BHAGWAD GEETA
Geeta Darshan Vol-11 05
Fifth Discourse from the series of 12 discourses - Geeta Darshan Vol-11 by Osho. These discourses were given during JAN 03-14 1973.
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रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्।। 23।।
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो।। 24।।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 25।।
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः।। 26।।
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः।। 27।।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।। 28।।
और हे महाबाहो, आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले तथा बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले और बहुत उदरों वाले तथा बहुत-सी विकराल जाड़ों वाले महान रूप को देखकर सब लोक व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूं।
क्योंकि हे विष्णो, आकाश के साथ स्पर्श किए हुए, देदीप्यमान, अनेक रूपों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अंतःकरण वाला मैं धीरज और शांति को नहीं प्राप्त होता हूं।
और हे भगवन्, आपके विकराल जबड़ों वाले और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूं और सुख को भी नहीं प्राप्त होता हूं। इसलिए हे देवेश, हे जगन्निवास, आप प्रसन्न होवें।
और मैं देखता हूं कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओं के समुदाय सहित आपमें प्रवेश करते हैं और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सब के सब, वेगयुक्त हुए आपके विकराल जाड़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखते हैं।
और हे विश्वमूर्ते, जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे शूरवीर मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित हुए मुखों में प्रवेश करते हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि भगवान, परमात्मा के विराट स्वरूप को समझाते हुए आपने कल जन्म और मृत्यु, सृजन और संहार, सुंदर और भयानक आदि के द्वंद्वात्मक अस्तित्व की बात की। समझाएं कि जिस परम सत्य को अमृत या सच्चिदानंद के नाम से कहा गया, वह उपरोक्त द्वंद्वों का जोड़ है, अथवा इन दो के अतीत वह कोई तीसरी सत्ता है?
द्वंद्व चारों ओर है। संसार में जहां भी देखेंगे, वहां एक कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगा। विपरीत सदा मौजूद होगा। संसार के होने का ढंग ही विपरीत के बिना असंभव है। इस एक बात को ठीक से समझ लें। जैसे कि कोई मकान बनाने वाला राजगीर विपरीत ईंटों को जोड़कर गोल दरवाजा बनाता है। अगर एक ही रुख में ईंटें लगाई जाएं, तो दरवाजा गिर जाए। विपरीत ईंटें एक-दूसरे के प्रति विरोध का काम करके दरवाजे को सम्हालने का आधार बन जाती हैं।
सारा जगत विपरीत ईंटों से बना हुआ है। वहां प्रकाश है, तो केवल इसीलिए कि अंधेरा भी है। और अंधेरा भी हो सकता है तभी तक, जब तक प्रकाश है। प्रकाश और अंधेरा विपरीत ईंटें हैं। दो कारणों से। एक तो सभी ईंटें समान होती हैं, हम उन्हें विपरीत लगा सकते हैं। अंधेरा और प्रकाश एक ही सत्ता के दो रूप हैं। ईंटें एक जैसी हैं, लेकिन एक-दूसरे के विपरीत लग जाती हैं।
जन्म और मृत्यु एक ही जीवन के दो छोर हैं। लेकिन जन्म नहीं होगा जिस दिन, मृत्यु बंद हो जाएगी। और मृत्यु भी नहीं होगी उसी दिन, जिस दिन जन्म बंद हो जाएगा। जन्म और मृत्यु का विरोध जो तनाव पैदा करता है, वही तनाव संसार है।
संसार एक अशांत अवस्था है। और अशांत अवस्था तभी हो सकती है, जब वैपरीत्य, द्वंद्व मौजूद हो। आप भी अगर केवल आत्मा हों, तो संसार में नहीं रह जाएंगे। आप भी केवल शरीर हों, तो भी आप आप नहीं रह जाएंगे, मिट्टी हो जाएंगे। आपके भीतर भी शरीर और आत्मा का एक द्वंद्व है। उस द्वंद्व के तनाव में विपरीत ईंटों के बीच ही आपका अस्तित्व है। जहां भी खोजेंगे, वहां पाएंगे कि विरोध है।
राम के अकेले होने का कोई उपाय नहीं है। रावण का होना एकदम जरूरी है। और रावण हमें कितना ही अप्रीतिकर लगे, कितना ही हम चाहें कि वह न हो, लेकिन हमें पता नहीं कि रावण के न होते ही राम के होने का कोई उपाय नहीं रह जाता। थोड़ा सोचें, रावण को हटा लें राम की कथा से। तो रावण के हटाते ही राम में जो भी महत्वपूर्ण है, तत्क्षण गिर जाएगा। वह तो रावण की विपरीत ईंट के कारण ही राम की प्रखरता है। राम को हटा लें, तो रावण व्यर्थ हो जाएगा।
सारे जीवन का चक्र द्वंद्व के आधार पर है। यह जो द्वंद्व है, यह जिस दिन शांत हो जाता है, उस दिन हम संसार के बाहर हो जाते हैं। जिस क्षण यह द्वंद्व शांत होता है, उस क्षण अद्वैत में प्रवेश होता है। लेकिन अद्वैत जीवन नहीं है। अद्वैत ब्रह्म है। अद्वैत जीवन इसलिए नहीं है कि वहां कोई मृत्यु नहीं है। जहां मृत्यु नहीं है, वहां जीवन का कोई अर्थ नहीं होता। जहां हार हो सकती है, वहां विजय का कोई मूल्य है। जहां मिटना हो सकता है, वहां होने का कोई अर्थ है।
हमारे सारे शब्द संसार के हैं। इसलिए जो भी हम कहें भाषा में, उसका विपरीत होगा ही। उस विपरीत को हम कितना ही भुलाने की कोशिश करें, उसे भुलाने का कोई उपाय नहीं है। हम कितना ही छिपाएं, वह छिपेगा नहीं। इस पहली बात को ध्यान में ले लेना जरूरी है। संसार का अस्तित्व द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है। और संसार की सारी गति द्वंद्व से होती है।
जर्मन विचारक हीगल ने पश्चिम की विचारधारा में डायलेक्टिक्स को जन्म दिया। उसने पहली दफा पश्चिम में यह विचार प्रस्तुत किया कि जीवन की सारी गति द्वंद्व से है। और जहां द्वंद्व है, वहां गति होगी। और जहां गति है, वहां द्वंद्व होगा। और जहां गति नहीं होगी, वहां द्वंद्व समाप्त हो जाएगा। या द्वंद्व बंद हो जाए, तो गति समाप्त हो जाएगी।
हीगल के ही विचार को कार्ल मार्क्स ने नया रूप देकर कम्यूनिज्म को जन्म दिया। क्योंकि हीगल ने कहा था, वाद पैदा होता है, तो तत्क्षण विवाद पैदा होता है; थीसिस, एंटी-थीसिस; और दोनों मिलकर सिंथीसिस बन जाता है, समन्वय बनता है। लेकिन समन्वय फिर वाद हो जाता है, फिर उसका प्रतिवाद होता है। और ऐसे विकास होता है।
मार्क्स ने इसी विचार के आधार पर समाज की व्याख्या की। और उसने कहा कि गरीब और अमीर का द्वंद्व है। इस द्वंद्व से, इस द्वंद्व के पार समाजवाद का जन्म होगा।
लेकिन मार्क्स अपने ही विचार को बहुत दूर तक नहीं खींच सका। अगर यह सच है कि विकास द्वंद्व से होता है, तो समाजवाद के पैदा होते ही समाजवाद के विपरीत कोई धारा तत्काल पैदा हो जाएगी।
लेकिन मार्क्स को यह हिम्मत नहीं पड़ सकी कि वह कहे कि समाजवाद के विपरीत भी कोई धारा पैदा होगी। उसने पुराने इतिहास में तो द्वंद्व को देखा, कामना की कि भविष्य में कोई द्वंद्व नहीं होगा, और साम्यवाद सदा बना रहेगा, उसका कोई विरोध नहीं होगा! वह अपने विचार के प्रति अति मोह के कारण। जैसे मां अपने बेटे को नहीं चाहती कि वह मरे, जानते हुए कि सभी मरते हैं, उसका बेटा भी मरेगा। विचारक भी अपने विचार से अति मोहग्रस्त हो जाते हैं।
इस जगत में कुछ भी पैदा नहीं हो सकता, जिसका विरोध न हो। विरोध होगा ही। विरोध ही गति है, इस जगत का प्राण है। यहां निर्विरोध कोई बात नहीं हो सकती।
जिन्होंने पूछा है, उन्होंने पूछा है कि उस परम एकाकार का जब अनुभव होगा, तो दोनों द्वंद्व मिल जाएंगे या दोनों द्वंद्वों के अतीत चला जाता है व्यक्ति?
दोनों बातें एक ही हैं। जहां द्वंद्व मिलते हैं, वहां एक-दूसरे को काट देते हैं। जैसे ऋण और धन अगर मिल जाएं, तो दोनों कट जाते हैं। जहां दोनों द्वंद्व मिलते हैं, वहां उनकी दोनों की शक्ति एक-दूसरे को काट देती हैं और द्वंद्व शून्य हो जाता है। वही शून्यता पार होना भी है, वही ट्रांसेंडेंस भी है, वहीं आदमी पार भी हो जाता है।
जब तक आपका जीवन से मोह है, तब तक मृत्यु से भय रहेगा। अगर जीवन का मोह छूट जाए, मृत्यु का भय भी तत्क्षण छूट जाएगा। जहां जीवन का मोह नहीं, मृत्यु का भय नहीं, वहां आप पार निकल गए। वहां आप उस जगह पहुंच गए, जहां द्वंद्व नहीं है।
लेकिन हम तो ईश्वर की भी बात करते हैं, तो हमारी भाषा का द्वंद्व प्रवेश कर जाता है। हम कहते हैं, ईश्वर प्रकाश है। हम डरेंगे कहने में कि ईश्वर अंधकार है। क्योंकि हमारी आकांक्षा हमारे शब्द की निर्मात्री है। हम चाहते हैं कि ईश्वर प्रकाश हो। तो अंधेरे को हम छोड़ देंगे।
हम कहते हैं, ईश्वर अमृत है, परम जीवन है। हम यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते कि ईश्वर परम मृत्यु है, महामृत्यु है। हम चुनते हैं शब्द भी, तो हमारा मोह! हम चाहते हैं, कहीं भी मृत्यु न हो। तो हम ईश्वर के लिए अमृत का उपयोग करते हैं।
हम कहते हैं, ईश्वर सच्चिदानंद है। यह भी हमारा मोह है। हम नहीं कह सकते कि ईश्वर परम दुख है, हम कहते हैं, परम सुख है। द्वंद्व में से एक को चुनते हैं। वहां भूल हो जाती है। ईश्वर सुख-दुख दोनों का मिल जाना है। और जहां सुख-दुख मिल जाते हैं, एक-दूसरे को काट देते हैं। उस घड़ी को हम जो नाम देंगे, वह नाम सुख नहीं हो सकता।
इसलिए हमने आनंद चुना है। आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। सुख के विपरीत दुख है, आनंद के विपरीत कुछ भी नहीं है। हालांकि आप जब भी आनंद की बात करते हैं, तो आपका अर्थ सुख होता है। वह अर्थ ठीक नहीं है। या होता है महासुख, वह भी अर्थ ठीक नहीं है। आपके आनंद की धारणा में सुख समाया होता है और दुख अलग होता है, वह ठीक नहीं है।
आनंद की ठीक स्थिति का अर्थ है, जहां सुख और दुख मिलकर शून्य हो गए। एक-दूसरे को काट दिया उन्होंने। एक-दूसरे का निषेध हो गया। जहां दोनों नहीं रहे।
इसलिए बुद्ध ने आनंद शब्द का प्रयोग नहीं किया। क्योंकि आनंद से हमारे सुख का भाव झलकता है। तो बुद्ध ने कहा, शांति, परम शांति। सब शांत हो जाता है, द्वंद्व शांत हो जाता है। इसे चाहे हम कहें दो का मिल जाना, चाहे हम कहें दो के पार हो जाना, एक ही बात है।
जीवन में जहां भी आपको द्वंद्व दिखाई पड़े, चुनाव मत करना। जो चुनाव करता है, वह गृहस्थ है। जो चुनाव नहीं करता, वह संन्यस्त है।
इस बात को थोड़ा समझ लें।
दुख है, सुख है, तत्क्षण हमारा मन चुनाव करता है कि सुख चाहिए और दुख नहीं चाहिए। जन्म है और मृत्यु है, तत्क्षण हमारा मन कहता है, जन्म ठीक, मृत्यु ठीक नहीं है। मित्र हैं, शत्रु हैं, हमारा मन कहता है, मित्र ही मित्र रहें, शत्रु कोई भी न रहे। यह चुनाव है, च्वाइस है। और जहां चुनाव है, वहां संसार है। क्योंकि आपने दो में से एक को चुन लिया। और दो ही अगर आप एक साथ चुन लें, तो कट जाएंगे दोनों।
अगर आप मान लें कि मित्र भी होंगे, शत्रु भी होंगे, और आपके मन में कोई रत्तीभर चुनाव न हो कि मित्र ही बचें, शत्रु न बचें। आपके मन में कोई चुनाव न हो कि जीवन ही रहे, मृत्यु न रहे। आप दोनों के लिए राजी हो जाएं। जो हो, उसके लिए आपकी पूरी की पूरी तथाता, एक्सेप्टिबिलिटी हो, स्वीकार हो, तो आप संन्यस्त हैं। फिर आप मकान में हैं, दुकान में हैं, बाजार में हैं कि हिमालय पर हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके भीतर चुनाव खड़ा न हो, च्वाइसलेसनेस।
कृष्णमूर्ति निरंतर च्वाइसलेसनेस, चुनावरहितता की बात करते हैं। वह चुनावरहितता यही है। दो के बीच कोई भी न चुनें।
जैसे ही आप दो के बीच चुनाव बंद करते हैं, दोनों गिर जाते हैं। क्यों? क्योंकि आपके चुनाव से ही वे खड़े होते हैं। और जटिलता यह है कि जब आप एक को चुनते हैं, तब अनजाने आपने दूसरे को भी चुन लिया। जब मैं कहता हूं, मुझे सुख ही सुख चाहिए, तभी मैंने दुख को भी निमंत्रण दे दिया। जो सुख की मांग करेगा, वह दुखी होगा। उस मांग में ही दुख है। जो सुख की मांग करेगा, वह अगर सुख न पाएगा, तो दुखी होगा। अगर पा लेगा, तो भी दुखी होगा। क्योंकि जो सुख पा लिया जाता है, वह व्यर्थ हो जाता है। और जो सुख नहीं पाया जाता, उसकी पीड़ा सालती रहती है।
जैसे ही हम चुनते हैं एक को, दूसरा भी आ गया पीछे के द्वार से। और हम चाहते हैं कि दूसरा न आए। इसीलिए हम चुनते हैं कि दूसरा न आए। हम चाहते हैं, यश तो मिले, अपयश न मिले। प्रशंसा तो मिले, कोई अपमान न करे। लेकिन जो प्रशंसा चाह रहा है, उसने अपमान को बुलावा दे दिया। अपमान मिलेगा। अपमान तो केवल उसी को नहीं मिलता है, जिसने मान को चुना नहीं। जिसने मान को चुना, उसे अपमान मिलेगा।
जरूरी नहीं है कि आप मान को न चुनें, तो कोई आपको गाली न दे। दे, लेकिन आपके पास गाली गाली की तरह नहीं पहुंच सकती है। यह दूसरे देने वाले पर निर्भर है कि वह फूल फेंके कि पत्थर फेंके। लेकिन आपके पास अब पत्थर भी नहीं पहुंच सकता, फूल भी नहीं पहुंच सकता। वह तो फूल मुझे मिले, इसलिए पत्थर पहुंच जाता था। फूल ही मेरे पास आए, इसलिए पत्थर भी निमंत्रित हो जाता था। जैसे ही आप चुनाव छोड़ देते हैं, आप जगत के बीच भी जगत के बाहर हो जाते हैं।
यह जो चुनावरहितता है, यह संन्यास की गुह्य साधना है, आंतरिक साधना है। संन्यास है मार्ग, दो के पार जाने का। संसार है द्वार, दो के भीतर जाने का।
तो जितना आप ज्यादा चुनेंगे, उतने आप उलझते चले जाएंगे। जितना आप मांग करेंगे, उतने आप परेशान होते चले जाएंगे। जितना आप कहेंगे, ऐसा हो, और ऐसा न हो, उतनी ही आपकी चित्त-दशा विक्षिप्त होती चली जाएगी। जितना आप चुनाव क्षीण करते जाएंगे और आप कहेंगे, जैसा हो, मैं राजी हूं। जो भी हो, मैं राजी हूं। जैसा भी हो रहा है, उससे विपरीत की मेरी कोई मांग नहीं है। जीवन मिले तो ठीक, और मृत्यु मिल जाए तो ठीक। दोनों के साथ मैं एक-सा ही व्यवहार करूंगा। मैं कोई भेद नहीं करूंगा। जैसे ही आपके भीतर का यह तराजू समतुल होता जाएगा, वैसे ही वैसे द्वंद्व क्षीण होगा और आप अद्वैत में, निर्द्वंद्व में प्रवेश कर जाएंगे।
अर्जुन ऐसी ही घड़ी में खड़ा है, जहां उसके भीतर, वह जो संसार था, खो गया है। वह चुनावरहित हो गया है।
इस चुनावरहित होने के लिए बहुत उपाय हैं। एक उपाय साधक का है, योगी का है। वह चेष्टा कर-करके चुनाव को छोड़ता है। एक उपाय भक्त का है, प्रेमी का है। वह चेष्टा कर-करकेनहीं छोड़ता। वह नियति को स्वीकार कर लेता है, भाग्य को स्वीकार कर लेता है, वह राजी हो जाता है।
यह कृष्ण के पास जो अर्जुन खड़ा है, अर्जुन का यह खड़ा होना, एक भक्त का खड़ा होना है, एक समर्पित चेतना का।
(श्रोताओं के बीच शोरगुल। कुछ उपद्रव की कोशिशें। ओशो बोले, उनकी चिंता न करें। जिस द्वंद्व की मैं बात कर रहा हूं, वही है। उसकी कोई चिंता न करें। वह रहेगा। उससे कोई बचने का उपाय नहीं है। उसमें चुनाव न करें। शांत बैठे रहें।)
कृष्ण के सामने अर्जुन की जो दशा है, वह किसी साधक की नहीं है, वह कोई साधना नहीं कर रहा है, वह कोई योग नहीं साध रहा है। लेकिन कृष्ण के प्रेम में समर्पित हो गया है। वह एक गहरी समर्पण की भाव-दशा है। उसने छोड़ दिया सब कृष्ण पर। छोड़ने का अर्थ है, अब मेरा कोई चुनाव नहीं है। समर्पण का अर्थ है, अब मैं न चुनूंगा, अब तुम्हारी मर्जी ही मेरा जीवन होगी। अब जो तुम चाहोगे, अब जो तुम्हारा भाव हो, मैं उसके लिए बहने को राजी हूं। अब मैं तैरूंगा नहीं।
एक तो आदमी है, नदी में तैरता है। वह कहता है, उस किनारे, उस जगह मुझे पहुंचना है। एक आदमी है, नदी में बहता है। वह कहता है, कहीं मुझे पहुंचना नहीं। नदी जहां पहुंचा दे, वही मेरी मंजिल है। अगर नदी बीच में डुबा दे, तो वही मेरा किनारा है। मुझे कहीं पहुंचना नहीं, नदी जहां पहुंचा दे, वही मेरा लक्ष्य है। यह समर्पित, सरेंडर्ड भक्त का लक्षण है।
अर्जुन ऐसी दशा में है। वह कह रहा है, मैंने छोड़ा, अब मैं तैरूंगा नहीं। मैंने तैरकर देख लिया; सोचकर, विचारकर देख लिया। अब मैं छोड़ता हूं; अब मैं बहूंगा। अब कृष्ण, तुम्हारी नदी मुझे जहां ले जाए। जो भी हो परिणाम, और जो भी हो मंजिल, या न भी हो, तो जहां भी मैं पहुंच जाऊं, जहां तुम पहुंचा दो, मैं उसके लिए राजी हूं।
यह अचुनाव है। च्वाइस समाप्त हो गई। चुनाव समाप्त हो गया। इस चुनाव के समाप्त होने के कारण ही अर्जुन निर्द्वंद्व हो सका और अद्वैत की उसे झलक मिल सकी।
एक और मित्र ने पूछा है कि क्या गीता स्वयं में पर्याप्त नहीं है, जो आप उसकी इतनी लंबी व्याख्या कर रहे हैं? और शब्दों से दबी हुई आज की मनुष्य-सभ्यता के लिए आप गीता को इतना विस्तृत रूप दे रहे हैं, इसके पीछे क्या कारण है?
गीता तो अपने में पर्याप्त है। लेकिन आप बिलकुल बहरे हैं। गीता तो पर्याप्त से ज्यादा है। उसकी व्याख्या की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन आप उसे सुन भी न पाएंगे, आप उसे पढ़ भी न पाएंगे। वह आपके भीतर प्रवेश भी न पा सकेगी।
बुद्ध की आदत थी कि वह एक बात को हमेशा तीन बार कहते थे। तीन बार! छोटी-मोटी बातों को भी तीन बार कहते थे। आनंद ने एक दिन बुद्ध को पूछा कि आप क्यों तीन-तीन बार किसी बात को कहते हैं? और छोटी-मोटी बात को भी आप तीन बार क्यों दोहराते हैं? सुन लिया! बुद्ध ने कहा कि तुम्हें भ्रम होता है कि तुमने सुन लिया। मुझे तीन बार कहना पड़ता है, तब भी पक्का नहीं है कि तुमने सुना हो। क्योंकि सुनना बड़ी कठिन बात है।
सुन केवल वही सकता है, जो भीतर विचार न कर रहा हो। जब आप भीतर विचार कर रहे होते हैं, तो जो आप सुनते हैं, वह कहा गया हुआ नहीं है। वह तो आपके विचारों ने तोड़ लिया, बदल दिया, नई शक्ल दे दी, नया ढंग दे दिया, नया अर्थ हो गया।
तो जब मैं कुछ कह रहा हूं, तो आप वही सुनते हैं जो मैं कह रहा हूं, ऐसी भ्रांति में न पड़ें। आप वही सुनते हैं, जो आप सुन सकते हैं, सुनना चाहते हैं। और आप जो सुनते हैं, वह आपकी व्याख्या हो जाती है।
तो गीता तो पर्याप्त है। लेकिन आपके लिए ऐसा अवसर खोजना जरूरी है, जब कि गीता आपके ऊपर हैमर की जा सके, हथौड़ी की तरह आपके सिर पर ठोंकी जा सके। इसलिए इतनी लंबी व्याख्या करनी पड़ती है। फिर भी कोई पक्का भरोसा नहीं है कि आपको सुनाई पड़ जाएगी।
फिर दूसरा कारण भी है। जिस दिन गीता निर्मित हुई, उस दिन के आदमी और आज के आदमी में जमीन-आसमान का अंतर पड़ गया है। रोज अंतर पड़ जाता है। शब्द पुराने हो जाते हैं। जैसे वस्त्र पुराने हो जाते हैं, जैसे शरीर पुराने हो जाते हैं, ऐसे शब्द पुराने हो जाते हैं। और पुराने शब्दों की पकड़ हम पर खो जाती है। उनको सुन-सुनकर हम बहरे हो जाते हैं। फिर उस अर्थ को बाहर खींचकर नए शब्द देने की हर युग में जरूरत पड़ जाती है।
सत्य तो कभी बासा नहीं होता, लेकिन शब्द सदा बासे हो जाते हैं। आत्मा तो कभी पुरानी नहीं पड़ती, लेकिन शरीर पुराने पड़ जाते हैं। जब आप बूढ़े हो जाएंगे, आपका शरीर पुराना पड़ जाएगा। फिर आपकी आत्मा को नया शरीर ग्रहण कर लेना पड़ेगा।
गीता बहुत पुरानी हो गई है। और युग-युग में जरूरत है कि उसको नई देह मिल जाए, नए शब्द, नए आकार मिल जाएं। हमने इस मुल्क में इसकी बड़ी गहरी कोशिश की है। और इसके परिणाम हुए। अगर हम दूसरे मुल्कों को देखें, तो खयाल में आ जाएगी बात।
सुकरात ने कुछ कहा, वह बहुत कीमती है। लेकिन फिर उस पर कभी व्याख्या नहीं की गई। फिर उस पर कोई व्याख्या नहीं हुई; वह संगृहीत है। लेकिन हमने इस मुल्क में एक अनूठा प्रयोग किया। और वह अनूठा प्रयोग यह था, कृष्ण ने गीता कही, अर्जुन ने सुनी। फिर बार-बार शंकर होंगे, रामानुज होंगे, निंबार्क होंगे, वल्लभ होंगे, फिर से व्याख्या करेंगे।
शंकर क्या कर रहे हैं? वे जो शब्द पुराने पड़ गए हैं, उनको हटाकर नए शब्द रख रहे हैं। आत्मा को नए शब्दों में प्रवेश दे रहे हैं, ताकि शंकर के युग के कान सुन सकें और शंकर के युग का मन समझ सके। लेकिन अब तो शंकर भी पुराने पड़ गए। और हमेशा बात पुरानी पड़ जाएगी; शब्द तो पुराने पड़ ही जाएंगे। मैं जो कह रहा हूं, वह थोड़े दिन बाद पुराना हो जाएगा। जरूरत होगी कि फिर अर्थ को शब्द से छुटकारा करा दिया जाए।
व्याख्या का अर्थ है, अर्थ को, आत्मा को, शब्द से मुक्ति दिलाने की कोशिश। वह जो शब्द उसे पकड़ लेता है, उसे हटा दिया जाए, नया ताजा शब्द दे दिया जाए, ताकि आप नए ताजे शब्द को सुन सकें। मन रोज बदल जाता है। और मन के बदलने के साथ मन के पकड़ने, समझने के ढंग बदल जाते हैं।
इसे थोड़ा समझ लें।
आज से पांच हजार साल पहले मन का आधार था, श्रद्धा, आस्था, भरोसा, विश्वास, ट्रस्ट। आज मन का आधार नहीं है श्रद्धा पर। आज आस्था आधार नहीं है। आज ठीक विपरीत आधार है, संदेह, डाउट। उसका कारण है। क्योंकि विज्ञान की सारी की सारी खोज संदेह पर खड़ी होती है, डाउट पर खड़ी होती है। विज्ञान चलता ही संदेह करके है। विज्ञान खोजता ही संदेह करके है। और जो संदेह नहीं कर सकता, वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता।
इसलिए जिसे वैज्ञानिक होना है, उसे संदेह की कला सीखनी ही पड़ेगी। सारी दुनिया को हम विज्ञान की शिक्षा दे रहे हैं। हर बच्चा विज्ञान में दीक्षित हो रहा है। इसलिए हर बच्चे के मन में संदेह प्रवेश कर रहा है। और जरूरी है। विज्ञान की शिक्षा ही बिना संदेह के हो नहीं सकती। विज्ञान का आधार ही संदेह है। सोचो। पूछो। तब तक मत मानो, जब तक कि प्रमाण न मिल जाए, तब तक रुको। मानने की जल्दी मत करो।
धर्म का आधार बिलकुल विपरीत है। धर्म का आधार है, चुपचाप, सहज, स्वीकार कर लो। पूछो मत। पूछना ही बाधा हो जाएगी। तो पांच हजार साल पहले विज्ञान का कोई शिक्षण नहीं था। आदमी का मन धार्मिक था। गीता में जो कहा गया है, वह सीधा भीतर प्रवेश कर जाता।
आज आदमी का मन धार्मिक बिलकुल नहीं है, वैज्ञानिक है। विज्ञान बुरा है, यह मैं नहीं कह रहा हूं, या धर्म अच्छा है, यह भी नहीं कह रहा हूं। इतना ही कह रहा हूं कि वैज्ञानिक होने के लिए संदेह अनिवार्य है, और धार्मिक होने के लिए श्रद्धा अनिवार्य है। उन दोनों के यात्रा-पथ बिलकुल अलग हैं, विपरीत हैं।
तो सारी दुनिया का मन आज विज्ञान की तरफ आंदोलित हो रहा है। इसलिए धर्म की जो बात है, उससे और आज के मन का कोई तालमेल नहीं है, कोई हार्मनी नहीं है; कोई संगति नहीं बैठती; कोई संबंध नहीं जुड़ता। आदमी जा रहा है विज्ञान की तरफ; उसकी पीठ है श्रद्धा की तरफ। तो पीठ की तरफ से जो भी सुनाई पड़ता है, वह समझ में नहीं आता।
दो ही उपाय हैं, या तो आदमी को मोड़कर श्रद्धा की तरफ खड़ा किया जाए, जो कि अति कठिन हो गया है। अति कठिन है, क्योंकि एक दिन में किसी का चित्त मोड़ा नहीं जाता। और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि पहले सात वर्षों में बच्चे को जो शिक्षण मिल जाता है, वह फिर जीवनभर पीछा करता है; फिर बदलना बहुत मुश्किल है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि चौदह वर्ष में बच्चे की बुद्धि करीब-करीब परिपक्व हो जाती है। चौदह वर्ष के बाद फिर बुद्धि में कोई बहुत विकास नहीं होता।
तो चौदह वर्ष की उम्र तक जो प्रवेश कर जाता है, वह आधार बन जाता है। फिर जो कुछ भी होगा, उसके ऊपर होगा।
इसलिए किसी आदमी के चेहरे को एकदम मोड़ा नहीं जा सकता। उसके संदेह को श्रद्धा नहीं बनाई जा सकती। और अगर जबरदस्ती बनाने की कोशिश की जाए, तो संदेह भीतर होगा, श्रद्धा ऊपर हो जाएगी--थोथी, झूठी, मुर्दा। उसमें कोई प्राण नहीं होंगे।
तो एक ही उपाय है और वह यह है कि धर्म की ऐसी व्याख्या की जाए, जो संदेहशील मन को भी आकर्षित करती हो। संदेह को इनकार न किया जाए, स्वीकार कर लिया जाए। और श्रद्धा की जबरदस्ती न की जाए, श्रद्धा को संदेह के मार्ग से ही लाया जाए, जो अति कठिन है। लेकिन अब इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है।
अगर मनुष्य-जाति पुनः धार्मिक होगी, तो एक नया अनूठा प्रयोग करना पड़ेगा; वह यह कि आपके संदेह का ही उपयोग किया जाए, आपको श्रद्धा तक लाने के लिए। आपके विचार, आपके तर्क, आपकी समझ का ही उपयोग किया जाए, समझ को ही नष्ट करने के लिए। आपके तर्क का ही उपयोग किया जाए, आपके तर्क को ही काट डालने के लिए।
यह हो सकता है। पैर में कांटा लग जाता है, तो हम दूसरे कांटे से उस कांटे को निकाल लेते हैं। और कोई भी यह नहीं कहता कि आप कांटे से कांटे को कैसे निकालेंगे? आदमी बीमार होता है, उसके शरीर में जहर फैल जाता है, तो हम एंटीबायोटिक्स, और जहर डालकर उसके जहर को नष्ट कर देते हैं। वैक्सिनेशन का तो सारा सिद्धांत इस बात पर खड़ा हुआ है, कि आपके शरीर में जो कीटाणु हैं बीमारी के, वे ही कीटाणु और बड़ी मात्रा में आपके भीतर डाल दिए जाएं।
तो अब तो धर्म होगा वैक्सिनेशन। अब तो आपसे यह नहीं कहा जा सकता कि श्रद्धा करिए। यह कोई खेल नहीं है। अब बहुत मुश्किल है।
अब किसी छोटे बच्चे को भी कहना कि चुपचाप मान लो, व्यर्थ है। वह बच्चा भी कहेगा, आप क्या कह रहे हैं! पूछूं न? विचार न करूं? तर्क न करूं? तो आपका यह कहना कि श्रद्धा ही हमारी पहली शर्त है, बच्चे के लिए आपके धर्म का द्वार बंद हो गया। इसका अर्थ हुआ कि आप व्यर्थ की बकवास कर रहे हैं। जिसमें प्रश्न न पूछा जा सके और जिसमें संदेह न किया जा सके, वह सत्य नहीं हो सकता, वह अंधविश्वास है। आपने द्वार बंद कर दिए।
आज किसी से कहना, श्रद्धा करो, नासमझी है। आज तो एक ही उपाय है कि उसके संदेह को संदेह के ही मार्ग से काट डाला जाए। एक ऐसी घड़ी आ जाए कि उसका संदेह करने वाला मन संदेह करने में असमर्थ हो जाए, संदेह कर-करके असमर्थ हो जाए।
एक उपाय तो यह होता है कि आपको बांधकर बिठा दिया जाए कि शांत हो जाओ। छोटे बच्चों को घर में मां-बाप बिठा देते हैं कि शांत हो जाओ। छोटा बच्चा बैठ जाता है। लेकिन जरा उसका निरीक्षण करें, आब्जर्व करें। वह हाथ-पैर हिलाएगा, कुछ करेगा, सिर हिलाएगा, कुछ करेगा। वह जो दौड़ता था, वह दौड़ अब उसके भीतर-भीतर चलेगी।
आप उसको जबरदस्ती बिठा दिए हैं। इससे कुछ हल होने वाला नहीं है। ज्यादा वैज्ञानिक यह होगा कि उसे कहें कि जाकर मकान के दस चक्कर लगाकर आ! उसे दस चक्कर लगाने दें। शायद दस वह लगा भी न पाएगा, तीन-चार या पांच में थक जाएगा। और कहेगा, मुझे नहीं लगाना। उसे कहें कि और पांच पूरे कर। फिर आप कोने में बैठा हुआ उसे देखें। अब उसके भीतर कोई गति नहीं होगी। अब वह शांत होगा। अब वह बुद्ध की प्रतिमा की तरह बैठा होगा।
आपके लिए अब दूसरा ही रास्ता है। आपको सीधे नहीं बिठाया जा सकता। इसलिए दस चक्कर मुझे लगाने पड़ते हैं! जो सीधा बैठ सकता है, उससे मुझे कुछ नहीं कहना है। लेकिन मुझे एक आदमी नहीं दिखाई पड़ता, जो अब सीधा बैठ सकता है। आपको दस चक्कर लगाने पड़ेंगे। इसलिए इतनी लंबी व्याख्या करनी पड़ती है। वह चक्कर है। और आपके साथ मुझे भी लगाने पड़ते हैं! क्योंकि ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं बीच में आप रुक न जाएं। जब तक थक न जाएं, एक्झास्टेड! आपकी बुद्धि को थकाने के सिवाय अब श्रद्धा तक ले जाने का कोई मार्ग नहीं है।
अब हम सूत्र को लें।
और हे महाबाहो! आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले तथा बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले और बहुत उदरों वाले तथा बहुत-सी विकराल जाड़ों वाले महान रूप को देखकर सब लोग व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूं।
(कोई मित्र के बीच में से उठकर जाने से कुछ व्यवधान होता है। इस पर ओशो ने कहा, ये जो मित्र उठ रहे हैं उनको वहीं बिठा दें। बिलकुल उनको वहीं बिठा दें। जाने न दें बाहर। और कल से मैं आपको कहता हूं कि जिसको जाना हो, पहले से बाहर रहे, बीच में बैठने की कोई जरूरत नहीं। उनको बिठाइए वहां। वह जो मित्र जा रहे हैं उनको बिठाइए वहीं। और कल से मैं एक भी व्यक्ति को बीच से नहीं उठने दूंगा। आप पहले से बाहर रहें। कोई कारण नहीं है बीच में बैठने का।)
अर्जुन ने देखा, विकराल रूप! जहां परमात्मा मृत्यु का मुख बन गया है। वह कह रहा है कि हे महाबाहो! यह मैं देख रहा हूं, इससे सारे लोक व्याकुल हो रहे हैं, मैं भी व्याकुल हो रहा हूं। मेरा हृदय धड़कता है और घबड़ाहट रोएं-रोएं में समा गई है। क्या यह भी आप हैं?
यह व्याकुलता स्वाभाविक है। क्योंकि हमने परमात्मा का एक ही रूप देखा। और हमने परमात्मा के एक ही रूप की पूजा की। और हमने परमात्मा के एक ही रूप को सराहा। और हमने यह माना कि वह एक इसी रूप से एक है; दूसरा रूप परमात्मा का नहीं है। तो जब हमें पूरा परमात्मा दिखाई पड़े, तो व्याकुलता बिलकुल स्वाभाविक है।
यह व्याकुलता परमात्मा के रूप के कारण नहीं है, हमारी बुद्धि के तादात्म्य के कारण है। हमने एक हिस्से के साथ तादात्म्य कर लिया है। हमने देखा कि परमात्मा होगा सौंदर्य। हमने परमात्मा की सारी प्रतिमाएं सुंदर बनाई हैं। कुछ हिम्मतवर तांत्रिकों ने कुरूप प्रतिमाएं भी बनाई हैं, लेकिन वे धीरे-धीरे खोती जा रही हैं। हमारे मन को उनकी अपील नहीं है।
अगर आप विकराल काली को देखते हैं, हाथ में खंजर लिए, कटा हुआ सिर लिए, गले में मुंडों की माला डाले हुए, पैरों के नीचे किसी की छाती पर सवार, लाल जीभ, खून टपकता हुआ, तो भला भय की वजह आप नमस्कार करते हों, लेकिन मन में यह भाव नहीं उठता कि यह परमात्मा का रूप है। भला मान्यता के कारण आप सोचते हों कि ठीक; लेकिन भीतर यह भाव नहीं उठता कि यह परमात्मा का रूप है।
और स्त्री, ममता, मां जिसको हमने कहा! और काली को हम मां कहते हैं! मां जो है, वह ऐसा विकराल रूप लिए खड़ी है, तो मन को बड़ी बेचैनी होती है कि क्या बात है! लेकिन जिन्होंने यह विकराल रूप खोजा था, उन्होंने एक द्वंद्व को इकट्ठा करने की कोशिश की थी।
मां से ज्यादा प्रेम से भरा हुआ हृदय पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। इसलिए मां को खड़ा किया इतने विकराल रूप में, जो कि दूसरा छोर है। मां को ऐसे खड़ा किया, जैसे वह मृत्यु हो। मां तो जन्म है। मां को ऐसे खड़ा किया, जैसे वह मृत्यु हो। दो द्वंद्व, जन्म और मृत्यु, दोनों को एक साथ काली में इकट्ठा किया। एक तरफ वह जन्मदात्री है, और दूसरी तरफ मृत्यु उसके हाथ से घटित हो रही है। और हड्डियों की, खोपड़ियों की माला उसने गले में डाल रखी है!
कभी आपने अपनी मां को इस भाव से देखा? बहुत घबड़ाहट होगी। और अगर आप अपनी मां को इस भाव से नहीं देख सकते, तो काली को आप मां कैसे कह सकते हैं! असंभव है।
लेकिन जिन्होंने, जिन तांत्रिकों ने यह द्वंद्व को जोड़ने का खयाल किया, बड़े अदभुत लोग थे। इसमें एक प्रतीक है। इसमें जन्म और मृत्यु एक साथ खड़े हैं। इसमें प्रेम और मृत्यु एक साथ खड़े हैं। इसमें मां का हृदय और मृत्यु के हाथ एक साथ खड़े हैं। मगर धीरे-धीरे यह रूप खोता चला गया। यह रूप आज अगर कभी आपको दिखाई भी पड़ता है, तो सिर्फ परंपरागत है। इसकी धारणा खो गई। इसके हृदय में संबंध हमारे खो गए।
हमने परमात्मा का तो सौम्य, सुंदर रूप--कृष्ण बांसुरी बजाते खड़े हैं, वे लगते हैं कि परमात्मा हैं। मोर-मुकुट बांधा हुआ है, उनके होंठों पर मुस्कान है। वे लगते हैं कि परमात्मा हैं। उनसे हमें आश्वासन मिलता है, राहत मिलती है, सांत्वना मिलती है। हम वैसे ही बहुत दुखी हैं। काली को देखकर और उपद्रव क्यों खड़ा करना है!
कृष्ण को देखकर सांत्वना, कंसोलेशन मिलता है कि ठीक है। इस जीवन में होगा दुख। इस जीवन में होगी मृत्यु। आज नहीं कल, वह मुकाम आ जाएगा, जहां बांसुरी ही बजती रहती है। जहां सुख ही सुख है। जहां शांति ही शांति है, जहां संगीत ही संगीत है। जहां फिर कुछ बुरा नहीं है। उसकी आशा बंधती है, उसका भरोसा बंधता है। मन को राहत मिलती है। तो जो हमारे पास नहीं है, जो जिंदगी में खोया हुआ है, जिसका अभाव है, उसे हमने कृष्ण में पूरा कर लिया।
आपने कभी खयाल किया कि हमने कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, किसी के बुढ़ापे का चित्र नहीं बनाया है। कोई बुढ़ापे की मूर्ति नहीं बनाई है। ऐसा नहीं है कि ये लोग बूढ़े नहीं हुए। बूढ़े तो होना ही पड़ेगा। इस जमीन पर जो है, जमीन के नियम उस पर काम करेंगे। और ये जमीन के नियम किसी को भी छूट नहीं देते, यहां कोई छुट्टी नहीं है। और अगर इस जमीन के नियमों में छुट्टी हो, तो फिर जगत बिलकुल एक बेईमान व्यवस्था हो जाए। यहां तो कृष्ण को भी बूढ़ा होना पड़ेगा, राम को भी होना पड़ेगा, बुद्ध को भी होना पड़ेगा, महावीर को भी होना पड़ेगा।
लेकिन हमने उनको बूढ़ा नहीं बनाया। उससे यह पता नहीं चलता कि वे बूढ़े नहीं हुए। उससे यही पता चलता है कि बुढ़ापे से हम कितने भयभीत हैं, कितने डरे हुए हैं। और अगर राम को भी हम देखें, टूटे हुए दांत, लकड़ी टेकते हुए, तो फिर भगवान मानना बहुत मुश्किल हो जाएगा। सुंदर, युवा! वे सदा ही युवा हैं। उनका युवापन ठहर गया है; वह आगे नहीं बढ़ता।
कृष्ण को बूढ़ा देखें। खखारते हुए, खांसते हुए, खाट पर, किसी अस्पताल में भर्ती! बिलकुल यह हमारे भरोसे के, विश्वास के बाहर हो गया। हमारी सारी श्रद्धा नष्ट हो जाएगी। और हमें लगेगा, यह भी क्या बात हुई! कम से कम भगवान होकर तो ऐसा नहीं होना था।
तो भगवान हमारी कामनाओं से हम निर्मित करते हैं। उनकी मूर्ति हम अपनी वासना से निर्मित करते हैं। उसका तथ्य से कम संबंध है, हमारी भावना से ज्यादा संबंध है।
देखते हैं आप, न दाढ़ी उगती राम को, न कृष्ण को, न बुद्ध को, न महावीर को। न मूंछ निकलती, न दाढ़ी निकलती। जरा कठिन मामला है। कभी-कभी ऐसा होता है, कोई पुरुष मुखन्नस होता है। कभी-कभी किसी पुरुष को दाढ़ी-मूंछ नहीं उगती। क्योंकि उसमें कुछ हार्मोन की कमी होती है; वह पूरा पुरुष नहीं है। लेकिन यह कभी-कभी होता है। सब अवतार हमने मुखन्नस खोज लिए! जरा कठिन है। थोड़ा सोचने जैसा है!
जैनियों के चौबीस तीर्थंकर हैं। चौबीस तीर्थंकरों में किसी की दाढ़ी-मूंछ नहीं उगती। यह मानना मुश्किल है कि उन्होंने इतनी खोज कर ली हो। और हमेशा जब भी कोई तीर्थंकर हुआ, तो वह ऐसा आदमी हुआ जिसमें हार्मोन की कमी थी।
यह बात नहीं है। दाढ़ी-मूंछ उगी ही है। लेकिन हमारा मन नहीं कहता कि दाढ़ी-मूंछ उगे। क्यों? क्योंकि वह दाढ़ी-मूंछ जो उगे, तो फिर बुढ़ापा आएगा। वह जो दाढ़ी-मूंछ उगे, तो युवावस्था को ठहराना मुश्किल हो जाएगा। वह जो दाढ़ी-मूंछ उगे, तो वे फिर ठीक हम जैसे हो जाएंगे। और हमारा मन करता है कि वे हम जैसे न हों। हम अपने से बहुत परेशान हैं। हम अपने से बहुत पीड़ित हैं। वे हम जैसे न हों।
इसलिए हमने अपने अवतारों, अपने तीर्थंकरों, अपने पैगंबरों में वे सब बातें जोड़ दी हैं, जो हम चाहते हैं, हममें होतीं, और नहीं हैं। हम सुबह-शाम लगे हैं दाढ़ी छोलने में! वह हम चाहते हैं कि न होती। वह हम चाहते हैं कि न होती। और आज नहीं कल विज्ञान व्यवस्था खोज लेगा कि पुरुष दाढ़ी-मूंछ से छुटकारा पा जाए।
इतनी उत्सुकता दाढ़ी-मूंछ से छुटकारा पाने की भी बड़ी अजीब है और बड़ी विचारणीय है और बड़ी मनोवैज्ञानिक है। थोड़ी पैथालाजिकल है, थोड़ी रुग्ण भी है।
पुरुष के मन में जो सौंदर्य की धारणा है, वह स्त्री की है। उसको स्त्री का चेहरा सुंदर मालूम पड़ता है। और स्त्री के चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं है। वह सोचता है, सुंदर होने का लक्षण दाढ़ी-मूंछ का न होना है। मगर स्त्रियों से भी पूछो, कि दाढ़ी-मूंछ न हो, तो स्त्री को चेहरा सुंदर सच में लग सकता है?
लगना नहीं चाहिए। और अगर लगता है, तो उसका मतलब पुरुषों ने उनका दिमाग भी भ्रष्ट किया हुआ है। लगना नहीं चाहिए। प्राकृतिक रूप से स्त्री को दाढ़ी-मूंछ वाला चेहरा सुंदर लगना चाहिए, जैसा पुरुष को गैर दाढ़ी-मूंछ का चेहरा सुंदर लगता है। थोड़ा सोचें कि आपकी पत्नी दाढ़ी-मूंछ लगाए हुए खड़ी है! तो जब आप गैर दाढ़ी-मूंछ के खड़े हैं, तब वही हालत हो रही है।
लेकिन चूंकि पुरुष प्रभावी है और स्त्रियों के मन को उसने अपने ही सांचे में ढाल रखा है हजारों साल में.। स्त्रियां कह भी नहीं सकतीं कि तुम यह क्या कर रहे हो? क्यों स्त्री जैसे हुए जा रहे हो? स्त्रियां भी मानती हैं कि यह सुंदर है, क्योंकि उनकी अपनी सुंदर की व्याख्या भी हमने नष्ट कर दी है। स्त्री का हमने मंतव्य ही समाप्त कर दिया है। पुरुष की ही धारणा, उसकी भी धारणा है। जिसको पुरुष सुंदर मानता है, वह भी सुंदर मानती है।
तो सुंदर की जो हमारी धारणा थी, हमने राम पर, कृष्ण पर, बुद्ध पर थोप दी है। लेकिन वे हमारी कामनाएं हैं; वे तथ्य नहीं हैं। तथ्य तो, जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी है, यह है। मृत्यु से हम भयभीत हैं। हम बचना चाहते हैं।
हम में से अधिक लोग आत्मा को अमर इसीलिए मानते हैं कि इसके सिवाय बचने का और कोई उपाय नहीं दिखता। उन्हें कुछ पता नहीं है कि आत्मा अमर है। उन्हें कुछ भी पता नहीं है कि आत्मा है भी। लेकिन फिर भी वे माने चले जाते हैं कि आत्मा अमर है। क्यों? भय है मृत्यु का।
शरीर तो जाएगा, यह पक्का है, कितना ही उपाय करो। तो बचने का अब एक ही उपाय है कि आत्मा अमर हो। इसलिए जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होता है, आत्मा में भरोसा करने लगता है। जवान आदमी कहता है, पता नहीं, है या नहीं। हो सकता है, न भी हो। यह आदमी अभी समझकर नहीं बोल रहा है। अभी जवानी का जोश बोल रहा है। थोड़ा हाथ-पैर ढीले पड़ने दें, भरोसा आने लगेगा। थोड़ी मौत करीब आने दें, दांत गिरने दें, भरोसा आने लगेगा। क्यों?
इसलिए नहीं कि इसे कोई अनुभव हुआ जा रहा है। कोई बूढ़े होने से अनुभवी नहीं होता। अगर बूढ़े होने से दुनिया में अनुभव मिलता होता, तो सारे लोग कितनी दफे बूढ़े हो चुके हैं, अनुभव ही अनुभव होता। कोई अनुभव नहीं मिलता। लेकिन बूढ़े होने से भय बढ़ता है, मौत करीब मालूम पड़ने लगती है। अब इतना भरोसा नहीं मालूम पड़ता, पैरों में
इतनी ताकत नहीं मालूम पड़ती। अब तर्क करने की सुविधा नहीं मालूम पड़ती। अब लगता है, अब तो ऐसा लगता है कि वह जो अंधविश्वासी कहते हैं, वही ठीक हो, तो अच्छा। आत्मा हो! यह हमारा विश फुलफिलमेंट है, आत्मा हो। तो हम मानने लगते हैं कि आत्मा है।
जाएं मस्जिद में, मंदिर में, चर्च में; बूढ़े लोग! और पुरुषों से भी ज्यादा बूढ़ी स्त्रियां वहां इकट्ठी हैं। क्योंकि पुरुष बूढ़ा भी हो जाए, तो थोड़ा-बहुत अपना पुरुषत्व, अकड़ कायम रखता है। स्त्रियां और जल्दी घबड़ा जाती हैं और मंदिर की तरफ चल पड़ती हैं।
घबड़ाहट की वजह से, भय की वजह से आदमी मान लेता है, आत्मा अमर है, अनुभव की वजह से नहीं। क्योंकि अनुभव तो बड़ी और बात है। और अनुभव तो उसे उपलब्ध होता है, जो मृत्यु से भय छोड़ देता है और जीवन की वासना छोड़ देता है।
हम तो मृत्यु के भय से, आत्मा अमर है, मान लेते हैं। हमें कभी पता नहीं चलेगा कि आत्मा है भी। उसी को पता चलेगा, जो मृत्यु का भय नहीं करता और जीवन का मोह नहीं करता।
कौन है जो मृत्यु का भय नहीं करे और जीवन का मोह न करे? वही व्यक्ति, जो जीवन और मृत्यु को एक की तरह देख ले, अनुभव कर ले। और इसके लिए कहीं शास्त्र में जाने की जरूरत नहीं। और इसके लिए किसी महापुरुष, महाज्ञानी के चरणों में बैठने की जरूरत नहीं। जीवन काफी शिक्षा है।
जीवन और मृत्यु दो कहां हैं? वे एक ही हैं। हमने अपने मोह में बांटा है दो में। वे एक ही हैं। कभी आपको पता है किस दिन जन्म समाप्त होता है और मृत्यु शुरू होती है? और किस दिन, किस सीमा पर जीवन समाप्त होता है और मृत्यु का आगमन होता है?
कहीं कोई विभाजन नहीं है। कोई वाटर-टाइट कंपार्टमेंट, कोई खंड-खंड बांटने का उपाय नहीं है। जीवन, मृत्यु एक ही चीज के दो नाम मालूम पड़ते हैं। एक ही घटना के लिए दो शब्द मालूम पड़ते हैं। एक छोर जीवन, दूसरा छोर मृत्यु।
तो हम परमात्मा का रूप बनाते हैं, मोहक, सुंदर। हमने नाम जो रखे हैं, वे सब ऐसे रखे हैं कि मन को लुभाएं। लेकिन जो दूसरा हिस्सा है, वह हमने काट रखा है।
अर्जुन भी भयभीत हुआ। इसलिए नहीं कि परमात्मा का भयंकर रूप है, बल्कि इसलिए कि आज तक उसने सोचा ही नहीं था कभी। यह कभी धारणा ही मन में न बनी थी कि यह भयंकर रूप भी परमात्मा का होगा। हम सोचते हैं यमराज को, भैंसे पर बैठे हुए, विकराल दांतों वाला, काला आदमी, सींगों वाला। लेकिन हम कभी यमराज को परमात्मा के साथ एक करके नहीं देखते। यमराज अलग ही मालूम पड़ता है। उसका डिपार्टमेंट, वह सब अलग विभाग है। परमात्मा से हम उसको नहीं जोड़ते हैं, कि मृत्यु परमात्मा से आती है।
गीता के ये सूत्र बड़े कीमती हैं, इन्हें थोड़ा समझ लेना।
यमराज कहीं भी नहीं, परमात्मा के मुंह में ही है। और यमराज कहीं किसी हाथी-घोड़े पर बैठकर नहीं आने वाला है, किसी भैंसे पर सवार होकर। परमात्मा के दांत, वे ही यमराज हैं।
यह देखकर अर्जुन घबड़ा गया है और वह कह रहा है कि सारे लोक व्याकुल हो रहे हैं, मैं भी व्याकुल हो रहा हूं। क्योंकि हे विष्णो! आकाश के साथ स्पर्श किए हुए, देदीप्यमान, अनेक रूपों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अंतःकरण वाला मैं धीरज और शांति को नहीं प्राप्त होता हूं।
वह ठीक कह रहा है। वह कह रहा है, आपकी वजह से मैं भयभीत हो रहा हूं, ऐसा नहीं; भयभीत अंतःकरण वाला, मैं भयभीत अंतःकरण वाला हूं, इसलिए भयभीत हो रहा हूं। आपके कारण भयभीत नहीं हो रहा हूं। आप तो विशाल हैं, महान हैं, विष्णु हैं, महादेव हैं, आप तो परमेश्वर हैं। आपके कारण नहीं भयभीत हो रहा हूं, लेकिन मेरा अंतःकरण भय वाला है।
इसे हम थोड़ा समझ लें।
हम सबके पास अंतःकरण भय वाला है। यह थोड़ा गहन है। और आपको पता भी नहीं कि आपका अंतःकरण क्या है, कानशिएंस क्या है।
आप चोरी करने से डरते हैं। भीतर कोई कहता है, चोरी बुरी है। आप पड़ोसी की स्त्री को भगा ले जाने से बचते हैं। भीतर कोई कहता है, यह बात बुरी है। किसी की हत्या करने से भय है, कंपता है मन। भीतर कोई कहता है, हत्या पाप है। हिंसा बुरी है। कौन कहता है आपके भीतर? जो आपके भीतर बोलता है, यह अंतःकरण है।
यह अंतःकरण वास्तविक नहीं है। क्योंकि वास्तविक अंतःकरण भय के कारण नहीं जीता। वास्तविक अंतःकरण तो ज्ञान के कारण जीता है। यह अंतःकरण सोशल प्रोडक्ट है, समाज के द्वारा पैदा किया गया है। यह समाज बच्चा पैदा होते से ही बच्चे में अंतःकरण पैदा करने में लग जाता है। क्योंकि समाज को भय है कि अगर बच्चे को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, तो वह पशु जैसा हो जाएगा।
और इस भय में सचाई है। अगर बच्चे को कुछ भी न कहा जाए, तो वह पशु जैसा हो जाएगा। तो समाज उसे बताना शुरू करता है। वह कहता है, अगर तुम ऐसा करोगे, तो दंड पाओगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो पुरस्कार पाओगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो माता-पिता प्रसन्न होंगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो दुखी होंगे, नाराज होंगे, कष्ट पाएंगे।
धीरे-धीरे हम बच्चे में भय और लोभ के आधार पर अंतःकरण पैदा करते हैं। हम कहते हैं, तुम ऐसा करो, मां प्रसन्न है, पिता प्रसन्न हैं, सब लोग प्रसन्न हैं तुमसे। तुम ऐसा करो, और सब लोग तुम्हारी निंदा करेंगे, और सब तुम्हें निंदित कर रहे हैं। तो बच्चे को धीरे-धीरे समझ में आने लगता है, किस चीज से डरे। तो जिस-जिस चीज से मां-बाप डराते हैं, उस-उस से वह डरने लगता है। भय गहरे में बैठ जाता है, अंतःकरण बन जाता है।
इसलिए हर समाज का अंतःकरण अलग-अलग होता है। हिंदू का अलग, मुसलमान का अलग, ईसाई का अलग, जैन का अलग। आत्मा अलग-अलग नहीं होती, अंतःकरण अलग-अलग होता है।
अब एक जैन है, वह मांसाहार नहीं कर सकता। क्योंकि बचपन से उसे कहा गया है कि यह महापाप है। तो अगर मांस सामने आ जाए, तो भीतर उसके हाथ-पैर कंपने लगेंगे। इसलिए नहीं कि मांस को देखकर कंपते हैं। क्योंकि दूसरा मुसलमान बैठा है, उसके नहीं कंप रहे हैं। तो मांस में कंपाने वाली कोई बात नहीं है। कंप रहे हैं अंतःकरण के कारण।
और इसी बच्चे को अगर एक मांसाहारी घर में रखा जाता, तो इसके भी नहीं कंपते। और अगर एक मांसाहारी बच्चे को गैर-मांसाहारी घर में रखा जाता, तो उसके भी कंपते। वह जो अंतःकरण बचपन से पैदा किया गया है, वह जो भय, कि क्या गलत है, वह नहीं करना। उसे देखकर यह कंप रहा है। यह वास्तविक अंतःकरण नहीं है। यह सामाजिक व्यवस्था है।
इसलिए एक समाज में अगर चचेरी बहन से शादी होती है, तो कोई अड़चन नहीं है। चचेरी बहन से शादी हो जाती है। किसी को कोई तकलीफ नहीं होती। और दूसरे समाज में उसी के पड़ोस में चचेरी बहन से शादी करने की बात ही महापाप हो सकती है। कोई सोच भी नहीं सकता कि बहन से भी, और प्रेम कर सकते हैं! संभव ही नहीं है। और उसको पत्नी बना सकते हैं, यह तो बिलकुल ही कल्पना के बाहर है। यह अंतःकरण है।
यह जब तक दुनिया में बहुत समाज हैं, बहुत संप्रदाय हैं, तब तक बहुत अंतःकरण होंगे। और इन अंतःकरण के कारण बड़ा उपद्रव है। और दुनिया तब तक एक नहीं हो सकती, जब तक हम कोई एक युनिवर्सल कांशिएंस पैदा न कर लें। तब तक दुनिया एक नहीं हो सकती। लाख लोग सिर पटकें कि हिंदू-मुसलमान भाई-भाई। लाख लोग सिर पटकें कि हिंदी-चीनी भाई-भाई। यह असंभव है। क्योंकि भाई-भाई तब तक नहीं हो सकते, जब तक भीतर के अंतःकरण भिन्न-भिन्न हैं। तब तक सब ऊपरी होगा, थोथा, दिखावा। मौके पर सब कलई खुल जाएगी और दुश्मन बाहर निकल आएंगे। ऊपर से होगा, क्योंकि वह जो भीतर अंतःकरण बैठा है, वह भेद निर्मित कर रहा है।
अर्जुन कहता है, मेरे अंतःकरण के कारण मैं भयभीत हो रहा हूं, आपके कारण नहीं। और ठीक कह रहा है। यह उसका निरीक्षण बिलकुल उचित है। अंतःकरण ने आज तक उसके यही जाना है कि परमात्मा सौम्य है, सुंदर है, प्रीतिकर है, आनंदपूर्ण है, सच्चिदानंद है, आनंदघन है। अब तक उसने यही जाना है। मृत्यु भी परमात्मा है, यह उसने न सुना है, न जाना है।
इसलिए बचपन से बना हुआ अंतःकरण परमात्मा की एक प्रतिमा लिए है, वह प्रतिमा खंडित हो रही है। इसलिए वह व्यथित है। और न केवल वह कहता है, मैं व्यथित हूं, सारे लोक व्यथित हैं। यह रूप बहुत घबड़ाने वाला है।
और हे भगवन्! आपके विकराल जाड़ों वाले और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूं और सुख को भी प्राप्त नहीं होता हूं।
दिशा-भ्रांति हो गई है। अब मुझे पता नहीं कि उत्तर कहां है, दक्षिण कहां है, पूरब कहां है! वह यह कह रहा है कि अब मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, मेरा सिर घूम रहा है। दिशाएं पहचान में नहीं आतीं कि क्या क्या है! यह तुम्हारा रूप देखकर दिशाएं भ्रांत हो गईं, मेरे पथ खो गए। मेरा मार्ग धुएं से भर गया। और जरा भी सुख को प्राप्त नहीं होता हूं। यह जो आपको देख रहा हूं--आप भगवान हैं! वह कह रहा है, आप भगवान हैं, आप परमेश्वर हैं, फिर भी आपका यह रूप देखकर जरा भी सुख को प्राप्त नहीं होता हूं। जरा भी मुझे, जरा भी सहारा सुख के लिए आपकी इस स्थिति को देखकर नहीं मिलता है।
इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होवें।
वह यह कह रहा है कि आप कृपा करें और यह रूप तिरोहित कर लें। और वह जो प्रसन्नवदन, वह जो मुस्कुराता हुआ आनंदित रूप था, आप उसमें वापस लौट आएं।
आदमी का मन आखिर तक, अंत तक भी परमात्मा पर अपने को थोपना चाहता है। अंत तक भी, परमात्मा जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेने की तैयारी नहीं होती। अंत तक!
साधक की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि वह परमात्मा पर भी अपने को थोपता है। और तब तक सिद्ध नहीं हो पाता, जब तक परमात्मा जैसा भी हो, उसको वैसा ही स्वीकार कर लेने की स्थिति न आ जाए।
अभी अर्जुन थोड़ा-सा विनम्र निवेदन कर रहा है कि प्रसन्न हो जाएं। यह हटा लें। यह प्रज्वलित, प्रलयंकारी रूप अलग कर लें। होंठों पर थोड़ी मुस्कुराहट ले आएं। आपके चेहरे पर हंसी को देखकर, आनंद को देखकर मुझे सुख होगा।
इसे खयाल में लें।
जब तक आप सोचते हैं कि परमात्मा ऐसा होना चाहिए, जब तक आपकी परमात्मा की कोई धारणा है, तब तक आप परमात्मा को नहीं जान पाएंगे। तब तक जो भी आप जानेंगे, वह परदा होगा। अगर आपको परमात्मा को ही जानना है, तो आपको अपनी सारी धारणा अलग कर देनी होगी; हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सब हटा देने होंगे। आपको निपट परमात्मा को शून्य की तरह जानने के लिए खड़ा हो जाना पड़ेगा। अपना अंतःकरण, अपने भरोसे, विश्वास, अपनी दृष्टि, सब हटा देनी होगी। और जैसा भी हो--विकराल हो, मृत्यु हो, अमृत हो, जो भी हो--उसके लिए राजी हो जाना होगा।
जब भी कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में राजी हो जाता है, तो परमात्मा के दोनों रूप खो जाते हैं--विकराल भी, सौम्य भी। और जिस दिन ये दोनों रूप खोते हैं, उस अनुभव को हमने ब्रह्म-अनुभव कहा है। जब तक ये रूप रहते हैं, तब तक हमने इसे ईश्वर-अनुभव कहा है। इस फर्क को थोड़ा समझ लें।
यह ईश्वर का अनुभव है, जब तक ये दो रूप हमें दिखाई पड़ते हैं। जिस दिन ये दो रूप भी नहीं दिखाई पड़ते--दोनों में चुनाव नहीं रह जाता, उसी दिन दिखाई नहीं पड़ते--उस दिन जो रह जाता है, वह ब्रह्म है।
भारत ने बड़ी साहस की बात कही है। भारत ने ईश्वर को भी माया का हिस्सा कहा है। यह सुनकर आपको कठिनाई होगी। भारत कहता है, ईश्वर भी माया का हिस्सा है। ईश्वर-अनुभव भी माया का हिस्सा है। ब्रह्मानुभव! क्योंकि ईश्वर में भी रूप हैं। और ईश्वर के साथ भी हमारा लगाव है, अच्छा-बुरा; ऐसा हो, ऐसा न हो।
भक्त भगवान को निर्मित करते रहते हैं, सजाते रहते हैं। मंदिरों में ही नहीं; मंदिरों में तो वे सजाते ही हैं, क्योंकि भगवान बिलकुल अवश है, वहां वह कुछ कर नहीं सकता; जो करना चाहो, करो। लेकिन यह अर्जुन ठेठ भगवान के सामने खड़े होकर भी कह रहा है कि ऐसा अच्छा होगा, मुझे सुख मिलेगा। आप जरा प्रसन्न हो जाएं। यह रूप हटा लें, यह तिरोहित कर लें।
ये क्या कह रहा है? ये यह कह रहा है कि अभी भी केंद्र मैं हूं। मेरा सुख! आप ऐसे हों, जिसमें मुझे सुख मिले। मैं ऐसा हो जाऊं, जिसमें आप आनंदित हों, ऐसा नहीं। मैं आनंदित होऊं, ऐसे आप हो जाएं। यह आखिरी राग है। और तब तक शेष रहता है, जब तक हम माया की आखिरी परिधि ईश्वर को पार नहीं कर लेते।
शंकर ने कहा है कि ईश्वर माया का हिस्सा है। इसलिए ईश्वर के अनुभव को भी अंतिम अनुभव मत समझ लेना। यहीं कठिनाई खड़ी हो जाती है। ईसाइयत, इस्लाम, शंकर की बात से व्यथित हो जाते हैं। हिंदू, साधारण चित्त भी व्यथित हो जाता है। क्योंकि ईश्वर हमारे लिए लगता है आखिरी। भारत की मनीषा के लिए ईश्वर भी आखिरी नहीं है। आखिरी तो वह स्थिति है, जहां कहने को इतना भी शेष नहीं रह जाता कि आनंद है, कि दुख है, कि मृत्यु है, कि जीवन है। सब भेद गिर जाते हैं। सारी रेखाएं खो जाती हैं।
कहता है अर्जुन, हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होवें। और मैं देखता हूं कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओं के समुदाय आपमें प्रवेश करते हैं। और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सबके सब वेगयुक्त हुए आपके विकराल जाड़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखते हैं।
और हे विश्वमूर्ते! जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं और समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे शूरवीर मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित हुए मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।
वह कहता है कि आपके दांतों में दबे हैं। और न केवल दबे हैं, उनके सिर चूर्ण हो गए हैं। जैसे आपने उनका भोजन कर लिया हो और वे आपकी दाढ़ों में चिपककर रह गए हैं। और वे महाबलशाली लोग, जिनके लिए कल्पना भी नहीं कर सकता अर्जुन! भीष्म पितामह, इतना बलशाली व्यक्ति, वह भी जाकर चूर्ण हो जाएगा मृत्यु के मुख में पड़कर! द्रोणाचार्य, उसका गुरु, वह भी इस तरह असहाय होकर दांतों में चिपट जाएगा! कर्ण, उस विपरीत शत्रुओं के वर्ग का सबसे शूरवीर पुरुष, वह भी ऐसा दयनीय हो जाएगा! और न केवल धृतराष्ट्र के पुत्र, मेरे पक्ष के लोग भी आपके दांतों में दबे मर रहे हैं, चूर्ण हुए जा रहे हैं। न केवल इतना ही, बल्कि जो बाहर हैं, वे तेजी से दौड़ रहे हैं आपके मुंह की तरफ, जैसे नदियां सागर की तरफ दौड़ती हैं।
बहुत भय लगता है, अर्जुन कहता है, बहुत व्यथा होती है। हंसें। बंद कर लें यह मुंह।
हम सभी दौड़ रहे हैं मृत्यु की तरफ, जैसे नदियां दौड़ती हैं। और अगर यह सारा जगत, यह सारा जगत अगर शरीर है, तो निश्चित ही इस जगत के मुंह में कहीं दांतों के नीचे दबकर हम सब चूर्ण हो जाएंगे। और फिर कोई भी हो--भीष्म हों, कि द्रोणाचार्य, कि कर्ण, या कि अर्जुन--कोई भी हो, वे सभी चूर्ण हो जाएंगे। और जो नहीं चूर्ण हो रहे हैं, वे भी दौड़ रहे हैं। बड़ा श्रम उठा रहे हैं, भागे जा रहे हैं, कुछ उपलब्धि के लिए!
हम सबको यह खयाल है कि जिंदगी में कुछ पा लेंगे। और आखिर में सिवाय मौत के हम कुछ भी नहीं पाएंगे। लगता है, न मालूम क्या पा लेंगे। और पाते सिर्फ मौत हैं, और कुछ भी नहीं पाते। लाख करे उपाय आदमी, कब्र के सिवाय कहीं और पहुंचता नहीं। कोई और दूसरी मंजिल नहीं। और कितना ही इकट्ठा करे, कितनी ही उपलब्धियां, कितना ही सोचे, विचारे, योजना बनाए, आखिर में पहुंच जाता है मृत्यु के मुंह में--बिना योजना बनाए। बचता है, तो भी नहीं बच पाता। शायद बचने की कोशिश में भी वहीं पहुंच जाता है।
अर्जुन को इस जीवन की पूरी की पूरी मृत्यु में दौड़ती हुई धारा दिखाई पड़ रही है। वह भयभीत न होता, अगर उसे ऐसा दिखाई पड़ता कि मृत्यु कहीं और घटित हो रही है, परमात्मा के मुंह में नहीं, तो इतना भयभीत न होता। कम से कम परमात्मा से सहारा मिल सकता था, मृत्यु के विपरीत भी। अगर मृत्यु कहीं और घट रही थी, अगर कोई शैतान, कोई यमदूत मृत्यु को ला रहा था, तो परमात्मा बचाने वाला हो सकता था। अब तो बचने का भी कोई उपाय नहीं है। क्योंकि यह परमात्मा का ही मुंह है, जहां मृत्यु घटित हो रही है। इससे भयभीत हुआ है।
अगर आपको भी यह पता चल जाए कि आपके दुख का कारण परमात्मा ही है, आपकी मृत्यु का कारण परमात्मा ही है, तो भय और भी ज्यादा संतप्त कर देगा। हम कई तरकीबें निकालते हैं। हम कहते हैं कि दुख का कारण दुष्ट आत्माएं हैं। दुख का कारण शैतान, इबलीस, बीलझेबब--हमने शैतान के हजार नाम खोज रखे हैं--वह है दुख का कारण। दुख का कारण पिछले जन्मों के कर्म हैं। यह मृत्यु कोई परमात्मा के कारण नहीं हो रही, यह तो शरीर क्षणभंगुर है, इसके कारण हो रही है। हम हजार तरकीबें खोजते हैं। परमात्मा को बचाते हैं। उससे हमारे मन में एक तो राहत रहती है कि सब कुछ हो.।
सुना है मैंने, कबीर ने एक पद लिखा कि चलती चक्की देखकर मैं बहुत घबड़ा गया। क्योंकि उस चलती चक्की के बीच जो भी दाने दब गए, वे चूर्ण हो गए। और कबीर ने कहा है कि मुझे ऐसा लगा, यह सारा जगत एक चलती चक्की है, जिसके भीतर सब पिसे जा रहे हैं।
कबीर का लड़का था कमाल। कमाल अक्सर कबीर के विपरीत बातें कहा करता था। अक्सर बेटे बाप के विपरीत कहा करते हैं। और बेटा भी क्या, जो बाप के विपरीत थोड़ा-बहुत न हो! उसमें नमक ही नहीं है, उसमें जान ही नहीं है। और कबीर का बेटा था, इसलिए जानदार तो था ही। कबीर ने ही उसको नाम दिया था कमाल। वह कबीर के खिलाफ पद लिखा करता था।
तो कबीर ने जब यह लिखा कि दो चक्की के बीच मैंने किसी को बचता हुआ न देखा, तो कमाल ने एक पद लिखा कि ठीक है यह तो, लेकिन जिसने बीच की डंडी का सहारा पकड़ लिया चक्की में, वह बच गया। वह डंडी हमारे लिए परमात्मा है। उसमें भी वही मतलब था उसका कि जिसने राम का सहारा ले लिया, वह बच गया। बाकी सब पिस गए।
अब इस बेचारे ने, अगर अर्जुन ने कमाल की पंक्ति पढ़ी होती--नहीं पढ़ी होगी, क्योंकि कमाल बहुत बाद में हुआ--तो यह घबड़ा जाएगा कि यह मामला क्या है! तुम्हारे ही मुंह में! हम तो सोचते थे, तुम बीच की डंडी हो, जिसके सहारे बचेंगे। तुम्हारे मुंह में ही मौत घट रही है! तो जिन्हें अपना समझा था, जिनके सहारे सोचते थे, मौत से लड़ लेंगे, और जिनके सहारे सदा सोचा था कि कोई भय नहीं है, बचाने वाला है, उसके ही मुंह में मौत घट रही है। रक्षक जिसे समझा था, वह भक्षक दिखाई पड़ गया हो, तो हम सोच सकते हैं कि अर्जुन की घबड़ाहट कैसी रही होगी।
वह घबड़ाहट स्वाभाविक है। लेकिन स्वाभाविक इसलिए है कि हमने परमात्मा का जो रूप बनाया है, वह अपनी मनोनुकूल आकांक्षा से बनाया है। वह परमात्मा का रूप नहीं, हमारी वासनाओं का रूप है।
मृत्यु भी परमात्मा में ही घटित होती है और जीवन भी उसमें ही घटित होता है। वही मां भी है, वही मृत्यु भी। इसलिए काली की प्रतिमा बड़ी सार्थक है। उससे ही सब निकलता है और उसमें ही सब लीन होता है। सागर में सारी नदियां गिरती हैं और सारी नदियां सागर से ही पैदा होती हैं। सारी नदियां सागर से पैदा होती हैं। फिर चढ़ती हैं नदियां धूप की किरणों के सहारे बादलों में, फिर बादलों के सहारे पहाड़ों पर, फिर गंगोत्रियों में गिरती हैं और फिर सागर की तरफ दौड़ती हैं।
जो नदी सागर में अपने को गिरते देखती होगी, वह घबड़ा जाती होगी। मिट रही है, मौत है सागर। लेकिन उसे पता नहीं कि यह सागर मौत भी है, गर्भ भी। क्योंकि कल फिर उठेगी ताजी होकर, नई होकर, युवा होकर। बूढ़ी हो गई, बासी हो गई, जमीन ने गंदी कर दी। सब गंदगी सागर छांट देगा। फिर ताजा, फिर शुद्ध, फिर वाष्पीभूत होगी। फिर गंगोत्री, फिर यात्रा शुरू होगी। यह वर्तुल है।
सागर नदी की मृत्यु भी है, जन्म भी। परमात्मा सृष्टि भी है, प्रलय भी वहां होना भी है और न होना भी।
इससे अर्जुन भयभीत हो गया है। और वह कहता है, वापस लौटा लो; इस रूप को मत दिखाओ। यह रूप प्रीतिकर नहीं है। इससे मुझे जरा भी सुख नहीं मिलता है। फिर भी वह कहे चला जा रहा है, भगवान, परमेश्वर, महादेव, देवों के देव!
थोड़ा हम उसका द्वंद्व, उसकी दुविधा समझें। वह अनुभव तो कर रहा है कि यह भी परमात्मा का ही रूप है, लेकिन मन मानना नहीं चाहता कि यह भी रूप है। वह कहता है, हटा लो, प्रसन्न हो जाओ। यह रूप नहीं देखा जाता है।
यह अर्जुन की ही दुविधा नहीं है, जो व्यक्ति भी परम अनुभव के निकट पहुंचते हैं और ईश्वर-अनुभूति को उपलब्ध होते हैं, उनकी यही दुविधा है।
सुना है मैंने, मुसलमान फकीर जुन्नैद एक रात प्रार्थना किया कि हे प्रभु, मैं जानना चाहता हूं कि इस मेरे गांव में सबसे पवित्र आदमी कौन है, सबसे ज्यादा पुण्यात्मा, ताकि मैं उसके चरणों में सिर रखूं, उसका आशीर्वाद पाऊं। रात उसने स्वप्न देखा। बहुत घबड़ा गया। नींद टूट गई उसकी। स्वप्न में उसे दिखाई पड़ा कि परमात्मा कहता है, वह जो तेरे पड़ोस में रहता है आदमी, वही सबसे ज्यादा पवित्र और पुण्यात्मा है!
वह एक बिलकुल साधारण आदमी था। जुन्नैद ने कभी उस पर नजर भी नहीं डाली थी। पांव छूना तो दूर, वह इसके पांव छूता था। वह जो बगल में रहता था, वह इसके पांव छूता था। जब भी यह निकलता था, तो इसको नमस्कार करता था। इसको वह महात्मा मानता था। वह तो बहुत जुन्नैद मुश्किल में पड़ गया कि इसके मैं पांव छुऊं! और यह भी क्या मजाक रही! हमने पूछा, पवित्रतम आदमी? इससे तो हम ही ज्यादा पवित्र हैं। यह खुद हमारे पैर छूता है!
अक्सर जिनके लोग पैर छूते हैं, वे सोचते हैं कि हम ज्यादा पवित्र हैं, क्योंकि लोग हमारे पैर छूते हैं। और हो यह सकता है कि जो पैर छूता है, वह ज्यादा पवित्र भी हो सकता है। क्योंकि पैर छूना भी एक गहरी पवित्रता है। वह भी एक बड़े निष्कलुष हृदय का लक्षण है।
पर जब आदेश हो गया परमात्मा का, तो मुसीबत हो या कुछ भी हो। जुन्नैद उठा। अपने को सम्हाला। संयम से साधा। निकला घर के बाहर कि पैर तो छूने ही पड़ेंगे, अब आदेश परमात्मा का हुआ है। देखा कि कोई नहीं है, अकेला बैठा है वह आदमी। जल्दी जाकर उसने पैर छू लिए, कि कोई देख न ले गांव में कि इसके तू पैर छू रहा है जुन्नैद! पूरा गांव उसको महात्मा मानता था।
उस आदमी ने कहा कि मेरे पैर छू रहे हैं! कुछ भूल-चूक हो गई। कुछ मुझसे नाराज हैं? ऐसा मैंने क्या पाप किया, उस आदमी ने कहा, कि आप और मेरे पैर छुएं! नहीं-नहीं, वापस ले लें। आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया, उस आदमी ने कहा, जुन्नैद, तुम जैसा साधु पुरुष मुझ जैसे असाधु के पैर छुए! जुन्नैद कुछ बोला नहीं। उसने कहा, बताना ठीक भी नहीं कि मामला क्या है। क्योंकि झंझट में पड़ गए परमात्मा से पूछकर। एक दफे छू लिया, बात खत्म हो गई।
रात उसने फिर परमात्मा को कहा कि एक मर्जी और पूरी कर दे। एक तूने पूरी कर दी। अब मैं जानना चाहता हूं, इस गांव में सबसे बुरा, सबसे शैतान, सबसे पापी आदमी कौन है? उसका भी तो पता चल जाए!
परमात्मा फिर रात सपने में प्रकट हुआ और उसने कहा कि वही आदमी जो तेरे पड़ोस में रहता है। और कल सुबह उठकर तू उसके पैर छू आना।
अब तो और मुसीबत हो गई। कल तो पैर छूना आसान भी था, कम से कम परमात्मा ने कहा था। भरोसा तो नहीं आ रहा था। फिर भी परमात्मा ने कहा था कि आदमी पवित्र है, तब पैर छूना.। तब भी मुसीबत थी। और अब यह आदमी सबसे बड़ा पापी है, परमात्मा कहता है। और अब
इसके पैर छूना! और फिर जुन्नैद ने कहा, यह क्या खेल है मालिक! यही आदमी पवित्र और यही आदमी पापी! यह एक ही आदमी है। तो उसे आवाज सुनाई पड़ी कि जिस दिन तू दोनों को एक साथ देख पाएगा, बस उसी दिन तू मुझे देख पाएगा, उसके पहले नहीं।
वह जो बुरा है, वह जो भला है; वह जो शुभ है, वह जो अशुभ है; प्रीतिकर, अप्रीतिकर; जिस दिन हम दोनों को एक में देख पाते हैं, उसी दिन, उसी दिन हम पार होते हैं द्वंद्व के।
अर्जुन की तकलीफ यही है कि वह द्वंद्व के पार होने के किनारे खड़ा है। वह कृष्ण से कहता है, लौटा लो। वापस हो जाओ। वही रूप ठीक था, तुम जैसे थे वही। हंसो, मुस्कुराओ। यह मृत्यु वाला रूप मुझे जरा भी सुख नहीं देता है। हालांकि उसे अनुभव हो रहा है कि यह भी उनका ही रूप है।
अगर वह आज राजी हो जाए इस रूप के लिए, तो द्वंद्व के इसी क्षण पार हो जाए। लेकिन अर्जुन इस क्षण तक राजी नहीं हो सका। और वापस द्वंद्व में गिरने के आग्रह कर रहा है।
आज इतना ही। शेष हम कल.।
पांच मिनट रुकें। कीर्तन करें, फिर जाएं।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम्।। 23।।
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो।। 24।।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।। 25।।
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः।। 26।।
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः।। 27।।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।। 28।।
और हे महाबाहो, आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले तथा बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले और बहुत उदरों वाले तथा बहुत-सी विकराल जाड़ों वाले महान रूप को देखकर सब लोक व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूं।
क्योंकि हे विष्णो, आकाश के साथ स्पर्श किए हुए, देदीप्यमान, अनेक रूपों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अंतःकरण वाला मैं धीरज और शांति को नहीं प्राप्त होता हूं।
और हे भगवन्, आपके विकराल जबड़ों वाले और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूं और सुख को भी नहीं प्राप्त होता हूं। इसलिए हे देवेश, हे जगन्निवास, आप प्रसन्न होवें।
और मैं देखता हूं कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओं के समुदाय सहित आपमें प्रवेश करते हैं और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सब के सब, वेगयुक्त हुए आपके विकराल जाड़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखते हैं।
और हे विश्वमूर्ते, जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे शूरवीर मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित हुए मुखों में प्रवेश करते हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि भगवान, परमात्मा के विराट स्वरूप को समझाते हुए आपने कल जन्म और मृत्यु, सृजन और संहार, सुंदर और भयानक आदि के द्वंद्वात्मक अस्तित्व की बात की। समझाएं कि जिस परम सत्य को अमृत या सच्चिदानंद के नाम से कहा गया, वह उपरोक्त द्वंद्वों का जोड़ है, अथवा इन दो के अतीत वह कोई तीसरी सत्ता है?
द्वंद्व चारों ओर है। संसार में जहां भी देखेंगे, वहां एक कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगा। विपरीत सदा मौजूद होगा। संसार के होने का ढंग ही विपरीत के बिना असंभव है। इस एक बात को ठीक से समझ लें। जैसे कि कोई मकान बनाने वाला राजगीर विपरीत ईंटों को जोड़कर गोल दरवाजा बनाता है। अगर एक ही रुख में ईंटें लगाई जाएं, तो दरवाजा गिर जाए। विपरीत ईंटें एक-दूसरे के प्रति विरोध का काम करके दरवाजे को सम्हालने का आधार बन जाती हैं।
सारा जगत विपरीत ईंटों से बना हुआ है। वहां प्रकाश है, तो केवल इसीलिए कि अंधेरा भी है। और अंधेरा भी हो सकता है तभी तक, जब तक प्रकाश है। प्रकाश और अंधेरा विपरीत ईंटें हैं। दो कारणों से। एक तो सभी ईंटें समान होती हैं, हम उन्हें विपरीत लगा सकते हैं। अंधेरा और प्रकाश एक ही सत्ता के दो रूप हैं। ईंटें एक जैसी हैं, लेकिन एक-दूसरे के विपरीत लग जाती हैं।
जन्म और मृत्यु एक ही जीवन के दो छोर हैं। लेकिन जन्म नहीं होगा जिस दिन, मृत्यु बंद हो जाएगी। और मृत्यु भी नहीं होगी उसी दिन, जिस दिन जन्म बंद हो जाएगा। जन्म और मृत्यु का विरोध जो तनाव पैदा करता है, वही तनाव संसार है।
संसार एक अशांत अवस्था है। और अशांत अवस्था तभी हो सकती है, जब वैपरीत्य, द्वंद्व मौजूद हो। आप भी अगर केवल आत्मा हों, तो संसार में नहीं रह जाएंगे। आप भी केवल शरीर हों, तो भी आप आप नहीं रह जाएंगे, मिट्टी हो जाएंगे। आपके भीतर भी शरीर और आत्मा का एक द्वंद्व है। उस द्वंद्व के तनाव में विपरीत ईंटों के बीच ही आपका अस्तित्व है। जहां भी खोजेंगे, वहां पाएंगे कि विरोध है।
राम के अकेले होने का कोई उपाय नहीं है। रावण का होना एकदम जरूरी है। और रावण हमें कितना ही अप्रीतिकर लगे, कितना ही हम चाहें कि वह न हो, लेकिन हमें पता नहीं कि रावण के न होते ही राम के होने का कोई उपाय नहीं रह जाता। थोड़ा सोचें, रावण को हटा लें राम की कथा से। तो रावण के हटाते ही राम में जो भी महत्वपूर्ण है, तत्क्षण गिर जाएगा। वह तो रावण की विपरीत ईंट के कारण ही राम की प्रखरता है। राम को हटा लें, तो रावण व्यर्थ हो जाएगा।
सारे जीवन का चक्र द्वंद्व के आधार पर है। यह जो द्वंद्व है, यह जिस दिन शांत हो जाता है, उस दिन हम संसार के बाहर हो जाते हैं। जिस क्षण यह द्वंद्व शांत होता है, उस क्षण अद्वैत में प्रवेश होता है। लेकिन अद्वैत जीवन नहीं है। अद्वैत ब्रह्म है। अद्वैत जीवन इसलिए नहीं है कि वहां कोई मृत्यु नहीं है। जहां मृत्यु नहीं है, वहां जीवन का कोई अर्थ नहीं होता। जहां हार हो सकती है, वहां विजय का कोई मूल्य है। जहां मिटना हो सकता है, वहां होने का कोई अर्थ है।
हमारे सारे शब्द संसार के हैं। इसलिए जो भी हम कहें भाषा में, उसका विपरीत होगा ही। उस विपरीत को हम कितना ही भुलाने की कोशिश करें, उसे भुलाने का कोई उपाय नहीं है। हम कितना ही छिपाएं, वह छिपेगा नहीं। इस पहली बात को ध्यान में ले लेना जरूरी है। संसार का अस्तित्व द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है। और संसार की सारी गति द्वंद्व से होती है।
जर्मन विचारक हीगल ने पश्चिम की विचारधारा में डायलेक्टिक्स को जन्म दिया। उसने पहली दफा पश्चिम में यह विचार प्रस्तुत किया कि जीवन की सारी गति द्वंद्व से है। और जहां द्वंद्व है, वहां गति होगी। और जहां गति है, वहां द्वंद्व होगा। और जहां गति नहीं होगी, वहां द्वंद्व समाप्त हो जाएगा। या द्वंद्व बंद हो जाए, तो गति समाप्त हो जाएगी।
हीगल के ही विचार को कार्ल मार्क्स ने नया रूप देकर कम्यूनिज्म को जन्म दिया। क्योंकि हीगल ने कहा था, वाद पैदा होता है, तो तत्क्षण विवाद पैदा होता है; थीसिस, एंटी-थीसिस; और दोनों मिलकर सिंथीसिस बन जाता है, समन्वय बनता है। लेकिन समन्वय फिर वाद हो जाता है, फिर उसका प्रतिवाद होता है। और ऐसे विकास होता है।
मार्क्स ने इसी विचार के आधार पर समाज की व्याख्या की। और उसने कहा कि गरीब और अमीर का द्वंद्व है। इस द्वंद्व से, इस द्वंद्व के पार समाजवाद का जन्म होगा।
लेकिन मार्क्स अपने ही विचार को बहुत दूर तक नहीं खींच सका। अगर यह सच है कि विकास द्वंद्व से होता है, तो समाजवाद के पैदा होते ही समाजवाद के विपरीत कोई धारा तत्काल पैदा हो जाएगी।
लेकिन मार्क्स को यह हिम्मत नहीं पड़ सकी कि वह कहे कि समाजवाद के विपरीत भी कोई धारा पैदा होगी। उसने पुराने इतिहास में तो द्वंद्व को देखा, कामना की कि भविष्य में कोई द्वंद्व नहीं होगा, और साम्यवाद सदा बना रहेगा, उसका कोई विरोध नहीं होगा! वह अपने विचार के प्रति अति मोह के कारण। जैसे मां अपने बेटे को नहीं चाहती कि वह मरे, जानते हुए कि सभी मरते हैं, उसका बेटा भी मरेगा। विचारक भी अपने विचार से अति मोहग्रस्त हो जाते हैं।
इस जगत में कुछ भी पैदा नहीं हो सकता, जिसका विरोध न हो। विरोध होगा ही। विरोध ही गति है, इस जगत का प्राण है। यहां निर्विरोध कोई बात नहीं हो सकती।
जिन्होंने पूछा है, उन्होंने पूछा है कि उस परम एकाकार का जब अनुभव होगा, तो दोनों द्वंद्व मिल जाएंगे या दोनों द्वंद्वों के अतीत चला जाता है व्यक्ति?
दोनों बातें एक ही हैं। जहां द्वंद्व मिलते हैं, वहां एक-दूसरे को काट देते हैं। जैसे ऋण और धन अगर मिल जाएं, तो दोनों कट जाते हैं। जहां दोनों द्वंद्व मिलते हैं, वहां उनकी दोनों की शक्ति एक-दूसरे को काट देती हैं और द्वंद्व शून्य हो जाता है। वही शून्यता पार होना भी है, वही ट्रांसेंडेंस भी है, वहीं आदमी पार भी हो जाता है।
जब तक आपका जीवन से मोह है, तब तक मृत्यु से भय रहेगा। अगर जीवन का मोह छूट जाए, मृत्यु का भय भी तत्क्षण छूट जाएगा। जहां जीवन का मोह नहीं, मृत्यु का भय नहीं, वहां आप पार निकल गए। वहां आप उस जगह पहुंच गए, जहां द्वंद्व नहीं है।
लेकिन हम तो ईश्वर की भी बात करते हैं, तो हमारी भाषा का द्वंद्व प्रवेश कर जाता है। हम कहते हैं, ईश्वर प्रकाश है। हम डरेंगे कहने में कि ईश्वर अंधकार है। क्योंकि हमारी आकांक्षा हमारे शब्द की निर्मात्री है। हम चाहते हैं कि ईश्वर प्रकाश हो। तो अंधेरे को हम छोड़ देंगे।
हम कहते हैं, ईश्वर अमृत है, परम जीवन है। हम यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते कि ईश्वर परम मृत्यु है, महामृत्यु है। हम चुनते हैं शब्द भी, तो हमारा मोह! हम चाहते हैं, कहीं भी मृत्यु न हो। तो हम ईश्वर के लिए अमृत का उपयोग करते हैं।
हम कहते हैं, ईश्वर सच्चिदानंद है। यह भी हमारा मोह है। हम नहीं कह सकते कि ईश्वर परम दुख है, हम कहते हैं, परम सुख है। द्वंद्व में से एक को चुनते हैं। वहां भूल हो जाती है। ईश्वर सुख-दुख दोनों का मिल जाना है। और जहां सुख-दुख मिल जाते हैं, एक-दूसरे को काट देते हैं। उस घड़ी को हम जो नाम देंगे, वह नाम सुख नहीं हो सकता।
इसलिए हमने आनंद चुना है। आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। सुख के विपरीत दुख है, आनंद के विपरीत कुछ भी नहीं है। हालांकि आप जब भी आनंद की बात करते हैं, तो आपका अर्थ सुख होता है। वह अर्थ ठीक नहीं है। या होता है महासुख, वह भी अर्थ ठीक नहीं है। आपके आनंद की धारणा में सुख समाया होता है और दुख अलग होता है, वह ठीक नहीं है।
आनंद की ठीक स्थिति का अर्थ है, जहां सुख और दुख मिलकर शून्य हो गए। एक-दूसरे को काट दिया उन्होंने। एक-दूसरे का निषेध हो गया। जहां दोनों नहीं रहे।
इसलिए बुद्ध ने आनंद शब्द का प्रयोग नहीं किया। क्योंकि आनंद से हमारे सुख का भाव झलकता है। तो बुद्ध ने कहा, शांति, परम शांति। सब शांत हो जाता है, द्वंद्व शांत हो जाता है। इसे चाहे हम कहें दो का मिल जाना, चाहे हम कहें दो के पार हो जाना, एक ही बात है।
जीवन में जहां भी आपको द्वंद्व दिखाई पड़े, चुनाव मत करना। जो चुनाव करता है, वह गृहस्थ है। जो चुनाव नहीं करता, वह संन्यस्त है।
इस बात को थोड़ा समझ लें।
दुख है, सुख है, तत्क्षण हमारा मन चुनाव करता है कि सुख चाहिए और दुख नहीं चाहिए। जन्म है और मृत्यु है, तत्क्षण हमारा मन कहता है, जन्म ठीक, मृत्यु ठीक नहीं है। मित्र हैं, शत्रु हैं, हमारा मन कहता है, मित्र ही मित्र रहें, शत्रु कोई भी न रहे। यह चुनाव है, च्वाइस है। और जहां चुनाव है, वहां संसार है। क्योंकि आपने दो में से एक को चुन लिया। और दो ही अगर आप एक साथ चुन लें, तो कट जाएंगे दोनों।
अगर आप मान लें कि मित्र भी होंगे, शत्रु भी होंगे, और आपके मन में कोई रत्तीभर चुनाव न हो कि मित्र ही बचें, शत्रु न बचें। आपके मन में कोई चुनाव न हो कि जीवन ही रहे, मृत्यु न रहे। आप दोनों के लिए राजी हो जाएं। जो हो, उसके लिए आपकी पूरी की पूरी तथाता, एक्सेप्टिबिलिटी हो, स्वीकार हो, तो आप संन्यस्त हैं। फिर आप मकान में हैं, दुकान में हैं, बाजार में हैं कि हिमालय पर हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके भीतर चुनाव खड़ा न हो, च्वाइसलेसनेस।
कृष्णमूर्ति निरंतर च्वाइसलेसनेस, चुनावरहितता की बात करते हैं। वह चुनावरहितता यही है। दो के बीच कोई भी न चुनें।
जैसे ही आप दो के बीच चुनाव बंद करते हैं, दोनों गिर जाते हैं। क्यों? क्योंकि आपके चुनाव से ही वे खड़े होते हैं। और जटिलता यह है कि जब आप एक को चुनते हैं, तब अनजाने आपने दूसरे को भी चुन लिया। जब मैं कहता हूं, मुझे सुख ही सुख चाहिए, तभी मैंने दुख को भी निमंत्रण दे दिया। जो सुख की मांग करेगा, वह दुखी होगा। उस मांग में ही दुख है। जो सुख की मांग करेगा, वह अगर सुख न पाएगा, तो दुखी होगा। अगर पा लेगा, तो भी दुखी होगा। क्योंकि जो सुख पा लिया जाता है, वह व्यर्थ हो जाता है। और जो सुख नहीं पाया जाता, उसकी पीड़ा सालती रहती है।
जैसे ही हम चुनते हैं एक को, दूसरा भी आ गया पीछे के द्वार से। और हम चाहते हैं कि दूसरा न आए। इसीलिए हम चुनते हैं कि दूसरा न आए। हम चाहते हैं, यश तो मिले, अपयश न मिले। प्रशंसा तो मिले, कोई अपमान न करे। लेकिन जो प्रशंसा चाह रहा है, उसने अपमान को बुलावा दे दिया। अपमान मिलेगा। अपमान तो केवल उसी को नहीं मिलता है, जिसने मान को चुना नहीं। जिसने मान को चुना, उसे अपमान मिलेगा।
जरूरी नहीं है कि आप मान को न चुनें, तो कोई आपको गाली न दे। दे, लेकिन आपके पास गाली गाली की तरह नहीं पहुंच सकती है। यह दूसरे देने वाले पर निर्भर है कि वह फूल फेंके कि पत्थर फेंके। लेकिन आपके पास अब पत्थर भी नहीं पहुंच सकता, फूल भी नहीं पहुंच सकता। वह तो फूल मुझे मिले, इसलिए पत्थर पहुंच जाता था। फूल ही मेरे पास आए, इसलिए पत्थर भी निमंत्रित हो जाता था। जैसे ही आप चुनाव छोड़ देते हैं, आप जगत के बीच भी जगत के बाहर हो जाते हैं।
यह जो चुनावरहितता है, यह संन्यास की गुह्य साधना है, आंतरिक साधना है। संन्यास है मार्ग, दो के पार जाने का। संसार है द्वार, दो के भीतर जाने का।
तो जितना आप ज्यादा चुनेंगे, उतने आप उलझते चले जाएंगे। जितना आप मांग करेंगे, उतने आप परेशान होते चले जाएंगे। जितना आप कहेंगे, ऐसा हो, और ऐसा न हो, उतनी ही आपकी चित्त-दशा विक्षिप्त होती चली जाएगी। जितना आप चुनाव क्षीण करते जाएंगे और आप कहेंगे, जैसा हो, मैं राजी हूं। जो भी हो, मैं राजी हूं। जैसा भी हो रहा है, उससे विपरीत की मेरी कोई मांग नहीं है। जीवन मिले तो ठीक, और मृत्यु मिल जाए तो ठीक। दोनों के साथ मैं एक-सा ही व्यवहार करूंगा। मैं कोई भेद नहीं करूंगा। जैसे ही आपके भीतर का यह तराजू समतुल होता जाएगा, वैसे ही वैसे द्वंद्व क्षीण होगा और आप अद्वैत में, निर्द्वंद्व में प्रवेश कर जाएंगे।
अर्जुन ऐसी ही घड़ी में खड़ा है, जहां उसके भीतर, वह जो संसार था, खो गया है। वह चुनावरहित हो गया है।
इस चुनावरहित होने के लिए बहुत उपाय हैं। एक उपाय साधक का है, योगी का है। वह चेष्टा कर-करके चुनाव को छोड़ता है। एक उपाय भक्त का है, प्रेमी का है। वह चेष्टा कर-करकेनहीं छोड़ता। वह नियति को स्वीकार कर लेता है, भाग्य को स्वीकार कर लेता है, वह राजी हो जाता है।
यह कृष्ण के पास जो अर्जुन खड़ा है, अर्जुन का यह खड़ा होना, एक भक्त का खड़ा होना है, एक समर्पित चेतना का।
(श्रोताओं के बीच शोरगुल। कुछ उपद्रव की कोशिशें। ओशो बोले, उनकी चिंता न करें। जिस द्वंद्व की मैं बात कर रहा हूं, वही है। उसकी कोई चिंता न करें। वह रहेगा। उससे कोई बचने का उपाय नहीं है। उसमें चुनाव न करें। शांत बैठे रहें।)
कृष्ण के सामने अर्जुन की जो दशा है, वह किसी साधक की नहीं है, वह कोई साधना नहीं कर रहा है, वह कोई योग नहीं साध रहा है। लेकिन कृष्ण के प्रेम में समर्पित हो गया है। वह एक गहरी समर्पण की भाव-दशा है। उसने छोड़ दिया सब कृष्ण पर। छोड़ने का अर्थ है, अब मेरा कोई चुनाव नहीं है। समर्पण का अर्थ है, अब मैं न चुनूंगा, अब तुम्हारी मर्जी ही मेरा जीवन होगी। अब जो तुम चाहोगे, अब जो तुम्हारा भाव हो, मैं उसके लिए बहने को राजी हूं। अब मैं तैरूंगा नहीं।
एक तो आदमी है, नदी में तैरता है। वह कहता है, उस किनारे, उस जगह मुझे पहुंचना है। एक आदमी है, नदी में बहता है। वह कहता है, कहीं मुझे पहुंचना नहीं। नदी जहां पहुंचा दे, वही मेरी मंजिल है। अगर नदी बीच में डुबा दे, तो वही मेरा किनारा है। मुझे कहीं पहुंचना नहीं, नदी जहां पहुंचा दे, वही मेरा लक्ष्य है। यह समर्पित, सरेंडर्ड भक्त का लक्षण है।
अर्जुन ऐसी दशा में है। वह कह रहा है, मैंने छोड़ा, अब मैं तैरूंगा नहीं। मैंने तैरकर देख लिया; सोचकर, विचारकर देख लिया। अब मैं छोड़ता हूं; अब मैं बहूंगा। अब कृष्ण, तुम्हारी नदी मुझे जहां ले जाए। जो भी हो परिणाम, और जो भी हो मंजिल, या न भी हो, तो जहां भी मैं पहुंच जाऊं, जहां तुम पहुंचा दो, मैं उसके लिए राजी हूं।
यह अचुनाव है। च्वाइस समाप्त हो गई। चुनाव समाप्त हो गया। इस चुनाव के समाप्त होने के कारण ही अर्जुन निर्द्वंद्व हो सका और अद्वैत की उसे झलक मिल सकी।
एक और मित्र ने पूछा है कि क्या गीता स्वयं में पर्याप्त नहीं है, जो आप उसकी इतनी लंबी व्याख्या कर रहे हैं? और शब्दों से दबी हुई आज की मनुष्य-सभ्यता के लिए आप गीता को इतना विस्तृत रूप दे रहे हैं, इसके पीछे क्या कारण है?
गीता तो अपने में पर्याप्त है। लेकिन आप बिलकुल बहरे हैं। गीता तो पर्याप्त से ज्यादा है। उसकी व्याख्या की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन आप उसे सुन भी न पाएंगे, आप उसे पढ़ भी न पाएंगे। वह आपके भीतर प्रवेश भी न पा सकेगी।
बुद्ध की आदत थी कि वह एक बात को हमेशा तीन बार कहते थे। तीन बार! छोटी-मोटी बातों को भी तीन बार कहते थे। आनंद ने एक दिन बुद्ध को पूछा कि आप क्यों तीन-तीन बार किसी बात को कहते हैं? और छोटी-मोटी बात को भी आप तीन बार क्यों दोहराते हैं? सुन लिया! बुद्ध ने कहा कि तुम्हें भ्रम होता है कि तुमने सुन लिया। मुझे तीन बार कहना पड़ता है, तब भी पक्का नहीं है कि तुमने सुना हो। क्योंकि सुनना बड़ी कठिन बात है।
सुन केवल वही सकता है, जो भीतर विचार न कर रहा हो। जब आप भीतर विचार कर रहे होते हैं, तो जो आप सुनते हैं, वह कहा गया हुआ नहीं है। वह तो आपके विचारों ने तोड़ लिया, बदल दिया, नई शक्ल दे दी, नया ढंग दे दिया, नया अर्थ हो गया।
तो जब मैं कुछ कह रहा हूं, तो आप वही सुनते हैं जो मैं कह रहा हूं, ऐसी भ्रांति में न पड़ें। आप वही सुनते हैं, जो आप सुन सकते हैं, सुनना चाहते हैं। और आप जो सुनते हैं, वह आपकी व्याख्या हो जाती है।
तो गीता तो पर्याप्त है। लेकिन आपके लिए ऐसा अवसर खोजना जरूरी है, जब कि गीता आपके ऊपर हैमर की जा सके, हथौड़ी की तरह आपके सिर पर ठोंकी जा सके। इसलिए इतनी लंबी व्याख्या करनी पड़ती है। फिर भी कोई पक्का भरोसा नहीं है कि आपको सुनाई पड़ जाएगी।
फिर दूसरा कारण भी है। जिस दिन गीता निर्मित हुई, उस दिन के आदमी और आज के आदमी में जमीन-आसमान का अंतर पड़ गया है। रोज अंतर पड़ जाता है। शब्द पुराने हो जाते हैं। जैसे वस्त्र पुराने हो जाते हैं, जैसे शरीर पुराने हो जाते हैं, ऐसे शब्द पुराने हो जाते हैं। और पुराने शब्दों की पकड़ हम पर खो जाती है। उनको सुन-सुनकर हम बहरे हो जाते हैं। फिर उस अर्थ को बाहर खींचकर नए शब्द देने की हर युग में जरूरत पड़ जाती है।
सत्य तो कभी बासा नहीं होता, लेकिन शब्द सदा बासे हो जाते हैं। आत्मा तो कभी पुरानी नहीं पड़ती, लेकिन शरीर पुराने पड़ जाते हैं। जब आप बूढ़े हो जाएंगे, आपका शरीर पुराना पड़ जाएगा। फिर आपकी आत्मा को नया शरीर ग्रहण कर लेना पड़ेगा।
गीता बहुत पुरानी हो गई है। और युग-युग में जरूरत है कि उसको नई देह मिल जाए, नए शब्द, नए आकार मिल जाएं। हमने इस मुल्क में इसकी बड़ी गहरी कोशिश की है। और इसके परिणाम हुए। अगर हम दूसरे मुल्कों को देखें, तो खयाल में आ जाएगी बात।
सुकरात ने कुछ कहा, वह बहुत कीमती है। लेकिन फिर उस पर कभी व्याख्या नहीं की गई। फिर उस पर कोई व्याख्या नहीं हुई; वह संगृहीत है। लेकिन हमने इस मुल्क में एक अनूठा प्रयोग किया। और वह अनूठा प्रयोग यह था, कृष्ण ने गीता कही, अर्जुन ने सुनी। फिर बार-बार शंकर होंगे, रामानुज होंगे, निंबार्क होंगे, वल्लभ होंगे, फिर से व्याख्या करेंगे।
शंकर क्या कर रहे हैं? वे जो शब्द पुराने पड़ गए हैं, उनको हटाकर नए शब्द रख रहे हैं। आत्मा को नए शब्दों में प्रवेश दे रहे हैं, ताकि शंकर के युग के कान सुन सकें और शंकर के युग का मन समझ सके। लेकिन अब तो शंकर भी पुराने पड़ गए। और हमेशा बात पुरानी पड़ जाएगी; शब्द तो पुराने पड़ ही जाएंगे। मैं जो कह रहा हूं, वह थोड़े दिन बाद पुराना हो जाएगा। जरूरत होगी कि फिर अर्थ को शब्द से छुटकारा करा दिया जाए।
व्याख्या का अर्थ है, अर्थ को, आत्मा को, शब्द से मुक्ति दिलाने की कोशिश। वह जो शब्द उसे पकड़ लेता है, उसे हटा दिया जाए, नया ताजा शब्द दे दिया जाए, ताकि आप नए ताजे शब्द को सुन सकें। मन रोज बदल जाता है। और मन के बदलने के साथ मन के पकड़ने, समझने के ढंग बदल जाते हैं।
इसे थोड़ा समझ लें।
आज से पांच हजार साल पहले मन का आधार था, श्रद्धा, आस्था, भरोसा, विश्वास, ट्रस्ट। आज मन का आधार नहीं है श्रद्धा पर। आज आस्था आधार नहीं है। आज ठीक विपरीत आधार है, संदेह, डाउट। उसका कारण है। क्योंकि विज्ञान की सारी की सारी खोज संदेह पर खड़ी होती है, डाउट पर खड़ी होती है। विज्ञान चलता ही संदेह करके है। विज्ञान खोजता ही संदेह करके है। और जो संदेह नहीं कर सकता, वह वैज्ञानिक नहीं हो सकता।
इसलिए जिसे वैज्ञानिक होना है, उसे संदेह की कला सीखनी ही पड़ेगी। सारी दुनिया को हम विज्ञान की शिक्षा दे रहे हैं। हर बच्चा विज्ञान में दीक्षित हो रहा है। इसलिए हर बच्चे के मन में संदेह प्रवेश कर रहा है। और जरूरी है। विज्ञान की शिक्षा ही बिना संदेह के हो नहीं सकती। विज्ञान का आधार ही संदेह है। सोचो। पूछो। तब तक मत मानो, जब तक कि प्रमाण न मिल जाए, तब तक रुको। मानने की जल्दी मत करो।
धर्म का आधार बिलकुल विपरीत है। धर्म का आधार है, चुपचाप, सहज, स्वीकार कर लो। पूछो मत। पूछना ही बाधा हो जाएगी। तो पांच हजार साल पहले विज्ञान का कोई शिक्षण नहीं था। आदमी का मन धार्मिक था। गीता में जो कहा गया है, वह सीधा भीतर प्रवेश कर जाता।
आज आदमी का मन धार्मिक बिलकुल नहीं है, वैज्ञानिक है। विज्ञान बुरा है, यह मैं नहीं कह रहा हूं, या धर्म अच्छा है, यह भी नहीं कह रहा हूं। इतना ही कह रहा हूं कि वैज्ञानिक होने के लिए संदेह अनिवार्य है, और धार्मिक होने के लिए श्रद्धा अनिवार्य है। उन दोनों के यात्रा-पथ बिलकुल अलग हैं, विपरीत हैं।
तो सारी दुनिया का मन आज विज्ञान की तरफ आंदोलित हो रहा है। इसलिए धर्म की जो बात है, उससे और आज के मन का कोई तालमेल नहीं है, कोई हार्मनी नहीं है; कोई संगति नहीं बैठती; कोई संबंध नहीं जुड़ता। आदमी जा रहा है विज्ञान की तरफ; उसकी पीठ है श्रद्धा की तरफ। तो पीठ की तरफ से जो भी सुनाई पड़ता है, वह समझ में नहीं आता।
दो ही उपाय हैं, या तो आदमी को मोड़कर श्रद्धा की तरफ खड़ा किया जाए, जो कि अति कठिन हो गया है। अति कठिन है, क्योंकि एक दिन में किसी का चित्त मोड़ा नहीं जाता। और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि पहले सात वर्षों में बच्चे को जो शिक्षण मिल जाता है, वह फिर जीवनभर पीछा करता है; फिर बदलना बहुत मुश्किल है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि चौदह वर्ष में बच्चे की बुद्धि करीब-करीब परिपक्व हो जाती है। चौदह वर्ष के बाद फिर बुद्धि में कोई बहुत विकास नहीं होता।
तो चौदह वर्ष की उम्र तक जो प्रवेश कर जाता है, वह आधार बन जाता है। फिर जो कुछ भी होगा, उसके ऊपर होगा।
इसलिए किसी आदमी के चेहरे को एकदम मोड़ा नहीं जा सकता। उसके संदेह को श्रद्धा नहीं बनाई जा सकती। और अगर जबरदस्ती बनाने की कोशिश की जाए, तो संदेह भीतर होगा, श्रद्धा ऊपर हो जाएगी--थोथी, झूठी, मुर्दा। उसमें कोई प्राण नहीं होंगे।
तो एक ही उपाय है और वह यह है कि धर्म की ऐसी व्याख्या की जाए, जो संदेहशील मन को भी आकर्षित करती हो। संदेह को इनकार न किया जाए, स्वीकार कर लिया जाए। और श्रद्धा की जबरदस्ती न की जाए, श्रद्धा को संदेह के मार्ग से ही लाया जाए, जो अति कठिन है। लेकिन अब इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है।
अगर मनुष्य-जाति पुनः धार्मिक होगी, तो एक नया अनूठा प्रयोग करना पड़ेगा; वह यह कि आपके संदेह का ही उपयोग किया जाए, आपको श्रद्धा तक लाने के लिए। आपके विचार, आपके तर्क, आपकी समझ का ही उपयोग किया जाए, समझ को ही नष्ट करने के लिए। आपके तर्क का ही उपयोग किया जाए, आपके तर्क को ही काट डालने के लिए।
यह हो सकता है। पैर में कांटा लग जाता है, तो हम दूसरे कांटे से उस कांटे को निकाल लेते हैं। और कोई भी यह नहीं कहता कि आप कांटे से कांटे को कैसे निकालेंगे? आदमी बीमार होता है, उसके शरीर में जहर फैल जाता है, तो हम एंटीबायोटिक्स, और जहर डालकर उसके जहर को नष्ट कर देते हैं। वैक्सिनेशन का तो सारा सिद्धांत इस बात पर खड़ा हुआ है, कि आपके शरीर में जो कीटाणु हैं बीमारी के, वे ही कीटाणु और बड़ी मात्रा में आपके भीतर डाल दिए जाएं।
तो अब तो धर्म होगा वैक्सिनेशन। अब तो आपसे यह नहीं कहा जा सकता कि श्रद्धा करिए। यह कोई खेल नहीं है। अब बहुत मुश्किल है।
अब किसी छोटे बच्चे को भी कहना कि चुपचाप मान लो, व्यर्थ है। वह बच्चा भी कहेगा, आप क्या कह रहे हैं! पूछूं न? विचार न करूं? तर्क न करूं? तो आपका यह कहना कि श्रद्धा ही हमारी पहली शर्त है, बच्चे के लिए आपके धर्म का द्वार बंद हो गया। इसका अर्थ हुआ कि आप व्यर्थ की बकवास कर रहे हैं। जिसमें प्रश्न न पूछा जा सके और जिसमें संदेह न किया जा सके, वह सत्य नहीं हो सकता, वह अंधविश्वास है। आपने द्वार बंद कर दिए।
आज किसी से कहना, श्रद्धा करो, नासमझी है। आज तो एक ही उपाय है कि उसके संदेह को संदेह के ही मार्ग से काट डाला जाए। एक ऐसी घड़ी आ जाए कि उसका संदेह करने वाला मन संदेह करने में असमर्थ हो जाए, संदेह कर-करके असमर्थ हो जाए।
एक उपाय तो यह होता है कि आपको बांधकर बिठा दिया जाए कि शांत हो जाओ। छोटे बच्चों को घर में मां-बाप बिठा देते हैं कि शांत हो जाओ। छोटा बच्चा बैठ जाता है। लेकिन जरा उसका निरीक्षण करें, आब्जर्व करें। वह हाथ-पैर हिलाएगा, कुछ करेगा, सिर हिलाएगा, कुछ करेगा। वह जो दौड़ता था, वह दौड़ अब उसके भीतर-भीतर चलेगी।
आप उसको जबरदस्ती बिठा दिए हैं। इससे कुछ हल होने वाला नहीं है। ज्यादा वैज्ञानिक यह होगा कि उसे कहें कि जाकर मकान के दस चक्कर लगाकर आ! उसे दस चक्कर लगाने दें। शायद दस वह लगा भी न पाएगा, तीन-चार या पांच में थक जाएगा। और कहेगा, मुझे नहीं लगाना। उसे कहें कि और पांच पूरे कर। फिर आप कोने में बैठा हुआ उसे देखें। अब उसके भीतर कोई गति नहीं होगी। अब वह शांत होगा। अब वह बुद्ध की प्रतिमा की तरह बैठा होगा।
आपके लिए अब दूसरा ही रास्ता है। आपको सीधे नहीं बिठाया जा सकता। इसलिए दस चक्कर मुझे लगाने पड़ते हैं! जो सीधा बैठ सकता है, उससे मुझे कुछ नहीं कहना है। लेकिन मुझे एक आदमी नहीं दिखाई पड़ता, जो अब सीधा बैठ सकता है। आपको दस चक्कर लगाने पड़ेंगे। इसलिए इतनी लंबी व्याख्या करनी पड़ती है। वह चक्कर है। और आपके साथ मुझे भी लगाने पड़ते हैं! क्योंकि ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं बीच में आप रुक न जाएं। जब तक थक न जाएं, एक्झास्टेड! आपकी बुद्धि को थकाने के सिवाय अब श्रद्धा तक ले जाने का कोई मार्ग नहीं है।
अब हम सूत्र को लें।
और हे महाबाहो! आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले तथा बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले और बहुत उदरों वाले तथा बहुत-सी विकराल जाड़ों वाले महान रूप को देखकर सब लोग व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूं।
(कोई मित्र के बीच में से उठकर जाने से कुछ व्यवधान होता है। इस पर ओशो ने कहा, ये जो मित्र उठ रहे हैं उनको वहीं बिठा दें। बिलकुल उनको वहीं बिठा दें। जाने न दें बाहर। और कल से मैं आपको कहता हूं कि जिसको जाना हो, पहले से बाहर रहे, बीच में बैठने की कोई जरूरत नहीं। उनको बिठाइए वहां। वह जो मित्र जा रहे हैं उनको बिठाइए वहीं। और कल से मैं एक भी व्यक्ति को बीच से नहीं उठने दूंगा। आप पहले से बाहर रहें। कोई कारण नहीं है बीच में बैठने का।)
अर्जुन ने देखा, विकराल रूप! जहां परमात्मा मृत्यु का मुख बन गया है। वह कह रहा है कि हे महाबाहो! यह मैं देख रहा हूं, इससे सारे लोक व्याकुल हो रहे हैं, मैं भी व्याकुल हो रहा हूं। मेरा हृदय धड़कता है और घबड़ाहट रोएं-रोएं में समा गई है। क्या यह भी आप हैं?
यह व्याकुलता स्वाभाविक है। क्योंकि हमने परमात्मा का एक ही रूप देखा। और हमने परमात्मा के एक ही रूप की पूजा की। और हमने परमात्मा के एक ही रूप को सराहा। और हमने यह माना कि वह एक इसी रूप से एक है; दूसरा रूप परमात्मा का नहीं है। तो जब हमें पूरा परमात्मा दिखाई पड़े, तो व्याकुलता बिलकुल स्वाभाविक है।
यह व्याकुलता परमात्मा के रूप के कारण नहीं है, हमारी बुद्धि के तादात्म्य के कारण है। हमने एक हिस्से के साथ तादात्म्य कर लिया है। हमने देखा कि परमात्मा होगा सौंदर्य। हमने परमात्मा की सारी प्रतिमाएं सुंदर बनाई हैं। कुछ हिम्मतवर तांत्रिकों ने कुरूप प्रतिमाएं भी बनाई हैं, लेकिन वे धीरे-धीरे खोती जा रही हैं। हमारे मन को उनकी अपील नहीं है।
अगर आप विकराल काली को देखते हैं, हाथ में खंजर लिए, कटा हुआ सिर लिए, गले में मुंडों की माला डाले हुए, पैरों के नीचे किसी की छाती पर सवार, लाल जीभ, खून टपकता हुआ, तो भला भय की वजह आप नमस्कार करते हों, लेकिन मन में यह भाव नहीं उठता कि यह परमात्मा का रूप है। भला मान्यता के कारण आप सोचते हों कि ठीक; लेकिन भीतर यह भाव नहीं उठता कि यह परमात्मा का रूप है।
और स्त्री, ममता, मां जिसको हमने कहा! और काली को हम मां कहते हैं! मां जो है, वह ऐसा विकराल रूप लिए खड़ी है, तो मन को बड़ी बेचैनी होती है कि क्या बात है! लेकिन जिन्होंने यह विकराल रूप खोजा था, उन्होंने एक द्वंद्व को इकट्ठा करने की कोशिश की थी।
मां से ज्यादा प्रेम से भरा हुआ हृदय पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। इसलिए मां को खड़ा किया इतने विकराल रूप में, जो कि दूसरा छोर है। मां को ऐसे खड़ा किया, जैसे वह मृत्यु हो। मां तो जन्म है। मां को ऐसे खड़ा किया, जैसे वह मृत्यु हो। दो द्वंद्व, जन्म और मृत्यु, दोनों को एक साथ काली में इकट्ठा किया। एक तरफ वह जन्मदात्री है, और दूसरी तरफ मृत्यु उसके हाथ से घटित हो रही है। और हड्डियों की, खोपड़ियों की माला उसने गले में डाल रखी है!
कभी आपने अपनी मां को इस भाव से देखा? बहुत घबड़ाहट होगी। और अगर आप अपनी मां को इस भाव से नहीं देख सकते, तो काली को आप मां कैसे कह सकते हैं! असंभव है।
लेकिन जिन्होंने, जिन तांत्रिकों ने यह द्वंद्व को जोड़ने का खयाल किया, बड़े अदभुत लोग थे। इसमें एक प्रतीक है। इसमें जन्म और मृत्यु एक साथ खड़े हैं। इसमें प्रेम और मृत्यु एक साथ खड़े हैं। इसमें मां का हृदय और मृत्यु के हाथ एक साथ खड़े हैं। मगर धीरे-धीरे यह रूप खोता चला गया। यह रूप आज अगर कभी आपको दिखाई भी पड़ता है, तो सिर्फ परंपरागत है। इसकी धारणा खो गई। इसके हृदय में संबंध हमारे खो गए।
हमने परमात्मा का तो सौम्य, सुंदर रूप--कृष्ण बांसुरी बजाते खड़े हैं, वे लगते हैं कि परमात्मा हैं। मोर-मुकुट बांधा हुआ है, उनके होंठों पर मुस्कान है। वे लगते हैं कि परमात्मा हैं। उनसे हमें आश्वासन मिलता है, राहत मिलती है, सांत्वना मिलती है। हम वैसे ही बहुत दुखी हैं। काली को देखकर और उपद्रव क्यों खड़ा करना है!
कृष्ण को देखकर सांत्वना, कंसोलेशन मिलता है कि ठीक है। इस जीवन में होगा दुख। इस जीवन में होगी मृत्यु। आज नहीं कल, वह मुकाम आ जाएगा, जहां बांसुरी ही बजती रहती है। जहां सुख ही सुख है। जहां शांति ही शांति है, जहां संगीत ही संगीत है। जहां फिर कुछ बुरा नहीं है। उसकी आशा बंधती है, उसका भरोसा बंधता है। मन को राहत मिलती है। तो जो हमारे पास नहीं है, जो जिंदगी में खोया हुआ है, जिसका अभाव है, उसे हमने कृष्ण में पूरा कर लिया।
आपने कभी खयाल किया कि हमने कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, किसी के बुढ़ापे का चित्र नहीं बनाया है। कोई बुढ़ापे की मूर्ति नहीं बनाई है। ऐसा नहीं है कि ये लोग बूढ़े नहीं हुए। बूढ़े तो होना ही पड़ेगा। इस जमीन पर जो है, जमीन के नियम उस पर काम करेंगे। और ये जमीन के नियम किसी को भी छूट नहीं देते, यहां कोई छुट्टी नहीं है। और अगर इस जमीन के नियमों में छुट्टी हो, तो फिर जगत बिलकुल एक बेईमान व्यवस्था हो जाए। यहां तो कृष्ण को भी बूढ़ा होना पड़ेगा, राम को भी होना पड़ेगा, बुद्ध को भी होना पड़ेगा, महावीर को भी होना पड़ेगा।
लेकिन हमने उनको बूढ़ा नहीं बनाया। उससे यह पता नहीं चलता कि वे बूढ़े नहीं हुए। उससे यही पता चलता है कि बुढ़ापे से हम कितने भयभीत हैं, कितने डरे हुए हैं। और अगर राम को भी हम देखें, टूटे हुए दांत, लकड़ी टेकते हुए, तो फिर भगवान मानना बहुत मुश्किल हो जाएगा। सुंदर, युवा! वे सदा ही युवा हैं। उनका युवापन ठहर गया है; वह आगे नहीं बढ़ता।
कृष्ण को बूढ़ा देखें। खखारते हुए, खांसते हुए, खाट पर, किसी अस्पताल में भर्ती! बिलकुल यह हमारे भरोसे के, विश्वास के बाहर हो गया। हमारी सारी श्रद्धा नष्ट हो जाएगी। और हमें लगेगा, यह भी क्या बात हुई! कम से कम भगवान होकर तो ऐसा नहीं होना था।
तो भगवान हमारी कामनाओं से हम निर्मित करते हैं। उनकी मूर्ति हम अपनी वासना से निर्मित करते हैं। उसका तथ्य से कम संबंध है, हमारी भावना से ज्यादा संबंध है।
देखते हैं आप, न दाढ़ी उगती राम को, न कृष्ण को, न बुद्ध को, न महावीर को। न मूंछ निकलती, न दाढ़ी निकलती। जरा कठिन मामला है। कभी-कभी ऐसा होता है, कोई पुरुष मुखन्नस होता है। कभी-कभी किसी पुरुष को दाढ़ी-मूंछ नहीं उगती। क्योंकि उसमें कुछ हार्मोन की कमी होती है; वह पूरा पुरुष नहीं है। लेकिन यह कभी-कभी होता है। सब अवतार हमने मुखन्नस खोज लिए! जरा कठिन है। थोड़ा सोचने जैसा है!
जैनियों के चौबीस तीर्थंकर हैं। चौबीस तीर्थंकरों में किसी की दाढ़ी-मूंछ नहीं उगती। यह मानना मुश्किल है कि उन्होंने इतनी खोज कर ली हो। और हमेशा जब भी कोई तीर्थंकर हुआ, तो वह ऐसा आदमी हुआ जिसमें हार्मोन की कमी थी।
यह बात नहीं है। दाढ़ी-मूंछ उगी ही है। लेकिन हमारा मन नहीं कहता कि दाढ़ी-मूंछ उगे। क्यों? क्योंकि वह दाढ़ी-मूंछ जो उगे, तो फिर बुढ़ापा आएगा। वह जो दाढ़ी-मूंछ उगे, तो युवावस्था को ठहराना मुश्किल हो जाएगा। वह जो दाढ़ी-मूंछ उगे, तो वे फिर ठीक हम जैसे हो जाएंगे। और हमारा मन करता है कि वे हम जैसे न हों। हम अपने से बहुत परेशान हैं। हम अपने से बहुत पीड़ित हैं। वे हम जैसे न हों।
इसलिए हमने अपने अवतारों, अपने तीर्थंकरों, अपने पैगंबरों में वे सब बातें जोड़ दी हैं, जो हम चाहते हैं, हममें होतीं, और नहीं हैं। हम सुबह-शाम लगे हैं दाढ़ी छोलने में! वह हम चाहते हैं कि न होती। वह हम चाहते हैं कि न होती। और आज नहीं कल विज्ञान व्यवस्था खोज लेगा कि पुरुष दाढ़ी-मूंछ से छुटकारा पा जाए।
इतनी उत्सुकता दाढ़ी-मूंछ से छुटकारा पाने की भी बड़ी अजीब है और बड़ी विचारणीय है और बड़ी मनोवैज्ञानिक है। थोड़ी पैथालाजिकल है, थोड़ी रुग्ण भी है।
पुरुष के मन में जो सौंदर्य की धारणा है, वह स्त्री की है। उसको स्त्री का चेहरा सुंदर मालूम पड़ता है। और स्त्री के चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं है। वह सोचता है, सुंदर होने का लक्षण दाढ़ी-मूंछ का न होना है। मगर स्त्रियों से भी पूछो, कि दाढ़ी-मूंछ न हो, तो स्त्री को चेहरा सुंदर सच में लग सकता है?
लगना नहीं चाहिए। और अगर लगता है, तो उसका मतलब पुरुषों ने उनका दिमाग भी भ्रष्ट किया हुआ है। लगना नहीं चाहिए। प्राकृतिक रूप से स्त्री को दाढ़ी-मूंछ वाला चेहरा सुंदर लगना चाहिए, जैसा पुरुष को गैर दाढ़ी-मूंछ का चेहरा सुंदर लगता है। थोड़ा सोचें कि आपकी पत्नी दाढ़ी-मूंछ लगाए हुए खड़ी है! तो जब आप गैर दाढ़ी-मूंछ के खड़े हैं, तब वही हालत हो रही है।
लेकिन चूंकि पुरुष प्रभावी है और स्त्रियों के मन को उसने अपने ही सांचे में ढाल रखा है हजारों साल में.। स्त्रियां कह भी नहीं सकतीं कि तुम यह क्या कर रहे हो? क्यों स्त्री जैसे हुए जा रहे हो? स्त्रियां भी मानती हैं कि यह सुंदर है, क्योंकि उनकी अपनी सुंदर की व्याख्या भी हमने नष्ट कर दी है। स्त्री का हमने मंतव्य ही समाप्त कर दिया है। पुरुष की ही धारणा, उसकी भी धारणा है। जिसको पुरुष सुंदर मानता है, वह भी सुंदर मानती है।
तो सुंदर की जो हमारी धारणा थी, हमने राम पर, कृष्ण पर, बुद्ध पर थोप दी है। लेकिन वे हमारी कामनाएं हैं; वे तथ्य नहीं हैं। तथ्य तो, जीवन के साथ मृत्यु जुड़ी है, यह है। मृत्यु से हम भयभीत हैं। हम बचना चाहते हैं।
हम में से अधिक लोग आत्मा को अमर इसीलिए मानते हैं कि इसके सिवाय बचने का और कोई उपाय नहीं दिखता। उन्हें कुछ पता नहीं है कि आत्मा अमर है। उन्हें कुछ भी पता नहीं है कि आत्मा है भी। लेकिन फिर भी वे माने चले जाते हैं कि आत्मा अमर है। क्यों? भय है मृत्यु का।
शरीर तो जाएगा, यह पक्का है, कितना ही उपाय करो। तो बचने का अब एक ही उपाय है कि आत्मा अमर हो। इसलिए जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होता है, आत्मा में भरोसा करने लगता है। जवान आदमी कहता है, पता नहीं, है या नहीं। हो सकता है, न भी हो। यह आदमी अभी समझकर नहीं बोल रहा है। अभी जवानी का जोश बोल रहा है। थोड़ा हाथ-पैर ढीले पड़ने दें, भरोसा आने लगेगा। थोड़ी मौत करीब आने दें, दांत गिरने दें, भरोसा आने लगेगा। क्यों?
इसलिए नहीं कि इसे कोई अनुभव हुआ जा रहा है। कोई बूढ़े होने से अनुभवी नहीं होता। अगर बूढ़े होने से दुनिया में अनुभव मिलता होता, तो सारे लोग कितनी दफे बूढ़े हो चुके हैं, अनुभव ही अनुभव होता। कोई अनुभव नहीं मिलता। लेकिन बूढ़े होने से भय बढ़ता है, मौत करीब मालूम पड़ने लगती है। अब इतना भरोसा नहीं मालूम पड़ता, पैरों में
इतनी ताकत नहीं मालूम पड़ती। अब तर्क करने की सुविधा नहीं मालूम पड़ती। अब लगता है, अब तो ऐसा लगता है कि वह जो अंधविश्वासी कहते हैं, वही ठीक हो, तो अच्छा। आत्मा हो! यह हमारा विश फुलफिलमेंट है, आत्मा हो। तो हम मानने लगते हैं कि आत्मा है।
जाएं मस्जिद में, मंदिर में, चर्च में; बूढ़े लोग! और पुरुषों से भी ज्यादा बूढ़ी स्त्रियां वहां इकट्ठी हैं। क्योंकि पुरुष बूढ़ा भी हो जाए, तो थोड़ा-बहुत अपना पुरुषत्व, अकड़ कायम रखता है। स्त्रियां और जल्दी घबड़ा जाती हैं और मंदिर की तरफ चल पड़ती हैं।
घबड़ाहट की वजह से, भय की वजह से आदमी मान लेता है, आत्मा अमर है, अनुभव की वजह से नहीं। क्योंकि अनुभव तो बड़ी और बात है। और अनुभव तो उसे उपलब्ध होता है, जो मृत्यु से भय छोड़ देता है और जीवन की वासना छोड़ देता है।
हम तो मृत्यु के भय से, आत्मा अमर है, मान लेते हैं। हमें कभी पता नहीं चलेगा कि आत्मा है भी। उसी को पता चलेगा, जो मृत्यु का भय नहीं करता और जीवन का मोह नहीं करता।
कौन है जो मृत्यु का भय नहीं करे और जीवन का मोह न करे? वही व्यक्ति, जो जीवन और मृत्यु को एक की तरह देख ले, अनुभव कर ले। और इसके लिए कहीं शास्त्र में जाने की जरूरत नहीं। और इसके लिए किसी महापुरुष, महाज्ञानी के चरणों में बैठने की जरूरत नहीं। जीवन काफी शिक्षा है।
जीवन और मृत्यु दो कहां हैं? वे एक ही हैं। हमने अपने मोह में बांटा है दो में। वे एक ही हैं। कभी आपको पता है किस दिन जन्म समाप्त होता है और मृत्यु शुरू होती है? और किस दिन, किस सीमा पर जीवन समाप्त होता है और मृत्यु का आगमन होता है?
कहीं कोई विभाजन नहीं है। कोई वाटर-टाइट कंपार्टमेंट, कोई खंड-खंड बांटने का उपाय नहीं है। जीवन, मृत्यु एक ही चीज के दो नाम मालूम पड़ते हैं। एक ही घटना के लिए दो शब्द मालूम पड़ते हैं। एक छोर जीवन, दूसरा छोर मृत्यु।
तो हम परमात्मा का रूप बनाते हैं, मोहक, सुंदर। हमने नाम जो रखे हैं, वे सब ऐसे रखे हैं कि मन को लुभाएं। लेकिन जो दूसरा हिस्सा है, वह हमने काट रखा है।
अर्जुन भी भयभीत हुआ। इसलिए नहीं कि परमात्मा का भयंकर रूप है, बल्कि इसलिए कि आज तक उसने सोचा ही नहीं था कभी। यह कभी धारणा ही मन में न बनी थी कि यह भयंकर रूप भी परमात्मा का होगा। हम सोचते हैं यमराज को, भैंसे पर बैठे हुए, विकराल दांतों वाला, काला आदमी, सींगों वाला। लेकिन हम कभी यमराज को परमात्मा के साथ एक करके नहीं देखते। यमराज अलग ही मालूम पड़ता है। उसका डिपार्टमेंट, वह सब अलग विभाग है। परमात्मा से हम उसको नहीं जोड़ते हैं, कि मृत्यु परमात्मा से आती है।
गीता के ये सूत्र बड़े कीमती हैं, इन्हें थोड़ा समझ लेना।
यमराज कहीं भी नहीं, परमात्मा के मुंह में ही है। और यमराज कहीं किसी हाथी-घोड़े पर बैठकर नहीं आने वाला है, किसी भैंसे पर सवार होकर। परमात्मा के दांत, वे ही यमराज हैं।
यह देखकर अर्जुन घबड़ा गया है और वह कह रहा है कि सारे लोक व्याकुल हो रहे हैं, मैं भी व्याकुल हो रहा हूं। क्योंकि हे विष्णो! आकाश के साथ स्पर्श किए हुए, देदीप्यमान, अनेक रूपों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अंतःकरण वाला मैं धीरज और शांति को नहीं प्राप्त होता हूं।
वह ठीक कह रहा है। वह कह रहा है, आपकी वजह से मैं भयभीत हो रहा हूं, ऐसा नहीं; भयभीत अंतःकरण वाला, मैं भयभीत अंतःकरण वाला हूं, इसलिए भयभीत हो रहा हूं। आपके कारण भयभीत नहीं हो रहा हूं। आप तो विशाल हैं, महान हैं, विष्णु हैं, महादेव हैं, आप तो परमेश्वर हैं। आपके कारण नहीं भयभीत हो रहा हूं, लेकिन मेरा अंतःकरण भय वाला है।
इसे हम थोड़ा समझ लें।
हम सबके पास अंतःकरण भय वाला है। यह थोड़ा गहन है। और आपको पता भी नहीं कि आपका अंतःकरण क्या है, कानशिएंस क्या है।
आप चोरी करने से डरते हैं। भीतर कोई कहता है, चोरी बुरी है। आप पड़ोसी की स्त्री को भगा ले जाने से बचते हैं। भीतर कोई कहता है, यह बात बुरी है। किसी की हत्या करने से भय है, कंपता है मन। भीतर कोई कहता है, हत्या पाप है। हिंसा बुरी है। कौन कहता है आपके भीतर? जो आपके भीतर बोलता है, यह अंतःकरण है।
यह अंतःकरण वास्तविक नहीं है। क्योंकि वास्तविक अंतःकरण भय के कारण नहीं जीता। वास्तविक अंतःकरण तो ज्ञान के कारण जीता है। यह अंतःकरण सोशल प्रोडक्ट है, समाज के द्वारा पैदा किया गया है। यह समाज बच्चा पैदा होते से ही बच्चे में अंतःकरण पैदा करने में लग जाता है। क्योंकि समाज को भय है कि अगर बच्चे को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, तो वह पशु जैसा हो जाएगा।
और इस भय में सचाई है। अगर बच्चे को कुछ भी न कहा जाए, तो वह पशु जैसा हो जाएगा। तो समाज उसे बताना शुरू करता है। वह कहता है, अगर तुम ऐसा करोगे, तो दंड पाओगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो पुरस्कार पाओगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो माता-पिता प्रसन्न होंगे। अगर तुम ऐसा करोगे, तो दुखी होंगे, नाराज होंगे, कष्ट पाएंगे।
धीरे-धीरे हम बच्चे में भय और लोभ के आधार पर अंतःकरण पैदा करते हैं। हम कहते हैं, तुम ऐसा करो, मां प्रसन्न है, पिता प्रसन्न हैं, सब लोग प्रसन्न हैं तुमसे। तुम ऐसा करो, और सब लोग तुम्हारी निंदा करेंगे, और सब तुम्हें निंदित कर रहे हैं। तो बच्चे को धीरे-धीरे समझ में आने लगता है, किस चीज से डरे। तो जिस-जिस चीज से मां-बाप डराते हैं, उस-उस से वह डरने लगता है। भय गहरे में बैठ जाता है, अंतःकरण बन जाता है।
इसलिए हर समाज का अंतःकरण अलग-अलग होता है। हिंदू का अलग, मुसलमान का अलग, ईसाई का अलग, जैन का अलग। आत्मा अलग-अलग नहीं होती, अंतःकरण अलग-अलग होता है।
अब एक जैन है, वह मांसाहार नहीं कर सकता। क्योंकि बचपन से उसे कहा गया है कि यह महापाप है। तो अगर मांस सामने आ जाए, तो भीतर उसके हाथ-पैर कंपने लगेंगे। इसलिए नहीं कि मांस को देखकर कंपते हैं। क्योंकि दूसरा मुसलमान बैठा है, उसके नहीं कंप रहे हैं। तो मांस में कंपाने वाली कोई बात नहीं है। कंप रहे हैं अंतःकरण के कारण।
और इसी बच्चे को अगर एक मांसाहारी घर में रखा जाता, तो इसके भी नहीं कंपते। और अगर एक मांसाहारी बच्चे को गैर-मांसाहारी घर में रखा जाता, तो उसके भी कंपते। वह जो अंतःकरण बचपन से पैदा किया गया है, वह जो भय, कि क्या गलत है, वह नहीं करना। उसे देखकर यह कंप रहा है। यह वास्तविक अंतःकरण नहीं है। यह सामाजिक व्यवस्था है।
इसलिए एक समाज में अगर चचेरी बहन से शादी होती है, तो कोई अड़चन नहीं है। चचेरी बहन से शादी हो जाती है। किसी को कोई तकलीफ नहीं होती। और दूसरे समाज में उसी के पड़ोस में चचेरी बहन से शादी करने की बात ही महापाप हो सकती है। कोई सोच भी नहीं सकता कि बहन से भी, और प्रेम कर सकते हैं! संभव ही नहीं है। और उसको पत्नी बना सकते हैं, यह तो बिलकुल ही कल्पना के बाहर है। यह अंतःकरण है।
यह जब तक दुनिया में बहुत समाज हैं, बहुत संप्रदाय हैं, तब तक बहुत अंतःकरण होंगे। और इन अंतःकरण के कारण बड़ा उपद्रव है। और दुनिया तब तक एक नहीं हो सकती, जब तक हम कोई एक युनिवर्सल कांशिएंस पैदा न कर लें। तब तक दुनिया एक नहीं हो सकती। लाख लोग सिर पटकें कि हिंदू-मुसलमान भाई-भाई। लाख लोग सिर पटकें कि हिंदी-चीनी भाई-भाई। यह असंभव है। क्योंकि भाई-भाई तब तक नहीं हो सकते, जब तक भीतर के अंतःकरण भिन्न-भिन्न हैं। तब तक सब ऊपरी होगा, थोथा, दिखावा। मौके पर सब कलई खुल जाएगी और दुश्मन बाहर निकल आएंगे। ऊपर से होगा, क्योंकि वह जो भीतर अंतःकरण बैठा है, वह भेद निर्मित कर रहा है।
अर्जुन कहता है, मेरे अंतःकरण के कारण मैं भयभीत हो रहा हूं, आपके कारण नहीं। और ठीक कह रहा है। यह उसका निरीक्षण बिलकुल उचित है। अंतःकरण ने आज तक उसके यही जाना है कि परमात्मा सौम्य है, सुंदर है, प्रीतिकर है, आनंदपूर्ण है, सच्चिदानंद है, आनंदघन है। अब तक उसने यही जाना है। मृत्यु भी परमात्मा है, यह उसने न सुना है, न जाना है।
इसलिए बचपन से बना हुआ अंतःकरण परमात्मा की एक प्रतिमा लिए है, वह प्रतिमा खंडित हो रही है। इसलिए वह व्यथित है। और न केवल वह कहता है, मैं व्यथित हूं, सारे लोक व्यथित हैं। यह रूप बहुत घबड़ाने वाला है।
और हे भगवन्! आपके विकराल जाड़ों वाले और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर दिशाओं को नहीं जानता हूं और सुख को भी प्राप्त नहीं होता हूं।
दिशा-भ्रांति हो गई है। अब मुझे पता नहीं कि उत्तर कहां है, दक्षिण कहां है, पूरब कहां है! वह यह कह रहा है कि अब मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, मेरा सिर घूम रहा है। दिशाएं पहचान में नहीं आतीं कि क्या क्या है! यह तुम्हारा रूप देखकर दिशाएं भ्रांत हो गईं, मेरे पथ खो गए। मेरा मार्ग धुएं से भर गया। और जरा भी सुख को प्राप्त नहीं होता हूं। यह जो आपको देख रहा हूं--आप भगवान हैं! वह कह रहा है, आप भगवान हैं, आप परमेश्वर हैं, फिर भी आपका यह रूप देखकर जरा भी सुख को प्राप्त नहीं होता हूं। जरा भी मुझे, जरा भी सहारा सुख के लिए आपकी इस स्थिति को देखकर नहीं मिलता है।
इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होवें।
वह यह कह रहा है कि आप कृपा करें और यह रूप तिरोहित कर लें। और वह जो प्रसन्नवदन, वह जो मुस्कुराता हुआ आनंदित रूप था, आप उसमें वापस लौट आएं।
आदमी का मन आखिर तक, अंत तक भी परमात्मा पर अपने को थोपना चाहता है। अंत तक भी, परमात्मा जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेने की तैयारी नहीं होती। अंत तक!
साधक की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि वह परमात्मा पर भी अपने को थोपता है। और तब तक सिद्ध नहीं हो पाता, जब तक परमात्मा जैसा भी हो, उसको वैसा ही स्वीकार कर लेने की स्थिति न आ जाए।
अभी अर्जुन थोड़ा-सा विनम्र निवेदन कर रहा है कि प्रसन्न हो जाएं। यह हटा लें। यह प्रज्वलित, प्रलयंकारी रूप अलग कर लें। होंठों पर थोड़ी मुस्कुराहट ले आएं। आपके चेहरे पर हंसी को देखकर, आनंद को देखकर मुझे सुख होगा।
इसे खयाल में लें।
जब तक आप सोचते हैं कि परमात्मा ऐसा होना चाहिए, जब तक आपकी परमात्मा की कोई धारणा है, तब तक आप परमात्मा को नहीं जान पाएंगे। तब तक जो भी आप जानेंगे, वह परदा होगा। अगर आपको परमात्मा को ही जानना है, तो आपको अपनी सारी धारणा अलग कर देनी होगी; हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सब हटा देने होंगे। आपको निपट परमात्मा को शून्य की तरह जानने के लिए खड़ा हो जाना पड़ेगा। अपना अंतःकरण, अपने भरोसे, विश्वास, अपनी दृष्टि, सब हटा देनी होगी। और जैसा भी हो--विकराल हो, मृत्यु हो, अमृत हो, जो भी हो--उसके लिए राजी हो जाना होगा।
जब भी कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में राजी हो जाता है, तो परमात्मा के दोनों रूप खो जाते हैं--विकराल भी, सौम्य भी। और जिस दिन ये दोनों रूप खोते हैं, उस अनुभव को हमने ब्रह्म-अनुभव कहा है। जब तक ये रूप रहते हैं, तब तक हमने इसे ईश्वर-अनुभव कहा है। इस फर्क को थोड़ा समझ लें।
यह ईश्वर का अनुभव है, जब तक ये दो रूप हमें दिखाई पड़ते हैं। जिस दिन ये दो रूप भी नहीं दिखाई पड़ते--दोनों में चुनाव नहीं रह जाता, उसी दिन दिखाई नहीं पड़ते--उस दिन जो रह जाता है, वह ब्रह्म है।
भारत ने बड़ी साहस की बात कही है। भारत ने ईश्वर को भी माया का हिस्सा कहा है। यह सुनकर आपको कठिनाई होगी। भारत कहता है, ईश्वर भी माया का हिस्सा है। ईश्वर-अनुभव भी माया का हिस्सा है। ब्रह्मानुभव! क्योंकि ईश्वर में भी रूप हैं। और ईश्वर के साथ भी हमारा लगाव है, अच्छा-बुरा; ऐसा हो, ऐसा न हो।
भक्त भगवान को निर्मित करते रहते हैं, सजाते रहते हैं। मंदिरों में ही नहीं; मंदिरों में तो वे सजाते ही हैं, क्योंकि भगवान बिलकुल अवश है, वहां वह कुछ कर नहीं सकता; जो करना चाहो, करो। लेकिन यह अर्जुन ठेठ भगवान के सामने खड़े होकर भी कह रहा है कि ऐसा अच्छा होगा, मुझे सुख मिलेगा। आप जरा प्रसन्न हो जाएं। यह रूप हटा लें, यह तिरोहित कर लें।
ये क्या कह रहा है? ये यह कह रहा है कि अभी भी केंद्र मैं हूं। मेरा सुख! आप ऐसे हों, जिसमें मुझे सुख मिले। मैं ऐसा हो जाऊं, जिसमें आप आनंदित हों, ऐसा नहीं। मैं आनंदित होऊं, ऐसे आप हो जाएं। यह आखिरी राग है। और तब तक शेष रहता है, जब तक हम माया की आखिरी परिधि ईश्वर को पार नहीं कर लेते।
शंकर ने कहा है कि ईश्वर माया का हिस्सा है। इसलिए ईश्वर के अनुभव को भी अंतिम अनुभव मत समझ लेना। यहीं कठिनाई खड़ी हो जाती है। ईसाइयत, इस्लाम, शंकर की बात से व्यथित हो जाते हैं। हिंदू, साधारण चित्त भी व्यथित हो जाता है। क्योंकि ईश्वर हमारे लिए लगता है आखिरी। भारत की मनीषा के लिए ईश्वर भी आखिरी नहीं है। आखिरी तो वह स्थिति है, जहां कहने को इतना भी शेष नहीं रह जाता कि आनंद है, कि दुख है, कि मृत्यु है, कि जीवन है। सब भेद गिर जाते हैं। सारी रेखाएं खो जाती हैं।
कहता है अर्जुन, हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होवें। और मैं देखता हूं कि वे सब ही धृतराष्ट्र के पुत्र, राजाओं के समुदाय आपमें प्रवेश करते हैं। और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सबके सब वेगयुक्त हुए आपके विकराल जाड़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दांतों के बीच में लगे हुए दिखते हैं।
और हे विश्वमूर्ते! जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं और समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे शूरवीर मनुष्यों के समुदाय भी आपके प्रज्वलित हुए मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।
वह कहता है कि आपके दांतों में दबे हैं। और न केवल दबे हैं, उनके सिर चूर्ण हो गए हैं। जैसे आपने उनका भोजन कर लिया हो और वे आपकी दाढ़ों में चिपककर रह गए हैं। और वे महाबलशाली लोग, जिनके लिए कल्पना भी नहीं कर सकता अर्जुन! भीष्म पितामह, इतना बलशाली व्यक्ति, वह भी जाकर चूर्ण हो जाएगा मृत्यु के मुख में पड़कर! द्रोणाचार्य, उसका गुरु, वह भी इस तरह असहाय होकर दांतों में चिपट जाएगा! कर्ण, उस विपरीत शत्रुओं के वर्ग का सबसे शूरवीर पुरुष, वह भी ऐसा दयनीय हो जाएगा! और न केवल धृतराष्ट्र के पुत्र, मेरे पक्ष के लोग भी आपके दांतों में दबे मर रहे हैं, चूर्ण हुए जा रहे हैं। न केवल इतना ही, बल्कि जो बाहर हैं, वे तेजी से दौड़ रहे हैं आपके मुंह की तरफ, जैसे नदियां सागर की तरफ दौड़ती हैं।
बहुत भय लगता है, अर्जुन कहता है, बहुत व्यथा होती है। हंसें। बंद कर लें यह मुंह।
हम सभी दौड़ रहे हैं मृत्यु की तरफ, जैसे नदियां दौड़ती हैं। और अगर यह सारा जगत, यह सारा जगत अगर शरीर है, तो निश्चित ही इस जगत के मुंह में कहीं दांतों के नीचे दबकर हम सब चूर्ण हो जाएंगे। और फिर कोई भी हो--भीष्म हों, कि द्रोणाचार्य, कि कर्ण, या कि अर्जुन--कोई भी हो, वे सभी चूर्ण हो जाएंगे। और जो नहीं चूर्ण हो रहे हैं, वे भी दौड़ रहे हैं। बड़ा श्रम उठा रहे हैं, भागे जा रहे हैं, कुछ उपलब्धि के लिए!
हम सबको यह खयाल है कि जिंदगी में कुछ पा लेंगे। और आखिर में सिवाय मौत के हम कुछ भी नहीं पाएंगे। लगता है, न मालूम क्या पा लेंगे। और पाते सिर्फ मौत हैं, और कुछ भी नहीं पाते। लाख करे उपाय आदमी, कब्र के सिवाय कहीं और पहुंचता नहीं। कोई और दूसरी मंजिल नहीं। और कितना ही इकट्ठा करे, कितनी ही उपलब्धियां, कितना ही सोचे, विचारे, योजना बनाए, आखिर में पहुंच जाता है मृत्यु के मुंह में--बिना योजना बनाए। बचता है, तो भी नहीं बच पाता। शायद बचने की कोशिश में भी वहीं पहुंच जाता है।
अर्जुन को इस जीवन की पूरी की पूरी मृत्यु में दौड़ती हुई धारा दिखाई पड़ रही है। वह भयभीत न होता, अगर उसे ऐसा दिखाई पड़ता कि मृत्यु कहीं और घटित हो रही है, परमात्मा के मुंह में नहीं, तो इतना भयभीत न होता। कम से कम परमात्मा से सहारा मिल सकता था, मृत्यु के विपरीत भी। अगर मृत्यु कहीं और घट रही थी, अगर कोई शैतान, कोई यमदूत मृत्यु को ला रहा था, तो परमात्मा बचाने वाला हो सकता था। अब तो बचने का भी कोई उपाय नहीं है। क्योंकि यह परमात्मा का ही मुंह है, जहां मृत्यु घटित हो रही है। इससे भयभीत हुआ है।
अगर आपको भी यह पता चल जाए कि आपके दुख का कारण परमात्मा ही है, आपकी मृत्यु का कारण परमात्मा ही है, तो भय और भी ज्यादा संतप्त कर देगा। हम कई तरकीबें निकालते हैं। हम कहते हैं कि दुख का कारण दुष्ट आत्माएं हैं। दुख का कारण शैतान, इबलीस, बीलझेबब--हमने शैतान के हजार नाम खोज रखे हैं--वह है दुख का कारण। दुख का कारण पिछले जन्मों के कर्म हैं। यह मृत्यु कोई परमात्मा के कारण नहीं हो रही, यह तो शरीर क्षणभंगुर है, इसके कारण हो रही है। हम हजार तरकीबें खोजते हैं। परमात्मा को बचाते हैं। उससे हमारे मन में एक तो राहत रहती है कि सब कुछ हो.।
सुना है मैंने, कबीर ने एक पद लिखा कि चलती चक्की देखकर मैं बहुत घबड़ा गया। क्योंकि उस चलती चक्की के बीच जो भी दाने दब गए, वे चूर्ण हो गए। और कबीर ने कहा है कि मुझे ऐसा लगा, यह सारा जगत एक चलती चक्की है, जिसके भीतर सब पिसे जा रहे हैं।
कबीर का लड़का था कमाल। कमाल अक्सर कबीर के विपरीत बातें कहा करता था। अक्सर बेटे बाप के विपरीत कहा करते हैं। और बेटा भी क्या, जो बाप के विपरीत थोड़ा-बहुत न हो! उसमें नमक ही नहीं है, उसमें जान ही नहीं है। और कबीर का बेटा था, इसलिए जानदार तो था ही। कबीर ने ही उसको नाम दिया था कमाल। वह कबीर के खिलाफ पद लिखा करता था।
तो कबीर ने जब यह लिखा कि दो चक्की के बीच मैंने किसी को बचता हुआ न देखा, तो कमाल ने एक पद लिखा कि ठीक है यह तो, लेकिन जिसने बीच की डंडी का सहारा पकड़ लिया चक्की में, वह बच गया। वह डंडी हमारे लिए परमात्मा है। उसमें भी वही मतलब था उसका कि जिसने राम का सहारा ले लिया, वह बच गया। बाकी सब पिस गए।
अब इस बेचारे ने, अगर अर्जुन ने कमाल की पंक्ति पढ़ी होती--नहीं पढ़ी होगी, क्योंकि कमाल बहुत बाद में हुआ--तो यह घबड़ा जाएगा कि यह मामला क्या है! तुम्हारे ही मुंह में! हम तो सोचते थे, तुम बीच की डंडी हो, जिसके सहारे बचेंगे। तुम्हारे मुंह में ही मौत घट रही है! तो जिन्हें अपना समझा था, जिनके सहारे सोचते थे, मौत से लड़ लेंगे, और जिनके सहारे सदा सोचा था कि कोई भय नहीं है, बचाने वाला है, उसके ही मुंह में मौत घट रही है। रक्षक जिसे समझा था, वह भक्षक दिखाई पड़ गया हो, तो हम सोच सकते हैं कि अर्जुन की घबड़ाहट कैसी रही होगी।
वह घबड़ाहट स्वाभाविक है। लेकिन स्वाभाविक इसलिए है कि हमने परमात्मा का जो रूप बनाया है, वह अपनी मनोनुकूल आकांक्षा से बनाया है। वह परमात्मा का रूप नहीं, हमारी वासनाओं का रूप है।
मृत्यु भी परमात्मा में ही घटित होती है और जीवन भी उसमें ही घटित होता है। वही मां भी है, वही मृत्यु भी। इसलिए काली की प्रतिमा बड़ी सार्थक है। उससे ही सब निकलता है और उसमें ही सब लीन होता है। सागर में सारी नदियां गिरती हैं और सारी नदियां सागर से ही पैदा होती हैं। सारी नदियां सागर से पैदा होती हैं। फिर चढ़ती हैं नदियां धूप की किरणों के सहारे बादलों में, फिर बादलों के सहारे पहाड़ों पर, फिर गंगोत्रियों में गिरती हैं और फिर सागर की तरफ दौड़ती हैं।
जो नदी सागर में अपने को गिरते देखती होगी, वह घबड़ा जाती होगी। मिट रही है, मौत है सागर। लेकिन उसे पता नहीं कि यह सागर मौत भी है, गर्भ भी। क्योंकि कल फिर उठेगी ताजी होकर, नई होकर, युवा होकर। बूढ़ी हो गई, बासी हो गई, जमीन ने गंदी कर दी। सब गंदगी सागर छांट देगा। फिर ताजा, फिर शुद्ध, फिर वाष्पीभूत होगी। फिर गंगोत्री, फिर यात्रा शुरू होगी। यह वर्तुल है।
सागर नदी की मृत्यु भी है, जन्म भी। परमात्मा सृष्टि भी है, प्रलय भी वहां होना भी है और न होना भी।
इससे अर्जुन भयभीत हो गया है। और वह कहता है, वापस लौटा लो; इस रूप को मत दिखाओ। यह रूप प्रीतिकर नहीं है। इससे मुझे जरा भी सुख नहीं मिलता है। फिर भी वह कहे चला जा रहा है, भगवान, परमेश्वर, महादेव, देवों के देव!
थोड़ा हम उसका द्वंद्व, उसकी दुविधा समझें। वह अनुभव तो कर रहा है कि यह भी परमात्मा का ही रूप है, लेकिन मन मानना नहीं चाहता कि यह भी रूप है। वह कहता है, हटा लो, प्रसन्न हो जाओ। यह रूप नहीं देखा जाता है।
यह अर्जुन की ही दुविधा नहीं है, जो व्यक्ति भी परम अनुभव के निकट पहुंचते हैं और ईश्वर-अनुभूति को उपलब्ध होते हैं, उनकी यही दुविधा है।
सुना है मैंने, मुसलमान फकीर जुन्नैद एक रात प्रार्थना किया कि हे प्रभु, मैं जानना चाहता हूं कि इस मेरे गांव में सबसे पवित्र आदमी कौन है, सबसे ज्यादा पुण्यात्मा, ताकि मैं उसके चरणों में सिर रखूं, उसका आशीर्वाद पाऊं। रात उसने स्वप्न देखा। बहुत घबड़ा गया। नींद टूट गई उसकी। स्वप्न में उसे दिखाई पड़ा कि परमात्मा कहता है, वह जो तेरे पड़ोस में रहता है आदमी, वही सबसे ज्यादा पवित्र और पुण्यात्मा है!
वह एक बिलकुल साधारण आदमी था। जुन्नैद ने कभी उस पर नजर भी नहीं डाली थी। पांव छूना तो दूर, वह इसके पांव छूता था। वह जो बगल में रहता था, वह इसके पांव छूता था। जब भी यह निकलता था, तो इसको नमस्कार करता था। इसको वह महात्मा मानता था। वह तो बहुत जुन्नैद मुश्किल में पड़ गया कि इसके मैं पांव छुऊं! और यह भी क्या मजाक रही! हमने पूछा, पवित्रतम आदमी? इससे तो हम ही ज्यादा पवित्र हैं। यह खुद हमारे पैर छूता है!
अक्सर जिनके लोग पैर छूते हैं, वे सोचते हैं कि हम ज्यादा पवित्र हैं, क्योंकि लोग हमारे पैर छूते हैं। और हो यह सकता है कि जो पैर छूता है, वह ज्यादा पवित्र भी हो सकता है। क्योंकि पैर छूना भी एक गहरी पवित्रता है। वह भी एक बड़े निष्कलुष हृदय का लक्षण है।
पर जब आदेश हो गया परमात्मा का, तो मुसीबत हो या कुछ भी हो। जुन्नैद उठा। अपने को सम्हाला। संयम से साधा। निकला घर के बाहर कि पैर तो छूने ही पड़ेंगे, अब आदेश परमात्मा का हुआ है। देखा कि कोई नहीं है, अकेला बैठा है वह आदमी। जल्दी जाकर उसने पैर छू लिए, कि कोई देख न ले गांव में कि इसके तू पैर छू रहा है जुन्नैद! पूरा गांव उसको महात्मा मानता था।
उस आदमी ने कहा कि मेरे पैर छू रहे हैं! कुछ भूल-चूक हो गई। कुछ मुझसे नाराज हैं? ऐसा मैंने क्या पाप किया, उस आदमी ने कहा, कि आप और मेरे पैर छुएं! नहीं-नहीं, वापस ले लें। आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया, उस आदमी ने कहा, जुन्नैद, तुम जैसा साधु पुरुष मुझ जैसे असाधु के पैर छुए! जुन्नैद कुछ बोला नहीं। उसने कहा, बताना ठीक भी नहीं कि मामला क्या है। क्योंकि झंझट में पड़ गए परमात्मा से पूछकर। एक दफे छू लिया, बात खत्म हो गई।
रात उसने फिर परमात्मा को कहा कि एक मर्जी और पूरी कर दे। एक तूने पूरी कर दी। अब मैं जानना चाहता हूं, इस गांव में सबसे बुरा, सबसे शैतान, सबसे पापी आदमी कौन है? उसका भी तो पता चल जाए!
परमात्मा फिर रात सपने में प्रकट हुआ और उसने कहा कि वही आदमी जो तेरे पड़ोस में रहता है। और कल सुबह उठकर तू उसके पैर छू आना।
अब तो और मुसीबत हो गई। कल तो पैर छूना आसान भी था, कम से कम परमात्मा ने कहा था। भरोसा तो नहीं आ रहा था। फिर भी परमात्मा ने कहा था कि आदमी पवित्र है, तब पैर छूना.। तब भी मुसीबत थी। और अब यह आदमी सबसे बड़ा पापी है, परमात्मा कहता है। और अब
इसके पैर छूना! और फिर जुन्नैद ने कहा, यह क्या खेल है मालिक! यही आदमी पवित्र और यही आदमी पापी! यह एक ही आदमी है। तो उसे आवाज सुनाई पड़ी कि जिस दिन तू दोनों को एक साथ देख पाएगा, बस उसी दिन तू मुझे देख पाएगा, उसके पहले नहीं।
वह जो बुरा है, वह जो भला है; वह जो शुभ है, वह जो अशुभ है; प्रीतिकर, अप्रीतिकर; जिस दिन हम दोनों को एक में देख पाते हैं, उसी दिन, उसी दिन हम पार होते हैं द्वंद्व के।
अर्जुन की तकलीफ यही है कि वह द्वंद्व के पार होने के किनारे खड़ा है। वह कृष्ण से कहता है, लौटा लो। वापस हो जाओ। वही रूप ठीक था, तुम जैसे थे वही। हंसो, मुस्कुराओ। यह मृत्यु वाला रूप मुझे जरा भी सुख नहीं देता है। हालांकि उसे अनुभव हो रहा है कि यह भी उनका ही रूप है।
अगर वह आज राजी हो जाए इस रूप के लिए, तो द्वंद्व के इसी क्षण पार हो जाए। लेकिन अर्जुन इस क्षण तक राजी नहीं हो सका। और वापस द्वंद्व में गिरने के आग्रह कर रहा है।
आज इतना ही। शेष हम कल.।
पांच मिनट रुकें। कीर्तन करें, फिर जाएं।