BUDDHA

Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 74

SeventyFourth Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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पहला प्रश्न:
संतों की वाणी सुनने या पढ़ने से मन या मस्तिष्क का तनाव दूर होता है। असंतों के कलाम की यह विशेषता नहीं होती। कृपया बताएं कि इसका कारण क्या है?
पूछा है फारूख खां ने।
पहली बात, संतों की वाणी सिर्फ वाणी नहीं है। वाणी ही हो तो खोल ही है, भीतर कुछ सार नहीं; शब्द ही हैं, भीतर कुछ सार नहीं। संतों की वाणी वाणी से कुछ ज्यादा है। वाणी तो केवल सहारा है उसे देने का, जो और किसी ढंग से दिया नहीं जा सकता। वाणी तो वाहन है। शब्दों पर चढ़ाकर, शब्दों के घोड़ों पर चढ़ाकर जो भेजा जा रहा है, वह शब्द से बहुत पार है। उसकी ही वर्षा जब हो जाती है हृदय पर तो शांति मिलेगी, सुख मिलेगा, संतोष मिलेगा।
असंतों की वाणी कोरी है, खाली है। जैसे मरा हुआ आदमी, लाश पड़ी है। और यही आदमी जीवित था कल तक। शरीर अब भी वैसा ही है, लेकिन शरीर के भीतर से कोई चीज उड़ गयी। अब तो पिंजड़ा पड़ा रह गया है, पक्षी उड़ गया। असंतों की वाणी ऐसी है जैसे मरा हुआ आदमी। शब्द की देह तो है, लेकिन अनुभव की आत्मा नहीं है। तो असंतों की वाणी से सुगंध तो मिलनी कठिन है, दुर्गंध ही मिलेगी। संतों की वाणी से संतोष मिलेगा, क्योंकि संतोष सत्य की छाया है।
यह तो बात ठीक। लेकिन एक बात याद रखना, जिनकी वाणी से संतोष मिल जाए, जरूरी नहीं कि वे संत ही हों। और जिनकी वाणी से तुम्हें संतोष न मिले, जरूरी नहीं कि वे असंत ही हों।
जहां तक संतों की तरफ से संबंध है, संतों की वाणी से संतोष मिलना चाहिए। जहां तक असंतों का संबंध है, असंतों की वाणी से संतोष नहीं मिलना चाहिए। लेकिन जो मिलता है, उसमें अकेला संत थोड़े ही भागीदार है, तुम भी भागीदार हो। वर्षा होती हो और घड़ा उलटा रखा हो तो गैर-भरा रह जाएगा। तो संत की भी वाणी से हो सकता है संतोष न मिले, अगर तुम उसे ग्रहण ही न करो; अगर तुम उसे भीतर ही न जाने दो; या तुम्हारे पूर्व-पक्षपात, तुम्हारी पहले की बनायी धारणाएं रुकावट बन जाएं।
तो ऐसा समझो कि जरूरी नहीं है कि संत की वाणी से संतोष मिले ही, तुम लोगे तो ही मिलेगा। और दूसरी बात भी संभव है, असंत की वाणी से भी संतोष मिल जाए, अगर तुमने लेने की ही जिद्द कर रखी है। तो जहां कुछ भी नहीं है वहां भी तुम कुछ देख लोगे। क्योंकि इस लेन-देन में दो व्यक्ति सम्मिलित हैं, एक देने वाला और एक लेने वाला, इसलिए लेन-देन की यह घटना दोनों पर निर्भर होगी।
जैसे, अगर कोई जैन किसी सूफी फकीर की वाणी पढ़े, उसे संतोष नहीं मिलेगा। क्योंकि वह यह मान ही नहीं सकता कि मांसाहारी और ज्ञान को उपलब्ध हो जाए। यह बात ही संभव नहीं है। सूफी संत की तो छोड़ दो, एक जैन मुनि ने मुझसे कहा कि आप रामकृष्ण परमहंसदेव का उल्लेख करते हैं, आपको पता है, वे मछली खाते थे? तो मछली खाने वाला आदमी कैसे संत हो सकता है! अब इन जैन मुनि को रामकृष्ण की वाणी से संतोष नहीं मिलेगा। इससे यह मत समझ लेना कि जहां से संतोष नहीं मिलता वहां संत नहीं है।
बौद्धों को जैनों की वाणी में संतोष नहीं है। हिंदुओं को मुसलमानों की वाणी में संतोष नहीं है। मुसलमानों को ईसाइयों की वाणी में संतोष नहीं है। तो इसका क्या अर्थ हुआ है? इसका अर्थ हुआ कि संतत्व की भी तुम्हारी धारणा है। उस धारणा के अनुकूल संत पड़ता हो तो तुम संतोष लोगे। उसके अनुकूल न पड़ता हो तो तुम्हें जरा भी संतोष न मिलेगा। फिर कभी यह भी हो सकता है कि असंत तुम्हारी धारणा के अनुकूल पड़ता हो।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन भूखा-प्यासा एक गांव में आया। गांव में एक भी मुसलमान नहीं था। गांव शाकाहारियों का था और गांव का जो साधुपुरुष था, उसने सारा जीवन शाकाहार की ही सेवा में लगाया था। बस मांसाहार के ही विपरीत उसका सारा जीवन समर्पित था।
मुल्ला उसकी सभा में गया। तो वह समझा रहा था कि मांसाहार बुरा है। पशु-पक्षियों में भी आत्मा है। मुल्ला बीच में खड़ा हो गया, उसने कहा, आप बिलकुल ठीक कहते हैं, एक बार एक मछली ने ही मेरे प्राण बचाए थे। साधु तो बहुत प्रसन्न हुआ, उसने कहा, आओ भाई, आओ! यह तो बड़ा प्रमाण मिला कि एक मुसलमान भी तैयार है गवाही देने को। उन्होंने उसे पास बिठाया, उसके भोजन का भी इंतजाम करवाया और कहा कि तुम यहीं रहो, कहीं और जाने की जरूरत नहीं; यह प्रमाण हो गया। और रोज साधु जब समझाता लोगों को, वह कहता कि पूछो, इस मुसलमान भाई से पूछो, एक मछली ने ही इसके प्राण बचाए; मछलियों में भी आत्मा है। उनको खाओ मत।
दो-चार दिन के ही बाद एक दिन सांझ को दोनों साथ बैठे थे, वह फकीर साधु कहने लगा मुल्ला नसरुद्दीन को कि तुम तो करीब-करीब मेरे गुरु हो। यद्यपि मैंने जीवन भर शाकाहार की सेवा की, मांसाहार का विरोध किया, लेकिन अभी तक किसी पशु-पक्षी ने ऐसा प्रमाण मुझे नहीं दिया जैसा तुम्हें दिया। तुम तो करीब-करीब मेरे गुरु हो। अब विस्तार में मुझे कहो कि बात क्या थी, कैसे बचाए तुम्हारे प्राण?
मुल्ला ने कहा, आप विस्तार न पूछें तो अच्छा। सब ठीक चल रहा है, विस्तार की क्या जरूरत है? पर साधु जिद्द करने लगा कि नहीं, बताना ही पड़ेगा। साधु ने तो पैर पकड़ लिए कि गुरुदेव, बताना ही पड़ेगा। तो मुल्ला ने कहा, अब नहीं मानते तो ठीक है, लेकिन हमें जाना पड़ेगा। साधु ने कहा, बात क्या है? इतना रहस्य क्यों बना रहे हो? मुल्ला ने कहा, बात यह है कि मैं बहुत भूखा था, और मछली को खाने से ही मेरे प्राण बचे। उसी रात--सुबह भी नहीं--उसी रात मुल्ला निकाला गया।
अभी तक इसकी वाणी में बड़ा संतोष मिल रहा था, अब इसकी वाणी में कोई संतोष न रहा।
तो तुम पूछते हो कि ‘संतों की वाणी सुनने या पढ़ने से मन या मस्तिष्क का तनाव दूर होता है।’
सभी संतों की? तब तो तुम संत हो जाओगे। तब तो तुम्हारे संत होने में फिर कोई बाधा न रही। या किन्हीं-किन्हीं संतों की? पूछने वाले मित्र मुसलमान हैं। तो तुमने और किन्हीं संतों की वाणी भी पढ़ी है, जिनके विचार इस्लाम से अन्य हों? उनसे संतोष न मिलेगा।
और इन्हीं मित्र ने दूसरा प्रश्न पूछा है, उससे जो मैं कह रहा हूं वह साफ हो जाएगा। इन्होंने पूछा है--

किसी व्यक्ति को भगवान की उपाधि देना या किसी को इस उपाधि का स्वीकार करना क्या उचित है? फिरआन का सबसे बड़ा अपराध यही तो था कि उसने अपने को खुदा होने का दावा कर रखा था।
अब इन मित्र ने इजिप्त के फिरआन का उल्लेख किया, लेकिन अलहिल्लाज मंसूर को छोड़ दिया। सच है यह बात कि इजिप्त के सम्राट फिरआन ने घोषणा कर रखी थी कि मैं खुदा हूं। यह उसका अपराध था। लेकिन अपराध इसलिए नहीं था कि उसने घोषणा की थी कि मैं खुदा हूं, अपराध का कारण दूसरा था। अपराध का कारण यह था कि वह कहता था, मेरे सिवाय खुदा और कोई नहीं। मैं खुदा हूं, मेरे सिवाय और कोई खुदा नहीं।
यही बात तो मंसूर ने भी कही थी, जिनको मुसलमानों ने सूली दी। और मैं समझता हूं कि फारूख खां भी राजी होंगे कि सूली ठीक दी। मंसूर ने भी यही कहा था कि मैं खुदा हूं। लेकिन बड़ा फर्क था उसके कहने में। उसके कहने का मतलब था कि मैं खुदा हूं, क्योंकि सभी खुदा हैं, खुदा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।
मंसूर ने जो कहा वह संत की वाणी थी और फिरआन ने जो कहा वह संत की वाणी नहीं थी, यद्यपि वक्तव्य दोनों के एक जैसे हैं। दोनों ने यही कहा था, मैं खुदा हूं। लेकिन फिरआन कहता था, मेरे अलावा कोई और खुदा नहीं। और मंसूर ने कहा कि मैं करूं भी क्या, खुदा होना ही पड़ेगा, उसके सिवा होने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि खुदा ही है। लेकिन मुसलमानों ने फिरआन को भी अपराधी साबित किया और मंसूर को भी सूली लगा दी।
अब अगर मुसलमानों को उपनिषद के ऋषि मिल जाते जिन्होंने कहा, अहं ब्रह्मास्मि, क्या करते तुम उनके साथ? फांसी लगाते न! सूली लगाते। संत तो तुम्हें वे मालूम नहीं पड़ सकते थे। जो कहता है मैं ब्रह्म हूं, वह कैसे संत हो सकता है!
मुसलमान नाराज हैं जीसस पर, क्योंकि जीसस ने दावा किया कि मैं ईश्वर का बेटा हूं। यह भी कोई दावा है! हमारे मुल्क में लोग हैं, जो कहते हैं, हम ईश्वर हैं। बेटे का भी क्या दावा करना! मगर मुसलमान इससे नाराज हैं कि ईसा ने दावा किया कि मैं ईश्वर का बेटा हूं। नहीं, यह बात ठीक नहीं। तो तुम बुद्ध को क्या कहोगे? महावीर को क्या कहोगे? कृष्ण को और राम को क्या कहोगे? ये सब तो अपराधी हो गए। ये तो संत न रहे।
तो मैं कहना चाहूंगा कि तुम्हारा ही दूसरा प्रश्न सबूत देता है कि संत का तुम्हारे मन में क्या अर्थ है। एक धारणा होगी। संत ऐसा होना चाहिए। धारणा तुम्हारी है, उस धारणा में बैठ जाएगा तो संत, नहीं बैठा तो असंत हो जाएगा। और कौन संत तुम्हारी छोटी-मोटी धारणाओं में बैठ सकता है? जो बैठ जाए वह संत ही क्या खाक! जो तुम्हारी खिड़की में बैठ जाए, तुम्हारे ढांचे के अनुकूल पड़ जाए, वह कोई संत! नकल होगा। संत की नकल ढांचों में बैठ जाती है। तुम बड़ा संतोष भी ले लोगे। तुम्हें संतोष इसलिए नहीं मिल रहा है कि संत की वाणी में कुछ सार है, तुम्हें संतोष इसलिए मिल रहा है कि तुम्हारा अहंकार तृप्त हो रहा है कि देखो, मेरी धारणा संत की कितनी सही है। यह प्रमाण मिल गया। यह आदमी प्रमाण है मेरे संतत्व की धारणा का। तुम अपनी ही धारणा के चरणों में सिर झुका रहे हो।
मैं एक घर में मेहमान था, एक जैन घर में। एक बूढ़े सज्जन मुझे मिलने आए, उम्र होगी कोई अस्सी साल की। कोई चालीस साल से त्यागी का जीवन ही बिताते थे, यद्यपि घर में ही थे। लेकिन न दुकान जाते, न घर-द्वार की बात करते, ज्यादातर सामायिक, ध्यान, उपवास, इसमें ही समय लगाते थे। मैं गांव में आया हूं तो मुझे मिलने आए--अपने घर के बाहर भी नहीं जाते थे। उनके साथ दस-पांच लोगों का गिरोह भी आया यह देखने कि वह कभी अपने घर के बाहर जाते नहीं, किस के दर्शन को जा रहे हैं? उन्होंने मेरी एक किताब पढ़ी थी--साधना पथ--और उससे वे बहुत प्रभावित थे। वे आकर मेरे चरणों में झुके और उन्होंने कहा कि आप तो मेरे लिए तीर्थंकर हैं। आपने जो किताब लिख दी, उससे मुझे जो मिला है, वह किसी चीज से नहीं मिला। मेरा सारा जीवन उसने बदल डाला है।
ऐसे उनसे बातें हो रही थीं, तभी घर की गृहिणी ने आकर मुझे कहा कि अब आप भोजन कर लें, सांझ हो गयी है। तो मैंने उनसे कहा कि यह वृद्ध सज्जन आए हैं, अभी बीच में बाधा न डालो, थोड़ी देर बाद भोजन कर लूंगा। वे वृद्ध सज्जन तो बहुत चौंके, उन्होंने कहा, क्या? सूरज ढला जा रहा है, सूरज ढलने के बाद भोजन करेंगे! मैंने कहा, आप इतनी दूर से चलकर आए, बूढ़े हैं, आपके पास बैठना ज्यादा आनंदपूर्ण है, भोजन तो घड़ीभर बाद हो जाएगा। उन्होंने कहा, आप समझे नहीं। वह उठकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा, जिस आदमी को अभी यही पता नहीं कि रात्रि-भोजन पाप है, उसको और क्या पता हो सकता है!
आए थे तो मेरे चरण छुए थे, जाते वक्त मुझे उपदेश देकर गए कि कम से कम इतना तो करो कि रात्रि-भोजन छोड़ दो। अब मैं निश्चित जानता हूं, घर जाकर उन्होंने किताब जला दी होगी या फेंक दी होगी। किसी को दी होगी, यह भी मैं नहीं मान सकता। क्योंकि ऐसे भ्रष्ट आदमी की किताब किसी को देकर क्या भ्रष्ट करना है! आए थे तो मैं तीर्थंकर था। तीर्थंकर के गिरने में देर कितनी लगती है! तुम तीर्थंकर को इतनी स्वतंत्रता भी तो नहीं दे सकते कि वह सूरज ढलने के बाद भोजन कर ले। तुम्हारा तीर्थंकर तुम्हारा गुलाम, तुम्हारा संत तुम्हारा गुलाम।
तो गुलाम ही तुम्हारे संत हो सकते हैं। जो अपने मालिक हैं, शायद उनसे तो तुम्हें संतोष नहीं मिलेगा। जो अपने मालिक हैं, वे तो तुम्हें झकझोर देंगे। वे तो आएंगे एक तूफान की तरह, एक आंधी की तरह और तुम्हें उखाड़ देंगे, तुम्हारी सारी धारणाओं को उखाड़ देंगे। वे तो आएंगे एक झंझावात की तरह और तुम्हारे बनाए हुए सारे भवनों को गिरा देंगे, तुम्हारा सारा तत्वज्ञान धूल-धूसरित हो जाएगा। असली संत के करीब तो पहले तुम्हारी धारणाएं टूटेंगी। और अगर धारणाएं टूटने में तुम घबड़ाए न, परेशान न हुए--असली संत पहले तो तुम्हें मारेगा, अगर तुम मरने से न डरे, तो जरूर संतोष आएगा। और संतोष ऐसा कि फिर जाने वाला नहीं।
लेकिन एक ऐसा भी संतोष है जो तुम मान लेते हो। तुम जहां भी अपनी धारणा के अनुकूल किसी को देखते हो, तुम्हें संतोष मिलता है। क्या संतोष मिलता है? कि मेरी धारणा ठीक है। देखो, यह आदमी सबूत है। अगर अपनी धारणा का मैं सबूत नहीं हूं, तो कम से कम यह आदमी सबूत है।
इसलिए तुम पूछते हो कि ‘किसी व्यक्ति को भगवान की उपाधि देना!’
तुम्हारे प्रश्न में भी तुम्हारी धारणा छिपी है। भगवान कोई उपाधि नहीं है। भगवान कोई ऐसा नहीं है कि किसी को पद्मभूषण बना दिया, कि भारतरत्न बना दिया। भगवान कोई उपाधि नहीं है कि किसी विश्वविद्यालय की डिग्री है। और भगवान बनाना किसी के हाथ में नहीं है, भगवान होना हमारा स्वभाव है। यह उपाधि नहीं है। उपाधि तो बीमारी का नाम है। उपाधि के तो दो अर्थ होते हैं--डिग्री और बीमारी भी। भगवान कोई उपाधि नहीं है। भगवान तो अपने स्वभाव को पहचान लेना है। जब तुम अपने भीतर झांकते हो और पहचान लेते हो, कौन वहां विराजमान है, तब तुम पाओगे कि भगवान हो।
भगवत्ता हमारा सामान्य धर्म है। जैसे आग का धर्म जलाना, ऐसा आदमी का धर्म भगवान। और जब आदमी में तुम्हें भगवान दिखेगा, तो धीरे-धीरे तुम्हारी आंख और गहरी जाएगी, पशु-पक्षियों में भी दिखेगा। फिर और आंख गहरी जाएगी और पौधों में भी दिखेगा, फिर और आंख गहरी जाएगी और चट्टानों में भी दिखेगा। और जिस दिन तुम्हें सब जगह दिखायी पड़ना शुरू हो जाए, कोई ऐसी जगह न रहे जहां भगवान न हो, तभी जानना कि तुम घर वापस लौटे।
नानक मक्का गए तो सो गए रात पैर करके पवित्र मंदिर की तरफ। पुरोहित नाराज हुए। उन्होंने आकर कहा कि तुम्हें पैर पवित्र मंदिर की तरफ करके सोते लाज नहीं आती और लोग कहते हैं तुम संत हो! यह क्या संत हुए तुम! तुम्हें इतना भी पता नहीं है कि कहां पैर करने! तो कथा बड़ी प्यारी है, कथा कहती है कि नानक ने कहा, मेरे पैर उस जगह कर दो जहां भगवान न हो। तब जरा मुश्किल हो गयी होगी! पुजारियों ने, कहते हैं, जहां भी नानक के पैर किए, पाया कि काबा उसी तरफ घूम गया। ऐसा काबा घूमा हो, ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। काबा घूमा हो, इसकी कोई जरूरत भी नहीं है। काबा के घूमने की जरूरत नहीं है, क्योंकि काबा सब तरफ है ही। इतना ही अर्थ है कहानी में--कहां करोगे पैर? जहां पैर करोगे, वहीं भगवान है। सब ओर भगवान है।
तो पहली तो बात तुम पूछते हो, ‘किसी व्यक्ति को भगवान की उपाधि देना।’
उपाधि दी तो बात गलत हो गयी, यह उपाधि नहीं है। और कोई किसी को दे नहीं सकता। तुम जब अपने स्रोत में उतरते हो, तो यह तुम्हारा अनुभव है।
‘या किसी का इस उपाधि को स्वीकार करना।’
यह उपाधि ही नहीं है, स्वीकार-अस्वीकार का सवाल नहीं है। जब तुम जानोगे और पाओगे कि ऐसा है, तो फिर करोगे क्या! यही तो अलहिल्लाज मंसूर के साथ हुआ। जिस दिन मंसूर को बोध हुआ, उसने घोषणा कर दी--अनलहक। मैं परमात्मा हूं, मैं सत्य हूं, मैं ब्रह्म हूं।
जिन गुरु के पास मंसूर रहता था, गुरु ने कहा, भीतर रख, भीतर रख, यह बात बाहर मत निकाल। सूफी यह सदा से जानते रहे हैं, मगर मुसलमानों के डर से कहते नहीं। गुरु ने कहा कि रख, भीतर रख, मुझे भी पता है, अब तुझे भी पता हो गया है, मगर बाहर मत कह, नहीं तो झंझट खड़ी होगी। झंझट खड़ी हुई। मंसूर ने कहा, जो भीतर है उसको बाहर क्यों न बहने दें? रुकावट कैसे डालूं? और फिर मैं थोड़े ही कहता हूं, एक भावदशा आती है जब मेरे भीतर यह गुंजार उठता है, अनलहक। मेरे भीतर यह घोषणा उठती है कि मैं भगवान हूं। गुरु ने तो उसको विदा कर दिया। उन्होंने कहा, अगर यह घोषणा ही करनी है, तो तू कहीं और जा! कोई और गुरु चुन ले। किसी और गुरुकुल में रुक जा। यहां हम झंझट नहीं लेना चाहते।
दूसरे गुरु के पास भी यही हुआ, तीसरे गुरु के पास भी यही हुआ। चौथे गुरु के पास गुरु ने कहा कि हम तेरी तकलीफ समझते हैं, जब होती है यह घटना तो कभी-कभी ऐसा होता है, आदमी अपने वश में नहीं रह जाता, उदघोषणा होने लगती है, मगर इसे रोकना पड़ेगा, अन्यथा झंझट आएगी। तू इसे रोक, नहीं तो मैं तुझसे कहता हूं, तू फांसी पर चढ़ेगा। कहते हैं, मंसूर ने कहा, मैं उसी दिन फांसी पर चढूंगा जिस दिन तुम अपना यह सूफी अंगरखा उतार दोगे। उसके पहले नहीं चढूंगा। और कहानी कहती है कि दोनों की भविष्यवाणियां सच सिद्ध हुईं।
खलीफा ने खबर भेजी गुरु के पास कि तुम्हारे आश्रम में एक आदमी है, जो कहता है मैं ईश्वर हूं, उसे निकाल बाहर कर दो, वह अपराध कर रहा है। लेकिन गुरु ने कोई खयाल न दिया, बात चुपचाप रखे रहा। दुबारा खबर भेजी गयी, तीसरी बार खबर भेजी गयी। जब सातवीं बार खबर आयी तो साथ में पुलिस के आदमी भी आए, नंगी तलवारें भी आयीं। और उन्होंने कहा, अब तुम्हें दस्तखत करके देना होगा कि यह आदमी अपराधी है, और इसको फांसी लगेगी।
गुरु ने सोचा कि सूफी के कपड़े पहने हुए कैसे दस्तखत करूं, क्योंकि सूफी सभी जानते हैं इस बात को भीतर कि यह बात सच है, इसलिए अपना अंगरखा उतारकर फेंक दिया। उन सिपाहियों ने कहा, यह अंगरखा क्यों फेंक रहे हो? उन्होंने कहा, सूफी रहते हुए इस तरह की बात पर मैं दस्तखत नहीं कर सकता, यह अंगरखा मुझे उतार देने दो। और ठीक ही कहा था मंसूर ने कि यह अंगरखा तुम छोड़ोगे, उसी दिन मुझे फांसी लगेगी। अंगरखा उतारकर रख दिया और मौलवी के कपड़े पहन लिए। फिर दस्तखत कर दिए कि ठीक है, यह आदमी अपराधी है और इसको जो भी सजा उचित हो दी जाए। तब मंसूर को सूली लगी।
सूफी छिपाए रखे, क्योंकि मुसलमान देशों में सूफियों को प्रगट होने का उपाय नहीं था। इस देश में कोई अड़चन नहीं रही। इस देश में सूफी प्रगट होकर बोले हैं। जहां सूफी भी प्रगट होकर न बोल सकें, वहां धर्म का क्या उदभाव होगा! जहां उनको भी छिपाकर रखना पड़े। जहां सत्य की आखिरी ऊंचाई चोरों की भांति छिपाकर रखनी पड़े, वैसा देश धार्मिक नहीं हो सकता।
इस देश की दूसरी परंपरा है। इस देश में बड़ा मुक्त वातावरण रहा है। इस देश में जो तुम्हारे भीतर हो, उसकी उदघोषणा की आज्ञा है। जो तुम्हारे भीतर हो, कौन है दूसरा जो तुम्हें रोके! जो तुम्हारे भीतर हो उसकी उदघोषणा होने दो। अगर परमात्मा ने यही चुना है तुम्हारे भीतर कि घोषणा करे--अनलहक, अहं ब्रह्मास्मि, तो करने दो घोषणा।
यह कोई उपाधि नहीं है। कोई किसी दूसरे को देता-लेता नहीं, न कोई स्वीकार करता है, अस्वीकार करता है। यह तो तुम्हारे अंतर्तम का दीया जब जलता है, तब तुम जानते हो कि ऐसा है। यह तो तथ्य का अनुभव है। यह तो सत्य की प्रतीति है, यह तो साक्षात्कार है।
लेकिन तुम्हारी अड़चन मैं जानता हूं, मुसलमान परंपरा में पले हो, उसी ढंग से सोचा है। इसीलिए तुमने यह तो कहा कि फिरआन का सबसे बड़ा अपराध यही था कि उसने अपने को खुदा होने का दावा किया, लेकिन तुम भी चालाकी कर गए, प्रश्न पूछने में भी! फिरआन को घसीटकर लाए--पुराना, नाम भी लोग भूल गए फिरआन का, पांच हजार साल पुराना, इजिप्त का बादशाह, उसको घसीटकर लाए--ज्यादा जिंदा नाम, ज्यादा जिंदा आदमी अलहिल्लाज मंसूर के संबंध में क्या खयाल है, फारूख खां! मंसूर को क्यों छोड़ दिया? तुम भी डरे होओगे कि इस सूफी को बीच में लाना ठीक नहीं है।
लेकिन तुम्हें बड़ी अड़चन होगी। अगर तुम बुद्ध को मिल जाओगे तो तुम बुद्ध को संत न मान सकोगे। अगर महावीर को मिल जाओगे तो तुम संत न मान सकोगे। राम को मिल जाओगे, कृष्ण को मिल जाओगे तो तुम संत न मान सकोगे, क्योंकि ये तो अपराधी हैं। इनकी वाणी से तुम्हें संतोष कैसे मिलेगा?
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, संतों की वाणी में जरूर अमृत है, सुधा है, लेकिन तुम जाने दोगे अपने प्राणों तक तभी न! और तुम तभी जाने दे सकते हो जब तुम्हारे द्वार-दरवाजे खुले हों, तुम्हारे मन पर कोई धारणाओं का जाल न हो, तुम्हारे मन पर कोई पूर्व-पक्षपात न हों, पूर्वाग्रह न हों, तब जरूर संतों की वाणी में बड़ा सार है। उनका एक शब्द भी चेता सकता है। उनका एक इशारा जगा सकता है।
मगर, अगर तुम असहयोग करो, तो संत भी सिर ठोंक-ठोंककर मर जाएं तो भी तुम्हारी नींद को नहीं तोड़ सकते। कितने तो संत हुए, तुम सोए हो तो सोए ही हो। कितने तो संत हुए सदियों-सदियों में, तुम जहां हो वहीं के वहीं हो, तुम वहां से हटते नहीं। फूल खिलते हैं, विदा हो जाते हैं, पत्थर अपनी जगह पड़े हैं, पड़े ही रहते हैं। वे फूलों की सुनते नहीं। न सुनने के पीछे कारण हैं। कारण यही है कि तुम्हारे कान पहले से भरे हुए हैं।
अगर तुमने मुसलमान की तरह सोचा, तो तुमने सोचा ही नहीं। अगर हिंदू की तरह सोचा, तो सोचा ही नहीं। अगर जैन की तरह सोचा, तो सोचा ही नहीं। सोचने वाला आदमी पहले तो ये सब लिबास उतारकर रख देता है; भूल ही जाता है कि मैं कौन हूं। अभी पता ही नहीं है कि मैं कौन हूं, तो ये ऊपर-ऊपर की बातें! किसी घर में पैदा हो गए वह मुसलमान था, हिंदू था, ईसाई था, यह तो सब संयोग की बात है। उस घर में पैदा हो गए, उस घर के लोगों को जो मालूम था उन्होंने तुम्हें सिखा दिया। न उन्हें मालूम था, न तुम्हें मालूम है; उनके मां-बाप उन्हें सिखा गए थे, न उन्हें मालूम था। ऐसी सिखावन चलती जाती है, संस्कार चलते जाते हैं।
बुद्ध का वचन है कि संस्कार में दुख है। ये संस्कार हैं, हिंदू होना, मुसलमान होना, जैन होना, ईसाई होना संस्कार हैं। कंडीशनिंग। मां-बाप तुम्हारे सिर में भरना शुरू कर देते हैं कि तुम मुसलमान हो, कुरान तुम्हारी किताब है, मोहम्मद तुम्हारा पैगंबर है; कि तुम हिंदू हो, कि वेद तुम्हारी किताब है; कि तुम ईसाई हो, कि बाइबिल तुम्हारी किताब है; ऐसा मां-बाप भरना शुरू कर देते हैं--छोटा बच्चा, कोमल चित्त, ये सारी बातें इकट्ठी होती चली जाती हैं। सोच-विचार पैदा होने के पहले ही मन पर खूब संस्कार और जमघट जम जाता है, भीड़ पैदा हो जाती है। फिर जीवनभर आदमी उन्हीं संस्कारों से देखता है।
तो तुमसे मैं कहूंगा--
रंग ऐसा भरो
न रंग नफरत का हो
न रंग मजहब का हो
रंग ऐसा भरो
जिसके छींटों में बस
प्यार ही प्यार हो
दूरियां सब मिटें
पास इतने मिलें
एक छाया बने
तन से तन भी मिले
मन से मन भी मिले
पांव ऐसे धरो
रंग ऐसा भरो
जिसकी आहट में भी
प्यार ही प्यार हो
सबकी आंखों में हो
सबकी सांसों में हो
सबकी साधों में हो
एक ही बस गगन
एक ही बस लगन
डोर ऐसी गहो
जिसकी गांठों में बस
प्यार ही प्यार हो
रंग ऐसा भरो
न रंग नफरत का हो
न रंग मजहब का हो
रंग ऐसा भरो
जिसके छींटों में बस
प्यार ही प्यार हो
तो तुम देख पाओगे, सत्य क्या है। संत का अर्थ होता है, जहां सत्य अवतरित हुआ है। संत का अर्थ होता है, जहां सत्य ने देह धरी। संत का अर्थ होता है, जिस देह में सत्य सिंहासन पर विराजमान हुआ। अगर तुम निष्पक्ष मन, कोरे मन, शून्य मन संत के पास जाओगे, परम संतोष होगा। और संतोष ऐसा कि फिर मिटेगा नहीं। संतोष धारणा का नहीं, मान लिया ऐसा नहीं, सांत्वना जैसा नहीं, संतोष अनुभव का, सुख के अनुभव का। और वैसा संतोष तुम्हें भी संत बनाने लगेगा। रंगे जाने लगोगे। उस रंग में डूबने लगोगे।
यहां ऐसे ही रंग को भरने की कोशिश चल रही है, ऐसे ही रंग को रंगने की कोशिश चल रही है।
पानी से धुल जाएं
ऐसे भी रंग क्या,
एक उमर रंग जाए
ऐसा रंग डालो।
जैसा था बचपन में
जैसा था यौवन में
माटी का रंग अभी वैसा ही है,
पलकों के आसपास
मंडराते दर्द कई
सपनों का रंग अभी वैसा ही है,
थोड़े से हिस्से को
रंगने से क्या होगा,
एक शहर रंग जाए
ऐसा रंग डालो।
पानी से धुल जाएं
ऐसे भी रंग क्या,
एक उमर रंग जाए
ऐसा रंग डालो।
रंगों के अंदर भी
रंग हुआ करते हैं
रंगों के भीतर जाकर के देखो,
बिंबों के अंदर भी
सांस हुआ करते हैं
दर्पण के भीतर जाकर के देखो,
वासंती देहों को
रंगना है कायरता,
पतझर भी रंग जाए
ऐसा रंग डालो।
पानी से धुल जाएं
ऐसे भी रंग क्या,
एक उमर रंग जाए
ऐसा रंग डालो।
संत का अर्थ है, सत्य को उंडेल दे तुममें। संत का अर्थ है, जो उसे हुआ है उसमें रंग दे तुम्हें। संत का अर्थ है, रंगरेज। संत का अर्थ है, तुम्हें एक डुबकी लगवा दे उसमें, जो अभी तुम्हारे सामर्थ्य के बाहर है। संत का अर्थ है, जो उसने देखा है, अपनी आंखों के पीछे तुम्हें खड़ा करके थोड़ा अपनी आंखें उधार दे दे, कहे कि जरा मेरी आंखों से देख लो। जो मुझे दिखता है, वह देख लो। संत का अर्थ है कि थोड़ी देर को अपना हृदय तुम्हें दे दे। और अगर तुम राजी हो तो यह घट जाता है, इसमें देर नहीं लगती। यहां घट रहा है। तुम अगर राजी हो तो कभी भी, किसी भी क्षण, जहां राजीपन पूरा होता है, अचानक तुम्हारे हृदय की जगह मेरा हृदय धड़केगा, तुम मेरी आंख से देखने लगोगे। और तब सब चीजें और ही हो जाती हैं। तब सब कुछ और ही ढंग से दिखायी पड़ने लगता है।
संत को तुमने जानना सीखा, देखना सीखा, जब तुम्हें हिंदू का संत हो, कि मुसलमान का, कि ईसाई का, कि बौद्ध का, सभी का संत पहचान में आने लगे, तब तुम समझे कि संत क्या है। और तब जो संतोष मिलेगा, वह संक्रांति है, वह तुम्हें रूपांतरित कर जाएगी, वह तुम्हें नया कर जाएगी, वह तुम्हें द्विज बना देगी, एक नया जन्म देगी।
निश्चित ही यह बात असंतों की वाणी में कैसे हो सकती है! वाणी खाली, कोरी, वहां कुछ प्राण कहां। पिंजड़ा है, पक्षी तो नहीं। तो पिंजड़ों को लिए तुम चलते रहो। लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि लोग पिंजड़ों को लिए ही चलते रहते हैं और मानकर चलते हैं कि पक्षी है। होना चाहिए, क्योंकि बाप ने कहा, क्योंकि बाप के बाप ने कहा। होना चाहिए, क्योंकि भीड़ कहती है, समाज कहता है, मौलवी कहता है, पंडित कहता है, होना चाहिए। अपनी तरफ से नहीं देखते कि है या नहीं। डरते भी हो कि कहीं ऐसा न हो कि न हो, इसलिए देखते ही नहीं। अपने पिंजड़े को खूब ढांककर रखते हो कि कहीं दिखायी न पड़ जाए।
तुम्हें भी कभी-कभी शक तो आता होगा कि है या नहीं, लेकिन यह शक तुम टिकने नहीं देते। तुम कहते हो, शक तो अच्छी बात नहीं। होना चाहिए ही। कोई माता-पिता झूठ तो न बोलेंगे। पंडित-पुरोहित झूठ तो न बोलेंगे। समाज-परिवार झूठ तो न बोलेगा। ये सब लोगों को झूठ बोलने में क्या रखा है! ये क्यों झूठ बोलेंगे सब! होना ही चाहिए। तो तुम कभी उठाकर देखते भी नहीं पर्दा कि पीछे कोई है कि तुम खाली मंदिर की पूजा कर रहे हो?
तुम्हारे सौ संतों में से निन्यानबे खाली मंदिर हैं, जिनके भीतर कुछ भी नहीं है। लेकिन उनकी पूजा चल रही है। अक्सर तो ऐसा होता है कि जिनके भीतर कुछ है, उनकी पूजा बहुत मुश्किल हो जाती है। क्योंकि जिनके भीतर कुछ है, वे तुम्हारी धारणाएं तोड़ देते हैं। जिनके भीतर कुछ है, वे तुम्हारे गुलाम थोड़े ही हैं। वे तुम्हारी लीक पर थोड़े ही चलते हैं। जिनमें कुछ नहीं है, वे ही लीक पर चलते हैं। उधार वही होता है जिसके पास अपनी नगद संपदा नहीं। उधारी ऊपर-ऊपर से ठीक लगती हो, भीतर-भीतर अर्थहीन होती है।
मैंने सुना, एक बड़े धनपति यहूदी के घर के सामने--यहूदी बैठा है अपने महल में--उसके दरवाजे पर, लोहे के सींकचों का बना दरवाजा है, एक फकीर, एक गरीब आदमी अपनी पीठ खुजला रहा है। दरवाजे के सींकचों से अपनी पीठ खुजला रहा है। उस अमीर को बड़ी दया आयी। उसने फकीर को भीतर बुलाया, अपने नौकरों को आज्ञा दी कि इसे खूब स्नान करवाओ, खूब धो-धोकर मालिश करो इसकी। उसको खूब धुलवाया गया, खूब स्नान करवाया गया। ऐसे साबुन जो उसने कभी देखे भी न थे, पानी के फव्वारे के नीचे बिठाया गया, ठंडे-गरम पानी में नहलाया गया, इत्र-फुलेल, तेल से उसकी मालिश की गयी, अच्छे कपड़े पहनाए गए। और जब वह आया तो उसे भोजन करवाया गया और कुछ रुपयों को भी उस धनपति ने उसे दिया और कहा कि जाओ!
यह बात तो गांवभर में फैल गयी। दो आदमियों ने सोचा, यह तो बड़े गजब की बात है। वे दोनों भी आकर दरवाजे पर खड़े होकर पीठ खुजलाने लगे। धनपति ने देखा, उसने अपने आदमी भेजे और कहा कि दोनों को जंजीरें डालकर मेरे सामने ले आओ। उन दोनों को जंजीरें डालकर ले आया गया, वे दोनों चिल्लाने लगे कि बात क्या है, क्योंकि अभी-अभी तो व्यवहार कुछ और किया गया था! हमारे हाथों में जंजीरें क्यों डाली जा रही हैं? वे घसीटकर लाए गए और उस धनपति ने कहा कि यहां से भाग जाओ और कभी दुबारा यहां मत आना। क्योंकि वह अकेला था और अब उसकी पीठ में खुजान उठी थी तो वह खुजा भी नहीं सकता था, तुम तो दो हो, एक-दूसरे की पीठ क्यों नहीं खुजला लेते? तुम्हें इतनी तो अकल होनी चाहिए। अब भाग जाओ, और कभी दुबारा इस तरफ मत आना।
अक्सर ऐसा होता है। महावीर को ज्ञान हुआ, वे नग्न खड़े हो गए। बहुतों को लगा कि नग्न खड़े होने से ज्ञान हो जाता है, तो बहुत अभी तक दरवाजों पर पीठ खुजला रहे हैं, वे नग्न खड़े हो गए हैं। नग्न खड़े होने से ही जैन--दिगंबर जैन, दूसरा कोई नहीं, श्वेतांबर जैन भी नहीं--दिगंबर जैन पूजता है, क्योंकि वह मानता है, नग्नता संत का लक्षण है। महावीर नग्न हुए थे, तो उसने संत की परिभाषा कर ली। जैसे महावीर पर संत की परिभाषा चुक जाती है!
संत की परिभाषा चुकती ही नहीं। और संत कभी दो एक जैसे हुए नहीं और होंगे भी नहीं। क्योंकि जब कोई व्यक्ति संतत्व के शिखर को उपलब्ध होता है तो अद्वितीय हो जाता है--अकेला, बेजोड़। उस जैसा फिर कभी दुबारा दूसरा आदमी नहीं होगा। इसका यह अर्थ नहीं कि कोई संत न होगा, संत होंगे, लेकिन फिर अपने जैसे होंगे। सब संत अनूठे होते हैं। बस एक संत एक बार एक जैसा होता है, दुबारा फिर नहीं होता है।
तो हजारों लोग नग्न होकर खड़े हैं। उनमें कुछ भी नहीं है। लेकिन दिगंबर उनको पूजेगा, क्योंकि उसके संतत्व की परिभाषा में नग्नता जुड़ गयी। इसलिए दिगंबर जैन किसी और को नहीं पूज सकता जो कपड़े पहने हो। क्योंकि कपड़े पहने हुए तो संत हो ही नहीं सकता। दिगंबर जैन के सामने तुम मोहम्मद को खड़ा करो, वह कहेगा कि हजरत, अभी भी कपड़े पहने हुए हो! अभी तक कपड़े पहने हुए, तो ज्ञान हुआ ही नहीं! क्योंकि महावीर को जब ज्ञान हुआ तो कपड़े छोड़ गए। आप अभी तक कपड़े पहने हुए हैं! यह बात जैन को नहीं जंचेगी। वह मोहम्मद को तो मान ही नहीं सकता।
मेरी एक किताब एक जैन मुनि को भेंट की गयी। जिन मित्र ने भेंट की, उन्होंने मुझे आकर बताया कि बड़ी अजीब बात हो गयी। उन्होंने किताब पलटकर देखी, उन्होंने कहा और तो सब ठीक है, इसमें मोहम्मद का नाम कैसे आया? किताब फेंक दी। किताब महावीर पर थी, किताब फेंक दी, क्योंकि उसमें मोहम्मद का नाम कैसे आया। कहां महावीर और कहां मोहम्मद! उनको यह बर्दाश्त के बाहर हो गया कि मोहम्मद का नाम महावीर के साथ आए। और मेरी तो आदत खराब है, मैं तो जोड़ ही देता हूं!
उनको यह बात बिलकुल जंची नहीं। मोहम्मद सांसारिक आदमी, गृहस्थ! अब अगर तुम जैनी के हिसाब से सोचो तो लगेगा भी--कितनी पत्नियां मोहम्मद की? दिगंबर जैन तो महावीर की एक पत्नी थी, उसको भी इनकार करते हैं। महावीर की सच में एक पत्नी थी और एक लड़की भी हुई और दामाद भी था, ये ऐतिहासिक तथ्य हैं, लेकिन दिगंबर जैन अपनी किताबों में लिखते हैं कि उन्होंने कभी विवाह नहीं किया। क्योंकि यह बात ही उनको अखरती है कि महावीर और विवाह करें! हालांकि अज्ञान की अवस्था में कर लें तो हर्ज क्या है! फिर ज्ञानी तो बाद में हुए। मगर वे मानते हैं कि यह तो हो ही नहीं सकता। महावीर तो अज्ञान की अवस्था में भी इतनी ऊंचाई पर थे कि वह विवाह तो कर ही नहीं सकते हैं। इसलिए हुए विवाह को भी इनकार कर दिया है। लड़की पैदा हुई, यह तो मान ही नहीं सकते हैं। क्योंकि लड़की पैदा हुई तो उसका मतलब हुआ, उन्होंने संभोग किया होगा। महावीर और संभोग करें! जरा सोचो! यह बात जंचती नहीं। तो दिगंबर जैन ने यह बात ही जड़ से काट दी कि विवाह ही नहीं किया। न रहा बांस न बजेगी बांसुरी।
अब इधर मोहम्मद हैं, नौ विवाह किए! यह बात जरा जंचती नहीं। लेकिन मोहम्मद की तरफ से सोचो, मोहम्मद को सीधा सोचो, तो मोहम्मद ने नौ विवाह किए और इस किसी विवाह में कोई कामवासना नहीं है। अरब देश लड़ाके देश थे। आदमी तो लड़ते और कट जाते, और स्त्रियों की संख्या बढ़ती चली गयी; पुरुष कम होते चले गए। जिस समाज में पुरुषों की संख्या कम हो जाए और स्त्रियों की संख्या ज्यादा हो जाए, उस समाज में बड़ा व्यभिचार फैल जाता है। फैल ही जाएगा। क्योंकि इतनी स्त्रियां कामातुर होकर भटकने लगेंगी। और पुरुष तो कामातुर हैं ही, अब स्त्रियां इतनी उपलब्ध हो जाएंगी तो उपद्रव होने वाला है।
तो मोहम्मद ने नियम बनाया कि हर मुसलमान कम से कम चार विवाह करे। अब यह किसी दूसरे को, जिस देश में कभी स्त्री-पुरुषों की संख्या में इतना बड़ा अंतर नहीं पड़ा, यह बात बेहूदी लगेगी। लेकिन उस ऐतिहासिक क्षण में यह बात बड़ी सार्थक थी। इन चार विवाह ने मुसलमान देशों की नैतिकता बचा ली, नहीं तो ये डूब जाते। ये नष्ट हो जाते। खुद मोहम्मद ने नौ विवाह किए। ठीक ही है, अगर शिष्यों से चार विवाह करवाने हों, तो गुरु को नौ करने पड़ें। यह बात बिलकुल तर्कयुक्त है, यह सीधी गणित की है। मोहम्मद दो कदम आगे गए, तब तो कहीं तुम चलोगे थोड़ा-बहुत, नहीं तो तुम चलोगे ही नहीं।
आदमी एक ही पत्नी से काफी परेशान रहता है, चार पत्नियां तुम सोचते हो कोई छोटी-मोटी साधना है! मैं तुमसे कहता हूं कि ब्रह्मचारी की साधना उतनी कठिन नहीं है, जितनी चार पत्नियों वालों की साधना कठिन है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक चोरी में पकड़ा गया। मजिस्ट्रेट ने उससे कहा कि तू भला आदमी है और पहली दफे चोरी में पकड़ा गया है, तू खुद ही बोल दे क्या सजा। मुल्ला ने कहा, जो भी देना हो सजा दे दें, एक ही सजा मत देना, दो विवाह करने की सजा मत देना। तो मजिस्ट्रेट बोला कि यह भी कोई सजा होती है, दो विवाह करने की, बात क्या है? तू इसको, सार को खोलकर कह। उसने कहा, बात यह है कि मैं पकड़ाता ही नहीं, इस आदमी की दो औरतें हैं, दो बजे रात इसके घर में घुसा, उधर मारपीट हो रही थी। एक औरत इसको ऊपर की तरफ खींच रही थी, वह ऊपर रहती है; और एक औरत इसको नीचे की तरफ खींच रही थी, वह नीचे रहती है। एक इसकी टांगें पकड़े थी, एक इसके हाथ पकड़े थी। यह सीढ़ियों पर अटका था। इसकी यह घबड़ाहट देखकर और घर की यह हालत देखकर मैं छिपकर बैठ गया एक कोने में कि यह अब निपट जाए, तो या तो मैं कुछ चोरी करूं या निकल भागूं। मगर यह निपटा ही नहीं, सुबह हो गयी। मैं घर से निकल न सका, क्योंकि वही सीढ़ियां उतरने का एकमात्र रास्ता था। इसलिए मैं पकड़ा गया। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूं, जो सजा देनी हो दे देना, मगर दो औरतों से विवाह करने की सजा मत देना।
तुम सोचते हो कि ब्रह्मचर्य ही साधना है। तो तुम गलती सोचते हो। चार स्त्रियों के साथ विवाह करना भी साधना ही है। बड़ी साधना हो सकती है। और मोहम्मद का विवाह तुम सोचते हो...मोहम्मद ने एक विवाह किया, पहला विवाह, तो अपने से दुगुनी उम्र की स्त्री से किया। पहले विवाह में तो जो स्त्री थी, वह करीब-करीब बूढ़ी हो रही थी और मोहम्मद अभी जवान थे, उससे विवाह किया।
कोई पुरुष अपने से बड़ी उम्र की स्त्री से विवाह करना पसंद नहीं करता। बड़ी उम्र की तो तुम छोड़ दो, तुमसे अगर एक इंच ऊंची औरत हो, तो भी तुम उससे विवाह करना पसंद नहीं करते। अपने से किसी भी स्थिति में बड़ी स्त्री से कोई विवाह करना नहीं पसंद करता। तुमसे ज्यादा पढ़ी-लिखी हो, तुम पसंद नहीं करते। तुमसे ज्यादा अनुभवी हो, तो पसंद नहीं करते। उम्र ज्यादा हो, तो पसंद नहीं करते।
क्योंकि कम उम्र की स्त्री ही काफी कब्जा जमा लेती है, बड़ी उम्र का तो कहना ही क्या है! पांच-सात साल पीछे की स्त्री तुम्हें धकेल देती है, तुम्हारी सब समझदारी रखी रह जाती है। तो अगर बड़ी उम्र की स्त्री भी ज्यादा अनुभवी हुई, ज्यादा पढ़ी-लिखी हुई, तो अड़चन आएगी, बहुत अड़चन आ जाएगी। यद्यपि वैज्ञानिक हिसाब से ज्यादा उम्र की स्त्री से ही विवाह होना चाहिए।
मैं कहता हूं, वैज्ञानिक हिसाब से। क्योंकि सारे संसार के आंकड़े यह बात कहते हैं कि स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा जीती हैं। पांच साल से सात साल ज्यादा। तो अगर तुम पचहत्तर साल जीओगे तो तुम्हारी पत्नी अस्सी या बयासी साल जीएगी। अब तुम पांच-सात साल छोटी उम्र की स्त्री से विवाह करोगे, तो तुम्हारे मरने में, तुम्हारी पत्नी के मरने में दस साल का फासला होगा। तुम दस साल के लिए उसे विधवा छोड़ जाओगे। यह अवैज्ञानिक है।
अगर विज्ञान की बात समझो तो तुम्हें अपने से पांच-सात साल उम्र बड़ी स्त्री से विवाह करना चाहिए, ताकि तुम दोनों करीब-करीब संसार से विदा होओ। पचहत्तर साल के तुम होओगे, अस्सी की वह हो जाएगी, दोनों करीब-करीब मरोगे। ज्यादा दुख नहीं होगा, न तुम अकेले छूटोगे, न वह अकेली छूटेगी।
मोहम्मद ने बड़ी हिम्मत की कि अपने से बड़ी उम्र की स्त्री से विवाह कर लिया। मोहम्मद की परिस्थिति अलग, मोहम्मद के सोचने के ढंग अलग, मोहम्मद की बात अलग। फिर मोहम्मद जिन लोगों से बोल रहे थे, वे लोग बिलकुल ही खानाबदोश, एकदम गैर-पढ़े-लिखे लोग। उनको तो छुड़ाना था अभी मूर्ति से, अभी तो उनका सबसे बड़ा उपद्रव यही था कि वे मूर्तियों की पूजा में लगे थे। और एक-दो मूर्ति की नहीं, तीन सौ पैंसठ मूर्तियां बना रखी थीं काबा में। एक दिन के लिए एक मूर्ति। हर दिन नयी मूर्ति की पूजा चल रही थी। अभी तो वे बहुत नीचे धर्म में पड़े थे, उनको मूर्ति से किसी तरह छुटकारा दिलाना था। अभी उनसे यह घोषणा करनी कि अहं ब्रह्मास्मि, वह बात ही पागलपन की होती। यह तो वे समझ ही नहीं पाते, यह तो पाठ बहुत आगे का है।
यह तो भारत में संभव हो सका, क्योंकि इस पाठ के लिए काफी लंबी परंपरा चाहिए, हजारों साल की परंपरा चाहिए। यह तो धर्म के विश्वविद्यालय की आखिरी कक्षा है, जहां घोषणा की जा सकती है--अहं ब्रह्मास्मि, और लोग समझेंगे और नाराज न हो जाएंगे।
तो अलग परिस्थितियां, अलग व्यक्तित्व, अलग ढंग। जैन राजी नहीं होगा कि मोहम्मद ज्ञान को उपलब्ध हुए। और मुसलमान राजी नहीं होंगे कि यह महावीर ज्ञान को उपलब्ध हुए। ये नंगे खड़े हो गए! यह बात तो जंचती नहीं, यह तो ठीक नहीं है, यह तो अशिष्ट है। यह तो असामाजिक है। कोई किसी दूसरे के संत से तो राजी नहीं होता, क्योंकि तुम्हारे संत की एक निश्चित धारणा है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं, सब धारणा छोड़कर तुम शून्य भाव से, शांत भाव से, मौन भाव से देखो, तो तुम चकित हो जाओगे--मोहम्मद भी उसी महिमा को उपलब्ध हुए जिसको महावीर; बुद्ध भी उसी को उपलब्ध हुए जिसको क्राइस्ट। ये अलग ढंग हैं। अलग ढंग होने ही चाहिए। और एक व्यक्ति एक ही बार होता है, दुबारा दोहराया नहीं जाता है।
परमात्मा इस संसार में किसी को दोहराता नहीं। आदमियों की तो छोड़ दो, तुम एक कंकड़ उठा लो और सारी पृथ्वी खोज डालो, तो भी वैसा ही दूसरा कंकड़ न पा सकोगे। एक पत्ता तोड़ लो इस बगीचे का और सारे जंगल खोज डालो, ठीक वैसा ही दूसरा पत्ता न पा सकोगे। परमात्मा कार्बन कापी बनाता ही नहीं। परमात्मा मूल बनाता है, मौलिक, प्रत्येक वस्तु नयी और अद्वितीय।
तो जब छोटी-छोटी चीजों के संबंध में यह सच है, तो क्राइस्ट, या मोहम्मद, या महावीर, या बुद्ध जैसे व्यक्ति तो परम, आखिरी हैं। ये तो अद्वितीय हैं। इन जैसा दूसरा कोई होता नहीं, नकल में पड़ना मत। किसी जैसे बनने की कोशिश करना मत। तुम तुम ही बन सको तो ही तुम परमात्मा को उपलब्ध हो सकोगे। और जब तुम अपनी परिपूर्णता में स्वयं हो जाते हो, तब तुम्हारे भीतर एक नाद उठने लगता है, वह नाद है--अहं ब्रह्मास्मि, अनलहक।
फिरआन गलत कहता था। क्योंकि उसने यह कहा कि मैं परमात्मा हूं, और कोई नहीं। और मंसूर ने ठीक कहा कि मैं परमात्मा हूं, क्योंकि सिर्फ परमात्मा है। और तो कोई है ही नहीं, परमात्मा ही है। पत्थर भी परमात्मा है। तो मैं भी परमात्मा हूं।
इन दोनों वक्तव्यों की समानता के साथ-साथ इनके भीतर छिपा हुआ भेद भी ठीक से देख लेना।

तीसरा प्रश्न:
किसी बुद्धपुरुष के वचनों के मार्मिक अर्थ को समझ पाना क्या ध्यान को उपलब्ध हुए बिना संभव है? क्या तत्वज्ञान और ध्यान की स्थिति के बीच कोई गहरा नाता है? इस विषय पर प्रकाश डालने का अनुग्रह करें।
किसी बुद्धपुरुष के वचनों को पूरा-पूरा समझना हो, तब तो ध्यान के बिना कोई उपाय नहीं है। लेकिन थोड़ी-थोड़ी झलक मिल सकती है ध्यान के बिना भी। थोड़ी-थोड़ी भनक पड़ सकती है बिना ध्यान के भी। और अगर यह भनक न पड़ती होती तो फिर तुम चलोगे ही कैसे! तब तो तुम कहोगे, जब ध्यान होगा तब समझ में आएगा, और जब तक समझ में नहीं आया तब तक चलें कैसे? और जब तक चलोगे नहीं तब तक ध्यान कैसे होगा! तब तो तुम एक बड़े चक्कर में पड़ जाओगे, एक दुष्चक्र में पड़ जाओगे।
तो दो बातें खयाल रखना। न तो यही बात सच होती है कि जो बुद्धपुरुष कहते हैं, वह तुमने सिर्फ सुन लिया बुद्धि से और समझ में आ जाएगा। नहीं, अगर इतने से ही समझ में आ जाए तो फिर ध्यान की कोई जरूरत ही न रहेगी। और न ही दूसरी बात सच है कि जब ध्यान होगा तभी समझ में आएगा। क्योंकि अगर ध्यान होगा तभी समझ में आएगा, तब तो तुम ध्यान भी कैसे करोगे? क्योंकि बुद्धपुरुषों में कुछ रस आने लगे तभी तो ध्यान में लगोगे न! तो बुद्धपुरुषों की वाणी सुनते समय पूरी तो समझ में नहीं आती--कभी नहीं आती--पूरी तो तभी समझ में आएगी जब तुम भी बुद्धपुरुष हो जाओगे। जब तुम भी उन जैसे हो जाओगे तभी पूरा अनुभव होगा। लेकिन अभी थोड़ी भनक तो पड़ सकती है।
जब छोटा बच्चा चलना शुरू करता है तो अभी दौड़ नहीं सकता, यह बात सच है, लड़खड़ा तो सकता है! और अगर तुम कहो कि अभी लड़खड़ा भी नहीं सकता, तब तो फिर कभी चल ही न सकेगा। छोटा बच्चा जब पहले कदम उठाता है, तो देखा कैसा डरा-डरा, सहारे की आकांक्षा रखता है, मां हाथ पकड़ ले, मां का हाथ पकड़कर हिम्मत करके दो कदम चल लेता है। छोटे बच्चे के पास पैर तो हैं, उसके शरीर को सम्हालने योग्य काफी पैर हैं--तुम्हारे बराबर पैर नहीं, तो तुम्हारे बराबर शरीर भी नहीं है, लेकिन अनुपात ठीक उतना ही है जितना तुम्हारा। तुम्हारे बड़े शरीर को सम्हालने के लिए बड़े पैर हैं, उसके छोटे शरीर को सम्हालने के लिए छोटे पैर हैं। लेकिन उसके शरीर को सम्हालने के लिए पर्याप्त पैर हैं। मगर अभी अनुभव नहीं है, उसे यह भरोसा नहीं है कि मैं खड़ा हो सकूंगा; उसे यह आत्मविश्वास नहीं। तो मां का हाथ पकड़कर चल लेता है।
गुरु का हाथ पकड़कर चलने का इतना ही अर्थ होता है कि जहां तुम अभी नहीं चले हो--यद्यपि चल सकते हो, लेकिन तुमने कभी प्रयास नहीं किया है--तो कोई जो चल चुका है, कोई जो चल रहा है, तुम उसका हाथ पकड़ लेते हो। फिर धीरे-धीरे मां अपना हाथ छुड़ाने लगती है, फिर अंगुली ही पकड़ा रखती है, फिर धीरे-धीरे अंगुली भी खींच लेती है। एक दिन बच्चा पाता है कि अरे, वह तो खुद ही खड़ा होकर चल सकता है! जब पहली दफे बच्चे चलते हैं, तो तुमने देखा, वे रुकते ही नहीं, वे बैठते ही नहीं। तुम लाख उपाय करो कि अब तू थक गया है, अब तू बैठ जा, मगर वे चक्कर मार रहे हैं! इतना आनंद उनको अनुभव होता है कि एक अपूर्व घटना हाथ लग गयी, कि मैं भी चल सकता हूं!
ऐसी ही घटना ध्यान के मार्ग पर भी घटती है। बुद्धपुरुषों की वाणी पहले तो सिर्फ झलक देगी, जरा सी देर के लिए बिजली कौंध जाएगी, एक किरण उतर जाएगी। मगर किरण तुम्हें प्यास से भर जाएगी, और तुम्हें यह आश्वासन मिलने लगेगा--हो सकता है, ऐसा भी हो सकता है। इस व्यक्ति को हुआ है, तो मुझे क्यों नहीं हो सकता? मुझ जैसे ही व्यक्ति को तो हुआ है।
आखिर बुद्ध के हड्डी-मांस-मज्जा तुम्हारे जैसे ही हैं, कुछ भेद तो नहीं। तुम्हारे जैसे आंख-कान-नाक, तुम जैसे भूख लगती तो भोजन करते, और तुम जैसे रात थककर सो भी जाते, तुम जैसे ही जवान हुए, तुम जैसे ही बूढ़े हुए, तुम जैसे ही एक दिन मर भी गए, तो बुद्धपुरुष ठीक तुम जैसे हैं। बीमार भी होते हैं, रुग्ण भी होते हैं, स्वस्थ भी होते हैं। बूढ़े हो गए तो बाल भी सफेद हो गए, बूढ़े हो गए तो हाथ-पैर भी कंपने लगे, यह सब तुम जैसा ही है। लेकिन तुम जैसे इस मनुष्य में भी कुछ घटा है, जो तुममें लगता है अभी नहीं घटा। इससे हिम्मत बंधती है कि अगर मेरे जैसे व्यक्ति में यह हो सका है, तो शायद मुझमें भी हो सके। शायद मैं भी एक संभावना अपने भीतर लिए चल रहा हूं, एक बीज, जिसको ठीक भूमि नहीं मिली। शायद मैं भी अपने भीतर एक संभावना लिए चल रहा हूं, जिस पर मैंने कभी प्रयोग नहीं किया और वास्तविक बनाने की चेष्टा नहीं की।
किसी गायक को गीत गाते देखकर तुम्हें याद आ जाती है अपने कंठ की कि कंठ तो मेरे पास भी है। और किसी नर्तक को नाचते देखकर तुम्हें याद आ जाती है अपने पैरों की कि पैर तो मेरे पास भी हैं, चाहूं तो नाच तो मैं भी सकता हूं। किसी चित्रकार को चित्र बनाते देखकर तुम्हें भी याद आ जाती है कि चाहूं तो चित्र मैं भी बना सकता हूं। ऐसे ही किसी बुद्ध को देखकर तुम्हें याद आ जाती है कि चाहूं तो बुद्धत्व मैं भी पा सकता हूं। बस यही चाह--यह समझ नहीं है पूरी--प्यास शुरू हुई।
उजाला-सा बिखर जाता है।
चाहे जैसा भी हो हर वक्त गुजर जाता है
बात रह जाती है पर ढेर बिखर जाता है
गम में वैशाख के सूरज की तपन होती है
ऐसे मौसम में समंदर भी उतर जाता है
रोज दिनभर तो अंधेरों में सफर करते हैं
शाम होते ही उजाला-सा बिखर जाता है
टूट जाता है हर एक तसलसुल यारो
कोई लमहा कभी ऐसा भी गुजर जाता है
कोई उम्मीद किरण बनके चमक उठती है
दिल से कुछ देर को हर बोझ उतर जाता है
उजाला-सा बिखर जाता है।
कोई उम्मीद किरण बनके चमक उठती है
बुद्धपुरुषों के पास, तीर्थंकरों के पास, सदगुरुओं के पास, परमहंसों के पास, सूफियों के पास--
कोई उम्मीद किरण बनके चमक उठती है
दिल से कुछ देर को हर बोझ उतर जाता है
कुछ देर को ही, क्षणभर को ही सही, कोई पूरा सूरज नहीं ऊगता, लेकिन एक किरण कौंध जाती है। लेकिन उस किरण में तुम्हें अपना भविष्य दिखायी पड़ जाता है कि यह हो सकता है।
टूट जाता है हर एक तसलसुल यारो
कोई लमहा कभी ऐसा भी गुजर जाता है
कोई लमहा, एक क्षणभर को, एक पलभर को आंख खुल जाती है, फिर बंद हो जाती है, लेकिन वह एक पल जीवन को बदल देने वाला पल सिद्ध होता है।
पूछते हो, ‘किसी बुद्धपुरुष के वचनों के मार्मिक अर्थ को समझ पाना क्या ध्यान को उपलब्ध हुए बिना संभव है?’
हां भी और नहीं भी। हां इस अर्थ में कि झलक मिलती है, एक किरण सी उतरती है। एक उमंग जग जाती है, एक प्यास उठने लगती है, एक अज्ञात खिंचाव पैदा हो जाता है, इसलिए हां। और नहीं इसलिए कि सुनकर ही कहीं पूरी बात थोड़े ही हो जाती है। चलना पड़ेगा, उठना पड़ेगा, बदलना पड़ेगा, बहुत कूड़ा-करकट है वह जला देना पड़ेगा। आग से गुजरना होगा, ताकि सोना निखर जाए।
बुद्धपुरुषों की बात सुनकर यात्रा शुरू होती है, मंजिल नहीं आ जाती। मंजिल तो आएगी तभी जब ध्यान पूरा होगा। और जब ध्यान पूरा होगा, तभी पूरी बात भी समझ में आएगी। क्योंकि पूरी बात समझने का एक ही अर्थ हो सकता है कि जो उनका अनुभव था, वह मेरा भी अनुभव हो गया। जब अनुभव एक जैसे हो जाते हैं, तभी बात समझ में आती है।

चौथा प्रश्न:
जिस दिन मैं पा लूंगा उस दिन कैसे आपको धन्यवाद दूंगा?
अब अभी से व्यर्थ की फिकर में मत पड़ो। जब पा लेने जैसी अपूर्व घटना घट जाएगी तो धन्यवाद भी खोज ही लोगे। यह तो छोटी सी बात रही! उतनी बड़ी बात हो जाएगी तो क्या तुम सोचते हो धन्यवाद देने का कोई ढंग न खोज पाओगे? भगवान को खोज लोगे और धन्यवाद देने का ढंग न खोज पाओगे?
हो ही जाएगा। तुम इसकी फिकर मत करो। और अभी से कोई अभ्यास थोड़े ही करना है कि धन्यवाद का अभ्यास करोगे। अभ्यास करोगे तो झूठा होगा। और झूठा अभ्यास अगर रहा, तो उस मौके पर भी शायद झूठे अभ्यास से ही धन्यवाद दोगे। उस धन्यवाद को तो कम से कम स्वस्फूर्त रहने दो, उसकी तो तैयारी मत करो। उसका तो रिहर्सल मत करो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन रेलयात्रा से वापस लौटा तो मुझसे कहने लगा कि रास्ते में एक टिकिट चेकर उसे बड़े अजीब ढंग से घूर रहा था। तो मैंने पूछा, अजीब ढंग से, क्या मतलब तुम्हारा, नसरुद्दीन? तो उसने कहा कि यानी वह ऐसे घूर रहा था जैसे मेरे पास टिकिट हो ही नहीं। तो मैंने पूछा, फिर तुमने क्या किया, नसरुद्दीन? तो उसने कहा, मैं क्या करता, मैं भी उसे ऐसे घूरने लगा जैसे सचमुच मेरे पास टिकिट हो।
अब ऐसे अभ्यास चल रहे हैं। टिकिट चेकर तुम्हें घूर रहा है कि जैसे तुम्हारे पास टिकिट न हो। तुम ऐसे घूर रहे हो जैसे तुम्हारे पास टिकिट हो।
झूठे अभ्यासों में मत पड़ो। यह बात पूछो ही मत। धन्यवाद निकलेगा उस अनुभव से सद्यःस्नात, अभी-अभी नहाया हुआ, ताजा, जैसे कोंपल फूटती नयी, जैसे सुबह सूरज ऊगता नया, ऐसा धन्यवाद ऊगेगा। और उस धन्यवाद की बात ही कुछ और है।
झेन फकीरों में, झेन परंपरा में इस तरह के विचार चलते हैं। हर शिष्य अपने ढंग से धन्यवाद देता है जब ज्ञान को उपलब्ध होता है। कभी-कभी तो बड़ी अजीब घटनाएं घट जाती हैं।
एक युवक बोकोजू अपने गुरु के पास वर्षों रहा, ध्यान की, समाधि की तलाश में। और जब भी वह कुछ खबर लेकर जाता कि बड़ा अनुभव हुआ है कि गुरु उसको एक चांटा रसीद कर देता। यह पहले तो बहुत चौंकता था, फिर समझने लगा। औरों से पूछा, बुजुर्गों से पूछा, जो पहले से ऐसे गुरु के चांटे खाते रहे थे उनसे पूछा, उन्होंने कहा कि उसकी बड़ी कृपा है, वह मारता ही तब है जब उसकी कृपा होती है किसी पर, नहीं तो वह मारता ही नहीं। फिजूल पर तो वह खर्चा ही क्यों करे, एक चांटा भी क्यों खर्च करे! तुम पर उसकी बड़ी कृपा है। और वह मारता इसलिए है कि तुम जो भी ले जाते हो, वह अभी सच नहीं है, काल्पनिक है।
कभी वह पहुंच जाता कि बड़े प्रकाश का अनुभव हुआ गुरुदेव, और एक चांटा! कि कुंडलिनी जग गयी गुरुदेव, और एक चांटा! कि चक्र खुलने लगे, और एक चांटा! वह जो भी अनुभव ले जाता और चांटा खाता।
तब तो उसे भी समझ में आने लगा कि बात तो सब, यह सब तो काल्पनिक जाल ही है। जहां तक किसी चीज का अनुभव हो रहा है, वहां तक अनुभव हो ही नहीं रहा है। क्योंकि जो भी अनुभव हो रहा है, वह तुमसे अलग है। कुंडलिनी जगी, तो तुम तो देखने वाले हो, तुम तो कुंडलिनी नहीं हो। वह जो देख रहा है भीतर कि कुंडलिनी जग रही है, वह तो कुंडलिनी नहीं हो सकता न! कुंडलिनी तो विषय हो गयी। जिसने देखा कि भीतर तीसरी आंख खुलने लगी, वह तो तीसरी आंख से भी उतना ही दूर हो गया जितना इन दो आंखों से दूर है। वह तीसरी आंख भी अलग हो गयी। जिसने देखा कि भीतर कमल खिलने लगा, वह देखने वाला तो कमल नहीं हो सकता न! वह देखने वाला तो पार और पार और पार...उसका तो पता तब चलता है, जब न कमल खुलते, न प्रकाश होता, न कुंडलिनी जगती, न चक्र घूमते, कुछ भी नहीं होता है, सन्नाटा छा जाता है। अनुभव में कुछ आता ही नहीं, सिर्फ वही बच जाता है साक्षी, उस शून्य का साक्षी रह जाता है।
ऐसा कहते हैं, बीस साल तक बोकोजू ने चांटे खाए। और आखिरी बार जब वह आया, तो पता है कैसे उसने धन्यवाद दिया! आकर एक चांटा अपने गुरु को जड़ दिया। गुरु खूब हंसा। कहते हैं, गुरु लोटा, प्रसन्नता में लोटा। उसने कहा, तो हो गया आज!
तो धन्यवाद कैसा होगा, कहना मुश्किल है। यह ठीक धन्यवाद था, बीस साल चांटे खाने के बाद आज कुछ कहने को था भी नहीं। झेन परंपरा अनूठी है। फकीरों की सारी परंपराएं अनूठी हैं।
मैं एक झेन फकीर के संस्मरण पढ़ रहा था। वह फकीर अमरीका गया हुआ था और वहां एक हिंदू संन्यासी से निमंत्रण मिला कि मुझे मिलने आओ। पढ़कर मुझे ऐसा लगा कि हिंदू संन्यासी और कोई नहीं, बाबा मुक्तानंद होने चाहिए। नाम उसने नहीं लिखा है, लेकिन हुलिया और ढंग जो वर्णन किया है, वह मुक्तानंद का है। और यह भी लिखा है कि वह अंग्रेजी नहीं बोलते हैं।
मुक्तानंद ने बुलाया होगा। निमंत्रण दिया फकीर को आने को, वह फकीर आया। तो मुक्तानंद बैठे एक ऊंचे सिंहासन पर, और उसके नीचे एक आसनी बिछा दी फकीर के लिए।
मुझे लगा कि मुक्तानंद ही होने चाहिए, क्योंकि मेरे साथ भी उन्होंने यही किया। मुझे भी बहुत निमंत्रण दे-देकर बुलाया। और जब मैं गया तो वह एक आसन पर बैठे और एक आसनी नीचे रख दी उन्होंने बैठने के लिए।
फकीर बैठ गया। मुक्तानंद ने कुछ मिठाई फकीर को भेंट की। तो फकीर के साथ एक शिष्य आया था, उसने कहा कि नहीं, वह मिठाई नहीं लेंगे, उन्हें डायबिटीज है। तो मुक्तानंद ने कहा कि डायबिटीज! तो तीन मील सुबह पैदल चलो, आसन-व्यायाम करो, तो ठीक हो जाएगी।
अब यह बिलकुल अंधेपन का सबूत है। क्योंकि आदमी जो सामने बैठा है वह परमदशा में है। उसको यह बताना कि तीन मील पैदल चलो, आसन-व्यायाम करो, योगासन सीख लो--मूढ़ता का लक्षण है।
वह फकीर हंसा, उसने कहा, डायबिटीज बड़ी प्यारी है। भगवान की देन है।
यह सब अनुवाद किया जा रहा है। एक मुक्तानंद की शिष्या अनुवाद कर रही है। मुक्तानंद हिंदी में बोल रहे हैं, अंग्रेजी में अनुवाद किया जा रहा है। और वह जो फकीर अंग्रेजी में बोल रहा है, वह हिंदी में अनुवाद किया जा रहा है।
तब मुक्तानंद ने कहा, कोई जिज्ञासा? अब एक तो उसको बुलाया खुद, और अब उससे पूछते हैं, जिज्ञासा? कुछ पूछो। कोई प्रश्न वगैरह हों तो वह हल कर दें। तो उस फकीर ने झेन ढंग से कहा कि ईश्वर है या नहीं? अगर कहा, है, तो एक तमाचा मारूंगा, और अगर कहा, नहीं है, तो भी एक तमाचा मारूंगा, बोलो? वह जो अनुवाद कर रही थी महिला, वह तो बहुत घबड़ा गयी कि यह कोई बातचीत है। कि अगर कहा, है, तो एक तमाचा मारूंगा, अगर कहा, नहीं है, तो भी एक तमाचा मारूंगा, बोलो।
तो वह महिला तो थोड़ी घबड़ायी कि इसका अनुवाद करना कि नहीं! और उसने भी चौंककर देखा कि यह बात क्या है? और उस फकीर ने कहा, अनुवाद कर, नहीं तो तू नाहक पिटेगी। तो घबड़ाकर उसने अनुवाद कर दिया। जब यह अनुवाद मुक्तानंद ने सुना तो वह तो बहुत घबड़ा गए कि यह कौन सी तत्वचर्चा है? तो उन्होंने कहा, आप कोई दार्शनिक नहीं मालूम होते, यह कौन सी तत्वचर्चा है?
मगर यह तत्वचर्चा है। झेन फकीर यह कह रहा है कि हां कहो तो गलत, न कहो तो गलत। क्योंकि हां कहो तो द्वैत आ गया, न कहो तो द्वैत आ गया। दोनों हालत में चांटा मारूंगा। अगर हां कहा तो चांटा मारूंगा, न कहा तो चांटा मारूंगा। वह यह कह रहा है कि दोनों हालत में तुमने गलती की। क्योंकि परमात्मा के संबंध में न तो हां कहा जा सकता है, न न कहा जा सकता है। चुप्पी ही, मौन ही एकमात्र सही उत्तर है। लेकिन इससे तो बात बिगड़ गयी। यह चांटा मारने की बात तो कुछ जंची नहीं। तो झेन फकीर ने लिखा है अपनी डायरी में कि बाबा ने जल्दी से घड़ी देखी और कहा कि मुझे दूसरी जगह जाना है। बस सत्संग समाप्त हो गया!
हर परंपरा के अपने ढंग होते हैं। लेकिन परंपरागत ढंग सीख लेने से कुछ सार नहीं है। तिब्बत में जब ज्ञान हो जाए तो एक ढंग होता गुरु को धन्यवाद देने का, लेकिन अगर ढंग सीख रखा परंपरा से तो ढंग ही झूठा है। यह काम थोड़े ही आएगा।
तो तुम यह तो पूछो ही मत कि कैसे धन्यवाद दोगे। तुम तो इसकी ही फिकर करो, धन्यवाद की क्या फिकर है, न भी दिया तो चलेगा!
पूछा है, स्वामी स्वरूप सरस्वती ने। और मैं तुमसे कहे देता हूं, धन्यवाद दिया तो एक चांटा मारूंगा और नहीं दिया तो भी मारूंगा। धन्यवाद की तो फिकर छोड़ो, परमात्मा को पा लेने का सवाल है। उसको पा लिया तो धन्यवाद हो गया। तुम आओगे और धन्यवाद हो जाएगा, तुम बैठोगे और धन्यवाद हो जाएगा। तुम न आए तो भी धन्यवाद आ जाएगा। तुमने कहा कि नहीं कहा, फिर अर्थहीन है। तुम्हारा होना कह देगा।
जब गुरु देखता है कि किसी शिष्य को हो गया, तो क्या तुम सोचते हो तुम बताओगे तब उसे पता चलेगा? तब तो गुरु ही नहीं है। तुम्हारे बताने से पता चला तो फिर क्या खाक गुरु है! सच तो यह है कि जब तुम्हें होगा, तुम्हारे होने के पहले, तुम्हें पता चलने के पहले गुरु को पता चल जाएगा कि हो रहा है।
रिंझाई के संबंध में ऐसी कहानी है कि जब उसे ज्ञान हुआ तो रात के दो बजे थे। बैठा था ध्यान में, अचानक सब द्वार-दरवाजे खुल गए। कर रहा था मेहनत कोई बारह वर्षों से। जब द्वार-दरवाजे खुल गए दो बजे रात, तो उसके मन में खयाल आया कि जाऊं और अपने गुरु के चरणों में सिर रखूं। लेकिन दो बजे रात, उनको जगाना नींद से तो ठीक नहीं है। जब उसने ऐसा सोचा तो हैरान हुआ, कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। दरवाजा खोला तो गुरु सामने खड़े हैं।
गुरु ने कहा, तो अरे नासमझ, तू क्या सोचता था कि तुझे ज्ञान होगा और हम सोए होंगे! इतनी बड़ी घटना घट रही हो--जब तेरे साथ साथ जोड़ दिया तो सब तरह जुड़ गए--तुझे इतनी बड़ी घटना घट रही हो और हम सो सकते हैं! और क्या तू सोचता है तुझे पहले पता चलेगा, फिर हमें पता चलेगा?
तुम चकित होओगे जानकर कि पश्चिम में बहुत से प्रयोग चल रहे हैं--मां और बच्चों के बीच में कोई एक अज्ञात सूत्र रहता है। जैसे जब बच्चा पैदा होता है मां के पेट से तो जुड़ा रहता है, बच्चे की नाभि मां के पेट से भौतिक रूप से जुड़ी रहती है, डाक्टर उसे काटता है। लेकिन एक और कोई स्वर्णसूत्र है जो जुड़ा ही रहता है, जिसको काटा नहीं जा सकता। इस पर बहुत प्रयोग चले हैं, विशेषकर सोवियत रूस में बहुत प्रयोग हुए हैं और बड़ी हैरानी के परिणाम आए हैं।
वे प्रयोग ये हैं कि अगर बच्चे और मां में बहुत लगाव हो, तो तुम हजारों मील दूर ले जाकर बच्चे को सताओ, मां को अनुभव होने लगता है कि बच्चा सताया जा रहा है, उसे कुछ तकलीफ शुरू हो जाती है। वह बेचैन होने लगती है।
फिर आदमी तो बहुत विकृत हो गया है, इसलिए पशुओं पर प्रयोग किए गए। एक बिल्ली को ऊपर छोड़ दिया गया घाट पर और उसके छोटे बच्चे को एक पनडुब्बी में समुद्र की गहरी सतह में ले जाया गया--मीलभर नीचे। और यह जो ऊपर बिल्ली छोड़ी गयी है, इस पर सब यंत्र लगाकर रखा गया है कि इसके मन की दशा का पता चलता रहे, कब यह परेशान होती है, बेचैन होती है--छोटी सी भी बेचैनी। और जैसे ही उस बच्चे को नीचे सताया गया, उसकी गर्दन मरोड़ी गयी कि वह एकदम परेशान होने लगी। एक मील का फासला है, पानी की अतल गहराई में बच्चा है! जैसे ही उसकी गर्दन छोड़ी गयी, वह फिर ठीक हो गयी। फिर गर्दन दबायी गयी, वह फिर परेशान हो गयी। फिर तो इस पर बहुत प्रयोग किए गए हैं और यह अनुभव में आया कि जहां प्रेम है, वहां एक स्वर्ण-सूत्र जोड़े रखता है।
तो यह तो मां और बच्चे की बात है, तुम गुरु और शिष्य की बात तो पूछो ही मत। क्योंकि यह प्रेम तो कुछ भी नहीं है उस प्रेम के मुकाबले। यह तो शरीर का ही प्रेम है। गुरु और शिष्य के बीच तो एक आत्मिक नाता है, आत्मा का एक संबंध है।
जिस दिन तुम्हें ज्ञान होगा, तुम सोचते हो तुम्हें पहले पता चलेगा? तो तुमने गलत ही सोचा। तुम्हारे गुरु को तुमसे पहले पता चल जाएगा। और यह भी हो सकता है कि तुम्हें धन्यवाद देने का गुरु मौका न दे, तुम्हें तुम्हारे धन्यवाद देने के पहले धन्यवाद दे।
इस चिंता में पड़ो मत। असली चिंता दूसरी ही है कि कैसे उसे पा लो। धन्यवाद गैर-धन्यवाद तो शिष्टाचार-उपचार की बातें हैं।

पांचवां प्रश्न:
कभी आप कहते हैं, अकेलापन स्वभाव है; कभी आप कहते हैं, स्वतंत्रता स्वभाव है; कभी आप कहते हैं, प्रेम स्वभाव है; कभी आप कहते हैं, आनंद स्वभाव है। कृपा करके समझाएं।
मैं जो भी कहता हूं वह एक ही है, बहुत ढंग से कहता हूं। समझो!
जब मैं कहता हूं, अकेलापन स्वभाव है, तो मैं कह रहा हूं, यह मार्ग ध्यान का। अकेलापन यानी ध्यान। अकेले रह गए। असंबंधित। असंग। कोई दूसरे की धारणा न रखी। पर को भूल गए, परमात्मा को भी भूल गए, क्योंकि वह भी पर, वह भी दूसरा; अकेले रह गए, बिलकुल एकांत में रह गए। जैन, बौद्ध इस तरह चलते हैं। अकेले रह गए। इसलिए उनके मोक्ष का नाम कैवल्य है। बिलकुल अकेले रह गए। केवल चेतना मात्र बची। अकेलापन स्वभाव है।
जो अकेला हो गया, तो दूसरी बात उसमें से निकलेगी--स्वतंत्रता स्वभाव है। जब तुम अकेले रह गए तो तुम स्वतंत्र हो गए। अब तुम्हें कोई परतंत्रता न रही, क्योंकि कोई पर ही न रहा। दूसरे पर निर्भरता न रही। तुम मुक्त हो गए, तुम स्वतंत्र हो गए। तुम्हारा अपना स्वछंद तुम्हें उपलब्ध हो गया। तुम अपना गीत गुनगुनाने लगे। अब तुम उधार गीत नहीं गाते, अब तुम दूसरे की छाया की तरह नहीं डोलते, अब तुम किसी के पीछे नहीं चलते, अब तुम अपने भीतर से, अपने केंद्र से अपने जीवन का रस बहाने लगे। तो स्वतंत्र हुए।
फिर तीसरी बात मैं कहता हूं, प्रेम स्वभाव है। जो स्वतंत्र हो गया और अकेला हो गया, वही प्रेम देने में सफल हो पाता है। क्योंकि उसी के पास प्रेम देने को होता है। तुम तो प्रेम दोगे कैसे? तुम तो मांग रहे हो, दोगे कैसे? तुम तो चाहते हो, कोई तुम्हें दे दे, तुम्हारे पास ही होता तो तुम मांगते क्यों? तुम्हारे पास नहीं है, इसीलिए तो मांगते हो। हम वही तो मांगते हैं जो हमारे पास नहीं है।
और जो स्वतंत्र हो गया, एकांत में डूब गया, अपनी मस्ती में खो गया, उसके पास प्रेम होगा। वह प्रेम बांटेगा। लेकिन उसका प्रेम तुम्हारे जैसा प्रेम नहीं होगा, वह देगा--बेशर्त। वह किसी को भी देगा, वह यह भी नहीं कहेगा, किसको दूं, किसको न दूं; उसकी कोई सीमा न होगी। वह बांटेगा, वह उलीचेगा, जैसे एकांत में खिला हुआ फूल अपनी सुगंध को हवाओं में बिखेर देता है--किसी को मिल जाए, ठीक, न मिले, ठीक। किसी के प्रयोजन से नहीं बिखेरता। सुगंध में किसी का पता नहीं लिखा होता कि फलाने के घर जाना है, कि मेरी प्रेयसी वहां रहती है, सुगंध, वहां जाना। कि मेरा प्रिय वहां रहता है, वहां जाना। बिखेर देता है, जिसको मिल जाए। फूल खिल गया, अब उसको क्या प्रयोजन।
जो व्यक्ति स्वतंत्र हो गया, उसका प्रेम खिल जाता है, उसका फूल खिल जाता है। और जिसका फूल खिल जाता है--चौथी बात--आनंद स्वभाव है। जिसका फूल खिल गया, वह आनंदित है। बिना भीतर के फूल के खिले, कब कोई आनंदित हुआ है?
तो जब मैं कहता हूं, अकेलापन स्वभाव है, स्वतंत्रता स्वभाव है, प्रेम स्वभाव है, आनंद स्वभाव है, तो मैं एक मार्ग की बात कर रहा हूं, वह मार्ग है--ध्यान का मार्ग। उसमें अकेलापन पहले आता, फिर स्वतंत्रता आती, फिर प्रेम आता, फिर आनंद आता।
दूसरा मार्ग है भक्ति का मार्ग। भक्ति के मार्ग में प्रेम पहले आता है, प्रेम स्वभाव है। परमात्मा के प्रति इतने अनन्य प्रेम से भर जाना है कि तुम्हारा मैं-भाव समाप्त हो जाए, तुम्हारा मैं समर्पित हो जाए। और जिसके जीवन में प्रेम आ गया, परमात्मा के प्रति ऐसा समर्पण आ गया, ऐसी प्रार्थना आ गयी कि अपने अहंकार को उसने सब भांति समर्पित कर दिया, उसके जीवन में अनिवार्यरूपेण आनंद आ जाएगा। जो रहा ही नहीं, मैं ही न बचा, वहां दुख कहां?
अहंकार दुख है। अहंकार दुख की तरह सालता है, शूल है, जहर है। जहां अहंकार गिर गया भक्त का, वहीं आनंद आ गया। और जहां आनंद आ जाता है, वहां दूसरे की कोई जरूरत नहीं रही।
दूसरे की जरूरत तो दुख में रहती है। तुम जब दुखी होते हो तब तुम दूसरे को तलाशते हो, कोई मिल जाए तो दुख बंटा ले। दूसरे की जरूरत ही दुख में पड़ती है। जब तुम आनंदित हो, तब क्या दूसरे की जरूरत है!
तो जो व्यक्ति प्रेम को उपलब्ध हुआ, आनंद को उपलब्ध हुआ, वह अकेलेपन को उपलब्ध हो जाता है। उसको कोई जरूरत नहीं दूसरे की। और जो अकेला है, वही स्वतंत्र है, वही स्वच्छंद है।
तो यह दूसरा सूत्र भक्ति का--प्रेम स्वभाव है। प्रेम से पैदा होता आनंद। आनंद स्वभाव है, आनंद से पैदा होता एकाकीपन, अकेलापन, एकांत, तो अकेलापन स्वभाव है। और अकेलापन यानी स्वतंत्रता, स्वच्छंदता।
किसी भी मार्ग से चलो। दो ही मार्ग हैं। या तो शुद्धरूप से अकेले बचो, तो तुम पहुंच जाओगे। या अपने को बिलकुल गंवा दो, खो दो, तो तुम पहुंच जाओगे। या तो मिट जाओ, तो पहुंच जाओगे, शून्य हो जाओ, तो पहुंच जाओगे। या पूणर्र् हो जाओ, तो पहुंच जाओगे।
जैन और बौद्ध चलते हैं ध्यान से--अकेले हो गए। मैं को शुद्ध करते हैं, शुद्ध करते हैं, परिपूर्णता पर लाते हैं। हिंदू, मुसलमान, ईसाई चलते हैं प्रेम से--अपने को समर्पित करते हैं। समर्पण में अहंकार धीरे-धीरे खो जाता है, रेखा भी नहीं बचती। जिस दिन अहंकार खो जाता है, उसी दिन परमात्मा प्रगट हो जाता है।

छठवां प्रश्न:
लाओत्सू जब अपना देश छोड़कर जा रहे थे, तब देश के राजा ने उन्हें कहलाया कि आपने जो कुछ प्राप्त किया है, उसकी चुंगी चुकाए बिना आप नहीं जा सकते। उसी प्रकार परमात्मा ने आपको भी मोक्ष के द्वार पर रोककर रखा है कि जब तक आप संबोधि का दान औरों को नहीं देते, तब तक आप भी मोक्ष-महल में प्रवेश नहीं कर सकेंगे, यह संदेहरहित बात है, प्रभु!
पूछा है बोधिधर्म ने।
संदेह तो थोड़ा रहा होगा, नहीं तो पूछते नहीं। संदेहरहित बात में पूछना क्या? थोड़ा संदेह होगा। उसी संदेह के कारण यह भी कहा है कि संदेहरहित बात है, नहीं तो यह भी न कहते।
बात प्यारी है। बात महत्वपूर्ण है। लेकिन थोड़ा सा फर्क है। लाओत्सू को रोका था देश के राजा ने, क्योंकि वह बिना एक पंक्ति लिखे अपने अनुभव की, भागा जा रहा था, हिमालय में जा रहा था। उसने चुन रखा था कि जाकर हिमालय में ही कब्र बने--इससे सुंदर जगह मरने को और हो भी क्या सकती है! तो चीन छोड़कर जा रहा था, दक्षिण की तरफ भाग रहा था, उसको राजा ने रुकवा लिया।
राजा भी बड़ा समझदार रहा होगा, इतने समझदार राजा मुश्किल से होते हैं। राजा और समझदार, जरा यह बात साथ-साथ घटती नहीं। समझदार राजा रहा होगा, उसने खबर भेजी, पुलिस के आदमी दौड़ाए, घोड़े दौड़ाए और उसको ठीक सीमा पर रुकवा लिया, चुंगी चौकी पर, जहां से बाहर जाने के लिए आखिरी दरवाजा था। और रुकवाकर उसने कहा कि जब तक तुम लिख न जाओगे जो तुमने जाना है--उसने जिंदगीभर लिखा नहीं, और जब भी लोगों ने पूछा, टाल दिया; और जब भी बहुत लोगों ने कहा तो उसने इतना ही कहा कि सत्य कहा नहीं जा सकता।
लेकिन राजा ने कहा, अब तुम छोड़कर ही जा रहे हो देश, तो अब बिना कहे न जा सकोगे--लिख दो, जो भी जाना है, फिर जा सकते हो। अगर नहीं लिखा तो बाहर न निकलने दूंगा।
उसे जाना तो जरूर था, मजबूरी में वह चुंगी चौकी पर ही तीन दिन रुका और उसने अपनी अदभुत किताब ताओ तेह किंग लिखी। तीन दिन में लिखी थी, छोटे से सूत्र हैं। जल्दी से उसने लिख-लिखाकर दे दिया।
पहला ही सूत्र उसने लिखा कि सत्य कहा नहीं जा सकता और जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं होगा; इस बात को ध्यान में रखकर आगे कहता हूं। तो उसने पहले ही साफ कर दिया मामला। उसने चुंगी चुका दी। मजबूरी थी इसलिए चुकानी पड़ी--वह भाग गया, फिर निकल गया।
तुम कहते हो कि ‘जैसा लाओत्सू को उस देश के राजा ने चुंगी चुकाए बिना नहीं जाने दिया, उसी प्रकार परमात्मा ने आपको भी मोक्ष के द्वार पर रोककर रखा है।’
यहां जरा बात उलटी है। परमात्मा ने मुझे रोककर नहीं रखा है, परमात्मा को मैं रोककर रखा हूं कि जरा, दरवाजा अभी मत खोलना। जहां तक चुकाने का सवाल है, मैंने मूलधन भी चुका दिया है, ब्याज भी, चक्रवृद्धि ब्याज भी चुका दिया है। जितना लिया था उससे बहुत ज्यादा चुका दिया है। इसलिए परमात्मा मुझे रोके, यह तो सवाल ही नहीं है, मैं ही रोककर बैठा हूं कि जरा और, थोड़ा और, और थोड़ा बांट दूं।
मेरे जाने की नाव तो आकर किनारे लगी खड़ी है, मैं ही समझा-बुझाकर रोक रहा हूं माझी को कि जरा और, ये थोड़े लोग और आ गए हैं, इनको थोड़ा और समझा लूं।

आखिरी प्रश्न:
आपने चमचे और चमचागीरी जैसे साधारण शब्दों का उपयोग किया, इससे मेरा मन बहुत दुखी हुआ। ऐसा आपने क्यों किया?
पहली तो बात, तुम शब्दों में भी शूद्र और ब्राह्मण बनाए बैठे हो! आदमियों में भी वर्ण बनाए, शब्दों में भी बना लिए! तो चमचागीरी या चमचा तुम्हें लगता होगा शूद्र शब्द हैं, इनका उपयोग नहीं होना चाहिए।
मेरे लिए कोई शूद्र नहीं है, कोई ब्राह्मण नहीं है। रही बात शब्दों की, तो शब्द का अर्थ ही होता है, जो अभिव्यंजक हो। जितना अभिव्यंजक हो। अब चमचे से ज्यादा अभिव्यंजक शब्द खोज सकते हो? इस बात को किसी और शब्द से कह सकते हो? इससे ज्यादा ठीक मौजूं शब्द इस बात को कहने के लिए दूसरा नहीं है। इसलिए शब्द सार्थक है। और तुम सोचते हो नया है, तो तुम गलती करते हो। आदमी जितना पुराना है उतना ही पुराना है। कभी कुछ और कहा होगा, कभी कुछ और कहा होगा, लेकिन चमचागीरी पुराना शास्त्र है। वेद से भी ज्यादा पुराना।
अगर तुम वेद में भी खोजोगे तो तुम्हें चमचागीरी मिलेगी। इंद्र की प्रशंसा चल रही है, स्तुति चल रही है! वह भी भय के कारण, घबड़ाहट के कारण, लोभ के कारण, कि करोगे प्रशंसा तो तुम्हें कुछ मिल जाएगा, स्तुति चल रही है। स्तुति पुराना शब्द है, अब उसने अर्थ खो दिया।
जब शब्द कोई प्रचलित होता है, लोक-व्यवहार में होता है, तब उसमें प्राण होते हैं। अब चमचागीरी शब्द के लिए बस दूसरा ही एक शब्द है जो उसके करीब आता है, हालांकि उतने करीब नहीं आता, वह है मक्खनबाजी। लगा रहे हैं मक्खन।
तो पहली तो बात यह कि मेरे लिए साधारण-असाधारण कुछ भी नहीं है। शब्दों में क्या साधारण-असाधारण! या तो सभी शब्द साधारण हैं, क्योंकि उसको तो किसी शब्द में कहा नहीं जा सकता। सत्य तो किसी शब्द में नहीं आता है, इसलिए सभी शब्द साधारण हैं। या फिर सभी शब्द असाधारण हैं, क्योंकि जो भी कहा जा सकता है, वह सभी शब्दों में कहा जा सकता है। जो शब्द भी बोलते हैं, जिन शब्दों में भी वाणी है, वे सभी असाधारण हैं। मगर वर्गीकरण नहीं करूंगा। अच्छे और बुरे, ऐसे शब्द नहीं हैं। अच्छे और बुरे तुम्हारी धारणा में हैं।
तुम्हें तकलीफ हुई होगी, यह मैं मानता हूं। तुम्हें लगा होगा कि जिस व्यक्ति को तुम भगवान कहो, उसने चमचे जैसा शब्द का उपयोग कर लिया! तो तुम अपने भगवान की धारणा को थोड़ा बदलो। तुम्हारे भगवान की धारणा रक्तहीन है, मुर्दा है। तुम अपने भगवान की धारणा में थोड़ा रक्त डालो, थोड़ा जीवन डालो। तुम्हारे भगवान की धारणा शाब्दिक है, कोरी है, प्रज्वलित नहीं है; उसे प्रज्वलित करो; बुझी-बुझी है, आग नहीं है उसमें, तो तुम घबड़ा जाते हो, जरा सा ही एक छोटा सा शब्द और तुम घबड़ा गए!
और फिर तुम्हारे भीतर एक गहरी आकांक्षा छिपी रहती है कि अगर मौका मिल जाए, तो तुम मुझसे बदला ले लो। बदला इस बात का कि मैं तुम्हें रोज सलाह देता हूं, तुम्हें मौका मिल जाए तो तुम मुझे सलाह देने का मौका नहीं चूकते। कोई मौका मिल जाए जिसमें तुम्हें मेरी भूल-चूक मिल जाए, तो तुम जल्दी से बताना चाहते हो।
इस बात को बहुत ज्यादा ध्यान में रखने की जरूरत है कि शिष्य को भी शिष्य होने में बड़ी अड़चन रहती है। बनता है शिष्य, मजबूरी में, बनना तो गुरु चाहता है।
सुना है, एक सूफी फकीर के पास एक आदमी आया और उस आदमी ने कहा कि परमात्मा को पाना है। तो सूफी फकीर ने कहा, शिष्य बनना पड़ेगा। तो उसने कहा, शिष्य बनने में क्या-क्या कर्तव्य हैं? क्या-क्या करना होगा? तो फकीर ने कहा कि तीन साल तक तो पूछना ही मत, झाडू लगाना, बुहारी लगाना, गाएं चरा लाना, घोड़ों की देखभाल करना, भोजन बनाना, कपड़े धोना, इस तरह के काम हैं। फिर तीन साल के बाद जो ठीक होगा, हम बताएंगे। तो उसने कहा, यह तो मामला जरा लंबा दिखायी पड़ता है--तीन साल यही करना है! तो और गुरु का क्या कर्तव्य है? शिष्य का तो यह कर्तव्य है, गुरु का क्या कर्तव्य है? तो गुरु ने कहा, गुरु का कर्तव्य है बैठे रहना मस्ती से। लोगों से कहना, यह करो, वह करो, ऐसा करो, इसको वहां भेजो, इसको वहां भेजो। तो उसने कहा, फिर ऐसा करें, मुझे गुरु ही बना दें। यह काम ज्यादा रुचता है।
तो मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं कि तुम्हारे मन में भी गुरु बनने का भाव तो छिपा बैठा है। और कभी-कभी मैं ऐसी बातें कहता हूं। मैं जानना चाहता हूं, किस-किस के भीतर गुरु-भाव छिपा बैठा है?
‘मन को दुख हुआ।’
मन को दुख होने का कारण यह है कि तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी न हों तो मन को दुख हो जाता है--तुम जैसी अपेक्षा रखते हो। और एक बात तुम खूब समझ लो कि मैं तुम्हारी कोई अपेक्षा कभी पूरी नहीं करूंगा। क्योंकि यहां मैं तुम्हारी अपेक्षा पूरी करने में उत्सुक ही नहीं हूं। तुम्हें पूरा कर सकता हूं, लेकिन तुम्हारी अपेक्षा पूरी नहीं कर सकता हूं। और तुम्हें पूरा कर सकता हूं, इसीलिए कि तुम्हारी अपेक्षा पूरी नहीं करूंगा। अगर तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करने लगूं, तो तुम अधूरे रह जाओगे।
अब तुम चुन लो। तुम्हारी अपेक्षाएं तो मुझे तोड़नी होंगी, जगह-जगह से तोड़नी होंगी। तुम्हारी धारणाएं तो सब तरफ से उखाड़ देनी होंगी। तुम्हें तो मुझे धीरे-धीरे उस जगह ले आना है, जब तुम्हारे भीतर कोई धारणा नहीं, कोई अपेक्षा नहीं--निर्धारणा। उस घड़ी में ही क्रांति घटेगी, दीया जलेगा।
लेकिन इन छोटी-मोटी बातों पर हिसाब लगाकर बैठे हो!
मैंने सुना, एक साधु आटा मांगने एक घर के सामने रुका। सास मंदिर गयी थी, घर में बहू थी, उसने कहा, महाराज, आगे जाओ। बड़ी तेज-तर्रार औरत मालूम होती थी। साधु फिर कुछ बोला नहीं, और ज्यादा फजीहत करानी ठीक भी न थी, वह वापस लौट गया।
जब वह वापस लौट रहा था तो मंदिर से लौटती हुई सास रास्ते में मिली। सास ने पूछा, क्यों बाबा, मेरे घर गए थे क्या? साधु के हां कहने पर उसने पूछा, तो फिर बहू ने क्या कहा? साधु ने कहा कि बहू ने कहा कि बाबा, महाराज, आगे जाओ, कहीं और जाओ। बड़ी तेज-तर्रार औरत!
सास एकदम गुस्से में आ गयी, उसने कहा, वह कौन होती है मना करने वाली? मेरे रहते वह है कौन मना करने वाली? घर का मालिक कौन है? तुम चलो मेरे साथ, मैं अभी उसे ठीक करती हूं।
साधु बड़ा प्रसन्न हुआ, सोचा कि जब बुलाकर ले जा रही है तो कुछ देगी। दोनों जब घर पहुंच गए, तो सास ने गुस्से में बहू से पूछा, बहू, तुमने महाराज को आटा देने से मना किया था? मेरे रहते तू कौन है मना करने वाली? माफी मांग साधु महाराज से।
बहू ने माफी मांगी, साधु तो बड़ा खुश हुआ। और जब बहू माफी मांग चुकी, तो सास ने कहा, महाराज, जाओ, अब मैं कहती हूं! कहीं आगे जाओ!
औपचारिकता पूरी कर दी। अब मैं कहती हूं, अब कहीं और आगे जाओ। बहू कौन है कहने वाली!
औपचारिकता पर उलझे हो अगर तुम मेरे पास, तो तुम्हारी दशा दयनीय है। औपचारिकताएं छोड़ो। यहां कोई शिष्टाचारों के नियम पूरे नहीं किए जा रहे हैं, यहां किसी क्रांति की तैयारी हो रही है। बड़ा झंझावात है। उसमें बहुत कुछ उखड़ जाना है। तुम्हारे सब नियम-धर्म उखड़ जाने हैं।
फिर अगर देखने की क्षमता हो, तो हर चीज में कुछ अर्थ दिखायी पड़ेगा और देखने की क्षमता न हो तो बड़े-बड़े शब्दों में भी कुछ नहीं है।
तुम्हारे विचार के लिए यह बटरिंग-व्रत कथा तुमसे कहता हूं--
मंगलम्‌‌‌ इमीजिएट बासे,
मंगलम्‌ बटरिंग-व्रताय।
मंगलम्‌ चमचाय चम्पी,
मंगलम्‌ फल प्राप्ताय।।

अथ चमचाय उवाच:

जेहिके स्रवनहिं मात्र से कटहिं कलेस-विकार
तिहि बटरिंग-व्रत की कथा सुनहिं क्लर्क नर-नारि,
हंसा भूखे मर रहे, कौवों के हैं ठाठ
हरिश्चंद्र की हो गयी आज खड़ी फिर खाट,
एक पंक्ति में दे रहा बटरिंग-व्रत का सार
मक्खन मालिश के बिना है यह व्रत बेकार,
जो भी तेरा है आफीसर उसके पांव पकड़ ले प्यारे!
उसकी पत्नी के चरणों को उनके साथ जकड़ ले प्यारे!
आते हुए सलाम मार दे
जाते हुए सलाम मार दे
बिछा पलंग पर चद्दर-दरियां
पहुंचा सब्जी की टोकरियां
त्यौहारों पर भेज मिठाई
उपहारों की कर सप्लाई
कुछ ही दिन ऐसा करने से तुझे तरक्की मिल जाएगी,
तेरी किस्मत की यह खिड़की खुलते-खुलते खुल जाएगी,
बटरिंगकी महिमा अनंत, मोसों लिखी न जाए,
सुख भोगे इहलोक नर, अंत बास-पद पाय।
बटरिंग-व्रत की कथा को विरचत कवि ‘बेचैन’,
पढ़ें-सुनें जे क्लर्कजन चैन करें दिन-रैन।
इति श्री क्लर्को खंडे बटरिंग-व्रत कथायाम्‌ अंतिमोऽध्यायः।
श्री हरे नमः।

आज इतना ही।

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