QUESTION & ANSWER

Gahre Pani Paith (गहरे पानी पैठ) 01

First Discourse from the series of 4 discourses - Gahre Pani Paith (गहरे पानी पैठ) by Osho.
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भगवान, मंदिर, तीर्थ, तिलक-टीके, मूर्ति-पूजा, माला, मंत्र-तंत्र, शास्त्र-पुराण, हवन-यज्ञ, अनुष्ठान, श्राद्ध, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष-गणना, शकुन-अपशकुन, इनका कभी अर्थ था, पर अब व्यर्थ हो गए हैं। इन्हें समझाने की कृपा करें और बताएं कि क्या ये साधना के बाह्य उपकरण थे? रिमेंबरिंग या स्मरण की मात्र बाह्य व्यवस्था थी, जो समय की तीव्र गति के साथ पूरी की पूरी उखड़ गई? अथवा भीतर से भी इसके कुछ अंतर्संबंध थे? क्या समय इन्हें पुनः लेने को राजी होगा?
जैसे हाथ में चाबी हो, चाबी को हम कुछ भी सीधा जानने का उपाय करें, चाबी से ही चाबी को समझना चाहें, तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता--उस चाबी की खोज-बीन से--कि कोई बड़ा खजाना उससे हाथ लग सकता है। चाबी में ऐसी कोई भी सूचना नहीं है जिससे छिपे हुए खजाने का पता लगे। चाबी अपने में बिलकुल बंद है। चाबी को हम तोड़ें-फोड़ें, काटें--लोहा हाथ लगे, और धातुएं हाथ लग जाएं--उस खजाने की कोई खबर हाथ न लगेगी, जो चाबी से मिल सकता है।
और जब भी कोई चाबी ऐसी हो जाती है जीवन में कि जिसके खजानों का हमें पता नहीं लगता, तब सिवाय बोझ ढोने के हम और कुछ भी नहीं ढोते। और जिंदगी में ऐसी बहुत सी चाबियां हैं जो किन्हीं खजानों का द्वार खोलती हैं--आज भी खोल सकती हैं। पर न हमें खजानों का कोई पता है, न उन तालों का हमें कोई पता है जो उनसे खुलेंगे। और जब तालों का भी पता नहीं होता और खजानों का भी पता नहीं होता, तो स्वभावतः हमारे हाथ में जो रह जाता है उसको हम चाबी भी नहीं कह सकते! वह चाबी तभी है जब किसी ताले को खोलती हो।
जब उससे कुछ भी न खुलता हो, पर फिर भी कभी उस चाबी से खजाने खुले हैं इसलिए बोझिल हो जाती है तो भी मन उसे फेंक देने का नहीं होता। कहीं अचेतन में मनुष्य-जाति के वह धीमी सी गंध बनी ही रह जाती है। चाहे हजारों साल पहले वह चाबी कोई ताला खोलती रही हो, लेकिन मनुष्य की अचेतना में, उससे कभी ताले खुले हैं और कभी कोई खजाने उससे उपलब्ध होते थे, इस स्मृति के कारण ही उस चाबी के बोझ को हम ढोए चले जाते हैं। न कोई खजाना खुलता है अब, न कोई ताला खुलता है! फिर भी कोई कितना ही समझाए कि यह चाबी बेकार है, फेंक देने का साहस भी नहीं जुटता है। कहीं किसी कोने में मन के कोई आशा पलती ही रहती है कि कभी कोई ताला खुल सकता है!
मंदिर है। पृथ्वी पर ऐसी एक भी जाति नहीं है जिसने मंदिर जैसी कोई चीज निर्मित न की हो। वह उसे मस्जिद कहती हो, चर्च कहती हो, गुरुद्वारा कहती हो, इससे बहुत प्रयोजन नहीं है। पृथ्वी पर ऐसी एक भी जाति नहीं है जिसने मंदिर जैसी कोई चीज निर्मित न की हो। और आज तो यह संभव है कि हम एक-दूसरी जातियों से सीख लें। एक वक्त था, जब दूसरी जातियां हैं भी, यह भी हमें पता नहीं था। तो मंदिर कोई ऐसी चीज नहीं है, जो बाहर से किन्हीं कल्पना करने वाले लोगों ने खड़ी कर ली हो। मनुष्य की चेतना से ही निकली हुई कोई चीज है। कितने ही दूर, कितने ही एकांत में, पर्वत में, पहाड़ में, झील पर बसा हुआ मनुष्य हो, उसने मंदिर जैसा कुछ जरूर निर्मित किया है। तो मनुष्य की चेतना से ही कुछ निकल रहा है। अनुकरण नहीं है; एक-दूसरे को देख कर कुछ निर्मित नहीं हो गया है। इसलिए विभिन्न तरह के मंदिर बने, लेकिन मंदिर बने हैं। बहुत फर्क है एक मस्जिद में और एक मंदिर में। उनकी व्यवस्था में बहुत फर्क है। उनकी योजना में बहुत फर्क है। लेकिन आकांक्षा में फर्क नहीं है, अभीप्सा में फर्क नहीं है।
तो एक तो जो चीज, मनुष्य कहीं भी हो, कितना ही दूसरों से अपरिचित हो, पैदा होती ही है, वह मनुष्य की चेतना में ही कहीं कोई बीज छिपाए है, एक तो बात यह खयाल में ले लेने जैसी है। दूसरी बात यह भी खयाल में ले लेनी जरूरी है कि हजारों साल हो जाते हैं, न तालों का पता रह जाता है, न खजानों का, लेकिन फिर भी जिस किसी चीज को हम किसी बिलकुल अनजाने मोह से ग्रसित हो लिए चलते हैं; जिस पर हजार आघात होते हैं, बुद्धि जिसको सब तरफ से तोड़ने चलती है; युग का, आज का बुद्धिमान जिसे सब तरह से इनकार करता है; फिर भी मनुष्य का मन उसे सम्हाले ही चलता है, इस सबके बावजूद। तो उसके पीछे दूसरी बात स्मरण रख लेनी जरूरी है कि मनुष्य की अचेतना में कहीं, आज उसे ज्ञात नहीं है तो भी, कहीं कोई गूंजती सी धुन जरूर है जो कहती है कि कभी कोई ताला खुलता था।
अचेतना में इसलिए कि हममें से कोई भी नया पैदा हो गया हो, ऐसा नहीं है। हममें से सभी अनेक बार पैदा हो चुके हैं। ऐसा कोई युग न था जब हम न हों। ऐसी कोई घड़ी न थी जब हम न हों। उस दिन जो हमारी चेतना थी, उस दिन जो हमने चेतन जाना था, वह आज हजारों पर्तों के भीतर दबा हुआ अचेतन बन गया है। उस दिन अगर हमने मंदिर का रहस्य जाना था और उससे हमने किसी द्वार को खुलते देखा था, तो आज भी हमारे अचेतन के किसी कोने में वह स्मृति दबी पड़ी है। बुद्धि लाख इनकार कर दे, लेकिन बुद्धि उतनी गहरी नहीं हो पाती जितनी गहरी वह स्मृति है। इसलिए सब आघातों के बावजूद और सब तरह से व्यर्थ दिखाई पड़ने के बावजूद भी कुछ चीजें हैं कि परसिस्ट करती हैं, हटतीं नहीं। नये रूप लेती हैं, लेकिन जारी रहती हैं। यह तभी संभव होता है जब कि हमारे अनंत जन्मों की यात्रा में अनंत-अनंत बार किसी चीज को हमने जाना है, यद्यपि आज भूले हैं। और इनमें से प्रत्येक का बाह्य उपकरण की तरह तो उपयोग हुआ ही है, आंतरिक अर्थ भी हैं, अभिप्राय भी हैं।
पहले तो मंदिर को बनाने की जो जागतिक कल्पना है समस्त जगत में, सिर्फ मनुष्य है जो मंदिर बनाता है। घर तो पशु भी बनाते हैं, घोसले तो पक्षी भी बनाते हैं, लेकिन मंदिर नहीं बनाते। मनुष्य की जो भेद-रेखा खींची जाए पशुओं से, उसमें यह भी लिखना ही पड़ेगा कि वह मंदिर बनाने वाला प्राणी है। कोई दूसरा मंदिर नहीं बनाता। अपने लिए आवास तो बिलकुल ही स्वाभाविक है। अपने रहने की जगह तो कोई भी बनाता है। छोटे-छोटे कीड़े भी बनाते हैं, पक्षी भी बनाते हैं, पशु भी बनाते हैं। लेकिन परमात्मा के लिए आवास मनुष्य का जागतिक लक्षण है। परमात्मा के लिए भी आवास, उसके लिए भी कोई जगह बनाना!
परमात्मा के गहन बोध के अतिरिक्त मंदिर नहीं बनाया जा सकता। फिर परमात्मा का गहन बोध भी खो जाए तो मंदिर बचा रहेगा, लेकिन बनाया नहीं जा सकता बिना बोध के। आपने एक अतिथि-गृह बनाया घर में, वह अतिथि आते रहे होंगे तभी। अतिथि न आते हों तो आप अतिथि-गृह नहीं बनाने वाले हैं। हालांकि यह हो सकता है कि अब अतिथि न आते हों तो अतिथि-गृह खड़ा रह जाए।
तो परमात्मा के लिए एक आवास की धारणा उन क्षणों में पैदा हुई जब परमात्मा सिर्फ कल्पना की बात नहीं थी, सिर्फ कल्पना की बात नहीं थी, अनेक लोगों के अनुभव की बात थी। और परमात्मा के अवतरण की जो प्रक्रिया थी, उसके उतरने की, उसके लिए एक विशेष आवास, एक विशेष स्थान, जहां परमात्मा अवतरित हो सके, पृथ्वी के हर कोने पर आवश्यक अनुभव हुआ।
प्रत्येक चीज के अवतरण में, आग्रहण में, रिसेप्टिव होने में एक संयोजन है। अभी भी हमारे पास से रेडियो वेव्स गुजर रही हैं, पर हम उन्हें पकड़ नहीं पाएंगे। रेडियो के उपकरण के बिना पकड़ना कठिन होगा। कल अगर ऐसा वक्त आ जाए--आ सकता है--कल एक महायुद्ध हो जाए, और हमारी सारी टेक्नालॉजी अस्तव्यस्त हो जाए, और आपके घर में एक रेडियो रह जाए, आप उसे फेंकना न चाहेंगे। लेकिन अब कोई रेडियो स्टेशन नहीं बचा, अब रेडियो से कुछ पकड़ा नहीं जाता, अब रेडियो सुधारने वाला भी मिलना मुश्किल है। फिर भी हो सकता है दस-पांच पीढ़ियों के बाद भी आपके घर में रेडियो रखा रहे। और तब अगर कोई पूछे कि इसका क्या उपयोग है? तो कठिन हो जाए बताना।
लेकिन इतना जरूर बताया जा सके कि पिता आग्रहशील थे इसको बचाने के लिए, उनके पिता भी आग्रहशील थे। इतना हमें याद है कि हमारे घर में इसको बचाने वाले आग्रहशील लोग थे, वे बचाए चले गए हैं। हमें पता नहीं इसका क्या उपयोग है। आज इसका कोई भी उपयोग नहीं है।
और रेडियो को तोड़ कर अगर हम सब उपाय भी कर लें, तो भी इसकी खबर मिलनी बहुत मुश्किल है कि इससे कभी संगीत बजा करता था, कि कभी इससे आवाज निकला करती थी। सीधे रेडियो को तोड़ कर देखने से कुछ पता चलने वाला नहीं है। वह तो सिर्फ एक आग्राहक था, जहां कुछ चीज घटती थी। घटती कहीं और थी, लेकिन पकड़ी जा सकती थी।
तो मंदिर आग्राहक थे, रिसेप्टिव इंस्ट्रूमेंट्‌स थे। परमात्मा तो सब तरफ है। आप भी सब जगह मौजूद हैं, परमात्मा भी सब जगह मौजूद है। लेकिन किसी विशेष संयोजन में आप एट्यून्ड हो जाते हैं। आपकी ट्यूनिंग मेल खाती है, तालमेल खाती है। तो मंदिर आग्राहक की तरह उपयोग में आए। वहां सारा इंतजाम वैसा था जहां दिव्य भाव को, दिव्य अस्तित्व को, भगवत्ता को हम ग्रहण कर पाएं। जहां हम खुल जाएं और उसे ग्रहण कर पाएं। सारा इंतजाम मंदिर का वैसा था। अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग तरह से वह इंतजाम किया था। और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि अलग-अलग रेडियो बनाने वाले लोग अलग-अलग शक्ल का रेडियो बनाएं। बाकी बहुत गहरे में प्रयोजन एक है।
जैसे कि इस मुल्क में मंदिर बने। और कोई तीन-चार तरह के मंदिर खास तरह के मंदिर हैं जिनके रूप में फिर सारे मंदिर बने। इस मुल्क में जो मंदिर बने वे आकाश की आकृति में हैं। जो गुंबद है मंदिर का, वह आकाश की आकृति में है। और प्रयोजन यह है कि अगर आकाश के नीचे बैठ कर मैं ओम का उच्चार करूं तो मेरा उच्चार खो जाएगा, मेरी शक्ति बहुत कम है, विराट आकाश है चारों तरफ। मेरा उच्चार लौट कर मुझ पर नहीं बरस सकेगा, खो जाएगा। मैं जो पुकार करूंगा, वह पुकार मुझ तक लौट कर नहीं आएगी, वह अनंत में खो जाएगी। मेरी पुकार मुझ तक लौट कर आ जाए, इसलिए मंदिर का गुंबद निर्मित किया गया। वह आकाश की छोटी प्रतिकृति है, ठीक अर्ध-गोलाकार, जैसा आकाश पृथ्वी को चारों तरफ छूता है ऐसा एक छोटा आकाश निर्मित किया है। उसके नीचे मैं जो पुकार करूंगा, मंत्रोच्चार करूंगा, ध्वनि करूंगा, वह सीधी आकाश में खो नहीं जाएगी। गोल गुंबद उसे वापस लौटा देगा। जितना गोल होगा गुंबद, उतनी सरलता से वह वापस लौट आएगी--उतनी ही सरलता से। और उतनी ही ज्यादा प्रतिध्वनियां उसकी पैदा होंगी। अगर ठीक व्यवस्था से गुंबद मंदिर का बना हो। और फिर तो ऐसे पत्थर भी खोज लिए गए जो ध्वनियों को वापस लौटाने में बड़े सक्षम हैं।
जैसे कि अजंता का एक बौद्ध चैत्य है। उसमें लगे पत्थर ठीक उतनी ही ध्वनि को तीव्रता से लौटाते हैं, उतनी ही चोट को प्रतिध्वनित करते हैं, जैसे तबला। जैसे आप तबले पर चोट कर दें, ऐसा पत्थर पर चोट करें तो इतनी आवाज होगी। अब वह बहुत विशेष मंत्रों को, जो बहुत सूक्ष्म हैं, साधारण गुंबद नहीं लौटा पाएगा, उसके लिए उन पत्थरों का उपयोग किया गया है।
क्या प्रयोजन है? जब आप ओम का उच्चार करते हैं--और सारे गुंबद के नीचे ओम का उच्चार हुआ है; वह ओम के उच्चार के लिए ही निर्मित किया गया है--जब बहुत सघनता से, बहुत तीव्रता से आप ओम का उच्चार करते हैं, और मंदिर का गुंबद सारे उच्चार को वापस आप पर फेंक देता है, तो एक वर्तुल निर्मित होता है, एक सर्किल निर्मित होता है। उच्चार का, ध्वनि का, लौटती ध्वनि का एक सर्किल निर्मित हो जाता है। मंदिर का गुंबद आपकी गूंजी हुई ध्वनि को आप तक लौटा कर एक वर्तुल निर्मित करवा देता है। उस वर्तुल का आनंद ही अदभुत है।
अगर आप खुले आकाश के नीचे ओम का उच्चार करेंगे, वह वर्तुल निर्मित नहीं होगा और आपको कभी आनंद का पता नहीं चलेगा। वह जब वर्तुल निर्मित होता है तभी आप, तब आप सिर्फ पुकारने वाले नहीं हैं, पाने वाले भी हो जाते हैं। और उस लौटती हुई ध्वनि के साथ दिव्यता की प्रतीति प्रवेश करने लगती है। आपकी की हुई ध्वनि तो मनुष्य की है, लेकिन जैसे ही वह लौटती है, वह नये वेग और नई शक्तियों को समाहित करके वापस लौट आती है।
इस मंदिर को, इस मंदिर के गुंबद को मंत्र के द्वारा ध्वनि-वर्तुल निर्मित करने के लिए प्रयोग किया गया था। और अगर बिलकुल शांत, एकांत स्थिति में आप बैठ कर उच्चार करते हों और वर्तुल निर्मित हो, तो जैसे ही वर्तुल निर्मित होगा, विचार बंद हो जाएंगे। वर्तुल इधर निर्मित हुआ, उधर विचार बंद हुए।
जैसा कि मैंने कई बार कहा है, स्त्री-पुरुष के संभोग में वर्तुल निर्मित हो जाता है शक्ति का। और जब वर्तुल निर्मित होता है तभी संभोग का क्षण समाधि का इशारा करता है। अगर पद्मासन या सिद्धासन में बैठे बुद्ध और महावीर की मूर्तियां देखें तो वे भी वर्तुल ही निर्मित करने के अलग ढंग हैं। जब दोनों पैर जोड़ लिए जाते हैं और दोनों हाथ पैरों के ऊपर रख दिए जाते हैं तो पूरा शरीर वर्तुल का काम करने लगता है। खुद के शरीर की विद्युत फिर कहीं से बाहर नहीं निकलती, पूरी वर्तुलाकार घूमने लगती है। एक सर्किट निर्मित होता है। और जैसे ही सर्किट निर्मित हो जाता है वैसे ही विचार शून्य हो जाते हैं। अगर इसे विद्युत की भाषा में कहें तो आपके भीतर विचारों का जो कोलाहल है वह आपकी ऊर्जा के वर्तुल न बनने की वजह से है। वह वर्तुल बना कि ऊर्जा समाहित और शांत होने लगती है।
तो मंदिर के गुंबद से वर्तुल बनाने की बड़ी अदभुत प्रक्रिया है और अंतरंग अर्थ उसके हो गए।
मंदिर के द्वार पर हमने घंटा लटका रखा है, वह सिर्फ इसीलिए, वह सिर्फ इसीलिए। आप जब ओम का उच्चार करेंगे, हो सकता है बहुत धीमे करें, खयाल में भी न आए। जोर से घंटे की आवाज उस वर्तुल का आपको स्मरण दिला जाएगी तत्काल--उस गूंजती हुई ध्वनि का--वर्तुल पर वर्तुल, जैसे पानी में फेंका गया पत्थर हो और लहर पर लहर, रिपल पर रिपल उठाता चला गया हो।
तिब्बतन मंदिर में तो घंटा नहीं रखते, एक सब धातुओं का बना हुआ एक बर्तन रखते हैं घड़े की तरह और उसमें लकड़ी का डंडा रखते हैं घुमाने के लिए। उसको सात बार अंदर घुमा कर जोर से चोट करते हैं। सात बार घुमाने पर और चोट करने पर ‘मणि पद्मे हुम्‌’, इसकी पूरी आवाज निकलती है--पूरा मंत्र! पूरा मंत्र! पूरा घड़ा चिल्ला कर कहता है, मणि पद्मे हुम्‌! और एक दफा नहीं, सात बार। आपने सात राउंड लेकर जो चोट मारी उस पर, आप हाथ बाहर कर लें, अब आप सात बार सुनें--ओम मणि पद्मे हुम्‌, धीमी होती जाएगी, ओम मणि पद्मे हुम्‌, ओम मणि पद्मे हुम्‌--और सात वर्तुल उसके बन जाएंगे।
ठीक आपको भी मंदिर के भीतर एक घड़े की तरह जोर से अपने भीतर चोट करनी है--ओम मणि पद्मे हुम्‌! मंदिर भी दोहराएगा। आपका रोआं-रोआं उसे ग्रहण करके वापस फेंकेगा। थोड़ी ही देर में न आप रह जाएंगे, न मंदिर रह जाएगा, सिर्फ विद्युत के वर्तुल रह जाएंगे। और जब विद्युत के वर्तुल रह जाएंगे...।
और ध्यान रहे, ध्वनि जो है विद्युत का सूक्ष्मतम रूप है। यह भी थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी है। क्योंकि अभी विज्ञान कहता है, विज्ञान जो कहता है, विज्ञान कहता है कि ध्वनि जो है वह विद्युत का एक रूप है--सभी कुछ विद्युत का रूप है, ध्वनि विद्युत का रूप है। लेकिन भारतीय मनीषी की पकड़ थोड़ी सी भिन्न है। वह कहता है, विद्युत भी ध्वनि का रूप है। साउंड इज़ दि बेस, इलेक्ट्रिसिटी बेस नहीं है। इसलिए शब्द-ब्रह्म! विद्युत जो है वह सिर्फ ध्वनि का ही एक रूप है। इसमें अब बहुत दूर तक समानता खड़ी हो गई। अभी विज्ञान कहने लगा कि ध्वनि जो है वह विद्युत का एक रूप है। यह थोड़ा सा फर्क रह गया है कि प्राथमिक कौन है? अभी विज्ञान कहता है कि विद्युत प्राथमिक है। लेकिन भारत की मनीषा तो कहती है कि ध्वनि प्राथमिक है और ध्वनि की ही सघनता विद्युत है। विज्ञान कहता है कि विद्युत का एक प्रकार ध्वनि है।
इस बात की बहुत संभावना है, इस बात की बहुत संभावना है कि शब्द-ब्रह्म की खोज बहुत निकट में विज्ञान को कर लेनी पड़ेगी। यह मंदिर के गुंबद के नीचे पैदा की गई ध्वनियों का ही अनुभव है। क्योंकि जब ओम की सघन ध्वनि की गई तो साधक ने मंदिर के भीतर थोड़ी देर में जाना कि मंदिर भी मिट गया और मैं भी मिट गया, और सिर्फ विद्युत रह गई। यह किसी प्रयोगशाला में लिया गया निष्कर्ष नहीं है। यह किसी प्रयोगशाला में लिया गया निष्कर्ष नहीं है, जिन्होंने यह कहा है उनके पास कोई प्रयोगशाला नहीं थी। उनके पास तो एक ही प्रयोगशाला थी, वह उनका मंदिर था। उस मंदिर में उन्होंने जो जाना है वह यह जाना है कि हम तो ध्वनि से शुरू करते हैं, लेकिन अंततः विद्युत ही रह जाती है। इस ध्वनि के अनुभव के लिए मंदिर का गुंबद निर्मित किया गया था।
जब पहली दफा पश्चिम के लोगों को भारतीय मंदिर देखने को मिले, तो उन्हें अनहाइजिनिक मालूम पड़े। स्वभावतः, खिड़की-दरवाजे ज्यादा नहीं हो सकते, एक ही रखा जा सकता है, वह भी बहुत छोटा, कि किसी भी तरह, ध्वनि जो पैदा हो रही है भीतर, उसके वर्तुल को तोड़ने वाला न बन जाए। तो उनको लगा कि बिलकुल ही अंधेरे, गंदे, बंद, हवा नहीं जाती। चर्च साफ-सुथरा है, खिड़कियां हैं, दरवाजे हैं। बड़ी खिड़कियां हैं। बड़े दरवाजे हैं। रोशनी भी जाती है, हवा भी जाती है--हाइजिनिक है।
वही मैंने कहा कि चाबी भूल जाती है तो कठिनाइयां खड़ी होती हैं। कोई नहीं कह सका हिंदुस्तान में, एक आदमी भी, कि हमारे मंदिर में खिड़की क्यों नहीं है, दरवाजा क्यों नहीं है। हमको भी लगा कि सच तो है कि अनहाइजिनिक है। और कोई यह न कह सका कि इन मंदिरों में इस मुल्क के स्वस्थतम लोग रहे हैं। इन मंदिरों के भीतर बीमारी नहीं जानी गई। इन मंदिरों में बैठा हुआ पूजा और प्रार्थना करने वाला आदमी स्वस्थतम लोगों में से था। और मंदिर बिलकुल अनहाइजिनिक है।
यह भी अनुभव में आना शुरू हुआ कि ओम की ध्वनि का जो आघात है, वह अपूर्व रूप से प्योरीफाई करता है। विशेष ध्वनियां हैं जिनके आघात शुद्धता लाते हैं, विशेष ध्वनियां हैं जिनके आघात अशुद्धता लाते हैं। विशेष ध्वनियां हैं जो वहां बीमारियों को प्रवेश ही नहीं करने देंगी, विशेष ध्वनियां हैं जो वहां बीमारियों को निमंत्रित कर लेंगी। पर ध्वनि का पूरा शास्त्र खो गया। जिन्होंने कहा था शब्द ही ब्रह्म है, उन्होंने शब्द के लिए बड़ी से बड़ी बात जो कही जा सकती थी वह कही। जो बड़ी से बड़ी बात कही जा सकती थी! ब्रह्म से बड़ा कोई अनुभव नहीं था, और शब्द से गहरी उन्होंने कोई चीज नहीं जानी थी जिसका प्रयोग किया जा सके।
सारे राग, सारी रागिनियां, सारा संगीत पूरब का, वह शब्द-ब्रह्म की ही प्रतीतियों का फैलाव है। समस्त राग, समस्त रागिनियां मंदिरों में पैदा हुईं। समस्त नृत्य पहली दफा मंदिरों में पैदा हुए, फिर फैलते गए दूसरी जगहों पर। क्योंकि मंदिर में ही ध्वनि का अनुभव करने वाला साधक था। उसने ध्वनियों में भेद देखे। उसने इतने भेद देखे जिसका कोई हिसाब नहीं।
अभी सिर्फ चालीस साल पहले काशी में एक साधु था--विशुद्धानंद। सिर्फ ध्वनियों के विशेष आघात से किसी की भी मृत्यु हो जाए, सिर्फ ध्वनियों से, सैकड़ों प्रयोग विशुद्धानंद ने करके दिखाए। और अपने बंद मंदिर के गुंबद में बैठा था जो बिलकुल अनहाइजिनिक था। और जब पहली दफा तीन अंग्रेज डॉक्टरों के सामने उसने एक प्रयोग किया।
वे तीनों अंग्रेज डॉक्टर एक चिड़िया को लेकर अंदर गए। और विशुद्धानंद ने कुछ ध्वनियां कीं, वह चिड़िया तड़फड़ाई और मर गई। और उन तीनों ने जांच कर ली कि वह मर गई। तब विशुद्धानंद ने दूसरी ध्वनियां कीं, वह चिड़िया फिर तड़फड़ाई और जिंदा हो गई! तब पहली दफा शक पैदा हुआ कि ध्वनि के आघात का परिणाम हो सकता है!
अभी हम दूसरे आघातों के परिणाम को मान लेते हैं, क्योंकि उनको विज्ञान कहता है। हम कहते हैं कि विशेष किरण आपके शरीर पर पड़े तो विशेष परिणाम होंगे। और विशेष औषधि आपके शरीर में डाली जाए तो विशेष परिणाम होंगे। और विशेष रंग विशेष परिणाम लाएगा। लेकिन विशेष ध्वनि क्यों नहीं?
अभी कुछ प्रयोगशालाएं पश्चिम में, ध्वनियों का जीवन से क्या संबंध हो सकता है, इस पर बड़े काम में रत हैं। और दो-तीन प्रयोगशालाओं ने बड़े गहरे परिणाम दिए हैं। इतना तो बिलकुल साफ हो गया है कि विशेष ध्वनि के परिणाम, जिस मां की छाती से दूध नहीं निकल रहा है, उसकी छाती से दूध ला सकता है, विशेष ध्वनि का परिणाम। जो पौधा छह महीने में फूल देता है वह दो महीने में फूल दे सकता है, विशेष ध्वनि उसके पास पैदा की जाए तो। जो गाय जितना दूध देती है उससे दुगुना दे सकती है, विशेष ध्वनि पैदा की जाए तो।
तो आज तो रूस की सारी डेअरीज में बिना ध्वनि के कोई गाय से दूध नहीं दुहा जा रहा है। और बहुत जल्दी कोई फल, कोई सब्जी बिना ध्वनि के पैदा नहीं होगी। क्योंकि प्रयोगशाला में तो यह सिद्ध हो गया है, अब उसके व्यापक फैलाव की बात है। अगर फल और सब्जी और दूध और गाय ध्वनि से प्रभावित होते हैं, तो आदमी का कोई कारण नहीं है कि वह प्रभावित न हो।
स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य ध्वनि की विशेष तरंगों पर निर्भर हैं। इसलिए एक बहुत गहरी हाइजिनिक व्यवस्था थी जो हवा से बंधी हुई नहीं थी। सिर्फ हवा के मिल जाने से ही कोई स्वास्थ्य आ जाने वाला है, ऐसी धारणा नहीं थी। नहीं तो यह असंभव है कि पांच हजार साल के लंबे अनुभव में यह खयाल में न आ गया हो। हिंदुस्तान का साधु बंद गुफाओं में बैठा है, जहां रोशनी नहीं जाती, हवा नहीं जाती। बंद मंदिरों में बैठा है। छोटे दरवाजे हैं, जिनमें से झुक कर अंदर प्रवेश करना पड़ता है। कुछ मंदिरों में तो रेंग कर ही अंदर प्रवेश करना पड़ता है। पर फिर भी स्वास्थ्य पर इनका कोई बुरा परिणाम कभी नहीं हुआ था। हजारों साल के अनुभव में कभी नहीं आया था कि इनका स्वास्थ्य पर बुरा परिणाम हुआ है।
पर जब पहली दफा संदेह उठा तो हमने अपने मंदिरों के दरवाजे बड़े कर लिए। खिड़कियां लगा दीं। हमने उनको मॉर्डनाइज किया, बिना यह जाने हुए कि वे मॉर्डनाइज होकर साधारण मकान हो जाते हैं। उनकी वह रिसेप्टिविटी खो जाती है जिसके लिए वे कुंजी हैं।
तो एक तो ध्वनि से गहरा संबंध है मंदिर की वास्तु-कला का। उसका जो आर्किटेक्चर है उसका ध्वनि से--वह सारा ध्वनि-शास्त्र ही है। किस कोण से ध्वनि की चोट की जाए, उसका भी हिसाब है। कौन सी ध्वनि खड़े होकर की जाए और कौन सी बैठ कर की जाए, उसका भी हिसाब है। कौन सी लेट कर की जाए, उसका भी हिसाब है। क्योंकि खड़े होकर उसके आघात बदल जाएंगे, बैठ कर उसके आघात बदल जाएंगे। कौन सी ध्वनियां साथ में की जाएं तो परिणाम अलग होंगे। कौन सी ध्वनियां अलग-अलग की जाएं तो परिणाम अलग होंगे।
इसलिए बड़े मजे की बात है कि जब वैदिक साहित्य का पश्चिमी भाषाओं में अनुवाद शुरू हुआ, तो स्वभावतः पश्चिम में भाषा का जो जोर है वह भाषागत है, ध्वनिगत नहीं है, फोनेटिक नहीं है। कोई शब्द लिखा जाए, तो वैदिक दृष्टि में उस शब्द के लिखने और बोलने का उतना मूल्य नहीं है जितना उसके भीतर विशेष ध्वनि और विशेष ध्वनि की मात्राओं का समाहित होना जरूरी है। संस्कृत का जोर फोनेटिक है, लिंग्विस्टिक नहीं है। शब्दगत नहीं है, ध्वनिगत है।
इसीलिए हजारों साल तक कीमती शास्त्रों को न लिखने की जिद की गई। क्योंकि लिखते ही जोर बदल जाएगा, एम्फेसिस बदल जाएगी। बोल कर ही दिया जाए दूसरे को, लिख कर न दिया जाए। क्योंकि लिखे जाने पर शब्द बन जाएगा, और ध्वनि की जो बारीक संवेदनाएं थीं वे मर जाएंगी, उनका कोई सवाल नहीं रह जाएगा।
अब राम को लिख दें हम, तो पढ़ने वाले पचास तरह से पढ़ सकते हैं। कोई र पर थोड़ा कम जोर दे, कोई अ पर थोड़ा ज्यादा जोर दे, कोई म पर थोड़ा कम जोर दे। वह कैसा जोर देगा, वह पढ़ने वाले पर निर्भर करेगा। लिखने के बाद ध्वनिगत जोर समाप्त हो गया। अब उसको फिर डिकोड करना पड़ेगा।
इसलिए हजारों सालों तक जिद की कि कोई शास्त्र लिखा न जाए। कारण? कारण सिर्फ एकमात्र यही था कि उसकी जो ध्वनिगत व्यवस्था है वह न खो जाए। तो सीधा व्यक्ति के द्वारा ही वह दूसरे को
सुनाया जाए। इसलिए हम शास्त्र को श्रुति कहते हैं, जो सुन कर मिले वही शास्त्र था। जो पढ़ कर मिले उसको हमने शास्त्र नहीं कहा कभी। क्योंकि उसकी सारी की सारी जो वैज्ञानिक प्रक्रिया थी, तो उसमें कैसे ध्वनि के आघात होंगे, कहां क्षीण होगी ध्वनि, कहां तीव्र होगी, उसको लिपिबद्ध करने पर कठिनाई खड़ी हो जाएगी। और कठिनाई खड़ी हुई। जिस दिन लिपिबद्ध हुए ये शास्त्र उसी दिन इनकी जो मौलिक आंतरिक व्यवस्था थी वह खंडित हो गई। फिर कोई जरूरत न रही कि आप किसी से जाकर सुन कर ग्रहण करें। आप किताब पढ़ सकते हैं, वह बाजार में उपलब्ध है। और उसके साथ ध्वनि का कोई सवाल नहीं रहा।
यह भी मजे की बात है कि इन शास्त्रों का कभी जोर न था अर्थ पर। इनका जोर नहीं था अर्थ पर। अर्थ पर जोर तो पीछे हमें पकड़ में आना शुरू हुआ जब हमने इनको लिपिबद्ध किया। क्योंकि लिपिबद्ध कोई भी चीज अगर अर्थहीन हो तो हम पागल मालूम पड़ेंगे। हमको उसे अर्थ देना ही पड़ेगा। अभी भी वैदिक वचनों में ऐसे वचन हैं जिनके अर्थ नहीं लगाए जा सके हैं। और जिनके अर्थ नहीं लगाए जा सके वही वचन असली हैं, क्योंकि वे बिलकुल ही ध्वनिगत हैं, उनमें अर्थ था ही नहीं।
अब जैसे ओम मणि पद्मे हुम्‌। एक तिब्बतन मंत्र है। इसमें सवाल अर्थ का नहीं है। ओम में भी सवाल अर्थ का नहीं है। इसमें कोई अर्थ नहीं है। ध्वनिगत चोट है। और उसके परिणाम हैं। ध्वनिगत चोट है, उसके परिणाम हैं। अब जब कोई साधक ओम मणि पद्मे हुम्‌ का आवर्तन करता है बार-बार, तो उसके शरीर के विभिन्न चक्रों पर चोट पड़नी शुरू होती है और वे चक्र सक्रिय होने शुरू होते हैं। इसमें क्या अर्थ है, यह सवाल नहीं है। इसकी क्या यूटिलिटी, उपयोगिता है, यह सवाल है। इसको खयाल में ले लेना जरूरी है कि पुराने शास्त्र अर्थ पर जोर नहीं देते, उपादेयता पर जोर देते हैं--उपयोगिता क्या है इसकी? उपयोग क्या है इसका?
बुद्ध से किसी ने पूछा है कि सत्य क्या है? तो बुद्ध ने कहा: जो उपयोग में आ सके। सत्य की परिभाषा--जो उपयोग में आ सके! विज्ञान भी यही करेगा सत्य की परिभाषा। विज्ञान भी यही करता है। प्रैग्मेटिक परिभाषा करेगा। वह यह नहीं कहेगा कि सत्य क्या है, जिसको आप सिद्ध कर दें, यह सवाल नहीं है। सत्य क्या है, जो उपयोग में आ सके। आप उपयोग करके दिखा दें।
आप कहते हैं, हाइड्रोजन-आक्सीजन मिल कर पानी बनते हैं। हमें फिकर नहीं है कि सत्य है या असत्य है। आप पानी बना कर दिखा दें तो सत्य हो जाएगा, न बन सके पानी तो असत्य है। हाइड्रोजन और आक्सीजन मिल कर पानी बनते हैं कि नहीं, यह कोई लॉजिकल, कोई तर्कगत इसकी वैलिडिटी नहीं है। बनते हों तो बना कर दिखा दें। बन जाएं तो सत्य है, न बनते हों तो सिद्ध हो जाएगा कि असत्य है। विज्ञान ने अब जाकर वही व्याख्या पकड़ी है सत्य की, जो पांच हजार साल पहले धर्म की व्याख्या थी। धर्म कहता था, जो उपयोग में आ जाए। जिसका आप उपयोग कर सकें।
तो ओम का कोई अर्थ नहीं है, उपयोग है; कोई मीनिंग नहीं है, यूटिलिटी है। मंदिर का कोई अर्थ नहीं है, उपयोग है। और उपयोग में लाना एक कला है। और सभी कलाओं के साथ एक खराबी है--सभी कलाओं के साथ एक खराबी है--कि उनका जीवंत हस्तांतरण ही हो सकता है।
इधर मैं पढ़ता था, चीन में कोई पंद्रह सौ साल पहले एक सम्राट है। वह मांस का बहुत शौकीन है, और इतना शौकीन है कि वह अपने सामने ही गाय-बैल को कटवाता है। तो जो उसका कसाई है वह पंद्रह साल से नियमित सुबह आकर उसके सामने ही जानवर काटता है।
एक दिन वह सम्राट पूछता है कि यह तू जो फरसा लाता है काटने को, यह मैंने तुझे कभी बदलते नहीं देखा। पंद्रह साल हो गए, इसकी धार मरती नहीं? तो वह कसाई कहता है कि इसकी धार नहीं मरती। धार तभी मरती है जब कसाई कुशल न हो। धार तभी मरती है जब कसाई कुशल न हो, धार तभी मरती है जब कसाई को पता न हो कि कहां ठीक जगह है, जहां से फरसा आर-पार हो जाता है और दो हड्डियों के बीच में नहीं अड़ता--ज्वाइंट्‌स कहां हैं। और यह मेरी पुश्तैनी कला है। यह फरसे की धार तो मरती ही नहीं, बल्कि रोज जानवर काट कर इसकी धार लग जाती है।
तो उस सम्राट ने कहा: क्या तू यह कला मुझे भी सिखा सकता है? कसाई ने कहा कि यह बहुत कठिन है। यह बहुत कठिन है। यह तो मैं अपने बाप के पास, जब से मुझे होश है, तब से मैं खड़ा रहा। इसको मैंने इंबाइब किया है, इसको मैंने सीखा नहीं। इसको मैं पी गया हूं; इसको मैंने सीखा नहीं है किसी से। मैं बाप के पास खड़ा रहता था। रोज-रोज यही हो रहा था, दिन भर जानवर कट रहे थे, मैं पास खड़ा रहता था। कभी उसका फरसा उठा कर लाता था, कभी जानवर के कटे हुए अंगों को उठा कर रखता था। बस मैं पी गया। अगर तुम भी इतने के लिए राजी हो तो मेरे पास खड़े रहो, कभी उठा कर लाओ, कभी रखो, कभी बैठो, देखते रहो। इसको पी सको तो। नहीं तो मैं सिखा नहीं सकता।
साइंस सिखाई जा सकती है, आर्ट सिखाया नहीं जा सकता। विज्ञान हम सिखा सकते हैं, पढ़ा सकते हैं। कला हम सिखा नहीं सकते, कला को तो इंबाइब करना पड़ता है।
ये सारे मंत्र अर्थ नहीं रखते, इनका कलात्मक उपयोग है। तो छोटे-छोटे बच्चों को हम इंबाइब करवा देते थे। वे मंदिर की कला सीख जाते थे। उन्हें कभी पता भी नहीं चलता था कि वे क्या सीख गए हैं! वे मंदिर में जाने की कला सीख जाते थे। वे मंदिर में बैठने की कला सीख जाते थे। वे मंदिर का उपयोग सीख जाते थे। जब भी मुसीबत में जिंदगी होती, वे भागे मंदिर चले जाते थे। मंदिर से वे शांत होकर लौट आते थे। चूकना मुश्किल था; रोज सबेरे वे मंदिर चले आते थे। क्योंकि जो मंदिर में मिलता था वह कहीं भी मिलना मुश्किल था। पर वह इतने बचपन से पकड़ती थी बात कि उन्हें हमने कभी सिखाया, ऐसा नहीं था--इंबाइब कर गए वे, पी गए। बहुत सी चीजें हैं जो सिखाई नहीं जा सकतीं। जहां भी कला है वहीं सिखाना मुश्किल है।
इस मंदिर की, इन मंदिरों के बीच ध्वनि की जो सारी की सारी संयोजना थी उसकी, एक प्रायोगिक व्यवस्था है। और जब तक मंत्र का ठीक ध्वनिगत रूप खयाल में न हो...। इसलिए मंत्र गुरु के द्वारा दिया जाए, इस पर जोर था। वह मंत्र आप जानते रहे हैं सदा। हो सकता है गुरु आपके कान में कहे: राम-राम का जाप करो। और आप हैरान होंगे कि कहा है कि गुरु के बिना मंत्र नहीं मिलेगा? यह तो दुनिया जानती है कि राम-राम कहो। और इस आदमी ने कान में कहा कि राम-राम कहो। यह तो पागलपन की बात है।
नहीं, लेकिन राम के ध्वनिगत रूप पर जोर होगा, जो कि दुनिया नहीं जानती। और राम के भी पचासों प्रयोग हैं। अब वाल्मीकि की सारी कथा हमने सुनी है, लेकिन वह कथा बचकानी हो गई। कथा ऐसी हो गई कि हम समझने लगे कि वह नासमझ था, गैर-पढ़ा-लिखा था, गंवार था। तो भूल गया कि गुरु ने कहा था कि राम-राम का पाठ करना, तो वह मरा-मरा का करने लगा। और मरा-मरा का पाठ करते हुए ज्ञान को उपलब्ध हो गया। ये चाबियां जब खो जाती हैं तो ऐसी गड़बड़ खड़ी हो जाती है। सच बात यह है कि राम के मंत्र के एक रूप का यही हिस्सा है, कि राम-राम कहते-कहते जब आपके भीतर से मरा-मरा निकलने लगे, तभी वर्तुल बना। राम-राम गति से कहते हुए, जब बिलकुल स्थिति उलटी हो जाए और मरा-मरा निकलने लगे, तब ठीक ध्वनिगत हो गया। और जब मरा-मरा निकलेगा तब एक अदभुत घटना घटती है। और वह घटना यह है कि आप नहीं रहे, आप मर गए। और जब आप मर गए होते हैं, वही क्षण आपके जप के पूरे होने का है। वही क्षण अनुभव का है, जब आप नहीं हैं, मिट गए।
और यह बड़े मजे की बात है कि अगर यह प्रक्रिया ठीक से की जाए, तो राम का पाठ आप शुरू करेंगे, बहुत शीघ्र वह घड़ी आ जाएगी जब राम की जगह मरा-मरा निकलने लगेगा और आप चाहेंगे भी कहना कि राम कहूं तो न कह पाएंगे। सारा व्यक्तित्व मरा कहेगा। उस वक्त आपकी मृत्यु घटित होगी, जो कि ध्यान का पहला चरण है। और जब आपकी मृत्यु पूरी घटित हो जाएगी तो आप अचानक फिर पाएंगे कि मरा-मरा राम में रूपांतरित होने लगा। फिर आपके भीतर से राम की ध्वनि निकलनी शुरू होगी। और जब राम की ध्वनि अब निकलेगी आपके भीतर से, तब आपको राम का साक्षात्कार होगा, इसके पहले नहीं होगा। बीच में मरा की ध्वनि में रूपांतरण अनिवार्य है।
इसके तीन हिस्से हुए। राम से आप शुरू करेंगे, मरा में आप मिटेंगे, और राम पर फिर पूरा होगा। और जब तक बीच में मरा-मरा की प्रक्रिया पकड़ न ले आपको, तब तक असली राम की प्रक्रिया जो तीसरे चरण में पूरी होने वाली है, वह नहीं होगी। अगर आप राम-राम कहते ही गए, और मरा-मरा नहीं आया बीच में, तो आपको पता ही नहीं है--उसके फोनेटिक एम्फेसिस का पता नहीं है। तो उसका ध्वनिगत जो जोर है उस जोर को अगर ठीक से आपने दिया--अगर आपने र जोर से कहा और म धीमे कहा तो ही मरा बनेगा बाद में, नहीं तो नहीं बनेगा। र पर सारी ताकत लगाई और म को ढीला छोड़ दिया, तो म गड्ढे की तरह हो जाएगा, र शिखर की तरह हो जाएगा। र एक उत्तुंग चोटी हो जाएगा और म एक खाई हो जाएगा। और इस स्थिति में--राम--म को छोटा करके आप कहते चले गए, तो बहुत शीघ्र आप पाएंगे कि रूपांतरण हुआ। म शिखर बन जाएगा और र खाई बन जाएगा। मरा शुरू हो जाएगा।
जैसे लहरें हैं, हर शिखर के बाद खाई, हर खाई के बाद शिखर! और अभी जो शिखर था वह थोड़ी देर में खाई हो जाएगा, जो खाई थी वह शिखर बन जाएगी--ठीक लहर की तरह। ध्वनि की भी लहरें हैं। ठीक ध्वनि के भी उतार-चढ़ाव हैं, आरोह-अवरोह हैं।
तो ठीक ध्वनि की अगर व्यवस्था ज्ञात न हो तो आप राम-राम कहते रहें, कोई परिणाम न होगा। अब जिन्होंने भी वाल्मीकि के संबंध में यह कहानी प्रचलित की कि वह नासमझ था, बेपढ़ा-लिखा था, गंवार था। ये सब बातें सच हैं कि वह नासमझ था, बेपढ़ा-लिखा था, गंवार था। लेकिन यह बात सच नहीं है कि इसलिए वह मरा-मरा कहने लगा। जहां तक इस सूत्र का संबंध है, इस मामले में तो वह पूरा होशियार था। उसे ठीक पूरे गणित का पता था। इतने मामले का तो उसे पूरा पता था कि राम कैसे कहना है कि मरा बन जाए। जब मरा बन जाए तभी आप संक्रमण से गुजरे, और फिर राम पैदा होगा। वह राम आपके द्वारा कहा हुआ राम नहीं होगा फिर। आप तो मर गए। वह राम जन्मेगा आपके भीतर, वह अजपा हो जाएगा। आप उसका जाप नहीं कर रहे, वह हो रहा है जाप।
ध्वनिगत जोर की वजह से श्रुति! और उसे कोई जानने वाला, जो ध्वनियों को जानता हो। और जानने का एक ही उपाय था कि वह किसी से जानता हो। जानने वाला ही उसे किसी को दे। वही शब्द होंगे, जो किताब में लिखे होंगे, सबको मालूम होंगे, फिर भी उनका गणित अलग हो जाएगा। और गणित में ही सारा खेल है। वह ध्वनि का जो गणित है, आरोह-अवरोह के जो अंतर हैं, उनका ही सारा खेल है।
तो एक पूरा मंत्र-शास्त्र था, और मंदिर उनकी एक प्रयोगशाला थी। यह उसका आंतरिक मूल्य था, साधक का। और मंदिर में जितने लोगों को परमात्मा का अनुभव हुआ, मंदिर के बाहर नहीं हो सका--यह जानते हुए कि परमात्मा मंदिर के बाहर भी है। आज मंदिर में भी नहीं हो रहा है। लेकिन मंदिर के भीतर जितने लोगों को अनुभव हुआ उतने लोगों को कभी मंदिर के बाहर नहीं हुआ। या जिन लोगों को मंदिर के बाहर प्रयोग करने पड़े--जैसे महावीर--तो फिर उनको, जो मंदिर में हो रहा था, उसके लिए दूसरा उपकरण खोजना पड़ा, जो कि ज्यादा जटिल है।
महावीर को उन आसनों को साधना पड़ा वर्षों तक, जिनसे कि वर्तुल भीतर बन जाए। जिनसे कि वर्तुल भीतर बन जाए, वह जो मंदिर का सहारा था, न लिया जाए। लेकिन वह वर्षों की प्रक्रिया है, और महावीर जैसे संकल्पी के लिए ही संभव है। बाकी अति कठिन हो जाएगी। बुद्ध ने भी मंदिर का सहारा नहीं लिया। लेकिन महावीर के मरने के थोड़े ही दिन बाद मंदिर बनाना शुरू करना पड़ा, और बुद्ध के मरने के बाद भी बनाना शुरू करना पड़ा। क्योंकि जो मंदिर दे सकता है बिलकुल सामान्यजन को, वह बुद्ध और महावीर नहीं दे सकते। बुद्ध और महावीर जो कह रहे हैं करने को, वह सामान्यजन नहीं कर पाएगा।
आज तो अगर इस विज्ञान को हम पूरा समझ लें तो मंदिर से भी श्रेष्ठतर उपकरण खोजे जा सकते हैं। और अभी इस पर थोड़ा काम चलता है। मंदिर से भी श्रेष्ठतर उपकरण खोजे जा सकते हैं अब, क्योंकि अब हम विद्युत के संबंध में ज्यादा जानते हैं। और अभी इस तरह के बहुत से प्रयोग, जो खतरे में भी ले जा सकते हैं, भयानक भी हैं, लेकिन ठीक उपयोग किया जाए तो जो मंदिर करता था उसकी हम साइंटिफिक व्यवस्था कर सकते हैं। क्योंकि मंदिर में जो वर्तुल पैदा होता था वह वर्तुल अब और तरह से भी पैदा किया जा सकता है। आप जेब में एक छोटा सा यंत्र भी रख सकते हैं कल, जो आपके भीतर विद्युत का वर्तुल बनाता हो। आप उस विद्युत के यंत्र में उन ध्वनियों को भी रिकॉर्डेड रख सकते हैं जो आपके भीतर ध्वनियों का वर्तुल बना दे।
अभी इस पर कुछ काम चलता है। और बहुत हैरानी का काम है। अमरीका में कोई सात-आठ वैज्ञानिक एक बहुत अदभुत काम में लगे हुए हैं। और वह काम यह है कि हमारे जितने सुख-दुख के अनुभव हैं, सभी हमारे शरीर के किन्हीं केंद्रों पर विद्युत के प्रवाह के अनुभव हैं, और कुछ भी नहीं।
जैसे आपके अगर शरीर में सुई चुभाई जाए पूरे शरीर में, तो सब जगह आपको सुई की चुभन पता नहीं चलेगी। कुछ डेड स्पॉट्‌स हैं आपके शरीर में, जहां आपकी पीठ में हम सुई चुभाते रहेंगे और आपसे पूछेंगे कि सुई चुभ रही है? आप कहेंगे कि नहीं। किसी की भी पीठ में सुई चुभा कर आप दस-बीस जगह देखें तो आपको दो-चार डेड स्पॉट मिल जाएंगे, जहां आप चुभाएंगे और वह कहेगा कि चुभ ही नहीं रही है। ठीक वैसे ही दस-पांच ऐसी जगहें हैं जहां आप जरा ही चुभाएंगे, वह कहेगा कि बहुत चुभ रही है। ठीक ऐसे ही मस्तिष्क के सेंस की बहुत सी ग्रंथियां हैं, लाखों की संख्या में। और प्रत्येक ग्रंथि का अनुभव है। जब आप कहते हैं मुझे सुख हो रहा है, तब आपके मस्तिष्क की किसी खास ग्रंथि में से विद्युत बहती है।
समझें आप अपनी प्रेयसी के पास बैठे हैं। उसका हाथ हाथ में लिए हैं और कहते हैं मुझे सुख हो रहा है। जहां तक वैज्ञानिक का संबंध है वह आपकी खोपड़ी में बताएगा कि फलां जगह से विद्युत बह रही है। और इस स्त्री के साथ सिर्फ दिमाग का एसोसिएशन है आपका कि इसके पास बैठने से सुख मिलता है, तो उस सहयोग-साहचर्य की धारणा की वजह से खास बिंदु से आपके धारा बहनी शुरू हो जाती है। लेकिन दो-चार महीने बाद नहीं मिलेगा सुख। क्योंकि अगर किसी बिंदु से आपने बहुत ज्यादा विद्युत की धारा बहाई तो वह इनसेंसिटिव हो जाता है, उसकी संवेदनशीलता मर जाती है।
ठीक है, अब एक ही जगह हम कांटा चुभाए जाएं बार-बार, तो आज जितना आपको दर्द होगा, कल नहीं होगा, परसों और नहीं होगा। और चुभाए चले जाएं तो वह जगह ग्रंथि बना लेगी, और कांटे को झेल जाएगी, और दर्द बिलकुल नहीं होगा। अब जो लोग सितार बजाते हैं तो अंगुली कट जाती है, पहले बहुत तकलीफ होती है। फिर बजाते ही चले जाते हैं तो अंगुली संवेदनहीन हो जाती है। फिर कितना ही तार-वार खींचते रहें, कोई अंगुली को पता नहीं चलता।
तो आपका जो प्रेम क्षीण हो जाता है--कि भई तीन महीने बाद प्रेम क्षीण हो गया, बड़ा कच्चा प्रेम था--उसका और कोई कारण नहीं है। जिस बिंदु से आपका सुख का प्रवाह हो रहा था वह आदी हो गया। यही स्त्री दो-चार-दस साल आपसे छूट जाए तो फिर सुख दे सकती है, फिर सुख दे सकती है।
यह जो वैज्ञानिकों का काम है इसमें अभी तो उनके जो प्राथमिक प्रयोग थे वे पशुओं पर थे। चूहों पर अभी उनका एक प्रयोग चलता था जिसने कि उनको भी घबड़ा दिया। चूहा जब संभोग में रत होता है तो उसके मस्तिष्क को उन्होंने खोल कर रखा हुआ था। खिड़की खुली हुई थी उसके मस्तिष्क की, ताकि उसके पूरे मस्तिष्क की जांच हो सके कि जब वह संभोग में जाता है, जब उसका वीर्य-क्षरण होता है, तो उसके मस्तिष्क में कहां से विद्युत बहती है।
तो उसके मस्तिष्क की विद्युत की स्थिति उन्होंने पकड़ ली कि यहां से विद्युत बहती है। तब वहां उन्होंने इलेक्ट्रोड लगा दिया, मस्तिष्क बंद कर दिया और इलेक्ट्रोड से जुड़ा हुआ तार एक मशीन में लगा दिया। उस मशीन से उसी मात्रा की, उसी अनुपात की विद्युत बहेगी, जितनी अनुपात की विद्युत उसके वीर्य-क्षरण में बहती थी। और सामने उसके बटन लगी हुई है। और उस चूहे को बटन दबाना एक-दो दफे बता दिया। जैसे ही बटन दबाई कि उस चूहे को वही आनंद आया, जो उसको संभोग में आया था।
आप हैरान होंगे कि चूहे ने फिर कोई काम ही नहीं किया चौबीस घंटे तक। एक घंटे में छह-छह हजार बार वह बटन दबाता रहा। खाना-पीना बंद! जब तक इलेक्ट्रोड काट नहीं दिया उसका, तब तक न खाया, न पीया, न सोया, न इधर-उधर देखे, बस वह एक ही काम--पूरे चौबीस घंटे, सतत! थक कर गिर पड़ा बिलकुल, लेकिन वह थकते वक्त तक उसको दबाए चला गया।
वह वैज्ञानिक जो उस पर प्रयोग कर रहा था, उसका कहना है कि उस चूहे ने जितना संभोग का रस जाना, आज तक पृथ्वी पर किसी चूहे ने नहीं जाना। हालांकि संभोग वह कर नहीं रहा था, सिर्फ उस जगह से विद्युत प्रवाहित थी। उस वैज्ञानिक का दावा है कि बहुत जल्दी ही सेक्स बहुत साधारण सुख रह जाएगा। जिस दिन हम आदमी को इलेक्ट्रोड दे देंगे, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल होगा जो सेक्स के लिए राजी हो जाए। क्योंकि बहुत शक्ति गंवा कर कुछ खास पाता नहीं। हम उसके खीसे में एक बैटरी से लगा हुआ छोटा सा यंत्र दे सकते हैं। वह अपने खीसे में जब भी चाहे दबा ले बटन--सरसराहट फैलेगी, जो कि सेक्स में फैलती है। उसमें और कोई भेद भी नहीं है।
यह खतरनाक भी है। क्योंकि एक बार मनुष्य के मस्तिष्क की सारी व्यवस्था पता चल जाए, तो उसमें कौन सा हिस्सा संदेह करता है वह काट कर फेंका जा सकता है, कौन सा हिस्सा क्रोध करता है वह अलग किया जा सकता है। या उसके सारे संबंध तोड़े जा सकते हैं, कि उससे आपके शरीर की विद्युत न जुड़ पाए, बस फिर आप क्रोध नहीं कर पाएंगे। कौन सा हिस्सा बगावती है, उसके सारे संबंध, उसके सारे तार डिसकनेक्ट किए जा सकते हैं। सरकारें उसका खतरनाक उपयोग कर सकती हैं।
लेकिन मनुष्य को सुख देने की दिशा में भी उनसे बहुत उपयोग हो सकते हैं। उनको तो पता नहीं है, लेकिन मैं मानता हूं कि हम मनुष्य को मंदिर भी दे सकते हैं उस व्यवस्था से। वह और भी सरल होगा, इस मंदिर से भी सरल होगा। इस मंदिर में आपको घंटों, महीनों, वर्षों ध्वनि का जो आघात पैदा करके ध्वनि जब वापस आप पर लौटेगी और आपके मस्तिष्क से टकराएगी, तो जो स्थितियां बनाएगी, वे स्थितियां और भी सरलता से पैदा की जा सकती हैं।
तो मंदिर मेरे हिसाब से एक बहुत वैज्ञानिक प्रक्रिया थी और ध्वनि के माध्यम से आपके भीतर सुखद, शांतिदायी, आनंददायी, प्रीतिकर भाव को जगाने का अदभुत काम करती रही है। और उस भाव की उपस्थिति में आपका जीवन के प्रति पूरा दृष्टिकोण बदलता है।
इस बात में खतरे हैं, वैज्ञानिक जो कर रहे हैं इसमें खतरे हैं। खतरा एक ही है कि विज्ञान जो भी करता है वह टेक्नालॉजिकल हो जाता है, तकनीकी हो जाता है, चेतना की उसमें बहुत जरूरत नहीं रह जाती। तो हो सकता है कि ठीक मंदिर जैसी स्थिति भी विद्युत के प्रभाव से पैदा कर दी जाए, लेकिन चेतना के जो चारित्रिक परिवर्तन होते थे वे न हों। जो चेतना को ऊंचाइयां मिलती थीं, जो रूपांतरण, ट्रांसफार्मेशन होता था, वह न हो। वह आदमी को बटन दबाने से जो मिल जाए उससे कोई बहुत मूल रूपांतरण नहीं हो सकते। वे एक उपकरण होंगे। इसलिए मंदिर की जरूरत समाप्त होगी, ऐसा मैं नहीं मानता हूं।
और आप पूछते हैं कि क्या आज भी वे वापस इस परिवर्तित समय में उपयोग में लाए जा सकते हैं?
वे लाए जा सकते हैं। लेकिन पुराना पुरोहित मंदिर में जो बैठा है वह उसको उपयोग में लाने के लिए लोगों को नहीं समझा पाएगा। उसके पास चाबी है, लेकिन उसके पास चाबी के पीछे कोई व्यवस्था नहीं रह गई है। मंदिर की पूरी दृष्टि और पूरे दर्शन को पुनर्स्थापित करना आज भी काम में आ सकता है। और पुराने से भी बेहतर हम मंदिर आज बना सकते हैं, क्योंकि आज सब साधन हमारे पास ज्यादा बेहतर हैं। ज्यादा बेहतर सामान का उपयोग किया जा सकता है जो ध्वनि को हजार गुना कर दे, मैग्नीफाई कर दे। इतनी संवेदनशील दीवालें बनाई जा सकती हैं कि आप एक बार ओम कहें और दीवालें लाख बार ओम दोहरा दें। आज हमारे पास सारे उपकरण ज्यादा बेहतर हो सकते हैं, एक दफा कुंजी खयाल में हो। उन दिनों तो हमें एक दरवाजा रखना ही पड़ता था, अब हम बिलकुल बिना दरवाजे के रख सकते हैं। उसको हम बिलकुल ही बंद कर सकते हैं।
आज हमारे पास ज्यादा बेहतर उपकरण हैं, ज्यादा बेहतर मंदिर बनाया जा सकता है। जिन लोगों ने मंदिर बनाए थे वे बिलकुल झोपड़े में रह रहे थे, उनके पास कोई उपकरण नहीं थे। मिट्टी-गारे से जो वे कर सकते थे, जो संभव था उस सीमा के भीतर, वह उन्होंने किया। फिर भी अदभुत किया! और हमारे पास आज बहुत अदभुत उपकरण हैं, लेकिन हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं।
यह तो उसकी अंतर्वस्तु है, मंदिर की। उसकी बहिर्वस्तु भी है। उसका बाह्य उपयोग भी है। यह तो साधक की बात हुई जो मंदिर जाएगा, और साधेगा, और व्यवस्था में गहरा उतरेगा, साधना में डूबेगा, डुबकी लेगा उसकी। लेकिन जो मंदिर के पास से गुजरेगा उसको भी फर्क पड़ता था। पड़ता नहीं है अब। अब तो भीतर जाने वाले पर भी नहीं पड़ता। वह पड़ता था उसी दिन जब भीतर जाने वाला सच में भीतर कुछ कर रहा था। जब एक मंदिर में निरंतर दिन में पच्चीसों, सैकड़ों साधक आकर एक विशेष ध्वनि-व्यवस्था का संचरण करते हैं तो मंदिर चार्ज्ड हो जाता है। मंदिर फिर भीतर ही ध्वनि नहीं फेंकता, मंदिर बाहर भी बहुत सूक्ष्म ध्वनियां फेंकना शुरू कर देता है। जीवित हो जाता है। जीवित मंदिर का अर्थ यही था। जीवित प्रतिमा का भी अर्थ यही था। जिस प्रतिमा से ऐसे व्यक्ति को भी संस्पर्श हो जाए जो उससे संस्पर्श करने आया नहीं था। जो उत्तर दे सके, जो कुछ कर सके।
मंदिर जीवित वही कहा जाता था जिस मंदिर के पास से आप अनजाने गुजर रहे हों, और एकदम आपको लगे कि हवा बदल गई, एकदम आपको लगे कि कुछ वातावरण और हो गया। आपको पता भी न हो कि मंदिर है पड़ोस में, आप अंधेरी रात में गुजर रहे हों, और मंदिर के पास आकर आपको भीतर लगे कि जैसे कोई चीज बदल गई। आप जो सोच रहे थे वह धारा टूट गई, आप कुछ और सोचने लगे। हत्या की सोच रहे थे और एकदम दया से भर गए।
लेकिन यह तभी हो सकता है जब मंदिर चार्ज्ड हो। वहां हर जर्रा-जर्रा, मंदिर की ईंट-ईंट का टुकड़ा-टुकड़ा, द्वार-दरवाजे सब आविष्ट हो गए हों। मंदिर अब जीवित ध्वनियों का हो गया होता है।
वह जो हर मंदिर के सामने लटका हुआ घंटा है वह उसे चार्ज करने के लिए बड़े अदभुत ढंग से प्रयोग होता है। जो आदमी मंदिर में प्रवेश करे वह घंटा बजाएगा। वह मंदिर में आने की अपनी सूचना दे रहा है। लेकिन कभी मंदिर में जाकर घंटा बजाएं, बहुत अलस, सोए मन से नहीं, बहुत होशपूर्वक घंटा बजाएं! घंटा बजाते ही से आपके विचार में डिसकंटीन्युटी पैदा होती है। आप जो सोचते आ रहे थे, उसमें ब्रेक लगता है। वह घंटे की आवाज अस्तव्यस्त कर जाती है भीतर। आपको नया होने का एक क्षण है। और घंटे की जो आवाज है, उस आवाज में, ओम की आवाज में आंतरिक संबंध है। तो घंटे की आवाज मंदिर को चार्ज करती जाती है दिन भर। ओम की आवाज चार्ज करती जाती है।
मंदिर में जितनी चीजें उपयोग की जाती थीं, चाहे घी से जलने वाला दीया हो, चाहे जलती हुई सुगंध हो, चंदन हो, फूल हों। और हर देवता के लिए विशेष फूल प्रिय थे। कोई देवता के लिए प्रिय होने का सवाल न था, लेकिन हर मंदिर की अपनी ध्वनि-संचरण व्यवस्था थी। उसमें कौन सी ध्वनि हार्मोनियस है कौन सी सुगंध के साथ, इस पर पूरा-पूरा ध्यान था, पूरा-पूरा ध्यान था। सिर्फ वही फूल अंदर लाना है मंदिर के जो मंदिर में पैदा होने वाली ध्वनि के साथ हार्मनी रखते हों, वही सुगंध। अन्यथा दूसरा फूल अंदर नहीं लाना है।
मस्जिद में लोबान जलाया जाएगा, मंदिर में उदबत्ती जलेगी, धूप जलेगी। उन सबका ध्वनियों से संबंध था। अल्लाह का जो उच्चार है, उसका जो सघन रूप है, उस रूप के साथ लोबान की सुगंध का तालमेल है। और ये तालमेल बड़ी भीतरी खोज से मिले थे। ये ऐसे नहीं सोच लिए गए थे। ऊपर से सोचा भी नहीं जा सकता। इनके खोजने की बात आपसे कह दूं।
अगर आप अल्लाह का उच्चार करते जाएं--अपने घर में बैठ जाएं, और कभी जहां लोबान नहीं लाया गया है--कमरा बंद कर लें और अल्लाह का उच्चारण करें। अल्लाह का उच्चारण भी सिर्फ अल्लाह नहीं, अल्लाहू! ठीक उसका जो उच्चारण है--अल्लाहू। ‘हू’ पर जोर होना चाहिए। धीरे-धीरे ‘अल्लाह’ छूटता जाएगा और हू शेष रह जाएगा, अपने आप। और जिस दिन हू का ही उच्चार रह जाएगा उस दिन आप अचानक पाएंगे कि आपके कमरे में लोबान की गंध फैल गई है।
यह आपके भीतर से आती हुई गंध होगी। लोबान सिर्फ पैरेलल गंध है जो बाद में बाजार में खोजी गई है। हू के उच्चार से आपके भीतर से जो गंध आनी शुरू होती है वह गंध फिर बाद में बाजार में बड़ी मुश्किल से खोजी गई कि उससे कोई तालमेल खाती गंध मिल जाए जो हम मस्जिद में जला दें। क्योंकि वहां हू का उच्चार करने वाले को वह सहयोगी हो जाएगी। दोहरा प्रयोग हो जाएगा। उसके भीतर से जब उठेगी तब उठेगी, हम उसके बाहर पैदा कर दें।
ओम के साथ कभी भी भूल कर किसी को लोबान का स्मरण नहीं आता। उसकी चोट अलग जगह है, जहां से वह गंध नहीं निकल सकती।
और हमारे शरीर में गंध के भी क्षेत्र हैं और हमारे मनोभावों से गंध के संबंध हैं। इसलिए जैन कहते हैं कि महावीर के शरीर से गंध नहीं निकलती, दुर्गंध नहीं निकल सकती, सुगंध ही निकलती है--और एक विशेष सुगंध ही। उस सुगंध के आधार पर तीर्थंकर पहचाना जाता रहा है। महावीर के वक्त में आठ लोगों का दावा था कि वे तीर्थंकर हैं, लेकिन सुगंध ने साथ नहीं दिया। आठ लोग दावेदार थे। महावीर से कोई कम नहीं था उन आठ में। महावीर से कम कोई आदमी नहीं था उनमें; ठीक उसी हैसियत के लोग थे। लेकिन उस मंत्र की धारा के लोग नहीं थे जिससे वह सुगंध निकले। उस वजह से वे दावे गलत हो गए।
बुद्ध के बाबत भी लोगों का दावा था कि वे भी तीर्थंकर हैं। और महावीर से कम उनकी हैसियत जरा भी न थी। उसी हैसियत के आदमी थे; वही स्थिति थी उनकी। लेकिन उस मंत्र-परंपरा के नहीं थे। इसलिए महावीर का शरीर जो गंध दे पाता था वह बुद्ध का शरीर नहीं दे सकता था। डिसीजन गंध से हुआ अंततः। महावीर के पास जाते ही एक विशेष गंध आनी शुरू हो जाती थी। अभी ऐसे लोग जिंदा थे जिन्होंने कहा कि ठीक यही पार्श्वनाथ के शरीर से भी गंध आती थी। अभी ज्यादा दिन पार्श्वनाथ को मरे हुए नहीं हुए थे। गंध की यह स्मृतिसूचक व्यवस्था थी कि जब भी तीर्थंकर पैदा होगा, यही गंध होगी। एक विशेष मंत्र की जो अंतिम प्रक्रिया है उसके बाद ही तीर्थंकर हो सकता है। और उससे यह गंध निकलेगी ही। वह उसका प्रमाण होगी, उसका दावा नहीं होगा। इसलिए महावीर ने कोई दावा नहीं किया, और वे तीर्थंकर हो गए। मक्खली गोशाल ने बहुत दावा किया, लेकिन तीर्थंकर नहीं हो सका।
अब यह आपको हैरानी मालूम होगी कि सूंघ कर तीर्थंकर तय होते थे। मगर आसान नहीं था मामला। और उतनी ही गहरी परीक्षा चाहिए थी, शब्द कुछ कह नहीं सकते थे। पूरा व्यक्तित्व गंध देना चाहिए कि उस व्यक्ति के भीतर वह फूल खिला है! उस मंत्र की अंतिम प्रक्रिया पूरी हो गई, जहां से तीर्थंकर जन्मता है। नहीं तो उसको तीर्थंकर नहीं मानते थे। मक्खली गोशाल कह रहा था, अजित केशकंबल कह रहा था, संजय वेलट्ठिपुत्त था, ये सब बड़े लोग थे, इन सबके नाम खो गए। उस वक्त ये सब महावीर की हैसियत के लोग थे। इनके लाखों शिष्य थे और उनका दावा था कि हमारा आदमी तीर्थंकर है। और महावीर चुप, इस मामले में कभी उन्होंने दावा नहीं किया। और अंततः लोगों ने कहा कि नहीं, तीर्थंकर तो वही आदमी है। क्योंकि गंध उसका शरीर दे रहा है।
प्रत्येक मंत्र से होने वाली अपनी गंध है। ओम का जिन्होंने पाठ किया है उन्होंने गंध जानी है। प्रत्येक मंत्र से भीतर पैदा होने वाले प्रकाश का अनुभव है। उस प्रकाश के आधार पर मंदिर में कितना प्रकाश हो, उसका इंतजाम किया गया है, उससे ज्यादा नहीं।
तो आज जो बिजली के बल्ब मंदिर में लगा कर बैठे हैं उनके पागलपन का कोई अंत नहीं है। इससे कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि वह तो बिलकुल ठीक अंतर-आकाश में जितना प्रकाश होता था, उतनी ही प्रकाश की व्यवस्था मंदिर में करनी थी। बहुत मद्धिम, अनाक्रामक प्रकाश! इसलिए घी को चुना। बहुत अनाक्रामक, चोट करता हुआ नहीं आंख को।
अब यह एकदम से खयाल नहीं आएगा, क्योंकि हमने कभी प्रकाश पर आंख को टिकाने का कोई अभ्यास नहीं किया है। मिट्टी के तेल का दीया जला लें, और उस पर घंटे भर आंख को रख कर बैठ जाएं। फिर घी का दीया जलाएं, उस पर घंटे भर आंख को रख कर बैठ जाएं। मिट्टी के तेल के दीये पर घंटे भर के बाद आंख जलेगी, और दुख पाएगी, और थक जाएगी। और घी के दीये पर घंटे भर में आपकी आंख की ज्योति बढ़ेगी और आंख ज्यादा शांत और स्निग्ध हो जाएगी।
पर ये तो हजारों-हजारों लोगों के अंतर-अनुभव थे, जिनको बाहर व्यवस्था दी गई थी। पैरेलल थे बाहर के, कोई बाहर हम ठीक वह दीया नहीं खोज सकते जो भीतर हो सकता है, लेकिन निकटतम, अप्रॉक्सिमेट जो हो सकता था उस वक्त वह उन्होंने खोज लिया था। बाहर हम ठीक वह सुगंध नहीं खोज सकते जो भीतर पैदा होगी मंत्र के उच्चार से, लेकिन फिर भी निकटतम हम खोज ले सकते हैं।
चंदन सारे मंदिरों में प्रीतिकर हो गया। और चंदन का टीका ठीक हम जहां लगाते हैं वह आज्ञाचक्र है। मंत्र हैं, जिनके अनुभव से भीतर चंदन की सुगंध पैदा होनी शुरू होती है। लेकिन उस सुगंध का स्रोत सदा ही आज्ञाचक्र होता है। जब भी वह अनुभव आता है तो ऐसा ही लगता है कि आज्ञाचक्र से सुगंध निकल रही है और चारों तरफ फैल रही है। पैरेलल प्रतीक हमने चंदन घिस कर और आज्ञाचक्र पर लगाया। जब भीतर आज्ञाचक्र पर सुगंध पैदा होती है तो इतनी शीतलता का अनुभव होता है कि जैसे बर्फ का टुकड़ा रख दिया है। उस समय हमारे पास जो शीतलतम चीज थी...।
ध्यान रहे, शीतल और ठंडी चीज में फर्क है। ठीक वैसा ही फर्क जैसे कि मिट्टी के तेल के दीये में और घी के तेल के दीये में है। बर्फ ठंडा जरूर है, शीतल नहीं है। इसलिए बर्फ का थोड़ी देर के बाद का अनुभव गर्मी का होगा, उत्ताप का होगा। ठंडा जरूर है, शीतल नहीं है। तो जो अंतिम फलश्रुति निकलेगी वह तो उससे उत्ताप ही निकलने वाली है। आप और गर्म हो गए होंगे। लेकिन चंदन शीतल है, ठंडा नहीं है--सिर्फ शीतल है। और एक बहुत आर्द्र शीतलता है, और जिसमें डेप्थ है।
आपके सिर को हम बर्फ से छुआ दें तो वह सिर्फ सतह को छूता है। और चंदन को लगा कर देखें। आज्ञाचक्र पर बर्फ को लगा कर देखें थोड़ी देर, फिर बर्फ को अलग रख दें, तो आप पाएंगे कि एक सतह पर उसने छुआ, चमड़ी के पार वह नहीं गया। वहां उत्ताप पैदा कर गया। फिर चंदन को लगाएं, थोड़ी ही देर में आपको लगेगा कि चमड़ी के पार उसकी शीतलता उतरी जा रही है--चमड़ी के पार! चमड़ी के पार न पहुंचे तो बेकार है, क्योंकि वह जो चक्र है वह तो चमड़ी के पार है। पैरेलल! जिन लोगों को आज्ञाचक्र की गति का अनुभव हुआ और उन्होंने वहां शीतलता जानी, उन्होंने चंदन को खोज लिया। और उसकी सुगंध भी ठीक वैसी है जैसी भीतर अनुभव हुई।
ये सारे के सारे उपकरण समानांतर हैं। और जब मंदिर इन सबसे भरा होता है तो आविष्ट होता है। इसलिए मंदिर में कोई गैर-स्नान करके न जाए। हम उसके व्यक्तित्व को, क्षण भर को ही सही, उसके पुराने तारतम्य को तोड़ना चाहते हैं। बिना घंटा बजाए न जाए, बासे कपड़े पहने न जाए। सच तो यह है कि ठीक मंदिर में कपड़े पहनने के लिए जो व्यवस्था थी, वह रेशम की थी। कोई भी कपड़े पहन कर भीतर न चले जाएं। क्योंकि रेशम शरीर की विद्युत को पैदा करने में बड़ा अदभुत है और उसको संरक्षित करने में भी। और कितना ही पहनें, बासेपन का खयाल नहीं पकड़ता। किसी गहरे अर्थ में ताजा बना रहता है।
इस सारी व्यवस्था से अगर कोई मंदिर चलता हो तो वह मंदिर चार्ज्ड, आविष्ट हो जाता है। उसके पास से भी कोई गुजरेगा, तो उस मंदिर का फील्ड पैदा हो जाता है।
महावीर के बाबत कहा जाता है कि महावीर जहां चलते उससे इतनी-इतनी सीमा के भीतर हिंसा नहीं हो सकती थी। वह उनका चार्ज्ड फील्ड था। इतनी-इतनी सीमा के भीतर हिंसा नहीं हो सकती थी। वे जहां से गुजरेंगे तो उनका फील्ड उनके साथ चलेगा। वे चलते हुए मंदिर हैं। तो इतनी सीमा के भीतर कुछ भी हो रहा हो, वह तत्काल बदल जाएगा। पूरा नूह-स्फियर हो जाएगा। तिलार चार्जिन ने नया एक शब्द गढ़ा है: नूह-स्फियर, एटमास्फियर की जगह। एटमास्फियर का तो मतलब होता है वातावरण। नूह-स्फियर को हिंदी में हम कह सकते हैं: विचार-आवरण, मनस-आवरण। एक मन का भी एक आवरण है। उस फील्ड में अब ऐसी घटनाएं नहीं घटतीं।
इसलिए पुराने गुरु के आश्रम में अगर कोई गलत काम हो जाए तो शिष्यों को सजा नहीं दी जाती थी, गुरु अपने को सजा दे देता था। उसका मतलब है कि फील्ड नहीं रहा। इसका कोई कारण नहीं है कि शिष्य को कुछ कहा जाए। व्यर्थ है कहना उसको। उसका मतलब यह है कि गुरु ही नहीं है। नहीं तो एक विशेष सीमा के भीतर तो वह नहीं हो सकता था जो हुआ है। दोष दिए जाने का किसी को कोई कारण नहीं है। उससे गुरु पश्चात्ताप करेगा, तपश्चर्या करेगा, उपवास करेगा, आत्मशुद्धि करेगा।
मगर गांधी जी ने उसको बहुत गलत पकड़ा। वह आत्म-शुद्धि दूसरे के लिए प्रताड़ना नहीं है। वह इसलिए नहीं है कि इस तरह हम अपने को सताएं, तो उससे दूसरे पर दबाव डाल देंगे और उसका अंतःकरण बदल लेंगे। वे समझ नहीं पाए। उनको उसका पता भी नहीं था। वह जो गुरु ऐसा करता था, वह उसको बदलने के लिए नहीं करता था, वह सिर्फ जो फील्ड है उसके आस-पास, उसको बदलने के लिए करता था। और अगर वह फील्ड बदलता है, वह विचार-आवरण बदलता है, तो वह आदमी बदलेगा। वह उसको दबाने के लिए, उसको सताने के लिए--कि मैं अपने को सता रहा हूं तो तू अब बदल! ऐसा उसके अंतःकरण-शुद्धि का सवाल नहीं है। अंतःकरण का सवाल नहीं है, चारों तरफ की हवा बदल जाने की बात है। वह एक मैगनेटिक फील्ड है, जो हर ऐसा व्यक्ति लेकर चलता है।
तो मंदिर...व्यक्ति तो चलते हुए थे। महावीर जैसे व्यक्तियों को हम एक जगह नहीं बिठा सकते। सदा के लिए नहीं बिठा सकते। हमें कुछ ज्यादा स्थिर, जो गांव की जिंदगी का केंद्र बन जाए, जिसके आस-पास गांव बदलता रहे। जिसके आस-पास निरंतर हम कुछ डालते रहें मंदिर में जाकर, और मंदिर से हम लेते रहें। जिसका हमें पता भी न चले, यह सब अनजान चुपचाप होता रहे। मंदिर के पास से निकलें तो कुछ हो जाए। कोई भी निकले मंदिर के पास से तो कुछ हो जाए।
तो एक बहुत मैगनेटिक फील्ड है मंदिर की--बाहर के लिए मैं कह रहा हूं--एक बाहरी प्रयोग के लिए उसको खड़ा किया था। जैसे कि चुंबक के पास लोहा भी आए तो चुंबकीय मालूम पड़ने लगे, और मंदिर के पास कोई आए तो मंदिर उसे घेर ले और छा ले। तो मंदिर का क्षेत्र था।
मूसा के जीवन में उल्लेख है कि जब मूसा पहाड़ पर गया, उसने पहाड़ पर दिव्य अग्नि जलते देखी। एक झाड़ी में आग लगी है। पूरी झाड़ी जलती है, चारों तरफ आग है, फिर भी बीच में झाड़ी में फूल खिले हैं और झाड़ी में हरे पत्ते हैं। मूसा परमात्मा की खोज में है, वह एकदम आगे बढ़ा, तो झाड़ी से जोर से आवाज आई कि नासमझ, जूते सीमा के बाहर छोड़ दे!
सीमा वहां कोई न थी, खुला जंगल था। सीमा वहां कोई न थी, खुला जंगल था; तो मूसा ने चल कर देखा कि सीमा कहां है? और जब उसे अनुभव हो गया कि सीमा यहां है--जहां तक मूसा मूसा रहा, और जहां से एक कदम आगे बढ़ा और उसे लगा कि कुछ बदला--वहां उसने जूते बाहर रख दिए। यह मैगनेटिक फील्ड! उसने जूते बाहर रख दिए और माफी मांगी कि मुझे क्षमा कर देना, मैं पवित्र भूमि में जूता लिए आ गया था।
मंदिर का एक वर्तुल है, उसके अपने आविष्ट क्षेत्र का, जो बहुत जीवंत है। उस जीवंत वर्तुल का पूरे गांव के लिए उपयोग था। और उसने परिणाम लाए थे। हजारों-हजारों साल तक भारत के गांव की जो निर्दोषता और पवित्रता थी, उसके लिए गांव कम जिम्मेवार था, उस गांव का मंदिर आविष्ट था, वही ज्यादा जिम्मेवार था। तो जिस गांव में मंदिर नहीं था, उससे दीन गांव नहीं था। कितना ही गरीब गांव हो, मंदिर तो उसका होना ही था। मंदिर के बिना तो सब अस्तव्यस्त था। हजारों वर्ष तक गांव ने एक तरह की पवित्रता कायम रखी थी। उस पवित्रता के बड़े अदृश्य स्रोत थे। और पूरब की संस्कृति को तोड़ने के लिए जो सबसे बड़ा काम हो सकता था वह मंदिर के आविष्ट रूप को तोड़ देना था। मंदिर का आविष्ट रूप टूट जाए तो पूरब की पूरी संस्कृति का जो आत्मस्रोत है वह बिखर जाता है।
इसलिए मंदिर पर भारी संदेह है। और जो भी पढ़ा-लिखा हुआ थोड़ा, जिसे मंदिर के जीवंत रूप का कोई अनुभव नहीं रहा और जिसने केवल शब्द और तर्क सीखे स्कूल और कालेज में, जिसके पास सिर्फ बुद्धि रही और हृदयगत कोई द्वार न रहा, उसे मंदिर के पास जाकर कुछ दिखाई नहीं पड़ा। उसने कहा, कुछ भी नहीं है। धीरे-धीरे वह मंदिर का अर्थ टूटता चला गया।
भारत पुनः कभी भारत नहीं हो सकता जब तक उसका मंदिर जीवंत न हो जाए--कभी पुनः भारत नहीं हो सकता। उसकी सारी कीमिया, सारी अल्केमी ही मंदिर में थी, जहां से उसने सब-कुछ लिया था। चाहे बीमार हुआ हो तो मंदिर भाग कर गया था, चाहे दुखी हुआ हो तो मंदिर भाग कर गया था, चाहे सुखी हुआ हो तो मंदिर धन्यवाद देने गया था। घर में खुशी आई हो तो मंदिर में प्रसाद चढ़ा आया था; घर में तकलीफ आई हो तो मंदिर में निवेदन कर आया था। सब-कुछ उसका मंदिर था। सारी आशाएं, सारी आकांक्षाएं, सारी अभीप्साएं उसके मंदिर के आस-पास थीं। खुद कितना ही दीन रहा हो, मंदिर को उसने सोने और हीरे-जवाहरातों से सजा रखा था।
आज जब हम सिर्फ सोचने बैठते हैं तो यह बिलकुल पागलपन मालूम पड़ता है कि आदमी भूखा मर रहा है--यह मंदिर को हटाओ, एक अस्पताल बना दो। एक स्कूल खोल दो। इसमें शरणार्थी ही ठहरा दो। इस मंदिर का कुछ उपयोग कर लो। क्योंकि मंदिर का उपयोग हमें पता नहीं है, इसलिए वह बिलकुल निरुपयोगी मालूम हो रहा है, उसमें कुछ भी तो नहीं है। और मंदिर में क्या जरूरत है सोने की, और मंदिर में क्या जरूरत है हीरों की, जब कि लोग भूखे मर रहे हैं!
लेकिन भूखे मरने वाले लोगों ने ही मंदिर में हीरा और सोना बहुत दिन से लगा रखा था। उसके कुछ कारण थे। जो भी उनके पास श्रेष्ठ था वह मंदिर में रख आए थे। क्योंकि जो भी उन्होंने श्रेष्ठ जाना था वह मंदिर से ही जाना था। इसके उत्तर में उनके पास कुछ देने को नहीं था। न सोना कुछ उत्तर था, न हीरे कोई उत्तर थे। लेकिन जो मिला था मंदिर से, उसका हम कुछ और भी तो वहां नहीं दे सकते थे, वहां कुछ धन्यवाद देने को भी नहीं था। तो जो भी था वह हम वहां रख आए थे। अकारण नहीं था वह। लाखों साल तक अकारण कुछ नहीं चलता। इस मंदिर के बाहर ये तो उसके आविष्ट रूप के अदृश्य परिणाम थे, जो चौबीस घंटे तरंगायित होते रहते थे। उसके चेतन परिणाम भी थे। उसके चेतन परिणाम बहुत सीधे-साफ थे।
आदमी को निरंतर विस्मरण है। वह सब जो महान है, विस्मृत हो जाता है; और जो सब क्षुद्र है, चौबीस घंटे याद आता है। परमात्मा को याद रखना पड़ता है, वासना को याद रखना नहीं पड़ता, वह याद आती है। गड्ढे में उतर जाने में कोई कठिनाई नहीं होती, पहाड़ चढ़ने में कठिनाई होती है। तो मंदिर गांव के बीच में निर्मित करते थे कि दिन में दस बार आते-जाते मंदिर किसी और एक आकांक्षा को भी जगाए रखे। और ध्यान रहे, हममें से बहुत कम ऐसे हैं जिनकी आकांक्षा सहज आंतरिक रूप से जगती है। हममें से बहुतों की आकांक्षाएं तो सिर्फ चीजों को देख कर जगती हैं।
अगर हवाई जहाज नहीं था दुनिया में तो आपको हवाई जहाज में उड़ने की कोई आकांक्षा नहीं जगती। हां, किसी राइट ब्रदर को जगती है। वह एकाध आदमी है जो हवाई जहाज बनाता है। उसको जगती है उड़ने की आकांक्षा, तो हवाई जहाज बनाता है। लेकिन आपको कभी नहीं जगती। आप हवाई जहाज देखते हैं तो जगती है। हमें चीजें दिखाई पड़ती हैं तो हमारे भीतर उन्हें पाने की आकांक्षा जगती है।
तो परमात्मा का कहीं न कहीं कोई साकार रूप, जो हमें दिखाई पड़ सके, जो हम अंधों के मन में कहीं प्रवेश कर सके, जो कि निराकार के लिए आतुर नहीं हो सकते। जो हो सकते हैं उनके लिए तो कोई सवाल ही नहीं है। इसलिए जो हो सकते थे उन्होंने कई लिहाज से मंदिर को नुकसान पहुंचा दिया। उसमें भूल हुई। जो हो सकते थे निराकार से आविष्ट, उन्होंने कहा: बेकार है, हटा दो।
मैं खुद ही निरंतर कहा हूं कि बेकार है, हटा दो। लेकिन धीरे-धीरे मुझे खयाल में आया कि यह जो मैं कह रहा हूं, और यह मंदिर हट गया, तो जिनको आकार से कुछ स्मरण नहीं आया उनको निराकार से आ सकेगा? तो कई बार कठिनाई हुई है। महावीर अगर अपनी हैसियत से बोलेंगे तो कहेंगे हटा दो। क्योंकि महावीर को कोई जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन कभी आपका खयाल आ जाए तो इसे रोक लेना पड़ेगा। इसे रोक लेना पड़ेगा। यह आपके लिए चौबीस घंटे आकांक्षा का एक नया स्रोत बना रहता है।
एक और द्वार भी है जीवन में--दुकान और घर ही नहीं, धन और स्त्री ही नहीं--एक और द्वार भी है जीवन में, जो न बाजार का हिस्सा है, न वासना का हिस्सा है; न धन मिलता है वहां, न यश मिलता है वहां, न काम-तृप्ति होती है वहां। एक जगह और भी है, एक जगह और भी है--यह गांव में ही नहीं है, जीवन में एक जगह और है--इसके लिए धीरे-धीरे यह मंदिर रोज आपको याद दिलाता है। और ऐसे क्षण हैं जब बाजार से भी आप ऊब जाते हैं। और ऐसे क्षण हैं जब घर से भी ऊब जाते हैं। तब मंदिर का द्वार खुला है। ऐसे क्षण में तत्काल आप मंदिर में सरक जाते हैं। मंदिर सदा तैयार है।
जहां मंदिर गिर गया वहां फिर बड़ी कठिनाई है, विकल्प नहीं है। घर से ऊब जाएं तो होटल हो सकता है, रेस्तरां हो सकता है। बाजार से ऊब जाएं। पर जाएं कहां? कोई अलग डाइमेन्शन, कोई अलग आयाम नहीं है। बस वही है, वहीं के वहीं घूमते रहते हैं।
मंदिर एक बिलकुल अलग डाइमेन्शन है जहां लेन-देन की दुनिया नहीं है। इसलिए जिन्होंने मंदिर को लेन-देन की दुनिया बनाया, उन्होंने मंदिर को गिराया। जिन्होंने मंदिर को बाजार बनाया, उन्होंने मंदिर को नष्ट किया। जिन्होंने मंदिर को भी दुकान बना लिया, उन्होंने मंदिर को नष्ट कर दिया। मंदिर लेन-देन की दुनिया नहीं है। सिर्फ एक विश्राम है। एक विराम है, जहां आप सब तरफ से थके-मांदे चुपचाप वहां सिर छिपा सकते हैं।
और वहां की कोई शर्त नहीं है कि आप इस शर्त पर आओ--कि इतना धन हो तो आओ, कि इतना ज्ञान हो तो आओ, कि इतनी प्रतिष्ठा हो तो आओ, कि ऐसे कपड़े पहन कर आओ, कि मत आओ। वहां की कोई शर्त नहीं है। आप जैसे हो, मंदिर आपको स्वीकार कर लेगा। कहीं कोई जगह है, जैसे आप हो वैसे ही आप स्वीकृत हो जाओगे, ऐसा भी शरण-स्थल है।
और आपकी जिंदगी में हर वक्त ऐसे मौके आएंगे जब कि जो जिंदगी है तथाकथित, उससे आप ऊबे होंगे, उस क्षण प्रार्थना का दरवाजा खुला है! और एक दफे भी वह दरवाजा आपके भीतर भी खुल जाए तो फिर दुकान में भी खुला रहेगा, मकान में भी खुला रहेगा। वह तत्काल निरंतर पास होना चाहिए, जब आप चाहो वहां पहुंच सको। क्योंकि आपके बीच जिसको हम विराट का क्षण कहें वह बहुत अल्प है। कभी क्षण भर को होता है। जरूरी नहीं कि आप तीर्थ जा सको, जरूरी नहीं कि महावीर को खोज सको, कि बुद्ध को खोज सको। वह इतना अल्प है, उस क्षण बिलकुल निकटतम आपके कोई जगह होनी चाहिए जहां आप प्रवेश कर सकें। स्मृति के भी अदभुत परिणाम हैं। और छोटे बच्चे--और हम सभी छोटे बच्चे थे, और जो भी होगा वह छोटा बच्चा होगा।
वैज्ञानिक कहते हैं कि सात साल में बच्चा करीब-करीब जो भी आधारभूत है, वह सीख लेता है। फिर इसी आधारभूत पर फैलाव हो सकता है। लेकिन नया बहुत कम जोड़ा जाता है। जुड़ता है, उसी में। कुछ नया नहीं जोड़ा जाता। अगर हमने सात साल के बच्चे तक की जिंदगी में मंदिर नहीं जोड़ा, तो आप दुबारा नहीं जोड़ पाएंगे। बहुत कठिन हो जाएगा। बहुत कठिन हो जाएगा, और कितना ही जोड़ने की मेहनत की जाए वह कभी गहरा नहीं हो पाएगा, ऊपर-ऊपर से रह जाएगा।
तो बच्चा पहले दिन पैदा हुआ, और मंदिर। पहली स्मृति हम मंदिर की बनाना चाहते थे। वह मंदिर के पास ही बड़ा हो, वह मंदिर को जानता हुआ बड़ा हो, वह मंदिर को पहचानता हुआ बड़ा हो। मंदिर उसके अंतरंग का हिस्सा बन जाए। जब वह जिंदगी में प्रवेश करे तो उसके भीतर मंदिर की एक जगह बन जाए। क्योंकि अंततः वही जगह उसका विश्रामस्थल बनेगी जीवन के अंत में! सारी दौड़-धूप के बाद वही कोना उसका आखिरी घर और निवास होने वाला है। वह हमें पहले ही बना देना है। एक दफा वह नहीं बना तो फिर बहुत कठिनाई हो जाती है। व्यर्थ की कठिनाई हो जाती है। और जो इतनी सरलता से बन सकता है वह फिर बहुत कठिनता से भी नहीं बन पाता।
वह जगह निर्मित हो जाए। बाहर जो भी लोग जी रहे हैं, मंदिर के प्रतिबिंब उनके चित्त में उतरते चले जाएं। वे उनके अचेतन में इतने गहरे उतर जाएं कि सोच-विचार का भी हिस्सा न रह जाएं, वे उनके हिस्से ही हो जाएं। इसलिए सारी पृथ्वी पर, चाहे रूप कोई भी रहे हों, अलग-अलग रूप रहे, लेकिन मंदिर अनिवार्य था, मनुष्य जिस सभ्यता और संस्कृति में जीया, उसका।
अब हम जो दुनिया बनाने जा रहे हैं उसमें मंदिर अनिवार्य नहीं रह गया है। कुछ और चीजें अनिवार्य हो गई हैं--स्कूल है, अस्पताल है, पुस्तकालय है। पर ये सब अति लौकिक हैं, इनसे कुछ पार का, बियांड का कोई संबंध नहीं जुड़ता है। सदा ही, वह जो अतिक्रमण कर जाता है जीवन का, उसकी तरफ इशारा बना रहे। सुबह हमारी आंख खुलें तो मंदिर की घंटी बजती हुई सुनाई पड़े। रात हम सोने जाते हों तो मंदिर का भजन हमें सुनाई पड़ जाए। हम न भी करें, तो भी मंदिर का भजन हमारे कान में पड़ जाए।
महावीर के जीवन में एक कथा है कि एक आदमी है चोर। मर रहा है, तो अपने बेटे को उसने कहा है...बेटे ने पूछा है कि कोई आखिरी शिक्षा? तो उसने कहा: एक ही शि
क्षा है कि यह जो महावीर नाम का आदमी है इसके पास भी मत खड़े होना। यह अगर तुम्हारे गांव में बोलता हो, दूसरे गांव में भाग जाना। यह अगर रास्ते से गुजरता हो, फौरन गली-कूचे में कहीं भी निकल कर छिप जाना। अगर पता न चले और तुम ऐसी जगह पहुंच जाओ जहां उसकी आवाज सुनाई पड़ रही हो, फौरन अपने कान बंद करके, आंख बंद करके दौड़ आना। इस आदमी से बचना।
उस चोर के लड़के ने कहा: लेकिन इतना डरने की इस आदमी से क्या जरूरत है?
उसने कहा: मैं तुमसे कहता हूं, वह मानो। ऐसे आदमियों के पास गए तो अपना धंधा सदा खतरे में है, फिर हम नहीं जी सकते। इनसे बचना।
फिर बड़ी मजेदार कथा है। वह बचता रहा जिंदगी भर। भागता रहा, जहां महावीर आएं वह वहां से भाग जाता। लेकिन एक दिन कुछ भूल-चूक हो गई। एक रास्ते से गुजरता था, आम्रवन में महावीर बैठे थे, उसे कुछ पता न था। बोल नहीं रहे थे, जब वह आया था पास तब बोल नहीं रहे थे, अचानक उन्होंने बोलना शुरू किया तो एक आधा वाक्य उसको सुनाई पड़ गया। तब उसने कान बंद किए और भागा। लेकिन आधा वाक्य सुनाई पड़ गया। अब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। आधा वाक्य!
पुलिस उसके पीछे थी, राज्य उसके पीछे था, कोई दस-पंद्रह दिन बाद वह पकड़ा गया। लेकिन इतना कुशल चोर था, पीढ़ी दर पीढ़ी का उसका धंधा था। इतना कुशल चोर था कि राज्य के पास कोई भी प्रमाण न थे। जाहिर था सब कि चोर वही है, जाहिर था बड़ी चोरियां उसी ने की हैं। सबको पता था। इसमें छिपा भी कुछ न था, जाहिर रहस्य था। लेकिन फिर भी प्रमाण कुछ न थे; कुशल ऐसा था। लोगों के घरों में खबर करके चोरी कर लेता था, पर प्रमाण नहीं थे कोई। तो सिवाय इसके कोई रास्ता नहीं था कि कोई प्रमाण उससे ही निकलवाए जाएं।
तो उसे गहरा नशा करके बेहोश किया, इतना बेहोश रखा उसे दो-तीन दिन, बिलकुल होश में नहीं आने दिया। दो-तीन दिन के बाद वह होश में आया। उसने आंख खोलीं, तो तीन दिन की बेहोशी, खुमारी। देखा चारों तरफ, अप्सराएं खड़ी हैं। उसने पूछा: मैं कहां हूं?
तुम मर गए हो और तुम्हें स्वर्ग या नरक ले जाने की तैयारी की जा रही है। हम सिर्फ ले जाने वाले हैं। तुम होश में आ जाओ, इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो तुमसे पूछ लें। अगर तुमने जो-जो पाप किए हैं वह तुम कह दो, तो स्वर्ग जा सकते हो, और न कहो तो नरक। सत्य बोल दो, बस इतना काफी पुण्य है।
उसका मन हुआ कि बोल दे सत्य, स्वर्ग जाने का मौका न चूके। और जब मर ही गया तो अब क्या डर है? लेकिन तभी उसे महावीर का वह आधा वचन याद आया। जब वह गुजर रहा था उस वक्त महावीर कुछ देवताओं और प्रेतों के संबंध में बोल रहे थे। मृत्यु के पार जो यम ले जाते हैं उनके संबंध में कुछ इशारे थे। आधा ही वाक्य उसने सुना था। उसमें महावीर कह रहे थे कि वे जो ले जाते हैं मृत्यु के बाद, उनके पैर उलटे होते हैं।
तो उसने उनके पैर देख लिए, वे सब तो सीधे थे। वह सजग हो गया। उसने कहा कि इस झंझट में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। सजग हो गया और समझ गया कि यह कुछ गड़बड़ मामला है। होश आ गया उस बात का। उसने कुछ कहा नहीं। उसने कहा कि पाप तो कुछ किए नहीं, तो वक्तव्य क्या दूं! नरक ही ले चलो। पाप मैंने कुछ किए नहीं तो नरक तुम ले जाओगे कैसे?
वह सब योजना व्यर्थ हो गई। वह भागा हुआ महावीर के पास पहुंचा, जाकर उनका पैर पकड़ लिया और कहा कि पूरा वाक्य करो, आधे वाक्य ने बचा लिया। अब तुम्हारा पूरा वाक्य सुन लूं। मैं तो भाग रहा था। आधा ऐसे ही सुन लिया था भागते-भागते। उसने बचा ली जिंदगी, नहीं तो फांसी लग गई होती! अब तुम पूरा कह दो, क्या कहना है। नहीं तो फांसी कभी न कभी लगेगी। अब मैं आ गया तुम्हारी शरण में!
तो महावीर अक्सर कहा करते थे कि आधा वाक्य भागते हुए जबरदस्ती सुना गया भी कभी काम का हो जाता है।
तो मंदिर के पास से कभी भागता हुआ आदमी भी, ऐसे अकारण गुजरता हुआ आदमी भी, कभी उसके भीतर से उठती हुई ध्वनि को, कभी उसके भीतर से आती सुगंध को ऐसे ही सुन ले, तो भी काम आ सकती है।

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