BHAGWAD GEETA

Geeta Darshan Vol-14 06

Sixth Discourse from the series of 10 discourses - Geeta Darshan Vol-14 by Osho. These discourses were given in BOMBAY during DEC 01-10 1973.
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कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्‌।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्‌।। 16।।
सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च।। 17।।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।। 18।।
सात्विक कर्म का तो सात्विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्यादि निर्मल फल कहा है। और राजस कर्म का फल दुख, एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है।
तथा सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से निःसंदेह लोभ उत्पन्न होता है, तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है।
इसलिए सत्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं। और रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोकों में ही रहते हैं, एवं तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि में स्थित हुए तामस पुरुष अधोगति को अर्थात नीच योनियों को प्राप्त होते हैं।
पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न:
भगवान, आपने कल बताया कि लाओत्से तमस से, जीसस रजस से तथा महावीर सत्व से सीधे गुणातीत अवस्था में छलांग लगा गए। सत्व से गुणातीत में जाना समझ में आता है, लेकिन तमस और रजस से गुणातीत अवस्था में जाना किस प्रकार संभव है, यह समझ में नहीं आता!
गुणातीत अवस्था का अर्थ है, गुणों के बाहर हो जाना। जैसे स्वस्थ होने का अर्थ है, बीमारी के बाहर हो जाना। फिर बीमारी कौन-सी थी, यह सवाल नहीं है।
कोई व्यक्ति टी.बी. से बीमार हो, तो टी.बी. के बाहर होकर स्वस्थ हो जाएगा। कोई व्यक्ति मलेरिया से बीमार हो, तो मलेरिया के बाहर होकर स्वस्थ हो जाएगा। सभी बीमारियां बाधा डालती हैं स्वस्थ होने में। सभी बीमारियों के बाहर जाने में श्रम करना होगा।
सत्व भी बीमारी है। रजोगुण भी बीमारी है। तमोगुण भी बीमारी है। बीमारियां अलग-अलग हैं, पर तीनों बीमारियां हैं और तीनों बांधती हैं।
सत्वगुण से समझ में आता है, क्योंकि हम सोचते हैं, सत्वगुण बांधता नहीं। सत्वगुण भी बांधता है। और अगर बंधने की वृत्ति हो, तो सत्वगुण से बाहर जाना उतना ही कठिन है, जितना तमोगुण से बाहर जाना। और कभी-कभी तो ऐसा भी हो सकता है कि ज्यादा कठिन हो। क्योंकि सत्वगुण में एक सुख है, जो तमोगुण में नहीं है।
हर गुण के फायदे हैं और हानियां हैं। तमोगुण की हानि यह है कि आप आलस्य से भरे हैं; बाहर जाने की वृत्ति पैदा नहीं होती। लेकिन तमोगुण का एक फायदा है कि वहां सिवाय दुख और अंधकार के कुछ भी नहीं है। इसलिए बाहर जाने की प्रेरणा पैदा हो सकती है।
रजोगुण का एक लाभ है कि बड़ी ऊर्जा है और सक्रिय होने की वृत्ति है। इसलिए बाहर जाने में इस वृत्ति का उपयोग किया जा सकता है। लेकिन एक नुकसान है, कि रजोगुणी व्यक्ति इतना व्यस्त रहता है कर्मों में कि उसे स्वयं का बोध ही नहीं आता। वह कर्मों में खो गया होता है। उसे स्व की कोई प्रतीति नहीं रहती। वह करीब-करीब कर्मों में बेहोश होता है।
सत्वगुण का लाभ है कि वह हलके से हलका गुण है। उसका वजन न के बराबर है। कोई उसे हटाना चाहे, तो जरा भी बाधा नहीं है। सत्वगुण रोकेगा नहीं; हलका है; बिलकुल वजनशून्य है; भारहीन है। लेकिन खतरा है। और खतरा यह है कि सत्वगुण सुख से भरा है। सुख को कोई भी छोड़ना नहीं चाहता है।
अगर मेरी बात समझ में आ जाए, तो तीनों गुणों के लाभ हैं और तीनों की हानियां हैं। तो ऐसा नहीं है कि कोई एक गुण ज्यादा लाभ का है गुणातीत जाने में या कोई गुण ज्यादा बाधक है। हर गुण के दोनों पहलू हैं, निगेटिव और पाजिटिव। उसका विधायक रूप भी है, उसका नकारात्मक रूप भी है।
लाओत्से जैसा व्यक्ति तामसिक गुण के विधायक रूप का उपयोग करके पार हो गया। बर्ट्रेंड रसेल जैसा व्यक्ति सत्वगुण के नकारात्मक रूप से उलझकर पार होने से रुक गया।
जीसस जैसा रजोगुणी व्यक्ति अपने कर्म को सेवा बनाकर परम अनुभव को उपलब्ध हुआ, गुणातीत हो गया। लेकिन वही गुण नेपोलियन में भी है, वही गुण लेनिन में भी है; पर वे उसके नकारात्मक रूप का उपयोग कर रहे हैं और एक राजनीतिक उपद्रव में खो जाते हैं।
मेरी दृष्टि ठीक से खयाल में आ जाए, तो साफ है। विधायक का उपयोग कर लें, तो किसी भी गुण से बाहर हो जाएंगे। और नकारात्मक का उपयोग किया, तो किसी भी गुण से बंध जाएंगे। और दोनों हर गुण के साथ हैं।
दुनिया में बहुत कम पंडित परम स्थिति को उपलब्ध होते हैं; शायद नहीं ही होते। सत्वगुण बांध लेता है। ज्ञानी होने का दंभ बांध लेता है। वे सत्वगुण के नकारात्मक रूप का उपयोग कर रहे हैं। कर्मठ व्यक्ति अक्सर उपद्रव में उलझ जाते हैं। और निष्क्रिय, आलसी व्यक्ति तो कुछ करता ही नहीं है; आलस्य में ही खो जाता है।
आप कहीं भी हों, निराशा का कोई कारण नहीं है। अगर आप जहां हैं, उस जगह से विधायक सूत्र को खोज लें।
फिर बाहर होने का कुल मतलब इतना है कि आपका तादात्म्य व्यक्तित्व से टूट जाए। मैं यह शरीर हूं, यह भाव टूट जाए। मैं यह मन हूं, यह भाव टूट जाए। क्योंकि शरीर और मन तक ही गुणों का प्रभाव है। शरीर और मन के पीछे जो छिपा है, उस पर गुणों की कोई सत्ता नहीं है। वह गुणातीत अभी भी है। इस क्षण भी आप गुणातीत हैं, पूर्ण निष्पाप। लेकिन जिस शरीर और मन को आपने पकड़ा है, वह गुणों से भरा है।
ऐसा समझें कि कोई आदमी तो बिलकुल पवित्र है, लेकिन गंदे वस्त्र पहने हुए है। उससे जो दुर्गंध आ रही है, वह उसकी नहीं है, उसके वस्त्रों की है।
आपका जो व्यक्तित्व है, वही गुणों के प्रभाव में है। और तीन तरह के व्यक्तित्व हैं मौलिक, मूल रूप से, जिनको कृष्ण वर्णन कर रहे हैं, तामसिक, राजसिक, सात्विक। पूरब का मनोविज्ञान बड़ा गहरा है और उसने व्यक्तित्व की आखिरी जड़ पकड़ ली है। ये तीन तरह के व्यक्ति हैं। फिर और लोग भी अगर थोड़े-बहुत भेद से हों, तो वे इन तीन के ही जोड़-घटाने हैं। बाकी ये तीन मूल स्वर हैं।
आप जहां भी हों, और उचित होगा कि ईमानदारी से पहचान लें कि कहां हैं! क्योंकि मन बड़े धोखे देता है। और उसका गहरे से गहरा धोखा यह है कि वह आपको यह बताए, जो आप नहीं हैं। क्योंकि फिर आप कुछ भी करें, उसके परिणाम नहीं होंगे।
तामसी से तामसी व्यक्ति भी सोचेगा कि मैं सात्विक हूं, तब यात्रा मुश्किल है। क्योंकि सात्विक वह है नहीं और सात्विकता की जो उसकी धारणा है, वह उसे ऐसी साधना पद्धतियां पकड़ा देगी, जो उसके काम की नहीं हैं। उसे जानना जरूरी है कि वह तामसिक है, क्योंकि उसकी यात्रा वहीं से शुरू होगी जहां वह खड़ा है। वहीं से चलना शुरू होगा।
तो आप क्या हैं, इसका निष्पक्ष, स्पष्ट, पक्षपातरहित, अहंकारमुक्त विश्लेषण चाहिए। आप गुरुओं के पास भी जाते हैं, लेकिन उनसे भी आप निष्पक्ष वक्तव्य लेने नहीं जाते। उनसे भी आप गवाही लेने जाते हैं। अगर गुरु आपसे कहे कि तुम तामसी हो, तो आप दुखी लौटेंगे। इस गुरु का आप पीछा ही छोड़ देंगे। आप जाकर कहेंगे, यह गुरु गलत है।
इधर मैं देखता हूं, एक युवती ने आज ही मुझे आकर कहा। जिसमें किसी तरह की संभावना नहीं है उस बात की। वह एक बड़े गुरु के पास गई थी और गुरु ने कहा कि--वह युवती पश्चिम से आई है--उसे कहा कि शीघ्र ही तू स्वयं भी एक बहुत बड़ी गुरु हो जाने वाली है। पश्चिम में जाकर तेरे जीवन से अनेक लोगों को लाभ होगा। युवती बड़ी प्रसन्न लौटी। अहंकार को बड़ी गहरी तृप्ति मिली।
उस युवती में ऐसी कोई संभावना नहीं है। इस जन्म में तो कोई संभावना नहीं है। और इस कहने की वजह से अगर कोई छिपी संभावना कभी प्रकट भी हो सकती थी, तो वह भी समाप्त हो जाएगी। लेकिन वह खुश होकर लौटी। और उस व्यक्ति को गुरु मानकर लौटी।
अब यह सारा जाल है। जाल ऐसा है कि गुरु भी शिष्य को तभी फांस पाता है, जब वह उसके अहंकार को प्रसन्न करे। क्योंकि आप चोट नहीं चाहते; आप प्रशस्ति लेने जाते हैं। तो जिनको कुछ भी नहीं है, वे भी प्रशस्ति पाकर प्रसन्न होते हैं।
अब वह पागल होकर लौटी। जिस व्यक्ति ने उसको कहा है, वह भी गुरु के योग्य नहीं है। क्योंकि यह बात झूठ है और गलत है। और अगर इस युवती को वहम सवार हो जाए गुरु होने का, तो यह भारी नुकसान करेगी।
दुनिया में गलत गुरु जितना नुकसान करते हैं, उतने अपराधी भी नुकसान नहीं करते। क्योंकि अपराधी क्या छीन सकता है आपसे? धन छीन लेगा; प्राण छीन सकता है ज्यादा से ज्यादा! लेकिन प्राण मिटते नहीं, और धन का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन गलत गुरु आप से उस अवसर को छीन लेगा, जो सब कुछ है। और उसे पता भी नहीं है कि वह आपसे कुछ छीन रहा है। और छीनने की सबसे ज्यादा सुविधापूर्ण व्यवस्था यह है कि आपके अहंकार को कोई तृप्त करे।
गुरजिएफ जैसे गुरु के पास अगर जाएंगे, तो वह जो आपके भीतर साफ-साफ है, उसकी ही बात करेगा। गुरजिएफ अपने शिष्यों को पहले तो शराब पिलाता था। और जब तक वह शराब पीकर बेहोश न हो जाते, तब तक वह उन्हें स्वीकार नहीं करता था। क्योंकि उस बेहोशी में ही उनका सच्चा रूप प्रकट होता।
जब आप शराब पीकर पूरी तरह बेहोश हो जाते हैं, तब आपका जो निम्नतम आपने छिपा रखा है, वह प्रकट होगा। और गुरजिएफ कहता है कि जब तक मैं तुम्हारे निम्नतम को न देख लूं, तब तक मैं कोई काम शुरू न करूंगा। क्योंकि वहीं से काम शुरू होना है। तुम्हारा श्रेष्ठ तो कल्पना है। तुम्हारा निकृष्ट तुम्हारा यथार्थ है।
आपका मन भी धोखा देगा। जो आप नहीं हैं, आपका मन सदा कहेगा, आप यही हैं। इस धोखे से सावधान होना जरूरी है।
क्या करें? सबसे पहले तो इस बात की खोज करें कि तामसी तो नहीं हैं। सब तरह से पहले तो सिद्ध करने की कोशिश करें कि तामसी हैं अपने को। सब उपाय खोजें, सब तर्क खोजें, जिनसे सिद्ध होता हो कि मैं तामसी हूं। अगर कोई उपाय ही न मिले सिद्ध करने का, तो खयाल छोड़ें। फिर अपने को राजसी सिद्ध करने की कोशिश करें। जब राजसी सिद्ध करने का भी कोई उपाय न मालूम पड़े, कोई तर्क न मिले, तो ही समझें कि आप सात्विक हैं। अन्यथा सात्विक मत समझें।
निकृष्ट से शुरू करें। और पहले निकृष्ट को ही सोचें कि मैं हूं। और अगर मिल जाए सूत्र कि यही मैं हूं, तो आप सौभाग्यशाली हैं, क्योंकि फिर काम शुरू हो सकता है।
गुरजिएफ कहता था, तुम्हारी जो सबसे बड़ी कमजोरी है, वह तुम्हें पहले पकड़ में आ जानी चाहिए। क्योंकि कमजोरी ही तुम्हारा छिद्र है। उसी छिद्र से तुम्हारी जीवन ऊर्जा व्यर्थ हो रही है।
एक घड़े को हम पानी भरने के लिए कुएं में डालते हैं। पूरा घड़ा बेमानी है एक छोटे-से छेद के कारण। वह एक छोटा-सा छेद ही भरे हुए घड़े को ऊपर तक आते-आते खाली कर देगा।
पहले देख लेना जरूरी है कि छेद कहां है। छेद को रोक दें, तो ही घड़ा सार्थक है। तुम्हारी मौलिक कमजोरी से मुक्ति हो जाए, तो ही तुम कुछ भर पाओगे; परमात्मा तुम में भर पाएगा। अन्यथा तुम्हारे छिद्र सब बहा देंगे।
पहला, अपने प्रति सच्चा होना जरूरी है कि मैं कहां हूं। इसमें अति ईमान की जरूरत है; प्रामाणिक होने की जरूरत है। क्योंकि किसी और को धोखा नहीं दे रहे हैं। कोई और धोखे में आने वाला नहीं है। आप ही धोखे में पड़ेंगे और भटक जाएंगे।
और ध्यान रखें कि तमस में होना कुछ बुरा नहीं है। क्योंकि तमस से भी लोग मुक्त हुए हैं। कोई सात्विक होना ही श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि सत्व में भी पड़े हुए सैकड़ों लोग संसार में भटक रहे हैं।
कहां हैं, यह बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन शास्त्रों ने और न जानने वाले शास्त्रों की टीका करने वाले लोगों ने लोगों को ऐसा समझा दिया है कि सात्विक होना अपने आप में कुछ खूबी की बात है और तामसिक होना बुरी बात है।
तो तामसिक तो हम गाली की तरह उपयोग करते हैं। किसी की निंदा करनी हो, तो हम कहते हैं, तामसी। तो जब मैंने कल आपको कहा कि लाओत्से तामसिक था, तो आपको भीतर बड़ी बेचैनी हुई होगी। क्योंकि आप मान ही नहीं सकते कि कोई संत तमस के साथ संत हो गया हो! कोई ऐसा कहेगा भी नहीं। लाओत्से के मानने वाले मुझसे नाराज हो जाएंगे। मैंने कहा कि जीसस रजोगुणी हैं। इससे ईसाई को कष्ट हो सकता है।
लेकिन मैं कोई तुलना नहीं कर रहा हूं। और न मैं यह कह रहा हूं कि इनमें कोई जीसस, लाओत्से या कृष्ण कोई छोटे-बड़े हैं। मैं सिर्फ यथार्थ तथ्य की बात कर रहा हूं। और अगर तथ्य की ही बात करनी हो, तो जो तमस से मुक्त हुआ है, वही अदभुत है। जो सत्व से मुक्त हुआ है, उसमें कोई बहुत विशेष अदभुतता नहीं है। गहन अंधकार से जो प्रकाश में सीधी छलांग लगा गया है, उसका मूल्य बहुत है।
तो आप भयभीत न हों, और न किसी तरह की निंदा लें। सिर्फ तथ्यों पर ध्यान रखें। हम मूल्यांकन करने लगते हैं, उससे कठिनाई शुरू हो जाती है।
अगर चित्त सात्विक है, तो साधना अलग होगी। अगर चित्त तामसिक है, तो साधना अलग होगी। अगर चित्त राजस है, तो साधना अलग होगी। इसे थोड़ा खयाल में ले लें। क्या फर्क पड़ेगा?
अगर चित्त तामसिक है, तो तपश्चर्या आपके लिए नहीं है। तपश्चर्या फिर भ्रांति होगी। सारी दुनिया प्रशंसा कर रही हो तप की, लेकिन तप आपके लिए नहीं है। और अगर आप तपश्चर्या में पड़े, तो आप भटक जाएंगे। आप सिर्फ कष्ट पाएंगे। आप सिर्फ परेशान होंगे; अपने को दुख देंगे। और आप बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे कि मुझे वह घटना क्यों नहीं घट रही है, जो तपश्चर्या करने वालों को घट रही है! क्योंकि तपश्चर्या करने वाला कहता है, उसे महाआनंद मिला। और आपको नहीं मिल रहा है। आपको नहीं मिलेगा। क्योंकि आलस्य से भरा हुआ अगर व्यक्तित्व हो, तो तपश्चर्या इतनी विपरीत है कि उससे सिर्फ कष्ट मिलेगा।
सिर्फ राजस व्यक्ति को तपश्चर्या योग्य होगी। उसे तपश्चर्या ही योग्य होगी, क्योंकि तप उसे क्रिया का मौका देगा। सात्विक व्यक्ति को भी तपश्चर्या अर्थ की नहीं है। उसे भी कठिनाई होगी। न तो लाओत्से तपश्चर्या कर सकता है और न बुद्ध।
बुद्ध ने छह वर्ष तक तपश्चर्या की और दुख पाया। यह बड़ी अनूठी घटना है। और इसे समझाना आज तक नहीं हुआ कि यह कैसे हुआ! क्योंकि बुद्ध छह वर्ष तक कठोर तपश्चर्या किए और दुख पाए। और उन्हें कोई सत्य नहीं मिला। न कोई निर्वाण मिला; न कोई शांति मिली; न कोई आनंद मिला। और छह वर्ष के दुखद अनुभव के बाद बुद्ध ने सब तप छोड़ दिया। और जिस दिन उन्होंने सब तप छोड़ा, उसी दिन उन्हें परम ज्ञान की उपलब्धि हुई।
बुद्ध सात्विक व्यक्ति हैं, राजस नहीं हैं। तो क्रिया, तप, उपवास उनके लिए सिवाय कष्ट के और कुछ भी न लाए। शरीर दीन हुआ, क्षीण हुआ, आत्मा सबल न हुई। स्नान करते वक्त निरंजना नदी से निकलते थे, तो इतनी भी ताकत नहीं थी उस दिन कि बाहर निकल आएं।
तब उन्हें खयाल आया कि मैं यह तप कर-कर के सिर्फ दुर्बल और दीन हो रहा हूं। और इस साधारण-सी नदी को पार नहीं कर पा रहा हूं; बाहर निकलना मुश्किल मालूम पड़ रहा है। एक वृक्ष की जड़ को पकड़कर लटके हुए हैं। इतनी ताकत नहीं शरीर में कि किनारे के ऊपर आ जाएं। तो बुद्ध को उस क्षण में लगा कि यह भवसागर है इतना बड़ा, इसको मैं कैसे पार कर पाऊंगा, यह निरंजना जैसी छोटी नदी पार नहीं होती!
उसी दिन उनके लिए तप व्यर्थ हो गया। उस रात वे बिलकुल सब छोड़कर सोए। राज्य तो पहले छोड़ चुके थे, यह साधना भी छोड़ दी। उस रात उनके मन में कोई भी उपद्रव नहीं था। न राज्य था, न मोक्ष था; न धन की खोज थी, न धर्म की खोज थी। उस दिन कोई खोज ही न थी। वे बिना खोज के रात सो गए। सुबह जब उनकी आंख खुली, उन्होंने पाया, जो भी मिलना था, वह मौजूद है।
जो सत्व-प्रधान है, उसके लिए क्रिया बहुत लाभ की नहीं है। उसे कोई जरूरत नहीं है। वह सिर्फ मौन हो जाए; वह सिर्फ शांत हो जाए। वह सब भांति भीतर सब तरह के कोलाहल को हटा दे। उस शांत क्षण में उसे वह सब मिल जाएगा, जो कि राजस व्यक्ति अत्यंत कठोर तपश्चर्या करके पाता है।
लेकिन अगर राजस व्यक्ति समझे कि मैं सिर्फ बैठ जाऊं, कुछ न करूं और सब हो जाएगा जैसा बुद्ध को हुआ, तो वह गलती में है। उसे तो गुजरना ही पड़ेगा।
व्यक्तित्व के ऊपर निर्भर है।
तमस से भरे हुए व्यक्ति को व्यर्थ के दौड़-धूप में नहीं पड़ना चाहिए। उसे पहले तो अपने तमस को स्वीकार कर लेना चाहिए कि यह मेरा भाग्य इस जन्म में। अनंत जन्मों में मैंने इसे कमाया। यह मेरा है। इसका मुझे उपयोग करना है; इससे लड़ना नहीं है।
जो भी आपके पास है, ध्यान रखें, उसका उपयोग करना है, उससे लड़ना नहीं है। क्योंकि उससे लड़कर आप टूटेंगे और नष्ट होंगे। उसका उपयोग करें; उसका सेतु बनाएं, मार्ग बनाएं।
अगर आलस्य आपके पास है, तो आलस्य ही मार्ग बन सकता है। तब निष्क्रियता आपकी साधना होगी। तब आप आलस्य को ही साधना बना लें। तब आप सिर्फ आलस्य में पड़े ही मत रहें, आलस्य बाहर घेरे रहे, और भीतर आप आलस्य के प्रति जागे रहें। आलस्य को देखें और साक्षी हो जाएं।
पड़े-पड़े भी, बिस्तर पर पड़े-पड़े भी मोक्ष तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन तब आलस्य को साधना बना लेना जरूरी है। और तब आलस्य के प्रति सजग हो जाना जरूरी है। भीतर साक्षी जग जाना चाहिए।
साक्षी के लिए न तो कर्म की जरूरत है, न अकर्म की; जो भी हो रहा है, उसके प्रति साक्षी होने की जरूरत है, विटनेसिंग की जरूरत है। तो आप अगर आलसी हैं, तो आलस्य के प्रति सजग हों, उसे देखें।
और ऐसा जरूरी नहीं है कि आप अगर तमस से आज भरे हैं, तो कल भी तमस से ही भरे रहेंगे। ऐसा कुछ जरूरी नहीं है। क्योंकि प्रतिपल चीजें बदल रही हैं। और प्रतिपल आपके भीतर के तमस, रजस और सत्व की मात्रा बदल रही है।
बचपन में जो व्यक्ति तामसिक हो, जरूर नहीं कि जवानी में भी तामसिक रह जाए। हो सकता है, राजसी हो जाए; क्योंकि सब हार्मोन बदल रहे हैं। शरीर एक सतत प्रवाह है। शरीर के सारे केमिकल्स बदल रहे हैं; रासायनिक व्यवस्था बदल रही है। जवान होते-होते दूसरी स्थिति हो सकती है। बूढ़ा होते-होते फिर तीसरी स्थिति हो जाएगी। यह प्रतिपल बदलाहट हो रही है।
आज आप आलसी हैं, तो जरूरी नहीं कि कल भी आलसी होंगे। और अगर आप आलस्य के प्रति सजग हो गए, तो निश्चित आप में बदलाहट आएगी। वह साक्षी एक नया तत्व है, जो आपके प्रत्येक रासायनिक ढंग को भीतर से बदल देगा। आप दूसरे आदमी होने लगेंगे। आप धीरे-धीरे पाएंगे कि आलस्य की उतनी जकड़ नहीं रही आपके ऊपर, जैसी पहले थी। आलस्य अब कोई बोझ नहीं रहा; एक हलका विश्राम हो गया।
और अब आप चाहें तो थोड़ा कर्म कर सकते हैं, यद्यपि यह कर्म भी राजसी वाला कर्म नहीं होगा। इसमें भाग-दौड़ नहीं होगी। यह भी शांत होगा। यह नदी बहेगी, लेकिन इसकी गति बहुत शांत होगी; शोरगुल नहीं होगा। यह कोई पहाड़ी नदी नहीं होगी। यह कोई पत्थरों पर आवाज करती हुई नहीं बहेगी। इसमें कर्म भी आएगा, तो धीमी लहर की भांति आएगा, जिससे कोई आवाज नहीं होती। और इसका कर्म भी अत्यंत शांत होगा।
लाओत्से को जिन्होंने चलते देखा है, वे देखेंगे कि उसका चलना भी ऐसा है, जैसे वह सोया हो, इतना विश्रांति से भरा हुआ। और राजसी व्यक्ति अगर सोए भी, तो उसकी निद्रा में भी वह सोया हुआ नहीं रहता। वह नींद में भी काफी चहलकदमी करता है।
आपने देखा नहीं है लोगों को। रात किसी को सोते हुए अध्ययन करें! सिर्फ बैठ जाएं उसके किनारे और रातभर देखें कि वह क्या कर रहा है। आप बड़े चकित होंगे। क्योंकि कोई किसी को देखता नहीं है।
अमेरिका में स्लीप लैब्स बनाए हैं उन्होंने। कोई दस बड़ी प्रयोगशालाएं हैं, जहां हजारों लोगों के ऊपर अध्ययन किया जा रहा है। रातभर अध्ययन किया जाता है कि सोया हुआ आदमी क्या-क्या कर रहा है। यह पहली घटना है मनुष्य जाति के इतिहास में, जब नींद का वैज्ञानिक अध्ययन हो रहा है। तो बड़े चमत्कारी परिणाम हुए।
एक तो यह बात पता चली है कि यह हमारा खयाल गलत है कि लोग पड़े रहते हैं। लोग पड़े नहीं रहते; लोग बड़ी क्रियाएं करते हैं। करवटें बदलते हैं; हाथ-पैर चलाते हैं; मुंह बनाते हैं; मुंह बिचकाते हैं; आवाजें करते हैं; आंखें चलाते हैं। सारा काम जारी रहता है। गरदन हिलाते हैं। कुछ लोग बोलते हैं। कुछ लोग अनर्गल बकते हैं। कुछ लोग उठकर चलते भी हैं कमरे में। उनको भी पता नहीं सुबह कि वे रात कमरे में चलते हैं। कुछ लोग घर का चक्कर लगा आते हैं; फ्रिज खोलकर खा भी आते हैं; और उनको पता भी नहीं होता कि रात में उन्होंने यह काम किया है। चोरी की है लोगों ने नींद में, और उनको पता नहीं। लोगों ने हत्याएं तक की हैं नींद में, और उनको पता नहीं।
न्यूयार्क में एक आदमी रोज रात अपनी छत से, साठ मंजिल मकान की छत से, दूसरे की छत पर कूद जाता था। वापस कूद आता था। पर यह नींद में ही होता था। नियमित क्रम था। कोई रात दो बजे! धीरे-धीरे यह बात मुहल्ले-पड़ोस में पता चल गई। लोग देखने भी खड़े होने लगे। कोई आदमी होश में नहीं कूद सकता। दोनों मकानों के बीच काफी फासला है और खतरा बड़ा है। क्योंकि साठ मंजिल का गड्ढ है बीच में।
लेकिन एक रात काफी लोग इकट्ठे हो गए। और जब वह आदमी कूदा, तो उन्होंने सिर्फ जोश में आवाज लगा दी। उस आदमी की नींद टूट गई। नींद टूटते ही वह बीच के खड्ड में गिर गया। वह खुद भी पगला गया। जैसे ही नींद टूट गई उसकी, उसकी समझ के बाहर हो गया कि यह क्या हो रहा है! वह आदमी मर गया।
उस आदमी की यह घटना अकेली नहीं है। ऐसे सैकड़ों लोग हैं। मनोविज्ञान उनको एक खास तरह की बीमारी से पीड़ित पाता है, सोम्नाबुलिज्म, निद्रा में क्रिया करने की बीमारी। हत्याएं कर दी हैं लोगों ने; गरदनें दबा दी हैं; और जाकर अपने बिस्तर पर सो गए हैं। सुबह उन्हें कुछ याद नहीं। जैसे आप सपना भूल जाते हैं सुबह, ऐसा वे उस घटना को भी भूल गए हैं। वह बिलकुल नींद में हुआ है।
ये नींद में जो लोग चलते हैं, ये आंख खुली रखते हैं, इसलिए टकराते नहीं हैं। बराबर निकल जाते हैं। सामान रखा हो, तो बचकर निकल जाते हैं। आंख उनकी खुली रहती है। लेकिन एक फर्क होता है। आंख उनकी झपती नहीं जब वे नींद में चल रहे होते हैं। आंख बस खुली रहती है। जैसे मरे हुए आदमी की आंख खुली हो; झपे नहीं। उनकी आंख झपती नहीं है। अंधेरे में काम करके वे अपना वापस अपनी जगह आकर सो जाते हैं।
नींद में भी आप भिन्न-भिन्न हैं। एक महावीर हैं, जिनके बाबत कहा जाता है कि वे रात करवट नहीं बदलते। दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं, जो साठ मंजिल के मकान से छलांग भी लगाते हैं।
रात्रि भी एक बड़ी क्रिया है। और रात्रि कोई छोटी घटना नहीं है। आप साठ साल जीएंगे, तो बीस साल सोते हैं। एक तिहाई जिंदगी नींद में जाती है। रोज नियमित आठ घंटा आप नींद में उतरते हैं, एक दूसरे लोक में प्रवेश करते हैं। वहां भी क्रिया जारी है।
रात सोते हुए आदमियों का अध्ययन करके भी कहा जा सकता है कि कौन सात्विक है, कौन राजसिक है, कौन तामसिक है। तामसिक की निद्रा ऐसी होगी, जैसे वह बेहोश पड़ा है।
इस फर्क को ठीक से समझ लें। उसकी निद्रा मूर्च्छा जैसी होगी। जैसे उसे बेहोशी है, कोमा है। तो रात नींद में भी पता चलेगा कि उसके चेहरे पर एक बेहोशी छाई हुई है; सूखापन है; उदास है; सब चीजें सिकुड़ गई हैं; जैसे प्राण कहीं भीतर खो गए हैं और शरीर निर्जीव हो गया है।
ऐसा व्यक्ति सुबह जब उठेगा, तो ताजा नहीं होगा; उसमें जिंदगी की लहर नहीं होगी। ऐसा व्यक्ति एकदम से नहीं उठ सकता। सुबह उठेगा; फिर करवट बदलेगा; फिर सो जाएगा। फिर करवट बदलेगा; फिर सो जाएगा। उसे उठने में कम से कम घंटाभर लगेगा। नींद में और जागने के बीच वह घंटेभर की यात्रा करेगा। बार-बार जागेगा और बार-बार सो जाएगा। यह मूर्च्छा है। यह नींद नहीं है। क्योंकि नींद तो टूट चुकी है, लेकिन मूर्च्छा टूटने में समय लग रहा है।
जो आदमी राजसी है, वह रातभर श्रम करेगा; हाथ-पैर चलाएगा, मुंह चलाएगा, बोलेगा, आवाज करेगा। यह आदमी रातभर गति में रहेगा। इसकी नींद विक्षिप्त है। मूर्च्छित नहीं है, लेकिन विक्षिप्त है। और सुबह जब यह उठेगा, तो यह उठ आएगा एकदम से, क्योंकि यह राजसी है। वस्तुतः राजसी आदमी बिस्तर से उठता नहीं, कूदता है, उठता नहीं। नींद टूटी कि छलांग लगाकर वह बाहर हो जाएगा, जैसे एक झंझट से छूटे। फिर मौका मिला भाग-दौड़ का। तो वह बाहर निकल जाएगा। लेकिन यह आदमी थका हुआ पाएगा सुबह।
तामसी व्यक्ति मूर्च्छित पाएगा सुबह। ताजा नहीं हुआ। जिंदगी बोझिल लगेगी। राजसी व्यक्ति सुबह थका हुआ पाएगा, जैसे बड़े काम करके आ रहा है।
यह ध्यान रखें कि राजसी व्यक्ति दिनभर के काम के बाद दस ग्यारह बजे रात सबसे ज्यादा ताजा अपने को अनुभव करेगा। सोने के पहले वह सबसे ज्यादा ताजा होगा, क्योंकि दिनभर के काम के बाद उसको बड़ी राहत मिली।
ये जो क्लब चल रहे हैं, नाच-घर चल रहे हैं, वे राजसी लोग चला रहे हैं। वे सब
से ज्यादा ताजे होते हैं; उनकी जिंदगी का जो पीक प्वाइंट है, वह रात ग्यारह-बारह बजे आता है। तब वे सबसे ज्यादा जिंदा होते हैं। दिनभर के उपद्रव के बाद उन्हें लगता है कि वे प्रसन्न हैं।
लेकिन राजसी व्यक्ति सुबह हमेशा थका हुआ होगा; रात ताजा होगा। तामसी व्यक्ति सदा थका होगा। वे कभी ताजे नहीं हैं। वे सदा सोए-सोए हैं। मजबूरी है कि उन्हें उठना पड़ता है।
सात्विक व्यक्ति जब रात सोएगा, तो उसकी नींद में एक हलकापन और एक प्रकाश होगा। उसकी नींद न तो मूर्च्छित होगी कि वह बेहोश पड़ा है; और न विक्षिप्त होगी कि वह व्यर्थ के क्रिया-कलाप कर रहा है। उसकी नींद एक गहरा विश्राम होगी, जैसे कोई ध्यान में लेटा हो। जैसे जागा भी हो और सोया भी हो। जरा-सी खटके की आवाज होगी, तो वह जाग सकता है। लेकिन उसकी नींद उथली नहीं है। खटके की आवाज में वह जो आलसी है, वह जाग नहीं सकता। खटका क्या, किसी आवाज में नहीं जाग सकता।
मुल्ला नसरुद्दीन से एक दिन सुबह उसकी पत्नी बोली कि रात बड़ी कठिनाई हो गई। भूकंप आया; बड़ी बिजलियां गरजीं; सारे गांव में उथल-पुथल मच गई; सैकड़ों मकान गिर गए। नसरुद्दीन ने कहा, पागल, मुझे क्यों न उठाया! मैं भी देखता।
वह जो तामसी है, वह सदा बासा है। जिसको हम फ्रेशनेस कहें, प्रफुल्लता कहें, ताजगी कहें, नयापन कहें, वह उसमें नहीं है। वह सदा बासा है। उसके मुंह का स्वाद सदा बासा है। वह कभी खिला हुआ नहीं है, सदा मुरझाया हुआ है। राजसी व्यक्ति सुबह-सुबह मुरझाया हुआ लगेगा, क्योंकि रातभर व्यर्थ काम में संलग्न रहा है। सांझ होते-होते ताजा होने लगेगा।
सभ्यताओं में भी इसके अंतर होते हैं। योरोप, पश्चिम की सभ्यता राजसी है। इसलिए पश्चिमी सभ्यता का जो पूरा उभार है, वह सांझ के बाद है। पेरिस है, या लंदन है, या न्यूयार्क है; वहां जो असली जिंदगी है, वह दिन में नहीं है, वह रात में है। जब लोग नाच-घरों में चले गए हैं, शराब पी रहे हैं, जुआ खेल रहे हैं, तब असली जिंदगी है। अगर पेरिस देखना है, तो रात देखना। दिन में पेरिस का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि पेरिस जगता ही रात में है।
पश्चिम की सारी सभ्यता रात्रि में सजग होती है। पूरब ने एक व्यवस्था की थी, वह पूरी व्यवस्था ब्रह्ममुहूर्त में जागने वाली थी। सांझ जल्दी सो जाने वाली, और सुबह जब सूरज उगे, उसके पहले उठ आने वाली थी। वह सात्विक व्यवस्था की चेष्टा थी।
वह जो सात्विक व्यक्ति है, रात बिलकुल शांति से सोता है। न तो विक्षिप्त होता है, न मूर्च्छित होता है। सूरज के उगने के पहले या करीब-करीब सूरज के उगते वह उठ आता है। सूरज का उगना, उसके भीतर की चेतना का भी जग जाना है।
होना भी यही चाहिए। क्योंकि सूरज के साथ सारे पक्षी जागते हैं। सूरज के साथ सारे पौधे जागते हैं। सूरज के साथ पृथ्वी जागती है। और अगर आप इस पृथ्वी के वास्तविक प्राकृतिक हिस्से हैं, तो सूरज के साथ ही जागना उचित है। सूरज के आते ही आपके भीतर भी जीवन सजग हो जाना चाहिए और उतनी ही ताजगी से भर जाना चाहिए, जितनी ताजगी सुबह की है। यह तो नैसर्गिक क्रम है।
सात्विक व्यक्ति सुबह सूरज के साथ उठ आएगा। न तो वह आलसी की तरह पड़ा रहेगा और घंटों लगाएगा उठने में, न वह राजसी की तरह छलांग लगाकर बाहर निकलेगा। वह उठेगा आहिस्ता से, शांति से, आश्वस्त; उसमें कोई भाग-दौड़ नहीं है। पड़े रहने का भी कोई मोह नहीं है। दौड़कर संसार में उतर जाने की भी कोई वृत्ति नहीं है। वह नींद से बाहर आएगा, सरलता से। नींद और जागरण के बीच कोई फासला नहीं है उसे बड़ा, जिसको छलांग लगानी है या जिसको समय देकर पूरा करना है। उसकी नींद एक शांत, प्रशांत, गहरी धारा है।
सात्विक व्यक्ति सुबह सबसे ज्यादा ताजा होगा। रात होते-होते थक जाएगा। जब राजसी क्लब जाने की तैयारी कर रहा होगा, तब उसकी आंखें झप रही होंगी, तब वह बैठ भी नहीं सकता, तब वह सो जाने के लिए तैयार है। पर यही नैसर्गिक भी है। दिनभर के काम के बाद थक जाना नैसर्गिक है।
पर भेद हैं। और आपको अपना गुण देखकर चलना चाहिए कि नैसर्गिक क्या है।
यह जो नींद के संबंध में निरंतर गहरी खोज हुई हैं, उससे कई बातें.। जैसा मैंने कल आपको कहा कि स्त्री ज्यादा तमस से भरी है, पुरुष ज्यादा राजस से। लेकिन चूंकि भारत जैसे मुल्कों में पुरुषों ने सभ्यता बनाई और मनु जैसे महावेत्ताओं ने बड़ी कोशिश की कि एक सात्विक सभ्यता का जन्म हो जाए।
सारी ब्राह्मण संस्कृति एक बड़ी चेष्टा है, एक महान प्रयोग, कि सारी संस्कृति सात्विक हो जाए। कठिन है। क्योंकि इसमें जो सात्विक नहीं हैं, वे अड़चन में पड़ेंगे। और उनकी संख्या काफी बड़ी है। इसलिए यह प्रयोग सफल नहीं हो सका। यह प्रयोग असफल हुआ। महान प्रयोग था। और महान प्रयोग के असफल होने की संभावना सदा ज्यादा है।
इसलिए हिंदुओं ने बड़ी चेष्टा की पांच हजार साल तक एक बड़े गहरे प्रयोग को व्यवस्था देने के लिए। लेकिन वह असफल हुआ। क्योंकि राजसी और तामसी लोगों का बहु-संप्रदाय है। सात्विक लोग बहुत थोड़े-से हैं। वे थोड़े-से लोग कितने ही सुख में जी रहे हों और वे सबको बताएं कि तुम भी इतने ही सुख में पहुंच सकते हो, मगर उनकी बात उन लोगों के किसी काम की नहीं है, जिनके गुण विपरीत हैं।
चूंकि पुरुषों ने इस सात्विकता का प्रयोग किया, स्त्रियों को भी उन्होंने सुबह जल्दी उठाने की चेष्टा की। सच तो यह है कि भारत में रिवाज यह था कि पुरुष के पहले स्त्री उठ आए। घर का काम कर ले। सब साफ-सुथरा कर दे। वह गृहिणी है। इसके पहले कि पुरुष उठे, वह घर को ताजा स्वच्छ पाए।
लेकिन पश्चिम की खोजें यह बता रही हैं कि किसी भी स्त्री को सूरज उगने के पहले भूलकर नहीं उठना चाहिए। पति को पहले उठना चाहिए; वह राजसिक है। उसमें ज्यादा क्रिया का जोर है। चाय वगैरह का काम पति को कर लेना चाहिए, फिर पत्नी को उठना चाहिए। वैसे पति अपने आप धीरे-धीरे उस रास्ते पर जा रहे हैं बिना किसी खोज के।
और स्त्रियां अगर जल्दी सुबह उठ आएं, तो दिनभर आलस्य अनुभव करेंगी। पश्चिम की खोज किन्हीं दूसरे कारणों से है, लेकिन सार्थक है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि चौबीस घंटे में दो घंटे शरीर का तापमान नीचे गिर जाता है। वे ही दो घंटे गहरी नींद के घंटे हैं। चौबीस घंटे में दो घंटे प्रत्येक व्यक्ति के शरीर का तापमान नीचे गिरता है। वे ही दो घंटे गहरी नींद के घंटे हैं। और हर व्यक्ति का अलग-अलग समय गिरता है। पुरुषों का आमतौर से तीन बजे रात और पांच बजे सुबह के बीच गिरता है, आमतौर से। इसलिए तीन और पांच के बीच पुरुष को गहरी से गहरी नींद का क्षण है। स्त्रियों का आमतौर से छह और आठ के बीच गिरता है। इसलिए छह और आठ के बीच उनके लिए गहरी से गहरी नींद का क्षण है।
जब आपका तापमान गिरता है, अगर उस समय आप उठ आएं, तो आप दिन भर परेशान होंगे। और इसे तो आप थर्मामीटर लगाकर जांच भी ले सकते हैं। चौबीस घंटे की रिपोर्ट आप ले सकते हैं अपनी और आप पा सकते हैं कि किन दो घंटों में आपका तापमान गिरता है। वे दो घंटे तो आपको सोना ही है। उन दो घंटों में आप उठेंगे, तो आप दिनभर बेचैन होंगे। ऐसा लगेगा, कुछ चूक गया; कुछ कठिनाई है; कुछ अड़चन है। एक भीतरी कठिनाई का बोध दिनभर बना रहेगा।
लेकिन हमारे हिसाब से भी, रजस और तमस के विश्लेषण के हिसाब से भी स्त्री ज्यादा तामसी है। तामसी का मतलब है कि ज्यादा आलस्य, कम श्रम और ज्यादा विश्राम, वह उसका स्वभाव है। इसमें कुछ बुराई नहीं है। ऐसा है, यह तथ्य है। पुरुष का स्वभाव है, ज्यादा काम और कम विश्राम।
सात्विक व्यक्ति की साधना मूल रूप से ध्यान की साधना होगी। और ध्यान भी मंत्र-योग, क्रिया-योग इत्यादि नहीं। ध्यान भी झेन जैसा, शून्यता का भाव। सात्विक व्यक्ति हलका है और शून्य हो सकता है सरलता से।
बुद्ध की सारी चेष्टा कि तुम शून्य होओ, सिर्फ सात्विक लोगों पर सार्थक हो सकती है, सभी पर नहीं। तो बुद्ध ने जोर दिया है कि तुम्हारे भीतर कोई आत्मा भी नहीं है। क्योंकि आत्मा का खयाल भी तुम्हें भरे हुए रखेगा। कोई भी नहीं है। भीतर तुम एक विराट शून्य हो, खाली आकाश।
इसी धारणा को गहरा करता जाए अगर कोई व्यक्ति और सात्विक वृत्ति का हो, तो वह परम सिद्धि को उपलब्ध हो जाएगा। राजसी व्यक्ति को तपश्चर्या और क्रियाओं से गुजरना होगा। और क्रियाओं और तपश्चर्या के साथ साक्षीभाव को जगाना होगा।
आलसी व्यक्ति क्रियाओं और तपश्चर्या में नहीं जा सकता। उसको अपनी अकर्मण्यता को ही अपनी क्रिया माननी होगी और अपनी अकर्मण्यता के प्रति साक्षीभाव को जगाना होगा।
साक्षीभाव तीनों के साथ काम करेगा। लेकिन सात्विक शून्य के साथ साक्षी को जोड़ेगा। राजसिक कर्म के साथ साक्षी को जोड़ेगा। तामसिक आलस्य के साथ साक्षी को जोड़ेगा। और साक्षी सूत्र है, जिससे भी आप जोड़ दें, वही पुल बन जाएगा, वही सेतु बन जाएगा।
अब सूत्र।
सात्विक कर्म का तो सात्विक अर्थात सुख, ज्ञान और वैराग्य आदि निर्मल फल कहा है। और राजस कर्म का फल दुख, संताप, पीड़ा; एवं तामस कर्म का फल अज्ञान कहा है। सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है; रजोगुण से निस्संदेह लोभ उत्पन्न होता है; तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है।
सत्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं और रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य अर्थात मनुष्य लोकों में होते हैं एवं तमोगुण के कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्य आदि में स्थित हुए तामस पुरुष अधोगति को अर्थात नीच योनियों को प्राप्त होते हैं।
सात्विक कर्म का फल सुख, ज्ञान और वैराग्य है।
एक-एक शब्द को ठीक से समझें। सात्विक कर्म का अर्थ है, जो कर्म आपके करने के पागलपन से पैदा न हुआ हो; पहली बात।
आप लोगों से बात करते हैं। अक्सर बात आप इसलिए करते हैं कि अगर आप बात न करें, तो आपको भीतर बेचैनी मालूम होगी। आप लोगों से बात नहीं कर रहे हैं, एक कचरा आपके सिर पर पड़ा है, उसे आप निकाल रहे हैं। आपको प्रयोजन नहीं है कि दूसरे व्यक्ति को इससे कुछ लाभ होगा। दूसरे से आपको कोई मतलब ही नहीं है। अ ब स कोई भी हो; सिर्फ बहाना है दूसरा। और आपके सिर में जो घूम रहा है बवंडर, उसे आप निकाल रहे हैं।
इसलिए लोग एक-दूसरे की बातचीत से ऊबते हैं। ऊब इसीलिए पैदा होती है कि वे आए थे अपना कचरा निकालने, आप उनको मौका ही नहीं दे रहे हैं। और आप ही कचरा डाले जा रहे हैं।
जिस आदमी से आप ऊबते हों, उसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि वह आपको मौका नहीं दे रहा है। और जो उबाने वाले, पक्के बोर होते हैं, वे आपको मौका देंगे ही नहीं। वे संध भी नहीं छोड़ते बीच में। दो बातों के बीच संध भी नहीं छोड़ते कि आप कुछ भी बीच में उठा दें और सिलसिला अपने हाथ में ले लें। वे कहे ही चले जाते हैं!
यह जो बोलना है, यह कोई संबंध नहीं है। और यह बोलने का जो कृत्य है, यह सात्विक नहीं रहा, राजसिक हो गया। आपको एक कर्म करने का पागलपन है भीतर; आप बिना किए नहीं रह सकते हैं। इसलिए मजबूरी है, कर रहे हैं। कुछ लोग सेवा में लगे हैं।
मेरे पास एक मित्र आए। और उन्होंने कहा कि बीस साल से सेवा कर रहा हूं। हरिजनों की सेवा की; आदिवासियों की सेवा कर रहा हूं। स्कूल खोले, अस्पताल खोले। लेकिन शांति नहीं मिलती।
तो मैंने उनसे कहा, इतना कम से कम अच्छा है कि तुम काम में लगे हो बीस साल से। शांति नहीं मिल रही, लेकिन अगर तुम यह उपद्रव इतना न करते--हरिजन की सेवा, आदिवासी की सेवा और यह सब अस्पताल और स्कूल--तो तुम इतनी अशांति इकट्ठी कर लेते कि तुम पागल हो जाते। और तुम यह मत सोचना कि तुम हरिजन के कारण सेवा कर रहे हो। तुम्हें सेवा करनी ही पड़ती। हरिजन न हों, तो किसी और की करनी पड़ती। वह तो हरि
जन हैं, सौभाग्य! आदिवासी हैं, कृपा प्रभु की। अगर न हों, तो तुम किसी न किसी की सेवा करते ही। सेवा तुम्हें करनी ही पड़ती। यह तुम्हारी भीतरी मजबूरी है। यह हरिजन तो खूंटी है, जिस पर तुमने टांगा है अपने को।
इसलिए आप यह मत सोचें कि दुनिया अच्छी हो जाएगी, तो सेवा करने वालों को कोई अवसर न रहेगा। वे अवसर खोज ही लेते हैं। वे खोज ही लेंगे। वे कोई न कोई उपाय खोज लेंगे, क्योंकि उन्हें कुछ करना है।
अगर करने की बीमारी से आपका कर्म निकल रहा है, तो वह सात्विक नहीं है। सात्विक वह कर्म है, जो करुणा से निकल रहा है; जो दूसरे को ध्यान में रखकर निकल रहा है; जिसमें आपका कोई भीतरी पागलपन नहीं है। और अगर कुछ करने को न हो, तो आप बेचैन न होंगे। आप शांत बैठे होंगे; आनंदित होंगे। अगर आपको करने को कुछ भी न बचे, तो आप उतने ही आनंदित होंगे, जितना आप करते हुए आनंदित हैं।
लेकिन सेवा करने वालों का कर्म छीन लो, वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। वे पूछते हैं, अब क्या करें! खाली बैठना उन्हें कठिन है।
खाली सिर्फ वही बैठ सकता है, जो अपने साथ आनंदित है। जो स्वयं में आनंदित है, वही बैठ सकता है खाली। जो स्वयं में आनंदित नहीं है, वह कहीं न कहीं लगाए रखेगा अपने को; किसी कर्म में उलझाए रखेगा। वह उलझाव अपने से बचने की तरकीब है। वह एक एस्केप है, पलायन है, जिसमें अपने को भूला रहता है और कहीं लगा रहता है।
सात्विक कर्म का अर्थ है, जो कर्म तुम्हारे हलकेपन से, तुम्हारी शांति से, तुम्हारे निर्भार होने से निकलता हो। तुम्हें करने की कोई मजबूरी नहीं है। लेकिन कोई परिस्थिति थी, जहां कुछ करने से किसी को लाभ होता, मंगल होता किसी का, किसी का शुभ होता, तो कर्म जब निकले, वह सात्विक है।
सात्विक कर्म सुख पैदा करेगा। सात्विक कर्म ही सुख पैदा करेगा। सुख का मतलब ही यह है कि जो तुम्हारे आनंद से निकले कर्म, वही तुम्हें सुख देगा। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
जो किसी और कारण से तुम्हारे भीतर से निकलेगा कर्म, वह तुम्हें सुख नहीं देगा। क्योंकि वस्तुतः सुख किसी चीज में नहीं है, हम डालते हैं। और अगर हममें न हो, तो हम नहीं डाल सकते।
मैं आपसे यहां बोल रहा हूं। अगर यह मेरे आनंद से निकल रहा है, तो यह बोलना आनंदपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि मेरे आनंद में डूबा हुआ निकल रहा है। लेकिन अगर किसी और कारण से निकल रहा हो, तो इससे मुझे सुख नहीं मिल सकता।
आप जो भी करते हैं, करने से आप कुछ नहीं पाते। आप करने में क्या डालते हैं भीतर से, उसी को पाते हैं। हम जो डालते हैं, वही हमें मिलता है।
अगर कोई आदमी सेवा करके भी दुखी है, तो इसका मतलब है, कर्म सात्विक नहीं है। अगर आप कुछ भी करके दुखी हो रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि आप जो कर रहे हैं, वह सात्विक नहीं है। वह राजसिक होगा।
राजसिक कर्म से दुख निकलता है, क्योंकि राजसिक कर्म भीतरी दुख से पैदा होता है। मैं एक भी राजनीतिज्ञ को सुखी नहीं पाता हूं। बड़े कर्म में वे लीन हैं। विराट कर्म उन्हीं से चल रहा है! सारे अखबार उन्हीं से भरे होते हैं।
सात्विक आदमी के कामों की तो कोई खबर अखबार में होती नहीं। क्योंकि वे इतने चुपचाप होते हैं कि उनका शोरगुल पैदा नहीं होता। कभी-कभी सात्विक आदमी की भी खबर आती है अगर कोई राजसिक आदमी उनके काम में जुड़ जाए; कि विनोबा से मिलने अगर कभी कोई गवर्नर चला जाए, तो खबर छपती है; कि पंडित नेहरू विनोबा के पास चले जाएं, तो खबर छपती है। छपती है नेहरू की वजह से। लेकिन मजबूरी है। क्योंकि विनोबा के पास गए, इसलिए वह नाम भी छापना पड़ता है।
सात्विक व्यक्ति तो खबर की दुनिया के बाहर चुपचाप काम में लगा होता है। राजनैतिक बड़े काम करता है; विराट कर्म का जाल उसी का है; सारा खेल उसका है। यह सारा प्रपंच परमात्मा का जो चलाता है, उसमें नब्बे परसेंट राजनैतिक चलाता है। लेकिन सुखी बिलकुल नहीं है। इतना करके भी सुख की कोई छाया भी नहीं मिलती।
ढेर राजनीतिज्ञ मेरे पास आते हैं। जब वे पदों पर नहीं रह जाते, तब तो जरूर आते हैं। लेकिन वे कहते हैं, कोई सुख नहीं है, कोई शांति नहीं है। कोई मार्ग बताएं। इतने कर्म के बाद अगर कोई सुख न मिल रहा हो, तो कर्म का फल क्या है!
एक आदमी कहे कि मैं मीलों दौड़ता हूं, लेकिन मंजिल दिखाई भी नहीं पड़ती है, पास आने की तो बात अलग है! तो उससे हम कहेंगे, फिर तू दौड़ता क्यों है! क्योंकि दौड़ना अगर मंजिल तक न ले जाए, तो क्यों अपनी शक्ति व्यय कर रहा है! इससे तो बैठ रह। और अगर दौड़ने से मंजिल पास नहीं आती, तो यह भी डर है कि कहीं तू उलटी दिशा में तो नहीं दौड़ रहा है। नहीं तो दूर निकल जाए। और दौड़ने से मंजिल दूर हो जाए, इससे तो बैठा हुआ आदमी भी कम से कम एक लाभ में है। पास न जाए, दूर तो निकल ही नहीं सकता। बैठा हुआ आदमी कम से कम भटक तो नहीं सकता। उतनी सुरक्षा है।
लेकिन यह दौड़ने वाला राजनैतिक है। इसके कर्म बड़े हैं, परिणाम न के बराबर है।
सिकंदर दुखी मरता है, विराट कर्म के बाद। नेपोलियन दुखी मरता है, विराट कर्म के बाद। हिटलर आत्मघात करता है; लेनिन मरते वक्त अति दुखी है। और मरते वक्त लेनिन अपनी वसीयत में लिखता है कि स्टैलिन के हाथ में सत्ता न रहे। और दुखी इसीलिए है। जब तक वह बीमार था, तब तक स्टैलिन ने सत्ता हथिया ली। वह और भी बड़ा राजसिक व्यक्ति है। लेनिन ने क्रांति की, लेकिन सत्ता स्टैलिन के हाथ चली गई।
क्रांतिकारी अक्सर सत्ता नहीं भोग पाते, क्योंकि उनकी शक्ति और उनकी ऊर्जा सत्ता हथियाने में नष्ट हो जाती है। जब तक वे सत्ता पाते हैं, तब तक भीतर से कमजोर हो जाते हैं। जब सत्ता उनके हाथ में आती है, तब कोई शक्तिशाली व्यक्ति, जिसकी शक्ति अभी बची है, वह कब्जा कर लेता है।
हर क्रांति में यह होता है कि जो लोग क्रांति करते हैं, वे फेंक दिए जाते हैं। और जो क्रांति नहीं करते, वे मालिक हो जाते हैं। अक्सर होगा ऐसा। बाप कमाएगा और बेटा उसको खर्च करेगा। क्योंकि बाप कमाने में खर्च हो जाते हैं।
लेनिन दुख से मरा और वसीयत करके गया। लेकिन वसीयत को कौन सुनने वाला है! ताकत स्टैलिन के हाथ में थी। वसीयत दबा दी गई।
लेकिन स्टैलिन दुखी मरता है; दुखी जीता है। दुख वहां तक पहुंच जाता है कि बाद-बाद के दिनों में कहा जाता है कि उसने अपना एक डबल रख छोड़ा था, ठीक स्टैलिन की शक्ल का आदमी। हिटलर ने भी अपना एक डबल रख छोड़ा था। स्टैलिन खुद बाहर नहीं जाता था, क्योंकि लोगों को इतना कष्ट दिया है कि वह सुरक्षित नहीं था।
अब यह बड़े मजे की बात है, बड़ी विडंबना है, कि स्टैलिन ने सारी जिंदगी यही तो कोशिश की कि यशस्वी हो जाऊं, बड़ा शक्तिशाली हो जाऊं। और जब शक्ति हाथ में आई, तब कमरे में छिपकर उसको रहना पड़ता था। उसकी जगह सलामी वगैरह लेने उसका डबल जाता था। क्योंकि अगर गोली मार दी जाए, तो दूसरा आदमी मरेगा, स्टैलिन सुरक्षित रहेगा।
कहा जाता है कि मर जाने के बाद भी दो-तीन महीने तक रूस में खबर नहीं दी गई कि स्टैलिन मर गया है। वह डबल काम करता रहा। वह जो दूसरा नकली आदमी बनाकर रख छोड़ा था, वही जाएगा; सभाओं में सलामी लेने, व्याख्यान देने, वह जाएगा।
यह बड़ी अजीब ढंग की उपलब्धि हुई कि जहां स्वागत भी अपना न हो सके; जहां स्वागत के लिए दूसरे को भेजना पड़े!
और स्टैलिन एक प्रेत की तरह हो गया, जो पीछे छिपा हुआ है। और किसी पर उसका भरोसा नहीं है। किसी पर भरोसा नहीं हो सकता। क्योंकि वह खुद धोखा देकर, खुद लेनिन को धोखा देकर कब्जे में आया है। इसलिए जितने लोगों ने उसको सहायता दी, सबको उसने मरवा डाला। क्योंकि जो आदमी भी उसको सहायता देगा, ताकतवर सिद्ध होगा, वह उसको खतम कर देगा।
इसलिए पिछले चालीस साल में, जिनमें स्टैलिन ताकत में था, उसमें उसने हर आदमी को, जिसने उसको साथ दिया और जो सीढ़ी बना और जिसने उसको ऊपर भेजा, उसने जल्दी उसकी गर्दन अलग की। क्योंकि यह आदमी अगर अपने लिए सीढ़ी बन सकता है, तो कल किसी दूसरे को भी चढ़ाने में सीढ़ी बनेगा।
स्टैलिन जैसे लोगों का कोई मित्र नहीं हो सकता। क्योंकि मित्र इतने पास आ जाएगा कि खतरनाक है। स्टैलिन से दूर ही लोग रह सकते हैं, पास नहीं हो सकते। और परम दुख में मर रहा है।
स्टैलिन की लड़की ने बाद में संस्मरण लिखे हैं। उसने संस्मरण में लिखा है कि मेरे पिता जितने दुखी थे, ऐसा दुखी आदमी मैंने कहीं देखा नहीं। दुखी होगा ही।
सात्विक कर्म भीतर के सुख से निकलते हैं। और हर कर्म आपके सुख को हजार गुना कर देगा। क्योंकि हर कर्म आपके सुख की प्रतिध्वनि को आप तक लौटाता है।
आप जो देते हैं अपने कर्म में, वह हजार गुना होकर आप पर बरसने लगता है। यह सारा जगत एक प्रतिध्वनि है। आप एक गीत गाते हैं, तो सब तरफ से गीत गूंजकर आप पर गिरता है। आप एक गाली देते हैं, तो गाली लौट आती है हजार गुनी होकर। जो कांटे बोता है, कांटे काटता है। जो फूल बोता है, वह फूल काट लेता है।
सात्विक कर्म सुख लाएगा, एक। ज्ञान लाएगा, दो। यह बड़ी अनूठी बात है।
सात्विक कर्म ज्ञान क्यों लाएगा? ज्ञान मिलना चाहिए शास्त्र से, गुरु से। लेकिन कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म ज्ञान लाएगा। यह किस ज्ञान की बात कर रहे हैं?
जब आप कोई सात्विक कर्म करते हैं, तब आप एकदम शांत हो जाते हैं। कभी भी अच्छा काम करके देखें, और उस रात आप गहरी नींद सोएंगे। कोई बुरा काम करके देखें, उस रात आप सो भी नहीं पाएंगे। कोई बुरा काम करें, वह भीतर खटकता ही रहेगा, कांटे की तरह चुभता ही रहेगा। कोई भला काम करें, और एक हलकापन फैल जाता है; एक सुबह हो जाती है भीतर। छोटा-सा!
एक बीमार आदमी जा रहा हो और उसको आप हाथ का सहारा देकर रास्ता पार करवा दें। रास्ता पार कराते-कराते ही आपके भीतर कुछ होने लगेगा। सब हलका हो जाएगा, शांत हो जाएगा।
रास्ते पर एक नोट पड़ा हो। उठाने का खयाल आ जाए, उससे ही बेचैनी शुरू हो जाएगी। फिर उठाकर उसे जेब में रख लें। फिर वह पहाड़ की तरह भारी मालूम पड़ेगा। फिर आप और कुछ भी करते रहें, लेकिन भीतर एक बेचैनी है।
अमेरिका की अदालतों में एक यंत्र का उपयोग करते हैं, लाई डिटेक्टर, झूठ को पकड़ने का यंत्र। वह पकड़ लेता है झूठ। वह झूठ इसलिए पकड़ लेता है कि झूठ बोलते ही हृदय को झटका लगता है। उस झटके को पकड़ लेता है।
उस यंत्र के ऊपर अदालत में आदमी को खड़ा कर देते हैं। उससे कुछ पूछते हैं। उससे पूछते हैं, इस समय घड़ी में कितने बजे हैं? घड़ी सामने है। झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है। वह कहता है, नौ बजे हैं। उससे पूछते हैं, दीवाल पर कौन-सा रंग है? झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है। वह कहता है, हरा रंग है। ऐसे चार-छह सवाल पूछते हैं। नीचे यंत्र उसके हृदय की धड़कन को नोट कर रहा है। हृदय की धड़कन का ग्राफ बन रहा है नीचे।
फिर उससे पूछते हैं, क्या तूने चोरी की? तो भीतर से तो आवाज आती है, की। क्योंकि उसने की है। ऊपर से वह कहता है, नहीं की। नीचे झटका लग जाता है। नीचे जो हृदय का कंपन है, वह दोहरी खबर देता है, एकदम से झटका आ जाता है। नीचे का ग्राफ बताता है कि यह आदमी कुछ और कहना चाहता था और इसने कुछ और कहा।
तो अब तो हर अदालत में अमेरिका में उपयोग कर रहे हैं। झूठ बोलना बहुत मुश्किल है, आप कितने ही तैयार होकर गए हों। जितने तैयार होकर गए हों, उतना ही मुश्किल है। क्योंकि आप क्या करिएगा इस बात को! भीतर यह होगा ही। जो आप जानते हैं, सही है, वह तो आप जानते हैं। उसे भूलने का कोई उपाय नहीं। और जो आप जानते हैं, सही नहीं है, आप उसे कितना ही कहें, हृदय झटका खाएगा। क्योंकि दोहरी बातें हो गईं। एक स्वर न रहा; भीतर दो स्वर हो गए।
यह जो आदमी ऐसे दो स्वर प्रकट कर रहा है यंत्र के ऊपर, जो आदमी बुरा कर रहा है, वह चौबीस घंटे इस तरह की ही बेचैनी में जी रहा है।
झूठ बोलने वाले आदमी की बड़ी तकलीफ है। उसको एक झूठ के लिए हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। एक बुरा काम कर ले, तो उसको बचाने के लिए फिर हजार बुरे काम करने पड़ते हैं। फिर एक सिलसिला शुरू होता है, जिसका कोई अंत नहीं है। और इसमें वह उलझता चला जाता है। इस सबका इकट्ठा परिणाम दुख है।
लेकिन कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म का फल सुख और ज्ञान है।
जैसे ही आप हलके होंगे, शांत होंगे, प्रसन्न होंगे, प्रफुल्लित होंगे, एट ईज होंगे, एक गहरा विश्राम होगा; भीतर दो स्वर नहीं हैं, एक ही भाव है; और सब चीजें साफ हैं, सच्ची हैं, सीधी हैं। इस सीधे-सच्चेपन में, इस भोलेपन में, इस निर्दोषता में, आपकी आंखें अपने को पहचानने में समर्थ होंगी। वही ज्ञान है।
स्वयं को पहचानने के लिए भीतर धुआं नहीं चाहिए, द्वंद्व नहीं चाहिए, कलह नहीं चाहिए। भीतर सन्नाटा चाहिए। और सन्नाटा केवल उसी में हो सकता है, जो सात्विक हो। नहीं तो सन्नाटा बहुत मुश्किल है।
आपको पूरे समय सुरक्षा में ही लगे रहना पड़ता है। पूरे समय भय पकड़े है। पूरे समय कोई आपका पीछा कर रहा है। कोई आपको पकड़ने-उलझाने में लगा हुआ है। जिन-जिन को आपने धोखा दिया है, वे आपकी तलाश में हैं। जिन-जिन का आपने बुरा किया है, वे भी आपके बुरे के लिए, प्रतिकार की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ये सब चारों तरफ आपके दुश्मन हो जाते हैं।
असल में, सात्विक व्यक्ति अपने चारों तरफ मित्रता बो रहा है, प्रेम बो रहा है। उसे भय का कोई कारण नहीं है। सुरक्षा की कोई चिंता नहीं है। भीतर कोई कलह नहीं है।
इससे जो सहज भाव पैदा होगा, जो आंतरिक स्वास्थ्य पैदा होगा, वही स्वास्थ्य आपकी आंखों को भीतर की तरफ खोलेगा। धुआं हट जाएगा। जैसे सुबह की धुंध हट गई हो और सूरज साफ हो जाए, वैसे ही आपके दुष्कृत्यों की धुंध हट जाएगी, दुर्भाव की धुंध हट जाएगी, और आप आत्म-साक्षात्कार में सफल हो पाएंगे। इसलिए ज्ञान।
और भी उससे भी जटिल बात है, वैराग्य। सुख, ज्ञान और वैराग्य फल हैं सात्विक कर्म के। यह बहुत समझने जैसा है और बहुत गहरा और सूक्ष्म है।
जो आदमी जितना सात्विक है, उतना ही उसका राग गिरने लगेगा, उतना ही उसमें एक वैराग्य-भाव उदय होने लगेगा। क्यों? राग का क्या मतलब है?
राग का मतलब है, मेरा सुख दूसरे पर निर्भर है। यह राग का मतलब है, अटैचमेंट का, कि मेरा सुख दूसरे पर निर्भर है। मेरी पत्नी पर मेरा सुख निर्भर है। मेरे पति पर निर्भर है। मेरे बेटे पर, मेरे पिता पर, मित्र पर, धन पर, मकान पर, किसी दूसरे पर कहीं मेरा सुख निर्भर है। और जिस पर मेरा सुख निर्भर है, उसे मैं पकड़कर रखना चाहता हूं कि वह छूट न जाए। यही राग है।
लेकिन सात्विक व्यक्ति जानता है कि सुख मेरे भीतर है; इसका वह रोज अनुभव करता है। जब भी वह सात्विक कर्म करता है, सात्विक भाव करता है, वह पाता है, सुख बरस जाता है। सुख मेरे हाथ में है। सुख की वर्षा का सारा आयोजन मेरे हाथ में है। इशारा, और सुख बरस जाता है।
स्वभावतः, वह जानने लगता है कि सुख मेरा किसी पर निर्भर नहीं है। इसलिए उसका राग क्षीण होता है, वैराग्य बढ़ता है। अगर पत्नी उसके पास है, तो वह सुखी है। और पत्नी उससे दूर है, तो वह सुखी है। और उसके सुख में फर्क नहीं पड़ता। जब पत्नी पास है, तब वह पत्नी का सुख लेता है। जब पत्नी दूर है, तब पत्नी के न होने का सुख लेता है। पर उसके सुख में अंतर नहीं पड़ता। और दोनों का सुख है, ध्यान रहे।
और आमतौर से आदमी, जब पत्नी है, तब पत्नी के होने का दुख भोगता है। और जब पत्नी नहीं है, तब न होने का दुख भोगता है।
आप प्रयोग करके देखना, पत्नी को थोड़े दिन बाहर भेजें। फिर आप दुखी होंगे कि पत्नी दूर है। और आप भलीभांति जानते हैं कि जब पास थी, तब नरक था। मगर थोड़े दिन दूर रहे, तो भूल जाता है नरक और कल्पना कर-कर के आप स्वर्ग बना लेते हैं। पत्नी आते ही से सब स्वर्ग रास्ते पर लगा देगी। वापस आई कि नरक शुरू हुआ।
लोगों का अनुभव है, पति-पत्नियों का, कि न तो वे साथ रह सकते हैं और न दूर रह सकते हैं। इसलिए उनका द्वंद्व जो है, उससे छुटकारे का कोई उपाय भी नहीं है। पास रहते हैं, तो कष्ट पाते हैं। दूर रहते हैं, तो कष्ट पाते हैं।
जिन लोगों के पास धन है, वे धन के कारण परेशान हैं। जिनके पास धन नहीं है, वे धन के न होने के कारण परेशान हैं। कोई गरीबी से पीड़ित है, कोई अमीरी से पीड़ित है।
मेरे पास, दोनों तरह के पीड़ित लोगों का मुझे अनुभव है। गरीब यह सोचता है, धन मिल जाए, तो बड़ा सुख हो। धनी कहता है कि सब है, लेकिन सिवाय चिंता के इससे कुछ मिलता नहीं!
शायद आपको खयाल ही नहीं है कि सुख बाहर से कभी किसी को मिला नहीं है। न गरीबी से मिला है, न अमीरी से; न पत्नी के होने से, न न होने से। सुख एक आंतरिक संपदा है। जब उसे आप अपने भीतर खोज लेते हैं, तब आपको मिलता है। तब हर हालत में मिलता है। तब ऐसी कोई दशा नहीं है, जब सुख नहीं मिलता। तब हर स्थिति में आप सुख खोज लेते हैं।
अगर घर में बच्चे खेल रहे हैं और शोरगुल कर रहे हैं, तो आप उनकी, बच्चों की खिलखिलाहट में सुख लेते हैं। और बच्चे चले गए और घर खाली है, तो आप घर के सन्नाटे में सुख लेते हैं। तब घर का सन्नाटा सुखद है। और जब बच्चे लौट आते हैं, और किलकारियां भरते हैं, और नाचते हैं, कूदते हैं, तब आप उनके नाचने-कूदने में सुख लेते हैं। जीवन चारों तरफ उछलता हुआ, आप उसमें सुख लेते हैं।
लेकिन सुख आपके भीतर है। कभी आप सन्नाटे पर आरोपित कर देते हैं, कभी बच्चों की किलकारी पर आरोपित कर देते हैं।
जो दुखी आदमी है, बच्चे शोरगुल करते हैं, तो वह कहते हैं, शांति नष्ट हो रही है। बंद करो आवाज! घर में कोई न हो, तो वह कहता है, बिलकुल अकेला हूं। बड़ी उदासी मालूम होती है।
आपके ढंग पर, आपकी जीवन-व्यवस्था पर, लाइफ स्टाइल पर निर्भर है। सात्विकता एक जीवन का ढंग है, जिसमें सुख भीतर है।
इसलिए कृष्ण बड़ी मौलिक बात कहते हैं कि वैराग्य उसका फल है।
सुखी आदमी हमेशा विरागी होगा। आपने इससे उलटी बात सुनी होगी कि अगर सुख चाहिए हो, तो वैराग्य को साधो, वह बिलकुल गलत है। क्योंकि कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं, वैराग्य साधो, तो सात्विकता आ जाएगी। कृष्ण कह रहे हैं, सात्विक हो जाओ, तो वैराग्य उसका फल है।
लेकिन न मालूम कितने लोग समझाए चले जा रहे हैं कि तुम वैरागी हो जाओ। छोड़ दो सब, फिर बड़े सुखी हो जाओगे।
मैं छोड़े हुए लोगों को जानता हूं। यहां घर के कारण दुखी थे; वहां अब आश्रम के कारण दुखी हैं। पहले यहां पत्नी-बच्चों के कारण दुखी थे, अब वहां दुखी हैं संन्यासियों के पास रहकर संन्यासियों के कारण। दुख में अंतर नहीं है।
असल में दुख इस तरह छूटता ही नहीं। सात्विक हो जाओ, तो वैराग्य उसका फल होगा।
और ध्यान रहे, जब दुखी आदमी छोड़कर भागता है, तो उसका छोड़कर भागना एक रोग की तरह है। और जब सुखी आदमी छोड़ता है, उसके छोड़ने में एक शान है। उसका छोड़ना ऐसा है, जैसे सूखा पत्ता वृक्ष से गिरता है। न तो वृक्ष को घाव पैदा होता है, न पत्ते को पता चलता है, न कहीं कोई खबर होती है। सूखा पत्ता है। सूख गया। अपने आप चुपचाप कब झड़ जाता है हवा के झोंके में, किसी को पता नहीं चलता। वृक्ष की नींद भी नहीं टूटती। वह अपनी शांति में खड़ा है। एक कच्चे पत्ते को तोड़ें; पत्ते को भी चोट पहुंचती है, वृक्ष पर भी घाव बनता है। वृक्ष भी सहमता है।
अब तो नापने के उपाय हैं वृक्ष की संवेदना को। वृक्ष की संवेदना का यंत्र लगा दें और पत्ता तोड़ें। और संवेदना का यंत्र कहेगा, वृक्ष को चोट पहुंची, घाव पहुंचा; दुख हुआ।
और ध्यान रखें, वृक्ष भी याद रखता है। अगर आप रोज-रोज वृक्ष का पत्ता तोड़ते हैं या माली हैं और काटते हैं, तो आप चकित होंगे जानकर, रूस में बड़े प्रयोग हुए हैं, जब माली वृक्ष के पास आता है.। बहुत पहले कबीर ने कहा था, माली आवत देख के कलियन करी पुकार। वह कबीर ने कविता में कहा था। अभी रूस में उसके वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं।
जैसे ही माली को वृक्ष करीब आते देखता है, उसके सारे प्राण के रोएं-रोएं सिहर उठते हैं। और इसकी जांच, अब तो वैज्ञानिक यंत्र हैं हमारे पास, जो खबर दे देते हैं कि वृक्ष कंप रहा है, घबड़ा रहा है। और ऐसा नहीं कि जिस वृक्ष को काटा है, वही घबड़ाता है। उसके पास के वृक्ष भी उसकी पीड़ा से प्रभावित होते हैं और घबड़ाते हैं और डांवाडोल होते हैं। लेकिन सूखा पत्ता जब गिरता है, तो वृक्ष को कहीं भी कुछ पता नहीं चलता।
सुखी आदमी जब कुछ छोड़ता है, तो सूखे पत्ते की तरह गिर जाता है। इसलिए बुद्ध जब छोड़ते हैं राज्य, वह और बात है। और अगर आप घर छोड़कर चले गए, वह कोई राज्य भी नहीं है, आपका घाव आपको सताएगा। आप चले जाएंगे जंगल में, लेकिन सोचेंगे घर की। चले जाएंगे जंगल में, लेकिन कोई मिलने आ जाएगा, तो आप कहेंगे, महल छोड़ आया हूं। चाहे आप झोपड़ा छोड़ आए हों। लाखों की संपत्ति पर लात मार दी है। बड़ी सुंदर पत्नी थी। हालांकि किसी की पत्नी सुंदर नहीं होती। सदा दूसरे की पत्नी सुंदर होती है, अपनी कभी होती नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन शादी कर लाया था। तो पत्नी ने पहले ही दिन कहा कि यह जो बाथरूम है, इस पर पर्दा लगा दो, क्योंकि पड़ोसी देखते हैं। नसरुद्दीन ने बेफिक्र रह। एक दफा देख लेने दे, पर्दा वे खुद अपनी खिड़कियों पर लगाएंगे। तू बिलकुल फिक्र मत कर। यह खर्चा मेरे ऊपर मत डाल। बस, एक दफा उनको देख लेने दे।
सभी पति ऐसा ही सोचते हैं। क्योंकि जो दूर है, वह लुभावना है। जो पास है, वह व्यर्थ हो जाता है। जो हाथ में नहीं है, वह आकर्षक है। जो हाथ में है, वह बोझ हो जाता है।
पर अगर आप जंगल चले गए, तो आप चर्चा करेंगे कि आप कोई नूरजहां, कोई मुमताजमहल छोड़ आए हैं। कोई बड़ा महल, कोई बड़ा राज्य.।
वह सूचना आप जो दे रहे हैं, उससे पता चलता है कि वह छूट नहीं पाया। घाव पीछे रह गया है। जिनको त्यागी गई चीजों की याद रह जाती है, उनका घाव पक्का है, वह भर नहीं रहा। वह घाव दर्द दे रहा है।
कृष्ण कहते हैं, सात्विक कर्म का फल वैराग्य है।
यह बड़ा क्रांतिकारी वचन है और बड़ा वैज्ञानिक। शुभ जो करेगा, धीरे-धीरे उसका राग क्षीण हो जाएगा और वैराग्य का उदय होगा।
राजस कर्म का फल दुख; तामस कर्म का फल अज्ञान।
राजस कर्म का फल दुख होगा, क्योंकि वह दुख से निकलता है। आप कर्मों में लगे हैं इसलिए कि आप इतने ज्यादा भीतर परेशान हैं कि कर्मों में लगकर अपने को भुलाने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए छुट्टी का दिन बहुत कठिन हो जाता है। उसे गुजारना मुश्किल हो जाता है।
लोग छुट्टी का दिन गुजारने बाहर भागते हैं। मीलों का सफर करेंगे। भागे हुए जाएंगे, कहीं होटल में खा-पीकर भागे हुए आएंगे। अमेरिका और योरोप में तो बिलकुल बंपर टु बंपर कारें लगी हैं। लाख कारें एक साथ एक बीच पर पहुंच जाएंगी। वह सब उपद्रव जिसको वे छोड़कर भागे थे, साथ ही चला आ रहा है! वहां बीच पर कोई जगह ही नहीं है। वहां सारा मेला भरा हुआ है। वहीं वे बैठे हैं। शांति की तलाश में आए थे। मगर अकेले नहीं आए थे, और भी लोग शांति की तलाश में निकल पड़े थे!
अब तो लोग कहते हैं कि अमेरिका में अगर शांति चाहिए हो, तो छुट्टी के दिन घर में बैठे रहो। क्योंकि पड़ोसी सब जा रहे हैं शांति की तलाश में। थोड़ी शांति शायद मिल जाए। लेकिन कहीं जाना मत, क्योंकि जहां भी तुम जाओगे, वहीं आदमी पहुंच गया है तुमसे पहले।
हमारे भीतर दुख है। उसे हम भुला रहे हैं किसी न किसी तरह के कर्म में। खाली बैठकर हमें बेचैनी होती है, क्योंकि खाली बैठकर दुख हमारा साफ हो जाता है।
ध्यान रहे, दुख से बचने का हमें एक ही उपाय है, विस्मरण। कोई भी तरकीब से भूल जाएं। दूसरी तरफ मन लग जाता है। ताश खेलने लगे, दुख भूल गया। कुछ काम करने लगे, दुकान पर चले गए, सेवा करने लगे, कुछ न मिला तो गीता ही पढ़ने लगे, राम-राम जपने लगे; माला ले ली एक हाथ में, उसके गुरिए सरकाने लगे; कुछ कर रहे हैं। लेकिन कुछ करने से एक फायदा है कि वह जो भीतर दुख दिखाई पड़ता था, वह नहीं दिखाई पड़ता, मन डायवर्ट हुआ! किसी और दिशा में लग गया। लेकिन घड़ीभर बाद, कब तक माला फेरिएगा! फिर माला बंद की, दुख का फिर स्मरण आया।
दुखी लोग राजस कर्म में लग रहे हैं। और जहां से कर्म निकलता है, वहीं पहुंचा देता है। प्रारंभ हमेशा अंत है। इस सूत्र को खयाल रखें, प्रारंभ हमेशा अंत है। क्योंकि बीज ही वृक्ष होगा। और अंत में फिर वृक्ष में बीज लग जाएंगे। और जिस बीज से वृक्ष हुआ है, वही हजारों बीज उस वृक्ष पर लगेंगे, दूसरे नहीं। अगर आपके दुख से कर्म निकला है, तो दुख बीज है, कर्म वृक्ष है। फिर हजार बीज उसी दुख के लग जाएंगे।
इसलिए राजस कर्म दुख में ले जाता है, क्योंकि दुख से पैदा होता है।
और तामस कर्म का फल अज्ञान है। तामस कर्म का अर्थ है, नहीं करना था और करना पड़ा। करने की कोई इच्छा नहीं थी।
सात्विक कर्म का अर्थ है, करने की कोई विक्षिप्तता नहीं थी। किसी और को जरूरत थी, इसलिए किया। राजस कर्म का अर्थ है, करने का पागलपन था। तुमको जरूरत थी या नहीं, हमने किया।
एकनाथ संत हुए महाराष्ट्र में। वे तीर्थयात्रा पर जा रहे थे। एक चोर ने प्रार्थना की कि महाराज, मैं भी साथ चलूं? एकनाथ ने कहा, तू जरा झंझटी है। और तेरा हमें पता है। उसने कहा, मैं बिलकुल कसम खाता हूं कि चोरी नहीं करूंगा, कम से कम तीर्थयात्रा में। चोर था, उसकी बात का भरोसा हो सकता है। क्योंकि आमतौर से चोर भरोसा नहीं देते। लेकिन जब कोई चोर भरोसा देता है, तो उसका वचन माना जा सकता है।
एकनाथ ने उसे साथ ले लिया। लेकिन दूसरे ही दिन से उपद्रव शुरू हो गया। उपद्रव यह था कि एक के बिस्तर का सामान दूसरे के बिस्तर में चला जाए। किसी का कमीज किसी दूसरे की दरी के नीचे दबा हुआ मिले। किसी की जेब का पैसा दूसरे की जेब में। चोर चोरी नहीं करता था, लेकिन रात में सामान बदल देता था। खुद नहीं चुराता था, क्योंकि उसने कसम खा ली थी। लेकिन पुरानी आदत और कर्म!
आखिर दो-चार दिन में एकनाथ ने कहा कि यह करता कौन है! क्योंकि मिल जाती हैं चीजें आखिर में। लेकिन परेशानी होती है। तो वे जागते रहे। रात में देखा, चोर कर रहा है। वह एकनाथ का ही सामान निकालकर बगल वाले की पेटी में कर रहा था।
उन्होंने कहा कि तू यह क्या कर रहा है? उसने कहा, महाराज, चोरी नहीं करूंगा, इसका वचन दिया है। लेकिन कर्म न करूं, तो बड़ी मुश्किल है। और फिर तीन महीने बाद घर लौटूंगा, तो अभ्यास जारी रहना चाहिए। यह तीर्थयात्रा कब तक चलेगी! अंततः तो मुझे चोरी ही करनी है। किसी की हानि नहीं कर रहा हूं।
जो राजस व्यक्ति है, उसके कर्म का निकलना उसके भीतर की बेचैनी है। सात्विक का कर्म दूसरे पर दया है। राजसिक का कर्म खुद की बीमारी है। तामसिक का कर्म दूसरे के द्वारा पैदा की गई मजबूरी है। उसको धक्का दो कि चलो, उठो। जाओ, यह करो। मजबूरी है। बंदूक लगाओ उनके पीछे, तो वे दो-चार कदम चलते हैं। बंदूक हटा लो, वे वहीं बैठ जाते हैं।
यह जो दूसरे के द्वारा मजबूरी से किया गया कर्म है तामस का, यह गहन अज्ञान लाएगा। जैसे सात्विक कर्म ज्ञान लाता है, दूसरे पर दया के कारण खुद को हलका करता है। यह दूसरे के द्वारा जबरदस्ती के कारण दूसरे पर घृणा पैदा होगी, हिंसा पैदा होगी; दूसरे को मार डालने का भाव होगा कि सारी दुनिया मेरे पीछे पड़ी है!
आलसी आदमी को ऐसे ही लगता है कि बाप पीछे पड़ा है, पत्नी पीछे पड़ी है, मां पीछे पड़ी है। सारी दुनिया मेरे पीछे पड़ी है कि कुछ करो। और उसे कुछ करने जैसा लगता ही नहीं। उसे लगता है, वह चुपचाप बैठा रहे। सारी दुनिया उसकी दुश्मन है!
ध्यान रहे, सात्विक व्यक्ति अपने चारों तरफ प्रेम बोता है। तामसिक वृत्ति का व्यक्ति अनजाने अपने चारों तरफ शत्रु पाता है। शत्रु उसको लगेंगे, क्योंकि वे सभी उसको निकालने की कोशिश में लगे हैं कि तुम कुछ करो। उसके मन में सबके प्रति घृणा, सबके प्रति द्वेष, सबके प्रति तिरस्कार, कोई मित्र नहीं है, सब दुश्मन हैं--ऐसा भाव पैदा होता है। उसका धुआं बढ़ जाता है। उसके भीतर का धुंध बढ़ जाता है। दूसरे पर दया से धुंध कटता है, दूसरे पर घृणा से धुंध बढ़ता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, तामस कर्म का फल अज्ञान है। वह और भी डूबता जाता है। खुद को देखना और मुश्किल हो जाता है। खुद को पहचानना असंभव हो जाता है।
सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है; रजोगुण से निस्संदेह लोभ; तमोगुण से प्रमाद और मोह और अज्ञान होता है।
सत्वगुण से ज्ञान। क्योंकि भीतर का अंधेरा टूटता है, आलोक आता है, हम स्वयं को पहचान पाते हैं।
रजोगुण से लोभ। और जितना ही कोई कर्मों में प्रवृत्त होता है, उतना ही लोभ को जगाना पड़ता है। क्योंकि लोभ को जगाए बिना कर्म में प्रवृत्त होना मुश्किल है। इसलिए आप ताश खेल रहे हैं। अकेला ताश खेलना आपको ज्यादा रस नहीं देगा। थोड़ा दांव जुए का लगा दें, थोड़े रुपए और रख दें वहां, तो गति आ जाएगी, क्योंकि अब लोभ के लिए सुविधा है।
तो हम कर्म भी तभी कर सकते हैं, जब कुछ लोभ सामने खड़ा हुआ दिखाई पड़े। इसलिए राजसिक व्यक्ति अपना लोभ पैदा करता रहता है रोज, ताकि कर्म कर सके। रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है। लोभ से राजसिकता बढ़ती है। जितनी राजसिकता बढ़ती है, उतना लोभ पैदा करना पड़ता है। इसलिए रोज आपको नई मंजिल चाहिए, नया लोभ चाहिए, नए टारगेट चाहिए, जहां आप पहुंचें।
इसीलिए रोज विज्ञापनदाताओं को नए विज्ञापन खोजने पड़ते हैं। नई कारें बनानी पड़ती हैं। नये मकान की डिजाइन निकालनी पड़ती है। और आपको नया लोभ देना पड़ता है। विज्ञापन का पूरा का पूरा इंतजाम आपको लोभ देने के लिए है। इसलिए जितना राजसिक मुल्क होगा, उतनी ज्यादा एडवरटाइजमेंट होगी।
अमेरिका इस वक्त सबसे ज्यादा विज्ञापन करता है। अरबों डालर विज्ञापन पर खर्च होता है। क्यों? क्योंकि वे जो आदमी बैठे हैं सारे मुल्क में, उनको कर्म चाहिए।
अभी इसके पहले तक नारा था कि हर आदमी के पास एक कार हो, एक गैरेज हो। लेकिन अब वह गरीब आदमी का लक्षण है अमेरिका में। दो कार! अगर आपके पास दो कार नहीं, तो आप गरीब आदमी हैं। अब यह लोभ हो गया। अब जिनके भी दिमाग में पागलपन है, वे दो कार के पीछे पड़े हैं। हालांकि एक ही कार काम आती है। अब वे दो कार के पीछे पड़े हैं।
आपके पास मकान सिर्फ शहर में ही है? पहाड़ पर नहीं है? आप गरीब आदमी हैं। एक मकान पहाड़ पर भी चाहिए।
रोज नया लोभ देना पड़ता है, क्योंकि राजसिक पूरा मुल्क हो, राजस से भरे हुए लोग हों, कर्म का पागलपन हो, और लोभ की कमी हो, तो लोग पागल हो जाएंगे। उनको रोज नया लोभ दो, नई आवश्यकता पैदा करो।
तमोगुण से प्रमाद और मोह।
और जो आलस्य में पड़ा रहता है, वह धीरे-धीरे तंद्रा में, निद्रा में, प्रमाद में, बेहोशी में खोता चला जाता है। पर बेहोशी अज्ञान है।
सत्वगुण में स्थित हुए पुरुष स्वर्गादिक उच्च लोकों को जाते हैं। रजोगुण में स्थित पुरुष मध्य मनुष्य लोक में, एवं तमोगुण में निद्रा, प्रमाद, आलस्य में डूबे हुए लोग, तामस पुरुष, अधोगति, नीच योनियों को प्राप्त होते हैं।
ये तीन स्थितियां हैं मन की, चित्त की। मेरे हिसाब में कहीं कोई स्वर्ग नहीं है पृथ्वी के ऊपर। और कहीं कोई नरक नहीं है पृथ्वी के नीचे। कहीं पाताल में छिपा कोई नरक नहीं है, आकाश में छिपा कोई स्वर्ग नहीं है। स्वर्ग और नरक मनुष्य की उच्चतम और निम्नतम स्थितियां हैं।
जब भी आप गहन सुख में होते हैं, आप स्वर्ग में होते हैं। और जब आप गहनतम संताप में होते हैं, तो आप नरक में होते हैं। लेकिन आमतौर से आप दोनों में नहीं होते, बीच में होते हैं। वही मनुष्य के मन की अवस्था है, मध्य। और दोनों तरफ डोलते रहते हैं। सुबह नरक, शाम स्वर्ग। पूरे वक्त आपके भीतर डांवाडोल स्थिति चलती रहती है। स्वर्ग और नरक के बीच यात्रा होती रहती है।
जो व्यक्ति सत्व में थिर हो जाता है, उसकी यह यात्रा बंद हो जाती है। वह भीतर के सुख में थिर हो जाता है। उसका थर्मामीटर सुख के उच्चांक को छू लेता है और वहीं ठहरा रहता है। फिर नीचे नहीं गिरता।
जो व्यक्ति तमस में बिलकुल थिर हो जाता है, उसका थर्मामीटर, उसकी चेतना की दशा निम्नतम बिंदु पर ठहर जाती है। उससे ऊपर नहीं उठती।
जो व्यक्ति राजस में भरा हुआ है, राजस में ठहरा हुआ है, वह मध्य में ही बना रहता है। सुख का आभास बना रहता है, दुख का डर बना रहता है। न दुख मिलता है, न सुख मिलता है। वह बीच में अटका-सा रहता है; त्रिशंकु की उसकी दशा होती है। और या फिर कभी-कभी छलांग लगाकर थोड़ा सुख ले लेता है, कभी छलांग लगाकर थोड़ा दुख ले लेता है।
ये तीन स्थितियां हैं। उच्चतम को हम स्वर्ग कहते हैं, वह मन की सुख की अवस्था है। निम्नतम को नरक कहते हैं, नीच गति कहते हैं, अधोगति कहते हैं, वह चेतना की निम्नतम स्थिति है। और मध्य, जहां मनुष्य है।
मनुष्य शब्द सोचने जैसा है। मनुष्य शब्द बना है मन से। मन की जो दशा है आमतौर से, मध्य में है। मन हमेशा बीच में है। वह सोचता है, कल सुख मिलेगा। सुख दूर है। मिला नहीं। और वह डरता है कि कल कहीं दुख न मिल जाए। तो कल दुख न मिले, इसका इंतजाम करता है। और कल सुख मिले, इसकी व्यवस्था करता है। कल भी वह यही करेगा, परसों भी यही करेगा, पूरी जिंदगी यही करेगा। रहेगा वह बीच में। और तब संतुष्ट नहीं होगा, अतृप्त होगा, फ्रस्ट्रेशन होगा। कहीं नहीं पहुंच रहा है। जहां खड़ा था, वहीं खड़ा है।
ये जो चेतना की स्थितियां हैं, इनको समझाने के लिए स्थान की तरह चर्चा की गई है शास्त्रों में। लेकिन उससे बड़ी भ्रांति हो गई है। लोग समझने लगे हैं, ये स्थान हैं। स्थान केवल समझाने के लिए हैं। स्थितियां हैं, स्थान नहीं। स्टेट्‌स आफ माइंड हैं, कोई भौगोलिक, ज्याग्राफी की जगह नहीं हैं।
यह तो अब छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं कि नरक कहीं नहीं है, स्वर्ग कहीं नहीं है। भूगोल छान डाली गई है। और इसलिए शास्त्रों को निरंतर बदलना पड़ा। पहले शास्त्रों पर इतना दूर नहीं था स्वर्ग, जितना बाद में हो गया। पहले भगवान हिमालय पर रहते थे। फिर आदमी हिमालय पर पहुंचने लगा, तो भगवान को हटाना पड़ा। तो वह उनको कैलाश पर बैठा दिया, आखिरी चोटी पर। फिर वह भी कुछ अगम्य न रही। तो हमें आकाश में बिठाना पड़ा। अब हमारे अंतरिक्ष यान आकाश में पार जा रहे हैं। अब वहां भी भगवान सुरक्षित नहीं है।
इसलिए वेदांत ने कहा है कि भगवान निराकार है, तुम उसे कहीं खोज न पाओगे। तुम कहीं भी जाओ, तुम यह नहीं कह सकते, वह नहीं मिला; क्योंकि उसका कोई आकार नहीं है। पर यह आदमी जहां भी खोज लेता है, वहीं हमको कहना पड़ता है, यहां भगवान नहीं है।
स्थान की बात ही गलत है। स्थान से कुछ संबंध नहीं है। भगवान भी एक अवस्था है भगवत्ता की। जैसे ये तीन अवस्थाएं मन की हैं, ऐसी वह तीन के पार चौथी अवस्था है, गुणातीत। जब कोई तीनों के पार हो जाता है--न दुख, न सुख, न मध्य; न तामस, न राजस, न सात्विक--जब तीनों गुणों के पार कोई उठ जाता है, तब उस अवस्था का नाम भगवत्ता है।
इसलिए हम कृष्ण को भगवान कहते हैं या बुद्ध को भगवान कहते हैं। भगवान का कुल अर्थ इतना ही है। भगवान का यह मतलब नहीं कि उन्होंने दुनिया बनाई, कि बुद्ध ने कोई दुनिया बनाई, कि कृष्ण ने कोई दुनिया बनाई। भगवान का कुल अर्थ इतना ही है कि तीन गुणों के जो पार हो गया, वह भगवत्ता को उपलब्ध हो गया।

आज इतना ही।

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