BUDDHA

Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 86

EightySixth Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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मग्गानट्ठंगिको सेट्ठो सच्चानं चतुरो पदा।
विरागो सेट्ठो धम्मानं द्विपदानंच चक्खुमा।।225।।

एसोव मग्गो नत्थञ्ञो दस्सनस्स विसुद्धिया।
एतं हि तुम्हे पटिवज्जथ मारस्सेतं पमोहनं।।226।।

एतं हि तुम्हे पटिपन्ना दुक्खस्संतं करिस्सथ।
अक्खातो वे मया मग्गो अञ्ञाय सल्लसंथनं।।227।।

तुम्हेहिकिच्चं आतप्पं अक्खातारो तथागता।
पटिपन्ना पमोक्खंति झायिनो मारबंधना।।228।।
आदमी बड़ा जटिल है। बदलने की घड़ी भी आ जाए तो ऊपर से बदल जाता है और भीतर की बदलाहट बचा जाता है।
कबीर ने कहा है, मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा।
कपड़े को रंग लेना तो आसान है। असली बात तो मन को रंगने की है। कपड़े का रंग जाना मन के रंगने की खबर हो तब तो ठीक, शुभ। और कपड़े का रंग जाना मन को रंगने से बचने का उपाय हो, तो बहुत खतरनाक। इससे तो बेहतर था जैसे थे वैसे ही रहते, कम से कम धोखा तो न होता। प्रार्थना की घड़ी आती है तो आदमी मंदिर चला जाता है। ऊपर-ऊपर की प्रार्थना कर लेता है, भीतर हृदय पिघलता ही नहीं। इससे तो बेहतर था प्रार्थना न करते। पीड़ा तो रहती कि प्रार्थना नहीं की। अब प्रार्थना भी कर ली और प्रार्थना हुई भी नहीं, ऐसी जटिलता है।
मन जो आखिरी धोखा देता है आदमी को, वह यही है कि तुम्हें समझा देता है कि लो देखो, अब और क्या करना है, पूजा भी कर ली, प्रार्थना भी कर ली, मंदिर भी हो आए, कपड़े भी रंग लिए, संसारी थे संन्यासी हो गए, अब और करने को क्या बचा! ऊपर-ऊपर के फर्क से कुछ होता नहीं। परिधि को कितना ही रंगो, जब तक केंद्र न रंग जाए तब तक क्रांति नहीं होती। तुम्हारा असली चेहरा तो वही का वही रहता है, ऊपर से मुखौटे पहन लेते हो। आदमी की यह जटिलता धीरे-धीरे दूसरों को धोखा देने से पैदा हुई है। जब तुम दूसरों को धोखा देते हो और बहुत कुशल हो जाते हो, तो एक दिन तुम अपने को भी धोखा दे लेते हो।
इसीलिए शास्ताओं ने कहा है, दूसरों को धोखा मत देना। क्योंकि दूसरों को धोखा देने का अंतिम परिणाम एक ही होगा कि तुम अपने को भी धोखा दे लोगे। बेईमानी में इतने निष्णात हो जाओगे कि अंततः जो गड्ढा तुमने दूसरों के लिए खोदा है, वह तुम्हारी ही कब्र बनेगा। ऐसा ही हो रहा है। तुम दूसरे से झूठ बोलकर सच को छिपा लेते हो। एक दिन तुम पाओगे, तुमने अपने से झूठ बोलकर सच को छिपा लिया। तुम झूठ बोलने में इतने पारंगत हो गए, अपने से ही झूठ बोल रहे हो और पकड़ नहीं पाते। तुम्हारी बेईमानी इतनी कुशल हो गयी, इतनी कलात्मक हो गयी कि अब तुम खुद भी न पकड़ पाओगे कि कैसे और कब तुमने अपने को धोखा दे दिया।
आज के सूत्र इस संदर्भ में ही हैं। पहले तो संदर्भ को समझ लें। सूत्र-संदर्भ--
सूरज ढला, एक दिवस और बीत गया। रात्रि उतरने लगी, रात के पहले तारे आकाश में उभर आए। शांत है विहार और शीतल समीर बह रहा है। भगवान जेतवन में ठहरे हैं। उनके साथ पांच सौ भिक्षु भी ठहरे हैं।
ये पांच सौ भिक्षु आसनशाला में बैठे हुए बातचीत कर रहे हैं, गपशप कर रहे हैं। आश्चर्य कि उनकी बातचीत और साधारणजनों जैसी ही है। उनकी बातें सुनकर तय करना कठिन है कि वे संसारी हैं या संन्यासी हैं। उनकी चर्चा-वार्ता के विषय अंतर्यात्रा के विषय ही नहीं हैं। जैसे वे अभी भी बहिर्यात्रा में ही संलग्न हों।
भगवान मौन बैठे उनकी बातें सुन रहे हैं। चकित हैं और करुणा से भरे हुए भी। हैरान हैं और उनके प्रति बड़ी दया का भाव भी है। वे तो शायद अपनी बातों में इतने तल्लीन हैं कि भगवान को भूल ही गए हैं। भगवान को भूलना कितना आसान, याद रखना कितना कठिन है! भगवान पास भी मौजूद हों तो भी भूलना आसान। भगवान सामने बैठे हों तो भी भूलना आसान। भिक्षु अपनी बातों में इतने तल्लीन हैं कि उन्हें याद ही नहीं रही कि भगवान भी पास बैठे सुन रहे हैं। उनका विस्मरण हो गया है।
कोई कह रहा है, अमुक गांव का मार्ग बड़ा सुंदर है, अमुक गांव का मार्ग बड़ा खराब है। अमुक मार्ग पर कंकड़-पत्थर हैं, कांटे हैं, अमुक मार्ग बड़ा साफ-सुथरा है। अमुक मार्ग पर छायादार वृक्ष हैं, स्वच्छ सरोवर भी हैं; और अमुक मार्ग बहुत रूखा-सूखा है, उससे भगवान बचाएं।
भिक्षु हैं, पर्यटन करना होता है, अलग-अलग मार्गों पर चलना होता है, गांव-गांव भटकना होता है, तो बात चल रही है कि कौन से मार्ग जाने योग्य हैं, कौन से मार्ग जाने योग्य नहीं हैं।
और कोई कह रहा है कि फलां नगर का राजा अदभुत है, बड़ा दानी है। उस नगर का सेठ भी सच्चा सेठ है--श्रेष्ठी ही है।
सेठ शब्द आया है श्रेष्ठ से। उस धनी को ही श्रेष्ठ कहते थे, सेठ कहते थे, जो दानी हो।
तो भिक्षु कह रहे हैं, राजा भी अदभुत, उस नगर का जो नगरसेठ है, नगरश्रेष्ठी है, वह सच में ही श्रेष्ठ है। और फलां नगर का राजा भी कंजूस, उसका नगरसेठ भी कंजूस, उसकी जनता भी कंजूस, वहां तो भूलकर कोई पैर न रखे। उन्होंने तो इस धर्म का नाम ही नहीं सुना है। उस नगर में तो दान की कोई आशा ही न रखे। अपना भिक्षापात्र भी चोरी न जाए तो बहुत; समझो कि तुम भाग्यवान हो। अपने चीवर बचाकर निकल आए उस गांव से तो समझो प्रभु की बड़ी कृपा है। दान देने वाले जैसे अब रहे ही नहीं। और दान को सभी शास्ताओं ने धर्म का मूल कहा है।
और कोई अन्य कह रहा है, सुंदर स्त्री-पुरुष देखने हों तो उस-उस राज्य में जाओ। शेष जगहों पर तो हीन, कुरूप स्त्री-पुरुषों के समूह मात्र हैं, जमघट मात्र हैं, भीड़-भाड़ है।
भगवान ने यह सब सुना। चौंके भी, हंसे भी। उन भिक्षुओं को पास बुलाया और बोले--भिक्षुओ, बाह्यमार्गों की बातें करते झिझकते नहीं? भिक्षु होकर भी बाहर के मार्गों की बात करते हो! अंतर्मार्ग की सोचो, भिक्षुओ! समय थोड़ा और करने को बहुत कुछ शेष है। इन्हीं बाह्यमार्गों पर जन्म-जन्म भटकते रहे हो, अभी भी थके नहीं? और भी भटकना है? बाह्यमार्गों में कैसा सौंदर्य! और बाह्यमार्गों में कैसी छाया! और बाह्यमार्गों पर कैसे सरोवर! सौंदर्य तो है आर्यमार्ग में। सौंदर्य तो है अंतर्मार्ग में। छाया भी वहीं है, सरोवर भी वहीं है। शरण ही खोजनी हो तो वहीं खोजो। वहीं मिटेगी प्यास, वहीं मिटेगी तपन, वहीं मिटेगी भूख, और कहीं नहीं। भिक्षु को आर्यमार्ग में ही रहना चाहिए, क्योंकि वही दुख-निरोध का मार्ग है।
और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं।
पहले तो इस कहानी के एक-एक हिस्से को खूब गहरे हृदय में उतर जाने दें, तो गाथाएं समझ में आ जाएंगी।
सूरज ढल गया; एक दिवस और बीत गया।
संन्यासी यदि सच में संन्यासी है, तो मौत करीब आ गयी, मौत और करीब आ गयी, उसे और सजग हो जाना चाहिए। एक दिन हाथ से और जा चुका और अभी तक कुछ विशिष्ट हुआ नहीं--ध्यान नहीं हुआ, समाधि नहीं लगी, अभी तक करुणा का दीया नहीं जला, एक दिन और गया। और कौन जाने कल सुबह हो, न हो; यह रात आखिरी हो। अगर कोई सच में संन्यस्त है, तो ये घड़ियां व्यर्थ की बातों में गंवाने की नहीं।
सूरज ढल गया है, ऐसे ही एक दिन हम ढल जाएंगे। हर ढलते सूरज के साथ हम ढल रहे हैं। हर संध्या हम और थोड़े कम हो गए। इधर दिन बीतते हैं, उधर हमारे जीवन की ऊर्जा चुकती जाती है। बूंद-बूंद करके एक दिन जीवन समाप्त हो जाएगा। संसारी व्यर्थ की बातें सोचे, समझ में आता है; लेकिन संन्यस्त! संन्यस्त को तो एक ही बात महत्वपूर्ण है कि मृत्यु है और जीवन को अभी तक मैंने जाना नहीं। संन्यासी के सामने तो एक ही सवाल है, एक ही चुनौती है कि मौत पास आ रही है और जीवन से मेरा अभी तक परिचय नहीं हुआ। जीवन क्या है, अभी मैं उत्तर देने में समर्थ नहीं। मैं कौन हूं, अब तक साक्षात्कार नहीं हुआ। ये घड़ियां, बीतती घड़ियां ऐसे व्यर्थ गंवाने को नहीं हैं।
सूरज ढल गया है। एक दिवस और बीत गया!
रात्रि उतरने लगी, ऐसे ही एक दिन मौत उतर आएगी। रोज उतरती रात्रि अंततः आने वाली मौत की खबर लाती है। अंधेरा उतरने लगा। ऐसे ही एक दिन महा अंधकार उतर आएगा। तुम आए भी, गए भी, और तुम्हारे जीवन में कुछ भी न हुआ! जैसे आए वैसे चले गए! खाली हाथ आए, खाली हाथ चले गए! कूड़ा-करकट बटोरा भी तो वह सब पड़ा रह जाएगा।
तो संसारी और संन्यासी में फर्क होगा। हर दृष्टि से फर्क होगा। एक ही जगह खड़े हों भला दोनों, एक ही ढलते सूरज को देखते हों, लेकिन संन्यासी कुछ और देखेगा और संसारी कुछ और देखेगा।
एक रात ऐसा हुआ। बुद्ध ने अपना प्रवचन दिया। अपने प्रवचन के बाद वह रोज ही कहते थे, अब जाओ, रात्रि का अंतिम कार्य कर डालो। लेकिन उस दिन संयोग की बात, भिक्षुओं में और भी लोग आए थे सुनने। एक चोर भी आया था, एक वेश्या भी आयी थी। यह जो बुद्ध कहते थे कि अब रात्रि का अंतिम काम कर डालो, वह था ध्यान में उतर जाना। क्योंकि बुद्ध कहते थे, पता नहीं कल सुबह हो या न हो। मौत तुम्हें ध्यान में पाए। नींद तुम्हें ध्यान में पाए, क्योंकि नींद छोटी मौत है। नींद रोज-रोज मौत का ही तो स्वाद है। ऐसे ही तो एक दिन मौत में लीन हो जाओगे; जैसे रोज नींद में खो जाते हो।
और देखा तुमने, नींद में तुम्हारा बाहर का संसार पड़ा रह जाता है--न तो याद रहती है कि तुम गरीब हो, न याद रहती कि तुम अमीर हो, न याद रहती कि पढ़े-लिखे कि अपढ़, न याद रहती कि ज्ञानी कि पंडित, न याद रहती कि बच्चे कि जवान कि बूढ़े, कि स्त्री कि पुरुष, न याद रहती सुंदर, असुंदर, कुछ भी याद नहीं रह जाता। यही याद नहीं रह जाती कि मेरा नाम क्या, पता-ठिकाना क्या! बाहर का सब नींद में ही पड़ा रह जाता है, तो मौत की तो बात ही क्या कहनी है! तो हर रोज नींद आती, मौत की खबर लेकर आती। छोटी-छोटी मौत का अनुभव लाती।
तो बुद्ध कहते थे, रात सोने के पहले, रोज रात मरने के पहले ध्यान में उतर जाओ। कौन जाने सुबह हो या न हो! मौत तुम्हें ध्यान में पाए। तो जीवन रूपांतरित हो जाएगा। तो फिर दुबारा जन्म न होगा। अब इसको रोज-रोज कहना पड़ता था, इसलिए उन्होंने यह एक प्रतीक बना लिया था कि भिक्षुओ, अब जाओ और रात्रि का अंतिम कार्य कर डालो।
भिक्षु तो उठकर ध्यान करने चले गए। चोर चौंका, उसने कहा, रात हो गयी काफी, ठीक ही कहते हैं कि जाऊं अपने काम में लगूं। चोरी उसका काम था। और वेश्या ने सोचा कि ठीक ही कहते हैं भगवान, इनको पता कैसे चला कि वेश्यागिरी मेरा काम है और रात आ गयी है, अपने काम में लगूं!
एक ही वचन बोला था बुद्ध ने कि रात आ गयी, नींद करीब आ रही है, अब जाओ अपना आखिरी काम कर डालो। जिन्हें ध्यान करना था वे ध्यान करने चले गए, जिन्हें चोरी करना था वे चोरी करने चले गए, जिन्हें वेश्यागमन करना था वे वेश्यागमन करने चले गए; जो वेश्या थी उसने अपनी दुकान खोल ली, चोर अपने काम पर निकल गया--एक ही वचन, लेकिन अर्थ अनेक हो गए।
सूरज ढलता है। आंख तो वही खबर लाती है, लेकिन भीतर की चेतना अलग-अलग व्याख्या करती है।
सुना है मैंने, दो आदमी एक झील के किनारे खड़े थे। पूरे चांद की रात थी, चांद ऊपर उठा था, झील में चांद चमक रहा था। एक आदमी कवि था और एक कबाड़ी था। कबाड़ी ने ऐसा झील में गौर से देखा और कहा कि अरे, एक जूता पड़ा मालूम पड़ता है, और एक टीन का डिब्बा भी पड़ा है। और उस कवि ने तो अपने सिर में हाथ मार लिया। उसने कहा, चांद पड़ा है इस झील में, तुझे चांद नहीं दिखायी पड़ता! आकाश उतरा है इस झील में, तुझे आकाश दिखायी नहीं पड़ता। तुझे दिखायी पड़ रहा एक जूता और एक टीन का डिब्बा!
कबाड़ी यानी कबाड़ी। चांद दिखे उसे, जिसके पास चांद को देखने की चेतना हो। जिसके पास थोड़ी काव्य की क्षमता हो। जिसके हृदय में थोड़ा सौंदर्य का बोध हो। कबाड़ी को! कबाड़ी को चांद नहीं दिख सकता। कहावत है तिब्बत में कि चोर, जेबकट अगर संत के पास भी जाए तो उसकी नजर संत की जेब पर होती है--चाहे जेब खाली ही क्यों न हो--संत पर नजर नहीं पड़ती। हम वही देखते हैं जो हम हैं। हम वैसा ही देखते हैं जो हम हैं।
सूरज ढल गया।
तो बुद्ध चाहते कि इस अपूर्व घड़ी को, सूरज के ढलने की घड़ी को उनके संन्यासी, उनके भिक्षु शांत, मौन बैठकर अपने जीवन के ढलने के प्रवाह को देखें इस घड़ी में। तुम जानकर जरूर चकित होओगे कि इस देश में हमने सदा से प्रार्थना को संध्या का नाम दिया है। क्यों दिया है?
संध्या प्रार्थना का क्षण है। एक दिन बीत गया; और एक रात आ गयी। एक और दिवस गया भीड़-भाड़ का, उपद्रव का, कर्म का, आपाधापी का; और एक छोटी मौत द्वार पर खड़ी है। इन दोनों के बीच प्रार्थना कर लो। संध्या का अर्थ है, दिवस और रात्रि के बीच के क्षण। ये क्षण प्रार्थना बन जाएं। इसलिए धीरे-धीरे इस देश में तो संध्या शब्द ही प्रार्थना का पर्यायवाची हो गया।
ऐसे ही सुबह। रात बीत गयी, एक मौत गयी, फिर तुम उठे, आपाधापी की दुनिया फिर शुरू होगी। यह जो रात और दिन के बीच का थोड़ा सा काल है, यह संध्या, यह जो मध्य की संधि--संधि से बना संध्या--यह जो बीच का थोड़ा सा अंतराल है, इस बीच के अंतराल, इस बीच की संधि का उपयोग कर लो।
और इसका बड़ा बहुमूल्य अर्थ है। जब तुम्हारा चित्त जागरण से नींद में उतरता है, या नींद से जागरण में आता है, तो जैसे गाड़ी में गियर बदलते हैं, ठीक ऐसी ही घटना घटती है। एक क्षण को जब तुम गियर बदलते हो, एक गियर से दूसरे गियर में कार को डालते हो, तो एक क्षण को कार किसी भी गियर में नहीं रह जाती--न्यूट्रल से गुजरती है। ठीक ऐसे ही जब दिन भर बीत गया और दिन भर की चेतना शांत होने लगी और रात की चेतना उठने लगी, तो एक क्षण को न तुम जागे होते, न तुम सोए होते--एक क्षण को जरा सी संधि है, उस संधि में तुम देह के भीतर ही नहीं होते। उस संधि में तुम अपने स्वभाव में होते हो।
काश, उस संधि को तुम जागकर देख लो तो संध्या हो गयी। उस संधि को तुम ठीक से पहचान लो तो तुम मुक्त हो जाओगे। रोज आती यह घड़ी और रोज हम चूकते चले जाते हैं। जन्मों-जन्मों से आती यह घड़ी और हम चूकते चले जाते हैं। हमारे चूकने में हमारी कुशलता अपूर्व है।
सूरज ढल गया; एक दिवस और बीत गया। रात्रि उतरने लगी, रात के पहले तारे उभर आए। शांत है विहार।
संध्या हो गयी तो पक्षी भी चुप हो गए, वृक्ष भी सोने की तैयारी करने लगे। आदमी पक्षियों और वृक्षों से भी गया-बीता है। पक्षियों ने भी पंख सिकोड़ लिए, अपने-अपने घोंसलों में दुबककर बैठ गए। रात की तैयारी होने लगी। वृक्षों ने भी अपने पत्ते ढीले छोड़ दिए, फूल बंद हो गए, मौत का इंतजाम होने लगा। लेकिन आदमी है कि लगा है। अगर संसारी हो तो ठीक, क्षमा कर दो। लेकिन संन्यासी भी लगा है, व्यर्थ की बातों में लगा है। शांत थे ये क्षण, शीतल समीर बह रहा था, इस मौके का तो उपयोग कर लेना चाहिए।
सोचो उस घड़ी को, उस दृश्य को आंखों में बन जाने दो, उस दृश्य में थोड़ी देर जीओ, तो ही ये सूत्र जीवित हो पाएंगे; तो ये गाथाएं पुनरुज्जीवित हो जाएंगी। तब तुम इन्हें ऐसे ही सुन पाओगे जैसे तुम मौजूद रहे होओ। यही मैं चाहता हूं कि तुम फिर मौजूद हो जाओ उस जगह। सांझ, पहले तारे निकलने लगे, रात उतरने लगी, शीतल हवा बहती, पशु-पक्षी सब शांत हो गए, वृक्षों ने भी अपनी आंखें बंद कर लीं, सोने की तैयारी करने लगे। और ये भिक्षु, और भगवान की मौजूदगी--फिर भी संध्या में न उतरे, फिर भी प्रार्थना में न उतरे। ये संसारी ही थे, इन्होंने चीवर पहन लिए थे भिक्षु के; इन्होंने गैरिक वस्त्र धारण कर लिए थे; इन्होंने दुकानदारी छोड़ दी थी, मगर ऊपर-ऊपर छूटी थी, भीतर दुकानें खुली थीं।
मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा
कपड़े रंग लिए थे, मन नहीं रंगा था। तो तुम किसको धोखा दे रहे हो? तुम अपने को ही धोखा दे रहे हो।
भगवान जेतवन में ठहरे हैं। पांच सौ भिक्षु आसनशाला में बैठे हुए बातें कर रहे हैं।
पहली तो बात भिक्षुओं को मौन होना चाहिए। जहां तक बन सके, मौन होना चाहिए; जितना बन सके, मौन होना चाहिए। जितनी घड़ियां मौन में बीत जाएं, उतना शुभ। पहली तो बात, बात भिक्षुओं को करनी नहीं चाहिए, जब तक कि अनिवार्य न हो जाए। भिक्षुओं को मितभाषी होना चाहिए। टेलीग्रैफिक, जितने शब्द बिलकुल जरूरी हों, बस उतने ही बोलने चाहिए, उससे ज्यादा नहीं।
तुम टेलीग्राम देने जाते न पोस्ट आफिस, तो कितना सोच-विचार करते हो! क्योंकि दस शब्द ही भेजने हैं। सब काट-छांट कर देते हो, जो-जो बेकार शब्द हैं, निकाल देते हो; दस शब्द बना लेते हो। यही तुम पत्र लिखने बैठते हो तो फिर फिक्र नहीं करते, दस पेज लिख डालते हो। और तुमने एक चमत्कार की बात देखी कि दस शब्दों वाले तार का जो प्रभाव होता है, वह दस पेज वाले पत्र का नहीं होता। मामला क्या है? व्यर्थ शब्दों में सार्थक शब्द भी खो जाते हैं। व्यर्थ शब्दों को काट दो तो सार्थक में एक ज्योतिर्मयता आ जाती है, एक गहराई आ जाती है, एक प्रगाढ़ता आ जाती है।
भिक्षु को तो मितभाषी होना चाहिए। उसको तो एक-एक शब्द तौलकर बोलना चाहिए। उसे तो एक-एक शब्द में त्वरा, अपने प्राण डालने चाहिए। भिक्षु अनावश्यक नहीं बोलेगा। एक शब्द नहीं बोलेगा, एक विराम चिह्न नहीं लगाएगा अनावश्यक। जितना अत्यंत जरूरी है, बस उतना। और उसी घड़ी रुक जाएगा।
तो पहली तो बात, ये भिक्षु बैठे हैं आसनशाला में, पांच सौ भिक्षु, बातें कर रहे हैं। बाजार पैदा कर दिया होगा! पांच सौ लोग बातें कर रहे हों, तो बाजार हो गया होगा! ये बाजार में ही रहे हैं अब तक। भिक्षु भी हो गए हैं, लेकिन बाजार छूटता नहीं। बाजार इनके साथ चला आया है, बाजार इनके हृदय में बैठा है।
बाहर भागने से कुछ भी नहीं होता है जब तक भीतर रूपांतरण न हो। भाग जाओ हिमालय पर, करोगे क्या? हिमालय की गुफा में बैठकर भी सोचोगे अपनी दुकान की ही बात। सोचोगे तो वही तुम जो हो। इसलिए असली सवाल कहीं जाने का नहीं है, असली सवाल तो भीतर से दृष्टि-रूपांतरण का है, चित्त के बदलाहट का है, बोध के नए करने का है।
बातें कर रहे हैं, यह बात ही नहीं जंचती। और फिर बुद्ध की मौजूदगी में! चलो अकेले होते, बुद्ध मौजूद न होते और ये बातें करते, तो भी चलता; क्षम्य थे। आखिर आदमी हैं। कभी-कभी बात करने का मन इनका भी हो जाता है। भिक्षु हैं तो भी क्या, आदमी आखिर आदमी है। बतियाना चाहता है, सुख-दुख कहना चाहता है। लेकिन बुद्ध की मौजूदगी में! जहां बुद्ध मौजूद हों, वहां एक अपूर्व प्रसाद बरस रहा है; तुम अपनी बकवास में उस प्रसाद से वंचित रह जाओगे। वहां बुद्ध बरस रहे हैं और तुम किसी और काम में लगे हो!
बुद्ध की मौजूदगी में तो सब काम रुक जाने चाहिए। तुम्हारे चित्त के सब व्यापार रुक जाने चाहिए। तुम्हारा हृदय तो सिर्फ बुद्ध के लिए खुला होना चाहिए। बुद्ध की मौजूदगी में तो वैसा ही होना चाहिए, जैसा तुमने सूरजमुखी का फूल देखा है न! जिस तरफ सूरज होता है उसी तरफ घूम जाता है। शिष्य को तो गुरु की तरफ सूरजमुखी का फूल जैसा हो जाना चाहिए।
इन्होंने तो पीठ कर दी! ये तो भूल ही गए, इन्हें तो याद ही न रहा, ये तो अपनी बातचीत में इतने तल्लीन हो गए; बातचीत ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी, बुद्ध कम महत्वपूर्ण हो गए, बातचीत के धुएं में बुद्ध की ज्योति खो गयी। इन्होंने बातों का इतना धुआं खड़ा कर दिया, इतने बादल खड़े कर दिए कि इन्हें याद ही न रहा कि ये किसकी मौजूदगी में हैं! ये कहां बैठे हैं! संन्यासी को स्मरण होना चाहिए। नहीं तो संन्यास कैसा!
आश्चर्य कि उनकी बातचीत और साधारणजनों जैसी ही है। उनकी बातचीत को सुनकर यह तय करना कठिन है कि वे संसारी हैं या संन्यासी हैं।
वही व्यर्थ की बातें। किस गांव में लोग सुंदर हैं और किस गांव में लोग सुंदर नहीं हैं। और किस गांव में दान मिलता है और किस गांव में दान नहीं मिलता। और कौन से रास्ते पर छायादार वृक्ष हैं और कौन से रास्ते पर छायादार वृक्ष नहीं हैं। वही साधारण पृथकजन की बातचीत, भीड़ की बातचीत; वही सुख-दुख की कथा, वही रोना, जो सब तरफ चल रहा है।
उनकी चर्चा-वार्ता के विषय अंतर्यात्रा के विषय ही नहीं हैं।
पहले तो बात करनी ही नहीं चाहिए। फिर करनी ही हो तो बात का लक्ष्य अंतर्यात्रा होनी चाहिए। पूछते एक-दूसरे से कि भिक्षु, कैसा तुम्हारा ध्यान चलता? पूछते एक-दूसरे से कि तुम्हारे आस्रव रुक रहे कि नहीं? पूछते एक-दूसरे से, अहिंसा का जन्म हो रहा है या नहीं? कहते अपनी बात कि चलता हूं बहुत, लेकिन चूक-चूक जाता हूं, विचार बाधा डालते हैं, शांति खंडित हो जाती है, एकाग्र बैठ नहीं पाता, चित्त यहां-वहां छिछल-छिछल जाता है, पारे की भांति है, जितना पकड़ता हूं उतना ही बिखर जाता है। भीतर की कुछ बात होती, भीतर की यात्रा के लिए एक-दूसरे को कुछ सहयोग देने की बात होती, तो समझ में आती थी। तो पता चलता कि ये अंतर्यात्रा के पथिक हैं।
लेकिन उनकी चर्चा के विषय अंतर्यात्रा के विषय नहीं। वस्तुतः ऐसा लगता है कि अभी भी उनकी बहिर्यात्रा चल रही है। क्योंकि जो तुम्हारे चित्त में चल रहा है, वही तुम्हारी यात्रा है। तुम कहां बैठे हो, इससे फर्क नहीं पड़ता; मंदिर में कि मस्जिद में, इससे फर्क नहीं पड़ता; कृष्ण के साथ कि क्राइस्ट के साथ, कि बुद्ध के कि महावीर के साथ, इससे फर्क नहीं पड़ता; तुम्हारे भीतर जो चल रहा है, वही तुम्हारी यात्रा है। तुम भीतर क्या सोच रहे...।
तुम यहां बैठे हो, तुम भीतर क्या सोच रहे, वहीं तुम हो। यहां होना तो तुम्हारा फिर बहुत स्थूल होना है। हुए न हुए, बराबर है। तुम्हारे भीतर जो चल रहा है, वही तुम्हारी स्थिति है; उस पर ही ध्यान रखना, वहां बहिर्यात्रा बंद होनी चाहिए। बहिर्मुखता बंद होनी चाहिए।
भगवान मौन बैठे उनकी बातें सुन रहे हैं। चकित हैं!
चकित हैं कि मैं यहां देने को मौजूद, मगर ये लेने को तैयार नहीं! चकित हैं कि मैं बरस रहा इनके ऊपर, लेकिन इनके मटके उलटे रखे हैं! कि मैं इन्हें भरे दे रहा हूं, लेकिन इनकी मटकियों में छिद्र हैं, वह सब बहा जा रहा है। कि मैं रोज-रोज इन्हें जगा रहा हूं और ये रोज-रोज सोए जा रहे हैं। ये और तो किस चीज के प्रति जागरूक होंगे, ये मेरी मौजूदगी के प्रति भी जागरूक नहीं हैं!
चकित हैं और करुणापूर्ण भी।
दया भी है कि बेचारे, संन्यस्त होकर भी संन्यासी हुए नहीं! संन्यस्त होकर भी संसारी ही बने हैं! तो दया तो आएगी, करुणा तो आएगी। निंदा नहीं है--किसी सदगुरु के मन में कभी निंदा नहीं होगी। जब तुम भूल भी करते हो, तब भी उसके हृदय में दया होती है। जब तुम उसके विपरीत भी जाते हो, तब भी तुम्हारे लिए प्रार्थना करता है। जब तुम उससे शत्रुता साध लेते हो, तब भी उसकी अनुकंपा में कोई भेद नहीं पड़ता।
वे तो शायद अपनी बातों में इतने तल्लीन हैं कि भगवान को भूल ही गए हैं। भगवान को भूलना कितना आसान, याद रखना कितना कठिन है!
लोग कहते हैं, भगवान को जानना है। लोग कहते हैं, भगवान कहां है? लोग कहते हैं, भगवान दिखला दो, दर्शन करा दो। लेकिन भगवान अगर तुम्हारे सामने भी खड़ा हो तो तुम दर्शन न कर पाओगे, तुम्हारी आंखें बंद हैं। भगवान तुम्हारे कानों के पास चिल्लाए-चीखे, तो तुम सुन न पाओगे, तुम्हारे कान बंद हैं। तुम्हारे भीतर इतना शोरगुल है! तुम अपने शोरगुल को सुनोगे कि भगवान की आवाज सुनोगे! उसकी आवाज बड़ी धीमी है। भगवान चिल्लाता नहीं, फुसफुसाता है। उसकी आवाज में आक्रमण नहीं है। उसकी आवाज एक धीमे स्वर की भांति है, शून्य स्वर की भांति है; संगीत की एक तरंग की भांति है। तुम जब तक शांत न हो जाओ तब तक तुम उस तरंग को न पकड़ पाओगे। जब तुम शांत हो जाओगे तभी तुम पकड़ पाओगे। और शांत होते ही तुम हैरान होओगे कि हम कहां खोजते फिरते थे, उसने तो हमें चारों तरफ से घेरा हुआ है; उसके अतिरिक्त कोई और है ही नहीं।
लेकिन यह तो बड़ी दूर की बात हो गयी कि वृक्ष में तुम्हें किसी दिन भगवान दिखायी पड़े। बुद्ध में नहीं दिखायी पड़ता, कृष्ण में नहीं दिखायी पड़ता, कबीर में नहीं दिखायी पड़ता, नानक में नहीं दिखायी पड़ता, यह तो बहुत दूर की बात हो गयी कि पत्थर में दिखायी पड़े।
अब देखो, आदमी कैसा अदभुत है! मंदिर में पत्थर की मूर्तियां बनाकर बैठा है। तुम्हें जीवित मौजूद कोई हो तो दिखायी नहीं पड़ता, पत्थर की मूर्ति में कैसे दिखायी पड़ेगा! तुम्हें चलता-फिरता हंसता हुआ भगवान भी दिखायी नहीं पड़ता; बोलता, जागता, श्वास लेता भगवान दिखायी नहीं पड़ता; पत्थर की मूर्ति में कैसे दिखायी पड़ेगा! पत्थर की मूर्ति में तो अंतिम रूप से दिखायी पड़ सकता है--जब सब जगह दिखायी पड़ गया तब दिखायी पड़ सकता है। पत्थर की मूर्ति यात्रा का प्रारंभ नहीं हो सकती, यात्रा का अंत भले हो।
कोई कह रहा है, अमुक गांव का मार्ग बड़ा सुंदर है, अमुक गांव का मार्ग बहुत खराब है--वहां भूलकर मत जाना--अमुक मार्ग पर कंकड़-पत्थर हैं, कांटे हैं, छाया भी नहीं है और सरोवर भी नहीं हैं। अमुक मार्ग बड़ा साफ-सुथरा है, बड़े छायादार वृक्ष हैं वहां, स्वच्छ सरोवर भी हैं।
बुद्ध सुनते हैं, चौंकते हैं। सोचते होंगे कि मैं तो सोचता था, ये अब भीतर के मार्ग की बात शुरू करेंगे, ये अभी भी बाहर के मार्गों की सोच रहे हैं!
सूखे मार्गों से कुछ नहीं मिलता, छायादार मार्गों से भी कुछ नहीं मिलता। बाहर के सब मार्ग भटकाते हैं; कोई मार्ग पहुंचाता नहीं। और बाहर के सरोवरों से कहीं प्यास बुझी है, जीवन की तृष्णा बुझी है! जितना पीओ उतनी प्यास बढ़ती है। और बाहर के वृक्षों से किसी को छाया मिली है? जब तक कोई अपने अंतरतम की छाया में न बैठ जाए तब तक कोई छाया नहीं है। तब तक सब धोखा है। बाहर तो प्रपंच है, माया है, बाहर तो समय को काटने और भुलाने के उपाय हैं, बाहर उपलब्धि नहीं है। बाहर तो खोना ही खोना है। खोना हो तो बाहर जाना। पाना हो तो भीतर आना।
और कोई कह रहा है, फलां नगर का राजा बड़ा श्रेष्ठ; उस नगर का नगरश्रेष्ठी भी वस्तुतः श्रेष्ठ है। कारण! कारण यही कि वे दान देते हैं। और कहने वाला यह भी कह रहा है कि और दूसरे गांव भी हैं, वहां भूलकर मत जाना; वहां का राजा महाकंजूस, महाकृपण, वहां का नगरसेठ कृपण, इतना ही नहीं वहां की प्रजा भी बड़ी कृपण है--जैसा राजा वैसी प्रजा। वहां से तो अपना भिक्षापात्र भी बचकर लौट आए तो बहुत। चोरी हो जाने का डर है। चीवर भी चोरी चला जाएगा।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन गांव का काजी हो गया था। पहला ही मुकदमा आया। एक आदमी को गांव के बाहर लूट लिया गया था। वह आदमी भागा हुआ आया, उसने कहा कि महानुभाव, आपके गांव के बाहर मैं लूट लिया गया, सब लूट लिया गया। मेरी पोटली ले ली गयी, मेरी पोटली में रुपए थे वह ले लिए गए, मेरा घोड़ा भी छुड़ा लिया; यही नहीं, मेरे कोट-कमीज, मेरी धोती भी उतार ली; बहुत लुटेरे देखे हैं, मगर यह भी कोई लूट हुई! सिर्फ अंडरवियर पहने था।
मुल्ला ने उसका अंडरवियर देखा और कहा, अंडरवियर नहीं छीना? उसने कहा कि नहीं। उन्होंने कहा, तो फिर वे किसी और गांव के रहे होंगे। इस गांव में तो जो भी काम हम करते हैं, पूरा ही करते हैं। तू दूसरे गांव में जाकर अपनी फरियाद कर। यह मेरे गांव का मामला हो ही नहीं सकता।
तो भिक्षु कह रहे थे, कुछ ऐसे भी गांव हैं जहां अपनी वस्तुएं बचाकर लौट आओ...ज्यादा उनके पास है भी नहीं; तीन चीवर होते थे भिक्षु के पास, भिक्षापात्र होता था, इतनी उसकी पूंजी थी।
मगर यह बड़े मजे की बात है कि पूंजी कम हो कि ज्यादा हो, इससे लगाव में कोई फर्क नहीं पड़ता। जिसके पास महल है, वह महल न खो जाए इससे डरता है। और जिसके पास लंगोटी है, वह लंगोटी न खो जाए इससे डरता है। जहां तक खोने के भय का संबंध है, दोनों का भय बराबर होता है। इसमें जरा भी फर्क नहीं होता। तुम्हारे पास लाख रुपए हैं तो तुम उतने ही भयभीत होते हो, तुम्हारे पास एक रुपया है तो भी तुम उतने ही भयभीत होते हो। वह एक रुपया खो जाए तो तुम्हारी पूरी संपदा गयी, लाख खो जाएं तो उसकी पूरी संपदा गयी, भय बराबर है।
इसलिए खयाल रखना, यह मत सोचना कि तुमने महल छोड़ दिया और कुटिया में रहने लगे, तो तुम्हारी संपत्ति पर मोह की स्थिति कम हो गयी। इससे कुछ फर्क न पड़ेगा। वह मोह जो महल पर लगा था, झोपड़ी पर लग जाएगा। तिजोड़ी छोड़ दी और लंगोटी हाथ में रह गयी, तो जो तिजोड़ी पर लगा था वह लंगोटी पर लग जाएगा। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे पास कितनी चीजें हैं। चीजों की संख्या से तुम्हारे परिग्रह का कोई संबंध नहीं, परिग्रह तो भाव की दशा है। परिग्रह से मुक्ति तो समझ से होती है कि मेरा यहां कुछ भी नहीं है, ज्यादा से ज्यादा मैं उपयोग कर सकता हूं, फिर सब पड़ा रह जाएगा। परिग्रह का छुटकारा वस्तुओं के छोड़ने से नहीं होता।
अब ये भिक्षु सब छोड़कर आ गए हैं। इनमें बहुत बड़े-बड़े घरों के लोग थे। क्योंकि बुद्ध खुद राजा के बेटे थे तो राजपरिवारों के लोग उत्सुक हुए। स्वाभाविक। बुद्ध का संबंध राजपरिवारों से था, मित्रता राजपरिवारों से थी, राजकुमारों के साथ पढ़े-लिखे बड़े हुए थे, उनका संपर्क देश के श्रेष्ठतम वर्ग से था, संपन्नतम वर्ग से था। तो जब बुद्ध संन्यस्त हुए, तो इस देश का जो श्रेष्ठतम संपन्न वर्ग था, उसके बेटे-बेटियां बुद्ध के साथ चल पड़े। स्वाभाविक। अब रैदास के साथ कोई राजा नहीं हो जाता संन्यासी! रैदास के साथ चमार ही संन्यासी होते हैं। स्वाभाविक।
बुद्ध जब संन्यस्त हो गए तो एक लहर फैली, एक हवा फैली। बुद्ध का जिनसे संबंध था, वे भी चल पड़े। बड़े घरों से लोग आए थे, सब छोड़कर आए थे, न मालूम कितना धन, न मालूम कितना पद छोड़कर आए थे, लेकिन एक-एक चीवर के लिए लड़ने लगे। एक-एक चीवर को बचाकर रखने लगे। रात अपना चीवर टटोलकर देख लेते थे कि कोई चुराकर तो नहीं ले गया। अपने भिक्षापात्र पर ऐसा मोह करने लगे कि जैसे यह कोई साम्राज्य हो। आदमी अदभुत है। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा आंगन कितना बड़ा है। छोटा हो तो उसमें तुम उतने ही लग जाते हो, बड़ा हो तो उतने ही लग जाते हो। इसलिए बड़े आंगन और छोटे आंगन की चिंता मत करना, चित्त को बदलना।
फिर वह भिक्षु कह रहा था, दान देने वाले अब रहे ही नहीं। अब कहां वे पुराने दिनों की बातें। वह स्वर्णयुग अब न रहा, जब लोग देना जानते थे! और सभी शास्ताओं ने दान देने को धर्म का मूल कहा है।
अब यह भी समझने जैसी बात है। शास्ताओं ने धर्म को दान के साथ पर्यायवाची कहा है, निश्चित कहा है, लेकिन इसका मतलब बड़ा अनूठा लिया लोगों ने। तुम भी देखते न, भिखारी द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है। वह कहता है, धर्म का मूल दान, लोभ पाप का बाप बखाना; दो, क्योंकि देना धर्म का मूल है। अगर दो तो धार्मिक, अगर न दो तो अधार्मिक।
मैंने सुना है, एक गांव में एक महाकंजूस था। उसने कभी किसी को दान न दिया। एक मंदिर बन रहा था; तो लोगों ने सोचा कि चलो, एक बार और कोशिश कर लें, आखिरी कोशिश है यह, अब दुबारा इसके घर कभी न जाएंगे। कभी उसने किसी को दिया ही न था। फिर भी एक कोशिश कर लेनी जरूरी है। एक और कोशिश सही! एक आखिरी प्रयत्न!
वे गए। उन्होंने बड़ी दान की महिमा समझायी। और वह थोड़े-थोड़े प्रभावित भी हुए, प्रसन्न भी हुए, प्रफुल्लित भी हुए, क्योंकि कंजूस उत्सुक दिखायी पड़ रहा था। उसकी आंखों में थोड़ा भाव मालूम हो रहा था। उन्हें लगा कि शायद आज जो कभी नहीं हुआ, हो जाएगा। कंजूस को बहुत प्रभावित देखकर उन्होंने कहा कि अब बोलिए, आप कितना दान देते हैं? आप उत्सुक भी दिखायी पड़ रहे हैं, हम धन्यभागी! कंजूस ने कहा, दान! नहीं-नहीं, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं। तुम्हारी बात से मैं उत्सुक हो गया, प्रभावित हो गया, मैं भी अब दान ही मांगूंगा; ये फिजूल की बातें, दूसरा काम क्यों करना! जब दान इतनी बड़ी बात है, तो क्या दुकानदारी में पड़े रहना, अब मैं भी दान ही मांगूंगा।
दान को धर्म का मूल कहा था भिखमंगों के लिए नहीं। यह तो कुछ उलटी बात हो गयी। जिनके पास है, वे देने में राजी हों, इसके लिए कहा था। जिनके पास नहीं है, वे छीनने को तत्पर हो जाएं, इसके लिए नहीं कहा था। देने का एक मजा हो--जरूर दान धर्म है, क्योंकि देने में धर्म है; जो हो, देना। लेकिन भिखारियों ने इसको अपना शास्त्र बना लिया।
इस देश में जो इतने भिखारी पैदा हो गए, उसका कारण यही। उन्होंने कहा कि देना पड़ेगा ही, क्योंकि दान तो धर्म है। नहीं दिया तो पापी हो, नर्क में सड़ोगे। देखते हो न, अगर भिखारी को न दो तो वह गालियां देता जाता है। वह नरक में भेजने का उपाय करता जाता है। और बिलकुल आश्वस्त है कि तुम नरक में पड़ोगे। उसने तुम्हें एक मौका दिया था दान देने का।
यह तो कुछ उलटी बात हो गयी। धर्म के साथ अक्सर ऐसा हुआ है। कहा कुछ जाता है, हो कुछ जाता है, उलटा हो जाता है। कहा था कि देने वाला दे, यह तो लेने वाला लेने को उत्सुक हो गया। यह बात की उलटी परिणति हो गयी।
भिक्षु बड़े उत्सुक हैं। जहां दान मिलता है, कहते हैं, वहां श्रेष्ठजन; और जहां दान नहीं मिलता, वहां अश्रेष्ठजन। लेकिन उनकी नजर क्या है? तुम्हारी नजर में भी धन का ही मूल्य है। जो दे देते हैं, वे श्रेष्ठ; और जो नहीं देते हैं, वे श्रेष्ठ नहीं। तो तुम ऊपर से लगते हो कि धन को छोड़ आए, लेकिन धन को अभी छोड़ा नहीं।
देखते हैं न, किसी महात्मा का व्याख्यान चल रहा हो और कोई धनपति आ जाए तो व्याख्यान भी बीच में रुक जाता है। वह कहता है, आइए सेठ जी, आइए, बैठिए!
मैं छोटा था तो मेरे गांव में कोई भी महात्मा आए तो मैं सुनने जाता था। यह बात देखकर मैं बड़ा हैरान हुआ कि एक बात में सब महात्मा राजी थे कि गांव के जो सेठ थे, बड़े सेठ, वह कभी भी समय पर तो आते नहीं थे, बड़े आदमी कहीं समय पर आते हैं। जब सब आ जाते, महात्मा भी बोलना शुरू कर देते--उन्हीं का मंदिर था वह, उसी में महात्मा ठहरते, उन्हीं का भोजन करते--महात्मा बोलना शुरू कर देते तब वह आते, कभी पंद्रह मिनट बाद, कभी बीस मिनट बाद, महात्मा तत्क्षण रुक जाते, कहते, आइए, सेठ जी आइए!
मैं एक दफे उनके मंदिर में सुनने गया था, ब्रह्मचर्चा चल रही थी, और एकदम सेठ जी बीच में आ गए, तो महात्मा जी ने कहा, आइए सेठ जी, आइए, बैठिए! मैं खड़ा हुआ, मैंने कहा कि मैं कुछ समझा नहीं, मालूम होता है ब्रह्म से भी कोई बड़े आ गए। यह ब्रह्म की चर्चा चल रही थी, यह सेठ जी कौन हैं! और सेठ का यहां बीच में आने का प्रयोजन क्या है? और तुम्हें यह देखने की जरूरत क्या है कि कौन आदमी बीच में आया? पीछे आए हैं तो बैठेंगे। लेकिन आगे बुलाकर बिठाना, बोलने को रोक देना, यह मेरी समझ में नहीं आता। यह किस तरह की ब्रह्मचर्चा चल रही है!
लेकिन ऐसा ही चलता है। जिनको तुम महात्मा कहते हो, उनका ध्यान भी धन पर ही लगा है। धन है तो मूल्य है, धन नहीं है तो निर्मूल्य हो गया सब।
ये भिक्षु भी दान की ही बात सोच रहे हैं। जो दान देते हैं, वे श्रेष्ठ। जो इन्हें देते हैं, वे श्रेष्ठ। जो नहीं देते, वे अश्रेष्ठ। यह कोई कसौटी नहीं हो सकती। और इस कसौटी से सिर्फ एक ही बात पता चलती है कि इनका मन अभी भी धन में उलझा है।
और कोई अन्य कह रहा था, सुंदर स्त्री-पुरुष देखने हों तो उस-उस राज्य में जाओ।
सारी शिक्षा यही है कि मनुष्य देह नहीं है। अब देह में सौंदर्य और असौंदर्य की बात सोचना बड़ी साधारणजन की बात है। मनुष्य के भीतर जो है, वह निराकार है, अरूप है, निर्गुण है। उसकी तलाश में आए हैं। लेकिन नजर अभी भी चमड़ी पर लगी है। कौन सुंदर? कौन असुंदर? तो अभी भी सपनों में खोए हैं। अभी भी कुछ अंतर नहीं पड़ा है, अभी भी संसार चल रहा है। ठीक अपनी जगह चल रहा है।
भगवान ने यह सब सुना। स्वभावतः चौंके! उन भिक्षुओं को पास बुलाया और बोले--भिक्षुओ, बाह्यमार्गों की बातें करते झिझकते नहीं?
शर्म नहीं आती? संकोच नहीं होता? लज्जा नहीं लगती? थोड़ा सोचो, क्या तुम कह रहे हो? किसलिए कह रहे हो? क्योंकि जो भी कहा जाता है उसके भीतर कारण है। अकारण कुछ भी नहीं है। तुमने अगर कहा कि सुंदर स्त्री-पुरुष, तो तुम्हारे भीतर अभी भी रूप की वासना है। तुमने अगर कहा, धन देने वाले, दान करने वाले श्रेष्ठ पुरुष, तो तुम्हारे भीतर धन की अभी भी कामना है। और तुमने कहा, छायादार वृक्ष, साफ-सुथरे रास्ते, सरोवरों से भरे हुए मार्ग, तो तुम्हारे भीतर अभी भी सुविधा का आग्रह है। और सुविधा या सौंदर्य या संपत्ति, इनको मूल्य न देने के लिए ही तो तुम संन्यस्त हुए हो, कि इनको अब मूल्य नहीं देना है। अब किसी और बड़े मूल्य को खोजना है, परम मूल्य को खोजना है। इनकी तरफ पीठ करो, अब अपने घर की तरफ चलो।
अंतर्मार्ग की सोचो, भिक्षुओ!
सोचना ही हो, विचार ही करना हो, तो उस भीतर के पथ का विचार करो, एक-दूसरे को सहयोग दो। जो जहां तक बढ़ गया है, वहां तक की बात बताए कि दूसरे भी वहां तक बढ़ सकें। जो जहां अटक गया है, अपने अटकन की बात बताए कि शायद कोई सहारा दे सके। चर्चा करो, ताकि तुम सहयोगी हो जाओ। अकेले जाने में कठिनाई है, इसीलिए तो भिक्षुओं का संघ बुद्ध ने बनाया था, कि जहां अकेले न जा सको, वहां सब संग-साथ चलो।
कभी-कभी ऐसा हो जाता है, अकेले जाना कठिन होता है, दूसरों के सहारे की जरूरत पड़ती है। कोई भूल तुम से हो रही है, दूसरे से नहीं हो रही, वह तुम्हें सम्हाल दे सकता है। कहीं तुम फिसलने लगो तो कोई तुम्हारा हाथ पकड़ ले सकता है। कहीं तुम गिर पड़ो तो कोई दो मित्र तुम्हें उठा ले सकते हैं। यह भिक्षुओं का संघ इसलिए है कि तुम एक-दूसरे के संगी-साथी बनो भीतर की यात्रा में।
यहां तो कुछ उलटा हो रहा है। तुम तो बाहर की यात्रा की बातें कर रहे हो, और इतने रस से कर रहे हो! और संकोच भी नहीं, और लज्जा भी नहीं; और शर्म भी नहीं लगती तुम्हें? तुम तो ऐसे मौज से कर रहे हो जैसे तुम कुछ गलत कर ही नहीं रहे।
अंतर्मार्ग की सोचो, भिक्षुओ! समय थोड़ा और करने को बहुत कुछ शेष है।
समय ज्यादा नहीं है। कब दीया बुझ जाएगा, नहीं कहा जा सकता। कब हवा का झोंका आएगा और तुम विदा हो जाओगे, नहीं कहा जा सकता। लहर की भांति है यह जीवन। अभी है, अभी नहीं है। इसलिए एक क्षण भी खोने जैसा नहीं है। एक क्षण भी गंवाने जैसा नहीं है। सारे समय को, जितना समय मिला है, अंतर्यात्रा पर समर्पित कर दो।
इन्हीं बाह्यमार्गों पर जन्म-जन्म भटकते रहे, अभी भी थके नहीं?
इतना तो चल चुके हो इन रास्तों पर, इतना तो सौंदर्य देखा, इतने तो स्त्री-पुरुष देखे, इतने तो धन-पद देखे, अभी तक थके नहीं? अभी भी इन्हीं का सपना चल रहा है? और छोड़ चुके तुम इन्हें। छोड़कर आए हो, फिर भी इन्हीं की सोच रहे हो?
मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया। संन्यस्त होने आया। फकीर की कुटी में प्रवेश करके उसने चरणों में सिर झुकाया और कहा कि प्रभु, मुझे स्वीकार करें, मैं सब छोड़कर आ गया हूं। और उस फकीर ने कहा, झूठ मत बोल! वह युवक तो बहुत चौंका। और उस फकीर ने कहा, पीछे देख, पूरी भीड़ अपने साथ ले आया है। उस युवक ने तो डरकर पीछे भी देखा, वहां तो कोई भी न था। फकीर ने कहा, वहां नहीं, भीतर। और तब उस युवक ने आंख बंद की, और देखा कि निश्चित, वहां सब खड़े हैं। मित्र, प्रियजन, पत्नी, बच्चे, जिनको वह गांव के बाहर छोड़ आया, जो गांव के बाहर तक उसे छोड़ने आए थे, वे सब खड़े हैं। पंक्तिबद्ध। शरीर से तो आ गया है, मन से अभी वहीं अटका है। गुरु ने ठीक कहा, बिलकुल ठीक कहा कि यह भीड़-भाड़ छोड़कर आ। यह भीड़-भाड़ न चलेगी यहां। अकेला होकर आ।
संन्यास का अर्थ ही यह होता है, अकेले होने में जिसे मजा आ गया। भीड़ से जो थक चुका है, व्यर्थ से जो ऊब चुका है, संसार से जो भर चुका है। देख लिया सब, सब तरफ से देख लिया, उलट-पलट कर देख लिया, कुछ नहीं पाया, खाली है। ऐसा रिक्त संसार को देखकर जो आ गया, फिर वह ऐसी बातें करेगा? ऐसी बातें तो फिर संभव न रह जाएंगी। ये बातें तो बड़ी सूचक हैं।
तो बुद्ध कहते हैं, इन्हीं मार्गों पर चलते-चलते जन्म-जन्म बीत गए, अभी तक थके नहीं? और भी भटकना है?
क्योंकि जो सोचोगे, तो फिर भटकोगे। पहले तो विचार पैदा होता है, फिर कृत्य बन जाता है। खयाल रखना, कोई भी कृत्य अचानक पैदा नहीं होता। पहले तो विचार का बीज पड़ता है। फिर विचार का बीज धीरे-धीरे मजबूत होकर जड़ें जमाता है, फिर अंकुरण होता है, फिर कृत्य बन जाता है। अभी सोच रहे हो धन के संबंध में, फिर आज नहीं कल धन के पीछे दौड़ने लगोगे। अभी सोच रहे हो सुंदर स्त्री-पुरुष के संबंध में, लेकिन कब तक रुकोगे? यह विचार अगर गहन होता गया, तो कृत्य में परिणित होगा ही।
इसलिए अगर कृत्य से बचना हो तो विचार से बचना होता है। सभी विचार अंततः कृत्य में रूपांतरित हो जाते हैं। और कृत्य को बदलना बहुत कठिन है, विचार को छोड़ देना बहुत सरल है, क्योंकि विचार छोटा है।
ऐसा समझो कि एक बीज, वटवृक्ष का बीज कितना छोटा सा होता है। अगर वटवृक्ष का बीज तुम्हारे आंगन में पड़ा हो तो इसको फेंक देने में क्या अड़चन है! जरा बुहारी मार दी, बाहर हो जाएगा। लेकिन वटवृक्ष पैदा हो जाए, फिर बुहारी मारने से कुछ भी न होगा। फिर तो बड़ा आयोजन करना होगा, तब कहीं यह वटवृक्ष निकलेगा। क्रेन लानी पड़ेगी, या लकड़हारे लाने पड़ेंगे, इसे काटना पड़ेगा, तब कहीं यह दूर होगा। और ये जो भीतर कृत्य के वृक्ष बड़े हो जाते हैं, इनकी जड़ें तुम्हारे प्राणों में फैल जाती हैं। ये तुम्हारे चित्त को सब तरह से आच्छादित कर लेते हैं। इनको उखाड़ना अपने को तोड़ने जैसा होता है--बड़ा पीड़ादायी है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, क्या अभी और भटकने का मन है? ये विचार तो सांकेतिक हैं, ये तो खबर दे रहे हैं कि अभी भटकने की और इच्छा बनी है। ऐसा लगता है, भिक्षुओ, तुम कच्चे ही संन्यस्त हो गए, तुम पके नहीं थे। तुम्हारा मन अभी वहीं अटका है। ऐसा लगता है, तुम किसी लोभ में आ गए। तुमने मेरी बात सुनी, तुम प्रभावित हो गए। तुमने छोड़ दिया, लेकिन तुम्हें बात समझ में नहीं आयी थी। तुम्हारे जीवन में अभी प्रौढ़ता नहीं आयी थी।
अभी और भटकना है? बाह्यमार्गों में कैसा सौंदर्य! बाह्यमार्गों में कैसी छाया! बाह्यमार्गों पर कैसे सरोवर!
बुद्ध की सारी चेष्टा, पूरे जीवन--कोई बयालीस वर्ष बोधि के बाद वे लोगों को समझाते रहे--अथक, सारा एक ही प्रयास कि किसी तरह लोग अपने भीतर आ जाएं; किसी तरह उन्हें स्वयं का दर्शन हो जाए। एक ही संदेश हजारों ढंग से दिया, एक ही बात हजारों ढंग से कही, सार तो इतना ही है कि अपने भीतर आ जाओ। इसलिए कोई भी अवसर चूके नहीं। कोई भी अवसर हो, उन्होंने उसको ही मौका बना लिया।
यह अवसर था। भिक्षु बात कर रहे थे, उन्होंने इसको ही अवसर बना लिया। यही एक उपाय बन गया।
कहा कि बाहर के मार्गों में कैसा सौंदर्य!
बाहर के तो सभी मार्ग कंटकाकीर्ण हैं। भिक्षु कुछ और कह रहे थे, बुद्ध ने उस कुछ को उपयोग कर लिया। कहा, बाहर के मार्गों में कैसा सौंदर्य! बाहर के तो सभी मार्ग असुंदर हैं, क्योंकि बाहर के सभी मार्ग अंततः नर्क में ले जाते हैं, दुख में ले जाते हैं। जो दुख में ले जाए, वह कैसे सुंदर!
और बाहर के मार्गों में कैसी छाया!
क्योंकि बुद्ध कहते हैं, मैंने तो बाहर के मार्गों पर चलते लोगों को सिर्फ जलते पाया है। कैसी छाया! तुम बातें कैसी कर रहे हो! बाहर के मार्गों पर मैंने लोगों को भटकते पाया, पसीने से तरबतर पाया, जलते पाया, लपटों में घिरा पाया, पीड़ा में पाया, संताप और चिंता में पाया।
बाहर के मार्गों पर कैसी छाया! और बाहर के मार्गों पर कैसे सरोवर!
किसी को कभी तृप्त होते देखा है? किसी की प्यास बुझते देखी है? सिकंदर की नहीं बुझती जिसके पास सब है, सम्राटों की नहीं बुझती जिनके पास सब है। बुद्ध यह कह रहे हैं कि मेरी नहीं बुझी थी, मेरे पास सब था। मैं पागल थोड़े ही कि उस सबको छोड़कर चला आया! देखा कि नहीं बुझती।
बाहर के मार्गों पर सरोवर नहीं हैं। बाहर के मार्गों पर तो ऐसी ही स्थिति है कि जितना प्यास को बुझाने की कोशिश करो, उतना और आग में घी पड़ता है, उतनी और प्यास भभकती है।
सौंदर्य तो है आर्यमार्ग में।
बुद्ध अंतर्मार्ग को आर्यमार्ग कहते हैं। आर्य का अर्थ होता है, श्रेष्ठ। जो श्रेष्ठ हैं, वे भीतर की तरफ जाते हैं; जो निकृष्ट हैं, वे बाहर की तरफ जाते हैं। आर्यमार्ग का अर्थ होता है, जिनके पास बुद्धिमत्ता है वे भीतर की तरफ जाते हैं, जो बुद्धिहीन हैं वे बाहर की तरफ जाते हैं। स्वभावतः, बुद्धिहीन ही बाहर की तरफ जाएगा, क्योंकि बाहर से कुछ मिलता तो नहीं है, सिर्फ भटकावा और भटकावा। मिलता तो भीतर है।
तो ऐसा ही समझो कि कोई आदमी कंकड़-पत्थरों को बीनता रहे, तो उसको तुम बुद्धू ही कहोगे न! जिनसे कुछ भी न मिलेगा। कोई मधुमक्खी कंकड़-पत्थरों पर बैठी रहे और सोचे कि मधु मिल जाएगा, तो पागल कहोगे न! फूलों पर मिलता है मधु। ऐसे ही भीतर है आनंद। वह फूल तुम्हारे भीतर है, जहां तुम्हारे जीवन का मधु संचित है। तुम्हारा भौंरा जब भीतर उड़ेगा, भीतर गुनगुन करेगा और भीतर के कमल पर बैठेगा, तब तुम भरोगे रस से, तब रसधार बहेगी।
तो बुद्धिमान तो भीतर की तरफ जाता, बुद्धिहीन बाहर की तरफ जाता। इसलिए भीतर की यात्रा को बुद्ध कहते हैं, आर्यमार्ग। श्रेष्ठजन का मार्ग। यहां आर्य से आर्यजाति का कोई संबंध नहीं है, यहां आर्य से श्रेष्ठ शब्द का प्रयोजन है।
छाया है आर्यमार्ग में, सरोवर भी वहीं है, वहीं शरण खोजो। वहीं मिटेगी प्यास, और कहीं नहीं। भिक्षु को आर्यमार्ग में ही लगना चाहिए, क्योंकि वहीं दुख-निरोध है, वहीं दुख-निरोध का मार्ग है।
बुद्ध की सारी उपदेशना कैसे दुख निरुद्ध हो जाए, इसकी है। इस संबंध में एक बात समझ लेनी जरूरी है, इसके पहले कि हम सूत्रों में प्रवेश करें।
वेदांत आनंद की बात करता है, उपनिषद आनंद की बात करते हैं, वेद आनंद के गीत गाते हैं। लेकिन बुद्ध आनंद की बात नहीं करते। बुद्ध दुख-निरोध की बात करते हैं। यह बात बड़ी बहुमूल्य है। बुद्ध कहते हैं, आनंद की तो बात करने की जरूरत ही नहीं है। बस तुम दुख पैदा करने के आयोजन छोड़ दो, आनंद तो पैदा हुआ ही है। आनंद तो तुम्हारा स्वभाव है। आनंद तो तुम लेकर ही आए हो। आनंद तो है ही, आनंद को पाना थोड़े ही है, इसलिए उसकी क्या बात करनी! सिर्फ दुख न रह जाए तो आनंद घट जाता है, घटा ही हुआ है।
तो इसलिए बुद्ध का पूरा मार्ग निषेध का मार्ग है, नकार का मार्ग है। सिर्फ उतनी बातें तुम हटा दो जिनसे दुख पैदा होता है और अचानक तुम पाओगे कि आनंद मौजूद था, दुख पैदा होने के कारण दिखायी नहीं पड़ता था। दुख के जाते ही सब तरफ आनंद ही आनंद के दर्शन हो जाएंगे, सब तरफ आनंद की धार बहने लगेगी।
बुद्ध क्यों आनंद की सीधी बात नहीं करते? वह कहते हैं, आदमी बड़ा नासमझ है। तुम जब आनंद की बात करते हो कि ब्रह्म आनंद है, सच्चिदानंद है, तो आदमी सोचता है, चलो आनंद को पाने की कोशिश करें। वह दुख को मिटाने की कोशिश तो करता ही नहीं, आनंद को पाने की कोशिश में लग जाता है। और आनंद मिलता नहीं दुख को मिटाए बिना। तो दुख को तो वह भूल ही जाता है, दुख की तो बात ही नहीं करता है, दुख के रास्ते पर तो चलता ही रहता है और आनंद की वासना करने लगता है कि आनंद कैसे मिले? कारण बने रहते बीमारी के और वह स्वास्थ्य की कामना करने लगता है।
तुम चिकित्सक के
पास जाते हो, चिकित्सक तुम्हारे स्वास्थ्य की बात ही कहां करता है! वह तो यही कहता है, कौन सी बीमारी? चिकित्सा करता है बीमारी की, स्वास्थ्य की तो कोई चिकित्सा होती ही नहीं। स्वास्थ्य जैसी कोई चीज डाक्टर की पकड़ में ही नहीं आती। जब बीमारी सब समाप्त हो जाती है तो तुम्हारे भीतर स्वास्थ्य का आविर्भाव होता है। स्वास्थ्य लाया नहीं जा सकता, सिर्फ बीमारी हटायी जा सकती है। इसलिए बीमारी का निदान है, इसलिए बीमारी का इलाज है।
तो बुद्ध तो कहते हैं, मैं चिकित्सक हूं। उनकी पकड़ बड़ी वैज्ञानिक है। वह कहते हैं, ये-ये बीमारियां हैं, इन-इन बीमारियों को हटा देना है, यह रही औषधि। बीमारी हट जाएगी, घटेगा स्वास्थ्य, आनंद प्रकट होगा। ऐसा ही समझो कि एक झरना है पानी का और एक चट्टान उसके मार्ग पर अड़ी है। चट्टान हटा दो, झरना बह उठेगा। चट्टान मत हटाओ और बैठकर करो पूजा और प्रार्थना कि झरना बहे, झरना नहीं बहेगा।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि उसी चट्टान पर बैठकर तुम पूजा कर रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो कि हे प्रभु, झरना बहे। और उसी चट्टान पर बैठे हो। वह चट्टान हटे तो झरना अपने आप बहे। बिना किसी प्रार्थना के बहेगा।
इसलिए बुद्ध ने प्रार्थना को तो मार्ग ही नहीं कहा। बुद्ध ने तो कहा, सिर्फ ध्यान। चट्टान हट जाती है, विचार की चट्टान हट जाती है ध्यान से, विचार की बीमारी हट जाती है ध्यान की औषधि से; विचार कट गया ध्यान से, तुम निर्विचार हुए कि बस तत्क्षण झरना बह उठता है। रस बहेगा, उसकी बात ही नहीं करनी। बात करने में खतरा है। बात की कि आदमी में वासना उठती है। और खतरा यह है कि वासना के कारण ही तो आदमी आनंद को नहीं उपलब्ध कर पा रहा है। निर्वासना में आनंद है। फिर किसी के मन में आनंद की वासना उठ गयी तो उसी से बाधा पड़ जाएगी। मोक्ष की कोई कामना नहीं हो सकती। क्योंकि सभी कामनाएं सांसारिक हैं। मोक्ष की कामना भी सांसारिक है। कामना मात्र संसार है।
इसलिए मोक्ष की बुद्ध बात नहीं करते हैं। उनकी बात बड़ी वैज्ञानिक है, वे कहते हैं, दुख-निरोध। इससे ज्यादा मत पूछो। इतना कर लो, फिर आ जाना। इतना हो जाने दो, फिर पूछ लेना। इतना जिसका हो जाता है वह पूछता ही नहीं, वह आनंद में डूब जाता है, वह अपरिसीम आनंद में डूब जाता है। फिर पूछने-पाछने की बात ही नहीं रह जाती।
अब सूत्र--
मग्गानट्ठंगिको सेट्ठो सच्चानं चतुरो पदा।
विरागो सेट्ठो धम्मानं द्विपदानंच चक्खुमा।।
‘मार्गों में अष्टांगिक मार्ग श्रेष्ठ है। सत्यों में चार पद (चार आर्य-सत्य) श्रेष्ठ हैं। धर्मों में वैराग्य श्रेष्ठ है। और द्विपदों में--मनुष्यों में--चक्षुष्मान, आंख वाले (बुद्ध) श्रेष्ठ हैं।’
बड़ा प्यारा सूत्र है।
मग्गानट्ठंगिको सेट्ठो।
बहुत मार्ग हैं भीतर आने के, लेकिन बुद्ध कहते हैं, अष्टांगिक मार्ग उसमें श्रेष्ठ है। तुम बाहर के मार्गों की बातें कर रहे हो कि कौन सा रास्ता अच्छा है, अरे पागलो, अष्टांगिक मार्ग श्रेष्ठ है। भीतर आने के बहुत मार्गों में आठ अंगों वाला मार्ग श्रेष्ठ है। वे आठ अंग निम्न हैं--
सम्यक-दृष्टि, पहला अंग। सम्यक-दृष्टि का अर्थ होता है, दृष्टियों से मुक्ति। पक्षपात से मुक्ति। आंखें खाली हों। कोई भाव न हो, कोई विचार न हो; कोई सिद्धांत, कोई शास्त्र न हो; कोई मत न हो। खुली निष्पक्ष आंख हो, निर्दोष आंख हो--जैसे दर्पण खाली--तो सत्य दिखायी पड़ेगा। तो सत्य कैसे बचेगा? लेकिन दर्पण पर अगर कोई धूल पड़ी हो, कोई पक्ष पड़ा हो, रंग पड़ा हो, तो फिर सत्य जैसा है वैसा दिखायी न पड़ेगा। सम्यक-दृष्टि का अर्थ होता है, दृष्टियों का अभाव। जब सब दृष्टियां छूट जाती हैं--हिंदू की दृष्टि, मुसलमान की दृष्टि, ईसाई की दृष्टि--जब सब दृष्टियां छूट जाती हैं और कोई दृष्टिशून्य खड़ा होता है, निर्वस्त्र, नग्न, सारी दृष्टियों से मुक्त, तब सत्य को जाना जाता है। यह पहला अंग।
दूसरा अंग, सम्यक-संकल्प। हठ नहीं, औद्धत्य नहीं, जिद्द नहीं। अधिक लोग संन्यासी हो जाते जिद्द से, हठ से, औद्धत्य से, अहंकार से। तुम्हें अक्सर जिद्दी लोग संन्यासियों में मिलेंगे। दुर्वासा की कहानी तो तुम जानते ही न! जिद्दी आदमी कुछ भी कर सकता है। कुछ न कर पाए, संन्यासी हो जाता है।
बुद्ध कहते हैं, यह संकल्प नहीं हुआ। यह तो अहंकार का ही सूक्ष्म रूप है। सम्यक-संकल्प। ठीक-ठीक संकल्प का अर्थ यह है, किसी जिद्द के कारण संन्यास नहीं, बोध के कारण संन्यास, समझ के कारण संन्यास, होश से, जीवन की प्रौढ़ता से। जीवन को सब तरफ से परख कर, परिपक्वता से। संकल्प तो हो, लेकिन जिद्दी संकल्प नहीं चाहिए। आग्रहपूर्वक नहीं चाहिए। निराग्रही संकल्प।
फर्क समझना। मेरे पास एक युवक आया और उसने कहा कि मैं तो संन्यास लेकर रहूंगा। मैंने पूछा, बात क्या है? संन्यास किसलिए लेना है? उसने कहा कि मेरे पिता इसके खिलाफ हैं। मतलब समझे आप? पिता खिलाफ हैं, इसलिए वह लेना चाहता है। वह कहता है, मैं लेकर रहूंगा। मैंने उसको समझाया कि अगर तेरे पिता खिलाफ न हों, फिर तू लेगा? उसने कहा, फिर मैं सोचूंगा।
जिद्द के कारण संन्यास ले रहा है। अहंकार को एक चोट लग गयी है, बाप कहता है, नहीं लेना। बाप भी जिद्दी है। ठीक बाप का ही बेटा है, उन्हीं का बेटा है, उन्हीं जैसा है, उन्हीं का फल है। बाप जिद्दी है कि संन्यास नहीं लेना, बेटा जिद्दी है कि लेकर रहूंगा, कि बाप को मजा चखाकर रहूंगा।
अब यह अगर संन्यास ले लेगा तो यह असम्यक संकल्प हुआ। यह ठीक संकल्प नहीं है। मैंने उससे कहा कि तू रुक, मैं तुझे संन्यास नहीं दूंगा। तू यह बात छोड़ दे, यह तो बाप ने तुझे संन्यास लिवा दिया!
एक और घटना आप से कहूं। मेरे एक मित्र थे, एक युवती से उनका प्रेम था। दोनों का बड़ा प्रेम था--ऐसा कम से कम दिखलाते तो थे। दोनों के परिवार विपरीत थे और दोनों जिद्द में थे विवाह करने की। मैंने उनसे कहा, तुम थोड़ा सोच लो। कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह जितना प्रेम तुम्हें दिखायी पड़ता है इतना प्रेम नहीं है, सिर्फ एक जिद्द है, अपने परिवारों से टक्कर लेने की। उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, हमारा प्रेम बहुत गहरा है। मैंने उन्हें कई बार समझाने की कोशिश की, वे मुझसे नाराज भी हो गए कि आप बार-बार यह बात क्यों उठाते हैं? मैंने कहा कि मुझे ऐसा लगता है कि जितना तुम प्रेम समझ रहे हो, इतना नहीं है। यह परिवारों का झगड़ा है। और विवाह के बाद तुम झंझट में पड़ सकते हो, क्योंकि जब विवाह हो जाएगा तो बात खतम हो गयी, परिवार से जो झगड़ा था वह तो समाप्त हो गया। नहीं-नहीं, उन्होंने तो जिद्द से कहा कि हमारा प्रेम है।
विवाह भी कर लिया। एक साल के बाद ही उन्होंने मुझे कहा कि हम भूल में थे। न मुझे लड़की से कुछ लेना-देना है, न लड़की को मुझसे कुछ लेना-देना है। बेटा ब्राह्मण घर का था, लड़की पारसी थी। न लड़की के घर वाले चाहते थे कि ब्राह्मण से शादी हो, ब्राह्मण के घर वाले तो चाह ही कैसे सकते हैं कि पारसी से शादी हो! वह बड़ा झगड़ा था। जिद्द अटक गयी थी। परिवार और बेटा-बेटियों के अहंकार में बड़ी कलह थी।
सालभर में सारा प्रेम बह गया। जब प्रेम बह गया तो अड़चनें शुरू हो गयीं। जो झगड़ा परिवार से चल रहा था वह आपस में चलने लगा। झगड़ैल प्रवृत्ति के तो थे ही। पहले मां-बाप से लड़ रहे थे, अब तो कोई बात ही न रही, मां-बाप अलग ही पड़ गए। उन्होंने कहा, ठीक है, भूल ही गए, कि जब तुमने शादी कर ली तो अलग हो जाओ। अब जो झगड़ा मां-बाप से लगा था, वह झगड़ा एक-दूसरे के प्रति लगने लगा। उस युवक ने आत्महत्या की, छह साल के भीतर। शराबी हो गया और आत्महत्या तक बात पहुंच गयी।
खयाल रखना, बुद्ध हमेशा अपने भिक्षुओं को कहते थे, सम्यक-संकल्प। किसी हठ के कारण नहीं, अपने बोध से, समझ से। आंतरिक उत्साह से लेना।
तीसरा अंग है, सम्यक-वाणी। बुद्ध कहते थे, जो जाने, वही बोले। और जैसा जाने, वैसा ही बोले, जरा भी अन्यथा न करे। और जो बोलने योग्य हो वही बोले, असार न बोले। क्योंकि बोलने से बड़ी उलझनें पैदा होती हैं। जीवन व्यर्थ के जालों में फंस जाता है। तुम जरा खयाल करना, कितनी झंझटें तुम्हारे बोलने की वजह से पैदा हो जाती हैं। किसी से कुछ कह बैठे, झगड़ा हो गया, अब झंझट बनी।
काश, तुम अपने बोलने को थोड़ा न्यून कर लो तो तुम्हारे जीवन की नब्बे प्रतिशत झंझटें तो कम हो जाएं। इस दुनिया में जितने मुकदमे चल रहे हैं, झगड़े चल रहे हैं, सिर फोड़े जा रहे हैं, वह असम्यक-वाणी के कारण हैं।
बुद्ध कहते थे, जिसे स्वयं को जानना है, उसे जितनी कम झंझटें जीवन में पैदा हों, उतना अच्छा है।
चौथा, सम्यक-कर्मांत। व्यर्थ के कामों में न उलझो। वही करो जिसके करने से जीवन का सार मिले। क्योंकि शक्ति सीमित है और समय सीमित है। हममें से अधिक लोग तो कुछ न कुछ करने में लगे रहते हैं। हम खाली बैठना जानते ही नहीं। कुछ करने को न हो तो हमें बड़ी बेचैनी होती है। तो हम अपनी बेचैनी को करने में उलझाए रखते हैं।
न मालूम क्या-क्या आदमी करता रहता है! तुम अगर खाली बैठे हो कमरे में तो तुम कुछ न कुछ करोगे, उठकर खिड़की खोल दोगे, अखबार पढ़ने लगोगे, रेडियो चलाओगे, कुछ न कुछ करोगे। कुछ न मिलेगा, सिगरेट पीने लगोगे। कुछ न कुछ करोगे। व्यस्त रहने में हम अपने पागलपन को छिपाए रहते हैं।
बुद्ध ने कहा, इस तरह की व्यस्तता महंगी है। धीरे-धीरे अव्यस्त बनो। वही करो, जो करना जरूरी है; जो नहीं करना जरूरी है, वह मत करो। अगर बेचैनी होती हो तो बेचैनी को जागरूक होकर देखो, धीरे-धीरे बेचैनी शांत हो जाएगी। और जो शक्ति बचेगी व्यर्थ के कामों से, उसे तुम सार्थक दिशा में मोड़ सकोगे।
पांचवां, सम्यक-आजीव। बुद्ध कहते थे, अपने जीने के लिए किसी का जीवन नष्ट करना अनुचित है। अब कोई कसाई का काम करता है, तो बुद्ध कहते, यह व्यर्थ है। इतना उपद्रव बिना किए आदमी अपना भोजन जुटा ले सकता है। वही करो जिससे किसी के जीवन को अहित न होता हो। क्योंकि जब तुम दूसरों का अहित करते हो तो तुम अपने अहित के लिए बीज बो रहे हो। फिर फसल भी काटनी पड़ेगी। सम्यक-आजीव।
छठवां, सम्यक-व्यायाम। बुद्ध कहते थे, न तो बहुत सुस्त होओ और न बहुत कर्मी। मध्य में होओ। न तो आलसी बन जाए और न बहुत कर्मठ। क्योंकि आलसी कुछ भी नहीं करता और कर्मठ व्यर्थ के काम करने लगता है। मध्य में चाहिए। सम्यक-व्यायाम। जीवन की ऊर्जा सदा संतुलित हो।
और सातवां बुद्ध का अंग है, सम्यक-स्मृति। सम्यक-ध्यान। होश रखकर जीए। स्मरणपूर्वक जीए। मैं क्या कर रहा हूं, इसे देखते, जानते हुए करे। क्रोध उठे तो क्रोध के प्रति भी अपने होश को सावधानी से देखता रहे कि यह क्रोध उठा, यह क्रोध मुझे पकड़ रहा है, अब यह क्रोध मुझसे कह रहा है, मार दो इस आदमी के सिर में डंडा; इस सबको देखता रहे। और तुम चकित होओगे कि अगर तुम देखने में थोड़े सावधान हो जाओ तो जो व्यर्थ है, वह अपने आप होना बंद हो जाएगा, और जो सार्थक है, वही होगा। धीरे-धीरे यह स्मृति तुम्हारे चौबीस घंटे पर फैल जाएगी। उठते-बैठते तुम जागे-जागे चलोगे। और एक ऐसी घड़ी आती है कि रात सोए भी रहोगे तब भी तुम्हारे भीतर जागरण की धारा बहती रहेगी। एक सूत्र शुभ्र ज्योति की भांति तुम्हारे भीतर जागा रहेगा।
वही तो कृष्ण ने कहा है कि जब सब सो जाते हैं तब भी योगी जागता है--या निशा सर्वभूतानाम तस्याम जागर्ति संयमी। जागा रहता, इसका मतलब यह नहीं कि संयमी सोता ही नहीं, चलता कमरे में, बैठा रहता, अनिद्रा का बीमार रहता, ऐसा मतलब नहीं है। इसका मतलब इतना है कि नींद शरीर पर होती, भीतर चैतन्य का दीया जलता रहता है।
सम्यक-स्मृति का अर्थ है, जब चौबीस घंटे पर तुम्हारा ध्यान फैल जाए, बोध फैल जाए, तब तुम्हारी परिधि में जागरूकता आ गयी।
और फिर अंतिम घड़ी है, आठवां अंग, सम्यक-समाधि। बुद्ध समाधि में भी कहते हैं--सम्यक, ठीक समाधि। गैर ठीक समाधि उसे कहते हैं जिसे आदमी बेहोशी में पाता है।
तुमने देखा होगा कि कोई योगी जमीन में छिप जाता है, छह महीने के लिए समाधि ले लेता है। वह समाधि नहीं, उसको बुद्ध कहते हैं, असम्यक-समाधि। वह तो बेहोशी में पड़ा रहा। जैसे मेंढक छिप जाता है जमीन में और पड़ा रहता है गर्मी के दिनों में--आधा मुर्दा, बस नाममात्र को जीवित। फिर वर्षा आएगी, फिर मेंढक में प्राण आ जाएंगे। ऐसा ही योगी अपनी श्वास को रोककर मूर्च्छा में पड़ जाता है। उसे पता ही नहीं कि वह कर क्या रहा है। छह महीने पड़ा रहेगा, लोगों को चमत्कार भी मालूम पड़ेगा। छह महीने बाद जब वह उठेगा तो लोग बड़े चमत्कार से भर जाएंगे, बड़ी श्रद्धा और पूजा करेंगे।
लेकिन यह कोई समाधि नहीं है। यह तो अपने शरीर और अपने मन के साथ एक तरकीब, अपने को मूर्च्छित करने की योजना। इससे कोई सत्य को कभी नहीं जान पाया है। ऐसा होता तो मेंढक कभी के सब सत्य को उपलब्ध हो गए होते।
ऐसे साइबेरिया में सफेद रीछ होते हैं, वे भी यही करते हैं। छह महीने के लिए मुर्दे की तरह पड़ जाते हैं। श्वास बिलकुल ठहर जाती है। तो श्वास की तरकीब है यह। इस तरकीब से कुछ समाधि का संबंध नहीं है।
सम्यक-समाधि का अर्थ है, होशपूर्वक स्वयं के केंद्र पर विराजमान हो।
ये दो अंतिम चरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। सम्यक-स्मृति परिधि पर। जीवन के कर्म की जो परिधि है--करते, उठते, बैठते, चलते, बात करते, मिलते, होश रखे। फिर धीरे-धीरे यही होश केंद्र पर आने लगेगा। फिर धीरे-धीरे आंख बंद करके भीतर होश का दीया जलता रहे, उसी दीए के साथ तुम एक हो जाओगे, होशपूर्वक स्वयं में प्रविष्ट कर जाना सम्यक-समाधि।
इसको आर्य-अष्टांगिक मार्ग बुद्ध ने कहा।
बुद्ध ने कहा, भिक्षुओ!
मग्गानट्ठंगिको सेट्ठो।
अगर श्रेष्ठ मार्ग की ही बात करनी है, अरे तो पागलो, आर्य-अष्टांगिक मार्ग की बात करो, इतना तो तुम्हें समझाया है! यह तुम किन मार्गों की बात करते हो?
सच्चानं चतुरो पदा।
अगर सच्चे, श्रेष्ठ लोगों की बात करनी है, तो चार आर्य-सत्यों की बात करो, जो मैंने तुम्हें बार-बार समझाए हैं: कि दुख है, कि दुख के कारण हैं, कि दुख के कारणों से मुक्त होने के उपाय हैं, कि दुख से मुक्त होने की अवस्था है, दुख-निरोध की अवस्था है, निर्वाण है, इनकी चर्चा करो।
विरागो सेट्ठो धम्मानं।
अगर श्रेष्ठ धर्म की बात करनी है तो विराग की बात करो, यह क्या राग की बात कर रहे हो!
विरागो सेट्ठो धम्मानं।
वैराग्य श्रेष्ठ धर्म है। विराग के गीत गाओ, एक-दूसरे को विराग समझाओ, एक-दूसरे के जीवन में विराग लाओ, एक-दूसरे की धीरे-धीरे समझ इतनी गहरी करो कि जहां-जहां राग के बंधन हैं, टूट जाएं, विराग की स्वतंत्रता उपलब्ध हो।
द्विपदानंच चक्खुमा।
और यह आखिरी बात तो बड़ी अदभुत है। बुद्ध कहते हैं, सुंदर स्त्री-पुरुषों की बात कर रहे हो? सौंदर्य तो केवल एक घटना में घटता है:
द्विपदानंच चक्खुमा।
उसमें सौंदर्य घटता है, इन दो पैरों वाले जानवर में, आदमियों में वही सुंदर है जिसके पास आंखें हैं। जो आंखों को उपलब्ध हो गया। जो चक्षुष्मान हो गया। और तो सब अंधे हैं, जो बुद्ध हो गया, जिसके भीतर ध्यान की आंख खुल गयी, वही सुंदर है। और तो सब असुंदर ही हैं। और तो सब लाशें हैं। और तो सब मांस-मज्जा हैं। और तो सब आज नहीं कल मिट्टी में गिरेंगे और खो जाएंगे।
द्विपदानंच चक्खुमा।
आंख वालों की चर्चा करो। बुद्ध यह कह रहे हैं कि मैं यहां बैठा तुम्हारे सामने आंख वाला, तुम अंधों के सौंदर्य की बात कर रहे हो!
एसोव मग्गो नत्थञ्ञो दस्सनस्स विसुद्धिया।
एतं हि तुम्हे पटिवज्जथ मारस्सेतं पमोहनं।।
‘दर्शन की विशुद्धि के लिए यही मार्ग है; दूसरा मार्ग नहीं। इसी पर तुम आरूढ़ होओ; यही मार को मूर्च्छित करने वाला है।’
इसी से तुम्हारा शैतान मन हारेगा, अन्यथा नहीं हारेगा। तुम अपने शैतान मन को तो बड़े उपाय दे रहे हो, बाहर की बातें कर रहे हो, इससे तो शैतान मन और मजबूत होगा।
मार बुद्ध-परंपरा में शैतान के लिए दिया गया नाम है। शैतान तुम्हें मार रहा है, प्रतिपल मार रहा है, शैतान तुम्हें मारे डाल रहा है। और यह शैतान कोई बाहर नहीं, तुम्हारा मन है। यह मन तुम्हें बाहर ले जाता है, भटकाता है, इस मन से सावधान होओ।
एसोव मग्गो नत्थञ्ञो दस्सनस्स विसुद्धिया।
ऐसे जागोगे तो धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर दर्शन की विशुद्धि पैदा होगी, तुम्हारे पास विशुद्ध आंखें आएंगी। उन विशुद्ध आंखों से सत्य जाना जाता है, जीआ जाता है, फिर जीवन-रसधार बहती है।
एतं हि तुम्हे पटिपन्ना दुक्खस्संतं करिस्सथ।
अक्खातो वे मया मग्गो अञ्ञाय सल्लसंथनं।।
‘इस मार्ग पर आरूढ़ होकर तुम दुखों का अंत कर दोगे। शल्य-समान दुख का निवारण करने वाला जानकर मैंने इस मार्ग का तुम्हें उपदेश किया है।’
बुद्ध कहते हैं, मैं कोई दर्शनशास्त्री नहीं हूं, मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं, मैं तो एक वैद्य हूं। मैंने यह मार्ग तुम्हें कहा है सिर्फ इसलिए कि इसके द्वारा तुम दुखों के निरोध को उपलब्ध हो जाओगे, तुम्हारी बीमारियां छूट जाएंगी, तुम स्वस्थ हो जाओगे।
अक्खातो वे मया मग्गो।
मैंने तो इसीलिए सिर्फ यह उपदेश दिया है अष्ट अंगों वाले मार्ग का, चार आर्य-सत्यों का, आंख वाले बुद्धत्व को पाने का, कि तुम दुख के पार हो जाओ।
तुम्हेहिकिच्चं आतप्पं अक्खातारो तथागता।
पटिपन्ना पमोक्खंति झायिनो मारबंधना।।
‘और उद्योग तो तुम्हें ही करना है; तथागत का काम तो उपदेश करना है। इस मार्ग पर आरूढ़ होकर ध्यानपरायण पुरुष मार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।’
यह बुद्ध की बड़ी प्रसिद्ध सूक्तियों में से एक है--
तुम्हेहिकिच्चं आतप्पं।
चलना तो तुम्हें ही होगा, मैं तो सिर्फ इशारा कर सकता हूं। जाना तो तुम्हें ही होगा, मैं तो सिर्फ मार्ग की तरफ इंगित कर सकता हूं। बुद्धपुरुष तो केवल इशारा करते हैं। और तो क्या कर सकते हैं! बुद्धपुरुष तुम्हें निर्वाण नहीं दे सकते, सिर्फ निर्वाण की तरफ इंगित कर सकते हैं, फिर चलना तुम्हें ही होगा। निर्वाण कोई किसी को दे नहीं सकता। यह तो स्वयं ही खोजना पड़ता है, यह तो आत्मखोज है।
तुम्हेहिकिच्चं आतप्पं।
तुम्हें चलना होगा। और तुम बाहर के मार्गों की बात कर रहे हो और तुम्हें चलना है भीतर के मार्ग पर। और तुम बाहर के सौंदर्य की चर्चा कर रहे हो और तुम्हें दर्शन करने हैं भीतर के सौंदर्य के। तुम मुझ पर भरोसा करके मत बैठो। मैं तुम्हें न ले जा सकूंगा।
अक्खातारो तथागता।
मैं तो सिर्फ जो मैंने जाना है, जैसे मैंने जाना है, उतना तुमसे कह दूंगा, फिर यात्रा तो तुम्हें ही करनी होगी। चलना तो तुम्हें ही होगा, तुम्हारे ही पैरों से चलना होगा। तुम्हारी ही आंखों से तुम्हें देखना होगा। मेरे खाए तुम्हारा पेट न भरेगा और न मेरे देखे तुम्हारा दर्शन खुलेगा। मेरे चले तुम कैसे चलोगे! इस सत्य की यात्रा पर प्रत्येक को अपने ही पैरों से जाना होता है। यह यात्रा बड़ी अकेली है। एक-एक की है। हां, बुद्धपुरुष इशारा कर सकते हैं, नक्शा दे सकते हैं, समझा सकते हैं, क्योंकि जहां से वे चले हैं उन मार्गों की तुम्हें खबर दे सकते हैं।
पटिपन्ना पमोक्खंति झायिनो मारबंधना।
इस मार्ग पर अगर तुम आरूढ़ हो जाओ, इस भीतर के मार्ग पर तुम ध्यानपरायण हो सको, तो मार के बंधनों से मुक्त हो जाओगे। तो यह मन तुम्हारा जो शैतान की तरह तुम्हें बाहर भटका रहा है, इससे तुम्हारा छुटकारा हो सकता है। लेकिन चलना होगा; श्रम करना होगा। और यह ऊर्ध्वगमन है, जैसे पहाड़ पर कोई ऊपर चढ़ता है, यह कष्टसाध्य है। पहाड़ से कोई नीचे उतरता है, इतना कष्टसाध्य नहीं है। इसीलिए तो वासना आसान है, समाधि कठिन है।
वही ऊर्जा वासना में जाती है, वही ऊर्जा समाधि में, लेकिन समाधि कठिन है। क्योंकि समाधि में ऊपर की तरफ यात्रा करनी होती है, और वासना में नीचे की तरफ। जैसे पत्थर को धक्का दे दो पहाड़ पर, अपने आप फिसलता हुआ, गिरता हुआ, लुढ़कता हुआ खाई-खंदकों में पहुंच जाएगा। लेकिन इतना सा धक्का देने से पहाड़ की चोटी पर नहीं पहुंच जाएगा। चोटी पर तो ले जाने में श्रम करना होगा, पसीना बहेगा। इस श्रम करने के कारण ही बुद्ध ने अपने मार्ग को श्रमण कहा है।
भारत में दो संस्कृतियां हैं। एक संस्कृति का नाम ब्राह्मण-संस्कृति, एक संस्कृति का नाम श्रमण-संस्कृति। दोनों का मौलिक भेद इतना ही है, ब्राह्मण-संस्कृति की मान्यता है कि प्रभु के प्रसाद से मिलता है सब। तुम प्रार्थना करो, प्रभु की अनुकंपा होगी तो मिलेगा। श्रमण-संस्कृति का कहना है, कोई प्रभु नहीं है देने वाला, तुम श्रम करो तो मिलेगा। इसलिए ब्राह्मण-संस्कृति में प्रार्थना केंद्रीय है और श्रमण-संस्कृति में ध्यान केंद्रीय है।
सुनते हो, बुद्ध कहते हैं--
पटिपन्ना पमोक्खंति झायिनो मारबंधना।
‘इस मार्ग पर आरूढ़ होकर ध्यानपरायण पुरुष...।’
हिंदू-संस्कृति या ब्राह्मण-संस्कृति कहती है, ईश्वरपरायण बनो; बुद्ध कहते हैं, ध्यानपरायण बनो, ईश्वर कहां है? किसी दूसरे के सहारे मत बैठे रहो, कोई तुम्हें मुक्त करने न आएगा। उठो, तुम्हारे ही पैरों पर भरोसा करो, अपने आत्मबल को जगाओ, अपने आत्मविश्वास को जगाओ--अप्प दीपो भव, अपने दीए बनो।
बुद्ध कहते हैं, मैंने तो सार-सूत्र कह दिए, इशारे बता दिए, अब तुम यह मत सोचो कि इन इशारों को सुन लिया तुमने तो पहुंच गए। समय मत गंवाओ, समय थोड़ा है। व्यर्थ की बातों में मत पड़ो और बाहर के मार्गों की चर्चा में मत उलझो। क्योंकि जिस चर्चा में तुम उलझोगे, आज नहीं कल उस मार्ग पर चल पड़ोगे। भीतर के मार्ग की चर्चा करो, भीतर के मार्ग के संबंध में विमर्श करो, भीतर के मार्ग के संबंध में एक-दूसरे से समझो--कोई तुमसे दो कदम आगे गया है, कोई दो कदम पीछे है--इस भीतर के मार्ग की, इस भीतर के मार्ग पर खड़े हुए वृक्षों की, इस भीतर के मार्ग पर बने हुए सरोवरों की, इनकी बातें करो।
बुद्ध ने एक छोटी सी घटना को एक बड़े महत्वपूर्ण उपदेश का आधार बना लिया। बुद्ध ने ऐसी ही छोटी-छोटी घटनाओं को बड़े अदभुत प्रसंगों में बदल दिया है। बुद्ध जैसे पुरुष मिट्टी को छूते हैं तो सोना हो जाता है।

आज इतना ही।

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