वे शब्द छूट गए। और निरंतर उन्हीं शब्दों को दोहराना बेहूदा मालूम पड़ता है। शब्द छूट गए, संबंध छूट गया।
मौन को तो कोई समझता नहीं। अगर कोई आपको प्रेम करता हो और कहे न, तो आप पकड़ ही न पाएंगे कि प्रेम करता है। किसी तरह प्रकट न करे--भाव-भंगिमा से, आंख के इशारे से, शब्दों से, ये सभी शब्द हैं--चुप रहे, तो आप कभी भी न पहचान पाएंगे कि कोई आपको प्रेम करता है। कहना पड़ेगा, प्रकट करना पड़ेगा।
और तब एक बड़े मजे की घटना घटती है। प्रेम न भी हो और अगर कोई कुशल हो प्रकट करने में, तो आपको लगेगा कि प्रेम है। बहुत बार, जो अभिव्यक्ति में कुशल है, वह प्रेमी बन जाता है। जरूरी नहीं है कि प्रेम हो। क्योंकि प्रेम को आप समझते नहीं, आप सिर्फ शब्दों को समझते हैं।
पति-पत्नी उदास होने लगते हैं, क्योंकि उन्हीं-उन्हीं शब्दों को क्या बार-बार कहना! फिर उनमें कुछ रस नहीं मालूम पड़ता। लेकिन शब्दों के खोते ही संबंध खो जाता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक नौकरी के लिए इंटरव्यू दे रहा था। और इंटरव्यू लेने वाले अफसर ने कहा कि क्या आप शादीशुदा हैं? उसने कहा कि नहीं, मैं वैसे ही दुखी हूं।
शादीशुदा आदमी की शक्ल दूर से ही पहचानी जा सकती है। एक ऊब घेर लेती है। और इस ऊब का कुल कारण इतना है कि जिन शब्दों के कारण प्रेम प्राथमिक रूप से संवादित हुआ था, वे शब्द आपने छोड़ दिए।
प्रेम भी समझ में नहीं आता शब्द के बिना, तो प्रार्थना तो कैसे समझ में आएगी, परमात्मा तो कैसे समझ में आएगा! क्योंकि प्रेम पहला चरण है, प्रार्थना दूसरा चरण है, परमात्मा अंतिम चरण है। फिर और गहरे चरण हैं; प्रेम, प्रार्थना, परमात्मा एक से ज्यादा गहरे हैं। परमात्मा को तो समझना बहुत ही कठिन है। उसके लिए भी हमें शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है।
इसलिए जब मैं बोलता हूं, तब आपको किसी शिखर की प्रतीति हो सकती है, लेकिन वह शिखर वास्तविक शिखर नहीं है। जिस दिन मैं चुप बैठा हूं आपके पास और आपको कुछ अनुभूति हो, उसी दिन जानना कि किसी वास्तविक की प्रतीति का पहला, पहला आघात, पहला संघात हुआ, पहली बिजली आपके भीतर कौंधी।
मेरे बोलने का सारा प्रयोजन ही इतना है कि कुछ लोगों को उस घड़ी के लिए तैयार कर लूं, जब मैं न बोलूं, तब भी वे समझ पाएं। और अगर कुछ लोग उसके लिए तैयार नहीं हो पाते, तो बोलना व्यर्थ गया जानना चाहिए।
बोलने की अपनी कोई सार्थकता नहीं है, सार्थकता तो मौन की ही है। बोलना ऐसे ही है, जैसे छोटे बच्चे को हम सिखाते हैं, ग गणेश का। ग का गणेश से कुछ लेना-देना नहीं है। ग गधे का भी उतना ही है। गणेश प्रतीक हैं; उसके सहारे हम ग को समझाते हैं। फिर समझ जाने के बाद गणेश को याद रखने की जरूरत नहीं है। और जब भी आप ग पढ़ें, तो बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं कि ग गणेश का। और अगर यह दोहराना पड़े, तो आप पढ़ ही न पाएंगे। तब तो कुछ पढ़ना संभव न होगा; तब आप पहली कक्षा के बाहर कभी जा ही न पाएंगे।
तो जो भी मैं कह रहा हूं, वह ग गणेश का है। सब कहा हुआ प्रतीक है। तैयारी इसकी करनी है कि वह छूट जाए और आप चुप होने में समर्थ हो जाएं, तब जो दर्शन होगा, वह दर्शन वास्तविक शिखर का है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, रात आपने कहा कि प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है और यह भी कहा कि प्रार्थना जीवन की शैली है। क्या इस विषय पर थोड़ा और प्रकाश डालेंगे? धर्म-साधना में प्रार्थना का क्या स्थान है?
प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है, शायद यह कहना बिलकुल ठीक नहीं है। ज्यादा ठीक होगा कहना कि प्रार्थना परमात्मा बना देती है। प्रार्थना करते-करते ऐसा नहीं होता कि आप परमात्मा को पा लेते हैं; प्रार्थना करते-करते ऐसा होता है कि आप खो जाते हैं और परमात्मा बचता है।
प्रार्थना की परिपूर्ण उपलब्धि आपके भीतर परमात्मा का आविष्कार है। प्रार्थना एक विधि है, जिससे हम अपने भीतर को निखारते हैं; वह एक छेनी है, जिससे हम पत्थर को तोड़ते हैं। और पत्थर में मूर्ति छिपी है। सिर्फ व्यर्थ पत्थर को तोड़कर अलग कर देना है, मूर्ति प्रकट हो जाएगी।
मूर्तिकार मूर्ति को बनाता नहीं, केवल उघाड़ता है। अनगढ़ पत्थर में छिपी जो पड़ी थी, मूर्तिकार उसे बाहर ले आता है। अनगढ़ पत्थर में जो-जो अंग व्यर्थ थे, गैर-जरूरी थे, उनको अलग करता है। इसे थोड़ा ठीक से समझें।
मूर्तिकार मूर्ति को बनाता नहीं है, केवल उघाड़ता है, निर्वस्त्र करता है; वह जो ढंका था, उसे अनढंका कर देता है। मूर्ति तो थी ही, उस पर कुछ अनावश्यक भी जुड़ा था, उस अनावश्यक को तोड़ता है।
प्रार्थना आप में जो अनावश्यक है, उसको तोड़ती है; जो अनिवार्य है, उसको बचाती है। जो आत्यंतिक है, वही शेष रह जाता है; और जो भी सांयोगिक है, वह हट जाता है।
आपके जीवन के सारे संबंध सांयोगिक हैं, कि आप पिता हैं, कि पति हैं, या पत्नी हैं, या बेटे हैं; कि आप अमीर हैं कि गरीब हैं; कि आप बच्चे हैं, कि जवान हैं, कि बूढ़े हैं; सब सांयोगिक है। यह आपका होना वास्तविक होना नहीं है, कि आप गोरे हैं, कि काले हैं; सुंदर हैं, कुरूप हैं। यह सब सांयोगिक है, यह ऊपर-ऊपर है; यह आपकी वास्तविकता नहीं है। यह सब छांट देगी प्रार्थना। केवल वही बच जाएगा, जो नहीं छांटा जा सकता। केवल वही बच जाएगा, जो आप जन्म के साथ हैं। केवल वही बच जाएगा, जो मृत्यु के बाद भी आपके साथ रहेगा।
तो प्रार्थना मृत्यु की तरह है। वह आपके भीतर सब छांट डालेगी, जो व्यर्थ है, कचरा है, जो संयोग था, जो स्वभाव नहीं है।
ये दो शब्द समझ लेने जैसे हैं, संयोग और स्वभाव। संयोग वह है, जो आपको रास्ते में मिल गया है। एक दिन आपके पास नहीं था, आज है, एक दिन फिर नहीं होगा। स्वभाव वह है, जो आपको रास्ते में नहीं मिला; जिसको लेकर ही आप रास्ते पर उतरे हैं। जो जीवन के पहले था, वह स्वभाव है; जीवन के बाद भी होगा, वह स्वभाव है। जो जन्म और मृत्यु के बीच में मिलता है, वह संयोग है। प्रार्थना की कला संयोग को काटना, स्वभाव को बचाना है।
जापान में झेन फकीर अपने शिष्यों को कहते हैं, एक ही चीज खोजने जैसी है, वह है ओरिजनल फेस, तुम्हारा मौलिक चेहरा। शिष्य सदियों से पूछते रहे हैं गुरुओं से, कि क्या अर्थ है आपका? मौलिक चेहरे का क्या अर्थ है? तो गुरुओं ने कहा है, जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तब तुम्हारा जो चेहरा था, या जब तुम मर जाओगे, तब जो शेष बचेगा, वह तुम्हारा मौलिक चेहरा है, वह स्वभाव है, वह ओरिजनल है।
प्रार्थना उसको बचा लेती है। और वही परमात्मा है। जो स्वभाव है, वही परमात्मा है। जिसे हमने कभी पाया नहीं, जिसे हमने कभी अर्जित नहीं किया और जिसे हम चाहें भी, तो खो न सकेंगे; जिसे खोने का कोई उपाय नहीं है; जो मेरी निजता है, जो मेरा होना है, मेरा बीइंग है; वही परमात्मा है और प्रार्थना उसकी तलाश है।
इसलिए मैंने कहा कि प्रार्थना परमात्मा को पहुंचने का मार्ग है। और यह भी कहा कि प्रार्थना जीवन की शैली है।
निश्चित ही, प्रार्थना कोई एक कोने में नहीं हो सकती। ऐसा नहीं हो सकता कि सुबह आप प्रार्थना कर लें और फिर भूल जाएं। ऐसा नहीं हो सकता कि एक दिन रविवार को चर्च में प्रार्थना कर लें, कि धार्मिक उत्सव के दिन प्रार्थना कर लें, और फिर विस्मरण कर दें। प्रार्थना कोई खंड नहीं हो सकती, प्रार्थना जीवन की शैली हो सकती है।
जीवन की शैली का अर्थ यह है कि आप प्रार्थनापूर्ण होंगे, तो आपके चौबीस घंटे प्रार्थनापूर्ण होंगे। प्रार्थना अगर होगी, तो श्वास जैसी होगी। आप ऐसा नहीं कह सकते कि सुबह श्वास लूंगा, दोपहर विश्राम करूंगा; कि जब फुरसत होगी तब श्वास ले लेंगे, बाकी काम बहुत हैं।
प्रार्थना श्वास जैसी बन जाए, तो शैली बनी। उसका अर्थ यह हुआ कि प्रार्थना करने की बात न हो, प्रार्थना आपके होने का ढंग हो जाए। उठें तो प्रार्थनापूर्ण हों; बैठें तो प्रार्थनापूर्ण हों; भोजन करें तो प्रार्थनापूर्ण हों।
हिंदू सदियों से भोजन के पहले ब्रह्म को स्मरण करता रहा है। वह भोजन को प्रार्थनापूर्ण बनाना है। स्वयं को भोजन दे, इसके पहले परमात्मा को देता रहा है। उसका अर्थ है कि संयोग के पहले स्वभाव स्मरणीय है। मैं गौण हूं; मेरे भीतर जो छिपा, सबके भीतर छिपा जो परमात्मा है, वह प्रथम है। तो सबसे पहले उसका स्मरण।
आप पूछेंगे कि उठना-बैठना कैसे प्रार्थनापूर्ण हो सकता है?
एक महाकवि रिल्के का जीवन मैं पढ़ता था। रिल्के के जीवन में उनके मित्रों ने उल्लेख किया है कि रिल्के अपना जूता भी उतारता था, तो इतने मैत्री-भाव से, कि आप अगर देखते, तो लगता कि रिल्के अपने जूते के साथ प्रेम में है। वह अपने कपड़े भी उतारता, तो इस भाव से, जैसे कपड़े जीवंत हों, जैसे कपड़ों की आत्मा हो। ऐसा नहीं कि कपड़े उतारे और फेंक दिए। वह कपड़ों को सम्हालता। वह घर में पैर रखता, तो ऐसे जैसे कि जीवंत घर में प्रवेश कर रहा हो; जैसे जरा भी बेहूदे ढंग से चलेगा, तो घर को चोट पहुंचेगी।
रिल्के फूल को पौधे से तोड़ नहीं सकता था। फूलों का प्रेमी था। फूलों के पास जाता, उनसे दो शब्द कहता, उनसे नमस्कार कर लेता, उनसे दो बातें भी कर लेता, लेकिन तोड़ना असंभव था।
हमें यह आदमी पागल लगेगा, क्योंकि जूते को क्या सदव्यवहार की जरूरत है! हम पूछेंगे कि जूते को क्या सदव्यवहार की जरूरत है! जूते को उतारकर फेंका जा सकता है। मकान में प्रवेश करते समय मंदिर में प्रवेश कर रहे हों, ऐसे भाव रखने की क्या जरूरत है! मकान मकान है; मंदिर मंदिर है।
लेकिन ध्यान रहे, हम जो भी करते हैं, वह हमें निर्मित करता है। और जिंदगी में बड़े-बड़े काम ज्यादा नहीं हैं। चौबीस घंटे तो छोटे-छोटे काम हैं। जूता उतारना है, भोजन करना है, कपड़े पहनना है, स्नान करना है, मकान में आना है, दुकान में जाना है। मंदिर तो आप कभी-कभी जाते हैं।
और ध्यान रहे, जो अपने मकान में निरंतर गैर-प्रार्थनापूर्ण ढंग से गया है, वह मंदिर में लाख कोशिश करे, प्रार्थनापूर्ण ढंग से नहीं जा सकेगा; उसकी आदत नहीं है। और जिसने अपने मकान को मकान समझा है, वह मंदिर को भी मकान से ज्यादा कैसे समझ सकता है! वस्तुतः मंदिर भी मकान ही है; नाम भर मंदिर है।
अगर मंदिर को मंदिर बनाना हो, तो हर मकान को मंदिर बनाना होगा, तभी यह संभव है। तब मकान मिट जाएंगे, तब सभी मंदिर हो जाएंगे। और जब आप हर मकान में मंदिर की तरह प्रवेश करेंगे, यह प्रवेश आपकी वृत्ति को बदलेगा। यह प्रवेश आपके भाव को बदलेगा। यह प्रवेश आपको निर्मित करेगा। फिर आप जहां भी जाएंगे, वह मंदिर हो, कि मस्जिद हो, कि गुरुद्वारा हो, कि साधारण मकान हो, कि एक झोपड़ा हो, कि महल हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सवाल मकानों का नहीं है, सवाल आपका है। सवाल कहां आप प्रवेश करते हैं, इसका नहीं; कौन प्रवेश करता है, इसका है।
अगर आपने जूते प्रेम से उतारे हैं, कपड़े सदभाव से रखे हैं, वस्तुओं से भी मैत्री का व्यवहार किया है, यह सारा व्यवहार आपको रूपांतरित करेगा। यह आपकी शैली बन जाएगी।
जीवन के प्रति प्रेम का जो व्यवहार है, उस शैली को मैं प्रार्थना कहता हूं। और अगर हम चौबीस घंटे उसमें डूब सकें, तो ही, तो ही जीवन में क्रांति हो सकती है। इसलिए प्रार्थना कोई खंड नहीं है, कोई अंश नहीं है, कि आपने किया और निपट गए।
लोग प्रार्थना कर रहे हैं, पर उनके जीवन में प्रार्थना का कोई सुर सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि प्रार्थना को उन्होंने एक काम बना लिया है। वे सुबह पांच मिनट बैठकर प्रार्थना कर लेते हैं। अगर जल्दी हो, तो पांच मिनट की प्रार्थना वे दो मिनट में कर लेते हैं। अगर फुरसत हो, कोई काम न हो, तो दस मिनट भी कर लेते हैं। लेकिन प्रार्थना उनके जीवन की आधारशिला नहीं है, हजार कामों में एक काम है।
और अगर प्रार्थना हजार कामों में एक काम है, तो प्रार्थना हो ही नहीं सकती। और परमात्मा अगर हजार खोजों में एक खोज है, तो उस खोज का कोई उपाय नहीं है। जिस दिन प्रार्थना ही जीवन की विधि हो जाए.।
कबीर को किसी ने पूछा है कि अब तुम सिद्ध हो गए, अब तुम यह कपड़ा बुनना बंद कर दो। क्योंकि कबीर जुलाहे थे और जुलाहे बने रहे। और तुम कपड़ा बुनने में लगे रहते हो, फिर कपड़ा बुन कर बेचने जाते हो बाजार में, तुम्हें समय कहां मिलता है? प्रार्थना-पूजा.!
तो कबीर ने कहा कि जो भी मैं कर रहा हूं, वह प्रार्थना है; जो भी मैं कर रहा हूं, वह पूजा है! जब मैं कपड़ा बुनता हूं, तो मैं परमात्मा को बुन रहा हूं। जब मैं कपड़ा बेचता हूं, तो मैं परमात्मा को बेच रहा हूं। जब मैं बाजार जा रहा हूं, तो मैं राम की तलाश में जा रहा हूं, जिसको कपड़े की जरूरत है। इसलिए अलग से प्रार्थना करने का क्या अर्थ है!
जब तक अलग से प्रार्थना करनी पड़े, तब तक जानना, प्रार्थना का स्वाद आपको लगा नहीं। जिस दिन प्रार्थना जीवन की शैली हो जाए; आप जो करें, वह प्रार्थनापूर्ण हो, प्रेयरफुल हो; जो करें, उसमें से परमात्मा की तरफ आपका बहाव हो; जो करें, उसमें परमात्मा का स्मरण हो; कुछ न भी कर रहे हों, तो उस न-होने के क्षण में भी परमात्मा की मौजूदगी हो। ऐसी सुरति से जो जीएगा, वह एक दिन परमात्मा तक पहुंच जाता है, ऐसा नहीं; एक दिन परमात्मा हो जाता है।
यह प्रार्थना का सतत प्रवाह, जैसे पानी गिरता हो प्रपात से, पत्थरों को काट देता है। कोमल सा जल, सख्त से सख्त पत्थर को तोड़ देता है और बहा देता है। ऐसे ही कोमल-सी प्रार्थना सतत बहती रहे जीवन में, तो आपका जो भी पथरीला हिस्सा है, वह जो भी व्यर्थ है, सांयोगिक है, वह जो भी कूड़ा-कर्कट जन्मों-जन्मों में इकट्ठा किया है, वह चाहे कितना ही कठोर हो, पाषाणवत हो, वह सब प्रार्थना की धार उसे बहा देगी। और केवल वही बच रहेगा, जो आपकी वास्तविकता है, जो आपकी आत्मा है। इसे पा लेना ही परमात्मा को पा लेना है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, रात आपने कहा कि परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो सकता है, लेकिन आपने यह भी कहा है कि अस्तित्व में पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं। क्या इसे स्पष्ट करिएगा?
अद्वैत स्थिति से पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है, द्वैत स्थिति से पीछे लौटने का सदा उपाय है। अद्वैत स्थिति अस्तित्व की स्थिति है; द्वैत स्थिति माया की स्थिति है। इसे थोड़ा समझ लें।
साधु हम किसे कहते हैं? वह जो असाधु से उलटा है। साधु की परिभाषा कौन करेगा? साधु की परिभाषा असाधु से होगी। अगर असाधु हिंसक है, तो साधु अहिंसक है। अगर असाधु चोर है, तो साधु अचोर है। अगर असाधु बुरा है, तो साधु भला है। अगर जगत में कोई असाधु न हो, तो साधु के होने की कोई जगह नहीं है। असाधु चाहिए साधु होने के लिए, द्वंद्व जरूरी है।
इसलिए साधुता, असाधुता दोनों ही माया के अंग हैं। अच्छा आदमी भी माया से भरा है, बुरा आदमी भी। दोनों ही अंधे हैं, क्योंकि दोनों ने एक हिस्से को चुना है दूसरे के विपरीत। और जिसके विपरीत हम लड़े हैं, उसमें गिर जाने का डर सदा है।
अगर आपके भीतर चोरी है.सबके भीतर चोरी है; सबके भीतर छीनने का मन है; सबके भीतर उसके मालिक हो जाने का मन है, जिसके हम मालिक नहीं हैं। तो चोरी की भावना सबके भीतर है; सबके भीतर चोर छिपा है। इस चोर से अगर आप राजी हो जाएं, इस चोर के साथ चलें, तो आप असाधु हो जाएंगे। इस चोर से आप लड़ें, इसकी आप न मानें, इसके विपरीत आप चलें, इससे उलटा चलना ही आपका ढंग हो जाए, तो आप साधु हो जाएंगे।
अगर आप साधु हो जाएंगे, तो भी चोर आपके भीतर छिपा है, मिट नहीं गया। सिर्फ आपने उसे दबाया है, उसकी मानी नहीं है। अगर आप चोर हो गए, तो भी आपके भीतर अचोर छिपा है।
जो कृष्ण कह रहे हैं दैवी संपदा, आसुरी संपदा, वे दोनों आपके भीतर हैं। तो जो चोरी कर रहा है, उसके भीतर भी अचोर छिपा है, वह भी नष्ट नहीं हो गया है, उसने उसे दबाया है। जब-जब चोर चोरी करने गया है, तब-तब उसके भीतर छिपे साधु ने कहा है, मत कर, बुरा है, पाप है। छोड़; इससे बच। लेकिन इन आवाजों को उसने अनसुना किया है; इन आवाजों के प्रति वह अपने को बधिर बना लिया है; इन आवाजों को उसने दबाया है; इन आवाजों की उसने उपेक्षा की है। पर ये वहां भीतर मौजूद हैं।
जो साधु हो गया है, अचोर हो गया है चोर को दबाकर, उसके भीतर भी चोर मौजूद है। वह भी कह रहा है कि कहां तू उलझा है! क्या तू कर रहा है! जीवन हाथ से जा रहा है। यह आत्मा-परमात्मा का पक्का नहीं है। स्वर्ग है या नहीं, निश्चित नहीं है। मृत्यु के बाद कोई बचता है, किसी ने लौटकर कहा नहीं है। यह सब कपोल-कल्पित हो सकता है। यह सब एक जागतिक गप्प हो सकती है। जिन्होंने कहा है, उन्होंने भी जीते-जी कहा है कि आत्मा अमर है। मरकर लौटकर उन्होंने भी नहीं कहा है। उनकी बात का भरोसा क्या है? और उनकी बातों में उलझकर तू जीवन का रस खो रहा है। ये लाख रुपए सामने पड़े हैं, कोई देखने वाला नहीं है, इन्हें तू उठा ले, इन्हें तू भोग ले।
साधु के भीतर भी चोर खड़ा है, असाधु के भीतर साधु खड़ा है; ये मिट नहीं गए हैं। और जो गणित की बात समझने की है, जो गहरे विज्ञान की बात समझने की है, वह यह कि जिसका हमने उपयोग किया है, वह थक जाता है। जैसे मेरे दो हाथ हैं; अगर मैं बाएं हाथ का उपयोग करूं दिनभर, तो बायां हाथ थक जाएगा; और दायां हाथ दिनभर विश्राम करेगा, ज्यादा शक्तिशाली होगा।
किसान जानते हैं कि अगर हमने इस वर्ष फसल एक जमीन पर ले ली है, तो वह थक गई जमीन। जो जमीन बंजर पड़ी रही, जिसका हमने उपयोग नहीं किया, वह थकी नहीं है, वह ऊर्जा से भरी है।
तो अगर आपने अपने भीतर के साधु का उपयोग किया है, तो असाधु शक्तिशाली है, साधु थक गया है। जिसका उपयोग करेंगे, वह थकेगा। जो नहीं थका है, जो बैठा विश्राम कर रहा है, वह शक्तिशाली है।
इसलिए मैं कहता हूं कि परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो सकता है, परम असाधु एक क्षण में परम साधु हो सकता है। दोनों तरह की घटनाएं घटती रही हैं। घटने का पीछे विज्ञान है। क्योंकि जिसको आपने पकड़ा है, वह थक गया, ऊब गया। उससे आप बेचैन हो गए हैं। उसको कर-कर के भी कुछ बहुत पाया नहीं है।
इसलिए बड़े मजे की बात है, भले लोग रात सपने बुरे देखते हैं; बुरे लोग बुरे सपने नहीं देखते, भले सपने देखते हैं। जो थका है, वह रात सोता है; जो नहीं थका, वह सक्रिय होता है। ब्रह्मचारी रात कामुकता के सपने देखता है; कामी रात सपने देखता है कि उसने बुद्ध से दीक्षा लेकर वह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गया है, वह संन्यस्त हो रहा है!
आपका सपना बताएगा आपको कि कौन-सा हिस्सा अनथका है, जो नींद में भी नहीं सोता। उसका मतलब है, बहुत सजग है। तो जो सजग है, शक्तिशाली है, उसका खतरा है, वह किसी भी क्षण में आपको पकड़ ले सकता है।
लेकिन निरंतर मैं कहता हूं, अस्तित्व से लौटने की कोई विधि, कोई व्यवस्था नहीं है। कोई पीछे नहीं लौटता अस्तित्व में। माया में तो पीछे लौटता है, क्योंकि द्वंद्व है।
इसलिए हमारे पास एक और शब्द है, वह शब्द साधु का पर्यायवाची नहीं है। वह शब्द है, संत। संत का अर्थ है, जो न साधु है न असाधु। जिसने दोनों का ही उपयोग करना बंद कर दिया है, जो दोनों में से किसी को भी नहीं चुनता; जो चुनावरहित, च्वाइसलेस है। जो न बाएं को चुनता है, न दाएं को। जो दोनों का साक्षी मात्र है। उसके भीतर चोर भी बोलता है, तो उसको भी सुनता है। उसके भीतर साधु बोलता है, उसको भी सुनता है। मानता किसी की भी नहीं। द्वंद्व को खड़ा नहीं होने देता। क्योंकि जब आप एक की मानेंगे, तो द्वंद्व खड़ा होगा। जब आप दोनों की सुनते हैं, मानते किसी की भी नहीं; जब आप दोनों के साक्षी बने रहते हैं, विटनेस बने रहते हैं; और आप कहते हैं, दोनों द्वंद्व खेल है, और ये दोनों की साजिश है, और ये दोनों साथी हैं.।
मैंने सुना है, एक सड़क पर एक आदमी बर्तन बेच रहा था। जो बर्तन बाजार में दो रुपए में मिलते हैं, वह उनके चार-चार रुपए दाम मांग रहा था। एक ठेले पर जोर से आवाज लगा रहा था कि बिलकुल सस्ते लुटा दिए, चार रुपए में। कोई आ भी नहीं रहा था। तभी अचानक बगल की गली से एक दूसरा आदमी आया एक ठेले पर बर्तन लिए और उसने कहा, क्यों लूट रहे हो लोगों को! चार रुपया? बर्तन तीन रुपए के हैं।
लोग ठहर गए। एक चिल्ला रहा था, चार रुपए! दूसरा कह रहा था कि लूटो मत; बर्तन तीन रुपए के हैं। भीड़ तीन रुपए वाली दुकान पर लग गई। सब बर्तन थोड़ी ही देर में खाली हो गए। दूसरा चिल्ला रहा है कि तू अपने समव्यवसायी को धोखा दे रहा है। तू क्यों मेरे पीछे पड़ा है? तू क्यों मेरे ग्राहक बिगाड़े दे रहा है?
थोड़ी ही देर बाद जब दूसरे के बर्तन समाप्त हो गए, वह ठेले को लेकर अंदर एक गली में चला गया। दूसरा भी पहुंचा और उसने कहा, तूने तो कमाल कर दिया भाई। फिर जिसके बर्तन बिलकुल नहीं बिके थे, आधे-आधे फिर उन्होंने ठेले पर रख लिए। वे दोनों सहयोगी हैं, साझेदार हैं। फिर दूसरी सड़क पर वही शुरू हो गया शोरगुल। एक चार रुपए चिल्ला रहा है। दूसरा कह रहा है कि तीन रुपए! मत लूटो लोगों को। वे तीन रुपए वाले बर्तन बिक रहे हैं। बाजार में दाम दो रुपए हैं।
वह जो आपके भीतर चोर है और जो आपके भीतर अचोर है, उन दोनों की कांस्पिरेसी है, दोनों साझीदार हैं। उनमें से किसी भी एक की आपने सुनी, तो दूसरे के जाल में भी आप गिरे।
यह जरा समझना कठिन है। और यहीं से धर्म की यात्रा शुरू होती है। नीति और धर्म का यही फर्क है।
नीति कहती है, भीतर जो साधु है, उसकी सुनो। धर्म कहता है, दोनों की मत सुनो; सुनो भी, तो साक्षी रहो। दोनों की मानो मत, क्योंकि उन दोनों की सांठ-गांठ है। वे दोनों एक ही धंधे में साझीदार हैं। एक की सुनी, तो दूसरे के चक्कर में तुम पड़े। जब तक एक तुम्हें चूसेगा, तब तक दूसरा विश्राम करेगा। जब तुम एक से थक जाओगे, दूसरा तुम पर हावी हो जाएगा। और ये दिन और रात की तरह अनंत जन्मों तक चल सकती है यह प्रक्रिया। यह रोज चल रही है।
सुबह आप भले आदमी होते हैं, दोपहर बुरे आदमी हो जाते हैं, सांझ भले आदमी हो जाते हैं। आप गलती में हैं अगर आप सोचते हैं कि दुनिया में साधु कटे हैं और असाधु अलग हैं। ऐसा नहीं है। सभी के साधु क्षण हैं, सभी के असाधु क्षण हैं।
सुबह-सुबह आप उठे हैं, तब साधु क्षण आप पर भारी होता है; भोर होती है, जीवन ताजा होता है, रातभर का विश्राम होता है, उपद्रव इतनी देर शांत रहे होते हैं, साधु क्षण होता है। भिखमंगे सुबह भीख इसीलिए मांगने आते हैं। सांझ को कोई उन्हें भीख देने वाला नहीं है। सुबह साधु क्षण को फुसलाया जा सकता है।
सुबह-सुबह एक आदमी उठा है, उसके सामने कोई भीख मांगता है, तो इनकार करना मुश्किल है। सांझ एक आदमी दिनभर दुकान में बेईमानी करके लौटा है। उससे दया पाने की आशा करनी कठिन है।
आपके भी क्षण होते हैं। दिन में आप कई बार साधु और कई बार असाधु होते हैं। और यह रूपांतर चलता रहता है। इस द्वंद्व के बाहर जाने का एक ही उपाय है कि हम दोनों में चुनना बंद कर दें।
संतत्व अस्तित्व है; साधुता, असाधुता माया है। संतत्व से कोई पीछे नहीं गिरता। क्योंकि जिसका साक्षी सध गया, उसके पीछे कुछ बचता ही नहीं, जहां गिर सके। द्वंद्व खो गया; स्वप्न टूट गया। वह जो षड्यंत्र था द्वैत का, वह शेष न रहा। गिरने की कोई जगह नहीं है। संत को गिरने की कोई जगह नहीं है। कुछ बचा नहीं, जहां वह गिर सके।
साधु गिर सकता है, इसलिए साधुता कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। खेल से ज्यादा नहीं है। संतत्व उपलब्धि है, लेकिन बड़ी दूभर है। क्योंकि पहली ही शर्त, चुनना नहीं। पहली ही शर्त, ज्ञान में ठहरना, जागरूकता में रुकना। पहली ही शर्त, साक्षी हो जाना।
अब हम सूत्र को लें।
दैवी संपदायुक्त पुरुष के अन्य लक्षण हैं: अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा, व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर-भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु-भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव--ये सब तो, हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
एक-एक लक्षण को समझें।
अहिंसा.।
अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को दुख पहुंचाने की वृत्ति का त्याग। हम सबको दूसरे को दुख पहुंचाने में रस आता है। दूसरे को दुखी देखकर हममें सुख का जन्म होता है। यह जरा कठिन लगेगा, क्योंकि हम कहेंगे, नहीं, ऐसा नहीं। दूसरे में दुख देखकर हममें सहानुभूति जन्मती है। लेकिन अगर आप अपनी सहानुभूति को भी थोड़ा-सा खोजेंगे, तो पाएंगे, उसमें रस है।
किसी के मकान में आग लग गई है, तब आप अपना स्वाध्याय करना। जब आप जाकर उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं कि बहुत बुरा हुआ, ऐसा नहीं होना चाहिए, तब अपना आप निरीक्षण करना कि भीतर कोई रस तो नहीं आ रहा है कि अपना मकान नहीं जला, दूसरे का जला! भीतर कोई रस तो नहीं आ रहा है कि हम सहानुभूति बताने की स्थिति में हैं और तुम सहानुभूति लेने की स्थिति में हो! कि अच्छा मौका मिला कि आज हमारा हाथ ऊपर है!
और वह आदमी अगर आपकी सहानुभूति न ले, तो आपको पता चल जाएगा। वह कह दे, कुछ हर्जा नहीं, बड़ा ही अच्छा हुआ कि मकान जल गया; सर्दी के दिन थे, और ताप मिल रहा है; बड़ा आनंद आ रहा है। तो आप दुखी घर लौटेंगे, क्योंकि उस आदमी ने आपको मौका नहीं दिया ऊपर चढ़ने का। एक मुफ्त अवसर मिला था, जहां आप दान कर लेते बिना कुछ दिए; जहां बिना कुछ बांटे आप सहानुभूति का सुख ले लेते, वह मौका उस आदमी ने नहीं दिया। आप उस आदमी के दुश्मन होकर घर लौटेंगे।
ध्यान रहे, अगर आप किसी को सहानुभूति दें और वह आपकी सहानुभूति न ले, तो आप सदा के लिए उसके दुश्मन हो जाएंगे, आप उसको कभी माफ न कर सकेंगे।
इसको पहचानना हो, तो दूसरे छोर से पहचानना आसान है। सभी को लगता है कि नहीं, यह बात ठीक नहीं। दूसरे के दुख में हमें दुख होता है। इसे छोड़कर दूसरे छोर से पहचानें, दूसरे के सुख में क्या आपको सुख होता है?
अगर दूसरे के सुख में सुख होता हो, तो ही दूसरे के दुख में दुख हो सकता है। और अगर दूसरे के सुख में पीड़ा होती है, तो गणित साफ है कि दूसरे के दुख में आपको सुख होगा, पीड़ा नहीं हो सकती। अगर दूसरे का सुख देखकर आप जलते हैं, तो दूसरे का दुख देखकर आप प्रफुल्लित होते होंगे। चाहे आपको भी पता न चलता हो, चाहे आप अपने को भी धोखा दे लेते हों, लेकिन भीतर आपको मजा आता होगा।
अखबार सुबह से उठाकर आप देखते हैं। अगर कोई उपद्रव न छपा हो, कहीं कोई हत्या न हुई हो, गोली न चली हो, तो आप थोड़ी देर में उसको ऐसा उदास पटक देते हैं। कहते हैं, कुछ भी नहीं है, कोई खबर ही नहीं! आप किस चीज की तलाश में हैं? आप कहीं दुख खोज रहे हैं, तो आपको लगता है, यह समाचार है, कुछ खबर है।
जब भी आप दुखी आदमी को देखते हैं, तो तुलनात्मक रूप से आप अनुभव करते हैं कि आप सुखी हैं। और न केवल साधारणजन, बल्कि नैतिक शिक्षक लोगों को समझाते हैं कि अगर तुम्हारा एक पैर टूट गया है, तो दुखी मत होओ। देखो, ऐसे लोग भी हैं, जिनके दो पैर टूटे हुए हैं। उनको देखो! तो निश्चित ही अगर आपका एक पैर टूट गया है, तो दो पैर टूटे आदमी को देखकर आपके जीवन में अकड़ आ जाएगी। आपको लगेगा कि कुछ हर्जा नहीं, ऐसा कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ गया है; दुनिया में और भी बुरी हालतें हैं।
नैतिक शिक्षक लोगों को समझाते हैं कि अपने से पीछे देखो; अपने से ज्यादा दुखी को देखो, तो तुम हमेशा सुखी अनुभव करोगे। अपने से सुखी को देखोगे, तो हमेशा दुखी अनुभव करोगे।
पर यह बात ही बुरी है। इसका मतलब हुआ कि दूसरे को दुखी देखकर आपको कुछ सुख मिल रहा है। यह कोई बड़ी नैतिक शिक्षा न हुई। और यह कोई भला संदेश न हुआ।
कृष्ण कहते हैं, दैवी संपदायुक्त व्यक्ति का लक्षण होगा अहिंसा।
अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को दुख न पहुंचाने की वृत्ति। और यह तभी हो सकता है, जब दूसरे के दुख में हमें सुख न हो। और यह तभी होगा, जब दूसरे के सुख में हमें सुख की थोड़ी-सी भाव-दशा बनने लगे।
तो अहिंसा कहां से शुरू करिएगा? पानी छानकर पीजिएगा, तो अहिंसा शुरू होगी? मांसाहार छोड़ने से अहिंसा शुरू होगी? ये सब गौण बातें हैं। छोड़ दें तो अच्छा है, लेकिन उतने से अहिंसा शुरू नहीं होती।
अहिंसा शुरू होती है, जब कोई सुखी हो, तो वहां सुख अनुभव करें। दूसरे के सुख को अपना उत्सव बनाएं। और जब कोई दुखी होता हो, तो दुख अनुभव करें; और दूसरे के दुख में समानुभूति में उतरें। दूसरे की जगह अपने को रखें, चाहे सुख हो, चाहे दुख।
दूसरे की जगह स्वयं को रखने की कला अहिंसा है। कोई सुखी है, तो उसकी जगह अपने को रखें, और उसके सुख को अनुभव करें, और प्रफुल्लित हो जाएं। कोई दुखी है, तो उसकी जगह अपने को रखें, और उसके दुख में लीन हो जाएं, जैसे वह दुख आप पर ही टूटा हो। तब आप पाएंगे कि जीवन में अहिंसा आनी शुरू हुई।
पानी छानकर पीना और मांसाहार छूट जाना बड़ी सरल बातें हैं, जो इस भाव-दशा के बाद अपने आप घट जाएंगी। लेकिन कोई कितना ही पानी छानकर पीए, सात बार छानकर पीए, तो भी अहिंसा नहीं होने वाली। मांसाहार बिलकुल न करे, तो भी अहिंसा होने वाली नहीं। ये सिर्फ आदतें हो जाती हैं। आदतों का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। बोधपूर्वक अहिंसा के सार-तत्व को पकड़ने की बात है।
मैं रोज देखता हूं, तो बड़ा जीवन विरोधों से भरा हुआ मालूम पड़ता है।
एक क्वेकर साधु पुरुष था। क्वेकर ईसाइयों का एक संप्रदाय है, जो अहिंसा में पक्का भरोसा करता है। जैनों जैसा संप्रदाय है ईसाइयों का। किसी को मारना नहीं। तो क्वेकर अपने हाथ में बंदूक या अस्त्र-शस्त्र भी नहीं रखते, अपने घर में भी नहीं रखते। लेकिन यह क्वेकर्स की मान्यता है कि जब किसी को मरना है, किसी की घड़ी आ गई, तो परमात्मा उसे खुद उठा लेगा, किसी को उसे मारने की जरूरत नहीं है। अगर अपनी घड़ी मरने की आ गई, तो परमात्मा हमें उठा लेगा। तो अस्त्र-शस्त्र का क्या प्रयोजन है!
लेकिन यह साधु पुरुष जब भी चर्च जाता--चर्च दूर था इसके गांव से--तो वह एक पिस्तौल लेकर जाता। और वह जाहिर अहिंसक था। तो मित्रों ने पूछा कि तुम भाग्य को मानते हो, अहिंसा को मानते हो, तुम किसी को मारना भी नहीं चाहते, तुम यह भी जानते हो कि जब तक परमात्मा की मरजी न हो, तब तक तुम्हें कोई मार नहीं सकता, तो तुम पिस्तौल लेकर किसलिए जा रहे हो?
उस क्वेकर ने क्या कहा! उसने कहा कि मैं अपने बचाव के लिए पिस्तौल लेकर नहीं जा रहा हूं। लेकिन इस पिस्तौल से अगर परमात्मा को किसी को मारना हो, तो यह मौजूद रहनी चाहिए। अगर मेरा उपयोग करना हो परमात्मा को.।
इस क्वेकर के घर में एक रात एक चोर घुस गया, तो उसने अपनी पिस्तौल उठा ली। चोर एक कोने में दबा हुआ खड़ा है। उस कोने की तरफ धीमा-सा प्रकाश है; रात का नीला प्रकाश थोड़ा-सा, पांच कैंडल का बल्ब है। वह कोने में छिपा खड़ा है। इसने कोने की तरफ पिस्तौल की और कहा कि मित्र, तुम्हें मैं नहीं मार रहा हूं; लेकिन जहां मैं गोली चला रहा हूं, तुम वहीं खड़े हो!
लेकिन यह हमें हंसी योग्य बात लगती है, लेकिन सारी दुनिया के अहिंसक इसी तरह के तर्क.। क्योंकि हिंसा तो बदलती नहीं, ऊपर से आचरण थोप लिया जाता है!
क्वेकर पक्के अहिंसक हैं। दूध भी नहीं पीते। कहते हैं, दूध खून है, आधा खून है, इसलिए पाप है। दूध से बनी कोई चीज नहीं लेते। क्योंकि वह एनिमल फुड है।
ये जो सोचने के ढंग हैं, इनमें से तरकीबें निकल आती हैं। अंडा खाते हैं, क्वेकर अंडा खाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, अंडा, जब तक बच्चा उसके बाहर नहीं आ गया, तब तक उसमें कोई जीवन नहीं है। अंडे को खाने में कोई पाप नहीं है। दूध पीने में पाप है, क्योंकि वह खून है।
और जीवन की सारी व्यवस्था हम इस ढंग की कर ले सकते हैं कि ऊपर से लगे कि सब अहिंसा है और भीतर सारी हिंसा जारी रहे।
जैनों ने अहिंसा का बड़ा प्रयोग किया, लेकिन उनकी सारी हिंसा धन को इकट्ठा करने में जुट गई। तो उन्होंने खेती-बाड़ी छोड़ दी, क्योंकि उसमें हिंसा है। पौधा काटेंगे, तो हिंसा होगी; इसलिए जैनों ने खेती-बाड़ी छोड़ दी। क्षत्रिय होने का उपाय न रहा उनका, क्योंकि वहां युद्ध में हिंसा होगी।
तो उनके व्यक्तित्व की सारी हिंसा, जो युद्ध में निकल सकती थी, खेती-बाड़ी में निकल सकती थी.।
आप जानकर हैरान होंगे कि किसान, माली भले लोग होते हैं, क्योंकि उनकी हिंसा निकल जाती है। एक किसान दिनभर काट रहा है जंगल में, लकड़ी काट रहा है, पौधे उखाड़ रहा है, तो उसकी जितनी क्रोध की वृत्ति है, वह सब इस उखाड़ने, तोड़ने में, मिटाने में निकल जाती है। वह भला आदमी होता है। किसान सरल आदमी होता है।
क्षत्रिय भी सरल आदमी होता है, क्योंकि युद्ध के मैदान पर लड़ लेता है। कुछ भी बचता नहीं, सब निकल जाता है। इसलिए क्षत्रिय भोले होते हैं। क्षत्रिय को आप जितनी आसानी से धोखा दे सकते हैं, दुकानदार को नहीं दे सकते, बनिया को नहीं दे सकते। होना चाहिए था उलटा; क्योंकि वह हिंसक है, दुष्ट है, उसको धोखा देना मुश्किल होना चाहिए। लेकिन ऐसी बात नहीं है। उसको धोखा देना बिलकुल आसान है।
मैंने सुना है, राजस्थान की एक कथा है, कि एक गांव का एक क्षत्रिय राजपूत बड़ा अकड़ीला आदमी था। वह अपने गांव में किसी को मूंछ सीधी नहीं करने देता था; सिर्फ अकेली अपनी मूंछ सीधी रखता था। दूसरा अगर उसके घर के सामने दूसरे गांव का भी आदमी निकले, तो कहता था, मूंछ नीची कर। इससे झगड़े, दंद-फंद हो जाते थे, तलवारें खिंच जाती थीं।
एक नया बनिया गांव में आया, जवान था। और वह भी मूंछ सीधी रखने का शौकीन था। क्षत्रिय के घर के सामने से निकला। उस क्षत्रिय ने कहा, मूंछ सीधी नहीं चल सकती। इस गांव में एक ही मूंछ सीधी रह सकती है; दो तलवारें एक म्यान में नहीं चलेंगी; तू मूंछ नीची कर ले। बनिये ने कहा, क्यों? मूंछ नीची नहीं होगी! तलवारें खिंच गईं।
बनिये ने कहा, एक दो मिनट रुक जा। क्योंकि मैं घर लौटकर जाकर अपने बच्चे और पत्नी को समाप्त कर आऊं; हो सकता है, मैं मर जाऊं; मेरे कारण मेरे बच्चे और पत्नी भूखे मरें, यह मुझे बरदाश्त के बाहर है। और मैं तुझे भी सलाह देता हूं, तू भी घर जा; बच्चे और पत्नी को खतम कर आ। क्योंकि हो सकता है, तू मर जाए।
क्षत्रिय ने कहा, बात बिलकुल ठीक है। वह घर गया। वह साफ करके आ गया। बनिया घर गया, वापस लौटकर उसने कहा, मैंने इरादा बदल दिया; मैंने मूंछ नीची कर ली।
यह जो बनिया है, हिंसक तो नहीं है, लेकिन इसकी हिंसा चालाकी बन जाएगी।
तो जैनों की सारी हिंसा धन को इकट्ठा करने में लगी; सब उपाय बंद हो गए। और धन सबसे सुविधापूर्ण साधन है दूसरे को दुख देने का। इससे ज्यादा आसान कोई तरकीब नहीं है। किसी की छाती में छुरा मारो, वह भी उपद्रव है, क्योंकि उसमें खुद को भी छुरा भोंका जाए, इसका डर सदा है। लेकिन धन चूस लो, दूसरा वैसे ही मर जाता है बिना छुरा मारे। और दूसरे को इससे ज्यादा दुखी करने की कोई सुविधापूर्ण व्यवस्था नहीं है कि तुम धन इकट्ठा कर लो। तुम धन इकट्ठा करते जाओ, दूसरा निर्धन होता जाए। वह मरता जाता है अपने आप। वह उसे इकट्ठा जहर देने की जरूरत नहीं है। एक-एक बूंद उसमें जहर उतरता जाता है। चारों तरफ सब सूख जाता है। सारा जीवन तुम शोषित कर लेते हो।
तो जैन बड़ी अहिंसा साधा। लेकिन वह अहिंसा चूंकि ऊपर-ऊपर थी, नैतिक थी; वह अहिंसा मौलिक आधार से नहीं जन्मी। वह महावीर की अहिंसा नहीं थी। इस जैन की, पीछे चलने वाले की अपने मन की, गणित की, अपनी बुद्धि की खोज थी। तो जटिल हो गया। और शोषण के रूप में अहिंसा दब गई और हिंसा व्यापक हो गई।
अहिंसा लक्षण है इस अर्थ में कि आप अपने मन से दूसरे को दुख देने का भाव विसर्जित कर दें। शुरू करना होगा दूसरे के सुख में सुख लेना। क्योंकि सुख लेना आसान है, दुख लेना कठिन है।
अपना ही दुख झेलना मुश्किल होता है, दूसरे का दुख झेलना तो और मुश्किल हो जाएगा। आप अपने ही दुख से काफी परेशान हैं, अगर हर एक का दुख लेने लगें और हर एक का दुख झेलने लगें; हर घर में आदमी मरेगा, अगर आप हर घर में बैठकर रोने लगें, जैसे आपका कोई मर गया हो--यह कठिन होगा। इससे शुरुआत नहीं हो सकती।
इसलिए शुरुआत का सूत्र है, दूसरे के सुख से शुरू करें। जब दूसरे के जीवन में फूल खिले, तो आपके जीवन में नाच आए। यह आसान होगा। हालांकि बहुत कठिन लगेगा, क्योंकि अभी हमें सुख देखकर तो बड़ी पीड़ा होती है; दुरूहतम मालूम होगा। लेकिन साधना दुरूह है। वह ऊंचे पहाड़ चढ़ने जैसा प्रयोग है। और यह ऊंचे से ऊंचा पहाड़ है, दूसरे के सुख में सुख अनुभव करना। तो आपका जीवन एक तरफ उत्सव से भर जाएगा।
और तब दूसरा प्रयोग है, दूसरे के दुख में दुख अनुभव करना, तब आपके जीवन में अंधकार भी भर जाएगा, प्रकाश और अंधकार दोनों। लेकिन चूंकि दूसरे के दुख में आप दुखी हो रहे हैं और दूसरे के सुख में आप सुखी हो रहे हैं, आपका साक्षीभाव दोनों में निर्मित हो सकेगा। आप दोनों अनुभव में डूबकर भी बाहर रह सकेंगे।
जब आपका खुद का दुख आता है, तो आप एकदम भीतर हो जाते हैं, आप उस दुख में लीन हो जाते हैं। जब आप दूसरे के दुख में डूबेंगे, तो आप कितने ही लीन हो जाएं, आपका आंतरिक आत्यंतिक हिस्सा बाहर खड़ा देखता रहेगा। जब आप पर सुख आता है, तो आप उसमें उत्तेजित हो जाते हैं। दूसरे के सुख में आप कितने ही डूबें, उत्तेजित न हो पाएंगे। वह एक धीमा, सौम्य उत्सव होगा, और आपके भीतर का साक्षी जगा रहेगा।
और ध्यान रहे, जो व्यक्ति दूसरे के सुख-दुख में साक्षी हो गया, वह धीरे-धीरे अपने सुख-दुख में भी साक्षी हो सकेगा। क्योंकि थोड़े ही समय में उसे पता चलेगा, सुख-दुख न तो मेरे हैं, न दूसरे के हैं। सुख-दुख घटनाएं हैं, जिनका मेरे और तेरे से कुछ लेना-देना नहीं है। सुख-दुख बाहर परिधि पर घटते हुए धूप-छाया के खेल हैं, जो मेरे आंतरिक केंद्र को छूते भी नहीं, जिनसे मैं अस्पर्शित रह जाता हूं।
सत्य.।
सत्य से इतना ही अर्थ नहीं है कि सच बोलना। सत्य से अर्थ है, प्रामाणिक होना, आथेंटिक होना। सत्य से अर्थ है, जैसे आप भीतर हैं, वैसे ही बाहर होना। लेकिन लोग सत्य का यह अर्थ नहीं लेते। लोग सत्य का अर्थ लेते हैं, सच बोलना। वह सिर्फ गौण हिस्सा है।
और सच बोलना.हमारा मन जैसा चालाक है, उसमें हम सच बोलने का भी दुरुपयोग कर लेते हैं। हम तब सच बोलते हैं, जब सच से दूसरे को चोट पहुंचती हो। और अगर दूसरे को चोट पहुंचाने का मौका हो, तो हम कहते हैं, हम झूठ कैसे बोल सकते हैं! सच बोलना ही पड़ेगा। खुद पर चोट पहुंचती हो, तो हमारे तर्क बदल जाते हैं।
मैंने सुना है, एक सुबह मुल्ला नसरुद्दीन अपनी छपरी में बैठा हुआ है। अचानक वर्षा का झोंका आया। गांव का जो मौलवी है, वह पानी की बूंदें पड़ीं तो तेजी से भागा। नसरुद्दीन ने कहा, रुको, यह परमात्मा का अपमान है। मौलवी भी घबड़ा गया; क्योंकि नसरुद्दीन वजनी आदमी था। और गांव में खबर हो जाए। और उससे कह रहा था, तो उसका कुछ मतलब होगा। उसने कहा, क्या मतलब? तो उसने कहा, जब परमात्मा वर्षा कर रहा है, तो तुम उसका अपमान कर रहे हो भागकर। धीमे-धीमे जाओ। मौलवी को भी बात समझ में आई। बेचारा धीरे-धीरे घर तक गया; भीग गया वर्षा में। बूढ़ा आदमी था, बुखार आ गया।
वह तीसरे दिन अपने बिस्तर में बुखार में बैठा हुआ था, तब उसने खिड़की से देखा कि वर्षा का फिर झोंका आया और नसरुद्दीन बाजार से भागा जा रहा है। तो उसने कहा, रुक, नसरुद्दीन! भूल गया? तो नसरुद्दीन रुका नहीं, भीतर भागता हुआ घर में आया और उसने कहा कि नहीं, भूला नहीं। इसीलिए भाग रहा हूं कि परमात्मा पानी गिरा रहा है, उसके पानी पर कहीं मेरे नापाक पैर न पड़ जाएं। गंदा आदमी हूं, नहाया भी नहीं। ये गंदे पैर उसके पानी पर न पड़ जाएं, इसीलिए तो भाग रहा हूं। भूला नहीं हूं।
बस, यही हमारे सबके तर्क हैं। जब खुद पर चोट पड़ती हो, तो हम झूठ को सच बना लेते हैं। जब दूसरे पर चोट पड़ती हो, तो हम सच का भी झूठ की तरह उपयोग करते हैं, हिंसक उपयोग करते हैं।
कुछ लोग सच बोलने में बड़ा रस लेते हैं, क्योंकि सच से काफी चोट पहुंचाई जा सकती है। तब मजे की बात यह है कि झूठ बोलकर भी हम दूसरे को नुकसान पहुंचाते हैं और सच बोलकर भी नुकसान पहुंचाते हैं। हमारा लक्ष्य सदा एक है; हिंसा हमारा लक्ष्य है।
इसलिए सत्य का अर्थ केवल सच बोलना नहीं है। सत्य का अर्थ है, प्रामाणिक होना। सत्य का अर्थ है कि जैसा मैं भीतर हूं, वैसा ही बाहर होना, परिस्थिति की बिना फिक्र किए कि क्या होगा परिणाम। इसे थोड़ा समझ लें।
जो व्यक्ति परिणाम की चिंता करता है, वह सत्य नहीं हो सकता। क्योंकि कई बार अच्छे परिणाम झूठ से आ सकते हैं। कम से कम जहां तक हमें दिखाई पड़ता है, वहां तक आ सकते हैं।
एक आदमी को फांसी लग रही है, आप झूठ बोल दें, बच सकता है वह आदमी। झूठ बोलने से, आपके देखने में तो जहां तक मनुष्य की बुद्धि जाती है, यह परिणाम हो रहा है कि एक आदमी का जीवन बच रहा है। अगर परिणाम की आप चिंता करेंगे, तो सौ में निन्यानबे मौकों पर लगेगा कि झूठ से अच्छे परिणाम आ सकते हैं, सत्य से बुरे परिणाम आ सकते हैं।
सत्य का अर्थ है कि परिणाम की चिंता ही मत करना। जैसा हो, उसे बेशर्त, बिना आगे-पीछे देखे, वैसा ही रख देना। भविष्य को सोचना ही मत, फल को सोचना ही मत।
कृष्ण का बहुत जोर है इस बात पर कि जो फल को सोचेगा, वह भटक जाएगा। जैसा हो, वैसा उसे प्रकट कर देना; अपने को बाहर-भीतर एक-सा कर देना, अपने को उघाड़ देना, सत्य है। और वह दैवी संपदा का अनिवार्य हिस्सा है।
अक्रोध.।
साधारणतः आप सोचते हैं कि कभी-कभी आप क्रोध करते हैं। यह बात झूठ है, यह बात बिलकुल ही झूठ है। आप चौबीस घंटे क्रोध में रहते हैं। कभी-कभी क्रोध उबलता है और कभी-कभी कुनकुना रहता है, बस। कुनकुने की वजह से पता नहीं चलता। क्योंकि उसकी आपको आदत है। उतने में तो आप जी ही रहे हैं सदा से।
आप अपने को पहचानें, निरीक्षण करें, तो आपको समझ में आएगा कि चौबीस घंटे आप में हल्का-सा क्रोध बना रहता है। कभी इस चीज के प्रति, कभी उस चीज के प्रति। कभी कोई भी कारण न हो, तो अकारण। अगर आपको चौबीस घंटे कमरे में बंद कर दिया जाए, जहां कोई कारण न दे आपको क्रोधित होने का, तो भी आप क्रोधित होंगे। तो आप इस पर ही क्रोधित होने लगेंगे कि कुछ भी नहीं हो रहा है; कोई भी नहीं है! कि मैं यहां बैठा क्या कर रहा हूं! कि मुझे यहां क्यों बिठाया गया है! अकेले में क्यों छोड़ा गया है!
क्रोध आपकी दशा है। हम सब सोचते हैं कि क्रोध घटना है। इसलिए हम सोचते हैं, क्रोध कभी-कभी आता है, यह कोई ऐसी बात नहीं है कि सदा है। लेकिन क्रोध सदा है। कभी-कभी कोई चिनगारी डाल देता है, तो आपकी बारूद भभक उठती है। लेकिन बारूद सदा है। बारूद न हो, तो चिनगारी डालने से भी भभकेगी नहीं।
अक्रोध का अर्थ है, चौबीस घंटे एक शांत स्थिति। यह तभी हो सकता है, जब आप दूसरे को दोष देना बंद कर दें।
क्रोध का तर्क क्या है? क्रोध का तर्क एक ही है कि दूसरा भूल-चूक कर रहा है, दूसरा गलत कर रहा है। दूसरा ऐसा कर रहा है, जैसा उसको नहीं करना चाहिए। इससे आप भभकते हैं।
अक्रोध की भाव-दशा तब निर्मित होगी, जब आप समझेंगे कि दूसरा जो कर रहा है, वह वही कर सकता है। दूसरा उसको इससे अन्यथा करने का उपाय नहीं है। अगर एक आदमी आपको गाली दे रहा है, तो आप सोचते हैं, इसे गाली नहीं देनी चाहिए। यह आदमी गलती कर रहा है, बुरा कर रहा है। इसलिए क्रोध भभकता है।
अगर आप इस आदमी का पूरा अनंत जीवन जानते हों अतीत का, तो आप कहेंगे, यह गाली इसमें ऐसे ही लग रही है, जैसे किसी पौधे में फूल लगते हैं। वे बीज में ही छिपे थे। बढ़ते-बढ़ते-बढ़ते वृक्ष बड़ा होता है, फिर फूल आते हैं। वे फूल कड़वे होते हैं, कि सुगंधित होते हैं, कि सुंदर होते हैं, कि कुरूप होते हैं, यह बीज में ही छिपे थे।
ये गालियां इस आदमी में लग रही हैं, इसका मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है। यह इस आदमी का स्वभाव है, यह इस आदमी के जीवन का ढंग है, यह इसकी उपलब्धि है कि गालियां बक रहा है। मैं सिर्फ बहाना हूं। अगर मैं यहां न होता, तो कोई दूसरा इसकी गाली खाता; वह भी नहीं होता, तो कोई तीसरा गाली खाता; कोई भी नहीं होता, तो यह शून्य में गाली देता; लेकिन गाली देता। यह गाली इसके कर्मों की अभिव्यक्ति है।
अक्रोध तब पैदा होगा, जब आप समझेंगे कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति में चल रहा है। आपसे कुछ लेना-देना नहीं है। आपसे रास्ते पर मिलना हो जाता है, इससे आप अकारण परेशान न हों।
एक झेन फकीर हुआ, रिंझाई। वह अपने शिष्यों को नाव में ले जाता था। और जब वह नाव को ले जाता, तो एक किनारे पर उसने एक मल्लाह रख छोड़ा था। एक झाड़ी की आड़ में वह मल्लाह एक नाव को छिपाए रखता। जब इसकी नाव निकलती, तो खाली नाव को वह झाड़ी के भीतर से धक्का देता। वह खाली नाव आकर रिंझाई की नाव को टकरा जाती। कोई भी कुछ नहीं बोलता, क्योंकि खाली नाव से क्या गाली बकनी, क्या झगड़ा करना। शिष्य भी हिल-डुलकर बैठकर रह जाते। फिर दुबारा कभी वह मल्लाह नाव में बैठकर और टक्कर देता; तब वे सारे शिष्य उबल पड़ते।
तो रिंझाई कहता कि एक दफे पहले भी यह हुआ था, जब नाव हमसे टकरा गई थी, तुम सब चुप रहे थे। वे कहते, तब यह आदमी उसमें नहीं था। और खाली नाव को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। खाली नाव से क्या कहना! संयोग की बात है। लेकिन यह आदमी बैठा है, यह रिस्पांसिबल है, यह जिम्मेवार है, इससे झगड़ा किया जा सकता है। लेकिन रिंझाई कहता कि आदमी बैठा हो, या न बैठा हो, यह संयोग की बात है कि नाव टकरा गई। और तुम दोनों स्थितियों में एक-सा व्यवहार करो, तो अक्रोध जन्मेगा!
कोई व्यक्ति क्या कर रहा है, वह उसकी अपनी नियति है। तुम अकारण उसे अपने ऊपर मत लो। तुम व्यर्थ ही मत समझो कि सारी दुनिया तुम पर हंस रही है; कि सारी दुनिया तुम्हारे संबंध में ही फुस-फुस कर रही है; कि सारे लोग तुम्हारे संबंध में सोच रहे हैं, कि तुम्हें कैसे बरबाद कर दें; कि सब तुम्हारे दुश्मन हैं। किसी को तुम्हारे लिए इतनी फुरसत नहीं है। सब अपने-अपने गोरखधंधे में लगे हैं। तुम अकारण बीच में खड़े हो। तुम व्यर्थ ही बीच में चीजें झेल लेते हो।
जैसे ही कोई व्यक्ति इस बात को ठीक से देखने लगता है कि हर व्यक्ति अपने ढंग से जा रहा है, और जो भी उसमें हो रहा है, वही उसमें हो सकता है, तब एक स्वीकृति पैदा होती है; तब क्रोध नहीं जन्मता; तब तथाता का भाव निर्मित होता है। तब हम कहते हैं कि जो होना था, वह हुआ है। इस व्यक्ति से जो हो सकता था, इसने किया है। तब अक्रोध।
अक्रोध बहुमूल्य है; दैवी संपदा में बड़ा मूल्यवान है। और ये दैवी संपदा के जो सूत्र हैं, इनमें से एक सध जाए, तो दूसरे अपने आप सध जाते हैं। इसलिए ऐसा मत सोचना कि एक-एक को साधना पड़ेगा। एक भी सध जाए, तो उसके पीछे दूसरे गुण अपने आप चले आते हैं, क्योंकि वे सब गुण संयुक्त हैं।
जो आदमी अक्रोध साधेगा, उसकी अहिंसा अपने आप सध जाएगी। जो आदमी अक्रोध साधेगा, वह अभय हो जाएगा। क्योंकि जो क्रोध ही नहीं करता, अब उसको भयभीत कौन कर सकता है? अगर वह भयभीत हो सकता था, तो क्रोधित होता। क्योंकि क्रोध भयभीत हो जाने के बाद अपनी रक्षा का उपाय है; वह डिफेंस मेजर है। उसके द्वारा हम अपना बल जगाते हैं और तत्पर हो जाते हैं कि आ जाओ, हम निपट लें। वह भय की सुरक्षा है।
और जो आदमी अक्रोध को उपलब्ध हो गया, जो कहता है, प्रत्येक व्यक्ति अपनी नियति से चल रहा है, मैं भी अपनी नियति से चल रहा हूं, वह क्यों छिपाएगा कुछ! किससे छिपाना है? परमात्मा के सामने मैं उघड़ा हुआ हूं। और यहां किससे क्या छिपाना है! किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। तब वह आदमी खुली किताब की तरह हो जाएगा।
ये सब गुण संयुक्त हैं। चर्चा के लिए अलग-अलग ले लिए हैं। इससे आप ऐसा मत समझना कि ये अलग-अलग हैं। और आपको इतने गुण साधने पड़ेंगे! आप नाहक घबड़ा जाएंगे। आप सोचेंगे, इतने गुण! अपने बस के बाहर है। और इतनी छोटी जिंदगी! यह होने वाला नहीं है। इनमें से एक साध लें, और आप पाएंगे कि बाकी उनके पीछे आने शुरू हो गए हैं।
त्याग.।
एक तो रस है भोग का, जिसे हम जानते हैं। एक और रस है त्याग का, जिसे हम नहीं जानते हैं। या शायद कभी-कभी कोई क्षण में हम जानते हैं। कभी आपने देखा; जब आप किसी को कुछ देते हैं, तो एक खुशी आपको पकड़ लेती है। किसी को सहारा दे देते हैं, कोई रास्ते पर गिर रहा हो और आप हाथ बढ़ा देते हैं; एक अहोभाव, एक आनंद की थिरक आप में समा जाती है। हृदय में कुछ संगीत बजने लगता है।
जब भी आप कुछ छोड़ते हैं, तभी आपके भीतर कुछ फैलता है। आप थोड़े से विराट हो जाते हैं। इसकी झलकें सबको मिलती हैं। उन झलकों को अगर हम समाहित करते जाएं, उन झलकों को अगर हम धीरे-धीरे विकसित करते जाएं, उनका अभ्यास गहन होने लगे, वे झलकें हमारे जीवन का पथ बन जाएं, तो उस पथ का नाम त्याग है।
त्याग का अर्थ है, देने का सुख, छोड़ने का सुख। और यह कोई कल्पना नहीं है, यह कोई दार्शनिक बात नहीं है। छोड़ते ही सुख मिलता है। पर हम एक ही सुख जानते हैं, पकड़ने का सुख। और मजे की बात यह है कि हमने कभी दोनों की तुलना भी नहीं की है।
दो फकीरों के संबंध में मैंने सुना है। उनमें बड़ा विवाद था। विवाद एक छोटी-सी बात को लेकर था कि एक फकीर कुछ पैसे पास रखता था, और एक फकीर कुछ भी पैसे पास नहीं रखता था। जो पास पैसे नहीं रखता था, वह कहता था, छोड़ने में आनंद है, पकड़ने में दुख है। जो पास पैसे रखता था, वह कहता था कि थोड़ा तो पकड़ना ही पड़े, नहीं तो बड़ा दुख होता है।
फिर वे एक नदी के किनारे पहुंचे। सांझ ढल गई, माझी नाव छोड़ने को था, उसने पैसे मांगे। इस तरफ रुकना खतरनाक था, जंगली जानवरों का डर था, उस तरफ जाना जरूरी था। तो जिसके पास पैसे थे, और जो पैसे का आग्रही था, उसने कहा, अब बोलो; अब तुम्हारा त्याग चलाओ! अब तुम्हारे पास जो त्याग की संपदा है, उसका उपयोग करो; हमें उस तरफ जाना है। पैसे मेरे पास हैं, अगर तुमसे कुछ न बन पड़े, तो मैं पैसे देता हूं, हम उस तरफ हो जाते हैं।
फकीर मुस्कुराता रहा, वह जो त्याग का पक्षपाती था। फिर जिसके पास पैसे थे, उसने पैसे दिए, वे नदी पार किए। नदी पार करके जिसके पास पैसे थे, उसने कहा, अब बोलो!
उस पहले फकीर ने कहा, लेकिन त्याग से ही हम पार हुए। तुम पैसे छोड़ सके, तुम पैसे दे सके, इसीलिए हम पार हुए हैं। पैसे होने से हम पार नहीं हुए हैं; पैसा छोड़ने से ही पार हुए हैं। और अगर मैं पार नहीं हो रहा था, तो उसका कारण यह नहीं था कि मेरा त्याग बाधा था; मेरे पास और त्याग की सुविधा न थी, और छोड़ने को नहीं था; बस। तकलीफ मेरे त्याग की नहीं थी, त्याग मेरा कम पड़ रहा था, और मेरे पास छोड़ने को नहीं था; थोड़ा और त्याग करने की जरूरत थी। तुम कर सके। लेकिन सही मैं ही हूं। हम छोड़ने से इस पार आए।
लेकिन हमें एक ही अनुभव है, इकट्ठा करने का। जैसा मैं देखता हूं। देखता हूं, जैसे-जैसे लोगों का धन बढ़ता है, वे दुखी होते जाते हैं। तब वे सोचते हैं कि शायद धन में दुख है। और तब शास्त्रों में उनको सहारा भी मिल जाता है कि धन से कोई सुख नहीं मिलता।
मेरी धारणा बिलकुल भिन्न है। धन से सुख मिल सकता है, अगर धन त्यागने की क्षमता हो। धन से दुख मिलता है, अगर पकड़े बैठे रहो। धन से कोई दुख नहीं पाता, कंजूसी से लोग दुख पाते हैं। धन क्यों दुख देगा? लेकिन धन छोड़ नहीं पाते।
और मजबूरी यह है कि जितना ज्यादा हो, उतना ही छोड़ना मुश्किल हो जाता है। जिसके पास एक पैसा है, वह एक पैसा दान दे सकता है; लेकिन जिसके पास एक करोड़ रुपया हो, वह एक करोड़ दान नहीं दे सकता। हालांकि दोनों के दान बराबर हैं। क्योंकि एक पैसा उसकी कुल संपदा है। औसत बराबर है। एक करोड़ दूसरे की कुल संपदा है। लेकिन जिसके पास एक पैसा है, वह पूरा दान दे सकता है; जिसके पास एक करोड़ रुपया है, वह पूरा दान नहीं दे सकता।
जितना ज्यादा धन हो, उतनी ही पकड़ने की वृत्ति बढ़ती है। जितना हम पकड़ लेते हैं, उतना ही और पकड़ना चाहते हैं। फिर दुखी होते हैं। अगर आज अमेरिका दुखी है, तो धन के कारण नहीं, धन की पकड़ के कारण।
इस फर्क को आप ठीक से समझ लेना। धन से कोई दुखी नहीं होता। और थोड़ी अकल हो, तो धन से आदमी सुखी हो सकता है। और बेअकल आदमी हो, तो निर्धन होकर भी दुखी होता है, धनी होकर भी दुखी होता है।
निर्धन का दुख समझ में आता है। मगर मजे की बात यह है कि निर्धन का भी दुख निर्धनता का दुख नहीं है। उसका भी दुख यही है कि पकड़ने को कुछ भी नहीं है। हाथ खाली है। धनी का दुख यह है कि हाथ भर गए हैं, छोड़ने की हिम्मत नहीं है।
जो भी छोड़ने की कला सीख लेता है--त्याग उस कला का नाम है--जीवन के आनंद के द्वार उसके लिए निरंतर खुलते जाते हैं। जितना ज्यादा छोड़ सकता है, उतना ही ज्यादा हलका होता जाता है। जितना छोड़ सकता है, उतनी ही आत्मा विकसित होती है। क्योंकि जितना हम पकड़ते हैं, उतने पदार्थ हम पर इकट्ठे होते जाते हैं, उसमें हम दब जाते हैं। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे ढेर लग जाता है वस्तुओं का; हमारा कुछ पता ही नहीं रहता कि हम कहां हैं!
त्याग दैवी संपदा का हिस्सा है।
शांति और किसी की भी निंदादि न करना.।
शांत होना हम भी चाहते हैं। लेकिन हम तभी शांत होना चाहते हैं, जब हम अशांत होते हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, बड़े अशांत हैं; शांति का कुछ रास्ता बताइए। ये लोग वे हैं, जिनके घर में जब आग लग जाए, तब वे कुआं खोदना शुरू करते हैं। इनका घर बचेगा नहीं। कुआं पहले खोदना पड़ता है।
जब आप पूरी तरह अशांत हैं, तब शांत होना बहुत मुश्किल है। लेकिन जब आप अशांत नहीं हैं, तब शांत होना बहुत आसान है। और जब आप अशांत नहीं हैं, तब अगर आप शांत होना सीख लें, तो अशांत होने की कोई जरूरत ही न होगी। घर में कुआं हो, तो शायद आग लगेगी ही नहीं। लग भी जाए, तो बुझाई जा सकती है।
तो आप जब अशांत हो जाएं, तब शांति की तलाश मत करें। यह तलाश ऐसी नहीं होनी चाहिए कि जब बुखार आ जाए, तब आप चिकित्सक की खोज पर चले जाते हैं। अब तो चिकित्साशास्त्री भी कहते हैं कि यह ढंग गलत है, आदमी जब बीमार हो जाए, तब उसका इलाज करना; बड़ी देर कर दी।
तो रूस में उन्होंने एक नई व्यवस्था ईजाद की है, वह यह कि डाक्टरों को तनख्वाह मिलती है बीमारों का इलाज करने के लिए नहीं, अपने मरीजों को बीमार न पड़ने देने के लिए। रूस में उन्होंने व्यवस्था बदली और सारी दुनिया में वह व्यवस्था आज नहीं कल हो ही जानी चाहिए।
तो हर डाक्टर के हिस्से में मरीज हैं। मरीज का मतलब वे बीमार नहीं हैं; लेकिन उनको बीमार नहीं होने देना है। तो उनको चेक करते रहना है, उनकी फिक्र करते रहना है, बीमारी के पहले इलाज कर देना है। क्योंकि बीमारी के बाद इलाज करना अत्यंत जटिल हो जाता है। बीमारी अलग परेशान करती है, इलाज अलग परेशान करता है।
कुछ लोग बीमारी से मरते हैं, ज्यादा लोग डाक्टरी से मरते हैं। किसी तरह बीमारी से बच गए, तो फिर डाक्टर से बचना बहुत मुश्किल है। औषधियां! फिर जहर को काटना हो, तो और जहर डालना पड़ता है। सारी औषधियां जहर हैं। फिर दो जहरों की लड़ाई आपके भीतर होती है, और आप केवल कुरुक्षेत्र हो जाते हैं। आप कुछ नहीं रह जाते फिर, दो जहर लड़ते हैं। फिर आपकी जो मट्टी पलीद उन दो जहरों के लड़ने में होती है, आप स्वस्थ भी हो जाएंगे, तो भी कभी स्वस्थ नहीं हो पाएंगे। बीमारी भी चली जाएगी, तो आपको मुर्दा छोड़ जाएगी। आप मरे हुए जीएंगे।
जब आप अशांत हो जाते हैं, तब शांत होना कठिन है। लेकिन इतनी देर रुकने की जरूरत क्या है? शांति तो साधी जा सकती है। शांति को तो जीवन का उठते-बैठते, रोजमर्रा का भोजन बनाया जा सकता है।
इसको ध्यान रखें कि आपको शांत रहना है। घर लौटे हैं, तो दरवाजे पर दो क्षण रुक जाएं, क्योंकि पत्नी कुछ कहेगी। वह दिन भर से अशांत है, वह अशांति आप पर फेंकेगी। दो क्षण रुक जाएं, तैयार हो जाएं। तैयारी का मतलब यह कि मैं शांत रहूंगा, चाहे पत्नी कुछ भी कहे; मैं इसको नाटक से ज्यादा नहीं समझूंगा। दया करूंगा, क्योंकि बेचारी परेशान है।
मुल्ला नसरुद्दीन की लड़की का विवाह हुआ। तो लड़की दहाड़ मार-मार कर, छाती पीट-पीट कर रो रही थी। सब समझा रहे थे, वह सुन नहीं रही थी। फिर मुल्ला उसके पास गया। उसने कहा, बेटी, तू मत रो; तुझे ले जाने वाले रोएंगे। तू मेरी बेटी है; तू बिलकुल मत घबड़ा; थोड़ी देर की बात है। थोड़ा धैर्य रख!
जीवन में चारों तरफ विक्षिप्त लोग हैं, दुखी लोग हैं। वे अपने दुख और विक्षिप्तता को फेंक रहे हैं। फेंकने के सिवाय उनके पास जीने का कोई ढंग नहीं है, उपाय नहीं है। फेंकते हैं, तो थोड़ा जी लेते हैं। यह उनकी कैथार्सिस है। अगर आप उसके शिकार हो जाते हैं, अगर आप उससे उद्विग्न होते हैं, अशांत होते हैं, तो फिर आपके जीवन में शांति का स्वर कभी भी नहीं बज पाएगा।
क्योंकि चारों तरफ अशांत लोग हैं, तो आपको शांति साधनी होगी, और आपको सजग रहना होगा। चारों तरफ बीमार लोग हैं, आपको अपने चारों तरफ एक कवच निर्मित करना होगा, एक मिल्यू, एक वातावरण आपके चारों तरफ, कि चाहे कोई कुछ भी फेंके, आप अपनी शांति में थिर रहेंगे। थोड़े से होश की जरूरत है। यह हो जाता है।
इसे थोड़ा प्रयोग करके देखें। जब पत्नी नाराज हो रही हो, तब आप खड़े होकर देखें कि आप नाटक देख रहे हैं। इससे वह और भी नाराज होगी, यह भी ध्यान रखना। मगर तब आप और प्रसन्न होकर उसको देखना।
अगर दो व्यक्तियों में एक व्यक्ति क्रोधित हो रहा हो और दूसरा नाटक की तरह देखता रहे, तो यह नाटक ज्यादा देर चल नहीं सकता। यह बढ़ेगा, उबलेगा, लेकिन फूट जाएगा, बिखर जाएगा, क्योंकि इसे बढ़ाने के लिए दोनों तरफ से सहारा चाहिए। समझदार पति-पत्नी निर्णय कर लेते हैं कि जब एक उपद्रव करेगा, तो दूसरा शांत रहेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन किसी को कह रहा था कि मेरे घर में कभी झगड़ा नहीं होता। दूसरे ने कहा कि यह मानने योग्य नहीं है। यह असंभव है कि घर हो और झगड़ा न हो! घर यानी झगड़ा। तुम झूठ बोल रहे हो। नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, हमने पहले ही दिन एक बात तय कर ली, और वह बात यह तय कर ली कि सब छोटे-छोटे मसले पत्नी तय करेगी, बड़े-बड़े मसले मैं तय करूंगा। बड़े-बड़े मसले आज तक आए नहीं और कभी आएंगे भी नहीं, क्योंकि पहले ही पत्नी तय कर देती है कि सब छोटे मसले हैं। तो वही तय कर रही है।
इंग्लैंड में एक आदमी एक सौ बीस वर्ष तक जीया। तो उसकी एक सौ बीसवीं वर्षगांठ पर लोगों ने उससे पूछा कि कैसे तुम इतने स्वस्थ हो?
उसने कहा कि हमने एक निर्णय कर लिया शादी के वक्त कि जब भी पत्नी नाराज होगी, मैं घर के बाहर चला जाऊंगा। तो यह अस्सी साल की घर के बाहर की जिंदगी, यह मेरे स्वास्थ्य का कारण है! क्योंकि मैं अक्सर बाहर ही घूमता रहा हूं। घर तो कभी-कभी भीतर जाता हूं, फिर ज्यादातर मुझे बाहर ही, आउट डोर!
चारों तरफ विक्षिप्तता है सभी संबंधों में। और अगर आप अपने को सम्हालकर नहीं चल रहे हैं, तो इतनी विक्षिप्त दुनिया में आप शांत नहीं रह सकते। और दूसरे को जिम्मेवार मत समझें। दूसरा जिम्मेवार है नहीं; वह अपने से परेशान है। कोई आपको परेशान करना नहीं चाह रहा है; वह अपने से परेशान है। परेशानी कोई कहां फेंके! जो निकट हैं, उन्हीं पर फेंकी जाती है।
तो जो व्यक्ति बिना अशांत हुए, सारी उपद्रवों की स्थिति में एक सूत्र ध्यान रखता है कि मुझे शांत रहना है चाहे कुछ भी हो, वह थोड़े ही दिनों में इस कला में पारंगत हो जाता है।
किसी की भी निंदादि न करना.।
बड़ा रस आता है किसी की निंदा करने में, क्योंकि किसी की निंदा परोक्ष में अपनी प्रशंसा है। जब भी आप कहते हैं, फलां आदमी बुरा है, तो आप भीतर से यह कह रहे हैं कि मैं अच्छा हूं। जब आप सिद्ध कर देते हैं कि फलां आदमी चोर है, आपने सिद्ध कर लिया कि मैं अचोर हूं।
और अक्सर चोर दूसरों को चोर सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं, क्योंकि यही उपाय है उनके पास। अगर यहां कोई किसी की जेब काट ले, तो जेबकतरे को बचने का सबसे अच्छा उपाय यह है
कि वह सबसे ज्यादा शोरगुल मचाए कि बहुत बुरा हुआ; चोरी नहीं होनी चाहिए; पकड़ो, किसने चोरी की! यह सबसे अच्छा उपाय है। उसको तो आप भूल ही जाएंगे कि यह आदमी चोरी कर सकता है।
जितने बुरे लोग हैं, वे दूसरे की निंदा में संलग्न हैं। वे इतना शोरगुल मचा रहे हैं दूसरे की बुराई का कि कोई सोच भी नहीं सकता कि ये बुरे हो सकते हैं। इसलिए साधु भी जब दूसरे की निंदा कर रहा हो, तब समझना कि साधुता खोटी है।
निंदा का एक ही प्रयोजन है, वह अपनी बुराई को छिपाना है। दूसरे की बुराई को हम जितना बड़ा करके बताते हैं, उतनी अपनी बुराई छोटी मालूम पड़ती है। अगर आपको पता चल जाए कि सब बेईमान हैं, तो आपको लगता है, फिर अपनी बेईमानी भी स्वीकार योग्य है। इसमें हम कुछ नया नहीं कर रहे हैं; हम कुछ ज्यादा बुरे नहीं हैं; दूसरों से हम बेहतर हैं।
दूसरे की निंदा का इसीलिए इतना रस है। जहां भी चार आदमी मिलते हैं, बस, चर्चा का एक ही आधार है। उन चार में से भी एक चला जाएगा, तो वे तीन, जो चला गया उसकी निंदा शुरू कर देंगे। और वे तीन फिर भी नहीं सोचते कि हममें से कोई गया यहां से, कि बाकी दो हटते ही से यही काम करने वाले हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर आपके मित्र जो आपके संबंध में पीठ पीछे कहते हैं, उस सबका आपको पता चल जाए, तो दुनिया में एक भी मित्र खोजना मुश्किल है। आपके मित्र आपकी पीठ पीछे जो कहते हैं, अगर आपके सामने कह दें, आपको पता चल जाए, तो दुनिया में मित्रता असंभव है!
लेकिन पता तो चल ही जाता है। और मित्रता सच में ही असंभव हो गई है। मित्र होना मुश्किल है। जो आदमी भी निंदा में रस लेता है, उसका इस जगत में कोई भी मित्र नहीं हो सकता। जो दूसरे को ओछा करने में, नीचा करने में, बुरा करने में शक्ति लगाता है, वह भला अपने मन में सोच रहा हो कि अपने को अच्छा सिद्ध कर रहा है, वह इस कोशिश में ही बुरा होता जा रहा है।
भले आदमी का लक्षण दूसरे में भलाई को खोजना है। और हम जितनी भलाई दूसरे में खोज लेते हैं, उतना ही हमारे भले होने के आधार निर्मित होते हैं।
सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव.।
जो भी शास्त्र में कहा गया है, जो भी समाज की प्रचलित व्यवस्था है, उस व्यवस्था में जहां तक दखल न बने। जब तक कि आत्मा का ही कोई सवाल न हो, जब तक आपके आत्मिक जीवन पर ही कोई आघात न पड़ता हो, तब तक समाज और शास्त्र की जो व्यवस्था है, उसको खेल का नियम मानकर चलना उचित है।
खेल के नियम का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। वह ऐसे ही है, जैसे रास्ते पर बाएं चलो; कोई दाएं चलने में पाप नहीं है। क्योंकि कुछ मुल्कों में लोग दाएं चलते हैं, तो वहां बाएं चलना कठिन है। तो बाएं चलो या दाएं चलो, यह कोई मूल्य की बात नहीं है। लेकिन एक नियम, खेल का नियम है। बाएं चलने में सुविधा है, आपको भी, दूसरों को भी। अगर सभी लोग अपना नियम बना लें, तो रास्ते पर चलना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि कोई नियम शाश्वत नहीं, सब सापेक्ष हैं, सबकी उपयोगिता है।
इस बड़े जगत में, जहां बहुत लोग हैं, मैं अकेला नहीं हूं, किसी व्यवस्था को चुपचाप मानकर चलना उचित है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह व्यवस्था कोई शाश्वत सत्य है; इसका केवल इतना अर्थ है कि हमने एक खेल का नियम तय किया है, उस नियम को हम पालन करके चलेंगे।
और ध्यान रहे, खेल नियम पर निर्भर होता है; नियम हटा कि खेल गड़बड़ हो जाता है। अगर आप ताश के पत्ते खेल रहे हैं, तो नियम है। चार खिलाड़ी खेल रहे हैं, तो नियम है। उनमें एक भी नियम के विपरीत करने लगे, या कहने लगे कि मेरा अपना अलग नियम है, खेल खराब हो गया।
यह समाज भी पूरा का पूरा एक खेल है। वह ताश के पत्ते से कोई बड़ा खेल नहीं है। उसमें सब नियम हैं। कोई पति है, कोई पत्नी है; कोई बेटा है, कोई बाप है; कोई छोटा है, कोई बड़ा है; कोई पूज्य है; कोई शिष्य है, कोई गुरु है--वे सारे खेल हैं। उस खेल को मानकर चलना दैवी संपदा का लक्षण है। लक्षण इसलिए कि अकारण ऐसा व्यक्ति उलझन में नहीं पड़ता, न दूसरों को उलझन में डालता है।
कुछ लोग व्यर्थ ही उलझन में पड़ते हैं, उनका कोई सार भी नहीं है। आप अगर बाएं को छोड़कर दाएं चलने लगें, तो कोई बड़ी क्रांति नहीं हो जाएगी; सिर्फ आप मूढ़ सिद्ध होंगे।
आसुरी वृत्ति का जो व्यक्ति होता है, उसको हमेशा नियम तोड़ने में रस आता है, उच्छृंखल होने में रस आता है, विद्रोह में रस आता है। उसे लगता है, जब भी वह कुछ तोड़ता है, तब उसका अहंकार सिद्ध होता है। उसे आज्ञा मानना कठिन है, आज्ञा तोड़ना आसान है। उससे अगर कोई काम करवाना हो, तो उलटी बात कहनी उचित है। उससे अगर कहना हो कि सीधे बैठो, तो उससे कहना चाहिए कि सिर के बल बैठो, तो वह सीधा बैठ जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को समझा रहा है कि यह मत कर, वह मत कर। बेटा सुनता नहीं। वह नसरुद्दीन का ही बेटा है! आखिर नसरुद्दीन उससे परेशान आ गया और उससे बोला, अच्छा, अब तुझे जो करना हो कर। अब मैं देखूं, तू कैसे मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है! जो तुझे करना हो कर, यह मेरी आज्ञा है। अब मैं देखता हूं कि तू कैसे मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है!
वह जो आसुरी वृत्ति का व्यक्तित्व है, उसे तोड़ने का रस है। आप कुछ कहें, वह उसको तोड़ेगा। जो आपको न करवाना हो, उससे कहें कि करो, तो वह नहीं करेगा।
दैवी संपदा का व्यक्ति व्यर्थ उलझन में नहीं पड़ेगा। जो कामचलाऊ है, उसे स्वीकार कर लेगा, हां भर देगा। खेल के नियम हैं, उनको मान लेगा। जब तक कि उसके जीवन का ही कोई सवाल न हो, जब तक कि उसकी आत्मा का कोई सवाल न हो, तब तक उसमें विद्रोह का स्वर नहीं होगा।
और ध्यान रहे, जो छोटी-छोटी बातों में न कहता है, उसके पास न कहने की शक्ति बचती नहीं कि बड़े मौके पर न कह सके। जो छोटी-छोटी बातों में हां भरता है, जब जरूरत हो, तो उसके पास न कहने की शक्ति होती है। तो वह कह सकता है, नहीं। फिर उसकी नहीं को तोड़ा नहीं जा सकता।
इसलिए जिसको वस्तुतः क्रांतिकारी होना हो, उसको विद्रोही नहीं होना चाहिए; उसे व्यर्थ के नियम तोड़ने में नहीं लगना चाहिए, जिसे अगर जीवन का कोई वास्तविक अतिक्रमण करना हो।
तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर-भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु-भाव का न होना, अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव--ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
इन सारे लक्षणों में गहन भाव है, अहंकार-शून्यता। मैं पूज्य हूं, दूसरे मुझे पूजें, दूसरे मुझे आदर दें, ऐसा सबके मन में होता है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि अहंकार इसके सहारे ही निर्मित होगा और रक्षित होगा। मैं दूसरे को पूजूं, यह कठिन है। गुरु होना एकदम आसान है, शिष्य होना बहुत कठिन है। क्योंकि शिष्य होने का अर्थ है, किसी और की पूजा, किसी और के सामने समर्पण।
इसलिए अगर आपसे कोई दिल से पूछे कि ठीक दिल की बात बता दें, कि आप गुरु होना चाहते हैं कि शिष्य? तो भीतर से आवाज आएगी, गुरु होना चाहते हैं। और यह आवाज अगर भीतर है, तो आप शिष्य कभी भी नहीं हो सकते। तो अगर आप किसी के चरणों में भी झुकेंगे, तो भी झूठा होगा। और तरकीबें आप ऐसी करेंगे कि किसी भांति गुरु को ही झुका लें। कोई उपाय, कि किसी दिन गुरु आपके प्रति झुक जाए!
अहंकार का स्वाभाविक लक्षण है कि सारा जगत मुझे पूजे। और कठिनाई यह है कि जब तक अहंकार हो, तब तक कोई आपको पूजेगा नहीं। पूजा हो सकती है, पर वह सदा निर-अहंकार भाव की है। जिस दिन अहंकार मिट जाएगा, उस दिन शायद सारा जगत पूजे, लेकिन आपकी वह आकांक्षा नहीं है। और जगत पूजे या न पूजे, आपका समभाव होगा।
मैं मिटूं, ऐसा जिसका लक्ष्य है, वह व्यक्ति दैवी संपदा को उपलब्ध हो जाता है। मैं बनूं, मैं रहूं, मैं बचूं; चाहे सारा जगत मिट जाए मेरे मैं के बचाने में, तो भी मैं मैं को बचाऊंगा, ऐसा व्यक्ति आसुरी संपदा को उपलब्ध हो जाता है।
आज इतना ही।