BHAGWAD GEETA

Geeta Darshan Vol-10 06

Sixth Discourse from the series of 15 discourses - Geeta Darshan Vol-10 by Osho. These discourses were given in BOMBAY during MAY 06-20 1972.
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स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।। 15।।
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।। 16।।
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्‌।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।। 17।।
हे भूतों को उत्पन्न करने वाले, हे भूतों के ईश्वर, हे देवों के देव, हे जगत के स्वामी, हे पुरुषोत्तम, आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं।
इसलिए हे भगवन्‌, आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने के लिए योग्य हैं, जिन विभूतियों के द्वारा इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं।
हे योगेश्वर, मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं और हे भगवन्‌, आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं।
अर्जुन का मन हो कितना ही जटिल, कितनी ही हों द्वंद्व की पर्तें भीतर, पर अर्जुन सरल व्यक्तित्व है। जटिलता है बहुत, लेकिन अपनी जटिलता के प्रति किसी धोखे में अर्जुन नहीं है। और अपनी जटिलता को भी प्रकट करने में स्पष्ट और ईमानदार है। शायद यही उसकी योग्यता है कि कृष्ण का संदेश उसे उपलब्ध हो सका।
बीमार भी होते हैं हम, तो भी स्वीकार करने का मन नहीं होता। बीमारी को भी छिपाते हैं। और जो बीमारी को भी स्वीकार न करता हो, उसके स्वस्थ होने की संभावना बहुत कम हो जाती है। क्योंकि जिसे मिटाना है, उसे स्वीकार करना जरूरी है। और जिसे मिटाना है, उसे ठीक से पहचानना भी जरूरी है। जिससे मुक्त होना है, उसे जाने बिना मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है।
दो तरह की ईमानदारियां हैं। एक ईमानदारी है, जो हम दूसरों के प्रति रखते हैं। वह ईमानदारी बहुत बड़ी ईमानदारी नहीं है; कामचलाऊ है, ऊपरी है। एक और ईमानदारी है गहरी, जो व्यक्ति अपने प्रति रखता है। वह ईमानदारी खोजनी बड़ी मुश्किल है। पहली ईमानदारी ही खोजनी बहुत मुश्किल है, दूसरी तो और भी मुश्किल है।
अपने प्रति ईमानदार होना बड़ा कठिन है, क्योंकि हम सबने अपने संबंध में कुछ धारणाएं, कुछ प्रतिमाएं बना रखी हैं। और अगर हम अपने प्रति ईमानदार हों, तो हमारी ही निर्मित प्रतिमाएं हमारे हाथों ही खंडित हो जाती हैं। हम जो भी अपने को समझते हैं, वह हम हैं नहीं। हम जो भी अपने को मानते हैं, उससे हमारा दूर का भी संबंध नहीं है। और जो हम हैं, वह इतना पीड़ादायी है कि उसे देखने की हिम्मत भी हम नहीं जुटा पाते हैं। जो हमारी वास्तविकता है, जो हमारा यथार्थ है, उसको हम आंख गड़ाकर देखने का भी साहस नहीं रखते हैं।
और धार्मिक जीवन का प्रारंभ तो उसी व्यक्ति का हो सकेगा, जो अपने प्रति ईमानदार है, जो अपने यथार्थ को जानने का साहस जुटा पाता है। जो जैसा है, वैसा ही अपने को उघाड़कर देख सकता है। चाहे हो कितना ही विकृत, और चाहे कितना ही हो गहन अंधेरा, और चाहे कितने ही रोग हों भीतर, और चाहे कितनी ही हो विक्षिप्तता, लेकिन जो उस सबको शांत भाव से देखने को तैयार है, स्वीकार करने को कि ऐसा मैं हूं, वही व्यक्ति धार्मिक हो सकता है। अपने प्रति ईमानदारी धार्मिक व्यक्ति का पहला कदम है।
अर्जुन जटिल है, उलझा हुआ है। जैसा कि कोई भी मनुष्य जटिल है और उलझा हुआ है। मनुष्य होने के साथ ही वैसी जटिलता अनिवार्य है। लेकिन अर्जुन उसे छिपाने को आतुर नहीं है। जानकर उसे भुलाने की भी उसकी चेष्टा नहीं है। अनजाने जटिलता है, लेकिन जानकर अर्जुन उससे मुक्त होने के लिए भी आतुर है। न उसे खुद भी पता चलता हो, लेकिन अपने प्रति वह विनम्र है। और जो भी उसके भीतर हो रहा है, वह उसे कृष्ण से कहे चला जाता है।
इस सूत्र में कुछ बातें उसने बड़े मूल्य की कही हैं। साधक की तरफ से समझने योग्य! जो खोजने निकलते हैं परमात्मा को, उनके लिए बहुत मूल्य की!
कई बार तो ऐसा हो सकता है कि कृष्ण का वचन भी उतना मूल्यवान न हो। क्योंकि कृष्ण का वचन तो आत्यंतिक है, अंतिम है। जब हम पहुंचेंगे, तब हम उसे जानेंगे। ऐसा हो सकता है कि बहुत बार अर्जुन का वक्तव्य बहुत कीमती हो, कृष्ण से भी ज्यादा कीमती हो, हमारे लिए। सत्य उतना नहीं है वह, जितना कृष्ण का वक्तव्य होगा। न वह आत्यंतिक कोई अनुभूति है, लेकिन अर्जुन जहां खड़ा है, वहीं हम सब खड़े हैं। तो अर्जुन को समझ लेना, उसके वक्तव्य को समझ लेना, खुद को समझने के लिए बहुत कीमती है। और खुद को जो समझ ले, वह किसी दिन कृष्ण को भी समझ पा सकता है।
इस सूत्र में दो-तीन बातें महत्वपूर्ण हैं, क्रमशः उन्हें हम समझें।
अर्जुन ने कहा, हे भूतों को उत्पन्न करने वाले, हे भूतों के ईश्वर, हे देवों के देव, हे जगत के स्वामी, हे पुरुषोत्तम, आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं।
अर्जुन ने इस सूत्र के पहले कहा कि आप जो भी कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूं। अगर अर्जुन यह कहे कि उसे मैं सत्य जानता हूं, तो वह बेईमानी हो जाएगी। उसने कहा, मैं सत्य मानता हूं। यह ईमानदार वक्तव्य है। उसने यह नहीं कहा कि ऐसा मैं जानता हूं। उसने इतना ही कहा है कि आप जो कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूं। मेरी चेष्टा है, मेरा प्रयत्न है, मेरा भाव है। यह सत्य हो, यह सत्य होना चाहिए, ऐसी मेरी आकांक्षा है। चाहता हूं कि आप जो भी कहते हैं, वह सत्य हो। मानता हूं कि वह सत्य है।
लेकिन अर्जुन को इस कहते क्षण में भी शायद भीतर की उस दूसरी पर्त का भी अनुभव हुआ होगा कि यह मैं जानता नहीं हूं। इसलिए उसने इस वक्तव्य में बहुत गहरी बात कही है। उसने कहा है कि आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं। मैं चाहूं भी जानना, तो कैसे जान सकता हूं! मैं कहूं भी कि जानता हूं, तो वह असत्य होगा। आप अपने से ही अपने को जानते हैं।
इस वक्तव्य के कई आयाम हैं।
जगत में दो तरह की चीजें हैं। एक तो वे चीजें हैं, जो पर-प्रकाशित हैं। हम यहां बैठे हैं। अगर बिजली का प्रकाश बंद हो जाए, तो मैं आपको दिखाई नहीं पडूंगा, आप मुझे दिखाई नहीं पड़ेंगे। आप मुझे दिखाई पड़ते हैं, आपके होने की वजह से ही नहीं। आपका होना जरूरी है, लेकिन काफी नहीं। प्रकाश भी चाहिए, तो आप मुझे दिखाई पड़ते हैं। आप हों और प्रकाश न हो, तो आप मुझे दिखाई न पड़ेंगे। आपके दिखाई पड़ने में आपकी मौजूदगी जरूरी है, और प्रकाश भी जरूरी है। क्योंकि प्रकाश होगा, तो ही आप दिखाई पड़ेंगे। आप प्रकाश से प्रकाशित होंगे, तो ही दिखाई पड़ेंगे। मैं भी दिखाई आपको नहीं पडूंगा, प्रकाश नहीं होगा तो। गहन अंधकार छा जाए यहां, फिर कोई किसी दूसरे को दिखाई नहीं पड़ेगा। दूसरा पर-प्रकाशित है। दूसरे को देखने, जानने के लिए एक और प्रकाश की जरूरत है।
लेकिन कितना ही अंधेरा हो जाए, आप अपने को तो मालूम पड़ते ही रहेंगे। कितना ही गहन अंधेरा हो जाए, क्या इतना अंधेरा भी हो सकता है कि मैं खुद कहूं कि अब मुझे अपना पता नहीं चलता, अंधेरा बहुत ज्यादा है! आप मुझे पता नहीं चलेंगे; मैं आपको पता नहीं चलूंगा। लेकिन मैं स्वयं को पता चलता रहूंगा; आप स्वयं को पता चलते रहेंगे। तो आपके स्वयं के होने की जो प्रतीति है, उसके लिए किसी दूसरे प्रकाश की जरूरत नहीं है; आपका होना काफी है।
एक बहुत प्रसिद्ध सूफी हसन के जीवन में उल्लेख है कि वह अपने गुरु के पास गया। दो और मित्र उसके साथ सत्य की खोज पर निकले थे। वे तीनों अपने गुरु के पास गए। उन तीनों ने कहा कि हम जानना चाहते हैं, आत्मा क्या है? उनका गुरु उस समय कबूतरों को दाने डाल रहा था। उसने एक-एक कबूतर पकड़कर तीनों को दे दिया और उन तीनों से कहा कि तुम ऐसी जगह जाओ जहां कोई देखता न हो, और कबूतर की गर्दन मरोड़कर आ जाओ; मार डालो। फिर पीछे हम आगे की खोज पर चलेंगे। यह तुम्हारा पहला पाठ!
एक युवक सीढ़ियों से नीचे उतरा। पास की गली में गया। देखा, कोई भी नहीं है। कबूतर को मरोड़ा और वापस आ गया। दूसरा युवक खोजबीन किया। गली में गया। लेकिन उसे लगा कि प्रकाश है और मैं मरोडूं, और तभी कोई खिड़की से झांककर देख ले, या अचानक कोई गली में आ जाए, तो रात तक रुकूं, अंधेरा हो जाने दूं। रात अंधेरा जब हो गया, तब वह एक गली में गया और उसने कबूतर की गर्दन मरोड़ दी और रात आकर गुरु के चरणों में कबूतर रख दिया।
लेकिन हसन, तीसरे युवक का तीन दिन तक कोई पता न चला। दोनों मित्र राह देखते हैं, गुरु राह देखता है। तीसरे दिन गुरु ने उन दोनों को कहा कि अब तुम हसन को खोजकर लाओ कि वह कहां है!
हसन ने सब तरह की कोशिश की। गली में जाकर देखा। लगा, कोई भी देख लेगा। अंधेरे में जाकर देखा। गहन अंधेरे में गया, तो भी कबूतर की आंखें! जब भी कबूतर को मरोड़ने जाता, कबूतर की आंखें अंधेरे में भी उसे दिखाई पड़तीं। तो उसने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और कबूतर की आंखों पर भी पट्टी बांध दी और नीचे एक तलघरे में उतर गया, जहां गहन अंधेरा था। और जब उसने कबूतर की गर्दन पर हाथ रखा, तब उसे खयाल आया, कोई न देखता हो, लेकिन मैं तो जान ही रहा हूं, मैं तो देख ही रहा हूं।
तीन दिन बाद उसके साथी उसे पकड़कर लाए। उसने कबूतर गुरु के चरणों में रख दिया। और उसने कहा कि क्षमा करें, यह काम हो नहीं सकता। क्योंकि कहीं भी मैं जाऊं, मैं तो देखता ही रहूंगा। और यह भी हो सकता है कि मैं भी न देखूं, लेकिन कबूतर तो मौजूद रहेगा ही। ऐसा भी कोई उपाय हो सकता है कि मैं बहुत दूर हट जाऊं; कबूतर के गले में रस्सी बांध दूं; तलघरे में लटका दूं; मैं पार निकल जाऊं और वहां से रस्सी खींचकर उसकी गर्दन दबा दूं। लेकिन कबूतर तो कम से कम, एक गवाह तो रहेगा ही। तो मैं ऐसी कोई जगह नहीं खोज पाया, जहां कोई भी गवाह न हो। मुझे आप क्षमा कर दें। मैं इस पहले पाठ में असफल हुआ।
उसके गुरु ने कहा, तुम ही सफल हुए हो। तुम्हारे दो साथी असफल हो गए हैं। और अब तुम्हारा दूसरा पाठ शुरू होगा। तुम्हारे दो साथियों को मैं विदा कर देता हूं। उसके गुरु ने कहा कि आत्मज्ञान की दिशा में पहला पाठ यही है कि आत्म-ज्ञान स्व-प्रकाशित है। चाहे कुछ भी करो, स्वयं को जानने को भुलाया नहीं जा सकता। एक तो मौजूद रह ही जाएगा। और यह सूत्र तुम्हारे खयाल में आ गया है।
आत्मा स्व-प्रकाशित है। पदार्थ पर-प्रकाशित है और चेतना स्व-प्रकाशित है। ये दो अस्तित्व हैं, जो हमें दिखाई पड़ते हैं। चेतना के लिए किसी और के जानने की जरूरत नहीं; चेतना स्वयं को ही जानती है।
ऐसा ही समझें कि एक दीया जल रहा है। दीया जलता है, तो सारे कमरे को प्रकाशित करता है। दीया बुझ जाए, तो कमरा दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन दीया जलता है, तो अपने को भी प्रकाशित करता है। उस दीए को जानने के लिए किसी दूसरे दीए की जरूरत नहीं पड़ती। चेतना अपने को ही जानती और अनुभव करती है। और सब चीजों को जानने के लिए किसी और की जरूरत पड़ती है।
इसी कारण आत्मा का कोई विज्ञान नहीं बन पाता। इसे थोड़ा समझ लें।
इसी कारण वैज्ञानिक चिंतक आत्मा को स्वीकार नहीं कर पाते। क्योंकि वे कहते हैं कि जब तक हम आब्जर्व न करें, निरीक्षण न करें, प्रयोग न करें, तब तक हम कैसे मानें कि आत्मा है! और जब भी हम निरीक्षण करते हैं किसी वस्तु का, तो वह पदार्थ होती है। जो निरीक्षण करता है, वह आत्मा होता है। और जो निरीक्षण करता है, उसका निरीक्षण करने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए वैज्ञानिक आत्मा को स्वीकार करने को राजी नहीं हो पाते। उनकी अपनी मजबूरी है। उन्होंने विज्ञान की जो परिभाषा स्वीकार की है, उसी परिभाषा ने सीमा बना दी है। वे जिसका निरीक्षण कर सकें, वही वैज्ञानिक तथ्य हो सकेगा। तब फिर जो निरीक्षण करता है, वह कभी भी वैज्ञानिक तथ्य नहीं हो सकता। परिभाषा ने ही वर्जित कर दिया।
वे कहते हैं, जिस पर हम प्रयोग कर सकें, उसको ही हम तथ्य मानेंगे। लेकिन जो प्रयोग करता है, उसका हम क्या करें! निश्चित ही, जब प्रयोग होता है, तो कोई प्रयोग भी करता है। और जब निरीक्षण होता है, तो कोई निरीक्षक भी है। और जब आब्जर्वेशन हो रहा है, तो कोई आब्जर्वर भी है। लेकिन विज्ञान कहता है कि जब तक हम टेबल पर सामने रखकर निर्णय न ले सकें, निष्कर्ष न ले सकें, विश्लेषण न कर सकें, तब तक कुछ भी कहना मुश्किल है।
अगर यह ही विज्ञान की परिभाषा रहने को है, तो फिर हम आत्मा के संबंध में कभी भी विज्ञान निर्मित न कर पाएंगे, और विज्ञान कभी आत्मा के सत्य की घोषणा न कर पाएगा। या तो हमें विज्ञान की परिभाषा बढ़ानी होगी और विज्ञान की परिभाषा में यह भी सम्मिलित करना होगा कि जो जाना जाता है वही नहीं, जो जानता है वह भी, उसका भी अस्ितत्व है।
अर्जुन कृष्ण से कह रहा है कि आप ही आपको जानते हैं।
कृष्ण का अर्थ हुआ, परम चैतन्य, चेतना की शुद्धतम अवस्था। तो अर्जुन कहता है, मैं उसे जानूं भी तो कैसे जानूं? मेरे ज्ञान से आप नहीं जाने जा सकते। आप तो स्वयं ही प्रकाशित हैं, और आप ही अपने को जानने वाले हैं। मैं आपको कैसे जानूं? और मैं अगर आपको जानूं भी, तो आपका शरीर ही जान पाता हूं; आपका पदार्थगत हिस्सा ही दिखाई पड़ता है। आपकी वाणी सुनाई पड़ती है; वह नहीं दिखाई पड़ता, जो बोलता है। आपकी आंखें दिखाई पड़ती हैं; वह नहीं दिखाई पड़ता, जो आंखों से देखता है। आपका हाथ अपने हाथ में ले लेता हूं। लेकिन हाथ तो पदार्थ है। वह मेरी पकड़ में नहीं आता, जो हाथ के भीतर जीवन है। मैं आपको सब तरफ से पहचान लेता हूं, लेकिन यह पहचान बाहरी है। मैं कितना ही आपको जानता रहूं, यह जानना आपके आस-पास है। लेकिन आप चूक जाते हैं। आप तक मैं नहीं पहुंच पाता हूं। आप मेरी पकड़ के बाहर रह जाते हैं। आप तो अपने को ही जानते हैं। आप ही अपने को जानते हैं। मैं आपको कैसे जान सकता हूं!
इसलिए भक्तों ने कहा है, ज्ञानियों ने कहा है कि परमात्मा को तब तक नहीं जाना जा सकता, जब तक आप स्वयं परमात्मा न हो जाएं। परमात्मा होकर ही उसे जाना जा सकता है।
इससे एक दूसरी बात भी खयाल में ले लें।
जगत में दो तरह के ज्ञान हैं। एक ज्ञान है, जिसे बर्ट्रेंड रसेल ने एक्वेनटेंस कहा है, परिचय कहा है। और दूसरा ज्ञान है, जिसे बर्ट्रेंड रसेल ने नालेज कहा है, ज्ञान कहा है। परिचय और ज्ञान। जब हम किसी चीज को बाहर से देखते हैं, तो वह परिचय है, एक्वेनटेंस है, ज्ञान नहीं है।
आप एक फूल को देखते हैं, तो आप क्या करेंगे? बाहर से देखेंगे, उसकी सुगंध लेंगे, उसका रूप देखेंगे, उसकी आकृति। अगर कवि हुए, तो उसे प्रेम करेंगे। गायक हुए, तो गीत गाएंगे उसके सौंदर्य का। अगर पारखी हुए, तो आनंदित हो जाएंगे, नाच उठेंगे। लेकिन यह फूल के बाहर से ही हो रहा है। अगर वैज्ञानिक हुए, तो फूल को तोड़कर विश्लेषण करके, उसके केमिकल्स, उसके तत्वों को अलग-अलग बोतल में बंद करके, लेबल लगाकर रख देंगे कि इन-इन चीजों से मिलकर बना है यह फूल। इतना रस है इसमें। इतना पानी है। इतना खनिज है। इतना लोहा है। वह सब आप रख देंगे।
लेकिन यह भी जानना बाहर से ही होगा। फूल के भीतर प्रवेश नहीं हुआ। फूल एक आब्जेक्ट रहा। आप जानने वाले, अलग रहे, बाहर रहे। अगर कवि की तरह जाना, तो थोड़े निकट आए, लेकिन फिर भी दूर रहे। क्योंकि निकटता भी दूरी का एक नाम है। कितने ही निकट आ जाएं, दूरी तो बनी ही रहती है।
मेरे ये दोनों हाथ बिलकुल भी निकट आ जाएं, तो भी दोनों के बीच स्पेस तो रहती है, जगह तो रहती है, फासला तो रहता है। अगर फासला न रहे, तो दोनों हाथ एक ही हो जाएं, फिर दो न रह जाएं। दो का मतलब ही है कि बीच में फासला कितना ही कम हो, लेकिन फासला है। और वह कम नहीं है फासला। फासला बड़ा है, भारी है। फासला इतना बड़ा है कि कितना ही उपाय करें, वह मिटता नहीं। हम कितने ही करीब ले आएं, मिटता नहीं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि अणु-अणु के बीच में भी ऐसा फासला है, जितना सितारों के बीच में। अनुपात वही है, भारी फासला है। जमीन से सूरज कोई दस करोड़ मील दूर है। यह फासला बड़ा मालूम पड़ता है, दस करोड़ मील दूर! बीच में इतना शून्य है। अगर हम अणु में प्रवेश करें, तो अणु के भी इलेक्ट्रान और न्यूट्रान के बीच, अगर हम न्यूट्रान को जमीन के बराबर बड़ा मान लें, तो उसकी और इलेक्ट्रान की दूरी इतनी ही हो जाती है, जितनी जमीन और सूरज की है। अनुपात फासला इतना ही बड़ा है। दो अणु भी पास-पास नहीं हैं, जो बिलकुल पास मालूम पड़ रहे हैं।
हमारे हाथ जब बिलकुल पास हैं, तब भी भारी फासला है। और फासला कभी मिटता नहीं है। दो के बीच दूरी बनी ही रहती है। निकटता भी दूरी का एक नाम है। कह सकते हैं, निकटता कम से कम दूरी है। और दूरी कम से कम निकटता है। और कोई ज्यादा फासला नहीं है।
कितने ही पास से हम जानें, दूरी है। उसी दूरी को वैज्ञानिक भी मिटाने की कोशिश करता है। वह चीर-फाड़ करके पदार्थ के भीतर घुस जाता है। फूल को तोड़ डालता है। क्योंकि नहीं तोड़ेंगे, तो भीतर प्रवेश नहीं हो सकेगा।
तोड़कर भी हम पार ही रहते हैं, भीतर नहीं पहुंच पाते। फूल टूट जाता है, दूरी उतनी ही रहती है; फासला कम नहीं होता। सच तो यह है कि कवि ज्यादा करीब पहुंच जाता है फूल के, बजाय वैज्ञानिक के। हालांकि वैज्ञानिक अपने औजारों से भीतर घुसने की कोशिश करता है।
क्या आपको खयाल है कि आपको अगर किसी ने प्रेम किया हो, तो वह आपके हृदय के ज्यादा करीब है, बजाय उस सर्जन के जो आपके हृदय का आपरेशन करेगा। हृदय का आपरेशन करने वाला बिलकुल आपके हृदय में हथियार डाल देगा। फिर भी उतने करीब नहीं है, जितना वह, जिसने आपको प्रेम किया है।
कवि निकट आ सकता है। वैज्ञानिक भी निकट आने की कोशिश करता है। लेकिन निकट कोई भी आ नहीं पाता; फासला बना रहता है; दूरी बनी रहती है।
प्रेमियों के बीच में भी दूरी बनी रहती है! कितने ही बड़े प्रेमी हों, बड़ी दूरी बनी रहती है। दो प्रेमी बिलकुल सटकर आस-पास बैठे हों। पूर्णिमा की रात हो। बड़े गीत गाते हों। प्रेम की चर्चा करते हों। फिर भी फासला भारी बना रहता है। भारी फासला बना रहता है। और इसलिए प्रेमी भलीभांति अनुभव करते हैं कि जितने करीब आते हैं, उतनी दूरी बढ़ती हुई मालूम पड़ती है। क्योंकि उतना ही अनुभव होता है कि करीब आ गए और फिर भी करीब आए नहीं। तो अनुभव होता है कि दूरी और बढ़ गई।
इसलिए सभी प्रेम असफल हो जाते हैं। सभी कहता हूं! सिर्फ उन प्रेमों को छोड़ देता हूं, जिनको असफल होने का मौका ही नहीं मिलता। अगर दो प्रेमियों को करीब आने का मौका ही न मिले, तो वे कभी असफल न होंगे। क्योंकि उनको वहम बना ही रहेगा कि करीब आ सकते थे, मौका नहीं मिला। लेकिन जिन प्रेमियों को भी करीब आने का मौका मिल जाए, वे असफल होंगे ही; असफलता सुनिश्चित है। क्योंकि करीब आकर पता चलेगा, करीब आ गए, और करीब नहीं आए। पास आ गए, और दूरी बनी है! और तब पीड़ा भारी हो जाती है।
कितने ही हम पास आ जाएं किसी चीज के, परिचय ही होता है, ज्ञान नहीं होता। ज्ञान का तो एक ही उपाय है और वह यह है कि हम उस चीज के साथ एक हो जाएं, एकाकार हो जाएं।
यह बड़ा कठिन है। असंभव मालूम पड़ता है। प्रेमी भी सफल नहीं हो पाते अपने प्रेम-पात्र के साथ एक होने में। कवि भी सफल नहीं हो पाता, चित्रकार भी सफल नहीं हो पाता फूल के साथ एक होने में।
इसलिए सिर्फ धर्म के अतिरिक्त सभी कुछ परिचय है। सिर्फ धर्म ही ज्ञान का द्वार है। क्योंकि धर्म एक ऐसी प्रक्रिया को खोजा है--जिसे मैंने ध्यान कहा; योग कहें, समाधि कहें--ऐसी प्रक्रिया है, जहां एक चेतना की लौ दूसरी चेतना की लौ में लीन हो जाती है।
स्वभावतः, दो शरीर एक नहीं हो सकते, लेकिन दो आत्माएं एक हो सकती हैं। दो शरीर इसलिए एक नहीं हो सकते कि उनकी सीमाएं हैं। और उनकी सीमाएं मौजूद रहेंगी। दो आत्माएं एक हो सकती हैं, क्योंकि आत्मा की कोई सीमा नहीं है।
जितनी सीमा तरल होगी, उतनी एकता आसान है। दो पत्थर के टुकड़ों को हम पास रख दें, तो वे एक नहीं हो पाते, क्योंकि उनकी सीमा मजबूत है। हम दो पानी की बूंदों को पास रख दें; वे एक हो जाती हैं। उनकी सीमा तरल है; सीमा सख्त नहीं है।
शरीर की सीमा पत्थर की तरह सख्त है। आत्मा की सीमा पानी की तरह तरल है। शायद पानी की तरह कहना भी ठीक नहीं, भाप की तरह। भाप की तरह। दो भाप के गुब्बारे उड़ें आकाश में, एक गुब्बारा हो जाता है। कोई बाधा नहीं है।
एक कमरे में हम दो दीए जला दें; दोनों का प्रकाश एक हो जाता है। कहीं कोई टकराहट भी नहीं होती। हजार दीए जला दें हम एक ही कमरे में, तो भी कमरे में कोई कांपिटीशन, कोई प्रतिस्पर्धा खड़ी नहीं होगी, कि दीए कहने लगें कि बहुत हो गया, इनफ, रुको अब! इस कमरे में ज्यादा दीए की रोशनी नहीं समा सकती। यहां तो एक दीया पहले से ही रोशन कर रहा है। अब दूसरा दीया यहां कैसे आ सकता है! दूसरा दीया आ जाए, उसकी रोशनी भी पहले दीए की रोशनी से एक हो जाती है। तीसरा आ जाए, उसकी भी एक हो जाती है। चौथा आ जाए, उसकी भी एक हो जाती है। दीए अलग रह जाते हैं, रोशनी एक हो जाती है।
शरीर अलग रह जाते हैं ध्यान में, आत्मा एक हो जाती है। इसलिए अगर एक कमरे में बीस लोग ध्यान कर रहे हों, तो बीस शरीर होते हैं, आत्मा एक होती है। अगर ध्यान कर रहे हों तो! अगर विचार कर रहे हों, तो बीस शरीर होते हैं और हजार आत्माएं होती हैं। अगर विचार कर रहे हों तो! तब तो एक-एक आदमी के भीतर अनेक आत्माएं हो जाती हैं। इतने खंड, इतने टुकड़े हो जाते हैं। लेकिन अगर ध्यान कर रहे हों, तो सब शून्य हो जाता है।
बुद्ध के जीवन में उल्लेख है कि बुद्ध एक महानगरी के पास विश्राम को रुके। दस हजार भिक्षु उनके साथ हैं। उस नगर का राजा है अजातशत्रु। नाम है उसका अजातशत्रु, ऐसा व्यक्ति जिसका शत्रु पैदा ही न हुआ हो। जिसका शत्रु अजन्मा है, ऐसा उसका नाम है। ऐसा बहादुर आदमी भी था वह। लेकिन तलवार पर जिनकी बहादुरी निर्भर होती है, शरीर की ताकत पर जिनकी बहादुरी निर्भर होती है, वे कितने ही बहादुर हों, भीतर तो कमजोर होंगे ही।
अजातशत्रु को उसके आमात्यों ने, उसके मंत्रियों ने कहा कि बुद्ध का आगमन हुआ है, आप भी उनके दर्शन को चलें। तो अजातशत्रु ने कहा, चलूंगा। लेकिन मेरे साथ मेरी फौज भी चलेगी। मंत्रियों ने कहा, यह उचित न होगा। बुद्ध के पास फौज लेकर क्या जाना? आप अकेले ही चलें। दस-पांच आपके साथी, मित्र, परिवार के चल सकते हैं। फिर भी अजातशत्रु को डर लगा कि पता नहीं, कोई षड्‌यंत्र न हो! कहीं ये मंत्री किसी उपद्रव में न ले जा रहे हों। फिर उसने सारा पता लगाया। बुद्ध आए हुए हैं। दस हजार भिक्षु ठहरे हैं गांव के बाहर ही, आम्रवन में।
तो एक सांझ वह गया। रास्ते पर ही उसने अपना रथ छोड़ दिया, अपने मंत्रियों के साथ आगे बढ़ने लगा। मंत्रियों ने कहा कि बस यह जो वृक्षों की पंक्ति दिखाई पड़ रही है, इसके उस पार ही बुद्ध के दस हजार भिक्षुओं का डेरा है! वृक्षों की पंक्ति करीब आने लगी। अजातशत्रु ने चौंककर अपनी तलवार बाहर निकाल ली और अपने मंत्रियों से कहा कि मुझे कुछ संदेह मालूम पड़ता है! जहां दस हजार लोग रुके हों, वहां आवाज तो जरा-सी भी नहीं हो रही है! यह नहीं हो सकता। दस हजार लोग रुके हों इस पंक्ति के पार, तो भारी बाजार मच जाएगा। मुझे कुछ शक मालूम पड़ता है, यह कोई धोखा है।
मंत्रियों ने कहा कि आप तलवार भीतर रखें। शक मालूम पड़ता हो, तो बाहर भी रखें। थोड़ा और आगे चलें। दस हजार लोग ही ठहरे हैं। लेकिन ये लोग और तरह के लोग हैं। जिनको आपने बाजार में देखा है, उस तरह के लोग नहीं हैं।
और जब अजातशत्रु बुद्ध के पास गया, तो चकित हो गया। वहां दस हजार लोग बैठे थे वृक्षों के तले। चुप थे, आंखें उनकी बंद थीं। बुद्ध से अजातशत्रु ने पूछा है कि ये दस हजार लोग इतने चुप क्यों बैठे हैं? तो बुद्ध ने कहा है, क्योंकि इस समय ये दस हजार नहीं हैं। क्योंकि इस समय ये दस हजार नहीं हैं; इस समय ये ध्यान में हैं।
ध्यान का अर्थ हुआ कि हमारी जो आत्मा है, वह जब शांत हो जाती है, तो तरलता से आस-पास फैल जाती है, जुड़ जाती है, एक हो जाती है।
ज्ञान, अगर ज्ञान का हम यही अर्थ करते हों कि किसी वस्तु को उसके केंद्र से जानना, परिधि से नहीं; उसके बाहर से नहीं, उसके प्राणों में, उसके अंतस्तल में डूबकर जानना। अगर ज्ञान की यही परिभाषा हो, तो धर्म के अतिरिक्त ज्ञान का और कोई स्रोत नहीं है। क्योंकि धर्म ही उस कला का जन्मदाता है, जो आपकी सीमाओं को तोड़ डालती है और आपको असीम के साथ एक होने का अवसर, सुविधा और संभावना जुटा देती है।
अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं। मैं कैसे आपको जान सकता हूं! मैं दूर हूं। मैं बाहर हूं। मैं और हूं। आप कृष्ण हैं, मैं अर्जुन हूं। फासला है, मैं मान ही सकता हूं।
ध्यान रहे, इसी को मैं उसकी ईमानदारी कह रहा हूं। आप अपने मानने को भी जानना कहने लगते हैं, तब बेईमानी हो जाती है। अगर आप भी कहें कि मैं ईश्वर को मानता हूं, जानता नहीं; तो मैं कहूंगा, आप ईमानदार आदमी हैं, और किसी दिन धार्मिक भी हो सकते हैं।
लेकिन हम मानने की बात ही नहीं करते। हम कहते हैं, मैं जानता हूं कि ईश्वर है! इतना ही नहीं, हम ईश्वर--जिसको हम सिर्फ मानते हैं, जानते नहीं--उसके लिए लड़ सकते हैं, काट-पीट कर सकते हैं, हत्याएं कर सकते हैं। लोग मंदिर जलाते हैं, मस्जिद जलाते हैं, गिरजे तोड़ डालते हैं। इतना पक्का है उनका जानना कि दूसरे का गलत होना इतना सही है कि अगर हत्या भी करनी पड़े, तो वे पीछे नहीं हटते।
मानने वाले लोग, जिनको कुछ भी पता नहीं है, इतने अहम्मन्य हो सकते हैं, उसका एक ही कारण है कि वे अपने मानने को जानने की भ्रांति में पड़ जाते हैं। अपनी तरफ बेईमानी हो जाती है।
ठीक से समझ लेना चाहिए, क्या मैं मानता हूं और क्या मैं जानता हूं। क्या है मेरा बिलीफ, मेरा विश्वास; और क्या है मेरा ज्ञान, मेरी अनुभूति; इसका फासला एकदम स्पष्ट होना चाहिए।
इसलिए अर्जुन ने कहा कि मैं मानता हूं कि आप जो कहते हैं, सत्य है। आप ईश्वर हैं। आप समस्त भूतों को उत्पन्न करने वाले, समस्त भूतों के ईश्वर, देवों के देव, हे जगत के स्वामी, हे पुरुषोत्तम! लेकिन यह सब मान्यता है मेरी। क्योंकि आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं। यह सब भी मैं कहूं, तो यह मेरा जानना नहीं है। यह मेरा भाव है, मेरा ज्ञान नहीं। यह मेरी श्रद्धा है, मेरी प्रतीति, मेरा साक्षात्कार नहीं।
इतना बारीक फासला स्पष्ट होना चाहिए साधक को, तो दूसरी घटना भी घट सकती है। जिसने ठीक से पहचाना कि क्या मेरी मान्यता है, वह फिर मान्यता से राजी नहीं होगा। फिर मान्यता में उसे घबड़ाहट होने लगेगी। फिर बेचैनी होगी उसके मन को। और फिर वह तड़फेगा कि मैं जानूं कैसे? और जानने की यात्रा पर निकलेगा।
जिस आदमी ने मानने को ही समझ लिया कि जानना है, उसकी यात्रा ही समाप्त हो गई। वह मंजिल पर पहुंच ही गया, बिना पहुंचे! उसने पा ही लिया, बिना पाए! वह सिद्ध हो ही गया, साधन से गुजरे बिना! साधना से गुजरे बिना, उपलब्धि हो गई उसे! उसने मान लिया।
इस जगत में अधिक लोग इसलिए ठहर जाते हैं, क्योंकि आगे उपाय ही नहीं बचता। आप जान ही लेते हैं बिना जाने, तो फिर आगे यात्रा करने को कुछ बचता नहीं। एक आदमी कहता है कि मैं ईश्वर को जानता हूं, बात खतम हो गई। अब जाने को कहीं बची भी नहीं कोई जगह।
फासला कायम रखें। स्पष्टता से समझें कि यह मेरी मान्यता है, मेरा जानना नहीं। और जानना अभी शेष है, और अभी मुझे चलना होगा, और अभी मुझे संघर्ष करना होगा, और अभी मुझे बड़ा रास्ता बाकी है, जिसे पूरा करना है, और तब कहीं मैं जानने तक पहुंच पाऊंगा।
लेकिन हम आंख बंद करके यहीं बैठ जाते हैं रास्ते के किनारे। पड़ाव मंजिल बन जाता है। और अगर हमसे कोई कहे कि यह पड़ाव है, मंजिल नहीं है; यहां मत डेरा डालो; उठो! तो हम नाराज होंगे। क्योंकि यह आदमी हमारी नींद खराब करता है। क्योंकि यह आदमी हमारे विश्राम को तोड़ रहा है। क्योंकि हम मानकर बैठ गए, मजे में हो गए। शांत हो गए। झंझट मिटी। अब कहीं जाने को न रहा। अब हम विराम कर सकते हैं, विश्राम कर सकते हैं। यह आदमी कहता है कि नहीं, यह मंजिल नहीं है। यह सिर्फ रास्ते का किनारा है। उठो! तो इस आदमी पर हमें क्रोध आता है।
इसलिए इस जगत में जब भी किसी ने हम से कहा है कि तुम जहां रुके हो, वह मंजिल नहीं है, तो हम नाराज हुए हैं। चाहे जीसस, चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, चाहे नानक, चाहे कबीर, जिसने भी हमसे कहा है कि कहां तुम बैठे हो रास्ते के किनारे! वह हमें दुश्मन मालूम पड़ा। दुश्मन इसलिए मालूम पड़ा कि हमारे घर को बर्बाद किए दे रहा है। हम घर बनाकर बैठ गए हैं। हम बड़े मजे में हैं।
मजा यह है कि हमने पा लिया है और ये लोग आते हैं और ये हमें झकझोर देते हैं। और हिलाकर घर के बाहर निकालते हैं, और कहते हैं कि यह रास्ता लंबा है अभी। और जिसे तुम घर समझ रहे हो, यह घर वैसा ही है, जैसा शुतुरमुर्ग दुश्मन को देखकर घबड़ा जाता है और सिर को रेत में खपाकर खड़ा हो जाता है। और चूंकि सिर रेत में चला जाता है, आंखें बंद हो जाती हैं, दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता, तो शुतुरमुर्ग सोचता है कि जो दिखाई नहीं पड़ता है, वह है नहीं। इसका नाम शुतुरमुर्ग का तर्क है।
शुतुरमुर्ग का अपना तर्क है कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह नहीं है। हम भी तो यही कहते हैं। हमारे पास भी लोग हैं, वे कहते हैं, ईश्वर नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए नहीं है। शुतुरमुर्ग भी यही कहता है। सिर को गड़ा लेता है रेत में, दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता; नहीं है। बात खतम हो गई। निश्चिंत हो जाता है।
हम सब भी अपने सिर गपा लेते हैं अपनी मान्यताओं में। मान्यताओं की रेत आंखों को अंधा कर देती है। फिर हम कुछ बनकर बैठ जाते हैं, जो हम नहीं हैं। जो आस्तिक नहीं है, वह आस्तिक समझ लेता है अपने को। जो धार्मिक नहीं है, वह धार्मिक समझ लेता है अपने को। जो नैतिक नहीं है, वह नैतिक समझ लेता है। जिसे योग का कुछ भी पता नहीं है, जो दो-चार तरह शरीर को झुकाने की कलाएं सीख गया है, वह अपने को योगी समझ लेता है! जिसे ध्यान की कोई भी खबर नहीं है, वह भी आंख बंद करके दो मिनट बैठ जाता है, तो सोचता है, मैंने ध्यान कर लिया! जिसे प्रभु-स्मरण का कोई पता नहीं है, वह भी कोई राम, कृष्ण, कोई भी नाम की रटन थोड़ी देर लगा लेता है, तो सोचता है कि बस, ईश्वर-स्मरण हो गया! इस तरह हम रेत में छिपा लेते हैं अपने सिर को। अपनी बुद्धि को भी गपा लेते हैं। अंधे होकर, मान्यता को जानना समझकर, रुक जाते हैं।
जब भी कोई कबीर, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट हमें धक्का देगा, और कहेगा, शुतुरमुर्ग! निकालो सिर बाहर! तब हमें क्रोध आता है कि सब नींद खराब किए दे रहा है यह आदमी। फिर यात्रा करनी पड़ेगी। फिर चलना पड़ेगा। जो मिल गया था, वह फिर खो जाएगा। यह छीन लेगा।
लेकिन ध्यान रहे, जो भी आपसे छीना जा सकता है, ठीक से समझ लेना, वह आपके पास है ही नहीं। यह वक्तव्य बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा। जो आपके पास नहीं है, केवल वही छीना जा सकता है; और जो आपके पास है, उसे छीनने का कोई भी उपाय नहीं। यह वक्तव्य पैराडाक्सिकल लगेगा, क्योंकि मैं कह रहा हूं, जो आपके पास नहीं है, केवल वही छीना जा सकता है। और जो आपके पास है, वह कभी नहीं छीना जा सकता।
जीसस ने इस वचन का उपयोग किया है। जीसस ने कहा है, जिनके पास नहीं है, उनसे छीन लिया जाएगा; और जिनके पास है, उन्हें और दे दूंगा।
उलटा लगता है। हम सबको लगेगा कि यह तो बिलकुल इकॉनामिक्स से उलटी बात हो गई। जिसके पास नहीं है, उसे दो। जिसके पास है, उससे छीनो। यह सीधा समाजवाद का तर्क है। जिसके पास है, उससे छीनो। और जिसके पास नहीं है, उसे दो। लेकिन ये आध्यात्मिक लोग, न मालूम कैसा उलटा समाजवाद है इनका! जीसस कहते हैं, जिसके पास नहीं है, उससे छीन लिया जाएगा; और जिसके पास है, उसे और दे दिया जाएगा। निश्चित ही लेकिन यह तर्क किसी दूसरी दुनिया का है। जहां समाजवाद लागू होता है, उस दुनिया से इसका कोई संबंध नहीं है। यह इस सूत्र की बात मैं आपसे कह रहा हूं।
आपको अगर डर लगता हो कि आपका परमात्मा छिन सकता है, तो समझना, वह आपके पास नहीं है। आपको डर लगता हो कि आपका मोक्ष छिन सकता है, तो समझना, वह आपके पास नहीं है। आपको डर लगता हो कि आपकी आत्मा, आपका ज्ञान, आपकी श्रद्धा छिन सकती है, तो वह आपके पास नहीं है।
एक मित्र मेरे पास आते थे। तीसरे दिन उन्होंने मुझे पत्र लिखा और लिखा कि अब मैं दुबारा आपके पास नहीं आऊंगा। क्योंकि जब मैं आपके पास आया, उसके पहले मैं बड़ा आश्वस्त था कि जानता हूं; और आप से मिलकर मुझे नुकसान के सिवाय लाभ नहीं हुआ। क्योंकि अब मुझे शक होने लगा है कि मैं जानता भी हूं कि नहीं जानता हूं! पहले मैं बड़े मजे में था। पर अब सब मेरा मजा अस्तव्यस्त हो गया।
तो मैंने उनको खबर भेजी कि अब तुम आओ या न आओ, अब यह अस्तव्यस्तता मिट नहीं सकती। एक धोखा टूट जाए, तो आप वापस नहीं लौट सकते फिर।
जीवन का नियम है कि जो भी जान लिया जाए, उसे फिर मिटाया नहीं जा सकता। ज्ञान को मिटाने का कोई उपाय नहीं है। अगर यह भी ज्ञान हो जाए, अगर यह भी मुझे पता चल जाए कि जो मैं जानता था, वह गलत है, तो अब कोई उपाय नहीं है इससे वापस लौट जाने का। अब आगे ही बढ़ना पड़ेगा। जीवन आगे जाना ही जानता है, पीछे जाने का कोई उपाय नहीं है। विकास पीछे नहीं लौटता। लाख उपाय करें, तो भी एक इंच पीछे नहीं जा सकते।
तो मैंने उनसे कहा, अब आओ या न आओ, लेकिन जो तुम्हारे पास था, वह कभी नहीं होगा। अब तो तुम्हें आगे बढ़कर उसे पुनः प्राप्त करना होगा।
लेकिन वे चेष्टा करेंगे। फिर किसी झाड़ के नीचे, फिर किसी रास्ते के किनारे दूसरा घर बना लेंगे। पुराना भी टूट गया, कोई हर्ज नहीं। फिर दूसरा बना लें। फिर उसमें छिप जाएं।
हम सस्ते में निपटना चाहते हैं। इसलिए दुनिया में शार्टकट इतने प्रभावी हो जाते हैं। कोई भी कह देता है कि कोई दिक्कत नहीं है। माला फेर लो रोज एक बार। सब ठीक हो जाएगा। कोई कह देता है, घबड़ाते क्यों हो? मरते वक्त राम का नाम ले लेना, सब ठीक हो जाएगा। तो लोग इतने होशियार हैं कि वे कहते हैं, हम तो क्या ले पाएंगे! क्योंकि मरते वक्त तक भी उनको ऐसा नहीं लगता कि अब मर रहे हैं। मर ही जाते हैं, जब उनको पता चलता है कि मर गए! तो वे पंडितों को किराए पर रखकर उनसे राम-नाम लिवा देते हैं। गंगा-जल उनके मुंह में डाला जा रहा है! कोई उनके कान में मंत्र पढ़ रहा है!
परमात्मा को भी पाने के लिए चालबाजियां हैं! बेईमानी की भी सीमाएं नहीं हैं। असीम मालूम पड़ती है बेईमानी। एक आदमी का मुंह बंद हो गया, उसका जबड़ा बंद है। अब वह बोल भी नहीं सकता। आंख हिलती नहीं। उसके घर के लोग ढोल-ढमाल बजाकर उसको जोर से भगवान का नाम याद दिला रहे हैं, इस आशा में कि शायद इससे काम हो जाए!
धोखे नहीं चलते। और इस जमीन पर चल भी जाएं, उस पारलौकिक जगत में बिलकुल नहीं चल सकते। कोई उपाय नहीं है चलने का। या समझ लें कि वही आदमी मरते वक्त घबड़ाकर एक दफे राम कह दे, तो कुछ हल होने वाला है? जिंदगी जिसकी राम से न भरी हो, आखिरी समय में निकला हुआ शब्द उसके हृदय से नहीं आ सकता। होंठ पर ही होगा। झूठा होगा। मतलब से होगा। और राम का नाम भी जब कोई मतलब से ले, तो बेकार हो जाता है। मतलब का मतलब कि अब उसे डर है।
एक धर्मगुरु मरने के करीब है। धर्मगुरु बड़ा था। लेकिन कितने ही बड़े धर्मगुरु हों, धर्म का तो कोई पता नहीं होता। धर्मगुरु होना आसान है, धर्म को जानना कठिन है। क्योंकि धर्मगुरु होना एक प्रशिक्षण है। वह योग्य आदमी था। प्रशिक्षित था। जानता था धर्म को। दूसरों को भी समझाता था। कभी खयाल ही उसे नहीं आया कि जो मैं दूसरों को समझाता रहा हूं, वह मुझे भी पता है या नहीं?
मौत करीब आई, तो उसके पैर थर्राए। तब वह भूल गया कि मैंने कितने लोगों को धर्म समझाया। उसे खुद खयाल आया कि मुझे खुद तो पता नहीं है। गांव में और तो कोई आदमी नहीं था। मुल्ला नसरुद्दीन को उसने खबर भेजी कि तुम ज्ञानी हो। कभी मुल्ला को ज्ञानी माना नहीं था। लेकिन अब मरते वक्त उसे लगा कि गांव में और तो कोई आदमी नहीं है, यह आदमी जरूर कभी-कभी कोई ज्ञान की कोई बात कह देता है।
मुल्ला नसरुद्दीन आया। और उस धर्मगुरु ने कहा कि मैं देखता हूं कि तुम्हारे वक्तव्यों में कभी-कभी कोई मिस्टिकल, कोई रहस्यपूर्ण वक्तव्य होता है। कभी तुम ऐसी बात कह देते हो हंसी-हंसी में कि तीर की तरह उतर जाती है। मैं मर रहा हूं। मेरे लिए कोई एकाध सूत्र कहो, जो मरते वक्त मैं पूरा कर सकूं! जिंदगी तो मेरी यों ही दूसरों को समझाने में चली गई। खुद समझने से वंचित रह गया हूं। अब मैं क्या करूं?
तो मुल्ला ने उसके कान में कहा कि तुम एक काम करो। एक छोटा-सा मंत्र तुम्हें देता हूं। कहो कि हे परमात्मा, मेरी रक्षा कर। और हे शैतान, मेरी रक्षा कर। उस आदमी ने कहा, क्या कह रहे हो? मुल्ला ने कहा, समय खोने का मौका नहीं है। वी कैन नाट टेक चांस! पता नहीं, कौन दो में से तुम्हारे काम पड़े! तुम दोनों की प्रार्थना करो। यह कोई मौका सोच-विचार का ज्यादा नहीं है। दो ही आल्टरनेटिव हैं, दो ही विकल्प हैं कि या तो तुम नर्क जाओगे या तुम स्वर्ग जाओगे। पता नहीं कहां जाओ! किसी को नाराज करना इस वक्त ठीक नहीं है। तुम दोनों का नाम ले लो। जहां भी जाओ, कहना दूसरे का भूल से लिया था। इतनी तो समझदारी करो!
सारे आदमी मरते वक्त ऐसी ही बेईमानी कर रहे हैं। किसी तरह हम धोखा देना चाहते हैं अस्तित्व को भी। लेकिन धोखे से हो नहीं सकता, क्योंकि खुद को हम कैसे धोखा दे सकेंगे? दूर से जिसने मान्यता को मान लिया हो कि यही मेरा ज्ञान है, वह इस तरह की प्रवंचना में पड़ ही जाएगा।
तो अर्जुन स्पष्ट है। उसने कहा कि क्या मेरी मान्यता है। और अब वह कहता है कि जानना भी मैं चाहता हूं। यात्रा करने को मैं उत्सुक हूं। आप स्वयं ही अपने से आपको जानते हैं। मैं तो नहीं जान सकता हूं। जो भी मैं कह रहा हूं, पता नहीं, ठीक है या गलत है। भाव से कह रहा हूं। हृदयपूर्वक कह रहा हूं। लेकिन मेरी प्रज्ञा का इससे कोई स्पर्श नहीं है। ऐसा मैंने जाना नहीं है। ऐसी घटना नहीं घटी है कि मैं कह सकूं। मैं खुद गवाह बन सकूं, ऐसी घटना नहीं घटी है। इसलिए उसने दूसरे गवाहों के नाम लिए। कहा कि इन महर्षि ने कहा है। उन महर्षि ने कहा है। मैं खुद नहीं कह सकता। मैं खुद गवाही नहीं हो सकता हूं अभी। यह सरलता है, यह ईमानदारी है।
इसलिए हे भगवन्‌, आप ही अपनी उन दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने के योग्य हैं कि जिन विभूतियों के द्वारा इन सब लोकों को व्याप्त करके आप स्थित हैं।
मैं नहीं कह सकूंगा। मैं कितना ही कहूं कि हे भूतों को उत्पन्न करने वाले, हे सर्वभूतों के ईश्वर, हे देवों के देव, हे जगत के स्वामी, हे पुरुषोत्तम, मेरे ओंठों पर ये सब शब्द ही हैं। भावपूर्ण, लेकिन शब्द ही हैं। कितने ही हृदय से कहूं, फिर भी मेरा अस्तित्व इनसे स्पर्श नहीं होता है। फिर भी ऐसा मैं नहीं जानता हूं। इसलिए आप ही उन दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने के योग्य हैं।
आप ही अपने अस्तित्व को पूरा उघाड़ें, तो उघड़े। आप ही खोलें अपने मंदिर के द्वार, तो मैं प्रवेश करूं। मैं द्वार के बाहर कितनी ही दस्तक देता रहूं, मेरे कमजोर हैं हाथ। और मुझे यह भी पक्का पता नहीं है कि मैं दीवाल पर दस्तक दे रहा हूं कि दरवाजे पर दस्तक दे रहा हूं! और मैं कितना ही पुकारूं, मुझे यह पक्का पता नहीं कि मैं तुम्हारी तरफ मुंह करके पुकार रहा हूं कि पीठ करके पुकार रहा हूं! मैं कितना ही दौडूं, बहुत साफ नहीं है कि मैं तुम्हारी तरफ दौड़ रहा हूं कि तुमसे दूर भाग रहा हूं!
अर्जुन यह कह रहा है कि मुझ अज्ञानी से तुम्हारे संबंध में कौन-सा वक्तव्य दिया जा सकेगा! तुम ही कहो। तुम ही बता सकोगे अपनी समग्रता को, अपनी टोटेलिटी को।
यह बात सोचने जैसी है। ईश्वर के संबंध में जितने वक्तव्य दिए गए हैं, वे सभी पार्शियल हैं, वे सभी आंशिक हैं। जितने भी वक्तव्य दिए गए हैं, वे सभी आंशिक हैं। कोई वक्तव्य समग्र नहीं है। हो भी नहीं सकता। आदमी की भाषा बहुत कमजोर है। कहने की सीमा है और होने की कोई सीमा नहीं है। उसके होने का कोई अंत नहीं है, और कहने की सीमा है। ऐसे, जैसे मैं अपनी मुट्ठी में आकाश बंद करूं। निश्चित ही, मेरी मुट्ठी में भी आकाश है; आकाश का ही एक हिस्सा है। मैं मुट्ठी में सागर को बंद करूं। निश्चित, मेरी मुट्ठी में भी सागर आता है; लेकिन सागर का एक हिस्सा ही आता है। और मेरी मुट्ठी कितनी ही बड़ी क्यों न हो, फिर भी एक अंश ही मेरे हाथ में पकड़ आता है। इसलिए ईश्वर के संबंध में जितने वक्तव्य हैं, सभी आंशिक हैं। कोई वक्तव्य समग्र नहीं हो सकता।
अर्जुन के इस निवेदन में बड़ी गहरी वेदना है। वह वेदना यह है कि मैं कैसे कहूं और क्या कहूं! और जो भी कहूंगा, वह अधूरा होगा। तुम्हारी विभूति, तुम्हारा ऐश्वर्य अपार है। तुम्हारा होना, तुम्हारा विस्तार असीम है। न कोई आदि है, न कोई अंत। कहीं कोई छोर नहीं मिलते। कहीं सीमा खींच पाऊं, ऐसा कोई आधार नहीं मिलता। मैं कैसे तुम्हारे संबंध में कुछ कहूं! तुम्हीं अपनी समग्रता को खोल दो मेरे लिए, तो शायद मैं जान लूं।
इसमें कुछ बातें समझ लेने की हैं।
चूंकि ईश्वर के संबंध में दिए गए सभी वक्तव्य अधूरे हैं, इसलिए दो वक्तव्य कभी-कभी विरोधी भी मालूम पड़ते हैं। वे विरोधी नहीं हैं। जैसे, जिन्होंने ईश्वर को प्रेम से जाना है और जिन्होंने ईश्वर को प्रेम करके जाना है, जिनकी साधना प्रेम की ही साधना रही--प्रेम में ही पिघल जाने की, प्रेम में ही डूब जाने की, बिखर जाने की जिनकी साधना रही--उन्होंने ईश्वर का जो वर्णन किया है, वह सगुण है। होगा ही। क्योंकि प्रेम, जिसको भी प्रेम करता है, उसमें अनेक-अनेक गुणों को देखना शुरू कर देता है। प्रेम की आंख गुणों को खोज लेती है, उघाड़ लेती है। और प्रेम की आंख के साथ गुण चमककर, अत्यंत प्रखर हो जाते हैं।
इसलिए भक्तों ने, जिन्होंने प्रेम से प्रभु की तरफ यात्रा की है, और जिनके पास बुद्धि का बहुत बोझ नहीं, हृदय की उड़ान रही है, हृदय से जिन्होंने ईश्वर की व्याख्या करनी चाही है, उन्होंने फिर उसकी व्याख्या सगुण की, स्वभावतः।
लेकिन दूसरी तरफ जिन्होंने हृदय से नहीं, सीधे ज्ञान से उस तरफ कदम उठाए, और जिन्होंने राग और प्रेम का कोई भी सहारा नहीं लिया, वरन वैराग्य और शुद्धतम तर्कणा से जो जीए हैं, उन्होंने निर्गुण, निराकार। क्योंकि जो भी विचार की आत्यंतिकता को पकड़ेगा, तो निर्विकार और निराकार और शून्य अंततः उसको दिखाई पड़ना शुरू होगा।
इन दोनों की व्याख्याएं हम देखें, तो कलहपूर्ण मालूम पड़ती हैं। भक्त गुणों की चर्चा कर रहा है। और ज्ञानी कह रहा है कि निर्गुण है परमात्मा। भक्त मूर्ति बना रहा है। और ज्ञानी कह रहा है, मूर्ति! मूर्ति बाधा है। भक्त आकार दे रहा है। और ज्ञानी कह रहा है, तोड़ो आकार। आकार से कैसे पहुंचोगे निराकार तक?
भक्त जिसे प्रेम कर रहा है, उसे सजा रहा है वस्त्रों में, गहनों में, फूलों में। वह प्रेमी का निवेदन है। वह प्रेम की भाषा है। ज्ञानी बेचैन हुआ जा रहा है कि यह क्या पागलपन कर रहे हो? यह क्या बच्चों जैसी बात? प्रेम का यहां सवाल क्या है? सत्य को खोजो। सत्य को खोजना हो, तो प्रेम को हटाओ, क्योंकि प्रेम पक्षपात बन सकता है। और प्रेम वह देख सकता है, जो न हो। और प्रेम वह मान सकता है, जो अपने ही भीतर है, प्रोजेक्टेड हो। इसलिए छोड़ो प्रेम को, शुद्ध ज्ञान को पकड़ो।
इसलिए एक तरफ ईश्वर को कहने वाले लोग हैं कि वह है, लेकिन निराकार है। इस्लाम ने इतने जोर से इस परिभाषा को पकड़ लिया कि मूर्ति को तोड़ना धार्मिक काम हो गया! तोड़ दो मूर्ति को, क्योंकि मूर्ति बाधा बन रही होगी। उसकी कोई मूर्ति नहीं है।
इस्लाम जिस समय में पैदा हुआ और मक्का, जो इस्लाम का तीर्थ बना, वहां इस्लाम के पहले, मोहम्मद के पहले, तीन सौ पैंसठ मूर्तियों का मंदिर था। हर दिन की एक मूर्ति थी। हर दिन के लिए परमात्मा का एक रूप था।
तीन सौ पैंसठ मूर्तियों का मंदिर अपने तरह का अदभुत मंदिर था। और जिन्होंने तीन सौ पैंसठ मूर्तियां खोजी होंगी, उनका भी बड़ा गहरा भाव था। भाव यह था कि परमात्मा के इतने रूप हैं कि रोज भी हम एक को पूजें, तो भी वे चुकते नहीं। लेकिन रूप हैं। भक्त अरूप की तरफ तो खयाल ही नहीं ले जा सकता। भक्त को तो पीड़ा होने लगेगी। भक्तों ने तो यहां तक प्रार्थना की है भगवान से कि न चाहिए हमें तेरा मोक्ष, न तेरा बैकुंठ, न तेरा निर्वाण। बस, तेरा रूप हमारी आंखों में बसा रहे। तो उन्होंने तीन सौ पैंसठ मूर्तियां बनाई थीं।
लेकिन इस्लाम की दूसरी व्याख्या थी। और दोनों व्याख्याएं अपनी जगह सही हैं। यही मजा है। इस्लाम की व्याख्या थी कि मूर्ति से उसका क्या संबंध है? वह अरूप है। वह एक है। किसी भी रूप में उसको बांधो मत, नहीं तो रूप से रुक जाओगे और अरूप तक कैसे पहुंचोगे? इसलिए तोड़ दो सब रूप। वे तीन सौ पैंसठ मूर्तियां तोड़ दी गईं। मोहम्मद का कोई भी चित्र उपलब्ध नहीं है। इसीलिए उपलब्ध नहीं है मोहम्मद का कोई चित्र कि मोहम्मद का चित्र भी कहीं साधक के मार्ग में बाधा न बन जाए। कहीं ऐसा न हो कि मोहम्मद भी आड़ बन जाएं। इसलिए मोहम्मद ने कोई अपना चित्र नहीं बचने दिया।
यह ज्ञानी की एक व्याख्या है। बिलकुल सही है। लेकिन प्रेमी की जो बिलकुल विपरीत व्याख्या है, वह भी इतनी ही सही है। हजार और व्याख्याएं हैं। व्याख्याएं निर्भर करती हैं करने वाले पर।
और करीब-करीब हमारी हालत ऐसी है कि मैंने सुना है, एक गांव में पहली दफा हाथी आया। सांझ हो गई थी, लेकिन गांव में बड़ी उत्सुकता फैल गई, तो गांव ने अपने पांच प्रमुख आदमी चुने, जो गांव के सबसे बड़े जानकार थे और उनको भेजा कि हाथी को जाकर देखकर आएं।
सांझ हो गई। रात हो गई। अंधेरा हो गया। वे पांचों जब पहुंचे, तो अंधेरा हो गया था। उन्होंने हाथी को टटोलकर देखा। जिसके हाथ में पैर पकड़ में आया, उसने कहा कि ठीक। व्याख्या मिल गई! जिसके हाथ में कान पकड़ में आया, उसने कहा कि ठीक। व्याख्या मिल गई! जिसने पीठ पर हाथ फेरा, उसने कहा कि ठीक। व्याख्या मिल गई!
उन पांचों को व्याख्याएं मिल गईं। और जब वे पांचों गांव में पहुंचे, तो गांव में बड़ा उपद्रव मच गया। क्योंकि गांव में पांच वक्तव्य हो गए हाथी के संबंध में। और वक्तव्य इतने बेमेल थे कि कोई कितनी ही कल्पना की चेष्टा करे, तो भी उनको जोड़ नहीं सकता था। क्योंकि एक कह रहा था कि हाथी होता है, जैसे महलों के संगमरमर के खंभे होते हैं, ठीक वैसा। उसने पैर छुए थे। एक कह रहा था, जैसे किसान अपने बड़े-बड़े सूपों में अपने धान को साफ करते हैं, वैसा है हाथी; उसने हाथी के कान छुए थे।
वे अलग-अलग व्याख्याएं लेकर आए थे। और गांव बड़ी मुश्किल में पड़ गया। और गांव के लोगों ने कहा कि दो ही बातें हो सकती हैं। या तो तुम पांचों पागल हो गए हो, और या फिर तुम पांच चीजों को देखकर लौटे हो, एक चीज को देखकर नहीं। पर उन्होंने कहा, हम एक ही चीज को देखकर लौटे हैं। हम पांचों एक ही चीज को देखकर लौटे हैं।
तो फिर गांव के लोगों ने कहा कि फिर तुम पांचों पागल हो गए हो। क्योंकि तुम पांचों सही नहीं हो सकते। तुम कैसी बातें कर रहे हो? कहां महल का खंभा और कहां किसान का सूप! क्या संबंध है? खंभा सूप हो सकता है? सूप खंभा हो सकता है? कोई संबंध नहीं है। तब उन्होंने कहा कि फिर हम रुकें।
लेकिन रुकना भी बड़ा मुश्किल था। रातभर गांव में बेचैनी रही। और भी अनेक लोग गए पीछे और टटोलकर लौटे। और गांव में पंथ हो गए। कुछ लोगों ने कहा कि ठीक है, जिसने खबर दी है कि हाथी खंभे की तरह है। गांव में पांच पंथ हो गए! और जल्दबाजी इतनी थी कि सुबह की प्रतीक्षा भी कैसे की जाए!
लेकिन सुबह जब लोगों ने हाथी देखा, तो सारे लोग अपने पर हंसने लगे कि पागल कोई और नहीं था, हम सब पागल थे। और गलती किसी की नहीं थी। गलती इतनी ही थी कि अंश को पूर्ण समझ लिया था। और विपरीत अंश भी हो सकता है पूर्ण में एक, इसकी कोई कल्पना न थी। सुबह जब लोगों ने हाथी को देखा और खंभे और सूपों को एक साथ देखा। और खंभे और सूपों के भीतर जो प्राण था, वह एक ही था।
लेकिन हाथी के संबंध में तो उस गांव की तकलीफ हल हो गई, ईश्वर के संबंध में आदमी के गांव की तकलीफ शायद ही कभी हल हो। क्योंकि ऐसी सुबह कभी नहीं होने वाली है, जब हम सब एक साथ ईश्वर को देख लें। यह सुबह वैयक्तिक है; एक-एक आदमी की होती है; और एक-एक आदमी अपनी परिभाषा लेकर आता है।
जितने आदमी ईश्वर की तरफ गए हैं, उतनी परिभाषाएं हैं। यह दूसरी बात है कि कुछ लोग परिभाषा करने में मुखर हैं, कुशल हैं, इसलिए वे परिभाषा कर पाए। कुछ लोग मुखर नहीं हैं, कुशल नहीं हैं, नहीं कर पाए। इसलिए उन्होंने दूसरों की अपने से मिलती-जुलती परिभाषा स्वीकार कर ली। लेकिन करीब-करीब जितने लोग.।
अगर हम बुद्ध से पूछें, तो महावीर से कोई मेल नहीं पड़ता। अगर हम कृष्ण से पूछें, तो मोहम्मद से कोई मेल नहीं पड़ता। अगर हम मोहम्मद से पूछें, तो राम से कोई मेल नहीं पड़ता। और जितने लोग ऊपर से मेल बिठालने की कोशिश करते हैं, उससे भी कुछ मेल पड़ता नहीं। कितने लोग समझाते हैं कि गीता में भी वही, कुरान में भी वही, बाइबिल में भी वही। निकाल-निकालकर एक-दूसरे के सूत्रों का तालमेल भी बिठालने की कोशिश करते हैं कि यह अर्थ, यह अर्थ। फिर भी तालमेल बैठता नहीं।
नहीं बैठने का कारण है। कोई कितना ही तालमेल बिठाए, जिसने समझा है कि हाथी सूप है, और जिसने समझा है कि हाथी खंभा है, इन दोनों शास्त्रों से कोई कितना ही तालमेल बिठाए, तालमेल और पागलपन का सिद्ध होगा। वह और भी कनफ्यूजन, और भी विभ्रम पैदा करेगा।
इसलिए अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि मैं कुछ भी कहूं, कुछ भी मानूं, मैं आपकी समग्रता को न कह पाऊंगा! आप ही अपनी समग्रता को कहो।
कृष्ण भी जब कहने जाएंगे, तो मजे की बात यह कि समग्रता को नहीं कह सकते। क्योंकि कहना अंश का ही होता है, समग्र का नहीं होता। समग्रता इतनी बड़ी घटना है कि जब हम कहने से शुरू करते हैं, तो एक टुकड़े से शुरू करना पड़ता है।
जैसे आप यहां मौजूद हैं। एक साथ हम सब यहां मौजूद हैं। लेकिन अगर मुझे कल बताना पड़े कि कौन-कौन मौजूद थे, तो मैं कहूंगा, राम मौजूद थे, विष्णु मौजूद थे, नारायण मौजूद थे। मुझे एक रेखा बनानी पड़ेगी। जब मैं कहूंगा, राम मौजूद थे, तो सिर्फ राम मौजूद मालूम पड़ेंगे। फिर मैं कहूंगा, विष्णु मौजूद थे, फिर नारायण मौजूद थे, फिर मैं एक-एक नाम लूंगा। आप सब इकट्ठे मौजूद हैं। जब मैं बोलूंगा, तो मुझे एक-एक बोलना पड़ेगा, लीनियर, एक रेखा में बोलना पड़ेगा; और आप सब बिना रेखा के इकट्ठे मौजूद हैं।
तो आपकी मौजूदगी की खबर अगर देनी हो वाणी से, तो फिर सीमा बननी शुरू हो जाएगी। कोई नंबर एक होगा, कोई नंबर दो, कोई नंबर तीन, कोई नंबर चार। यहां आप बिना नंबर के एक साथ मौजूद हैं। और आप ही मौजूद नहीं हैं, पशु-पक्षी मौजूद हैं, आकाश मौजूद है, तारे मौजूद हैं, पृथ्वी मौजूद है, अनंत मौजूद है यहां, इसी क्षण। सब कुछ मौजूद है। पूरा अस्तित्व मौजूद है। अगर इसकी हम चर्चा करने जाएं, तो चर्चा नहीं हो सकेगी। कृष्ण भी करेंगे, तो नहीं हो सकेगी।
इसलिए अर्जुन जो शब्द उपयोग कर रहा है वह है, इसलिए हे भगवन्‌, आप ही अपनी उन दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने के योग्य हैं कि जिन विभूतियों के द्वारा इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं। हे योगेश्वर, मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं? और हे भगवन्‌, आप किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं?
वह कहता है कि आप ही कह सकते हैं। लेकिन तत्क्षण जो वह जोड़ता है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। कहता है, आप कह सकते हैं अपनी समग्रता को। लेकिन तत्क्षण वह जोड़ता है, वह कहता है, मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं? बड़ा महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप कहें। आप भी कहेंगे, तो पता नहीं मैं जान पाऊं, न जान पाऊं! आप कह भी देंगे, तो भी मैं समझ पाऊं, न समझ पाऊं! आप कह भी देंगे, तो भी मैं सुनूं या न सुनूं।
जीसस ने कहा है कि कान हैं तुम्हारे पास, लेकिन तुम सुनते कहां हो? आंखें हैं तुम्हारे पास, लेकिन तुम देखते कहां हो? तो जिनके पास कान हों और जो सुन सकते हों, वे सुन लें। और जिनके पास आंखें हों और देख सकते हों, वे देख लें।
कान से सुन लेना एक बात है। शब्द कान पर पड़ेगा, सुनाई पड़ जाएगा। लेकिन अर्जुन पूछता है, मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं? आप कह भी दें, तो भी शायद ही हल हो। मैं कैसे जानूं? आपका कहा हुआ, मेरा जानना कैसे हो जाए? उसकी विधि मुझे कहें, उसका मार्ग मुझे बताएं। और हे भगवन्‌, आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं? और मेरी योग्यता को समझें, मेरी पात्रता को, मेरी संभावना को, और मैं किन भावों में आपका चिंतन करूं कि आपको जान पाऊं?
यहां बहुत-सी बातें हैं।
परमात्मा को किसी भी भाव से पाया जा सकता है, लेकिन हर व्यक्ति हर भाव से नहीं पा सकता। सभी भावों से पाया जा सकता है उसे, लेकिन आप सभी भाव करने में समर्थ नहीं हो सकते। आपका कोई अपना भाव आपको खोजना पड़े। आपका भाव, आपका निजी भाव--जो आपका प्राण बन सकता हो, जिसका बीज आपके भीतर छिपा हो, जिसकी आपकी पात्रता हो--उस भाव से ही आप परमात्मा को खोजें, तो ही खोज पाएंगे।
लेकिन बहुत बार ऐसा होता है, हम दूसरों के भावों से उसे खोजने चलते हैं और तब हम नहीं खोज पाते। न तो कोई दूसरे की आंखों से देख सकता है, और न कोई दूसरे के हाथों से छू सकता है, और न कोई दूसरे की बुद्धि से जान सकता है। अपनी ही भाव की दशा, जिससे परमात्मा का मेल खाए, अस्तित्व से मेल खाए, जाननी और खोज लेनी जरूरी है।
हमारी जिंदगी की बड़ी से बड़ी दुर्घटना यही है कि हमें यही पता नहीं कि मैं किस पात्रता को लेकर पैदा हुआ हूं। बड़ी से बड़ी विडंबना यही है। अगर कोई, हम समझें कि इस जगत का बड़ा से बड़ा अघटनीय घट रहा है, तो वह यह है कि किसी को यह पता नहीं कि वह क्या होने को हुआ है? क्या हो सकता है? क्या है उसकी संभावना? बीज क्या है छिपा हुआ उसके भीतर? वह किस चीज का बीज है? वह चमेली का फूल बनेगा कि चंपा का फूल बनेगा? वह कौन-सा फूल बनकर परमात्मा के चरणों पर चढ़ सकता है?
अगर चमेली का फूल चंपा का फूल होने की कोशिश करता रहे, तो परमात्मा के चरण बहुत दूर हैं। क्योंकि चंपा होना ही संभव नहीं है। अगर गुलाब का फूल चमेली का फूल होने की कोशिश में पड़ा रहे, तो परमात्मा के चरण बहुत असंभव हैं। क्योंकि पहले तो वह चमेली ही नहीं हो पाएगा; चढ़ने का कोई सवाल नहीं है। मैं किस भांति चढूंगा! मेरा होने का ढंग मुझे खोजना पड़ेगा।
और एक-एक व्यक्ति का अपना निजी ढंग है। वही तो व्यक्तित्व का अर्थ है। एक-एक व्यक्ति अपने ढंग का व्यक्ति है, बेजोड़। उस जैसा कोई दूसरा नहीं है। लेकिन हम सब उधार जीते हैं, इमिटेटिव। और हम सब एक-दूसरे को उधारी थोपते चले जाते हैं। अगर मुझे भक्ति प्रीतिकर लगती है, तो मैं अपने बेटे पर भक्ति थोप दूंगा, बिना इसकी फिक्र किए कि वह उसका भाव है? अगर मुझे भक्ति अरुचिकर है, तो मैं अपने बेटे पर भक्ति का विरोध थोप दूंगा, बिना इसकी फिक्र किए कि वह उसका मार्ग है? और हम सब एक-दूसरे पर थोपते चले जाते हैं। और इतने थोपने वाले हो जाते हैं कि कठिनाई हो जाती है।
मैंने सुना है, एक छोटा बच्चा, स्कूल में उससे पूछा गया कि तू बड़ा होकर क्या बनना चाहता है? तो उसने कहा, क्या बनना चाहता हूं, इसका तो मुझे पता नहीं। एक बात पक्की है कि मैं पागल बन जाऊंगा! इंसपेक्टर ने पूछा कि यह तुझे खयाल कैसे आया? तो उसने कहा, मेरी मां चाहती है कि मैं इंजीनियर बनूं। मेरा बाप चाहता है कि डाक्टर बनूं। मेरा भाई चाहता है कि चित्रकार बनूं। मेरी बहन कुछ और चाहती है। मेरी मौसी कुछ चाहती है। मेरी चाची कुछ चाहती है। मेरे चाचा कुछ चाहते हैं। वे सब लोग कोशिश में लगे हैं अपने-अपने ढंग से मुझे कुछ बनाने की। मुझसे तो न किसी ने पूछा है, न मुझे पता है। एक बात पक्की है कि अगर वे सब सफल हो गए, तो मैं पागल हो जाऊंगा!
हो ही जाएगा। और सफल भी न हों, तो भी पागल हो जाएगा। असफल भी हो जाएं, तो भी लकीरें छोड़ जाएंगे।
सामान्य जीवन में तो यह हो ही रहा है। उस असामान्य जीवन की यात्रा पर भी बड़ी गहन रेखाएं हम पर छोड़ दी जाती हैं। मैं देखता हूं कभी कि कोई आदमी जन्म से हिंदू घर में पैदा हुआ है। कोई आदमी जन्म से मुसलमान घर में पैदा हुआ है। लेकिन जन्म से धर्म का क्या संबंध? कोई भी संबंध नहीं है। अगर एक आदमी जन्म से कम्युनिस्ट के घर में पैदा हुआ है, तो कम्युनिस्ट होने की मजबूरी नहीं है। फिलहाल अभी तक तो नहीं है। आगे हो सकती है कि तुम कम्युनिस्ट बाप के बेटे हो, कम्युनिस्ट ही तुम्हें होना पड़ेगा; कि तुम्हारा खून कम्युनिस्ट का है!
खून किसी का होता नहीं। न कम्युनिस्ट का होता है, न हिंदू का होता है, न मुसलमान का होता है। अभी तक कोई उपाय नहीं खोजा जा सका कि खून सामने आप रख दें और डाक्टर बता दे कि यह हिंदू का है। हड्डी में भी अब तक पता नहीं चलता कि हड्डी हिंदू की है कि मुसलमान की है। खोपड़ी की मज्जा को भी निकालकर जांच करो, तो कोई पता नहीं चलता कि किसकी है।
बच्चे कोई धर्म, कोई विचार, कोई पंथ, कोई मत लेकर पैदा नहीं होते। बच्चे संभावना लेकर पैदा होते हैं कुछ होने की। लेकिन हम उनके ऊपर थोप देते हैं कुछ। एक आदमी मुसलमान के घर में पैदा हुआ है। यह हो सकता है, इसके लिए कृष्ण का मंदिर भाव बन जाए। लेकिन इसको अड़चन आएगी। इसको अड़चन आएगी। मूर्ति के सामने यह नाच कैसे सकता है?
एक मुसलमान ने मुझे आकर कहा, तब मुझे खयाल आया। उसने मुझे कहा कि मेरा तो मन होता है कि जैसे मीरा नाचती फिरी कृष्ण को लेकर, ऐसे मैं नाचता फिरूं। लेकिन मैं मुसलमान हूं! और यह तो कुफ्र है; यह तो बड़ी बुरी बात है, मूर्ति-पूजा। और यह तो नहीं हो सकता! यह तो नहीं हो सकता।
अब यह आदमी एक दुविधा में है। मैं ऐसे हिंदुओं को जानता हूं, जिनके लिए मस्जिद मंदिर से बेहतर हो। मैं ऐसे ईसाइयों को जानता हूं, जो कि कहीं और होते तो ठीक होता। लेकिन जन्म एक जकड़ बन जाता है। और तब आप अपना भाव नहीं खोज पाते। आप अपना खोज ही नहीं पाते कि कौन-सा द्वार है मेरा नैसर्गिक, जहां से मैं परमात्मा को पा सकूं।
हम सबको इसकी फिक्र नहीं है कि कोई परमात्मा को पाए। हिंदू को फिक्र है कि हिंदू के परमात्मा को पाना है। मुसलमान को फिक्र है कि मुसलमान के परमात्मा को पाना है। अगर तुमने हिंदू का परमात्मा पा लिया, तो इससे तो बेहतर था कि न पाते परमात्मा और मुसलमान रहते। या न पाते परमात्मा और हिंदू रहते। लेकिन मुसलमान का परमात्मा पाकर क्यों अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहे हो?
हमें परमात्मा से कोई प्रयोजन नहीं है। हमारा परमात्मा! अब परमात्मा हमारा-तुम्हारा नहीं हो सकता। कोई दो परमात्मा भी नहीं हैं। लेकिन यह हमारे मन की आज तक की व्यवस्था है। इस व्यवस्था के कारण दुनिया में धर्म के जितने फूल खिल सकते हैं, नहीं खिल पाते। इस कारण जितने लोग धार्मिक हो सकते हैं, नहीं हो पाते। धर्म तो भावगत है, जन्मगत नहीं।
इसे ठीक से समझ लें, धर्म भावगत है, जन्मगत नहीं। और जब कृष्ण ने कहा है कि स्वभाव ही धर्म है। और स्वधर्म को छोड़कर दूसरे धर्म में जाना भयभीत करने वाला, भयावह है। तो लोग समझते हैं, इसका मतलब है कि हिंदू घर में पैदा हुए हो, तो हिंदू रहना। मुसलमान घर में पैदा हुए, तो मुसलमान रहना।
नहीं; स्वधर्म का मतलब है, अपना स्वभाव खोजना, अपना भाव खोजना, जो तुम्हें परमात्मा से मिलाने में सहयोगी हो सके। वह व्यक्तिगत ट्यूनिंग है। एक-एक व्यक्ति को अपनी तरंग खोजनी पड़ती है, अपनी वेव-लेंथ खोजनी पड़ती है, कि मेरे हृदय की तरंग किस भांति परमात्मा की तरंग से जुड़ सकती है।
अर्जुन का यह पूछना बहुत मूल्यवान है कि हे योगेश्वर, मैं किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं? और हे भगवन्‌, आप किन-किन भावों में मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं? मेरे द्वारा चिंतन करने योग्य हैं किन-किन भावों में? किन भावों में आपको खोजूं? कैसे यह मेरे लिए सरल होगा कि जो अभी मैं मानता हूं, कल वह मेरा ज्ञान भी बन जाए? जिसे अभी मैंने बाहर से स्वीकार किया, कल भीतर से भी अनुभव करूं? जिसकी अभी मैंने चर्चा ही सुनी, कब होगा कि उसका स्वाद भी ले लूं? अभी जब मैं दूसरे की गवाही खोजता फिरता हूं, कब वह क्षण आएगा, जब मैं भी गवाह हो जाऊं? कि जो मैं कह रहा हूं, उसका मैं ही गवाह हूं!
तो दो बातें! एक तो किस विधि निरंतर चिंतन करता हुआ आपको जानूं? दो बातें पूछी हैं, और दो ही विशेष हैं। किस विधि चिंतन करता हुआ? यह ज्ञान के लिए, ज्ञान की जो विधियां हैं। और दूसरा वह पूछता है, किस भाव से? वह भक्त की विधि है।
ठीक अर्थों में जगत में दो ही विराट भेद हैं मनुष्यों के, मस्तिष्क-केंद्रित और हृदय-केंद्रित। दो ही प्रकार हैं, पुरुष और स्त्रैण। जब मैं कहता हूं पुरुष और स्त्रैण, तो पुरुष और स्त्री से मतलब नहीं है। प्रतीकात्मक है। स्त्रैण व्यक्तित्व को मैं कहता हूं, जो हृदय-केंद्रित है, वह चाहे पुरुष हो और चाहे स्त्री हो। और पुरुष उस व्यक्तित्व को कहता हूं, जो मस्तिष्क-केंद्रित हो; वह स्त्री हो चाहे पुरुष, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इन दोनों के मार्ग बिलकुल अलग हैं।
अर्जुन को यह भी खयाल में नहीं है। इसीलिए मैं कहता हूं, वह बहुत सरल है। उसे यह भी पता नहीं है कि मैं बुद्धिवादी हूं, कि हृदयवादी हूं; कि मैं किस मार्ग से चलूं, भाव से या ज्ञान से! वह दोनों बातें पूछ लेता है कि किस भांति चिंतन करता हुआ आपको जानूं? अगर मेरा यह मार्ग हो कि विचार के द्वार से ही मैं आप तक पहुंचूं, तो किस भांति विचार करता हुआ पहुंचूं? या अगर भाव मेरा मार्ग हो, तो मैं किस भाव के झरोखे से आपको झांकूं?
ये दो विराट धाराएं हैं। इसके छोटे-छोटे बहुत तरह के अंग हैं, लेकिन वे गौण हैं। महत्वपूर्ण यही है। अब तक जगत में जिन लोगों ने भी पाया है परम सत्य को, उन्होंने या तो विचार की आत्यंतिक गति से या भाव की। एक तरफ बुद्ध हैं, महावीर हैं, लाओत्से हैं, क्राइस्ट हैं। एक तरफ मीरा है, चैतन्य हैं, कबीर हैं, थेरेसा है, राबिया है, इस तरह के लोग हैं। जिन्होंने भाव से पाया है, उनकी पूरी की पूरी व्यवस्था जीवन की साधना की अलग होगी, विपरीत होगी। जिन्होंने ज्ञान से पाया है, उनकी बिलकुल विपरीत होगी।
विचार से जो चलेगा, उसके लिए ध्यान आधार होगा। विचार से जो चलेगा, उसे विचार को इतना शुद्ध, इतना शुद्ध करना है कि एक क्षण आए कि विचार शुद्ध होते-होते, होते-होते तिरोहित हो जाए। जब भी कोई चीज शुद्ध होती है, तो तिरोहित होने लगती है। जितनी शुद्ध होती है, उतनी तिरोहित होने लगती है। जब कोई चीज पूर्ण शुद्ध हो जाती है, तो वाष्पीभूत हो जाती है।
विचार इतना शुद्ध हो जाए कि विचार-मात्र रह जाए। शब्द समाप्त हो जाएं, सिर्फ विचारणा रह जाए। थाट्‌स चले जाएं, सिर्फ थिंकिंग मौजूद रह जाए; विचारणा की शक्ति रह जाए और विचार सब खो जाएं। आकाश रह जाए, बादल सब चले जाएं। बादल हैं विचारों की तरह। और जब सब बादल छंट जाते हैं, तो वह जो विचारक है भीतर आकाश की तरह, वह शेष रह जाता है। विचार को शुद्ध करके, शांत करके, मौन करके, क्षीण करके, विचारक अकेला रह जाए। उसको हम चाहे साक्षी का नाम दें, अवेयरनेस कहें, जागरूकता कहें, जो भी नाम दें। सिर्फ बोध-मात्र रह जाए और विचार खो जाएं। बुद्ध इसी परंपरा के अग्रगण्य प्रतीक हैं।
अर्जुन कहता है, अगर ऐसी कोई संभावना हो मेरी, तो मैं कैसे चिंतन करूं? वह मुझे बताएं कि मैं आपको जान लूं। अगर यह न हो, तो मैं कैसे भाव करूं, ताकि मैं आपको जान लूं?
भाव--लीनता; विचार--ध्यान। और भाव--लीनता, डूबना, विसर्जित होना, समर्पण, खो जाना।
बुद्ध नाच नहीं सकते, क्योंकि नाचना बुद्ध को लगेगा, यह क्या बात हुई! सूफी फकीर नाच सकते हैं, क्योंकि वे कहते हैं, नाच-नाचकर हम उसमें खो जाते हैं।
कभी आपने छोटे बच्चों को देखा है! छोटे बच्चे अक्सर घर में करते हैं। चक्कर लगाना शुरू कर देते हैं। बड़े रोकते भी हैं उनको। और उनको हैरानी होती है, कि चक्कर आ जाएगा। गिर जाओगे। मूर्च्छित हो जाओगे। सिर टूट जाएगा। और बच्चे अपनी जगह पर खड़े होकर कील की तरह घूमना चाहते हैं। बच्चों को, अधिकतर बच्चों को रस होता है कील की तरह घूमने का। बच्चे कह नहीं सकते कि उनको क्या होता है। और बूढ़े समझते हैं कि यह घूम रहा है, अभी गिरेगा; चक्कर खा जाएगा। लेकिन बच्चे जब तेजी से चकरी की तरह घूमते हैं एक जगह, तो उन्हें शरीर अलग और आत्मा अलग मालूम होने लगती है। और बड़ा आनंद उन्हें आता है। वह बूढ़ों की समझ में नहीं आ सकता।
सूफी फकीर इसी तरह नाचते हैं। सूफी फकीरों का एक वर्ग ही है, व्हिरलिंग दरविशेज़, नाचते हुए फकीर। वे ठीक बच्चों की तरह खड़े होकर फिरकनी की तरह नाचते हैं। तेजी से नाचते हैं। घंटों नाचते हैं। एक घड़ी आती है कि शरीर घूमता रह जाता है और चेतना खड़ी हो जाती है। शरीर लीन हो जाता है विराट में। शरीर खो जाता है।
मीरा नाचती है, चैतन्य नाचते हैं। ये अपने को डुबा रहे हैं। लेकिन अगर मोहम्मद से हम कहें, नाचना, संगीत! तो मोहम्मद कहेंगे, गलत! संगीत की बात ही मत लाना मस्जिद के करीब। संगीत की बात ही मत उठाना। क्योंकि मोहम्मद कहते हैं कि संगीत में आदमी खो जाएगा। और खोना नहीं है, जागना है।
और अगर हम मीरा से कहें, संगीत छोड़ दो! तो संगीत के छूटते ही कृष्ण और मीरा के बीच जो सेतु है, वह तत्काल टूट जाएगा। अगर हम चैतन्य से कहें कि फेंको यह तंबूरा, छोड़ो यह नाचना; बंद करो यह संगीत और गीत! तो चैतन्य का सब कुछ खो जाएगा। संगीत उनके लिए कारगर हो सकता है, जो अपने को डुबाने चले हैं, खोने चले हैं।
अब यह मजे की बात यह है कि ये बिलकुल विपरीत मार्ग हैं। ध्यान में अपने को बचाना है पूरी तरह, सब छूट जाए, मैं ही बचूं। और भक्ति में अपने को भुलाना है पूरी तरह, सब बच जाए, मैं ही न बचूं। और मजा यह है कि दोनों एक ही जगह पहुंच जाते हैं--ये इतने विपरीत! चाहे मैं बचूं और सब खो जाए, तो भी एक बचता है। और चाहे सब बचे और मैं खो जाऊं, तो भी एक ही बचता है। और दो विपरीत छोरों से एक ही रह जाता है। द्वैत खो जाता है, और एक ही घटना घटती है।
अर्जुन पूछता है, क्या है मेरी दशा? क्या है मेरी पात्रता? वह आप मुझे कहें। शायद वह पात्रता मेरी प्रकट हो, और मेरी संभावना मेरी वास्तविकता बन जाए, और मेरा बीज अंकुरित हो और खिल जाए। तो आप जो कहते हैं, वह मैं समझ पाऊं, जान पाऊं। और शायद मैं आपसे एक हो जाऊं, तो आपकी समग्रता भी मेरे लिए प्रकट हो जाए।
समग्रता तो तभी प्रकट होती है, जब कोई एक हो जाए। उसके पहले समग्रता प्रकट नहीं होती। यद्यपि जो एक हो गए हैं, वे भी समग्रता को कह नहीं सकते। इसलिए संतों ने गूंगे के गुड़ की बात कही है। संत गूंगे बिलकुल नहीं हैं। संतों से ज्यादा बात करने वाले लोग खोजने मुश्किल हैं। संतों ने बहुत बातें की हैं; गूंगे बिलकुल नहीं हैं। लेकिन जहां परमात्मा की बात आती है, वे कहते हैं, हम बिलकुल गूंगे हो जाते हैं। इतना बड़ा है। इतना विशाल है कि कहें तो गलती होती है। कहा नहीं कि गलती हो जाती है! बोले नहीं कि दिखाई पड़ती है, भूल हो गई!
सुना है मैंने कि एक कवि, एक रहस्यवादी कवि समुद्र के तट पर गया था। सुबह सूरज निकला। समुद्र की लहरों पर सूरज का जाल छा गया। सुगंधित हवाएं थीं। फूलों की खुशबू थी। वृक्षों की छाया थी। वह आराम से बैठकर इस धूप और लहरों के खेल को देख रहा था। हवाएं उसके नासापुटों को छूने लगीं। रोआं-रोआं उसका आनंद से भर उठा। उसे स्मरण आया अपनी प्रेयसी का। लेकिन उसकी प्रेयसी वहां मौजूद न थी। वह बीमार थी और दूर एक अस्पताल में थी।
उसे लगा, काश, इस सुबह, इस सूरज को, इस आकाश को, इन हवाओं को, इन सागर की लहरों को--इस वातावरण में वह मेरी प्रेयसी क्षणभर को भी आ जाए, तो स्वस्थ हो जाए! लेकिन उसे लाना मुश्किल है। उसका खाट से भी उठना मुश्किल है। फिर सोचा उसने कि दूसरा उपाय यह हो सकता है कि मैं थोड़ा-सा यह वातावरण एक पेटी में बंद करूं और अस्पताल ले चलूं।
वह एक मजबूत पेटी लाया। रोआं-रंध्र भी कहीं खुला न रह जाए पेटी का, सब तरफ मोम लगाकर बंद कर दिया; मजबूत ताले डाले। हवाएं, सूरज की रोशनी, सुगंध, सब पेटी में बंद कर दीं। आकाश का छोटा-सा टुकड़ा भी बंद हो गया। ताला डालकर सब तरफ से बंद करके रंध्र, एक बहुमूल्य पत्र के साथ उसने संदेशवाहक को पेटी लेकर अस्पताल भेजा। लिखा उसने अपने पत्र में कि अनूठा है यहां सब। अदभुत है। चमत्कृत हो गया हूं। काश तू यहां होती! लेकिन उसका कोई उपाय नहीं, इसलिए थोड़ा-सा नमूना इस आकाश का, इस सुबह का, इस सूरज की किरणों का, इस पेटी में बंद करके भेजता हूं।
पत्र पहुंच गया। पेटी भी पहुंच गई। चाबी भी पहुंच गई। चाबी से पेटी खोल भी ली गई। लेकिन भीतर कुछ भी न था! जब बंद किया था, तब सब था। सूरज की किरणें भी थीं। हवाएं भी थीं। नाचता हुआ आकाश भी था। सब था। वह तरंगित पूरा वातावरण पेटी के ऊपर ही नाच रहा था। सब था; वह सब उसने बंद किया था। लेकिन जब पेटी खोली गई, तो वहां कुछ भी न था।
होगा भी नहीं। आकाश पेटियों में बंद नहीं किए जा सकते। बंद करते ही सब बदल जाता है। अनुभूतियां भी शब्दों में बंद नहीं की जा सकतीं। बंद करते ही सब बदल जाता है। कहते ही खो जाता है सत्य।
इसलिए लाओत्से ने कहा है, अगर मैं कहूं, तो भूल होगी। क्योंकि जो कहा जा सकता है, वह सत्य न होगा। और जो मैं कहना चाहता हूं, वह मैं सत्य ही कहना चाहता हूं। इसलिए उचित है कि मैं चुप ही रहूं।
लेकिन चुप रहने से भी तो नहीं कहा जा सकता। चुप रहने वाले लोग भी हुए हैं, फिर भी नहीं कहा जा सकता। बोलकर भी नहीं कहा जा सकता। आदमी की बड़ी बेचैनी है। लेकिन जीकर थोड़ी-सी खबर दी जा सकती है।
अगर यह कवि मुझे मिल जाए! बहुत मुश्किल है। कहां खोजें! उसके नाम-धाम का कुछ पता नहीं, जिसने यह सब पेटी में बंद करके भेजा था। अगर यह मुझे मिल जाए, तो इससे मैं कहूं कि पेटी में बंद मत कर, एक और उपाय है। एक और उपाय है, वही एकमात्र उपाय है। तू पेटी में बंद मत कर। तू ठीक से इस आकाश को जी ले। तू ठीक से इन हवाओं को पी ले। तू ठीक से सूरज की इन किरणों को तेरी आंखों में समा जाने दे। यह सुवास, जो तुझे प्रीतिकर लगती है, तेरे रोएं-रोएं में रम जाए। यह सारा आकाश, जो तेरे चारों तरफ फैला है विराट, यह तेरे हृदय के भीतर भी समा जाए।
और फिर तू नाचता हुआ, तू ही नाचता हुआ अस्पताल पहुंच जा। तू नाच अस्पताल जाकर वैसे ही, जैसे हवा में तरंगें नाचती थीं और वृक्षों की पत्तियां नाचती थीं और फूल कंपते थे। इन सबके कंपन को, जीवित कंपन को लेकर तू ही अस्पताल नाचता हुआ पहुंच जा। तो शायद तेरा वह उन्मत्त भाव, तेरा वह हर्षोन्माद, तेरी वह समाधिस्थ दशा, तेरी प्रेयसी को खबर दे सके, कि जहां से तू आया है, वहां जाने योग्य है। इतनी खबर हो सकती है।
कृष्ण के कहने से पता नहीं चलेगा; कृष्ण के होने से पता चलता है जरूर। बुद्ध के कहने से पता नहीं चलेगा; होने से पता चलता है।
इसलिए अर्जुन पूछता है कि कैसे मैं अपनी आंखों को खोलूं तुम्हारी तरफ? कैसे मेरे कान तुम्हें सुनने में समर्थ हो जाएं? और कैसे मेरा हृदय तुम्हारी हृदय की धड़कन को अनुभव करने लगे। क्या चिंतन करूं? क्या भाव करूं? तुम्हीं मुझे कहो!
अर्जुन की सरलता स्पष्ट है। मान्यता को अगर वह मान लेता कि जान लिया, तो अब कृष्ण से पूछने को कुछ शेष नहीं था। जाना उसने नहीं है, यह उसे पता है। और इसे वह छिपा भी नहीं रहा है, इसे वह स्पष्ट कह रहा है। इसलिए रास्ता खुल सकता है, रास्ता बन सकता है।
अभी महीनाभर हुआ, एक मित्र मेरे पास आए। कृष्णमूर्ति को सुनते हैं, बीस वर्ष से सुनते हैं। तो मुझसे आकर बोले कि सब ठीक लगता है, वे जो कहते हैं। लेकिन कुछ हुआ नहीं। बीस साल हो गए सुनते हुए। कान पक गए सुनते हुए। शब्द-शब्द याद हो गए। जो वे कहते हैं, दोहरा सकता हूं। और बिलकुल ठीक कहते हैं, ऐसा भी समझता हूं। लेकिन कुछ होता नहीं!
तो मैंने उनसे पूछा, एक बार फिर से सोचो। जो वे कहते हैं, वह समझ गए हो? अगर समझ गए हो, तो हो जाना चाहिए। क्योंकि समझना और हो जाने में फासला नहीं है। नहीं, वे बोले, समझता तो मैं बिलकुल पूरा हूं। समझने में रत्तीभर कमी नहीं है। लेकिन होता कुछ नहीं है!
अब इस आदमी की बड़ी कठिनाई है। इसको वहम है कि समझता हूं। क्योंकि अगर समझ ही ले कोई, तो होने में कुछ बचता नहीं, कुछ बचता नहीं। अगर मैं यह कहूं कि मुझे पक्का पता है कि दरवाजा कहां है मकान में, लेकिन जब भी मैं निकलता हूं तो दीवाल से टकरा जाता हूं। पक्का मुझे पता है कि दरवाजा कहां है। समझता हूं कि दरवाजा कहां है। लेकिन जब निकलता हूं, तो दीवाल से टकरा जाता हूं। बीस साल से समझता हूं कि दरवाजा कहां है! तो हम उस आदमी से क्या कहेंगे, कि तुम्हारी समझ में कहीं भूल होगी। अगर तुम्हें पक्का पता है कि दरवाजा कहां है, तो फिर दीवाल से टकराने का सवाल कहां है, निकल जाओ। वह कहता है कि समझता तो पूरा हूं, लेकिन जब भी चलता हूं, तो दीवाल में ही सिर लगता है जाकर!
इसके समझने में ही बुनियादी भूल है। लेकिन यह मानने को तैयार नहीं कि मैं समझता नहीं हूं। अहंकार तैयार नहीं होता कि मैं समझता नहीं हूं।
तो मैंने उनसे कहा कि तुम अपनी समझ छोड़कर आओ, तो शायद कुछ हो सके। यह समझ महंगी पड़ रही है। और बीस साल हो गए समझते हुए, अब और क्या करोगे? और कितना समझोगे? अब समझने को भी कुछ नहीं बचा। तुम कहते हो, सब समझ लिया। अब क्या इरादे हैं?
तो उन मित्र ने कहा, इसीलिए मैं आपके पास आया हूं कि कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, उससे अब कुछ नहीं होता। तो मैंने उनसे कहा, फिर कृष्णमूर्ति को पूरा छोड़कर आ जाओ। फिर जो मैं कहता हूं, वह करो। उन्होंने कहा, मैं तैयार हूं। मैंने उनसे कहा, तो ठीक है। कल सुबह से तुम ध्यान शुरू करो। उन्होंने कहा, ध्यान से क्या होगा? कृष्णमूर्ति तो कहते हैं, ध्यान से कुछ भी न होगा!
ये तकलीफें हैं। ये तकलीफें हैं। जिससे नहीं हुआ है, वह भी सिर पर बैठ जाएगा। उससे कर भी नहीं सकते हैं, उसको छोड़ भी नहीं सकते हैं। और समझदारी का भूत सवार है कि समझ हमारे पास है। तो मैंने उनसे कहा कि अब मैं क्या करूं? बीस साल से तुम जानते हो कि ध्यान करने से कुछ न होगा। इससे कुछ नहीं हुआ। अब थोड़ा ध्यान करके देख लो।
एक आदमी कहता है कि भक्ति से कुछ भी न होगा। उससे मैं कहता हूं कि तुम ज्ञान की चर्चा काफी कर लिए। अगर उससे हो गया हो, तो बात समाप्त हुई। मुझे कोई एतराज नहीं है। न हुआ हो, तो नाचकर, गीत गाकर भी देख लो। पता नहीं, कहां तुम्हारा हृदय तरंगित हो जाए, कहां तुम्हारा हृदय अंकुरित हो उठे। रुकावट मत बनो। बाधा मत डालो। मंदिर में भी चले जाओ, मस्जिद में भी चले जाओ। कुरान को भी देख लो, गीता को भी देख लो। बाइबिल को भी पढ़ लो। गीत भी गा लो, नाचकर भी देख लो, ध्यान करके भी देख लो। तुम्हें कुछ पता नहीं है कि कहां से हो जाए, तो सब तरफ टटोलकर देख लो। पता नहीं, कहां द्वार मिल जाए! और जहां द्वार मिल जाए, फिर अपनी बुद्धिमत्ता को एक तरफ रखो और द्वार से बाहर निकलो। नहीं तो बुद्धिमत्ता इतनी मजबूत है हमारे पास कि द्वार भी आ जाए पास, तो चूक जाता है।
सुना है मैंने, हुजबिरी एक सूफी फकीर हुआ। वह कहा करता था कि आदमी ऐसा है कि अपने हाथ से मौके गंवाता है। एक आदमी आया हुआ था, उसने कहा कि मैं यह नहीं मान सकता। जिंदगी हो गई, हर अवसर की तलाश में हूं कि दो पैसे इकट्ठे हो जाएं। अभी तक अवसर ही नहीं आया। गंवाने का सवाल नहीं है। मैं अवसर की तलाश में हूं, लेकिन अवसर ही नहीं आया। गंवाने का कहां सवाल है? हुजबिरी ने कहा, किसी दिन देखेंगे।
एक दिन हुजबिरी ने उस आदमी को कहा कि मैं उस पार जा रहा हूं नदी के, उस झाड़ के नीचे बैठूंगा सांझ, तुम मिलने आ जाना। और अपने दूसरे भक्तों को कहा कि एक घड़े में सोने की मोहरें भरकर, बीच पुल पर रख दो। जब यह आदमी आए, तब वहां रख देना और दूर खड़े होकर देखते रहना।
वह आदमी आया। वह पुल के बीच तक आया। और ठीक बीच के करीब आते-आते उस आदमी ने आंखें बंद कर लीं, और बीच का हिस्सा उसने आंखें बंद करके पार किया। घड़े को छोड़ आया। जो लोग खड़े थे, वे भी बहुत चकित हुए कि हद्द हो गई! यह हुजबिरी ने कोई चमत्कार किया? कोई जादू किया? कि यह आदमी भी गजब का है कि आधे पुल तक तो आंखें खोले आया और जब घड़ा बिलकुल पास था, तो उसने आंखें बंद कर लीं! घड़े को लेकर वे हुजबिरी के पास पहुंचे। वह आदमी भी पहुंचा।
हुजबिरी ने पूछा कि कहो, वह घड़ा बीच में रखा था, तुम्हें दिखाई पड़ा? उसने कहा, कौन-सा घड़ा! हुजबिरी के मित्रों ने कहा कि घड़ा कैसे दिखाई पड़ेगा! जहां घड़ा दिखाई पड़ता, उसके पहले ही इस आदमी ने आंखें बंद कर लीं। हम तो चकित हुए। हुजबिरी ने उससे पूछा कि तुमने आंखें क्यों बंद कर लीं? उसने कहा कि मुझे एक खयाल आया कि जरा आंख बंद करके पुल पार करके देखें, कैसा होता है! ऐसे ही मौज आ गई कि जरा आंख बंद करके चलकर देखें।
हुजबिरी ने कहा कि घड़ा रखवाया था तेरे लिए। लेकिन जैसा मैं समझता हूं कि तूने जिंदगीभर अवसर खोए हैं, तो जरूर तेरा मन कोई तरकीब निकाल लेगा और तू अवसर खो देगा। ऐसा मैं विचार करता था, वह ठीक हो गया। तूने तरकीब निकाल ली कि जरा आंख बंद करके देखें।
हमारा मन हमारी आदतों का जोड़ है। और हमने जो भी अब तक किया है, वह मन का यंत्रवत हिस्सा हो गया है। अगर आप एक तरफ असफल हुए हैं, तो आप दूसरी तरफ भी जाएंगे अपनी सारी असफलता की आदत को ले जाएंगे। और वहां भी असफल होकर सिद्ध करेंगे कि हमें कोई सफल कर ही नहीं सकता। असफलता भी आपका सम्मान बन गई है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो आदमी असफल होता रहता है, वह सफलता से डरने लगता है, क्योंकि प्रतिष्ठा का सवाल है। वह लोगों से कहता रहता है, असफलता ही मेरा भाग्य है। सारी दुनिया मेरे खिलाफ है। नियति मेरे विपरीत है, परमात्मा मेरे विपरीत काम कर रहा है! यह वह इतनी दफे कह चुका होता है कि अब उसे डर लगता है कि कहीं मैं सफल न हो जाऊं। नहीं तो मेरे पुराने वक्तव्यों का क्या होगा! तो अगर सफलता हाथ में भी आती हो, तो वह चूक जाएगा, छोड़ देगा; और फिर कहेगा कि देखो, नियति, भाग्य! मेरे को सफलता मिलने वाली ही नहीं है।
अपने ही दुश्मन बनकर हम जीते हैं। अपने मित्र बनकर जीने की बात है।
अर्जुन के इस सूत्र में अर्जुन ने अपने तरफ अपनी मित्रता बड़ी साफ जाहिर की है। वह कृष्ण से हाथ जोड़कर कह रहा है कि मुझे पता नहीं है। मानता मैं हूं, ज्ञान मुझे नहीं है। आप मुझे बता दें। और जो भी उपाय हो, जो भी उपाय हो, जो मुझे मौजूं पड़ जाए, जिससे मेरा तालमेल बैठ जाए, ताकि मैं आपको जान सकूं और आपकी समग्रता को अनुभव कर सकूं।

आज इतना ही। फिर कल हम बात करेंगे।
लेकिन उठें न। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों, फिर जाएं। आपका मन कहे भी कि चलो, चलकर देखें, तो भी नहीं। पांच मिनट बैठे रहें।

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