BHAGWAD GEETA

Geeta Darshan Vol-14 04

Fourth Discourse from the series of 10 discourses - Geeta Darshan Vol-14 by Osho. These discourses were given in BOMBAY during DEC 01-10 1973.
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रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा।। 10।।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत।। 11।।
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।। 12।।
और हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण होता है अर्थात बढ़ता है तथा रजोगुण और सत्वगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है; वैसे ही तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है।
इसलिए जिस काल में इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता और बोध-शक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा है।
और हे अर्जुन, रजोगुण के बढ़ने पर लोभ और प्रवृत्ति अर्थात सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के कर्मों का स्वार्थ-बुद्धि से आरंभ एवं अशांति अर्थात मन की चंचलता और विषय-भोगों की लालसा, ये सब उत्पन्न होते हैं।
पहले थोड़े प्रश्न।

पहला प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि कृष्ण चाहते हैं अर्जुन मिट जाए और इसीलिए अलग-अलग द्वारों से गीता के अलग-अलग अध्यायों में वे अर्जुन को मिटने का उपाय बता रहे हैं। और आपने यह भी कहा कि कृष्ण अर्जुन का भविष्य जानते हैं। तो यह समझाएं कि यदि कृष्ण पहले से ही जानते हैं कि अर्जुन का भविष्य क्या है, स्वधर्म क्या है, तो फिर इतने सारे विभिन्न मार्गों का अर्जुन को उपदेश क्यों दे रहे हैं? उन मार्गों को क्यों समझा रहे हैं, जो अर्जुन के स्वधर्म के अनुकूल नहीं हैं?
निश्चय ही कृष्ण जानते हैं अर्जुन का भविष्य; व्यक्ति की तरह नहीं, मनुष्य की तरह। वह जो अर्जुन नाम का व्यक्ति है, उसका भविष्य नहीं जाना जा सकता। लेकिन वह जो अर्जुन के भीतर छिपी हुई चेतना है, उसका भविष्य जाना जा सकता है।
इस अर्थ में तो कृष्ण जैसा व्यक्ति सभी का भविष्य जानता है, आपका भी। क्योंकि वह जो भीतर छिपा हुआ बीज है, उसका अंतिम परिणाम मोक्ष है। वही भविष्य है। वह सभी का भविष्य है।
नदी बहती है; वह चाहे गंगा हो, चाहे यमुना हो, चाहे गोदावरी हो, चाहे नर्मदा हो, भविष्य ज्ञात है कि वे सागर में गिरेंगी। हर नदी सागर में गिरेगी। लेकिन प्रत्येक नदी अलग-अलग मार्गों से बहेगी, अलग-अलग पर्वतों को तोड़ेगी, अलग चट्टानों में मार्ग बनाएगी। प्रत्येक नदी का मार्ग तो अलग-अलग होगा, लेकिन अंत एक होगा।
मनुष्य का भविष्य ज्ञात है। जैसे बीज का भविष्य ज्ञात है कि वह वृक्ष होगा, वैसे ही मनुष्य का भविष्य ज्ञात है कि वह अंततः परम स्थिति को उपलब्ध हो जाएगा। वही अर्जुन के संबंध में भी ज्ञात है। लेकिन अर्जुन का जो व्यक्तित्व है अज्ञान से भरा हुआ; अर्जुन का जो व्यक्तित्व है अनंत संदेहों, अविश्वासों, शंकाओं, समस्याओं से भरा हुआ; वह जो रुग्ण चित्त है, उस रुग्ण चित्त का कोई भविष्य किसी को भी ज्ञात नहीं है। उस रुग्ण चित्त की यात्रा अनेक ढंग से हो सकती है। इसलिए कृष्ण अनेक मार्गों की बात कर रहे हैं।
पहली तो बात यह खयाल में ले लें। अर्जुन भी बहुत तरह से यात्रा कर सकता है। विकल्प अनेक हैं। अगर प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक ही मार्ग होता, सुनिश्चित, तब तो कोई अर्थ न था कृष्ण का इतने मार्गों की बात करने का। लेकिन एक व्यक्ति भी बहुत-सी संभावनाएं लिए हुए है। और हर संभावना का द्वार खुला छोड़ देना जरूरी है, ताकि अर्जुन चुनाव कर सके। और चुनाव के लिए जरूरी है कि सभी मार्ग स्पष्ट हों, अन्यथा भ्रांति हो सकती है। हर मार्ग उसकी परिपूर्णता में स्पष्ट हो जाए, तो अर्जुन का बोध स्वयं ही उस मार्ग को पकड़ने लगेगा, जो मार्ग उसके अनुकूल है।
आपके सामने चुनाव होने चाहिए पूरे। अगर एक भी मार्ग आपके सामने न रखा जाए, तो भी आप कुछ चुनेंगे। और यह भी हो सकता है कि जो मार्ग आपके सामने नहीं था, वही आपके लिए निकटतम मार्ग होता।
फिर कृष्ण अर्जुन के लिए मार्ग नहीं चुन रहे हैं। सिर्फ अर्जुन को मार्ग दिखा रहे हैं। चुनाव अर्जुन को स्वयं ही करना है।
इसे खयाल में ले लें। अंतिम चुनाव सदा आपका है। गुरु इशारे कर सकता है, स्पष्ट कर सकता है, लेकिन चुनाव सदा आपका है।
बहुत-से लोग इस भ्रांति में होते हैं। कोई गुरु आपके लिए चुन नहीं सकता। आपको चुनना पड़ेगा। गुरु सारे मार्ग स्पष्ट कर देगा। उन सारे स्पष्ट मार्गों के बीच निर्णय आपको लेना है। और अगर आप यह तय करते हैं कि गुरु ही हमारे लिए चुने, यही आपका निर्णय है, तो यह निर्णय भी आपका है। अंतिम निर्णायक आप हैं।
अगर आप सारे मार्गों के संबंध में समझकर--क्योंकि यह भी एक मार्ग है कि गुरु आपके लिए चुने--यही निर्णय लेते हैं कि गुरु हमारे लिए चुने, तो आपने गुरु को तो चुना। गुरु आपके लिए चुने, यह भी आपने चुना। और अंतिम निर्णायक सदा आप हैं। आत्मा से अंतिम निर्णय नहीं छीना जा सकता।
इसलिए जो परम गुरु है, वह सारे मार्ग स्पष्ट कर देगा। वह कुछ भी छिपाकर न रखेगा।
बुद्ध ने जगह-जगह बार-बार कहा है कि मेरी मुट्ठी खुली हुई है। उसमें मैंने कुछ भी छिपाया नहीं है। अनेक बार बुद्ध के शिष्यों को लगा है कि बुद्ध जितना कह रहे हैं, पता नहीं वे पूरा कह रहे हैं जो उन्होंने जाना है या कुछ छिपा रहे हैं।
आनंद उनसे एक दिन पूछ रहा है कि आपने सब कह दिया जो जाना है या आपने कुछ छिपाया है?
बुद्ध ने कहा, मेरी मुट्ठी खुली हुई है। मैंने कुछ भी नहीं छिपाया। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैंने जो-जो दिखाया है, वह तुम्हें दिखाई पड़ने लगा है। क्योंकि तुम्हारी आंखें पूरी खुली हुई नहीं हैं। मुट्ठी भी पूरी खुली हो, तो भी तो देखने वाले की आंख पूरी खुली होनी चाहिए।
कृष्ण की मुट्ठी बिलकुल खुली हुई है। उन्होंने सारे मार्ग अर्जुन के सामने रख दिए हैं, सब विकल्प स्पष्ट कर दिए हैं; और अर्जुन को इस चौराहे पर खड़ा कर दिया है कि वह चुनाव कर ले। उन्होंने प्रत्येक मार्ग की पूरी प्रशंसा कर दी है। प्रत्येक मार्ग का पूरा विश्लेषण कर दिया है। किसी मार्ग के साथ पक्षपात भी नहीं किया कि सभी मार्गों में एक श्रेष्ठ है। ऐसा अगर उन्होंने कहा होता, तो उसका मतलब होता कि वे अर्जुन को बेच रहे हैं मार्ग। कोई चीज अर्जुन को बेचना चाहते हैं। स्पष्ट नहीं, सीधे नहीं, परोक्ष मार्ग से अर्जुन को राजी करना चाहते हैं कि तू इसे चुन ले।
इसलिए कृष्ण ने सभी मार्गों की जो गरिमा है, वह प्रकट कर दी है, बिना किसी एक मार्ग को सब मार्गों के ऊपर रखे। चुनाव के लिए अर्जुन पूरा स्वतंत्र है। पहला तो इस कारण।
और दूसरा इस कारण भी, एक बहुत पुरानी अरबी कहावत है कि इसके पहले कि आदमी सही जगह पर पहुंचे, उसे बहुत-से गलत दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं। इसके पहले कि कोई आदमी ठीक द्वार पर आ जाए, उसे बहुत-से गलत दरवाजों में भी खोजना पड़ता है।
असल में गलत में जाना भी ठीक पर आने के लिए अनिवार्य अंग है। भूल करना भी ठीक हो जाने की प्रक्रिया का हिस्सा है।
यह थोड़ा जटिल है। क्योंकि हम सोचते हैं, जो ठीक है, जो साफ है, वह हमें दे दिया जाए। लेकिन आप समझ नहीं पा रहे हैं। आध्यात्मिक जीवन कोई वस्तु की भांति नहीं कि आपके हाथ में दे दें। आध्यात्मिक जीवन वस्तु नहीं है, एक ग्रोथ, एक विकास है।
और ध्यान रहे, जब भी किसी को विकसित होना हो, तो उसे गलत से भी गुजरना पड़ता है, भ्रांत से भी गुजरना पड़ता है; भटकना भी पड़ता है। भटकाव भी आपको प्रौढ़ता लाता है। जो व्यक्ति भूल करने से डरता है, वह ठीक तक कभी भी नहीं पहुंच पाएगा। डर के कारण वह कदम ही नहीं उठाएगा। भय के कारण वह पंगु हो जाएगा, रुक जाएगा।
डर तो सदा है कि गलती हो जाए। और अगर जीवन में डर न हो गलती होने का, तो जीवन में कोई रस ही न हो; जीवन एक मुर्दा चीज हो। सिर्फ मरे हुए आदमी भूल नहीं करते। जिंदा आदमी तो भूल करेगा। और जितना जिंदा आदमी होगा, उतनी ज्यादा भूल करेगा।
एक ही बात खयाल रखने की है कि जिंदा आदमी एक ही भूल दुबारा नहीं करेगा। बहुत भूलें करेगा; लेकिन एक ही भूल दुबारा नहीं करेगा। और जितनी ज्यादा भूलें कर सकें आप, जितनी नई भूलें कर सकें, उतने आप प्रौढ़ होंगे। हर भूल सिखाती है। हर भूल भूलों को कम करती है। हर भूल से आप सही के करीब सरकते हैं।
तो एक तो जैसा साधारणतः आलसी मन की आकांक्षा होती है कि गुरु कुछ बना-बनाया, रेडीमेड, हाथ में दे दे। तो आपकी झंझट बच गई। झंझट क्या बच गई! आपके विकास की सारी संभावना ही समाप्त हो गई।
आप कैसे बढ़ेंगे? आपका बीज कैसे अंकुरित होगा? आप कैसे वृक्ष बनेंगे? तूफान से डरते हैं, हवाओं से डरते हैं, वर्षा से डरते हैं, धूप भी आएगी, सब होगा। उन सबके बीच आप टिक सकें, इसकी सामर्थ्य, इसका साहस चाहिए।
कोई आपका हाथ पकड़कर और परमात्मा तक पहुंचा दे, तो आप तो मुर्दा होंगे ही, वह परमात्मा भी मुर्दा होगा जिस तक आप पहुंचेंगे। तो कोई आपका हाथ पकड़कर कहीं पहुंचा नहीं सकता।
अर्जुन की भी आकांक्षा यही है कि कृष्ण सीधा क्यों नहीं कह देते! जिम्मेवारी खुद ले लें। सीधी बात कह दें। हां और न में वह भी उत्तर चाहता है।
हम सभी हां और न में उत्तर चाहते हैं। कई बार मेरे पास लोग आ जाते हैं; वे कहते हैं, आप सीधा हां और न में हमें कह दें। ईश्वर है या नहीं? आप हां या न में कह दें। जैसे ईश्वर कोई गणित का सवाल है या तर्क की पहेली है कि हां और न में उसका जवाब हो सकता हो!
ईश्वर तक वही पहुंचेगा, जो न से भी गुजरे, हां से भी गुजरे और जो दोनों के पार हो जाए। और उस घड़ी में आ जाए, जहां न तो हां कहना सार्थक मालूम पड़े, न न कहना सार्थक मालूम पड़े। वही पहुंच पाएगा।
जो सोचे कि न कहने से बच जाऊं, सिर्फ हां कह दूं, उसकी आस्तिकता लचर और कमजोर होगी। जो आस्तिकता न की अग्नि से नहीं गुजरी है, वह कचरा है; उसमें से कचरा तो जल ही नहीं पाया, सोना तो निखर नहीं पाया।
और जो नास्तिकता सिर्फ न पर रुक गई और हां तक नहीं पहुंची, उस नास्तिकता में कोई प्राण नहीं है। क्योंकि न में कोई प्राण नहीं होते। प्राण तो हां से आते हैं। वह नास्तिकता सिर्फ बौद्धिक होगी; उससे जीवंत आंदोलन, भीतर की क्रांति, रूपांतरण संभव नहीं है।
हां और न दोनों से गुजरकर जो दोनों के पार हो जाता है, वह पहली दफा धार्मिक होता है। लेकिन वह धार्मिकता बड़ी विराट है।
अर्जुन की आकांक्षा है कि कृष्ण कुछ कह दें सीधा सूत्र, फार्मूला। वह खुद विकसित नहीं होना चाहता। कोई भी विकसित नहीं होना चाहता।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, आप कुछ कर दें कि मन शांत हो जाए। अशांत तुमने किया, जन्मों-जन्मों में। मेरा उसमें जरा भी हाथ नहीं। शांत मैं करूं! यह हो नहीं सकता। और जो कहता है कि ऐसा करेगा, वह आपको धोखा दे रहा है। और वह आपको और इस जीवन को भी अशांति में बिताने का उपाय किए दे रहा है।
अगर यह हो सकता है कि कोई और आपके मन को शांत कर दे, तो ध्यान रखना, वह शांति बहुत कीमत की नहीं है। क्योंकि कोई आपको अशांत कर सकता है फिर। उस शांति के आप मालिक नहीं हैं, जो दूसरे ने आपको दी है। वह छीनी भी जा सकती है। और ऐसी शांति का क्या मूल्य, जो छीनी जा सके! ऐसे अध्यात्म का क्या मूल्य है, जो कोई दे और कोई ले ले! जिसका दान हो सके, जिसकी चोरी हो सके!
सिर्फ आपके भीतर जो विकसित होता है, वह छीना नहीं जा सकता।
इसलिए कृष्ण हां और न में उत्तर नहीं दे रहे हैं। कृष्ण सारे विकल्प सामने रखे दे रहे हैं। उससे अर्जुन और भी बिगूचन में पड़ गया; और भी उलझन में पड़ा जा रहा है। उसने जितने प्रश्न उठाए थे, कृष्ण ने उनसे ज्यादा उत्तर दे दिए हैं। उसने जो पूछा था, उससे बहुत ज्यादा कृष्ण दिए दे रहे हैं। उससे वह और डांवाडोल हुआ जा रहा होगा। उसकी बेचैनी और बढ़ रही होगी। वह वैसे ही उलझा है और इतनी बातें और उलझा देंगी।
मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं, हम आपको नहीं सुने थे, तभी ठीक थे। आपको सुनकर हम और भी उलझ गए हैं। आप इतनी बातें कहे चले जा रहे हैं! आप हमें कुछ साफ-साफ कह दें; निश्चित कह दें। और वही करने को हमें बता दें।
आपको पता नहीं, आप अपनी आत्महत्या मांग रहे हैं। आप जीने से डरे हुए हैं। आप मरे-मराए सूत्र चाहते हैं। कोई कृष्ण, कोई बुद्ध आपके साथ आपकी आत्मघाती वृत्ति में सहयोग नहीं दे सकता है।
अर्जुन चाहे और बेचैन हो जाए, कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि आप ठीक से बेचैन हो जाएं, तो आप चैन के मार्ग को खोजने में तत्पर हो जाएंगे। शायद और उलझ जाए, कोई हर्जा नहीं है। भय क्या है? इस और उलझन से सुलझाने की जो चेष्टा होगी, उससे आपका भीतरी विकास होगा, अंतःप्रज्ञा जगेगी। संघर्ष से ही उस भीतर की अंतःप्रज्ञा का जन्म है।
तो कृष्ण सब उपस्थित किए दे रहे हैं, और अर्जुन पर छोड़े दे रहे हैं कि वह चुने। वे सूत्र भी उसे दे रहे हैं वे, जिन्हें अर्जुन चुने, तो भटकेगा; जिनसे उसके स्वधर्म का कोई मेल नहीं है। वे सूत्र भी दे रहे हैं, जिन्हें अर्जुन चुन ले, तो वह मार्ग पर चल पड़ेगा। लेकिन कृष्ण बिलकुल बिना पक्षपात के दोनों बातें कहे दे रहे हैं।
कृष्ण सिर्फ कह ही नहीं रहे हैं, कहते वक्त वे देख भी रहे हैं, अर्जुन का निरीक्षण भी कर रहे हैं; अर्जुन को जांच भी रहे हैं, वह किस तरफ झुकता है! क्यों झुकता है!
गुरु के लिए यह भी जानना जरूरी है कि शिष्य कहां-कहां झुक सकता है; क्या-क्या चुन सकता है। क्या गलत की तरफ उसकी वृत्ति हो सकती है? या कि सही के प्रति उसका सहज झुकाव है।
कृष्ण अगर बोल ही रहे होते, तो भी एक बात थी। पूरे समय अर्जुन कृष्ण के सामने जैसे एक प्रयोगशाला की टेबल पर लेटा हो, जहां उसका डिसेक्शन भी हो रहा है, जहां उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े तोड़े जा रहे हैं, जहां उसके मन को तोड़ा जा रहा है। और कृष्ण की गहरी आंखें उसको देख रही हैं कि वह क्या कर रहा है! उसके ऊपर क्या प्रभाव पड़ते हैं! जब कृष्ण कुछ कहते हैं, तो उसके चेहरे पर क्या आकृति आती है! उसके भीतरी प्रभामंडल में क्या घटनाएं घटती हैं! उसके आस-पास चेहरे का जो प्रकाश-वर्तुल है, उस पर कौन से रंग फैल जाते हैं!
यह एक गहरा निदान है, जहां अर्जुन ठीक एक्सरे के सामने खड़ा है। और जहां उसका रोआं-रोआं जांचा जा रहा है। अर्जुन को शायद इसका पता भी न हो। अर्जुन शायद सिर्फ सोच रहा हो कि मेरे प्रश्नों के उत्तर दिए जा रहे हैं। कोई गुरु सिर्फ आपके प्रश्नों के उत्तर नहीं देता। प्रश्नों के उत्तर के माध्यम से आपको परखता है, जांचता है, तोड़ता है, पहचानता है। आपके झुकाव देखता है।
मेरे पास लोग आते हैं। कोई मेरे पास कुछ दिन पहले आया, उसने कहा कि जो भी आप कहें, मैं करने को राजी हूं। वह यह कह रहा है, लेकिन उसका पूरा व्यक्तित्व इसका इनकार कर रहा है। उसके चेहरे पर यह कहते वक्त कोई प्रसन्नता का भाव नहीं है, कोई आनंद की झलक नहीं है। वह धोखा दे रहा है। उसके कहने पर भरोसा करने का कोई कारण नहीं है। वह कहने के लिए कह रहा है, शायद औपचारिक। शायद उसका यह मतलब भी नहीं है। शायद उसने ठीक से सोचा भी नहीं है कि वह क्या कह रहा है कि जो आप कहेंगे, वह मैं करूंगा!
यह बहुत बड़ा वक्तव्य है। और बड़े निर्णय की सूचना है। और संकल्पवान व्यक्ति ही ऐसा आश्वासन दे सकता है।
और इसके कहने के बाद ही वह व्यक्ति मुझे कहता है कि कोई मुझे रास्ता बताएं, क्योंकि मैं कोई निर्णय नहीं ले पाता। और संकल्प मेरा बड़ा कमजोर है। सुबह तय करता हूं, दोपहर बदल जाता हूं।
उसे पता नहीं कि वह क्या कह रहा है। और जब वह कहने लगा कि सुबह तय करता हूं, दोपहर बदल जाता हूं, संकल्प की कमी है, निर्णय पक्का नहीं है, तब उसके चेहरे पर ज्यादा आभा है, ज्यादा प्रसन्नता है। अब वह सच के ज्यादा करीब है। पहले वक्तव्य के समय वह जैसे बेहोश था; होश में नहीं बोला था।
मैंने उससे कहा कि तू अपना पहला वक्तव्य फिर से दोहरा। क्योंकि अगर दूसरी बात सही है, तो तू पहले कैसे कह सकता है मुझे आकर कि जो आप कहेंगे वह मैं करूंगा? यह तो बहुत बड़ा निर्णय है। क्योंकि हो सकता है कि मैं कहूं, तू खिड़की के बाहर कूद जा।
नहीं, वह आदमी बोला कि नहीं-नहीं; आप ऐसा कैसे कह सकते हैं! आप ऐसा कभी नहीं कह सकते।
कृष्ण अर्जुन के सामने सारी बातें रख रहे हैं। और सारी बातों का अर्जुन पर क्या परिणाम हो रहा है, क्या प्रतिक्रिया हो रही है, वह कैसे संवेदित हो रहा है; कब आनंदित होता है; कब दुखी होता है; कब विषाद से भरता है; कब झुकता है; कब अकड़ा रह जाता है; उस सब की जांच भी चल रही है।
इसके पहले कि अर्जुन पहुंचे निर्णय पर, कृष्ण को पता चल जाएगा कि वह क्या निर्णय ले रहा है। उसके मन का कांटा पूरे वक्त डोल रहा है; निर्णय के करीब पहुंच रहा है। और यह मन अगर सिर्फ चेतन ही होता, तो अर्जुन इसे पहले समझ लेता। यह मन अचेतन भी है। उसे अर्जुन नहीं समझ पाएगा। लेकिन उसे कृष्ण समझ पाएंगे।
अर्जुन जैसे ही निर्णय के करीब पहुंचने लगेगा, उसके मन का कांटा ठहरने लगेगा, उसके चारों तरफ की आभा और सुगंध और व्यक्तित्व बदलने लगेगा। और इसके पहले कि वह कहे कि मैं निर्णय पर आ गया, कि तुमने मेरे सारे संदेह दूर किए, कि मेरी निष्पत्ति मुझे उपलब्ध हो गई, कृष्ण इसके पहले जान लेंगे।
ध्यान रहे, आपके गहरे अचेतन में जो घटता है, उसको आपको भी पता लगाने में समय लग जाता है। कई दफे तो वर्षों लग जाते हैं।
आज ही एक युवती ने मुझे आकर कहा; किसी के घर में मेहमान है। जिसके घर में मेहमान है, वह आदमी उस युवती को लगता है, कुरूप है। आकर्षण तो नहीं, विकर्षण पैदा होता है। उसे देखकर ही उसको घबड़ाहट होती है। उससे बात करने का मन नहीं होता। वह पास बैठे, तो बेचैनी और सिकुड़ाव पैदा होता है। उस व्यक्ति से एक रिपल्शन है, एक गहरा विकर्षण है। उस युवती ने मुझे आकर कहा, लेकिन कल रात उसके मन में उस व्यक्ति के प्रति प्रेम का भाव उठने लगा। और उससे वह बहुत घबड़ा गई है।
सुबह मेरे पास रोती हुई आई और उसने कहा कि मैं बहुत घबड़ा गई हूं, क्योंकि उस व्यक्ति को तो मैं देख भी नहीं सकती। वह कुरूप है; भद्दा है; घृणोत्पादक है; वीभत्स है। रात लेकिन मेरे मन में उसको प्रेम करने का भाव उठने लगा। तो मैं अपने मन से घबड़ा गई हूं कि यह भाव मेरे मन में कैसे उठा!
यह भाव अचानक नहीं उठ गया। कुछ भी अचानक नहीं उठता। यह भाव अचेतन में संगृहीत हो रहा होगा। आते-आते, जैसे बीज टूटता है, अंकुर जमीन तक आते-आते समय लगता है, ऐसे अचेतन से चेतन तक खबर आने में समय लगता है।
और शायद यह जो उसका भाव है विकर्षण का कि यह व्यक्ति आकर्षक नहीं है; घृणा पैदा होती है; यह शायद सिर्फ रक्षा का उपाय है। वह जो भीतर से अंकुर आ रहा है इस व्यक्ति के प्रति आकर्षण का, उससे अपने को बचाने के लिए कवच है। चेतन मन ने एक कवच बना लिया है। जिससे हम बचना चाहते हैं, उसके प्रति हम बुरे भाव ले लेते हैं।
असल में बुरे भाव हम तभी लेते हैं, जब हम आकर्षित हो जाते हैं। विकर्षण कभी पैदा नहीं होता; पहले आकर्षण पैदा होता है। घृणा कभी पैदा नहीं होती; पहले प्रेम पैदा होता है। शत्रु कोई पहले नहीं बना सकता; पहले तो मित्र बनाना ही होगा, तब ही हम किसी को शत्रु बना सकते हैं।
लेकिन कई बार ऐसा होता है कि किसी आदमी को देखकर ही हमें लगता है कि शत्रुता का भाव मालूम होता है; उसका मतलब है कि उस आदमी को देखते ही पहले अचेतन में मित्रता का भाव पैदा हो गया।
शत्रुता सीधी पैदा नहीं हो सकती, वह मित्रता के बाद ही पैदा हो सकती है। और घृणा भी सीधी पैदा नहीं होती, वह प्रेम के बाद ही पैदा हो सकती है। इसीलिए घृणा, शत्रुता नकारात्मक हैं, निगेटिव हैं। निगेटिव कभी सीधा पैदा नहीं होता; पहले पाजिटिव चाहिए।
क्या आप सोच सकते हैं कि कोई आदमी जन्मे ही नहीं और मर जाए! मरने के पहले जन्म जरूरी है। क्योंकि मृत्यु नकारात्मक है। मृत्यु होगी किसकी?
अगर प्रेम पैदा नहीं हुआ, तो घृणा होगी कैसे पैदा? और अगर आकर्षण पैदा नहीं हुआ, तो विकर्षण का कोई उपाय नहीं है। अगर कोई मरे, तो मान लेना चाहिए कि वह जन्म गया होगा। बिना जन्मे तो कोई मर नहीं सकता। मृत्यु जन्म का आखिरी छोर है। विकर्षण आकर्षण का आखिरी छोर है। आकर्षण पहले अचेतन में पैदा हो जाएगा, तो हम उससे बचने के लिए विकर्षण की परिधि बना लेंगे।
अब वह भीतर की चोट चेतन तक आ गई, तो अब घबड़ाहट पैदा हो गई है। अब डर पैदा हो गया है।
आपके भीतर भी क्या पैदा होता है, इसको आपको भी पता लगाने में कभी-कभी वर्षों लग जाते हैं। लेकिन अर्जुन के भीतर क्या हो रहा है, इसको पता लगाने में कृष्ण को वर्षों नहीं लगेंगे। कृष्ण के लिए अर्जुन पारदर्शी है, ट्रांसपैरेंट है।
इसलिए ज्ञानी के पास अज्ञानी को एक तरह का भय लगता है। वह भय बिलकुल स्वाभाविक है। आप ज्ञानी के पास जाने से बचते भी हैं, डरते भी हैं। उस भय और बचाव के पीछे कारण है। क्योंकि जो-जो आपके भीतर छिपा है, जो-जो आपने छिपा रखा है, जिसे आपने अपने से ही छिपा रखा है, जिसे आप भूल ही चुके हैं कि आपके भीतर है, वह भी ज्ञानी की आंख के सामने उभरने लगेगा और प्रकट होने लगेगा। आप अपने को छिपा न पाएंगे।
और कोई आपको आर-पार देख ले, तो बेचैनी अनुभव होगी। कोई आपकी आंखों में उतरकर आपको भीतर तक पकड़ ले, तो आप बहुत चिंता में पड़ जाएंगे। क्योंकि आप आश्वस्त नहीं हैं अपने रूप से। और आप निर्भय रूप से अपने को स्वीकार भी नहीं किए हैं। बहुत-सा हिस्सा अस्वीकृत है, जिसको आपने अपने ही तलघरों में छिपा रखा है। वह आप भी जानते हैं कि गंदा है। उसे कोई जान ले, उसे कोई उघाड़ दे, उसे कोई पहचान ले; आप छिपाए हुए हैं।
आपने अपने असली चेहरे को न मालूम कहां छिपा रखा है। आपने कुछ मुखौटे पहन रखे हैं।
कृष्ण इन सारी चर्चाओं के बीच अर्जुन को बहुत-बहुत ढंग से उघाड़ रहे हैं। वे उसकी भीतरी प्रतिक्रियाओं को, संवेदनाओं को पकड़ रहे हैं। वे उसके मन के कांटे को देख रहे हैं कि वह किस तरह डांवाडोल होता है, वह कहां जा रहा है। और इसके पहले कि अर्जुन निर्णय पर आए.।
और वह निर्णय क्रांतिकारी होगा। क्योंकि जब संशय गिरता है और असंशय श्रद्धा पैदा होती है, तब एक महान आनंद का क्षण जीवन में उपस्थित होता है। जब सारी अश्रद्धा टूट जाती है और परम आस्था का उदय होता है, तो यह एक जन्म है, एक महाजन्म है, अंधकार के बाहर, प्रकाश में। सारा भटकाव समाप्त हुआ। मंजिल आंखों के सामने आ गई। अब कितनी ही दूर हो, चलने की ही बात है। लेकिन मंजिल पर कोई शक न रहा।
और जब ऐसी घड़ी आती है, तो गुरु, इसके पहले कि शिष्य को पता चले, जान लेता है। क्योंकि शिष्य का पूरा आभामंडल, उसका पूरा व्यक्तित्व बदलने लगता है। जहां वह अशांत था, वहां शांत होने लगता है। जहां वह बेचैन था, वहां एक चैन की हवा उसके चारों तरफ पैदा हो जाती है। जहां वह दौड़ रहा था, अब ठहर गया। जहां लगता था, जीवन व्यर्थ है, कुछ सार नहीं, वहां लगता है कि परम निधि उपलब्ध हो गई; कोई खजाना मिल गया, जो कभी भी चुकेगा नहीं। जहां कंपन था भय का, वहां अभय की थिरता आ जाती है।
जैसे तूफान अचानक शांत हो गया हो और दीए की लौ थिर हो गई हो और जरा भी न कंपती हो, ऐसे शिष्य के भीतर की चेतना ठहर जाती है। इसे वह खुद पहचाने इसमें देर लगेगी, कई कारणों से। एक तो इस कारण भी कि यह अनुभव उसके लिए पहला है। इसको रिकग्नाइज करने का, इसकी प्रत्यभिज्ञा का उसके पास कोई उपाय नहीं है। यह वह पहली दफा जान रहा है। अगर इसने इसके पहले भी जाना होता, तो वह तत्क्षण पहचान लेता कि क्या हो रहा है।
इसलिए कई बार तो ऐसा हुआ है कि कोई साधक अगर अकेले में इस क्षण के करीब भी आ जाता है, तो चूक जाता है। इसलिए गुरु बड़ा अपरिहार्य हो जाता है। क्योंकि वह पहचान ही नहीं पाता कि क्या हो रहा था। वह मंजिल के बिलकुल करीब आकर भी रास्ता मुड़ सकता है उसका। वह एक कदम पर, और मंदिर के भीतर हो जाता, कि वह बाएं मुड़ गया। उसे पता नहीं था कि एक ही कदम पर मंदिर करीब है।
गुरु पास हो, तो यह भटकाव बचा सकता है। वह फिर एक परिस्थिति पैदा कर देगा, जिससे कदम दाएं मुड़े, बाएं न मुड़ जाए। मोड़ नहीं सकता पैर को, लेकिन विकल्प उपस्थित कर सकता है।
तो कृष्ण इन अठारह अध्यायों में क्रमशः बहुत-से विकल्प मौजूद कर रहे हैं। यह एक सूक्ष्म प्रक्रिया है, जिसमें अर्जुन को वे मार्ग दिखा रहे हैं। अर्जुन कैसा चल रहा है, कहां चल रहा है, वह उन्हें बोध है। वह जैसे-जैसे कदम उठाता है, वैसे-वैसे वे नई बातें, नए तत्व और नए जीवन के द्वार उसके सामने खोलते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता, जैसे कोई छोटे बच्चे को किसी अनजान रास्ते पर ले जा रहा हो, वैसे कृष्ण अर्जुन को ले चल रहे हैं।
और कठिनाई इसलिए बढ़ जाती है कि छोटे बच्चे का तो हाथ पकड़कर भी हम ले जा सकते हैं। आत्मिक जीवन की राह पर किसी पर कोई जबरदस्ती नहीं की जा सकती। दूसरे की स्वतंत्रता को परिपूर्ण रूप से सुरक्षित रखकर ही काम करना पड़ता है।
इसलिए गुरु का काम अति दुरूह है। अनुशासन भी देना है उसे और स्वतंत्रता को कायम भी रखना है। तुम्हें मिटाना भी है और तुम्हारी गरिमा को नष्ट नहीं होने देना है। तुम्हारा गौरव जरा भी न छू पाए, और तुम्हारा अहंकार बिलकुल नष्ट हो जाए। तुम्हारा कचरा तो जल जाए, लेकिन तुम्हारे सोने में कण भी न खोए।
इसलिए कृष्ण अर्जुन की आंतरिकता का भविष्य जानते हैं। कृष्ण, अर्जुन इस क्षण में, मौजूद क्षण में कैसा डांवाडोल हो रहा है, उसका मन किन दिशाओं में भटक रहा है, उसे भी देख रहे हैं। वे क्या कह रहे हैं, उसके प्रति अर्जुन के क्या उत्तर और क्या संदेह उठ रहे हैं, वे भी उनके सामने हैं। लेकिन वे एक व्यूह रच रहे हैं।
एक तो महाभारत का व्यूह था, जो अर्जुन ने रचा है। और एक उससे भी बड़े युद्ध का व्यूह कृष्ण अर्जुन के आस-पास रच रहे हैं। बिना धकाए अर्जुन को परम मंदिर में प्रविष्ट करवा देना है। और अर्जुन को पता भी न चले कि किसी ने उसे किसी भी तरह से जबरदस्ती की है।
ध्यान रहे कि अगर मोक्ष में आप जबरदस्ती भेज दिए जाएं, तो मोक्ष नरक हो जाएगा। नरक में भी आप अपनी चेतना से और अपने चुनाव से जाएं, तो नरक भी स्वर्ग हो सकता है। क्योंकि स्वतंत्रता अंतिम बात है। स्वतंत्रता से कोई नरक में भी चला जाए, तो भी सुखी होगा। और परतंत्रता से कोई स्वर्ग में भी चला जाए, तो दुखी हो जाएगा।
परमात्मा के पास आपको अपनी निजता से ही पहुंचना चाहिए। तो गुरु इशारे कर सकता है; परोक्ष व्यवस्थाएं दे सकता है; परिस्थितियां पैदा कर सकता है। लेकिन सीधा आपको घसीट नहीं सकता।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, मुझे लगता है कि प्रमाद मुझ पर भारी है। उससे हलका होने के लिए क्या किया जाए?
प्रमाद के प्रति जागरूकता!
करने से प्रमाद दूर नहीं होगा। छिप सकता है। जैसे कोई आलसी आदमी बैठा है। हम आमतौर से उससे क्या कहें कि उसका आलस्य टूट जाए! हम कहें कि कुछ करो।
ध्यान रहे, आलस्य है तम; हम उसे कुछ काम में लगा सकते हैं। लेकिन काम में लगाना होगा रज। तो तमोगुणी को रजोगुणी बनाना बहुत कठिन नहीं है। वह निष्क्रिय बैठा है, उसे सक्रियता में जुटाया जा सकता है। असली सवाल तमोगुणी से रजोगुणी बन जाने का नहीं है। असली सवाल, चाहे आप रजोगुणी हों, चाहे तमोगुणी हों, सत्वगुणी बनने का है। और सत्वगुणी बनने का एक ही उपाय है कि आप जागरूक हों। जो भी स्थिति है, उसके प्रति जागरूक हों।
एक आलसी आदमी बैठा है, तो हम उससे कहेंगे कि तू अपने आलस्य के प्रति सजग हो जा। भीतर से तू जान, पहचान, और देख। आलस्य को छिपा मत। और आलस्य को युक्तियां खोजकर ढांक मत। तर्क मत खोज। आलस्य को उसकी नग्नता में देख। और कुछ भी मत कर, सिर्फ देख।
अगर दर्शन की यह क्षमता, साक्षीभाव का यह उपाय आलस्य पर लागू हो जाए, तो यह व्यक्ति सत्व में सरक जाएगा।
और यही हम कहेंगे रजोगुणी को भी, जो सक्रियता में डूबा हुआ है। उससे भी हम कहेंगे कि तू अपनी सक्रियता के प्रति सजग हो जा; तू अपने कर्म का जो पागलपन है, उसके प्रति जाग जा; होश से भर। तो रजोगुणी भी होश के माध्यम से सत्व में प्रवेश करता है। होश सत्व का द्वार है।
और ध्यान रहे, रजोगुणी और तमोगुणी तो एक-दूसरे के ही रूप हैं। एक शीर्षासन कर रहा है; एक पैर के बल खड़ा है। एक सक्रियता में पागल है। और एक निष्क्रियता में डूबा हुआ मूर्च्छित पड़ा है। दोनों मूर्च्छित हैं। जो आलस्य में पड़ा है, वह इसलिए मूर्च्छित है कि उसके चारों तरफ एक निद्रा का वातावरण है। और जिसको हम सक्रिय देखते हैं, वह भी मूर्च्छित है, क्योंकि क्रिया भी मूर्च्छा लाती है। अगर आप जोर से किसी क्रिया में लग जाएं, तो स्वयं को भूल जाते हैं।
अक्सर ऐसा होता है कि जब तक कोई राजनीतिज्ञ पदों पर होता है, तब तक बिलकुल स्वस्थ मालूम होता है। जैसे ही पदों से हटता है, कि बीमार होना शुरू हो जाता है। राजनीतिज्ञ पदों से हटकर ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहते। पदों पर जिंदा रहते हैं। और न केवल जिंदा रहते हैं, बड़े स्वस्थ रहते हैं। और कई दफे चकित होना पड़ता है, क्योंकि इतने पागलपन के चक्कर में भी उनका स्वास्थ्य अनूठा मालूम पड़ता है।
लेकिन कारण है उसका। कारण उसका यही है कि उन्हें कभी अपना खयाल ही नहीं आता। काम में इस तरह डूबे हैं कि काम एक नशा है, एक शराब है।
आप भी जब तक काम में लगे हैं, तब तक सोचते हैं कि कब विश्राम मिल जाए। लेकिन जिस दिन रिटायर हो जाएंगे, उस दिन अचानक पाएंगे कि दस साल उम्र आपकी कम हो गई।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो आदमी अस्सी साल जीता, वह रिटायर होने के बाद सत्तर साल में मर जाएगा। दस साल, रिटायरमेंट जिस दिन होता है, उसी दिन उम्र से कम हो जाते हैं। क्योंकि नशा छिन जाता है। और जिंदगीभर का नशा था, काम-काम, सुबह से सांझ तक काम। अचानक एक दिन आप पाते हैं कि कोई काम नहीं बचा। नशा टूट जाता है।
काम भी एक नशा है। बहुत-से लोग इसीलिए काम में लगे रहते हैं कि काम में न लगें, तो वे बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। खाली नहीं बैठ सकते। कुछ हैं, जो खाली बैठ सकते हैं, काम में नहीं जा सकते। क्योंकि उनको लगता है, काम में गए तो उनकी नींद टूटती है। नींद में उन्हें सुख मालूम पड़ता है, बेहोशी का।
ये दोनों अलग-अलग तरह के लोग नहीं हैं। एक ही तरह के लोग हैं। सिर्फ एक-दूसरे से उलटे खड़े हैं। एक शीर्षासन कर रहा है और एक पैर के बल खड़ा है।
वह जो तामसी है, वह पड़ा रहता है अपनी नींद में, क्योंकि नींद उसे नशा है। जब भी वह काम में लगता है, तो नशा टूटता है। जो काम में लगा हुआ आदमी है, वह रात में सो भी नहीं सकता। रात में भी उसका मन काम करता है। उसको नींद मुश्किल है। उसका काम ही उसका नशा हो गया है।
इसलिए तमोगुणी को रजोगुणी में बदलने का कोई सार नहीं है। रजोगुणी को तमोगुणी में बदलने का कोई सार नहीं है। दोनों को ही सत्वगुणी में बदलने का सार है। और सत्वगुण में जाने का सूत्र है, होश। वह अभी हम कृष्ण के वचन में चलेंगे, तो खयाल में आ जाएगा।
सूत्र:
और हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण होता है अर्थात बढ़ता है तथा रजोगुण और सत्वगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है; वैसे ही तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है।
जिस काल में इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता और बोध-शक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा है।
तो सत्वगुण का एक ही लक्षण है, चेतनता। जब आप होश से भरे हैं, तब जानना कि सत्वगुण बढ़ा है। सत्वगुण चाहिए हो, तो जितना ज्यादा आप होशपूर्वक हो सकें, उतना शुभ है। जो भी आप करें, क्षुद्र से क्षुद्र या बड़े से बड़ा काम, वह होशपूर्वक हो, उसमें कांशसनेस हो, उसे करते वक्त आप जागे हुए करें, सो न जाएं। जितनी जागरूकता की मात्रा बढ़ेगी, उतना आपके भीतर सत्वगुण ज्यादा हो जाएगा; उतने आप साधु, उतने आप सात्विक हो जाएंगे।
यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि कृष्ण जैसा कह रहे हैं, ऐसा आमतौर से धार्मिक लोग नहीं समझते हैं। धार्मिक लोग समझते हैं, अच्छे काम करो, तो सात्विक हो जाएंगे। कृष्ण लेकिन अच्छे काम को कुछ जगह नहीं दे रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, होशपूर्वक! चाहे करो और चाहे न करो, लेकिन होशपूर्वक रहो, तो सात्विकता पैदा होगी।
तो एक आदमी खाली भी बैठा हो और होश से भरा हो, तो सात्विक होगा। और एक आदमी समाज की सेवा कर रहा हो, मरीजों की अस्पताल में देखभाल कर रहा हो और होशपूर्वक न हो, तो सात्विक नहीं होगा। आप अपनी जान भी दे दें सेवा में, लेकिन होश न हो, तो आप सात्विक नहीं होंगे। और आप कभी जिंदगी में किसी की सेवा न किए हों, आलस्य में बैठे रहे हों, लेकिन भीतर आलस्य के होश जगा रहा हो, तो आप सात्विक होंगे।
इसका यह मतलब नहीं है कि सात्विक आदमी अच्छे काम नहीं करेगा। सात्विक ही अच्छे काम कर सकता है। लेकिन सात्विकता अच्छे काम करने से नहीं आती; अच्छे काम सात्विकता से आते हैं।
तो जो जितना जागा हुआ है, वह उतना प्रेमपूर्ण होगा। वह उतना करुणामय होगा, वह उतना तत्पर होगा कि किसी का दुख मिटा सके, तो मिटाने की कोशिश करे। यह सेवा पैदा होगी उसकी जागरूकता से; उसकी जागरूकता का परिणाम होगी।
लेकिन इससे बड़ी भ्रांति पैदा हुई है। इससे ऐसा लगता है कि जो सेवा कर रहा है, वह सात्विक हो गया। इस भ्रांति को गांधी ने इस देश में काफी जोर दिया। अच्छा काम करो। समाज का, देश का, दरिद्र का, दीन का कुछ हित करो, कल्याण करो, यही साधुता का लक्षण है। सेवा धर्म है, गांधी ने कहा।
शब्द बड़े अच्छे हैं। और जिनके पास बहुत गहरी परख नहीं है, उन्हें बिलकुल ठीक लगेंगे। लेकिन बिलकुल विपरीत हैं। धर्म सेवा है; लेकिन सेवा धर्म नहीं है। धार्मिक व्यक्ति से सेवा उठेगी; लेकिन कोई सेवा को ही साध ले, तो धार्मिक हो जाएगा, इस भूल में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। इसका परिणाम भी सामने है, लेकिन फिर भी मुल्क जागता नहीं।
गांधी ने जितने सेवक पैदा किए थे, वे सब शोषक सिद्ध हुए। जिनको उन्होंने तैयार किया था सब कुछ छोड़ देने के लिए, त्याग के लिए, वे सत्ताधिकारी हो गए और उन्होंने सब कुछ पकड़ लिया। छोड़ने की तो बात ही अलग हो गई।
जैसे ही मुल्क से सत्ता बदली, जो सेवक था, वह अचानक शासक हो गया। तो सेवक था, शायद मजबूरी थी इसलिए। अब कोई सेवक बनने को तैयार नहीं। या अब भी अगर कोई सेवक बनता है, तो साधन की तरह, क्योंकि शासक तक जाने का रास्ता सेवक होने से गुजरता है।
अगर आपकी गर्दन दबानी हो, तो पैर दबाने से शुरू करना चाहिए। धीरे-धीरे आप आश्वस्त हो जाते हैं कि आदमी पैर ही दबा रहा है, कोई खतरा नहीं है। जैसे ही आप आश्वस्त होते हैं, वह आदमी आगे बढ़ता चला जाता है। जब तक आपकी गर्दन तक आता है, तब तक आप सोए होते हैं; तब दबाने में कोई अड़चन नहीं रह जाती। सीधे गरदन को ही दबाना कोई शुरू करे, तो आप भी चौंक जाएंगे। आप भी कहेंगे, यह किस तरह की सेवा है?
शासक बनना हो, तो पैर दबाने से शुरू करना आसान पड़ता है। सेवा भी सत्ता में पहुंचने का उपाय हो जाती है। इस मुल्क में हुई। सभी जगह होगी। लेकिन भ्रांति सेवकों में नहीं थी; सेवकों को जो समझाया गया, उस मूल सूत्र में थी।
सेवा धर्म नहीं है, यद्यपि धर्म सेवा है।
तो जो व्यक्ति जितना सचेतन हो जाएगा भीतर, उसके जीवन से जो भी होगा, वह शुभ होगा। फिर जरूरी नहीं है कि वह सेवा करे ही। क्योंकि रमण ने किसी की कोई सेवा नहीं की ज्ञात में। कोई नहीं कह सकता कि उन्होंने किसी का पैर दबाया, कोढ़ी की मालिश की। रमण बिलकुल खाली बैठे रहे। प्रत्यक्ष में तो कोई सेवा रमण ने नहीं की। अप्रत्यक्ष में की। लेकिन वह तो केवल वे ही देख सकते हैं, जिनको अप्रत्यक्ष देखना आता हो।
अगर सेवकों में गिनना हो, तो गांधी को, विनोबा को गिना जा सकता है। रमण को कोई भूलकर नहीं गिनेगा। सेवा कहीं दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन जो भी व्यक्ति धर्म को उपलब्ध हो जाता है, उससे कल्याण तो होता ही है।
कुछ हैं जो स्थूल कल्याण में लगते हैं, कुछ हैं जो सूक्ष्म कल्याण में लग जाते हैं। उनकी मौजूदगी कल्याण का महास्रोत हो जाती है। उनके आस-पास से गुजरने वाले लोग, जहां तक उनकी हवाएं उनकी खबर को ले जाती हैं, उनके अस्तित्व की सुगंध को ले जाती हैं, वहां-वहां तक न मालूम कितने जीवन रूपांतरित होते हैं।
निश्चित ही वे किसी के शरीर की बीमारी दूर करने नहीं जाते। लेकिन शरीर से गहरी बीमारियां हैं। और शरीर को बिलकुल स्वस्थ कर दिया जाए, तो भी वे बीमारियां नहीं मिटती हैं। उन बीमारियों को दूर करने का अपरोक्ष, अप्रत्यक्ष आयोजन उनकी मौजूदगी से होता रहता है। लेकिन वह सूक्ष्म कला है; सभी उसमें कुशल नहीं हो सकते।
बुद्ध का शिष्य है, महाकाश्यप। बुद्ध ने सभी शिष्यों को भेजा कि जाओ, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, लोगों को समझाओ, लोगों को जगाओ। लेकिन महाकाश्यप को कभी नहीं भेजा। सारिपुत्र को भेजा, मौदगल्यायन को भेजा। और सैकड़ों शिष्य थे, उनको भेजा कि तुम जाओ, लोगों को जगाओ; लोगों को ज्ञान दो, ध्यान दो; लोगों को करुणा का सूत्र दो; लोगों को सजग बनाओ। लेकिन महाकाश्यप को कभी नहीं भेजा।
आनंद एक जगह बुद्ध से पूछता है, आपने सब को भेजा, लेकिन कभी आप महाकाश्यप को आज तक नहीं कहे कि तू कहीं जा, कुछ कर! बुद्ध ने कहा, महाकाश्यप का होना ही करना है। उसे कहीं भेजने की जरूरत नहीं। वह जहां है, उसके होने से काम हो रहा है। वह बैठा है झाड़ के नीचे, तो भी काम हो रहा है। उस रास्ते से जो लोग गुजर जाएंगे, वे भी उसके कणों को ले जा रहे हैं।
वह महाकाश्यप, अगर हम ठीक से समझें, तो इनफेक्शस है। वह जिस बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ है, वह बुद्धत्व संक्रामक है; वह उसकी मौजूदगी से फैलता है। उसे सक्रिय रूप से सीधे-सीधे काम में नहीं लग जाना होता है।
बड़ी गहरी चेतनाएं चुपचाप भी करती रहती हैं। निर्भर करेगा इस बात पर कि किस तरह का व्यक्ति है। अगर अंतर्मुखी व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होगा, सत्व को उपलब्ध होगा, तो वह चुप हो जाएगा, मौन हो जाएगा, शांत हो जाएगा। उसकी मौजूदगी से काम होगा, उसके प्रभाव अप्रत्यक्ष होंगे, पर बड़े गहरे होंगे, दूरगामी होंगे।
अगर बहिर्मुखी व्यक्ति होगा और सत्व को उपलब्ध हो जाएगा, तो उसके प्रभाव विस्तीर्ण होंगे, स्थूल होंगे, बहुत लोगों की सेवा उससे होगी, लेकिन बहुत दूरगामी नहीं होगी। विस्तीर्ण होगी, लेकिन गहरी नहीं होगी। मरीज उससे ठीक होंगे, किसी को जमीन भूमि-दान करवाएगा; किसी को धन, किसी को मंदिर बनवाएगा; कहीं धर्मशाला खुलवाएगा; कहीं गरमी में प्याऊ डलवाएगा; पर उसका काम ऊपर-ऊपर होगा। उससे लाभ होगा, लेकिन वह लाभ स्थूल होगा।
रमण न तो प्याऊ खुलवाते, न भूदान करवाते, न मंदिर बनवाते। पर उनका प्रभाव दूरगामी है। सदियों तक जो लोग भी उनकी तरफ अपने मन को ट्यून करने में सफल हो जाएंगे, वे उनसे प्रभावित होंगे, आंदोलित होंगे, रूपांतरित होंगे। पर वह अदृश्य की घटना है; सभी को दिखाई नहीं पड़ सकती।
सत्व जब पैदा होता है, तो शुभ आचरण में अपने आप आता है।
हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा होता है।
इस प्रक्रिया को समझ लेना चाहिए कि ये गुण कैसे काम करते हैं। रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा होता है। ये तीनों गुण सभी के भीतर मौजूद हैं। कोई गुण बाहर से लाना नहीं है। तीनों गुण भीतर मौजूद हैं। और तीनों गुणों में जो ऊर्जा काम करती है, वह भी मौजूद है। वह ऊर्जा एक है। ये तीन गुण हैं, वह ऊर्जा एक है।
जैसे समझें कि आपके घर में एक मात्रा का जल है, और घर में से तीन छेद हैं, जिनसे वह जल बाहर जा सकता है। आप चाहें तो एक ही छेद से उस जल को बाहर भेज सकते हैं; तब धारा बड़ी हो जाएगी। आप चाहें तो तीनों छिद्रों से उस जल को बाहर भेज सकते हैं; तब धाराएं क्षीण हो जाएंगी। आप चाहें तो एक से ज्यादा, दूसरे से कम और तीसरे से और कम जल को भेज सकते हैं।
आपकी जीवन-ऊर्जा की धारा आपके पास है। और यह तीन गुणों का यंत्र आपके पास है। जब आप बिना किसी साधना के जीते हैं, तो सिर्फ परिस्थितियां ही निर्धारक होती हैं कि किस गुण से आपकी ऊर्जा बहेगी--परिस्थितियां, आप नहीं।
और ध्यान रहे, प्रत्येक व्यक्ति प्रतिपल बदलता रहता है। सुबह हो सकता है तमोगुणी रहा हो, और दोपहर को रजोगुणी हो जाए, और शाम को सत्वगुणी मालूम पड़े। लेकिन परिस्थितियां निर्धारक होती हैं।
समझ लें कि आप सुबह ही उठे और पा रहे हैं कि चित्त आलस्य से भरा है, उठने का कोई मन नहीं, दिनभर बिस्तर में ही पड़े रहें। और तभी पता लगा कि मकान में आग लग गई। तमोगुण तत्क्षण विदा हो जाएगा। आप एकदम रजोगुणी हो जाएंगे। एकदम से तम के द्वार से जो ऊर्जा बह रही थी, वह खींच ली जाएगी। और पूरी की पूरी ऊर्जा रज के द्वार से प्रवाहित होने लगेगी। क्योंकि मकान में आग लगी है; आग बुझाना जरूरी है।
उस वक्त आप नहीं कह सकते कि मैं आलस्य में हूं। अभी मेरा मन नहीं उठने का। आप भूल ही जाएंगे कि नींद भी कोई तत्व है जीवन में, कि बिस्तर में पड़े रहने में भी कोई रस हो सकता है। छलांग लगाकर बिस्तर से उठेंगे, जैसा आप कभी नहीं उठे थे। लेकिन यह घटना घट रही है परिस्थितिवश।
बाहर आकर आपको पता चले कि अफवाह थी; किसी ने ऐसे ही चिल्ला दिया कि मकान में आग लगी है। कहीं कोई आग नहीं लगी। आप वापस अपने बिस्तर में लौट आएंगे। रजोगुण तमोगुण में प्रविष्ट हो गया। वह जो ऊर्जा जगकर सक्रिय होना चाहती थी, वह फिर विश्राम को उपलब्ध हो गई।
बाहर की परिस्थिति आपको चौबीस घंटे चला रही है। इसलिए अगर आपमें भरोसा करने वाले लोग आपके चारों तरफ हों.। आप चोर हैं, और आपके पास आठ-दस लोग हों, जो आपको मानते हों कि आप साधु हैं, तो हो सकता है कि उनकी मान्यता के कारण आपकी धारा सत्वगुण से बहने लगे। क्योंकि वे बारह आदमी आपके अहंकार को बढ़ा रहे हैं। वे कह रहे हैं कि आप महासाधु हैं। अब आप चोरी करना भी चाहें, तो आपका अहंकार बाधा देता है कि कम से कम मुश्किल से तो जिंदगी में बारह आदमी मिले, जो साधु मानते हैं, अब दो-चार पैसे की चोरी के लिए साधुता को खोना उचित नहीं मालूम होता।
ऐसा हुआ। मैं एक साधु का जीवन पढ़ता था। एक झेन फकीर हुआ। वह चोर था साधु होने के पहले। एक महल से चोरी करके भागा। पुलिस उसके पीछे है; लोग उसको पकड़ने आ रहे हैं। कोई उपाय न देखकर, कोई मार्ग न देखकर, वह एक बुद्ध मंदिर में प्रवेश कर गया। सुबह कोई चार बजे रात का समय था। कोई भिक्षु सोया था, उसके कपड़े टंगे थे। उसने भिक्षु के कपड़े पहन लिए और मंदिर में हाथ-पालथी मारकर बुद्धासन में बैठ गया। नमो बुद्धाय, नमो बुद्धाय का मंत्र जाप करने लगा।
सिपाही भागे हुए मंदिर के पीछे आए। वे उसका पीछा कर रहे थे। लेकिन वहां एक साधु बैठा है, नमो बुद्धाय का पवित्र मंत्र गूंज रहा है। वहां कोई चोर नहीं। वे सिपाही उसके चरणों में झुके; उसको नमस्कार किए; और कहा, साधु महाराज, यहां कोई चोर तो नहीं आया?
जब वे उसके चरणों में झुके, तब उसे बड़ी हैरानी हुई। और एक क्रांति हो गई। उसे लगा कि मैं एक झूठा साधु! और झूठी साधुता में इतना बल--झूठी साधुता में--कि जो मेरी हत्या करने मेरे पीछे लगे थे, वे मेरे चरणों में झुक गए! अगर झूठी साधुता में इतना बल है, तो सच्ची साधुता में कितना बल होगा!
उसने उन सिपाहियों से कहा कि चोर आया था, लेकिन अब तुम उसे खोज न पाओगे। वह चोर मर चुका।
वे सिपाही बोले, हम समझे नहीं! आप रहस्य की बातें न करें। हम सीधे-सादे लोग। हम समझे नहीं आपका मतलब! चोर कहां है? कैसे मर गया?
उस साधु ने कहा, मैं ही था वह चोर, लेकिन अब मैं मर चुका हूं। और वह चोर अब तुम्हें कहीं भी नहीं मिलेगा। वह नहीं है अब। तुमने मेरे चरणों में झुककर उसकी हत्या कर दी। तुम गोली से उसे नहीं मार सकते थे, लेकिन तुमने उसे मार दिया। और जब झूठी साधुता में इतना अर्थ हो सकता है, तो मैं अब उस साधुता की तलाश करूंगा, जो सच्ची है।
वह एक बड़ा झेन फकीर हो गया। वह सदा यह घटना लोगों से कहा करता था कि मैं कोई साधु बनने नहीं आया था, परिस्थिति ने सत्व का उदय कर दिया। नमो बुद्धाय! सुबह का सूना मंदिर; मंदिर की दीवारों में गूंजता नमो बुद्धाय का मंत्र; मूर्ति के पास से उठती हुई धूप; सुगंधित वातावरण; सिपाहियों का आना और मेरे चरणों में झुक जाना--मेरी सारी ऊर्जा सत्व से बह गई। एक क्षण को मुझे सत्व का अनुभव हुआ कि साधुता का सुख, साधुता की सुगंध, साधुता का फूल क्या है।
आप पूरे समय बदल रहे हैं। इसलिए अच्छे आदमी के पास आप अच्छे आदमी हो जाते हैं। बुरे आदमी के पास आप बुरे आदमी हो जाते हैं। अगर सक्रिय लोगों के बीच में पड़ जाएं, तो आप सक्रिय हो जाते हैं। अगर आलसियों के बीच में पड़ जाएं, तो आपको नींद आने लगती है।
आपने खयाल नहीं किया होगा। अगर यहां इतने लोग बैठे हैं; इनमें से दो-चार लोग जम्हाई लेना शुरू कर दें आपके पास, तो ज्यादा देर नहीं लगेगी कि आप जम्हाई शुरू कर देंगे। एक आदमी जम्हाई ले कि पास वाले को खुजलाहट शुरू हो गई! उसके गले से जम्हाई उठने लगी। नींद! वह जो आलसी आपके पास बैठा है, उसने नींद आपको पकड़ा दी।
मुल्ला नसरुद्दीन के जीवन में एक उल्लेख है। बाजार से गुजरता था, साग-सब्जी, फलों की दुकानें थीं। एक दुकान पर उसे बड़े मधुर आम रखे हुए दिखाई पड़े। पैसे उसके पास नहीं थे। मगर मन जकड़ गया। तो वह कोई उपाय सोचने लगा। वहीं सामने दुकान के सड़क के उस तरफ बैठकर कुछ उपाय सोचने लगा।
तभी दुकानदार ने अपनी लोमड़ी, जो उसने एक लोमड़ी पाल रखी थी, उसे दुकान के बाहर लाया और लोमड़ी से कहा कि बैठ और दुकान का ध्यान रखना। और किसी भी तरह का कोई आदमी पास आए और संदिग्ध मालूम पड़े, तो आवाज देना। मैं जरा खाना खाने भीतर जाता हूं।
नसरुद्दीन ने सोचा कि बड़ी मुश्किल है। आदमी को भी धोखा देना आसान है। यह लोमड़ी को धोखा देना और मुश्किल है। पास ही पहुंचे कि वह आवाज कर देगी। तो उसने क्या किया? वह जहां बैठा था, वहां से धीरे-धीरे पास सरकने लगा। आंख उसने बंद कर लीं और झोंके खाने लगा। लोमड़ी ने देखा इस आदमी को सोते हुए; उसकी भी आंखें झपने लगीं। धीरे-धीरे नसरुद्दीन देखता जाता; जब लोमड़ी बिलकुल सो गई, तब उसने आम उठा लिया। तब नसरुद्दीन आम खाकर छुप रहा। उसने सोचा कि देखें, अब मालिक क्या करता है आकर!
मालिक आया और उसने लोमड़ी को जगाया, उसने कहा, कुछ भूल हो गई। आम कम मालूम पड़ते हैं। क्या गड़बड़ है? कहानी कहती है कि लोमड़ी ने कहा कि यहां तो कोई पास आया नहीं। सिर्फ एक आदमी था, जो सो रहा था। मालिक ने कहा कि मैंने तुझे कहा था कि कोई भी तरह की क्रिया आस-पास हो और कुछ भी संदेह मालूम पड़े, आवाज करना। सोना भी एक क्रिया है। और तुझे सचेत हो जाना चाहिए था।
आपके पास कोई सोने लगे, तो आपके भीतर प्रवाह शुरू हो जाता है।
मेरा अनुभव है। मैं यहां बोल रहा हूं। अगर एक आदमी खांसने लगे--हो सकता है, उसकी खांसी वास्तविक हो--दूसरे लोग संक्रामक हो जाते हैं। खांसी सुनते ही उनको खयाल आ जाता है कि वे भी खांसना जानते हैं! खांस सकते हैं; उनके पास भी गला है। फिर कठिन हो जाता है, रोकना कठिन हो जाता है। और ऐसा नहीं कि यह सचेतन हो रहा है। यह बिलकुल अचेतन है।
आप देखें, सड़क पर एक भीड़ चली जा रही है; आंदोलनकारी हैं; कोई घेराव कर रहा है; कोई हड़ताल कर रहा है। आप घूमने निकले थे, आप तेजी से चलने लगते हैं उनके साथ। उनका जोश आपको पकड़ जाता है। वे नारे लगा रहे हैं, आपका भी दिल होने लगता है। वे कहीं आग लगा रहे हैं, आप भी खड़े हो जाते हैं; सहयोगी भी हो जाते हैं!
एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने, जर्मनी में जो नाजीवाद की घटना घटी, उस पर एक किताब लिखी: दि साइकोलाजी ऑफ फैसिज्म। वैज्ञानिक था विलहेम रैक। बड़ी अदभुत किताब है, फैसिज्म का मनोविज्ञान। वह भीड़ का मनोविज्ञान है। और हिटलर बड़ा कुशल था। इस बात को जानता था कि भीड़ कैसे काम करती है।
हिटलर अपनी सभाओं में.।
शुरू-शुरू में जब उसको कोई मानने वाला भी नहीं था, कुल सात आदमी उसकी पार्टी के मेंबर थे। और सातों ही फिजूल लोग थे। एक भी आदमी कीमत का नहीं था। निकाले गए लोग, बेकार लोग, जिनके पास कुछ काम-धाम नहीं था, उन्होंने हिटलर को नेता मान लिया था। लेकिन उन सात के बल पर इस जमीन का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करने की कोशिश हिटलर ने की।
वह उन सात बेकार आदमियों को लेकर सभाओं में चला जाता। दूसरों की सभा हो रही है। वह सात आदमी बिठा देता। वे सात आदमी जगह-जगह से शोरगुल करके डिस्टरबेंस शुरू कर देते। और हिटलर खुद हैरान हुआ कि सात आदमी थे, लेकिन सत्तर क्यों गड़बड़ कर रहे हैं! उसके तो सात ही आदमी थे। सात सत्तर को गड़बड़ करवा देते हैं। सत्तर सात सौ को पकड़ लेते हैं। फिर वे जो मौलिक सात हैं, उनकी तो कोई चिंता करने की जरूरत नहीं। भीड़ ने ले लिया मामला।
फिर इसका उपयोग वह अपनी सभाओं में--जब उसने अपनी सभाएं शुरू कीं, तो उसके पास पचास आदमी थे। दस हजार लोगों की सभा हो, उसके पचास आदमी पचास जगह बैठे रहते। पक्का पता होता कि किस वाक्य के बाद वे पचास आदमी ताली बजाएंगे। जैसे ही हिटलर का इशारा होता, वे पचास आदमी ताली बजाते। पांच हजार आदमी उनका साथ देते। धीरे-धीरे बाकी लोग भी साथ देने लगे। वे पचास आदमी पांच हजार लोगों से तालियां बजवाने लगे। तब हिटलर को सूत्र साफ हो गया कि भीड़ कैसे चलती है।
जो भी चारों तरफ हो रहा है, परिस्थिति बन जाती है और उसमें आप बह जाते हैं। हिंदू मस्जिद में आग लगा रहे हैं। मुसलमान मंदिर तोड़ रहे हैं, आग लगा रहे हैं। इनमें से एक-एक मुसलमान को अलग से पूछो कि क्या सच में तू मंदिर में आग लगाना चाहता है? वह कहेगा कि नहीं। एक-एक हिंदू से पूछो कि तुझे क्या मिलेगा? यह धर्म है कि तू मस्जिद को जला दे या किसी की हत्या कर दे? वह कहेगा, नहीं। लेकिन भीड़ में, वह कहता है, भीड़ में मैं था ही नहीं। भीड़ कुछ कर रही थी, मैं उसका हिस्सा हो गया। भीड़ पकड़ लेती है आपको।
आप जरा देखें! अगर दस मिलिट्री के जवान सड़क पर कवायद कर रहे हों, थोड़ी देर उनके पीछे चलकर देखें! आपको पता नहीं, कब आप लेफ्ट-राइट करने लगे। आपके पैर उनसे मिलने लगेंगे, तब ही आपको खयाल आएगा, यह मैं क्या कर रहा हूं!
मन अनुकरण करता है। परिस्थिति मन को अनुकरण की सुविधा दे देती है।
अभी भी आप चौबीस घंटे एक गुण में नहीं होते। इसीलिए मंदिरों का उपयोग है, मस्जिदों का उपयोग है। क्योंकि वहां हमने कोशिश की है सत्व की हवा पैदा करने की। दिनभर जो तमोगुणी भी रहा हो, रजोगुणी भी रहा हो, वह भी घंटेभर आकर मंदिर में बैठ जाए, तो सत्व की थोड़ी हवा उसमें पैदा हो सकती है।
सत्संग का इतना ही अर्थ है, जहां थोड़ी देर को सत्व की हवा पैदा हो जाए और आपकी ऊर्जा सत्व से बहने लगे। आप दिनभर कुछ भी कर रहे हों, लेकिन यह स्वाद आपको आने लगे, तो शायद धीरे-धीरे यह स्वाद आपके चौबीस घंटे पर भी फैल जाए। इसमें आपको आनंद मालूम होने लगे और दूसरी चीजें फीकी मालूम होने लगें, तो शायद आप जिंदगी को बदलने का उपाय भी कर लें।
लेकिन ये घटनाएं घटती हैं परिस्थिति से। और जब तक परिस्थिति से घटती हैं, तब तक कोई बड़ा मूल्य नहीं है। बड़ा मूल्य तो तब है, जब आपके संकल्प से घटें। तब आप मालिक हुए। तब भीड़ कुछ भी कर रही हो, आप निज में हो सकते हैं। सारी भीड़ सो गई हो और आप जागना चाहें, तो जाग सकते हैं। सारी भीड़ उपद्रव कर रही हो, हत्या कर रही हो, हिंसा कर रही हो, तो भी आप अपने को भीड़ के प्रभाव से बचा सकते हैं।
और जो व्यक्ति भीड़ के प्रभाव से अपने को बचा लेता है, वही व्यक्ति मालिक है। उसमें आत्मा पैदा हुई। वह आत्मवान हुआ। उसके पहले कोई आत्मा नहीं है। उसके पहले सब हम प्रभावित होकर चल रहे हैं।
और चारों तरफ से हमें प्रभावित किया जा रहा है। और हमें पता भी नहीं चलता कि हम किस भांति पकड़ लिए गए हैं भीड़ के द्वारा, और भीड़ हमें लिए जा रही है। एक बड़ा प्रवाह है, उसमें हम तिनके की तरह बहते हैं।
हे अर्जुन, रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा होता है।
इसलिए अगर भीतर सत्वगुण पैदा करना हो, तो रजोगुण और तमोगुण की जो वृत्तियां हैं, आलस्य की और व्यर्थ सक्रियता की.।
विश्राम बुरा नहीं है; आलस्य बुरा है। फर्क क्या है? विश्राम का मतलब है, आवश्यक, जिससे शरीर ताजा हो, मन प्रफुल्लित हो। विश्राम का अर्थ है, जो श्रम के लिए तैयार करे। इस परिभाषा को ठीक से समझ लेना।
विश्राम का अर्थ है, जो श्रम के लिए तैयार करे। विश्राम का प्रयोजन ही यही है कि अब हम फिर श्रम करने के योग्य हो गए। वह जो श्रम ने हमें तोड़ दिया था, थका दिया था, हमारे स्नायु खराब हो गए थे, जीवकोष्ठ टूट गए थे, वे फिर पुनरुज्जीवित हो गए। विश्राम ने हमें फिर से नया जीवन दे दिया। अब हम फिर श्रम करने के योग्य हैं।
जिस विश्राम के बाद आप श्रम करने के योग्य न हों, वह आलस्य है। उसका मतलब है, विश्राम के द्वारा आप और विश्राम के लिए तैयार हुए जा रहे हैं। विश्राम और विश्राम में ले जा रहा है, तब खतरा है।
ठीक यही बात श्रम के बाबत भी लागू है। श्रम वही सम्यक है, जो आपको विश्राम के योग्य बनाए। अगर कोई ऐसा श्रम है, जो आपको विश्राम में जाने ही नहीं देता, तो वह विक्षिप्तता हो गई। वह फिर श्रम न रहा। ठीक श्रम के बाद आदमी सो जाएगा। बिस्तर पर सिर रखेगा और नींद में उतर जाएगा। ठीक श्रम के बाद।
एक किसान है। दिनभर उसने श्रम किया है खेत पर। सांझ घर आता है, खाना खाता है; और सिर रखता है बिस्तर पर, और सो जाता है। यह श्रम है।
एक दुकानदार है। उसने भी दिनभर श्रम किया है। लेकिन वह जब बिस्तर पर सिर रखता है, तो विश्राम नहीं आता, नींद नहीं आती; मन में हिसाब चलता रहता है। कितने रुपये कमाए; कितने गंवाए; क्या हुआ; क्या नहीं हुआ--वह जारी है। उसका मतलब हुआ कि दुकानदार के श्रम में कहीं कुछ भूल है। वह सिर्फ श्रम नहीं है, शायद लोभ की विक्षिप्तता है।
किसान के श्रम में वह भूल नहीं है। वह सिर्फ शायद भोजन के लिए है। लोभ की नहीं, जरूरत के लिए है। वह जो किसान है, वह निन्यानबे के चक्कर में नहीं है। वह सिर्फ श्रम कर रहा है। कल की रोटी जुट गई, काफी है। वह जो दुकानदार है, वह कल की रोटी की उतनी फिक्र नहीं कर रहा है। वह रोटी तो उसने बहुत पहले जुटा रखी है। वह कुछ महल बना रहा है लोभ के।
यह निन्यानबे के चक्कर की कहानी आपको याद होगी। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए।
एक सम्राट सो नहीं पाता था रात। और उसका जो नाई था, जो रोज उसकी मालिश करता और उसकी हजामत करता, वह कभी-कभी हजामत करते-करते भी सो जाता था। वह जो नाई था, वह कभी-कभी रात उसके पैर दबाते-दबाते भी सो जाता था। वह आया था पैर दबाने, इसको सुलाने, सम्राट को। सम्राट तो जागता ही रहता और वह नाई धीरे-धीरे दबाते-दबाते सो जाता।
उस सम्राट ने कहा कि तेरे पास कुछ कला होनी चाहिए! तू भी गजब का आदमी है। सुलाने हमें आया था और खुद तू सो रहा है! उस नाई ने कहा, मैं गैर पढ़ा-लिखा आदमी, मुझे कुछ कला नहीं आती।
सम्राट ने अपने वजीर से पूछा कि इसमें क्या राज होना चाहिए? वजीर बुद्धिमान था। उसने कहा कि राज है। कल देखेंगे। कल आपको जवाब दे दूंगा।
रात वह नाई के घर में निन्यानबे रुपयों की भरी हुई एक थैली फेंक आया। रातभर नाई सो नहीं सका, क्योंकि वह जो एक रुपया कम था! उसने सोचा कि कल कुछ भी कर के एक रुपया जोड़ देना है; सौ हो जाएंगे! गजब हो गया। कभी सोचा नहीं था कि सौ अपने पास हो जाएंगे। एक ही कमाता था वह रोज। रोज खा लेता था। रात सो जाता था।
दूसरे दिन सुबह बिलकुल आंखें उसकी लाल; रात बिना सोए हुए आया। पैर भी उसने दबाए सम्राट के, तो सम्राट को लगा, आज कुछ फर्क है। उसमें जान न थी। क्योंकि विश्राम न हो, तो कोई श्रम के लिए तैयार नहीं हो सकता। उसने पूछा, मामला क्या है? नाई ने कहा, समझ में मेरे भी नहीं आता; लेकिन रात मैं सो नहीं सका।
सम्राट ने कहा, इसमें कुछ वजीर का हाथ तो नहीं है? वजीर ने तुझ से कुछ कहा तो नहीं? उसने कहा, किसी ने कुछ कहा नहीं। लेकिन जब आप पूछते हैं, तो कल रात मुझे घर में एक निन्यानबे रुपये की थैली पड़ी मिल गई। उससे मैं मुसीबत में पड़ गया हूं। सो नहीं सका। सम्राट ने कहा, मैं समझ गया। वह वजीर चालाक है। उसने तुझे निन्यानबे के चक्कर में डाल दिया। इसी चक्कर में मैं हूं। बस, अब बात साफ हो गई।
वह जो दुकानदार है--या कोई भी, जो किसी चक्कर में है, लोभ के, वासना के--वह श्रम नहीं कर रहा है। उसका श्रम ऊपर-ऊपर है; भीतर कुछ और चल रहा है। वह और जो चल रहा है, वह उसका पागलपन है। वह पागलपन उसे विश्राम न करने देगा। और जब विश्राम न होगा, तो सम्यक श्रम पैदा नहीं होता। और तब एक दुष्टचक्र पैदा होता है। दोनों गलत हो जाते हैं।
सत्वगुण के पैदा होने का अर्थ है, रजोगुण और तमोगुण को ध्यान में रखना है। तमोगुण का उतना ही उपयोग करना है, जिससे विश्राम मिले, आलस्य पैदा न हो। और रजोगुण का उतना ही उपयोग करना है, जिससे जीवन की जरूरत पूरी हो, लोभ पैदा न हो। बस, फिर आपके भीतर सत्व की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।
यही अर्थ है, तमोगुण और रजोगुण को दबाकर सत्वगुण पैदा होता है अर्थात बढ़ता है। तथा रजोगुण और सत्वगुण को दबाकर तमोगुण बढ़ता है। वैसे ही तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है।
आप अपने भीतर दो को दबा सकते हैं; तीसरा मुक्त हो जाता है। जिसे भी मुक्त करना हो, उसको छोड़कर बाकी दो को दबाना शुरू कर देना चाहिए।
हम सारे लोग सत्वगुण को दबाते हैं। अच्छाई, शुभ हम दबाते हैं। जहां तक बच सकें, उससे बचते हैं। अगर शुभ करने का कोई मौका हो, शांत होने का कोई मौका हो, सत्व में उतरने की कोई सुविधा हो, तो हम उसको चूकते हैं।
अगर कोई कहे कि आओ, एक घंटा चुपचाप शांति से बैठें, तो हमें व्यर्थ लगता है। हम कहेंगे, कुछ करो। ताश ही खेलें। बैठने से क्या होगा! कुछ करें।
झेन फकीर जापान में बैठना सिखाते हैं। वे कहते हैं साधु को, तू बैठना सीख जा बस! पर बैठने में दो बातों का खयाल रखना पड़ता है। झेन फकीर, जो गुरु होता है, वह हाथ में एक डंडा लेकर घूमता रहता है। दो बातें खयाल रखनी पड़ती हैं। तमोगुण दबाना पड़ता है और रजोगुण दबाना पड़ता है। दोनों एक साथ दबाना पड़ता है। वह डंडा लेकर घूमता है। वह कहता है, बैठे तो रहो, लेकिन सो मत जाना। सोकर आप धोखा नहीं दे सकते। क्योंकि आपका सिर हिलने लगेगा। जैसे ही सिर हिला कि डंडा आपके सिर पर होगा। वह गुरु डंडा मारेगा फौरन। और एक बार सिर हिले तो आठ डंडा मारने की आज्ञा है। तो वह आठ बार आपके सिर पर डंडा मारेगा, बेरहमी से। भीतर तक तमोगुण को झटका लग जाए!
न तो सोने देगा, और न कुछ करने देगा। कि आप ऐसा हिलने लगें, तो भी डंडा पड़ जाएगा। क्योंकि हिलने का मतलब हुआ कि रजोगुण शुरू हो गया। कि आप ऐसा पैर खुजाने लगें, तो भी डंडा पड़ जाएगा। आपको कुछ करने भी नहीं देगा और सोने भी नहीं देगा। दोनों के बीच में, वह कहता है, बैठने की कला है; दोनों के बीच जो रुक जाए, वह झेन की अवस्था में आ गया, ध्यान की अवस्था में आ गया।
तो छह घंटे, आठ घंटे, दस घंटे, बारह-बारह घंटे तक धीरे-धीरे साधक को सिर्फ बैठना होता है।
थोड़ी देर सोचें, छह घंटे सिर्फ बैठे हैं! न कुछ कर सकते हैं और न सो सकते हैं। क्या होगा?
पहली तो वृत्ति यह होगी कि कुछ करो। उस करने की वृत्ति से बहुत कुछ पैदा होता है। खयाल आएगा कि पैर में खुजलाहट हो रही है। इसमें अपना क्या हाथ है! पैर तो खुजला ही सकते हैं। या कोई चींटी चल रही है। ये सब बातें आना शुरू होंगी। और ये सब झूठ हैं।
अगर आप तैयार हैं बैठे रहने को, तो चींटी भी चलती रहे, तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। और आप तैयार नहीं हैं, तो आप चींटी कल्पित कर लेंगे। वहां जब आप पाएंगे, तो वहां कोई चींटी नहीं है! थोड़ी-बहुत देर अगर आपने रोकने की कोशिश की कि कुछ न करें, तो नींद पकड़ने लगेगी।
हमारी ऊर्जा दो हिस्सों में बहती है, या तो तमोगुण या रजोगुण। रजोगुण से बचाएं, तो तमोगुण। तमोगुण से बचाएं, तो रजोगुण। और दोनों से बचाएं, तो तीसरे द्वार से पहली दफा झरना फूटेगा।
झेन का सारा सूत्र कृष्ण के इस एक सूत्र में समाया हुआ है। झेन फकीर जो कर रहे हैं, वह इसी सूत्र का प्रयोग है। बैठे रहें; न तो तंद्रा आए, और न क्रिया पकड़े। अक्रिया में अतंद्रित!
तो आपकी चेतना कहां जाएगी? चेतना को कहीं तो जाना ही है, क्योंकि चेतना एक गति है, ऊर्जा है। जब नींद भी नहीं बन सकती और कर्म भी नहीं बन सकती, तो चेतना ध्यान बन जाती है, होश बन जाती है।
इसलिए जिस काल में इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता और बोध-शक्ति उत्पन्न होती है, उस काल में ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा।
और हे अर्जुन, रजोगुण के बढ़ने पर लोभ और प्रवृत्ति अर्थात सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के कर्मों का स्वार्थ-बुद्धि से आरंभ एवं अशांति अर्थात मन की चंचलता, विषय-भोगों की लालसा, ये सब उत्पन्न होते हैं।
रजोगुण के ये लक्षण हैं।
सत्वगुण का लक्षण है, बोध, अवेयरनेस, जागरूकता। रजोगुण का लक्षण है, लोभ, सांसारिक चेष्टा, कु
छ पा लें संसार में। सब प्रकार के कर्मों का स्वार्थ-बुद्धि से आरंभ। मुझे कुछ मिले लाभ, ऐसे किसी कर्म में उतरने की वृत्ति। अशांति, मन की चंचलता, विषय-भोगों की लालसा, ये सब उत्पन्न होते हैं।
अगर रजोगुण से छूटना हो, तो इन सबसे छूटना जरूरी है। और छूटने का एक ही अर्थ है, इनको सहयोग मत दें। जब लोभ उठे, तो उसे देखते रहें। उसको कोआपरेट मत करें। उसको साथ मत दें। लेकिन हम साथ देते हैं।
सुना है मैंने कि नसरुद्दीन एक रात, अचानक आधी रात उठा और पत्नी से बोला, जल्दी चश्मा ला। पत्नी उसे जानती थी। कुछ बिना पूछताछ--उससे पूछताछ करने का कोई सार भी नहीं था--उसने चश्मा उठाकर दे दिया। उसने चश्मा लगाया। आंख बंद करके फिर से लेट रहा।
फिर थोड़ी देर बाद उठा और उसने कहा कि तूने देर कर दी। सब गड़बड़ हो गया। एक सपना देख रहा था और सपने में एक देवदूत मुझे रुपए दे रहा था। ठीक सौ-सौ के नोट थे। मुझे शक पैदा हो गया कि नोट असली हैं कि नकली, इसलिए तुझसे चश्मा मांगा। और भी एक झंझट थी कि वह नौ नोट दे रहा था और मैं कह रहा था दस दे। उसी दस की झंझट में नींद खुल गई। और फिर आंख बंद करके चश्मा लगाकर मैंने कई बार कहा कि अच्छा भाई, नौ ही दे दे। मगर वहां कोई नहीं है। सपना खो गया। सब नष्ट कर दिया। इतनी देर लगा दी चश्मा उठाने में।
सपने में भी अगर नौ मिल रहे हों, तो दस का मन होता है। वह मन तो वही है, जो जाग रहा है। वही सपने में सो रहा है। और ऐसा नहीं था कि दस दे रहा होता देवदूत, तो कोई मन रुक जाता। मन कहता, जब मिल ही रहे हैं, तो थोड़े और मांग लो!
मन भिखमंगा है; लोभ उसका स्वभाव है। इसको अगर आप सहयोग देते चले जाते हैं, तो रजोगुण बढ़ेगा। क्योंकि जितना लोभ बढ़ेगा, उतना कर्म में उतरना पड़ेगा। लोभ को पूरा करना हो, तो दौड़-धूप करनी ही पड़ेगी। फिर जितना लोभ बढ़ेगा, उतनी अशांति बढ़ेगी। क्योंकि मिलेगा? नहीं मिलेगा? कैसे मिलेगा? ये सब चिंताएं मन को पकड़ेंगी। और कैसे मिल जाए? क्या तरकीब लगाएं? झूठ बोलें; बेईमानी करें; चोरी करें; क्या करें, क्या न करें; यह सब आयोजन करना होगा। अशांति बढ़ेगी। और मन को बहुत दौड़ाना पड़ेगा। चंचलता बढ़ेगी। रजोगुण इन सारी वृत्तियों को भीतर जन्म देगा। और ये सारी वृत्तियां आपकी सारी ऊर्जा को रजोगुण के द्वार से प्रकट करने लगेंगी।
रजोगुण का अंतिम चरण विक्षिप्तता है। वे जो पागल होकर पागलखानों में बैठे हैं, वे रजोगुण की साकार प्रतिमाएं हैं। उन्होंने इतना दौड़ा दिया मन को कि लगाम वगैरह ही टूट गई। फिर अब वह रोकना भी चाहे, तो रोकने का साधन ही नहीं है। वह बढ़ता ही चला गया। घोड़े सब भागने लगे। लगामें टूट गईं। कहां ले जाने लगे; रास्ते से हट गए। फिर कोई हिसाब न रहा।
पागल हो जाने का अर्थ है कि आपके पास नियंत्रण की कोई क्षमता न रही। मन इतना लोभ से भर गया कि उसने सब नियंत्रण तोड़ दिए।
रजोगुण अगर पूरा बढ़ जाए, तो विक्षिप्तता अंतिम फल है। अगर तमोगुण पूरा बढ़ जाए, तो मृत्यु अंतिम फल है। सत्वगुण पूरा बढ़ जाए, तो समाधि अंतिम फल है।
फिर जो आपको खोजना हो। अगर मृत्यु खोजनी हो, तो आलस्य को साधें। तंद्रा मृत्यु का ही प्राथमिक चरण है। फिर पड़े रहें मिट्टी के ढेर बनकर। जल्दी ही मिट्टी के ढेर हो जाएंगे।
विक्षिप्तता खोजनी हो, तो लोभ को बढ़ाएं। फिर कोई सीमा न मानें। असीम लोभ में दौड़ते चले जाएं। जल्दी ही आप पागलखाने में होंगे।
और अगर इन दोनों को दबा दें, दबा दें अर्थात इन दोनों के साथ सहयोग अलग कर लें, तो आपके भीतर सत्व उदय होगा। सत्व महासुख है। और सत्व शुभ में ले जाएगा। सत्व धीरे-धीरे शांति में ले जाएगा। सत्व धीरे-धीरे ध्यान में ले जाएगा।
और सत्व के भी पार जिस दिन आप उठने लगेंगे.। और सत्व उस जगह पहुंचा देता है, जहां से पार उठना आसान है। जब सब विकार छूटने लगते हैं, सिर्फ सत्व का शुद्ध विकार रह जाता है, तो उसे छोड़ने में बहुत कठिनाई नहीं होती।
यह करीब-करीब ऐसा ही है, जैसे दीया जलता है। तो पहले तो वह जो अग्नि की शिखा है, वह तेल को जलाती है। फिर जब तेल जल जाता है, तो बत्ती को जलाती है। फिर जब बत्ती भी जल जाती है, तो खुद जलकर शून्य हो जाती है।
सत्वगुण अग्नि जैसा है। पहले रजोगुण, तमोगुण को जलाएगा। जब वे दोनों जल जाएंगे, तो खुद को जला लेगा। और जब सत्वगुण भी जल जाता है, जब उसकी भी राख हो जाती है, तब जो शेष रह जाता है, वही स्वभाव है। उसे कृष्ण ने गुणातीत अवस्था कहा है।

आज इतना ही।

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