BHAGWAD GEETA
Geeta Darshan Vol-14 05
Fifth Discourse from the series of 10 discourses - Geeta Darshan Vol-14 by Osho. These discourses were given in BOMBAY during DEC 01-10 1973.
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अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।। 13।।
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।। 14।।
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते।। 15।।
हे अर्जुन, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद और निद्रादि अंतःकरण की मोहिनी वृत्तियां, ये सब ही उत्पन्न होते हैं।
और हे अर्जुन, जब यह जीवात्मा सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के मलरहित अर्थात दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है।
और रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ पुरुष मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है।
पहले कुछ प्रश्न।
पहला प्रश्न:
भगवान, कृष्ण परम ज्ञानी और त्रिगुणातीत हैं, फिर भी धोखा देते हैं, झूठ बोलते हैं, युद्ध करते हैं। बुद्ध, महावीर, लाओत्से आदि ऐसा कुछ भी नहीं करते। सत्व, रजस, तमस गुणों के संदर्भ में कृष्ण के उपरोक्त व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने की कृपा करें।
पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि दो महापुरुषों के बीच कोई तुलना संभव नहीं है। और सभी तुलनाएं गलत हैं। प्रत्येक महापुरुष अद्वितीय है। उस जैसा दूसरा कोई भी नहीं।
वस्तुतः तो साधारण पुरुष भी अद्वितीय है। आप जैसा भी कोई दूसरा नहीं। आपके भीतर ही महापुरुष तब प्रकट होता है, जब आप अपने स्वभाव को, अपनी नियति को उसकी पूर्णता में ले आते हैं।
आप भी बेजोड़ हैं। आप जैसा दूसरा कोई व्यक्ति पृथ्वी पर नहीं है। न आज है, न कल था, और न कल होगा। एक वृक्ष का पत्ता भी पूरी पृथ्वी पर खोजने जाएं, तो दूसरा वैसा ही पत्ता नहीं खोज पाएंगे। एक पत्थर का टुकड़ा भी, एक कंकड़ भी अपने ही जैसा है।
और जब आपका निखार होगा, और आपके जीवन की परम सिद्धि प्रकट होगी, तब तो आप एक गौरीशंकर के शिखर बन जाएंगे। अभी भी आप बेजोड़ हैं। तब तो आप बिलकुल ही बेजोड़ होंगे। अभी तो शायद दूसरों के साथ कुछ तालमेल भी मिल जाए। फिर तो कोई तालमेल न मिलेगा।
अभी तो भीड़ का प्रभाव है आपके ऊपर, इसलिए भीड़ से आप अनुकरण करते हैं। भीड़ की नकल करते हैं। और पड़ोसी जैसा है, वैसा ही बनने की कोशिश करते हैं। क्योंकि इस भीड़ के बीच जिसे जीना हो, अगर वह बिलकुल अनूठा हो, तो भीड़ उसे मिटा देगी। भीड़ उनको ही पसंद करती है, जो उन जैसे हैं। वस्त्रों में, आचरण में, व्यवहार में भीड़ चाहती है आप विशिष्ट न हों, आप पृथक न हों, अनूठे न हों। भीड़ व्यक्ति को मिटाती है; एक तल पर सभी को ले आती है।
इसलिए बहुत कुछ आप में दूसरे जैसा भी मिल जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे आपका स्वभाव निखरेगा, वैसे-वैसे आप भीड़ से मुक्त होंगे, वैसे-वैसे अनुकरण की वृत्ति गिरेगी, वैसे-वैसे वह घड़ी आपके जीवन में आएगी जब आप जैसा इस जगत में कुछ भी न रह जाएगा।
कृष्ण, लाओत्से, बुद्ध, उस परम शिखर पर पहुंचे हुए व्यक्ति हैं। किसी की दूसरे से तुलना करने की भूल में मत पड़ना। उस तुलना में अन्याय होगा। अन्याय की संभावना निरंतर है। वह अन्याय यह है कि अगर आपको कृष्ण पसंद हैं, तो आप महावीर के साथ अन्याय कर जाएंगे। वह पसंदगी आपकी है। वह पसंदगी आपकी निजी बात है।
और अगर आपको महावीर पसंद हैं, तो कृष्ण आपको कभी भी पसंद नहीं पड़ेंगे। यह आपका व्यक्तिगत रुझान है। इस रुझान को आप महापुरुषों पर मत थोपें। आपके रुझान में कोई गलती नहीं है। कृष्ण आपको प्यारे हैं, आप कृष्ण को प्रेम करें। और इतना प्रेम करें कि वही प्रेम आपके लिए रूपांतरण का कारण हो जाए, अग्नि बन जाए, और आप उसमें से निखर आएं।
अगर महावीर से प्रेम है, तो महावीर को प्रेम करें। और महावीर के व्यक्तित्व को एक मौका दें कि वह आपको उठा ले, सम्हाल ले; आप डूबने से बच जाएं। महावीर का व्यक्तित्व आपके लिए नाव बन जाए। लेकिन दूसरे महापुरुष से तुलना मत करें। तुलना में गलती हो जाएगी। तुलना केवल उनके बीच हो सकती है, जो समान हैं। उनके बीच कोई समानता का आधार नहीं है। और उन सबके व्यक्तित्व का ढंग बिलकुल पृथक-पृथक है।
जैसे मीरा है। मीरा नाच रही है। हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध, और नाचें! कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं। महावीर के होंठों पर बांसुरी रखनी बड़ी बेहूदी मालूम पड़ेगी; एब्सर्ड है। उसकी कोई संगति नहीं बैठती। महावीर का जीवन, व्यक्तित्व, ढंग, उससे बांसुरी का कोई संबंध नहीं बैठ सकता।
कृष्ण के ऊपर मोरमुकुट शोभा देता है। वह उनके व्यक्तित्व की सूचना है। वैसा मोरमुकुट आप जीसस को बांध देंगे, तो बहुत बेहूदा लगेगा। जीसस को तो कांटों का ताज और सूली ही जमती है। सूली पर लटककर जब कांटों का ताज उनके सिर पर है, तब जीसस अपने शिखर पर होते हैं। और कृष्ण जब बांसुरी बजा रहे हैं मोरमुकुट रखकर, तब अपने शिखर पर होते हैं।
एक-एक व्यक्ति अनूठा है यह खयाल में आ जाए, तो महापुरुष बिलकुल अनूठे हैं। जब ज्ञान की घटना घटती है, तो ज्ञान की घटना तो एक ही है। ऐसा समझें, यहां हम इतने लोग बैठे हैं। यहां प्रकाश है। तो प्रकाश की घटना तो एक ही जैसी है, लेकिन सभी आंखों में एक जैसा प्रकाश दिखाई नहीं पड़ रहा है। क्योंकि आंखों का यंत्र, देखने वाला यंत्र, प्रकाश को प्रभावित कर रहा है।
किसी की आंखें कमजोर हैं, उसे धीमा प्रकाश दिखाई पड़ रहा होगा। किसी की आंखें बहुत तेज हैं, तो उसे बहुत प्रकाश दिखाई पड़ रहा होगा। और किसी की आंखों पर चश्मा है, और रंगीन है, तो प्रकाश का रंग बदल जाएगा। और किसी की आंख बिलकुल ठीक है लेकिन वह आंख बंद किए बैठा हो, तो प्रकाश दिखाई ही नहीं पड़ेगा, अंधकार हो जाएगा।
जब जीवन की परम अनुभूति घटती है, तो अनुभव तो बिलकुल एक है, लेकिन व्यक्तित्व अलग-अलग हैं। जब कृष्ण को वह परम अनुभव होगा, तो वे नाचने लगेंगे। यह उनके व्यक्तित्व से आ रहा है नाच, उस अनुभव से नहीं आ रहा है। जब बुद्ध को वही परम अनुभव होगा, तो वे बिलकुल मौन होकर बैठ जाएंगे; उनके हाथ-पैर भी नहीं हिलेंगे; आंख भी नहीं झपकेगी। उनके भीतर जो घटना घटी है, वह उनके मौन से प्रकट होगी, उनकी शून्यता से प्रकट होगी, उनकी थिरता से प्रकट होगी। उनका आनंद मुखर नहीं होगा, मौन होगा।
बुद्ध चुप होकर प्रकट कर रहे हैं कि क्या घटा है। कृष्ण नाचकर प्रकट कर रहे हैं कि क्या घटा है। यह कृष्ण के व्यक्तित्व पर और बुद्ध के व्यक्तित्व पर निर्भर है। घटना एक ही घटी है।
इसे ऐसा समझ लें कि एक चित्रकार सुबह सूरज को उगते हुए देखे। और एक संगीतकार सुबह सूरज को उगता देखे। और एक नृत्यकार सूरज को उगता देखे। और एक मूर्तिकार और एक कवि सूरज को उगता देखे। ये सारे लोगों ने एक ही सूरज को उगते देखा है। और इन सबके चित्त पर एक ही सौंदर्य की घटना घटी है। ये सब आनंद से भर गए हैं। वह सुबह का उगता सूरज इनके भीतर भी कुछ उगने की घटना को जन्म दे गया है। इनके भीतर भी चेतना आंदोलित हुई है।
लेकिन चित्रकार उसका चित्र बनाएगा। अगर आप उससे पूछेंगे कि क्या देखा, तो चित्र बनाएगा। कवि एक गीत में बांधेगा, अगर आप उससे पूछेंगे, क्या देखा। नर्तक नाच उठेगा, नाचकर कहेगा कि क्या देखा।
एक बहुत कीमती विचारक और लेखक यूनान में हुआ अभी-अभी, निकोस कजानजाकिस। उसने एक बड़ी अनूठी किताब लिखी है, ज़ोरबा दि ग्रीक। एक उपन्यास है, ज़ोरबा नाम के एक आदमी के आस-पास। वह आदमी बड़ा नैसर्गिक आदमी है, जैसा स्वाभाविक आदमी होना चाहिए। न उसके कोई सिद्धांत हैं, न कोई आदर्श हैं। न कोई नीति है, न कोई नियम है। वह ऐसा आदमी है, जैसा कि आदमी को अगर सभ्य न बनाया जाए और प्रकृति के सहारे छोड़ दिया जाए, तो जो बिलकुल प्राकृतिक होगा।
जब वह क्रोध में होता है, तो आग हो जाता है। जब वह प्रेम में होता है, तो पिघलकर बह जाता है। उसके कोई हिसाब नहीं हैं। वह क्षण-क्षण जीता है।
कजानजाकिस ने लिखा है कि जब वह खुश हो जाता था या कोई ऐसी घटना घटती, जिससे वह आनंद से भर जाता, तो वह कहता कि रुको। वह ज्यादा नहीं बोल सकता, क्योंकि ज्यादा उसका भाषा पर अधिकार नहीं है, वह शिक्षित नहीं है। तो वह अपना तंबूरा उठा लेता। तंबूरा बजाता। उसे कुछ कहना है; उसके भीतर कोई भाव उठा है, उसे कहना है। वह तंबूरा बजाता। और कभी ऐसी घड़ी आ जाती कि तंबूरे से भी वह बात प्रकट नहीं होती, तो तंबूरा फेंककर वह नाचना शुरू कर देता। और जब तक वह पसीना-पसीना होकर गिर न जाता, तब तक वह नाचता रहता।
कजानजाकिस ने लिखा है कि मुझे उसकी भाषा समझ में नहीं आती थी। लगता था, वह नाच रहा है; कुछ उसके भीतर हो रहा है। और कुछ ऐसा विराट हो रहा है कि उसे प्रकट करने का उसके पास और कोई उपाय नहीं है। लेकिन मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं है।
कजानजाकिस लेखक है, विचारक है, शब्दों का मालिक है। लेकिन फिर उसके जीवन में भी एक घटना घटी और तब उसे पता चला। वह पहली दफा एक स्त्री के प्रेम में पड़ा। जब उस स्त्री ने उसे प्रेम से देखा, उसे निकट लिया और वह उसके प्रेम का पात्र बना, तो जब वह वापस लौटा, तब अचानक उसने पाया कि उसके पैर नाच रहे हैं। अब वह कहना चाहता है, लेकिन अब शब्द फिजूल हैं। अब वह कुछ लिखना चाहता है, लेकिन कलम बेकार है। और जिंदगी में पहली दफा वह आकर अपने कमरे के सामने नाचने लगा। और तब उसे समझ में आया कि वह ज़ोरबा जो कह रहा था, क्या कह रहा था। लेकिन उसके पहले उसे कुछ भी पता नहीं था।
आपका व्यक्तित्व अभिव्यक्ति का माध्यम है। अनुभूति तो एक ही होगी। लेकिन आपके व्यक्तित्व से गुजरकर उसकी अभिव्यक्ति बदल जाएगी।
तो कृष्ण की अभिव्यक्ति का माध्यम अलग है। जन्मों-जन्मों में वह माध्यम निर्मित हुआ है। अनंत जन्मों में कृष्ण ने वह नृत्य सीखा है। अनंत जन्मों में वह बांसुरी बजाई है।
बुद्ध ने जन्मों-जन्मों में, बुद्ध ने कहा है.।
बुद्ध के पिता ने जब बुद्ध वापस घर लौटे, तो बुद्ध को कहा कि तू नासमझ है। और अभी भी नासमझ है। मैं तेरा पिता हूं और मेरे पास पिता का हृदय है; मेरे द्वार अभी भी खुले हैं। अगर तू वापस लौटना चाहे, तो वापस आ जा। यह छोड़ भिखारीपन। हमारे वंश में कभी कोई भिखारी नहीं हुआ।
तो बुद्ध ने कहा है कि क्षमा करें। आपके वंश से मेरा क्या संबंध है! मैं सिर्फ आपसे आया हूं, आपसे पैदा नहीं हुआ। जहां तक मुझे याद आते हैं अपने पिछले जन्म, मैं जन्मों-जन्मों का भिखारी हूं। मैं पहले भी भीख मांग चुका हूं। मैं पहले भी संन्यासी हो चुका हूं। यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। यह किसी लंबे क्रम का एक हिस्सा है।
जहां तक मुझे अपनी याद है, बुद्ध ने कहा है कि मैं पहले भी ऐसा ही हुआ हूं। और हर बार यात्रा अधूरी छूट गई। इस बार यात्रा पूरी हो गई। जिस सूत्र को मैं बहुत जन्मों से पकड़ने की कोशिश कर रहा था, वह मेरी पकड़ में आ गया। और तुमसे मेरा परिचय बहुत नया है। मुझ से मेरा परिचय जन्मों-जन्मों का है। तुम्हारे कुल का मुझे कुछ पता नहीं, लेकिन मेरे कुल का मुझे पता है कि मैं जन्मों का भिखारी हूं। और सम्राट होना सांयोगिक था। यह भिक्षु होना मेरी नियति है, मेरा स्वभाव है।
ये बुद्ध भी जन्मों-जन्मों में वृक्ष के नीचे बैठ-बैठकर इस जगह पहुंचे हैं, जहां वे पत्थर की मूर्ति की तरह शांत हो गए हैं।
सबसे पहले बुद्ध की मूर्तियां बनीं। वैसा मूर्तिवत आदमी ही कभी नहीं हुआ था। बुद्ध की मूर्ति बनानी हो, तो बस पत्थर की ही बन सकती है। क्योंकि वे पत्थर जैसे ही, पाषाण जैसे ही ठंडे और शांत और चुप, सारी क्रियाओं से शून्य हो गए थे।
उर्दू में, अरबी में शब्द है, बुत। वह बुद्ध का अपभ्रंश है। मूर्ति के लिए जो शब्द है, वह है बुत। बुत का मतलब है बुद्ध। बुद्ध के नाम से ही बुत शब्द पैदा हुआ। और बुद्धवत बैठने का मतलब है, मूर्तिवत बैठ जाना। बुद्धवत बैठने का अर्थ है, बुत की तरह हो जाना। जरा-सा भी कंपन न रह जाए, नाच तो बहुत दूर की बात है। जरा-सा झोंका भी न रह जाए भीतर। नाच तो बिलकुल दूसरी अति है, जहां भीतर कुछ भी थिर न रह जाए, सब नाच उठे, सब गतिमान हो जाए।
तो बुद्ध और कृष्ण का कहां मेल बिठाइएगा? लेकिन जो घटना घटी है, वह एक ही है। बुद्ध ने जन्मों-जन्मों तक मौन होना साधा है। जब वह महाघटना घटी, तो वे अवाक होकर मौन हो गए। कृष्ण ने जन्मों-जन्मों तक नाचा है सखियों के साथ, उनकी प्रेयसियों के साथ। वह यात्रा लंबी है। जब वह घटना घटी, तो वह नाच से ही प्रकट हो सकती है।
फिर बुद्ध संसार को छोड़कर संन्यस्त हो गए हैं। कृष्ण संन्यस्त नहीं हैं। कृष्ण संसार में खड़े हैं। इसलिए उनका आचरण और व्यवहार बिलकुल अलग-अलग होगा।
अगर किसी को पागलखाने में रहना पड़े, तो उचित है कि वह पागलों को समझा दे कि मैं भी पागल हूं; नहीं तो पागल उसकी जान ले लेंगे। और उचित है कि वह चाहे नकल ही करे, अभिनय ही करे, लेकिन पागलों जैसा ही व्यवहार करे। पागलखाने में रहना हो, तो समझदार बनकर आप नहीं रह सकते। नहीं तो बुरी तरह पागल हो जाएंगे। पागलखाने में सेनिटी बचाने का, अपनी बुद्धि बचाने का एक ही उपाय है कि आप पागलों से दो कदम आगे हो जाएं, कि पागलों के नेता हो जाएं। फिर आप पागल नहीं हो सकते।
मेरे एक मित्र पागलखाने में बंद थे। सिर्फ संयोग की बात, छह महीने के लिए बंद किए गए थे, लेकिन तीन महीने में ठीक हो गए। और ठीक हो गए एक सांयोगिक घटना से। पागलपन की हालत में फिनाइल का एक डब्बा पागलखाने में मिल गया, वह पूरा पी गए। उस फिनाइल को पूरा पी लेने से उनको इतने दस्त और कै हुए कि उनका पागलपन निकल गया। वे बिलकुल ठीक हो गए। लेकिन छह महीने के लिए रखे गए थे। अधिकारी तो मानने को तैयार नहीं थे। अधिकारी को तो सभी पागल कहते हैं कि हम ठीक हो गए। ऐसा कोई पागल है, जो कहता है हम ठीक नहीं हैं!
तो वे अधिकारियों से कहें कि मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं, अब मुझे कोई गड़बड़ नहीं है। मुझे बाहर जाने दो। अधिकारी हंसें और टाल दें कि ठीक है, वह तो सभी पागल कहते हैं।
वे मित्र मुझे कहते थे कि तीन महीने जब तक मैं पागल था, तब तक तो स्वर्ग में था, क्योंकि मुझे पता ही नहीं था कि क्या हो रहा है चारों तरफ। बाकी तीन महीने असली पागलपन के रहे। मैं हो गया ठीक और सारे पागल.। कोई मेरी टांग खींच रहा है; कोई मेरे सिर पर हाथ फेर रहा है। और मैं बिलकुल ठीक! और अब यह बरदाश्त के बाहर कि यह सब कैसे सहा जाए! न रात सो सकते हैं.। और तीन महीने तक कुछ पता नहीं था। क्योंकि यह खुद भी यही कर रहे थे। और इस भाषा के अंतर्गत थे, इसके बाहर नहीं थे।
बुद्ध पागलखाना छोड़कर बाहर हो गए हैं। इसलिए नहीं कि सभी को पागलखाना छोड़कर बाहर हो जाना चाहिए। बुद्ध को ऐसा घटा। इसको ठीक से समझ लें।
यह बुद्ध की नियति है। यह बुद्ध का स्वभाव है। यह बुद्ध के लिए सहज है, स्पांटेनियस है। ऐसा उनको घटा कि वे छोड़कर जंगल में चले गए। कोई आप छोड़कर चले जाएंगे, तो बुद्ध नहीं हो जाएंगे। अगर आपका स्वभाव यह हो, अगर आपको यही सहज हो, तो आप कुछ भी करें, आप संसार में रह न सकेंगे। आप धीरे-धीरे सरक जाएंगे। यह कोई चेष्टा नहीं है। यह अपने स्वभाव का अनुसरण है।
लेकिन कृष्ण का ऐसा स्वभाव नहीं है। वे पागलखाने में खड़े हैं। और मजे से खड़े हैं। निश्चित ही, पागलखाने में जो खड़ा है, उसे पागलों के साथ व्यवहार करना है। इसलिए कृष्ण बहुत बार दिखाई पड़ेंगे कि धोखा देते हैं, झूठ बोलते हैं, युद्ध करते हैं। वह पागलों की भाषा है। वहां झूठ ही व्यवहार है। वहां धोखा ही नियम है। वहां युद्ध हर चीज की परिणति है।
और इसीलिए कृष्ण बड़े बेबूझ हो जाते हैं। उनको समझना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि हम साधु को हमेशा गैर-संसारी की तरह देखे हैं। तो गैर-संसारी साधु का व्यवहार अलग बात है। कृष्ण बिलकुल संसार में साधु हैं। इसलिए उनके और बुद्ध के व्यवहार को तौलना ही मत।
अगर बुद्ध को भी संसार में रहना हो, तो कृष्ण जैसा ही व्यवहार करना पड़ेगा। और कृष्ण को अगर जंगल में झाड़ के नीचे बैठना हो, तो बुद्ध जैसा व्यवहार करना पड़ेगा। धोखा किसको देना और किसलिए देना है? यहां जो चारों तरफ लोग इकट्ठे हैं, इनके बीच अगर जीना है, तो इनके ठीक इन जैसे होकर जीना पड़ेगा।
पर फर्क यही है कि आप भी दे रहे हैं धोखा, लेकिन आप बेहोशी में दे रहे हैं और कृष्ण पूरे होश में दे रहे हैं। आप धोखा दे रहे हैं कर्तृत्व-भाव से। कृष्ण धोखा दे रहे हैं बिलकुल नाटक के एक अंग की भांति। वे अभिनेता हैं। धोखा उनको छू भी नहीं रहा है। उनके लिए एक खेल से ज्यादा नहीं है।
ऐसा समझें कि आपके बच्चे घर में खेल खेल रहे हैं। और आप भी फुरसत में हैं और आप भी उनमें सम्मिलित हो गए हैं। और उनकी गुड्डी का विवाह रचाया जा रहा है। और गुड्डे की बारात निकलने वाली है और आप भी उसमें सम्मिलित हैं। तो आपको बच्चों जैसा ही व्यवहार करना पड़ेगा, नहीं तो बच्चे आपको खेल में प्रविष्ट न होने देंगे। आप यह नहीं कह सकते--यह नियम के भीतर होगा--आप यह नहीं कह सकते कि यह गुड्डी है; इसका क्या विवाह कर रहे हो? गुड़ियों का कहीं विवाह होता है? यह सब फिजूल है। तो आप खेल का नियम तोड़ रहे हैं; फिर आपको खेल के बाहर होना चाहिए।
आपको गुड्डी को मानना पड़ेगा कि जैसे वह कोई सजीव युवती है। और उसी तरह व्यवहार करना पड़ेगा। लेकिन एक फर्क होगा, बच्चों के लिए वस्तुतः वह गुड्डी नहीं रही है। और आपके लिए वह फिर भी गुड्डी है। और आप व्यवहार कर रहे हैं बच्चों के साथ कि खेल जारी रहे।
जैसे कोई प्रौढ़ व्यक्ति बच्चों के साथ खेलता है, वैसे कृष्ण संसार में हैं। इसलिए स्वभावतः, महावीर को मानने वाले, बुद्ध को मानने वाले कृष्ण के प्रति एतराज उठाएंगे, कि यह किस तरह की भगवत्ता है! हम सोच ही नहीं सकते कि भगवान और धोखा दे, झूठ बोले! उसे तो प्रामाणिक होना चाहिए।
पर आप जिन भगवानों से तौल रहे हैं, वे संसार के बाहर हैं। आप उस आदमी से तौल रहे हैं इस आदमी को, जो खेल में सम्मिलित नहीं है, अलग बैठा है। और यह आदमी बच्चों के साथ खेल रहा है। इन दोनों को आप तौलें मत। इनके नियम अलग हैं।
कृष्ण का प्रयोग बड़ा अनूठा है। बुद्ध और महावीर का प्रयोग बहुत अनूठा नहीं है। यह बिलकुल सरल है। संसार में हैं, तो पागल की तरह; और संसार छोड़ दिया, तो सारा पागलपन छोड़ दिया। कृष्ण का प्रयोग बड़ा अनूठा है। संसार छोड़ भी दिया, और उसके भीतर हैं। पागलपन बिलकुल पोंछ डाला, और फिर भी पागलों के साथ वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं, जैसा कि कोई पागल करे। कृष्ण का प्रयोग अत्यंत अनूठा है।
महावीर, बुद्ध परंपरागत संन्यासी हैं। कृष्ण बहुत क्रांतिकारी संन्यासी हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप इसलिए कृष्ण को चुन लें। आप अपनी नियति को समझें। यह भी नहीं कह रहा हूं कि आप बुद्ध को छोड़ दें या चुन लें। आप अपनी नियति को समझें। आपके लिए क्या ठीक मालूम पड़ता है; आपके लिए क्या सुगम होगा, सहज होगा; कैसी जीवन-धारा में उतरकर आप व्यर्थ की तकलीफ नहीं पाएंगे, सरलता से बह सकेंगे, वही आपकी नियति है।
फिर आप दूसरे की चिंता में मत पड़ें। कोशिश करके न आप कृष्ण बन सकते हैं और न बुद्ध। कोशिश आपको भ्रांत कर देगी। सहजता ही आपके लिए स्वास्थ्यदायी हो सकती है।
कृष्ण ने क्या किया, इसे समझना हो, तो यह सूत्र खयाल में रखें कि कृष्ण, बुद्ध जैसे संन्यासी होकर ठीक संसार में खड़े हैं बिना छोड़े हुए। और आपसे कोई भी संबंध संसार में बनाना हो, तो निश्चित ही आपकी भाषा बोलनी जरूरी है और आपके आचरण के साथ चलना जरूरी है। आपको बदलना भी हो, तो भी थोड़ी दूर तक आपके साथ चलना जरूरी है।
इसी संबंध में यह भी समझ लेना उचित होगा कि सत्व, रजस और तमस के गुणों का इस संबंध में क्या रूप होगा।
अगर कोई व्यक्ति तमस की अवस्था से सीधा छलांग लगाए गुणातीत अवस्था में, तो उसका जीवन-व्यवहार लाओत्से जैसा होगा। क्योंकि उसके पास जो व्यक्तित्व होगा, वह तमस का होगा। चेतना तो छलांग लगा लेगी गुणातीत अवस्था में, लेकिन उसके पास व्यक्तित्व तमस का होगा।
इसलिए लाओत्से कहता है, अकर्मण्यता भली। लाओत्से कहता है, कुछ न करना ही योग्यता है। ना-कुछ में ठहर जाना ही परम सिद्धि है।
लाओत्से के जीवन में कोई उल्लेख भी नहीं है कि उसने कुछ किया हो। कहा जाता है कि अगर उसके बस में हो चलना, तो लाओत्से दौड़ेगा नहीं। अगर उसके बस में हो बैठना, तो लाओत्से चलेगा नहीं। अगर उसके बस में हो लेटना, तो लाओत्से बैठेगा नहीं। अगर उसके बस में हो सोना, तो लाओत्से लेटेगा नहीं। निष्क्रियता की जो भी संभावना आखिरी बस में हो, उसमें ही लाओत्से डूबेगा।
लाओत्से परम ज्ञानी है, पर उसके पास व्यक्तित्व तमस का है। इसलिए आलस्य लाओत्से के लिए साधना बन गई। और निश्चित ही, जो उसने जाना है, वही वह दूसरों को सिखा सकता है।
तो लाओत्से कहता है, जब तक तुम कुछ कर रहे हो, तब तक तुम भटकोगे। ठहरो, करो मत। क्योंकि लाओत्से ने ठहरकर ही पाया है। तो लाओत्से कहता है कि अगर तुम क्या शुभ है, क्या अशुभ है, क्या नीति है, क्या अनीति है, इस व्यर्थता में पड़ोगे, सत्व की खोज में, तो भटक जाओगे। धर्म का नीति से कोई संबंध नहीं। जब जगत में ताओ था, धर्म था, तो कोई नीति न थी; कोई साधु न थे; कोई असाधु न थे। तुम अपनी सहजता में डूब जाओ। और उस डूबने के लिए एक ही कुशलता है, एक ही योग्यता है कि तुम पूरी अकर्मण्यता में, अक्रिया में, पूरे अकर्म में ठहर जाओ।
तमस लाओत्से का व्यक्तित्व है। घटना उसे वही घटी है, जो बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को घटी है।
जिन लोगों का व्यक्तित्व रजस का है, और वहां से वे छलांग लगा लेंगे, जैसे जीसस, तो फिर परम ज्ञान जब उन्हें पैदा होगा, तो उनका परम ज्ञान उसी क्षण कर्म बनना शुरू हो जाएगा। उनका कर्म सेवा हो जाएगी। वे विराट कर्म में लीन हो जाएंगे। वे कहेंगे, कर्म ही योग है।
कृष्ण ने कहा है, कर्म की कुशलता ही योग है। और लाओत्से कहता है, अकर्म, अक्रिया, सब भांति ठहर जाना ही एकमात्र सिद्धि है।
कर्म की कुशलता योग है, अगर रजस आपका व्यक्तित्व हो और ज्ञान की घटना घटे। घट सकती है। किसी भी जगह से आप छलांग लगा सकते हैं।
अगर सत्व का आपका व्यक्तित्व हो, जैसे महावीर, जैसे बुद्ध, सत्व का व्यक्तित्व है, तो इनके जीवन में न तो आलस्य होगा, लाओत्से जैसी शिथिलता भी नहीं होगी, और न ही जीसस जैसा कर्म होगा। इनके जीवन में बड़ी साधुता का शांत व्यवहार होगा।
महावीर चलते भी हैं, तो रास्ते पर देखकर कि चींटी दब न जाए। यह आदमी रजोगुणी हो ही नहीं सकता, जो चलने में इतना ध्यान रखे कि चींटी न दब जाए। महावीर रात करवट नहीं बदलते कि करवट बदलने में अंधेरे में कोई कीड़ा-मकोड़ा न दब जाए। यह आदमी क्या कर्मठ होगा! यह महावीर श्वास भी सोच-समझकर लेते हैं, क्योंकि प्रति श्वास में सैकड़ों जीवाणु मर रहे हैं।
महावीर पानी छानकर पीते हैं। वह भी जब अति प्यास लग आए, तब पीते हैं। भोजन बामुश्किल कभी करते हैं, क्योंकि भोजन में हिंसा है। मांसाहार में ही हिंसा नहीं है; सब भोजन में हिंसा है। शाकाहार में भी हिंसा है। क्योंकि शाक-सब्जी में प्राण है। पौधे में प्राण है। माना कि उतना प्रकट प्राण नहीं है, जितना पशु में है, जितना मनुष्य में है, लेकिन प्राण तो है।
महावीर पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने घोषणा की कि इस जीवन में सब तरफ प्राण है। इसलिए कहीं से भी भोजन करो, मृत्यु घटित होती है। इसलिए महावीर कहते हैं, पका हुआ फल जो वृक्ष से गिर जाए, पका हुआ गेहूं जो पौधे से गिर जाए, बस वही लेने योग्य है।
लेकिन उसमें भी हिंसा तो हो ही रही है। क्योंकि जो बीज आप ले रहे हैं, वह अंडे की तरह है। उस बीज से अंकुर पैदा हो सकता था। उससे एक वृक्ष पैदा हो सकता था। उस वृक्ष में हजारों बीज लगते।
तो अगर अंडा खाना पाप है, तो गेहूं का बीज खाना भी पाप है। क्योंकि अंडा बीज है। उसमें पाप क्या है? इसलिए कि मुर्गी पैदा होती है। फिर मुर्गी से और मुर्गियां पैदा होती हैं। एक बड़ी संतति को आपने रोक दिया। एक जीवन की धारा आपने काट दी। एक गेहूं को खाकर भी काट दी। उस गेहूं से नए पौधे पैदा होते। उन पौधों में नए बीज लगते। न मालूम कितने जीवन की धारा अनंत वर्षों तक चलती, वह आपने गेहूं को खाकर रोक दी।
तो महावीर मुश्किल से भोजन करते हैं। अगर भूखे चल सकें, तो भूखे चलते हैं। प्यासे चल सकें, तो प्यासे चलते हैं। कथा यह है कि बारह वर्षों की साधना में उन्होंने केवल तीन सौ साठ दिन ज्यादा से ज्यादा भोजन लिया। बारह वर्ष में एक वर्ष! कभी दो महीने नहीं खाया, कभी महीनेभर नहीं खाया; कभी तीन महीने नहीं खाया। खाते ही तब हैं, जब उपवास आत्महत्या के करीब पहुंचने लगे। जब ऐसा लगे कि अब शरीर ही छूट जाएगा, तभी। जब अपनी ही मृत्यु घटित होने लगे, और वह भी इसलिए कि अभी ज्ञान की घटना नहीं घटी, इसलिए शरीर को सम्हालना जरूरी है। अभी वह परम मुक्ति उपलब्ध नहीं हुई, इसलिए शरीर को ढोना जरूरी है।
इन महावीर से आप कोई जीसस जैसी क्रिया नहीं अनुभव कर सकते। जीसस जाते हैं मंदिर में; देखते हैं कि ब्याजखोरों की कतार लगी है; उठा लेते हैं कोड़ा। सोच भी नहीं सकते, महावीर कोड़ा उठा लें। उलट देते हैं तख्ते ब्याजखोरों के। अकेला एक आदमी इतना जोर से वहां उपद्रव मचाता है कि सैकड़ों ब्याजखोर भाग खड़े होते हैं। यह तो बाद में ही समझ में आता है कि एक आदमी ने इतना उपद्रव कैसे मचा दिया!
पर यह जीसस में एक गहरी क्रांति है। इसलिए जीसस का सूली पर लटकना ठीक गणित का हिसाब है। इतना बड़ा क्रांतिकारी आदमी सूली पर जाएगा ही। इसका दूसरा अंत नहीं हो सकता।
महावीर को हम सूली पर लटकते हुए नहीं सोच सकते। कोई कारण नहीं है। जो किसी को दुख नहीं पहुंचा रहा है; जो किसी के काम में आड़े नहीं आ रहा है; जो किसी को छूता भी नहीं.।
महावीर की धारा में उनकी अहिंसा को अगर ठीक से समझें, तो उसका मतलब यह होता है कि किसी के कर्म में भी बाधा डालने में हिंसा हो जाती है। कोई आदमी जा रहा है, उसको रोक लेना काम में जाते से, तो भी हिंसा हो जाती है। क्योंकि आप बीच में बाधा डाल रहे हैं।
कोई बाधा नहीं डालनी है। अपने को ऐसे बना लेना है, जैसे मैं हूं ही नहीं। तो ऐसा व्यक्ति क्रांति नहीं ला सकता। या ऐसे व्यक्ति की क्रांति बड़ी अदृश्य होगी। उसके कोई दृश्य रूप नहीं होंगे।
सत्व अगर हो, तो महावीर जैसा व्यक्ति पैदा होगा, व्यक्तित्व में अगर सत्व हो! अगर रज हो, तो जीसस जैसा व्यक्ति पैदा होगा। तम हो, तो लाओत्से जैसा व्यक्ति पैदा होगा।
इसको और भी तरह से समझ लें।
इसलिए लाओत्से के पीछे कोई बहुत बड़ा विराट धर्म नहीं बन सका। अकर्मण्यता के आधार पर आप बनाएंगे भी कैसे? कौन करेगा प्रचार? कौन जाएगा समझाने? लाओत्से का मानने वाला शांत बैठ जाता है। आप उसे हिलाएं-डुलाएं, बहुत पूछें, तो बामुश्किल जवाब देगा।
लाओत्से जिंदगीभर नहीं बोला। आखिर में सिर्फ यह ताओ-तेह-किंग, एक छोटी-सी किताब उसने लिखवाई। यह भी मजबूरी में कि पीछे ही पड़ गए लोग कि उसको जाने ही नहीं देते थे मुल्क के बाहर।
वह जाना चाहता था हिमालय की यात्रा पर, अपने को खो देने के लिए हिमालय में। उसको रोक लिया चुंगी चौकी पर और कहा कि जब तक तुम्हारा ज्ञान तुम लिख न दोगे, जाने न देंगे। तो तीन दिन वह चुंगी चौकी पर बैठकर उसने लिखवाया, जो उसको ज्ञान था।
यह भी जबरदस्ती लिखवाया गया। यह कोई लाओत्से ने अपने मन से लिखा नहीं। अगर चुंगी चौकी का अधिकारी चूक जाता और लाओत्से निकल गया होता, तो ताओ-तेह-किंग न होती और लाओत्से के नाम का भी आपको पता नहीं होता। यह सारा गुण चुंगी चौकी के उस अधिकारी को जाता है, जिसका किसी को नाम पता नहीं कि वह कौन आदमी था। इसलिए लाओत्से के पीछे कोई बड़ा विराट आयोजन नहीं हो सका।
महावीर सत्व के प्रेमी हैं और उनका व्यक्तित्व सत्व से भरा है। इसलिए महावीर का धर्म बहुत नहीं फैल सका। क्योंकि उसमें कर्मठता नहीं है। आज भी हिंदुस्तान में केवल बीस-पच्चीस लाख जैन हैं। अगर महावीर ने पच्चीस जोड़ों को जैनी बना लिया होता, तो दो हजार साल में उनसे पच्चीस लाख आदमी पैदा हो जाते। पच्चीस लाख कोई संख्या नहीं है; फैल नहीं सका।
लेकिन ईसाइयत फैली, क्योंकि रजस-प्रधान है। ईसाइयत फैली, सारी जमीन को ढंक लिया उसने। इस्लाम फैला, सारी जमीन को ढंक लिया उसने। दोनों रज-प्रधान हैं।
मोहम्मद तो बहुत ही ज्यादा रज-प्रधान हैं। उनका तो सारा व्यक्तित्व रजस से भरा है। हाथ में तलवार है। और किसी भी भांति फैलाना है वह, जो उन्होंने जाना है।
आज जमीन वस्तुतः दो बड़े धर्मों में बंटी है, ईसाइयत और इस्लाम। बाकी धर्म नगण्य हैं।
यह जो बुद्ध के धर्म का प्रचार हो सका, वह भी एक अनूठी घटना है। क्योंकि बुद्ध के धर्म का प्रचार भी होना नहीं चाहिए। जैसा महावीर सिकुड़ गए, ऐसा ही बुद्ध की बात भी सिकुड़ जानी चाहिए। वे भी सत्व-प्रधान व्यक्तित्व हैं। लेकिन एक सांयोगिक घटना इतिहास की और जिसने बुद्ध के धर्म को मौका दे दिया फैलने का।
अगर बुद्ध का धर्म भारत में ही रहता, तो कभी नहीं फैलता। जितने जैन हैं, उससे भी कम बौद्ध भारत में बचे हैं। अभी नए बौद्धों को भी गिन लिया जाए, तो तीस लाख होते हैं।
नए बौद्ध कोई बौद्ध नहीं हैं। एक राजनैतिक चालबाजी है। अंबेदकर का बौद्ध धर्म से क्या लेना-देना! अंबेदकर पच्चीस दफा सोच चुका पहले कि मैं ईसाई हो जाऊं और सब हरिजनों को ईसाई बना लूं। यह सिर्फ एक राजनैतिक स्टंट था। फिर उसे लगा कि बौद्ध हो जाना ज्यादा बेहतर है। तो अंबेदकर बौद्ध हो गए। और अंबेदकर ने सैकड़ों हरिजनों को, विशेषकर महाराष्ट्र में, बौद्ध बना लिया। इनका बौद्ध धर्म से कोई लेना-देना नहीं। भारत में बौद्ध हैं ही नहीं, खोजना मुश्किल है।
भारत में अगर बुद्ध धर्म रुका होता, जैसा कि जैन धर्म रुका, तो जैन धर्म से भी बुरी हालत थी। लेकिन हिंदुओं की कृपा से! हिंदुओं ने बौद्धों का इस बुरी तरह विनाश किया कि बौद्ध भिक्षुओं को हिंदुस्तान छोड़कर भाग जाना पड़ा। ये जो भागते हुए भगोड़े बौद्ध भिक्षु थे, ये बौद्ध धर्म को हिंदुस्तान के बाहर ले गए। और हिंदुस्तान के बाहर इन बौद्ध भिक्षुओं को वे लोग मिल गए, जो रज-प्रधान हैं।
हिंदुस्तान के बाहर इनको प्रचारक मिल गए, क्योंकि वैक्यूम था। और खाली जगह प्रकृति को पसंद नहीं है। चीन में जब पहुंचे बौद्ध, तो कनफ्यूसियस का प्रभाव था। लेकिन कनफ्यूसियस सिर्फ नैतिक है, उसका कोई धर्म नहीं है। और लाओत्से का प्रभाव था। लाओत्से बिलकुल आलसी है, उसके प्रचार का कोई उपाय नहीं। खाली जगह थी। बौद्ध विचार की छाया एकदम जोर से अनुभव होने लगी। सम्राट चीन के बौद्ध हो गए। सम्राट होते हैं रज-प्रधान।
हिंदुस्तान में भी बौद्ध धर्म को बाहर भेजने में अशोक ने काम किया। वह बुद्ध के ऊपर उसका श्रेय नहीं है, अशोक के ऊपर है। सम्राट होते हैं रज-प्रधान। यह अशोक लड़ रहा था; युद्धों में लगा था। और फिर यह बौद्ध हो गया। एक रूपांतरण! हिंसा से दुखी होकर, पीड़ित होकर; अपने ही हाथ से लाखों लोगों को मरा हुआ देखकर एकदम उलटा हो गया; शीर्षासन कर लिया। हिंसा का बिलकुल इसने त्याग कर दिया। इसने बौद्ध धर्म को भेजा। इसने जिनके हाथ से भेजा, वे एक तरह के राजनैतिक संदेशवाहक थे। अशोक ने अपने बेटे को भेजा, अपनी बेटी संघमित्रा को भेजा लंका, प्रचार करने।
अशोक ने राजनैतिक ढंग से बौद्ध धर्म को बाहर भेजा। वह रज-प्रधान व्यक्ति था। और सम्राट रूपांतरित हुए, तो बौद्ध धर्म फैला।
ध्यान रहे, जब भी कोई धर्म फैलेगा, तो उसके पीछे रजस ऊर्जा चाहिए। धर्म को जन्म देने वाला व्यक्ति किस तरह के व्यक्तित्व का है, इस पर निर्भर करेगा।
कृष्ण को समझ लेना इस संदर्भ में जरूरी है।
कृष्ण स्वयं, इन तीनों में से किसी की भी प्रधानता उनमें नहीं है। कृष्ण में ये तीनों गुण, कहें, समान हैं; बराबर मात्रा के हैं। और इसलिए कृष्ण में तीनों बातें पाई जाती हैं। वह जो तामसिक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं। वह जो राजसिक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं। वह जो सात्विक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं।
आपने कृष्ण का एक नाम सुना है, रणछोड़दास। हिंदू बहुत अदभुत हैं। वे इसको बड़े आदर से लेते हैं। रणछोड़दासजी के मंदिर हैं जगह-जगह। रणछोड़दास का मतलब है, भगोड़ा, युद्ध को छोड़कर भागा हुआ। पर उसको भी हम कहते हैं, रणछोड़दासजी! युद्ध को जिसने पीठ दिखा दी, वह रणछोड़।
कृष्ण का पूरा व्यक्तित्व त्रिवेणी है। उसमें नाच-रंग है, जो अक्सर तामसी व्यक्ति में होता है। मौज है, उल्लास है। उसमें बड़ा वीर्य भी है। संघर्ष की क्षमता है, युद्ध की कुशलता है, जो कि राजसी व्यक्ति में होती है। उसमें बड़ी सात्विकता है, बड़ी शुद्धता है, बच्चे जैसी शुद्धता, निर्दोषता है। लेकिन यह सब इकट्ठा है। इसलिए कृष्ण बेबूझ हो जाते हैं और पहेली हो जाते हैं।
बुद्ध पहेली नहीं हैं। अगर आपके पास थोड़ी भी अक्ल है, तो बुद्ध का पाठ खुला हुआ है। पहेली कुछ भी नहीं है। महावीर में कोई पहेली नहीं, कोई रहस्य नहीं है। बात सीधी-साफ है। दो और दो चार, ऐसा गणित है।
लेकिन कृष्ण का मामला बहुत उलझा हुआ है। क्योंकि तीनों गुण हैं और तीनों समतुल हैं। और इसलिए कृष्ण हमें धोखेबाज भी लगते हैं; झूठ भी बोलते लगते हैं; वचन देते हैं, तोड़ते लगते हैं।
ऐसा समझें कि जैसे कृष्ण एक व्यक्ति नहीं हैं, तीन व्यक्ति हैं। तो जैसे तीन व्यक्तियों का जीवन तीन तरह से चलता रहेगा, ऐसा कृष्ण के भीतर तीन धाराएं इकट्ठी चल रही हैं। कृष्ण एक त्रिवेणी हैं। और इसलिए जो भी कृष्ण को गणित में बिठालना चाहेगा, वह कृष्ण के साथ अन्याय करेगा।
इसलिए कुछ हैं, जो गीता के कृष्ण को पूजते हैं; भागवत का कृष्ण उन्हें प्रिय नहीं। वे उसको छोड़ देते हैं। वे कहते हैं, यह कवियों की कल्पना है। ये असली कृष्ण नहीं हैं।
कुछ हैं, जो गीता के कृष्ण की फिक्र ही नहीं करते। उनको भागवत का कृष्ण प्यारा है। स्त्रियां स्नान कर रही हों, तो उनके कपड़े चुराकर झाड़ पर बैठ सकते हैं।
कृष्ण एक पहेली हैं, क्योंकि ये तीनों गुण उनमें समान हैं। और तीनों गुणों के रंग उनके व्यक्तित्व में हैं। ये तीनों स्वर उनके साथ एक साथ बज रहे हैं।
यह व्यक्तित्व की बात है। अनुभव तो तीनों के पार का होगा। बुद्ध को भी जो मिला है, वह भी तीनों गुणों के पार उन्होंने जाना है। महावीर ने भी, मोहम्मद ने भी, जीसस ने भी, लाओत्से ने भी, कृष्ण ने भी। अनुभूति तो तीनों गुणों के पार है, गुणातीत है। लेकिन जो व्यक्तित्व हमारे पास है, उससे अनुभूति प्रकट होगी।
महावीर, बुद्ध, लाओत्से के पास एक ढंग के व्यक्तित्व हैं, इकहरे व्यक्तित्व हैं। कृष्ण के पास तेहरा व्यक्तित्व है। इसलिए कृष्ण का संगीत थोड़ा उलझा हुआ है। और उसे सुलझाने के लिए बड़ी कुशल आंख, बड़ी गहरी आंख चाहिए। नहीं तो फिर कृष्ण के साथ अन्याय हो जाना सुनिश्चित है।
एक प्रश्न और: आपने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मुक्ति स्वयं खोजनी होगी और यही मुक्ति या स्वतंत्रता की गरिमा भी है। अन्यथा स्वतंत्रता झूठी व व्यर्थ हो जाएगी। इस दृष्टि से कृष्ण का या आपका यह कहना कि समर्पण करो और मैं बदल दूंगा, मुक्त कर दूंगा, कहां तक उचित है?
कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज--सब धर्म छोड़, तू मेरी शरण में आ। मैं तुझे मुक्त कर दूंगा। इससे स्वभावतः मन में प्रश्न उठेगा। एक ओर मैंने कहा कि निर्णय अंतिम आपका है। आपकी पूरी स्वतंत्रता है। और यही आपके जीवन की गरिमा है कि कोई आपको जबरदस्ती मोक्ष में प्रवेश नहीं करवा सकता; कृष्ण भी नहीं करवा सकते।
इसीलिए तो कहना पड़ रहा है, सर्व धर्मान् परित्यज्य। कृष्ण भी जबरदस्ती अर्जुन को मुक्ति नहीं दे सकते। कृष्ण भी कह रहे हैं कि तू पहले सब समर्पण कर। वह समर्पण का निर्णय अर्जुन को लेना पड़ेगा। और वह समर्पण का निर्णय अर्जुन ले, तो कृष्ण कुछ कर सकते हैं।
समर्पण का निर्णय बहुत बड़ा निर्णय है, सबसे बड़ा निर्णय है। इस जगत में सब निर्णय छोटे हैं। किसी के हाथ में मैं अपने को पूरा सौंप दूं, यह बड़े से बड़ा निर्णय है। इससे बड़ा और कोई निर्णय नहीं है।
ध्यान रहे, समर्पण सबसे बड़ा संकल्प है। उलटा लगता है। क्योंकि हम सोचते हैं, संकल्प का तो अर्थ ही होता है, अपने पर निर्भर रहना। और समर्पण का अर्थ है, दूसरे पर सब छोड़ देना। लेकिन छोड़ने की घटना अगर आप कर सकते हैं, तो उसका मतलब हुआ कि आप एकजुट हो गए हैं, आप इकट्ठे हैं। आप अपने को छोड़ सकते हैं।
छोड़ वही सकता है, जो अपना मालिक हो। जो संकल्पवान हो, वही समर्पण कर सकता है। हर कोई समर्पण नहीं कर सकता। कमजोर, नपुंसक के लिए समर्पण का मार्ग नहीं है। कायर के लिए समर्पण का मार्ग नहीं है; जो कहे कि हां, हम बिलकुल तैयार हैं। कहने से तैयारी नहीं होती। यह अर्जुन ही कर सकता है।
इसलिए कृष्ण ने अगर अर्जुन से कहा कि तू सब छोड़ दे, तो सोचकर कहा है। यह क्षत्रिय है; संकल्प ले सकता है; समर्पण का भी ले सकता है।
जापान में क्षत्रियों की एक जमात है, समुराई। समुराई जापान के क्षत्रिय हैं, शुद्धतम, जो सिर्फ लड़ना ही जानते हैं। मगर लड़ने के पहले उन्हें एक कला सिखाई जाती है, जो दुनिया में कहीं भी नहीं सिखाई जाती। और उस कला के कारण समुराई का कोई मुकाबला नहीं है।
इसके पहले कि उन्हें सिखाया जाए कि दूसरे को कैसे मारो, समुराई को सिखाया जाता है कि तुम अपनी आत्महत्या कैसे कर सकते हो। और जब तक तुम कुशल नहीं हो अपने को मारने में, तब तक तुम दूसरे को मारने के हकदार नहीं हो। पहले तुम ठीक से तैयार हो जाओ अपने को मिटाने के लिए।
तो समुराई पहले सीखता है, आत्महत्या, हाराकिरी। बड़ा गहरा उसका गणित है। ठीक नाभि के दो इंच नीचे हारा नाम का केंद्र है, जो कि योगियों की खोज है। उस हारा नाम के केंद्र पर जरा-सी भी चोट छुरे की हो जाए, कि शरीर से आत्मा अलग हो जाती है बिना किसी पीड़ा के।
इसलिए समुराई का लक्षण यह है कि जब वह छुरा मारकर अपनी हत्या करता है, तो उसके चेहरे पर पीड़ा का एक भाव भी नहीं होना चाहिए--मरने के बाद भी, उसकी लाश पर भी। अगर पीड़ा का जरा भी भाव है, तो वह चूक गया। वह समुराई नहीं था। उसे मरने की कला नहीं मालूम थी। उसने छुरा कहीं और मार लिया।
ठीक नाभि के नीचे जीवन का स्रोत है, उस स्रोत की बिलकुल बारीक धारा है। उस बारीक धारा को तोड़ देते से ही जीवन शरीर और आत्मा का अलग-अलग हो जाता है, जरा-सी पीड़ा के बिना। समुराई के चेहरे पर कोई भाव भी नहीं आता दुख का, विषाद का। वह वैसा ही प्रफुल्लित और ताजा होता है, जैसा जीवित था। आपको लगे कि सिर्फ सो गया है।
पहले समुराई को सिखाते हैं, खुद को मिटाने की कला। और तब उसे कहते हैं कि अब तू युद्ध में जा; अब तुझे कोई भय न पकड़ सकेगा; क्योंकि तूने मृत्यु भी सीख ली। और मृत्यु के माध्यम से तूने आत्मा को जानने का द्वार भी सीख लिया; शरीर से अलग आत्मा को करने का मार्ग भी सीख लिया।
यह अर्जुन समुराई जैसा क्षत्रिय है। यह अपने जीने के लिए सबको मार भी सकता है। और जरूरत हो, इसे जीवन व्यर्थ मालूम पड़े, तो एक क्षण में अपने को समाप्त भी कर सकता है।
इस अर्जुन से कृष्ण कह रहे हैं कि तू सब छोड़ दे। यह छोड़ सकता है। यह क्षत्रिय है। सब! इसमें कुछ हिसाब नहीं रखना है कि कितना! कुछ पीछे अपने को बचा नहीं लेना है। क्योंकि समर्पण आधा नहीं हो सकता; पूरा ही होगा।
पूरा समर्पण महान संकल्प है। यह खयाल में भी लेना कि मैं किसी के हाथ में अपना पूरा भविष्य सौंपता हूं, अपना पूरा जीवन सौंपता हूं, और जो भी हो परिणाम, मुझे स्वीकार है, अब इसको वापस नहीं ले सकूंगा। समर्पण वापस नहीं लिया जा सकता। यह आखिरी निर्णय है जो आदमी ले सकता है।
ध्यान रहे, कृष्ण थोड़े ही रूपांतरण करेंगे। इस समर्पण के करने की प्रक्रिया में रूपांतरण हो जाएगा। इतने सहज भाव से जो मिटने को राजी है, वह रूपांतरित हो गया।
इसलिए दूसरी जो बात है कृष्ण की कि मैं तुझे बदल दूंगा, तू सब समर्पण कर। दूसरी बात तो सहज परिणाम है। कृष्ण को कुछ करना नहीं पड़ेगा। कृष्ण कुछ कर भी नहीं सकते। करने का कोई उपाय भी नहीं है। बस, यह अर्जुन को समझ में अगर आ जाए कि यह सब छोड़ने को राजी हो जाए।
तो यह बड़े मजे की बात है। जब भी कोई सब छोड़ने को राजी हो जाता है, तो उसके जीवन की सब पीड़ा, सब दुख, सब तनाव विदा हो जाते हैं। क्योंकि सब छोड़ने का मतलब है, अहंकार छोड़ना। और मैं ही, मेरा अहंकार ही सारे उपद्रव की जड़ है। वह जड़ कट जाती है। कटते ही आदमी आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाता है।
गुरुओं ने कहा है कि सब छोड़ दो, हम तुम्हें बदल देंगे। बदलने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। और अगर आप जाकर पूछें कि मैंने सब छोड़ दिया; मैं अभी तक नहीं बदला! तो उसका सिर्फ मतलब इतना है कि आपने कुछ छोड़ा नहीं। और कुछ भी मतलब नहीं है। नहीं तो दूसरी घटना तो अनिवार्य है। उस दूसरी घटना को करने के लिए गुरु को कुछ करना नहीं पड़ता है। वह समर्पण का सहज फल है।
पर निर्णय अंततः आपका है। स्वतंत्रता आपकी है। उसे कोई भी नहीं छीन सकता। और जब आप छोड़ते हैं, तो यह आपकी स्वतंत्रता का कृत्य है। जब आप कहते हैं, मैं छोड़ता हूं सब चरणों में, तो यह आपकी स्वतंत्रता का आखिरी कृत्य है। इस कृत्य के परिणाम में मुक्ति फलित होती है।
कृष्ण तो सिर्फ कैटेलिटिक एजेंट हैं, वे तो सिर्फ एक बहाना हैं। तो इसलिए कोई असली कृष्ण को भी खोजने की जरूरत नहीं है। मंदिर में खड़े कृष्ण के सामने भी आप सब छोड़ दें, तो यही घटना घट जाएगी। हालांकि वहां कोई भी नहीं खड़ा है।
यह घटना कहीं भी घट सकती है। यह घटना आपके छोड़ने पर निर्भर है। किस पर आप छोड़ते हैं, यह बात गौण है। इसलिए जीसस पर कोई छोड़े, कृष्ण पर कोई छोड़े, बुद्ध पर कोई छोड़े, कोई फर्क नहीं पड़ता। किस पर छोड़ा, यह गौण है। छोड़ा, तत्क्षण आप दूसरे हो जाते हैं। नए का जन्म हो जाता है।
समर्पण पुनर्जन्म है, शरीर में नहीं, परमात्मा में। वह जीवन की धारा का पूरी तरह से ब्रह्म की तरफ उन्मुख हो जाना है।
अब हम सूत्र को लें।
हे अर्जुन, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद और निद्रादि अंतःकरण की मोहनी वृत्तियां, ये सब उत्पन्न हो जाती हैं।
एक-एक गुण का लक्षण कृष्ण गिना रहे हैं। ठीक से समझें।
तमोगुण के बढ़ने पर जीवन में अप्रकाश, अंधेरा मालूम होने लगता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम पढ़ते हैं शास्त्रों में कि भीतर देखो, वहां परम ज्योति जल रही है। हम भीतर देखते हैं, वहां सिर्फ अंधकार है!
परम ज्योति निश्चित ही वहां जल रही है। जिन्होंने कहा है, उन्होंने देखकर ही कहा है। पर आप जब तक तमस से घिरे हैं, तब तक आप जहां भी देखें, वहीं अंधकार पाएंगे। भीतर देखें, तो अंधकार पाएंगे; बाहर देखें, तो अंधकार पाएंगे। जीवन में तलाश करें, तो आपको लगेगा, सब अंधेरा है। क्या फायदा है इस जीवन का? क्या हो रहा है? कहां मैं पहुंच रहा हूं? यह सब अंधे की तरह चला जा रहा हूं।
हर आदमी, जिसमें थोड़ा भी विचार है, विचारेगा तो फौरन पाएगा, चारों तरफ गहन अंधकार है। और इस अंधकार से कोई छुटकारा नहीं दिखता। और दीये वगैरह की बातचीत ही बातचीत मालूम होती है। कहीं कोई दीया नहीं दिखाई पड़ता; कहीं कोई प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता।
वह अंधकार तमोगुण के कारण है। और जब तमोगुण बढ़ेगा, तो अंधकार बढ़ेगा। इसलिए आपकी जिंदगी में भी अंधकार की तारतम्यता होती है। जब कभी आप किसी सात्विक वृत्ति में डूब जाते हैं, तो आपकी जिंदगी में भी एक आलोक आ जाता है। कभी छोटे-से कृत्य में भी यह घटना घटती है।
आप राह से गुजर रहे हैं, किसी का एक्सिडेंट हो गया, कोई राह के नीचे गिर पड़ा। आप अपना काम छोड़कर उस आदमी को उठा लिए। आपके भीतर का तमस तो कहेगा कि किस झंझट में पड़ रहे हो! पुलिस थाने जाना पड़े; अस्पताल जाना पड़े। और पता नहीं कोई उपद्रव इसमें आ जाए! आपके भीतर का तमस तो कहेगा कि रास्ते पर अपने चलो। समझो कि तुमने देखा ही नहीं। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है।
लेकिन अगर उस तमस का आपने साथ न दिया, सहयोग न दिया और मन में उठी सत्व की वृत्ति का सहयोग किया; उस व्यक्ति को उठा लिया, चाहे थोड़ी झंझट हो। झंझट संभव है। झंझट नहीं होगी, ऐसा भी नहीं। थोड़ी परेशानी हो; अपना काम छोड़कर किसी दूसरे काम में उलझना पड़े। लेकिन अगर आपने उठा लिया, तो उस क्षण में आप अपने भीतर अगर ध्यान करेंगे, तो आप पाएंगे कि वहां धीमा प्रकाश है।
जीसस ने कहा है अपने अनुयायियों से, कि इसके पहले कि तुम प्रभु-मंदिर में प्रार्थना करने आओ, सोच लो, तुमने किसी का बुरा तो नहीं किया है! अगर किसी का बुरा किया है, तो जाओ, उसे ठीक कर आओ। अगर तुमने किसी को गाली दी है, तो क्षमा मांग आओ। तभी तुम प्रार्थना में उतर सकोगे। क्योंकि अगर तमस मन में लिए हुए कोई मंदिर में गया, तो भीतर अंधकार होगा; प्रकाश का पता नहीं चलेगा।
सच तो यह है कि मंदिर जाने के पहले आपको अपने सत्व को जगा लेना चाहिए, तो ही मंदिर में जाने की कोई सार्थकता है। कुछ करें, जिससे सत्व जगता हो। सत्व जग जाए, तो प्रार्थना आसान हो जाएगी। सत्व जग जाए, तो आंख बंद करने से भीतर हलका प्रकाश मालूम होगा।
यह हलका प्रकाश कोई प्रतीक नहीं है। यह वास्तविक घटना है। आप चौबीस घंटे इसका अनुभव करें। जब मन क्रोध से भरा हो, तब आंख बंद करके देखें। तब आप पाएंगे, भीतर बहुत घना अंधकार है। जब मन दया और करुणा से भरा हो, तब आंख बंद करके देखें। तब आप पाएंगे, भीतर थोड़ी रोशनी है। और जब मन ध्यान से भरा हो, तब भीतर देखें। तो पाएंगे, विराट प्रकाश है।
कबीर ने कहा है, हजार-हजार सूरज जैसे एक साथ जल गए। कबीर ने कहा है कि अब तक जिसे हमने प्रकाश समझा था, अब वह अंधेरा मालूम होता है, भीतर का प्रकाश जब से देखा।
यह प्रकाश हमें नहीं मिलता। क्योंकि इस प्रकाश को देखने के लिए सत्व की आंख चाहिए।
कृष्ण कह रहे हैं, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश.।
अंतःकरण में अंधेरा और इंद्रियों में भी अंधेरे का एक बोध होगा। जब तम बढ़ेगा, तो आप अपने शरीर में भी पाएंगे कि एक बोझिलता है। आप पाएंगे कि जैसे शरीर वजनी है। जब आप सत्व वृत्ति से भरे होंगे, तो पाएंगे, शरीर हल्का है, आलोकित है। आप उछलते हुए चल रहे हैं। जैसे जमीन की कशिश कम काम करती है। जैसे आप पर उसका कोई प्रभाव नहीं है।
और योगियों को निरंतर अनुभव हुए हैं; और जो भी लोग ध्यान में बैठते हैं, उनको भी अनुभव होते हैं। ध्यान करते-करते अचानक ऐसा लगता है कि जमीन से उठ गए। जरूरी नहीं कि आप उठ गए हों।आंख खोलकर पाते हैं कि जमीन पर बैठे हुए हैं। लेकिन आंख बंद करके लगता है, जमीन से उठ गए।
वह अनुभव वास्तविक है। वास्तविक इस अर्थ में नहीं है कि आप जमीन से उठ गए। वास्तविक इस अर्थ में है कि भीतर आप इतने हलके हो जाते हैं कि ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जमीन से हट गए होंगे। और कभी-कभी यह घटना इतनी गहरी घटती है कि वस्तुतः शरीर जमीन से ऊपर उठ जाता है।
योरोप में एक महिला का बहुत अध्ययन चल रहा है, जो चार फीट जमीन से ऊपर अपनी ध्यान की अवस्था में उठ जाती है। जब भी वह ध्यान करती है, बस धीरे-धीरे, धीरे-धीरे शरीर उसका चार फीट ऊपर चला जाता है। उस पर बड़ा मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक अध्ययन चल रहा है। क्योंकि यह प्रकृति का गहरे से गहरा नियम है, जिसकी विपरीतता हो गई।
जमीन खींच रही है हर चीज को। और बिना किसी साधन के किसी का ऊपर उठ जाना.। लेकिन योग की पुरानी सिद्धियों में उसका उल्लेख है। निरंतर योगियों को अनुभव हुआ है। और ऐसा तो किसी को भी अनुभव होता है, जो भी थोड़ा हल्का होता है, भीतर प्रकाश भरता है, उसको लगता है कि जमीन छूट गई, जैसे वह उड़ जाएगा। उड़ने का भाव पैदा हो जाता है। वह हलकेपन के कारण है।
इंद्रियां और अंतःकरण दोनों अप्रकाश से भरते हैं तमोगुण के कारण। और कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति हो जाती है।
कर्तव्य-कर्म का अर्थ है, जिसको करना जरूरी था, अनेक कारणों से। मां बीमार है, उसके लिए दवा ले आना जरूरी था। जिसने जीवन दिया है, उसके जीवन की थोड़ी चिंता और फिक्र एकदम स्वाभाविक है। लेकिन तमस से भरा हुआ व्यक्ति उसमें भी आलस्य करेगा। वह सोचेगा; हजार तरकीबें मन में सोचेगा। न करने के उपाय सोचेगा।
वह यह भी सोच सकता है कि यह बीमारी कोई खतरनाक थोड़े ही है। वह यह भी सोच सकता है कि डाक्टर कहां ठीक कर पाते हैं! सब प्रभु की कृपा से ठीक होता है। वह यह भी सोचेगा कि भाग्य में ठीक होना होगा, तो हो ही जाएगी। नहीं होना होगा, तो कुछ किया नहीं जा सकता। वह सब बातें सोचेगा।
अक्सर तामसी वृत्ति के लोग भाग्य की बातें सोचते हैं, भगवान की बातें सोचते हैं; सिर्फ अपने को बचाने के लिए। यह भगवान और भाग्य कोई उनके जीवन की क्रांति नहीं है। यह सिर्फ पलायन और बचाव है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे मुझसे एक सवाल करीब-करीब लाखों लोग पूछते हैं। और वह सवाल है कि पुरुषार्थ बड़ा या भाग्य? और मैंने यह अनुभव किया है कि अगर उनको समझाओ कि पुरुषार्थ बड़ा, तो वे प्रसन्न नहीं होते। अगर उनको समझाओ कि भाग्य बड़ा, तो बड़े प्रसन्न लौटते हैं।
मैंने दोनों बातें करके देख ली हैं। और कई बार एक ही आदमी पर भी दोनों बातें करके देखी ली हैं। दो-तीन महीने बाद वह फिर आ जाता है! उसको मैंने समझाया था, पुरुषार्थ बड़ा। वह उसको जंचा तो नहीं, मगर मुझसे वह ज्यादा वाद-विवाद भी नहीं कर सका, तो चला गया। मगर खिन्न गया। फिर दो-चार महीने बाद भूल गया वह कि मुझसे पूछ चुका है। वह फिर आकर पूछ लेता है, पुरुषार्थ बड़ा कि भाग्य? अब मैं उसको कहता हूं, भाग्य ही बड़ा है; पुरुषार्थ में क्या रखा है! वह कहता है, बिलकुल ठीक।
इसलिए नहीं कि उसको बात समझ में आ गई। क्योंकि भाग्य तो उसको ही समझ में आ सकता है, जो अहंकार से मुक्त हो जाए; उसके पहले समझ में नहीं आ सकता। क्योंकि भाग्य का मतलब है, अब मैं नहीं हूं, यह विराट है। मेरे किए कुछ न होगा, क्योंकि मैं हूं ही नहीं। अगर हूं, तो मेरे किए कुछ हो सकता है। मैं हूं ही नहीं। विराट का कर्म है, उसमें मेरी कोई सत्ता नहीं है। भाग्य का मतलब है, मैं नहीं हूं, ब्रह्म है।
यह तो बड़े ज्ञान की बात है; समाधि में फलित होती है। लेकिन यह जो आदमी भाग्य से प्रसन्न होता है, वह तामसी है। वह असल में यह कह रहा है कि जो हो रहा है, अपने किए तो कुछ हो नहीं सकता, इसलिए क्यों करो! बैठा है। और ऐसा नहीं है कि सभी कर्म छोड़ देगा। सिर्फ कर्तव्य-कर्म छोड़ देगा। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
कृष्ण कहते हैं, कर्तव्य-कर्म छोड़ देगा।
घर में आग लग जाए, तो नहीं बैठा रहेगा कि जब भाग्य में है.। मां बीमार हो, तो कहेगा, सब भाग्य से होता है। पिता भूखा मर रहा हो, तो सोचेगा, क्या किया जा सकता है! अपने-अपने कर्मों का फल है, सबको भोगना पड़ता है। लेकिन घर में आग लग जाए, तो यह सबसे पहले भागकर खड़ा बाहर हो जाएगा। तब यह नहीं सोचेगा कि बचना होगा, तो बचेंगे; जलना होगा, तो जलेंगे। जाना कहां! आना कहां!
कर्तव्य जहां है, वहां यह तमस वृत्ति से भरा हुआ व्यक्ति कर्तव्य को काटेगा; और जहां वासना है, वहां नहीं काटेगा। और यह सब तरकीबें खोजेगा।
मैं एक घटना पढ़ रहा था। तीन यहूदी चर्चा कर रहे थे। और चर्चा थी कि किसका मंदिर प्रोग्रेसिव है, किसका मंदिर प्रगतिशील है, किसका सिनागाग सबसे ज्यादा आधुनिक है।
धार्मिक लोगों में ऐसी चर्चा चलती है। और धार्मिक लोग निरंतर सोचते हैं कि धर्म को आधुनिक होना चाहिए, आज के अनुकूल होना चाहिए। बड़े व्याख्यान, बड़ी किताबें लिखी जाती हैं कि धर्म को नया करो। इसकी भी फिक्र नहीं होती कि धर्म नया-पुराना कैसे हो सकता है।
पहले यहूदी ने कहा कि मेरे मंदिर से ज्यादा प्रगतिशील किसी का भी मंदिर नहीं है। पूछा दूसरों ने कि क्या कारण है! तो उसने कहा कि हमने जहां तोरा रखा है, जहां हमारी धर्म-पुस्तक रखी है, उसी के बगल में ऐश ट्रे भी रख दी है कि कोई सिगरेट भी पीना चाहे, तो मंदिर में पी सकता है। राख झाड़ सकता है और किताब भी पढ़ सकता है। यह प्रगतिशीलता है हमारी।
दूसरे ने कहा, यह कुछ भी नहीं है, क्योंकि हमने अपने मंदिर में टी.वी. सेट का भी इंतजाम कर दिया है। ऐश ट्रे तो बहुत पहले से रखी है। शराब भी उपलब्ध है। नाच-गाने का भी पूरा इंतजाम है। तोरा पढ़ना हो, तो पढ़ो। न पढ़ना हो, तो वह भी कोई मजबूरी नहीं है। नाच-गा सकते हो; टी.वी. देख सकते हो। हमारा मंदिर बिलकुल आधुनिक है।
तीसरे ने कहा, यह सब कुछ भी नहीं है।
तब योम किप्पूर के दिन थे; यहूदियों के धार्मिक दिन थे। तभी यह चर्चा चल रही थी।
तीसरे ने कहा, हमने अपने मंदिर पर एक तख्ती लगा दी है: क्लोज्ड बिकाज ऑफ दि होली डेज--पवित्र दिनों के कारण बंद। क्योंकि लोग मनाएं पवित्र दिन कि मंदिर आएं! लोग मजा करें कि मंदिर आएं! वह मंदिर पवित्र दिनों के लिए बनाया हुआ है, उस पर तख्ती लगा दी। यह आखिरी वक्तव्य है, अब इससे ज्यादा प्रगतिशील और कुछ हो भी नहीं सकता।
आदमी बहुत बेईमान है। वह सभी अच्छे शब्दों के पीछे अपनी गलतियों के सहारे खोज लेता है। प्रगतिशील के पीछे वह सब तरह की नासमझियां खोज लेता है। भाग्य के पीछे वह सब तरह के आलस्य को छिपा लेता है। परमात्मा के नाम के पीछे सब तरह के तमस को लेकर बैठ जाता है।
कृष्ण कहते हैं, जब तमस बढ़ता है, उसका घनीभूत रूप होता है मन में, तो कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद होता है। निद्रादि अंतःकरण की मोहिनी वृत्तियां, ये सभी उत्पन्न होती हैं।
और ज्यादा नींद आती मालूम पड़ती है। नींद का मतलब इतना ही है कि वह ज्यादा सोया रहता है। हर चीज में जागा हुआ नहीं रहता; सोया-सोया रहता है। गीता भी पढ़ेगा, तो ऐसे पढ़ रहा है, जैसे नींद में पढ़ रहा हो। सुन भी रहा है, तो ऐसे सुन रहा है, जैसे सोया हो और सुन रहा है।
धार्मिक मंदिरों में सभाओं में जाकर देखें; लोग सोए हुए हैं। कुछ डाक्टर तो कहते हैं कि नींद न आती हो, तो धार्मिक सभा में जाकर बैठें। वहां निश्चित आ जाती है। जिस पर ट्रैंक्वेलाइजर भी सफल नहीं होता, उसको भी आ जाती है। राम की कथा सुनो, एकदम नींद आने लगती है!
एक आलस्य है, जो मन को पकड़े हुए है सब तरफ। निद्रा बढ़ती है; मोहिनी वृत्तियां पैदा होती हैं।
मोहिनी वृत्ति का अर्थ है, उस चीज में ज्यादा मन लगता है, जहां बेहोशी बढ़े। शराब हो, नाच हो, संगीत हो, कामवासना हो, जहां भी निद्रा बढ़े, जहां भी जागरण की कोई जरूरत न हो, वहां उस तरफ जाने का भाव प्रवाहित होता है।
जब यह जीवात्मा सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के मलरहित अर्थात दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है।
और जब जीवनभर के अंत में जीवन का सारा निचोड़ और सार है; मृत्यु के क्षण में आपने जीवन में जो भी कमाया है, वह सारभूत सब आणविक होकर आपके साथ खड़ा हो जाता है।
अगर कोई व्यक्ति जीवनभर तमस से भरा रहा है, तो मरने के पहले बेहोश हो जाता है। अधिक लोग मरने के पहले बेहोश हो जाते हैं। मृत्यु होश में नहीं घटती। जो जीए ही नहीं होश में, वे मर कैसे सकते हैं! सिर्फ सत्व-प्रधान व्यक्ति ही मरते वक्त होश से भरे होते हैं। वह लक्षण है कि उसने जीवन में जागा हुआ होने का, अप्रमाद में रहने का प्रयास किया, तो मृत्यु जागते घटती है। वह मृत्यु को देख पाता है। और जो मृत्यु को देख पाता है, वह अमृत हो जाता है।
रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मृत्यु के क्षण में भी जीवन की ही सोचता रहता है। वह तब भी सोचता रहता है, कितने काम अधूरे रह गए। थोड़ा मौका मिल जाए, तो ये भी पूरे कर दूं। वह कभी यह नहीं सोचता कि सब भी पूरे करके क्या होगा? और काम तो अधूरे रह ही जाएंगे। क्योंकि वासनाओं का कोई अंत नहीं है। कितना ही करो, कभी भी करो, आधे में ही मरना पड़ेगा।
कोई भी आदमी पूर्ण विराम पाकर नहीं मर सकता, कि कहे कि सब काम पूरे हो गए, सब वासनाएं तृप्त हो गईं, जो करना था सब कर लिया, अब जीने का कोई कारण नहीं। नहीं, कोई आदमी ऐसा नहीं मर पाता। कुछ न कुछ बाकी रहेगा ही। और जैसे-जैसे मौत करीब आती है, वैसे-वैसे लगता है कि बहुत बाकी रह गया। समय कम और करने को ज्यादा; और करने की क्षमता रोज क्षीण होती चली जाती है।
तमोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त बेहोश हो जाता है। रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त भी मन में क्रियाएं जारी रखता है। सत्वगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त शांत जागरूकता में मरता है, होशपूर्वक मरता है। इन तीनों के परिणाम होंगे आने वाले जीवन पर।
जो सत्वगुण की स्थिति में मृत्यु को उपलब्ध होगा, कृष्ण कहते हैं, वह दिव्य स्वर्गादिक लोकों में प्रवेश कर जाता है।
सत्व की स्थिति में जो मरता है, वह परम सुख की अवस्था में प्रवेश कर जाता है। स्वर्ग परम सुख की अवस्था है। लेकिन ध्यान रखें, अंतिम अवस्था नहीं है। सुख की ही अवस्था है; आनंद की अवस्था नहीं है। और आनंद और सुख में इतना ही फर्क है कि सुख की अवस्था शाश्वत नहीं है, समाप्त होगी। और आनंद की अवस्था शाश्वत है, समाप्त नहीं होगी।
सुख की अवस्था के बाद फिर दुख आएगा। जैसे दिन के बाद रात आती है, ऐसा सुख के बाद फिर दुख आएगा। चाहे सुख कितना ही लंबा हो, लेकिन दुख से छुटकारा नहीं है। दुख पीछे खड़ा हुआ प्रतीक्षा कर रहा है। सुख एक कमाई है, जो चुक जाएगी। इसलिए स्वर्ग में गया हुआ वापस लौट आएगा; कितने ही समय के बाद, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वापस लौटना सुनिश्चित है।
सुख अंतिम नहीं है। उसके साथ दुख जुड़ा है। आनंद अंतिम है। उसके साथ फिर कुछ भी नहीं जुड़ा है। जो आनंद में प्रविष्ट हो गया, उसका पुनरागमन नहीं है; वह वापस नहीं लौटता।
सत्व की स्थिति में मरा हुआ व्यक्ति स्वर्ग में प्रवेश पाता है। जिसने जीवनभर साधुता साधी हो, सत्व को जगाया हो, होश को निर्मित किया हो, वह स्वर्ग में प्रवेश करता है।
रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।
और अगर रजोगुण पीछे पड़ा रहा हो, मरते क्षण में भी योजनाएं बनती रही हों, फाइव इयर प्लान तैयार होते रहे हों, तो ऐसा आदमी मरकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।
कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्य हैं। कोई धन के लिए दौड़ रहा है, कोई पद के लिए दौड़ रहा है, कोई प्रतिष्ठा के लिए दौड़ रहा है। कुछ करना है उन्हें। कुछ करके दिखाना है, चाहे कोई देखने को उत्सुक हो या न हो। चाहे कुछ करने से फल आता हो, न आता हो। सिकंदर और नेपोलियन सब कर-कर के मर जाते हैं, कुछ परिणाम आता नहीं। लेकिन कुछ करके दिखाना है!
यह जो करने की वृत्ति पैदा होती है, इसके लक्षण मां के पेट में बच्चा होता है, तब भी दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। वह जो रजोगुणी बच्चा है, वह मां के पेट में भी हलन-चलन ज्यादा मचाता है। इसलिए मां जान जाती है कि पेट में लड़की है या लड़का। अगर लड़का है, तो थोड़ा उपद्रव ज्यादा करता है। क्योंकि पुरुष ज्यादा रजोगुण-प्रधान है। स्त्री ज्यादा तमोगुण-प्रधान है। इसलिए लड़की होती है, तो वह शांत पड़ी रहती है। लड़का होता है, तो वहां थोड़ी कुछ क्रांति खड़ी करता है। उसमें भी अगर राजनीतिज्ञ होने वाला हो.!
मुल्ला नसरुद्दीन का लड़का था। तो वह उसके संबंध में सोचता था कि यह क्या बने, क्या न बने! तो उसने एक दिन कुरान रख दी, पास में एक सौ का नोट रख दिया, और एक तलवार रख दी। सोचा, तलवार उठा लेगा अंदर जाकर कमरे में, तो समझेंगे कि योद्धा बनेगा। कुरान उठा लेगा, तो समझेंगे कि धर्मगुरु, पुरोहित, साधु, फकीर, धर्म की यात्रा पर जाएगा। सौ का नोट उठा लेगा, तो समझेंगे कि धन, व्यवसाय, नौकरी, पेशा, कहीं धन कमाएगा।
छिपकर देखता रहा। लड़का अंदर गया। वह नसरुद्दीन का ही लड़का था। उसने कुरान उठाकर बगल में दबाई; सौ का नोट खीसे में रखा; तलवार लेकर चल पड़ा। नसरुद्दीन ने कहा, यह राजनीतिज्ञ बनेगा! उसने कुछ छोड़ा ही नहीं। तीनों चीजें ले गया।
वह जो रजोगुण से भरा हुआ व्यक्तित्व है.।
जीन पियागे ने बहुत अध्ययन किया है छोटे बच्चों का चालीस वर्षों तक निरंतर। उसका कहना है, पहले दिन से भी लक्षण अलग हो जाते हैं। वह जो तमोगुण-प्रधान बच्चा है, वह पड़ा रहता है। मां के पेट से जन्म के बाद भी वह तेईस घंटे, बाईस घंटे सोता है।
वह जो रजोगुण-प्रधान है, वह हाथ-पैर चलाने लगता है, चीजों को पकड़ने की कोशिश शुरू कर देता है, चीखता-चिल्लाता है। वह खबर देता है कि मैं हूं। मेरी तरफ ध्यान दो। उसके चीखने-चिल्लाने का मतलब है कि क्या, मेरी तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा? ध्यान दो, मैं भी यहां हूं!
वह जो सत्वगुण-प्रधान है, अक्सर उसकी आंखें खुल जाएंगी और एकटक एक तरफ देखता रहेगा। उसने ध्यान के कुछ प्रयोग पिछले जन्मों में साधे होंगे। तो उसकी आंखें अक्सर एकटक, एक जगह उलझ जाएंगी। चीजों में उसका उतना रस नहीं होगा। इधर से उधर, यह देखना, वह देखना नहीं; यह पकड़ना, वह पकड़ना नहीं। शरीर उसका शांत होगा और आंखें थिर होंगी। उसकी आंखों की थिरता कहेगी कि भीतर एक सात्विकता है।
मरते वक्त हम अपना अगला जन्म निश्चित कर रहे हैं। जो गुण सघन हो जाता है, वही हमें अगले जन्म की यात्रा पर भेद पैदा करता है।
रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।
आपने नाम सुना डिजरायली का। छोटा बच्चा था, तो कुछ भी उपद्रव करने की वृत्ति थी। कोई उस पर ध्यान न दे, तो बहुत अड़चन हो जाती थी। घर में कोई मेहमान आ जाए, तो वह जरूर कोई उपद्रव खड़ा कर देता था। मां-बाप परेशान थे। क्योंकि घर में कोई न हो, तो वह ठीक रहता। लेकिन मेहमान आए, कि वह कुछ उपद्रव खड़ा कर देगा। क्योंकि मेहमानों का ध्यान किसी और पर नहीं होना चाहिए, उस पर ही होना चाहिए।
एक बार तो वह चर्च पर चढ़ गया। और जहां चर्च का त्रिशूल लगा था ऊपर, उससे जाकर अटक गया। सारा गांव इकट्ठा हो गया। और लोग चिल्ला रहे हैं कि तू उतर आ वापस। किसी दूसरे की चढ़ने की हिम्मत भी नहीं उस चर्च की मीनार पर। और वह वहां प्रसन्नता से खड़ा है।
जब उसके बाप ने उससे पूछा कि तू चाहता क्या था वहां चढ़कर? उसने कहा, क्या चाहता था? पूरा गांव देख ले!
वह इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बना।
लार्ड क्लाइव को हिंदुस्तान भेजा गया था। और कुल कारण इतना था कि मां-बाप परेशान हो गए। उसके उपद्रव से पूरा गांव परेशान हो गया। एक बार बाप एक साइकिल खरीद लाया क्लाइव के लिए। उसकी मां ने कहा, यह किस लिए लाए हो? क्या इससे इसके उपद्रव कम हो जाएंगे! उसके बाप ने कहा, उपद्रव कम नहीं होंगे; क्षेत्र थोड़ा बड़ा हो जाएगा। यहीं-यहीं मोहल्ले में परेशान किए दे रहा है। क्षेत्र जरा बड़ा हो जाएगा। साइकिल हाथ में रहेगी, तो पूरे गांव को परेशान करेगा। तो थोड़ी मात्रा कम हो जाएगी। बड़ा क्षेत्र होगा, उपद्रव बंट जाएगा। हम परेशान हो गए। अब कोई और उपाय नहीं।
गांव में जोर की वर्षा हुई; पानी भर गया नालियों में। तो क्लाइव के घर में और मोहल्ले में सबसे ज्यादा पानी था। और घर में पानी भरने लगा। सब हैरान हुए कि क्लाइव कहां है!
वह नाली में लेटा हुआ था पानी रोके हुए, ताकि वह घर में भर जाए पानी! उसको निकालकर उसके बाप ने फौरन मिलिट्री में भेज दिया। उसने कहा कि इसको यहां रोकना ठीक ही नहीं। यह जब तक मरेगा-मारेगा नहीं.यह तो उपद्रव है!
वह आदमी, लार्ड क्लाइव, हिंदुस्तान में अंग्रेजों का राज्य जमाने में बड़े से बड़ा आधार सिद्ध हुआ।
रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति कुछ विक्षिप्त कर्मों में दौड़ना चाहता है। अहंकार प्रकट होकर दिखाई पड़े; अहंकार सूरज की तरह जले और हजारों लोग देखें; बस, वही उसकी कामना होती है।
और तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ पुरुष मूढ़ योनि में उत्पन्न होता है।
मूढ़ योनि की बड़ी गलत परिभाषाएं हुई हैं। अनेक गीता के व्याख्याकारों ने मूढ़ योनि का अर्थ लिया है कि वह पशुओं में चला जाता है। वह गलत है। क्योंकि लौटकर नीचे गिरने का कोई उपाय जगत में नहीं है। कोई मनुष्य की स्थिति में एक बार आ जाए, तो वापस पशु नहीं हो सकता। क्योंकि वापस पशु होने का तो मतलब यह हुआ कि मनुष्यता तक पहुंचने की जो कमाई थी, उसका क्या होगा।
चेतना कभी पीछे नहीं लौटती। रुक सकती है। आगे न जाए, यह हो सकता है। अवरुद्ध हो जाए, लेकिन पीछे नहीं लौट सकती। एक बच्चा अगर दूसरी कक्षा में आ गया, तो उसको पहली कक्षा में वापस भेजने का कोई उपाय नहीं। वह दूसरी में पचास साल रुके, तो रुक सकता है, कोई हर्जा नहीं। लेकिन उसको पहली में वापस करने की कोई व्यवस्था नहीं है। क्योंकि वह पहली पार कर ही चुका। और जो हम जान चुके, उसे न-जाना नहीं किया जा सकता। जो हम कर चुके, उस अनकिया नहीं किया जा सकता।
इसलिए मेरी दृष्टि में जिन-जिन व्याख्याओं में कहा गया है कि तमस से भरा हुआ व्यक्ति पशुओं की योनि में चला जाता है, ये व्याख्याएं गलत हैं। और जिन्होंने की हैं, वे केवल शब्दों के आधार पर व्याख्याएं कर रहे हैं।
मूढ़ योनि का मतलब है कि मनुष्यों में ही, जैसे कर्म से भरे हुए लोग हैं, सत्व से भरे हुए लोग हैं, वैसे ही तमस से भरे हुए मूढ़ लोग हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पांच प्रतिशत बच्चे मूढ़ योनि में हैं, जिनको हम ईडियट कहें, इम्बेसाइल कहें। पांच प्रतिशत बच्चे। न कोई बुद्धि है, न कुछ करने का भाव है। अपने जीवन की रक्षा तक की सामर्थ्य नहीं है। जो मूढ़ बच्चा है, घर में आग लग जाए, तो भागकर बाहर नहीं जाएगा। उसको यह भी पता नहीं है कि मुझे अपने को बचाना है। इतना भी कर्म पैदा नहीं होता। यह योनि मूढ़ योनि है। जिसको मनोवैज्ञानिक ईडियोसि कहते हैं, उसको ही कृष्ण ने मूढ़ कहा है।
मूढ़ का मतलब पशु नहीं है। अगर पशु ही कहना होता, तो पशु ही कह दिया होता, मूढ़ कहने की कोई जरूरत न थी। पशु मूढ़ नहीं होते, सिर्फ मनुष्य ही मूढ़ हो सकता है। पशु मूर्ख नहीं होते, सिर्फ मनुष्य ही मूर्ख हो सकता है।
जो सत्व-प्रधान हैं, वे भी पांच प्रतिशत होते हैं। यह बड़ी आश्चर्यजनक बात है। मनोविज्ञान के आधार पर पांच प्रतिशत लोग टैलेंटेड होते हैं, प्रतिभाशाली होते हैं। वैज्ञानिक हैं, कवि हैं, दार्शनिक हैं, संत हैं। पांच प्रतिशत लोग एक छोर पर प्रतिभासंपन्न होते हैं। और ठीक पांच प्रतिशत लोग दूसरे छोर पर मूढ़ होते हैं। बाकी नब्बे प्रतिशत लोग बीच में होते हैं। ये मध्यवृत्तीय लोग हैं, मध्यवर्गीय लोग हैं।
ये जो मध्यवर्गीय लोग हैं, इनमें मूढ़ता भी सम्मिलित है, बुद्धिमत्ता भी सम्मिलित है। ये दोनों का मिश्रण हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि स्थिति करीब-करीब ऐसी है, जैसा शिव का डमरू होता है, उसको हम उलटा कर लें। शिव का डमरू बीच में तो पतला होता है, दोनों तरफ बड़ा होता है। बीच में संकरा हो जाता है। इसको हम उलटा कर लें। दोनों तरफ संकरा और बीच में चौड़ा। तो दोनों तरफ संकरे छोरों पर पांच-पांच प्रतिशत लोग हैं।
वे जो पांच प्रतिशत लोग हैं, वे सत्व के कारण इस जगत में प्रतिभा से भरे हुए पैदा होते हैं। प्रतिभासंपन्न होना ही स्वर्ग में होना है। प्रतिभा सुख है। सुख की सूक्ष्म अनुभूति। और पांच प्रतिशत लोग मूढ़ होते हैं, जिनको कुछ भी होश नहीं, जिनको खाने-पीने का भी होश नहीं, जिनको उठने-बैठने का भी पता नहीं। बाकी लोग बीच में हैं, नब्बे प्रतिशत लोग।
ठीक मध्य में बड़े से बड़ा वर्ग है। करीब पचास प्रतिशत लोग ठीक मध्य में हैं। ये पचास प्रतिशत लोग दोनों तरफ यात्रा कर सकते हैं। चाहें तो कभी भी मूढ़ हो सकते हैं, और चाहें तो कभी भी प्रतिभा अर्जित कर सकते हैं। और यह निर्धारण मरने के क्षण में हो जाता है कि आप कैसे मर रहे हैं। तम से भरे हुए मर रहे हैं, रज से भरे हुए मर रहे हैं, सत्व से भरे हुए मर रहे हैं। बीच के जो लोग हैं, ये रजो-प्रधान हैं। तमो-प्रधान एक छोर पर हैं। सत्व-प्रधान दूसरे छोर पर हैं।
इस पूरी व्यवस्था को बदलने का एक ही उपाय है कि आप अपने भीतर गुणों की तारतम्यता को बदल लें। और यह कोई मरते क्षण के लिए मत रुके रहें कि मरते वक्त एकदम से सत्व-प्रधान हो जाएंगे। कोई कभी नहीं हो सकता।
मरते वक्त कुछ किया नहीं जा सकता। आपने जो जीवनभर में किया है, उसको ही इकट्ठा किया जा सकता है। जो कमाया है, वही। और आपके हाथ में फिर बदलाहट नहीं है। क्योंकि जीवन क्षीण हो रहा है, आप कुछ कर नहीं सकते।
अनेक लोग सोचते हैं, मरते वक्त राम का नाम ले लेंगे। जिन्होंने जीवनभर नहीं लिया राम का नाम, मरते वक्त उनके गले से वह शब्द न उठेगा। उनके होंठ सूख जाएंगे। उनके हृदय में कहीं छाया भी राम की न मिलेगी। उस वक्त तो वही शब्द उठेगा, जो उन्होंने जिंदगीभर सोचा है। कोई धन सोच रहा था, तो धन उठ सकता है। नोट दिखाई पड़ सकते हैं। तिजोरियां दिखाई पड़ सकती हैं। राम नहीं दिखाई पड़ेंगे।
वही जीवन के अंत में प्रकट होता है, जिसे हमने जीवनभर सम्हाला, बुलाया, निमंत्रण दिया है। इसलिए कल की प्रतीक्षा मत करें। और मृत्यु की राह मत देखें। जीवन ही जगह है, जहां हम अपनी मृत्यु को भी कमाते हैं।
ध्यान रहे, मृत्यु कमाई जाती है, मुफ्त नहीं मिलती। जितना आप कमाते हैं, वैसी मृत्यु हो जाती है। और जैसी मृत्यु, फिर वैसा नया जन्म हो जाता है। मृत्यु बड़ी सार्थक घटना है। क्योंकि नया जन्म उस पर निर्भर होगा। वह बीज है। नया जन्म, उससे वृक्ष बनेगा।
जीवन को सत्व की तरफ ले चलें, तो आप स्वर्ग की तरफ अनिवार्य रूप से चलते जा रहे हैं।
स्वर्ग एक मनोदशा है। आप कहां हैं, यह सवाल नहीं है, कि कहीं आकाश में स्वर्ग है, वहां आप हैं। स्वर्ग एक मनोदशा है। आप जहां भी हों, सत्व से भरा हुआ व्यक्ति स्वर्ग में है।
आज इतना ही।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।। 13।।
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।। 14।।
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते।। 15।।
हे अर्जुन, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद और निद्रादि अंतःकरण की मोहिनी वृत्तियां, ये सब ही उत्पन्न होते हैं।
और हे अर्जुन, जब यह जीवात्मा सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के मलरहित अर्थात दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है।
और रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ पुरुष मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है।
पहले कुछ प्रश्न।
पहला प्रश्न:
भगवान, कृष्ण परम ज्ञानी और त्रिगुणातीत हैं, फिर भी धोखा देते हैं, झूठ बोलते हैं, युद्ध करते हैं। बुद्ध, महावीर, लाओत्से आदि ऐसा कुछ भी नहीं करते। सत्व, रजस, तमस गुणों के संदर्भ में कृष्ण के उपरोक्त व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने की कृपा करें।
पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि दो महापुरुषों के बीच कोई तुलना संभव नहीं है। और सभी तुलनाएं गलत हैं। प्रत्येक महापुरुष अद्वितीय है। उस जैसा दूसरा कोई भी नहीं।
वस्तुतः तो साधारण पुरुष भी अद्वितीय है। आप जैसा भी कोई दूसरा नहीं। आपके भीतर ही महापुरुष तब प्रकट होता है, जब आप अपने स्वभाव को, अपनी नियति को उसकी पूर्णता में ले आते हैं।
आप भी बेजोड़ हैं। आप जैसा दूसरा कोई व्यक्ति पृथ्वी पर नहीं है। न आज है, न कल था, और न कल होगा। एक वृक्ष का पत्ता भी पूरी पृथ्वी पर खोजने जाएं, तो दूसरा वैसा ही पत्ता नहीं खोज पाएंगे। एक पत्थर का टुकड़ा भी, एक कंकड़ भी अपने ही जैसा है।
और जब आपका निखार होगा, और आपके जीवन की परम सिद्धि प्रकट होगी, तब तो आप एक गौरीशंकर के शिखर बन जाएंगे। अभी भी आप बेजोड़ हैं। तब तो आप बिलकुल ही बेजोड़ होंगे। अभी तो शायद दूसरों के साथ कुछ तालमेल भी मिल जाए। फिर तो कोई तालमेल न मिलेगा।
अभी तो भीड़ का प्रभाव है आपके ऊपर, इसलिए भीड़ से आप अनुकरण करते हैं। भीड़ की नकल करते हैं। और पड़ोसी जैसा है, वैसा ही बनने की कोशिश करते हैं। क्योंकि इस भीड़ के बीच जिसे जीना हो, अगर वह बिलकुल अनूठा हो, तो भीड़ उसे मिटा देगी। भीड़ उनको ही पसंद करती है, जो उन जैसे हैं। वस्त्रों में, आचरण में, व्यवहार में भीड़ चाहती है आप विशिष्ट न हों, आप पृथक न हों, अनूठे न हों। भीड़ व्यक्ति को मिटाती है; एक तल पर सभी को ले आती है।
इसलिए बहुत कुछ आप में दूसरे जैसा भी मिल जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे आपका स्वभाव निखरेगा, वैसे-वैसे आप भीड़ से मुक्त होंगे, वैसे-वैसे अनुकरण की वृत्ति गिरेगी, वैसे-वैसे वह घड़ी आपके जीवन में आएगी जब आप जैसा इस जगत में कुछ भी न रह जाएगा।
कृष्ण, लाओत्से, बुद्ध, उस परम शिखर पर पहुंचे हुए व्यक्ति हैं। किसी की दूसरे से तुलना करने की भूल में मत पड़ना। उस तुलना में अन्याय होगा। अन्याय की संभावना निरंतर है। वह अन्याय यह है कि अगर आपको कृष्ण पसंद हैं, तो आप महावीर के साथ अन्याय कर जाएंगे। वह पसंदगी आपकी है। वह पसंदगी आपकी निजी बात है।
और अगर आपको महावीर पसंद हैं, तो कृष्ण आपको कभी भी पसंद नहीं पड़ेंगे। यह आपका व्यक्तिगत रुझान है। इस रुझान को आप महापुरुषों पर मत थोपें। आपके रुझान में कोई गलती नहीं है। कृष्ण आपको प्यारे हैं, आप कृष्ण को प्रेम करें। और इतना प्रेम करें कि वही प्रेम आपके लिए रूपांतरण का कारण हो जाए, अग्नि बन जाए, और आप उसमें से निखर आएं।
अगर महावीर से प्रेम है, तो महावीर को प्रेम करें। और महावीर के व्यक्तित्व को एक मौका दें कि वह आपको उठा ले, सम्हाल ले; आप डूबने से बच जाएं। महावीर का व्यक्तित्व आपके लिए नाव बन जाए। लेकिन दूसरे महापुरुष से तुलना मत करें। तुलना में गलती हो जाएगी। तुलना केवल उनके बीच हो सकती है, जो समान हैं। उनके बीच कोई समानता का आधार नहीं है। और उन सबके व्यक्तित्व का ढंग बिलकुल पृथक-पृथक है।
जैसे मीरा है। मीरा नाच रही है। हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध, और नाचें! कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं। महावीर के होंठों पर बांसुरी रखनी बड़ी बेहूदी मालूम पड़ेगी; एब्सर्ड है। उसकी कोई संगति नहीं बैठती। महावीर का जीवन, व्यक्तित्व, ढंग, उससे बांसुरी का कोई संबंध नहीं बैठ सकता।
कृष्ण के ऊपर मोरमुकुट शोभा देता है। वह उनके व्यक्तित्व की सूचना है। वैसा मोरमुकुट आप जीसस को बांध देंगे, तो बहुत बेहूदा लगेगा। जीसस को तो कांटों का ताज और सूली ही जमती है। सूली पर लटककर जब कांटों का ताज उनके सिर पर है, तब जीसस अपने शिखर पर होते हैं। और कृष्ण जब बांसुरी बजा रहे हैं मोरमुकुट रखकर, तब अपने शिखर पर होते हैं।
एक-एक व्यक्ति अनूठा है यह खयाल में आ जाए, तो महापुरुष बिलकुल अनूठे हैं। जब ज्ञान की घटना घटती है, तो ज्ञान की घटना तो एक ही है। ऐसा समझें, यहां हम इतने लोग बैठे हैं। यहां प्रकाश है। तो प्रकाश की घटना तो एक ही जैसी है, लेकिन सभी आंखों में एक जैसा प्रकाश दिखाई नहीं पड़ रहा है। क्योंकि आंखों का यंत्र, देखने वाला यंत्र, प्रकाश को प्रभावित कर रहा है।
किसी की आंखें कमजोर हैं, उसे धीमा प्रकाश दिखाई पड़ रहा होगा। किसी की आंखें बहुत तेज हैं, तो उसे बहुत प्रकाश दिखाई पड़ रहा होगा। और किसी की आंखों पर चश्मा है, और रंगीन है, तो प्रकाश का रंग बदल जाएगा। और किसी की आंख बिलकुल ठीक है लेकिन वह आंख बंद किए बैठा हो, तो प्रकाश दिखाई ही नहीं पड़ेगा, अंधकार हो जाएगा।
जब जीवन की परम अनुभूति घटती है, तो अनुभव तो बिलकुल एक है, लेकिन व्यक्तित्व अलग-अलग हैं। जब कृष्ण को वह परम अनुभव होगा, तो वे नाचने लगेंगे। यह उनके व्यक्तित्व से आ रहा है नाच, उस अनुभव से नहीं आ रहा है। जब बुद्ध को वही परम अनुभव होगा, तो वे बिलकुल मौन होकर बैठ जाएंगे; उनके हाथ-पैर भी नहीं हिलेंगे; आंख भी नहीं झपकेगी। उनके भीतर जो घटना घटी है, वह उनके मौन से प्रकट होगी, उनकी शून्यता से प्रकट होगी, उनकी थिरता से प्रकट होगी। उनका आनंद मुखर नहीं होगा, मौन होगा।
बुद्ध चुप होकर प्रकट कर रहे हैं कि क्या घटा है। कृष्ण नाचकर प्रकट कर रहे हैं कि क्या घटा है। यह कृष्ण के व्यक्तित्व पर और बुद्ध के व्यक्तित्व पर निर्भर है। घटना एक ही घटी है।
इसे ऐसा समझ लें कि एक चित्रकार सुबह सूरज को उगते हुए देखे। और एक संगीतकार सुबह सूरज को उगता देखे। और एक नृत्यकार सूरज को उगता देखे। और एक मूर्तिकार और एक कवि सूरज को उगता देखे। ये सारे लोगों ने एक ही सूरज को उगते देखा है। और इन सबके चित्त पर एक ही सौंदर्य की घटना घटी है। ये सब आनंद से भर गए हैं। वह सुबह का उगता सूरज इनके भीतर भी कुछ उगने की घटना को जन्म दे गया है। इनके भीतर भी चेतना आंदोलित हुई है।
लेकिन चित्रकार उसका चित्र बनाएगा। अगर आप उससे पूछेंगे कि क्या देखा, तो चित्र बनाएगा। कवि एक गीत में बांधेगा, अगर आप उससे पूछेंगे, क्या देखा। नर्तक नाच उठेगा, नाचकर कहेगा कि क्या देखा।
एक बहुत कीमती विचारक और लेखक यूनान में हुआ अभी-अभी, निकोस कजानजाकिस। उसने एक बड़ी अनूठी किताब लिखी है, ज़ोरबा दि ग्रीक। एक उपन्यास है, ज़ोरबा नाम के एक आदमी के आस-पास। वह आदमी बड़ा नैसर्गिक आदमी है, जैसा स्वाभाविक आदमी होना चाहिए। न उसके कोई सिद्धांत हैं, न कोई आदर्श हैं। न कोई नीति है, न कोई नियम है। वह ऐसा आदमी है, जैसा कि आदमी को अगर सभ्य न बनाया जाए और प्रकृति के सहारे छोड़ दिया जाए, तो जो बिलकुल प्राकृतिक होगा।
जब वह क्रोध में होता है, तो आग हो जाता है। जब वह प्रेम में होता है, तो पिघलकर बह जाता है। उसके कोई हिसाब नहीं हैं। वह क्षण-क्षण जीता है।
कजानजाकिस ने लिखा है कि जब वह खुश हो जाता था या कोई ऐसी घटना घटती, जिससे वह आनंद से भर जाता, तो वह कहता कि रुको। वह ज्यादा नहीं बोल सकता, क्योंकि ज्यादा उसका भाषा पर अधिकार नहीं है, वह शिक्षित नहीं है। तो वह अपना तंबूरा उठा लेता। तंबूरा बजाता। उसे कुछ कहना है; उसके भीतर कोई भाव उठा है, उसे कहना है। वह तंबूरा बजाता। और कभी ऐसी घड़ी आ जाती कि तंबूरे से भी वह बात प्रकट नहीं होती, तो तंबूरा फेंककर वह नाचना शुरू कर देता। और जब तक वह पसीना-पसीना होकर गिर न जाता, तब तक वह नाचता रहता।
कजानजाकिस ने लिखा है कि मुझे उसकी भाषा समझ में नहीं आती थी। लगता था, वह नाच रहा है; कुछ उसके भीतर हो रहा है। और कुछ ऐसा विराट हो रहा है कि उसे प्रकट करने का उसके पास और कोई उपाय नहीं है। लेकिन मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं है।
कजानजाकिस लेखक है, विचारक है, शब्दों का मालिक है। लेकिन फिर उसके जीवन में भी एक घटना घटी और तब उसे पता चला। वह पहली दफा एक स्त्री के प्रेम में पड़ा। जब उस स्त्री ने उसे प्रेम से देखा, उसे निकट लिया और वह उसके प्रेम का पात्र बना, तो जब वह वापस लौटा, तब अचानक उसने पाया कि उसके पैर नाच रहे हैं। अब वह कहना चाहता है, लेकिन अब शब्द फिजूल हैं। अब वह कुछ लिखना चाहता है, लेकिन कलम बेकार है। और जिंदगी में पहली दफा वह आकर अपने कमरे के सामने नाचने लगा। और तब उसे समझ में आया कि वह ज़ोरबा जो कह रहा था, क्या कह रहा था। लेकिन उसके पहले उसे कुछ भी पता नहीं था।
आपका व्यक्तित्व अभिव्यक्ति का माध्यम है। अनुभूति तो एक ही होगी। लेकिन आपके व्यक्तित्व से गुजरकर उसकी अभिव्यक्ति बदल जाएगी।
तो कृष्ण की अभिव्यक्ति का माध्यम अलग है। जन्मों-जन्मों में वह माध्यम निर्मित हुआ है। अनंत जन्मों में कृष्ण ने वह नृत्य सीखा है। अनंत जन्मों में वह बांसुरी बजाई है।
बुद्ध ने जन्मों-जन्मों में, बुद्ध ने कहा है.।
बुद्ध के पिता ने जब बुद्ध वापस घर लौटे, तो बुद्ध को कहा कि तू नासमझ है। और अभी भी नासमझ है। मैं तेरा पिता हूं और मेरे पास पिता का हृदय है; मेरे द्वार अभी भी खुले हैं। अगर तू वापस लौटना चाहे, तो वापस आ जा। यह छोड़ भिखारीपन। हमारे वंश में कभी कोई भिखारी नहीं हुआ।
तो बुद्ध ने कहा है कि क्षमा करें। आपके वंश से मेरा क्या संबंध है! मैं सिर्फ आपसे आया हूं, आपसे पैदा नहीं हुआ। जहां तक मुझे याद आते हैं अपने पिछले जन्म, मैं जन्मों-जन्मों का भिखारी हूं। मैं पहले भी भीख मांग चुका हूं। मैं पहले भी संन्यासी हो चुका हूं। यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। यह किसी लंबे क्रम का एक हिस्सा है।
जहां तक मुझे अपनी याद है, बुद्ध ने कहा है कि मैं पहले भी ऐसा ही हुआ हूं। और हर बार यात्रा अधूरी छूट गई। इस बार यात्रा पूरी हो गई। जिस सूत्र को मैं बहुत जन्मों से पकड़ने की कोशिश कर रहा था, वह मेरी पकड़ में आ गया। और तुमसे मेरा परिचय बहुत नया है। मुझ से मेरा परिचय जन्मों-जन्मों का है। तुम्हारे कुल का मुझे कुछ पता नहीं, लेकिन मेरे कुल का मुझे पता है कि मैं जन्मों का भिखारी हूं। और सम्राट होना सांयोगिक था। यह भिक्षु होना मेरी नियति है, मेरा स्वभाव है।
ये बुद्ध भी जन्मों-जन्मों में वृक्ष के नीचे बैठ-बैठकर इस जगह पहुंचे हैं, जहां वे पत्थर की मूर्ति की तरह शांत हो गए हैं।
सबसे पहले बुद्ध की मूर्तियां बनीं। वैसा मूर्तिवत आदमी ही कभी नहीं हुआ था। बुद्ध की मूर्ति बनानी हो, तो बस पत्थर की ही बन सकती है। क्योंकि वे पत्थर जैसे ही, पाषाण जैसे ही ठंडे और शांत और चुप, सारी क्रियाओं से शून्य हो गए थे।
उर्दू में, अरबी में शब्द है, बुत। वह बुद्ध का अपभ्रंश है। मूर्ति के लिए जो शब्द है, वह है बुत। बुत का मतलब है बुद्ध। बुद्ध के नाम से ही बुत शब्द पैदा हुआ। और बुद्धवत बैठने का मतलब है, मूर्तिवत बैठ जाना। बुद्धवत बैठने का अर्थ है, बुत की तरह हो जाना। जरा-सा भी कंपन न रह जाए, नाच तो बहुत दूर की बात है। जरा-सा झोंका भी न रह जाए भीतर। नाच तो बिलकुल दूसरी अति है, जहां भीतर कुछ भी थिर न रह जाए, सब नाच उठे, सब गतिमान हो जाए।
तो बुद्ध और कृष्ण का कहां मेल बिठाइएगा? लेकिन जो घटना घटी है, वह एक ही है। बुद्ध ने जन्मों-जन्मों तक मौन होना साधा है। जब वह महाघटना घटी, तो वे अवाक होकर मौन हो गए। कृष्ण ने जन्मों-जन्मों तक नाचा है सखियों के साथ, उनकी प्रेयसियों के साथ। वह यात्रा लंबी है। जब वह घटना घटी, तो वह नाच से ही प्रकट हो सकती है।
फिर बुद्ध संसार को छोड़कर संन्यस्त हो गए हैं। कृष्ण संन्यस्त नहीं हैं। कृष्ण संसार में खड़े हैं। इसलिए उनका आचरण और व्यवहार बिलकुल अलग-अलग होगा।
अगर किसी को पागलखाने में रहना पड़े, तो उचित है कि वह पागलों को समझा दे कि मैं भी पागल हूं; नहीं तो पागल उसकी जान ले लेंगे। और उचित है कि वह चाहे नकल ही करे, अभिनय ही करे, लेकिन पागलों जैसा ही व्यवहार करे। पागलखाने में रहना हो, तो समझदार बनकर आप नहीं रह सकते। नहीं तो बुरी तरह पागल हो जाएंगे। पागलखाने में सेनिटी बचाने का, अपनी बुद्धि बचाने का एक ही उपाय है कि आप पागलों से दो कदम आगे हो जाएं, कि पागलों के नेता हो जाएं। फिर आप पागल नहीं हो सकते।
मेरे एक मित्र पागलखाने में बंद थे। सिर्फ संयोग की बात, छह महीने के लिए बंद किए गए थे, लेकिन तीन महीने में ठीक हो गए। और ठीक हो गए एक सांयोगिक घटना से। पागलपन की हालत में फिनाइल का एक डब्बा पागलखाने में मिल गया, वह पूरा पी गए। उस फिनाइल को पूरा पी लेने से उनको इतने दस्त और कै हुए कि उनका पागलपन निकल गया। वे बिलकुल ठीक हो गए। लेकिन छह महीने के लिए रखे गए थे। अधिकारी तो मानने को तैयार नहीं थे। अधिकारी को तो सभी पागल कहते हैं कि हम ठीक हो गए। ऐसा कोई पागल है, जो कहता है हम ठीक नहीं हैं!
तो वे अधिकारियों से कहें कि मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं, अब मुझे कोई गड़बड़ नहीं है। मुझे बाहर जाने दो। अधिकारी हंसें और टाल दें कि ठीक है, वह तो सभी पागल कहते हैं।
वे मित्र मुझे कहते थे कि तीन महीने जब तक मैं पागल था, तब तक तो स्वर्ग में था, क्योंकि मुझे पता ही नहीं था कि क्या हो रहा है चारों तरफ। बाकी तीन महीने असली पागलपन के रहे। मैं हो गया ठीक और सारे पागल.। कोई मेरी टांग खींच रहा है; कोई मेरे सिर पर हाथ फेर रहा है। और मैं बिलकुल ठीक! और अब यह बरदाश्त के बाहर कि यह सब कैसे सहा जाए! न रात सो सकते हैं.। और तीन महीने तक कुछ पता नहीं था। क्योंकि यह खुद भी यही कर रहे थे। और इस भाषा के अंतर्गत थे, इसके बाहर नहीं थे।
बुद्ध पागलखाना छोड़कर बाहर हो गए हैं। इसलिए नहीं कि सभी को पागलखाना छोड़कर बाहर हो जाना चाहिए। बुद्ध को ऐसा घटा। इसको ठीक से समझ लें।
यह बुद्ध की नियति है। यह बुद्ध का स्वभाव है। यह बुद्ध के लिए सहज है, स्पांटेनियस है। ऐसा उनको घटा कि वे छोड़कर जंगल में चले गए। कोई आप छोड़कर चले जाएंगे, तो बुद्ध नहीं हो जाएंगे। अगर आपका स्वभाव यह हो, अगर आपको यही सहज हो, तो आप कुछ भी करें, आप संसार में रह न सकेंगे। आप धीरे-धीरे सरक जाएंगे। यह कोई चेष्टा नहीं है। यह अपने स्वभाव का अनुसरण है।
लेकिन कृष्ण का ऐसा स्वभाव नहीं है। वे पागलखाने में खड़े हैं। और मजे से खड़े हैं। निश्चित ही, पागलखाने में जो खड़ा है, उसे पागलों के साथ व्यवहार करना है। इसलिए कृष्ण बहुत बार दिखाई पड़ेंगे कि धोखा देते हैं, झूठ बोलते हैं, युद्ध करते हैं। वह पागलों की भाषा है। वहां झूठ ही व्यवहार है। वहां धोखा ही नियम है। वहां युद्ध हर चीज की परिणति है।
और इसीलिए कृष्ण बड़े बेबूझ हो जाते हैं। उनको समझना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि हम साधु को हमेशा गैर-संसारी की तरह देखे हैं। तो गैर-संसारी साधु का व्यवहार अलग बात है। कृष्ण बिलकुल संसार में साधु हैं। इसलिए उनके और बुद्ध के व्यवहार को तौलना ही मत।
अगर बुद्ध को भी संसार में रहना हो, तो कृष्ण जैसा ही व्यवहार करना पड़ेगा। और कृष्ण को अगर जंगल में झाड़ के नीचे बैठना हो, तो बुद्ध जैसा व्यवहार करना पड़ेगा। धोखा किसको देना और किसलिए देना है? यहां जो चारों तरफ लोग इकट्ठे हैं, इनके बीच अगर जीना है, तो इनके ठीक इन जैसे होकर जीना पड़ेगा।
पर फर्क यही है कि आप भी दे रहे हैं धोखा, लेकिन आप बेहोशी में दे रहे हैं और कृष्ण पूरे होश में दे रहे हैं। आप धोखा दे रहे हैं कर्तृत्व-भाव से। कृष्ण धोखा दे रहे हैं बिलकुल नाटक के एक अंग की भांति। वे अभिनेता हैं। धोखा उनको छू भी नहीं रहा है। उनके लिए एक खेल से ज्यादा नहीं है।
ऐसा समझें कि आपके बच्चे घर में खेल खेल रहे हैं। और आप भी फुरसत में हैं और आप भी उनमें सम्मिलित हो गए हैं। और उनकी गुड्डी का विवाह रचाया जा रहा है। और गुड्डे की बारात निकलने वाली है और आप भी उसमें सम्मिलित हैं। तो आपको बच्चों जैसा ही व्यवहार करना पड़ेगा, नहीं तो बच्चे आपको खेल में प्रविष्ट न होने देंगे। आप यह नहीं कह सकते--यह नियम के भीतर होगा--आप यह नहीं कह सकते कि यह गुड्डी है; इसका क्या विवाह कर रहे हो? गुड़ियों का कहीं विवाह होता है? यह सब फिजूल है। तो आप खेल का नियम तोड़ रहे हैं; फिर आपको खेल के बाहर होना चाहिए।
आपको गुड्डी को मानना पड़ेगा कि जैसे वह कोई सजीव युवती है। और उसी तरह व्यवहार करना पड़ेगा। लेकिन एक फर्क होगा, बच्चों के लिए वस्तुतः वह गुड्डी नहीं रही है। और आपके लिए वह फिर भी गुड्डी है। और आप व्यवहार कर रहे हैं बच्चों के साथ कि खेल जारी रहे।
जैसे कोई प्रौढ़ व्यक्ति बच्चों के साथ खेलता है, वैसे कृष्ण संसार में हैं। इसलिए स्वभावतः, महावीर को मानने वाले, बुद्ध को मानने वाले कृष्ण के प्रति एतराज उठाएंगे, कि यह किस तरह की भगवत्ता है! हम सोच ही नहीं सकते कि भगवान और धोखा दे, झूठ बोले! उसे तो प्रामाणिक होना चाहिए।
पर आप जिन भगवानों से तौल रहे हैं, वे संसार के बाहर हैं। आप उस आदमी से तौल रहे हैं इस आदमी को, जो खेल में सम्मिलित नहीं है, अलग बैठा है। और यह आदमी बच्चों के साथ खेल रहा है। इन दोनों को आप तौलें मत। इनके नियम अलग हैं।
कृष्ण का प्रयोग बड़ा अनूठा है। बुद्ध और महावीर का प्रयोग बहुत अनूठा नहीं है। यह बिलकुल सरल है। संसार में हैं, तो पागल की तरह; और संसार छोड़ दिया, तो सारा पागलपन छोड़ दिया। कृष्ण का प्रयोग बड़ा अनूठा है। संसार छोड़ भी दिया, और उसके भीतर हैं। पागलपन बिलकुल पोंछ डाला, और फिर भी पागलों के साथ वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं, जैसा कि कोई पागल करे। कृष्ण का प्रयोग अत्यंत अनूठा है।
महावीर, बुद्ध परंपरागत संन्यासी हैं। कृष्ण बहुत क्रांतिकारी संन्यासी हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप इसलिए कृष्ण को चुन लें। आप अपनी नियति को समझें। यह भी नहीं कह रहा हूं कि आप बुद्ध को छोड़ दें या चुन लें। आप अपनी नियति को समझें। आपके लिए क्या ठीक मालूम पड़ता है; आपके लिए क्या सुगम होगा, सहज होगा; कैसी जीवन-धारा में उतरकर आप व्यर्थ की तकलीफ नहीं पाएंगे, सरलता से बह सकेंगे, वही आपकी नियति है।
फिर आप दूसरे की चिंता में मत पड़ें। कोशिश करके न आप कृष्ण बन सकते हैं और न बुद्ध। कोशिश आपको भ्रांत कर देगी। सहजता ही आपके लिए स्वास्थ्यदायी हो सकती है।
कृष्ण ने क्या किया, इसे समझना हो, तो यह सूत्र खयाल में रखें कि कृष्ण, बुद्ध जैसे संन्यासी होकर ठीक संसार में खड़े हैं बिना छोड़े हुए। और आपसे कोई भी संबंध संसार में बनाना हो, तो निश्चित ही आपकी भाषा बोलनी जरूरी है और आपके आचरण के साथ चलना जरूरी है। आपको बदलना भी हो, तो भी थोड़ी दूर तक आपके साथ चलना जरूरी है।
इसी संबंध में यह भी समझ लेना उचित होगा कि सत्व, रजस और तमस के गुणों का इस संबंध में क्या रूप होगा।
अगर कोई व्यक्ति तमस की अवस्था से सीधा छलांग लगाए गुणातीत अवस्था में, तो उसका जीवन-व्यवहार लाओत्से जैसा होगा। क्योंकि उसके पास जो व्यक्तित्व होगा, वह तमस का होगा। चेतना तो छलांग लगा लेगी गुणातीत अवस्था में, लेकिन उसके पास व्यक्तित्व तमस का होगा।
इसलिए लाओत्से कहता है, अकर्मण्यता भली। लाओत्से कहता है, कुछ न करना ही योग्यता है। ना-कुछ में ठहर जाना ही परम सिद्धि है।
लाओत्से के जीवन में कोई उल्लेख भी नहीं है कि उसने कुछ किया हो। कहा जाता है कि अगर उसके बस में हो चलना, तो लाओत्से दौड़ेगा नहीं। अगर उसके बस में हो बैठना, तो लाओत्से चलेगा नहीं। अगर उसके बस में हो लेटना, तो लाओत्से बैठेगा नहीं। अगर उसके बस में हो सोना, तो लाओत्से लेटेगा नहीं। निष्क्रियता की जो भी संभावना आखिरी बस में हो, उसमें ही लाओत्से डूबेगा।
लाओत्से परम ज्ञानी है, पर उसके पास व्यक्तित्व तमस का है। इसलिए आलस्य लाओत्से के लिए साधना बन गई। और निश्चित ही, जो उसने जाना है, वही वह दूसरों को सिखा सकता है।
तो लाओत्से कहता है, जब तक तुम कुछ कर रहे हो, तब तक तुम भटकोगे। ठहरो, करो मत। क्योंकि लाओत्से ने ठहरकर ही पाया है। तो लाओत्से कहता है कि अगर तुम क्या शुभ है, क्या अशुभ है, क्या नीति है, क्या अनीति है, इस व्यर्थता में पड़ोगे, सत्व की खोज में, तो भटक जाओगे। धर्म का नीति से कोई संबंध नहीं। जब जगत में ताओ था, धर्म था, तो कोई नीति न थी; कोई साधु न थे; कोई असाधु न थे। तुम अपनी सहजता में डूब जाओ। और उस डूबने के लिए एक ही कुशलता है, एक ही योग्यता है कि तुम पूरी अकर्मण्यता में, अक्रिया में, पूरे अकर्म में ठहर जाओ।
तमस लाओत्से का व्यक्तित्व है। घटना उसे वही घटी है, जो बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को घटी है।
जिन लोगों का व्यक्तित्व रजस का है, और वहां से वे छलांग लगा लेंगे, जैसे जीसस, तो फिर परम ज्ञान जब उन्हें पैदा होगा, तो उनका परम ज्ञान उसी क्षण कर्म बनना शुरू हो जाएगा। उनका कर्म सेवा हो जाएगी। वे विराट कर्म में लीन हो जाएंगे। वे कहेंगे, कर्म ही योग है।
कृष्ण ने कहा है, कर्म की कुशलता ही योग है। और लाओत्से कहता है, अकर्म, अक्रिया, सब भांति ठहर जाना ही एकमात्र सिद्धि है।
कर्म की कुशलता योग है, अगर रजस आपका व्यक्तित्व हो और ज्ञान की घटना घटे। घट सकती है। किसी भी जगह से आप छलांग लगा सकते हैं।
अगर सत्व का आपका व्यक्तित्व हो, जैसे महावीर, जैसे बुद्ध, सत्व का व्यक्तित्व है, तो इनके जीवन में न तो आलस्य होगा, लाओत्से जैसी शिथिलता भी नहीं होगी, और न ही जीसस जैसा कर्म होगा। इनके जीवन में बड़ी साधुता का शांत व्यवहार होगा।
महावीर चलते भी हैं, तो रास्ते पर देखकर कि चींटी दब न जाए। यह आदमी रजोगुणी हो ही नहीं सकता, जो चलने में इतना ध्यान रखे कि चींटी न दब जाए। महावीर रात करवट नहीं बदलते कि करवट बदलने में अंधेरे में कोई कीड़ा-मकोड़ा न दब जाए। यह आदमी क्या कर्मठ होगा! यह महावीर श्वास भी सोच-समझकर लेते हैं, क्योंकि प्रति श्वास में सैकड़ों जीवाणु मर रहे हैं।
महावीर पानी छानकर पीते हैं। वह भी जब अति प्यास लग आए, तब पीते हैं। भोजन बामुश्किल कभी करते हैं, क्योंकि भोजन में हिंसा है। मांसाहार में ही हिंसा नहीं है; सब भोजन में हिंसा है। शाकाहार में भी हिंसा है। क्योंकि शाक-सब्जी में प्राण है। पौधे में प्राण है। माना कि उतना प्रकट प्राण नहीं है, जितना पशु में है, जितना मनुष्य में है, लेकिन प्राण तो है।
महावीर पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने घोषणा की कि इस जीवन में सब तरफ प्राण है। इसलिए कहीं से भी भोजन करो, मृत्यु घटित होती है। इसलिए महावीर कहते हैं, पका हुआ फल जो वृक्ष से गिर जाए, पका हुआ गेहूं जो पौधे से गिर जाए, बस वही लेने योग्य है।
लेकिन उसमें भी हिंसा तो हो ही रही है। क्योंकि जो बीज आप ले रहे हैं, वह अंडे की तरह है। उस बीज से अंकुर पैदा हो सकता था। उससे एक वृक्ष पैदा हो सकता था। उस वृक्ष में हजारों बीज लगते।
तो अगर अंडा खाना पाप है, तो गेहूं का बीज खाना भी पाप है। क्योंकि अंडा बीज है। उसमें पाप क्या है? इसलिए कि मुर्गी पैदा होती है। फिर मुर्गी से और मुर्गियां पैदा होती हैं। एक बड़ी संतति को आपने रोक दिया। एक जीवन की धारा आपने काट दी। एक गेहूं को खाकर भी काट दी। उस गेहूं से नए पौधे पैदा होते। उन पौधों में नए बीज लगते। न मालूम कितने जीवन की धारा अनंत वर्षों तक चलती, वह आपने गेहूं को खाकर रोक दी।
तो महावीर मुश्किल से भोजन करते हैं। अगर भूखे चल सकें, तो भूखे चलते हैं। प्यासे चल सकें, तो प्यासे चलते हैं। कथा यह है कि बारह वर्षों की साधना में उन्होंने केवल तीन सौ साठ दिन ज्यादा से ज्यादा भोजन लिया। बारह वर्ष में एक वर्ष! कभी दो महीने नहीं खाया, कभी महीनेभर नहीं खाया; कभी तीन महीने नहीं खाया। खाते ही तब हैं, जब उपवास आत्महत्या के करीब पहुंचने लगे। जब ऐसा लगे कि अब शरीर ही छूट जाएगा, तभी। जब अपनी ही मृत्यु घटित होने लगे, और वह भी इसलिए कि अभी ज्ञान की घटना नहीं घटी, इसलिए शरीर को सम्हालना जरूरी है। अभी वह परम मुक्ति उपलब्ध नहीं हुई, इसलिए शरीर को ढोना जरूरी है।
इन महावीर से आप कोई जीसस जैसी क्रिया नहीं अनुभव कर सकते। जीसस जाते हैं मंदिर में; देखते हैं कि ब्याजखोरों की कतार लगी है; उठा लेते हैं कोड़ा। सोच भी नहीं सकते, महावीर कोड़ा उठा लें। उलट देते हैं तख्ते ब्याजखोरों के। अकेला एक आदमी इतना जोर से वहां उपद्रव मचाता है कि सैकड़ों ब्याजखोर भाग खड़े होते हैं। यह तो बाद में ही समझ में आता है कि एक आदमी ने इतना उपद्रव कैसे मचा दिया!
पर यह जीसस में एक गहरी क्रांति है। इसलिए जीसस का सूली पर लटकना ठीक गणित का हिसाब है। इतना बड़ा क्रांतिकारी आदमी सूली पर जाएगा ही। इसका दूसरा अंत नहीं हो सकता।
महावीर को हम सूली पर लटकते हुए नहीं सोच सकते। कोई कारण नहीं है। जो किसी को दुख नहीं पहुंचा रहा है; जो किसी के काम में आड़े नहीं आ रहा है; जो किसी को छूता भी नहीं.।
महावीर की धारा में उनकी अहिंसा को अगर ठीक से समझें, तो उसका मतलब यह होता है कि किसी के कर्म में भी बाधा डालने में हिंसा हो जाती है। कोई आदमी जा रहा है, उसको रोक लेना काम में जाते से, तो भी हिंसा हो जाती है। क्योंकि आप बीच में बाधा डाल रहे हैं।
कोई बाधा नहीं डालनी है। अपने को ऐसे बना लेना है, जैसे मैं हूं ही नहीं। तो ऐसा व्यक्ति क्रांति नहीं ला सकता। या ऐसे व्यक्ति की क्रांति बड़ी अदृश्य होगी। उसके कोई दृश्य रूप नहीं होंगे।
सत्व अगर हो, तो महावीर जैसा व्यक्ति पैदा होगा, व्यक्तित्व में अगर सत्व हो! अगर रज हो, तो जीसस जैसा व्यक्ति पैदा होगा। तम हो, तो लाओत्से जैसा व्यक्ति पैदा होगा।
इसको और भी तरह से समझ लें।
इसलिए लाओत्से के पीछे कोई बहुत बड़ा विराट धर्म नहीं बन सका। अकर्मण्यता के आधार पर आप बनाएंगे भी कैसे? कौन करेगा प्रचार? कौन जाएगा समझाने? लाओत्से का मानने वाला शांत बैठ जाता है। आप उसे हिलाएं-डुलाएं, बहुत पूछें, तो बामुश्किल जवाब देगा।
लाओत्से जिंदगीभर नहीं बोला। आखिर में सिर्फ यह ताओ-तेह-किंग, एक छोटी-सी किताब उसने लिखवाई। यह भी मजबूरी में कि पीछे ही पड़ गए लोग कि उसको जाने ही नहीं देते थे मुल्क के बाहर।
वह जाना चाहता था हिमालय की यात्रा पर, अपने को खो देने के लिए हिमालय में। उसको रोक लिया चुंगी चौकी पर और कहा कि जब तक तुम्हारा ज्ञान तुम लिख न दोगे, जाने न देंगे। तो तीन दिन वह चुंगी चौकी पर बैठकर उसने लिखवाया, जो उसको ज्ञान था।
यह भी जबरदस्ती लिखवाया गया। यह कोई लाओत्से ने अपने मन से लिखा नहीं। अगर चुंगी चौकी का अधिकारी चूक जाता और लाओत्से निकल गया होता, तो ताओ-तेह-किंग न होती और लाओत्से के नाम का भी आपको पता नहीं होता। यह सारा गुण चुंगी चौकी के उस अधिकारी को जाता है, जिसका किसी को नाम पता नहीं कि वह कौन आदमी था। इसलिए लाओत्से के पीछे कोई बड़ा विराट आयोजन नहीं हो सका।
महावीर सत्व के प्रेमी हैं और उनका व्यक्तित्व सत्व से भरा है। इसलिए महावीर का धर्म बहुत नहीं फैल सका। क्योंकि उसमें कर्मठता नहीं है। आज भी हिंदुस्तान में केवल बीस-पच्चीस लाख जैन हैं। अगर महावीर ने पच्चीस जोड़ों को जैनी बना लिया होता, तो दो हजार साल में उनसे पच्चीस लाख आदमी पैदा हो जाते। पच्चीस लाख कोई संख्या नहीं है; फैल नहीं सका।
लेकिन ईसाइयत फैली, क्योंकि रजस-प्रधान है। ईसाइयत फैली, सारी जमीन को ढंक लिया उसने। इस्लाम फैला, सारी जमीन को ढंक लिया उसने। दोनों रज-प्रधान हैं।
मोहम्मद तो बहुत ही ज्यादा रज-प्रधान हैं। उनका तो सारा व्यक्तित्व रजस से भरा है। हाथ में तलवार है। और किसी भी भांति फैलाना है वह, जो उन्होंने जाना है।
आज जमीन वस्तुतः दो बड़े धर्मों में बंटी है, ईसाइयत और इस्लाम। बाकी धर्म नगण्य हैं।
यह जो बुद्ध के धर्म का प्रचार हो सका, वह भी एक अनूठी घटना है। क्योंकि बुद्ध के धर्म का प्रचार भी होना नहीं चाहिए। जैसा महावीर सिकुड़ गए, ऐसा ही बुद्ध की बात भी सिकुड़ जानी चाहिए। वे भी सत्व-प्रधान व्यक्तित्व हैं। लेकिन एक सांयोगिक घटना इतिहास की और जिसने बुद्ध के धर्म को मौका दे दिया फैलने का।
अगर बुद्ध का धर्म भारत में ही रहता, तो कभी नहीं फैलता। जितने जैन हैं, उससे भी कम बौद्ध भारत में बचे हैं। अभी नए बौद्धों को भी गिन लिया जाए, तो तीस लाख होते हैं।
नए बौद्ध कोई बौद्ध नहीं हैं। एक राजनैतिक चालबाजी है। अंबेदकर का बौद्ध धर्म से क्या लेना-देना! अंबेदकर पच्चीस दफा सोच चुका पहले कि मैं ईसाई हो जाऊं और सब हरिजनों को ईसाई बना लूं। यह सिर्फ एक राजनैतिक स्टंट था। फिर उसे लगा कि बौद्ध हो जाना ज्यादा बेहतर है। तो अंबेदकर बौद्ध हो गए। और अंबेदकर ने सैकड़ों हरिजनों को, विशेषकर महाराष्ट्र में, बौद्ध बना लिया। इनका बौद्ध धर्म से कोई लेना-देना नहीं। भारत में बौद्ध हैं ही नहीं, खोजना मुश्किल है।
भारत में अगर बुद्ध धर्म रुका होता, जैसा कि जैन धर्म रुका, तो जैन धर्म से भी बुरी हालत थी। लेकिन हिंदुओं की कृपा से! हिंदुओं ने बौद्धों का इस बुरी तरह विनाश किया कि बौद्ध भिक्षुओं को हिंदुस्तान छोड़कर भाग जाना पड़ा। ये जो भागते हुए भगोड़े बौद्ध भिक्षु थे, ये बौद्ध धर्म को हिंदुस्तान के बाहर ले गए। और हिंदुस्तान के बाहर इन बौद्ध भिक्षुओं को वे लोग मिल गए, जो रज-प्रधान हैं।
हिंदुस्तान के बाहर इनको प्रचारक मिल गए, क्योंकि वैक्यूम था। और खाली जगह प्रकृति को पसंद नहीं है। चीन में जब पहुंचे बौद्ध, तो कनफ्यूसियस का प्रभाव था। लेकिन कनफ्यूसियस सिर्फ नैतिक है, उसका कोई धर्म नहीं है। और लाओत्से का प्रभाव था। लाओत्से बिलकुल आलसी है, उसके प्रचार का कोई उपाय नहीं। खाली जगह थी। बौद्ध विचार की छाया एकदम जोर से अनुभव होने लगी। सम्राट चीन के बौद्ध हो गए। सम्राट होते हैं रज-प्रधान।
हिंदुस्तान में भी बौद्ध धर्म को बाहर भेजने में अशोक ने काम किया। वह बुद्ध के ऊपर उसका श्रेय नहीं है, अशोक के ऊपर है। सम्राट होते हैं रज-प्रधान। यह अशोक लड़ रहा था; युद्धों में लगा था। और फिर यह बौद्ध हो गया। एक रूपांतरण! हिंसा से दुखी होकर, पीड़ित होकर; अपने ही हाथ से लाखों लोगों को मरा हुआ देखकर एकदम उलटा हो गया; शीर्षासन कर लिया। हिंसा का बिलकुल इसने त्याग कर दिया। इसने बौद्ध धर्म को भेजा। इसने जिनके हाथ से भेजा, वे एक तरह के राजनैतिक संदेशवाहक थे। अशोक ने अपने बेटे को भेजा, अपनी बेटी संघमित्रा को भेजा लंका, प्रचार करने।
अशोक ने राजनैतिक ढंग से बौद्ध धर्म को बाहर भेजा। वह रज-प्रधान व्यक्ति था। और सम्राट रूपांतरित हुए, तो बौद्ध धर्म फैला।
ध्यान रहे, जब भी कोई धर्म फैलेगा, तो उसके पीछे रजस ऊर्जा चाहिए। धर्म को जन्म देने वाला व्यक्ति किस तरह के व्यक्तित्व का है, इस पर निर्भर करेगा।
कृष्ण को समझ लेना इस संदर्भ में जरूरी है।
कृष्ण स्वयं, इन तीनों में से किसी की भी प्रधानता उनमें नहीं है। कृष्ण में ये तीनों गुण, कहें, समान हैं; बराबर मात्रा के हैं। और इसलिए कृष्ण में तीनों बातें पाई जाती हैं। वह जो तामसिक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं। वह जो राजसिक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं। वह जो सात्विक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं।
आपने कृष्ण का एक नाम सुना है, रणछोड़दास। हिंदू बहुत अदभुत हैं। वे इसको बड़े आदर से लेते हैं। रणछोड़दासजी के मंदिर हैं जगह-जगह। रणछोड़दास का मतलब है, भगोड़ा, युद्ध को छोड़कर भागा हुआ। पर उसको भी हम कहते हैं, रणछोड़दासजी! युद्ध को जिसने पीठ दिखा दी, वह रणछोड़।
कृष्ण का पूरा व्यक्तित्व त्रिवेणी है। उसमें नाच-रंग है, जो अक्सर तामसी व्यक्ति में होता है। मौज है, उल्लास है। उसमें बड़ा वीर्य भी है। संघर्ष की क्षमता है, युद्ध की कुशलता है, जो कि राजसी व्यक्ति में होती है। उसमें बड़ी सात्विकता है, बड़ी शुद्धता है, बच्चे जैसी शुद्धता, निर्दोषता है। लेकिन यह सब इकट्ठा है। इसलिए कृष्ण बेबूझ हो जाते हैं और पहेली हो जाते हैं।
बुद्ध पहेली नहीं हैं। अगर आपके पास थोड़ी भी अक्ल है, तो बुद्ध का पाठ खुला हुआ है। पहेली कुछ भी नहीं है। महावीर में कोई पहेली नहीं, कोई रहस्य नहीं है। बात सीधी-साफ है। दो और दो चार, ऐसा गणित है।
लेकिन कृष्ण का मामला बहुत उलझा हुआ है। क्योंकि तीनों गुण हैं और तीनों समतुल हैं। और इसलिए कृष्ण हमें धोखेबाज भी लगते हैं; झूठ भी बोलते लगते हैं; वचन देते हैं, तोड़ते लगते हैं।
ऐसा समझें कि जैसे कृष्ण एक व्यक्ति नहीं हैं, तीन व्यक्ति हैं। तो जैसे तीन व्यक्तियों का जीवन तीन तरह से चलता रहेगा, ऐसा कृष्ण के भीतर तीन धाराएं इकट्ठी चल रही हैं। कृष्ण एक त्रिवेणी हैं। और इसलिए जो भी कृष्ण को गणित में बिठालना चाहेगा, वह कृष्ण के साथ अन्याय करेगा।
इसलिए कुछ हैं, जो गीता के कृष्ण को पूजते हैं; भागवत का कृष्ण उन्हें प्रिय नहीं। वे उसको छोड़ देते हैं। वे कहते हैं, यह कवियों की कल्पना है। ये असली कृष्ण नहीं हैं।
कुछ हैं, जो गीता के कृष्ण की फिक्र ही नहीं करते। उनको भागवत का कृष्ण प्यारा है। स्त्रियां स्नान कर रही हों, तो उनके कपड़े चुराकर झाड़ पर बैठ सकते हैं।
कृष्ण एक पहेली हैं, क्योंकि ये तीनों गुण उनमें समान हैं। और तीनों गुणों के रंग उनके व्यक्तित्व में हैं। ये तीनों स्वर उनके साथ एक साथ बज रहे हैं।
यह व्यक्तित्व की बात है। अनुभव तो तीनों के पार का होगा। बुद्ध को भी जो मिला है, वह भी तीनों गुणों के पार उन्होंने जाना है। महावीर ने भी, मोहम्मद ने भी, जीसस ने भी, लाओत्से ने भी, कृष्ण ने भी। अनुभूति तो तीनों गुणों के पार है, गुणातीत है। लेकिन जो व्यक्तित्व हमारे पास है, उससे अनुभूति प्रकट होगी।
महावीर, बुद्ध, लाओत्से के पास एक ढंग के व्यक्तित्व हैं, इकहरे व्यक्तित्व हैं। कृष्ण के पास तेहरा व्यक्तित्व है। इसलिए कृष्ण का संगीत थोड़ा उलझा हुआ है। और उसे सुलझाने के लिए बड़ी कुशल आंख, बड़ी गहरी आंख चाहिए। नहीं तो फिर कृष्ण के साथ अन्याय हो जाना सुनिश्चित है।
एक प्रश्न और: आपने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मुक्ति स्वयं खोजनी होगी और यही मुक्ति या स्वतंत्रता की गरिमा भी है। अन्यथा स्वतंत्रता झूठी व व्यर्थ हो जाएगी। इस दृष्टि से कृष्ण का या आपका यह कहना कि समर्पण करो और मैं बदल दूंगा, मुक्त कर दूंगा, कहां तक उचित है?
कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज--सब धर्म छोड़, तू मेरी शरण में आ। मैं तुझे मुक्त कर दूंगा। इससे स्वभावतः मन में प्रश्न उठेगा। एक ओर मैंने कहा कि निर्णय अंतिम आपका है। आपकी पूरी स्वतंत्रता है। और यही आपके जीवन की गरिमा है कि कोई आपको जबरदस्ती मोक्ष में प्रवेश नहीं करवा सकता; कृष्ण भी नहीं करवा सकते।
इसीलिए तो कहना पड़ रहा है, सर्व धर्मान् परित्यज्य। कृष्ण भी जबरदस्ती अर्जुन को मुक्ति नहीं दे सकते। कृष्ण भी कह रहे हैं कि तू पहले सब समर्पण कर। वह समर्पण का निर्णय अर्जुन को लेना पड़ेगा। और वह समर्पण का निर्णय अर्जुन ले, तो कृष्ण कुछ कर सकते हैं।
समर्पण का निर्णय बहुत बड़ा निर्णय है, सबसे बड़ा निर्णय है। इस जगत में सब निर्णय छोटे हैं। किसी के हाथ में मैं अपने को पूरा सौंप दूं, यह बड़े से बड़ा निर्णय है। इससे बड़ा और कोई निर्णय नहीं है।
ध्यान रहे, समर्पण सबसे बड़ा संकल्प है। उलटा लगता है। क्योंकि हम सोचते हैं, संकल्प का तो अर्थ ही होता है, अपने पर निर्भर रहना। और समर्पण का अर्थ है, दूसरे पर सब छोड़ देना। लेकिन छोड़ने की घटना अगर आप कर सकते हैं, तो उसका मतलब हुआ कि आप एकजुट हो गए हैं, आप इकट्ठे हैं। आप अपने को छोड़ सकते हैं।
छोड़ वही सकता है, जो अपना मालिक हो। जो संकल्पवान हो, वही समर्पण कर सकता है। हर कोई समर्पण नहीं कर सकता। कमजोर, नपुंसक के लिए समर्पण का मार्ग नहीं है। कायर के लिए समर्पण का मार्ग नहीं है; जो कहे कि हां, हम बिलकुल तैयार हैं। कहने से तैयारी नहीं होती। यह अर्जुन ही कर सकता है।
इसलिए कृष्ण ने अगर अर्जुन से कहा कि तू सब छोड़ दे, तो सोचकर कहा है। यह क्षत्रिय है; संकल्प ले सकता है; समर्पण का भी ले सकता है।
जापान में क्षत्रियों की एक जमात है, समुराई। समुराई जापान के क्षत्रिय हैं, शुद्धतम, जो सिर्फ लड़ना ही जानते हैं। मगर लड़ने के पहले उन्हें एक कला सिखाई जाती है, जो दुनिया में कहीं भी नहीं सिखाई जाती। और उस कला के कारण समुराई का कोई मुकाबला नहीं है।
इसके पहले कि उन्हें सिखाया जाए कि दूसरे को कैसे मारो, समुराई को सिखाया जाता है कि तुम अपनी आत्महत्या कैसे कर सकते हो। और जब तक तुम कुशल नहीं हो अपने को मारने में, तब तक तुम दूसरे को मारने के हकदार नहीं हो। पहले तुम ठीक से तैयार हो जाओ अपने को मिटाने के लिए।
तो समुराई पहले सीखता है, आत्महत्या, हाराकिरी। बड़ा गहरा उसका गणित है। ठीक नाभि के दो इंच नीचे हारा नाम का केंद्र है, जो कि योगियों की खोज है। उस हारा नाम के केंद्र पर जरा-सी भी चोट छुरे की हो जाए, कि शरीर से आत्मा अलग हो जाती है बिना किसी पीड़ा के।
इसलिए समुराई का लक्षण यह है कि जब वह छुरा मारकर अपनी हत्या करता है, तो उसके चेहरे पर पीड़ा का एक भाव भी नहीं होना चाहिए--मरने के बाद भी, उसकी लाश पर भी। अगर पीड़ा का जरा भी भाव है, तो वह चूक गया। वह समुराई नहीं था। उसे मरने की कला नहीं मालूम थी। उसने छुरा कहीं और मार लिया।
ठीक नाभि के नीचे जीवन का स्रोत है, उस स्रोत की बिलकुल बारीक धारा है। उस बारीक धारा को तोड़ देते से ही जीवन शरीर और आत्मा का अलग-अलग हो जाता है, जरा-सी पीड़ा के बिना। समुराई के चेहरे पर कोई भाव भी नहीं आता दुख का, विषाद का। वह वैसा ही प्रफुल्लित और ताजा होता है, जैसा जीवित था। आपको लगे कि सिर्फ सो गया है।
पहले समुराई को सिखाते हैं, खुद को मिटाने की कला। और तब उसे कहते हैं कि अब तू युद्ध में जा; अब तुझे कोई भय न पकड़ सकेगा; क्योंकि तूने मृत्यु भी सीख ली। और मृत्यु के माध्यम से तूने आत्मा को जानने का द्वार भी सीख लिया; शरीर से अलग आत्मा को करने का मार्ग भी सीख लिया।
यह अर्जुन समुराई जैसा क्षत्रिय है। यह अपने जीने के लिए सबको मार भी सकता है। और जरूरत हो, इसे जीवन व्यर्थ मालूम पड़े, तो एक क्षण में अपने को समाप्त भी कर सकता है।
इस अर्जुन से कृष्ण कह रहे हैं कि तू सब छोड़ दे। यह छोड़ सकता है। यह क्षत्रिय है। सब! इसमें कुछ हिसाब नहीं रखना है कि कितना! कुछ पीछे अपने को बचा नहीं लेना है। क्योंकि समर्पण आधा नहीं हो सकता; पूरा ही होगा।
पूरा समर्पण महान संकल्प है। यह खयाल में भी लेना कि मैं किसी के हाथ में अपना पूरा भविष्य सौंपता हूं, अपना पूरा जीवन सौंपता हूं, और जो भी हो परिणाम, मुझे स्वीकार है, अब इसको वापस नहीं ले सकूंगा। समर्पण वापस नहीं लिया जा सकता। यह आखिरी निर्णय है जो आदमी ले सकता है।
ध्यान रहे, कृष्ण थोड़े ही रूपांतरण करेंगे। इस समर्पण के करने की प्रक्रिया में रूपांतरण हो जाएगा। इतने सहज भाव से जो मिटने को राजी है, वह रूपांतरित हो गया।
इसलिए दूसरी जो बात है कृष्ण की कि मैं तुझे बदल दूंगा, तू सब समर्पण कर। दूसरी बात तो सहज परिणाम है। कृष्ण को कुछ करना नहीं पड़ेगा। कृष्ण कुछ कर भी नहीं सकते। करने का कोई उपाय भी नहीं है। बस, यह अर्जुन को समझ में अगर आ जाए कि यह सब छोड़ने को राजी हो जाए।
तो यह बड़े मजे की बात है। जब भी कोई सब छोड़ने को राजी हो जाता है, तो उसके जीवन की सब पीड़ा, सब दुख, सब तनाव विदा हो जाते हैं। क्योंकि सब छोड़ने का मतलब है, अहंकार छोड़ना। और मैं ही, मेरा अहंकार ही सारे उपद्रव की जड़ है। वह जड़ कट जाती है। कटते ही आदमी आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाता है।
गुरुओं ने कहा है कि सब छोड़ दो, हम तुम्हें बदल देंगे। बदलने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। और अगर आप जाकर पूछें कि मैंने सब छोड़ दिया; मैं अभी तक नहीं बदला! तो उसका सिर्फ मतलब इतना है कि आपने कुछ छोड़ा नहीं। और कुछ भी मतलब नहीं है। नहीं तो दूसरी घटना तो अनिवार्य है। उस दूसरी घटना को करने के लिए गुरु को कुछ करना नहीं पड़ता है। वह समर्पण का सहज फल है।
पर निर्णय अंततः आपका है। स्वतंत्रता आपकी है। उसे कोई भी नहीं छीन सकता। और जब आप छोड़ते हैं, तो यह आपकी स्वतंत्रता का कृत्य है। जब आप कहते हैं, मैं छोड़ता हूं सब चरणों में, तो यह आपकी स्वतंत्रता का आखिरी कृत्य है। इस कृत्य के परिणाम में मुक्ति फलित होती है।
कृष्ण तो सिर्फ कैटेलिटिक एजेंट हैं, वे तो सिर्फ एक बहाना हैं। तो इसलिए कोई असली कृष्ण को भी खोजने की जरूरत नहीं है। मंदिर में खड़े कृष्ण के सामने भी आप सब छोड़ दें, तो यही घटना घट जाएगी। हालांकि वहां कोई भी नहीं खड़ा है।
यह घटना कहीं भी घट सकती है। यह घटना आपके छोड़ने पर निर्भर है। किस पर आप छोड़ते हैं, यह बात गौण है। इसलिए जीसस पर कोई छोड़े, कृष्ण पर कोई छोड़े, बुद्ध पर कोई छोड़े, कोई फर्क नहीं पड़ता। किस पर छोड़ा, यह गौण है। छोड़ा, तत्क्षण आप दूसरे हो जाते हैं। नए का जन्म हो जाता है।
समर्पण पुनर्जन्म है, शरीर में नहीं, परमात्मा में। वह जीवन की धारा का पूरी तरह से ब्रह्म की तरफ उन्मुख हो जाना है।
अब हम सूत्र को लें।
हे अर्जुन, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद और निद्रादि अंतःकरण की मोहनी वृत्तियां, ये सब उत्पन्न हो जाती हैं।
एक-एक गुण का लक्षण कृष्ण गिना रहे हैं। ठीक से समझें।
तमोगुण के बढ़ने पर जीवन में अप्रकाश, अंधेरा मालूम होने लगता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम पढ़ते हैं शास्त्रों में कि भीतर देखो, वहां परम ज्योति जल रही है। हम भीतर देखते हैं, वहां सिर्फ अंधकार है!
परम ज्योति निश्चित ही वहां जल रही है। जिन्होंने कहा है, उन्होंने देखकर ही कहा है। पर आप जब तक तमस से घिरे हैं, तब तक आप जहां भी देखें, वहीं अंधकार पाएंगे। भीतर देखें, तो अंधकार पाएंगे; बाहर देखें, तो अंधकार पाएंगे। जीवन में तलाश करें, तो आपको लगेगा, सब अंधेरा है। क्या फायदा है इस जीवन का? क्या हो रहा है? कहां मैं पहुंच रहा हूं? यह सब अंधे की तरह चला जा रहा हूं।
हर आदमी, जिसमें थोड़ा भी विचार है, विचारेगा तो फौरन पाएगा, चारों तरफ गहन अंधकार है। और इस अंधकार से कोई छुटकारा नहीं दिखता। और दीये वगैरह की बातचीत ही बातचीत मालूम होती है। कहीं कोई दीया नहीं दिखाई पड़ता; कहीं कोई प्रकाश नहीं दिखाई पड़ता।
वह अंधकार तमोगुण के कारण है। और जब तमोगुण बढ़ेगा, तो अंधकार बढ़ेगा। इसलिए आपकी जिंदगी में भी अंधकार की तारतम्यता होती है। जब कभी आप किसी सात्विक वृत्ति में डूब जाते हैं, तो आपकी जिंदगी में भी एक आलोक आ जाता है। कभी छोटे-से कृत्य में भी यह घटना घटती है।
आप राह से गुजर रहे हैं, किसी का एक्सिडेंट हो गया, कोई राह के नीचे गिर पड़ा। आप अपना काम छोड़कर उस आदमी को उठा लिए। आपके भीतर का तमस तो कहेगा कि किस झंझट में पड़ रहे हो! पुलिस थाने जाना पड़े; अस्पताल जाना पड़े। और पता नहीं कोई उपद्रव इसमें आ जाए! आपके भीतर का तमस तो कहेगा कि रास्ते पर अपने चलो। समझो कि तुमने देखा ही नहीं। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है।
लेकिन अगर उस तमस का आपने साथ न दिया, सहयोग न दिया और मन में उठी सत्व की वृत्ति का सहयोग किया; उस व्यक्ति को उठा लिया, चाहे थोड़ी झंझट हो। झंझट संभव है। झंझट नहीं होगी, ऐसा भी नहीं। थोड़ी परेशानी हो; अपना काम छोड़कर किसी दूसरे काम में उलझना पड़े। लेकिन अगर आपने उठा लिया, तो उस क्षण में आप अपने भीतर अगर ध्यान करेंगे, तो आप पाएंगे कि वहां धीमा प्रकाश है।
जीसस ने कहा है अपने अनुयायियों से, कि इसके पहले कि तुम प्रभु-मंदिर में प्रार्थना करने आओ, सोच लो, तुमने किसी का बुरा तो नहीं किया है! अगर किसी का बुरा किया है, तो जाओ, उसे ठीक कर आओ। अगर तुमने किसी को गाली दी है, तो क्षमा मांग आओ। तभी तुम प्रार्थना में उतर सकोगे। क्योंकि अगर तमस मन में लिए हुए कोई मंदिर में गया, तो भीतर अंधकार होगा; प्रकाश का पता नहीं चलेगा।
सच तो यह है कि मंदिर जाने के पहले आपको अपने सत्व को जगा लेना चाहिए, तो ही मंदिर में जाने की कोई सार्थकता है। कुछ करें, जिससे सत्व जगता हो। सत्व जग जाए, तो प्रार्थना आसान हो जाएगी। सत्व जग जाए, तो आंख बंद करने से भीतर हलका प्रकाश मालूम होगा।
यह हलका प्रकाश कोई प्रतीक नहीं है। यह वास्तविक घटना है। आप चौबीस घंटे इसका अनुभव करें। जब मन क्रोध से भरा हो, तब आंख बंद करके देखें। तब आप पाएंगे, भीतर बहुत घना अंधकार है। जब मन दया और करुणा से भरा हो, तब आंख बंद करके देखें। तब आप पाएंगे, भीतर थोड़ी रोशनी है। और जब मन ध्यान से भरा हो, तब भीतर देखें। तो पाएंगे, विराट प्रकाश है।
कबीर ने कहा है, हजार-हजार सूरज जैसे एक साथ जल गए। कबीर ने कहा है कि अब तक जिसे हमने प्रकाश समझा था, अब वह अंधेरा मालूम होता है, भीतर का प्रकाश जब से देखा।
यह प्रकाश हमें नहीं मिलता। क्योंकि इस प्रकाश को देखने के लिए सत्व की आंख चाहिए।
कृष्ण कह रहे हैं, तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश.।
अंतःकरण में अंधेरा और इंद्रियों में भी अंधेरे का एक बोध होगा। जब तम बढ़ेगा, तो आप अपने शरीर में भी पाएंगे कि एक बोझिलता है। आप पाएंगे कि जैसे शरीर वजनी है। जब आप सत्व वृत्ति से भरे होंगे, तो पाएंगे, शरीर हल्का है, आलोकित है। आप उछलते हुए चल रहे हैं। जैसे जमीन की कशिश कम काम करती है। जैसे आप पर उसका कोई प्रभाव नहीं है।
और योगियों को निरंतर अनुभव हुए हैं; और जो भी लोग ध्यान में बैठते हैं, उनको भी अनुभव होते हैं। ध्यान करते-करते अचानक ऐसा लगता है कि जमीन से उठ गए। जरूरी नहीं कि आप उठ गए हों।आंख खोलकर पाते हैं कि जमीन पर बैठे हुए हैं। लेकिन आंख बंद करके लगता है, जमीन से उठ गए।
वह अनुभव वास्तविक है। वास्तविक इस अर्थ में नहीं है कि आप जमीन से उठ गए। वास्तविक इस अर्थ में है कि भीतर आप इतने हलके हो जाते हैं कि ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जमीन से हट गए होंगे। और कभी-कभी यह घटना इतनी गहरी घटती है कि वस्तुतः शरीर जमीन से ऊपर उठ जाता है।
योरोप में एक महिला का बहुत अध्ययन चल रहा है, जो चार फीट जमीन से ऊपर अपनी ध्यान की अवस्था में उठ जाती है। जब भी वह ध्यान करती है, बस धीरे-धीरे, धीरे-धीरे शरीर उसका चार फीट ऊपर चला जाता है। उस पर बड़ा मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक अध्ययन चल रहा है। क्योंकि यह प्रकृति का गहरे से गहरा नियम है, जिसकी विपरीतता हो गई।
जमीन खींच रही है हर चीज को। और बिना किसी साधन के किसी का ऊपर उठ जाना.। लेकिन योग की पुरानी सिद्धियों में उसका उल्लेख है। निरंतर योगियों को अनुभव हुआ है। और ऐसा तो किसी को भी अनुभव होता है, जो भी थोड़ा हल्का होता है, भीतर प्रकाश भरता है, उसको लगता है कि जमीन छूट गई, जैसे वह उड़ जाएगा। उड़ने का भाव पैदा हो जाता है। वह हलकेपन के कारण है।
इंद्रियां और अंतःकरण दोनों अप्रकाश से भरते हैं तमोगुण के कारण। और कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति हो जाती है।
कर्तव्य-कर्म का अर्थ है, जिसको करना जरूरी था, अनेक कारणों से। मां बीमार है, उसके लिए दवा ले आना जरूरी था। जिसने जीवन दिया है, उसके जीवन की थोड़ी चिंता और फिक्र एकदम स्वाभाविक है। लेकिन तमस से भरा हुआ व्यक्ति उसमें भी आलस्य करेगा। वह सोचेगा; हजार तरकीबें मन में सोचेगा। न करने के उपाय सोचेगा।
वह यह भी सोच सकता है कि यह बीमारी कोई खतरनाक थोड़े ही है। वह यह भी सोच सकता है कि डाक्टर कहां ठीक कर पाते हैं! सब प्रभु की कृपा से ठीक होता है। वह यह भी सोचेगा कि भाग्य में ठीक होना होगा, तो हो ही जाएगी। नहीं होना होगा, तो कुछ किया नहीं जा सकता। वह सब बातें सोचेगा।
अक्सर तामसी वृत्ति के लोग भाग्य की बातें सोचते हैं, भगवान की बातें सोचते हैं; सिर्फ अपने को बचाने के लिए। यह भगवान और भाग्य कोई उनके जीवन की क्रांति नहीं है। यह सिर्फ पलायन और बचाव है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे मुझसे एक सवाल करीब-करीब लाखों लोग पूछते हैं। और वह सवाल है कि पुरुषार्थ बड़ा या भाग्य? और मैंने यह अनुभव किया है कि अगर उनको समझाओ कि पुरुषार्थ बड़ा, तो वे प्रसन्न नहीं होते। अगर उनको समझाओ कि भाग्य बड़ा, तो बड़े प्रसन्न लौटते हैं।
मैंने दोनों बातें करके देख ली हैं। और कई बार एक ही आदमी पर भी दोनों बातें करके देखी ली हैं। दो-तीन महीने बाद वह फिर आ जाता है! उसको मैंने समझाया था, पुरुषार्थ बड़ा। वह उसको जंचा तो नहीं, मगर मुझसे वह ज्यादा वाद-विवाद भी नहीं कर सका, तो चला गया। मगर खिन्न गया। फिर दो-चार महीने बाद भूल गया वह कि मुझसे पूछ चुका है। वह फिर आकर पूछ लेता है, पुरुषार्थ बड़ा कि भाग्य? अब मैं उसको कहता हूं, भाग्य ही बड़ा है; पुरुषार्थ में क्या रखा है! वह कहता है, बिलकुल ठीक।
इसलिए नहीं कि उसको बात समझ में आ गई। क्योंकि भाग्य तो उसको ही समझ में आ सकता है, जो अहंकार से मुक्त हो जाए; उसके पहले समझ में नहीं आ सकता। क्योंकि भाग्य का मतलब है, अब मैं नहीं हूं, यह विराट है। मेरे किए कुछ न होगा, क्योंकि मैं हूं ही नहीं। अगर हूं, तो मेरे किए कुछ हो सकता है। मैं हूं ही नहीं। विराट का कर्म है, उसमें मेरी कोई सत्ता नहीं है। भाग्य का मतलब है, मैं नहीं हूं, ब्रह्म है।
यह तो बड़े ज्ञान की बात है; समाधि में फलित होती है। लेकिन यह जो आदमी भाग्य से प्रसन्न होता है, वह तामसी है। वह असल में यह कह रहा है कि जो हो रहा है, अपने किए तो कुछ हो नहीं सकता, इसलिए क्यों करो! बैठा है। और ऐसा नहीं है कि सभी कर्म छोड़ देगा। सिर्फ कर्तव्य-कर्म छोड़ देगा। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
कृष्ण कहते हैं, कर्तव्य-कर्म छोड़ देगा।
घर में आग लग जाए, तो नहीं बैठा रहेगा कि जब भाग्य में है.। मां बीमार हो, तो कहेगा, सब भाग्य से होता है। पिता भूखा मर रहा हो, तो सोचेगा, क्या किया जा सकता है! अपने-अपने कर्मों का फल है, सबको भोगना पड़ता है। लेकिन घर में आग लग जाए, तो यह सबसे पहले भागकर खड़ा बाहर हो जाएगा। तब यह नहीं सोचेगा कि बचना होगा, तो बचेंगे; जलना होगा, तो जलेंगे। जाना कहां! आना कहां!
कर्तव्य जहां है, वहां यह तमस वृत्ति से भरा हुआ व्यक्ति कर्तव्य को काटेगा; और जहां वासना है, वहां नहीं काटेगा। और यह सब तरकीबें खोजेगा।
मैं एक घटना पढ़ रहा था। तीन यहूदी चर्चा कर रहे थे। और चर्चा थी कि किसका मंदिर प्रोग्रेसिव है, किसका मंदिर प्रगतिशील है, किसका सिनागाग सबसे ज्यादा आधुनिक है।
धार्मिक लोगों में ऐसी चर्चा चलती है। और धार्मिक लोग निरंतर सोचते हैं कि धर्म को आधुनिक होना चाहिए, आज के अनुकूल होना चाहिए। बड़े व्याख्यान, बड़ी किताबें लिखी जाती हैं कि धर्म को नया करो। इसकी भी फिक्र नहीं होती कि धर्म नया-पुराना कैसे हो सकता है।
पहले यहूदी ने कहा कि मेरे मंदिर से ज्यादा प्रगतिशील किसी का भी मंदिर नहीं है। पूछा दूसरों ने कि क्या कारण है! तो उसने कहा कि हमने जहां तोरा रखा है, जहां हमारी धर्म-पुस्तक रखी है, उसी के बगल में ऐश ट्रे भी रख दी है कि कोई सिगरेट भी पीना चाहे, तो मंदिर में पी सकता है। राख झाड़ सकता है और किताब भी पढ़ सकता है। यह प्रगतिशीलता है हमारी।
दूसरे ने कहा, यह कुछ भी नहीं है, क्योंकि हमने अपने मंदिर में टी.वी. सेट का भी इंतजाम कर दिया है। ऐश ट्रे तो बहुत पहले से रखी है। शराब भी उपलब्ध है। नाच-गाने का भी पूरा इंतजाम है। तोरा पढ़ना हो, तो पढ़ो। न पढ़ना हो, तो वह भी कोई मजबूरी नहीं है। नाच-गा सकते हो; टी.वी. देख सकते हो। हमारा मंदिर बिलकुल आधुनिक है।
तीसरे ने कहा, यह सब कुछ भी नहीं है।
तब योम किप्पूर के दिन थे; यहूदियों के धार्मिक दिन थे। तभी यह चर्चा चल रही थी।
तीसरे ने कहा, हमने अपने मंदिर पर एक तख्ती लगा दी है: क्लोज्ड बिकाज ऑफ दि होली डेज--पवित्र दिनों के कारण बंद। क्योंकि लोग मनाएं पवित्र दिन कि मंदिर आएं! लोग मजा करें कि मंदिर आएं! वह मंदिर पवित्र दिनों के लिए बनाया हुआ है, उस पर तख्ती लगा दी। यह आखिरी वक्तव्य है, अब इससे ज्यादा प्रगतिशील और कुछ हो भी नहीं सकता।
आदमी बहुत बेईमान है। वह सभी अच्छे शब्दों के पीछे अपनी गलतियों के सहारे खोज लेता है। प्रगतिशील के पीछे वह सब तरह की नासमझियां खोज लेता है। भाग्य के पीछे वह सब तरह के आलस्य को छिपा लेता है। परमात्मा के नाम के पीछे सब तरह के तमस को लेकर बैठ जाता है।
कृष्ण कहते हैं, जब तमस बढ़ता है, उसका घनीभूत रूप होता है मन में, तो कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद होता है। निद्रादि अंतःकरण की मोहिनी वृत्तियां, ये सभी उत्पन्न होती हैं।
और ज्यादा नींद आती मालूम पड़ती है। नींद का मतलब इतना ही है कि वह ज्यादा सोया रहता है। हर चीज में जागा हुआ नहीं रहता; सोया-सोया रहता है। गीता भी पढ़ेगा, तो ऐसे पढ़ रहा है, जैसे नींद में पढ़ रहा हो। सुन भी रहा है, तो ऐसे सुन रहा है, जैसे सोया हो और सुन रहा है।
धार्मिक मंदिरों में सभाओं में जाकर देखें; लोग सोए हुए हैं। कुछ डाक्टर तो कहते हैं कि नींद न आती हो, तो धार्मिक सभा में जाकर बैठें। वहां निश्चित आ जाती है। जिस पर ट्रैंक्वेलाइजर भी सफल नहीं होता, उसको भी आ जाती है। राम की कथा सुनो, एकदम नींद आने लगती है!
एक आलस्य है, जो मन को पकड़े हुए है सब तरफ। निद्रा बढ़ती है; मोहिनी वृत्तियां पैदा होती हैं।
मोहिनी वृत्ति का अर्थ है, उस चीज में ज्यादा मन लगता है, जहां बेहोशी बढ़े। शराब हो, नाच हो, संगीत हो, कामवासना हो, जहां भी निद्रा बढ़े, जहां भी जागरण की कोई जरूरत न हो, वहां उस तरफ जाने का भाव प्रवाहित होता है।
जब यह जीवात्मा सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के मलरहित अर्थात दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है।
और जब जीवनभर के अंत में जीवन का सारा निचोड़ और सार है; मृत्यु के क्षण में आपने जीवन में जो भी कमाया है, वह सारभूत सब आणविक होकर आपके साथ खड़ा हो जाता है।
अगर कोई व्यक्ति जीवनभर तमस से भरा रहा है, तो मरने के पहले बेहोश हो जाता है। अधिक लोग मरने के पहले बेहोश हो जाते हैं। मृत्यु होश में नहीं घटती। जो जीए ही नहीं होश में, वे मर कैसे सकते हैं! सिर्फ सत्व-प्रधान व्यक्ति ही मरते वक्त होश से भरे होते हैं। वह लक्षण है कि उसने जीवन में जागा हुआ होने का, अप्रमाद में रहने का प्रयास किया, तो मृत्यु जागते घटती है। वह मृत्यु को देख पाता है। और जो मृत्यु को देख पाता है, वह अमृत हो जाता है।
रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मृत्यु के क्षण में भी जीवन की ही सोचता रहता है। वह तब भी सोचता रहता है, कितने काम अधूरे रह गए। थोड़ा मौका मिल जाए, तो ये भी पूरे कर दूं। वह कभी यह नहीं सोचता कि सब भी पूरे करके क्या होगा? और काम तो अधूरे रह ही जाएंगे। क्योंकि वासनाओं का कोई अंत नहीं है। कितना ही करो, कभी भी करो, आधे में ही मरना पड़ेगा।
कोई भी आदमी पूर्ण विराम पाकर नहीं मर सकता, कि कहे कि सब काम पूरे हो गए, सब वासनाएं तृप्त हो गईं, जो करना था सब कर लिया, अब जीने का कोई कारण नहीं। नहीं, कोई आदमी ऐसा नहीं मर पाता। कुछ न कुछ बाकी रहेगा ही। और जैसे-जैसे मौत करीब आती है, वैसे-वैसे लगता है कि बहुत बाकी रह गया। समय कम और करने को ज्यादा; और करने की क्षमता रोज क्षीण होती चली जाती है।
तमोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त बेहोश हो जाता है। रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त भी मन में क्रियाएं जारी रखता है। सत्वगुण से भरा हुआ व्यक्ति मरते वक्त शांत जागरूकता में मरता है, होशपूर्वक मरता है। इन तीनों के परिणाम होंगे आने वाले जीवन पर।
जो सत्वगुण की स्थिति में मृत्यु को उपलब्ध होगा, कृष्ण कहते हैं, वह दिव्य स्वर्गादिक लोकों में प्रवेश कर जाता है।
सत्व की स्थिति में जो मरता है, वह परम सुख की अवस्था में प्रवेश कर जाता है। स्वर्ग परम सुख की अवस्था है। लेकिन ध्यान रखें, अंतिम अवस्था नहीं है। सुख की ही अवस्था है; आनंद की अवस्था नहीं है। और आनंद और सुख में इतना ही फर्क है कि सुख की अवस्था शाश्वत नहीं है, समाप्त होगी। और आनंद की अवस्था शाश्वत है, समाप्त नहीं होगी।
सुख की अवस्था के बाद फिर दुख आएगा। जैसे दिन के बाद रात आती है, ऐसा सुख के बाद फिर दुख आएगा। चाहे सुख कितना ही लंबा हो, लेकिन दुख से छुटकारा नहीं है। दुख पीछे खड़ा हुआ प्रतीक्षा कर रहा है। सुख एक कमाई है, जो चुक जाएगी। इसलिए स्वर्ग में गया हुआ वापस लौट आएगा; कितने ही समय के बाद, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वापस लौटना सुनिश्चित है।
सुख अंतिम नहीं है। उसके साथ दुख जुड़ा है। आनंद अंतिम है। उसके साथ फिर कुछ भी नहीं जुड़ा है। जो आनंद में प्रविष्ट हो गया, उसका पुनरागमन नहीं है; वह वापस नहीं लौटता।
सत्व की स्थिति में मरा हुआ व्यक्ति स्वर्ग में प्रवेश पाता है। जिसने जीवनभर साधुता साधी हो, सत्व को जगाया हो, होश को निर्मित किया हो, वह स्वर्ग में प्रवेश करता है।
रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।
और अगर रजोगुण पीछे पड़ा रहा हो, मरते क्षण में भी योजनाएं बनती रही हों, फाइव इयर प्लान तैयार होते रहे हों, तो ऐसा आदमी मरकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।
कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्य हैं। कोई धन के लिए दौड़ रहा है, कोई पद के लिए दौड़ रहा है, कोई प्रतिष्ठा के लिए दौड़ रहा है। कुछ करना है उन्हें। कुछ करके दिखाना है, चाहे कोई देखने को उत्सुक हो या न हो। चाहे कुछ करने से फल आता हो, न आता हो। सिकंदर और नेपोलियन सब कर-कर के मर जाते हैं, कुछ परिणाम आता नहीं। लेकिन कुछ करके दिखाना है!
यह जो करने की वृत्ति पैदा होती है, इसके लक्षण मां के पेट में बच्चा होता है, तब भी दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। वह जो रजोगुणी बच्चा है, वह मां के पेट में भी हलन-चलन ज्यादा मचाता है। इसलिए मां जान जाती है कि पेट में लड़की है या लड़का। अगर लड़का है, तो थोड़ा उपद्रव ज्यादा करता है। क्योंकि पुरुष ज्यादा रजोगुण-प्रधान है। स्त्री ज्यादा तमोगुण-प्रधान है। इसलिए लड़की होती है, तो वह शांत पड़ी रहती है। लड़का होता है, तो वहां थोड़ी कुछ क्रांति खड़ी करता है। उसमें भी अगर राजनीतिज्ञ होने वाला हो.!
मुल्ला नसरुद्दीन का लड़का था। तो वह उसके संबंध में सोचता था कि यह क्या बने, क्या न बने! तो उसने एक दिन कुरान रख दी, पास में एक सौ का नोट रख दिया, और एक तलवार रख दी। सोचा, तलवार उठा लेगा अंदर जाकर कमरे में, तो समझेंगे कि योद्धा बनेगा। कुरान उठा लेगा, तो समझेंगे कि धर्मगुरु, पुरोहित, साधु, फकीर, धर्म की यात्रा पर जाएगा। सौ का नोट उठा लेगा, तो समझेंगे कि धन, व्यवसाय, नौकरी, पेशा, कहीं धन कमाएगा।
छिपकर देखता रहा। लड़का अंदर गया। वह नसरुद्दीन का ही लड़का था। उसने कुरान उठाकर बगल में दबाई; सौ का नोट खीसे में रखा; तलवार लेकर चल पड़ा। नसरुद्दीन ने कहा, यह राजनीतिज्ञ बनेगा! उसने कुछ छोड़ा ही नहीं। तीनों चीजें ले गया।
वह जो रजोगुण से भरा हुआ व्यक्तित्व है.।
जीन पियागे ने बहुत अध्ययन किया है छोटे बच्चों का चालीस वर्षों तक निरंतर। उसका कहना है, पहले दिन से भी लक्षण अलग हो जाते हैं। वह जो तमोगुण-प्रधान बच्चा है, वह पड़ा रहता है। मां के पेट से जन्म के बाद भी वह तेईस घंटे, बाईस घंटे सोता है।
वह जो रजोगुण-प्रधान है, वह हाथ-पैर चलाने लगता है, चीजों को पकड़ने की कोशिश शुरू कर देता है, चीखता-चिल्लाता है। वह खबर देता है कि मैं हूं। मेरी तरफ ध्यान दो। उसके चीखने-चिल्लाने का मतलब है कि क्या, मेरी तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा? ध्यान दो, मैं भी यहां हूं!
वह जो सत्वगुण-प्रधान है, अक्सर उसकी आंखें खुल जाएंगी और एकटक एक तरफ देखता रहेगा। उसने ध्यान के कुछ प्रयोग पिछले जन्मों में साधे होंगे। तो उसकी आंखें अक्सर एकटक, एक जगह उलझ जाएंगी। चीजों में उसका उतना रस नहीं होगा। इधर से उधर, यह देखना, वह देखना नहीं; यह पकड़ना, वह पकड़ना नहीं। शरीर उसका शांत होगा और आंखें थिर होंगी। उसकी आंखों की थिरता कहेगी कि भीतर एक सात्विकता है।
मरते वक्त हम अपना अगला जन्म निश्चित कर रहे हैं। जो गुण सघन हो जाता है, वही हमें अगले जन्म की यात्रा पर भेद पैदा करता है।
रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है।
आपने नाम सुना डिजरायली का। छोटा बच्चा था, तो कुछ भी उपद्रव करने की वृत्ति थी। कोई उस पर ध्यान न दे, तो बहुत अड़चन हो जाती थी। घर में कोई मेहमान आ जाए, तो वह जरूर कोई उपद्रव खड़ा कर देता था। मां-बाप परेशान थे। क्योंकि घर में कोई न हो, तो वह ठीक रहता। लेकिन मेहमान आए, कि वह कुछ उपद्रव खड़ा कर देगा। क्योंकि मेहमानों का ध्यान किसी और पर नहीं होना चाहिए, उस पर ही होना चाहिए।
एक बार तो वह चर्च पर चढ़ गया। और जहां चर्च का त्रिशूल लगा था ऊपर, उससे जाकर अटक गया। सारा गांव इकट्ठा हो गया। और लोग चिल्ला रहे हैं कि तू उतर आ वापस। किसी दूसरे की चढ़ने की हिम्मत भी नहीं उस चर्च की मीनार पर। और वह वहां प्रसन्नता से खड़ा है।
जब उसके बाप ने उससे पूछा कि तू चाहता क्या था वहां चढ़कर? उसने कहा, क्या चाहता था? पूरा गांव देख ले!
वह इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बना।
लार्ड क्लाइव को हिंदुस्तान भेजा गया था। और कुल कारण इतना था कि मां-बाप परेशान हो गए। उसके उपद्रव से पूरा गांव परेशान हो गया। एक बार बाप एक साइकिल खरीद लाया क्लाइव के लिए। उसकी मां ने कहा, यह किस लिए लाए हो? क्या इससे इसके उपद्रव कम हो जाएंगे! उसके बाप ने कहा, उपद्रव कम नहीं होंगे; क्षेत्र थोड़ा बड़ा हो जाएगा। यहीं-यहीं मोहल्ले में परेशान किए दे रहा है। क्षेत्र जरा बड़ा हो जाएगा। साइकिल हाथ में रहेगी, तो पूरे गांव को परेशान करेगा। तो थोड़ी मात्रा कम हो जाएगी। बड़ा क्षेत्र होगा, उपद्रव बंट जाएगा। हम परेशान हो गए। अब कोई और उपाय नहीं।
गांव में जोर की वर्षा हुई; पानी भर गया नालियों में। तो क्लाइव के घर में और मोहल्ले में सबसे ज्यादा पानी था। और घर में पानी भरने लगा। सब हैरान हुए कि क्लाइव कहां है!
वह नाली में लेटा हुआ था पानी रोके हुए, ताकि वह घर में भर जाए पानी! उसको निकालकर उसके बाप ने फौरन मिलिट्री में भेज दिया। उसने कहा कि इसको यहां रोकना ठीक ही नहीं। यह जब तक मरेगा-मारेगा नहीं.यह तो उपद्रव है!
वह आदमी, लार्ड क्लाइव, हिंदुस्तान में अंग्रेजों का राज्य जमाने में बड़े से बड़ा आधार सिद्ध हुआ।
रजोगुण से भरा हुआ व्यक्ति कुछ विक्षिप्त कर्मों में दौड़ना चाहता है। अहंकार प्रकट होकर दिखाई पड़े; अहंकार सूरज की तरह जले और हजारों लोग देखें; बस, वही उसकी कामना होती है।
और तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ पुरुष मूढ़ योनि में उत्पन्न होता है।
मूढ़ योनि की बड़ी गलत परिभाषाएं हुई हैं। अनेक गीता के व्याख्याकारों ने मूढ़ योनि का अर्थ लिया है कि वह पशुओं में चला जाता है। वह गलत है। क्योंकि लौटकर नीचे गिरने का कोई उपाय जगत में नहीं है। कोई मनुष्य की स्थिति में एक बार आ जाए, तो वापस पशु नहीं हो सकता। क्योंकि वापस पशु होने का तो मतलब यह हुआ कि मनुष्यता तक पहुंचने की जो कमाई थी, उसका क्या होगा।
चेतना कभी पीछे नहीं लौटती। रुक सकती है। आगे न जाए, यह हो सकता है। अवरुद्ध हो जाए, लेकिन पीछे नहीं लौट सकती। एक बच्चा अगर दूसरी कक्षा में आ गया, तो उसको पहली कक्षा में वापस भेजने का कोई उपाय नहीं। वह दूसरी में पचास साल रुके, तो रुक सकता है, कोई हर्जा नहीं। लेकिन उसको पहली में वापस करने की कोई व्यवस्था नहीं है। क्योंकि वह पहली पार कर ही चुका। और जो हम जान चुके, उसे न-जाना नहीं किया जा सकता। जो हम कर चुके, उस अनकिया नहीं किया जा सकता।
इसलिए मेरी दृष्टि में जिन-जिन व्याख्याओं में कहा गया है कि तमस से भरा हुआ व्यक्ति पशुओं की योनि में चला जाता है, ये व्याख्याएं गलत हैं। और जिन्होंने की हैं, वे केवल शब्दों के आधार पर व्याख्याएं कर रहे हैं।
मूढ़ योनि का मतलब है कि मनुष्यों में ही, जैसे कर्म से भरे हुए लोग हैं, सत्व से भरे हुए लोग हैं, वैसे ही तमस से भरे हुए मूढ़ लोग हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पांच प्रतिशत बच्चे मूढ़ योनि में हैं, जिनको हम ईडियट कहें, इम्बेसाइल कहें। पांच प्रतिशत बच्चे। न कोई बुद्धि है, न कुछ करने का भाव है। अपने जीवन की रक्षा तक की सामर्थ्य नहीं है। जो मूढ़ बच्चा है, घर में आग लग जाए, तो भागकर बाहर नहीं जाएगा। उसको यह भी पता नहीं है कि मुझे अपने को बचाना है। इतना भी कर्म पैदा नहीं होता। यह योनि मूढ़ योनि है। जिसको मनोवैज्ञानिक ईडियोसि कहते हैं, उसको ही कृष्ण ने मूढ़ कहा है।
मूढ़ का मतलब पशु नहीं है। अगर पशु ही कहना होता, तो पशु ही कह दिया होता, मूढ़ कहने की कोई जरूरत न थी। पशु मूढ़ नहीं होते, सिर्फ मनुष्य ही मूढ़ हो सकता है। पशु मूर्ख नहीं होते, सिर्फ मनुष्य ही मूर्ख हो सकता है।
जो सत्व-प्रधान हैं, वे भी पांच प्रतिशत होते हैं। यह बड़ी आश्चर्यजनक बात है। मनोविज्ञान के आधार पर पांच प्रतिशत लोग टैलेंटेड होते हैं, प्रतिभाशाली होते हैं। वैज्ञानिक हैं, कवि हैं, दार्शनिक हैं, संत हैं। पांच प्रतिशत लोग एक छोर पर प्रतिभासंपन्न होते हैं। और ठीक पांच प्रतिशत लोग दूसरे छोर पर मूढ़ होते हैं। बाकी नब्बे प्रतिशत लोग बीच में होते हैं। ये मध्यवृत्तीय लोग हैं, मध्यवर्गीय लोग हैं।
ये जो मध्यवर्गीय लोग हैं, इनमें मूढ़ता भी सम्मिलित है, बुद्धिमत्ता भी सम्मिलित है। ये दोनों का मिश्रण हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि स्थिति करीब-करीब ऐसी है, जैसा शिव का डमरू होता है, उसको हम उलटा कर लें। शिव का डमरू बीच में तो पतला होता है, दोनों तरफ बड़ा होता है। बीच में संकरा हो जाता है। इसको हम उलटा कर लें। दोनों तरफ संकरा और बीच में चौड़ा। तो दोनों तरफ संकरे छोरों पर पांच-पांच प्रतिशत लोग हैं।
वे जो पांच प्रतिशत लोग हैं, वे सत्व के कारण इस जगत में प्रतिभा से भरे हुए पैदा होते हैं। प्रतिभासंपन्न होना ही स्वर्ग में होना है। प्रतिभा सुख है। सुख की सूक्ष्म अनुभूति। और पांच प्रतिशत लोग मूढ़ होते हैं, जिनको कुछ भी होश नहीं, जिनको खाने-पीने का भी होश नहीं, जिनको उठने-बैठने का भी पता नहीं। बाकी लोग बीच में हैं, नब्बे प्रतिशत लोग।
ठीक मध्य में बड़े से बड़ा वर्ग है। करीब पचास प्रतिशत लोग ठीक मध्य में हैं। ये पचास प्रतिशत लोग दोनों तरफ यात्रा कर सकते हैं। चाहें तो कभी भी मूढ़ हो सकते हैं, और चाहें तो कभी भी प्रतिभा अर्जित कर सकते हैं। और यह निर्धारण मरने के क्षण में हो जाता है कि आप कैसे मर रहे हैं। तम से भरे हुए मर रहे हैं, रज से भरे हुए मर रहे हैं, सत्व से भरे हुए मर रहे हैं। बीच के जो लोग हैं, ये रजो-प्रधान हैं। तमो-प्रधान एक छोर पर हैं। सत्व-प्रधान दूसरे छोर पर हैं।
इस पूरी व्यवस्था को बदलने का एक ही उपाय है कि आप अपने भीतर गुणों की तारतम्यता को बदल लें। और यह कोई मरते क्षण के लिए मत रुके रहें कि मरते वक्त एकदम से सत्व-प्रधान हो जाएंगे। कोई कभी नहीं हो सकता।
मरते वक्त कुछ किया नहीं जा सकता। आपने जो जीवनभर में किया है, उसको ही इकट्ठा किया जा सकता है। जो कमाया है, वही। और आपके हाथ में फिर बदलाहट नहीं है। क्योंकि जीवन क्षीण हो रहा है, आप कुछ कर नहीं सकते।
अनेक लोग सोचते हैं, मरते वक्त राम का नाम ले लेंगे। जिन्होंने जीवनभर नहीं लिया राम का नाम, मरते वक्त उनके गले से वह शब्द न उठेगा। उनके होंठ सूख जाएंगे। उनके हृदय में कहीं छाया भी राम की न मिलेगी। उस वक्त तो वही शब्द उठेगा, जो उन्होंने जिंदगीभर सोचा है। कोई धन सोच रहा था, तो धन उठ सकता है। नोट दिखाई पड़ सकते हैं। तिजोरियां दिखाई पड़ सकती हैं। राम नहीं दिखाई पड़ेंगे।
वही जीवन के अंत में प्रकट होता है, जिसे हमने जीवनभर सम्हाला, बुलाया, निमंत्रण दिया है। इसलिए कल की प्रतीक्षा मत करें। और मृत्यु की राह मत देखें। जीवन ही जगह है, जहां हम अपनी मृत्यु को भी कमाते हैं।
ध्यान रहे, मृत्यु कमाई जाती है, मुफ्त नहीं मिलती। जितना आप कमाते हैं, वैसी मृत्यु हो जाती है। और जैसी मृत्यु, फिर वैसा नया जन्म हो जाता है। मृत्यु बड़ी सार्थक घटना है। क्योंकि नया जन्म उस पर निर्भर होगा। वह बीज है। नया जन्म, उससे वृक्ष बनेगा।
जीवन को सत्व की तरफ ले चलें, तो आप स्वर्ग की तरफ अनिवार्य रूप से चलते जा रहे हैं।
स्वर्ग एक मनोदशा है। आप कहां हैं, यह सवाल नहीं है, कि कहीं आकाश में स्वर्ग है, वहां आप हैं। स्वर्ग एक मनोदशा है। आप जहां भी हों, सत्व से भरा हुआ व्यक्ति स्वर्ग में है।
आज इतना ही।