BHAGWAD GEETA

Geeta Darshan Vol-14 07

Seventh Discourse from the series of 10 discourses - Geeta Darshan Vol-14 by Osho. These discourses were given in BOMBAY during DEC 01-10 1973.
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नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।। 19।।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्‌।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।। 20।।
और हे अर्जुन, जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है अर्थात गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा देखता है और तीनों गुणों से अति परे सच्चिदानंदघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है, उस काल में वह पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।
तथा यह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ परमानंद को प्राप्त होता है।
पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न:
भगवान, आपने तमस, रजस और सत्व और उनकी समान मात्राओं का होना क्रमशः लाओत्से, जीसस, महावीर और कृष्ण के व्यक्तित्व के माध्यम से स्पष्ट किया। इस संदर्भ में याद आता है कि आप अतीत में अत्यंत क्रांतिकारी थे। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक तलों पर आपने सारे देश में उथल-पुथल पैदा कर दी थी। जिससे स्पष्ट था कि आप जीसस की तरह रजस-प्रधान हैं। फिर उन्नीस सौ सत्तर के बाद आपने अपने को बिलकुल भीतर सिकोड़ लिया और हमें लगता है कि अब आप सत्व-प्रधान हैं। क्या ऐसा परिवर्तन संभव है?
कुछ बातें ध्यान में लें, तो समझ में आ सकेगा। एक तो बुद्ध, महावीर, मोहम्मद और जीसस जैसे व्यक्तित्व हैं। इन व्यक्तित्वों ने एक ही गुण को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। मोहम्मद और जीसस हैं, रजोगुण उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है। बुद्ध और महावीर हैं, सत्वगुण उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है। लाओत्से और रमण हैं, तमस उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है। कृष्ण तीनों गुणों को एक साथ अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग कर रहे हैं।
एक और भी संभावना है, जिसका प्रयोग मैंने किया है। तीनों गुणों का एक साथ नहीं, एक-एक गुण का अलग-अलग। और मेरी दृष्टि में वही सर्वाधिक वैज्ञानिक है, इसलिए उसका चुनाव किया है।
तीनों गुण प्रत्येक व्यक्ति में हैं। दो गुणों से कोई भी व्यक्ति बन नहीं सकता। एक गुण के साथ किसी व्यक्ति के अस्तित्व की कोई संभावना नहीं है। उन तीनों का जोड़ ही आपको शरीर और मन देता है। जैसे बिना तीन रेखाओं के कोई त्रिकोण न बन सकेगा, वैसे ही बिना तीन गुणों के कोई व्यक्तित्व न बन सकेगा। उसमें एक भी गुण कम होगा, तो व्यक्तित्व बिखर जाएगा।
अगर कोई व्यक्ति कितना ही सत्व-प्रधान हो, तो सत्व-प्रधान का इतना ही अर्थ है कि सत्व प्रमुख है, बाकी दो गुण सत्व के नीचे छिप गए हैं, दब गए हैं। लेकिन वे दो गुण मौजूद हैं। और उनकी छाया सत्वगुण पर पड़ती रहेगी। प्रधानता उनकी नहीं है, वे गौण हैं। आपमें कोई भी गुण प्रकट हो, तब दो मौजूद होते हैं।
कृष्ण ने तीनों गुणों का एक साथ प्रयोग किया है। जैसे तीनों गुणों की तीनों भुजाएं समान लंबाई की हैं; त्रिभुज की तीनों रेखाएं समान लंबाई की हैं। कृष्ण का व्यक्तित्व तीनों का संयुक्त जोड़ है। और इसलिए कृष्ण को समझना उलझन की बात है।
एक गुण वाले व्यक्ति को समझना बहुत आसान है। जिसमें दो गुण दबे हों, उसके व्यक्तित्व में एक संगति होगी, कंसिस्टेंसी होगी। लाओत्से के व्यक्तित्व में जैसी कंसिस्टेंसी, संगति है, वैसी कृष्ण के व्यक्तित्व में नहीं है। लाओत्से का जो स्वाद एक शब्द में है, वही सारे शब्दों में है। बुद्ध के वचनों में एक संगति है, गहन संगति है। बुद्ध ने कहा है, जैसे तुम सागर को कहीं से भी चखो, वह खारा है, वैसे ही तुम मुझे कहीं से भी चखो, मेरा स्वाद एक है। जीसस या मोहम्मद, इन सबके स्वाद एक हैं।
लेकिन आप अनेक स्वाद कृष्ण में ले सकते हैं, तीन तो निश्चित ही ले सकते हैं। और चूंकि तीनों का मिश्रण हैं, इसलिए बहुत नए स्वाद भी उस मिश्रण से पैदा हुए हैं। इसलिए कृष्ण का रूप बहुरंगी है। और कोई भी व्यक्ति कृष्ण को पूरा प्रेम नहीं कर सकता, उसमें चुनाव करेगा। जो पसंद होगा, वह बचाएगा; जो नापसंद है, उसे काट देगा।
इसलिए अब तक कृष्ण के ऊपर जितनी भी व्याख्याएं हुई हैं, सब चुनाव की व्याख्याएं हैं। न तो शंकर कृष्ण को पूरा स्वीकार करते हैं, न रामानुज, न निंबार्क, न वल्लभाचार्य, न तिलक, न गांधी, न अरविंद, कोई भी कृष्ण को पूरा स्वीकार नहीं करता। उतने हिस्से कृष्ण में से काट देने पड़ते हैं, जो असंगत मालूम पड़ते हैं, विरोधाभासी मालूम पड़ते हैं, जो एक-दूसरे का खंडन करते हुए प्रतीत मालूम पड़ते हैं।
जैसे गांधी हैं, गांधी अहिंसा को इतना मूल्य देते हैं। तो कृष्ण अर्जुन को हिंसा के लिए उकसावा दे रहे हैं, यह उनके लिए अड़चन की बात हो जाएगी। गांधी सत्य को परम मूल्य देते हैं; कृष्ण झूठ भी बोल सकते हैं, यह गांधी की समझ के बाहर है। कृष्ण धोखा भी दे सकते हैं, यह गांधी का मन स्वीकार नहीं करेगा। और अगर कृष्ण ऐसा कर सकते हैं, तो गांधी के लिए कृष्ण पूज्य न रह जाएंगे।
तो एक ही उपाय है कि गांधी किसी तरह समझा लें कि कृष्ण ने ऐसा किया नहीं है। या तो यह कहानी है, प्रतीकात्मक है, सिंबालिक है। यह जो युद्ध है महाभारत का, यह वास्तविक युद्ध नहीं है गांधी के हिसाब से। ये कौरव और पांडव असली मनुष्य नहीं हैं, जीवित मनुष्य नहीं हैं, ये सिर्फ प्रतीक हैं बुराई और भलाई के। और युद्ध धर्म और अधर्म के बीच है, मनुष्यों के बीच नहीं। पूरी कथा है, एक पैरेबल है, तब फिर गांधी को अड़चन नहीं है। बुराई को मारने में अड़चन नहीं है; बुरे आदमी को मारने में गांधी को अड़चन है। अगर सिर्फ बुराई को काटना हो, तो कोई हर्जा नहीं है।
लेकिन अगर बुराई को ही काटना होता, तो अर्जुन को भी कोई सवाल उठने का कारण नहीं था। सवाल तो इसलिए उठ रहा था कि बुरे आदमी को काटना है। सवाल तो इसलिए उठ रहा था कि उस तरफ जो बुरे लोग हैं, वे अपने ही हैं, निजी संबंधी हैं। उनसे ममत्व है, उनसे राग है, और उनके बिना दुनिया अधूरी और बेमानी हो जाएगी।
कृष्ण का व्यक्तित्व असंगत होगा ही। तीन गुण एक साथ हैं, असंगति पैदा करेंगे।
एक और संभावना है, जिसका प्रयोग मैंने किया है। उसमें भी असंगति होगी, लेकिन वैसी नहीं जैसी कृष्ण में है।
तीनों गुण व्यक्ति में हैं। और व्यक्तित्व की पूर्णता तभी होगी, जब तीनों गुण अभिव्यक्ति में उपयोग में ले लिए जाएं, उनमें से कोई भी दबाया न जाए। कृष्ण भी दमन के पक्ष में नहीं हैं, मैं भी दमन के पक्ष में नहीं हूं। और जो भी व्यक्तित्व में है, उसका सृजनात्मक उपयोग हो जाना चाहिए।
मेरी प्रक्रिया तीनों गुणों को एक साथ अभिव्यक्ति के लिए न चुनकर तीन अलग-अलग काल-खंडों में एक-एक गुण को अभिव्यक्ति के लिए चुनना है! पहले मैंने तमस को चुना, क्योंकि वही आधारभूत है, बुनियाद में है।
बच्चा पैदा होता है मां के गर्भ से, तो नौ महीने मां के गर्भ में बच्चा तमस में होता है, गहन अंधकार में होता है। कोई क्रिया नहीं होती, परम आलस्य होता है। श्वास लेने तक की क्रिया बच्चा स्वयं नहीं करता, वह भी मां ही करती है। भोजन लेने की--बच्चे में खून भी प्रवाहित होता है, तो वह भी मां का ही खून रूपांतरित होता रहता है। बच्चा अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करता है।
अक्रिया की ऐसी अवस्था परिपूर्ण तमस की अवस्था है। बच्चा है, प्राण है, जीवन है, लेकिन जीवन किसी तरह का कर्म नहीं कर रहा है। गर्भ की अवस्था में अकर्म पूरा है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मोक्ष की तलाश, स्वर्ग की आकांक्षा, निर्वाण की खोज, सिर्फ इसीलिए पैदा होती है कि हर व्यक्ति ने अपने गर्भ के क्षण में एक ऐसा अक्रिया से भरा हुआ क्षण जाना है, इतना शून्यता से भरा हुआ अनुभव किया है। वह स्मृति में टंगा हुआ है, वह आपके गहरे में छिपा है वह अनुभव जो नौ महीने गर्भ में हुआ। वह इतना सुखद था, क्योंकि जब कुछ भी न करना पड़ता हो, कोई दायित्व न हो, कोई जिम्मेवारी न हो, कोई बोझ न हो, कोई चिंता न हो, कोई काम न हो, सिर्फ आप थे, जस्ट बीइंग, सिर्फ होना मात्र था! जिसको हम मोक्ष कहते हैं, वैसी ही करीब-करीब अवस्था मां के गर्भ में थी। वही अनुभूति आपके भीतर छिपी है।
इसलिए जीवन में आपको कहीं भी सुख नहीं मिलता और हर जगह आपको कमी मालूम पड़ती है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह तभी हो सकता है, जब आपके अनुभव में कोई ऐसा बड़ा सुख रहा हो, जिससे आप तुलना कर सकें।
हर आदमी कहता है, जीवन में दुख है। सुख का आपको अनुभव न हो, तो दुख की आपको प्रतीति कैसे होगी? और हर आदमी कहता है कि कोई सुख की खोज करनी है। किस सुख की खोज कर रहे हैं? जिसका कभी स्वाद न लिया हो, उसकी खोज भी कैसे करिएगा? और जिससे हमारा कोई परिचय नहीं है, उसकी हम जिज्ञासा कैसे करेंगे?
हमारे अचेतन में जरूर कोई अनुभव की किरण है, कोई बीज है छिपा हुआ है, कोई आनंद हमने जाना है, कोई स्वर्ग हमने जीया है, कोई संगीत हमने सुना है। कितना ही विस्मृत हो गया हो, लेकिन हमारे रोएं-रोएं में वह प्यास छिपी है, और वह खबर छिपी है, हम उसकी ही खोज कर रहे हैं।
मनोविज्ञान कहता है, मोक्ष की खोज एक विराट गर्भ की खोज है। और जब तक यह सारा अस्तित्व हमारा गर्भ न बन जाएगा, तब तक यह खोज जारी रहेगी।
यह बात बड़ी कीमती है, बहुत अर्थपूर्ण है। लेकिन इस संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि बच्चा नौ महीने अपने मां के गर्भ में ठीक तमस में पड़ा है। वहां न तो राजसी होने का सवाल है, न सात्विक होने का सवाल है, गहन तम में पड़ा है, गहन आलस्य है। बस सोया है, चौबीस घंटे सो रहा है। नौ महीने की लंबी नींद है।
फिर जैसे ही बच्चा पैदा होता है, तो फिर बाईस घंटे सोएगा, फिर बीस घंटे, फिर अठारह घंटे; धीरे-धीरे जागेगा। वर्षों लग जाएंगे, तब वह आकर आठ घंटे की नींद पर ठहरेगा। और जन्मों लग जाएंगे, जब नींद बिलकुल शून्य हो जाएगी, और वह परिपूर्ण जागरूक हो जाएगा कि निद्रा में भी जागता रहे। जिसको कृष्ण कहते हैं, जब सभी सोते हैं, तब भी योगी जागता है। इसके लिए जन्मों की यात्रा होगी।
तमस आधार है और सत्व शिखर है। इस भवन का जिसे हम जीवन कहें, तमस बुनियाद है, रजोगुण बीच का भवन है और सत्वगुण मंदिर का शिखर है।
यह जीवन की व्यवस्था है मेरी दृष्टि में। इसलिए मैंने जीवन के पहले खंड को तमस की ही साधना बनाया। जीवन के मेरे प्राथमिक वर्ष ठीक लाओत्से की रसानुभूति में ही बीते। इसलिए लाओत्से से मेरा लगाव बुनियादी है, आधारभूत है। सब भांति मैं आलस्य में था और आलस्य ही साधना थी। जहां तक बने कुछ न करना। करना मजबूरी ही हो, तो उतना ही करना, जितना अपरिहार्य हो जाए। अकारण हाथ भी न हिलाना, पैर भी न चलाना।
मेरे घर में ही ऐसी हालत हो गई थी कि मैं बैठा हूं और मेरी मां मेरे सामने ही बैठकर कहती, कोई दिखाई नहीं पड़ता, किसी को सब्जी लेने बाजार भेजना है! मैं सुन रहा हूं, मैं सामने ही बैठा हूं। और मैं जानता था, घर में आग भी लग जाती, तो भी वह यही कहती, यहां कोई दिखाई नहीं पड़ता; घर में आग लग गई, कौन बुझाए!
पर चुपचाप अपनी निष्क्रियता को देखना, सिर्फ उसके प्रति साक्षी और ध्यान से भरे रहना। कुछ घटनाओं से आपको कहूं, तो खयाल में आ जाए।
मेरे विश्वविद्यालय में आखिरी वर्ष में एक दर्शनशास्त्र के आचार्य थे। और जैसा कि दार्शनिक अक्सर झक्की और एक्सेंट्रिक होते हैं; वे भी थे। और उनका जो झक्कीपन था, वह यह था कि वे स्त्री को नहीं देखते थे। दुर्भाग्य से, मैं और एक युवती, दो ही उनके विद्यार्थी थे उनके विषय में। तो उनको आंख बंद करके ही पढ़ाना पड़ता था। मेरे लिए यह सौभाग्य हो गया, क्योंकि वे पढ़ाते थे और मैं सोता था। वे आंख खोल नहीं सकते थे, क्योंकि युवती थी।
लेकिन वे मुझ पर बहुत प्रसन्न थे, क्योंकि वे सोचते थे कि मेरा भी शायद यही सिद्धांत है, युवती को मैं भी नहीं देखता। और यूनिवर्सिटी में कम से कम उन जैसा एक आदमी और भी है, जो स्त्रियों की तरफ आंख बंद रखता है। इससे वे बड़े प्रसन्न थे। वे कई बार मुझे कहे भी; जब कभी अकेले में मिल जाते, तो वे मुझे कहते कि तुम अकेले हो, जो मुझे समझ सकते हो।
लेकिन एक दिन सब गड़बड़ हो गया।
दूसरी उनकी आदत थी कि एक घंटे का नियम वे नहीं मानते थे। इसलिए उनको अंतिम पीरियड ही यूनिवर्सिटी देती थी लेने के लिए। क्योंकि चालीस मिनट के बाद.वे कहते थे, शुरू करना मेरे बस में है, अंत करना मेरे बस में नहीं है। तो साठ मिनट में पूरा हो, अस्सी मिनट में पूरा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तो घंटा बजे, उससे मैं बंद नहीं करूंगा; जब मेरी बात पूरी हो जाए, तभी बंद करूंगा। तो करीब अस्सी मिनट, नब्बे मिनट बोलते थे, मैं सोता था। और युवती को कह रखा था कि जब घंटा पूरा होने लगे, तो मुझे इशारा करे। वह कृपा करके इतनी व्यवस्था कर देती थी कि इशारा कर देती, मैं उठ जाता।
एक दिन उसे बीच में जाना पड़ा; कोई बुलावा आ गया, कुछ कारण आ गया, वह बीच से चली गई। मैं सोया रहा, वे बोलते रहे। घंटा पूरा हो गया, उन्होंने आंख खोली, मैं सोया था। उन्होंने मुझे हिलाया और जगाया। बोले कि नींद लग गई? मैंने कहा, अब आपको पता ही चल गया, तो मैं कह दूं। मैं रोज ही सो रहा हूं। मुझे स्त्रियों से कोई ऐतराज नहीं है। और यह बड़ा सुखद है, डेढ़ घंटे आप बोलते हैं, मैं सो लेता हूं।
सोना मैंने करीब-करीब ध्यान बना रखा था। जितना ज्यादा सो सकूं, उतना ज्यादा सोता था।
एक बड़े मजे की बात है कि अगर आप जरूरत से ज्यादा सोएं, तो सोने में जागरण निर्मित होने लगता है। अगर आप जरूरत से कम सोएं, तो नींद एक मूर्च्छा होगी। अगर आप जरूरत से ज्यादा सोएं, तो सो तो नहीं सकते। शरीर की जरूरत पूरी हो जाती है। धीरे-धीरे शरीर की कोई जरूरत नहीं रह जाती और आप सोए हुए हैं, तो भीतर कोई जागकर देखने लगता है।
अगर आप छत्तीस घंटे पड़े हुए सोए रहें, तो आपको थोड़ी-सी झलक मिलेगी उस बात की, जिसको कृष्ण कह रहे हैं, तस्याम जागर्ति संयमी। क्योंकि नींद की कोई शरीर को जरूरत न रह जाएगी। और शरीर को आप नींद की अवस्था में पड़ा रहने दें। तो भीतर से जागरण का स्वर शुरू हो जाएगा।
उन दिनों में ही निरंतर सो-सोकर मैंने जाना कि सोए में जागना हो सकता है। रात भी सोता, सुबह भी सोता, दोपहर भी सो जाता; जब मौका मिलता। घर के लोगों को, प्रियजनों को, परिवार के लोगों को यही खयाल था कि मैं निपट आलसी हूं, मुझसे जीवन में कुछ हो नहीं सकता। एक हिसाब से वह ठीक ही था उनका खयाल। मेरी तरफ से नींद मेरे लिए साधना थी।
मेरे एक और प्रोफेसर थे। मेरे प्रोफेसर भी थे, मेरे मित्र भी थे। और जैसा आलसी मैं था, ठीक वैसे ही आलसी थे। अकेले वे भी रहते थे, अकेला मैं भी रहता था। उन्होंने कहा, बेहतर होगा, हम दोनों साथ ही रहें। मैंने कहा, इसमें थोड़ी अड़चन होगी। हो सकता है, आपकी नींद में मेरे कारण बाधा हो, मेरी नींद में आपके कारण बाधा हो। फिर भी आप चाहें तो.। पर साथ रहने में कुछ व्यवस्था बनानी जरूरी थी और दोनों ही आलसी थे। वे अब भी वैसे ही हैं; उन्होंने उस गुण का त्याग नहीं किया। उन्होंने कभी उसे साधना भी नहीं बनाया, अन्यथा वह छूट जाता।
ध्यान रहे, जिस तत्व को भी आप साधना बना लें, थोड़े दिन में उसके पार आप चले ही जाएंगे। साधना का मतलब ही ट्रांसेंडेंस है, अतिक्रमण है। और जिसको भी आप पूरी तरह भोग लें, आप उसके भीतर नहीं रह सकते। अगर आप आलस्य को भी पूरी तरह भोग लें, आप अचानक पाएंगे कि आलस्य विदा हो गया। जिससे मुक्त होना हो, उसे पूरा भोग लेना जरूरी है।
इसलिए मैंने तमस को पहले पूरा ही भोग लेना उचित समझा।
साथ रहे, तो पहले ही दिन रात हमें तय करना पड़ा कि कल से हमारी व्यवस्था कैसी होगी। अब तक अलग-अलग थे, इसलिए व्यवस्था का कोई सवाल नहीं था। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति पहले सुबह उठे, वह दूध लेने जाए। मैंने कहा, यह बिलकुल स्वीकार है। मैं भी खुश था, वे भी खुश थे। दोनों भ्रांति में थे। तो मैंने सोचा कि ऐसा सुबह पहले उठने की जरूरत क्या है! और वे भी यही सोच रहे थे।
नौ बजे के करीब मेरी नींद खुली, तो मैंने देखा, वे सोए हैं, तो मैं फिर सो गया। दस बजे के करीब उनकी नींद खुली होगी, उन्होंने देखा कि मैं सोया हूं। वे भी सोना चाहे, लेकिन एक अड़चन थी, उनको ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी तो पहुंचना ही था, वे नौकरी में थे। मैं तो विद्यार्थी था; मुझे जाने की कोई आवश्यकता भी न थी, जरूरी भी नहीं था। ऐसे भी मैं कम ही जाता था।
आखिर मजबूरी में उनको उठना पड़ा; दूध लेने जाना पड़ा। जब तक वे आए, तब तक मैं उठकर बैठा था। उन्होंने कहा कि यह दोस्ती नहीं चल सकती, क्योंकि यह तो रोज का सवाल है। मुझे ग्यारह बजे यूनिवर्सिटी जाना ही है। तो मैं ज्यादा से ज्यादा दस बजे तक प्रतीक्षा कर सकता हूं। तुम पूरे दिन प्रतीक्षा कर सकते हो। इसका मतलब हुआ कि दूध मुझे रोज ही लाना पड़ेगा; यह दोस्ती नहीं चल सकती।
जिस बात को भी करने से बचा जा सके; मैंने प्राथमिक चरण में पूरी तरह बचने की कोशिश की। दो वर्ष मैं विश्वविद्यालय में था, मैंने कभी अपना कमरा नहीं झाड़ा। अपने पलंग को दरवाजे पर रख छोड़ा था, जिससे सीधा दरवाजे से पलंग पर प्रवेश करूं और सीधे बाहर निकल जाऊं। और अकारण पूरे कमरे को क्यों! न उसमें प्रवेश करना, न उसको साफ करने का कोई सवाल था। पर उसका अपना सुख था।
और चीजें जैसी हैं, उनमें जितना कम रद्दोबदल करना पड़े. क्योंकि रद्दोबदल का मतलब होता है, कुछ करना पड़ेगा। उनको वैसे ही रहने देना। पर इससे अनूठे अनुभव भी हुए। और हर गुण का अनूठा अनुभव है। कितना ही कचरा था और कितनी ही गंदगी थी, उसके बीच ऐसे ही रहने का भाव आ गया जैसे कितनी ही स्वच्छता के बीच रहने की स्थिति हो।
जिस विश्वविद्यालय में मैं था, उसके भवन तब तक निर्मित नहीं हुए थे। नया विश्वविद्यालय निर्मित हुआ था और मिलिट्री के बैरेक्स का ही उपयोग हास्टल्स के लिए हो रहा था। तो अक्सर सांप आ जाते थे, क्योंकि घने जंगल में ही, खुले जंगल में बैरेक्स थे। तो मैं पड़ा हुआ अपने बिस्तर पर उनको देखता रहता था। वे आ जाते, बैठ जाते, कमरे में विश्राम कर लेते। न कभी उन्होंने कुछ किया, न मैंने कभी उनके लिए कुछ किया।
करने का भाव ही न हो, तो बहुत-सी चीजें सहज स्वीकार हो जाती हैं। और करने का भाव न हो, तो जिंदगी में असंतोष की मात्रा एकदम नीचे गिरने लगती है। उन दिनों में कोई असंतोष का कारण नहीं था। क्योंकि जब आप कुछ कर ही न रहे हों, तो आपकी कोई मांग नहीं रह जाती। और जब आप कुछ कर ही न रहे हों, तो फल का कोई सवाल नहीं है। जब आप कुछ कर ही न रहे हों, तो जो भी मिल जाए.।
तो कभी-कभी कोई मित्र दया करके कमरे को साफ कर जाता, तो मैं बड़ा अनुगृहीत होता था। मेरे अध्यक्ष विभाग के, परीक्षा के समय सुबह स्वयं उठकर सात बजे मेरे दरवाजे पर गाड़ी लेकर खड़े हो जाते थे कि मुझे आठ-दस दिन जब तक परीक्षा चले, मुझे हाल में वे छोड़ दें, क्योंकि मैं सोया न रह जाऊं।
सबकी दया और करुणा अनायास मिलती थी। क्योंकि सभी को खयाल था कि जिस बात को भी करने से बचा जा सके, मैं बचूंगा। बड़ी आश्चर्य की घटनाएं घटती थीं। वह इसलिए कह रहा हूं कि आपको खयाल आ सके कि जिंदगी बहुत रहस्यपूर्ण है।
प्रोफेसर्स परीक्षा के पहले मुझे आकर कह जाते कि यह प्रश्न जरूर देख लेना। मैं कभी किसी से पूछने नहीं गया। उनके बताने पर भी उनको भरोसा नहीं था कि मैं देखूंगा। वे मेरी तरफ ऐसे देखते कि समझ में आया? इसको जरूर ही देख लेना। इसका आना पक्का है। जाते-जाते वे मुझको कह जाते, यह पेपर मैंने ही निकाला है; इसे बिलकुल देख ही लेना। इसमें कोई शक-सुबहा ही नहीं है, यह आएगा ही। फिर भी उन्हें मैं कभी भरोसा नहीं दिला सका कि उनको भरोसा आ जाए कि मैं देखूंगा।
मैं यह कह रहा हूं कि अगर आप जगत से छीनने-झपटने जाएं, तो हर जगह प्रतिरोध है। और अगर आप कुछ न करने की हालत में हों, तो सब द्वार आपको देने को खुल जाते हैं।
उन दिनों बिस्तर पर पड़े रहना, ऊपर सीलिंग में देखते रहना, वैकेंट, खाली। बहुत बाद में मुझे पता चला कि मेहर बाबा की साधना वही थी। मुझे तो यह अनायास हुआ। क्योंकि बिस्तर पर पड़े-पड़े करना भी क्या? अगर नींद जा चुकी हो, तो पड़े रहना, सीलिंग को देखते रहना। अगर आप चुपचाप बिना पलक झपाए.और पलक नहीं झपाना, यह कोई साधना नहीं थी। वह भी जैसे कर्म का हिस्सा है, क्यों झपाना! पड़े रहना। वह भी जैसे आलस्य का हिस्सा है कि पलक भी क्यों झपाना! पड़े रहना। रोकने का कृत्य नहीं था। जहां तक बने कुछ न करना।
अगर आप अपने मकान की सीलिंग को ही देखते हुए पड़े रहें घंटे, दो घंटे; आप पाएंगे, चित्त इतना आकाश जैसा कोरा हो जाता है, शून्य हो जाता है।
अगर आलस्य को कोई साधना बना ले, तो शून्य की अनुभूति बड़ी सहज हो जाती है।
उन दिनों में न मैं ईश्वर को मानता था, न आत्मा को। न मानने का कारण कुल इतना था कि इन्हें मानने से फिर कुछ करना पड़ेगा। आलसी के लिए अनीश्वरवाद संगत है। क्योंकि अगर ईश्वर है, तो काम शुरू हो गया। फिर कुछ करना पड़ेगा। अगर आत्मा है, तो कुछ करना पड़ेगा।
लेकिन कुछ न करते हुए, बिना ईश्वर और आत्मा को मानते हुए, उस चुपचाप पड़े रहने में ही उस सब की झलक मिलनी शुरू हो गई, जिसको हम आत्मा कहें, ईश्वर कहें। और मैंने तब तक तमस को नहीं छोड़ा, जब तक तमस ने मुझे नहीं छोड़ दिया। तब तक मैंने तय किया था कि चलता रहूंगा ऐसा ही, बिना कुछ किए।
मेरी अपनी समझ यह है कि अगर आप तमस को ठीक से जी लें, तो उसके बाद रजोगुण अपने आप पैदा हो जाएगा। क्योंकि वह दूसरा गुण है, जो आपकी दूसरी मंजिल में छिपा हुआ है। पहली मंजिल पूरी हो गई; आप सीढ़ियां पार कर आए, रजोगुण शुरू हो जाएगा। आपमें सक्रियता का उदय होगा।
लेकिन यह सक्रियता बहुत अनूठी होगी। यह सक्रियता राजनीतिज्ञ की विक्षिप्तता नहीं होगी। अगर आलस्य को आपने साधना बनाया हो और आलस्य आपका शून्यता में जाने का द्वार बना हो, तो यह सक्रियता वासना की सक्रियता नहीं हो सकती, करुणा की ही हो सकती है। यह सक्रियता अब बांटने का एक क्रम होगी।
तो उस सक्रियता को भी मैंने पूरी तरह जी लिया। बीच में कुछ बाधा डालना मेरी वृत्ति नहीं है। जो भी हो रहा हो, उसे होने देना। और ऐसे अगर कोई होने दे, तो बहुत जल्दी गुणातीत हो जाएगा। क्योंकि तब स्वयं करने वाला नहीं रह जाता; गुण ही करने वाले रह जाते हैं। वह आलस्य का गुण था, जिसने अपने को पूरा कर लिया।
फिर रजोगुण था। तो मैं दौड़ता रहा मुल्क में। जितनी यात्रा मैंने दस-पंद्रह साल में की, दो-तीन जीवन में भी एक आदमी नहीं कर सकता। जितना उन दस-पंद्रह सालों में बोला, उतने के लिए दस-पंद्रह जीवन चाहिए। सुबह से लेकर रात तक चल ही रहा था, बोल ही रहा था, सफर ही कर रहा था।
जरूरत, गैर-जरूरत विवाद और उपद्रव भी खड़े कर रहा था। क्योंकि जितने वे विवाद खड़े हो जाएं, उतना मेरे रजोगुण को निकल जाने की सुविधा थी। तो गांधी की आलोचना हाथ में ले ली, या समाजवाद की आलोचना हाथ में ले ली। उनसे मेरा कोई संबंध नहीं था। राजनीति से मेरा कोई भी लगाव नहीं है; रत्तीभर भी मुझे कोई रस नहीं है।
लेकिन जब सारा मुल्क एक विक्षिप्तता में पड़ा हो, सारी मनुष्यता, और अगर आपको भी दौड़ना हो उस मनुष्यता के बीच, तो खेल के लिए ही सही, आपको कुछ उपद्रव अपने आस-पास निर्मित कर लेने चाहिए, कुछ विवाद खड़े कर लेने चाहिए। तो उस रजोगुण की यात्रा में ढेर विवाद खड़े हुए, और मैंने उनका काफी सुख लिया।
अगर कर्म की विक्षिप्तता से वे पैदा होते, तो उनसे दुख पैदा होता। लेकिन सिर्फ रजोगुण के निकास की भांति, अभिव्यक्ति की भांति वे थे, तो उन सबमें खेल था और रस था। वे विवाद एक अभिनय से ज्यादा नहीं थे।
पंजाब में पंजाब के एक बड़े वेदांती थे, हरिगिरी जी महाराज। उनसे वेदांत पर एक बड़ा विवाद हुआ। मेरे लिए एक खेल था, उनके लिए गंभीरता थी। क्योंकि उनके सिद्धांत का सवाल था। वे करीब-करीब विक्षिप्त हो जाते थे।
पुरी के शंकराचार्य से पटना में विवाद हो गया। मेरे लिए खेल था, उनके लिए पूरे व्यवसाय का सवाल था। वे इतने विक्षिप्त हो गए, इतने क्रोध में आ गए कि मंच से गिरते-गिरते बचे। सारा शरीर कंपित हो गया।
पर रजोगुण को पूरा निकल जाने देना जरूरी है। बहुत मित्रों ने मुझे रोकना चाहा, पर मैं अपनी तरफ से नहीं रुकना चाहता था। रजोगुण ही झर जाए, उसकी निर्जरा हो जाए, तो ही रुकूंगा।
महीने में तीन सप्ताह मैं ट्रेन में ही बैठा हुआ था। सुबह बंबई था, तो रात कलकत्ता था, तो दूसरे दिन अमृतसर था, तो चौथे दिन लुधियाना था, दिल्ली था। पूरा मुल्क जैसे एक भ्रमण के लिए क्षेत्र था। और जगह-जगह उपद्रव स्वाभाविक थे, क्योंकि जब आप कर्म करेंगे, त
ब उपद्रव बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि कर्म के प्रतिकर्म पैदा होते हैं, क्रिया से प्रतिक्रिया जन्मती है।
आलस्य के दिनों में मैं बोलता नहीं था, या न के बराबर बोलता था। कोई बहुत पूछे, तो थोड़ा बोलता था। रजोगुण के दिनों में कोई न भी पूछे, तो बोलता था। लोगों को ढूंढ़कर बोलता था; और बोलने में एक आग थी। मेरे पास अब भी लोग आते हैं, वे कहते हैं, अब आप वैसा नहीं बोलते कि दिल थर्रा जाता था। एक जोश, अंगार था।
वह अंगार मेरा नहीं था। वह उस गुण का था, जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं। वह रजोगुण को जलाने का एक ही उपाय था, कि वह भभक कर जले। वह पूरा का पूरा अंगारा बन जाए, तो जल्दी राख हो जाएगा। जितने धीरे-धीरे जलेगा, उतना समय लेगा। इकट्ठा जल जाए, पूर्णता से जले, तो जल्दी राख हो जाएगा।
अब वह जल चुका है। और अब जैसे सांझ को सूरज सिकोड़ ले अपनी सारी किरणों को और जैसे सांझ को मछुआ अपने जाल को निकाल ले, ऐसे मैं सब सिकोड़ लूंगा। सिकोड़ लूंगा, कहना ठीक नहीं है। ऐसा सब सिकुड़ जाएगा। क्योंकि तीसरा तत्व शुरू होगा।
इसलिए आप देख भी रहे हैं कि मैं धीरे-धीरे सब हाथ हटाता जा रहा हूं। आपकी जगह पचास हजार लोग सुन सकते थे, लेकिन मैं राजी हूं कि पचास लोग सुनें। पचास से पांच पर राजी हो जाऊंगा। बोलने से न बोलने पर राजी हो जाऊंगा।
तो जैसे-जैसे रजोगुण पूरा फिंक जाता है और सत्व की प्रक्रिया शुरू होती है, वैसे-वैसे सभी क्रियाएं फिर शून्य हो जाएंगी।
तमोगुण में भी सारी क्रियाएं शून्य होती हैं। लेकिन वह शून्यता निद्रा जैसी होती है। सत्वगुण में भी सारी क्रियाएं शून्य हो जाती हैं। लेकिन वह शून्यता जागरूकता जैसी होती है। तमस और सत्व में एक समानता है कि दोनों शून्य होंगे। तमस का रूप निद्रा जैसा होगा; सत्व का रूप जागरण जैसा होगा।
और इसी को मैं जीवन की ठीक प्रक्रिया मानता हूं कि जीवन का प्रथम चरण तमस में गुजरे, द्वितीय चरण रज में गुजरे, तृतीय चरण सत्व में गुजरे। और तीनों चरण में आप अपने को अलग रखने की कोशिश में लगे रहें, तो आप साधना में हैं। और तीनों चरणों में आप जानते रहें कि यह मैं नहीं कर रहा हूं, ये गुण कर रहे हैं। यह मुझसे नहीं हो रहा है; मैं सिर्फ देखने वाला हूं; मैं सिर्फ साक्षी हूं। जब आलस्य हो तब भी, जब कर्म हो तब भी, जब सत्व हो तब भी। मैं सिर्फ देखने वाला हूं, मैं मात्र द्रष्टा हूं। ऐसी प्रतीति बनी रहे, तो तीनों गुण चुक जाएंगे अपने से और आप गुणातीत में ठहर जाएंगे।
पहुंचना है चौथे में, तीनों के पार। जिसको चौथा कहना ठीक नहीं; जहां कोई भी नहीं है; जहां तीनों नहीं हैं।
कृष्ण ने तीनों को इकट्ठा व्यक्त किया है। मैंने तीनों को अलग-अलग एक-एक परिधि में बांटकर उपयोग किया है। इसलिए मेरी बातों में भी असंगति मिलेगी। जो मैंने तमस के क्षणों में कहा है और जीया है, वह मेरे रजस के क्षणों से उसका कोई मेल नहीं बैठेगा। और जो मैंने रजस के क्षणों में कहा है, वह मेरे सत्व के क्षणों में कही गई बातों से उसका बहुत विरोध हो जाएगा।
इसलिए जब कोई मेरे पूरे विचार पर सोचने बैठेगा, तो उसे तीन हिस्सों में तोड़ देना पड़ेगा। और तीनों के बीच बड़े विरोध होंगे। होना ही चाहिए। क्योंकि तीन अलग गुणों के माध्यम से वे बातें प्रकट हुई हैं। और तीनों के बीच संगति असंभव होगी।
अगर मेरे व्यक्तित्व में संगति खोजनी हो, तो वह चौथे में मिलेगी, वह जो गुणातीत है। इन तीन में संगति नहीं मिल सकेगी। इन तीनों के पीछे जो छिपा साक्षीभाव है, उसमें ही संगति मिल सकती है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, सात्विक कर्म का फल सुख, ज्ञान एवं वैराग्य कहा है। रजस एवं तमस कर्म का फल दुख और अज्ञान कहा है। यदि रजस और तमस गुणों को साधना का आधार बनाया जाए, तो उनके फलों में क्या भिन्नता आ जाएगी?
फलों में तो कोई भिन्नता न आएगी। फल-भोक्ता में भिन्नता आएगी। फल तो वही होंगे। अगर सात्विक कर्म का फल सुख है, तो सुख ही होगा, चाहे आप जागरूक हों और न हों। अगर जागरूक होंगे, तो आप जानेंगे कि सुख मुझ से दूर और अलग है, मेरे आस-पास है। मैं सुख नहीं हूं, मैं सुख को देखने वाला हूं।
चाहे रजस का फल हो दुख, फल तो वही होगा। संत को भी वही फल होगा, असंत को भी वही फल होगा। लेकिन असंत समझेगा कि मैं दुख हूं और संत समझेगा कि मैं दुख का द्रष्टा हूं। वहां भेद होगा।
इसलिए बड़े मजे की बात है। दुख का फल तो बराबर होगा, लेकिन संत दुखी नहीं हो पाएगा और असंत दुखी होगा। और दुख दोनों को होगा। जो दुख के साथ जुड़ जाएगा, तादात्म्य कर लेगा, आइडेंटिटी बना लेगा, वह दुखी होगा।
जैसे आपका कपड़ा कोई छीन ले। और आप अगर सोचते हों कि कपड़ा ही मैं हूं, तो कपड़े के साथ आपकी आत्मा जा रही है। और आप सोचते हों कि कपड़ा सिर्फ मेरे ऊपर है; कोई ले भी गया, तो कपड़ा ही ले गया है, मैं नहीं चला गया हूं। कपड़ा दोनों हालत में चला जाएगा। लेकिन एक हालत में आपको गहन पीड़ा से भर जाएगा, दूसरी हालत में आप हंसते रह जाएंगे।
शरीर तो दोनों का छूटेगा। लेकिन जिसने अपने को शरीर ही समझा हो, वह रोएगा, छाती पीटेगा। और जिसने जाना हो कि मैं शरीर का देखने वाला हूं, शरीर से भिन्न और अलग हूं, वह शरीर को जाते हुए देखेगा, जैसे एक और वस्त्र छिन गया, जराजीर्ण हो गया था, नए वस्त्र की खोज में पुराने को छोड़ दिया।
तीनों के फल होंगे। लेकिन साधक के लिए, जो उन तीनों के प्रति जागरूकता साध रहा है.।
और जागरूकता तो सभी को साधनी पड़ेगी, चाहे आप किसी गुण में हों। चाहे आपके हाथ पर जंजीरें लोहे की हों, चाहे आपके हाथ पर जंजीरें सोने की हों, चाहे आपके हाथ पर जंजीरें हीरे से मढ़ी हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जंजीर खोलने की कला तो एक ही होगी। वह सोने की है कि लोहे की, इससे कोई भेद नहीं पड़ता।
आपके चारों तरफ दुख बंधा है कि सुख, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। खोलने की कुंजी तो एक ही है, और वह कुंजी है, साक्षीभाव। चाहे दुख हो तो, चाहे सुख हो तो, आपको अपने को दूर खड़े होकर देखने की कला में निष्णात करना है। अभ्यास एक है, कि मैं अलग हूं। कुछ भी घट रहा हो, वह घटना अ ब स कुछ भी हो, उस घटना से मैं दूर खड़ा देख रहा हूं। मैं दर्शक हूं।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने समझाया कि सात्विक कर्मों का परिणाम है, सहज वैराग्य। जो व्यक्ति रजस या तमस के माध्यम से साधना कर रहा है, क्या उसका भी वैराग्य सहज ही होगा? क्या वैराग्य के प्रकटीकरण में भी भिन्नता आ जाएगी?
नहीं, वैराग्य हमेशा सहज होगा। सहज का मतलब समझ लें।
वैराग्य को ओढ़ा नहीं जा सकता, जबरदस्ती थोपा नहीं जा सकता। वैराग्य जब भी होगा, सहज होगा। और अगर सहज न हो, तो वह वैराग्य सिर्फ ऊपर-ऊपर होगा, भीतर उसके राग होगा। नाम वैराग्य होगा, लेकिन नए ढंग का राग होगा।
आप एक चीज को छोड़ सकते हैं दूसरी चीज को पकड़ने के लिए। लेकिन यह वैराग्य नहीं है। वैराग्य का मतलब है, छोड़ना, बिना किसी को पकड़ने के लिए। सिर्फ मुट्ठी को खुला छोड़ देना है।
साधु-संत लोगों को समझाते हैं--तथाकथित साधु-संत--कि तुम यहां छोड़ो, तो परलोक में पाओगे। उनकी बातें सुनकर अगर कोई यहां छोड़ दे, तो वह छोड़ नहीं रहा है। वह सिर्फ परलोक में पकड़ रहा है। उसका वैराग्य झूठा है, ओढ़ा हुआ है। राग ही काम कर रहा है। और वह मन ही मन में बड़ा प्रसन्न हो रहा है कि मैंने यहां धन दिया, तो हजार गुना परलोक में मुझे मिलेगा। वह सौदा कर रहा है, त्याग नहीं कर रहा। वह इनवेस्टमेंट कर रहा है। वह आगे की तैयारी कर रहा है। वह यहीं से आगे के लिए भी धन जोड़ रहा है।
और साधु समझाते हैं कि धन को इकट्ठा करके क्या करोगे? पुण्य इकट्ठा करो। क्योंकि धन तो छिन जाएगा; पुण्य कभी नहीं छिनेगा। लोभी उनकी बातों में आ जाएंगे। क्योंकि लोभी ऐसा ही धन खोज रहा है, जो छिन न सके। यह भाषा लोभ की है, त्याग की भाषा नहीं है।
सहज वैराग्य का अर्थ है, आपको दिखाई पड़ेगा, धन व्यर्थ है। आप इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि इससे कोई बड़ा धन मिल जाएगा। आप धन की पकड़ ही छोड़ रहे हैं। आप बड़े को भी नहीं चाहते हैं। आप इस संसार को इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि परलोक मिल जाएगा। आप कुछ पाना ही नहीं चाहते। पाने की बात ही मूढ़तापूर्ण समझ में आ गई। यह बोध हो गया कि पाने की आकांक्षा में ही दुख है, फिर वह पाना यहां हो कि परलोक में हो। अब आप कुछ पाना नहीं चाह रहे। आप अब जो हैं, वही होने में प्रसन्न हैं, तो वैराग्य।
वैराग्य का मतलब है, मैं जहां हूं, जैसा हूं, जो हूं, उसकी स्वीकृति। उससे कोई असंतोष नहीं। राग का अर्थ है, जो भी मैं हूं, उससे असंतुष्ट हूं। और कुछ और हो जाऊं, तो मेरा संतोष हो सकता है।
राग का संतोष है भविष्य में, वैराग्य का संतोष है अभी और यहीं। इसलिए वैराग्य सदा सहज होगा, एक।
साधना कोई भी हो, वैराग्य सदा फल होगा। साधना चाहे तमस की हो, चाहे रजस की, चाहे सत्व की, फल सदा वैराग्य होगा। साधना का फल वैराग्य है। ध्यान का फल वैराग्य है। ज्ञान का फल वैराग्य है।
अगर आप दौड़ रहे हैं, कर्म कर रहे हैं.जैसा कि कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू कर्म कर, डर मत। लेकिन कर्म करने में भोक्ता मत रह, कर्ता मत रह, साक्षी हो जा।
अर्जुन को कृष्ण कह रहे हैं, तू रजस की साधना कर। क्योंकि कृष्ण जानते हैं भलीभांति कि अर्जुन का गुण है क्षत्रिय का। वह रजस उसका स्वभाव है, वह उसकी प्रमुखता है। और जीवनभर उसने रजस को साधा है, आलस्य को दबाया है। सत्व को दबाया है, रजस को उभारा है। क्योंकि क्षत्रिय अगर सत्व को उभारे, तो क्षत्रिय न हो सकेगा, ब्राह्मण हो जाएगा। अगर ब्राह्मण रजस को उभारे, तो नाम का ही ब्राह्मण रह जाएगा, क्षत्रिय हो जाएगा।
परशुराम नाम के ब्राह्मण हैं। हाथ में उनके फरसा है। और क्षत्रियों से, कथा है कि उन्होंने अनेक बार पृथ्वी को खाली कर दिया। वह महाक्षत्रिय हैं। इसलिए परशुराम में सत्व प्रमुख नहीं हो सकता; रजस ही प्रमुख होगा। परशुराम की दोस्ती बुद्ध से नहीं बैठ सकती, मोहम्मद से बैठ सकती है। जहां सक्रियता प्रमुख हो, वहां रजस ऊपर होगा।
कृष्ण भलीभांति जानते हैं अर्जुन का सारा व्यक्तित्व, सारा ढांचा रजस का है। इसलिए वे कह रहे हैं, तू भागने की बातें मत कर। यह तेरा स्वभाव नहीं है, यह तेरा स्वधर्म नहीं है। तू भाग न सकेगा। अगर तू भाग भी गया जंगल में, तो झाड़ के नीचे तू बैठ न सकेगा। तू वहीं जंगल में शिकार करना शुरू कर देगा। वहीं कोई झगड़े खड़े कर लेगा। तेरे क्षत्रिय होने से तेरा छुटकारा इतना आसान नहीं है। जो तेरा व्यक्तित्व है, उसी गुण की साधना में तू उतर, यही कृष्ण का पूरा संदेश है।
इसलिए वे कह रहे हैं, तू लड़। लेकिन एक शर्त, कि तू लड़ जरूर, युद्ध जरूर कर, लेकिन योद्धा अपने को मत समझ, कर्ता अपने को मत समझ। समझ कि तू परमात्मा के हाथ एक निमित्त, एक उपकरण, एक साधन है।
चाहे साधना सत्व की हो, चाहे कोई सदगुणों को जीवन में उतारने में लगा हो; सत्य को, करुणा को, अहिंसा को साध रहा हो; सब भांति अपने आचरण को पवित्र कर रहा हो, शुचि कर रहा हो, शुद्ध कर रहा हो; वहां भी कर्ता-भाव पकड़ सकता है। वहां भी यह हो सकता है कि देखो, मेरे जैसा साधु कोई भी नहीं है! कि मेरी जैसी पवित्रता कहां है!
तो भूल हो गई। तो यह सत्वगुण जंजीर बन जाएगा। वहां भी जानना है कि यह जो भलापन हो रहा है, यह भी मेरे भीतर जो प्रकृति ने सत्व का गुण रखा है, उसका परिणमन है, उसका परिणाम है। मैं तो सिर्फ देखने वाला हूं। मैं देख रहा हूं कि मेरा सत्व सक्रिय हो रहा है, मेरे भीतर से करुणा बह रही है, अहिंसा बह रही है। मैं अहिंसक नहीं हूं।
मैं तो वैसे ही देख रहा हूं, जैसे हिमालय देखता होगा कि गंगा बह रही है। आकाश से पानी गिरता है, गंगोत्री भर जाती है, गंगोत्री से गंगा बहती है। हिमालय यह नहीं कह रहा है कि मैं गंगा को बहा रहा हूं। हिमालय सिर्फ देख रहा है कि गंगा मुझसे बह रही है। ऐसे ही सत्व की क्रियाएं मुझसे हो रही हैं। आकाश से वर्षा हो रही है, प्रकृति उनको दे रही है, मैं सिर्फ देखने वाला हूं।
अगर आप हिमालय की तरह खड़े हुए साक्षी हो गए, तो सत्व बंधन नहीं बनेगा, अन्यथा सत्व भी बंधन बन जाएगा। और अगर आप साक्षी हो सकें, तो फिर तमस भी बंधन नहीं बनेगा। आप तब देख सकते हैं कि आलस्य मेरा नहीं है, आलसी मैं नहीं हूं; यह भी मेरे भीतर प्रक्रिया है गुणों की।
विज्ञान इस संबंध में बड़ी महत्वपूर्ण सूचनाएं देता है। वे सूचनाएं ये हैं कि आपके भीतर जो भी हो रहा है, वह आपके शरीर के हार्मोन्स पर निर्भर है, आप पर निर्भर नहीं है। हार्मोन नया शब्द हो सकता है, लेकिन मतलब उसका भी वही है, जो गुणों का होगा।
एक स्त्री है, एक पुरुष है। आप सोचते हैं, मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं। आप गलती में हैं। स्त्री को पुरुष हार्मोन के इंजेक्शन दे दिए जाएं, उसके शरीर का रूपांतरण हो जाएगा, वह पुरुष जैसी हो जाएगी। पुरुष को स्त्री हार्मोन के इंजेक्शन दे दिए जाएं, उसका रूपांतरण हो जाएगा। उसकी कामेंद्रिय बदलकर स्त्रैण हो जाएगी। तब आप बड़े चौंकेंगे कि मैं कौन हूं फिर? क्योंकि अगर इंजेक्शन आपको स्त्री से पुरुष बना सके, पुरुष से स्त्री बना सके, तो आप कौन हैं? स्त्री हैं या पुरुष?
यही हमारी निरंतर की खोज है। और मैं मानता हूं कि विज्ञान बड़े नए आधार दे रहा है पुराने सत्यों के लिए। इसका मतलब हुआ कि आपका स्त्री होना या पुरुष होना प्रकृति के द्वारा है; आप दोनों के पार हैं। तो अगर आपकी प्रकृति बदल दी जाए, शरीर बदल दिया जाए, तो आप स्त्री हो जाएं या पुरुष हो जाएं।
आप हैरान होंगे! एक आदमी क्रोधित हो रहा है। हार्मोन देकर उसके क्रोध को सुलाया जा सकता है। वह फिर कभी क्रोधित नहीं होगा। आपके भीतर ग्रंथियां हैं, जिनका आपरेशन कर दिया जाए, तो आप लाख उपाय करें, तो क्रोध नहीं कर सकेंगे। चाहे कोई आपको पीट रहा हो, गाली दे रहा हो, अपमान कर रहा हो, आप कितना ही उठाने की कोशिश करें, भीतर क्रोध नहीं उठेगा। क्योंकि वह ग्रंथि ही नहीं है, जिससे क्रोध उठ सकता है।
पावलव ने बहुत प्रयोग किए कुत्तों के ऊपर। खूंख्वार कुत्ते, जो कि चीरकर दो कर दें अगर आप उनको जरा-सी चोट पहुंचा दें। उनकी ग्रंथियां अलग कर दीं। आपरेशन किया, ग्रंथि अलग कर दी। खूंख्वार कुत्ते बिलकुल ही निर्जीव हो गए। आप उनको मार रहे हैं, और वे पूंछ हिला रहे हैं। भौंकते भी नहीं। हमले की तो बात दूसरी, भौंकते भी नहीं। क्योंकि भौंकना भी कुछ हार्मोन पर निर्भर है। अगर वह भीतर तत्व नहीं है, तो आप भौंक भी नहीं सकते।
कृष्ण और सांख्य की बड़ी गहरी खोज है कि आपके भीतर जो भी हो रहा है, वह प्रकृति से हो रहा है, गुणों से हो रहा है। आप सिर्फ साक्षी से ज्यादा नहीं हैं।
मगर जो कुत्ता भौंक रहा है, हमला कर रहा है, आप उसको समझा सकते हैं कि ये तेरे शरीर में किसी ग्रंथि के कारण हो रहा है! वह कहेगा, मैं भौंक रहा हूं, कौन कह रहा है ग्रंथि है?
आप जब क्रोध से भर गए हैं, तो आप सोच सकते हैं कि आपके शरीर के भीतर कुछ रासायनिक तत्वों का यह खेल है! आप कहेंगे, मैं क्रोधित हूं, मुझे गाली दी गई है।
आपको गाली नहीं दी गई। क्योंकि अगर ग्रंथि न हो, तो भी गाली दी जाएगी, क्रोध नहीं उठेगा। ग्रंथि ने गाली पकड़ी, और ग्रंथि उत्तर दे रही है, और आप केवल शिकार हैं। आप सिर्फ विक्टिम हैं। आपको सिर्फ भ्रांति है।
एक सुंदर स्त्री दिखती है और आप उसके पीछे हो लिए। आप सोच रहे हैं, आप पीछे जा रहे हैं! कृष्ण कह रहे हैं, आप नहीं जा रहे, सिर्फ गुण पीछे जा रहे हैं। आपके भीतर के जो पुरुष हार्मोन हैं, वे आपको खींच रहे हैं स्त्री हार्मोनों की तरफ। आप चले। आपके बस के बाहर हो गया मामला। आप कहते हैं, स्त्री बहुत सुंदर है।
यह आप सब समझा रहे हैं। ये सब हार्मोन आपको समझा रहे हैं आपके भीतर कि स्त्री बहुत सुंदर है। रुकना भी चाहो, तो कैसे रुक सकते हो! लेकिन आपके हार्मोन अलग कर लिए जाएं, सुंदर से सुंदर स्त्री गुजर जाए और आप बैठे देखते रहेंगे, भीतर कुछ भाव का उदय न होगा।
स्पेन का बहुत बड़ा विचारक है, देलगाडो। उसने आदमी के शरीर, उसके हार्मोन, उसके रासायनिक तत्व, उसकी विद्युत प्रक्रियाओं पर बड़े गहरे प्रयोग किए। खतरनाक भी हैं प्रयोग; कीमती भी हैं। खतरा यह है कि देलगाडो कहता है कि अगर दुनिया से कोई भी चीज समाप्त करनी हो, तो धर्मों वगैरह की चिंता में पड़ने की कोई जरूरत नहीं। विज्ञान को पूरा अधिकार दो, हम खतम कर देंगे।
अगर आप सोचते हों कि मुल्क बहुत कामुक हो गया है, तो फिजूल ब्रह्मचर्य की शिक्षा दे-दे कर कुछ न होगा। हम एक छोटा-छोटा यंत्र प्रत्येक शरीर में बिठाए देते हैं। बच्चा पैदा होगा, अस्पताल में ही हम उसको, उसको कभी पता भी नहीं चलेगा.।
आप जानकर हैरान होंगे कि आपकी खोपड़ी के भीतर संवेदनशीलता नहीं है। हालांकि सब कुछ अनुभव आपको खोपड़ी से होता है, लेकिन संवेदनशीलता नहीं है। आपकी खोपड़ी फाड़ी जाए और उसमें एक छोटा पत्थर रख दिया जाए भीतर और खोपड़ी बंद कर दी जाए, आपको बिलकुल पता नहीं चलेगा कि पत्थर भीतर है। भीतर कोई संवेदनशीलता नहीं है। पत्थर जिंदगीभर रखा रहेगा, आपको कभी पता नहीं चलेगा।
पहले महायुद्ध में यह पता चला। कुछ लोगों को गोलियां लगीं सिर में, और किसी भूल-चूक के कारण वे गोलियां नहीं निकाली जा सकीं, और उनके घाव भर गए और वे ठीक हो गए। दस साल बाद, किसी और कारण से सैनिक के सिर का आपरेशन किया गया और गोली की खोल भीतर मिली। और उसको पता ही नहीं था दस साल तक। तब पहली दफा पता चला कि भीतर कोई संवेदनशीलता नहीं है।
तो देलगाडो कहता है, हम हर बच्चे को, उसे कभी पता ही नहीं चलेगा, एक छोटा-सा यंत्र उसके सिर में लगा देंगे, अंदर रख देंगे एक रेडियो रिसीवर। सब बच्चों के सिर में वह होगा। फिर आप दिल्ली से रिले करें और सारा मुल्क वैसा व्यवहार करेगा।
तो किसी को कहने की जरूरत नहीं है कि ब्रह्मचर्य साधो। सिर्फ वहां से, दिल्ली से, ठीक सूचना देने की जरूरत है कि सब ब्रह्मचारी हो जाओ। वह आपके भीतर का जो यंत्र है, आपको तत्काल ब्रह्मचर्य की खबर देगा। आप अचानक पाएंगे कि मन में बड़ी साधुता उठ रहीहै। कोई रस नहीं रहा!
देलगाडो का प्रयोग मूल्यवान है, लेकिन खतरनाक भी है। क्योंकि आश्चर्य नहीं होगा कि कुछ दस-बीस-पच्चीस वर्षों के बाद सरकारें इसका उपयोग करना शुरू कर दें। क्योंकि यह तो बड़ा कीमती काम है। अगर पूरे मुल्क को युद्ध पर भेजना हो, तो भेजा जा सकता है। अगर हिंदुओं को भड़काना हो कि सारे मुसलमानों को खतम कर दो हिंदुस्तान में, तो एक दिन में खतम करवाया जा सकता है। कोई ज्यादा उपद्रव की जरूरत नहीं है। सिर्फ उनके भीतर बैठा हुआ यंत्र, उसको खबर होनी चाहिए।
देलगाडो ने स्पेन में बड़े प्रयोग किए। उसने एक सांड के सिर में यंत्र लगा रखा है। भयंकर सांड है। लाखों लोग देखने इकट्ठे हुए थे। देलगाडो अपने हाथ में घड़ी के बराबर यंत्र लगाए हुए है, जो सांड के मस्तिष्क से जुड़ा है वायरलेस से, रेडियो से।
सांड को भड़काया उसने। लाल झंडी दिखाई। सांड भागा देलगाडो की तरफ। लाखों लोग उत्सुक होकर देख रहे हैं कि खतरा है; सांड बिलकुल पास आ गया है। सिर्फ एक फीट दूर उसके सींग रह गए हैं। एक सेकेंड और कि वह देलगाडो में सींग डाल देगा, और देलगाडो खतम हो जाएगा। तब तक वह देखता रहा।
तब लोगों ने देखा, उसने घड़ी पर हाथ रखकर कोई चीज दबाई। सांड वहीं के वहीं खड़ा हो गया। सिर्फ एक फीट दूर। एकदम निर्जीव हो गया! देलगाडो दूर गया पचास फीट, फिर उसने बटन दबाई, झंडी दिखाई। सांड भागा। ऐसा उसने बीस दफे करके दिखाया। एक सेकेंड पहले वह घड़ी दबाएगा, सांड वहीं के वहीं खड़ा हो गया, जैसे पत्थर हो गया।
यह सांड जरूर मन में अपना तर्क सोच रहा होगा, अगर सोच सकता होगा। यह जरूर कुछ सोच रहा होगा कि किस कारण से मैं रुक रहा हूं। सोच रहा होगा, दया खा रहा हूं, कि छोड़ो भी, जाने भी दो। ऐसा कुछ आदमी मार देने जैसा नहीं है। मगर यह कुछ भी नहीं है मामला। सिर्फ उसके भीतर इलेक्ट्रोड है। और वह इलेक्ट्रोड उसके क्रोध के यंत्र को दबा देता है, तो उसका जो रोष है, वह बैठ जाता है।
सांख्य की यह दृष्टि बड़ी प्राचीन है कि आपके भीतर आप जो हैं, वह सिर्फ साक्षीमात्र हैं। सब कर्तृत्व प्रकृति का है। पुरुष का कोई कर्तृत्व नहीं है। इसलिए जो भी हो रहा है, आपके गुणों और शरीर से हो रहा है। और अगर आप इस सत्य को जान जाएं, तो परम सिद्धि आपकी है।
अब हम सूत्र को लें।
जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है.।
एक-एक शब्द को ठीक से समझ लें।
जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है अर्थात गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा देखता है और तीनों गुणों से अति परे सच्चिदानंदघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है, उस काल में वह पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।
तथा यह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारण रूप तीनों गुणों को उल्लंघन करके जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ परमानंद को प्राप्त होता है।
जिस काल में, समय की जिस अवधि में, जिस क्षण में.। और यह क्षण अभी भी हो सकता है। इसके लिए कोई जन्मों तक रुकने की जरूरत नहीं है। क्योंकि यह आपके भीतर का जो स्वभाव है, यह कुछ निर्मित नहीं करना है। यह है ही। ऐसा है ही, अभी भी, इस क्षण भी। आप साक्षीरूप हैं और सारा कर्तृत्व आपके शरीर की प्रकृति में हो रहा है, गुणों में हो रहा है, तीन गुणों में हो रहा है, जो प्रकृति के तीन नियंता हैं; और आप अभी भी अलग खड़े हैं। यह सिर्फ भ्रांति है कि आप सोचते हैं, आप कर रहे हैं।
जिस काल में, जिस क्षण में, द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है.।
जिस क्षण आपको यह समझ में आ जाता है कि मेरे तीन गुण ही समस्त कर्म कर रहे हैं, मैं करने वाला नहीं हूं; गुण ही कर रहे हैं, करवा रहे हैं.।
कठिन है। क्योंकि अहंकार को कोई जगह न रह जाएगी। इसलिए अहंकार बाधा बनेगा। अहंकार कहेगा, कौन कहता है कि धन मैं नहीं कमा रहा हूं? धन मैं कमा रहा हूं। हालांकि आपको पता नहीं है, आपके भीतर जो लोभ का गुण है, वे जो लोभ के परमाणु हैं, वे आपको धक्का दे रहे हैं। लेकिन आप सोचते हैं, मैं धन कमा रहा हूं। धन के लिए तो आपके भीतर लोभ के परमाणु दौड़ा रहे हैं। लेकिन यह आप जो मैं-भाव निर्मित करते हैं, यह बिलकुल थोथा है, यह झूठा है।
आप कहते हैं, मैं प्रेम में पड़ रहा हूं। मैं इस स्त्री के प्रेम में पड़ गया हूं। जब कि सिर्फ आपके वासना-कण प्रेम में पड़ गए हैं।
इसलिए जिन लोगों ने सांख्य की इस दृष्टि को ठीक से समझा था, उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं, जो इस युग में समझना मुश्किल हो गई हैं। कठिन भी है समझना। मगर अगर यह सूत्र खयाल में आ जाए, तो समझ में आ सकता है।
महावीर ने अपने साधकों को कहा है कि वृद्धा और रुग्ण, मरणशय्या पर पड़ी स्त्री से भी दूर रहना।
इस बात को थोड़ा समझें।
बुद्ध से आनंद पूछता है कि अगर कोई स्त्री मार्ग पर मिल जाए, तो मैं क्या करूं? तो बुद्ध कहते हैं, देखना मत, आंख नीची कर लेना।
आनंद जिद्दी है, वह पूछता है, समझ लो कि ऐसी अवस्था आ जाए कि आंख नीचे करना न हो पाए। कोई ऐसा कारण हो जाए। समझो कि स्त्री बीमार पड़ी हो, प्यासी पड़ी हो, रास्ते के किनारे गिर पड़ी हो, गड्ढे में गिर पड़ी हो। मैं अकेला भिक्षु उस मार्ग पर हूं। और मुझे उस स्त्री को उठाना पड़े या पानी पिलाना पड़े, तो देखना तो पड़ेगा! समझ लो कि कोई ऐसी घटना में मुझे देखना पड़े, तो मैं क्या करूं? तो बुद्ध ने कहा, तू छूना मत।
आनंद ने कहा, ऐसी कोई स्थिति भी हो सकती है भंते, कि मुझे छूना भी पड़े, तो उस स्थिति में मैं क्या करूं? तो बुद्ध ने कहा, अब तू मानता ही नहीं, तो मैं आखिरी बात कहता हूं, साक्षीभाव रखना। अगर तुझे यह करना ही पड़े, तो फिर तू होश रखना कि करने वाला तू नहीं है। छूना भी पड़े, तो समझना कि शरीर छू रहा है। देखना पड़े, तो समझना कि आंख देख रही है। इस भ्रांति में मत पड़ना कि मैं देख रहा हूं, कि मैं छू रहा हूं। तो फिर तू आखिरी बात समझ ले कि तू साक्षीभाव रखना।
महावीर कहते हैं, वृद्ध, रुग्ण, मरणशय्या पर पड़ी कुरूप स्त्री के पास भी भिक्षु न जाए।
हमें लगेगा, बड़े दमन की बात कर रहे हैं। लेकिन महावीर केवल गुणों की बात कर रहे हैं। महावीर यह कह रहे हैं कि जब तक साक्षी न जग गया हो, जब तक अवस्था साधक की हो, तब तक मरणशय्या पर पड़ी स्त्री के हार्मोन, उसके गुणधर्म भी तुम्हारे भीतर छिपे पुरुष के हार्मोन को आकर्षित करेंगे। वे तुम्हें आकर्षित कर सकते हैं। और साधारण गृहस्थ को शायद न भी करें। लेकिन भिक्षु को कर ही सकते हैं। क्योंकि साधारण गृहस्थ वैसा ही है, जैसे भरा पेट आदमी, भोजन किया हुआ आदमी। उसको रास्ते के किनारे पड़ी हुई जूठन आकर्षित नहीं करेगी। लेकिन उपवासी आदमी को कर सकती है। भूखे आदमी को कर सकती है।
मनु ने कहा है कि अपनी बहन, अपनी बेटी, अपनी मां के साथ भी एकांत में मत रहना बिलकुल अकेले।
लगते हैं, बड़े दमनकारी लोग हैं। लेकिन उनके सूत्र त्रिगुणों के ऊपर आधारित हैं। वे यह कह रहे हैं, सवाल यह नहीं है कि वह लड़की है तुम्हारी। गहरे में तो वह स्त्री है और तुम पुरुष हो। और हार्मोन न लड़की को जानते हैं, न मां को जानते हैं, न पिता को जानते हैं, न बहन को जानते हैं। हार्मोन की कोई नैतिकता नहीं है। अगर पिता भी पुत्री के साथ एकांत में बहुत दिन हो, तो धीरे-धीरे लड़की स्त्री रह जाएगी, पिता पुरुष रह जाएगा। और उन दोनों की प्रकृति के जो खिंचाव हैं, वे शुरू हो जाएंगे। यह तभी रुक सकता है, जब साक्षी जग गया हो। लेकिन साक्षी कितने लोगों का जगा है?
तो मनु की बात भी बड़ी गहरी है, पर सांख्य के सूत्रों पर खड़ी है। सांख्य बड़ा अनूठा खोजी है। सांख्य की खोज गहरी है। खोज का सार यह है कि आपके भीतर दो तत्व हैं, एक प्रकृति और पुरुष। पुरुष तो आपकी चेतना है और प्रकृति आपकी देह और मन की संघटना है। और जो भी क्रियाएं हैं, वे सब प्रकृति से हो रही हैं। कोई क्रिया चेतना से नहीं निकल रही है।
लेकिन चेतना को यह शक्ति है कि वह क्रियाओं के साथ अपने को जोड़ ले और कहे कि मैं कर रहा हूं। यह संभावना चेतना की है कि वह कहे कि मैं कर रहा हूं। इतना कहते ही संसार निर्मित हो जाता है।
इसलिए सांख्य-सूत्र कहते हैं कि संसार का जन्म अहंकार के साथ है। मैं आया, संसार निर्मित हुआ। मैं गया, संसार विलीन हो गया। जैसे ही मैं गया, उसका अर्थ है कि मैं सिर्फ देखने वाला रह गया।
और ध्यान रहे, देखना कोई क्रिया नहीं है; द्रष्टा होना कोई क्रिया नहीं है। द्रष्टा होना आपका स्वभाव है। आपको कुछ करना नहीं पड़ता द्रष्टा होने के लिए, द्रष्टा आप हैं।
रात सोते हैं, सपना देखते हैं, तब भी आप द्रष्टा हैं। सुबह उठते हैं एक गहरी नींद के बाद, तो भी आप कहते हैं, बड़ा आनंद आया, नींद बड़ी गहरी थी। इसका मतलब है कि कोई आपके भीतर देखता रहा कि नींद बड़ी गहरी थी। सुबह आप कहते हैं, नींद बड़ी गहरी थी, बड़ा सुख रहा।
जागें, सोएं, सपना देखें, द्रष्टा कायम है। यह द्रष्टा कोई क्रिया नहीं है। यह द्रष्टा आपका सतत स्वभाव है। यह एक क्षण को भी खोता नहीं है। लेकिन इस द्रष्टा को आप कर्ता बना सकते हैं, यह सुविधा है। चाहे इसे सुविधा कहें, चाहे असुविधा। यह स्वतंत्रता है। चाहे इसे स्वतंत्रता कहें, और चाहे समस्त परतंत्रता का मूल। क्योंकि इसी स्वतंत्रता के गलत उपयोग से संसार निर्मित होता है। और इसी स्वतंत्रता के सही उपयोग से मोक्ष निर्मित हो जाता है।
मोक्ष है आपकी स्वतंत्रता का ठीक उपयोग। संसार है आपकी स्वतंत्रता का गलत उपयोग। आपकी चेतना प्रतिपल मात्र साक्षी है।
जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है.।
बस, ये तीन ही गुण कर रहे हैं। कोई और चौथा मेरे भीतर कर्ता नहीं है।
अर्थात गुण ही गुणों में बर्तते हैं.।
गुण ही गुणों के साथ वर्तन कर रहे हैं; एक्शन-रिएक्शन कर रहे हैं। मेरे भीतर का पुरुष-गुण किसी के स्त्री-गुण का पीछा कर रहा है। मेरे भीतर का क्रोध का गुण किसी के ऊपर क्रोध बरसा रहा है। मेरे भीतर हिंसा का गुण किसी के प्रति हिंसा से भर रहा है।
कृष्ण यह कह रहे हैं अर्जुन से कि यह जो भी युद्ध हो रहा है, यह भी तीन गुणों का वर्तन है। इसमें उस तरफ खड़े लोग भी उन्हीं गुणों से सक्रिय हो रहे हैं। इस तरफ खड़े लोग भी उन्हीं गुणों से सक्रिय हो रहे हैं। और अगर तू भागेगा, तो तू यह मत सोचना कि तूने संन्यास लिया। अगर तेरे भीतर भागने के परमाणु हों, तो तू भाग सकता है। लेकिन तब भी यह तू जानना कि ये गुण ही बर्त रहे हैं। तू इस भ्रांति में मत पड़ना.। जो भी हो, तू एक बात खयाल रखना कि तू देखने वाला है।
गुण ही गुणों में बर्तते हैं, ऐसा जो देखता है और तीनों गुणों से अतीत--तीनों गुणों के पार, बियांड--तीनों गुणों से ऊपर, दूर, अतीत, सच्चिदानंदघनस्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है.।
प्रत्येक के भीतर इन तीन तत्वों के पीछे छिपा हुआ कृष्ण है। ब्रह्म कहें, क्राइस्ट कहें, बुद्ध कहें, जो भी कहना हो। इन तीनों तत्वों के भीतर छिपा हुआ आपका परम स्वभाव है, परम ब्रह्म है।
जो भी इन तीन गुणों को कर्ता की तरह जानता है, और इन तीनों के परे मुझ सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा को पहचानता है, उस काल में वह पुरुष मुझे प्राप्त हो जाता है।
वह प्राप्त है ही। सिर्फ यह प्रत्यभिज्ञा, यह रिकग्नीशन, यह पहचान प्राप्ति बन जाती है। इस क्षण भी आप आंख मोड़ लें गुणों से और गुणों के पीछे सरककर एक झलक ले लें, तो जो मोक्ष बहुत दूर दिख रहा है, वह जरा भी दूर नहीं है। सिर्फ मुड़कर देखने की बात है।
जो परमात्मा बड़ा जटिल मालूम पड़ता है, जिस पर भरोसा नहीं आता, तर्क जिसे सिद्ध नहीं कर पाता, ि
जस पर बड़ा अविश्वास और संदेह पैदा होता है, हजार चिंताएं मन में पकड़ती हैं कि परमात्मा कैसे हो सकता है! वह परमात्मा इतना निकट है कि जितनी देर परमात्मा शब्द कहने में लगती है, उतनी देर भी उसे पाने में लगने का कोई कारण नहीं है। मगर एक अबाउट टर्न, एक पूरा घूम जाना; जहां पीठ है, वहां चेहरा हो जाए; और जहां चेहरा है, वहां पीठ हो जाए।
अभी हमारा चेहरा गुणों की तरफ है। कभी इस गुण में, कभी उस गुण में, कभी तीसरे गुण में हम उलझे हैं। और गुण का जो खेल है, जाल है, वह जाल हम अपना समझ रहे हैं।
रामकृष्ण के पास एक भक्त आता था। और वह भक्त जब काली के दिन आते, तो कई बकरे कटवाता था। बड़ा समारोह मचाता था। उसकी बड़ी गणना थी भक्तों में, बड़े भक्तों में। फिर अचानक उसने पूजा-भक्ति सब छोड़ दी, बकरे कटने बंद हो गए।
तो एक दिन रामकृष्ण ने उससे पूछा कि क्या हुआ? क्या भक्ति-भाव जाता रहा? क्या अब काली में श्रद्धा न रही? उसने कहा, नहीं, यह बात नहीं। आप देखते नहीं, दांत ही सब गिर गए।
वह आदमी बड़ा ईमानदार रहा होगा। वह बकरे वगैरह काली के लिए कोई काटता है! काली तो बहाना है, तरकीब है। बकरे तो अपने ही दांतों के लिए काटे जाते हैं। लेकिन उसने कहा कि दांत ही न रहे, दांत ही गिर गए, अब क्या काटना और क्या नहीं काटना! किसके लिए काटना?
लेकिन वह आदमी ईमानदार रहा होगा। उसने एक बात तो कम से कम समझी कि यह सब दांतों के लिए चल रहा था।
बुढ़ापे में लोग शीलवान हो जाते हैं। बुढ़ापे में लोग सच्चरित्रता की बात करने लगते हैं। बुढ़ापे में दूसरे लोगों को समझाने लगते हैं कि जवानी सब रोग है। जब वे जवान थे, तो उनके घर के बड़े-बूढ़े भी उन्हें यही समझा रहे थे कि जवानी सब रोग है। उन्होंने उनकी नहीं सुनी। उनके बेटे भी उनकी नहीं सुनेंगे।
और बड़ा मजा यह है कि जब आपने अपने बाप की नहीं सुनी, तो आप किस भ्रांति में हैं कि अपने बेटे को सोच रहे हैं, सुन ले। किसी बेटे ने कभी नहीं सुनी। क्योंकि जवानी सुनती ही नहीं। और बुढ़ापा बोले चला जाता है। बुढ़ापा समझाए चला जाता है। क्योंकि बुढ़ापा अब कुछ और कर नहीं सकता। करने के दिन गए। वह जिन तत्वों से करना निकलता था, वे क्षीण हो गए।
और बड़े मजे की बात है, जब आप नहीं कर सकते, तब भी आपको यह खयाल नहीं आता कि शरीर के गुणधर्म क्षीण हो गए हैं, जिससे आप नहीं कर सकते हैं। जब आप कर सकते थे, तब आप सोचते थे, मैं कर रहा हूं। और जब आप नहीं कर सकते, तब आप सोचते हैं कि मैंने त्याग कर दिया! जब आप नहीं कर सकते, तब आप सोचते हैं, मैंने त्याग कर दिया!
बूढ़े अक्सर सोचते हैं कि वे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गए हैं। अन्यथा उपाय क्या था? मजबूरी को ब्रह्मचर्य समझ लें, तो भ्रांति जारी रहती है। उचित यही होगा कि समझें कि जिन गुणधर्मों से, जिस प्रकृति के तत्व से वासना उठती थी, वे तत्व क्षीण हो गए, जल गए। जब वे जग रहे थे तत्व, सजग थे, तेज थे, दौड़ते थे, तब आप उनका पीछा कर रहे थे। तब भी आप कर्ता नहीं थे। और अब भी आप कर्ता नहीं हैं। लेकिन वासना के दिन में समझा था कि मैं कर्ता हूं। मैं हूं जवान। और बुढ़ापे के दिन में समझ रहे हैं कि मैं हूं त्यागी, मैं हूं ब्रह्मचारी। दोनों भ्रांतियां हैं।
अगर आप देख पाएं कि सारा खेल प्रकृति का है और आप उसके बीच में सिर्फ खड़े हैं देखने वाले की तरह, एक क्षण को भी कर्तृत्व आपका नहीं है; आप मुक्त हो गए। यह जानते ही कि मैं कर्ता नहीं हूं, बंधन गिर गए। यह पहचानते ही कि मैंने कभी कुछ नहीं किया है, सारे कर्मों का जाल टूट गया।
कर्म आपको नहीं बांधे हुए हैं। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि जन्मों-जन्मों के कर्म पकड़े हुए हैं। कोई कर्म आपको नहीं पकड़े हुए है, कर्ता पकड़े हुए है। कर्ता के छूटते ही सारे कर्म छूट जाएंगे। क्योंकि जिसने किए थे, जब वह ही न रहा, तो कर्म कैसे पकड़ेंगे? कर्म नहीं पकड़ता, कर्ता पकड़ता है। और कर्ता के कारण जन्मों-जन्मों के कर्म इकट्ठे रहते हैं, उनका बोझ आप ढोते हैं।
कई लोग मुझसे यह भी पूछने आते हैं कि पिछले किए हुए कर्मों को कैसे काटें?
एक तो उनको किया नहीं कभी। अब उनको काटने का कर्म करने की कोशिश चल रही है! उनको कैसे काटें? जिनको किया ही नहीं, उनको अनकिया कैसे करिएगा? वह भ्रांति थी कि आपने किया। अब आप एक नई भ्रांति चाहते हैं कि उनको हम काटने का कर्म कैसे करें! पहले संसारी थे, अब संन्यासी कैसे हों?
संन्यास का कुल मतलब इतना है कि करने को कुछ भी नहीं है, सिर्फ देखने को है। अब करने वाला मैं नहीं हूं, सिर्फ देखने वाला हूं। फिर जो भी हो रहा हो, उसे देखते रहना है सहज भाव से, उसमें कोई बाधा नहीं डालनी है।
शास्त्र कहते हैं कि ज्ञानी अगर ब्राह्मण की भी हत्या कर दे, तो उस पर कोई पाप नहीं है। अंबेदकर ने बड़ा एतराज उठाया। क्योंकि यह बात बड़ी अजीब है; और भी कोई सोचेगा, तो एतराज उठाएगा। इस तरह की छूट ज्ञानी को देनी कैसे संभव है? कानून सबके लिए है; नियम सबके लिए है।
और इसमें कहा है कि ज्ञानी अगर ब्राह्मण की भी हत्या कर दे, उसे कोई पाप नहीं है! और अज्ञानी? किसी शास्त्र में लिखा नहीं है, लेकिन कहीं न कहीं लिखना जरूर चाहिए। अज्ञानी अगर पुतला भी बनाकर मिट्टी का काट दे, मैं मानता हूं, पाप है। फर्क समझ लेना जरूरी है।
ज्ञानी हम कहते उसे हैं, जो कहता है, मैं कर्ता नहीं हूं। अगर वह काट भी रहा हो, तो सिर्फ उसके गुण ही काट रहे हैं, वह नहीं काट रहा है। और उस हत्या के कृत्य में भी वह सिर्फ साक्षी है। जरूरी नहीं कि ज्ञानी ऐसा करे; आवश्यकता भी नहीं है। ज्ञानी होते-होते वस्तुतः भीतर के सारे तत्व धीरे-धीरे समस्वरता को उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसी घटना शायद ही कभी घटती है। लेकिन घट सकती है।
उस संभावना को मानकर यह शास्त्रों में सूत्र है कि अगर ब्राह्मण को भी काट दे! और ब्राह्मण को काटने का मतलब है, क्योंकि ब्राह्मण का मतलब है, जिसने इस जीवन में श्रेष्ठतम, सुंदरतम जीवन-दशा पा ली हो, उसको भी काट दे, अच्छे से अच्छे फूल को भी मिटा दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं है।
पाप इसलिए नहीं है कि वह जानता है कि मैं कर्ता नहीं हूं। और आप किसी की तस्वीर भी फाड़ दें क्रोध से, मिट्टी का पुतला बनाकर काट दें.। ऐसा अज्ञानी करते भी हैं। किसी का पुतला बनाकर निकालेंगे जुलूस, उसको जला देंगे। उनका भाव बड़ी गहरी हिंसा का है। और जलाते वक्त उनके मन में पूरा भाव है कर्ता का कि हम मारे डाल रहे हैं।
मैं कर्ता हूं, तो मैं पापी हो जाता हूं। मैं कर्ता नहीं हूं, तो पाप का कोई कारण नहीं है। इसलिए हमने ज्ञानी को समस्त नियमों के पार रखा है। कोई नियम उस पर लगते नहीं। वह नियमातीत है। इसीलिए नियमातीत है कि जब कर्तृत्व उसका कोई न रहा, तो सब नियम कर्म पर लगते हैं और कर्ता पर लगते हैं। साक्षी पर कोई नियम कैसे लग सकता है?
जैसे ही कोई तीन गुणों के सारे कर्म हैं, ऐसा जानता है, और स्वयं को साक्षी, वह मुझ सच्चिदानंदनघनरूप परमात्मा को तत्व से पहचान लेता है, उस काल में वह पुरुष मुझे प्राप्त हो जाता है।
तथा यह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप तीनों गुणों को उल्लंघन करके.।
इस शरीर के जन्म के कारण वे तीनों गुण ही हैं। और उन तीनों गुणों के साथ मेरा तादात्म्य है, वही मुझे नए शरीरों को ग्रहण करने में ले जाता है।
जो उनका उल्लंघन कर जाता है, वह जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ परमानंद को प्राप्त होता है।
इसमें हमें समझ में आ जाएगा कि हो सकता है, उसका नया जन्म न हो। यह भी समझ में आ सकता है कि उसे दुख न हो। लेकिन मृत्यु न होगी, यह कैसे समझ में आएगा!
महावीर भी मरते हैं, बुद्ध भी मरते हैं, कृष्ण खुद भी मरते हैं। मृत्यु तो होगी, लेकिन जिसने भी जान लिया कि मैं साक्षी हूं, वह मृत्यु का भी साक्षी रहेगा। तो वह देखेगा कि गुण ही मर रहे हैं; गुणों का जाल शरीर ही मर रहा है, मैं नहीं मर रहा हूं। उसकी वृद्धावस्था संभव नहीं है। असल में उसकी कोई अवस्था संभव नहीं है।
जवान होकर वह जवान नहीं रहेगा। बूढ़ा होकर बूढ़ा नहीं रहेगा। बच्चा होकर बच्चा नहीं रहेगा। क्योंकि अब सब अवस्थाएं गुणों की हैं। बचपन गुणों का एक रूप है। जवानी गुणों का दूसरा रूप है। बुढ़ापा गुणों का तीसरा रूप है। और वह तीनों के पार है। इसलिए न वह बच्चा है, न जवान है, न बूढ़ा है। किसी अवस्था में नहीं है। सभी अवस्थाओं के पार है।
इस ट्रांसेंडेंस को, इस भावातीत अवस्था को अनुभव कर लेना मुक्ति है।
इसलिए कृष्ण ने कहा कि अर्जुन जिस ज्ञान से परम सिद्धि उपलब्ध होती है, वह मैं तुझे फिर से कहूंगा। वे फिर-फिरकर, कैसे व्यक्ति अपनी परम मुक्ति को इसी क्षण अनुभव कर ले सकता है, उसके सूत्र दे रहे हैं।

आज इतना ही।

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