BUDDHA
Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) 52
FiftySecond Discourse from the series of 122 discourses - Es Dhammo Sanantano (एस धम्मो सनंतनो) by Osho. These discourses were given during NOV 21, 1975 to DEC 10, 1977.
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कोनु हासो किमानंदो निच्चं पज्जलिते सति।
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ।।125।।
पस्स चित्त कतं बिम्बं अरुकायं समुस्सितं।
आतुरं बहुसंकप्पं यस्स नत्थि धुवं ठिति।।126।।
परिजिण्णमिदं रूपं रोगनिड्डं पभंगुरं।
भिज्जति पूतिसंदेहो मरणन्तं हि जीवितं।।127।।
यानि मानि अपत्थानि अलाबूनेव सारदे।
कपोतकानि अट्ठीनि तानि दिस्वान का रति।।128।।
अट्ठीनं नगरं कतं मंसलोहित लेपनं।
यत्थ जरा च मच्चू च मानो मक्खो च ओहितो।।129।।
जीरंति वे राजरथा सुचित्ता
अथो सरीरम्पि जरं उपेति।
सतं च धम्मो न जरं उपेति
सन्तो हवे सब्भि पवेदयन्ति।।130।।
सूत्र के पहले--
जीवन-सत्य को पाने के दो मार्ग हैं। दो ही हो सकते हैं। या तो जीवन-सत्य को पकड़ा जा सकता है जीवन में डूबकर, या जीवन-सत्य को पकड़ा जा सकता है मृत्यु में डूबकर। दो ही द्वार हैं। जीवन और मृत्यु। या तो होने से पकड़ा जा सकता है, या न होने से। या तो प्रकाश से, या अंधकार से। या तो खुली आंख से, या आंख बंद करके। या तो इतने डूब जाओ जीवन में कि तुम न बचो, या इतने डूब जाओ मृत्यु में कि तुम न बचो। असली बात है कि तुम न बचो। किस बहाने तुम मिटते हो, यह गौण है।
जहां तुम नहीं हो, वहीं सत्य है। जीवन के उत्सव में, जीवन के नृत्य में भी तुम खो जाओ, तो भी सत्य मिल जाता है। मीरा ने नाचकर पाया, उत्सव से पाया। चैतन्य ने गीत गाकर पाया। कृष्ण के ओंठों पर रखी बांसुरी जीवन का द्वार है।
बुद्ध ने मृत्यु में डुबकी लगायी। महावीर ने भी वहीं पाया। इसलिए बुद्ध के पास बांसुरी न जंचेगी। नृत्य-ज्ञान का कोई संबंध न जोड़ सकोगे। बुद्ध के पास कैसा गीत, कैसा नृत्य! नृत्य और गीत बुद्ध को तो अपावन मालूम होंगे। गीत और नृत्य की बात ही बुद्ध की जीवन-दृष्टि से मेल न खाएगी। क्योंकि उन्होंने पाया है मृत्यु में डुबकी लगाकर।
यूनानी पुराण-कथाओं में विभाजन बहुत साफ है। दो देवताओं की चर्चा है। अपोलो और डायोनीसियस। अपोलो तपश्चर्या का देवता है। डायोनीसियस नृत्य का, गान का, उत्सव का। एपीकुरस डायोनीसियस का अनुयायी है। एपीकुरस ने अपने आश्रम का नाम रखा था, उपवन। वृक्षों के तले, फूलों के पास, पक्षियों के गीतों में रमे, सरोवर के तटों पर, चांदनी रातों में नृत्य का महोत्सव चलता। वहीं एपीकुरस ने उसकी झलक पायी। कोई तपश्चर्या नहीं। उत्सव! सताना नहीं, तोड़ना-फोड़ना नहीं, मिटाना नहीं, जैसे मृत्यु है ही नहीं। एपीकुरस का अर्थ है, जैसे मृत्यु है ही नहीं। कभी हुई ही नहीं। मृत्यु असत्य है। ऐसे जीना जैसे मृत्यु असत्य है, तो भी सत्य मिल जाता है।
बुद्ध ने ठीक उलटी तरफ से पाया। ऐसे जीए जैसे जीवन है ही नहीं, मृत्यु ही सत्य है। दुख ही सत्य है। बुद्ध ने चार आर्य-सत्यों की बात कही। वे चारों ही दुख से जुड़े हैं। दुख है, यह पहला आर्य-सत्य। दुख से छूटने का उपाय है, यह दूसरा आर्य-सत्य। दुख से छूटने की संभावना है, यह तीसरा आर्य-सत्य। दुख से छूटी गयी अवस्था है, यह चौथा आर्य-सत्य। बस। लेकिन चारों आर्य-सत्य दुख से जुड़े हैं। बुद्ध को जो पहला महाबोध हुआ, जो पहली किरण उतरी, वह अंधेरे की है।
जाते थे राह से, महोत्सव में भाग लेने--समझने जैसा है--जाते थे कहीं, जहां एपीकुरस को जाना चाहिए। युवक महोत्सव, यूथ फेस्टिवल था। सारे देश के युवक और युवतियां इकट्ठे हुए थे। राजकुमार को उदघाटन करना था उस महोत्सव का। बुद्ध जाते थे अपने रथ में सवार, वहां जहां एपीकुरस को जाना चाहिए। फूलों से सजा था रथ। लेकिन राह पर एक बीमार आदमी दिखायी पड़ गया। स्वर भंग हुआ। बुद्ध ने चौंककर सारथी को पूछा, इस आदमी को क्या हो गया? कहते हैं, तब तक बुद्ध ने बीमार आदमी न देखा था।
ऐसा हुआ, जब बुद्ध पैदा हुए तो ज्योतिषियों ने कहा, अगर यह युवा होकर दुख को जानेगा तो संन्यस्त हो जाएगा। जैसे ज्योतिषियों को यह बात पहले ही झलक गयी कि दुख से ही यह व्यक्ति मुक्त होने को है। द्वार बनने को है। तो ज्योतिषियों ने कहा पिता को कि अगर चाहते हो कि बच जाए यह, संन्यस्त न हो, तो इसे दुख का दर्शन मत होने देना। बीमारी इसके पास न फटके। कुरूप व्यक्ति इसके पास न आएं। बुद्ध के बगीचे से भी फूल तब हटा दिए जाएं जब कि वे कुम्हलाने के पहले की अवस्था में हों, कुम्हलाने न पाएं। सूखा पत्ता बगीचे में न बचे, रात में हटा दिया जाए। बुद्ध ताजे फूल को ही जानें। जवानी ही जानें, बुढ़ापे की खबर न मिले। मुरझाता भी है कुछ, इसका कांटा अगर जरा भी चुभा, तो इस चेतना को राजमहलों में न रोका जा सकेगा।
तो बुद्ध के पिता ने बड़ा इंतजाम किया था। कहते हैं, तब तक बुद्ध ने बीमार आदमी न देखा था। कुम्हलाया फूल न देखा था। सूखे पत्ते न देखे थे। मृत्यु की तो बात दूर, मृत्यु की आहट भी न सुनी थी। बुढ़ापा यानी मृत्यु की आहट। पड़ने लगे पैर सुनायी। पदचाप कानों में आने लगा। वह भी न सुना था। कहीं से भी कोई खबर ही न मिली थी। बुद्ध ऐसे जीए थे जैसा एपीकुरस जीता है। लेकिन एपीकुरस वे थे नहीं। वह उनकी जीवनधारा न थी। वह उनके व्यक्तित्व का ढंग न था। वह सब बेमेल था। वह कहीं उनसे जुड़ता न था।
अगर बुद्ध की जगह एपीकुरस को ऐसी सुविधा मिली होती, तो वहीं नाचते और नृत्य करते, संगीत में डूबे, सौंदर्य में लीन, वह सत्य को उपलब्ध होता। सुंदरतम स्त्रियां जुटा दी थीं। राज्य में जितनी सुंदर स्त्रियां थीं, जितनी सुंदर युवतियां थीं, इकट्ठी कर दी थीं।
एरनाल्ड ने अपनी प्रसिद्ध कविता लाइट आफ एशिया में उनका बड़ा मनमोहक वर्णन किया है। लेकिन उनमें से भी बुद्ध ने दुख खोज लिया। एक रात युवतियां नाचकर सो गयी हैं। थककर गिर गयी हैं, बुद्ध को झपकी लग गयी है। आधी रात उनकी नींद खुली, उन्होंने आंख उठाकर देखा। संगमरमर जैसी देहें, स्वर्ण जैसे शरीर, मूर्च्छित पड़े थे। किसी का मुंह खुल गया था--सुंदर चेहरा कुरूप हो गया था। किसी की आंख में कीचड़ आ गया था--सोना गंदा हो गया था। किसी की लार बहती थी। कोई नींद में बड़बड़ाता था। साज-श्रृंगार, रख-रखाव अस्तव्यस्त हो गया था। चारों तरफ पड़ी सुंदरियां अचानक बुद्ध को कुरूप लगीं। सौंदर्य में से कुरूप का दर्शन हो गया। एपीकुरस कुरूप में भी सौंदर्य को खोज लेता है। दृष्टि की बात है। और ये दो ही दृष्टियां हैं।
उस सुबह जब बुद्ध उस महोत्सव में भाग लेने रथ पर जाते थे, सारथी से पूछा, इस आदमी को क्या हुआ? लकड़ी टेककर चलता है। बीमार है, बूढ़ा है, हुआ क्या? कहानी बड़ी मधुर है। कहते हैं, सारथी झूठ बोलना चाहता था, लेकिन देवताओं ने उसकी जबान पकड़ ली। सारथी कहना चाहता था, कुछ भी नहीं हुआ, एक दुर्घटना है। कभी-कभी अपवाद-स्वरूप ऐसा हो जाता है। लेकिन कहानी कहती है, देवताओं ने जबान पकड़ ली। और देवता सारथी के मुंह से बोले कि यही सबको होता है, तुम्हें भी होगा। सारथी चौंका कि यह मैं क्या कह रहा हूं? पिता ने सख्त मनाही की है। मगर बात निकल गयी थी, अवश। सारथी के मुंह का उपयोग देवताओं ने कर लिया।
और उसके पीछे ही आती थी एक अरथी, लोग मरघट जाते थे। बुद्ध ने पूछा, यह क्या हुआ? सारथी फिर झूठ बोलना चाहता था, लेकिन न बोल पाया। और जो नहीं कहना था, वह उसने कह दिया: सभी को ऐसा होता है, आपको भी होगा। मरना तो पड़ेगा। बुद्ध ने कहा, रथ लौटा लो। अब महोत्सव में जाने की कोई जरूरत न रही। जब मृत्यु है, तो मैं मर ही गया। अब मैं उस जीवन को खोजूंगा, जिसकी कोई मृत्यु न हो।
बुद्ध लौट पड़े। उसी रात घर छोड़कर भाग गए। बारह वर्षों बाद जब घर लौटे तो...रवींद्रनाथ ने एक कविता लिखी है। रवींद्रनाथ एपीकुरियन थे। यह थोड़ा समझने जैसा है। यह विभाजन बड़ा गहरा है। और सारे आदमी इन दो में बंटे हैं।
रवींद्रनाथ को बुद्ध कभी जंचे नहीं, जंच नहीं सकते। उनकी भाषा जीवन की है। घूंघर, नूपुर की है। चांद-तारों की है। कवि की भाषा है। कवि मौत के थोड़े ही गीत गाता है, जीवन के गीत गाता है। उसकी निष्ठा जीवन में है। रवींद्रनाथ को कभी यह बात जंची नहीं--बुद्ध के प्रति सम्मान था, होगा ही। बुद्ध जैसे व्यक्ति के प्रति सम्मान न हो, यह कैसे हो? लेकिन तालमेल नहीं है।
तो उन्होंने एक कविता लिखी, जिसमें जब बारह साल बाद बुद्ध घर लौटे, तो यशोधरा ने उनसे पूछा कि मैं तुमसे पूछती हूं, कि तुम्हें जो घर छोड़कर मिला, क्या वह यहां नहीं मिल सकता था? बुद्ध मौन खड़े रह गए हैं। बुद्ध, जो किसी प्रश्न पर कभी चुप न रहे, उत्तर दिया, यशोधरा के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़े रह गए हैं। रवींद्रनाथ ने कविता को वहीं छोड़ दिया है। इशारा काफी है।
रवींद्रनाथ यह कहते हैं कि बुद्ध को भी समझ में तो आ गया कि जो पाया है जंगल में जाकर, वह घर भी मिल सकता था। जो पाया है मृत्यु में उतरकर, वह जीवन में भी मिल सकता था। लेकिन यह उनसे कहते न बन पड़ा। यह कहना तो अपनी सारी जीवन-व्यवस्था को, शास्त्र को झुठलाना होगा। बुद्ध चुप रह गए। झूठ बोल न सकते थे, सच बोलना संभव न था, मौन ही रह जाना उचित था।
यशोधरा ने जो प्रश्न पूछा है, वह एपीकुरियन है। एपीकुरस यही पूछता है कि यह जीवन को छोड़कर कहां जाते हो? भागते कहां हो? यहीं मिल जाएगा।
लेकिन बुद्ध कहते हैं, अगर यहीं मिलता होता, तो इतने लोग जीवन में हैं, इन्हें मिलता क्यों नहीं? अगर यहीं मिलता होता, तो राग-रंग की कुछ कमी है! उत्सव तो लोग जन्मों से मना रहे हैं, मिलता नहीं।
उनका कहना भी ठीक है। उत्सव से नहीं मिलता। ऐसा उत्सव चाहिए कि तुम खो जाओ, तब मिलता है।
अगर तुम एपीकुरस से पूछो कि बुद्ध कहते हैं, मृत्यु से मिलता है, तो एपीकुरस कहेगा, इतने लोग सदा मरते रहे हैं, किसने पाया? मरने से कहीं मिलता है! तो सभी को मिल गया होता, क्योंकि सभी मरते हैं। और अगर मरने से ही मिलता है, तो सभी मरेंगे, चिंता क्या करनी है, पा लेंगे। दुख से मिलता है, तो दुख की कुछ कमी है! दुख ही दुख है सब तरफ।
वह भी ठीक कहता है। दुख से नहीं मिलता, मृत्यु से नहीं मिलता, डूबकर मिलता है।
तो मैं तुम्हें यह कहना चाह रहा हूं कि अपोलो हो कि डायोनीसियस हो, एपीकुरस हो कि बुद्ध हों, जीवन से पाया जाए कि मृत्यु से पाया जाए, गहराई से पाया जाता है। कहीं भी डूबो। मृत्यु में भी डूबो, तो मिल जाता है, तो जीवन में डूबने से तो मिल ही जाएगा। और जब जीवन में ही डूबने से मिल जाता है, तो मृत्यु में डूबने से क्यों न मिलेगा?
यह बात पहले खयाल में ले लेना, फिर ये बुद्ध के सूत्र बड़े साफ हो जाएंगे। तब बुद्ध के संबंध में जो एक भ्रांति होती है वह तुम्हारे मन में न होगी। बुद्ध दुखवादी नहीं हैं। दुख का उन्होंने साधन की तरह उपयोग किया है। पाया तो उसी सच्चिदानंद को है। लेकिन दुख का माध्यम की तरह, साधन की तरह उपयोग किया है। दुख बुद्ध का मार्ग है, अंत नहीं, गंतव्य नहीं। दुख में बुद्ध को रस नहीं है। दुख से पार होना है। इसीलिए तो चौथा आर्य-सत्य, कि दुख के पार अवस्था है।
मगर उनकी भाषा दुख की है। वह उस अवस्था को भी आनंद की अवस्था नहीं कह पाते, वे कहते हैं, दुख के पार। आनंद शब्द में ही उन्हें बू आती है जीवन की, आनंद शब्द में ही खबर आती है उत्सव की। आनंद में ही नाच आ जाता है, गीत आ जाता है, गान आ जाता है; जीवन के सारे वाद्य ध्वनित होने लगते हैं। आनंद शब्द का बुद्ध उपयोग नहीं करते। वे कहते हैं, दुख-निरोध की अवस्था है। इसलिए ईश्वर शब्द का उपयोग नहीं करते। ईश्वर में ही ले जाते हैं, लेकिन उस शब्द का उपयोग नहीं करते, वह शब्द उन्हें मौजूं नहीं आता। वह जीवनवादियों का सत्य है।
ईश्वर शब्द का अर्थ तुमने कभी सोचा? वह बनता है उसी धातु से जिससे ऐश्वर्य बनता है। ऐश्वर्य? महाऐश्वर्य ही ईश्वर है।
इसीलिए तो ईश्वर का मंदिर हो और राग-रंग न हो, फूल न हों, धूप-दीप न हो, नाच न हो, घूंघर न बजते हों, भजन-कीर्तन का स्वर न उठता हो, घंटनाद न होता हो अहोभाव का--मंदिर नहीं।
इसीलिए तो मस्जिद बड़ी उदास है। बाजा तक नहीं बज सकता। इसीलिए तो चर्च गंभीर है। वे मंदिर होने के रास्ते पर हैं, हो नहीं पाए। मंदिर तो तभी है जब उत्सव हो, हंसी के फव्वारे छूटते हों, लोग उमंग में हों, मस्ती में हों। मंदिर तो तभी है जब वह परमात्मा की मधुशाला हो। वह एक मार्ग है।
बुद्ध दुखवादी नहीं हैं। चाहते तो वे भी उसी आनंद की तरफ जाना हैं और ले जाना, लेकिन उनकी भाषा बड़ी संयत है। वे ऐसे किसी शब्द का उपयोग न करेंगे जिससे तुम्हारे जीवन की भ्रांति को भूलकर भी सहारा मिल जाए। इस बात को खयाल में रखना, तब ये सूत्र साफ हो जाएंगे।
पहला सूत्र है: ‘कोनु हासो--कैसी हंसी? किमानन्दो--कैसा आनंद? निच्चं पज्जलिते सति--जब सब कुछ निरंतर जल रहा है, तब हंसी कैसी, आनंद कैसा? अंधकार में डूबे हो और दीपक की खोज नहीं करते!’
जिसे तुम जीवन कहते हो, वह अंधकार है। जिसे तुम मृत्यु कहते हो, वह दीपक है। बुद्ध के लिए। और जिसको जम जाए, मार्ग बिलकुल सौ प्रतिशत सही है।
‘जब सब कुछ निरंतर जल रहा है...।’
बुद्ध ने जिस रात घर छोड़ा, एरनाल्ड ने अपने गीत में उस घटना का उल्लेख किया है। एरनाल्ड का गीत बुद्ध पर लिखा गया श्रेष्ठतम गीत है। बौद्ध भी नहीं लिख सके हैं, जो एरनाल्ड ने लिखा। बड़े-बड़े बौद्ध आचार्यों ने बुद्ध पर बड़े-बड़े शास्त्र लिखे हैं, लेकिन एरनाल्ड का लाइट आफ एशिया अनूठा है।
रात जा रहे हैं घर छोड़कर। उनका सारथी उन्हें राज्य की सीमा के बाहर ले आता है। तब वे रथ से उतर जाते हैं, और सारथी के--दीन-हीन सारथी के--वस्त्र मांगते हैं। अपने वस्त्र उसे दे देते हैं। हीरक-मणियों के हार उसे दे देते हैं। बहुमूल्य सजावट उसे दे देते हैं। कहते हैं, यह मेरी भेंट, तेरे वस्त्र मुझे दे दे।
सारथी रोने लगता है। वह कहता है, यह आप क्या कर रहे हैं? आप कहां जा रहे हैं? वह रो रहा है, वे अपने बाल काटकर भी उसे दे देते हैं। उनके बड़े प्यारे बाल थे। वह सारथी कहता है, आप यह क्या कर रहे हैं? सुंदर भवन है, साम्राज्य है, पत्नी है, नया-नया पैदा हुआ नवजात शिशु है। इस सब सुख को छोड़कर कहां जा रहे हैं? लोग इसी सुख की तलाश करते हैं। जीवनभर इसी की कामना करते हैं, स्वप्न देखते हैं और नहीं उपलब्ध कर पाते हैं, रोते हैं। तुम्हें सब मिला है, तुम छोड़कर कहां जाते हो? मुझ बूढ़े की बात सुनो। मैंने जीवन देखा है, तुम अभी नए हो, अभी तुम अनुभवहीन हो, लौट चलो।
बुद्ध कहते हैं, लौट चलूं वहां, जहां सिर्फ लपटें ही लपटें हैं! तुम्हें महल दिखायी पड़ता है, मुझे सिर्फ लपटें ही लपटें दिखायी पड़ती हैं। तुम्हें साम्राज्य दिखायी पड़ता है, मुझे चिताएं धू-धूकर जलती दिखायी पड़ती हैं। मेरी तुम्हारी दृष्टि अलग। मुझे तुम जाने दो।
समझाता है सारथी कि यह पलायन है, यह भगोड़ापन है। बुद्ध कहते हैं जब घर में आग लगी हो, तो आदमी भागता ही है। क्या घर में आग लगी हो, भागते को तुम कहोगे, भगोड़े हो, भीतर बैठे रहो? नहीं, वहां कोई महल नहीं है।
कल मैं एक गीत पढ़ता था--
कोई नहीं, कोई नहीं
यह भूमि है हाला-भरी
मधुपात्र मधुबाला-भरी
ऐसा--बुझा जो पा सके मेरे हृदय की प्यास को
कोई नहीं, कोई नहीं
सुनता, समझता है गगन
वन के विहंगों के वचन
ऐसा--समझ जो पा सके मेरे हृदय-उच्छवास को
कोई नहीं, कोई नहीं
मधुऋतु समीरण चल पड़ा
वन ले नए पल्लव खड़ा
ऐसा--फिरा जो ला सके मेरे गए विश्वास को
कोई नहीं, कोई नहीं
बुद्ध वैसी दशा में हैं, जहां जीवन का सारा विश्वास हाथ से छिटक गया। जहां जीवन में दबी मौत देखी। नृत्य में छिपे हुए अस्थिपंजर दिखायी पड़े। जहां महलों को धू-धूकर जलता हुआ देखा। जहां सब ऊपर-ऊपर टीम-टाम है, भीतर-भीतर मौत की तैयारी है। जहां ऊपर-ऊपर हंसी-खुशी है, फूल हैं, भीतर-भीतर गहन अंधकार है। जहां सजावट है, श्रृंगार है, लेकिन सत्य नहीं। अब उनके विश्वास को कोई लौटा नहीं सकता।
जब जीवन पर विश्वास उठ जाए, तो फिर कोई उपाय नहीं है उस विश्वास को लौटा लेने का। फिर तो एक ही उपाय है कि मृत्यु में ही झांका जाए। जीवन से जो हट गया, उसके पास फिर एक ही द्वार है कि मृत्यु से प्रवेश करे।
तो बुद्ध कहते हैं, ‘जब सब कुछ निरंतर जल रहा है, तब हंसी कैसी?’
तुमने बुद्ध की कोई हंसती प्रतिमा देखी? न ही कोई प्रतिमा है, न ही कोई चित्र है, न ही कोई उल्लेख है कि बुद्ध को किसी ने हंसते देखा हो। किसी ने उनके दांत भी देखे हों, इसका भी कोई उल्लेख नहीं।
‘जब जीवन जल रहा हो तो हंसी कैसी? आनंद कैसा? अंधकार में डूबे हो और दीपक की खोज नहीं करते!’
बुद्ध के लेखे तुम जिसे जीवन कहते हो, वह सिर्फ धोखा है। सपनों का धोखा है। जो है, वह तुम नहीं देखते; जो तुम देखना चाहते हो, देखते चले जाते हो। जो है, उससे आंख नहीं मिलाते, बीच में सपने रचाते हो। सपनों के माध्यम से देखते हो। सपनों को ही अपने आसपास बसाकर देखते हो। सौंदर्य की आकांक्षा है तुम्हारे जीवन में, सौंदर्य कहीं है नहीं। तुम्हारी आकांक्षा ही धोखा दे जाती है।
धन तुम चाहते हो, धन जीवन में कहीं है नहीं। तुम्हारी चाह के कारण ही तुम भरोसा कर लेते हो कि होगा। यश तुम चाहते हो, पद तुम चाहते हो। जहां सभी चीजें कब्र पर समाप्त होती हों, वहां कैसा यश? जहां यशस्वी भी आज नहीं कल औंधे मुंह धूल में पड़ा होता है, वहां कैसा यश?
कहते हैं, सिकंदर मरता था, तो उसने चिकित्सकों से कहा कि मुझे मेरी मां से मिलना है। कुछ देर मुझे रोक लो; मां थोड़ी दूरी पर है। या तो वह आ जाए, या मैं घर तक पहुंच जाऊं। जिसने मुझे जन्म दिया है, उससे मिलकर ही विदा होना चाहता हूं। लेकिन चिकित्सकों ने कहा, यह असंभव है। क्षणभर भी देर नहीं की जा सकती है। कहते हैं, सिकंदर ने कहा, मैं अपना आधा साम्राज्य दे दूंगा। उन्होंने कहा, आप चाहे पूरा भी दे दें, लेकिन मौत एक क्षण भी रुकेगी नहीं।
सिकंदर आंसू-भरी आंखों से मरा, और कहकर मरा कि जब मेरी अरथी निकले तो मेरे दोनों हाथों को अरथी के बाहर लटके रहने देना। पूछा उसके वजीरों ने, यह कभी सुना नहीं। हाथ बाहर अरथी के लटकाने का कोई रिवाज नहीं। उसने कहा, तुम लटके रहने देना, ताकि लोग पूछेंगे क्यों? तो बता देना कि सिकंदर भी खाली हाथ मर रहा है। इसके हाथ भी भरे नहीं हैं। दौड़े बहुत, पाया कुछ भी नहीं। अगर पूरा राज्य देकर भी मैं क्षण भर नहीं जी सकता हूं ज्यादा, काश यह पहले ही पता होता तो मैं इस दौड़ में अपना समय क्यों खराब करता! अगर एक श्वास नहीं मिल सकती है पूरे राज्य को देकर, तो मैंने सारी श्वासें व्यर्थ कीं इसी राज्य को पाने के लिए? तो अपनी श्वासों को बचा लेता, किसी और काम में लगा देता।
यही बुद्ध कह रहे हैं, ‘जब सब निरंतर जल रहा हो, तब हंसी कैसी? आनंद कैसा? अंधकार में डूबे हो, दीपक की खोज नहीं करते!’
अब चाहूं भी तो मैं रुक सकता नहीं दोस्त!
कारण, खुद मंजिल ही ढिंग बढ़ती आती है
मैं जितना पैर टिकाने की कोशिश करता
उतनी ही मिट्टी और धसकती जाती है
मेरे अधरों में घुला हलाहल है काला
नैनों में नंगी मौत खड़ी मुस्काती है
है राम-नाम ही सत्य, असत्य और सब कुछ
बस एक यही ध्वनि कानों से टकराती है
मरने पर, इस देश में, जब हम अरथी ले जाते हैं तो कहते हैं, राम-नाम सत्य है। सारी जिंदगी के बाद, जब मरे, तब तुम्हें पता चला राम-नाम सत्य है? जिंदगी भर तो किन्हीं और चीजों को सत्य माना--धन को सत्य माना, पद को सत्य माना, यश को सत्य माना--जिंदगी भर तो कभी न दोहराया, राम-नाम सत्य है, मरकर दोहराते हैं!
बुद्ध कहते हैं, गौर से देखो, जिसे तुम जीवन कहते हो वह क्षणभंगुर है। वह गया, गया। उस पर मुट्ठी बंध ही नहीं पाती। वह पारे जैसा है। जितना मुट्ठी बांधते हो उतना छिटकता, बिखरता है। जिसे तुम जीवन कहते हो, वह ठहरने वाला नहीं। जो ठहरने वाला नहीं, उस पर क्यों समय व्यतीत करते हो? बुद्ध कहते हैं, तुम हंसते हो, जाहिर है कि तुमने अभी जीवन की सचाई नहीं पहचानी। आनंदित मालूम पड़ते हो, धोखा दे रहे हो, भ्रम में हो, अबोध हो, भोले-भाले हो, अज्ञानी हो, म़ूढ हो।
‘अंधकार में डूबे हो और दीपक की खोज नहीं करते!’
ऐसे ही समय बिता रहे हो व्यर्थ राग-रंग में? यह सब चला जाएगा। फिर तुम चिल्लाओगे, फिर तुम रोओगे।
इसके पहले कि अंधेरा तुम्हें सचमुच पूरा-पूरा घेर ले, दीए को जला लो। इसके पहले कि रात उतर आए, इसके पहले कि सूरज ढल जाए, तुम दीए को सम्हाल लो।
‘इस चित्रित शरीर को तो जरा देखो!’
चित्रित शरीर कहते हैं बुद्ध, पेंटेड। प्रकृति ने खूब रंगा है!
‘इस चित्रित शरीर को तो जरा देखो! यह व्रणों से युक्त तथा अंगोपांगों से जोड़कर बनाया हुआ है। यह अनेक संकल्प-विकल्पों से भरा है, और इसकी स्थिति बड़ी अनित्य है।’
‘इस चित्रित शरीर को तो देखो!’
प्रकृति ने खूब तूलिका चलायी है। धोखा खा जाओ, ऐसा इंतजाम किया है। हड्डी-मांस-मज्जा के बड़े वीभत्स ढेर पर बड़ी सुंदर चमड़ी ओढ़ा दी है। भीतर सिर्फ गंदगी है। कभी आदमी के भीतर देखा? कभी जाना चाहिए मुर्दाघर, पोस्टमार्टम देखने।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को मरघट भेजते थे। वहां जाओ। वहीं से ध्यान का स्मरण आएगा। बैठे रहो वहां, देखो जलती चिताओं को। तब तक देखते रहो जब तक कि तुम्हें यह न दिखायी पड़ने लगे कि तुम जल रहे हो चिता पर। तब तक मत आना मरघट से। महीनों मरघट पर भेज देते थे, बैठे रहो। लोग आते रोते-धोते, रखते लाश, आग लगा जाते, शरीर जल जाता धू-धू करके घास-फूस जैसा, राख पड़ी रह जाती, हड्डियां पड़ी रह जातीं, जंगली जानवर घसीट ले जाते, कुत्ते-भेड़िए आते--देखते रहना, देखते रहना।
पहले तो दिखेगा, कोई और मरा, फिर कोई और मरा, पर कब तक तुम यह झुठलाओगे कि यह मौत तुम्हारी भी मौत है? यही तुम्हारे साथ भी हो जाने वाला है। और जो होने ही वाला है, जो सुनिश्चित ही होने वाला है, वह हुआ ही है। दिन, दो दिन की देर है। पंक्ति में खड़े हो। आज किसी का नंबर आ गया, कल तुम्हारा आ जाएगा। कितनी देर लगेगी मौत के आने में!
अब चाहूं भी तो मैं रुक सकता नहीं दोस्त!
कारण, खुद मंजिल ही ढिंग बढ़ती आती है
मैं जितना पैर टिकाने की कोशिश करता
उतनी ही मिट्टी और धसकती जाती है
कौन बचने की चेष्टा नहीं करता? पर कौन बच पाता है? कौन नहीं लड़ता? आखिरी दम तक लोग लड़ते ही रहते हैं। मौत से लड़ते रहते हैं। मगर कभी कोई जीता? और जब मौत हर हालत में जीत जाती है, तो जीवन धोखा होगा। यह बुद्ध का तर्क है।
एक बड़ी प्रसिद्ध सूफी कथा है। सम्राट सोलोमन सुबह-सुबह सोकर उठा ही था कि उसके एक वजीर ने घबड़ाए हुए भीतर प्रवेश किया। वह इतना घबड़ाया था, सुबह-सुबह की ठंडी हवा थी, शीतल मौसम था चारों तरफ, लेकिन वजीर पसीने से लथपथ था। सोलोमन ने पूछा, क्या हुआ? बिना पूछे एकदम भीतर चले आए और इतने घबड़ाए हो, बात क्या है? उसने कहा, बस, ज्यादा समय खोने को मेरे पास नहीं है। आपका तेज से तेज घोड़ा दे दें। रात सपने में मौत मुझे दिखायी पड़ी है। और मौत ने कहा, तैयार रहना, कल शाम मैं आती हूं। सोलोमन ने पूछा, तेज घोड़े का क्या करोगे? उसने कहा कि मैं भागूं, यहां से तो भागूं। इस जगह रुकना अब खतरे से खाली नहीं है। तो मैं दमिश्क चला जाना चाहता हूं। सैकड़ों मील दूर। तेज से तेज घोड़ा दे दें, बातों में समय खराब न करें, मेरे पास समय नहीं है। बच गया, लौट आऊंगा।
सोलोमन के पास जो तेज से तेज घोड़ा था, दे दिया गया। सोलोमन बड़ा हैरान हुआ। सोलोमन बड़े बुद्धिमान लोगों में एक था। उसने आंख बंद की, उसने मृत्यु का स्मरण किया। मौत प्रगट हुई। उसने पूछा, ये भी क्या तरीके हैं? उस गरीब वजीर को क्यों घबड़ा दिया? मारना हो मारो, बाकी पहले से आने का यह कौन सा नया हिसाब निकाला? मरते सभी हैं। मौत किसी को खबर तो नहीं देती। इसीलिए तो लोग मजे से जीते हैं और मजे से मर जाते हैं। मौत खबर दे, तो जीना मुश्किल हो जाए। यह कौन सी बात निकाली! यह कौन सा ढंग निकाला!
मौत ने कहा, मैं खुद मुसीबत में थी। इस आदमी को दमिश्क में होना चाहिए शाम तक, और यह यहीं है। सैकड़ों मील का फासला है। मैं खुद बेचैनी में थी कि यह होगा कैसे? दमिश्क में इसे मुझे लेना है आज शाम। इसीलिए चौंकाया उसे। कहां है वह आदमी? सोलोमन ने कहा कि वह गया दमिश्क की तरफ।
कहते हैं, सांझ जब वजीर पहुंचा दमिश्क, बड़ा निश्चिंत था। सूरज ढलता था, उसने एक बगीचे में घोड़ा बांधा, घोड़े की पीठ थपथपायी कि शाबाश, सच में ही तू सोलोमन का घोड़ा है, ले आया सैकड़ों मील दूर!
तभी उसके कंधे पर कोई हाथ पड़ा, उसने कहा, तुम्हीं धन्यवाद मत दो, धन्यवाद मुझे देना चाहिए। पीछे लौटा तो देखा मौत खड़ी थी। घबड़ा गया। उसने कहा, घबड़ाओ मत, घोड़ा निश्चित ही तेज है। मैं खुद ही परेशान थी कि इंतजाम यही है, खबर मेरे पास यही आयी है कि दमिश्क में सांझ तुम्हें सूरज ढलने तक लेना है। मैं खुद डरी थी कि अगर तुम भागे न उस गांव से, तो तुम दमिश्क पहुंचोगे कैसे? मगर घोड़ा ठीक समय पर ठीक जगह ले आया। यहीं तुम्हें मरना है।
तुम कहीं से भी जाओ, कैसे भी जाओ; गरीब की तरह जाओ, अमीर की तरह जाओ; फकीर की तरह जाओ, बादशाह की तरह जाओ; सब मरघट पर पहुंच जाते हैं। सभी रास्ते वहां ले जाते हैं। लोग कहते हैं, सभी रास्ते रोम ले जाते हैं, पता नहीं। सभी रास्ते मरघट जरूर ले जाते हैं। रोम भी एक तरह का मरघट है, बड़ा पुराना, प्राचीन खंडहरों के सिवाय कुछ भी नहीं, वहीं ले जाते हैं।
बुद्ध कहते हैं, ‘अंधकार में डूबे हो और दीपक की खोज नहीं करते!’
किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो, मौत के अतिरिक्त कोई भी नहीं आएगा। किन सपनों में खोए हो!
इसे हम समझें। जीवन को हमने देखा नहीं, हमने बड़े सपनों की बारात सजायी है। हम किसी दुल्हन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। विवाह रचाने की बड़ी योजना बना रखी है। हम खूब-खूब कल्पना किए बैठे हैं--ऐसा हो, ऐसा हो, ऐसा हो। इसकी वजह से हम देख नहीं पाते कि कैसा है! तुम्हारा रोमांस, तुम्हारी कल्पनाओं का जाल सत्य को प्रगट नहीं होने देता।
आंख खाली करो, जरा सतेज होकर देखो, जरा सपनों को किनारे हटाकर देखो। वही देखो, जो है। तो तुम्हें पैदा होते बच्चे में मरता हुआ आदमी दिखायी पड़ेगा। तो तुम्हें सुंदरतम देह के भीतर अत्यंत कुरूप छिपा हुआ दिखायी पड़ेगा। तो तुम्हें जवान और युवा के भीतर बुढ़ापा कदम बढ़ाता हुआ मालूम होगा। जो गहरे देखेगा, वह जीवन में मौत को देख लेगा।
यही बुद्ध कहते हैं कि जरा गहरे देखो, चमड़ी के धोखे में मत आ जाओ। जरा और गहरे उतरो, जरा भीतर का दर्शन करो।
‘जब सब निरंतर जल रहा है तब हंसी कैसी?’
कोनु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति।
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ।।
अब खोजो, गवेषणा करो दीए की! अंधेरा बढ़ता चला जाता है। अंधेरा रोज बढ़ता चला जाता है। किस भरोसे बैठे हो? तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी दीए को न जला सकेगा। फिर अंधेरी रात घेर लेगी और फिर बहुत तड़फोगे और पछताओगे कि क्यों दिन का उपयोग न कर लिया? क्योंकि दिन के उजाले में चाहते तो दीया जल जाता। बुद्ध कहते हैं, जीवन का बस इतना ही उपयोग हो सकता है कि जीते जी तुम दीया जला लो। ध्यान का दीया जला लो, बस इतना ही जीवन का उपयोग है।
तुमने पद, धन, यश, कीर्ति, प्रेम, इन सबकी तो चेष्टाएं कीं, बस एक ध्यान के दीए को जलाने की चेष्टा नहीं की, वही काम आएगा। मौत केवल उसी दीए को नहीं बुझा पाती। बुद्ध कहते हैं, ध्यान भर अमृत का सूत्र है।
लेकिन मौत की तो किसी से बात ही करो तो लोग नाराज हो जाते हैं। बुद्ध से भी लोग बहुत नाराज हुए, क्योंकि बुद्ध मौत की ही बात करते हैं। अब कोई शादी को जा रहा हो और तुम उससे मौत की बात करो! कोई दिल्ली की तरफ जा रहा हो, तुम उससे मौत की बात करो! वह कहेगा, ठहरो, अभी ये बातें न करो। पैर डगमगाए देते हो।
बुद्ध ने जहां भी मौत की बात की, लोग नाराज हुए। मौत की बात शिष्टाचार नहीं मानी जाती। कहीं भी तुम मौत की बात छेड़ो, लोग तुम्हें शांत कर देंगे कि चुप भी रहो, यह भी कोई बात है। मौत से हम बचते हैं--शब्द से बचते हैं। मौत को हम दूर रखते हैं। इसलिए मरघट, कब्रिस्तान गांव के बाहर बनाते हैं। जहां जाना न पड़े, बस। जब जाना ही पड़ेगा तब जाएंगे। ऐसे न जाना पड़े। तो मरघट को बिलकुल दूर बना देते हैं, जहां कोई कारोबार नहीं, जहां अकारण जाने की कोई जरूरत नहीं। या तो कभी कोई मित्र मर जाए, प्रियजन मर जाए, तो पहुंचा आते हैं। लेकिन तुमने वहां भी देखा?
मैं बहुत बार...मुझे बचपन से शौक था। कोई मरा, मैं गया। गांव में कोई मरे, परिचित हो, अपरिचित हो, संबंधी हो, असंबंधी हो, इससे कुछ लेना-देना नहीं था। मेरे घर में लोग जानने लगे थे कि अगर मैं घर में देर तक नहीं आया, तो वे समझते कि कोई मर गया होगा। गया! पर वहां मैं चकित हुआ कि वहां भी लोग चिता की तरफ पीठ करके दूसरी ही बातें करते हैं। वहां भी मौत को झुठलाते हैं। वहां भी संसार की ही बात चलती है। वहां भी गांव के ही गप-सड़ाके! किसकी पत्नी भाग गयी, कौन जुआ खेलता पकड़ा गया, कौन ने चोरी की, कहां हत्या हो गयी, वही सब बातें चलती हैं। मैं सोचता था, कम से कम मरघट पर तो मौत को लोग याद करते होंगे। नहीं। वहां भी छोटे-छोटे झुंड बना लेते हैं। और सब बातें करते हैं, मौत को छोड़ देते हैं। मौत कुछ स्मरण मात्र से कंपा जाती है।
बुद्ध ने जब मौत और दुख की बातें शुरू कीं, तो लोग नाराज ही हुए। लोग घबड़ाए कि यह आदमी पैर के नीचे की जमीन खींचे लेता है। और इसने खींची, बहुत लोगों के पैर के नीचे की जमीन खींच ली। जवान आदमियों को बुढ़ापे का दर्शन दे दिया। अभी जिंदगी की रौ में थे, उनके पैर से जमीन खींच ली और मौत के गड्ढे में ढकेल दिया।
मगर जो इसके साथ चलने को राजी हो गए, जिन्होंने दुख की हिम्मत की कि करेंगे साक्षात्कार, जिन्होंने पीड़ा से मुंह न मोड़ा--सन्मुख होने की चेष्टा की, उन्होंने खूब पाया, उन्होंने खूब ज्योति जलायी। दीए ही नहीं, मशालें जला लीं। और कुछ ऐसी रोशनी जलायी जो फिर कभी नहीं बुझती। उन्होंने वास्तविक जीवन को पा लिया।
अब यह बड़ा उलटा दिखता है, मौत के माध्यम से वास्तविक जीवन को पा लिया। कैसे यह घटता है? ऐसे ही घटता है कि जैसे ही मौत साफ होने लगती है, तुम्हारे सपने टूटने लगते हैं। मौत को अगर तुम देखते रहो, जानते रहो, सोचते रहो, विचारते रहो, ध्यान में गुनगुनाते रहो--बूझते रहो, बुद्ध कहते हैं--तो तुम सपने न बना सकोगे। अचानक उमंग उठी सपने की कि लाख इकट्ठा करें, और तभी खयाल आ गया मौत का, ढीले पड़ जाओगे। क्या फायदा?
‘कैसी हंसी? कैसा आनंद?’
चले थे बारात लेकर दुल्हन को लेने, रास्ते में मौत का खयाल आ गया। डोला क्या उठा, अरथी उठ गयी! अगर तुम स्मरण रखो मौत को, तो तुम पाओगे, जगह-जगह से सपने टूटने लगे। और सपने कुछ ऐसे हैं, सपनों का स्वभाव कुछ ऐसा है, कि टूटने लगें एक बार तो तुम उन्हें फिर न सम्हाल सकोगे। बड़े नाजुक हैं!
अगर फूलों से बने ये स्वप्न होते
और मुरझाकर धरा पर बिखर जाते
कवि-सहज भोलेपन पर मुस्कुराता,
किंतु चित्त को शांत रखता
हर सुमन में बीज है
हर बीज में है वन सुमन का
क्या हुआ जो आज सूखा,
फिर उगेगा
फिर खिलेगा
अगर फूलों से बने ये स्वप्न होते।
अगर कंचन के बने ये स्वप्न होते
टूटते या विकृत होते
किसलिए पछताव होता?
स्वर्ण अपने तत्व का इतना धनी है
वक्त के धक्के, समय की छेड़खानी से
नहीं कुछ भी कभी उसका बिगड़ता
स्वयं उसको आग में मैं झोंक देता
फिर तपाता, फिर गलाता, ढालता फिर।
अगर मिट्टी के बने ये स्वप्न होते
टूट मिट्टी में मिले होते
हृदय मैं शांत रखता
मृत्तिका की सर्जना-संजीवनी में
है बहुत विश्वास मुझको
वह नहीं बेकार होकर बैठती है
एक पल को!
फिर उठेगी, फिर उठेगी, फिर उठेगी।
किंतु इनको क्या करूं मैं
स्वप्न मेरे कांच के थे।
किंतु इनको क्या करूं मैं
स्वप्न मेरे कांच के थे
एक स्वर्गिक आंच ने उनको ढला था
एक जादू ने संवारा था, रंगा था
कल्पना-किरणावली में वे जगर-मगर हुए थे
टूटने के वास्ते थे ही नहीं वे
किंतु टूटे तो निगलना ही पड़ेगा
आंख को यह क्षुर सुतीक्ष्ण यथार्थ दारुण:
कुछ नहीं इनका बनेगा
कुछ नहीं इनका बनेगा
कुछ नहीं इनका बनेगा
एक बार टूटने लगें स्वप्न, तो फिर तुम उन्हें जोड़ न पाओगे। एक बार जागने लगो, तो फिर तुम सो न पाओगे। एक बार सत्य का थोड़ा सा भी अनुभव होने लगे, तो असत्य को फिर तुम बसा न पाओगे। सुबह जब सूरज निकलता है, अंधेरा खो जाता है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर जब जीवन के प्रति होश की किरण आनी शुरू होती है, तो सपने छितर-बितर हो जाते हैं। टूटने को वे बने ही न थे। अगर टूट गए, फिर जुड़ न सकेंगे। कांच के हैं। कांच से भी नाजुक हैं, कांच भी जुड़ जाता है।
इसीलिए हम डरते हैं कि कहीं मौत का दारुण सत्य हमारे सपनों की जगमगाहट को तोड़ न दे। इसीलिए हम डरते हैं, मौत को हम देखते ही नहीं, टालते हैं, स्थगित करते हैं। हमने कुछ ऐसा मान रखा है कि मौत कहीं जीवन में थोड़े ही घटती है--जीवन के बाद। हम मरते थोड़े ही हैं, जीवन के बाद मौत घटती है, जब जीवन जा चुकता है तब घटती है। हमने मौत को जीवन के बाहर ढकेल रखा है। जीवन को हमने अलग छांट लिया है, मौत को अलग छांट लिया है।
जानना ठीक से, मौत जीवन में घटती है। रोज घटती है, घट ही रही है। घटती ही रही है। ऐसा थोड़े ही है कि एक दिन सत्तर साल के होकर तुम अचानक मर जाते हो। सत्तर साल मरते हो, तब मर पाते हो। यह लंबा सिलसिला है। रोज-रोज मरते हो, पल-पल मरते हो, तब मर पाते हो। मरना कोई घटना थोड़े ही है, प्रक्रिया है। ऐसा थोड़े ही है कि एक दिन अचानक जीवित थे और फिर मर गए। ऐसा हो भी कैसे सकता है! जीवित होते, तो मर कैसे जाते? मर ही रहे थे, इसीलिए मर गए।
बुद्ध से पूछो, तो वे कहेंगे, जन्म के साथ ही मौत शुरू हो जाती है। जन्म का दिन ही मौत का दिवस है। इधर जन्मा नहीं बच्चा, मरने लगा। दो-चार सांस लीं, उसका अर्थ है दो-चार सांस मर गया। दो-चार दिन जीया, उसका मतलब दो-चार दिन मर गया। मौत आगे बढ़ गयी। जन्म में ही छुपी आ जाती है। जन्म का रूप लेकर आ जाती है। जन्म आवरण है मृत्यु का।
निश्चित ही लोग नाराज हुए। वे बुद्ध को क्षमा न कर सके। इस जमीन से ही बुद्ध को उखाड़ फेंका। यह आदमी कुछ घबड़ाने वाला साबित हुआ। जीवन की बात करता, प्रभु के गीत गाता, हम स्वीकार कर लेते। क्योंकि जीवन के गीत और प्रभु के गीत कहीं न कहीं हमारे सपनों के साथ मेल भी खा जाते। मेल ही नहीं खा जाते, शायद हमारे सपनों को बड़ा बल दे जाते। हमने इसका बड़ा सम्मान किया होता। लेकिन इस आदमी ने धक्के दे-देकर हमें जगाने की कोशिश की। इसने हमारा स्वर भंग किया। हम गीत में लीन थे, इसने हमें चौंकाया और कहा, कहां के गीत, कैसी हंसी, कैसा आनंद?
बावले थे जब तलक, बकते थे, सब करते थे प्यार
अक्ल की बातें कहीं, क्या हमसे नादानी हुई
तुम भी अगर व्यर्थ की बकवास जारी रखो, लोग प्रसन्न होंगे। सपनों की बात करो, सपनों के सौदागर बनो, लोग प्रसन्न होंगे।
बावले थे जब तलक, बकते थे, सब करते थे प्यार
अक्ल की बातें कहीं, क्या हमसे नादानी हुई
मगर अक्ल की बात मत कहना, लोग अक्ल के दुश्मन हैं। लोग वही सुनना चाहते हैं, जो उन्हें अभी प्रीतिकर लगता है। सत्य नहीं सुनना चाहते, प्रीतिकर सुनना चाहते हैं। श्रेयस से उन्हें कोई मतलब नहीं, प्रेयस से मतलब है। जो उन्हें प्रीतिकर लगता है वही सुनना चाहते हैं।
तुम उनके सपनों को सजाओ। तुम उन्हें सपनों के सजाने की सामग्री दो। तुम उनसे कहो, यह कारागृह नहीं है, तुम्हारा निवास है। तुम उन्हें मौत को छिपाने के लिए उपाय दो। तुम उनको कहो कि जीए चले जाओ; आज नहीं घटा सुंदर, कल घटेगा; आज नहीं आशा भरी, कल भरेगी; आज नहीं बरसे बादल यश के, धन के, वैभव के, कल बरसेंगे। नहीं इस पृथ्वी पर, तो परलोक में बरसेंगे। नहीं इस लोक में तो स्वर्ग में। उनके सपनों को गति दो। उनसे कहो, चढ़े रहो स्वप्नों के अश्वों पर, चलते रहो, कभी न कभी पहुंच ही जाओगे। तो वे तुमसे प्रसन्न होंगे।
इसीलिए संसार कवियों से बड़ा प्रसन्न रहा है। संतों की पूजा करता रहा है, लेकिन प्रसन्न नहीं रहा। क्योंकि संत तुम्हें कहीं न कहीं तो खींचेगा, जगाएगा। तुम सोना चाहते हो, संत कहीं न कहीं अलार्म बजाएगा। तोड़ देगा नींद। और अभी-अभी तुम सोए थे, और खूब मधुर सपनों में दबे थे।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने एक दिन सुबह उसे उठाया। वह बड़ी चौंकी। जैसे ही उसने आंख खोली, जल्दी से आंख बंद कर ली और बोला, अच्छा कोई हर्जा नहीं, निन्यानबे ही ले लेंगे। उसकी पत्नी ने कहा, मामला क्या है? किससे बातें कर रहे हो? बड़े क्रोध से उसने आंखें खोलीं और कहा नासमझ, एक बड़ा मधुर सपना देख रहा था। एक देवदूत खड़ा था और वह कहता था, मांग ले क्या मांगना है। मैं उससे सौ रुपए की जिद्द कर रहा था, वह कहता था, निन्यानबे देंगे। और बेवक्त तूने उठा दिया, जगा दिया, सब गड़बड़ कर दिया। अब मैं आंख भी बंद करता हूं, वह नदारद है। दिखायी नहीं पड़ता। अब मैं निन्यानबे भी लेने को राजी हूं, अट्ठानबे से भी चलेगा, अभी तेरी जो मर्जी हो दे दे--मगर अब यहां कोई है ही नहीं।
संतों के पास होने का अर्थ है, सपनों को तोड़ने का साहस। तुम संतों के पास भी जाते हो तो इसीलिए जाते हो कि सपने जो तुम पूरे नहीं कर पा रहे हो, वे उनके आशीष से पूरे हो जाएं।
मेरे पास लोग आ जाते हैं--बड़ी गलत जगह आ जाते हैं--वे मुझसे कहते हैं, बस आप तो आशीर्वाद दे दें। मैं उनसे पूछता हूं, काहे के लिए? वे कहते हैं, आप तो सब जानते ही हैं। बस आप तो दे दें। मुझे पक्का तो पता चले, कि तुम करना क्या चाहते हो? कहते हैं, जरा चुनाव में खड़े हो रहे हैं। चुनाव में वे खड़े हो रहे हैं, मुझे भी फंसाने का इरादा है। मैं उनसे कहता हूं, अगर मेरा आशीर्वाद चाहते हो तो हारोगे। अगर उतनी हिम्मत हो तो दूं। चुनाव में जीतने का आशीर्वाद! तो मैं कोई तुम्हारा दुश्मन हूं? यह तो ऐसा ही हुआ कि जैसे कोई आए और कहे कि पागल हो रहा हूं, आशीर्वाद दें।
लेकिन लोग पागल होने के लिए आशीर्वाद मांग रहे हैं। जहां उन्हें वैसे आशीर्वाद मिल जाते हैं, वहां वे बड़े प्रसन्न हैं। वहां उनके सिर झुकते हैं श्रद्धा से।
बुद्ध ने चौंकाया, घबड़ाया। जिस गहनता से बुद्ध ने मृत्यु को खींचकर जीवन के बीच बाजार में खड़ा किया, कभी किसी और ने न किया था। इसलिए बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को पीत-वस्त्र दिए। पीत-वस्त्र मृत्यु के प्रतीक हैं। जैसे गैरिक-वस्त्र जीवन के प्रतीक हैं, वैसे पीत-वस्त्र मृत्यु के प्रतीक हैं। पीलापन। पत्ता जब मरने लगता है तो पीला हो जाता है। सूख जाता है। मौत आ गयी।
बुद्ध ने पीले वस्त्र दिए अपने भिक्षुओं को, मृत्यु का आवरण दिया। इसी की बना लो ओढ़नी, इसी की बना लो बिछौनी--मौत की--ताकि जीवन का धोखा टूटे। बुद्ध ने अपने संन्यासी को भिक्षु कहा। इस देश में संन्यासी सदा से स्वामी कहा गया है। बुद्ध ने कहा, यहां मालकियत कैसी? इस जीवन में और मालकियत! यहां तो सब भिखारी हैं। यहां तो भिक्षु होना ही सत्य है, यह तुम्हें याद रहे। यहां तो सभी भिक्षापात्र लिए हैं, यह तुम्हें भूले न, यह तुम्हें स्मरण रहे। बुद्ध ने सब भांति जीवन का निषेध किया है, क्योंकि मृत्यु उनका द्वार है।
‘इस चित्रित शरीर को तो देखो! यह व्रणों से युक्त, अंगोपांगों से जोड़कर बनाया गया है।’
बुद्ध ने कहा कि जो चीज भी जोड़कर बनायी जाती है, वह टूटेगी। अजोड़ को खोजो। जुड़े से मत जुड़े रहना। जो चीज भी जोड़कर बनायी जाती है, वह टूटेगी। क्योंकि जोड़ कब तक बने रहेंगे। मकान बनाया, तो जोड़ से बनाया है, ईंटें जोड़ी हैं, टूटेगा। रथ बनाया, जोड़कर बनाया, टूटेगा। बुद्ध कहते हैं, उसकी तलाश करो, जो दो चीजों से जुड़कर नहीं बना है। जो अखंड है, वही कभी नहीं टूटेगा। अखंड कैसे टूटेगा? जिसमें खंड ही नहीं हैं, उसका विसर्जन न हो सकेगा।
तो बुद्ध कहते हैं, यह शरीर तो व्रणों से युक्त है। इसमें तो घाव ही घाव हैं। चमत्कार है कि कैसे यह चलता है! इसमें तो बीमारियां ही बीमारियां हैं।
जरा सोचो तो, एक शरीर में और कितनी बीमारियों की संभावना है! तुम यह मत सोचना कि कोई बीमार होता है, तो उसको बीमारी होती है। तो फिर तुम्हें चिकित्साशास्त्र का कुछ पता नहीं। बीमारियां तो सभी के भीतर हैं। किसी की प्रगट हो जाती है, किसी की प्रगट नहीं होती। समय मिल जाता है, प्रगट हो जाती है। अवसर मिल जाता है अनुकूल, तो प्रगट हो जाती है।
तुम सुनते हो फलां आदमी को कैंसर हो गया, तो तुम सोचते हो कि बड़े सौभाग्यशाली हम, कि हमको नहीं हुआ। कैंसर का रोगाणु तुम्हारे भीतर भी है। संभावना तुम्हारी भी है। सभी बीमारियां तुम्हारी भी हैं। हां, अनुकूल अवसर पाकर कोई बीमारी सक्रिय हो जाएगी, कोई सोयी रहेगी।
बुद्ध ने कहा है, शरीर तो घर है रोगों का। प्रतीक्षा में हैं बैठे रोग, जैसे बीज दबे हैं पृथ्वी में, मौका देखते हैं अनुकूल ऋतु, अनुकूल समय का, अंकुरित हो उठेंगे।
निश्चित ही। आधुनिक चिकित्साशास्त्र भी कहता है कि मनुष्य है, यह एक चमत्कार है। इतने रोगाणु हैं कि मनुष्य का होना कल्पना के बाहर है--कि हो कैसे सकता है मनुष्य! अगर किसी से पूछा जाता यह प्रश्न कि इतनी बीमारियां हों, तो क्या आदमी सत्तर साल जी सकेगा, इतनी बीमारियां जिसके भीतर हों? अगर यह सैद्धांतिक सवाल हो, तो कोई भी चिकित्साशास्त्री राजी नहीं हो सकता कि जी सकेगा। आदमी चमत्कार है! इतने रोगों के रहते जी लेता है, घसिट लेता है। चल लेता है किसी तरह, गुजार लेता है। जीवेषणा इतनी प्रबल है आदमी की, इसीलिए जी लेता है।
तुमसे मैं एक बात कहूं। आधुनिक, नवीनतम खोजें चिकित्सा की कहती हैं कि जिस आदमी के भीतर से जीवेषणा चली जाती है, उसके भीतर रोगों के हमले बढ़ जाते हैं। जो लोग रिटायर्ड हो जाते हैं काम-धंधे से, जीवन से, वे दस साल पहले मर जाते हैं। जीवेषणा चली जाती है।
पहले डिप्टी-कलेक्टर थे, या कलेक्टर थे, या पुलिस सुपरिंटेंडेंट थे, या किसी और तरह की नासमझी थी, लोग नमस्कार करते थे। फिर रिटायर्ड हो गए, अब कोई देखता ही नहीं। कल जो लोग नमस्कार करते थे, वे पहचानते ही नहीं। अब वे दूसरे को नमस्कार करेंगे, क्योंकि दूसरे डिप्टी-कलेक्टर हो गए। अब तुम्हीं को करते रहें, तो हाथों की भी सीमा है, नमस्कार की भी सीमा है। अब हाथ कहीं और झुकने लगे, क्योंकि कहीं और ताकत चली गयी। भूतपूर्वों को कहां तक नमस्कार करो!
मैं देश में घूमता था, तो मैं कम से कम तीन सौ ऐसे लोगों से परिचित हूं जो भूतपूर्व मंत्री हैं। भूत-प्रेत की भांति। अब इनको कौन नमस्कार करे? कौन इनकी फिकर करे? जिंदा भूत दूसरे बैठे हैं, उनकी तरफ नमस्कार जाती है।
रिटायर्ड हुआ आदमी जिंदगी से ऐसे हट जाता है जैसे तुम सुबह कूड़ा-करकट बाहर के ढेर पर फेंक आते हो। एकदम व्यर्थ हो जाता है। बच्चे बड़े हो गए, उनकी अपनी दुनिया हो गयी, वे चले गए। हाथ से काम चला गया, काम गया तो काम के साथ जुड़ी प्रतिष्ठा चली गयी। घर में भी जो हैं बच्चे अगर, तो वे भी सोचते हैं कि बूढ़ा है, सठिया गया; कोई सुनता नहीं। अचानक जीने की आकांक्षा शिथिल हो जाती है। अब जीकर भी क्या करेंगे? जीवेषणा शिथिल हुई, बीमारियों का हमला हुआ।
उस व्यक्ति को कोई चिकित्साशास्त्र नहीं बचा सकता, जिसके भीतर से जीने की आकांक्षा चली गयी। इसीलिए चिकित्सक कहते हैं कि एक ही बीमारी हो, एक से शरीर हों, एक सी स्थिति हो, तो भी एक बच जाता है, दूसरा नहीं बच पाता। बच जाता है वह जिसकी जीने की आकांक्षा प्रबल है। जिसके जीने की आकांक्षा प्रबल नहीं है, वह खुद ही शिथिल होकर डूब जाता है।
जीवेषणा जिला रही है। इसीलिए तुम सत्तर साल खींच लेते हो। यह बड़ा पतला धागा है, लेकिन इससे तुम लटके रहते हो। किसी तरह गुजार लेते हो।
बुद्ध का सारा शास्त्र यही है कि जीवेषणा ही तुम्हारे दुखों का आधार है। जीवेषणा जाने दो। क्योंकि मौत तो आएगी ही, इसलिए तुम मौत को स्वीकार ही कर लो। तुम्हारी मृत्यु की स्वीकृति में ही तुम्हें पहली दफे अपने स्वभाव का दर्शन होगा। तुम्हें अनुभव होगा कि मैं कौन हूं। जब तक तुम जीवन की महत्वाकांक्षा से भरे हो, तब तक तुम जीवन की गहनतम स्वभाव की, स्वरूप की स्थिति को न जान पाओगे।
‘इस चित्रित शरीर को तो देखो!’
यह कठिन होगा, लेकिन इसे स्वीकार करना होगा।
और छाती वज्र करके
सत्य तीखा आज यह
स्वीकार मैंने कर लिया है
स्वप्न मेरे ध्वस्त सारे हो गए हैं
जिसने ऐसा जाना--छाती वज्र करके--कठिन है। लेकिन जिसने अपने सपनों को गिरा हुआ, इंद्रधनुष को जैसे पैरों तले रौंद दिया गया, धूल में गिर गया, बिखर गया, ऐसा जिसने जान लिया--छाती कठोर करनी होगी। छाती चाहिए, तो ही कोई सपनों को गिरा हुआ देख सकता है।
हम तो यह करते हैं, एक सपना टूटा नहीं कि दूसरा बना लेते हैं। हम दूसरा पहले से तैयार ही रखते हैं--स्पेयर तैयार रखते हैं। इधर एक सपना पंचर हुआ, हमने दूसरा स्पेयर जल्दी से निकाला डिग्गी से और लगा दिया। गाड़ी फिर चल पड़ी।
जब सपने पंचर हों, उनको हो ही जाने देना। गाड़ी को रुक ही जाने देना। सपनों से छूटोगे तो सत्य से संबंध जुड़ेगा।
‘यह देहाकार जराजीर्ण, रोगों का घर और अत्यंत भंगुर है। यह सड़न का भंडार विनाश को प्राप्त होता है। और निश्चय ही जीवन का अंत मृत्यु में होता है।’
एक ही बात निश्चित है। जीवन में एक ही बात निश्चित है। बड़ा आश्चर्य है। जीवन निश्चित नहीं है जीवन में, मृत्यु निश्चित है। और सब चीजें अनिश्चित हैं! हो भी सकती हैं, न भी हों। हो जाएं तो संयोग, न हों तो संयोग। पद मिल जाए, न मिले; धन मिल जाए, न मिले; यश मिल जाए, न मिले; मौत मिलेगी ही। और सब अनिश्चित है। इसलिए अनिश्चित पर दांव मत लगाना। और अनिश्चित को पा भी लोगे, तो क्या करोगे? वह जो मौत है, वह जो निश्चित है, वह आकर तुम्हारा-- किसी तरह तुमने जो इंतजाम भी जमा लिया होगा--उसे भी बिखरा देगी।
‘यह देहाकार जराजीर्ण, रोगों का घर और अत्यंत भंगुर है।’
पानी के बबूले जैसा भंगुर है। जब तक नहीं टूटा, नहीं टूटा। पानी का बबूला देखा? जब तक नहीं टूटा नहीं टूटा। तब तक तो सूरज की किरण पड़ जाए तो कैसी चमक आ जाती है बबूले में। कैसे रंग बिखर जाते हैं। कैसा सुंदर हो उठता है। क्षणभर को तो ऐसा भ्रम देता है, हीरों का। लेकिन कोई भी सम्हाल न सकेगा इस हीरे को। छुआ नहीं कि टूटा। न भी छुओ तो भी टूटेगा। बचाने का कोई उपाय नहीं है।
‘...रोगों का घर, अत्यंत जराजीर्ण भंगुर है। यह सड़न का भंडार विनाश को प्राप्त होता है। और निश्चय ही जीवन का अंत मृत्यु में होता है।’
मैं एक सूफी कहानी पढ़ता था। एक युवक ने आकर अपने गुरु को कहा, अब बहुत हो गया, मैं जीवन छोड़ देना चाहता हूं। लेकिन पत्नी है, बच्चा है, घर-द्वार है। गुरु ने कहा, तेरे बिना वे न हो सकेंगे? उसने कहा कि ऐसा तो कुछ नहीं है, सब सुविधा है, मेरे बिना हो सकेंगे। लेकिन मुझे लगता है ऐसा कि मैं मर जाऊंगा तो मेरी पत्नी जी न सकेगी, मेरे बच्चे मर जाएंगे। इतना उनका प्रेम है मेरे प्रति।
उस फकीर ने कहा, फिर ऐसा कर, कुछ दिन यह श्वास की विधि है, इसका अभ्यास कर, फिर आगे देखेंगे। श्वास की विधि उसने अभ्यास की। विधि ऐसी थी कि अगर तुम थोड़ी देर के लिए श्वास साधकर पड़ जाओ, तो मरे हुए मालूम पड़ो।
फिर उस फकीर ने उसे भेजा घर कि आज सुबह तू जाकर लेट जा और मर जा; फिर आगे सोचेंगे। मैं आता हूं पीछे। वह आदमी गया। लेट गया सांस साधकर, मर गया। मर गया मालूम हुआ। छाती पिटाई मच गयी, रोना-धोना हुआ, बच्चे चिल्लाने लगे, पत्नी चिल्लाने लगी कि मैं मर जाऊंगी।
तभी वह फकीर आया। द्वार पर आकर उसने अपनी घंटी बजायी। भीतर आया, उसने कहा, अरे! यह युवक मर गया? यह बच सकता है अभी, लेकिन कोई इसके बदले में मरने को राजी हो तो।
सन्नाटा हो गया। न बेटा मरने को राजी, न बेटी मरने को राजी, न मां मरने को राजी, न बाप मरने को राजी। पत्नी, जो अभी तक चिल्ला रही थी मर जाऊंगी, वह भी चुप हो गयी। अब वह भी नहीं चिल्लाती कि मर जाऊंगी।
फकीर ने पूछा, कोई भी तुममें से राजी हो इसकी जगह मरने को तो यह बच सकता है। अभी यह गया नहीं है, लौटाया जा सकता है। अभी बहुत दूर नहीं निकला है, बुलाया जा सकता है। मगर किसी को तो जाना ही पड़ेगा। पत्नी ने कहा, अब यह तो मर ही गया, अब हमको और क्यों मारते हो! अब जो हो गया सो हो गया।
गुरु ने उस युवक से कहा, अब तू अपना सांस-साधना छोड़ और उठ। उसने सांस-साधना छोड़ी, उठा। अब तेरा क्या खयाल है? उसने कहा, जब ये लोग कहते हैं कि मर ही गए और इनमें से कोई मेरे बदले मरने को राजी नहीं, तो मैं मर ही गया। मैं आपके पीछे आता हूं।
स्वभावतः उसे रोकना भी मुश्किल हुआ। पत्नी के पास कहने को कोई कारण भी न बचा।
बुद्ध ने लोगों को समझाया कि तुम जिसे जीवन कह रहे हो, तुम जिसे जीवन का लगाव कहते हो, तुमने जीवन में जो आसक्ति के बहुत से घर बनाए हैं, मोह के बहुत ताने-बाने बुने हैं, तंबू लगाए हैं, उनको जरा गौर से तो देखो, पानी के बबूले हैं। क्षणभंगुर हैं। कोई यहां किसी का साथी नहीं, कोई यहां किसी का संगी नहीं। तुम ही अपनी देह का भरोसा नहीं कर सकते और किसका भरोसा करोगे!
भोर बेला
सिंची छत से ओस की तिप्-तिप्
पहाड़ी काक
की विजन को पकड़ती सी क्लांत बेसुर डाक--
हाक! हाक! हाक!
मत संजो यह स्निग्ध सपनों का अलस सोता--
रहेगी बस एक मुट्ठी खाक!
थाक! थाक! थाक!
बुद्ध ने बहुतों को बोध दिया--मिट्टी हो, मिट्टी में मिल जाओगे। मिट्टी के उठने और मिट्टी से गिरने के बीच में जो थोड़ा अंतराल है, उसका उपयोग कर लो, एक सेतु बना लो। ध्यान साध लो, समाधि का दीया जला लो। ताकि तुम उसे जान लो, जो देह नहीं है; ताकि तुम उसे जान लो, जो संयोग नहीं है। ताकि तुम उसे जान लो, जो जोड़ नहीं है। ताकि तुम उसे जान लो, जिसका न कोई जन्म है और न मृत्यु है। उसे बुद्ध निर्वाण कहते हैं।
‘शरद ऋतु की फेंकी हुई लौकी की भांति या कबूतर की सी भूरी हो गयी उन हड्डियों को देखकर रति कैसी?’
बुद्ध कहते हैं, प्रेम, काम, संभोग, रति; थोड़ा सोचो तो, किससे रति कर रहे हो!
‘शरद ऋतु की फेंकी गयी लौकी की भांति...।’
असमय में लौकी पैदा हो जाती है तो खाने योग्य नहीं होती, सड़ी होती है। फेंक दी जाती है।
‘...या कबूतर की सी भूरी हो गयी उन हड्डियों को तो देखो। इन्हें देखकर रति कैसी!’
शरीर का भोग चलता है, क्योंकि शरीर क्या है इसका स्मरण नहीं। जब दो व्यक्ति शरीर के भोग में रत हैं, रति में डूबे हैं, तब दो अस्थिपंजर, दो हड्डी-मांस- मज्जा से बने हुए संघट, दो मृत्युओं का मिलन हो रहा है। हड्डियां हड्डियों से टकराती हैं। पर हमने बड़े प्यारे शब्द बनाए हैं। हम कहते हैं, आलिंगन। आदमी ने शब्दों के बड़े धोखे खड़े किए हैं। और उन शब्दों की आड़ में हम पीछे देख ही नहीं पाते कि क्या हो रहा है? काश, तुम जरा आंख खोलकर गौर से देखो, तो तुम्हें अपनी प्रेयसी में भी अस्थिपंजर ही दिखायी पड़ेगा। ढंका है चाम से, खूब सुंदरता से ढंका है, पर है तो हड्डी-मांस-मज्जा ही।
‘यह शरीर मानो हड्डियों का बना नगर है। मांस और रक्त से लिपा-पुता है; जिसके अंदर जरा, मृत्यु, अभिमान और दाह छिपे हुए हैं।’
‘राजा के सुचित्रित रथ जैसे पुराने हो जाते हैं, वैसे ही यह शरीर भी जराजीर्ण हो जाता है। लेकिन संतों का धर्म कभी जीर्ण नहीं होता। संत लोग संतों से ऐसा ही कहते रहे हैं।’
उसे खोजो जो कभी जीर्ण नहीं होता। एस धम्मो सनंतनो। उस धर्म को खोजो जो सनातन है। उस स्वभाव को खोजो जो शाश्वत है। जो क्षीण हो जाता है, उसमें समय मत गंवाओ, उसमें मत उलझे रहो, उसमें मत रमो।
‘राजा के सुचित्रित रथ जैसे पुराने हो जाते हैं।’
जीरंति वे राजरथा सुचित्ता
सम्राटों के रथ हैं। कितनी चेष्टा, प्रयास, कला का आयोजन किया जाता है उन्हें रंगने के लिए। पर वे भी जराजीर्ण हो जाते हैं।
जीरंति वे राजरथा सुचित्ता
अथो सरीरम्पि जरं उपेति।
ऐसा ही यह शरीर भी कितना ही सजाओ, कितना ही संवारो, कितना ही रंगो, आज नहीं कल जराजीर्ण हो जाता है। सिर्फ एक वस्तु इस जगत में है, संतों ने जो जाना और संतों ने जो दूसरों से कहा, संतों ने जो संतों से कहा।
यह बड़ा महत्वपूर्ण वचन है।
सतं च धम्मो न जरं उपेति।
‘संतों का धर्म कभी जीर्ण नहीं होता।’
क्यों बुद्ध ने संतों का धर्म कहा? धर्म ही कह देने से काम न चल जाता? धर्म कहने से भ्रांति का डर था। क्योंकि तुमने भी न मालूम कितने धर्म खड़े कर लिए हैं--हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, जैन है, बौद्ध है--ये तुमने ही खड़े कर लिए हैं। अगर बुद्ध लौटकर आएं, तो बुद्ध धर्म को देखकर हंसेंगे। यह तो मैंने कभी भी न कहा था, वे कहेंगे।
वस्तुतः जो उन्होंने कहा था, ठीक उससे उलटा हुआ है। बुद्ध ने कहा था, मेरी मूर्ति मत बनाना। जितनी मूर्तियां बुद्ध की हैं उतनी किसी की भी नहीं। इतनी मूर्तियां बनीं बुद्ध की कि सारी पृथ्वी मूर्तियों से बुद्ध की ढंक गयी। उर्दू, अरबी और फारसी में तो मूर्ति के लिए जो शब्द है, वह ही बुद्ध का अपभ्रंश है--बुत। इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध शब्द ही मूर्ति का पर्यायवाची हो गया--बुत। बुत यानी मूर्ति हो गया।
चीन में ऐसे मंदिर हैं जहां दस-दस हजार बुद्ध की मूर्तियां--एक-एक मंदिर में। बुद्ध ने कहा था, मेरी मूर्ति मत बनाना। क्योंकि मूर्ति तुम जिसकी बनाओगे, वह तो यही जरा-मरण वाली देह है। मूर्ति तुम जिसकी बनाओगे, वह तो यही हड्डी-मांस-मज्जा का रूप है। मूर्ति तुम जिसकी बनाओगे, वह मैं नहीं हूं--मेरी तो तुम मूर्ति कैसे बनाओगे? अमूर्त है चैतन्य तो। अरूप है, निराकार है। मत बनाना मेरी मूर्तियां। पर नहीं, बौद्धों ने बनायीं।
जो बुद्ध ने कहा है, करीब-करीब उससे उलटा हुआ है। होगा। क्योंकि ज्ञानी जब कुछ कहता है, और अज्ञानी जब सुनता है, तो वही नहीं सुनता जो ज्ञानी कहता है। अज्ञानी अपने मतलब की सुनता है।
अज्ञानी बड़े होशियार हैं। अज्ञानी हैं, मगर होशियार बहुत हैं। बड़े कुशल हैं, बड़े चालाक हैं। ज्ञानी भी उन्हें डिगा नहीं पाते। आते हैं, चले जाते हैं, अज्ञानी अपनी जगह जड़ जमाए बैठे रहते हैं। वे ज्ञानियों से भी अपने मतलब की बातें निकाल लेते हैं। वे वही करते हैं, जो उन्हें करना है। क्या कहते हैं ज्ञानी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे उसमें से भी निकाल ही लेते हैं अपना हिसाब। अपना शास्त्र रच लेते हैं, अपना मंदिर बना लेते हैं, अपनी मूर्ति गढ़ लेते हैं।
जीसस ने जो कहा था, ईसाइयत का उससे कोई भी संबंध नहीं है। अगर जीसस ने जो कहा था वही ईसाइयत करती, तो जैसी ईसाइयत दिखायी पड़ती है ऐसी हो ही नहीं सकती थी। जीसस ने कहा था, जो एक गाल पर तुम्हारे चांटा मारे, दूसरा सामने कर देना। और ईसाई तलवारें लेकर लड़े। लेकिन उन्होंने कहा, यह जिहाद है, धर्मयुद्ध है। जीसस ने कहा था, जो तलवार उठाएगा, वह तलवार से ही नष्ट हो जाएगा। और ईसाइयों के हाथ में जैसी तलवार रही, वैसी किसी के हाथ में नहीं है।
अब जीसस को अगर कहीं खबर मिली होगी कि दुनिया में जो पहला अणुबम गिरा, वह एक ईसाई देश ने गिराया, तो छाती पीट ली होगी। तलवार वगैरह की तो बात ही छोड़ो। जिस राष्ट्रपति की आज्ञा से अणुबम गिरा, उसने जीसस के नाम पर कसम खायी थी राष्ट्रपति का पद स्वीकार करते वक्त, कि खाता हूं कसम जीसस की कि धर्म के अनुसार चलूंगा। उसने आज्ञा दी कि हिरोशिमा और नागासाकी पर अणुबम गिराओ। एक बम ने एक लाख बीस हजार लोगों को क्षण में राख कर दिया। कहां जीसस का वक्तव्य कि जो तलवार उठाएगा वह तलवार से नष्ट होगा। कहां जीसस का वक्तव्य कि जो एक गाल में मारे चोट, दूसरा सामने कर देना। और कहां हिरोशिमा पर गिरा एटम बम! जलती हुई लपटें! इनसे कैसे संबंध जोड़ोगे?
जीसस ने कहा था, जो तुम्हें एक मील चलने को मजबूर करे, दो मील चले जाना। और जो तुमसे कोट छीने, कमीज भी दे देना। ईसाइयत ने जितने युद्ध किए, किसने किए?
मोहम्मद ने इस्लाम नाम रखा था अपने धर्म का। इस्लाम का अर्थ होता है, शांति। और तुम मुसलमानों से ज्यादा अशांति पैदा करने वाले लोग कहीं भी खोज सकते हो? सारी मनुष्यता के इतिहास को उन्होंने अशांत किया।
इसलिए बुद्ध कहते हैं--
सतं च धम्मो न जरं उपेति।
‘संतों का जो धर्म है, वह कभी जीर्ण नहीं होता।’
वे तुम्हारे धर्मों को अलग कर रहे हैं। क्योंकि तुम्हारा धर्म तो तुम्हारा अधर्म ही है। तुम्हारे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे तुम्हारे धर्म से बचने के उपाय हैं, धर्म करने के नहीं। तुमने वहां शरण ली है। तुमने परमात्मा की प्रतिमाएं बनायी हैं और वहां शैतान को छिपाया है। तुमने शास्त्रों का बड़ा-बड़ा सुंदर रूप खड़ा किया है और उन शास्त्रों में अपने अज्ञान को शरण दी है।
इसलिए बुद्ध को विशेष रूप से कहना पड़ता है, ‘संतों का धर्म कभी जीर्ण नहीं होता।’ और फिर एक और बड़े मजे की बात कही है, ‘संत लोग संतों से ऐसा ही कहते हैं।’
यह इसलिए कहा कि संत जब तुमसे कुछ कहते हैं तो तुम तो कुछ और समझ लेते हो। बुद्ध ने कहा है कि मैं जो कहता हूं, तुम किसी से यह मत कहना कि तुमने वही सुना। तुम इतना ही कहना, ऐसा मैंने सुना है, बुद्ध ने क्या कहा यह बुद्ध जानें। किसी भक्त ने कहा कि यह बात तो जंचती नहीं। आप जो कहते हैं वही हम सुनते हैं। तो उन्होंने कहा, आज रात देखेंगे।
उस रात दस हजार भिक्षुओं के बीच में एक चोर भी आया था, एक वेश्या भी आयी थी सुनने। तो बुद्ध रोज रात को जब बोलते, तो अंतिम वचन हमेशा वे यही कहते थे, भिक्षुओ! अब जाओ, रात्रि का काम पूरा करने का समय आ गया। अब उस कार्य को पूरा करो।
रात्रि का काम था ध्यान। सारा जगत सो गया, अब तुम जागो। सारा कोलाहल शांत हुआ, अब तुम शांति में डूबो। अब उपद्रव बंद हुआ, बाजार बंद हुए, दुकानें खो गयीं, लोग जा चुके, अब तुम इस अमूल्य अवसर का उपयोग कर लो। आधी रात से ज्यादा सुंदर समय ध्यान के लिए कोई भी नहीं है। तो रोज-रोज क्या कहना कि ध्यान करो, वे यह कहते थे, अब रात हो गयी, अब जाओ रात्रि का अंतिम काम पूरा करो।
जब बुद्ध ने यह कहा, चोर चौंका। उसने कहा कि ठीक ही कहते हैं। अब जाऊं। रात आधी होने के करीब हो गयी, अपना काम करूं। वेश्या ने सोचा कि धन्य! कैसे पहचाना? इतने लोगों में भी पकड़ लिया मुझे। जाऊं, ठीक कहते हैं, अपना काम पूरा करूं।
दूसरे दिन सुबह बुद्ध ने कहा कि रात एक चोर भी था यहां, एक वेश्या भी थी। तुम जब भिक्षुओ ध्यान करने चले गए, चोर चोरी करने चला गया, वेश्या अपना काम करने चली गयी। और सभी यह मानकर गए कि मैंने ऐसा कहा था।
तुम वही सुन लेते हो जो तुम सुन सकते हो। तुम सुनोगे, तो तुम्हारा ही तो सुनोगे। शब्द मैं बोलूं, अर्थ तो तुम दोगे। शब्द मेरा होगा, अर्थ तो मेरा नहीं हो सकता। शब्द मुझसे जाता है तुम्हारे पास, तुम्हारे कानों पर ध्वनि पैदा करता है, अर्थ तो मेरे प्राणों का मेरे प्राणों में ही छूट जाता है। फिर वह शब्द गूंजता है तुम्हारे भीतर, और जो अर्थ संगृहीत होता है, वह तुम्हारा है।
इसलिए वे कहते हैं, ‘संत लोग संतों से ऐसा ही कहते हैं।’
संतों ने संतों से जो कहा है वही धर्म है। अब यह बड़ी मुश्किल बात है, क्योंकि संतों ने संतों से कुछ भी नहीं कहा। बुद्ध को सुनने महावीर थोड़े ही जाते हैं। महावीर को सुनने बुद्ध थोड़े ही जाते हैं। और कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि दो संत मिले भी, तो बोले नहीं।
फरीद और कबीर का मिलना हुआ था। दोनों बुद्धपुरुष। मगर कहते हैं, दो दिन साथ रहे, एक शब्द बोले नहीं। फरीद के शिष्य बड़ी आशा लगाए बैठे थे कि कुछ होगी गुफ्तगू दोनों के बीच, हम भी कुछ ले उड़ेंगे। कबीर के भक्त भी बड़ी आशा लगाए बैठे थे, सोए नहीं, भोजन करने न गए, बैठे ही रहे कि कभी हम यहां से खिसके और कुछ बोल दें एक-दूसरे से। मगर वे भी खूब मजबूत थे, वे चुपचाप ही बैठे ही रहे, बैठे ही रहे। दो दिन ऐसे लगे जैसे दो जन्म बीते। बड़ा लंबा मालूम पड़ा। दो आदमी चुपचाप बैठे, प्रतीक्षातुर उनके भक्तों की भीड़ लगी है, सुई गिर जाए तो सुनायी पड़ जाए, ऐसा सन्नाटा रहा। दो दिन बाद विदा हो गए। कबीर जाकर गांव के बाहर फरीद को विदा कर आए। मुस्कुराए, गले मिले, एक-दूसरे की आंख में झांका, बोले कुछ भी नहीं। दोनों के विदा होते ही दोनों के भक्तों ने पकड़ा।
कबीर के भक्तों ने कहा, हद्द हो गयी, कितने दिन से आशा लगाए थे कि फरीद गुजरते हैं यहां से। इसीलिए प्रार्थना की थी कि फरीद को निमंत्रण दो। निमंत्रण आपने दिया, बड़ी आपकी कृपा, मगर यह क्या हुआ? आप चुपचाप ही बैठे रहे। कबीर ने कहा, जो कहना था, उसके लिए शब्द की कोई जरूरत न थी। आंखों के इशारे में हो गयी बात। एक-दूसरे को देख लिया, हो गयी बात। एक-दूसरे के पास बैठ गए, हो गयी बात। कहने को कुछ था नहीं, मौन में हो गयी बात। अगर तुम मौन सुन सकते, तो तुम सुन लेते कि क्या कहा, क्या सुना। अब तुम मौन सुनना सीखो। कहीं ऐसा न हो कि दुबारा कोई फरीद आए, और फिर तुम इसी तरह मुश्किल में पड़ो। दो जानने वालों के बीच जो आदान-प्रदान होता है, वह चुप्पी में है।
फरीद के भक्तों ने पूछा कि क्या हुआ? हमने इसीलिए तो कहा था कि चलो स्वीकार कर लो निमंत्रण, रुको। दो परम ज्ञानी मिलेंगे, दो सूरज का मिलना होगा, हमारा अंधेरा भी थोड़ा घटेगा। दो दिन में थक गए। बड़ी अपेक्षा लेकर बैठे रहे। बड़े निराश हुए। बोले क्यों नहीं?
फरीद ने कहा, जो बोलता वह अज्ञानी सिद्ध होता। वहां बिना बोले बात हो रही थी। अगर मैं बोलता तो मैं खबर देता कि मौन की भाषा मुझे नहीं आती। तुम क्या मेरी फजीहत कराने पर उतारू हो? तुमसे मुझे बोलना पड़ता है, क्योंकि तुम अबोल न समझोगे। तुम निर्बोल न समझोगे। तुमसे बोल-बोलकर भी बोलता हूं तो भी तुम कहां समझते हो। न बोलूंगा तब तो तुम समझोगे ही नहीं। वहां कुछ मामला ऐसा था कि न बोलकर ही समझा जा सकता था। बोलते कि नीचे गिरे, पतन हो जाता। बोले हम खूब, मगर कोई और ही भाषा थी। परमात्मा की भाषा थी।
परमात्मा मौन है, चुप है। उसका संगीत शून्य का है। उसकी वीणा में तार भी नहीं हैं। इसीलिए तो हम उसे अनाहत नाद कहते हैं। आहत नाद नहीं है। बोलो तो आहत होता है। कंठ में टकराहट होती है, तो नाद पैदा होता है। वीणा को छेड़ो उंगलियों से, तो आहत नाद होता है। संघर्षण होता है। दो पत्थर टकरा दो, नाद होता है। प्रपात गिरता है, नदी गिरती है पहाड़ से, नाद होता है। लेकिन यह सब आहत नाद है। परमात्मा अनाहत नाद है। बिना बोले बोल रहा है। बिना गाए गा रहा है, बिना नाचे नाच रहा है।
तो फरीद ने कहा, हम बोले खूब। अब तुम एक बात करो, बहुत हो गया भाषा समझना, अब तुम शून्य की, मौन की भाषा समझो।
शून्य की भाषा सार्वभौम है। बोलो तो हिंदी होगी, बोलो तो अंग्रेजी होगी, जापानी होगी, जर्मन होगी। देशीय होगी। जातीय होगी। सीमा होगी। स्थानिक होगी। न बोलो तो न जर्मन, न जापानी, न हिंदी, न गुजराती, न मराठी। सार्वभौम। न बोलो, तो वृक्ष भी समझें, पत्थर भी समझें, पशु भी समझें, आकाश भी समझे, आदमी भी समझे। न बोलना सबसे बड़ी भाषा है। बोलने की सीमा है, मौन असीम है।
तो जब बुद्ध कहते हैं, संत लोग संतों से ऐसा ही कहते हैं, वे यह कह रहे हैं कि जब संतों ने शून्य में संवाद किया है, तो यही कहा है। क्या कहा है? कि संतों का धर्म कभी जीर्ण नहीं होता। यही कहा है कि तुम्हारा तो जीवन भी जीर्ण हो जाता है, संतों की मृत्यु भी जीर्ण नहीं होती। तुम तो जी-जीकर भी मरते हो, संत मर-मरकर भी जीते हैं। तुम तो जीने को भी पकड़-पकड़कर खो देते हो, संत मौत में उतर जाते हैं और परम जीवन को उपलब्ध हो जाते हैं।
लेकिन एक बात फिर अंत में दोहरा दूं कि बुद्ध दुखवादी नहीं हैं। यह उनकी विधि है, यह उनका ढंग है, तुम्हें सरकाने का मौत की तरफ। इसलिए वे शरीर की पीड़ाओं की बात करते हैं, रोगों की बात करते हैं, व्रणों की बात करते हैं, और क्षणभंगुरता की बात करते हैं। वे तुम्हें सरकाते हैं, ताकि तुम मौत के द्वार की तरफ सरको, ताकि तुम जागो, मौत में उतरो। मौत की सीढ़ियों से उतरकर ही कोई निर्वाण को उपलब्ध होता है। यह एक मार्ग।
अभी कुछ दिन पहले हम नारद की बात करते थे, वह जीवन का मार्ग। भक्ति, जीवन का मार्ग। तब सारा दृष्टिकोण बदल जाता है। तब प्रत्येक चीज के सौंदर्य की चर्चा होती है। क्योंकि तुम्हें जीवन की तरफ धकाना है। तुम्हें उत्सव की तरफ ले जाना है। तब गीत-नृत्य की बात होती है। तब नर्तन-वादन--उसकी बात होती है। तब रस की बात होती है। क्योंकि तुम्हें जीवन की तरफ ले जाना है।
ये दोनों विपरीत दिखायी पड़ने वाले मार्ग भी एक ही जगह पहुंचा देते हैं। गंगा बहती है पूरब की तरफ, नर्मदा बहती है पश्चिम की तरफ, पर दोनों एक ही सागर में गिर जाती हैं। सागर एक है। कोई भी मार्ग चुन लो, सागर में ही पहुंच जाओगे। मार्गों की बहुत जिद्द मत करना। मार्गों के नाम पर बहुत सिर मत तोड़ना। जो तुम्हें रुच जाए, सो भला। जो तुम्हें रुच जाए, उसी पर चल पड़ो।
अगर तुम्हें यह अनुकूल पड़ता हो--दुख, दुख का बोध; मृत्यु, मृत्यु की प्रतीति और साक्षात्कार--बड़ा शुभ है, इससे ही खोज लो। अगर तुम्हें यह ठीक न लगता हो, इससे तुम्हारा तार न बैठता हो, इससे तुम्हारे सुर मेल न खाते हों, छोड़ो। मार्गों से कुछ लेना-देना नहीं है। मार्ग तो उपयोग कर लेने के हैं। बैलगाड़ी से चलो कि हवाई जहाज से चलो, क्या फर्क पड़ता है? पहुंचो। पहुंचकर न बैलगाड़ी हाथ में रह जाती है, न हवाई जहाज हाथ में रह जाता है। बैलगाड़ी भी छोड़ देनी पड़ती है, हवाई जहाज भी छोड़ देना पड़ता है।
मंजिल पर पहुंचकर रास्ते तो छूट जाते हैं। मंजिल पर बुद्ध और नारद मिल जाते हैं। मंजिल पर डायोनीसियस और अपोलो आलिंगन कर लेते हैं।
आज इतना ही।
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ।।125।।
पस्स चित्त कतं बिम्बं अरुकायं समुस्सितं।
आतुरं बहुसंकप्पं यस्स नत्थि धुवं ठिति।।126।।
परिजिण्णमिदं रूपं रोगनिड्डं पभंगुरं।
भिज्जति पूतिसंदेहो मरणन्तं हि जीवितं।।127।।
यानि मानि अपत्थानि अलाबूनेव सारदे।
कपोतकानि अट्ठीनि तानि दिस्वान का रति।।128।।
अट्ठीनं नगरं कतं मंसलोहित लेपनं।
यत्थ जरा च मच्चू च मानो मक्खो च ओहितो।।129।।
जीरंति वे राजरथा सुचित्ता
अथो सरीरम्पि जरं उपेति।
सतं च धम्मो न जरं उपेति
सन्तो हवे सब्भि पवेदयन्ति।।130।।
सूत्र के पहले--
जीवन-सत्य को पाने के दो मार्ग हैं। दो ही हो सकते हैं। या तो जीवन-सत्य को पकड़ा जा सकता है जीवन में डूबकर, या जीवन-सत्य को पकड़ा जा सकता है मृत्यु में डूबकर। दो ही द्वार हैं। जीवन और मृत्यु। या तो होने से पकड़ा जा सकता है, या न होने से। या तो प्रकाश से, या अंधकार से। या तो खुली आंख से, या आंख बंद करके। या तो इतने डूब जाओ जीवन में कि तुम न बचो, या इतने डूब जाओ मृत्यु में कि तुम न बचो। असली बात है कि तुम न बचो। किस बहाने तुम मिटते हो, यह गौण है।
जहां तुम नहीं हो, वहीं सत्य है। जीवन के उत्सव में, जीवन के नृत्य में भी तुम खो जाओ, तो भी सत्य मिल जाता है। मीरा ने नाचकर पाया, उत्सव से पाया। चैतन्य ने गीत गाकर पाया। कृष्ण के ओंठों पर रखी बांसुरी जीवन का द्वार है।
बुद्ध ने मृत्यु में डुबकी लगायी। महावीर ने भी वहीं पाया। इसलिए बुद्ध के पास बांसुरी न जंचेगी। नृत्य-ज्ञान का कोई संबंध न जोड़ सकोगे। बुद्ध के पास कैसा गीत, कैसा नृत्य! नृत्य और गीत बुद्ध को तो अपावन मालूम होंगे। गीत और नृत्य की बात ही बुद्ध की जीवन-दृष्टि से मेल न खाएगी। क्योंकि उन्होंने पाया है मृत्यु में डुबकी लगाकर।
यूनानी पुराण-कथाओं में विभाजन बहुत साफ है। दो देवताओं की चर्चा है। अपोलो और डायोनीसियस। अपोलो तपश्चर्या का देवता है। डायोनीसियस नृत्य का, गान का, उत्सव का। एपीकुरस डायोनीसियस का अनुयायी है। एपीकुरस ने अपने आश्रम का नाम रखा था, उपवन। वृक्षों के तले, फूलों के पास, पक्षियों के गीतों में रमे, सरोवर के तटों पर, चांदनी रातों में नृत्य का महोत्सव चलता। वहीं एपीकुरस ने उसकी झलक पायी। कोई तपश्चर्या नहीं। उत्सव! सताना नहीं, तोड़ना-फोड़ना नहीं, मिटाना नहीं, जैसे मृत्यु है ही नहीं। एपीकुरस का अर्थ है, जैसे मृत्यु है ही नहीं। कभी हुई ही नहीं। मृत्यु असत्य है। ऐसे जीना जैसे मृत्यु असत्य है, तो भी सत्य मिल जाता है।
बुद्ध ने ठीक उलटी तरफ से पाया। ऐसे जीए जैसे जीवन है ही नहीं, मृत्यु ही सत्य है। दुख ही सत्य है। बुद्ध ने चार आर्य-सत्यों की बात कही। वे चारों ही दुख से जुड़े हैं। दुख है, यह पहला आर्य-सत्य। दुख से छूटने का उपाय है, यह दूसरा आर्य-सत्य। दुख से छूटने की संभावना है, यह तीसरा आर्य-सत्य। दुख से छूटी गयी अवस्था है, यह चौथा आर्य-सत्य। बस। लेकिन चारों आर्य-सत्य दुख से जुड़े हैं। बुद्ध को जो पहला महाबोध हुआ, जो पहली किरण उतरी, वह अंधेरे की है।
जाते थे राह से, महोत्सव में भाग लेने--समझने जैसा है--जाते थे कहीं, जहां एपीकुरस को जाना चाहिए। युवक महोत्सव, यूथ फेस्टिवल था। सारे देश के युवक और युवतियां इकट्ठे हुए थे। राजकुमार को उदघाटन करना था उस महोत्सव का। बुद्ध जाते थे अपने रथ में सवार, वहां जहां एपीकुरस को जाना चाहिए। फूलों से सजा था रथ। लेकिन राह पर एक बीमार आदमी दिखायी पड़ गया। स्वर भंग हुआ। बुद्ध ने चौंककर सारथी को पूछा, इस आदमी को क्या हो गया? कहते हैं, तब तक बुद्ध ने बीमार आदमी न देखा था।
ऐसा हुआ, जब बुद्ध पैदा हुए तो ज्योतिषियों ने कहा, अगर यह युवा होकर दुख को जानेगा तो संन्यस्त हो जाएगा। जैसे ज्योतिषियों को यह बात पहले ही झलक गयी कि दुख से ही यह व्यक्ति मुक्त होने को है। द्वार बनने को है। तो ज्योतिषियों ने कहा पिता को कि अगर चाहते हो कि बच जाए यह, संन्यस्त न हो, तो इसे दुख का दर्शन मत होने देना। बीमारी इसके पास न फटके। कुरूप व्यक्ति इसके पास न आएं। बुद्ध के बगीचे से भी फूल तब हटा दिए जाएं जब कि वे कुम्हलाने के पहले की अवस्था में हों, कुम्हलाने न पाएं। सूखा पत्ता बगीचे में न बचे, रात में हटा दिया जाए। बुद्ध ताजे फूल को ही जानें। जवानी ही जानें, बुढ़ापे की खबर न मिले। मुरझाता भी है कुछ, इसका कांटा अगर जरा भी चुभा, तो इस चेतना को राजमहलों में न रोका जा सकेगा।
तो बुद्ध के पिता ने बड़ा इंतजाम किया था। कहते हैं, तब तक बुद्ध ने बीमार आदमी न देखा था। कुम्हलाया फूल न देखा था। सूखे पत्ते न देखे थे। मृत्यु की तो बात दूर, मृत्यु की आहट भी न सुनी थी। बुढ़ापा यानी मृत्यु की आहट। पड़ने लगे पैर सुनायी। पदचाप कानों में आने लगा। वह भी न सुना था। कहीं से भी कोई खबर ही न मिली थी। बुद्ध ऐसे जीए थे जैसा एपीकुरस जीता है। लेकिन एपीकुरस वे थे नहीं। वह उनकी जीवनधारा न थी। वह उनके व्यक्तित्व का ढंग न था। वह सब बेमेल था। वह कहीं उनसे जुड़ता न था।
अगर बुद्ध की जगह एपीकुरस को ऐसी सुविधा मिली होती, तो वहीं नाचते और नृत्य करते, संगीत में डूबे, सौंदर्य में लीन, वह सत्य को उपलब्ध होता। सुंदरतम स्त्रियां जुटा दी थीं। राज्य में जितनी सुंदर स्त्रियां थीं, जितनी सुंदर युवतियां थीं, इकट्ठी कर दी थीं।
एरनाल्ड ने अपनी प्रसिद्ध कविता लाइट आफ एशिया में उनका बड़ा मनमोहक वर्णन किया है। लेकिन उनमें से भी बुद्ध ने दुख खोज लिया। एक रात युवतियां नाचकर सो गयी हैं। थककर गिर गयी हैं, बुद्ध को झपकी लग गयी है। आधी रात उनकी नींद खुली, उन्होंने आंख उठाकर देखा। संगमरमर जैसी देहें, स्वर्ण जैसे शरीर, मूर्च्छित पड़े थे। किसी का मुंह खुल गया था--सुंदर चेहरा कुरूप हो गया था। किसी की आंख में कीचड़ आ गया था--सोना गंदा हो गया था। किसी की लार बहती थी। कोई नींद में बड़बड़ाता था। साज-श्रृंगार, रख-रखाव अस्तव्यस्त हो गया था। चारों तरफ पड़ी सुंदरियां अचानक बुद्ध को कुरूप लगीं। सौंदर्य में से कुरूप का दर्शन हो गया। एपीकुरस कुरूप में भी सौंदर्य को खोज लेता है। दृष्टि की बात है। और ये दो ही दृष्टियां हैं।
उस सुबह जब बुद्ध उस महोत्सव में भाग लेने रथ पर जाते थे, सारथी से पूछा, इस आदमी को क्या हुआ? लकड़ी टेककर चलता है। बीमार है, बूढ़ा है, हुआ क्या? कहानी बड़ी मधुर है। कहते हैं, सारथी झूठ बोलना चाहता था, लेकिन देवताओं ने उसकी जबान पकड़ ली। सारथी कहना चाहता था, कुछ भी नहीं हुआ, एक दुर्घटना है। कभी-कभी अपवाद-स्वरूप ऐसा हो जाता है। लेकिन कहानी कहती है, देवताओं ने जबान पकड़ ली। और देवता सारथी के मुंह से बोले कि यही सबको होता है, तुम्हें भी होगा। सारथी चौंका कि यह मैं क्या कह रहा हूं? पिता ने सख्त मनाही की है। मगर बात निकल गयी थी, अवश। सारथी के मुंह का उपयोग देवताओं ने कर लिया।
और उसके पीछे ही आती थी एक अरथी, लोग मरघट जाते थे। बुद्ध ने पूछा, यह क्या हुआ? सारथी फिर झूठ बोलना चाहता था, लेकिन न बोल पाया। और जो नहीं कहना था, वह उसने कह दिया: सभी को ऐसा होता है, आपको भी होगा। मरना तो पड़ेगा। बुद्ध ने कहा, रथ लौटा लो। अब महोत्सव में जाने की कोई जरूरत न रही। जब मृत्यु है, तो मैं मर ही गया। अब मैं उस जीवन को खोजूंगा, जिसकी कोई मृत्यु न हो।
बुद्ध लौट पड़े। उसी रात घर छोड़कर भाग गए। बारह वर्षों बाद जब घर लौटे तो...रवींद्रनाथ ने एक कविता लिखी है। रवींद्रनाथ एपीकुरियन थे। यह थोड़ा समझने जैसा है। यह विभाजन बड़ा गहरा है। और सारे आदमी इन दो में बंटे हैं।
रवींद्रनाथ को बुद्ध कभी जंचे नहीं, जंच नहीं सकते। उनकी भाषा जीवन की है। घूंघर, नूपुर की है। चांद-तारों की है। कवि की भाषा है। कवि मौत के थोड़े ही गीत गाता है, जीवन के गीत गाता है। उसकी निष्ठा जीवन में है। रवींद्रनाथ को कभी यह बात जंची नहीं--बुद्ध के प्रति सम्मान था, होगा ही। बुद्ध जैसे व्यक्ति के प्रति सम्मान न हो, यह कैसे हो? लेकिन तालमेल नहीं है।
तो उन्होंने एक कविता लिखी, जिसमें जब बारह साल बाद बुद्ध घर लौटे, तो यशोधरा ने उनसे पूछा कि मैं तुमसे पूछती हूं, कि तुम्हें जो घर छोड़कर मिला, क्या वह यहां नहीं मिल सकता था? बुद्ध मौन खड़े रह गए हैं। बुद्ध, जो किसी प्रश्न पर कभी चुप न रहे, उत्तर दिया, यशोधरा के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़े रह गए हैं। रवींद्रनाथ ने कविता को वहीं छोड़ दिया है। इशारा काफी है।
रवींद्रनाथ यह कहते हैं कि बुद्ध को भी समझ में तो आ गया कि जो पाया है जंगल में जाकर, वह घर भी मिल सकता था। जो पाया है मृत्यु में उतरकर, वह जीवन में भी मिल सकता था। लेकिन यह उनसे कहते न बन पड़ा। यह कहना तो अपनी सारी जीवन-व्यवस्था को, शास्त्र को झुठलाना होगा। बुद्ध चुप रह गए। झूठ बोल न सकते थे, सच बोलना संभव न था, मौन ही रह जाना उचित था।
यशोधरा ने जो प्रश्न पूछा है, वह एपीकुरियन है। एपीकुरस यही पूछता है कि यह जीवन को छोड़कर कहां जाते हो? भागते कहां हो? यहीं मिल जाएगा।
लेकिन बुद्ध कहते हैं, अगर यहीं मिलता होता, तो इतने लोग जीवन में हैं, इन्हें मिलता क्यों नहीं? अगर यहीं मिलता होता, तो राग-रंग की कुछ कमी है! उत्सव तो लोग जन्मों से मना रहे हैं, मिलता नहीं।
उनका कहना भी ठीक है। उत्सव से नहीं मिलता। ऐसा उत्सव चाहिए कि तुम खो जाओ, तब मिलता है।
अगर तुम एपीकुरस से पूछो कि बुद्ध कहते हैं, मृत्यु से मिलता है, तो एपीकुरस कहेगा, इतने लोग सदा मरते रहे हैं, किसने पाया? मरने से कहीं मिलता है! तो सभी को मिल गया होता, क्योंकि सभी मरते हैं। और अगर मरने से ही मिलता है, तो सभी मरेंगे, चिंता क्या करनी है, पा लेंगे। दुख से मिलता है, तो दुख की कुछ कमी है! दुख ही दुख है सब तरफ।
वह भी ठीक कहता है। दुख से नहीं मिलता, मृत्यु से नहीं मिलता, डूबकर मिलता है।
तो मैं तुम्हें यह कहना चाह रहा हूं कि अपोलो हो कि डायोनीसियस हो, एपीकुरस हो कि बुद्ध हों, जीवन से पाया जाए कि मृत्यु से पाया जाए, गहराई से पाया जाता है। कहीं भी डूबो। मृत्यु में भी डूबो, तो मिल जाता है, तो जीवन में डूबने से तो मिल ही जाएगा। और जब जीवन में ही डूबने से मिल जाता है, तो मृत्यु में डूबने से क्यों न मिलेगा?
यह बात पहले खयाल में ले लेना, फिर ये बुद्ध के सूत्र बड़े साफ हो जाएंगे। तब बुद्ध के संबंध में जो एक भ्रांति होती है वह तुम्हारे मन में न होगी। बुद्ध दुखवादी नहीं हैं। दुख का उन्होंने साधन की तरह उपयोग किया है। पाया तो उसी सच्चिदानंद को है। लेकिन दुख का माध्यम की तरह, साधन की तरह उपयोग किया है। दुख बुद्ध का मार्ग है, अंत नहीं, गंतव्य नहीं। दुख में बुद्ध को रस नहीं है। दुख से पार होना है। इसीलिए तो चौथा आर्य-सत्य, कि दुख के पार अवस्था है।
मगर उनकी भाषा दुख की है। वह उस अवस्था को भी आनंद की अवस्था नहीं कह पाते, वे कहते हैं, दुख के पार। आनंद शब्द में ही उन्हें बू आती है जीवन की, आनंद शब्द में ही खबर आती है उत्सव की। आनंद में ही नाच आ जाता है, गीत आ जाता है, गान आ जाता है; जीवन के सारे वाद्य ध्वनित होने लगते हैं। आनंद शब्द का बुद्ध उपयोग नहीं करते। वे कहते हैं, दुख-निरोध की अवस्था है। इसलिए ईश्वर शब्द का उपयोग नहीं करते। ईश्वर में ही ले जाते हैं, लेकिन उस शब्द का उपयोग नहीं करते, वह शब्द उन्हें मौजूं नहीं आता। वह जीवनवादियों का सत्य है।
ईश्वर शब्द का अर्थ तुमने कभी सोचा? वह बनता है उसी धातु से जिससे ऐश्वर्य बनता है। ऐश्वर्य? महाऐश्वर्य ही ईश्वर है।
इसीलिए तो ईश्वर का मंदिर हो और राग-रंग न हो, फूल न हों, धूप-दीप न हो, नाच न हो, घूंघर न बजते हों, भजन-कीर्तन का स्वर न उठता हो, घंटनाद न होता हो अहोभाव का--मंदिर नहीं।
इसीलिए तो मस्जिद बड़ी उदास है। बाजा तक नहीं बज सकता। इसीलिए तो चर्च गंभीर है। वे मंदिर होने के रास्ते पर हैं, हो नहीं पाए। मंदिर तो तभी है जब उत्सव हो, हंसी के फव्वारे छूटते हों, लोग उमंग में हों, मस्ती में हों। मंदिर तो तभी है जब वह परमात्मा की मधुशाला हो। वह एक मार्ग है।
बुद्ध दुखवादी नहीं हैं। चाहते तो वे भी उसी आनंद की तरफ जाना हैं और ले जाना, लेकिन उनकी भाषा बड़ी संयत है। वे ऐसे किसी शब्द का उपयोग न करेंगे जिससे तुम्हारे जीवन की भ्रांति को भूलकर भी सहारा मिल जाए। इस बात को खयाल में रखना, तब ये सूत्र साफ हो जाएंगे।
पहला सूत्र है: ‘कोनु हासो--कैसी हंसी? किमानन्दो--कैसा आनंद? निच्चं पज्जलिते सति--जब सब कुछ निरंतर जल रहा है, तब हंसी कैसी, आनंद कैसा? अंधकार में डूबे हो और दीपक की खोज नहीं करते!’
जिसे तुम जीवन कहते हो, वह अंधकार है। जिसे तुम मृत्यु कहते हो, वह दीपक है। बुद्ध के लिए। और जिसको जम जाए, मार्ग बिलकुल सौ प्रतिशत सही है।
‘जब सब कुछ निरंतर जल रहा है...।’
बुद्ध ने जिस रात घर छोड़ा, एरनाल्ड ने अपने गीत में उस घटना का उल्लेख किया है। एरनाल्ड का गीत बुद्ध पर लिखा गया श्रेष्ठतम गीत है। बौद्ध भी नहीं लिख सके हैं, जो एरनाल्ड ने लिखा। बड़े-बड़े बौद्ध आचार्यों ने बुद्ध पर बड़े-बड़े शास्त्र लिखे हैं, लेकिन एरनाल्ड का लाइट आफ एशिया अनूठा है।
रात जा रहे हैं घर छोड़कर। उनका सारथी उन्हें राज्य की सीमा के बाहर ले आता है। तब वे रथ से उतर जाते हैं, और सारथी के--दीन-हीन सारथी के--वस्त्र मांगते हैं। अपने वस्त्र उसे दे देते हैं। हीरक-मणियों के हार उसे दे देते हैं। बहुमूल्य सजावट उसे दे देते हैं। कहते हैं, यह मेरी भेंट, तेरे वस्त्र मुझे दे दे।
सारथी रोने लगता है। वह कहता है, यह आप क्या कर रहे हैं? आप कहां जा रहे हैं? वह रो रहा है, वे अपने बाल काटकर भी उसे दे देते हैं। उनके बड़े प्यारे बाल थे। वह सारथी कहता है, आप यह क्या कर रहे हैं? सुंदर भवन है, साम्राज्य है, पत्नी है, नया-नया पैदा हुआ नवजात शिशु है। इस सब सुख को छोड़कर कहां जा रहे हैं? लोग इसी सुख की तलाश करते हैं। जीवनभर इसी की कामना करते हैं, स्वप्न देखते हैं और नहीं उपलब्ध कर पाते हैं, रोते हैं। तुम्हें सब मिला है, तुम छोड़कर कहां जाते हो? मुझ बूढ़े की बात सुनो। मैंने जीवन देखा है, तुम अभी नए हो, अभी तुम अनुभवहीन हो, लौट चलो।
बुद्ध कहते हैं, लौट चलूं वहां, जहां सिर्फ लपटें ही लपटें हैं! तुम्हें महल दिखायी पड़ता है, मुझे सिर्फ लपटें ही लपटें दिखायी पड़ती हैं। तुम्हें साम्राज्य दिखायी पड़ता है, मुझे चिताएं धू-धूकर जलती दिखायी पड़ती हैं। मेरी तुम्हारी दृष्टि अलग। मुझे तुम जाने दो।
समझाता है सारथी कि यह पलायन है, यह भगोड़ापन है। बुद्ध कहते हैं जब घर में आग लगी हो, तो आदमी भागता ही है। क्या घर में आग लगी हो, भागते को तुम कहोगे, भगोड़े हो, भीतर बैठे रहो? नहीं, वहां कोई महल नहीं है।
कल मैं एक गीत पढ़ता था--
कोई नहीं, कोई नहीं
यह भूमि है हाला-भरी
मधुपात्र मधुबाला-भरी
ऐसा--बुझा जो पा सके मेरे हृदय की प्यास को
कोई नहीं, कोई नहीं
सुनता, समझता है गगन
वन के विहंगों के वचन
ऐसा--समझ जो पा सके मेरे हृदय-उच्छवास को
कोई नहीं, कोई नहीं
मधुऋतु समीरण चल पड़ा
वन ले नए पल्लव खड़ा
ऐसा--फिरा जो ला सके मेरे गए विश्वास को
कोई नहीं, कोई नहीं
बुद्ध वैसी दशा में हैं, जहां जीवन का सारा विश्वास हाथ से छिटक गया। जहां जीवन में दबी मौत देखी। नृत्य में छिपे हुए अस्थिपंजर दिखायी पड़े। जहां महलों को धू-धूकर जलता हुआ देखा। जहां सब ऊपर-ऊपर टीम-टाम है, भीतर-भीतर मौत की तैयारी है। जहां ऊपर-ऊपर हंसी-खुशी है, फूल हैं, भीतर-भीतर गहन अंधकार है। जहां सजावट है, श्रृंगार है, लेकिन सत्य नहीं। अब उनके विश्वास को कोई लौटा नहीं सकता।
जब जीवन पर विश्वास उठ जाए, तो फिर कोई उपाय नहीं है उस विश्वास को लौटा लेने का। फिर तो एक ही उपाय है कि मृत्यु में ही झांका जाए। जीवन से जो हट गया, उसके पास फिर एक ही द्वार है कि मृत्यु से प्रवेश करे।
तो बुद्ध कहते हैं, ‘जब सब कुछ निरंतर जल रहा है, तब हंसी कैसी?’
तुमने बुद्ध की कोई हंसती प्रतिमा देखी? न ही कोई प्रतिमा है, न ही कोई चित्र है, न ही कोई उल्लेख है कि बुद्ध को किसी ने हंसते देखा हो। किसी ने उनके दांत भी देखे हों, इसका भी कोई उल्लेख नहीं।
‘जब जीवन जल रहा हो तो हंसी कैसी? आनंद कैसा? अंधकार में डूबे हो और दीपक की खोज नहीं करते!’
बुद्ध के लेखे तुम जिसे जीवन कहते हो, वह सिर्फ धोखा है। सपनों का धोखा है। जो है, वह तुम नहीं देखते; जो तुम देखना चाहते हो, देखते चले जाते हो। जो है, उससे आंख नहीं मिलाते, बीच में सपने रचाते हो। सपनों के माध्यम से देखते हो। सपनों को ही अपने आसपास बसाकर देखते हो। सौंदर्य की आकांक्षा है तुम्हारे जीवन में, सौंदर्य कहीं है नहीं। तुम्हारी आकांक्षा ही धोखा दे जाती है।
धन तुम चाहते हो, धन जीवन में कहीं है नहीं। तुम्हारी चाह के कारण ही तुम भरोसा कर लेते हो कि होगा। यश तुम चाहते हो, पद तुम चाहते हो। जहां सभी चीजें कब्र पर समाप्त होती हों, वहां कैसा यश? जहां यशस्वी भी आज नहीं कल औंधे मुंह धूल में पड़ा होता है, वहां कैसा यश?
कहते हैं, सिकंदर मरता था, तो उसने चिकित्सकों से कहा कि मुझे मेरी मां से मिलना है। कुछ देर मुझे रोक लो; मां थोड़ी दूरी पर है। या तो वह आ जाए, या मैं घर तक पहुंच जाऊं। जिसने मुझे जन्म दिया है, उससे मिलकर ही विदा होना चाहता हूं। लेकिन चिकित्सकों ने कहा, यह असंभव है। क्षणभर भी देर नहीं की जा सकती है। कहते हैं, सिकंदर ने कहा, मैं अपना आधा साम्राज्य दे दूंगा। उन्होंने कहा, आप चाहे पूरा भी दे दें, लेकिन मौत एक क्षण भी रुकेगी नहीं।
सिकंदर आंसू-भरी आंखों से मरा, और कहकर मरा कि जब मेरी अरथी निकले तो मेरे दोनों हाथों को अरथी के बाहर लटके रहने देना। पूछा उसके वजीरों ने, यह कभी सुना नहीं। हाथ बाहर अरथी के लटकाने का कोई रिवाज नहीं। उसने कहा, तुम लटके रहने देना, ताकि लोग पूछेंगे क्यों? तो बता देना कि सिकंदर भी खाली हाथ मर रहा है। इसके हाथ भी भरे नहीं हैं। दौड़े बहुत, पाया कुछ भी नहीं। अगर पूरा राज्य देकर भी मैं क्षण भर नहीं जी सकता हूं ज्यादा, काश यह पहले ही पता होता तो मैं इस दौड़ में अपना समय क्यों खराब करता! अगर एक श्वास नहीं मिल सकती है पूरे राज्य को देकर, तो मैंने सारी श्वासें व्यर्थ कीं इसी राज्य को पाने के लिए? तो अपनी श्वासों को बचा लेता, किसी और काम में लगा देता।
यही बुद्ध कह रहे हैं, ‘जब सब निरंतर जल रहा हो, तब हंसी कैसी? आनंद कैसा? अंधकार में डूबे हो, दीपक की खोज नहीं करते!’
अब चाहूं भी तो मैं रुक सकता नहीं दोस्त!
कारण, खुद मंजिल ही ढिंग बढ़ती आती है
मैं जितना पैर टिकाने की कोशिश करता
उतनी ही मिट्टी और धसकती जाती है
मेरे अधरों में घुला हलाहल है काला
नैनों में नंगी मौत खड़ी मुस्काती है
है राम-नाम ही सत्य, असत्य और सब कुछ
बस एक यही ध्वनि कानों से टकराती है
मरने पर, इस देश में, जब हम अरथी ले जाते हैं तो कहते हैं, राम-नाम सत्य है। सारी जिंदगी के बाद, जब मरे, तब तुम्हें पता चला राम-नाम सत्य है? जिंदगी भर तो किन्हीं और चीजों को सत्य माना--धन को सत्य माना, पद को सत्य माना, यश को सत्य माना--जिंदगी भर तो कभी न दोहराया, राम-नाम सत्य है, मरकर दोहराते हैं!
बुद्ध कहते हैं, गौर से देखो, जिसे तुम जीवन कहते हो वह क्षणभंगुर है। वह गया, गया। उस पर मुट्ठी बंध ही नहीं पाती। वह पारे जैसा है। जितना मुट्ठी बांधते हो उतना छिटकता, बिखरता है। जिसे तुम जीवन कहते हो, वह ठहरने वाला नहीं। जो ठहरने वाला नहीं, उस पर क्यों समय व्यतीत करते हो? बुद्ध कहते हैं, तुम हंसते हो, जाहिर है कि तुमने अभी जीवन की सचाई नहीं पहचानी। आनंदित मालूम पड़ते हो, धोखा दे रहे हो, भ्रम में हो, अबोध हो, भोले-भाले हो, अज्ञानी हो, म़ूढ हो।
‘अंधकार में डूबे हो और दीपक की खोज नहीं करते!’
ऐसे ही समय बिता रहे हो व्यर्थ राग-रंग में? यह सब चला जाएगा। फिर तुम चिल्लाओगे, फिर तुम रोओगे।
इसके पहले कि अंधेरा तुम्हें सचमुच पूरा-पूरा घेर ले, दीए को जला लो। इसके पहले कि रात उतर आए, इसके पहले कि सूरज ढल जाए, तुम दीए को सम्हाल लो।
‘इस चित्रित शरीर को तो जरा देखो!’
चित्रित शरीर कहते हैं बुद्ध, पेंटेड। प्रकृति ने खूब रंगा है!
‘इस चित्रित शरीर को तो जरा देखो! यह व्रणों से युक्त तथा अंगोपांगों से जोड़कर बनाया हुआ है। यह अनेक संकल्प-विकल्पों से भरा है, और इसकी स्थिति बड़ी अनित्य है।’
‘इस चित्रित शरीर को तो देखो!’
प्रकृति ने खूब तूलिका चलायी है। धोखा खा जाओ, ऐसा इंतजाम किया है। हड्डी-मांस-मज्जा के बड़े वीभत्स ढेर पर बड़ी सुंदर चमड़ी ओढ़ा दी है। भीतर सिर्फ गंदगी है। कभी आदमी के भीतर देखा? कभी जाना चाहिए मुर्दाघर, पोस्टमार्टम देखने।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को मरघट भेजते थे। वहां जाओ। वहीं से ध्यान का स्मरण आएगा। बैठे रहो वहां, देखो जलती चिताओं को। तब तक देखते रहो जब तक कि तुम्हें यह न दिखायी पड़ने लगे कि तुम जल रहे हो चिता पर। तब तक मत आना मरघट से। महीनों मरघट पर भेज देते थे, बैठे रहो। लोग आते रोते-धोते, रखते लाश, आग लगा जाते, शरीर जल जाता धू-धू करके घास-फूस जैसा, राख पड़ी रह जाती, हड्डियां पड़ी रह जातीं, जंगली जानवर घसीट ले जाते, कुत्ते-भेड़िए आते--देखते रहना, देखते रहना।
पहले तो दिखेगा, कोई और मरा, फिर कोई और मरा, पर कब तक तुम यह झुठलाओगे कि यह मौत तुम्हारी भी मौत है? यही तुम्हारे साथ भी हो जाने वाला है। और जो होने ही वाला है, जो सुनिश्चित ही होने वाला है, वह हुआ ही है। दिन, दो दिन की देर है। पंक्ति में खड़े हो। आज किसी का नंबर आ गया, कल तुम्हारा आ जाएगा। कितनी देर लगेगी मौत के आने में!
अब चाहूं भी तो मैं रुक सकता नहीं दोस्त!
कारण, खुद मंजिल ही ढिंग बढ़ती आती है
मैं जितना पैर टिकाने की कोशिश करता
उतनी ही मिट्टी और धसकती जाती है
कौन बचने की चेष्टा नहीं करता? पर कौन बच पाता है? कौन नहीं लड़ता? आखिरी दम तक लोग लड़ते ही रहते हैं। मौत से लड़ते रहते हैं। मगर कभी कोई जीता? और जब मौत हर हालत में जीत जाती है, तो जीवन धोखा होगा। यह बुद्ध का तर्क है।
एक बड़ी प्रसिद्ध सूफी कथा है। सम्राट सोलोमन सुबह-सुबह सोकर उठा ही था कि उसके एक वजीर ने घबड़ाए हुए भीतर प्रवेश किया। वह इतना घबड़ाया था, सुबह-सुबह की ठंडी हवा थी, शीतल मौसम था चारों तरफ, लेकिन वजीर पसीने से लथपथ था। सोलोमन ने पूछा, क्या हुआ? बिना पूछे एकदम भीतर चले आए और इतने घबड़ाए हो, बात क्या है? उसने कहा, बस, ज्यादा समय खोने को मेरे पास नहीं है। आपका तेज से तेज घोड़ा दे दें। रात सपने में मौत मुझे दिखायी पड़ी है। और मौत ने कहा, तैयार रहना, कल शाम मैं आती हूं। सोलोमन ने पूछा, तेज घोड़े का क्या करोगे? उसने कहा कि मैं भागूं, यहां से तो भागूं। इस जगह रुकना अब खतरे से खाली नहीं है। तो मैं दमिश्क चला जाना चाहता हूं। सैकड़ों मील दूर। तेज से तेज घोड़ा दे दें, बातों में समय खराब न करें, मेरे पास समय नहीं है। बच गया, लौट आऊंगा।
सोलोमन के पास जो तेज से तेज घोड़ा था, दे दिया गया। सोलोमन बड़ा हैरान हुआ। सोलोमन बड़े बुद्धिमान लोगों में एक था। उसने आंख बंद की, उसने मृत्यु का स्मरण किया। मौत प्रगट हुई। उसने पूछा, ये भी क्या तरीके हैं? उस गरीब वजीर को क्यों घबड़ा दिया? मारना हो मारो, बाकी पहले से आने का यह कौन सा नया हिसाब निकाला? मरते सभी हैं। मौत किसी को खबर तो नहीं देती। इसीलिए तो लोग मजे से जीते हैं और मजे से मर जाते हैं। मौत खबर दे, तो जीना मुश्किल हो जाए। यह कौन सी बात निकाली! यह कौन सा ढंग निकाला!
मौत ने कहा, मैं खुद मुसीबत में थी। इस आदमी को दमिश्क में होना चाहिए शाम तक, और यह यहीं है। सैकड़ों मील का फासला है। मैं खुद बेचैनी में थी कि यह होगा कैसे? दमिश्क में इसे मुझे लेना है आज शाम। इसीलिए चौंकाया उसे। कहां है वह आदमी? सोलोमन ने कहा कि वह गया दमिश्क की तरफ।
कहते हैं, सांझ जब वजीर पहुंचा दमिश्क, बड़ा निश्चिंत था। सूरज ढलता था, उसने एक बगीचे में घोड़ा बांधा, घोड़े की पीठ थपथपायी कि शाबाश, सच में ही तू सोलोमन का घोड़ा है, ले आया सैकड़ों मील दूर!
तभी उसके कंधे पर कोई हाथ पड़ा, उसने कहा, तुम्हीं धन्यवाद मत दो, धन्यवाद मुझे देना चाहिए। पीछे लौटा तो देखा मौत खड़ी थी। घबड़ा गया। उसने कहा, घबड़ाओ मत, घोड़ा निश्चित ही तेज है। मैं खुद ही परेशान थी कि इंतजाम यही है, खबर मेरे पास यही आयी है कि दमिश्क में सांझ तुम्हें सूरज ढलने तक लेना है। मैं खुद डरी थी कि अगर तुम भागे न उस गांव से, तो तुम दमिश्क पहुंचोगे कैसे? मगर घोड़ा ठीक समय पर ठीक जगह ले आया। यहीं तुम्हें मरना है।
तुम कहीं से भी जाओ, कैसे भी जाओ; गरीब की तरह जाओ, अमीर की तरह जाओ; फकीर की तरह जाओ, बादशाह की तरह जाओ; सब मरघट पर पहुंच जाते हैं। सभी रास्ते वहां ले जाते हैं। लोग कहते हैं, सभी रास्ते रोम ले जाते हैं, पता नहीं। सभी रास्ते मरघट जरूर ले जाते हैं। रोम भी एक तरह का मरघट है, बड़ा पुराना, प्राचीन खंडहरों के सिवाय कुछ भी नहीं, वहीं ले जाते हैं।
बुद्ध कहते हैं, ‘अंधकार में डूबे हो और दीपक की खोज नहीं करते!’
किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो, मौत के अतिरिक्त कोई भी नहीं आएगा। किन सपनों में खोए हो!
इसे हम समझें। जीवन को हमने देखा नहीं, हमने बड़े सपनों की बारात सजायी है। हम किसी दुल्हन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। विवाह रचाने की बड़ी योजना बना रखी है। हम खूब-खूब कल्पना किए बैठे हैं--ऐसा हो, ऐसा हो, ऐसा हो। इसकी वजह से हम देख नहीं पाते कि कैसा है! तुम्हारा रोमांस, तुम्हारी कल्पनाओं का जाल सत्य को प्रगट नहीं होने देता।
आंख खाली करो, जरा सतेज होकर देखो, जरा सपनों को किनारे हटाकर देखो। वही देखो, जो है। तो तुम्हें पैदा होते बच्चे में मरता हुआ आदमी दिखायी पड़ेगा। तो तुम्हें सुंदरतम देह के भीतर अत्यंत कुरूप छिपा हुआ दिखायी पड़ेगा। तो तुम्हें जवान और युवा के भीतर बुढ़ापा कदम बढ़ाता हुआ मालूम होगा। जो गहरे देखेगा, वह जीवन में मौत को देख लेगा।
यही बुद्ध कहते हैं कि जरा गहरे देखो, चमड़ी के धोखे में मत आ जाओ। जरा और गहरे उतरो, जरा भीतर का दर्शन करो।
‘जब सब निरंतर जल रहा है तब हंसी कैसी?’
कोनु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति।
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेस्सथ।।
अब खोजो, गवेषणा करो दीए की! अंधेरा बढ़ता चला जाता है। अंधेरा रोज बढ़ता चला जाता है। किस भरोसे बैठे हो? तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी दीए को न जला सकेगा। फिर अंधेरी रात घेर लेगी और फिर बहुत तड़फोगे और पछताओगे कि क्यों दिन का उपयोग न कर लिया? क्योंकि दिन के उजाले में चाहते तो दीया जल जाता। बुद्ध कहते हैं, जीवन का बस इतना ही उपयोग हो सकता है कि जीते जी तुम दीया जला लो। ध्यान का दीया जला लो, बस इतना ही जीवन का उपयोग है।
तुमने पद, धन, यश, कीर्ति, प्रेम, इन सबकी तो चेष्टाएं कीं, बस एक ध्यान के दीए को जलाने की चेष्टा नहीं की, वही काम आएगा। मौत केवल उसी दीए को नहीं बुझा पाती। बुद्ध कहते हैं, ध्यान भर अमृत का सूत्र है।
लेकिन मौत की तो किसी से बात ही करो तो लोग नाराज हो जाते हैं। बुद्ध से भी लोग बहुत नाराज हुए, क्योंकि बुद्ध मौत की ही बात करते हैं। अब कोई शादी को जा रहा हो और तुम उससे मौत की बात करो! कोई दिल्ली की तरफ जा रहा हो, तुम उससे मौत की बात करो! वह कहेगा, ठहरो, अभी ये बातें न करो। पैर डगमगाए देते हो।
बुद्ध ने जहां भी मौत की बात की, लोग नाराज हुए। मौत की बात शिष्टाचार नहीं मानी जाती। कहीं भी तुम मौत की बात छेड़ो, लोग तुम्हें शांत कर देंगे कि चुप भी रहो, यह भी कोई बात है। मौत से हम बचते हैं--शब्द से बचते हैं। मौत को हम दूर रखते हैं। इसलिए मरघट, कब्रिस्तान गांव के बाहर बनाते हैं। जहां जाना न पड़े, बस। जब जाना ही पड़ेगा तब जाएंगे। ऐसे न जाना पड़े। तो मरघट को बिलकुल दूर बना देते हैं, जहां कोई कारोबार नहीं, जहां अकारण जाने की कोई जरूरत नहीं। या तो कभी कोई मित्र मर जाए, प्रियजन मर जाए, तो पहुंचा आते हैं। लेकिन तुमने वहां भी देखा?
मैं बहुत बार...मुझे बचपन से शौक था। कोई मरा, मैं गया। गांव में कोई मरे, परिचित हो, अपरिचित हो, संबंधी हो, असंबंधी हो, इससे कुछ लेना-देना नहीं था। मेरे घर में लोग जानने लगे थे कि अगर मैं घर में देर तक नहीं आया, तो वे समझते कि कोई मर गया होगा। गया! पर वहां मैं चकित हुआ कि वहां भी लोग चिता की तरफ पीठ करके दूसरी ही बातें करते हैं। वहां भी मौत को झुठलाते हैं। वहां भी संसार की ही बात चलती है। वहां भी गांव के ही गप-सड़ाके! किसकी पत्नी भाग गयी, कौन जुआ खेलता पकड़ा गया, कौन ने चोरी की, कहां हत्या हो गयी, वही सब बातें चलती हैं। मैं सोचता था, कम से कम मरघट पर तो मौत को लोग याद करते होंगे। नहीं। वहां भी छोटे-छोटे झुंड बना लेते हैं। और सब बातें करते हैं, मौत को छोड़ देते हैं। मौत कुछ स्मरण मात्र से कंपा जाती है।
बुद्ध ने जब मौत और दुख की बातें शुरू कीं, तो लोग नाराज ही हुए। लोग घबड़ाए कि यह आदमी पैर के नीचे की जमीन खींचे लेता है। और इसने खींची, बहुत लोगों के पैर के नीचे की जमीन खींच ली। जवान आदमियों को बुढ़ापे का दर्शन दे दिया। अभी जिंदगी की रौ में थे, उनके पैर से जमीन खींच ली और मौत के गड्ढे में ढकेल दिया।
मगर जो इसके साथ चलने को राजी हो गए, जिन्होंने दुख की हिम्मत की कि करेंगे साक्षात्कार, जिन्होंने पीड़ा से मुंह न मोड़ा--सन्मुख होने की चेष्टा की, उन्होंने खूब पाया, उन्होंने खूब ज्योति जलायी। दीए ही नहीं, मशालें जला लीं। और कुछ ऐसी रोशनी जलायी जो फिर कभी नहीं बुझती। उन्होंने वास्तविक जीवन को पा लिया।
अब यह बड़ा उलटा दिखता है, मौत के माध्यम से वास्तविक जीवन को पा लिया। कैसे यह घटता है? ऐसे ही घटता है कि जैसे ही मौत साफ होने लगती है, तुम्हारे सपने टूटने लगते हैं। मौत को अगर तुम देखते रहो, जानते रहो, सोचते रहो, विचारते रहो, ध्यान में गुनगुनाते रहो--बूझते रहो, बुद्ध कहते हैं--तो तुम सपने न बना सकोगे। अचानक उमंग उठी सपने की कि लाख इकट्ठा करें, और तभी खयाल आ गया मौत का, ढीले पड़ जाओगे। क्या फायदा?
‘कैसी हंसी? कैसा आनंद?’
चले थे बारात लेकर दुल्हन को लेने, रास्ते में मौत का खयाल आ गया। डोला क्या उठा, अरथी उठ गयी! अगर तुम स्मरण रखो मौत को, तो तुम पाओगे, जगह-जगह से सपने टूटने लगे। और सपने कुछ ऐसे हैं, सपनों का स्वभाव कुछ ऐसा है, कि टूटने लगें एक बार तो तुम उन्हें फिर न सम्हाल सकोगे। बड़े नाजुक हैं!
अगर फूलों से बने ये स्वप्न होते
और मुरझाकर धरा पर बिखर जाते
कवि-सहज भोलेपन पर मुस्कुराता,
किंतु चित्त को शांत रखता
हर सुमन में बीज है
हर बीज में है वन सुमन का
क्या हुआ जो आज सूखा,
फिर उगेगा
फिर खिलेगा
अगर फूलों से बने ये स्वप्न होते।
अगर कंचन के बने ये स्वप्न होते
टूटते या विकृत होते
किसलिए पछताव होता?
स्वर्ण अपने तत्व का इतना धनी है
वक्त के धक्के, समय की छेड़खानी से
नहीं कुछ भी कभी उसका बिगड़ता
स्वयं उसको आग में मैं झोंक देता
फिर तपाता, फिर गलाता, ढालता फिर।
अगर मिट्टी के बने ये स्वप्न होते
टूट मिट्टी में मिले होते
हृदय मैं शांत रखता
मृत्तिका की सर्जना-संजीवनी में
है बहुत विश्वास मुझको
वह नहीं बेकार होकर बैठती है
एक पल को!
फिर उठेगी, फिर उठेगी, फिर उठेगी।
किंतु इनको क्या करूं मैं
स्वप्न मेरे कांच के थे।
किंतु इनको क्या करूं मैं
स्वप्न मेरे कांच के थे
एक स्वर्गिक आंच ने उनको ढला था
एक जादू ने संवारा था, रंगा था
कल्पना-किरणावली में वे जगर-मगर हुए थे
टूटने के वास्ते थे ही नहीं वे
किंतु टूटे तो निगलना ही पड़ेगा
आंख को यह क्षुर सुतीक्ष्ण यथार्थ दारुण:
कुछ नहीं इनका बनेगा
कुछ नहीं इनका बनेगा
कुछ नहीं इनका बनेगा
एक बार टूटने लगें स्वप्न, तो फिर तुम उन्हें जोड़ न पाओगे। एक बार जागने लगो, तो फिर तुम सो न पाओगे। एक बार सत्य का थोड़ा सा भी अनुभव होने लगे, तो असत्य को फिर तुम बसा न पाओगे। सुबह जब सूरज निकलता है, अंधेरा खो जाता है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर जब जीवन के प्रति होश की किरण आनी शुरू होती है, तो सपने छितर-बितर हो जाते हैं। टूटने को वे बने ही न थे। अगर टूट गए, फिर जुड़ न सकेंगे। कांच के हैं। कांच से भी नाजुक हैं, कांच भी जुड़ जाता है।
इसीलिए हम डरते हैं कि कहीं मौत का दारुण सत्य हमारे सपनों की जगमगाहट को तोड़ न दे। इसीलिए हम डरते हैं, मौत को हम देखते ही नहीं, टालते हैं, स्थगित करते हैं। हमने कुछ ऐसा मान रखा है कि मौत कहीं जीवन में थोड़े ही घटती है--जीवन के बाद। हम मरते थोड़े ही हैं, जीवन के बाद मौत घटती है, जब जीवन जा चुकता है तब घटती है। हमने मौत को जीवन के बाहर ढकेल रखा है। जीवन को हमने अलग छांट लिया है, मौत को अलग छांट लिया है।
जानना ठीक से, मौत जीवन में घटती है। रोज घटती है, घट ही रही है। घटती ही रही है। ऐसा थोड़े ही है कि एक दिन सत्तर साल के होकर तुम अचानक मर जाते हो। सत्तर साल मरते हो, तब मर पाते हो। यह लंबा सिलसिला है। रोज-रोज मरते हो, पल-पल मरते हो, तब मर पाते हो। मरना कोई घटना थोड़े ही है, प्रक्रिया है। ऐसा थोड़े ही है कि एक दिन अचानक जीवित थे और फिर मर गए। ऐसा हो भी कैसे सकता है! जीवित होते, तो मर कैसे जाते? मर ही रहे थे, इसीलिए मर गए।
बुद्ध से पूछो, तो वे कहेंगे, जन्म के साथ ही मौत शुरू हो जाती है। जन्म का दिन ही मौत का दिवस है। इधर जन्मा नहीं बच्चा, मरने लगा। दो-चार सांस लीं, उसका अर्थ है दो-चार सांस मर गया। दो-चार दिन जीया, उसका मतलब दो-चार दिन मर गया। मौत आगे बढ़ गयी। जन्म में ही छुपी आ जाती है। जन्म का रूप लेकर आ जाती है। जन्म आवरण है मृत्यु का।
निश्चित ही लोग नाराज हुए। वे बुद्ध को क्षमा न कर सके। इस जमीन से ही बुद्ध को उखाड़ फेंका। यह आदमी कुछ घबड़ाने वाला साबित हुआ। जीवन की बात करता, प्रभु के गीत गाता, हम स्वीकार कर लेते। क्योंकि जीवन के गीत और प्रभु के गीत कहीं न कहीं हमारे सपनों के साथ मेल भी खा जाते। मेल ही नहीं खा जाते, शायद हमारे सपनों को बड़ा बल दे जाते। हमने इसका बड़ा सम्मान किया होता। लेकिन इस आदमी ने धक्के दे-देकर हमें जगाने की कोशिश की। इसने हमारा स्वर भंग किया। हम गीत में लीन थे, इसने हमें चौंकाया और कहा, कहां के गीत, कैसी हंसी, कैसा आनंद?
बावले थे जब तलक, बकते थे, सब करते थे प्यार
अक्ल की बातें कहीं, क्या हमसे नादानी हुई
तुम भी अगर व्यर्थ की बकवास जारी रखो, लोग प्रसन्न होंगे। सपनों की बात करो, सपनों के सौदागर बनो, लोग प्रसन्न होंगे।
बावले थे जब तलक, बकते थे, सब करते थे प्यार
अक्ल की बातें कहीं, क्या हमसे नादानी हुई
मगर अक्ल की बात मत कहना, लोग अक्ल के दुश्मन हैं। लोग वही सुनना चाहते हैं, जो उन्हें अभी प्रीतिकर लगता है। सत्य नहीं सुनना चाहते, प्रीतिकर सुनना चाहते हैं। श्रेयस से उन्हें कोई मतलब नहीं, प्रेयस से मतलब है। जो उन्हें प्रीतिकर लगता है वही सुनना चाहते हैं।
तुम उनके सपनों को सजाओ। तुम उन्हें सपनों के सजाने की सामग्री दो। तुम उनसे कहो, यह कारागृह नहीं है, तुम्हारा निवास है। तुम उन्हें मौत को छिपाने के लिए उपाय दो। तुम उनको कहो कि जीए चले जाओ; आज नहीं घटा सुंदर, कल घटेगा; आज नहीं आशा भरी, कल भरेगी; आज नहीं बरसे बादल यश के, धन के, वैभव के, कल बरसेंगे। नहीं इस पृथ्वी पर, तो परलोक में बरसेंगे। नहीं इस लोक में तो स्वर्ग में। उनके सपनों को गति दो। उनसे कहो, चढ़े रहो स्वप्नों के अश्वों पर, चलते रहो, कभी न कभी पहुंच ही जाओगे। तो वे तुमसे प्रसन्न होंगे।
इसीलिए संसार कवियों से बड़ा प्रसन्न रहा है। संतों की पूजा करता रहा है, लेकिन प्रसन्न नहीं रहा। क्योंकि संत तुम्हें कहीं न कहीं तो खींचेगा, जगाएगा। तुम सोना चाहते हो, संत कहीं न कहीं अलार्म बजाएगा। तोड़ देगा नींद। और अभी-अभी तुम सोए थे, और खूब मधुर सपनों में दबे थे।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने एक दिन सुबह उसे उठाया। वह बड़ी चौंकी। जैसे ही उसने आंख खोली, जल्दी से आंख बंद कर ली और बोला, अच्छा कोई हर्जा नहीं, निन्यानबे ही ले लेंगे। उसकी पत्नी ने कहा, मामला क्या है? किससे बातें कर रहे हो? बड़े क्रोध से उसने आंखें खोलीं और कहा नासमझ, एक बड़ा मधुर सपना देख रहा था। एक देवदूत खड़ा था और वह कहता था, मांग ले क्या मांगना है। मैं उससे सौ रुपए की जिद्द कर रहा था, वह कहता था, निन्यानबे देंगे। और बेवक्त तूने उठा दिया, जगा दिया, सब गड़बड़ कर दिया। अब मैं आंख भी बंद करता हूं, वह नदारद है। दिखायी नहीं पड़ता। अब मैं निन्यानबे भी लेने को राजी हूं, अट्ठानबे से भी चलेगा, अभी तेरी जो मर्जी हो दे दे--मगर अब यहां कोई है ही नहीं।
संतों के पास होने का अर्थ है, सपनों को तोड़ने का साहस। तुम संतों के पास भी जाते हो तो इसीलिए जाते हो कि सपने जो तुम पूरे नहीं कर पा रहे हो, वे उनके आशीष से पूरे हो जाएं।
मेरे पास लोग आ जाते हैं--बड़ी गलत जगह आ जाते हैं--वे मुझसे कहते हैं, बस आप तो आशीर्वाद दे दें। मैं उनसे पूछता हूं, काहे के लिए? वे कहते हैं, आप तो सब जानते ही हैं। बस आप तो दे दें। मुझे पक्का तो पता चले, कि तुम करना क्या चाहते हो? कहते हैं, जरा चुनाव में खड़े हो रहे हैं। चुनाव में वे खड़े हो रहे हैं, मुझे भी फंसाने का इरादा है। मैं उनसे कहता हूं, अगर मेरा आशीर्वाद चाहते हो तो हारोगे। अगर उतनी हिम्मत हो तो दूं। चुनाव में जीतने का आशीर्वाद! तो मैं कोई तुम्हारा दुश्मन हूं? यह तो ऐसा ही हुआ कि जैसे कोई आए और कहे कि पागल हो रहा हूं, आशीर्वाद दें।
लेकिन लोग पागल होने के लिए आशीर्वाद मांग रहे हैं। जहां उन्हें वैसे आशीर्वाद मिल जाते हैं, वहां वे बड़े प्रसन्न हैं। वहां उनके सिर झुकते हैं श्रद्धा से।
बुद्ध ने चौंकाया, घबड़ाया। जिस गहनता से बुद्ध ने मृत्यु को खींचकर जीवन के बीच बाजार में खड़ा किया, कभी किसी और ने न किया था। इसलिए बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को पीत-वस्त्र दिए। पीत-वस्त्र मृत्यु के प्रतीक हैं। जैसे गैरिक-वस्त्र जीवन के प्रतीक हैं, वैसे पीत-वस्त्र मृत्यु के प्रतीक हैं। पीलापन। पत्ता जब मरने लगता है तो पीला हो जाता है। सूख जाता है। मौत आ गयी।
बुद्ध ने पीले वस्त्र दिए अपने भिक्षुओं को, मृत्यु का आवरण दिया। इसी की बना लो ओढ़नी, इसी की बना लो बिछौनी--मौत की--ताकि जीवन का धोखा टूटे। बुद्ध ने अपने संन्यासी को भिक्षु कहा। इस देश में संन्यासी सदा से स्वामी कहा गया है। बुद्ध ने कहा, यहां मालकियत कैसी? इस जीवन में और मालकियत! यहां तो सब भिखारी हैं। यहां तो भिक्षु होना ही सत्य है, यह तुम्हें याद रहे। यहां तो सभी भिक्षापात्र लिए हैं, यह तुम्हें भूले न, यह तुम्हें स्मरण रहे। बुद्ध ने सब भांति जीवन का निषेध किया है, क्योंकि मृत्यु उनका द्वार है।
‘इस चित्रित शरीर को तो देखो! यह व्रणों से युक्त, अंगोपांगों से जोड़कर बनाया गया है।’
बुद्ध ने कहा कि जो चीज भी जोड़कर बनायी जाती है, वह टूटेगी। अजोड़ को खोजो। जुड़े से मत जुड़े रहना। जो चीज भी जोड़कर बनायी जाती है, वह टूटेगी। क्योंकि जोड़ कब तक बने रहेंगे। मकान बनाया, तो जोड़ से बनाया है, ईंटें जोड़ी हैं, टूटेगा। रथ बनाया, जोड़कर बनाया, टूटेगा। बुद्ध कहते हैं, उसकी तलाश करो, जो दो चीजों से जुड़कर नहीं बना है। जो अखंड है, वही कभी नहीं टूटेगा। अखंड कैसे टूटेगा? जिसमें खंड ही नहीं हैं, उसका विसर्जन न हो सकेगा।
तो बुद्ध कहते हैं, यह शरीर तो व्रणों से युक्त है। इसमें तो घाव ही घाव हैं। चमत्कार है कि कैसे यह चलता है! इसमें तो बीमारियां ही बीमारियां हैं।
जरा सोचो तो, एक शरीर में और कितनी बीमारियों की संभावना है! तुम यह मत सोचना कि कोई बीमार होता है, तो उसको बीमारी होती है। तो फिर तुम्हें चिकित्साशास्त्र का कुछ पता नहीं। बीमारियां तो सभी के भीतर हैं। किसी की प्रगट हो जाती है, किसी की प्रगट नहीं होती। समय मिल जाता है, प्रगट हो जाती है। अवसर मिल जाता है अनुकूल, तो प्रगट हो जाती है।
तुम सुनते हो फलां आदमी को कैंसर हो गया, तो तुम सोचते हो कि बड़े सौभाग्यशाली हम, कि हमको नहीं हुआ। कैंसर का रोगाणु तुम्हारे भीतर भी है। संभावना तुम्हारी भी है। सभी बीमारियां तुम्हारी भी हैं। हां, अनुकूल अवसर पाकर कोई बीमारी सक्रिय हो जाएगी, कोई सोयी रहेगी।
बुद्ध ने कहा है, शरीर तो घर है रोगों का। प्रतीक्षा में हैं बैठे रोग, जैसे बीज दबे हैं पृथ्वी में, मौका देखते हैं अनुकूल ऋतु, अनुकूल समय का, अंकुरित हो उठेंगे।
निश्चित ही। आधुनिक चिकित्साशास्त्र भी कहता है कि मनुष्य है, यह एक चमत्कार है। इतने रोगाणु हैं कि मनुष्य का होना कल्पना के बाहर है--कि हो कैसे सकता है मनुष्य! अगर किसी से पूछा जाता यह प्रश्न कि इतनी बीमारियां हों, तो क्या आदमी सत्तर साल जी सकेगा, इतनी बीमारियां जिसके भीतर हों? अगर यह सैद्धांतिक सवाल हो, तो कोई भी चिकित्साशास्त्री राजी नहीं हो सकता कि जी सकेगा। आदमी चमत्कार है! इतने रोगों के रहते जी लेता है, घसिट लेता है। चल लेता है किसी तरह, गुजार लेता है। जीवेषणा इतनी प्रबल है आदमी की, इसीलिए जी लेता है।
तुमसे मैं एक बात कहूं। आधुनिक, नवीनतम खोजें चिकित्सा की कहती हैं कि जिस आदमी के भीतर से जीवेषणा चली जाती है, उसके भीतर रोगों के हमले बढ़ जाते हैं। जो लोग रिटायर्ड हो जाते हैं काम-धंधे से, जीवन से, वे दस साल पहले मर जाते हैं। जीवेषणा चली जाती है।
पहले डिप्टी-कलेक्टर थे, या कलेक्टर थे, या पुलिस सुपरिंटेंडेंट थे, या किसी और तरह की नासमझी थी, लोग नमस्कार करते थे। फिर रिटायर्ड हो गए, अब कोई देखता ही नहीं। कल जो लोग नमस्कार करते थे, वे पहचानते ही नहीं। अब वे दूसरे को नमस्कार करेंगे, क्योंकि दूसरे डिप्टी-कलेक्टर हो गए। अब तुम्हीं को करते रहें, तो हाथों की भी सीमा है, नमस्कार की भी सीमा है। अब हाथ कहीं और झुकने लगे, क्योंकि कहीं और ताकत चली गयी। भूतपूर्वों को कहां तक नमस्कार करो!
मैं देश में घूमता था, तो मैं कम से कम तीन सौ ऐसे लोगों से परिचित हूं जो भूतपूर्व मंत्री हैं। भूत-प्रेत की भांति। अब इनको कौन नमस्कार करे? कौन इनकी फिकर करे? जिंदा भूत दूसरे बैठे हैं, उनकी तरफ नमस्कार जाती है।
रिटायर्ड हुआ आदमी जिंदगी से ऐसे हट जाता है जैसे तुम सुबह कूड़ा-करकट बाहर के ढेर पर फेंक आते हो। एकदम व्यर्थ हो जाता है। बच्चे बड़े हो गए, उनकी अपनी दुनिया हो गयी, वे चले गए। हाथ से काम चला गया, काम गया तो काम के साथ जुड़ी प्रतिष्ठा चली गयी। घर में भी जो हैं बच्चे अगर, तो वे भी सोचते हैं कि बूढ़ा है, सठिया गया; कोई सुनता नहीं। अचानक जीने की आकांक्षा शिथिल हो जाती है। अब जीकर भी क्या करेंगे? जीवेषणा शिथिल हुई, बीमारियों का हमला हुआ।
उस व्यक्ति को कोई चिकित्साशास्त्र नहीं बचा सकता, जिसके भीतर से जीने की आकांक्षा चली गयी। इसीलिए चिकित्सक कहते हैं कि एक ही बीमारी हो, एक से शरीर हों, एक सी स्थिति हो, तो भी एक बच जाता है, दूसरा नहीं बच पाता। बच जाता है वह जिसकी जीने की आकांक्षा प्रबल है। जिसके जीने की आकांक्षा प्रबल नहीं है, वह खुद ही शिथिल होकर डूब जाता है।
जीवेषणा जिला रही है। इसीलिए तुम सत्तर साल खींच लेते हो। यह बड़ा पतला धागा है, लेकिन इससे तुम लटके रहते हो। किसी तरह गुजार लेते हो।
बुद्ध का सारा शास्त्र यही है कि जीवेषणा ही तुम्हारे दुखों का आधार है। जीवेषणा जाने दो। क्योंकि मौत तो आएगी ही, इसलिए तुम मौत को स्वीकार ही कर लो। तुम्हारी मृत्यु की स्वीकृति में ही तुम्हें पहली दफे अपने स्वभाव का दर्शन होगा। तुम्हें अनुभव होगा कि मैं कौन हूं। जब तक तुम जीवन की महत्वाकांक्षा से भरे हो, तब तक तुम जीवन की गहनतम स्वभाव की, स्वरूप की स्थिति को न जान पाओगे।
‘इस चित्रित शरीर को तो देखो!’
यह कठिन होगा, लेकिन इसे स्वीकार करना होगा।
और छाती वज्र करके
सत्य तीखा आज यह
स्वीकार मैंने कर लिया है
स्वप्न मेरे ध्वस्त सारे हो गए हैं
जिसने ऐसा जाना--छाती वज्र करके--कठिन है। लेकिन जिसने अपने सपनों को गिरा हुआ, इंद्रधनुष को जैसे पैरों तले रौंद दिया गया, धूल में गिर गया, बिखर गया, ऐसा जिसने जान लिया--छाती कठोर करनी होगी। छाती चाहिए, तो ही कोई सपनों को गिरा हुआ देख सकता है।
हम तो यह करते हैं, एक सपना टूटा नहीं कि दूसरा बना लेते हैं। हम दूसरा पहले से तैयार ही रखते हैं--स्पेयर तैयार रखते हैं। इधर एक सपना पंचर हुआ, हमने दूसरा स्पेयर जल्दी से निकाला डिग्गी से और लगा दिया। गाड़ी फिर चल पड़ी।
जब सपने पंचर हों, उनको हो ही जाने देना। गाड़ी को रुक ही जाने देना। सपनों से छूटोगे तो सत्य से संबंध जुड़ेगा।
‘यह देहाकार जराजीर्ण, रोगों का घर और अत्यंत भंगुर है। यह सड़न का भंडार विनाश को प्राप्त होता है। और निश्चय ही जीवन का अंत मृत्यु में होता है।’
एक ही बात निश्चित है। जीवन में एक ही बात निश्चित है। बड़ा आश्चर्य है। जीवन निश्चित नहीं है जीवन में, मृत्यु निश्चित है। और सब चीजें अनिश्चित हैं! हो भी सकती हैं, न भी हों। हो जाएं तो संयोग, न हों तो संयोग। पद मिल जाए, न मिले; धन मिल जाए, न मिले; यश मिल जाए, न मिले; मौत मिलेगी ही। और सब अनिश्चित है। इसलिए अनिश्चित पर दांव मत लगाना। और अनिश्चित को पा भी लोगे, तो क्या करोगे? वह जो मौत है, वह जो निश्चित है, वह आकर तुम्हारा-- किसी तरह तुमने जो इंतजाम भी जमा लिया होगा--उसे भी बिखरा देगी।
‘यह देहाकार जराजीर्ण, रोगों का घर और अत्यंत भंगुर है।’
पानी के बबूले जैसा भंगुर है। जब तक नहीं टूटा, नहीं टूटा। पानी का बबूला देखा? जब तक नहीं टूटा नहीं टूटा। तब तक तो सूरज की किरण पड़ जाए तो कैसी चमक आ जाती है बबूले में। कैसे रंग बिखर जाते हैं। कैसा सुंदर हो उठता है। क्षणभर को तो ऐसा भ्रम देता है, हीरों का। लेकिन कोई भी सम्हाल न सकेगा इस हीरे को। छुआ नहीं कि टूटा। न भी छुओ तो भी टूटेगा। बचाने का कोई उपाय नहीं है।
‘...रोगों का घर, अत्यंत जराजीर्ण भंगुर है। यह सड़न का भंडार विनाश को प्राप्त होता है। और निश्चय ही जीवन का अंत मृत्यु में होता है।’
मैं एक सूफी कहानी पढ़ता था। एक युवक ने आकर अपने गुरु को कहा, अब बहुत हो गया, मैं जीवन छोड़ देना चाहता हूं। लेकिन पत्नी है, बच्चा है, घर-द्वार है। गुरु ने कहा, तेरे बिना वे न हो सकेंगे? उसने कहा कि ऐसा तो कुछ नहीं है, सब सुविधा है, मेरे बिना हो सकेंगे। लेकिन मुझे लगता है ऐसा कि मैं मर जाऊंगा तो मेरी पत्नी जी न सकेगी, मेरे बच्चे मर जाएंगे। इतना उनका प्रेम है मेरे प्रति।
उस फकीर ने कहा, फिर ऐसा कर, कुछ दिन यह श्वास की विधि है, इसका अभ्यास कर, फिर आगे देखेंगे। श्वास की विधि उसने अभ्यास की। विधि ऐसी थी कि अगर तुम थोड़ी देर के लिए श्वास साधकर पड़ जाओ, तो मरे हुए मालूम पड़ो।
फिर उस फकीर ने उसे भेजा घर कि आज सुबह तू जाकर लेट जा और मर जा; फिर आगे सोचेंगे। मैं आता हूं पीछे। वह आदमी गया। लेट गया सांस साधकर, मर गया। मर गया मालूम हुआ। छाती पिटाई मच गयी, रोना-धोना हुआ, बच्चे चिल्लाने लगे, पत्नी चिल्लाने लगी कि मैं मर जाऊंगी।
तभी वह फकीर आया। द्वार पर आकर उसने अपनी घंटी बजायी। भीतर आया, उसने कहा, अरे! यह युवक मर गया? यह बच सकता है अभी, लेकिन कोई इसके बदले में मरने को राजी हो तो।
सन्नाटा हो गया। न बेटा मरने को राजी, न बेटी मरने को राजी, न मां मरने को राजी, न बाप मरने को राजी। पत्नी, जो अभी तक चिल्ला रही थी मर जाऊंगी, वह भी चुप हो गयी। अब वह भी नहीं चिल्लाती कि मर जाऊंगी।
फकीर ने पूछा, कोई भी तुममें से राजी हो इसकी जगह मरने को तो यह बच सकता है। अभी यह गया नहीं है, लौटाया जा सकता है। अभी बहुत दूर नहीं निकला है, बुलाया जा सकता है। मगर किसी को तो जाना ही पड़ेगा। पत्नी ने कहा, अब यह तो मर ही गया, अब हमको और क्यों मारते हो! अब जो हो गया सो हो गया।
गुरु ने उस युवक से कहा, अब तू अपना सांस-साधना छोड़ और उठ। उसने सांस-साधना छोड़ी, उठा। अब तेरा क्या खयाल है? उसने कहा, जब ये लोग कहते हैं कि मर ही गए और इनमें से कोई मेरे बदले मरने को राजी नहीं, तो मैं मर ही गया। मैं आपके पीछे आता हूं।
स्वभावतः उसे रोकना भी मुश्किल हुआ। पत्नी के पास कहने को कोई कारण भी न बचा।
बुद्ध ने लोगों को समझाया कि तुम जिसे जीवन कह रहे हो, तुम जिसे जीवन का लगाव कहते हो, तुमने जीवन में जो आसक्ति के बहुत से घर बनाए हैं, मोह के बहुत ताने-बाने बुने हैं, तंबू लगाए हैं, उनको जरा गौर से तो देखो, पानी के बबूले हैं। क्षणभंगुर हैं। कोई यहां किसी का साथी नहीं, कोई यहां किसी का संगी नहीं। तुम ही अपनी देह का भरोसा नहीं कर सकते और किसका भरोसा करोगे!
भोर बेला
सिंची छत से ओस की तिप्-तिप्
पहाड़ी काक
की विजन को पकड़ती सी क्लांत बेसुर डाक--
हाक! हाक! हाक!
मत संजो यह स्निग्ध सपनों का अलस सोता--
रहेगी बस एक मुट्ठी खाक!
थाक! थाक! थाक!
बुद्ध ने बहुतों को बोध दिया--मिट्टी हो, मिट्टी में मिल जाओगे। मिट्टी के उठने और मिट्टी से गिरने के बीच में जो थोड़ा अंतराल है, उसका उपयोग कर लो, एक सेतु बना लो। ध्यान साध लो, समाधि का दीया जला लो। ताकि तुम उसे जान लो, जो देह नहीं है; ताकि तुम उसे जान लो, जो संयोग नहीं है। ताकि तुम उसे जान लो, जो जोड़ नहीं है। ताकि तुम उसे जान लो, जिसका न कोई जन्म है और न मृत्यु है। उसे बुद्ध निर्वाण कहते हैं।
‘शरद ऋतु की फेंकी हुई लौकी की भांति या कबूतर की सी भूरी हो गयी उन हड्डियों को देखकर रति कैसी?’
बुद्ध कहते हैं, प्रेम, काम, संभोग, रति; थोड़ा सोचो तो, किससे रति कर रहे हो!
‘शरद ऋतु की फेंकी गयी लौकी की भांति...।’
असमय में लौकी पैदा हो जाती है तो खाने योग्य नहीं होती, सड़ी होती है। फेंक दी जाती है।
‘...या कबूतर की सी भूरी हो गयी उन हड्डियों को तो देखो। इन्हें देखकर रति कैसी!’
शरीर का भोग चलता है, क्योंकि शरीर क्या है इसका स्मरण नहीं। जब दो व्यक्ति शरीर के भोग में रत हैं, रति में डूबे हैं, तब दो अस्थिपंजर, दो हड्डी-मांस- मज्जा से बने हुए संघट, दो मृत्युओं का मिलन हो रहा है। हड्डियां हड्डियों से टकराती हैं। पर हमने बड़े प्यारे शब्द बनाए हैं। हम कहते हैं, आलिंगन। आदमी ने शब्दों के बड़े धोखे खड़े किए हैं। और उन शब्दों की आड़ में हम पीछे देख ही नहीं पाते कि क्या हो रहा है? काश, तुम जरा आंख खोलकर गौर से देखो, तो तुम्हें अपनी प्रेयसी में भी अस्थिपंजर ही दिखायी पड़ेगा। ढंका है चाम से, खूब सुंदरता से ढंका है, पर है तो हड्डी-मांस-मज्जा ही।
‘यह शरीर मानो हड्डियों का बना नगर है। मांस और रक्त से लिपा-पुता है; जिसके अंदर जरा, मृत्यु, अभिमान और दाह छिपे हुए हैं।’
‘राजा के सुचित्रित रथ जैसे पुराने हो जाते हैं, वैसे ही यह शरीर भी जराजीर्ण हो जाता है। लेकिन संतों का धर्म कभी जीर्ण नहीं होता। संत लोग संतों से ऐसा ही कहते रहे हैं।’
उसे खोजो जो कभी जीर्ण नहीं होता। एस धम्मो सनंतनो। उस धर्म को खोजो जो सनातन है। उस स्वभाव को खोजो जो शाश्वत है। जो क्षीण हो जाता है, उसमें समय मत गंवाओ, उसमें मत उलझे रहो, उसमें मत रमो।
‘राजा के सुचित्रित रथ जैसे पुराने हो जाते हैं।’
जीरंति वे राजरथा सुचित्ता
सम्राटों के रथ हैं। कितनी चेष्टा, प्रयास, कला का आयोजन किया जाता है उन्हें रंगने के लिए। पर वे भी जराजीर्ण हो जाते हैं।
जीरंति वे राजरथा सुचित्ता
अथो सरीरम्पि जरं उपेति।
ऐसा ही यह शरीर भी कितना ही सजाओ, कितना ही संवारो, कितना ही रंगो, आज नहीं कल जराजीर्ण हो जाता है। सिर्फ एक वस्तु इस जगत में है, संतों ने जो जाना और संतों ने जो दूसरों से कहा, संतों ने जो संतों से कहा।
यह बड़ा महत्वपूर्ण वचन है।
सतं च धम्मो न जरं उपेति।
‘संतों का धर्म कभी जीर्ण नहीं होता।’
क्यों बुद्ध ने संतों का धर्म कहा? धर्म ही कह देने से काम न चल जाता? धर्म कहने से भ्रांति का डर था। क्योंकि तुमने भी न मालूम कितने धर्म खड़े कर लिए हैं--हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, जैन है, बौद्ध है--ये तुमने ही खड़े कर लिए हैं। अगर बुद्ध लौटकर आएं, तो बुद्ध धर्म को देखकर हंसेंगे। यह तो मैंने कभी भी न कहा था, वे कहेंगे।
वस्तुतः जो उन्होंने कहा था, ठीक उससे उलटा हुआ है। बुद्ध ने कहा था, मेरी मूर्ति मत बनाना। जितनी मूर्तियां बुद्ध की हैं उतनी किसी की भी नहीं। इतनी मूर्तियां बनीं बुद्ध की कि सारी पृथ्वी मूर्तियों से बुद्ध की ढंक गयी। उर्दू, अरबी और फारसी में तो मूर्ति के लिए जो शब्द है, वह ही बुद्ध का अपभ्रंश है--बुत। इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध शब्द ही मूर्ति का पर्यायवाची हो गया--बुत। बुत यानी मूर्ति हो गया।
चीन में ऐसे मंदिर हैं जहां दस-दस हजार बुद्ध की मूर्तियां--एक-एक मंदिर में। बुद्ध ने कहा था, मेरी मूर्ति मत बनाना। क्योंकि मूर्ति तुम जिसकी बनाओगे, वह तो यही जरा-मरण वाली देह है। मूर्ति तुम जिसकी बनाओगे, वह तो यही हड्डी-मांस-मज्जा का रूप है। मूर्ति तुम जिसकी बनाओगे, वह मैं नहीं हूं--मेरी तो तुम मूर्ति कैसे बनाओगे? अमूर्त है चैतन्य तो। अरूप है, निराकार है। मत बनाना मेरी मूर्तियां। पर नहीं, बौद्धों ने बनायीं।
जो बुद्ध ने कहा है, करीब-करीब उससे उलटा हुआ है। होगा। क्योंकि ज्ञानी जब कुछ कहता है, और अज्ञानी जब सुनता है, तो वही नहीं सुनता जो ज्ञानी कहता है। अज्ञानी अपने मतलब की सुनता है।
अज्ञानी बड़े होशियार हैं। अज्ञानी हैं, मगर होशियार बहुत हैं। बड़े कुशल हैं, बड़े चालाक हैं। ज्ञानी भी उन्हें डिगा नहीं पाते। आते हैं, चले जाते हैं, अज्ञानी अपनी जगह जड़ जमाए बैठे रहते हैं। वे ज्ञानियों से भी अपने मतलब की बातें निकाल लेते हैं। वे वही करते हैं, जो उन्हें करना है। क्या कहते हैं ज्ञानी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे उसमें से भी निकाल ही लेते हैं अपना हिसाब। अपना शास्त्र रच लेते हैं, अपना मंदिर बना लेते हैं, अपनी मूर्ति गढ़ लेते हैं।
जीसस ने जो कहा था, ईसाइयत का उससे कोई भी संबंध नहीं है। अगर जीसस ने जो कहा था वही ईसाइयत करती, तो जैसी ईसाइयत दिखायी पड़ती है ऐसी हो ही नहीं सकती थी। जीसस ने कहा था, जो एक गाल पर तुम्हारे चांटा मारे, दूसरा सामने कर देना। और ईसाई तलवारें लेकर लड़े। लेकिन उन्होंने कहा, यह जिहाद है, धर्मयुद्ध है। जीसस ने कहा था, जो तलवार उठाएगा, वह तलवार से ही नष्ट हो जाएगा। और ईसाइयों के हाथ में जैसी तलवार रही, वैसी किसी के हाथ में नहीं है।
अब जीसस को अगर कहीं खबर मिली होगी कि दुनिया में जो पहला अणुबम गिरा, वह एक ईसाई देश ने गिराया, तो छाती पीट ली होगी। तलवार वगैरह की तो बात ही छोड़ो। जिस राष्ट्रपति की आज्ञा से अणुबम गिरा, उसने जीसस के नाम पर कसम खायी थी राष्ट्रपति का पद स्वीकार करते वक्त, कि खाता हूं कसम जीसस की कि धर्म के अनुसार चलूंगा। उसने आज्ञा दी कि हिरोशिमा और नागासाकी पर अणुबम गिराओ। एक बम ने एक लाख बीस हजार लोगों को क्षण में राख कर दिया। कहां जीसस का वक्तव्य कि जो तलवार उठाएगा वह तलवार से नष्ट होगा। कहां जीसस का वक्तव्य कि जो एक गाल में मारे चोट, दूसरा सामने कर देना। और कहां हिरोशिमा पर गिरा एटम बम! जलती हुई लपटें! इनसे कैसे संबंध जोड़ोगे?
जीसस ने कहा था, जो तुम्हें एक मील चलने को मजबूर करे, दो मील चले जाना। और जो तुमसे कोट छीने, कमीज भी दे देना। ईसाइयत ने जितने युद्ध किए, किसने किए?
मोहम्मद ने इस्लाम नाम रखा था अपने धर्म का। इस्लाम का अर्थ होता है, शांति। और तुम मुसलमानों से ज्यादा अशांति पैदा करने वाले लोग कहीं भी खोज सकते हो? सारी मनुष्यता के इतिहास को उन्होंने अशांत किया।
इसलिए बुद्ध कहते हैं--
सतं च धम्मो न जरं उपेति।
‘संतों का जो धर्म है, वह कभी जीर्ण नहीं होता।’
वे तुम्हारे धर्मों को अलग कर रहे हैं। क्योंकि तुम्हारा धर्म तो तुम्हारा अधर्म ही है। तुम्हारे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे तुम्हारे धर्म से बचने के उपाय हैं, धर्म करने के नहीं। तुमने वहां शरण ली है। तुमने परमात्मा की प्रतिमाएं बनायी हैं और वहां शैतान को छिपाया है। तुमने शास्त्रों का बड़ा-बड़ा सुंदर रूप खड़ा किया है और उन शास्त्रों में अपने अज्ञान को शरण दी है।
इसलिए बुद्ध को विशेष रूप से कहना पड़ता है, ‘संतों का धर्म कभी जीर्ण नहीं होता।’ और फिर एक और बड़े मजे की बात कही है, ‘संत लोग संतों से ऐसा ही कहते हैं।’
यह इसलिए कहा कि संत जब तुमसे कुछ कहते हैं तो तुम तो कुछ और समझ लेते हो। बुद्ध ने कहा है कि मैं जो कहता हूं, तुम किसी से यह मत कहना कि तुमने वही सुना। तुम इतना ही कहना, ऐसा मैंने सुना है, बुद्ध ने क्या कहा यह बुद्ध जानें। किसी भक्त ने कहा कि यह बात तो जंचती नहीं। आप जो कहते हैं वही हम सुनते हैं। तो उन्होंने कहा, आज रात देखेंगे।
उस रात दस हजार भिक्षुओं के बीच में एक चोर भी आया था, एक वेश्या भी आयी थी सुनने। तो बुद्ध रोज रात को जब बोलते, तो अंतिम वचन हमेशा वे यही कहते थे, भिक्षुओ! अब जाओ, रात्रि का काम पूरा करने का समय आ गया। अब उस कार्य को पूरा करो।
रात्रि का काम था ध्यान। सारा जगत सो गया, अब तुम जागो। सारा कोलाहल शांत हुआ, अब तुम शांति में डूबो। अब उपद्रव बंद हुआ, बाजार बंद हुए, दुकानें खो गयीं, लोग जा चुके, अब तुम इस अमूल्य अवसर का उपयोग कर लो। आधी रात से ज्यादा सुंदर समय ध्यान के लिए कोई भी नहीं है। तो रोज-रोज क्या कहना कि ध्यान करो, वे यह कहते थे, अब रात हो गयी, अब जाओ रात्रि का अंतिम काम पूरा करो।
जब बुद्ध ने यह कहा, चोर चौंका। उसने कहा कि ठीक ही कहते हैं। अब जाऊं। रात आधी होने के करीब हो गयी, अपना काम करूं। वेश्या ने सोचा कि धन्य! कैसे पहचाना? इतने लोगों में भी पकड़ लिया मुझे। जाऊं, ठीक कहते हैं, अपना काम पूरा करूं।
दूसरे दिन सुबह बुद्ध ने कहा कि रात एक चोर भी था यहां, एक वेश्या भी थी। तुम जब भिक्षुओ ध्यान करने चले गए, चोर चोरी करने चला गया, वेश्या अपना काम करने चली गयी। और सभी यह मानकर गए कि मैंने ऐसा कहा था।
तुम वही सुन लेते हो जो तुम सुन सकते हो। तुम सुनोगे, तो तुम्हारा ही तो सुनोगे। शब्द मैं बोलूं, अर्थ तो तुम दोगे। शब्द मेरा होगा, अर्थ तो मेरा नहीं हो सकता। शब्द मुझसे जाता है तुम्हारे पास, तुम्हारे कानों पर ध्वनि पैदा करता है, अर्थ तो मेरे प्राणों का मेरे प्राणों में ही छूट जाता है। फिर वह शब्द गूंजता है तुम्हारे भीतर, और जो अर्थ संगृहीत होता है, वह तुम्हारा है।
इसलिए वे कहते हैं, ‘संत लोग संतों से ऐसा ही कहते हैं।’
संतों ने संतों से जो कहा है वही धर्म है। अब यह बड़ी मुश्किल बात है, क्योंकि संतों ने संतों से कुछ भी नहीं कहा। बुद्ध को सुनने महावीर थोड़े ही जाते हैं। महावीर को सुनने बुद्ध थोड़े ही जाते हैं। और कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि दो संत मिले भी, तो बोले नहीं।
फरीद और कबीर का मिलना हुआ था। दोनों बुद्धपुरुष। मगर कहते हैं, दो दिन साथ रहे, एक शब्द बोले नहीं। फरीद के शिष्य बड़ी आशा लगाए बैठे थे कि कुछ होगी गुफ्तगू दोनों के बीच, हम भी कुछ ले उड़ेंगे। कबीर के भक्त भी बड़ी आशा लगाए बैठे थे, सोए नहीं, भोजन करने न गए, बैठे ही रहे कि कभी हम यहां से खिसके और कुछ बोल दें एक-दूसरे से। मगर वे भी खूब मजबूत थे, वे चुपचाप ही बैठे ही रहे, बैठे ही रहे। दो दिन ऐसे लगे जैसे दो जन्म बीते। बड़ा लंबा मालूम पड़ा। दो आदमी चुपचाप बैठे, प्रतीक्षातुर उनके भक्तों की भीड़ लगी है, सुई गिर जाए तो सुनायी पड़ जाए, ऐसा सन्नाटा रहा। दो दिन बाद विदा हो गए। कबीर जाकर गांव के बाहर फरीद को विदा कर आए। मुस्कुराए, गले मिले, एक-दूसरे की आंख में झांका, बोले कुछ भी नहीं। दोनों के विदा होते ही दोनों के भक्तों ने पकड़ा।
कबीर के भक्तों ने कहा, हद्द हो गयी, कितने दिन से आशा लगाए थे कि फरीद गुजरते हैं यहां से। इसीलिए प्रार्थना की थी कि फरीद को निमंत्रण दो। निमंत्रण आपने दिया, बड़ी आपकी कृपा, मगर यह क्या हुआ? आप चुपचाप ही बैठे रहे। कबीर ने कहा, जो कहना था, उसके लिए शब्द की कोई जरूरत न थी। आंखों के इशारे में हो गयी बात। एक-दूसरे को देख लिया, हो गयी बात। एक-दूसरे के पास बैठ गए, हो गयी बात। कहने को कुछ था नहीं, मौन में हो गयी बात। अगर तुम मौन सुन सकते, तो तुम सुन लेते कि क्या कहा, क्या सुना। अब तुम मौन सुनना सीखो। कहीं ऐसा न हो कि दुबारा कोई फरीद आए, और फिर तुम इसी तरह मुश्किल में पड़ो। दो जानने वालों के बीच जो आदान-प्रदान होता है, वह चुप्पी में है।
फरीद के भक्तों ने पूछा कि क्या हुआ? हमने इसीलिए तो कहा था कि चलो स्वीकार कर लो निमंत्रण, रुको। दो परम ज्ञानी मिलेंगे, दो सूरज का मिलना होगा, हमारा अंधेरा भी थोड़ा घटेगा। दो दिन में थक गए। बड़ी अपेक्षा लेकर बैठे रहे। बड़े निराश हुए। बोले क्यों नहीं?
फरीद ने कहा, जो बोलता वह अज्ञानी सिद्ध होता। वहां बिना बोले बात हो रही थी। अगर मैं बोलता तो मैं खबर देता कि मौन की भाषा मुझे नहीं आती। तुम क्या मेरी फजीहत कराने पर उतारू हो? तुमसे मुझे बोलना पड़ता है, क्योंकि तुम अबोल न समझोगे। तुम निर्बोल न समझोगे। तुमसे बोल-बोलकर भी बोलता हूं तो भी तुम कहां समझते हो। न बोलूंगा तब तो तुम समझोगे ही नहीं। वहां कुछ मामला ऐसा था कि न बोलकर ही समझा जा सकता था। बोलते कि नीचे गिरे, पतन हो जाता। बोले हम खूब, मगर कोई और ही भाषा थी। परमात्मा की भाषा थी।
परमात्मा मौन है, चुप है। उसका संगीत शून्य का है। उसकी वीणा में तार भी नहीं हैं। इसीलिए तो हम उसे अनाहत नाद कहते हैं। आहत नाद नहीं है। बोलो तो आहत होता है। कंठ में टकराहट होती है, तो नाद पैदा होता है। वीणा को छेड़ो उंगलियों से, तो आहत नाद होता है। संघर्षण होता है। दो पत्थर टकरा दो, नाद होता है। प्रपात गिरता है, नदी गिरती है पहाड़ से, नाद होता है। लेकिन यह सब आहत नाद है। परमात्मा अनाहत नाद है। बिना बोले बोल रहा है। बिना गाए गा रहा है, बिना नाचे नाच रहा है।
तो फरीद ने कहा, हम बोले खूब। अब तुम एक बात करो, बहुत हो गया भाषा समझना, अब तुम शून्य की, मौन की भाषा समझो।
शून्य की भाषा सार्वभौम है। बोलो तो हिंदी होगी, बोलो तो अंग्रेजी होगी, जापानी होगी, जर्मन होगी। देशीय होगी। जातीय होगी। सीमा होगी। स्थानिक होगी। न बोलो तो न जर्मन, न जापानी, न हिंदी, न गुजराती, न मराठी। सार्वभौम। न बोलो, तो वृक्ष भी समझें, पत्थर भी समझें, पशु भी समझें, आकाश भी समझे, आदमी भी समझे। न बोलना सबसे बड़ी भाषा है। बोलने की सीमा है, मौन असीम है।
तो जब बुद्ध कहते हैं, संत लोग संतों से ऐसा ही कहते हैं, वे यह कह रहे हैं कि जब संतों ने शून्य में संवाद किया है, तो यही कहा है। क्या कहा है? कि संतों का धर्म कभी जीर्ण नहीं होता। यही कहा है कि तुम्हारा तो जीवन भी जीर्ण हो जाता है, संतों की मृत्यु भी जीर्ण नहीं होती। तुम तो जी-जीकर भी मरते हो, संत मर-मरकर भी जीते हैं। तुम तो जीने को भी पकड़-पकड़कर खो देते हो, संत मौत में उतर जाते हैं और परम जीवन को उपलब्ध हो जाते हैं।
लेकिन एक बात फिर अंत में दोहरा दूं कि बुद्ध दुखवादी नहीं हैं। यह उनकी विधि है, यह उनका ढंग है, तुम्हें सरकाने का मौत की तरफ। इसलिए वे शरीर की पीड़ाओं की बात करते हैं, रोगों की बात करते हैं, व्रणों की बात करते हैं, और क्षणभंगुरता की बात करते हैं। वे तुम्हें सरकाते हैं, ताकि तुम मौत के द्वार की तरफ सरको, ताकि तुम जागो, मौत में उतरो। मौत की सीढ़ियों से उतरकर ही कोई निर्वाण को उपलब्ध होता है। यह एक मार्ग।
अभी कुछ दिन पहले हम नारद की बात करते थे, वह जीवन का मार्ग। भक्ति, जीवन का मार्ग। तब सारा दृष्टिकोण बदल जाता है। तब प्रत्येक चीज के सौंदर्य की चर्चा होती है। क्योंकि तुम्हें जीवन की तरफ धकाना है। तुम्हें उत्सव की तरफ ले जाना है। तब गीत-नृत्य की बात होती है। तब नर्तन-वादन--उसकी बात होती है। तब रस की बात होती है। क्योंकि तुम्हें जीवन की तरफ ले जाना है।
ये दोनों विपरीत दिखायी पड़ने वाले मार्ग भी एक ही जगह पहुंचा देते हैं। गंगा बहती है पूरब की तरफ, नर्मदा बहती है पश्चिम की तरफ, पर दोनों एक ही सागर में गिर जाती हैं। सागर एक है। कोई भी मार्ग चुन लो, सागर में ही पहुंच जाओगे। मार्गों की बहुत जिद्द मत करना। मार्गों के नाम पर बहुत सिर मत तोड़ना। जो तुम्हें रुच जाए, सो भला। जो तुम्हें रुच जाए, उसी पर चल पड़ो।
अगर तुम्हें यह अनुकूल पड़ता हो--दुख, दुख का बोध; मृत्यु, मृत्यु की प्रतीति और साक्षात्कार--बड़ा शुभ है, इससे ही खोज लो। अगर तुम्हें यह ठीक न लगता हो, इससे तुम्हारा तार न बैठता हो, इससे तुम्हारे सुर मेल न खाते हों, छोड़ो। मार्गों से कुछ लेना-देना नहीं है। मार्ग तो उपयोग कर लेने के हैं। बैलगाड़ी से चलो कि हवाई जहाज से चलो, क्या फर्क पड़ता है? पहुंचो। पहुंचकर न बैलगाड़ी हाथ में रह जाती है, न हवाई जहाज हाथ में रह जाता है। बैलगाड़ी भी छोड़ देनी पड़ती है, हवाई जहाज भी छोड़ देना पड़ता है।
मंजिल पर पहुंचकर रास्ते तो छूट जाते हैं। मंजिल पर बुद्ध और नारद मिल जाते हैं। मंजिल पर डायोनीसियस और अपोलो आलिंगन कर लेते हैं।
आज इतना ही।