QUESTION & ANSWER
Gahre Pani Paith (गहरे पानी पैठ) 03
Third Discourse from the series of 4 discourses - Gahre Pani Paith (गहरे पानी पैठ) by Osho.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
भगवान, दो विषयों पर तो चर्चा हो चुकी है। निवेदन करूंगा कि तिलक, टीके और माला के संबंध में आज इस चर्चा को आरंभ करें।
तिलक के संबंध में समझने के पहले दो छोटी सी घटनाएं आपसे कहूंगा, फिर आसान हो सकेगा। दो ऐतिहासिक तथ्य।
अठारह सौ अट्ठासी में दक्षिण के एक छोटे से परिवार में एक व्यक्ति पैदा हुआ--फिर पीछे तो वह विश्वविख्यात हुआ, रामानुजम--बहुत गरीब ब्राह्मण के घर में, बहुत थोड़ी सी शिक्षा मिली। लेकिन उस छोटे से गांव में ही बिना किसी विशेष शिक्षा के रामानुजम की प्रतिभा गणित के साथ अनूठी थी। जो लोग गणित जानते हैं, उनका कहना है कि मनुष्य-जाति के इतिहास में रामानुजम से बड़ा और विशिष्ट गणितज्ञ नहीं हुआ। बहुत बड़े-बड़े गणितज्ञ हुए हैं, पर वे सब सुशिक्षित थे, उन्हें गणित का प्रशिक्षण मिला था, बड़े गणितज्ञों का साथ-सत्संग मिला था, वर्षों की उनकी तैयारी थी। रामानुजम की न कोई तैयारी थी, न कोई साथ मिला, न कोई शिक्षा मिली, मैट्रिक भी रामानुजम पास नहीं हुआ। और एक छोटे से दफ्तर में मुश्किल से क्लर्की का काम मिला।
लेकिन अचानक खबर लोगों में फैलने लगी कि उसकी गणित के संबंध में कुशलता अदभुत है। और किसी ने उसे सुझाव दिया कि कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी में उस समय विश्व के बड़े से बड़े गणितज्ञों में एक हार्डी प्रोफेसर थे, उनको लिखो। उसने पत्र तो नहीं लिखा, ज्यामिति की डेढ़ सौ थ्योरम बना कर भेज दीं। हार्डी तो चकित रह गया। उतनी कम उम्र के व्यक्ति से उस तरह के ज्यामिति के सिद्धांतों का अनुमान भी नहीं लग सकता था। उसने तत्काल रामानुजम को यूरोप बुलाया। और जब रामानुजम कैम्ब्रिज पहुंचा तो हार्डी, जो कि बड़े से बड़ा गणितज्ञ था उस समय के विश्व का, वह अपने को बिलकुल बच्चा समझने लगा रामानुजम के सामने।
रामानुजम की क्षमता ऐसी थी जिसका मस्तिष्क से संबंध नहीं मालूम पड़ता। अगर आपसे कोई गणित करने को कहा जाए तो समय लगेगा। बुद्धि ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकती जिसमें समय न लगे। बुद्धि सोचेगी, हल करेगी, समय व्यतीत होगा। लेकिन रामानुजम को समय ही नहीं लगता था। यहां आप तख्ते पर सवाल लिखेंगे, वहां रामानुजम उत्तर देना शुरू कर देगा। आप बोल भी न पाएंगे पूरा, और उत्तर आ जाएगा। बीच में समय का कोई व्यवधान न होगा।
बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई थी। क्योंकि जिस सवाल को हल करने में बड़े से बड़े गणितज्ञ को छह घंटे लगेंगे ही, फिर भी जरूरी नहीं है कि सही हो, उत्तर सही है या नहीं इसे जांचने में फिर छह घंटे उसे गुजारने पड़ेंगे। रामानुजम को सवाल दिया गया और वह उत्तर देगा, जैसे सवाल में और उत्तर के बीच में कोई समय का क्षण भी व्यतीत नहीं होता है।
इससे एक बात तो सिद्ध हो गई थी कि रामानुजम बुद्धि के माध्यम से उत्तर नहीं दे रहा है। बुद्धि बहुत बड़ी थी भी नहीं उसके पास, मैट्रिक में वह फेल हुआ था, कोई बुद्धिमत्ता का और लक्षण भी न था। सामान्य जीवन में किसी चीज में भी कोई ऐसी बुद्धिमत्ता नहीं मालूम पड़ती थी। लेकिन बस गणित के संबंध में वह एकदम अतिमानवीय, मनुष्य से बहुत पार की घटना उसके जीवन में घटती थी।
जल्दी मर गया रामानुजम। उसे क्षय रोग हो गया, वह छत्तीस साल की उम्र में मर गया। जब वह बीमार होकर अस्पताल में पड़ा था तो हार्डी और दो-तीन गणितज्ञ मित्रों के साथ उसे देखने गया था। उसके दरवाजे पर ही हार्डी ने कार रोकी और भीतर गया। कार के पीछे का नंबर रामानुजम को दिखाई पड़ा। उसने हार्डी से कहा: आश्चर्यजनक है! आपकी कार का जो नंबर है, ऐसा कोई आंकड़ा ही नहीं है मनुष्य की गणित की व्यवस्था में। यह आंकड़ा बड़ा खूबी का है। उसने चार विशेषताएं उस आंकड़े की बताईं।
रामानुजम तो मर गया। हार्डी को छह महीने लगे वह पूरी विशेषता सिद्ध करने में। वे जो चार उसने विशेषताएं उस आंकड़े की बताई थीं--आकस्मिक, नजर पड़ गई थी--हार्डी को छह महीने लगे, तब भी वह तीन ही सिद्ध कर पाया, चौथी असिद्ध रह गई बात। हार्डी वसीयत छोड़ कर मरा कि मेरे मरने के बाद वह चौथी की खोज जारी रखी जाए, क्योंकि रामानुजम ने कहा है तो वह ठीक तो होगी ही।
हार्डी के मर जाने के बाईस साल बाद वह चौथी घटना सही सिद्ध हो पाई कि उसने ठीक कहा था, उस आंकड़े में यह खूबी है!
रामानुजम को जब भी यह गणित की स्थिति घटती थी, तब उसकी दोनों आंखों के बीच में कुछ होना शुरू हो जाता था। उसकी दोनों आंखों की पुतलियां ऊपर चढ़ जाती थीं। योग, जिस जगह रामानुजम की आंखें चढ़ जाती थीं, उसको तृतीय नेत्र कहता है, उसको तीसरी आंख कहता है। और अगर वह तीसरी आंख शुरू हो जाए--तीसरी आंख सिर्फ उपमा की दृष्टि से, सिर्फ इस खयाल से कि वहां से भी कुछ दिखाई पड़ना शुरू होता है--कोई दूसरा ही जगत शुरू हो जाता है। जैसे कि किसी आदमी के मकान में एक छोटा सा छेद हो, वह खुल जाए, और आकाश दिखाई पड़ने लगे। और जब तक वह छेद न खुला हो तो आकाश दिखाई न पड़ रहा हो। करीब-करीब हमारी दोनों आंखों के बीच में जो भ्रू-मध्य जगह है, वहां वह छेद है जहां से हम इस लोक के बाहर देखना शुरू कर देते हैं। एक बात तय थी कि जब भी रामानुजम को कुछ ऐसा होता था, तो उसकी दोनों पुतलियां चढ़ जाती थीं। हार्डी नहीं समझ पाया, पश्चिम के गणितज्ञ नहीं समझ पाए, और अभी गणितज्ञ आगे भी नहीं समझ पाएंगे।
एक दूसरी घटना और, और तब मैं आपको तिलक के संबंध में कुछ कहूं, तब आपकी समझ में आना आसान होगा; क्योंकि तिलक का संबंध उस तीसरी आंख से है।
उन्नीस सौ पैंतालीस में एक आदमी मरा अमरीका में--एडगर कायसी। चालीस साल पहले उन्नीस सौ पांच में वह बीमार पड़ा और बेहोश हो गया। और तीन दिन कोमा में पड़ा रहा। चिकित्सकों ने आशा छोड़ दी, और चिकित्सकों ने कहा कि हमें इसे कोमा के बाहर, बेहोशी के बाहर लाने का कोई उपाय नहीं सूझता। और बेहोशी इतनी गहन है कि अब यह शायद ही वापस लौट सके।
तीसरे दिन सारी आशा छोड़ दी गई; सब दवाइयां, सब इलाज कर लिए गए, लेकिन होश का कोई लक्षण नहीं था। तीसरे दिन शाम को चिकित्सकों ने कहा कि अब हम विदा होते हैं, क्योंकि अब हमारे वश के बाहर है। यह चार-छह घंटे में युवक मर जाएगा। और अगर बच गया तो सदा के लिए पागल हो जाएगा, जो कि मरने से भी बुरा सिद्ध होगा। क्योंकि इतनी देर में इसके मस्तिष्क के जो सूक्ष्म तंतु हैं, वे विसर्जित हो रहे हैं, डिसइंटीग्रेट हो रहे हैं।
अचानक चिकित्सक हैरान हुए। वह जो बेहोश कायसी पड़ा था बोला! वह बेहोश था तीन दिन से, वह बोला। जैसे कि कोई गहरी नींद से अचानक बोल उठे। हैरानी और ज्यादा हो गई, क्योंकि उसका कोमा जारी था। उसका शरीर अभी भी पूरी तरह कोमा में था। उसके हाथ में आप छुरी भी भोंक दो तो पता नहीं चलती थी। लेकिन वाणी आ गई, और कायसी ने कहा कि शीघ्रता करो! मैं एक वृक्ष से गिर पड़ा था, और मेरी रीढ़ में पीछे चोट लग गई है, और उसी चोट के कारण मैं बेहोश हूं। और अगर छह घंटे में मुझे ठीक नहीं किया गया तो बीमारी का जहर मेरे मस्तिष्क तक पहुंच जाएगा, फिर मेरे जिंदा बचने का कोई अर्थ नहीं है। और इस-इस नाम की जड़ी-बूटियां ले आओ और उनको इस तरह से तैयार करके मुझे पिला दो, मैं बारह घंटे के भीतर ठीक हो जाऊंगा। और कायसी फिर बेहोश हो गया।
जो नाम उसने लिए थे जड़ी-बूटियों के, आशा भी नहीं हो सकती थी कि कायसी को उनका पता हो, क्योंकि वह किसी चिकित्सा से कभी कोई उसका संबंध नहीं था। चिकित्सकों ने कहा: और तो करने का कोई उपाय नहीं है, यह निपट पागलपन मालूम पड़ता है, क्योंकि ये जड़ी-बूटियां इस तरह का काम करेंगी, यह हमको भी पता नहीं है। लेकिन जब कोई उपाय न हो, तो हर्ज कुछ भी नहीं है। वे जड़ी-बूटियां खोजी गईं। जैसा बताया था कायसी ने, वैसा बना कर उसे दिया गया। बारह घंटे में वह होश में आ गया, और बिलकुल ठीक हो गया। और होश में आकर वह न बता सका कि उसने ऐसी कोई बात कही थी या उन दवाइयों के नाम भी न पहचान सका, वे जो जड़ी-बूटियां उसने कही थीं, कि मैं इनके नाम भी पहचानता हूं। उसने कहा: यह हो ही कैसे सकता है? मुझे तो कुछ पता नहीं।
और तब एक बहुत अनूठी घटना की शुरुआत हुई। फिर तो कायसी इसमें कुशल हो गया, और उसने अमरीका में तीस हजार लोगों को अपने पूरे जीवन में ठीक किया। और जो भी निदान उसने किया वह सदा ठीक निकला, और जो मरीज उससे निदान लिया वह सदा ठीक हुआ, निरपवाद रूप से। लेकिन कायसी खुद भी नहीं समझा सकता था कि उसे होता क्या है। इतना ही कह सकता था कि जब भी मैं आंख बंद करता हूं कोई निदान खोजने के लिए, मेरी दोनों आंखें ऊपर चढ़ जाती हैं। मुझे ऐसा लगता है कि कोई मेरी पुतलियों को ऊपर खींचे जा रहा है। और फिर मेरी दोनों आंखें भ्रू-मध्य में ठहर जाती हैं। और तब मैं इस लोक को भूल जाता हूं। फिर मुझे पता नहीं क्या होता है। इसे मैं भूलता हूं, इसका मुझे पता है। दूसरा क्या होता है, उसका मुझे कोई पता नहीं। लेकिन जब तक मैं इसको नहीं भूल जाता, तब तक वह जो निदान मैं देता हूं वह नहीं आता है। निदान उसने ऐसे-ऐसे दिए कि एक-दो निदान सोच लेने जैसे हैं।
रथचाइल्ड अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति, अरबपति परिवार है। उस परिवार की एक महिला बीमार थी और कोई इलाज नहीं बचा था, सब इलाज हो गए थे। फिर कायसी के पास उसको लाया गया। कायसी ने एक दवा का नाम दिया अपनी बेहोशी में। हमारी तरफ से हम कहेंगे बेहोशी, जो जानते हैं उनकी तरफ से तो वह हमसे बड़े होश में है, जो जानते हैं उनके लिहाज से तो हम बेहोश हैं। सच तो यह है कि जब तक तीसरी आंख तक ज्ञान न पहुंचे, तब तक बेहोशी जारी रहती है। पर हमारी तरफ से कायसी ने आंख बंद कीं, वह बेहोश हुआ, और उसने एक दवा का नाम बताया।
रथचाइल्ड तो अरबपति परिवार था। सारे अमरीका में खोज-बीन की गई, वह दवा कहीं मिली नहीं। कोई यह भी न बता सका कि इस तरह की कोई दवा है भी। फिर सारी दुनिया के अखबारों में विज्ञापन दिया गया कि कहीं से भी इस नाम की दवा मिले। कोई बीस दिन बाद स्वीडन से एक आदमी ने जवाब दिया कि इस नाम की दवा है नहीं; बीस साल पहले मेरे पिता ने इस नाम की दवा पेटेंट करवाई थी, लेकिन फिर कभी बनाई नहीं। वह सिर्फ पेटेंट है, कभी बाजार में आई नहीं। दवा भी हमारे पास नहीं है, पिता मर चुके हैं, और वह प्रयोग कभी सफल हुआ नहीं। सिर्फ फार्मूला हमारे पास है, वह हम पहुंचा देते हैं। वह फार्मूला पहुंचाया गया, वह दवा बनी, और वह स्त्री ठीक हो गई। लेकिन वह दवा कहीं थी नहीं दुनिया के बाजार में कि जिसका कायसी को पता हो सके।
दूसरी एक घटना में उसने एक दवा का नाम लिया। बहुत खोज-बीन की गई, वह दवा नहीं मिल सकी। साल भर बाद अखबारों में उस दवा का विज्ञापन निकला। वह दवा उस वक्त बन रही थी किसी प्रयोगशाला में जब उसने कहा था, तब तक उसका नाम भी तय नहीं हुआ था। पर जो नाम उसने साल भर पहले दिया था उस नाम की दवा साल भर बाद बाहर आई। और उसी दवा से वह मरीज ठीक हुआ।
और कई बार तो उसने दवाएं बताईं जो खोजी नहीं जा सकीं और मरीज मर गए। और वह भी कहता था, मैं कुछ कर नहीं सकता, मेरे हाथ की बात नहीं है। मुझे पता नहीं कि जब मैं बेहोश होता हूं तब कौन बोलता है, कौन देखता है, मुझे कुछ पता नहीं। मुझमें और उस व्यक्तित्व में कोई भी संबंध नहीं है। पर एक बात तय थी कि कायसी जब भी बोलता तब उसकी दोनों आंखें चढ़ गई होती थीं।
आप भी जब गहरी नींद में सोते हैं तो आपकी दोनों आंखें, जितनी गहरी नींद होती है, उतनी ऊपर चली जाती हैं। अब अभी तो बहुत से मनोवैज्ञानिक नींद पर बहुत से प्रयोग कर रहे हैं। तो आपकी आंख की पुतली कितनी ऊपर गई है, इससे ही तय किया जाता है कि आप कितनी गहरी नींद में हैं। जितनी आंख की पुतली नीचे होती है उतनी गतिमान होती है ज्यादा, मूवमेंट होता है। और आंख की पुतली में जितनी गति होती है उतनी तेजी से आप सपना देख रहे होते हैं।
यह सब सिद्ध हो चुका है वैज्ञानिक परीक्षणों से। उसको वैज्ञानिक कहते हैं आर ई एम, रैम, रैपिड आई मूवमेंट। तो रैम की कितनी मात्रा है, उससे ही तय होता है कि आप कितनी गति का सपना देख रहे हैं। और आंख की पुतली जितनी नीची होती है, रैम की मात्रा उतनी ही ज्यादा होती है; जितनी ऊपर चढ़ने लगती है, रैम, वह जो आंख की तीव्र गति है पुतलियों की, वह कम होने लगती है। और जब बिलकुल थिर हो जाती है आंख वहां जाकर जहां कि दोनों आंखें मध्य में देखती हैं ऐसी प्रतीत होती हैं, वहां जाकर रैम बिलकुल ही बंद हो जाता है, बिलकुल! पुतली में कोई तरह की गति नहीं रह जाती।
वह जो अगति है पुतली की वही गहन से गहन निद्रा है। योग कहता है कि गहरी सुषुप्ति में हम वहीं पहुंच जाते हैं जहां समाधि में। फर्क इतना ही होता है कि सुषुप्ति में हमें पता नहीं होता, समाधि में हमें पता होता है। गहरी सुषुप्ति में आंख जहां ठहरती है वहीं गहरी समाधि में भी ठहरती है।
ये दोनों घटनाएं मैंने आपसे कहीं यह इंगित करने को कि आपकी दोनों आंखों के बीच में एक बिंदु है जहां से यह संसार नीचे छूट जाता है और दूसरा संसार शुरू होता है। वह बिंदु द्वार है। उसके इस पार, जिस जगत से हम परिचित हैं वह है, उसके उस पार एक अपरिचित और अलौकिक जगत है। इस अलौकिक जगत के प्रतीक की तरह सबसे पहले तिलक खोजा गया।
तो तिलक हर कहीं लगा देने की बात नहीं है। वह तो जो व्यक्ति हाथ रख कर आपका बिंदु खोज सकता है वही आपको बता सकता है कि तिलक कहां लगाना है। हर कहीं तिलक लगा लेने से कोई मतलब नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है।
फिर प्रत्येक व्यक्ति का बिंदु भी एक ही जगह नहीं होता। यह जो दोनों आंखों के बीच तीसरी आंख है, यह प्रत्येक व्यक्ति की बिलकुल एक जगह नहीं होती, अंदाजन दोनों आंखों के बीच में ऊपर होती है, पर फर्क होते हैं। अगर किसी व्यक्ति ने पिछले जन्मों में बहुत साधना की है और समाधि के छोटे-मोटे अनुभव पाए हैं तो उसी हिसाब से वह बिंदु नीचे आता जाता है। अगर इस तरह की कोई साधना नहीं की है तो वह बिंदु काफी ऊपर होता है। उस बिंदु की अनुभूति से यह भी जाना जा सकता है कि आपके पिछले जन्मों की साधना कुछ है समाधि की दिशा में? आपने तीसरी आंख से कभी दुनिया को देखा है? कभी भी आपके किसी जन्म में ऐसी कोई घटना घटी है? तो आपका वह बिंदु, उसका स्थान बताएगा कि ऐसी घटना घटी है या नहीं घटी है। अगर ऐसी घटना बहुत घटी है तो वह बिंदु बहुत नीचे आ जाएगा। वह करीब-करीब दोनों आंखों के समतुल भी आ जाता है, उससे नीचे नहीं आ सकता। और अगर बिलकुल समतुल बिंदु हो, दोनों आंखों के बिलकुल बीच में आ गया हो, तो जरा से इशारे से आप समाधि में प्रवेश कर सकते हैं। इतने छोटे इशारे से कि जिसको हम कह सकते हैं इशारा बिलकुल असंगत है।
इसलिए बहुत दफे जब कुछ लोग बिलकुल ही अकारण समाधि में प्रवेश कर जाते हैं, तो हमें लगता है, बड़ी अजीब सी बात मालूम पड़ती है। जैसे कि झेन साध्वी के जीवन में कथा है। लौटती थी कुएं से पानी भर कर, घड़ा गिर गया। और घड़े के गिरने के साथ समाधि लग गई, और पूर्ण ज्ञान उपलब्ध हुआ। बिलकुल फिजूल की बात है! घड़े का गिरना या घड़े का फूट जाना और समाधि का लगना, कोई संगति नहीं है। लाओत्से के जीवन में उल्लेख है कि वृक्ष के नीचे बैठा था, पतझड़ के दिन थे। और वृक्ष से पत्ते नीचे गिरने लगे, और लाओत्से परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया। अब वृक्ष से गिरते हुए पत्तों का कोई भी तो संबंध नहीं है। कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन यह घटना तब घट सकती है जब कि पिछले जन्मों में यात्रा इतनी हो चुकी हो कि वह तीसरा बिंदु दोनों आंखों के बिलकुल बीच में आ गया हो। तब यह घटना घट सकती है, क्योंकि शायद आखिरी तिनके की जरूरत है और तराजू बैठ जाए। आखिरी तिनका कोई भी चीज बन सकती है।
तो पुराने दिनों में जब भी दीक्षा दी जाती, और दीक्षा वही दे सकता है जो आपकी समस्त जन्मों की सार-संपदा क्या है उसे समझ पाता हो, अन्यथा नहीं दे सकता। अन्यथा देने का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जहां तक आप पहुंच गए हैं उसके आगे यात्रा करनी है। तो वह जो तिलक है अगर ठीक-ठीक लगाया जाए, तो वह कई अर्थों का सूचक था। वे सारे अर्थ समझने पड़ेंगे।
पहला तो वह इस बात का सूचक था कि जब एक बार गुरु ने बता दिया कि तिलक यहां लगाना है ठीक जगह और आपको भी जब उस ठीक जगह का अनुभव होने लगा, क्योंकि तिलक लगाने का पहला प्रयोजन यही है। आपने कभी खयाल न किया होगा कि अगर आप आंख बंद करके भी बैठ जाएं, और कोई व्यक्ति आपकी बंद आंख में भी आपकी दोनों आंखों के बीच में सिर के पास अंगुली ले जाए, तो बंद आंख में भी आपको भीतर अहसास होना शुरू हो जाएगा कि कोई आंख की तरफ अंगुली किए हुए है। वह तीसरी आंख की प्रतीति है।
तो अगर ठीक तीसरी आंख पर तिलक लगा दिया जाए, और उसी मात्रा का, उतने ही अनुपात का तिलक लगा दिया जाए जितनी बड़ी तीसरी आंख की स्थिति है, तो आपको पूरे शरीर को छोड़ कर उसी का स्मरण चौबीस घंटे रहने लगेगा। वह स्मरण पहला तो यह काम करेगा कि आपका शरीर-बोध कम होता जाएगा, और तिलक-बोध बढ़ता जाएगा। एक क्षण ऐसा आ जाता है जब कि पूरे शरीर में सिर्फ तिलक ही स्मरण रह जाता है, बाकी सारा शरीर भूल जाता है। और जिस दिन ऐसा हो जाए, उसी दिन आप उस आंख को खोलने में समर्थ हो सकते हैं।
तो तिलक के साथ जुड़ी हुई साधनाएं थीं कि पूरे शरीर को भूल जाओ, सिर्फ तिलक-मात्र की जगह याद रह जाए। उसका अर्थ यह हुआ कि सारी चेतना सिकुड़ कर फोकस्ड हो जाए तीसरी आंख पर और तीसरी आंख के खोलने की जो कुंजी है वह फोकस्ड कांशसनेस है। उस पर चेतना पूरी की पूरी इकट्ठी हो जाए, सारे शरीर से सिकुड़ कर उस छोटे से स्थान पर लग जाए। बस, उसकी मौजूदगी से काम हो जाएगा।
जैसे कि हम सूरज की किरणों को एक छोटे से लेंस के द्वारा एक कागज पर गिरा लें। इकट्ठी हो गई किरणें आग पैदा कर देंगी। वे ही किरणें सिर्फ धूप पैदा कर रही थीं, उनसे आग पैदा नहीं होती थी। वे ही किरणें आग पैदा कर सकती हैं--संगृहीत। चेतना शरीर पर बंटी रहती है तो सिर्फ जीवन का कामचलाऊ उपयोग उससे होता है। चेतना अगर तीसरे नेत्र के पास पूरी इकट्ठी हो जाए, तो वह जो तीसरे नेत्र में बाधा है, वह जो द्वार है, जो बंदपन है, वह टूट जाता है, जल जाता है, राख हो जाता है, और हम उस आकाश को देखने में समर्थ हो जाते हैं जो हमारे ऊपर फैला है।
तो तिलक का पहला उपयोग तो यह था कि आपको ठीक-ठीक जगह बता दी जाए शरीर में कि चौबीस घंटे इस जगह का स्मरण रखना है। सब तरफ से चेतना को सिकोड़ कर इस जगह ले आना है। एक! और दूसरा यह था प्रयोग कि गुरु को रोज-रोज देखने की जरूरत न पड़े, रोज आपके माथे पर हाथ रखने की भी जरूरत न पड़े; क्योंकि जैसे-जैसे वह बिंदु नीचे सरकेगा वैसे-वैसे आपको अहसास होगा, और आपके तिलक को भी नीचे होते जाना है। आपको रोज तिलक लगाते वक्त ठीक वहीं तिलक लगाना है जहां वह बिंदु आपको अहसास होता है।
तो हजार शिष्य हैं एक गुरु के। वह शिष्य आता है, झुकता है, तभी वह देख लेता है कि तिलक कहां है। इसकी बात करने की जरूरत नहीं रह जाती। वह देख लेता है कि तिलक नीचे सरक रहा है कि नहीं सरक रहा है? तिलक उसी जगह है कि तिलक में कोई अंतर पड़ रहा है? वह कोड है। दिन में दो-चार दफे शिष्य आएगा और वह देख पाएगा कि तिलक! रोज सुबह शिष्य उसके चरण छूने आएगा और वह देख पाएगा कि वह तिलक गतिमान है? वह आगे गति कर रहा है? रुका हुआ है? ठहरा हुआ है? और किसी दिन वह शिष्य के माथे पर हाथ रख कर पुनः देख पाएगा। अगर शिष्य को पता नहीं चल रहा है हटने का, तो उसका मतलब है कि चेतना पूरी की पूरी इकट्ठी नहीं की जा रही है। अगर वह तिलक गलत जगह लगाए हुए है और बिंदु दूसरी जगह है, तो उसका मतलब है कि उसकी कांशसनेस, उसकी रिमेंबरिंग, उसकी स्मृति ठीक बिंदु को नहीं पकड़ पा रही है। वह भी उसे पता चल जाएगा।
जैसे-जैसे यह तिलक नीचे आता जाएगा वैसे-वैसे प्रयोग बदलने पड़ेंगे साधना के। यह करीब-करीब वैसा ही काम करेगा जैसे कि अस्पताल में मरीज के पास लटका हुआ चार्ट काम करता है। वह नर्स आकर, देख कर चार्ट पर लिख जाती है--कितना है ताप, कितना है ब्लडप्रेशर, क्या है, क्या नहीं है। डॉक्टर को आकर देखने की जरूरत नहीं होती, वह चार्ट पर एक क्षण नजर डाल लेता है, बात पूरी हो जाती है। पर इससे भी अदभुत था यह प्रयोग कि माथे पर पूरा का पूरा इंगित लगा था, यह सब तरह की खबर देता। और अगर यह ठीक-ठीक इसका प्रयोग किया जाता तो गुरु को पूछने की कभी जरूरत न पड़ती कि क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। वह जानता है कि क्या हो रहा है। और क्या सहायता पहुंचानी है, वह भी जानता है। क्या प्रयोग बदलना है, कौन सी विधि रूपांतरित करनी है, वह भी जानता है।
एक तो साधना की दृष्टि से तिलक का ऐसा मूल्य था। दूसरा, जो हमारी तीसरी आंख का बिंदु है, वह हमारे संकल्प का भी बिंदु है। उसको योग में आज्ञाचक्र कहते हैं। आज्ञाचक्र इसीलिए कहते हैं कि हमारे जीवन में जो कुछ भी अनुशासन है वह उसी चक्र से पैदा होता है। हमारे जीवन में जो भी व्यवस्था है, जो भी आर्डर है, जो भी संगति है, वह उसी बिंदु से पैदा होती है।
इसे ऐसा समझें। हम सबके शरीर में सेक्स का सेंटर है। सेक्स से समझना आसान पड़ जाएगा, क्योंकि वह हम सबका परिचित है, यह आज्ञा का चक्र तो हम सबका परिचित नहीं है। हमारे जीवन की सारी वासना और कामना सेक्स के चक्र से पैदा होती है। जब तक वह चक्र सक्रिय नहीं होता तब तक कामवासना पैदा नहीं होती। कामवासना लेकर बच्चा पैदा होता है, कामवासना का पूरा यंत्र लेकर पैदा होता है, कोई कमी नहीं होती।
कुछ मामले में तो बहुत हैरानी की बात है। स्त्रियां तो अपने जीवन के सारे रजकण भी लेकर पैदा होती हैं, फिर कोई नया रजकण पैदा नहीं होता। प्रत्येक स्त्री कितने बच्चों को जन्म दे सकती है, वह सबके अंडे लेकर पैदा होती है--करोड़ों। पहले दिन की बच्ची भी जब मां के पेट से पैदा होती है, तो अपने जीवन के समस्त अंडों की संख्या अपने भीतर लिए हुए पैदा होती है। हर महीना एक अंडा उसके कोष से निकल कर सक्रिय हो जाएगा। अगर वह अंडा पुरुष वीर्य से मिल जाए, संयुक्त हो जाए, तो बच्चे का जन्म हो जाएगा। एक भी नया अंडा स्त्री में पैदा नहीं होता। सारे अंडे लेकर पैदा होती है। लेकिन फिर भी कामवासना नहीं पैदा होती तब तक, जब तक कि कामवासना का चक्र शुरू न हो जाए। वह चक्र जब तक अगति में पड़ा है, ठहरा हुआ है, तब तक--काम का पूरा यंत्र है, काम की पूरी आयोजना है, शरीर के पास काम की पूरी शक्ति है--लेकिन फिर भी कामवासना पैदा नहीं होगी। कामवासना पैदा होगी, जैसे ही काम का सेंटर गतिमान होगा, गत्यात्मक होगा। चौदह वर्ष की उम्र में या तेरह वर्ष की उम्र में वह गतिमान हो जाएगा। गतिमान होते ही से जो यंत्र पड़ा था बंद बिलकुल, वह पूरी सक्रियता ले लेगा।
एक ही चक्र से आमतौर से हम परिचित हैं। और वह भी हम इसीलिए परिचित हैं क्योंकि उसे हम शुरू नहीं करते, उसे प्रकृति शुरू करती है। अगर हमें ही उसे भी शुरू करना हो तो इस जगत में थोड़े से ही लोग कामवासना से परिचित हो पाएंगे। वह तो प्रकृति शुरू करती है,
इसलिए हमें पता चलता है कि वह है।
कभी आपने सोचा है, जरा सा विचार वासना का, और जननेंद्रिय का पूरा यंत्र सक्रिय हो जाता है। विचार चलता है मस्तिष्क में, यंत्र होता है बहुत दूर! कभी आपने सोचा है कि जरा सा कामवासना का मन में, जरा सी झलक, और तत्काल चक्र सक्रिय हो जाता है। असल में आपके चित्त में कामवासना का कोई भी विचार उठे वह तत्काल जो सेक्स का सेंटर है उसे अपनी ओर खींच लेता है। कहीं भी उठे शरीर में, तत्काल वह अपने सेंटर पर चला जाएगा। उसे जाना ही पड़ेगा, उसे जाने की और कोई जगह नहीं है। जैसे पानी गड्ढे में चला जाता है, ऐसा प्रत्येक संबंधित विचार अपने चक्र पर चला जाता है।
दोनों आंखों के बीच में जो तीसरे नेत्र की मैं बात कर रहा हूं, वही जगह आज्ञाचक्र की है। इस आज्ञा के संबंध में थोड़ी बात समझ लेनी जरूरी है।
जिन लोगों के जीवन में भी यह चक्र प्रारंभ नहीं होगा, वे हजार तरह की गुलामियों में बंधे रहेंगे, वे गुलाम ही रहेंगे। इस चक्र के बिना कोई स्वतंत्रता नहीं है। यह बहुत हैरानी की बात मालूम पड़ेगी। क्योंकि हमने बहुत तरह की स्वतंत्रताएं सुनी हैं--राजनैतिक, आर्थिक। वे कोई स्वतंत्रताएं वास्तविक नहीं हैं। क्योंकि जिस व्यक्ति का आज्ञाचक्र सक्रिय नहीं है, वह किसी न किसी तरह की गुलामी में रहेगा। एक गुलामी से छूटेगा दूसरी में पड़ेगा, दूसरी से छूटेगा तीसरी में पड़ेगा, वह गुलाम रहेगा ही। उसके पास मालिक होने का तो अभी चक्र ही नहीं है, जहां से मालकियत की किरणें पैदा होती हैं। उसके पास संकल्प जैसी, विल जैसी कोई चीज ही नहीं है। वह अपने को आज्ञा दे सके ऐसी उसकी सामर्थ्य ही नहीं है, बल्कि उसका शरीर और उसकी इंद्रियां ही उसको आज्ञा दिए चली जाती हैं। पेट कहता है भूख लगी है, तो उसको भूख लगती है। कामवासना का बिंदु कहता है वासना जगी, तो उसे वासना जगती है। शरीर कहता है बीमार हूं, तो वह बीमार हो जाता है। शरीर कहता है बूढ़ा हो गया, तो वह बूढ़ा हो जाता है। शरीर आज्ञा देता है, आदमी आज्ञा मान कर चलता रहता है।
यह जो आज्ञाचक्र है, इसके जगते ही शरीर आज्ञा देना बंद कर देता है और आज्ञा लेना शुरू करता है। पूरा का पूरा आयोजन बदल जाता है और उलटा हो जाता है। वैसा आदमी अगर खून--बहते हुए खून को कह दे कि रुक जाओ, तो वह बहता हुआ खून रुक जाएगा। वैसा आदमी कह दे हृदय की धड़कन को कि ठहर जा, तो हृदय की धड़कन ठहर जाएगी। वैसा आदमी कहे अपनी नब्ज से कि मत चल, तो नब्ज चल न सकेगी। वैसा आदमी अपने शरीर, अपने मन, अपनी इंद्रियों का मालिक हो जाता है। पर इस चक्र के बिना शुरू हुए मालिक नहीं होता। इस चक्र का स्मरण जितना ज्यादा रहे, उतनी ही ज्यादा आपके भीतर, जिसको कहें स्वयं की मालिकी, पैदा होनी शुरू होती है। आप गुलाम की जगह मालिक बनना शुरू होते हैं।
तो योग ने इस चक्र को जगाने के बहुत-बहुत प्रयोग किए हैं। उसमें तिलक भी एक प्रयोग है। स्मरणपूर्वक, अगर कोई चौबीस घंटे इस चक्र पर बार-बार ध्यान को ले जाता रहे--और अगर तिलक लगा हुआ है तो बार-बार ध्यान जाएगा। तिलक के लगते ही वह स्थान पृथक हो गया। और बहुत सेंसिटिव स्थान है। अगर तिलक ठीक जगह लगा है तो आप हैरान होंगे कि आपको उसकी याद करनी ही पड़ेगी, वह बहुत संवेदनशील जगह है। संभवतः शरीर में सर्वाधिक संवेदनशील जगह है। उसकी संवेदनशीलता को स्पर्श करना, और वह भी खास चीजों से स्पर्श करने की बात थी।
जैसे चंदन का तिलक लगाना। अब यह सैकड़ों और हजारों प्रयोगों के बाद तय किया था कि चंदन का क्यों प्रयोग करना। एक तरह की रेजोनेंस है चंदन में और संवेदनशीलता में। वह चंदन का तिलक उस बिंदु की संवेदनशीलता को और गहन करता है, और घना कर जाता है। हर कोई तिलक नहीं कर जाएगा। कुछ चीजों के तिलक तो उसकी संवेदनशीलता को मार देंगे, बुरी तरह मार देंगे। जैसे आज स्त्रियां टीका लगा रही हैं बहुत से। बाजारू हैं वे, उनकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है, उनका योग से कोई लेना-देना नहीं है। वे बाजारू टीके नुकसान करेंगे। वे नुकसान करेंगे इसलिए क्योंकि सवाल यह है कि वे संवेदनशीलता को बढ़ाते हैं या घटाते हैं? अगर घटाते हैं संवेदनशीलता को तो नुकसान करेंगे, अगर बढ़ाते हैं तो फायदा करेंगे। और प्रत्येक चीज के अलग-अलग परिणाम हैं। इस जगत में छोटे से फर्क से सारा फर्क पड़ता है। तो कुछ विशेष चीजें खोजी गई थीं, जिनका ही उपयोग किया जाए।
आज्ञा का चक्र संवेदनशील हो सके, सक्रिय हो सके, तो आपके व्यक्तित्व में गरिमा और इंटिग्रिटी आनी शुरू होती है, एक समग्रता पैदा होती है। आप एकजुट होने लगते हैं, कोई चीज आपके भीतर इकट्ठी हो जाती है; खंड-खंड नहीं, अखंड हो जाती है।
इस संबंध में टीके के लिए भी पूछा है तो वह भी खयाल में ले लेना चाहिए।
तिलक से थोड़ा हट कर टीके का प्रयोग शुरू हुआ। विशेषकर स्त्रियों के लिए शुरू हुआ। उसका कारण वही था, लेकिन योग का ही अनुभव काम कर रहा था। असल में स्त्रियों का आज्ञाचक्र बहुत कमजोर चक्र है। होगा ही। क्योंकि स्त्री का सारा व्यक्तित्व निर्मित किया गया समर्पण के लिए, उसके सारे व्यक्तित्व की खूबी समर्पण है। आज्ञाचक्र अगर उसका बहुत मजबूत हो तो समर्पण करना मुश्किल हो जाएगा। तो स्त्री के पास आज्ञा का चक्र बहुत कमजोर है, असाधारण रूप से कमजोर है। इसलिए स्त्री सदा ही किसी न किसी का सहारा मांगती रहेगी। वह किसी रूप में हो। अपने पर खड़े हो जाने का पूरा साहस न जुटा पाएगी। कोई सहारा, किसी के कंधे पर हाथ, कोई आगे हो जाए, कोई आज्ञा दे और वह मान ले, इसमें उसे सुख मालूम पड़ेगा।
स्त्री के आज्ञाचक्र को सक्रिय बनाने की अकेली कोशिश इस मुल्क में हुई है, और कहीं भी नहीं हुई है। और वह कोशिश इसलिए थी कि अगर स्त्री का आज्ञाचक्र सक्रिय नहीं होता तो परलोक में उसकी कोई गति नहीं हो सकती, साधना में उसकी कोई गति नहीं हो सकती। उसके आज्ञाचक्र को तो स्थिर रूप से मजबूत करने की जरूरत है। लेकिन अगर यह आज्ञाचक्र साधारण रूप से मजबूत किया जाए तो उसके स्त्रैण होने में कमी पड़ेगी; अगर यह साधारण रूप से आज्ञाचक्र मजबूत किया जाए तो उसमें पुरुषत्व के गुण आने शुरू हो जाएंगे और स्त्रैण होने में कमी पड़ेगी।
इसलिए इस टीके को अनिवार्य रूप से उसके पति से जोड़ने की चेष्टा की गई। इसको जोड़ने का कारण है। इस टीके को सीधा नहीं रख दिया गया उसके माथे पर, नहीं तो उसमें स्त्रीत्व कम होगा। वह जितनी स्वनिर्भर होने लगेगी, उतना ही उसकी जो स्त्रैण कोमलता है, उसका जो कौमार्य है, वह नष्ट होगा। वह दूसरे का सहारा खोजती है, इससे उसमें एक तरह की कोमलता है। और जब वह अपने सहारे खड़ी होगी तो एक तरह की कठोरता अनिवार्य हो जाएगी।
तो बड़ी बारीकी से खयाल किया गया कि उसको सीधा टीका लगा दिया जाए, तो उसके स्त्रैण तत्व में नुकसान पहुंचेगा, उसके व्यक्तित्व में, उसके मां होने में बाधा पड़ेगी, उसके समर्पण में बाधा पड़ेगी। इसलिए उसकी आज्ञा को उसके पति से ही जोड़ने का समग्र प्रयास किया गया। इस तरह दोहरे फायदे होंगे। उसके स्त्रैण होने में कोई अंतर नहीं पड़ेगा, वह अपने पति के प्रति ज्यादा अनुगत हो पाएगी, और फिर भी उसकी आज्ञा का चक्र सक्रिय हो सकेगा।
इसे ऐसा समझें, आज्ञा का चक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए उसके विपरीत कभी नहीं जाता--जिससे भी संबंधित कर दिया जाए उसके विपरीत कभी नहीं जाता। चाहे गुरु से संबंधित कर दिया जाए तो गुरु के विपरीत कभी नहीं जाता, चाहे पति से संबंधित कर दिया जाए तो पति से विपरीत कभी नहीं जाता। आज्ञाचक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए उसके विपरीत व्यक्तित्व नहीं जाता। तो अगर एक स्त्री के माथे पर ठीक जगह पर टीका है तो वह सिर्फ पति के प्रति तो अनुगत हो सकेगी, शेष सारे जगत के प्रति वह सबल हो जाएगी। यह करीब-करीब स्थिति वैसी है कि अगर आप सम्मोहन के संबंध में कुछ समझते हैं तो इसे जल्दी समझ जाएंगे।
अगर आपने किसी सम्मोहक को लोगों को सम्मोहित करते, हिप्नोटाइज करते देखा है, तो आप एक चीज देख कर जरूर ही चौंके होंगे। और वह चीज यह कि अगर सम्मोहन करने वाला व्यक्ति किसी को सम्मोहित कर दे--कोई मैक्सकोल या कोई भी या आप खुद किसी को सम्मोहित कर दें--तो आपके सम्मोहित कर देने के बाद वह व्यक्ति किसी दूसरे की आवाज नहीं सुनेगा, सिर्फ आपकी सुन सकेगा। यह बहुत मजे की घटना घटती है। सम्मोहित कर देने के बाद सारे हॉल में यहां हजारों लोग चिल्लाते रहें, बात करते रहें, वह जो बेहोश पड़ा हुआ आदमी है, वह सुनेगा नहीं। लेकिन जिसने सम्मोहित किया है वह धीमे से भी बोले, तो भी सुनेगा। यह करीब-करीब, जो मैं आपको टीका समझा रहा हूं, उससे जुड़ी हुई घटना है। वह व्यक्ति जैसे ही सम्मोहित किया गया वैसे ही सम्मोहित करने वाले के प्रति ही सिर्फ उसकी ओपनिंग और खुलापन रह गया, बाकी सबके लिए क्लोज हो गया। आप उसको कुछ नहीं कह सकते। आप उसके कान के पास कितना ही चिल्लाएं, वह बिलकुल नहीं सुनेगा, नगाड़े बजाएं तो नहीं सुनेगा। और जिसने सम्मोहित किया है वह धीमे से भी आवाज दे कि खड़े हो जाओ, तो वह तत्काल खड़ा हो जाएगा। उसकी चेतना में सिर्फ एक द्वार रह गया है, बाकी सब तरफ से बंद हो गई है। जिसने सम्मोहित किया है, आज्ञाचक्र उससे बंध गया, बाकी सब तरफ से बंद हो गया।
ठीक इसी सजेस्टिबिलिटी का, इसी मंत्र का उपयोग स्त्री के टीके में किया गया है। उसको उसके पति के साथ जोड़ देना है। वह एक ही तरफ उसका अनुगत भाव रह जाएगा, एक तरफ वह समर्पित हो पाएगी और शेष सारे जगत के प्रति वह मुक्त और स्वतंत्र हो जाएगी। तो उसके स्त्री होने पर कोई बाधा नहीं पड़ेगी। और इसीलिए जैसे ही पति मर जाए, टीका हटा देना है। जैसे ही पति मर जाए, टीका हटा देना है। वह इसीलिए हटा देना है कि अब किसी के प्रति अनुगत होने का कोई सवाल नहीं रहा।
लोगों को खयाल नहीं है, उनको तो खयाल है कि टीका पोंछ दिया, क्योंकि विधवा हो गई स्त्री। पोंछने का प्रयोजन है। अब उसको अनुगत होने का कोई सवाल नहीं रहा। सच तो यह है कि अब उसको पुरुष की भांति ही जीना पड़ेगा। अब उसमें जितनी स्वतंत्रता आ जाए, उतनी उसके जीवन के लिए हितकर होगी। एक जरा सा भी छिद्र वल्नरेबिलिटी का, एक जरा सा भी छेद जहां से वह अनुगत हो सके, वह हट जाए।
टीके का प्रयोग एक बहुत ही गहरा प्रयोग है। लेकिन ठीक जगह पर हो, ठीक वस्तु का हो, ठीक नियोजित ढंग से लगाया गया हो। अन्यथा बेमानी है। सजावट हो कि श्रृंगार हो, तो उसका कोई मूल्य नहीं है, उसका कोई अर्थ नहीं है। तब वह सिर्फ एक औपचारिक घटना है। इसलिए पहली बार जब टीका लगाया जाए तो उसका पूरा अनुष्ठान है। और पहली दफे जब गुरु तिलक दे तब उसका पूरा अनुष्ठान है। उस पूरे अनुष्ठान से ही लगाया जाए तो ही परिणामकारी होगा, अन्यथा परिणामकारी नहीं होगा।
आज सारी चीजें हमें व्यर्थ मालूम पड़ने लगी हैं, उसका कारण है। आज तो व्यर्थ हैं। आज व्यर्थ हैं, क्योंकि उनके पीछे का कोई भी वैज्ञानिक रूप नहीं है। सिर्फ ऊपरी खोल रह गई है, जिसको हम घसीट रहे हैं, जिसको हम खींच रहे हैं बेमन से, जिसके पीछे मन का भी कोई लगाव नहीं रह गया है, आत्मा का कोई भाव नहीं रह गया है, और उसके पीछे की पूरी वैज्ञानिकता का कोई सूत्र भी मौजूद नहीं है। यह जो आज्ञाचक्र है, इस संबंध में दो-तीन बातें और समझ लेनी चाहिए, क्योंकि यह काम पड़ सकता है, इसका उपयोग किया जा सकता है।
इस चक्र की जो रेखा है, आज्ञाचक्र की, इस रेखा से ही जुड़ा हुआ हमारे मस्तिष्क का वह भाग है...इससे ही हमारा मस्तिष्क शुरू होता है। लेकिन अभी भी हमारे मस्तिष्क का आधा हिस्सा बेकार पड़ा हुआ है साधारणतः। हमारा जो प्रतिभाशाली से प्रतिभाशाली व्यक्ति होता है, जिसको हम जीनियस कहें, उसका भी केवल आधा ही मस्तिष्क काम करता है, आधा तो काम नहीं करता। और वैज्ञानिक बहुत परेशान हैं, फिजियोलॉजिस्ट बहुत परेशान हैं कि यह आधी खोपड़ी का जो हिस्सा है, यह किसी भी काम नहीं आता! अगर आपके आधे हिस्से को काट कर निकाल दिया जाए तो आपको पता भी नहीं चलेगा। आपको पता ही नहीं चलेगा कि कोई चीज कमी हो गई। क्योंकि उसका तो कभी कोई उपयोग ही नहीं हुआ है, वह न होने के बराबर है।
लेकिन वैज्ञानिक जानते हैं कि प्रकृति कोई भी चीज व्यर्थ निर्मित नहीं करती। भूल होती हो, एकाध आदमी के साथ हो सकती है। यह निरंतर हर आदमी के साथ आधा मस्तिष्क खाली पड़ा हुआ है! बिलकुल निष्क्रिय पड़ा हुआ है, उसमें कभी कोई चहल-पहल भी नहीं हुई है।
योग का कहना है कि वह जो आधा मस्तिष्क है वह आज्ञाचक्र के चलने के बाद शुरू होता है। आधा जो मस्तिष्क है वह आज्ञाचक्र के नीचे के चक्रों से जुड़ा हुआ है और आधा जो मस्तिष्क है वह आज्ञाचक्र के ऊपर के चक्रों से जुड़ा हुआ है। नीचे के चक्र शुरू होते हैं तो आधा मस्तिष्क काम करता रहता है, और जब आज्ञा के ऊपर काम शुरू होता है तब शेष आधा मस्तिष्क काम शुरू करता है।
इस संबंध में, हमें खयाल भी नहीं आता जब तक कोई चीज सक्रिय न हो जाए, हम सोच भी नहीं सकते। सोचने का भी कोई उपाय नहीं है। जब कोई चीज सक्रिय होती है तभी हमें पता चलता है।
स्वीडन में एक आदमी गिर पड़ा ट्रेन से। और गिरने के बाद जब वह अस्पताल में भर्ती किया गया तो उसे दस मील के भीतर की आस-पास की रेडियो की आवाजें पकड़ने लगीं, उसके कान में। पहले तो वह समझा कि उसका दिमाग कुछ खराब हो रहा है। पहले तो साफ भी नहीं था, गुनगुनाहट मालूम होती थी। लेकिन दो-तीन दिन में ही चीजें साफ होने लगीं। तब उसने घबड़ा कर डॉक्टर को कहा कि यह मामला क्या है? मुझे तो ऐसा सुनाई पड़ता है जैसे कि कोई रेडियो मेरे कान के पास लगाए हुए है। यहां तो कोई लगाए हुए नहीं है! डॉक्टर ने पूछा: तुम्हें क्या सुनाई पड़ रहा है? तो उसने जो गीत की कड़ी बताई वह डॉक्टर अभी अपने रेडियो से सुन कर आ रहा है। उसने कहा: यह मुझे अभी थोड़ी देर पहले सुनाई पड़ी। और फिर तो स्टेशन बंद हो गया टाइम बता कर, कि इतना टाइम है। तब तो रेडियो लाकर, लगा कर, जांच-पड़ताल की गई। और पाया गया कि उस आदमी का कान ठीक रेडियो की तरह रिसेप्टिव का काम कर रहा है, उतना ही ग्राहक हो गया है।
ऑपरेशन करना पड़ा। नहीं तो आदमी पागल हो जाए। क्योंकि ऑन-ऑफ का तो कोई उपाय नहीं था, वह चौबीस घंटे चल रहा था। जब तक स्टेशन चलेगा तब तक वह आदमी चल रहा था। लेकिन एक बात जाहिर हो गई कि यह भी कान की संभावना हो सकती है। और यह भी तय हो गया उसी दिन कि इस सदी के पूरे होते-होते हम कान का ही उपयोग करेंगे रेडियो के लिए। इतने-इतने बड़े यंत्रों को बनाने की और ढोने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन तब एक छोटी सी व्यवस्था, जो कान पर लगाई जा सके और जिससे ऑन-ऑफ किया जा सके, पर्याप्त होगा। सिर्फ ऑन-ऑफ किया जा सके, उतनी व्यवस्था! पर उस आदमी की आकस्मिक घटना से यह एक खयाल पकड़ा, बिलकुल आकस्मिक!
इस जगत में जो-जो नई घटनाएं घटती हैं या नये दृष्टिकोण खुलते हैं, वे हमेशा एक्सीडेंटल और आकस्मिक होते हैं। क्योंकि हम पिछले ज्ञान से तो उनका कोई अनुमान ही नहीं लगा सकते। अब हम कभी सोच ही नहीं सकते कि कान भी कभी रेडियो का काम कर सकता है। लेकिन क्यों नहीं कर सकता? कान सुनने का काम करता है, रेडियो सुनने का काम करता है। कान रिसेप्टिविटी है पूरी, रेडियो रिसेप्टिविटी है। सच तो यह है कि रेडियो कान के ही आधार पर निर्मित है। मॉडल का काम तो कान ने ही किया है। कान की और क्या-क्या संभावनाएं हो सकती हैं, ये जब तक अचानक उदघाटित न हो जाएं तब तक पता भी नहीं चल सकता।
ठीक वैसी घटना दूसरे महायुद्ध में एक और घटी। एक आदमी घायल हुआ, बेहोश हुआ, और जब होश में आया तो उसे दिन में आकाश के तारे दिखाई पड़ने लगे। तारे तो दिन में होते ही हैं, तारे तो कहीं चले नहीं जाते। तारे तो आकाश में होते ही हैं, सिर्फ सूरज की रोशनी की वजह से दिखाई पड़ने बंद हो जाते हैं। सूरज की रोशनी बीच में आ जाती है, तारे पीछे पड़ जाते हैं। सूरज की रोशनी बहुत तेज है, तारे बहुत दूर हैं, उनकी टिमटिमाती रोशनी खो जाती है। यद्यपि वे सूरज से छोटे नहीं हैं, उनमें से कोई सूरज से हजार गुना बड़ा है, कोई दस हजार गुना बड़ा है, कोई लाख गुना बड़ा है, पर फासला बहुत है।
सूरज से किरण हम तक आती है तो उसको नौ मिनट लगते हैं। और जो सबसे करीब का तारा है, उससे जो किरण आती है, उसको चालीस साल लगते हैं। फासला बहुत है--नौ मिनट और चालीस साल! और किरण बहुत तेज चलती है, एक लाख छियासी हजार मील चलती है एक सेकेंड में। सूरज से पहुंचने में नौ मिनट लगते हैं, निकटतम तारे से पहुंचने में चालीस साल लगते हैं। और ऐसे तारे हैं कि जिनसे चार हजार साल भी लगते हैं, चार लाख साल भी लगते हैं, चार करोड़ साल भी लगते हैं, चार अरब साल भी लगते हैं। चार अरब साल के ऊपर का हम हिसाब नहीं रख सकते, क्योंकि हमारी पृथ्वी को बने चार अरब साल हुए।
वैज्ञानिकों का कहना है कि जब हमारी पृथ्वी नहीं बनी थी, तब जो किरणें चली होंगी, एक दिन जब हमारी पृथ्वी समाप्त हो चुकी होगी तब पार होंगी। उन किरणों को कभी पता ही नहीं चलेगा कि बीच में यह पृथ्वी के होने की घटना घट गई। जब पृथ्वी नहीं थी तब वे चलीं और जब पृथ्वी नहीं हो चुकी होगी तब वे पार हो जाएंगी। उनको कभी पता नहीं चलेगा। उन किरणों पर अगर कोई यात्री सवार होकर चले तो पृथ्वी कभी थी, इसका कोई भी पता नहीं चलेगा।
दिन में वे तारे हैं अपनी जगह। उस आदमी को दिखाई पड़ने शुरू हो गए। उसकी आंख को क्या हो गया? उसकी आंख ने एक नया सिलसिला शुरू किया। ऑपरेशन करना पड़ा उसकी आंख का, क्योंकि वह आदमी सामान्य नहीं रह गया। वह आदमी बेचैनी में पड़ गया, वह आदमी कठिनाई में पड़ गया। पर एक बात साफ हुई कि आंख दिन में भी तारों को देख सकती है। अगर आंख दिन में भी तारों को देख सकती है तो आंख की बहुत सी संभावनाएं हैं जो सुप्त पड़ी हैं।
हमारी प्रत्येक इंद्रिय की बहुत सी संभावनाएं हैं जो सुप्त पड़ी हैं। इस जगत में जो हमें चमत्कार दिखाई पड़ते हैं, वे सुप्त पड़ी संभावनाओं का कहीं से टूट पड़ना है, बस! कोई सुप्त संभावना कहीं से प्रकट हो जाती है, हम चमत्कृत हो जाते हैं। वह मिरेकल नहीं है। उतना ही चमत्कार हमारे भीतर भी दबा पड़ा है। पर अप्रकट है, वह प्रकट नहीं हो पा रहा है, वह खुल नहीं पा रहा है। कहीं कोई दरवाजे पर ताला पड़ा है और वह नहीं टूट पा रहा है।
योग की दृष्टि...और योग की दृष्टि कोई एक-दो दिन, वर्ष दो वर्ष की धारणा की नहीं है, कम से कम बीस हजार साल से योग की यह परिपुष्ट दृष्टि है। विज्ञान की किसी दृष्टि पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता बहुत, क्योंकि जो विज्ञान छह महीने पहले कह रहा था, छह महीने बाद बदलेगा। लेकिन योग की एक परिपुष्ट दृष्टि है, जो बीस हजार साल--कम से कम। क्योंकि हम जिस सभ्यता में रह रहे हैं वह सभ्यता किसी भी हालत में बीस हजार साल से पुरानी नहीं है। यद्यपि यह हमारा भ्रम है कि हमारी सभ्यता पृथ्वी पर पहली सभ्यता है। हमसे पहले सभ्यताएं हो चुकी हैं और नष्ट हो चुकी हैं। और हमसे पहले आदमी करीब-करीब हमारी ही ऊंचाइयों पर और कभी-कभी हमसे भी ज्यादा ऊंचाइयों पर पहुंच गया और खो गया।
उन्नीस सौ चौबीस में एक घटना घटी। उन्नीस सौ चौबीस में जर्मनी में अणुविज्ञान के संबंध में जो शोध का पहला संस्थान निर्मित हुआ, अचानक एक दिन सुबह एक आदमी, जिसने अपना नाम फल्कानेली बताया, एक कागज लिख कर वहां दे गया। और उस कागज में एक छोटी सी सूचना दे गया कि मुझे कुछ बातें ज्ञात हैं, और कुछ और लोगों को भी ज्ञात हैं, जिनके आधार पर मैं यह खबर देता हूं कि अणु के साथ खोज में मत पड़ना, क्योंकि हमारी सभ्यता के पहले और भी सभ्यताएं इस खोज में पड़ कर नष्ट हो चुकी हैं। इस खोज को बंद ही कर देना। बहुत खोज-बीन की गई, उस आदमी का कुछ पता न चला।
उन्नीस सौ चालीस में हेजेनबर्ग--एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक था जर्मनी का, जिसने कि बड़े से बड़ा काम अणु की खोज में किया--उस आदमी के घर फिर एक आदमी उपस्थित हुआ, जिसने फिर उसे एक चिट्ठी दी, उस पर भी फल्कानेली के ही दस्तखत थे। वह नौकर को चिट्ठी देकर बाहर ही चला गया। उस चिट्ठी में उसने हेजेनबर्ग को सूचना दी थी कि तुम पापी होने का जिम्मा मत लो, क्योंकि यह सभ्यता पहली नहीं है जो कि अणु के साथ उपद्रव में पड़ी हो। इसके पहले बहुत बार सभ्यताएं अणु के साथ खेल में पड़ीं और नष्ट हुईं। मगर फिर भी उस आदमी का कोई पता नहीं चल सका।
और उन्नीस सौ पैंतालीस में जब पहली दफा हिरोशिमा पर एटम गिरा, तो दुनिया के बारह बड़े वैज्ञानिकों को, जिनका कि हाथ था एटम के बनाने में, फल्कानेली के दस्तखत से पत्र मिले जिसमें उसने कहा था कि देखो, अभी भी रुक जाओ। हालांकि तुमने पहला कदम उठा लिया है, और पहला कदम उठाने के बाद आखिरी कदम बहुत दूर नहीं रहता। ओपनहीमर, जो अमरीका का सबसे बड़ा अणुशास्त्री था, जिसने कि अणु बनाने में बड़े से बड़ा भाग बंटाया, उसने तत्काल उस पत्र के मिलते ही से अणु आयोग से इस्तीफा दिया और उसने एक वक्तव्य दिया कि वी हैव सिंड, हमने पाप किया है। और यह आदमी हर वक्त खबर देता रहा। पर यह आदमी कौन है, इसका कोई पता नहीं लग सका कि यह आदमी कौन है! इस बात की पूरी संभावना है कि वह जो कह रहा है, ठीक कह रहा है। अणु के साथ खिलवाड़ सभ्यताएं पहले भी कर चुकी हैं।
हमने भी महाभारत में अणु के साथ खिलवाड़ कर लिया है। और उसके साथ हम बर्बाद हुए। असल में करीब-करीब ऐसा है जैसे कि एक व्यक्ति बच्चा होता है, जवान होता है, और जवानी में वही भूलें करता है जो उसके बाप ने की थीं। हालांकि बाप बूढ़ा होकर उसको समझाता है कि इन भूलों में मत पड़ना, यह सब गड़बड़ है। लेकिन उसके बाप ने भी इस बूढ़े को समझाई थीं यही बातें। और ऐसा नहीं है कि इस बूढ़े के बूढ़े बाप को समझाने वाला बाप नहीं था, उसने भी समझाई थीं। बाकी जवानी में वही भूलें होती हैं, फिर बुढ़ापे में वही समझाहट होती है। बच्चा होता है, जवान होता है, बूढ़ा होता है, मरता है--जैसे व्यक्ति एक चक्र में दौड़ कर विघटित हो जाता है, ऐसे ही हर सभ्यता भी करीब-करीब एक से स्टेप उठा कर नष्ट होती है। सभ्यताएं भी बचपन में होती हैं, जवान होती हैं, बूढ़ी होती हैं और मरती हैं।
यह जो योग की बीस हजार साल की...बीस हजार साल की मैं इसलिए कहता हूं कि बीस हजार साल का हिसाब थोड़ा साफ है। वैसे इसे और भी साफ करना हो तो बीस हजार साल के पहले जो सभ्यताएं रही हैं, उनको बिना जाने साफ नहीं किया जा सकता। एक आदमी की जवानी ठीक से समझनी हो तो दस आदमियों की जवानी समझनी जरूरी है, अकेली नहीं समझी जा सकती। कोई रिफरेंस नहीं होता, कोई संदर्भ नहीं होता। कैसे समझा जाए वह क्या कर रहा है? ठीक कर रहा है कि गलत कर रहा है? एक आदमी का बुढ़ापा समझना हो तो पच्चीस बूढ़ों पर नजर डालनी जरूरी है। नहीं तो अधूरा-अधूरा होगा। एक-एक व्यक्ति अपने आप में कुछ भी नहीं बता पाता है। एक-एक घटना कुछ नहीं कहती। लेकिन बीस हजार साल का इतिहास साफ है।
इस बीस हजार साल में योग निरंतर एक बात कहता रहा है कि आज्ञाचक्र के साथ जुड़ा हुआ आधा मस्तिष्क है जो बंद पड़ा है, अगर तुम्हें संसार के पार कुछ जानना है तो उस आधे मस्तिष्क को सक्रिय करना जरूरी है। अगर परमात्मा के संबंध में कोई यात्रा करनी है तो वह आधा मस्तिष्क सक्रिय होना जरूरी है। अगर पदार्थ के पार देखना है तो वह आधा मस्तिष्क सक्रिय होना जरूरी है।
उसका द्वार है आज्ञा। वह जहां आप तिलक लगाते हैं, वह तो कॉरस्पांडिंग हिस्सा है आपकी चमड़ी के ऊपर। उससे अंदाजन डेढ़ इंच भीतर--अंदाजन कहता हूं, क्योंकि किसी का थोड़ा ज्यादा, किसी का थोड़ा कम--अंदाजन डेढ़ इंच भीतर वह बिंदु है जो द्वार का काम करता है, पदार्थ-अतीत, भावातीत जगत के लिए।
तिब्बत ने तो, जैसा हमने तिलक आविष्कृत किया, तिब्बत ने तो ठीक ऑपरेशंस भी आविष्कृत किए। और तिब्बत ही कर सकता था। क्योंकि तिब्बत ने जितनी मेहनत की है मनुष्य के तीसरे नेत्र पर, वह थर्ड आई पर, उतनी किसी और सभ्यता ने नहीं की है। सच तो यह है कि तिब्बत का पूरा का पूरा विज्ञान और पूरी समझ, जीवन के अनेक आयामों की समझ, उस तीसरे नेत्र की ही समझ पर आधारित है।
जैसा मैंने कायसी का आपके लिए कहा, तो कायसी तो एक व्यक्ति है, तिब्बत में तो सैकड़ों साल से, व्यक्ति जब तक समाधि में न जाए तब तक दवा का कोई पता ही नहीं लगाते रहे हैं। यह पूरी सभ्यता ही वह काम करती रही है। समाधिस्थ व्यक्ति से ही दवा पूछेंगे। उसकी दवा का ही उपयोग है। बाकी तो सब अंधेरे में टटोलना है।
उन्होंने तो ऑपरेशंस भी विकसित किए। ठीक इस डेढ़ इंच के भीतर जो जगह है, उस पर ऑपरेशंस भी करने के प्रयोग किए। उसको बाहर से भी तोड़ने की कोशिश की। वह टूट जाती है, बाहर से भी टूट जाती है। लेकिन बाहर से टूटने में और भीतर से टूटने में एक फर्क है, इसलिए भारत ने कभी उसको बाहर से तोड़ने की कोशिश नहीं की। वह मैं आपको खयाल में दे दूं।
उसे बाहर से तोड़ने पर भी आधा मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है। बहुत संभावना यह है कि वह अपने इस नये आधे मस्तिष्क की सक्रियता का दुरुपयोग करेगा। उसकी चेतना में कोई अंतर नहीं हुए हैं, वह आदमी वही का वही है। उसकी चेतना में कोई साधनागत अंतर नहीं हुए हैं, और उसके मस्तिष्क में नये काम शुरू हो गए। अगर वह आदमी आज दीवाल के पार देख सकता है, तो इस बात की बहुत कम संभावना है कि वह कुएं में किसी गिरे आदमी को देख कर निकालने जाएगा। इस बात की बहुत संभावना है कि किसी के गड़े हुए खजाने को खोदने जाएगा। अगर वह आदमी यह देख सकता है कि उसके भीतरी इशारे से आपको आज्ञा दी जा सकती है, तो इस बात की बहुत कम संभावना है कि आपसे वह कोई अच्छा काम करवाएगा। इस बात की बहुत संभावना है कि आपसे वह कोई बुरा काम करवाएगा।
ऑपरेशन हो सकता था, भारत को भी उसके सूत्र पता थे, पर उसका कभी प्रयोग नहीं किया। नहीं प्रयोग किया इसीलिए कि जब तक व्यक्ति की चेतना भी भीतर से इतनी विकसित न हो कि नई शक्तियों का उपयोग करने में समर्थ हो जाए, तब तक उसे नई शक्तियां देना खतरनाक है। बच्चे के हाथ में जैसे हम तलवार दे दें। बहुत डर तो यह है कि वह दो-चार को काटेगा, डर यह भी है कि वह अपने को भी काटेगा। और बच्चे के हाथ में दी गई तलवार से किसी का भी मंगल हो सकेगा, इसकी आशा करना दुराशा मात्र है। चेतना के तल पर अगर व्यक्ति के भीतर की चेतना विकसित न हो, उसके हाथ में नई शक्तियां देना खतरनाक है।
तिब्बत में, जहां हम तिलक लगाते रहे हैं, वहां ठीक भीतर तक भी छेद करने की कोशिश की है भौतिक उपकरणों से। इसलिए तिब्बत बहुत सी बातें जान पाया, बहुत से अनुभव कर पाया, लेकिन फिर भी तिब्बत कोई नैतिक अर्थों में महान देश नहीं बन पाया। यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना है। तिब्बत बहुत काम कर पाया, लेकिन फिर भी नैतिक अर्थों में वह एक बुद्ध भी पैदा नहीं कर पाया। उसकी जानकारी बढ़ी, उसकी शक्ति बढ़ी, अनूठी बातों का उसे पता चला; लेकिन उन सबका उपयोग बहुत छोटी बातों में हुआ, उनका बहुत बड़ी बातों में उपयोग नहीं हो सका।
भारत ने कोई सीधा भौतिक प्रयोग करने की कभी चेष्टा नहीं की। चेष्टा यह की कि भीतर से चेतना को इकट्ठा करके इतना कनसनट्रेट, इतना एकाग्र किया जाए कि चेतना की शक्ति से ही वह तीसरा नेत्र खुल जाए, उसके ही प्रवाह में खुल जाए। क्योंकि उसके प्रवाह को तीसरे नेत्र तक लाना एक बड़ा नैतिक उपक्रम है। उसे इतना ऊपर चढ़ाना! क्योंकि साधारणतः हमारा मन नीचे की तरफ बहता है।
सच तो यह है कि हमारा मन सेक्स-सेंटर की तरफ ही बहता रहता है। हम कुछ भी करते हों--हम चाहे धन कमाते हों, चाहे पद की चेष्टा करते हों, चाहे कुछ भी करते हों--हमारे सब करने के पीछे कहीं गहरे में कामवासना हमें खींचती रहती है। धन भी हम कमाते हैं तो इसी आशा में कि उससे काम खरीदा जा सके; और पद की भी हम इच्छा करते हैं इसी आशा में कि पद पर बैठ कर हम ज्यादा शक्तिशाली हो जाएंगे काम को खरीद लेने में।
इसलिए अगर पुराने दिनों में राजा की इज्जत का पता इससे चलता था कि कितनी रानियां उसके पास हैं, तो वह ठीक मेजरमेंट था। क्योंकि पद का और कोई मूल्य क्या है? पद का करोगे क्या? कितनी स्त्रियां तुम्हारे हरम में हैं, उससे पता चल जाएगा कि तुम कितने बड़े पद पर हो। पद का भी उपयोग, धन का भी उपयोग घूम कर तो कामवासना के लिए ही होना है।
हम जो भी करेंगे, हमारी सारी शक्ति काम के केंद्र की तरफ दौड़ती रहेगी। और जब तक शक्ति काम के केंद्र की तरफ दौड़ रही है तभी तक व्यक्ति अनैतिक हो सकता है। अगर शक्ति को ऊपर की तरफ दौड़ानी है तो काम की यात्रा रूपांतरित करनी पड़ेगी। अगर आज्ञाचक्र की तरफ शक्ति को ले चलना है तो काम की यात्रा को बदलना पड़ेगा--रुख, पूरा ध्यान, पीठ ही फेर लेनी पड़ेगी नीचे की तरफ और मुंह करना पड़ेगा ऊपर की तरफ, ऊर्ध्वमुखी होना पड़ेगा।
यह जो ऊर्ध्वगमन है, यह यात्रा बड़ी नैतिक होगी। इसमें इंच-इंच संघर्ष होगा, इसमें एक-एक कदम कुर्बानी होगी। इसमें जो क्षुद्र है उसे खोने की तैयारी दिखानी पड़ेगी, ताकि विराट मिल सके। इसमें कीमत चुकानी पड़ेगी। और इतनी सारी कीमत चुका कर जो व्यक्ति आज्ञाचक्र तक पहुंचता है, उसे जो विराट शक्ति उपलब्ध होती है, वह उसका दुरुपयोग कैसे कर पाएगा? दुरुपयोग का कोई सवाल नहीं उठता। दुरुपयोग करने वाला तो इस मंजिल तक पहुंचने के पहले समाप्त हो गया होता है।
इसलिए तिब्बत में ब्लैक मैजिक पैदा हुआ, यह ऑपरेशन की वजह से। तिब्बत में अध्यात्म कम पैदा हुआ, और जिसको हम कहें कि शैतानी ढंग का उपद्रव ज्यादा पैदा हुआ, ब्लैक मैजिक पैदा हुआ। इस तरह की ताकत हाथ में आनी शुरू हो गई...।
सूफियों में एक कहानी है, जीसस के बाबत। ईसाइयों में उसका कोई उल्लेख नहीं है, इसलिए मैं सूफियों से कहता हूं। जीसस की बहुत सी कहानियां सूफियों के पास हैं, ईसाइयों के पास नहीं हैं। कई बार तो बहुत महत्वपूर्ण घटनाएं मुसलमानों के पास हैं, ईसाइयों के पास नहीं हैं, जीसस के जीवन में। यह घटना भी उनमें से एक है, कि जीसस के तीन शिष्य जीसस के पीछे पड़े हैं। और उनसे कहते हैं कि हमने सुना है और देखा भी, कि आप मुर्दे को कहते हैं कि उठ जाओ, और वह उठ जाता है। हमें तुम्हारा मोक्ष नहीं चाहिए, हमें तुम्हारा स्वर्ग नहीं चाहिए, हमें तो सिर्फ यह तरकीब सिखा दो--यह मरा हुआ आदमी कैसे जिंदा हो जाता है? जीसस उनसे कहते हैं, लेकिन इस मंत्र का उपयोग तुम स्वयं पर कभी न कर पाओगे। क्योंकि तुम मर चुके होओगे, फिर मंत्र का उपयोग कैसे करोगे? और दूसरे को जिलाने से तुम्हें क्या फायदा होगा? मैं तुम्हें वह तरकीब बताता हूं जिससे कि तुम मरो ही न! लेकिन वे कहते हैं, हमें इससे कोई...। आप हमें बहलाएं मत, हमें तो यह मुद्दे की बात बता दें। यह चीज जानने जैसी है।
वे इतने पीछे पड़े हैं कि जीसस ने कहा कि ठीक है। जीसस ने उन्हें वह सूत्र बता दिया, जिस सूत्र के उपयोग से मरा हुआ जिंदा हो जाता है।
अब वे तीनों भागे। उसी दिन जीसस को छोड़ कर भाग गए, मुर्दे की तलाश में। अब देर करनी उचित नहीं, मंत्र में कोई शब्द भूल जाए, कोई गड़बड़ हो जाए, इसका जल्दी प्रयोग करके देख लें। दुर्भाग्य, गांव में गए, कोई मुर्दा नहीं! दूसरे गांव की तरफ निकले तो बीच में अस्थिपंजर पड़ा हुआ मिल गया। तो उन्होंने कहा कि ठीक। मुर्दा भी नहीं मिला, अब चलो यही ठीक है। मंत्र पढ़ा। जल्दी थी बहुत। वे शेर के अस्थिपंजर थे। शेर उठ कर खड़ा हो गया, वह उन तीनों को खा गया।
सूफी कहते हैं कि यही होगा। वह जो कुतूहल--और अनैतिक चित्त का कुतूहल खतरे में ले जाता है। तो बहुत बार बहुत से सूत्र जान कर भी छिपा लिए गए बार-बार कि वे गलत आदमी के हाथ में न पड़ जाएं। सामान्य आदमी को भी खबर दी गई तो उसे इस ढंग से दिया गया कि जब वह योग्य हो जाए तभी उसे पता चल पाए।
सोचेंगे आप, तिलक के संबंध में मैं यह क्यों कह रहा हूं?
हर बच्चे के माथे पर तिलक लगा दिया, जब कि उसे कुछ पता नहीं है। कभी उसे पता होगा, कभी उसे पता चलेगा, तब वह इस तिलक के राज को समझ पाएगा। इशारा कर दिया गया है किसी जगह का, ठीक जगह पर निशान बना दिया गया है। कभी जब उसकी चेतना इतनी समर्थ होगी, तब वह इस निशान का उपयोग कर पाएगा। कोई फिकर नहीं, सौ आदमियों पर लगाया गया निशान, और निन्यानबे के लिए काम नहीं पड़ा। कोई फिकर नहीं, एक को भी काम पड़ जाए तो कम नहीं है। इस आशा में सौ पर लगा दिया गया है कि कभी किसी क्षण में, कभी किसी क्षण में, उसका स्मरण आ जाएगा तो पता चल जाएगा।
तिलक के लिए इतना मूल्य, इतना सम्मान कि जब भी कुछ विशेष घटना हो, शादी हो रही हो तो तिलक हो, कोई जीत कर लौट आए तो तिलक हो! कभी आपने सोचा कि हर सम्मान की घटना के साथ तिलक, यह सिर्फ लॉ ऑफ एसोसिएशन का उपयोग है। क्योंकि हमारे चित्त में एक बड़े मजे का मामला है। हमारा चित्त दुख को भूलना चाहता है और सुख को याद रखना चाहता है। हमारा चित्त लंबे अर्से में दुख को भूल जाता है और सुख को याद रखता है। इसीलिए तो हमें पीछे के दिन अच्छे मालूम पड़ते हैं। बूढ़ा कहता है, बचपन बहुत सुखद था। कोई और बात नहीं है, दुख को ड्राप कर देता है मन हमारा, सुख की श्रृंखला को कायम रखता है। जब लौट कर पीछे देखता है तो सुख ही सुख दिखाई पड़ता है। बीच-बीच में जो दुख थे, उनको हम गिरा आए रास्ते में। कोई बच्चा नहीं कहता कि बचपन सुखद है। बच्चे जल्दी से जल्दी बड़े होना चाहते हैं। और सब बूढ़े कहते हैं बचपन बहुत सुखद है।
जरूर कहीं न कहीं कोई भूल हो रही है। अब ये जितने बच्चे हैं, उनको खड़े करके पूछो कि तुम क्या होना चाहते हो? वे कहेंगे, हम बड़े होना चाहते हैं। और जितने बूढ़े हैं, उनसे पूछो, क्या होना चाहते हो? वे कहेंगे, हम बच्चे होना चाहते हैं। मगर एक बच्चा गवाही नहीं देता तुम्हारे साथ। बच्चा जितने जल्दी बड़ा हो जाए! इसलिए कई दफे तो वह ऐसी कोशिश करता है बड़े होने की कि जिसका कोई हिसाब नहीं। सिगरेट पीने लगता है, इसलिए कि वह देखता है कि सिगरेट जो है सिंबॉलिक है बड़े आदमी का। कोई और कारण से नहीं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चों में सौ में से सत्तर प्रतिशत बच्चे इसलिए सिगरेट पीते हैं कि सिगरेट जो है प्रेस्टिज का प्रतीक है। उसको ताकतवर, बड़े लोग, प्रतिष्ठा वाले लोग पीते हैं। वह भी पीकर धुआं जब उड़ाता है, तो भीतर उसकी रीढ़ सीधी हो जाती है--मैं भी कुछ हूं, समबडी। उसको मालूम पड़ता है कि मैं भी कोई ऐसा-वैसा नहीं हूं।
किसी फिल्म पर लिख दें कि इसको सिर्फ अडल्ट देख सकते हैं। बच्चे सब नकली मूंछ लगा कर फिल्म के भीतर प्रवेश कर जाते हैं। क्यों? बड़ा होने की बड़ी तीव्र आकांक्षा है, जल्दी। मगर सब बूढ़े कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था। कहीं कोई बात हो रही है। बात कुल इतनी ही है कि मन दुख को भुला देता है, गिरा देता है। दुख याद रखने जैसी चीज भी नहीं है।
एक बहुत हैरानी का सूत्र पियागेट नाम के मनोवैज्ञानिक ने बताया, जिसने चालीस साल तक बच्चों पर मेहनत की है। उसका कहना है कि पांच साल से पहले की किसी बच्चे को स्मृति नहीं रहती बाद में, उसका कुल कारण यह है कि पांच साल की जिंदगी इतनी दुखद है कि उसको याद नहीं रखा जा सकता। यह हम सोच न सकेंगे! पर पियागेट ठीक कहता है, अनुभव से कहता है, भारी अनुभव से कहता है।
आपको अगर कहा जाए कि आपको कब तक की याद है? तो आप ज्यादा से ज्यादा पांच साल, चार साल लौट पाते हैं। फिर क्यों नहीं लौटते पीछे और? क्या उस वक्त मेमोरी नहीं बनती थी? बनती थी। क्या उस वक्त घटना नहीं घटती थीं? घटती थीं। क्या उस वक्त किसी ने गाली नहीं दी और किसी ने प्रेम नहीं किया? सब हुआ है। पर मामला क्या है? चार साल के पहले की स्मृति का कोई रिकॉर्ड क्यों नहीं है आपके पास?
पियागेट कहता है कि वे दिन इतने दुख में बीतते हैं, क्योंकि बच्चा अपने को इतना दीन, इतना कमजोर, इतना हीन, सबसे दबा हुआ, इतना असहाय अनुभव करता है कि उसका कुछ भी याद रखना उसको पसंद नहीं है। वह उसको ड्राप कर देता है, भूल ही जाता है। वह कहता है, चार साल से पहले का तो मुझे कुछ याद ही नहीं है। कुछ याद नहीं है, क्योंकि बाप ने कहा बैठ, तो उसको बैठना पड़ा था। मां ने कहा उठो, तो उसको उठना पड़ा था। सब बड़े थे, बड़े शक्तिशाली थे, उसकी अपनी कोई सामर्थ्य न थी, वह बिलकुल हवा में उड़ता हुआ पत्ता जैसा था। जो कोई कुछ कह दे, सब पर निर्भर था। जरा सी आंख का इशारा और उसको डर जाना पड़ेगा, उसके हाथ में कुछ भी सामर्थ्य न थी। उसने उसको बंद कर दिया, वह खयाल ही छोड़ दिया कि मैं कभी था ऐसा, बात खत्म हो गई। वह चार साल के पहले की याद ही नहीं करता। मजे की बात है--हिप्नोटाइज करके आपको याद करवाई जा सकती है! चार साल के पहले की ही नहीं, मां के पेट में भी जब आप थे, तब की भी स्मृति बनती है। अगर मां गिर पड़ी हो आपकी, तो बच्चे को उसके पेट में स्मृति बनती है कि चोट पहुंची, वह भी याद करवाई जा सकती है। लेकिन साधारणतः होश में नहीं रहती।
तो इस तिलक को सुख के साथ जोड़ने का उपाय कारण पूर्वक है। जब भी सुख की कोई घटना घटे, तिलक कर दो। सुख याद रहेगा, साथ में तिलक भी याद रह जाएगा। और धीरे-धीरे सुख अगर तीसरी आंख से संयुक्त हो जाए--यह लॉ ऑफ एसोसिएशन को थोड़ा समझ लें।
पावलफ ने बहुत से प्रयोग किए। इस सदी में रूसी वैज्ञानिक पावलफ एसोसिएशन के ऊपर सर्वाधिक काम किया है। उसका कहना है, कोई भी चीज जोड़ी जा सकती है, सब जोड़ सहयोग के हैं। जैसे उसका प्रयोग सबको पता है, तो वह एक कुत्ते को खाना देगा, तो रोटी सामने रखेगा तो लार टपकेगी। तभी वह घंटी बजाता रहेगा। अब घंटी से लार टपकने का कोई भी संबंध नहीं है। कितनी ही घंटी बजाइए, लार कैसे टपकेगी कुत्ते की? लेकिन रोटी रखी, लार टपकी, तब घंटी बजाई। पंद्रह दिन वह रोटी के साथ घंटी बजेगी, सोलहवें दिन रोटी तो हटा ली, सिर्फ घंटी बजाई--लार टपकने लगी। क्या हुआ क्या कुत्ते को? घंटी से लार का कोई भी नैसर्गिक संबंध नहीं है। लेकिन अब संबंध जुड़ गया। रोटी के साथ घंटी एक हो गई, घंटी का बजना रोटी की याद बन गई। रोटी की याद, चक्र शुरू हो गया उसके मन में रोटी का, लार टपकनी शुरू हो गई। घंटी प्रतीक की तरह आ गई, वह रोटी का सिंबल हो गई।
इस कानून का उपयोग तिलक में किया गया है। आपके सुख के साथ तिलक को सदा जोड़ा। जब भी सुख की कोई घटना घटी, तिलक--तिलक और सुख को एक किया। धीरे-धीरे तिलक और सुख इतने एक हो जाएं कि तिलक को कभी भूला न जा सके--एक। वह आपके स्मरण में टंक जाए, बैठ जाए; और जब भी सुख की याद आए, तब आज्ञाचक्र की याद आए। जब भी सुख की याद आए, तब जो पहली याद आए वह आज्ञाचक्र की याद आए।
और सुख की हमें बहुत याद आती है। सुख में ही तो हम, चाहे हुआ हो या न हुआ हो, उसकी याद में तो जीते हैं। जितना होता है उससे ज्यादा बड़ा करके याद करते रहते हैं पीछे-पीछे। फिर धीरे-धीरे तो उसको इतना बड़ा कर लेते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। सुख को हम बड़ा करते रहते हैं, मैग्नीफाई करते रहते हैं। दुख को छोटा करते रहते हैं, एक ही नियम के अनुसार। सुख को बड़ा करते रहते हैं।
आपकी प्रेयसी मिली थी, कितना सुख आया था? आज सोचेंगे तो बहुत बड़ा मालूम पड़ेगा। अभी मिल जाए तो पता चले! एकदम छोटा हो जाएगा, सिकुड़ जाएगा। और कल हो सकता है फिर चौबीस घंटे बाद आप मैग्नीफाई करें कि अहा, कितना आनंद था!
वह पीछे हमारा मन सुख को बड़ा करता जाता है। असल में इतना दुख है जीवन में कि अगर हम सुख को बड़ा न कर पाएं तो जीना बहुत मुश्किल है। उसको बड़ा करके, रस ले-ले कर चलाते हैं। इधर पीछे बड़ा कर लेते हैं, उधर आगे आशा में बड़ा कर लेते हैं, और चलते हैं।
तिलक के साथ सुख को जोड़ने का प्रयोजन है कि जब सुख बड़ा हो तो तिलक भी बड़ा हो जाए। और जब सुख की याद आए तो तिलक की भी याद आए। और यह चोट जो है याद की, धीरे-धीरे सुख आज्ञाचक्र से जुड़ जाए, कि जब भी जीवन में सुख आए तो आज्ञाचक्र का स्मरण आए। और यह हो जाता है। और जब यह हो जाता है तो आपने सुख का उपयोग किया तीसरी आंख को जगाने के लिए। सब सुख की स्मृतियां आज्ञा के चक्र से जुड़ गईं। अब यह हम सुख की धारा का उपयोग कर रहे हैं उसको चोट करने के लिए। यह चोट जितने मार्गों से पड़ सके उतना उपयोगी है।
जिन मुल्कों में तिलक का उपयोग नहीं हुआ वे वे ही मुल्क हैं जिनको थर्ड आई का कोई पता नहीं है, यह आपको खयाल होना चाहिए। जिन-जिन मुल्कों को तीसरी आंख का थोड़ा भी अनुमान हुआ, उन्होंने तिलक का उपयोग किया। जिन मुल्कों को कोई पता नहीं है, वे तिलक नहीं खोज पाए। तिलक खोजने का कोई आधार नहीं था। समझ लें थोड़ा। यह आकस्मिक नहीं है कि कोई समाज एकदम से उठ आए और एक टीका लगा कर बैठ जाए। पागल नहीं है। अकारण, माथे के इस बीच के बिंदु पर ही तिलक लगाने की सूझ का कोई कारण भी तो नहीं है, यह कहीं और भी तो लगाया जा सकता था। आकस्मिक नहीं हो सकता, उसके पीछे कारण हो तो टिक सकता है।
और भी आपको दो-तीन बातें इस संबंध में कहूं। एक, आपने कभी खयाल न किया होगा, जब भी आप चिंता में होते हैं तब आपकी तीसरी आंख पर जोर पड़ता है, इसीलिए माथा पूरा का पूरा सिकुड़ता है। उसी जगह जोर पड़ता है, जहां तिलक है। बहुत चिंता करने वाले, बहुत विचार करने वाले लोग, बहुत मननशील लोग, अनिवार्य रूप से माथे पर बल डाल कर उस जगह की खबर देते हैं।
और जिन लोगों ने, जैसा मैंने पीछे कहा, जिन लोगों ने पिछले जन्मों में कुछ भी तीसरी आंख पर जोर किया है, उनके जन्म के साथ ही उनके माथे पर अगर आप हाथ फिराएं तो आपको तिलक की प्रतीति होगी। उतना हिस्सा थोड़ा सा धंसा हुआ होगा--थोड़ा सा, किंचित, ठीक तिलक जैसा धंसा हुआ होगा। दोनों तरफ के हिस्से थोड़े उभरे हुए होंगे, ठीक उस जगह पर जहां पिछले जन्मों में मेहनत की गई है वहां थोड़ा सा हिस्सा धंसा हुआ होगा। और वह आप अंगुली-अंगूठा लगा कर भी, आंख बंद करके भी पहचान सकते हैं। वह जगह आपको अलग मालूम पड़ जाएगी। तिलक हो या टीका--टीका उसका ही विशेष उपयोग है तिलक का--लेकिन दोनों के पीछे तीसरी आंख छिपी हुई है।
हिप्नोटिस्ट एक छोटा सा प्रयोग करते हैं। चारकाट फ्रांस में एक बहुत बड़ा मनस्विद हुआ, जिसने इस बात पर बहुत काम किए। आप भी छोटा सा प्रयोग करेंगे तो आपको चारकाट की बात खयाल में आ जाएगी। अगर आप किसी के सामने उसके माथे पर दोनों आंखें गड़ा कर देखें, तब तो वह आदमी आपको गड़ाने न देगा। अगर आप किसी के माथे पर दोनों आंखें गड़ा कर देखें तो वह आदमी जितना क्रुद्ध होगा उतना किसी और चीज से नहीं हो सकता। इसलिए वह तो अशिष्ट व्यवहार है, वह तो आप कर नहीं पाएंगे। पर सामने से तो बहुत निकट है वह, सिर्फ डेढ़ इंच के फासले पर है, अगर आप किसी के माथे पर पीछे से भी दृष्टि रखें तो भी आप हैरान हो जाएंगे।
रास्ते पर आप चल रहे हैं, और कोई आदमी आपके आगे चल रहा है। आप ठीक जहां माथे पर यह बिंदु है तिलक का, ठीक इसके आर-पार अगर हम एक छेद करें तो पीछे जहां से छेद निकलता हुआ मालूम पड़ेगा, अनुमान करके उस जगह दोनों आंखें गड़ा दें। और आप कुछ ही सेकेंड आंख गड़ा पाएंगे कि वह आदमी लौट कर आपको देखेगा।
सिर्फ होटल के बैरे भर नहीं देखेंगे। उन पर भर आप प्रयोग मत करना किसी होटल में बैठ कर। उसका कारण है। सिर्फ वे लोग नहीं देखेंगे--जैसे मैंने होटल के बैरे का आपको कहा, वह जान कर कहा ताकि आपको खयाल में आ जाए। होटल का बैरा भर, आप कितना ही उसके पीछे माथे पर आंखें गड़ाएं, नहीं देखेगा। क्योंकि वह पूरे वक्त ग्राहकों से बचने की कोशिश में है। जैसे ही उसको पता चल जाए कि कोई उसमें उत्सुक है, वह और ज्यादा दूसरी टेबलों के आस-पास चक्कर मारने लगता है। इसलिए वह भर आपको नहीं देखेगा, बाकी कोई भी देखेगा।
अगर आप ठीक से थोड़े दिन अभ्यास करें और उस आदमी को सुझाव दें तो सुझाव भी वह आदमी मानेगा। समझ लें कि किसी आदमी के माथे के पीछे आप देखते हैं गड़ा कर आंख, पलक नहीं झपें, कुछ सेकेंड बिना पलक झपे देखते रहें, वह आदमी पीछे लौट कर देखेगा। अगर वह आदमी लौट कर देखता है तब आप उसको आज्ञा भी दे सकते हैं। फिर दुबारा उस आदमी को आप कहें, बाएं घूम जाओ! तो वह आदमी बाएं घूमेगा, और बड़ी बेचैनी अनुभव करेगा। हो सकता है उसको दाएं जाना हो! यह आप थोड़ा प्रयोग करके देखेंगे तो हैरान हो जाएंगे।
मगर यह तो पीछे से, जहां से कि फासला बहुत ज्यादा है। सामने से तो बहुत हैरानी के परिणाम होते हैं। बहुत हैरानी के परिणाम होते हैं। जितने लोग भी हलके किस्म का शक्तिपात करते रहते हैं वह आपके इसी चक्र के कारण, और कुछ कारण नहीं होता। कोई साधु, कोई संन्यासी अगर शक्तिपात के प्रयोग करते रहते हैं लोगों पर, तो वह यही कि आपको आंख बंद करके सामने बिठा लिया है। आप समझ रहे हैं वह कुछ कर रहे हैं। वह कुछ नहीं कर रहे हैं। वह सिर्फ आपके माथे के इस बिंदु पर दोनों आंखें गड़ा कर बैठे हैं। लेकिन आप तो आंख बंद किए बैठे हैं। और इस बिंदु पर जो भी आपको सुझाव दिया जाएगा, वह आपको भ्रांति प्रतीति फौरन हो जाएगी। अगर कहा जाए कि भीतर प्रकाश ही प्रकाश है! आपके भीतर प्रकाश ही प्रकाश हो जाएगा। बाकी इधर से आप गए कि वह विदा हो जाएगा। दो-चार दिन उसकी हलकी झलक रह सकती है, फिर समाप्त हो जाएगा। वह कोई शक्तिपात वगैरह नहीं है, वह सिर्फ आपके आज्ञाचक्र का थोड़ा सा उपयोग है।
यह तृतीय नेत्र की अनूठी संपदा है, और अपरिसीम उपयोग हैं। उसके लिए सिर्फ सिंबॉलिक तिलक है। जब यहां दक्षिण में पहली दफा ईसाई फकीर आए तो कुछ ईसाई फकीरों ने तो आकर तिलक लगाना शुरू कर दिया। आज से एक हजार साल पहले वेटिकन की अदालत में मुकदमे की हालत आ गई। क्योंकि यहां जिन ईसाई फकीरों को भेजा था, उन्होंने यहां आकर जनेऊ भी पहन लिया, और तिलक भी लगाया, और खड़ाऊं भी डाल ली, और वे हिंदू संन्यासी की तरह रहने लगे। तो वेटिकन की अदालत तक मामला गया वह कि यह तो बात गलत है। तो जिन फकीरों ने यह किया था, उन्होंने उत्तर दिए। उन्होंने कहा कि यह गलत नहीं है। यह तिलक लगाने से हम हिंदू नहीं हो रहे हैं। यह तिलक लगाने से तो हमें सिर्फ एक रहस्य का पता चला है, जिसका आपको पता नहीं था। इस खड़ाऊं को पहन कर हम हिंदू नहीं हो रहे हैं। यह तो हमें पहली दफे हिंदुओं की समझ का पता चला है कि ध्यान करते वक्त अगर लकड़ी पैर के नीचे हो, तो बिना लकड़ी के जो काम महीनों में होगा, वह लकड़ी के साथ दिनों में हो सकता है। हम हिंदू नहीं हो गए हैं, लेकिन अगर हिंदू कुछ जानते हैं तो हम नासमझ होंगे कि हम उसका उपयोग न करें।
और निश्चित ही हिंदू कुछ जानते हैं। कोई भी कौम जो बीस हजार साल से निरंतर धर्म के संबंध में खोज कर रही हो और कुछ भी न जानती हो, यही चमत्कार की बात होगी कि कुछ भी न जानती हो! बीस हजार साल से जिसके मनीषी पूरे जीवन को लगा कर एक ही दिशा में काम करते रहे हों, जिसके सारे मनीषी, हजार-हजार साल तक जिसके सारे बुद्धिमान लोग एक ही दिशा में लगे रहे हों, एक ही जिनकी आकांक्षा रही हो कि किस भांति संसार में जो छिपा हुआ सत्य है, उसका पता चल जाए! वह जो अदृश्य है, वह दिखाई पड़ जाए! वह जो अरूप है, उससे पहचान हो जाए! वह जो निराकार है, उसमें प्रवेश हो जाए! जिन्होंने बीस हजार साल तक, जिनकी सारी मेधा ने, सारी प्रतिभा ने एक ही चेष्टा की हो, उनको कुछ भी पता न हो, यही बात आश्चर्य की है! कुछ पता हो, यह बात बहुत आश्चर्य की नहीं है। इसमें क्या आश्चर्य की बात है! यह पता होना बिलकुल स्वाभाविक है।
लेकिन पिछले दो सौ साल में एक घटना घटी, जिससे हमको परेशानी हुई है। पिछले दो सौ साल में एक घटना घटी। और वह घटना हमारे खयाल में न आए तो वह परेशानी जारी रहेगी। इस देश के ऊपर सैकड़ों बार हमले हुए हैं, लेकिन कोई हमलावर ठीक जगह पर हमला नहीं कर पाया। किसी ने धन लूट लिया, किसी ने जमीन पर कब्जा कर लिया, किसी ने मकान और महल ले लिए। लेकिन ठीक जो हमारा अंतस्तल था, उस पर कोई हमला नहीं कर पाया। उस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। पहली बार पश्चिमी सभ्यता ने इस मुल्क के अंतस्तल पर चोट करनी शुरू की। और वह चोट करने का जो सुगमतम उपाय था वह यह था कि आपके पूरे इतिहास को आपसे विच्छिन्न कर दिया जाए। आपके इतिहास में और आपके बीच में एक खाई पैदा हो जाए। बस फिर आप बिना जड़ के हो जाएंगे, अपरूटेड हो जाएंगे। फिर आपकी कोई ताकत न रह जाएगी।
अगर आज पश्चिम की सभ्यता को नष्ट करना हो तो सारे पश्चिम के मकान गिराने की जरूरत नहीं है, और न सिनेमाघर गिराने की जरूरत है, और न पश्चिम की होटलें गिराने की जरूरत है। सिर्फ पश्चिम की पांच युनिवर्सिटीज को नष्ट कर दिया जाए, पश्चिम का कल्चर नष्ट हो जाएगा। पश्चिम की जो संस्कृति है, वह कोई सिनेमाघर में, और कोई होटल में, और कोई नाइट-क्लब में नहीं है। वे चलते रहें, उनसे कुछ लेना-देना नहीं है। सिर्फ पश्चिम की पांच केंद्रीय बड़ी युनिवर्सिटियां नष्ट कर दी जाएं, पश्चिम एकदम खो जाएगा। क्योंकि दुनिया में बहुत बड़ा असली जो आधार होता है संस्कृति का, वह उसके ज्ञान के सूत्र होते हैं। उसकी जड़ें होती हैं श्रृंखला में। ज्यादा देर की जरूरत नहीं है, सिर्फ दो पीढ़ी को इतिहास से वंचित कर दिया जाए, आगे का मामला टूट जाएगा।
आदमी और जानवर में वही फर्क है। जानवर कोई विकास नहीं कर पाते। क्या बात है? कुल इतनी सी बात है कि जानवरों के पास कोई स्कूल नहीं है। और कोई बात नहीं है। और जानवर के पास कोई उपाय नहीं है कि अपनी नई पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी का ज्ञान दे सके, बस और कोई बात नहीं है। तो जानवर का बच्चा जब पैदा होता है तो उसको वहीं से जिंदगी शुरू करनी पड़ती है जहां उसके बाप ने शुरू की थी। जब उसका बच्चा पैदा होगा, वह भी वहीं शुरू करेगा जहां उसके बाप ने शुरू की थी। आदमी शिक्षा के माध्यम से अपने बच्चे को वहां से जिंदगी शुरू करवा देता है जहां खुद समाप्त करता है। इसलिए विकास होता है।
सारा विकास पुरानी पीढ़ी के द्वारा नई पीढ़ी को अपना संचित अनुभव देने में निर्भर है। तो सोचें, बीस साल के लिए बूढ़े तय कर लें कि हम बच्चों को कुछ न बताएंगे। तो आप समझते हैं, बीस साल का नुकसान नहीं होगा, बीस हजार साल में जो इकट्ठा हुआ है उसका नुकसान हो जाएगा। अगर बीस साल के लिए बूढ़े तय कर लें, पिछली पीढ़ी तय कर ले कि नई पीढ़ी को अब कुछ नहीं बताना है। तो आप यह मत सोचना कि यह बीस साल का ही नुकसान होगा और इसको बीस साल में पूरा किया जा सकेगा। नहीं, बीस साल में जो नुकसान होगा उसको पूरा करने में बीस हजार साल लगेंगे। क्योंकि गैप खड़ा हो गया, पुरानी पीढ़ियों का सबका सब डूब जाएगा।
इन दो सौ साल में भारत के लिए भारी गैप पैदा हुआ। जिसमें उसकी जो भी जानकारी थी उससे उसके सारे संबंध टूट गए। और उसके सारे संबंध एक नई जानकारी से जोड़े गए जिसका पुरानी जानकारी से कोई संबंध नहीं था। तो हम सोचते ही हैं आज कि हम बहुत पुरानी कौम हैं। सच बात यह है कि अब हम दो सौ साल से ज्यादा पुरानी कौम नहीं हैं--अब। हमसे अंग्रेज ज्यादा पुराने हैं अब। अब हमारे पास जो जानकारी है वह कचरा है, उच्छिष्ट। वह भी जो पश्चिम हमको दे दे वह हमारी जानकारी है। दो सौ साल के पहले हम जो भी जानते थे वह सबका सब एकबारगी खो गया। और जब कोई चीज के सूत्र खो जाएं तो मूढ़ता मालूम पड़ने लगती है।
अब अगर आप ऐसे टीका लगा कर जाएं तो शर्म लगती है। कोई भी पूछ ले कि क्या किया? ये कैसे टीका लगाए हुए हो? तो ऐसे ही, कुछ नहीं, पिताजी नहीं माने, या क्या किया जाए बस ठीक है, किसी तरह चलाना पड़ता है! आज आनंद और प्रफुल्लता से टीका लगाना बहुत मुश्किल है। हां, बुद्धि बिलकुल न हो तो लगा सकते हैं, फिर तो कोई डर ही नहीं है। पर उसका भी कारण यह नहीं है कि आपको पता है इसलिए लगा रहे हैं।
ज्ञान के सूत्र जब गिर जाते हैं और उनका ऊपरी ढांचा रह जाता है तो ढोना बड़ा कठिन हो जाता है। और तब एक दुर्घटना घटती है कि जो सबसे कम बुद्धिमान होते हैं, वे उसको ढोते हैं; और जो बुद्धिमान होते हैं, दूर खड़े हो जाते हैं। एक दुर्घटना घटती है! जब कि बुद्धिमान ही जब तक किसी चीज को लेकर चलता है, तभी तक वह सार्थक रहती है। और यह बड़े मजे की बात है कि जब भी दुर्घटना घटती है और ज्ञान के सूत्र खोते हैं तो बुद्धिमान सबसे पहले छंट कर अलग हो जाते हैं, क्योंकि वे बुद्धू बनने के लिए राजी नहीं हैं। हां, जो बुद्धू है वह जारी रखता है। मगर वह बचा नहीं सकता। उसका कोई उपाय नहीं है। वह कुछ दिन खींचेगा और समाप्त हो जाएगा।
तो कई बार ऐसी घटना घटती है कि बड़ी कीमत की चीजें, जो नासमझ हैं वे बचाए रखते हैं, और जो समझदार हैं पहले छोड़ कर खड़े हो जाते हैं। जिंदगी में बड़े दांव-पेंच हैं। अगर ठीक से हमें भारत का यह दो सौ साल का जो अंतराल पड़ गया है वह पूरा करना हो, तो भारत में आज जो-जो काम बुद्धिहीन कर रहे हैं उसको वापस सोचने की जरूरत है--एक-एक बिंदु को। क्योंकि वे अकारण नहीं कर रहे हैं, उनके साथ बीस हजार साल की लंबी घटना है। वे नहीं बता सकते कि क्यों कर रहे हैं। इसलिए उन पर नाराज होने की कोई जरूरत नहीं है। किसी दिन हमको उन्हें धन्यवाद भी देना पड़ सकता है कि कम से कम तुमने प्रतीक तो बचाया था, जो कि पुनः खोज की जा सके।
तो आज भारत में जो बिलकुल ग्रामीण और नासमझ, जिसको कुछ समझ नहीं है, कोई ज्ञान नहीं है, जिसको हम मूढ़ कह सकते हैं, वह जो-जो कर रहा हो, उसको फिर से उठा कर और दो सौ साल पहले के सूत्रों से जोड़ने की, और बीस हजार साल की समझ के साथ पुनरुज्जीवित करने की जरूरत है। और तब आप चकित हो जाएंगे। तब आप चकित हो जाएंगे। तब आप बिलकुल हैरान हो जाएंगे कि हम किस बड़े आत्मघात में लगे हैं!
तिलक के संबंध में समझने के पहले दो छोटी सी घटनाएं आपसे कहूंगा, फिर आसान हो सकेगा। दो ऐतिहासिक तथ्य।
अठारह सौ अट्ठासी में दक्षिण के एक छोटे से परिवार में एक व्यक्ति पैदा हुआ--फिर पीछे तो वह विश्वविख्यात हुआ, रामानुजम--बहुत गरीब ब्राह्मण के घर में, बहुत थोड़ी सी शिक्षा मिली। लेकिन उस छोटे से गांव में ही बिना किसी विशेष शिक्षा के रामानुजम की प्रतिभा गणित के साथ अनूठी थी। जो लोग गणित जानते हैं, उनका कहना है कि मनुष्य-जाति के इतिहास में रामानुजम से बड़ा और विशिष्ट गणितज्ञ नहीं हुआ। बहुत बड़े-बड़े गणितज्ञ हुए हैं, पर वे सब सुशिक्षित थे, उन्हें गणित का प्रशिक्षण मिला था, बड़े गणितज्ञों का साथ-सत्संग मिला था, वर्षों की उनकी तैयारी थी। रामानुजम की न कोई तैयारी थी, न कोई साथ मिला, न कोई शिक्षा मिली, मैट्रिक भी रामानुजम पास नहीं हुआ। और एक छोटे से दफ्तर में मुश्किल से क्लर्की का काम मिला।
लेकिन अचानक खबर लोगों में फैलने लगी कि उसकी गणित के संबंध में कुशलता अदभुत है। और किसी ने उसे सुझाव दिया कि कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी में उस समय विश्व के बड़े से बड़े गणितज्ञों में एक हार्डी प्रोफेसर थे, उनको लिखो। उसने पत्र तो नहीं लिखा, ज्यामिति की डेढ़ सौ थ्योरम बना कर भेज दीं। हार्डी तो चकित रह गया। उतनी कम उम्र के व्यक्ति से उस तरह के ज्यामिति के सिद्धांतों का अनुमान भी नहीं लग सकता था। उसने तत्काल रामानुजम को यूरोप बुलाया। और जब रामानुजम कैम्ब्रिज पहुंचा तो हार्डी, जो कि बड़े से बड़ा गणितज्ञ था उस समय के विश्व का, वह अपने को बिलकुल बच्चा समझने लगा रामानुजम के सामने।
रामानुजम की क्षमता ऐसी थी जिसका मस्तिष्क से संबंध नहीं मालूम पड़ता। अगर आपसे कोई गणित करने को कहा जाए तो समय लगेगा। बुद्धि ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकती जिसमें समय न लगे। बुद्धि सोचेगी, हल करेगी, समय व्यतीत होगा। लेकिन रामानुजम को समय ही नहीं लगता था। यहां आप तख्ते पर सवाल लिखेंगे, वहां रामानुजम उत्तर देना शुरू कर देगा। आप बोल भी न पाएंगे पूरा, और उत्तर आ जाएगा। बीच में समय का कोई व्यवधान न होगा।
बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई थी। क्योंकि जिस सवाल को हल करने में बड़े से बड़े गणितज्ञ को छह घंटे लगेंगे ही, फिर भी जरूरी नहीं है कि सही हो, उत्तर सही है या नहीं इसे जांचने में फिर छह घंटे उसे गुजारने पड़ेंगे। रामानुजम को सवाल दिया गया और वह उत्तर देगा, जैसे सवाल में और उत्तर के बीच में कोई समय का क्षण भी व्यतीत नहीं होता है।
इससे एक बात तो सिद्ध हो गई थी कि रामानुजम बुद्धि के माध्यम से उत्तर नहीं दे रहा है। बुद्धि बहुत बड़ी थी भी नहीं उसके पास, मैट्रिक में वह फेल हुआ था, कोई बुद्धिमत्ता का और लक्षण भी न था। सामान्य जीवन में किसी चीज में भी कोई ऐसी बुद्धिमत्ता नहीं मालूम पड़ती थी। लेकिन बस गणित के संबंध में वह एकदम अतिमानवीय, मनुष्य से बहुत पार की घटना उसके जीवन में घटती थी।
जल्दी मर गया रामानुजम। उसे क्षय रोग हो गया, वह छत्तीस साल की उम्र में मर गया। जब वह बीमार होकर अस्पताल में पड़ा था तो हार्डी और दो-तीन गणितज्ञ मित्रों के साथ उसे देखने गया था। उसके दरवाजे पर ही हार्डी ने कार रोकी और भीतर गया। कार के पीछे का नंबर रामानुजम को दिखाई पड़ा। उसने हार्डी से कहा: आश्चर्यजनक है! आपकी कार का जो नंबर है, ऐसा कोई आंकड़ा ही नहीं है मनुष्य की गणित की व्यवस्था में। यह आंकड़ा बड़ा खूबी का है। उसने चार विशेषताएं उस आंकड़े की बताईं।
रामानुजम तो मर गया। हार्डी को छह महीने लगे वह पूरी विशेषता सिद्ध करने में। वे जो चार उसने विशेषताएं उस आंकड़े की बताई थीं--आकस्मिक, नजर पड़ गई थी--हार्डी को छह महीने लगे, तब भी वह तीन ही सिद्ध कर पाया, चौथी असिद्ध रह गई बात। हार्डी वसीयत छोड़ कर मरा कि मेरे मरने के बाद वह चौथी की खोज जारी रखी जाए, क्योंकि रामानुजम ने कहा है तो वह ठीक तो होगी ही।
हार्डी के मर जाने के बाईस साल बाद वह चौथी घटना सही सिद्ध हो पाई कि उसने ठीक कहा था, उस आंकड़े में यह खूबी है!
रामानुजम को जब भी यह गणित की स्थिति घटती थी, तब उसकी दोनों आंखों के बीच में कुछ होना शुरू हो जाता था। उसकी दोनों आंखों की पुतलियां ऊपर चढ़ जाती थीं। योग, जिस जगह रामानुजम की आंखें चढ़ जाती थीं, उसको तृतीय नेत्र कहता है, उसको तीसरी आंख कहता है। और अगर वह तीसरी आंख शुरू हो जाए--तीसरी आंख सिर्फ उपमा की दृष्टि से, सिर्फ इस खयाल से कि वहां से भी कुछ दिखाई पड़ना शुरू होता है--कोई दूसरा ही जगत शुरू हो जाता है। जैसे कि किसी आदमी के मकान में एक छोटा सा छेद हो, वह खुल जाए, और आकाश दिखाई पड़ने लगे। और जब तक वह छेद न खुला हो तो आकाश दिखाई न पड़ रहा हो। करीब-करीब हमारी दोनों आंखों के बीच में जो भ्रू-मध्य जगह है, वहां वह छेद है जहां से हम इस लोक के बाहर देखना शुरू कर देते हैं। एक बात तय थी कि जब भी रामानुजम को कुछ ऐसा होता था, तो उसकी दोनों पुतलियां चढ़ जाती थीं। हार्डी नहीं समझ पाया, पश्चिम के गणितज्ञ नहीं समझ पाए, और अभी गणितज्ञ आगे भी नहीं समझ पाएंगे।
एक दूसरी घटना और, और तब मैं आपको तिलक के संबंध में कुछ कहूं, तब आपकी समझ में आना आसान होगा; क्योंकि तिलक का संबंध उस तीसरी आंख से है।
उन्नीस सौ पैंतालीस में एक आदमी मरा अमरीका में--एडगर कायसी। चालीस साल पहले उन्नीस सौ पांच में वह बीमार पड़ा और बेहोश हो गया। और तीन दिन कोमा में पड़ा रहा। चिकित्सकों ने आशा छोड़ दी, और चिकित्सकों ने कहा कि हमें इसे कोमा के बाहर, बेहोशी के बाहर लाने का कोई उपाय नहीं सूझता। और बेहोशी इतनी गहन है कि अब यह शायद ही वापस लौट सके।
तीसरे दिन सारी आशा छोड़ दी गई; सब दवाइयां, सब इलाज कर लिए गए, लेकिन होश का कोई लक्षण नहीं था। तीसरे दिन शाम को चिकित्सकों ने कहा कि अब हम विदा होते हैं, क्योंकि अब हमारे वश के बाहर है। यह चार-छह घंटे में युवक मर जाएगा। और अगर बच गया तो सदा के लिए पागल हो जाएगा, जो कि मरने से भी बुरा सिद्ध होगा। क्योंकि इतनी देर में इसके मस्तिष्क के जो सूक्ष्म तंतु हैं, वे विसर्जित हो रहे हैं, डिसइंटीग्रेट हो रहे हैं।
अचानक चिकित्सक हैरान हुए। वह जो बेहोश कायसी पड़ा था बोला! वह बेहोश था तीन दिन से, वह बोला। जैसे कि कोई गहरी नींद से अचानक बोल उठे। हैरानी और ज्यादा हो गई, क्योंकि उसका कोमा जारी था। उसका शरीर अभी भी पूरी तरह कोमा में था। उसके हाथ में आप छुरी भी भोंक दो तो पता नहीं चलती थी। लेकिन वाणी आ गई, और कायसी ने कहा कि शीघ्रता करो! मैं एक वृक्ष से गिर पड़ा था, और मेरी रीढ़ में पीछे चोट लग गई है, और उसी चोट के कारण मैं बेहोश हूं। और अगर छह घंटे में मुझे ठीक नहीं किया गया तो बीमारी का जहर मेरे मस्तिष्क तक पहुंच जाएगा, फिर मेरे जिंदा बचने का कोई अर्थ नहीं है। और इस-इस नाम की जड़ी-बूटियां ले आओ और उनको इस तरह से तैयार करके मुझे पिला दो, मैं बारह घंटे के भीतर ठीक हो जाऊंगा। और कायसी फिर बेहोश हो गया।
जो नाम उसने लिए थे जड़ी-बूटियों के, आशा भी नहीं हो सकती थी कि कायसी को उनका पता हो, क्योंकि वह किसी चिकित्सा से कभी कोई उसका संबंध नहीं था। चिकित्सकों ने कहा: और तो करने का कोई उपाय नहीं है, यह निपट पागलपन मालूम पड़ता है, क्योंकि ये जड़ी-बूटियां इस तरह का काम करेंगी, यह हमको भी पता नहीं है। लेकिन जब कोई उपाय न हो, तो हर्ज कुछ भी नहीं है। वे जड़ी-बूटियां खोजी गईं। जैसा बताया था कायसी ने, वैसा बना कर उसे दिया गया। बारह घंटे में वह होश में आ गया, और बिलकुल ठीक हो गया। और होश में आकर वह न बता सका कि उसने ऐसी कोई बात कही थी या उन दवाइयों के नाम भी न पहचान सका, वे जो जड़ी-बूटियां उसने कही थीं, कि मैं इनके नाम भी पहचानता हूं। उसने कहा: यह हो ही कैसे सकता है? मुझे तो कुछ पता नहीं।
और तब एक बहुत अनूठी घटना की शुरुआत हुई। फिर तो कायसी इसमें कुशल हो गया, और उसने अमरीका में तीस हजार लोगों को अपने पूरे जीवन में ठीक किया। और जो भी निदान उसने किया वह सदा ठीक निकला, और जो मरीज उससे निदान लिया वह सदा ठीक हुआ, निरपवाद रूप से। लेकिन कायसी खुद भी नहीं समझा सकता था कि उसे होता क्या है। इतना ही कह सकता था कि जब भी मैं आंख बंद करता हूं कोई निदान खोजने के लिए, मेरी दोनों आंखें ऊपर चढ़ जाती हैं। मुझे ऐसा लगता है कि कोई मेरी पुतलियों को ऊपर खींचे जा रहा है। और फिर मेरी दोनों आंखें भ्रू-मध्य में ठहर जाती हैं। और तब मैं इस लोक को भूल जाता हूं। फिर मुझे पता नहीं क्या होता है। इसे मैं भूलता हूं, इसका मुझे पता है। दूसरा क्या होता है, उसका मुझे कोई पता नहीं। लेकिन जब तक मैं इसको नहीं भूल जाता, तब तक वह जो निदान मैं देता हूं वह नहीं आता है। निदान उसने ऐसे-ऐसे दिए कि एक-दो निदान सोच लेने जैसे हैं।
रथचाइल्ड अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति, अरबपति परिवार है। उस परिवार की एक महिला बीमार थी और कोई इलाज नहीं बचा था, सब इलाज हो गए थे। फिर कायसी के पास उसको लाया गया। कायसी ने एक दवा का नाम दिया अपनी बेहोशी में। हमारी तरफ से हम कहेंगे बेहोशी, जो जानते हैं उनकी तरफ से तो वह हमसे बड़े होश में है, जो जानते हैं उनके लिहाज से तो हम बेहोश हैं। सच तो यह है कि जब तक तीसरी आंख तक ज्ञान न पहुंचे, तब तक बेहोशी जारी रहती है। पर हमारी तरफ से कायसी ने आंख बंद कीं, वह बेहोश हुआ, और उसने एक दवा का नाम बताया।
रथचाइल्ड तो अरबपति परिवार था। सारे अमरीका में खोज-बीन की गई, वह दवा कहीं मिली नहीं। कोई यह भी न बता सका कि इस तरह की कोई दवा है भी। फिर सारी दुनिया के अखबारों में विज्ञापन दिया गया कि कहीं से भी इस नाम की दवा मिले। कोई बीस दिन बाद स्वीडन से एक आदमी ने जवाब दिया कि इस नाम की दवा है नहीं; बीस साल पहले मेरे पिता ने इस नाम की दवा पेटेंट करवाई थी, लेकिन फिर कभी बनाई नहीं। वह सिर्फ पेटेंट है, कभी बाजार में आई नहीं। दवा भी हमारे पास नहीं है, पिता मर चुके हैं, और वह प्रयोग कभी सफल हुआ नहीं। सिर्फ फार्मूला हमारे पास है, वह हम पहुंचा देते हैं। वह फार्मूला पहुंचाया गया, वह दवा बनी, और वह स्त्री ठीक हो गई। लेकिन वह दवा कहीं थी नहीं दुनिया के बाजार में कि जिसका कायसी को पता हो सके।
दूसरी एक घटना में उसने एक दवा का नाम लिया। बहुत खोज-बीन की गई, वह दवा नहीं मिल सकी। साल भर बाद अखबारों में उस दवा का विज्ञापन निकला। वह दवा उस वक्त बन रही थी किसी प्रयोगशाला में जब उसने कहा था, तब तक उसका नाम भी तय नहीं हुआ था। पर जो नाम उसने साल भर पहले दिया था उस नाम की दवा साल भर बाद बाहर आई। और उसी दवा से वह मरीज ठीक हुआ।
और कई बार तो उसने दवाएं बताईं जो खोजी नहीं जा सकीं और मरीज मर गए। और वह भी कहता था, मैं कुछ कर नहीं सकता, मेरे हाथ की बात नहीं है। मुझे पता नहीं कि जब मैं बेहोश होता हूं तब कौन बोलता है, कौन देखता है, मुझे कुछ पता नहीं। मुझमें और उस व्यक्तित्व में कोई भी संबंध नहीं है। पर एक बात तय थी कि कायसी जब भी बोलता तब उसकी दोनों आंखें चढ़ गई होती थीं।
आप भी जब गहरी नींद में सोते हैं तो आपकी दोनों आंखें, जितनी गहरी नींद होती है, उतनी ऊपर चली जाती हैं। अब अभी तो बहुत से मनोवैज्ञानिक नींद पर बहुत से प्रयोग कर रहे हैं। तो आपकी आंख की पुतली कितनी ऊपर गई है, इससे ही तय किया जाता है कि आप कितनी गहरी नींद में हैं। जितनी आंख की पुतली नीचे होती है उतनी गतिमान होती है ज्यादा, मूवमेंट होता है। और आंख की पुतली में जितनी गति होती है उतनी तेजी से आप सपना देख रहे होते हैं।
यह सब सिद्ध हो चुका है वैज्ञानिक परीक्षणों से। उसको वैज्ञानिक कहते हैं आर ई एम, रैम, रैपिड आई मूवमेंट। तो रैम की कितनी मात्रा है, उससे ही तय होता है कि आप कितनी गति का सपना देख रहे हैं। और आंख की पुतली जितनी नीची होती है, रैम की मात्रा उतनी ही ज्यादा होती है; जितनी ऊपर चढ़ने लगती है, रैम, वह जो आंख की तीव्र गति है पुतलियों की, वह कम होने लगती है। और जब बिलकुल थिर हो जाती है आंख वहां जाकर जहां कि दोनों आंखें मध्य में देखती हैं ऐसी प्रतीत होती हैं, वहां जाकर रैम बिलकुल ही बंद हो जाता है, बिलकुल! पुतली में कोई तरह की गति नहीं रह जाती।
वह जो अगति है पुतली की वही गहन से गहन निद्रा है। योग कहता है कि गहरी सुषुप्ति में हम वहीं पहुंच जाते हैं जहां समाधि में। फर्क इतना ही होता है कि सुषुप्ति में हमें पता नहीं होता, समाधि में हमें पता होता है। गहरी सुषुप्ति में आंख जहां ठहरती है वहीं गहरी समाधि में भी ठहरती है।
ये दोनों घटनाएं मैंने आपसे कहीं यह इंगित करने को कि आपकी दोनों आंखों के बीच में एक बिंदु है जहां से यह संसार नीचे छूट जाता है और दूसरा संसार शुरू होता है। वह बिंदु द्वार है। उसके इस पार, जिस जगत से हम परिचित हैं वह है, उसके उस पार एक अपरिचित और अलौकिक जगत है। इस अलौकिक जगत के प्रतीक की तरह सबसे पहले तिलक खोजा गया।
तो तिलक हर कहीं लगा देने की बात नहीं है। वह तो जो व्यक्ति हाथ रख कर आपका बिंदु खोज सकता है वही आपको बता सकता है कि तिलक कहां लगाना है। हर कहीं तिलक लगा लेने से कोई मतलब नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है।
फिर प्रत्येक व्यक्ति का बिंदु भी एक ही जगह नहीं होता। यह जो दोनों आंखों के बीच तीसरी आंख है, यह प्रत्येक व्यक्ति की बिलकुल एक जगह नहीं होती, अंदाजन दोनों आंखों के बीच में ऊपर होती है, पर फर्क होते हैं। अगर किसी व्यक्ति ने पिछले जन्मों में बहुत साधना की है और समाधि के छोटे-मोटे अनुभव पाए हैं तो उसी हिसाब से वह बिंदु नीचे आता जाता है। अगर इस तरह की कोई साधना नहीं की है तो वह बिंदु काफी ऊपर होता है। उस बिंदु की अनुभूति से यह भी जाना जा सकता है कि आपके पिछले जन्मों की साधना कुछ है समाधि की दिशा में? आपने तीसरी आंख से कभी दुनिया को देखा है? कभी भी आपके किसी जन्म में ऐसी कोई घटना घटी है? तो आपका वह बिंदु, उसका स्थान बताएगा कि ऐसी घटना घटी है या नहीं घटी है। अगर ऐसी घटना बहुत घटी है तो वह बिंदु बहुत नीचे आ जाएगा। वह करीब-करीब दोनों आंखों के समतुल भी आ जाता है, उससे नीचे नहीं आ सकता। और अगर बिलकुल समतुल बिंदु हो, दोनों आंखों के बिलकुल बीच में आ गया हो, तो जरा से इशारे से आप समाधि में प्रवेश कर सकते हैं। इतने छोटे इशारे से कि जिसको हम कह सकते हैं इशारा बिलकुल असंगत है।
इसलिए बहुत दफे जब कुछ लोग बिलकुल ही अकारण समाधि में प्रवेश कर जाते हैं, तो हमें लगता है, बड़ी अजीब सी बात मालूम पड़ती है। जैसे कि झेन साध्वी के जीवन में कथा है। लौटती थी कुएं से पानी भर कर, घड़ा गिर गया। और घड़े के गिरने के साथ समाधि लग गई, और पूर्ण ज्ञान उपलब्ध हुआ। बिलकुल फिजूल की बात है! घड़े का गिरना या घड़े का फूट जाना और समाधि का लगना, कोई संगति नहीं है। लाओत्से के जीवन में उल्लेख है कि वृक्ष के नीचे बैठा था, पतझड़ के दिन थे। और वृक्ष से पत्ते नीचे गिरने लगे, और लाओत्से परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया। अब वृक्ष से गिरते हुए पत्तों का कोई भी तो संबंध नहीं है। कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन यह घटना तब घट सकती है जब कि पिछले जन्मों में यात्रा इतनी हो चुकी हो कि वह तीसरा बिंदु दोनों आंखों के बिलकुल बीच में आ गया हो। तब यह घटना घट सकती है, क्योंकि शायद आखिरी तिनके की जरूरत है और तराजू बैठ जाए। आखिरी तिनका कोई भी चीज बन सकती है।
तो पुराने दिनों में जब भी दीक्षा दी जाती, और दीक्षा वही दे सकता है जो आपकी समस्त जन्मों की सार-संपदा क्या है उसे समझ पाता हो, अन्यथा नहीं दे सकता। अन्यथा देने का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जहां तक आप पहुंच गए हैं उसके आगे यात्रा करनी है। तो वह जो तिलक है अगर ठीक-ठीक लगाया जाए, तो वह कई अर्थों का सूचक था। वे सारे अर्थ समझने पड़ेंगे।
पहला तो वह इस बात का सूचक था कि जब एक बार गुरु ने बता दिया कि तिलक यहां लगाना है ठीक जगह और आपको भी जब उस ठीक जगह का अनुभव होने लगा, क्योंकि तिलक लगाने का पहला प्रयोजन यही है। आपने कभी खयाल न किया होगा कि अगर आप आंख बंद करके भी बैठ जाएं, और कोई व्यक्ति आपकी बंद आंख में भी आपकी दोनों आंखों के बीच में सिर के पास अंगुली ले जाए, तो बंद आंख में भी आपको भीतर अहसास होना शुरू हो जाएगा कि कोई आंख की तरफ अंगुली किए हुए है। वह तीसरी आंख की प्रतीति है।
तो अगर ठीक तीसरी आंख पर तिलक लगा दिया जाए, और उसी मात्रा का, उतने ही अनुपात का तिलक लगा दिया जाए जितनी बड़ी तीसरी आंख की स्थिति है, तो आपको पूरे शरीर को छोड़ कर उसी का स्मरण चौबीस घंटे रहने लगेगा। वह स्मरण पहला तो यह काम करेगा कि आपका शरीर-बोध कम होता जाएगा, और तिलक-बोध बढ़ता जाएगा। एक क्षण ऐसा आ जाता है जब कि पूरे शरीर में सिर्फ तिलक ही स्मरण रह जाता है, बाकी सारा शरीर भूल जाता है। और जिस दिन ऐसा हो जाए, उसी दिन आप उस आंख को खोलने में समर्थ हो सकते हैं।
तो तिलक के साथ जुड़ी हुई साधनाएं थीं कि पूरे शरीर को भूल जाओ, सिर्फ तिलक-मात्र की जगह याद रह जाए। उसका अर्थ यह हुआ कि सारी चेतना सिकुड़ कर फोकस्ड हो जाए तीसरी आंख पर और तीसरी आंख के खोलने की जो कुंजी है वह फोकस्ड कांशसनेस है। उस पर चेतना पूरी की पूरी इकट्ठी हो जाए, सारे शरीर से सिकुड़ कर उस छोटे से स्थान पर लग जाए। बस, उसकी मौजूदगी से काम हो जाएगा।
जैसे कि हम सूरज की किरणों को एक छोटे से लेंस के द्वारा एक कागज पर गिरा लें। इकट्ठी हो गई किरणें आग पैदा कर देंगी। वे ही किरणें सिर्फ धूप पैदा कर रही थीं, उनसे आग पैदा नहीं होती थी। वे ही किरणें आग पैदा कर सकती हैं--संगृहीत। चेतना शरीर पर बंटी रहती है तो सिर्फ जीवन का कामचलाऊ उपयोग उससे होता है। चेतना अगर तीसरे नेत्र के पास पूरी इकट्ठी हो जाए, तो वह जो तीसरे नेत्र में बाधा है, वह जो द्वार है, जो बंदपन है, वह टूट जाता है, जल जाता है, राख हो जाता है, और हम उस आकाश को देखने में समर्थ हो जाते हैं जो हमारे ऊपर फैला है।
तो तिलक का पहला उपयोग तो यह था कि आपको ठीक-ठीक जगह बता दी जाए शरीर में कि चौबीस घंटे इस जगह का स्मरण रखना है। सब तरफ से चेतना को सिकोड़ कर इस जगह ले आना है। एक! और दूसरा यह था प्रयोग कि गुरु को रोज-रोज देखने की जरूरत न पड़े, रोज आपके माथे पर हाथ रखने की भी जरूरत न पड़े; क्योंकि जैसे-जैसे वह बिंदु नीचे सरकेगा वैसे-वैसे आपको अहसास होगा, और आपके तिलक को भी नीचे होते जाना है। आपको रोज तिलक लगाते वक्त ठीक वहीं तिलक लगाना है जहां वह बिंदु आपको अहसास होता है।
तो हजार शिष्य हैं एक गुरु के। वह शिष्य आता है, झुकता है, तभी वह देख लेता है कि तिलक कहां है। इसकी बात करने की जरूरत नहीं रह जाती। वह देख लेता है कि तिलक नीचे सरक रहा है कि नहीं सरक रहा है? तिलक उसी जगह है कि तिलक में कोई अंतर पड़ रहा है? वह कोड है। दिन में दो-चार दफे शिष्य आएगा और वह देख पाएगा कि तिलक! रोज सुबह शिष्य उसके चरण छूने आएगा और वह देख पाएगा कि वह तिलक गतिमान है? वह आगे गति कर रहा है? रुका हुआ है? ठहरा हुआ है? और किसी दिन वह शिष्य के माथे पर हाथ रख कर पुनः देख पाएगा। अगर शिष्य को पता नहीं चल रहा है हटने का, तो उसका मतलब है कि चेतना पूरी की पूरी इकट्ठी नहीं की जा रही है। अगर वह तिलक गलत जगह लगाए हुए है और बिंदु दूसरी जगह है, तो उसका मतलब है कि उसकी कांशसनेस, उसकी रिमेंबरिंग, उसकी स्मृति ठीक बिंदु को नहीं पकड़ पा रही है। वह भी उसे पता चल जाएगा।
जैसे-जैसे यह तिलक नीचे आता जाएगा वैसे-वैसे प्रयोग बदलने पड़ेंगे साधना के। यह करीब-करीब वैसा ही काम करेगा जैसे कि अस्पताल में मरीज के पास लटका हुआ चार्ट काम करता है। वह नर्स आकर, देख कर चार्ट पर लिख जाती है--कितना है ताप, कितना है ब्लडप्रेशर, क्या है, क्या नहीं है। डॉक्टर को आकर देखने की जरूरत नहीं होती, वह चार्ट पर एक क्षण नजर डाल लेता है, बात पूरी हो जाती है। पर इससे भी अदभुत था यह प्रयोग कि माथे पर पूरा का पूरा इंगित लगा था, यह सब तरह की खबर देता। और अगर यह ठीक-ठीक इसका प्रयोग किया जाता तो गुरु को पूछने की कभी जरूरत न पड़ती कि क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। वह जानता है कि क्या हो रहा है। और क्या सहायता पहुंचानी है, वह भी जानता है। क्या प्रयोग बदलना है, कौन सी विधि रूपांतरित करनी है, वह भी जानता है।
एक तो साधना की दृष्टि से तिलक का ऐसा मूल्य था। दूसरा, जो हमारी तीसरी आंख का बिंदु है, वह हमारे संकल्प का भी बिंदु है। उसको योग में आज्ञाचक्र कहते हैं। आज्ञाचक्र इसीलिए कहते हैं कि हमारे जीवन में जो कुछ भी अनुशासन है वह उसी चक्र से पैदा होता है। हमारे जीवन में जो भी व्यवस्था है, जो भी आर्डर है, जो भी संगति है, वह उसी बिंदु से पैदा होती है।
इसे ऐसा समझें। हम सबके शरीर में सेक्स का सेंटर है। सेक्स से समझना आसान पड़ जाएगा, क्योंकि वह हम सबका परिचित है, यह आज्ञा का चक्र तो हम सबका परिचित नहीं है। हमारे जीवन की सारी वासना और कामना सेक्स के चक्र से पैदा होती है। जब तक वह चक्र सक्रिय नहीं होता तब तक कामवासना पैदा नहीं होती। कामवासना लेकर बच्चा पैदा होता है, कामवासना का पूरा यंत्र लेकर पैदा होता है, कोई कमी नहीं होती।
कुछ मामले में तो बहुत हैरानी की बात है। स्त्रियां तो अपने जीवन के सारे रजकण भी लेकर पैदा होती हैं, फिर कोई नया रजकण पैदा नहीं होता। प्रत्येक स्त्री कितने बच्चों को जन्म दे सकती है, वह सबके अंडे लेकर पैदा होती है--करोड़ों। पहले दिन की बच्ची भी जब मां के पेट से पैदा होती है, तो अपने जीवन के समस्त अंडों की संख्या अपने भीतर लिए हुए पैदा होती है। हर महीना एक अंडा उसके कोष से निकल कर सक्रिय हो जाएगा। अगर वह अंडा पुरुष वीर्य से मिल जाए, संयुक्त हो जाए, तो बच्चे का जन्म हो जाएगा। एक भी नया अंडा स्त्री में पैदा नहीं होता। सारे अंडे लेकर पैदा होती है। लेकिन फिर भी कामवासना नहीं पैदा होती तब तक, जब तक कि कामवासना का चक्र शुरू न हो जाए। वह चक्र जब तक अगति में पड़ा है, ठहरा हुआ है, तब तक--काम का पूरा यंत्र है, काम की पूरी आयोजना है, शरीर के पास काम की पूरी शक्ति है--लेकिन फिर भी कामवासना पैदा नहीं होगी। कामवासना पैदा होगी, जैसे ही काम का सेंटर गतिमान होगा, गत्यात्मक होगा। चौदह वर्ष की उम्र में या तेरह वर्ष की उम्र में वह गतिमान हो जाएगा। गतिमान होते ही से जो यंत्र पड़ा था बंद बिलकुल, वह पूरी सक्रियता ले लेगा।
एक ही चक्र से आमतौर से हम परिचित हैं। और वह भी हम इसीलिए परिचित हैं क्योंकि उसे हम शुरू नहीं करते, उसे प्रकृति शुरू करती है। अगर हमें ही उसे भी शुरू करना हो तो इस जगत में थोड़े से ही लोग कामवासना से परिचित हो पाएंगे। वह तो प्रकृति शुरू करती है,
इसलिए हमें पता चलता है कि वह है।
कभी आपने सोचा है, जरा सा विचार वासना का, और जननेंद्रिय का पूरा यंत्र सक्रिय हो जाता है। विचार चलता है मस्तिष्क में, यंत्र होता है बहुत दूर! कभी आपने सोचा है कि जरा सा कामवासना का मन में, जरा सी झलक, और तत्काल चक्र सक्रिय हो जाता है। असल में आपके चित्त में कामवासना का कोई भी विचार उठे वह तत्काल जो सेक्स का सेंटर है उसे अपनी ओर खींच लेता है। कहीं भी उठे शरीर में, तत्काल वह अपने सेंटर पर चला जाएगा। उसे जाना ही पड़ेगा, उसे जाने की और कोई जगह नहीं है। जैसे पानी गड्ढे में चला जाता है, ऐसा प्रत्येक संबंधित विचार अपने चक्र पर चला जाता है।
दोनों आंखों के बीच में जो तीसरे नेत्र की मैं बात कर रहा हूं, वही जगह आज्ञाचक्र की है। इस आज्ञा के संबंध में थोड़ी बात समझ लेनी जरूरी है।
जिन लोगों के जीवन में भी यह चक्र प्रारंभ नहीं होगा, वे हजार तरह की गुलामियों में बंधे रहेंगे, वे गुलाम ही रहेंगे। इस चक्र के बिना कोई स्वतंत्रता नहीं है। यह बहुत हैरानी की बात मालूम पड़ेगी। क्योंकि हमने बहुत तरह की स्वतंत्रताएं सुनी हैं--राजनैतिक, आर्थिक। वे कोई स्वतंत्रताएं वास्तविक नहीं हैं। क्योंकि जिस व्यक्ति का आज्ञाचक्र सक्रिय नहीं है, वह किसी न किसी तरह की गुलामी में रहेगा। एक गुलामी से छूटेगा दूसरी में पड़ेगा, दूसरी से छूटेगा तीसरी में पड़ेगा, वह गुलाम रहेगा ही। उसके पास मालिक होने का तो अभी चक्र ही नहीं है, जहां से मालकियत की किरणें पैदा होती हैं। उसके पास संकल्प जैसी, विल जैसी कोई चीज ही नहीं है। वह अपने को आज्ञा दे सके ऐसी उसकी सामर्थ्य ही नहीं है, बल्कि उसका शरीर और उसकी इंद्रियां ही उसको आज्ञा दिए चली जाती हैं। पेट कहता है भूख लगी है, तो उसको भूख लगती है। कामवासना का बिंदु कहता है वासना जगी, तो उसे वासना जगती है। शरीर कहता है बीमार हूं, तो वह बीमार हो जाता है। शरीर कहता है बूढ़ा हो गया, तो वह बूढ़ा हो जाता है। शरीर आज्ञा देता है, आदमी आज्ञा मान कर चलता रहता है।
यह जो आज्ञाचक्र है, इसके जगते ही शरीर आज्ञा देना बंद कर देता है और आज्ञा लेना शुरू करता है। पूरा का पूरा आयोजन बदल जाता है और उलटा हो जाता है। वैसा आदमी अगर खून--बहते हुए खून को कह दे कि रुक जाओ, तो वह बहता हुआ खून रुक जाएगा। वैसा आदमी कह दे हृदय की धड़कन को कि ठहर जा, तो हृदय की धड़कन ठहर जाएगी। वैसा आदमी कहे अपनी नब्ज से कि मत चल, तो नब्ज चल न सकेगी। वैसा आदमी अपने शरीर, अपने मन, अपनी इंद्रियों का मालिक हो जाता है। पर इस चक्र के बिना शुरू हुए मालिक नहीं होता। इस चक्र का स्मरण जितना ज्यादा रहे, उतनी ही ज्यादा आपके भीतर, जिसको कहें स्वयं की मालिकी, पैदा होनी शुरू होती है। आप गुलाम की जगह मालिक बनना शुरू होते हैं।
तो योग ने इस चक्र को जगाने के बहुत-बहुत प्रयोग किए हैं। उसमें तिलक भी एक प्रयोग है। स्मरणपूर्वक, अगर कोई चौबीस घंटे इस चक्र पर बार-बार ध्यान को ले जाता रहे--और अगर तिलक लगा हुआ है तो बार-बार ध्यान जाएगा। तिलक के लगते ही वह स्थान पृथक हो गया। और बहुत सेंसिटिव स्थान है। अगर तिलक ठीक जगह लगा है तो आप हैरान होंगे कि आपको उसकी याद करनी ही पड़ेगी, वह बहुत संवेदनशील जगह है। संभवतः शरीर में सर्वाधिक संवेदनशील जगह है। उसकी संवेदनशीलता को स्पर्श करना, और वह भी खास चीजों से स्पर्श करने की बात थी।
जैसे चंदन का तिलक लगाना। अब यह सैकड़ों और हजारों प्रयोगों के बाद तय किया था कि चंदन का क्यों प्रयोग करना। एक तरह की रेजोनेंस है चंदन में और संवेदनशीलता में। वह चंदन का तिलक उस बिंदु की संवेदनशीलता को और गहन करता है, और घना कर जाता है। हर कोई तिलक नहीं कर जाएगा। कुछ चीजों के तिलक तो उसकी संवेदनशीलता को मार देंगे, बुरी तरह मार देंगे। जैसे आज स्त्रियां टीका लगा रही हैं बहुत से। बाजारू हैं वे, उनकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है, उनका योग से कोई लेना-देना नहीं है। वे बाजारू टीके नुकसान करेंगे। वे नुकसान करेंगे इसलिए क्योंकि सवाल यह है कि वे संवेदनशीलता को बढ़ाते हैं या घटाते हैं? अगर घटाते हैं संवेदनशीलता को तो नुकसान करेंगे, अगर बढ़ाते हैं तो फायदा करेंगे। और प्रत्येक चीज के अलग-अलग परिणाम हैं। इस जगत में छोटे से फर्क से सारा फर्क पड़ता है। तो कुछ विशेष चीजें खोजी गई थीं, जिनका ही उपयोग किया जाए।
आज्ञा का चक्र संवेदनशील हो सके, सक्रिय हो सके, तो आपके व्यक्तित्व में गरिमा और इंटिग्रिटी आनी शुरू होती है, एक समग्रता पैदा होती है। आप एकजुट होने लगते हैं, कोई चीज आपके भीतर इकट्ठी हो जाती है; खंड-खंड नहीं, अखंड हो जाती है।
इस संबंध में टीके के लिए भी पूछा है तो वह भी खयाल में ले लेना चाहिए।
तिलक से थोड़ा हट कर टीके का प्रयोग शुरू हुआ। विशेषकर स्त्रियों के लिए शुरू हुआ। उसका कारण वही था, लेकिन योग का ही अनुभव काम कर रहा था। असल में स्त्रियों का आज्ञाचक्र बहुत कमजोर चक्र है। होगा ही। क्योंकि स्त्री का सारा व्यक्तित्व निर्मित किया गया समर्पण के लिए, उसके सारे व्यक्तित्व की खूबी समर्पण है। आज्ञाचक्र अगर उसका बहुत मजबूत हो तो समर्पण करना मुश्किल हो जाएगा। तो स्त्री के पास आज्ञा का चक्र बहुत कमजोर है, असाधारण रूप से कमजोर है। इसलिए स्त्री सदा ही किसी न किसी का सहारा मांगती रहेगी। वह किसी रूप में हो। अपने पर खड़े हो जाने का पूरा साहस न जुटा पाएगी। कोई सहारा, किसी के कंधे पर हाथ, कोई आगे हो जाए, कोई आज्ञा दे और वह मान ले, इसमें उसे सुख मालूम पड़ेगा।
स्त्री के आज्ञाचक्र को सक्रिय बनाने की अकेली कोशिश इस मुल्क में हुई है, और कहीं भी नहीं हुई है। और वह कोशिश इसलिए थी कि अगर स्त्री का आज्ञाचक्र सक्रिय नहीं होता तो परलोक में उसकी कोई गति नहीं हो सकती, साधना में उसकी कोई गति नहीं हो सकती। उसके आज्ञाचक्र को तो स्थिर रूप से मजबूत करने की जरूरत है। लेकिन अगर यह आज्ञाचक्र साधारण रूप से मजबूत किया जाए तो उसके स्त्रैण होने में कमी पड़ेगी; अगर यह साधारण रूप से आज्ञाचक्र मजबूत किया जाए तो उसमें पुरुषत्व के गुण आने शुरू हो जाएंगे और स्त्रैण होने में कमी पड़ेगी।
इसलिए इस टीके को अनिवार्य रूप से उसके पति से जोड़ने की चेष्टा की गई। इसको जोड़ने का कारण है। इस टीके को सीधा नहीं रख दिया गया उसके माथे पर, नहीं तो उसमें स्त्रीत्व कम होगा। वह जितनी स्वनिर्भर होने लगेगी, उतना ही उसकी जो स्त्रैण कोमलता है, उसका जो कौमार्य है, वह नष्ट होगा। वह दूसरे का सहारा खोजती है, इससे उसमें एक तरह की कोमलता है। और जब वह अपने सहारे खड़ी होगी तो एक तरह की कठोरता अनिवार्य हो जाएगी।
तो बड़ी बारीकी से खयाल किया गया कि उसको सीधा टीका लगा दिया जाए, तो उसके स्त्रैण तत्व में नुकसान पहुंचेगा, उसके व्यक्तित्व में, उसके मां होने में बाधा पड़ेगी, उसके समर्पण में बाधा पड़ेगी। इसलिए उसकी आज्ञा को उसके पति से ही जोड़ने का समग्र प्रयास किया गया। इस तरह दोहरे फायदे होंगे। उसके स्त्रैण होने में कोई अंतर नहीं पड़ेगा, वह अपने पति के प्रति ज्यादा अनुगत हो पाएगी, और फिर भी उसकी आज्ञा का चक्र सक्रिय हो सकेगा।
इसे ऐसा समझें, आज्ञा का चक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए उसके विपरीत कभी नहीं जाता--जिससे भी संबंधित कर दिया जाए उसके विपरीत कभी नहीं जाता। चाहे गुरु से संबंधित कर दिया जाए तो गुरु के विपरीत कभी नहीं जाता, चाहे पति से संबंधित कर दिया जाए तो पति से विपरीत कभी नहीं जाता। आज्ञाचक्र जिससे भी संबंधित कर दिया जाए उसके विपरीत व्यक्तित्व नहीं जाता। तो अगर एक स्त्री के माथे पर ठीक जगह पर टीका है तो वह सिर्फ पति के प्रति तो अनुगत हो सकेगी, शेष सारे जगत के प्रति वह सबल हो जाएगी। यह करीब-करीब स्थिति वैसी है कि अगर आप सम्मोहन के संबंध में कुछ समझते हैं तो इसे जल्दी समझ जाएंगे।
अगर आपने किसी सम्मोहक को लोगों को सम्मोहित करते, हिप्नोटाइज करते देखा है, तो आप एक चीज देख कर जरूर ही चौंके होंगे। और वह चीज यह कि अगर सम्मोहन करने वाला व्यक्ति किसी को सम्मोहित कर दे--कोई मैक्सकोल या कोई भी या आप खुद किसी को सम्मोहित कर दें--तो आपके सम्मोहित कर देने के बाद वह व्यक्ति किसी दूसरे की आवाज नहीं सुनेगा, सिर्फ आपकी सुन सकेगा। यह बहुत मजे की घटना घटती है। सम्मोहित कर देने के बाद सारे हॉल में यहां हजारों लोग चिल्लाते रहें, बात करते रहें, वह जो बेहोश पड़ा हुआ आदमी है, वह सुनेगा नहीं। लेकिन जिसने सम्मोहित किया है वह धीमे से भी बोले, तो भी सुनेगा। यह करीब-करीब, जो मैं आपको टीका समझा रहा हूं, उससे जुड़ी हुई घटना है। वह व्यक्ति जैसे ही सम्मोहित किया गया वैसे ही सम्मोहित करने वाले के प्रति ही सिर्फ उसकी ओपनिंग और खुलापन रह गया, बाकी सबके लिए क्लोज हो गया। आप उसको कुछ नहीं कह सकते। आप उसके कान के पास कितना ही चिल्लाएं, वह बिलकुल नहीं सुनेगा, नगाड़े बजाएं तो नहीं सुनेगा। और जिसने सम्मोहित किया है वह धीमे से भी आवाज दे कि खड़े हो जाओ, तो वह तत्काल खड़ा हो जाएगा। उसकी चेतना में सिर्फ एक द्वार रह गया है, बाकी सब तरफ से बंद हो गई है। जिसने सम्मोहित किया है, आज्ञाचक्र उससे बंध गया, बाकी सब तरफ से बंद हो गया।
ठीक इसी सजेस्टिबिलिटी का, इसी मंत्र का उपयोग स्त्री के टीके में किया गया है। उसको उसके पति के साथ जोड़ देना है। वह एक ही तरफ उसका अनुगत भाव रह जाएगा, एक तरफ वह समर्पित हो पाएगी और शेष सारे जगत के प्रति वह मुक्त और स्वतंत्र हो जाएगी। तो उसके स्त्री होने पर कोई बाधा नहीं पड़ेगी। और इसीलिए जैसे ही पति मर जाए, टीका हटा देना है। जैसे ही पति मर जाए, टीका हटा देना है। वह इसीलिए हटा देना है कि अब किसी के प्रति अनुगत होने का कोई सवाल नहीं रहा।
लोगों को खयाल नहीं है, उनको तो खयाल है कि टीका पोंछ दिया, क्योंकि विधवा हो गई स्त्री। पोंछने का प्रयोजन है। अब उसको अनुगत होने का कोई सवाल नहीं रहा। सच तो यह है कि अब उसको पुरुष की भांति ही जीना पड़ेगा। अब उसमें जितनी स्वतंत्रता आ जाए, उतनी उसके जीवन के लिए हितकर होगी। एक जरा सा भी छिद्र वल्नरेबिलिटी का, एक जरा सा भी छेद जहां से वह अनुगत हो सके, वह हट जाए।
टीके का प्रयोग एक बहुत ही गहरा प्रयोग है। लेकिन ठीक जगह पर हो, ठीक वस्तु का हो, ठीक नियोजित ढंग से लगाया गया हो। अन्यथा बेमानी है। सजावट हो कि श्रृंगार हो, तो उसका कोई मूल्य नहीं है, उसका कोई अर्थ नहीं है। तब वह सिर्फ एक औपचारिक घटना है। इसलिए पहली बार जब टीका लगाया जाए तो उसका पूरा अनुष्ठान है। और पहली दफे जब गुरु तिलक दे तब उसका पूरा अनुष्ठान है। उस पूरे अनुष्ठान से ही लगाया जाए तो ही परिणामकारी होगा, अन्यथा परिणामकारी नहीं होगा।
आज सारी चीजें हमें व्यर्थ मालूम पड़ने लगी हैं, उसका कारण है। आज तो व्यर्थ हैं। आज व्यर्थ हैं, क्योंकि उनके पीछे का कोई भी वैज्ञानिक रूप नहीं है। सिर्फ ऊपरी खोल रह गई है, जिसको हम घसीट रहे हैं, जिसको हम खींच रहे हैं बेमन से, जिसके पीछे मन का भी कोई लगाव नहीं रह गया है, आत्मा का कोई भाव नहीं रह गया है, और उसके पीछे की पूरी वैज्ञानिकता का कोई सूत्र भी मौजूद नहीं है। यह जो आज्ञाचक्र है, इस संबंध में दो-तीन बातें और समझ लेनी चाहिए, क्योंकि यह काम पड़ सकता है, इसका उपयोग किया जा सकता है।
इस चक्र की जो रेखा है, आज्ञाचक्र की, इस रेखा से ही जुड़ा हुआ हमारे मस्तिष्क का वह भाग है...इससे ही हमारा मस्तिष्क शुरू होता है। लेकिन अभी भी हमारे मस्तिष्क का आधा हिस्सा बेकार पड़ा हुआ है साधारणतः। हमारा जो प्रतिभाशाली से प्रतिभाशाली व्यक्ति होता है, जिसको हम जीनियस कहें, उसका भी केवल आधा ही मस्तिष्क काम करता है, आधा तो काम नहीं करता। और वैज्ञानिक बहुत परेशान हैं, फिजियोलॉजिस्ट बहुत परेशान हैं कि यह आधी खोपड़ी का जो हिस्सा है, यह किसी भी काम नहीं आता! अगर आपके आधे हिस्से को काट कर निकाल दिया जाए तो आपको पता भी नहीं चलेगा। आपको पता ही नहीं चलेगा कि कोई चीज कमी हो गई। क्योंकि उसका तो कभी कोई उपयोग ही नहीं हुआ है, वह न होने के बराबर है।
लेकिन वैज्ञानिक जानते हैं कि प्रकृति कोई भी चीज व्यर्थ निर्मित नहीं करती। भूल होती हो, एकाध आदमी के साथ हो सकती है। यह निरंतर हर आदमी के साथ आधा मस्तिष्क खाली पड़ा हुआ है! बिलकुल निष्क्रिय पड़ा हुआ है, उसमें कभी कोई चहल-पहल भी नहीं हुई है।
योग का कहना है कि वह जो आधा मस्तिष्क है वह आज्ञाचक्र के चलने के बाद शुरू होता है। आधा जो मस्तिष्क है वह आज्ञाचक्र के नीचे के चक्रों से जुड़ा हुआ है और आधा जो मस्तिष्क है वह आज्ञाचक्र के ऊपर के चक्रों से जुड़ा हुआ है। नीचे के चक्र शुरू होते हैं तो आधा मस्तिष्क काम करता रहता है, और जब आज्ञा के ऊपर काम शुरू होता है तब शेष आधा मस्तिष्क काम शुरू करता है।
इस संबंध में, हमें खयाल भी नहीं आता जब तक कोई चीज सक्रिय न हो जाए, हम सोच भी नहीं सकते। सोचने का भी कोई उपाय नहीं है। जब कोई चीज सक्रिय होती है तभी हमें पता चलता है।
स्वीडन में एक आदमी गिर पड़ा ट्रेन से। और गिरने के बाद जब वह अस्पताल में भर्ती किया गया तो उसे दस मील के भीतर की आस-पास की रेडियो की आवाजें पकड़ने लगीं, उसके कान में। पहले तो वह समझा कि उसका दिमाग कुछ खराब हो रहा है। पहले तो साफ भी नहीं था, गुनगुनाहट मालूम होती थी। लेकिन दो-तीन दिन में ही चीजें साफ होने लगीं। तब उसने घबड़ा कर डॉक्टर को कहा कि यह मामला क्या है? मुझे तो ऐसा सुनाई पड़ता है जैसे कि कोई रेडियो मेरे कान के पास लगाए हुए है। यहां तो कोई लगाए हुए नहीं है! डॉक्टर ने पूछा: तुम्हें क्या सुनाई पड़ रहा है? तो उसने जो गीत की कड़ी बताई वह डॉक्टर अभी अपने रेडियो से सुन कर आ रहा है। उसने कहा: यह मुझे अभी थोड़ी देर पहले सुनाई पड़ी। और फिर तो स्टेशन बंद हो गया टाइम बता कर, कि इतना टाइम है। तब तो रेडियो लाकर, लगा कर, जांच-पड़ताल की गई। और पाया गया कि उस आदमी का कान ठीक रेडियो की तरह रिसेप्टिव का काम कर रहा है, उतना ही ग्राहक हो गया है।
ऑपरेशन करना पड़ा। नहीं तो आदमी पागल हो जाए। क्योंकि ऑन-ऑफ का तो कोई उपाय नहीं था, वह चौबीस घंटे चल रहा था। जब तक स्टेशन चलेगा तब तक वह आदमी चल रहा था। लेकिन एक बात जाहिर हो गई कि यह भी कान की संभावना हो सकती है। और यह भी तय हो गया उसी दिन कि इस सदी के पूरे होते-होते हम कान का ही उपयोग करेंगे रेडियो के लिए। इतने-इतने बड़े यंत्रों को बनाने की और ढोने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन तब एक छोटी सी व्यवस्था, जो कान पर लगाई जा सके और जिससे ऑन-ऑफ किया जा सके, पर्याप्त होगा। सिर्फ ऑन-ऑफ किया जा सके, उतनी व्यवस्था! पर उस आदमी की आकस्मिक घटना से यह एक खयाल पकड़ा, बिलकुल आकस्मिक!
इस जगत में जो-जो नई घटनाएं घटती हैं या नये दृष्टिकोण खुलते हैं, वे हमेशा एक्सीडेंटल और आकस्मिक होते हैं। क्योंकि हम पिछले ज्ञान से तो उनका कोई अनुमान ही नहीं लगा सकते। अब हम कभी सोच ही नहीं सकते कि कान भी कभी रेडियो का काम कर सकता है। लेकिन क्यों नहीं कर सकता? कान सुनने का काम करता है, रेडियो सुनने का काम करता है। कान रिसेप्टिविटी है पूरी, रेडियो रिसेप्टिविटी है। सच तो यह है कि रेडियो कान के ही आधार पर निर्मित है। मॉडल का काम तो कान ने ही किया है। कान की और क्या-क्या संभावनाएं हो सकती हैं, ये जब तक अचानक उदघाटित न हो जाएं तब तक पता भी नहीं चल सकता।
ठीक वैसी घटना दूसरे महायुद्ध में एक और घटी। एक आदमी घायल हुआ, बेहोश हुआ, और जब होश में आया तो उसे दिन में आकाश के तारे दिखाई पड़ने लगे। तारे तो दिन में होते ही हैं, तारे तो कहीं चले नहीं जाते। तारे तो आकाश में होते ही हैं, सिर्फ सूरज की रोशनी की वजह से दिखाई पड़ने बंद हो जाते हैं। सूरज की रोशनी बीच में आ जाती है, तारे पीछे पड़ जाते हैं। सूरज की रोशनी बहुत तेज है, तारे बहुत दूर हैं, उनकी टिमटिमाती रोशनी खो जाती है। यद्यपि वे सूरज से छोटे नहीं हैं, उनमें से कोई सूरज से हजार गुना बड़ा है, कोई दस हजार गुना बड़ा है, कोई लाख गुना बड़ा है, पर फासला बहुत है।
सूरज से किरण हम तक आती है तो उसको नौ मिनट लगते हैं। और जो सबसे करीब का तारा है, उससे जो किरण आती है, उसको चालीस साल लगते हैं। फासला बहुत है--नौ मिनट और चालीस साल! और किरण बहुत तेज चलती है, एक लाख छियासी हजार मील चलती है एक सेकेंड में। सूरज से पहुंचने में नौ मिनट लगते हैं, निकटतम तारे से पहुंचने में चालीस साल लगते हैं। और ऐसे तारे हैं कि जिनसे चार हजार साल भी लगते हैं, चार लाख साल भी लगते हैं, चार करोड़ साल भी लगते हैं, चार अरब साल भी लगते हैं। चार अरब साल के ऊपर का हम हिसाब नहीं रख सकते, क्योंकि हमारी पृथ्वी को बने चार अरब साल हुए।
वैज्ञानिकों का कहना है कि जब हमारी पृथ्वी नहीं बनी थी, तब जो किरणें चली होंगी, एक दिन जब हमारी पृथ्वी समाप्त हो चुकी होगी तब पार होंगी। उन किरणों को कभी पता ही नहीं चलेगा कि बीच में यह पृथ्वी के होने की घटना घट गई। जब पृथ्वी नहीं थी तब वे चलीं और जब पृथ्वी नहीं हो चुकी होगी तब वे पार हो जाएंगी। उनको कभी पता नहीं चलेगा। उन किरणों पर अगर कोई यात्री सवार होकर चले तो पृथ्वी कभी थी, इसका कोई भी पता नहीं चलेगा।
दिन में वे तारे हैं अपनी जगह। उस आदमी को दिखाई पड़ने शुरू हो गए। उसकी आंख को क्या हो गया? उसकी आंख ने एक नया सिलसिला शुरू किया। ऑपरेशन करना पड़ा उसकी आंख का, क्योंकि वह आदमी सामान्य नहीं रह गया। वह आदमी बेचैनी में पड़ गया, वह आदमी कठिनाई में पड़ गया। पर एक बात साफ हुई कि आंख दिन में भी तारों को देख सकती है। अगर आंख दिन में भी तारों को देख सकती है तो आंख की बहुत सी संभावनाएं हैं जो सुप्त पड़ी हैं।
हमारी प्रत्येक इंद्रिय की बहुत सी संभावनाएं हैं जो सुप्त पड़ी हैं। इस जगत में जो हमें चमत्कार दिखाई पड़ते हैं, वे सुप्त पड़ी संभावनाओं का कहीं से टूट पड़ना है, बस! कोई सुप्त संभावना कहीं से प्रकट हो जाती है, हम चमत्कृत हो जाते हैं। वह मिरेकल नहीं है। उतना ही चमत्कार हमारे भीतर भी दबा पड़ा है। पर अप्रकट है, वह प्रकट नहीं हो पा रहा है, वह खुल नहीं पा रहा है। कहीं कोई दरवाजे पर ताला पड़ा है और वह नहीं टूट पा रहा है।
योग की दृष्टि...और योग की दृष्टि कोई एक-दो दिन, वर्ष दो वर्ष की धारणा की नहीं है, कम से कम बीस हजार साल से योग की यह परिपुष्ट दृष्टि है। विज्ञान की किसी दृष्टि पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता बहुत, क्योंकि जो विज्ञान छह महीने पहले कह रहा था, छह महीने बाद बदलेगा। लेकिन योग की एक परिपुष्ट दृष्टि है, जो बीस हजार साल--कम से कम। क्योंकि हम जिस सभ्यता में रह रहे हैं वह सभ्यता किसी भी हालत में बीस हजार साल से पुरानी नहीं है। यद्यपि यह हमारा भ्रम है कि हमारी सभ्यता पृथ्वी पर पहली सभ्यता है। हमसे पहले सभ्यताएं हो चुकी हैं और नष्ट हो चुकी हैं। और हमसे पहले आदमी करीब-करीब हमारी ही ऊंचाइयों पर और कभी-कभी हमसे भी ज्यादा ऊंचाइयों पर पहुंच गया और खो गया।
उन्नीस सौ चौबीस में एक घटना घटी। उन्नीस सौ चौबीस में जर्मनी में अणुविज्ञान के संबंध में जो शोध का पहला संस्थान निर्मित हुआ, अचानक एक दिन सुबह एक आदमी, जिसने अपना नाम फल्कानेली बताया, एक कागज लिख कर वहां दे गया। और उस कागज में एक छोटी सी सूचना दे गया कि मुझे कुछ बातें ज्ञात हैं, और कुछ और लोगों को भी ज्ञात हैं, जिनके आधार पर मैं यह खबर देता हूं कि अणु के साथ खोज में मत पड़ना, क्योंकि हमारी सभ्यता के पहले और भी सभ्यताएं इस खोज में पड़ कर नष्ट हो चुकी हैं। इस खोज को बंद ही कर देना। बहुत खोज-बीन की गई, उस आदमी का कुछ पता न चला।
उन्नीस सौ चालीस में हेजेनबर्ग--एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक था जर्मनी का, जिसने कि बड़े से बड़ा काम अणु की खोज में किया--उस आदमी के घर फिर एक आदमी उपस्थित हुआ, जिसने फिर उसे एक चिट्ठी दी, उस पर भी फल्कानेली के ही दस्तखत थे। वह नौकर को चिट्ठी देकर बाहर ही चला गया। उस चिट्ठी में उसने हेजेनबर्ग को सूचना दी थी कि तुम पापी होने का जिम्मा मत लो, क्योंकि यह सभ्यता पहली नहीं है जो कि अणु के साथ उपद्रव में पड़ी हो। इसके पहले बहुत बार सभ्यताएं अणु के साथ खेल में पड़ीं और नष्ट हुईं। मगर फिर भी उस आदमी का कोई पता नहीं चल सका।
और उन्नीस सौ पैंतालीस में जब पहली दफा हिरोशिमा पर एटम गिरा, तो दुनिया के बारह बड़े वैज्ञानिकों को, जिनका कि हाथ था एटम के बनाने में, फल्कानेली के दस्तखत से पत्र मिले जिसमें उसने कहा था कि देखो, अभी भी रुक जाओ। हालांकि तुमने पहला कदम उठा लिया है, और पहला कदम उठाने के बाद आखिरी कदम बहुत दूर नहीं रहता। ओपनहीमर, जो अमरीका का सबसे बड़ा अणुशास्त्री था, जिसने कि अणु बनाने में बड़े से बड़ा भाग बंटाया, उसने तत्काल उस पत्र के मिलते ही से अणु आयोग से इस्तीफा दिया और उसने एक वक्तव्य दिया कि वी हैव सिंड, हमने पाप किया है। और यह आदमी हर वक्त खबर देता रहा। पर यह आदमी कौन है, इसका कोई पता नहीं लग सका कि यह आदमी कौन है! इस बात की पूरी संभावना है कि वह जो कह रहा है, ठीक कह रहा है। अणु के साथ खिलवाड़ सभ्यताएं पहले भी कर चुकी हैं।
हमने भी महाभारत में अणु के साथ खिलवाड़ कर लिया है। और उसके साथ हम बर्बाद हुए। असल में करीब-करीब ऐसा है जैसे कि एक व्यक्ति बच्चा होता है, जवान होता है, और जवानी में वही भूलें करता है जो उसके बाप ने की थीं। हालांकि बाप बूढ़ा होकर उसको समझाता है कि इन भूलों में मत पड़ना, यह सब गड़बड़ है। लेकिन उसके बाप ने भी इस बूढ़े को समझाई थीं यही बातें। और ऐसा नहीं है कि इस बूढ़े के बूढ़े बाप को समझाने वाला बाप नहीं था, उसने भी समझाई थीं। बाकी जवानी में वही भूलें होती हैं, फिर बुढ़ापे में वही समझाहट होती है। बच्चा होता है, जवान होता है, बूढ़ा होता है, मरता है--जैसे व्यक्ति एक चक्र में दौड़ कर विघटित हो जाता है, ऐसे ही हर सभ्यता भी करीब-करीब एक से स्टेप उठा कर नष्ट होती है। सभ्यताएं भी बचपन में होती हैं, जवान होती हैं, बूढ़ी होती हैं और मरती हैं।
यह जो योग की बीस हजार साल की...बीस हजार साल की मैं इसलिए कहता हूं कि बीस हजार साल का हिसाब थोड़ा साफ है। वैसे इसे और भी साफ करना हो तो बीस हजार साल के पहले जो सभ्यताएं रही हैं, उनको बिना जाने साफ नहीं किया जा सकता। एक आदमी की जवानी ठीक से समझनी हो तो दस आदमियों की जवानी समझनी जरूरी है, अकेली नहीं समझी जा सकती। कोई रिफरेंस नहीं होता, कोई संदर्भ नहीं होता। कैसे समझा जाए वह क्या कर रहा है? ठीक कर रहा है कि गलत कर रहा है? एक आदमी का बुढ़ापा समझना हो तो पच्चीस बूढ़ों पर नजर डालनी जरूरी है। नहीं तो अधूरा-अधूरा होगा। एक-एक व्यक्ति अपने आप में कुछ भी नहीं बता पाता है। एक-एक घटना कुछ नहीं कहती। लेकिन बीस हजार साल का इतिहास साफ है।
इस बीस हजार साल में योग निरंतर एक बात कहता रहा है कि आज्ञाचक्र के साथ जुड़ा हुआ आधा मस्तिष्क है जो बंद पड़ा है, अगर तुम्हें संसार के पार कुछ जानना है तो उस आधे मस्तिष्क को सक्रिय करना जरूरी है। अगर परमात्मा के संबंध में कोई यात्रा करनी है तो वह आधा मस्तिष्क सक्रिय होना जरूरी है। अगर पदार्थ के पार देखना है तो वह आधा मस्तिष्क सक्रिय होना जरूरी है।
उसका द्वार है आज्ञा। वह जहां आप तिलक लगाते हैं, वह तो कॉरस्पांडिंग हिस्सा है आपकी चमड़ी के ऊपर। उससे अंदाजन डेढ़ इंच भीतर--अंदाजन कहता हूं, क्योंकि किसी का थोड़ा ज्यादा, किसी का थोड़ा कम--अंदाजन डेढ़ इंच भीतर वह बिंदु है जो द्वार का काम करता है, पदार्थ-अतीत, भावातीत जगत के लिए।
तिब्बत ने तो, जैसा हमने तिलक आविष्कृत किया, तिब्बत ने तो ठीक ऑपरेशंस भी आविष्कृत किए। और तिब्बत ही कर सकता था। क्योंकि तिब्बत ने जितनी मेहनत की है मनुष्य के तीसरे नेत्र पर, वह थर्ड आई पर, उतनी किसी और सभ्यता ने नहीं की है। सच तो यह है कि तिब्बत का पूरा का पूरा विज्ञान और पूरी समझ, जीवन के अनेक आयामों की समझ, उस तीसरे नेत्र की ही समझ पर आधारित है।
जैसा मैंने कायसी का आपके लिए कहा, तो कायसी तो एक व्यक्ति है, तिब्बत में तो सैकड़ों साल से, व्यक्ति जब तक समाधि में न जाए तब तक दवा का कोई पता ही नहीं लगाते रहे हैं। यह पूरी सभ्यता ही वह काम करती रही है। समाधिस्थ व्यक्ति से ही दवा पूछेंगे। उसकी दवा का ही उपयोग है। बाकी तो सब अंधेरे में टटोलना है।
उन्होंने तो ऑपरेशंस भी विकसित किए। ठीक इस डेढ़ इंच के भीतर जो जगह है, उस पर ऑपरेशंस भी करने के प्रयोग किए। उसको बाहर से भी तोड़ने की कोशिश की। वह टूट जाती है, बाहर से भी टूट जाती है। लेकिन बाहर से टूटने में और भीतर से टूटने में एक फर्क है, इसलिए भारत ने कभी उसको बाहर से तोड़ने की कोशिश नहीं की। वह मैं आपको खयाल में दे दूं।
उसे बाहर से तोड़ने पर भी आधा मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है। बहुत संभावना यह है कि वह अपने इस नये आधे मस्तिष्क की सक्रियता का दुरुपयोग करेगा। उसकी चेतना में कोई अंतर नहीं हुए हैं, वह आदमी वही का वही है। उसकी चेतना में कोई साधनागत अंतर नहीं हुए हैं, और उसके मस्तिष्क में नये काम शुरू हो गए। अगर वह आदमी आज दीवाल के पार देख सकता है, तो इस बात की बहुत कम संभावना है कि वह कुएं में किसी गिरे आदमी को देख कर निकालने जाएगा। इस बात की बहुत संभावना है कि किसी के गड़े हुए खजाने को खोदने जाएगा। अगर वह आदमी यह देख सकता है कि उसके भीतरी इशारे से आपको आज्ञा दी जा सकती है, तो इस बात की बहुत कम संभावना है कि आपसे वह कोई अच्छा काम करवाएगा। इस बात की बहुत संभावना है कि आपसे वह कोई बुरा काम करवाएगा।
ऑपरेशन हो सकता था, भारत को भी उसके सूत्र पता थे, पर उसका कभी प्रयोग नहीं किया। नहीं प्रयोग किया इसीलिए कि जब तक व्यक्ति की चेतना भी भीतर से इतनी विकसित न हो कि नई शक्तियों का उपयोग करने में समर्थ हो जाए, तब तक उसे नई शक्तियां देना खतरनाक है। बच्चे के हाथ में जैसे हम तलवार दे दें। बहुत डर तो यह है कि वह दो-चार को काटेगा, डर यह भी है कि वह अपने को भी काटेगा। और बच्चे के हाथ में दी गई तलवार से किसी का भी मंगल हो सकेगा, इसकी आशा करना दुराशा मात्र है। चेतना के तल पर अगर व्यक्ति के भीतर की चेतना विकसित न हो, उसके हाथ में नई शक्तियां देना खतरनाक है।
तिब्बत में, जहां हम तिलक लगाते रहे हैं, वहां ठीक भीतर तक भी छेद करने की कोशिश की है भौतिक उपकरणों से। इसलिए तिब्बत बहुत सी बातें जान पाया, बहुत से अनुभव कर पाया, लेकिन फिर भी तिब्बत कोई नैतिक अर्थों में महान देश नहीं बन पाया। यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना है। तिब्बत बहुत काम कर पाया, लेकिन फिर भी नैतिक अर्थों में वह एक बुद्ध भी पैदा नहीं कर पाया। उसकी जानकारी बढ़ी, उसकी शक्ति बढ़ी, अनूठी बातों का उसे पता चला; लेकिन उन सबका उपयोग बहुत छोटी बातों में हुआ, उनका बहुत बड़ी बातों में उपयोग नहीं हो सका।
भारत ने कोई सीधा भौतिक प्रयोग करने की कभी चेष्टा नहीं की। चेष्टा यह की कि भीतर से चेतना को इकट्ठा करके इतना कनसनट्रेट, इतना एकाग्र किया जाए कि चेतना की शक्ति से ही वह तीसरा नेत्र खुल जाए, उसके ही प्रवाह में खुल जाए। क्योंकि उसके प्रवाह को तीसरे नेत्र तक लाना एक बड़ा नैतिक उपक्रम है। उसे इतना ऊपर चढ़ाना! क्योंकि साधारणतः हमारा मन नीचे की तरफ बहता है।
सच तो यह है कि हमारा मन सेक्स-सेंटर की तरफ ही बहता रहता है। हम कुछ भी करते हों--हम चाहे धन कमाते हों, चाहे पद की चेष्टा करते हों, चाहे कुछ भी करते हों--हमारे सब करने के पीछे कहीं गहरे में कामवासना हमें खींचती रहती है। धन भी हम कमाते हैं तो इसी आशा में कि उससे काम खरीदा जा सके; और पद की भी हम इच्छा करते हैं इसी आशा में कि पद पर बैठ कर हम ज्यादा शक्तिशाली हो जाएंगे काम को खरीद लेने में।
इसलिए अगर पुराने दिनों में राजा की इज्जत का पता इससे चलता था कि कितनी रानियां उसके पास हैं, तो वह ठीक मेजरमेंट था। क्योंकि पद का और कोई मूल्य क्या है? पद का करोगे क्या? कितनी स्त्रियां तुम्हारे हरम में हैं, उससे पता चल जाएगा कि तुम कितने बड़े पद पर हो। पद का भी उपयोग, धन का भी उपयोग घूम कर तो कामवासना के लिए ही होना है।
हम जो भी करेंगे, हमारी सारी शक्ति काम के केंद्र की तरफ दौड़ती रहेगी। और जब तक शक्ति काम के केंद्र की तरफ दौड़ रही है तभी तक व्यक्ति अनैतिक हो सकता है। अगर शक्ति को ऊपर की तरफ दौड़ानी है तो काम की यात्रा रूपांतरित करनी पड़ेगी। अगर आज्ञाचक्र की तरफ शक्ति को ले चलना है तो काम की यात्रा को बदलना पड़ेगा--रुख, पूरा ध्यान, पीठ ही फेर लेनी पड़ेगी नीचे की तरफ और मुंह करना पड़ेगा ऊपर की तरफ, ऊर्ध्वमुखी होना पड़ेगा।
यह जो ऊर्ध्वगमन है, यह यात्रा बड़ी नैतिक होगी। इसमें इंच-इंच संघर्ष होगा, इसमें एक-एक कदम कुर्बानी होगी। इसमें जो क्षुद्र है उसे खोने की तैयारी दिखानी पड़ेगी, ताकि विराट मिल सके। इसमें कीमत चुकानी पड़ेगी। और इतनी सारी कीमत चुका कर जो व्यक्ति आज्ञाचक्र तक पहुंचता है, उसे जो विराट शक्ति उपलब्ध होती है, वह उसका दुरुपयोग कैसे कर पाएगा? दुरुपयोग का कोई सवाल नहीं उठता। दुरुपयोग करने वाला तो इस मंजिल तक पहुंचने के पहले समाप्त हो गया होता है।
इसलिए तिब्बत में ब्लैक मैजिक पैदा हुआ, यह ऑपरेशन की वजह से। तिब्बत में अध्यात्म कम पैदा हुआ, और जिसको हम कहें कि शैतानी ढंग का उपद्रव ज्यादा पैदा हुआ, ब्लैक मैजिक पैदा हुआ। इस तरह की ताकत हाथ में आनी शुरू हो गई...।
सूफियों में एक कहानी है, जीसस के बाबत। ईसाइयों में उसका कोई उल्लेख नहीं है, इसलिए मैं सूफियों से कहता हूं। जीसस की बहुत सी कहानियां सूफियों के पास हैं, ईसाइयों के पास नहीं हैं। कई बार तो बहुत महत्वपूर्ण घटनाएं मुसलमानों के पास हैं, ईसाइयों के पास नहीं हैं, जीसस के जीवन में। यह घटना भी उनमें से एक है, कि जीसस के तीन शिष्य जीसस के पीछे पड़े हैं। और उनसे कहते हैं कि हमने सुना है और देखा भी, कि आप मुर्दे को कहते हैं कि उठ जाओ, और वह उठ जाता है। हमें तुम्हारा मोक्ष नहीं चाहिए, हमें तुम्हारा स्वर्ग नहीं चाहिए, हमें तो सिर्फ यह तरकीब सिखा दो--यह मरा हुआ आदमी कैसे जिंदा हो जाता है? जीसस उनसे कहते हैं, लेकिन इस मंत्र का उपयोग तुम स्वयं पर कभी न कर पाओगे। क्योंकि तुम मर चुके होओगे, फिर मंत्र का उपयोग कैसे करोगे? और दूसरे को जिलाने से तुम्हें क्या फायदा होगा? मैं तुम्हें वह तरकीब बताता हूं जिससे कि तुम मरो ही न! लेकिन वे कहते हैं, हमें इससे कोई...। आप हमें बहलाएं मत, हमें तो यह मुद्दे की बात बता दें। यह चीज जानने जैसी है।
वे इतने पीछे पड़े हैं कि जीसस ने कहा कि ठीक है। जीसस ने उन्हें वह सूत्र बता दिया, जिस सूत्र के उपयोग से मरा हुआ जिंदा हो जाता है।
अब वे तीनों भागे। उसी दिन जीसस को छोड़ कर भाग गए, मुर्दे की तलाश में। अब देर करनी उचित नहीं, मंत्र में कोई शब्द भूल जाए, कोई गड़बड़ हो जाए, इसका जल्दी प्रयोग करके देख लें। दुर्भाग्य, गांव में गए, कोई मुर्दा नहीं! दूसरे गांव की तरफ निकले तो बीच में अस्थिपंजर पड़ा हुआ मिल गया। तो उन्होंने कहा कि ठीक। मुर्दा भी नहीं मिला, अब चलो यही ठीक है। मंत्र पढ़ा। जल्दी थी बहुत। वे शेर के अस्थिपंजर थे। शेर उठ कर खड़ा हो गया, वह उन तीनों को खा गया।
सूफी कहते हैं कि यही होगा। वह जो कुतूहल--और अनैतिक चित्त का कुतूहल खतरे में ले जाता है। तो बहुत बार बहुत से सूत्र जान कर भी छिपा लिए गए बार-बार कि वे गलत आदमी के हाथ में न पड़ जाएं। सामान्य आदमी को भी खबर दी गई तो उसे इस ढंग से दिया गया कि जब वह योग्य हो जाए तभी उसे पता चल पाए।
सोचेंगे आप, तिलक के संबंध में मैं यह क्यों कह रहा हूं?
हर बच्चे के माथे पर तिलक लगा दिया, जब कि उसे कुछ पता नहीं है। कभी उसे पता होगा, कभी उसे पता चलेगा, तब वह इस तिलक के राज को समझ पाएगा। इशारा कर दिया गया है किसी जगह का, ठीक जगह पर निशान बना दिया गया है। कभी जब उसकी चेतना इतनी समर्थ होगी, तब वह इस निशान का उपयोग कर पाएगा। कोई फिकर नहीं, सौ आदमियों पर लगाया गया निशान, और निन्यानबे के लिए काम नहीं पड़ा। कोई फिकर नहीं, एक को भी काम पड़ जाए तो कम नहीं है। इस आशा में सौ पर लगा दिया गया है कि कभी किसी क्षण में, कभी किसी क्षण में, उसका स्मरण आ जाएगा तो पता चल जाएगा।
तिलक के लिए इतना मूल्य, इतना सम्मान कि जब भी कुछ विशेष घटना हो, शादी हो रही हो तो तिलक हो, कोई जीत कर लौट आए तो तिलक हो! कभी आपने सोचा कि हर सम्मान की घटना के साथ तिलक, यह सिर्फ लॉ ऑफ एसोसिएशन का उपयोग है। क्योंकि हमारे चित्त में एक बड़े मजे का मामला है। हमारा चित्त दुख को भूलना चाहता है और सुख को याद रखना चाहता है। हमारा चित्त लंबे अर्से में दुख को भूल जाता है और सुख को याद रखता है। इसीलिए तो हमें पीछे के दिन अच्छे मालूम पड़ते हैं। बूढ़ा कहता है, बचपन बहुत सुखद था। कोई और बात नहीं है, दुख को ड्राप कर देता है मन हमारा, सुख की श्रृंखला को कायम रखता है। जब लौट कर पीछे देखता है तो सुख ही सुख दिखाई पड़ता है। बीच-बीच में जो दुख थे, उनको हम गिरा आए रास्ते में। कोई बच्चा नहीं कहता कि बचपन सुखद है। बच्चे जल्दी से जल्दी बड़े होना चाहते हैं। और सब बूढ़े कहते हैं बचपन बहुत सुखद है।
जरूर कहीं न कहीं कोई भूल हो रही है। अब ये जितने बच्चे हैं, उनको खड़े करके पूछो कि तुम क्या होना चाहते हो? वे कहेंगे, हम बड़े होना चाहते हैं। और जितने बूढ़े हैं, उनसे पूछो, क्या होना चाहते हो? वे कहेंगे, हम बच्चे होना चाहते हैं। मगर एक बच्चा गवाही नहीं देता तुम्हारे साथ। बच्चा जितने जल्दी बड़ा हो जाए! इसलिए कई दफे तो वह ऐसी कोशिश करता है बड़े होने की कि जिसका कोई हिसाब नहीं। सिगरेट पीने लगता है, इसलिए कि वह देखता है कि सिगरेट जो है सिंबॉलिक है बड़े आदमी का। कोई और कारण से नहीं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चों में सौ में से सत्तर प्रतिशत बच्चे इसलिए सिगरेट पीते हैं कि सिगरेट जो है प्रेस्टिज का प्रतीक है। उसको ताकतवर, बड़े लोग, प्रतिष्ठा वाले लोग पीते हैं। वह भी पीकर धुआं जब उड़ाता है, तो भीतर उसकी रीढ़ सीधी हो जाती है--मैं भी कुछ हूं, समबडी। उसको मालूम पड़ता है कि मैं भी कोई ऐसा-वैसा नहीं हूं।
किसी फिल्म पर लिख दें कि इसको सिर्फ अडल्ट देख सकते हैं। बच्चे सब नकली मूंछ लगा कर फिल्म के भीतर प्रवेश कर जाते हैं। क्यों? बड़ा होने की बड़ी तीव्र आकांक्षा है, जल्दी। मगर सब बूढ़े कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था। कहीं कोई बात हो रही है। बात कुल इतनी ही है कि मन दुख को भुला देता है, गिरा देता है। दुख याद रखने जैसी चीज भी नहीं है।
एक बहुत हैरानी का सूत्र पियागेट नाम के मनोवैज्ञानिक ने बताया, जिसने चालीस साल तक बच्चों पर मेहनत की है। उसका कहना है कि पांच साल से पहले की किसी बच्चे को स्मृति नहीं रहती बाद में, उसका कुल कारण यह है कि पांच साल की जिंदगी इतनी दुखद है कि उसको याद नहीं रखा जा सकता। यह हम सोच न सकेंगे! पर पियागेट ठीक कहता है, अनुभव से कहता है, भारी अनुभव से कहता है।
आपको अगर कहा जाए कि आपको कब तक की याद है? तो आप ज्यादा से ज्यादा पांच साल, चार साल लौट पाते हैं। फिर क्यों नहीं लौटते पीछे और? क्या उस वक्त मेमोरी नहीं बनती थी? बनती थी। क्या उस वक्त घटना नहीं घटती थीं? घटती थीं। क्या उस वक्त किसी ने गाली नहीं दी और किसी ने प्रेम नहीं किया? सब हुआ है। पर मामला क्या है? चार साल के पहले की स्मृति का कोई रिकॉर्ड क्यों नहीं है आपके पास?
पियागेट कहता है कि वे दिन इतने दुख में बीतते हैं, क्योंकि बच्चा अपने को इतना दीन, इतना कमजोर, इतना हीन, सबसे दबा हुआ, इतना असहाय अनुभव करता है कि उसका कुछ भी याद रखना उसको पसंद नहीं है। वह उसको ड्राप कर देता है, भूल ही जाता है। वह कहता है, चार साल से पहले का तो मुझे कुछ याद ही नहीं है। कुछ याद नहीं है, क्योंकि बाप ने कहा बैठ, तो उसको बैठना पड़ा था। मां ने कहा उठो, तो उसको उठना पड़ा था। सब बड़े थे, बड़े शक्तिशाली थे, उसकी अपनी कोई सामर्थ्य न थी, वह बिलकुल हवा में उड़ता हुआ पत्ता जैसा था। जो कोई कुछ कह दे, सब पर निर्भर था। जरा सी आंख का इशारा और उसको डर जाना पड़ेगा, उसके हाथ में कुछ भी सामर्थ्य न थी। उसने उसको बंद कर दिया, वह खयाल ही छोड़ दिया कि मैं कभी था ऐसा, बात खत्म हो गई। वह चार साल के पहले की याद ही नहीं करता। मजे की बात है--हिप्नोटाइज करके आपको याद करवाई जा सकती है! चार साल के पहले की ही नहीं, मां के पेट में भी जब आप थे, तब की भी स्मृति बनती है। अगर मां गिर पड़ी हो आपकी, तो बच्चे को उसके पेट में स्मृति बनती है कि चोट पहुंची, वह भी याद करवाई जा सकती है। लेकिन साधारणतः होश में नहीं रहती।
तो इस तिलक को सुख के साथ जोड़ने का उपाय कारण पूर्वक है। जब भी सुख की कोई घटना घटे, तिलक कर दो। सुख याद रहेगा, साथ में तिलक भी याद रह जाएगा। और धीरे-धीरे सुख अगर तीसरी आंख से संयुक्त हो जाए--यह लॉ ऑफ एसोसिएशन को थोड़ा समझ लें।
पावलफ ने बहुत से प्रयोग किए। इस सदी में रूसी वैज्ञानिक पावलफ एसोसिएशन के ऊपर सर्वाधिक काम किया है। उसका कहना है, कोई भी चीज जोड़ी जा सकती है, सब जोड़ सहयोग के हैं। जैसे उसका प्रयोग सबको पता है, तो वह एक कुत्ते को खाना देगा, तो रोटी सामने रखेगा तो लार टपकेगी। तभी वह घंटी बजाता रहेगा। अब घंटी से लार टपकने का कोई भी संबंध नहीं है। कितनी ही घंटी बजाइए, लार कैसे टपकेगी कुत्ते की? लेकिन रोटी रखी, लार टपकी, तब घंटी बजाई। पंद्रह दिन वह रोटी के साथ घंटी बजेगी, सोलहवें दिन रोटी तो हटा ली, सिर्फ घंटी बजाई--लार टपकने लगी। क्या हुआ क्या कुत्ते को? घंटी से लार का कोई भी नैसर्गिक संबंध नहीं है। लेकिन अब संबंध जुड़ गया। रोटी के साथ घंटी एक हो गई, घंटी का बजना रोटी की याद बन गई। रोटी की याद, चक्र शुरू हो गया उसके मन में रोटी का, लार टपकनी शुरू हो गई। घंटी प्रतीक की तरह आ गई, वह रोटी का सिंबल हो गई।
इस कानून का उपयोग तिलक में किया गया है। आपके सुख के साथ तिलक को सदा जोड़ा। जब भी सुख की कोई घटना घटी, तिलक--तिलक और सुख को एक किया। धीरे-धीरे तिलक और सुख इतने एक हो जाएं कि तिलक को कभी भूला न जा सके--एक। वह आपके स्मरण में टंक जाए, बैठ जाए; और जब भी सुख की याद आए, तब आज्ञाचक्र की याद आए। जब भी सुख की याद आए, तब जो पहली याद आए वह आज्ञाचक्र की याद आए।
और सुख की हमें बहुत याद आती है। सुख में ही तो हम, चाहे हुआ हो या न हुआ हो, उसकी याद में तो जीते हैं। जितना होता है उससे ज्यादा बड़ा करके याद करते रहते हैं पीछे-पीछे। फिर धीरे-धीरे तो उसको इतना बड़ा कर लेते हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। सुख को हम बड़ा करते रहते हैं, मैग्नीफाई करते रहते हैं। दुख को छोटा करते रहते हैं, एक ही नियम के अनुसार। सुख को बड़ा करते रहते हैं।
आपकी प्रेयसी मिली थी, कितना सुख आया था? आज सोचेंगे तो बहुत बड़ा मालूम पड़ेगा। अभी मिल जाए तो पता चले! एकदम छोटा हो जाएगा, सिकुड़ जाएगा। और कल हो सकता है फिर चौबीस घंटे बाद आप मैग्नीफाई करें कि अहा, कितना आनंद था!
वह पीछे हमारा मन सुख को बड़ा करता जाता है। असल में इतना दुख है जीवन में कि अगर हम सुख को बड़ा न कर पाएं तो जीना बहुत मुश्किल है। उसको बड़ा करके, रस ले-ले कर चलाते हैं। इधर पीछे बड़ा कर लेते हैं, उधर आगे आशा में बड़ा कर लेते हैं, और चलते हैं।
तिलक के साथ सुख को जोड़ने का प्रयोजन है कि जब सुख बड़ा हो तो तिलक भी बड़ा हो जाए। और जब सुख की याद आए तो तिलक की भी याद आए। और यह चोट जो है याद की, धीरे-धीरे सुख आज्ञाचक्र से जुड़ जाए, कि जब भी जीवन में सुख आए तो आज्ञाचक्र का स्मरण आए। और यह हो जाता है। और जब यह हो जाता है तो आपने सुख का उपयोग किया तीसरी आंख को जगाने के लिए। सब सुख की स्मृतियां आज्ञा के चक्र से जुड़ गईं। अब यह हम सुख की धारा का उपयोग कर रहे हैं उसको चोट करने के लिए। यह चोट जितने मार्गों से पड़ सके उतना उपयोगी है।
जिन मुल्कों में तिलक का उपयोग नहीं हुआ वे वे ही मुल्क हैं जिनको थर्ड आई का कोई पता नहीं है, यह आपको खयाल होना चाहिए। जिन-जिन मुल्कों को तीसरी आंख का थोड़ा भी अनुमान हुआ, उन्होंने तिलक का उपयोग किया। जिन मुल्कों को कोई पता नहीं है, वे तिलक नहीं खोज पाए। तिलक खोजने का कोई आधार नहीं था। समझ लें थोड़ा। यह आकस्मिक नहीं है कि कोई समाज एकदम से उठ आए और एक टीका लगा कर बैठ जाए। पागल नहीं है। अकारण, माथे के इस बीच के बिंदु पर ही तिलक लगाने की सूझ का कोई कारण भी तो नहीं है, यह कहीं और भी तो लगाया जा सकता था। आकस्मिक नहीं हो सकता, उसके पीछे कारण हो तो टिक सकता है।
और भी आपको दो-तीन बातें इस संबंध में कहूं। एक, आपने कभी खयाल न किया होगा, जब भी आप चिंता में होते हैं तब आपकी तीसरी आंख पर जोर पड़ता है, इसीलिए माथा पूरा का पूरा सिकुड़ता है। उसी जगह जोर पड़ता है, जहां तिलक है। बहुत चिंता करने वाले, बहुत विचार करने वाले लोग, बहुत मननशील लोग, अनिवार्य रूप से माथे पर बल डाल कर उस जगह की खबर देते हैं।
और जिन लोगों ने, जैसा मैंने पीछे कहा, जिन लोगों ने पिछले जन्मों में कुछ भी तीसरी आंख पर जोर किया है, उनके जन्म के साथ ही उनके माथे पर अगर आप हाथ फिराएं तो आपको तिलक की प्रतीति होगी। उतना हिस्सा थोड़ा सा धंसा हुआ होगा--थोड़ा सा, किंचित, ठीक तिलक जैसा धंसा हुआ होगा। दोनों तरफ के हिस्से थोड़े उभरे हुए होंगे, ठीक उस जगह पर जहां पिछले जन्मों में मेहनत की गई है वहां थोड़ा सा हिस्सा धंसा हुआ होगा। और वह आप अंगुली-अंगूठा लगा कर भी, आंख बंद करके भी पहचान सकते हैं। वह जगह आपको अलग मालूम पड़ जाएगी। तिलक हो या टीका--टीका उसका ही विशेष उपयोग है तिलक का--लेकिन दोनों के पीछे तीसरी आंख छिपी हुई है।
हिप्नोटिस्ट एक छोटा सा प्रयोग करते हैं। चारकाट फ्रांस में एक बहुत बड़ा मनस्विद हुआ, जिसने इस बात पर बहुत काम किए। आप भी छोटा सा प्रयोग करेंगे तो आपको चारकाट की बात खयाल में आ जाएगी। अगर आप किसी के सामने उसके माथे पर दोनों आंखें गड़ा कर देखें, तब तो वह आदमी आपको गड़ाने न देगा। अगर आप किसी के माथे पर दोनों आंखें गड़ा कर देखें तो वह आदमी जितना क्रुद्ध होगा उतना किसी और चीज से नहीं हो सकता। इसलिए वह तो अशिष्ट व्यवहार है, वह तो आप कर नहीं पाएंगे। पर सामने से तो बहुत निकट है वह, सिर्फ डेढ़ इंच के फासले पर है, अगर आप किसी के माथे पर पीछे से भी दृष्टि रखें तो भी आप हैरान हो जाएंगे।
रास्ते पर आप चल रहे हैं, और कोई आदमी आपके आगे चल रहा है। आप ठीक जहां माथे पर यह बिंदु है तिलक का, ठीक इसके आर-पार अगर हम एक छेद करें तो पीछे जहां से छेद निकलता हुआ मालूम पड़ेगा, अनुमान करके उस जगह दोनों आंखें गड़ा दें। और आप कुछ ही सेकेंड आंख गड़ा पाएंगे कि वह आदमी लौट कर आपको देखेगा।
सिर्फ होटल के बैरे भर नहीं देखेंगे। उन पर भर आप प्रयोग मत करना किसी होटल में बैठ कर। उसका कारण है। सिर्फ वे लोग नहीं देखेंगे--जैसे मैंने होटल के बैरे का आपको कहा, वह जान कर कहा ताकि आपको खयाल में आ जाए। होटल का बैरा भर, आप कितना ही उसके पीछे माथे पर आंखें गड़ाएं, नहीं देखेगा। क्योंकि वह पूरे वक्त ग्राहकों से बचने की कोशिश में है। जैसे ही उसको पता चल जाए कि कोई उसमें उत्सुक है, वह और ज्यादा दूसरी टेबलों के आस-पास चक्कर मारने लगता है। इसलिए वह भर आपको नहीं देखेगा, बाकी कोई भी देखेगा।
अगर आप ठीक से थोड़े दिन अभ्यास करें और उस आदमी को सुझाव दें तो सुझाव भी वह आदमी मानेगा। समझ लें कि किसी आदमी के माथे के पीछे आप देखते हैं गड़ा कर आंख, पलक नहीं झपें, कुछ सेकेंड बिना पलक झपे देखते रहें, वह आदमी पीछे लौट कर देखेगा। अगर वह आदमी लौट कर देखता है तब आप उसको आज्ञा भी दे सकते हैं। फिर दुबारा उस आदमी को आप कहें, बाएं घूम जाओ! तो वह आदमी बाएं घूमेगा, और बड़ी बेचैनी अनुभव करेगा। हो सकता है उसको दाएं जाना हो! यह आप थोड़ा प्रयोग करके देखेंगे तो हैरान हो जाएंगे।
मगर यह तो पीछे से, जहां से कि फासला बहुत ज्यादा है। सामने से तो बहुत हैरानी के परिणाम होते हैं। बहुत हैरानी के परिणाम होते हैं। जितने लोग भी हलके किस्म का शक्तिपात करते रहते हैं वह आपके इसी चक्र के कारण, और कुछ कारण नहीं होता। कोई साधु, कोई संन्यासी अगर शक्तिपात के प्रयोग करते रहते हैं लोगों पर, तो वह यही कि आपको आंख बंद करके सामने बिठा लिया है। आप समझ रहे हैं वह कुछ कर रहे हैं। वह कुछ नहीं कर रहे हैं। वह सिर्फ आपके माथे के इस बिंदु पर दोनों आंखें गड़ा कर बैठे हैं। लेकिन आप तो आंख बंद किए बैठे हैं। और इस बिंदु पर जो भी आपको सुझाव दिया जाएगा, वह आपको भ्रांति प्रतीति फौरन हो जाएगी। अगर कहा जाए कि भीतर प्रकाश ही प्रकाश है! आपके भीतर प्रकाश ही प्रकाश हो जाएगा। बाकी इधर से आप गए कि वह विदा हो जाएगा। दो-चार दिन उसकी हलकी झलक रह सकती है, फिर समाप्त हो जाएगा। वह कोई शक्तिपात वगैरह नहीं है, वह सिर्फ आपके आज्ञाचक्र का थोड़ा सा उपयोग है।
यह तृतीय नेत्र की अनूठी संपदा है, और अपरिसीम उपयोग हैं। उसके लिए सिर्फ सिंबॉलिक तिलक है। जब यहां दक्षिण में पहली दफा ईसाई फकीर आए तो कुछ ईसाई फकीरों ने तो आकर तिलक लगाना शुरू कर दिया। आज से एक हजार साल पहले वेटिकन की अदालत में मुकदमे की हालत आ गई। क्योंकि यहां जिन ईसाई फकीरों को भेजा था, उन्होंने यहां आकर जनेऊ भी पहन लिया, और तिलक भी लगाया, और खड़ाऊं भी डाल ली, और वे हिंदू संन्यासी की तरह रहने लगे। तो वेटिकन की अदालत तक मामला गया वह कि यह तो बात गलत है। तो जिन फकीरों ने यह किया था, उन्होंने उत्तर दिए। उन्होंने कहा कि यह गलत नहीं है। यह तिलक लगाने से हम हिंदू नहीं हो रहे हैं। यह तिलक लगाने से तो हमें सिर्फ एक रहस्य का पता चला है, जिसका आपको पता नहीं था। इस खड़ाऊं को पहन कर हम हिंदू नहीं हो रहे हैं। यह तो हमें पहली दफे हिंदुओं की समझ का पता चला है कि ध्यान करते वक्त अगर लकड़ी पैर के नीचे हो, तो बिना लकड़ी के जो काम महीनों में होगा, वह लकड़ी के साथ दिनों में हो सकता है। हम हिंदू नहीं हो गए हैं, लेकिन अगर हिंदू कुछ जानते हैं तो हम नासमझ होंगे कि हम उसका उपयोग न करें।
और निश्चित ही हिंदू कुछ जानते हैं। कोई भी कौम जो बीस हजार साल से निरंतर धर्म के संबंध में खोज कर रही हो और कुछ भी न जानती हो, यही चमत्कार की बात होगी कि कुछ भी न जानती हो! बीस हजार साल से जिसके मनीषी पूरे जीवन को लगा कर एक ही दिशा में काम करते रहे हों, जिसके सारे मनीषी, हजार-हजार साल तक जिसके सारे बुद्धिमान लोग एक ही दिशा में लगे रहे हों, एक ही जिनकी आकांक्षा रही हो कि किस भांति संसार में जो छिपा हुआ सत्य है, उसका पता चल जाए! वह जो अदृश्य है, वह दिखाई पड़ जाए! वह जो अरूप है, उससे पहचान हो जाए! वह जो निराकार है, उसमें प्रवेश हो जाए! जिन्होंने बीस हजार साल तक, जिनकी सारी मेधा ने, सारी प्रतिभा ने एक ही चेष्टा की हो, उनको कुछ भी पता न हो, यही बात आश्चर्य की है! कुछ पता हो, यह बात बहुत आश्चर्य की नहीं है। इसमें क्या आश्चर्य की बात है! यह पता होना बिलकुल स्वाभाविक है।
लेकिन पिछले दो सौ साल में एक घटना घटी, जिससे हमको परेशानी हुई है। पिछले दो सौ साल में एक घटना घटी। और वह घटना हमारे खयाल में न आए तो वह परेशानी जारी रहेगी। इस देश के ऊपर सैकड़ों बार हमले हुए हैं, लेकिन कोई हमलावर ठीक जगह पर हमला नहीं कर पाया। किसी ने धन लूट लिया, किसी ने जमीन पर कब्जा कर लिया, किसी ने मकान और महल ले लिए। लेकिन ठीक जो हमारा अंतस्तल था, उस पर कोई हमला नहीं कर पाया। उस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। पहली बार पश्चिमी सभ्यता ने इस मुल्क के अंतस्तल पर चोट करनी शुरू की। और वह चोट करने का जो सुगमतम उपाय था वह यह था कि आपके पूरे इतिहास को आपसे विच्छिन्न कर दिया जाए। आपके इतिहास में और आपके बीच में एक खाई पैदा हो जाए। बस फिर आप बिना जड़ के हो जाएंगे, अपरूटेड हो जाएंगे। फिर आपकी कोई ताकत न रह जाएगी।
अगर आज पश्चिम की सभ्यता को नष्ट करना हो तो सारे पश्चिम के मकान गिराने की जरूरत नहीं है, और न सिनेमाघर गिराने की जरूरत है, और न पश्चिम की होटलें गिराने की जरूरत है। सिर्फ पश्चिम की पांच युनिवर्सिटीज को नष्ट कर दिया जाए, पश्चिम का कल्चर नष्ट हो जाएगा। पश्चिम की जो संस्कृति है, वह कोई सिनेमाघर में, और कोई होटल में, और कोई नाइट-क्लब में नहीं है। वे चलते रहें, उनसे कुछ लेना-देना नहीं है। सिर्फ पश्चिम की पांच केंद्रीय बड़ी युनिवर्सिटियां नष्ट कर दी जाएं, पश्चिम एकदम खो जाएगा। क्योंकि दुनिया में बहुत बड़ा असली जो आधार होता है संस्कृति का, वह उसके ज्ञान के सूत्र होते हैं। उसकी जड़ें होती हैं श्रृंखला में। ज्यादा देर की जरूरत नहीं है, सिर्फ दो पीढ़ी को इतिहास से वंचित कर दिया जाए, आगे का मामला टूट जाएगा।
आदमी और जानवर में वही फर्क है। जानवर कोई विकास नहीं कर पाते। क्या बात है? कुल इतनी सी बात है कि जानवरों के पास कोई स्कूल नहीं है। और कोई बात नहीं है। और जानवर के पास कोई उपाय नहीं है कि अपनी नई पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी का ज्ञान दे सके, बस और कोई बात नहीं है। तो जानवर का बच्चा जब पैदा होता है तो उसको वहीं से जिंदगी शुरू करनी पड़ती है जहां उसके बाप ने शुरू की थी। जब उसका बच्चा पैदा होगा, वह भी वहीं शुरू करेगा जहां उसके बाप ने शुरू की थी। आदमी शिक्षा के माध्यम से अपने बच्चे को वहां से जिंदगी शुरू करवा देता है जहां खुद समाप्त करता है। इसलिए विकास होता है।
सारा विकास पुरानी पीढ़ी के द्वारा नई पीढ़ी को अपना संचित अनुभव देने में निर्भर है। तो सोचें, बीस साल के लिए बूढ़े तय कर लें कि हम बच्चों को कुछ न बताएंगे। तो आप समझते हैं, बीस साल का नुकसान नहीं होगा, बीस हजार साल में जो इकट्ठा हुआ है उसका नुकसान हो जाएगा। अगर बीस साल के लिए बूढ़े तय कर लें, पिछली पीढ़ी तय कर ले कि नई पीढ़ी को अब कुछ नहीं बताना है। तो आप यह मत सोचना कि यह बीस साल का ही नुकसान होगा और इसको बीस साल में पूरा किया जा सकेगा। नहीं, बीस साल में जो नुकसान होगा उसको पूरा करने में बीस हजार साल लगेंगे। क्योंकि गैप खड़ा हो गया, पुरानी पीढ़ियों का सबका सब डूब जाएगा।
इन दो सौ साल में भारत के लिए भारी गैप पैदा हुआ। जिसमें उसकी जो भी जानकारी थी उससे उसके सारे संबंध टूट गए। और उसके सारे संबंध एक नई जानकारी से जोड़े गए जिसका पुरानी जानकारी से कोई संबंध नहीं था। तो हम सोचते ही हैं आज कि हम बहुत पुरानी कौम हैं। सच बात यह है कि अब हम दो सौ साल से ज्यादा पुरानी कौम नहीं हैं--अब। हमसे अंग्रेज ज्यादा पुराने हैं अब। अब हमारे पास जो जानकारी है वह कचरा है, उच्छिष्ट। वह भी जो पश्चिम हमको दे दे वह हमारी जानकारी है। दो सौ साल के पहले हम जो भी जानते थे वह सबका सब एकबारगी खो गया। और जब कोई चीज के सूत्र खो जाएं तो मूढ़ता मालूम पड़ने लगती है।
अब अगर आप ऐसे टीका लगा कर जाएं तो शर्म लगती है। कोई भी पूछ ले कि क्या किया? ये कैसे टीका लगाए हुए हो? तो ऐसे ही, कुछ नहीं, पिताजी नहीं माने, या क्या किया जाए बस ठीक है, किसी तरह चलाना पड़ता है! आज आनंद और प्रफुल्लता से टीका लगाना बहुत मुश्किल है। हां, बुद्धि बिलकुल न हो तो लगा सकते हैं, फिर तो कोई डर ही नहीं है। पर उसका भी कारण यह नहीं है कि आपको पता है इसलिए लगा रहे हैं।
ज्ञान के सूत्र जब गिर जाते हैं और उनका ऊपरी ढांचा रह जाता है तो ढोना बड़ा कठिन हो जाता है। और तब एक दुर्घटना घटती है कि जो सबसे कम बुद्धिमान होते हैं, वे उसको ढोते हैं; और जो बुद्धिमान होते हैं, दूर खड़े हो जाते हैं। एक दुर्घटना घटती है! जब कि बुद्धिमान ही जब तक किसी चीज को लेकर चलता है, तभी तक वह सार्थक रहती है। और यह बड़े मजे की बात है कि जब भी दुर्घटना घटती है और ज्ञान के सूत्र खोते हैं तो बुद्धिमान सबसे पहले छंट कर अलग हो जाते हैं, क्योंकि वे बुद्धू बनने के लिए राजी नहीं हैं। हां, जो बुद्धू है वह जारी रखता है। मगर वह बचा नहीं सकता। उसका कोई उपाय नहीं है। वह कुछ दिन खींचेगा और समाप्त हो जाएगा।
तो कई बार ऐसी घटना घटती है कि बड़ी कीमत की चीजें, जो नासमझ हैं वे बचाए रखते हैं, और जो समझदार हैं पहले छोड़ कर खड़े हो जाते हैं। जिंदगी में बड़े दांव-पेंच हैं। अगर ठीक से हमें भारत का यह दो सौ साल का जो अंतराल पड़ गया है वह पूरा करना हो, तो भारत में आज जो-जो काम बुद्धिहीन कर रहे हैं उसको वापस सोचने की जरूरत है--एक-एक बिंदु को। क्योंकि वे अकारण नहीं कर रहे हैं, उनके साथ बीस हजार साल की लंबी घटना है। वे नहीं बता सकते कि क्यों कर रहे हैं। इसलिए उन पर नाराज होने की कोई जरूरत नहीं है। किसी दिन हमको उन्हें धन्यवाद भी देना पड़ सकता है कि कम से कम तुमने प्रतीक तो बचाया था, जो कि पुनः खोज की जा सके।
तो आज भारत में जो बिलकुल ग्रामीण और नासमझ, जिसको कुछ समझ नहीं है, कोई ज्ञान नहीं है, जिसको हम मूढ़ कह सकते हैं, वह जो-जो कर रहा हो, उसको फिर से उठा कर और दो सौ साल पहले के सूत्रों से जोड़ने की, और बीस हजार साल की समझ के साथ पुनरुज्जीवित करने की जरूरत है। और तब आप चकित हो जाएंगे। तब आप चकित हो जाएंगे। तब आप बिलकुल हैरान हो जाएंगे कि हम किस बड़े आत्मघात में लगे हैं!