BUDDHA
Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 72
SeventySecond Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, संसार में दुख ही दुख है या कुछ सुख भी?
संसार पर्यायवाची है दुख का। यह प्रश्न ऐसा ही है जैसे कोई पूछे, दुख में दुख ही दुख है, या कुछ सुख भी है?
सुख की आशा है। लेकिन सुख कभी घटता नहीं। आशा दुराशा सिद्ध होती है। सुख घटेगा, ऐसा संसार आश्वासन देता है। लेकिन आश्वासन यहां कभी पूरे होते नहीं। एक आश्वासन टूटता है तो संसार दस और देता है। आश्वासन देने में संसार कृपण नहीं है। खूब दिल खोलकर आश्वासन देता है। तुम जितना मांगो, उससे हजार गुना देने की तैयारी दिखलाता है। लेकिन देता कुछ भी नहीं। जीवन ले लेता है तुमसे इन्हीं आश्वासनों के सहारे। इन्हीं आशाओं के सहारे तुम्हें दौड़ा लेता है खूब, थककर गिर जाते हो कब्र में। कब्र में गिरते-गिरते तक भी तुम्हारे आश्वासन पर भरोसे टूटते नहीं। तब तुम सोचते हो कब्र में गिरते-गिरते--बैकुंठ है, स्वर्ग है, वहां मिलेगा सुख। वह भी संसार का ही धोखा है।
सुख कहीं मिलेगा, इस भ्रांति का नाम संसार है।
सुख अभी है, यहीं है, इस बोध का नाम निर्वाण है।
सुख किसी से मिलेगा, इस भ्रांति का नाम संसार है।
सुख अपना स्वभाव है, इस जागृति का नाम मोक्ष है।
सुख के लिए कोई परिस्थिति चाहिए, कोई शर्त पूरी करनी पड़ेगी, इस आपाधापी का नाम संसार है। सुख है ही, तुम जैसे हो वैसे होने में सुख है। सुख से तुम कभी च्युत ही नहीं हुए, सुख से ही तुम निर्मित हो। सुख को मांगने में भूल है, सुख को भोगने में सुख है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, अहो, देखो हम कैसे सुखी! वैरियों के बीच अवैरी होकर विहरते हैं। आकांक्षियों के बीच निराकांक्षी होकर विहरते हैं। भिखारियों के बीच सम्राट होकर विहरते हैं। सुसुखं वत! यह हमारा सुखी स्वभाव तो देखो। यह हमारा महासुख देखो।
संसार में सुख नहीं है, सुख स्वयं में है। लेकिन संसार का मतलब ही यह होता है, जो स्वयं से चूक गया और दूसरे पर जिसकी नजर अटक गयी। तुम संसार शब्द का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझते। तुम समझते हो संसार का मतलब, ये वृक्ष, ये पहाड़, ये चांद-तारे, ये बाजार, ये दुकान, यह संसार है। तुम संसार का अर्थ नहीं समझते। तुम शाब्दिक अर्थ समझते हो। तुम उसका मनोवैज्ञानिक अर्थ नहीं समझते।
संसार का अर्थ है, किसी दूसरे में सुख, किसी और में सुख, कहीं और सुख। इस तरह की जो अज्ञान-दशा है, उसका नाम संसार है। और इस अज्ञान-दशा में जो चलता जाता, चलता जाता--संसरण करता है जो--वह संसार में जी रहा है। इस अज्ञान-दशा में संसरण करता है जो, चलता जाता है, चलता जाता है, चलता जाता है; इधर नहीं मिला उधर मिलेगा, वहां पहुंच जाता है, वहां भी नहीं मिलता, और आगे मिलेगा, ऐसी संसरण करने की प्रक्रिया का नाम संसार है।
जिस दिन तुम यह जागकर समझ लोगे--कहीं नहीं मिलता, न यहां मिलता, न वहां मिलता, कितने ही बढ़ते जाओ, कहीं नहीं मिलता; सारी आशाएं क्षितिज की भांति सिद्ध होती हैं, जमीन और आकाश कहीं मिलते नहीं, मिलते प्रतीत होते हैं, जब ऐसा तुम्हें बोध होगा और तुम जागकर खड़े हो जाओगे--जागकर--तुम्हारा होश का दीया जलेगा, आंखें दूसरे से हट जाएंगी अपने पर पड़ेंगी, तुम्हारी ज्योति तुम्हें ज्योतिर्मय करेगी, उसी क्षण सुख है।
और वह क्षण संसार के बाहर है, क्योंकि संसरण रुक गया। वह जो दौड़ थी--दौड़ यानी संसार--वह रुक गयी। अब तुम अपने में डूब गए, तुमने अपने में डुबकी ले ली, तुम स्रोतापन्न हो गए, तुम्हें स्रोतापन्न होने का पहला फल मिला, तुम अपनी जीवनधारा में उतर गए। अब तुम भिखारी नहीं हो, अब तुम सम्राट हो गए, अब तुम कह सकते हो--अहो, देखो, सुसुखं वत! हमारा सुख देखो!
पूछते हो, ‘संसार में दुख ही दुख है?’
दुख का नाम संसार है। इसलिए ऐसा प्रश्न पूछ ही नहीं सकते तुम। पूछा नहीं जा सकता। मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि सुख नहीं है। संसार में सुख नहीं है, इसका यह अर्थ नहीं कि सुख नहीं है। सुख है, संसार में सुख नहीं है। सुगंध है। कंकड़-पत्थरों में सुगंध नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं कि सुगंध नहीं है। कंकड़-पत्थरों को नाक से लगाए बैठे रहोगे तो सुगंध न मिलेगी। सुगंध है, लेकिन फूलों को, कमल को, गुलाब को, कंकड़-पत्थरों को नहीं। कंकड़-पत्थर गंधशून्य हैं। सुगंध है, तुममें। कस्तूरी कुंडल बसै। वह तुम्हारे भीतर ही बसी है। जिसको खोजते तुम द्वार-द्वार, दरवाजे-दरवाजे भटक रहे हो, वह तुम्हारे भीतर बसी है। उसे तुम लेकर आए हो। वह तुम हो। तत्वमसि।
सुख तो है। अगर सुख हो ही न तो जीवन बिलकुल ही अकारथ हो गया, तो जीवन बिलकुल असार हो गया। फिर धर्म का क्या अर्थ, फिर धर्म का क्या सार? धर्म का इतना ही सार है--जहां सुख नहीं है वहां से तुम्हें उस तरफ मोड़ दे जहां सुख है। धर्म सुख की खोज है। धर्म जहां-जहां दुख है, वहां-वहां तुम्हें जगा देता; और जहां सुख है, वहां तुम्हें डुबकी लगवा देता।
और ये जो संसार के दुख हैं, ये भी तुम्हारे विरोधी नहीं हैं, ये भी सहयोगी हैं, क्योंकि इन्हीं से गुजर-गुजर कर तो अनुभव पकेगा। बार-बार चोट खा-खा कर दूसरे से, दुख पा-पा कर तो तुम जगोगे और अपने में आओगे। टकरा-टकरा कर, हर बार रो-रो कर तो एक दिन तुम्हारी आंखें बंद होंगी।
जीवन दर्द का झरना है
जो भी जीते हैं
दर्द भोगते हैं
और दर्द भोगते-भोगते ही हमें मरना है
दर्द नियति की दुकान की निहाई है
दर्द भगवान के हाथ का हथौड़ा है
देवता हम पर चोटें देकर
हमें संवारता और गढ़ता है
शायद यह बात सच है कि
आदमी दर्द में विकसित होता
खूबसूरत बनता और बढ़ता है
तो दर्द एकदम व्यर्थ नहीं हैं, दुख एकदम व्यर्थ नहीं हैं। दुख है बाहर, लेकिन वही चोट निहाई बनती, हथौड़ा बन जाती, वही चोट छेनी बन जाती, वही चोट तुम्हारे भीतर से जो-जो व्यर्थ है उसे काट देती, जला देती है, वही चोट तुम्हें जगाती है।
देवता हम पर चोटें देकर
हमें संवारता और गढ़ता है
दर्द नियति के दुकान की निहाई है
दर्द भगवान के हाथ का हथौड़ा है
शायद यह बात सच है कि
आदमी दर्द में विकसित होता
खूबसूरत बनता और बढ़ता है
इसलिए जब मैं कहता हूं, संसार में दुख है, तो तुम्हें कोई संसार-विरोधी बात नहीं कह रहा हूं। तुम्हें केवल संसार का स्वभाव समझा रहा हूं। ऐसा है। और इस दर्द का भी तुम अगर थोड़ा समझपूर्वक उपयोग करो तो यही सीढ़ियां बन जाए। इसी की चोटों से तुम्हारे भीतर छिपी हुई मूर्ति प्रगट होगी। तुम्हारे भीतर छिपा चिन्मय इसी से प्रगट होगा। यही आग जलाएगी, और जलाएगी, और जलाएगी, और तुम्हारा स्वर्ण निखरकर कुंदन बनेगा।
इसलिए दर्द तो है, दुख तो है, पीड़ा तो है, मगर पीड़ा निखारती है, मांजती है, सजाती है, संवारती है। इसलिए मैं तुम्हें भगोड़ा बनने को नहीं कहता। संसार में दुख है, ऐसा सुनकर कुछ लोग भगोड़े बन जाते हैं, वे कहते हैं--छोड़ो संसार। भागे! लेकिन तुम समझे ही नहीं। भागोगे कहां? संसरण यानी संसार। भागे तो संसार। कहीं और जाने की सोची तो संसार।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, सब छोड़ दें घर-द्वार, हिमालय चले जाएं। यह संसार। अब इन्हें हिमालय में सुख दिखायी पड़ता है। पहले दिखायी पड़ता था कि धन होगा तो सुख होगा, पद होगा तो सुख होगा, प्रतिष्ठा होगी तो सुख होगा। अब सोचते हैं, हिमालय में सुख है, हिमालय की गुफा में सुख है। संसार ने नया आश्वासन दे दिया, संसार ने दौड़ने का नया सूत्र दे दिया--हिमालय की तरफ दौड़ो। फिर एक गुफा में बैठे-बैठे लगेगा कि नहीं, यहां तो नहीं मिलता, थोड़े और ऊपर जाओ, थोड़े और ऊपर जाओ, मिलेगा वहां। ऐसा तुम्हारा जो संसरण चलाता रहता है, उसी का नाम, उस सूत्र का नाम संसार है। जब तुमने दौड़ना बंद कर दिया...।
इसलिए मैं कहता हूं, भगोड़े मत बनना, भगोड़ा संन्यासी नहीं है, भगोड़ा संसारी है। तुम जहां हो, ठीक हो, वहीं ठीक हो, वहीं जागो। कहां जाना भागकर! अपने में आना है। अपने में आने के लिए भागना तो जरूरी नहीं है। अपने में आना तो सब भागना छोड़ देना जरूरी है। रुक जाओ, ठहर जाओ। दौड़कर जो मिलता है वह संसार है, रुककर जो मिलता है वह परमात्मा है।
रुको, ठहरो, धीरे-धीरे दौड़ छोड़ो। ऐसे जीने लगो जैसे कहीं जाना नहीं है, कुछ होना नहीं है, कुछ बनना नहीं है। उसी क्षण तुम पाओगे कि तुम बने-बनाए हो, तुम्हें परमात्मा ने पूरा बनाया, तुम्हें वैसा बनाया जैसा तुम होना चाहते हो। लेकिन तुमने कभी अपनी शकल ही नहीं देखी। तुम औरों की शकलों में उलझे रहे। तुमने कभी अपनी गांठ ही नहीं टटोली, तुम दूसरों की गांठें टटोलते रहे। तुमने अपने भीतर की खदान नहीं खोदी, तुम न मालूम कहां-कहां भटके जन्मों-जन्मों में, कितनी तुमने यात्राएं कीं, लेकिन अपने घर तुम कभी आए ही नहीं। अपने घर आ जाना यानी धर्म। एस धम्मो सनंतनो। यही सनातन धर्म है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, क्या अंग्रेजी का शब्द साल्वेशन और संस्कृत के मोक्ष, बैकुंठ और निर्वाण, सब समानार्थी हैं?
परम अर्थों में, अंतिम अर्थों में, हां। प्राथमिक अर्थों में, नहीं। पारमार्थिक अर्थों में, हां। व्यावहारिक अर्थों में, नहीं। व्यावहारिक अर्थों में तो फर्क है।
साल्वेशन का अर्थ होता है, किसी और के द्वारा। इसलिए ईसाई सोचते हैं, जीसस के द्वारा। स्वयं के द्वारा नहीं, किसी और के द्वारा कोई आएगा कल्याणकर्ता, कोई आएगा उद्धारक, मसीहा, उसके द्वारा मुक्ति होगी, तो साल्वेशन।
यह मोक्ष की सबसे निम्न धारणा है। क्योंकि दूसरे के द्वारा जो होगा, वह तो मोक्ष होगा कैसे? दूसरे में ही उलझे-उलझे तो संसार है, फिर भी उलझे दूसरे में ही हैं। पहले पत्नी में उलझे थे, पति में उलझे थे, बेटे में उलझे थे, अब इससे छूटे तो अब मसीहा आएगा, तो मुक्ति होगी। मुक्ति भी अपने हाथ में नहीं तो क्या खाक मुक्ति! जब मुक्ति भी दूसरे के हाथ में है, तो मुक्ति भी बंधन हो गयी। फिर मसीहा आज मुक्त कर देगा। और कल अगर मसीहा का दिल बदल गया! जो हाथ में दूसरे के है, वह तुम्हारा नहीं। वह तुम्हारी मालकियत नहीं। यह मोक्ष की सबसे निम्नतम धारणा है, कि दूसरा। यह संसार के बहुत करीब है।
इसलिए ईसाइयत बहुत ऊपर नहीं उठी। ईसाइयत का धर्म संसार के बहुत करीब है। इसलिए ईसाई पादरी-पुरोहित बिलकुल सांसारिक है। उसमें कुछ धर्म की वैसी पारलौकिक गंध नहीं है, जैसी बौद्ध भिक्षु में दिखायी पड़ेगी, हिंदू संन्यासी में दिखायी पड़ेगी, जैन मुनि में दिखायी पड़ेगी, वैसी गंध नहीं है। कुछ चूक रहा है। उसकी साल्वेशन की जो धारणा है, मुक्ति की जो धारणा है, वह भी बासी और उधार है--दूसरा कोई करेगा। तो बैठे हैं हाथ पर हाथ धरे। और जीसस आए और गए भी और ईसाई सोचते हैं, मुक्ति हो गयी, जीसस के आने से मुक्ति हो गयी। तो अब करने को कुछ बचा ही नहीं है! इसलिए यह मुक्ति की धारणा मुक्ति में सहयोगी तो नहीं बनी, बाधा बनी। अब तो करने को कुछ है नहीं!
अब तुम समझो। ईसाइयत की धारणा यह है कि अदम के कारण पाप हुआ। तुमने पाप भी नहीं किया। हद्द हो गयी! तुम कुछ करोगे कभी कि नहीं! पाप भी अदम ने किया, तो उसका पाप तुम भोग रहे थे। फिर आए जीसस, उन्होंने पुण्य किया, अब उनका पुण्य तुम भोग रहे हो। तुम उधार ही उधार हो! नगद कुछ भी है तुम्हारे भीतर? पाप भी अपना नहीं! पुण्य भी अपना नहीं!
यह बात बहुत गहरी नहीं है। अदम का पाप हमें क्यों पापी बनाएगा? अदम ने किया होगा, अदम समझे-बूझे! इससे तो व्यक्तिगत आत्मा की हत्या ही हो गयी।
अदम कब हुआ! हुआ कि नहीं हुआ! पाप भी कोई बहुत बड़ा नहीं किया। पाप ऐसा किया जो करना ही था। ईश्वर ने कहा था कि इस बगीचे के ज्ञान के फल को मत चखना और अदम ने चखा। कोई भी आदमी जिसमें थोड़ी भी हिम्मत हो, यही करता। और फिर ज्ञान का फल! छोड़ देने जैसा भी नहीं था। अदम ने जोखिम उठायी, उसने कहा, हो पाप हो! कारण क्या रहा होगा? अगर हम अदम के मनोविज्ञान में उतरें तो हमें समझ में आएगा।
अदम ऊब गया था, सुख ही सुख, सुख ही सुख। मिठाई ही मिठाई, मिठाई ही मिठाई, तो डायाबिटीज पैदा हो जाती है। तो अदम को डायबिटीज हो गयी होगी। सुख ही सुख था वहां, दुख तो था ही नहीं कुछ मोक्ष में, उस ईश्वर के राज्य में; सब सुख ही सुख था, पीड़ा तो कुछ थी ही नहीं। ऊब गया होगा। थक गया होगा। जितना आदमी सुख से थक जाता है उतना किसी और चीज से नहीं थकता। कुछ करने का जी होने लगा होगा। कुछ नए का स्वाद लेने का मन उठने लगा होगा।
तो उसने जोखिम उठायी। वह ऊबा हुआ था, उसने कहा कि ठीक है, ज्यादा से ज्यादा इस स्वर्ग के बाहर ही निकाल दोगे न! इस स्वर्ग में रखा भी क्या है! यह स्वर्ग एक तरह की गुलामी थी। जहां ज्ञान का फल खाने की भी आज्ञा न हो, वह स्वर्ग क्या! और क्या आज्ञा दोगे, जहां ज्ञान का फल खाने की भी आज्ञा नहीं है! तो अदम राजी हो गया, उसने ज्ञान का फल खा लिया और स्वर्ग से निकाल दिया गया। क्योंकि ईश्वर बहुत नाराज हो गया--उसकी आज्ञा का उल्लंघन हुआ।
यह ईश्वर न हुआ साधारण बाप हुआ, यह छोटी-मोटी आज्ञाओं के उल्लंघन से एकदम दीवाना हो जाता है। अगर बाप भी थोड़ा हिम्मतवर होता तो पीठ ठोंकता अदम की कि तूने ठीक किया बेटा, अब तू जवान हुआ। बाप को इनकार करके ही तो बेटा जवान होता है। जब तक बेटा बाप को इनकार नहीं करता तब तक तो दुधमुंहा रहता है--तब तक जवान होता ही नहीं, दूध के दांत टूटे ही नहीं। जब तक बाप जो कहता है, हां में हां भरता है, तब तक कहीं कोई बेटा जवान होता है! मनोविज्ञान से पूछो! मनोवैज्ञानिक कहते हैं, जब बेटा नहीं कहता है बाप को, उसी दिन बेटा जवान होता है। तो अदम ने कुछ कसूर न किया, जवान हुआ।
अदम को निकाल दिया, कसूर भी कोई बड़ा न था, सिर्फ अपनी प्रौढ़ता की घोषणा थी कि मैं अपनी जिंदगी अपने हाथ में लेना चाहता हूं। ज्ञान का फल खाने का मतलब क्या? कि अब मैं उधार नहीं जीना चाहता; तुम जानो और मैं बिना जाने जीयूं! बाप ने यही कहा था कि तुझे जानने की जरूरत क्या, मैं सब जानता हूं; तू सिर्फ मेरी मान और चल।
यही तो सभी बाप कहते हैं कि तुझे जानने की क्या जरूरत है, मैं तो सब जानता हूं, तू तो सिर्फ हमारी आज्ञा मान। लेकिन कौन बेटा ज्यादा देर तक इसके लिए राजी हो सकता है! उन बेटों को छोड़ दो जो गोबर-गणेश हैं। उनका कोई मतलब भी नहीं है, वे हैं भी नहीं।
अदम ने जो पाप किया, करना ही था। जरूरी था, पाप था ही नहीं। अदम ने हिम्मत की जवान होने की। हर बेटे को करनी पड़ती है, एक दिन हर बेटे को, हर बेटी को अपने मां-बाप को इनकार करना पड़ता है। यह होना ही है। यह होना ही चाहिए। इसी से तो रीढ़ पैदा होती है। इसको ईसाई कहते हैं, पाप हो गया। यह भी खूब पाप हुआ!
और दूसरा मजा यह कि पाप किसी ने किया--जिसका हमें कोई लेना-देना नहीं--हम सब उसका पाप भोग रहे हैं, क्योंकि हम सब उसकी संतान हैं! यह भी अजीब बात हुई! बाप पाप करे और बेटा भोगे। बाप के बाप पाप करें और बेटा भोगे। तो फिर व्यक्तिगत आत्मा का अर्थ ही न रहा। फिर व्यक्तिगत आत्मा का क्या मूल्य! फिर तुम हो, यह कहने में क्या सार! तुम हो ही नहीं।
हजारों साल पहले किसी आदमी ने कोई भूल-चूक की थी, उसका पाप तुम्हारी आत्मा पर गहरा है! तुमसे कुछ लेना-देना नहीं। जो तुमने भूल नहीं की, उसकी जिम्मेवारी तुम पर नहीं हो सकती।
यह धारणा ही बुनियादी रूप से गलत। फिर इस गलत धारणा को ठीक करने के लिए दूसरी गलत धारणा पैदा करनी पड़ी कि जब पाप दूसरे का किया आदमी भोग रहा है, तो फिर पुण्य भी दूसरे का ही किया आदमी भोगेगा।
तो सारा मजा कि कथा अदम से शुरू हुई, जीसस पर समाप्त हो गयी, हमें कुछ लेना-देना नहीं, हम सिर्फ दर्शक हैं। पाप अदम ने किया, जीसस ने क्षमा मांग ली। अदम ने आज्ञा तोड़ी थी, जीसस ने आज्ञा पूरी कर दी। अदम स्वर्ग के बाहर निकाल दिया गया था, जीसस जुलूस के साथ शोभा-यात्रा में स्वर्ग में वापस प्रविष्ट हो गए। और हम? अदम और जीसस को छोड़कर बाकी जो लोग हैं, ये? ये सिर्फ दर्शक हैं! किसी का पाप ढोते हैं, किसी का पुण्य ढोने लगते हैं! लेकिन इसका तो अर्थ हुआ कि तुम्हारे भीतर कोई आत्मा नहीं है।
इसलिए मैं साल्वेशन को मोक्ष की सबसे निम्नतम धारणा कहता हूं, क्योंकि इसमें दूसरे पर भरोसा है। मोक्ष से थोड़े ऊपर जाता है हिंदुओं का बैकुंठ। थोड़े ऊपर जाता है। बहुत ऊपर नहीं जाता।
बैकुंठ का अर्थ होता है, परमात्मा के प्रसाद से। कोई मनुष्य नहीं है माध्यम, लेकिन अभी भी दूसरा महत्वपूर्ण है, परमात्मा का प्रसाद! परमात्मा चाहेगा तो उठा लेगा, उसकी अनुकंपा होगी तो उठा लेगा। और फिर सदा परमात्मा के साथ बैकुंठ में रहेंगे, मजा भोगेंगे, सुख ही सुख होगा, स्वर्ग होगा, अप्सराएं होंगी, कल्पवृक्ष होंगे, उनके नीचे बैठकर सारी-सारी वासनाओं को तृप्त करेंगे।
यह साल्वेशन से थोड़े ऊपर जाता। कम से कम किसी मसीहा को तो बीच में नहीं लिया है। कम से कम आदमपुत्र को तो बीच में नहीं लिया है, सीधा ईश्वर है। चलो, इतना ही बहुत। यह थोड़ी ऊपर जाती धारणा। और, उसकी अनुकंपा से होगा। तो उसकी अनुकंपा अर्जित करनी होगी। उसकी अनुकंपा अर्जित करने के लिए हृदय को स्वच्छ करना होगा, प्रार्थनापूर्ण करना होगा, निर्मल करना होगा, यह भक्तों की धारणा है।
लेकिन बैकुंठ में भी परमात्मा रहेगा, हम रहेंगे, अलग-अलग। दो रहेंगे। और जहां दो हैं, वहां तक अभी बात बहुत ऊपर नहीं गयी। क्योंकि जहां बात बहुत ऊपर जाएगी वहां तो एक बचना चाहिए। जहां तक द्वंद्व है, द्वैत है, वहां तक मन का सब विकार है। क्योंकि मन ही चीजों को दो में तोड़ता है। जहां मन ही न रहा, वहां दो कैसे रहेंगे?
इसलिए तीसरी धारणा है मोक्ष की। वेदांत, जैन--इनकी धारणा और ऊंची जाती है। मोक्ष का अर्थ है, दो न रहे, एक ही बचा। हिंदू उस एक को कहते, ब्रह्म। व्यक्ति की आत्मा, मनुष्य की आत्मा उसमें समा गयी, ब्रह्म में। हम खो गए। बूंद सागर में गिर गयी और सागर हो गयी। ब्रह्म बचा, ब्रह्ममात्र। यह हिंदुओं की धारणा, वेदांत की।
जैनों की धारणा कि सागर बूंद में समा गया। परमात्मा हममें लीन हो गया। हम बचे, मैं बचा, आत्मा बची। हिंदुओं से जैनों की धारणा ऊपर जाती है। क्योंकि मैं समा गया, मैं खो गया, परमात्मा बचा, तो इसका अर्थ यह हुआ कि फिर मैं था ही नहीं, परमात्मा ही था। खो तो वही सकता है जो रहा ही न हो। मिट तो वही सकता है जो कभी रहा ही न हो, सिर्फ भास होता था जिसका। तो मनुष्य की गरिमा को चोट पहुंचती है। महावीर ने मनुष्य की गरिमा को चोट नहीं पहुंचने दी। उन्होंने कहा, मनुष्य की गरिमा को चोट जो धर्म पहुंचा दे, वह मनुष्य को गुलाम बना देगा। मनुष्य की गरिमा अपरिसीम है, आखिरी है। तो आत्मा ही परमात्मा हो जाती है। लीन नहीं होती परमात्मा में, परमात्मा बन जाती है। जैसे बूंद में सागर उतरता।
बूंद का सागर में उतरना तो साधारण सी बात है, समझ में आ जाता है। लेकिन बूंद में सागर का उतरना बड़ी असाधारण घटना है। तो सिर्फ आत्मा बचती है मोक्ष में, शुद्ध आत्मा बचती है, निर्मल ज्योति बचती है चेतना की, कोई दूसरा नहीं।
फिर निर्वाण है। निर्वाण बौद्धों की धारणा है। वह सबसे ऊपर की धारणा है। फिर उसके पार कोई धारणा कभी नहीं गयी है। निर्वाण का अर्थ है, न तो परमात्मा बचता है, न मैं बचता, कोई भी नहीं बचता--शून्य बचता है। क्योंकि बौद्ध कहते हैं, अगर परमात्मा बचा और मैं न बचा, तो दो तो न रहे, एक रहा। अगर मैं बचा, परमात्मा न बचा, तो भी दो न रहे, एक रहा। लेकिन जब तक एक है तब तक दूसरा भी किसी न किसी भांति मौजूद रहेगा। क्योंकि एक का कोई अर्थ ही नहीं होता दो के बिना। जब दो खो गए, तो एक भी खो जाना चाहिए; एक का क्या अर्थ है!
अगर हम कहते हैं--एक, तो तत्क्षण दो का खयाल आता है। एक कहते ही दो का खयाल आता है। क्या तुम ऐसा कर सकते हो कि कोई एक कहे और तुम्हें दो का खयाल न आए? इसीलिए तो वेदांतियों ने एक अनूठा ढंग खोजा--वे ऐसा नहीं कहते कि परमात्मा एक है, वे कहते हैं, परमात्मा अद्वैत है, दो नहीं। सीधी बात को कि एक है, सीधा नहीं कहते, क्योंकि एक कहने से तो दो का खयाल आता है, तत्क्षण खयाल आता है। एक का तो कोई अर्थ ही नहीं होता दो के बिना। सोचो, अगर एक ही है, तो उसको एक भी कैसे कहोगे! दो होने चाहिए तो ही एक में कोई अर्थ हो सकता है।
तो हिंदू कहते हैं, दो नहीं है। लेकिन बौद्ध कहते हैं, चाहे तुम एक कहो, चाहे तुम दो नहीं कहो, ये कितनी ही चालाक तरकीबें निकालो, कितनी ही होशियारी करो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर एक है, तो दो बचते हैं। अगर तुम कहो दो नहीं, तो भी एक की ही धारणा रह जाती। और उस निराकार दशा में न एक है, न दो है--वह संख्यातीत, संख्या के बाहर।
तो संख्यातीत तो एक ही चीज है, शून्य। शून्य मात्र संख्या के बाहर है। शून्य एक है कि दो, कि तीन, कि चार, कि पांच? शून्य तो सिर्फ शून्य है। न एक, न दो, न चार, न पांच। इसलिए शून्य के जो अर्थ लगाने हों लग जाते हैं। एक पर रख दो शून्य तो नौ के बराबर हो जाता है। दो पर रख दो शून्य तो अठारह के बराबर हो जाता है। तीन पर रख दो शून्य, सत्ताईस के बराबर हो गया! शून्य में कुछ है ही नहीं, शून्य तो बस शून्य है; शून्य तो दर्पण जैसा है--जो सामने ले आओ, उसी को झलका देता है। लाल रंग आया, दर्पण लाल हो गया। पीला रंग आया, दर्पण पीला हो गया। आदमी दिखा, दर्पण में आदमी दिखने लगा। आदमी गया, कोई न रहा, दर्पण खाली हो गया। शून्य तो दर्पण है।
तो बुद्ध ने निर्वाण शब्द चुना। बुद्ध के एक-एक शब्द बहुमूल्य हैं। उन्होंने जो श्रेष्ठतम हो सकता है, अंतिम हो सकता है, उस पर जैसी उनकी पकड़ है वैसी किसी की भी पकड़ नहीं है।
तो निर्वाण आखिरी धारणा है। कोई नहीं बचता। इससे तुम डरोगे भी। इसीलिए निर्वाण से बहुत लोग प्रभावित नहीं होते--कोई नहीं बचता! तो फिर सार क्या? तुम बचना तो चाहते हो। तुम यह चाहते हो कि आनंद तो हो, जरूर हो, लेकिन मैं भी तो रहूं, नहीं तो फिर आनंद होने का भी क्या सार है! और बुद्ध कहते हैं, तुम जब तक हो तब तक दुख रहेगा। तुम दुख। यह मैं की धारणा ही दुख है। जहां तुम नहीं रहे, वहीं आनंद है।
अब यह थोड़ा कठिन हो जाता है। हो ही जाएगा, उतनी ऊंचाई पर जब बातें पहुंचती हैं तो कठिन हो जाती हैं। तर्कातीत हो जाती हैं। बुद्धि की पकड़ में नहीं आतीं। बुद्धि के हाथ से फिसल-फिसल जाती हैं।
ये चारों शब्द अलग-अलग हैं, लेकिन मैंने कहा, व्यावहारिक अर्थों में। पारमार्थिक अर्थों में अलग-अलग नहीं हैं। चाहे कोई साल्वेशन के मार्ग से जाए, चाहे कोई बैकुंठ के मार्ग से जाए, चाहे कोई मोक्ष के, चाहे कोई निर्वाण के, अंततः निर्वाण में ही पहुंच जाएगा। क्योंकि जो आखिर तक नहीं ले जाते, उनके आगे तुम्हें मंजिल बनी रहेगी, तुम्हें लगेगा, अभी मंजिल बाकी है, थोड़ा और चलना जरूरी है। निर्वाण के आगे कुछ शेष नहीं रह जाता। शून्य के आगे क्या शेष है?
इसलिए ध्यान में तो निर्वाण रखना, हां, चलने की तो अपनी-अपनी मजबूरी है। अगर तुम्हें निर्वाण अभी पकड़ में ही न आता हो तो साल्वेशन से चलो, कोई हर्जा नहीं। वहीं से सोचो। कुछ तो किया। संसार से थोड़े तो हटे। एक कदम सही, थोड़ा धर्म का विचार तो जन्मा, थोड़ी धर्म की लहर तो उठी। चलो, वहीं से सही। यही सोचकर चलो कि क्राइस्ट मुक्ति देंगे, चलो, मुक्ति का भाव तो उठा। मुक्त होना चाहिए, यह प्यास तो उठी।
फिर यह प्यास धीरे-धीरे बढ़ेगी, तो तुम्हें लगेगा कि साल्वेशन की धारणा काम नहीं करती। तब शायद बैकुंठ की धारणा तुम्हारे पकड़ में आ जाए। तो फिर बैकुंठ की धारणा से चलना। एक दिन तुम्हें यह समझ में आएगा कि बैकुंठ भी ठीक, लेकिन यह भी संसार का ही विस्तार मालूम होता है; थोड़ा सूक्ष्म, लेकिन है संसार का ही विस्तार। वही सुख, थोड़ी बड़ी मात्रा में। वही स्त्रियां, थोड़ी ज्यादा सुंदर। वही वासनाएं, लेकिन कल्पवृक्ष के कारण पूरी होने लगीं अब। पहले मेहनत करके पूरी होती थीं, अब मुफ्त में पूरी होने लगीं, लेकिन बात वही की वही है। तो फिर तुम सोचोगे मोक्ष की बात कि अब तो सब छोड़कर ध्यान में डूब जाएं।
फिर एक घड़ी आएगी जब तुम पाओगे--जब ध्यान के आखिरी शिखर पर पहुंचोगे तब तुम पाओगे--सब तो गया, यह मैं का जो भाव बच गया, यही कांटे की तरह चुभ रहा है अब। उस दिन तुम यह कांटा भी छोड़ दोगे और निर्वाण घटित हो जाएगा।
इसलिए तुम जहां हो वहीं से चल पड़ो, कोई चिंता नहीं। पहुंचना तो निर्वाण है। निर्वाण तक नहीं पहुंचे तो पहुंचे ही नहीं। तो ध्यान में तो निर्वाण रखना, लेकिन अगर वह मंजिल बहुत दूर की मालूम पड़े और उतने दूर का शिखर तुम्हें दिखायी ही न पड़े, तो फिर जो तुम्हें दिखायी पड़े अभी उसको व्यावहारिक लक्ष्य बना लेना। जो पास की पहाड़ी हो उस पर चढ़ना शुरू कर देना। लेकिन खयाल में रहे कि एक दिन गौरीशंकर पर चढ़ना है, उससे कम में राजी नहीं होना है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, ऐसा कहा जाता है कि हम स्त्रियों के नब्बे प्रतिशत रोग मासिक धर्म की गड़बड़ी के कारण होते हैं और उन रोगों से मुक्त होने के लिए हम नाना प्रकार की औषधियों का उपयोग करती हैं, पर फिर भी स्वस्थ नहीं हो पातीं। आप परम वैद्य हैं, आप हमारे कष्टों और दुखों को भलीभांति जानते हैं, कृपा करके हमें मार्गदर्शन दें, हमें धर्म में गतिमान करें।
कुछ बातें समझ लेने जैसी हैं।
पहली बात, यह बात सच है कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को बहुत सी अड़चनें होती हैं, बहुत से रोग होते हैं। लेकिन दूसरी बात भी खयाल रखना, कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को कुछ सुविधाएं हैं जो पुरुष को नहीं हैं। क्योंकि इस जगत में कांटे अकेले नहीं आते, फूलों के साथ आते हैं। न फूल अकेले आते हैं, फूल भी कांटों के साथ आते हैं। यहां हर कड़वाहट में कोई मिठास छिपी होती है।
तो यह बात सच है कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को बहुत सी तकलीफें होती हैं। दूसरी बात भी इतनी ही सच है--जो खयाल में नहीं है--कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को कुछ सुविधाएं हैं जो पुरुष को नहीं हैं। जैसे समझो, मासिक धर्म के चार दिन, पांच दिन स्त्रियों के लिए बड़ी नकारात्मक दशा के दिन हैं। सारा चित्त निषेध से भर जाता है। रुग्ण हो जाता है, क्रोध से भर जाता है, विषाद से भर जाता है, जीवन बोझिल मालूम होता है। जैसे एक छोटी सी मौत घटने लगी। ऐसी तकलीफ पुरुष को नहीं आती। लेकिन तुम्हें पता नहीं, ये चार दिन में जो नकारात्मकता पैदा हो जाती है, वह बह भी जाती है चार दिन में और बाकी जो महीना है वह ज्यादा प्रफुल्लता का होता है। वैसी प्रफुल्लता पुरुष की नहीं होती। उसकी नकारात्मकता निकलने में तीस ही दिन लगते हैं। थोड़ी-थोड़ी निकलती है, इकट्ठी नहीं निकलती। स्त्रियों का रोग इकट्ठा चार दिन में निकल जाता है। क्योंकि अंततः तो दोनों के रोग एक जैसे हैं, निकलना तो पड़ेगा ही।
तो स्त्री चार दिन में थोक रूप से परेशान हो लेती है, पुरुष तीस दिन फुटकर रूप से परेशान रहता है। इसलिए पुरुष की पीड़ा कभी उतनी प्रगाढ़ नहीं दिखती जितनी स्त्री की दिखती है। लेकिन पुरुष की प्रफुल्लता भी उतनी प्रगाढ़ नहीं दिखती जितनी स्त्री की दिखती है। स्त्री की कोमलता, स्त्री का सौंदर्य, उसी मासिक धर्म के कारण है। वह जो मासिक धर्म सारे विषाद को, सारे जहर को बहा देता है, तो बाकी शेष महीने में स्त्री हल्की हो जाती है। पुरुष पूरे महीने उसी बेचैनी में रहता है। धीरे-धीरे करके उसकी बेचैनी निकलती है।
तो एक बात तो खयाल रखना, अगर बेचैनी की पूरी मात्रा खयाल में लो तो स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं है, बेचैनी की मात्रा तो बराबर है। जैसे समझ लो कि सौ का आंकड़ा है, तो चार दिन में स्त्री सौ का आंकड़ा निकाल लेती है, और पुरुष को निकालने में तीस दिन लगते हैं। स्वभावतः रोज की मात्रा पुरुष पर कम पड़ती है, स्त्री की चार दिन में मात्रा बहुत हो जाती है। एक बात।
दूसरा पहलू बहुत कम देखा गया है। स्त्रियां भी नहीं देखतीं कि दूसरा पहलू भी छिपा है। स्त्रियों का जो गीत है, स्त्रियों का जो सौंदर्य है, स्त्रियों की जो कोमलता है, स्त्रियों का जो प्रसाद है, वह कहां से आ रहा है? वह चार दिन में जो निकल गया जहर, तो फिर से एकदम हल्कापन हो गया, बोझ उतर गया। अगर यह दूसरी बात भी खयाल में रहे, तो चार दिन का बोझ बहुत बोझ नहीं मालूम पड़ेगा। उसका लाभ भी ध्यान में रखना जरूरी है, एक बात।
दूसरी बात, मासिक धर्म के कारण उतनी गड़बड़ी नहीं हो रही है, जितनी गड़बड़ी होती है स्त्रियों के शरीर-तादात्म्य के कारण। स्त्रियां अपने को बहुत शरीर मानती हैं, इतना पुरुष नहीं मानता। पुरुष अपने को मन के साथ तादात्म्य करता है। स्त्री अपने को शरीर के साथ तादात्म्य करती है।
इसलिए स्त्री की उत्सुकता शरीर में होती है, दर्पण के सामने खड़ी है घंटों! पुरुष को समझ में ही नहीं आता कि दर्पण के सामने अपनी ही सूरत घंटों देखने का क्या प्रयोजन है! घंटों वस्त्र सम्हाल रही है। ऐसा कोई मौका ही नहीं होता जब कि स्त्री समय पर कहीं पहुंच जाए, क्योंकि वह उसका बार-बार मन बदल जाता है कि दूसरी साड़ी पहन लूं, कि इस तरह कर लूं, कि उस तरह के बाल सजा लूं। पति हार्न बजा रहा है नीचे और वह तैयार ही नहीं हो पाती। हर तैयारी कम मालूम पड़ती है। स्त्री का शरीर-बोध बहुत प्रगाढ़ है।
मनुष्य के भीतर तीन तत्व हैं--आत्मा, मन और शरीर। पुरुष का रोग मन से जुड़ा है, स्त्री का रोग शरीर से जुड़ा है। इसलिए पुरुष के झगड़े और ढंग के होते हैं। पुरुष का झगड़ा होता है सिद्धांत का, शास्त्र का, हिंदू का, मुसलमान का, राजनीति का; इस विचार का, उस विचार का, हम इस विचार को मानते, तुम उस विचार को मानते। स्त्री को समझ में नहीं आता कि क्या बकवास कर रहे हो! अरे, कुरान मानो कि बाइबिल मानो, कुछ भी मानो, रखा क्या है, सब बराबर है। असली सवाल तो शरीर है--सुंदर कौन है? कीमती साड़ी किसने पहनी है? बहुमूल्य हीरे-जवाहरात किसके पास हैं? यह बात सोचने जैसी है।
स्त्री इसमें बेचैन नहीं होती, जब एक दूसरी स्त्री उसके सामने से निकलती है, तो वह यह नहीं देखती कि यह हिंदू है कि मुसलमान है कि ईसाई है कि पारसी है, वह देखती है यह कि अच्छा, तो यह साड़ी इसने खरीद ली! तो ये गहने इसने बना लिए! तो मैं पिछड़ गयी! स्त्रियों की चर्चाएं सुनते हो? बैठकर जब वे चर्चाएं करती हैं तो वे इसी तरह की चर्चाएं हैं, बहुत शरीर से जुड़ी हैं, शरीर से बंधी हैं।
तो इस कारण अड़चन आती है। क्योंकि मासिक धर्म में शरीर बड़ी पीड़ा से गुजरता है और स्त्रियों का बहुत जोर शरीर से है कि हम शरीर हैं, इसलिए अड़चन होती है। अड़चन असली में मासिक धर्म के कारण नहीं हो रही है, शरीर के साथ जुड़े होने के कारण हो रही है।
तो अड़चन से बाहर होना हो तो धीरे-धीरे शरीर से अपना जोड़ कम करना चाहिए। यह बोध धीरे-धीरे लाना चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूं। यह औषधि। खासकर मासिक धर्म के चार दिनों में तो निरंतर यह चिंतन और भाव करना चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूं। बाकी समय भी यह चिंतन चलना चाहिए, यह भाव चलना चाहिए। यह भाव जितना घना होकर भीतर बैठ जाएगा कि मैं शरीर नहीं हूं--और इस भाव को घना करने के लिए जो-जो जरूरी हो, वह भी करना चाहिए।
इसलिए तो मैं कहता हूं, तुमने संन्यास ले लिया तो मैं कहता हूं, बस अब गैरिक वस्त्र पहनो, और बाकी सब रंग समाप्त हुए। अब इनका चिंतन न करना पड़ेगा, अब विचार न करना पड़ेगा। संन्यासी स्त्री का फायदा देखते हैं, जल्दी तैयार हो जाती है। कुछ तैयार होने को ज्यादा है नहीं। वह एक ही रंग है, रंगों में कोई चुनाव नहीं करना है, बहुत साड़ियां नहीं हैं।
स्त्रियां मेरे पास संन्यास लेने आती हैं, पुरुष लेने आते हैं, उनके रुकने के कारण अलग होते हैं। एक स्त्री ने कहा कि कैसे संन्यास लूं, तीन सौ साड़ियां हैं, इनका क्या होगा? किसी पुरुष ने अब तक मुझसे नहीं कहा कि इतने कपड़े हैं, इनका क्या होगा? उसका कारण दूसरा होता है। वह कुछ और कारण बताता है। लेकिन स्त्री का कारण सीधा-साफ है कि उसके पास तीन सौ साड़ियां हैं, ये सब बेकार चली जाएंगी अगर संन्यास ले लिया तो। फिर इनका क्या होगा? स्त्रियां मुझसे पूछती हैं, संन्यास लेने के बाद गहने इत्यादि पहन सकते कि नहीं?
तो जिन-जिन बातों से शरीर का तादात्म्य बढ़ता है--वस्त्र हैं, गहने हैं, सजावट है--उनको धीरे-धीरे विसर्जित कर दो। और तुम पाओगे कि मासिक धर्म का जितना प्रभाव था, वह उसी मात्रा में कम होने लगा जिस मात्रा में शरीर से जोड़ हटने लगा। शरीर के साथ अपने को थोड़ा शिथिल करो। शरीर के साथ जोड़कर अपने को मत देखो। शरीर से अपने को भिन्न देखो। और ऐसा कोई अवसर मत चूको जब शरीर से भिन्न देखने का मौका मिले, जरूर देख लो। दर्पण के सामने भी खड़े होकर यही खयाल करो कि यह शरीर मैं नहीं हूं। तो कोई हर्जा नहीं, तीन घंटे दर्पण के सामने खड़े होना है तो खड़े रहो, मगर यही खयाल करो कि यह शरीर मैं नहीं हूं। इस खयाल की गहराई के बढ़ने के साथ ही साथ मासिक धर्म की पीड़ा एकदम कम होती चली जाएगी।
और तब तुम चकित होकर पाओगी कि जैसे-जैसे मासिक धर्म की पीड़ा कम हो गयी है, वैसे-वैसे मासिक धर्म का जो लाभ है, वह तुम्हें दिखायी पड़ना शुरू हो जाएगा। कि चार दिन में निपट गए, यह अच्छा ही है। यह समझदारी ही है। जल्दी निपट गए। माना कि आग तेज थी, मगर जल्दी निपट गए। बाकी दिन जो बचते हैं, वे ज्यादा सुख-शांति के हैं।
मासिक धर्म की बात कुछ नयी नहीं है। धर्म शास्त्रों में बड़ा विचार हुआ है। बुद्ध-महावीर को भी विचार करना पड़ा है। क्योंकि यह प्रश्न प्राचीन है। यह सदा से है। कोई आज की ही स्त्री शरीर से नहीं जुड़ गयी है, सदा से जुड़ी रही है। स्त्री का रोग है शरीर, पुरुष का रोग है मन। और चाहे तुम शरीर से जुड़े रहो, चाहे मन से, दोनों हालत में तुम आत्मा से चूकते हो। मन से जुड़े हो तो भी आत्मा से चूक जाओगे, शरीर से जुड़े हो तो भी आत्मा से चूक जाओगे।
पुरुष को छोड़ना है मन के साथ अपना लगाव, स्त्री को छोड़ना है तन के साथ अपना लगाव। दोनों को बराबर मेहनत करनी है। तन के साथ लगाव छोड़ने में उतनी ही मेहनत है जितनी मन के साथ लगाव छोड़ने में है। और दोनों से लगाव छूट जाने पर जो शेष रह जाता है, अ-लगाव की जो दशा, असंग दशा, वहीं आत्मबोध है। वही आत्मबोध स्वास्थ्य है।
पूछा है तुमने कि ‘स्वस्थ होने की कोई औषधि?’
स्वस्थ होने की एक ही औषधि है, इस बात की प्रतीति कि मैं आत्मा हूं--न शरीर, न मन। मन के रोग हैं, शरीर के रोग हैं।
तुम जानकर चकित होओगे, स्त्रियां कम पागल होती हैं पुरुषों की बजाय, संख्या पुरुषों की दुगुनी है। पुरुष दोगुने ज्यादा पागल होते हैं। क्यों? क्योंकि स्त्रियों का पागलपन थोक मात्रा में निकल जाता है, पुरुषों का पागलपन अटका रह जाता है। फिर स्त्रियां कम पागल होती हैं, क्योंकि उनका लगाव तन से है, तन थोड़े ही पागल होता है। पुरुष पागल होते हैं, क्योंकि उनका लगाव मन से है, मन पागल होता है। ज्यादा पुरुष आत्महत्याएं करते हैं--दुगुने पुरुष।
यह तुम्हें थोड़ी हैरानी होगी। क्योंकि आमतौर से तुम स्त्रियों को ज्यादा धमकी देते पाओगे आत्महत्या की। करतीं नहीं, धमकी देती हैं, उनकी धमकी की बहुत चिंता मत लेना। और अगर करती भी हैं तो इतने इंतजाम से करने की कोशिश करती हैं कि बचा ली जाएं। अगर नींद की गोली भी खाएंगी तो पांच-छह-सात से ज्यादा नहीं खातीं। वह सिर्फ धमकी है। दस स्त्रियां चेष्टा करती हैं आत्महत्या की, नौ बच जाती हैं। दस पुरुष चेष्टा करते हैं, पांच बच पाते हैं। पुरुष की चेष्टा, वह हिम्मत से घुस ही जाता है अंदर एकदम, फिर वह सोचता ही नहीं कि यह अब क्या करना है! वह बिलकुल पागल हो जाता है।
दुगुने पुरुष आत्महत्या से मरते हैं, दुगुने पुरुष पागल होते हैं। और इस सबके मूल में मासिक धर्म का सहारा है स्त्री को। चार दिन में उसका सारा पागलपन निकल जाता है--रो लेती, धो लेती, पीड़ा में तड़फ लेती, सब तरह के विषाद से भर जाती, फिर हल्की हो जाती।
स्त्री का तन कष्ट पाता है, पुरुष का मन कष्ट पाता है। और कष्ट तो जारी रहेगा, जब तक आत्मा से जोड़ न हो जाए। फिर पुरुष का कष्ट हो, स्त्री का कष्ट हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता--बराबर हैं दोनों।
तो जैसे-जैसे तुम तन और मन से अपने को तोड़ते चलो, वैसे-वैसे स्वस्थ होते चलो। आत्मा में डूब जाना ही स्वस्थ होने का उपाय है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, आपके मौलिक विचारों से मैं बहुत प्रभावित हूं।
यह तो प्रश्न न हुआ, प्रशंसा हुई। और प्रशंसा की कोई जरूरत नहीं है।
प्रश्न हों तो पूछें, प्रशंसा हो तो मन में रख लें। उससे सार भी क्या? उसकी बात करने से होगा भी क्या?
तो पहली तो बात, कुछ ऐसी ही बात पूछें जो तुम्हारे लाभ की हो, जो तुम्हारे जीवन में कल्याणकारी हो, मंगलदायी हो।
दूसरी बात, मौलिक विचार होते ही कहां! हो कैसे सकते हैं! इस जगत में कुछ भी मौलिक हो कैसे सकता है! कितने-कितने अनंत लोग हो चुके। कितने-कितने अनंतकाल से मनुष्य ने सोचा है, विचारा है। क्या तुम सोचते हो, एकाध ऐसा विचार रह गया हो जो किसी मनुष्य ने न सोचा हो पहले? असंभव है।
लेकिन, सोचे गए विचार बार-बार खो जाते हैं। जब तुम उन्हें दुबारा सोचते हो तो ऐसा लगता है, वे मौलिक हैं। भूल जाते हैं, स्मृतियां खो जाती हैं। अब हमारे पास वेद तो है, वेद पांच हजार साल पुराना है, लेकिन पांच हजार साल पहले भी लोग सोच रहे थे, उसकी हमारे पास कोई संगृहीत किताब नहीं रह गयी। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि वेद के पहले लोग सोच ही नहीं रहे थे, कि बिना सोचे बैठे थे--अगर बिना सोचे बैठे होते तो सब बुद्ध हो गए होते--सोच रहे थे, विचार रहे थे, खोज रहे थे। उन्होंने भी खूब सोचा होगा।
फिर यह भी खयाल रखना कि बहुत थोड़े से लोग जो सोचते हैं उसे लिखते हैं। सोचते तो सभी लोग हैं, लिखते बहुत थोड़े से लोग हैं। जो लिखा हुआ है, उसमें से भी सब बचता नहीं, समय की धार में खो जाता है। फिर जो बचता है, समय के अनुसार रोज-रोज भाषा बदल जाती है, वह हमारी पकड़ में भी नहीं आता है। फिर जब दुबारा कोई आदमी आधुनिक भाषा में उसी बात को कहता है, हमें लगता है, नयी है, मौलिक है। मौलिक कुछ हो ही नहीं सकता, चांद-सूरज के तले सब पुराना है। नया क्या होगा! सब सनातन है।
लेकिन हमेशा ऐसा होता है। जब तुमने किसी स्त्री के प्रेम में पहली दफा प्रेम का अनुभव किया, तो तुमने भी सोचा होगा, ऐसा प्रेम पहले कभी नहीं हुआ, मौलिक है। लेकिन क्या तुम सोचते हो, यह तुम सोच रहे हो? हर प्रेमी यही सोचता है।
अगर गुलाब से भी पूछो कि उस पर जो फूल खिला है गुलाब का, तो वह भी कहेगा--ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। उसको पता भी कहां है और गुलाबों में जो फूल खिले, और गुलाबों का पता कहां है! अनंत काल में अनंत गुलाबों पर फूल खिलते रहे हैं, उसको पता क्या है!
तो पहली तो बात, मौलिक हो भी क्या सकता है! मौलिक कुछ भी नहीं हो सकता! इसीलिए तो बुद्ध कहते हैं: एस धम्मो सनंतनो, यह सनातन धर्म है। बुद्ध कहते हैं, यह मैं कह रहा हूं, ऐसा मत सोचना; सदा से कहा गया है, यही कहा गया है, और सदा यही कहा जाएगा। यह सनातन है।
मैं माध्यम हूं
मौलिक विचार नहीं
खिले हुए फूल ही
नए वृंदों पर दुबारा खिलते हैं
आकाश पूरी तरह छाना जा चुका है
जो कुछ जानने योग्य था
पहले ही जाना जा चुका है
जिन प्रश्नों के उत्तर पहले नहीं मिले
उनका मिलना आज भी मुहाल है
चिंतकों का यह हाल है
कि वे पुराने प्रश्नों को
नए ढंग से सजाते हैं
और उन्हें ही उत्तर समझकर
भीतर से फूल जाते हैं
मगर यह उत्तर नहीं
प्रश्नों का हाहाकार है
जो सत्य पहले अगोचर था,
वह आज भी तर्कों के पार है
तो विचार तो मौलिक होते ही नहीं, हो ही नहीं सकते। मौलिक होने का उपाय ही नहीं है, क्योंकि जो विचार की तर्कसरणी है, वह भी उधार है। जो शब्द हैं, भाषा है, वह भी उधार है। विचार तो मौलिक नहीं हो सकते। फिर मौलिक क्या हो सकता है? शून्य का अनुभव। वही मौलिक है।
लेकिन मौलिक का तुम यह अर्थ मत लेना कि पहले नहीं हुआ, मौलिक का तुम और अर्थ लेना--मूल का, मौलिक, मूल से, जड़ों से। मौलिक का यह अर्थ मत लेना कि नया। मौलिक का यह अर्थ लेना कि जो तुम्हें हुआ है शून्य में, समाधि में, वह जड़ का अनुभव है, मूल का अनुभव है, उत्स का अनुभव है, स्रोत का अनुभव है। ऐसा नहीं कि पहले किसी को नहीं हुआ। बहुत बुद्ध हुए हैं, बहुत बुद्ध होंगे, बहुत बुद्ध होते रहे हैं, सभी उसी मूल पर पहुंचते हैं। मूल पर पहुंचते हैं तो मौलिक।
तो मैं जो तुमसे कह रहा हूं, वह मौलिक इस अर्थ में है कि मूल से कह रहा हूं। लेकिन नया है, इस अर्थ में मौलिक मत समझना।
और फिर तुम कहते हो कि ‘मैं आपके मौलिक विचारों से बहुत प्रभावित हूं।’
प्र्रभावित होना कोई अच्छी बात नहीं। प्रभावित होना खतरनाक भी हो सकता है। मेरे विचारों से प्रभावित मत होओ। क्योंकि विचारों से प्रभावित होकर तुम करोगे क्या? विचारों का संग्रह कर लोगे, थोड़े ज्ञानी हो जाओगे, थोड़ी जानकारी जुटा लोगे। विचारों से प्रभावित होने में कोई सार नहीं है।
ज्यादा अच्छा होगा, तुम मुझसे प्रभावित होओ, मेरे विचारों से नहीं। तुम मेरी दशा से प्रभावित होओ, मेरे विचारों से नहीं। विचारों से तो तुम इतना ही इशारा लो कि जहां से ये विचार आ रहे हैं, उस दशा में मैं भी पहुंच जाऊं। विचारों को संगृहीत करने मत लग जाना। नहीं तो तुमने सागर के किनारे मोती छोड़कर शंख और सीपी बीन लिए। सागर की गहराई में डुबकी लगाओ।
मुझसे प्रभावित होने का मतलब है, जहां मैं हूं, वहां पहुंचने की चेष्टा में संलग्न हो जाओ। ये दोनों बातों में फर्क है। अगर तुम मेरे विचारों से प्रभावित हुए तो तुम विचारों को सम्हालने लगोगे, तिजोड़ी में बंद करने लगोगे, स्मृति में बिठाने लगोगे, उनको दोहराने लगोगे, दूसरों को बताने लगोगे। वह बहुत काम का नहीं है। उससे तुम पंडित हो जाओगे, प्रज्ञावान न हो सकोगे। उससे तुम विद्वान हो जाओगे, लेकिन तुम्हारे भीतर का वेद सोया का सोया पड़ा रह जाएगा। उससे तुम ज्यादा बुद्धिमान प्रतीत होने लगोगे, लेकिन वस्तुतः बुद्धिमान हो न जाओगे। तुम्हारी चेतना पर और थोड़ी धूल की पर्तें जम जाएंगी। तुम्हारा दर्पण और भी ढंक जाएगा। मैं यहां तुम्हारे दर्पण को ढांकने के लिए नहीं, उघाड़ने को हूं।
तो मेरे विचारों को तो तुम छोड़ो। मेरे विचारों का इंगित कहां है, किस तरफ है--निर्विचार की तरफ है--तो निर्विचार में उतरो।
इसको खयाल में लेना, यह महत्वपूर्ण है।
जब मैं तुम से बोल रहा हूं तो तुम दो बातें कर सकते हो। तुम मेरे विचार पकड़ सकते हो। तो तुम चूक गए, तो तुम मुझसे चूक गए, तो तुम असली से चूक गए। तो तुमने गुठलियां बीन लीं और आम नहीं चूसे। तो तुम आम की गिनती करने लगे और आम नहीं चूसे। मैं तुमसे कहता हूं, आम चूस लो, गुठलियां बीनने से कुछ सार नहीं है। और आम गिनने में तो कुछ भी मतलब नहीं है।
बुद्ध बार-बार कहते थे कि एक गांव में एक आदमी था। वह अपने घर के सामने बैठा रहता, रोज सुबह गांव की सब गाएं-भैंसें गांव के बाहर जातीं, नदी के पार जातीं, फिर सांझ को लौटतीं घर, वह रोज गिनती करता रहता--कितनी गाय-भैंसें गयीं, कितनी आयीं? कभी-कभी चिंतित भी हो जाता कि दो सौ गयी थीं और एक सौ निन्यानबे लौटीं, एक कहां गयी!
बुद्ध कहते, वह आदमी पागल था। उसको कुछ लेना-देना नहीं, उसकी एक गाय नहीं, एक भैंस नहीं! मगर वह बैठा इसमें बड़ा उलझन में पड़ा रहता। और बुद्ध कहते, ऐसे ही वे लोग हैं जो दूसरों के विचार बैठ-बैठकर गिनती करते रहते हैं।
बुद्ध कहते थे कि मेरे विचार मत पकड़ना। अप्प दीपो भव। अपने दीए बनो। मेरा इशारा पकड़ो।
तो जब मैं तुमसे कहता हूं, मुझसे प्रभावित होओ, तो मैं यह कह रहा हूं कि मैं जहां खड़ा हूं, वहां से तुम भी खड़े होकर देखना शुरू करो। जो आकाश मुझे दिखायी पड़ रहा है, वह तुम्हें भी दिखायी पड़ सकता है। आकाश के संबंध में मेरे द्वारा कही गयी बातों को मत पकड़ लेना, उनसे मत प्रभावित हो जाना। क्योंकि मैं कितनी ही आकाश की स्तुति में गीत गाऊं, मेरी स्तुति आकाश नहीं है। और मैं कितना ही उस स्वाद की चर्चा करूं, मेरे शब्द तुम्हें उस स्वाद को न दे सकेंगे, वह स्वाद तुम्हें लेना पड़ेगा। मैं कितने ही जलस्रोतों के गीत गुनगुनाऊं, तुम्हारी प्यास न बुझेगी। तुम्हें जलस्रोत तक चलना पड़ेगा। और यह मैं जोर देकर कहना चाहता हूं, क्योंकि बहुत लोग विचारों से ही प्रभावित होकर समाप्त हो जाते हैं। ऐसी भूल तुम मत करना।
पांचवां प्रश्न:...चौथे से थोड़ा मिलता-जुलता है, इसलिए उसी के साथ समझ लेना उचित है...
भगवान, कल के सूत्र में भगवान बुद्ध ने कहा: जैसे चंद्रमा नक्षत्र-पथ का अनुसरण करता है, वैसे ही धीर, प्राज्ञ, बहुश्रुत, शीलवान, व्रतसंपन्न, आर्य तथा बुद्धिमान पुरुष का अनुगमन करना चाहिए। और उनका ही यह प्रसिद्ध वचन भी है: आत्म दीपो भव। क्या दोनों वक्तव्य परस्पर विरोधी नहीं हैं?
जरा भी नहीं।
दो शब्द समझो--अनुगमन और अनुकरण।
अनुकरण के लिए नहीं कह रहे हैं बुद्ध, अनुगमन के लिए कह रहे हैं। अनुकरण का अर्थ होता है, जैसे बुद्ध उठते हैं, वैसे तुम उठो; जैसे बुद्ध बैठते हैं, वैसे तुम बैठो; जो बुद्ध खाते हैं, वह तुम खाओ; जो बुद्ध पीते हैं, वह तुम पीओ; यह अनुकरण। यह थोथा। इससे तुम बुद्ध जैसे दिखायी पड़ने लगोगे, लेकिन रहोगे बुद्धू के बुद्धू। नाटक हो जाएगा, हाथ सार न आएगा।
बुद्ध जैसे कपड़े पहन लो, बुद्ध जैसे चलने लगो, इसमें कोई बड़ी अड़चन तो नहीं है। थोड़ा सा अभ्यास चाहिए, ठीक बुद्ध जैसे बोलने लगो, बुद्ध जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, तुम भी करो, यह सब किया जा सकता है। यही लोग करते रहे सदियों से। यह अनुकरण, यह नकल। तुम कार्बन कापी हो गए। अप्प दीपो भव तुम न हो सके। तुम अपने दीए खुद न बन सके। तुमने बुद्ध के दीए का एक चित्र बना लिया, चित्र को छाती से लगाकर चलने लगे।
दीए के चित्र से रोशनी नहीं होती, खयाल रखना। अंधेरा जब पड़ेगा तब तड़फोगे, क्योंकि वह दीए का चित्र रोशनी नहीं करेगा। अनुकरण थोथा है, ऊपर-ऊपर है। सतही है।
अनुसरण बड़ी और बात है। अनुसरण का अर्थ है, बुद्ध को गौर से देखो, बुद्ध के भीतर गहरे झांको, बुद्ध को खिड़की बना लो, उनके भीतर गहरे झांको, जहां उनका दीया जल रहा है, वह कैसे जला है? दीए का चित्र मत बनाओ, वह दीया कैसे जला है बुद्ध के भीतर? ऊपर-ऊपर की बातों को मत दोहराओ। कैसे बुद्ध चलते हैं, क्या फर्क पड़ता है।
ऐसा अक्सर होता है, यहां हो जाता है। मेरे पास जो लोग काफी दिन रहते हैं, वे ठीक वैसे ही उठने-बैठने-चलने लगेंगे। वे सोचते हैं कि कोई बहुत भारी बात हो रही है। कभी-कभी जानकर भी करते हैं, कभी-कभी अनजाने भी होता है। ऐसा भी नहीं कि वे जानकर ही करते हों, बहुत दिन पास रहेंगे तो संक्रामक हो जाते हैं। बात पकड़ ली ऊपर-ऊपर से, चलने लगे, उठने लगे, उसी ढंग से बात करने लगे जैसा मैं बोलता हूं--बोलते समय जैसा मेरा हाथ कुछ इशारे करता है, तो वे भी इशारे करने लगे। वे सोचते हैं कि यह तो बात हो गयी!
हाथ में कुछ भी नहीं है, हाथ के इशारे में कुछ भी नहीं है। इसको तुम सीख लो, तो भी कुछ न होगा। कहीं भीतर, जहां से यह इशारा आ रहा है, उस स्रोत को पकड़ो। अनुसरण का अर्थ है, बुद्ध का बुद्धत्व जहां से पैदा हो रहा है, जहां से ये किरणें आ रही हैं, उस मूलस्रोत में तुम भी उतरो। कैसे बुद्ध को यह दशा उत्पन्न हुई है, कैसे! उस उपचार से तुम भी गुजरो। वही समाधि, वही ध्यान। ऊपर का आचरण नहीं, अंतस बुद्ध का तुम्हारे भीतर भी निर्मित हो।
यही मैंने तुमसे कहा कि मेरे शब्दों से प्रभावित मत होओ, मुझसे। और जब मैं कह रहा हूं, मुझसे, तो खयाल रखना, अनुकरण करने को नहीं कह रहा हूं, अनुसरण। समझो क्या हुआ है, तो तुम्हें कैसे होगा? फिर एक-एक कदम उस दिशा में उठाओ। तुम्हारे भीतर का दीया जल जाए, ठीक जैसा बुद्ध के भीतर जला है, तो अनुसरण। और तुमने एक तस्वीर बना ली कागज पर और तस्वीर छाती से लगाकर रख ली, तो अनुकरण।
विरोध दोनों बातों में नहीं है। जब बुद्ध कहते हैं, अनुगमन करो, और कहते हैं, आत्म दीपो भव, अपने दीए खुद हो जाओ, तो इनमें कोई विरोध नहीं है। यही तो मार्ग है आत्मदीप को जलाने का कि किसी जले हुए दीप की जीवन-व्यवस्था को समझ लो, उसकी जीवन-शैली को समझ लो। कैसे उसका दीया जला है, कैसे दो पत्थरों को टकराकर उसने अग्नि पैदा की है, कैसे भीतर के तेल को जन्माया है, कैसे ज्योति जलायी है, कैसी बाती बनायी है, उसको ठीक से समझ लो उसकी प्रक्रिया को, उसके विज्ञान को पूरा समझ लो। वह विज्ञान तुम्हारे पकड़ में आ जाए, वह सूत्र तुम्हारे पकड़ में आ जाए, तो अनुसरण।
उस सूत्र की तो तुम चिंता ही न करो...यहां हो जाता है, अभी रामप्रिया को हो गया है--एक इटालियन साधिका है। भली है, सीधी है, जानकर भी नहीं हुआ है, अजाने हो गया है, अचेतन में हो गया है। अब वह कहती है कि जो मैं खाता हूं वही वह खाएगी। अगर मैं कमरे में रहता हूं दिनभर तो वह भी कमरे से बाहर नहीं निकलती अब।
मैंने उसे बुलाकर कहा कि पागल, ऐसे न होगा। ऐसे तू पागल हो जाएगी। क्योंकि तू कमरे में तो बैठी रहेगी, लेकिन तेरा मन थोड़े ही इससे बदल जाएगा। तेरा मन तो घूमेगा, वह पागलपन जो थोड़ा बाहर निकलकर निकल जाता था वह निकल न पाएगा, तू पगला जाएगी--वह पगला रही है, मगर सुनती नहीं। वह सोचती है कि जैसा मैं करता हूं, ठीक वही उसे करना है। वही भोजन लेना है, उसी वक्त सोना है, उसी वक्त उठना है, उतनी ही देर कमरे में रहना है, न किसी से मिलना है न जुलना है, वह पागल हो जाएगी। उसे खींचने की कोशिश में लगा हूं कि वह बाहर निकले, क्योंकि इससे कुछ भी सार नहीं है।
यह हुआ अनुकरण। यह अनुसरण न हुआ। भीतर जाओ--कमरे में जाने से न होगा, भीतर जाने से होगा। जरूर एक दिन तुम्हारे भोजन में भी अंतर आएगा, क्योंकि जब तुम्हारी चित्तदशा बदलेगी तो तुम वही भोजन न कर सकोगे जो तुम कल तक करते रहे थे। कल तक अगर तुम मुर्गियां फटकारते रहे, तो नहीं फटकार सकोगे उतनी आसानी से, मुश्किल हो जाएगा। शराब पीते रहे, तो पीना मुश्किल हो जाएगी। यह बात सच है। तुम्हारा भोजन भी बदलेगा। लेकिन भोजन बदलने से तुम्हारी चेतना न बदलेगी। चेतना बदलने से भोजन बदलेगा। और जिस दिन तुम शांत हो जाओ, फिर तुम्हारी मर्जी, कमरे में बैठना तो, बाहर बैठना तो, जहां बैठोगे अकेले ही रहोगे, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारे एकांत को फिर कोई भी न छीन सकेगा। लेकिन कमरे में बैठने से एकांत पैदा न हो जाएगा। उलटे मत चलो। उलटे चलना आसान मालूम पड़ता है, इसलिए अधिक लोग उलटे चलने लगते हैं।
महावीर को ज्ञान हुआ, उनका दीया जला, उनका सूरज ऊगा, तो स्वभावतः लोगों को लगा कि हमको कैसे हो यह? कैसे हम ऐसा करें? महावीर नग्न खड़े थे तो वे भी नग्न खड़े हो गए। उन्होंने सोचा कि नग्नपन से होता है, दिगंबर हो गए।
अब कोई नंगे होने से थोड़े ही महावीर का ज्ञान होता है! हां, महावीर का ज्ञान अगर हो जाए, फिर तुम्हारी मर्जी, तुम्हें नंगा होना पसंद पड़े तो नंगा हो जाना। क्योंकि बहुत महावीर हुए हैं इस जगत में, सभी नंगे नहीं हुए। उसी समय बुद्ध मौजूद थे, वे नंगे नहीं हुए। यह तो तुम्हारी मौज है। यह तो फिर तुम्हारी सुविधा-असुविधा की बात है, फिर तुम जानना।
लेकिन नग्न होने से तुम्हें ज्ञान उत्पन्न हो जाएगा, यह तो बड़ी ओछी बात हो गयी। ज्ञान इतना सस्ता तो नहीं है कि तुम नग्न खड़े हो गए तो ज्ञान उत्पन्न हो जाए! तो कितने नागा-साधु घूमते हैं मुल्क में! कुंभ के मेले में तुम जाकर उनके दर्शन कर लेते हो, उनमें तुम्हें महावीर जैसा कुछ भी न दिखायी पड़ेगा। लंपट सब तरह के। उनके जीवन में कोई ज्योति नहीं। तुम उनके चेहरों पर किसी तरह की शांति, आनंद का भाव न पाओगे। क्रोध, हिंसा, सब पाओगे। उन नागाओं के जो आश्रम हैं, वे अखाड़े कहलाते हैं। अखाड़े! यह कोई पहलवानी कर रहे हो! मारपीट में कुशल हैं वे। दंगा-फसाद में कुशल हैं। हर छोटी-मोटी बात पर जान देने और लेने को तैयार हैं!
नग्न होने से तो कुछ न होगा। इसीलिए तो कबीर ने कहा है कि अगर नग्न रहने से होता तो सभी पशु-पक्षी कभी के जिनत्व को उपलब्ध हो जाते। पशु-पक्षी तो नंगे ही घूम रहे हैं। उन्होंने तो कपड़े पहले ही से नहीं पहने हैं। नहीं, तो कपड़े के छोड़ने से कुछ नहीं हो जाएगा।
लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं--कि हो जाए तो शायद तुम्हारे कपड़े छूट जाएं, वह अलग बात है। वह तो फिर तुम्हारी घटना से क्या ठीक-ठीक तालमेल खाएगा, वह फिर होता रहेगा।
महावीर शाकाहारी, तो लोगों ने सोचा, हम भी शाकाहारी हो जाएं, तो हमारा भी बोध ऐसे ही हो जाएगा। तो जैनी आज ढाई हजार साल से शाकाहारी हैं। ढाई हजार साल के शाकाहार में भी क्या हुआ है? कुछ भी नहीं हुआ। एक जैन में और एक अजैन में क्या फर्क है? वैसा ही क्रोध उठता, वैसी ही वासना उठती, वैसी ही ईर्ष्या, वैसी ही हिंसा, वैसी ही घृणा, क्या हुआ है? ऊपर की बातें पकड़ना सुगम हो जाता है। यह बिलकुल आसान है कि पानी छानकर पी लो, रात भोजन मत करो, इसमें क्या अड़चन है।
जरूर, महावीर रात भोजन नहीं करते थे, क्योंकि भीतर जो रोशनी उनके पैदा हुई थी, उस रोशनी में उन्हें यह उचित नहीं मालूम पड़ा कि रात भोजन किया जाए, उचित नहीं मालूम पड़ा कि पानी बिना छानकर पीया जाए, उचित नहीं मालूम पड़ा कि शाक-सब्जी के अतिरिक्त और कुछ भोजन किया जाए। उस चैतन्य दशा को तुम भी पाओ, फिर ये सारी चीजें तुम्हारे भीतर हो जाएं तो शुभ। लेकिन उलटे मत चलो।
बाहर से भीतर नहीं, भीतर से बाहर। बाहर को बदलकर भीतर को नहीं बदला जा सकता, लेकिन भीतर का केंद्र बदल जाए तो परिधि अपने आप बदल जाती है।
छठवां प्रश्न:
भगवान, बुद्धत्व के अंतिम चरण में क्या मौन अनिवार्य घटना है, कृपा करके कहें।
अंतिम में तो नहीं, अंतिम से एक चरण पूर्व मौन अनिवार्य है। अंतिम में तो फिर बोलना होगा। बुद्ध बोले, चालीस साल। हां, एक चरण पूर्व, मंदिर में प्रवेश के एक चरण पूर्व, एक सीढ़ी पहले मौन अनिवार्य है। जो मौन हुआ, वही मंदिर में प्रविष्ट होता है।
लेकिन जो मंदिर में प्रविष्ट हो गया, उसे फिर दौड़-दौड़ गांव-गांव, नगर-नगर, हृदय-हृदय को जाकर दस्तक देनी पड़ती है कि मैं जाग गया, तुम भी जाग सकते हो। फिर उसे बोलना पड़ता, कहना पड़ता। जैसे मौन अनिवार्य है मंदिर में प्रवेश के पूर्व, वैसे ही जब मौन में उपलब्ध हो गयी आत्मा, मौन में जान लिया स्वयं को, तो अभिव्यक्ति भी अनिवार्य है।
सभी ज्ञान को पहुंचे व्यक्ति मौन को उपलब्ध होकर ही पहुंचते हैं। लेकिन सभी ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति अभिव्यक्ति नहीं करते। इससे दुनिया की बड़ी हानि होती है। अगर सभी ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, जो उन्होंने जाना है, उसे कहने की चेष्टा करें--यह जानते हुए भी कि कहना बहुत मुश्किल है, और कह भी दो तो समझने को कौन तैयार है, समझना और भी मुश्किल है। यह जानते हुए भी दीवालों से चर्चा करने के लिए जो बुद्धपुरुष आए, उनकी करुणा महान है। यह जानते हुए कि जो जाना है उसे कहना मुश्किल, फिर किसी तरह बांध-बूंध कर कह भी दो, सम्हाल-सम्हूल कर किसी तरह कह भी दो, तो जो सुन रहा है, उसका समझना मुश्किल। फिर भी सौ से कहो तो शायद कभी कोई एक समझ लेता है, सौ बार कहो तो शायद कभी कोई एक बार समझ लेता है, इसलिए कहे जाओ।
इसलिए बुद्ध बयालीस साल तक सतत बोलते रहे। सुबह, दोपहर, सांझ। सारा बौद्ध वचनों का संकलन किया जाता है तो भरोसा नहीं आता कि एक आदमी इतना बोला होगा! लेकिन यह घटना घटी मौन से। मौन से ही यह परम मुखरता घटी। पहले तो शून्य घटता है, शून्य में अनुभव होता है, फिर अनुभव शब्द बनकर बिखरना चाहता है, बंटना चाहता है। जो बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति अभिव्यक्ति देता है, वही सदगुरु हो जाता है।
बहुत से लोग अर्हत हो जाते हैं। उन्होंने पा लिया सत्य को, फिर गुपचुप मारकर बैठ जाते हैं, चुप हो जाते हैं। कबीर ने कहा न--हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यूं खोले। अब हीरा मिल गया, जल्दी से गांठ बांधकर चुप्पी साधकर बैठ गए, अब उसको बार-बार क्या खोलना है! ठीक है, यह बात भी ठीक है, किसी को ऐसा लगता है तो वह ऐसा करेगा।
लेकिन बुद्धपुरुष उसे बार-बार खोलते हैं--सुबह खोलते, दोपहर खोलते, सांझ खोलते, जो आया उसी को खोलकर बताते, हीरा पायो, उसको गांठ नहीं गठिया लेते, कहते हैं कि देख भई, यह हीरा मिल गया; तुझे भी मिल सकता है। हालांकि यह हीरा ऐसा है कि कोई किसी को दे नहीं सकता, नहीं तो बुद्धपुरुष इसको दे भी दें। यह हीरा ऐसा है कि इसका हस्तांतरण नहीं हो सकता। यह अगर बुद्धपुरुष दे भी दें तो तुम्हारे हाथ में जाकर कोयला हो जाएगा।
तुम्हें पता है? कोयला और हीरा एक ही तरह के रासायनिक द्रव्यों से बनते हैं। कोयले और हीरे में कोई रासायनिक भेद नहीं है। कोयला ही लाखों साल तक जमीन के दबाव के नीचे पड़ा-पड़ा हीरा हो जाता है--कोयला ही। आज नहीं कल वैज्ञानिक विधि खोज लेंगे कोयले पर इतना दबाव डालने की कि जो बात लाखों साल में घटती है, वह क्षणभर में दबाव के भीतर हो जाए, तो कोयला हीरा हो जाएगा। और अगर हीरे पर से जो लाखों साल में दबाव पड़ा है, उसे निकालने का कोई उपाय हो, तो तत्क्षण हीरा कोयला हो जाएगा। तो कोयला औैर हीरा अलग-अलग नहीं हैं।
बुद्धपुरुषों ने जन्मों-जन्मों में जो खोजा है, जो दबाव डाला है कोयले पर, उसके कारण वह हीरा हो गया है। वह हीरा उनके हाथ में ही हीरा है। जैसे ही तुम्हारे हाथ में गया, दबाव निकल जाता है--तुम्हारा तो कोई दबाव है नहीं--वह कोयला हो जाता है। इसलिए इस हीरे को दिया तो जा नहीं सकता, लेकिन दिखाया तो जा सकता है; तुम्हें बताया तो जा सकता है कि ऐसा होता है, यह है, देख लो, यह तुम्हारे भीतर भी हो सकता है! एक दिन मेरे भीतर भी नहीं था, मैं भी कोयले को ही ढोता रहा, लेकिन फिर यह अपूर्व घटना घटी, यह चमत्कार हुआ, यह तुम्हारे भीतर भी हो सकता है। जैसे मेरे भीतर हुआ, वह विधि मैं तुमसे कह देता हूं।
तो सदगुरु तो उस गांठ को खोलता रहेगा। कबीर ने दूसरे अर्थ में कहा है। उन्होंने कहा है साधक के लिए, शुरू-शुरू में ऐसा नहीं करना चाहिए। कबीर का मतलब यह है कि जब शुरू-शुरू में ध्यान लगना शुरू हो, तो जल्दी-जल्दी खोल-खोलकर गांठ मत दिखाना, नहीं तो उड़ जाए पक्षी। शुरू-शुरू में मत करना जल्दी बताने की। होता है मन बताने का, कि कह दें किसी को कि ऐसा हुआ।
तुमने कभी खयाल किया? जो लोग ध्यान कर रहे हैं ठीक से, उनको कई बार अनुभव में आएगा, खूब रस आ रहा था ध्यान में और तुमने किसी से कहा और फिर दूसरे दिन रस नहीं आता--पक्षी उड़ गया। कहने में ही भूल हो गयी। तुमने कहकर जो मजा ले लिया, उससे अहंकार थोड़ा मजबूत हो गया। तुमने किसी को कहा कि ध्यान में गजब का अनुभव हुआ, कि कुंडलिनी जगी, कि रोशनी उठी, कि तीसरी आंख खुलती हुई मालूम पड़ी!
तुम जब कह रहे थे, तब तुम्हें खयाल भी नहीं था, तुम तो सिर्फ आंदोलित थे, आनंदित थे। तुमने कह दिया, पत्नी को कह दिया, पति को कह दिया, मित्र को कह दिया, सोचा भी नहीं था, लेकिन कहते-कहते तुम्हारे भीतर अहंकार निर्मित हो गया। तुम्हें एक अकड़ आ गयी कि देखो, एक हम एक तुम! कहां पड़े कूड़े-कचरे में! अभी तक संसार में ही उलझे हो! ऐसा तुमने कहा भी न हो ऊपर से, लेकिन ऐसी एक लहर भीतर दौड़ गयी कि अभी तक पड़े हो गंदगी में! एक हम देखो, एक तुम! जरा हमारी तरफ देखो! एक पवित्रता का भाव आ गया कि हम कुछ संत हो गए।
बस, उसी भाव में गड़बड़ हो गयी। दूसरे दिन ध्यान करने बैठोगे, न कुंडलिनी जगती, न रोशनी आती है, न तीसरी आंख का कोई पता चलता है, तुम बड़े हैरान होते हो कि बात क्या हो गयी! बहुत कोशिश करते हो, चेष्टा करते हो और छूट-छूट जाती है बात। कबीर ने उनके लिए कहा है--हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यूं खोले।
लेकिन जब हीरा पक गया--हीरा पक गया इसका अर्थ होता है, जब अहंकार के पैदा होने की कोई संभावना ही न रही। कि अब सारी दुनिया आ जाए और इस हीरे को देख ले तो भी तुम्हारे भीतर कोई अस्मिता निर्मित नहीं होती; क्योंकि तुम जानते हो कि यह हीरा सबके भीतर पड़ा है, यह कोई विशिष्टता की बात नहीं है।
बुद्ध ने कहा है, जिस दिन मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, मेरे लिए सारा संसार ज्ञान को उपलब्ध हो गया। यह बड़ी अनूठी बात कही है। इसे मैं अपने अनुभव से गवाही भी देता हूं कि यह बात सच है। यह मैं भी तुमसे कहता हूं कि जिस दिन मैंने जाना, उस दिन मैंने यह भी जान लिया कि सब जान चुके। क्योंकि जिस दिन पाया जाता है, उस दिन पता चलता है, सबके भीतर यह हीरा पड़ा है। तुम्हें पता न हो, यह दूसरी बात, लेकिन हीरा तो पड़ा ही है। तुम्हें न दिखता हो, मुझे तो दिखता है। जिसे अपना हीरा दिख गया, उसे सबके भीतर के हीरे दिखायी पड़ गए। जिसकी आंखें रोशनी देखने में समर्थ हो गयीं, उसकी आंखें सबकी रोशनी देखने में समर्थ हो गयीं।
बुद्ध का यह वचन महत्वपूर्ण है कि जिस दिन मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, मेरे लिए सारा जगत ज्ञान को उपलब्ध हो गया। उस दिन के बाद कोई अज्ञानी है ही नहीं।
तो फिर बुद्ध समझाते क्या हैं? बुद्ध को कोई पूछता है कि अगर ऐसा है कि आप अब जानते हैं कि सभी ज्ञानी हो गए, तो आप समझाते क्या हैं? तो बुद्ध कहते हैं, यही समझाता हूं कि लोग अपने को अज्ञानी माने बैठे हैं, मैं उनको यही समझाता हूं कि अज्ञानी तुम नहीं हो, ज्ञानी हो। मुझे कुछ समझाने को नहीं बचा है, मेरे लिए तो बात साफ हो गयी कि सब ज्ञानी हैं। मगर वे जो ज्ञानी हैं, वे अपने को अज्ञानी माने बैठे हैं। उनकी मान्यता तोड़नी है।
लेकिन जब परम अवस्था घटती है, तब भी कुछ लोग गांठ बांधे रहे जाते हैं। उनसे भी कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए सारे धर्मों ने दो भेद किए हैं। जैनों ने भेद किया है, एक को वे कहते हैं--केवली जिन। जिसने जान लिया, जिनत्व को उपलब्ध हो गया, समाधि को परिपूर्ण पा लिया, लेकिन चुप्पी साधकर रह गया, फिर कुछ बोला नहीं। उसको कहते हैं--केवली जिन। वह केवलत्व को उपलब्ध हो गया, बस, गया शून्य में, महाशून्य में चला गया।
दूसरे को कहते हैं--तीर्थंकर। तीर्थंकर का अर्थ है, जो खुद पाया और फिर दूसरों के लिए घाट बनाने लगा कि यहां से तुम भी उतरो। तीर्थ यानी घाट। यह भवसागर, इस पर घाट बनाने लगा। और कहा कि यहां से तुम भी अपनी नाव छोड़ो। हम तो पहुंच गए बिना घाट के--लेकिन बिना घाट के नाव छोड़ना सदा खतरनाक होता है--हम तो बिना घाट के भी तर गए किसी तरह, लेकिन अब तुम्हारे लिए सीढ़ियां डालकर, ठीक से पाटकर घाट बना देते हैं, अब तुम अपनी नाव को यहां से ले जाओ। तो इसको कहते हैं तीर्थंकर, जो दूसरों के लिए घाट बनाता।
बौद्धों ने भी दो शब्द उपयोग किए हैं। एक को कहते--अर्हत। अर्हत का अर्थ होता है, जिसने पा लिया, जिसके सारे शत्रु समाप्त हो गए--अरिहंत, या अर्हत। अपने शत्रुओं को जीत चुका और फिर चुप्पी मारकर बैठ गया।
दूसरे को कहते हैं--बोधिसत्व। जो ज्ञान को पा लिया और अब बांटने निकल पड़ा। अब वह कहता है, जो मिला है वह बांट भी दूं। अपनी बात तो पूरी हो गयी, जो जानना था जान लिया, लेकिन बहुत हैं अभी जिनको इसका कुछ पता नहीं है, उनको जगाने चल पड़ा।
दोनों बातें महत्वपूर्ण हैं, जब शुरू-शुरू में ध्यान की किरण उतरे तो कबीर की सुनना; वह साधक के लिए बात है। और जब किरण उतर जाए, सूरज ऊग जाए, फिर कबीर की बात मत सुनना; फिर तो जहां कोई मिल जाए, माने चाहे न माने, चाहे देखे चाहे न देखे, तुम पट से अपनी गांठ खोलकर उसको हीरा तो दिखा ही देना! वह चाहे इंकार करे, चाहे वह लाख चिल्लाए कि क्षमा करो, मुझे नहीं देखना, कि मैं फिर देखूंगा, अभी मेरा समय नहीं है, अभी मैं बाजार जा रहा हूं, मेरी पत्नी बीमार है, तुम कहना कि कोई फिकर नहीं, मगर देख तो लो, फिर मिलना हो न मिलना हो! मगर तुम्हें याद रह जाएगी कि हीरा होता है, हीरा घटता है। और मुझ जैसे साधारण आदमी को घट गया, तुम्हें भी घट सकता है।
आखिरी प्रश्न:...बहुत से प्रश्न पूछे हैं इन मित्र ने। सार में मैंने दो प्रश्न बना लिए हैं। एक तो पूछा है...
भगवान, आप विश्वविद्यालय में आचार्य थे तब आनंदित और प्रतिष्ठित थे कि अब?
आनंदित तो मैं तब भी था, आनंदित अब भी हूं, प्रतिष्ठित तब भी नहीं था और अब भी नहीं हूं। प्रतिष्ठा मेरे भाग्य में नहीं।
मगर आनंद मिल गया हो तो कौन फिकर करता है प्रतिष्ठा की! प्रतिष्ठा तो वही खोजते हैं, जिन्हें आनंद न मिला हो। प्रतिष्ठा का मतलब होता है कि हमें भीतर तो कुछ नहीं मिला, तो चलो बाहर के लोग ही कुछ प्रतिष्ठा दे दें, उससे ही शायद थोड़ा सा लगे कि कुछ पा लिया है। प्रतिष्ठा का अर्थ होता है, दूसरे हमें थोड़ा भर दें, हम तो खाली हैं। दूसरे कहें, आप सुंदर; दूसरे कहें, आप शुभ; दूसरे कहें, आप शिव; दूसरे कहें, आप साधु--दूसरे कह दें; हम तो भीतर खाली हैं। अगर दूसरे न कहेंगे, तो हमारे भीतर तो कुछ भी नहीं है। प्रतिष्ठा का मतलब होता है, उधार, कोई कह दे।
तो प्रतिष्ठित तो मैं तब भी नहीं था, अब भी नहीं हूं। प्रतिष्ठा मेरा भाग्य भी नहीं और प्रतिष्ठा में मुझे रस भी नहीं। जिसमें रस था वह तब भी था, अब भी है।
हां, अगर तुम पूछते हो, शायद तुम्हारा मतलब यही हो कि कुछ फर्क पड़ा कि नहीं? फर्क पड़ा है। आप महात्माओं से सत्संग तब नहीं होता था, अब करना पड़ता है! बस इतना ही फर्क पड़ा है, और तो कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
दूसरा पूछा है:
भगवान, आपने ऐसा क्या किया जिससे कि आप भगवान हो गए?
करने से कोई भगवान थोड़े ही होता है, भगवान होना हमारा स्वभाव है। जब तुम करना-धरना छोड़कर अपने भीतर देखते हो, पाते हो--भगवान हम हैं! इसका करने से कोई संबंध नहीं। तुम शायद सोचते होगे, कितने उपवास किए, कितनी दंड-बैठक लगायी, कितना शीर्षासन किया, कितना आसन-व्यायाम किया, कितना भजन-कीर्तन किया--तुम शायद इस तरह का कुछ पूछ रहे हो कि किया क्या, जिससे आप भगवान हो गए?
करने ही से तुम चूक रहे हो। कर-करके चूक रहे हो। क्योंकि भगवान होना हमारा होना है, इसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं, भगवान तुम हो। लाख तुम उपाय करो तो भी तुम कुछ और हो न सकोगे। हर उपाय असफल जाएगा। इसीलिए तो जीवन में तुम रो रहे हो, क्योंकि हर उपाय असफल जा रहा है। कुछ भी करते हो, सफल होता नहीं। हो ही नहीं सकता। क्योंकि जो तुम हो, उसे जब जानोगे तभी तृप्ति होगी। और तुम कुछ भी होने की कोशिश करते रहो, कुछ भी कभी तुम हो न पाओगे। सिर्फ समय जाएगा, जीवन व्यतीत होगा, व्यर्थ श्रम होगा, परिणाम कभी हाथ न लगेगा। तुम रेत से तेल निचोड़ रहे हो।
तो तुम पूछते हो, ‘आपने ऐसा क्या किया?’
तुम्हारी धारणा ऐसी है कि कुछ उलटा-सीधा करो, तो आदमी भगवान होता है। फिर तुम समझे ही नहीं। भगवान तो स्वभाव की घोषणा है। न कुछ करते-करते, न कुछ करते-करते जब तुम्हारी सारी जीवन चेतना सब तरह के संसरण से, संसार से छूट जाती है, दौड़ से छूट जाती है, भीतर रमे रह गए, ठगे खड़े रह गए, जरा भी कल्पना नहीं उठती कि यह करें, जरा भी भाव नहीं उठता कि यह हो जाएं, जरा भी दौड़ की लहर नहीं उठती कि वहां पहुंच जाएं--यहां और अभी जब तुम शांत विश्राम में पड़े रह गए--उसी घड़ी प्रकट हो जाती है बात, तुम्हारी भगवत्ता प्रकट हो जाती है। भगवान तुम्हारे भीतर पड़ा है, तुम्हारी झोली में पड़ा है।
इसलिए यह बात तो पूछो ही मत कि क्या करके। ऐसा पूछो कि आपने क्या-क्या करना छोड़ा जिससे भगवान हो गए, तो बात अर्थ की होगी। होने की आकांक्षा छोड़ी, होने के विचार छोड़े, अंग्रेजी में जिसको कहते हैं--बिकमिंग, यह हो जाऊं, वह हो जाऊं, ऐसी सारी धारणा छोड़ी। जो हूं, ठीक हूं। जो हूं, उससे राजी हूं। जो हूं, जैसा हूं, यही परम नियति है, यही मेरा स्वभाव है। इस होने में रमा, कुछ और होने की आकांक्षा न रही, उसी क्षण, उसी क्षण, तत्क्षण प्रगट हो जाती है भगवत्ता। तुम अचानक पाते हो, तुम्हारे हृदय-कमल पर भगवान विराजमान हैं। और ऐसा नहीं कि तुमसे अलग विराजमान हैं, तुम ही हो, अहं ब्रह्मास्मि।
आज इतना ही।
भगवान, संसार में दुख ही दुख है या कुछ सुख भी?
संसार पर्यायवाची है दुख का। यह प्रश्न ऐसा ही है जैसे कोई पूछे, दुख में दुख ही दुख है, या कुछ सुख भी है?
सुख की आशा है। लेकिन सुख कभी घटता नहीं। आशा दुराशा सिद्ध होती है। सुख घटेगा, ऐसा संसार आश्वासन देता है। लेकिन आश्वासन यहां कभी पूरे होते नहीं। एक आश्वासन टूटता है तो संसार दस और देता है। आश्वासन देने में संसार कृपण नहीं है। खूब दिल खोलकर आश्वासन देता है। तुम जितना मांगो, उससे हजार गुना देने की तैयारी दिखलाता है। लेकिन देता कुछ भी नहीं। जीवन ले लेता है तुमसे इन्हीं आश्वासनों के सहारे। इन्हीं आशाओं के सहारे तुम्हें दौड़ा लेता है खूब, थककर गिर जाते हो कब्र में। कब्र में गिरते-गिरते तक भी तुम्हारे आश्वासन पर भरोसे टूटते नहीं। तब तुम सोचते हो कब्र में गिरते-गिरते--बैकुंठ है, स्वर्ग है, वहां मिलेगा सुख। वह भी संसार का ही धोखा है।
सुख कहीं मिलेगा, इस भ्रांति का नाम संसार है।
सुख अभी है, यहीं है, इस बोध का नाम निर्वाण है।
सुख किसी से मिलेगा, इस भ्रांति का नाम संसार है।
सुख अपना स्वभाव है, इस जागृति का नाम मोक्ष है।
सुख के लिए कोई परिस्थिति चाहिए, कोई शर्त पूरी करनी पड़ेगी, इस आपाधापी का नाम संसार है। सुख है ही, तुम जैसे हो वैसे होने में सुख है। सुख से तुम कभी च्युत ही नहीं हुए, सुख से ही तुम निर्मित हो। सुख को मांगने में भूल है, सुख को भोगने में सुख है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, अहो, देखो हम कैसे सुखी! वैरियों के बीच अवैरी होकर विहरते हैं। आकांक्षियों के बीच निराकांक्षी होकर विहरते हैं। भिखारियों के बीच सम्राट होकर विहरते हैं। सुसुखं वत! यह हमारा सुखी स्वभाव तो देखो। यह हमारा महासुख देखो।
संसार में सुख नहीं है, सुख स्वयं में है। लेकिन संसार का मतलब ही यह होता है, जो स्वयं से चूक गया और दूसरे पर जिसकी नजर अटक गयी। तुम संसार शब्द का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझते। तुम समझते हो संसार का मतलब, ये वृक्ष, ये पहाड़, ये चांद-तारे, ये बाजार, ये दुकान, यह संसार है। तुम संसार का अर्थ नहीं समझते। तुम शाब्दिक अर्थ समझते हो। तुम उसका मनोवैज्ञानिक अर्थ नहीं समझते।
संसार का अर्थ है, किसी दूसरे में सुख, किसी और में सुख, कहीं और सुख। इस तरह की जो अज्ञान-दशा है, उसका नाम संसार है। और इस अज्ञान-दशा में जो चलता जाता, चलता जाता--संसरण करता है जो--वह संसार में जी रहा है। इस अज्ञान-दशा में संसरण करता है जो, चलता जाता है, चलता जाता है, चलता जाता है; इधर नहीं मिला उधर मिलेगा, वहां पहुंच जाता है, वहां भी नहीं मिलता, और आगे मिलेगा, ऐसी संसरण करने की प्रक्रिया का नाम संसार है।
जिस दिन तुम यह जागकर समझ लोगे--कहीं नहीं मिलता, न यहां मिलता, न वहां मिलता, कितने ही बढ़ते जाओ, कहीं नहीं मिलता; सारी आशाएं क्षितिज की भांति सिद्ध होती हैं, जमीन और आकाश कहीं मिलते नहीं, मिलते प्रतीत होते हैं, जब ऐसा तुम्हें बोध होगा और तुम जागकर खड़े हो जाओगे--जागकर--तुम्हारा होश का दीया जलेगा, आंखें दूसरे से हट जाएंगी अपने पर पड़ेंगी, तुम्हारी ज्योति तुम्हें ज्योतिर्मय करेगी, उसी क्षण सुख है।
और वह क्षण संसार के बाहर है, क्योंकि संसरण रुक गया। वह जो दौड़ थी--दौड़ यानी संसार--वह रुक गयी। अब तुम अपने में डूब गए, तुमने अपने में डुबकी ले ली, तुम स्रोतापन्न हो गए, तुम्हें स्रोतापन्न होने का पहला फल मिला, तुम अपनी जीवनधारा में उतर गए। अब तुम भिखारी नहीं हो, अब तुम सम्राट हो गए, अब तुम कह सकते हो--अहो, देखो, सुसुखं वत! हमारा सुख देखो!
पूछते हो, ‘संसार में दुख ही दुख है?’
दुख का नाम संसार है। इसलिए ऐसा प्रश्न पूछ ही नहीं सकते तुम। पूछा नहीं जा सकता। मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि सुख नहीं है। संसार में सुख नहीं है, इसका यह अर्थ नहीं कि सुख नहीं है। सुख है, संसार में सुख नहीं है। सुगंध है। कंकड़-पत्थरों में सुगंध नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं कि सुगंध नहीं है। कंकड़-पत्थरों को नाक से लगाए बैठे रहोगे तो सुगंध न मिलेगी। सुगंध है, लेकिन फूलों को, कमल को, गुलाब को, कंकड़-पत्थरों को नहीं। कंकड़-पत्थर गंधशून्य हैं। सुगंध है, तुममें। कस्तूरी कुंडल बसै। वह तुम्हारे भीतर ही बसी है। जिसको खोजते तुम द्वार-द्वार, दरवाजे-दरवाजे भटक रहे हो, वह तुम्हारे भीतर बसी है। उसे तुम लेकर आए हो। वह तुम हो। तत्वमसि।
सुख तो है। अगर सुख हो ही न तो जीवन बिलकुल ही अकारथ हो गया, तो जीवन बिलकुल असार हो गया। फिर धर्म का क्या अर्थ, फिर धर्म का क्या सार? धर्म का इतना ही सार है--जहां सुख नहीं है वहां से तुम्हें उस तरफ मोड़ दे जहां सुख है। धर्म सुख की खोज है। धर्म जहां-जहां दुख है, वहां-वहां तुम्हें जगा देता; और जहां सुख है, वहां तुम्हें डुबकी लगवा देता।
और ये जो संसार के दुख हैं, ये भी तुम्हारे विरोधी नहीं हैं, ये भी सहयोगी हैं, क्योंकि इन्हीं से गुजर-गुजर कर तो अनुभव पकेगा। बार-बार चोट खा-खा कर दूसरे से, दुख पा-पा कर तो तुम जगोगे और अपने में आओगे। टकरा-टकरा कर, हर बार रो-रो कर तो एक दिन तुम्हारी आंखें बंद होंगी।
जीवन दर्द का झरना है
जो भी जीते हैं
दर्द भोगते हैं
और दर्द भोगते-भोगते ही हमें मरना है
दर्द नियति की दुकान की निहाई है
दर्द भगवान के हाथ का हथौड़ा है
देवता हम पर चोटें देकर
हमें संवारता और गढ़ता है
शायद यह बात सच है कि
आदमी दर्द में विकसित होता
खूबसूरत बनता और बढ़ता है
तो दर्द एकदम व्यर्थ नहीं हैं, दुख एकदम व्यर्थ नहीं हैं। दुख है बाहर, लेकिन वही चोट निहाई बनती, हथौड़ा बन जाती, वही चोट छेनी बन जाती, वही चोट तुम्हारे भीतर से जो-जो व्यर्थ है उसे काट देती, जला देती है, वही चोट तुम्हें जगाती है।
देवता हम पर चोटें देकर
हमें संवारता और गढ़ता है
दर्द नियति के दुकान की निहाई है
दर्द भगवान के हाथ का हथौड़ा है
शायद यह बात सच है कि
आदमी दर्द में विकसित होता
खूबसूरत बनता और बढ़ता है
इसलिए जब मैं कहता हूं, संसार में दुख है, तो तुम्हें कोई संसार-विरोधी बात नहीं कह रहा हूं। तुम्हें केवल संसार का स्वभाव समझा रहा हूं। ऐसा है। और इस दर्द का भी तुम अगर थोड़ा समझपूर्वक उपयोग करो तो यही सीढ़ियां बन जाए। इसी की चोटों से तुम्हारे भीतर छिपी हुई मूर्ति प्रगट होगी। तुम्हारे भीतर छिपा चिन्मय इसी से प्रगट होगा। यही आग जलाएगी, और जलाएगी, और जलाएगी, और तुम्हारा स्वर्ण निखरकर कुंदन बनेगा।
इसलिए दर्द तो है, दुख तो है, पीड़ा तो है, मगर पीड़ा निखारती है, मांजती है, सजाती है, संवारती है। इसलिए मैं तुम्हें भगोड़ा बनने को नहीं कहता। संसार में दुख है, ऐसा सुनकर कुछ लोग भगोड़े बन जाते हैं, वे कहते हैं--छोड़ो संसार। भागे! लेकिन तुम समझे ही नहीं। भागोगे कहां? संसरण यानी संसार। भागे तो संसार। कहीं और जाने की सोची तो संसार।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, सब छोड़ दें घर-द्वार, हिमालय चले जाएं। यह संसार। अब इन्हें हिमालय में सुख दिखायी पड़ता है। पहले दिखायी पड़ता था कि धन होगा तो सुख होगा, पद होगा तो सुख होगा, प्रतिष्ठा होगी तो सुख होगा। अब सोचते हैं, हिमालय में सुख है, हिमालय की गुफा में सुख है। संसार ने नया आश्वासन दे दिया, संसार ने दौड़ने का नया सूत्र दे दिया--हिमालय की तरफ दौड़ो। फिर एक गुफा में बैठे-बैठे लगेगा कि नहीं, यहां तो नहीं मिलता, थोड़े और ऊपर जाओ, थोड़े और ऊपर जाओ, मिलेगा वहां। ऐसा तुम्हारा जो संसरण चलाता रहता है, उसी का नाम, उस सूत्र का नाम संसार है। जब तुमने दौड़ना बंद कर दिया...।
इसलिए मैं कहता हूं, भगोड़े मत बनना, भगोड़ा संन्यासी नहीं है, भगोड़ा संसारी है। तुम जहां हो, ठीक हो, वहीं ठीक हो, वहीं जागो। कहां जाना भागकर! अपने में आना है। अपने में आने के लिए भागना तो जरूरी नहीं है। अपने में आना तो सब भागना छोड़ देना जरूरी है। रुक जाओ, ठहर जाओ। दौड़कर जो मिलता है वह संसार है, रुककर जो मिलता है वह परमात्मा है।
रुको, ठहरो, धीरे-धीरे दौड़ छोड़ो। ऐसे जीने लगो जैसे कहीं जाना नहीं है, कुछ होना नहीं है, कुछ बनना नहीं है। उसी क्षण तुम पाओगे कि तुम बने-बनाए हो, तुम्हें परमात्मा ने पूरा बनाया, तुम्हें वैसा बनाया जैसा तुम होना चाहते हो। लेकिन तुमने कभी अपनी शकल ही नहीं देखी। तुम औरों की शकलों में उलझे रहे। तुमने कभी अपनी गांठ ही नहीं टटोली, तुम दूसरों की गांठें टटोलते रहे। तुमने अपने भीतर की खदान नहीं खोदी, तुम न मालूम कहां-कहां भटके जन्मों-जन्मों में, कितनी तुमने यात्राएं कीं, लेकिन अपने घर तुम कभी आए ही नहीं। अपने घर आ जाना यानी धर्म। एस धम्मो सनंतनो। यही सनातन धर्म है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, क्या अंग्रेजी का शब्द साल्वेशन और संस्कृत के मोक्ष, बैकुंठ और निर्वाण, सब समानार्थी हैं?
परम अर्थों में, अंतिम अर्थों में, हां। प्राथमिक अर्थों में, नहीं। पारमार्थिक अर्थों में, हां। व्यावहारिक अर्थों में, नहीं। व्यावहारिक अर्थों में तो फर्क है।
साल्वेशन का अर्थ होता है, किसी और के द्वारा। इसलिए ईसाई सोचते हैं, जीसस के द्वारा। स्वयं के द्वारा नहीं, किसी और के द्वारा कोई आएगा कल्याणकर्ता, कोई आएगा उद्धारक, मसीहा, उसके द्वारा मुक्ति होगी, तो साल्वेशन।
यह मोक्ष की सबसे निम्न धारणा है। क्योंकि दूसरे के द्वारा जो होगा, वह तो मोक्ष होगा कैसे? दूसरे में ही उलझे-उलझे तो संसार है, फिर भी उलझे दूसरे में ही हैं। पहले पत्नी में उलझे थे, पति में उलझे थे, बेटे में उलझे थे, अब इससे छूटे तो अब मसीहा आएगा, तो मुक्ति होगी। मुक्ति भी अपने हाथ में नहीं तो क्या खाक मुक्ति! जब मुक्ति भी दूसरे के हाथ में है, तो मुक्ति भी बंधन हो गयी। फिर मसीहा आज मुक्त कर देगा। और कल अगर मसीहा का दिल बदल गया! जो हाथ में दूसरे के है, वह तुम्हारा नहीं। वह तुम्हारी मालकियत नहीं। यह मोक्ष की सबसे निम्नतम धारणा है, कि दूसरा। यह संसार के बहुत करीब है।
इसलिए ईसाइयत बहुत ऊपर नहीं उठी। ईसाइयत का धर्म संसार के बहुत करीब है। इसलिए ईसाई पादरी-पुरोहित बिलकुल सांसारिक है। उसमें कुछ धर्म की वैसी पारलौकिक गंध नहीं है, जैसी बौद्ध भिक्षु में दिखायी पड़ेगी, हिंदू संन्यासी में दिखायी पड़ेगी, जैन मुनि में दिखायी पड़ेगी, वैसी गंध नहीं है। कुछ चूक रहा है। उसकी साल्वेशन की जो धारणा है, मुक्ति की जो धारणा है, वह भी बासी और उधार है--दूसरा कोई करेगा। तो बैठे हैं हाथ पर हाथ धरे। और जीसस आए और गए भी और ईसाई सोचते हैं, मुक्ति हो गयी, जीसस के आने से मुक्ति हो गयी। तो अब करने को कुछ बचा ही नहीं है! इसलिए यह मुक्ति की धारणा मुक्ति में सहयोगी तो नहीं बनी, बाधा बनी। अब तो करने को कुछ है नहीं!
अब तुम समझो। ईसाइयत की धारणा यह है कि अदम के कारण पाप हुआ। तुमने पाप भी नहीं किया। हद्द हो गयी! तुम कुछ करोगे कभी कि नहीं! पाप भी अदम ने किया, तो उसका पाप तुम भोग रहे थे। फिर आए जीसस, उन्होंने पुण्य किया, अब उनका पुण्य तुम भोग रहे हो। तुम उधार ही उधार हो! नगद कुछ भी है तुम्हारे भीतर? पाप भी अपना नहीं! पुण्य भी अपना नहीं!
यह बात बहुत गहरी नहीं है। अदम का पाप हमें क्यों पापी बनाएगा? अदम ने किया होगा, अदम समझे-बूझे! इससे तो व्यक्तिगत आत्मा की हत्या ही हो गयी।
अदम कब हुआ! हुआ कि नहीं हुआ! पाप भी कोई बहुत बड़ा नहीं किया। पाप ऐसा किया जो करना ही था। ईश्वर ने कहा था कि इस बगीचे के ज्ञान के फल को मत चखना और अदम ने चखा। कोई भी आदमी जिसमें थोड़ी भी हिम्मत हो, यही करता। और फिर ज्ञान का फल! छोड़ देने जैसा भी नहीं था। अदम ने जोखिम उठायी, उसने कहा, हो पाप हो! कारण क्या रहा होगा? अगर हम अदम के मनोविज्ञान में उतरें तो हमें समझ में आएगा।
अदम ऊब गया था, सुख ही सुख, सुख ही सुख। मिठाई ही मिठाई, मिठाई ही मिठाई, तो डायाबिटीज पैदा हो जाती है। तो अदम को डायबिटीज हो गयी होगी। सुख ही सुख था वहां, दुख तो था ही नहीं कुछ मोक्ष में, उस ईश्वर के राज्य में; सब सुख ही सुख था, पीड़ा तो कुछ थी ही नहीं। ऊब गया होगा। थक गया होगा। जितना आदमी सुख से थक जाता है उतना किसी और चीज से नहीं थकता। कुछ करने का जी होने लगा होगा। कुछ नए का स्वाद लेने का मन उठने लगा होगा।
तो उसने जोखिम उठायी। वह ऊबा हुआ था, उसने कहा कि ठीक है, ज्यादा से ज्यादा इस स्वर्ग के बाहर ही निकाल दोगे न! इस स्वर्ग में रखा भी क्या है! यह स्वर्ग एक तरह की गुलामी थी। जहां ज्ञान का फल खाने की भी आज्ञा न हो, वह स्वर्ग क्या! और क्या आज्ञा दोगे, जहां ज्ञान का फल खाने की भी आज्ञा नहीं है! तो अदम राजी हो गया, उसने ज्ञान का फल खा लिया और स्वर्ग से निकाल दिया गया। क्योंकि ईश्वर बहुत नाराज हो गया--उसकी आज्ञा का उल्लंघन हुआ।
यह ईश्वर न हुआ साधारण बाप हुआ, यह छोटी-मोटी आज्ञाओं के उल्लंघन से एकदम दीवाना हो जाता है। अगर बाप भी थोड़ा हिम्मतवर होता तो पीठ ठोंकता अदम की कि तूने ठीक किया बेटा, अब तू जवान हुआ। बाप को इनकार करके ही तो बेटा जवान होता है। जब तक बेटा बाप को इनकार नहीं करता तब तक तो दुधमुंहा रहता है--तब तक जवान होता ही नहीं, दूध के दांत टूटे ही नहीं। जब तक बाप जो कहता है, हां में हां भरता है, तब तक कहीं कोई बेटा जवान होता है! मनोविज्ञान से पूछो! मनोवैज्ञानिक कहते हैं, जब बेटा नहीं कहता है बाप को, उसी दिन बेटा जवान होता है। तो अदम ने कुछ कसूर न किया, जवान हुआ।
अदम को निकाल दिया, कसूर भी कोई बड़ा न था, सिर्फ अपनी प्रौढ़ता की घोषणा थी कि मैं अपनी जिंदगी अपने हाथ में लेना चाहता हूं। ज्ञान का फल खाने का मतलब क्या? कि अब मैं उधार नहीं जीना चाहता; तुम जानो और मैं बिना जाने जीयूं! बाप ने यही कहा था कि तुझे जानने की जरूरत क्या, मैं सब जानता हूं; तू सिर्फ मेरी मान और चल।
यही तो सभी बाप कहते हैं कि तुझे जानने की क्या जरूरत है, मैं तो सब जानता हूं, तू तो सिर्फ हमारी आज्ञा मान। लेकिन कौन बेटा ज्यादा देर तक इसके लिए राजी हो सकता है! उन बेटों को छोड़ दो जो गोबर-गणेश हैं। उनका कोई मतलब भी नहीं है, वे हैं भी नहीं।
अदम ने जो पाप किया, करना ही था। जरूरी था, पाप था ही नहीं। अदम ने हिम्मत की जवान होने की। हर बेटे को करनी पड़ती है, एक दिन हर बेटे को, हर बेटी को अपने मां-बाप को इनकार करना पड़ता है। यह होना ही है। यह होना ही चाहिए। इसी से तो रीढ़ पैदा होती है। इसको ईसाई कहते हैं, पाप हो गया। यह भी खूब पाप हुआ!
और दूसरा मजा यह कि पाप किसी ने किया--जिसका हमें कोई लेना-देना नहीं--हम सब उसका पाप भोग रहे हैं, क्योंकि हम सब उसकी संतान हैं! यह भी अजीब बात हुई! बाप पाप करे और बेटा भोगे। बाप के बाप पाप करें और बेटा भोगे। तो फिर व्यक्तिगत आत्मा का अर्थ ही न रहा। फिर व्यक्तिगत आत्मा का क्या मूल्य! फिर तुम हो, यह कहने में क्या सार! तुम हो ही नहीं।
हजारों साल पहले किसी आदमी ने कोई भूल-चूक की थी, उसका पाप तुम्हारी आत्मा पर गहरा है! तुमसे कुछ लेना-देना नहीं। जो तुमने भूल नहीं की, उसकी जिम्मेवारी तुम पर नहीं हो सकती।
यह धारणा ही बुनियादी रूप से गलत। फिर इस गलत धारणा को ठीक करने के लिए दूसरी गलत धारणा पैदा करनी पड़ी कि जब पाप दूसरे का किया आदमी भोग रहा है, तो फिर पुण्य भी दूसरे का ही किया आदमी भोगेगा।
तो सारा मजा कि कथा अदम से शुरू हुई, जीसस पर समाप्त हो गयी, हमें कुछ लेना-देना नहीं, हम सिर्फ दर्शक हैं। पाप अदम ने किया, जीसस ने क्षमा मांग ली। अदम ने आज्ञा तोड़ी थी, जीसस ने आज्ञा पूरी कर दी। अदम स्वर्ग के बाहर निकाल दिया गया था, जीसस जुलूस के साथ शोभा-यात्रा में स्वर्ग में वापस प्रविष्ट हो गए। और हम? अदम और जीसस को छोड़कर बाकी जो लोग हैं, ये? ये सिर्फ दर्शक हैं! किसी का पाप ढोते हैं, किसी का पुण्य ढोने लगते हैं! लेकिन इसका तो अर्थ हुआ कि तुम्हारे भीतर कोई आत्मा नहीं है।
इसलिए मैं साल्वेशन को मोक्ष की सबसे निम्नतम धारणा कहता हूं, क्योंकि इसमें दूसरे पर भरोसा है। मोक्ष से थोड़े ऊपर जाता है हिंदुओं का बैकुंठ। थोड़े ऊपर जाता है। बहुत ऊपर नहीं जाता।
बैकुंठ का अर्थ होता है, परमात्मा के प्रसाद से। कोई मनुष्य नहीं है माध्यम, लेकिन अभी भी दूसरा महत्वपूर्ण है, परमात्मा का प्रसाद! परमात्मा चाहेगा तो उठा लेगा, उसकी अनुकंपा होगी तो उठा लेगा। और फिर सदा परमात्मा के साथ बैकुंठ में रहेंगे, मजा भोगेंगे, सुख ही सुख होगा, स्वर्ग होगा, अप्सराएं होंगी, कल्पवृक्ष होंगे, उनके नीचे बैठकर सारी-सारी वासनाओं को तृप्त करेंगे।
यह साल्वेशन से थोड़े ऊपर जाता। कम से कम किसी मसीहा को तो बीच में नहीं लिया है। कम से कम आदमपुत्र को तो बीच में नहीं लिया है, सीधा ईश्वर है। चलो, इतना ही बहुत। यह थोड़ी ऊपर जाती धारणा। और, उसकी अनुकंपा से होगा। तो उसकी अनुकंपा अर्जित करनी होगी। उसकी अनुकंपा अर्जित करने के लिए हृदय को स्वच्छ करना होगा, प्रार्थनापूर्ण करना होगा, निर्मल करना होगा, यह भक्तों की धारणा है।
लेकिन बैकुंठ में भी परमात्मा रहेगा, हम रहेंगे, अलग-अलग। दो रहेंगे। और जहां दो हैं, वहां तक अभी बात बहुत ऊपर नहीं गयी। क्योंकि जहां बात बहुत ऊपर जाएगी वहां तो एक बचना चाहिए। जहां तक द्वंद्व है, द्वैत है, वहां तक मन का सब विकार है। क्योंकि मन ही चीजों को दो में तोड़ता है। जहां मन ही न रहा, वहां दो कैसे रहेंगे?
इसलिए तीसरी धारणा है मोक्ष की। वेदांत, जैन--इनकी धारणा और ऊंची जाती है। मोक्ष का अर्थ है, दो न रहे, एक ही बचा। हिंदू उस एक को कहते, ब्रह्म। व्यक्ति की आत्मा, मनुष्य की आत्मा उसमें समा गयी, ब्रह्म में। हम खो गए। बूंद सागर में गिर गयी और सागर हो गयी। ब्रह्म बचा, ब्रह्ममात्र। यह हिंदुओं की धारणा, वेदांत की।
जैनों की धारणा कि सागर बूंद में समा गया। परमात्मा हममें लीन हो गया। हम बचे, मैं बचा, आत्मा बची। हिंदुओं से जैनों की धारणा ऊपर जाती है। क्योंकि मैं समा गया, मैं खो गया, परमात्मा बचा, तो इसका अर्थ यह हुआ कि फिर मैं था ही नहीं, परमात्मा ही था। खो तो वही सकता है जो रहा ही न हो। मिट तो वही सकता है जो कभी रहा ही न हो, सिर्फ भास होता था जिसका। तो मनुष्य की गरिमा को चोट पहुंचती है। महावीर ने मनुष्य की गरिमा को चोट नहीं पहुंचने दी। उन्होंने कहा, मनुष्य की गरिमा को चोट जो धर्म पहुंचा दे, वह मनुष्य को गुलाम बना देगा। मनुष्य की गरिमा अपरिसीम है, आखिरी है। तो आत्मा ही परमात्मा हो जाती है। लीन नहीं होती परमात्मा में, परमात्मा बन जाती है। जैसे बूंद में सागर उतरता।
बूंद का सागर में उतरना तो साधारण सी बात है, समझ में आ जाता है। लेकिन बूंद में सागर का उतरना बड़ी असाधारण घटना है। तो सिर्फ आत्मा बचती है मोक्ष में, शुद्ध आत्मा बचती है, निर्मल ज्योति बचती है चेतना की, कोई दूसरा नहीं।
फिर निर्वाण है। निर्वाण बौद्धों की धारणा है। वह सबसे ऊपर की धारणा है। फिर उसके पार कोई धारणा कभी नहीं गयी है। निर्वाण का अर्थ है, न तो परमात्मा बचता है, न मैं बचता, कोई भी नहीं बचता--शून्य बचता है। क्योंकि बौद्ध कहते हैं, अगर परमात्मा बचा और मैं न बचा, तो दो तो न रहे, एक रहा। अगर मैं बचा, परमात्मा न बचा, तो भी दो न रहे, एक रहा। लेकिन जब तक एक है तब तक दूसरा भी किसी न किसी भांति मौजूद रहेगा। क्योंकि एक का कोई अर्थ ही नहीं होता दो के बिना। जब दो खो गए, तो एक भी खो जाना चाहिए; एक का क्या अर्थ है!
अगर हम कहते हैं--एक, तो तत्क्षण दो का खयाल आता है। एक कहते ही दो का खयाल आता है। क्या तुम ऐसा कर सकते हो कि कोई एक कहे और तुम्हें दो का खयाल न आए? इसीलिए तो वेदांतियों ने एक अनूठा ढंग खोजा--वे ऐसा नहीं कहते कि परमात्मा एक है, वे कहते हैं, परमात्मा अद्वैत है, दो नहीं। सीधी बात को कि एक है, सीधा नहीं कहते, क्योंकि एक कहने से तो दो का खयाल आता है, तत्क्षण खयाल आता है। एक का तो कोई अर्थ ही नहीं होता दो के बिना। सोचो, अगर एक ही है, तो उसको एक भी कैसे कहोगे! दो होने चाहिए तो ही एक में कोई अर्थ हो सकता है।
तो हिंदू कहते हैं, दो नहीं है। लेकिन बौद्ध कहते हैं, चाहे तुम एक कहो, चाहे तुम दो नहीं कहो, ये कितनी ही चालाक तरकीबें निकालो, कितनी ही होशियारी करो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर एक है, तो दो बचते हैं। अगर तुम कहो दो नहीं, तो भी एक की ही धारणा रह जाती। और उस निराकार दशा में न एक है, न दो है--वह संख्यातीत, संख्या के बाहर।
तो संख्यातीत तो एक ही चीज है, शून्य। शून्य मात्र संख्या के बाहर है। शून्य एक है कि दो, कि तीन, कि चार, कि पांच? शून्य तो सिर्फ शून्य है। न एक, न दो, न चार, न पांच। इसलिए शून्य के जो अर्थ लगाने हों लग जाते हैं। एक पर रख दो शून्य तो नौ के बराबर हो जाता है। दो पर रख दो शून्य तो अठारह के बराबर हो जाता है। तीन पर रख दो शून्य, सत्ताईस के बराबर हो गया! शून्य में कुछ है ही नहीं, शून्य तो बस शून्य है; शून्य तो दर्पण जैसा है--जो सामने ले आओ, उसी को झलका देता है। लाल रंग आया, दर्पण लाल हो गया। पीला रंग आया, दर्पण पीला हो गया। आदमी दिखा, दर्पण में आदमी दिखने लगा। आदमी गया, कोई न रहा, दर्पण खाली हो गया। शून्य तो दर्पण है।
तो बुद्ध ने निर्वाण शब्द चुना। बुद्ध के एक-एक शब्द बहुमूल्य हैं। उन्होंने जो श्रेष्ठतम हो सकता है, अंतिम हो सकता है, उस पर जैसी उनकी पकड़ है वैसी किसी की भी पकड़ नहीं है।
तो निर्वाण आखिरी धारणा है। कोई नहीं बचता। इससे तुम डरोगे भी। इसीलिए निर्वाण से बहुत लोग प्रभावित नहीं होते--कोई नहीं बचता! तो फिर सार क्या? तुम बचना तो चाहते हो। तुम यह चाहते हो कि आनंद तो हो, जरूर हो, लेकिन मैं भी तो रहूं, नहीं तो फिर आनंद होने का भी क्या सार है! और बुद्ध कहते हैं, तुम जब तक हो तब तक दुख रहेगा। तुम दुख। यह मैं की धारणा ही दुख है। जहां तुम नहीं रहे, वहीं आनंद है।
अब यह थोड़ा कठिन हो जाता है। हो ही जाएगा, उतनी ऊंचाई पर जब बातें पहुंचती हैं तो कठिन हो जाती हैं। तर्कातीत हो जाती हैं। बुद्धि की पकड़ में नहीं आतीं। बुद्धि के हाथ से फिसल-फिसल जाती हैं।
ये चारों शब्द अलग-अलग हैं, लेकिन मैंने कहा, व्यावहारिक अर्थों में। पारमार्थिक अर्थों में अलग-अलग नहीं हैं। चाहे कोई साल्वेशन के मार्ग से जाए, चाहे कोई बैकुंठ के मार्ग से जाए, चाहे कोई मोक्ष के, चाहे कोई निर्वाण के, अंततः निर्वाण में ही पहुंच जाएगा। क्योंकि जो आखिर तक नहीं ले जाते, उनके आगे तुम्हें मंजिल बनी रहेगी, तुम्हें लगेगा, अभी मंजिल बाकी है, थोड़ा और चलना जरूरी है। निर्वाण के आगे कुछ शेष नहीं रह जाता। शून्य के आगे क्या शेष है?
इसलिए ध्यान में तो निर्वाण रखना, हां, चलने की तो अपनी-अपनी मजबूरी है। अगर तुम्हें निर्वाण अभी पकड़ में ही न आता हो तो साल्वेशन से चलो, कोई हर्जा नहीं। वहीं से सोचो। कुछ तो किया। संसार से थोड़े तो हटे। एक कदम सही, थोड़ा धर्म का विचार तो जन्मा, थोड़ी धर्म की लहर तो उठी। चलो, वहीं से सही। यही सोचकर चलो कि क्राइस्ट मुक्ति देंगे, चलो, मुक्ति का भाव तो उठा। मुक्त होना चाहिए, यह प्यास तो उठी।
फिर यह प्यास धीरे-धीरे बढ़ेगी, तो तुम्हें लगेगा कि साल्वेशन की धारणा काम नहीं करती। तब शायद बैकुंठ की धारणा तुम्हारे पकड़ में आ जाए। तो फिर बैकुंठ की धारणा से चलना। एक दिन तुम्हें यह समझ में आएगा कि बैकुंठ भी ठीक, लेकिन यह भी संसार का ही विस्तार मालूम होता है; थोड़ा सूक्ष्म, लेकिन है संसार का ही विस्तार। वही सुख, थोड़ी बड़ी मात्रा में। वही स्त्रियां, थोड़ी ज्यादा सुंदर। वही वासनाएं, लेकिन कल्पवृक्ष के कारण पूरी होने लगीं अब। पहले मेहनत करके पूरी होती थीं, अब मुफ्त में पूरी होने लगीं, लेकिन बात वही की वही है। तो फिर तुम सोचोगे मोक्ष की बात कि अब तो सब छोड़कर ध्यान में डूब जाएं।
फिर एक घड़ी आएगी जब तुम पाओगे--जब ध्यान के आखिरी शिखर पर पहुंचोगे तब तुम पाओगे--सब तो गया, यह मैं का जो भाव बच गया, यही कांटे की तरह चुभ रहा है अब। उस दिन तुम यह कांटा भी छोड़ दोगे और निर्वाण घटित हो जाएगा।
इसलिए तुम जहां हो वहीं से चल पड़ो, कोई चिंता नहीं। पहुंचना तो निर्वाण है। निर्वाण तक नहीं पहुंचे तो पहुंचे ही नहीं। तो ध्यान में तो निर्वाण रखना, लेकिन अगर वह मंजिल बहुत दूर की मालूम पड़े और उतने दूर का शिखर तुम्हें दिखायी ही न पड़े, तो फिर जो तुम्हें दिखायी पड़े अभी उसको व्यावहारिक लक्ष्य बना लेना। जो पास की पहाड़ी हो उस पर चढ़ना शुरू कर देना। लेकिन खयाल में रहे कि एक दिन गौरीशंकर पर चढ़ना है, उससे कम में राजी नहीं होना है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, ऐसा कहा जाता है कि हम स्त्रियों के नब्बे प्रतिशत रोग मासिक धर्म की गड़बड़ी के कारण होते हैं और उन रोगों से मुक्त होने के लिए हम नाना प्रकार की औषधियों का उपयोग करती हैं, पर फिर भी स्वस्थ नहीं हो पातीं। आप परम वैद्य हैं, आप हमारे कष्टों और दुखों को भलीभांति जानते हैं, कृपा करके हमें मार्गदर्शन दें, हमें धर्म में गतिमान करें।
कुछ बातें समझ लेने जैसी हैं।
पहली बात, यह बात सच है कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को बहुत सी अड़चनें होती हैं, बहुत से रोग होते हैं। लेकिन दूसरी बात भी खयाल रखना, कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को कुछ सुविधाएं हैं जो पुरुष को नहीं हैं। क्योंकि इस जगत में कांटे अकेले नहीं आते, फूलों के साथ आते हैं। न फूल अकेले आते हैं, फूल भी कांटों के साथ आते हैं। यहां हर कड़वाहट में कोई मिठास छिपी होती है।
तो यह बात सच है कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को बहुत सी तकलीफें होती हैं। दूसरी बात भी इतनी ही सच है--जो खयाल में नहीं है--कि मासिक धर्म के कारण स्त्रियों को कुछ सुविधाएं हैं जो पुरुष को नहीं हैं। जैसे समझो, मासिक धर्म के चार दिन, पांच दिन स्त्रियों के लिए बड़ी नकारात्मक दशा के दिन हैं। सारा चित्त निषेध से भर जाता है। रुग्ण हो जाता है, क्रोध से भर जाता है, विषाद से भर जाता है, जीवन बोझिल मालूम होता है। जैसे एक छोटी सी मौत घटने लगी। ऐसी तकलीफ पुरुष को नहीं आती। लेकिन तुम्हें पता नहीं, ये चार दिन में जो नकारात्मकता पैदा हो जाती है, वह बह भी जाती है चार दिन में और बाकी जो महीना है वह ज्यादा प्रफुल्लता का होता है। वैसी प्रफुल्लता पुरुष की नहीं होती। उसकी नकारात्मकता निकलने में तीस ही दिन लगते हैं। थोड़ी-थोड़ी निकलती है, इकट्ठी नहीं निकलती। स्त्रियों का रोग इकट्ठा चार दिन में निकल जाता है। क्योंकि अंततः तो दोनों के रोग एक जैसे हैं, निकलना तो पड़ेगा ही।
तो स्त्री चार दिन में थोक रूप से परेशान हो लेती है, पुरुष तीस दिन फुटकर रूप से परेशान रहता है। इसलिए पुरुष की पीड़ा कभी उतनी प्रगाढ़ नहीं दिखती जितनी स्त्री की दिखती है। लेकिन पुरुष की प्रफुल्लता भी उतनी प्रगाढ़ नहीं दिखती जितनी स्त्री की दिखती है। स्त्री की कोमलता, स्त्री का सौंदर्य, उसी मासिक धर्म के कारण है। वह जो मासिक धर्म सारे विषाद को, सारे जहर को बहा देता है, तो बाकी शेष महीने में स्त्री हल्की हो जाती है। पुरुष पूरे महीने उसी बेचैनी में रहता है। धीरे-धीरे करके उसकी बेचैनी निकलती है।
तो एक बात तो खयाल रखना, अगर बेचैनी की पूरी मात्रा खयाल में लो तो स्त्री-पुरुष में कोई भेद नहीं है, बेचैनी की मात्रा तो बराबर है। जैसे समझ लो कि सौ का आंकड़ा है, तो चार दिन में स्त्री सौ का आंकड़ा निकाल लेती है, और पुरुष को निकालने में तीस दिन लगते हैं। स्वभावतः रोज की मात्रा पुरुष पर कम पड़ती है, स्त्री की चार दिन में मात्रा बहुत हो जाती है। एक बात।
दूसरा पहलू बहुत कम देखा गया है। स्त्रियां भी नहीं देखतीं कि दूसरा पहलू भी छिपा है। स्त्रियों का जो गीत है, स्त्रियों का जो सौंदर्य है, स्त्रियों की जो कोमलता है, स्त्रियों का जो प्रसाद है, वह कहां से आ रहा है? वह चार दिन में जो निकल गया जहर, तो फिर से एकदम हल्कापन हो गया, बोझ उतर गया। अगर यह दूसरी बात भी खयाल में रहे, तो चार दिन का बोझ बहुत बोझ नहीं मालूम पड़ेगा। उसका लाभ भी ध्यान में रखना जरूरी है, एक बात।
दूसरी बात, मासिक धर्म के कारण उतनी गड़बड़ी नहीं हो रही है, जितनी गड़बड़ी होती है स्त्रियों के शरीर-तादात्म्य के कारण। स्त्रियां अपने को बहुत शरीर मानती हैं, इतना पुरुष नहीं मानता। पुरुष अपने को मन के साथ तादात्म्य करता है। स्त्री अपने को शरीर के साथ तादात्म्य करती है।
इसलिए स्त्री की उत्सुकता शरीर में होती है, दर्पण के सामने खड़ी है घंटों! पुरुष को समझ में ही नहीं आता कि दर्पण के सामने अपनी ही सूरत घंटों देखने का क्या प्रयोजन है! घंटों वस्त्र सम्हाल रही है। ऐसा कोई मौका ही नहीं होता जब कि स्त्री समय पर कहीं पहुंच जाए, क्योंकि वह उसका बार-बार मन बदल जाता है कि दूसरी साड़ी पहन लूं, कि इस तरह कर लूं, कि उस तरह के बाल सजा लूं। पति हार्न बजा रहा है नीचे और वह तैयार ही नहीं हो पाती। हर तैयारी कम मालूम पड़ती है। स्त्री का शरीर-बोध बहुत प्रगाढ़ है।
मनुष्य के भीतर तीन तत्व हैं--आत्मा, मन और शरीर। पुरुष का रोग मन से जुड़ा है, स्त्री का रोग शरीर से जुड़ा है। इसलिए पुरुष के झगड़े और ढंग के होते हैं। पुरुष का झगड़ा होता है सिद्धांत का, शास्त्र का, हिंदू का, मुसलमान का, राजनीति का; इस विचार का, उस विचार का, हम इस विचार को मानते, तुम उस विचार को मानते। स्त्री को समझ में नहीं आता कि क्या बकवास कर रहे हो! अरे, कुरान मानो कि बाइबिल मानो, कुछ भी मानो, रखा क्या है, सब बराबर है। असली सवाल तो शरीर है--सुंदर कौन है? कीमती साड़ी किसने पहनी है? बहुमूल्य हीरे-जवाहरात किसके पास हैं? यह बात सोचने जैसी है।
स्त्री इसमें बेचैन नहीं होती, जब एक दूसरी स्त्री उसके सामने से निकलती है, तो वह यह नहीं देखती कि यह हिंदू है कि मुसलमान है कि ईसाई है कि पारसी है, वह देखती है यह कि अच्छा, तो यह साड़ी इसने खरीद ली! तो ये गहने इसने बना लिए! तो मैं पिछड़ गयी! स्त्रियों की चर्चाएं सुनते हो? बैठकर जब वे चर्चाएं करती हैं तो वे इसी तरह की चर्चाएं हैं, बहुत शरीर से जुड़ी हैं, शरीर से बंधी हैं।
तो इस कारण अड़चन आती है। क्योंकि मासिक धर्म में शरीर बड़ी पीड़ा से गुजरता है और स्त्रियों का बहुत जोर शरीर से है कि हम शरीर हैं, इसलिए अड़चन होती है। अड़चन असली में मासिक धर्म के कारण नहीं हो रही है, शरीर के साथ जुड़े होने के कारण हो रही है।
तो अड़चन से बाहर होना हो तो धीरे-धीरे शरीर से अपना जोड़ कम करना चाहिए। यह बोध धीरे-धीरे लाना चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूं। यह औषधि। खासकर मासिक धर्म के चार दिनों में तो निरंतर यह चिंतन और भाव करना चाहिए कि मैं शरीर नहीं हूं। बाकी समय भी यह चिंतन चलना चाहिए, यह भाव चलना चाहिए। यह भाव जितना घना होकर भीतर बैठ जाएगा कि मैं शरीर नहीं हूं--और इस भाव को घना करने के लिए जो-जो जरूरी हो, वह भी करना चाहिए।
इसलिए तो मैं कहता हूं, तुमने संन्यास ले लिया तो मैं कहता हूं, बस अब गैरिक वस्त्र पहनो, और बाकी सब रंग समाप्त हुए। अब इनका चिंतन न करना पड़ेगा, अब विचार न करना पड़ेगा। संन्यासी स्त्री का फायदा देखते हैं, जल्दी तैयार हो जाती है। कुछ तैयार होने को ज्यादा है नहीं। वह एक ही रंग है, रंगों में कोई चुनाव नहीं करना है, बहुत साड़ियां नहीं हैं।
स्त्रियां मेरे पास संन्यास लेने आती हैं, पुरुष लेने आते हैं, उनके रुकने के कारण अलग होते हैं। एक स्त्री ने कहा कि कैसे संन्यास लूं, तीन सौ साड़ियां हैं, इनका क्या होगा? किसी पुरुष ने अब तक मुझसे नहीं कहा कि इतने कपड़े हैं, इनका क्या होगा? उसका कारण दूसरा होता है। वह कुछ और कारण बताता है। लेकिन स्त्री का कारण सीधा-साफ है कि उसके पास तीन सौ साड़ियां हैं, ये सब बेकार चली जाएंगी अगर संन्यास ले लिया तो। फिर इनका क्या होगा? स्त्रियां मुझसे पूछती हैं, संन्यास लेने के बाद गहने इत्यादि पहन सकते कि नहीं?
तो जिन-जिन बातों से शरीर का तादात्म्य बढ़ता है--वस्त्र हैं, गहने हैं, सजावट है--उनको धीरे-धीरे विसर्जित कर दो। और तुम पाओगे कि मासिक धर्म का जितना प्रभाव था, वह उसी मात्रा में कम होने लगा जिस मात्रा में शरीर से जोड़ हटने लगा। शरीर के साथ अपने को थोड़ा शिथिल करो। शरीर के साथ जोड़कर अपने को मत देखो। शरीर से अपने को भिन्न देखो। और ऐसा कोई अवसर मत चूको जब शरीर से भिन्न देखने का मौका मिले, जरूर देख लो। दर्पण के सामने भी खड़े होकर यही खयाल करो कि यह शरीर मैं नहीं हूं। तो कोई हर्जा नहीं, तीन घंटे दर्पण के सामने खड़े होना है तो खड़े रहो, मगर यही खयाल करो कि यह शरीर मैं नहीं हूं। इस खयाल की गहराई के बढ़ने के साथ ही साथ मासिक धर्म की पीड़ा एकदम कम होती चली जाएगी।
और तब तुम चकित होकर पाओगी कि जैसे-जैसे मासिक धर्म की पीड़ा कम हो गयी है, वैसे-वैसे मासिक धर्म का जो लाभ है, वह तुम्हें दिखायी पड़ना शुरू हो जाएगा। कि चार दिन में निपट गए, यह अच्छा ही है। यह समझदारी ही है। जल्दी निपट गए। माना कि आग तेज थी, मगर जल्दी निपट गए। बाकी दिन जो बचते हैं, वे ज्यादा सुख-शांति के हैं।
मासिक धर्म की बात कुछ नयी नहीं है। धर्म शास्त्रों में बड़ा विचार हुआ है। बुद्ध-महावीर को भी विचार करना पड़ा है। क्योंकि यह प्रश्न प्राचीन है। यह सदा से है। कोई आज की ही स्त्री शरीर से नहीं जुड़ गयी है, सदा से जुड़ी रही है। स्त्री का रोग है शरीर, पुरुष का रोग है मन। और चाहे तुम शरीर से जुड़े रहो, चाहे मन से, दोनों हालत में तुम आत्मा से चूकते हो। मन से जुड़े हो तो भी आत्मा से चूक जाओगे, शरीर से जुड़े हो तो भी आत्मा से चूक जाओगे।
पुरुष को छोड़ना है मन के साथ अपना लगाव, स्त्री को छोड़ना है तन के साथ अपना लगाव। दोनों को बराबर मेहनत करनी है। तन के साथ लगाव छोड़ने में उतनी ही मेहनत है जितनी मन के साथ लगाव छोड़ने में है। और दोनों से लगाव छूट जाने पर जो शेष रह जाता है, अ-लगाव की जो दशा, असंग दशा, वहीं आत्मबोध है। वही आत्मबोध स्वास्थ्य है।
पूछा है तुमने कि ‘स्वस्थ होने की कोई औषधि?’
स्वस्थ होने की एक ही औषधि है, इस बात की प्रतीति कि मैं आत्मा हूं--न शरीर, न मन। मन के रोग हैं, शरीर के रोग हैं।
तुम जानकर चकित होओगे, स्त्रियां कम पागल होती हैं पुरुषों की बजाय, संख्या पुरुषों की दुगुनी है। पुरुष दोगुने ज्यादा पागल होते हैं। क्यों? क्योंकि स्त्रियों का पागलपन थोक मात्रा में निकल जाता है, पुरुषों का पागलपन अटका रह जाता है। फिर स्त्रियां कम पागल होती हैं, क्योंकि उनका लगाव तन से है, तन थोड़े ही पागल होता है। पुरुष पागल होते हैं, क्योंकि उनका लगाव मन से है, मन पागल होता है। ज्यादा पुरुष आत्महत्याएं करते हैं--दुगुने पुरुष।
यह तुम्हें थोड़ी हैरानी होगी। क्योंकि आमतौर से तुम स्त्रियों को ज्यादा धमकी देते पाओगे आत्महत्या की। करतीं नहीं, धमकी देती हैं, उनकी धमकी की बहुत चिंता मत लेना। और अगर करती भी हैं तो इतने इंतजाम से करने की कोशिश करती हैं कि बचा ली जाएं। अगर नींद की गोली भी खाएंगी तो पांच-छह-सात से ज्यादा नहीं खातीं। वह सिर्फ धमकी है। दस स्त्रियां चेष्टा करती हैं आत्महत्या की, नौ बच जाती हैं। दस पुरुष चेष्टा करते हैं, पांच बच पाते हैं। पुरुष की चेष्टा, वह हिम्मत से घुस ही जाता है अंदर एकदम, फिर वह सोचता ही नहीं कि यह अब क्या करना है! वह बिलकुल पागल हो जाता है।
दुगुने पुरुष आत्महत्या से मरते हैं, दुगुने पुरुष पागल होते हैं। और इस सबके मूल में मासिक धर्म का सहारा है स्त्री को। चार दिन में उसका सारा पागलपन निकल जाता है--रो लेती, धो लेती, पीड़ा में तड़फ लेती, सब तरह के विषाद से भर जाती, फिर हल्की हो जाती।
स्त्री का तन कष्ट पाता है, पुरुष का मन कष्ट पाता है। और कष्ट तो जारी रहेगा, जब तक आत्मा से जोड़ न हो जाए। फिर पुरुष का कष्ट हो, स्त्री का कष्ट हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता--बराबर हैं दोनों।
तो जैसे-जैसे तुम तन और मन से अपने को तोड़ते चलो, वैसे-वैसे स्वस्थ होते चलो। आत्मा में डूब जाना ही स्वस्थ होने का उपाय है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, आपके मौलिक विचारों से मैं बहुत प्रभावित हूं।
यह तो प्रश्न न हुआ, प्रशंसा हुई। और प्रशंसा की कोई जरूरत नहीं है।
प्रश्न हों तो पूछें, प्रशंसा हो तो मन में रख लें। उससे सार भी क्या? उसकी बात करने से होगा भी क्या?
तो पहली तो बात, कुछ ऐसी ही बात पूछें जो तुम्हारे लाभ की हो, जो तुम्हारे जीवन में कल्याणकारी हो, मंगलदायी हो।
दूसरी बात, मौलिक विचार होते ही कहां! हो कैसे सकते हैं! इस जगत में कुछ भी मौलिक हो कैसे सकता है! कितने-कितने अनंत लोग हो चुके। कितने-कितने अनंतकाल से मनुष्य ने सोचा है, विचारा है। क्या तुम सोचते हो, एकाध ऐसा विचार रह गया हो जो किसी मनुष्य ने न सोचा हो पहले? असंभव है।
लेकिन, सोचे गए विचार बार-बार खो जाते हैं। जब तुम उन्हें दुबारा सोचते हो तो ऐसा लगता है, वे मौलिक हैं। भूल जाते हैं, स्मृतियां खो जाती हैं। अब हमारे पास वेद तो है, वेद पांच हजार साल पुराना है, लेकिन पांच हजार साल पहले भी लोग सोच रहे थे, उसकी हमारे पास कोई संगृहीत किताब नहीं रह गयी। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि वेद के पहले लोग सोच ही नहीं रहे थे, कि बिना सोचे बैठे थे--अगर बिना सोचे बैठे होते तो सब बुद्ध हो गए होते--सोच रहे थे, विचार रहे थे, खोज रहे थे। उन्होंने भी खूब सोचा होगा।
फिर यह भी खयाल रखना कि बहुत थोड़े से लोग जो सोचते हैं उसे लिखते हैं। सोचते तो सभी लोग हैं, लिखते बहुत थोड़े से लोग हैं। जो लिखा हुआ है, उसमें से भी सब बचता नहीं, समय की धार में खो जाता है। फिर जो बचता है, समय के अनुसार रोज-रोज भाषा बदल जाती है, वह हमारी पकड़ में भी नहीं आता है। फिर जब दुबारा कोई आदमी आधुनिक भाषा में उसी बात को कहता है, हमें लगता है, नयी है, मौलिक है। मौलिक कुछ हो ही नहीं सकता, चांद-सूरज के तले सब पुराना है। नया क्या होगा! सब सनातन है।
लेकिन हमेशा ऐसा होता है। जब तुमने किसी स्त्री के प्रेम में पहली दफा प्रेम का अनुभव किया, तो तुमने भी सोचा होगा, ऐसा प्रेम पहले कभी नहीं हुआ, मौलिक है। लेकिन क्या तुम सोचते हो, यह तुम सोच रहे हो? हर प्रेमी यही सोचता है।
अगर गुलाब से भी पूछो कि उस पर जो फूल खिला है गुलाब का, तो वह भी कहेगा--ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। उसको पता भी कहां है और गुलाबों में जो फूल खिले, और गुलाबों का पता कहां है! अनंत काल में अनंत गुलाबों पर फूल खिलते रहे हैं, उसको पता क्या है!
तो पहली तो बात, मौलिक हो भी क्या सकता है! मौलिक कुछ भी नहीं हो सकता! इसीलिए तो बुद्ध कहते हैं: एस धम्मो सनंतनो, यह सनातन धर्म है। बुद्ध कहते हैं, यह मैं कह रहा हूं, ऐसा मत सोचना; सदा से कहा गया है, यही कहा गया है, और सदा यही कहा जाएगा। यह सनातन है।
मैं माध्यम हूं
मौलिक विचार नहीं
खिले हुए फूल ही
नए वृंदों पर दुबारा खिलते हैं
आकाश पूरी तरह छाना जा चुका है
जो कुछ जानने योग्य था
पहले ही जाना जा चुका है
जिन प्रश्नों के उत्तर पहले नहीं मिले
उनका मिलना आज भी मुहाल है
चिंतकों का यह हाल है
कि वे पुराने प्रश्नों को
नए ढंग से सजाते हैं
और उन्हें ही उत्तर समझकर
भीतर से फूल जाते हैं
मगर यह उत्तर नहीं
प्रश्नों का हाहाकार है
जो सत्य पहले अगोचर था,
वह आज भी तर्कों के पार है
तो विचार तो मौलिक होते ही नहीं, हो ही नहीं सकते। मौलिक होने का उपाय ही नहीं है, क्योंकि जो विचार की तर्कसरणी है, वह भी उधार है। जो शब्द हैं, भाषा है, वह भी उधार है। विचार तो मौलिक नहीं हो सकते। फिर मौलिक क्या हो सकता है? शून्य का अनुभव। वही मौलिक है।
लेकिन मौलिक का तुम यह अर्थ मत लेना कि पहले नहीं हुआ, मौलिक का तुम और अर्थ लेना--मूल का, मौलिक, मूल से, जड़ों से। मौलिक का यह अर्थ मत लेना कि नया। मौलिक का यह अर्थ लेना कि जो तुम्हें हुआ है शून्य में, समाधि में, वह जड़ का अनुभव है, मूल का अनुभव है, उत्स का अनुभव है, स्रोत का अनुभव है। ऐसा नहीं कि पहले किसी को नहीं हुआ। बहुत बुद्ध हुए हैं, बहुत बुद्ध होंगे, बहुत बुद्ध होते रहे हैं, सभी उसी मूल पर पहुंचते हैं। मूल पर पहुंचते हैं तो मौलिक।
तो मैं जो तुमसे कह रहा हूं, वह मौलिक इस अर्थ में है कि मूल से कह रहा हूं। लेकिन नया है, इस अर्थ में मौलिक मत समझना।
और फिर तुम कहते हो कि ‘मैं आपके मौलिक विचारों से बहुत प्रभावित हूं।’
प्र्रभावित होना कोई अच्छी बात नहीं। प्रभावित होना खतरनाक भी हो सकता है। मेरे विचारों से प्रभावित मत होओ। क्योंकि विचारों से प्रभावित होकर तुम करोगे क्या? विचारों का संग्रह कर लोगे, थोड़े ज्ञानी हो जाओगे, थोड़ी जानकारी जुटा लोगे। विचारों से प्रभावित होने में कोई सार नहीं है।
ज्यादा अच्छा होगा, तुम मुझसे प्रभावित होओ, मेरे विचारों से नहीं। तुम मेरी दशा से प्रभावित होओ, मेरे विचारों से नहीं। विचारों से तो तुम इतना ही इशारा लो कि जहां से ये विचार आ रहे हैं, उस दशा में मैं भी पहुंच जाऊं। विचारों को संगृहीत करने मत लग जाना। नहीं तो तुमने सागर के किनारे मोती छोड़कर शंख और सीपी बीन लिए। सागर की गहराई में डुबकी लगाओ।
मुझसे प्रभावित होने का मतलब है, जहां मैं हूं, वहां पहुंचने की चेष्टा में संलग्न हो जाओ। ये दोनों बातों में फर्क है। अगर तुम मेरे विचारों से प्रभावित हुए तो तुम विचारों को सम्हालने लगोगे, तिजोड़ी में बंद करने लगोगे, स्मृति में बिठाने लगोगे, उनको दोहराने लगोगे, दूसरों को बताने लगोगे। वह बहुत काम का नहीं है। उससे तुम पंडित हो जाओगे, प्रज्ञावान न हो सकोगे। उससे तुम विद्वान हो जाओगे, लेकिन तुम्हारे भीतर का वेद सोया का सोया पड़ा रह जाएगा। उससे तुम ज्यादा बुद्धिमान प्रतीत होने लगोगे, लेकिन वस्तुतः बुद्धिमान हो न जाओगे। तुम्हारी चेतना पर और थोड़ी धूल की पर्तें जम जाएंगी। तुम्हारा दर्पण और भी ढंक जाएगा। मैं यहां तुम्हारे दर्पण को ढांकने के लिए नहीं, उघाड़ने को हूं।
तो मेरे विचारों को तो तुम छोड़ो। मेरे विचारों का इंगित कहां है, किस तरफ है--निर्विचार की तरफ है--तो निर्विचार में उतरो।
इसको खयाल में लेना, यह महत्वपूर्ण है।
जब मैं तुम से बोल रहा हूं तो तुम दो बातें कर सकते हो। तुम मेरे विचार पकड़ सकते हो। तो तुम चूक गए, तो तुम मुझसे चूक गए, तो तुम असली से चूक गए। तो तुमने गुठलियां बीन लीं और आम नहीं चूसे। तो तुम आम की गिनती करने लगे और आम नहीं चूसे। मैं तुमसे कहता हूं, आम चूस लो, गुठलियां बीनने से कुछ सार नहीं है। और आम गिनने में तो कुछ भी मतलब नहीं है।
बुद्ध बार-बार कहते थे कि एक गांव में एक आदमी था। वह अपने घर के सामने बैठा रहता, रोज सुबह गांव की सब गाएं-भैंसें गांव के बाहर जातीं, नदी के पार जातीं, फिर सांझ को लौटतीं घर, वह रोज गिनती करता रहता--कितनी गाय-भैंसें गयीं, कितनी आयीं? कभी-कभी चिंतित भी हो जाता कि दो सौ गयी थीं और एक सौ निन्यानबे लौटीं, एक कहां गयी!
बुद्ध कहते, वह आदमी पागल था। उसको कुछ लेना-देना नहीं, उसकी एक गाय नहीं, एक भैंस नहीं! मगर वह बैठा इसमें बड़ा उलझन में पड़ा रहता। और बुद्ध कहते, ऐसे ही वे लोग हैं जो दूसरों के विचार बैठ-बैठकर गिनती करते रहते हैं।
बुद्ध कहते थे कि मेरे विचार मत पकड़ना। अप्प दीपो भव। अपने दीए बनो। मेरा इशारा पकड़ो।
तो जब मैं तुमसे कहता हूं, मुझसे प्रभावित होओ, तो मैं यह कह रहा हूं कि मैं जहां खड़ा हूं, वहां से तुम भी खड़े होकर देखना शुरू करो। जो आकाश मुझे दिखायी पड़ रहा है, वह तुम्हें भी दिखायी पड़ सकता है। आकाश के संबंध में मेरे द्वारा कही गयी बातों को मत पकड़ लेना, उनसे मत प्रभावित हो जाना। क्योंकि मैं कितनी ही आकाश की स्तुति में गीत गाऊं, मेरी स्तुति आकाश नहीं है। और मैं कितना ही उस स्वाद की चर्चा करूं, मेरे शब्द तुम्हें उस स्वाद को न दे सकेंगे, वह स्वाद तुम्हें लेना पड़ेगा। मैं कितने ही जलस्रोतों के गीत गुनगुनाऊं, तुम्हारी प्यास न बुझेगी। तुम्हें जलस्रोत तक चलना पड़ेगा। और यह मैं जोर देकर कहना चाहता हूं, क्योंकि बहुत लोग विचारों से ही प्रभावित होकर समाप्त हो जाते हैं। ऐसी भूल तुम मत करना।
पांचवां प्रश्न:...चौथे से थोड़ा मिलता-जुलता है, इसलिए उसी के साथ समझ लेना उचित है...
भगवान, कल के सूत्र में भगवान बुद्ध ने कहा: जैसे चंद्रमा नक्षत्र-पथ का अनुसरण करता है, वैसे ही धीर, प्राज्ञ, बहुश्रुत, शीलवान, व्रतसंपन्न, आर्य तथा बुद्धिमान पुरुष का अनुगमन करना चाहिए। और उनका ही यह प्रसिद्ध वचन भी है: आत्म दीपो भव। क्या दोनों वक्तव्य परस्पर विरोधी नहीं हैं?
जरा भी नहीं।
दो शब्द समझो--अनुगमन और अनुकरण।
अनुकरण के लिए नहीं कह रहे हैं बुद्ध, अनुगमन के लिए कह रहे हैं। अनुकरण का अर्थ होता है, जैसे बुद्ध उठते हैं, वैसे तुम उठो; जैसे बुद्ध बैठते हैं, वैसे तुम बैठो; जो बुद्ध खाते हैं, वह तुम खाओ; जो बुद्ध पीते हैं, वह तुम पीओ; यह अनुकरण। यह थोथा। इससे तुम बुद्ध जैसे दिखायी पड़ने लगोगे, लेकिन रहोगे बुद्धू के बुद्धू। नाटक हो जाएगा, हाथ सार न आएगा।
बुद्ध जैसे कपड़े पहन लो, बुद्ध जैसे चलने लगो, इसमें कोई बड़ी अड़चन तो नहीं है। थोड़ा सा अभ्यास चाहिए, ठीक बुद्ध जैसे बोलने लगो, बुद्ध जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, तुम भी करो, यह सब किया जा सकता है। यही लोग करते रहे सदियों से। यह अनुकरण, यह नकल। तुम कार्बन कापी हो गए। अप्प दीपो भव तुम न हो सके। तुम अपने दीए खुद न बन सके। तुमने बुद्ध के दीए का एक चित्र बना लिया, चित्र को छाती से लगाकर चलने लगे।
दीए के चित्र से रोशनी नहीं होती, खयाल रखना। अंधेरा जब पड़ेगा तब तड़फोगे, क्योंकि वह दीए का चित्र रोशनी नहीं करेगा। अनुकरण थोथा है, ऊपर-ऊपर है। सतही है।
अनुसरण बड़ी और बात है। अनुसरण का अर्थ है, बुद्ध को गौर से देखो, बुद्ध के भीतर गहरे झांको, बुद्ध को खिड़की बना लो, उनके भीतर गहरे झांको, जहां उनका दीया जल रहा है, वह कैसे जला है? दीए का चित्र मत बनाओ, वह दीया कैसे जला है बुद्ध के भीतर? ऊपर-ऊपर की बातों को मत दोहराओ। कैसे बुद्ध चलते हैं, क्या फर्क पड़ता है।
ऐसा अक्सर होता है, यहां हो जाता है। मेरे पास जो लोग काफी दिन रहते हैं, वे ठीक वैसे ही उठने-बैठने-चलने लगेंगे। वे सोचते हैं कि कोई बहुत भारी बात हो रही है। कभी-कभी जानकर भी करते हैं, कभी-कभी अनजाने भी होता है। ऐसा भी नहीं कि वे जानकर ही करते हों, बहुत दिन पास रहेंगे तो संक्रामक हो जाते हैं। बात पकड़ ली ऊपर-ऊपर से, चलने लगे, उठने लगे, उसी ढंग से बात करने लगे जैसा मैं बोलता हूं--बोलते समय जैसा मेरा हाथ कुछ इशारे करता है, तो वे भी इशारे करने लगे। वे सोचते हैं कि यह तो बात हो गयी!
हाथ में कुछ भी नहीं है, हाथ के इशारे में कुछ भी नहीं है। इसको तुम सीख लो, तो भी कुछ न होगा। कहीं भीतर, जहां से यह इशारा आ रहा है, उस स्रोत को पकड़ो। अनुसरण का अर्थ है, बुद्ध का बुद्धत्व जहां से पैदा हो रहा है, जहां से ये किरणें आ रही हैं, उस मूलस्रोत में तुम भी उतरो। कैसे बुद्ध को यह दशा उत्पन्न हुई है, कैसे! उस उपचार से तुम भी गुजरो। वही समाधि, वही ध्यान। ऊपर का आचरण नहीं, अंतस बुद्ध का तुम्हारे भीतर भी निर्मित हो।
यही मैंने तुमसे कहा कि मेरे शब्दों से प्रभावित मत होओ, मुझसे। और जब मैं कह रहा हूं, मुझसे, तो खयाल रखना, अनुकरण करने को नहीं कह रहा हूं, अनुसरण। समझो क्या हुआ है, तो तुम्हें कैसे होगा? फिर एक-एक कदम उस दिशा में उठाओ। तुम्हारे भीतर का दीया जल जाए, ठीक जैसा बुद्ध के भीतर जला है, तो अनुसरण। और तुमने एक तस्वीर बना ली कागज पर और तस्वीर छाती से लगाकर रख ली, तो अनुकरण।
विरोध दोनों बातों में नहीं है। जब बुद्ध कहते हैं, अनुगमन करो, और कहते हैं, आत्म दीपो भव, अपने दीए खुद हो जाओ, तो इनमें कोई विरोध नहीं है। यही तो मार्ग है आत्मदीप को जलाने का कि किसी जले हुए दीप की जीवन-व्यवस्था को समझ लो, उसकी जीवन-शैली को समझ लो। कैसे उसका दीया जला है, कैसे दो पत्थरों को टकराकर उसने अग्नि पैदा की है, कैसे भीतर के तेल को जन्माया है, कैसे ज्योति जलायी है, कैसी बाती बनायी है, उसको ठीक से समझ लो उसकी प्रक्रिया को, उसके विज्ञान को पूरा समझ लो। वह विज्ञान तुम्हारे पकड़ में आ जाए, वह सूत्र तुम्हारे पकड़ में आ जाए, तो अनुसरण।
उस सूत्र की तो तुम चिंता ही न करो...यहां हो जाता है, अभी रामप्रिया को हो गया है--एक इटालियन साधिका है। भली है, सीधी है, जानकर भी नहीं हुआ है, अजाने हो गया है, अचेतन में हो गया है। अब वह कहती है कि जो मैं खाता हूं वही वह खाएगी। अगर मैं कमरे में रहता हूं दिनभर तो वह भी कमरे से बाहर नहीं निकलती अब।
मैंने उसे बुलाकर कहा कि पागल, ऐसे न होगा। ऐसे तू पागल हो जाएगी। क्योंकि तू कमरे में तो बैठी रहेगी, लेकिन तेरा मन थोड़े ही इससे बदल जाएगा। तेरा मन तो घूमेगा, वह पागलपन जो थोड़ा बाहर निकलकर निकल जाता था वह निकल न पाएगा, तू पगला जाएगी--वह पगला रही है, मगर सुनती नहीं। वह सोचती है कि जैसा मैं करता हूं, ठीक वही उसे करना है। वही भोजन लेना है, उसी वक्त सोना है, उसी वक्त उठना है, उतनी ही देर कमरे में रहना है, न किसी से मिलना है न जुलना है, वह पागल हो जाएगी। उसे खींचने की कोशिश में लगा हूं कि वह बाहर निकले, क्योंकि इससे कुछ भी सार नहीं है।
यह हुआ अनुकरण। यह अनुसरण न हुआ। भीतर जाओ--कमरे में जाने से न होगा, भीतर जाने से होगा। जरूर एक दिन तुम्हारे भोजन में भी अंतर आएगा, क्योंकि जब तुम्हारी चित्तदशा बदलेगी तो तुम वही भोजन न कर सकोगे जो तुम कल तक करते रहे थे। कल तक अगर तुम मुर्गियां फटकारते रहे, तो नहीं फटकार सकोगे उतनी आसानी से, मुश्किल हो जाएगा। शराब पीते रहे, तो पीना मुश्किल हो जाएगी। यह बात सच है। तुम्हारा भोजन भी बदलेगा। लेकिन भोजन बदलने से तुम्हारी चेतना न बदलेगी। चेतना बदलने से भोजन बदलेगा। और जिस दिन तुम शांत हो जाओ, फिर तुम्हारी मर्जी, कमरे में बैठना तो, बाहर बैठना तो, जहां बैठोगे अकेले ही रहोगे, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारे एकांत को फिर कोई भी न छीन सकेगा। लेकिन कमरे में बैठने से एकांत पैदा न हो जाएगा। उलटे मत चलो। उलटे चलना आसान मालूम पड़ता है, इसलिए अधिक लोग उलटे चलने लगते हैं।
महावीर को ज्ञान हुआ, उनका दीया जला, उनका सूरज ऊगा, तो स्वभावतः लोगों को लगा कि हमको कैसे हो यह? कैसे हम ऐसा करें? महावीर नग्न खड़े थे तो वे भी नग्न खड़े हो गए। उन्होंने सोचा कि नग्नपन से होता है, दिगंबर हो गए।
अब कोई नंगे होने से थोड़े ही महावीर का ज्ञान होता है! हां, महावीर का ज्ञान अगर हो जाए, फिर तुम्हारी मर्जी, तुम्हें नंगा होना पसंद पड़े तो नंगा हो जाना। क्योंकि बहुत महावीर हुए हैं इस जगत में, सभी नंगे नहीं हुए। उसी समय बुद्ध मौजूद थे, वे नंगे नहीं हुए। यह तो तुम्हारी मौज है। यह तो फिर तुम्हारी सुविधा-असुविधा की बात है, फिर तुम जानना।
लेकिन नग्न होने से तुम्हें ज्ञान उत्पन्न हो जाएगा, यह तो बड़ी ओछी बात हो गयी। ज्ञान इतना सस्ता तो नहीं है कि तुम नग्न खड़े हो गए तो ज्ञान उत्पन्न हो जाए! तो कितने नागा-साधु घूमते हैं मुल्क में! कुंभ के मेले में तुम जाकर उनके दर्शन कर लेते हो, उनमें तुम्हें महावीर जैसा कुछ भी न दिखायी पड़ेगा। लंपट सब तरह के। उनके जीवन में कोई ज्योति नहीं। तुम उनके चेहरों पर किसी तरह की शांति, आनंद का भाव न पाओगे। क्रोध, हिंसा, सब पाओगे। उन नागाओं के जो आश्रम हैं, वे अखाड़े कहलाते हैं। अखाड़े! यह कोई पहलवानी कर रहे हो! मारपीट में कुशल हैं वे। दंगा-फसाद में कुशल हैं। हर छोटी-मोटी बात पर जान देने और लेने को तैयार हैं!
नग्न होने से तो कुछ न होगा। इसीलिए तो कबीर ने कहा है कि अगर नग्न रहने से होता तो सभी पशु-पक्षी कभी के जिनत्व को उपलब्ध हो जाते। पशु-पक्षी तो नंगे ही घूम रहे हैं। उन्होंने तो कपड़े पहले ही से नहीं पहने हैं। नहीं, तो कपड़े के छोड़ने से कुछ नहीं हो जाएगा।
लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं--कि हो जाए तो शायद तुम्हारे कपड़े छूट जाएं, वह अलग बात है। वह तो फिर तुम्हारी घटना से क्या ठीक-ठीक तालमेल खाएगा, वह फिर होता रहेगा।
महावीर शाकाहारी, तो लोगों ने सोचा, हम भी शाकाहारी हो जाएं, तो हमारा भी बोध ऐसे ही हो जाएगा। तो जैनी आज ढाई हजार साल से शाकाहारी हैं। ढाई हजार साल के शाकाहार में भी क्या हुआ है? कुछ भी नहीं हुआ। एक जैन में और एक अजैन में क्या फर्क है? वैसा ही क्रोध उठता, वैसी ही वासना उठती, वैसी ही ईर्ष्या, वैसी ही हिंसा, वैसी ही घृणा, क्या हुआ है? ऊपर की बातें पकड़ना सुगम हो जाता है। यह बिलकुल आसान है कि पानी छानकर पी लो, रात भोजन मत करो, इसमें क्या अड़चन है।
जरूर, महावीर रात भोजन नहीं करते थे, क्योंकि भीतर जो रोशनी उनके पैदा हुई थी, उस रोशनी में उन्हें यह उचित नहीं मालूम पड़ा कि रात भोजन किया जाए, उचित नहीं मालूम पड़ा कि पानी बिना छानकर पीया जाए, उचित नहीं मालूम पड़ा कि शाक-सब्जी के अतिरिक्त और कुछ भोजन किया जाए। उस चैतन्य दशा को तुम भी पाओ, फिर ये सारी चीजें तुम्हारे भीतर हो जाएं तो शुभ। लेकिन उलटे मत चलो।
बाहर से भीतर नहीं, भीतर से बाहर। बाहर को बदलकर भीतर को नहीं बदला जा सकता, लेकिन भीतर का केंद्र बदल जाए तो परिधि अपने आप बदल जाती है।
छठवां प्रश्न:
भगवान, बुद्धत्व के अंतिम चरण में क्या मौन अनिवार्य घटना है, कृपा करके कहें।
अंतिम में तो नहीं, अंतिम से एक चरण पूर्व मौन अनिवार्य है। अंतिम में तो फिर बोलना होगा। बुद्ध बोले, चालीस साल। हां, एक चरण पूर्व, मंदिर में प्रवेश के एक चरण पूर्व, एक सीढ़ी पहले मौन अनिवार्य है। जो मौन हुआ, वही मंदिर में प्रविष्ट होता है।
लेकिन जो मंदिर में प्रविष्ट हो गया, उसे फिर दौड़-दौड़ गांव-गांव, नगर-नगर, हृदय-हृदय को जाकर दस्तक देनी पड़ती है कि मैं जाग गया, तुम भी जाग सकते हो। फिर उसे बोलना पड़ता, कहना पड़ता। जैसे मौन अनिवार्य है मंदिर में प्रवेश के पूर्व, वैसे ही जब मौन में उपलब्ध हो गयी आत्मा, मौन में जान लिया स्वयं को, तो अभिव्यक्ति भी अनिवार्य है।
सभी ज्ञान को पहुंचे व्यक्ति मौन को उपलब्ध होकर ही पहुंचते हैं। लेकिन सभी ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति अभिव्यक्ति नहीं करते। इससे दुनिया की बड़ी हानि होती है। अगर सभी ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, जो उन्होंने जाना है, उसे कहने की चेष्टा करें--यह जानते हुए भी कि कहना बहुत मुश्किल है, और कह भी दो तो समझने को कौन तैयार है, समझना और भी मुश्किल है। यह जानते हुए भी दीवालों से चर्चा करने के लिए जो बुद्धपुरुष आए, उनकी करुणा महान है। यह जानते हुए कि जो जाना है उसे कहना मुश्किल, फिर किसी तरह बांध-बूंध कर कह भी दो, सम्हाल-सम्हूल कर किसी तरह कह भी दो, तो जो सुन रहा है, उसका समझना मुश्किल। फिर भी सौ से कहो तो शायद कभी कोई एक समझ लेता है, सौ बार कहो तो शायद कभी कोई एक बार समझ लेता है, इसलिए कहे जाओ।
इसलिए बुद्ध बयालीस साल तक सतत बोलते रहे। सुबह, दोपहर, सांझ। सारा बौद्ध वचनों का संकलन किया जाता है तो भरोसा नहीं आता कि एक आदमी इतना बोला होगा! लेकिन यह घटना घटी मौन से। मौन से ही यह परम मुखरता घटी। पहले तो शून्य घटता है, शून्य में अनुभव होता है, फिर अनुभव शब्द बनकर बिखरना चाहता है, बंटना चाहता है। जो बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति अभिव्यक्ति देता है, वही सदगुरु हो जाता है।
बहुत से लोग अर्हत हो जाते हैं। उन्होंने पा लिया सत्य को, फिर गुपचुप मारकर बैठ जाते हैं, चुप हो जाते हैं। कबीर ने कहा न--हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यूं खोले। अब हीरा मिल गया, जल्दी से गांठ बांधकर चुप्पी साधकर बैठ गए, अब उसको बार-बार क्या खोलना है! ठीक है, यह बात भी ठीक है, किसी को ऐसा लगता है तो वह ऐसा करेगा।
लेकिन बुद्धपुरुष उसे बार-बार खोलते हैं--सुबह खोलते, दोपहर खोलते, सांझ खोलते, जो आया उसी को खोलकर बताते, हीरा पायो, उसको गांठ नहीं गठिया लेते, कहते हैं कि देख भई, यह हीरा मिल गया; तुझे भी मिल सकता है। हालांकि यह हीरा ऐसा है कि कोई किसी को दे नहीं सकता, नहीं तो बुद्धपुरुष इसको दे भी दें। यह हीरा ऐसा है कि इसका हस्तांतरण नहीं हो सकता। यह अगर बुद्धपुरुष दे भी दें तो तुम्हारे हाथ में जाकर कोयला हो जाएगा।
तुम्हें पता है? कोयला और हीरा एक ही तरह के रासायनिक द्रव्यों से बनते हैं। कोयले और हीरे में कोई रासायनिक भेद नहीं है। कोयला ही लाखों साल तक जमीन के दबाव के नीचे पड़ा-पड़ा हीरा हो जाता है--कोयला ही। आज नहीं कल वैज्ञानिक विधि खोज लेंगे कोयले पर इतना दबाव डालने की कि जो बात लाखों साल में घटती है, वह क्षणभर में दबाव के भीतर हो जाए, तो कोयला हीरा हो जाएगा। और अगर हीरे पर से जो लाखों साल में दबाव पड़ा है, उसे निकालने का कोई उपाय हो, तो तत्क्षण हीरा कोयला हो जाएगा। तो कोयला औैर हीरा अलग-अलग नहीं हैं।
बुद्धपुरुषों ने जन्मों-जन्मों में जो खोजा है, जो दबाव डाला है कोयले पर, उसके कारण वह हीरा हो गया है। वह हीरा उनके हाथ में ही हीरा है। जैसे ही तुम्हारे हाथ में गया, दबाव निकल जाता है--तुम्हारा तो कोई दबाव है नहीं--वह कोयला हो जाता है। इसलिए इस हीरे को दिया तो जा नहीं सकता, लेकिन दिखाया तो जा सकता है; तुम्हें बताया तो जा सकता है कि ऐसा होता है, यह है, देख लो, यह तुम्हारे भीतर भी हो सकता है! एक दिन मेरे भीतर भी नहीं था, मैं भी कोयले को ही ढोता रहा, लेकिन फिर यह अपूर्व घटना घटी, यह चमत्कार हुआ, यह तुम्हारे भीतर भी हो सकता है। जैसे मेरे भीतर हुआ, वह विधि मैं तुमसे कह देता हूं।
तो सदगुरु तो उस गांठ को खोलता रहेगा। कबीर ने दूसरे अर्थ में कहा है। उन्होंने कहा है साधक के लिए, शुरू-शुरू में ऐसा नहीं करना चाहिए। कबीर का मतलब यह है कि जब शुरू-शुरू में ध्यान लगना शुरू हो, तो जल्दी-जल्दी खोल-खोलकर गांठ मत दिखाना, नहीं तो उड़ जाए पक्षी। शुरू-शुरू में मत करना जल्दी बताने की। होता है मन बताने का, कि कह दें किसी को कि ऐसा हुआ।
तुमने कभी खयाल किया? जो लोग ध्यान कर रहे हैं ठीक से, उनको कई बार अनुभव में आएगा, खूब रस आ रहा था ध्यान में और तुमने किसी से कहा और फिर दूसरे दिन रस नहीं आता--पक्षी उड़ गया। कहने में ही भूल हो गयी। तुमने कहकर जो मजा ले लिया, उससे अहंकार थोड़ा मजबूत हो गया। तुमने किसी को कहा कि ध्यान में गजब का अनुभव हुआ, कि कुंडलिनी जगी, कि रोशनी उठी, कि तीसरी आंख खुलती हुई मालूम पड़ी!
तुम जब कह रहे थे, तब तुम्हें खयाल भी नहीं था, तुम तो सिर्फ आंदोलित थे, आनंदित थे। तुमने कह दिया, पत्नी को कह दिया, पति को कह दिया, मित्र को कह दिया, सोचा भी नहीं था, लेकिन कहते-कहते तुम्हारे भीतर अहंकार निर्मित हो गया। तुम्हें एक अकड़ आ गयी कि देखो, एक हम एक तुम! कहां पड़े कूड़े-कचरे में! अभी तक संसार में ही उलझे हो! ऐसा तुमने कहा भी न हो ऊपर से, लेकिन ऐसी एक लहर भीतर दौड़ गयी कि अभी तक पड़े हो गंदगी में! एक हम देखो, एक तुम! जरा हमारी तरफ देखो! एक पवित्रता का भाव आ गया कि हम कुछ संत हो गए।
बस, उसी भाव में गड़बड़ हो गयी। दूसरे दिन ध्यान करने बैठोगे, न कुंडलिनी जगती, न रोशनी आती है, न तीसरी आंख का कोई पता चलता है, तुम बड़े हैरान होते हो कि बात क्या हो गयी! बहुत कोशिश करते हो, चेष्टा करते हो और छूट-छूट जाती है बात। कबीर ने उनके लिए कहा है--हीरा पायो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यूं खोले।
लेकिन जब हीरा पक गया--हीरा पक गया इसका अर्थ होता है, जब अहंकार के पैदा होने की कोई संभावना ही न रही। कि अब सारी दुनिया आ जाए और इस हीरे को देख ले तो भी तुम्हारे भीतर कोई अस्मिता निर्मित नहीं होती; क्योंकि तुम जानते हो कि यह हीरा सबके भीतर पड़ा है, यह कोई विशिष्टता की बात नहीं है।
बुद्ध ने कहा है, जिस दिन मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, मेरे लिए सारा संसार ज्ञान को उपलब्ध हो गया। यह बड़ी अनूठी बात कही है। इसे मैं अपने अनुभव से गवाही भी देता हूं कि यह बात सच है। यह मैं भी तुमसे कहता हूं कि जिस दिन मैंने जाना, उस दिन मैंने यह भी जान लिया कि सब जान चुके। क्योंकि जिस दिन पाया जाता है, उस दिन पता चलता है, सबके भीतर यह हीरा पड़ा है। तुम्हें पता न हो, यह दूसरी बात, लेकिन हीरा तो पड़ा ही है। तुम्हें न दिखता हो, मुझे तो दिखता है। जिसे अपना हीरा दिख गया, उसे सबके भीतर के हीरे दिखायी पड़ गए। जिसकी आंखें रोशनी देखने में समर्थ हो गयीं, उसकी आंखें सबकी रोशनी देखने में समर्थ हो गयीं।
बुद्ध का यह वचन महत्वपूर्ण है कि जिस दिन मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, मेरे लिए सारा जगत ज्ञान को उपलब्ध हो गया। उस दिन के बाद कोई अज्ञानी है ही नहीं।
तो फिर बुद्ध समझाते क्या हैं? बुद्ध को कोई पूछता है कि अगर ऐसा है कि आप अब जानते हैं कि सभी ज्ञानी हो गए, तो आप समझाते क्या हैं? तो बुद्ध कहते हैं, यही समझाता हूं कि लोग अपने को अज्ञानी माने बैठे हैं, मैं उनको यही समझाता हूं कि अज्ञानी तुम नहीं हो, ज्ञानी हो। मुझे कुछ समझाने को नहीं बचा है, मेरे लिए तो बात साफ हो गयी कि सब ज्ञानी हैं। मगर वे जो ज्ञानी हैं, वे अपने को अज्ञानी माने बैठे हैं। उनकी मान्यता तोड़नी है।
लेकिन जब परम अवस्था घटती है, तब भी कुछ लोग गांठ बांधे रहे जाते हैं। उनसे भी कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए सारे धर्मों ने दो भेद किए हैं। जैनों ने भेद किया है, एक को वे कहते हैं--केवली जिन। जिसने जान लिया, जिनत्व को उपलब्ध हो गया, समाधि को परिपूर्ण पा लिया, लेकिन चुप्पी साधकर रह गया, फिर कुछ बोला नहीं। उसको कहते हैं--केवली जिन। वह केवलत्व को उपलब्ध हो गया, बस, गया शून्य में, महाशून्य में चला गया।
दूसरे को कहते हैं--तीर्थंकर। तीर्थंकर का अर्थ है, जो खुद पाया और फिर दूसरों के लिए घाट बनाने लगा कि यहां से तुम भी उतरो। तीर्थ यानी घाट। यह भवसागर, इस पर घाट बनाने लगा। और कहा कि यहां से तुम भी अपनी नाव छोड़ो। हम तो पहुंच गए बिना घाट के--लेकिन बिना घाट के नाव छोड़ना सदा खतरनाक होता है--हम तो बिना घाट के भी तर गए किसी तरह, लेकिन अब तुम्हारे लिए सीढ़ियां डालकर, ठीक से पाटकर घाट बना देते हैं, अब तुम अपनी नाव को यहां से ले जाओ। तो इसको कहते हैं तीर्थंकर, जो दूसरों के लिए घाट बनाता।
बौद्धों ने भी दो शब्द उपयोग किए हैं। एक को कहते--अर्हत। अर्हत का अर्थ होता है, जिसने पा लिया, जिसके सारे शत्रु समाप्त हो गए--अरिहंत, या अर्हत। अपने शत्रुओं को जीत चुका और फिर चुप्पी मारकर बैठ गया।
दूसरे को कहते हैं--बोधिसत्व। जो ज्ञान को पा लिया और अब बांटने निकल पड़ा। अब वह कहता है, जो मिला है वह बांट भी दूं। अपनी बात तो पूरी हो गयी, जो जानना था जान लिया, लेकिन बहुत हैं अभी जिनको इसका कुछ पता नहीं है, उनको जगाने चल पड़ा।
दोनों बातें महत्वपूर्ण हैं, जब शुरू-शुरू में ध्यान की किरण उतरे तो कबीर की सुनना; वह साधक के लिए बात है। और जब किरण उतर जाए, सूरज ऊग जाए, फिर कबीर की बात मत सुनना; फिर तो जहां कोई मिल जाए, माने चाहे न माने, चाहे देखे चाहे न देखे, तुम पट से अपनी गांठ खोलकर उसको हीरा तो दिखा ही देना! वह चाहे इंकार करे, चाहे वह लाख चिल्लाए कि क्षमा करो, मुझे नहीं देखना, कि मैं फिर देखूंगा, अभी मेरा समय नहीं है, अभी मैं बाजार जा रहा हूं, मेरी पत्नी बीमार है, तुम कहना कि कोई फिकर नहीं, मगर देख तो लो, फिर मिलना हो न मिलना हो! मगर तुम्हें याद रह जाएगी कि हीरा होता है, हीरा घटता है। और मुझ जैसे साधारण आदमी को घट गया, तुम्हें भी घट सकता है।
आखिरी प्रश्न:...बहुत से प्रश्न पूछे हैं इन मित्र ने। सार में मैंने दो प्रश्न बना लिए हैं। एक तो पूछा है...
भगवान, आप विश्वविद्यालय में आचार्य थे तब आनंदित और प्रतिष्ठित थे कि अब?
आनंदित तो मैं तब भी था, आनंदित अब भी हूं, प्रतिष्ठित तब भी नहीं था और अब भी नहीं हूं। प्रतिष्ठा मेरे भाग्य में नहीं।
मगर आनंद मिल गया हो तो कौन फिकर करता है प्रतिष्ठा की! प्रतिष्ठा तो वही खोजते हैं, जिन्हें आनंद न मिला हो। प्रतिष्ठा का मतलब होता है कि हमें भीतर तो कुछ नहीं मिला, तो चलो बाहर के लोग ही कुछ प्रतिष्ठा दे दें, उससे ही शायद थोड़ा सा लगे कि कुछ पा लिया है। प्रतिष्ठा का अर्थ होता है, दूसरे हमें थोड़ा भर दें, हम तो खाली हैं। दूसरे कहें, आप सुंदर; दूसरे कहें, आप शुभ; दूसरे कहें, आप शिव; दूसरे कहें, आप साधु--दूसरे कह दें; हम तो भीतर खाली हैं। अगर दूसरे न कहेंगे, तो हमारे भीतर तो कुछ भी नहीं है। प्रतिष्ठा का मतलब होता है, उधार, कोई कह दे।
तो प्रतिष्ठित तो मैं तब भी नहीं था, अब भी नहीं हूं। प्रतिष्ठा मेरा भाग्य भी नहीं और प्रतिष्ठा में मुझे रस भी नहीं। जिसमें रस था वह तब भी था, अब भी है।
हां, अगर तुम पूछते हो, शायद तुम्हारा मतलब यही हो कि कुछ फर्क पड़ा कि नहीं? फर्क पड़ा है। आप महात्माओं से सत्संग तब नहीं होता था, अब करना पड़ता है! बस इतना ही फर्क पड़ा है, और तो कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
दूसरा पूछा है:
भगवान, आपने ऐसा क्या किया जिससे कि आप भगवान हो गए?
करने से कोई भगवान थोड़े ही होता है, भगवान होना हमारा स्वभाव है। जब तुम करना-धरना छोड़कर अपने भीतर देखते हो, पाते हो--भगवान हम हैं! इसका करने से कोई संबंध नहीं। तुम शायद सोचते होगे, कितने उपवास किए, कितनी दंड-बैठक लगायी, कितना शीर्षासन किया, कितना आसन-व्यायाम किया, कितना भजन-कीर्तन किया--तुम शायद इस तरह का कुछ पूछ रहे हो कि किया क्या, जिससे आप भगवान हो गए?
करने ही से तुम चूक रहे हो। कर-करके चूक रहे हो। क्योंकि भगवान होना हमारा होना है, इसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं, भगवान तुम हो। लाख तुम उपाय करो तो भी तुम कुछ और हो न सकोगे। हर उपाय असफल जाएगा। इसीलिए तो जीवन में तुम रो रहे हो, क्योंकि हर उपाय असफल जा रहा है। कुछ भी करते हो, सफल होता नहीं। हो ही नहीं सकता। क्योंकि जो तुम हो, उसे जब जानोगे तभी तृप्ति होगी। और तुम कुछ भी होने की कोशिश करते रहो, कुछ भी कभी तुम हो न पाओगे। सिर्फ समय जाएगा, जीवन व्यतीत होगा, व्यर्थ श्रम होगा, परिणाम कभी हाथ न लगेगा। तुम रेत से तेल निचोड़ रहे हो।
तो तुम पूछते हो, ‘आपने ऐसा क्या किया?’
तुम्हारी धारणा ऐसी है कि कुछ उलटा-सीधा करो, तो आदमी भगवान होता है। फिर तुम समझे ही नहीं। भगवान तो स्वभाव की घोषणा है। न कुछ करते-करते, न कुछ करते-करते जब तुम्हारी सारी जीवन चेतना सब तरह के संसरण से, संसार से छूट जाती है, दौड़ से छूट जाती है, भीतर रमे रह गए, ठगे खड़े रह गए, जरा भी कल्पना नहीं उठती कि यह करें, जरा भी भाव नहीं उठता कि यह हो जाएं, जरा भी दौड़ की लहर नहीं उठती कि वहां पहुंच जाएं--यहां और अभी जब तुम शांत विश्राम में पड़े रह गए--उसी घड़ी प्रकट हो जाती है बात, तुम्हारी भगवत्ता प्रकट हो जाती है। भगवान तुम्हारे भीतर पड़ा है, तुम्हारी झोली में पड़ा है।
इसलिए यह बात तो पूछो ही मत कि क्या करके। ऐसा पूछो कि आपने क्या-क्या करना छोड़ा जिससे भगवान हो गए, तो बात अर्थ की होगी। होने की आकांक्षा छोड़ी, होने के विचार छोड़े, अंग्रेजी में जिसको कहते हैं--बिकमिंग, यह हो जाऊं, वह हो जाऊं, ऐसी सारी धारणा छोड़ी। जो हूं, ठीक हूं। जो हूं, उससे राजी हूं। जो हूं, जैसा हूं, यही परम नियति है, यही मेरा स्वभाव है। इस होने में रमा, कुछ और होने की आकांक्षा न रही, उसी क्षण, उसी क्षण, तत्क्षण प्रगट हो जाती है भगवत्ता। तुम अचानक पाते हो, तुम्हारे हृदय-कमल पर भगवान विराजमान हैं। और ऐसा नहीं कि तुमसे अलग विराजमान हैं, तुम ही हो, अहं ब्रह्मास्मि।
आज इतना ही।