BHAGWAD GEETA

Geeta Darshan Vol-14 08

Eighth Discourse from the series of 10 discourses - Geeta Darshan Vol-14 by Osho. These discourses were given in BOMBAY during DEC 01-10 1973.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्‌गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते।। 21।।
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्‌क्षति।। 22।।
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्‌गते।। 23।।
अर्जुन ने पूछा कि हे पुरुषोत्तम, इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है? और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है? तथा हे प्रभो, मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है?
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर बुरा समझता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है।
तथा जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है और गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलायमान नहीं होता है।
पहले प्रश्न।

पहला प्रश्न:
भगवान, साक्षी, द्रष्टा, चैतन्य सदा ही अलग कुंवारा और अनबंधा है। और सारी जीवन-लीला गुणों का ही स्वयं में वर्तन है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति से सत्व, रज, तम के गुणों को वैज्ञानिक या रासायनिक ढंग से शांत कर दिया जाए या व्यक्ति को सात्विक बना दिया जाए, तो क्या वह उस हमेशा से मुक्त साक्षी को उपलब्ध हो जाएगा? यदि साक्षी सदा ही मुक्त एवं उपस्थित है, तो त्रिगुणों को रासायनिक ढंग से बदल देने पर वह क्या प्रकट न हो जाएगा? क्या व्यक्ति तब धार्मिक नहीं हो जाएगा? त्रिगुणों से उत्पन्न समस्या को रासायनिक ढंग से हल करने में या साधना के माध्यम से हल करने में क्या मौलिक भिन्नता है?
प्रश्न महत्वपूर्ण है और बहुत गहरे से समझने की जरूरत है। इसलिए महत्वपूर्ण है कि पश्चिम में वैज्ञानिक उन विधियों को खोज लिए हैं, जिनसे मनुष्य का रासायनिक परिवर्तन हो सकता है, जिनसे मनुष्य के शारीरिक गुणधर्म बदले जा सकते हैं। और निश्चित ही, उसका आचरण भिन्न हो जाएगा।
आपके भीतर क्रोध का जो विषाक्त रासायनिक द्रव्य है, वह अलग किया जा सकता है। उसके विपरीत तत्व आपके शरीर में डाले जा सकते हैं, जो आपके आचरण को सौम्य और शांत बना देंगे। लेकिन ध्यान रखें, आचरण को, आपको नहीं।
आपकी कामवासना को बिना किसी साधना के, मात्र शारीरिक परिवर्तन से क्षीण किया जा सकता है; नष्ट भी किया जा सकता है। वासना जगाई भी जा सकती है, मिटाई भी जा सकती है।
यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है कि पश्चिम में अब हमारे पास साधन उपलब्ध हैं पहली दफा मनुष्यता के इतिहास में, जब हम आदमी को बिना साधना में उतारे भी आचरण की दृष्टि से बदल सकते हैं। लेकिन यह बदलाहट ऊपरी होगी, और इस बदलाहट से कोई आत्मिक उत्थान नहीं होगा। बल्कि आत्मिक उत्थान की सारी संभावना ही नष्ट हो जाएगी। उत्थान तो होगा ही नहीं, जिन परिस्थितियों के कारण उत्थान हो सकता था, वे परिस्थितियां भी मिट जाएंगी।
आपके भीतर क्रोध दो घटनाओं पर निर्भर है। एक तो आपके शरीर में क्रोध के परमाणु चाहिए, हार्मोन चाहिए, रस चाहिए। और दूसरा, इन रसों के साथ चेतना को जोड़ने का तादात्म्य और भ्रांति चाहिए। इन दो बातों पर निर्भर है।
कामवासना के लिए आपके शरीर में काम के तत्व चाहिए, और उन काम के तत्वों से जुड़ने की आकांक्षा चाहिए, एक होने की आकांक्षा चाहिए। अगर काम के तत्व भीतर न हों, तो आप जुड़ना भी चाहें तो भी जुड़ न सकेंगे; कामवासना में उतरना चाहें, तो भी उतर न सकेंगे। इसलिए आचरण आपका ब्रह्मचारी जैसा हो जाएगा। यद्यपि वह ब्रह्मचर्य नपुंसकता का दूसरा नाम होगा। लेकिन भीतर कोई क्रांति घटित न होगी।
यह ऐसे ही है, जैसे मेरे हाथ में तलवार हो। तलवार के बिना मैं किसी की गर्दन न काट पाऊंगा। तलवार मेरे हाथ से छीन ली जाए, तो मैं गर्दन नहीं काट पाऊंगा। इसलिए मेरा आचरण तो भिन्न हो जाएगा। गर्दन काटने का उपाय न होगा। लेकिन गर्दन सिर्फ तलवार के कारण मैं नहीं काट रहा था। तलवार तो केवल उपकरण थी। भीतर मैं था, हिंसा से भरा हुआ। भीतर मेरी वृत्ति थी दूसरे को नष्ट करने की, वह मेरे भीतर मौजूद रहेगी।
तलवार भी मेरे हाथ में हो और भीतर मेरी वृत्ति न रह जाए, तो मैं गर्दन नहीं काटूंगा। गर्दन काटने के लिए दो चीजें जरूरी हैं, मेरे भीतर मूर्च्छा चाहिए और हाथ में तलवार चाहिए। और जब इन दोनों का संयोग हो जाएगा, तो गर्दन कटेगी। इन दो में से एक भी हटा लिया जाए, तो आचरण बदल जाएगा।
अगर भीतर का तत्व हटा लिया जाए, तो आचरण भी बदलेगा और आत्मा भी बदलेगी। अगर बाहर का तत्व हटा लिया जाए, तो केवल आचरण बदलेगा, आत्मा नहीं बदलेगी। और आत्मिक क्रांति आचरण के बदलने से नहीं होती। आत्मिक क्रांति आत्मा के बदलने से होती है। आचरण तो केवल छाया की भांति है।
इस बात पर हमारा जोर नहीं है कि आपके आचरण में ब्रह्मचर्य हो। जोर इस बात पर है कि आपके भीतर ब्रह्मचर्य हो। वह भीतर का ब्रह्मचर्य बाहर के ब्रह्मचर्य को छाया की भांति ले आएगा। लेकिन रासायनिक प्रक्रियाओं से आपका आचरण बदला जा सकता है। भीतर आप वही होंगे, क्योंकि आपकी आत्मा कोई साक्षीभाव को उपलब्ध नहीं हो जाएगी।
और ध्यान रहे, साक्षीभाव किसी रासायनिक द्रव्य पर निर्भर नहीं है। ऐसा कोई रासायनिक तत्व नहीं है, जिसका इंजेक्शन देने से आप में साक्षीभाव पैदा हो जाए। साक्षीभाव तो आपको साधना होगा; क्रमशः उपलब्ध करना होगा। वह लंबे संघर्ष का परिणाम होगा, निष्पत्ति होगी। साक्षीभाव तो एक आंतरिक ग्रोथ, विकास है।
रासायनिक द्रव्यों से आचरण बदला जा सकता है। इसलिए ध्यान रखें, जो लोग धर्म को मात्र आचरण समझते हैं, उनका धर्म दुनिया में ज्यादा दिन टिकेगा नहीं। क्योंकि जिन-जिन बातों को वे धर्म कहते हैं, वह तो वैज्ञानिक कर सकेगा। ऐसा धर्म तो मरने के कगार पर पहुंच गया है। मैं जिसे धर्म कहता हूं, वही टिक सकता है भविष्य में।
जो लोग कहते हैं, अच्छा आचरण धार्मिकता है, उनके धर्म का अब कोई उपाय नहीं है। क्योंकि अच्छा आचरण तो अब इंजेक्शन से भी पैदा हो सकेगा। जिसको वे कहते हैं कि बुरा आचरण मिटाने का एक ही उपाय धर्म है, वह भी गलत है।
पश्चिम में बहुत-से वैज्ञानिक प्रस्ताव कर रहे हैं कि अपराधियों को दंडित करना बंद कर दिया जाए। वह भ्रांति है। अपराधियों की रासायनिक चिकित्सा की जाए। वे अपराध करते हैं, क्योंकि उनके भीतर कोई तत्व है रासायनिक, जो विक्षिप्त हालत पैदा कर देता है। उसे बदल दिया जाए। फांसी देना फिजूल है। वर्षों तक उनको जेल में रखना व्यर्थ है। उससे उनका कोई रासायनिक परिवर्तन नहीं हो रहा है। बल्कि वे और भी निष्णात और पक्के अपराधी होकर वापस लौटेंगे। बाहर तो वे प्रशिक्षित नहीं थे, भीतर उनको बड़े गुरु उपलब्ध हो जाएंगे।
एक आदमी चोरी करता है। वह अकेला चोरी कर रहा है। नया-नया है। पकड़ में भी आ जाता है। जब आप उसे पांच साल जेल में रख देते हैं, तो वहां हजार उस्तादों के शिक्षण में रहने का मौका मिल जाता है, जो पुराने अभ्यासी हैं। वह पांच साल की जेल के बाद ज्यादा कुशल चोर होकर बाहर निकलता है। उसे पकड़ना और मुश्किल हो जाएगा।
किसी को सजा देने से कोई उसके भीतर का परिवर्तन तो होता नहीं; बाहर का भी परिवर्तन नहीं होता। सिर्फ उसकी आत्मा और भी कठोर हो जाती है, और भी बेशर्म हो जाती है।
ज्यादा देर नहीं लगेगी कि वैज्ञानिक राजनीतिज्ञों को राजी कर लेंगे। चीन में, रूस में राजनैतिक अपराधियों के साथ ये प्रयोग शुरू हो गए हैं। रूस में स्टैलिन के समय तक जो भी राजनैतिक विरोधी होता, उसकी वे हत्या कर डालते थे। अब वे हत्या नहीं करते हैं। अब राजनैतिक विरोधी को सिर्फ अस्पताल से वे पागल करार दे देते हैं। जो कि ज्यादा खतरनाक है। चिकित्सक लिखकर दे देते हैं कि इसके मस्तिष्क में खराबी है।
इतना लिखना काफी है। फिर उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है। और पागलखाने में उसके मस्तिष्क का इलाज शुरू कर दिया जाता है। वह इलाज.। वह न तो आदमी पागल है, न उसको कोई रोग है, न कोई मानसिक विक्षिप्तता है। लेकिन इलाज यह है कि उसके भीतर जो-जो तत्व बगावती हैं, उनको धीरे-धीरे शांत कर दिया जाएगा।
एक चार-छह महीने के बाद वह आदमी बाहर आ जाता है। उसकी जो बगावत थी, विद्रोह था, सरकार के विपरीत सोचने की दशा थी, वह टूट जाती है। वह ज्यादा डोसाइल, ज्यादा आज्ञाकारी, अनुशासनबद्ध हो जाता है। यह मारने से भी बुरा है।
देलगाडो ने सुझाव दिया है सारी दुनिया की सरकारों को, कि आप युद्ध बंद नहीं कर सकते, अपराध बंद नहीं कर सकते। और पांच हजार साल का मनुष्य-इतिहास कह रहा है कि कितना ही समझाओ, आदमी को बदला नहीं जा सकता। मेरा सुझाव मान लिया जाए।
देलगाडो का सुझाव यह है कि ऐसे तत्व विज्ञान ने खोज लिए हैं, जिनको सिर्फ पानी में मिला देने की जरूरत है हर नगर की झील में। और आपके घर में पानी तो आ ही रहा है झील से पीने के लिए। उस पानी को पीकर ही आप अपने आप लड़ने की वृत्ति से शून्य हो जाएंगे।
लेकिन ध्यान रहे, इस तरह के शामक रासायनिक द्रव्य को पीकर जो लड़ने की वृत्ति से शांत हो जाएगा, वह बुद्ध या महावीर नहीं हो जाएगा। उसमें कोई बुद्ध की गरिमा प्रकट नहीं होगी। उसमें तो क्रोध की जो थोड़ी-बहुत गरिमा प्रकट होती थी, वह भी बंद हो जाएगी। वह केवल निर्जीव हो जाएगा। वह सुस्त और हारा हुआ लगेगा। जैसे उसके भीतर से प्राण खींच लिए गए हों। वह नींद-नींद में चलेगा। लड़ेगा नहीं, क्योंकि लड़ने के लिए भी जितनी ऊर्जा चाहिए, वह भी उसके पास नहीं है।
सिर्फ न लड़ने से कोई बुद्ध नहीं होता। बुद्ध होने से न लड़ना निकलता है, तब एक गौरव है, गरिमा है। जब आप भीतर इतने ऊंचे शिखर को छू लेते हैं कि लड़ना क्षुद्र हो जाता है, व्यर्थ हो जाता है।
एक तो उपाय यह है कि बिजली का बल्ब जल रहा है, हम एक डंडा मारकर इसे तोड़ दें। बल्ब टूट जाएगा, बिजली लुप्त हो जाएगी। लेकिन आप डंडा मारकर बिजली को नष्ट नहीं कर रहे हैं। आप सिर्फ अभिव्यक्ति के माध्यम को तोड़ रहे हैं। बल्ब टूट गया, बिजली तो अभी भी धारा की तरह बही जा रही है। और जब भी बल्ब आप उपलब्ध कर देंगे, बिजली फिर जल उठेगी। आपने बिजली नहीं तोड़ी, केवल बिजली के प्रकट होने की जो व्यवस्था थी, वह तोड़ दी है। बिजली अभी भी बह रही है।
ये जो आपके शरीर के परमाणु हैं, रासायनिक परमाणु हैं, ये केवल अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। इनको हटा लिया जाए, तो आपके भीतर जो छिपा हुआ है, वह प्रकट होना बंद हो जाएगा। फिर से डाल दिया जाए, फिर प्रकट होने लगेगा।
साधना का अर्थ है कि हम बिजली की धारा को ही विलीन कर रहे हैं, बल्ब को नहीं तोड़ रहे हैं। बल्ब को तोड़ने का कोई अर्थ ही नहीं है। बल्कि बल्ब तो उपयोगी है। क्योंकि वह बताता है, धारा बह रही है या नहीं; धारा है या नहीं।
आपके भीतर क्रोध यह बताता है कि अभी आप अज्ञान में डूबे हैं। वासना बताती है कि अभी आपके प्राण जागरूक नहीं हुए हैं। अगर ये तत्व हमने अलग कर लिए, तो क्रोध प्रकट होना बंद हो जाएगा और आपको यह पता चलना भी बंद हो जाएगा कि आप गहन अज्ञान में पड़े हैं। यह तो ऐसा हुआ, जैसे कोई आदमी बीमार हो और हम उसके बीमारी के लक्षण छीन लें, तो उसे यह भी पता न चले कि वह बीमार है।
और यह भी खयाल में रहे कि क्रोध एक अवसर है। क्रोध सिर्फ बुरा है, ऐसा नासमझ कहते हैं; मैं नहीं कहता। क्रोध एक अवसर है, उसका आप बुरा उपयोग कर सकते हैं और भला भी। क्रोध एक मौका है। उसमें आप मूर्च्छित होकर पागल हो सकते हैं; उसी में आप जागरूक होकर बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते हैं।
तो अवसर को तोड़ देना उचित नहीं है। जब क्रोध आप में उठता है, अगर आप क्रोध के साथ तादात्म्य कर लेते हैं, एक हो जाते हैं, तो आप किसी की हत्या कर बैठते हैं। लेकिन अगर आप क्रोध को सजग होकर देखते रहें, तो जो क्रोध किसी की हत्या बन सकता था, वही क्रोध आपके भीतर नवजीवन का जन्म बन जाएगा। सिर्फ आप साक्षी होकर देखते रहें। क्रोध का धुआं उठेगा। बादल घने होंगे। लेकिन आप दूर खड़े रहेंगे, आप मुक्त होंगे, पार होंगे, अलग होंगे।
यह अलग होने का अनुभव, क्रोध से ही अलग होने का अनुभव नहीं, शरीर से अलग होने का अनुभव बन जाएगा। क्योंकि क्रोध शरीर के गुणों में पैदा हो रहा है।
वासना उठेगी, काम उठेगा, वे भी शरीर के गुणों की परिणतियां हैं, उनका ही वर्तन हैं। असली सवाल यह है कि हम उनके साथ सहयोग करके उनमें बह जाएं या उनके साथ सहयोग तोड़कर साक्षी की तरह खड़े हो जाएं? हम उनके गुलाम हो जाएं या हम उनके मालिक हो जाएं? हम उन्हें देखें खुली आंखों से या अंधे होकर उनके पीछे चल पड़ें?
अवसर को मिटा देना खतरनाक है। इसलिए मैं मानता हूं कि अगर वैज्ञानिकों की सलाह मान ली गई, तो लोगों का आचरण तो अच्छा हो जाएगा, लोगों का व्यवहार तो अच्छा हो जाएगा, लेकिन आत्माएं बिलकुल खो जाएंगी। वह दुनिया बड़ी रंगहीन होगी, बेरौनक होगी। उसमें न तो हिटलर जैसा क्रोधी होगा, न स्टैलिन जैसा हत्यारा होगा। नहीं होगा। उसमें बुद्ध जैसा शांत प्रज्ञा-पुरुष भी नहीं होगा। उसमें सोए हुए लोग होंगे, झोम्बी की तरह--बेहोश, मूर्च्छा में चलते हुए, सम्मोहित, यंत्रवत।
अगर आप क्रोध नहीं कर सकते, तो ध्यान रखें, आप करुणा भी नहीं कर पाएंगे। क्योंकि करुणा क्रोध के प्रति साक्षी हो जाने से पैदा होती है। और अगर आपके भीतर कामवासना तोड़ दी जाए शारीरिक ढंग से, रासायनिक ढंग से, तो आपके भीतर प्रेम का भी कभी उदय नहीं होगा। क्योंकि प्रेम कामवासना का ही शुद्धतम रूपांतरण है।
आपके भीतर से बुरा मिटा दिया जाए, तो भला भी मिट जाएगा। आपसे अपराध नहीं होगा, यह पक्का है, लेकिन आपमें साधुता का भी जन्म नहीं होगा। और आपके भीतर परमहंस होने की जो संभावना है, वह सदा के लिए लोप हो जाएगी।
इसलिए रासायनिक परिवर्तन से कोई क्रांति होने वाली नहीं है। वास्तविक परिवर्तन चेतना का परिवर्तन है, शरीर का नहीं।
और जो भी बुराइयां हैं, उनसे भयभीत न हों, परेशान न हों। सभी बुराइयां इस भांति उपयोग की जा सकती हैं कि सृजनात्मक हो जाएं। ऐसी कोई भी बुराई नहीं है, जो खाद न बन जाए, और जिससे भलाई के फूल न निकल सकें। और बुराई को खाद बना लेना भलाई के बीजों के लिए, उस कला का नाम ही धर्म है।
जीवन में जो भी उपलब्ध है, उसका ठीक-ठीक सम्यक उपयोग जो भी व्यक्ति जान लेता है, उसके लिए जगत में कुछ भी बुरा नहीं है। वह तमस से ही प्रकाश की खोज कर लेता है। वह रजस से ही परम शून्यता में ठहर जाता है। वह सत्व से गुणातीत होने का मार्ग खोज लेता है।
और ध्यान रहे, विपरीत मौजूद है, वह आपकी परीक्षा है, कसौटी है, चुनौती है, निकष है। उस विपरीत को नष्ट कर देने पर मनुष्य की सारी गरिमा मर जाएगी। मनुष्य का गौरव यही है कि वह चाहे तो नरक जा सकता है और चाहे तो स्वर्ग। अगर नरक जाने के सब द्वार तोड़ दिए जाएं, तो साथ ही स्वर्ग जाने की सब सीढ़ियां गिर जाएंगी।
ध्यान रहे, जिस सीढ़ी से हम नीचे उतरते हैं, उसी से हम ऊपर चढ़ते हैं। सीढ़ियां दो नहीं हैं। आप इस मकान तक सीढ़ियां चढ़कर आए हैं। जिन सीढ़ियों से चढ़कर आए हैं, उन्हीं से आप उतरेंगे भी। इस डर से कि कहीं सीढ़ियों से कोई नीचे न उतर जाए, हम सीढ़ियां तोड़ सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे, तब ऊपर चढ़ने का उपाय भी समाप्त हो गया।
नरक उसी सीढ़ी का नाम है, जिसका स्वर्ग। फर्क सीढ़ी में नहीं है; फर्क दिशा में है। जब आप कामवासना के प्रति अंधे होकर उतरते हैं, तो आप नीचे की तरफ जा रहे हैं। और जब कामवासना के प्रति आप आंख खोलकर सजग होकर खड़े हो जाते हैं, तो आप ऊपर की तरफ जाने लगे। मूर्च्छा अधोगमन है, साक्षीत्व ऊर्ध्वगमन है।
साधना का कोई परिपूरक नहीं है, कोई सब्स्टीट्यूट नहीं है, और न कभी हो सकता है। कोई सूक्ष्म उपाय नहीं है, जिससे आप साधना से बच सकें। साधना से गुजरना ही होगा। बिना उससे गुजरे आपका निखार पैदा नहीं होता। बिना उससे गुजरे आपके भीतर वह केंद्र नहीं जन्मता, जिस केंद्र के आधार पर ही जीवन की परम संपदा पाई जा सकती है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, सात्विक कर्म भी अगर बांधता है, तो उसका फल ज्ञान और वैराग्य क्यों कहा गया है?
क्योंकि ज्ञान और वैराग्य भी बांध सकता है।
निश्चित ही, कृष्ण की बात उलटी मालूम पड़ती है। सात्विक कर्म का फल है, ज्ञान और वैराग्य। और कृष्ण यह भी कहते हैं कि सात्विक कर्म भी बांधता है। लेकिन साधारणतः तथाकथित साधु-संत समझाते हैं कि वैराग्य मुक्त करता है, ज्ञान मुक्त करता है।
तो कृष्ण सात्विक कर्म के जो फल बता रहे हैं, उन्हें तो साधारणतः लोग समझते हैं कि वे मुक्त करने वाले हैं। लेकिन ध्यान रहे, सात्विक कर्म से जो भी पैदा होगा, उसकी भी बांधने की संभावना है। आप ज्ञान से भी बंध सकते हैं।
इसलिए उपनिषद कहते हैं, जो कहता हो मैं आत्मज्ञानी हूं, समझना कि वह आत्मज्ञानी नहीं है। जो कहता हो कि मैं वैराग्य को उपलब्ध हो गया हूं, समझना कि उसका राग वैराग्य से हो गया है।
संन्यास भी गार्हस्थ बन सकता है। आपके हाथ में है। और गृहस्थी भी संन्यास हो सकती है। आपके हाथ में है। अज्ञान भी मुक्तिदायी हो सकता है और ज्ञान भी बंधन बन सकता है। आपके हाथ में है।
उपनिषद कहते हैं कि जो ज्ञानी है, वह तो समझता है, मैं कुछ भी नहीं जानता। साक्रेटीज कहता है कि मुझसे बड़ा अज्ञानी कौन? लेकिन यह अज्ञान मुक्तिदायी है। ऐसे अज्ञान की प्रतीति का अर्थ हुआ, यह आदमी विनम्र हो गया, आखिरी सीमा तक विनम्र हो गया। अहंकार की आखिरी घोषणा, सूक्ष्मतम घोषणा भी इसके भीतर नहीं रही। यह भी नहीं कहता कि मैं जानता हूं। यह कहता है, मुझे कुछ पता नहीं। मैं हूं नहीं, पता भी किसको होगा!
और यह जगत विराट रहस्य है। इसको जानने का दावा वही कर सकता है, जिसके पास आंखें अंधी हों। यह इतना विराट है कि जिसको भी दिखाई पड़ेगा, वह कहेगा, यह रहस्य है। इसका ज्ञान नहीं हो सकता।
ज्ञान का दावा सिर्फ मूढ़ कर सकते हैं, ज्ञानी नहीं कर सकते। ये वक्तव्य विरोधाभासी मालूम पड़ते हैं, क्योंकि हम समझ नहीं पाते। ज्ञानी का अर्थ ही यही है कि जिसने यह जान लिया कि यह रहस्य अनंत है।
अगर रहस्य अनंत है, तो आप दावा नहीं कर सकते कि मैंने जान लिया। क्योंकि जिसको भी हम जान लेंगे, वह अनंत नहीं रह जाएगा। जानना उसकी सीमा बन जाएगी। और जिसको मैं जान लूं, वह मुझसे छोटा हो गया। वह मेरी मुट्ठी में हो गया।
विज्ञान जानने का दावा कर सकता है, क्योंकि क्षुद्र उसकी खोज है। धर्म जानने का दावा नहीं कर सकता। वस्तुतः धार्मिक व्यक्ति जानने की कोशिश करते-करते धीरे-धीरे खुद ही खो जाता है। बजाय इसके कि वह जान पाता है, जानने वाला ही मिट जाता है। इसलिए मैं का कोई भी दावा बांधने वाला हो जाएगा।
और सात्विक कर्म इसीलिए बांध सकता है, क्योंकि सात्विक कर्म में ज्ञान की किरणें उतरनी शुरू होती हैं। मन हलका हो जाता है, शुद्ध हो जाता है। लेकिन मन रहता है। शुद्ध हो जाता है। हल्का हो जाता है, उसका बोझ नहीं होता। सुंदर हो जाता है, सुगंधित हो जाता है। उसमें दुर्गंध नहीं रह जाती। उससे दुख पैदा नहीं होता, उससे सुख पैदा होने लगता है। इस सुख की दशा में जीवन के रहस्य की किरणें उतरनी शुरू होती हैं।
लेकिन मन अभी कायम है, अभी मिट नहीं गया है। अगर आप सजग न हुए, तो मन तत्क्षण घोषणा कर देगा कि मैंने जान लिया। इस घोषणा के साथ ही बंधन शुरू हो गया। और जिससे आप मुक्त हो सकते थे, उसको आपने अपना कारागृह बना लिया। जो आपको पार ले जा सकता था, उसको पकड़कर आप रुक गए। जैसे कोई नाव को पकड़ ले। नाव मुक्तिदायी है, उस पार ले जा सकती है। कोई नाव को पकड़कर बैठ जाए। नाव में बैठ जाए, फिर नाव से न उतरे। उस किनारे पहुंच जाए, लेकिन इस बीच नाव से मोह पैदा हो जाए। तो फिर नाव भी बंधन बन गई।
मन जब तक शेष है, तब तक किसी भी चीज को बंधन बना सकता है, यह ध्यान रखना जरूरी है। जब मन में पहली दफा उस पारलौकिक की किरणें उतरती हैं, तब यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह भी सात्विक कर्म का वर्तन है। इससे अपने को जोड़ने की आवश्यकता नहीं है।
आपके घर की खिड़की पर कांच लगे हैं। किसी के घर की खिड़की पर कांच लगे हैं, जो बहुत गंदे हैं। उनसे कोई किरण पार नहीं होती। सूरज निकला भी रहता है बाहर, तो भी उनके घर में अंधेरा रहता है। किन्हीं के मकान पर कांच हैं, वे थोड़े साफ हैं; उन्हें रोज साफ कर लिया जाता है। सूरज बाहर निकलता है, तो उसकी धुंधली आभा घर के भीतर आती है। किसी की खिड़की पर ऐसे कांच हैं, जो बिलकुल पारदर्शी हैं, कि अगर आप पास जाकर न छुएं, तो आपको पता ही नहीं चलेगा कि कांच है। बाहर सूरज निकलता है, तो ऐसा लगता है, भीतर ही निकल आया। कांच बिलकुल पूरा पारदर्शी है। फिर भी कांच है, और जब तक कांच है, तब तक आप घर के भीतर बंद हैं। और जब तक कांच है, तब तक जो किरणें आ रही हैं, उनमें कांच की मिलावट है, उनमें कांच का हाथ है।
तो अगर इतना शुद्ध कांच आपके दरवाजे पर लगा हो कि आपको पता भी न चलता हो कि कांच वहां है, क्रिस्टल लगा हो, तो आप इस भ्रांति में पड़ सकते हैं कि मैं घर के बाहर आ गया, क्योंकि सूरज की किरणें बिलकुल मेरे ऊपर बरस रही हैं। और आप घर के भीतर बैठे हैं!
इसलिए कृष्ण कहते हैं, शुद्ध कर्म भी बांध लेगा, सात्विक कर्म भी बांध लेगा।
सात्विक कर्म शुद्धतम कांच की भांति है। उसको भी तोड़कर बाहर निकल जाना है। तो ही आप घर के बाहर हुए; तो ही आप सूरज के नीचे सीधे हुए। तो जो साक्षात्कार होगा, वह सीधा होगा, उसमें कोई भी माध्यम न रहा।
जब तक माध्यम है, तब तक खतरा है। क्योंकि माध्यम का भरोसा नहीं किया जा सकता। माध्यम कुछ न कुछ बदलाहट तो करेगा ही। शुद्धतम माध्यम भी अशुद्ध होगा, क्योंकि उसकी मौजूदगी थोड़ा-सा अड़चन तो डाल ही रही है।
कई बार तो ऐसा होता है कि तमस में पड़े हुए आदमी को यह खयाल नहीं होता, यह अहंकार नहीं होता, कि मैं कुछ हूं। वह दीनता अनुभव करता है। एक अर्थ में निर-अहंकारी होता है। रजस में पड़े हुए व्यक्ति को भी ऐसी भ्रांति नहीं होती कि मैं ब्रह्म को उपलब्ध हो गया, कि मैंने सत्य को जान लिया। क्योंकि वह जानता है, मैं कर्मों के जाल में उलझा हूं। ठीक वैसे ही जैसे गंदे कांच, थोड़े साफ कांच वाले आदमी को यह खयाल नहीं होता कि मैं मकान के बाहर खुले आकाश के नीचे खड़ा हूं। यह खतरा सात्विक कर्म वाले को सर्वाधिक है।
तो जो लोग भी सत्व के करीब आते हैं, वे एक खतरे के करीब आ रहे हैं। वहां चीजें इतनी साफ हो गई हैं कि यह भ्रांति हो सकती है कि मैं बाहर आ गया। और जिसको यह भ्रांति हो गई भीतर बैठे हुए कि मैं बाहर आ गया, वह बाहर जाने का काम बंद कर देगा।
और यह कांच का कोई भरोसा नहीं है। जो आज शुद्ध है, कल अशुद्ध हो जाएगा; धूल जम जाएगी। एक क्षण में जो शुद्ध था, अशुद्ध हो सकता है। आज जो सात्विक है, वह कल राजस हो सकता है, परसों फिर तामस हो सकता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म भी बांधता है। उसके फल तीन हैं, सुख, ज्ञान और वैराग्य।
ध्यान रहे, दुखी आदमी कभी भी पूरा तादात्म्य नहीं कर पाता दुख के साथ। उसे लगता ही रहता है, मैं अलग हूं, मैं दुखी हूं। मैं अलग हूं, दुख अलग है।
दुख के साथ कौन तादात्म्य करेगा? हम जानते हैं कि दुख आया है और चला जाएगा, मैं अलग हूं। और हम पूरी कोशिश करते हैं कि दुख जितनी जल्दी चला जाए, उतना अच्छा। लेकिन जब सुख आता है, तब हम तादात्म्य करते हैं।
फकीर जुन्नैद ने कहा है कि दुख में ईश्वर का स्मरण कुछ भी मूल्य नहीं रखता, क्योंकि सभी स्मरण करते हैं। सुख में अगर कोई स्मरण करे, तो उसका कोई मूल्य है।
सुख में कोई स्मरण नहीं करता, क्योंकि सुख के लिए ही तो हम स्मरण करते हैं। जब सुख ही मौजूद हो, तो स्मरण का कोई अर्थ न रहा।
दुख से हम छूटना चाहते हैं, अलग होना चाहते हैं। सुख के साथ हम जुड़ना चाहते हैं, एक होना चाहते हैं। और जिसके साथ हम जुड़ते हैं, एक होते हैं, वही हमारा वास्तविक बंधन बन सकता है।
इसलिए दुख को एकदम अभिशाप मत मानना और सुख को एकदम वरदान मत मानना। अगर समझ हो, तो दुख वरदान हो सकता है। और नासमझी हो, तो सुख अभिशाप हो सकता है। अक्सर यही होता है। क्योंकि नासमझी सभी के पास है; समझदारी ना-कुछ के पास है। जब भी आप सुखी होते हैं, तभी आप पतित होते हैं, तभी तादात्म्य हो जाता है; तब सुख को आप जोर से पकड़ लेते हैं। और जिसको भी आप पकड़ लेते हैं, वही बंधन हो जाता है।
ध्यान रहे, बंधन आपको नहीं बांधते, आपकी पकड़ बांधती है। इसलिए सुख बंधन है; ज्ञान बंधन है। अगर अकड़ आ जाए कि मैं जानता हूं; अगर यह खयाल आ जाए कि मैं ज्ञानी हूं। और आएगा खयाल। क्योंकि अज्ञानी में पीड़ा है। अज्ञानी में अहंकार को चोट है।
कोई भी अपने को अज्ञानी नहीं मानना चाहता। अज्ञानी से अज्ञानी आदमी भी अज्ञानी नहीं मानना चाहता। अज्ञानी भी अपने ज्ञान के दावे करता है। गलत से गलत आदमी भी अपने ठीक होने के उपाय खोजता है।
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा एक बंदूक ले आया। वह निशाना लगा रहा था, सीख रहा था। उसके निशाने पचास प्रतिशत सही पड़ते थे। नसरुद्दीन ने उसे डांटा और कहा कि यह तू क्या कर रहा है? निशाने कम से कम नब्बे प्रतिशत के ऊपर ठीक जाने चाहिए। यह भी कोई निशानेबाजी है? हमारा जमाना था, तब मैं सौ प्रतिशत निशाने ठीक मारता था। उसके लड़के ने कहा, आप एक कोशिश करके देखें; मैं भी देखूं।
तब जरा नसरुद्दीन मुश्किल में पड़ा। क्योंकि उसे ठीक से बंदूक पकड़ना भी नहीं आता था। लेकिन बाप बेटे से ज्यादा जानता है, यह दावा छोड़ नहीं सकता किसी भी मामले में। उसने बंदूक ली हाथ में। इस बहाने कि माडल थोड़ा नया मालूम पड़ता है, उसने लड़के से पूछा कि कैसे उपयोग में लाया जाता है? क्योंकि मेरे जमाने में दूसरे ढंग के माडल चलते थे। मगर निशाना तो मेरा बेचूक है।
तब उसने निशाना लगाया। एक चिड़िया आकाश में उड़ रही थी। उसने निशाना मारा, बड़ी मेहनत से, बड़ी सोच-समझकर, सारी ताकत और समझ लगाकर। लेकिन ताकत और समझ से निशाने का कोई संबंध नहीं है। जिसने निशाना नहीं लगाया है, यह करीब-करीब असंभव है कि निशाना लग जाए उड़ती चिड़िया पर।
गोली तो चल गई, चिड़िया उड़ती रही। नसरुद्दीन ने कहा, देख, बेटा देख; चमत्कार देख। मरी हुई चिड़िया उड़ रही है!
हमारा अहंकार सब जगह खड़ा है। भूल भी हो जाए, तो हम उसे लीप-पोतकर ठीक कर लेते हैं।
रवींद्रनाथ के हस्तलिखित पत्र प्रकाशित हुए हैं। वे कविता भी लिखते थे तो कहीं अगर कोई शब्द में भूल हो जाए तो उसको काटना-पीटना पड़े, तो वे काटने-पीटने की जगह, जहां काटते थे, वहां कुछ डिजाइन बना देंगे, कुछ चित्र बना देंगे--कटा हुआ नहीं मालूम पड़े। जहां-जहां भूल होगी, शब्द कोई काटना पड़ेगा, तो उसके ऊपर डिजाइन बना देंगे, कुछ रंग भर देंगे, चित्र बना देंगे। तो उनका पत्र ऐसा मालूम पड़ेगा कि उसमें कहीं कोई भूल-चूक नहीं है। ऐसा लगेगा कि शायद सजाया है, डेकोरेट किया है।
मगर यह आदमी के मन की वृत्ति है। सब जगह सजा रहा है। कहीं भी कुछ ऐसा हो जिससे भूल पता हो, तो छिपा रहा है। हमारा अहंकार स्वीकार नहीं करना चाहता कि कोई भी कमी हम में है।
अज्ञानी भी दावा करता है ज्ञान का। शायद अज्ञानी ही दावा करता है ज्ञान का। तो जब ज्ञान की पहली किरण उतरनी शुरू होगी, तो आपका सारे जन्मों का इकट्ठा जो सूक्ष्म अहंकार है, वह उसे पकड़ने की कोशिश करेगा।
जिब्रान ने एक छोटी-सी कहानी लिखी है। जिब्रान ने लिखा है कि जब भी इस जगत में कोई नया आविष्कार होता है, तो देवता और शैतान दोनों ही उस पर झपट्टा मारते हैं कब्जा करने को। और अक्सर ही ऐसा होता है कि शैतान उस पर पहले कब्जा कर लेता है; देवता सदा पीछे रह जाते हैं। देवताओं को तो खयाल ही तब आता है, जब शैतान निकल पड़ता है। और शैतान तो पहले से ही तैयार है।
जब भी आपके जीवन में कोई घटना घटेगी, तो आपके भीतर जो बुरा हिस्सा है, वह तत्क्षण उस पर कब्जा करना चाहेगा। इसके पहले कि अच्छा हिस्सा दावा करे, बुरा हिस्सा उस पर कब्जा कर लेगा।
जैसे ही ज्ञान की किरण उतरेगी, वैसे ही अहंकार पकड़ेगा कि मैंने जान लिया। और इस वक्तव्य में ही वह ज्ञान की किरण खो गई और अंधकार हो गया। इस अहंकार के भाव में ही, वह जो उतर रहा था, उसका स्रोत बंद हो गया। और जब तक यह भाव मिटेगा नहीं, तब तक वह स्रोत बंद रहेगा।
सैकड़ों-हजारों लोगों पर ध्यान के प्रयोग करने के बाद मैं कुछ नतीजों पर पहुंचा हूं। उनमें एक यह है कि मेरे पास लोग आते हैं; जब उन्हें पहला अनुभव होता है ध्यान का, तो उनकी प्रफुल्लता की कोई सीमा नहीं होती। उनका पूरा हृदय नाचता होता है। लेकिन जब भी वे मुझे आकर खबर देते हैं और उनकी प्रफुल्लता मैं देखता हूं, तो मैं डरता हूं। मैं जानता हूं कि अब यह गया। अब कठिनाई शुरू हो जाएगी। क्योंकि अब तक इसे कोई अपेक्षा न थी। अब तक इसे कुछ पता न था। अनएक्सपेक्टेड, अपेक्षित न था, घटना घटी है।
और यह घटना तभी घटती है, जब अपेक्षा न हो; अपेक्षा होते से ही बाधा पड़ जाती है। अब यह कल से रोज प्रतीक्षा करेगा। ध्यान इसका व्यर्थ होगा अब। अब यह ध्यान में बैठेगा जरूर, लेकिन पूरा नहीं बैठेगा। मन तो लगा रहेगा उस घटना में, जो कल घटी थी। और निश्चित रूप से वह आदमी एक-दो दिन में मेरे पास आता है; कहता है कि वह बात अब नहीं हो रही! चित्त बड़ा दुखी है।
वह जो किरण उठती थी, इसने मार डाली। उसकी बात ही नहीं उठानी थी। उसको पकड़ना ही नहीं था। सिर्फ धन्यवाद देना था परमात्मा को कि तेरी कृपा है। क्योंकि मैं तो कुछ जानता भी नहीं था। हुआ, तू जान। और भूल जाना था। दूसरे दिन वह किरण और भी गहरी उतरती।
जो भी जीवन में आए, उसे भूलना सीखना पड़ेगा; अन्यथा वही बंधन हो जाएगा। फिर बड़ी कठिनाई हो जाती है। कई दफा तो सालों लग जाते हैं। जब तक कि वह आदमी भूल ही नहीं जाता उस घटना को, तब तक दुबारा किरण नहीं उतरती। और वह जितनी कोशिश करता है, उतना ही कठिन हो जाता है। क्योंकि कोशिश से वह आई नहीं थी। इसलिए कोशिश से उसका कोई संबंध नहीं है। वह तुम्हारे बिना प्रयत्न के घटी थी।
तुम भोले-भाले थे, तुम सरल थे, तुम कुछ मांग नहीं रहे थे। उस निर्दोष क्षण में ही वह संपर्क हुआ था। अब तुम मांग रहे हो। अब तुम चालाक हो। अब तुम भोले-भाले नहीं हो। अब तुमने गणित बिठा लिया है। अब तुम कहते हो कि अब ये तीस मिनट हो गए ध्यान करते, अभी तक नहीं हुआ! अब तुम मिनट-मिनट उसकी आकांक्षा कर रहे हो। तो तुम्हारा मन बंट गया। अब तुम ध्यान में नहीं हो। अब तुम अनुभव की आकांक्षा कर रहे हो।
इसलिए ध्यान रखें, अनुभव को जो पकड़ेगा, वह वंचित हो जाएगा। और सात्विक अनुभव इतने प्यारे हैं कि पकड़ना बिलकुल सहज हो जाता है। छोड़ना बहुत कठिन होता है, पकड़ना बिलकुल सहज हो जाता है।
झेन फकीर, उनका शिष्य जब भी आकर उनको खबर देगा कि उसे कुछ अनुभव हुआ, तो उसकी पिटाई कर देते हैं। डंडा उठा लेते हैं। जैसे ही कहेगा कि कुछ अनुभव हुआ है कि वे टूट पड़ेंगे उस पर।
बड़ा दया का कृत्य है। हमें लगता है, बड़ी कठोर बात है। बड़ा दया का कृत्य है। उनकी यह मार-पीट, शिष्य को खिड़की से उठाकर फेंक देना--कई बार ऐसा हुआ कि शिष्य की टांग टूट गई, हाथ टूट गया--मगर वह कोई महंगा सौदा नहीं है।
जैसे ही उसने अनुभव को पकड़ा कि उन्होंने उसको इतना दुख दे दिया कि वह अनुभव जैसे इस दुख ने पोंछ दिया। अब वह दुबारा अनुभव को पकड़ने में जरा संकोच करेगा। और दुबारा गुरु के पास तो आकर कहेगा ही नहीं कि ऐसा हो गया। और जब भी उसको दुबारा पकड़ने का खयाल होगा, तब उसको याद आएगा कि गुरु ने जो व्यवहार किया था, वह बताता है कि मेरी पकड़ में कहीं कोई बुनियादी भूल थी। क्योंकि गुरु बिलकुल पागल हो गया था। जो सदा शांत था, जिसने कभी अपशब्द नहीं बोला था, उसने डंडा उठा लिया था। उसने मुझे खिड़की के बाहर फेंक दिया था। कोई भयंकर भूल हो गई है।
सात्विक अनुभव ज्ञान देगा। ज्ञान से अहंकार जगेगा। सात्विक अनुभव वैराग्य देगा, वैराग्य से बड़ी अकड़ पैदा होगी।
इसलिए संन्यासी जैसी अकड़ सम्राटों में भी नहीं होती। संन्यासी जिस ढंग से चलता है, उसको देखें। सम्राट भी क्या चलेंगे! क्योंकि वह यह कह रहा है कि लात मार दी। यह सब संसार तुच्छ है, दो कौड़ी का है। हम इसे कोई मूल्य नहीं देते। तुम्हारे महल ना-कुछ हैं। तुम्हारे स्वर्ण-शिखर, तुम्हारे ढेर हीरे-जवाहरातों के, कंकड़-पत्थर हैं। हम उस तरफ ध्यान नहीं देते। हमने सब छोड़ दिया। वैराग्य उदय हो गया है।
यह वैराग्य खतरनाक है। यह तो एक नया राग हुआ। यह विपरीत राग हुआ। यह राग से मुक्ति न हुई। यह तो वैराग्य को ही पकड़ लिया तुमने!
मन की आदत पकड़ने की है। इससे कोई संबंध नहीं कि आप क्या उसे पकड़ाते हैं। उसकी आदत पकड़ने की है; वह पकड़ने का यंत्र है। आप धन कहो, वह धन पकड़ लेगा। दान कहो, दान पकड़ लेगा। भोग कहो, भोग पकड़ लेगा। त्याग कहो, त्याग पकड़ लेगा। आब्जेक्ट से कोई संबंध नहीं है। कुछ भी दे दो, मन पकड़ लेगा। और जिसको भी मन पकड़ लेगा, वही बंधन हो जाएगा।
सैकड़ों कथाएं हैं वैरागियों की, जो अपने वैराग्य के कारण जन्मों-जन्मों तक मुक्त न हो पाए। क्योंकि अकड़ उनकी भारी है। दुर्वासा के वैराग्य में कोई भी कमी नहीं है। लेकिन वह वैराग्य सिवाय क्रोध के कुछ भी पैदा नहीं करता है।
दुर्वासा का वैराग्य क्रोध क्यों पैदा करता है? क्योंकि दुर्वासा का वैराग्य भीतर अहंकार बन गया। अहंकार पर जब चोट लगती है, तो क्रोध पैदा होता है। अगर भीतर अहंकार न हो, तो क्रोध के पैदा होने का कोई कारण नहीं है।
तो हम ऋषि-मुनियों की कथाएं पढ़ते हैं कि वे अभिशाप दे रहे हैं। जिनको उन्होंने अभिशाप दिया है, वे शायद मुक्त भी हो गए हों। लेकिन जिन्होंने अभिशाप दिया है, वे अभी भी यहीं-कहीं भटक रहे होंगे संसार में। उनके मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, वैराग्य, ज्ञान, सुख, ये सभी बंधन हो सकते हैं।
इसलिए तम से तो मुक्त होना ही है, रज से तो मुक्त होना ही है, सत्व से भी मुक्त होना है। असल में ऐसी कोई चीज न बचे भीतर, जिससे बंधने का उपाय रह जाए। सिर्फ शुद्ध चेतना ही रह जाए। कोई गुण न बचे; निर्गुणता रह जाए। उसी को गुणातीत कृष्ण कहते हैं। वही लक्षण है परम संन्यस्त का, वीतराग का।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप किस गुण-प्रधान वाले साधक को संन्यस्त कहते हैं? क्या संन्यास लेते ही किसी एक गुण की प्रधानता होने लगती है?
गुण से संन्यास का संबंध ही नहीं है। निर्गुणता से संन्यास का संबंध है। संन्यास भीतर की भाव-दशा है। न पकड़ने की कला का नाम संन्यास है। नहीं पकड़ेंगे कुछ भी। बिना पकड़े रहेंगे।
पकड़ने का नाम गृहस्थ है। घर बनाएंगे चारों तरफ। कुछ पकड़ेंगे। बिना सहारे नहीं जी सकेंगे। कोई आलंबन चाहिए। भविष्य की सुरक्षा चाहिए। संपदा चाहिए कुछ! चाहे वह संपदा पुण्य की हो, शुभ कर्मों की हो, सत्व की हो।
संन्यस्त का अर्थ है, नहीं कोई घर बनाएंगे भीतर; नहीं कोई संपदा भीतर इकट्ठी करेंगे; कोई परिग्रह न जुटाएंगे; भविष्य की सोचेंगे ही नहीं। इस क्षण जीएंगे। और इस क्षण चेतना की भांति जीएंगे। और इतना ही जानेंगे कि मैं एक साक्षी हूं; एक देखने वाला हूं; एक द्रष्टा हूं।
संन्यस्त गुणातीत भाव है। और जब तक वह पैदा न हो जाए, तब तक सब संन्यास ऊपर-ऊपर है। ऊपर-ऊपर है, सिर्फ आकांक्षा की खबर देता है कि आप खोज कर रहे हैं। उपलब्धि की खबर नहीं देता।
अच्छा है कि खोज कर रहे हैं। लेकिन यह मत मानकर बैठ जाना कि संन्यस्त हो गए हैं। जब तक निर्गुणता की प्रतीति न हो, तब तक भीतर संन्यासी का जन्म नहीं हुआ। तब तक आप यात्रा पर हैं। तब तक आप खोज रहे हैं।
यह खोज गुणों के सहारे होगी। लेकिन खोज का जो अंतिम फल है, वह गुणों के पार चला जाता है।
मैं संन्यस्त किसी गुण-प्रधान व्यक्ति को नहीं कहता, सत्वगुण-प्रधान व्यक्ति को भी संन्यासी नहीं कहता। साधु कहता हूं। साधु का अर्थ होता है कि सत्व की प्रधानता है, शुभ की प्रधानता है। अच्छे उसके कर्म हैं। अच्छा उसका व्यवहार है। अच्छा उसका भाव है। लेकिन अच्छे से बंधा है। जंजीर है उसके हाथों पर, फूलों की है। जंजीर है, सोने की है, लोहे की जंजीर नहीं है।
लेकिन सोने की जंजीर, में एक खतरा है कि मन होता है मानने का कि वह आभूषण है। लोहे की जंजीर, तो तोड़ने की इच्छा पैदा हो जाती है। सोने की जंजीर, बचाने की इच्छा पैदा होती है। और अगर कोई कहे कि यह जंजीर है, तो हम कहेंगे, क्षमा करो, यह जंजीर नहीं है, यह आभूषण है।
साधुता सत्वगुण तक संबंधित है। संन्यस्तता गुणातीत है। संन्यस्त का अर्थ है, जिसने अब अपने को अपने शरीर, अपने मन से जोड़ना छोड़ दिया। शरीर घर है, मन घर है, इन घर से जो छूट गया और जो अब भीतर के चैतन्य में थिर हो गया है। और जो एक ही भाव रखता है कि मेरा होना सिर्फ चेतना मात्र है, सिर्फ होश मेरा स्वभाव है। और जहां भी होश मैं खोता हूं, वहीं मैं स्वभाव खो रहा हूं और संन्यास से च्युत हो रहा हूं।
अब हम सूत्र लें।
अर्जुन ने पूछा कि हे पुरुषोत्तम, इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है? और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है? तथा हे प्रभो, मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है?
अर्जुन की जिज्ञासा करीब-करीब सभी की जिज्ञासा है। हम भी जानना चाहते हैं कि इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन लक्षणों से युक्त होता है। अर्जुन ऐसा पूछता है कृष्ण से; सारिपुत्त बुद्ध से पूछता है; गौतम महावीर से पूछते हैं। निरंतर, जब भी कोई जागरूक पुरुष हुआ है, तो उसके शिष्यों ने निश्चित ही पूछा है कि लक्षण क्या है? वह जिस दिव्य चेतना के अवतरण की आप बात करते हैं, जिस भगवत्ता की आप बात करते हैं, उस भगवत्ता का लक्षण क्या है? हम कैसे पहचानेंगे कि कोई उस भगवत्ता को उपलब्ध हो गया? उसका आचरण कैसा होगा?
इस प्रश्न को ठीक से समझना जरूरी है।
पहली तो बात यह है कि लक्षण तो बाहर से बताए जा सकते हैं। और बाहर की सब पहचान कामचलाऊ होगी। क्योंकि दो गुणातीत व्यक्तियों के बाहर के लक्षण एक जैसे नहीं होंगे। इससे बड़ी अड़चन पैदा हुई है।
जिन्होंने महावीर से पूछा था कि उसके लक्षण क्या हैं, वे कृष्ण को गुणातीत नहीं मान सकते। क्योंकि महावीर ने वे लक्षण बताए, जो महावीर ने अनुभव किए हैं, जो महावीर के जीवन में आए। तो महावीर का भक्त जानता है कि वह जो गुणातीत व्यक्ति है, वह वस्त्र भी त्याग कर देगा; वह दिगंबर होगा।
इसलिए दिगंबरत्व लक्षण है गुणातीत का। दिगंबर परंपरा में दिगंबरत्व लक्षण है। जब तक वस्त्र हैं, तब तक कोई मोक्ष में प्रवेश नहीं कर सकता। क्योंकि वस्त्र को पकड़ने का मोह बता रहा है कि तुम अभी कुछ छिपाना चाहते हो। गुणातीत कुछ भी नहीं छिपाता। वह खुली किताब की तरह है।
तो महावीर से जिन्होंने गुणातीत के लक्षण समझे थे, वे बुद्ध को भी गुणातीत नहीं मानते। बुद्ध उसी समय जीवित थे। एक ही जगह मौजूद थे। बिहार में एक ही प्रांत में मौजूद थे। कभी-कभी एक ही गांव में एक साथ भी मौजूद थे।
महावीर को मानने वाला बुद्ध को गुणातीत नहीं मानता, स्थितप्रज्ञ नहीं मानता, क्योंकि बुद्ध कपड़ा पहने हुए हैं। वह उतनी अड़चन है। इसलिए महावीर को तो जैन भगवान कहते हैं; बुद्ध को महात्मा कहते हैं। करीब-करीब हैं। कभी न कभी वस्त्र भी छूट जाएंगे और किसी जन्म में यह व्यक्ति भी तीर्थंकरत्व को उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन अभी नहीं है।
कृष्ण को तो मानने का कोई उपाय ही नहीं रहेगा। राम को तो किसी तरह नहीं माना जा सकता। मोहम्मद या क्राइस्ट को किसी तरह नहीं माना जा सकता कि ये गुणातीत हैं। अगर महावीर से लक्षण सीखे हैं, तो कठिनाई आएगी।
अगर आपने कृष्ण से लक्षण सीखे हैं, तो भी कठिनाई आएगी। क्योंकि लक्षण कामचलाऊ हैं। वास्तविक अनुभूति तो स्वयं जब तक कोई गुणातीत न हो जाए, तब तक नहीं होगी। लेकिन यह कहना फिजूल है पूछने वाले से, कि जब तू गुणातीत हो जाएगा, तब जान लेगा। वह यह कहता है कि मैं नहीं हूं गुणातीत, इसीलिए तो पूछ रहा हूं। तो उसके पूछने को तृप्त तो करना ही होगा।
इसलिए गौण, कामचलाऊ लक्षण हैं। वे लक्षण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। अलग-अलग गुणातीत लोगों में भिन्न-भिन्न रहेंगे। उनके भीतर की दशा तो एक है। लेकिन उनके बाहर की अभिव्यक्ति अलग-अलग है। वह हजार कारणों पर निर्भर है।
पर हमारा मन होता है पूछने का, कि लक्षण क्या है? क्योंकि हम ऊपर से चीजों को जांचना चाहते हैं। हम जानना चाहते हैं कि कौन आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया? हम कैसे पहचानें? कोई सींग तो निकल नहीं आते कि अलग से दिखाई पड़ जाए कि यह आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया। वह आदमी आप ही जैसा आदमी होता है। सच तो यह है कि वह अति साधारण हो जाता है। क्योंकि असाधारण होने का जो पागलपन है, वह अहंकार का हिस्सा है। वैसा आदमी अति साधारण हो जाता है। विशिष्टता की तलाश उसकी बंद हो जाती है।
सभी साधारण लोग असाधारण होने की खोज कर रहे हैं। इसलिए जो वस्तुतः असाधारण है, वह बिलकुल साधारण जैसा होगा।
झेन फकीरों ने उसके गुणों में एक गुण गिनाया है, मोस्ट आर्डिनरी। अगर आप झेन फकीरों का गुण सुन लें, तो आपको बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि झेन फकीर कहते हैं, गुणातीत को तो पहचानना ही मुश्किल होगा, यही उसका पहला लक्षण है। क्योंकि वह बिलकुल साधारण होगा। उसको विशिष्ट होने का कोई मोह नहीं है। वह दिखाने की कोशिश नहीं करेगा कि मैं विशिष्ट हूं, तुमसे ज्यादा जानता हूं, कि तुमसे ज्यादा आचरण वाला हूं। वह यह कोशिश नहीं करेगा।
एक झेन फकीर हुआ, नान-इन। वह अपने गुरु के पास गया। वह गुरु की तलाश कर रहा था। पर उसके मन में एक सुनी हुई बात थी कि जो दावा करे कि मैं गुरु हूं, वहां से भाग खड़े होना। क्योंकि झेन फकीर कहते रहे हैं सदियों से कि वह जो गुरु होने योग्य है, वह दावा नहीं करेगा। वह उसका लक्षण है।
यह नान-इन खोजता था। बहुत गुरुओं के पास गया। लेकिन वे सब दावेदार थे और सब ने कोशिश की कि बन जाओ शिष्य। वह वहां से भाग खड़ा हुआ।
फिर एक दिन एक जंगल से गुजरते हुए एक गुफा के द्वार पर उसे बैठा हुआ एक फकीर दिखाई पड़ा। वह थका-मांदा था। वह फकीर अति साधारण मालूम हो रहा था। न कोई गरिमा थी, न कोई विराट तेज प्रकट हो रहा था। न कोई आभामंडल दिखाई पड़ रहा था, जैसा कि कृष्ण, बुद्ध, महावीर के सिर के चारों तरफ बना होता है। ऐसा कुछ भी नहीं था। एक साधारण आदमी बैठा था चुपचाप; कुछ कर भी नहीं रहा था।
इसको प्यास लगी थी, भूख लगी थी। यह रास्ता भटक गया था। तो उसके पास गया। जैसे-जैसे पास गया, वैसे-वैसे लगा कि उसके पास जाने से इसके भीतर कुछ शांत होता जा रहा है। यह थोड़ा चौंका। वह आदमी--जब पास गया, तो पता चला--वह आंख बंद किए बैठा है। वह इतना शांत था कि उससे यह कहकर कि मुझे प्यास लगी है, बाधा देना इसे उचित नहीं मालूम पड़ा। तो यह चुपचाप उसके पास बैठ गया कि जब वह आंख खोलेगा, तब मैं बात कर लूंगा। लेकिन उसके पास बैठे-बैठे यह ऐसा शांत होने लगा और इसकी आंख बंद हो गई। सांझ का वक्त था। पूरी रात बीत गई।
सुबह वह फकीर उठा। उस फकीर ने यह भी नहीं पूछा कि कैसे आए? कहां से आए? कौन हो? वह उठा। उसने चाय बनाई। चाय पी फकीर ने। उसने इससे भी नहीं कहा, नान-इन से, कि तू एक चाय पी ले। फिर अपनी जगह आकर आंख बंद करके बैठ गया।
यह नान-इन भी उठा। जिस भांति फकीर ने चाय बनाई थी, इसने भी चाय बनाई। पी; और यह जाकर अपनी जगह बैठ गया। ऐसा सात दिन चला। सातवें दिन उस फकीर ने कहा कि मैं तुझे स्वीकार करता हूं। वह आदमी नान-इन का गुरु हो गया।
नान-इन ने उससे पूछा कि तुमने मुझे क्यों स्वीकार किया? तो उसने कहा, गुरु वही गुरु होने योग्य है, जो दावा न करे; और शिष्य भी वही शिष्य होने योग्य है, जो दावा न करे। तू चुप रहा और तूने यह नहीं कहा कि हम शिष्य होने आए हैं। और तू चुपचाप अनुकरण करता रहा छाया की तरह। सात दिन, जो मैंने किया, तूने किया। तूने यह भी नहीं पूछा कि यह करना कि नहीं करना।
जब वह उठकर बाहर घूमने जाए, तो यह भी बाहर चला जाए। वह चक्कर लगाए, यह भी चक्कर लगाए झोपड़े का। जब वह बैठ जाए, तो यह भी बैठ जाए।
पर नान-इन ने कहा है कि सात दिन के बाद कुछ पाने को भी नहीं बचा। सात दिन उसके साथ चुपचाप होना काफी था। मोस्ट आर्डिनरी, एकदम साधारण आदमी! वहां गुरु मिल गया।
हर परंपरा अलग लक्षण गिनाती है। हर परंपरा को लक्षण गिनाने पड़े हैं, क्योंकि पूछने वाले लोग मौजूद हैं। पूछने में थोड़ी भूल है। लेकिन स्वाभाविक भूल है। क्योंकि हम जानना चाहते हैं, वैसा पुरुष कैसा होगा।
अर्जुन पूछता है, तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है?
लक्षण का मतलब है, जिन्हें हम बाहर से पहचान सकें। जिनसे हम कुछ अंदाज लगा सकें। पर इससे एक दूसरा खतरा.।
एक खतरा तो यह पैदा हुआ कि सब धर्मों ने अलग लक्षण गिनाए। क्योंकि लक्षण गिनाने वाले ने जो लक्षण अपने जीवन में पाए थे, वही उसने गिनाए। इसलिए सब धर्मों में एक वैमनस्य पैदा हुआ। और एक के तीर्थंकर को दूसरा अवतार नहीं मान सकता। और एक के क्राइस्ट को दूसरा क्राइस्ट नहीं मान सकता। एक के पैगंबर को दूसरा पैगंबर नहीं मान सकता। क्योंकि लक्षण अलग हैं। और लक्षण मेल नहीं खाते हैं।
दूसरा खतरा यह हुआ, जो इससे भी बड़ा है, वह यह कि लक्षणों के कारण कुछ लोग लक्षण आरोपित कर लेते हैं। तब वे दूसरों को तो धोखा देते ही हैं, खुद भी धोखे में पड़ जाते हैं। क्योंकि लक्षण पूरे के पूरे आरोपित किए जा सकते हैं।
अगर यह लक्षण हो कि साधु पुरुष मौन होगा, तो आप मौन हो सकते हैं। गुणातीत पुरुष बोलेगा नहीं, तो न बोलने में कोई बहुत बड़ी अड़चन नहीं है। गुणातीत पुरुष, जो भी करने का हम लक्षण बना लें, वह लक्षण लोग नकल कर सकते हैं।
और ध्यान रहे, नकल में कोई अड़चन नहीं है। कोई भी अड़चन नहीं है। महावीर नग्न खड़े हैं, तो सैकड़ों लोग नग्न खड़े हो गए। लेकिन नग्नता से कोई दिगंबरत्व तो पैदा नहीं होता। दिगंबरत्व शब्द का अर्थ है कि आकाश ही मेरा एकमात्र वस्त्र है। मैं और किसी चीज से ढंका हुआ नहीं हूं। जैसे मैं पूरा अस्तित्व हो गया हूं। सिर्फ आकाश ही मेरा वस्त्र है।
लेकिन आप नंगे खड़े हो सकते हैं। फिर उसमें तरकीबें निकालनी पड़ती हैं। दिगंबर जैन मुनि जहां ठहरता है, तो भक्तों को इंतजाम करना पड़ता है। पुआल बिछा देते हैं उसके कमरे में। वह नहीं कहता कि बिछाओ। क्योंकि वह कहे, तो लक्षण से नीचे गिर गया। पुआल बिछा देते हैं। वह पुआल में छिपकर सो जाता है। क्योंकि किसी तरह का ओढ़ना नहीं कर सकते उपयोग। किसी तरह का बिछौना उपयोग नहीं कर सकते। कमरे को चारों तरफ से बिलकुल बंद कर देते हैं।
महावीर किसी कमरे में नहीं ठहरे। न किसी ने कभी पुआल बिछाई। और कोई बिछाता भी तो वे पुआल में छिपते नहीं। क्योंकि बिछाने वाला बिछा रहा होगा, आपको उसमें छिपने की कोई जरूरत नहीं है। और कौन कह रहा है कि आप कमरे में रहो? पुआल भरी है, आप बाहर चले जाओ।
लेकिन यह आदमी बेचारा सिर्फ नग्न हो गया है। इसको वस्त्रों की अभी जरूरत थी। इसको सर्दी लगती है, गर्मी लगती है। और इसमें कोई एतराज नहीं है कि इसको लगती है। कठिनाई यह है कि नाहक एक लक्षण को आरोपित करके चल रहा है।
महावीर ने कहा है कि तुम भिक्षा मांगने जाओ। तुम किसी द्वार पर पहले से खबर मत करना कि मैं भिक्षा लेने आऊंगा। क्योंकि तुम्हारे निमित्त जो भोजन बनेगा, उसमें जितनी हिंसा होगी, वह तुम्हारे ऊपर चली जाएगी। तो तुम तो अनजाने द्वार पर खड़े हो जाना। जो उसके घर बना हो, वह दे दे। तुम्हारे भाग्य में होगा, तो कोई दे देगा। नहीं भाग्य में होगा, तो तुम भूखे रहना, वापस लौट आना; बिना किसी मन में बुराई को लिए, कि लोग बुरे हैं इस गांव के, किसी ने भिक्षा नहीं दी।
और महावीर ने एक शर्त लगा दी, कि अगर तुम्हारे भाग्य में है, तो तुम पक्की कसौटी कर लेना। तो तुम एक चिह्न लेकर निकलना सुबह ही। उठते ही सोच लेना कि आज भिक्षा उस द्वार से मांगूंगा, जिस द्वार पर एक बैलगाड़ी खड़ी हो। बैलगाड़ी में गुड़ भरा हो। गुड़ में एक बैल सींग लगा रहा हो। और सींग में गुड़ लग गया हो। ऐसा कोई भी एक लक्षण ले लेना।
यह महावीर का एक लक्षण था, जिसमें वे तीन महीने तक गांव में भटके और भोजन नहीं मिला। अब यह बड़ा अजीब-सा, जो भाव आ गया सुबह, वह.। अब यह बड़ा कठिन है कि किसी घर के सामने बैलगाड़ी में भरा हुआ गुड़ हो। फिर कोई बैल उसमें सींग लगा रहा हो। और फिर उस घर के लोग देने को राजी हों। कोई उनकी मजबूरी तो है नहीं। उन्होंने कोई कसम खाई नहीं कि देंगे ही।
तो महावीर कहते थे, भाग्य में नहीं है, तुम वापस लौट आना। गुणातीत खुद से नहीं जीता, गुणों से जीता है। प्रकृति को बचाना होगा, तो बचा लेगी।
और एक दिन--एक दिन जरूर ऐसा हुआ। तीन महीने बाद हुआ, लेकिन बराबर ऐसा हुआ कि.।
अभी भी जैन दिगंबर मुनि ऐसा करता है। लेकिन उसके फिक्स्ड लक्षण हैं। दो-चार हर मुनि के फिक्स्ड हैं। सब भक्त जानते हैं। वे चारों लक्षण अपने घर के सामने खड़े कर देते हैं। लक्षण ऐसे सरल हैं, घर के सामने केला लटका हो। एक केला लटका हो घर के सामने, वहां से भिक्षा ले लेंगे। तो सब मुनियों के लक्षण पता हैं।
महावीर ने यह नहीं कहा कि तुम अपने लक्षण निश्चित कर लेना। तुम रोज सुबह जो तुम्हारा पहला भाव हो, वह लेकर निकलना। इनके सब तय हैं। तो उलटी हिंसा पच्चीस गुनी ज्यादा होती है। क्योंकि एक घर से जो भिक्षा ले लेते, तो पच्चीस घर, जितने उनके भक्त गांव में होंगे, सब बनाएंगे और सब अपने घर के सामने लक्षण लटकाएंगे। और उनका लक्षण रोज मिलता है। तीन महीने तक चूकने की किसी को नौबत आती नहीं। रोज मिलेगा ही। लक्षण ही वे लेते हैं, जो सबको पता हैं। तो नकल हो सकती है।
एक बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगने गया। एक कौआ मांस का टुकड़ा लेकर उड़ता था, वह छूट गया उसके मुंह से। वह भिक्षापात्र में गिर गया। संयोग की बात थी। बुद्ध ने भिक्षुओं को कहा है कि जो भी तुम्हारे भिक्षापात्र में डल जाए, वह तुम खा लेना, फेंकना मत। बुद्ध को भी नहीं सूझा होगा कि कभी कोई कौआ मांस का टुकड़ा गिरा देगा।
अब इस भिक्षु के सामने सवाल खड़ा हुआ कि अब क्या करना! क्योंकि बुद्ध कहते हैं.। मांसाहार करना कि नहीं? गिरा तो है पात्र में ही। नियम के बिलकुल भीतर है। तो उस भिक्षु ने जाकर बुद्ध को कहा कि क्या करूं? मांस का टुकड़ा पड़ा है, इसे फेंकूं, तो नियम का उल्लंघन होता है। क्योंकि भोजन का तिरस्कार हुआ। मैंने मांगा भी नहीं था, कौए ने अपने आप डाला है।
बुद्ध ने सोचा होगा। बुद्ध ने सोचा होगा, कौए रोज-रोज तो डालेंगे नहीं। कौओं को ऐसी क्या पड़ी है कि भिक्षुओं को परेशान करें। यह संयोग की बात है। तो बुद्ध ने कहा कि ठीक है; जो भिक्षापात्र में पड़ जाए, ले लेना। क्योंकि अगर यह कहा जाए कि फेंक दो इसे, तो अब एक दूसरा नियम बनता है कि भिक्षापात्र में जो पसंद न हो, वह फेंकना फिर। फिर चुनाव शुरू होगा। फिर भिक्षु वही जो पसंद है, रख लेगा, बाकी फेंक देगा। इससे व्यर्थ भोजन जाएगा। और भिक्षु के मन में चुनाव पैदा होगा।
तो आज चीन में, जापान में मांसाहार जारी है। क्योंकि भक्त मांस डाल देते हैं भिक्षापात्र में। और सब भक्त जानते हैं कि भिक्षु मांस पसंद करते हैं। वह कौए ने जो डाला था, रास्ता खोल गया। सारा चीन, सारा जापान, लाखों बौद्ध भिक्षु मांसाहार करते हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि नियम है, जो भिक्षापात्र में डाला जाए, उसे छोड़ना नहीं।
आदमी बेईमान है। वह नकल भी कर सकता है। नकल से तरकीब भी निकाल सकता है। सब उपाय खोज सकता है। लक्षण की वजह से एक उपद्रव हुआ है कि हम लक्षण को आरोपित कर सकते हैं; हम उसका अभिनय कर सकते हैं।
पर हमारे मन में उठता है कि क्या लक्षण होंगे।
कृष्ण ने जो लक्षण बताए हैं, वे कीमती हैं। यद्यपि बाहरी हैं, पर हमारे मन के लिए उपयोगी हैं।
किन लक्षणों से युक्त होता है? किस प्रकार के आचरणों वाला होता है? मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों के अतीत होता है?
कृष्ण ने कहा, हे अर्जुन, जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को, रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह को भी न तो प्रवृत्त होने पर बुरा समझता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है।
बड़ा जटिल लक्षण है। खतरा भी उतना ही है। क्योंकि जितना जटिल है, उतना ही आपके लिए सुविधा है।
कृष्ण यह कह रहे हैं कि गुण जो भी करवाएं! तमोगुण कुछ करवाए, तो जब तमोगुण प्रवृत्ति में ले जाता है, तब दुखी नहीं होता कि मुझसे बुरा हो रहा है। रजोगुण किसी कर्म में ले जाता है, तो भी दुखी नहीं होता कि रजोगुण मुझे कर्म में ले जा रहा है। या सत्वगुण निवृत्ति में ले जाता है, तो भी सुखी नहीं होता कि मुझे सत्वगुण निवृत्ति में ले जा रहा है। न राग से दुखी होता है, न वैराग्य से सुखी होता है। जो दोनों ही चीजों को गुणों पर छोड़ देता है और समझता है, मैं अलग हूं।
इसका मतलब क्या हुआ?
आपको क्रोध आया। अब रजोगुण आपको किसी की हिंसा करने में ले जा रहा है। आप कहेंगे, यह तो लक्षण ही है गुणातीत का! इस वक्त दुख करने की कोई जरूरत नहीं है, मजे से जाओ। तो ऊपर से तो नकल हो सकती है। क्योंकि आप क्रोधित हो सकते हैं और आप कह सकते हैं, मैं क्या कर सकता हूं; यह तो गुणों का वर्तन है! आप हिंसा भी कर सकते हैं और कह सकते हैं, मैं क्या कर सकता हूं; यह तो गुणों का वर्तन है! मेरे भीतर जो गुण थे, उन्होंने हिंसा की।
इसीलिए मैं कह रहा हूं कि लक्षण बाहर हैं और असली बात तो भीतर है। असली बात भीतर है। वह आप ही पहचान सकते हैं कि जब आप क्रोध में गए थे, तो आप सच में क्रोध का सुख ले रहे थे या साक्षी थे। क्योंकि ध्यान रहे, जो आदमी क्रोध का साक्षी है, उसका क्रोध अपने आप निर्बीज हो जाएगा। क्रोध उठेगा भी, तो भी उसमें प्राण नहीं होंगे। क्योंकि प्राण तो हम डालते हैं। उसमें धुआं ही होगा, आग नहीं हो सकती।
कामवासना उठेगी, तो भी आपके साक्षीभाव के रहने से कामवासना आपको ज्यादा दूर ले नहीं जाएगी। थोड़ी हिलेगी-डुलेगी; विदा हो जाएगी। क्योंकि आपके बिना सहयोग के, आपके साक्षीभाव को खोए बिना कोई भी चीज बहुत दूर तक नहीं जा सकती। जब आप साथ होते हैं, तब चीजें दूर तक जाती हैं। लेकिन यह तो भीतरी बात है। इसको तय करना कठिन है।
इसलिए जैनों ने कृष्ण को नहीं माना कि वे गुणातीत हैं। बड़ा मुश्किल है। कृष्ण तो गुणातीत हैं। लेकिन बात भीतरी है। कृष्ण उस युद्ध के मैदान पर खड़े हुए भी भीतर से वहां नहीं खड़े हैं। उस सारे जाल-प्रपंच के बीच भी भीतर से साक्षी हैं। लेकिन जैन कहते हैं, हम कैसे मानें कि वे साक्षी हैं? कौन जाने, वे साक्षी न हों और प्रवृत्ति में रस ले रहे हों?
तो जैन तो कहते हैं कि अगर प्रवृत्ति के साक्षी हैं, तो प्रवृत्ति गिर जानी चाहिए। तो वे कहते हैं, हम महावीर को मानेंगे, क्योंकि वे प्रवृत्ति छोड़कर चले गए हैं।
लेकिन दूसरी तरह भी खतरा वही है। आपकी प्रवृत्ति मौजूद हो, आप जंगल जा सकते हैं। क्या अड़चन है? और जंगल में आप ध्यान कर रहे हों। हम को लगता है, आप ध्यान कर रहे हैं। भीतर पता नहीं आप क्या सोच रहे हैं? कौन-सी फिल्म देख रहे हैं? क्या कर रहे हैं?
महावीर के जीवन में उल्लेख है। बिंबसार सम्राट, उस समय का एक बड़ा सम्राट, महावीर के दर्शन को आया। जब वह दर्शन को आ रहा था, तो उसने रास्ते में अपने एक पुराने मित्र को, जो कभी सम्राट था.प्रसन्न कुमार उसका नाम था, वह मुनि हो गया था महावीर का; राज्य छोड़ दिया था उसने। वह बिंबसार का बचपन का मित्र था और विश्वविद्यालय में दोनों साथ पढ़े थे। वह प्रसन्न कुमार उसे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा एक पर्वत की कंदरा के पास, ध्यान में लीन, पत्थर की मूर्ति की तरह। बिंबसार का मस्तक झुक गया। उसने सोचा कि हम अभी भी संसार में भटक रहे हैं और यह मेरा मित्र कैसी पवित्रता को उपलब्ध हो गया! नग्न, पत्थर की तरह शांत खड़ा है!
वह नमस्कार करके, बिना बाधा दिए, महावीर के दर्शन को आया था। महावीर और घने जंगल में किसी वृक्ष के नीचे विराजमान थे। वह वहां गया। वहां जाकर उसने कहा कि एक बात मुझे पूछनी है। बिंबसार ने कहा कि मेरा मित्र था प्रसन्न कुमार, वह आपका मुनि हो गया है। उसने सब छोड़ दिया। हम संसारी हैं; अज्ञानी हैं; भटकते हैं। उसे रास्ते में खड़े देखकर मेरा चित्त बड़ा आनंदित हुआ। मेरे मन में भी भाव उठा कि कब ऐसा शुभ क्षण आएगा कि मैं भी सब छोड़कर ऐसा ही शांति में लीन हो जाऊंगा! एक सवाल मेरे मन में उठता है। अभी जैसा खड़ा है प्रसन्न कुमार, शांत, मौन, अगर उसकी अभी मृत्यु हो जाए, तो वह किस महालोक में जन्म लेगा?
महावीर ने कहा, अगर इस वक्त उसकी मृत्यु हो, तो वह स्वर्ग जाएगा। लेकिन तू जब उसके सामने झुक रहा था, उस वक्त अगर मरता, तो नरक जाता।
अभी मुश्किल से आधी घड़ी बीती थी! और बिंबसार तो चौंक गया। क्योंकि जब वह सिर झुका रहा था, तब इतना शांत खड़ा था प्रसन्न कुमार कि यह सोचता था, वह स्वर्ग में है ही। और महावीर कहते हैं कि अगर उसी वक्त मर जाता, तो सीधा नरक जाता, सातवें नरक जाता।
बिंबसार ने कहा कि मैं समझा नहीं। यह पहेली हो गई। महावीर ने कहा कि तेरे आने के पहले तेरा फौज-फांटा आ रहा है। सम्राट था; उसके वजीर, घोड़े, सेनापति, वे आगे चल रहे हैं। तेरा एक वजीर भी उसके दर्शन करने तुझ से कुछ देर पहले पहुंचा। और उसने जाकर कहा कि यह देखो प्रसन्न कुमार खड़ा है मूरख की भांति। और यह अपना सारा राज्य अपने वजीरों के हाथ में सौंप आया है। इसका लड़का अभी छोटा है। वे सब लूटपाट कर रहे हैं। वह सारा राज्य बर्बाद हुआ जा रहा है। और ये बुद्धू की भांति यहां खड़े हैं!
उसने सुना प्रसन्न कुमार ने। उसको आग लग गई। वह
भूल ही गया कि मैं मुनि हूं दिगंबर। उसका हाथ तलवार पर चला गया। पुरानी आदत! उसने तलवार खींच ली। आंख बंद थीं। उसने तलवार खींचकर उठा ली। और उसने अपने मन में कहा, क्या समझते हैं वे वजीर! अभी मैं जिंदा हूं। एक-एक को गर्दन से अलग कर दूंगा।
और जब यह बिंबसार उसके दर्शन कर रहा था, तब वह गर्दनें काट रहा था। बाहर मूर्तिवत खड़ा था; भीतर गर्दनें धड़ से नीचे गिराई जा रही थीं। पुराना क्षत्रिय था। मेरे जिंदा रहते मेरे लड़के को धोखा दे रहे हैं! अभी मैं जिंदा हूं। क्या समझा है उन्होंने? मुनि हो गया, इससे क्या फर्क पड़ता है! अभी आ जाऊं, तो सब का फैसला कर दूंगा।
तो महावीर ने कहा कि इस समय अगर वह मर जाए, तो स्वर्ग जाएगा। तो बिंबसार ने कहा, अब दूसरी पहेली आप मुझे कह ही दें। अब क्या हो गया इतनी जल्दी?
तो महावीर ने कहा कि जब तलवार उसने वापस रखी, सिर पर हाथ फेरा अपना ताज सम्हालने को, तो वहां तो कोई ताज नहीं था, घुटा हुआ सिर था। जब सिर पर हाथ गया, तो उसने कहा, मैं भी पागल हूं। मैं मुनि हो गया; प्रसन्न कुमार तो मर ही चुका है। कैसी तलवार? किसकी हत्या? मैं यह क्या हत्या कर रहा हूं! सजग हो गया। उसे हंसी आ गई कि मन भी कैसा पागल है। इस समय वह बिलकुल साक्षी है। इस समय वह जो परदे से उसका तादात्म्य हो गया था, वह टूट गया। अगर अभी मर जाए, तो स्वर्ग जा सकता है।
बड़ी कठिनाई है। लक्षण सब बाहर हैं। इसलिए लक्षण आप दूसरों पर मत लगाना। लक्षण आप अपने पर ही लगाना, तो ही काम के हो सकते हैं।
जो पुरुष सत्वगुण के कार्यरूप प्रकाश को.।
जब सत्वगुण का प्रकाश हो, और ज्ञान जन्मे, और वैराग्य का उदय हो।
रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को.।
कर्म उठें, कर्मों का जाल फैले।
तमोगुण के कार्यरूप मोह को.।
तमोगुण के कारण लोभ और मोह और अज्ञान जन्मे।
इन तीनों गुणों की प्रवृत्ति हो या निवृत्ति हो.।
न तो प्रवृत्ति में मानता है कि बुरा है, न निवृत्ति में मानता है कि भला है। न तो प्रवृत्ति से बचना चाहता है, और निवृत्ति होने पर न प्रवृत्ति करना चाहता है। न तो आकांक्षा करता है कि ये हों, और न आकांक्षा करता है कि ये न हों। जो भी हो रहा है, उसे चुपचाप प्रकृति का खेल मानकर देखता रहता है। इसे कृष्ण ने मौलिक लक्षण कहा गुणातीत का।
तथा जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता है और गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलायमान नहीं होता है।
गुण प्रतिपल सक्रिय हैं; उनके कारण जो चलायमान नहीं होता है। जैसे एक दीया जल रहा है। हवा का झोंका आया; दीए की लौ कंपने लगी। ऐसी हमारी स्थिति है। कोई भी झोंका आए, किसी भी गुण से हम फौरन कंपने लगते हैं। गुण के झोंके आएं, तूफान चलें, भीतर कोई कंपन न हो। तूफान आएं और जाएं, आप अछूते खड़े रहें। न तो बुरा और न भला, कोई भी भाव पैदा न हो। न तो निंदा और न प्रशंसा, कोई चुनाव पैदा न हो, च्वाइसलेस, बिना चुने चुपचाप खड़े रहें।
सारी नीति हमें चुनाव सिखाती है और धर्म अचुनाव सिखाता है। नीति कहती है, यह अच्छा है, यह बुरा है। जब अच्छा उठे, तो प्रसन्न होकर करना। जब बुरा उठे, तो दुखी होना और करने से रुकना।
यह गीता का सूत्र तो बिलकुल विपरीत है। यह कह रहा है, बुरा उठे कि भला उठे, तुम कोई निर्णय ही मत लेना। बुरा उठे, तो बुरे को उठने देना। भला उठे, तो भले को उठने देना। न भले में स्तुति मानना, न बुरे में निंदा बनाना। तुम दोनों को देखते रहना कि तुम्हारा जैसे दोनों से कोई प्रयोजन नहीं है। जैसे रास्ते पर लोग चल रहे हैं और तुम किनारे खड़े हो। नदी बह रही है और तुम किनारे खड़े हो। आकाश में बादल चल रहे हैं और तुम नीचे बैठे हो। तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं। तुम बिलकुल अलग-थलग हो।
जब इस अलगपन का भाव पूरा उतर जाए, तभी चलायमान होने से बचा जा सकता है। अन्यथा हर चीज चलायमान कर रही है। हर घटना, जो आस-पास घट रही है, आपको हिला रही है। हर घटना आपको बदल रही है। तो आप मालिक नहीं हैं। हवाओं में कंपते हुए एक झंडे के कपड़े की तरह हैं।
एक झेन कथा है। बोकोजू के आश्रम में मंदिर पर झंडा था बौद्धों का। बोकोजू एक दिन निकलता था, देखा कि सारे भिक्षु इकट्ठे हैं और बड़ा विवाद हो रहा है। विवाद यह था, एक भिक्षु ने, जो बड़ा तार्किक था, उसने सवाल उठाया था कि झंडा हिल रहा है या हवा हिल रही है?
उपद्रव हो गया। कई मंतव्य हो गए। किसी ने कहा, हवा हिल रही है। झंडा कैसे हिलेगा, अगर हवा नहीं हिलेगी तो? हवा हिल रही है। झंडा तो सिर्फ पीछा कर रहा है। किसी ने कहा, इसका प्रमाण क्या? हम कहते हैं, झंडा हिल रहा है, इसलिए हवा हिलती मालूम पड़ रही है। अगर झंडा न हिले, तो हवा नहीं हिलेगी। किसी ने कहा, दोनों हिल रहे हैं।
बोकोजू वहां आया और उसने कहा कि सब यहां से हटो और अपने वृक्षों के नीचे बैठकर ध्यान करो। न झंडा हिल रहा है, न हवा हिल रही है, न दोनों हिल रहे हैं; तुम्हारे मन हिल रहे हैं। जब तुम्हारा मन न हिलेगा, तब झंडा भी नहीं हिलेगा, हवा भी नहीं हिलेगी। तुम यहां से भागो और इसकी फिक्र करो कि तुम्हारा मन न हिले।
मन तभी रुकेगा हिलने से जब हम निर्णय लेना बंद करें और स्वीकार करने को राजी हो जाएं; और जान लें कि यह वर्तन है गुणों का, यह हो रहा है। इससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। मैं इसमें छिपा हूं भीतर जरूर। यह मेरे चारों तरफ घट रहा है, मुझमें नहीं घट रहा है। मुझ से बाहर घट रहा है।
जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता। गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से चलायमान नहीं होता है।
और जैसे ही कोई व्यक्ति गुणों के वर्तन से वर्तित नहीं होता, गुण कंपते रहते हैं और वह अकंप होता है, दोहरी घटना घटती है। एक तरफ जैसे ही हमारा संबंध गुणों से टूटता है, वैसे ही हमारा संबंध निर्गुण से जुड़ जाता है। इसे ठीक से समझ लें।
जब तक हम गुणों से जुड़े हैं, तब तक पीछे छिपा हुआ निर्गुण परमात्मा हमारे खयाल में नहीं है। क्योंकि हमारे पास ध्यान एक धारा वाला है। वह सारा ध्यान गुणों की तरफ बह रहा है। जैसे ही हम गुणों से टूटते हैं, यही ध्यान परमात्मा की तरफ बहना शुरू हो जाता है।
निर्गुण हमारे भीतर छिपा है। निर्गुण हम हैं और हमारे चारों तरफ गुणों का जाल है। अगर गुणों से बंधे रहेंगे, तो निर्गुण का बोध नहीं होगा। अगर गुणों से मुक्त होंगे, तो निर्गुण में स्थिति हो जाती है। और निर्गुण में स्थिति ही सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा में स्थिति है।

आज इतना ही।

Spread the love